श्रीशिवभारत | Shri ShivBharat in Hindi [PDF]

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कवान्द्र परम़नन्द्दकुत



श्राऽिवभ़रत (ऽहन्द्दा भ़ष़ांतर सऽहत) सम्प़दक सज ां य दाऽित ऽवनय कुष्ण चतिवेदा ‘तिफ़ैल’ अनिव़दक सत्यक़म आयय िब्दसयां ोजक ऽिवदेव आयय



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



श्राऽिवभ़रत



उद़रिब्दसन्द्दभं भीररभ़व़थंमद्झितम् । म़धिय़यऽदगिणोपेतमलङ्क़रैरलांकुतम् ॥१७ ॥ ऽनऽचतां धमयि़ष्ध़थैरथयि़ष्धसमऽन्द्वतम।् ऽवश्रितां सवयलोके षि पिऱणऽमव नीतनम् ॥ १८ प्रऽणपत्य प्रवक्ष्य़ऽम मह़ऱजस्य धामतः। चररतां ऽिवऱजस्य भरतस्येव भ़रतम् ॥ २२ ॥ अध्य़य १



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कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



श्राऽिव़जा मह़ऱज



उष्णाषेणैव ििऽचऩ व्यभ़दित्तांसध़ररण़। कश्मारजपषु द्ठषयऱांजतेऩांऽगके न च ॥ १९ ॥ ऽिववम़य भुिबल: सवां ुतः ऽिववमयण़। तस्य वज्रिरारस्य ऽकां क़यय तेन वमयण़ ॥ २० ।। कुप़णां प़ऽणनैकेन ऽबभ्ऱणोन्द्येन परििम।् स नांदकगद़हस्तः स़ि़द्चरररुदैक्ष्यत ॥ २१ ॥ ऽिवभ़रत अध्य़य २१



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कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



प्राक्कथन श्रा ऽिवभ़रत से मेऱ पररचय स्वगीय समि न्त टेकडे ने करव़य़ थ़। ऽनयऽत देऽखए ऽक ईनक़ ऄसमय ऄवस़न हो गय़। छत्रपऽत ऽिव़जा ऱजे की जावना श्रा ऽिवभ़रत को पढ़ते हा मझि े अश्चयय हुअ ऽक आस मल ी सस्ं कुत ग्रथं क़ मऱठा ऄनवि ़द 1927 में हा हो प़य़ - मल ी रचऩ के लगभग २५० वर्य ब़द। आस से भा ऄऽधक अश्चयय मझि े तब हुअ जब गहन िोध के पश्च़त मझि े ज्ञ़त हुअ ऽक ऽहदं ा में आसके ऄनवि ़द क़ प्रय़स हुअ हा नहीं। कवान्र परम़नन्द छत्रपऽत ऽिव़जा मह़ऱज के समक़लान थे. ऐस़ कह़ ज़त़ है ऽक सभं वतः वे ऽिव़जा ऱजे के ऽमत्र भा थे. वैसे आस ग्रन्थ में ईनक़ स्वयं क़ पररचय भा ऽवस्त़र पवी यक ऽदय़ हुअ है. आस ग्रन्थ से पररचय होते हा मेरे मन में ईत्कंठ़ ज़गा ऽक आस ग्रंथ से ऽहदं ा भ़ऽर्यों क़ पररचय कऱय़ ज़ऩ भा ऄत्य़वश्यक है. आस आच्छ़ को मती य रूप देने के ऽलए ऽवनय कुष्ण चतवि ेदा ‘तफ़ ि ै ल’ जा ने सत्यक़म जा से पररचय कऱय़ और आस समग्र ईद्योग क़ फल अपके समक्ष आस ऽहदं ा ऄनवि ़द के रूप में प्रस्तति है. आस ऄनवि ़द में मऱठा ऄनवि ़द की लम्बा प्रस्त़वऩ ईपयोग में नहीं ल़इ गइ है. ऄनवि ़द सरल ऽहदं ा में है, जो कवींर परम़नंद की सरल संस्कुत के ऄनरू ि प हा है. मैं आस पस्ि तक को स्वगीय समि तं तेकडे को समऽपयत करत़ हं ऽजनकी प्रेरण़ से आसक़ ऽनम़यण संभव हुअ. - सजं य दाऽक्षत



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कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽिवभ़रतम्



अध्य़यः-१ श्रागणेि़य नमः। श्रास़ांबसद़ऽिव़य नमः। श्रामह़क़ला-मह़लक्ष्मा-मह़सरस्वता-देवत़भ्यो नमः।



वन्द्द़रुऽवबिधोद़रमौऽलमन्द्द़रद़मऽभः। ऽस्वद्टत्पद़रऽवन्द्द़य गोऽवन्द्द़य नमो नमः।।१ वदं न करने व़ले, देवश्रेष्ठ के ऽसर पर ऽस्थत मदं ़र पष्ि प की म़ल़ से ऽजनके पैर रूपा कमलों क़ पसाऩ छीट गय़ है। ऐसे ऽवष्णि को मैं ब़र-ब़र नमस्क़र करत़ ह।ं कद़ऽचत् परम़नन्द्दिम़य ब्ऱष्णणसत्तमः। ताथयय़त्ऱप्रसांगेन पिरीं व़ऱणसीं ययौ।।२ ऽकसा समय परम़नंद िम़य ऩम क़ श्रेष्ठ ब्ऱह्मण ताथय य़त्ऱ करने के ऽलए व़ऱणसा गय़। मिच्यन्द्ते यत्र सवेsऽप मिऽिरेव न मिच्यते। यत्रोपऽदिऽत ब्रष्ण त़रकां स्वयमाश्वरः।।३ तत्र ताथयऽवऽधां कुत्व़ दृष्ट्व़ देवां महेश्वरम।् पिण्ये भ़गारथातारे ऽनषस़द स धमयऽवत।् ।४ ऽजस व़ऱणसा में ज़कर सभा व्यऽि मि ि हो ज़ते हैं, ऽकंति मऽि ि क़ मोक्ष नहीं होत़ है ऄथ़यत! जह़ं मऽि ि सद़ व़स करता है और जह़ं पर स्वयं िक ं र त़रक रूप ब्रह्म़ क़ ईपदेि करते हैं ऐसे ईस क़िा में ताथय ऽवऽध करके तथ़ मह़देव के दियन करके वह धमयज्ञ ब्ऱह्मण पऽवत्र भ़गारथा के तट पर रहने लग़। 5 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तां वै पद्ञ़सऩसानां ऽवस्फिरद्ब्रष्णवचयसम।् वेत्त़रां सवयि़ष्ध़ण़ां ऽवत्तमध्य़त्मऽवत्तमम।् ।५ पौऱऽणक़ऩां प्रवरां भिगोऽवन्द्दनन्द्दनम्। एकवाऱप्रस़देन लब्धव़ऽससऽद्चवैभवम।् । ६ कवान्द्रां परम़नन्द्दां परम़नन्द्दऽवग्रहम।् दृष्ट्व़ प्रमिऽदत़स्तत्र ऽवज़्ः क़िाऽनव़ऽसनः।।७ भ़गारथा के तट पर पद्म़सन में बैठे हुए, ऽवद्य़ के तेज से िोभ़यम़न, सभा ि़ह्लों को ज़नने व़ले, तथ़ ऽवख्य़त श्रेष्ठ ऄध्य़त्म ऽवद्य़ को ज़ननेव़ले, पौऱऽणक लोगों के ऽलए मक ि ि ट मऽण, एकवाऱ देवा की कु प़ से व़क् ऽसऽि रूपा धन को प्ऱप्त करने व़ले, परम़नंद की प्रऽतमऽी तय जो गोऽवदं भट्ट के पत्रि हैं ऐसे कऽवयों में श्रेष्ठ सवयगणि संपन्न परम़नंद को देखकर क़िा के ऽनव़सा पंऽडतों को ऄत्यंत हर्य हुअ। स त़निद़रचररत़न् प्रत्यित्थ़य़ऽभव़द्ट च। पीजय़म़स ऽवऽधवत् सांप्ऱप्त़नऽतथाऽनव।।८ ईन ईद़र चररत पंऽडतों क़ ईसने ईठकर ऄऽभव़दन ऽकय़ और घर में अए हुए ऄऽतऽथ के सम़न ईनक़ ऽवऽध पवी क य सम्म़न ऽकय़। पररव़योपऽवऽविस्ि ते सवे तां ऽद्ठजोत्तम़ः। ििश्रिषम़ण़श्चररतां प्रऽथतां ऽिवभीपतेः।।९ वे सभा क़िा के ऽनव़सा श्रेष्ठ ब्ऱह्मण ऽिव़जा मह़ऱज के प्रऽसि चररत्र को सनि ने की आच्छ़ से ईनके च़रों तरफ बैठ गए। ततः प्रमनसस्सवे तमीचिस्ते मनाऽषणः। कत़यरां च़रुक़व्य़ऩमवत़रां बुहस्पतेः।।१० तत्पश्च़त प्रसन्न ऽचत्त सभा पंऽडत संदि र क़व्य के कत़य तथ़ बुहस्पऽत के ऄवत़र ईस परम़नंद को बोले।



6 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



मनाऽषण ऊचिः – यः ि़ऽस्त वसध ि ़मेत़ां ऱज़ ऱजऽगराश्वरः। तिलज़य़ः प्रस़देन लब्धऱज्यो मह़तप़ः।।११ ऽवष्णोरांिो ऽविेषेण लोकप़ल़ांिसांभवः। मनस्वा सिप्रसन्द्ऩत्म़ प्रत़पा ऽवऽजतेऽन्द्रयः।।१२ भाम़दऽप मह़भामः साम़ सवयधनिभयुत़म।् धाम़निद़रचररतः श्राम़नद्झितऽवक्रमः।।१३ कुता कुतज्ः सिकुता कुत़त्म़ कुतलिणः। वि़ व़सयस्य सत्यस्य श्रोत़ च़ऽतऽवचिणः।१४ देवऽद्ठजगव़ां गोप्त़ दिद़यन्द्तयवऩन्द्तकः। प्रपन्द्ऩऩां पररत्ऱत़ प्रज़ऩां ऽप्रयक़रकः।।१५ तस्य़स्य चररतां ब्रष्णन्द्ननेक़ध्य़यगऽभयतम।् भगवत्य़ः प्रस़देन भवत़ यत् प्रक़ऽितम।् ।१६ उद़रिब्दसन्द्दभं भीररभ़व़थयमद्झितम।् म़धयि ़यऽदगण ि ोपेतमलक ां ़रैरलक ां ु तम।् ।१७ ऽनऽचतां धमयि़ष्ध़थैरथयि़ष्धसमऽन्द्वतम।् ऽवश्रितां सवयलोके षि पिऱणऽमव नीतनम।् ।१८ समस्तदोषरऽहतां सऽहतां लिणैऽनयजैः। तदिेषमिेषज् िांस नः िांऽसतव्रत।।१९ पऽं डत ने कह़जो ऱजगढ़ क़ ऄऽधपऽत ऱज़ आस पुथ्वा पर ि़सन कर रह़ है, ऽजसको तल ि ज़भव़ना की कु प़ से ऱज्य प्ऱप्त हुअ है, जो मह़न तपस्वा, ऽविेर् रूप से ऽवष्णि क़ ऄि ं और ऄष्ट लोकप़लों के ऄि ं से ईत्पन्न है, जो बऽि िम़न, प्रसन्नऽचत्त, पऱक्रमा, ऽजतेंऽरय, भाम की तल ि ऩ में ऄत्यऽधक भयंकर और जो सभा धनधि ़यररयों क़ मक ि ि टमऽण, 7 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



बऽि िम़न, ईद़र चररत्र, गौरवि़ला, ऄद्भित पऱक्रमा, ,कु तज्ञ, सक ि ़यय करनेव़ल़, अत्मसंयमा और जो ऄपने सद्गिणों से सऽि वख्य़त है, जो सत्यवि़ एवं ऄत्यऽधक चतरि त़ से सनि नेव़ल़, देव, ब्ऱह्मण तथ़ ग़यों क़ रक्षक, ऄदम्य यवनों के ऽलए स़क्ष़त् यमऱज, िरण़गत की रक्ष़ करनेव़ल़ तथ़ जो प्रज़ऽप्रय है ऐसे ऽिव़जा ऱज़ क़ स़रगऽभयत चररत्र जो ऄनेक ऄध्य़यों में अपने भगवता देवा की कु प़ से प्रक़ऽित ऽकय़ है, ऽजसक़ िब्द-ऽवन्य़स ईत्कु ष्ट, ऄद्भित, ऄथयग़भं ायय से … इऽत व़ऱणसास्थेन मण्डलेन मनाऽषण़म।् प्रोिः प्रोव़च धम़यत्म़ कवान्द्रो वदत़ां वरः।।२० क़िा पंऽडतों के ऄनरि ोध पर धम़यत्म़ और वि़ओ ं में श्रेष्ठ ईस कऽवरं ने आस प्रक़र कह़ । एकवाऱां भगवतीं गणेिां च सरस्वताम।् सद्गिरुां च मह़ऽसद्चां ऽसद्च़ऩमऽप ऽसऽद्चदम।् ।२१ प्रऽणपत्य प्रवक्ष्य़ऽम मह़ऱजस्य धामतः। चररतां ऽिवऱजस्य भरतस्येव भ़रतम।् ।२२ भगवता एकवाऱ, गणपऽत, सरस्वता, और ऽसि लोगों को भा ऽसऽि प्रद़न करनेव़ले मह़ऽसि सद्गरुि को प्रण़म करके , भरतवंि के भ़रत के सम़न बऽि िम़न ऽिव़जा मह़ऱज के चररत्र क़ वणयन करत़ ह।ं



कऽलकल्मषह़राऽण ह़राऽण जनचेतस़म।् यि़ांऽस ऽिवऱजस्य श्रोतव्य़ऽन मनाऽषऽभः।।२३ कऽलयगि के प़पों क़ ऩि करने व़ला और लोगों के मनों क़ हरण करनेव़ला ऽिवऱज की यिोग़थ़ हमें सनि ना च़ऽहए।



8 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



योsयां ऽवजयते वारः पवयत़ऩमधाश्वरः। द़ऽिण़त्यो मह़ऱजः ि़हऱज़त्मजः ऽिवः।।२४ स़ि़न्द्ऩऱयणस्य़ांिऽष्धदिद्ठेऽषद़रणः। स एकद़त्मऽनष्ठां म़ प्रस़द्टेदमभ़षत।।२५ य़ऽन य़ऽन च़ररत्ऱऽण ऽवऽहत़ऽन मय़ भिऽव। ऽवधायन्द्ते च सिमते त़ऽन सव़यऽण वणयय।।२६ म़लभीपमिपक्रम्य प्रऽथतां मऽत्पत़महम।् कथ़मेत़ां मह़भ़ग महनाय़ां ऽनरूपय।।२७ जो यह वार, गढ़ों क़ स्व़मा, दऽक्षण क़ मह़ऱज़, स़क्ष़त् ऽवष्णि क़ ऄवत़र, यवनों क़ वध करने व़ल़, ि़हजा ऱज़ क़ पत्रि , ऽिव़जा ऽवजया हुअ है, वह एक ब़र मझि ब्रह्मऽनष्ठ से ऽनवेदन करते हुए बोल़ की, हे समि ते! जो जो क़यय मेरे द्ऱऱ ऽकए गए और पुथ्वा पर ऽकए ज़ रहे ईन सभा क़यों क़ वणयन करें । मेरे प्रऽसि द़द़ म़लोजा ऱजे से िरू ि करते हुए, हे मह़भ़ग्यि़ला! अप हा आस मह़न कह़ना क़ वणयन करो। तस्येम़ां व़चमनघ़मऽभनन्द्द्ट ऽद्ठजोत्तम़ः। प्रऽतश्रत्ि य गुह़नेत्य स्वयमेतदऽचन्द्तयम।् ।२८ अहो कथमहां किय़ं भ़रतप्रऽतमां महत।् अम़निषचररत्रस्य ऽिवस्यैतत् समाऽहतम।् ।२९ इऽत सांऽचन्द्तयन्द्तां म़ां ऽचरसिऽस्थरचेतसम।् देवा भगवता स़ि़त् समेत्येदमवोचत।।३० हे ब्ऱह्मणों! ईनके आन पऽवत्र वचनों क़ अदर करते हुए मैंने ईसे स्वाक़र कर ऽलय़ और जब मैं घर अय़, तो मैं स्वयं से ऽवच़र करने लग़ ऽक भ़रत के सम़न आस मह़न ऄलौऽकक चररत्र की रचऩ मेरे ह़थों से हो, ऐसा ऽिव़जा की आच्छ़ ऽकस प्रक़र पणी य हो सकता है ? आस प्रक़र बहुत देर तक एक़ग्रत़ से ऽवच़र करने पर स्वयं भगवता एकवाऱ देवा ने स़क्ष़त् दियन देकर मेरे से आस प्रक़र कह़। 9 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



देव्यवि ़चकवान्द्र किरु म़ ऽचन्द्त़मनिकील़स्म्यहां तव। मम़देि़दयां ऱज़ त्व़ऽमदां क़ययम़ऽदित।् ।३१ एवम़श्व़सयन्द्ता म़ां कुप़लिः किलदेवत़। चतिभयिज़ भगवता रृदयां मे सम़ऽवित।् ।३२ देवा ने कह़ – हे कऽवश्रेष्ठ! तमि ऽचतं ़ मत करो, मैं अपसे प्रसन्न ह।ं मेरा अज्ञ़ से ऽिवऱज़ ने तम्ि हें यह क़यय बत़य़ है। आस प्रक़र मझि े धैयय प्रद़न करते हुए, ईस कु प़लि किलदेवत़ चतभि यजि ़ एकवाऱ देवा ने मेरे रृदय में प्रवेि कर ऽलय़। तद़प्रभुऽत व़ग्ब्ब्रष्ण समग्रां पश्यतो मम। ज़गत्ययथेन सऽहतां रसऩग्रमऽधऽष्ठतम।् ।३३ तब से देखते हुए वह संपणी य व़ग्ब्रह्म ऄथय के स़थ मेरा जाभ पर ऽस्थत होकर ज़ग रह़ है। अऩगत़ऩां भ़व़ऩमतात़ऩां च सवयिः। स़ि़त् सन्द्दियनेऩहमम़नषि इव़भवम।् ।३४ ऄतात और भऽवष्य की सभा चाजें मझि े प्रत्यक्ष ऽदख़इ देने से म़नों मैं एक ऄलौऽकक व्यऽि की तरह बन गय़ ह।ं कुतकुत्यमथ़त्म़नां मन्द्यम़नेन वै मय़। कुतमेतन्द्मह़पिण्यम़ख्य़नमनघव्रत़ः।।३५ हे ऽवद्ऱन पऽं डतों, मैंने स्वयं को धन्य समझकर ऽफर यह ऄत्यंत पऽवत्र, पण्ि यि़ला आऽतह़स रच़। यत्ऱस्ते मऽहम़ िांभोमयह़देवस्य वऽणयतः। दिवयत्त ु ़सिरमऽदयन्द्य़स्तिलज़य़स्तथैव च।।३६ धमयस्य़थयस्थ क़मस्य मोिस्य च यथ़यथम।् ताथ़यऩमऽप म़ह़त्म्यां यत्र सम्यङ्ऽनरुऽपतम।् ।३७ 10 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



यत्र यिद्च़न्द्यनेक़ऽन ऽिवस्य यवनैः सह। तेष़मेव ऽवऩि़थयमवताणयस्य भीतले।।३८ देव़ऩां ब्ऱष्णण़ऩां च गव़ां च मऽहम़ऽधकम।् पऽवत्ऱऽण ऽवऽचत्ऱऽण चररत्ऱऽण च भीभिज़म।् ।३९ गज़ऩां तिरग़ण़ां च दिग़यण़ां लिण़ऽन च। ऽनरूऽपत़न्द्यिेषेण ऱजनाऽतश्च ि़श्वता।।४० तां सीययवांिमनघां कथ्यम़नां मय़ऽदतः। सवेsप्यवऽहत़त्म़नः िुणिध्वां िुण्वत़ां वऱः।।४१ ऽजसमें िभं ी मह़देव की और दष्टि ऱक्षसों क़ ऩि करने व़ला तल ि ज़भव़ना की मऽहम़ क़ वणयन ऽकय़ गय़ है। जह़ं पर धमय, ऄथय, क़म और मोक्ष आन च़र परुि ऱ्थों क़ और ताथों की मह़नत़ क़ भा ऄच्छा तरह ईल्लेख ऽकय़ गय़ है। आस पुथ्वा पर ऽजनक़ ऄवत़र यवनों के ऽवऩि हेति हा हुअ ऐसे ऽिव़जा ने यवनों के स़थ ऽकए गए यि ि ों क़ वणयन ऽजसमें वऽणयत है। देव, ब्ऱह्मणों तथ़ ग़यों की मऽहम़ क़ और पऽवत्र एवं ऄद्भित ऱज़ओ ं के चररत्रों क़ वणयन ऽजसमें वऽणयत है। ह़ऽथयों, घोडों और ऽकलों के सम्पणी य लक्षण और ि़श्वत ऱजनाऽत के चररत्र क़ ऽजसमें वणयन है, ऐसे पऽवत्र सयी यवि य सनि ऩ ं के प्ऱरंभ से लेकर मेरे द्ऱऱ वऽणयत चररत्र को, हे श्रोत़ओ!ं हम सभा को ध्य़नपवी क च़ऽहए। दऽिणस्य़ां ऽदऽि श्राम़न् म़लवम़य नरेश्वरः। बभीव वांिे सयी यस्य स्वयां सयी य इवौजस़।।४२ मह़ऱष्रां जनपदां मह़ऱष्रस्य भीऽमपः। प्रिि़स प्रसन्द्ऩत्म़ ऽनजधमयधिरांधरः।।४३ दऽक्षण में स्वयं सयी य के सम़न ईज्ज्वल श्राम़न म़लवम़य ऱज़ सयी यवि ं में हुअ थ़। क्षत्रधमय धरि रन और हसं मख ि ऐस़ वह मऱठ़ ऱज़ मह़ऱष्र में ि़सन कर रह़ थ़। कमल़यतनेत्रोsसौ कमल़पऽतऽवक्रमः। ििििभे गिणगम्भारः प्रज़रांजनम़चरन।् ।४४ 11 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



जो ऽवष्णि के सम़न िऽिि़ला और कमल की तरह बडा अख ं ों व़ल़, वह गणि गंभार ऱज़ ऄपना प्रज़ को सख ि देने से ईनकी कीऽतय च़रों ओर फै लने लगा। स पिण्यदेिे धम़यत्म़ ऽनव़सां स्वमकल्पयत।् तन्द्वन् सौऱज्यमऽधकां नदीं भामरथामनि।।४५ ईस धम़यत्म़ ने पणि े प्ऱतं में ऄपऩ ऽनव़स स्थ़न बऩय़ और भाम नदा के ऽकऩरे ऱज्य क़ ऽवस्त़र ऽकय़। त्वांगत्तिरांगमखिरििण्णभामरथातटः। समिद्टद्ङिन्द्दिऽभध्व़नऽवभ्रमिोऽभत़णयवः।।४६ प्रत़पत़ऽपत़sऱऽतधऱऽधपऽतमण्डलः। सष्त़ऽरखण्डमऽखलां बिभिजे स बला बल़त।् ।४७ ऽजसने ऄपने सरपट दौडते घोडों के खरि ों से भाम़ नदा के तटाय क्षेत्रों को रौंद़, ऽजसके ददंि भि ा से ईठता ध्वऽन की लहरों ने समरि को ऽहल़ ऽदय़, ऽजसने ऄपने प्रत़प से ित्रि ऱज़ओ ं को पऱस्त कर ऽदय़ ऐस़ वह बलि़ला ऱज़ ऄपने हा बल से समस्त सह्य़रा प्रदेि क़ स्व़मा हो गय़। ऽद्ठषऽद्झदियस्सहः सोsभीद् धयि यः सवयधनष्ि मत़म।् ऩऱयण़ांिसभ ां ीतो धनज ां य इव़परः।।४८ ऽवष्णि के ऄंि से ईत्पन्न, सभा धनधि ़यररयों क़ नेत़, म़नो दसि ऱ ऄजनयि हा हो, ऐस़ वह मह़ऱज़ ित्रओ ि ं के ऽलये ऄपऱजेय हो गय़. मह़वांिसमिद्झीत़मिम़ां ऩम यिऽस्वनाम।् उपयेमे स ऽवऽधऩ स़ऽवत्रीं सत्यव़ऽनव।।४९ ऽजस प्रक़र सत्यव़न ने स़ऽवत्रा के स़थ ऽवव़ह ऽकय़, ईसा प्रक़र ईस ऱज़ ने ईच्च किल में पैद़ हुइ ईम़ ऩम की यिस्वा कन्य़ के स़थ ऽवऽधपवी क य ऽवव़ह ऽकय़। अथ़सौ बहु मेने त़मनिरूपगिण़ऽन्द्वत़म।् अजो रघिसितश्श्राम़न् स़ध्वाऽमन्द्दिमताऽमव।।५०



12 | पृ ष्ठ



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ऽफर, वह रघरि ़ज क़ पत्रि ऄज जैसे स़ध्वा आदं मि ऽत को म़नत़ थ़, वैसे हा वह म़लवम़य ऱज़ ऄनरू ि प गणि ों से सि ि ोऽभत ऄपना पत्ना को बहुत म़नने लग़। प्रस़दऽमव प़वयत्य़ दत्तम़त्मायम़त्मऩ। उमेऽत भीषय़म़स ऩमधेयमिम़ सता।।५१ म़नो, प़वयता ने स्वयं प्रस़द रूप में ऽदए हुए ऄपने ईम़ आस ऩम को, वह स़ध्वा ईम़ सि ि ोऽभत करने लगा। अथ श्रादसमुद्चश्राः स तय़ सिदृि़ऽन्द्वतः। सम़चच़र मऽतम़न् कुता धम़यननेकध़।।५२ तत्पश्च़त, किबेर के सम़न धन सपं न्न, बऽि िम़न और ज्ञ़नव़न ईस ऱज़ ने ऄपने रूपवता पत्ना के स़थ ऄनेक प्रक़र के धमय क़यय ऽकए। अऽग्ब्नहोत्ऱऽण सत्ऱऽण यज़्स्सिबहुदऽिण़ः। मह़द़ऩन्द्यऽप तथ़ ऱष्रे तस्य सद़sभवन।् ।५३ ऄऽग्नहोत्र, सत्रयज्ञ, ऄत्यऽधक दऽक्षण़ व़ले यज्ञ और ईसा प्रक़र मह़द़न भा ईसके ऱज्य में सद़ चलते रहते थे। स िभ ां िप्रातये िभ ां ोभयिस्स़गरनऽन्द्नभम।् मधिरां ख़नय़म़स तड़गां िभ ां िपवयते।।५४ ईस ऽिवभि ऱज़ ने िक ं र को प्रसन्न करने के ऽलए स़गर के सम़न ऽवि़ल मधरि जल व़ले त़ल़ब को िभं ी पवयत पर खदि व़य़। सिवणयस़निप्रऽतम़न् प्ऱस़द़निच्चतोरण़न।् आऱम़नऽभऱम़ांश्च भीररभीरुहभीऽषत़न।् ।५५ दाघ़यश्च दाऽघयक़ः स्वणयसोप़नपथभीऽषत़ः। धम़यत्म़ क़रय़म़स प्रप़श्ि़ल़श्च भीररिः।।५६



13 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ईस धम़यत्म़ ने, उंचे ब़हरा दरव़जों से यि ि मेरुपवयत जैसे महलों क़, ऄनेक वुक्षों से सि ि ोऽभत सन्ि दर बगाचों क़, सोने की साऽढ़यों से यि ि बडे-बडे किओ ं क़, ऄनेक जल-कंि डों क़ तथ़ धमयि़ल़ओ ं क़ ऽनम़यण करव़य़। तमन्द्वग़त् सिमहता चतिरांग़ पत़ऽकना। मह़सत्त्वां मह़सत्त्व़ स्वणयदाव भगारथम।् ।५७ जैसे गगं ़ भ़गारथा क़ ऄनसि रण करता था, ईसा तरह एक िऽिि़ला और ऽवि़ल चतरि ं ग सेऩ ईस िऽिि़ला ऱज़ क़ ऄनसि रण करता था। तमिन्द्नतां नमऽन्द्त स्म स़मन्द्त़ः पुऽथवाभुतः। समारणसमिद्ठेलां वांजिल़ इव व़ररऽधम।् ।५८ जैसे लहरें हव़ के क़रण ऽकऩरे से ईठता हुइ समरि को नमन करतीं (झक ि ता) हैं, वैसे हा ईन स़मन्त ऱज़ओ ं ने ईस समुि म़लवम़य ऱज़ को नमन ऽकय़। एतऽस्मन्द्नेव समये दिगं देवऽगररां श्रयन।् ऽनज़मि़हो धम़यत्म़ प़लय़म़स मेऽदनाम।् ।५९ तमसेवन्द्त सततां यवऩऩमधाश्वरम।् सवे य़दवऱज़द्ट़ द़ऽिण़त्य़ः िम़भिजः।।६० ईसा समय, देवऽगरा (दौलत़ब़द) में अश्रय लेकर धमयपऱयण ऽनज़म ि़ह पुथ्वा पर ि़सन कर रह़ थ़। य़दव़ऽद दऽक्षण के सभा ऱज़ सदैव ईस यवऩऽधपऽत ऱज़ की सेव़ में लगे रहते थे। तद़ येऽदलि़होsऽप पत्तने ऽवजय़ष्दये। ऽनवसन् ऱज्यमकरोद्टवनो यवनैवयतु ः।।६१ ईस समय यवनों से ऽघऱ हुअ अऽदलि़हा यवन बाज़परि में रहते हुए ि़सन कर रह़ थ़। अथ के ऩsऽप क़लेन ऽनऽमत्तेन बलायस़। येऽदलेन ऽनज़मस्य ऽवरोधस्सिमह़नभीत।् ।६२ किछ समय ब़द ऽकसा क़रण अऽदलि़ह और ऽनज़म ि़ह के बाच बडा लड़इ ऽछड गइ।



14 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तद़ तां म़लभीप़लां क़लां प्रऽतमहाभुत़म।् श्रत्ि व़ ऽनज़मो मेध़वा स़ह़य्ये समकल्पयत।् ।६३ तब बऽि िम़न ऽनज़म ि़ह ने ऐस़ सनि ़ ऽक म़लवम़य ऱज़ दश्ि मनों के ऽलए क़ल के सम़न है, आसऽलए ईसने ऄपना मदद के ऽलए ईसे बल ि ़य़। ततस्तस्य ऽप्रयां तत्र कतयिमप्रऽतमद्टिऽतः। गत्व़ देवऽगररां म़लमहापऽतरुव़स ह।।६४ तब वह ईसक़ (ऽनज़मि़हा) ऽप्रय करने के ऽलए ऄऽद्रताय, गौरवि़ला म़लवम़य ऱज़ देवऽगरा में ज़कर रहने लग़। अथ ऽवठ्ठलऱजोsस्य भ्ऱत़ भामपऱक्रमः। समेतस्स्वपत़ऽकन्द्य़ भेजे ध़ऱऽगराश्वरम।् ।६५ ईसक़ भाम के सम़न पऱक्रमा ऽवट्ठल ऩम क़ भ़इ भा ऄपना सेऩ के स़थ अकर ऽनज़मि़ह के स़थ ऽमल गय़। प्रात़त्म़ च ऽनज़मोsऽप ऽनजमऽन्द्तकम़गतौ। त़वभ ि ौ पज ी य़म़स स़मद़नेन भीयस़।।६६ ईनके अगमन से संतष्टि होकर ऽनज़मि़ह ने भा ईन्हें स़म, द़न आत्य़ऽद से ईन दोनों को सम्म़ऽनत ऽकय़। ये ये ऽनज़मि़हस्य प्ऱभवन् पररपऽन्द्थनः। त़ांस्त़नित्स़दय़म़स म़लवम़य मह़भिजः।।६७ िऽिि़ला म़लवम़य ऱज़ ने ऽनज़मि़ह के जो जो ित्रि हुए, ईन सभा क़ ईसने सफ़य़ कर ऽदय़। तथ़ ऽवठ्ठलऱजोsऽप ऽनज़मस्य ऽचकीऽषयतम।् सह़याभीय सततां चक्रे िक्रपऱक्रमः।।६८ आरं के सम़न िऽिि़ला ऽवट्ठल ऱज़ ने भा ऽनज़मि़ह की मदद करके ईनकी अक़ंक्ष़ओ ं को परी ़ ऽकय़। यद्टप्य़सऽन्द्नज़मस्य सह़य़स्तत्र भीररिः। तथ़ऽप म़लवमैव सवेभ्योsभ्यऽधकोsभवत।् ।६९ 15 | पृ ष्ठ



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वह़ं ऽनज़म ि़ह के कइ ऄन्य समथयक ऽवद्यम़न थे, लेऽकन ईनमें म़लवम़य हा सबसे श्रेष्ठ थे। किलक्रम़गतां ऱज्यां ऽनध़य ऽनजमऽन्द्त्रष।ि दत्तां ऽनज़मि़हेन देिमन्द्यां िि़स सः।।७० ईसने ऄपने मऽं त्रयों को पैतक ु ऱज्य सौंप ऽदय़ और ऽनज़म ि़ह द्ऱऱ ऽदए गए ऱज्य पर वह ि़सन करने लग़। अथ तस्य सभ़ययस्य सितजन्द्मसमिज्वल़म।् ऽश्रयां समाहम़नस्य ऽदऩऽन सिबहून्द्ययिः।।७१ ऄपने को पत्रि प्ऱऽप्त होने से आस ऱजलक्ष्मा को िोभ़ प्ऱप्त होगा, आस अि़ के स़थ ईन्होंने ऄपना पत्ना के स़थ कइ ऽदन ऽबत़ए। सन्द्त़ऩथी स नुपऽतधयमयपत्नासमऽन्द्वतः। देवदेवां मह़देवम़रऱध मह़व्रतः।।७२ तब वह पत्रि -प्ऱऽप्त क़ आच्छिक ऱज़ ऄपना धमयपत्ना के स़थ बडे व्रतों क़ अचरण करते हुए, देव़ऽधदेव मह़देव की पजी ़ करने लग़। अथ क़लेन महत़ देवा तस्य महौजसः। आनन्द्दयन्द्ता दऽयतां ससत्त्व़ समज़यत।।७३ तत्पश्च़त, बहुत ऽदनों के ब़द, गौरवि़ला म़लवम़य की पत्ना गभयवता हुइ और ऄपने पऽत को खि ि ा प्रद़न की। ततः स़ दिमे म़ऽस प्रस्फिरऱजलिणम।् सिमिखां ििभवेल़य़ां सषि िवे सति मद्झितम।् ।७४ दसवें महाने में ऱजऽचह्नों से सििोऽभत, सदंि र एवं ऄलौऽकक पत्रि ईसको िभि महि तय में ईत्पन्न हुअ।



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सनि सां सऽि वि़ल़िां सभ ि ़लां श्लक्ष्णकिन्द्तलम।् ऽवस्ताणयविसां दाघयभिजम़नद्चकन्द्धरम।् ।७५ सिवणयवणयमरुणऽस्नग्ब्धप़ऽणपद़ांबिजम।् प्रोद्झ़सयन्द्तां भवनां प्रभीतेन स्वतेजस़।।७६ ईसकी ऩक साधा, अँखें बडा, म़थ़ चौड़, ब़ल घघंि ऱले एवं ऄल्प, छ़ता चौडा , ब़हें लबं ा , गदयन भरा हुइ, रंग सोने जैस़ और ईसके ह़थ, पैर ल़ल एवं कोमल थे, और ईसकी प्रचरि चमक ने घर को रोिन कर ऽदय़। तां दृष्ट्व़ मिऽदत़स्तत्र ध़त्र्यः सांज़तसांभ्रम़ः। ऱज्े ऽनवेदय़म़सिजयनैश्ििद्च़न्द्तच़ररऽभः।।७७ द़आयों को ईसे देखकर प्रसन्नत़ हुइ, और ईन्होंने जल्दा से ऱज़ को ऄपने रऽनव़स नौकरों के म़ध्यम से यह खबर सनि ़इ। ततस्तमित्सवां श्रित्व़ सितजन्द्मसमिद्झवम।् पायीषवषयसांऽसिप्रताक इव सोsभवत।् ।७८ पत्रि के जन्म की खि ि खबरा सिनकर म़नो ईसक़ परी ़ िरार ऄमुत की वऱ्य से ऽसंऽचत हो गय़ हो। (आतऩ वह हऽर्यत हुअ) ततः समित्सक ि ोsभ्येत्य नुपऽतरियतम़प्लति ः। आननां सिकिम़रस्य किम़रस्य व्यलोकत।।७९ तब अनदं के स़गर में तैरनेव़ल़ एवं ऄपने पत्रि को देखने के ऽलए ईत्सक ि वह ऱज़ जल्दा से रऽनव़स में चल़ गय़; और ईसने ऄपने सक ि ोमल पत्रि क़ मख ि देख़। अथ प्रमिऽदतस्तत्र समेतः स्वपिरोधस़। चक़र ज़तकम़यस्य स्वऽस्तव़चनपीवयकम।् ।८० ज़ते ऱजकिम़रेsऽस्मन् किम़रसमतेजऽस। नेदिमंगलव़द्ट़ऽन ननुतिव़यरयोऽषतः।।८१ स्वरेण ऽस्नग्ब्धत़रेण जगिगीत़ऽन ग़यऩः। 17 | पृ ष्ठ



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पेठिश्च प्रऽस्थत़मिच्चैवयऽन्द्दनो ऽबरुद़वऽलम।् ।।८२ अमोघ़ऽभस्तथ़िाऽभयरभ्यनन्द्दन् ऽद्ठजोत्तम़ः। गुहे गुहे ऽविेषेण ववुधे स महोत्सवः।।८३ तब प्रसन्न ऱज़ ने ऄपने परि ोऽहत के स़थ स्व़ऽस्तव़चन-पवी क य ईस ब़लक क़ ज़तकमय संस्क़र ऽकय़। क़ऽतयक किम़र जैसे प्रत़पा ऱजकिम़र के जन्म के ऄवसर पर मगं ल व़द्य बजने लगे। व़रयोऽर्त़ओ ं ने नुत्य करऩ िरू ि ऽकय़, ग़यक मधरि और ईच्च धनि के स़थ गात ग़ने लगे; भ़टों ने प्रऽसि ऽबरुद़वला क़ ईच्च स्वर में प़ठ करऩ िरू ि ऽकय़; ऽद्रजश्रेष्ठों ने ऄपने फलद़या अिाव़यद के स़थ ईनको बध़इ देऩ िरू ि ऽकय़; और घर-घर में ईस त्योह़र को ऽविेर् ऄदं ़ज में मऩय़ गय़। मह़मिि़ः प्रव़ल़ऽन रत्ऩलांकरण़ऽन च। स्वण़यऽन स्वणयव़स़ांऽस ग़स्तिरांग़न् गज़नऽप।।८४ जऩय य़चम़ऩय दद़नः स तद़ प्रभिः। ददृिे मनिजैस्स़ि़त् कल्परिम इव़परः।।८५ ईसने य़चकों को बहुमल्ी य मोता, रत्नजऽडत अभर्ी ण और मोऽतयों से ऄलंकुत जव़हऱत, और वह्ल, ग़य, घोडे और ह़था ऽदए। ईस समय वह लोगों को कल्पवुक्ष के सम़न प्रतात हुअ। अथ मौहूऽतयक़ऽदष्टे ऽवध्यििेsहऽन िोभने। ऽपत़ चक्रे किम़रस्य ऩम ि़ह इऽत स्वयम।् ।८६ ज्योऽतऽर्यों द्ऱऱ बत़ए गए और धमय क़ ऄनसि रण करने व़ले िभि ऽदन के ऄवसर पर म़लवम़य ने ऄपने पत्रि क़ ऩम ि़हजा रख़। ऽदने ऽदने स ववुधे ऽिििः सरऽसज़ननः। ऽपत्रोस्सांवधययन् स्व़ऽभलील़ऽभलोचनोत्सवम।् ।८७ कमल के सम़न सन्ि दर मख ि व़ल़ वह ब़लक ऽदन-ब-ऽदन बड़ होत़ गय़ और स़थ हा वह ऄपने म़त़-ऽपत़ के दृऽष्ट को अनन्द देने व़ला ऄपना लाल़ओ ं से अनंऽदत करने लग़।



18 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अथ वषयद्ठयेsताते ऽद्ठतायमऽप नन्द्दनम।् लेभे महापतेः पत्ना मऽतयमन्द्तऽमवोत्सवम।् ।८८ दो स़ल ब़द मऽी तयमत ईत्सव-अनंद के सम़न ईसे एक और बेट़ पैद़ हुअ। तस्य ज़तस्य ऽह ऽवऽधां सांऽवध़य बिधैस्सह। िराफ इऽत ऽसद्चोिां ऩमधेयां व्यध़ऽद्ठभिः।।८९ पऽं डतों की मदद से ईसक़ यथ़ऽवऽध सस्ं क़र करके ऽसि परुि र्ों द्ऱऱ बत़एं गए ऩम के ऄनसि ़र ईनक़ ऩम िराफजा रख़ गय़। तौ ि़हश्च िराफश्च ऽसद्चऩम़ांऽकत़विभौ। ववुध़ते ऽश्रय़ स़धं किम़रौ किलदापकौ।।९० ऽसि परुि र्ों के ऩम को ध़रण करने व़ले ऐसे वे किल के दापक, पत्रि िह़जा और िराफजा बडे होने लग गए और ईनके स़थ ईनकी संपऽत्त भा बढ़ने लगा। अथ समिऽदतऱजलिण़भ्य़मिऽदतमऩः स्वजऩऽन्द्वतः स त़भ्य़म।् नपु ऽतकिलवतांसम़त्मवि ां ां भिवमऽधपल्लऽवतां प्रभीयमेने।।९१ तत्पश्च़त वह ऱजगणि ों यि ि पत्रि ों के क़रण ऱज़ ऄपने ररश्तेद़रों के स़थ अनऽन्दत हुअ, और यह म़नने लग़ ऽक ईसक़ वंि पुथ्वा पर बढ़ गय़ है। कऽथतऽमऽत मय़ जगत्प्रतातां ििभऽमहऱजकिम़रजन्द्म त़वत।् कऽलकलिषहरां ऽनिम्य धाम़ननि पव़त स्वसमाऽहत़ऽन सद्टः।।९२ कऽलयगि के प़प क़ ऩि करने व़ले और लोकप्रऽसि मेरे द्ऱऱ ऽकए गए आन ऱजकिम़रों के जन्म वणयन को सनि कर बऽि िम़न व्यऽि को लगत़ है ऽक ईसकी आच्छ़ परी ा हो गइ है। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्त्र्य़ां सांऽहत़य़ां किम़रप्रभवो ऩम प्रथमोऻध्य़यः



19 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-२ कवींर उव़च प्रपेदे पांचमां वषं िराफस्य़ग्रजो यद़। तद़ महोद़रवम़य म़लवम़य महापऽतः।।१ महत्य़ सेनय़ स़धं दध़नोभ्यऽहयतां धनःि । प्रस्थ़ऽपतो ऽनज़मेन समऱयेंऽदऱपरि म।् ।२ कवींर ने कह़जब ि़हजा ऄपने प़ंचवें वर्य में थे, ऱज़ म़लवम़य ने एक बड़ और बऽढ़य़ कवच तथ़ ऄपने पसंदाद़ धनर्ि के स़थ, ऽनज़म ि़ह के अदेि पर एक बडा सेऩ के स़थ आदं ़परि पर चढ़़इ की। तत्ऱत्यथे यिध्यम़नः सबलैरऽभय़ऽयऽभः। प्रभीतैः पररधाभीतैहयन्द्यम़नस्समांततः।।३ पद़ऽतमत्तम़तांगहयकील़लव़ऽहनाम।् प्रवप्रवत्य़य ताव महतीं ताव्रवेग़ां तरांऽगणाम।् ।४ कुत़ांत इव सांक्रिद्चः समुद्चस्स्वेन तेजस़। पिरोध़य प्रऽतभट़न् प्रयय़वमऱवताम।् ।५ वह़ं च़रों ओर से घेरकर प्रह़र करनेव़ले कइ िऽिि़ला सैऽनकों के स़थ संपणी य िऽि से यि ि करते हुए ईसने पैदल सेऩ, मदमस्त ह़ऽथयों और घोडों के खनी की एक बडा एवं ताव्रग़मा नदा को बह़ ऽदय़। यम की तरह क्रोऽधत एवं तेजस्वा, म़लवम़य ने ित्रि के योि़ओ ं को पहले स्वगय भेजकर और ईनक़ ऄनिसरण करते हुए वह भा स्वगय को प्ऱप्त हो गय़। वज्रप़तऽमव़कण्यय तमिदतां मिम़ सता। पप़त व़त़ऽभहत़ कदलाव महातले।।६ वज्रप़त की तरह ईस भय़नक खबर को सनि कर स़ध्वा ईम़ हव़ से ईखडे के ले की तरह जमान पर ऽगर पडीं। 20 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽदनेश्वरेण ऽवधरि ़ ऽदनश्राररव स़ तद़। बत़वलबां ऱऽहत़ मज्जऽत स्म तमोबध ि ौ।।७ सयी य के ऽवयोग में जैसे ऽदनश्रा ऄधं क़र में डीब ज़ता है वैसे हा अध़रहान ईम़ दख ि के स़गर में डीब गइ। अथ ऽवठ्ठलऱजस्त़ां भ्ऱतुभ़य़ं तथ़ऽवध़म।् भतयुिोकमऱक़ांत़ां क्रन्द्दन्द्तीं किरराऽमव।।८ सम़धतिमऩस्तत्र िरद्ठ़ष्पेिणः स्वयम।् ऽनजग़द मह़बिऽद्चगयद्गदस्वरय़ ऽगऱ।।९ ऽवध्यऽनत्यऽममां लोकां िोकां त्यज मह़िये। पऽतस्तव गतः स्वगं स्ववगं पररमिच्य वै।।१० एष वै प्ऱऽथयतः पन्द्थ़ः िीऱण़मऽनवऽतयऩम।् परिष्ध़ऽभघ़त़द्टन्द्मरणां रणमीधयऽन।।११ सिध़ां ऽपप़सत़ां सद्टः सिरलोकां ऽयय़सत़म।् न ननी म़त्मवगयस्य प्रणयः स्व़थयदऽियऩम।् ।१२ ह़ ऽवह़य मह़स़ध्वीं भवतीं ब़लम़तरम।् प्रऽस्थतस्य परां लोकां पत्यिस्ते परुि षां मनः।।१३ असांियां नश्वऱऽण िराऱऽण िराररण़म।् रऽित़न्द्यऽप यत्नेन िायन्द्ते ष्त़यिषः िये।।१४ ऽफर, ईनकी स्वयं की अँखें अँसी से पररपणी य होने पर भा वे मह़न बऽि िम़न ऽवट्ठल जा पऽतिोक से भयभात तथ़ चकवा पक्षा की तरह ऽवल़प कर रहा, ऄपने भ़इ की पत्ना को स़त्ं वऩ देने के ऽलए दबा अव़ज में कह़, हे मह़न मन व़ला ह्ला, यह ऽवऽध ऽनऽमयत नश्वर ससं ़र ऄऽनत्य है यह ज़नकर िोक मत करो। तम्ि ह़ऱ पऽत ऄपऩ पररव़र छोडकर स्वगय चल़ गय़ है। ित्रि को पाठ न ऽदख़ने व़ले वार योि़ यि ि में ित्रि के िह्लों से मरऩ च़हते हैं। जो वार िाघ्र स्वगय ज़कर ऄमुत पाऩ च़हते हैं, ईनकी स्व़थयदृऽष्ट को व़स्तव में ररश्तेद़रों क़ प्रेम नहीं रोक सकत़। ह़य ह़य! जब छोटे बच्चों सऽहत अप स़ध्वा को छोडकर तम्ि ह़ऱ पऽत परलोक चल़ गय़ ईस समय ईनक़ ऽदल कठोर होऩ 21 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



च़ऽहए। व़स्तव में, म़नव िरार नश्वर हैं, और भले हा वे मह़न प्रय़स से सरि ऽक्षत ऽकए गए हो, लेऽकन जावन की रस्सा टीट ज़ने पर वे नष्ट हो ज़ते हैं! बतैतदगदक ां ़रैरूपचाणयमऩमयम।् मुदिचानैस्समाचानैः ऽसचयैः पररध़ऽपतम।् ।१५ रृद्टैऽहयत़वहैवयष्ु यैश्चोष्य़ऽदऽभरनेकध़। लघिऽभऽस्स्नग्ब्धमधिरैऱह़रै रुपच़ऽयतम।् ।१६ क़ल़गिरुिोदऽलप्तधीपवऽतयसिधीऽपते। रम्ये हम्ययतले दाव्यन्द्मऽणदाऽधऽतदाऽपते।।१७ ऽिराषपिष्पमुदिले ियनाये सि ि ोभने। ि़ऽयतां नारऽिऽिऱिारव्यजनवाऽजतम।् ।१८ सिन्द्दराऽभः िय़ांभोजसांव़ऽहतपदां पिनः। बहूपकुतत्त्यिच्चैययत्नेन धुतम़त्मऩ।।१९ कुतघ्नत़ऽमव दधद्ठपष्ि मन्द्तमये वपःि । ऩनयि ़ऽत जगत्यऽस्मन् तस्म़त् कऽश्चन्द्न कस्यऽचत।् ।२० ईन्होंने ड़क्टरों से आल़ज कऱकर िरार को स्वस्थ रख़, महान और मल ि ़यम रे िमा कपडे और ऽसचय से ईन्हें ढँक ऽदय़; हल्क़, ऽचकऩ, माठ़, ऽप्रय, ऽहतक़रा, पौऽष्टक, रसालें पेय, अऽद, ऽवऽभन्न प्रक़र के ख़द्य पद़थों द्ऱऱ ईन्हें पष्टि ऽकय़; क़ले चन्दन के चणी य से बना ऄगरबत्ता की सगि न्ध से सगि ऽन्धत और ऽदव्य रत्नों से ऄलक ं ु त रमणाय महल में ऽिरार् के फील की तरह कोमल सन्ि दर ि्य़ पर ियन कऱय़ और जल ऽछडके हुए िातल ऽििि के पख ं े से हव़ की। सदंि ररयों ने ईनके पैरों को ब़र ब़र ऄपने करकमलों से रगड़, आस प्रक़र ईन पर ऄनेक प्रक़र के ईत्तम ईपच़र करके ईनकी रक्ष़ की, लेऽकन, म़नो कु तघ्नत़ के क़रण यह िरार ऽकसा के स़थ नहीं ज़त़! आसऽलए आस संस़र में कोइ ऽकसा क़ नहीं होत़ है यहा सत्य है। कलत्ऱण्यनिकील़ऽन पित्ऱश्च कुतलिण़ः। तौ म़त़ऽपतरौ तद्ठद्भ्ऱतरः सोदऱ अऽप।२१ 22 | पृ ष्ठ



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ऽमत्ऱऽण ित्रवश्च़ऽप सपां दो ऽवपदोऽप च। भवऽन्द्त त़वदेव़स्य य़वदऽस्त कलेवरम।् ।२२ ऄनक ि ी ल पऽत्नय़ं, गणि ा पत्रि , प्रेममय म़त़-ऽपत़, सहोदर भ़इ, ऽमत्र, ित्रि, संपऽत्त, और ऽवपऽत्त ये तभा तक ऽवद्यम़न होते हैं, जब तक यह देह ऽवद्यम़न रहत़ हैं। एष ि़हूः िराफश्च तव देऽव सित़विभौ। तेजऽस्वनौ ऽवऱजेते पिष्पवन्द्त़ऽववोऽदतौ।।२३ हे देवा, ि़हजा और िराफजा, अपके दोनों तेजस्वा पत्रि ईऽदत होते हुए सयी य तथ़ चन्रम़ के सम़न सि ि ोऽभत हो रहे हैं। आभ्य़ां वांिवतांस़भ्य़ां भऽवष्यत्यिज्वलां यिः। सवयऽस्मन्द्नऽप सांस़रे वारम़तिस्तव़द्झितम।् ।२४ िारकण्ठ़ऽवमौ वत्सौ बत त्वन्द्मयजाऽवतौ। मऩगऽप जगत्यत्र त्व़ां ऽवऩ स्थ़स्यतः कथम।् ।२५ तस्म़त्त्वां ऽबभुऽह प्ऱण़ांष्ध़ण़थयमनयोद्ठययोः। दधता धैययमधनि ़ वचनेऩमिऩ मम।।२६ वार म़त़ के गभय में जन्में किलदापक ये दोनों पत्रि ऽवश्व भर में ऄद्भित और दाऽप्तम़न सफलत़ ऽबखेरेंग।े वे दोनों दधि पाते बच्चे की तरह बहुत छोटे हैं और ईनक़ जावन अप पर ऽनभयर है। ये लोग अपके ऽबऩ एक पल भा नहीं रह सकते। तो ऄब यऽद अप मेरे ऄनरि ोध क़ प़लन करते हैं, तो धैयय रखें और ईन दोनों को बच़ने के ऽलए ऄपने प्ऱणों की रक्ष़ करें । इऽत ऽवठ्ठलऱजस्त़ां पय़यश्व़सयद़त्मनः। ऽस्थत्यथयमन्द्वव़यस्य ऱज्यस्य च ऽविेषतः।।२७ ऽवट्ठल जा ने ईसे आस तरह से ईसके वि ं और ऽविेर् रूप से ऱज्य की भल़इ के ऽलए स़ंत्वऩ दा। दत्तदृऽष्टस्ति स़ देवा व़त्सल्य़त्तनयद्ठये। अप़स्य िोकमनघ़ बभ़र बत जाऽवतम।् ।२८ 23 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



सद़च़ररणा ऱना ईम़ब़इ ने ऄपने दो पत्रि ों को देखकर, ऽवल़प छोड ऽदय़ और ऄपने अप को जाऽवत रख़। (सता ज़ने क़ ऽवच़र छोड ऽदय़) मह़न्द्तमऽप तां िोकां ऽनगुष्त स मह़मऽतः। अक़रयऽद्ठऽधां भ्ऱतिः सकलां प़रलौऽककम।् ।२९ ह़ल़ँऽक मह़बऽि िम़न ऽवट्ठलजा को बहुत दख ि हुअ, लेऽकन ईन्होंने ईसे ऽनयऽं त्रत ऽकय़ और ऄपने भ़इ के सपं णी य ऄत्ं येऽष्ट ऽवऽध को ऽकय़। ततःि़हां िराफां च पिरस्कुत्य प्रत़ऽपऩ। चक्रे ऽवठ्ठलऱजेन ऱज्यां तदऽखलां ऽस्थरम।् ।३० ब़द में प्रत़पा ऽवट्ठलजा ने ि़हजा और िराफजा के ऩम पर ऱज्य पर ि़सन ऽकय़ और संपणी य ऱज्य में ऽस्थरत़ ल़इ। ऽनिम्यैतऽव्रज़मोऽप ऽनधनां म़लवमयणः। पिहाऩऽमव ऽनज़ां बत मेने पत़ऽकनाम।् ।३१ म़लवम़य के ऽनधन की खबर सनि कर ऽनज़मि़ह को भा लगने लग़ ऽक ईनकी सेऩ के पंख टीट गए हो। ततः ि़हिराफ़ष्ढौ म़लवमयसति ़वभ ि ौ। समां ऽवठ्ठलऱजेन समऩय्य मह़मऩः।।३२ स़न्द्त्वऽयत्व़ स्वयां दत्व़ त़भ्य़ां तत् ऽपतुवैभवम।् सत्कुत्य हेम़भरणैव़यसोऽभश्च मनोहरैः।।३३ अनघ्ययमऽणम़ल़ऽभस्तथ़ च गजव़ऽजऽभः। ऽवसुष्टव़न् गुह़नेतौ तिष्टो ध़ऱऽगराश्वरः।।३४ तब म़लवम़य के दोनों पत्रि ों ि़हजा और िराफ जा को ऽवट्ठलजा के स़थ बल ि ़कर ईद़र ऽनज़मि़ह ने ईन्हें स्वयं स़ंत्वऩ दा और ऄपने ऽपत़ की संपऽत्त को भा ईन्हें सौंप ऽदय़। ईसने सोने के गहने, संदि र कपडे, कीमता रत्न और ह़था, घोडों से ईनक़ सम्म़न ऽकय़ और ईन्हें संतोर् के स़थ ऽवद़ ऽकय़।



24 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अथ तेन ऽपतुव्येण पररप़ऽलतयोस्तयोः। वपषि ा ब़ल्यसपां ि ु े पऱां पपि षि तिः ऽश्रयम।् ।३५ ईनके चचेरे भ़इ ऽवट्ठलजा ने ईन दोनों क़ प़लन पोर्ण ऽकय़ और ऽफर ईनके िरार पर एक ऽविेर् तेज़ चमकने लग़। प्रिस्तलिणोपेते ऽनके ते सवयसांपद़म।् सोदरेSथ िराफस्य ऱजिब्दो व्यऱजत।।३६ िराफजा के भ़इ ि़हजा, जो ईत्तम गणि ों से सपं न्न थे और जो सभा धनों के प्रताक थे, ईन्हें 'ऱज़' िब्द से पक ि ़रने लगे। (वह ऱज़ बन गये) तां ब़लमऽप भीप़लमणयस्सवय एव ते। म़नयन्द्तो नमऽन्द्त स्म मह़भिजमिम़त्मजम।् ।३७ वे मह़ब़हु ईम़ के पत्रि ि़हजा अयि से छोटे थे, लेऽकन सभा सरद़र ईनको सम्म़न के स़थ नमस्क़र करने लगे। ततश्िरारां ि़हस्य प्रऽवष्टे नवयौवने। ससबां ़धेव ऽििति ़ सच ां िकोच िनैश्िनैः।।३८ जैसे हा िह़जा के िरार में ऽकिोऱवस्थ़ अने लगा, म़नो ब़ल्य़वस्थ़ किछ कऽठऩइयों को प़कर धारे -धारे ऽहचऽकच़ने लगा हो। कररपोतऽमवोदच ां न्द्मदऱऽजऽवऱऽजतम।् व्यिीभवन्द्नवश्मश्रिलेखां लेखमनोहरम।् ।३९ जैसे ह़था क़ झडंि गण्डस्थल के मदस्ऱव की ध़ऱ से सि ि ोऽभत होत़ है, वैसे हा नइ फीटता हुइ द़ढ़ा से ि़हजा क़ चेहऱ, देवों के सम़न सि ि ोऽभत होने लग़।



25 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



सवि णयऽवस्फिरद्ठणयम़कण़ययतलोचनम्। कुतकीरकिलत्ऱसऩस़वि ां मनोहरम।् ४० आनकी क़ंऽत सोने की तरह था, आनकी अंखें बडा था और आनकी खबी सरी त ऩक बहुत घमि ़वद़र था, जो तोतों के मन में भय पैद़ कर रहा था। कल़धरऽतरस्क़रर मनोह़रर मिखां पिनः। ज़निपययन्द्तऽवश्ऱन्द्तभिजमद्झितऽवग्रहम।् ।४१ ि़हजा क़ मनोह़रा मख ि चंरम़ को भा ऽतरस्कु त करनेव़ल़ थ़। ईनकी भजि ़एँ घटि ने तक लबं ा था तथ़ ईनक़ िरार ऽदव्य थ़ । द़नवारां दय़वारां यिद्चवारां महौजसम।् म़लभीपसितां ि़हां वरलिणलऽितम।् ।४२ दृष्ट्व़ य़दवऱजेन ऱजऱजसमऽश्रय़। ऽदष्टे दैवज्सांऽदष्टे ऽवऽिष्टेऽभमतैग्रयहैः।।४३ किलकन्द्य़ किले धन्द्य़ कन्द्य़ किवलयेिण़। दत्त़ सदऽिण़ तस्मै ऽजजीऽवयजयलिण़।।४४ ईत्तम गणि ों से संपन्न, ईद़र, दय़ल,ि यि ि कििल, मह़प्रत़पा, वर के लक्षणों से संपन्न, म़लवम़य के पत्रि िह़जा ऱज़ को देखकर, किबेर की तरह धना य़दव ऱज़ ने, ऄनक ि ी ल ग्रहों व़ले ज्योऽतर्ा द्ऱऱ बत़ए गए क्षण में ऄपना ऽवजयलक्षण़, कमलनेत्ऱ और किल की िोभ़ को बढ़़ने व़ला, किलाऩ पत्रि ा जाज़जा को दहेज के स़थ ऄऽपयत ऽकय़। स़ तां मह़ियां प्ऱप्य ऽबभ्रता वपिरुज्वलम।् गांगेव गिणगांभाऱ व्यऱजत महोदऽधम।् ।४५ जैसे िभ्रि एवं गहरा गगं ़ समरि से सि ि ोऽभत होता हैं, वैसे हा तेज पजंि से िोभ़यम़न िरारव़ला गणि वता जाज़ब़इ, गणि गंभार ि़हजा को प्ऱप्त करके सि ि ोऽभत होने लगीं। स च त़ां प्रेयसीं लब्ध्व़ पद्ञहस्त़ां भिवः ऽश्रयम।् ल़वण्यवैभववतामताव मऽहत़न्द्वय़म।् ।४६ 26 | पृ ष्ठ



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ऽनतांबप्ऱन्द्तऽवश्ऱन्द्तऽस्नग्ब्धश्य़मलकिन्द्तल़म।् चन्द्ऱधयभ्ऱांऽतकुद्झ़ल़ां िऱसनसमभ्रिवम।् ।४७ सत्त़ऽमव मनोजस्य लसत्त़मरसेिण़म।् सिवणयििऽिप्रऽतमश्रिऽतां सरलऩऽसक़म।् ।४८ प्रत्यग्रतरकिन्द्द़ग्रदन्द्तीं िोणरदच्छद़म।् ऽवकस्वऱांभोजमिखीं कांबिकण्ठीं ऽपकस्वऱम।् ।४९ मुण़ळकोमळभिज़ां नव़ांकिररतयौवऩम।् व्य़कोि़ांभोरुहिय़ां लसऽत्कसलय़ांगिऽलम।् ।५० ऽस्नग्ब्ध़रुणनखश्रेऽणां ऽनम्नऩऽभां तनीदराम।् रांभ़स्तांभ़ऽभऱमोरूां गीढगिल्फ़ां यिऽस्वनाम।् ।५१ ऱजरेख़ांऽकतपद़ां प्रिऽस्तां सवयसांपद़म।् ऩऩलांक़रसांभ़रसांदृब्धऽस्नग्ब्धवेऽणक़म।् ।५२ मिि़मऽणश्रेऽणक़तां सामन्द्तप्ऱन्द्तवऽतयऩ। स्फिररत़रुणवणेन ऽिरःपष्ि पेण िोऽभत़म।् ।५३ सवि ुन्द्ते स्वणयत़टांके पययन्द्तप्रोतमौऽिके । दधतीं दाऽधऽतमतीं सरत्ऩां च लल़ऽटक़म।् ।५४ पुथिमिि़मऽणमयोद़रह़रमनोहऱम।् रत्नमिि़ांऽचत़नेकगिच्छगिच्छ़धयध़ररणाम।् ।५५ के यीरक़ऽन्द्तऽकमीरसरत्नकरकांकण़म।् कुि़वलग्ब्नसांलग्ब्नसप्तकीसांभुतऽश्रयम।् ।५६ कलहस ां गऽतां ऽिजन्द्मऽणमांजारि़ऽलनाम।् अनघ्ययरत्ऩभरणप्रस़ऽधतपद़ांगिऽलम।् ।५७ सिवणयतन्द्तिसांत़नऽवलसद्ठसऩवुत़म।् 27 | पृ ष्ठ



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रत्नमिि़मऽणव्ऱतस्फिरत्कीप़य सक़ऽन्द्वत़म।् ।५८ पश्यन् प्रसन्द्नवदऩां प्रसन्द्नवदनः स्वयम।् सीययवि ां मऽणस्तीययघोषेण गुहम़ऽवित।् ।५९ ईस ईच्च किल की संदि रा के कमल की तरह ह़थ म़नो धरता की िोभ़ हो। ईसके ऽचकने, सन्ि दर, क़ले ब़ल ऽनतबं तक लढ़ि क रहे थे। ईसके भ़ल को देखकर ऐस़ लग रह़ थ़ म़नो ऄधयचरं ़क़र हो तथ़ ईसकी भौहें धनर्ि की तरह थीं। म़नो वह मदन की ऄसला िऽि हो, ईसकी अँखें कमल की तरह जलयि ि , क़न सनि हरे सापों की तरह, ऩक साधा, द़ँत कंि द के त़जे फीलों की तरह सफे द, होंठ ल़ल, महँि ऽखले हुए कमल के सम़न, कंठ िख ं की तरह, और अव़ज कोयल की तरह था। नवयौवन में प्रवेि ऽकए हुए, ईसकी भजि ़एं कमल के कोमल ततं ओ ि ं की तरह ऩजक ि , ईंगऽलय़ं एक ऽवकऽसत कमल के सम़न ल़ल, ऩखनी ऽचकने और ल़ल, ऩऽभ गहरा, पेट पतल़, ज़ंघें के ले के खभं े के सम़न संदि र, टखनें ऄदं र ऽछपे हुए, और पैरों पर ऱजलक्ष्मा क़ ऽनि़न ऽदख़इ दे रह़ थ़। वह सभा धनों की ऽनऽध था तथ़ ईसकी चोटा ऽवऽभन्न गहनों से भरा हुइ, ऽसर ऽवऽभन्न प्रक़र के ल़ल चमकीले मोऽतयों एवं रत्नों की म़ल़ओ ं एवं फिलों से सििोऽभत, म़थे पर लटकते हुए रत्न, क़नों के प़स ऽदख़इ देते मोऽतयों से गथंि े हुए कंि डल, ध़रण ऽकए गए मोऽतयों एवं रत्नों के बडे ह़र एवं गच्ि छे , भजि ़ओ ं में ब़जबी ंद, ह़थों में रत्नों से यि ि कंगन थे। पतला कमर पर कमरबंद, पैरों में अव़ज करते प़यजेब, पैरों की ईंगऽलयों में मल्ी यव़न रत्नों के अभर्ी ण, िरार पर चमकने व़ले रे िमा कपडे तथ़ रत्नों से यि ि रे िमा चोला को ध़रण करने व़ला ईस प्रसन्नवदऩ जाज़ब़इ को स्वयं प्रेममया दृऽष्ट से देखत़ हुअ वह सयी यवंि क़ दापक और प्रसन्नवदन िह़जा, व़द्ययंत्रों के घोर्ों के स़थ ऄपने घर लेके अय़। सम़गत़ां समां तेन पत्य़ प्रश्रयसांश्रय़म।् ऽश्रयां ऩऱयणेनेव प्रऽविन्द्ता ऽनके तनम।् ।६० जब वह ऽवनयिाल जाज़ब़इ ऄपने पऽत के स़थ घर में प्रऽवष्ट हुइ तो वे दोनों लक्ष्माऩऱयण की जोडा की तरह िोभ़ को ध़रण कर रहे थे। सांभीय़िि समेत़ऽभः पश्यन्द्ताऽभस्सऽवभ्रमम।् सिभग़ऽभः पिरन्द्राऽभः कुतनाऱजऩऽवऽधम।् ।६१ जल्दा से आकट्ठा हुइ तथ़ ऽवस्मय से देखने व़ला सिव़ऽसना ऽह्लयों ने नाऱजनऽवऽध से ईनकी अरता की। 28 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



वन्द्दम़ऩममोघ़ऽभऱिाऽभयरऽभनऽन्द्दत़म।् स्नषि ़ऽमम़मथ श्वश्रःी सकौतक ि मलोकत।।६२ जब ईसने ऄऽभव़दन ऽकय़, तो ईसको ऄनेक प्रक़र के फलद़या अिाव़यद ऽमलें। ईस समय स़स ने ऄपना बह को बडा कौतही ल की दृऽष्ट से ईसकी ओर देख़। श्वश्रीििश्रीषणपऱां पऽतऽप्रयतरोत्तऱम।् िालसांरिणे सज्ज़ां लज्ज़ां मीऽतयमताऽमव।।६३ स़ध्वाजऩध्वमय़यद़मन्द्वयद्ठयसम्मत़म।् जनीं नन्द्दपररजऩमभ्यनन्द्दन्द्सताजऩः।।६४ जो ऄपना स़स की सेव़ में तत्पर, पऽत से प्रेम पवी क य व़त़यल़प करनेव़ला , चररत्र की रक्ष़ करने में दक्ष, ऽवनय की प्रऽतमऽी तय, पऽतव्रत़ ऽह्लयों की पथ प्रदऽियक़, दोनों पररव़रजनों द्ऱऱ म़न्य तथ़ ऄपने पररजनों को अनंऽदत करनेव़ला, ऐसा बह क़ स़ध्वा ऽह्लयों ने ऄऽतिय ऄऽभनंदन ऽकय़। सित़ां ऽवश्व़सऱजस्य दिग़ं ऩम्ऩथ सद्गिण़म।् िराफोऽप मह़ब़हुभयव्य़ां भ़य़यमऽवन्द्दत।।६५ ऽवश्व़सऩमक ऱज़ की दगि ़य ऩम की संदि र एवं सद्गणि ा बेटा िऽिि़ला िराफजा को पत्नारूपेण प्ऱप्त हुइ। स तय़ च तय़ तन्द्व्य़ स्नषि य़ सेऽवत़न्द्वहम।् ऽवनात़भ्य़ां च पित्ऱभ्य़मिम़ लेभे पऱां मिदम।् ।६६ सेव़ करनेव़ला दगि ़य एवं सदंि र ऽजज़ब़इ, आन दोनों बहुओ ं से तथ़ ऄपने दोनों ऽवनयिाल बेटों से ईम़ को ऄऽतिय अनदं की प्ऱऽप्त होने लगा। अगऽणतगिणभ़जौ भ्ऱतरौ त़वमीभ्य़म।् ऽनरवऽधकगिण़भ्य़ां भ्ऱजम़नौ वधीभ्य़म।् । सपऽद ऽनजयिोऽभः िोभ़म़ऩमिेष़म।् भिवमऽप जनऽयत्रीं नन्द्दय़म़सतिः स्व़म।् ।६७



29 | पृ ष्ठ



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ऄमल्ी य गणि ों से सििोऽभत दोनों बहुओ ं के संयोग से िोभ़यम़न ये दोनों गणि ा भ़इ ऄपना यि एवं सफलत़ से तरि न्त हा संपणी य पुथ्वा को और ऄपना म़त़ को अनन्द देने लगे। स़धं तेऩनिजऩप्रऽतहतगऽतऩ म़रुतेनेव ििष्म़ । भाष्म़दत्यिग्रकम़य यिऽध यिऽध ऽवजया ऽवश्रितः ि़हवम़य। कतंि ऽनत्यां ऽनज़मऽप्रयमतिलबलः क़ण्डकोदण्डप़ऽणः।। सवेष़ां प़ऽथयव़ऩां पुथिररव पुऽथवाव़सवश्ि़सकोभीत।् ।६८ जैसे तेज हव़ से अग तेज हो ज़ता है, वैसे हा ऄपने पऱक्रमा भ़इ के स़थ भाष्म से भा ऄऽधक ईग्र कमय करनेव़ल़, प्रत्येक यि ि क़ ऽवजेत़, धनर्ि -ब़ण को ध़रण करने व़ल़, ऄतल ि बलव़न िह़जाऱजे, ऽनज़मि़ह क़ ऽप्रय करने व़ले सभा ऱज़ओ ं से श्रेष्ठ , पुथरि ़ज़ की तरह पुथ्वा पर ि़सन करने लग़। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे ऽनऽधव़सकरपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्त्र्य़ां सांऽहत़य़ां ि़हिराफपररणयो ऩम ऽद्ठतायोऻध्य़यः।



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कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-३ कवींर उव़च अथ ऽवठ्ठलऱजे स्वे ऽपतुव्येऽप ऽदवां गते। नुपताऽतऽवऽधज्ेन म़तिवयचनवऽतयऩ।।१ मह़वारेण धारेण ि़हऱजेन धामत़। ऱज्यभ़रस्स ऽह मह़न् दरे बत ऽनजे भिजे।।२ कऽवरं कहते हैं:- ब़द में ऄपने च़च़ ऽवट्ठलजा के भा परलोक चले ज़ने पर, ऄपना म़त़ की अज्ञ़ क़ प़लन करने व़ले, ऱजनाऽतज्ञ, पऱक्रमा, धैययव़न और बऽि िम़न ईस ि़हजा ऱज़ ने ऱज्य क़ भ़रा बोझ ऄपना ह़थों में ले ऽलय़। सांभः खेलश्च मल्लश्च मांबो ऩगश्च पियक ि ः। त्र्यांबकश्च़ऽप वसकश्च भ्ऱतरस्सोदऱ अमा।।३ पित्ऱ ऽवठ्ठलऱजस्य सित्ऱमसमऽवक्रम़ः। म़लभीप़त्मजौ ि़हिराफौ च प्रभ़ऽवणौ।।४ ऽवट्ठलजा ऱज़ के पत्रि संभ़जा, खेलजा, मल्लजा, मबं ़जा, ऩगोजा, पिक यि जा, त्र्यम्बकजा और वक्कजा ये सभा सहोदर भ़इ आरं के सम़न िऽिि़ला थे और ऱज़ म़लवम़य के ि़हजा और िराफजा दो प्रभ़वि़ला पत्रि थे। एते िोऽणजये सि़ः िि़स्समरकमयऽण। ऽनज़मस्य ऽप्रयकऱः कऱकुष्टिऱसऩः।।५ पवयतप्ऱांिवि पषि ः सहष्ध़ांिस ि मऽत्वषः। भीयस़ भिजस़रेण भीररण़ऽभजनेन च।।६ सैन्द्येन च गिणैश्च़न्द्यैरनन्द्य समतेजसः। परां न गणय़म़सिरांबरस्य मते ऽस्थत़ः।।७



31 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



पुथ्वा पर ऽवजय प़ने के ऽलए अतरि , यि ि क़यय में सक्षम, ऽनज़मि़ह से प्रेम करने व़ले, सदैव ह़थ में धनिर् ध़रण करने व़ले, पवयत की तरह ईन्नत िरार व़ले, सयी य की तरह तेजस्वा, ऄपने ऄऽतिय भजि ़ बल तथ़ ऽवि़ल पररव़र, सेऩ और ऄन्य गणि ों से ऄऽद्रताय पऱक्रम को प्ऱप्त ये सभा भ़इ मऽलकंबर द्ऱऱ संिोऽधत (गऽणम़ क़व़) यि ि तंत्र क़ ईपयोग करते थे और ऽकसा ित्रि को समऱंगन में ऽटकने नहीं देते थे। एकद़न्द्तः पिऱद़प्तभुत्य़म़त्यऽनषेऽवतम।् ऽनज़मि़हम़स्थ़नामेत्य ऽसांह़सने ऽस्थतम।् ।८ दृष्ट्व़ य़दवऱज़द्ट़ः प्रऽणपत्य यथ़क्रमम।् प्रचलऽन्द्त स्म तरस़ सवे स्वां स्वां ऽनवेिनम।् ।९ एक ब़र रऽनव़स से ऄपने ऽवश्वस्त ऽवद्ऱनों मऽं त्रयों और सेवकों के स़थ ऽनज़मि़ह सभ़गुह में अकर ऽसंह़सन पर बैठे हुए थे तब य़दवऱज जैसे सभा सरद़र ईनसे ऽमलजल ि कर और मजि ऱ देकर िाघ्रत़ से ऄपने घर ज़ने लगें। ततः प्रचलत़ां तेष़मन्द्योन्द्यस्पऽधयचेतस़म।् समां दयः समि ह़ऩसाद़स्य़नातोरण़द्ठऽहः।।१० एक दसी रे से प्रऽतस्पध़य करने व़ले वे सभा ऱज़ जैसे हा ज़ने लगें, तो सभ़गुह के द्ऱर के ब़हर ऄच़नक ऄत्यंत भाड हो गइ। तत्र वेत्रधरैद़यऱदित्स़ररतजऩः पिरः। पररपानोन्द्नतस्कन्द्ध़ः सन्द्नद्च़ः पुथिविसः।।११ ऽकराऽटनः किण्डऽलनः कवचच्छन्द्नऽवग्रह़ः। मिि़मऽणमयोद़रह़ऱः के यीरध़ररणः।।१२ सिलिण़ः िोऽणभिजः पद्ञपत्ऱयतेिण़ः। स्वैः स्वैः सैन्द्यैः पररवुत़ः पिरः प्रोच्ऱऽयतध्वजैः।।१३ हय़नन्द्ये गज़नन्द्ये य़प्यय़ऩऽन च़परे। सम़रुष्त़प्रऽतहतप्रभ़व़ः सप्रां तऽस्थरे।।१४ 32 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



वह़ं मौजदी भ़ल़ ध़ररयों ने लोगों को एक तरफ हट़ऩ िरू ि कर ऽदय़ और वे ऄतल ि नाय िऽि व़ले ऱज़, किछ घोडे पर, किछ ह़ऽथयों पर, किछ प़लऽकयों पर बैठकर ज़नें लगें। ईन ऱज़ओ ं के कंधे उंचे और मजबती थे। ईनकी छ़ता चौडा था और वे (हमेि़) ऄच्छा तरह तैय़र थे। ईन सन्ि दर ऱज़ओ ं की अख ि ि ट, ं ें कमल के सम़न दाघय, मक कंि डल, मोऽतयों के बडे ह़र और के यरी ध़रण ऽकए हुए, और िरार पर कवच पहऩ हुअ थ़ तथ़ वे ऄपना-ऄपना सेऩओ ं से ऽघरे हुए थे और ईनके अगे झण्ड़ फहर रह़ थ़। ततः खण्ड़गयल़ख्यस्य नुपस्य़ग्रेसरः करा। मदययन्द्नन्द्यसैन्द्य़ऽन प्रचच़ल बल़द्ठला।।१५ ईस समय खण्ड़गयल ऩमक ऱज़ क़ ऄग्रणा बलव़न ह़था ऄन्य ऱज़ओ ं की सेऩओ ं को रौंदत़ हुअ वेगपवी क य ऽनकल गय़। पदे पदेकिि़घ़तैऽनयऽषद्चोऽप ऽनष़ऽदऩ। स ऽसन्द्धिरः सैऽनक़ऩां चक़र कदनां महत।् ।१६ मह़वत के द्ऱऱ ऄक ं ि ि चिभोकर पग-पग पर ऽनयंऽत्रत करने पर भा ईस मदमस्त ह़था ने ऄनेक सैऽनकों को म़र ऽदय़। तां मुन्द्दन्द्तमनाक़ऽन गजन्द्तमकितोभयम।् प्रलय़ांभोधरऽनभां रोद्चिां िेकिनय के चन।।१७ सेऩ को किचलने व़ले, ऽनडरत़ से गरजने व़ले और प्रलयक़ल के ब़दल की तरह प्रतात होने व़ले ईस ह़था को कोइ नहीं रोक प़य़। अथ य़दवऱजस्थ दत्तवम़यऽदऽभस्सितैः। न सेहे गजयतस्तस्य गजयः प्रऽतगजैररव।।१८ जब ऽकसा एक ह़था के दह़डने पर जैसे दसी रे झण्ि ड के ह़था ईसे सहन नहीं कर प़ते; ईसा तरह आस ह़था की दह़ड य़दवऱज़ के पत्रि दत्तवम़य अऽद को सहन नहीं हुइ। ततो दत्तसम़ऽदष्ट़ः सिभट़स्तां मदोत्कटम।् ऽनजघ्निश्िरऽनऽष्धांिकिन्द्ततोमरिऽिऽभः।।१९ 33 | पृ ष्ठ



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ब़द में, दत्तवम़य के अदेि पर, वार योि़ओ ं ने मदमस्त ह़था पर तार, तलव़र, भ़ले, तोमर और िऽियों से हमल़ िरू ि कर ऽदय़। स ऽभन्द्नवम़य बहुऽभघोरकम़य मदऽद्ठपः। ऽवकषयन् पिष्करेणोच्चैः सहस़ हयस़ऽदनः।।२० करेण क़ांऽश्चद़द़य ऽिपन् क़ांऽश्चदप़तयत।् क़ांऽश्चऽन्द्नप़त्य चरणैस्तत्तलैऽन्द्नयऽष्पपेष च।।२१ ह़ल़ऽं क सैऽनकों के द्ऱऱ ईस मदमस्त और भार्ण क़यों को करनेव़ले ह़था को बेध देने पर भा ईसने ऄनेक घडि सव़रों को ऄपना सडंी से खींचकर नाचे ऽगऱ ऽदय़ और बहुतों को ईसने पैरों से ऽगऱकर ऄपने तलवों से रौंद ऽदय़। दत्तवम़यSथ तां दृष्ट्व़ स्वसैन्द्यस्य पऱभवम।् तां दऽन्द्तनमभाय़य हययि इव लियन।् ।२२ ऄपना सेऩ को आस प्रक़र पऱऽजत देखकर दत्त़वम़य, ऽसंह की तरह ह़था की ओर दृऽष्टप़त करके चल ऽदय़। तद़ तेऩऽतरभस़त्स बत़यिधस़ऽदतः। ऽवधन्द्ि व़नः स्वमीध़यनां रऱण रणमीधयऽन।।२३ तत्पश्च़त, ईसने जोर से िह्ल प्रह़र करके घ़यल ऽकय़ हुअ वह ह़था ऄपऩ ऽसर ऽहल़त़ हुअ रण प्रमख ि ों के स़मने अव़ज करने लग़। ततो ऽवठ्ठलऱजस्य सांभखेल़विभौ सितौ। खण्ड़गयळस्य स़ह़य्यां ऽवध़तिां समिपऽस्थतौ।।२४ तब ऽवट्ठलवम़य के दो पत्रि सभं ़जा और खेलोजा खण्ड़गयल ऱज़ की सह़यत़ के ऽलए दौडकर अए। तौ तां लोऽहतऽलप्त़गां ध़तिमन्द्तऽमव़चलम।् पययप़लयत़ां तत्र दत्तऱजविां गतम।् ।२५ वे दत्तवम़य के चंगल ि में फंसे हुए खनी से लथपथ और गेरू के पह़ड जैसे ऽदखनेव़ले ह़था की रक्ष़ करने लगे। दत्तऱजस्ति तां ऽहत्व़ ऽवहस्तां मदहऽस्तनम।् अनिजां प्रऽतजग्ऱह सांभऱजां मह़भिजम।् ।२६ 34 | पृ ष्ठ



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तब दत्त़वम़य ने टींटा हुइ संडी व़ले ईस मदमस्त ह़था को छोडकर छोटे भ़इ, जो िऽिि़ला संभ़जा थे, ईन पर हमल़ कर ऽदय़। तयोः किऽपतयोस्तत्र द्ठन्द्द्ठयिद्चे समिद्टते। आवतयस्सिमह़ऩसात् योध़ऩमऽभध़वत़म।् ।२७ हस्त़हऽस्त ततो यिद्चमिभयोः सेनयोरभीत।् दत्तवम़यणमभ्येते सांभे जांभ़ररतेजऽस।।२८ य़दव़ऩां तदद्च़ऽप स़ांबांऽधकमलियन।् ररि पिां सांभस्य भ्ऱत़ ि़हमहापऽतः।।२९ क्रोऽधत हुए ईन दोनों योि़ओ ं के बाच चल रहे द्रद्रं यि ि के दौऱन, कइ योि़ दौडते हुए अए और ऄच़नक एक बडा भाड आकट्ठ़ हो गइ। तभा दोनों सेऩओ ं के बाच ह़थों-पैरों से भयंकर यि ि प्ऱरंभ हो गय़। जह़ं आरं की तरह िऽिि़ला संभ़जा ने दत्तवम़य पर दौडकर अक्रमण ऽकय़, वहीं संभ़जा के भ़इ ि़हजा ऱज़ ने य़दव के ररश्ते की खल ि कर ऄनदेखा करते हुए संभ़जा के भ़इ ि़हजा ऱज़ क़ पक्ष संभ़ल ऽलय़। ततश्चमयधरस्तत्र दत्तऱजः प्रत़पव़न।् व्यधत्त मण्डल़ग्रेण पररवेषऽमव़त्मनः।।३० तब ह़थ में ढ़ल ऽलए हुए पऱक्रमा दत्तवम़य ने ऄपना तलव़र को घमि ़कर म़नो ऄपने च़रों ओर एक तेजोमय मण्डल बऩ ऽदय़ हो। तऽस्मन्द्ऩकऽस्मके यिद्चे िीऱण़ां सऽन्द्नपेतिष़म।् क्ष्वेऽडत़स्फोऽटतभरैबयभीविबयऽधऱ ऽदिः।।३१ ईस ऄच़नक हुइ लड़इ में वारों की गजयऩ ने और भजि ़ओ ं पर त़ल ठोकने की अव़ज ने ऽदि़ओ ं को बहऱ कर ऽदय़। तद़ स्वमण्डल़ग्रेण मण्डल़ऽन ऽवतन्द्वत़। ननुते तेन वारेण रणरांगे महायऽस।।३२



35 | पृ ष्ठ



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तब वार दत्तवम़य ऄपने तेजोमय मण्डलों से मण्डलों क़ ऽवस्त़र करत़ हुअ वह ऽवि़ल यि ि के मैद़न पर नुत्य करने लग़। लिठत्सि वरवाऱण़ां सऽकराटेषि मीधयसि। अऽसऽभः खण्ड्यम़नेषि सकोदण्डेषि ब़हुषि।।३३ कुप़णब़णपरििप्ऱसऽभन्द्नेषि वमयसि। ऽितचक्रऽनकुत्तेषि सिरेषि करेषि च।।३४ तिरांगमत्तम़तांगपऽत्रसांघ़तजन्द्मऽभः। स्फिटां रुऽधरध़ऱऽभः ि़न्द्तेषि रणरेणिषि।।३५ ध्वज़ांििकपरात़सि समऱऽजरभीऽमषि। िऱऽचतिरारेषि नरेषि ऽनपतत्सि च।।३६ तेन य़दववारेण धारेण़ऽमत्रघ़ऽतऩ। सांभऱजां सम़स़द्ट ऽबऽभदे ऽमत्रमण्डलम।् ।३७ मह़न वारों के मक ि ि ट यि ि ऽसर ज़मान पर लढ़ि कने लगे, तलव़र से धनर्ि सऽहत भजि ़एं टीटने लगा; तलव़र, तार, परि,ि भ़ले से कवच ऽछन्न-ऽभन्न होने लगे, ताव्र चक्रों से ब़ण सऽहत ह़थ टीटने लगे, घोडों और मदमस्त ह़ऽथयों के िरार में ब़णों के प्रऽवष्ट होने से बहनेव़ला खनी की ध़ऱओ ं से धल ी ऄच्छा तरह ि़ंत हो गइ। समऱंगन झडं ों के ऽनि़न से अच्छ़ऽदत हो गय़; ब़णों से मनष्ि यों के िरार ऽछन्न होकर नाचे ऽगरने लगे और ऐसे समय में ईस वार ित्रि सहं ़रक य़दव की सभं ़जा के स़थ मल ि ़क़त हुइ और वे मर गये। तमप्रऽतमकम़यणां दत्तवम़यणम़हवे। िुण्व़नस्सांभऽनहतां य़दवेन्द्रस्स्वम़त्मजम।् ।३८ पिरोगच्छन्द्नधयपथ़दऽतरोष़रुणेिणः। पऱवुत्तो मह़ऱजः सांभऱजऽजघ़ांसय़।।३९



36 | पृ ष्ठ



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ऄऽद्रताय क़यय करनेव़ल़ ऄपऩ पत्रि दत्तवम़य संभ़जा द्ऱऱ यि ि में म़ऱ गय़ है ,जब यह खबर अगे गए हुए य़दवऱज को पत़ लगीं तो ईसकी अख ं ें क्रोध से ल़ल हो गइ ं और वह संभ़जा को म़रने के ऽलए अधे ऱस्ते से हा व़पस लौट गय़। तऽस्मन् रोषसम़ऽवष्टे य़दव़ऩमधाश्वरे। सपवयतवनद्ठाप़ वसिध़ समकांपत।।४० ईस य़दवऱज को क्रोऽधत देखकर धरता, पह़ड, जगं ल, द्राप अऽद भा क़पं ने लगे। असितोप्यऽधको येन हतो ज़ल्मेन मे सितः। तमहां ऽनहऽनष्य़ऽम कररष्य़ऽम समाऽहतम।् ।४१ मैं ईस दष्टि को म़रकर हा ऄपना आच्छ़ (बदल़) परी ा करूंग़, ऽजसने मेरे प्ऱण से ऽप्रय पत्रि को म़र ड़ल़ है। इत्यमषयविाभीतां श्वििरां सिरऽवक्रमम।् स्वपिरिण़क़ांिा ि़हऱजोSभ्ययिध्यत।।४२ आस प्रक़र क्रोऽधत और देवत़ के सम़न पऱक्रमा, ऄपने ससरि य़दवऱज के स़थ ि़हजा ऄपने पक्ष की रक्ष़ हेति यि ि करने लग़। यिध्यम़नममिां वाक्ष्य ज़म़तरमररन्द्दमः।। जघ़न स़हसा ि़हां भिजगेन्द्रसमे भिजे।।४३ मेरे द़म़द यि ि कर रहे है, ऐस़ देखकर ित्रि क़ ऩि करनेव़ले स़हऽसक य़दवऱज ने व़सक ि ी की तरह ि़हजा के भजि ़ पर जोर से प्रह़र ऽकय़। ि़हस्तेऩऽसप़तेन श्रयन् मीच्छ़ं महायसाम।् कथांऽचदऽप धैयेण ध़रय़म़स जाऽवतम।् ।४४ ईस तलव़र के प्रह़र से ि़हजा बेहोि हो गए और ईन्होंने बह़दरि ा से ऽकसा तरह ऄपना ज़न बच़इ। ततः खेलां पऱभीय न्द्यसकुत्य़न्द्य़ांश्च प़ऽथयव़न।् ऽनऽजंत्य च ऽनज़मस्य श्य़म़ननमयीं चमीम।् ।४५ ग़ढमिऽष्टग़यढमिऽष्टां समिद्टम्य स य़दवः। 37 | पृ ष्ठ



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सरां ब्धोभ्यपतत्तण ी ं सभ ां ां समरदिजययम।् ।४६ ततस्सभ ां ः प्रसन्द्ऩत्म़ परां पररहसऽन्द्नव। अरां व्य़प़रय़म़स करां कौिेयके ऽनजे।।४७ ईस समय खेलोजा को, ऄन्य ऱज़ओ ं को, ऽनज़मि़ह की ऽिद्दा सेऩ को पऱऽजत करके क्रोऽधत हुए ग़ढमऽि ष्ट य़दवऱज ने तलव़र ऽनक़लकर समऱगं न में ऄपऱजेय ईस संभ़जा पर वेगपवी क य प्रह़र ऽकय़। तब प्रसन्नवदन सभं ़जा ने म़नो ित्रि क़ ईपह़स करते हुए ऄपने तलव़र पर वेगपवी क य ह़थ रख ऽदय़। तयोस्मद़भवद्टिद्चां ऽमथो ऽवस्पधयम़नयोः। स़ध्वस़वहमन्द्येष़ां मत्तयोऽद्ठयपयोररव।।४८ ऽजस तरह दो मदमस्त ह़ऽथयों में परस्पर भयंकर यि ि होत़ है ईसा तरह परस्पर प्रऽतस्पध़य करनेव़ले ईन दोनों में लोगों के ऽदलों को चौंक़ने व़ला लड़इ हुइ। ततोSऽसप़त़न् बहुिः सोढ्व़ सांभस्य य़दवः। तां जगत्य़ां ऽजत़ऱऽतरऽसनैव न्द्यप़तयत।् ।४९ ईस ित्रि के ऽवजेत़ य़दवऱज ने संभ़जा की तलव़र के कइ व़र सहे और ऽफर ईन्हें ऄपना तलव़र से जमान पर पटक ऽदय़। तां सति स्य ऽनहतां ़रां ऽनप़त्य वसध ि ़तले। तेन य़दववारेण वैरऽनय़यतनां कुतम।् ।५० य़दवऱज ने ऄपने पत्रि की हत्य़ करने व़ले सभं ़जा को जमान पर पटककर ऄपऩ बदल़ ले ऽलय़। तद़ य़दवऱजेन मह़ऱजेन सांयऽत। सिते ऽवठ्ठलऱजस्य बत ज्येष्ठे ऽनप़ऽतते।।५१ तत्र प्रऽतऽक्रय़ां क़ांऽचदऽप कतयिमिसनिवत।् ऽनज़मस्य़ऽखलां सैन्द्यमवसन्द्नमज़यत।् ।५२ जब य़दवऱज ने यि ि में ऽवट्ठल ऱज़ के ज्येष्ठ पत्रि क़ वध ऽकय़ तो ऽनज़मि़ह की परी ा सेऩ ऽकसा ब़त क़ ऽवरोध नहीं कर सकी, क्योंऽक ईनक़ स़हस सम़प्त हो गय़ थ़। 38 | पृ ष्ठ



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स्व़ऽमऩथ ऽनज़मेन स़ांत्वऽयत्व़ ऽनव़ररते। ते सेने प्रसभोद्चुत्ते ऽनवत्त ु े कलह़ऽन्द्मथः।।५३ रण़ांगण़दिप़द़य वष्मयणा सभ ां दत्तयोः। िोचम़ने हतोत्स़हां स्वां स्वां ऽिऽबरमायतिः।।५४ जब स्व़मा ऽनज़मि़ह ने दोनों क्रोऽधत सेऩओ ं को स़त्ं वऩ देकर हट़य़, तो वे परस्पर के झगडे से मि ि हो गये और यि ि के मैद़न से सभं ़जा और दत्तवम़य की ल़िों को लेकर ऽखन्न होते हुए ऄपने ऄपने ऽिऽवर में चले गए। ऽलषष्णमनसस्सवे खेलकण़यदयोSनिज़ः। ततस्तमन्द्विोचांत ज्येष्ठां भ्ऱतरम़त्मनः।।५५ खेलकणय प्रभुऽत संभ़जा के छोटे भ़इ द:ि खा होकर ऄपने बडे भ़इ के ऽलए ऽवल़प करने लगे। सितस्य क़रय़म़स य़दवः क़ययमित्तरम।् भ्ऱतिज्येष्ठस्य ऽवऽधवत् खेलकणयस्तदित्तरम।् ।५६ य़दवऱज ने ऄपने बेटे की और खेलकणय ने भा ऄपने बडे भ़इ की ऽवऽधवत् ईत्तरऽवऽध की। स़ांबऽां धकस्य महतः सति ऱां ऽवरुद्चम।् स्पऽधयष्णिऽभभयुिबलै यदभीऽद्च यिद्चम।् । तद्ट़दवेन सऽि धय़ रृऽद स़वलेपे। ज़नामहे ऽकमऽप ऽचन्द्तयत़नितेपे।।५७ घऽनष्ठ सबं धं के ऽवपरात, प्रऽतस्पध़य करनेव़ले भोंसले के स़थ जो यि ि हुअ, ईसक़ ऄपने गऽवयत रृदय में किछ ऽवच़र ऽकय़ तो ईस समय ईसे पश्च़त़प हुअ थ़, ऐस़ हमें लगत़ है।



इत्यनपि िऱणे सीययवांिे ऽनऽधव़सकरपरम़नन्द्दकवान्द्र प्रक़ऽित़य़म़कऽस्मक़स्कन्द्दनो ऩम तुतायोऻध्य़यः।



39 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-४ कवान्द्र उव़च अथो ऽवठ्ठलऱजस्य पित्रेष्वद्झितकमयसि। खेलकणयप्रभुऽतषि प्रभिण़ पिप़ऽतऩ।।१ प्रभीत़ऽभजनां भीररबलौघपररव़ररतम।् प्रऽतपिज्य़ऽनपरां पऽवप़ऽणऽमव़परम।् ।२ अताव दिधयरतरां ज़नत़ य़दवेश्वरम।् ऽनजे रृऽद ऽनज़मेन न्द्यधायत परां छलम।् ।३ कऽवरं ने कह़ - ब़द में ऽवट्ठल ऱज़ के खेलकणय प्रभुऽत ऄतिलनाय वार पत्रि ों के पक्षप़ता स्व़मा ऽनज़मि़ह ने बडे पररव़र व़ले, ऽवि़ल सेऩ से यि ि , ऽवपक्ष क़ ऩि करने व़ले, म़नो वे स़क्ष़त् आरं हा हो, ऐसे य़दवऱज ऄत्यतं ऄपऱजेय है, यह ज़नकर ईसने ऄपने मन में एक मह़न धोख़ देने की योजऩ बऩइ। तस्य दिमयऽन्द्त्रतां बिध्व़ य़दव़ऩां धिरांधरः। प्रस्थ़य स मह़ब़हुऽदयल्लाश्वरमिप़श्रयत।् ।४ ईसके दष्टि ऽवच़र को ज़नकर वह मह़बलि़ला किलश्रेष्ठ य़दवऱज ऽदल्ला के स़्ट से ज़कर ऽमल गय़। ऽनज़मऽवषयां ऽहत्व़ गतो यदिपऽतययद़। येऽदलोतरम़स़द्ट तदेव मिमिदे तद़।।५ जब य़दवऱज ने ऽनज़मि़ह क़ देि छोड़ तो अऽदलि़ह आस ऄवसर को देखकर खि ि हुअ। स ऽह पवी ं ऽनज़मेन पररभीतः पदे पदे। तद़ त़म्ऱऽधपऽतऩ स़धं सऽां ध स्वयां व्यध़त।् ।६ क्योंऽक पवी य में जब ऽनज़मि़ह से वह कदम कदम पर पऱऽजत हुअ तो ईसने स्वयं मगि ल ब़दि़ह से सऽन्ध की था।



40 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽचरस्पधी ऽनज़मस्य ऽदल्लापऽतरुद़रधाः। येऽदलस्येऽहतां सद्टः प्रऽतजज्े प्रत़पव़न।् ।७ लंबे समय तक ऽनज़मि़ह से इष्य़य करने व़ल़, ईद़र और गौरवि़ला ऽदल्ला क़ ब़दि़ह, अऽदलि़ह की आच्छ़ को परी ़ करने के ऽलए िाघ्र हा तैय़र हो गय़। जह़नगारस्त़म्ऱण़मऽधपस्ताव्रऽवक्रमः। इभऱमऽहत़थ़यय प्रऽजघ़य पत़ऽकनाम।् ।८ िऽिि़ला मगि ल ब़दि़ह जह़गं ार ने आब्ऱऽहम अऽदलि़ह की मदद के ऽलए एक सेऩ भेजा। त़ां वै त़म्ऱननमयीं प्रऽतपद्ट पत़ऽकनाम।् येऽदलस्तुणय़म़स ऽनज़मां ऽनजवैररणम।् ।९ मगि ल सेऩ के अकर ऽमलते हा अऽदलि़ह को ऄपऩ ित्रि ऽनज़मि़ह कपटा लगने लग़। ततश्ि़हनरेन्द्रेण िराफे ण च धऽन्द्वऩ। खेलकणेन वारेण वणयनायगण ि ऽश्रय़।।१० बऽलऩ मल्लऱजेन ऱज़् मांब़ऽभधेन च। ऩगऱज़ष्दयेऩऽप ऩगऱजसमौजस़।।११ तथ़ परिरि ़मेण त्र्यांबके ण च भीभुत़। कसक़ख्येऩऽप सांग्ऱमऽवख्य़तभिजतेजस़।।१२ च़हुब़णेन हम्मारऱजेन ऽवऽजतऽद्ठष़। मिध़ऽभधेन च फलस्थ़ऩऽधपऽतऩ तथ़।।१३ नुऽसांहऱजप्रमिखैऽनयष़दैस्समरोन्द्मिखैः। तैरेव़न्द्यैश्च बहुऽभबयल्ल़ळऽत्रपद़ऽदऽभः।।१४ तथ़ ऽवठ्ठलऱजेन क़ऽण्टके ऩनिभ़ऽवऩ। दत्त़जाऩगऩथेन मांबेन च यिऽस्वऩ।।१५ ऽद्ठज़ऽतऩ नुऽसांहेन ऽपांगळोप़ऽभध़भुत़। 41 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



जगद्ङेवतनज ी ेन सन्द्ि दरेण च भीभिज़।।१६ तथ़ स़रऽथऩ ख़नय़कितेऩऽभम़ऽनऩ। मनसीरेण िीरेण सिरूपेणोग्रकमयण़।।१७ तथ़ जोहरख़नेन हमादेन च दऽपयण़। आतसेन च वारेण हुत़िनसमऽत्वष़।।१८ बबयरेण़ांबरमऽणप्रत़पेऩांबरेण च। तत्सितेनोग्रगऽतऩ फत्तेख़नेन म़ऽनऩ।।१९ सितैऱमदख़नस्य तथ़ऽतगिणऽवश्रितैः। अन्द्यैरऽप मह़सैन्द्यैस्समन्द्त़दऽभरऽितः।।२० ऽवऽद्ठषद्चुन्द्दऽवध्वांसा स्वब़हुबलदऽपयतः। परां न गणय़म़स ऽनज़मो ज्वलनोपमः।।२१ ऽफर ि़हजा ऱज़, धनधि ़यरा िराफजा, बह़दरि एवं मेध़वा खेलकणय, बलव़न मल्लऱव तथ़ मबं ़जा ऱज़, ह़था के सम़न बलव़न ऩगऱज, परिरि ़म, ऱज़ त्र्यंबकऱज, यि ि में ऄपना वारत़ के ऽलए प्रऽसि ऱज़ कक्क, ित्रजि ते ़ हम्मारऱज, मधि ोजा फलटणकर, यि ि के ऽलए ईत्स़ऽहत ऽनऱ्द, ईनसे ऄन्य कइ नुऽसंहऱज, बल्ल़ळ ऽत्रपद अऽद सेऩपऽत, वैसे हा गौरवि़ला ऽवट्ठलऱज क़ंटे, दत्त़जा जगन्ऩथ, यिस्वा मबं ऱज़, ब्ऱह्मण नुंऽसह ऽपंगले, जगदेव के पत्रि संदि रऱज, ऄऽभम़ना स़रथा य़कितख़न, िरी , संदि र एवं ईग्रकम़य मनसरी ख़न तथ़ जोहरख़न, ऄऽभम़ना हमादख़न, ऄऽग्न के सम़न तेजस्वा वार अतसख़न, सयी य के सम़न तेजस्वा ऄबं रख़न बबयर, ईनक़ पत्रि स्व़ऽभम़ना फतेहख़न, अदमख़न के यिस्वा पत्रि तथ़ ऄन्य बडे बडे सेऩऩयकों के द्ऱऱ सभा ओर सरं ऽक्षत ऽनज़मि़ह थ़, ऐसा ऽस्थऽत में वह दश्ि मन समही क़ ऽवऩिक,ऄपने ब़हुबऽलयों के प्रऽत ऄऽभम़ना, अग की तरह प्रखर ऽनज़मि़ह ऄपने दश्ि मनों को ऽतनके के सम़न समझने लग़। येऽदलः स ति ऽदल्लान्द्रां सह़यां समिप़श्रयन।् स्वयां ऽनज़मि़हेन स़धं योद्चिमथैहत।।२२ जल़लश्च जह़नश्च खांजारश्च ऽसकांदरः। 42 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



करमिल्ल़खलेलश्च सज ि ़नश्च ऽह स़मदः।।२३ एते बह़दिरयित़ म्लेच्छ़स्सवे प्रत़ऽपनः। ऱज़ दिद़ऽभध़नश्च सपां ऱयपऱयणः।।२४ उद़रऱमश्च़ग्रजन्द्म़ ख्य़तः ि़त्रेण कमयण़। द़द़जा ऽवश्वऩथश्च भ़रद्ठ़ज इव़ऽजषि।।२५ ऱघवश्च़चलश्च़ऽप जसवांतबह़दिरौ। एते य़दवऱजस्य सित़स्स च मह़भिजः।।२६ सवे लश्करख़नेन सेऩऽधपऽतऩ समम।् ऽदल्लान्द्रेण़भ्यनिज़्त़ः सांप्ऱप्त़ दऽिण़ां ऽदिम।् ।२७ लेऽकन अऽदलि़ह ऽदल्ला के बह़ि़ह की मदद के ऽलए ऽनज़मि़ह के स़थ यि ि की तैय़रा करने लग़। जल़लख़न, जह़नख़न, खजं ारख़न, ऽसकंदरख़न, करमल्ि ल़खलेलख़न, सजि ़नख़न स़मदख़न, ये सभा गौरवि़ला मसि लम़न बह़दरि ख़न के स़थ अए। यि ि ऽप्रय ददि ऱज, क्षत्रकमय के ऽलए प्रऽसि ब्ऱह्मण ईद़रऱम, यि ि में भ़रद्ऱज जैस़ िऽिि़ला द़द़ ऽवश्वऩथ, ऱघव, ऄचल, बह़दरि जसवतं तथ़ य़दवऱज के सभा पत्रि और स्वयं बलव़न य़दवऱज, ये सभा लष्करख़न सेऩपऽत के स़थ ऽदल्ला के ब़दि़ह की अज्ञ़ से दऽक्षण में प्ऱप्त हुए थे। अव्य़हत़िगि मऩः पवऩ इव पष्ि करम।् आचक्रमिऽनयज़मस्य नावुतां कुतऽवक्रम़ः।।२८ जैसे ऽनब़यध और िाघ्र गऽत व़यि अक़ि पर अक्रमण करता है, वैसे हा ईस िऽिि़ला सेऩपऽत ने ऽनज़म के मल ि ख ी पर अक्रमण कर ऽदय़। मिस्तफ़ख्यो मसीदश्च फऱदश्च ऽदल़वरः। सरज़य़कितश्च़ऽप खैरतश्च तथ़ांबरः।।२९ अांकििश्चेऽत यवऩ अन्द्येप्यतिलऽवक्रम़ः। इभऱमस्य बहवः सिरृदश्च़निजाऽवनः।।३० ऽद्ठजन्द्म़ ढिांऽढऩम़ च तज्ज़ऽतश्च़ऽप रुस्तिमः। 43 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



घ़ऽण्टक़द्ट़श्च बहवो मह़ऱष्ऱ महाभिजः।।३१ मिल्ल़महमां दां ऩम परि स्कुत्य प्रभ़ऽवणम।् येऽदल़नाकपतयोप्यथ़जग्ब्मिययथ़क्रमम।् ।३२ मस्ि तफ़ख़न, मसदी ख़न, फऱदख़न, ऽदल़वरख़न, सरज़य़कितख़न, खैरतख़न, ऄबं रख़न, ऄक ं ि िख़न ये सभा मसि लम़न और अऽदलि़ह के ऄतल ि पऱक्रमा कइ ऄन्य ऽमत्र और सेवक तथ़ ढिऽं ढऱज ऩम क़ ब्ऱह्मण, ईनकी ज़ऽत क़ रुस्तम, घ़टं गे अऽद मह़ऱष्रायन ऱज़, ये सभा अऽदलि़ह के बलि़ला सरद़र मल्ि ल़महं मदं के नेतत्ु व को क्रमपवी क य स्वाक़र करने लगे । अथ त़म्ऱनित्तरतस्तथ़ दऽिणतः पऱन।् अऽभय़त़नभाय़य ऽनज़मप्रऽहतोऻबरः।।३३ ब़द में, जब मगि ल सेऩ ईत्तर से और अऽदलि़ह की सेऩ दऽक्षण से अगे बढ़ रहा था, तो ऽनज़म ि़ह द्ऱऱ भेजे गये ऄंबर ने ईन पर अक्रमण ऽकय़ । तां पययव़रयांस्तत्र ि़हवम़यदयो नुप़ः। त़रक़सरि सग्रां ़मे मह़सेनऽमव़मऱः।।३४ ऽजस प्रक़र त़रक़सरि के स़थ यि ि में देवत़ क़ऽतयकेय के च़रों ओर एकऽत्रत हुए, ईसा प्रक़र ि़हजा प्रभुऽत ऱज़ मऽलकंबर के च़रों ओर एकऽत्रत हुए। ततोऻभीद्झैरवां यिद्चमांबरस्य परैस्सह। ऽपि़चभीतवेत़ळऽनि़चरसिख़वहम।् ।३५ ब़द में, मऽलकंबर ने दश्ि मन के स़थ भार्ण लड़इ लडा, ऽजसके पररण़मस्वरूप ऽपि़च, भती , वेत़ल और ऽनि़चर प्ऱऽणयों क़ सख ि छान गय़ । ध़वद्चयखिरोद्चीतधीऽलधीसरमण्डलः। चण्ड़ांििरन्द्वभीद् व्योऽम्न तद़ घनघट़वुऽतम।् ।३६ दौडते घोडों के खरि ों से ईडा हुइ धल ी से सयी य वुत्त के ऽनस्तेज होने से ऐस़ लग रह़ थ़ म़नो सयी य असम़न में ब़दलों से अच्छ़ऽदत हो गय़ हो । 44 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



श्रेणा धरऽणरेणीऩां भुिमभ्रांकष़ बभौ। ऽनश्रोऽणररव वाऱण़ां सद्टो द्ट़म़रुरुित़म।् ।३७ पुथ्वा से ईडनेव़ला धल ी की, असम़न को छीनेव़ला एक ऽवि़ल श्रेणा बना और म़नो वह िाघ्र हा स्वग़यरोहण करनेव़ले वारों के ऽलए साढ़ा सा प्रतात हो रहा था। हेष़ऽभरथव़हऩां किांजरण़ां च गऽजयतैः। ऽसांहऩदेन वाऱण़ां भेराण़ां ऽननदेन च।।३८ िऱसऩऩां सज्ज़ऩां टांक़रेण महायस़। स्फिरन्द्ताऩां पत़क़ऩां ममयरेण च भीयस़।।३९ घनगांभारकण्ठ़ऩां प़ठै श्च जयबऽन्द्दऩम।् प्रसभां प्रऽतदध्व़न पररपीररतमांबरम।् ।४० प्रध़वत़मथ़न्द्योन्द्यां िीऱण़ां िष्धध़ररण़म।् पद़घ़तेन महत़ ितध़ वसध ि ़भवत।् ।४१ घोडों की ऽहनऽहऩहट, ह़ऽथयों की दह़ड, वारों की ऽसंह जैसा गजयऩ, ददंि भि ा की ध्वऽन, तत्पर धनर्ि ों की भार्ण टंक़र, व़यि से फडकने व़ले झडं ों की तेज़ फडफड़हट, मेघ के सम़न गंभार अव़ज व़ले भ़टो क़ जयघोर्, आन सबसे पररपणी य होकर अक़ि प्रऽतध्वऽन करने लग़ और एक दसी रे पर दौडकर ज़ने व़ले पऱक्रमा िरी वार योि़ओ ं के भार्ण पद़घ़त से ितध़ पुथ्वा ऽवदाणय हो गइ। हतां ़लऽितसांप़तैऽनयि़तैनयतपवयऽभः। िरैः ऽिऱांस्यप़त्यन्द्त योऽधऽभः प्रऽतयोऽधऩम।् ।४२ ऄरे ! एक पक्ष के योि़ओ ं ने ित्रि योि़ओ ं के ऽसरों पैरों को क़ट ऽदय़ और ऄच़नक ज़कर ऽगरने व़ले नक ि ीले ब़णों से ईन्हें छे द ऽदय़। िोऽणतऽसलन्द्नके ि़ऽन तत्र िोणेिण़ऽन च। दष्ट़धऱऽण िीऱण़ां ऽिऱांऽस ऽिऽतम़ययिः।।४३



45 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽजनके ब़ल खनी से लथपथ हो गये है, ऽजनकी अख ं ें ल़ल हो गइ हैं और ऽजनके द़ंत ईनके होठों को क़ट रहे हैं, ऐसे ईन वार योि़ओ ं के ऽसर जमान पर ऽगरने लगे। दन्द्त़वल़ऩां दन्द्तेषि दभ ां ोऽळदृढमिऽतयषि। योध़ऩां ग़ढमिष्टाऩां ऽनपेतिग़यढमिष्टयः।।४४ वज्र के सम़न मजबती ह़था के द़तं ों पर योि़ओ ं की मजबती पकड व़ला तलव़रें ऽगरने लगा। अऽसऩ प्रऽतयोद्च़रां ऽवध़य सपऽद ऽद्ठध़। ऽनपप़त िण़दीध्वयमपमीधयकळे वरम।् ।४५ ित्रपि क्ष के योि़ओ ं के तलव़र से दो टिकडे करके प्रत्येक क्षण में एक वार क़ ऽसर ऽवहान िरार जमान पर ऽगरने लग़। ऽकरन्द्तो रुऽधरां भीररतरां सह मद़ांभस़। बभिश्िरित़ऽवद्चतट़ः करऽटऩां कट़ः।।४६ सैकडों ब़णों से ऽवदाणय ह़था की गडं स्थला से मद रस के स़थ-स़थ क़फी खनी बहने लग़ ऽजससे पुथ्वा िोभ़यम़न होने लगा। नऱश्वकररकील़लमयीं वाऽचमतींमन।ि मह़ऽनऱां मह़वाऱः श्ऱन्द्त़ इव ऽसषेऽवरे।।४७ परुि र्ों, घोडों, ह़ऽथयों के खनी की नदा के ऽकऩरे , म़नो मह़न वार योि़ मह़ऽनऱ ले रहे हो, ऐस़ प्रतात हो रह़ है। कुतहस्तैः किन्द्तहस्तै वारैऽवयध्वस्तस़ऽदनः। भीररसांरांभसन्द्तप्त़ः सप्तयः पररबभ्रमिः।।४८ ऽनि़नेब़जा में दक्ष और ह़थ में भ़ल़ ध़रण करने व़ले वारों ने ित्रपि क्ष के घडि सव़र को म़र ऽदय़ ऽजससे घोडे ऄत्यंत क्रोध से ऽचढ़कर आधर ईधर दौडने लगे। ततश्ि़हिराफ़भ्य़ां खेलेन च महौजस़। श्य़म़ननैश्च यवनैरांबरऽप्रयक़ररऽभः।।४९ 46 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तथ़ हम्मारऱज़द्टैमयह़वारैः प्रत़ऽपऽभः। िरि प्रचक्रऽनऽष्धांिकिन्द्तपरििप़ऽणऽभः।।५० हन्द्यम़नमिेषेण त़म्ऱननबलां महत।् रय़त् भय़तिरां भेजे ऽजजाऽवषि ऽदिो दि।।५१ ब़द में, ि़हजा, िराफजा, मह़बलव़न खेलोजा और कु ष्णमख ि ा यवन तथ़ हम्माऱज प्रभुऽत जैसे ऄन्य िऽिि़ला वारों ने ऄपने ह़थों में तार, चक्र, तलव़र, भ़ले और पट्टे लेकर मसि लम़नों के ऽवि़ल सेऩ क़ वध करऩ िरू ि ऽकय़। तब वे भयभात होकर ऄपना ज़न बच़ने के ऽलए दसों ऽदि़ओ ं में भ़गने लगे। अथ़पय़त़म़लोसय त़ां वै त़म्रपत़ऽकनाम।् येऽदलस्य़ऽप पुतऩ क़ऽन्द्दिाकतम़भवत।् ।५२ मगि लों की सेऩ को ज़ते देख आब्ऱऽहम अऽदलि़ह भा ऄपना सेऩ के स़थ भयभात होकर भ़ग गय़। मत्तैदयन्द्त़वलैदृयप्तस्त़म्ऱस्यो मनचेहरः। रवतस्तस्य सैन्द्यस्य स्वयां प़ऽष्णयग्रहोsभवत।् ।५३ ईस मदमस्त ह़था के बल पर मनचेहर ऩम क़ एक ऄऽभम़ना मग़ि ल, ईस दौडता हुइ सेऩ के पुष्ठभ़ग की रक्ष़ करने लग़। तमन्द्तऱ ऽस्थरां दप़यदन्द्तऱयां जयऽश्रय़म।् पिरः पन्द्थ़नम़वुत्य ऽस्थतां ऽवन्द्ध्यऽमव़परम।् ।५४ दृष्ट्व़ ि़हिराफ़द्ट़स्सवे भुिबऴन्द्वय़ः। चऽक्ररे ऽवक्रमपऱः सांप्रहतयिमिपक्रमम।् ।५५ ऄऽभम़न से म़गय ऄवरूि करके बाच में खड़ वह म़नो दसी ऱ ऽवध्ं य़चल पवयत हो, ऐसे ईस ऽवजय में ब़धक बनकर अये हुए मनचेहर को देखकर िह़जा और िराफजा अऽद सभा पऱक्रमा योि़ओ ं ने ईनक़ सहं ़र करऩ िरू ि ऽकय़। मह़महाधऱकरकररप्ऱक़रवऽतयऩ। तेन ते समयिध्यन्द्त गिरुगवेण वऽमयणः।।५६ 47 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽवि़ल पवयत के सम़न ऽवि़लक़य ह़था की दाव़र के अश्रय में खडे हुए ईस ऄत्यंत गऽवयत मनचेहर से कवचध़रा वार लडने लगें। भ्ऱमयन् भल्लमभ्ऱन्द्तस्ताव्रमभ्ऱांतम़नसः। तज्जघ़न गज़नाकां िराफस्सांगरोद्चतः।।५७ तब ऽनडर और यि ि ऽप्रय, िराफजा ने एक़ग्रऽचत्त होकर ऄपने तेज भ़ले के प्रह़र से ह़ऽथयों की सेऩ को म़र ड़ल़। ऽत्रिीळक़ण्डकोदण्डगद़पररधध़ररणः। तमग्रय़ऽयनां धारां रुरुधिगजययोऽधनः।।५८ ऽत्रिल ी , धनर्ि , ब़ण, गद़, पररघ (लोहे बि दडं ) ऐसे िह्लों को ध़रण करने व़लीं गज सेऩ ने अगे बढ़ते हुए िराफजा को रोक ऽदय़। तां यिध्यम़नमऽभतः क्रिध्यन्द्तमऽभम़ऽननम।् िराफां प़तम़सिस्ततस्ते ऽनऽितैः िरैः।।५९ ब़द में च़रों ऽदि़ओ ं में लडने व़ले एवं क्रोऽधत ईस ऄऽभम़ना िराफजा को, ईन्होंने ऄपने ताखे ब़णों से म़र ऽगऱय़। तऽस्मन्द्नवरजे वारे ऽवध्वस्तपरकिांजरे। सपत्निऱऽनऽभयन्द्ने गते वारगऽतां प्रऽत।।६० तरस़ खेलकण़यद्टैभ्ऱयतुऽभः पररव़ररतः। ि़हः क्रिद्चोऻऽभदिऱव ससैन्द्यां मनचेहरम।् ।६१ ित्रि के ह़ऽथयों क़ ऽवध्वसं करके , ित्रि के ब़ण से ऽवदाणय होकर वारगऽत को प्ऱप्त, , ऄपने िरी वार छोटे भ़इ को धऱतल पर ऽगऱ हुअ देखकर क्रोऽधत िह़जाऱजे खेलकणय अऽद ऄपने बधं ओ ि ं के स़थ मनचेहर एवं ईसकी सेऩ पर वेगपवी क य चढ़़इ की। ततः प्ऱसवरत्ऱसपऱहतमदऽद्ठपः। प्रत़पा त़म्रवदनः स पऱचानत़ां ययौ।।६२ 48 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तब वह प्रत़पा मगि ल, ित्रि के ईत्कु ष्ट भ़ले के भय से ऄपने मदमस्त ह़ऽथयों को पाछे हटत़ हुअ देखकर वह स्वयं पाछे हट गय़। अपक्ऱमऽत सग्रां ़म़त् तऽस्मन्द्नऽछन्द्नकिांजेर। सैऽनक़स्ति ऽनज़मस्य ऽसांहऩद़न् ऽवतेऽनरे।।६३ जैसे हा वह सरि ऽक्षत ह़ऽथयों के स़थ यि ि के मैद़न से भ़गने लग़ तो ऽनज़मि़ह की सेऩ ऽसहं गजयऩ करने लगा। तदोदाचामप़चीं च प्ऱचामऽप च रांहस़। सांऽश्रत्य ऽवरवऽन्द्त स्म ते ऽनज़मस्य ऽवऽद्ठषः।।६४ तब वे मगि ल किछ ईत्तर की ओर, किछ पऽश्चम की ओर और किछ पवी य की ओर तेजा से भ़गने लगा। ततः प्रसन्द्नमनसः ि़हऱज़दयो नुप़ः। रवतस्त़ननिरित्य सव़यऽन्द्नजगुहुबयल़त।् ।६५ ब़द में, अनऽन्दत होकर, ि़हजा प्रभुऽत ऱज़ओ ं ने भ़गते हुए ित्रि क़ पाछ़ ऽकय़ और ईन्हें बलपवी क य पकड ऽलय़। ६६६६६६६६ यि ि में भय़नक ऐसे कइ मगि लों की और ऄन्य वारों की भजि ़ओ ं में जबरन हथकडा पहऩकर ईनको मऽलकंबर के स़मने ल़कर खड़ ऽकय़। इऽत ऽजतररपिरांबरः प्रत़पा भुिबलब़हुबल़वलांबनेन। पटहरवऽवऽमश्रतीययघोषैः सपऽद जग़म ऽनज़मदियऩथयम।् ।६७ आस प्रक़र ऄत्यऽधक बलि़ला भोंसलों के ब़हुबल की मदद से दश्ि मन को जातकर प्रत़पा मऽलकंबर ढोल और नग़डों के जयक़र के स़थ तरि ं त ऽनज़मि़ह से ऽमलने गय़ ।६७ ऽदल्लींरस्य प्रत़प़द्झितऽवभवभुतः सैन्द्यमन्द्यैरजय्यम।् सद्टस्तद्टेऽदलस्य़प्यतिलबलमथोज्ज़सऽयत्व़ जवेन।। 49 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



बदां ाकुत्योरुदप़यनऽप च यिऽध चमीऩयक़नग्रि कम़य। सेऩनारांबरोऻसौ भुिबलसऽहतस्तां ऽनज़मां नऩम।।६८ प्रत़पा एवं ऄद्भीत मऽहम़ऽन्वत ऐसा ईस ऽदलापऽत की ऄजेय सेऩ, ईसा प्रक़र अऽदलि़ह की ऄतल ि स़मथ्ययव़न ऄजेय सेऩ, आनकी सह़यत़ से पऱऽजत करके और यि ि में ऄऽभम़ना सेऩपऽतयों को बंदा बऩकर, वह ईग्रकम़य सेऩपऽत मऽलकंबर भोंसले के स़थ ऽनज़मि़ह को प्रण़म ऽकय़।



इत्यनिपिऱणे सीययवांिे ऽनऽधव़सकरकवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितसस़हस्त्र्य़ां सांऽहत़य़ां ऽनज़मप्रकषो ऩम चतिथोऻध्य़यः



50 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-५ कवींर उव़चअथ ऽवठ्लऱजस्य खेलकण़यदयस्सित़ः। धारेण धमयऱजेन धतु ऱष्ट़त्मज़ इव।।१ प्रसभां ि़हऱजेन स्पधयम़ऩः पदे पदे। ऽद्ठषन्द्त इव ऽवद्ठेषां द़य़दत्व़ददिययन।् ।२ १-२. जैसे धुतऱष्र के पत्रि ि़ंतवुऽत्त धमयऱज से इष्य़य करते थे, वैसे हा ऽवट्ठलजा ऱज़ के खेलकणय अऽद पत्रि ऄपने भ़इच़रे के क़रण ि़हजा ऱज़ से कदम-कदम पर ऄत्यऽधक द्रेर् करने लगे। ते मऽन्द्त्रणां ऽनज़मस्य म्लेच्छमांबरऩयकम।् स्विेमिषाऽविेषेण विाकुतमहातलम।् ।३ श्रयणायां सश्र ां यन्द्तः स्पहु यन्द्तः ऽश्रयेऻन्द्वहम।् न सेऽहरे मह़ब़हुां ि़हां सयी यसमौजसम।् ।४ ३-४. ऽजन्होंने ऄपना ऄलौऽकक बऽि ि से पुथ्वा पर ऽवजय प्ऱप्त की और अश्रय करने के ऽलए योग्य ऽनज़मि़ह के मऽलकंबर प्रध़न, तथ़ ईनक़ वैभव स्वयं को प्ऱप्त हो ऐसा ऄऽभल़ऱ् करने व़ले ऽवट्ठलजा के पत्रि ों ने ईनकी िरण ला। सयी य के सम़न तेजस्वा िह़जाऱजे ईनकी अंखों में चभि ने लगे। तमन्द्तभेदमिद्झीतम़त्मायकिलसांभवम।् पररज़्येंऽगतज्ेन सऽि धय़ ि़हवमयण़।।५ तमम्बरां ऽनज़मां च द़य़द़ांस्त़ांश्च दिमयद़न।् पटिऩत्मप्रत़पेन न्द्यसकुत्य ऽनकुऽतऽस्थत़न।् ।६ स्वायसैन्द्यसमेतेन ऽनके तेन जयऽश्रय़म।्



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मह़सन्द्ऩहयििेन महोत्स़हेन म़ऽनऩ।।७ स्कन्द्धऽवन्द्यस्तकिन्द्तेन िकिन्द्तेि़निऽिऩ। आनायत़ऽचरेणैव ऽनजदेिस्सदेि़त़म।् ।८



५-८. ऄपने किल में भेदभ़व ईत्पन्न हो गय़ है, यह ईस संकेतों को ज़ननेव़ले बऽि िम़न ि़हजा ने पहच़न ऽलय़ और मऽलकंबर, ऽनज़मि़ह और ऄपने ऽवरुि छल कपट करनेव़ले ऄपने दष्टि चचेरे भ़आयों क़ ऽतरस्क़र करके ऄत्यतं ईत्स़हा, स्व़ऽभम़ना, चाल के सम़न पऱक्रमा, ऽवजयश्रा क़ घर और कंधे पर भ़ल़ ऽलए हुए ि़हजा ने, ऄपना सेऩ और प्रचरि यि ि स़मग्रा के स़थ जल्दा से ऄपने देि की ओर प्रस्थ़न ऽकय़। तां प्रऽस्थतां प्रभ़वेण ऽस्थतां जनपदे ऽनजे। नैव मन्द्त्रा ऽनज़मस्य विाकतंि िि़क सः।।९ ९. वह़ँ से ज़ने के ब़द ऄपने नगर में धन-ध़न्य पररपणी य होकर रहते हुए ईस िह़जाऱजे को ऽनज़मि़ह क़ एक भा मत्रं ा ऄपने वि में नहीं कर सक़। तद़ तेन ऽवऩ ऽतग्ब्मद्टिऽतनेव द्टमण्डलम्। अऽप प्ऱज्यां ऽनज़मस्य ऱज्यां तन्द्नां व्यऱजत।।१० १०. ऽजस प्रक़र सयी य के ऽबऩ अक़ि संदि र नहीं लगत़ है, ईसा प्रक़र ि़हजा के चले ज़ने पर ऽनज़म क़ ऱज्य समुि होने के ब़वजदी भा िोभ़यम़न प्रतात नहीं हो रह़ थ़। येऽदलस्तमथोद्ठाक्ष्य भेदयोग्ब्यमनेहसम।् अमिां ि़हां मह़ब़हुां महोत्स़हां मह़ियम।् ।११ स़ह़य्य़थं सम़ऩय्य मह़भुत्यैमयह़मऽतः। स्पधी ऽनज़मि़हस्य स्वां दिधयषयममन्द्यत।।१२ ११-१२. दोनों के बाच भेद करने के ऽलए यह सऽं ध योग्य है ऐस़ देखकर ईस मह़बऽि िम़न एवं ऽनज़मि़ह के प्रऽतस्पधी अऽदलि़ह ने ऄपने प्रमख ि ों द्ऱऱ, मह़बलि़ला, ऄऽत ईत्स़हात एवं ईद़रमऩ ईस िह़जाऱजे को सह़यत़थय बल ि ़कर, वह ( अऽदलि़ह) ऄपने अपको ऄजेय म़नने लग़। 52 | पृ ष्ठ



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येऽदलस्तमथ़स़द्ट दव़नल इव़ऽनलम।् ववुधे वैररसैन्द्य़ऽन ऽवऽपऩऽन ऽवऽनदयहन।् ।१३ १३. जैसे व़यि की सह़यत़ से द़व़नल वनों को जल़कर वुऽि को प्ऱप्त होता है, वैसे हा िह़जाऱजे की सह़यत़ ऽमलने से अऽदलि़ह दश्ि मन सेऩ को नष्ट करके ईत्कर्य को प्ऱप्त हो गय़ । तपन्द्ऩत्मप्रत़पेन पररतस्तपनोपमः। स ऽजग़य मह़ब़हुरुद़रग्रहमांबरम।् ।१४ १४. ऄपने तेज से सवयत्र चमकत़ हुअ सयी य ऽजस प्रक़र संदि र ग्रहों से यि ि अक़ि पर अक्रमण करत़ है, ईसा प्रक़र मह़ब़हु ि़हजा ने ऄपना मऽहम़ से ईस किलान मऽलक़म्बर को जात ऽलय़। गऽतमित्कऽषयणीं ऽबभ्रत् प्रभञ्जन इव रिमम।् बद्चमीलां ऽनज़मस्य भिजदम्भां बभञ्ज सः।।१५ १५. जैसे तेज बहने व़ला तीफ़ना हव़ जडों से यि ि पेडों को ईख़ड देता है, वैसे हा ईत्कु ष्टत़ को प्ऱप्त होने व़ले ि़हजा ने ऽनज़मि़ह के ब़हुबल के गवय को नष्ट कर ऽदय़। ततस्तेनेभऱमेण तस्मै ऽवध्वस्तऽवऽद्ठषे। मन्द्ये सन्द्तिष्य ि़ह़य ऽनजमधयपदां ददे।।१६ १६. तब ईस आब्ऱऽहम अऽदलि़ह ने संतष्टि होकर ऄपने ित्रिओ ं क़ ऩि करनेव़ले ि़हजा ऱज़ को ऄपऩ अध़ पद दे ऽदय़, ऐस़ मझि े लगत़ है। ऽवरुद्चऽमभऱमस्य समुद्चजनसेऽवतम।् मिध़ऽभधां फलस्थ़नपिऱऽधपऽतमिद्चतम।् ।१७ प्रऽतप्रस्थ़य सन्द्ऩहि़ला िैलऽमवोन्द्नतम।् स भीपः प्रसभां भीररप्रभ़वां पययभ़वयत।् ।१८ १७-१८. समुि लोगों द्ऱऱ सेऽवत, पवयत के सम़न उँच़, पऱक्रमा और ऄऽभम़ना ऐस़ वह मधि ोजा फलटणकर, आब्ऱऽहम अऽदलि़ह के ऽखल़फ होने से ईस पर ि़ह़जाऱजे ने परी ा तरह तैय़रा के स़थ अक्रमण करके ईसको बरि ा तरह से पऱऽजत ऽकय़। 53 | पृ ष्ठ



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ऽनऽजयत्य के रऴन् क्रीरकम़य क़ण़यटक़नऽप। स कोषऽभभऱमस्य पिपोष बहुतोषकुत।् ।१९ १९. कऩयटक और के रल पर ऽवजय प्ऱप्त करके प्रत़पा ि़हजा ने आब्ऱऽहम ि़ह के खज़ने में आज़फ़ करके ईसे बहुत संतष्टि ऽकय़।



सोऻन्द्य़नऽप नुप़निग्ऱन् ऽनगुष्त ऽनजनाऽतऽभः। तऱज्यऽभभऱमस्य ऱमऱज्यऽमव़करोत।।२० २०. ईसने ऄन्य िऽिि़ला ऱज़ओ ं को ऄपना नाऽतयों के म़ध्यम से ऄधान कर ऽलय़ और आब्ऱऽहमि़ह के ऱज्य को ऱम के ऱज्य के सम़न बऩ ऽदय़। तऽमन्द्दिसिन्द्दरमिखा सिदता यदिवांिज़। उप़चरन्द्मह़ऱजां गौराव वषु भध्वजम।् ।२१ २१. जैसे प़वयता ने िक ि व़ला एवं संदि र द़ंतों ं र की सेव़ की, वैसे हा ज़धव किल में ईत्पन्न चंरम़ जैसा संदि र मख व़ला ईस जाज़ब़इ ने ि़हजा मह़ऱज की सेव़ की। स़ भुिां ऽवभ्रमवता प्रस़द़ऽभमिखा सता। देवा सफलय़म़स पत्यिस्तत्तदभाऽप्सतम।् ।२२ २२. वह ऄत्यतं ऽवल़ऽसना एवं प्रसन्नवदऩ स़ध्वा ऱना ऄपने पऽत की हर आच्छ़ को पणी य करता था। तस्य तस्य़मज़यन्द्त पित्ऱष्षट् ििभलिण़ः। तेष़ां मध्ये िांभिऽिवौ द्ठ़वेव़न्द्वयवधयनौ।।२३ २३. ईनको जाज़ब़इ से िभि लक्षणों से यि ि छः बेटे हुए, ईनमें से िभं ी और ऽिव़जा दो हा वि ं वधयक हुए । ऽिवस्ति वैष्णवां तेजोऻवतायय िोऽणमण्डलम।् समस्तभीभुत़ां नेत़ ऽवनेत़ प्रऽतभीभुत़म।् ।२४ तथ़हमऽभध़स्य़ऽम िुणित ऽद्ठजसत्तम़ः।।२५ 54 | पृ ष्ठ



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२४-२५. लेऽकन ऽवष्णि क़ ऄंि ऽिव़जा पुथ्वा पर ऄवतररत होकर वह सभा ऱज़ओ ं क़ नेत़ और दश्ि मनों क़ ऽवनेत़ कै से हुअ, यह मैं बत़उंग़, हे ऽद्रज श्रेष्ठों अप ध्य़न से सनि ो। पिऱ पिऱररम़ऱध्य ताव्रेण तपस़न्द्वहम।् ऽनषेध़च्रुऽति़ष्ध़ण़ां क़लः कऽलरवधयत।।२६



२६. प्ऱचान क़ल में प्रऽतऽदन की घोर तपस्य़ से िक ं र को प्रसन्न करके , वैऽदक ि़ह्लों क़ प्रऽतर्ेध करने से कऽलक़ल बलव़न हो गय़। ऽहत़वहमस़धीऩां स़धीऩमऽहत़वहम।् दैत्य़स्ततस्तम़स़द्ट प़पाय़ांसमनेहसम।् ।२७ छऽद्ञनो म्लेच्छरूपेण देवभीदेवऽवऽद्ठषः। अव़तरन्द्वसमि तामऽधऽवप्ल़वहेतवः।।२८ २७-२८. ऽफर दष्टि ों के ऽलए ऽहतक़रा एवं सज्जनों के ऽलए ऄऽहतकर ऐसे ईस प़पमय कऽलक़ल को प्ऱप्त करके कपटा, देव, ब्ऱह्मण-ऽवरोधा और ऽवध्वसं क़रा ऱक्षस, म्लेच्छों के रूप में धरता पर ऄवतररत हुए। प्रताचीं ककिभां त़वदिदाचीं तदनन्द्तरम।् जगुहुस्ते बल़त् प्ऱचामप़चामऽप दिग्रयह़म।् ।२९ २९. पहले ईन्होंने पऽश्चम ऽदि़ को, ऽफर ईत्तर , पवी य एवं ऄजेय दऽक्षण को भा बल से जात ऽलय़। तेष़ां ऽनजनयज़्ऩां न यज़्ऩां प्रवुत्तयः। तथ़ऽप ऽतष्यस्य बल़त् भुिां ववुऽधरे ऽश्रयः।।३० ३०. ऄपने धमय को ज़नते हुए भा ईन लोगों में यज्ञ करने की प्रवुऽत्त नहीं था; तथ़ऽप कऽलयगि के प्रभ़व से ईनकी संपऽत्त में तेजा से वुऽि हुइ। उत्थ़प्य स्थ़ऽपत़ः के ऽचत् के ऽचद्टिद्चे ऽनप़ऽतत़ः। बऽलऽभस्तैस्ततः प्ऱयः िऽत्रय़ः िाणत़ां गत़ः।।३१ 55 | पृ ष्ठ



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३१. ईन बलि़ला म्लेच्छों ने किछ लोगों को ईठ़कर ऱजगद्दा पर ऽबठ़ ऽदय़ और किछ लोगों को यि ि में म़र ड़ल़। तब से प्ऱय: सभा क्षऽत्रयों क़ ऩि हुअ। ततो ऽवश्वम्भऱ देवा म्लेच्छभ़रभऱऽदयत़। प्रत्यपद्टत लोके िां िरण्यां िरणैऽषणा।।३२ ३२. तब म्लेच्छों की पाड़ से पाऽडत़ ऽवश्वंभऱ देवा ऄपना रक्ष़ के ऽलए रक्षणकत़य ब्रह्मदेव के प़स गइ। पररत़पेन महत़ मऽलऩ नऽलऩसनम।् स़ ववन्द्दे त्रयऽष्धांित्कोऽटऽत्रदिवऽन्द्दतम।् ।३३ ३३. भय़नक पाड़ से तेज हाऩ हुइ ईस ऽवश्वंभऱ देवा ने, ऽजनकी वदं ऩ तैंतास करोड देवत़ करते हैं ऐसे ईस ब्रह्मदेव को वदं ऩ की। ऽनवेदऽयत्रा ऽनवेदवता खेदमनेकध़। स़ ऽनबद्च़ञ्जऽलपटि ़ प्रोव़च परमेऽष्ठनम।् ।३४ ३४. दऽि खय़रा ऽवश्वंभऱ देवा! ह़थ जोडकर ऄपने ऄनेक प्रक़र के द:ि खों को ऽनवेऽदत करने के ऽलए ब्रह्मदेव से बोला। त्वां ऽपत़ सवयलोकस्य त्रयाधमयऽस्थऽतऽप्रयः। लोके ि म़ां तमोSभोधौ मज्जन्द्तीं ऽकमिपेिसे।।३५ ३५. हे ब्रह्मदेव! तमि हा तानों लोकों के ऽपत़ हो एवं वैऽदक धमय की रक्ष़ करऩ तम्ि हें ऽप्रय होते हुए भा, मैं आस दःि ख स़गर में डीब रहीं ह,ं ऽफर भा तमि मेरा ईपेक्ष़ क्यों कर रहे हो? त्वय़ ऽवरऽचतां ऽवश्वां ऽवररांचे यच्चऱचरम।् दनिजैम्लेच्छतनिऽभः तदद्ट बत सादऽत।।३६ ३६. हे ब्रह्मदेव! अपके द्ऱऱ ऽवरऽचत जो ये चऱचर जगत हैं, वह म्लेच्छरूपा ऱक्ष़सों के क़रण ह़य ! अज डीब रह़ है। ये हत़ः प्रथमां देवैदियमयद़ऽष्धदिऽद्ठषः। ते म़ां तिदऽन्द्त ऽतष्येSऽस्मन् उपेत्य म्लेच्छरूपत़म।् ।३७ 56 | पृ ष्ठ



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३७. ऽजन दष्टि ऱक्षसों क़ देवों ने पहले संह़र ऽकय़, वे हा आस कऽलयगि में म्लेच्छरुप ध़रण करके मझि े पाड़ दें रहे हैं। दिष्टदैत्य़न्द्तके कुष्णे ऽनजां ध़म़ऽधऽतष्ठऽत। बिद्च़वत़रे भगवत्यऽप मौऩवलऽम्बऽन।।३८ दिजयऩ यवऩस्त़त वुऽजत़ऽन ऽवतन्द्वते। त्ऱत़रां ऩऽधगच्छ़ऽम ऽनयच्छे यां कथां व्यथ़म।् ।३९ ३८-३९. दष्टि ऱक्षसों क़ ऩि करने व़ले भगव़न श्राकु ष्ण ऄपने घर चलें गये है एवं भगव़न बि ि ने मौन ध़रण कर ऽलय़ है. ऐसे समय में दष्टि यवन प़प करने लगे और मझि े कोइ रक्षक नहीं ऽमल़, तो मैं आन द:ि खों क़ ऽनव़रण कै से करूं ?? ऩहूयन्द्ते ऽदऽवषदो न हूयन्द्ते हुत़िऩः। न वेद़ अप्यधायन्द्ते ऩभ्यच्ययन्द्ते ऽद्ठज़तयः।।४० न सत्ऱऽण प्रवतयन्द्ते तथैव च मखऽक्रय़ः। न द़ऩऽन ऽवधायन्द्ते ऽवहायन्द्ते व्रत़ऽन च।।४१ ऽखद्टन्द्ते स़धवस्सवे ऽभद्टन्द्ते धमयसेतवः। म्लेच्छधम़यः प्रवधयन्द्ते हन्द्यन्द्ते धेनवोSऽप च।।४२ सज्जऩ य़ऽन्द्त ऽवलयां व्रजऽन्द्त िऽत्रय़ः ियम।् प्ऱदिभयीतऽमद़नीं मे यवनेभ्यो महद्झयम।् ।४३ ४०-४३. कोइ देवों क़ अव़हन नहीं करते है, यज्ञ नहीं करते हैं, वेदों क़ ऄध्ययन नहीं होत़ है, ब्ऱह्मणों क़ सम्म़न भा बंद हो गय़ है, ईसा तरह यज्ञ की ऽक्रय़ तथ़ सत्रयज्ञ भा नहीं चलतें है, द़न और व्रत सभा बन्द हो गये है, सज्जनों को द:ि ख प्ऱप्त होत़ है, धमय के बधं न तोड ऽदये है, म्लेच्छों क़ धमय वुऽि को प्ऱप्त हो रह़ है, गो हत्य़एं हो रहा है, स़धओ ि ं क़ ऩि हो रह़ है, क्षऽत्रय सम़ज नष्ट हो रह़ है, आस प्रक़र मझि े यवनों से ऄत्यऽधक भय ईत्पन्न हो गय़ है। ऽवहसऽन्द्त तथ़ सवे म़ां म्लेच्छविवऽतयनाम।् ऽस्थत़ां यथ़गतमिखे श्रिऽतां श्रऽि तऽवदो यथ़।।४४ 57 | पृ ष्ठ



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४४. जैसे वेद प़रंगत लोग मख ी य के महंि से वेद क़ मज़क ईड़ते हैं, वैसे हा सभा लोग मझि े म्लेच्छ के कब्जे में देखकर मेऱ मज़क ईड़ रहे हैं। उदभीत् पीवयदेवेभ्यो भयां मम यद़ यद़। तद़ तद़ प्रभवत़ भवत़ ष्तऽवत़स्म्यहम।् ।४५ ४५. जब जब मझि े ऱक्षसों से भय ईत्पन्न हुअ, तब तब तमि िऽिम़न ने मेरा रक्ष़ की है। इदां ऽनगद्ट जगता जगताऩमधाश्वरम।् बभीव तीष्णाऽमत्यिष्णां ऽनश्वसन्द्त्यश्रिलोचऩ।।४६ ४६. आस प्रक़र ब्रह्मदेव को बत़कर, असं ओ ि ं से यि ि ऽवश्वंभऱ, गरम श्व़स लेकर चपि हो गइ। ऽपत़महस्त़म़लोसय ऽवहस्त़मऽस्थऱां ऽस्थऱम।् एवम़श्व़सय़म़स ऽवश्वऽवश्व़सव़सभीः।।४७ ४७. जो ऽवश्व के ऽवश्व़स के ऽनव़सस्थ़न है ऐसे ब्रह्मदेव ने ईस ऽवश्वंभऱ को व्य़किल एवं ऄऽस्थर देखकर आस तरह अश्व़सन ऽदय़। म़ भैषाभीरु भव्यां ते भऽवत़िि वसिन्द्धरे। स्वस्थ़ स्वां स्थ़नम़स्थ़य ऽस्थरे ऽस्थरतऱ भव।।४८ ४८. ब्रह्मदेव बोलें हे वसंधि रे ! ती डर मत, तेऱ िाघ्र हा कल्य़ण होग़, ऄपने स्थ़न पर रहकर हे पुथ्वा ! ती स्वस्थ एवं ऽस्थर रहो। मय़ पिऱ मिऱऱऽतस्त्वऽन्द्नऽमत्तां दय़म्बिऽधः। प्ऱऽथयतः परय़ भसत्य़ स्वयमेतदिव़च म़म।् ।४९ ४९. दय़ के स़गर ऽवष्णि की मैंने पहले परम भऽि से प्ऱथयऩ की था, तब वे स्वयं मझि से बोलें। ऽवधे ऽवधेऽह म़ ऽचन्द्त़मवधेऽह वचो मम। भवतोSऽभमतां त़वदऽचरेण भऽवष्यऽत।।५० ५०. ऽवष्णि बोले, हे ब्रह्मदेव! तमि ऽचंत़ मत करो, मेऱ कहऩ म़नो, तम्ि ह़रा ऄभाष्ट वस्ति िाघ्र हा पणी य होगा। 58 | पृ ष्ठ



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म़लवम़यत्मजश्ि़हवम़य यः प़ऽथयवोत्तमः। द़ऽिण़त्यो मह़ऱजः कुतकम़य सिलिणः।।५१ तरस़ म़रुतसमस्तेजस़ तपनोपमः। ववयऽतय ऽवश्वऽवजया पिण्य़त्म़ पुथिऽवक्रमः।।५२ तस्य भ़य़य मह़स़ध्वा ऽजजीऽवयजयवऽधयना। नऽन्द्दना य़दवेन्द्रस्य ज़गऽतय जगतातले।।५३ ५१-५३. म़लवम़य क़ पत्रि जो कु तक़यय, िभि लक्षणों व़ल़, व़यि के सम़न वेगव़न, सयी य के सम़न तेजस्वा, ऽवश्व ऽवजेत़, पण्ि य़त्म़, पऱक्रमा, ऐस़ िह़जाऱज़ दऽक्षण क़ बड़ प्रऽसि नुपश्रेष्ठ है, ईनकी पत्ना मह़स़ध्वा, यिऽस्वना, य़दवेन्र की पत्रि ा जाज़ब़इ पुथ्वा पर ज़गरूक हैं। स़ म़ां तेजोमयां देवा स्वोदरे ध़रऽयष्यऽत। तत्पत्रि त़ां प्रपद्ट़हां कररष्य़ऽम तव ऽप्रयम।् ।५४ ५४. ऐसा वह तेजऽस्वना ऱना मझि े ऄपने गभय में ध़रण करे गा और ईसक़ पत्रि बनकर मैं ईसक़ ऽप्रय करूंग़। स्थ़पऽयष्य़ऽम धमयस्य मय़यद़ां भिऽव ि़श्वताम।् यवऩन् स़दऽयष्य़ऽम प़लऽयष्य़ऽम देवत़ः।।५५ पिनः प्रवतयऽयष्य़ऽम सप्ततन्द्त्व़ऽदक़ः ऽक्रय़ः। िेमां गव़ां ऽवध़स्य़ऽम ऽस्थऽतां च़ऽप ऽद्ठजन्द्मऩम।् ।५६ प्रऽतज़्येऽत भगव़न् सत्यलोक़य म़ां ऽवभिः। समनिज़्तव़न् भरे स्वयां भीतभऽवष्यऽवत।् ।५७ ५५-५७. मैं पुथ्वा पर ि़श्वत धमय मय़यद़ओ ं को स्थ़ऽपत करूंग़, यवनों क़ ऩि करूंग़, देवों की रक्ष़ करूंग़, यज्ञ़ऽद कमय को पनि ः स्थ़ऽपत करूंग़, ग़यों एवं ब्ऱह्मणों क़ प़लन करूंग़ ऐस़ मझि े वचन देकर, हे कल्य़णा! भती , भऽवष्य को ज़ननेव़ले भगव़न ने मझि े सत्यलोक ज़ने की ऄनिमऽत प्रद़न की। अऽभध़येऽत वसध ि ़ां सम़ध़य ऽपत़महः। 59 | पृ ष्ठ



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ऽवससजय स्वयां स़ऽप स्वकां लोकमलोकत।।५८ ५८. ऐस़ बोलकर ब्रह्मदेव ने पुथ्वा क़ सम़ध़न ऽकय़ और ईसको ज़ने के ऽलए बोल़ तो वह भा ऄपने घर चला गइ। त़ां व़चां भीतध़त्रा ऽत्रभिवनसऽि हत़ां रृत्सम़धेऽवयध़त्राम,् वैध़त्रीं न्द्यस्य ऽचत्ते तमऽभमतमथ़नेहसां प्रेिम़ण़। म्लेच्छच्छद्ञ़सिरेभ्योऻभ्यिऽदतमऽततऱमिज्झता भाऽतभ़रम,् हतां ब्रष्णऽषय देवऽद्ठजकिलसऽहत़ ऽनभयरां नन्द्दऽत स्म।।५९ ५९. ऽत्रभवि न के ऽलए ऄत्यंत कल्य़णक़रा एवं ह्रदय को अनंद देनेव़ला ब्रह्मदेव की व़णा को सनि कर म्लेच्छरूपा ऱक्षसों से ईत्पन्न हुए भय को भल ि ़कर, वह ऄनक ि ी ल समय की प्रताक्ष़ करनेव़ला पुथ्वा, ब्रह्मऽर्य, देव एवं ब्ऱह्मण के किल के स़थ अनदं को प्ऱप्त हुइ। हरररऽप भिवमिच्चैभयीररभ़ऱयम़णऽत्रदिररपस ि हष्ध़क़न्द्तरूप़मजस्रम।् सपऽद सदयऽचत्तष्ध़तिक़मः समग्ऱां बत ऽनरुपममीऽतयम़नयषि ां भ़वमैच्छत।् ।६० ६०. ऄत्यतं पाड़द़यक हुए हज़रों ऱक्षसों से व्य़प्त सपं णी य पुथ्वा को िाघ्र मि ि करने की आच्छ़ करनेव़ले कु प़लि एवं ऄनपि म ऽवष्णि ने संदि र मनष्ि य रूप ध़रण करने की आच्छ़ प्रकट की। इत्यनिपिऱणे कवान्द्रऽवरऽचते पांचमोऻध्य़यः ऽवष्ण्ववत़रकथनम।्



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अध्य़यः-६ कवींर ईव़चअथो ऽवविस्ि तत्किऽिां स्वयां योगेश्वरो हररः। ि़हपत्न्द्यै प्रसन्द्ऩत्म़ स्वम़त्म़नमदिययत।् ।१ १. कवींर बोलें – िह़जाऱजे की पत्ना जाज़ब़इ के गभय से ईत्पन्न होने के आच्छिक योगेश्वर ऽवष्णि ने प्रसन्न होकर ऄपने दियन ऽदए। सैकद़ सितनिः स्वप्ने ऽदऽवषद्ठुन्द्दवऽन्द्दतम।् िांखचक्रगदपद्ञप़ऽणां श्य़मां चतिभयिजम।् ।२ श्रावत्सविसां कण्ठऽवऽनवेऽितकौस्तिभम।् वैजयन्द्ताकुत़व़सां पातकौिेयव़ससम।् ।३ ऽवलसरत्नमिकिटां स्फिरन्द्मकरकिण्ठलम।् मन्द्दऽस्मतोल्लसद्गण्डां प्रसन्द्नमिखमण्डलम्।।४ पिण्डराक़यतदृिां सिनसां ििभलिणम।् प्रऽतप्रताकल़वण्यलाल़ऽनलयमद्झितम।् ।५ सम़ऽश्लष्टां कमलय़ िोऽभतां वनम़लय़। सवयदेवमयां देवां सव़यभरणभीऽषतम।् ।६ वज्ररेख़ध्वजच्छत्रऽचऽष्ढत़ांऽिसरोरुहम्। ब़ललाल़धरां देवा स्व़ांकऽस्थतमलोकत।।७ २-७. एक ब़र ईस संदि र ऱना ने स्वप्न में देवगणों के द्ऱऱ पऽी जत एवं ब़ल लाल़ओ ं को ध़रण करने व़ले ऽवष्णि बेटे को ऄपना गोद में बैठ़ हुअ देख़। ईसक़ रंग स़वं ल़ थ़, ईसके ह़थों में िख ं , चक्र, गद़ और कमल थ़, छ़ता पर 61 | पृ ष्ठ



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श्रावत्स ऩम क़ ऽचह्न थ़, गले में कौस्तभि मऽण ध़रण ऽकय़ थ़, छ़ता पर वैजयंता म़ल़ लटक रहा था, ईसने पाले कपडे पहन रखे थे, ऽसर पर रत्नों से जऽडत मक ि ि ट थ़, क़नों में मकर की कंि डलें चमक रहा था, ग़लों पर मदं मस्ि क़न था, मख ि मण्डल पर प्रसन्नत़ था, अख ं ें कमल जैसा अरि एवं बडा था, सदंि र ऩक और वह िभि लक्षणों से सपं न्न थ़, ईसक़ प्रत्येक ऄवयव संदि रत़ क़ लाल़स्थ़न थ़, गले में वनम़ल़ से सि ि ोऽभत लक्ष्मा ईसके समापस्थ था, वह सभा अभर्ी णों से ऽवभऽी र्त़ था, ईसके पद कमलों पर वज्र, रे ख़, ध्वज, और छत्र के ऽचह्न थे। ततोऻऽचरेण स़ गभे पत्ना ि़हमहापतेः। प्रभऽवष्णिां मह़ऽवष्णिमांिमीऽतयमदाधरत।् ।८ ८. ईसके ब़द िाघ्र हा ईस िह़जाऱजे की पत्ना ने स़मथ्ययव़न ऽवष्णि के ऄि ं को गभय में ध़रण ऽकय़। महत़ महस़ तेन ऽनजगभयगतेन स़। व्यभ़ऽद्ठभ़करेणेव िरदभ ां ोदमण्डला।।९ ९. ऽजस प्रक़र ि़रदाय मेघ मंडल सयी य के योग से सि ि ोऽभत होत़ है ईसा प्रक़र ऄपने गभयस्थ ईस मह़न तेज़ के क़रण वह सि ि ोऽभत होने लगा। तां वै तेजोमयां गभं तद़ ऽबभ्ऱणय़ तय़। य़दवेन्द्रस्य सति य़ भीऽषतां बत भीतलम।् ।१० १०. वह तेजोमय गभय को ध़रण करने व़ला ईस य़दवेन्र की पत्रि ा ने ईस समय ईस भ-ी तल को ऽवभऽी र्त ऽकय़। अथोद्टद्ङोहदरस़ गभयभ़रभऱलस़। अमांस्त पुथिलश्रोणाभ़रम़भरण़ऽन स़।।११ ११. ब़द में ईसको ईऽल्टय़ं होने लगा, गभय के भ़र के क़रण ईसकी गऽत मदं हुइ, तब ईसके मोटे कऽट प्रदेि पर अभर्ी ण भा भ़रा लगने लगें। तद़ननां प़ऽण्डम़नां दध़नमतिलां तद़। उप़हसत् प्रस़देन ि़रदां िऽिमण्डलम्।।१२ १२. तब ऄनपि म गौरवणय को ध़रण करने व़ले ईसके महंि ने िभ्रि त़ में ि़रदाय चंरम़ क़ भा ईपह़स ऽकय़।



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न तत् ऽचत्रां ऽश्रत़ यत्स़ सति नस्ि तनगि ौरवम।् देवो जगद्गिरुययस्य़ः स़ि़त्किऽिमवाऽवित।् ।१३ १३. प्रत्यक्ष जगत प्रभि ऽवष्णि देव ने ऽजसके गभय में प्रवेि ऽकय़ ऐसा ईस सदंि रा के िरार में भ़रापन अने में क्य़ अश्चयय है ? पररप़ण्डिमिखीं सत्ववतामथ सखाजनः। त़मज़्सात्प़श्वयसेवा देवामन्द्य़दृिाऽमव।।१४ १४. ईसके प़स रहकर ईसकी सेव़ करनेव़ला सऽखयों को वह प़ण्डिमख ि ा गभयवता ऱना ऄलग हा प्रतात हो रहा था। अथ़भ्य़सनमराण़ां ऽद्ठप़ऩां द्ठाऽपऩां तथ़। स्वणयऽसहां ़सने स्थैयं ऽसतच्छत्रतलेऻऽप च।।१५ के तनोन्द्नमनां चोच्चैश्व़रुच़मरवाजनम।् श्रिऽतदियन्द्दिऽभिब्द़ऩां कुऽतः सांगरकमयण़म।् ।१६ ध़रणां क़ण्डकोदण्डिऽिऽनऽष्धांिवमयण़म।् प्रस़धनां पवयत़ऩां स़धनां ऽवजयऽश्रय़म।् ।१७ मह़द़नेष्वऽभरऽतधयमयस्य स्थ़पने मऽतः। समभीवन्द्नमीन्द्यस्य़ां दोहद़ऽन ऽदने ऽदने।।१८ १५-१८. ह़था पर, ब़घों पर और ऽकलों पर अरोहण कीऽजए, सफे द छत्रों के नाचे ऽस्थत स्वणय के ऽसहं ़सन पर ऽस्थरत़ से ऄऽधऽष्ठत हो ज़आए, उंचे झडं े को खड़ कीऽजए, संदि र च़मर से हव़ करव़इए, ददंि भि ा के ध्वऽनयों को सऽि नए, धनर्ि ब़ण, भ़ले, तलव़र, और कवच को ध़रण करके यि ि कमय को कीऽजए, ऽकलों पर ऄऽधक़र कीऽजए, ऽवजयश्रा प्ऱप्त कीऽजए, बडे बडे द़न दाऽजए, धमय की स्थ़पऩ में बऽि ि लग़आए ऐसा ऄनेक प्रक़र की आच्छ़एं ईसको प्रऽतऽदन होने लगा। ततः किम़रभुत्य़सि कििल़ऽभरहऽनयिम।् किलिाल समुद्च़ऽभवयद्च ु ़ऽभः समिप़ऽसते।।१९ 63 | पृ ष्ठ



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ऽचत्त़नस ि ़ररऽभऽनयत्यमत्यथं ऽहतक़ररऽभः। जनैः सहचराण़ां च लब्धवणैऽनयषेऽवते।।२० गऽभंणापररचय़यय़ां प्रौढैः पायीषप़ऽणऽभः। आप्तैऽभयषऽग्ब्भरश्ऱन्द्तमऽधदेहऽल सांऽश्रते।।२१ सिध़लेपोल्लसऽद्झऽत्तऽनऽमयत स्वऽस्तक़भ्दिते। स्फिरऽद्ठत़नपययन्द्तलिलन्द्मौऽिक ज़लके ।।२२ प्रत्यग्रपल्लवोपेते ऽवकीणयश्वेतसषयपे। सद्टः सऽललसम्पीणयसिवणयकलि़ऽन्द्वते।।२३ द्ठ़रदेिोभयप्ऱन्द्तऽलऽखतोऽचतदैवते। पररतः स्थ़ऽपत़नेकदाप्तमांगलदापके ।।२४ ऽवऽहतौपऽयकरव्यसग्रां हे सऽी तक़गहु े। ऽदव्य-तेजोमया देवा ऽदव्यरूप़ व्यऱजत।।२५ १९-२५. ऽफर वह ऽदव्य तेजोमय एवं ऽदव्य रूपवता ऱना प्रसऽी तगुह में सि ि ोऽभत होने लगा। वह़ं पर प्रसऽी त क़यय में कििल एवं किल तथ़ व्यवह़र से समुि वुि ऽह्लय़ं ऱत-ऽदन ईसकी सेव़ में तत्पर था, प्रऽतऽदन स्वेच्छ़ से व्यवह़र करनेव़ला एवं ऄऽतिय ध्य़न रखनेव़ला प्रऽसि सऽखयों द्ऱऱ वह सेऽवत था, गभयवता के ईपच़र करने में ऄनभि वा, ऽचऽकत्साय हस्तकल़ में ऽनपिण और इम़नद़र वैद्य ऽबऩ थके ईसके देहला पर बैठे हुए थे, सफे दा करने से चमकतीं हुइ ईस दाव़र पर स्वऽस्तक ऽचन्ह ऽनक़ल़ गय़ थ़, सफे द छत के ऽकऩरे मोऽतयों की ज़ऽलय़ं लटक रहा था, त़जे नये पत्तों से ईसको सि ि ोऽभत ऽकय़ गय़ थ़, सफे द सरसों को वह़ं सवयत्र ऽबखेऱ गय़ थ़, वह़ं पर त़ज़े प़ना से भरे हुए घडे रखें गये थे, दरव़जों के दोनों ओर ईऽचत देवत़ओ ं की अकु ऽतय़ं ऽनक़ला गइ था, च़रों ओर ऄनेक चमकते हुए मगं ल दाप रखें गये थे, ऐसा सभा योग्य वस्तिओ ं क़ संग्रह वह़ं पर ऽकय़ गय़ थ़। भीब़णप्ऱणचन्द्ऱद्ठैः सऽम्मले ि़ऽलव़हने। िके सांवत्सरे ििसले प्रवुत्तेचोत्तऱयणे।।२६ ऽिऽिरतौ वतयम़ने प्रिस्ते म़ऽस फ़ल्गिने। 64 | पृ ष्ठ



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कुष्णपिे तुताय़य़ां ऽनऽि लग्ब्ने सि ि ोभने।।२७ अनिकीलतरैस्तिङ्गसश्र ां यैः पञ्चऽभग्रयहैः। व्यऽञ्जत़िेषजगताऽस्थरस़म्ऱज्यवैभवम।् ।२८ अप़रल़वण्यमयां स्वणयवणयमऩमयम।् कमनायतमग्रावमिन्द्नतस्कन्द्धमण्डलम्।।२९ अऽलक़न्द्तऽमलत्क़न्द्तकिन्द्तल़ग्रऽवऱऽजतम।् सरोजसन्द्ि दरदृिां नवऽकांिक ि ऩऽसकम।् ।३० सहजस्मेरवदनां धनगम्भारऽनस्वनम।् महोरस्कां मह़ब़हुां सिषिवे स़द्झितां सितम।् ।३१ २६-३१. ि़ऽलव़हन िके १५५१ िल्ि क ऩमक संवत्सर, ईत्तऱयण, ऽिऽिर ऊति में चल़यम़न फ़ल्गनि म़स के कु ष्ण पक्ष की तुताय़ ऽतऽथ तथ़ ऱऽत्र के िभि महि तय पर, ऄऽखल ऽवश्व के स़़्ज्य वैभव को प्रकट करने व़ले प़च ं ग्रहों की ऄनक ि ी ल ऽस्थऽत में एवं तंगि संश्रय होने पर ईसने ऄलौऽकक पत्रि रत्न को जन्म ऽदय़। ईसकी ऄप़र संदि रत़, सवि णय जैस़ रंग, िरार ऽनरोगा, गदयन ऄत्यंत संदि र एवं ईन्नत कन्धे थे, ईसके म़थे पर संदि र पडे हुए घघंि ऱले ब़ल मनोहर लग रहे थे, ईसकी कमल जैसा सदंि र अख ि स्वभ़वत: हसं मख ि , अव़ज ब़दल की तरह ं ें, ऩक नये पल़ि के फीलों की तरह, मख गभं ार, छ़ता ऽवि़ल एवं मोटा भजि ़एं थीं। तद़ मिद़ म़निष़ण़ां सिऱण़ां च सहस्रिः। समां दिन्द्दिभयस्तस्य ऩदेन नदतोऻभवन।् ।३२ व़ऽदत्ऱण्यप्यव़द्टन्द्त ऽवऽवध़ऽन गुहे गुहे। प्रसादऽन्द्त स्म हररतः समस्त़ः सररतस्तथ़।।३३ िनैः िनैस्तथ़ व़त़ व़त़ः सिरऽभिातल़ः। हुतां हऽवरुप़दत्त प्रसन्द्नश्च हुत़िनः।।३४



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३२-३४. तब देवों एवं मनष्ि यों की प्रसन्नत़ के क़रण से ईनके हज़रों नग़डो की अव़ज एक स़थ बजने लगीं, प्रत्येक घर में ऽभन्न ऽभन्न प्रक़र के व़द्ययंत्र बजने लगे, सभा ऽदि़एं एवं नऽदय़ं स्वच्छ हो गइ, सगि ऽं धत एवं िातल व़यि बहने लगा और अग प्रसन्न होकर अहुत हऽव को स्वाक़र करने लगा। श्रिऽतस्मुऽतधयऽु तमेध़ः क़ऽन्द्तः ि़ऽन्द्तिम़दय़। नाऽतः प्राऽतः कुऽतः कीऽतयः ऽसऽद्चः श्राश्च सरस्वता।।३५ तिऽष्टः पऽि ष्टश्च िऽिश्च ह्राश्च ऽवद्ट़ च सन्द्नऽतः। तां देवां देवत़ एत़ः समेत़ः पययव़रयन।् ।३६ ३५-३६. श्रऽि त (वेद), स्मुऽत, धुऽत (धैयय), क़ऽं त, ि़ऽं त, क्षम़, दय़, नाऽत, प्रेम, क़यय, ऽसऽि, लक्ष्मा, सरस्वता, सतं ऽि ष्ट, पऽि ष्ट, िऽि, लज्ज़, ऽवद्य़, और सद्रदं न, ये सभा देवत़ ईस देव के च़रों ओर आकट्ठे हो गए। योद्चिमद्च़पठ़नेन दय़यख़नेन म़ऽनत़। ि़हऱजे मह़ऱजे प्रय़ते ऽवषय़न्द्तरम।् ।३७ अनिग्रह़य देव़ऩां दैत्य़ऩां ऽनग्रह़य च। प्रभिः स जगत़ां प्ऱदिरभीद् भुिबल़न्द्वये।।३८ ३७-३८. घमण्डा दय़यख़न पठ़न के स़थ यि ि करने के ऽलए िह़जाऱजे के दसी रे प्ऱंत में चले ज़ने पर, देवों पर कु प़ एवं ऱक्षसों क़ ऽनग्रह करने के ऽलए ईस जगत प्रभि ने भोंसले किल में ऄवत़र ऽलय़। अतोऻजस्य़ऽप ज़तस्य ज़तकमय तदञ्जस़। व्यधायत ऽवऽधज्ेन यथ़ऽवऽध परि ोधस़।।३९ ३९. तब ऄजन्म़ होते हुए भा जन्म ऽलए हुए ईस प्रभि क़ तरि ं त ऽवऽधज्ञ परि ोऽहतों ने यथ़ऽवऽध ज़तकमय सस्ं क़र ऽकय़। यः स्वयां सवयलोकस्य ऽस्थत्यथयमभवऽद्ठभिः। सीिैः सीिऽवदस्तस्य़प्य़चरन् स्वऽस्तव़चनम।् ।४० ४०. जो स्वयं में संपणी य संस़र के रक्षण के ऽलए समथय होने पर भा सि ी ज्ञों ने ईसक़ सि ी ों के द्ऱऱ स्वऽस्तव़चन ऽकय़। तद़ तत्ऱवताणयस्य ऽवष्णोम़यनषि वष्मयणः। 66 | पृ ष्ठ



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तेजोभरेण महत़ ऽनि़ऽप ऽदवस़ऽयत़।।४१ ४१. तब मनष्ि य रूप में ऄवतररत हुए ऽवष्णि के ऄऽतिय तेज से ऱऽत्र भा ऽदन की तरह प्रक़िम़न हो गइ। आऽदत्य़ वसवो ऽवश्वे रुऱश्च समरुरण़ः। यि़ः स़ध्य़श्च गन्द्धव़यस्तथ़ ऽवद्ट़धऱ अऽप।।४२ नऽन्द्दना प्रमिख़ ग़वो ऩग़श्चैऱवत़दयः। सरि षययो ऩरद़द्ट़ः सभ ां ीय़प्सरसस्तथ़।।४३ इन्द्रोऻऽग्ब्नधयमऱजश्च महेिश्च ऽदगाश्वरः। पुषदश्वो धनेिश्च महेिश्च ऽदगाश्वऱः।।४४ अष्ट़ऽवमेऻऽश्वनौ देवौ सयी ़यचन्द्रमसौ तथ़। अन्द्येऻऽप च सनित्ऱ ग्रह़ः सिभगऽवग्रह़ः।।४५ घटामिहूत़यहोऱत्रपिम़सतयिवत्सऱः। यिग़ऽन ऽदव्य़ऽदव्य़ऽन तथ़ मन्द्वन्द्तऱऽण च।।४६ भिवो भ़रमप़कतयिमवताणे जगत्पतौ। सांऽनध़य स्वयां तत्र स्वऽस्तव़चनम़चरन।् ।४७ ४२-४७. अऽदत्य, वस,ि ऽवश्व, रुर, मरुद्गण, यक्ष, स़ध्य़, गधं वय, ऽवद्य़धर, नंऽदना प्रमख ि ग़एं, ऐऱवत़ऽद ह़था, ऩरद़ऽद देवऽर्य और सभा ऄप्सऱए,ं आरं , ऄऽग्न, धमयऱज, नैऊयत, वरूण, व़य,ि ऄश्व, किबेर, िक ं र, ये अठ ऽदक्प़ल, ऄऽश्वनाकिम़र, सयी य चन्र देव, तेजोमय ग्रह और नक्षत्र, घटा, महि तय, ऄहोऱत्र, पक्ष, म़स, ऊत,ि वर्य, मनष्ि य यगि , देवयगि , और मन्वतं र आन सभा ने पुथ्वा क़ भ़र कम करने के ऽलए ऄवताणय हुए ईस जगतपऽत के समाप अकर ईसक़ स्वऽस्तव़चन ऽकय़। गणेिां जन्द्मद़ां षष्ठीं देवीं जावऽन्द्तक़मऽप। स्कन्द्दां ऩऱयणां वांिां बलदेवां च ल़ङ्गलम।् ।४८ िऱसनां िऱन् खड्गां ऽवऽवध़न्द्य़यिध़ऽन च। 67 | पृ ष्ठ



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तत्तन्द्मन्द्त्रैः समभ्यच्यय सऽी तक़गहु मन्द्तऱ।।४९ प्रयतः पञ्चमे षष्ठेऻप्यष्टमे नवमेऻहऽन। रिन्द्ति ब़लऽमत्यिसत्व़ प्रणम्य च पिरोऽहतः।।५० िेत्रप़ल़य भीतेभ्यो ऱिसेभ्यो गुह़द्जऽहः। बलानद़द्टोऽगनाभ्यो ऽदसप़लेभ्योऻप्यनेकध़।।५१ ४८-५१. गणेि, जन्द्मद़त्रा षष्ठा देवा, जावऽन्द्तक़, स्कन्द्द ( क़ऽतयकस्व़मा), ऩऱयण, ब़ांसरि ा, बलऱम, हल, धनिष, ब़ण, तलव़र और अनेक प्रक़र के िष्ध़ष्ध इन सब की उन पिरोऽहतों ने पऽवत्र होकर प़ांचवें, आठवें और नौवें ऽदन उऽचत मांत्रों से प्रसीऽतगुह में पीज़ की। इस ब़लक की रि़ कीऽजए स़ कहकर नमस्क़र ऽकय़ और िेत्रप़ल, भीत, ऱिस, योऽगना, ऽदसप़ल, इनकी घर से ब़हर अनेक ब़र बऽल दा गई। ऽत्रजगज्ज़गरुकस्य ज़ते षष्ठा प्रज़गरे। जने जऽनऽविेषेण दिमेऽष्ढ मह़त्मनः।।५२ त़म्ऱपण्ययथ क़वेरा तिङ्गभऱ मल़पह़। कुष्ण़ ककिद्ञता वेण़ नाऱ भामरथा तथ़।।५३ गोद़वरा च ग़यत्रा प्रवऱ वञ्जिल़ पनि ः। पीण़य पयोष्णा त़पा च नमयद़ च मह़नदा।।५४ ऽिप्ऱ चमयण्वता मऱ यमिऩ वेत्रवत्त्यऽप। भ़गारथा चन्द्रभ़ग़ गोमता गण्डकी तथ़।।५५ इऱवता ऽवप़ि़ च ितरिश्च सरस्वता। ऽवतस्त़ सरयीश्च़ऽप तमस़च वधस ी ऱ।।५६ ऽसन्द्धघघयरिोण़द्टैनयदैऽनयश्रेयसः प्रदैः। पिष्कऱद्टैः सरोऽभश्च स़गरैश्च समऽन्द्वत़ः।।५७ अलऽितेन रुपेण नद्टः पिण्यतम़ इम़ः। 68 | पृ ष्ठ



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तद़ तस्य़ ऽभषेक़य सोत्सव़ः समिप़गमन।् ।५८ ५२-५८. ऽतनों लोकों में ज़गरूक ईसके र्ष्ठा के ज़गुत हो ज़ने पर, लोगों में ईस मह़त्म़ क़ जन्म महत्त्वपणी य होने के क़रण ईसके दसवें ऽदन त़्पणी, क़वेरा, तंगि भऱ, मलप्रभ़, कु ष्ण़, कोयऩ, वेण़, नाऱ, भाम़, गोद़वरा, ग़यत्रा, प्रवऱ, वजं ल ि ़, पणी ़य, पयोष्णा, त़पा, नमयद़, मह़नदा, ऽक्षप्ऱ, चंबल, मऱ, यमनि ़, वेत्रवता, भ़गारथा, चंरभ़ग़, गोमता, गडं की, आऱवता,(ऱवा) ऽवप़ि़, ितरि ( ितलज) सरस्वता, ऽवतस्त़ (झेलम), सरय,ी तमस़, वधसी ऱ, ये ऄत्यऽधक पऽवत्र नऽदय़,ं ऽसंध,ि घघयर, िोण आत्य़ऽद मोक्षद़यक नद, पष्ि कऱऽद सरोवर एवं समरि अऽद के स़थ ऄदृश्य रूप से ये सभा पण्ि यद़इ नऽदय़ं बडे अनंद के स़थ ईसके ऄऽभर्ेक के ऽलए एकऽत्रत हो गइ। देवसेऩ िचा स्व़ह़ समुऽद्चः सवयमङ्गऴ। अऽदऽतऽवयनत़ सज्ां ़ स़ऽवत्रा च़प्यरुन्द्धता।।५९ त़ां यिि़ां तत्र ब़लेन तेऩप्रऽतममीऽतयऩ। प्रसीऽतक़मस्नपयन् ऽमऽलत़ः किलयोऽषतः।।६० ५९-६०. वह़ं पर देवसेऩ, िचा, स्व़ह़, समुऽि, प़वयता, ऄऽदऽत, ऽवनत़, संज्ञ़, स़ऽवत्रा, ऄरूंधऽत आन किलऽह्लयों ने ऽमलकर ईस ऄप्रऽतम ल़वण्यमय ब़लक के स़थ ईस गभयवता को भा स्ऩन कऱय़। जनना रजनाऱगरऽञ्जत़ांििकध़ररणाम।् अलङ्क़रवतामङ्कऽवऽनवेऽितब़लक़म।् ।६१ ऽदनऽश्रयऽमवोद़ऱां नवोऽदतऽदव़कऱम।् नाऱजऩऽभः सभ ि ग़ः सभ्र ि िवः समभ़वयन।् ।६२ ६१-६२. िरार पर पाले वह्ल ध़रण की हुइ, ऄलक ं ़र ध़रण की हुइ, गोद में ब़लक को ला हुइ और नवोऽदत सयी य के ऽदनश्रा के सम़न संदि र िोभ़यम़न ईस ब़लक की म़ं की सवि ़ऽसऽनयों ने अरता की। यतः ऽिवऽगरेमयीऽध्नय ज़तः स पिरुषोत्तमः। ततः प्रऽसद्च़ लोके ऻस्य ऽिव इत्य़ऽभध़ऻभवत।् ।६३ ६३. ऽिवनेरा ऽकले पर आस परुि र्ोत्तम क़ जन्म होने के क़रण ईसक़ "ऽिव" यह ऩम लोक में प्रऽसि हो गय़।



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कररष्यत्येष बलव़ऽनह कम़यऽतम़नषि म।् म्लेच्छ़ऽन्द्नहत्य महतीं कीऽतं ऽवस्त़रऽयष्यऽत।।६४ ऽजत्व़व़च्य़ांश्च प़श्च़त्य़न् प्ऱच्य़ांश्च भिजतेजस़। तथोदात्य़ांश्च ऽवजया स्वऱज्यां सांऽवध़स्यऽत।।६५ स़हसा स़गरमऽप वश्यत़म़नऽयष्यऽत। बला बलैऽदयगन्द्तेभ्यो वलाऩऩयऽयष्यऽत।।६६ प्रभ़वा ऽगररदिग़यऽण वनदिग़यऽणच़प्ययम।् तथ़ सऽललदिग़यऽण स्थलदिग़यऽण गोप्स्य़ऽत।।६७ बत ऽदल्लापतेमयीऽध्नप्रत़पेन तपन्द्नयम।् ऽनजां चरणम़ध़य जगद़ज़्पऽयष्यऽत।।६८ ६४-६८. यह बलव़न ब़लक आस लोक में ऄलौऽकक कमय करे ग़, म्लेच्छों क़ ऩि करके ऄपना ऄतल ि कीऽतय को फै ल़येग़, दऽक्षण, पऽश्चम, पवी य और ईत्तर आन ऽदि़ओ ं को ऄपने ब़हुबल से जातकर यह ऽवजया पत्रि स्वऱज्य की स्थ़पऩ करे ग़, यह स़हसा ब़लक समरि को भा ऄपने ऄधान करे ग़ और ऄपने सेऩ की सह़यत़ से सभा ऽदि़ओ ं से कर वसल ी करे ग़, यह प्रत़पा ब़लक ऽगररदगि य, जलदगि ,य वनदगि य और स्थलदगि य क़ रक्षण करे ग़ और वह ऄपने पऱक्रम से ऽदल्लापऽत मस्तक पर पैर रखकर संपणी य संस़र पर अऽधपत्य स्थ़ऽपत करे ग़। सदि ि गयमेषि म़गेषि गहनेषि ऽगररष्वऽप। सररत्सच ि समिरेषि यस्य़प्रऽतहत़ गऽतः।।६९ स एष प़ण्ड्यरऽवड ल़टकण़यटके रऴन।् करह़टवैऱट़न्द्रम़लव़भारगिजयऱन।् ।७० आय़यवत़यश्च दिम्लैच्छकुत़वत्म़यननेकिः। किरुज़ांगलसौवारधन्द्वसौऱष्रकोसल़न।् ।७१ व़ष्थाकमरग़न्द्ध़रऽत्रगत़यनतयसैन्द्धव़न।् 70 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



कऽलङ्गक़मरुप़ङ्गवङ्गक़म्बोजके कय़न।् ।७२ प़रसाक़न् ऽिबान् ि़ल्व़न्द्पिऽलन्द्द़रदृबबयऱन।् क़श्मारमत्स्यमगधऽवदेहोत्कलटङ्कण़न।् ।७३ ऽकऱतक़ऽिप़ञ्च़लचेदाऩऽप च किन्द्तल़न।् खि़ांश्चिीरसेऩांश्च हूण़न् हैमवत़नऽप।।७४ उण्ऱन्द्पिण्ऱन् लऽलत्थ़ांश्च मऽहतेन स्वतेजस़। ऽचरजावा ऽवऽनऽजयत्य मह़ऱजो भऽवष्यऽत।।७५ ६९-७५. दगि मय म़गय, गहन पह़डा, नदा और समरि के बाच ऽजसकी गऽत ऄव्यवऽहत है ऐस़ यह िरी ऱज़, प़ण्ड्य, रऽवड, ल़ट, कण़यट, के रल, कऱड, वैऱट, अध्रं , म़लव़, अभार, गजि ऱत और दष्टि यवनों द्ऱऱ ऄनेक ब़र ऄऽधग्रहात अय़यवतय, किरूज़ंगल, सौवार ( मल्ि त़न), धन्व ( म़रव़ड), सौऱष्र ( क़ठे व़ड) कोसल ( ऄयोध्य़) ब़ल्हाक, मर, ग़न्ध़र, ऽत्रगतय, द्ऱरक़, ऽसधं , कऽलगं , क़मरूप ( ऄसम) ऄगं ( ऽबह़र) बगं ़ल, क़बं ोज, के कय, प़रसा, ऽिऽब, ि़ल्व, पऽि लंद, बबयर, कश्मार, मत्स्य, मगध, ऽवदेह, ईत्कल, टंकण, ऽकऱत, क़िा, प़ंच़ल, चेऽद, किन्तल, खि, िरी सेन, हण, हैमवत, ईंड्र, पंड्रि , लऽलत्थ, ये सभा देि ऄपने ईज्ज्वल पऱक्रम से जातकर यह ऽचरंजावा मह़ऱज़ होग़। यथ़ पथ ु िरभीत्पवी ं यथ़ ऱज़ परुि रव़ः। अम्बराषोऻऽप च यथ़ ऽिऽबश्चौिानरो यथ़।।७६ यथ़ जऽनष्ट म़न्द्ध़त़ यथ़ च ऽनषध़ऽधपः। यथ़ बभीव भरतो यथ़ भीपो भगारथः।।७७ हररश्चन्द्रः स च यथ़ ऱमो द़िरऽथययथ़। यथ़ च ऽमऽथल़धािो यय़ऽतनयहुषो यथ़।।७८ यथ़ धमयधनोऱज़ धमयऱजो यिऽधऽष्ठरः। भऽवष्यऽत तथैव़यां ि़हऱजसितः ऽिवः।।७९ मध्येसभां दैवऽवदः सवयऽसद्च़न्द्तप़रग़ः। 71 | पृ ष्ठ



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एवमस्य किम़रस्य जन्द्मवेल़मवऽवदन।् ।८० ७६-८०. पुथ,ि परू ि रव़, ऄबं रार्, ईिानर क़ पत्रि ऽिऽब, म़ंध़त़, नल, भरत, भगारथ, हररश्चंर, दिरथ क़ पत्रि ऱम, जनक, यय़ऽत, नहुर्, धमयऱज यऽि धऽष्ठर आन पहले हुए ऱज़ओ ं की तरह िह़जाऱजे क़ पत्रि ऽिव़जा भा वैस़ हा होग़, यह भऽवष्यव़णा सभा ऽसि़ंतों में प़रंगत ज्योऽतऽर्यों ने ईस ब़लक की ज़तक सभ़ में बत़या। प्रचायम़ऩवयवव्यिऽवग्रहभीषणम।् ऽस्थऽतप्रवाणल़वण्यलब्धसौभ़ग्ब्यवैभवम।् ।८१ ऽवऽचत्रमऽणयिि़ऽभमयिि़ऽभमयञ्जिऴत्मऩ। ऽवभ्ऱजम़नां हैमेन मिकिटे न ऽिरःस्पुि़।।८२ लाल़चल़चलां भ़ले हैमां चलदलच्छदम।् दध़नां ऽवस्फिरन्द्मिि़मऽणसीत्ऱन्द्तलऽम्बतम।् ।८३ अनघ्ययहारऽकम्मारपद्ञऱगमराऽचऽभः। सभ ि भीषणे।।८४ ां ुतश्राभरोदग्रे ऽबभ्ऱणां भज गिरुत्मरत्नसांपुिस़ग्रवय़घ्नखऽश्रय़। ऽवन्द्यस्तय़भ्ऱजम़नां कुष्णक़चमऽणस्रज़।।८५ सरत्नऽनकरोदञ्चत् क़ञ्चनप्रऽतम़ऽत्मक़म।् देवीं जावऽन्द्तक़मऩम्नाम़ऽबभ्ऱणां भिज़न्द्तरे।।८६ प्रव़ळनाळसऽम्मश्रसवि णयमऽणऽनऽमयते। वलये लऽलत़क़रे कलयन्द्तां करद्ठये।।८७ बत़नन्द्दमयां ऽदव्यसत्री सम्बद्चमध्यमम।् ऽवस्फिरद्गिल्फवलयां ऽवलसन्द्मऽणनीपिरम।् ।८८ ऽवदग्ब्ध़ऽमः स्वयां ऽस्नन्द्धलोचक़ऽञ्चतलोचनम्। 72 | पृ ष्ठ



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भ़ल़न्द्तऱळऽवन्द्यस्त ऽचत्रकज्जलऽचत्रकम।् ।८९ कमनायतमस्वणयकञ्चिक़वतु ऽवग्रहम।् ध़त्र्यः स्मेरमिखां प्रात़स्तम्ब़लां पययप़लयन।् ।९० ८१/९०. ईसके िरार के ऄवयवों के ऄत्यऽधक व्यि होने से ईसमें संदि रत़ अइ,ं ऽस्थर ल़वण्य के संयोग से वह ऽवलक्षण मनोह़रा लगने लग़, ऄनेक प्रक़र के रत्नों एवं मोऽतयों से जऽडत सोने की मजं ल ि ़एं सोने के मक ि ि ट पर चमक रहा था, चमकद़र मोऽतयों की मऽण म़ल़ के ऄऽं तम भ़ग में लटकने व़ले सवि णयमय पापल के पत्ते खेलते समय ईसके मस्तक पर ऽहल रहे थे, ऄमल्ी य हारे एवं ऽवऽचत्र पद्मऱग के ऽकरणों की ऽवलक्षण चमक से यि ि अभर्ी ण ब़हु में ध़रण ऽकए हुए थे, भ़रा रत्नों से जऽडत नक ि ीले ब़घ के नखों की अकु ऽत को ऽजसमें ऽपरोय़ गय़ है ऐसा क़ला क़चमऽण की म़ल़ गले में पहनने से वह िोऽभत हो रह़ थ़, ईत्तम रत्नों के समही से ईत्कर्य को प्ऱप्त हुइ जावऽं तक़ देवा की सवि णय प्रऽतम़ ईसके छ़ता पर पडा हुइ था, प्रव़ल एवं नाल रंग से सऽम्मऽश्रत सवि णयमऽण से ऽनऽमयत संदि र कंकण ह़थों में ध़रण ऽकए हुए थे, ऄहो! वह अनदं की प्रऽतमऽी तय थ़, ईसके कमर में ऽदव्य मेखल़ था, पैरों में मऽण जऽडत चमकद़र नपी रि थे, ऽवदग्ध ऽह्लयों ने अख ं ों में चमकद़र क़जल ड़लीं हुइ था, ऄत्यंत संदि र सोने क़ कित़य पहऩ हुअ थ़। आस प्रक़र हसं मख ि ब़लक को ध़आय़ं ऄत्यऽधक प्रेम से संभ़ल रहा था। ऄन्तबयऽहश्वरोप्येर् बऽहऽवयऽहतऽनष्क्रमः। व्यध़दसयी ं पश्य़य़ः ऽििःि सीययस्य दियनम।् ।९१ ९१. ऱजपत्ना क़ वह ब़लक, ऄदं र और ब़हर सवयत्र ऽवचरण कत़य एवं सवयव्य़पा होने के ब़द भा ईसको ब़हर ले ज़कर सयी य के दियन करव़ये। उपवेिनमप्यन्द्नप्ऱिनां च यथऽवऽध। अस्य ऱजकिम़रस्य क्रमेण समज़यत।।९२ ९२. ईस ऱजकिम़र के ईपवेिन एवं ऄन्नप्ऱिन ये संस्क़र यथ़ऽवऽध और क्रमपवी क य ऽकए गए। दय़यख़नां िरैऽभयत्व़ नात्व़ ऽनरवलेपत़म।् ऽवजया िहऱजोऻऽप ऽिवऽां गररमथ़व्रजत।् ।९३



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९३. ईसके ब़द दय़यख़न को ऄपने ब़णों से ऽवदाणय करके और ईसके घमण्ड क़ हरण करके ऽवजया िह़जाऱजे भा ऽिवनेरा अ गये। स तत्र सोदरां िम्भोरम्भोजस्यमलोचनम।् व्यलोकत मिदोपेतः सदोऽदतपऱक्रमः।।९४ ९४. सभं ़जा क़ छोट़ भ़इ जो कमलनेत्र ऽिव़जा ने सद़ पऱक्रमा िह़जाऱज़ के मख ि क़ अनंद से ऄवलोकन ऽकय़। ग़ः क़ञ्चऩऽनकररणस्तिरग़ांश्च ऱज़। रत्ऩऽन च प्रमिऽदतो व्यतरत्तद़नाम।् । सद्टो यथ़त्र ऽनरमिच्यत भीरर क़लम।् सवोSऽथऩमऽप जनोऻन्द्यजऩथयऩभ्यः।।९५ ९५. ईस समय ईस ऱज़ ने अनंऽदत होकर िाघ्रत़ से आतऩ द़न ऽकय़ की सभा य़चकों को दसी रों के मदद की बहुत ऽदनों तक अवश्यकत़ हा नहीं पडा। अथ धऱऽणमघोनः सीनिरुच्चै धयररत्राम।् अऽध सरऽसजहस्तः सच ां रल्लोकबन्द्धःि ।। ऽनऽखलऽतऽमरह़रा ब़लसीयोपम़नः। प्रसभमभुतिोभ़ां वधयम़नः क्रमेण।।९६ ९६. ऄपना ऽकरणें कमल पर ऽबखेर कर ईसको ऽवकऽसत करते हुए सयी य पुथ्वा पर ऄत्यऽधक ऽवचरण करत़ है, ईसा तरह यह ब़ल सयी य ऱजपत्रि ऄऽखल ऄधं क़र को नष्ट करते हुए धारे -धारे वुऽि को प्ऱप्त होने लग़ तो वह ऄऽतिय सदंि र ऽदखने लग़। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे ऽनऽधऽनव़सकरकवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां सांऽहत़य़ां ऽिवऱजप्रभवो ऩम षष्ठोऻध्य़य:।।६।।



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कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-७ कवान्र ईव़चअथ तां ऽििरू ि पेण ललन्द्तां लऽलतद्टऽि तम।् नज़नातः स्म ऽपतऱवम़निषमिरुक्रमम।् ।१



१. कवान्र बोल़ - ईस ब़ल रूप में खेलने व़ले ईस संदि र एवं ऄनपि म लाल़ओ ं से यि ि ब़लक, यह ऄम़नऽि र्क ऽवष्णि है, यह ईस म़त़-ऽपत़ को समझ नहीं अय़। अवताणयः ऽिऽततलां िोणाभ़ऱपनित्तये। ऽवहरन् व़लरूपेण ि़हगजऽनके तने।।२ जनऽयत्रीं जनां च़ऽप रञ्जयन् ऽनजय़ ऽश्रय़। अचेष्टत स सव़यत्म़ तत्र तत्तऽद्ठचेऽष्टतम।् ।३ २-३. पुथ्वा के भ़र को कम करने के ऽलए भ-ी तल पर ऄवतररत होकर िह़जाऱजे के घर में ब़लरूप में ऽवह़र करने व़ल़ और ऄपना िोभ़ से जन्मद़त्रा म़ं एवं ऄन्य लोगों क़ मनोरंजन करने व़ल़ वह सव़यत्म़ ऽवष्णि वह़ं ऄनेक प्रक़र की लाल़एं करने लग़। सित्ऱमक़ांऽितां कतंि ऽदतेः पत्रि ़ननेकिः। सगां रे सगां रे हत्व़ चतिब़यहुरुद़यिधः।।४ यः श्ऱन्द्त इव ऽनऱऽत मध्ये दिग्ब्धमहोदधेः। जननास्तन्द्यप़ऩय व्यत़नारिऽदत़ऽन सः।।५ ४-५. आरं के आऽच्छत क़यय को करने के ऽलए प्रत्येक यि ि में ऱक्षसों को ऄनेक ब़र म़र करके िह्ल ईठ़य़ हुअ वह ऽवष्णि म़नो थककर क्षारस़गर में सो रह़ है, ऐस़ वह म़ं क़ दधी पाने के ऽलए रो रह़ थ़।



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कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽििल ि ाल़धरो ररङ्गन्द्स हररन्द्मऽणभीऽमष।ि प्रऽतऽबऽम्बतम़त्म़नां बलेनद़तिमैहत।।६ ६. ब़ललाल़ करने व़ल़ वह ब़लक मरकतमऽण यि ि भऽी म पर रें गते समय ईस पर पडे हुए ऄपने प्रऽतऽबबं को देखकर बल से ईसको पकडने लग़। ज़निभ्य़ां ररङ्गतस्तस्य पद़म्बिजतलऽत्वष़। पद्ञऱगऽश्रयां प्ऱपिः प्ऱङ्गणस्थ़ऽस्सतोपल़ः।।७ ७. वह घटि ने से रें गते समय ईसके पद कमल रूपा तलवे की ल़लाम़ की चमक से प्ऱगं ण में ऽस्थत स्फऽटकमऽण म़ऽणक जैसा ऽदख रहा था। धीऽलधीसररत़ङ्गस्य ररङ्गतोस्य गुह़ङ्गणे। रञ्जय़म़स जननीं मऽणमञ्जार हाऽञ्जतम।् ।८ ८. धल ी से धसी ररत िरार व़ल़ वह घर के अगं न में रें गते हुए, पैरों के मऽण जऽडत नपि री ों की छिमछिम अव़ज से म़त़ को मनोरंऽजत कर रह़ थ़। स लाल़तरलस्तत्रररङ्गन्द्मऽणमयेगणे। बत़त्मप्रऽतऽबम्बेन प्ऱस्पधयत पदे पदे।।९ ९. रत्नमय प्ऱगणं में खेलते समय जल्द रें गनेव़ल़ वह ब़लक ऄपने प्रऽतऽबंब से पग-पग पर प्रऽतस्पध़य कर रह़ थ़। अऽपबन्द्यत्प्रस़देन सिध़ां सवे सिध़न्द्धसः। अहो सोऽप मिदां प्ऱपद़स्व़द्ट मुदिल़ां मुदम।् ।१० १०. ऄहो! ऽजसकी कु प़ से सभा देवों ने ऄमुत प़न ऽकय़, ऐस़ वह स्वयं कोमल ऽमट्टा ख़ करके अनंऽदत हो तो आसमें क्य़ अश्चयय है?। छलयन् यो बऽलांलोक़ांस्रान्द्ललांघे ऽत्रऽभः क्रमैः। बत़लांघत यत्नेन सदेवो गेह देहलाम।् ।११



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कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



११. ऽजसने बऽल के स़थ छल करके तानों लोकों को तान पगों में ल़ंग ऽदय़, ऄहो! ऐसे ईस देव को ऄपने घर की देहला को ल़ंघने के ऽलए प्रयत्न करऩ पड रह़ है। सप्त़ऩमऽप लोक़ऩां योवलम्ब: स्वयां प्रभिः। उदऽतष्ठदहो धत्ु व़ सोऽप ध़त्राकऱङ्गऽि लम।् ।१२



१२. जो प्रभि स्वयं स़तों लोकों क़ अध़र है, ऄहो! ऽफर भा वह द़इ के ईंगऽलयों को पकडकर ईठत़ थ़। धवलोपलबद्च़सि ऽभऽत्तषि प्रऽतऽबऽम्बतम।् ऽबम्बमांििमतो वाक्ष्य तजयन्द्यग्रेणदिययन।् ।१३ आद़य ऽनजहस्तेन मष्तां देहात्यहोरुदन।् समिग्ब्ध इव मौग्ब्ध्येन म़तरां पययह़सयत।् ।१४ १३-१४. स्फऽटकमऽण से यि ि दाव़र पर पडे हुए सयी य के प्रऽतऽबबं को देखकर, वह तजयना ईंगला से म़ं को ऽदख़कर " ती ऄपने ह़थ से ल़कर मझि े दे" ऐस़ कहकर वह रोने लग़ और ऄपने आस प़गलपन से म़ं को प़गल की तरह हसं ़ने लग़। स्वहस्तपष्ि करोद्चुत धऽी ळधस ी रमस्तकम।् उऽद्झद्टम़नन्द्दत़ग्र किांदकिड्मळ भीऽषतम।् ।१५ ललन्द्तां ऽनलयद्ठ़रर ऽद्ठरदस्येव ि़वकम।् ऽवनेतिम़गत़ध़त्रा ऽवलोसय ऽस्तऽमत़भवत।् ।१६ १५-१६. ऽजनको ऄभा नवान द़ंत ऽनकल रहें हैं ऐसे ह़था के बच्चों क़ मस्तक ऄपने िंडि से ईड़इ हुइ ं धल ी से जैसे धसी ररत हो ज़त़ है वैसे हा कंि द की कऽलयों जैसे िोभ़यम़न नवान द़तं ऽजसके ऄभा ऽनकल रहें हैं और ऄपने ह़थों से धल ी को ईड़कर घर के दरव़जे के अगे खेलते हुए ब़लक को ऄनि ि ़ऽसत करने अइ हुइ ध़आय़ं, ईसको देखकर स्तब्ध हो गइ। स ध़त्रा करत़लाऽभः सवां ऽधयतकितीहलः। किरुते स्म स्मेरमिखो ल़स्यलाल़मनेकध़।।१७ 77 | पृ ष्ठ



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१७. द़आयों की त़ऽलयों से कितही ल को प्ऱप्त हुअ वह प्रसन्नवदन ब़लक ऄनेक प्रक़र से नुत्य करने लग़। अप़ठयऽद्ठध़त़रां ऽनगम़न्द्यः सलिण़न।् सोऽप ध़त्रामिख़त्तत्तन्द्ऩमधेयमपापठत।् ।१८ १८. ऽजसने ऽवध़त़ को लक्षणों सऽहत च़रों वेदों को पढ़़य़ थ़ वह भा स्वयं द़इयों के महंि से ऽभन्न ऽभन्न ऩमों को पढ़ने लग़। उत्त़योत़यय तरस़त्ससमधयकः। व्यश्ऱणयदलङ्क़ऱन् ध़त्राभ्यस्स्विरारतः।।१९ १९. सभा आऽच्छत क़मऩओ ं को पणी य करने व़ल़ वह ऽवष्णि ऄपने िरार पर पहने हुए अभर्ी णों को िाघ्र ईत़र ईत़रकर द़आयों देत़ थ़। अऩदृत्यऽपतिस्त़ांस्त़न् ऽद्ठप़न्द्दृप्त़ांस्तथ़हय़न।् प्रभिमंतिममन्द्तिञ्च बष्दमांस्त स मुन्द्मय़न।् ।२० २०. ऽपत़ के मदमस्त ह़था एवं घोडों को पसंद ऩपसंद करने में वह स्वयं स्व़मा होने के क़रण ईनक़ ऄऩदर करके वह ऽमट्टा के ह़था एवं घोडों को पसंद करत़ थ़। स्पहु य़ळिऽश्िखण्डेभ्यः िोभम़नऽिखण्डकः। अन्द्वध़वदहोऽडम्भः सखण्ड़ऽनऽिखऽण्डऩम्।।२१ २१. ऽिख़ से िोभ़यम़न वह ब़लक मोरों के पख ं ों को लेने की आच्छ़ से मोरों के बच्चों के पाछे दौड रह़ थ़। ऽिऽखऩां च ििक़ऩां च ऽपक़ऩां च रुत़न्द्यसौ। ऽवकिव़यणोनिकिव़यणस्तत्तद् भ्रमकरोभवत।् ।२२ २२. मोर, तोत़ और कोयल आनके अव़ज की तरह अव़ज क़ ऄनक ि रण करने से ऐस़ प्रतात होत़ थ़ ऽक स़क्ष़त् वह पक्षा हा अव़ज कर रह़ हो। स एष ऽकल किव़यणः ऽिििश्ि़दीयळ ि़ऽब्दतम।् प़श्वयवती स्नेहप़त्रामऽपध़त्रामभाषयत।् ।२३ 78 | पृ ष्ठ



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२३. वह समापवती ब़लक एकदम ब़घ जैसा गरजऩ करके ऄपने से स्नेह करने व़ला द़आयों को भा डऱत़ थ़। अभ्ऱन्द्तोऽपभ्रमरवद् भ्रऽमां भ्ऱन्द्तः कद़चन। रृष्टो हय इवहेष़मष्थे षत कद़चन।।२४ २४. वह भ्रम रऽहत होते हुए भा कभा भौंरे के सम़न भ्ऱंत होकर घमी त़ थ़, प्रसन्नऽचत्त होने पर वह कभा घोडे की तरह जोर से हसं त़ थ़।



ईच्चैरुदचरे द्दऽन्त बुंऽहत़ऽन कद़चन।।२५ कभा ह़था के ईच्च चात्क़र के सम़न जोर से चात्क़र करत़ थ़। परी यऽद्झधयऱन्द्द्ट़ां च गभारमधिरस्वरैः। सोऽभम़नपरोभेरामन्द्वक़षीत् कद़चन।।२६ २६. ऄपने गभं ार एवं मधरि स्वर से अक़ि और पुथ्वा को ध्वऽन यि ि करत़ हुअ वह कभा ऄऽभम़न से ददंि भि ा जैसा अव़ज करत़ थ़। मुत्कीट़न्द्यऽप तिङ्ग़ऽन क़रयन् स ऽकिोरकै ः। इम़ऽन मम दिग़यणात्यवोचत कद़चन।।२७ २७. कभा वह ऄन्य बच्चों से ऽमट्टा के उंचे टाले बनव़कर कहत़ थ़ ऽक "यह मेरे ऽकले हैं"। ऽनलानः सद्ञनः कोणे दृङऽनमालनके ऽलषि। अऽन्द्वष्य सऽखऽभः स्पुष्टो सहऽत स्म कद़चन।।२८ २८. कभा लक ि ़ऽछपा क़ खेल खेलते समय वह घर के कोने में ऽछपकर बैठ ज़त़ तो ईसके ऽमत्र ईसको ढीढं कर जब स्पिय करते थे तो वह हसं त़ थ़। पऽततां प़ऽणऩ हस्त़दित्पततां मिहुमयिहुः। अत़डयत् प़तऽयतिां कन्द्दिकांच कद़चन।।२९ २९. कभा कभा, ह़थ से छीटा हुइ गेंद ब़र ब़र ईछलता है तो ईसको पनि ः नाचे ऽगऱने के ऽलए वह ह़थ से म़रत़ थ़। 79 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



आत्मनोत्प़ऽततन्द्दीऱत् पतन्द्तां व्योममण्डल़त।् कन्द्दिकां कुष्णस़ऱिः पश्यन्द्नवऽहतोन्द्मिखः।।३० नुत्यऽन्द्नव पदद्ठन्द्द्ठ तलत़ऽडतभीतलः। प्रोत्त़ऽनत़भ्य़ां प़ऽणभ्य़मग्रहात्स कद़चन।।३१ ३०-३१. कभा, कु ष्णस़र की तरह अख ं ों व़ल़ वह स्वयं ईच्च फें की हुइ गेंद को, अक़ि से नाचे अते समय उपर महंि करके ऐसे ध्य़नपवी क य देखत़ थ़ ऽक म़नो भऽी म पर ह़थों को उंच़ करके वह ऩचते हुए पकडेग़। दृष्टो हरऽत यस्तीणं जऽन्द्मऩां जननभ्रमम।् अभ्ऱमयदहोद़रुभ्रमरां स कद़चन।।३२ ३२. ऽजसके दियन करते हा प्ऱऽणयों को जन्म मरण के बंधन से िाघ्र मऽि ि ऽमल ज़ता है। ऄहो! कभा ईसने स्वयं लकडा से ऽनऽमयत भौंरे को घमी ़य़ थ़। प्रऽतऽषद्चोऽपध़त्राऽभस्तजयना तजयऩऽदऩ। ि़हऽसहां ऽििस्ि त़ांस्त़ां ऽिििलाल़ां व्यग़हत।।३३ ३३. द़आयों ने तजयना ईंगला से ड़टं कर मऩ करने पर भा वह िह़जा क़ पत्रि ईस ईसकी ब़ललाल़ में नकल करत़ थ़। भिङ्क्ष्वेत्यििोऽपऩभिांि ऽपबेत्यििो ऽपऩऽपबत।् अनिनाय स ध़त्राऽभः िेष्वेत्यििोऽपऩस्वपत।् ।३४ ३४. ख़ने के ऽलए बोलने पर वह ख़त़ नहीं थ़, पाने के ऽलए बोलने पर वह पात़ नहीं थ़ और यऽद द़आयों ने ईसको प्य़र से सोने के ऽलए बोलने पर भा वह सोत़ नहीं थ़। तत्तद् खेल़वसि़त्म़ स आत्म़ जगतः परः। सम़हूतो जनन्द्य़ऽप व्यध़द्ङीरमप़क्रमम।् ।३५ ३५. ईन-ईन खेलों में असि वह श्रेष्ठ संस़र की अत्म़, म़ं के बल ि ़ने पर भा दरी भ़ग ज़ता था। यत्रयत्ऱव्रजद् ब़ललाल़ रसविः ऽिवः। 80 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तमन्द्वप़लयांस्तत्र तत्रदेव़स्सव़सव़ः।।३६ ३६. ब़लपन के खेलों के विाभती होकर वह ऽिव़जा जह़ं जह़ं ज़त़ वह़ं वह़ं पर आरं अऽद सभा देव ईसकी रक्ष़ करते थे। यः श्राम़न् करुण़ऽनऽधः समि नस़म़ध़रभीतः स्वयम,् सांज़तः ऽकल ि़हभीपभवने हतंि धररत्राभयम।् वेद़ांतैः पऽठतः पिऱणपिरुषः ख्य़तः पिऱणेषि यस्तां प्ऱप्य ऽश्रयम़बभ़र महतीं ब़ल्य़ऽभध़नां वयः।।३७



३७. जो श्राम़न दय़ के स़गर, देवों के अध़रभती , वेदों में वऽणयत, परि ़णों में ऽवख्य़त है ऐसे भगव़न ऽवष्णि ने पुथ्वा के भय को हरण करने के ऽलए िह़जाऱजे के घर पर स्वयं ऄवत़र ऽलय़ और ईनको ब़लपन की िोभ़ के प्ऱप्त होने से वे ऄत्यऽधक सि ि ोऽभत होने लगे।



इत्यनिपिऱणे कवान्द्रपरम़नन्द्दऽवरऽचते ऽििल ि ाल़वणयनां ऩम सप्तमोऻध्य़य:।। ७ ।।



81 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-८ मनाऽषण उचिः ऽिवनेराऽगरौ ज़तः ऽिवऱज इऽत त्वय़। परम़नन्द्द सांप्रोिमऽस्त नस्तत्र सांियः।।१ १. पंऽडत बोलें- परम़नंद ऽिव़जा ऱज़ ने ऽिवनेरा ऽकले पर जन्म ऽलय़, आस प्रक़र जो हमने बोल़ थ़ ईस पर हमें सि ं य हैं। स ऽह िैलो ऽनज़मस्य ऽप्रयक़रा मह़यि़ः। प्रत़पा प्रऽथतो लोके ध़ऱऽगररररव़परः।।२ अभीद़गमनां तत्र यथ़ ि़हमहापतेः। तथ़ कथय नः सवं भिगोऽवन्द्दनन्द्दन।।३ २-३. क्योंऽक वह ऽकल़ ऽनज़मि़ह क़ ऽहतक़रा, यिस्वा एवं मजबती थ़। म़नो ऽक वह दसी रे ध़ऱऽगरा (दौलत़ब़द) के रूप में लोक में ऽवख्य़त हो। जैसा हा वह़ं पर ि़हजाऱजे क़ अगमन होत़ है वैसे हा हम सभा भ़ट गोऽवदं नन्दन कहने लगे। कवान्द्र उव़च सिध़ऽमव़ऽतम़धिययवतीं पिण्यवताऽमम़म।् कथ़ां ि़हनरेन्द्रस्य श्रुणित ऽद्ठजसत्तम़ः।।४ ४.कवींर बोलें- ऄरे ऽद्रजश्रेष्ठों! यह ऄमुत के सम़न ऄत्यतं मधरि एवं पऽवत्र आस िह़जाऱजे की कथ़ क़ श्रवण करो। अस्तङ्गतेऻम्बरमऽणप्रत़पे बबयरेऻम्बरे। ऽनमयऽन्द्त्रऽण ऽनज़मे च ऽस्थऽतसज ां ़तसि ां ये।।५ ऽदवङ्गते दैवयोग़ऽदभऱमेऻनिभ़ऽवऽन। 82 | पृ ष्ठ



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तत्सति े महमीदे च दृप्ते तत्पदवऽतयऽन।।६



सैन्द्ये स़ऽहजह़नस्य ऽदल्लान्द्रत्वमिपेयिषः। दऽिण़ां ऽदिम़द़तिमवलेप़दिप़गते।।७ प्रतनेऩनिबन्द्धेन ऽनज़मोपऽचकीषयय़। ि़हऱजो मह़ब़हुऽवयजय़ष्दां परि ां जहौ।।८ ५-८. सयी य की तरह प्रत़पा बबयर मऽणकंबर के ऄस्त हो ज़ने पर ऽनज़मि़ह को दसी रे ऄच्छे मत्रं ा के न ऽमलने से ईसके ऱज्य की ऽस्थऽत में संिय ईत्पन्न हो गय़। भ़ग्यवि ऄनिभवा आब्ऱऽहम अऽदलि़ह के ऽदवगं त हो ज़ने पर ईसके ईनमि ि बेटे महमदी ने ईसकी ऱजगद्दा सभं ़ला। ि़हज़ह़ं यह ऽदल्ला क़ ब़दि़ह बन गय़ और ईसकी सेऩ दऽक्षण जातने के ऽलए बडे ऄऽभम़न के स़थ अइ।ं ऐसे समय पर ऄपऩ परि ़ऩ संबंध पहच़नकर ऽनज़मि़ह की कल्य़ण करने की आच्छ़ से मह़बलि़ला िह़जाऱजे बाज़परि छोडकर ईसके प़स गये। अथ य़दवऱजोऻऽप ऽहत्व़ त़म्ऱनयि ़ऽयत़म।् पिप़ता ऽनज़मस्य ध़रऽगररमिप़गमत।् ।९ ९. ब़द में य़दवऱज भा मगि लों की ऄधानत़ को छोडकर दौलत़ब़द में ऽनज़मि़ह के पक्ष में अकर ऽमल गय़। अत्ऱन्द्तरे ऽनज़मस्य भुिां ऽवश्रम्भभ़जनम।् वश्ां यो ऽवश्व़सऱजस्य ऽिवभिो मह़व्रतः।।१० तनयः ऽसद्चप़लस्य सप्रि ऽसद्चोऻऽतवैभवः। ऽिवनेररऽगररस्थ़या नुपऽतऽवयजय़ष्दयः।।११ वऱय िम्भिऱज़य ि़हऱजसित़य वै। जयन्द्ताम़त्मतनय़मनिरुप़ममन्द्यत।।१२ १०-१२. आस बाच में ऽवश्व़सऱज किल वि ं ज ऽसिप़ल के बेटे ऽिवभि, मह़व्रता, सप्रि ऽसि एवं ऄत्यंत वैभवि़ला ऽवजयऱज ये ऽनज़मि़ह के ऄत्यंत ऽवश्व़सप़त्र थे और वे ऽिवनेरा ऽकले पर रहते थे। ईनको ऄपना जयंता ऩम की पत्रि ा िह़जाऱजे के पत्रि संभ़जा के ऽलए ऄनरू ि प प्रतात हुइ। 83 | पृ ष्ठ



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ि़हऱजोऻऽप सम्बन्द्धां तां सश्ल ि ़घ्यतमां भऽि व। सऽां वऽचन्द्त्य स्निष़त्वेन जयन्द्तीं तमय़चत।।१३ १३. िह़जाऱजे को भा वह सबं धं पुथ्वा पर ऄत्यंत प्रिसं नाय लग़ और ईसने ऄपने पत्रि के ऽलए बहु रूप में जयतं ा की म़ंग की। ततो ऽवजयऱजस्य ि़हऱजस्य चोभयोः। अभीद्टथोिसांबांधसिप्रयििो महोत्सवः।।१४ १४. ब़द में ऽवजयऱज और िह़जाऱजे आन दोनों के संबंध को सस्ि थ़ऽपत करने के ऽलए महोत्सव हुअ। ऽवश्व़सऱजवांश्य़ऩां भीप़ऩां भीररतेजस़म।् तथ़ भुिबल़ऩां च समव़यो मह़नभीत।् ।१५ १५. ऽवश्व़सऱज किल वि ं जों के ऄत्यंत तेजस्वा ऱज़ओ ं की और भोंसले वंिजों की बडा ब़ऱत आकट्ठा हुइ। स तयोः श्ल़घ्यगिणयोजययन्द्तािम्भिऱजयोः। ऽिवनेररऽगऱव़सात्प़ऽणग्रहमहो मह़न।् ।१६ १६. जयंता और संभ़जा आन प्रिसं नाय गणि यि ि जोडा क़ ऽवव़ह क़ययक्रम ऽिवनेरा ऽकले पर बडे अनंद के स़थ सपं णी य हुअ। अथो कऽतपय़होऽभस्तां सम़प्य महोत्सवम।् तस्यैवच ऽगरेमयीऽध्नय स्वजनेन समऽन्द्वत़म।् ।१७ सम्बन्द्ध्यनमि तः पत्नामन्द्तवयत्नीं ऽनध़य त़म।् प्रतस्थे ि़हनुपऽतदयय़यख़नऽजगाषय़।।१८ १७-१८. ईस महोत्सव की सम़ऽप्त के किछ ऽदनों ब़द ईसके सबं ऽं धयों की ऄनमि ऽत से ऄपना गभयवता पत्ना को ऄपने सगे-संबंऽधयों के स़थ ईस ऽकले पर छोडकर िह़जाऱजे दय़यख़न को जातने के ऽलए ऽनकल गये। ऽिवनेररऽगरौ ष्त़साच्छ़हस्य़गमनां यथ़। तथ़ कऽथतव़नऽस्म ऽकमथ श्रोतिऽमच्छथ।।१९ 84 | पृ ष्ठ



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१९. ऽिवनेरा ऽकले पर िह़जाऱजे क़ अगमन ऽकस प्रक़र हुअ यह मैंने बत़ ऽदय़ है और क्य़ अप सनि ऩ च़हते हैं ? मनाऽषण उचिः सद्टो ऽदल्लाश्वरां ऽहत्व़ पिप़ऽतन्द्यिप़गते। मह़व्रते मह़ऱजे यदिऱजे मह़भिजे।।२० अऽभक्रमपरैस्त़म्रमिखैयोद्चिां समिद्टते। अभाप्सम़नः स्व़भाष्टां ऽनज़मः ऽकमचेष्टत।।२१ २०-२१. पंऽडत बोलें - ऽदल्ला के ब़दि़ह को ऄच़नक छोडकर ऽनज़मि़ह के पक्ष में मह़व्रता, एवं मह़बलि़ला मह़ऱज़ य़दवऱज अकर ऽमल गये और पऱक्रमा मगि लों के स़थ यि ि करने के ऽलए तैय़र हो गए ऽकन्ति ऐसा ऽस्थऽत में ऄपने ऄभाष्ट के आच्छिक ऽनज़मि़ह ने क्य़ ऽकय़ ? कवान्द्र उव़च अथ दैव़ऽन्द्नज़मस्य ऽवषय़ऽवष्टचेतसः। हन्द्त दिमयऽन्द्त्रणो योग़ज्जज्े मऽतऽवपयययः।।२२ २२. कवींर बोलें- भ़ग्यवि ऽवर्यों में असि हुए ऽनज़मि़ह की बऽि ि को दष्टि मऽं त्रयों ने ऽमलकर घमी ़ ऽदय़। तस्य मत्तस्य सऽवधे ययौ स़धिरस़धित़म।् ऽप्रयव़दपरोऻत्यथयमस़धिरऽप स़धित़म।् ।२३ ऽवपरातदृि़ तेन गिरवोऻऽप लघीकुत़ः। गिणोपेत़श्च गिरवो नात़ः िािमगौरवम।् ।२४ २३-२४. ईस ईनमि ि ब़दि़ह को सज्जन दजि नय की तरह प्रतात होने लगे एवं ऽप्रयव़दा ऄत्यंत दष्टि परुि र् भा सज्जन प्रतात होने लगे। ईसको ऽवपरात बऽि ि यि ि गरुि जन भा तच्ि छ प्रतात होने लगे और सल़हक़रा गरुि जनों के प्रऽत ईसकी अदर बऽि ि नष्ट हो गइ। अव्यवऽस्थतऽचत्तस्य मत्तस्य मधिऩन्द्वहम।् 85 | पृ ष्ठ



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अवद्टव़ऽदनस्तस्य बत ऱष्रमहायत।।२५ २५. ऄव्यवऽस्थत मन से यि ि एवं प्रऽतऽदन द़रू पाने से ईनमि ि होकर ऽनंदनाय भ़र्ण करनेव़ले ईस ऽनज़मि़ह क़ ऱज्य नष्ट हो रह़ थ़। अथ प्रणन्द्तिम़य़तमतावप्रऽतभ़ऽन्द्वतम।् ऽनज़मो य़दव़धािमवमेने सिदिमयऽतः।।२६ २६. ऐसा ऽस्थऽत में एकब़र ऄत्यतं तेजस्वा य़दवऱज ईसको नमस्क़र करने के ऽलए अय़ तो ईस दबि यऽि ि ऽनज़मि़ह ने ईसक़ ऄपम़न कर ऽदय़। अवज़्तो ऽनज़मेन मह़म़ांना मह़मऩः। यदिऱजस्तद़ वाररस़वेिविोऻभवत।् ।२७ २७. ऽनज़मि़ह से आस प्रक़र क़ ऄपम़न हो ज़ने से ईस मह़मऩ एवं ऄऽभम़ना य़दवऱज को बहुत द:ि ख प्ऱप्त हुअ। अथ सेऩऽधपतयो हमाद़द्ट़स्सिदिमयद़ः। दिमयऽन्द्त्रते ऽनज़मेन पीवयमेव प्रबोऽधत़ः।।२८ स़ऽभम़नां पऱवतयम़नां मत्तऽमव ऽद्ठपम।् आस्थ़नातोरणोप़न्द्ते रुरुधिय़यदवेश्वरम।् ।२९ २८-२९. हमाद़ऽद दष्टि सेऩपऽतयों को ऽनज़मि़ह ने यह योजऩ पहले हा बत़ दीं थीं ऽफर ईन्होंने मदमस्त ह़था की तरह द:ि ख की पाड़ से व़पस ज़ते हुए य़दवऱज को सभ़गुह के द्ऱर पर हा घेर ऽलय़। स तत्र बहुऽभययिध्यन् सिपित्ऱम़त्यब़न्द्धवः। प्रत्यिद्ट़तः सिरगणैः सिरलोकमलोकत।।३० ३०. वह ऄपने पत्रि , ऄम़त्य, ब़ंधवों एवं ऄनेक ऄन्य लोगों के स़थ लडते लडते स्वगयलोक चल़ गय़। यथ़ मेरोऽवयपय़यसः प़तो भ़निमतो यथ़। यथ़ ष्तन्द्तः कुत़न्द्तस्य द़हः पत्यिरप़ां यथ़।।३१ 86 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तथ़ य़दवऱजस्य तद़ तत्र बत़त्ययः। सप्त़ऩमऽपलोक़ऩमभीदल्पऽहत़वहः।।३२ ३१-३२. मेरू पवयत क़ ईल्ट़ हो ज़ऩ य़ सयी य क़ नाचे ऽगर ज़ऩ य़ यमऱज क़ ऄतं हो ज़ऩ य़ ऽफर वरुणदेव क़ जल ज़ऩ जैस़ ऄऽहतकर है वैसे हा वह़ं पर य़दवऱज की मुत्यि क़ होऩ स़तों लोकों के ऽलए ऄत्यंत ऄऽहतकर है। तदवस्थमथ श्रित्व़ श्वििरां य़दवेश्वरम।् ि़हो ऽनज़मस़ह़य्य़ऽद्ठरऱम मह़यिः।।३३ ३३. ऄपने श्वसरि य़दवऱज की ईस ऄवस्थ़ को सनि कर यिस्वा िह़जाऱजे ने ऽनज़मि़ह की सह़यत़ करऩ छोड ऽदय़। अथ त़पातट़त्तीणयमेत्य त़म्रपत़ऽकना। अऽधऽष्ठतां ऽनज़मेन ध़ऱऽगररमवेष्टयत।् ।३४ ३४. ऽफर त़पा नदा के तट से जल्द हा मगि लों की सेऩ वह़ं अइ ं और ऽनज़मि़ह की दौलत़ब़द ऱजध़ना को च़रों ओर से घेर ऽलय़। समिष्त स्व़ां मह़म़ना मद़नामेव येऽदलः। पतु ऩां प्रेषय़म़स लब्ि धो ध़ऱऽगररां प्रऽत।।३५ ३५. ईसा समय ऄऽभम़ना एवं लोभा अऽदलि़ह ने ऄपना सेऩ को आकट्ठ़ करके दौलत़ब़द की ओर भेज ऽदय़। सैन्द्यां स़ऽहजह़नस्य महमीदस्य च़न्द्वहम।् अयिध्येत़ां ऽमथस्तत्र ध़ऱऽगररऽजघुिय़।।३६ ३६. दौलत़ब़द पर ऄऽधक़र करने की आच्छ़ से ि़हज़ह़ं एवं महमदी अऽदलि़ह की सेऩओ ं में परस्पर प्रऽतऽदन यि ि होने लग़। स्वयां ऽनज़मि़होऻऽप ध़ऱऽगररऽिरऽस्थतः। तद़ त़भ्य़मऽप द्ठ़भ्य़मनाक़भ्य़मयिध्यत।।३७ ३७. स्वयं ऽनज़मि़ह भा दौलत़ब़द ऽकले के म़थे पर ऽस्थत होकर ईन दोनों सेऩओ ं के स़थ लडने लग़। 87 | पृ ष्ठ



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ततोऻऽतबऽलऽभस्त़म्रबलैययिध्य़ऽद्झरञ्जस़। महमीदस्य च़नाकै ऽनयज़मः पययभीयत।।३८ ३८. ईसके ब़द ऄत्यतं बलि़ला मगि लों की सेऩ से और महमदी अऽदलि़ह की सेऩ से ऽनज़मि़ह तभा पऱऽजत हो गय़ थ़। ततः स तेन िैलेन सैन्द्येन ऽवऽवधेन च। यथ़ज़तेन च तथ़ फतेख़नेन मऽन्द्त्रण़।।३९ पररग्रहेण सवेण कोषेण च महायस़। ममज्ज सऽहतस्तत्र त़म्ऱननबल़णयवे।।४० ३९-४०. तब वह ऽनज़मि़ह ऽवऽवध सेऩओ,ं मख ी य मत्रं ा फतेहख़न, संपणी य पररजन, ऽवि़ल खज़ऩ एवं ऽकले के स़थ मगि लों की सेऩ रूपा समरि में डीब गय़। मनाऽषण उचिः यस्य़िाऽतसहस्ऱऽण तिरग़ण़ां तरऽस्वऩम।् अिाऽतरऽरदिग़यण़ां चतिऽभयरऽधक़ पिनः।।४१ स्थले जले च यस्य़सन् बत दिग़यण्यनेकिः। समुद्चो ऽवषयो यस्य विे ऽवद्ठेऽष दिग्रयहः।।४२ येन येऽदलि़हस्य ऽदल्लान्द्रस्य च म़ऽननः। पदे पदे बलां सवं जावग्ऱहां व्यसुज्यत।।४३ यस्य़कऽस्मकझषस्य श्येनस्येवोत्पऽतष्यतः। प्रभ़वेण न्द्यलायन्द्त पररपांऽथऽवहगां म़ः।।४४ स ऽनज़मस्तद़ येन हेतिऩ ऽवलयां गतः। ििश्रीषम़ण़न् नः सव़यन् कवान्द्र तमिदारय।।४५ 88 | पृ ष्ठ



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४१-४५. पंऽडत बोलें- ऽजसके प़स ऄस्सा हज़र गऽतम़न घोडे, चौऱसा ऽगरादगि य एवं ऽजसके प़स ऄनेक स्थलदगि य एवं जलदगि य थे, ऽजसके ऄधान समुि एवं ित्रओ ि ं के ऽलए ऄजेय देि थ़, ऽजसने अऽदलि़ह की और ऄऽभम़ना ऽदल्लापऽत की सेऩ को पग-पग पर पऱऽजत ऽकय़ थ़, ब़ज के अकऽस्मक झडप के सम़न ऽजसके अकऽस्मक छ़पों से ित्रि रूपा पक्षा ऽछपकर बैठते थे ऐसे ईस ऽनज़मि़ह क़ ऩि ऽकस क़रण से हुअ, हे कवींर ईस क़रण को सनि ने की हम़रा आच्छ़ है ईसको अप बत़आए। कवान्द्र उव़च समस्तप़लनपरे ऽपतययिपरतेऻम्बरे। भऽवतव्य़निस़रेण फत्तेख़नोऻल्पचेतनः।।४६ अम़त्यत़ां ऽनज़मस्य प्रऽतपद्ट प्रत़पव़न।् त़पय़म़स जनत़ां कुत़न्द्त इव ऽनष्कुपः।।४७ ४६-४७. कवींर बोलें- सभा क़ प़लन करने व़ले ऽपत़ मऽलकंबर की मुत्यि हो ज़ने पर ईसक़ क्षरि बऽि ि फत्तेख़न को भ़ग्यवि ऽनज़मि़ह क़ ऄम़त्य पद ऽमल गय़ और वह आस प्रक़र क्रीर एवं प्रत़पा फत्तेख़न, यमऱज की तरह जनत़ को पाड़ देने लग़। ऽनज़मस्तस्य मन्द्त्रेण हमादस्य च दिमयतेः। यद़प्रभुऽत ऱजन्द्यां यदिऱजां न्द्यघ़तयत।् ।४८ ि़हऱजप्रभुतयः तद़प्रभुऽत भीभुतः। सवे ऽवमनसो भीत्व़ म्लेच्छ़श्च पतु ऩभुतः।।४९ अऽवश्रम्भ़दमष़यच्च स़ध्वस़च्च सम़किल़ः। ऽिऽश्रयियेऽदलां के ऻऽप के ऻऽप ऽदल्लान्द्रमश्रयन।् ।५० के ऽचच्च क्रीरमनसो ऽवरुद्चत्वमिप़चरन।् तटस्थऽमव च़त्म़नां बत के ऽचददिययन।् ।५१ ४८-५१. फत्तेख़न एवं दष्टि हमादख़न की सल़ह से जब ऽनज़मि़ह ने य़दवऱज को मरव़ ऽदय़ तब से िह़जा अऽद सभा ऱज़ एवं मगि ल सरद़र ईससे ऩऱज़ हो गये। ऽवश्व़स ईड ज़ने से, क्रोध से एवं भय के क़रण से किछ ऱज़ 89 | पृ ष्ठ



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अऽदलि़ह से ज़कर ऽमल गये, किछ ने ऽदल्ला के ब़दि़ह क़ अश्रय ऽलय़ और क्रीर मन व़ले किछ लोगों ने ईसक़ ऽवरोध ऽकय़ एवं किछ लोगों ने ईसके प्रऽत तटस्थत़ ऽदख़इ। तेन तेन तद़ तस्य दिनययेन दिऱत्मनः। अवऽु ष्टरजऽनष्टोच्चैरऽनष्ट़य िराररण़म।् ।५२ ५२. ईस दरि ़च़रा दष्टि ऽनज़मि़ह के आस प्रक़र के ऄनेक दष्ि कमों के क़रण भयंकर ऄवर्यण होने से प्ऱऽणयों क़ ऄऽनष्ट होने लग़। ऽचरस्य ऽवषये तस्य न ववषय वुष़ यद़। सस्यां सिदिलयभमभीत्स्वणं ति सिलभां तद़।।५३ ५३. बहुत समय तक ईसके देि में ब़ररि न होने के क़रण से ध़न्य ऄत्यऽधक महं ग़ हो गय़ एवं सोऩ सस्त़ हो गय़ थ़। प्रस्थम़त्ऱऽण रत्ऩऽन ऽवऽनमय्य धनाजनः। कथञ्चन सम़दत्त किलत्थ़न्द्प्रस्थसऽम्मत़न।् ।५४ ५४. धऩढ्य लोग प्रस्थम़त्र रत्नों को देकर बडे प्रयत्न से प्रस्थम़त्र किलत्था प्ऱप्त करते थे। आह़ऱभ़वतोऻत्यथं ह़ह़भीत़ः परस्परम।् पिीन्द्वै पिवो जिमि ़यनिष़ अऽप म़निष़न।् ।५५ ५५. ख़ने को किछ न ऽमलने के क़रण अकऽस्मक ह़ह़क़र मच गय़ और परस्पर पिि पिओ ि ं को एवं मनष्ि य मनष्ि यों को ख़ने लगे। तेऩवषेण महत़ परचक्ऱगमेन च। अभ़वेन च मौल़ऩमनाकस्य च भीयसः।।५६ अनििणां िायम़णस्त़म्ऱस्यैरनिभ़ऽवऽभः। धुतो ध़ऱऽगररपऽतः फत्तेख़नश्च दिमयऽतः।।५७



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५६-५७. ईस भयंकर ऄक़ल के क़रण से तथ़ परचक्र के अगमन से और ऄनभि वा परि ़ने सेऩपऽतयों एवं ऽवपल ि सेऩ के ऄभ़व के क़रण से प्रत्येक क्षण क्षाणत़ को प्ऱप्त होत़ हुअ ऽनज़मि़ह और ईसके स़थ दष्टि फत्तेख़न बलव़न मगि लों के ह़थ पकडे गए। अनिकीलेन क़लेन सवं धत्तेऻनिकीलत़म।् प्रऽतकीलेन तेनैव सकलां प्रऽतकीलत़म।् ।५८ ५८. यऽद समय ऄनक ि ी ल हो तो सब ऄनक ि ी ल हा होग़ और जब वहा प्रऽतकील हो तो सब किछ प्रऽतकील होग़। यस्य़नक ि ी लो भगव़न् क़ल एष सऩतनः। अऩय़सेन ऽसध्यांऽत तस्य क़य़यऽण देऽहनः।।५९ ५९. ऽजस मनष्ि य क़ यह सऩतन भगव़न क़ल ऄनक ि ी ल होत़ है ईसके सभा क़यय ऄऩय़स हा ऽसि हो ज़ते हैं।



जऽनस्सत्त च वऽु द्चश्च ऽवप़कोऻपचयोऻऽप च। ियश्च षडमा भ़व़ः ऽवक़ऱः क़लऽनऽमयत़ः।।६० ६०. ईत्पऽत्त, ऽस्थऽत, वुऽि, पररपक्वत़, क्षय और ऩि ये क़ल ऽनऽमयत छह ऄवस्थ़ हैं। जयः पऱजयो व़ऽप वैरां मऽन्द्त्रबल़बले। सऽवद्टत्वमऽवद्टत्वमिद़रत्वां कदययत़।।६१ प्रवुऽत्तश्च ऽनवुऽत्तश्च स्व़तन्द्त्र्यां परतन्द्त्रत़। समुऽद्चरसमुऽद्चश्च ज़यन्द्ते क़लपययय़त।् ।६२ ६१-६२. ऽवजय य़ पऱजय, ित्रत्ि व, मत्रं ा बल य़ ईसक़ ऄभ़व, ऽवद्रत्त़ य़ ऄऽवद्रत्त़, द़निालत़ य़ कु पणत़, प्रवुऽत्त य़ ऽनवुऽत्त, स्वतंत्रत़ य़ परतंत्रत़, समुऽि य़ ऽनधयनत़ ये सब क़ल की ऽवपररतत़ एवं ऄनक ि ी लत़ से ईत्पन्न होते हैं। मुत्ययिजन्द्मवयश्च़ऽप ऽतस्रोऻवस्थ़श्च तस्य त़ः। क़ल़देवप्रवतयन्द्ते तथ़ यज़्ऽदक़ः ऽक्रय़ः।।६३ 91 | पृ ष्ठ



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६३. जन्म, अयि और मुत्यि ये तानों ऄवस्थ़एं एवं यज्ञ़ऽदक ऽक्रय़एं क़ल के क़रण हा ईत्पन्न होता है। न क़लेन ऽवऩ बाजां न क़लेन ऽवऩांकिरः। न क़लेन ऽवऩ पिष्पां न क़लेन ऽवऩ फलम।् ।६४ न क़लेन ऽवऩ ताथं न क़लेन ऽवऩ तपः। न क़लेन ऽवऩ ऽसऽद्चः न क़लेन ऽवऩ जयः।।६५ न क़लेन ऽवऩ भ़ऽन्द्त िि़क ां िऽि चभ़स्कऱः। न क़लेन ऽवऩ वुऽद्चमवुऽद्चां चैऽत स़गरः।।६६ न क़लेन ऽवऩ गांग़म़जह़र भगारथः। न क़लेन ऽवऩ क़कय ल़स्य़न्द्मििो नुगो नुपः।।६७ न क़लेन ऽवऩ ऱमो ऽनजघ़न दि़ननम।् न क़लेन ऽवऩ लक ां ़ां प्रऽतपेदे ऽबभाषणः।।६८ न क़लेन ऽवऩ कुष्णो गोवयधनमदाधरत।् न क़लेन ऽवऩ प़थो वैकतयनमजाघतत।् ।६९ सिख़ऩमसिख़ऩां च क़ल एव ऽह क़रणम।् क़लमेवेश्वरां मन्द्ये सगयऽस्थत्यन्द्तक़ररणम।् ।७० ६४-७०. क़ल के ऽबऩ बाज नहीं होत़ है, क़ल के ऽबऩ ऄक ं ि र नहीं होत़ है, क़ल के ऽबऩ फ़ील नहीं होत़ है, क़ल के ऽबऩ फल नहीं होत़ है, क़ल के ऽबऩ ताथय नहीं होत़ है, क़ल के ऽबऩ तपस्य़ नहीं होता है, क़ल के ऽबऩ ऽसऽि नहीं प्ऱप्त होता, क़ल के ऽबऩ ऽवजय प्ऱप्त नहीं होता है, क़ल के ऽबऩ ऄऽग्न चंर एवं सयी य चमकते नहीं है, क़ल के ऽबऩ समरि ज्व़रभ़टे को भा प्ऱप्त नहीं होत़ है, क़ल के ऽबऩ भ़गारथा गगं ़ को नहीं ल़ सकते, नुगऱज़ क़ल के ऽबऩ ऽछपकला की योऽन से मि ि नहीं हो सकते थे, क़ल के ऽबऩ ऱम ऱवण को नहीं म़र सकते थे, क़ल के ऽबऩ ऽबभार्ण को लक ं ़ प्ऱप्त नहीं हो सकता था, क़ल के ऽबऩ श्राकु ष्ण गोवधयन पवयत को ईठ़ नहीं सकते थे, क़ल के ऽबऩ ऄजनयि कणय को म़र नहीं सकते थे, सख ि एवं द:ि ख क़ क़रण क़ल हा है आसऽलए ईत्पऽत्त, ऽस्थऽत एवं प्रलय करने व़ले क़ल को हा मैं भगव़न समझत़ ह।ं 92 | पृ ष्ठ



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सङ्गरे भङ्गम़स़द्ट ऽनज़मो ऽवलयां गतः। लब्ध्व़ दैवऽगररां दैत्यो ऽदल्लान्द्रो मिदम़गतः।।७१ यथ़ येऽदलि़होऻऽप सैन्द्यभङ्ग़त् ऽवलऽज्जतः। तदेतदऽखलां क़ल़ज्ज़त ज़नात भो ऽद्ठज़ः।।७२ ७१-७२. यि ि में पऱऽजत होने से ऽनज़मि़ह क़ ऩि हो गय़, दैवगरर को प्ऱप्त करके ऱक्षस रूपा ऽदल्ला क़ ब़दि़ह अनऽं दत हुअ और ऄपना सेऩ के पऱऽजत होने से अऽदलि़ह लऽज्जत हो गय़, ये सब क़ल के प्रभ़व से हुअ ऐस़ तमि ऽद्रजश्रेष्ठों! समझो। ऽनरुध्य ध़ऱऽगररदिगयमिग्रम।् त़म्ऱननैस्तत्र धुते ऽनज़मे। गत़ऽभम़ऩ ऽवऽहत़पय़ऩ। बभीव सेऩ ऽकल येऽदलस्य।।७३



७३. देवऽगरा के ईग्र ऽकले को मगि लों ने घेरकर ऽनज़मि़ह को पकड ऽलय़ तब अऽदलि़ह की सेऩ हतबल होकर वह़ं से व़पस लौट गइ। इत्यनिपिऱणे कवान्द्रपरम़नन्द्दऽवरऽचते अष्टमोऻध्य़य:।।८।।



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अध्य़यः-९ कवानर उव़चअथ देवऽगररां प्ऱप्य ऽदल्लान्द्रे मिऽदत़त्मऽन। दिमयदे महमीदे च सन्द्नसैन्द्ये ऽवष़ऽदऽन।।१ ि़हो ऽनज़मि़हस्य िैलदिग़यण्यनेकिः। ऽिवनेररमिख़न्द्य़िि बलेन विम़नयत।् ।२ १-२. कवींर बोलें- ईसके ब़द देवऽगरा प्ऱप्त हो ज़ने से ऽदल्ला के ब़दि़ह को अनंद हुअ तथ़ ईन्मि ि महमदी को ऄपना सेऩ के पऱऽजत होने से दःि ख हुअ आसा बाच िह़जाऱजे ने ऽनज़मि़ह के ऽिवनेरा अऽद ऄनेक प्रमख ि ऽकले िाघ्र हा ऄपने ऄधान कर ऽलए। गोद़वरीं मह़पिण्य़ां प्रवऱां च प्रभ़ऽवणाम।् नाऱां िारऽधसिाऱां भाम़ां भामरथामऽप।।३ ऽश्रतां जनपदां सवं सम़क्रम्य क्रमेण च। स्वविे स्थ़पय़म़स सद्टः सष्तां च पवयतम।् ।४ ३-४. ईसा प्रक़र ऄत्यतं पऽवत्र गोद़वरा और प्रभ़वि़ला प्रवऱ, क्षार स़गर के जैसे जल व़ला नाऱ, भयक ं र भाम़ नदा आन नऽदयों के तटवती सभा जनपदों पर क्रमिः अक्रमण करके ईसने िाघ्र हा सह्य़ऽर को भा ऄपने ऄधान कर ऽलय़। िक्रप्रस्थस्य िक्रेण ऽवरुद्चोऻयमभीद्टद़। मह़ऱजममिां भेजिमयह़ऱष्रनुप़स्तद़।।५ घ़ऽण्टक़ः क़ऽण्टक़स्तद्ठरोकप़ट़श्च क़ांकट़ः। तोमऱश्च़हुब़ण़श्च मऽहत़श्च मह़ऽरक़ः।।६ 94 | पृ ष्ठ



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खऱट़ः प़ण्डऱस्तद्ठद्व्य़िघोरफट़दयः। तद़ ि़हनरेन्द्रेण पुतऩपतयः कुत़ः।।७



५-७. जब िह़जाऱजे को ऽदल्ला के ब़दि़ह के ऽवरुि हुअ देख़ तब घ़टगे, क़ंटे, ठोमरे , चव्ह़ण, मोऽहते, मह़डाक, खऱटे, प़ंढरे , व़घ, घोरपडे अऽद मह़ऱष्रायन ऱज़ ईसको अकर ऽमलें और तब िह़जाऱजे ने ईन सबको सेऩपऽत बऩ ऽदय़। अथ ि़हजय़पेिा जह़नऽगरनन्द्दनः। समां येऽदलि़हेन सद्टः सऽन्द्धमयोजयत।् ।८ ततो ऱजतिऱस़हां ि़हां यिऽध ऽजगावतोः। तयोस्समभवत्साम़ भाम़ ऩम मह़नदा।।९ ८-९. ऽफर िह़जाऱजे को जातने के आच्छिक िह़ंजह़ ने अऽदलि़ह के स़थ तरि ं त सऽन्ध कर ला। ईसके ब़द ऱजेंर िह़जा को जातने की आच्छिक ईन दोनों ने भाम़ ऩम की मह़नदा से परस्पर ऱज्यों के मध्य की साम़ ऽनऽश्चत की। मनाऽर्ण ईचःि ि़हः ि़ऽहजह़नस्य सेनय़ येऽदलस्य च। स़हसा ऽसांहऽवक्ऱन्द्तः कऽत वष़यण्यिद्चत।।१० कथां च सऽन्द्धमकरोत् त़भ्य़ां द्ठ़भ्य़मऽप प्रभिः। कवान्द्र भवतः श्रोतिऽमदमाह़महे वयम।् ।११ ११. पंऽडत बोलें- स़हसा एवं िेर के सम़न पऱक्रमा िह़जाऱजे ने अऽदलि़ह और िह़जह़ की सेऩ के स़थ ऽकतने वर्ों तक यि ि ऽकय़? ऽफर ईन दोनों में सऽन्ध ऽकस प्रक़र हुइ? हे कवींर! ये अपसे सनि ने की हम़रा आच्छ़ है। कवान्द्र उव़च ि़हः स़ऽहजह़नस्य येऽदलस्य च सेनय़। अयिध्यत सम़ऽस्तस्रः सहस्रकरऽवक्रमः।।१२ 95 | पृ ष्ठ



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१२. कवींर बोलें- सयी य की तरह पऱक्रमा िह़जाऱजे ने िह़जह़ और अऽदलि़ह की सेऩ के स़थ तान वर्ों तक यि ि ऽकय़। ततो स्वप्नपऽतः स्वप्ने धीजयऽटस्तेन वऽन्द्दतः। तदृिौ दिनोद्टोतैदीपयांस्तमवोचत।।१३ १३. ईसके ब़द ईसको स्वप्न में स्वप्नपऽत िक ं र के दियन हो गए और ईसने ईनको नमन ऽकय़, तब ऄपने द़ंतों की क़ंऽत से ईसकी अंखों को प्रदाप्त करते हुए बोलें। धज ी यऽटरुव़च अताव दिजययो लोके ऽदल्लान्द्रोऻसौ मह़द्टिऽतः। तस्म़द़योधऩवेि़त् ऽवरम त्वां मह़मते।।१४ यदनेन पिऱ चाणं तपस्ताव्रां दिऱत्मऩ। तद्ट़वदस्त्यसौ त़वन्द्न ऽवऩिमिपैष्यऽत।।१५ सवेऻऽप यवऩस्त़त पवी यदेव़न्द्वय़ इमे। देव़ांश्च भीऽमदेव़ांश्च ऽवऽद्ठषऽन्द्त पदे पदे।।१६ यो हन्द्तिां यवऩनेत़नेत़ां भिवमव़तरत।् स एष भगव़न् ऽवष्णिः ऽिवसांज्ः ऽिििस्तव।।१७ कररष्यत्यऽचरेणैव तदेतत्वऽच्चकीऽषयतम।् तस्म़दनेहसां कऽञ्चत् प्रतािस्व मह़भिज।।१८ १४-१८. िक ि क़यय से ं र बोलें- यह मह़तेजस्वा ऽदल्लापऽत पुथ्वा पर ऄजेय है, आसऽलए हे बऽि िम़न ऱज़! तमि आस यि ठहर ज़ओ। आस दरि ़च़रा ने पहले की हुइ ताव्र तपस्य़ के सम़प्त होने तक आसक़ ऩि नहीं होग़। त़त! ये सभा यवन वि ं ा हैं और वे देव एवं ब्ऱह्मणों से पग-पग पर द्रेर् करते हैं। आन यवनों क़ ऽवऩि करने के ऽलए जो पुथ्वा पर ऄवतररत हुअ है वह भगव़न ऽवष्ण,ि ऽिव ऩमध़रा तेऱ बेट़ है। वह तेरे आष्टक़यय को िाघ्र हा पणी य करे ग़ आसऽलए हे मह़बलि़ला! तमि किछ समय प्रताक्ष़ करो।



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एवमििवऽत प्राऽतमऽत देवे कपऽदयऽन। प्ऱबिध्यत प्रसन्द्ऩत्म़ प्रभ़ते पुऽथवापऽतः।।१९ १९. आस प्रक़र ईस प्रेममय िक ं र देव के कहने पर ऱज़ प्रसन्नऽचत्त होकर सबेरे ज़गुत हुअ।



ततो ऽनज़मऽवषयां ि़हः स्वऽवषयां ऽवऩ। ऽदल्लान्द्ऱय ददौ कऽञ्चत् येऽदल़य च कञ्चन।।२० २०. तब िह़जाऱजे ने ऄपने ऱज्य को छोडकर, ऽनज़मि़ह ऱज्य के किछ ऱज्य ऽदल्ला के ब़दि़ह को एवं किछ ऱज्य अऽदलि़ह को दे ऽदए। हठिालोऻऽप तां ि़हः प्रह़य हठम़त्मनः। व्यध़द्टेऽदलत़म्ऱभ्य़ां सऽन्द्धां ऽत्रनयऩज्य़।।२१ २१. ऽज़द्दा स्वभ़व के होते हुए भा िह़जाऱजे ने ऄपने ऽज़द्दापन को छोडकर िक ं र की अज्ञ़नसि ़र ऽदल्ला के ब़दि़ह एवं अऽदलि़ह के स़थ सऽन्ध कर ला। ततो ऽनज़मऽवषयां सम्प्ऱप्य मिऽदत़त्मसि। पऱवुत्तेषि त़म्रेषि पऱक्रमणक़ररषि।।२२ असमथयऽमव़त्व़नां मन्द्यम़नो मह़मऽतः। तऽददां ऽचन्द्तय़म़स येऽदलो ऽनजचेतऽस।।२३ समथैः समऱम्भोधौ ऽनज़मो यैऽनयमऽज्जतः। तेऻमा त़म्ऱनऩः प्ऱयो मज्जऽयष्यऽन्द्त म़मऽप।।२४ तस्म़दमिां मह़ब़हुां म़लवम़यत्मजां नुपम।् स़ह़य्ये स्वे ऽनध़स्य़ऽम ऽवध़स्य़ऽम ऽवऽधऽत्सतम।् ।२५ २२-२५. ऽनज़म ि़ह क़ ऱज्य ऽमल ज़ने के क़रण प्रसन्नऽचत्त, दसी रों के ऱज्य पर अक्रमण करने व़ले मगि लों के व़पस लौट ज़ने पर, बऽि िम़न अऽदलि़ह को, हम दबि यल हैं ऐस़ प्रतात होने लग गय़ और ईसने ऄपने मन में ऽवच़र 97 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽकय़ ऽक ऽजस स़मथ्ययव़न मगि लों ने ऽनज़म ि़ह को यि ि रूपा समरि में डीब़ ऽदय़ है, प्ऱय: वे मझि े भा डीब़ देंग।ें आसऽलए आस मह़ब़हु ि़हजा को ऄपना सह़यत़ के ऽलए स़थ लेकर मैं ऄपने आऽच्छत क़यों को ऽसि कर लंगी ़।



पवी यमस्यैव़वलम्ब़ऽदभऱमः ऽपत़ मम। ऽवध्वस्त़ऱऽतरध्य़स्त ऽनऽवयिङ्कः स्वम़नसम।् ।२६ सहस़वमतः सोऻयां मऽतमन्द्दतय़ मय़। म़मिपेक्ष्य गतो म़ऩऽदभऱम़दनन्द्तरम।् ।२७ मह़म़ना मह़ब़हुरसौ ि़हमहापऽतः। कुत्व़ मदऽधकां स्नेहऽमभऱमेण वऽधयतः।।२८ २६-२८. पहले मेरे ऽपत़ आब्ऱऽहम ि़ह आसकी सह़यत़ से हा ित्रओ ि ं क़ ऽवध्वसं करके मन से ऽनऽश्चंत होकर रहते थे। ऽफर ईनकी मुत्यि के ब़द मेरा मख ी तय ़ के क़रण मैंने ईसक़ ऄपम़न ऽकय़ ऽजसके क़रण वह ऄऽभम़ना ि़हजा मझि े छोडकर चल़ गय़। आब्ऱऽहम ि़ह ने आस स्व़ऽभम़ना एवं पऱक्रमा ि़हजा पर मेरे से ऄऽधक प्रेम करके ईसक़ प़लन पोर्ण ऽकय़ थ़। इऽत चेतऽस सऽञ्चन्द्त्य महमीदो मह़द्टिऽतः। अम़त्य़न् प्रेषय़म़स सद्टः ि़हनुपां प्रऽत।।२९ २९. आस प्रक़र मन में ऽवच़र करके ईस तेजस्वा महमदी ि़ह ने तरि ं त हा ि़हजा के प़स ऄपने ऄम़त्य को भेज ऽदय़। अननि ातः स तैस्तत्र मऽन्द्त्रऽभमयन्द्त्रवेऽदऽभः। प्रऽतजज्े मह़ब़हुयेऽदलस्य सह़यत़म।् ।३० ३०. ईस नाऽत ऽनपणि ऄम़त्य ने ि़हजा से ऽवन्त़ पवी क य ऽनवेदन ऽकय़ और ईस पऱक्रमा ि़हजा ने भा अऽदलि़ह को सह़यत़ करने क़ वचन दे ऽदय़। अथ ि़हमहाप़लमबलम्ब्य़वलम्बदम।् बत प्रऽतपदां लेभे महमीदो मह़मिदम।् ।३१ 98 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



३१. सह़यत़ करने व़ले िह़जा ऱज़ क़ अध़र ऽमल ज़ने के क़रण से महमदी ि़ह को पग-पग पर बड़ अनंद होने लग़।



अथो फऱदख़नस्य सति ां समरधयवी हम।् ऽनऽखल़नाऽकनाम़न्द्यां सेऩन्द्यां रणदिलहम।् ।३२ बऽलऩ ि़हऱजेन मह़ऱजेन सांयितम।् प्रत़पा प्रेषय़म़स जेतिां कण़यटनावुतम।् ।३३ ३२-३३. ब़द में ईस प्रत़पा महमदी ि़ह ने संपणी य सेऩ के ऽप्रय एवं रणधरि ं धर फऱदख़न के पत्रि सेऩपऽत रणदल्ि ल़ख़न को, पऱक्रमा ि़हजा ऱज़ के स़थ कऩयटक ऱज्य को जातने के ऽलए भेज ऽदय़। तद़ फऱदख़नेन य़कितेऩङ्कििेन च। हिेन्द्यम्बरख़नेन मसदी ेन तथ़ पनि ः।।३४ प्रव़रघ़ऽण्टके ङ्ग़लग़ढघोरफट़ऽदऽभः। सिभटै स्सऽहतैस्तैस्तैः प्रतस्थे रणदीलहः।।३५ ३४-३५. तब फऱदख़न, य़कीतख़न, ऄक ं ि िख़न हुसैन, ऄबं रख़न, मस़उदख़न, वैसे हा पव़र, घ़टगे, आगं ले, ग़ढ़े, घोरपडे अऽद बडे-बडे योि़ओ ं के स़थ रणदल्ि ल़ख़न यि ि के ऽलए ऽनकल गय़। अथ सेऩऽधपऽतऩ स़धं तेन मह़मऩः। बला भुिबलो ऱज़ प्ऱप क़ण़यटमण्डलम्।।३६ ३६. ईस सेऩपऽत के स़थ मह़मऩ एवं बलि़ला भोसले ऱज़ भा कऩयटक चल़ गय़। ततो ऽबन्द्दिपरि ़धािां वारभरां महौजसम।् वुषपत्तनप़लां च प्रऽसद्चां के ङ्गऩयकम।् ।३७ क़वेरापत्तनपऽतां जगद्ङेवां मह़भिजम।् श्रारङ्गपत्तनेन्द्रां च क्रीरां कण्ठारव़ऽभधम।् ।३८ 99 | पृ ष्ठ



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तञ्ज़परि प्रभिां च़ऽप वारां ऽवजयऱघवम।् तथ़ तञ्जापररवुढां प्रौढां वेङ्कटऩयकम।् ।३९ ऽत्रमल्ल्ऩयक़ष्दां च मधिऱऩथमिद्चतम।् पालिगण्ड़खण्डलां च ऽबकटां वेंकट़ष्दयम।् ।४० धारां श्रारङ्गऱजां च ऽवद्ट़नगरऩयकम।् प्रऽसद्चां तम्मगौडां च हस ां कीटपरि ेश्वरम।् ।४१ विाकुत्य प्रत़पेन तथ़न्द्य़नऽप प़ऽथयव़न।् ि़हः सन्द्तोषय़म़स सेऩन्द्यां रणदीलहम।् ।४२ ३७-४२. ऽबदं पि रि के ऱज़ मह़ तेजस्वा वारभर, वुर्पत्तन क़ ऱज़ प्रऽसि कें ग ऩआक, क़वेरा पत्तन क़ ऱज़ मह़ब़हु जगदेव, श्रारंगपट्टन क़ ऱज़ क्रीर कंठारव, तंज़वर क़ ऱज़ वार ऽवजयऱघव, तंजा क़ ऱज़ प्रौढ़ वेंकटऩयक, मदरि इ क़ ऱज़ घमडं ा ऽत्रमलऩयक, पालगी डं ़ क़ ऱज़ ईनमि ि वेंकटप्प़, ऽवद्य़नगर क़ ऱज़ ऽजद्दा श्रारंगऱज़, हसं कीट क़ ऱज़ प्रऽसि तम्मगौड़ आनको और ऄन्य ऱज़ओ ं को ि़हजा ने ऄपने पऱक्रम से ऄधान करके सेऩपऽत रणदल्ि ल़ख़न को सतं ष्टि ऽकय़। कुत्व़ऻथ वारसांह़रक़ररयिद्चमहऽदयवम।् यिद्चिौण्ड़त् ऽकम्पगौण्ड़त् गुहातां सिमनोहरम।् ।४३ रणदीलहख़नेन प़ररबहयऽमव़ऽपयतम।् सोऻध्य़स्त ऽवजया ऱज़ ऽबगां रुऴऽभधां परि म।् ।४४ ४३-४४. ऽफर ऱत ऽदन वारों क़ सहं ़र करने व़ले ि़हजा ने यि ि करके यि ि ऽनपणि ऽकंपगौंड़ के प़स से ऄऽतिय रमणाय बेंगलरुि ऩम क़ िहर ऽछन ऽलय़। रणदल्ि ल़ख़न ने भा ि़हजा को प़ररतोऽर्क के रूप में वह नगर दे ऽदय़ और ऽफर ईसा जगह वह ऽवजय ऱज़ रहने लग़। अथ तऽस्मन् पिरवरे पटिप्ऱक़रगोपिरे। सध ि ़वद़तसौध़ग्रपत़क़ऽल्लऽखत़म्बरे।।४५ तत्तत्क़रुकल़कीणयरम्ययहम्ययमय़न्द्तरे। 100 | पृ ष्ठ



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ऽवटङ्कऽस्थतबऽां हष्ठप़ऱवतकुतस्वरे।।४६ व़त़यनोत्पतन्द्नालकण्ठकीऽजतपीऽतते। ऽवस्ताण़यपणऽवन्द्यस्तपण्यवस्तिसमऽन्द्वते।।४७



प्रऽतसद्टोल्लसत्कीपे ऽवकसद्ङाघयदाऽघयके। नैकिगुां ़टकोदञ्चज्जलयन्द्त्रोच्छल्लज्जले।।४८ प्रफिल्लऽनष्किटकिटच्छ़यच्छन्द्नमहातले। ऽभऽत्तऽवन्द्यस्तसऽच्चत्रलिभ्यल्लोकऽवलोचने।।४९ ऩऩवण़यश्मसम्बद्चऽस्नग्ब्धसिन्द्दरमदिरे। ऽवसङ्कटपिरद्ठ़रकीटकिरिममपऽण्डते।।५० चय़िमस्तकन्द्यस्तऩल़यन्द्त्रसदि ि गयमे। समाकऽनपण ि ़नाकप्रकरप्रऽतप़ऽलते।।५१ समन्द्त़दतलस्पियपररख़व़ररभ़सिरे। अप़रस़गऱक़रक़स़रपररिाऽलते।।५२ अऽनलोल्ल़ऽसतलत़लऽलतोद्ट़नमण्डले। कनक़चलसांक़िदेवत़यतऩऽञ्चते।।५३ सवां सन् व़सवसमः स एष नपु सत्तमः। ऽनजैः पररजनैः स़धं ऽवऽवधां मिदम़ददे।।५४ स कद़ऽचन्द्मुगयय़ कद़ऽचत् स़धिसेवय़। कद़ऽचदचयय़ िम्भोः कद़ऽचत् क़व्यचचयय़।।५५



101 | पृ ष्ठ



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४५-५५. ईस नगर की साम़ एवं नगर द्ऱर मजबती थे। सफे दा से सफे द ऽकए हुए महल के ऽिखर पर ऽस्थत पत़क़ गगन भेदा था और वह महल सभा प्रक़र के ऽिल्पकल़ओ ं से पररपीणय रमणाय हवेऽलयों से व्य़प्त थ़, पक्षा गुह में बैठे हुए ऄसख्ं य कबती र वह़ं घमी ते थे, ऽखडकी से ईडने व़ले मोरों की के क़ अव़ज से वह महल मनोहर थ़, ऽवस्ताणय दक ि ़नों में बेचने के ऽलए वस्तएि ं रखा गइ था, वह़ं प्रत्येक घर में किएं और ईस िहर में संदि र एवं ऽवस्ताणय ब़वऽडय़ं था, ईसा प्रक़र वह़ं ऄनेक चौक थे और ईनमें ऽस्थत फव्व़रों से प़ना ईडत़ थ़, गुह ईद्य़न के ऽवकऽसत पेडों की छ़य़ से भऽी म अच्छ़ऽदत था, महल की दाव़र पर ऽचऽत्रत ईत्कु ष्ट ऽचत्रों से लोगों की अख ं ें लब्ि ध हो ज़य़ करता था, ऄनेक प्रक़र के रंगों से यि ि पत्थरों से ब़ंधा हुइ संदि र ऄश्वि़ल़ था, बडे-बडे नगर द्ऱरों के ऽिखर प़ऱ्णों से सि ि ोऽभत थे, महल के मस्तक पर रखे हुए तोपों से वह ऄत्यंत दगि मय हो गय़ थ़, यि ि में ऽनपणि सेऩ के समही ने ईसकी रक्ष़ की था, च़रों ओर गहरे प़ना की ख़आयों से वह सििोऽभत ऽदख रह़ थ़, ऄप़र समरि के सम़न ऽवस्ताणय त़ल़ब से वह िोऽभत हो रह़ थ़, वह़ं व़यि के वेग से ऽहलने डिलने व़ला लत़ओ ं यि ि संदि र बगाचे थे, मेरुपवयत के सम़न मऽं दरों से वह िहर मऽं डत थ़, आस प्रक़र ईस नगर में ऽनव़स करने व़ल़ आरं जैस़ वह नुपश्रेष्ठ ऄपने पररजनों के स़थ अनंद को प्ऱप्त कर रह़ थ़। कद़ऽचन्द्नतयकीनुत्यदियनोत्सवल ां ालय़। कद़ऽचन्द्नैकऽवधय़ िरसन्द्ध़नऽििय़।।५६ कद़ऽचद़यिध़ग़रऽवन्द्यस्त़यिधवािय़। कद़ऽचद़त्मसांग्ऱष्ततत्तत्सैन्द्यपरािय़।।५७ कद़ऽचत् पऽि ष्पतोद्ङ़मनगरोद्ट़नय़त्रय़। कद़ऽचत् स़रस़िाऽभः िङ ु ् ग़ररसदािय़।।५८ कद़ऽचद्टोगि़ष्धोिकलय़ योगमिरय़। प्रभिस्तत्तरसमयां समयां समनानयत।् ।५९ ५६-५९. कभा नुत्य़ंगऩओ ं के नुत्य के दियन से अनंऽदत होकर तो कभा ऄनेक प्रक़र के िरसंध़न की ऽिक्ष़ से, कभा िह्ल़ग़र में रखे हुए िह्लों को देखने से, कभा ऄपना सेऩ के ऽलए सैऽनकों की सैन्य पराक्ष़ से, कभा फिलों से सगि ऽं धत नगर के ईद्य़न में भ्रमण से, कभा संदि र ऽह्लयों के स़थ िुगं ़र रस के अस्व़दन से और कभा योगि़ह्ल में कऽथत पिऽत व़ला योग मरि ़ से, आस प्रक़र वह ऱज़ सभा प्रक़र क़ ईपभोग करते हुए ऄपने समय को व्यतात कर रह़ थ़।



102 | पृ ष्ठ



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जनना िम्भिऽिवयोस्तत्र य़दवनऽन्द्दना। जग्ऱह रृदयां पत्यिः ििद्च़न्द्ते सिमहत्यऽप।।६० ६०. ि़हजा की ऄनेक पऽत्नय़ं था ऽकंति जो सभं ़जा और ऽिव़जा की म़ं एवं य़दवऱज की पत्रि ा था, ईसने ऄपने पऽत के िि ि रृदय में स्थ़न प्ऱप्त कर ऽलय़ थ़।



हऽलऩ हररण़ च़ऽप वसिदेवो यथ़न्द्वहम।् व्यऱजत तथ़ ि़हः िम्भिऩ च ऽिवेन च।।६१ ६१. जैसे बलऱम और श्राकु ष्ण के संयोग से वसदि वे प्रऽतऽदन सि ि ोऽभत होत़ थ़ वैसे हा ऽिव़जा और संभ़जा के सयं ोग से िह़जा सि ि ोऽभत हो रह़ थ़। स ति िम्भोः कनाय़ांसां गराय़ांसां गिणऽश्रय़। बहु मेने मह़ऱजः ऽिविम़यणम़त्मजम।् ।६२ ६२. संभ़जा से अयि में छोटे ऽकंति गणि ों में बडे ऄपने पत्रि ऽिव़जा से िह़जाऱजे ऄत्यंत प्रेम करते थे। यद़प्रभुऽत सञ्ज़तः स एष तनयः ऽिवः। तद़प्रभुऽत ि़हस्य समुद्च़ः सवयसम्पदः।।६३ ६३. जब पत्रि ऽिव़जा क़ जन्म हुअ, तब से हा ि़हजाऱजे के सभा ऐश्वयय वुऽि को प्ऱप्त होते गए। अऽतष्ठन् द्ठ़रर बहुिो मन्द्दऱचलसिन्द्दऱः। ऽवऽजत़म्भोरुहरुचो मदव़ररमिचो गज़ः।।६४ ६४. मदं ़र पवयत के सम़न सदंि र, कमल की िोभ़ को ऽजसने जात ऽलय़ है, ऽजसके गडं स्थल से मदजल नाचे ऽगर रह़ है ऐसे ऄनेक ह़था ईसके द्ऱर पर खडे थे। आसन् सहस्रिश्च़ऽप मन्द्दिऱय़ां मनोहऱः। व़तो इव़ििगतयः सैन्द्धव़ः समरोद्चिऱः।।६५ ६५. व़यि की तरह वेगव़न और यि ि में ऄऽडग रहने व़ले हज़रों घोडे ईसके ऄश्वि़ल़ में ऽवद्यम़न थे। 103 | पृ ष्ठ



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ववध ु े च़ऽधकां कोषस्तोषेण सह ऽनत्यिः। प्रत़पः पप्रथेऻत्यथं प्रभ़वश्च ऽदने ऽदने।। ६६ ६६. ईसके सन्तोर् के स़थ स़थ ईसक़ क्रोध भा प्रऽतऽदन ऄत्यऽधक बढ़ने लग़ एवं ईसके स़थ प्रत़प एवं प्रभ़व भा प्रऽतऽदन ऄऽतिय वुऽि को प्ऱप्त होने लगे।



दिग्रयह़ण्यऽप दिग़यऽण सिग्रहत्वां प्रपेऽदरे। ऽवजयस्सवयदैव़सात् स्वप्नेऻऽप न पऱभवः।।६७ ६७. दजि ये ऽकले भा ईसके ऽलए सल ि भ होने लगे, ईसक़ सवयद़ हा ऽवजय होने लग़ और सपने में भा ईसकी पऱजय नहीं होता था। पिष्प़ण़ां च फल़ऩां च सस्य़ऩां च़ऽभवुद्चयः। स़धनेन ऽवऩ ऽसऽद्चमायिस्सव़यश्च ऽसद्चयः।।६८ ६८. फल, फील एवं ध़न्यों की वुऽि होने लगा और स़धनों के ऽबऩ हा ईसके स़रे मनोरथ ऽसऽि को प्ऱप्त होने लगे। एवां समुद्चत़ां नातः पिऱणपिरुष़त्मऩ। सितेन तेन सितऱां मिमिदे म़लनन्द्दनः।।६९ ६९. आस प्रक़र ऽवष्णि रूपा पत्रि के संयोग से वुऽि को प्ऱप्त हुअ म़लोजा क़ पत्रि ि़हजा ऄपने पत्रि को देखकर ऄत्यंत अनऽं दत होने लग़। ततस्तां तनयां वाक्ष्य सगिणां सप्तह़यनम।् ऽलऽपग्रहणयोग्ब्योऻयऽमऽत भीपो व्यऽचन्द्तयत।् ।७० ७०. ऽफर ईस गणि व़न पत्रि को स़त वर्य क़ हुअ देख़ तो, वह ऄक्षर ज्ञ़न प्ऱप्त करने के ऽलए योग्य है ऐस़ ऱज़ को प्रतात होने लग़। स तां पित्रां मऽन्द्त्रपित्रैः सवयोऽभः समऽन्द्वतम।् न्द्यवेियत गवि यङ्के मेध़ऽवनमलोहलम।् ।७१ 104 | पृ ष्ठ



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७१. मऽं त्रयों के सम वयस्क पत्रि ों के स़थ बऽि िम़न एवं स्पष्ट ईच्च़रण करने व़ले ईस पत्रि को गरुि के गोद में ऽबठ़य़। आख्य़ऽत ऽलऽखतिां य़वद़च़यो वणयम़ऽदमम।् त़वद् ऽद्ठतायमप्येष ऽवऽलख्य तमदिययत।् ।७२



७२. गरुि जा, जब ईसको पहल़ ऄक्षर ऽलखने के ऽलए बोलते थे तो ईसके स़थ वह दसी रे ऄक्षर को भा ऽलखकर ऽदख़ देत़ थ़। सव़यस़मऽप ऽवद्ट़ऩां द्ठ़रभ़वमिप़गत़म।् ऽलऽपां यथ़वदऽखल़ां ग्ऱहय़म़स तां गिरुः।।७३ ७३. सवय ऽवद्य़ओ ं क़ जो द्ऱर है ऐसे मल ि ़क्षरों को गरुि जा ने ईसको ईत्तम राऽत से पढ़़ ऽदए थे। तमथ सहजमेध़ि़ऽलनां सिस्वभ़वां। नुपमुगपऽति़वां व़गगम्य़निभ़वम।् गिरुपऽचतऽचत्तः ऽिऽित़ऩां समीहे। रितधुतऽलऽपऽवद्टां वाक्ष्य वैलक्ष्यमेहे।।७४ तब स्वभ़व से बऽि िम़न, ऄच्छे स्वभ़व व़ल़ और ऄनपि म प्रभ़व से यि ि ि़हजा के पत्रि को सभा ऽवद्य़ऽथययों के बाच आतने जल्द मल ि ़क्षरों ऽसख़ हुअ ज़नकर गरुि को ऄत्यंत ऄऽभम़न हुअ और यह किछ ऽवलक्षण ब़लक है ऐसा ईसके प्रऽत पहच़न बऩ ला। इत्यनिपिऱणे ऽनव़सकरपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां सांऽहत़य़ां नवमोऻध्य़य:।।९।।



105 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-१० कवान्द्र उव़च ऽिववम़य यद़ वषं द्ठ़दिां प्रत्यपद्टत। तद़ नुपश्ि़हवम़य ऽनयोगेन ऽपऩऽकनः।।१ अमिां िम्भिकनाय़ां सम़हूय ऽिवलिणम।् अकय द्टिऽतमदकय ज्ः पिण्यदेिेश्वरां व्यध़त।् ।२ १-२. कवींर बोलें- जब ऽिव़जा को ब़रहव़ं वर्य च़ली हो गय़ तब ि़हजाऱजे ने िक ं र की अज्ञ़ से सयी य के सम़न तेजस्वा एवं िभि लक्षणों से यि ि सभं ़जा के छोटे भ़इ को बल ि ़कर पणि े प्ऱतं क़ ऄऽधक़र सौंप ऽदय़। मनाऽषण उचिः यथ़ देि़त् भगवतो देवस्य ऽत्रपिरऽद्ठषः। पण्ि यदेिां प्रऽत नपु ः प्रेषय़म़स तां ऽिवम।् ।३ यथ़ च पिण्यऽवषयां प्ऱप्तस्स ऽपतिऱज्य़। कवान्द्र परम़नन्द्द तथ़ त्वमऽभधेऽह नः।।४ ३-४. पंऽडत बोलें- भगव़न िंकर की अज्ञ़ से ऽिव़जा को िह़जा ने पणि े कै से भेज़? और ऽपत़ की अज्ञ़ से वह ऽिव़जा पणि े कै से गय़? हे कऽवश्रेष्ठ! परम़नदं हमें बत़ओ। कवान्द्र उव़च एकद़भ्यच्यय भवने भगवन्द्तां वुषध्वजम।् िय़नस्सख ि िय्य़य़ां सक ि ु ता ि़हभीपऽतः।।५ प्रसन्द्नपञ्चवदनां दिहस्तां ऽत्रलोचनम्। मन्द्द़ऽकनाजलऽस्नग्ब्धजट़जीटमनोहरम्।।६ 106 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



िात़ांिि ि कलोत्तस ां ां ऽत्रपण्ि रलऽलतद्टऽि तम।् हररन्द्मऽणऽनभग्रावां सरासुपऽवभीषणम।् ।७



वऱभयप्रदां वारां ऽवऽवध़यिधध़ररणम।् द्ठाऽपचमोत्तऱसङ्गां ऽद्ठपचम़यधऱम्बरम।् ।८ ऽनद़नां सवयमििीऩां ऽनध़नां सकलऽश्रय़म।् योऽगनां योऽगऩऽमरऽमन्द्रोपेन्द्ऱऽदवऽन्द्दतम।् ।९ समस्तलोकसऽहतां सऽहतां ऽगररकन्द्यय़। अपश्यऽद्ठऽस्मतः स्वप्ने पिरस्त़ऽत्रपिरऽद्ठषम।् ।१० ५-१०. कवींर बोलें- एक ब़र भगव़न िंकर की पजी ़ करके पण्ि यव़न ि़हजा ऱज़ सिखि्य़ पर सो रहे थे तब ऽजसके पच ि प्रसन्न है, ऽजसको दस ह़थ एवं तान अख ं मख ं ें हैं, जो गगं ़जल से ऽस्नग्धत़ को प्ऱप्त हुइ जट़ के सयं ोग से मनोहर ऽदख रह़ है, ऽजसके मस्तक पर ऄधयचंऱक़र ऽदख रह़ है, ऽजसके कप़ल को ऽत्रपंड्रि के संयोग से िोभ़ प्ऱप्त हुइ है, ऽजसक़ कंठ मरकतमऽण के स़म़न हऱ है, ऽजसने स़ंपों के अभर्ी ण पहन रखे हैं, ऽजसने ऄनेक प्रक़र के िह्लों को ध़रण ऽकय़ हुअ है, जो वरद़त़, ऄभयद़त़ एवं बलि़ला है, ऽजसने व्य़घ्र चमय को ओढ़ रख़ है एवं गज चमय को पहन रख़ है, जो सवय मऽि ि क़ अऽद क़रण है और सभा ऐश्वयों क़ खज़ऩ है, ऽजसको आरं ऽवष्णि अऽद देव नमन करते हैं, योऽगयों में सवयश्रेष्ठ योगा है ऐसे ऽत्रपरि ़रा िक ं र को सभा लोकों के स़थ एवं प़वयता के स़थ स्वप्न में वतयम़न देखकर वह अश्चययचऽकत हो गय़। दृष्ट्व़ तमाश्वरां स़ि़त् स्वयां समऽभवन्द्द्ट सः। परि ोबद्च़ञ्जऽलपटि ऽस्तष्ठऽत स्म़ऽतऽनवयतु ः।।११ ११. ईस िक ं र को प्रत्यक्ष देखकर स्वयं ने ईसक़ वदं न ऽकय़ और ऄऽतिय अनंद को प्ऱप्त होत़ हुअ वह ह़थ जोडकर ईसके स़मने खड़ हो गय़। ततः स भगव़न् भगयः स्वभिमवनाश्वरम।् वचनेऩनिजग्ऱह ऽनरवग्रहिऽिभुत।् ।१२ 107 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



१२. तत्पश्च़त ऄप्रऽतऽष्ठत िऽि व़ले िक ं र ऄपने भि ि़हजाऱजे पर ऄनग्रि ह करके बोलें। ईश्वर उव़च सीययवांश्य मह़ब़हो िह़ऱज मह़मते। सम़कणयय मद्ठ़चऽमम़ां कििलमऽस्तते।।१३ य एष भ्ऱजतेभ्यणे कनाय़ांस्तनयस्तव। तमेनां लिणोपेतमवेऽह परुि षोत्तमम।् ।१४ वधयम़नः क्रमेणैव त्वत्पत्रि ोयमिरुक्रमः। सम़क्रम्य़वनीं सव़ं यवऩऽन्द्नहऽनष्यऽत।।१५ इयां भगवता देवा ऽगररज़ भिवत्सल़। समये समयेभ्येत्य तऽममां प़लऽयष्यऽत।।१६ हत़य धररत्राभ़रख्य सहां त़य प्रऽतभीभुत़म।् मद्झि एष सवेष़मप्यधष्ु यो भऽवष्यऽत।।१७ तस्म़दमिां मह़ब़हुां मह़ियऽिव़ह्रयम।् पिण्यदेि़ऽधपत्येन महनायेन योजय।।१८ १३-१८. हे सयी यवि ं ा मह़ब़हु, बऽि िम़न ि़हजाऱज़! मेरे आन वचनों को ध्य़न से सनि ो आसमें हा तम्ि ह़ऱ कल्य़ण हैं। यह जो तेऱ छोट़ बेट़ तेरे समाप सि ि ोऽभत हो रह़ है ईसको िभि लक्षणों से यि ि भगव़न ऽवष्णि है ऐस़ ज़नो। यह तेऱ पत्रि ऽवष्णि धारे -धारे वुऽि को प्ऱप्त होत़ हुअ संपणी य पुथ्वा पर अक्रमण करके यवनों क़ संह़र करे ग़ और यह भिवत्सल़ प़वयता देवा समय-समय पर समाप अकर ईसकी रक्ष़ करे गा। पुथ्वा के भ़र क़ हरण करने व़ल़ एवं ित्रि पक्ष के ऱज़ओ ं क़ सहं ़र करने व़ल़ यह मेऱ भि सभा के ऽलए ऄजेय होग़ आसऽलए हे मह़िय! आस ऽिव़जा ऩम के मह़बहु को पणि े प्ऱंत की बडा ऽजम्मेद़रा सौंप दो। तऽमत्यिसत्व़ महेि़नस्तद़ मिि़मयीं स्रजम।् तस्य ऱजकिम़रस्य कण्ठे स्वयमयोजयत।् ।१९ 108 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



१९. ईसको आस प्रक़र बोलकर, िक ं र ने मोऽतयों की म़ल़ को स्वयं ईस ऱजकिम़र के गले में ड़ल ऽदय़। एवम़ऽवभयवद्च़दयभरे देवे कपऽदयऽन। प्ऱबिध्यत धऱप़लो मिहूते ब्रष्णदैवते।।२० २०. आस प्रक़र िक ं र के ऄतं ःकरण में प्रेम के अऽवभतयी होने से वह ऱज़ ब्रह्म महि तय में हा ज़गुत हो गय़। ऽवऽिष्टः स्वेन तपस़ ऽवस्मय़ऽवष्टम़नसः। त़मेव मीऽतयमािस्य ध्य़यन्द्नेष मिहुमयिहुः।।२१



प्ऱतः प्रभ़करन्द्ऩम प्रभ़करसमप्रभम।् पिरोऽहतां सम़ऩय्य ििांस स्वप्नम़त्मनः।।२२ २१-२२. स्वयं की तपस्य़ से ऽवऽिष्ट ऐस़ वह ऽवस्मय यि ि ऱज़ िक ं र की मऽी तय क़ ब़रंब़र ध्य़न करते हुए सवेरे सयी य के सम़न तेजस्वा प्रभ़कर ऩम के परि ोऽहत को बल ि ़कर ऄपने सपने में घऽटत घटऩ को बत़य़। अथ़निमोऽदतस्तेन प्ररृष्टेन पिरोधस़। पिण्यदेि़ऽधपत्येन ि़हः ऽिवमयोजयत।् ।२३ २३. तब अनंऽदत होकर ईस परि ोऽहत के ऄनमि ोदन करने पर िह़जा ने ऽिव़जा को पणि े प्ऱंत क़ ऄऽधपऽत ऽनयि ि ऽकय़। अथ तऽस्मन्द्ऩऽधपत्ये ऽपत्ऱदत्ते प्रत़ऽपऩ। प्रय़तिक़मः स्वां ऱष्रां ऽिवऱजो व्यऱजत।।२४ २४. प्रत़पा ऽपत़ के द्ऱऱ ईसको अऽधपत्य देने पर, स्वदेि ज़ने की आच्छ़ व़ल़ वह ऽिव़जा ऽविेर् सि ि ोऽभत हो रह़ थ़। ततः कऽतपयैरेव गजव़ऽजपद़ऽतऽभः। मौलैऱप्तैरम़त्यैश्च ख्य़तैरध्य़पकै रऽप।।२५ ऽबरुदैश्च ध्वजैरुच्चैः कोषेण़ऽप च भीयस़। 109 | पृ ष्ठ



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तथ़ पररजनैरन्द्यैरनन्द्यसमकमय ऽभः।।२६ समवेतममिां ि़हभीपऽतश्िोभने ऽदने। प्ऱऽहणोत्पिण्यदेि़य पिण्यक़ररणम़त्मजम।् ।२७ २५-२७. तत्पश्च़त किछ ह़था, घोडे एवं पैदल सेऩ, पाढ़ा प्ऱप्त ऽवश्व़सप़त्र ऄम़त्य, ऽवख्य़त ऄध्य़पक, ईच्च ध्वज, ऽवपल ि कोर् तथ़ ऄऽद्रताय कमों को करने व़ले ऄन्य पररजन आन सबके स़थ ईस पण्ि यिाल बेटे को ि़हजा ऱजे ने िभि ऽदन पर पणि े भेज ऽदय़।



ततः कऽतपयैरेव ऽदनैऽदयनकुदन्द्वयः। अय़द्ङेिां मह़ऱष्रां तस्म़त् कण़यटमण्डल़त।् ।२८ २८. ऽफर किछ ऽदनों ब़द वह सयी यवि ं ा ऽिव़जा ऱज़ कऩयटक प्ऱंत से मह़ऱष्र के ऽलए चल ऽदय़। सिऽिऽत्रतयोपेतः समेतस्सैन्द्यसञ्चयैः। ऽिवस्स्वय़ ऽश्रय़ स़धं पण्ि य़हां परि म़सदत।् ।२९ २९. प्रभ़व, ईत्स़ह एवं मत्रं आन तान िऽियों से यि ि तथ़ सेऩ समही एवं स्वयं की ऱजलक्ष्मा से यि ि वह ऽिव़जा ऱज़ पणि े िहर पहुचं गय़। चक्रऽप्रयकरः सद्टः समिल्ल़ऽसतमण्डलम।् ऩवेदयदमिां लोकबन्द्धिां लोको व्यलोकत।।३० ३०. ऱष्र क़ ऽहत करने व़ले एवं ऱष्र को प्रक़ऽित करने व़ले ईस लोक ऽमत्र को लोगों ने देख़ ऽकंति पहच़न नहीं प़ए। ततोनिकीलप्रकुऽतः किवयन् प्रकुऽतरञ्जनम।् अवधयत क्रमेणैष ऽवक्रमा यिस़ सह।।३१ ३१. तत्पश्च़त ऄनक ि ी ल मऽं त्रयों के सह़यत़ से प्रज़ओ ं को अनंद देत़ हुअ वह ऽिव़जा ऄपने यि के स़थ क्रमिः वुऽि को प्ऱप्त होने लग़। 110 | पृ ष्ठ



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मह़ऱष्रो जनपदस्तद़नीं तत्सम़श्रय़त।् अन्द्वथयत़मन्द्वभवत् समुद्चजनत़ऽन्द्वतः।।३२ ३२. तब ईसके स़़्ज्य में मह़ऱष्र ऱज्य की प्रज़ समुि हुइ और मह़ऱष्र यह ऩम स़थयक ऽसि हुअ। श्रयन्द्तः प्रश्रयोपेतां गिरवस्तां गिणैस्मह। अनन्द्यऽनष्ठमनसः समगच्छन् कुत़थयत़म।् ।३३ ३३. ईस ऽवनयिाल एवं गणि व़न ऽिव़जा के ऄधानस्थ गरुि जन कु त़थय हो गए क्योंऽक ईनके द्ऱऱ ऽसख़इ हुइ, सवय ऽवद्य़ओ ं एवं कल़ओ ं में वह ऽिव़जा ऽनपणि हो गय़।



श्रऽि तस्मुऽतपरि ़णेषि भ़रते दण्डनाऽतष।ि समस्तेष्वऽप ि़ष्धेषि क़व्ये ऱम़यणे तथ़। ३४ व्य़य़मे व़स्तिऽवद्ट़य़ां होऱसि गऽणतेष्वऽप। धनिवेदऽचऽकत्स़य़ां मते स़मिऽरके पिनः।।३५ त़सि त़सि च भ़ष़सि छन्द्दस्सि च सिभ़ऽषते। चय़यऽस्वभरथ़श्व़ऩां तथ़ तल्लिणेष्वऽप।।३६ आरोहणे प्रतरणे चांक्रमे च ऽवघांलने। कुप़णच़पचके षि प्ऱसपरिििऽिषि।।३७ यिद्चे ऽनयिद्चे दिग़यण़ां दिगयमाकरणेषि च। दिलयक्ष्यलक्ष्यवेधेषि दिगयम़ऽभगमेष्वऽप।।३८ इङ्ऽगतेषि च म़य़सि ऽवषऽनहयरण़ऽदष।ि तत्तरत्नपराि़य़मवध़ने ऽलऽपष्वऽप।।३९ प्रवाणः स स्वयां त़ांस्त़न् गीरुन् गिरुयिोभरैः। 111 | पृ ष्ठ



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अयोजयत् भुिां तत्तत् प्रत्यऽभज़्नव़न् ऽवभिः।।४० ३४-४०. श्रऽि त, स्मुऽत, परि ़णों, भ़रत, ऱजनाऽत, सभा ि़ह्ल, क़व्य, ऱम़यण तथ़ व्य़य़म, व़स्ति ऽवद्य़, फऽलत ज्योऽतर्, ऄगं ों सऽहत धनवि दे , ईसा प्रक़र स़मऽि रक ि़ह्ल, ऄनेक प्रक़र की भ़ऱ्ए,ं पद्य, सभि ़ऽर्त, ह़था घोडे एवं रथ की सव़रा तथ़ ईनके लक्षणों में, चढ़ऩ, ईतरऩ, दौडऩ एवं छल़ंग लग़ऩ, तलव़र, धनर्ि , चक्र, भ़ल़, पट्ट़ एवं िऽियों, यि ि , ब़हुयि ि , ऽकलों को ऄभेद्य बऩऩ, दल ि यभ लक्ष्यों पर ऽनि़ऩ लग़ऩ, दगि मय स्थ़नों से ऽनकलऩ, आि़रों को समझऩ, ज़दऽी गरा, ऽवर् को ईत़रऩ, ऄनेक प्रक़र के रत्नों की पराक्ष़, ऽलऽपयों क़ ज्ञ़न आन सभा ि़ह्लों एवं कल़ओ ं में स्वयं ऽनपणि होकर सभा गरुि जनों को बड़ यि प्रद़न ऽकय़ और ईसने ज्ञ़नपवी क य ईनक़ ब़रंब़र ईपयोग भा ऽकय़। स एष यौवऩरम्भे दध़नोऻऽभनव़ां ऽश्रयम।् व्यभ़द्टथ़ व़सन्द्तऽवभवे सरुि भीरुहः।।४१



४१. वसंत ऊति के वैभव से देवतरू जैसे सििोऽभत होत़ है वैसे हा यह ऽिव़जा नव यौवन के अरंभ में ऄऽभनव िोभ़ से सि ि ोऽभत होने लग़। तमिल्लऽां घतकौम़रमिद्झवन्द्नवयौवनम।् मानके तनल़वण्यश्राऽवल़समनोहरम।् ।४२ सता िालवता रम्यरूप़ च़ऽतगिणोज्वल़। अभजद् भीपऽतां भ़य़य प्रव़रकिलसम्भव़।।४३ ४२-४३. कौम़र ऄवस्थ़ की सम़ऽप्त पर ऽजसमें नवयौवन प्रस्फिऽटत हो रह़ है और ऽजसके ऄगं क़मदेव जैसे ल़वण्य ऽवलऽसत होकर मनोहर है ऐसे ईस ऽिव़जा ऱज़ को सता, िालवता, रमणाय रूपवता एवं ऄत्यतं गणि ि़ऽलना पव़र किल में ईत्पन्न पत्ना प्ऱप्त हुइ। पीवयजन्द्मप्रणऽयनीं स इम़ां वरवऽणयनाम।् लब्ध्व़ मिदमिप़दत्त श्राकुष्ण इव रुऽसमणाम।् ।४४ ४४. रुक्मणा की प्ऱऽप्त से श्राकु ष्ण जैसे अनंऽदत हुए, वैसे हा पवी जय न्म की आस संदि र पत्ना को प्ऱप्त करके ऽिव़जा अनऽं दत हुए। 112 | पृ ष्ठ



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प्ऱदिभयवत् प्ऱग्ब्भवसस्ां तव़भ्य़म।् ऽमथोनिकीलत्वमिपगत़भ्य़म।् । अधत्त त़भ्य़मथदम्पताभ्य़म।् सांभीय िोभ़ां महतीं ऽत्रवगयः।।४५ ४५. पवी य जन्म से हा पररऽचत होने से एवं पनि ः आस यगि ल के एकत्र अ ज़ने से ईन दोनों में परस्पर प्रेम ईत्पन्न हो गय़ और ऽफर धमय ऄथय एवं क़म आन तान परुि ऱ्थों के भा आस यगि ल में एकत्र अ ज़ने से वे ऄत्यऽधक सि ि ोऽभत होने लगे। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे ऽनव़सकरपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां सांऽहत़य़ां दिमोऻध्य़य:।। १० ।।



113 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-११ मनाऽषण उचिः सांप्रेष्य पिण्यऽवषयां सनयां तनयां ऽिवम।् ि़हऱजः ऽकमकरोत् कण़यटऽवषये वसन।् ।१ पंऽडत बोले – ऄपने बऽि िम़न ऽिव़जा बेटे को पणि े प्ऱंत भेजकर ि़हजा ऱजे ने कऩयटक में रहकर क्य़ ऽकय़? कथां च महमीदोऻऽप तऽस्मन् ऽवऽजतऽवऽद्ठऽष। प्रऽसद्च़योधनोत्स़हे ि़हे स्वयमवतयत।।२ ऽजसने ित्रिओ ं को जात ऽलय़ है एवं ऽजसके यि ि क़ पऱक्रम प्रऽसि है ऐसे िह़जा के स़थ स्वयं महमदी ि़ह ऽकस प्रक़र क़ व्यवह़र करत़ थ़? कवान्द्र उव़च ष़ड्गिण्यस्य प्रयोगेण तत्तन्द्मन्द्त्रबलेन च। विाचक़र सकलां ि़हः कण़यटमण्डलम्।।३ कऽवरं बोले- संऽध, ऽवग्रह, य़न, असन, संश्रय एवं द्रैध आन ऱ्ड्गण्ि यों क़ प्रयोग करके तथ़ ऽवऽवध प्रक़र की कीट नाऽतयों के बल पर ि़ह जा ने सपं णी य कऩयटक को ऄपने ऄधान कर ऽलय़ थ़। प्रसीनऽमव सांप्ऱप्य प्रणया प्रणऽतस्पुि़। ऽिरस़ प्रऽतजग्ऱह जगद्ङेवोऻस्य ि़सनम।् ।४ िरण़गत जगद्देव ने प्रण़म करके आसके ि़सन को फीलों की तरह ऽसर पर ध़रण ऽकय़। दिधयषोऻऽप ऽवधेयोऻस्य बभवी मधरि ़ऽधपः। प्रऽतपदे मह़िीरपऽतरप्यस्य वश्यत़म।् ।५ 114 | पृ ष्ठ



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मदरि इ क़ ऄजेय ऱज़ भा आसके अदेिों क़ प़लन करने लग़ एवं मैसरी के ऱज़ ने भा आसकी ऄधानत़ को स्वाक़र कर ऽलय़। रणदीलहख़नेन खलेनोपरृतां बल़त।् भऱसनां स्वमध्य़स्त वारभरोऻस्य सश्र ां य़त।् ।६ दष्टि रणदल्ि ल़ख़न के द्ऱऱ बल़त ऽलए गए ऄपने ऽसंह़सन पर ऽिव़जा के अश्रय से वारभर पनि ः बैठ गय़। तां तां मन्द्त्रां तत्र तत्र प्रयिञ्ज़नस्य धामतः। बहवोऻस्य़निभ़वेन जहुययवनजां भयम।् ।७ प्रसगं ़नसि ़र नाऽतयों क़ प्रयोग करनेव़ले बऽि िम़न ि़हजा के प्रभ़व से ऄनेक ऱज़ओ ं ने यवनों के भय को त्य़ग ऽदय़ थ़। ि़हऱजस्य मन्द्त्रेण भवन्द्नन्द्यसिदिःसहः। सव़यऽण स्व़ऽमक़य़यऽण चक़र रणदीलहः।।८ ऄन्यों के ऽलए कठोर रणदल्ि ल़ख़न, ऄपने सभा स्व़मा के क़यों को ि़हजा की सल़ह से करने लग़। अथ क़लगऽतां प्ऱप्ते सेऩन्द्य़ां रणदीलहे। क़ण़यटक़न् नरपतान् स्वविाकतयिमञ्जस़।।९ यां यां सेऩपऽतां तत्र प्ऱऽहणोत् ऽकल येऽदलः। स स तत्क़ांऽित़क़ांिा ि़हमेव़न्द्ववतयत।।१० ब़द में सेऩपऽत रणदल्ि ल़ख़न की मुत्यि हो ज़ने पर कऩयटक के ऱज़ओ ं को िाघ्र ऄपने ऄधान करने के ऽलए ऽजन ऽजन सेऩपऽतयों को अऽदलि़ह ने वह़ं भेज़, वे सब सेऩपऽत, ईनके ऄभाष्ट क़यों की ऽसऽि हेति ि़हजा के नाऽतयों क़ ऄनसि रण करने लगे। ततो भुिबलां भीपां ऽनयन्द्तिमनयां स्पुिन।् इभऱमसितो दप़यत् मिस्तिफ़ख़नम़ऽदित।् ।११



115 | पृ ष्ठ



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तब ऄनैऽतकत़ क़ अश्रय लेने व़ले आब्ऱऽहम अऽदलि़ह के पत्रि ने ऄऽभम़न से भोसले ऱज़ को कै द करने क़ मस्ि तफ़ख़न को अदेि ऽदय़। अथ़नकऽनऩदेन स़गरां प्रऽतगजययन।् जयिब्देन योध़ऩां ऽदङ्गमख ि ़ऽन प्रपरी यन।् ।१२ तरल़ऽभः पत़क़ऽभस्तऽडतः पररतजययन।् उदग्रैश्ििांऽडििण्ड़ग्रैमयिऽदऱन् प्रऽतस़रयन।् ।१३ प़ांसिऽभस्तिरगोद्चीतस्सप्तसऽप्तां ऽवलोपयन।् व़ऽहनाऽनवहैरध्वव़ऽहनाः पररिोषयन।् ।१४ ऽनम्नोन्द्नत़ां वसमि तामताव समत़ां नयन।् प्रपेदे सप्रऽतभटै वयतु ां कण़यटनावुतम।् ।१५ ऽफर ददंि भि ा ध्वऽन से समरि को प्रऽतध्वऽनत करत़ हुअ, योि़ के जय िब्द से ऽदि़ओ ं को सपं री रत करते हुए, चच ं ल ध्वजों से अक़िाय ऽवद्यति को ऽतरस्कु त करते हुए, ह़ऽथयों के संडी के ऄग्रभ़ग से ब़दलों को हट़ते हुए, घोडों के द्ऱऱ ईड़इ हुइ धल ी से सयी य को छिप़ते हुए, सेऩ समही ों से म़गयस्थ नऽदयों के जल को सम़प्त करते हुए, ईच्च़वच भऽी म को समतल करते हुए, वह मस्ि तफ़ख़न, ित्रि योि़ओ ं से व्य़प्त कऩयटक पहुचं गय़। ततः श्रित्व़ तम़य़न्द्तमनेक़नाकप़ऽन्द्वतम।् प्ऱप्तसेऩपऽतपदां येऽदलप्रत्यय़स्पदम।् ।१६ प्रऽथतां मिस्तिफ़ख़नां मह़म़नां मह़न्द्वयम।् कपट़नोकहभिव़ां खिऱस़नभिव़ां वरम।् ।१७ अऽवश्रब्धोऻऽप ऽवश्रम्भम़त्मनः सांप्रदिययन।् प्रत्यिज्जग़म सांरभ़त् ससैन्द्यश्ि़हभीपऽतः।।१८ सेऩपऽत पद को प्ऱप्त हुअ, अऽदलि़ह क़ ऽवश्व़सप़त्र, कपट रूपा वुक्ष की भऽी म, खरि ़स़न प्ऱंत क़ ऄकय , मह़म़ना, ईच्च किल में ईत्पन्न, प्रऽसि मस्ि तफ़ख़न,यह ऄनेक सेऩपऽतयों के स़थ अ रह़ है, आस प्रक़र सनि कर ऄपऩ ऄऽवश्व़सा होते हुए भा ऽवश्व़स ऽदख़ते हुए, ि़हजा ऱज़ ऄपना सेऩ के स़थ जल्दा से ईसके स़मने गय़। 116 | पृ ष्ठ



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अथ़ऽधक़ऽधकां स्नेहां ऽमथो दिययतोस्तयोः। सख्योररव मह़न् जज्े पऽथ सदां ियनोत्सवः।।१९ परस्पर ऄत्यऽधक स्नेह ऽदख़ने व़ले ईन दोनों के ऽमलन क़ क़ययक्रम, दो ऽमत्रों के ऽमलन के सम़न म़गय में बडे हर्ोल्ल़स के स़थ संपन्न हुअ। उभ़वऽप तद़ तत्र वष्ध़ण्य़भरण़ऽन च। किांजऱस्तिरग़ांश्चोच्चैरन्द्योन्द्यमिपजह्रतिः।।२० ईस समय ईन दोनों ने वह़ं वह्ल, अभर्ी ण, ह़था, घोडे, ये सब परस्पर ऽवपल ि म़त्ऱ में ऄऽपयत ऽकए। तद़नीं मिस्तिफ़नाकऽनवेिस्य़ांऽतके ऽनज़म।् सेऩां ऽनवेिय़म़स भीभुत् भि ु बलो बला।।२१ ईस समय मस्ि तफ़ख़न की सेऩ के ऽनव़स स्थल के समाप हा बलि़ला िह़जाऱजे भोसले ने ऄपना सेऩ क़ ऽनव़स स्थल बऩय़। अऱिान्द्मिस्तिफ़ख़नऽच्छऱन्द्वेषा यद़ यद़। सन्द्नद्चमेव सितऱां ि़हऱजां तद़ तद़।।२२ दोर्दिी मस्ि तफ़ख़न जब जब देखत़ थ़ तब तब ईसको ि़हजा ऱज़ ऄत्यंत तैय़रा में ऽदख़। प्रत्य़यऽयतिम़त्म़नां पररदऽियतसौरृदः। स तत्तत्क़ययकरणे ि़हमेव पिरो व्यध़त।् ।२३ ऄपने ऽवर्य में ऽवश्व़स जग़ने के ऽलए प्रेम ऽदख़कर मस्ि तफ़ख़न ि़हजा ऱज़ को सभा क़यों में अगे करत़ थ़। प्रत्यित्थ़ने तरस़ दीरप्रत्यिद्गमे न च। हस्त़श्ले षेण हषेण हस्तसांध़रणेन च।।२४ अध़यसिनप्रद़नेन सांमिखाभवनेन च। ऽस्मतपीवेण वचस़ तथ़ प्राऽतस्पुि़ दृि़।।२५ 117 | पृ ष्ठ



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तत्तन्द्मन्द्त्रप्रयोग़ण़ां प्रक़िकरणेन च। तेषि तेषि च क़येषि पिरस्क़रेण भीयस़।।२६ अहेण पररबहेण सांस्तवेन स्तवेन च। पररह़स रसेनोच्वैरध्य़त्मकथनेन च। पररह़स रसेनोच्वैरध्य़त्मकथनेन च।।२७ ऽहत़हतां ोद्झ़वनेन स्ववत्त ु ़वेदनेन च। यवनः सोऻन्द्वहां तस्मै प्रत्ययां समदिययत।् ।२८ वेगपवी क य खडे होकर, दरी से सम्मख ि ज़कर, ह़थ पकड कर, अनऽं दत होकर, ह़थों में ह़थ ड़लकर, ईपम़ अध़ असन देकर, ईसकी तरफ मंहि करके मदं ह़स्य से बोलकर, प्राऽत पवी क य देखकर, ऄनेक प्रक़र के गप्ति ब़तों को प्रक़ऽित करके , सभा क़यों में परि स्क़रों से परि स्कु त करके , मल्ी यव़न ईपह़रों को देकर, प्रिसं ़ करके , ऄत्यंत हसं ामज़क करके , अध्य़ऽत्मक कथ़ओ ं क़ कथन करके , ऽहतक़रा ऽवर्यों में ऄऽभम़न ज़गुत करके य़ ऄपऩ वुत्त़ंत बत़ करके , वह प्रऽतऽदन ईस पर ऄपऩ ऽवश्व़स ऽदख़त़ थ़। ततः स पुतऩप़लः समस्त़न् पुतऩपतान।् आऩय्य न्द्य़यऽनपिणो ऽवऽविे व़सयमब्रवात।् ।२९ तत्पश्च़त, वह न्य़य क़यय में ऽनपणि सेऩपऽत ने समस्त सेऩपऽतयों को एक़ंत में बल ि ़कर ये व़क्य कहे। मिस्तिफ़ख़न उव़च यस्य़न्द्नां भिज्यते येन मनज ि ेऩनज ि ाऽवऩ। तस्य यो स भवेद़त्म़ ऩदसायः कद़चन।।३० मस्ि तफ़ख़न बोल़- जो सेवक ऽजसके ऄन्न को ख़त़ है, ईस सेवक क़ वह ऄन्न हा प्ऱण हैं, ईस सेवक क़ स्वयं क़ प्ऱण ईसक़ प्ऱण नहीं है। न महत्वां ऽवऩ ऽवद्ट़ां न क़व्यां प्रऽतभ़ां ऽवऩ। कद़ऽचदऽप ऩभाष्टां दृष्टां स्व़ऽमकुप़ां ऽवऩ।।३१ 118 | पृ ष्ठ



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ऽवद्य़ के ऽबऩ मह़नत़ नहीं, प्रऽतभ़ के ऽबऩ क़व्य नहीं, ईसा प्रक़र स्व़मा की कु प़ के ऽबऩ ऄभाष्ट क़यय की ऽसऽि नहीं देखा। तस्म़द् यः स्व़ऽमनोऻथ़यय त्यजत्य़त्म़नम़त्मनः। तमेव धन्द्यऽमत्य़हुनीऽततन्द्त्रऽवदो जऩः।।३२ ऄतः जो नौकर स्व़मा के क़यय के ऽलए ऄपने प्ऱणों को त्य़ग देत़ है, वहीं धन्य परुि र् होत़ है ऐस़ नाऽति़ह्लज्ञ कहते हैं। न ब़ांधवो न च सख़ न सबां ध ां ा न सोदरः। न ऽपत़प्यनिरोद्चव्यः स्व़ऽमसेव़पऱत्मऽभः।।३३ स्व़मा की सेव़ में असि लोगों के द्ऱऱ सबं ऽधयों, ऽमत्रों, ब़धं वों, सगे भ़इ एवं ऽपत़ क़ भा ऄवध़न नहीं करऩ च़ऽहए।



यऽस्मांस्तिष्टे तिऽष्टमेऽत यऽस्मन् रुष्टेऻस्तमेऽत च। तमनन्द्येन मनस़ न ऽवषेवेत कः पिम़न।् ।३४ ऽजसके संतष्टि होने पर संतष्टि होत़ है, ऽजसके दःि खा होने पर दःि खा होत़ है, ऐसे स्व़मा की सेव़ कौन-स़ परुि र् एकऽनष्ठ होकर नहीं करत़ है? सवेऻऽप वयमेतऽहय ऽनयमे महऽत ऽस्थत़ः। सभ ां ीय महमीदस्य ऽहत़य प्रयतेमऽह।।३५ हम सब लोग आस समय पणी यतः ईसके ऄधान है तो सब ऽमलकर महमदी के ऽहत के ऽलए प्रयत्न करें ग।े यदद्ट स्व़ऽमऩ स्वेन महमीदेन म़ऽनऩ। ऽनग्ऱष्तश्ि़ह इऽत वै सांदेश्य़वेऽदतां मऽय।।३६ बला भुिबलो भीपः स य़वन्द्ऩवबिध्यते। त़वत्तऽद्च ऽवध़तव्यमस्म़ऽभः स्वऽहत़ऽथयऽभः।।३७ 119 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऄपने ऄऽभम़ना, धनव़न,् महमदी ि़ह ने "ि़ह़जा को कै द करो" ऐस़ अज संदि े भेजकर मझि े बत़य़ है, तो हम स्वऽहत के आच्छिक लोगों के द्ऱऱ बलि़ला िह़जाऱज़ भोसलें जब तक ज़गुत नहीं होते है तब तक यह क़यय करऩ च़ऽहए। ऽनिाऽथनामतात्येम़ां महत्यिषऽस सांहस़ः। सऽहत़ः सैऽनकै स्वैः स्वैस्तऽन्द्नगुष्डात प़ऽथयवम।् ।३८ अज की ऱऽत्र के बात ज़ने पर ईऱ्क़ल में ऄपने-ऄपने सैऽनकों के स़थ आकट्ठे होकर ईस ऱज़ को पकड लो। इत्थम़वेऽदत़स्तेन मिस्तिफेऩथयऽसद्चये। पुतऩपतयः स्वां स्वां ऽिऽवरां प्रऽतपेऽदरे।।३९ आस प्रक़र ईस मस्ि तफ ि ़ख़न के सेऩऩयकों से क़यय ऽसऽि हेति ऽनवेदन करने पर वे ऄपने-ऄपने ऽिऽवरों में चले गये। मन्द्त्रमेतदऽवद्च़स्ते ऽनऽि यस्य़मन्द्त्रयन।् तस्य़मेव महोत्प़त़ः ि़हस्य ऽिऽबरेऻभवन।् ।४० यह मन्त्रण़ ईन यवनों ने ऽजस ऱऽत्र में की था, ईसा ऱऽत्र में िह़जा के ऽिऽवर में बड़ ईत्प़त मच गय़ थ़। सप्तयो दृसपयोऻमिञ्चन्द्नरणन् करुणां गज़ः। अतऽकय तमभज्यांत कीऱरवकुतो ध्वज़ः।।४१ घोडे असं ि बह़ने लगे, ह़था करुण स्वर ऽनक़लने लगे, ध्वज कड्कड् ध्वऽन करके ऄच़नक टीटने लगे। चऽक्ररे ऩहत़ एव पटह़ः क्रीरम़रवम।् रजस़ सहस्ऱवतं ऽवतेने व़तमण्डला।।४२ ऽबऩ बज़यें हा नग़डे भयंकर अव़ज करने लगे, ऄच़नक चक्रव़क धल ी सऽहत गोल-गोल घमी ने लगा। अभ्रोदऱऽद्ठनैव़भ्रां करक़ः पररतोऻपतन।् ऽवनैव़ांभोधरां व्योम्नः प्ऱदिऱसाऽदरम्मदः।।४३ ब़दलों के ऽबऩ हा अक़ि से ओले च़रों ओर ऽगरने लगे, ब़दलों के ऽबऩ हा अक़ि में अक़िाय ऽवद्यति चमकने लगा। 120 | पृ ष्ठ



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न प्रदापनवेल़य़ां प्रदाप़ः प्रऽददाऽपरे। न प्रसेदिमयनिष्य़ण़ां वदऩऽन मऩांऽस च।।४४ दापक प्रज्वऽलत करने के समय में प्रज्वऽलत नहीं हुए तथ़ मनष्ि यों के मख ि एवं मन मऽलन हो गये। अक़रर पुतनोप़न्द्ते ऽिव़ऽभरऽिवो रवः। श्वऽभरूध्वयमिखाभीय चक्रन्द्दे च़ऽतऽनऽन्द्दतम।् ।४५ सेऩ के समाप हा भ़लि ऄिभि अव़ज ऽनक़लने लगे, कित्ते उपर महंि करके ऄत्यन्त ऽनऽन्दत अव़ज करने लगे। मिहुरभ्यणयमभ्येत्य घक ी ो घत्ी क़रम़तनात।् तथ़ वुकगणः क्रीरम़रवां सहस़करोत।् ।४६ ब़रंब़र ऄत्यन्त समाप अकर ईल्लि घत्ी क़र की अव़ज करने लगे, ईसा प्रक़र लोमऽडय़ं ऄच़नक भयक ं र अव़ज करने लगा। चकऽम्परे सिमनस़ां प्रऽतम़ः प्रऽतमऽन्द्दरम।् अकस्म़दधयऱत्रे च गौश्चक्रन्द्द ऽनके तग़।।४७ प्रत्येक मऽन्दर में देवों की मऽी तयय़ं कऽम्पत होने लगा, मध्यऱऽत्र में ऄच़नक ग़ये उंचा अव़ज करने लगा। इम़न्द्य़सऽन्द्नऽमत्त़ऽन भयिस ां ाऽन भीररिः। तथ़प्यवऽहतो ऩभीत् भीपः स ऽनयतेवयिः।।४८ आस प्रक़र की भय सची क ऽचह्न ऄनेक हुए तथ़ऽप वह िह़जा ऱज़ दभि ़यग्य से ज़गुत नहीं हुअ। सज्जाभीय ऽनजे ऽनजेऻद्ट ऽिऽबरे ऽतष्ठन्द्त्यनाकऽधप़:, स़धं यैव्ययदधऽन्द्नि़धयसमये मन्द्त्रां ऽचरां मिस्तिफः। आगत्येऽत ऽनवेऽदतां प्रऽणऽधऽभः श्रत्ि व़ऽतसत्व़ऽधको। दैव़यत्ततय़ न ि़हनुपऽतश्चक्रे तद़त्वोऽचतम।् ।४९



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ऽजनके स़थ मध्यऱऽत्र में मस्ि तिफ़ख़न ने बहुत समय तक मन्त्रण़ की था, वे सेऩऩयक ऄपने-ऄपने ऽिऽवरों में तैय़र होकर ऽस्थत है, आस प्रक़र गप्ति चरों के द्ऱऱ अकर बत़ने पर ईसको सनि कर भा ऄत्यन्त बलि़ला िह़जा ऱज़ ने दभि ़यग्य से तत्क़ल ईऽचत क़यय नहीं ऽकय़। इत्यनिपिऱणे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां सांऽहत़य़ां एक़दिोऻध्य़यः।। १२ ।।



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अध्य़यः-१२ अथ कोकऽवयोग़ऽतयहरेबांधक ी भ़स्वरे। पवी यपवयतश्रगुां ़ग्रम़रुरुिऽतभ़स्करे।।१ प्रभ़तसांध्य़ऱगेण रांऽञ्जते गगऩङ्गने। तमस्तमाचरमिखप्रमििे ककिभ़ङ्गणे।।२ दऱांदोऽलतपम्प़म्भः कणसपां कय िातले। फिल्लदम्भोरुह़मोदमधिरे व़ऽत म़रुते।।३ ऽदल़वरो मसदी श्च सरज़ य़कितोऻम्बरः। आदवन्द्य़ऽधऩथश्च तथ़ कणयपिऱऽधपः।।४ फऱदः कै रतश्चोभौ तथ़ य़कितस़रऽभः। आजमो बहुलोलश्च म़ना मऽलकऱहनः।।५ ऱघवो मम्बतनयो वेदऽजद्झ़स्कऱत्मजः। सति ो हैबतऱजस्य बल्ल़ळश्च मह़बलः।।६ त्रयोऻप्येतेऻग्रजन्द्म़नः सैऽनक़ग्ब्न्द्य़ः सिदिमयद़ः। प्रव़रौ ऽसद्चभम्ब़ष्दौ मम्बो भुिबलस्तथ़।।७ अन्द्येऻप्यनाकपतयः तत्तदन्द्वयसांभव़ः। यद़ यिद्चमद़वेिवि़त्म़नो मह़यिध़ः।।८ कम्पयन्द्त इव़क़िां पत़क़पटमण्डलैः।



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िोदयन्द्त इव िोणीं चलैहययखरि ़ांचलैः।।९ ऽदधिन्द्त इव़िेष़ां ऽत्रलोकीं तेजस़ां चयैः। प्ऱक़रऽमव किवयन्द्तः पररत प्रबलैबयलैः।।१० प़वक़ इव दाव्यन्द्त कुत़न्द्त इव ऽनभयय़ः। ऽिऽबरां ि़हऱजस्य रुरुधिमयिस्तिफ़ज्य़।।११ चक्रव़क, पक्षा के ऽवयोग से ईत्पन्न दःि ख को हरन करनेव़ल़, क़ंऽतम़न सयी य के ईदय़ंचल ऽिखर के ऄग्रभ़ग पर अरूढ होने के ऽलए अतरि होने पर, प्रभ़त के संध्य़ऱग से गगनरुपा अगं न में ल़ऽलम़ के अने पर, ऄधं क़ररुपा ऽनि़चर से सभा ऽदि़ओ ं के मि ि होने पर, म़नो भय से अदं ोऽलत पपं ़सरोवर के जलकणों के सपं कय से िातल एवं ऽवकऽसत कमलों की सगि ऽं ध से अह्ऱदद़या व़यि बह रहा था। ऐसे समय पर ऽदल़वरख़न, मसदी ख़न, सरज़ख़न य़किख़न, ऄबं रख़न, ऄदवना क़ ऱज़, कणयपरी क़ ऱज़ फऱदख़न एवं कै ऱतख़न ये दोनो, ईसा प्रक़र य़कितस़र, अजमख़न एवं बहुलोल ऄऽभम़ना मऽलक िहनख़न, ऱघव मबं ़जा, वेदोजा भ़स्कर, और हैवत ऱज़ क़ पत्रि मह़बलि़ला बल्ल़ल, आस प्रक़र तानों मदोन्मत्त ब्ऱह्मण सेऩपऽत ऽसधोजा एवं मंब़जा पव़र, मबं ़जा भोसले और ऽभन्न-ऽभन्न किलों के दसी रे सेऩपऽतयों के िरार में यि ि ं क़ जोि व्य़प्त होने से बडे बडे िह्लों को ध़रण करके ऄपने ध्वजों के समही ों से अक़ि को कंप़ते हुए, घोडों के खरि ों के ऄग्रभ़ग से म़नों पुथ्वा को चणी य करते हुए, ऄपने तेजोमय क़ंऽत से संपणी य ऽत्रभवि न को म़नो जल़ते हुए, प्रबल सैन्यबल से म़नों च़रों ओर ऄभेद्य दाव़र बऩते हुए, ऄऽग्न के सम़न तेजस्वा एवं यमऱज के सम़न ऽनभयय ऐसे आन सेऩपऽतयों ने मस्ि तफ ि ़ख़न की अज्ञ़ से िह़जा ऱज़ के ऽिऽबर को च़रों ओर से घेर ऽलय़. असन्द्ऩऽहतम़तङ्गमपल्य़ऽणतसैन्द्धवम।् असज्जयोधसदां ोहमसप्ति ोऽत्थतऩयकम।् ।१२ य़ऽमनाज़गरोद्ङ़मसलमऽनऱणय़ऽमकम।् ऽिऽबरां तत्तद़तांक वि़द्ठैहस्त्यम़ददे।।१३ आधर िह़जा के ऽिऽबर में ह़था पर जान चढ़ए नहीं थे, घोडे को क़ठा नहीं पहऩइ था, सैऽनकों के दल सज्ज नहीं थे, सेऩपऽत ऄभा ऄभा सो कर ईठे थे, ऱऽत्र के ज़गरण से चौकीद़र ऄऽतिय तन्ऱ में थे, आस क़रण ऄनेक प्रक़र से भयभात होकर ऄच़नक ईस ऽिऽबर में भगदड मच गइ।



124 | पृ ष्ठ



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पररवेषेण महत़ ऽबम्बमांिमि तो यथ़। ििििभे प्रऽतसैन्द्येन ि़हस्य ऽिऽबरां तथ़।।१४ बडे पररऽध से जैसे सयी य क़ ऽबबं ऽदखत़ नहा हैं, ईस प्रक़र हा ित्रि की सेऩ से िह़जा क़ ऽिऽबर ईस समय प्रतात होने लग़.



सवयतस्तस्य सैन्द्यस्य स़गरस्येव गजयतः। प़ऽष्णयग्ऱहः स्वयमभीन्द्मिस्तिफो व़ऽहनाश्वरः।।१५ समरि के सम़न गजयन करता हुइ ईस सेऩ के पुष्ठभ़ग क़ संपणी य संरक्षण सेऩपऽत मस्ि तिफ़ख़न स्वयं कर रह़ थ़। अथ खण्डऽजत़ च़ांबऽि जत़ म़नऽजत़ तथ़। सऽहतो बन्द्धिऽभश्च़न्द्यैः सैऽनकै श्च समन्द्ततः।।१६ चन्द्रह़सधरैश्च़पधरैः प्ऱसधरैरऽप। अऽग्ब्नयन्द्त्रधरैश्चक्रधरैश्च पिरुषै वयतु ः।।१७ घोरकम़य घोरफटो ब़जऱजो मह़भिजः। व़डवो जसवन्द्तश्च व़डव़ऽग्ब्नररव़परः।।१८ मल्लऽजन्द्नरप़लश्च प्रव़रकिळदापकः। ख्य़तश्च तळऽजन्द्ऩम नुपो भुिबल़न्द्वयः।।१९ अध्य़ऽसतसगव़यवयखिरििण्णवसिन्द्धऱः। ऽवऽवििः ि़हऽिऽबरां सवेऻमा बऽलऩ वऱः।।२० तत्पश्च़त् खडं ोजा, ऄबं ़जा, मऩजा ये ऽमत्र तथ़ ऄन्य सैऽनकों सऽहत, ओर तलव़रों, धनर्ि ों, भ़लों, बंदक ि ों एवं चक्रों को ध़रण करने व़ले परुि र्ों से ऽघऱ हुअ वह घोरकम़य मह़ब़हु ब़जऱज घोरपडे, म़नो दसी ऱ वडव़नल हा हो ऐस़ यिवतं ऱव व़डवे, पव़र किल के दापक म़लोजा ऱज़, ऽवख्य़त तक ि ोजा ऱज़, ऱज़ भोसले ऐसे वे सभा बऽलष्ठ सेऩपऽत ऄपने बैठे हुए घोडो के घरि ों से पुथ्वा को चणी य करते हुए िह़जा के ऽिऽबर में प्रऽवष्ट हुए। 125 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ते तद़ताव गजयन्द्तो ऽजगाषन्द्तो मह़मद़ः। सिप्तां प्रबोधय़म़सिः ि़हां ऽसहां ऽमव ऽद्ठप़ः।।२१ ह़था ऽसहं को जैसे ज़गुत करत़ है, वैसे हा ईस समय ईन मदमस्त जातने के आच्छिक एवं ऄऽतिय गजयऩ करने व़ले सेऩपऽतयों ने सोये हुए िह़जा को जग़य़। ि़हः प्रबिद्चम़त्रस्ति ऽनिम्य़गमनां ऽद्ठष़म।् सज्जम़नः िि़सोच्चैः सज्जध्वऽमऽत सैऽनक़न।् ।२२ ित्रओ ि ं के अगमन को सनि ते हा ज़गुत होकर स्वयं सज्ज होते हुए िह़जा ने ‘तैय़र हो ज़ओ‘ ऐस़ सभा सैऽनकों को जोर से अदेि ऽदय़। अश्वोऻश्वोऻऽसरऽसः प्ऱसः प्ऱस इत्य़दयस्तद़। आरव़ः समज़यन्द्त ऽिऽबरे ि़हभीभुतः।।२३ तब ‘घोड़ घोड़, तलव़र तलव़र, भ़ल़ भ़ल़, आस प्रक़र िह़जा के ऽिऽबर में ऄच़नक अव़ज गंजि ने लगा। अथ ि़हे मह़ब़हौ सज्जम़ने महौजऽस। अदसाये मह़सैन्द्येऻप्य़कऽस्मकभयस्पुऽि।।२४ कण्ठारव इव़किण्ठगऽतः सयां ऽत सयां ऽत। खण्डप़टल एवैको ययौ घोरफट़न् प्रऽत।।२५ मह़ब़हु एवं मह़बलि़ला िह़जा ऱज़ तैय़र हो रह़ है, एवं ईसकी बडा सेऩ अकऽस्मक भय से ग्रऽसत हो गइ। आतने में हा प्रत्येक यि ि में ऽसंह के सम़न ऄकिऽण्ठतगऽत व़ल़ खडं ोजा प़टाल ऄके ल़ हा घोरपडे पर अक्रमण करने के ऽलए गय़। आमििकवचः श्राम़नभेद्टफलकोद्चिरः। कुतहस्तः किन्द्तधरः कुप़णा कमयकोऽवदः।।२६ स तीणं तिरग़रुढो रण़ङ्गणमग़द्टद़। ऽसहां ऩदां नदऽन्द्त स्म व़जऱज़दयस्तद़।।२७ 126 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



िरार पर कवच ध़रण ऽकय़ हुअ, दृढ ढ़ल के क़रण ऄभेद्य, भ़ल़ ध़रण करनेव़ल़, ईत्तम धनधि यर, तलव़र से यि ि , यि ि कििल ऐस़ प्रख्य़त खडं ोजा जब िाघ्र घोडे पर बैठकर रणभऽी म पर गय़ तब ब़जा घोरपडे अऽद ने ऽसंह जैसा गजयऩ की। ततो घोरफट़नाकपतयोऻऽतरयोद्चत़ः। तां प़टलां किलोत्तांसां रुष़ रुरुऽधरेऻऽभतः।।२८ ऽफर ऄत्यन्त वेगव़न घोरपडे सेऩपऽतयों ने ईस किल अभर्ी ण प़टाल को क्रोध से दोनों ओर से घेर ऽलय़। स तद़भ्रांऽलहां भल्लां भ्ऱमय़म़स भ़सरि ः। क़रय़म़स च़श्वेन मण्डल़ऽन सहस्रिः।।२९



तब ईस तेजस्वा खडं ोजा प़टाल ने मेघों से स्पिय करनेव़ले ऄपने भ़ले घमी ़कर ऄपने घोडे से हज़रों गोल़क़र ऽनकलव़यें। तद्भ्ऱऽमतस्य भल्लस्य पररभ्ऱन्द्त़ नभोऻन्द्तऱ। ऽदनेिमण्डल़क़ऱ ऽददापे द्टिऽतमण्डला।।३० ईसके द्ऱऱ गोल घमि ़ये हुए भ़लें, ऄतं ररक्ष में गोल घमी नेव़ले तेजोवलय सयी य के ऽबंब के सम़न चमकने लग़। तैस्तैः प्रहरणैस्तत्र प्रहरन्द्तो मह़यिध़ः। खण्डिः खण्डिः क्रोध़त् तेन भल्लभुत़ कुत़ः।।३१ ऄनेक प्रक़र के िह्लों से प्रह़र करनेव़ले, बडे-बडे अयधि ों को ध़रण करनेव़ले वारों के , क्रोध से ईस भ़ल़ध़रा ने तक ि डे तक ि डे कर ऽदए। किप्यत़ पऽवहस्तेन पवयत़ इव प़ऽतत़ः। प्रऽतप्रताकां त्रिट्यन्द्तः पेतिरुब्य़यमनेकिः।।३२ क्रोऽधत आरं ने ऄपने वज्र से ऽगऱये हुए पवयत के सम़न, प्रत्येक योि़ओ ं के ऄवयव तटि कर भऽी म पर ऽगरने लगे। रोषदष्ट़धरैद्चीरैऱयोधनपरैः परैः। 127 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



प्रसभां प्ररृतोप्येष पौरुषां स्वमदिययत।् ।३३ क्रोध से द़ंत एवं ओठं ो को चब़कर यि ि कििल धार ित्रओ ि ं द्ऱऱ आस पर जोर से प्रह़र करने पर आसने ऄपऩ पऱक्रम ऽदख़य़। स ततः स्वेन भल्लेन ऽनऽितेऩयतेन च। जह़र कस्यऽचत्तस्य ऽिरोऻऽरऽिऽखरोपमम।् ।३४ तत्पश्च़त् ईसने ऄपने ताक्ष्ण एवं लबं े भ़ले से ईस बलि़ला ने ऽकसा के पवयत के ऽिखर के सम़न ऽिर को क़ट ऽदय़। तथैव कस्यऽचद्ठिः ऽिल़तलऽमव़यतम।् अभेद्टमऽप सांरम्भ़त् ऽबभेद बऽलऩां वरः।।३५



ईसा तरह ऽकसा की चट्ट़न की तरह ऽवस्तुत एवं ऄभेद्य छ़ता को क्रोध से ऽछन्न ऽभन्न कर ऽदय़। सभल्लफलक़घ़त पऽतत़श्वस्य कस्यऽचत।् किांऽभ किांभोपमां सद्टः स्कांधकीटमप़तयत।् ।३६ ईसने ऽकसा के घोडे को भ़ले के पटल से प्रह़र करके व ईसके ह़था के गंडस्थल के सम़न ईच्च कंधे को ऄच़नक नाचे ऽगऱ ऽदय़। कस्यऽचच्चरणद्ठन्द्द्ठां वलग्ब्नां च़ऽप कस्यऽचत।् कस्यऽचत् कण्ठऩलांच ऽचच्छे द ऽकल खण्डऽजत।् ।३७ ईस खडं ोजा ने ऽकसा के पैरों को, ऽकसा के कऽटप्रदेि को, और ऽकसा के गले को क़ट ऽदय़। उत्पत्योप्तत्य भल्लेन प़तयन् पररतः पऱन।् एकोऽप प़टलः प्ऱप तत्र ऽचत्रमनेकत़म।् ।३८ ईछल ईछलकर ऄपने भ़ले से च़रों ओर ित्रिओ ं को नाचे ऽगऱने व़ल़ वह प़टाल ऄके ल़ होते हुए भा वह़ं वह ऄनेकों की तरह प्रतात होने लग़। अऽभय़त़रर सांघ़त ि़तहेऽत ित़हतः। 128 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



स ऽभन्द्नव़रब़णोररव़रण़न् प्रत्यव़रयत।् ।३९ अक्रमण करने व़ले ित्रसि महि ों के सैकडों िह्लों के प्रह़र से ईसक़ कवच ऽछन्न ऽभन्न हो गय़ थ़, ऐसे ईस प़टाल ने ित्ररुि पा ह़ऽथयों को व़ऽपस लौट़ ऽदय़ थ़। सऽवपिऽवऽनमयििऽवऽिखितऽवग्रहः। ििििभे लोऽहत़ऱंगो लोऽहत़ङ्ग इव अहः।।४० ित्रओ ि ं के द्ऱऱ छोडे गए ब़णों से ऽजसक़ िरार क्षत ऽवक्षत हो गय़ है, ऐस़ खनी से सऩ हुअ वह मगं लग्रह के सम़न सि ि ोऽभत होने लग़। यिध्यतः प़टलस्य़स्य दृष्ट्व़ प़टवमद्झितम।् क्ष्वेऽडत़स्फोऽटतां चक्रिब़यजऱदयो भट़ः।।४१



यि ि करनेव़ले ईस प़टाल के अश्चययक़रा कििलत़ को देखकर ब़जऱज घोरपडे अऽद सैऽनक गजयऩ करने लगे एवं भजि ़ओ ं को बज़ने लगे। परम़नऽजत़ म़नऽजत़ भल्लभुत़ यिऽध। ऽभन्द्नभल्लस्य जग्ऱह करे क्रीऱां कुप़ऽणक़म।् ४२ यि ि में ित्रओ ि ं के ऄऽभम़न क़ हरण करनेव़ले म़ऩजा ने ऄपने भ़ले से ईसके भ़ले को तोड देने पर ईसने एक ताक्ष्ण तलव़र ह़थ में ले ला। कुतहस्तां खड्गहस्तां ततस्तां प्रेक्ष्यसऽस्मतः। ब़जऱजो मह़ब़हुऱजिह़व मह़हवे।।४३ तब यि ि ऽनपणि ईस तलव़रध़रा खडं ोजा को देखकर मह़बलव़न ब़जऱज ने मस्ि किऱकर यि ि के ऽलए अह्ऱ़न ऽकय़। क़लदण्डकऱलेन करव़लेन प़टलः। तद़ प्रह़रमकरोत् ब़लऱजस्य विऽस।।४४ तब खडं ोजा प़टाल ने यमऱज के दडं के सम़न भयंकर तलव़र से ब़जऱज घोरपडे की छ़ता पर प्रह़र ऽकय़। 129 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तेऩघ़तेन महत़ प्ररृत़यतविऽस। ब़जऱजे मह़ब़हौ मोहमिऱमिपेयिऽष।।४५ अांबिऽजत् पररघां घोरां म़नऽजन्द्मिद्गरां तथ़। मल्लऽजच्च ऽसत़ां िऽिां ऽिख़ां िेख़वताऽमव।।४६ बलऽजत् भल्लमतिलां जसवन्द्तश्च स़यकम।् खडां ऽजच्च प्रऽचिेप खड्गां खऽञ्जतां प्रऽत।।४७ ऽवि़ल छ़ता पर ऽकए गए ईस जोर के प्रह़र से मह़ब़हु ब़जऱज घोरपडे के मऽी च्छय त होने पर ऄबं ़जा ने भयंकर लोहबि दडं ़, म़ऩजा ने मद्गि र, म़लोजा ने ऄऽग्न के लपेटों जैसा क़लािऽि, ब़ल़जा ने ऄप्रऽतम भ़ल़, जसवतं ने ब़ण और खडं ोजा ने तलव़र ऐसे ये िह्ल खडं ोजा प़टाल के िरार पर फें क ऽदये। स भामेन समस्त़ऽन समस्त़ऽन समन्द्ततः। आपतांत्य़यिधाय़ऩम़यिध़ऽन समन्द्ततः।।४८ ऽद्ठध़ चक्रेऻऽसऩ स्वेन क़ऽनऽचच्च ऽत्रध़ ऽत्रध़। क़ऽनऽचत् पञ्चध़ च़ऽप नवध़ दिध़ तथ़।।४९ च़रों तरफ से योि़ओ ं के द्ऱऱ फें कें गए सभा िस़्त्त्र जब िरार पर अकर ऽगरने लगे तो ईनमें से ऄपने भयक ं र तलव़र से ऽकसा के दो तक ि डे, ऽकसा के तान-तान तक ि डे, ऽकसा के प़ंच ईसा प्रक़र ऽकसा के नौ, ऽकसा के दस तक ि डे ऽकये। ब़जऱजः िणां मीछ़ं िणां सवयऽवलिणम।् अनिभीय स्वयां भीयः प्रत्ययिध्यत प़टलम।् ।५० ब़जऱज ने क्षणम़त्र मछी ़य क़ एवं क्षणभर ऄत्यंत ऽवलक्षण ऽस्थऽत क़ स्वयं ऄनभि व करके वह प़टाल के स़थ यि ि करने लग़। अथ स्वय़ प्रऽतभय़ परप्रऽतभय़कुऽतम।् ब़जऱजो गद़मिवी ां प़तय़म़स प़टले।।५१



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ऽजसकी अकु ऽत ित्रओ ि ं के ऽलए भय़नक था, ऐसे प्रचंड गद़ से ब़जऱज ने ऄपना प्रऽतभ़ से प़ऽटल की जघं ़ पर प्रह़र ऽकय़. क्रीरय़ क़ऽतयकेयस्य िसत्येव क्रौंचपवयते। ब़जऱजस्य गदय़ तय़ ऽभत्व़ ऽनप़ऽतते।।५२ ऽत्रदिस्यन्द्दऩरूढे सिभटे खांडप़टले। हन्द्यम़नेन सैन्द्येन स्वसैन्द्ये च़ऽत-ऽवव्हले।।५३ हतसांबध्दिाषयण्यस्रस्तोष्णाषपट़ञ्चलः। चमयव़न् वमयव़निच्चः िऱसनवत़ां वरः।।५४ किन्द्तयोधा मण्डल़ग्रमण्डलाक़रप़रगः। ि़हऱजो मह़ब़हुमयह़ऱजो मह़हव:।।५५ अऽधरुष्त मह़व़हमांबिव़हऽमव़म्बिदः। सपऽद प्रऽतजग्ऱह ब़जऱजां ऽजघ़ांसय़।।५६



क़ऽतयकेय की ताक्ष्ण िऽि क्रौंच पवयत पर जैसे ऽगर ज़ता है, वैसे हा ब़जऱज की गद़ से ऽभन्न होकर ऽगर ज़ने पर, ईस ईत्कु ष्ट खंडोजा प़टाल क़ स्वगयव़स हो गय़। तब ित्रसि ेऩओ ं द्ऱऱ पाऽडत होकर ऄपने सेऩ के ऄत्यऽधक ऄधार हो ज़ने पर ऽिरह्ल़ण को मजबती ब़धं कर, पगडा के पट्टे को खल ि ़ छोडकर, ढ़ल को लेकर, कवच पहनकर, ईन्नत, ईत्कु ष्ट धनधि यर, भ़ल़ फें कने में एवं क्रीड़ में ऽनपणि , ऐस़ यि ि कििल मह़ब़हु िह़जा मह़ऱज जैसे ब़दल पर ब़दल अरुढ होत़ है, वैसे हा एक बडे घोडे पर सव़र होकर ब़जऱज घोरपडे को म़रने की आच्छ़ से िाघ्र ईस पर अक्रमण ऽकय़। आभारऱजो दिऽजद्ङिऽदग्ब्जक़रकः। योगऽजच्च धनिःक़ण्डधरो भ़ण्डकऱन्द्वयः।।५७ गञ्ि ज़वटकरः सन्द्तो मेघऽजठ्ठसकिरस्तथ़। भ्ऱत़ त्र्यांबकऱजश्च दत्तऱजश्च दऽपयतः।।५८ 131 | पृ ष्ठ



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अन्द्येऻप्यनाकपतयः ि़हऱजां समन्द्ततः। जिगिपिः ितिस्तत्र पुष्ठगोप़श्च भीररिः।।५९ दसों ऽदि़ओ ं क़ ऽवजेत़, ग्व़लों क़ ऱज़ दसोजा, धनर्ि एवं ब़ण को ध़रण करनेव़ल़ योग़जा भ़डकर, सतं ़जा गजंि ़वटकर, मेघ़जा ठ़कीर, भ़इ त्र्यंबकऱज एवं ऄऽभम़ना दत्तऱज, आन्होनें एवं ऄन्य सैकडों सेऩपऽतयों ने एवं ऄनेक पुष्ठभ़ग के रक्षकों ने च़रों ओर से िह़जा ऱज़ की रक्ष़ की। तमथ़कुष्टकोदण्डटङ्क़रोिांऽकत़म्बरम।् वारां कण्ठारवग्रावां वुषस्कन्द्धां महौजसम।् ।६० दत्तत्र्यांबकऱज़भ्य़ां भ्ऱतुभ्य़ां पररव़ररतम।् सैऽनकै ः स्वैः पररवुत्तां सिरैररव ितक्रतिम।् ।६१ मरुत़ प्रऽतकीलेन सपऽद प्रऽतव़ररतम।् ददृिश्ि श्स़हनपु ऽतां ब़जऱज़दयो नपु ़ः।।६२ खींचे हुए धनर्ि की टंक़र से अक़ि को प्रऽतध्वऽनत करनेव़ल़, ऽसंह जैसा गदयन एवं बलव़न जैसे कंधो व़ल़, त्र्यंबकऱज एवं दत्तऱज भ़इयों द्ऱऱ रऽक्षत, देवों ने जैसे आन्र की रक्ष़ की वैसे हा ऄपना सेऩओ ं द्ऱऱ रऽक्षत, प्रऽतकील व़यि के प्रह़र से िाघ्र हा हट़ये गये ईस वार एवं बलि़ला िह़जा ऱज़ को ब़जऱज अऽद ने देख ऽलय़। ि़हऱजोभ्यऽभप्रक्ष्य प्रऽतपि़निद़यिध़न।् ऩदयन् मेऽहनीं द्ट़ां च ऽसहां ऩदमनानदत।् ।६३ िह्ल ईठ़ये हुए ित्रओ ि ं को ऄपने समाप देखकर िह़जा ऱज़ ने ऽसंह की तरह गजयऩ करके पुथ्वा एवं अक़ि को प्रऽतध्वऽनत कर ऽदय़। ि़हस्य तेन ऩदेन परी रत़ः ककिभोऻभवन।् प्रऽतदध्य़ न च़म्भोऽधः सपऽद िऽि भतोऻभवत।् ।६४ िह़जा के ईस गजयऩ से ऽदि़एं परी रत हो गइ एवं समरि से भा ईसकी प्रऽतध्वऽन ऽनकलने से वह ऄच़नक क्षब्ि ध हो गय़।



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न सेहे ब़जऱजेन ि़हऱजस्य गऽजयतम् । प्रमत्तेन ऽद्ठपेनेव प्रमत्त़द्ठपबऽुां हतम् ॥ ६५ ॥ मदमस्त ह़था की गजयऩ को जैसे मदमस्त ह़था सहन नहीं करत़ है, ईसा प्रक़र ब़जऱज घोरपडे को िह़जा ऱज़ की गजयऩ सहन नहीं हुइ। अथ घोरपटैघोरवज्रऽनघोषघोऽषऽभः । अभ्येत्य ज़्ऽपतस्वस्वऩमऽभः प्रौढध़मऽभः ॥ ६६ ॥ च़रुचमयऽभऱमििवमयऽभः कुतकमयऽभः । पररवव्रेतऱां ि़हस्तोयदैररव चांरम़ः ॥ ६७ ॥ अक़िाय ऽवद्यति की भयंकर कडकड़हट के सम़न गजयऩ करते हुए समाप ज़कर, ऄपने ऄपने ऩम बत़कर चमकद़र एवं संदि र ढ़ल को ध़रण ऽकए हुए, कवचध़रा, यि ि कििल, घोरपडे अऽद सेऩपऽतयों ने जैसे ब़दल चंरम़ को घेरत़ है ईसा प्रक़र ईन्होंने परी ा तरह िह़जा को घेर ऽलय़। तद़ त्र्यांबकदत्त़ष्ढौ ऱज़नौ दिऽजत्तथ़ । मेघऽजच्च मह़ब़हुमयह़सेनसमप्रभः ॥ ६८ ॥ योगऽजच्च तथ़न्द्येऻऽप गञ्ि ज़वटकऱदयः । प्रत्यगुष्डन् प्रऽतभट़न् ि़हऱजपराप्सय़ ॥ ६९ ॥ तब त्र्यबं कऱज एवं दत्तऱज, दस़जा एवं क़ऽतयकेय के सम़न तेजस्वा मह़ब़हु मेघ़जा, योग़जा एवं गजंि ़वट अऽद दसी रे वारों ने िह़जा ऱज़ की रक्ष़ करने की आच्छ़ से ित्रि योि़ओ ं पर अक्रमण ऽकय़। ततः त्र्यांबकऱजेन च़पहस्तेन म़नऽजत् । खलखांडऽजत़ दत्तऱजेऩऽप च खांडऽजत् ॥ ७० ॥ प्रऽतमल्लऽजत़ योगऽजत़ च सहमल्लऽजत् । तथ़ मेघऽजत़ मेघऩदस़म्यभुत़ांबिऽजत् ॥ ७१ ॥ यियिधे ि़हऱजेन ब़जऱजः पऱक्रमा । 133 | पृ ष्ठ



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अन्द्ये च़न्द्यैश्च बहवो बहुऽभदीघयब़हुऽभः ॥ ७२ ॥ तत्पश्च़त धनधि ़यरा त्र्यंबकऱज के स़थ म़ऩजा, दष्टि ों को जातने व़ल़ दत्तऱज के स़थ खडं ोजा, ित्रि योि़ओ ं को जातने व़ल़ योग़जा के स़थ म़लोजा, ईसा प्रक़र आरं ऽजत के सम़न मेघ़जा के स़थ ऄंब़जा और िह़जा के स़थ पऱक्रमा ब़जऱज और दसी रे ऄनेक दाघयब़हु वारों के स़थ दसी रे ऄनेक वार लडने लगे। टांक़यय च़पमन्द्योन्द्यां ऽजगाषन्द्तो मदोत्कट़ः । रणरङ्गे नटऽन्द्त स्म वट़ इव मह़भट़ः ॥ ७३ ॥ परस्पर जातने की आच्छ़ व़ले वे मदमस्त मह़वार धनर्ि की टंक़र करके रणभऽी म पर चमग़दड की तरह ऩचने लगे। पऽत्तऽभः पत्तयस्तत्र सऽप्तऽभस्सप्तयस्तथ़ । ऽद्ठपैऽद्ठयप़श्च बहवः ससांजिऽवयऽजगाषय़ ॥ ७४ ॥ पद़ऽतयों के स़थ पद़ऽत, घडि सव़रों के स़थ घडि सव़र, मह़वतों के स़थ मह़वत, ऐसे ऄनेक योि़ ऽवजय की आच्छ़ से परस्पर भाड गये। िऽिऽभश्िियो ग़ढमिऽष्टऽभग़यढमिष्टयः । पररघ़ः पररघैघोरैमयिद्गरैमयिद्गऱस्तथ़ ॥ ७५ ॥ परिि़ः परििैस्ताव्रैस्तोमरैरऽपतोमऱः । गद़ऽभश्च गद़श्चक्रेश्चक्ऱऽण च सहस्रिः ॥ ७६ ॥ स़यक़ः स़यकै स्ताक्ष्णैः कट़रैश्च कट़रक़ः । तद़नामभ्यहन्द्यन्द्त भल्लैभयल्ल़श्च भीररिः ॥ ७७ ॥ िऽियों के िऽियो पर, ग़ढमऽि ष्टव़लों के ग़ढमऽि ष्टव़लों पर, लोहबि दडं व़लों के लोहबि दडं ो पर, मद्गि रों के मद्गि रों पर, पट्टो के पट्टो पर, तोमरों के ताव्र तोमरों पर, गद़ व़लों के गद़ व़लों पर, हज़रों चक्रो के चक्रों पर, ब़णों के ब़णों पर, कट़र के कट़र पर, भ़लों के भ़लों पर, आस प्रक़र ईस समय ऄनेक प्रह़र होने लगे। ऽिऱांऽस सऽिरष्ध़ऽण सतनित्ऱण्यिऱांऽस च । प़णयस्सतलत्ऱश्च सके यीऱश्च ब़हवः ॥ ७८ ॥ 134 | पृ ष्ठ



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सपत़को ध्वजश्च़ऽप सिरां च िऱसनम् । हयश्च सहय़रोहः करा च सऽनयन्द्तुकः ॥ ७९ ॥ इम़ऽन ऽद्ठषदिन्द्मिििष्धऽच्छन्द्ऩन्द्यनेकिः । तद़नामपतन् भीमौ पियोरुभयोरऽप ॥ ८० ॥ ऽिरह्ल़णों सऽहत ऽसर, कवचों के स़थ वक्ष:स्थल, दस्त़नों सऽहत ह़थ, के यरी सऽहत भजि ़ए,ं पत़कों के सऽहत ध्वज, ब़णों के स़थ धनर्ि , घडि सव़रों सऽहत घोडे, मह़वतों सऽहत ह़था, ये दोनों पक्षों के ऄनेक मनष्ि य, ित्रओ ि ं के द्ऱऱ फें के गये ऄनेक िह्लों से ऽछन्न-ऽभन्न होकर ईस समय भऽी म पर ऽगरने लगे। िऱसऩऽन कषयतः स़ांगिलायकप़णयः । पुथिस्कांध़ः कबन्द्ध़श्च प्रत्यध़वऽन्द्नतस्ततः ॥ ८१ ॥ धनर्ि को खींचने व़ले, ऽजनके ह़थ में ऄगं ऽि ठय़ं था, ऽजनके ऽवस्तुत कन्धे थे, ऐसे ऱक्षसऽविेर् आधर ईधर एक दसी रे पर दौडने लगें। यस्य येन ऽिरऽश्छन्द्नां यद्टदङ्गमप़त्यत । तस्य तत्तत्तदोत्पत्य बत तां प्रत्यध़वत ॥ ८२ ॥ ऽजसक़ ऽजसने ऽसर एवं जो जो ऄवयव तोडकर नाचे ऽगऱय़, ईसक़ वह वह ऄवयव ईस समय ईडकर ईस तोडने व़ले पर दौडकर गय़। अथ़श्वेभ्यः कररभ्यश्च नरेभ्यश्च ऽितैश्िरैः । कत्ययम़निरारेभ्यः प्रवुत्ते रुऽधरह्रदे ॥ ८३ ॥ मज्ज़म़ांसवस़मेदोमेदिरे मेऽदनातले । नटन्द्ताऽभः ऽपि़चाऽभः प्ररृष्टे ड़ऽकनाकिले | ८४ ॥ तत्तत्पत़ऽकनाप़लकप़लकुतकिण्डले । भैरवाऽभस्समां भीररमत्ते भैरवमण्डले ॥ ८५ ॥ चण्डदाऽधऽतऽभवीरमिण्डम़ल़मनोहरे । 135 | पृ ष्ठ



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भीतैस्समिऽदते च़ऽतमिऽदते चांरिेखरे ॥ ८६ ।। ऱज़् खडां ऽजत़ तत्र दत्तऱजे ऽवहऽस्तते । बत त्र्यांबकऱजे च ऱज़् म़नऽजत़ ऽजते ॥ ८७ ॥ तद्ठदम्बिऽजदिन्द्मिि हेऽतप़तपऱहते । भाते मेघऽजऽत द्ठा(?) ते दिऽजत्यऽप ऽवरिते ॥ ८८ ॥ अन्द्यऽस्मन्द्नऽप सैन्द्ये स्वे हायम़ने जय़कीले । किम्भोद्झवेन मिऽनऩ पायम़न इव़णयवे ॥ ८९ ॥ तथ़ मल्लऽजतः क़ण्डकिलैभ़यडकरऽदयते । ि़हऱजऽश्ितैब़यणैब़यजऱजमव़ऽकरत् ।। ९० ।। ताक्ष्ण ब़णों से ऽछन्न ऽभन्न हुए घोडों के , ह़ऽथयों के , और मनष्ि यों के कटे हुए िरार से ऽनकले रि क़ त़ल़ब बन गय़, मज्ज़, म़सं , चरबा, मेद, आनक़ पुथ्वा पर ऽकचड बन गय़, ऩचनेव़ले ऽपि़ऽचयों के स़थ ड़ऽकना के किल को ऄत्यंत हर्य हुअ, ऄनेक सेऩपऽतयों के कंि डलों को ध़रण करने व़ल़ भैरवमंडल भैरवा के स़थ ऄत्यंत मदमस्त हो गय़, सयी य के ऽकरणों को भेद करके वारों के मस्तकों की म़ल़ से सि ि ोऽभत िक ं र को भती गणों के स़थ ऄत्यंत अनंद हुअ, खडं ोजा ऱज़ ने दत्तऱज के ह़थ तोड ऽदये, ऄहो! त्र्यबं कऱज को म़ऩजा ने जात ऽलय़, ईसा प्रक़र ऄबं ़जा के द्ऱऱ ऽकए गए प्रह़र से भयभात मेघ़जा पाछे हट गय़, दस़जा भा भ़ग गय़, ऄगस्त्य मऽि न द्ऱऱ पाये हुए समरि की तरह ऄन्य सैन्य भय से अकिल होकर नष्ट हो गय़, ईसा प्रक़र मलोजा के ब़णों से भ़ंडकर पाऽडत हो गय़, ऐसा ऄवस्थ़ देखकर िह़जा ऱज़ ने ब़जऱज घोरपडे पर ऄपने ताक्ष्ण ब़णों की वऱ्य की। ब़जऱजस्ति ऽवक्ऱन्द्तस्तैऽनयत़न्द्तऽितैश्िरैः। िाययम़णिरारोऽप न मिमोह महोऽमयऽभः।।९१ परंति पऱक्रमा ब़जऱज, ईस ऄत्यंत ताक्ष्ण एवं वेगव़न् ब़णों की वऱ्य से ऽछन्न ऽभन्न होते हुए भा मऽी च्छय त नहीं हुअ। ततस्स तत्र सांप्रेक्ष्य प्रस्फिरद्ठमय स़ांतरम।् त़डय़म़स भल्लेन ि़हऱजभिज़न्द्तरम।् ।९२ तत्पश्च़त् ईस समय चमकद़र कवच पहने हुए िह़जाऱज़ को देखकर ईसके छ़ता पर ऄपने भ़ले से प्रह़र ऽकय़। 136 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



कििलो यिद्चऽवद्ट़य़ां किऽलि़भेद्टऽवग्रहः। तेन मल्ल़ऽभघ़तेन ि़हऱजो न ऽवव्यथे।।९३ यि ि ऽवद्य़ में कििल एवं वज्र के ऽलए भा ऄभेद्य िरारव़ल़ वह िह़जा ऱज़ ईस भ़ले के प्रह़र से व्यऽथत नहीं हुअ। अथ प्रकऽटतक्रोधैयोधैम़यनऽजद़ऽदऽभः। िरिऽिगद़खङ्गभल्ल़द्ट़यिधध़ररऽभः।।९४ ब़जऱजां प़लयऽद्झदयिययऽद्झस्सपौरुषम।् पररवव्रे मह़ऱजः ि़हऱजः पऱक्रमा।।९५ तब ब़ण, िऽि, गद़, तलव़र, भ़ले, अऽद िह्लों को ध़रण करने व़ले, क्रोऽधत एवं ऄपने पऱक्रम को ऽदख़नेव़ले, ब़जऱज की रक्ष़ करनेव़ले म़ऩजा अऽद योि़ओ ं ने पऱक्रमा िह़जा ऱज़ को घेर ऽलय़। तत्र क़ल़नलज्व़ल़समस्पियधरैश्िरैः। त़पय़म़स त़न् सव़यन् प्रत़पा स महापऽतः।।९६ वह़ं प्रलय़ऽग्न ज्व़ल़ के सम़न स्पिय करने व़ले ताक्ष्ण ब़णों से सब को प्रत़पा िह़जा ऱज़ ने त्रस्त कर ऽदय़। तद़नीं ि़हऱजेन िरैः स्वैः िकलाकुत़ः। स्रस्तब़हुलत़स्तत्र स्रवल्लोऽहतलोऽहत़ः।।९७ चण्डव़त़हत़स्सद्टः पिऽष्पत़ इव ऽकांििक़ः। ितिस्सैऽनक़ः पेतिः ब़जऱजस्य पश्यतः।।९८ ईस समय िह़जा ऱज़ ने ऄपने ब़णों से ऽजसके तक ि डे तक ि डे कर ऽदये थे, ऽजनकी भजि ़एं तटि कर ऽगर गइ था, जो िरार से बहने व़ले खनी से लथपथ थे, ऐसे सैकडों सैऽनक, जैसे प्रचडं व़यि के प्रह़र से सद्यः पऽि ष्पत पलस के वुक्ष ईखडकर ऽगर ज़ते ईसा प्रक़र सैऽनक ब़जऱज के स़मने ऽगर गये। उत्पतत्तिरग़रुढो यत्र यत्रोत्पप़त सः। तत्र तत्र पररत्रस्य प्रऽतवाऱस्सहस्रिः।।९९ पवयत़ इव सांिाण़यः पऽवप़तपऱहत़ः। 137 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



समज़यन्द्त दिध़ ितध़ च सहस्रध़।।१०० दौडते हुए घोडे पर बैठ़ हुअ वह िह़जा ऱज़ जह़ं जह़ं गय़ वह़ं वह़ं भयभात हज़रों ित्रवि ारों क़ वज्रप्रह़र से ऽवदाणय हुए पवयत के सम़न दि ,सौ, तक ि डे ऽकये। ततः पररचरां कऽश्चत् कऽश्चत् सहचरां पनि ः। वमय च़प्रऽतमां कऽश्चत् कऽश्चच्चमय सचन्द्रकम।् ।१०१ ततो घोरपटः कऽश्चऽदषिऽधां च िऱसनम।् ऽचच्छे द ि़हऱजस्य कऽश्चच्च ध्वजमिन्द्नतम।् ।१०२ तत्पश्च़त ऽकसा ने िह़जा ऱज़ के नौकर को, ऽकसने ईसके ऽमत्र को, ऽकसा ने ईसके ऄप्रऽतम कवच को, ऽकसा ने ईसके चरं यि ि ढ़ल को, ऽफर ऽकसा घोरपडे ने धनर्ि एवं ब़णों को, ऽकसा ने ईसकी ईच्च ध्वज़ को तोड ऽदय़। अथ़ररप़ऽतत़प़रहेऽतप़तपत़पत़न।् तीणयमित्पत्य तिरग़दिरग़ऱऽतचेऽष्टते।।१०३ िऱऽचतिरारोत्थलोऽहतरवलोऽहते। प्रभीतप्रधनोद्झीतपररश्रमऽवमोऽहते।।१०४ मह़ऱजे मह़ब़हौ परररब्धमहातले। क्ष्वेऽडत़स्फोऽटत़वेिपरे च परमण्डले।।१०५ ह़ह़क़रस्तद़त्यिच्चैरभीद्झ़ियबले बले। तत्र धमयधनां धारां धमयऱजसमऽश्रयम।् ।१०६



िाघ्र हा घोडे से कीदकर गरुड की तरह झडप करने व़ले तथ़ ब़णों से ऽवदाणय हुए िरार से बहनेव़ले रि से लथपथ एवं बहुत देर तक यि ि करने के पररश्रम से मच्ी छ़य को प्ऱप्त हुए, ऐसे मह़ब़हु िह़जा ऱज़ के भऽी म क़ अऽलङ्गन करने पर, ित्रसि मही गजयऩ करने लग़ एवं भजि ़ओ ं को बज़ने लग़ और भोसले के सैऽनकों में बड़ ह़ह़क़र मच गय़। सवयस्वऽमव लोकस्य सवयस्य़ऽप सम़श्रयम।् 138 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तां महातलसल ां ग्ब्नां मग्ब्नां मोहमहोऽमयष।ि ।१०७ दैव़ऽद्ङवस्तट़द्ङेवां ऽदव़करऽमव च्यितम।् रय़द्चय़दवप्लित्य ब़न्द्धवत्वां प्रक़ियन।् ।१०८ फलके न स्वकीयेन ररि बलऽजद्जला। अथ ि़हां मह़ब़हुां ब़जऱजः स्मयां तथ़।।१०९ म़नो लोक क़ सवयस्व, सभा जनों क़ अध़र, दभि ़यग्य के क़रण अक़ि से ऽगरे हुए तेजस्वा सयी य के सम़न मच्ी छ़य प़कर भऽी म पर ऽगरे हुए ईस िह़जा ऱज़ की बलि़ला ने वेगपवी क य घोडे से कीदकर तथ़ भ़तुभ़व को ऽदख़कर ऄपने ढ़ल से ईसकी रक्ष़ की तब ब़जऱज मस्ि किऱ रह़ थ़। ऽनश्वसतां ऽनजग्ऱहां ऩगां ज़ङ्गिऽलको यथ़। ततो हऽस्तनम़रोप्य नायम़नमऱऽतऽभः।।११० जैसे गरुड फिस फिस करने व़ले स़ंप को पकडत़ है, वैसे हा श्व़स प्रश्व़स ग्रहण करने व़ले ईस मह़ब़हु िह़जा ऱज़ को ित्र,ि ह़था पर ड़लकर ले गये। ऽश्रतमीछ़यसिखां ििष्कमिखां मिऽरतचििषम।् पञ्च़ननऽमव़नाय पञ्जऱभ्यन्द्तरेऻऽपयतम।् ।१११ ऽनकुतां ऽनकुऽतज्ेन मिस्तिफेन दिऱत्मऩ। ि़हभीभुतम़लोसय भुिम़चिक्रिििजयऩः।।११२ जो मच्ी छ़य को प्ऱप्त हो गय़ है, ऽजसक़ महंि िष्ि क हो गय़ है, ऽजसकी अख ि ख़न ं े बंद है, कपट करने में चतरि , दष्टि मस्ि तफ ने ऽजसको फंस़य़, ऐेसे ईस िह़जा ऱज़ को पकडकर ऽसहं के सम़न ऽपजं रे में ड़लकर ल़ते हुए देखकर लोग ऄत्यऽधक अक्रोि करने लगे। प्यधत्त यवनः रवेन कपटे न पटे न यम।् नयां न वेद तां ऽवद्ञः ि़हः सवयऽवदप्ययम।् ।११३ ऽजस मस्ि तफ ि ़ख़न ने ऄपने कपटरुपा वह्ल से ऽजस ऱज़ को ढक ऽदय़ है, ऐसे सवयवत्ते ़ ईस िह़जा को किछ ज्ञ़त नहा हुअ ऐस़ हमें प्रतात होत़ है। 139 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



मिस्तिफः स्व़ऽमक़य़यथी पस्पिय सति म़तिम।् अहो ऽवश्रम्भण़य़स्य ललघां े च स्वपिस्तकम्।।११४ स्व़ऽमक़यय के आच्छिक मस्ि तफ ि ख़न ने िह़जा को ऽवश्व़स ऽदल़ने के ऽलए ऄपने पत्रि अतिख़न की िपथ ला एवं ऄपने किऱण के ऽनयम क़ ईल्लंघन ऽकय़। इऽत तां यवनां तत्र जगहे जनत़ऽभतः। स ति स्वस्व़ऽमक़य़यथी कुतकुत्योभवत्ततः।।११५ आसऽलए वह जनत़ ईस यवन की सवयत्र ऽनंद़ करने लगा, परंति वह स्व़ऽमक़यय क़ आच्छिक म़त्र कु तकु त्य हो गय़। न पल्य़णां न तिरगो न करा न क्रमेलकः। ऩयिधां ऩयिधायश्च न व़द्टां न च व़दकः।।११६ न मञ्चको न चोल्लोचो न पत़क़ न च ध्वजः। न ऽवक्रेयां न ऽवक्रेत़ नेंधने न च कीलकः।।११७ न क़ण्डपटकस्तत्र न च़सात्पटमण्डपः। तथ़भवत् िण़धेन ि़हस्य ऽिऽबरां तद़।।११८ ऽजनकी क़ठा नहा है, घोड़ नहीं है, ह़था नहीं है, उंट नहीं है, िह्ल नहीं है, िह्लध़रा भा नहीं है, व़द्य नहीं है, और नहीं व़दक है, मचं नहा है, छत नहीं है, पत़क़ नहीं है, ध्वज नहीं है, बेचने की वस्ति नहीं है, बेचनेव़ल़ नहीं है, आधं न नहीं है, कीलक नहीं है, मडं प नहीं है, ऐसा अधे क्षण में हा िह़जा ऱज़ के ऽिऽबर की ऄवस्थ़ हो गइ। अमाऽभः सवां त़यनलऽनभबलैमयिस्तिफमिखैः, चमीप़लैः क़लैररव यिऽध ऽनऽलांप़ऽधपबलम।् अमिां ि़हां स़हक ां ु ऽतऽमऽतऽनत़न्द्तां ऽनयऽमतम,् स्वदीतेभ्यः श्रित्व़ महऽस महमीदेन मिमिदे।।११९



140 | पृ ष्ठ



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प्रलयक़ल के ऄऽग्न के सम़न, प्रचंड एवं यमऱज की तरह क्रीर ऐसे ईस मस्ि तफ ि ़ख़न अऽद सेऩपऽत आरं की तरह पऱक्रमा ईस ऄऽभम़ना िह़जा ऱज़ को यि ि में कै द ऽकय़ है, ऐस़ ऄपने दती से सनि कर महमदी अऽदलि़ह ऄत्यंत अनऽं दत हुअ। इत्यनिपिऱणे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां सांऽहत़य़ां द्ठ़दिोऻध्य़यः।। १२ ।।



141 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-१३ मनाऽषण उचि:अथ स्वऽपतरां श्रित्व़ ऽनगुहातमऱऽतऽभः। िम्भिऱजः ऽकमकरोत् तथ़ ऽिवमहापऽतः।।१ तां ऽनगुष्त मह़ऱजां मिस्तिफो व़ऽहनापऽतः। व्यधत्त ऽकमधम़यत्म़ महमीदश्च दिमयऽतः।।२



१-२. पऽण्डत बोले - ित्रओ ि ं ने ऄपने ऽपत़ को कै द कर ऽलय़ है, ऐस़ सनि कर संभ़जा और ऽिव़जा ने क्य़ ऽकय़? ईस ि़हजा ऱज़ को कै द करके सेऩपऽत मस्ि त़फ़ख़न और दष्टि ऄध़ऽमयक महमदी ि़ह ने क्य़ ऽकय़? कवान्द्र उव़च िम्भिः स्वऽपतरां श्रित्व़ ऽनगुहातमऱऽतऽभः। चिकोप मिस्तिफ़योच्चैऽबयङ्गरूरां परि ां श्रयन।् ।३ ३. कवान्र बोले - ऄपने ऽपत़ को ित्रओ ि ं ने पकड ऽलय़ है, ऐस़ सनि कर बैंगलोर में रहने व़ले संभ़जा, मस्ि तफ़ख़न पर ऄऽतिय क्रोऽधत हुए। ऽनिम्य ऽिवऱजोऻऽप ि़हऱजदि़ऽमम़म।् येऽदलस्य़पक़ऱय प्रऽतजज्े प्रत़पव़न।् ।४ ४. प्रत़पा ऽिव़जा ने भा ि़हजा ऱज़ की आस ऄवस्थ़ सनि कर अऽदलि़ह से प्रऽतिोध लेने की प्रऽतज्ञ़ की। मिस्तिफस्ति मह़म़ना ऽबङ्गरूरऽजधुिय़। रय़न्द्नुपां त़नऽजतां डिऱन्द्वयधिरन्द्धरम।् ।५ 142 | पृ ष्ठ



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तथ़ ऽवठ्ठलगोप़लां ऽवप्रां ि़त्रोपजाऽवनम।् प्रौढां फऱदख़नां च सद्टः प्रस्थ़तिम़ऽदित।् ।६ ५-६. ऄऽभम़ना मस्ि तफख़न ने बैंगलोर को त्वररत ऄऽधग्रहात करने की आच्छ़ से डिरे वि ि त़ऩजा ऱज़ को ं के प्रमख एवं क्षऽत्रयवुऽत्त से रहने व़ले ब्ऱह्मण ऽवठ्ठल गोप़ल को तथ़ प्रौढ फऱदख़न को िाघ्र प्रस्थ़न करने क़ अदेि ऽदय़। तद़नीं महमीदोऻऽप मेध़वा पुतऩपतान।् योगम़ज़्पय़म़स ऽिवस्य ऽवषयां प्रऽत।।७ ७. ईस समय बिऽिम़न् महमि ी ़ह ने भा ऽिव़जा के प्ऱन्त पर अक्रमण करने की ऄपने सेऩपऽतयों को अज्ञ़ दा। अथ सेऩपऽतऩयम फत्तेख़नो मह़मऩः । ऽमऩदरतनौ िेखौ फत्तेख़नश्च कोपनः ॥ ८ ॥ क्रीरो िरफि़हश्च धन्द्वध़रा यिोधनः । सन्द्ऩहसऽहत़ पते यवऩः सज्जस़धऩः ॥ ९ ॥ घ़ऽण्टको मत्तऱजश्च किऽलिोपमस़यकः । तथ़ फलस्थ़नपऽतबयलव़न् ब़जऩयकः ॥ १० ॥ स़मन्द्त़ः ितिश्च़न्द्ये स्वणयपष्ठु िऱसऩः । स्वणयस़रसऩः स्वणयवसऩः स्वणयकेतऩः ॥ ११ ॥ स्वणयचन्द्र कमिऱङ्ऽकफलकद्टिऽति़ऽलनः । तस्थिऱक्रम्य तरस़ पिरां ऽबल्वसरोऻऽभधम् ॥ १२ ८-१२. तत्पश्च़त् मह़मऩ फतेख़न ऩम क़ सेऩपऽत, ऽमऩदिेख एवं रतनिेख, क्रोऽधत फतेख़न, क्रीर, धनधि ़यरा एवं यिस्वा िरफि़ह ये सभा कवचध़रा एवं स़धन सऽि वध़ओ ं से सज्ज यवन तथ़ वज्र जैसे ऽजसके ब़ण हैं, ऐस़ मदमस्त घ़टगे, फलटण क़ ऱज़ ब़जऩइक एवं सेऩ के धनर्ि है पाठ पर ऽजसके ऐसे स्वणयकऽटबंदो से यि ि , स्वणय वह्लों से यि ि , स्वणय ध्वज़ओ ं से यि ि , स्वणय एवं च़ंदा से यि ि ढ़लों को ध़रण करने व़ले ऄन्य सैकडों स़मन्त ऱज़ओ ं ने बेलसर ऩम क़ िहर बल़त ऄधान करके वहॉं ऽस्थत हो गये। 143 | पृ ष्ठ



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तथ़ हैबतऱजस्य सति ो बल्ल़ळसज्ां कः । कुतहस्तः कुता क्रीरकम़य रौऽणररव़परः ॥ १३ ॥ ऽसांहसांहननोऻनेकैरनाकै ः पररव़ररतः । पिरां ऽिरोबलां प्ऱप ऽिवसैन्द्येरव़ररतः ॥ १४ ॥ १३-१४. ईसा प्रक़र ईत्तम धनधि यर, यि ि कििल, क्रीर, सन्ि दर, म़नो दसी ऱ ऄश्वत्थ़म़ ऐस़ हैबत ऱज़ क़ पत्रि बल्ल़ल ऩम व़ल़ वह ऄनेक सैऽनकों के स़थ ऽिव़जा के सैऽनकों के ऄवरोध से रऽहत होकर ऽिरबल पहुचं गय़। पिरन्द्दरऽिरोवती पिरन्द्दरसितोपमः । तद़ तद़गमां श्रित्व़ ऽिवः स्मेरनत़ननः ॥ १५ ॥ स़हव़न् धनबि ़यणप़ऽणः सन्द्नध्दस़धनः । साऱयिधसम़न् धाऱन् स्ववाऱऽनदमब्रवात् ॥ १६ ॥ १५-१६. तब वह ईसके अगमन को सनि कर परि न्दर ऽकले पर रहने व़ले, आन्र की तरह वह ऽिव़जा कवच पहनकर धनर्ि , ब़ण को ह़थ में लेकर, सभा स़धनों से सज्ज होकर, हसं मख ि एवं ऽवन्वदन वह ऽिव़जा बलऱम की तरह ऄपने धैययव़न् सैऽनकों को यह बोल़। ऽवश्वस्तो मिस्तफ़ख़ने मह़ऱजः ऽपत़ मम । अहो व्यसनम़पन्द्नः सम्पन्द्नः सम्पद़ स्वय़ ॥ १७ ॥ १७. ऽिव़जा बोल़ - मेऱ ऽपत़ ि़हजा ऱज़ स्वयं की सम्पऽत्त से सम्पन्न होते हुए भा मस्ि तफ ि ़ख़न पर ऽवश्व़स करने के क़रण से वे ऽवपऽत्त में फंस गये हैं, यह ऽकतने दःि ख क़ वुत़न्त है? न ऽवश्वसेदऽवश्वस्ते ऽवश्वस्तेऻऽप न ऽवश्वसेत् । ऽवश्व़स़द्झयमित्पन्द्नां मील़न्द्यऽप ऽनकुन्द्तऽत ॥ १८ ॥ १८. ऄऽवश्व़सा लोगों पर ऽवश्व़स नहीं करऩ च़ऽहए और ऽवश्वस्त लोगों पर भा ऽवश्व़स नहीं करऩ च़ऽहए, क्योंऽक ऽवश्व़स के क़रण से ईत्पन्न भय व्यऽि क़ समल ी ऩि कर देत़ है।



144 | पृ ष्ठ



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इऽत व्य़सस्य वचनां श्रति व़नऽप प़ऽथयवः। अऽवश्व़स्यतरे तऽस्मन् अहो ऽवश्वस्तत़ां गतः ॥ १९ ॥ १९. आस व्य़सवचन को ज़नते हुए भा ऱज़ ने ईस ऄत्यन्त ऄऽवश्व़सा व्यऽि पर ऽवश्व़स ऽकय़, यह ऽकतऩ बड़ अश्चयय है? अऽवज़्तेङ्ऽगतगऽतः ऽश्रतयेऽदलि़सनः । ऽनजग्ऱह मह़ऱजां मिस्तिफो यवऩधमः ॥ २० ॥



२०. ऄपने मनोगत को ऄज्ञ़त रखने व़ले ऄधम यवन मस्ि तिफ़ख़न ने अऽदलि़ह के अदेि से मह़ऱज को कै द कर ऽलय़। ऽवश्वस्तः स्वणयहररणे हररण़क्ष्य़ प्रणोऽदतः । वऽञ्चतो दिवसत्रेण सोऻऽप द़िरऽथनपु ः ॥ २१ ॥ २१. वह द़िरथा ऱम भा मुगनयऩ सात़ के अग्रह से स्वणय ऽहरण पर ऽवश्व़स करके ऱवण के द्ऱऱ फंस़य़ गय़। अऽतऽवश्रब्धत़ां नात्व़ ऽवप्रलब्धो मरुत्वत़। पप़त ऽत्रऽदव़त्तण ी ं यय़ऽतनयहुष़त्मजः ॥ २२ ॥ २२. नहुर् के पत्रि यय़ऽत क़, आन्र ने ऄपने उपर ऄत्यऽधक ऽवश्व़स करव़कर ईसे फंस़ ऽदय़ तो वह स्वगय से िाघ्र हा नाचे ऽगर गय़। सहजां कवचां ऽबभ्रदऽवश्वस्तो बलऽवऽद्ठष़। तथ़ स ऽवऽहत कणय: प़थेन ऽनहतो यथ़। २३ २३. जन्मतः प्ऱप्त हुए कवच को ध़रण करने व़ले कणय के ऽवश्व़स करने के क़रण हा आन्र ने ईसे ऐस़ बऩय़, ऽक ऽजससे ईसे ऄजनयि म़र सके । ऽवश्वस्तो धमयऱजोऽप भरत़ऩां धिरन्द्धर: । सयि ोधनसह़येन द्टति े िकिऽनऩ ऽजत: । । २४ 145 | पृ ष्ठ



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२४. भरत किल क़ धरि न्धर धमयऱज यऽि धऽष्ठर भा ऽवश्वस्तत़ के क़रण हा दयि ोधन के सहयोगा िकिना के द्ऱऱ जात ऽलय़ गय़। अतो वैररषि ऽवश्व़सां न किवीत ऽवचिणः । येन सम्यगधातोऻऽस्त ऱजधमयः सलिणः ॥ २५ ॥ २५. आसऽलए ऽजसने लक्षणों सऽहत ऱजनाऽत क़ ऄच्छा तरह ऄध्ययन ऽकय़ है, ऐसे चतरि परुि र्ों को ित्रि पर ऽवश्व़स नहीं करऩ च़ऽहए। ह़ल़हलधऱ श्ले षो ह़ल़हलऽनषेवणम।् ऽवऽद्ठषत्सि च ऽवश्व़सष्धयमेतत्समां स्मुतम् ॥ २६ ॥ २६. स़पं को पकडऩ, हल़हल ऽवर् क़ प़न करऩ एवं ित्रि पर ऽवश्व़स करऩ ये तानों वुत़न्त सम़न हा हैं। ल़लनां कऽपब़ल़ऩां क़लपन्द्नगच़लनम् । तथ़ स्य़दपक़ऱय खलप्रणयप़लनम् ॥ २७ ॥ २७. बंदर के बच्चों क़ ल़लन-प़लन करऩ, क़ले स़ंप को छोडऩ वैसे हा दोस्तों के स़थ ऽमत्रत़ करऩ ऄऽहतक़रक होत़ है| यथ़न्द्धमऽन्द्दऱऽलन्द्दमध्यदापकदापनम।् यथ़ स्रोतऽस्वनास्रोत: ऽसकत़सेतिबन्द्धनम॥् २८ यथ़ िकऽलत़नघ्ययमिि़सन्द्ध़नस़धनम।् यथ़ च जगऽत ख्य़तां कदलाक़ण्डद़रणम् ॥ २९ ॥ यथ़ ष्त़क़िखननां यथ़ सऽललत़डनम् । तथ़ पररश्रम़यैव भवेदसदिप़सनम् ॥ ३० ॥ २८-३०. जैसे ऄधं े व्यऽि के घर के प्ऱंगण के मध्य दापक क़ जल़ऩ, जैसे नदा के प्रव़ह में रे त क़ सेति बऩऩ, जैसे टीटे हुए मल्ी यव़न मोऽतयों को पनि ः जोडऩ, जैसे के ले के खभं े को ऽगऱऩ संस़र में प्रऽसि है, जैसे अक़ि को खोजऩ, जैसे प़ना को म़रऩ जैसे यह सब के वल पररश्रम के क़रणाभती होते हैं, वैसे हा दष्टि ो की सेव़ करऩ होत़ है| 146 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽद्ठऽष ऽवश्वसत़ येन नाऽति़ष्धां न तत्स्मुतम् । ऽकां तेन खऽदऱङ्ग़रपययङ्कियनां कुतम् ॥ ३१ ॥ ३१. ित्रि पर ऽवश्व़स करके ऽजसक़ पणी तय य़ ऱजनाऽत ि़ह्ल ऽवस्मुत हो गय़ है, ईसक़ क्य़ ईपयोग है? क्य़ ईसने खऽदर के ऄगं ़रे से यि ि पलंग पर ियन ऽकय़ हैं? । भवेद्टऽद सतुष्णस्य वैतुष्ण्यां मुगतुष्णय़ । तऽहय स्य़देव ऽनऽखलां कििलां खलसेवय़ ॥ ३२ ॥ ३१. प्य़से व्यऽि की प्य़स यऽद मुगतुष्ण़ को पाकर ि़ंत हो ज़ए तो दष्टि ो की सेव़ से भा संपणी य कल्य़ण होग़। सिऽषऱन्द्वेषणपरः परस्पध़यकरः खलः । आऽहतोप्यऽहतो ज्ेयो ऩवज्ेयो ऽवज़नत़ ॥ ३३ ॥ ३३. दोर्दिी ित्र,ि दसी रे के स़थ स्पध़य करने व़ल़ दष्टि , आनको स़ंप से भा ऄऽधक ऄऽहतक़रा ज़नऩ च़ऽहए, ज़नते हुए भा आनकी ईपेक्ष़ नहीं करना च़ऽहए। रऽितां ऱष्रमऽखलां व़सयां च पररप़ऽलतम् । अमिष्य महमीदस्य मह़ऱजेन ऽकां कुतम् ॥ ३४ ॥ ३४. ईस महमदी ि़ह के सपं णी य ऱज्य की रक्ष़ की एवं ईसकी अज्ञ़ओ ं क़ प़लन ऽकय़, ऐसे आस मह़ऱज ने क्य़ ऄनथय ऽकय़? ऽहत़ऩमऽहतो भीत्व़ मऽहतोऽप स्वय़ ऽश्रय़ । अहो येऽदलि़होयां न सादऽत ऽनऱश्रयः ॥ ३५ ॥ ३५. ऽमत्रों के ित्रि हो ज़ने से अश्रयरऽहत यह अऽदलि़ह ऄपने ऐश्वयय की िोभ़ से मह़न होते हुए भा ऽवऩि को प्ऱप्त नहीं हो रह़ है, क्य़ यह अश्चयय नहीं है? रुद्चः फऱदख़ऩद्टैऽवयरुध्दैरुध्दतस्मयः । योत्स्यते तत्र मे भ्ऱत़ ऽबांगरूरपिऱश्रयः ॥ ३६ ॥ ३६. बेंगलरुि में रहने व़ल़, ऄिदख़न अऽद ित्रिओ ं के द्ऱऱ ऽगऱ हुअ ऄत्यंत स्व़ऽभम़ना मेऱ भ़इ वह़ं यि ि करे ग़। 147 | पृ ष्ठ



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इम़ऽन ऽगररदिग़यऽण प़लयन्द्ऩऽतऽनवयतु ः । योत्स्येहमऽहतैरत्र सन्द्नद्च़नाकसयां ितः ॥ ३७॥ ३७. और आन ऽगररदगि ों की रक्ष़ करते हुए मैं ऄत्यतं ऽनभययत़ पवी क य सज्ज सेऩ से यि ि होकर यह़ं ित्रओ ि ं से लडींग़। अहमत्र स्वयां तत्र िांभिऱजः पऱक्रमा । मोचऽयष्य़वहे त़तां यिध्यम़ऩविभ़वऽप ॥ ३८ ॥ ३८. आधर मैं स्वयं और ईधर पऱक्रमा संभ़जा, आस प्रक़र दोनों यि ि करके ऽपत़ को मि ि करें ग।े अथ़स्मदऽभभीत़त्म़ महमीदः सदि ि मयदः। सहैव स्वेन दपेण मह़ऱजां ऽवमोक्ष्यऽत ॥ ३९ ।।



३९. ऄत्यन्त ऄऽभम़ना महमदी ि़ह के हम़रे से पऱऽजत हो ज़ने से वह ऄपने घमंड के स़थ हा मह़ऱज को भा मि ि कर देग़। स्वेन धमेण सऽहतां मऽहतां त़तम़वयोः । महमीदो न चेन्द्मोि़ तऽहय भोि़ स्वकमय तत् ॥ ४० ॥ ४०. स्वधमय में ऽनष्ठ़ रखने व़ले हम़रे ऽपत़जा को, यऽद महमदी ि़ह छोडेग़ नहीं तो वह ऄपने कमों क़ फल स्वयं भोगेग़। यऽहय मोह़न्द्मह़ऱजां येऽदलः प्रहररष्यऽत । तऽहय तां सऽहतां सद्टस्त़त एव हऽनष्यऽत ॥ ४१ ॥ ४१. यऽद अऽदलि़ह मख ी यत़ के क़रण मह़ऱज पर प्रह़र करे ग़ तो ऽपत़ जा स्वयं हा ईसके सहयोगा सऽहत ईसको म़र देंग।े अऩरतां मनो येष़ां धमयप़िऽनबन्द्धनम्। अलां न तेष़ां बन्द्ध़य क़ऱग़ऱऽदबन्द्धनम् ॥ ४२ ॥ ४२. ऽजनके मन सद़ धमयप़ि के बंधन से बि है, ईनको क़ऱगुह अऽद बंधन ब़ंधने में समथय नहीं होते हैं। 148 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



गहु ात़ मऽहत़ लोके जयवल्ला मय़ परि ़ । स्थ़ऽपतश्चरां ऱजश्च तस्य़ां तदऽभल़षिकः ॥ ४३ ॥ ४३. लोगों में प्रऽसि जयवल्ला, मैंने पहले ग्रहण की और ऽफर ईसके आच्छिक चरं ऱव को यह़ं स्थ़ऽपत कर ऽदय़। घोऱत्म़नो घोरफट़ः किऽपत़ इव पन्द्नग़ः। म़ां ज़ङ्गिऽलकम़लोसय महतीं ि़ऽन्द्तम़गत़ः ॥ ४४ ॥ ४४. ऩग के सम़न क्रोऽधत हुअ भयंकर घोरपडे, मझि ऽवर्ह़रा वैद्य को देखकर ऄत्यन्त ि़ऽन्त को प्ऱप्त हो गय़। प्रस्थ़य प्रथऩय ऱक् मय़ ऽवऱऽवतः परि ़ । जावऩद़य मििश्च फलस्थ़नपिरेश्वरः ॥ ४५ ॥ ४५. यि ि के ऽलए ऄच़नक अक्रमण करने व़ले फलटण के ऱज़ को पहले मैंने व़पस भग़ ऽदय़ थ़ और ईसको जाऽवत पकडकर छोड ऽदय़ थ़।



एतेऻधिऩ समिऽदत़ः फतेख़ऩदयो भट़ः । योत्स्यन्द्तेऻस्म़न् सम़स़द्ट ऽद्ठप़ इव मदोत्कट़ः ॥ ४६ ४६. ऄब ये फतेख़न अऽद संगऽठत सैऽनक हम़रे स़थ मदमस्त ह़था के सम़न यि ि करें ग।े बलाय़नेष बल्ल़ळः प़लयन् प्रबलां बलम।् मन्द्यते बहुम़त्म़नां सम़द़य ऽिरोबलम् ॥ ४७॥ ४७. ऽवि़ल सैन्यबल से यि ि यह बलि़ला बल्ल़ल ऽिरबल को ऄऽधग्रऽहत करने के क़रण स्वयं को ऄत्यऽधक बलव़न् समझ रह़ है। अतो रितऽमतो गत्व़ तमेव बऽलऩां वरम।् ऽवऽनगुष्त भवन्द्तोऻद्ट मोचयन्द्ति ऽिरोबलम् ॥ ४८।। ४८. ऄतः तिम यह़ं से जल्दा ज़कर ईस ऄत्यऽधक बलि़ला बल्ल़ल को पकडकर, अज हा ऽिरबल को ईससे मि ि कर दो। 149 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अथ श्वोव़ परश्वोव़ फतेख़नां मह़वलम् । अत्र व़ तत्र व़ वाक्ष्य प्रऽतयोत्स्य़महे वयम् ॥ ४९॥ ४९. ऽफर, कल य़ परसों ईस बलव़न् फत्तेख़न के स़थ हम यह़ं य़ वह़ं ईसके स़थ यि ि करें ग।े कवींर उव़चऽिवस्येऽत वचः श्रित्व़ सैऽनक़स्ते सहस्रिः। पष्ि करां परी य़म़स:ि ऽसहां ऩदेन भीयस़ ॥ ५० ॥ ५०. कवान्र बोले- ऽिव़जा के आन वचनों को सनि कर ईसके हज़रों सैऽनकों ने िेर की तरह प्रचंड गजयऩ करके अक़ि को गजंी ़यम़न कर ऽदय़। अथ़ऱऽतप्रमथनो जगत्स्थ़पकवि ां जः । प्रवुध्दप्रथऩमोदो गोदोऩम मह़यिधः ॥ ५१ ॥ व्य़ि़न्द्वयस्तथ़ भामो भामो भाम इव़परः । दऽलतद्ठेऽषदोः स्तम्भदम्भस्सम्भश्च क़ऽण्टकः ॥ ५२ िुङ्ग़रस्सङ्गऱङ्ग़ऩऽमङ्ग़लकिलसम्भवः । ऽिवश्वोत्त़लकिन्द्त़ग्रः कऱलः क़लसऽन्द्नभः ॥ ५३ ॥ परवाऱऽश्रय़ां चोरश्चोरवांश्यो गण़ग्रणाः । भाकोऻऽतभाषण़नाकोऻत्यभाको रणकमयऽण ॥ ५४ ॥ वैररऽवत्ऱसजननो यिऽध भैरवभैरवः । सभ़ऽभभ़यसम़नोऻस्य सऩऽभरऽप भैरवः ॥ ५५ ॥ अमा िैलपतेश्िरी ़ः सरी ़ इव सतेजसः। स्वय़ स्वय़ ऽश्रय़ रम्य़ः प्रणम्य़मिां प्रतऽस्थरे ॥ ५६ ॥



150 | पृ ष्ठ



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५१-५६. ित्रओ ि ं क़ ऽवध्वंस करने व़ल़, व्यही यि ि में अनऽन्दत होने व़ल़, मह़योि़ गोद़जा जगत़प, म़नो दसी ऱ भाम हा हो ऐस़ भयंकर भाम़जा व़घ, ित्रओ ि ं के ब़हुबल के ऄऽभम़न क़ ऩि करने व़ल़ संभ़जा क़ंटे, यमऱज की तरह भयक ि ों के ऄगं ों क़ श्रुगं ़र, ऽजसके भ़ले क़ ऄग्रभ़ग ईठ़ हुअ है ऐस़ ऽिव़जा आगं ळे , ित्रओ ि ं की ं र यि लक्ष्मा क़ हरण करने व़ल़, यि ि क़यय में ऄत्यन्त ऽनभयय, ऄत्यन्त भार्ण सैन्यबल से यि ि ऐस़ सेऩपऽत भाक़जा चोर, ित्रओ ि ं की पाड़ को बढ़़ने व़ल़, यि ि में भैरव की तरह भयंकर, वह भैरव ऩम व़ल़, वह आसक़ सग़ भ़इ सयी य के सम़न तेजस्वा थ़, ऄपने-ऄपने िोभ़ से िोभ़यम़न आन िरी वारों ने सैऽनकों के स्व़मा ऽिव़जा को प्रण़म करके प्रस्थ़न ऽकय़। आध्यक्ष्ये ऽिव एतेष़ां न्द्ययोजयत क़बिकम् । सवेष़ां वऽु ष्णवाऱण़ां व़सिदेव इव़हुकम् ॥ ५७ ॥ ५७. ऽजस प्रक़र श्राकु ष्ण ने स़त्यकी को य़दव वारों क़ सेऩपऽत ऽनयि ि ऽकय़, ईसा प्रक़र ऽिव़जा ने क़बक ि जा को ईन सबक़ सेऩपऽत ऽनयि ि ऽकय़ थ़। सन्द्ऩहैः स्वैः सम़कीण़यस्तेऻवताण़यः पिरन्द्दऱत् । अम्बिद़ इव गजयतः सन्द्नध्दतरसैंधव़: ॥ ५८ ॥ त़मतात्य ऽनि़ां तत्र प्रतापऽवऽजगाषय़ । प्रय़ण़ऽभमिखाभीय क़रय़म़सिऱनक़न् ॥ ५९ ॥ ५८-५९. ऄपना यि ि स़मग्रा को लेकर, ऄऽतिय सज्ज घोडे पर बैठकर ब़दल की तरह गजयऩ करते हुए वे परि ं दर ऽकले के नाचे ईतर गये और ऱऽत्र वहा पर व्यतात करके ित्रि को जातने के आच्छिक वे सब प्रस्थ़न ऄऽभमख ि होकर, ईन्होंने ढोल बजव़य़। अथ पऽद्झः पद़ताऩां ऽभन्द्दन्द्त इव भीतलम् । कतययन्द्त इव़श्वायवतयकैव्योममांडलम् ॥ ६० ॥ प्रऽकरन्द्त इव़राण़मिपरर प्रलय़नलम् ॥ िऱस्ते ददृििस्सद्टो ऽवकिव़यण़ऽश्िरोबलम् ॥ ६१ ॥ ६०-६१. तत्पश्च़त् पद़ऽतयों के पैरों से म़नों भती ल को ऽवदाणय करते हुए घोडों के खरि ों से म़नों अक़ि को क़टते हुए ित्रओ ि ं पर म़नो प्रलय़ऽग्न को ऽबखेरते हुए ईन िरी वारों ने िाघ्र हा ऽिरबल को देख ऽलय़ ऄथ़यत् पहुचं गए। 151 | पृ ष्ठ



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परस्ति बलवद्वाक्ष्य ऽिवसैन्द्यमिप़गतम् । ऽनजग़द ऽनज़नाकपत्तानऽतमताऽनदम् ॥ ६२ ।। ६२. ऽिव़जा के बलि़ला सेऩ को समाप अय़ हुअ देखकर ित्रि भा ऄपना सेऩ में से ऄत्यन्त बऽि िम़न पद़ऽतयों से आस प्रक़र बोल़। बल्ल़ळ उव़च म़ भैष्ट स्मयबांऽहष्ठमवलोसय ऽद्ठषद्बलम।् प्रधने ऽनधनां श्रेष्ठमश्रेष्ठां ऽह पल़यनम् ॥ ६३ ॥ ६३. बल्ल़ल बोल़ - ित्रि की ऄत्यन्त ऄऽभम़ना सेऩ को देखकर मत डरो, यि ि में मुत्यि श्रेष्ठ होता है ऽकंति यि ि से पल़यन ऽनन्दनाय होत़। फतेख़नमतेनैते वयां प्ऱप्त़ऽश्िरोबलम् ॥ अवस्थ़नऽमह़स्म़कां रिवस्थ़नऽमव रिवम् ॥ ६४ ॥ ६४. फत्तेख़न की अज्ञ़ से हम ऽिरबल अये हैं, आस स्थ़न पर हम़ऱ ऽनव़स ध्रवि त़रे की तरह ऽनऽश्चत है। यऽद वो भयमेतऽहय तऽहय सद्टो मम़ज्य़ ॥ ऽद्ठतायऽमवम़मत्र वप्रम़लम्ब्य ऽतष्ठत ॥ ६५ ॥ ६५. यऽद तमि ऄब भा भयभात हो तो मझि े दसी ऱ तट समझकर, मेऱ िाघ्र हा अश्रय लेकर और मेरा अज्ञ़ से यह़ं ऽनव़स करो। न ष्तस्मऽन्द्नधनेनैव स्व़ऽमक़यं प्रऽसध्यऽत ॥ अतो यिध्द़य महते वप्रमेव़श्रय़महे ॥ ६६ ॥ ६६. के वल हम़रा मुत्यि से हा स्व़ऽमक़यय की ऽसऽि नहीं होता है। आसऽलए बडे यि ि के ऽलए आस पररख़ क़ हा अश्रय लेंग।े िोऽदष्ठमऽप ऽदष्टेन ऽदष्टेऻमिऽष्मन् सिदिगयमे। दिगयमेतऽध्द ऽसऽध्दन्द्नो यिध्दस्य़स्य ऽवध़स्यऽत ॥ ६७ ॥ 152 | पृ ष्ठ



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६७. भ़ग्य दैववि अइ हुइ आस ऄत्यन्त दगि यम पररऽस्थऽत में यह ऄत्यन्त छोटा पररख़ भा आस यि ि में हम़रा ऽसऽि को प्ऱप्त कऱ देगा। स़ऽभम़नैस्स़ऽभम़नां यिध्यम़नैऽश्िरोबले ॥ इह़स्म़ऽभऽश्िरोदेयां न ति देयां यिो रणे ॥ ६८ ॥ ६८. हम ऄऽभम़ना लोगों को ऄऽभम़न के स़थ आस ऽिरबल स्थ़न पर लडते-लडते ऄपने ऽिर को देऩ च़ऽहए ऽकन्ति ित्रि को यि ि में यि नहीं देऩ च़ऽहए। यिसे दऽयत़ां स्वाय़ां दि़स्यदमनो जहौ ॥ यिसे द़नव़धािो बऽलः प़त़लम़ययौ । ६९ ॥ यिसे द़नव़ऱऽतः क़मठीं तनिम़ददे ॥ यिसे स्वयमित्कुत्योत्कुत्य म़ांसां ऽिऽबदयदौ ।। ७० ।। यिसे खण्डपरिःि सद्टो ह़ल़हलां पपौ ।। यिसेऻस्थान्द्यहोत्कुत्य दधाऽचस्सद्गऽतां ययौ ।। ७१ ।। यिसे क़श्यपीं सव़यमत्यजज्जमदऽग्ब्नजः ॥ यिसे िरिय्य़य़मिेत स्वणयदासितः ॥ ७२ ॥ तदद्ट यिसेऻथ़यय प्रऽतयोत्स्य़महे पऱन् ॥ य़वन्द्न प्रहरन्द्त्येते वाक्ष्य वाक्ष्य वऱन् वऱन् ॥ ७३ || ६९-७३. यि प्ऱऽप्त के ऽलए ऱम ने ऄपना पत्ना को छोड ऽदय़, यिप्ऱऽप्त के ऽलए ऱक्षसों क़ ऱज़ बला प़त़ल चल़ गय़, यिप्ऱऽप्त के ऽलए हा ऽिऽव ऱज़ ने ऄपने म़ंस के टिकडे करके ऽदये, यि के ऽलए हा िंकर ने हल़हल ऽवर् को पा ऽलय़, यि के ऽलए हा दधाऽच ने ऄपना हड्ऽडय़ं दा एवं सद्गऽत को प्ऱप्त हो गये, यि के ऽलए हा परिरि ़म ने सम्पणी य पुथ्वा को छोड ऽदय़ थ़, यिप्ऱऽप्त के ऽलए हा भाष्म िरि्य़ पर सोये थे, आसऽलए अज जब तक आनमें से प्रमख ि प्रमख ि लोगों को चनि कर म़रें गे नहीं तब हम यि के ऽलए और धन के ऽलए ित्रओ ि ं के स़थ यिि करते रहेंग।े इत्यििवऽत बल्ल़ळे योध़स्तस्य सहस्रिः ॥ सद्टस्तदिगयम़स्थ़य ऽवनेदिऽद्ठयरद़ इव ॥ ७४ ॥ 153 | पृ ष्ठ



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७४. आस प्रक़र बल्ल़ल के कहने पर ईसके हज़रों सैऽनक ऽकले क़ अश्रय लेकर ह़था के सम़न गजयऩ करने लगे। अथ प्रऽतभट़न् दृष्ट्व़ कुतवप्ऱवलम्बऩन् । क़बिकस्समऱक़ांिा स्व़न् सैन्द्य़ऽनदमब्रवात् ॥७५ ७५. ित्रओ ि ं ने पररख़ क़ अश्रय ऽलय़ है, ऐस़ देखकर यि ि के आच्छिक क़बक ि ने ऄपने सैऽनकों से आस प्रक़र कह़। क़बक ि ईव़चअहो ऽिवस्य ऽवषयां सप्रां ़प्तो ऽवऽजगाषय़। बलव़नेष बल्ल़ळो वप्रम़ऽश्रत्य ऽतष्ठऽत ॥ ७६ ॥ ७६. क़बक ि बोल़ - ऄरे ! ऽिव़जा के प्ऱन्त को जातने की आच्छ़ से अय़ हुअ। यह बलव़न् बल्ल़ल पररख़ क़ अश्रय लेकर ऽस्थत है। अस्मदायऽमदां ष्तेष सम़ऽश्रत्य ऽिरोबलम् । अहो दिययते मन्द्दमऽतऱत्मऽिरोबलम् ॥ ७७ ॥ ७७. ऄपने आस ऽिरबल क़ अश्रय लेकर रहने व़ल़ यह मदं मऽत ऄपना बऽि िमत्त़ क़ प्रदियन कर रह़ है। न सन्द्त्यि़ स्तथ़ च़स्य नह्यऽस्त पररख़ तथ़। अतो न दिगयमां दिगयमदो ज़नात सैऽनक़ः ॥ ७८ ।।



७८. आस ऽकले क़ वैस़ ऄट्ट भा नहीं और नहीं वैसा पररख़ है। आसऽलए ऄरे सैऽनकों! यह दगि य दगि मय है, ऐस़ मत समझो। ऽक्रयत़ां पररवेषोऻस्य पररतोऻध्व़ ऽनरुध्यत़म् । िणेनैकेन ऽनऽखल़ पररख़ऽप प्रपीययत़म् ॥ ७९ ॥ ७९. आसको घेर लो, आसके च़रों ओर से म़गय को रोक दो और एक ऽमऽनट में सम्पणी य पररख़ओ ं को भर दो। ऽवहङ्गम़ऽनवोदग्रक्रम़ऩत्मतिरङ्गम़न् । उत्प़त्य़दायत़मेतत् किद्द़लैव़य ऽवद़ययत़म् ॥ ८० ॥ 154 | पृ ष्ठ



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८०. पऽक्षओ ं की तरह घोडों को ईंच़ कीद़कर ले लो य़ ऽफर आसे किद़ल से फोड दो। उत्खन्द्यत़मदः सद्टो मीळमस्य ऽनखन्द्यत़म् । ऽकमि दिगयऽमदां लांक़ येऩतांक़य ज़यत़म् ॥ ८१ ॥ ८१. आसको खोद दो एवं आसके ब़द िाघ्र हा आसके नींव को भा खोद दो। यह दगि य क्य़ कोइ लंक़ है? ऽजससे भय प्रतात हो। इत्यिि़ः क़बिनोच्चैः सैऽनक़ः समरोध्दत़ः । सद्टस्तदिगयम़द़तिमिपचक्रऽभरेऻऽभतः ॥ ८२ ॥ ८२. क़बक ि के आस प्रेरण़द़यक वचनों से यि ि के ऽलए ईत्सक ि सैऽनकों ने िाघ्र हा ईस दगि य पर च़रों ओर से अक्रमण कर ऽदय़। परेप्यमीन् पिरो वाक्ष्य सिरोध्दिरपऱक्रम़न् । मन्द्व़ऩः प्रधऩरम्भां धन्द्व़न्द्य़दिधवि स्ि तम़म् ॥ ८३ ॥ ८८. देवों की तरह पऱक्रमा ईन वारों को सम्मख ि देखकर यि ि क़ अरम्भ हो गय़ है, ऐस़ म़नकर ित्रि भा धनर्ि चल़ने लगे। उपररष्ट़ऽदम़न् रष्टुां यश्चक़रोन्द्नतां ऽिरः। स सद्टऽच्छन्द्नमीधयत्व़दभीत् के तिग्रहो यथ़ ॥ ८४ ॥



८४. उपर से आनको देखने के ऽलए जो ऽसर ईन्नत करत़ थ़ ईसक़ ऽसर िाघ्र हा क़ट ऽदय़ ज़त़ थ़ और वह के ति ग्रह जैस़ हो ज़त़ थ़| ि़ख़भ्य इव वुि़ण़ां चञ्चराकपरम्पऱः । िऱसनेभ्यश्िीऱण़ां ऽनरायिऽनयऽित़श्िऱ: ॥ ८५ ॥ ८५. वुक्षों की ि़ख़ओ ं से जैसे भवं रों की संपणी य पंऽि ईड ज़ता है वैसे हा िरी वारों के धनर्ि से ताक्ष्ण ब़ण ऽनकलने लगे। 155 | पृ ष्ठ



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क्रीऱः क़मयिकम़कणय सम़कुष्य महौजसः । िीऱऽश्िऱांऽस िीऱण़ां ऽनचकतयिऽश्ितैश्िरैः || ८६ ॥ ८६. क्रीर बलि़ला िरी वार धनर्ि को क़न तक खींच कर ऄपने ताक्ष्ण ब़णों से ित्रओ ि ं के ऽसरों को क़टने लगे। कुतहस्तऽवऽनमयिि़ः स़यक़ः प़तिक़ः ऽिऽतम् । ऽवऽवििस्तत्तलां चोच्चैः ददृििश्च फणाश्वरम् ॥ ८७ ॥ ८७. ईत्कु ष्ट धनधि यरों द्ऱऱ छोडे गए एवं पुथ्वा पर ऽगरने व़ले ब़ण ईनके पेट में आतना तेजा से घसि ते थे ऽक तत्क्षण हा ईनको िेर्ऱज क़ दियन हो ज़त़ थ़। रथ़ङ्गैल़यङ्गलैरिैमयिसलैरप्यिलीखलैः। उपलैश्च घरिै श्च प्रज्वलऽद्झस्तथोल्मिकैः ॥ ८८ ॥ ख़ऽदऱङ्ग़रपिञ्जैश्च तप्तैस्तैलैश्च भीररिः । तैस्तैश्िष्धैश्च वप्रस्थ़ः प्रऽतवाऱनव़ऽकरन् ॥ ८९ ।। ८८-८९. रथ के चक्के , हल, मसि ल, उखल, पत्थर, घरह, जलत़ हुअ कोयल़, खजरी के ऄगं ़रों क़ ढेर, तप़ हुअ तेल एवं ऄनेक प्रक़र के िह्ल, पररख़ में बैठे हुए लोग ित्रवि ारों पर फें कने लगे। हन्द्यम़नैरऽप परैः ऽिवसैन्द्यैरुद़यिधै: । पररमण्डऽलतां दिगयऽमदमभ्यऽधकां बभौ ।। ९० ॥ ९०. ित्रओ ि ं के द्ऱऱ म़रे ज़ने पर भा ि़ह्लों को ईठ़ए हुए ऽिव़जा के सैऽनकों से ऽघऱ हुअ वह ऽकल़ ऄत्यऽधक सि ि ोऽभत होने लग़।



ततो गद़ऽभऽदयघ़यऽभः पररघैरप्यनेकध़ । तद्ङिगं द़रय़म़सिरुध्दत़ः के ऽप सैऽनक़ः॥ ९१ ॥ ९१. तत्पश्च़त दाघय गद़ओ ं से एवं लोहबि डंडों से किछ क्रोऽधत सैऽनकों ने ऄनेक स्थ़नों से ईस ऽकले को ऽवदाणय कर ऽदय़। 156 | पृ ष्ठ



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के ऽप किन्द्त़ऽभघ़तेन सऽि षऱऽण प्रचऽक्ररे । ऽनश्रेणारऽधरुष्त़न्द्ये तऽद्झत्ताः परररेऽभरे ।। ९२ ॥ ९२. किछ सैऽनकों ने भ़ले के प्रह़रों से ऽछर कर ऽदए, किछ ने चोटा पर चढ़कर ईनकी दाव़रों को तोड ऽदय़। आरूढ़स्तिरग़न् के ऽप गरुड़ऽनव रांहस़ । तदित्पऽततिमैहन्द्त हन्द्त सांप्रेक्ष्य सवयतः ॥ ९३ ॥ ९३. गरुड की तरह वेगव़न घोडों पर बैठे हुए किछ सैऽनक च़रों ओर ऄच्छा तरह देख कर ईन पर कीदकर ज़ने क़ प्रय़स करने लगे। क़बिकस्ति गद़दाऩम़यिध़ऩमनेकध़ । अऽभघ़तेन महत़ द़रय़म़स गोपरि म् ॥ ९४ ॥ ९४. क़बक ि ने तो गध़ अऽद ऄनेक प्रक़र के िह्लों के द्ऱऱ ऄनेक स्थ़न पर प्रह़र करके नगर के द्ऱर को तोड ऽदय़। स ऽभन्द्नगोपिरां वारः प्ऱक़रां प्ऱऽविद्टद़। अभ्येत्य यियिधे तत्र येऽदल़नाऽकना तद़ ॥ ९५ ॥ ९५. जब वह वार टीटे हुए, नगरद्ऱर के प्रक़र में घसि गय़ तब अऽदलि़ह की सेऩ ईसके स़थ ईस समय यि ि करने लगा। वडव़ग्ब्नाऽनव़ग्ऱष्ततम़नभ्य़गत़ऽनम़न् । प्रऽतगुष्त प्रऽतग्ऱष्त़न् बल्ल़लो बलव़न् बभौ ॥ ९६ ९६. वडव़ऽग्न की तरह ऄत्यंत स्वच्छंदत़ से अए हुए ित्रओ ि ं को देखकर वडव़ऽग्न की तरह यह बलव़न बल्ल़ल ित्रि पक्ष क़ प्रऽतक़र करते हुए सि ि ोऽभत होने लग़। दियनायतमः प्ऱांिःि ऽपनध्दकवचो यिव़ ॥ किांतध़रा धन्द्वधरो धारः सैऽनकसांवुतः ॥ ९७ ॥ तिङ्गां तिरङ्गम़रूढः स तद़भ्यऽधकां तथ़ ॥ ऽददापे ऽकल ऽनव़यणवेल़य़ां दापको यथ़ ॥ ९८ ॥ 157 | पृ ष्ठ



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९७-९८. दियनाय ईन्नत कवच ध़रण ऽकय़ हुअ यवि ़, भ़ल़ एवं धनर्ि को ध़रण करने व़ल़, धैययव़न सैऽनकों से ऽघऱ हुअ, उंचे घोडे पर बैठ़ हुअ वह बल्ल़ल जैसे बिझत़ हुअ दापक ऄत्यऽधक प्रक़ऽित होत़ है वैसे वह सि ि ोऽभत होने लग़। अथ भाकश्च भामश्च तिको गोदः सदस्तथ़ ॥ सम्भश्च़न्द्येच सिभट़ः पिरोऽवऽहतक़बिक़ः ॥ ९९ ।। रितमित्प़ऽततोदग्रतिरग़स्तरल़यिध़ः ॥ प्रहरऽन्द्त स्म बल्ल़लप्रभुतींस्ताव्रय़ क्रिध़ ॥ १०० ॥ ९९-१००. तत्पश्च़त क़बक ि के नेतत्ु व में भा क़जा, भाम़जा, तोक़जा, गोद़जा, सदोजा, सभं ़जा और दसी रे सैऽनक भा ऄपने ईन्नत घोडों को वेग से कीद़ते हुए एवं ऄपने चपल िह्लों से बल्ल़ल अऽद वारों पर ऄऽतिय क्रोध से प्रह़र करने लगे। ततस्तेष़ां च तेष़ां च द्ठेष़न्द्धतमस़न्द्तरे । आयिध़न्द्य़यिधाय़ऩमन्द्योन्द्यां परररेऽभरे ॥ १०१ ।। १०१. ईस समय द्रेर्रूपा क़ले ऄधं क़र के मध्य दोनों पक्षों के योि़ओ ं के िह्लों क़ एक दसी रे पर प्रह़र होने लग़। समऱरम्भसांरभ़दन्द्योन्द्यमऽभध़ऽयऩम् ॥ त़क्ष्ययस्फिरत्तरतरतिरगऽस्थऽति़ऽलऩम् ॥ १०२ ॥ प्रत्यहन्द्यन्द्त ितिः िष्धैः िष्ध़ऽण िऽष्धण़म् ॥ ऽवद्टति ़ऽमव तेजोऽभऽदयऽव तेज़ांऽस ऽवद्टति ़म् ।। १०३ ।। १०२-१०३. यि ि के अवेि में एक दसी रे पर प्रह़र करने व़ले गरुड से भा ऄऽधक वेगव़न घोडे पर बैठे हुए योि़ओ ं के िह्ल, अक़िाय ऽवद्यति ऽजस तरह परस्पर टकऱता है ईसा प्रक़र सैकडों िह्ल टकऱए। किन्द्तप़ऽणः किन्द्तधरां धन्द्वध़रा धनिधयरम् । गदा जघ़न गऽदनां तद़नीं िकलाभवन् ॥ १०४ ।। १०४. स्वयं के टिकडे होते समय, भ़ल़ध़रा भ़ल़ध़रा को, धनधि ़यरा धनधि ़यरा को, गद़ध़रा गद़ध़रा को म़रने लग़। 158 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



न चऽमयणां ऽवऩ चमी न वमी वऽमयणां ऽवऩ ॥ यियिधे प्रधनेऻमिऽष्मन्द्न धन्द्वा धऽन्द्वनां ऽवऩ ॥ १०५ ।। १०५. ढ़लध़रा ने ढ़ल से रऽहत के स़थ , कवचध़रा ने कवच रऽहत के स़थ एवं धनधि यर ने धनर्ि से रऽहत के स़थ आस यि ि में यि ि नहीं ऽकय़। उरच्छदमऽनऽभयद्ट रितमित्पऽतत़ः िऱः ॥ िणां नमस्यभ़सन्द्त यथ़ वैभ़कऱः कऱः ॥ १०६ ।। १०६. कवच को ऽछन्न-ऽभन्न करने में ऄसमथय होने से िाघ्र हा उपर ईडे हुए वह ब़ण सयी य की ऽकरणों की तरह क्षणभर अक़ि में चमके । भट़न् स़रेच्छद़न् ऽभत्व़ वसिध़ां ऽवऽवििः िऱः ॥ ततो रुऽधरध़ऱण़म़ऽवऱसःि परम्पऱः ॥ १०७ ।। १०७. कवचध़रा योि़ओ ं को ऽछन्न-ऽभन्न करके जब ब़ण पुथ्वा में घसि गए तब ईनके िरार से रि की ध़ऱ ऄऽवरल होकर बहने लगा। क्रिद्चहस्तवदिन्द्मििपुषत्कोत्कुत्तमस्तक़ः । िररिऽधरऽदग्ब्ध़ङ्ग़: कबन्द्ध़स्तत्र चिक्रिधःि ॥ १०८ ॥ १०८. वह़ं पर क्रोऽधत धनधि यरों के द्ऱऱ छोडे गए ब़णों से ऽसर धड से ऄलग हो गए एवं ऽगरते हुए रि से रि रंऽजत िरार धरता पर ऽगर गए। ततो धऱतले पेतिम़यतङ्ग़ऩां तत़ः कऱः ॥ िरैश्िकऽलत़ङ्ग़ऩां तिरङ्ग़ण़ञ्च कन्द्धऱः ॥ १०९ ॥ १०९. तत्पश्च़त ह़था की लबं ा सडंी एवं ब़णों से ऽजसके िरार के टिकडे हो गए हैं ऐसे घोडों की गदयनें टीटकर भऽी म पर ऽगरने लगा। िऱसनधरैश्िीरैः िरऽच्छन्द्ऩन्द्यनेकिः ॥ पररतस्तरररेऻराण़ां ऽिऱांऽस समऱऽजरे ।। ११० ।। 159 | पृ ष्ठ



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११०. िरी धनधि यरों के ब़णों के द्ऱऱ तोडे गये ित्रओ ि ं के ऄनेक ऽसर यि ि भऽी म पर फै ल गए। कऽञ्चत्प्रसभमभ्येत्य गद़प़ऽणमिप़गतम् ॥ सांग्ऱमस़गरग्ऱहमऽभजग्ऱह कश्चन ॥ १११ ॥ १११. यि ि रूपा स़गर से समाप अये हुए ऽकसा गद़ध़रा रूपा मगरमच्छ को, ऽकसा ने चतरि त़ से समाप ज़कर जोर से पकड ऽलय़। तत्ऱन्द्य़ऽच्छभमेकां यः स्वां हस्तां ऩवबिद्चव़न् ॥ स एके नैव हस्तेन हस्ताव़ऽभययौ पऱन् ॥ ११२ ।। पञ्चऽवांिऽतऽमांग़लः पोलः पांच च सप्त च ॥ चोरश्चतिदयि तथ़ नव़ष्टौ षट्च घ़ऽण्टकः ॥ ११३ ॥ ऽनजघ़न िण़त्तत्र वाऱन् व्य़िश्च षोडि ॥ एकोनऽवांि़ः सभ ि ट़ः क़बक ि े न ऽनषीऽदत़ः ॥ ११४ ॥ ११२-११४. वह़ँ पर जो ऄपने एक कटे हुए ह़थ को नहीं ज़न प़य़, वह एक हा ह़थ से ह़था के सम़न ित्रओ ि ं पर प्रह़र कर रह़ थ़। ईस स्थ़न पर आगं ळे ने पच्चास को, पोल ने ब़रह को, चोर ने चौदह को, ईसा प्रक़र घ़टगे ने तेइस को, व़घ ने सोलह को आस प्रक़र क्षणभर में हा वारों को म़र ऽदय़ एवं क़बक ि ने ईन्नास ईत्कु ष्ट योि़ओ ं को म़र ऽदय़ थ़। प्रहत़नेकगत्यश्च ऽद्ठपवष्मयसमिद्झव़ । प्ऱवतयत तद़ तत्र रय़रितरङ्ऽगणा ॥ ११५ ।। ११५. तब वह़ँ पर पद़ऽतयों, घोडों एवं ह़था के िरार से ऽनकलने व़ला रि की नदा वेग से बहने लगा। पऱभीय परे वाऱः पररवव्रिययद़ बल़त् । तद़भय़ऽद्ठदिऱव बल्ल़लबलम़हव़त् ॥ ११६ ।। ११६. जब ित्रवि ारों ने बलपवी यक पऱऽजत करके घेर ऽलय़ तब बल्ल़ल की सेऩ भयभात होकर यि ि भऽी म से पल़यन करने लगा। 160 | पृ ष्ठ



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हैबतस्य़त्मजस्तत्र ित्रिऽभऽवयमिखाकुतम् ॥ न चिमे ऽस्थराकतंि तदलां ऽवचलद्ठलम् ॥ ११७ ।। ११७. ित्रओ ि ं के द्ऱऱ व़पस लौट़एं गए एवं ऽवचऽलत होकर पल़यन करने व़ला सेऩ को हैबत ऱज़ क़ पत्रि ऽनयऽन्त्रत नहीं कर सक़। अथ़द्च़ स ऽकल स्पध़यम़द़योद्टऽमत़यिधः । रय़दमाय़य पऱन् रुष़ वुत्र इव़मऱन् ।। ११८ ।। ११८. तब वह ऄत्यऽधक क्रोऽधत होकर, ऄपने िह्लों को ईठ़कर जैसे वुत्ऱसर ने क्रोध से देवों पर प्रह़र ऽकय़, ईसा प्रक़र ित्रि पर ईसने प्रह़र ऽकय़। य़वन्द्तः ऽकल तस्य़सऽन्द्नषिऽधऽद्ठतया िऱः । त़वन्द्तः प़ऽतत़स्तेन क़बक ि ीय़ः परि स्सऱः ॥११९ ॥ ११९. ईसके तणी ार यगि ल में ऽजतने ब़ण थे ईनसे ईतने हा क़बक ि के ऄग्रणा वारों को म़र ऽदय़। स य़वत् प्ऱसम़द़य त्ऱसयत्यऽभतः पऱन् ॥ त़वत् किन्द्त़ऽभघ़तेन क़बक ि स्तमप़तयत॥् १२० ॥ १२०. वह जो भ़ल़ लेकर ित्रओ ि ं को च़रों ओर से पाऽडत कर रह़ थ़, ईसको हा क़बक ि ने ऄपने भ़ले के प्रह़र से ऽगऱ ऽदय़। यिध्यम़नेऻऽभम़नेन ऽसांहेनेवोन्द्मदे गजे । ऽिवसेनऽधपऽतऩ प़ऽतते हैबत़त्मजे ॥ १२१ ॥ रिमेदोवस़म़स ु े िोऽणमण्डले । ां मसण कोऽप धतयिमहो धैयं प्रभिऱसान्द्न तद्जले ॥ १२२ ॥



161 | पृ ष्ठ



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१२१-१२२. ऽसंह जैसे मदमस्त ह़था को ऽगऱत़ है, ईसा प्रक़र ऄऽभम़न से यि ि करने व़ले ईस ऽिव़जा के सेऩपऽत के द्ऱऱ हैबत ऱज के पत्रि को ऽगऱ देने पर रि मेद, चबी एवं म़ंस आन सबक़ भऽी म पर कीचड हो गय़। ईसके ब़द ईसकी सेऩ में कोइ भा धैयय ध़रण करने व़ल़ स्व़मा नहीं थ़।



तत्र दन्द्त़ग्रऽवन्द्यस्ततुण़ष्ध़ण़ऽथयनो जऩः ॥ ितिः स्वैरमगमन् ऽवमिि़स्तेन म़ऽनऩ ।। १२३ ।। १२३. ईस समय द़ंतों में ऽतनक़ दब़कर िरण में अये हुए सैकडों लोगों को ईस स्व़ऽभम़ना क़बक ि ने मि ि कर ऽदय़ और वे स्वछन्दत़ से चले गए। के ऽप यिद्च़ऽभम़नेन यिध्यम़ऩः प्रमन्द्यवः ॥ स़यकै श्िकलाभीत़ः ितक्रतिपदां ययिः ॥ १२४ ।। १२४. ऄऽतिय क्रोऽधत किछ लोगों ने ऄऽभम़नपवी क य यि ि ऽकय़ और ब़णों से ईनके तक ि डे होकर वे स्वगयव़सा हो गये। के चनऽच्छन्द्न चरण़ः के चन ऽच्छन्द्नप़णयः ॥ के चन ऽच्छन्द्नवम़यणः के चन ऽच्छन्द्नविसः ।। १२५ ऽछन्द्नऽत्रक़स्तथ़ के ऽचत् के ऽचऽच्छन्द्नफोणयः ॥ रणन्द्तः करुणां मम्लऽि वयलठि न्द्तो महातले ।। १२६ ।। १२५-१२६. ऽकसा के पैर टिटकर, ऽकसा के ह़थ टिटकर, ऽकसा के कवच खण्डिः होकर, ऽकसा की छ़ता ऽभन्न होकर, ऽकसा की राड की हड्डा टिटकर, तो ऽकसा की कोहना फिटकर, वे करुण़ जनक अव़ज ऽनक़लकर पुथ्वा पर लढि क-लढि कर मऽी च्छय त हो गये। अथ ऽवऽद्ठषतस्तस्य िय़नस्य रण़ङ्गणे । किञ्जऱस्तिरग़ांस्तिङ्ग़ांस्तत्तद़भरण़ऽन च ॥ १२७ ॥ ऽचत्ऱण्यऽप च वष्ध़ऽण तनत्रि ़ण्य़यिध़ऽन च ॥ य़प्यय़ऩऽन कोष़ांश्च सम्भ़ऱनपऱनऽप ।। १२८ ।। 162 | पृ ष्ठ



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सप्रां रृष्ट़स्सम़द़य सभ ि ट़ः क़बक ि ़दयः ॥ पिरन्द्दरप्रभिां रष्टुां पिरन्द्दरऽगररां ययिः ।। १२९ ।।



१२७-१२९. ऽफर ईस ित्रि के रणभऽी म पर ऽगरने के ब़द, ह़था, ईन्नत घोडे, ऄनेक प्रक़र के अभर्ी ण, रंगऽबरंगे वह्ल, कवच, िह्ल़ह्ल, प़लऽकय़ं, कोर् और दसी रे स़म़न को भा लेकर ऄत्यंत अनंऽदत होकर क़बक ि अऽद ईत्कु ष्ट योि़ ऽिव़जा से ऽमलने के ऽलए परि ं दर ऽकले पर चले गये। अपहत़ररपवि ाऱनेकय़श्वप्रवेकप्रचिरकनकमिि़ह़ररत्नोपह़ऱः । अवनऽमतऽिरस्क़ः सैऽनक़ः क़बिक़द्ट़ः सरभसकुतक़य़यः ि़हसीनिां प्रणेमिः ॥ १३० ॥ १३०. ित्रवि ारों को म़रकर ऄपने क़यय को िाघ्र हा पणी य करके ईत्तम ह़था, घोडें, ऽवपल ि स्वणय, मोऽतयों की म़ल़ एवं रत्नों को ऄऽपयत करके ऽसर झक ि अऽद सैऽनकों ने ऽिव़जा को प्रण़म ऽकय़। ि ़कर क़बल इत्यनिपिऱणे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां सांऽहत़य़ां त्रयोदिोध्य़यः ॥ १३ ॥



163 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-१४ प्रधने प़ऽततां श्रत्ि व़ बऽलनां हैबत़त्मजम् । चिकोप ऽिवऱज़य फत्तेख़नः स्मयां वहन् ॥ १ ॥ १. कवान्र बोल़ - हैबतऱज़ के बलि़ला पत्रि को यि ि में म़र ऽदय़ ऐस़ सनि कर ऄऽभम़ना फत्तेख़न ऽिव़जा पर क्रोऽधत हुअ। ततो मिसेख़नमिखैययवनै: सबलैवयतु ः । मत्तऽजत्प्रमिखैभयीपैरनेकैश्व़ऽभरऽितः ॥ २ ॥ मतङ्गजैररवोन्द्मत्तेः स़मन्द्तैश्च समांततः । यितस्सोऻऽभययौ तीणं ऽिवऱजऽजगाषय़ ॥ ३ ॥ २-३. तत्पश्च़त् मसि ेख़न अऽद बलव़न् यवनों के द्ऱऱ पररवेऽष्टत, मत्त़जा प्रमख ि ऄनेक ऱज़ओ ं द्ऱऱ रऽक्षत एवं ह़था के सम़न मदमस्त स़मन्त ऱज़ओ ं द्ऱऱ च़रों ओर से ऽघरे हुए ईस फत्तेख़न ने ऽिव़जा को जातने की आच्छ़ से तरि न्त प्रस्थ़न ऽकय़। प्रचलन्द्मत्तम़तङ्गचक्रनक्रसम़किलम् । प्रोत्पतत्तरलोत्तिङ्गतिरङ्गऽतऽममण्डलम् ॥ ४ ॥ म़रुत़न्द्दोऽलत़नेकपत़नेकपत़कोऽमयऽवऱऽजतम् । धऱतलोद्झीतरजोभरध़ऱधरोद्चिरम् ॥ ५ ॥ स्फिरद्ङिन्द्दिऽभऽनघोषां घोषोद्घोऽषतऽदिटम् । ऽसत़तपत्ऱऽडण्डररऽपण्डमण्डलेप़ण्डिरम् ॥ ६ ॥ कठोरचमयकमठां चण्डकोदण्डपन्द्नगम् । 164 | पृ ष्ठ



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ऽवस्फिरद्चेऽतवडव़नलप्रऽतभयप्रदम् ॥ ७ ॥ समऱथी सम़द़य तरस़ सैन्द्यस़गरम् । स येऽदलचमीप़लः पश्यऽत स्म पिरन्द्दरम् ॥ ८ ॥ ४-८. ऽकसा ने चलते हुए मदमस्त ह़था के समही को हा मगरमच्छ क़ समही समझ ऽलय़, ऽकसा ने कीदते हुए चतरि एवं ईन्नत घोडों को मछऽलयों क़ समही समझ ऽलय़, व़यि से ऽहलने व़ले ध्वजरूपा तरंगों से सििोऽभत, ऽकसा ने पुथ्वा से ईठने व़ला धल ी के समही को हा ब़दल से अच्छ़ऽदत अक़ि समझ ऽलय़। ऽकसा ने ददंि भा के ध्वऽन को हा ऽदि़ रुपा ऽकऩरों को प्रऽतध्वऽनत करने व़ला गजयऩ समझ ऽलय़, ऽकसा ने सफे द छ़तों को हा झ़ग समही समझकर ईसके समही से सफे द ऽदख रह़ है ऐस़ समझ ऽलय़। ऽकसा ने कठोर ढ़लों को कछिंअ तो ऽकसा ने प्रचण्ड धनर्ि को हा स़पं समझ ऽलय़ िह्लरूपा वडव़ऽग्न से भयंकर सेऩरूपा समरि को यि ि के ऽलए स़थ ले ज़ते समय अऽदलि़ह के सेऩपऽत को परि ं दर क़ ऽकल़ ऽदख गय़। स़ऽभम़नः फतेख़नः प्रचलतां ीं प्रभ़ऽवणाम् । अऽवदीरे ऽगरेस्तस्य न्द्यवेियत व़ऽहनाम् ॥ ९ ॥ ९. ऄऽभम़ना फतेख़न ने च़लकी से ज़ने व़ला ईस बलव़न सेऩ ऽनव़सस्थल, ईस ऽकले से थोडा हा दरी पर बऩ ऽलय़। ि़हसीनिस्तद़लोसय ऽद्ठपत्सैन्द्यमिप़गतम् । न्द्यध्व़नयद् ऽगरेस्तस्य ऽिखरे सङ्गऱनकम् ॥ १० ॥ १०. ईस ित्रि सेऩ को समाप अय़ हुअ देखकर, ि़हजा के पत्रि ने ऽकले के ऽिखर पर ज़कर यि ि की ददंि भि ा बज़ दा। तेऩनकऽनऩदेन परसैऽनकम़नसम् । चकम्पे पवनेनेव सरः सपऽद म़नसम् ॥ ११ ॥ ११. जैसे व़यि से म़नस सरोवर ऄच़नक कंऽपत हो ज़त़ है, ईसा प्रक़र ईस ददंि भि ा के ध्वऽन से ित्रि के मन कंऽपत हो गये। अथ म़ना फतेख़नः सम़नगण ि ि़ऽलऽभः । मिसेख़नप्रभुऽतऽभमयह़हङ्क़रक़ररऽभः ॥ १२ ॥ 165 | पृ ष्ठ



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कल्प़नलसमप्ऱणकुप़णवरध़ररऽभः । प्रवुद्च़भ्य़हवोत्स़हैः ससन्द्ऩहै: प्रभ़ऽवऽभः ॥ १३ ॥ धारैः पररवुतो वारैः क्ष्वेड़रवऽवध़ऽयऽभः। सद्टः पिरन्द्दरां िैलम़रोढिमिपचक्रमे ॥ १४ ॥ १२-१४. तत्पश्च़त् सम़न गणि ि़ला, ऄहक ि करने के ं ़रा, प्रलय़ऽग्न के सम़न ईत्कु ष्ट तलव़रों को ध़रण करने व़ले यि ऽलए ईत्सक ि , प्रभ़वा िह्लों से सज्ज, गजयऩ करने व़ले, ऐसे मसि ेख़न अऽद पऱक्रमा एवं धैययव़न् वार सैऽनकों को स़थ लेकर वह ऄऽभम़ना फतेख़न िाघ्र हा परि ं दर ऽकले पर चढ़ने लग़। ऽवद़ररत़भ्रगभ़यऽण क्ष्वेऽडत़ऽन ऽवतन्द्वतः । तस्य़नाकस्य महतो धरन्द्तमऽधरोहतः ।। १५ ।। अभीत् पुष्ठे फतेख़नो मिसेख़नो मिखेऻभवत् । फलस्थ़नपऽतस्सव्ये प़श्वेऻन्द्यत्र च घ़ऽण्टकः ॥ १६ ॥ १५-१६. ब़दलों को ऽवदाणय करने व़ला गजयऩ को करता हुए वह प्रचंण्ड सेऩ जब ऽकले पर चढ़ रहा था तो ईसके पुष्ठभ़ग पर फतेख़न, ऄग्रभ़ग पर मसि ेख़न, ब़यीं तरफ फलटण क़ ऱज़ और द़एं तरफ घ़टगे थ़। दिदिनैवपदां भीमौ येन्द्वहां य़नय़ऽयनः । ते तम़रुरुहुश्िैलां तद़ बत ऽनजैः पदैः ॥ १७ ॥ १७. ऽजन्होंने कभा भऽी म पर पैर नहीं रख़ एवं जो सद़ व़हन से हा य़त्ऱ करते थे, ईनको भा ईस समय ऽकले पर ऄपने पैरों से हा चढ़ऩ पड़। अचल़रोहणपऱांस्ततो दृष्ट्व़ऽभतः पऱन् । ऽिवसेऩऽधपतयः क्रिद्च़ऽसहां ़ इव़नदन् ॥ १८ ॥ १८. तत्पश्च़त् च़रों ओर से ऽकले पर चढ़ने व़ले ित्रओ ि ं को देखकर ऽिव़जा के सेऩऽधपऽत ने क्रोऽधत होकर ऽसंह के सम़न गजयऩ की। प्रज्वलऽद्झरयः ऽपण्डैऩयल़यांत्ऱस्य ऽनःसुतैः । 166 | पृ ष्ठ



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नऽलक़ गऽि ळक़ऽभश्च गण्डिैलैरनेकिः ॥ १९ ॥ उल्क़ब़णैश्च ितिो ऽभऽन्द्दप़लैश्च भीररिः । पऱनव़ऽकरन् भीरर ऽिविीऱस्सहस्रिः ॥ २० ॥ १९-२०. तोपों के महंि से ऽनकलने व़ले प्रज्वऽलत लोहे गोलों से, बन्दक ी की गोऽलयों से ऄनेक बडे-बडे ऽिल़ओ ं से द़रू के सैकडों ब़णों से, गल ि ेल से घमि ़ये हुए ऄनेक पत्थरों से, ऽिव़जा के हज़रों वार सैऽनकों ने ित्रि पर ऄत्यऽधक प्रह़र ऽकय़। ऽिलोच्चयपररभ्रष्ट़नपी ल़निरुऽवग्रह़न् । य़ांस्तले प़तय़म़सिः ऽिवसैन्द्य़ः ऽकलोध्दिऱन् ॥ २१ ॥ दीऱद़पतत़ां तेष़ां सांघि़दध्वसांऽस्थत़ः । ध़ऱधऱरवधऱः समिध्दीतरजोभव़ः ॥ २२ ॥ पथ ु िल़स्तत् िणोन्द्मालत्प्रचिऱऽग्ब्नकण़किल़ः । ----------------------------------- ॥ २३ ॥ उपल़श्िकलाभीत़ः प्रभीत़ः पररतोऻबरम् । प्रोत्पत्य प्ऱहरन्द्निच्चै स्तदिपेतां ऽद्ठषद्जलम् ॥ २४ ॥ २१-२४. पवयत से ऽगरा हुइ ऽजन प्रचण्ड ऽिल़ओ ं को ऽिव़जा के सैऽनकों ने नाचे ढ़के ल ऽदय़ थ़, वे ऽिल़एं ईन्नत स्थ़न से नाचे ऽगरते समय अपस में होने व़ले ऽभडंत से तथ़ म़गय में ऽस्थत बडा ऽिल़ओ ं के स़थ घर्यण होने से ईनसे धल ी ईडने लगा एवं तत्क्षण ऄऽग्न की ऄत्यऽधक ऽचंग़ररय़ं ऽनकलने से ईनके ऄनेक तक ि डे होकर वे सवयत्र अक़ि में ईडकर समाप अये हुइ ईस ित्रि की सेऩ पर जोर से ऽगरने लगा। दीरम्मदप्रऽतभयैज्व़यलज़लमयैस्तद़ । अऽग्ब्नयन्द्त्रोद्गतैरश्मस़रऽपण्डैरनेकिः ॥ २५ ॥ खण्डिः खण्डिोभीत़स्ते येऽदलचमीभट़ः । खग़ इव खमित्पत्य श्येनश्रेऽणमतपययन् ॥ २६ ॥ 167 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



२५-२६. तोपों से ऽनकलने व़ले अक़िाय ऽवद्यति ् के सम़न भयंकर ज्व़ल़ओ ं के लपटों जैसे, ऄनेक लोहों के गोलों से अऽदलि़ह के सेऩ के ईन सैऽनकों के तक ि डे होकर, पऽक्षयों की तरह अक़ि में ईडकर ब़ज के पंऽियों को तुप्त करने लगे। उल्क़ब़ण़ः िणे तऽस्मन् उांप़ऽहतसलिण़ः । प्रोद्झवद्द़रुण़ऱवम़पतन्द्तो नभोगण़त् ॥ २७ ॥ गरलज्वलनज्व़ल़नऩः ऽकमऽनल़िऩः । भ्ऱन्द्त्व़ भ्ऱन्द्त्व़ पररभ्ऱन्द्त़ां ऽवदधयि ़यवनीं चमीम् ॥ २८ ॥



२७-२८. भयक ि द़रु के ब़ण म़नो ऽवऱ्ऽग्न की ं र अव़ज करते हुए अक़ि से नाचे ऽगरने व़ले सम़न लक्षणों से यि ज्व़ल़ को महंि से छोडने व़ले स़ंप हा हो, ऐसा प्रताऽत कऱते हुए ब़ण गोल घमि कर अऽदलि़ह की सेऩ पर धड़धड ऽगरने लगे। एक़ऽप गऽि ळक़ तत्र नऽलक़यन्द्त्रऽनगयत़ । ऽभत्व़भ्यप़तयद् भीमौ जवऩ यवऩन् बहून् ॥ २९ ॥ २९. बदं क ी से ऽनकला हुइ एक हा वेगव़न् गोला ऄनेक यवनों को भेदकर ईनको पुथ्वा पर ऽगऱने लगा। ऽगररस्थपररमिि़ऽभः ऽिल़ऽभश्िाणयविसः। के ऽचत्प्रपद्ट वैऽचत्यमध्वनोष्तेवतऽस्थरे ॥ ३० ॥ ३०. ऽकले पर ऽस्थत लोगों द्ऱऱ छोडे गये ऽिल़ओ ं के द्ऱऱ ऽजनके वक्षःस्थल चणी य हो गये हैं, ऐसे ऄनेक लोग मऽी च्छय त होकर अधे म़गय में ऽगर गए। ऽगरेस्तस्य तटे लग्ब्ऩः के ऻऽप भग्ब्ऩ मह़श्मऽभः । वमन्द्तो लोऽहतां भीरर रिव़लिकलो ऽहतम् ॥ ३१ ॥ समिष्त़निप्लवैरुष्तम़ऩः प्ऱण़वऩऽथयनः । पऱवुत्य रय़द़त्मऽिऽबऱय प्रतऽस्थरे ॥ ३२ ॥ 168 | पृ ष्ठ



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३१-३२. ईस ऽकले के तट पर पडे हुए ऄनेक लोग बडे-बडे पत्थरों से भग्न हुए वे ऽिदं रि की तरह ल़ल रि की ईऽल्टय़ं करने लगे, ईनके स़ऽथयों द्ऱऱ ईठ़कर ले ज़ए ज़ते हुए वे प्ऱणरक्षण़थय ऽफर व़पस लौटकर वेग से ऄपने ऽिऽवर की तरफ चले गये। गिऽलक़यन्द्त्रऽनय़यतगिऽलक़ऽभन्द्ऩवग्रह़ः। जलयन्द्त्रजल़क़रकील़लोत्कऽलक़किल़ः ॥३३ ॥ सञ्ज़तसञ्ज्वऱवेिभऱस्तनति रस्वऱः । के ऽचऽत्पप़ऽसत़ एव कुत़न्द्त़ऽतऽथत़ां ययिः ॥ ३४ ॥ ३३-३४. ऽजनके िरार बदं क ी की गोऽलयों से ऽवदाणय हो गये हैं एवं प़ना के फब्ब़रे की तरह ईडने व़ले रि की ध़ऱ से वे व्य़प्त हो गये हैं, ऽजनके ऄगं ों की एक जैसा पाड़ हो रहा है एवं ऽजनक़ स्वर ऄऽतिय पतल़ हो गय़ है, ऐसे ऄनेक प्य़से लोग प़ना-प़ना करते हुए यमऱज के अऽतथ्य को प्ऱप्त करने के ऽलए चले गये।



पत़ऽकनीं त़म़लोसय ऽद्ठषत्कुतपऱभव़म् । मिसेख़नः सज़ताय़न्द्सिभट़नभ्यभ़षत ॥ ३५ ॥ ३५. ित्रि से ऄपना सेऩ को पऱऽजत हुअ देखकर मसि ेख़न ऄपने सज़ताय श्रेष्ठ सैऽनकों से बोल़। मिसेख़न उव़चअमा मह़श्मऩां प़त़ः ऽकमत्ि प़त़ः पदे पदे । समन्द्त़द़पतन्द्तोऻमीन् प़तयऽन्द्त चमीपतान् ॥ ३६ ॥ ३६. मसि ेख़न बोल़ - नाचे ऽगरने व़ले बडा-बडा ऽिल़ओ ं क़ ऽगरऩ म़नो पग-पग पर ईत्प़त हा थ़, च़रों ओर ऽगरने व़ले ये ऄपने सेऩपऽतयों को म़र रहे हैं। अहो महोदयोऻमिष्य पिरन्द्दरपतेरयम् । यदस्म़नऽप ऽवक्ऱन्द्त़न् ऽवक्रम्य़क्ऱमऽत स्वयम् ॥ ३७ ॥ ३७. ऄहो! यह परि ं दर ऽकले के स्व़मा ऽिव़जा क़ बड़ हा ईत्कर्य है ऽक जो स्वयं अक्रमण करके हम जैसे िरी ों को पऱऽजत कर रह़ है। 169 | पृ ष्ठ



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ऽनऽष्धांिप्रभवां लोके येष़ां नः प्रऽथतां यिः । अपय़नऽमतस्तेष़ां ऽनत़न्द्तमयिस्करम् ॥ ३८ ॥ ३८. ऽजनके तलव़र के बह़दरि ा क़ यि लोक में प्रऽसि है, ईनको आस स्थ़न से व़पस लौटऩ ऄत्यन्त ऽतरस्कु त है। मैव दद्ध्वां पदां पश्च़त् पिरः पश्यत भीधरम् । न जह़ऽत जयः प्ऱयः सांपऱयऽस्थतां नरम् ॥ ३९ ३९. पाछे पग मत बढ़़ओ,ं स़मने के ऽकले पर दृऽष्ट रखो। यि ि में ऽस्थत रहने व़ले मनष्ि य की ऽवजय प्ऱयः त्य़ग नहीं करता है। इऽत ब्रिव़ण एव़यां समन्द्तैरऽनवऽतयऽभः । परि न्द्दऱचलतऱम़रुरोह मह़मऩः ॥ ४० ॥ अथो िरफि़हेन सैऽनकै ः स्वैश्च भीररिः । उभ़भ्य़मऽप िेख़भ्य़ां ऱज़् मत्रऽजत़ तथ़ ॥ ४१ ॥ प्रबलेन फलस्थ़नऩयके न च रांहस़ । फतेख़नस्य च़नाकै ः स़मन्द्तैरप्यनेकिः ॥ ४२ ॥ ४०-४२. तत्पश्च़त् आस प्रक़र बोलते हुए हा वह मह़मऩ मसि ेख़न पाछे की ओर से लौटने व़ले ऽवि़ल सेऩ एवं ऄपना सेऩ से यि ि ऄिरफिह़, दोनों िेखों सऽहत मत्ऱजा ऱज़, ईसा प्रक़र फलटण क़ बलव़न् ऱज़, फत्तेख़न की सेऩ और ऄनेक स़मतं ऱज़ओ ं के स़थ वेगपवी क य परि ं दर ऽकले की चढ़़इ चढ़ने लग़। सऽनघोषैमयहोमेघैमयह़मेघ इव़ऽभतः । तम़रोहन्द्तम़लोसय पिरन्द्दरतटीं रुष़ || ४३ ॥ सद्टऽश्िवतम़ऽदष्ट़ः िेऽपष्ठ़ः सवयतो ऽदिम् । गोदप्रभुतयो योध़ः प्रत्यगुहन्द्निद़यिध़ः ॥ ४४



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४३-४४. गजयऩ करने व़ले बडे मेघों से यि ि , मह़मेघों की तरह च़रों ओर से परि ं दर के तट पर चढ़ने व़लों को क्रोधपवी क य देखकर, तरि ं त कल्य़णक़रा एवं ऄज्ञ़त गोद अऽद ऄत्यन्त वेगव़न् योि़ओ ं ने िह्ल ईठ़कर च़रों ऽदि़ओ ं में अक्रमण कर ऽदय़। मिसेख़नप्रभुतयोप्यमीन् परचमीभट़न् । अभायिऱऽभय़भ्येत्य ग्रह़ इव मह़ग्रह़न् ॥ ४५ ॥ ४५. मसि ेख़न अऽद ने भा ग्रह जैसे बडे ग्रह पर अक्रमण करत़ है। ईसा प्रक़र ईस ित्रसि ेऩ के योि़ओ ं पर ऽनभययत़ से अक्रमण कर ऽदय़। तद़ िरफि़हेन सदोभिजमदोद्चतः । मिसेख़नेन सरुष़ जगत्स्थ़पकवि ां जः ॥ ४६ ॥ ऽमऩदरतऩभ्य़ां ति यियिधे भैरव़ऽभधः । घ़ऽण्टके न च वारेण व्य़घश्िाितऱयिधः ॥ ४७ ॥ ४६-४७. तब ऄिरफि़ह से बलि़ला सदोजा, क्रोऽधत मसि ेख़न से जगत़प ऽमऩद एवं रतन से भैरव, वार घ़टगे के स़थ िह्ल चल़ने में ऽनपणि व़घ, ऐसे ये सब लठने लगे।



मह़म़ना गद़प़ऽणः प्रबल़नाऽकना यितः । सैन्द्यैरन्द्यैश्च बहुऽभबयह्वयिध्यत क़बक ि ः ॥ ४८ ॥ ४८. ऄत्यन्त ऄऽभम़ना, गद़ध़रा एवं ऽवि़ल सेऩ से यि ि क़बक ि ने, दसी रे ऄनेक सैऽनकों के स़थ ऄत्यऽधक यि ि ऽकय़। अभ्य़हवस्मयभुतो यिगव्य़यतब़हवः । वरिाषयण्यिाष़यणोवमयसांवुत ऽवग्रह़ः ॥ ४९ ॥ ते तेऻनाकद्ठयायोध़ः सऽवरोध़ः परस्परम् । िऱसनां ऽवधिन्द्व़ऩः सन्द्दध़ऩऽश्ितां िरम् ।। ५० ।। 171 | पृ ष्ठ



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भीयो भीयस्सहस्वेऽत भ़षम़ण़स्स्मय़भुतम् । तटे पिरन्द्दरऽगरेस्तद़ यियिऽधरेऻद्झितम् ॥ ५१ ॥ ४९-५१. यि ि के ऽलए अवेऽित, जएि की तरह लम्बे ह़थ व़ले, ऽसर पर ईत्कु ष्ट मक ि ि ट को ध़रण करने व़ले एवं कवच को िरार पर ध़रण ऽकए हुए, परस्पर ऽवरोध करने व़ले, दोनों सेऩओ ं के योि़, धनर्ि को ऽहल़ते हुए एवं ताक्ष्ण ब़णों से यि ि , सहन कर, सहन कर, आस प्रक़र ब़र-ब़र गवय से बोलते हुए, ईस परि ं दर ऽकले की चढ़़इ पर दोनों ने ऄद्भित यि ि ऽकय़। तद़ पिरन्द्दऱथ़यय प्रहरन्द्तः परस्परम् । नैकेऻवरोदिम़रोढिां बत नैके तद़ िकन् ॥ ५२ ।। ५२. ईस समय परि ं दर की प्ऱऽप्त के ऽलए परस्पर प्रह़र करने व़ला सेऩओ ं में से एक सेऩ तो नाचे ईतर नहीं सकी और दसी रा सेऩ उपर चढ़ सकी। अवलोसय बत़न्द्योन्द्यम़नाय च िरव्यत़म् । एके भिवस्तलां ब़णैः प्यधरि न्द्ये ऽदवस्तलम् ॥ ५३ ।। ५३. परस्पर देखकर एवं ऽनि़ऩ स़धकर एक सेऩ ने ब़णों से पुथ्वा तल को और दसी रा सेऩ ने अक़ि को ढक ऽदय़। यः कस्यऽचदिरो ऽभत्व़ भिजां ऽचच्छे द कस्यऽचत् । स एवेषिस्सिाषयण्यमन्द्यदायां ऽिरो हरत् ॥ ५४ ॥ ५४. जो ब़ण ऽकसा की छ़ता को भेदकर दसी रे की भजि ़ओ ं को ऽछन्न करत़ थ़ तो वहा ब़ण तासरे के मक ि ि ट यि ि ऽसर को ईड़ देत़ थ़। तत्र प्रसभमभ्येत्य गोदः क्रोधरयोद्चतः। ऽनचख़न क्ष्णितां भल्लां मिसेख़नभिज़न्द्तरे।।५५ ५५. वह़ं पर ऄत्यन्त क्रोऽधत हुए गोद़जा ने वेग से समाप ज़कर मसि ेख़न की छ़ता में ताक्ष्ण भ़ले को घसि ़ ऽदय़। ऽनि़तां ऽवऽद्ठष़ तेन ऽनख़तां ऽनजविऽस । यवनस्स ति तां भल्लां भामां सन्द्ऩहभेऽदनम् ॥ ५६ ॥ 172 | पृ ष्ठ



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उभ़भ्य़मऽप प़ऽणभ्य़मिद्चुत्य स्वभिज़न्द्तऱत् । रोषदष्ट़धरतलः सद्ट एव ऽद्ठध़ व्यध़त् ॥ ५७ ॥ ५६-५७. ऽकन्ति ईस ित्रि के द्ऱऱ ऄपने छ़ता में घसि ़ये हुए एवं कवच को भेदकर ज़ने व़ले ईस ताक्ष्ण एवं भयक ं र भ़ले को, ईस यवन ने दोनों ह़थों से ऄपना छ़ता से ऽनक़लकर, क्रोध से द़ंत एवं ओठों को चब़ते हुए ईसके दो टिकडे कर ऽदए। अलञ्चक़र तां तत्र रुऽधऱरयमिरस्स्थलम् । यथ़ ऽिलोच्चयां स़न्द्रगैररक़िऽिल़तलम् ।। ५८ ।। ५८. गहरा ल़ल ऽमट्टा से रंगा हुइ चट्ट़न जैसे पवयत को सि ि ोऽभत करता है, वैसे हा रिरंऽजत ईसकी छ़ता ईसको सि ि ोऽभत करने लगा। इह़न्द्तरे खङ्गचमयध़रा धारः सदः स्यद़त् । योध्ऱ िरफि़हेन योध्दिमद्च़भ्यपद्टत ॥ ५९ ॥ ५९. आतने में हा ढ़ल एवं तलव़र को ध़रण ऽकय़ हुअ, धैययव़न् सद़जा योि़ ऄिरफिह़ के स़थ लड़इ करने के ऽलए वेगपवी क य चल़ गय़। उभ़वऽप यिध़मत्तौ रिनेत्ऱविभ़वऽप । उभ़वऽप ससन्द्ऩहौ महोत्स़ह़विभ़वऽप ॥ ६०



स्वय़ स्वय़ऽसलतय़ पररनऽतयतय़ भुिम् । ऽदवां सौद़ऽमनाद्टोतैदीपयांत़विभ़वऽप ॥ ६१ ॥ परस्पऱन्द्तरप्रेि़परा पञ्च़ननस्वरौ । भ्ऱन्द्तोद्भ्ऱन्द्त़ऽदक़न् भेद़न् दिययन्द्ता ऽवरेजतिः ॥ ६२ ६०-६२. दोनों हा यि ि क़यय में मदमस्त थे, दोनों के हा नेत्र रि की तरह ल़ल हो गये थे, दोनों हा िह्लों से ससि ऽज्जत थे, दोनों क़ हा ईत्स़ह मह़न् थ़ और दोनों हा ऄपना-ऄपना तलव़र को ब़र-ब़र घमि ़कर अक़िाय ऽवद्यति ् की चमक 173 | पृ ष्ठ



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की तरह अक़ि को प्रक़ऽित कर रहे थे, दोनों हा परस्पर की गलऽतयों को ढींढते हुए, ऽसंह जैसा गजयऩ कर रहे थे, भ्ऱन्त, ईदभ्र् ़न्त अऽद पट्टे के प्रक़ि ऽदख़ते हुए वे सििोऽभत हो रहे थे। अथ़ऽसप़तैरन्द्योन्द्यऽवऽहतैः ितऽवग्रहौ। एके नैव िणेनैतो रुऽधऱरो बभीवतिः।।६३ ६३. तत्पश्च़त,् परस्पर ऽकए गए तलव़र के प्रह़रों से दोनों के िरार चोऽटल होकर क्षणभर में हा रिरंऽजत हो गये। व्य़िस्ति पिरुषव्य़िां घ़ऽण्टकां घोरिऽिकम।् प्रजह़र भिजस्तम्भे िसत्य़ऽनऽितय़ रितम।् ।६४ ६४. आधर व़घऱज़ ने भयंकर िऽि को ध़रण करने व़ले, परुि र्ों में श्रेष्ठ, घ़टगे ऱज़ की खम्भे जैसा भजि ़ पर ऄत्यन्त ताक्ष्ण िऽि से िाघ्र प्रह़र ऽकय़। ततस्स्रवदसुऽग्ब्दग्ब्धदेहो यिद्चऽवि़रदः। िसत्यैव घ़ऽण्टकोत्यिचैः प्रवेष्टे तमत़डयत।् ।६५ ६५. तब िरार से बहने व़ले रि से रंऽजत हुए ईस यि ि ऽनपणि घ़टगे ने भा िऽि से ईसकी भजि ़ पर जोर से प्रह़र ऽकय़। तद़मिऩ हन्द्यम़नो व्य़िो व्य़ि इव़परः। स्विौयं दियय़म़स हषयय़म़स च स्वक़न।् ।६६ ६६. तब दसी रे िेर के सम़न ईस व़घ ऱज़ ने घ़टगे के प्रह़रों को सहन करते हुए ऄपने पऱक्रम को ऽदख़कर ऄपने लोगों को हऽर्यत ऽकय़। आकण़यकुष्टधन्द्व़नौ ऽमऩदरतऩवऽप। अभ्येतां भैरवां चोरां छ़दय़म़सतिः िरैः।।६७ ६७. ऽमऩद एवं रतन ने भा धनर्ि को क़न तक खींचकर समाप अये हुए भैरव चोर ऩमक ऱज़ को ब़ण से ढक ऽदय़। त़भ्य़मिभ़भ्य़मिन्द्मििैः िरैनीतां िरव्यत़म।् अव़प्तच़लनाभ़वां तदभ्ऱजत तद्ठपःि ।।६८ 174 | पृ ष्ठ



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६८. ईन दोनों के द्ऱऱ छोडे गए ब़णों से ऽवदाणय ऽकय़ गय़, ईसक़ िरार छलना की तरह ऽदखने लग़। स एकोद्ठ़ऽवमौ तत्र यिद्चमप्यभवऽच्चरम।् तथ़ऽप भैरवश्चोरः प्रऽतपेदे जयऽश्रयम।् ।६९ ६९. यह ऄके ल़ और दोनों होते हुए भा वह़ं पर बहुत समय तक यि ि चल़ तथ़ऽप ऄन्त में भैरव चोर को हा ऽवजयश्रा प्ऱप्त हुइ। क़बिकेऩऽप सरुप़ प़वकप्रऽतमौजस़। गद़घ़तेन महत़ ि़ऽयत़श्ितिो ऽद्ठषः।।७० ७०. क्रोऽधत एवं ऄऽग्न की तरह तेजस्वा क़बक ि ने भा जोर के गद़ प्रह़रों से सैंकडों ित्रओ ि ं को सल ि ़ ऽदय़ थ़। ऽविाणयवरवम़यणो ऽवदाणयतरविसः। सहस़ पररमिष्तन्द्तो हस्तऽवस्तप्रस्तहेतयः।।७१ प्रऽतप्रताकऽनगयच्छरिरऽञ्जतभीमयः। आयोधऩऽजरेऻमिऽष्मऽन्द्नपतन्द्तो ऽवरेऽजरे।।७२ ७१-७२. ऽजनके ईत्कु ष्ट कवच भग्न हो गये हैं एवं छ़ता ऽवदाणय हो गइ है, ऽजनके ऄच़नक मऽी च्छय त होने से ह़थों से िह्ल ऽगर गये हैं, ऽजनके प्रत्येक ऄवयवों से बहने व़ले रि से भऽी म रंऽजत हो गइ है, ऐसा रणभऽी म पर ऽगरने व़ले लोग सि ि ोऽभत होने गले। ऽवगलरिरि़ङ्ग़ः सिभट़स्ते बभिस्तद़। ऽनझयरोद्ग़रसांपुिगैररक़ऱय इव़रयः।।७३ ७३. बहने व़ले रि से रंऽजत िरार व़ले वे ईत्कु ष्ट वार झरने के प्रव़ह में ऽमऽश्रत ल़लऽमट्टा से रंगे हुए पवयत के सम़न सि ि ोऽभत होने लगे। तत्र तेष़ां परेष़ां च तदभ्य़हवकौतिकम।् व्यलोकत ऽिवोऻप्यद्च़ वारो वारऽश्रयोल्लसन।् ।७४



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७४. वारश्रा से सि ि ोऽभत वार ऽिव़जा भा वह़ं पर ईसके एवं ित्रि के बाच में चल़यम़न ईस यि ि के कौतही ल को ईस समय वह प्रत्यक्ष देख रह़ थ़। तद़ पिरन्द्दरतट़दऽतम़त्रस्मयोद्चत़। प्रणदन्द्ता प्रववतु े लोऽहतोद़ मह़नदा।।७५ ७५. ईस समय परि ं दर ऽकले के तट से गजयऩ करता हुइ रि की मह़नदा ऄत्यन्त ऄऽभम़न के स़थ ईन्मि ि एवं अव़ज करता हुइ प्रव़ऽहत होने लगा। आरुष्त व्योमय़ऩऽन द्टोतयन्द्तो ऽदवोन्द्तरम।् दिं दिं सिऱस्सवे प्रििांसिमयह़हवम।् ।७६ ७६. ऽवम़न में बैठकर ऄन्तररक्ष को प्रक़ऽित करने व़ले सभा देव, ईस मह़यि ि को ब़र-ब़र देखकर, ईसकी प्रिसं ़ करने लगे। तत्क़लकऽलतोद्ङ़ममिण्डम़ल़ मनोहरः। प्ऱवतयत मिद़ तत्र प्रमथैस्सऽहतो हरः।।७७ ७७. ईस समय ध़रण की हुइ भयंकर मस्तकों की म़ल़ से मनोहर ऽदखने व़ल़ िक ं र प्रसन्न होकर प्रेऽमयों के स़थ वह़ं अ गय़। अऽतम़त्रां ऽजघत्सन्द्तस्तत्िण़ऽधगतिण़ः। अतुप्यन् प्रचिरां प्ऱप्य ऽपऽितां ऽपऽित़िऩः।।७८ ७८. ऄऽतिय भख ी े ऱक्षस ईस समय अनऽन्दत होकर ऄत्यऽधक म़ंस के ऽमलने के क़रण से संतष्टि हो गये। प्रेतरां कोंऻकम़रोप्य करङ्कमकितोभयः। सांपुििोऽणतरसां तरसां बिबिधे तद़।।७९ ७९. ईस समय भख ी े ऽपि़च रि से पररपणी य मस्तकों को ऽनभययत़ से गोद में रखकर वेग से ख़ने लगे। उद्ङ़मोड्ड़निौंड़ऽभड़यऽकनाऽभस्समां तद़। वपऽीां ष पपि षि ःि स्व़ऽन ि़ऽकन्द्यस्सैऽनक़ऽमषैः।।८० 176 | पृ ष्ठ



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८०. ईस समय भयंकर छल़ंग लग़ने में ऽनपणि ऐसा ड़ऽकनायों के स़थ ि़कऽनयों ने भा सैऽनकों के म़ंस से ऄपने िरार को पष्टि ऽकय़। कवींर उव़चयथ़ तत्र मिसेख़नो गोदेन ऽनहतस्तद़। ऽनिम्यत़ां तथ़ सवयमऽधध़स्य़म्यथ ऽद्ठज़ः।।८१ ८१. कवान्र बोल़ - हे ब्ऱह्मणों! ईस समय गोद़जा ने मसि ेख़न को ऽकस प्रक़र म़ऱ थ़, ये सभा ऄब मैं बत़त़ ह,ं तो अप सनि ो। मिसेख़नेन बऽलऩ भग्ब्नभल्लस्सकोपनः। क़लक़कोदऱक़रकरव़लकरोऻभवत।् ।८२ ८२. बलव़न् मसि ेख़न ने जब भ़ल़ भग्न ऽकय़ तो क्रोऽधत होकर ईसने क़ले कौवे के पेट की तरह अकु ऽत व़ला तलव़र ह़थ में ले ला। तत्र तत्करव़लेन तऽडद़क़रध़ररण़। पेतिः पठ़ण़ः ितिः िकलाभीय भीतले।।८३ ८३. ईस स्थ़न पर ईस अक़िाय ऽवद्यति ् की तरह अकु ऽत से यि ि तलव़र से सैकडों पठ़नों के टिकडे होकर भऽी म पर ऽगर गये। मिसेख़नस्ति तद्ङुष्ट्व़ तस्यकम़यऽतम़नषि म।् तम़त्मकरव़लेन भिञ्जे सव्ये व्यत़डयत।् ।८४ ८४. ऽकन्ति मसि ेख़न ने ईसके ऄम़नवाय कु त्य को देखकर ईसकी ब़या भजि ़ पर ऄपने तलव़र से प्रह़र ऽकय़। त़ऽडतस्स भिजे मिसेख़नेन वेऽगऩ। ऩवेपत मह़वारो व़तेनेववनरिमः।।८५ ८५. वेगव़न् मसि ेख़न द्ऱऱ ब़यीं भजि ़ पर प्रह़र करने से भा वह मह़वार, जैसे व़यि से वनवुक्ष कऽम्पत नहीं होत़ है, वैसे हा वह कऽम्पत नहीं हुअ। 177 | पृ ष्ठ



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ऽनबद्चभ्रीपटि ौ भीरररोषरूिेिण़वभ ि ौ। गतप्रत्य़गतकरौ घोरखड्गलत़करौ।।८६ ऽद्ठरद़ इव नदयन्द्तौ प्रहरन्द्तौ परस्परम।् ऽविाययम़णिाषयण्यतनित्रौ तौ ऽवरेजतिः।।८७ ८६-८७. भौहों को चढ़कर एवं ऄत्यन्त क्रोध से क्रीर दृऽष्ट व़ले वे दोनों हा ह़थों में भयंकर तलव़रों को लेकर कभा अगे तो कभा पाछे हट रहे थे, ह़था के सम़न गजयऩ करते हुए जब अपस में प्रह़र कर रहे थे तो ईनके मक ि ि ट एवं कवच ऽवदाणय होकर दोनों सि ि ोऽभत होने लगे। अथ़न्द्योन्द्य़यिध़ध़तदाययम़ण़विभ़ऽवमौ। समां रुऽधरध़ऱऽभवयसिध़मभ्यऽषयचत़म।् ।८८ ८८. तत्पश्च़त् परस्पर ऽकए गए िह्लों के प्रह़रों से चोऽटल हुए वे दोनों ऄच़नक रि की ध़ऱ से पुथ्वा को ऄऽभऽसंऽचत करने लगे। िमम़त्रमहो तत्र यिद्चम़सात्तयोस्समम।् ततस्तत् कुततोदोऽप ततो गोदोऻऽधकोभवत।् ।८९ ८९. ऄहो! वह़ं पर ईन दोनों में क्षणम़त्र सम़न यि ि हुअ, ऽफर ईस यि ि से होने व़ला वेदऩ को सहन करते हुए गोद़जा, मसि ेख़न पर भ़रा पड गए। अथ प्रह़रैबयहुऽभऽनयभयरां ऽवष्दलोऻऽप सन।् बला स प़तय़म़स खड्गां गोदस्य मीधयऽन।।९० ९०. ऽफर ऄनेक प्रह़रों से ऄत्यन्त घ़यल हुए ईस बलव़न् मसि ेख़न ने गोद़जा के मस्तक पर प्रह़र ऽकय़। य़वद़पतऽत ष्तस्य करव़लस्स्वमीधयऽन। त़वद्गोदोऽसऩस्वेन तमऱऽतमत़डयत।् ।९१ ९१. जब तक आसकी तलव़र गोद़जा के ऽसर पर ऽगरता, तब तक गोद़जा ने ऄपने तलव़र से ईस ित्रि को म़र ऽदय़। त़ऽडतः स तद़ तत्र गोदेन क्रोधमीऽतयऩ। 178 | पृ ष्ठ



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आस्कन्द्धभ़गम़मध्यभ़गां ऽभन्द्नो ऽद्ठध़भवत।् ।९२ ९२. ईस समय ईस क्रोऽधत गोद़जा के प्रह़र से वह मसि ेख़न, कंधे से मध्यभ़ग तक कटकर ईसके दो टिकडे हो गये। ऽनप़ऽततां तद़ तस्य ऽद्ठध़भीतां कलेवरम।् अभीच्च रुऽधरोद्ङ़रैररुणां धरणातलम।् ।९३ ९३. तब दो भ़गों में ऽवभि हुए ईसके िरार को नाचे ऽगऱ ऽदय़ और तब ईसके रिप्रव़ह से पुथ्वातल ल़ल हो गय़। जगत्स्थ़पकवश्ां येन मिसेख़ने ऽनप़ऽतते। ितिस्तत्र यवऩः िमऩऽतथयोऻभवन।् ।९४ ९४. गोद़जा जगत़प द्ऱऱ मसि ेख़न को म़र ऽदए ज़ने पर, वह़ं सैकडों यवन यमऱज के ऄऽतऽथ हो गए। सदेन खड्ऽगऩखड्गयिद्चां योद्चिमप़रयन।् परः िऱसनां गव़यदव़यग्ब्भीय़ग्रष्तमग्रहात।् ।९५ ९५. तलव़रध़रा सद़जा के स़थ तलव़र यि ि करने में ऄसमथय ित्रओ ि ं ने पाछे हटकर ऄऽभम़न से ईत्तम धनर्ि ों को ईठ़य़। ततोऻिरफि़हस्य तिदतस्ते ऽजतैश्िरैः। ऽवकुष्यम़णमौवीकां व्योम़न्द्तवलय़ऽयतम।् ।९६ अनेकवणयऽनन्द्य़सऽमन्द्ऱयिधऽमव़यतम।् धनिरभ्येत्य ऽचच्छे द करव़लकरस्सदः।।९७ ९६-९७. तत्पश्च़त् ताक्ष्ण ब़णों से ऽवदाणय करने व़ले ऄिरफि़ह ने ऄनेक रंगों से रंऽजत, आरं धनर्ि की तरह लंबे, धनर्ि की प्रत्यंच़ को खींचकर झक ि ़य़ तो तलव़रध़रा सद़जा ने प़स ज़कर ईसको क़ट ऽदय़। स तेन िािहस्तेन ऽद्ठषत़ ऽद्ठदलाकुतम।् ऽवऽचत्रवणयदिवयणयऽबन्द्दिऱऽजऽवऱऽजतम।् ।९८ तद़ तद़हवसखां ऽवह़य ऽवऽिख़सनम।् 179 | पृ ष्ठ



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सद्टस्तमऽहतां हन्द्तिां घोरां पररघम़ददे।।९९ ९९. ऽनपणि ह़थों से ित्रि द्ऱऱ दो टिकडे ऽकए गए, रंग-ऽबरंगे ऽबंऽदयों की पंऽि से सि ि ोऽभत, यि ि के ऽमत्र, ऐसे ईस धनर्ि को ईस समय छोडकर, ईस ित्रि को म़रने के ऽलए ईसने लोहे क़ सोट़ ईठ़य़। पञ्च़ननसमस्तन्द्व़तन्द्व़नोऽततम़ां यिधम।् गुहातम़त्रां ऽचच्छे द सदस्तस्य तद़यिधम।् ।१०० १००. िरार से ऽसहं की तरह एवं ऄऽतिय स़वध़ना पवी क य यि ि करने व़ले ईस सदोजा ने, ईसके िह्ल को लेते हा तोड ऽदय़। आदत्त तत्र हस्ते स्वे स म्लेच्छो यद्टद़यिधम।् सदो वाररस़वेि़त् तरस़ तत्तदऽच्छनत।् ।१०१ १०१. वह़ं पर ईस यवन ने जो-जो िह्ल ऄपने ह़थों में ऽलए ईन-ईनको सदोजा ने ईसा समय तोड ऽदय़। ततो ऽनऱयिधो भीत्व़ कुत्व़नऽभमिखां मिखम।् यवनस्स पऱवुऽत्तपथां लेभे यथ़सख ि म।् ।१०२ १०२. तत्पश्च़त् ऽनःिह्ल होकर महंि घमि ़कर वह यवन स्वेच्छ़ से आधर-ईधर पल़यन करने लग़। अथ प्रऽतभट़त्तस्म़त् घ़ऽण्टकोऻऽप रितां तथ़। अपरितऽश्चरां यिद्ध्व़ ऽद्ठरद़द्ऽद्ठरदो यथ़।।१०३ १०३. तत्पश्च़त् घ़टगे भा ईस ित्रि योि़ व़घ के स़थ बहुत देर तक यि ि करके जैसे एक ह़था के प़स से दसी ऱ ह़था भ़ग ज़त़ है, वैसे हा ईसके प़स से वह भ़ग गय़। भैरवां भैरवां मत्व़ ऽमऩदरतऩवऽप। सवां तयसमयप्ऱय़त् सपां ऱय़दपेयतिः।।१०४ १०४. ऽनऩद एवं रतनि भा भैरव को व़स्तऽवक क़लभैरव समझकर प्रलयक़ल की तरह ईस यि ि से ऽनकल गये। पिरन्द्दऱत् पऱवतयम़ऩां त्ऱण़ऽथयनीं चमीम।् ऩलोकत फतेख़नो ग्ब्ल़नोऻनऽभमिखाभवन।् ।१०५ 180 | पृ ष्ठ



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१०५. परि ं दर से रक्ष़ हेति व़पस लौटने व़ला ईस सेऩ को ऽखन्न फत्तेख़न ने घमी कर नहीं देख़। अऽभमिखमिप़य़तां तत्र प्रभीतबलां बल़द्टिऽध ऽकल फतेख़नां भङ्सत्व़ स ि़हनुप़त्मजः। अऽवहतगऽतदैवोरेक़दिऽदत्वरऽवक्रमो ऽवजयपिरभीिक्रां जेति बत़ऽभमिखोऻभवत।् ।१०६ १०६. वह़ं ऄनेक सैऽनकों के स़थ स़मने अये हुए ईस फतेख़न को, ईस िह़जा के पत्रि ऽिव़जा ने बल से भग्न करके , भ़ग्य के क़रण ऄप्रऽतहत गऽतव़ल़ एवं ईदयम़न पऱक्रमा वह ऽिव़जा ऽवज़परी के सल ि त़न को जातने के ऽलए ईत्स़हा हुअ। भुिां यिद्ध्व़व़प्तः ऽिवधरऽणप़ल़दऽभभवम् फतेख़नो म्ल़नो ऽवजयपिरमभ्यणयमकरोत।् तम़कण्योदन्द्तां सदऽस महमदी ेन सहस़ ममज्जे ऽचन्द्त़ब्धौ सऽि चरमनति प्तेन मनस़।।१०७ १०७. िऽि से यि ि करने के ब़द भा ऽिव़जा से पऱजय को प्ऱप्त करके ऽखन्न हुअ, फतेख़न ऽवज़परी पहुचं गय़ और वह सम़च़र दरब़र में ऄच़नक सनि कर महमदी ि़ह दःि खा हो गय़ और बहुत ऽदनों तक ऽचन्त़ के स़गर में डीब गय़। इत्यनिपिऱणे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां मिसेख़नवधो ऩम चतिदयिोऻध्य़यः।।१४



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अध्य़यः-१५



कवान्द्र उव़च परैः पिरन्द्दरतटे मिसेख़नां ऽनप़ऽततम।् प्रभीतां सैन्द्यमन्द्यच्च पऱक्रम्य पऱहतम।् ।१ फतेख़नां च ऽवमिखाकुतमऽन्द्तकम़गतम।् ऽनिम्य महमीदेन मिमिदे न ऽदव़ऽनिम।् ।२ १-२. कवान्र बोले- ित्रओ ि ं ने मसि ेख़न को परि ं दर के ऽकले पर पऱऽजत ऽकय़ एवं ईसकी ऽवि़ल सेऩ को पऱक्रम से पाछे हट़ ऽदय़ और फतेख़न पऱऽजत होकर पनि ः व़पस अ गय़ है, आस प्रक़र सनि कर महमदी ि़ह ऱत-ऽदन ऄप्रसन्न रहने लग़। अथो ऽवदीयम़नोऻन्द्तः फतेख़नस्य भङ्गतः। स्वे चेतऽस ऽचरस्येत्थां महमीदो व्यऽचन्द्तयत।् ।३ ३. तब फतेख़न के पऱजय के क़रण ऄतं ःकरण से ऽखन्न हुअ महमदी ि़ह, ऄपने मन में आस प्रक़र ऽवच़र करने लग़। अहो अहऽदयवममा अस्म़ऽभः पररप़ऽलत़ः। ऽिण्वऽन्द्त यवऩनस्म़न् िऽत्रय़ः क़लनोऽदत़ः।।४ ४. ऄरे ! ऱत-ऽदन ऽजनक़ हमने प़लन-पोर्ण ऽकय़, वे क्षऽत्रय मऱठे ऄनक ि ी ल समय को प्ऱप्त करके हम यवनों क़ ऽवऩि कर रहे हैं। समुऽद्चमऽधक़ां लब्ध्व़ दिमयद़त्म़ मद़श्रय़त।् स़हसा ि़हऱजोऻयां मऽन्द्नयोगां न मन्द्यते।।५



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५. मेरे अश्रय से हा ऄत्यऽधक समुऽि को प्ऱप्त करके ईन्मत्त हुअ, यह स़हसा िह़जा ऱज़ मेरे अदेि को भा नहीं म़नत़ है। अनेन कोपनेऩद्च़ ऽवध़योद्चतम़हवम।् पण्ि डराकपरि ोप़न्द्ते ऽवऽजतो रणदीलहः।।६



६. ईस क्रोधा ने जोर क़ भय़नक यि ि करके पढं रपरि के प़स ऽस्थत रणदल्ि ल़ख़न को जात ऽलय़। अनेन मन्द्त्रकलय़ कऽलतो मऽलकोऻम्बरः। ऽनरगयलेन ऽनकुतः स च़नेऩगयलेश्वरः।।७ ७. आसने ऄपना कीटनाऽत से मऽलकंबर को ऄधान कर ऽलय़ और ईसने भयंकर ऄगयल के ऱज़ को पऱऽजत ऽकय़। ऽचरऱत्ऱय ऽपत्रेव येऩयां पररप़ऽलतः। स ऽनज़मोऻप्यनेनोच्चैऽनयकुऽतस्थेन वऽञ्चतः।।८ ८. ऽजसने ऽपत़ के सम़न आसक़ बहुत समय तक प़लन-पोर्ण ऽकय़ थ़, ऐसे ईस कपटा िह़जा ने आस ऽनज़म को भा ऄपना ज़ल में फंस़ ऽदय़। क़ण़यटक़ः िोऽणभुतः पररह़य मदायत़म।् बतैतन्द्मन्द्त्रयोगेन प्रथयन्द्त्येतदायत़म।् ।९ ९. कऩयटक के ऱज़ओ ं ने मेरा ऄधानत़ को त्य़गकर वे कीटनाऽत के क़रण आसकी ऄधानत़ को स्वाक़र कर रहे हैं। मिहुऱहूयम़नोऻऽप ऩय़तोऻयमिपष्दरे। अप़तयदयां ष्तस्मज्जयां सांियगष्दरे।।१० १०. ब़र-ब़र बल ि ़ने पर भा यह समाप नहीं अय़ एवं आसने हा हम़रे ऽवजयश्रा को सि ं यरूपा गतय में ऽगऱ ऽदय़। अनेनोपकुतः पीवयऽमभऱमः पदे पदे। ऽनवेऽितोऻयां सन्द्तिष्य तेऩप्यत्यिन्द्नते पदे।।११ 183 | पृ ष्ठ



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११. आसने पहले आब्ऱऽहमि़ह को पग-पग पर ईपकु त ऽकय़ थ़, ऄतः ईसने भा संतष्टि होकर िह़जा को ईच्चपदस्थ ऽकय़ थ़। अनेन हेतिऩ ष्तस्य मन्द्तवः ितिो मय़। अऽतक्ऱन्द्त़ध्वनोऻत्यथं ि़न्द्त़ एव ऽदने ऽदने।।१२ १२. आस क़रण से हा ऄत्यन्त म़गय क़ ईल्लंघन करके व्यवह़र करने व़ले आस िह़जा के सैकडों ऄपऱध मैंने म़फ कर ऽदये थे। आग़ांऽस सगि राय़ांऽस िन्द्तिां नैव िमोऻभवम।् तद़नीं ऽनग्रह़य़स्य मिस्तिफ़ख़नम़ऽदिम।् ।१३ १३. ऽकन्ति ऄक्षम्य एवं बडे ऄपऱधों को जब मैं क्षम़ करने में ऄसमथय हुअ तो तब आसको पकडने के ऽलए मैंने मस्ि तफ ि ख़न को अदेि ऽदय़। अऽस्मांस्ति ऽनगुहातेऻस्य सितौ िम्भिऽिव़विभौ। उन्द्नद्चाभीय यिध्येते मऽन्द्नमज्जनलोलिभौ।।१४ १४. तत्पश्च़त् िह़जा को कै द करने के क़रण से, आसके दोनों पत्रि संभ़जा एवं ऽिव़जा ईित होकर, मझि े डिब़ने की आच्छ़ से यि ि कर रहे हैं। ऽपत्रथे िम्भिऩ तत्र फऱदः पररभ़ऽवतः। सम्पऱये ऽिवेऩत्र फतेख़नोऻऽप य़ऽपतः।।१५ १५. ऄपने ऽपत़ के ऽलए संभ़जा ने वह़ं फऱदख़न को पऱऽजत ऽकय़ और यह़ं ऽिव़जा ने यि ि से फतेख़न क़ पल़यन करव़य़। अलां बलमहो िम्भोः ऽकल येन यिऽस्वऩ। फऱदस्तत्र भग्ब्नो न भग्ब्नां ऽकन्द्त्वद्ट मन्द्मनः।।१६ १६. ईस यिस्वा सभं ़जा ने वह़ं फऱदख़न को पऱऽजत नहीं ऽकय़, ऄऽपति अज मेरे मन को हा पऱऽजत ऽकय़ है। ऄहो! वह ऽकतऩ स़मथ्ययि़ला है। 184 | पृ ष्ठ



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ऽिवस्य यस्य हस्तेऻद्ट धरौ ऽसहां परि न्द्दरौ। सोहङ्क़रां कथङ्क़रां न कररष्यऽत मय्यरौ।१७ १७. ऽजस ऽिव़जा के ह़थों में अज ऽसहं गढ़ एवं परि ं दगढ़ है तो वह मझि ित्रि पर ऄहक ं ़र क्यों नहीं करे ग़? रणो यत्ऱजऽनष्ट़यां भाषणो भाष्मपवयतः। सितऱां दिग्रयहोऻस्म़ऽभः स पिरन्द्दरपवयतः।।१८ १८. जह़ं पर भयंकर यि ि हुअ है, ऐसे ईस भयंकर बडे पवतय व़ले परि ं दर ऽकले को जातऩ हम़रे ऽलए ऄत्यन्त कठान है।



ऽबम्बरुरे परि े िम्भिां ऽिवां च़रौ पिरन्द्दरे। न्द्यवेियत ि़होऻयां ऽकमस्मत्पररभीयते।।१९ १९. आस ि़हजा ने सभं ़जा को बैंगलरि में ऽनयि ि ऽकय़ तथ़ ऽिव़जा को परि ं दर ऽकले पर ऽनयि ि ऽकय़ है तो कै से हमसे पऱऽजत होंगे? जनकः िम्भिऽिवयोनय मोिव्यो मय़ यद़। समुद्च़यै ऽश्रयेऻमिष्यै बत देयोऻञ्जऽलस्तद़।।२० २०. यऽद मैंने संभ़जा एवं ऽिव़जा के ऽपत़ को छोड़ नहीं तो मझि े मेरा आस समुि संपऽत को ऽतल़ंजला देना पडेगा। पुद़किररव ऽनमयििो मोिव्योऻयां मय़ यऽद। अपक़रपरस्तऽहय ऽकां म़ां ऩपकररष्यऽत।।२१ २१. ऄपक़रक स़पं की तरह यऽद आस िह़जा को मैंने छोड ऽदय़ तो यह ऄपक़रक, मेऱ ऄऽहत ऽकस क़रण से नहीं करे ग़ ? अयां मोिव्य इत्येको मोिव्यो नेऽत च़परः। मन्द्त्रयोरुभयोमयन्द्ये प्रथमो मऽद्चत़वहः।।२२



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२२. आसको छोड देऩ च़ऽहए, यह एक और दसी ऱ आसको छोडऩ नहीं च़ऽहए, आन दोनों ऽवच़रों में से पहल़ ऽवच़र मेरे ऽलए ऽहतक़रा है। सवयथ़ ऽजष्णगस्य़स्य रोषो मन्द्मन्द्त्रवैभव़त।् अपक़रपरस्य़ऽप प्रय़स्यत्यत्यवके ऽित़म।् ।२३ २३. ऄपक़रा आस स़ंप क़ क्रोध मेरा यऽि ि के प्रभ़व से पणी तय ः ऽनष्प़प हो ज़येग़। इम़मिपकुऽतां कुत्व़ ऽनध़स्य़म्यस्य मीधयऽन। न ऽवस्मररष्यऽत ष्तेऩां किलानोऻयां गिण़ग्रणाः।।२४ २४. मैं आसके ऽसर पर ईसको छोडने के , आस ईपक़र को करके रखगंी ़ तो यह किलान एवं गणि ों में ऄग्रणा िह़जा आसको नहीं भल ी ेग़। ऽचरां ऽवऽचन्द्त्य मनस़ सिधाधीसऽचव़ऽनदम।् न्द्यगदद्टेऽदलो यििऽमत्यमन्द्यन्द्त तेऻप्यरम।् ।२५ २५. मन में बहुत देर तक ऽवच़र करके चतरि अऽदलि़ह ने आस ऽवच़र को ऄपने बऽि िम़न मऽन्त्रयों को बत़य़ और ईन्होंने भा यह ऽबल्किल ठाक है, ऐस़ म़ऩ। अथ तां मांगलस्ऩनां ऽनमयल़म्बरभीषणम।् पररवेषऽवऽनमयििां नवानऽमवषीषणम।् ।२६ उपष्दरे सम़ऩय्य म़ऩहयमिपवेश्य च। अनिनाय च सोल्ल़सां महमीदोऻभ्यभ़षत।।२७ २६-२७. तत्पश्च़त् मगं ल स्ऩन करके , ऽनमयलवह्लों एवं अभर्ी ण को ध़रण ऽकये हुए म़नो ऄपने पररऽध से मि ि हुए नवान सयी य की तरह ऽदख़इ देने व़ले, ईस िह़जा को ऄपने समाप ल़कर, सम्म़न के योग्य स्थ़न पर बैठ़कर और ईसको स़ंत्वऩ देकर महमदी ि़ह अनन्द से बोल़।



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महमीद उव़च मत्तो ष्तज़नतो ज़तां तऽद्च नो ऽवऽद्च ज़नतः। न जगत्त्यत्र दिज्ेयां ऱजस्तव ऽवज़नतः।।२८ २८. महमदी बोल़ - मझि ऄऽववेकी से जो किछ हुअ वह ज़नबझी कर नहीं हुअ है, ऐस़ समझो। हे ऱज़! तेरे जैसे ज्ञ़ना को आस संस़र में दजि ये किछ भा नहीं है। ऽवऽहतो मिस्तफे नोच्चैद्ठेष़दफजलेन व़। तां मन्द्तितन्द्तिां ऱजेन्द्र मदायां मन्द्तिमहयऽस।।२९ २९. मस्ि तफ ि ख़न ने य़ ऄफजलख़न ने ऄत्यन्त द्रेर् से जो कोइ बड़ य़ छोट़ ऄपऱध ऽकय़ है तो हे ऱजेन्र! ईसको मेऱ हा म़न सकते हैं। ऽददृििस्त्व़महां यस्मै यत्ऩनकरवां बहून।् बत मे सम्मदः सोऻभीदस्ति व़ म़स्ति व़ तव।।३० ३०. तेरे को देखने की आच्छ़ से मैंने तेरे ऽलए ऄनेक प्रयत्न ऽकए तो मझि े ईससे ऄत्यऽधक अनन्द हुअ, तझि े हो य़ न हो। उिोऻऽस मुदिऽभव़यसयैः पररमििोऻऽस ऽनग्रह़त।् अऽभज़तोऻऽस भीप़ल मदभाष्टपरो भव।।३१ ३१. मैंने मधरि व़क्यों से ब़तचात की है, तझि े क़रव़स के बधं न से मि ि ऽकय़ है, हे ऱज़! ती किलान हैं, ऄतः मेरे ऄभाष्ट ऽसऽि के ऽलए तत्पर रहो। एक़मप्यिपक़रस्य कऽणक़ां प्ऱप्य ऽनवयतु ़ः। ितमप्यपक़ऱण़ां न स्मरऽन्द्त मह़व्रत़ः।।३२ अणिऩप्यपक़रेण पररििऽभतम़नस़ः। उपक़रसहस्ऱऽण न स्मरन्द्त्यपचेतसः।।३३



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३२-३३. ईद़रचेत़ लोग ऄत्यऽधक लघि ईपक़र से हा संतष्टि होकर सैंकडो ऄपक़रों को भल ी ज़ते हैं और क्षरि मन व़ले ल़गे लघि ऄऽहत से हा ऽवचऽलत होकर हज़रों ईपक़रों को भल ी ज़ते हैं। अपक़रसहस्ऱऽण करोत्वलमसज्जनः। उपक़रसहस्ऱऽण करोत्येव ति सज्जनः।।३४ ३४. दजि नय हज़रों ऄपक़रों को करत़ है तो भा सज्जन ईस पर हज़रों ईपक़र करत़ हा हैं। उपक़रां परकुतां स्मरऽन्द्त स्वकुतां न ये। त एव ध़रण़वन्द्तः कुतज़्श्च सत़ां नये।।३५ ३५. जो लोग दसी रे के द्ऱऱ ऽकए गए ईपक़र को य़द रखते हैं एवं ऄपने ऽकये हुए ईपक़रों को भल ी ज़ते हैं, वे हा लोग सज्जनों की दृऽष्ट में स्मरणिाल एवं कु तज्ञ है। उपक़रपरां लोकां प्रभिनोपकरोऽत यः। स्वप्नलब्ध़ इव सध ि ़ समुद्च़ अऽप तऽच्रयः।।३६ ३६. जो ऱज़ ईपक़र करने में तत्पर लोगों के प्रऽत ईपक़र नहीं करत़ है, ईसकी ऽवि़ल संपऽत्त भा स्वप्न में प्ऱप्त हुए ऄमुत के सम़न है। ऽिियस्व कनाय़ांसां तनयां गवयपवयतम।् मह़ऱज मदायां मे देऽह तां ऽसहां पवयतम।् ।३७ हे मह़ऱज़! ऄऽभम़न के पवयत से यि ि ऐसे तेरे छोटे बेटे को ईपदेि करो और मेरे ऽसहं गड को मझि े दे दो। न ऽह म़ां मिञ्चऽततम़ां ऽसांहिैलग्रह़ग्रहः। मदायेन ऽनयोगेन ऽिव़य़स्ति पिरन्द्दरः।।३८ ३८. ऽसंहगड ऄधान करने क़ मेऱ ऽनश्चय मझि े मल ी तः नहीं छोड रह़ है। ऽकन्ति मेरे अदेि से परि ं दर ऽिव़जा के प़स हा रहने दो। करोति मष्तां सोऻप्यद्ठ़ ऽबङ्गरुरमिप़यनम।् यद्झग्ब्नेन फऱदेन व्यधायत पल़यनम।् ।३९ 188 | पृ ष्ठ



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३९. ईसा प्रक़र ऽजस संभ़जा से पऱऽजत होकर फऱदख़न ने पल़यन ऽकय़ थ़, ईस बैंगलरी िहर को भा ईसको मझि े ईपह़र के रूप में देऩ च़ऽहए। ऽनयिञ्जते ऽनयोगह़यन् क़य़यय़य़यः िणे िणे। तन्द्न किवयऽन्द्त ते तऽहय को हेतिः िालरिणे।। ४० ४०. श्रेष्ठ लोग सेवकों को प्रऽतक्षण क़यय में हा ऽनयि ि करते हैं। यऽद ईन्होंने ईस क़म को नहीं ऽकय़ तो ईनके िालरक्षण क़ क्य़ ल़भ हैं? प्रभिऽनययििे क़य़यथी क़य़यथी तां ऽनषेवते। तयोरन्द्यतऱक़य़यन्द्न क़ययमिभयोरऽप।।४१ ४१. ऄपने क़यय की ऽसऽि हेति हा स्व़मा सेवक की ऽनयऽि ि करत़ है एवं ऄपने क़यय की ऽसऽि के ऽलए हा सेवक स्व़मा की सेव़ करत़ है। ईन दोनों में से एक ने भा ऄपने कत्तयव्य को परी ़ नहीं ऽकय़ तो दोनों क़ हा क़म नहीं होत़ है। न सौऽहत्यां ऽवऩ प़नां ऽवऩ प्ऱणां न ऽवग्रहः। ऽवऱजते मह़ऱज ऩनिय़नां ऽवऩ निगः।। ४२ ४२. तुऽप्त के ऽबऩ पाने में अनन्द नहीं है एवं प्ऱण के ऽबऩ िरार िोभ़ नहीं देत़ है, हे मह़ऱज़! स्व़मा क़ ऄनसि रण ऽकये ऽबऩ सेवक सि ि ोऽभत नहीं होत़ है। ऽकां स्य़दििेन बहुऩ तव़हां त्वां मम़धिऩ। अन्द्योन्द्यमवलम्बो नौ लोकस्य़स्य़वलम्बनम।् ।४३ ४३. ऄत्यऽधक कहने से क्य़ ल़भ है? ऄब मैं तेऱ और ती मेऱ है, हम दोनों क़ परस्पर अश्रय हा आस संस़र क़ अध़र है। अल्पवणयमयाऽमत्थमनल्प़थयगरासाम।् येऽदलः ि़हऱज़य श्ऱवय़म़स भ़रताम।् ।४४ ४४. आस प्रक़र ऄल्प िब्दो में स़रगऽभयत ईपदेि, अऽदलि़ह ने िह़जा ऱज़ को ऽदय़। यत्र यद्व्यञ्जय़म़स महमीदो वद़वदः। 189 | पृ ष्ठ



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ि़हः स्वेन ऽस्मत़धेन तत्र तस्योत्तरां ददौ।।४५ ४५. व़च़ल महमदी ि़ह जब ईपदेि कर रह़ थ़ तब ईसक़ ईत्तर िह़जा ऄपने ऄिय मस्ि कऱहट के स़थ दे रहे थे। स तद़नीं मह़बिऽद्चमयहमीदां मदोद्चतम।् तद्ङिगयऽद्ठतयाद़नप्रसन्द्द़नममन्द्यत।।४६ ४६. मदमस्त महमदी ि़ह को दोनों ऽकलो क़ देऩ है, मतलब ऄपने पैरों में बेऽडयों को डलव़ऩ है, ऐस़ ईस समय ईस बऽि िम़न िह़जा को प्रतात हुअ। अथ तस्य ऽवमििस्य सत्कुतस्य यथ़यथम।् येऽदलः सदनद्ठ़रर ऽद्ठरद़श्वमबन्द्धयत।् ।४७ ४७. तत्पश्च़त् कै द से मऽि ि प़कर एवं यथ़योग्य सत्क़र प्ऱप्त ऽकये हुए ईस िह़जा के महलद्ऱर पर अऽदलि़ह ने ह़था और घोडे बंधव़ ऽदये। स तद़ जगद़ष्थ़दतत्परः परसङ्कट़त।् मिमिचेऻम्भोधरघट़पटल़ऽदव चन्द्रम़ः।।४८ ४८. तब, ऽजस प्रक़र मेघ समही के अवरण से चन्रम़ मि ि होत़ है, ईसा प्रक़र ससं ़र को अनन्द देने व़ल़ िह़जा बडे संकटों से मि ि हो गय़। बन्द्धिः सवयस्य लोकस्य मििस्तस्म़त् स ऽनग्रह़त।् व्यऱजततऱां तत्र ऽदव़कर इव ग्रह़त।् ।४९ ४९. क़ऱव़स से मि ि हुअ वह सम्पणी य संस़र क़ ब़ंधव िह़जा ग्रहण से मि ि हुए सयी य के सम़न ऄऽतिय सि ि ोऽभत हो रह़ थ़। मििम़त्रः स यििोऻभीदनाके न महायस़। ऽददापे जगता सव़य तदायेन सितेजस़।।५० ५०. ईसने मि ि होते हा बड़ सैन्यबल संग्रऽहत ऽकय़ और ईसके ईत्कु ष्ट तेज से सम्पणी य पुथ्वा देदाप्यम़न हो गइ। अथ िम्भिमयह़ब़हुनऽतक्रमणायय़। 190 | पृ ष्ठ



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ऽबगां रूरां परि ां सद्टस्तत्त्य़ज ऽपतिऱज्य़।।५१ ५१. ऽफर ऽपत़ के ऄलंघनाय अदेि को प़कर मह़ब़हु संभ़जा ने बैंगलोर िहर को तरि न्त छोड ऽदय़। समथोऻप्य़हवां कतयिमदेयमऽप सवयथ़। ऽिवः ऽसष्त़चलां प्ऱद़त् ऽपत्रथ़यय गरायसे।।५२ ५२. यि ि करने में समथय होते हुए भा ऽिव़जा ने सवयथ़ देने के ऽलए ऄयोग्य ऐसे ऽसंहगड ऽकले को ऽपत़ की प्रसन्नत़ के ऽलए दे ऽदय़। अथ ऽनज इऽत मत्व़ पीजऽयत्व़ वचोऽभः। पऽद पऽद ऽवऽहत़ऽभः प्राणऽयत्वोपद़ऽभः। उपऽचतबहुसेनः प्रेऽषतो येऽदलेन। प्रऽतभटऽवजय़थं ि़हऱजः प्रतस्थे।।५३ ५३. तत्पश्च़त् ऄपऩ म़नकर एवं मधरि िब्दों से सत्क़र करके और पग-पग पर ऽदये गए ईपह़रों से सतं ष्टि करके अऽदलि़ह द्ऱऱ प्रेऽर्त िह़जा ऽवि़ल सेऩ को लेकर ित्रि को जातने के ऽलए ऽनकल गय़। इत्यनिपिऱणे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां सांऽहत़य़ां पञ्चदिोऻध्य़यः।।१५



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अध्य़यः-१६ कवान्द्र उव़चअथ़ऽभमतल़भेन महमीदेऻऽतऽनवयतु े। स्वयां ति ऽपतरथ़यय ऽवताणे ऽसांहपवयते।।१।। आहूय स्वणयिम़यणमग्रजन्द्म़नमऽन्द्तके । ऽिवोद्च़ ऺ मांत्रऽवत्तत्तन्द्मन्द्त्रवेऽदनमब्रवात।।२।। १-२. कवान्र बोले - तत्पश्च़त,् ऄभाष्ट ऽसऽि हो ज़ने से महमदी ि़ह ऄत्यन्त अनऽन्दत हुअ। ऽकन्ति के वल ऽपत़ के ऽलए स्वयं हा ऽसंहगड को देने पर, किटनाऽत में ऽनपणि ऽिव़जा ने रणनाऽतक़र सेनोपंत ऩम के ब्ऱह्मण मन्त्रा को समाप बल ि ़कर कह़। ऽिव उव़चज़नत़मऽतमीधयन्द्यां यां धन्द्यां ज़नते जऩः। स म़ां नीनां न ज़नाते मह़ऱजो मह़मऩः।।३ ३. ऽिव़जा बोल़ - ऽजस धन्य परुि र् को लोग ज्ञ़न परुि र्ों में ऄत्यन्त श्रेष्ठ समझते हैं, ऐसे मझि को यह मह़मऩ िह़जा ऱज़ व़स्तव में नहीं पहच़नते हैं। अज़ऩनो न ज़ऩति सिखेनैव सतो गिण़न।् ज़ऩनो यन्द्न ज़नाते तद्ङिनोऽत ऽह सन्द्मनः।।४ ४. ऄज्ञ़ना ने यऽद सज्जन के ऽवद्यम़न गणि ों को नहीं ज़ऩ तो न ज़ने ऽकन्ति ज्ञ़ना ने भा यऽद नहीं ज़ऩ तो वह ब़त सज्जन के मन को पाऽडत करता है।



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सोऻज़्स्यद्टऽहय म़ां तऽहय ऩद़स्यऽत्सष्तपवयतम।् कोऻन्द्यथ़ तरस़ जेष्यत्तऽमम मत्करऽस्थतम।् ।५।। ५. यऽद मझि े पहच़नत़ तो वह ऽसहं गढ दगि य को देत़ हा नहीं, क्योंऽक नहीं तो मेरा ऄधानत़ में ऽस्थत आस दगि य को बलपवी क य कौन जात सके ग़?



अप्रमत्तोऽप यो मत्तो ऽद्ठषते ऽसष्णपवयतम।् आद़पयद्टेऽदल़य ऽकां वक्ष्ये तां मह़व्रतम।् ।६ ६. ज्ञ़ना होते हुए भा ऽजस प़गल ने ित्रि अऽदलि़ह को मेरे से ऽसंहगड दगि य ऽदलव़य़, ऐसे मह़व्रता परुि र् को मैं क्य़ कह?ँ स्वयां ऽनयन्द्त़ ऽवश्वस्य ऽवश्वस्य बत वैररषि। सख ि ां सप्ति ो ऽनजगहु े ततो ऽनजगहु ेऻररऽभः।।७।। ७. व़स्तव में स्वयं ऽवश्व क़ ऽनयन्त़ हो आस प्रक़र ित्रि पर ऽवश्व़स करके ऄपने घर में सख ि पवयक सोय़, ऄतः वह ित्रि द्ऱऱ पकड ऽलय़ गय़। ऩवज्ेय़ः खलि ज्ेन वऱक़ अऽप ऽवऽद्ठषः। प्रि़म्यते पतङ्गेन प्रज्वलन्द्नऽप दापकः।।८ ८. दानहान ित्रि के होने पर भा ऽवद्ऱन् को ईसकी ईपेक्ष़ नहीं करना च़ऽहए, क्योंऽक जलते हुए दापक को भा कीटपतंग बझि ़ देते हैं। दापां ऽवऩियन्द्नेव पतङ्गश्चेऽद्ठनश्यऽत। तिल्यत़ां कस्तयोस्तऽहय ज़त्यन्द्ध इव पश्यऽत।।९।। ९. यऽद दापक को बझि ़ते समय हा ऽकसा पतंग क़ ऽवऩि हो ज़त़ है तो जन्म से ऄधं े के सम़न कौन ईन दोनों की सम़नत़ बत़येग़?



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ननी ां ऽपपालकोऻप्येकः प्रऽवश्य कररणः करम।् भवत्यङ्करस्तस्म़दल्पां मन्द्येत नो परम।् ।१० १०. व़स्तव में एक चींटा भा ह़थं ा के सडंी में घसि कर ईसक़ ऽवऩि कर देता है। ऄतः ित्रि को कभा भा क्षरि नहीं समझऩ च़ऽहए। अहो मह़ब़हुरसौ ज़ऩनोऻऽप मह़नयम।् गणयत्वेव न पऱनस्य दोषो मह़नयम।् ।११। ११. ऄहो! यह मह़ब़हु, बड़ ऱजनाऽतज्ञ होते हुए भा ित्रि की परव़ह नहीं करत़ है, यह आसक़ सबसे बड़ दोर् है। अऱऽतऽनगुहातेन ि़हेन गिरुण़ मम। यः प्ऱप्तऽश्चरऱत्ऱय क़ऱग़रपररश्रमः।।१२ तस्य ऽनय़यतनां कतंि सांप्रवुत्तोऽस्म सवयथ़। यवऩन्द्त़त् प्रवुत्त़द्टप्रभुत्यत्ऱस्तिमत्प्रथ़।।१३ १२-१३. ित्रि के द्ऱऱ पकडे हुए मेरे ऽपत़ िह़जा की क़ऱव़स में जो ऄवस्थ़ था, ईसक़ प्रऽतिोध लेने के ऽलए मैं पणी तय ः तैय़र हं और अज से हा यवनों के ऽवऩि के क़रण मेरा आस ससं ़र में पहच़न होगा। यः परस्म़ऽद्जभेत्यिच्चैः परस्तस्म़ऽद्जभेऽत च। न ऽबभेऽत परस्म़द्टः परस्तस्म़ऽद्जभेऽत ऽह।।१४।। १४. जो ित्रि से भयभात होत़ है, ईससे भा ित्रि भयभात रहत़ है, ऽफर जो ित्रि से भयभात नहीं होत़, ईससे तो ित्रि भयभात होत़ हा है। नीनां मय़ ऽनहन्द्तव्य़स्ते ते यवनऩयक़ः। िरऽधऽद्ठतयस्यैते तेऽजत़स्सऽां न्द्त स़यक़ः।१५ १५. व़स्तव में ईन सभा यवन ऩयकों क़ ऽवऩि करूंग़ और आसऽलए मैंने दोनों तरकसों के ब़णों को ताक्ष्ण ऽकय़ है। ऽवजय़ष्दपिरग्ऱहोत्सिकां सम्प्रऽत मन्द्मनः। अतोऻद्ट नोद्टसे सद्टोऽनयिज्यन्द्त़ां तिरङ्ऽगणः।।१६ 194 | पृ ष्ठ



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१६. ऽवज़परि िहर को ऄधान करने के ऽलए मेऱ मन ईत्सक ि हो गय़ है, ऄतः तमि से मेऱ कहऩ है ऽक तरि न्त घडि सव़रों को तैय़र ऽकय़ ज़ए। सिवणयिम़य उव़च दिरन्द्तां बलवद्ठैरां दिरन्द्तः प़पसञ्चयः। दिरन्द्त़भ्यऽहयत़ां गह़य दिरन्द्त़ गिरुगहयण़।।१७ १७. सोनोपतं बोल़ - बलव़न् से ित्रति ़, प़पों क़ सच ं य, पज्ी यों की एवं ऽपत़ की ऽनन्द़, आन सबक़ पररण़म दःि खद़य होत़ है। ऽवध़य बलवद्ठैरां तव त़तः कुत़ग्रहः। ऩभीदवऽहतो यऽहय तदहयस्तऽहय ऽनग्रहः।।१८ १८. बलव़न् से ित्रति ़ करके , तेरे ऽपत़ ऄत्यऽधक ऄनरि ोध के स़थ सचेत नहीं रह सक़। ऄतः वह पकड ऽलय़ गय़, यह यि ि है। स प्रभ़वा मह़ऱजो मऽन्द्त्रणस्तस्य सिव्रत़ः। तेन यद्जलवद्ठैरां कुतां सोपनयः कुतः।।१९ १९. वह िह़जा ऱज़ पऱक्रमा है और ईसके मन्त्रा भा कतयव्यप़ऱयण हैं, ऽफर भा ईसने जो बलव़न् के स़थ ित्रति ़ की वह ऱजनाऽत के दृऽष्ट से गलत है। तनति े यद्टलां वैरमबलाय़न् बलायस़। तऽहय तस्य पऱभ़वे सवयथ़ प्रभिरेव सः।।२० २०. यऽद दबि यल मनष्ि य ऄत्यन्त बलव़न् के स़थ ऄत्यऽधक ित्रति ़ करत़ है तो ईसको पऱऽजत करने के ऽलए वह पणी तय ः समथय होत़ है। द़नमभ्य़ऽधके ित्रौ समे स़म ऽवधायते। ऊने दण्डऽवऽधः प्रोिो भेदः स़ध़रणः स्मुतः।।२१ २१. ऄपने से ऄऽधक बलव़न् ित्रि को कर देऩ च़ऽहए, सम़न बलव़न् ित्रि के स़थ ऽमत्रत़ करना च़ऽहए, न्यनी स़मथ्ययव़न् ित्रि को दण्ड देऩ च़ऽहए और भेद यह स़ध़रण ईप़य होत़ है। 195 | पृ ष्ठ



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ऽदने ऽदने भवन्द्ननी ः समः स़म्यां ऽवमिञ्चऽत। आऽधसयां च़ऽधको येन को भेदां न प्रिस ां ऽत।।२२ २२. ऽजस भेदनाऽत के ऄनसि रण से सम ित्रि प्रऽतऽदन न्यनी त़ को प्ऱप्त होकर सम़नत़ को छोड देत़ है और ऄत्यऽधक बलि़ला ित्रि ऄपने अऽधक्य को छोड देत़ है, ऄतः ईस भेद की कौन प्रिसं ़ नहीं करत़ है? नरेंर नीनमीनोऽप द्ठेषणो भेदमहयऽत। ऊनस्य़प्यीनत़त्यथं ऽहत़यैव भवेद्टिऽध।।२३



२३. हे ऱज़! न्यनी स़मथ्ययव़न् ित्रि के स़थ भा भेदनाऽत ऄपऩऩ योग्य है। क्योंऽक न्यनी स़मथ्ययव़न् ित्रि क़ ऄत्यऽधक दबि यल हो ज़ऩ यह यि ि में ल़भक़रा हा होग़। ऊनोऽप यऽद दीनोयऽमऽत मत्व़ऻनिनायते। तष्तंतः श्ल़घ्यम़नोऻसौ स्वमेव बहुमन्द्यते।।२४ २४. यह दःि खा है, आस प्रक़र म़नते हुए यऽद न्यनी स़मथ्ययव़न् ित्रि की स़ंत्वऩ की ज़ए तो वह ऄपने अपमें प्रिसं नाय होकर, ऄपने को बड़ समझने लगत़ है। ऊऩऩमप्यननी त्वमनीऩऩां तथोनत़। दृश्यते मनिज़धाि समय़न्द्तरवैभव़त।् ।२५ २५. हे ऱज़! दबि यल ित्रि की प्रबलत़ तथ़ बलव़न् ित्रि की दबि यलत़, क़ल की मऽहम़ से हा सभं व है। तस्म़दीने नरेन्द्रेण ऽद्ठऽष दण्डो ऽवधायते। मते पत्यिरप़ां येन मनस्सम्यङ्ऽनधायते।।२६ २६. वरुण की आस सम्मऽत में जो ऱज़ ऄच्छा प्रक़र ध्य़न देत़ है, वह दबि यल ित्रि पर ि़सन करत़ है। समथयश्च़समथयश्चेत्यिप़यो ऽद्ठऽवधो मतः। ऽद्ठतायो ष्तवके िा स्य़त् प्रथमस्ति फलेग्रऽहः।।२७



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२७. समथय और ऄसमथय ऐसे दो प्रक़र के ईप़य है। दसि ऱ ईप़य ऽनष्फल होत़ है ऽकन्ति पहले प्रक़र क़ ईप़य सफल होत़ है। योऽषतस्स़रह़ररण्यो मऽदऱ मोहद़ऽयना। दिरोदरां धनहरां क़दयं क़ययह़ऽनकुत।।२८ व़क् प़रुष्यमलक्ष्माकां मुगय़ प़पक़ररणा। नरेन्द्र दण्डप़रुष्यमत्यथयमयिस्करम।् ।२९ २८-२९. ऽह्लय़ं िऽि क़ हरण करता हैं, िऱब मऽत क़ ऽवभ्रम करता है, द्यती क्रीड़ धन क़ ऩि करता है, कंजसी ा से क़यय की ह़ऽन होता है, कठोर सभं ़र्ण ऄकल्य़णक़रा है, ईसा प्रक़र मुगय़ से प़प लगत़ है और हे ऱज़! कठोर ि़सन ऄत्यन्त ऄपकीऽतय करने व़ल़ होत़ है। तस्म़देत़ऽन सप्त़ऽन व्यसऩऽन पररत्यजेत।् बत़न्द्यतममप्येष़ां मऽतभ्रांि़य ज़यते।।३० ३०. ऄतः आन स़त व्यसनों क़ त्य़ग करऩ च़ऽहए, क्योंऽक आनमें से एक व्यसन मऽतभ्रम क़ स़धक होत़ है। येष़मेकतरेण़ऽप मऽतभ्रांिो ऽवधायते। त़न्द्येक़ऽन सस ां ेव्य कः पमि ़न्द्नप्रहायते।।३१ ३१. यऽद ईनमें से एक के हा सेवन से मऽतभ्रि ं होत़ है तो ऄनेक के सेवन करने से कौन-स़ मनष्ि य ऄधोगऽत को प्ऱप्त नहीं होग़? नाऽति़ष्धेषि ऽवरसां ऽनजक़ययभऱलसम।् म़निषां ऽवजह़ऽत श्राव्ययसऩपन्द्नम़नसम।् ।३२ ३२. नाऽति़ह्ल में रुऽच न रखने व़ल़, ऄपने क़यय के प्रऽत अलसा, और व्यसनों में मग्न व्यऽि को लक्ष्मा छोड देता है। मिष्णन्द्त्यिचैः प्रमत्तेऻऽस्मन् कोिां कोि़ऽधक़ररणः। तिदऽन्द्त च दिऱत्म़नो ऱष्रां ऱष्ऱऽधक़ररणः।।३३ 197 | पृ ष्ठ



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३३. ईसके ऄत्यऽधक प्रमत्त हो ज़ने पर तो कोऱ्ऽधक़रा खज़ने को चरि ़ लेत़ है और दष्टि ऱष्र के ऄऽधक़रा प्रज़ को पाऽडत करते हैं। तत्तष्तसनसिस्य वैऽचत्यमिपचायते। वैऽचत्योपच़यदिच्चैरौऽचत्यमपचायते।।३४ ३४. ऩऩ प्रक़र के व्यसनों से ऱज़ क़ भ्रम वुऽि को प्ऱप्त होत़ है और ईसमें ऄऽतिय वुऽि हो ज़ने से ईसक़ औऽचत्यपणी य व्यवह़र नष्ट हो ज़त़ है। औऽचत्य़पचय़देनां जनस्सवोऻवमन्द्यते। ऽवऽनयिि़श्च क़येषि नैव त़न्द्य़िि किवयते।।३५ ३५. औऽचत्यपीणय व्यवह़र के नष्ट होने पर लोग ईसक़ ऄपम़न करते हैं और क़यों में ऽनयि ि ऽकये गये लोग भा क़यय को िाघ्रत़ से पणी य नहीं करते हैं।



अथ क्रोधोद्चिरोत्यिच्चैरुच्चरन् रुितीं ऽगरम।् ऽदने ऽदने तिदत्येऩन् समेत़नऽप सांसऽद।।३६ ३६. ऽफर ऄत्यन्त क्रोध के अवेि में अकर संसद में आकट्ठे हुए लोगों को हा प्रऽतऽदन ईच्चध्वऽन में भ़र्ण देकर ईनको पाऽडत करत़ है। ततो ष्तनि ि णकुत़सि ी यणितचेतसः। परोिे पररभ़षन्द्ते यथ़चोपहसन्द्त्यमिम।् ।३७ ३७. तत्पश्च़त् प्रऽतक्षण ऽकये गए ईनके ऄऩदर के क़रण ऄन्तकरण से ऽखन्न होकर वे ईसके परोक्ष में व़त़यल़प करते हैं और ईसक़ ईपह़स भा करते हैं। ततो मिञ्चित्यमिां के ऻऽप के ऻप्यमिऽष्मन्द्निद़सते। के ऽचऽद्ठपिपि़ांतऽनयपत्य सिखम़सते।।३८ प्रकोपनममिां मत्व़ िपन्द्त्येव ति के चन। 198 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



भजऽन्द्त न यथ़पवी यमत्यजन्द्तोऻऽप के चन।।३९ ३८-३९. तत्पश्च़त् किछ लोग ईसको छोड देते हैं, किछ ईसके प्रऽत ईद़सान रहते है, किछ ईसके ित्रपि क्ष के स़थ ऽमलकर सख ि से रहते हैं, किछ ईसको क्रोधा समझकर ि़प देते हैं और किछ ईसको न छोडते हुए भा पहले की तरह ईसकी सेव़ नहीं करते है। सप्तव्यसनसित्व़दज़ऩनच्छलां बलम्। मन्द्यते प्रभिम़त्म़नमहङ्क़रेण के वलम।् ।४० ४०. आन स़त व्यसनों में असि होने से वह ित्रि के कपट रूपा बल को न ज़नत़ हुअ, के वल ऄहक ं ़र से ऄपने को समथय समझत़ है। व्यसऩसिऽचत्तेन येनेत्थां बत भीयते। जैत्रय़त्ऱपरैस्सद्टः परैस्स पररभीयते।।४१ ४१. ऽचत्त के व्यसनों में असि होने से जो आस प्रक़र क़ हो ज़त़ है, ईसकी ऽवजय के ऽलए य़त्ऱ करने व़ले ित्रि के द्ऱऱ िाघ्र हा पऱजय हो ज़ता है। ऽगरयो नैव गिरवो गिरुरेव गिरुमयतः। भवत़त्र प्रभवत़ दत्तः ऽसष्तचलस्ततः।।४२ ४२. दगि य आतने मल्ी यव़न् नहीं है, व़स्तव में ऽपत़ हा बहुमल्ी य है, ऄतः पऱक्रमा होते हुए भा तमि ने ऽसंहगड दगि य को ऽदय़। प्रदत्ते ऽद्ठषतेऻमिऽष्मन् ऽवमििश्चेत् स प़ऽथयवः। तऽहय दत्तोऽप भवत़ न दत्तः ऽसष्णपवयतः।।४३ ४३. ित्रि को आस ऽसहं गड दगि य को देकर यऽद िह़जा ऱज़ मि ि हो गये तो अपके द्ऱऱ प्रदत्त ऽसहं गड दगि य न ऽदये के सम़न है। यः ऽसष्णपवयतां मेने समां ि़हसिमेरुण़। ऽबांगरूरां च नगरां ऽकां कुतां तेन वैररण़।।४४ ४४. ऽजसने ऽसंहगड और बैंगलोर िहर को िह़जा रूपा मेरुपवयत के सम़न म़ऩ, ईस ित्रि ने ऽविेर् क्य़ ऽकय़? 199 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



उपक्ऱन्द्तऽमद़नीं ति त्वय़ ऽवजयमण्डलम।् सिऽवक्ऱन्द्तस्य नुपतेः सवयमेव महातलम।् ४५ ४५. तमि ने आस समय ऽवजयय़त्ऱ प्ऱरम्भ की है और ऄत्यन्त पऱक्रमा ऱज़ की हा सम्पणी य पुथ्वा होता है। ऱज़ त़वत्ततो मन्द्त्रा सिरृदो ऽवपिलां धनम।् ऱष्रां दिगयऽण सैन्द्य़ऽन ऱजस्य़ङ्ग़ऽन सप्त वै।।४६ ४६. सवयप्रथम ऱज़, तत्पश्च़त् मन्त्रा, ऽमत्र, ऽवपल ि धन, ऱष्र, ऽकले और सेऩ, ये स़त ऱज्य के ऄगं हैं। एतैरऽवकलैययििां ऱज्यां सऽद्झः प्रिस्यते। एके ऩऽप ऽवहानां तऽदतरैरूपहस्यते।।४७ ४७. ऽजस ऱज़ के ये ऄगं व्यवऽस्थत होते हैं, ईस ऱज्य की सज्जन लोग प्रिसं ़ करते है। यऽद वहा ऱज़ एक ऄगं से भा ऽवहान हो तो वह ऄन्यों के द्ऱऱ ईपह़स क़ प़त्र बन ज़त़ है। मौऽळनयपु ो मिखां मन्द्त्रा धनसैन्द्ये भिजद्ठयम।् ऱष्रमन्द्यद्ठपिस्सवं सिरृदस्सन्द्धयो दृढ़ः।।४८ दिग़यऽण ति दृढ़न्द्यिच्चैस्तदस्थाऽन तदन्द्तऱ। एवमङ्ग़ऽन ऱज्यस्य सप्तोि़ऽन मनाऽषऽभः।।४९ ४८-४९. ऱज़ क़ यह मस्तक है, मन्त्रा मख ि है, धन और सेऩ ये भजि ़एं हैं, सम्पणी य ऱष्र क़ यह िरार है, ऽमत्र यह िरार है, ऽमत्र यह जोड है और दगि य यह ईसमें ऽस्थत मजबती हड्डा है, आस प्रक़र ऽवद्ऱनों ने ऱज्य के स़त ऄगं बत़ये हैं। सप्त़ङ्गस्य़स्य ऱज्यस्य धमय आत्म़ऻऽभधायते। मन्द्त्रः प्ऱणो बलां नाऽतरनाऽतरसमथयत़।।५० दण्डो यथोऽचतः िौययमधमो ररपिरुद्चतः। मदः परस्परां भेदो दाघयम़यिरभेद्टत़।।५१ जनरञ्जनमित्कषो दियनां दाघयदऽियत़। 200 | पृ ष्ठ



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प्रत़पः प्रोज्वलां रूपां ऽवमल़ बऽि द्चऱयिधम।् ।५२ तथैव बलवद्ठैरमन्द्तऱयः प्रकीऽतयतः। प्रम़दस्तिभवेऽन्द्नऱ प्रबोधः स़वधनत़।।५३ ५०-५३. आन स़त ऄंगों से यि ि ऱज्य क़ धमय अत्म़ है, मन्त्र प्ऱण है, नाऽत यह बल है और ऄनाऽत दबि यलत़ है। यथोऽचत दण्ड ऽवध़न यह िौयय, ित्रि की ईद्दण्डत़ ऄधमय, अपस में भेद करऩ यह मद, दृढत़, दाघ़ययि है, लोक़नरि ं जन ईत्कर्य, दरी दऽियत़ हा दृऽष्ट है, पऱक्रम यह ईज्ज्वल स्वरूप, अयधि यह ऽवमल बऽि ि, ईसा प्रक़र बलव़न् के स़थ ित्रति ़ ऽवघ्न कह़ गय़ है, प्रम़द यह ऽनन्ऱ और स़वध़ना यह ज़गुत ऄवस्थ़ कहा गइ है। समं च ऽवर्मं चेऽत वैरं ऽद्रऽवधमच्ि यते। प्रथमं ति समेऩहुऽद्रयतायमऽधके न चेत।् ।५४ ५४. सम और ऽवर्म ये दो प्रक़र की ित्रति ़ कहा गया है। सम़न ित्रि के स़थ ित्रति ़ यह पहला एवं बलव़न् ित्रि के स़थ ित्रति ़ यह दसी रा प्रक़र की ित्रति ़ कहा गइ है। समे समत्व़दिभयोनय भवेऽद्ठजयः खल।ि अऽधकस्य़ऽधकत्वेन ऽवषमे ऽवजयो रिवम।् ।५५ ५५. सम़न ित्रति ़ में, सम़न बल होने से दोनों को हा ऽवजय प्ऱप्त नहा होगा, ऽकन्ति ऽवर्म ित्रति ़ में ऄऽधक बलव़न् की हा ऄऽधक बल होने से ऽवजय ऽनऽश्चत है। फतेख़नप्रभङ्गेन मिसेख़नवधेन च। अहऽदयवां प्रभो तिभ्यां महमीदोऻभ्यसीयऽत।।५६ ५६. फत्तेख़न की पऱजय से एवं मसि ेख़न के वध के क़रण से हे मह़ऱज ! महमदी ि़ह ऱत-ऽदन अपसे द्रेर् करत़ है। पश्य येऽदलऽदल्लान्द्रौ ऽवषय़नन्द्तरौ तव। यवनौ बऽलनौ तिभ्यां रिष्ततोऻहऽनयिां नुप।।५७ ५७. मह़ऱज देख़! अपके ऱज्य के समाप ऽस्थत अऽदलि़ह एवं ऽदल्ला के ब़दि़ह, ये स़मथ्ययव़न् यवन अपसे ऱत-ऽदन रोह करते हैं। अमी उभयतो यस्य द्ठेषणौ रोषणौ तव। 201 | पृ ष्ठ



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तस्य ननी ऽमहस्थ़ने ऽस्थऽतः स्थ़ने न सप्रां ऽत।।५८ ५८. ये दोनों ित्र,ि दोनों तरफ से अप पर क्रोऽधत हो गये है, ऄतः अपक़ यह़ं रहऩ सम्प्रऽत व़स्तव में योग्य नहीं है। अतोऻऽतदिगयमां स्थ़नम़स्थ़य जगतापते। यतस्व जगतीं जेतिां ऽकमजय्यां ऽिवस्य ते।।५९ ५९. आसऽलए मह़ऱज! ऄत्यन्त दगि मय स्थ़न पर ऽस्थत होकर जगत को जातने के ऽलए प्रयत्न करो, अप ऽिव़जा के ऽलए क्य़ ऄजेय है? कण्ठे क़लेन कै ल़सः स मेरुः िम्बप़ऽणऩ। अभ्यन्द्तरमप़ां पत्यिः ऽिऽश्रये दनिज़ररण़।।६० ६०. िक ं र ने कै ल़ि पवयत क़, आन्र ने मेरूपवयत क़ और ऽवष्णि ने समरि क़ अश्रय ऽलय़ है। न दिगं दिगयऽमत्येव दिगयमां मन्द्यते जनः। तस्य दिगयमत़ सैव यत्प्रभिस्तस्य दिगयमः।।६१



६१. दगि य को के वल दगि य कहने से लोग दगि य नहीं म़नते हैं, ऄऽपति ईसके स्व़मा क़ दगि मय होऩ हा ईसकी दगि मय त़ होता है। प्रभिण़ दिगयमां दिगं प्रभिदियगेण दिगयमः। अदिगयमत्व़दिभयोऽवयऽद्ठषन्द्नेव दिगयमः।।६२ ६२. ऱज़ के क़रण से दगि य दगि यम होत़ है एवं दगि य के क़रण से ऱज़ दगि मय होत़ है। दोनों के ऄभ़व होने पर तो ित्रि हा दगि मय होत़ है। सऽन्द्त ते य़ऽन दिग़यऽण त़ऽन सव़यऽण सवयथ़। यथ़ सिदिगयम़ऽण स्यिस्तथ़ सद्टो ऽवधायत़म।् ।६३ ६३. अपके जो दगि य है, वे सब प्रक़र से, ऽजस प्रक़र ऄत्यन्त दल ि यभ बन सकें , ईस प्रक़र िाघ्र प्रयत्न करऩ च़ऽहए। सिवणयिमयणोव़चऽमम़ां श्रित्व़ नुपोत्तमः। 202 | पृ ष्ठ



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म़ननायोऻऽतमहत़ां म़ननाय़ममन्द्यत।।६४ ६४. सोनोपंत के ये वचन सनि कर ऄऽत मह़न म़ननायों में म़ननाय, नुपश्रेष्ठ ने ईनकी ब़तों को म़न ऽलय़। प्रभित्वां ऽबभ्ऱणऽष्धभिवनपररत्ऱणकरणे। ऽपतुद्ठेऽषद्ठेषा तदनितनिजः ि़हनुमणेः। ऽनऱतङ्कस्सिो यवनकदऩय़ऽतमहते। समग्ऱमप्यिवीममनति वसन्द्तीं करतले।।६५ ६५. तत्पश्च़त् ऽत्रभवि न क़ प़लन करने के ऽलए प्रभत्ि व को ध़रण करने व़ल़, ऽपत़ के ित्रि से द्रेर् करने व़ल़, यवनों के मह़न् ऩि करने के ऽलए ईत्सक ि और ऽनभयय, ऐस़ ऽिव़जा सम्पणी य पुथ्वा को ऄपने ह़थ के तलवे पर है, ऐस़ समझने लग़। इत्यनिपिऱणे ऽनव़सकरकवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां षोडिोऻध्य़य:।



203 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-१७ कवान्द्र उव़च ततोऻफजलम़हूय स्वायसैन्द्यधरि न्द्धरम।् अल्लाि़हः स्वयां व़चमिव़च समयोऽचतम।् ।१ कवान्र बोल़ – तत्पश्च़त् ऄपने सेऩ के सेऩपऽत ऄफजलख़न को बल ि ़कर, ऄल्लाि़ह ने स्वयं समय़नसि ़र ईपदेि ऽदय़। अल्लाि़ह उव़च ऽहत़वहस्त्वमस्म़कमऽस्मन् सैऽनकसञ्चये। ऽवरोद्च़ ऽद्ठजदेव़ऩां क़लः कऽलररव़परः।।२ ऄल्लाि़ह बोल़ – आन सैऽनकों के समही में ती हम़ऱ ऽहत करने व़ल़ है, देव एवं ब्ऱह्मणों क़ ऽवरोधा है और म़नो ती दसी ऱ कऽलक़ल हा हो। प्रऽस्थतेन त्वय़ पीवं पुतऩव्यीहवऽतयऩ। ऱमऱज़न्द्वयभिवो ऱज़नो यिऽध ऽनऽजयत़ः।।३ पहले तनी े ऽवि़ल सेऩ के स़थ प्रस्थ़न करके ऱम ऱज़ के वि ि में पऱऽजत ऽकय़ थ़। ं ा ऱज़ओ ं को यि कुतप्रतापसन्द्त़पे प्रत़पे तव ज़ग्रऽत। बत श्रारङ्गऱजोऻऽप रणरङ्ग़ऽद्ठरज्यते।।४ ित्रि को पाड़ देने व़ले तेरे प्रत़प के ज़गुत होने से, श्रारंगपट्टण क़ ऱज़ भा रणभऽी म से ऽवमख ि हो गय़ है। त्वय़ ऽवक्रम्य वारेण िण़त् कणयपिऱऽधपः। सपो ज़ङ्गिऽळके नेव स्फिरद्ङपो विाकुतः।।५ 204 | पृ ष्ठ



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ऽजस प्रक़र गरूड ऄत्यन्त क्रोऽधत स़ंप को भा ऄधान कर लेत़ है, ईसा प्रक़र तनी े वारत़ से अक्रमण करके कणयपरी के ऱज़ को ऄपने ऄधान ऽकय़ थ़। त्वय़ मन्द्दरस़रेण मऽथत़ मधरि ़परि ा। ऽनगुष्त नगरीं क़ञ्चीं आरृतां च़ऽप क़ञ्चनम।् ।६ मदं ऱचल पवयत के सम़न बलि़ला तनी े, मदरि ़ िहर को तहस-नहस ऽकय़ और क़च ं ा को ऄधान करके सवि णय लटी करके ल़य़। पदे पदे ििभवत़ भवत़ ऽकङ्कराकुतः। व्यस्मरद्ठारभरोऻऽप छत्रच़मरसम्पदः।।७ पग-पग पर यि प्ऱप्त करने व़ले तेरे द्ऱऱ गल ि ़म बऩय़ गय़। वारभर भा छत्रच़मर से यि ि ऐश्वयय को भल ी गय़ है। ऽबभेऽज ऽसष्णलपऽतमयत्तो लांक़पऽतस्तथ़। भजन्द्त्यम्भोऽधरऽप म़ां तऽददां पौरुषां तव।।८ ऽसहं ल क़ ऱज़, ईसा प्रक़र ईन्मत्त लंक़ क़ ऱज़ मेरे से डरते हैं और समरि भा मेरा सेव़ करत़ है, यह तेरे पऱक्रम क़ हा पररण़म है। प्रचलन्द्त्यचल़ः सप्त चलत्यफजल त्वऽय। िभ्ि यऽन्द्त च़ब्धयः सप्त द्ठाप़ः सादऽन्द्त सप्त च।।९ हे ऄफजलख़न! तेरे चलने पर ये स़त किलपवयत चलने लगते हैं, समरि भा परे ि़न हो ज़त़ है और स़तों द्राप ऽखन्न हो ज़ते हैं। बतेरप्रस्थऩथोऻऽप ऽनिम्य तव पौरुषम।् रोष़वेिविाभीतो न ऽनऱऽत ऽदव़ऽनिम।् ।१० तेरे पऱक्रम को सनि कर क्रोऽधत हुए ऽदल्ला के ब़दि़ह को भा ऱत-ऽदन नींद नहीं अता है। 205 | पृ ष्ठ



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एत़दृऽि मह़वारे दिजयये त्वऽय ज़ग्रऽत। मष्तां रिष्तत्यहोऱत्रमहो ि़हसितः ऽिवः।।११ ऐसे तेरे जैसे मह़वार के ज़गुत होने पर भा िह़जा क़ पत्रि ऽिव़जा, मेरे से ऱत-ऽदन रोह करत़ है, यह अश्चयय है। हन्द्त तेन महोत्स़हवत़ वारेण म़ऽनऩ। स्वधम़यऽभऽनऽवष्टेन म्लेच्छधमो ऽवहन्द्यते।।१२ ऄरे ! ईस मह़न् ईत्स़हा, स्व़ऽभम़ना, स्वधमय पर ऄऽभम़न करने व़ले वार के द्ऱऱ मसि लम़नों के धमय क़ ऩि हो रह़ है। क्रमेण़क्रम्य ऽवकट़ां कण्ठारव इव़टवाम।् एष आत्मविो नैव मन्द्यते मम ि़सनम।् ।१३ भय़नक जगं ला ऽसंह के सम़न क्रम़नसि ़र अक्रमण करके यह स्व़ऽभम़ना मेरे ि़सन को स्वाक़र नहीं करत़ है। छलप्रचलऽचत्तस्य खलस्य़स्य सम़श्रय़त।् मम ऽचत्ते ऽचरां िैलः सष्तोऻप्यसष्तत़म।् ।१४ छल-कपट में ऽजसक़ ऽचत्त चल़यम़न है, ऐसे दष्टि के ह़थों में सह्य पवयत क़ होऩ, मेरे मन के ऽलए ऄसहनाय हो गय़ है। महमीदेन ऽपत्ऱ मे यऽद न स्य़त् स व़ररतः। तऽहय स्य़न्द्मऽज्जतोम्भोधौ तेन ऱजपिराश्वरः।।१५ मेरे ऽपत़ महमदी ि़ह, यऽद आसको नहीं रोकते तो यह दडं ़ऱजपरि ा के ऱज़ को समरि में डीब़ देत़। स चन्द्रऱजां ऽनऽजयत्य पित्ऱम़त्यसमऽन्द्वतम।् जयवल्लीं च नगरामग्रहाऽन्द्नरवग्रहः।।१६



206 | पृ ष्ठ



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पत्रि एवं मऽन्त्रयों के स़थ चंरऱव मोरे को जातकर आसने ऽबऩ ऽकसा प्रऽतबंध के जयवल्ला को ऄधान कर ऽलय़। दत्तोऻवरङ्गि़हस्य मय़ यः सऽन्द्धक़म्यय़। नावऽु न्द्नज़मि़हस्य सपवयतवऩकरः।।१७ स तेऩत्मविेऩस्म़नवमत्य प्रत़ऽपऩ। पऱनप्यऽवनातेन प्रसष्त स्वविाकुतः।।१८ सऽन्ध करने की आच्छ़ से मैंने जो औरंगजेब को दगि य, ऄरण्य एवं पवयतों से यि ि प्रदेि ऽदये थे, वे प्रदेि ईस प्रत़पा, विा एवं ईन्मत्त ऽिव़जा ने मेऱ एवं ईन मसि लम़नों क़ ऽतरस्क़र करके बलपवी क य ऄधान कर ऽलये। अतऽकय त़गमोऻभ्येत्य दस्यिवऽु त्तपऱयणः। मत्पत्तनपिरग्ऱम़निद्ठुत्तोऻयां ऽवलिण्ठऽत।।१९ यह लटि ेऱ एवं ब़गा ऽिव़जा ऄच़नक छ़पेम़रा करके मेरे िहर ग़ंव एवं कस्बों को लटी लेत़ है। अहोऱत्रेण पिेण गम्यां पिद्ठयेन च। अत्येऽत स ऽकल़ध्वनां िणेनैव़कितोभयः।।२० एक ऄहोऱत्र में, एक पक्ष में, य़ एक महाने में प़र करने योग्य म़गों को, वह ऽनभयय ऽिव़जा एक क्षण में हा प़र कर लेत़ है। अयां कौम़रम़भ्य ऽनकुऽतप्रकुऽतः स्वयम।् यवऩनवज़ऩऽत ज़ग्रदिग्रपऱक्रमः।।२१ ईग्र पऱक्रमा और ऄपने कपटा स्वभ़व से ज़गरूक ऽिव़जा, कौम़र ऄवस्थ़ से हा यवनों क़ ऄपम़न करते अय़ है। आक्रम्य त़म्रवसत्ऱण़ां नगऱण्यिरुऽवक्रमः। नगरप्रभुतान्द्येष चण्डचण्डमदण्डयत।् ।२२



207 | पृ ष्ठ



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आस ऄत्यन्त पऱक्रमा ऽिव़जा ने मगि लों के िहरों पर अक्रमण करके ऄहमदनगर अऽद िहरों पर भयंकर ि़सन ऽकय़ है। स्थैयं ऽनज़मऱष्रस्य गुहातस्य़ऽप यत्नतः। अऽप ऽदल्लापऽतनैव मनति ेऻस्म़ऽद्ठिङ्ऽकतः।।२३ प्रयत्नपवी क य ऄधान ऽकये गए ऽनज़मि़ह के ऱज्य की ऽस्थरत़ भा ऽदल्ला के ब़दि़ह को आसके भय से संदहे यि ि प्रतात होता है। ऽपत़महेन मे पवी ं ऽपत़ तस्य ऽववऽधयतः। ि़हऱजो दिऽवयनातां तां न ऽििऽयतिां िमः।।२४ पहले मेरे द़द़जा द्ऱऱ प़ऽलत-पोऽर्त ईसके ऽपत़ िह़जा भा ईस ऄऽवनात पत्रि को दण्ड देने में ऄसमथय है। अयां ऽवगुष्त ऽपत्ऱ मे ऽनगुहातां प्रत़ऽपऩ। ि़हऱजां मह़ब़हुबयलनैव व्यमोचयत।् ।२५ मेरे प्रत़पा ऽपत़ ने छ़पेम़रा करके कै द ऽकए गए िह़जा ऱज़ को आस मह़ब़हु ने ऄपने बल से हा मि ि ऽकय़। नो दीयते परभय़दयमल्पवय़ अऽप। अऽतक्ऱमऽत च़प्यस्म़न् ऽवस्म़पकपऱक्रमः।।२६ यह ऄल्प़यि व़ल़ होते हुए भा ित्रि के भय से भयभात नहीं होत़ है, और यह अश्चययजनक पऱक्रमा हम पर हा अक्रमण करत़ है। ऽदने ऽदने वधयम़नः प्रत़पेन सह ऽश्रय़। अयम़श्रायते भीपैऱक़ांऽितसमुऽद्चऽभः।।२७ प्रऽतऽदन प्रत़प एवं संपऽत्त के द्ऱऱ आसके वुऽि को प्ऱप्त होने से धन के आच्छिक ऱज़ आसकी ऄधानत़ स्वाक़र कर रहे हैं।



208 | पृ ष्ठ



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िनैः िनैरेष बला पदां किवयन परि ः परि ः। अस्मऱज्यां सम़ऽच्छद्ट कररष्यऽत ऽकम़त्मस़त।् ।२८ यह बलव़न् ऽिव़जा धारे -धारे पग को अगे बढ़़ते हुए क्य़ हम़रे ऱज्य को भा छानकर अत्मस़त करे ग़? तज्जय़य पिऱ वाऱन् य़न्द्य़न्द्प्ऱस्थ़पयां मिहुः। न प्ऱप्त़ः पिनऱवुऽत्तां ते तां प्ऱप्य प्रत़ऽपनम।् ।२९ पहले ऽजन-ऽजन वारों को, आसको जातने के ऽलए ब़रंब़र भेज़ थ़। वे वार आस प्रत़पा को प्ऱप्त करके पनि ः व़ऽपस नहीं अयें।



ऽनव़यणमररवाऱण़ां किव़यण़ां किव़यणमकितोभयम।् त्व़ां ऽवऩ तस्य जेत़रां ऩन्द्यां पश्य़ऽम कञ्चन।।३० वार ित्रओ ि ं क़ ऩि करने व़ल़ एवं ऽनभयय तेरे ऽबऩ, ईसक़ जातने व़ल़ मझि े दसी ऱ कोइ ऽदख़इ नहीं देत़ है। तस्म़त्वमेव गत्व़ तां कुतदिगयपररग्रहम।् सऽवग्रहां ग्रहऽमव ऽनगुष्त़नय दिग्रयहम।् ।३१ आसऽलए ती हा ज़कर दगि य क़ अश्रय लेकर रहने व़ले ईस दजि यय ऽिव़जा को मऽी तयमत ग्रह की तरह जाऽवत पकडकर ले अ। कवान्द्र उव़च एवमििोऻऽतऽवश्रम्भ़दल्लाि़हेन म़ऽनऩ। प्रोव़च़फजलः प्रात्य़ प्रस्तित़थयमयां वचः।।३२ कवान्र बोल़आस प्रक़र ऄत्यन्त ऽवश्व़स के स़थ ऄऽभम़ना ऄल्लाि़ह के बोलने पर, ऄफजलख़न प्रसन्न होकर वतयम़न क़यय के संबंध में बोल़। 209 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अफजल उव़च ऽवश्रम्भेण़ऽप च प्रेम्ण़ यद़ज़्पयऽत प्रभिः। तस्य कत़य स एव स्य़त् गिणाभीतस्ति ऽकांकरः।।३३ ऄफजलख़न बोल़ – ऽवश्व़स एवं प्रेमपवी यक जो स्व़मा अज्ञ़ देत़ है, ईसक़ कत़य तो स्व़मा हा होत़ है, सेवक के वल ऽनऽमत्तम़त्र है। ऽद्ठषद्ठगयियकरा ज़गऽतय ऽकल य़ मऽय। क़ययम़ऽदित़ स़द्ट िऽिरुत्तेऽजत़ त्वय़।।३४ ित्रओ ि ं के ऩि करने की जो िऽि मेरे में ज़गुत ऄवस्थ़ में ऽवद्यम़न है, ईसको अज अपने मझि े क़यय बत़कर ईसको ज़गुत ऽकय़। उग्ऱय ऽवग्रह़य़स्मै त्वय़ प्रेषयत़ ष्तमिम।् अवैम्यनग्रि हेणैष सङ्गुहातोऻनगि ः स्वयम।् ।३५ ईस पर भयक ि करने के ऽलए तमि ने जो मझि े भेज़ है, म़नो अपने मेरे पर ऄनग्रि ह करके ऄपऩ बऩय़ हो। ं र यि कतयव्यां भुत्यवग़यय स्व़मा चेन्द्नसम़ऽदिेत।् अऽस्त ऩस्ताऽत कस्तऽहय तस्य ज़्स्यऽत पौरुषम।् ।३६ यऽद स्व़मा सेवक को क़यय अदेऽित नहीं करे ग़ तो ईसमें पऱक्रम है य़ नहीं, ईसको कौन ज़नेग़? अहमद्च़ भुिां बद्चव़ स्पध़य करमहऽनयिम।् तमन्द्तकऽमवोद्ठुत्तम़नऽयष्ये तव़ऽन्द्तकम।् ।३७ ऄहऽनयि स्पध़य करने व़ले एवं यमऱज के सम़न दष्टि ऐसे ईस ऽिव़जा को सदृि ढत़ से ब़धं कर अपके समक्ष ल़उंग़। प्रऽवश्य देिां क़ण़यटां ऽनऽजयत़ ितिो नुप़ः। स जयस्तमऽनऽजयत्य जावतो मे ऽनरथयकः।।३८ 210 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



कऩयटक ऱज्य में प्रवेि करके मैंने सैंकडों ऱज़ओ ं को जात़ है, वह मेऱ ऽवजय है, ऽकन्ति यऽद मैंने ऽिव़जा को नहीं जात़ तो मेऱ जावन जाऩ ऽनरथयक है। कवान्द्र उव़च इत्यििवन्द्तमत्यथं समथयबलदऽपयतम।् कतंि प्रऽतश्रितां कमय सद्ट एव समिद्टतम।् ।३९ येऽदलोऻफजलां तत्र प्रस्थ़पऽयतिम़दृतः। तद़ सांभ़वय़म़स बहुऽभः प़ररतोऽषकै ः।।४० कवान्र बोल़आस प्रक़र बोलने व़ले, ऄपने प्रचण्ड िऽि पर ऄऽभम़न करने व़ले और स्वाकु त क़यय को िाघ्र करने के ऽलए ईद्यत, ऐसे ऄफजलख़न को वह़ं प्रेऽर्त करने के ऽलए ईत्सक ि अऽदलि़ह ने ईस समय ऄत्यन्त ईपह़रों को देकर ईसक़ सत्क़र ऽकय़। ततः सरत्नपय़यणपुष्ठ़निष्ऱांस्तिरङ्गम़न।् तथैव़भरणोपेत़न् भरज़तान्द्मतङ्गज़न।् ।४१ तनत्रि ़ऽण ऽिरस्ऱऽण िष्ध़ऽण ऽवऽवध़ऽन च। ऽवऽचत्ऱऽण च वष्ध़ऽण ऽनज़ऽन ऽबरुद़ऽन च।।४२ ऽतरस्कुतऽवम़ऩऽन य़प्यय़ऩन्द्यनेकध़। रौप्य़न् रौसम़ांश्च पययङ्क़न् करङक़ांश्च पतद्ग्रह़न।् ।४३ रत्नोत्तांस़नथोमिि़स्रजोहाऱङ्गद़ऽन च। कटक़न्द्यीऽमयक़श्च़ऽप ऽचत्ररत्नचय़ांऽकत़ः।।४४ तथ़ द्ठाप़न्द्तरोत्थ़ऽन ज़ऽतश्रेष्ठ़न्द्यनेकिः। अल्लाि़ह़दफजलः प्ऱपत्कोष़ांश्च क़ऽटिः।।४५



211 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तत्पश्च़त् रत्नों से पररपणी य क़ठा व़ले उंट एवं घोडे, ईसा प्रक़र ऄलंक़रों से यि ि भर ज़ऽत के ह़था, ऄनेक प्रक़र के कवच, मक ि ि ट एवं िह्ल और ऽवऽचत्र वह्ल, स्वयं की ऽबरुंदे, ऽवम़नों को भा ऽतरस्कु त करने व़ला ऄनेक प्रक़र की प़लऽकय़,ं च़दं ा एवं सोने के पलगं , प़न एवं सपि ़रा के बक्से, रत्नों के ऽिरोभर्ी ण मोऽतयों की म़ल़, हारे के ब़जबी ंद, कडे ऄनेक रंगान रत्नजऽडत ऄंगऽि ठय़ं, ईसा प्रक़र दसी रे देिों में होने व़ले ऽवऽभन्न ज़ऽतयों के ऄनेक ईत्कु ष्ट पद़थय और ऄरबों क़ खज़ऩ ऄल्लाि़ह से ऄफजलख़न को ऽमल़। वज्रध़ऱऽमव ऽित़ां रत्नकोषऽनवेऽित़म।् ऽनज़ां प़ऽणऽस्थत़ां प्ऱद़त्प्रभिस्तस्मै कुप़ऽणक़म।् ।४६ वज्र की ताक्ष्णत़ के सम़न पैना, रत्नजऽडत म्य़न में रखा हुइ, ऄपने ह़थ में ऽस्थत स्वयं की कट़र ऄल्लाि़ह को दा। स्व़ऽमनैव़थ ऽवन्द्यस्त़ां प्रेम्ण़ स़रसऩन्द्तरे। सरत्नकोष़भरण़ां स बभ़व कट़ररक़म।् ।४७ ऽफर स्व़मा ने हा प्रेमपवी क य ईसके कमर के पट्टे में लटक़इ हुइ, रत्नजऽडत म्य़न में ऽस्थत एवं अभर्ी णों से यि ि कट़र को ध़रण ऽकय़।



ततः पिनः पिनस्तस्मै प्रात्य़ प्ऱस्थ़नक़ऽलकीः। कुत्व़ नतारफजलः प्रचच़ल़चलोपमः।।४८ तत्पश्च़त,् प्रस्थ़न क़ समयोऽचत ईसको ब़रंब़र प्रेमपवी क य मजि ऱ करके वह पवयत के सम़न ऄफजलख़न चलने लग़। प्रचलन्द्तममिां त़वत् प्रणमन्द्तां मिहुमयिहुः। पदे पदेऻनिजग्ऱह ऽदिन्द्नािो दय़दृिम।् ।४९ ब़रंब़र मजि ऱ करने व़ले एवं प्रस्थ़न ऽकये हुए ईस ऄफजलख़न पर पग-पग पर कु प़दृऽष्ट ड़लकर स्व़मा ने कु प़ की।



212 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तां वारम़न्द्यां सेऩन्द्यां स ऽवध़य मह़मऩः। अन्द्य़नमीांश्चमीऩथ़ांस्तत्स़ह़य्ये सम़ऽदित।् ।५० ईस महत्व़क़ंक्षा अऽदलि़ह ने ईस वारम़न्य ऄफजलख़न को सेऩपऽत बऩकर, दसी रे सेऩऩयक को भा ईसकी सह़यत़ करने क़ अदेि ऽदय़। अम्बरः िम्बरसमः प्रत़पा य़कितः पिनः। मह़म़ना मिखेख़नः पठ़नो हसनोऻऽप च।।५१ रणदीलहसीनिश्च रणदीलहसांज्कः। तथैव़ङ्कििख़नोऻऽप ऽनरङ्कििगजक्रमः।।५२ बबयरः खेलकणयस्य प्ऱप्तो यः क्रीतपत्रि त़म।् स ऽहल़लो मह़ब़हुः प्रत्यऽथयरिमकिञ्जरः।।५३ इत्येतेऻन्द्ये च यवऩः ससैन्द्य़ः ससिरृरण़ः। सद्टः स्व़ऽमसम़ऽदष्ट़ः तां सेऩपऽतमन्द्वयिः।।५४ िबर ऱक्षस के सम़न ऄबं र और प्रत़पा य़कित, ऄऽभम़ना मसि ेख़न, हसन पठ़ण, रणदल्ि ल़ख़न क़ रणदल्ि ल़ ऩमक पत्रि ऽनरंकिि ह़था के सम़न ऄक ि पा वुक्षों ं ि िख़न भा, खेलकणय क़ खराद़ गय़ पत्रि बबयर और ित्ररू के ऽलए ह़था के सम़न मह़ब़हु ऽहल़ल और सेऩ से एवं ऽमत्रों के समदि ़य से यि ि दसी रे मसि लम़न िाघ्र हा स्व़मा की अज्ञ़ से ईस सेऩपऽत के पाछे गये। ऽजत़नेकप्रऽतभट़ः प्रसभां समरोद्झट़ः। घोरकमयकुतो घोरफट़ अऽप तमन्द्वयिः।।५५ प़ण्डरो ऩयकश्चैव खऱटोऻऽप च ऩयकः। कल्य़णय़दवश्च़ऽप नैकसैऽनकऩयकः।।५६ समिद्टद्टिद्चसांरम्भो मम्बो भुिबलस्तथ़। ऽवश्वऽवश्रति कम़यणो घ़ऽण्टक़ः क़ऽण्टक़ अऽप।।५७ 213 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



इत्येतेऻन्द्ये च ऱज़नः स़मन्द्त़श्च सहस्रिः। चतिरङ्गचमीयिि़स्तां सेऩपऽतमन्द्वयिः।।५८ ऽजसने बलपवी क य ऄनेक ित्रओ ि ं जात़ है, ऐस़ यि ि में ऽनपणि , भयक ं र क़यय क़ कत़य, घोरपडे भा ईसके पाछे पड गय़। प़ंढरे ऩइक, खऱटे ऩइक, ऄनेक सैऽनकों क़ ऩयक कल्य़ण य़दव, ऽजसके यिि क़ अवेि प्रचंड है ऐस़ मबं ़जा भोसले, जगत् प्रऽसि पऱक्रम के कत्त़य घ़ंटगे एवं क़ंटे और दसी रे ऱज़ एवं हज़रों स़मन्त चतरि ं ऽगना सेऩ के स़थ ईस सेऩपऽत के पाछे गये। ततः क़त़यऽन्द्तक़ऽदष्टे समये तस्य गच्छतः। अभव्यिांसान्द्यभवन्द्दिऽनयऽमत्त़न्द्यनेकिः।।५९ तत्पश्च़त् ज्योऽतर्ा द्ऱऱ कऽथत महि तय पर प्रस्थ़न ऽकये हुए ईसको ऄिभि सची क ऄनेक ऽचह्न ऽदख़इ ऽदये। स पिप़तां क्रोिन्द्तः प्रक़मां व़मग़ऽमनः। वुधेऽत कथय़म़सिव़ययस़स्तस्य स़हसम।् ।६० बत भेजे ऽदऩधेऻऽप भ़निरस्पष्टभ़नित़म।् प्रजज्व़लेव़न्द्तररिां बभीविधयस ी ऱ ऽदिः।।६१ सहसैव महत्यिल्क़ ऽनपप़त ऽदवस्तट़त।् धनां ऽवनैव च व्योम्न बभीव़िऽनऽनस्वनः।।६२ वव़ऽिरे प्रऽतभयां ऽदिमैन्द्रीं ऽश्रत़ः ऽिव़ः। भङ्गम़प ध्वजो य़ऩन्द्यप्ररृष्ट़ऽन च़भवन।् ।६३ अव़प सदृिरेणि वषीव़तः प्रतापत़म।् बभ्ऱम़ग्रे प्रणिन्द्नोऻऽप व़रणः पतु ऩग्रणाः।।६४ पंखों को फडफड़कर ईच्चध्वऽन करने व़ले एवं ब़इ तरफ से ज़ने व़ले कौवों ने ईसक़ स़हस बेक़र है, ऐस़ बत़य़, मध्य़ह्न में हा सयी य ऄस्पष्ट ऽदखने लग़, ऄन्तररक्ष म़नों प्रज्ज्वऽलत हो गय़ हो, ऽदि़एं मऽलन हो गइ, एक बडा ईल्क़ अक़ि से ऄच़नक ऽगर गइ, ब़दलों के ऽबऩ हा अक़ि में अक़िाय ऽवद्यति गरजने लगा। पवी य ऽदि़ में 214 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



लोमऽडय़ं भयंकर अव़ज करने लगा, ध्वज टीट गय़ और य़न खऱब हो गये, कंकड, धल ी की वऱ्य करने व़ला व़यि ऽवपरात बहने लगा, सेऩ क़ ऄऽग्रम ह़ंथा ऄक ं ि ि के प्रह़र के ऽबऩ हा अगे दौडने लग़। यद्टप्येत़ऽन च़न्द्य़ऽन तऽन्द्नऽमत्त़न्द्यव़रयन।् तथ़ऽप सरणोत्य़हां ऩमिञ्चन्द्नमिऽचययथ़।।६५ आस प्रक़र के एवं ऄन्य ऽनऽमत्तों के द्ऱऱ ईसके म़गय को रोकने पर भा ईसने आन्र के सम़न यि ि के ईत्स़ह को नहीं छोड़। ततः स प्रऽस्थतस्तस्म़त्पत्तऩऽद्ठजय़ष्दय़त।् योजऩधयऽमते देिे वसऽतां स्व़मकल्पयत् ॥ ६६ ॥ ऽफर ऽबज़परि से प्रस्थ़न ऽकये हुए ईस ऄफजलख़न ने अधे योजन पर ऄपऩ ऽनव़सस्थ़न बऩय़। तत्ऱगत़ऽभरऽभतो व़ऽहनाऽभः समऽन्द्वतः । स ऽनवेिोन्द्मिखः सैन्द्यव्यीहोम्भोऽधररव़वभौ ॥ ६७ ॥ वह़ं च़रों ओर से अइ ंहुइ ंसेऩओ ं से यि ि यह ऽनव़सस्थ़न बऩने के ऽलए ईत्सक ि सेऩसमही समरि के सम़न प्रतात हुअ। मह़हयवणैरुच्ऱयच्छ़ऽदतव्योममण्डलैः । नवैरुत्तऽम्भतस्तम्भैमयऽण्डतां पटमण्डपैः ॥ ६८ ॥ प्रोल्लसत्क़ण्डपटकप्ऱक़रमयमण्डपम् । ऽवऽचत्ऱसनऽवस्त़रप्रस्त़ररतसभ़न्द्तरम् ॥ ६९ ॥ पिञ्जाकुतेष्टभीऽयष्ठवस्तिसम्भ़रभ़सिरम् । उच्चै रुत्त़ऽनतोल्ल़त्र प्रच्छ़य़ऽञ्चतचत्वरम् ॥ ७० ॥ अऽवदीर पिरोदेिद्ठयानद्चतिरङ्गमम् । समदऽद्ठदव्यीहबुांऽहतस्पुष्टऽदिटम् ॥ ७९ ॥ ज़गरूकै रहोऱत्रां गिऽटक़यन्द्त्रध़ररऽभः । 215 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



कोदऽण्डऽभस्तथ़न्द्यैश्च खड्गखेटकप़ऽणऽभः ॥ ७२ ॥ अप़रैश्च तथ़ प़रश्वऽधकै ः िऽिहेऽतकै ः । अऽभगिप्त़ष्टऽदग्ब्भ़गमऽभतऽस्थऽति़ऽलऽभः ॥ ७३ ॥ तदनेक़नकोदग्रव़द्टऽनघोषभाषणम् । तत्तत्क़ययऽवऽधव्यग्रजनकोल़हल़किलम् ॥ ७४ ॥ यथ़स्थ़नऽस्थत़िेषजनलब्धसख ि ोदयम् । सैन्द्यां सैन्द्यपऽतः सवे गरुि गवं व्यलोकत ॥ ७५ ॥ नवान कपडों के खडे ऽकये गए खभं ों से सि ि ोऽभत मण्डप की ईंच़इ से अक़ि को ढ़कने व़ले तबं ओ ि ं से वह सेऩ सि ि ोऽभत था। ऄनेक रंगों से रंगान बैठकें सभ़मण्डप के ऄदं र फै ला हुइ था, पसंदाद़ ऄनेक वस्तओ ि ं से ऽनऽमयत समहि ों से वह सि ि ोऽभत थ़, ईंचे छतों की छ़य़ से ईसके ऄदं र क़ प्ऱंगण िोभ़यम़न थ़, समाप हा ऄग्रभ़ग पर घोडे बधं े हुए थे, मदमस्त ह़ऽथयों के समही के गजयन से ऽदि़एं पररपणी य हो गइ था, ऄहऽनयि रक्ष़ करने व़ले बदं क ी ध़रा, धनधि ़यरा, ढ़ल एवं तलव़रों को ध़रण करने व़ले, ऄनऽगनत परिधि ़रा, भ़ल़ ध़रण करने व़ले, ऐसे ऄनेक व्यऽि अस-प़स खडे होकर ईसकी अठों ऽदि़ओ ं से रक्ष़ कर रहे थे, ऄनेक नग़डों एवं प्रचडं व़द्यों की ध्वऽन से वह भयक ं र प्रतात हो रह़ थ़, ऄनेक प्रक़र के क़यों में व्यि क़रागरों के कोल़हल से वह व्य़प्त हो गय़, ऄपने योग्य स्थ़न पर रहने व़ले सभा लोग अनऽन्दत थे, आस प्रक़र की सेऩ को सेऩपऽत ने गवय के स़थ देख़। सांग्ऱमे स़ऽभम़नः स भुिमफजलः स्व़ऽमनो लब्धम़नः । िौययश्रािोभम़नः सपऽद भुिबलां भीपऽतय जेतिक़मः । दिदैव़कुष्टऽवत्तः पऽथ पऽथ पररतो दिऽनयऽमत्त़ऽन पश्यन् । वैऱटां ऱष्रमन्द्तगयतगरुि ऽनकुऽतः ऽिप्रमभ्य़सस़द ॥ ७६ ॥ यि ि में ऄऽभम़ना, स्व़मा से ऄत्यऽधक सम्म़न प्ऱप्त ऽकय़ हुअ। िौयय एवं लक्ष्मा से िोभ़यम़न, भोसले ऱजे को िाघ्र जातने क़ आच्छिक, दभि ़यग्य से व़ऽपस लौट़य़ गय़ वह ऄफजलख़न पग-पग पर खऱब ऽनऽमत्तों को देखत़ हुअ और ऄतं करण में बडे कपट को छिप़कर व़इ प्ऱंत को िाघ्र प्ऱप्त हो गय़। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे ऽनऽधव़सकरपरम़नन्द्दकवान्द्र प्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्य़ां सऽां हत़य़ां अफजल़भ्य़गमो ऩम सप्तदिोऻध्य़यः ॥१७॥ 216 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-१८ मनाऽषण उचिः उपेक्ष्य स खलः कस्म़ऽच्छवां पण्ि यपरि ऽस्थतम।् वैऱटमेव ऽवषयां ययौ सेऩसमऽन्द्वतः।।१ १. पऽण्डत बोले - पणि े िहर में रहने व़ले ऽिव़जा की ईपेक्ष़ करके वह दष्टि ऄपना सेऩ के स़थ वैऱट प्रदेि ऽकस क़रण से गय़? कवान्द्र उव़च स़हङ्क़रऽश्िवां जेतिां स क़लयवनद्टिऽतः। यवनोऻफजलस्तीणं प्रऽस्थतः स्व़ऽमि़सऩत।् ।२ वैऱटमेव ऽवषयां प्ऱऽविद्टेन हेतिऩ। तमहां सप्रां वक्ष्य़ऽम िण ु िध्वां भो मनाऽषणः।।३ २-३. कवान्र बोले- ईस घमण्डा एवं क़लयवन के सम़न तेजस्वा ऄफजलख़न यवन ने ऽिव़जा को जातने के ऽलए, स्व़मा की अज्ञ़ से िाघ्र प्रस्थ़न करके वैऱट प्रदेि में हा ऽकस क़रण से प्रवेि ऽकय़ वह मैं बत़त़ ह,ं हे पऽण्डतों ध्य़न से सनि ो। ऽनगुष्त ब़जऱजां तां कुष्णऱजां च दिमयदम।् जनकां च तयोश्चन्द्रऱजम़जौ महौजसम।् ।४ अव्यिवतयनायिि़ां सष्तपययन्द्तवऽतयनाम।् अटवाप्ऱयऽवषय़ां मह़दिगयसम़श्रय़म।् ।५ उऽन्द्नरसैऽनकोदग्ऱमऽरप्ऱक़रमध्यग़म।् जयवल्लीं ऩम पिरीं अग्रहाद्ङिग्रयह़ां ऽिवः।।६ 217 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



४-६. ब़जऱज एवं ईन्मत्त कु ष्णऱज और ईन दोनों के ऽपत़ मह़न् बलव़न् चन्रऱज को यिि में म़र करके , गप्ति म़गय से यि ि , सह्य़रा के ऽकऩरे बसा हुइ, सघन वुक्षों से यि ि तथ़ ऽकले के अश्रय से यि ि , ज़गरुक सैऽनकों के क़रण से भयक ं र एवं पवयतों के मध्य में ऽस्थत, ऐसा जयवल्ला ऩमक दजि ये नगरा को ऽिव़जा ने ऄऽधग्रहात ऽकय़।



ये येऻत्र चन्द्रऱजस्य सह़य़श्च सऩभयः। त़ांस्त़नि़तयद्ठारः ऽिवः िऽिमत़ां वरः।।७ ७. जो-जो चन्रऱज के सह़यक एवं सगे संबन्धा थे, ईन सबको बलव़नों में बलि़ला ईस वार ऽिव़जा ने क़ट ऽदय़। तद़ प्रत़पवम़ययश्चांरऱजस्य ब़न्द्धवः। पल़ऽयतऽश्िवभय़द्टेऽदलां प्रत्यपद्टत।।८ ८. तब चन्रऱज क़ बन्धि जो प्रत़पवम़य थ़ वह ऽिव़जा के भय से अऽदलि़ह के प़स चल़ गय़। चन्द्रऱजपद़क़ांिा मांत्रऽवन्द्मऽन्द्त्रऽभययितम।् येऽदलां प्राणय़म़स ऽचरां स पररचययय़।।९ ९. चन्रऱज के ऱज्य की अक़क्ष ि अऽदलि़ह की ऽचरक़ल ं ़ करने व़ले ईस प्रत़प वम़य ने, मऽन्त्रवत् मऽन्त्रयों से यि तक सेव़ करके ईसको संतष्टि ऽकय़। तां देिां चन्द्रऱजस्य मह़वनसम़श्रयम।् तस्म़द़ऽच्छद्ट नुपतेद़यस्य़ऽम भवते रिवम।् ।१० येऽदलस्येऽत वचस़ तद़ सोऻपरृतव्यथः। चक़ऱफजलस्य़ऽभक्रमकमय सह़यत़म।् ।११ १०-११. ऽवि़ल वन में ऽस्थत ईस चन्रऱज के ऱज्य को ईस ऽिव़जा ऱज़ से ऽछनकर तझि े ऄवश्य हा दगंी ़। आस प्रक़र अऽदलि़ह के कहने पर वह ऄपना पाड़ से रऽहत होकर ईसने ऄफजलख़न के अक्रमण के क़यों में सहयोग ऽकय़। ततोऻऽभम़ऽनऩ तेन चन्द्रऱजसऩऽभऩ। भेदां ऽनवेद्ट़फजलो वैऱटां समनायत।।१२ 218 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



१२. ऽफर चन्रऱज के ईस ऄऽभम़ना बन्धि ने भेद बत़कर ऄफजलख़न को बैऱट लेकर अय़। जयवल्ला वि़ यस्य वैऱटां तस्य सवयथ़। तथ़ सष्त़ऽररऽखलः स़न्द्तरापश्च स़गरः।।१३ इऽत मत्व़ स यवनस्त़मेव़द़तिम़ऽदतः। समिद्टतो मह़ब़हुरियतां वैऱटम़ययौ।।१४ १३-१४. ऽजसके ऄधान जयवल्ला हैं, ईसके ऄधान पणी यरूप से व़इस प्ऱन्त है। ईसा प्रक़र सम्पणी य सह्य़ऽर एवं समरि तट भा है, ऐस़ ऽवच़र करने पर वह मह़ब़हु यवन, ईसको ऄधान करने के ऽलए परी ा तैय़रा के स़थ िाघ्र व़इस प्रदेि अय़। ततस्समेत्य सैन्द्येन वैऱटां ऱष्रम़ऽस्थते। यवनेऻफजले तीणं जयवल्लीं ऽजघुिऽत।।१५ ऽिवऱजः कुता तत्र प्रताक़रपऱयणः। प्रभिः प्रभीतदपयत्व़ऽददम़त्मन्द्यऽचन्द्तयत।् ।१६ १५-१६. ऽफर सेऩ से स़थ व़इस प्ऱन्त अकर वह ऄफजलख़न यवन जयवल्ला को िाघ्र ऄधान करने क़ आच्छिक थ़, ईस समय प्रऽतरोध करने में तत्पर वह चतरि ऽिव़जा बडे ऄऽभम़न के स़थ यह मेरे ऽलए है, ऐस़ ऽवच़र करने लग़। येऽदलेन ऽवसष्टु ोऻसौ मऽय रुष्टेन म़ऽनऩ। कररष्यत्य़त्मसदृिां पौरुषां पौरुषक्रमः।।१७ स एष यवनो यस्य दिनययेन गरायस़। अहो कऽलयिगस्य़स्य म़ह़त्म्यमिपचायते।।१८ १७-१८. मेरे पर क्रोऽधत हुए ईस ऄऽभम़ना अऽदलि़ह के द्ऱऱ प्रेऽर्त यह पऱक्रमा ऄफजलख़न ऄपने िऽि के सम़न पऱक्रम करे ग़। ऄरे ! ऽजसके ऄत्यन्त दष्टि त़ के क़रण आस कऽलयगि क़ म़हत्म्य वुऽि को प्ऱप्त हो रह़ है, वहा यह यवन है। दिनययेन भुिां येन ऽनििम्भसमतेजस़। 219 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अव़ज़्यत वै देवा तिलज़परि व़ऽसना।।१९ यः सदैव़नऽस्तदयो रोषणो ऱऽिरांहस़म।् ऽद्ठज़नऽिगत़नऽिगत़ऽनव ऽजघ़ांसऽत।।२० पवयतः प़तकस्येव सवयतः समिदोद्चतः। पद्चऽतां वणयधम़यण़ां रोद्चिां तो ऽह व्यवऽस्थत:।।२१ ऽनषेद्च़ सवयधम़यण़मधम़यण़ां ऽववधयक:। स मय़ हन्द्त हतां व्यः स मय़ समिप़गतः।।२२ १९-२२. ऽनिभंि की तरह तेजस्वा ईस दष्टि ने तळ ि ज़परि की भव़ना क़ बड़ ऄपम़न ऽकय़, जो सदैव ऽनदयया एवं क्रोधा होने के क़रण से प़पों क़ ऱऽि है, म़नो अख ं में गये हुए ऽतनके सम़न ब्ऱह्मणों को देखते हा म़रने क़ आच्छिक है, म़नो प़तक क़ पवयत हा हो, जो मदमस्त, वण़यश्रमधमों को पणी रू य प से नष्ट करने के ऽलए ईद्यि ि है, जो सभा धमों क़ ऽनर्ेध करके ऄधमय की वुऽि कर रह़ है, ऐसे ईस समाप अये हुए ऄफजलख़न को मझि े म़रऩ हा च़ऽहए। हऽवः प्रकुतयो ग़वः पयस़ सऽपयष़ऽप च। ऽवधये सप्ततन्द्तीऩां ऽवऽधऩ ऽवऽहत़ भिऽव।।२३ २३. यज्ञ के ऽलए दधि एवं घा आन हऽव के रव्यों की पऽी तय के ऽलए ब्रह्मदेव ने पुथ्वा पर ग़यों क़ ऽनम़यण ऽकय़ है। त़स़मसौ त़मस़त्म़ हन्द्त़ हन्द्त ऽदने ऽदने। ऽवपय़यसऽयतिां धमयमिेषमऽप व़ञ्छऽत।।२४ २४. ईनको यह तमोगणि ा ऄफजलख़न ऄरे ! प्रऽतऽदन म़र करके धमय क़ ऽवऩि करऩ च़हत़ है। इयां वसिन्द्धऱ देवा धमेण खलि ध़ययते। रिवां स ध़ययते देवैस्तेऻध़ययन्द्त ऽद्ठज़ऽतऽभः।।२५ २५. यह वसंधि ऱ देवा व़स्तव में धमय के संयोग से ध़रण की ज़ता है, और वह धमय ऽनःसंदेह देवों द्ऱऱ रऽक्षत होत़ है। अतस्सवयस्य लोकस्य मीलमेते ऽद्ठज़तयः। प़लनाय़ः प्रयत्नेन पीजनाय़श्च सवयद़।।२६ 220 | पृ ष्ठ



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२६. आसऽलए आस सम्पणी य संस़र के अध़र ऐसे ब्ऱह्मणों क़ सवयद़ प्रयत्नपवी क य प़लन एवं सत्क़र करऩ च़ऽहए। सिऱण़ां भीसिऱण़ञ्च सिरभाण़ां च प़लनम।् ऽवदध़म्यहमेव़द्च़ भीत्व़ भीत्व़ यिगे यिगे।।२७ २७. देवों क़ ब्ऱह्मणों क़ और ग़यों क़ प़लन मैं हा प्रत्यक्ष प्रत्येक यगि में ऄवत़र लेकर करत़ ह।ं येऩम्भोऽनऽधम़ऽवश्य ऽबभ्रत़ मानरुपत़म।् हतः िख ां ़सरि ः सख् ां ये श्रति यश्च़प्यिप़रृत़ः।।२८ अध़ररमन्द्दरो येन पुष्ठे स्वे कमठ़त्मऩ। तथ़च़ध़रत़मेत्य व्यध़ऽय वसिध़ ऽस्थऱ।।२९ उद्रृत्य वसिध़ां सद्टः समिऱद्ङष्ां रय़ स्वय़। येन व़ऱहरुपेण ऽहरण्य़िो ऽनषीऽदतः।।३० हरेययवायस़ येन हररण़ ह्रस्वरुऽपण़। अलां छलां कलयत़ बऽलनीतो रस़तलम।् ।३१ आऽवभयीय सभ़स्तम्भ़न्द्नरऽसांहत्वमायिष़। व्यद़रर करजैयैन ऽहरण्यकऽिपोरुरः।।३२ भुगिवांि़वतांसेन रैणिकेयेन येन वै। क़तयवायं ऽनहत्य़जौ कुत़ ऽनःिऽत्रय़ महा।।३३ येन द़िरथाभीय ऽनबद्च़म्भोऽधसेतिऩ। द़िकण्ठऽिरः श्रेणा िरेणैकेन प़ऽतत़।।३४ वुऽष्णवांि़वतांसेन येन िीरेण िौररण़। धमं व्यवस्थ़पयत़ हत़ः कांस़दयः खल़ः।।३५ सः ऽवष्णिस्सवयदेव़ऩां सवयस्वमहमाश्वरः। 221 | पृ ष्ठ



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हतंि भ़रऽममां भीमेऱऽवभयीतोऽस्म भीतले।।३६ २८-३६. ऽजसने समरि में प्रवेि कर मत्स्यरूप ध़रण करके यि ि में िख ं ़सरि को म़र ऽदय़ एवं वेदों को पनि ः ल़य़, ऽजसने कछिए क़ रूप ध़रण करके मदं र पवयत को ऄपने पाठ पर ध़रण ऽकय़ और पुथ्वा क़ अध़र बनकर ईसको ऽस्थर ऽकय़, ऽजसने वऱह क़ रूप ध़रण करके ऄपने ताक्ष्ण द़ंतो से पुथ्वा को समरि से ब़हर ऽनक़लकर ऽहरण्य़क्ष को म़र ऽदय़, ऽजस आन्ऱनजि ऽवष्णि ने व़मन ऄवत़र लेकर पणी यतय़ छल करके बला को रस़तल में ले गय़, जो सभ़मण्डप के खम्भे के मध्य से नरऽसंह रूप में प्रकट होकर ऄपने ऩखनी ों से ऽहरण्यकऽिपि क़ वक्षःस्थल ऽवदाणय कर ऽदय़, ऽजस भुगवि ंि के भर्ी ण रे णि क़ पत्रि परिरि ़म ने क़तयवायय क़ ऽवऩि ऽकय़ और पुथ्वा को ऽनःक्षऽत्रय ऽकय़, ऽजसने दिरथ क़ पत्रि बनकर समरि पर सेति ब़धं ़ थ़ एवं एक हा ब़ण से दस मस्तकों को क़ट ऽदय़, ऽजसने वुऽष्णवि ं क़ भर्ी ण बनकर िरी सेन के किल में जन्म लेकर कंस़ऽद दष्टि म़र ऽदये थे एवं धमयस्थ़पऩ की, वहा सभा देवों क़ सवयस्व मैं ऽवष्णि हा हं और सम्पणी य पुथ्वा क़ भ़र हरण करने के ऽलए पुथ्वा पर प्रकट हो गय़ ह।ं यवऩऩममा वि ां ़ः सवेप्यि ां ़स्सरि ऽद्ठष़म।् जगतीं ऽनजधमेण ऽनमज्जऽयतिमिद्टत़ः।।३७ ३७. यवनों के ये सभा वि ं ऄसरि ों के ऄि ं होते हैं। ये ऄपने धमय के योग से पुथ्वा को डिब़ऩ च़हते हैं। तस्म़देत़न् हऽनष्य़ऽम द़नव़न् यवऩकुतान।् प्रथऽयष्य़ऽम धमयस्य पन्द्थ़नमकितोभयम।् ।३८ ३८. ऄतः आन यवनरूपा ऱक्षसों को मैं म़रुंग़ और धमय क़ ऽनभयय म़गय प्रिस्त करुंग़। जयवल्लावनां घोरां गुहां कण्ठारवस्य मे। ऽविऽन्द्नधनम़गांत़ ऽद्ठषन्द्नफजलो गजः।।३९ ३९. जयवल्ला क़ यह सघन वन हा मझि ऽसहं की गफ ि ़ है, वह़ं प्रवेि करने व़ल़ यह ित्रि ऄफजलरूपा ह़था ऽनऽश्चत हा ऽवऩि को प्ऱप्त होग़। समित्पतन्द्पिबल़दलऽितऽनज़न्द्तकः। पतङ्ग इव म़ां लब्ध्व़ स वै ऽनधनमेष्यऽत।।४० ४०. ऄपने अतंक को न देखने व़ल़ पंखों के बल पर ईडने व़ले पक्षा के सम़न वह मेरा च़ल में फंसकर ऽनऽश्चत मुत्यि को प्ऱप्त होग़। 222 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



इऽत ऽचत्ते ऽवऽनऽश्चत्य स ऽिवः परुि षोत्तमः। सऽन्द्दश्य ऽनजसेऩन्द्यां ररपिऱऱष्रऽवकषयणे।।४१ नऱनऽधकुत़ांस्तत्तत्क़येष्ववऽहत़न् ऽहत़न।् ऽनयिज्य ऽनजऱष्रस्य दिग़यण़ां च़ऽभगिप्तये।।४२ स्वयां ष़ड्गिण्यऽनपिणः परवारऽवमदयनः। परातः पऽत्तसैन्द्येन जयवल्लामिप़गमत।् ।४३ ४१-४३. ऐस़ मन में ऽनश्चय करके ईस परुि र् श्रेष्ठ ऽिव़जा ने ऄपने सेऩपऽत को ित्रि के ऱज्य क़ ऽवध्वसं करने क़ अदेि देकर तथ़ ऄपने ऱज्य को एवं दगि य की रक्ष़ करने में ऽनपणि , ऽहतक़रा ऄऽधक़रा लोगों को ऽनयि ि करके , सऽं धऽवग्रह अऽद छः गणि ों में ऽनपणि एवं ित्रवि ारों क़ मदयन करने व़ल़ वह ऽिव़जा स्वतः पद़ऽत सेऩ के स़थ जयवल्ला अय़। अथ गिप्तेंऽगत़क़रमप़रभिजपौरुषम।् प्रतातमन्द्यैरऽजतां िऽित्रयसमऽन्द्वतम।् ।४४ जयवल्लामऽधष्ठ़य स्वयां योद्चिमवऽस्थतम।् सन्द्नद्च़नाकऽनवहां ऽनिम्य़फजलऽश्िवम।् ।४५ व्यसुजद्ठ़ऽचकां तस्मै सव़यथयऽवदिषे यथ़। तथ़ ऽनिम्यत़ां सवं ऽवबिध़ः कथय़ऽम वः।।४६ ४४-४६. ऽफर ऽजसक़ ऄऽभप्ऱय गप्ति है, ऽजसक़ ब़हुपऱक्रम ऄप़र है, जो ित्रिओ ं के ऽलए ऄजेय है, जो प्रभ़व ईत्स़ह एवं मन्त्र आन तान िऽियों से यि ि है, ऽजसक़ सेऩ-समही तैय़र है, ऐस़ वह ऽवख्य़त ऽिव़जा जयवल्ला में ऄऽधऽष्ठत होकर स्वयं यि े ि के ऽलए तैय़र होकर बैठ़ है, ऐस़ सनि कर ईस सव़यथय कििल ऽिव़जा को ऄफजलख़न ने जो संदि भेज़ थ़। हे पऽण्डतों! वह मैं तिम्हें बत़त़ ह,ं सनि ो। अफजल उव़च ऽवदध़ऽत यदौद्चत्यां भव़नद्ट पदे पदे। तद्टेऽदलस्य रृदये भजते िल्यरूपत़म।् ।४७ 223 | पृ ष्ठ



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४७. ऄफजलख़न बोल़ - अज जो अजकल पग-पग पर ईद्दडं त़ कर रह़ है वह अऽदलि़ह के ऄतं ःकरण में क़टे की तरह चभि रह़ हैं। गते ऽनज़मे ऽवलयां गऽमतः स्वायत़ां स्वयम।् येऽदलेन ऽवताणोयस्त़म्रेभ्यः सऽन्द्धक़म्यय़।।४८ स एष ऽवषयस्तेष़ां ऽगररदिगयसम़श्रयः। गुहातस्सांगुहातश्च ि़हऱज़त्मज त्वय़।।४९ ४८-४९. ऽनज़मि़ह के ऽवलय के ऽलए चले ज़ने पर स्वयं हस्तगत ऽकये हुए मख्ि यप्रदेि को अऽदलि़ह से संऽध करने की आच्छ़ से मगि लों को ऽदय़, वह पवयत ऽकलों से पररपणी य प्ऱन्त के ऽिव़जा ऱज़ ने ऄपने ऄधान कर ऽलय़ है। भवत़ सततां ल़भवत़ तत्र पदे पदे। गुहातऽवषयः क्रिद्चो रुद्चो ऱजपिराश्वरः।।५० ५०. वह़ं पर ऽनरन्तर भ़ग्यि़ला तमि ने पग-पग पर मल ि ख ी प्ऱन्त को ऄधान करके , क़ऱग़र में ड़ल देने से दण्ड़परि ा क़ ऱज़ क्रिि तथ़ रुष्ट हैं। त्वयेदां चण्डऱजस्य ग़ढमन्द्यदिऱसदम।् अऽभक्रम्य च ऽवक्रम्य प्ऱज्यां ऱज्यां रृतां हठ़त।् ।५१ ५१. ित्रओ ि ं के ऽलए ऄजेय चन्रऱज़ के ऽवस्ताणय ऱज्य पर पऱक्रम के स़थ अक्रमण करके तमि ने वह बल़त् हरण कर ऽलय़। त्वय़ गुहात्व़ कल्य़णां तथ़ भामपरि ामऽप। यवऩऩां मह़ऽसऽद्चऽनलय़ः ऽकल प़ऽतत़ः।।५२ ५२. कल्य़ण और भामपरि ा को भा ऄधान करके अपने यवनों के मऽस्जदों को ऽगऱ ऽदय़। ५३. तिभ्यां किप्यऽन्द्त तेऻद्ट़ऽप यवऩः पवऩिऩः। अपरृत्य़ऽप सवयस्वां कुत़ येष़ां ऽवडम्बऩ।।५३ ५३. ऽजसके सवयस्व को हरण करके अपने ईसको पाड़ दा था, वे यवनरूपा स़ंप अज भा तमि पर क्रोऽधत है। 224 | पृ ष्ठ



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ऽनगष्त ु यवऩच़य़यनऽवच़य़यत्मनो बलम।् प्रऽतबध्ऩस्यऽवद्च़ऩमध्व़नमकितोभयः।।५४ ५४. अपने ऄपने बल़बल क़ ऽवच़र ऽकये ऽबऩ हा क़जा मल्ि लों को कै द करके ऽनभययत़ से ऄऽवधं ों के म़गय को रोक़ थ़। यच्चक्रवऽतयऽचष्ढ़ऽन धत्से स्वयमभातवत।् अध्य़रोहऽस च स्वणयऽसांह़सनमनाऽतम़न।् ।५५ स्वयमेव़निगुष्द़ऽस ऽनगुष्दऽस च म़नव़न।् अहो आत्मविोनम्य़न्द्ननमस्यऽभम़नव़न।् ।५६ दिऽनयव़रगऽतययस्म़द्टस्म़त् कस्म़ऽद्ठभेऽष न। तस्म़दहां प्रेऽषतोऽस्म येऽदलेन प्रत़ऽपऩ।।५७ ५५-५७. जैसे अप ऽनभययत़ से स्वयं चक्रवती ऱज़ के ऽचह्नों को ध़रण कर रहे हो और ऄन्य़य से स्वणय ऽसहं ़सन पर बैठते हो और स्वयं हा मनष्ि यों पर ऽनग्रह तथ़ ऄनग्रि ह करते हो, स्वतन्त्र होकर वदं नाय लोगों को ऄऽभव़दन नहीं करते हो, ऄजेय होने से तमि घटि पटि लोगों से नहीं डरते हो, आसऽलए प्रत़पा अऽदलि़ह ने मझि े तम्ि ह़रे प़स भेज़ है। येऽदलस्य ऽनयोग़द्टन्द्मय़ सह सम़गतम।् उद्टोजयऽत सद्टो म़ां तऽददां षड्ऽवधां बलम।् ।५८ ५८. अऽदलि़ह की अज्ञ़ से जो यह छः प्रक़र की सेऩ मेरे स़थ अइ हुइ है, वह मझि े िाघ्र यि ि के ऽलए ईद्यि ि कर रहा है। मिसेख़ऩदयो ष्तेते त्वय़ सह यियित्सवः। प्रोत्स़हयऽन्द्त म़मत्र जयवल्लीं ऽजघुिवः।।५९ ५९. तम्ि ह़रे स़थ यि ि करने के ऽलए ईत्स़ऽहत मसि ेख़ऩऽद वार एवं जयवल्ला को ऄधान करने आच्छिक सरद़र मझि े आस क़यय में प्रोत्स़ऽहत कर रहे हैं।



225 | पृ ष्ठ



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तदद्टमऽन्द्नयोगेन सऽन्द्धमेव महापते। ऽवधेऽह देऽह सकल़नचल़नचल़मऽप।।६० ६०. तब, हे ऱज़! मेरे अदेि से अप सऽन्ध करो और सभा ऽकले एवं सम्पऽत्त को दे दो। ऽसांहां लोकां मह़न्द्तां च प्रबलां च ऽिलोच्चयम।् पिरन्द्दरां ऽगररां तद्ठत् पिरीं चक्ऱवतामऽप।।६१ ऽवषयां च तथ़ नाऱभामरथ्यन्द्तऱश्रयम।् प्रऽणपत्य प्रयच्छ़िि ऽदल्लान्द्ऱय़ऽमतौजसे।।६२ ६१-६२. ऽसहं गड और लोहगड ये बडे और सदृि ढ़ ऽकले हैं, ईसा प्रक़र परि ं दरगड एवं चक्रवतीपरि ा च़कण, नाऱ और भाम़ क़ मध्यभ़ग, ये सब मह़बल़दय, ऽदल्ला के ब़दि़ह के िरण में ज़कर िाघ्र हा व़पस कर दो। य़ चन्द्रऱज़द़ऽच्छद्ट गुहात़ऽनग्रह़त्त्वय़। जयवल्लाऽमम़मल्लाि़हस्त्व़ां त़ां ऽह य़चते।।६३ ६३. जो जयवल्ला तमि ने चन्रऱज के प़स से बल़त् ऄधान कर ला था, वह यह जयवल्ला भा ऄल्लाि़ह तिमसे म़ंग रह़ है। उपनतमऽहतस्य पत्रलेखां रहऽस ऽनिम्य तमेतमेकवारः। स ऽकल सकलऱजलोकरत्नां न्द्यऽधत ऽनजे रृऽद कऽञ्चदेव यत्नम।् ।६४ ६४. ित्रओ ि ं के अये हुए आस प्रक़र के पत्र को सनि कर ईस सकल ऱज़ओ ं के ऽिरोमऽण एवं ऄऽद्रताय वार ने ऄपने मन में किछ एक ईप़य बऩए।ं स्मुत्व़ मन्द्त्रमथेऽप्सत़य जगतः सवयस्य सवोत्तरम।् यत्सांप्रेऽषतव़नसौ नरपऽतः पत्रस्य तस्योत्तरम।् । यच्च़ग़दऽभम़नव़नफजलः सज्जस्य तस्य़टवाम् 226 | पृ ष्ठ



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तत् सवं कथय़ऽम वः समि तयः श्रेयस्करां श्रयी त़म।् ।६५ ६५. सम्पणी य संस़र के कल्य़ण के ऽलए सवोत्कु ष्ट प्रयत्न करके ईस ऱज़ ने ईस पत्र क़ क्य़ ईत्तर भेज़? और तैय़र सज्ज ईस ऽिव़जा के ऄरण्य में वह ऄऽभम़ना ऄफजलख़न कै से गय़? वह सम्पणी य श्रेयस्कर वुत़न्त, हे पऽण्डतों! मैं तम्ि हें बत़त़ ह,ं सनि ो। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्रय़ां सांऽहत़य़ां सांदेिदेिऩम अष्ट़दिोऻध्य़यः।।१८



227 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-१९ कवान्र ईव़च ऽनयोजयन्द्स सवयत्र दृिां प्रऽणऽधरुऽपणाम।् पश्यत्यवऽहतः सवं ऽिवो ब़ष्तां तथ़न्द्तरम।् ।१ ततोऻसौ दीतम़हूय ऽनष्ण़तां ऽनजकमयऽण। प्रऽतव़चऽमम़ां तस्मै प्ऱऽहणोत्पररपऽन्द्थने।।२ १-२. गप्ति चर रूपा ऄपना दृऽष्ट को सवयत्र यि ि करके वह ऽिव़जा ऄपने ऱज्य के एवं पर ऱज्य के सभा सम़च़रों को दक्षत़ के स़थ देखत़ थ़। तत्पश्च़त ऄपने क़यय में ऽनपणि दती को बल ि ़कर ईसने ित्रि को यह ईत्तर भेज़। ऽिवऱज ईव़च समस्त़ः समरे येन ध्वस्त़ः क़ण़यटभीऽमप़ः। तस्य तेऻद्ट मऽय श्रेय़ऽनय़नऽप दयोदयः।।३ ३. ऽिव़जा बोल़ – ऽजसने कऩयटक के सभा ऱज़ यि ि में पऱभती कर ऽदए थे ऐसे अपने अज मेरे पर आतना दय़ ऽदख़इ वह बहुत ऄच्छ़ ऽकय़। अतिलां ते ब़हुबलां बलां च तिऽलत़नलम।् अलङ्कुतां ऽिऽततलां त्वय़ त्वऽय न ऽह च्छलम।् ।४ ४. अप में ब़हुबल ऄतल ि नाय है अपक़ पऱक्रम ऄऽग्न के सम़न है अपने पुथ्वा को ऄलंकुत ऽकय़ है और अप में मल ी तः हा कपट नहीं है। ऽददृिरि ऽस यद्टेत़न् ऽवभव़न्द्वनसम्भव़न।् तऽद्ठलोकयत़मेत्य जयवल्लाऽमम़ां भव़न।् ।५ 228 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



५. यऽद यह वन वैभव देखने की आच्छ़ अपको है तो अप जयवल्ला अकर देख लाऽजए। तव़गमनमेवेतः स़म्प्रतां वेऽद्ञ स़म्प्रतम।् अभयां मम तेनैव भऽवत़ऽप च वैभवम।् ।६ ६. अपक़ यह़ं अऩ हा सप्रं ऽत योग्य है ऐस़ मझि े लगत़ है और ईसके क़रण से हा मझि े ऽनभययत़ प्ऱप्त होकर मेऱ वैभव भा वुऽि को प्ऱप्त होग़। तुण़य मन्द्ये त़म्ऱण़मनम्ऱण़मनाऽकनाम।् येऽदलस्य च त़ां तद्ठत् त्व़ां ऽवऩ ताव्रऽवक्रमम।् ।७ ७. भयंकर पऱक्रम से यि ि अपके ऽबऩ ईन्मत्त मगि लों की सेऩ को एवं अऽदलि़ह की सेऩ को मैं ऽतनके के सम़न म़नत़ ह।ं दिः पथ़ त्वम़गच्छ प्रयच्छ़ऽम ऽिलोच्चय़न।् भवते य़चम़ऩय जयवल्लाऽमम़मऽप।।८ ८. अप स़वध़नापवी क य ऱस्ते से अआए अप जो म़ंग कर रहे हैं ईन ऽकलों को एवं जयवल्ला को भा मैं देत़ ह।ं प्रेक्ष्य दिःप्रेिणायां त्व़ऽमह ऽवश्रब्धम़नसः। इम़ां पिरः कररष्य़ऽम ऽनजप़ऽणकुप़ऽणक़म।् ।९ ९. ऽजनको देखऩ भा कऽठन होत़ है ऐसे अपको यह़ं संदहे रऽहत मन से देखकर मैं ऄपने कट़र को अपके स़मने रख दगंी ़। वनाऽमम़ां ते पुतऩ प्रतऩमतनायसाम।् पश्यन्द्ता सितलच्छ़य़ सिख़न्द्यनिभऽवष्यऽत।।१० १०. आस प्ऱचान एवं ऽवि़ल और ऄन्य को देखकर अपकी सेऩ प़त़ल की छ़य़ के सख ि क़ ऄनभि व करे गा। इऽत सीत्रऽमव़त्यल्पवणं बष्दथयसांयितम।् ऽिवः सन्द्देिम़ऽदश्य व्यसज ु द्ङीतम़त्मनः।।११ ११. आस प्रक़र सत्री के सम़न ऄत्यंत संऽक्षप्त ऽकंति स़रगऽभयत संदि े बत़कर ऄपने दती को ऽिव़जा ने प्रेऽर्त ऽकय़। 229 | पृ ष्ठ



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स तां सदां ेिम़कण्यय ऽिवदीतेन भ़ऽषतम।् स्व़ऽमक़यं कुतां स्वेनेत्यमन्द्यत सिदिमयऽतः।।१२ १२. ऽिव़जा के दती द्ऱऱ बत़ए गए सदं ि े को सनि कर 'अपने स्व़ऽमक़यय कर ऽलय़ है' ऐस़ ईस दबि यऽि ि ऄफजल ख़न को प्रतात हुअ। वैऱटस्थोऻऽप सितऱां योजनत्रयस़न्द्तऱम।् जयवल्लीं स यवनः स्वहस्तस्थ़मव़गमत।् ।१३ १३. ईस यवन को ऽवऱट (व़इ) में ऽस्थत होकर तान योजन ऄतं र पर ऽस्थत जयवल्ला ह़थ में अ गइ ऐस़ प्रतात होने लग़। अथ़स्थ़य स आस्थ़नीं सम़हूय स्वसैऽनक़न।् व़चमेत़ां नयोपेत़ां व्य़जह़र मह़मऩः।।१४ १४. तत्पश्च़त दरब़र में बैठकर तथ़ ऄपने सैऽनकों को बल ि ़कर ईस महत्व़क़ंक्षा ऄफजल ख़न ने आस प्रक़र ऱजनाऽत यि ि भ़र्ण ऽकय़। ऄफजल ईव़च सम़ष्दयऽत म़ां तत्र स ऽिवः सऽन्द्धक़म्यय़। स्व़ऽमक़येप्सिऩ तत्र प्रय़तव्यऽमतो मय़।।१५ १५. ऄफजल ख़न बोल़- वह ऽिव़जा सऽं ध करने की आच्छ़ से मझि े वह़ं बल ि ़ रह़ है तब स्व़ऽमक़यय ऽसि करने की आच्छ़ से मझि े वह़ं ज़ऩ च़ऽहए। समिन्द्नद्चैः सिसन्द्नद्चैः सैऽनकै ः स्वैः समायिष़म।् सदैवोज्ज़गरूक़ण़ां न तत्र भयमऽस्त नः।।१६ १६. िह्ल ईठ़ए हुए एवं ईत्तम प्रक़र से ससि ऽज्जत ऄपने सैऽनकों के स़थ सद़ ज़गरूक रहने व़ले हम लोगों को वह़ं ज़ने में भय नहीं है।



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समिष्त व्यीष्तसैन्द्य़ऽन य़स्म़मस्तत्र सवयथ़। अहो यत्र वने घोरे नैव ऩभ़स्वता कथ़।।१७



१७. ईस स्थ़न पर कोइ गप्ति स्थ़न तो होग़ हा ऐसे ईस सघन ऄरण्य में सेऩ ले ज़कर एवं व्यही रचऩ करें गे और किछ हो गय़ तो ज़एगं ।े ऽद्ठपद्ठाऽपिरण्य़ऩमरण्य़ऩमिदािणम।् भवत़द्झवत़ां तत्र ऽवश्ऱन्द्त़ऩमनििणम।् ।१८ १८. ऽसंह एवं ह़ऽथयों के अश्रय स्थ़न व़ले ईस ऄरण्य में अऱम करते समय तिमको प्रऽतक्षण ऽनगऱना करना च़ऽहए। तत्र भीभुत्तट़वन्द्य़ां वन्द्य़ां वाक्ष्य महायसाम।् वन्द्य़ इव ऽवऩल़नां क्रीडन्द्ति कररणो मम।।१९ १९. वह़ं पवयतों के तट पर ऽवि़ल जल़िय को देखकर मेरे ह़था वन्य ह़था के सम़न स्वतत्रं त़ से ऽवह़र करते हैं तो करने दो। प्रपतेद्टऽप च़क़िां ऽनपतेयिः ितरृद़ः। तदप्यफजलस्य़स्य न भवेन्द्मऽतरन्द्यथ़।।२० २०. यऽद अक़ि ऽगर ज़ए य़ ऽफर अक़िाय ऽवद्यति गरजऩ करके ऽगर ज़एं ऽफर भा ऄफजल ख़न की बऽि ि में कोइ पररवतयन नहीं होग़। ऽिऽतमित्ख़तऽयष्य़ऽम प़तऽयष्य़ऽम पवयत़न।् वऩऽन च प्रधक्ष्य़ऽम सद्टः क्रोधकुि़निऩ।।२१ २१. मेरा क्रोध़ऽग्न से मैं तत्क़ल वन को जल़ दगंी ़ भऽी म को खोद दगंी ़ एवं पवयतों को समतल कर दगंी ़। प्रऽतज़्ां प़रऽयष्य़ऽम भ्रांिऽयष्य़ऽम देवत़ः। ऩद़स्यते स चेन्द्म़न्द्द्ट़न्द्मदायमिऽचतां वचः।।२२



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२२. यऽद वह जनत़ के क़रण से मेरा कऽथत ब़तों को स्वाक़र नहीं करे ग़ तो मैं देवत़ नष्ट कर दगंी ़ और ऄपना प्रऽतज्ञ़ को पणी य करूंग़। इऽत ब्रिव़णम़स्थ़नभ्ऱजम़ऩसनऽस्थतम।् दैवध्वस्तऽधयस्ते ति न तां प्रत्य़चचऽिरे।।२३ २३. दरब़र में िोभ़यम़न असन पर बैठकर आस प्रक़र बोलने व़ले ऄफजल ख़न क़ ऽनर्ेध ददि वे से ऽवनष्ट बऽि ि व़ले ईन सैऽनकों ने नहीं ऽकय़। अथ तां मऽन्द्त्रणः सवे परि ः प्रस्थ़तिमिद्टतम।् इऽत नाऽतमिप़ऽश्रत्य ऽवनयेन व्यऽजज्पन।् ।२४



२४. ऽफर अगे प्रस्थ़न के ऽलए ईद्यत ईस ऄफजलख़न को सभा मऽं त्रयों ने ऱजनाऽत क़ ऄनसि रण करके ऽवन्त़ से ऽनवेदन ऽकय़। मऽन्त्रण ईचःि स्व़ऽमऽन्द्वधायत़मेव भवत़त्मऽचकीऽषयतम।् प्रत्य़ख्य़त़स्ति कस्तस्य यत्र दैवमवऽस्थतम।् ।२५ २५. मत्रं ा बोले- हे स्व़मा अप जो करऩ च़हते हैं, वह अप ऄवश्य कीऽजए जह़ं पर स्वयं देवत़ ऄऽधऽष्ठत है, वह़ं ऽनर्ेध कौन कर सकत़ है। प्रिस्तेन स्वऽचत्तेन ऽवश्वस्तः स यऽद त्वऽय। तऽहय सद्टः सम़य़ति जयवल्लावऩद्जऽहः।।२६ २६. ईसने यऽद तमि पर िि ि ऄतं ःकरण से ऽवश्व़स ऽकय़ है तो ईसको जयवल्ला के वन से ब़हर तत्क़ल अऩ च़ऽहए। उप़हरति सवयस्वम़त्मायां भवतो मिदे। ऽनज़ां ऩमयति ग्राव़ां नमऽन्द्नह पदे पदे।।२७ 232 | पृ ष्ठ



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२७. ईसको अप को संतष्टि करने के ऽलए ऄपऩ सवयस्व ऄपयण करऩ च़ऽहए और अपको पग पग पर मजि ऱ देते हुए ऄपना गदयन को अपके स़मने झक ि ़ऩ च़ऽहए। येन कौम़रम़रभ्य धऽन्द्वऩ धीजयऽटां ऽवऩ। स्वप्नेऻऽप स्व़ऽमनेऻन्द्यस्मै न ऽनजां ऩऽमतां ऽिरः।।२८ ब़ल्य़त्प्रभुऽत लोके ऻऽस्मन् अनल्पबलि़ऽलनः। कम़यण्यम़निषस्येव प्ऱयो यस्येह ििश्रिम।।२९



ऽवग़यऽत च यो लोके यवऩऩां ऽवलोकनम।् ऽनजधमयधरि ाणोऻद्च़ िण ु ोऽत च न तद्ठचः।।३० स आष्दयऽत तत्रैव भवन्द्तमभयो यऽद। तऽहय मन्द्य़महे तस्य ऽवद्टते स़हसां रृऽद।।३१ २८-३१. ऽजस धनधि ़यरा ने बचपन से हा िक ं र के ऄऽतररि ऄन्य ऽकसा भा स्व़मा के स़मने ऄपऩ ऽसर सपने में ऄभा तक नहीं झक ि ़य़ है, ऽजस मह़बलि़ला परुि र् के ऄम़नवाय कु त्यों को बचपन से हा हम प्ऱयः सनि ते अए हैं, जो यवनों के मख्ि य दियन को भा ऄत्यऽधक ऽनंदनाय समझत़ है और जो स्वधमय मैं धरि ं धर है ऐस़ वह यवनों की ब़तों को बोलत़ हा नहीं सिनत़ है तो यऽद वह ऽनभययत़ से हमको वहीं पर बल ि ़ रह़ है तो ईसके रृदय में ऽकसा प्रक़र क़ स़हस है ऐस़ मझि े लगत़ है। पदे पदे पररऽश्लष्टकम़यरकिलसांकिल़। न गत़य ऽहत़श्व़ऩां ऽवषम़नगमेऽदना।।३२ ३२. जो पग पग पर ब़ंस के सघन वुक्षों से व्य़प्त है, ऐसा वह दगि मय पवयत भऽी म घोडों के ज़ने के ऽलए ऽहतकर नहीं है। ऽश्लष्ट़ग्ऱनोकहितैः ऽश्लष्ट़रोह़वरोहय़। स्तम्बेरम़ः कथां य़न्द्ति तय़ पवयतपद्टय़।।३३ ३३. ऽजसक़ महंि सैकडों वुक्षों से व्य़प्त है एवं जो अरोहण ऄवरोहण के ऽलए ऄत्यऽधक संकिऽचत है ऐसे पवयत म़गय से ह़था ऽकस प्रक़र ज़ सकते हैं। 233 | पृ ष्ठ



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आत्म़ त्वमल्लाि़हस्य िल्यां ऽदल्लान्द्रविसः। स्व़मासेऩमतल्लाऩां ऽविम़ऽवषम़वटाम।् ।३४ ३४. ती ऄल्लाि़ह क़ प्ऱण है एवं ऽदल्ला के ब़दि़ह के रृदय क़ िल ी है और ईत्तम सेऩ क़ स्व़मा है ऄतः ती आस भयंकर ऱस्ते पर य़ खड्डे में प्रवेि मत करऩ। योगाव ऽवऽजत़ह़रऽवह़रो ऽवऽजत़सनः। यः सवयस्य़ऽप लोकस्य वेत्त्यहो गिप्तम़ियम।् ।३५ उत्प्लित्य पवयतऽिरः प्ऱक़ऱभ्यन्द्तरऽस्थत़न।् ऽनहऽन्द्त यो ऽजष्णगतान् पऱन् पतगऱऽडव।।३६ यस्य य़तमऽवज़्तां भवत्यऽमतयोजनम।् अवैऽत मनसैव़प्तां ऽद्ठषन्द्तमऽप यो जनम।् ।३७ भवत़पकुत़ पीवं भवत़पकुत़ स्वयम।् ऽवधत्ते तिलज़देवा सततां यत्सह़यत़म।् ।३८ तेन ऽवऽद्ठषत़नेकसैन्द्ययििेन प़ऽलत़म।् कथां त्वां त़मरण्य़नामऽभम़ना गऽमष्यऽस।।३९ ३५-३९. ऽजसने योगा के सम़न ऄपने अह़र-ऽवह़र को एवं ऄपने असन को जात़ है एवं जो संपणी य संस़र के गप्ति ऄऽभप्ऱय को ज़नत़ है। ऽजस प्रक़र गरुड स़ंप के फणों को क़टत़ है ईसा प्रक़र जो ऽकले के मस्तक पर छल़ंग म़रकर प्रक़र में ऽस्थत ित्रि क़ ऽवऩि करत़ है। जो ऽमत्र कौन है एवं ित्रि कौन है ? यह मन से हा ज़नत़ है, लोगों को प्रेररत करने व़ले हम़रे द्ऱऱ ऄपम़न की गइ तल ि ज़ देवा ऽजसको सद़ सहयोग करता है एवं जो ऄनेक सैन्यों से यि ि है ऐसे ित्रि के द्ऱऱ रऽक्षत ऽवि़ल ऄरण्य में ऄऽभम़ना हम ऽकस प्रक़र प्रवेि कर सकते हैं। इत्य़कण्यय वचस्तेष़ां स ऽवद्ठेष़न्द्धम़नसः। प्रोव़च त़नऩदृत्य दृप्तः िोणऽवलोचनः।।४० ४०. आस प्रक़र ईसके वचनों को सनि कर देि भ़व से ऄधं त्व को प्ऱप्त हुअ एवं क्रोध की ल़ऽलम़ से यि ि अंखों व़ल़ वह ईन्मतत़ से यि ि ईसक़ ऽधक्क़र करके बोल़। 234 | पृ ष्ठ



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ऄफजल ईव़च जन्द्मप्रभुऽत दृप्त़त्म़ योऻस्मभ्यमपऱध्यऽत। स परः स्वयमस्म़कमभ्यणं कथमेष्यऽत।।४१ ४१. ऄफजल ख़न बोल़ – स्वभ़व से स्व़ऽभम़ना वह ित्रि ऄब तक ऄपऱध करते अय़ है। वह स्वयं हम़रे प़स में कै से अ सकत़ है? यदम़निषकमेऽत तां प्रिांसथ म़निषम।् अवैऽम तदऽवज़्य मदायमऽप पौरुषम।् ।४२ ४२. ऄम़नवाय कु त्यों को करने व़ले ऐसे ऽजस मनष्ि य की प्रिसं ़ कर रहे हो तो अप मेरे पऱक्रम को ऩ पहच़नने के क़रण कर रहे हो ऐस़ मझि े लगत़ है। ध़वद्ठ़हखिऱञ्चलैऽवयदऽलतां क़ण़यटक़ऩां बलम।् तत्तत्स्थ़नऽभद़ च सम्प्रऽत पऱभीतां सरि ़ण़ां किलम।् तां सवोन्द्नतमन्द्तकोऻऽप सहस़ कोप़नलव्य़किलम।् म़ां दृष्ट्व़ समय़ मय़ सह भय़द्चत़द्ट सन्द्ध़स्यऽत।।४३ ४३. ऽजसने दौडने व़ले घोडों के खरि ो से कऩयटक के ऱज़ओ ं की सेऩओ ं को ऽवनष्ट ऽकय़ ऽजसने सभा स्थ़नों को फोडकर संप्रऽत सभा स्थ़नों को भ्रष्ट ऽकय़ है। सवयश्रेष्ठ एवं क्रोध़ऽग्न से संतप्त ऐसे मझि े समाप अय़ हुअ देखकर प्रत्यक्ष यमऱज भा भय से मेरे स़थ संऽध करे ग़। य़ यिष्म़नऽतऽवक्रम़नऽप ऽभय़ सयां ोजयन्द्ता तत़। नैक़नोकहसांवुत़ प्रऽतभटै ययिध्यऽद्झरप्यऽन्द्वत़।। त़मेत़मटवामतावऽवषम़ां सद्टः कररष्ये सम़म।् व्य़रृत्येऻऽतऽहत़न् ऽहत़न् किमऽतऩ तेन प्रतस्थेतम़म।् ।४४ ४४. जो ऽवस्ताणय ऄनेक वुक्षों से अच्छ़ऽदत और यि ि करने व़ले योि़ओ ं से यि ि है, ऐस़ वह ऄरण्य ऄत्यंत पऱक्रम से यि ि तमि सब को भा भयमि ि करत़ है ईस ऄत्यंत दगि मय ऄरण्य को तत्क़ल समतल कर दगंी ़ ऐस़ ईन ऽहतकत़य लोगों को बोलकर वह दमि ऽय त िाघ्रत़ से ऽनकल गय़। 235 | पृ ष्ठ



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इत्यनपि रि ़णे सयी यवि ां े कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्त्र्य़ां सऽां हत़य़ां अफजलप्रय़णां ऩम एकोनऽवि ां ोऻध्य़यः।।१९



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अध्य़यः-२० कवान्द्र उव़च अत्ऱन्द्तरे भगवता तिलज़ भिवत्सल़। स्वां रूपां दियय़म़स ऽिव़य जगताऽजते।।१ कल्पवल्लाऽमव नव़ां पिरस्त़दथ त़ां ऽस्थत़म।् सरत्ऩभरण़ां िोणचरण़ां चांपकप्रभ़म।् ।२ १-२.कवान्र बोलेंतत्पश्च़त् एक-दसी रे से ऽमलने के ऽलए ऄत्यन्त ईत्सक ि , ईस क़यय में तत्पर बऽि िव़लें एवं ऄपना-ऄपना ऱजनाऽत से व्यवह़र करने व़ले ईन दोनों दती ों के द्ऱऱ जैस़ कऱर हुअ थ़, वैस़ सब बत़त़ हॅ । हे पऽण्डतों ध्य़न से सनि ो। ऽवलसन्द्नालवसऩां नालधऽम्मल्लि़ऽलनाम्। अताव सक ि ि म़ऱांगीं किम़रावेषध़ररणाम।् ।३ पीणेन्द्दिवांद्टवदऩां इन्द्दावरऽवलोचऩम।् मन्द्दऽस्मत़मऽभनवप्रव़लतिऽलत़धऱम।् ।४ भ्ऱऽजष्णिभ़लऽतलक़ां रत्नरांऽजतकऽणयक़म।् मनोज्ऩऽसक़न्द्यस्तऽचत्ररत्नमयीररक़म।् ।५ मुदिब़लत़ां पद्ञहस्त़ां सल ि ऽलत़ांगऽि लम।् रत्नरऽश्मकिल़कीणयकांकण़ां ििभलिण़म।् ।६ कांठसांसिगिच्छ़धयगिच्छरत्नललऽन्द्तक़म।् सिवणयसिमनःऽश्लष्टनालकांचिऽलक़वुत़म।् ।७ आऩऽभऽवलसद्च़ऱां रत्नक़ांचाकुतऽश्रयम।् 237 | पृ ष्ठ



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वरद़ां ऽवश्वजननामवनापऽतरैित।।८ ३-८.ऄपना सेऩ को यथ़ऽस्थऽत रखकर स्वयं ऄफजलख़न सिह्ल अयें और प़लकी में बैठकर अगे ज़यें, ईसकी सेव़ के ऽलए दो तान हा सेवक होने च़ऽहए, ईसा प्रक़र वह प्रत़पगड की ईपत्यक़ के प़स स्वयं अकर वहीं पर सभ़ मण्डप में ऽिव़जा की प्रताक्ष़ करें और ऽिव़जा सिह्ल अकर ईस ऄऽतऽथ क़ अदर सत्क़र गौरव के स़थ यथ़ऽवऽध करें । दोनों के हा रक्षण़थय सज्ज, स्व़ऽमऽनष्ठ, िरी एवं ऽनष्ठ़व़न् दस-दस सैऽनक ब़णों की साम़ पर अकर पुष्ठभ़ग में खडे हो ज़यें और दोनों के अपस में ऽमलने पर सभा लोग अनक़रा ब़ते करें । अथ तद्ङियनोल्ल़सभुिसज ां ़तसभ्र ां मः। प्रश्रयेण़ऽदम़य़ां म़मनांसात् स मिहुमयिहुः।।९ ९.आस प्रक़र कऱर करके एवं ऄदं र से कपटभ़व से यि ि होकर एक-दसी रे से ऽमलने के आच्छिक वे दोनों ईस समय सि ि ोऽभत हुए। प्रणमन्द्तां ति तां देवा समित्थ़प्य़त्मप़ऽणऩ। दृि़ दय़रयय़ भिमपश्यज्जगदाश्वरा।।१० १०.तत्पश्च़त् वह प्रत़पगड के स्थलभ़ग की ओर अ रह़ है, ऐस़ सनि कर ऽिव़जा मह़ऱज सज्ज होते हुए सि ि ोऽभत होने लगे। अऽभष्ट्य सहस्रेण ऩम्ऩां ऽस्थतमथ़ग्रतः। तमिव़चेऽत स़ देवा सिदता सऽस्मत़नऩ।।११ देव्यिव़च उपैत्यफजलो ऩम योऻयां यवनपिांगवः। स एष सच्छलो वत्स त्वय़ सह यियित्सते।।१२ कऽलक़लतरोमयीलां प्रऽतकीलां ऽदवौकस़म।् तऽममां यवऩत्म़नां दिभयदां ऽवऽद्च द़नवम।् ।१३ अवध्यां सवयदेव़ऩां दि़नऩऽमव़परम।् सऽहतां सवयसैन्द्येन मोऽहतां म़यय़ मय़।।१४ 238 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



सहसैव सम़य़तमांतकस्य तव़ांऽतके । तममिां हतमेवेऽत त्वमवेऽह महापते।।१५ उद्झवन्द्तां ऽनरोध़य धमयस्येह मिहुमयिहुः। तमेनमऽसप़तेन महत़ भिऽव प़तय।।१६ िररिऽधरध़ऱरयप्रताकमपमस्तकम।् स्रस्तब़हुलतां व्यस्तप्रस़ररतपदद्ठयम।् ।१७ गुरगोम़यिभल्लक ी ़ररष्टोत्कुष्ट़ांत्रसच ां यम।् पश्यन्द्ति ऽवबिध़स्सवे तऽममां भिऽव।।१८ १२-१८.परि ोऽहत के द्ऱऱ ऽनऽदयष्ट ऽवऽवध प्रक़र की ऽवऽध से देव़ऽधदेव िक ं र की ऽनत्य की तरह पजी ़ करके ऽनत्य की द़नऽवऽध को करके , थोड़ भोजन करके , स्वयं िि ि साऽमत जल को ब़रंब़र अचमन की तरह पाकर ईस तक ि ज़ देवा क़ क्षणम़त्र मन में ऽचन्तन ऽकय़, ईस समय के ऽलए ईऽचत वेिभर्ी को ध़रण करके लोक में ऄनपि म ऄपने मख ि को दपणय में देख़ िाघ्र असन से ईठकर और परि ोऽहत एवं दसी रे ब्ऱह्मणों क़ िाघ्र असन से ईठकर और परि ोऽहत एवं दसी रे ब्ऱह्मणों को नमस्क़र करके ईन सबक़ िभि अिाव़यद ऽलय़, दहा, दवी ़य, ऄक्षत, आनको स्पिय ऽकय़, सयी यमण्डल देख़। स़मने खडा बछडे से यि ि ग़य के समाप ज़कर तत्क़ल सवि णयसऽहत ईसको गणि व़न् ब्ऱह्मण को दे ऽदय़, ऄपने पाछे अने के ऽलए सज्ज पऱक्रमा ऄनयि ़ऽययों को प्रत़पगड की सरि क्ष़थय ऽनयि ि ऽकय़ और मन में कपट को रख समाप अकर ऽस्थत ईस यवन की ओर, वह मह़बऽि िम़न् ऽिव़जा ऄपने ऄऽतऽथ के समं ख ि ऽजस प्रक़र ज़ऩ च़ऽहए, ईस स्नेहभ़व से गय़। त्वां यद़ व़सिदेवोऻभीस्तद़हां नन्द्दमऽन्द्दरे। ऽत्रऽदव़त्तव स़ह़य्यऽवध़ऩथयमव़तरम।् ।१९ इद़नामऽप दैत्य़रे ऽवमिच्य तिलज़पिरम।् उपेत़स्माऽत ज़नाऽत स़ह़य्य़यैव ते स्वयम।् ।२० १९-२०.ईत्तम कवच को ध़रण ऽकय़ हुअ, ऽिव़जा ऱजे भोंसले, कण़यभरण को ध़रण करने व़ले, सफे द पगडा से एवं के सर के ऽछडक़व ऽकये गए ऄगं रखे से वह ऄत्यन्तं सििोऽभत हो रह़ थ़। ईस वज्रयिि िरार के ऽलए ईस कवच की क्य़ जरूरत है? 239 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



यथ़ज़तेन कांसेन यथ़हमवम़ऽनत़। पीवं तथ़धिनैतेऩप्यवज़्त़ऽस प़प्मऩ।।२१ २१.एक ह़थ में तलव़र और दसी रे ह़थ में पट्टे को ध़रण करने व़ल़ वह ऽिव़जा ऱज़, नदं क तलव़र एवं कौमदि की गद़ को ध़रण करने व़ले ऽवष्णि के सम़न ऽदख रह़ थ़। ऽवऽधऩ ऽवऽहतोऻस्त्यस्य मुत्यिस्त्वत्प़ऽणऩमिऩ। अतऽस्तष्ठ़ऽम भीत्व़हां कुप़णा भीमणे तव।।२२ व्य़हरन्द्ताऽत िव़यणा तत्कुप़णामवाऽवित।् असौ ज़ग्रदवस्थोऻऽप तत्स्वप्नमवमन्द्यत।।२३ २२-२३.पनि ः ऽकले के तट से ऽसंह की तरह ब़हर ऽनकलकर, िाघ्र पगों को रखते हुए, ऄत्यन्त समाप अकर खडे हुए, ऄक ि ऽिव़जा को ं ि ि़ग्र के सम़न सन्ि दर, ऽवि़ल और लंबा द़ढा से भयंकर ऽदखने व़ले, धैययव़न् एवं धैययदृऽष्ट से यि ित्रि ने देख़। ततोऻसौ तिलज़ां देवीं ध्य़यां ध्य़यां ऽनजे रृऽद। समस्तमऽप भीम़रममांस्त रृतम़त्मऩ।।२४ २४.जैसे आन्र ने वुत्र को देख़ ईसा प्रक़र ऽिव़जा ने भा मस्ि किऱते हुए स़मने ऽस्थत ईसकी दृऽष्ट से दृऽष्ट को स्वयं ऽमल़य़। ऽतष्ठन्द्नयां प्रत़प़ऽरऽिरः प्ऱक़रसस ां ऽद। आऩय्य न्द्यगदद्ठ़चां पऽत्तसेऩपताऽनऽत।।२५ सम़हूतो मय़ सैन्द्यसमवेतो मह़श्रयः। इत एव सम़य़ऽत स म्लेच्छः सांऽधक़म्यय़।।२६ २५-२६.क्रोऽधत यम की तरह स़मने खडे हुए ईसने दक्ष वार ऽिव़जा को ऄपने पर ऽवश्वस्त करने के ऽलए ऄपने ह़थ में ऽस्थत ऄब़धगऽत व़ला तलव़र को ईस क्रोऽधत, कपटा दष्टि ने प़स में खडे हुए ऄपने सेवक के ह़थ में दे ऽदय़। तदद्ट मऽन्द्नयोगेन यिष्म़ऽभरऽनव़ररत़। 240 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



सपां श्यत्वटवामेत़मेत़ परपत़ऽकना।।२७ २७.तत्पश्च़त,् ऽमथ्य़ स्नेह ऽदख़कर, प्रऽतकील भ़ग्य से हत वह ऄफजलख़न ईससे ईंचे स्वर में बोल़। ऽमथो मद्ठािण़क़ांिा स म़ां योधैरुद़यिधैः। भवऽद्झः सऽहतां श्रित्व़ भयां सभ ां ़वयेदऽप।।२८ २८.ऄफजल बोल़ ऄरे ! ऽमथ्य़ यि ि ोत्स़ह को ध़रण करने व़ले एवं ऄत्यन्त स्वच्छंद व्यवह़र करने व़ले, नाऽतम़गय को छोडकर किम़गय को क्यों ध़रण करते हो? तस्म़ऽद्ठित वै सवे गहनां गहनोदरम।् यीयां परैऽवज़्त़ः सज्ज़स्सऽन्द्नऽहत़ अऽप।।२९ २९.अऽदलि़ह की, कितबि ि़ह की य़ ऽफर मह़बलव़न् ऽदल्लापऽत की भा सेव़ नहीं करत़ है और नहीं ईन्हें म़नत़ है और ऄपने पर गवय करत़ है। स्वयां ऽवऽहतसध ां ोऻऽप न सघां ़स्यऽत यद्टसौ। तऽहय ऽवघ्नन्द्ति तत्सेऩ ज़तेऻस्मद्ङिन्द्दिऽभघ्वनौ।।३० ३०.ऄतः अज मैं दऽि वयनात तझि को दण्ड देने के ऽलए अय़ हॅ। यह ऽकल़ मझि े दें, ल़लच छोड दें और मेरा िरण में अ ज़। रहस्यऽमव ऱजेन्द्रो रहस्त़नात्यिप़ऽदित।् परोऻऽप सेनय़ स़धं तां पांथ़नमथ़सदत।् ।३१ ऽवसांकटदृषद्घुष्टज़निभ्रश्यद्ढत्वचः। अध्य़रोहन् करऽटनः कथांऽचदथ तां ऽगररम।् ।३२ ३१-३२.मैं तझि े ऄपने ह़थ से पकडकर तथ़ ऽबज़परि ले ज़कर, ऄल्लाि़ह के सम़ने तेरे मस्तक को झक ि व़ते हुए ईस प्रत़पा स्व़मा से ह़थ जोडकर ऽनवेदन करुंग़ और हे ऱज़, तझि े ऽफर ईससे ऄत्यन्तं वैभव को प्ऱप्त करव़ईंग़। ऽनष़ऽदनन्द्ि ऩः कररणो रिम़ण़ां वत्मयवऽतयऩम।् 241 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



बध्ि व़नधरि व़ग्ब्भ़वऽभय़िण्ि ड़ग्रमण्डलैः।।३३ ३३.ऄरे ! िह़जा ऱज़ के पत्रि , बच्चे, ऄपना होिय़रा को छोडकर ऄपने ह़थ को मेरे ह़थों में दें और अऽलंगन कर। उत्त़ररतमह़भ़रलघवोप्यिन्द्नतेऻध्वऽन। िराऱण्येव करभ़ः स्व़ऽन भ़ऱय मेऽनरे।।३४ ३४.आस प्रक़र बोलकर ईसने ईसकी गदयन को ब़एं ह़थ से पकडकर दसी रे द़एं ह़थ से ईसके पेट में कट़र घसि ़ दा। सप्तयो वल्लभधरैनीयम़ऩः िनैः िनैः। अवरुढहय़रोह़ अप्य़यन्द्त कथांचन।।३५ ३५.वल्लभ लोगों के द्ऱऱ धारे -धारे लेकर ज़ते हुए घोडों के पाठ पर ऽस्थत घडि सव़र को ईत़रने पर भा कष्ट से घोडे अरोऽहत हुए। प्रप़तप़तक़तय़यद् धुतेषि बत प़ऽणऽभः। ििपेषि मििमीळेषि के ऽचत् पेतिरव़ङ्मुख़ः।।३६ ३६.चढ़इ से ऽगरने के भय से ह़थों से पकडा हुइ झ़ऽडय़ं ईखडकर ऽगर गइ और किछ लोग नाचे महंि पर ऽगर गये। आरोहन्द्मत्तम़तांगपद़ऽभहऽतऽनःसुतैः। पतऽद्झरुपलैस्स्थीलैऽवयध्वस्तोऻधः ऽस्थतो जनः।।३७ ३७.उपर अरोहण करने व़ले ह़ऽथयों के पैरों के प्रह़र से ऽनकलकर ऽगरने व़ले बडे -बडे पत्थरों से नाचे के लोग ऽवऩि को प्ऱप्त हो रहे थे। लत़प्रत़नसऽां मश्रत्वसस़ऱांतरच़ररणा। वातध्वजपट़ वातच्छत्ऱ स़भीदनाऽकना।।३८ ३८.लत़ओ ं के ऽवस्त़र से ऽमऽश्रत ब़सं के उपर से ज़ने व़ला ईस सेऩ के ध्वज एवं छ़ते फट गये। प्रमत्ततरम़तांगकरसांपकय भारवः। तत्र तत्यजिऱत्म़नां भुगिप़तेन के चन।।३९ 242 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



३९.ऄत्यन्त मदमस्त ह़ऽथयों के सडि के स्पिय के भय से वहॉं किछ लोगों ने पवयत के तट से ऽगरकर प्ऱणों को त्य़ग ऽदय़। प्रोच्चप्रप़तपयंतस्रस्तहस्तपदैस्तद़। कै ऽश्चत् पतऽद्झरन्द्येऻऽप बहवः स्वसखाकुत़ः।।४० ४०.उंचे पवयत के तट से ह़थ-पैरों के ऽफसलने के क़रण से किछ लोगों ने दसी रे भा ऄनेक लोगों को ऄपऩ स़था बऩय़। एवम़रुष्त तां िैलां सव़य यवनव़ऽहना। पररम्ल़ऩऽप स़ धैय़यदवरोहे मऽतां दधे।।४१ ४१.आस प्रक़र पवयत पर चढ़कर यवनों की सपं णी य सेऩ ऄऽतिय श्ऱतं होने पर भा ईसने धैयय ध़रण करके दसी रा तरफ ईतरने की आच्छ़ की। स्तम्बेरम़स्तम़रुष्त पवयतां पवयत़ इव। मांदां मांदमव़रोहन्द्निज्झन्द्तो मदम़त्मनः।।४२ ४२.पवयत के सम़न ह़ऽथयों ने ईस पवयत पर चढ़कर वे ऄपने मद को धारे -धारे छोडते हुए नाचे ईतर गये। आरुष्त भीधरममिां यथ़ ऽत्रदिभीमलम।् तथ़वरुष्त तैलोकै बयत़लोऽक तल़तलम।् ।४३ ४३.ऽजस प्रक़र ईस पवयत चढ़कर ईन्होंने स्वगय देख़ ईसा प्रक़र ईससे ईतरकर ईन लोगों ने म़नो प़त़ल को देख़ हो। अथ पवयतमध्यस्थ़ां गांभाऱां कांदऱऽमव । ऽसांहव्य़िवऱहियतरििकिलसेऽवत़म् ॥ ४४ ॥ वज्रप़ऽणमऽणश्य़म- वऩां वज्रमयाऽमव । तमोऻबिऽनऽधसांभीत़ां तत़ां ऽवषलत़ऽमव ॥ ४५ ॥ तल़तलस्येव महामद्ङानगिणि़ऽलऩ । ऽत्रजगज्जऽयऩ ऽनत्यां ऽिवेन पररप़ऽलत़म् ॥ ४६॥ 243 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽदव़करकऱस्पष्टु तल़ां प्रच्छ़यसक ां ि ल़म् । अभ्य़गच्छन्द्नफजलो जयवल्लीं व्यवलोकत ॥ ४७ ॥ ४४-४७.तत्पश्च़त् पवयत के मध्यभ़ग में ऽस्थत गफ ि ़ के सम़न गहरा, ऽसहं , ब़घ, सऄ ि र, भ़ली, आनके द्ऱऱ अऽश्रत, इरनालम़ऽॅ के सम़न क़ला झ़ऽडयों से यि ि , म़नो वज्र हा हो, ऄधं क़ररूपा स़गर में ईत्पन्न हुइ म़नों प़त़लभऽी म हो, तानों लोगों को जातने व़ले ईत्कु ष्ट गणि ि़ला ऽिव़ता के द्ऱऱ ऽनत्य रऽक्षत, सयी य के ऽकरणों के द्ऱऱ तल को स्पिय न की हुइ, सघन छ़य़ से यि ि , ऐसा ईस जयवल्ला को प़स में अकर ऄफजलख़न ने देख़। उपेत्य जयवल्लीं त़मस़वफजलो बला। इयां मय़ गुहातेऽत ऽनजे चेतस्यऽचांतयत।् ।४८ ४८.ईस बलव़न् ऄफजलख़न के ईस जयवल्ला के प़स अने पर यह मेरे ह़थों में अ गइ, ऐस़ वह ऄपने में ऽचंतन करने लग़। ऽिवऱजोऻऽप तां श्रत्ि व़ जयवल्लामिप़गतम।् मम प़ऽणतलां दैव़दयम़य़त इत्यवैत।् ।४९ ४९.वह जयवल्ला के प़स अ गय़ है, ऐस़ सनि कर ऽिव़जा को भा यह सौभ़ग्य से मेरे ह़थों में अ गय़ है, ऐस़ प्रतात होने लग़। ततः किकिद्ठताकीले कीचकब्रजसांकिले। ऽनरुत्सव़ इव भय़दव़त्सिऽमयऽलत़ः परे।।५० ५०.तत्पश्च़त् भय से म़नो ईत्स़हरऽहत होकर ब़स के वुक्षों से व्य़प्त किमद्रि ता के तट पर ित्रि ने अश्रय प्ऱप्त ऽकय़। भयमायिः प्रऽतभये यत्र ते तस्य सैऽनक़ः । स एकोऻफजलस्तत्र स़ऽभम़नो ऽबभ़य न ॥ ५१ ॥ ५१.ऽजस भयंकर स्थ़न पर ईसके सैऽनक भयभात हो गये थे, ईस स्थ़न पर वह ऄके ल़ ऄफजलख़न भयभात नहीं हुअ। ततः प्रोच्ऱऽयतोह़मपटमांडपमांऽडतम् । ऽनबद्चऽनगड़ल़नऽनयांऽत्रत मऽद्ठपम् ॥ ५२ ॥ 244 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽनस्ऱतिक ां ि सबां द्च सैंधवश्रेऽणसयां ितम् । सद्टः सदां ़ऽनत़नेकक्रमेलककिल़किलम् ॥ ५३ ॥ पण्यपीण़यपण़कीणयऽवपऽणभ्ऱऽजत़ांतरम् । व्रजद़वजदिद्भ्ऱांतजनस्वनभऱऽन्द्वतम् ॥ ५४ ॥ अत्य़यतां वऩवन्द्य़मऩयतऽमव ऽस्थतम् । दृश्यमप्य़दे तत्र तदनाकमदृश्यत़म् ॥ ५५ ॥ ५२-५५.ऄत्यन्त उंचे एवं ऽवि़ल तंबओ ि ं से सि ि ोऽभत, जजं ारों से खटी ों में ब़ंधे हए ह़था थे, जमान में ग़दे गये खटंी ों से ब़ंधे हुए घोउों के समही से यि ि , तत्क़ल ब़ंधे गए ऄनेक उँटों के समही से व्य़प्त, ऽबक्री योग्य वस्तओ ि ं से पररपणी ,य दक ि ोऽभत, आधर-ईधर अने-ज़ने व़ले लोगों के समही की ध्वऽनयों से पररपणी य, ऄत्यऽधक दरी होते हुए भा ि ़नों से सि समाप वनप्रदेि में में ऄत्यन्त छोट़ ऽदखने व़ल़ वह सेऩ क़ दृश्य होते हुए भा वह ऄदृश्य हो गय़। ऽिवश्च़फजलश्चोभ़वऽप त़वदऩमयम् । प्रष्टुां ऽनजां ऽनजां दीतां न्द्ययिांज़त़ां परस्परम् ॥ ५६ ॥ ५६.ऽिव़जा और ऄफजलख़न, आन दोनों ने कििल पछ ी ने के ऽलए ऄपने-ऄपने दती एक-दसी रे के प़स भेज।ें ऽिवस्य़फजलो वेद रृदयां स च तस्य तत् । तां ऽवऽध ति ऽवऽधवेद वेद सांऽधऽवऽध जनः ॥ ५७ ॥ ५७.ऽिव़जा के ऄतं ःकरण को ऄफजलख़न ने पहच़न ऽलय़ और ऄफजलख़न के भा ऄतं ःकरण को ऽिव़जा ने पहच़न ऽलय़। ऽवध़त़ ने हा के वल ईसको सत्यरूप में ज़ऩ, ऄन्य लोगों ने संऽध हो रहा है, ऐस़ समझ़। देय़न्द्यिप़यऩन्द्यस्मै प्ऱप्त़य़ऽतथये मय़ । ऽनजनात्यिनिरोधेन तत्सितेभ्योऻऽप सवयथ़ ॥ ५८ ।। ५८.आस अये हुए ऄऽतऽथ को एवं ईसके पत्रि ों को भा ऽकसा प्रक़र मझि े ऄपने ऽिष्ट़च़र क़ ऄनसि रण करके ईपह़र देऩ च़ऽहए।



245 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



मिसेख़ऩय़ां किि़य य़कित़य़ांबऱय च । तथ़ हसन ख़ऩय परेभ्यश्च पुथक् पुथक् ॥ ५९ ॥ तथैव मांबऱज़य ऽपतुव्य़य गरायसे । तत्तरत्नपराि़ च क़रणाय़ऽस्त वै पिन: ॥६० ६०.मसि ेख़न, ऄक ं ि िख़न, य़कित, ऄबं र ईसा प्रक़र हसनख़न और ऄन्य सभा को तथ़ बडे च़च़ मबं ़जा ऱजे, आसको भा पुथक्-पुथक् ईपह़र देने च़ऽहए और सभा प्रक़र के रत्नों की पराक्ष़ करव़ लेना च़ऽहए। इत्थम़ऩऽयत़स्तेन ऱज़् ऽवपऽणनो यद़। तद़ तेऻफजल़ऽदष्ट़ः ऽिवस्य़ांऽतकम़ययिः।।६१



६१.आस प्रक़र ईस ऱज़ ने जब व्य़प़रा बल ि व़एं तब ईस ऄफजलख़न की अज्ञ़ से वे ऽिव़जा के प़स अए।ं स्व़ऽन स्व़ऽन सम़नत़न्द्यथ रत्ऩऽन त़ऽन ते। धऽननो दियय़म़सिः ऽिव़य़ििऽजघुिवे ॥ ६२ ॥ ६२.ऽफर ऄपने-ऄपने द्ऱऱ ल़ए गए ईन रत्नों को ईन व्य़प़ररयों ने िाघ्र लेने व़ले ऽिव़जा को ऽदख़य़। आहूतेभ्यः स तस्म़दफजलकटक़त्तत्र तेभ्यो धऽनभ्यः सव़यण्य़दत्त रत्ऩन्द्यथ ऽनजसऽवधे त़न् समस्त़न्द्यधत्त । लिब्ध़त्म़नस्तद़नीं ऽवऽधऽवहतऽधयो भीररम़ऱनिरोध़ दि़ ऩज़्ऽसषिस्ते बत ऽगररऽिखरे सवयतः स्वां ऽनरोधम् ॥६३ ६३.ईस ऄफजलख़न की सेऩ से वहॉं बल ि व़ये गए व्य़प़ररयों से ईसने सम्पणी य रत्नों को ले ऽलय़ और ईन सबको ऄपने प़स हा रख ऽलय़। तब ईन ल़लचा एवं दैव के क़रण से ऽवनष्ट बऽि ि व़ले मख ी य व्य़प़ररयों ने, ऄत्यन्त ल़लच की अि़ से हम पवयत की चोटा पर च़रों ओर से ऽघर गये हैं, आसको नहीं पहच़ऩ। ऽवश्रब्धो मऽय वतयते ऽिवमहाप़लः स तस्म़दहम् तस्योप़ांतमिपेत्य स़ांप्रतममिां स़मोपऽधां सांश्रयन् । 246 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



गप्ति ़म़त्मकट़ररक़ां तदिदरे ग़ढां ऽनख़य स्वयां देव़ऩमऽप मांऽदरेऻद्ट सितऱां सद्टो ऽवध़स्ये भयम् ॥६४ ६४.ईस ऽिव़जा ऱजे ने मेरे पर ऽवश्व़स ऽकय़ है, ऄतः मैं ईसके प़स तत्क़ल ज़कर मैत्रा करने क़ कपट करके ऄपना गप्ति कट़र को स्वयं ईसके पेट में घसि ़कर अज िाघ्र हा देवों के मऽन्दरों में भा ऄत्यन्त भय को ईत्पन्न करूंग़। इत्थां चेतऽस ऽचांऽततां बत ऽनजे म्लेच्छे न तेनच्छलम्। तऽद्ठज़्य ऽिवः स एष सकलां सद्टस्तदायां फलम।् तस्मै द़तिमथोद्टतो यिऽध यथ़ वक्ष्य़ऽम सवं तथ़ मन्द्ये तद्टिस़ सिध़मधिकथ़ पायीषव़त़य वुथ़।।६५ ६५.आस प्रक़र ईन यवनों द्ऱऱ ऄपने मन में ऽचऽन्तत कपट को ज़नकर वह ऽिव़जा ईन सबक़ फल ईसको यि ि में देने के ऽलए ऽकस प्रक़र सज्ज हुअ, यह सब मैं बत़उंग़, ईसके यि क़ मधरि वुत़ंत हा ऄमुत है, ईसके अगे ऄमुत की ब़तें व्यथय है।



इत्यनिपिऱणे सीययवांिे कवींरपरम़नांदप्रक़ऽित़य़ां स़हस्त्र्य़ां सऽां हत़य़मफजल़गमनां ऩम ऽवि ां ोऻध्य़यः ॥ २० ॥



247 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-२१ कवान्द्र उव़च अथो ऽमथो दियऩथं भुिमिद्टतयोस्तयोः। अप्यस्तत्रऽधयोस्तत्र ऽनजनाऽतसमेतयोः।।१ यथ़ दीतमिखेनैव ऽनयमः समज़यत। कथय़ऽम तथ़ सवं िुणित ऽद्ठजसत्तम़ः।।२ १-२ कवान्र बोल़ - तत्पश्च़त् एक दसी रे से ऽमलने के ऽलए ऄत्यन्त ईत्सक ि , ईस क़यय में तत्पर बऽि िव़ले एवं ऄपनाऄपना ऱजनाऽत से व्यवह़र करने व़ले ईन दोनों दती ों के बाच जैस़ कऱर हुअ थ़ वह सब बत़त़ ह,ं हे पऽण्डतों ध्य़न से सनि ो। ऽवन्द्यस्य़नाकम़त्मायां यथ़वऽस्थतम़त्मऩ। एके ऩफजलेनैव प्रस्थेयां िष्धप़ऽणऩ।।३ य़प्यय़ऩऽधरूढेन य़तव्यां च परि ः पनि ः। सन्द्ति तत्पररचय़यथं ऽद्ठत्ऱ एव़नज ि ाऽवनः।।४ तथैव स्वयमभ्येत्य प्रत़प़रेरुपत्यक़म।् ऽिवां प्रतािम़णेन स्थेयां तत्रैव सांसऽद।।५ ऽिवेन च समभ्येत्य िष्धहस्तेन गौरव़त।् आऽतथ्यमऽतथेस्तस्य ऽवध़तव्यां यथ़ऽवऽध।।६ ऽतष्ठन्द्ति दऽां ित़ः िरी ़ः पुष्ठे दि दि ऽस्थऱः। िरस्य़ांतरम़स़द्ट रिण़य द्ठयोरऽप।।७ 248 | पृ ष्ठ



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ऽमऽलत़भ्य़मिभ़भ्य़ां च कतयव्यां तत्र तरहः। सवयस्य़ऽप ऽह लोकस्य भवेद्टेन मह़न्द्महः।।८ ३-८.ऄपना सेऩ को यथ़ऽस्थऽत में रख करके स्वयं ऄफजलख़न सिह्ल अयें और प़लकी में बैठकर अगे ज़यें, ईनकी सेव़ के ऽलए दो-तान हा सेवक होने च़ऽहए, ईसा प्रक़र वह प्रत़पगढ़ की ईपत्यक़ के प़स स्वयं अकर वहीं पर सभ़मडं प में ऽिव़जा की प्रताक्ष़ करें और ऽिव़जा सिह्ल अकर ईस ऄऽतऽथ क़ अदर सत्क़र गौरव के स़थ यथ़ऽवऽध करें । दोनों के हा रक्षण़थय सज्ज, स्व़ऽमऽनष्ठ, िरी एवं ऽनष्ठ़व़न् दस-दस सैऽनक ब़णों की साम़ पर अकर पुष्ठभ़ग में खडे हो ज़यें और दोनों के अपस में ऽमलने पर सभा लोग अनन्दक़रा ब़तें करें । एवां ऽवध़य ऽनयमां ऽवध़यच्छलम़तरम।् ऽददृिम़ण़वन्द्योन्द्यां तद़नीं तौ व्यऱजत़म।् ।९ ९. आस प्रक़र कऱर करके एवं ऄन्दर से कपटभ़व से यि ि होकर एक दसी रे से ऽमलने के आच्छिक वे दोनों ईस समय सि ि ोऽभत हुए। ततः श्रित्व़ तम़य़न्द्तां प्रत़प़ऽरतलस्थलाम।् ऽिवऱजो मह़ऱजः सज्जम़नो व्यऱजत।।१० १०. तत्पश्च़त् वह प्रत़पगड के स्थलभ़ग की ओर अ रह़ है, ऐस़ सनि कर ऽिव़जा मह़ऱज सज्ज होते हुए सििोऽभत होने लगे। ऽवऽवध़ऽभऽवय यथ़ऽदष्टां पिरोधस़। तथ़ ऽनत्यवदभ्यच्यय देवदेवां वषु ध्वजम।् ।११ ऽनत्यद़नऽवऽधां कुत्व़ भिसत्व़ स्वल्पमनल्पधाः। सम्यग़चम्य च मिहुमयिहुरांबि ििऽच स्वयम।् ।१२ ऽचन्द्तऽयत्व़ च त़ां देवीं तिलज़ां िणम़त्मऽन। ऽवध़य च़त्मनो वेषां तद़त्वोऽचतम़त्मऩ।।१३ ऽनजमप्रऽतमां लोके ऽवलोसय मिकिरे मिखम।् उत्थ़य च़सऩत्सद्टः प्रऽणपत्य पिरोऽहतम।् ।१४ 249 | पृ ष्ठ



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ऽद्ठज़नन्द्य़ांश्च तैः सवैऱिऽां सतिभ ि ोदयः। दऽधदिव़यित़न् स्पुष्ट्व़ दृष्ट्व़ म़ांतयडमण्डलम।् ।१५ ऽस्थत़मभ्येत्य च पिरः सवत्स़ां स्वणयसांयित़म।् ऽवतायय सिरऽभां सद्टः सगिण़य़ग्रजन्द्मने।।१६ उद्टत़ननिय़ऩथयम़त्माय़ननिय़ऽयनः। प्रत़ऽपनः प्रत़प़रेगयप्ति ये ऽवऽनयिज्य च।।१७ तमन्द्तस्सच्छलां म्लेच्छमभ्येत्य ऽस्थतम़ऽन्द्तके । अभ्यगच्छदसौ ह़द़यदभ्य़गतऽमव़त्मनः।।१८ ११-१८. परि ोऽहत के द्ऱऱ ऽनऽदयष्ट ऽवऽवध प्रक़र की ऽवऽध से देव़ऽधदेव िक ं र की ऽनत्य की तरह पजी ़ करके , ऽनत्य की द़नऽवऽध को करके , थोड़ भोजन करके , स्वयं िि ि साऽमत जल को ब़रंब़र अचमन की तरह पाकर ईस तळ ि ज़ देवा क़ क्षणम़त्र मन में ऽचन्तन ऽकय़, ईस समय के ऽलए ईऽचत वेिभर्ी ़ को ध़रण करके लोक में ऄनपि म ऄपने मख ि को दपयण में देख़, िाघ्र असन से ईठकर और परि ोऽहत एवं दसी रे ब्ऱह्मणों को नमस्क़र करके ईन सबक़ िभि अिाव़यद ऽलय़, दहा, दवि ़य ऄक्षत आनकों स्पिय ऽकय़, सयी यमण्डल देख़, स़मने खडा बछडे से यि ि ग़य के समाप ज़कर तत्क़ल सवि णय सऽहत ईसको गणि व़न् ब्ऱह्मण को दे ऽदय़, ऄपने पाछे अने के ऽलए सज्ज पऱक्रमा ऄनयि ़ऽययों को प्रत़पगड की सरि क्ष़थय ऽनयि ि ऽकय़ और मन में कपट को रख समाप अकर ऽस्थत ईस यवन की ओर वह मह़बऽि िम़न् ऽिव़जा ऄपने ऄऽतऽथ के समं ख ि ऽजस प्रक़र ज़ऩ च़ऽहए, ईस प्रक़र स्नेहभ़व से गय़। उष्णाषेणैव ििऽचऩ व्यभ़दित्तांसध़ररण़। कश्मारजपुषद्ठषयरांऽजतेऩांऽगके न च।।१९ ऽिववम़य भुिबलः सवां तु ः ऽिववमयण़। तस्य वज्रिरारस्य ऽकां क़यं तेन वमयण़।।२० १९-२०. ईत्तम कवच को ध़रण ऽकय़ हुअ ऽिव़जा ऱजे भोंसले, पष्ि पगच्ि छ को ध़रण करने से, सफे द पगडा से एवं के सर के ऽछडक़व ऽकए गए ऄगं रखे से वह ऄत्यंत सि ि ोऽभत हो रह़ थ़। ईस वज्रयि ि िरार के ऽलए ईस कवच की क्य़ जरुरत है?



250 | पृ ष्ठ



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कुप़णां प़ऽणनैकेन ऽबभ्ऱणोन्द्येन परििम।् स नन्द्दकगद़हस्तः स़ि़द्चरररुदैक्ष्यत।।२१ २१. एक ह़थ में तलव़र और दसी रे ह़थ में पट्टे को ध़रण करने व़ल़ वह ऽिव़जा ऱज़ नंदक तलव़र एवं कौमदि की गद़ को ध़रण करने व़ले प्रखर ऽवष्णि के सम़न ऽदख रह़ थ़। अथ पवयतपययन्द्त़त् पांच़ननऽमवोद्गतम।् रितप्रत्यऽपयतपदां सांप्रसज्य पिरः ऽस्थतम।् ।२२ सुण्यग्रसिांदरोदग्रव्य़यतश्मश्रभ ि ाषणम।् धारां धारदृिां वारां ऽिवां ररपिरुदैित।।२३ २२-२३. पनि ः ऽकले के तट से ऽसंह की तरह ब़हर ऽनकलकर िाघ्र पगों को रखते हुए ऄत्यन्त समाप अकर खडे हुए, ऄक ि ऽिव़जा को ं ि ि़ग्र के सम़न सन्ि दर, ऽवि़ल और लंबा द़ढ़ा से भयंकर ऽदखने व़ले, धैययव़न् एवं धैययदृऽष्ट से यि ित्रि ने देख़। ऽिवोऽप तां पिरो वाक्ष्य वुष़ वुत्ऱऽमव़गतम।् स्मयम़नः स्वयां तस्य दृि़ दृिमयोजयत।् ।२४ २४. जैसे आन्र ने वुत्र को देख़ ईसा प्रक़र ऽिव़जा ने भा मस्ि किऱते हुए स़मने ऽस्थत ईसकी दृऽष्ट से दृऽष्ट को ऽमल़य़। ऽवरुद्चऽस्थऽतमिद्चिद्चां क्रिद्चः किद्चऽमव़ांतकम।् स तां ि़हसितां वारां ऽवश्व़सऽयतिम़त्मऽन।।२५ स्वहस्तस्थ़ऽयनां खङ्गमखऽण्डतगऽतां खलः। स्वप़श्वयवऽतयप़ऽणस्थमकरोऽद्ठधुतच्छलः।।२६ २५-२६. क्रोऽधत यम की तरह स़मने खडे हुए ईसने दक्ष वार ऽिव़जा को ऄपने पर ऽवश्वस्त करने के ऽलए ऄपने ह़थ में ऽस्थत ऄब़धगऽत व़ला तलव़र को ईस क्रोऽधत, कपटा दष्टि ने प़स में खडे हुए ऄपने सेवक के ह़थ में दे दा। ततः स्वरेण त़रेण मुष़दऽियतसौरृदः। प्रऽतकीलेन ऽवऽधऩ हतः स तमवोचत।।२७ 251 | पृ ष्ठ



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२८. तत्पश्च़त् ऽमथ्य़ स्नेह ऽदख़कर, प्रऽतकील भ़ग्य से हत वह ऄफजख़न ईससे उंचे स्वर मे बोल़। अफजल उव़च अये मुष़मुधोत्स़हध़ररन् स्वैरतरऽस्थते। ऽकां नाऽतपथमित्सुज्य भजस्यपथप़न्द्थत़म।् ।२८ २८.ऄफजल बोल़ - ऄरे ! ऽमथ्य़ यि ि ोत्स़ह को ध़रण करने व़ले एवं ऄत्यन्त स्वच्छंद व्यवह़र करने व़ले नाऽतम़गय को छोडकर किम़गय को क्यों ध़रण करते हो? येऽदलां कितिबां व़ऽप ऽदल्लान्द्रां व़ महौजसम।् न सेवसे न मनिषे तनिषे गवयम़त्मऽन।।२९ २९. अऽदलि़ह की कितबि ि़ह की य़ ऽफर मह़बलव़न् ऽदल्लापऽत की भा सेव़ नहीं करत़ है और नहीं ईन्हें म़नत़ है और ऄपने पर हा गवय करत़ है। तदद्ट दिऽवयनातां त्व़ां ऽवनेतिमहम़गतः। प्रयच्छ पवयत़नेत़न् गुघ्नति ़ां त्यज म़ां भज।।३० ३०.ऄतः अज मैं दऽि वयनात तझि को दण्ड देने के ऽलए अय़ ह।ं यह ऽकल़ मझि े दें और मेरा िरण में अ ज़। धुत्व़हां त्व़ स्वहस्तेन नात्व़ ऽवजयपत्तनम।् अल्लाि़हस्य पिरो ऩमऽयत्व़ ऽिरस्तव।।३१ प्रऽणपत्य च ऽवज़्प्य तां प्रत़ऽपनमाश्वरम।् द़स्य़ऽम वैभवां तिभ्यां भयी ो भीयस्तरां नुप।।३२ ३१-३२. मैं तझि े ऄपने ह़थ से पकडकर तथ़ ऽबज़परि ले ज़कर ऄल्लाि़ह के स़मने तेरे मस्तक को झक ि व़ते हुए ईस प्रत़पा स्व़मा से ह़थ जोडकर ऽनवेदन करुंग़ और हे ऱज़! तिझे ऽफर ईससे ऄत्यन्त वैभव को प्ऱप्त करव़ईंग़। ि़हऱज़त्मजऽििो ऽवह़य स्व़ां ऽवहस्तत़म।् स्पुि हस्तेन मे हस्तमेऽह देष्तांकप़ऽलक़म।् ।३३ ३३. ऄरे ! िह़जा ऱज़ के पत्रि , बच्चे, ऄपना होिय़रा को छोडकर ऄपने ह़थ को मेरे ह़थों में दे और अऽलंगन कर। 252 | पृ ष्ठ



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एवमिसत्व़ स तद्ग्राव़ां धत्ु व़ व़मेन प़ऽणऩ। इतरेण च तत्कििौ ऽनचख़न कट़ररक़म।् ।३४ ३४. आस प्रक़र बोलकर ईसने ईसकी गदयन को ब़एं ह़थ से पकडकर दसी रे द़एं ह़थ से ईसके पेट में कट़र घसि ़ दा। ऽनयिद्चऽवऽच्छवस्सद्टस्तद्चस्तोन्द्मििकांधरः। ध्वऽनऩ धारधारेण प्रऽतध्व़ऽनतकांदरः।।३५ प्रऽवि ां ताम़त्मकिऽिभ़गमभ्ऱांतम़नसः। ऽकांऽचद़किांऽचत़ांगस्त़ां ऽिवः स्वयमवच ां यत।् ।३६ ३५-३६. ब़हुयि ि में ऽनपणि ऽिव़जा ने तत्क़ल ईसके ह़थ से गदयन को छिड़कर ऄत्यन्त गभं ार ध्वऽन से गफ ि ़ओ ं को प्रऽतध्वऽनत ऽकय़ और ऽवचऽलत हुए ऽबऩ ऄपने ऄवयवों को थोड़ संकिऽचत करके ऽिव़जा ने ऄपने पेट में घसि ने व़ला कट़र से स्वयं को बच़य़। दद़म्येतां कुप़णां ते गहु ़ण ऽनगहु ़ण म़म।् इदां ऽवऽनगदन्द्नेव धारः ऽसहां समस्वरः।।३७ ऽसांहय़या ऽसांहक़यः ऽसांहदृक् ऽसांहकांधरः। स्वप़ऽणऽद्ठतयोद्चीतऽवकोि़यिधसिन्द्दरः।।३८ तां ऽनय़यतऽयतिां वैरां प्रवुत्तोसौ मह़व्रतः। ऽिवः कुप़ऽणक़ग्रेण किि़वेव तमस्पुित।् ।३९ ३७-३९. यह प्रह़र तेरे पर करत़ ह,ं वह ले, मझि े पकड आस प्रक़र बोलत़ हुअ, ऽसंह के सम़न ध्वऽन, ऽसंह के सम़न गऽत, ऽसंह के सम़न िरार, ऽसंह जैसा दृऽष्ट, ऽसंह जैसा गदयन व़ल़ एवं ऄपने दोनों ह़थों से घमि ़या हुइ नंगा तलव़र से िोभ़यम़न वह धैययव़न् एवं सऽक्रय ऽिव़जा, ईस ित्रि से प्रऽतिोध लेने में प्रवुत्त होकर ऄपने तलव़र क़ ऄग्रभ़ग ईसके पेट में घसि ़ ऽदय़। आपुष्ठां ऽवऽद्ठषत्किऽिां तीणं तेन प्रवेऽित़। आकुष्य़न्द्त्ऱऽण सव़यऽण स़ कुप़णा ऽवऽनगयत़।।४० 253 | पृ ष्ठ



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४०. ईसने ित्रि के पेट में पुष्ठभ़ग पययन्त िाघ्र घसि ़या गइ ईस तलव़र से सभा ऄतं ऽडय़ खींचकर ब़हर ऽगर गइ।ं किांप्यतः क़ऽतयकेयस्य िऽिः क्रौंच़चलां यथ़। व्यभ़दफजलां ऽभत्व़ ऽिवखङ्गलत़ तथ़।।४१ ४१. क्रोऽधत क़ऽतयकेय की िऽि जैसे क्रौंच पवयत को ऽवदाणय करके सि ि ोऽभत हुइ, ईसा प्रक़र ऽिव़जा की तलव़र ऄफजलख़न को ऽवदाणय करके सि ि ोऽभत होने लगा। घीणयम़नेन ऽिरस़ बभ़वफजलस्तद़। ईदृिां ऽिवऱजेन पौरुषां दऽियतां यद़।।४२ ४२. आस प्रक़र क़ पऱक्रम ऽिव़जा मह़ऱज ने जब ऽदख़य़ तब ऄफजलख़न के ऽसर के गोल-गोल घमि ने से वह सि ि ोऽभत होने लग़। ततो रुऽधरध़ऱऽभऱरीकुतमहातलः। प्रमत्त इव मोहेन घण ी यम़नोऻऽतऽवष्दलः।।४३ यथैव ऽिविष्धेण ऽनःसुत़न्द्यिदऱद्ठऽहः। तथैव़न्द्त्ऱऽण सव़यऽण ऽबभ्ऱणः स्वेन प़ऽणऩ।।४४ अनेन ऽनहतोऻस्माह जष्तेनमऽहतां जव़त।् इऽत वऽि स तां य़वत् तत्प़श्वयवऽतयऩ।।४५ तमेव़फजलस्य़ऽसां समिद्टम्य़ऽभम़ऽनऩ। ऽजघ़ांसयैव सहस़ ऽिवऱजोऻभ्यपद्टत।।४६ ४३-४६. तत्पश्च़त् ऄपने खनी की ध़ऱओ ं से भऽी म को ऽभगोकर, प़गल मनष्ि य की तरह मच्ी छ़य के झटकों से व्य़किल हुअ, वह ऄफजलख़न ऽिव़जा के िह्ल द्ऱऱ पेट से ब़हर पडा हुइ ऄतं ऽडयो को यथ़ऽस्थऽत में ऄपने ह़थों से पकडकर आसने मझि े यह़ं म़र ऽदय़, आस ित्रि को िाघ्रत़ से नष्ट करो, आस प्रक़र वह ऄपने प़श्वयवती सेवक को बोलत़ है और वह ऄऽभम़ना सेवक भा ईसा तलव़र को ईठ़कर नष्ट करने की आच्छ़ से ऄच़नक ऽिव़जा पर अक्रमण करत़ है।



254 | पृ ष्ठ



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नो हऽनष्यत्यिमां ऱज़ ऽद्ठज़ऽतऽमऽत ज़नत़। स्व़ऽमऩफजलेऩसौ योद्च़ यिद्चे ऽनवेऽितः।।४७ ४७. ब्ऱह्मण को ऽिव़जा नष्ट नहीं करे ग़। आस प्रक़र ज़नबझि कर धना ऄफजलख़न ने ईस ब्ऱह्मण योि़ को यि ि में प्रऽवष्ट ऽकय़ थ़। ऽद्ठज़ऽतररऽत तां श्रित्व़ ज़ऩनः ऽिवभीऽमपः। अभ्येतमऽप नो हन्द्तिऽमच्छऽन्द्नजनयऽस्थतः।।४८ ४८. वह ब्ऱह्मण योि़ है ऐस़ सनि कर नाऽत से व्यवह़र करने व़ले ऽिव़जा ऱज़ ने ईसको ज़न से म़रने की आच्छ़ नहीं की। अप्ऱप्त़ एव य़वत्ते तत्ऱफजलसैऽनक़ः। त़वत्स एव तां खङ्गां ऽिवस्योपययप़तयत।् ।४९ ४९. ऄफजलख़न के वे सैऽनक जब तक वह़ं नहीं पहुचं े, तब तक ईसने ईसा तलव़र से ऽिव़जा पर प्रह़र ऽकय़। ऽिवस्तत्प़ऽततां खङ्गां खङ्गेऩदत्त वै तद़। ऽिरस्तदऽधपस्य़ऽप परििेन व्यध़द् ऽद्ठध़।।५० ५०. ईसने प्रह़र की हुइ तलव़र को ईस समय ऽिव़जा ने ऄपने तलव़र से रोक ऽलय़ और पट्टे से ईस ऄफजलख़न के ऽसर के दो टिकडे कर ऽदये। परििेन ऽवऽनऽभयन्द्नमिऽच्रतस्य ररपोःऽिरः । स्वरुण़ां ऽवहतां सद्टो ऽगरेः िगुां ऽमव़पतत् ॥ ५१ ॥ ५१. ईन्नत ित्रि क़ पट्टे से क़ट़ हुअ ऽसर वज्र से फोडे गए पवयत ऽिखर की तरह नाचे ऽगर गय़। असौ ऽजष्णिरभीत्तव स म्लेच्छोऻभीन्द्महाधरः । ऽितकोऽट: परििोऻऽप ितकोऽटरभीत्तद़ ॥ ५२ ॥ ५२. ईस ऽस्थऽत में ऽिव़जा आन्र हो गय़ वह म्लेच्छ पवयत हो गय़ और ताक्ष्ण ऄग्रभ़ग व़ल़ पट्ट़ भा ईस समय वज्र हो गय़। 255 | पृ ष्ठ



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सवऽचत्कबध ां ः प्रसतु ः स्रस्त़न्द्य़न्द्व़ऽण च सवऽचत् । न्द्यपतच्च सवऽचन्द्मीध़य ऽिरोवेष्टोऻऽप च सवऽचत् ॥ ५३ ॥ ऽवप्रकीणं सवऽचच्छत्रां प्रकीणयकमऽप सवऽचत् । तत्तन्द्मिि़मऽणमयो रत्नोत्तांसः स च सवऽचत् ॥ ५४ ॥ सवऽचद्ठष्धां सवऽचच्छत्रां सम़स़द्ट दि़ऽमम़म् । सोलठि न्द्मेऽदनापष्ठु े दिष्टः स्वेनैव कमयण़ ॥ ५५ ॥ ५३-५५. कहीं पर िरार ऽगर गय़, कहीं पर ऄतं ऽडय़ं फै ल गइ,ं कहीं पर मस्तक ऽगर गय़, कहीं पर पगडा ऽगर गइ, छत्रा कहीं पर ईड गइ, चंवर भा एक तरफ ऽगर गय़, सभा प्रक़र के मोऽतयों एवं रत्नों के अभर्ी ण कहीं पर ऽगर गए तो एक ओर छत्र तो दसी रा तरफ वह्ल आस प्रक़र की ऄवस्थ़ को प्ऱप्त होकर वह दष्टि ऄपने कमों के क़रण हा भऽी म पर ऽबखर गय़। ऽनऽमष्य नोऽन्द्मपन्द्त्येव य़वत्ते तस्य सैऽनक़ः । त़वऽच्छवनुपेणोच्चैययवनः स ऽनप़ऽततः ॥ ५६ ।। ५६. जब तक ईसके वे सैऽनक अख ं ों के पलकों को बंद करके खोलते तब तक आस ऽिव़जा ऱज़ ने ईस यवन को तरि ं त नाचे ऽगऱ ऽदय़। ते हतां स्व़ऽमनां वाक्ष्य यवऩनाकऩयक़ः । किप्यन्द्तोऻताव दृप्यन्द्तो ऽवऽनधयती ़यत़यिध़ः ॥ ५७ ॥ सय्यदोऻबदिलो ऩम बड़होऽप च सय्यदः । रहामख़नोऻफजल भ्ऱतुपित्रश्च दिमयदः ॥ ५८ ॥ पहालव़नख़नोऽप मह़म़ना मह़न्द्वयः । पालिऽजच्छांकरश्चोभौ वारौ मऽहतवांिजौ ॥ ५९ ॥ चत्व़रोन्द्येऽप यवऩः पवऩऽतगऽवक्रम़ः । बऽलनोs फजलस्यैते प़ऽणग्ऱह़ः प्रम़ऽथनः ॥ ६० ॥ 256 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ध्वस्ते जांभ़सरि े सद्टः सरि ेश्वरऽमय़सरि ़ः । सभ ां ीय़भ्यपतन्द्सवे ऽिवऱजऽजघ़ांसवः ॥ ६१ ॥ ५७-६१. वे ऄपने स्व़मा को भऱ देखकर ऄब्दल ि स्यद, बड़ स्यद, ऄफजलख़न क़ घमण्डा भताज़ रहामख़न, ऄत्यन्त ऄऽभम़ना और बडे घर क़ पहलव़नख़न, ऽपल़जा एवं िक ं ऱजा मोऽहत ये दोनों वार और व़यि से भा ऄऽधक वेगव़न,् बलव़न् एवं ऄफजलख़न के पुष्ठ रक्षक ये च़र एवं ऄन्य भा ईस यवन सेऩ के ऩयक ऄत्यंत क्रोऽधत एवं गवय के स़थ िह्लों को ईठ़कर जभं ़सरि के नष्ट होने पर जैसे आन्र पर ऄसरि तत्क़ल अक्रमण करते हैं, ईसा प्रक़र ऽिव़जा को ज़न से म़रने की आच्छ़ से सभा ने ऽमलकर ईन पर अक्रमण ऽकय़। तद़ हेऽतद्ठयां तद्ठै पररभ्ऱमयत़मिऩ । पररतो ऽवतत़क़रः प्ऱक़रः ऽकमक़रर न ॥ ६२ ॥ ६२. ईस समय ईन िह्लयगि लों को घमि ़ते हुए ईस ऽिव़जा ने ऄपने च़रों ओर म़नो ऽवि़ल प्ऱक़र हा बऩ ऽदय़ हो। अभ्रमन्द्नऽप यिद्चेऻऽस्मन् स भ्रमन्द्नभ्रमन्द्तऱ। अभ्ऱमयदहोऱत्रां ऽमषत़ां ऽद्ठषत़ां दृिः ॥ ६३ ॥ ६३. ईसने आस यि ि में ऽवचऽलत न होते हुए अक़ि में गोल-गोल घमी ते हुए स्पध़य करने व़ले ित्रओ ि ं की अख ं ों को ऄहोऱत्र गोल घमि व़य़। क़लेन कलव़लेन पटिऩ परििेन च । ककिभ़ां वलय़नाव मांडल़ऽन व्यधत्त सः ॥ ६४ ॥ ६४. क़ले तलव़र से एवं ताक्ष्ण पट्टे से ईसने ऽदग्वलय के सम़न मण्डलों को बऩय़। मांडल़ऽन ऽवतन्द्व़नां मन्द्व़नां दपयम़त्मऽन । परििां च कुप़णां च व्य़धन्द्ि व़नां मिहुमयिहुः ॥ ६५ ॥ तद़ तमिग्रकम़यणां ऽिववम़यणम़हवे । न ऽवलोकऽयतिां िेकिः परे स्वेऽप च सैऽनक़ः ॥ ६६ ॥ ६५-६६. तलव़र को और पट्टे को ब़रंब़र घमि ़कर मण्डलों को बऩने व़ले एवं गवय करने व़ले ईस ईग्रकम़य ऽिव़जा को ित्रपि क्ष के और स्वपक्ष के सैऽनक यि ि में ईस समय देख नहीं सकें । 257 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



िणां ऽविन्द्वसमि ता िणम़क़िम़ऽवित।् मध्य एव िणां ऽतष्ठन् जोषम़नान्द्न स िणम् ॥ ६७ ।। ६७. क्षणभर में पुथ्वा में प्रवेि करत़ क्षणभर में अक़ि में और क्षणभर मध्य में ऽस्थत होत़, आस प्रक़र वह क्षणभर भा ि़न्त नहीं थ़। तऽडत्प़त़ऽनव स्य़दिपेत़ऩत्मनोऻऽन्द्त के । प़ऽतत़न्द्प्रऽतवारैस्तैः खङ्गप़त़ननेकिः ॥ ६८ ॥ कद़ऽचत्परििेनैव कद़ऽचद्ग़ढमिऽष्टऩ । कद़ऽचद्टिगपत्त़भ्य़ां द्ठ़भ्य़म़दत्त स प्रभिः ॥ ६९ ॥ ६८-६९. अक़िाय ऽवद्यति ् के सम़न वेग से ऄपने पर अने व़ले ऽवरुि वारों के द्ऱऱ ऽकए गए ऄनेक तलव़र के प्रह़रों को ईस स्व़मा ने कभा पट्टे से तो कभा तलव़र से और कभा ईन दोनों से रोक़। तद़ सभ ि ीयः क़डीचेंग़लसभ ां ः क़बक ां वः । किांडऽजच्च यिोऽजच्च द्ठ़ऽवमौ कांकवि ां जौ ॥ ७० ॥ गोकप़ट़न्द्वयः कुष्णः िीरऽजत् क़ांटकोऽपऻच। तथैव म़ऽहलो जावो ऽवश्वऽजच्च मिरुांबकः ॥ ७१।। सांभः करवरस्तद्ठऽदभऱमोऻऽप बबयरः । एते दि मह़वाऱः ऽिवऱज़ऽभरऽिणः ॥ ७२ ॥ कुतक्ष्वेड़रव़ः कोपऽनष्क़ऽसतमह़सयः । प्रत्यगुष्डन्द्त त़ांस्तत्र पवऩऽनव पवयत़ः ॥ ७३ ॥ ७०-७३. तब संभ़जा, क़वजा, क़त़जा आगं ळे , कोड़जा एवं येस़जा ये दोनों कंकवि ं ा, कु ष्ण़जा ग़यकव़ड, सरि जा क़ंटके , ईसा प्रक़र ऽिद्दा, आस प्रक़र आन ऽिव़जा के रक्षक दस वारों ने गजयऩ करके , म्य़न से प्रचंड तलव़रों को ऽनक़लकर, पवयत जैसे व़यि रोकत़ है, ईसा प्रक़र ईन्होंने वह़ं ित्रपि क्ष क़ ऽवरोध ऽकय़। तेष़ां तेष़ां च ऩदेन परी रते गगनोदरे । 258 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



मन्द्दिऱय़ां ऽनरुद्चोऻऽप ऽवरितोऻभीद्चररहयरेः ॥ ७४ ॥ ७४. ईन-ईन मसि लम़नों के और ईन मऱठों की गजयऩ से अक़ि पररपणी य हो गय़ ऄश्वि़ल़ में बंध़ हुअ आरं क़ घोड़ भा भ़ग गय़। ऱजन्द्दद़म्यहां तिभ्यमऽसमेतां सहस्व मे। वदन्द्मिहुमयिहुरदां वड़हः सय्यदस्तद़ ॥ ७५ ॥ नदन्द्तां ऽसांहवद्झीरर भीयोऻप्यफजल़न्द्तकम् । प्रत्यध़वऽन्द्नऽषद्चोऻऽप म़ऽहलेन तरऽस्वऩ ॥ ७६ ॥ अहमेव ऽनहन्द्स्येनम़य़त्वेष मम़ऽन्द्तके । इऽत ऽिऽतपतेव़यसयमऩकण्ययव म़ऽहलः ॥ ७७ ।। तमऽसां सय्यदोऽत्िप्तां सम़दत्त स्ववमयण़ । व्यध़च्च सय्यदां वारः करव़लेन वै ऽद्ठध़ ॥ ७८ ॥ ७५-७८. हे ऱज़! तेरे पर आस तलव़र के प्रह़र को करत़ ह,ं ती मेऱ व़र सहन कर, आस प्रक़र ब़रंब़र बोलत़ हुअ, ईस समय बड़ स्यद ऽसहं की तरह प्रचडं गजयऩ करने व़ले एवं ऄफजलख़न को ज़न से म़रने व़ले ऽिव़जा पर पनि ः दौडकर अक्रमण ऽकय़। वेगव़न् जाव़ मह़ल के ऽनर्ेध करने पर भा आसको मैं हा ज़न से म़रुंग़, आसको मेरे प़स अने दें। आस मह़ऱज़ के कथन को ऄनसनि ़ करके स्यद द्ऱऱ ईठ़ए हुए ईस तलव़र के प्रह़र को ऄपने उपर ऽलय़ और ईस वार ने ऄपने तलव़र से स्यद के दो टिकडे कर ऽदये। क़बिकीयेन कांक़भ्य़ऽमांग़लेऩऽभम़ऽनऩ । मिरुांबके न वारेण तथ़ करवरेण च ॥ ७९ ॥ क्रीरेण क़ांटके ऩऽप गोकप़टे न च रितम् । बबयरेण स़वेिां यिद्चन्द्तोन्द्येऻऽप प़ऽतत़ः ॥ ८० ॥ ७९-८०. क़व़जा, दोनों कंकवि ं ा, ऄऽभम़ना आगं ळे , वार मरुि ं बक, ईसा प्रक़र करवर, क्रीर क़टं के , ग़यकव़ड और ऽिद्दा बबयर आन्होंने क्रोध से लडने व़ले दसी रे ित्रओ ि ं को िाघ्रत़ से म़र ऽदय़। ऽनकुत्तस्कांधहस्त़ऽन ऽनकुत्तचरण़ऽन च । 259 | पृ ष्ठ



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ऽनकुत्तमीधयमध्य़ऽन पऽतत़ऽन समांततः ॥ ८१ ॥ लोऽहतेऩनिऽलप्त़ऽन रिम़मयसमऽश्रय़ । तत्र तेष़महो त़ऽन वपीांऽष प्रचक़ऽिरे ॥ ८२ ।। ८१-८२. कन्धे एवं ह़थ से भग्न, पैर से टिटे हुए, मस्तक एवं मध्यभ़ग से टिटे हुए, ल़ख की तरह रि से रंऽजत च़रों तरफ पडे हुए ईनके िरार वह़ं चमकने लगें। एक़िात्य़ऽधकै ः पांच दिऽभः सांऽमतैः ितैः । ि़ऽलव़हे िके सांवत्सरे चैव ऽवक़ररऽण ॥ ८३ ॥ म़ऽस म़गे ऽसते पिे सप्तम्य़ां गिरुव़सरे। मध्य़ष्ढे दैवतद्ठेषा ऽिवेऩफजलो हतः ॥ ८४ ॥ ८३-८४. िक १५८१ ऽवक़रा संवत्सर के म़गयिार्य म़स के िक्ि लपक्ष की सप्तमा ऽतऽथ तथ़ गरुि व़र के दोपहर को देवों से द्रेर् करने व़ले ऄफजलख़न को ऽिव़जा ने ज़न से म़र ऽदय़। ऽवध्वस्तेऻफजलेबऽलन्द्यऽप बलेनैतेन भीमाभुत़, व़ऽत स्म़ऽतऽहमः प्रभीतकिसमि ़मोदा मुदिम़यरुतः । नद्टश्च़ऽप सिध़वद़तसऽलल़ः सद्टः ऽस्थऱ सिऽस्थऱ, स्वां स्वां स्थ़नमव़प्य ऽनवयतु रृदः सवेऻप्यभीवन्द्सिऱः ॥८५॥ ८५. बलपवी क य आस ऱज़ ने बलव़न् ऄफजलख़न को ज़न से म़र ऽदय़ तो ऄत्यन्त िातल, ऄसंख्य फिलों की सगि न्ध से यि ि , मदं -मदं व़यि बहने लगा, नऽदय़ं भा ऄमुत के सम़न िि ि प़ना से यि ि हो गइ, तत्क़ल पुथ्वा ऄत्यन्त ऽस्थर हो गइ, सभा देव भा ऄपने-ऄपने स्थ़न पर ज़कर सख ि ा हो गए। इऽत ऽनजररपिमिच्चैः सांगरे प़तऽयत्व़, ऽवलसऽत ऽिवभीमावल्लभे िष्धप़णौ । सपऽद ऽवजयिस ां ा व्यभिव़नऽष्धलोकीम,् ऽगररऽिऱस गभारो दिन्द्दिऽभः प्ऱदिऱसात् ॥ ८६ ।। 260 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



८६. आस प्रक़र ऄपने ित्रि को यि ि में बल से म़रकर, सिह्ल ऽिव़जा सि ि ोऽभत होने लग़ तो तानों लोकों को व्य़प्त करने व़ला ऽवजय सची क एवं गभं ार ददंि भि ा की ध्वऽन ऽकले पर हुइ। इत्यनिपिऱणे परम़नन्द्दकवान्द्रप्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्रय़ां सांऽहत़य़मफजलवधो ऩम एकऽवांिोऻध्य़यः ॥ २१॥



261 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-२२ तेन दिन्द्दिऽभऩदेन दीतेनेव प्रसपयत़ । सैऽनक़: ऽिवऱजस्य सपऽद प्रऽतबोऽधत़ः ॥ १ ॥ १.कवान्र बोले- दती के सम़न वेग से ज़ने व़ला ईस ददंि भि ा ध्वऽन ने ऽिव़जा के सैऽनकों को तत्क़ल सची ऩ दे दा। सौलऽिकः कमलऽजद्टिोऽजत् कांक एव च । त़ऩऽजन्द्मल्लसीरश्च किण्डो वरखलस्तथ़ ॥ २ ॥ ऱमः प़ङ्ग़ररकश्च़मा पञ्च पञ्च़ऽग्ब्नतेजसः। एकै के न सहस्रेण पत्ताऩां पररव़ररत़ः ॥ ३ ॥ सहस्रै: पञ्चऽभस्तद्ठद्ठुतो ऩऱयणो ऽद्ठजः । ि़त्रेण कमयण़ ख्य़तः सवेऻप्येते मह़यिध़ः ॥ ४ ॥ बष्द़यिधायगहऩां गहऩन्द्तरवऽतयनाम् । य़दव़रयन्द्नेत्य पररतः परव़ऽहनाम् ॥ ५ ॥ २-५. कमकोजा सोळंख,े येस़जा कंक, त़ऩजा म़लसि रे , कोंड़जा, वरखल और ऱमजा प़ंग़रकर, ये प़ंच ऄऽग्न के सम़न तेजस्वा वारों ने ऄके ले हज़रों पद़ऽतयों के स़थ तथ़ ईसा पऱक्रम से ऽवख्य़त एवं प़ंच हज़र पद़ऽतयों के स़थ ऽवद्यम़न ऩऱयण ब्ऱह्मण, आन सभा योि़ओ ं तथ़ मह़योि़ओ ं ने वेग से अकर वन के मध्यभ़ग में ऽस्थत, ऄनेक योि़ओ ं से यि ि ित्रि की सेऩ को च़रों ओर से घेर ऽलय़। अत्ऱन्द्तरे परेऻप्यिच्चैः पटहेन प्रण़ऽदऩ । हतोsफजल इत्येव सहस़ प्रऽतबोऽधत़ः ॥ ६ ॥



262 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



सज्जम़ऩस्स़ऽभम़ऩन् सरां ब्ध़न् प्रऽतरुन्द्धतः । त़न् पत्तान् पवयतोप़न्द्त़देत़नैिन्द्त सवयतः ॥ ७ ॥ ६-७. आस बाच ित्रओ ि ं को भा ऄफजलख़न म़ऱ गय़ यहा ब़त ईच्चध्वऽन से बजनेव़ला ददंि भि ा के द्ऱऱ सहस़ ज्ञ़त होने पर वे सज्ज हो रहे थे ऽक तभा पवयत के तट से अये हुए ऄऽभम़ना, संरब्ध एवं अक्रमण करने व़ले पद़ऽत च़रों ओर से ऽदख़इ ऽदये। ऽनमयद़ इव म़तङ्ग़ ऽनऽवयष़ इव पन्द्नग़ः । ऽनरुण़ इव नऱ ऽनःिुङ्ग़ इव भीधऱः ॥ ८ ॥ ऽनजीवऩ इव घऩः ऽिताि़ इव ऽनधयऩः । ऽवरेऽजरे न यवऩस्ते तद़फजलां ऽवऩ ॥ ९ ॥ ८-९. मदरऽहत ह़था, ऽवर्रऽहत स़ंप, पगडा से रऽहत मनष्ि य, ऽिखरों से रऽहत पवयत, प़ना से रऽहत ब़दल और धनहान ऱज़ आन सबके सम़न वे यवन ऄफजलख़न के ऽबऩ ईस समय सि ि ोऽभत नहीं हो रहे थे। त़तस्य़फजलस्यैतत् पतनां नभसो यथ़ । श्रित्व़ ध्वस्तऽधयस्तत्र मिमिहुस्तनय़ष्धयः ॥ १० ॥ १०. अक़ि के ऽगरने के सम़न ऽपत़ ऄफजलख़न को मऱ हुअ ज़नकर ईसके तानों पत्रि की बऽि ि के नष्ट हो ज़ने से वे ऽवचऽलत हो गये थे। नभस्वत़ प्रतापेन भग्ब्नपोत़ इव़णयवे । तद़ ते जाऽवतस्य़ि़मत्यजन् गहने वने ॥ ११ ॥ ११. प्रऽतकील व़यि के द्ऱऱ समरि में ऩव के भग्न होने से ईसमें ऽस्थत लोग जैसे जावन की अि़ को छोड देते है, ईसा प्रक़र ईन्होंने ईस गहन वन में ईस समय जावन की अि़ को छोड ऽदय़। अथ कुच्रगत़न् सव़यन् गतगव़यन् गतौजसः । सैन्द्य़न्द्तवयऽतयनस्सैन्द्य़न् वाक्ष्य ऽवरवतो ऽनज़न् ॥ १२ ॥ भऽिम़न् स्व़ऽमऽन मुधे िऽिम़नऽतकोपऩः । 263 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



स्फिरदिद्चोणवदनः पथ ु िप्रसऽु तलोचनः ॥ १३ ॥ क्रीरः कररकऱक़रकरः प्रऽतभयस्वरः । ऽस्थराकुत्य मिसेख़नः पठ़नः स्वयमब्रवात् ॥ १४ ॥ १२-१४. तब सेऩ के ऄपने सभा सैऽनकों के संकट में फंसने के क़रण से गवयरऽहत एवं बल से नष्ट होकर भ़गता हुइ ऄपना सेऩ को देखकर, स्व़ऽमभ़व, िऽिम़न्, ऄत्यन्त क्रोधा, ऩक को उपर चढ़़य़ हुअ एवं महंि को फिल़कर, ऽवस्ताणय ऄजं ला के सम़न अंखों से यि ि , ह़था के संडी के सम़न भजि ़ओ ं एवं भयंकर स्वर से यि ि वह मसि ेख़न पठ़न ईनको रोककर बोलने लग़। तुणाकुत्य़त्मनः प्ऱण़न् स्व़ऽमक़ययऽचकीषयय़ । स गतोऻफजलस्तऽहय वयां सवेऻऽप ऽकां गत़ः ॥ १५ ॥ १५. मसि ेख़न बोल़ - स्व़ऽमक़यय करने की आच्छ़ से ऄपने प्ऱणों को ऽतनके के सम़न म़नकर ऄफजलख़न यऽद मर भा गय़ तो क्य़ हम सब भा मर गयें? सवयतः सवां ुतपथः पवयतः सव गऽमष्यथ । आऽस्तष्ठत प्रहरत प्रताप़न् पररतः ऽस्थत़न् ॥ १६ ॥ १६. च़रों ओर से पवयत क़ म़गय बदं कर ऽदय़ है तो तमि कह़ं ज़ओगे? ऄरे ! खडेऺ रहो और च़रों ओर ऽस्थत ित्रओ ि ं को म़रो। स्व़ऽमनां व़ सख़यां व़ सह़यां व़ स्वमिज्झत़म् । के ष़ऽञ्चदऽप ऽवरित्य जावत़ां म़स्ति जाऽवतम् ।। १७ ।। १७. ऄपने स्व़मा को, ऽमत्र को य़ ऄपने स़था को छोडकर जो कोइ भ़गकर ऄपने प्ऱणों को बच़येग़, ईसके जावन को ऽधक्क़र हैं। स्व़ऽमक़ययमकिव़यणः किव़यण ष्ध़णम़त्मनः । कथां दिययति स्वायां मिखम़त्मजऩऽन्द्तके ॥ १८ ॥ १८. स्व़ऽमक़यय ऽकये ऽबऩ ऄपना रक्ष़ करने व़ल़ मनष्ि य, ऄपऩ महंि ऄपने लोगों को कै से ऽदख़ सकत़ है? ऽवकऱलां मह़क़लां करव़लां करे वहन् । 264 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



प्रसष्त ऽवऽद्ठष़ां सेऩऽमम़ां प़तऽयत़स्म्यहम् ॥ १९ ॥ १९. ऄत्यन्त भय़नक, प्रलयक़रा आस तलव़र को ह़थ में लेकर मैं आन ित्रिओ ं की सेऩ को बल़त् नष्ट कर दगंी ़। एवमिसत्व़ मह़ब़हुस्सम़रुष्त मह़हयम् । सांवुतः स्वेन सैन्द्येन ऽिऽवऱऽन्द्नयययौ रय़त् ॥ २० ॥ २०. आस प्रक़र बोलकर वह मह़ब़हु मह़न् घोडे पर चढ़कर ऄपना सेऩ के स़थ ऽिऽबर से वेगपवी क य ऽनकल गय़। तमऽन्द्वय़य हसनः श्वसनप्रऽतमो बला | अन्द्येऽप सैन्द्यपतयः स्वरवसैन्द्यसमऽन्द्वत़ः ॥ २१ ॥ २१. व़यि के सम़न वेगव़न,् बलव़न,् हसन एवं दसि रे सेऩपऽत भा ऄपना-ऄपना सेऩ के स़थ ईसके पाछे चले गये। अन्द्तऱदन्द्तिऱनेकप्रसुतप्रस्तऱऽवलम् । तिरङ्गमखिऱघ़तोत्पतदऽग्ब्नकण़किलम् ॥ २२ ॥ स्यदत्स्खलत्पदपतज्जांघ़लजनसक ां ि लम् । अभीत् प्रचलने तेष़ां प्रचलां तन्द्महातलम् ॥ २३॥ २२-२३. मध्य-मध्य में ईबड-ख़बड ऄनेक ऽवस्ताणय पत्थरों से व्य़प्त घोडों के खरि ों के अघ़त से ईडने व़ला ऽचंग़ररयों से पणी ,य पैर के ऽफसलने से य़ ठोकरें ख़कर ऽगरने व़ले चपल लोगों के भाड से व्य़प्त वह भऽी म ईसके ह़लच़ल से कंऽपत हो गइ। अथ प्रऽतभट़न् वाक्ष्य सांरब्धैरश्वस़ऽदऽभः । अप्यश्मवत्मसि रय़त् परि ो ननि ऽि दरे हय़ः ॥ २४ ॥ २४. तब ित्रि योि़ओ ं को देखकर ऽवचऽलत घडि सव़रों ने ऄपने घोडों को पत्थरों से यि ि म़गय के उपर से भा वेग से अगे ले गयें। ततः पिरः प्रणिन्द्ऩश्वो मिसेख़नोऻत्यमषयणः । तरस्वा प्रऽतजग्ऱह पुषत्कै ः परसैऽनक़न् ॥ २५ ॥



265 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



२५. तत्पश्च़त् ऄत्यन्त क्रोऽधत एवं वेगव़न् मसि ेख़न ने ऄपने घोडे को अगे ले ज़कर ित्रि के सैऽनकों पर ब़णों की वऱ्य की। हसऩद्ट़स्तथ़न्द्येऻऽप क्रिद्च़ः सवे धनिभयुतः । िरैऱकिलय़ञ्चक्रिः परि स्थ़न पररपऽन्द्थनः ॥ २६ ॥ २६. हसन आत्य़ऽद दसी रे सभा क्रोऽधत धनधि यरों ने सम्मख ि ऽस्थत ित्रओ ि ं को ब़णों से जजयररत कर ऽदय़। तद़ रोष़रवैस्तेष़ां हय़ऩां ह्रे ऽषतैरऽप । बुांऽहतैश्च महेभ़ऩां यिद्च़वेिोपबुांऽहतैः ॥ २७ ॥ चण्डदण्ड़हत़ऩां च पटह़ऩां पटिस्वनैः । ऽवऽवध़ऩां च व़द्ट़ऩां ऽनऩदभयुिभाषणैः ॥ २८ ॥ तथ़ऽभतस्तरिण ी ़ां ऋि़ण़ां वनपऽिण़म् । ि़दीयल़ऩां वुक़ण़ां च खड्ऽगऩां वनदऽां ष्रण़म् ॥ २९ ॥ ऽनगयत़ऩां दरागभ़यत् सद्टःिऽि भतचेतस़म् । कोल़हलैः सिबहुऽभगयगनोदरग़ऽमऽभः ॥ ३० ॥ प्रसभां परी रत़त्यिच्चैरटवा स़ऽतसङ्कट़ । प्रऽतध्व़नैः प्रऽतभट़निद्झट़न् बष्दतजययत् ॥ ३१ ॥ २७-३१. ईस समय ईनके क्रोधयि ि िब्दों से, घोडों के ऽहनऽहऩने से, यि ि के अवेि से, बडे ह़ऽथयों द्ऱऱ ऽकए गए प्रचंड चात्क़र से, छडा के प्रह़र से बजने व़ले नग़डों की ताव्र ध्वऽन से, ऽवऽवध व़द्यों के भय़नक अव़जों से, ईसा प्रक़र च़रों से ऄच़नक ऽवचऽलत होकर गफ ि ़ओ ं से ब़हर ऽनकले हुए, व़द्य, भ़ली, जगं ला पक्षा, भेऽडय़, गेडे, सऄ ि र अऽद गगनभेदा ऄसंख्य कोल़हल से ऄत्यन्त वेग से पररपणी य हुए ईस ऄत्यन्त दगि यम ऄरण्य की प्रऽतध्वऽन के द्ऱऱ ईिट सैऽनकों को ऄनेक ब़र धमक़य़ गय़। िरैस्ताक्ष्णतरैऽवयद्च़ अप्यऽवद्च़न पद़तयः । तऽस्मन् रणे मण्डल़ग्रै: ऽिऽतमण्डलम़नयत् ॥ ३२ ॥ 266 | पृ ष्ठ



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३२. ऄत्यन्त ताक्ष्ण ब़णों से ऽवदाणय हुए पद़ऽतयों ने भा ईस यि ि में ऄब़ऽधत गऽत व़ले तलव़रों से ित्रओ ि ं को भऽी म पर ऽगऱय़। ध़वऽद्झरऽसध़ऱऽभः िकलाकुतसैन्द्धव़ः । स्पधययेव़श्वव़ऱस्तैः पऽत्तऽभः पत्तयः कुत़ः ॥ ३३ ॥ ३३. दौडने व़ले ईन पद़ऽतयों ने घडि सव़रों के घोडों के टिकडे करके ईनको म़नो स्पध़य से पद़ऽत हा बऩ ऽदय़ हो। कऽश्चत् परप्रहरणप्ररृतो रुऽधऱरुणः । पतन्द्ननिरुस्सहस़ सीययमण्डलम़सदत् ॥ ३४ ॥ ३४. कोइ ित्रि के िह्ल के प्रह़र से रिरंऽजत हो गय़ तथ़ नाचे ऽगरकर सहस़ सयी यलोक हा चल़ गय़। कऽश्चत् भामेन वारेण ऽभन्द्नोरुयिगमण्डलः । सद्टस्सियोधनदि़मन्द्वभीद्ठसिध़ां ऽश्रतः ॥ ३५ ॥ ३५. कोइ भयक ं र वार द्ऱऱ जघं ़ओ ं के फोडने से वह तत्क़ल भऽी म पर ऽगरकर दयि ोधन की दि़ क़ ऄनभि व करने लग़। कऽश्चऽन्द्नयिध्यत़त्यिच्चैऽद्ठयषत़ ऽद्ठदलाकुतः । वारो ऽवपययस्तवपिजयऱसन्द्ध इव़पतत् ॥ ३६ ॥ ३६. मऽि ष्टयि ि करने व़ले ऽकसा वार ित्रि के दो टिकडे होने के क़रण वह जऱसंध के सम़न ऽवपरात होकर ऽगर गय़। गिऽळक़यन्द्त्रऽनमयििगिऽळक़ऽवद्चविसः । के ऽचद्चुतधनज ि ीव़ अऽप ऽनजीवत़ां दधःि ॥ ३७ ॥ ३७. तोप से ऽनकले हुए गोले से ऽवदाणय छ़ता व़ले किछ वार धनर्ि की प्रत्यच ं ़ को ह़थ में पकडकर हा मुत्यि को प्ऱप्त हो गए। तत्तल्ल़घवम़स्थ़य प्रहरन् वै प्रभ़ऽवणम् । खड्गखेटकभुत् कऽश्चत् बभ़र बत गौरवम् ॥ ३८ ॥



267 | पृ ष्ठ



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३८. ढ़ल एवं तलव़र को ध़रण करने व़ल़ कोइ वार ऩऩ प्रक़र के पऱक्रम को ऽदख़कर पऱक्रमा वार पर प्रह़र करत़ हुअ सि ि ोऽभत होने लग़। पररतः प़ऽततोदग्रतरव़ररतऽडल्लत़ः । प्ऱवेपययन्द्त यवऩन् घऩः ऽिवपद़तयः ॥ ३९ ॥ ३९. ऽिव़जा के पद़ऽतरूपा ब़दल से भयंकर तलव़ररूपा ऽबजऽलयों के च़रों ओर से ऽगरने के क़रण यवन कंऽपत हो गए। स्वमिखेन स्वयोध़ऩां सम्मख ि े यो व्यकत्थयत् । सोऻऽप सांख्ये मिसेख़नः िीरैस्तैरभ्यभ़व्यत ॥ ४० ॥ ४०. ऽजसने ऄपने योि़ओ ं के स़मने ऄपने महंि से ऄपना प्रिसं ़ की था, वह मसि ेख़न भा ईन वारों द्ऱऱ पऱऽजत हो गय़। अथ ध्वस्तहये त्रस्तिष्धे ऽवत्रस्तचेतऽस । अपक्ऱमऽत सांग्ऱम़त् मिसेख़नेऻऽभम़ऽनऽन ॥ ४१ ॥



सद्टो य़ऽपतवैय़त्ये य़कितेऻप्यपय़ऽयऽन । अत्य़ऽहतेन हसने व्यसनेषि ऽनमज्जऽत ॥ ४२ ॥ भयिङ्किविे ऽिप्रमांकििे ऽवगतौजऽस । मुदिभ्य़मपकोष़भ्य़ां पद़भ्य़मपसपयऽत ॥ ४३ ॥ क़तरौ भ्ऱतरौ ऽहत्व़ ज्य़य़नफजल़त्मजः । ऽवह़य सेऩां च़स्थ़य रूप़न्द्तरमप़सरत् ॥ ४४ ॥ ४१-४४. ऽफर घोड़ नष्ट हो गय़, िह्ल ऽगर गये और मन भयभात हो गय़, ऐसा ऽस्थऽत में वह ऄऽभम़ना मसि ेख़न नष्ट कर ऽदय़ गय़, बडे भय से हसन संकट में मग्न हो गय़। भयभात होकर सक ि ोमल पैरों से यि ि ऄक ं ि िख़न स़मथ्यय के नष्ट होने से िाघ्र दबे प़ंव ऽनकल गय़, भयभात दोनों भ़इयों को छोडकर तथ़ सेऩ को भा छोडकर ऄफजलख़न क़ ऽपत़ वेर् बदलकर भ़ग गय़। 268 | पृ ष्ठ



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ततस्तद्टेऽदल़नाकमप़रमपऩयकम् । पल़यम़नमऽभतः ऽिवसैन्द्यैन्द्ययरुध्यत ॥ ४५ ॥ ४५. तत्पश्च़त् अऽदलि़ह की ऽवि़ल एवं ऩयक से हान सेऩ पल़यन करने लगा तो ऽिव़जा के सैऽनकों ने ईन पर च़रों ओर से प्रह़र ऽकय़। यिध्यध्वां म़ां भुिबलां भ्ऱतरां ि़हभीभिजः । मम्बो वदऽन्द्नदां तत्र बत बन्द्ध़दमिच्यत ॥ ४६ ।। ४६. िह़जाऱज़ क़ भ़इ जो मैं भोंसले ह,ं मेरे से यि ि करो, आस प्रक़र बोलते हुए मबं ़जा को वहीं पर जन्म बंधन से मि ि कर ऽदय़। पौत्र: फऱदख़नस्य ऩम्ऩ यो रणदीलहः । तेजस़ ताव्रतातव्रेण सवेण़ऽप सिदिःसहः ॥ ४७ ।। स़हसा िोणतनयः कोपा कोणपऽवक्रमः । यिगदाघयभिजो म़ना घनसहां ननो यिव़ ॥ ४८ ॥ स ऽनजां प्रहयन्द्नेव िैलिुङ्गसमां ऽिरः । ऽिवसैन्द्यविां य़तो बत बन्द्धमिप़ददे ॥ ४९ ॥ ४७-४९. ऄत्यन्त तेजस्वा पऱक्रम के क़रण सभा के ऽलए ऄत्यन्त दःि सह, पऱक्रमा, िोण के पत्रि , क्रोधा, ऱक्षस की तरह पऱक्रमा, जएि की तरह दाघय भजि ़ओ ं से यि ि , ऄऽभम़ना, सदृि ढ़ िरार व़ल़, जव़न, फऱदख़न क़ पौत्र रणदल्ि ल़, वह पवयत के ऽिखर के सम़न ऄपने ऽसर को नमन करते हा ऽिव़जा की सेऩ के ऄधान होकर कै द हो गय़। सभयोंऻबरख़नस्य तनयोंऻबरऩमकः । तद़ ऽववणयवदनो बत जाऽवतक़मिकः । ५० ।। ऽवन्द्यस्तवमयऽनऽष्धांिचमयिऽििऱसनः । ऽिवसैन्द्यविां य़तो बत बन्द्धमिप़ददे ॥ ५१ ॥



269 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



५०-५१. ऄबं रख़न क़ पत्रि भयभात ऄबं र ऽनस्तेज होकर प्ऱण बच़ने की आच्छ़ से कवच, तलव़र, ढ़ल और धनर्ि फें ककर ऽिव़जा के सैऽनकों के ऄधान होकर कै द हो गय़। मतङ्गजवदिन्द्मत्तो ऱजऽजन्द्ऩम घ़ऽण्टकः । ऽिवसैन्द्यविां य़तो बत बन्द्धमिप़ददे || ५२ ॥ ५२. ह़था के सम़न मदमस्त ऱज़जा घ़टगे यह ऽिव़जा की सेऩ के ऄधान होकर कै द हो गय़। ऽनज़ग्रजपररत्यिौ यौ त़वफजल़त्मजौ । ऽिवसैन्द्यविां य़तौ बत बन्द्धमिपेयतिः ॥ ५३ ।। ५३. ऽजनको ईनके ऽपत़ एवं भ़इयों ने छोड ऽदय़ थ़, वे ऄफजलख़न के पत्रि ऽिव़जा की सेऩ के ऄधान होकर कै दे हो गये। अन्द्येऻऽप येऽदल़नाकऩयक़ऽश्छन्द्नस़यक़ः । सहऽस्रणो ऽद्ठस़हस्ऱः ऽत्रस़हस्ऱश्च भीररिः ।। ५४ ।। पञ्चषट्सप्तस़हस्ऱः ऽत्रदि़ररसमऽश्रयः । ऽिवसैन्द्यविां य़त़ बत बन्द्धमिप़ययिः ॥ ५५ ॥ ५४-५५. एक हज़र, दो हज़र, तान हज़र, प़च ं हज़र, छः हज़र, स़त हज़र ऐसे ऱक्षस की तरह अऽदलि़ह के दसी रे भा ऄनेक तेजस्वा सेऩपऽत ब़ण के टीट ज़ने से ऽिव़जा को सेऩ के ऄधान होकर कै द हो गये।



प़ऽततैश्च पतऽद्झश्च प़त्यम़नैः पल़ऽयतैः । तद्ठाऱिांसनां वारैरगमद्ठणयनायत़म् ॥ ५६ ॥ ५६. ऽगऱ ऽदये गए, ऽगरने व़ले, ऽगऱये ज़ने व़ले एवं भ़गे हुए वारों से ऄत्यन्त भयंकर वह यि ि भऽी म वणयनायत़ को प्ऱप्त हो गइ। प़िै: प्ऱसैश्चांरह़सैः परििैश्च परश्वथैः । मिद्गरैः पररघैस्तद्ठत् ऽत्रिल ी ैस्तोमरैरऽप ॥ ५७ ॥ 270 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



गद़ऽभश्िऽिऽभश्च़पैऽनयषङ्गैररषपि री रतैः । खेटकै श्च़ऽप चक्रैश्च छिररक़ऽभः कट़रकै ः ॥ ५८ ॥ तनित्रैश्च ऽिरष्धैश्च स्वणयस़रसनैस्तथ़ । तलत्रैरङ्गिऽलत्रैश्च यन्द्त्रैऱग्ब्नेयसांऽज्कै ः ॥ ५९ ॥ आनकप्रमिखैव़यद्टैः पत़क़ऽभध्वयजैरऽप । ऽबरुदैऱतपत्रैश्च प्रकीणैश्च प्रकीणयकैः ॥ ६० ॥ उल्लोचैः क़ण्डपटकै रनेकैः पटमण्डपैः । नैकवणै: सिऽवस्ताणै: मह़हयिौमजन्द्मऽभः ॥ ६१ ॥ ऽत्रपदै: करकै ः स्थ़लैश्चषकै श्च पतद्ग्रहै: । चतिष्कै मयञ्चकै श्च़ऽप रूप्यक़ञ्चनऽनऽमयतैः ॥ ६२ । इतस्ततः पररस्रस्तैस्तैस्तैवयष्धैश्च भीररिः । अन्द्यैरऽप मह़सैन्द्यसभ ां ़रैरऽभतः ऽश्रत़ ॥ ६३ ॥ ऽववुत़स्यपररस्पष्टदिनैः स्तब्धलोचनैः । ऽिरोऽभऽवयगतोष्णाषैरुग्रवेषवता सवऽचत् ॥ ६४ ॥ आब़हुमील़त्पऽततैधयतु रत्ऩङ्गिलायकै :॥ सवऽचत्प्रस़धत़ङ्गाव कोमल़ङ्गिऽलऽभः करैः ॥ ६५ ॥ स्थीलस्थीणोपमैमयील़ऽच्छन्द्नैरुरुऽभरुरुऽभ: । ज़निजांघ़ग्रऽवभ्रष्टैरांऽिऽभश्चोऽच्रत़ सवऽचत् ॥ ६६ ॥ गुधैरुत्कुत्तमऽस्तष्कग्ऱसग्रसनलम्पटै ः । पटिचञ्चीपिटैः पिप्रच्छ़ऽयतपथ़ सवऽचत् ॥ ६७ ।। आपतऽन्द्नजयीथ्योग्रत्रस्यत्कोष्टुकिल़किल़। 271 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ितजोत्िेपणक्रीडड्ड़ऽकनामण्डल़ सवऽचत् ॥ ६८ ॥ दऽियतोदग्रदन्द्त़ग्रऽनकुत्त़न्द्त्रवस़ऽमषैः । स्रितलोऽहतऽलप्त़ङ्गै: ऽपि़चैश्च़ऽञ्चत़ सवऽचत् ॥ ६९ ।। हरह़रऽवऽधप्रातयोऽगना योऽगना सवऽचत् । स़ तद़ऽधगत़थ़यभीज्जयवल्लावऩवना ॥ ७० ॥ ५६-७०. प़ि, भ़ले, तलव़र, पट्ट, परि,ि मद्गि र, पररघ, ऽत्रिल ी , तोमर, गद़, िऽि, धनर्ि , ब़णों से पणी य तरकस, ढ़ल, चक्र, च़की, कट़र, कवच, ऽिरह्ल़ण, सोने की कमर की बेल्ट, चमडे के दस्त़ने, चमडे के ह़थ, तोप, ददंि भा अऽद व़द्य, पत़क़, ध्वज, ऽबरुद, आधर-ईधर ऽगरे हुए छ़तें, छत, कणय अभर्ी ण, ऄनेक रंगों से यि ि , ऄत्यऽधक ऽवि़ल एवं ऄऽतमल्ी यव़न,् ऄनेक तंबी, कलस, बतयन, िऱब के प़त्र, थंक ी ने क़ प़त्र, च़ंदा एवं सोने के पलंग, आधर-ईधर ऽगरे स़म़न से व्य़प्त खल ि ़ महंि होने के क़रण द़ंतों क़ स्पष्ट ऽदखऩ ऽनश्चल नेत्र, पगडा रऽहत ऽसरों के द्ऱऱ ईग्र स्वरूप, रत्नों की ऄगं ऽि ठयों से यि ि , कोमल ईंगऽि लयों के कन्धे के प़स से टिटकर ऽगरे हुए ह़थों से, म़नों िरार श्रुगं ़ररत प्रतात हो रह़ थ़, जोडों के प़स से टिटे हुए एवं बडे खम्बे की तरह भ़रा ज़ंघों व़ले, घटि नों एवं टखनों के प़स से टिट हुए पैरों से कहीं ईंचा हो गइ, मस्तक से टिटे हुए भ़ग को ख़ने में मग्न, ताक्ष्ण चोंच व़ले ऽगधडों के पख ं ों की ईसके म़गय पर छ़य़ पड रहा था, दौडकर अने व़ले ऄपने स्व़मा से ऄत्यन्त डरने व़ले लोमडा के झडंि से व्य़प्त और कहीं पर रि को ईड़कर खेलने व़ल़ ड़ऽकऽनयों क़ मण्डल थ़, ऽजन्होंने भयंकर दतं ़ग्र से चमडा, म़ंस तोडकर ब़हर ऽनक़ल़ है एवं ऽजनके ऄगं ों को ढ़ोने से रिरंऽजत ऽपि़चों से व्य़प्त, कहीं पर िक ं र को चढ़़इ गइ म़ल़ से अनऽन्दत योऽगनायों से यि ि ऐसा वह जयवल्ला की ऄरण्यभऽी म, ईस समय जयवल्ला ऩम के योग्य बनीं। इऽत ऽजतपऱनाक़स्ते ते पद़ऽतबल़ऽधप़ः । प्रमिऽदतरृदस्सवे खवेतरस्मयसङ्गत़ः ॥ सरभसमथो बद्च़नद्च़ ऽवरुद्चचमीपतान् । पऽद पऽद पिरस्किवयन्द्तस्त़ांऽछवां समलोकयन् ॥ ७१ ॥ ७१. आस प्रक़र ित्रि सेऩ को जातकर ईस पद़ऽत के सभा सेऩऩयक अनऽन्दत एवं ऄऽतिय गवय से यि ि हो गये। ऽफर वेग से कै द ऽकए गए ईन ित्रि के सेऩपऽतयों को पग-पग पर अगे ढकलते हुए ईनको ऽिव़जा के दियन करव़ये। के ऽचत् सांयऽत प़ऽतत़ः सकितिकां के ऽचच्च ऽवऱऽवत़ः । सांरब्धेन ऽिवेन ते प्रऽतभट़ः के ऽचच्च बन्द्दाकुत़ः ॥ 272 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



एतत्तत्र जगत्रयऽस्थऽतपरे ऱजन्द्यलाल़धरे । दिष्टध्वस ां करे धऱभयहरे ऽचत्रां न ऽवश्वम्भरे ॥ ७२ ॥ ७२. किछ को यि ि में म़र ऽदय़, किछ को कौतक ि के स़थ भग़ ऽदय़ और किछ ित्रि योि़ओ ं को क्रोऽधत ऽिव़जा ने जेल में ड़ल ऽदय़, तानों लोगों की रक्ष़ करने व़ले, दष्टि ों क़ ऩि करने व़ले, पुथ्वा के भय को सम़प्त करने व़ले एवं क्षऽत्रय लाल़ करने व़ले ऽवश्वभर के ऽलए क्य़ यह अश्चयय क़रक नहीं है? इत्यनपि रि ़णे सयी यवि ां े कवींरपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हश्रय़ां सऽां हत़य़ां अफजलसैन्द्यभङ्गो ऩम द्ठ़ऽवि ां ोऻध्य़यः ॥ २२ ॥



273 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-२३ अथ तत्तऽच्छरोवेष्टऽश्लष्टदोद्ठययपष्ठु क़न् । उष्णसल़न्द्त़ऽन्द्नरुष्णाप़न्द्नमग्राव़न् ऽवचेतसः ॥ १ ॥ ऽवकुष्ट़न् सैऽनकै ः स्वायैः परसेऩपतान् पिरः । पिांजाभीत़न् प्रत़प़रौ ऽिवऱजो व्यलोकत ॥ २ ॥ १-२. कवान्र बोले - तत्पश्च़त् ईन ईनकी पगडा से पाछे दोनों ह़थों से बंधे हुए, धपी से ऽनस्तेज महंि व़ले, पगडा रऽहत, नाचे गदयन ऽकए हुए, ऽखन्न मन व़ले ऐसे ित्रपि क्ष के सेऩपऽत ऄपने सैऽनकों को खींचकर ऄपने स़मने आकट्ठे ऽकए हुओ ं को ऽिव़जा ने देख़। ततोऻररसैन्द्य़द़नात़न् सौवण़यन् ऱजत़न् पण़न् । मञ्जीष़न्द्तरऽनऽिप्त़न् रत्नऱिाननेकिः ॥ ३ ॥ तथ़ मिि़मय़न् ह़ऱन् हेमभ़ऱांश्च भीररिः । स किबेरगहु ़क़रे कोष़ग़रे न्द्यध़पयत् ॥ ४ ॥ ३-४. ऽफर ित्रि की सेऩ से ल़ए गए सोने एवं च़ंदा के ऽसक्के को, पेऽटयों में रखें हुए स्थ़या रत्नों के समही को, ईसा प्रक़र मोऽतयों के ह़र और सोने के ऄनेक ढ़ेर ईसने किबेर के घर की तरह ऄपने कोऱ्ग़र में रखव़ ऽदये। मनाऽषण: उचि:अल्लाि़हस्य त़ां सेऩां सऽहतः पऽत्तसेनय़ । जयवल्लावऩम्भोधौ न्द्यमज्जयदयां ऽिवः ॥ ५ ॥ त़वत्सेऩपऽतस्तस्य सऽहतः सऽप्तसेनय़ । सव नि ऽस्थतो ऽकमकरोत् कवींर तदिदारय ॥ ६ ॥ 274 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



५-६. पऽण्डत बोले - पद़ऽतयों से यि ि आस ऽिव़जा ऱज़ ने ऄल्लाि़ह की सेऩ को जयवल्ला के ऄरण्यरूपा स़गर में डिबों ऽदय़ तब तक ईसक़ सेऩपऽत घडि सव़रों के स़थ कह़ं पर थ़? ईसने क्य़ ऽकय़? हे कवान्र बत़ओ। बल़दफजलां ऩम दनिजां हन्द्तिमिद्टतः । प्रऽस्थतोऻऽमत्रऽवजया जयवल्लीं यद़ ऽिवः ॥ ७।। तद़ तद़िय़ तीणं प्रऽस्थतः पुतऩपऽतः । ऽद्ठप़ां बबांध ऱष्ऱऽण बभञ्ज नगऱऽण च ॥ ८ ॥ ७-८. कवान्र बोल़ - ऄफजलख़न ऩमक ऱक्षस को बल से म़रने के ऽलए सज्ज होकर ित्रनि ेत़ ऽिव़जा जब जयवल्ला के ऽलए ऽनकल़ तो ईसकी अज्ञ़ से सेऩपऽत ने तरि न्त प्रस्थ़न करके ित्रि के प्ऱन्तों को ऄधान कर ऽलय़ और नगरों को नष्ट कर ऽदय़। अऽस्मन्द्नवसरे स्व़ऽमक़यैकऽनऽहत़त्मऩ । वैऱटवऽतयऩ तेन यवनेऩऽभम़ऽनऩ ॥ ९ ॥ प्रऽहत़ः स्वऽहत़ः सैन्द्यपतयस्तावऽवक्रम़ः । उपचक्रऽमरे िैवां ऱष्रम़क्रऽमतिां क्रम़त् ।।१०।। ९-१०. आस ऄवसर पर स्व़ऽमक़यय में ऄपने प्ऱणों को न्योछ़वर करने व़ले ईस व़इ प्ऱन्त में ऽस्थत ऄऽभम़ना यवन द्ऱऱ प्रेऽर्त ऄपऩ ऽहत करने व़ले एवं मह़पऱक्रमा सेऩपऽत ऽिव़जा के देि पर क्रम से अक्रमण करने लगे। य़दवः िपी यऽवषयां प़ांडरश्च ऽिरोबलम् । खऱटः स़हसवटां ऽहल़लः पण्ि यनावुतम् ॥ ११ ॥ हपसः सैफख़नश्च परसैऽनकसांकटम् । प्रऽवश्य ऽनग्रहेणैव जग्ऱह तलकोंकणम् ॥ १२ ॥ ११-१२. ज़धव ने िपी यप्ऱन्त, प़ंडर ने ऽिरबक, खऱट ने स़सवड, ऽहल़ल ने पणि े प्ऱन्त, हबिा और सैफख़न ने मऱठ़ओ ं से व्य़प्त तल कोंकण में प्रवेि करके जबरदस्ता ईन प्ऱन्तों को ले ऽलय़। ततः ऽिवस्य सेऩना श्रित्व़ त़ां देिदिःस्थत़म् । 275 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



कुत़म़योधनपरैः परैरफजल़िय़ ॥ १३ ॥ सऽहतः सऽप्तऽभः सप्तस़हस्रैः पऽत्तऽभस्तथ़ । सांपऱयपरः श्राम़न् स्व़ऽमक़य़यऽभयोगव़न् ॥ १४ ॥ पऱवुत्य मह़ब़हुमयह़ब़हुऽजगाषय़ । प्ऱय़त् पतगऱह़ः ऽिवऱष्रमऩमयम् ॥ १५ ॥ १३-१५. तब ऄफजलख़न की अज्ञ़ से यि य ़ को सनि कर, यि ि पऱयण ित्रओ ि ं द्ऱऱ देि की की हुइ ददि ि ि के ऽलए ईत्स़ऽहत, ऽवख्य़त, स्व़ऽमक़ययऽनष्ठ, पऱक्रमा, गरुड की तरह वेगव़न् ऽिव़जा क़ सेऩपऽत स़त हज़र घडि सव़र एवं पद़ऽतयों के स़थ लौट अय़ और ईस पऱक्रमा सेऩपऽत को जातने की आच्छ़ से ऽिव़जा के सख ि सम्पन्न देि में चल़ गय़। खऱटां प़ांडरां च़थ य़दवां च सिदिजययम् । ऽहल़लां सैफख़नां च ऽवध़स्ये िमऩऽतऽथम् ॥ १६ ॥ सेऩपतेररम़ां सन्द्ध़ां सम़कण्यय ऽिवः स्वयम् । तस्मै ऽनजेन दीतेन रितमेतदवेदयत् ॥ १७ ॥ १६-१७. खऱटे, प़ंडरे , ऄऽजक्ं य ज़धवऱव, ऽहल़ल और सैफख़न को मैं यमलोक भेजत़ ह,ं ऐसा ऄपने सेऩपऽत की प्रऽतज्ञ़ को सनि कर ऽिव़जा ने स्वयं ऄपने दती के म़ध्यम से ईसको तरि न्त संदि े प्रेऽर्त ऽकय़। यवनोऻफजलो ऩम द़नवो दिरऽतक्रमः । जयवल्लाऽमम़मेऽत ससैन्द्यः सऽन्द्धक़म्यय़ ॥ १८ ।। १८. ऄफजलख़न ऩमक दजि ेय यवन ऱक्षस सेऩ के स़थ सऽं ध करने की आच्छ़ से जयवल्ला अ रह़ है। तस्म़त्त्वय़ न योद्चव्यां तस्य तैः सैऽनकै ः समम् । सन्द्नद्चेनैव च स्थेयां य़वत्सऽन्द्धऽवऽनणययः ॥ १९ ॥ १९. ऄतः ईस सऽन्ध के ऽनणयय होने तक ती ईसके सैऽनकों के स़थ यि ि मत कर ऽकन्ति तैय़र रहो। भवेदहन्द्यथो यऽस्मन् मम तस्य च दियनम् । 276 | पृ ष्ठ



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तऽस्मन्द्नैव़ऽन्द्तके किय़यस्त्वां वैऱटमसि ां यम् ॥ २० ॥ २०. और ऽजस ऽदन ईसकी और मेरा मल ि ़क़त होगा, ईस ऽदन ती व़इ ऽनःसंिय होकर ज़। इत्य़ऽदष्टः स्पष्टमेव स परां ऽिवभीभुत़ । ऩयिध्यत परैः स़धं मध्य एव व्यवऽस्थतः ॥ २१ ॥ २१. आस प्रक़र ऽिव़जा ऱज़ की स्पष्ट अज्ञ़ से अगे ित्रिओ ं से न लडकर वह बाच में हा ऽस्थत हो गय़। अथ यिद्चमभीद् यऽस्मांऽश्छव़फजलयोद्ठययोः । वैऱटम़ययौ सैन्द्यपऽतस्तस्योत्तरेऻहऽन ॥ २२ ॥ २२. अगे ऽजस ऽदन ऽिव़जा एवं ऄफजलख़न आन दोनों के बाच यि ि हुअ तो ईस ऽदन हा सेऩपऽत नेत़जा प़लकर व़इ अ गय़। तेन ते न धुत़स्तेन ऽवरित़ः सवयतोऽदिम् । मिसेख़नप्रभुतयो दिधयष़यऽष्धषऽद्ठषः ॥ २३ ॥ २३. ईसने पकडे नहीं ऄतः मसि ेख़न अऽद दजि ये ऱक्षस दसों ऽदि़ओ ं में भ़ग गए। स आरोहः सोऻवरोहः स पन्द्थ़ः स़ मह़वना । स ऽवरोधा स पररऽधः स़ ऽनि़ स पऱभवः ॥ २४ ॥ स वैषः स च सांत्ऱस़वेिः स़प्यसह़यत़ । जयवल्लापररसद़दमा कथमप़सरन् ॥ २५ ॥ २५. पऽण्डत बोलें- वह चढ़़इ, वह ऄवतरण, वह दगि मय म़गय, वह मह़रण्य, वह ऽवरोधा, वह साम़, वह भार्ण ऱऽत्र, वह पणी य पऱभव, वह कंपकप़ता ऄवस्थ़ और वह ऄसह़य ऽस्थऽत आस प्रक़र जयवल्ला के च़रों तरफ क़ स्थ़न होते हुए भा वे ऽकस प्रक़र भ़ग गए। प़ऽततेऻफजले तऽस्मांऽश्छवेन ऽिवपत्तयः । पल़यम़ऩनऽभतो यवऩन् पययव़रयन् ॥ २६ ॥



277 | पृ ष्ठ



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२६. कवान्र बोले - ईस ऄफजलख़न को ऽिव़जा ने म़र ऽदय़ तो पल़यन करने व़ले यवनों को ऽिव़जा के पद़ऽतयों ने च़रों ओर से घेर ऽलय़। मिसेख़नश्च हसनो य़कितश्च़ांकििस्तथ़ । ऩसहन्द्त परां तत्र परैः कुतमऽतक्रमम् ॥ २७।। २७. मसि ेख़न, हसन, य़कित और ऄक ि ं द्ऱऱ ऽकय़ हुअ ऄपम़न सहन नहीं हुअ। ं ि ि आनको ित्रओ अपऱष्डे मह़ऩसात् तेष़ां तेष़ां च सांगरः । प्रोत्पतऽन्द्नपतद्चेऽतमहोत्प़तभयांकरः ॥ २८ ॥ २८. मध्य़ह्न में ईन दोनों मऱठ़ एवं मसि लम़न सेऩओ ं के बाच उपर ईडने व़ले एवं नाचे ऽगरने व़ले िह्लों के बडे ईत्प़त से भयक ि हुअ। ं र यि स़ िैलभीऽमः पत्ताऩां ऽहत़ वै ऩश्वस़ऽदऩम् । यवऩस्ते ततो भग्ब्ऩः समां ऩः स़ध्वस़णयवे ॥ २९ ॥ २९. वह पवयत यि ि प्रदेि पद़ऽतयों के ऽलए ऄनक ि ी ल ऽकन्ति घडि सव़रों के ऽलए प्रऽतकील थ़। ऄतः ईन यवनों के मनोरथ भग्न होने से वे भय के स़गर में डीब गये। परस्परैकमनसः प़लयन्द्तः परस्परम् । ऽद्ठषद्भ्य़गमऽधय़ वािम़ण़ ऽदिो दि ॥ ३० ॥ अताव तिांग़न् म़तांग़ांस्तिरग़न् सिमनोहऱन् । अप़ऱन् कोषसांभ़ऱन् पररव़ऱन् ऽप्रय़नऽप ॥ ३१ ॥ ऽवह़य़पसुत़स्तस्म़त् समऱदमऱरयः । त़म्यन्द्तस्त़मस़धयस्ते तरूनतऱन्द्तऱ ॥ ३२ ॥ भ्रमन्द्तः क़तरतऱः परेष़ां दृगगोचऱः । कण्टक़ऽवद्चसव़यग़ः ितज़ऱयः ितौजसः ॥ ३३ ॥ ऽिल़िाणोरुपव़यणो म़ग़यन्द्वेषणतत्पऱः । 278 | पृ ष्ठ



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परि ः प्रत़पवम़यणां चांरऱजस्य ब़न्द्धवम् ॥ ३४ ॥ ऽवत्रस्तां वऽञ्चतदृिां ऽद्ठत्रैरेव जनैवयतु म् । ऱग ऽवरवन्द्तमऱििरििऱः ििरत़जिषः ॥ ३५ ।। ३०-३५. परस्पर एकऽचत्त होकर, एक-दसी रे की रक्ष़ करत़ हुअ ित्रि अक्रमण करे ग़, आस बऽि ि से दसों ऽदि़ओ ं में देखते हुए ऄत्यन्त ईन्नत यवन, ह़था, ऄत्यन्त सन्ि दर घोडे, ऽवि़ल कोर् और ऽप्रय पररव़र को भा छोडकर ईस यि ि से भ़ग गये। दःि खा, तमोगणि ा, पेडों के बाच में भटकने व़ले, ऄत्यन्त भयभात ित्रओ ि ं की दृऽष्ट से बचते हुए क़ंटों से सम्पणी य ऄगं ों के ऽवदाणय हो ज़ने से, रिरंऽजत, हतबल, पत्थर पर प़यि एवं घटि नों के फिटने से, म़गय के ऄन्वेर्ण में मग्न, ऄक्षरि होते हुए भा क्षरि बने हुए ईन यवनों ने भयभात, अख ं ों से नष्ट हुए, दो-तान मनष्ि यों के स़थ वेग से भ़गते हुए चन्रऱव के भ़इ प्रत़पऱव को संमख ि देख़। अथ़यिधभुतः सवे सद्टःिऽि भतम़नस़: । ऽनहन्द्तव्योऻयऽमत्यिच्चैब्रिवन्द्तस्ते तमब्रिवन् । ३६ ॥ ३६. तब सभा सैऽनकों के ऄच़नक ऽवचऽलत हो ज़ने से आसको म़रऩ च़ऽहए, आस प्रक़र ईच्चध्वऽन में ईससे बोलें। पिऱ कणेजपाभीय पिनः पिनरुपेयिष़ । ऽमथ्य़नल ि ़ऽपऩ ऽनत्यां ऽनजच्छद्ञ़पल़ऽपऩ ॥ ३७ ॥ त्वयैव़नाय़फजलः स मह़नाकऩयकः । सहस़ सऽहतोऻस्म़ऽभः क़ल़नलमिखे हुतः ॥ ३८ ॥ ३७-३८. पहले चगि लखोर बनकर ब़रंब़र अकर, सद़ झठी बोलकर एवं ऄपने कपट को ऽछप़कर ईस मह़सेऩपऽत ऄफजलख़न को ल़कर हम़रे सऽहत ईसकी प्रलय़ऽग्न के मख ि में ऄच़नक अहुऽत दे दा। एवमििवतस्त़ांस्ति हन्द्तिमिद्टऽमत़यिध़न् । स ऽनबद्च़ञ्जऽल: क्रिद्च़न् प्रणऩम पिनः पिनः ॥ ३९ ॥ ३९. आस प्रक़र बोलकर म़रने के ऽलए िह्ल ईठ़ए हुए एवं क्रोऽधत ईन सैऽनकों को प्रत़पऱव मोरे ने ह़थ जोडकर पनि ःपनि ः प्रण़म ऽकय़। मिसेख़नस्ततस्तत्र दृष्ट्व़ क़किरव़किलम् । 279 | पृ ष्ठ



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ऊचे करुणयैवेनां नाचाकुतऽनजस्वरः ॥ ४० ।। ४०. तत्पश्च़त् वह़ं ईसको क़किध्वऽन से बोलत़ हुअ देखकर मसि ेख़न ने ऄपने स्वर को धाम़ करके ईसको करुण़ से बोल़। तव दृष्टचरैवेयमटवा ग़ढसक ां ट़ । अतोऻस्म़नप्रतो भीत्व़ नय के नऽचदध्वऩ ॥ ४१ ॥ ४१. मसि ेख़न बोल़ - यह गहन एवं दगि मय ऄरण्य तनी े पहले देख़ हा है। ऄतः ऄग्रणा होकर ऽकसा म़गय से हमें ब़हर लेकर चल। वैऱटां ऽवषयां गत्व़ वयां त्व़म़त्मद़ऽयनम् । सौरृद़दिपकत़यरः सख़यऽमव सिव्रतम् ॥ ४२ ॥ ४२. व़इप्ऱंत पहुचं ने पर हम तझि प्ऱणद़त़ पर ऽनष्ठ़ से ऽमत्र की तरह प्रेम से ईपक़र करें ग।े स इम़ां ऽगरमक़ण्यय मस ि ेख़नमिखोद्गत़म् । तथेऽत सप्रां ऽतश्रत्ि य भुिऽवश्रब्धम़नसः ॥ ४३ ॥ के ऩप्यज़्यम़नेन दृष्टपीवेण वत्मयऩ । ऱि़न् ऽनष्क़मय़म़स ऽिवस्य ऽवषय़द्ठऽहः ॥ ४४ ॥ ४३-४४. मसि ेख़न के मख ि से ऽनकले हुए आन िब्दों को सनि कर वैस़ हा करत़ ह,ं ऐस़ वचन देकर ऄत्यन्त ऽनऽश्चन्तत़ के स़थ वह प्रत़पऱव ऄज्ञ़त एवं स्वयं पवी य देख गये म़गय से ईनको ऽिव़जा के प्ऱन्त से ब़हर ऽनक़ल ऽदय़। तथ़ऽवध़निजत्य़ग़ल्लऽज्जतोऻफजल़त्मजः । ऽवन्द्यस्तपीव़यन् वैऱटे त़तेऩश्व़ांश्च किांजऱन् ॥ ४५ ॥ सभ ां ़ऱनवरोध़ांश्च कोष़न् योध़ांश्च क़ांश्चन आद़य दीयम़ऩत्म़ रितमस्म़ऽद्ठऽनयययौ । ४६ ।।



280 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



४५-४६. ईस प्रक़र छोटे भ़इ को छोडकर अने से लऽज्जत होकर ऄफजलख़न क़ पत्रि , ऽपत़ द्ऱर व़इप्ऱन्त में स्थ़ऽपत ह़था, घोडे, स़मग्रा, खज़ऩ एवं किछ योि़ओ ं को स़थ लेकर दःि खा ऄतं ःकरण से वह़ं से तत्क़ल ऽनकल गय़। अनिदित्य़ऽप ऩऱिाद्टद़ त़न् रितऽवदित़न् । तद़ सेऩपऽतनेत़ पिनवैऱटम़गमत् ॥ ४७ ॥ ४७. वेग से पल़यन करते हुए ईसक़ पाछ़ करने पर भा जब ईनको वह नहीं ऽदख़ तो सेऩपऽत प़लकर पनि ः व़इ गय़। ऽिवोऻऽप ऽवऽहतद्ठेष़दल्लाि़ह़त्सदि ि मयतेः । बला बलेन ऽवषयां ऽिप्रम़द़तिमिद्टतः ॥ ४८ ।। प्रस्थ़नभेराझ़ांक़रझ़ांक़ररतऽदगन्द्तरः । प्रभ़वा बहुऽभः सैन्द्यैवैऱटां स्थ़नम़सदत् ॥ ४९ ।। ४९. बलव़न् एवं प्रत़पा ऽिव़जा भा ऄपने से द्रेर् करने व़ले एवं ऄत्यन्त दष्टि बऽि ि अऽदलि़ह से बल़त् देि को िाघ्र ऄधान करने के ऽलए सज्ज होकर, प्रस्थ़न ददंि भि ा के घोर् से ऽदि़ओ ं को प्रऽतध्वऽनत करके स़थ में ऽवि़ल लेकर व़इ प्ऱन्त पहुचं गय़। अथ स्वेन प्रभ़वेण कुष्ण़तटमकण्टकम् । कुतां व्यलोकत मिद़ मोऽदतो मिऽदतैऽद्ठयजैः ॥ ५० ।। ५०. तब ऄपने प्रभ़व से कु ष्ण़ के तट को ऽनष्कंटक देखकर एवं ब्ऱह्मणों को अनऽन्दत देखकर ईसको अनन्द हुअ। ततोऻग्रय़ऽयनां कुत्व़ स तां सेऩपऽतां ऽनजम् । अन्द्यम़क्रऽमतिां देिमिप़क्रमत ऽवक्रमा ॥ ५१ ।। ५१. पनि ः ऄपने ईस सेऩपऽत को अगे भेजकर ईस पऱक्रमा ऽिव़जा ने दसी रे देि पर ऄक्रमण करऩ प्ऱरम्भ ऽकय़। ततस्ति तस्य सैन्द्य़ऽन परसैन्द्येन प़ऽलतौ । पययमण्डलयां छै ल़विभौ चन्द्दनवन्द्दनौ ॥ ५२ ॥ ५२. अगे ित्रि सेऩ द्ऱऱ रऽक्षत चंदन एवं वदं न आन दोनों ऽकलों को ईनकी सेऩ ने घेर ऽलय़। 281 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



स नपु ः श्रापऽतः स़ि़दऱिाद़लयां ऽश्रयः । श्व़लयां ऩम नगरां ऩमऽनव़यऽसत़ऽहतः ॥ ५३ ॥ ५३. स़क्ष़त् लक्ष्मापऽत वह ऱज़ के वल ऩमम़त्र से हा ित्रओ ि ं को भग़कर लक्ष्मा के घर श्च़लय ऩमक नगर में पहुचं गय़। ततोऻफजलऽवध्वांस़दवसन्द्ऩवऩश्रयौ । भुिां भुिबल़नाकै ः पिण्यदेि़दप़ऽसतौ ॥ ५४॥ उभौ ऩयकऩम़नौ ऱज़नौ य़दव़ऽन्द्वतौ । खेलकणयक्रीतपित्रां ऽहल़लां ऽवश्रितां ऽितौ ॥ ५५ ॥ परि स्कुत्य़भयां प्ऱप्य प्रपद्ट च मह़ियम् । न्द्यषेवेत़ां ऽविेषेण ऽिवत़ऽतममिां ऽिवम् ॥ ५६ ॥



५४-५६. तत्पश्च़त्, ऄफजलख़न के ऽवध्वसं के क़रण धैयय के नष्ट होने से तथ़ अश्रय से रऽहत हुए ऩयक ऩम के दोनों ऱज़ओ ं को ज़धवऱव के स़थ भोसले की सेऩ ने पणि े प्ऱन्त से भग़ देने के क़रण खेलकणय क़ क्रीतपत्रि जो ऽवख्य़त ऽहल़ल है, ईसको अगे करके तथ़ ईसके द्ऱऱ ऄभयद़न प्ऱप्त करके , मह़िय एवं ऄत्यन्त दय़लि ऽिव़जा की िरण में अकर ईसक़ अश्रय प्ऱप्त ऽकय़। उप़यऩन्द्यिप़नाय नमतस्त़न् मह़भिज़न् । आत्मनानतय़ श्राम़ांऽश्छवः श्राऽभः सम़थययत् ॥ ५७ ॥ ५७. नतमस्तक होकर ईपह़र देने व़ले ईन बलव़न् सेऩपऽतयों को श्राम़न् ऽिव़जा ने ऄपनेपन से सपं ऽत देकर समुि ऽकय़। अथ खट्व़ङ्गकां म़य़वनीं ऱमपिरां पिनः । कलधौतां ब़ल्लवां च तथ़ हलजयऽन्द्तक़म् ॥ ५८।। अऽष्टां च़ष्टां वटग्ऱमां वेल़पिरमिदिबां रम् । 282 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



मसरी ां करह़टां च िपी य त़म्रां च पऽल्लक़म् ॥ ५९ ॥ नेरलां क़मनगरीं ऽवश्ऱमपिरमप्यित । सव़हमीरणां कोलां करवारपिरां तथ़ ॥ ६० ॥ बलैऱक्रम्य स बला बलाऩद़य भीररिः। प्रयच्छन्द्नभयां वारो न्द्यदध़ऽन्द्नजि़सने ॥ ६१ ॥ ५८-६१. तत्पश्च़त् खट़व, म़यणा, ऱमपरि , कलेढोण, ब़ल्लव, हलजयंऽतक़, ऄष्टा, ऄष्टे, वडग़ंव, वेल़परि , औदबंि र, मसरी , कऱड, सपि ें, त़ंबे, प़ला, नेरलें, क़मेरा, ऽबस़परि , स़वे, ईरण, कोके और कोल्ह़परि , आन स्थलों पर बलव़न् वारों ने सेऩ के स़थ अक्रमण करके ईनके प़स से ऄत्यन्त कर लेकर और ईनको ऄभय प्रद़न करके ईन स्थलों को ऄपने ि़सन में ल़यें। ततो न्द्यस्य यथ़न्द्य़सां पररतः स्व़ां पत़ऽकनाम् । सहस़ स महाप़लः प्रण़लां िैलम़वुणोत् ॥ ६२ ॥ ६२. ऽफर ऄपने सेऩ के प़स ईनको व्यवऽस्थत रखकर ईस ऱज़ ने ऄच़नक पन्ह़ळ के ऽकले को घेर ऽलय़। पररमण्डऽलतां वाक्ष्य िैल िैल़ऽधव़ऽसनः । ऽिप्रां वप्रमिप़ऽश्लष्य जगजयिजयलद़ इव ॥ ६३ ॥ ६३. ऽकले को घेऱ हुअ देखकर दगि वय ़सा लोग िाघ्र तट पर चढ़कर मेघ की तरह गजयऩ करने लगे। ते िष्धवषैः सोत्कषैः पुथिवष्मयऽभरश्मऽभः। पऱनव़ऽकरन्द्निग्रतरैरुल्क़िरैरऽप ॥ ६४ ॥ ६४. ईन्होंने ऄसंख्य िह्लों की, प्रचंड पत्थरों की एवं भयंकर ईल्क़ ब़णों की ित्रओ ि ं पर वऱ्य कर दा। भीम़नम़गतैधयमी ैऩयल़यन्द्त्ऱननोद्गतैः । नभोन्द्तक़ररतमभीद् भुिमम्भोधरैररव ।। ६५ ।। ६५. तोपों के मख ि से ऽनकलकर फै लने व़ले धएि ं से ब़दल की तरह अक़ि को अच्छ़ऽदत कर ऽदय़। आग्ब्नेययन्द्त्रोदरऽनःसुत़ऩां नवोऽदत़कय प्रभऽवग्रह़ण़म् । 283 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



कदम्बकै ऱयसकांदिक़ऩां कितीहल़न्द्य़ऽदत सगां रश्राः ॥६६॥ ६६. तत्क्षण ईऽदत हुए सयी यऽबंब की तरह ल़ल आस प्रक़र तोप से ऽनकलने व़ले लोहे के गोलों की वऱ्य से यि ि को अश्चययचऽकत करने व़ला िोभ़ प्ऱप्त हो गया। तऽडत्सम़ऩः सति ऱां रणन्द्तः प्रोऽत्िप्यम़ण़ः ऽिवसैऽनकौघैः । उल्क़िऱस्तत्र तथ़ ऽनपेतिः परे यथ़ चेतऽस नो ऽचचेतिः ॥ ६७।। ६७. ऄक़िाय ऽवद्यति ् की तरह ऄत्यन्त अव़ज करने व़ले ऽिव़जा के सैऽनकों द्ऱऱ फें के हुए ईल्क़ ब़ण ित्रि पर आतने ऽगरें की ईसकी ित्रि को कल्पऩ भा नहीं था। अथ़यिधाय़ः ऽिवभीऽमपाय़ः तां िैलमध्य़रुरुहुबयलेन। ऽनऽषध्यम़ऩ अऽप तैः समस्तैः ऽद्ठषऽद्झरुध्दीऽनतहेऽतहस्तैः ॥६८।। ६८. तत्पश्च़त् िह्लों क़ घमि ़ने व़ले ईन समस्त ित्रओ ि ं द्ऱऱ रोके ज़ने पर भा ऽिव़जा के सैऽनक ईस ऽकले पर बल़त् चढ गए। उत्पत्य तत्ऱपतत़ां समन्द्त़त् त़क्ष्ययक्रम़ण़ां ऽिवसैऽनक़ऩम् । क्रीरैः कुप़णैऽनयऽितैश्च ब़णैः प्ऱणैव्यययिज्यन्द्त बत प्रताप़ः ॥ ६९ ॥



६९. च़रों ओर से ईछलकर अक्रमण करने व़ले एवं गरुड की तरह वेगव़न ऽिव सैऽनकों के भयंकर तलव़रों ने एवं ताक्ष्णब़णों ने ित्रि के प्ऱण हरण कर ऽलयें। िरैः ऽिव़नाकचर प्रयििैऽनयपेतिष़ िैलजिष़ जनेन । मन्द्येऻधमणप्रऽतमेन भते प्रत्यऽपयतोऻभीद़ितो धनौघः ॥ ७० ॥ ७०. ऽिवसैऽनकों द्ऱऱ छोडे गए ब़णों से मरने व़ले दगि यव़ऽसयों ने म़नों ऊण की तरह ईपभोग ऽकए गए धन को धनकोर् से पनि ः दे ऽदय़। सष्तस्य भत़य ऽद्ठषत़मसष्तस्तभ्यो गुहातां सपऽद प्रसष्त । अध्य़स्य ऽवध्य़चलतिल्यक़यां प्रभिः प्रण़ल़चलमैित़यम॥् ७१ ॥ 284 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



७१. ित्रओ ि ं के ऽलए ऄसहनाय आस सह्य़रा के स्व़मा ऽिव़जा ने ईनके समाप से बल़त् तत्क़ल ऄधान ऽकए हुए ऽवध्ं य़चल के सम़न ईस पन्ह़ळ ऽकले पर चढ़कर ईसको देख़। दप़यदेत्य प्रण़ल़चलऽिरऽस ऽिवः सैऽनकै ऱत्मनानैः । न्द्यस्यांस्तऽस्मन्द्ननाकां ऽदनऽमव ऽनऽखल़ां य़ऽमनीं त़मतात्य ॥ प्ऱक़ऱग़रव़पाऽवलसदिपवऩप़रक़स़रगिवीम् । दृष्ट़ां दृष्ट़ां मिहुस्त़ां ऽश्रयमतिलतऱां प़वयताय़मपश्यत् ॥ ७२ ॥ ७२. ऄपने सैऽनकों के स़थ पन्ह़ळ ऽकले पर गवय से अकर वह़ं सेऩ रखकर ऽिव़जा ने वह संपणी य ऱत ऽदन की तरह व्यतात करके वह़ं के तट, महल, किए,ं सन्ि दर ईद्य़न, ऽवि़ल त़ल़बों द्ऱऱ वुऽिंगत ईस ऽकले की ऄनपि म िोभ़ को ब़रंब़र देख़।। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे ऽनऽधऽनव़सकरपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्रय़ां सांऽहत़य़ां प्रण़ल़ऽरग्रहो ऩम त्रयोऽवि ां ोऻध्य़य: ।



285 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-२४ ते तद़योधऩत् तस्म़ऽन्द्नधऩभ़वक़ांिय़ । सहस़ ऽवमिखाभीत़ मिसेख़नपिरोगम़ः ॥ १ ॥ हाऩः स्वायेन सैन्द्येन हाण़श्च़फजलां ऽवऩ । ऽकमकिवयत ऽकां मत्व़ गत्व़ ऽवजयपत्तनम् ॥ २ ॥ १-२.पंऽडत बोले तब मुत्यि से रक्षण हो ज़ए आस आच्छ़ से ईस यि ि से सहरस़ पल़यन करके सेऩ रऽहत एवं ऄफजल ख़न के न होने से ल़ज ऐसे ईस मसि े ख़न प्रवुऽत्त सेऩपऽतयों ने बाज़परि ज़कर क्य़ ऽवच़र ऽकय़ और क्य़ ऽकय़? ऽनिम्य़फजस्य़ांतां प्रण़ल़ऽरप्रहां तथ़ । स्वयां पिनः ऽकमकरोद्टेऽदलो भुिब़ऽलिः ॥ ३ ॥ ३.ऄफजल ख़न की मुत्यि को एवं पन्ह़स ऽकले की पर अऽद नेत़ को सनि कर ऄऽत मख ी य अऽदलि़ह ने स्वयं पनि ः क्य़ ऽकय़? तां च िैलां सम़द़य बल़दफजल़ांतकः । स ऽवश्वऽवजया वारश्चररतां ऽकांऽवधां व्यध़त् ॥ ४ ॥ ४.और ईस ऽकले को बल़त लेने के ब़द ऄफजल ख़न को म़रने व़ले ईस ऽवश्व ऽवजेत़ वार ने क्य़ ऽकय़? मिसेख़न: फ़ऽजलेन य़कितेऩांकििेन च । हसनेन च सांभीय ऽनजेऩऽभजनेन च ॥ ५ ॥ ऽवजय़हां परि ां गत्व़ नत्व़ स्व़ऽमनम़त्मनः । प्रहग्रावः परि ोवती बद्च़ांजऽलपटि ोऻभवत् ॥ ६ ॥



286 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



५-६.कऽवरं बोल़ क़जल य़कीत ऄक ं ि ि हसन और ऄपने पररव़र के स़थ बाज़परि ज़कर ऄपने स्व़मा को प्रण़म करके तथ़ नतमस्तक होकर ऄपने स्व़मा के स़मने ह़थ जोडकर खड़ हो गय़। येऽदलस्तमथोद्ठाक्ष्य ऽवषादतां मधोमिखम् । जग़द गवयगभ़यऽभगीऽभयरुत्स़हयन् भुिम् ॥ ७ ॥ ७.वह दःि खा एवं नतमस्तक हैं ऐस़ देखकर , अऽदलि़ह गरब़ यि ि वचनों से ईस को प्रेररत करते हुए बोल़। सहस़ स़हस़त् स्व़ऽमक़ययव्यऽयतजाऽवतः । स य़तस्त़ां दि़ां तऽहय न य़तः िोचनायत़म् ॥ ८ ॥ कुतहस्तः स्वयां तत्र किसऽु तप्रकुऽतः परः । तमेक़ऽकनम़हय हतव़न् ऽवजने वने ॥ ९ ॥ यद्टय़स्यत् तद़ तत्र सेऩम़द़य भीयसाम् । अस़वजलस्तऽहय ऩय़स्यत् त़दृिीं दि़म् ॥ १० ॥ ८-१०.अऽदलि़ह बोल़- सहस़ स़हस करने के क़रण स्व़मा क़यय के ऽलए प्ऱणों को न्यौछ़वर करने व़ले ईसको (ऄफजलख़न) यऽद यह ऄवस्थ़ प्ऱप्त हुइ है तो वह सोच नायत को प्ऱप्त हुअ है ऐस़ नहीं है। स्वयं धनर्ि कल़ में ऽनपणि और कपटा स्वभ़व व़ले ित्रि ने ईसको वह़ं ऄके ल़ बल ि ़कर ऽनजयन वन में म़र ऽदय़। न ऽह स़हसम़त्रेण ऽसऽद्चम़य़न्द्त्यिपक्रम़ः । अलां फल़य महते सनय़ः ऽकल ऽवक्रम़ः ॥ ११ ॥ ११.के वल स़हस से हा क़यय ऽसऽि को प्ऱप्त नहीं होते हैं ऽकंति बऽि िमत्त़ के प्रक्रम में हा व़स्तव में मह़न फलद़यक होत़ है। ऽवऽपनेsफजलां तत्र यो हन्द्त हतव़न् रुप़ | आिाऽवष इवोच्छाषयगतो नोपेक्ष्य एव सः ॥ १२ ॥ १२.ऄरे रे ! ईसे वन में ऄफजल ख़न को ऽजसने क्रोध से म़र ऽदय़ ईसकी ऽसर ऽस्थत वैि़ला स़पं की तरह ईपेक्ष़ नहीं करना च़ऽहए। 287 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अऽवषष्ततमां तस्म़त् तम़गस्करम़त्मनः । िल्यतिल्यां सष्तिैल़दिद्चररष्य़ऽम सवयथ़ ॥ १३ ॥ १३.ऄतः मेरे ऽवरुि ऄपऱध करने व़ले ऄत्यतं ऄसहनाय ऽिव़जा को सैय़ जा से क़टं े की तरह पणी य कर फे कत़ ह।ं बत प्रस्थ़य वैऱटम़ऽस्थतः सोऻऽप सांप्रऽत । सद्टः समिष्त सैन्द्य़ऽन प्रण़ल़ऽद्ठमिपैष्यऽत ॥ १४ ॥ १४.ऄरे ! वतयम़न में वह भा प्रस्थ़न कर के व़इ अय़ है। तत्क़ल सेऩ लेकर वह तन्ह़ ऄके ले के ऽलए प्रस्थ़न करे ग़। ऽनगऽत प्रऽणधयः ऽकवदतां ाऽमम़ऽमह । तस्म़त् सवेऻप्यऽभकम्य किरुध्वमऽतऽवक्रमम् ॥ १५ ॥ १५.आस प्रक़र यह गप्ति चर आस ब़त को यह़ं कह रहे हैं ऄतः तमि सब ईस पर अक्रमण करके बड़ पऱक्रम करो। तत्तद्ङेिजिषस्त़ांस्त़ऩऩय्य़नाकऩयक़न् । परऽनग्रहण़योच्चैज़यगरूक़ऽनव ग्रह़न् ॥ १६ ॥ स़ह़य्य़य समिन्द्नद्च़न् सदां ोष्त़न्द्य़ांश्च सैऽनक़न् । अहऽदयवमऽवश्ऱांत़ः प्रय़त पतग़ इव ॥ १७ ॥ १६-१७.ित्रि क़ ऩि करने के ऽलए ग्रहों की तरह ऄत्यतं ज़गरूकत़ के स़थ ईन पर प्ऱतं ों के सेऩऩयक को सह़यत़ के ऽलए बल ि ़कर और दसी रे भा ऄऽभम़ना सेऩपऽतयों को सह़यत़ के ऽलए भेजकर तिम पक्षा की तरह ऱत ऽदन ऽबऩ ऽवश्ऱम के अक्रमण करते रहो। स्वऱज ख़न के पोते मह़न योि़ ऽभव़ना तमि ऄजम़न को हम़रा सेऩ क़ सेऩपऽत रहने दो। फऱदसीनिस् निऽहय ऩम्ऩ यो रुस्तिमेजनः । स पथ ु िप्रधनश्ल़घा पतु ऩपऽतरस्ति नः ॥ १८ ॥ इत्यिि़स्तेन सवेऻऽप सत्कुत़श्च यथोऽचतम् । तम़त्मनः पररवुढां प्रऽणपत्य प्रभ़ऽवणम् ॥ १९ ॥ ते सैन्द्यपतयस्तस्म़त् पिऱत् ऽवजयस़ष्दय़त् । 288 | पृ ष्ठ



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कुतक्ष्वेड़रवोदग्ऱः समग्ऱ अऽप ऽनयययिः ॥ २० ॥ १८-२०.आस प्रक़र ईन सब के स़थ बोल कर ईसने ईनक़ यथोऽचत सत्क़र ऽकय़ तत्पश्च़त में सभा सेऩपऽत ऄपने स़मथ्यय व़न स्व़मा को प्रण़म करके भयंकर गजयऩ करते हुए बाज़परि से ब़हर ऽनकल गए। अथ सप्रां ेऽषतचऱ चऱस्ते येऽदल़ांऽतके | तमिदन्द्तां प्रण़ल़द्ठेद्झितमेत्य न्द्यवेदयन् ॥ २१ ॥



२१.तत्पश्च़त पहले भेजे गए गप्ति चरो ने अऽदलि़ह के समाप िाघ्र अकर ईस पनह़ ऽकले से संबंऽधत सम़च़र सनि ़य़। ऽनिम्य येऽदलस्तेन नरेंरेण करे कुतम् । अन्द्विोचत् तमचलां फणा फणऽमवोन्द्नतम् ॥ २२ ॥ २२.ऄपने ईन्नत फन को गरुड के द्ऱऱ पकडने पर ऽजस प्रक़र स़ंप को दख ि होत़ है ईसा प्रक़र ईस ईत्कु ष्ट ऽकले को ''ईस ऱज़ ने ऄधान कर ऽलय़ है ऐस़ सनि कर अऽदलि़ह दख ि ा हुअ। तमऽरम ऽद्ठपऽतऩ ऽिवेन स्वविाकुतम् । अल्लाि़होऻन्द्वहां ऽचत्त ऽचांतय़ पययतप्यत ॥ २३ ॥ २३.ऽकले के स्व़मा ऽिव़जा ने ईसके ऽलए को ऄधान कर ऽलय़ है ऐस़ सनि कर अऽदल स़हब प्रऽतऽदन ऽचंत़ से मन में संतप्त हो रह़ है। अथ़त्म़नमपय़यप्तां मन्द्व़नस्तऽद्ठऽनग्रहे । रितम़ऩयय़म़स ऽदल्लापऽतपत़ऽकनाम् ॥ २४ ॥ २४.तब ईसको ऽनग्रऽहत करने के स्वयं को ऄसमथय म़नते हुए ईसने ऽदल्ला के ब़दि़ह की सेऩ को िाघ्र सह़यत़ के ऽलए बल ि व़य़। ऽिवऱजोऻऽप तच्रुत्व़ घनसांऩहि़ऽलनः । परसैन्द्यपतान् भीयः सांपऱय़ऽभल़ऽषणः ॥ २५ ॥ 289 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽनयिज्य पतु ऩमिग्ऱां प्रण़ल़चलप़लने । स्वयमित्स़हव़निच्चैरुत्सिकस्तऽज्जगाषय़ ॥ २६ ॥ स्फिरद्चेऽतितोदग्रदव़ऽग्ब्नसमऽवभ्रमैः । सैन्द्यैः समऽन्द्वतस्तैस्तैः पिरस्त़त् तरस़भवत् ॥ २७ ॥ २५-२७.तब ऽिव़जा ने भा ित्रि पक्ष के सदृि ढ़ यि ि ऽवर्ध़रा सेऩपऽत यि ि करऩ च़हते हैं ऐस़ सनि कर बंधक ऽकले की रक्ष़ के ऽलए ईग्रसेऩ को रखकर स्वयं ईत्स़हा एवं ईनको जातने की आच्छ़ से ऄत्यस्ि तक ि ऐस़ वह चमकद़र सैकडों िह्लों के क़रण भयंकर द़व़ ऄऽग्न के सम़न िोभ़यम़न ईस सेऩ के स़थ वेग से अगे बढ़ गय़। परेऻऽप रुस्तिमां ऩम पुतऩऽधपऽतां ऽनजम् । सिदिधयरां पिरस्कुत्य स़ऽभम़ऩः पिरोऻभवन् ।। २८ ।। २८.ित्रि भा रुस्तमि ऩमक ऄपने ऄत्यंत दगि ि े सेऩपऽत के नेतत्ु व में ऄऽभम़न के स़थ अगे बढ़ गय़। अथ वाक्ष्य सदि ि धयषी परवारपत़ऽकनाम् । रुस्तिमः फ़ऽजल़दान् स्व़न् यीथऩथ़नवोचत ॥ २९ ॥ २९.तब ित्रि पक्ष की सेऩ दजी े यह है ऐस़ देखकर रुस्तमि फ़ऽजल्क़ ऽभऽत्त ऄपने सेऩऩयक ईसे बोल़। पश्यत प्रसभां व्यीढ़ां प्रऽतपिचमीऽमम़म् । सन्द्ऩऽहनीं महोत्स़ह़ां धाऱमिल्लऽसतध्वज़म् ॥ ३० ॥ ३०.रुस्तमि बोल़ िह्ल ऄह्लों से सज्ज़ कऽठन क़यों को करने व़ला ऄत्यंत ईत्स़हा धैययव़न चमकद़र तेजस्वा भजो से यि ि तथ़ सदृि ढ़ व्यही रचऩ से यि ि आस ित्रि सेऩ को देखो। सन्द्त्यस्य़ां ऽह मह़वाऱः साऱयिधसमऽश्रयः । प्रत्य़त्म़न इव़नेके ऽिवस्य़तिलतेजसः ॥ ३१ ॥ ३१.सेऩ में बलऱम की तरह मह़वार ऄतल ि नाय पऱक्रमा ऽिव़जा के म़नो ऄनेक प्रऽतऽबंब हो। स एष ऽिवसेऩनानेंत़ ऩम प्रत़पव़न् । योत्स्यते भुिमस्म़ऽभरऽभम़नभुत़ां वरः ॥ ३२ ॥ 290 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



३२.वह यह ऽिव़जा क़ सेऩपऽत प्रत़पा मह़म़ना नेत़ जा हम़रे स़थ ब़रंब़र यि ि करने क़ आच्छिक है। तथ़ य़दवऱजोऻऽप व्यीढकांकटको यिव़ । प्रभीतकटकः क्रिध्यन्द्नस्म़नऽभविभीषऽत ॥ ३३ ॥ ३३.ईसा प्रक़र कवच ध़रा ऽवि़ल सेऩ से यि ि क्रोऽधत वह यवि ़ ज़धवऱव भा हम़रे पऱजय क़ आच्छिक है। खऱट: खऽवयत़ऱऽतवलः प्रबलस़हसः । सनी नि ़ हनमि न्द्ऩम्न्द्ऩ सऽहतोऻस्म़न् ऽजगापऽत ॥ ३४ ॥



३४.ित्रि सेऩ को ऽछन्न-ऽभन्न करने व़ल़ प्रचडं स़हसा खऱटे ऄपने हनमि तं ऩम के पत्रि के स़थ हमें जातऩ च़हत़ है। प़ांडवप्रऽतमो यिद्चे प़ांडरः प़ांडरध्वजः । बलस्य महतो भत़य कत़य समरमद्झितम् ॥ ३५ ॥ ३५.यि ि में ऄजनयि की तरह सफे द ध्वज़ से यि ि ऽवि़ल सेऩ क़ ऄऽधपऽत प़ंढरे हम़रे स़थ अश्चययजनक यि ि करऩ च़हत़ है। करव़लकरः क़लः क़लज्वलनभाषणः । कररष्यऽत ऽहल़लोsऽप भुिां भुिबलऽप्रयम् ॥ ३६ ।। ३६.तलव़र ध़रण करने व़ल़ प्रलयय़ऽग्न के सम़न भयंकर म़नव प्रत्यक्ष एवं यमऱज हा हो ऐस़ क़ल़ ऽहल़ल भा भोसले क़ ऄत्यंत ऽहतक़रा होग़। महस़ां ऱऽिररांग़लो हारवम़य मह़भिजः । तथ़ व्य़िो भामऩम़ प्रव़रः ऽसद्चऽजत् तथ़ ॥ ३७ ॥ गोदो ऩम मह़वारो जगत्स्थ़पकवांिजः । तथ़ परििऱमोऻऽप मह़ऽरककिलोद्झवः ॥ ३८ ॥ अपरेऻऽप मह़नाकऩथ़ः प्रधनप़रग़ः ।



291 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽिवऱजस्य़ऽभसऱः प्रसरऽन्द्त परि ः परि ः ॥ ३९ ॥ ३७-३९.तेजस्वा मह़ब़हु ऽहऱजा आगं के , भाम़जा व़घ, ऽसधोजा पंव़र, मह़वार गोद़जा जगत़प, म़नो दसी ऱ परिरि ़म हा हो ऐस़ मह़ऽडक, ईसा प्रक़र दसी रे यि ि ऽनपणि बडे-बडे सेऩऩयक तथ़ ऽिव़जा ऱज़ के सह़यक अगे चलकर अ रहे हैं। स्वयां भुिबलो ऱज़ ऽिवोऻऽप ररजऱजहः । अमरप्रऽतमः क़मां समरां प़रऽयष्यऽत ॥ ४० ॥ ४०.ित्रि ऱज़ को म़रने व़ल़, देवतल्ि य ऽिव़जा ऱजे भोसले भा स्वयं यि ि को आच्छ़ ऄनसि ़र जातेग़। तदद्च़स्म़कमप्येते यीथऩथ़ः समन्द्ततः । सांव्यिष्त व़ऽहनीं स्व़ां स्व़ां ऽतष्ठन्द्ति मुधमिध़यऽन ॥ ४१॥



४१.ऄतः व़स्तव में हम़रे सेऩऩयक को भा च़रों ओर से ऄपने-ऄपने सेऩ की व्यवऽस्थत व्यी रचऩ करके यि ि के ऄग्रभग में खडे रहऩ च़ऽहए। प़लऽयष्य़म्यहां मध्यभ़गमद्च़ मह़यिध़ः । सव्यां प़श्वयमनाकस्थः फ़ऽजलोऻवति ऽवक्रमा ॥ ४२ ॥ ४२.हे । मह़न योि़ओ ं में मध्य भ़ग की रक्ष़ करत़ हं पऱक्रमा सेऩपऽत थ़ जल सेऩ के ब़एं भ़ग की रक्ष़ करें । मलाक इतब़ऱहः स़द़तेन समऽन्द्वतः । प़लयत्वपरां प़श्वय पुतऩय़ः पुथिस्मयः ॥ ४३ ॥ ४३.और मह़ऽभम़ना मऽलक आतब़र और स़द़त के स़थ सेऩ के द़एं भ़ग की रक्ष़ करें । अजाजख़नतनयः फतेख़नो मह़यि़ः । तथ़ मिल्ल़हय़होऻस्ति प़ऽणग्ऱहऽक्रय़परः ॥ ४४ ॥ ४४.ऄजाज ख़न क़ पत्रि मह़ यिस्वा फतेह ख़न और मल्ल़ह यह सेऩ के ऽकस भ़ग की रक्ष़ करें । सांत़ऽभधो घोरफटः सजयऱजश्च घ़ांऽटकः । 292 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



सन्द्नद्च़ः सैऽनक़श्च़न्द्ये प़लयन्द्त्वऽभतश्चमीम् ॥ ४५ ॥ ४५.संत़जा घोरपडे, सजेिव घ़टगे और दसी रे सज्ज योि़ ये सब च़रों ओर से सेऩ की रक्ष़ करें । इत्यिि़स्तेन ते सवे यथ़स्थ़नमवऽस्थत़ः । प़लय़म़सिरव्यग्ऱः समग्ऱमऽप व़ऽहनाम् ॥ ४६ ॥ ४६.आस प्रक़र ईनको ईसके बत़ने पर वे सब ऄपने-ऄपने स्थ़न पर ऽस्थत होकर समग्र सेऩ की मग्न होकर रक्ष़ करने लगें। तद़नामेव भीप़लः ऽिवोऻऽप ऽनजव़ऽहनाम् । व्यीहयन्द्नऽभतो योध़नवोचदिऽचतां वचः ॥ ४७ ॥ ४७.ईसा समय ऽिव़जा ऱज़ ने भा ऄपना सेऩ की व्यही रचऩ करते हुए य़ि़ओ ं को समयोऽचत भ़र्ण ऽदय़। नेत़ फ़ऽजलमभ्येति चतिरांगचमीपऽतः । प्रय़ति परवारघ्नो व्य़िो मिल्ल़हय़ष्दयम् ॥ ४८ ॥ ४८.चतरि ं ऽगना सेऩ क़ ऄऽधपऽत यह नेत़जा फ़जल पर अक्रमण करें । ित्रवि ारों को म़रनेव़ल़ व़घ, मल्ि ल़हय पर अक्रमण करें । मलाकऽमतब़ऱख्यऽमांग़लोऻप्यऽभसपयति । मह़ऽरको मह़म़ना फतेख़नेन यिध्यति ॥ ४९ ॥ ४९.मऽलक आतब़र पर आगं के अक्रमण करे ग़, मह़म़ना मह़ऽडक फतेख़न के स़थ लडेग़। प्रव़रवश्ां यः ऽसद्चोऻऽप स़द़त़ऽभमिखोऻचति ॥ गोदस्ति घ़ांऽटकां घोरफटां च प्रऽतय़स्यऽत ॥ ५० ॥ अहां ति रुस्तिमां ऩम यवऩनाकऩयकम् । स़दऽयष्य़ऽम समरे िीरां ऩसारवऽतयनम् ॥ ५१ ॥ ५०-५१. ऽसधोजा पव़र स़द़त के स़थ यि ि करें , गोद़जा यह घ़टगे एवं घोरपडे के स़थ यि ि करे ग़ और ऄग्रणा रुस्तमि ऩमक वार यवन सेऩऽधपऽत को मैं यि ि में म़रुंग़। 293 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



दऽिणेन च सैन्द्यस्य खऱटः प़ांडरोऻऽप च । ऽहल़लो य़वश्चोभ़ऽवतरेण़ऽभगच्छत़म् ॥ ५२ ॥ ५२.खऱटे एवं प़ढं रे ये दोनों सेऩ के द़एं भ़ग पर और ऽहल़ल और ज़धव ये दोनों सेऩ के ब़एं भ़ग पर स़थ-स़थ चलें। इत्यििवऽत ऱजेंरे तद्टोध़स्ते मह़यिध़ः । समां दिदां ि ऽभऩदेन ऽसांहऩद़न् ऽवतेऽनरे ॥ ५३ ॥ ५३.आस प्रक़र ऱजेन्र (ऽिव़जा) के भ़र्ण देने पर ईसके ईस मह़पऱक्रमा योि़ओ ं ने दॅ ं िदभि ा ध्वऽन के स़थ ऽसंह गजयऩ की। ततो भीररप्रभेद़ऩां दिदां ि भाऩमनेकिः । ऋचक़ऩां क़हऴऩां पणव़ऩां च सवयिः ॥ ५४ ॥ गोमिख़ऩां च िगुां ़ण़मनाकद्ठयवऽतयऩम् । ऽनध्व़नः पष्ि कऱध्व़नम़वण ु ोद्ङाणयऽदङ्मुखः ॥ ५५ ॥ ५४-५५.तत्पश्च़त् ऄनेक प्रक़र की ददंि भि ा, क्रचक (रणव़द्यऽविेर्) क़हल (मह़ढक्क़) ढोल, गोमख ि (मुदगं ऽविेर्), िुगं , आस प्रक़र के दोनों सेऩओ ं के रणव़द्यों से ऽदि़ओ ं को प्रऽतध्वऽनत करने व़ला ध्वऽन ने अक़ि को व्य़प्त कर ऽदय़। अग्रतः प्रचलन्द्ताऩां पत़क़ऩां समांततः । क़ऽन्द्तऽभः सकलां व्योम तद़ ऽकमीरत़ां दधौ ॥ ५६ ।। ५६.ऄग्रभ़ग में चलने व़ला ध्वज़ओ ं के च़रों ओर से अने व़ले तेज से सपं णी य अक़ि ऽवऽचत्र ऽदखने लग़ थ़। ते ततोऻत्यथयमिद्ङले स्वनन्द्त्यौ भुिभाषणे । पीव़यपऱणयवऽनभे पुतने समसज्जत़म् ॥ ५७ ॥ ५७.तत्पश्च़त् मय़यद़ क़ ईल्लंघन करने व़ला, गजयऩ करने व़ला, ऄत्यंत भयंकर, पवी य एवं पऽश्चम समरि की तरह वह सेऩ अपस में ऽभड गइ। 294 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



आवेि़दथ भिजदभ ां हतऽचत्तैः अभ्यण़यग तपुतऩद्ठय़ग्रयोधैः । गजयऽद्झः सकितिकसांप्रणोऽदत़श्वैः ध़ऱऽभः समरधऱऽभऽषच्यते स्म ॥ ५८ ॥ ५८.ऽफर एक दसी रे के समाप अइ हुइ ईस सेऩ के ऄग्रणा, ब़हुबल पर ऄऽभम़न करने व़ले, योि़ओ ं ने अवेि से गजयऩ करते हुए एवं ईत्सक ि त़ से घोडेऺ को प्रेररत करके रुऽधर की ध़ऱओ ं से रणभऽी म को ऽभगो ऽदय़। आध़वत्तरगखिरोत्थरेणिध़ऱसांभ़ऱकिऽलतऽमह़ांतरेंऻतररिम।् सप्रां ़प्ते धनसमये वद्ङन्द्नव़ांभ:सांपुिां सर इव धीसरां बभीव ॥ ५९ ॥ ५९.आसा बाच दौडने व़ले घोडों के खरि ों से ईड़इ गइ धल ी के देर से व्य़प्त ऄतं ररक्ष, वऱ्य के अरंभ में बहने व़ले नवान प़ना से पररपणी य सरोवर के स़म़न धसी र हो गय़ थ़। तां वुष्टेः समयमिदाक्ष्य दाघयस़रैः आस़रैनयवजलदैररव प्रक़मम् । ध़वऽद्झः सपऽद धनिधयरैरनेकैः ब़णौ धैगयगनतलां बत़प्यध़ऽय ॥ ६० ॥ ६०.वऱ्य के समय को पहच़न करके नवान मेधों की िऽि के प्रव़ह से अक़ि ऽजस प्रक़र अच्छ़ऽद हो ज़त़ है, ईसाप्रक़र दौडने व़ले धनधि यरों के ऄनेक ब़णों की वऱ्य से वह पणी तय ः अच्छ़ऽदत हो गय़ थ़। य़वत् स्वां ररपमि वलोसय लब्धहषयः कोदण्डां ऽकल यिऽध कऽश्चद़चकषय । त़वत् तत्करधुतभल्लऽभन्द्नहस्त:तऽच्चत्रां यदजऽन तत्र नो ऽवहस्तः ॥ ६१ ॥ 295 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



६१.ऄपने ित्रि को देखकर हऽर्यत हुए ऽकसा वार ने यि ि में धनर्ि खींच़ तो ईसा के ह़थों में ऽस्थत भ़ले से ईसक़ ह़थ भेद देने पर भा वह ऽवचऽलत नहीं हुअ, यह अश्चयय हैं। सांग्ऱम़ांगणभिऽव भीररकीऽतयपष्ि प़ण्य़द़तिां सपऽद धनल ि यत़ां ऽवकुष्य । ते िीऱः करकलय़ ऽिलामिख़ऩां सांदोहां रितमिप़तयन् परेषि ॥ ६२ ॥ ६२.रणभऽी म पर ऄनेक कीऽतयरूपा फीलों को तोडने के ऽलए धनर्ि रूपा लत़ को तत्क़ल खींचकर ईन वारों ने हस्तकौिल से ब़णरूपा भ्रमरों के समही को ित्रि पर वेग से ईड़ ऽदए। अभ्येतप्रऽतभटचांडचांरह़सप्रौऽढम्म़ रितमपमीधयत़ां प्रपद्ट । ऽलष्यऽद्झः ऽिऽतमऽप बद्चमिऽष्टभ़व़न्द्नोन्द्मिि़ः सवचन पत़ऽकऽभः पत़क़ः ॥ ६३ ॥ ६३.अक्रमण करने व़ले ित्रि योि़ओ ं के ताक्ष्ण तलव़रों के प्रभ़व से मस्तक वेग से तटि कर भऽी म पर ऽगरने पर भा ध्वजधररयों ने मऽि ठ्ठयों से मजबीत पकडने के क़रण ध्वज़ कहीं नहीं ऽगर प़या। आगच्छन् गिरुतरगवयमवयव़हैः सांसुज्य रितकुतसांगऱवग़हैः । सांरांभ़ऽद्झजगुहेऻग्रगैरनेकैः सैन्द्यौघैः स्वयमथ रुस्तिमः ऽिवेन ॥ ६४ ॥ ६४.यि ि में िाघ्रत़ से प्रऽवष्ट घडि सव़रों के स़थ ऽमलकर बडे गवय के स़थ अक्रमण करने व़ले रुस्तमि ख़न पर ऄग्रणा ऄनेक सैन्यदलों के स़थ ऽिव़जा ने स्वयं क्रोध के स़थ अक्रमण ऽकय़। कषयन्द्तः सपऽद धनीांऽष सप्रकषय यिध्यन्द्तः ऽिवसभ ि ट़ः िरैरमोघैः । 296 | पृ ष्ठ



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क्रिद्च़ऩमऽभपतत़ां मह़यिध़ऩां म्लेच्छ़ऩमदयमप़तयांऽच्छऱांऽस ॥ ६५ ॥ ६५.भोसले की सेऩ द्ऱऱ ईत्स़ह मे फें के गए वज्र के सम़न िह्लों के समही को रुस्तमि के योि़, ईस ऄऽत प्रचडं भाड में व़स्तव मे सहन नहीं कर सकें । सोल्ल़सां भुिबलसैन्द्यप़ऽतत़ऩां दभ ां ोऽलप्रकुऽतभुत़ां बत़यिध़ऩम् । सांघ़तां कथमऽप सेऽहरे न तऽस्मन् सांमदे सिमहऽत रुस्तिम़यिधाय़ः ॥ ६६ ॥ ऽतष्ठन्द्तां करऽटकदबां दिगयदेिे गजयन्द्तां घनऽमव फ़ऽजलां तदोच्चैः । आक्ऱमन् मरुऽदव सवयतो बलाय़न् उद्भ्ऱन्द्तां ऽिवपुतऩपऽतव्ययधत्त ॥ ६७ ॥ ६६-६७.गजसमही रूपा दगि य के मध्य मे ऽस्थत हुए एवं मेघ की तरह प्रचंड गजयऩ करने व़ले फ़जल पर प्रचंड व़यि के सम़न च़रों ओर से अक्रमण करके ऽिव़जा के सेऩपऽत ने ईसको ईऽद्रग्न कर ऽदय़। नेत़रां भुिबलभीपव़ऽहनाऩां नेत़रां किऽपतमिदाक्ष्य फ़ऽजलोऻद्च़ । उच्चै रुच्चररतपद़ां पप़ठ ऩांदीं प्ऱरांभे रितमपय़नरूपकस्य ॥ ६८ ॥ ६८.ऽिव़जा की सेऩ के ऩयक नेत़जा को ईत्तेऽजत हुअ देखकर फ़जल ने व़स्तव में प्ऱरंभ में हा पल़यनरूपा ऩटक की ऩंदा ईच्चध्वऽन से पढ़ दा था। रत्ऩढ्य़भरणऽवभीऽषत़ यिव़नः सांग्ऱम़ङ्गणभिऽव लोऽहत़ांगऱग़ः। 297 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अन्द्येभ्यो भयमपह़य के sऽप वारश्रायिि़ः िरियनेषि िेरते स्म ॥ ६९ ॥ ६९.रत्नों, ऄलक ि ं ़रों से ऽवभऽी र्त एवं रिरंऽजत ऄगं व़ले किछ यवि ़ वार दसी रों के भय को छोडकर वार श्रा से यि होकर रण भऽी म पर सो गये। सांग्ऱमे महऽत खऱटके न के ऽचत् योद्च़रः सपऽद च प़ांडरेण के ऽचत् । ऽवध्वस्त़ः स्वयमथ य़दवेन के ऽचत् व्य़िेण स्वयम़भपत्य च़ऽप के ऽचत् ॥ ७० ॥ ७०.ईस मह़संग्ऱम में किछ योद्ऱओ ं को खऱटे ने किछ को प़ंढरे ने, किछ को स्वयं ज़धव ने, किछ को स्वयं ब़घ ने अक्रमण करके तत्क़ल म़र ऽदये थे। सोत्स़हां प्रधनमपरो महोग्रकम़य ऽवक्रम्य़मुणदऽहत़न् स हारवम़य । क्रोध़ऽग्ब्नप्रस्मरधीमधीम्रध़म़ क़ांऽश्चत्त़नथ हतव़न् ऽहल़लऩम़ ॥ ७१ ॥ ७१.ईग्रकम़य यि ि ोत्सक ि हारवम़य ने ईत्स़ह से अक्रमण करके ित्रि को तहस-नहस कर ऽदय़। क्रोधऽग्न से फै लने व़ले धएंि ने ऽजसकी क़ऽं त को धसी ररत कर ऽदय़ है ऐसे ऽहल़ल ने किछ योि़ओ ं को म़र ऽदय़। स्वां िष्धां ऽवजहऽत रुस्तिमे ऽवय़ते सांग्ऱम़त् सपऽद च फ़ऽजलेऻपय़ते। स़द़तप्रमिखमनाकमव्यवस्थां व़त़रां कमऽप ऽनजस्य ऩध्यगच्छत् ॥ ७२ ॥ ७२.रुस्तम द्ऱऱ सहस़ पल़यन करने पर ऄव्यवऽस्थत हुए स़द़त प्रमख ि की सेऩ को ऄपऩ रक्षण करने व़ल़ कोइ प्ऱपत नहीं हुअ। 298 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अथ समरसदेि़त् पच ां पैरश्वव़रैः अपसरऽत ऽवहस्ते रुस्तिमे मांगभ़ऽज । भुिमिरणमल्लाि़हसैन्द्यां समस्तां व्य़ऽधत दिऽदगांतप्रेिण़य़सम़िि ॥ ७३ || ७३.तब पऱऽजत होकर ऽवचऽलत हुअ रुस्तमि ख़न प़ंच छः घडि सव़रों के स़थ यि ि से भ़ग गय़ और ऄत्यंत सह़य अऽदलि़ह की समस्त सेऩ ने दसों ऽदि़ओ ं में पल़यन ऽकय़। तदनि ऽिवनुपस्तां प्ऱप्तभांगां पिरस्त़त् प्रसभमपसरन्द्तां रुस्तिमां त्रस्तमिच्चैः । ऽनकटगमऽप नैव न्द्यग्रहाऽन्द्नग्रह़हं न ऽह ऽवदधऽत भारौ िीरत़ां सीययवांश्य़ः ॥ ७४ ॥ ७४.तत्पश्च़त् पऱऽजत हुअ तथ़ ऄत्यतं भयभात, स़मने से वेग से पल़यन करने व़ले ईस रुस्तमि को समाप होते हुए भा एवं पकडने योग्य होने पर भा ऽिव़जा ने नहीं पकड़, क्योंऽक सयी यवि ं ा ऱज़ भयभातों पर पऱक्रम नहीं ऽदख़ते है। येऻस्म़नप्यपह़य हन्द्त समरे सद्टोपय़त़ः स्वयां भीयोऻप्य़श्रऽयतिां प़ऽवरऽहत़न् लज्ज़महे त़न् वयम।् मन्द्व़ऩ: सितऱऽमताव रृदये ते येऽदल़नाऽकना मत्तेभ़ः सबलां ऽिवां भुिवलां भेजिः िरण्यां प्रभिम् ॥७५॥ ७५.‘‘जो हमें यि ि में छोडकर स्वयं तरि न्त भ़ग गये ईन लज्ज़ रऽहतों क़ पनि ः अश्रय करने में लज्ज़ अता है’’ ऐस़ हा म़नों मन में ऽनऽश्चत ऽवच़र करके ईस अऽदलि़ह की सेऩ के मदमस्त ह़ऽथयों द्ऱऱ अश्रय ऽलय़। सोत्स़होत्सवऽिवसरृां तप्रताप प्रष्धस्त़भरणगणप्रभ़निभ़वैः । कषयन्द्ता सकितिकलोकलोचनौघां सौभ़ग्ब्यां ऽकमऽप बभ़र स़ मुधश्राः ॥ ७६ ।। 299 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



७६.प्रयत्नपवी क य ब़हर ऽनकलने व़ले सैकडों घोडो को, ऽजनक़ ऄतं ः करण पत़ है ऐसा वह गहरा गजयऩ करने व़ला ऄत्यंत भयंकर, अश्चययजनक वेग से यि ि , प्रव़ह के बढ़ने के क़रण तटों से पररपणी य होकर प्रव़ऽहत होने व़ला खनी की नदा को मस्तकों की पऽं ियों ने ऽकस प्रक़र प़र ऽकय़? प्रयत्नप्रोन्द्मज्जत्तरगित़वि़तरृदय़ां गभाऱां गजयन्द्तीं प्रऽतभयतऱमिद्चतरय़म् । प्रव़हप्रौढऩ सपऽद पररपण ी ोभयतट़ां कबध ां ़ऩां श्रेणा कथमथ तत़ऱश्रसररतम् ॥ ७७ ॥ ७७.आस प्रक़र रुस्तमि प्रभुऽत ित्रओ ि ं को भग़कर ईस प्ऱतं को ऄधान करके मह़ददंि भि ा के मधरि ध्वऽन से ऽदि़रूपा ऽह्लयों के मख ि कमल को हऽर्यत करत़ हुअ ऽिव़जा ऱज़ सि ि ोऽभत होने लग़। इत्थां स रुस्तिममिख़न् ऽवमिख़न् ऽवध़य देिां च तां नरपऽतः स्वकरे ऽनध़य । ढसक़रवेण मधिरेण ऽदगांगऩऩां – उल्ल़सयन्द्निदलसद्ठदऩांबिज़ऽन ॥ ७८ ॥ इत्यनपि रि ़णे सयी यवि ां े ऽनऽधव़सकरकवींरपरम़नदां प्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्रय़ां सांऽहत़य़ां रुस्तिम़ऽद भांगो ऩम़ध्य़यः ॥ २४ ॥



300 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-२५ कवान्द्र उव़च – रुस्तिम़दान् ऽवऽनऽजयत्य ऽवतत्य च ऽसतां यिः। ऽिवोऻल्लाि़हऽवषयां विम़नेतिमञ्जस़।।१ सांप्रेष्य महतीं सेऩां सेऩपऽतसमऽन्द्वत़म।् स्वयां पिनः प्रण़ल़ऽरमवेऽितिमिप़गमत।् ।२ १-२. कवान्र बोले - रुस्तमख़न प्रभुऽतयों को पऱऽजत करके ऄपना श्वेत कीऽतय को फै ल़कर, ऄल्लाि़ह के प्रदेि को जल्दा वि में करने के ऽलए सेऩपऽत के स़थ एक बडा सेऩ को भेजकर स्वयं ऽिव़जा ऽफर से पन्ह़ळगड के पययवक्ष े ण करने के ऽलए गय़। सोऻऽप सेऩपऽतनेत़ ऽिवऱजऽनयोऽजतः। येऽदलस्य़िि तऱष्रां विाचक्रे मह़यि़ः।।३ ३. मह़ऽवख्य़त ईस सेऩपऽत ने ऽिवऱज की अज्ञ़ प़कर अऽदलि़ह के ईस प्रदेि को ह़ं ह़ं बोलते हुए कब्जे में कर ऽलय़। कऽपत्थां बदरग्ऱमां मल्लग्ऱमां च किण्डलम्। गोहग्ऱमां सताकीरमेडां च ऽमरजां तथ़।।४ गोक़कां दिग्ब्धव़टां च पिरां मिरवटां पिनः। ध़ऱवटां मह़दिगं ििरवन्द्द्टपिरां तथ़।।५ श्य़मग्ऱमां म़ऽयलां च प़रग्ऱमां च सांगलम।् क़णदां कदयमवटां क़गलां ह्राबलां तथ़।।६ 301 | पृ ष्ठ



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हनवि ल्लीं हूणवटां ऱयब़कां हुकेररक़म।् क़ण्डग्ऱमां हररऱां च घिऽणक़ां ऽकऽणक़मऽप।।७



अरगां ऽतलसांगां च के रुरां च़म्बिपां पिनः। क़मल़पिरसांयिि़मतनीं च ऽत्रकीटकम।् ।८ एत़न्द्यन्द्य़ऽन च मह़पत्तऩऽन परि ़ऽण च। ऽनगुष्त ऽनग्रह़ऽभज्ो ऽनन्द्ये नेत़ स्वऽनघ्नत़म।् ।९ ४-९. कवठ, बोरग़वं , ग़लग़ंव, किण्डल, घोग़वं , सताकीर अडऽभरज, ओक़क, दोदव़ड, मरि व़ड, घ़रव़ड क़ बड़ ऽकल़, क्षन्ि रवद्यं परि , श्य़मग़ंव, म़ऽथल, प़रग़ंव, स़ंगला, क़णद, किरुन्दव़डा, क़गल, हेब़ज, हनवि ल्ला, हणव़ड, ऱयब़ग, हुकेरा, क़ंडग़ंव, हकदा, धऽि णक़, ऽकणा, ऄरग तेलसंग के रुर, ऄबं पि , कमल़परी , ऄथला ऽतकोटे, ये और बडेऺ नगर व परि ायों को जातकर ईस ऽवजया नेत़जा ने ऄपने कब्जे में ऽकए। इऽत ध्वस्ते जनपदे स्रस्ते सैन्द्येऻऽप भीयऽस। पऱधानत्वम़प्तेषि प्रण़ल़ऽरषि च़ऽरषि।।१० ऽचरयत्सि च त़म्रेषि रितम़क़ररतेष्वऽप। ऽवदीयम़नोऻनिऽदनां पतन्द्नत्य़ऽहत़म्बिधौ।।११ अल्ला कणयपिऱधािां जोहरां ऩम बबयरम।् आहूय प्ऱऽहणोत्तीणं ऽनग्रहातिां ऽिवां नुपम।् ।१२ १०-१२. आस प्रक़र से वह देि नष्ट हो गय़। बहुत से सैऽनक मुत्यि को प्ऱप्त हो गए, पन्ह़ळ अऽद ऽकल्ले ित्रओ ी ं के वि में हो गये तरि न्त बल ि ़ने पर भा मगि लों ने ऽवलम्ब ऽकय़, आस क़रण प्रऽतऽदन दःि खा होत़ हुअ एवं सक ं टरुपा समरि में डिबते हुए की ऄल्ला अऽदलि़ह ने कणल यी के ऱज़ ऽिद्दा जोहर को बल ि ़कर ऽिव़जा ऱज़ को पकडने के ऽलए तरि न्त भेद ऽदय़। स ततोऻनेकस़हस्रैरश्वव़रैस्सज़ऽतऽभः। अप़रैः पवयत़क़रैः कररऽभश्च समऽन्द्वतः।।१३ 302 | पृ ष्ठ



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तथ़ क़ण़यटकै ः पऽत्तबलैरऽतबलैबयला। प़ऽलतां ऽिवभीपेन प्रण़ल़चलम़गतम।् ।१४ १३-१४. तब वह पऱक्रमा मऽि खय़ ऄपने ज़ता के कइ हज़र घडि सव़र, पवयत के सम़न ऽवि़ल ऄनऽगनत ह़था एवं िऽिि़ला कऩयटकी पदैल सेऩ के स़थ ऽिव़जा के ऄऽधकु त पन्ह़ळ के ऽकले में अय़। रुस्तिमः फ़ऽजलश्चैव भग्ब्नपीव़यविभ़वऽप। येऽदलस्य़ज्य़ भीयः सांभीय ऽनजसेनय़।।१५ सम़नगिणिालेन स़द़तेन समऽन्द्वतौ। रित़ग्रग़ऽमऩ तेन जोहरेण समायतिः।।१६ १५-१६. पहले पऱजय को प्ऱप्त होने के क़रण, रुस्तम एवं फ़जल दोनों हा अऽदलि़ह की अज्ञ़ प़कर ऽफर से ऄपना सेऩ के स़थ, सम़नगणि ों, सम़न व्यवह़र व हमेि़ ऽमलकर िाघ्रत़ से अगे ज़ने व़ले ईस जोहर से ज़ के ऽमले। ब़जऱजो घोरफटः क़ण़यटः पाडऩयकः। वल्लाख़ऩत्मजो भ़याख़नः समरदिजययः।।१७ मसदी ो बबयरोऻन्द्येऻऽप येऽदलस्य ऽनयोगतः। प्रण़लमऽरम़द़तिां जोहऱऽन्द्तकम़ययिः।।१८ १७-१८. ब़जऱज घोरपडे कण़यटक क़ पाडऩयक, वल्लाख़न क़ पत्रि ऄजेय भ़इख़न, ऽिद्दा मसदी और दसी रे सरद़र अऽदलि़ह की अज्ञ़ से पन्ह़ळ को प्ऱप्त करने के ऽलए ऽिद्दा जोहर के ऽनकट अ गये। ततः स जोहरस्तद्ठत् फ़ऽजलश्च़ऽप रुस्तिमः। अमा स्वैः स्वैरश्वव़रैः सऽहत़ः सङ्गरोद्चिऱः।।१९ बडेख़ऩऽदऽभः पऽत्तसेऩऽधपऽतऽभवयतु ़ः। पीवयऽदग्ब्भ़गमध्य़स्य तां न्द्यरुन्द्धन् महाधरम।् ।२०



303 | पृ ष्ठ



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१९-२०. ईसके ब़द वह जोहर, फ़जल एवं रुस्तम आन रणधार सरद़रों ने ऄपने-ऄपने घडि सव़रों एवं बडे ख़ऩऽद और पद़ऽत सैन्यसमही के सेऩपऽत के स़थ, पवी य की ओर से पन्ह़ळ के ऽकले को घेर ऽलय़। स़द़तश्च मसीदश्च ब़जऱजश्च ब़हुजः। भ़याख़ऩदयोऻन्द्येऻऽप स्वैः स्वैः सैन्द्यैः परि स्कुत़ः।।२१ तथ़ क़ण़यटय़ष्टाकै ः स्फिरत्फलकयऽष्टकै ः। अन्द्यैश्च गिऽळक़यन्द्त्रधरैरुत्पनोद्चतैः।।२२



पद़ऽतऽभः पररवतु ः प्रभ़वा पाडऩयकः। प्रण़ल़चलम़वव्रि: प्रताचीं ऽदिम़म़ऽश्रत़ः।।२३ २१-२३. स़द़त, मसदी , क्षऽत्रय ब़जऱज और भ़याख़ऩऽद ऄन्य सरद़रों ने ऄपने-ऄपने सैऽनकों के स़थ और पऱक्रमा पाडऩयक ने चमकता हुइ ढ़ल, ल़ठा, कण़यटक की ल़ठाव़ले और हमल़ करने के ऽलए ईत्सक ि ऐसे ऄन्य बन्दक ी को ध़रण ऽकए हुए पद़ऽत सैऽनको के स़थ पन्ह़ळगड को पऽश्चम की ओर से घेऱ। अन्द्य़न्द्यऽप च सैन्द्य़ऽन तस्य़रेदयऽिणोत्तरौ। तस्थौ भ़ग़वपि ़ऽश्रत्य सऽां श्लष्टां जोहऱज्य़।।२४ २४. ऄन्य सैऽनकों ने जोहर की अज्ञ़ से ईस ऽकले को दऽक्षण एवं ईत्तर की और से घेर ऽलय़। िैलवती ऽिवोत्यिच्चैरऽतनाचैश्च जोहरः। आहवः स तदप्य़साद्झ़रत़हवसोदरः।।२५ २५. उंचे ऽकले पर ऽिव़जा एवं ऽकले के नाचे जोहर ऽफर भा वह यि ि भ़रताय यि ि के सम़न हुअ। बबयरः स बहून् म़स़न् यियिधे तेन भीभुत़। तथ़ऽप न यिो लेभे प्रऽतवेलां पऱहतः।।२६ २६. वह ऽिद्दा ऱज़ के स़थ बहुत मऽहनों तक यि ि करत़ रह़, ऽफर भा हर ब़र पऱऽजत होने के क़रण ईसको यि नहीं ऽमल़। 304 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



एवां वदन्द्तमनघां कवान्द्रां ऽवप्रपङ ि ् गवम।् श्रागोऽवन्द्दपद़म्भोजप्रमोदभरमेदिरम।् ।२७ ऽिवभीपयिःसोमसमिल्ल़ऽसतचेतसम।् पययपुच्छऽन्द्नऽत मिद़ बिध़ः क़िाऽनव़ऽसनः।।२८ २७-२८. आस प्रक़र से कथन करने व़ले, श्राऽवष्णि के चरणकमलों के अनन्द से पररपणी य ऽिव़जा के यिरूपा सोमरस से ऽचत्त हऱ्यकिल हो गय़ है ऽजसक़ ऐसे क़िा में रहने व़ले ऽनष्प़पा ब्ऱह्मण श्रेष्ठ ऽवद्ऱनों ने कवान्र से पछ ी ़। मनाऽर्ण ईचःि अल्ला ऽदल्लापतेः सेऩां ऽवधुत़योधनस्मय़म।् ऽवसज्ु य दीतम़त्मायां रितम़ष्दयऽत स्म य़म।् ।२९ स़ पिनः ऽकयता के न ऩयके ऩऽभरऽित़। के ऩध्वऩ सवच़य़त़ ऽकां क़यं च़न्द्वपद्टत।।३० ऽकां प्रताक़रमकरोऽच्छवऱजश्च त़ां प्रऽत। परम़नन्द्द सिमते तत्सवयमऽभधायत़म।् ।३१ २९-३१ पंऽडत बोलें- ऄल्ला अऽदलि़ह ने ऄपऩ दती भेजकर यि ि में गवय से लडने व़ला ऽदल्लापऽत की जो सेऩ बल ि ़इ है, वह ऽकतना था, ईसक़ ऩयक कौन थ़? वह ऽकस य़न से कह़ं अय़, ईन्होंने कौन-स़ क़यय अरम्भ ऽकय़ और ऽिव़जा ने ईसक़ कै से प्रताक़र ऽकय़। यह सब हे बऽि िम़न परम़नन्द बत़ओ। कवान्द्र उव़च ऽिवस्योपचयां वाक्ष्य तथ़पचयम़त्मनः। य़ऽचत़ां येऽदलेनोच्चैः सह़यमऽभव़ञ्छत़।।३२ ऽदल्लापऽतः स्वपुतऩां पुथिस़ऱां प्रथायसाम।् बऽलऩ म़तिलेऩद्च़ ि़स्त़ख़नेन रऽित़म।् ।३३ प्रपन्द्नप़लनपरः ितिो ऽजतसङ्गरः। 305 | पृ ष्ठ



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प्रय़तिम़ऽदित्तण ी ं ध़ऱऽगररतलऽस्थत़म।् ।३४ ३२-३४. कवान्र बोले - ऽिव़जा मह़ऱज क़ ईत्थ़न एवं ऄपऩ पतन देखकर ईत्कु ष्ट सह़यत़ करने व़ल़ ऽमल ज़ए आसऽलए अऽदलि़ह तो ऽदल्ला की ओर से सैऽनक बल ि ़ने पर भा िरण़गतों की रक्ष़ करने में तत्पर एवं ऽजसने हज़रों यि ि में ऽवजय प़या है, ऐसे ऽदल्ला के ऱज़ हम़ऱ म़म़ पऱक्रमा ि़एस्तेख़न के सेऩपऽतत्व में देवऽगरा ऽकले के तलहटा में ऄपना स़मथ्ययि़ला व बडा सेऩ के स़थ जल्दा से ज़ने की अज्ञ़ दा। ततोऻनेकेऻनाकऩथ़ः स्व़ऽमि़सनवऽतयनः। प्रतऽस्थरे सिसन्द्नद्च़ः ि़स्त़ख़नपिरोगम़ः।।३५ ३५. ईसके ब़द स्व़मा की अज्ञ़ के ऄनसि ़र चलने व़ला बहुत से सेऩपऽत सन्ि दर रूप से तैय़र होकर ि़एस्तेख़ के नेतत्ु व में चले पडे। म़ना िमसख़ऩख्यः पट़नः प्रऽथतक्रमः । सति ो ज़फरख़नस्य ऩमद़रश्च दिजययः ॥ ३६ ॥ तथ़ गय़[स]ि दाख़नो मिनामो हसनोऻऽप च । ऽमरज़सिलत़नश्च प्रत़पा मनचेहरः ।। ३७ ।। तथ़ तिरुकत़जश्च क्रीऱत्म़ च किब़हतः हौदख़नोऻप्यिजबख़त्रयोऻमा समरोन्द्मिख़ः ॥ ३८ ॥ इम़मऽबरुदाख़नो लोदाख़नश्च दिधयरः । पठ़नौ द्ठ़ऽवमौ तद्ठद् मौलदौ द्ठौ ऽदल़वरौ ॥ ३९ ॥ तथ़बदिलबेगश्च भांगडः खोजडम्बरः । जोहरश्च पिनः खोजसिलत़नः पऱक्रमा ॥ ४० ॥ ऽसदाफतेफतेजांगौ रणरङ्गऽवि़रदौ । क्रोधनः क़रतलवो ग़जाख़ऩदयोऻऽप च ॥ ४१ ॥ तनयः ित्रि ि ल्यस्य भ़वऽसहां ः प्रभ़वभुत् । 306 | पृ ष्ठ



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ऽकिोरि़मऽसहां ़ष्दौ ऱज़नौ च़स्य ब़न्द्धवौ ॥ ४२ ॥ ऱज़ ऽगररधरो ऩम तथैव च मनोहरः । प्रद्टिम्नश्च़ऽनरुद्चश्च पञ्चमः पिरुषोत्तमः ॥ ४३ ॥ गोवधयनेन सऽहत़ः षडमा गौडवांिज़ः । िऽत्रय़ः िऽपत़ऱऽतकिल़ः ऽिऽतभुत़ां वऱः ॥ ४४ ॥ गौडऽवठ्ठलद़सस्य नप्त़ सप्त़श्वसऽन्द्नभः । सति ोऻजयिनस्य ऽवजया ऱजऽसहां श्च प़ऽथयवः ॥ ४५ ॥ वारो बारमदेवश्च ऱमऽसांहश्च सिव्रतः । तथैव ऱयऽसांहश्च त्रयोऻमािाषयद़न्द्वय़ः ॥ ४६ ॥ श्राम़नमरऽसांह़ख्यो ऱज़ चांरवत़न्द्वयः । तथ़ चन्द्रपरि ेन्द्रस्य सेऩपऽतरररन्द्दमः ॥ ४७ ॥ द्ठ़रक़ऽजच्च जाव़ऽजत् पियऽि जद्ङलऽजत् पनि ः । िराफ-नुपसीनिश्च त्र्यांबकः समरोन्द्मिखः ।। ४८ ।। एते भुिबल़ः प्रौढबल़ः सवे प्रत़ऽपनः । गोकप़टश्च सिरऽजद्टिोऽजच्च मह़भिज: ।। ४९।। ऱज़ ऽदनकरश्च़ऽप ख्य़त: क़ांकटक़न्द्वय:। त्र्यम्बक़नन्द्तदत्त़ख्य़ष्धयः खण्ड़गयऴन्द्वय़ः ।। ५० ।। दत्तरुस्तिमवम़यणौ ऱज़नौ य़दव़न्द्वयौ। सवयऽजत्तनयो रम्भ: प्रव़रः परवारह़।।५१ ज़य़मिदयऱमस्य जगज्जावनम़तरम।् ऱजव्य़िाऽत य़ां प्ऱहुययिऽध व्य़िाऽमवोद्चिऱम।् ।५२ 307 | पृ ष्ठ



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स़ प्रत़पेन महत़ बत़प्रऽतहत़यिध़। कुष्णऱजप्रचण्ड़द्टैः सऽहत़ऻऻत्मसऩमऽभः।।५ घ़ऽण्टकः सजयऱजश्च ग़ढः कमल एव च। कोक़टो जसवन्द्तश्च कमलेन समऽन्द्वतः।।५४ ऽदल्लापतेऽनययोगेन सवय एते मह़भिज़ः । स्वस्वसैन्द्य़ऽन्द्वत़ः ि़स्त़ख़नां सेऩन्द्यमन्द्वयिः ॥ ५५ ॥ ३६-५५. प्रऽसि पऱक्रमा एवं म़ना िमसख़न पठ़ण, ज़फरख़न क़ पत्रि दजि यय ा ऩमद़र, वैसे हा गय़सदि ाख़न, हसन मनि ाम सति ़न ऽमज़य, प्रत़पा मनचेहर, तरुि कत़ज, क्रीर किब़हत और हौदख़न, ईझबेग ये तानों यि ि ोत्सक ि , आम़म ऽवरुदाख़न एवं दजि यय ा लोदाख़न ये दोनों पठ़ण, वैसे हा दोनों ऽदल़वर मौलद, ऄब्दल ि वेग, प्रऽसि खोज़ भगं ड, जोहर, पऱक्रमा खोज़ सिल्त़न, यि ि ऽवि़रद ऽसद्दा फते एवं फतेजंग, क्रोधा क़रतलब, ग़जाख़न अऽद सरद़र, ित्रि ि ल्य क़ पत्रि पऱक्रमा भ़वऽसंह, ईनके भ़इ ऽकिोरऽसंह एवं ऱमऽसंह ये दोनों ऱज़, ऱज़ ऽगररधर मनोहर, प्रद्यम्ि न, ऄऽनरुि, प़ंचव़ परुि र्ोत्तम एवं गोवधयन ऐसे छः गौडवि ं ाय ित्रऽि वऩिक श्रेष्ठ क्षऽत्रय ऱज़, गौड ऽवट्ठलद़स क़ सयी य के सम़न तेजस्वा पोत़, ऄजनयि क़ पत्रि ऽवजया ऱज़ ऱजऽसहं , ये तानों ऽससोद वि ं के ऱज़, चन्रवतं वि ं के ऱज़ श्रा ऄमर ऽसंह, चन्रपरी के ऱज़ क़ सेऩपऽत ऄररंदम द्ऱरक़ऽजत्, ऽजव़जा, परसोजा, ब़ल़जा, िराफ ऱज़ क़ पत्रि यि ि ोत्सक ि त्र्यम्बक ये सब पऱक्रमा व मह़बलिला, भोसले, त्र्यम्बक, ऄनंत एवं दत्त ये तानों खडं ़गय क़ वि ं के दत्त और करतगि ये य़दववि ि में िेरना के सम़न ऽनभयया ईदयऱम की पत्ना ं ा, सव़यजा क़ पत्रि ित्रवि ात्थ रंभ़जा पव़र, यि जगतजावन की म़त़, ऱयिेरणा, ऩम से प्रऽसि, बडे प्रत़प के क़रण ऄप्रऽतध्वऽणत ह्ला एवं ईसक़ कु ष्णऱज, प्रचंड अऽद भ़इ, सजेऱव घ़टगे, कमल़जा ग़ढे, जसवतं ऱव एवं कमल़जा कोक़टे, ये सभा बलि़ला, सरद़र ऽदल्लापऽत की अज्ञ़ से ऄपना सेऩ के स़थ ि़एस्तेख़न के पाछे -पाछे गए तैबयलैः पररतोऻप्यध्वसररतो ऽवऽहत़स्तथ़। ऽवऩ धऩगमां नैत़ः पश्यन्द्त्य़त्मपऽतां यथ़।।५६।। ५६. ईन सैऽनकों ने ऄपने च़रों ओर के भा म़गय की नऽदय़ं ऐसा सख ी ़ दा ऽक वे नऽदय़ं ऄपने पऽत समरि से वऱ्य ऊति तक ऽमल हा न प़ये। ऽनध़यययः स ततः ि़स्त़ख़नः ि़स्त़ चमीभुत़म।् सहस्रैः सप्तसप्तत्य़ तिरगैः पररव़ररतः।।।५७ 308 | पृ ष्ठ



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गम्भारवेऽदऽभभयरक़राऽभऽगयररसऽन्द्नभै: । तथ़ बकसरैरग्रसरैः पऽत्तवरैवयतु ः ॥ ५८ ॥ सन्द्नद्चः सऽहतस्तैस्तैऽवयऽवधैययिद्चस़धनैः । प्रपेदे सररतां भाम़ां साम़ां ऽवद्ठेऽषनावुतः ॥ ५९ ॥ ५७-५९. ईसके ब़द दृढ ि़सक, सेऩपऽत ि़एस्त़ख़न सतत्तर हज़र घडि सव़र, पवयत के सम़न भर ज़ता के मदमस्त ह़था, बक्सर ज़ता के ईत्तम प्रमख ि पद़ऽत सैऽनकों के स़थ सभा प्रक़र की यि ि स़मग्रा के स़थ सज्ज हतोत्स़ऽहत ित्रि के प्रदेि की साम़ भाम़ नदा के समाप पहुचं गय़। प्रोऽच्छन्द्नदेव़यतनां ऽछन्द्नऽभन्द्नमठामठम् । भज्यम़ऩध्यिगहु ां भग्ब्नोद्ट़नमहारुहम् ॥ ६० ।। प्रभीतऽवजनाभीतप्रतनप्ऱमपत्तनम् । पययटन्द्म्लेच्छकटकस्पष्टभ्रष्टसररत्तटम् ॥ ६१ ॥ ग्रस्तां ऽवधिन्द्तिदेनेव ऽनऽखलां ऽवधिमण्डलम् । दियनायेतरमभीत् तद़ तन्द्मेऽदनातलम् ॥ ६२ ॥ ६०-६२. तदनन्तर मऽन्दरों क़ ऽवध्वसं ऽकय़, छोटे बडे मठ ऽछन्न-ऽभन्न कर ऽदए, ऄऽधक़ररयों के घर ऽमट्टा में ऽमल़ ऽदए, बगाचों के वुक्ष तोड ऽदए, बहुत से परि ़ने ग़ंव व नगर सनि स़न कर ऽदए, सब जगह घमी ने व़ले मसि लम़न सैऽनकों ने नदातट भ्रष्ट कर ऽदए, आस प्रक़र वह भप्री देि अक़ि में चन्रग्रहण के सम़न भय़नक ऽदखने लग़। ततः ऽिप्रमिपेतेन ििऽभत़म्भोऽधबन्द्धिऩ। तेन चक्रेण चऽकतां चक्रे चक्ऱवतातलम।् ।६३ ६३. ईसके ब़द ऄि़ंत समरि के सम़न ईस सेऩ ने िाघ्रत़ से च़कणप्ऱन्त को भयभात ऽकय़। रुरुधिस्त़ां िोणमिख़ः पिरीं चक्ऱवतीं रुष़। ऽिवऱजे मह़ऱजे प्रण़ल़चलवऽतयऽन।।६४ ६४. ऽिव़जा मह़ऱज के पन्ह़ळ के ऽकले पर रहते हुए मगि लों ने च़कण के ऽकले को क्रोध से घेर ऽलय़। 309 | पृ ष्ठ



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तत्र सग्रां ़मदिग़यन्द्तवयऽतयऽभः ऽिवपऽत्तऽभः। यियिधिययिद्चकििल़स्ते ऽदऩऽन बहून्द्यऽप।।६५ ६५. ईस सग्रं ़म दगि य में रहने व़ले ऽिव़जा के सैऽनक बहुत ऽदनों तक सघं र्य करते रहे। य़वद्टिध्यऽत जोहरेण ब़लऩ क्रिद्चः प्रण़ल़चले, ऱज़ त़वदमा वयां समिऽदत़श्चक्ऱवतामण्डले । योत्स्य़मः प्रऽतयोऽधऽभः प्रऽतपदां दिगयऽस्थत़ऩऽमदम् । ऽवज़्य़ऽभमतां तथ़ न ऽवदधे ि़स्त़ऽप िस्तां मनः ॥६६॥ ६६. जब तक क्रोधा ऽिव़जा ऱज़ पन्ह़ळ के ऽकले पर बलि़ला जोहर से यि ि करते हैं, तब तक हम सब ऽमलकर च़कणप्ऱन्त में क्रमिः लडेंगे, ऐसा ऽकल्ले में रहने व़लों की आच्छ़ ज़नकर ि़एस्त़ख़न को ऄच्छ़ नहीं लग़। अल्लाि़होऻऽप ऽदल्लापररवुढपुतऩां तत्र सांग्ऱमदिगे, यिध्यन्द्ताम़कलय्य प्रऽथतपथ ु िबल़ां ऽकऽञ्चद़श्वस्तऽचत्तः । रोद्चव्योऻयां ऽवरुद्चः प्रसभमव़ऽहताभीय िैले प्रण़ले , सांरम्भ़ऽदत्थमिच्चैऽवयजयपिरगतो जोहऱय़ऽललेख ॥ ६७ ॥



६७. ऽदल्लापऽत ऱज़ की बडा व प्रऽसि स़मथ्ययि़ला सेऩ ईस संग्ऱमदगि य पर संघर्य कर रहा हैं, ऐस़ सनि कर ऄल्लाि़ह के ऽचत्त को थोड़ धैयय प्ऱप्त हुअ, ईसने भा ऽवज़परि से जोहर को ऄत्यन्त क्रोध में ऽलख़ ऽक स़वध़न रहकर पन्ह़ळ ऽकले के ित्रि को दृढ़त़ से बंदा बऩए रखें। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे ऽनऽधऽनव़सकरकवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हश्रय़ां सऽां हत़य़ां ि़स्त़ख़ऩभ्य़गमो ऩम पञ्चऽवि ां ोऻध्य़य: ।।२५।।



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अध्य़यः-२६ कवान्द्र उव़च अथ त्रस्ते जनपदे ऽवस्रस्ते च मह़जने। लिांऽटते स़हसवटे िीपे च़प्यवकिऽण्ठते।।१ ऽनगुहाते पिण्यपिरे गुहाते चेऽदऱपिरे। परचक्रचयग्रस्तप्ऱयचक्ऱवताचये।।२ आत्मजे ऽिवऱजे च प्रण़ल़चलवऽतयऽन। ऋद्चेऻऽप जोहरेणोच्चैः क्रिद्चे तत्रैव यिध्यऽत।।३ सित़ य़दवऱजस्य ि़हपत्ना मह़व्रत़। अहो रणरसोत्स़ह़द़होपिरुऽषक़मध़त।् ।४ लोग भयभात हो गए, व्य़प़रा पल़यन कर गए, स़सवट को लटि ऽलय़, िपय को घेर ऽलय़, पणि े पर हमल़ हो गय़, आदं ़परी पर कब्ज़ हो गय़, च़कण चोरो क़ बहुतेक प्रदेि ित्रसि ेऩ के कब्जे में हो गय़, पत्रि ऽिव़जा समुि व ऄत्यन्त क्रिि हतोत्स़ऽहत पन्ह़ळ ऽकले पर हा जोहर के स़थ लड रह़ थ़। ऐसे समय ज़धवऱव की बेटा, िह़जा की धमयपत्ना ऽजज़ब़इ आसा जगह वाररस से पररपणी य होकर यि ि की भ़ऱ् बोलने लगा। जनना ऽिवऱजस्य स़ ऱजऽगररवऽतयना। ऽनज़ऩां ऽगररदिग़यण़मवनेऻवऽहत़भवत।् ।५ ऱजगड पर रहने व़ला ऽिव़जा की म़त़ ऄपने ऽकले की रक्ष़ के क़यय में लग गइ। अथ सेऩपऽतनेत़ नैक़नाकऽनषेऽवतः। प्लिष्ट्व़ ि़हपिरां सवं दृष्ट्व़ पुष्ठां च ऽवऽद्ठषः।।६ 311 | पृ ष्ठ



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ऽिवसन्द्देिम़स़द्ट प्रस़दऽमव सव्रि तः। समऽन्द्वतो ऽहल़लेन ऽिवपत्तनम़ययौ।।७ तदनन्तर ध़ऽमयक सेऩपऽत नेत़जा बहुत बडा सेऩ लेकर सम्पणी य ि़हपरी को जल़कर, ित्रओ ि ं को भग़कर, ऽिव़जा क़ सम़च़र प्रस़द की तरह सनि कर ऽहल़ल़ के स़थ ऽिवपट्टण अ गय़। ततः स वत्सल़ां वत्स़लोकने ऽचरमित्सिक़म।् य़तिां प्रण़लमचलां स्वयमेव समिद्टत़म।् ।८ रोष़वेषवतीं स्वेन सैन्द्येन महत़वुत़म।् ददिय ि़हऱजस्य ऱज्ीं ऱजऽगररऽस्थत़म।् ।९ ईसके ब़द स्नेह से यि ि , पत्रि के दियन के ऽलए ऽचरक़ल से ईत्सक ि , पन्ह़ळऽकले को स्वयं ज़ने के ऽलए तैय़र हुइ, क्रोध को प्ऱप्त हुइ, ऄपना बडा सेऩ से यि ि वह िह़जा ऱज़ की ऱणा को नेत़जा ने ऱजगड पर देख़। आगस्कर इव़त्यथं भातभातः पदे पदे। स नऩम ऽहल़लेन सऽहतस्त़ां मह़व्रत़म।् ।१० म़नो कोइ ऄपऱध ऽकय़ हो ऐसे ईसने भयभात होकर धारे -धारे ऽहल़ल़ के स़थ ईसने धमयऽनष्ठ ऱणा को प्रण़म ऽकय़। प्रणमन्द्त़ऽवमौ दृष्ट्व़ बद्च़ञ्जऽलपिट़विभौ। स़ जग़द मह़भ़ग़ मुदिगम्भारभ़ऽषणा।।११ ईन दोनों को ह़थ जोडकर प्रण़म करते हुए देखकर मह़भ़ग्यि़ला ऱणा कोमल व गंभार िब्दों में बोला। ऱजम़तोव़च ऽबभ्ऱणः समरोत्स़हां मत्प्ऱणः स बऽहश्वरः। रुद्चो ऽवरुद्चैरऽभतः प्रण़ल़चलमीधयऽन।।१२



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ऱजम़त़ बोला - यि ि के ईत्स़ह से पणी ,य मेरे प्ऱणों के सम़न ऽप्रय पत्रि पन्ह़ळ के ऽकले को ित्रओ ि ं ने च़रों ओर से घेर रख़ है। तत्र तां स्व़ऽमनां ऽहत्व़ त्रप़ां च़ऽतमहायसाम।् अहो यिव़ां परऽभय़ पऱवुत्त़वभ ि ़वऽप।।१३ वह़ं पर स्व़मा को छोडकर व स़रा लज्ज़ को भल ि ़कर तमि दोनों ित्रि के डर से लौट अये यह अश्चयय है। तमेकम़त्मनो वत्सां ऽवमोचऽयतिम़त्मऩ। प्रयऽतष्ये हररष्येऻद्ट जोहरस्य ऽिरो यिऽध।।१४ मेरे ईस ऄके ले पत्रि को मैं खदि छिड़ने क़ प्रयत्न करुंगा और जोहर की गदयन अज यि ि में से लेकर अईंगा। वन्द्य़ऽमव ऽदिां िन्द्ी य़ऽमम़ां पश्य़ऽम यां ऽवऩ। आनऽयष्य़ऽम तां सद्टः ऽिििां ऽसांहऽमवोद्चतम।् ।१५ ऽजनके ऽबऩ ये ऽदि़एं बडे ऄरण्य के सम़न सनि स़न ऽदख रहा है। ईस ऽसहं के सम़न पऱक्रमा पत्रि को मैं जल्दा से ले अईंगा। श्रावत्सल़ांछनस्य़ांिां तमेकां वत्सम़त्मनः। िणां यऽद न पश्य़ऽम तऽहय त्यक्ष्य़ऽम जाऽवतम।् ।१६ ऽवष्णि क़ ऄवत़र ऐस़ वह मेऱ एकलौत़ पत्रि यऽद मझि े क्षणभर नहीं ऽदख़ तो मैं प्ऱण छोड दगंि ा। यिध्यध्वऽमह सांभीय यीयमत्र परैः सह। स्वयां योत्स्य़ऽम तेऩहां जोहरेण ऽवरोऽधऩ।।१७ तमि ऱत यह़ं ऽमलकर ित्रओ ि ं से ईलझे रहो, मैं खदि ईस ित्रि जोहर से लडता हं एवमििवतीं तत्र त़ां पररत्रस्तचेतनः। ििऽभत़ां च़रूचररत़ां चमीपऽतरवोचत।।१८ म़त़ के आस प्रक़र बोलने के क़रण डऱ हुअ, वह सेऩपऽत क्षब्ि ध होकर ऽजनक़ अचरण पऽवत्र है, ऐसे ईस ऱजम़त़ से बोल़। 313 | पृ ष्ठ



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चमीपऽतरुव़चभगवत्य़ः प्रभ़वेण मह़प्ऱणो मह़भिजः। सोऻवेिते जगत् कुत्स्नां न सह़यमपेिते।।१९ चमपी ऽत बोल़ -देवा भगवता के प्रभ़व से वह मह़स़मथ्ययि़ला व पऱक्रमा स्व़मा सम्पणी य जगत क़ प़लन कर रह़ है, ईन्हें सत्क़यय की ऄपेक्ष़ नहीं है। अतस्तद़ज्य़ गत्व़ ऽजत्व़ ऽवजयपत्तनम।् पऱवुत्तोऻऽस्म भव्यां ते योद्चिां त़म्रमिखैः समम।् ।२० आसऽलए ईनकी अज्ञ़ से ज़कर ऽवज़परि को जातकर तम्ि ह़ऱ कल्य़ण हो, ऐस़ मैं मगि लों के स़थ यि ि करने के ऽलए ऽफर से अय़ हॅ। प़तिम़य़ति म़मत्रभवता भव्यऽनश्चय़। तत्र ववयऽतय ऽवजया ऽिवः स भुिऽनभययः।।२१ दृढ़ऽनश्चया अप मेरा रक्ष़ करें , ईधर वह ऄत्यन्त ऽनभयया व ऽवजया ऽिव़जा है हा। तम़त्मनः पररवुढां दिधयऱण़ां धिरन्द्धरम।् कद़ रक्ष्य़ऽम च कद़ परैः स्रक्ष्य़ऽम सांगरम।् ।२२ ऄपऱजया, योि़ओ ं में श्रेष्ठ ऐसे ईस धन्य ऄपने ऽिव़जा को कब देख प़ईं और कब ित्रओ ि ं के स़थ यि ि करुं, ऐस़ मझि े लग रह़ है। योत्स्यऽन्द्त त़म्रवदनैरनेके सैऽनक़ इमे। अहां ति तत्र योत्स्य़ऽम ऽवरुद्चैजोहऱऽदऽभः।।२३ ये स़रे सैऽनक मगि लों से लडेगे और मैं वह़ं जोहऱऽद ित्रओ ि ं के स़थ लडींग़। प़ऽलत़न्द्यऽतयत्नेन ऽिवसैन्द्यैररह़धिऩ। प्रभवत्यद्ट दिग़यऽण गुहातिां ऩरुण़ननः।।२४ आधर ऽिव़जा के सैऽनकों ने ऄभा ऄत्यऽधक प्रयत्न से रऽक्षत ऽकए हुए ऽकल्ले को मगि ल अज नहीं ले प़येंग।े 314 | पृ ष्ठ



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इऽत ऽवज़्पय़म़स तत्र त़ां पतु ऩपऽतः। प्रतस्थे च प्रत़पेन प्रण़लमचलां प्रऽत।।२५ आस प्रक़र सेऩपऽत ने ईस समय ईन्हें ऽनवेदन ऽकय़ और धैययपवी क य पन्ह़ळगड की और चल ऽदय़ तरस़ तिरग़रूढां करव़लकरां दृढम।् षड्ऽवध़न्द्यऽप सैन्द्य़ऽन तां मह़न्द्वयमन्द्वयिः।।२६ िाघ्रत़ से घोडे पर बैठकर ह़थ में तलव़र लेकर ऽनकले हुए ईस ओर किल के धैययि़ला सेऩपऽत के पाछे छः प्रक़र की सेऩएं भा ऽनकल पडा। ििऽण्डििण्ड़समिद्चीतधीऽलधीसररतध्वजम।् स ब़हुजो मह़ब़हुस्तदिव़ह महद्ठलम।् ।२७ ह़था के िडंि से ईड़या हुया धील से धसी ररत ध्वज को वह स़मथ्ययि़ला क्षऽत्रय सेऩ को लेकर चल पड़। ऽनिम्य जोहरोऻप्येऩां ररपिसेऩमिप़गत़म।् तेन सेऩऽधपऽतऩ ऽहल़लेन च प़ऽलत़म।् ।२८ प्रऽतयोधऽयतिां योध़ऩत्मनाऩननेकिः। तत्र सप्रां ेषय़म़स प्ऱसपरििध़ररणः।।२९



ईस सेऩपऽत और ऽहल़ल़ के द्ऱऱ रऽक्षत एवं ित्रसि ेऩ क़ अने क़ सम़च़र प़कर, ईसको रोकने के ऽलए जोहर ने भ़ल़ और पट्टा को चल़ने व़ले बहुत स़रे योि़ वह़ं भेज ऽदए। ततस्ते बबयऱः सवे गवेण महत़वुत़ः। प्ऱसप़िधनिब़यणध़ररणः प्रौऽढक़ररणः।।३० त़ऽमम़ां पवयतपतेः पुतऩां सप्रि थायसाम।् ऋद्च़ां रुध्व़ध्वनोमयध्ये प्रत्ययिध्यन्द्निद़यिध़ः।।३१ 315 | पृ ष्ठ



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ईसके ब़द वे बडे गवय के स़थ, भ़ल़, प़ि एवं धनधि ़यरा वे सभा ऽिद्दा ऽिव़जा के ईस बहुत बडा व समुि सेऩ को म़गय में हा रोककर िह्ल फें ककर लडने लगा। तत्र यिद्च़न्द्यज़यन्द्त ऽहल़लस्य परैः सह। िरोत्कुत्तऽिरस्क़ऽन किन्द्तकुत्तकऱऽण च।।३२ वह़ं पर ित्रि के स़थ-स़थ ऽहल़ल़ क़ भा यि ि हो गय़, ईसमें ब़ण से ऽिर ऄलग व भ़ले से ह़थ तोड ऽदये गए। व़हव़हो मह़ब़हुऽहल़लस्य़त्मजस्तद़। ऽववेि ऽवऽद्ठष़ां व्यीहां मन्द्यिम़नऽभम़नव़न।् ।३३ तब ऽहल़ल़ क़ क्रोधा व ऄऽभम़ना स़मथ्ययि़ला पत्रि व़हव़ह ित्रि के व्यही में घसि गय़। स यिव़ पुथित़म्ऱिो वैररबिोऽवद़रणः। अताव दियनायोऻभीत् दिययन्द्हस्तल़घवम।् ।३४ बडे व ल़ल अखों व़ल़, ित्रओ ि ं की छ़ता को फ़डने व़ल़, वह यवि ़ ऄपने ह़थों की चपलत़ को ऽदख़ने व़ल़, बड़ हा दियनाय लग रह़ थ़। स ततस्तैमयह़योधैऽवयऽवध़यध ि योऽधऽभः। हय़ऽन्द्नप़ऽततो म़ना मिमोह मुधमीधयऽन।।३५ ईसके ब़द ऄनेक िह्लों से लडने व़ल़ ऄऽभम़ना ईस व़हव़ह को मह़यि ि ़ओ ं ने यि ि के ऄग्रभ़ग में हा घोडे से ऽगऱ ऽदय़ और वह बेहोि हो गय़। तां ऽभन्द्नभल्लवपिषां भुिऽवष्दलचेतसम।् ऽद्ठषन्द्तोऻतावरृष्यन्द्तो ऽनन्द्यिःस्वऽिऽबरां प्रऽत।।३६ ऽजसके िरार में भ़ल़ घसि ़ हुअ है, ऐसे घ़यल ऽचत्तव़ले व़हव़ह को ित्रि हर्य के स़थ ऄपने ऽिऽवर में ले गए।



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तम़त्म़नऽमव़त्मायां नायम़नमऱऽतऽभः। न िि़क ऽहल़लोऻऽप ऽवमोचऽयतिम़त्मजम।् ।३७ ऄपने अत्म़ के सम़न ईस पत्रि को ित्रि को ले ज़ते समय ऽहल़ल़ भा छिड़ नहीं प़य़। जोहऱयिऽधक़स्तत्र क्रिध़ यियिऽधरे तथ़। ऽहल़लप्रमिख़ः सवे ऽवमिख़ः सवयतो यथ़।।३८



जोहर के योि़ ऐसे क्रोध के स़थ लडे की ऽहल़ल़ अऽद सभा वार आधर-ईधर भ़गने लगे।



तमिदन्द्तमथ़कण्यय पुष्ठगोपश्चभीपऽतः। ऽहल़लतनयां वारमन्द्विोचत चेतऽस।।३९



यह ब़त सनि कर पुष्ठभ़ग की रक्ष़ करने व़ल़ सेऩपऽत ऽहल़ल़ ऄपने वार पत्रि के ऽलए मन में िोक करने लग़। इऽत नेतुप्रभुतयो यिध्यन्द्तोऻऽप ऽदने ऽदने। प्रण़लमचलां गन्द्तिां अन्द्तरां न प्रपेऽदरे।।४० आस प्रक़र नेत़जा अऽद के प्रऽतऽदन लडते हुए भा ईन्हें पन्ह़ळ ऽकले की ओर ज़ने क़ मौक़ नहीं ऽमल़। ऽनिम्य ऽिवभीप़लश्चमीप़लपऱभवम।् चिक्रोध जोहऱयैव जम्भ़ एव़िि जम्भऽजत।् ।४१ आस प्रक़र सेऩपऽत क़ पऱजय सनि कर, ऽिव़जा ऱज़ को, आरं को जंभ़सरि पर जैस़ क्रोध अय़ थ़, वैसे हा जोहर के प्रऽत क्रोध अय़।



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स एकद़ नस्ु तत्र िय़नः सख ि सद्ञऽन। प्रयतः प्रैित स्वप्ने तिलज़ां वरद़ऽयनाम।् ।४२ एकब़र सव्ि यवह़रा ऱज़ के सख ि ़ग़र में सोते समय, ईसके स्वप्न में वर देने व़ला तक ि ़ज़ भव़ना ने दियन ऽदए। मह़सत्त्वां मह़सत्त्व़ प्रणमन्द्तमथ़ग्रतः। तमेनमवनाप़लां जग़द जगदाश्वरा।।४३ तब वह मह़स़मथ्ययि़ला जगत् म़त़, स़मथ्ययि़ला ऱज़ को प्रण़म करते हुए बोला। तळ ि जोव़च एत्य त़म्ऱननैस्तत्र परि ा चक्ऱवता ऽजत़। अतस्त्वय़त्र न स्थेयां प्रस्थेयां पित्र सवयथ़।।४४



तळ ि ज़देवा बोला - मगि लों ने अकर च़ंकण क़ ऽकल़ जात ऽलय़ है, आसऽलए पत्रि तमि यह़ं मत रुको, किछ भा करके यह़ं से ऽनकलों। ऽसऽद्चवसत्रेऻद्ट त़म्ऱणां लग्ब्ऩ चक्ऱवता तथ़। गरायसेऻपक़ऱय ऽतमाऩां बऽडिां यथ़।।४५ ऽतऽम मछाले के जबडे में फंसे हुए गले के सम़न, मगि लों के ऽवजयरूपा मख ि में फंस़ हुअ च़कण क़ ऽकल्ल़ बडे ऄनथय क़ क़रण होग़। अरां ऱजऽगररां य़ऽह प़ऽह ऱज्यां ऽनजां नुप। त़म्यऽत त्व़ां ऽवऩ तत्र जरता जनना तव।।४६ हे ऱजन!् िाघ्रत़ से ऱजगड ज़ओ और ऄपने ऱज्य की रक्ष़ करो। तम्ि ह़रा वुिम़त़ तेरे ऽबऩ दःि खा हो रहा है।



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सैन्द्यैः कऽतपयैरेव प्रय़तव्यऽमतस्त्वय़। जोहरां योधऽयष्यऽन्द्त त्वद्टोक़ः पवयत़श्रय़ः।।४७ थोडा सेऩ के स़थ तमि यह़ं से ऽनकल ज़ओ, ऽकल्ले पर तम्ि ह़रे योि़ जोहर से लड लेंग।े अहां ति ऽनजयोगेन मोहऽयष्य़ऽम जोहरम।् प्रथऽयष्य़ऽम भवने भवद्झिजयिोभरम।् ।४८ ४८. मैं ऄपना म़य़ से जोहर को मोऽहत कर दगंी ा और संस़र में तम्ि ह़रे पऱक्रम की ऄत्यऽधक कीऽतय फै ल़ईंगा। गत़यिरेष प़प़त्म़ न ऽचऱयभ ि यऽवष्यऽत। ऽनऽमत्त़न्द्तरम़ऽश्रत्य मुत्यिरेनां ऽजघुिऽत।।४९ आस प़पा के ऽदन भर गये हैं ये ज्य़द़ ऽदन जाऽवत नहीं रहेग़, दसी रे रूप में मुत्यि आसे ग्रस लेऩ च़हता है। एवम़ऽदश्य तां देवा तत्रैव़न्द्तरधायत। स ति प्रबद्च ि स्त़मेव पनि ः पनि रनानमत।् ।५० ५०. आस प्रक़र ईसे अज्ञ़ देकर देवा लप्ति हो गइ, परन्ति ज़ग ज़ने पर ऽिव़जा ने ब़र-ब़र ईसा क़ वदं न ऽकय़। ततः प्रत्यऽथयसैन्द्येन पररतः कुतमण्डल़त।् घऩघनघट़लोकलाल़ि़ऽलऽिख़वल़त।् ।५१ समन्द्ततस्तत श्य़मतमक़ननसांकिल़त।् जननालाऽमलत्पङ्कऽपच्छलोपत्यक़तल़त।् ।५२ गम्भारगद्छनदऽन्द्नःसरन्द्नैकऽनझयऱत।् प्रण़ल़दचल़द़त्मबल़ऽन्द्नय़यतिमिद्टतः।।५३ प्रौढ़ां पत़ऽकनीं तत्र ऽनऽधत्सिः ऽिवभीऽमपः। पय़यस्ऩतगिणां लोके ऩम्ऩ त्र्यम्बकभ़स्करम।् ।५४ ऽनव़यययमग्रजन्द्म़नमवध़यय ऽधय़ स्वय़। 319 | पृ ष्ठ



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गऽहयत़ऽहतसन्द्दोह़मऽहयत़ां ऽगरमभ्यघ़त।् ।५५ ५१-५५. तदनन्तर च़रों और से ित्रसि ेऩ से ऽघरे हुए, घने ब़दलों के समही को देखकर ऩचने व़ले मोर, सभा ओर फै ले हुअ घऩ एवं क़ल़ जगं ल, गदगद एवं गभं ार अव़ज करने व़ले झरे ऽजससे बह रहे थे, ऐसे ईस पन्ह़ळ के ऽकले से ऄपना स़मथ्य़यनसि ़र ब़हर ज़ने के ऽलए तैय़र होकर बडा सेऩ को वह़ं रखने की आच्छ़ से त्र्यम्बक भ़स्कर ऩमव़ल़, लोकप्रऽसि, सम्म़न्य धैययि़ला ब्ऱह्मण को ऄपना बऽि ि से सऽि नऽश्चत करके , ित्रि समही की ऽनन्द़ करनेव़ले ऽिव़जा ने यथ़योग्य भ़र्ण ऽकय़। ऱजोव़च पश्य यिध्य़ऽद्झरेव़हऽदयवमिद्टऽमत़यिधैः। म़स़श्चैत्ऱदयोऻस्म़ऽभररह नात़ः प्रभ़ऽवऽभः।।५६ ५६. ऱज़ बोल़ -देखो! ऱत-ऽदन हऽथय़रों से लडते हुए पऱक्रम से यि ि हमने यह़ं पर चैत्र अऽद च़र मऽहने बात़ ऽदए। पञ्चमोऻयां ति सांप्ऱप्तो नभ़ः श्य़मनभ़ः ििभः। िोभ़ां सिमहतीं तन्द्वन् इह क़ननसांकिले।।५७ ५७. ऽजस मऽहने में घने क़ले ब़दल छ़ए रहते हैं, ऐस़ िभि प़ंचव़ श्ऱवण क़ मऽहऩ अ गय़ है। हन्द्त़ह़ययऽिरस्यऽस्मन् अऽहत़ह़ययपौरुषैः। हतो न जोहरोऻस्म़ऽभरहो िैलतलऽस्थतः।।५८ ५८. ऄरे ! ऽजनक़ पऱक्रम ित्रओ ि ं के ऽलए ऄपररह़यय है, ऐसे हम़रे ह़थों से आस दजि यय ऽकले के तलहटा में रहते हुए जोहर को हम म़र न सकें यह अश्चयय है। भग्ब्ऩः सेऩऽधपतयो नेतुप्रभुतयः ऽकल। नैनां पररऽधमेतेष़माषत् िपऽयतिां िम़ः।।५९ ५९. नेत़जा अऽद सेऩपऽतयों क़ मन पररवऽत्तयत हो गय़ है, ऐसा लोकचच़य है और आनकी यह घेऱबंदा हम़रे द्ऱऱ सम़प्त करना ऄिक्य है।



320 | पृ ष्ठ



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बलि़ला बबयरोऻयां सबि ़हुबयहुऽभबयलैः। अिसयो जेतिमस्म़ऽभररद़नाऽमऽत मे मऽतः।।६० ६०. आस बलि़ला व पऱक्रमा बबयर को आस बडा सेऩ के सह़यत़ से जातऩ ऄसम्भव है, ऐस़ मझि े लगत़ है। इहैव ऽनग्रह़य़स्य ऽचरस्य मदवऽस्थऽतः। न स्थ़ने पिण्यऽवषयस्थ़ने त़म्ऱवुते सऽत।।६१ ६१. पणि े प्ऱन्त पर मगि लों द्ऱऱ अक्रमण ऽकय़ ज़ रह़ है, ईनके ऩि एवं पऱभव के ऽलए मैं यह़ं पर ज्य़द़ समय तक रुकंी यह ईऽचत नहीं है। महता त़म्रवदनध्वऽजना स़हसऽप्रय़। तत्र मन्द्ये मदन्द्येन न पऱभीऽतमेष्यऽत।।६२ ६२. ईधर स़हसा मगि ल सेऩ की पऱजय मेरे ऄल़व़ ऽकसा और के ह़थ से नहीं होगा, ऐस़ मझि े लगत़ है। अतोऻऽस्म प्रऽस्थतस्तीणं त़म्ऱननऽजघ़ांसय़। परैरधषयणायोऻस्ति पवयतोऻयां त्वद़श्रयः।।६३ ६३. आसऽलए मैं मगि लों क़ संह़र करने की आच्छ़ से जल्द हा ऽनकल रह़ हॅ, तब ित्रओ ि ं द्ऱऱ दजि यय ा यह ऽकल्ल़ तेरे अऽश्रत रहने दें। त्वमत्र भव सेऩनाः सेऩनाभयव ऽवक्रमा। उज्ज़सऩय पररतः पररवेषकुत़ ऽद्ठष़म।् ।६४ ६४. ती यह़ं पर सेऩपऽत हो, च़रों ओर से घेऱबंदा ऽकए हुए ित्रओ ि ं के ऩि के ऽलए पऱक्रमा हो। ऽभत्वैनां ऽवऽद्ठषद्व्यीहां प़थयस्येव प्रय़स्यतः। प्रऽतयोद्च़ न मे कऽश्चत् पऽततोऻद्च़ भऽवष्यऽत।।६५ ६५. आस ित्रसि ेऩ के व्यही को तोडकर ऄजनयि के सम़न ऽनकल कर ज़ने व़ल़, मेरे स़थ लडने व़ल़ कोइ भा नष्ट योि़ ऽबल्किल नहीं ऽमलेग़। इत्यिदायय स तां धारां धरे तऽस्मन् ऽनध़य च। 321 | पृ ष्ठ



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य़ऽमन्द्य़ः प्रथमे य़मे प्रऽस्थतः पऽु थवापऽतः।।६६ ६६. ऐस़ बोलकर ईस धैययि़ला त्र्यम्बक भ़स्करद़स को ईस ऽकले पर छोडकर मह़ऱज ऱत्रा के पहले प्रहर में चल पडे। य़प्यय़नसम़सानां तमेनां स्व़ऽमनां भिवः। तद़ बत़निय़ऽन्द्त स्म पदग़ऩां ित़ऽन षट्।।६७ ६७. अश्चयय की ब़त यह है ऽक मह़ऱज के प़लखा में बैठकर ज़ते समय ईनके पाछे छः सौ सैऽनक भा गए। प्रस्थ़नदिन्द्दिऽभस्तस्य दध्व़न मधिरां तथ़। ध्वनदम्भोघरभ्ऱन्द्त्य़ परैनय बिबिधे यथ़।।६८ ६८. ईनक़ प्रस्थ़न ददंि भि ा के अव़ज के सम़न मधरि ध्वऽन ध्वऽनत हुइ तो ित्रि ने ईसे मेघगजयऩ हा समझ़। कदम्बके तकीकिन्द्दकिटज़मोदमेदिरः। पररस्फिरऽन्द्नझयऱम्भः कणसम्पकय मन्द्थरः।।६९ तस्य़निकीलत़ां तत्र दध़नः पवनस्तद़। आत्मायां दियय़म़स स़ह़य्यां स्वजनो यथ़।।७० ६९-७०. कदबं , के तक, कंि द, किटज आनके सगि धं से भरे हुए, तेजा से ईछल कीदकर बहने व़ले झरने के बफय के सम्पकय से मदं , ऐसा व़यि ने ईस समय वह़ं पर ऄनक ि ी ल होकर स्वब़न्धव के सम़न ईनकी सह़यत़ की। व्रजते भीतुतेऻमिष्मै चरदृष्टचरे पऽथ। स्थलीं ऽनम्नोन्द्नत़ां सद्टः सौद़ऽमन्द्योऻप्यदिययन।् ।७१ ७१. मह़ऱज के म़गय पर प्रव़स करते समय ईनके ऽलए ज़ससि ों ने पहले हा देखकर रख़ हुअ पह़डा ऱस्त़ ईन्होंने ईसा क्षण ऽदख़ ऽदय़। अऽप य़न्द्तमदीरेण पथ़ तमवनाश्वरम।् ऩज़्ऽसषिऽवयऽद्ठषतो भगवत्य़ ऽवमोऽहत़ः।।७१ ७२. भव़ना देवा के द्ऱऱ मोऽहत ऽकए हुए ित्रओ ि ं के ऱज़ के समाप से ज़ने पर भा ऱज़ समझ नहीं प़य़। 322 | पृ ष्ठ



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ततोतऱन्द्तऱस्रस्तप्रस्तरप्रोन्द्नत़नतम।् प्रप़तप़तऽननदन्द्नदानदसिदिगयमम।् ।७३ नालिैवलसांऽश्लष्टसऽसथदघ्नऽनषद्ठरम।् नैकध़तिरवऽमलन्द्मुदिमुन्द्मसुणोदरम।् ।७४ पल्लवप्रोल्लसद्ठारुत्परररब्धमहारुहम्। वष़यकिऽलति़दीयलकिलसक ां ि लकन्द्दरम।् ।७५ व़मलरी ़न्द्तरोरच्छद्ङदां िक ी ऽजघ़ांसय़। कुतकोल़हलां कोप़त् प्रचलऽद्झः कल़ऽपऽभः।।७६ अदृष्टजनसांच़रां चरदृष्टचरां तद़। ऱज़ ऱजऽगरेरािस्तमध्व़नमलांघत।।७७ ७३-७७. अगे बाच-बाच में ऽगरे हुए पत्थरों से ईबड-ख़बड पवयत से टिटे हुए तट से ऽगरते हुए गजयऩ करने व़ले, नऽदयों एवं झरनों के क़रण ऄत्यन्त दगि मय , नाले क़इ के क़रण ग़ढ़़ कीचड, जघं ़ओ ं तक पऽवत्र ऽदखनेव़ला लत़एं जो ऽक वुक्षों से ऽलपटे हुइ है, ऽगरा हुइ वऱ्य के क़रण िेरों की भाड गहि ़ के स़मने हो गइ, वल्माक से ब़हर अये हुए स़पों को म़रने की आच्छ़ से दौडकर ज़ने के ऽलए तैय़र खल ि े पंखों व़ले मोर, ऽजस पर मनष्ि यों की दृऽष्ट तक नहीं पडता था, ऐसे गप्ति चरों ने पहले हा देखकर रखे हुए ईस म़गय को ऱयगड क़ स्व़मा ऱज़ ऽिव़जा ल़ंघकर गय़। अथ धरऽणमऽणऽवयि़लिैलम,् ऽनजमऽधरुष्त ऽवलोकनायिालम।् वसऽतमऽभमत़ां ऽवलांऽघत़ध्व़, स्वकटकऽवश्रमहेतिक़मक़षीत।् ।७८ ७८. तदनन्तर म़गय को प़र करके अये हुए ऱज़ ऽिव़जा ने दियनाय सभ़गुह एवं ऄपने बडे ऽकले पर चढ़कर वह़ं पर ऄपना सेऩ को ऽवश्ऱम ऽमले आसऽलए आच्छ़नसि ़र ऽवश्ऱम़लय बऩयें। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्रय़ां सांऽहत़य़ां स्वऱष्ऱवेिणां ऩम़ध्य़यः।।२६।। 323 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-२७ मनाऽषण उचिः प्रण़लभीधऱद़त्मऽनऽहत़नाकदिग्रयह़त।् समां पऽत्तित्तैः षड्ऽभस्तमज़्तऽवऽनगयतम।् ।१ जोहरः कथमज़्सात् मोऽहतो योगम़यय़। प्रताक़रां च कां चक्रे स्वेन चक्रेण सांवुतः।।२ ऽिववारयिः िारऽनऽधप्ल़ऽवतचेतस़। परम़नन्द्द भवत़ तत्सवयमऽभधायत़म।् ।३ १-३.पऽण्डत बोलें ऄपने रखे हुए सैऽनकों के क़रण, दजी यय ा पन्ह़ळ के ऽकल्ले से ऽिव़जा छः सौ पद़ऽत सैऽनकों के स़थ ऽनकलकर चले गए, आसक़ ऄन्द़ज योगम़य़ से मढी हुए जोहर को कै से समझ में अय़ एवं ऄपने सैन्यबल से ईसने कोन-स़ प्रताक़र ऽकय़, यह सब वार ऽिव़जा के यिरूपा क्षार समरि में तैय़रने व़ले हे परम़नन्द तमि बत़ओ। कवान्र ईव़च ऽिवः स्वयां प्रण़ल़रेऽययय़सिरभवद्टद़। वाऱय जोहऱयेमां सांदेिां व्यसुजत्तद़।।४ ४.कवान्र बोलें जब ऽिव़जा ने स्वयं पन्ह़ळ के ऽकल्ले से ज़ने की आच्छ़ की तभा ईन्होंने जोहर को आस प्रक़र से सन्देि ऽभजव़य़ थ़।



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ऽिवऱज उव़च येऽदलेन सम़हूतैस्त़म्रैः स ऽवषयो मम। उपक्ऱन्द्तस्त्व़क्रऽमतिमऽतक्ऱऽन्द्तऽवक़ररऽभः।।५ ५.ऽिव़जा बोलें अऽदलि़ह ने बल ि ़ये हुए व मेरे अक्रमण के क़रण क्रोऽधत मगि ल मेरे देि पर अक्रमण कर रहे हैं।



अतस्तैरधनि ़ योद्चिऽमतः प्रस्थायते मय़। योद्चव्यां बत मे योधैययिद्चऽवऽद्झररह त्वय़।।६ ६.आसऽलए ईनसे यि ि करने के ऽलए मैं यहॉं से ज़ रह़ हॅ, तब ती मेरे यि ि ऽनपणि योि़ओ ं से यहॉं लडऩ। यऽद व़ऽस्त मऽतस्तेऻद्ट द्ठांद्ठयिद्चे सकौतिक़। तष्तयलऽां क्रयत़मेत्य प्रण़ल़रेरुपत्यक़म।् ।७ ७.य़ ऽफर मेरे स़थ द्रन्द्र यि ि करने की ईत्सक ि त़ यऽद तम्ि हें अज हो तो पन्ह़ळ के ऽकल्ले के तलहटा में अ ज़त़। स्वेन स्वेन ष्तनाके न ऽवदीऱदवलोऽकतौ। योत्स्य़वः सोत्सवां तत्र बत ऽनऽस्रांिध़ररणौ।।८ ८.ऄपना-ऄपना सेऩएं हमें दरी से देख,ें हम दोनों तलव़र से व़ह पर ं अनन्द से लटेंग।े तम़कण्य़यऽप सांदेिां कुता कणयपिऱऽधपः। अऩकऽणयतवच्चक्रे चऽकतेन स्वचेतस़।।९ ९.ईस कणयपरी के कििल स्व़मा जोहर ने वह संदि े सनि कर भा मन भयत्रस्त होने के क़रण ऄनसनि ़ कर ऽदय़। तद़प्रभुऽत तेनोच्चैभ़ययाख़ऩदयो भट़ः। सांऽदष्ट़ः सवयतस्यस्य पवयतस्य ऽनरोधने।।१० १०.तब से हा ईस ने भ़इज़न अऽद योि़ओ ं को ऽकले के च़रों और कठोरत़ पणी य घेऱबंदा करने को कह़। 325 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अज़्त़ नैव ऽनय़यऽत न च़य़ऽत ऽपपाऽलक़। तथोपऽवऽवििस्तत्र ततो जोहरसैऽनक़ः।।११ ११.तब ऽचटा भा ऽबऩ पत़ चले ऄदं र य़ ब़हर ज़ सके ऐसे तराके से जोहर के सैऽनकों ने वहॉं ईस ऽकल्ले की घेरबदं ा की। अांधाकुत्येव त़ांस्तत्र ऽनऽवष्ट़न् प्रऽतयोऽधनः। ऽिवः स्वायेन िौयेण पररऽधां तमलांघयत।् ।१२ १२.वहॉं घेऱबंदा करके बैठे हुए ईस ित्रि योि़ओ ं को म़नों ऄधं ़ करके ऽिव़ना ऄपने पऱक्रम से वह घेऱंबदा तोडकर गय़ हो। स ततः सप्तऽभय़यमैः पांचऽभयोजनैऽमयतम।् अतात्य ऽकल पांथ़नां ऽवि़लां िैलम़सदत।् ।१३ १३.तदनन्तर वह सचमचि स़त घटं ों में हा ४० योजन म़गय पर करके ऽवि़ल ऽकल्ले पर पहुचं गय़। अथोदन्द्तऽवदश्च़ऱः ि़हऱज़त्मजां नुपम।् ऽवऽनगयतां प्रण़ल़रेजोहऱय न्द्यवेदयन।् ।१४ १४.वह सम़च़र ज़नने व़ले गप्ति चरों ने ऽिव़जा पन्ह़ळ के ऽकले से चल़ गय़, ऐसे जोहर को बत़य़। सांवतयस़गऱवतयवतीव स ततः स्वयम।् त़ांतभ़वमध़त्तत्र भ्ऱांतभ्ऱांतः सभ़ांतरे।।१५ १५.तब म़नों प्रलयक़ल के स़गर के भंवरे में फंस़ हुअ जोहर स्वयं ऄत्यन्त दःि खा, मढी होकर सभ़ में परे ि़न-स़ थ़। अहो रुद्चो ऽवरुद्चो..यमस्म़ऽभररह भीधरे। अस्म़न् ऽवम़पयन्द्नस्म़दकस्म़दद्ट ऽनगयतः।।१६ १६.ऄरे आस ऽकल्ले पर हम़रे द्ऱऱ बदं ा बऩय़ हुअ ित्रि चऽकत करके अज यहॉं से ऄच़नक ऽनकलकर चल़ गय़, आसे क्य़ बोलें हमें। 326 | पृ ष्ठ



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अथ येऽदलि़ह़य दियऽयष्ये कथां मिखम।् अतः प्रभुऽत मे जन्द्म पररह़स़य के वलम।् ।१७ १७.ऄब मैं अऽदलि़ह को महंि कै से ऽदख़ईं, यहॉं से अगे मेऱ जाऩ के वल ईपह़स के ऽलए हा होग़। यवऩन्द्तकरां ष्तेनां मम हस्त़ऽद्चऽनःसुतम।् ऽनिम्य ऽकां वऽदष्यऽन्द्त ि़स्त़ख़ऩदयोऻऽप म़म।् ।१८ १८.यवनों क़ ऩि करने व़ल़ यह मेरे ह़थ से ऽनकल गय़, ऐस़ सनि कर ि़एस्त़ख़न अऽद भा मझि े क्य़ बोलेंगक। अनति प्येऽत स ऽचरां ऽवऽचन्द्त्य च मिहुमयिहुः। जग़द दिमयदां वारां मसीदां ऩम बबयरम।् ।१९ १९.आस प्रक़र बहुत देर तक पश्च़त़प करके एवं ब़रंब़र ऽवच़र करके वह निे में चरी वार साद्दा मसदी ़स बोल़। जोहर उव़च ग्रऽन्द्थस्थेनेव रत्नेन सपत्नेऩधनि ़मिऩ। ऽनरोधपररमििेन बत मे दीयते मनः।।२० २०.जोहर बोल़ थैला में ऽस्थत रत्नों के सम़न ऄब यह ित्रि घेरे में से ऽनकलने के क़रण मेरे मन को ऄत्यऽधक दःि ख हो रह़ है। पश्यत़ां नः समस्त़ऩां हस्त़द्टोऻद्ट ऽवऽनःसुतः। रितमेव मह़ब़हो मसीद तमनरि व।।२१ २१.हम सबके देखने पर भा जो अज हम़रे घतों से ऽनकल गय़ है, ईसक़ हे मह़ब़हु मसदी , जल्दा से पाछ़ करो। ऽनजक़य़यन्द्तरव्यग्रो ऽवि़ले च ऽिल्लोच्चये। स ऽचरां बत न स्थ़त़ त्वमतस्त्वररतो भव।।२२ २२.ऄपने दसी रे क़यय में व्यस्त होने के क़रण वह ऽिव़जा ऽवि़ल ऽकल्ले पर ज्य़द़ समय नहीं ऽबत़येग़, आसऽलए ती िाघ्रत़ कर। 327 | पृ ष्ठ



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स तेनेऽत ऽवऽनऽदयष्टो ऽवऽिष्टः िौययकमयऽण। महत्य़ सेनय़ स़धं अनिदिऱव तां ऽद्ठषम।् ।२३ २३.आस प्रक़र ईसके अज्ञ़ देने पर वह ऽवऽिष्ट पऱक्रमा मसदी बडा सेऩ के स़थ ईस ित्रि क़ पाछ़ करने लग़। आज़नि तिरग़स्तस्य ममज्जिः पऽथ पांऽकले। ऽनपेतिः पत्तयश्च़ऽप स़ांरिैव़लसांकिले।।२४ २४.कीचड के क़रण म़गय में ईसके घोडे घटी ने तक धस गए एवं पद़ऽत सैऽनक भा धने क़इ में ऽगर गए। मसदी म़गतां श्रत्ि व़ ऽिवऱजः पऱक्रमा। ससज्जे सांगऱयोच्चैवयसांस्तत्र ऽिलोच्चये।।२५ २५.मसदी अय़ हुअ सनि कर ईस ऽकल्ले पर रहने व़ल़ पऱक्रमा ऱज़ ऽिव़जा लडने के ऽलए ऄच्छे से तैय़र हुअ। पल्लावनपऽतवीरो जसवन्द्तो नऱऽधपः। प्रत़पा सयी यऱजश्च श्रगुां ़रपरि प़ऽथयवः।।२६ अपरेऻऽप च स़मन्द्त़ः िैलस्य़स्य ऽनरोधने। ऽनयोऽजतचऱस्तेन जोहरेण दिऱत्मऩ।।२७ यिध्यम़ऩ अऽप मिहुः ऽिवां िैल़ऽधरोऽहणम।् ऽनषेद्चिां न िमन्द्ते स्म पऱभीत़ः पदे पदे।।२८ २६-२८.पल्लावन प़ला क़ ऱज़ वार जसवतं , श्रुंग़परि क़ ऱज़ पऱक्रमा सयि ़यजा और ऄन्य भा स़मतं , ईस ऽकल्ले की घेऱबंदा करने के ऽलए ईस दरि ़त्म़ दष्टि जोहर ने पहले हा ऽनयि ि ऽकए हैं, वे ब़र-ब़र लडते हुए पद-पद पर पऱजय को प्ऱप्त होने के क़रण ऽकल्ले पर चढ़ते हुए ऽिव़जा को रोक नहीं प़ए। ते सवेऻऽप मसीदेन ससैन्द्येऩऽभम़ऽनऩ। समेत्य भीधरममिां भीयो रुरुधिरुद्चत़ः।।२९ २९.ईन सभा घमडं ा ऱज़ओ ं ने, ईस ऄऽभम़ना मसदी से सेऩ सऽहत ऽमलकर, ईस ऽकल्ले को ऽफर से घेर ऽलय़। 328 | पृ ष्ठ



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अथ ते ऽिवऱजस्य योध़ः क्रोध़रुणेिण़ः। अवरुष्त ऽगरेस्तस्म़त् ऽनःस्वनन्द्तो घऩ इव।।३० ध़वम़ऩः स़वध़ऩन् रुांध़ऩनऽभय़ऽयनः। ऽित़ऽभरऽसध़ऱऽभः कुतोत्प़तमघ़तयन।् ।३१ ३०-३१तदनन्तर क्रोध से ल़ल अख ं ों व़ले ऽिव़जा के योि़ओ ं ने ईस ऽकल्ले से नाचे ईतरकर ब़दल के सम़न गजयऩ करके दौडकर ज़कर, बडा स़वध़ना से, घेरने व़ले ईन ित्रओ ि ं पर हमल़ करके कीद-कीदकर ताक्ष्ण तलव़रों से क़ंट ऽदए। बहवो बबयऱस्तत्र बऽलऽभः ऽिवपऽत्तऽभः। खऽण्डत़ः खण्ड्ध़ऱऽभयययिः सांयऽमनीं पिराम।् ।३२ ३२.वहॉं पर बहुत से बबयर ऽिव़जा के बलव़न पद़ऽत सैऽनकों के तलव़रों की ध़र से क़टने के क़रण, ईन बबयरों ने यमपरि क़ ऱस्त़ पकड ऽलय़। जसवन्द्तः सीययऱजः स़मन्द्त़श्च़ऽप भीररिः। रयां ध़रऽयतिां तेष़ां न तत्र प्रभवोऻभवन।् ।३३ ३३.वहॉं पर जसवतं , सयि ़यजा एवं ऄन्य बहुत से स़मतं पऱक्रम को सहन न कर प़ए। मसीदस्त्वपय़न्द्तीं त़ां पऱवत्य़यत्मव़ऽहनाम।् वेगव़न् प्रऽतजग्ऱह पऱन् ग्रह इव ग्रह़न।् ।३४ ३४.भ़गकर ज़ने व़ले, ऄपने सैऽनकों को लौट़कर, िाघ्रक़रा मसदी ने ग्रह-ग्रह पर ऽजस प्रक़र हल्ल़ करत़ है, ईसा प्रक़र ित्रि पर हमल़ ऽकय़। अथोभयेष़ां सैन्द्य़ऩां सांऽनप़तो मह़नभीत।् अऽसऽभः िऽिऽभश्चोच्चैऽनयघ्नत़ऽमतरेतरम।् ।३५ ३५.तब तलवरों से एवं िऽियों से एक-दसी रे को जोर से म़रने व़ले ईन दोनों के हा सेऩओ ं में बड़ यि ि हुअ। ततो भिजमद़वेिऽनघ्ऩन् ऽवघ्ऩऽनव़गत़न।् 329 | पृ ष्ठ



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बबयऱन् प़तय़म़सःि परे प्रधनप़रग़ः।।३६ ३६.तब ब़हुबल के घमडं से ईन्मत्त हुअ, ऽवघ्नों के सम़न चलकर अये हुए ईन बबयरों को यि ि ऽनपणि ित्रओ ि ं मऱठ़ओ ं ने लढ़ि क़ ऽदय़। तरुऽनव तऽडत्वन्द्तो गरुत्मन्द्त इवोरग़न।् जगजयिस्त़न् ऽवऽनऽजयत्य िैल़ऽधपऽतपत्तयः।।३७ ३७.ऽवद्यति यि ि ब़दल वुक्षों को तोडकर व गरुड स़पं को पकडकर गजयऩ करत़ है, ईसा प्रक़र ऽिव़जा के पद़ता सैऽनकों ने जातकर गजयऩ की। पररतः िाणयिाषयण्यां िाणयप़ण्यांऽिमस्तकम।् िाणयस्कन्द्धोरुयिगलां तद़भीद् रणमण्डलम।् ।३८ ३८.ईस समय फीटे हुए ऽिरह्ल़णें टिटे हुए ह़थ, पैर, ऽिर, कंधे, जघं ़ए, ये सब ईस यि ि भऽी म पर ऽबखरे हुए थे। स़ ि़दहररत़प्यिच्चैऽवयि़ल़रेरुपत्यक़। लोऽहतैः प्रऽतवाऱण़मभीत् सपऽद लोऽहत़।।३९ ३९.त़जे घ़स से ऄत्यन्त हरा-भरा ऽवि़ल ऽकल्ले की तलहटा की भऽी म ित्रओ ि ं के खनी से िाघ्र हा ल़ल हो गइ। उरुऽभज़यनिऽभश्च़ऽप तथ़ जांघ़ऽभरऽन्द्रऽभः। ऽिरोऽभश्च नऱश्व़ऩां दिष्प्रेक्ष्य़ वसिध़भवत।् ।४० ४०.मनष्ि यों व घोडों की जंघ़ए, घटी ने, पैर एवं ऽिर आसके क़रण भऽी म ऄदियनाय ऽदखने लगा। इत्थां मसदी ः स्वां सैन्द्यां ऽिवरोषमह़णयवे। समस्तम़त्महस्तेन मज्जऽयत्व़ ऽवलऽज्जतः।।४१ परैः प्रधनप़राणैजीवन्द्मििोऻनपेऽितः। पऱचानोऻभवत्तेभ्यः परां ऽनवेदम़गतः।।४२



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४१.४२आस प्रक़र से ऄपने सम्पणी य सैन्य बल को ऄपने ह़थ से ऽिव़जा के क्रोधरूपा समरि में डिबोकर लऽज्जत हुअ मसदी , यि ि ऽनपणि ित्रओ ि ं ने ईपेक्ष़ कर जाऽवत छोड ऽदय़ एवं ईसे ऄत्यऽधक दःि ख हुअ एवं ऄपनों के स़मने खड़ हुअ और वह ित्रओ ि ं से पऱगं मख ि हो गय़। प्रपल़य्य रण़त्तस्म़त् पिरस्त़द़त्मनः ऽस्थतम।् जोहरस्तमथ़मस्त परलोक़ऽदव़गतम।् ।४३ ४३.ईस यि ि से पल़यन करके अय़ हुअ एवं ऄपनों के स़मने खड़ हुअ वह मसदी म़नो परलोक से अय़ है, ऐस़ जोहर को लग़। अथ स्वऽवषयोप़ांत़द़ऩऽयतचऱां चमीम।् सम़द़य ऽवि़ल़ष्थ़त् पवयत़त् प्रऽस्थतः स्वयम।् ।४४ ४४.ईसके ब़द ऄपने ऱज्य की साम़ से पहले हा ल़कर रखे हुए सैऽनकों को लेकर वह स्वयं ऽवि़ल ऽकले से चल़ गय़। उऽषत्व़ वसतास्त़स्त़ः सोत्सवे पऽथ पच ां ष़ः। सद्टो ऱजऽगररां गत्व़ ऱज़ ऱजऽगराश्वरः।।४५ चांचन्द्मराऽचऽनचयस्फिररत्ऩसनऽस्थत़म।् किलष्धाऽभः पररवुत़ां किलष्धाकिलदेवत़म।् ।४६ तत्तद्व्रतवतीं निांऽदवमांऽचतदैवत़म।् ददताम़ऽिषस्त़स्त़ः सत्यगम्भारभ़ऽषत़म।् ।४७ प्रमोदब़ष्पप्रचयऽस्तऽमत़यतलोचऩम।् समिच्चऽलव़त्सल्यरस़ां सदियनोत्सिक़म।् ।४८ सांप्रस्नितस्तनस्तन्द्यध़ऱऽभरमुत़त्मऽभः। स्नपयन्द्तीं मह़ब़हुजयननीं स्व़मवन्द्दत।।४९



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४५-४९.अनन्दपवी क य म़गय में ऄनेक प्रक़र के प़ंच-छः वस्ताय़ं बऩकर ऱजगड के ऱज़ ने तरि न्त ऱजगड ज़कर चमकने व़ले ऽकरणों के योग से चमकने व़ले रत्नों से यि ि असन पर बैठे हुए, किलान ऽह्लयों से ऽघरे हुए किलान ऽह्लयों के किलदेवत़, ऄनेक प्रक़र के व्रतों को रखने व़ला, ऱतऽदन देवत़ओ ं की पजी ़ करने व़ला, ऄनेक प्रक़र के अिाव़यदों के ़ देने व़ले, सत्य एवं गंभार भ़र्ण करने व़ला खि ि ा के अंसओ ि ं से दाघय नेत्र ऽजसके नभ हो गए है, ऄतं ःकरण में पत्रि प्रेम ईमड गय़ है, ऽजसके दियनोत्सक ि , स्तनों से बहने व़ले ऄमुतमय दधि की ध़ऱओ ं से म़नो स्ऩन कऱने व़ला ऄपना म़ं को वदं न ऽकय़। ततस्तद़ऽन्द्तके तत्तद् वुत्तम़वेदयन्द्नयम।् अनयत्तऽद्ङनां सवं ऽवजया ि़हनन्द्दनः।।५० ५०.तत्पश्च़त् ऄनेक प्रक़र के सभा वुत़ंतों बत़ने में ईस ऽवजया ऽिव़जा ने सम्पणी य ऽदन ईनसे समाप ऽबत़य़। आगतो ऽवजया ऱज़ ऽनजां ऱजऽगररां यद़। प्ऱणदन्द्मुदिगम्भारस्वनां दिदां ि भयस्तद़।।५१ ५१.जब ऽवजया ऽिव़जा ऱज़ ऄपने ऽकल्ले में अय़, तब ददंि ऽि भ, मुदि एवं गभं ार अव़ज में बजने लगे। तष्धथां पररभीय बबयरबलां सद्टः स्वब़होबयल़द्, आय़ते ऽिवपत्तनां ऽिवमहाप़ले प्रण़ल़चल़त।् सेऩऽभः सकल़ऽभरेव सऽहतस्तत्तप्रयत्ऩकिलः, स्वेऻभाष्टे ऽकल सांिय़लिरभवऽदल्ल्लापतेम़यतिलः।।५२ ५२.वहॉं ऽस्थत बबयर की सेऩ क़, ऄपने ब़हुबल से तरि न्त पऱजय करके ऽिव़जा ऱज़ पन्ह़ळ के ऽकल्ले से ऄपने ऱजगड अय़, तब सभा सैऽनक स़थ में होते हुए भा एवं ऄनेक प्रक़र के प्रयत्नों में व्यस्त रहने पर भा ऽदल्लापऽत के म़म़ ि़एस्त़ख़न को ऄपऩ आष्ट हेति प्ऱप्त होत़ है य़ नहीं, आस ऽवर्य में संदहे पैद़ हुअ। इत्यनिपिऱणे सीययवि ां े कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हस्य़ां सांऽहत़य़ां स्वपरि प्रवेिो ऩम़ध्य़यः।।२७



332 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-२८ मनाऽषण उचिः तऽस्मन् भुिबलोत्तांसे ऱऽज् ऱजऽगररां गते। गऽतः क़ऻभीत् प्रण़ल़रेः तद़चक्ष्व मह़मते।।१ पंऽडत बोलें – १.ईस भोसले किल के ऱज़ ऽिव़जा ऱजगड गये। तो पन्ह़ळ ऽकले की क्य़ गऽत हुइ? हे मह़बऽि िम़न बत़ओ।ं कवान्द्र उव़च ि़स्त़ख़नः स्वयां ष्तत्र ऽवषये तत्र जोहरः। उभयत्ऱऽप यिद्च़य प्रभव़मः कथां वयम।् ।२ २.कवान्र बोले स्वयं ि़एस्तेख़न आस प्ऱंत में है, ईधर ऽििा जोहर है। तब हम दोनों तरफ कै से यि ि कर सकते है? तदद्ट येऽदल़धानः प्रण़ल़ऽरऽवयधायत़म।् प्रस्थायत़ां च भवत़ क़य़ंतरऽमह ऽस्थतम।् ।३ ३. ऄतः अज पन्ह़ळ ऽकले को अऽदलि़ह के ऄधान कर दें और ती ऽनकल ज़। आधर दसि रे क़म ईपऽस्थत हो गये है। अल्लाि़ह़त् प्रऽतऽनऽधां तस्य िैलस्य सवयथ़। आद़स्य़मः िणेनैव ऩस्मद्ठचनमन्द्यथ़।।४ ४.अऽदलि़ह से ईस ऽकले क़ बदल़ हम एक क्षण में ऽनऽश्चत लेंगे यह हम़ऱ भ़र्ण ऄसत्य नहीं होग़। ऽनजदीतमिखेनेत्थां ऽिवेन प्रऽतबोऽधतः। 333 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



पररऽचन्द्त्य ऽनजे ऽचत्ते स्वयां त्र्यांबकभ़स्करः।।५ सगां ऱऽभऽनऽवष्टोऻऽप प्रभोऱज़्ां प्रम़णयन।् अल्लाि़ह़य तां िैलां ऽवतत़र ऽवनातवत।् ।६



५-६.आस प्रक़र ऄपने दती के मख े ऽदय़ सो ईसने मन में ऽवच़र करके स्वयं ि से ऽिव़जा ने त्र्यंबक भ़स्कर को संदि यि य ऄल्लाि़ह को दे ऽदय़। ि ोत्सक ि होते हुए भा स्व़मा की अज्ञ़ को प्रम़ण म़नकर वह ऽकल़ ऽवन्त़पवी क ततः स जोहरां दृष्ट्व़ तस्मै पुष्ट्व़प्यऩमयम।् सितऱां सत्कुतस्तेन ऽिवसौरृदक़ांिय़।।७ ७. तत्पश्च़त् जोहर से ऽमलकर ईसने ईससे कििलक्षेम पछ ी ़ और ऽिव़जा के स्नेह प्ऱऽप्त की आच्छ़ से ईसने ईसक़ ऄत्यंत सत्क़र ऽकय़। बहुऩ स्वसह़येन सैन्द्येन पररतो वतु ः। उपेत्य प्रणमन्द्मौऽल प्रभिां ऽनजमिदैित।।८ ८.ऄपने को सह़यत़ करने व़ला ऽवि़ल सेऩ के स़थ समाप अकर मस्तक झक ि ़कर ईसने ऄपने स्व़मा की ओर देख़। मनाऽषण उचिः ऩयां त्वय़ ऽनहतां व्यो मांतव्यो मन्द्त्र एष मे। ऽनऽमत्तमन्द्यदेव़स्य जोहरस्य ऽवऩिने।।९ ९. पंऽडत बोले – आसको मत म़र’ आस मेरा ब़त को ती म़न्य कर, आस जोहर के ऩि करने के पाछे ऽभन्न हा ऽनऽमत्त हैं। भगवत्य़ सम़गत्य ऽिवऱज़य धामते। उिपीवयऽमदां ष्त़सात् प्रण़ल़चलवऽतयने।।१० १०.जब बऽि िम़न ऽिव़जा ऱज़ पन्ह़ळ ऽकले में थ़ तब ईसके समाप अकर ईसको देवा भव़ना ने यह ब़त पहले हा बत़ दा था। 334 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तऽहय येन ऽनऽमत्तेन यथ़ स ऽनधनां गतः। तथ़ कथय नः सवं कवान्द्र: कििलो ष्तऽस।।११ ११. तब वह ऽकस क़रण से एवं ऽकस प्रक़र मुत्यि को प्ऱप्त हो गय़ वह सब हे कवान्र! हमें बत़ओ,ं क्योंऽक तमि कििल हो। वयां भ़गारथातारे भवतो भ़रताऽमम़म।् प़यां प़यां न तुप्य़मः सिध़ां सिमनसो यथ़।।१२ १२.ऽजस प्रक़र देव ऄमुतप़न करके भा तुऽप्त को प्ऱप्त नहीं होते है, ईसा प्रक़र भ़गारथा के तट पर अपकी व़णा को पनि ः-पनि ः सनि कर भा हम़रा तुऽप्त नहा होता है। कवान्द्र उव़च भगवत्य़ सम़ऽदष्टे ऽिवभीपे मह़भिजे। ध्वऽजनीं त़म्रवसत्ऱण़ां पऱभऽवतिम़त्मऩ।।१३ बऽलनां बबयरव्यीहां सद्टो ऽभत्व ऽवऽनगयते। ऽिलोच्चये प्रण़ले च दैव़द्चस्तमिप़गते।।१४ अल्लाि़होऻऽतमन्द्द़त्म़ मन्द्यम़नोऻन्द्यथ़त्मऽन। ऽचऱय जोहऱयैव चिकोप ऽकल कोपनः।।१५ १३-१५. कवान्र बोले – मह़ब़हु ऽिव़जा ऱज़ को भव़ना देवा ने अज्ञ़ दा तो वह स्वयं मगि लों की सेऩ को पऱऽजत करने के ऽलए ऽसऽि के बलव़न सेऩ के व्यही को भेजकर व़पस अ गय़ एवं पन्ह़ळगड के सौभ़ग्य से ऄधान हो ज़ने पर तो ऄऽत मह़मख ी य एवं क्रोधा ऄल्लाि़ह के मन में वह बैठ गय़ तो ऄत्यऽधक समय तक वह जोहर पर हा क्रोऽधत रह़। ततो भीरर धनां लब्ध्व़ बत लिब्ध़त्मऩ त्वय़। किमते ज़्यम़नोऻऽप स प्रस्थ़स्यन्द्निपेऽितः।।१६ १६. हे दष्टि बऽि ि! ‘तझि लोभा के प़स से ऄत्यऽधक धन लेकर वह ज़येग़’, यह ज्ञ़त होते हुए भा तनी े ईसकी ईपेक्ष़ की। 335 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



भवत़ प्रऽतरुद्चस्य भवतोऻनमि ऽतां ऽवऩ। दिगयमो ऽनगयमस्तस्य नुपतेररऽत मे मनः।।१७ १७. यऽद तनि े ईसको कै द ऽकय़ होत़ तो तेरा अज्ञ़ के ऽबऩ ईसक़ वह़ँ से ऽनकल प़ऩ कऽठन होत़, ऐस़ मझि े लगत़ है। तस्म़देऽह धनां देऽह यद्ङत्तां तेन भीभुत़। मद्चस्तेनैव भवतो भवेऽन्द्नधनमन्द्यथ़।।१८ १८. ऄतः ती यह और ईस ऱज़ द्ऱऱ ऽदय़ हुअ धन दें, नहीं तो मेरे ह़थ से तेरा मुत्यि होगा। वणयदीतऽममां तस्मै प्रेषय़म़स येऽदलः। तथ़ऽप न ऽबभ़य़स्म़द् बबयरो बऽलऩां वरः।।१९ १९.आस प्रक़र अऽदलि़ह ने ईसको पत्र भेज़ तथ़ऽप वह बऽलश्रेष्ठ ऽसद्दा ईससे भयभात नहीं हुअ। न यद़ येऽदलेनैष सपां ऱयमप़रयत।् तद़ कणयपरि ां सद्टः ऽिऽश्रये दिगयदिगयमम।् ।२० २०. जब यह अऽदलि़ह के स़थ यि ि करने में ऄसमथय रह़ तो तब तरि ं त दगि य की तरह दगि मय ऐसे कणयपरि क़ ईसने अश्रय ले ऽलय़। अथ के ऩऽप यत्नेन जोहऱय स येऽदलः। ह़लय़ स़कमज़्तां ह़ल़हलमद़पयत।् ।२१ २१.तत्पश्च़त् ईस अऽदलि़ह ने ईसको ज्ञ़त हुए ऽबऩ हा प्रयत्न पवी क य जोहर को िऱब के स़थ जहर दे ऽदय़। अहो येऽदलि़हस्य महता मऽतमांदत़। उपक़रपरे येन जोहरेऻपनयः कुतः।।२२ २२. ईपक़र करने व़ले जोहर के स़थ ऽजसने ऄपक़र ऽकय़ ईस अऽदलि़ह की यह ऽकतना बडा मख ी यत़ है। अम़निषगऽतदेव्य़ः प्रस़देन सिदिधयरः। 336 | पृ ष्ठ



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मोहऽयत्व़ परचमीां पररवेषपऱां पऱम।् ।२३ प्रय़तो भीधऱत्तस्म़द् भीभुद् भुिबलो यऽद। मन्द्य़महे वयां तऽहय ऩपऱधा स जोहरः।।२४ २३-२४. देवा की कु प़ से वह ऄम़नवाय गऽत एवं दजि ये ऱज़ भोसले, घेऱ ड़लकर ऽस्थत हुइ ऽवि़ल ित्रसि ेऩ को मोऽहत करके यऽद वह ऽकले से ऽनकल गय़ तो ईसमें ईस जोहर क़ ऄपऱध नहीं है ऐस़ हमें प्रतात होत़ है। अप्रस्तितऽमदां ष्त़स्त़ां प्रथमप्रस्तितां परम।् सिध़ांििदियनोद्ठेल्लत्सिध़ांभोऽधसहोदरम।् ।२५ चररत्रां ऽिवऱजस्य कथ्यम़नां सऽवस्तरम।् ऽनिम्य ऽवबध ि ैः सवैऽनयजे रृऽद ऽनधायत़म।् ।२६ २५-२६. ऽकन्ति यह ऄप्ऱसंऽगक है, प्रथम प्रस्तति ऽकये गये श्रेष्ठ, चंरदियन से ईज्जवल होने व़ले ऄमुत के स़गर के सम़न, ऽवस्त़र के स़थ वणयन ऽकये ज़ने व़ले ऽिव़जा ऱज़ के चररत्र को अप सभा सनि कर ऄपने रृदय में स्थ़ऽपत करो। बबयऱन् पररधाभीत़न् पररभीय स्वतेजस़। बला भुिबलो य़वद़य़ऽत ऽिवपत्तनम।् ।२७ त़वत्त़म्ऱननबलैः सबलैः कुतऽवक्रमम।् सांग्ऱमदिगयम़क्ऱन्द्तां कुत्व़ सग्रां ़ममद्ञति म।् ।२८ २७-२८ घेऱ ड़लकर बैठे हुए ऽिद्दा को ऄपने पऱक्रम से ऽतरस्कु त करके बलव़न् ऽिव़जा भोसले जैसे ऱजगड पर अत़ है, तो वहा मगि लों क़ बलव़न् सेऩपऽत अश्चययजनक यि ि करके पऱक्रम से लडकर सग्रं ़मदगि य को ऄधान कर लेत़ है। तमिदतां ां ऽिवनुपो ऽनिम्य ऽिवपत्तने। सवयनाऽतऽवद़ां वययः सऽचव़ऽनदमव्रवात।् ।२९ २९.वह व़त़य ऱजगड पर सनि कर, सभा ऱजनाऽतज्ञों में श्रेष्ठ ऐस़ वह ऽिव़जा ऱज़ सऽचवों से आस प्रक़र बोल़। 337 | पृ ष्ठ



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ऽिवऱज उव़च क़य़यन्द्तरप्रसित्त्व़त् मऽय स़ांतरम़ऽस्थते। सांग्ऱमदिगयसऽहत़ गत़ चक्ऱमता पिरा।।३० ३०. ऽिवऱज बोल़ - ऄन्य क़यय में व्यस्त होने के क़रण से च़क नगरा सग्रं ़म दगि य सऽहत ह़थ से ऽनकल गइ। इद़नामेव त़ां दिगयसऽहत़ां दिग्रयह़मऽप। स्वयमभ्येत्य त़म्रेभ्यो गहु ातिमहमित्सहे।।३१ ३१. वह ऄधान करने में कऽठन होने पर भा ईस पर स्वयं अक्रमण करके वह ऽकले के स़थ मैं ऄभा हा लेऩ च़हत़ ह।ं परां त्व़पऽततां यऽद्च क़य़यन्द्तरमनन्द्तरम।् प्रयऽतष्य़महे तस्मै वयां सवेऻप्यत : परम।् ।३२ ३२. ऽकन्ति जो यह दसी ऱ क़म बाच में ईपऽस्थत हो गय़ हे, ईसके ऽलए हम सब प्रयत्नपवी क य अगे क़यय करें ग।े सह़यपररहानेन नरेणेह न के नऽचत।् पराभ़वऽयतिां िसय़ प्रताप़ऩमनाऽकना।।३३ ३३. ऽजसक़ कोइ सह़यत़ करने व़ल़ नहीं है, ऐसे ऽकसा भा मनष्ि य के ह़थ से आस संस़र में ित्रसि ेऩ को पऱऽजत करऩ ऄसंभव है। तस्म़द्टत्नेन महत़ नरेन्द्रेण ऽवपऽश्चत़। सग्रां ़ष्त़नाऽकना िश्वत् परऽनग्रहक़ररणा।।३४ ३४.ऄतः बऽि िम़न् ऱज़ के द्ऱऱ ित्रओ ि ं क़ ऩि करने व़ला सेऩ को बडे प्रयत्न से सद़ संग्रऽहत करऩ च़ऽहए। बहुऩथेनरऽहतो मह़नऽप महापऽतः। न तऽद्ठध़ऩां सेऩऩां सांग्रहां कतयिमहयऽत।।३५ ३५.ऽजसके प़स बहुत धन नहीं है, ऐसे बडे ऱज़ओ ं को भा ईस प्रक़र की सेऩ क़ संग्रह करऩ नहीं अत़ है। 338 | पृ ष्ठ



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अथ़यदथो भवत्यिच्चैरथ़यद्चमोऻऽप वधयते। अथ़यदेव तुतायरो ् ोऻथस्तस्म़दथयः प्रिस्यते।।३६ ३६ .धन से धन बढ़त़ है, धन से धमय भा वुऽि को प्ऱप्त होत़ है, धन से क़म भा प्ऱप्त होत़ है। ऄतः धन की प्रिसं ़ होता है। किलां िालां वयो ऽवद्ट़ पौरुषां सत्यव़ऽदत़। गिणज्त़ च ग़म्भाययमथ़यदेव प्रज़यते।।३७ ३७. किल, िाल, अय,ि ऽवद्य़, पऱक्रम, सत्यव़ऽदत़, गणि ज्ञत़ ग़ंभायय ये सब धन से हा ईत्पन्न होत़ है। अथ़यदसौ परश्चोच्चैलोको लोकस्य ऽनऽश्चतः। पमि ़नथेनरऽहतो जावन्द्नऽप न जावऽत।।३८ ३८. धन से हा लोगों को आहलोक एवं परलोक ऽनऽश्चतरूप से प्ऱप्त होत़ है। धनरऽहत परुि र् जाऽवत होते हुए भा जाऽवत नहीं हैं। यस्य़थ़यस्तस्य सरृि दो यस्य़थ़यस्तस्य पौरुषम।् यस्य़थ़यस्तस्य सवेऻऽप सह़य़ः सम्भवऽन्द्त ऽह।।३९ ३९. ऽजसके प़स ऽवपल ि धन होत़ है, ईसके ऽमत्र होते है, ऽजसके प़स धन होत़ है, वहा पऱक्रमा होत़ है, ऽजसके प़स धन होत़ है, ईसके सभा सह़यक होते हैं। तद्ङिग्ब्ध्व़ स्म प्रभ़वेण पुथिवत् पुऽथवाऽमम़म।् तमथयम़हररष्य़ऽम यदधानऽमदां जगत।् ।४० ४०.ऄतः पुथरि ़ज़ की तरह ऄपने स़मथ्यय से आस पुथ्वा से कर वसल ी करके , ऽजस पर आस संस़र क़ अश्रय है, ऐसे ईस धन को लेकर अउँग़। तदनन्द्तरमेवोच्चैस्तत्र ऽदल्लान्द्रम़तिले। कररष्य़ऽम प्रताक़रमगस्त्य इव स़गरे।।४१



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४१.तत्पश्च़त,् ऄगस्त्य ऊऽर् ने ऽजस प्रक़र समरि से प्रऽतिोध ऽलय़, ईसा प्रक़र ईधर ऽदल्लापऽत के म़म़ से प्रऽतिोध लंगी ़। इऽत ब्रिव़णमिऽचतां सऽचव़ः सदऽस ऽस्थतम।् नयोपेतां ऽवनऽयनो व्य़हरऽन्द्त स्म भीपऽतम।् ।४२ ४२. आस प्रक़र ऱज़ ने सभ़ में बैठकर ईऽचत एवं ऱजनाऽत यिि भ़र्ण ऽदय़ तो ऽवनयिाल सऽचव बोलें। सऽचव़ उचिः अथय समथय इऽत यद्झव़ऩह तदथयवत।् तन्द्नोऽत कः प्रऽतब्रीते ऽतष्ठन् वैतऽण्डकव्रते।।४३ ४३. सऽचव बोलें - धन हा सब स़मथ्यय से यि ि है, ऐस़ जो अप कहते हैं, ईस प्रक़र नहीं है। अथयः समथयस़मथ्य़यद् व्रजेत्स़मथ्ययम़त्मऽन। असमथ़यऽश्रतस्त्वथो ऩथोऻनथो ऽह के वलम।् ।४४ ४४. समथय व्यऽि के स़मथ्यय के क़रण से हा धन के स्थ़न पर स़मथ्यय अयेग़, ऽकन्ति ऄसमथय के प़स में ऽस्थत धन ल़भक़रा नहीं होत़ है, वह के वल ऄनथयक़रा हा होत़ है। योथयः सवेषि लोके षि स तवैवेऽत ऽवद्ञहे। तद्ट़ऽह जैत्रय़त्ऱयै ऽिवऱज मह़द्टिते।।४५ ४५. सभा लोगों के प़स जो धन है, वह सब तेऱ हा है, यह हम ज़नते हैं। ऄतः हे मह़तेजस्वा! ऽिव़जा ऱज़ अप मल ि ख ि ऽगरर पर ज़ओ। ऽकांच सांप्रऽत सेऩनाररन्द्रप्रस्थेन्द्रम़तिलः। सग्रां ़मदिगयमव्यग्रो ऽजत्व़ भीत्व़ मह़मऩः।।४६ प्रस्थ़य वै पिरः पिण्यपिरम़स्थ़य च ऽस्थतः। ऽनिम्य त्व़ां मह़ब़हो ऽिवपत्तनवऽतयनम।् ।४७ भुिां ऽविांकम़नोऻन्द्तः प्ऱयस्तेनैव वत्मयऩ। 340 | पृ ष्ठ



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सष्तिैल़वरोह़य सेऩां सम्प्रेषऽयष्यऽत।।४८ ४६-४८ . ऽकन्ति सम्प्रऽत ऽदल्लापऽत क़ म़म़ सेऩपऽत ि़एस्तेख़न यह संग्ऱमदगि य को जातकर ऽचन्त़रऽहत एवं गवययि ि होकर अगे प्रस्थ़न करके पणि े अकर ऽनव़स कर रह़ है। हे पऱक्रमा ऱज़! ती ऱजगढ़ पर है, ऐस़ ज़नकर वह मन से ऄत्यन्त भयभात होकर प्ऱयः वह ईसा म़गय से ऄपना सेऩ को सह्य़रा ने नाचे भेजगे ़। अऽभरवन्द्ता सष्त़रेययथ़ स़ ऩवरोहऽत। त़वत्तथ़ ऽवध़तव्यमथ़न्द्यदऽप सवयथ़।।४९ ४९. सह्य़रा से चलकर अने व़ला सेऩ ऽजस प्रक़र से नाचे ऄवतरण न कर सकें , ईसा प्रक़र क़ प्रयत्न करऩ च़ऽहए। पनि ः दसी ऱ सब किछ करऩ च़ऽहए। सऽचव़ऩऽमऽत वचो ऽनिम्य समयोऽचतम।् स धन्द्यचररतः सम्यगमन्द्यत मह़मऽतः।।५० ५०. सऽचव के ईस समयोऽचत वचन को सनि कर ईस मह़बऽि िम़न् एवं पण्ि यिाल ऱज़ को वह सम्यक् प्रतात हुअ। मनाऽर्ण ईचःि सहस्रैः सऽप्तव़ह़ऩां ऽत्रसप्तत्य़ समऽन्द्वतः। ि़स्त़ख़नः ऽकमकरोत् बत पण्ि यपरि ऽस्थतः।।५१ ५१. पऽण्डत बोले - ऽतहत्तर हज़र घडि सव़रों के स़थ ि़एस्तेख़न ने पणि े में ऽस्थत होकर क्य़ कर ऽलय़? कवान्द्र उव़च स क़रतलबां ऩम यवनां क़ययक़ररणम।् पिरऽस्थतां सम़हूय ऽमथः एतदभ़षत।।५२ ५२. कवान्र बोल़ - स़मने ऽस्थत क़रतलब ऩम के क़यकत़य यवन को बल ि ़कर ईसे एक़न्त में आस प्रक़र कह़। ि़स्त़ख़न उव़च प्रत़पा जसवांतस्ते जनकोऻजबड़न्द्वयः। भव़नऽप नयत्येतद्टिद्चेनेव ऽनजां वयः।।५३ 341 | पृ ष्ठ



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५३.ि़स्त़ख़न बोल़ - तेरे ऽपत़ ऄजबड वि ि में हा व्यतात कर ं के पऱक्रमा जसवतं थे और ती भा ऄपना अयि यि रह़ है। प्रबलां ग़ऽलबां ऽजत्व़ सम्प्रऽत स्वबल़श्रय़त।् प्रचण्डपरि म़द़य मष्तां दत्तऽमह त्वय़।।५४ ५४. प्रबल ग़ऽलब को जातकर सम्प्रऽत ऄपना िऽि से प्रचण्डपरि को लेकर तमि ने मझि े दे ऽदय़। सोऻऽधपः सष्तिैलस्य दिधयषः सांगरे यथ़। करोत्यसिकरां कमय तव़ऽप ऽवऽदतां तथ़।।५५ ५५. दजि ये वह सह्य़रा क़ ऄऽधपऽत ऽिव़जा यि ि में ऽकस प्रक़र से कऽठन क़यों को करत़ है, यह तझि े भा पत़ हा है। सष्तजयः सष्तपऽतः सष्तस्य़क्रमणां ऽवऩ। नैव़स्मद्चित़ां गन्द्त़ हन्द्त़हांक़रसांयितः।।५६ ५६. सह्य़ऽर पर अक्रमण ऽकये ऽबऩ वह दजि ये एवं ऄऽभम़ना सह्य़ऽरपऽत हम़रे ह़थों में नहीं अयेग़। सेनय़ सऽहतः सद्टस्तदद्ट त्वां मम़ज्य़। बत प्रसष्त सष्त़रेरवरोहे मऽतां किरु।।५७ ५७. ऄतः मेरा अज्ञ़ से ती अज हा सेऩ के स़थ तरि न्त सह्य़ऽर से बल़त ऄवतररत होने क़ ऽवच़र बऩ। अद्टप्रभुत्यहां वार भऽवष्य़ऽम भवद्ठिः। अवरुष्त धरां सष्तां मष्तां देऽह महद्टिः।।५८ ५८. हे वार! अज से मैं तम्ि ह़रे ऄधान ह।ं सह्य़ऽर से ईतरने पर मझि े मह़न् यि को प्ऱप्त कऱ दो। चम्प़वत्यथ कल्य़णपिरां भामपिरा तथ़। पणवल्ला पनि ऩयगस्थ़नां क़यं त्वय़त्मस़त।् ।५९ ५९. चौल, कल्य़ण, ऽभवडं ा, पनवेल, ऩगस्थ़न, ये ती ऄपने ऄधान कर लेऩ। कच्छप़श्च़हुब़ण़श्च मह़प्ऱण़ मह़यिध़ः। 342 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



तथैव़मरऽसहां ोऻऽप ऽमत्रसेनः सब़ांधवः।।६० ग़ढ़न्द्वयः सजयऱजो ऱजव्य़िा च दिधयऱ। जसवन्द्तश्च कोक़टो य़दवश्च मह़भिजः।।६१ एतेऻऽत मऽहत़ः सैन्द्यसऽहत़ः प्रऽहत़ मय़। सैन्द्य़स्त्वमनिय़त़रो ऽवरोचनऽमव़सिऱः।।६२ ६०-६२. मह़न् बलव़न् एवं पऱक्रमा कच्छप एवं चव्ह़ण, ऄमरऽसंह ऽमत्रसेन एवं ईसक़ भ़इ, सजेऱव ग़ढे, दजि ये ऱजव्य़घ्रा, जसवतं कोक़टे, मह़ब़हु ज़धव, आन ऄत्यन्त म़ननायों को मैं सेऩसऽहत प्रेऽर्त करूंग़, ऽवरोचन के पाछे से जैसे ऄसि गये थे ईसा प्रक़र तेरे पाछे से ये अयेंग।े अग्रष्तः समग्रसैन्द्य़ऩां त्वमव्यग्रः पिरो भव। पररप़लऽयत़ पुष्ठां तव़हां प्रेष्ठक़ररणः।।६३ ६३. सम्पणी य सेऩ क़ सेऩपऽत बनकर ती अगे ऽचंत़रऽहत होकर चल। ऄत्यन्त ऽप्रयक़रा तेरे पुष्ठभ़ग की मैं रक्ष़ करूंग़। इत्थां ऽनयििम़त्रोऻयां पुतऩपऽतऩमिऩ। वारैः पररवतु ो वारः प्रतस्थे प्रऽथतक्रमः।।६४ ६४. आस प्रक़र ईस सेऩपऽत की अज्ञ़ होते हा ईस ऽवख्य़त पऱक्रमा वार ने वारों के स़थ प्रस्थ़न कर ऽदय़। अथ पन्द्थ़नम़ऽश्रत्री लोह़रेदयऽिणोत्तरम।् वातभाः स बत़रेभे सष्तिैल़वरोहणम।् ।६५ ६५. तत्पश्च़त् लोहगड के दऽक्षणोत्तर म़गय क़ अश्रय लेकर वह ऽनभययत़ के स़थ सह्य़ऽर से ऄवतरण करने लग़। एकपद्ट़ तय़ य़न्द्ता नऽलक़यांत्रतिल्यय़। अभीदताव स्थऽगत़ व़ऽहना स़ पदे पदे।।६६ ६६. नऽलक़ यन्त्र की तरह ईस एकपदा म़गय से ज़ते समय वह सेऩ पग-पग पर ऄत्यऽधक सक ं ि ऽचत हो गइ। अस्म़दव़ड्मिखाभीत़ः पत़म इऽत ऽनऽश्चत़ः। 343 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



नऱस्त़म्ऱननचमीचऱः सष्तमव़तरन।् ।६७ ६७. आस म़गय से नाचे की ओर मख ि करके ज़येंग,े आस प्रक़र ऽनऽश्चत हो ज़ने पर मगि लसेऩ के लोग सह्य़रा से नाचे ईतर गये। अहक ां ़रपरः क़रतलबः स्वबल़ऽन्द्वतः। हतां ़रां नैव हन्द्त़रां क़न्द्त़रां ति व्यलोकत।।६८ ६८. ऄपना सेऩ के स़थ अने व़ले ईस ऄऽभम़ना क़रतलब ने ऄपने ित्रि को िाघ्र नहीं देख़ ऽकन्ति वनम़त्र देख़।



िीन्द्य़ऽमव परैः पीण़ं त़ां वन्द्य़ां सोऻऽविद्टद़। ऽमत्रसेऩदयस्तस्य प़श्वं न ऽवजहुस्तद़।।६९ ६९. ित्रओ ि ं से पररपणी य ऽकन्ति म़नो िन्ी य ऽदखने व़ले ईस वन में जब ईसने प्रवेि ऽकय़ तब ऽमत्रसेऩऽद ने ईसके कड ऄथ़यत् कऽटभ़ग को भा नहीं छोड़। न यत्र पवनस्तत्र यवनः स मह़वने। ऽनवसन्द्नवने हेतिम़त्मनो न व्यऽचन्द्तयत।् ।७० ७० . जह़ं व़यि भा नहीं था ऐसे ईस मह़वन में ऽनव़स करते समय ईसने ऄपने रक्षण़थय ईप़य भा नहीं सोच़ थ़। मनाऽषण उचिः त़ां वन्द्य़म़ऽविन्द्तस्ते ऽद्ठषन्द्तः ऽिवभीपतेः। अऩलोकमयां लोकां पश्य़मः स्मेऽत मन्द्वते।।७१ ७१. पऽण्डत बोले - ईन झ़ऽडयों में प्रऽवष्ट होने व़ले ऽिव़जा के ित्रओ ि ं को हमने ऄधं क़रमय लोक देख ऽलय़, ऐस़ प्रतात हुअ। सष्त़रेरवरोहां तां प्रऽतकीलमरुद्चतम।् त़वदेव ऽिवः कस्म़न्द्नऽवरुद्चमरुद्चतम्।।७२ ७२. प्रऽतकील व़यि के प्रव़ह में सह्य़रा से नाचे ईतरने व़ले ईन ित्रओ ि ं को ऽिव़जा ने तभा क्यों नहीं रोक़? 344 | पृ ष्ठ



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ऽवषयः ऽिवऱजस्य स ऽह सष्ततल़श्रयः। परैनय कथम़क्ऱांतस्तद़ तद्ग्रहतत्परैः।।७३ ७३. सह्य़रा के ऄधोभ़ग पर ऽस्थत ऽिव़जा के ईस प्रदेि को ऄधान करने के ऽलए ईत्सक ि ित्रओ ि ने तब ईसको क्यों ऄधान नहीं ऽकय़। कवान्द्र उव़च आद़वेव ऽह रुद्चस्स्य़त्स ऽवरुद्चः ऽिवेन चेत।् ऩपऽतप्यत्समां सैन्द्यैस्तऽहय तऽस्मन् वऩणयवे।।७४ ७४. कवान्र बोले - यऽद अरम्भ में हा ईन ित्रओ ि ं को ऽिव़जा रोक देत़ तो वह सेऩपऽत सेऩ के स़थ अकर आस ऄरण्यस़गर में नहीं ऽगरत़। इत्थमेव ऽवऽनऽश्चत्य स तां भिजमदोद्चतम।् न्द्यरुणऽत्कल नो तत्र समथोऻऽप महापऽतः।।७५ ७५. आस प्रक़र क़ मन में ऽनश्चय करके हा स्वयं समथय होते हुए भा ईस ऱज़ ने ब़हुबल क़ ऄऽभम़न करने व़ले ईस क़रतलब को वह़ं नहीं रोक़ थ़। अधस्त़दथ सष्त़रेः सम़य़तां परि ः परि ः। न्द्यरौत्सादध्वनोमध्ये तां ऽिवो भ्येत्य ऽवऽद्ठषम।् ।७६ ७६. ऽफर सह्य़रा से ईतरकर अगे अये हुए ईन ित्रओ ि ं पर ऽिव़जा ने चतरि त़ के स़थ म़गय में हा अक्रमण कर ऽदय़। तेन ऱजन्द्यवारेण पीवयमेव ऽनयोऽजत़न।् तत्र तत्र ऽस्थत़नेत्य भ़गयोरुभयोरऽप।।७७ सन्द्नद्च़न् पऽत्तमीधयन्द्य़ांस्त़ां वन्द्य़मन्द्तऱन्द्तऱ। ऩऽवदन्द्निपकण्ठस्थ़नऽप ऽदल्लान्द्रसैऽनक़ः।।७८ ७७-७८. ईस वार द्ऱऱ पवी य ऽनयोऽजत पद़ऽतयों के सज्जऩयकों के अकर ईस घने ऄरण्य में दोनों तरफ से समाप हा ऽस्थत हो ज़ने पर भा ईन ऽदल्लापऽत के सैऽनकों को ज्ञ़त नहीं हुअ। 345 | पृ ष्ठ



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अथोदिम्बरखण्ड़ष्दबहऩन्द्तरवऽतयनाम।् वतयनीं क़रतलबः प्ऱऽवित् पुतऩऽन्द्वतः।।७९ ७९. तत्पश्च़त् ईबरखडं ऩमक ऄरण्य के एकपदा म़गय पर क़रतलब ऄपना सेऩ के स़थ अ गय़। ततः सद्टः स्वनन्द्ताऩां भेराण़ां ऽनस्वनो मह़न।् उप़गतः ऽिव इऽत प्रऽतयोध़नबोधयत।् ।८० ८०. ऽफर तत्क्षण बजने व़ले रणभेरा की मह़न् ध्वऽन को सनि कर ऽिव़जा समाप अ गय़, ऐस़ ज़न ऽलय़। तां श्रत्ि व़ क़रतलबः ऽिवऽनः स़नऽनस्वनम।् हन्द्त वाररस़वेिे ऽनदधे ऽनजम़नसम।् ।८१ ८१. ईस ऽिव़जा के नग़डे की अव़ज को सनि कर क़रतलब ने ऄपने मन को पऱक्रम के अवेि से यि ि कर ऽदय़। तद़ तिांग़रण्यपऽतऽमयत्रसेनो मह़भिजः। अवतायय हय़त्तण ी यमबलब्ां योन्द्नत़ां भिवम।् ।८२ स्वायैः पररवुतो वारैवीरो वाऱसने ऽस्थतः। न्द्यिब्जाकुतेषिऽधस्तत्र िरसांध़नतत्परः।।८३ च़पम़रोपय़ांचक्रे पऱांतकरणोद्टतः। अन्द्येऻप्यमरऽसांह़द्ट़स्तस्थिः स इव सांयते।।८४ ८२-८४. तब तंगि ़रण्य क़ ऄऽधपऽत मह़ब़हु वार ऽमत्रसेन घोडे से ईतरकर, ईन्नत स्थ़न पर ऽस्थत होकर, ऄपने वारों को स़थ लेकर तथ़ वाऱसन में ऽस्थत होकर, धनर्ि को झक ि ं के ऽवऩि के ऽलए ि ़कर ईन पर ब़ण लग़कर ित्रओ ईनको सज्ज ऽकय़, ईसा प्रक़र ऄमरऽसंह़ऽद दसी रे योि़ भा यि ि में खडे हो गये। अथ सपऽद कुि़नियन्द्त्रगोलैः पऽद पऽद तत्र ऽवऽनघ्नतः प्रताप़न।् सरभसमवगम्य स प्रभ़वा



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बत यवनः स्वचमीां समिष्त तस्थौ। ८५ ८५. तत्पश्च़त् ित्रि िाघ्र तोपों के गोलों से पग-पग पर प्रह़र कर रह़ है, ऐस़ तरि न्त ज़नकर वह प्रभ़वा यवन ऄपना सेऩ को आकट्ठ़ करके खड़ हो गय़। अथ भुिमऽवहस्तस्तत्र क़ांत़रगभेऻऽभनवसिभटिोभ़ध़म धारो धनिष्म़न।् प्रऽतनरपऽतसैन्द्यां स़दयन् स़यकौघैः समरममरऽसांहो भीषय़म़स भीरर।।८६ ८६. तब ईस ऄरण्य के मध्यभ़ग में ईस यवि ़ योि़ के तेज क़ घर हा हो ऐसे धैययव़न् धनधि ़यरा ऄमरऽसंह ने ऽवचऽलत न होते हुए ऄरण्य के मध्यभ़ग में ब़णों की वऱ्य करके ित्रसि ेऩ क़ सहं ़र करते हुए यि ि को सि ि ोऽभत कर ऽदय़। अनिवनमपय़न्द्तीं य़वनीं व़ऽहनीं त़ां बत कथमऽप म़ भैः स्थैययमेहात्यिदायय। ऽनरुपमऽनजच़प़रोऽपतैब़यणवुन्द्दैः रितमरुणदऽमत्ऱनाऽकनीं ऽमत्रसेनः।।८७ ८७. वन में पल़यन करने व़ला ईस यवनसेऩ को ऽकसा प्रक़र से भयभात न होते हुए धैयय ध़रण करो, ऐस़ बोलकर ऽमत्रसेऩऽद ने ऄपने ऄनपि म धनर्ि पर चढ़़ये गए ब़णों की वऱ्य से तरि ं त ित्रसि ेऩ को रोक ऽदय़। प्रसभममरऽसांहऽमत्रसेनप्रऽहतिऱऽभहत़ः परस्य योध़ः। स्रवदसुगऽभऽषच्यम़नग़त्ऱः कऽतचन पेतिरुपेत्य मोहमिऱम।् ।८८ ८८. ऄमरऽसंह एवं ऽमत्रसेन द्ऱऱ वेगपवी क य छोडे गए ब़णों के द्ऱऱ म़रे गए किछ ित्रि योि़ िरार से बहने व़ले रि से रंऽजत होकर मच्ी छ़य अने से ऽगर गये।



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प्रऽतभयतम़ां वन्द्य़मेत़ां सरोपषेमियिष़म,् त्यजऽत न भुिां यिद्च़वेिां बलां बहलां ऽद्ठष़म।् सपऽद भवत़ सवोऻप्यध्व़ तदस्य ऽनरुध्यत़म,् इऽत ऽिवमहाप़लः सेऩपऽतां स्वमवोचत।।८९ ८९. ऄत्यन्त भयंकर आस वन में क्रोध से अया हुइ ित्रओ ि ं की सेऩ ऄपने प्रबल यि ि के अवेि को नहीं छोड रहा है, ऄतः िाघ्र हा ईसके सम्पणी य म़गय को तमि रोक दो, आस प्रक़र ऽिव़जा ने सेऩपऽत से कह़। तदनितिरग़रुढस्तीणं वध़य ऽवरोऽधऩम,् जगऽत जऽनतोत्कषं कषयन् करेण िऱसनम।् ज्वऽलतहुतभिग-् ज्व़ल़ज़ल़वलेऽहतख़ण्डव़त,् ऽकमऽप न पुथ़सीनोरुनो व्यलोऽक सिऱसिरैः।।९० ९०. ऽफर ित्रओ ि ं क़ वध करने के ऽलए घोडें पर चढ़कर ससं ़र में ईत्कर्य को ईत्पन्न करने व़ले धनर्ि को ह़थ से खींचने व़ल़ वह ऽिव़जा प्रज्वऽलत ऄऽग्न की ज्व़ल़ के लपटों से ख़ंडव वन को भस्मस़त करने व़ले ऄजनयि के सम़न देवों एवं ऄसरि ों को ऽदख़इ ऽदय़। ऽिवऽवततकुप़णप़ऽतत़ऩम,् रुऽधरभरेण ऽवरोऽधसैन्द्धव़ऩम।् ऽिवसिभटवरैवयऩतऱलम,् द्टिऽतमरुण़दरुण़मनायत़लम।् ।९१ ९१. ऽिव़जा के श्रेष्ठ वारों के ताक्ष्ण एवं लंबा तलव़रों के द्ऱऱ ऽगऱये गए, ित्रपि क्ष के घोडों के खनी से परि ़ने ऄरण्य क़ मध्यभ़ग सयी य से भा ऄऽधक ल़ऽलम़ को ध़रण करने लग़।



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प्रऽतपदमऽवहस्तैऽमयत्रसैऩऽदऽभस्तैः, अऽवतमऽप तऽदन्द्रप्रस्थसित्ऱमसैन्द्यम।् प्रऽतभटऽवऽिखस्रसपांजऱभ्यांतरस्थम,् पररऽचतदिरवस्थां ऽनव्ययवस्थां व्यरांसात।् ।९२ ९२. ऽमत्रसेऩऽद वारों के द्ऱऱ ऄऽवचऽलत होकर पग-पग पर रक्ष़ करने पर भा ित्रि पक्ष के योि़ओ ं के ब़णों की म़ल़ के ज़ल में फंसकर ईस सेऩ की ददि ि य ़ होने से वह रुक गइ। इत्यनिपिऱणे सीययवांिे ऽनऽधऽनव़सकरकवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हश्रय़ां सांऽहत़य़ां ऩम़ध्य़य: ।। २८।।



349 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-२९



कवान्द्र उव़च अथ द्टिऽतपतौ देवे ऽदवो मध्यमिप़गते। समेत्य ऽिवतेजोऽभः सन्द्त़पऽयतिमिद्टते।।१ अवाऽितवने तऽस्मन् ऽवपिऽवऽहत़वने। बल अलभ्यम़नपवने दीयम़नां मह़वने।।२ ऽवलोसय़नाकमऽखलां ऽवषादतां मनेकध़। जग़द क़रतलबां ऱजव्य़िा मदोद्चत़।।३ १-३.कवान्र बोले - तत्पश्च़त् सयी यदवे के ऽदन के मध्य़ह्न को प्ऱप्त हो ज़ने पर ऽिव़जा के तेज के स़थ ऽमलकर पाड़ देने लग़, वन में पवी य में न देखे गये ित्रि के द्ऱऱ रऽक्षत, व़यि से रऽहत, ऐसे ईस मह़वन में सम्पणी य सेऩ के दःि खा होकर धैयय के त्य़गने को देखकर मदमस्त ऱयब़गाण क़रतलब को बोला। ऱजव्य़घ्रा ईव़च अांकरोऽपतसैन्द्यस्त्वमकरोः कमयगऽहयतम।् प्ऱऽविः सहस़ येन ऽिवऽसहां ़श्रयां वनम।् ।४ ४.ऱजव्य़घ्रा बोला - ऽिव़जा रूपा ऽसंह के अश्रय से यि ि वन में सेऩ के स़थ जो प्रवेि ऽकय़ है, यह ती ने ऽनऽन्दत क़यय ऽकय़। बत त्वय़ सम़नायां सैन्द्यां ऽदल्लापतेररह। अहो महोत्स़हवत़ पांच़ननमिखरेऻऽपतम।् ।५ ५. ऄहो! तझि घमण्डा ने ऽदल्लापऽत की सेऩ को यह़ं ल़कर ऽसहं मख ि में ऄऽपयत कर ऽदय़ है। 350 | पृ ष्ठ



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अद्टय़वद् यिो य़वऽदन्द्रप्रस्थभुत़ऽजयतम।् तत्तस्य भवत़मिऽष्मन् ऽवऽपने ऽवऽनमऽज्जतम।् ।६



६. अज तक ऽदल्लापऽत ने ऽजतऩ यि प्ऱप्त ऽकय़ थ़, वह ईसक़ स़ऱ यि तनी े आस ऄरण्य में डिबो ऽदय़। पश्च़त् पिरस्त़च्च पिनः सव्यदऽक्ष्ज्णप़श्वययोः। ऽस्थत़ पश्य ययि ित्सतां े सोत्सव़ः पररपऽन्द्थनः।।७ ७. देखो! अगे, पाछे , द़इ ंओर एवं ब़इ ंओर खडे हुए ित्रि अनन्द के स़थ यि ि करने के आच्छिक हैं। अमा सवे सिप्रयोगस़यक़स्तव सैऽनक़ः। तीष्णामेव़सते ष्तत्र बत़लेख्यगत़ इव।।८ ८. ये तारंद़जा में ऽनपणि तेरे सभा सैऽनक यह़ं ऽचत्र में ऽस्थत मनष्ि य की तरह स्तब्ध हैं। अहो ऽदल्लान्द्रसेऩनाः ि़स्त़ख़नोऻल्पचेतनः। पररपऽां थप्रत़प़ग्ब्नौ ससैन्द्यां त्व़मप़तयत।् ।९ ९. ऄहो! दःि खपवी क य ऽदल्लापऽत के ईस मख ी य सेऩपऽत ि़एस्तेख़न ने ित्रि के प्रत़परूपा ऄऽग्न में तझि े सेऩ के स़थ भेज़। जावग्ऱहां ऽनगुष्त़िि द्ठेषणस्त्व़ां ऽननाषऽत। त्वां त्वांध इव क़ांत़रे रुद्चो यिद्चां ऽचकीषयऽस।।१० १०. ित्रि तझि े िाघ्र जाऽवत पकडकर ले ज़ऩ च़हते हैं। ती ऄरण्य में कै द होने पर भा ऄधं े व्यऽि की तरह यि ि करऩ च़हत़ है। सत्य़ां ऽह फलऽनष्पत्तौ पिरुषस्येह पौरुषम।् परथ़ पररह़स़य तदेव खलि स़हसम।् ।११ ११. फलऽसऽि हो रहा है तो हा परुि र् के परुि ऱ्थय क़ ईपयोग है, नहीं तो स़हस क़यय व़स्तव में ईपह़स क़ हा क़रण है। 351 | पृ ष्ठ



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तदद्ट सद्ट एव त्वां तां प्रपद्ट महाभुतम।् अये ससैन्द्यम़त्म़नां मुत्यिप़ि़द् ऽवमोचय।।१२ १२. ऄतः ती अज तत्क़ल ईस ऱज़ ऽिव़जा की िरण में ज़कर ऄपने को सेऩसऽहत मुत्यजि ़ल से बच़ ले।



एवां स यवनस्तत्र ऱजव्य़िय़ प्रबोऽधतः। ऽवरऱम मह़वारः स़हसा समऱत्ततः।।१३ १३. आस प्रक़र ऱयबगान ने ईस मह़वार एवं स़हसा यवन को वह़ं प्रेररत ऽकय़ तो ईसने यि ि रोक ऽदय़। अथैष सांदेिहरां पऱऽभप्ऱयवेऽदनम।् ऽिव़य प्रेषय़म़स प्रष्दभ़वमिप़श्रयन।् ।१४ १४. तत्पश्च़त् ईसने ऽवन्त़पवी क य ऄन्यों के ऄऽभप्ऱय को समझने में ऽनपणि दती को ऽिव़जा के प़स भेज़। ततोऻऽतसन्द्ि दरोदग्रग्रावे व्य़यतविऽस। ऽिऽिते लिणोपेते मह़क़ये महौजऽस।।१५ प़श्वयऽद्ठतयसांसिऽनषांगद्ठयपितौ। सरत्ऩभरणे सप्तौ त़क्ष्ये हररऽमव ऽस्थतम।् ।१६ आमििव़रब़ण़ऩां धन्द्वब़ण़ऽसध़ररण़म।् बहूऩां व़हव़ऱण़ां व्यीह़भ्यांतरवऽतयनम।् ।१७ ऽपनद्च़भेद्टवम़यण़ां वण्ययिाषयण्यि़ऽलनम।् भव्यसव्येतरस्कांधऽवषिऽवऽिख़सनम।् ।१८ वैकऽिकीकुतोद्ङ़मफलकोद्टोऽतत़ांबरम।् स्वगयस़रसऩलांऽबकौिेयककुतऽश्रयम।् ।१९ दाव्यद्ङऽिणप़ण्यग्रसांसिोन्द्नतिऽिकम।् 352 | पृ ष्ठ



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अऽतसौम्यमऽप स्वेन प्रभ़वेण़ऽतभाषणम।् ।२० पिरः प्रोत्स़रणपरैहेमवेत्रधरैनयरैः। यथ़स्थ़नाकुत़नेकसैऽनकै ः स़धिसेऽवतम।् ।२१ उग्रमिग्ऱदऽप भुिां दिधयरां दहऩदऽप। ऽनघयण ु ां नैऋयत़च्चोच्चैबयऽलनां म़रुत़दऽप।।२२ ऽवत्तेि़दऽप ऽवत्त़ढ्यां प्रभिां वज्रधऱदऽप। दण्डहस्त़दऽप क्रीरां नाऽतज्ां वरुण़दऽप।।२३ चन्द्ऱदऽप कुत़ष्थ़दां दिजययां मन्द्मथ़दऽप। नरैवेत्रधरैस्तत्र नमन्द्मौऽलऽनयवेऽदतः।।२४ स तां ऱज़नम़ज़निभिजां दीऱदलोकत।।२५ १५-२५. तत्पश्च़त् भ़लध़रा लोगों द्ऱऱ वह़ं पगडा देने पर ईसने मस्तक झक ि ़कर अज़नबि ़हु ऽिव़जा के दरी से दियन ऽकये। वह ऄऽतसन्ि दर एवं ईन्नत गदयनव़ल़, ऽवस्तुत वक्षःस्थल से यि ि , सऽि िऽक्षत, िभि लक्षणों से यि ि , मह़क़य, मह़न् बलव़न,् दोनों ओर ब़णों से यि ि पख ं की तरह दो तरकस व़ल़, रत्नजऽडत अभर्ी ण ध़रण ऽकय़ हुअ घोडे पर य़ गरुड पर जैसे ऽवष्णि बैठत़ है, वैसे हा अरुढ़ होकर िरार में कवच ध़रण ऽकय़ हुअ एवं ह़थ में धनिर्-ब़ण और तलव़र से यि ि घडि सव़रों के समदि ़य के मध्य में थ़, ईसके िरार में ऄभेद्य कवच थ़, ईसके मस्तक पर ईत्कु ष्ट मक ि ि ट थ़, वैकक्ष की म़ल़ की तरह एवं प्रचण्ड ढ़ल से सि ि ोऽभत दपि ट्ट़ ध़रण ऽकय़ हुअ थ़। स्वणययि ि कमरपट्टे से ऄटकने व़ला तलव़र से वह सि ि ोऽभत थ़, ईसके तेजस्वा द़एं ह़थ में उंच़ भ़ल़ थ़, ऄत्यन्त सौम्य होते हुए भा ऄपने तेज से वह ऄत्यन्त ईग्र ऽदख रह़ थ़, अगे ज़कर लोगों को दरी हट़ने व़ले भ़ल़ध़ररयों द्ऱऱ योग्य स्थ़न पर खडे ऽकये ऄनेक सैऽनक ईसक़ ईत्तम सम्म़न कर रहे थे, ईग्र लोगों में ऄत्यन्त ईग्र, ऄऽग्न से भा ऄत्यन्त ऄसहनाय, नैऊयत की ऄपेक्ष़ ऄत्यन्त ऽनदयया, व़यि से भा बलव़न्, किबेर से भा ऄऽधक धनव़न्, वरुण से भा ऄऽधक नाऽतज्ञ यमऱज से भा ऄऽधक क्रीर, आन्र से भा ऄऽधक स़मथ्ययव़न्, चन्रम़ से भा ऄऽधक अह्ऱदक़रा और क़मदेव से भा ऄऽधक वह दजि ये थ़। अमिां ऽवनम्रमीध़यनां त़म्रदीतमिप़गतम।् सरोरुहसदृग्ब्भ्य़ां स दृग्ब्भ्य़ां देवोऻप्यिदैित।।२६ 353 | पृ ष्ठ



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२६. मस्तक झक ि ़कर अये हुए ईस मगि ल दती की ओर ऱज़ ने भा कमल की तरह सन्ि दर नेत्रों से देख़। अथ़ज्प्तः ऽिवेनैष ऽकांऽचदिन्द्नऽमतभ्रिव़। यत्सांदेिहरस्तस्य व्य़जह़र स्वयां वचः।।२७ २७. तत्पश्च़त् ऽिव़जा द्ऱऱ किछ भौओ ं को चढ़़कर ईसको अज्ञ़ देने पर ईसने ऽजसक़ संदि े ल़य़ थ़ ईसके संदि े को स्वयं बोल़। दीत उव़च यां क़रतलबां ऩम लांक़पऽतऽमव़परम।् अजय्यां ज़नते लोक़ः स त्व़ां ऽवज़्पयत्यदः।।२८ २८. दती बोल़ - ऽजस क़रतलब ऩम के सेऩपऽत को लोग म़नो दसी ऱ दजि ये ऱवण समझते है, वह अपसे आस प्रक़र ऽनवेदन करत़ है। ि़स्त़ख़नऽनयोगेन योगेन समयस्य च। बत़वलोऽकतोsस्म़ऽभः स एष ऽवषयस्तव।।२९ २९. ि़एस्तेख़न के अदेि से एवं समय के योग से आस अपके देि को हमने देख ऽलय़। नष्तन्द्यवित़ां गांत़ गिप्तोऻयां ऽवषयस्त्वय़। मऽणः फण़धरेणेव ऽचरां स्वयमिराकुतः।।३० ३०. ऩग द्ऱऱ दाघयक़ल तक स्वयं ध़रण ऽकये गए मऽण के सम़न यह अपके द्ऱऱ रऽक्षत देि दसी रे के ऄधान नहीं हो प़येग़। हतां ऽद्ठत्ऱण्यह़न्द्यत्र मय़ लब्धां न जावनम।् तस्म़दभयद़नेन देऽह मे मम जावनम।् ।३१ ३१. क्य़ बत़उं! दो-तान ऽदन तक मझि े यह़ँ प़ना भा नहीं ऽमल़, ऄतः ऄभयद़न देकर मझि े जावनद़न दें। तल़तलऽमव़स़द्ट सष्त़चलतलस्थलम्। ऽवरऱमऽश्चरां ऽचत्ते ऽवस्मऱमश्च पौरुषम।् ।३२ 354 | पृ ष्ठ



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३२. सह्य़रा के प़त़ल के सम़न गहरे तल को प्ऱप्त करके हम़ऱ मन दाघयक़ल तक स्तब्ध रहे एवं पऱक्रम भा ऽवस्मुत हो गय़ है। तिांग़रण्य़दऽप धनां सष्त़रण्यऽमदां तव। मह़णयवसमेऻमिऽष्मस्त्वमस्मच्छरणां भव।।३३ ३३. यह अपक़ सह्य़रा क़ ऄरण्य तंगि ़रण्य की ऄपेक्ष़ घऩ है। मह़स़गर के सम़न आस ऄरण्य में अप हम़रा रक्ष़ करें । जनकः ि़हऱजस्ते मह़ऱजो मह़मऽतः। यवनेऻप्यन्द्वहां स्नेहमप़रमकरोन्द्मऽय।।३४ ३४. अपके ऽपत़, मह़मऽत, मह़ऱज िह़जा ऱजे ईनक़ मैं यवन होते हुए भा मेरे पर ऄप़र स्नेह थ़। तत् सवयमऽप ऽवस्मुत्य परप्रेष्यतय़ मय़। अग्रेररव तव़वज़् ऽवज़्य़ऽप ऽवऽनऽमयत़।।३५ ३५. वह सब किछ ऽवस्मुत करके दसी रे के सेव़भ़व से मैंने ऄऽग्न के सम़न अपकी अज्ञ़ क़ ज़नबझी कर ईल्लंघन ऽकय़। तद् ऽवतायय स्वसवयस्वम़त्मनमनवस्करम।् ऽचकीष़यऽम मह़ब़हो जावन् ऽजगऽमष़ऽम च।।३६ ३६. ऄतः हे मह़ब़हु! मैं ऄपऩ सवयस्व अपको ऄपयण करके ऄपने ऄपऱध क़ प्रक्ष़लन करऩ च़हत़ हँ और जाऽवत ज़ऩ च़हत़ है। अनिमन्द्यस्व म़ां तस्म़त् त्वमऽस्मन् ऽवषये नुप। प्रपन्द्नप़लनमरो भव़ऽनव भव़ऽनह।।३७ ३७. ऄतः हे ऱज़! आस प्रदेि से ब़हर ज़ने की अप मझि े अज्ञ़ दाऽजए। आस संस़र में िरण़गत की रक्ष़ करने व़ले अप जैसे अप हा है।



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यथ़यथां गऽदत्वेत्थां दीते ऽवरऽतमायिऽष। नुपः स्वसैऽनक़न् वाक्ष्य स तां प्रत्यब्रवाऽददम।् ।३८ ३८. आस प्रक़र यथोऽचत दती के बोलकर रूक ज़ने पर ऽिव़जा मह़ऱज ऄपने सैऽनकों की ओर देखकर ईससे आस प्रक़र बोले। ऽिवऱज उव़च यऽहय प्रपद्टसे तऽहय स्वायय़ सेनय़ सह। ऽनय़यऽह ऽवषय़दस्म़द़स्तेऻस्मदभयां तव।।३९ ३९. ऽिव़जा बोलें - यऽद ती िरण अय़ है तो आस प्रदेि से ऄपना सेऩ के स़थ ऽनकल ज़, हम़ऱ तझि े ऄभय है। अदो मद्ठचनां तस्मै मद्झात़य दय़ऽथयने। त्वऽमतस्त्वररतो गत्व़ यवऩय ऽनवेदय।।४० ४०. आस मेरे वचन को ती यह़ँ से िाघ्रत़ से ज़कर मेरे से भयभात दय़ की य़चऩ करने व़ले ईस यवन को बत़ दे। इत्थां ऽिवनुपोदाण़यम़कण्यय रुऽचऱां ऽगरम।् दीतः प्रतािम़ण़य स्व़ऽधप़य न्द्यवेदयत।् ।४१ ४१. आस प्रक़र ऽिव़जा द्ऱऱ कऽथत मधरि वचनो को सनि कर दती की प्रताक्ष़ करने व़ले ईस स्व़मा को संदि े सनि ़ ऽदय़। तस्म़दभयम़नातां तेन दीतेन वै यद़। ऽिव़य क़रतलबः प्रऽजघ़य बऽलां तद़।।४२ ४२. वह दती जब ऽिव़जा से ऄभय वचन ल़त़ है तब क़रतलब ईसको कर ऽभजव़त़ है। यिध्यन्द्तोऻप्यभयां प्ऱप्य ऽमत्रसेऩदयो नुप़ः। ऽिव़य प्रेषय़म़सिः स्वां स्वां सद्टः स्वमांजस़।।४३ ४३. ऽमत्रसेऩऽद ऱज़ यि े के प्ऱप्त हो ज़ने पर ईन्होंने ऄपऩ-ऄपऩ कर ि में व्यग्र होने पर भा ईनके ऄभय के संदि िाघ्र ऽिव़जा के प़स ऽभजव़ ऽदय़। 356 | पृ ष्ठ



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अभयां य़वद़य़ऽत त़वद् यवनसैऽनक़ः। यिध्यांतः ऽिवसैन्द्येन लिऽण्ठत़श्च़वकिऽण्ठत़ः।।४४ ४४. यि ि करने व़ले ईन यवन सैऽनकों के ऄभयद़न अने तक ऽिव़जा की सेऩ ने ईनको लटि ऽलय़ एवं च़रों ओर से घेर ऽलय़। परस्मै फलकां दत्व़ कऽश्चन्द्मििोऻभवत् तद़। अवरुष्त हय़त् तीणं भय़त् कऽश्चदमिच्यत।।४५ ४५. कोइ ईस समय ऄपना ढ़ल दसी रे को देकर मि ि हो गय़ तो कोइ घोडे से िाघ्र ईतरकर भयमि ि हो गय़। बत तत्र दध़नेन व़सो लोऽहतलोऽहतम।् सद्टो ऽवन्द्यस्तिष्धेण सन्द्यस्तऽमव के नऽचत।् ।४६ ४६. रि से रंऽजत वह्लों को ध़रण करने व़ले किछ वारों ने तत्क़ल िह्लों को पररत्य़ग करके म़नो संन्य़स ले ऽलय़ हो। कण़यभरणलब्ि धेन ऽछन्द्नकणय श्च कश्चन। स्वकण्ठ़भरणां सद्टो मिि़मऽणमयां जहौ।।४७ ४७. ऽकसा ने कण़यभर्ी णों के ल़लच से क़न ऽछन्न करव़ ऽलए तो ऽकसा ने िाघ्र मोऽतयों एवं रत्नों से जऽडत कण्ठ़भर्ी ण त्य़ग ऽदए। वयां ऽिवनुपस्यैव भव़म इऽतव़ऽदनः। अमोचयन् ऽनज़त्म़नां के ऽचत् तिरगस़ऽदनः।।४८ ४८. हम ऽिव़जा ऱज़ के पक्ष के है, ऐस़ बोलकर किछ घडि सव़रों ने ऄपने को मि ि ऽकय़। कुप़णऽछन्द्नमीध़यऽप त्वरम़णोऻऽभघ़ऽतनम।् सद्टः सहचरां चक्रे ऽचत्रां चक्रेण कश्चन।।४९ ४९. ऽकसा क़ मस्तक तलव़र से कट ज़ने पर ऄपने म़रने व़ले पर िाघ्र अक्रमण करके ईसक़ मस्तक तत्क़ल चक्र से ऄलगकर ऽदय़ और ऄपऩ सहचर बऩ ऽलय़। 357 | पृ ष्ठ



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अत्ऱन्द्तरे सष्तपतेऱज्य़ वेत्रप़णयः। उध्वीकुतकऱस्त़रस्वऱः क्रोधपऱ इव।।५० त़ांस्त़न् सैन्द्यपतानेत्री ऽवऽपऩभ्यांतरऽस्थत़न।् समन्द्ततः प्रऽतभटप्रऽतयिद्च़दव़रयन।् ।५१ ५०-५१. आसा बाच ह़थ उपर करके क्रोधा व्यऽि के सम़न ईच्चस्वर से ऽचल्ल़ने व़ले भ़लध़रा ऽिव़जा की अज्ञ़ से ऄरण्य के ऽवऽभन्न सेऩपऽतयों के प़स ज़कर ित्रओ ि ं से यि ि करऩ बदं करो आस प्रक़र बत़य़।



अथ लब्ध़भय़स्त़म्रसैऽनक़ः समय़ इव। रितां ऽवऽनयययिस्तस्म़त् वऩत् परकुत़वऩत।् ।५२ ५२ .ऽफर ऄभय को प्ऱप्त हुए वे मगि ल सैऽनक ित्रि द्ऱऱ रऽक्षत ईस वन से भयभात की तरह तिरन्त ऽनकल गये। अथ़िि त़म्रवसत्रेषि प्रय़तेषि यथ़गतम।् गजयत्सि ऽनजसैन्द्येषि तीयेषि ऽनददत्सि च।।५३ पिरःसरेष्वनेकेषि ऽवनटद्ठेत्रप़ऽणषि। जयघोषऽविेषेण परी यत्सि च पष्ि करम।् ।५४ भव्य़ांबरेषि भव्येषि भव्य़भरणध़ररषि। उच्चै स्तऱां यिोग़थ़श्च़रणेषि पठत्सि च।।५५ अप़रकोषगभ़यसि मांजीष़सि ऽनजैनयरैः। ऽिप्रम़ऽहयम़ण़सि त़म्रऽिप्त़ऽस्वतस्ततः।।५६ ऽवमििेष्वब्वागभे ररपऽि भः प्रपल़ऽयऽभः। सैन्द्येऱनायम़नेषि गजेषि तिरगेषि च।।५७ भ़रभात्य़वमिि़ऩमपय़तैरऱऽतऽभः। 358 | पृ ष्ठ



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स्थ़ल़ऩां चषक़ण़ां च भुांग़ऱण़ां च भीररिः।।५८ अन्द्येष़ां च़प्यमत्ऱण़ां सौवण़यऩमनेकिः। स्वभुत्यैः ऽक्रयम़णेषि पवयतेषि च सवयतः।।५९ चण्डेन भिजदण्डेन दऽण्डत़ऱऽतमण्डलः। ऽिवः समाक्ष्य नेत़रां सेऩपऽतमवोचत।।६० ५३-६०. ऽफर मगि ल जैसे अये ईसा प्रक़र चले गये, ऄपने सैऽनक गजयऩ करने लगे, ढोल बज़ने लगे, ऄनेक भ़लध़रा अगे नुत्य करते हुए चलने लगे, प्रचंड जयघोर्ों से अक़ि प्रऽतध्वऽनत हो गय़, संदि र वह्लों एवं संदि र ऄलक ि ं ़रों को ध़रण करने व़ले श्रेष्ठ भ़ट यिोग़थ़ ग़ने लगे, मगि लों द्ऱऱ आधर फें की हुइ एवं ऄदं र ऄप़र कोर् से यि पेऽटयों को लोग िाघ्र ल़ने लगे, पल़यन करने व़ले ित्रिओ ं द्ऱऱ ऄरण्य के मध्यभ़ग में छोडे हुए ह़था एवं घोडे सैऽनक लेकर अ गये, पल़यन ऽकये हुए ित्रिओ ं द्ऱऱ भ़र के भय से पररत्यि ऄनेक हऽं डय़, ग्ल़स, श्रुंग़र एवं सोने के ऄन्य ऄनेक प़त्रों क़ पवयत ऄपने सैऽनकों ने सवयत्र बऩ ऽदय़, ऐसे समय में ऄपने प्रचण्ड भजि ़ओ ं से ित्रसि मही को दऽण्डत करने व़ले सेऩपऽत नेत़जा को देखकर ऽिव़जा बोलने लगे। ऽिवऱज उव़च य़न्द्यहां येऽदल़यत्तऱष्टऻक्रमणकमयणे। इहैव ति त्वय़ स्थेयां त़म्ऱननऽनबहयणे ।।६१ ६१. ऽिव़जा बोले - अऽदलि़ह के ऄधान ऱष्र पर अक्रमण करने के ऽलए मैं ज़त़ हँ ऽकन्ति ती मगि लों क़ ऽवऩि करने के ऽलए तमि आसा स्थ़न पर रहो। पऱवुत्त़ एव परे न पऱवऽु त्तक़ररणः। इऽत त्वय़ न मन्द्तव्यां त़म्ऱस्ते ष्तऽभम़ऽननः।।६२ ६२. यि ि में कभा भा पाठ न ऽदख़ने व़ले ित्रि व़पस चले गये हैं, ऐस़ मत समझो क्योंऽक मगि ल ऄऽभम़ना होते हैं। प्रण़ल़ऽरप्रऽतऽनऽधां रितम़ऽदत्सतो मम। उद्टमः सद्ट एव़यां फऽलतो भऽवत़ न न।।६३ ६३. पन्ह़ळगड क़ िाघ्र प्रऽतिोध लेने क़ आच्छिक जो मैं ईस प्रयत्न के तत्क़ल सफल हुए ऽबऩ ऽस्थर नहीं रहगँ ़। 359 | पृ ष्ठ



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इऽत समां न्द्त्र्य सेऩन्द्य़ समां तत्र स मन्द्त्रऽवत।् अक़रयज्जया जैत्रप्रय़णपटहस्वनम्।।६४ ६४. आस प्रक़र वह़ँ ईस नाऽतज्ञ एवं ऽवजया ऽिव़जा ने सेऩपऽत के स़थ मन्त्रण़ करके ऽवजयय़त्ऱ की ददंि भि ा बज़ने की अज्ञ़ दा। अथ प्रगे प्रज़ऩथः स आस्थ़य हयोत्तमम।् अभीषयत् तमध्व़नां व़ऽहनाव्यीहभीऽषतम।् ।६५ ६५. तत्पश्च़त् प्ऱतः ईत्तम घोडे पर अरुढ़ होकर ऽिव़जा ऱज़ ने सेऩ समदि ़य के द्ऱऱ सि ि ोऽभत ईस म़गय को ऄत्यऽधक ऄलक ं ु त ऽकय़।



क्रमेण क्रमम़णोऻसौ पिरग्ऱम़चल़टवाः। पश्यन् ररपऽि भरुत्सष्टु ़स्तिऽष्टम़धत्त भीयसाम।् ।६६ ६६. क्रमपवी क य अगे ज़ते समय नगरों, ग़ंवों, ऽकलों एवं ऄरण्यों को ित्रओ ि ं द्ऱऱ पररत्यि हुअ देखकर वह ऄत्यन्त संतष्टि हो गय़। ततो द़ल्भ्यपरि ां गत्व़ नत्व़ द़ल्भ्येश्वरां नपु ः। आदौ तमेव ऽवषयां व्यधत्त तरस़त्मस़त।् ।६७ ६७. तत्पश्च़त् द़भोक़स ज़कर द़ल््येश्वर को नमन करके पहले ईसा प्ऱन्त को ऽिव़जा ऱज़ ने िाघ्र ऄपने ऄधान कर ऽलय़। स तद़ ऽवषयस्तेन ऽिवेन स्वविाकुतः। स़ध्वस़त् यवनस्पुऽष्टसुष्ट़त् सद्टो व्यमिच्यत।।६८ ६८. तब ऽिव़जा द्ऱऱ ऄधान ऽकय़ गय़ वह प्ऱन्त यवनों के सम्पकय से ईत्पन्न भय से मि ि हो गय़। तद़ पल्लावनपऽतजयसवांतो मह़भिजः। स्मरन् कुतचऱां स्वेन जोहरस्री सह़यत़म।् ।६९ 360 | पृ ष्ठ



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दिऽवयनात़न्द्तक़त् भातः ऽिव़दभ्यणयवऽतयनः। प्रपेदे िरणां सद्टः श्रगुां ़रपिरऩयकम।् ।७० ६९-७०. तब प़ला को, ऱज़ मह़ब़हु जसवतं स्वयं पहले की गइ ऽसद्दा जोहर की सह़यत़ को स्मरण करके दष्टि ों के यमऱज ऽिव़जा को समाप अय़ हुअ देखकर भयभात होकर तरि न्त ईसने श्रुंग़रपरि के ऱज़ क़ अश्रय ले ऽलय़। सोऻऽप प्रभ़वलाप़लः सीययऱजः प्रत़पव़न।् तां जिगोप ऽिव़त् भातम़त्म़नऽमव स़गसम।् ।७१ ७१. प्रभ़वला के ईस प्रत़पा ऱज़ सयी यऱज की, ईसके ऄपऱधा होने के क़रण से भयभात जसवतं ऱज़ ने ऄपने सम़न ऽिव़जा से रक्षण ऽकय़।



ऽिवस्ति सीययऱजस्य जसवांतस्री च़ऽप तत।् कमय ऩमन्द्यत़न्द्य़य्ीां पऱयत्त़वभ ि ़ऽवऽत।।७२ ७२. ऽकन्ति सयि यऱज़ एवं जसवंत ऱज़ क़ वह क़यय ऽिव़जा को ऄनऽि चत नहीं लग़, क्योंऽक वे दोनों हा पऱधान थे। अथ द़ल्भ्यपिरे ऱज़ यथ़हयमऽधक़ररणम।् ऽनध़य सज्जां यिद्च़य वारां च ऽद्ठसहऽस्रणम।् ।७३ व्रजन्द्नभयद़नेन प्राणयन्द्नभय़ऽथयनः। अपश्यऽच्चत्रपिऽलनां पिरां ऽत्रचतिरैऽदयनैः।।७४ ७३-७४. तत्पश्च़त् द़भोळ में योग्य ऄऽधक़रा को ऽनयि ि करके एवं यि ि के ऽलए सज्ज ऐसे दो हज़र वारों को रखकर अगे बढ़ रह़ थ़ तो ऄभय म़ंगने व़ले को ऄभयद़न से संतिष्ट करके ऽिव़जा ऱज़ तान-च़र ऽदन ब़द ऽचपळिण चल़ गय़। स तत्र वरदां ऽवश्वऽवश्रितां ऽचरजाऽवनम।् रैणिकेयां वणयनायचररतां ऽनरवणययत।् ।७५ ७५. वह़ँ ईसने वरद़त़, ऽवश्वऽवख्य़त, ऽचरंजावा और वणयनाय चररत्र से यि ि परिरि ़म क़ दियन ऽकय़। 361 | पृ ष्ठ



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अथ़सौ क़लक़म़भ्य़ां भ्ऱतुभ्य़ां पररव़ररतम।् भऽिम़न् भुिमह़यऽभभ़यगयवां समभ़वयत।् ।७६ ७६. तत्पश्च़त् ऽजसके दोनों ओर क़ल एवं क़म ये दोनों भ़इ है, ऐसे परिरि ़म की ईस ऄत्यन्त भऽिम़न् ऽिव़जा ने पजी ़ की। अद्च़ परििऱमोऻऽप ध्वस्त़ऽवद्च़ऽधपौजसे। पुथिां प्रस़दमकरोदमिष्मै पुऽथवाभुते।।७७ ७७. ईस परिरि ़म ने भा ऄऽवंध के ऱज़ की िऽि को नष्ट करने व़ले ईस ऱज़ पर बडा कु प़ की। स तत्र भ़गयविेत्रे द़निौंडो दय़ऽन्द्वतः। ऽिप्रदत्तेन ऽवत्तेन ऽवप्रवदुां मनन्द्दयत।् ।७८ ७८. ईस द़न ऽनपणि एवं दय़लि ऽिव़जा ने ईस परिरि ़म क्षेत्र के ब्ऱह्मण श्रेष्ठ को तत्क़ल धन देकर संतष्टि ऽकय़। ततोऻऽधक़ररऽभम्लेच्छजनैस्तत्िणमिऽज्झतम।् सांगमेश्वरयोगेन सांगमेश्वरसांज्कम।् ।७९ नगरां स्वविाभीतां प्रभीतऽद्ठजदैवतम।् दृष्ट्व मनष्ि यदेवऽषयदेवऽषयस्थ़नमाऽयव़न।् ।८० ७९-८०. तत्पश्च़त् मगि ल ऄऽधक़ररयों द्ऱऱ तत्क्षण छोडे गये संगमेश्वर के संबंध से संगमेश्वर ऩम व़ले एवं ऄत्यऽधक ब्ऱह्मणों एवं देवत़ओ ं से यि ि नगर के ऄपने ऄधान हो ज़ने से वे ऱजऽर्य देवरुख़स देवऽर्यस्थ़न की ओर गये। तद़ तद़ज्य़ नालकण्ठऱज़त्मजो ऽद्ठजः। मल्लसीऱन्द्वयेनोच्चैः पद़ऽतपुतऩभुत़।।८१ तत्तद्टिद्चप्रऽसद्चेन योद्च़ त़नऽजत़ यितः। ऽवपि़भ्य़गमव्यग्रां सांगमेश्वरम़गमत।् ।८२



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८१-८२. तब ईसकी अज्ञ़ से ब्ऱह्मण नालकंठ ऱज़ क़ पत्रि , ऽवऽभन्न यि ि ों द्ऱऱ प्रऽसऽि को प्ऱप्त हुअ, पद़ऽत सेऩ क़ ऄऽधपऽत ईच्चकिल वंिा, योि़, त़ऩजा म़लिसरे आनके स़थ ित्रि के अक्रमण के क़रण से ऽवचऽलत होकर सगं मेश्वर अ गय़। गिप्त्यथयमस्य देिस्य ऽतष्ठन्द्ता सांगमेश्वरे। अनाऽकना म़मकीऩ श्रुांग़रपिरवऽतयऩ।।८३ क़मां त्वय़वेिणाय़ य़वद़गमनां मम। वैमत्यां पररहतयव्यां कतयव्यां मदिदाररतम।् ।८४ इत्थां सांदेिम़प्तेन दीतेन स नपु स्तद़। प्रभ़वलाभुते भीऽमप़ल़य समदेियत।् ।८५ ८३-८५. श्रुंग़रपरि में रहने व़ल़ ती आस देि के रक्षण़थय संगमेश्वर में रहने व़ला मेरा सेऩ पर मेरे अने तक ऄच्छा प्रक़र से ऽनयन्त्रण रख ित्रति ़ त्य़ग दें एवं मेरे द्ऱऱ बत़एं गए कतयव्यों क़ प़लन कर ऐस़ सदं ि े ऽवश्व़सयि ि दती द्ऱऱ प्रभ़वला के ऱज़ को ईस ऱज़ ने ईस समय भेज ऽदय़। अथ पिन्द्ऩगबकिलप्रसीनप्ऱयसौरभम।् ऩगवल्लाऩऽळके रक्रमिकप्ऱयभीरुहम।् ।८६ दैवतप्ऱयभीभ़गां ऽद्ठजन्द्मप्ऱयम़नवम।् आऱमप्ऱयभीमारां ताथयप्ऱयनदानदम।् ।८७ तां देिां सपऽद स्वाये ऽनदेिे ऽवऽनवेियन।् अयां ऱजवरो ऱजपिरां ऽजत्व़ व्यऱजत।।८८ ८६-८८. तत्पश्च़त् पन्ि न एवं बकिल के फीलों से सगि ऽं धत, ऩगलत़, ऩरकी एवं के रे लि के घने वुक्षों से यि ि , ऄनेक देवत़ओ ं से यि ि , जह़ँ बऽस्तय़ं ब्ऱह्मण पररव़रों से यि ि है, ईद्य़नमय पवयतों से यि ि , प्ऱयः ताथयमय नदा एवं नदों से यि ि ऐसे ईस प्रदेि को िाघ्र ऄपने ऄधान करके एवं ऱज़परि को जातकर वह श्रेष्ठ ऱज़ सि ि ोऽभत होने लग़। हत्व़ म्लेच्छबलां स्वब़हुऽवभवैऱक्रम्य तन्द्मण्डलम।् िक्रश्राः िरण़गत़यः सदयः सद्टः प्रद़य़भयम।् । 363 | पृ ष्ठ



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धत्ते पोतवऽणग्ब्जनैधयनदत़ां यस्य़ांऽतके स़गरः। तऽस्मन् ऱजपिरे व्यऱजततऱां ऱज़ऽधऱजः ऽिवः।।८९ ८९. ऄपने ब़हुबल से यवन सेऩ क़ ऽवऩि करके तथ़ ईनके प्ऱन्तों को ऄधान करके एवं िरण़गतों को ऄभयद़न देकर वह आन्र की तरह, दय़ल,ि ऱज़ऽधऱज ऽिव़जा समरि पर अऽश्रत व्य़प़ररयों को समरि ने धनव़न् बनव़य़ ऐसे ऱजपरि में वह ऽवऱजम़न हो गय़। इत्यनपि रि ़णे सयी यवि ां े कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हश्रय़ां सऽां हत़य़ां स्वपरि प्रवेिो ऩम एकोनऽत्रांिोऻध्य़य:।।२९।।



364 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अध्य़यः-३० कवान्द्र उव़च अथ़ऽग्ब्नयन्द्त्रसांध़नऽविेषोदग्ब्नऽवक्रम़न।् प्ऱक़रयिद्चकििल़न् ऋध्य़ ऽजतधनेश्वऱन।् ।१ मयम़य़धऱन् अऽब्धमध्यसच ां ़रदिधयऱन।् उन्द्म़गयवऽतयनस्त़ांस्त़न् फै रांग़न् यवऩवऱन।् ।२ तथ़ नौस़धनपऱन् मल्लव़ऱन् अऩवऱन।् स़ांय़ऽत्रक़ननेक़ांश्च कुतद्ठाप़ांतऱश्रय़न।् ।३ असांमत़ांश्च स़मन्द्त़न् मत्त़ऽनव मह़ऽद्ठप़न।् बलैऱऩय्य स बला तत्तद़ऩययद्चनम।् ।४ कवान्र बोले – तत्पश्च़त तोपों द्ऱऱ लक्ष्य सधं ़न में ऽविेर् पऱक्रमा, प्ऱक़र यि ि में ऽनपणि , सपं ऽत्त से किबेर को जातने व़ल़ मैं मयऩमक ऄसरि की तरह ऽिल्प कल़ में ऽनपिण समरि संचरण में दजि ये , दगि मय म़गों क़ ऱहा यवनों से नाच ऽफरंगा (पति यगाज़ और डच आत्य़ऽद) ऄऩच्छ़दन ऩवों को चल़ने में ऽनपणि मलव़रों को, ऄन्य द्रापों के ऽनव़ऽसयों को, ऄनेक समरि ा व्य़प़ररयों को मदमस्त मह़न ह़था के सम़न ित्रि म़डं ऽलक को ईस बलव़न ऽिव़जा ने बलपवी क य ल़कर ईसको ऽवऽभन्न करों को देने के ऽलए ब़ध्य ऽकय़। स बद्चमिऽष्टऽभस्तैस्तैरऽवद्चैऽश्चरप़ऽलत़म।् स्वहस्तमनयत् सद्टः ऽश्रयां ऱजपिरऽस्थत़म।् ।५ ईन-ईन लोभा ऄऽवन्धों द्ऱऱ दाघयक़ल तक संग्रऽहत की हुइ ऱजपरि के संपऽत्त को तत्क़ल ईसने ऄधान कर ऽलय़। 365 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽनिेपस्वणयसम्पण ी यकट़हजठऱां धऱम।् खल़न्द्तकः स खनकै रनेकैः समख़नयत।् ।६



सोने के ऽनक्षेप द्ऱऱ पररपणी य कढ़़इय़ँ भऽी म में दब़कर रखा हुइ था ऐसा भऽी म को ईस दष्टि ों क़ ऽवऩि करने व़ले (ऽिव़जा) ने ऄनेक खोदने व़लों के द्ऱऱ खदि व़इ। न यद्टऽप नरेन्द्रस्य तत्र ऽसद्च़ांजऩांऽचते। तदप्यद्च़ ऽनध़ऩऽन पश्यतः स्म ऽवलोचने।।७ वह़ं ईस ऱज़ की अख ं ों में ऽसि़ंजन ड़ल़ हुअ नहीं थ़, ऽफर भा ईसे दब़ए गए खज़ने ऽदख गए। न्द्ययोजयदयां ऱज़ यत्र यत्र ऽनजे दृषौ। तत्र तत्ऱभवन् मेरुसदृि़ः स्वणयऱियः।।८ ईस ऱज़ ने जह़ं जह़ं ऄपना दृऽष्ट घमि ़इ वह़ं वह़ं मेरु पवयत की तरह स्वणय ऱऽि ईत्पन्न हो गइ। मह़जनेनोपरृतैरनेकै रत्नऱऽिऽभः। तत्र तस्मै ऽवदीऱऽररऽवदीर इव़भवत।् ।९ वह़ं मह़परुि र्ों द्ऱऱ ऄऽपयत की गइ रत्न ऱऽि से वह भा दरी रत्नों क़ पवयत म़नो समाप ऽस्थत हो गय़ हो। ऽचरस्थयवनस्पियवि़दििऽचत़ां गत़। सऽनिेप़ां स तत्र क्ष्म़ां खनकै ः ऽकमिोधयत।् ।१० दाघय क़ल तक यवनों द्ऱऱ ऽनव़स करने से ऄिि ि हुइ एवं दब़इ गइ ऽनक्षेप से यि ि भऽी म को ईसने खनकों द्ऱऱ िि ि कर ऽदय़ हो। ज़तरूपां तथ़ रुप्यम़रकीटां च सासकम।् त़म्रां लोहां च वांगां च क़चां च स्वणयम़ऽिकम।् ।११ मिि़ां मरकतां पद्ञऱगां वज्रां च ऽवरिमम।् 366 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



खगां िगुां ां च़मरां च रदां स्त़ांबेरमां तथ़।१२ कस्तीररक़ां च क़श्मारां प़टारां ऽहमव़लिक़म।् क़ल़गिरूां च कचयीरां कांकोलां रिचन्द्दनम्।।१३ एल़ां च देवकिसिमां त्वसपत्रां चानद़रु च। कतकां नक्रनखरां नलदां ऩगके सरम।् ।१४ ज़ताफलां म़तिल़नामऽहफे नां च पत्रकम।् ऱज़दनां कांदऱलां ऱि़ां खजयरी कां तथ़।।१५ खबयरी ां मररचां पीगां देवद़रु च ऩगरम।् ग्रऽन्द्थकां च पल़ां चव्यां क़ांचनामथ सैंधवम।् ।१६ सौवचयलां यवि़रां सऽजयक़ां च हरातकीम।् वक ु धपी ां सजयरसां ऽसल़जति च ऽससथकम।् ।१७ त़क्ष्ययिैलां ऽिऽखग्रावां चिष्ि य़ां य़मिनां पनि ः। अजमोद़ां च ब़ष्थाकां जारकां लोरकां तथ़।१८ गिग्ब्गिलां प़वकऽिखां मांऽजष्ठ़ां ऩगसांभवम।् प़रदां हररत़लां च गांध़श्म़नां मनःऽिल़म।् ।१९ ल़ि़ां गांधरसां च़ऽप गोरोचनमथ़भ्रकम।् त़ांस्त़न् ऽवषऽविेष़ांश्च तत्तऽन्द्नहयरण़ऽन च।।२० कौिेय़न्द्यथ त़ण़यऽन िौम़ऽण फलज़ऽन च। ऱांकव़ऽण तथौण़यऽन व़स़ांस्यऽभनव़ऽन च।।२१ एत़न्द्यन्द्य़ऽन च तद़ वस्तीऽन बहुिो नुपः। मह़भ़रसहैव़यहैव़यमाऽभवयषु भैस्तथ़।।२२ 367 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



भ़रयऽष्टधरैश्च़ऽप परुि षैऽवयऽष्टक़ररऽभः। व़हऽयत्व़त्मदिगेषि तेषि तेषि न्द्यध़पयत।् ।२३ सोऩ, रुपए, पातल, सास़, त़बं ़, लोह़, कीथल, क़च ं , स्वणयम़ऽक्षक, मोता, मरकतमऽण, हाऱ, गैंडे के सींग, च़मर, ह़था के द़ंत, कस्तरी ा, के सर, चंदन, कपरी , कु ष्ण़गरु, पल़ि, ककोल, ल़लचंदन, आल़यचा, लवगं , द़लचाना, चानद़रू, ऽनम़यल्ला, मगरमच्छ के ऩखनी , वेण़रमल ी , ऩगके िर, ज़यफल, भ़ंग, मऽहफे न, तम़ल पत्र, ऽप्रय़ल क़ वुक्ष, ऄखरोट, ऱक्ष़, खजरी , खबयरी , ऽमरा, सफ ि ़रा, देवद़रू, सौंठ, ग्रऽं थ, ऽपप्पल़मल ी , जट़म़सं ा, चवक, हल्दा, सेंध़ नमक, सौवयचल, ि़ल वुक्ष, हररतकी, तपन, ऽिल़जात, मेण, मल ी ा, नाल़ सरि म़, क़ल़ सरि म़, ऄजव़आन, मजं ाटा, ऽसंदरी , प़ऱ, हडत़ल, गधं क, मछ ं ल, ल़ख, फिलसत्व, गोरोचन, ऄभ्रक, ऄनेक प्रक़र के ऽवर् एवं ऽवर् ईत़रने के रव्य, रे िमा वह्ल, िुण से ईत्पन्न ऄट्ट़ऽलक़ फलज उन की च़दरें ऐसे नवान वह्ल और ऄनेक ऄन्य पद़थय ईस ऱज़ ने ईस समय बडे भ़र क़ वहन करने व़ले घोडे, घोऽडयों, बैलों, भ़र ढोने क़ व़लों अऽद के द्ऱऱ वहन करव़कर ऄपने ऽवऽभन्न ऽकलो में रखव़ ऽदय़। िठवल्ला समदलां हरचारा च नैवरम।् ऩांधव़टां कांतव़टां के ऽळवल्ला किेऽळक़।।२४ प्ऱांििध़यमनसां ऽबल्ववटां च ि़रपत्तनम।् अमीन्द्यन्द्य़न्द्यऽप पिऱण्यमिष्मै करम़हरन।् ।२५ िैज्वला, सौंदेल (समदल), हरचेरा, नेवरे , ऩगवडे, कोतवडे के लवला किेला ईन्नत ध़मनस बेलवडे क्ष़रपतन और ऄन्य ग़ंव ने भा ईसको कर ल़ कर ऽदय़। इत्थां स नावुतस्त़ांस्त़न् विाकुत्य प्रत़पव़न।् ऽवऽवधां धनम़रृत्य स्वऱष्ट..ो़ऽभमिखोऻभवत।् ।२६ आस प्रक़र ऽवऽभन्न प्ऱंतों को ऄधान करके ऽवऽवध करो को लेकर वह प्रत़पा ऱज़ ऄपने ऱष्र की ओर चल ऽदय़। मनाऽषण उचिः ऽवऱव्य़ऽवद्चपुतऩां रितां द़ल्भ्यपिरां ऽजतम।् तथैव ऽचत्रपिऽलनां पिरां ऽनजकरे कुतम।् ।२७ 368 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



गहु ातां च़प्रय़सेन नगरां सगां मेश्वरम।् अहो ऱजपिरां सवयम़प़त़लां च ख़ऽनतम।् ।२८ गुहात़ः सांचय़ः सवे ऽनगुहात़श्च ऩगऱः। तथ़ऽक्रयत स़मथ्य़यत् करदः सररत़ां वरः।।२९ ऽिवऱजेन ऽवद्ठेष़त् ऱष्ट..मेवमिपप्लितम।् अवेत्य येऽदलस्तत्र कमिप़यमऽचांतयत।् ।३० पंऽडत बोलेमगि लों की सेऩ को भग़कर ऽिव़जा ने द़भोल िाघ्र ले ऽलय़ ईसा प्रक़र ऽचपकीण ऄपने ऄधान कर ऽलय़ और संगमेश्वर को तो ऄऩय़स हा ले ऽलय़। ऄहो! संपीणय ऱजपरि को भा प़त़ल पयंत खोद ड़ल़ सभा खज़ने ले ऽलए और ऩगररकों को कै द ऽकय़ ईसा प्रक़र ऄपने स़मथ्यय से समरि को ऄपने ऄधान कर ऽलय़ आस प्रक़र ऽिव़जा ने द्रेर् से सपं णी य देि व्य़प्त कर ऽलय़ यह ज़नकर ईस समय अऽदलि़ह ने कौन स़ ईप़य ऽकय़? कवान्द्र उव़च स ऽवरोधा ऽकल़स्म़कां व्रजन् ऱजपिरां प्रऽत। न ऽनरुद्चस्त्वय़ तऽस्मन् वनम़गे सदि ि गयमे।।३१ कऽवरं बोल़वह हम़ऱ ित्रि जब ऱजपरि की और ज़ रह़ थ़ तो ईसको ऄत्यतं दगि मय ऄरण्य के म़गय में तनी े क्यों नहीं रोक़? आस्त़ऽमदऽमद़नीं ति त्वमस्मदपक़ररणम।् समिद्ठुतां पऱवुत्तां ऽनरुांत्स्व़भ्यणयम़गतम।् ।३२ ठाक है य़ आस समय रहने दो। ऄब वह हम़ऱ ईन्मत्त ित्रि लौटकर हम़रे समाप अय़ है ऄतः ईसे ज़नकर रोक दो। इत्थम़ज़्ां ऽनज़ां तत्र येऽदलो दीनम़नसः। श्रगुां ़रपरि भीप़य प्ऱऽहणोत् सयी यवमयणे।।३३ 369 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



आस प्रक़र दख े ऽभजव़य़। ि ा अऽदल ि़ह ने श्रुंग़र परि के ऱज़ सयी ़य जा ऱव को संदि मनाऽषण उचिः स तद़ येऽदलस्त़ांस्त़न् परररृत्य चमीपतान।् कस्म़त्तमेव नुपऽतां क़येऻमिऽष्मन् न्द्ययोजयत।् ।३४ पंऽडत बोले - ईस समय ईस अऽदलि़ह ने सभा सेऩपऽतयों को छोड कर ईस ऱज़ को ईस क़यय पर क्यों नहीं लग़य़? कवान्द्र उव़च भग्ब्नपीव़यः ऽिवेनैव रुस्तिम़द्ट़श्चमीभुतः। प्रभऽवष्यऽन्द्त नो योद्चिऽमऽत ऽचन्द्तयत़ स्वयम।् ।३५ येऽदलेऩटवामध्यवती पऽत्तबल़ऽन्द्वतः। स एव दिष्करेऻप्यऽस्मन् क़ये ऽकल ऽनयोऽजतः।।३६ कऽवरं बोल़- ऽिव़जा ने पहले पऱऽजत ऽकए गए रुस्तम अऽद सेऩपऽत ईनसे यि ि करने में समथय नहीं होंगे, आस प्रक़र से मन में ऽवच़र करके वन के मध्य भ़ग में रहने व़ले एवं पद़ऽतयों से यि ि ईस ऱज़ को दष्ि कर क़यय होते हुए भा ऽनयि ि कर ऽदय़। अथ़ऽभम़नैकधनः प्रभ़वा स भीपऽतयेऽदलि़सनेन। दधौ ऽधयां वैरमयीं मदेन कराव ऽसांहेन समां ऽिवेन।।३७ तब ईस ऄत्यंत ऄऽभम़ना एवं पऱक्रमा ऱज़ ने अऽदलि़ह की अज्ञ़ से जैसे ह़था ऄऽभम़न से ऽसंह से द्रेर् करत़ है वैसे हा ऄऽभम़न से ऽिव़जा से ित्रति ़ की। दिरध्वसांच़लनसांऽचकीषयय़ ऽिवेन ऽवन्द्य़सऽवद़ ऽनवेऽित़म।् अनाऽकनीं त़मऽधसांगमेश्वरां ऽस्थत़ां ससैन्द्यः स रुरोध सत्वरम।् ।३८ ऽिव़जा ने दगि यम म़गय को स़फ करने की आच्छ़ से संगमेश्वर में स्थ़ऽपत सेऩ के स़थ ऄपना सेऩ को लेकर िाघ्र घेऱ ड़ल ऽदय़। 370 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



स पऽत्तसपां ऽत्तयितो ऽनिाथे ऽनरुध्य सेऩां महतीं ऽिवस्य। दिदैवयोगेन यियित्सिरुच्चैः जगजय मेघप्रऽतमऽश्चरस्य।।३९ ऽवि़ल बत़इ गइ सेऩ की सह़यत़ से ऽिव़जा की ऽवि़ल सेऩ को मध्यऱऽत्र में घेरकर दभि ़यग्य यि ि करने क़ आच्छिक वह सयी ़यजा ऱव बहुत देर तक मेघ की तरह गजयऩ करने लग़। उच्चकै ः श्रवणगोचराकुतां पन्द्नग़रय इव़ऽहफीत्कुतम।् तत्तद़यिधभुतो न सेऽहरे त़नऽजत्प्रभुतोऻस्य गऽजयतम।् ।४० गरुड जैसे ऩग के फंि क़र को सहन नहीं करत़ है ईसा प्रक़र क़नों में पडा हुइ ईसकी प्रचंड गजयऩ को ईस समय त़ऩजा प्रवुऽत्त योि़ओ ं ने सहन नहीं ऽकय़।



तद़ऽतभातः ऽकल नालकण्ठऱज़त्मजो दैवहतः ऽपल़जा। प्रभ़वलाि़य यि़ांऽस द़तिां अमांस्त यिद्च़दपय़नमेव।।४१ तब ऄत्यंत भयभात नालकंठ ऱज़ क़ पत्रि दभि ़यग्य च़ली पाल़ जा ने म़नो प्रभ़वला के ऱज़ को यि प्ऱऽप्त कऱने के ऽलए यि ि की ऄपेक्ष़ पल़यन को हा ईत्तम समझ़। सज ां ़तवेपथिममिां भुिमिच्छसतां ां, ऽवन्द्यस्तप़ऽणगकुप़णमपरवांतम।् सद्टः स्वयां कऽतपय़ऽन पद़ऽन गत्व़ धुत्व़ करे न्द्यगकरोत् ऽकल मल्लसीरः।।४२ कंपन से यि ि ऄत्यऽधक श्व़स प्रश्व़स लेने व़ले ह़थ की तलव़र को नाचे फें क कर पल़यन करने व़ले और ऽपल़जा को िाघ्र किछ हा पलों में म़ल सरि े ि ने स्वयं ह़थ से पकड ऽलय़ एवं ईसक़ ऽधक्क़र ऽकय़। मल्लसीर उव़च तव़हमऽस्मन् समरे सह़यः। पल़यसे ह़ स्वजनां ऽवह़य।। 371 | पृ ष्ठ



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आसन् परि ़ य़ऽन ऽवकऽत्थत़ऽन। त़ऽन सव तेऻनाकपते गत़ऽन।।४३ म़लसरि े बोल़आस यि ि में मैं तेऱ सह़यक हं ती ऄपने लोगों को छोडकर पल़यन कर रह़ है यह दख ि की ब़त है पहले जो ती प्रिसं ़ करत़ थ़ वह तेरा प्रिसं ़ कह़ं चला गइ? प्रद़य म़ह़म्यमभाष्टदेन यः प़ऽलतोऻभीः ऽिवभीऽमपेन। सेऩपऽतः सोऻद्ट ऽवमििसेनः पल़यसे हन्द्त ऽवलज्जसे न।।४४ ऽजस आष्ट द़त़ ऽिव़जा ने तेऱ बडप्पन के स़थ प़लन पोर्ण ऽकय़ और ती सेऩपऽत ईन्हें ऐसे छोड कर भ़ग रह़ है और ऄरे तझि े लज्ज़ भा नहीं अता है। इत्यिसत्व़ दृषऽद ऽनबध्य रज्जिखडां ैः तां तस्तां ऽनजसऽवधे ऽस्थरां ऽवध़य। आत्माय़ां सपऽद स तत्र िौययिऽिां िीरेभ्यः पऽद पऽद दिययन् ननतय।।४५ आस प्रक़र बोलकर ईस भयभात ऽपल़जा को ऄपने समाप रस्सा से पत्थर पर सदृि ढ़ ब़ंधकर वह़ं ऄपने पऱक्रम को पग पग पर प्रदऽियत करत़ हुअ ऩचने लग़। प्रऽतहतररपििीरप्रस्रवरिपीरः, प्रचिरसमरिोभ़सभ्र ि िवः कणयपरी ः। स मुधमऽधऽवरेजे त़नऽजन्द्मल्लसीरः समजऽन ऽनऽि तस्य़ां तेजस़ यस्य सीरः।।४६



372 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



मुत्यि को प्ऱप्त हुए ित्रि पक्ष के वारों के रि से पररपणी य एवं ऄनेक यि ि रूपा संदि ररयों के क़न क़ अभर्ी ण वह त़ऩजा म़लिसरे यि ि में िोभ़यम़न हो रह़ थ़ एवं ईसके तेज से ईस ऱऽत्र में सयी य ईत्पन्न हो गय़ थ़। अथ कुतजयघोषग्रस्तमेघस्वऩऩां ऽवलसदऽसलत़ऩां हन्द्तिमेवोद्टत़ऩम।् प्रऽतपदमऽवहस्त़ः सऽन्द्नप़ते ररपीण़ां सिमहऽत कुतहस्त़ः सैऽनक़स्तां ररििः।।४७ तब स्वयं की हुइ जयघोर्ों की ध्वऽनयों ने मेघ की गरजऩ को ग्रऽसत कर ऽलय़ ऽजनके ह़थों में तलव़रे चमक रहा है एवं जो पग पग पर म़रने के ऽलए ईद्यत हैं ऐसे ित्रि के ऽवि़ल भाड में ऽवचऽलत ऩ होने व़ले एवं ईत्तम धनधि ़यरा सैऽनकों ने ईसकी रक्ष़ की। आऽतष्ठ प्रहर प्रयच्छ ऽवरम व्य़प़रय प्ऱपय त्ऱयस्व त्यज मिांच ऽवरव नय व्य़वतयय़लोकय। ऽभऽद्च ऽच्छऽन्द्द्च गुह़ण प़तय जहात्यिच्चैस्ततो गजयत़ां योध़ऩमऽभध़वत़मिभयतः कोल़हलः कोऻप्यमीत।् ।४८ तैय़र हो ज़, प्रह़र कर दे, रुक ज़, पहुचं ों, बच़ओ,ं छोड दे, भ़ग ज़, ले ज़, व़पस दे, देख, फोड दे, तोड दे, ले, ऽगऱ दे, छोड दे आस प्रक़र की वह़ं ईच्च ध्वऽन में गजयऩ करने व़ले एवं एक दसी रे योि़ओ ं पर दौडकर अक्रमण करने व़ले दोनों पक्षों के योि़ओ ं क़ कोल़हल हुअ। स्फीजयरत्ऩांगिलायद्टिऽतिबलनखद्टोऽतऽभः पांचि़खैः स्रस्तोष्णाषैः ऽिरोऽभऽनयऽगडऽनपऽततैरांऽन्द्रऽभब़यहुऽभश्च। अांगैरन्द्यैश्च हतां िणरुऽचऽवलसत्खड्गवल्लाऽनकुत्तैः उत्कुष्ट़सुसप्रव़हप्रचऽयऽभरथ स़ दिगयम़भीद्चररत्रा।।४९ चमकद़र रत्नों से जऽडत ऄगं ठी ा के चमक से ऽजसके ऩखनी ों की क़ऽं त ऽचत्र ऽवऽचत्र हो गइ है ऐसे पगडा रऽहत मस्तक के प़स में पडे हुए ह़थ पैर और अक़िाय ऽवद्यति के सम़न चमकने व़ला तलव़रों से टीटे हुए एवं ऽजनके उपर ऄनेक रि प्रव़ह क़ सचं य है ऐसे दसी रे ऄवयव थे ऽजसके क़रण से वह भऽी म दगि यम हो गइ था। 373 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



अथ प्रभवऽत ऽवभ़वराऽवऱमे ऽतऽमरऽमव़ययमरऽश्मऽभः समग्रम।् ऽिवनुपसिभटै ः प्रसष्त भग्ब्नां सपऽद जग़म ऽवऱममन्द्यसैन्द्यम।् ।५० ऽिवऱऽत्र के सम़ऽप्त पर सयी य की ऽकरणें जैसे ऄधं क़र को ऽमट़ देता है ईसा प्रक़र ऽिव़जा के योि़ओ ं द्ऱऱ पणी य पऱऽजत हुइ व ित्रि की सेऩ तत्क़ल सम़प्त हो गइ ऄथ़यत पल़यन कर गइ। अथ ऽवऽहतपल़यनेषि तेषि प्रऽतनुपसैऽनकपिांगवेषि सद्टः। स्वनदऽभनवमेघस़म्यभ़ज़ सह पटहेन जगजय मल्लसीरः।।५१ ऽफर ईस ित्रि पक्ष के श्रेष्ठ सैऽनकों के पल़यन करने पर प्रवाण ब़दल की तरह गजयऩ करने व़ला ददंि भि ा के स़थ म़लसरि े गजयऩ करने लग़।



इत्यनिपिऱणे सीययवांिे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हश्रय़ां सऽां हत़य़ां ऽत्रांिोऻध्य़य:।।३०।।



374 | पृ ष्ठ



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अध्य़यः-३१ कवान्द्र उव़च अथ ऱजपिऱत् तीणं पऱवुत्तां ऽिवां प्रभिम।् प्रत्यिद्गम्य समां सैन्द्यैमयल्लसीरो व्यलोकत।।१ १. कवान्र बोले - पनि ः ऱजपरि से िाघ्र पऱवऽतयत हुए ऽिव़जा ऱज़ को म़लसरि े सेऩ क़ स़मऩ करऩ पड़। तां भीररण़ प्रभ़वेण पररभीत़ररसैऽनकम।् वदां म़नां नपु ः पश्यन् अऽभम़नधनां तद़।।२ उपकण्ठे नालकण्ठऱज़त्मजऽनवेऽदतम।् प्रथायस़ प्रस़देन स़नाकां समभ़वयत।् ।३ २-३. ऽजसने बडे पऱक्रम से ित्रि की सेऩ को पऱऽजत ऽकय़ वह त़ऩजा अ गय़, यह नालकण्ठ ऱज़ के पत्रि ने समाप ज़कर बत़य़ तो वदं न करने व़ले ईस ऄऽभम़नधना त़ऩजा को देखकर ऱज़ ने ईसक़ सेऩ के स़थ बडे अदर से सत्क़र ऽकय़। ततः श्रत्ि व़ तदौद्चत्रां सयी यऱजकुतां ऽिवः। तरस्वा तत्िणेऻत्यथं क्रिद्चोऻऽप क्रोधम़वुणोत।् ।४ ४. तत्पश्च़त् सयी यऱज द्ऱऱ ऽकये ईस ऄऽवनात व्यवह़र को सनि कर पऱक्रमा ऽिव़जा ऱज़ के ऄत्यन्त क्रिि होने पर भा ईसने ऄपने क्रोध को रोक ऽलय़। अथ वैवऽधकस्तीणं ऽवसुष्टः ऽिवभीभुत़। प्रोचे प्रभ़वलाप़लमिपेत्य मऽहतां वचः।।५ ५. ऽिव़जा द्ऱऱ िाघ्र भेजे गए दती ने प्रभ़वला के ऱज़ के प़स अकर स़रगऽभयत वचन बोलें। 375 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



वैवऽधक उव़च यद़ यद़ येऽदलस्य स़ह़य्यां समिपेयिष़। भवत़ ऽिवभीपस्य बहवो मन्द्तवः कुत़ः।।६ यच्च सैन्द्ये ऽिवस्योच्चैः सगां मेश्वरवऽतयऽन। न्द्यपतः सैन्द्यसऽहतो वातभाऽनयऽि सम्प्रऽत।।७ प्रभ़वलापते ऽवश्वजऽयऩ ि़हसनी नि ़। कथां कथय सोढव्यः स तव़पनयो मह़न।् ।८ ६-८. दती बोल़ - अऽदलि़ह की सह़यत़ करके तनी े ऽिव़जा ऱज़ के स़थ बहुत ऄपऱध ऽकए और सगं मेश्वर में ऽस्थत ऽिव़जा की सेऩ पर ऱत में तनी े सेऩ के स़थ बडा ऽनभययत़ से अक्रमण ऽकए वह तेरे मह़न् ऄपऱध है, ये प्रभ़वला के ऱज़ ऽवश्वऽवजेत़ ऽिव़जा द्ऱऱ कै से सहन ऽकये ज़ए। अतः स किऽपतोऻप्यिच्चैदैव़द़त्तदयस्त्वऽय। बत़ऽदिद्टथ़द्ट त्व़ां तथ़ वक्ष्ये ऽनिम्यत़म।् ।९ ९. ऄतः वह ऄऽतिय क्रिि होते हुए भा सौभ़ग्य से तेरे पर दय़ करके ईसने अज तझि े जो अज्ञ़ दा है, वह बत़त़ ह,ं ऽिवऱज उव़च वनऽद्ठप इवोन्द्मतो मत्तो भातः पल़ऽयतः। यः प्ऱप्तस्त्व़ां मह़ब़हो मह़ब़हुनयऱऽधपः।।१० तस्य पल्लावनपतेऽवयमतेऽवयऽहत़गसः। उपवतयनम़हतिमिद्टतोऻस्म्यहमांजस़।।११ ११. ऽिव़जा बोल़हे मह़ब़हो! वन के ह़था के सम़न ईन्मत्त जो बलव़न ऱज़ मेरे से भयभात होकर तेरे प़स अय़ है ईस दष्टि बऽि ि व़ले ऄपऱधा प़ला ऱज़ के प्ऱतं को मैं ऄऽधकु त करने के ऽलए सजग हो गय़ ह।ं अथ़स्मत्तो न भेतव्यमेतव्यमऽप च त्वय़। 376 | पृ ष्ठ



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तत्र पल्लावने यत्र द़तव्यमभयां मय़।।१२ १२. तो ती हमसे भयभात मत हो और प़ला में तझि े ऄवश्य अऩ है क्योंऽक तझि े मैं वहा ऄभयद़न दगंी ़। आगन्द्त़ऽस न चेद्ङप़यत् तऽह गन्द्त़ऽस तद्ङि़म।् न ऽवद्टतेऻद्ट मत्कोप़त् कोऻऽप गोप़ऽयत़ तव।।१३ १३. यऽद ऄऽभम़न के क़रण ती वह़ं नहीं अय़ तो ईसकी ऄवस्थ़ तझि े प्ऱप्त होगा। मेरे क्रोध से तेरा रक्ष़ करने व़ल़ अज कोइ भा नहीं है। ततो व़त़यवह़ऽदत्थां ऽनिम्य ऽिवभ़ऽषतम।् िुांग़रपिरभीप़लो य़ऽह य़मात्यिव़च तम।् ।१४ १४. तब आस प्रक़र दती से ऽिव़जा के वचनों को सनि कर ‘ती ज़ मैं अत़ ह’ं आस प्रक़र ऽसंग़रपरि क़ ऱज़ ईससे बोल़। अथ पल्लावऩभ्यणयमिपेत्य ऽिवभीभुते। ऽवऽविे सयी यऱजोिां वचनां व्य़जहर सः।।१५ १५. ऽफर प़ला ज़कर ईसने ऽिव़जा ऱज़ को सयी य ऱज़ के वचनों को एक़तं में बत़य़। ततस्तां देिम़क्रम्य ऽिवः पल्लावऩष्दयम।् अन्द्वग्रहादनिग्ऱष्त़न् ऽनगुष्त़न् न्द्यग्रहादऽप।।१६ १६. तत्पश्च़त ऽिव़जा ने प़ला ऩमक ईस प्ऱंत को ऄधान करके दय़ करने योग्यों पर दय़ एवं ऽनग्रह करने योग्यों पर ऽनग्रह ऽकय़। ऽवप्ऱश्च ब़हुज़स्तद्ठदीरव्य़श्च जघन्द्यज़ः।। क़ांस्यक़ऱः कल़द़श्च व्योक़ऱः िैऽल्वकस्तथ़।१७ ति़णः पलगांड़श्च ऩऽपत़ः प्रऽतह़ररक़ः। म़ल़क़ऱः किांभक़ऱः क़रुक़श्च कििालव़ः।।१८ तांतिव़य़स्तिन्द्नव़य़ रांग़जाव़श्च भीररिः। 377 | पृ ष्ठ



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त़ांबऽी लक़श्च़ऽक्रक़श्च रजक़ः िौऽडक़ अऽप।।१९ अज़प़ल़श्च गोप़ल़ देवल़श्च कुषावल़ः। ग़ांऽधक़श्च तथ़ क़ांदऽवक़ः क़ांबऽवक़ः पिनः।।२० म़देऽगक़श्च वेणिध्म़ः प़ऽणव़द़श्च वैऽणक़ः। व़द्टऽवद्ट़ऽवदग्ब्ध़श्च लिब्ध्क़श्च़ऽसध़वक़ः।।२१ किसादवत्त ु यः क़ण्डक़ररणश्च़ऽहतिांऽडक़ः। प़दीकुतः पऽि लदां ़श्च ज़ऽलक़श्च जनगां म़ः।।२२ उपलब्धभय़ः सद्टस्तमेत्य ऽवषयां पिनः। ऽदने ऽदने वधयम़नऽश्रयो नन्द्दन्द्ननेकध़।२३ १७-२३. ब्ऱह्मण, क्षऽत्रय वैश्य, िरी , ऄसं ़रा, सोऩर, लोह़र, ठे ठरे , बढइ, ऽमह्ला, ऩइ, प्रऽतह़रा, म़ला, किम्ह़र, ऽिल्पा भ़ट, त़ऽं त, दरजा, पति ़इव़ल़, त़बं ोला, तेला, धोबा, मह़ ऽवक्रेत़, घनगर, गोप़लक, देवल, ऽकस़न बधं ओ ि ं क़ हलव़इ, कोम़ता ढोल, ब़ंसरि ा व़दक, मुदगं व़द्य ऽवद्य़ में ऽनपणि , ऽिक़रा, िह्लों को पैद़ करने व़ल़, ऊण से वुऽि प्ऱप्त होने व़ले, ब़ंध बऩने व़ले, सपेरे, चम़र, भाल, कोला च़ंड़ल आस प्रक़र के भयभात लोग ऽफर तरि ं त ईसा प्ऱंत में अकर प्रऽतऽदन वुऽि प्ऱप्त होकर ऄनेक प्रक़र से अनऽं दत हुए। अथो जनपदस्य़स्य रिण़य भुििमम।् ऽचरदिगयऽमऽतख्य़तमवलोसय ऽिलोच्च्यम।् ।२४ समांततः ऽिरस्यिच्चैः प्ऱक़रेण पटायस़। पररव़ररतमित्स़हा स क़रुऽभक़रयत।् ।२५ २४-२५. तब ईस देि की रक्ष़ के ऽलए ऄत्यतं समथय ऽचत्रदगि य आस ऩम से ऽवख्य़त ऽनपणि गढ़ को देखकर ईस ईत्स़हा ऽिव़जा ने ईसके मस्तक पर ऽनपणि क़रागरों के द्ऱऱ च़रों और उंच़ तट बनव़य़| अथ मण्डनमस्यैष मण्डलस्येऽत सीचयन।् िैलमेनां महाप़ले व्यदध़न्द्मण्डऩष्दयम।् ।२६ 378 | पृ ष्ठ



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२६. और यह आस प्ऱंत क़ अभर्ी ण हा है ऐस़ सऽी चत करने के ऽलए आस गढ़ को मडं नगढ़ ऩम ऽदय़। अथ दिगयपऽतस्तऽस्मन् ऽगररदिगे सिदिगयमे। ऽनध़य़धुप्यमध्यक्ष्ज्ां दिां रिणकमयऽण।।२७ सेऩां च क़ांऽचदव्यग्रः समग्रगिणि़ऽलनाम।् प्रभिः प्ऱऽस्थत िुांग़रपिरभीपऽजगाषय़।।२८ २७-२८. ईस घर के स्व़मा ने ईस ऄत्यंत दगि मय ऽकले के रक्ष़ क़यय में ऽनपणि दजि ये ऄध्यक्ष को ऽनयि ि करके एवं सवयगणि संपन्न किछ सेऩ को रखकर वह ऽनऽश्चंत दक्ष ऱज़ िुंग़र के ऱज़ को जातने के ऽलए ऽनकल गय़। मनाऽर्ण ईचःि िण़त् प्रभ़वलाप़लां पररभ़वऽयतिां प्रभिः। पिरैव न कथां य़तः ऽिवः श्रगां ़रपत्तनम।् ।२९ कथां च स़ऽभम़ऩय दध़ऩय प्रतापत़म।् अभयां ते दद़माऽत दीतां तस्मै ऽवसुष्टव़न।् ।३० २९-३०. पंऽडत बोले - प्रभ़वला के ऱज़ को एक क्षण में पऱऽजत करने में समथय ऽिव़जा पहले हा श्रुंग़रपरि क्यों नहीं गय़? और ित्रति ़ ध़रण करने व़ले ईस ऄऽभम़ना ऱज़ को ऄभय द़न देत़ हं ऐस़ बोल कर ईसके प़स दती क्यों भेज़? कवान्द्र उव़च जयवल्लाजय़द्टेन कमयण़ प्रऽथतां ऽिवम।् सीययऱजः पिऱ मत्व़ पिऱररसमऽवक्रमम।् ।३१ प्ऱज्यां प्रभ़वलाऱज्यां ऽपप़लऽयषरि ़त्मऩ। तव क्रीतसितोऻस्माऽत व़ऽचके न व्यऽजज्पत।् ।३२



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३१-३२. कऽवरं बोल़- जयवल्ला के ऽवजय के पऱक्रम से ऽवख्य़त हुए आरं की तरह पऱक्रमा ऽिव़जा को पहले म़न्य करके सयी यऱज ने प्रभ़वला क़ समुि ऱज्य स्वयं प़लन करने की आच्छ़ से तेऱ मैं कु तपत्रि हं ऐस़ संदेि भेजकर ऽनवेदन ऽकय़ थ़। तद़प्रभुऽत तां भीपां िरण्यः िरणोन्द्मिखम।् ऽिवत़ऽतः ऽिवनुपऽश्चरक़लमप़लयत।् ।३३ ३३. तब से लेकर ईस िरण आच्छिक ऱज़ क़ रक्षण िरण़गत की रक्ष़ करने व़ले ऽिव़जा ने बहुत समय तक ऽकय़। अयिध्यदररऽभः स़धं ऽिवऱजो यद़ यद़। अकरोदस्य स़ह़य्यां सीययऱजस्तद़ तद़।।३४ ३४. जब जब ऽिव़जा ऱज़ ने ित्रओ ि ं से यि ि ऽकय़ तब तब सयी यऱज ने ईसकी सह़यत़ की। अथ दैवध्वस्तऽधय़ पररत्यिऽभय़मिऩ। अहयां िऩ धऩरण्यवऽतयऩ ऽजष्णवऽु त्तऩ।।३५ ऽिवऱजऽवरुद्च़ऩमऽवद्च़ऩमनेकध़। व्यिमव्यिमप्यिच्चैव्ययधायत सह़यत़।।३६ ३५-३६. तत्पश्च़त दभि ़यग्य से नष्ट बऽि ि व़ले भयभात, घने ऄरण्य में रहने व़ले ऄऽभम़ना, कपटा सयी यऱज ने ऽिव़जा के ित्रि ऄरऽवदं की गप्ति तथ़ स्पष्ट रूप से ऄनेक प्रक़र की सह़यत़ की। दृढव्रतः ऽिवोऻमिष्मै भीयो भीयः कुत़गसे। अऽप ऽनग्रहणाय़य ऽनग्रहां न व्यऽचांतयत।् ।३७ ३७. ईसके ब़रंब़र ऄपऱध करने पर भा एवं वह ऽनग्रह करने में समथय होने पर भा दृढ़ व्रता ऽिव़जा ने ईसके ऽनग्रह करने क़ ऽवच़र मन में कै से नहीं ल़य़? आहूतोऻऽप समय़यदे ऩययौ स यद़ मद़त।् अकिप्यत् सीययऱज़य भीभुत् भुिबलस्तद़।।३८ ३८. समाप बल ि ़ने पर भा जब वह ऄऽभम़न से समाप नहीं अय़ तब ऽिव़जा सयी यऱज भोंसले पर क्रोऽधत हुए। 380 | पृ ष्ठ



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अथ़सौ पऽु थवाऩथ पद़ताऩां तरऽस्वऩम।् यितो यितेन स़धेन प्रय़ण़ऽभमिखोऻभवत।् ।३९ ३९. तत्पश्च़त वह ऱज़ वेगव़न पद़थों को स़थ लेकर अक्रमण करने के ऽलए ऽनकल गय़। नुव़ष्तां य़नम़रुष्त व्रजन्द्नथ स सत्वरः। समपश्यन्द्मह़स़रः पिरां स़रवरां पिरः।।४० ४०. वह मह़बला ऽिव़जा प़लकी में बैठकर िाघ्र ज़ रह़ थ़ तो ईसने स़मने सरवरनगर को देख़। अथ श्रत्ि व़ रुष़ स्पुष्टां ऽिवमभ्यणयम़गतम।् प्रभ़वलान्द्रो ऽवमऩः स्वजऩन् समवोचत।।४१ ४१. तब क्रोऽधत ऽिव़जा समाप अ गय़ है ऐस़ सनि कर प्रभ़वला क़ ऱज़ दख ि ा होकर ऄपने लोगों से बोल़। सीययऱज उव़च कुतकम़य मह़ब़हुः सरि ़सरि नरैनयति ः। सति ः ि़हनरेन्द्रस्य नैकसैऽनकसयां ितः।।४२ श्रुांग़रपिरम़द़तिमस्मत्तोऻद्ट बतोद्टतः। अज़्त एव ऽनकटे कीटयोधा ऽकल़गतः।।४३ ४२-४३. सयी यऱज बोल़ देवो एवं ऱक्षसों द्ऱऱ पऽी जत कपट यि ि करने व़ल़ कतयव्य यि ि एवं बलव़न ऽिव़जा ऄनेक सैऽनकों को स़थ लेकर हम़रे से ऽसगं ़रपरि को ग्रहण करने के ऽलए ईद्यति होकर वह गप्ति रूप से समाप अ गय़ है। समथेन समां तेन सांपऱयममिां वयम।् अकीप़रऽमव़प़रां प़रऽयष्य़महे कथम।् ।४४ ४४. ईस समथय से होने व़ले यिि से ऄप़र समरि की तरह कै से प़र प़ओगे? इत्यििव़न् स तैस्तत्र स्वजनैरनिमोऽदतः। रररिऽयषिऱत्म़नमपय़ने मऽतां दधे।।४५ 381 | पृ ष्ठ



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४५. ऐस़ बोलकर एवं ऄपने लोगों क़ ऄनिमोदन प्ऱप्त करके ईसने ऄपना रक्ष़ करने की आच्छ़ से पल़यन करने क़ ऽवच़र ऽकय़। मनाऽर्ण ईचःि आसादवऽस्थऽतययस्य वनदिगे सदि ि गयमे। अहन्द्यहऽन च प्ऱयो मऽतऱयोधनोद्टमे।।४६ सिदिधयषयस्य सष्त़ऽदमयनिते यस्य ि़सनम।् येऩन्द्यदिलयभां लब्ध बत पीवयनुप़सनम।् ।४७ स्वऱष्ररिण़क़ांिा येन दिदंतचेतस़। कुत़गस़ऽप सध ां ़य दौस्थ्यां तत्य़ज येऽदलः।।४८ किवयत़ स्ववि़नेव हबस़नवि़नऽप। अक़रर ऽवनयग्ऱहा येन वै मकऱलयः।।४९ अनांददऽधकां येन प़रांपय़यगत़ चमीः। यः परेण़निभ़वेन पररभीतो न के नऽचत।् ।५० सोऻऽप प्रभ़वलाप़लः ित्रधमयऽवद़ां वरः। ऩयिध्यत कथां तेन ऽिवेऩपऽचकीषयत़।।५१ ४६-५१. पऽं डत बोले- ऄत्यतं दगि मय वन में ऽनव़स करत़ है ऽजसकी प्ऱयः प्रऽतऽदन यि ि करने की आच्छ़ था, ऽजस ऄजेय ऱज़ की सत्त़ को सह्य़रा म़न्य करत़ थ़ ऽजसने ऄन्यों के ऽलए दल ि यभ ऐसे पवी य ऱज़ओ ं के ऽसंह़सन को प्ऱप्त ऽकय़, ऄपने ऱष्र की रक्ष़ के आच्छिक ऽजस ऄऽभम़ना अऽदलि़ह ने ऽजसके स़थ संऽध करके ऄपना दरि ़वस्थ़ को बच़ ऽलय़, ऽजसने हबिों के ऄधान लोगों को ऄपने ऄधान ल़य़, ऽजसने समरि को भा अज्ञ़क़रा बऩय़, ऽजससे परंपऱगत सेऩ ऄत्यऽधक अनंऽदत हो गइ ऽजसको ऽकसा ने ऄपने श्रेष्ठ पऱक्रम से पऱऽजत नहीं ऽकय़ ऐसे ईस प्रभ़वला के ऱज़ ने भा ऄपऩ ऄपक़र करने के आच्छिक ऽिव़जा से क्यों यि ि नहीं ऽकय़?



382 | पृ ष्ठ



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कवान्र ईव़च पिऱ पिऱऽग्ब्नप्रऽतमप्रत़पां सगां मेश्वऱत।् प्रय़तां ऽिवम़कण्यय पल्लावनपिरां प्रऽत।।५२ असपत्नऽमव़त्म़नां मन्द्यम़नोऻल्पचेतनः। लियन् प्रधऩभ़वां हययिसमऽवक्रम़न।् ।५३ पज िां ाकुत़न् स्वपतु ऩपतान् भिवनपऽी जत़न।् त़ांस्त़न् स्वस्वऽनके त़य सयी यऱजोऻनज ि ऽज्व़न।् ।५४ ५२-५४. कऽवरं बोले – पहले प्रलय़ऽग्न के सम़न प्रत़पा ऽिव़जा सगं मेश्वर से प़ला की ओर चल़ गय़ है ऐस़ सनि कर ईस मख ी य सयी य ऱज़ ने ऄपऩ कोइ ित्रि बच़ नहीं है ऐस़ समझकर एवं यि ि क़ प्रसंग नहीं है देखकर ऽसंह की तरह पऱक्रमा जगत वदं नाय, आकट्ठे हुए ऽवऽभन्न सेऩ ऩयकों को ऄपने-ऄपने घर ज़ने की ऄनमि ऽत दे दा। अथ पल्लावऩत्तण ु ः ऽिवो यद़। ी ं पऱवत्त सयी यऱजः सम़हतंि सेऩां ऩभती ् प्रभिस्तद़।।५५ ५५. ऽफर प़ला से िाघ्र ऽिव़जा लौट अय़ तब सयी य ऱज़ ऄपना सेऩ को आकट्ठ़ करने में ऄसमथय रह़। अमिऩ हेतिऩ नीनां दिमयऩः स ऽद्ठजोत्तम़ः। प्रभ़वलापररवुढो न मुधे ऽनदधे मनः।।५६ ५६. आस क़रण से व़स्तव में दख ि करने की आच्छ़ व्यि नहीं की। ि ा होकर हा ऄरे पंऽडतों! ईस प्रभ़वला के ऱज़ ने यि ऽवष्वससेऩवत़रेण नैकसैऽनकवऽतयऩ। दृप्यद्टेऽदलदोः स्तांभद़ढ्ययां दम्भ़पह़ररण़।।५७ दाणयऽदल्लान्द्रसैन्द्येन वज्रप्रऽतममीऽतयऩ। अताव़व्यिमन्द्त्रेण स्वतन्द्त्रेण़निभ़ऽवऩ।।५८ दिग्ऱयष्तऽवऽद्ठषदिगयग्ऱऽहण़ हठव़ऽहऩ। 383 | पृ ष्ठ



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चन्द्रऱजभिजच्छे दक़ररण़फजल़ररण़।।५९ ऽवरच्य ऽवपिलां वैरां पल़यनपरां मनः। चक़र सीययऱजो यत्तन्द्न ऽचत्रकरां मम।।६० ५७-६०. ऽवष्णि के ऄवत़र, ऄनेक सैऽनकों के ऄऽधपऽत, घमडं ा, अऽदलि़ह के ब़हुबल के सदृि ढ़ाकरण के ऄऽभम़न को हरण करने व़ल़, ऽदल्ला पऽत की सेऩ क़ ऽवऩि करने व़ल़, व्रज के सम़न िरार व़ल़, ऄत्यंत गप्ति मत्रं ण़ करने व़ल़, स्वतंत्र ऄनिभवा, ित्रि के दजि ये ऽकलों को जातने व़ल़, ऽजद्दा चंरऱव मोरे के भजि ़ओ ं की ऽचंत़ करने व़ल़, ऄफजलख़न के ित्रि ऽिव़जा से बडा ित्रति ़ करके सयी य द़द़ ने पल़यन करने क़ ऽवच़र ऽकय़ आसमें मझि े किछ अश्चययजनक प्रतात नहीं होत़ है। अथोन्द्नत़नतऽिल़ितसांकिऽलत़ांतऱम।् तरुकोटरसांऽवष्टघीकघीत्क़रगऽभयत़म।् ।६१ महोरगऽवऽनमयिि़नेकऽनमोकभ़स्वऱम।् अपऱऽवटऽपव्ऱतऽवटपव्य़प्तपष्ि कऱम।् ।६२ उपकण्ठनटन्द्नैकनालकण्ठमनोहऱम।् नाड़न्द्तरोत्पतत्कीऱां ऽककीऽदऽवकुतस्वऱम।् ।६३ पररऽश्लष्ट़चलतट़मम्भोधरघट़कुऽतम।् प्रऽतिणोच्चलच्छ़ख़मुग़ांदोऽलतपल्लव़म।् ।६४ स्तब्धरोमसम़रब्धघघयरस्वरघोषण़म।् मुग़दनवतीं म़द्टऽदभसऽां नभसैररभ़म।् ।६५ घनकम़यरकिांज़ांतऽनयऱणव्य़िपिांगव़म।् अभाक़नेकभल्लीककुतवल्माकद़रण़म।् ।६६ ऽवसांकट़मऽप किटै रुत्कटै ः कुतसांकट़म।् ऽविन् सभ ि टश्रगुां ़रः स श्रगुां ़रपरि ़टवाम।् ।६७ 384 | पृ ष्ठ



कवीन्द्रपरमानन्द्दकृ त - श्रीशिवभारत



ऽवऽवध़स्कन्द्दऩक़ांिा सयी यऱजमपरितम।् ऽनिम्य़नाकसऽहतो ऽवमनस्क इव़भवत।् ।६८ ६१-६८. जो सैकडों ईन्नत एवं ऽवस्तुत घोऽडयों के समही से यि ि थ़, वुक्षों के कोटरों के गभय में बैठे हुए ईल्ली दत्ि क़र कर रहे थे, जो बडे-बडे ऩगो द्ऱऱ पररत्यि ऄनेक कें चऽि लयो से चमक रहा था, जह़ं के वुक्षों की ि़ख़ओ ं ने अक़ि व्य़प्त कर ऽदय़ थ़, जो तट पर ऩचने व़ले ऄनेक मोरों से मनोहर ऽदख रहा था, ऽजसके घोसलों से तोते ईड रहे थे, जह़ं किछ (पक्षा) अव़ज कर रहे थे, ऽजसने ऽकलो के तटों को घेर ऽलय़, जो मेघ की तरह ऽदख रहा था, ऽजसके वुक्षों के पल्लव प्रऽतक्षण कंि दन करने व़ले बंदरों से ऽहल रहे थे, जह़ं सऄ ि र घर घर की अव़ज कर रहे थे, ऽजसमें लोमडा एवं मदमस्त ह़था की तरह नालग़य था, ऽजसकी घना झ़ऽडयों में बडे-बडे ऽसंह ऽछपे थे, ऽजसमें ऄनेक ऽनभयय भ़लि वल्माक खोज रहे थे, जो भयंकर होता हुइ भा उंचे उंचे झोपऽडयों से सि ि ोऽभत था, ऐसे ईस ऽसगं ़रपरि की झ़ऽडयों में प्रवेि करने व़ल़ ऽवऽवध प्रक़र से अक्रमण करने क़ आच्छिक वह ऽिव़जा, सयी यऱज भ़ग गय़ ऐस़ सनि कर सेऩ सऽहत ऽखन्न हो गय़। अथ प्रसन्द्ऩभयद़यके न दिद़यन्द्तदप़यपहस़यके न। उपेत्य श्रुांग़रपिरां ऽिवेन भिजस्मय़वेिभुत़ व्यलोऽक।।६९ ६९. िरण़गतों को ऄभय देने व़ले, ऄऽभम़ऽनयों के ऄऽभम़न को नष्ट करने व़ले, मह़न ब़हुबल के ऄऽभम़न को ध़रण करने व़ले ईस ऽिव़जा ने ऽसंग़रपरि के समाप अकर ईसको देख़। नुव़ष्तय़नऽस्थत एव तीणं स्वसैऽनकै स्तत्िणमेव पीणयम।् प्रऽवश्य श्रुांग़रपिरां प्रपश्यन् स्वमप्यमांस्तैष परैरधुष्यम।् ।७० ७०. ऄपने सैऽनकों द्ऱऱ तत्क़ल व्य़प्त िुगं ़रपरि में प़लकी में बैठकर िाघ्रत़ से प्रवेि करके देखते समय ‘मैं भा ित्रओ ि ं के ऽलए ऄजेय ह’ँ ऐस़ वह म़नने लग़। अजय्यमन्द्यैररऽत ऽवश्रितां यत,् स भीपऽतवैररनुप़सनां तत।् स्पि ु न् भुिां स्वेन पद़ तद़नीं अम़ऽन लोके न मह़ऽभम़ना।।७१



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७१. ित्रओ ि ं के ऽलए जो ऄजेय है ऐस़ ऽजसक़ यि ऽवख्य़त है, ईस ित्रि ऱज़ के ऽसंह़सन को ईसने ऄपने पैरों से ल़त म़र दा, ईस समय वह लोगों को मह़ऽभम़ना प्रतात हो रह़ थ़। आद़य तस्म़दभयां रढायः समायिष़ पौरजनेन भीयः। प्रऽवश्य श्रगां ़रपरि ां प्रभीय प्रभीतश्रगुां ़रपदां व्यध़ऽय।।७२ ७२. ईसके प़स से सदृि ढ़ ऄभयद़न लेकर आकट्ठे हुए पौर लोगों ने िुगं ़र में पनि ः प्रवेि करके तथ़ समथय होकर ईसको ऄनेक ऄलंकुत पद ऽदयें। अथ कऽतपयसैऽनक़नयि ़तां प्रऽतनुपम़िि ऽदगन्द्तमेव य़तम।् ऽत्रभिवनजनऽजत्वरप्रत़पः स बत ऽनहन्द्तिमपत्रप़मव़पत।् ।७३ ७३. तत्पश्च़त् किछ सैऽनकों के स़थ िाघ्र ऽदि़ओ ं में पल़यन ऽकए हुए ित्रओ ि ं को म़रने में ‘ऽजसक़ प्रत़प ऽत्रभवि न के लोकों जातने में समथय है’ ऐस़ ऽिव़जा लऽज्जत हुअ। इत्यनिपरि ़णे सीययवांिे कवान्द्रपरम़नन्द्दप्रक़ऽित़य़ां ितस़हश्रय़ां सऽां हत़य़ां स्वपिरप्रवेिो ऩम एकऽत्रांिो अध्य़य: ।। ३१ ।।



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अध्य़यः-३२ कवान्द्र उव़च अथ ि़हसति ः प्रभ़वलाऽवषयां सवयमऽप स्वतेजस़। अकरोऽन्द्नजप़ऽणवऽतयनां नयवत्मय प्रतनां प्रवतययन।् ।१ १. कवान्र बोल़ – तत्पश्च़त् ऽिव़जा ने परि ़तन ऱजनाऽत म़गय को प्ऱरम्भ करके सपं णी य प्रभ़वला प्ऱतं को ऄपने पऱक्रम से ऄधान कर ऽलय़। पटिसङ्गरकमयकमयठां प्रऽथतां त्र्यम्बकभ़स्करां ऽिवः। सिमऽतां सपऽद प्रभ़वलाऽवषय़ध्यिपदे न्द्ययोजयत।् ।२ २. िऽि एवं वेग के यि ि में ऽनपणि , ऽवख्य़त, बऽि िम़न, त्र्यंबकभ़स्कर को ऽिव़जा ने तरि ं त प्रभ़वला प्ऱंत के ऄध्यक्ष पद पर ऽनयि ि ऽकय़। रृतऱजपिरऽश्रयां रुष़ ऽजतश्रङ ु ् ग़रपिरां तथौजस़। परसैऽनकपिङ्गव़ः ितां ितमेतां िरणैऽषणोऻनमन।् ।३ ३. क्रोध से ऱजपरि की संपऽत्त को हरण करने व़ले एवं िऽि से िुगं ़र परि को जातने व़ले ईस ऽिव़जा को ित्रि पक्ष के सैकडों िरणेच्छिक श्रेष्ठ सैऽनक प्रण़म करने लगे। अथ तस्य पिरस्य रिणे िणम़लक्ष्य सदेिवऽतयनम।् स ऽगररां प्रऽथतां प्रतात इत्यऽभध़नेन समऽन्द्वतां व्यध़त।् ।४ ४. ऽफर ईस नगर की रक्ष़ के ऽलए समाप में ऽस्थत ऽवख्य़त एवं ऽवि़ल ऽकले को क्षणभर देखकर ईसने ईसक़ ऩम ’प्रतातगड’ रख ऽदय़। अथ चन्द्रमुण़लचऽन्द्रक़ऽमऽहक़चन्द्दनचम्पक़ऽदऽभः। उपनाय मिदां तपतयिऩ भुि़मोदभुत़ न्द्यषेव्यत।।५ 387 | पृ ष्ठ



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५. चंरम़, कमलऩल, च़ंदना, रव, चंदन, चंपक-पष्ि प अऽद से अनंद देकर अनंदद़या ईस ग्राष्म ऊति ने ईसकी सेव़ की। ऽश्रतके सरक़ण्डप़टलासिमनोदम्भऽनषङ्गव़ऽहऩ। अऽप ऽवष्टपऽजत्वरेषण ि ़ तननि ़ह़रर ऽिवस्य नो मनः।।६ ६. अश्रय में ऽस्थत के सर के क़ंड एवं प़रूल के फील के अधर को ध़रने करने व़ले ऽजसके ब़ण है ऐसे कोमल क़मदेव ने भा ऽिव़जा के मन को हरण नहीं ऽकय़। तपत़ऽततऱां तप़गमे तपनेऩिि कदिष्णत़ां गत़ः। सररतस्ततसत्त्वसांश्रयां दधिरन्द्तः सऽललां सििातलम।् ।७ ७. ग्राष्म ऊति के अने पर ऄत्यऽधक तप्त सयी य से ऽकंऽचत ईष्ण हुए प़ना के नाचे नदा में िातल प़ना होत़ है। वह़ं पिि अश्रय लेते है। प्रऽतव़सरकऽल्पत़म्भसः सरसाः पङ्कऽनषण्णस़रस़ः। ऽवरमज्झषकच्छप़वलाऽवयदधे ताव्रतऱतपस्तपः।।८ ८. ऄत्यऽधक ताक्ष्ण धपी से यि ि ग्राष्म ऊति से प्रत्येक ऽदन त़ल़ब के प़ना के सख ी ज़ने पर स़रसपक्षा कीचड में बैठने लगे और मछऽलय़ं एवं कछिएं मरने लगे। प्रऽतफिल्लऽिराषप़टलापटसौरभ्यभुत़ नभस्वत़। स्मरत़पमबाभरन्द्मनः सऽि धय़ां ऽनऽवयषय़त्मऩमऽप।।९ ९. पऽि ष्पत ऽिरार् एवं प़रूल के गच्ि छों की सगि धं से सगि ऽं धत व़यि क़ संयोग ऽवरि एवं ऽवद्ऱन् लोगों के मनों को भा कामज्वर बाधित करने लगा।



388 | पृ ष्ठ