Shrimad Valmiki Ramayana - श्रीमद वाल्मीकि रामायण (Hindi Edition) [PDF]

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Table of contents :
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नम्र निवेदन
१. श्रीमद्वाल्मीकीय रामायणकी पाठविधि
अध्याय (श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणमाहात्म्यम्)
१ कलियुगकी स्थिति, कलिकालके मनुष्योंके उद्धारका उपाय, रामायणपाठ, उसकी महिमा, उसके श्रवणके लिये उत्तम काल आदिका वर्णन
२ नारद-सनत्कुमार-संवाद, सुदास या सोमदत्त नामक ब्राह्मणको राक्षसत्वकी प्राप्ति तथा रामायण-कथा-श्रवणद्वारा उससे उद्धार
३ माघमासमें रामायण-श्रवणका फल—राजा सुमति और सत्यवतीके पूर्वजन्मका इतिहास
४ चैत्रमासमें रामायणके पठन और श्रवणका माहात्म्य, कलिक नामक व्याध और उत्तङ्क मुनिकी कथा
५ रामायणके नवाह श्रवणकी विधि, महिमा तथा फलका वर्णन
१. बालकाण्ड
१ नारदजीका वाल्मीकि मुनिको संक्षेपसे श्रीराम-चरित्र सुनाना
२ रामायणकाव्यका उपक्रम—तमसाके तटपर क्रौञ्चवधसे संतप्त हुए महर्षि वाल्मीकिके शोकका श्लोकरूपमें प्रकट होना तथा ब्रह्माजीका उन्हें रामचरित्रमय काव्यके निर्माणका आदेश देना
३ वाल्मीकि मुनिद्वारा रामायणकाव्यमें निबद्ध विषयोंका संक्षेपसे उल्लेख
४ महर्षि वाल्मीकिका चौबीस हजार श्लोकोंसे युक्त रामायणकाव्यका निर्माण करके उसे लव-कुशको पढ़ाना, मुनिमण्डलीमें रामायणगान करके लव और कुशका प्रशंसित होना तथा अयोध्यामें श्रीरामद्वारा सम्मानित हो उन दोनोंका रामदरबारमें रामायणगान सुनाना
५ राजा दशरथद्वारा सुरक्षित अयोध्यापुरीका वर्णन
६ राजा दशरथके शासनकालमें अयोध्या और वहाँके नागरिकोंकी उत्तम स्थितिका वर्णन
७ राजमन्त्रियोंके गुण और नीतिका वर्णन
८ राजाका पुत्रके लिये अश्वमेधयज्ञ करनेका प्रस्ताव और मन्त्रियों तथा ब्राह्मणोंद्वारा उनका अनुमोदन
९ सुमन्त्रका राजाको ऋष्यश्रृङ्ग मुनिको बुलानेकी सलाह देते हुए उनके अङ्गदेशमें जाने और शान्तासे विवाह करनेका प्रसङ्ग सुनाना
१० अङ्गदेशमें ऋष्यश्रृङ्गके आने तथा शान्ताके साथ विवाह होनेके प्रसङ्गका कुछ विस्तारके साथ वर्णन
११ सुमन्त्रके कहनेसे राजा दशरथका सपरिवार अङ्गराजके यहाँ जाकर वहाँसे शान्ता और ऋष्यश्रृङ्गको अपने घर ले आना
१२ राजाका ऋषियोंसे यज्ञ करानेके लिये प्रस्ताव, ऋषियोंका राजाको और राजाका मन्त्रियोंको यज्ञकी आवश्यक तैयारी करनेके लिये आदेश देना
१३ राजाका वसिष्ठजीसे यज्ञकी तैयारीके लिये अनुरोध, वसिष्ठजीद्वारा इसके लिये सेवकोंकी नियुक्ति और सुमन्त्रको राजाओंको बुलानेके लिये आदेश, समागत राजाओंका सत्कार तथा पत्नियों-सहित राजा दशरथका यज्ञकी दीक्षा लेना
१४ महाराज दशरथके द्वारा अश्वमेध यज्ञका साङ्गोपाङ्ग अनुष्ठान
१५ ऋष्यश्रृङ्गद्वारा राजा दशरथके पुत्रेष्टि यज्ञका आरम्भ, देवताओंकी प्रार्थनासे ब्रह्माजीका रावणके वधका उपाय ढूँढ़ निकालना तथा भगवान् विष्णुका देवताओंको आश्वासन देना
१६ देवताओंका श्रीहरिसे रावणवधके लिये मनुष्यरूपमें अवतीर्ण होनेको कहना, राजाके पुत्रेष्टि यज्ञमें अग्निकुण्डसे प्राजापत्य पुरुषका प्रकट होकर खीर अर्पण करना और उसे खाकर रानियोंका गर्भवती होना
१७ ब्रह्माजीकी प्रेरणासे देवता आदिके द्वारा विभिन्न वानरयूथपतियोंकी उत्पत्ति
१८ राजाओं तथा ऋष्यश्रृङ्गको विदा करके राजा दशरथका रानियोंसहित पुरीमें आगमन, श्रीराम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्नके जन्म, संस्कार, शील-स्वभाव एवं सद्गुण, राजाके दरबारमें विश्वामित्रका आगमन और उनका सत्कार
१९ विश्वामित्रके मुखसे श्रीरामको साथ ले जानेकी माँग सुनकर राजा दशरथका दु:खित एवं मूर्च्छित होना
२० राजा दशरथका विश्वामित्रको अपना पुत्र देनेसे इनकार करना और विश्वामित्रका कुपित होना
२१ विश्वामित्रके रोषपूर्ण वचन तथा वसिष्ठका राजा दशरथको समझाना
२२ राजा दशरथका स्वस्तिवाचनपूर्वक राम-लक्ष्मणको मुनिके साथ भेजना, मार्गमें उन्हें विश्वामित्रसे बला और अतिबला नामक विद्याकी प्राप्ति
२३ विश्वामित्रसहित श्रीराम और लक्ष्मणका सरयू-गङ्गा-संगमके समीप पुण्य आश्रममें रातको ठहरना
२४ श्रीराम और लक्ष्मणका गङ्गापार होते समय विश्वामित्रजीसे जलमें उठती हुर्इ तुमुलध्वनिके विषयमें प्रश्न करना, विश्वामित्रजीका उन्हें इसका कारण बताना तथा मलद, करूष एवं ताटका वनका परिचय देते हुए इन्हें ताटकावधके लिये आज्ञा प्रदान करना.
२५ श्रीरामके पूछनेपर विश्वामित्रजीका उनसे ताटकाकी उत्पत्ति, विवाह एवं शाप आदिका प्रसङ्ग सुनाकर उन्हें ताटकावधके लिये प्रेरित करना
२६ श्रीरामद्वारा ताटकाका वध
२७ विश्वामित्रद्वारा श्रीरामको दिव्यास्त्र-दान
२८ विश्वामित्रका श्रीरामको अस्त्रोंकी संहारविधि बताना तथा उन्हें अन्यान्य अस्त्रोंका उपदेश करना, श्रीरामका एक आश्रम एवं यज्ञस्थानके विषयमें मुनिसे प्रश्न
२९ विश्वामित्रजीका श्रीरामसे सिद्धाश्रमका पूर्ववृत्तान्त बताना और उन दोनों भाइयोंके साथ अपने आश्रमपर पहुँचकर पूजित होना
३० श्रीरामद्वारा विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा तथा राक्षसोंका संहार
३१ श्रीराम, लक्ष्मण तथा ऋषियोंसहित विश्वामित्रका मिथिलाको प्रस्थान तथा मार्गमें संध्याके समय शोणभद्रतटपर विश्राम
३२ ब्रह्मपुत्र कुशके चार पुत्रोंका वर्णन, शोणभद्र-तटवर्ती प्रदेशको वसुकी भूमि बताना, कुशनाभकी सौ कन्याओंका वायुके कोपसे ‘कुब्जा’ होना
३३ राजा कुशनाभद्वारा कन्याओंके धैर्य एवं क्षमाशीलताकी प्रशंसा, ब्रह्मदत्तकी उत्पत्ति तथा उनके साथ कुशनाभकी कन्याओंका विवाह
३४ गाधिकी उत्पत्ति, कौशिकीकी प्रशंसा, विश्वामित्रजीका कथा बंद करके आधी रातका वर्णन करते हुए सबको सोनेकी आज्ञा देकर शयन करना
३५ शोणभद्र पार करके विश्वामित्र आदिका गङ्गाजीके तटपर पहुँचकर वहाँ रात्रिवास करना तथा श्रीरामके पूछनेपर विश्वामित्रजीका उन्हें गङ्गाजीकी उत्पत्तिकी कथा सुनाना
३६ देवताओंका शिव-पार्वतीको सुरतक्रीडासे निवृत्त करना तथा उमादेवीका देवताओं और पृथ्वीको शाप देना
३७ गङ्गासे कार्तिकेयकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग
३८ राजा सगरके पुत्रोंकी उत्पत्ति तथा यज्ञकी तैयारी
३९ इन्द्रके द्वारा राजा सगरके यज्ञसम्बन्धी अश्वका अपहरण, सगरपुत्रोंद्वारा सारी पृथ्वीका भेदन तथा देवताओंका ब्रह्माजीको यह सब समाचार बताना
४० सगरपुत्रोंके भावी विनाशकी सूचना देकर ब्रह्माजीका देवताओंको शान्त करना, सगरके पुत्रोंका पृथ्वीको खोदते हुए कपिलजीके पास पहुँचना और उनके रोषसे जलकर भस्म होना
४१ सगरकी आज्ञासे अंशुमान्का रसातलमें जाकर घोड़ेको ले आना और अपने चाचाओंके निधनका समाचार सुनाना
४२ अंशुमान् और भगीरथकी तपस्या, ब्रह्माजीका भगीरथको अभीष्ट वर देकर गङ्गाजीको धारण करनेके लिये भगवान् शंकरको राजी करनेके निमित्त प्रयत्न करनेकी सलाह देना
४३ भगीरथकी तपस्यासे संतुष्ट हुए भगवान् शंकरका गङ्गाको अपने सिरपर धारण करके बिन्दुसरोवरमें छोड़ना और उनका सात धाराओंमें विभक्त हो भगीरथके साथ जाकर उनके पितरोंका उद्धार करना
४४ ब्रह्माजीका भगीरथकी प्रशंसा करते हुए उन्हें गङ्गाजलसे पितरोंके तर्पणकी आज्ञा देना और राजाका वह सब करके अपने नगरको जाना, गङ्गावतरणके उपाख्यानकी महिमा
४५ देवताओं और दैत्योंद्वारा क्षीर-समुद्र-मन्थन, भगवान् रुद्रद्वारा हालाहल विषका पान, सर्ग विषय पृष्ठ-संख्या सर्ग विषय पृष्ठ-संख्या (१०) भगवान् विष्णुके सहयोगसे मन्दराचलका पातालसे उद्धार और उसके द्वारा मन्थन, धन्वन्तरि, अप्सरा, वारुणी, उच्चै:श्रवा, कौस्तुभ तथा अमृतकी उत्पत्ति और देवासुर-संग्राममें दैत्योंका संहार
४६ पुत्रवधसे दु:खी दितिका कश्यपजीसे इन्द्रहन्ता पुत्रकी प्राप्तिके उद्देश्यसे तपके लिये आज्ञा लेकर कुशप्लवमें तप करना, इन्द्रद्वारा उनकी परिचर्या तथा उन्हें अपवित्र अवस्थामें पाकर इन्द्रका उनके गर्भके सात टुकड़े कर डालना
४७ दितिका अपने पुत्रोंको मरुद्गण बनाकर देवलोकमें रखनेके लिये इन्द्रसे अनुरोध, इन्द्रद्वारा उसकी स्वीकृति, दितिके तपोवनमें ही इक्ष्वाकु-पुत्र विशालद्वारा विशाला नगरीका निर्माण तथा वहाँके तत्कालीन राजा सुमतिद्वारा विश्वामित्र मुनिका सत्कार
४८ राजा सुमतिसे सत्कृत हो एक रात विशालामें रहकर मुनियोंसहित श्रीरामका मिथिलापुरीमें पहुँचना और वहाँ सूने आश्रमके विषयमें पूछनेपर विश्वामित्रजीका उनसे अहल्याको शाप प्राप्त होनेकी कथा सुनाना
४९ पितृदेवताओंद्वारा इन्द्रको भेड़ेके अण्डकोषसे युक्त करना तथा भगवान् श्रीरामके द्वारा अहल्याका उद्धार एवं उन दोनों दम्पतिके द्वारा इनका सत्कार
५० श्रीराम आदिका मिथिला-गमन, राजा जनकद्वारा विश्वामित्रका सत्कार तथा उनका श्रीराम और लक्ष्मणके विषयमें जिज्ञासा करना एवं परिचय पाना
५१ शतानन्दके पूछनेपर विश्वामित्रका उन्हें श्रीरामके द्वारा अहल्याके उद्धारका समाचार बताना तथा शतानन्दद्वारा श्रीरामका अभिनन्दन करते हुए विश्वामित्रजीके पूर्वचरित्रका वर्णन
५२ महर्षि वसिष्ठद्वारा विश्वामित्रका सत्कार और कामधेनुको अभीष्ट वस्तुओंकी सृष्टि करनेका आदेश
५३ कामधेनुकी सहायतासे उत्तम अन्न-पानद्वारा सेनासहित तृप्त हुए विश्वामित्रका वसिष्ठसे उनकी कामधेनुको माँगना और उनका देनेसे अस्वीकार करना
५४ विश्वामित्रका वसिष्ठजीकी गौको बलपूर्वक ले जाना, गौका दु:खी होकर वसिष्ठजीसे इसका कारण पूछना और उनकी आज्ञासे शक, यवन, पह्लव आदि वीरोंकी सृष्टि करके उनके द्वारा विश्वामित्रजीकी सेनाका संहार करना
५५ अपने सौ पुत्रों और सारी सेनाके नष्ट हो जानेपर विश्वामित्रका तपस्या करके महादेवजीसे दिव्यास्त्र पाना तथा उनका वसिष्ठके आश्रमपर प्रयोग करना एवं वसिष्ठजीका ब्रह्मदण्ड लेकर उनके सामने खड़ा होना
५६ विश्वामित्रद्वारा वसिष्ठजीपर नाना प्रकारके दिव्यास्त्रोंका प्रयोग और वसिष्ठद्वारा ब्रह्मदण्डसे ही उनका शमन एवं विश्वामित्रका ब्राह्मणत्वकी प्राप्तिके लिये तप करनेका निश्चय
५७ विश्वामित्रकी तपस्या, राजा त्रिशङ्कुका अपना यज्ञ करानेके लिये पहले वसिष्ठजीसे प्रार्थना करना और उनके इनकार कर देनेपर उन्हींके पुत्रोंकी शरणमें जाना
५८ वसिष्ठ ऋषिके पुत्रोंका त्रिशङ्कुको डाँट बताकर घर लौटनेके लिये आज्ञा देना तथा उन्हें दूसरा पुरोहित बनानेके लिये उद्यत देख शाप-प्रदान और उनके शापसे चाण्डाल हुए त्रिशङ्कुका विश्वामित्रजीकी शरणमें जाना
५९ विश्वामित्रका त्रिशङ्कुको आश्वासन देकर उनका यज्ञ करानेके लिये ऋषि-मुनियोंको आमन्त्रित करना और उनकी बात न माननेवाले महोदय तथा ऋषिपुत्रोंको शाप देकर नष्ट करना
६० विश्वामित्रका ऋषियोंसे त्रिशङ्कुका यज्ञ करानेके लिये अनुरोध, ऋषियोंद्वारा यज्ञका आरम्भ, त्रिशङ्कुका सशरीर स्वर्गगमन, इन्द्रद्वारा स्वर्गसे उनके गिराये जानेपर क्षुब्ध हुए विश्वामित्रका नूतन देवसर्गके लिये उद्योग, फिर देवताओंके अनुरोधसे उनका इस कार्यसे विरत होना
६१ विश्वामित्रकी पुष्करतीर्थमें तपस्या तथा राजर्षि अम्बरीषका ऋचीकके मध्यम पुत्र शुन:शेपको यज्ञ-पशु बनानेके लिये खरीदकर लाना
६२ विश्वामित्रद्वारा शुन:शेपकी रक्षाका सफल प्रयत्न और तपस्या
६३ विश्वामित्रको ऋषि एवं महर्षिपदकी प्राप्ति, मेनकाद्वारा उनका तपोभङ्ग तथा ब्रह्मर्षिपदकी प्राप्तिके लिये उनकी घोर तपस्या
६४ विश्वामित्रका रम्भाको शाप देकर पुन: घोर तपस्याके लिये दीक्षा लेना
६५ विश्वामित्रकी घोर तपस्या, उन्हें ब्राह्मणत्वकी प्राप्ति तथा राजा जनकका उनकी प्रशंसा करके उनसे विदा ले राजभवनको लौटना
६६ राजा जनकका विश्वामित्र और राम-लक्ष्मणका सत्कार करके उन्हें अपने यहाँ रखे हुए धनुषका परिचय देना और धनुष चढ़ा देनेपर श्रीरामके साथ उनके ब्याहका निश्चय प्रकट करना
६७ श्रीरामके द्वारा धनुर्भङ्ग तथा राजा जनकका विश्वामित्रकी आज्ञासे राजा दशरथको बुलानेके लिये मन्त्रियोंको भेजना
६८ राजा जनकका संदेश पाकर मन्त्रियोंसहित महाराज दशरथका मिथिला जानेके लिये उद्यत होना
६९ दल-बलसहित राजा दशरथकी मिथिलायात्रा और वहाँ राजा जनकके द्वारा उनका स्वागत-सत्कार
७० राजा जनकका अपने भार्इ कुशध्वजको सांकाश्या नगरीसे बुलवाना, राजा दशरथके अनुरोधसे वसिष्ठजीका सूर्यवंशका परिचय देते हुए श्रीराम और लक्ष्मणके लिये सीता तथा ऊर्मिलाको वरण करना
७१ राजा जनकका अपने कुलका परिचय देते हुए श्रीराम और लक्ष्मणके लिये क्रमश: सीता और ऊर्मिलाको देनेकी प्रतिज्ञा करना
७२ विश्वामित्रद्वारा भरत और शत्रुघ्नके लिये कुशध्वजकी कन्याओंका वरण, राजा जनकद्वारा इसकी स्वीकृति तथा राजा दशरथका अपने पुत्रोंके मङ्गलके लिये नान्दीश्राद्ध एवं गोदान करना
७३ श्रीराम आदि चारों भाइयोंका विवाह
७४ विश्वामित्रका अपने आश्रमको प्रस्थान, राजा जनकका कन्याओंको भारी दहेज देकर राजा दशरथ आदिको विदा करना, मार्गमें शुभाशुभ शकुन और परशुरामजीका आगमन
७५ राजा दशरथकी बात अनसुनी करके परशुरामका श्रीरामको वैष्णव-धनुषपर बाण चढ़ानेके लिये ललकारना
७६ श्रीरामका वैष्णव-धनुषको चढ़ाकर अमोघ बाणके द्वारा परशुरामके तप:प्राप्त पुण्यलोकोंका नाश करना तथा परशुरामका महेन्द्रपर्वतको लौट जाना
७७ राजा दशरथका पुत्रों और वधुओंके साथ अयोध्यामें प्रवेश, शत्रुघ्नसहित भरतका मामाके यहाँ जाना, श्रीरामके बर्तावसे सबका संतोष तथा सीता और श्रीरामका पारस्परिक प्रेम
२. अयोध्याकाण्ड
१ श्रीरामके सद्गुणोंका वर्णन, राजा दशरथका श्रीरामको युवराज बनानेका विचार तथा विभिन्न नरेशों और नगर एवं जनपदके लोगोंको मन्त्रणाके लिये अपने दरबारमें बुलाना
२ राजा दशरथद्वारा श्रीरामके राज्याभिषेकका प्रस्ताव तथा सभासदोंद्वारा श्रीरामके गुणोंका वर्णन करते हुए उक्त प्रस्तावका सहर्ष युक्तियुक्त समर्थन
३ राजा दशरथका वसिष्ठ और वामदेवजीको श्रीरामके राज्याभिषेककी तैयारी करनेके लिये कहना और उनका सेवकोंको तदनुरूप आदेश देना, राजाकी आज्ञासे सुमन्त्रका श्रीरामको राजसभामें बुला लाना और राजाका अपने पुत्र श्रीरामको हितकर राजनीतिकी बातें बताना
४ श्रीरामको राज्य देनेका निश्चय करके राजाका सुमन्त्रद्वारा पुन: श्रीरामको बुलवाकर उन्हें आवश्यक बातें बताना, श्रीरामका कौसल्याके भवनमें जाकर माताको यह समाचार बताना और मातासे आशीर्वाद पाकर लक्ष्मणसे प्रेमपूर्वक वार्तालाप करके अपने महलमें जाना
५ राजा दशरथके अनुरोधसे वसिष्ठजीका सीता-सहित श्रीरामको उपवासव्रतकी दीक्षा देकर आना और राजाको इस समाचारसे अवगत कराना, राजाका अन्त:पुरमें प्रवेश
६ सीतासहित श्रीरामका नियमपरायण होना, हर्षमें भरे पुरवासियोंद्वारा नगरकी सजावट, राजाके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना तथा अयोध्यापुरीमें जनपदवासी मनुष्योंकी भीड़का एकत्र होना
७ श्रीरामके अभिषेकका समाचार पाकर खिन्न हुर्इ मन्थराका कैकेयीको उभाड़ना, परंतु प्रसन्न हुर्इ कैकेयीका उसे पुरस्काररूपमें आभूषण देना और वर माँगनेके लिये प्रेरित करना
८ मन्थराका पुन: श्रीरामके राज्याभिषेकको कैकेयीके लिये अनिष्टकारी बताना, कैकेयीका श्रीरामके गुणोंको बताकर उनके अभिषेकका समर्थन करना तत्पश्चात् कुब्जाका पुन: श्रीरामराज्यको भरतके लिये भयजनक बताकर कैकेयीको भड़काना
९ कुब्जाके कुचक्रसे कैकेयीका कोपभवनमें प्रवेश
१० राजा दशरथका कैकेयीके भवनमें जाना, उसे कोपभवनमें स्थित देखकर दु:खी होना और उसको अनेक प्रकारसे सान्त्वना देना
११ कैकेयीका राजाको प्रतिज्ञाबद्ध करके उन्हें पहलेके दिये हुए दो वरोंका स्मरण दिलाकर भरतके लिये अभिषेक और रामके लिये चौदह वर्षोंका वनवास माँगना
१२ महाराज दशरथकी चिन्ता, विलाप, कैकेयीको फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न माँगनेके लिये अनुरोध करना
१३ राजाका विलाप और कैकेयीसे अनुनयविनय
१४ कैकेयीका राजाको सत्यपर दृढ़ रहनेके लिये प्रेरणा देकर अपने वरोंकी पूर्तिके लिये दुराग्रह दिखाना, महर्षि वसिष्ठका अन्त:पुरके द्वारपर आगमन और सुमन्त्रको महाराजके पास भेजना, राजाकी आज्ञासे सुमन्त्रका श्रीरामको बुलानेके लिये जाना
१५ सुमन्त्रका राजाकी आज्ञासे श्रीरामको बुलानेके लिये उनके महलमें जाना
१६ सुमन्त्रका श्रीरामके महलमें पहुँचकर महाराजका संदेश सुनाना और श्रीरामका सीतासे अनुमति ले लक्ष्मणके साथ रथपर बैठकर गाजे-बाजेके साथ मार्गमें स्त्री-पुरुषोंकी बातें सुनते हुए जाना
१७ श्रीरामका राजपथकी शोभा देखते और सुहृदोंकी बातें सुनते हुए पिताके भवनमें प्रवेश
१८ श्रीरामका कैकेयीसे पिताके चिन्तित होनेका कारण पूछना और कैकेयीका कठोरतापूर्वक अपने माँगे हुए वरोंका वृत्तान्त बताकर श्रीरामको वनवासके लिये प्रेरित करना
१९ श्रीरामकी कैकेयीके साथ बातचीत और वनमें जाना स्वीकार करके उनका माता कौसल्याके पास आज्ञा लेनेके लिये जाना
२० राजा दशरथकी अन्य रानियोंका विलाप, श्रीरामका कौसल्याजीके भवनमें जाना और उन्हें अपने वनवासकी बात बताना, कौसल्याका अचेत होकर गिरना और श्रीरामके उठा देनेपर उनकी ओर देखकर विलाप करना
२१ लक्ष्मणका रोष, उनका श्रीरामको बलपूर्वक राज्यपर अधिकार कर लेनेके लिये प्रेरित करना तथा श्रीरामका पिताकी आज्ञाके पालनको ही धर्म बताकर माता और लक्ष्मणको समझाना
२२ श्रीरामका लक्ष्मणको समझाते हुए अपने वनवासमें दैवको ही कारण बताना और अभिषेककी सामग्रीको हटा लेनेका आदेश देना
२३ लक्ष्मणकी ओजभरी बातें, उनके द्वारा दैवका खण्डन और पुरुषार्थका प्रतिपादन तथा उनका श्रीरामके अभिषेकके निमित्त विरोधियोंसे लोहा लेनेके लिये उद्यत होना
२४ विलाप करती हुर्इ कौसल्याका श्रीरामसे अपनेको भी साथ ले चलनेके लिये आग्रह करना तथा पतिकी सेवा ही नारीका धर्म है, यह बताकर श्रीरामका उन्हें रोकना और वन जानेके लिये उनकी अनुमति प्राप्त करना
२५ कौसल्याका श्रीरामकी वनयात्राके लिये मङ्गलकामनापूर्वक स्वस्तिवाचन करना और श्रीरामका उन्हें प्रणाम करके सीताके भवनकी ओर जाना
२६ श्रीरामको उदास देखकर सीताका उनसे इसका कारण पूछना और श्रीरामका पिताकी आज्ञासे वनमें जानेका निश्चय बताते हुए सीताको घरमें रहनेके लिये समझाना
२७ सीताकी श्रीरामसे अपनेको भी साथ ले चलनेके लिये प्रार्थना
२८ श्रीरामका वनवासके कष्टका वर्णन करते हुए सीताको वहाँ चलनेसे मना करना
२९ सीताका श्रीरामके समक्ष उनके साथ अपने वनगमनका औचित्य बताना
३० सीताका वनमें चलनेके लिये अधिक आग्रह, विलाप और घबराहट देखकर श्रीरामका उन्हें साथ ले चलनेकी स्वीकृति देना, पिता-माता और गुरुजनोंकी सेवाका महत्त्व बताना तथा सीताको वनमें चलनेकी तैयारीके लिये घरकी वस्तुओंका दान करनेकी आज्ञा देना
३१ श्रीराम और लक्ष्मणका संवाद, श्रीरामकी आज्ञासे लक्ष्मणका सुहृदोंसे पूछकर और दिव्य आयुध लाकर वनगमनके लिये तैयार होना, श्रीरामका उनसे ब्राह्मणोंको धन बाँटनेका विचार व्यक्त करना
३२ सीतासहित श्रीरामका वसिष्ठपुत्र सुयज्ञको बुलाकर उनके तथा उनकी पन्तीके लिये बहुमूल्य आभूषण, रन्त और धन आदिका दान तथा लक्ष्मणसहित श्रीरामद्वारा ब्राह्मणों, ब्रह्मचारियों, सेवकों, त्रिजट ब्राह्मण और सुहृज्जनोंको धनका वितरण
३३ सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका दु:खी नगरवासियोंके मुखसे तरह-तरहकी बातें सुनते हुए पिताके दर्शनके लिये कैकेयीके महलमें जाना
३४ सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका रानियों-सहित राजा दशरथके पास जाकर वनवासके लिये विदा माँगना, राजाका शोक और मूर्च्छा, श्रीरामका उन्हें समझाना तथा राजाका श्रीरामको हृदयसे लगाकर पुन: मूर्च्छित हो जाना
३५ सुमन्त्रके समझाने और फटकारनेपर भी कैकेयीका टस-से-मस न होना
३६ राजा दशरथका श्रीरामके साथ सेना और खजाना भेजनेका आदेश, कैकेयीद्वारा इसका विरोध, सिद्धार्थका कैकेयीको समझाना तथा राजाका श्रीरामके साथ जानेकी इच्छा प्रकट करना
३७ श्रीराम आदिका वल्कल-वस्त्र-धारण, सीताके वल्कल-धारणसे रनिवासकी स्त्रियोंको खेद तथा गुरु वसिष्ठका कैकेयीको फटकारते हुए सीताके वल्कल-धारणका अनौचित्य बताना
३८ राजा दशरथका सीताको वल्कल धारण कराना अनुचित बताकर कैकेयीको फटकारना और श्रीरामका उनसे कौसल्यापर कृपादृष्टि रखनेके लिये अनुरोध करना
३९ राजा दशरथका विलाप, उनकी आज्ञासे सुमन्त्रका रामके लिये रथ जोतकर लाना, कोषाध्यक्षका सीताको बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण देना, कौसल्याका सीताको पतिसेवाका उपदेश, सीताके द्वारा उसकी स्वीकृति तथा श्रीरामका अपनी मातासे पिताके प्रति दोषदृष्टि न रखनेका अनुरोध करके अन्य माताओंसे भी विदा माँगना
४० सीता, राम और लक्ष्मणका दशरथकी परिक्रमा करके कौसल्या आदिको प्रणाम करना, सुमित्राका लक्ष्मणको उपदेश, सीता-सहित श्रीराम और लक्ष्मणका रथमें बैठकर वनकी ओर प्रस्थान, पुरवासियों तथा रानियोंसहित महाराज दशरथकी शोकाकुल अवस्था
४१ श्रीरामके वनगमनसे रनवासकी स्त्रियोंका विलाप तथा नगरनिवासियोंकी शोकाकुल अवस्था
४२ राजा दशरथका पृथ्वीपर गिरना, श्रीरामके लिये विलाप करना, कैकेयीको अपने पास आनेसे मना करना और उसे त्याग देना, कौसल्या और सेवकोंकी सहायतासे उनका कौसल्याके भवनमें आना और वहाँ भी श्रीरामके लिये दु:खका ही अनुभव करना
४३ महारानी कौसल्याका विलाप
४४ सुमित्राका कौसल्याको आश्वासन देना
४५ श्रीरामका पुरवासियोंसे भरत और महाराज दशरथके प्रति प्रेमभाव रखनेका अनुरोध करते हुए लौट जानेके लिये कहना, नगरके वृद्ध ब्राह्मणोंका श्रीरामसे लौट चलनेके लिये आग्रह करना तथा उन सबके साथ श्रीरामका तमसातटपर पहुँचना
४६ सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका रात्रिमें तमसातटपर निवास, माता-पिता और अयोध्याके लिये चिन्ता तथा पुरवासियोंको सोते छोड़कर वनकी ओर जाना
४७ प्रात:काल उठनेपर पुरवासियोंका विलाप करना और निराश होकर नगरको लौटना
४८ नगरनिवासिनी स्त्रियोंका विलाप करना
४९ ग्रामवासियोंकी बातें सुनते हुए श्रीरामका कोसल जनपदको लाँघते हुए आगे जाना और वेदश्रुति, गोमती एवं स्यन्दिका नदियोंको पार करके सुमन्त्रसे कुछ कहना
५० श्रीरामका मार्गमें अयोध्यापुरीसे वनवासकी आज्ञा माँगना और श्रृङ्गवेरपुरमें गङ्गातटपर पहुँचकर रात्रिमें निवास करना, वहाँ निषादराज गुहद्वारा उनका सत्कार
५१ निषादराज गुहके समक्ष लक्ष्मणका विलाप
५२ श्रीरामकी आज्ञासे गुहका नाव मँगाना,श्रीरामका सुमन्त्रको समझा-बुझाकर अयोध्यापुरीको लौट जानेके लिये आज्ञा देना और माता-पता आदिसे कहनेके लिये संदेश सुनाना, सुमन्त्रके वनमें ही चलनेके लिये आग्रह करनेपर श्रीरामका उन्हें युक्तिपूर्वक समझाकर लौटनेके लिये विवश करना, फिर तीनोंका नावपर बैठना, सीताकी गङ्गाजीसे प्रार्थना, नावसे पार उतरकर श्रीराम आदिका वत्सदेशमें पहुँचना और सायंकालमें एक वृक्षके नीचे रहनेके लिये जाना
५३ श्रीरामका राजाको उपालम्भ देते हुए कैकेयीसे कौसल्या आदिके अनिष्टकी आशङ्का बताकर लक्ष्मणको अयोध्या लौटानेके लिये प्रयत्न करना, लक्ष्मणका श्रीरामके बिना अपना जीवन असम्भव बताकर वहाँ जानेसे इनकार करना, फिर श्रीरामका उन्हें वनवासकी अनुमति देना
५४ लक्ष्मण और सीतासहित श्रीरामका प्रयागमें गङ्गा-यमुना-संगमके समीप भरद्वाज-आश्रममें जाना, मुनिके द्वारा उनका अतिथि-सत्कार, उन्हें चित्रकूट पर्वतपर ठहरनेका आदेश तथा चित्रकूटकी महत्ता एवं शोभाका वर्णन
५५ भरद्वाजजीका श्रीराम आदिके लिये स्वस्तिवाचन करके उन्हें चित्रकूटका मार्ग बताना, उन सबका अपने ही बनाये हुए बेड़ेसे यमुनाजीको पार करना, सीताकी यमुना और श्यामवटसे प्रार्थना; तीनोंका यमुनाके किनारेके मार्गसे एक कोसतक जाकर वनमें घूमना-फिरना, यमुनाजीके समतल तटपर रात्रिमें निवास करना
५६ वनकी शोभा देखते-दिखाते हुए श्रीराम आदिका चित्रकूटमें पहुँचना, वाल्मीकिजीका दर्शन करके श्रीरामकी आज्ञासे लक्ष्मणद्वारा पर्णशालाका निर्माण तथा उसकी वास्तुशान्ति करके उन सबका कुटीमें प्रवेश
५७ सुमन्त्रका अयोध्याको लौटना, उनके मुखसे श्रीरामका संदेश सुनकर पुरवासियोंका विलाप, राजा दशरथ और कौसल्याकी मूर्च्छा तथा अन्त:पुरकी रानियोंका आर्तनाद
५८ महाराज दशरथकी आज्ञासे सुमन्त्रका श्रीराम और लक्ष्मणके संदेश सुनाना
५९ सुमन्त्रद्वारा श्रीरामके शोकसे जड-चेतन एवं अयोध्यापुरीकी दुरवस्थाका वर्णन तथा राजा दशरथका विलाप
६० कौसल्याका विलाप और सारथि सुमन्त्रका उन्हें समझाना
६१ कौसल्याका विलापपूर्वक राजा दशरथको उपालम्भ देना
६२ दु:खी हुए राजा दशरथका कौसल्याको हाथ जोड़कर मनाना और कौसल्याका उनके चरणोंमें पड़कर क्षमा माँगना
६३ राजा दशरथका शोक और उनका कौसल्यासे अपने द्वारा मुनिकुमारके मारे जानेका प्रसङ्ग सुनाना
६४ राजा दशरथका अपने द्वारा मुनिकुमारके वधसे दु:खी हुए उनके माता-पिताके विलाप और उनके दिये हुए शापका प्रसंग सुनाकर कौसल्याके समीप रोते-बिलखते हुए आधी रातके समय अपने प्राणोंको त्याग देना
६५ वन्दीजनोंका स्तुतिपाठ, राजा दशरथको दिवंगत हुआ जान उनकी रानियोंका करुण विलाप
६६ राजाके लिये कौसल्याका विलाप और कैकेयीकी भर्त्सना, मन्त्रियोंका राजाके शवको तेलसे भरे हुए कड़ाहमें सुलाना, रानियोंका विलाप, पुरीकी श्रीहीनता और पुरवासियोंका शोक
६७ मार्कण्डेय आदि मुनियों तथा मन्त्रियोंका राजाके बिना होनेवाली देशकी दुरवस्थाका वर्णन करके वसिष्ठजीसे किसीको राजा बनानेके लिये अनुरोध
६८ वसिष्ठजीकी आज्ञासे पाँच दूतोंका अयोध्यासे केकयदेशके राजगृह नगरमें जाना
६९ भरतकी चिन्ता, मित्रोंद्वारा उन्हें प्रसन्न करनेका प्रयास तथा उनके पूछनेपर भरतका मित्रोंके समक्ष अपने देखे हुए भयंकर दु:स्वप्नका वर्णन करना
७० दूतोंका भरतको उनके नाना और मामाके लिये उपहारकी वस्तुएँ अर्पित करना और वसिष्ठजीका संदेश सुनाना, भरतका पिता आदिकी कुशल पूछना और नानासे आज्ञा तथा उपहारकी वस्तुएँ पाकर शत्रुघ्नके साथ अयोध्याकी ओर प्रस्थान करना
७१ रथ और सेनासहित भरतकी यात्रा, विभिन्न स्थानोंको पार करके उनका उज्जिहाना नगरीके उद्यानमें पहुँचना और सेनाको धीरे-धीरे आनेकी आज्ञा दे स्वयं रथद्वारा तीव्र वेगसे आगे बढ़ते हुए सालवनको पार करके अयोध्याके निकट जाना, वहाँसे अयोध्याकी दुरवस्था देखते हुए आगे बढ़ना और सारथिसे अपना दु:खपूर्ण उद्गार प्रकट करते हुए राजभवनमें प्रवेश करना
७२ भरतका कैकेयीके भवनमें जाकर उसे प्रणाम करना, उसके द्वारा पिताके परलोकवासका समाचार पा दु:खी हो विलाप करना तथा श्रीरामके विषयमें पूछनेपर कैकेयीद्वारा उनका श्रीरामके वनगमनके वृत्तान्तसे अवगत होना
७३ भरतका कैकेयीको धिक्कारना और उसके प्रति महान् रोष प्रकट करना
७४ भरतका कैकेयीको कड़ी फटकार देना
७५ कौसल्याके सामने भरतका शपथ खाना
७६ राजा दशरथका अन्त्येष्टिसंस्कार
७७ भरतका पिताके श्राद्धमें ब्राह्मणोंको बहुत धन-रन्त आदिका दान देना, तेरहवें दिन अस्थि-संचयका शेष कार्य पूर्ण करनेके लिये पिताकी चिताभूमिपर जाकर भरत और शत्रुघ्नका विलाप करना और वसिष्ठ तथा सुमन्त्रका उन्हें समझाना
७८ शत्रुघ्नका रोष, उनका कुब्जाको घसीटना और भरतजीके कहनेसे उसे मूर्च्छित अवस्थामें छोड़ देना
७९ मन्त्री आदिका भरतसे राज्य ग्रहण करनेके लिये प्रस्ताव तथा भरतका अभिषेक-सामग्रीकी परिक्रमा करके श्रीरामको ही राज्यका अधिकारी बताकर उन्हें लौटा लानेके लिये चलनेके निमित्त व्यवस्था करनेकी सबको आज्ञा देना
८० अयोध्यासे गङ्गातटतक सुरम्य शिविर और कूप आदिसे युक्त सुखद राजमार्गका निर्माण
८१ प्रात:कालके मङ्गलवाद्य-घोषको सुनकर भरतका दु:खी होना और उसे बंद कराकर विलाप करना, वसिष्ठजीका सभामें आकर मन्त्री आदिको बुलानेके लिये दूत भेजना
८२ वसिष्ठजीका भरतको राज्यपर अभिषिक्त होनेके लिये आदेश देना तथा भरतका उसे अनुचित बताकर अस्वीकार करना और श्रीरामको लौटा लानेके लिये वनमें चलनेकी तैयारीके निमित्त सबको आदेश देना
८३ भरतकी वनयात्रा और श्रृङ्गवेरपुरमें रात्रिवास
८४ निषादराज गुहका अपने बन्धुओंको नदीकी रक्षा करते हुए युद्धके लिये तैयार रहनेका आदेश दे भेंटकी सामग्री ले भरतके पास जाना और उनसे आतिथ्य स्वीकार करनेके लिये अनुरोध करना
८५ गुह और भरतकी बातचीत तथा भरतका शोक
८६ निषादराज गुहके द्वारा लक्ष्मणके सद्भाव और विलापका वर्णन
८७ भरतकी मूर्च्छासे गुह, शत्रुघ्न और माताओंका दु:खी होना, होशमें आनेपर भरतका गुहसे श्रीराम आदिके भोजन और शयन आदिके विषयमें पूछना और गुहका उन्हें सब बातें बताना
८८ श्रीरामकी कुश-शय्या देखकर भरतका शोकपूर्ण उद्गार तथा स्वयं भी वल्कल और जटाधारण करके वनमें रहनेका विचार प्रकट करना
८९ भरतका सेनासहित गङ्गापार करके भरद्वाजके आश्रमपर जाना
९० भरत और भरद्वाज मुनिकी भेंट एवं बातचीत तथा मुनिका अपने आश्रमपर ही ठहरनेका आदेश देना
९१ भरद्वाज मुनिके द्वारा सेनासहित भरतका दिव्य सत्कार
९२ भरतका भरद्वाज मुनिसे जानेकी आज्ञा लेते हुए श्रीरामके आश्रमपर जानेका मार्ग जानना और मुनिको अपनी माताओंका परिचय देकर वहाँसे चित्रकूटके लिये सेनासहित प्रस्थान करना
९३ सेनासहित भरतकी चित्रकूट-यात्राका वर्णन
९४ श्रीरामका सीताको चित्रकूटकी शोभा दिखाना
९५ श्रीरामका सीताके प्रति मन्दाकिनी नदीकी शोभाका वर्णन
९६ वन-जन्तुओंके भागनेका कारण जाननेके लिये श्रीरामकी आज्ञासे लक्ष्मणका शाल-वृक्षपर चढ़कर भरतकी सेनाको देखना और उनके प्रति अपना रोषपूर्ण उद्गार प्रकट करना
९७ श्रीरामका लक्ष्मणके रोषको शान्त करके भरतके सद्भावका वर्णन करना, लक्ष्मणका लज्जित हो श्रीरामके पास खड़ा होना और भरतकी सेनाका पर्वतके नीचे छावनी डालना
९८ भरतके द्वारा श्रीरामके आश्रमकी खोजका प्रबन्ध तथा उन्हें आश्रमका दर्शन
९९ भरतका शत्रुघ्न आदिके साथ श्रीरामके आश्रमपर जाना, उनकी पर्णशालाको देखना तथा रोते-रोते उनके चरणोंमें गिर जाना, श्रीरामका उन सबको हृदयसे लगाना और मिलना
१०० श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्नके बहाने राजनीतिका उपदेश करना
१०१ श्रीरामका भरतसे वनमें आगमनका प्रयोजन पूछना, भरतका उनसे राज्य ग्रहण करनेके लिये कहना और श्रीरामका उसे अस्वीकार कर देना
१०२ भरतका पुन: श्रीरामसे राज्य ग्रहण करनेका अनुरोध करके उनसे पिताकी मृत्युका समाचार बताना
१०३ श्रीराम आदिका विलाप, पिताके लिये जलाञ्जलि-दान, पिण्डदान और रोदन
१०४ वसिष्ठजीके साथ आती हुर्इ कौसल्याका मन्दाकिनीके तटपर सुमित्रा आदिके समक्ष दु:खपूर्ण उद्गार, श्रीराम, लक्ष्मण और सीताके द्वारा माताओंकी चरण-वन्दना तथा वसिष्ठजीको प्रणाम करके श्रीराम आदिका सबके साथ बैठना
१०५ भरतका श्रीरामको अयोध्यामें चलकर राज्य ग्रहण करनेके लिये कहना, श्रीरामका जीवनकी अनित्यता बताते हुए पिताकी मृत्युके लिये शोक न करनेका भरतको उपदेश देना और पिताकी आज्ञाका पालन करनेके लिये ही राज्य ग्रहण न करके वनमें रहनेका ही दृढ़ निश्चय बताना
१०६ भरतकी पुन: श्रीरामसे अयोध्या लौटने और राज्य ग्रहण करनेकी प्रार्थना
१०७ श्रीरामका भरतको समझाकर उन्हें अयोध्या जानेका आदेश देना
१०८ जाबालिका नास्तिकोंके मतका अवलम्बन करके श्रीरामको समझाना
१०९ श्रीरामके द्वारा जाबालिके नास्तिक मतका खण्डन करके आस्तिक मतका स्थापन
११० वसिष्ठजीका सृष्टि-परम्पराके साथ इक्ष्वाकुकुल-की परम्परा बताकर ज्येष्ठके ही राज्याभिषेकका औचित्य सिद्ध करना और श्रीरामसे राज्य ग्रहण करनेके लिये कहना
१११ वसिष्ठजीके समझानेपर भी श्रीरामको पिताकी आज्ञाके पालनसे विरत होते न देख भरतका धरना देनेको तैयार होना तथा श्रीरामका उन्हें समझाकर अयोध्या लौटनेकी आज्ञा देना
११२ ऋषियोंका भरतको श्रीरामकी आज्ञाके अनुसार लौट जानेकी सलाह देना, भरतका पुन: श्रीरामके चरणोंमें गिरकर चलनेकी प्रार्थना करना, श्रीरामका उन्हें समझाकर अपनी चरणपादुका देकर उन सबको विदा करना
११३ भरतका भरद्वाजसे मिलते हुए अयोध्याको लौट आना
११४ भरतके द्वारा अयोध्याकी दुरवस्थाका दर्शन तथा अन्त:पुरमें प्रवेश करके भरतका दु:खी होना
११५ भरतका नन्दिग्राममें जाकर श्रीरामकी चरण-पादुकाओंको राज्यपर अभिषिक्त करके उन्हें निवेदनपूर्वक राज्यका सब कार्य करना
११६ वृद्ध कुलपतिसहित बहुत-से ऋषियोंका चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रममें जाना
११७ श्रीराम आदिका अत्रिमुनिके आश्रमपर जाकर उनके द्वारा सत्कृत होना तथा अनसूयाद्वारा सीताका सत्कार
११८ सीता-अनसूया-संवाद, अनसूयाका सीताको प्रेमोपहार देना तथा अनसूयाके पूछनेपर सीताका उन्हें अपने स्वयंवरकी कथा सुनाना
११९ अनसूयाकी आज्ञासे सीताका उनके दिये हुए वस्त्राभूषणोंको धारण करके श्रीरामजीके पास आना तथा श्रीराम आदिका रात्रिमें आश्रमपर रहकर प्रात:काल अन्यत्र जानेके लिये ऋषियोंसे विदा लेना
३. अरण्यकाण्ड
१ श्रीराम, लक्ष्मण और सीताका तापसोंके आश्रममण्डलमें सत्कार
२ वनके भीतर श्रीराम, लक्ष्मण और सीतापर विराधका आक्रमण
३ विराध और श्रीरामकी बातचीत, श्रीराम और लक्ष्मणके द्वारा विराधपर प्रहार तथा विराधका इन दोनों भाइयोंको साथ लेकर दूसरे वनमें जाना
४ श्रीराम और लक्ष्मणके द्वारा विराधका वध
५ श्रीराम, लक्ष्मण और सीताका शरभङ्ग मुनिके आश्रमपर जाना, देवताओंका दर्शन करना और मुनिसे सम्मानित होना तथा शरभङ्ग मुनिका ब्रह्मलोक-गमन
६ वानप्रस्थ मुनियोंका राक्षसोंके अत्याचारसे अपनी रक्षाके लिये श्रीरामचन्द्रजीसे प्रार्थना करना और श्रीरामका उन्हें आश्वासन देना
७ सीता और भ्रातासहित श्रीरामका सुतीक्ष्णके आश्रमपर जाकर उनसे बातचीत करना तथा उनसे सत्कृत हो रातमें वहीं ठहरना
८ प्रात:काल सुतीक्ष्णसे विदा ले श्रीराम, लक्ष्मण, सीताका वहाँसे प्रस्थान
९ सीताका श्रीरामसे निरपराध प्राणियोंको न मारने और अहिंसा-धर्मका पालन करनेके लिये अनुरोध
१० श्रीरामका ऋषियोंकी रक्षाके लिये राक्षसोंके वधके निमित्त की हुर्इ प्रतिज्ञाके पालनपर दृढ़ रहनेका विचार प्रकट करना
११ पञ्चाप्सर तीर्थ एवं माण्डकर्णि मुनिकी कथा, विभिन्न आश्रमोंमें घूमकर श्रीराम आदिका सुतीक्ष्णके आश्रममें आना, वहाँ कुछ कालतक रहकर उनकी आज्ञासे अगस्त्यके भार्इ तथा अगस्त्यके आश्रमपर जाना तथा अगस्त्यके प्रभावका वर्णन
१२ श्रीराम आदिका अगस्त्यके आश्रममें प्रवेश, अतिथि-सत्कार तथा मुनिकी ओरसे उन्हें दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंकी प्राप्ति
१३ महर्षि अगस्त्यका श्रीरामके प्रति अपनी प्रसन्नता प्रकट करके सीताकी प्रशंसा करना, श्रीरामके पूछनेपर उन्हें पञ्चवटीमें आश्रम बनाकर रहनेका आदेश देना तथा श्रीराम आदिका प्रस्थान
१४ पञ्चवटीके मार्गमें जटायुका मिलना और श्रीरामको अपना विस्तृत परिचय देना.
१५ पञ्चवटीके रमणीय प्रदेशमें श्रीरामकी आज्ञासे लक्ष्मणद्वारा सुन्दर पर्णशालाका निर्माण तथा उसमें सीता और लक्ष्मणसहित श्रीरामका निवास
१६ लक्ष्मणके द्वारा हेमन्त ऋतुका वर्णन और भरतकी प्रशंसा तथा श्रीरामका उन दोनोंके साथ गोदावरी नदीमें स्नान
१७ श्रीरामके आश्रममें शूर्पणखाका आना, उनका परिचय जानना और अपना परिचय देकर उनसे अपनेको भार्याके रूपमें ग्रहण करनेके लिये अनुरोध करना
१८ श्रीरामके टाल देनेपर शूर्पणखाका लक्ष्मणसे प्रणययाचना करना, फिर उनके भी टालनेपर उसका सीतापर आक्रमण और लक्ष्मणका उसके नाक-कान काट लेना
१९ शूर्पणखाके मुखसे उसकी दुर्दशाका वृत्तान्त सुनकर क्रोधमें भरे हुए खरका श्रीराम आदिके वधके लिये चौदह राक्षसोंको भेजना
२० श्रीरामद्वारा खरके भेजे हुए चौदह राक्षसोंका वध
२१ शूर्पणखाका खरके पास आकर उन राक्षसोंके वधका समाचार बताना और रामका भय दिखाकर उसे युद्धके लिये उत्तेजित करना
२२ चौदह हजार राक्षसोंकी सेनाके साथ खर-दूषणका जनस्थानसे पञ्चवटीकी ओर प्रस्थान ४०९
२३ भयंकर उत्पातोंको देखकर भी खरका उनकी परवा नहीं करना तथा राक्षस-सेनाका श्रीरामके आश्रमके समीप पहुँचना
२४ श्रीरामका तात्कालिक शकुनोंद्वारा राक्षसोंके विनाश और अपनी विजयकी सम्भावना करके सीतासहित लक्ष्मणको पर्वतकी गुफामें भेजना और युद्धके लिये उद्यत होना
२५ राक्षसोंका श्रीरामपर आक्रमण और श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा राक्षसोंका संहार
२६ श्रीरामके द्वारा दूषणसहित चौदह सहस्र राक्षसोंका वध
२७ त्रिशिराका वध
२८ खरके साथ श्रीरामका घोर युद्ध
२९ श्रीरामका खरको फटकारना तथा खरका भी उन्हें कठोर उत्तर देकर उनके ऊपर गदाका प्रहार करना और श्रीरामद्वारा उस गदाका खण्डन
३० श्रीरामके व्यङ्ग करनेपर खरका उन्हें फटकारकर उनके ऊपर सालवृक्षका प्रहार करना, श्रीरामका उस वृक्षको काटकर एक तेजस्वी बाणसे खरको मार गिराना तथा देवताओं और महर्षियोंद्वारा श्रीरामकी प्रशंसा
३१ रावणका अकम्पनकी सलाहसे सीताका अपहरण करनेके लिये जाना और मारीचके कहनेसे लङ्काको लौट आना
३२ शूर्पणखाका लङ्कामें रावणके पास जाना
३३ शूर्पणखाका रावणको फटकारना
३४ रावणके पूछनेपर शूर्पणखाका उससे राम, लक्ष्मण और सीताका परिचय देते हुए सीताको भार्या बनानेके लिये उसे प्रेरित करना
३५ रावणका समुद्रतटवर्ती प्रान्तकी शोभा देखते हुए पुन: मारीचके पास जाना
३६ रावणका मारीचसे श्रीरामके अपराध बताकर उनकी पत्नी सीताके अपहरणमें सहायताके लिये कहना
३७ मारीचका रावणको श्रीरामचन्द्रजीके गुण और प्रभाव बताकर सीताहरणके उद्योगसे रोकना
३८ श्रीरामकी शक्तिके विषयमें अपना अनुभव बताकर मारीचका रावणको उनका अपराध करनेसे मना करना
३९ मारीचका रावणको समझाना
४० रावणका मारीचको फटकारना और सीताहरणके कार्यमें सहायता करनेकी आज्ञा देना
४१ मारीचका रावणको विनाशका भय दिखाकर पुन: समझाना
४२ मारीचका सुवर्णमय मृगरूप धारण करके श्रीरामके आश्रमपर जाना और सीताका उसे देखना
४३ कपटमृगको देखकर लक्ष्मणका संदेह, सीताका उस मृगको जीवित या मृत अवस्थामें भी ले आनेके लिये श्रीरामको प्रेरित करना तथा श्रीरामका लक्ष्मणको समझा-बुझाकर सीताकी रक्षाका भार सौंपकर उस मृगको मारनेके लिये जाना
४४ श्रीरामके द्वारा मारीचका वध और उसके द्वारा सीता और लक्ष्मणके पुकारनेका शब्द सुनकर श्रीरामकी चिन्ता
४५ सीताके मार्मिक वचनोंसे प्रेरित होकर लक्ष्मणका श्रीरामके पास जाना
४६ रावणका साधुवेषमें सीताके पास जाकर उनका परिचय पूछना और सीताका आतिथ्यके लिये उसे आमन्त्रित करना
४७ सीताका रावणको अपना और पतिका परिचय देकर वनमें आनेका कारण बताना, रावणका उन्हें अपनी पटरानी बनानेकी इच्छा प्रकट करना और सीताका उसे फटकारना
४८ रावणके द्वारा अपने पराक्रमका वर्णन और सीताद्वारा उसको कड़ी फटकार
४९ रावणद्वारा सीताका अपहरण, सीताका विलाप और उनके द्वारा जटायुका दर्शन
५० जटायुका रावणको सीताहरणके दुष्कर्मसे निवृत्त होनेके लिये समझाना और अन्तमें युद्धके लिये ललकारना
५१ जटायु तथा रावणका घोर युद्ध और रावणके द्वारा जटायुका वध
५२ रावणद्वारा सीताका अपहरण
५३ सीताका रावणको धिक्कारना
५४ सीताका पाँच वानरोंके बीच अपने भूषण और वस्त्रको गिराना, रावणका लङ्कामें पहुँचकर सीताको अन्त:पुरमें रखना तथा जनस्थानमें आठ राक्षसोंको गुप्तचरके रूपमें रहनेके लिये भेजना
५५ रावणका सीताको अपने अन्त:पुरका दर्शन कराना और अपनी भार्या बन जानेके लिये समझाना
५६ सीताका श्रीरामके प्रति अपना अनन्य अनुराग दिखाकर रावणको फटकारना तथा रावणकी आज्ञासे राक्षसियोंका उन्हें अशोकवाटिकामें ले जाकर डराना
(प्रक्षिप्त सर्ग)—ब्रह्माजीकी आज्ञासे देवराज इन्द्रका निद्रासहित लङ्कामें जाकर सीताको दिव्य खीर अर्पित करना और उनसे विदा लेकर लौटना
५७ श्रीरामका लौटना, मार्गमें अपशकुन देखकर चिन्तित होना तथा लक्ष्मणसे मिलनेपर उन्हें उलाहना दे सीतापर संकट आनेकी आशङ्का करना
५८ मार्गमें अनेक प्रकारकी आशङ्का करते हुए लक्ष्मणसहित श्रीरामका आश्रममें आना और वहाँ सीताको न पाकर व्यथित होना
५९ श्रीराम और लक्ष्मणकी बातचीत
६० श्रीरामका विलाप करते हुए वृक्षों और पशुओंसे सीताका पता पूछना, भ्रान्त होकर रोना और बारम्बार उनकी खोज करना
६१ श्रीराम और लक्ष्मणके द्वारा सीताकी खोज और उनके न मिलनेसे श्रीरामकी व्याकुलता
६२ श्रीरामका विलाप
६३ श्रीरामका विलाप
६४ श्रीराम और लक्ष्मणके द्वारा सीताकी खोज, श्रीरामका शोकोद्गार, मृगोंद्वारा संकेत पाकर दोनों भाइयोंका दक्षिण दिशाकी ओर जाना, पर्वतपर क्रोध, सीताके बिखरे हुए फूल, आभूषणोंके कण और युद्धके चिह्न देखकर श्रीरामका देवता आदि सहित समस्त त्रिलोकीपर रोष प्रकट करना
६५ लक्ष्मणका श्रीरामको समझा-बुझाकर शान्त करना
६६ लक्ष्मणका श्रीरामको समझाना
६७ श्रीराम और लक्ष्मणकी पक्षिराज जटायुसे भेंट तथा श्रीरामका उन्हें गलेसे लगाकर रोना
६८ जटायुका प्राण-त्याग और श्रीरामद्वारा उनका दाह-संस्कार
६९ लक्ष्मणका अयोमुखीको दण्ड देना तथा श्रीराम और लक्ष्मणका कबन्धके बाहुबन्धमें पड़कर चिन्तित होना
७० श्रीराम और लक्ष्मणका परस्पर विचार करके कबन्धकी दोनों भुजाओंको काट डालना तथा कबन्धके द्वारा उनका स्वागत
७१ कबन्धकी आत्मकथा, अपने शरीरका दाह हो जानेपर उसका श्रीरामको सीताके अन्वेषणमें सहायता देनेका आश्वासन
७२ श्रीराम और लक्ष्मणके द्वारा चिताकी आगमें कबन्धका दाह तथा उसका दिव्य रूपमें प्रकट होकर उन्हें सुग्रीवसे मित्रता करनेके लिये कहना
७३ दिव्य रूपधारी कबन्धका श्रीराम और लक्ष्मणको ऋष्यमूक और पम्पासरोवरका मार्ग बताना तथा मतङ्गमुनिके वन एवं आश्रमका परिचय देकर प्रस्थान करना
७४ श्रीराम और लक्ष्मणका पम्पासरोवरके तटपर मतङ्गवनमें शबरीके आश्रमपर जाना, उसका सत्कार ग्रहण करना और उसके साथ मतङ्गवनको देखना, शबरीका अपने शरीरकी आहुति दे दिव्यधामको प्रस्थान करना.
७५ श्रीराम और लक्ष्मणकी बातचीत तथा उन दोनों भाइयोंका पम्पासरोवरके तटपर जाना
४. किष्किन्धाकाण्ड
१ पम्पासरोवरके दर्शनसे श्रीरामकी व्याकुलता, श्रीरामका लक्ष्मणसे पम्पाकी शोभा तथा वहाँकी उद्दीपनसामग्रीका वर्णन करना, लक्ष्मणका श्रीरामको समझाना तथा दोनों भाइयोंको ऋष्यमूककी ओर आते देख सुग्रीव तथा अन्य वानरोंका भयभीत होना
२ सुग्रीव तथा वानरोंकी आशङ्का, हनुमान्जीद्वारा उसका निवारण तथा सुग्रीवका हनुमान्जीको श्रीराम-लक्ष्मणके पास उनका भेद लेनेके लिये भेजना
३ हनुमान्जीका श्रीराम और लक्ष्मणसे वनमें आनेका कारण पूछना और अपना तथा सुग्रीवका परिचय देना, श्रीरामका उनके वचनोंकी प्रशंसा करके लक्ष्मणको अपनी ओरसे बात करनेकी आज्ञा देना तथा लक्ष्मणद्वारा अपनी प्रार्थना स्वीकृत होनेसे हनुमान्जीका प्रसन्न होना
४ लक्ष्मणका हनुमान्जीसे श्रीरामके वनमें आने और सीताजीके हरे जानेका वृत्तान्त बताना तथा इस कार्यमें सुग्रीवके सहयोगकी इच्छा प्रकट करना, हनुमान्जीका उन्हें आश्वासन देकर उन दोनों भाइयोंको अपने साथ ले जाना
५ श्रीराम और सुग्रीवकी मैत्री तथा श्रीरामद्वारा वालिवधकी प्रतिज्ञा
६ सुग्रीवका श्रीरामको सीताजीके आभूषण दिखाना तथा श्रीरामका शोक एवं रोषपूर्ण वचन
७ सुग्रीवका श्रीरामको समझाना तथा श्रीरामका सुग्रीवको उनकी कार्यसिद्धिका विश्वास दिलाना
८ सुग्रीवका श्रीरामसे अपना दु:ख निवेदन करना और श्रीरामका उन्हें आश्वासन देते हुए दोनों भाइयोंमें वैर होनेका कारण पूछना
९ सुग्रीवका श्रीरामचन्द्रजीको वालीके साथ अपने वैर होनेका कारण बताना
१० भार्इके साथ वैरका कारण बतानेके प्रसङ्गमें सुग्रीवका वालीको मनाने और वालीद्वारा अपने निष्कासित होनेका वृत्तान्त सुनाना
११ सुग्रीवके द्वारा वालीके पराक्रमका वर्णन— वालीका दुन्दुभि दैत्यको मारकर उसकी लाशको मतङ्गवनमें फेंरुकना, मतङ्गमुनिका वालीको शाप देना, श्रीरामका दुन्दुभिके अस्थिसमूहको दूर फेंरुकना और सुग्रीवका उनसे साल-भेदनके लिये आग्रह करना
१२ श्रीरामके द्वारा सात साल-वृक्षोंका भेदन, श्रीरामकी आज्ञासे सुग्रीवका किष्किन्धामें आकर वालीको ललकारना और युद्धमें उससे पराजित होकर मतङ्गवनमें भाग जाना, वहाँ श्रीरामका उन्हें आश्वासन देना और गलेमें पहचानके लिये गजपुष्पीलता डालकर उन्हें पुन: युद्धके लिये भेजना
१३ श्रीराम आदिका मार्गमें वृक्षों, विविध जन्तुओं, जलाशयों तथा सप्तजन आश्रमका दूरसे दर्शन करते हुए पुन: किष्किन्धापुरीमें पहुँचना
१४ वाली-वधके लिये श्रीरामका आश्वासन पाकर सुग्रीवकी विकट गर्जना
१५ सुग्रीवकी गर्जना सुनकर वालीका युद्धके लिये निकलना और ताराका उसे रोककर सुग्रीव और श्रीरामके साथ मैत्री कर लेनेके लिये समझाना
१६ वालीका ताराको डाँटकर लौटाना और सुग्रीवसे जूझना तथा श्रीरामके बाणसे घायल होकर पृथ्वीपर गिरना
१७ वालीका श्रीरामचन्द्रजीको फटकारना
१८ श्रीरामका वालीकी बातका उत्तर देते हुए उसे दिये गये दण्डका औचित्य बताना, वालीका निरुत्तर होकर भगवान्से अपने अपराधके लिये क्षमा माँगते हुए अङ्गदकी रक्षाके लिये प्रार्थना करना और श्रीरामका उसे आश्वासन देना
१९ अङ्गदसहित ताराका भागे हुए वानरोंसे बात करके वालीके समीप आना और उसकी दुर्दशा देखकर रोना
२० ताराका विलाप
२१ हनुमान्जीका ताराको समझाना और ताराका पतिके अनुगमनका ही निश्चय करना
२२ वालीका सुग्रीव और अङ्गदसे अपने मनकी बात कहकर प्राणोंको त्याग देना
२३ ताराका विलाप
२४ सुग्रीवका शोकमग्नरु होकर श्रीरामसे प्राणत्यागके लिये आज्ञा माँगना, ताराका श्रीरामसे अपने वधके लिये प्रार्थना करना और श्रीरामका उसे समझाना
२५ लक्ष्मणसहित श्रीरामका सुग्रीव, तारा और अङ्गदको समझाना तथा वालीके दाह-संस्कारके लिये आज्ञा प्रदान करना, फिर तारा आदिसहित सब वानरोंका वालीके शवको श्मशानभूमिमें ले जाकर अङ्गदके द्वारा उसका दाह-संस्कार कराना और उसे जलाञ्जलि देना
२६ हनुमान्जीका सुग्रीवके अभिषेकके लिये श्रीरामचन्द्रजीसे किष्किन्धामें पधारनेकी प्रार्थना, श्रीरामका पुरीमें न जाकर केवल अनुमति देना तत्पश्चात् सुग्रीव और अङ्गदका अभिषेक
२७ प्रस्रवणगिरिपर श्रीराम और लक्ष्मणकी परस्पर बातचीत
२८ श्रीरामके द्वारा वर्षा-ऋतुका वर्णन.
२९ हनुमान्जीके समझानेसे सुग्रीवका नीलको वानर-सैनिकोंको एकत्र करनेका आदेश देना
३० शरद्-ऋतुका वर्णन तथा श्रीरामका लक्ष्मणको सुग्रीवके पास जानेका आदेश देना
३१ सुग्रीवपर लक्ष्मणका रोष, श्रीरामका उन्हें समझाना, लक्ष्मणका किष्किन्धाके द्वारपर जाकर अङ्गदको सुग्रीवके पास भेजना, वानरोंका भय तथा प्लक्ष और प्रभावका सुग्रीवको कर्तव्यका उपदेश देना
३२ हनुमान्जीका चिन्तित हुए सुग्रीवको समझाना
३३ लक्ष्मणका किष्किन्धापुरीकी शोभा देखते हुए सुग्रीवके महलमें प्रवेश करके क्रोधपूर्वक धनुषको टंकारना, भयभीत सुग्रीवका ताराको उन्हें शान्त करनेके लिये भेजना तथा ताराका समझा-बुझाकर उन्हें अन्त:पुरमें ले आना
३४ सुग्रीवका लक्ष्मणके पास जाना और लक्ष्मणका उन्हें फटकारना
३५ ताराका लक्ष्मणको युक्तियुक्त वचनोंद्वारा शान्त करना
३६ सुग्रीवका अपनी लघुता तथा श्रीरामकी महत्ता बताते हुए लक्ष्मणसे क्षमा माँगना और लक्ष्मणका उनकी प्रशंसा करके उन्हें अपने साथ चलनेके लिये कहना.
३७ सुग्रीवका हनुमान्जीको वानरसेनाके संग्रहके लिये दोबारा दूत भेजनेकी आज्ञा देना, उन दूतोंसे राजाकी आज्ञा सुनकर समस्त वानरोंका किष्किन्धाके लिये प्रस्थान और दूतोंका लौटकर सुग्रीवको भेंट देनेके साथ ही वानरोंके आगमनका समाचार सुनाना
३८ लक्ष्मणसहित सुग्रीवका भगवान् श्रीरामके पास आकर उनके चरणोंमें प्रणाम करना, श्रीरामका उन्हें समझाना, सुग्रीवका अपने किये हुए सैन्यसंग्रहविषयक उद्योगको बताना और उसे सुनकर श्रीरामका प्रसन्न होना
३९ श्रीरामचन्द्रजीका सुग्रीवके प्रति कृतज्ञता प्रकट करना तथा विभिन्न वानर-यूथपतियोंका अपनी सेनाओंके साथ आगमन
४० श्रीरामकी आज्ञासे सुग्रीवका सीताकी खोजके लिये पूर्व दिशामें वानरोंको भेजना और वहाँके स्थानोंका वर्णन करना
४१ सुग्रीवका दक्षिण दिशाके स्थानोंका परिचय देते हुए वहाँ प्रमुख वानर वीरोंको भेजना.
४२ सुग्रीवका पश्चिम दिशाके स्थानोंका परिचय देते हुए सुषेण आदि वानरोंको वहाँ भेजना
४३ सुग्रीवका उत्तर दिशाके स्थानोंका परिचय देते हुए शतबलि आदि वानरोंको वहाँ भेजना
४४ श्रीरामका हनुमान्जीको अँगूठी देकर भेजना
४५ विभिन्न दिशाओंमें जाते हुए वानरोंका सुग्रीवके समक्ष अपने उत्साहसूचक वचन सुनाना
४६ सुग्रीवका श्रीरामचन्द्रजीको अपने भूमण्डल-भ्रमणका वृत्तान्त बताना
४७ पूर्व आदि तीन दिशाओंमें गये हुए वानरोंका निराश होकर लौट आना
४८ दक्षिण दिशामें गये हुए वानरोंका सीताकी खोज आरम्भ करना
४९ अङ्गद और गन्धमादनके आश्वासन देनेपर वानरोंका पुन: उत्साहपूर्वक अन्वेषण-कार्यमें प्रवृत्त होना
५० भूखे-प्यासे वानरोंका एक गुफामें घुसकर वहाँ दिव्य वृक्ष, दिव्य सरोवर, दिव्य भवन तथा एक वृद्धा तपस्विनीको देखना और हनुमान्जीका उससे उसका परिचय पूछना
५१ हनुमान्जीके पूछनेपर वृद्धा तापसीका अपना तथा उस दिव्य स्थानका परिचय देकर सब वानरोंको भोजनके लिये कहना
५२ तापसी स्वयंप्रभाके पूछनेपर वानरोंका उसे अपना वृत्तान्त बताना और उसके प्रभावसे गुफाके बाहर निकलकर समुद्रतटपर पहुँचना
५३ लौटनेकी अवधि बीत जानेपर भी कार्य सिद्ध न होनेके कारण सुग्रीवके कठोर दण्डसे डरनेवाले अङ्गद आदि वानरोंका उपवास करके प्राण त्याग देनेका निश्चय
५४ हनुमान्जीका भेदनीतिके द्वारा वानरोंको अपने पक्षमें करके अङ्गदको अपने साथ चलनेके लिये समझाना
५५ अङ्गदसहित वानरोंका प्रायोपवेशन
५६ सम्पातिसे वानरोंको भय, उनके मुखसे जटायुके वधकी बात सुनकर सम्पातिका दु:खी होना और अपनेको नीचे उतारनेके लिये वानरोंसे अनुरोध करना
५७ अङ्गदका सम्पातिको पर्वत-शिखरसे नीचे उतारकर उन्हें जटायुके मारे जानेका वृत्तान्त बताना तथा राम-सुग्रीवकी मित्रता एवं वालिवधका प्रसङ्ग सुनाकर अपने आमरण उपवासका कारण निवेदन करना
५८ सम्पातिका अपने पंख जलनेकी कथा सुनाना, सीता और रावणका पता बताना तथा वानरोंकी सहायतासे समुद्रतटपर जाकर भार्इको जलाञ्जलि देना
५९ सम्पातिका अपने पुत्र सुपार्श्वके मुखसे सुनी हुर्इ सीता और रावणको देखनेकी घटनाका वृत्तान्त बताना
६० सम्पातिकी आत्मकथा
६१ सम्पातिका निशाकर मुनिको अपने पंखके जलनेका कारण बताना
६२ निशाकर मुनिका सम्पातिको सान्त्वना देते हुए उन्हें भावी श्रीरामचन्द्रजीके कार्यमें सहायता देनेके लिये जीवित रहनेका आदेश देना
६३ सम्पातिका पंखयुक्त होकर वानरोंको उत्साहित करके उड़ जाना और वानरोंका वहाँसे दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान करना
६४ समुद्रकी विशालता देखकर विषादमें पड़े हुए वानरोंको आश्वासन दे अङ्गदका उनसे पृथक्-पृथक् समुद्र-लङ्घनके लिये उनकी शक्ति पूछना
६५ बारी-बारीसे वानर-वीरोंके द्वारा अपनी-अपनी गमनशक्तिका वर्णन, जाम्बवान् और अंगदकी बातचीत तथा जाम्बवान्का हनुमान्जीको प्रेरित करनेके लिये उनके पास जाना
६६ जाम्बवान्का हनुमान्जीको उनकी उत्पत्तिकथा सुनाकर समुद्रलङ्घनके लिये उत्साहित करना
६७ हनुमान्जीका समुद्र लाँघनेके लिये उत्साह प्रकट करना, जाम्बवान्के द्वारा उनकी प्रशंसा तथा वेगपूर्वक छलाँग मारनेके लिये हनुमान्जीका महेन्द्र पर्वतपर चढ़ना
५. सुन्दरकाण्ड
१- हनुमान्जीके द्वारा समुद्रका लङ्घन, मैनाकके द्वारा उनका स्वागत, सुरसापर उनकी विजय तथा सिंहिकाका वध करके उनका समुद्रके उस पार पहुँचकर लङ्काकी शोभा देखना
२- लङ्कापुरीका वर्णन, उसमें प्रवेश करनेके विषयमें हनुमान्जीका विचार, उनका लघुरूपसे पुरीमें प्रवेश तथा चन्द्रोदयका वर्णन
३- लङ्कापुरीका अवलोकन करके हनुमान्जीका विस्मित होना, उसमें प्रवेश करते समय निशाचरी लङ्काका उन्हें रोकना और उनकी मारसे विह्वल होकर उन्हें पुरीमें प्रवेश करनेकी अनुमति देना
४- हनुमान्जीका लङ्कापुरी एवं रावणके अन्त:पुरमें प्रवेश
५- हनुमान्जीका रावणके अन्त:पुरमें घर-घरमें सीताको ढूँढ़ना और उन्हें न देखकर दु:खी होना
६- हनुमान्जीका रावण तथा अन्यान्य राक्षसोंके घरोंमें सीताजीकी खोज करना
७- रावणके भवन एवं पुष्पक विमानका वर्णन
८- हनुमान्जीके द्वारा पुन: पुष्पक विमानका दर्शन
९- हनुमान्जीका रावणके श्रेष्ठ भवन, पुष्पक विमान तथा रावणके रहनेकी सुन्दर हवेलीको देखकर उसके भीतर सोयी हुर्इ सहस्रों सुन्दरी स्त्रियोंका अवलोकन करना
१०- हनुमान्जीका अन्त:पुरमें सोये हुए रावण तथा गाढ़ निद्रामें पड़ी हुर्इ उसकी स्त्रियोंको देखना तथा मन्दोदरीको सीता समझकर प्रसन्न होना
११- वह सीता नहीं है—ऐसा निश्चय होनेपर हनुमान्जीका पुन: अन्त:पुरमें और उसकी पानभूमिमें सीताका पता लगाना, उनके मनमें धर्मलोपकी आशङ्का और स्वत: उसका निवारण होना
१२- सीताके मरणकी आशङ्कासे हनुमान्जीका शिथिल होना; फिर उत्साहका आश्रय लेकर अन्य स्थानोंमें उनकी खोज करना और कहीं भी पता न लगनेसे पुन: उनका चिन्तित होना
१३- सीताजीके नाशकी आशङ्कासे हनुमान्जीकी चिन्ता, श्रीरामको सीताके न मिलनेकी सूचना देनेसे अनर्थकी सम्भावना देख हनुमान्जीका न लौटनेका निश्चय करके पुन: खोजनेका विचार करना और अशोकवाटिकामें ढूँढ़नेके विषयमें तरहतर हकी बातें सोचना
१४- हनुमान्जीका अशोकवाटिकामें प्रवेश करके उसकी शोभा देखना तथा एक अशोक-वृक्षपर छिपे रहकर वहींसे सीताका अनुसन्धान करना
१५- वनकी शोभा देखते हुए हनुमान्जीका एक चैत्यप्रासाद (मन्दिर)-के पास सीताको दयनीय अवस्थामें देखना, पहचानना और प्रसन्न होना
१६- हनुमान्जीका मन-ही-मन सीताजीके शील और सौन्दर्यकी सराहना करते हुए उन्हें कष्टमें पड़ी देख स्वयं भी उनके लिये शोक करना
१७- भयंकर राक्षसियोंसे घिरी हुर्इ सीताके दर्शनसे हनुमान्जीका प्रसन्न होना
१८- अपनी स्त्रियोंसे घिरे हुए रावणका अशोक-वाटिकामें आगमन और हनुमान्जीका उसे देखना
१९- रावणको देखकर दु:ख, भय और चिन्तामें डूबी हुर्इ सीताकी अवस्थाका वर्णन
२०- रावणका सीताजीको प्रलोभन
२१- सीताजीका रावणको समझाना और उसे श्रीरामके सामने नगण्य बताना
२२- रावणका सीताको दो मासकी अवधि देना, सीताका उसे फटकारना, फिर रावणका उन्हें धमकाकर राक्षसियोंके नियन्त्रणमें रखकर स्त्रियोंसहित पुन: महलको लौट जाना
२३- राक्षसियोंका सीताजीको समझाना
२४- सीताजीका राक्षसियोंकी बात माननेसे इनकार कर देना तथा राक्षसियोंका उन्हें मारने-काटनेकी धमकी देना
२५- राक्षसियोंकी बात माननेसे इनकार करके शोक-संतप्त सीताका विलाप करना
२६- सीताका करुण-विलाप तथा अपने प्राणोंको त्याग देनेका निश्चय करना
२७- त्रिजटाका स्वप्न, राक्षसोंके विनाश और श्रीरघुनाथजीकी विजयकी शुभ सूचना.
२८- विलाप करती हुर्इ सीताका प्राण-त्यागके लिये उद्यत होना
२९- सीताजीके शुभ शकुन
३०- सीताजीसे वार्तालाप करनेके विषयमें हनुमान्जीका विचार करना
३१- हनुमान्जीका सीताको सुनानेके लिये श्रीराम-कथाका वर्णन करना
३२- सीताजीका तर्क-वितर्क
३३- सीताजीका हनुमान्जीको अपना परिचय देते हुए अपने वनगमन और अपहरणका वृत्तान्त बताना
३४- सीताजीका हनुमान्जीके प्रति संदेह और उसका समाधान तथा हनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंका गान
३५- सीताजीके पूछनेपर हनुमान्जीका श्रीरामके शारीरिक चिह्नों और गुणोंका वर्णन करना तथा नर-वानरकी मित्रताका प्रसङ्ग सुनाकर सीताजीके मनमें विश्वास उत्पन्न करना
३६- हनुमान्जीका सीताको मुद्रिका देना, सीताका ‘श्रीराम कब मेरा उद्धार करेंगे’ यह उत्सुक होकर पूछना तथा हनुमान्जीका श्रीरामके सीताविषयक प्रेमका वर्णन करके उन्हें सान्त्वना देना
३७- सीताका हनुमान्जीसे श्रीरामको शीघ्र बुलानेका आग्रह, हनुमान्जीका सीतासे अपने साथ चलनेका अनुरोध तथा सीताका अस्वीकार करना
३८- सीताजीका हनुमान्जीको पहचानके रूपमें चित्रकूट पर्वतपर घटित हुए एक कौएके प्रसङ्गको सुनाना, भगवान् श्रीरामको शीघ्र बुला लानेके लिये अनुरोध करना और चूड़ामणि देना
३९- चूड़ामणि लेकर जाते हुए हनुमान्जीसे सीताका श्रीराम आदिको उत्साहित करनेके लिये कहना तथा समुद्र-तरणके विषयमें शङ्कित हुर्इ सीताको वानरोंका पराक्रम बताकर हनुमान्जीका आश्वासन देना
४०- सीताका श्रीरामसे कहनेके लिये पुन: संदेश देना तथा हनुमान्जीका उन्हें आश्वासन दे उत्तर दिशाकी ओर जाना
४१- हनुमान्जीके द्वारा प्रमदावन (अशोक-वाटिका)-का विध्वंस
४२- राक्षसियोंके मुखसे एक वानरके द्वारा प्रमदावनके विध्वंसका समाचार सुनकर रावणका किंकर नामक राक्षसोंको भेजना और हनुमान्जीके द्वारा उन सबका संहार
४३- हनुमान्जीके द्वारा चैत्यप्रासादका विध्वंस तथा उसके रक्षकोंका वध
४४- प्रहस्त-पुत्र जम्बुमालीका वध
४५- मन्त्रीके सात पुत्रोंका वध
४६- रावणके पाँच सेनापतियोंका वध
४७- रावणपुत्र अक्षकुमारका पराक्रम और वध
४८- इन्द्रजित् और हनुमान्जीका युद्ध, उसके दिव्यास्त्रके बन्धनमें बँधकर हनुमान्जीका रावणके दरबारमें उपस्थित होना
४९- रावणके प्रभावशाली स्वरूपको देखकर हनुमान्जीके मनमें अनेक प्रकारके विचारोंका उठना
५०- रावणका प्रहस्तके द्वारा हनुमान्जीसे लङ्कामें आनेका कारण पुछवाना और हनुमान्का अपनेको श्रीरामका दूत बताना.
५१- हनुमान्जीका श्रीरामके प्रभावका वर्णन करते हुए रावणको समझाना
५२- विभीषणका दूतके वधको अनुचित बताकर उसे दूसरा कोर्इ दण्ड देनेके लिये कहना तथा रावणका उनके अनुरोधको स्वीकार कर लेना
५३- राक्षसोंका हनुमान्जीकी पूँछमें आग लगाकर उन्हें नगरमें घुमाना
५४- लङ्कापुरीका दहन और राक्षसोंका विलाप
५५- सीताजीके लिये हनुमान्जीकी चिन्ता और उसका निवारण
५६- हनुमान्जीका पुन: सीताजीसे मिलकर लौटना और समुद्रको लाँघना
५७- हनुमान्जीका समुद्रको लाँघकर जाम्बवान् और अङ्गद आदि सुहृदोंसे मिलना
५८- जाम्बवान्के पूछनेपर हनुमान्जीका अपनी लङ्कायात्राका सारा वृत्तान्त सुनाना
५९- हनुमान्जीका सीताकी दुरवस्था बताकर वानरोंको लङ्कापर आक्रमण करनेके लिये उत्तेजित करना
६०- अङ्गदका लङ्काको जीतकर सीताको ले आनेका उत्साहपूर्ण विचार और जाम्बवान्के द्वारा उसका निवारण
६१- वानरोंका मधुवनमें जाकर वहाँके मधु एवं फलोंका मनमाना उपभोग करना और वनरक्षकको घसीटना
६२- वानरोंद्वारा मधुवनके रक्षकों और दधिमुखका पराभव तथा सेवकोंसहित दधिमुखका सुग्रीवके पास जाना
६३- दधिमुखसे मधुवनके विध्वंसका समाचार सुनकर सुग्रीवका हनुमान् आदि वानरोंकी सफलताके विषयमें अनुमान
६४- दधिमुखसे सुग्रीवका संदेश सुनकर अङ्गद-हनुमान् आदि वानरोंका किष्किन्धामें पहुँचना और हनुमान्जीका श्रीरामको प्रणाम करके सीता देवीके दर्शनका समाचार बताना
६५- हनुमान्जीका श्रीरामको सीताका समाचार सुनाना
६६- चूड़ामणिको देखकर और सीताका समाचार पाकर श्रीरामका उनके लिये विलाप
६७- हनुमान्जीका भगवान् श्रीरामको सीताका संदेश सुनाना
६८- हनुमान्जीका सीताके संदेह और अपने द्वारा उनके निवारणका वृत्तान्त बताना
६. युद्धकाण्ड
१- हनुमान्जीकी प्रशंसा करके श्रीरामका उन्हें हृदयसे लगाना और समुद्रको पार करनेके लिये चिन्तित होना
२- सुग्रीवका श्रीरामको उत्साह प्रदान करना
३- हनुमान्जीका लङ्काके दुर्ग, फाटक, सेनाविभा ग और संक्रम आदिका वर्णन करके भगवान् श्रीरामसे सेनाको कूच करनेकी आज्ञा देनेके लिये प्रार्थना करना
४- श्रीराम आदिके साथ वानर-सेनाका प्रस्थान और समुद्र-तटपर उसका पड़ाव
५- श्रीरामका सीताके लिये शोक और विलाप
६- रावणका कर्तव्य-निर्णयके लिये अपने मन्त्रियोंसे समुचित सलाह देनेका अनुरोध करना
७- राक्षसोंका रावण और इन्द्रजित्के बल-पराक्रमका वर्णन करते हुए उसे रामपर विजय पानेका विश्वास दिलाना
८- प्रहस्त, दुर्मुख, वज्रदंष्ट्र, निकुम्भ और वज्रहनुका रावणके सामने शत्रु-सेनाको मार गिरानेका उत्साह दिखाना
९- विभीषणका रावणसे श्रीरामकी अजेयता बताकर सीताको लौटा देनेके लिये अनुरोध करना
१०- विभीषणका रावणके महलमें जाना, उसे अपशकुनोंका भय दिखाकर सीताको लौटा देनेके लिये प्रार्थना करना और रावणका उनकी बात न मानकर उन्हें वहाँसे विदा कर देना
११- रावण और उसके सभासदोंका सभाभवनमें एकत्र होना
१२-नगरकी रक्षाके लिये सैनिकोंकी नियुक्ति, रावणका सीताके प्रति अपनी आसक्ति बताकर उनके हरणका प्रसंग बताना और भावी कर्तव्यके लिये सभासदोंकी सम्मति माँगना, कुम्भकर्णका पहले तो उसे फटकारना, फिर समस्त शत्रुओंके वधका स्वयं ही भार उठाना
१३- महापार्श्वका रावणको सीतापर बलात्कारके लिये उकसाना और रावणका शापके कारण अपनेको ऐसा करनेमें असमर्थ बताना तथा अपने पराक्रमके गीत गाना
१४- विभीषणका रामको अजेय बताकर उनके पास सीताको लौटा देनेकी सम्मति देना
१५- इन्द्रजित्द्वारा विभीषणका उपहास तथा विभीषणका उसे फटकारकर सभामें अपनी उचित सम्मति देना
१६- रावणके द्वारा विभीषणका तिरस्कार और विभीषणका भी उसे फटकारकर चल देना
१७- विभीषणका श्रीरामकी शरणमें आना और श्रीरामका अपने मन्त्रियोंके साथ उन्हें आश्रय देनेके विषयमें विचार करना
१८- भगवान् श्रीरामका शरणागतकी रक्षाका महत्त्व एवं अपना व्रत बताकर विभीषणसे मिलना
१९- विभीषणका आकाशसे उतरकर भगवान् श्रीरामके चरणोंकी शरण लेना, उनके पूछनेपर रावणकी शक्तिका परिचय देना और श्रीरामका रावण-वधकी प्रतिज्ञा करके विभीषणको लङ्काके राज्यपर अभिषिक्त कर उनकी सम्मतिसे समुद्रतटपर धरना देनेके लिये बैठना
२०- शार्दूलके कहनेसे रावणका शुकको दूत बनाकर सुग्रीवके पास संदेश भेजना, वहाँ वानरोंद्वारा उसकी दुर्दशा, श्रीरामकी कृपासे उसका संकटसे छूटना और सुग्रीवका रावणके लिये उत्तर देना
२१- श्रीरामका समुद्रके तटपर कुशा बिछाकर तीन दिनोंतक धरना देनेपर भी समुद्रके दर्शन न देनेसे कुपित हो उसे बाण मारकर विक्षुब्ध कर देना
२२- समुद्रकी सलाहके अनुसार नलके द्वारा सागरपर सौ योजन लंबे पुलका निर्माण तथा उसके द्वारा श्रीराम आदिसहित वानरसेनाका उस पार पहुँचकर पड़ाव डालना
२३- श्रीरामका लक्ष्मणसे उत्पातसूचक लक्षणोंका वर्णन और लङ्कापर आक्रमण
२४- श्रीरामका लक्ष्मणसे लङ्काकी शोभाका वर्णन करके सेनाको व्यूहबद्ध खड़ी होनेके लिये आदेश देना, श्रीरामकी आज्ञासे बन्धनमुक्त हुए शुकका रावणके पास जाकर उनकी सैन्यशक्तिकी प्रबलता बताना तथा रावणका अपने बलकी डींग हाँकना
२५- रावणका शुक और सारणको गुप्तरूपसे वानरसेनामें भेजना, विभीषणद्वारा उनका पकड़ा जाना, श्रीरामकी कृपासे छुटकारा पाना तथा श्रीरामका संदेश लेकर लङ्कामें लौटकर उनका रावणको समझाना
२६- सारणका रावणको पृथक्-पृथक् वानरयूथ पतियोंका परिचय देना
२७- वानरसेनाके प्रधान यूथपतियोंका परिचय
२८- शुकके द्वारा सुग्रीवके मन्त्रियोंका, मैन्द और द्विविदका, हनुमान्का, श्रीराम, लक्ष्मण, विभीषण और सुग्रीवका परिचय देकर वानर-सेनाकी संख्याका निरूपण करना
२९- रावणका शुक और सारणको फटकारकर अपने दरबारसे निकाल देना, उसके भेजे हुए गुप्तचरोंका श्रीरामकी दयासे वानरोंके चंगुलसे छूटकर लङ्कामें आना
३०- रावणके भेजे हुए गुप्तचरों एवं शार्दूलका उससे वानर-सेनाका समाचार बताना और मुख्य-मुख्य वीरोंका परिचय देना
३१- मायारचित श्रीरामका कटा मस्तक दिखाकर रावणद्वारा सीताको मोहमें डालनेका प्रयत्न
३२- श्रीरामके मारे जानेका विश्वास करके सीताका विलाप तथा रावणका सभामें जाकर मन्त्रियोंके सलाहसे युद्धविषयक उद्योग करना
३३- सरमाका सीताको सान्त्वना देना, रावणकी मायाका भेद खोलना, श्रीरामके आगमनका प्रिय समाचार सुनाना और उनके विजयी होनेका विश्वास दिलाना
३४- सीताके अनुरोधसे सरमाका उन्हें मन्त्रियोंसहित रावणका निश्चित विचार बताना
३५- माल्यवान्का रावणको श्रीरामसे संधि करनेके लिये समझाना
३६- माल्यवान्पर आक्षेप और नगरकी रक्षाका प्रबन्ध करके रावणका अपने अन्त:पुरमें जाना
३७- विभीषणका श्रीरामसे रावणद्वारा किये गये लङ्काकी रक्षाके प्रबन्धका वर्णन तथा श्रीरामद्वारा लङ्काके विभिन्न द्वारोंपर आक्रमण करनेके लिये अपने सेनापतियोंकी नियुक्ति
३८- श्रीरामका प्रमुख वानरोंके साथ सुवेल पर्वतपर चढ़कर वहाँ रातमें निवास करना
३९- वानरोंसहित श्रीरामका सुवेल-शिखरसे लङ्कापुरीका निरीक्षण करना
४०- सुग्रीव और रावणका मल्लयुद्ध.
४१- श्रीरामका सुग्रीवको दु:साहससे रोकना, लङ्काके चारों द्वारोंपर वानरसैनिकोंकी नियुक्ति, रामदूत अङ्गदका रावणके महलमें पराक्रम तथा वानरोंके आक्रमणसे राक्षसोंको भय
४२- लङ्कापर वानरोंकी चढ़ार्इ तथा राक्षसोंके साथ उनका घोर युद्ध
४३- द्वन्द्वयुद्धमें वानरोंद्वारा राक्षसोंकी पराजय
४४- रातमें वानरों और राक्षसोंका घोर युद्ध, अङ्गदके द्वारा इन्द्रजित्की पराजय, मायासे अदृश्य हुए इन्द्रजित्का नागमय बाणोंद्वारा श्रीराम और लक्ष्मणको बाँधना
४५- इन्द्रजित्के बाणोंसे श्रीराम और लक्ष्मणका अचेत होना और वानरोंका शोक करना
४६- श्रीराम और लक्ष्मणको मूर्च्छित देख वानरोंका शोक, इन्द्रजित्का हर्षोद्गार, विभीषणका सुग्रीवको समझाना, इन्द्रजित्का लङ्कामें जाकर पिताको शत्रुवधका वृत्तान्त बताना और प्रसन्न हुए रावणके द्वारा अपने पुत्रका अभिनन्दन
४७- वानरोंद्वारा श्रीराम और लक्ष्मणकी रक्षा, रावणकी आज्ञासे राक्षसियोंका सीताको पुष्पकविमानद्वारा रणभूमिमें ले जाकर श्रीराम और लक्ष्मणका दर्शन कराना और सीताका दु:खी होकर रोना
४८- सीताका विलाप और त्रिजटाका उन्हें समझा-बुझाकर श्रीराम-लक्ष्मणके जीवित होनेका विश्वास दिलाकर पुन: लङ्कामें ही लौटा लाना
४९- श्रीरामका सचेत होकर लक्ष्मणके लिये विलाप करना और स्वयं प्राणत्यागका विचार करके वानरोंको लौट जानेकी आज्ञा देना
५०- विभीषणको इन्द्रजित् समझकर वानरोंका पलायन और सुग्रीवकी आज्ञासे जाम्बवान्का उन्हें सान्त्वना देना, विभीषणका विलाप और सुग्रीवका उन्हें समझाना, गरुड़का आना और श्रीराम-लक्ष्मणको नागपाशसे मुक्त करके चला जाना
५१- श्रीरामके बन्धनमुक्त होनेका पता पाकर चिन्तित हुए रावणका धूम्राक्षको युद्धके लिये भेजना और सेनासहित धूम्राक्षका नगरसे बाहर आना
५२- धूम्राक्षका युद्ध और हनुमान्जीके द्वारा उसका वध
५३- वज्रदंष्ट्रका सेनासहित युद्धके लिये प्रस्थान, वानरों और राक्षसोंका युद्ध, वज्रदंष्ट्रद्वारा वानरोंका तथा अङ्गदद्वारा राक्षसोंका संहार
५४- वज्रदंष्ट्र और अङ्गदका युद्ध तथा अङ्गदके हाथसे उस निशाचरका वध
५५- रावणकी आज्ञासे अकम्पन आदि राक्षसोंका युद्धमें आना और वानरोंके साथ उनका घोर युद्ध
५६- हनुमान्जीके द्वारा अकम्पनका वध
५७- प्रहस्तका रावणकी आज्ञासे विशाल सेनासहित युद्धके लिये प्रस्थान
५८- नीलके द्वारा प्रहस्तका वध
५९- प्रहस्तके मारे जानेसे दु:खी हुए रावणका स्वयं ही युद्धके लिये पधारना, उसके साथ आये हुए मुख्य वीरोंका परिचय, रावणकी मारसे सुग्रीवका अचेत होना, लक्ष्मणका युद्धमें आना, हनुमान् और रावणमें थप्पड़ोंकी मार, रावणद्वारा नीलका मूचिर्छत होना, लक्ष्मणका शक्तिके आघातसे मूर्च्छित एवं सचेत होना तथा श्रीरामसे परास्त होकर रावणका लङ्कामें घुस जाना
६०- अपनी पराजयसे दु:खी हुए रावणकी आज्ञासे सोये हुए कुम्भकर्णका जगाया जाना और उसे देखकर वानरोंका भयभीत होना
६१- विभीषणका श्रीरामसे कुम्भकर्णका परिचय देना और श्रीरामकी आज्ञासे वानरोंका युद्धके लिये लङ्काके द्वारोंपर डट जाना
६२- कुम्भकर्णका रावणके भवनमें प्रवेश तथा रावणका रामसे भय बताकर उसे शत्रुसेनाके विनाशके लिये प्रेरित करना
६३- कुम्भकर्णका रावणको उसके कुकृत्योंके लिये उपालम्भ देना और उसे धैर्य बँधाते हुए युद्धविषयक उत्साह प्रकट करना
६४- महोदरका कुम्भकर्णके प्रति आक्षेप करके रावणको बिना युद्धके ही अभीष्ट वस्तुकी प्राप्तिका उपाय बताना
६५- कुम्भकर्णकी रणयात्रा
६६- कुम्भकर्णके भयसे भागे हुए वानरोंका अङ्गदद्वारा प्रोत्साहन और आवाहन, कुम्भकर्णद्वारा वानरोंका संहार, पुन: वानर-सेनाका पलायन और अङ्गदका उसे समझा-बुझाकर लौटाना
६७- कुम्भकर्णका भयंकर युद्ध और श्रीरामके हाथसे उसका वध
६८- कुम्भकर्णके वधका समाचार सुनकर रावणका विलाप
६९- रावणके पुत्रों और भाइयोंका युद्धके लिये जाना और नरान्तकका अङ्गदके द्वारा वध
७०- हनुमान्जीके द्वारा देवान्तक और त्रिशिराका, नीलके द्वारा महोदरका तथा ऋषभके द्वारा महापार्श्वका वध
७१- अतिकायका भयंकर युद्ध और लक्ष्मणके द्वारा उसका वध
७२- रावणकी चिन्ता तथा उसका राक्षसोंको पुरीकी रक्षाके लिये सावधान रहनेका आदेश
७३- इन्द्रजित्के ब्रह्मास्त्रसे वानरसेनासहित श्रीराम और लक्ष्मणका मूर्च्छित होना
७४- जाम्बवान्के आदेशसे हनुमान्जीका हिमालयसे दिव्य ओषधियोंके पर्वतको लाना और उन ओषधियोंकी गन्धसे श्रीराम, लक्ष्मण एवं समस्त वानरोंका पुन: स्वस्थ होना
७५- लङ्कापुरीका दहन तथा राक्षसों और वानरोंका भयंकर युद्ध
७६- अङ्गदके द्वारा कम्पन और प्रजङ्घका, द्विविदके द्वारा शोणिताक्षका, मैन्दके द्वारा यूपाक्षका और सुग्रीवके द्वारा कुम्भका वध
७७- हनुमान्के द्वारा निकुम्भका वध
७८- रावणकी आज्ञासे मकराक्षका युद्धके लिये पस्र थान
७९- श्रीरामचन्द्रजीके द्वारा मकराक्षका वध
८०- रावणकी आज्ञासे इन्द्रजित्का घोर युद्ध तथा उसके वधके विषयमें श्रीराम और लक्ष्मणकी बातचीत
८१- इन्द्रजित्के द्वारा मायामयी सीताका वध
८२- हनुमान्जीके नेतृत्वमें वानरों और निशाचरोंका युद्ध, हनुमान्जीका श्रीरामके पास लौटना और इन्द्रजित्का निकुम्भिला-मन्दिरमें जाकर होम करना
८३- सीताके मारे जानेकी बात सुनकर श्रीरामका शोकसे मूर्च्छित होना और लक्ष्मणका उन्हें समझाते हुए पुरुषार्थके लिये उद्यत होना
८४- विभीषणका श्रीरामको इन्द्रजित्की मायाका रहस्य बताकर सीताके जीवित होनेका विश्वास दिलाना और लक्ष्मणको सेनासहित निकुम्भिला-मन्दिरमें भेजनेके लिये अनुरोध करना
८५- विभीषणके अनुरोधसे श्रीरामचन्द्रजीका लक्ष्मणको इन्द्रजित्के वधके लिये जानेकी आज्ञा देना और सेनासहित लक्ष्मणका निकुम्भिला-मन्दिरके पास पहुँचना
८६- वानरों और राक्षसोंका युद्ध, हनुमान्जीके द्वारा राक्षससेनाका संहार और उनका इन्द्रजित्को द्वन्द्वयुद्धके लिये ललकारना तथा लक्ष्मणका उसे देखना
८७- इन्द्रजित् और विभीषणकी रोषपूर्ण बातचीत
८८- लक्ष्मण और इन्द्रजित्की परस्पर रोषभरी बातचीत और घोर युद्ध
८९- विभीषणका राक्षसोंपर प्रहार, उनका वानरयूथ पतियोंको प्रोत्साहन देना, लक्ष्मणद्वारा इन्द्रजित्के सारथिका और वानरोंद्वारा उसके घोड़ोंका वध
९०- इन्द्रजित् और लक्ष्मणका भयंकर युद्ध तथा इन्द्रजित्का वध
९१- लक्ष्मण और विभीषण आदिका श्रीरामचन्द्रजीके पास आकर इन्द्रजित्के वधका समाचार सुनाना, प्रसन्न हुए श्रीरामके द्वारा लक्ष्मणको हृदयसे लगाकर उनकी प्रशंसा तथा सुषेणद्वारा लक्ष्मण आदिकी चिकित्सा
९२- रावणका शोक तथा सुपार्श्वके समझानेसे उसका सीता-वधसे निवृत्त होना
९३- श्रीरामद्वारा राक्षससेनाका संहार
९४- राक्षसियोंका विलाप
९५- रावणका अपने मन्त्रियोंको बुलाकर शत्रुवधवि षयक अपना उत्साह प्रकट करना और सबके साथ रणभूमिमें आकर पराक्रम दिखाना
९६- सुग्रीवद्वारा राक्षससेनाका संहार और विरूपाक्षका वध
९७- सुग्रीवके साथ महोदरका घोर युद्ध तथा वध
९८- अङ्गदके द्वारा महापार्श्वका वध.
९९- श्रीराम और रावणका युद्ध
१००- राम और रावणका युद्ध, रावणकी शक्तिसे लक्ष्मणका मूर्च्छित होना तथा रावणका युद्धसे भागना
१०१- श्रीरामका विलाप तथा हनुमान्जीकी लायी हुर्इ ओषधिके सुषेणद्वारा किये गये प्रयोगसे लक्ष्मणका सचेत हो उठना
१०२- इन्द्रके भेजे हुए रथपर बैठकर श्रीरामका रावणके साथ युद्ध करना
१०३- श्रीरामका रावणको फटकारना और उनके द्वार घायल किये गये रावणको सारथिका रणभूमिसे बाहर ले जाना
१०४- रावणका सारथिको फटकारना और सारथिका अपने उत्तरसे रावणको संतुष्ट करके उसके रथको रणभूमिमें पहुँचाना
१०५- अगस्त्य मुनिका श्रीरामको विजयके लिये ‘आदित्यहृदय’ के पाठकी सम्मति देना
१०६- रावणके रथको देख श्रीरामका मातलिको सावधान करना, रावणकी पराजयके सूचक उत्पातों तथा रामकी विजय सूचित करनेवाले शुभ शकुनोंका वर्णन
१०७- श्रीराम और रावणका घोर युद्ध
१०८- श्रीरामके द्वारा रावणका वध
१०९- विभीषणका विलाप और श्रीरामका उन्हें समझाकर रावणके अन्त्येष्टि-संस्कारके लिये आदेश देना
११०- रावणकी स्त्रियोंका विलाप
१११- मन्दोदरीका विलाप तथा रावणके शवका दाह-संस्कार
११२- विभीषणका राज्याभिषेक और श्रीरघुनाथजीका हनुमान्जीके द्वारा सीताके पास संदेश भेजना
११३- हनुमान्जीका सीताजीसे बातचीत करके लौटना और उनका संदेश श्रीरामको सुनाना
११४- श्रीरामकी आज्ञासे विभीषणका सीताको उनके समीप लाना और सीताका प्रियतमके मुखचन्द्रका दर्शन करना
११५- सीताके चरित्रपर संदेह करके श्रीरामका उन्हें ग्रहण करनेसे इनकार करना और अन्यत्र जानेके लिये कहना
११६- सीताका श्रीरामको उपालम्भपूर्ण उत्तर देकर अपने सतीत्वकी परीक्षा देनेके लिये अग्निमें प्रवेश करना
११७- भगवान् श्रीरामके पास देवताओंका आगमन तथा ब्रह्माद्वारा उनकी भगवत्ताका प्रतिपादन एवं स्तवन
११८- मूर्तिमान् अग्निदेवका सीताको लेकर चितासे प्रकट होना और श्रीरामको समर्पित करके उनकी पवित्रताको प्रमाणित करना तथा श्रीरामका सीताको सहर्ष स्वीकार करना
११९- महादेवजीकी आज्ञासे श्रीराम और लक्ष्मणका विमानद्वारा आये हुए राजा दशरथको प्रणाम करना और दशरथका दोनों पुत्रों तथा सीताको आवश्यक संदेश दे इन्द्रलोकको जाना
१२०- श्रीरामके अनुरोधसे इन्द्रका मरे हुए वानरोंको जीवित करना, देवताओंका प्रस्थान और वानरसेनाका विश्राम
१२१- श्रीरामका अयोध्या जानेके लिये उद्यत होना और उनकी आज्ञासे विभीषणका पुष्पकविमानको मँगाना
१२२- श्रीरामकी आज्ञासे विभीषणद्वारा वानरोंका विशेष सत्कार तथा सुग्रीव और विभीषणसहित वानरोंको साथ लेकर श्रीरामका पुष्पकविमानद्वारा अयोध्याको प्रस्थान करना
१२३- अयोध्याकी यात्रा करते समय श्रीरामका सीताजीको मार्गके स्थान दिखाना
१२४- श्रीरामका भरद्वाज-आश्रमपर उतरकर महर्षिसे मिलना और उनसे वर पाना
१२५- हनुमान्जीका निषादराज गुह तथा भरतजीको श्रीरामके आगमनकी सूचना देना और प्रसन्न हुए भरतका उन्हें उपहार देनेकी घोषणा करना
१२६- हनुमान्जीका भरतको श्रीराम, लक्ष्मण और सीताके वनवाससम्बन्धी सारे वृत्तान्तोंको सुनाना
१२७- अयोध्यामें श्रीरामके स्वागतकी तैयारी, भरतके साथ सबका श्रीरामकी अगवानीके लिये नन्दिग्राममें पहुँचना, श्रीरामका आगमन, भरत आदिके साथ उनका मिलाप तथा पुष्पकविमानको कुबेरके पास भेजना
१२८- भरतका श्रीरामको राज्य लौटाना, श्रीरामकी नगरयात्रा, राज्याभिषेक, वानरोंकी विदार्इ तथा ग्रन्थका माहात्म्य
७. उत्तरकाण्ड
१- श्रीरामके दरबारमें महर्षियोंका आगमन, उनके साथ उनकी बातचीत तथा श्रीरामके पश्र न
२- महर्षि अगस्त्यके द्वारा पुलस्त्यके गुण और तपस्याका वर्णन तथा उनसे विश्रवा मुनिकी उत्पत्तिका कथन
३- विश्रवासे वैश्रवण (कुबेर)-की उत्पत्ति, उनकी तपस्या, वरप्राप्ति तथा लङ्कामें निवास
४- राक्षसवंशका वर्णन—हेति, विद्युत्केश और सुकेशकी उत्पत्ति
५- सुकेशके पुत्र माल्यवान्, सुमाली और मालीकी संतानोंका वर्णन
६- देवताओंका भगवान् शङ्करकी सलाहसे राक्षसोंके वधके लिये भगवान् विष्णुकी शरणमें जाना और उनसे आश्वासन पाकर लौटना, राक्षसोंका देवताओंपर आक्रमण और भगवान् विष्णुका उनकी सहायताके लिये आना
७- भगवान् विष्णुद्वारा राक्षसोंका संहार और पलायन
८- माल्यवान्का युद्ध और पराजय तथा सुमाली आदि सब राक्षसोंका रसातलमें प्रवेश
९- रावण आदिका जन्म और उनका तपके लिये गोकर्ण-आश्रममें जाना
१०- रावण आदिकी तपस्या और वर-प्राप्ति
११- रावणका संदेश सुनकर पिताकी आज्ञासे कुबेरका लङ्काको छोड़कर कैलासपर जाना, लङ्कामें रावणका राज्याभिषेक तथा राक्षसोंका निवास
१२- शूर्पणखा तथा रावण आदि तीनों भाइयोंका विवाह और मेघनादका जन्म
१३- रावणद्वारा बनवाये गये शयनागारमें कुम्भकर्णका सोना, रावणका अत्याचार, कुबेरका दूत भेजकर उसे समझाना तथा कुपित हुए रावणका उस दूतको मार डालना
१४- मन्त्रियोंसहित रावणका यक्षोंपर आक्रमण और उनकी पराजय
१५- माणिभद्र तथा कुबेरकी पराजय और रावणद्वारा पुष्पकविमानका अपहरण
१६- नन्दीश्वरका रावणको शाप, भगवान् शङ्करद्वारा रावणका मान-भङ्ग तथा उनसे चन्द्रहास नामक खड्गकी प्राप्ति
१७- रावणसे तिरस्कृत ब्रह्मर्षि कन्या वेदवतीका उसे शाप देकर अग्निमें प्रवेश करना और दूसरे जन्ममें सीताके रूपमें प्रादुर्भूत होना
१८- रावणद्वारा मरुत्तकी पराजय तथा इन्द्र आदि देवताओंका मयूर आदि पक्षियोंको वरदान देना
१९- रावणके द्वारा अनरण्यका वध तथा उनके द्वारा उसे शापकी प्राप्ति
२०- नारदजीका रावणको समझाना, उनके कहनेसे रावणका युद्धके लिये यमलोकको जाना तथा नारदजीका इस युद्धके विषयमें विचार करना
२१- रावणका यमलोकपर आक्रमण और उसके द्वारा यमराजके सैनिकोंका संहार
२२- यमराज और रावणका युद्ध, यमका रावणके वधके लिये उठाये हुए कालदण्डको ब्रह्माजीके कहनेसे लौटा लेना, विजयी रावणका यमलोकसे प्रस्थान
२३- रावणके द्वारा निवातकवचोंसे मैत्री, कालकेयोंका वध तथा वरुणपुत्रोंकी पराजय
२४- रावणद्वारा अपहृत हुर्इ देवता आदिकी कन्याओं और स्त्रियोंका विलाप एवं शाप, रावणका रोती हुर्इ शूर्पणखाको आश्वासन देना और उसे खरके साथ दण्डकारण्यमें भेजना
२५- यज्ञोंद्वारा मेघनादकी सफलता, विभीषणका रावणको पर-स्त्री-हरणके दोष बताना, कुम्भीनसीको आश्वासन दे मधुको साथ ले रावणका देवलोकपर आक्रमण करना
२६- रावणका रम्भापर बलात्कार करना और नल-कूबरका रावणको भयंकर शाप देना
२७- सेनासहित रावणका इन्द्रलोकपर आक्रमण, इन्द्रकी भगवान् विष्णुसे सहायताके लिये प्रार्थना, भविष्यमें रावण-वधकी प्रतिज्ञा करके विष्णुका इन्द्रको लौटाना, देवताओं और राक्षसोंका युद्ध तथा वसुके द्वारा सुमालीका वध
२८- मेघनाद और जयन्तका युद्ध, पुलोमाका जयन्तको अन्यत्र ले जाना, देवराज इन्द्रका युद्धभूमिमें पदार्पण, रुद्रों तथा मरुद्गणोंद्वारा राक्षससेनाका संहार और इन्द्र तथा रावणका युद्ध
२९- रावणका देवसेनाके बीचसे होकर निकलना, देवताओंका उसे कैद करनेके लिये प्रयत्न, मेघनादका मायाद्वारा इन्द्रको बन्दी बनाना तथा विजयी होकर सेनासहित लङ्काको लौटना
३०- ब्रह्माजीका इन्द्रजित्को वरदान देकर इन्द्रको उसकी कैदसे छुड़ाना और उनके पूर्वकृत पापकर्मको याद दिलाकर उनसे वैष्णवयज्ञका अनुष्ठान करनेके लिये कहना, उस यज्ञको पूर्ण करके इन्द्रका स्वर्गलोकमें जाना
३१- रावणका माहिष्मतीपुरीमें जाना और वहाँके राजा अर्जुनको न पाकर मन्त्रियोंसहित उसका विन्ध्यगिरिके समीप नर्मदामें नहाकर भगवान् शिवकी आराधना करना
३२- अर्जुनकी भुजाओंसे नर्मदाके प्रवाहका अवरुद्ध होना, रावणके पुष्पोपहारका बह जाना, फिर रावण आदि निशाचरोंका अर्जुनके साथ युद्ध तथा अर्जुनका रावणको कैद करके अपने नगरमें ले जाना
३३- पुलस्त्यजीका रावणको अर्जुनकी कैदसे छुटकारा दिलाना
३४- वालीके द्वारा रावणका पराभव तथा रावणका उन्हें अपना मित्र बनाना
३५- हनुमान्जीकी उत्पत्ति, शैशवावस्थामें इनका सूर्य, राहु और ऐरावतपर आक्रमण, इन्द्रके वज्रसे इनकी मूर्च्छा, वायुके कोपसे संसारके प्राणियोंको कष्ट और उन्हें प्रसन्न करनेके लिये देवताओंसहित ब्रह्माजीका उनके पास जाना
३६- ब्रह्मा आदि देवताओंका हनुमान्जीको जीवित करके नाना प्रकारके वरदान देना और वायुका उन्हें लेकर अञ्जनाके घर जाना, ऋषियोंके शापसे हनुमान्जीको अपने बलकी विस्मृति, श्रीरामका अगस्त्य आदि ऋषियोंसे अपने यज्ञमें पधारनेके लिये प्रस्ताव करके उन्हें विदा देना
३७- श्रीरामका सभासदोंके साथ राजसभामें बैठना
३८- श्रीरामके द्वारा राजा जनक, युधाजित्, प्रतर्दन तथा अन्य नरेशोंकी विदार्इ
३९- राजाओंका श्रीरामके लिये भेंट देना और श्रीरामका वह सब लेकर अपने मित्रों, वानरों, रीछों और राक्षसोंको बाँट देना तथा वानर आदिका वहाँ सुखपूर्वक रहना
४०- वानरों, रीछों और राक्षसोंकी बिदार्इ
४१- कुबेरके भेजे हुए पुष्पकविमानका आना और श्रीरामसे पूजित एवं अनुगृहीत होकर अदृश्य हो जाना, भरतके द्वारा श्रीरामराज्यके विलक्षण प्रभावका वर्णन
४२- अशोकवनिकामें श्रीराम और सीताका विहार, गर्भिणी सीताका तपोवन देखनेकी इच्छा प्रकट करना और श्रीरामका इसके लिये स्वीकृति देना
४३- भद्रका पुरवासियोंके मुखसे सीताके विषयमें सुनी हुर्इ अशुभ चर्चासे श्रीरामको अवगत कराना
४४- श्रीरामके बुलानेसे सब भाइयोंका उनके पास आना
४५- श्रीरामका भाइयोंके समक्ष सर्वत्र फैले हुए लोकापवादकी चर्चा करके सीताको वनमें छोड़ आनेके लिये लक्ष्मणको आदेश देना
४६- लक्ष्मणका सीताको रथपर बिठाकर उन्हें वनमें छोड़नेके लिये ले जाना और गङ्गाजीके तटपर पहुँचना
४७- लक्ष्मणका सीताजीको नावसे गङ्गाजीके उस पार पहुँचाकर बड़े दु:खसे उन्हें उनके त्यागे जानेकी बात बताना
४८- सीताका दु:खपूर्ण वचन, श्रीरामके लिये उनका संदेश, लक्ष्मणका जाना और सीताका रोना
४९- मुनिकुमारोंसे समाचार पाकर वाल्मीकिका सीताके पास आ उन्हें सान्त्वना देना और आश्रममें लिवा ले जाना
५०- लक्ष्मण और सुमन्त्रकी बातचीत
५१- मार्गमें सुमन्त्रका दुर्वासाके मुखसे सुनी हुर्इ भृगुऋषिके शापकी कथा कहकर तथा भविष्यमें होनेवाली कुछ बातें बताकर दु:खी लक्ष्मणको शान्त करना.
५२- अयोध्याके राजभवनमें पहुँचकर लक्ष्मणका दु:खी श्रीरामसे मिलना और उन्हें सान्त्वना देना
५३- श्रीरामका कार्यार्थी पुरुषोंकी उपेक्षासे राजा नृगको मिलनेवाली शापकी कथा सुनाकर लक्ष्मणको देखभालके लिये आदेश देना
५४- राजा नृगका एक सुन्दर गड्ढा बनवाकर अपने पुत्रको राज्य दे स्वयं उसमें प्रवेश करके शाप भोगना
५५- राजा निमि और वसिष्ठका एक-दूसरेके शापसे देहत्याग
५६- ब्रह्माजीके कहनेसे वसिष्ठका वरुणके वीर्यमें आवेश, वरुणका उर्वशीके समीप एक कुम्भमें अपने वीर्यका आधान तथा मित्रके शापसे उर्वशीका भूतलमें राजा पुरूरवाके पास रहकर पुत्र उत्पन्न करना
५७- वसिष्ठका नूतन शरीर धारण और निमिका प्राणियोंके नयनोंमें निवास
५८- ययातिको शुक्राचार्यका शाप
५९- ययातिका अपने पुत्र पूरुको अपना बुढ़ापा देकर बदलेमें उसका यौवन लेना और भोगोंसे तृप्त होकर पुन: दीर्घकालके बाद उसे उसका यौवन लौटा देना, पूरुका अपने पिताकी गद्दीपर अभिषेक तथा यदुको शाप
प्रक्षिप्त सर्ग १-श्रीरामके द्वारपर कार्यार्थी कुत्तेका आगमन और श्रीरामका उसे दरबारमें लानेका आदेश
२- कुत्तेके प्रति श्रीरामका न्याय, उसकी इच्छाके अनुसार उसे मारनेवाले ब्राह्मणको मठाधीश बना देना और कुत्तेका मठाधीश होनेका दोष बताना
६०- श्रीरामके दरबारमें च्यवन आदि ऋषियोंका शुभागमन, श्रीरामके द्वारा उनका सत्कार करके उनके अभीष्ट कार्यको पूर्ण करनेकी प्रतिज्ञा तथा ऋषियोंद्वारा उनकी प्रशंसा
६१- ऋषियोंका मधुको प्राप्त हुए वर तथा लवणासुरके बल और अत्याचारका वर्णन करके उससे प्राप्त होनेवाले भयको दूर करनेके लिये श्रीरघुनाथजीसे प्रार्थना करना
६२- श्रीरामका ऋषियोंसे लवणासुरके आहार-विहारके विषयमें पूछना और शत्रुघ्नकी रुचि जानकर उन्हें लवण-वधके कार्यमें नियुक्त करना
६३- श्रीरामद्वारा शत्रुघ्नका राज्याभिषेक तथा उन्हें लवणासुरके शूलसे बचनेके उपायका प्रतिपादन
६४- श्रीरामकी आज्ञाके अनुसार शत्रुघ्नका सेनाको आगे भेजकर एक मासके पश्चात् स्वयं भी प्रस्थान करना
६५- महर्षि वाल्मीकिका शत्रुघ्नको सुदासपुत्र कल्माषपादकी कथा सुनाना
६६- सीताके दो पुत्रोंका जन्म, वाल्मीकिद्वारा उनकी रक्षाकी व्यवस्था और इस समाचारसे प्रसन्न हुए शत्रुघ्नका वहाँसे प्रस्थान करके यमुनातटपर पहुँचना
६७- च्यवन मुनिका शत्रुघ्नको लवणासुरके शूलकी शक्तिका परिचय देते हुए राजा मान्धाताके वधका प्रसंग सुनाना
६८- लवणासुरका आहारके लिये निकलना, शत्रुघ्नका मधुपुरीके द्वारपर डट जाना और लौटे हुए लवणासुरके साथ उनकी रोषभरी बातचीत
६९- शत्रुघ्न और लवणासुरका युद्ध तथा लवणका वध
७०- देवताओंसे वरदान पा शत्रुघ्नका मधुरापुरीको बसाकर बारहवें वर्षमें वहाँसे श्रीरामके पास जानेका विचार करना
७१- शत्रुघ्नका थोड़े-से सैनिकोंके साथ अयोध्याको प्रस्थान, मार्गमें वाल्मीकिके आश्रममें रामचरितका गान सुनकर उन सबका आश्चर्यचकित होना
७२- वाल्मीकिजीसे विदा ले शत्रुघ्नजीका अयोध्यामें जाकर श्रीराम आदिसे मिलना और सात दिनोंतक वहाँ रहकर पुन: मधुपुरीको प्रस्थान करना
७३- एक ब्राह्मणका अपने मरे हुए बालकको राजद्वारपर लाना तथा राजाको ही दोषी बताकर विलाप करना
७४- नारदजीका श्रीरामसे एक तपस्वी शूद्रके अधर्माचरणको ब्राह्मण-बालककी मृत्युमें कारण बताना
७५- श्रीरामका पुष्पकविमानद्वारा अपने राज्यकी सभी दिशाओंमें घूमकर दुष्कर्मका पता लगाना; किंतु सर्वत्र सत्कर्म ही देखकर दक्षिण दिशामें एक शूद्र तपस्वीके पास पहुँचना
७६- श्रीरामके द्वारा शम्बूकका वध, देवताओंद्वारा उनकी प्रशंसा, अगस्त्याश्रमपर महर्षि अगस्त्यके द्वारा उनका सत्कार और उनके लिये आभूषण-दान
७७- महर्षि अगस्त्यका एक स्वर्गीय पुरुषके शवभक्षणका प्रसंग सुनाना
७८- राजा श्वेतका अगस्त्यजीको अपने लिये घृणित आहारकी प्राप्तिका कारण बताते हुए ब्रह्माजीके साथ हुए अपनी वार्ताको उपस्थित करना और उन्हें दिव्य आभूषणका दान दे भूख-प्यासके कष्टसे मुक्त होना
७९- इक्ष्वाकुपुत्र राजा दण्डका राज्य
८०- राजा दण्डका भार्गव-कन्याके साथ बलात्कार
८१- शुक्रके शापसे सपरिवार राजा दण्ड और उनके राज्यका नाश
८२- श्रीरामका अगस्त्य-आश्रमसे अयोध्यापुरीको लौटना
८३- भरतके कहनेसे श्रीरामका राजसूय-यज्ञ करनेके विचारसे निवृत्त होना
८४- लक्ष्मणका अश्वमेध-यज्ञका प्रस्ताव करते हुए इन्द्र और वृत्रासुरकी कथा सुनाना, वृत्रासुरकी तपस्या और इन्द्रका भगवान् विष्णुसे उसके वधके लिये अनुरोध
८५- भगवान् विष्णुके तेजका इन्द्र और वज्र आदिमें प्रवेश, इन्द्रके वज्रसे वृत्रासुरका वध तथा ब्रह्महत्याग्रस्त इन्द्रका अन्धकारमय प्रदेशमें जाना
८६- इन्द्रके बिना जगत्में अशान्ति तथा अश्वमेधके अनुष्ठानसे इन्द्रका ब्रह्महत्यासे मुक्त होना
८७- श्रीरामका लक्ष्मणको राजा इलकी कथा सुनाना—इलको एक-एक मासतक स्त्रीत्व और पुरुषत्वकी प्राप्ति
८८- इला और बुधका एक-दूसरेको देखना तथा बुधका उन सब स्त्रियोंको किंपुरुषी नाम देकर पर्वतपर रहनेके लिये आदेश देना
८९- बुध और इलाका समागम तथा पुरूरवाकी उत्पत्ति
९०- अश्वमेधके अनुष्ठानसे इलाको पुरुषत्वकी प्राप्ति
९१- श्रीरामके आदेशसे अश्वमेध-यज्ञकी तैयारी
९२- श्रीरामके अश्वमेध-यज्ञमें दान-मानकी विशेषता
९३- श्रीरामके यज्ञमें महर्षि वाल्मीकिका आगमन और उनका रामायणगानके लिये कुश और लवको आदेश
९४- लव-कुशद्वारा रामायण-काव्यका गान तथा श्रीरामका उसे भरी सभामें सुनना
९५- श्रीरामका सीतासे उनकी शुद्धता प्रमाणित करनेके लिये शपथ करानेका विचार
९६- महर्षि वाल्मीकिद्वारा सीताकी शुद्धताका समर्थन
९७- सीताका शपथ-ग्रहण और रसातलमें प्रवेश
९८- सीताके लिये श्रीरामका खेद, ब्रह्माजीका उन्हें समझाना और उत्तरकाण्डका शेष अंश सुननेके लिये प्रेरित करना
९९- सीताके रसातल-प्रवेशके पश्चात् श्रीरामकी जीवनचर्या, रामराज्यकी स्थिति तथा माताओंके परलोक-गमन आदिका वर्णन
१००- केकयदेशसे ब्रह्मर्षि गार्ग्यका भेंट लेकर आना और उनके संदेशके अनुसार श्रीरामकी आज्ञासे कुमारोंसहित भरतका गन्धर्वदेशपर आक्रमण करनेके लिये प्रस्थान
१०१- भरतका गन्धर्वोंपर आक्रमण और उनका संहार करके वहाँ दो सुन्दर नगर बसाकर अपने दोनों पुत्रोंको सौंपना और फिर अयोध्याको लौट आना
१०२- श्रीरामकी आज्ञासे भरत और लक्ष्मणद्वारा कुमार अङ्गद और चन्द्रकेतुकी कारुपथ देशके विभिन्न राज्योंपर नियुक्ति
१०३- श्रीरामके यहाँ कालका आगमन और एक कठोर शर्तके साथ उनका वार्ताके लिये उद्यत होना
१०४- कालका श्रीरामचन्द्रजीको ब्रह्माजीका संदेश सुनाना और श्रीरामका उसे स्वीकार करना
१०५- दुर्वासाके शापके भयसे लक्ष्मणका नियम भङ्ग करके श्रीरामके पास इनके आगमनका समाचार देनेके लिये जाना, श्रीरामका दुर्वासा मुनिको भोजन कराना और उनके चले जानेपर लक्ष्मणके लिये चिन्तित होना
१०६- श्रीरामके त्याग देनेपर लक्ष्मणका सशरीर स्वर्गगमन
१०७- वसिष्ठजीके कहनेसे श्रीरामका पुरवासियोंको अपने साथ ले जानेका विचार तथा कुश और लवका राज्याभिषेक करना
१०८- श्रीरामचन्द्रजीका भाइयों, सुग्रीव आदि वानरों तथा रीछोंके साथ परमधाम जानेका निश्चय और विभीषण, हनुमान्, जाम्बवान्, मैन्द एवं द्विविदको इस भूतलपर ही रहनेका आदेश देना
१०९- परमधाम जानेके लिये निकले हुए श्रीरामके साथ समस्त अयोध्यावासियोंका प्रस्थान
११०- भाइयोंसहित श्रीरामका विष्णुस्वरूपमें प्रवेश तथा साथ आये हुए सब लोगोंको संतानक-लोककी प्राप्ति
१११- रामायण-काव्यका उपसंहार और इसकी महिमा

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काशक एवं मु क— गीता ेस, गोरखपुर—२७3००५ (गो ब भवन-कायालय, कोलकाता का सं



फोन: (०५५१) २३३४७२१,२३३१२५०; फै



ान)



: (०५५१) २३३६९९७ e-mail : [email protected] website : www.gitapress.org







नवेदन



रामाय रामभ ाय रामच ाय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:॥ रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजम्। सु ीवं वायुसूनुं च णमा म पुन: पुन:॥ वेदवे े परे पुं स जाते दशरथा जे। वेद: ाचेतसादासीत् सा ाद ् रामायणा ना॥



वेद जस परमत का वणन करते ह, वही ीम ारायणत ीम ामायणम ीराम पसे न पत है। वेदवे परमपु षो मके दशरथन न ीरामके पम अवतीण होनेपर सा ात् वेद ही ीवा ी कके मुखसे ीरामायण पम कट ए, ऐसी आ क क चरकालसे मा ता है। इस लये ीम ा ीक य रामायणक वेदतु ही त ा है। य भी मह ष वा ी क आ दक व ह, अत: व के सम क वय के गु ह। उनका ‘आ दका ’ ीम ा ीक य रामायण भूतलका थम का है। वह सभीके लये पू व ु है। भारतके लये तो वह परम गौरवक व ु है और देशक स ी ब मू रा ीय न ध है। इस नाते भी वह सबके लये सं ह, पठन, मनन एवं वण करनेक व ु है। इसका एक-एक अ र महापातकका नाश करनेवाला है— एकैकम रं पुंसां महापातकनाशनम्।



यह सम का का बीज है— ‘का बीजं सनातनम्।’



(बृह



म० १ । ३० । ४७) ी ासदेवा द सभी क वय ने इसीका अ यन कर पुराण, महाभारता दका नमाण कया।१ ‘बृह मपुराण’ म यह बात व ारसे तपा दत है। ी ासजीने अनेक पुराण म रामायणका माहा गाया है। पुराणका रामायणमाहा तो इस के आर म दया ही है, क◌इ छट-पुट माहा अलग भी ह। यह भी स है क ासजीने यु ध रके अनुरोधसे एक ा ा वा ी करामायणपर लखी थी और उसक एक ह ल खत त अब



भी ा है।२ इसका नाम ‘रामायणता यदी पका’ है। इसका उ ेख दीवानबहादुर रामशा ीने अपनी पु क ‘ डीज इन रामायण’ के तीय ख म कया है। यह पु क १९४४ ◌इ०म बड़ौदासे का शत है। ोणपवके १४३ । ६६-६७ ोक म मह ष वा ी कके यु का के ८१ । २८ को नामो ेखपूवक ोकका हवाला दया गया है।३ ‘अ पुराण’ के ५ से १३ तकके अ ाय म ‘वा ी क’ के नामो ेखपूवक रामायणसारका वणन है। ग डपुराण, पूवख के १४३ व अ ायम भी ठीक इ ोक म रामायणसार कथन है। इसी कार ह रवंश ( व ुपव ९३ । ६—३३) म भी यदुवं शय ारा वा ी करामायणके नाटक खेलनेका उ ेख है— रामायणं महाका मु



नाटकं कृतम्।



ी ासदेवजीने वा ी कक जीवनी भी बड़ी ासे ‘ पुराण’ वै वख , वैशाखमाहा १७ से २० अ ाय तक (‘क ाण’ सं० पुराणा पृ० ३७४ से ३८१ तक), आव ख अव ी े माहा के २४ व अ ायम (‘क ाण’ सं पुराणा पृ० ७०८-९), भासख के २७८ व अ ायम (सं० पुराणा पृ० १०२५—२७) तथा अ ा रामायणके अयो ाका म (६ । ६४—९२) वणन कया है। म पुराण १२ । ६१ म वे इ ‘भागवस म’ से रण करते ह४ और भागवत ६ । १८ । ५ म ‘महायोगी’ से। इसी कार क वकु ल तलक का लदासने रघुवंशम आ दक वको दो बार रण कया है। एक तो—‘क व: कुशे ाहरणाय यात:। नषाद व ा जदशनो : ोक- माप त य शोक:५॥’ (१४ । ७०) इस ोकम, दूसरे २ । ४ के ‘पूवसू र भ:’ म। भवभू तको क णरसका आचाय माना गया है, कतु हम देखते ह क उ इसक श ा आ दक वसे ही मली है। वे भी उ ररामच रतके दूसरे अ म ‘वा ी कपा ा दह पयटा म’ ‘मुनय मेव ह पुराण वा दनं ाचेतसमृ ष..... उपासते’ आ दसे उ का रण करते ह। ‘सुभा षतप त’ के नमाता शा धर उनके इस ऋणको करते ए लखते ह— कवी ं नौ म वा च



का मव च



ीकय



रामायणीकथाम्।



चकोरा इव साधव:॥



इसी तरह महाक व भास, आचाय श र, रामानुजा द सभी स दायाचाय, राजा भोज आ द परवत व ान से लेकर हदीसा ह के ाण गो ामी तुलसीदासजीतकने ‘बंदउँ मु न पद कं जु रामायन जे ह नरमयउ’ ‘जान आ दक ब नाम तापू’, ‘बालमी क भे समाना’



(रामच रतमानस), ‘जहाँ बालमी क सातक ’ (क वतावली, उ रका



भए ाधत मु नदु साधु’ ‘मरा मरा’ ‘जप सख सु न र ष १३८ से १४०), ‘कहत मुनीस महेस महातम उलटे सीधे नामको’ ‘म हमा उलटे नामक मु न कयो करातो।’ ( वनयप का १५६, १५१), ‘उलटा जपत कोलते भए ऋ षराव’ (बरवै रामा० ५४), ‘राम बहाइ मरा जपते बगरी सुधरी क ब को कल क ’ (क व० ७ । ८८) इ ा द पद से इनका बार-बार ापूवक रण कया है; कृ त ता ापन क है। सं



जीवनी



मह ष वा ी कजीको कु छ लोग न जा तका बतलाते ह। पर वा ी करामायण ७ । ९६ । १९, ७। ९३ । १७ तथा अ ा रामायण ७ । ७ । ३१ म इ ने यं अपनेको चेताका पु कहा है।६ मनु ृ त १ । ३५ म ‘ चेतसं व स ं च भृगुं नारदमेव च’ चेताको व स , नारद, पुल , क व आ दका भा◌इ लखा है। पुराणके वैशाखमाहा म इ ज ा रका ाध बतलाया है। इससे स है क ज ा रम ये ाध थे। ाध-ज के पहले भी नामके ीव गो ीय ा ण थे। ाध-ज म श ऋ षके स से, रामनामके जपसे ये दूसरे ज म (४) ‘अ शमा’ (मता रसे र ाकर) ए। वहाँ भी ाध के स से कु छ दन ा न सं ारवश ाध-कमम लगे। फर, स षय के स ंगसे मरा-मरा जपकर— बाँबी पड़नेसे वा ी क नामसे ात ए और वा ी क-रामायणक रचना क । (‘क ाण’ सं० पुराणा पृ० ३८१; ७०९; १०२४) बंगलाके कृ वासरामायण, मानस, अ ा रामा० २ । ६ । ६४ से ९२, आन रामायण रा का १४ । २१—४९, भ व पुराण तसग० ४। १० म भी यह कथा थोड़े हेर-फे रसे है। गो ामी तुलसीदासजीने व ुत: यह कथा नराधार नह लखी। अतएव इ नीच जा तका मानना सवथा ममूलक है। ाचीन सं ृ त टीकाएँ



वा ी करामायणपर अग णत ाचीन टीकाएँ ह, यथा—१ कतक टीका (इसका नागोजीभ तथा गो व - राजा दने ब त उ ेख कया है), २—नागोजीभ क तलक या रामा भरामी ा ा, ३—गो व राजक भूषण टीका, ४— शवसहायक रामायण- शरोम ण ा ा, (ये पूव तीन टीकाएँ गुजराती ट ेस ब ◌इसे एकम ही छपी ह।) ५— माहे रतीथक तीथ ा ा या त दीप, ६—क ाल रामानुजक रामानुजीय ा ा; (ये टीकाएँ वकटे र ेस ब ◌इसे छपी ह।) ७—वरदराजकृ त ववेक तलक, ८— कराज मखानीक धमाकू त- ा ा (यह ख श: म ास एवं ीर े छपी है) और ९—



रामान तीथक रामायणकू ट- ा ा। इसके अतर चतुरथदी पका, रामायण वरोधप रहार, रामायणसेतु, ता यतर ण, ृ ारसुधाकर रामायणस ब , मनोरमा आ द अनेक टीकाएँ ह। ‘री ड इन रामायण’ के अनुसार इतनी टीकाएँ और ह—१ अहोबलक ‘वा ी क- दय’ (त न ोक ) ा ा, उनके श क वरोधभ नी टीका, माधवाचायक रामायणता य नणय- ा ा, ीअ य दी ते क भी इसी नामक एक अ ा ा ( जसम उ ने रामायणको शवपरक स कया है), बालमुकु सू रक रामायणभूषण- ा ा एवं ीरामभ ा मक सुबो धनी टीका। डा र एम० कृ माचारीने अपनी पु क ‘ ह ी ऑफ ा सकल सं ृ त लटरेचर’ म क◌इ ऐसी टीका का उ ेख कया है, जनके लेखक का पता नह है। उदाहरणाथ—अमृतकतक, रामायणसारदी पका, गु बाला च र नी, व नोर नी आ द। उ ने वरदराजाचायके रामायणसारसं ह, देवरामभ क वषयपदाथ ा ा, नृ सह शा ीक क व का, वकटाचायक रामायणाथ का शका, वकटाचायके रामायण- कथा वमश आ द ा ा का भी उ ेख कया है। इसके अ त र क◌इ टीकाएँ ‘म वलास’ वाली तम सं हीत ह। ात ये सब तो सं ृ त ा ाएँ ह। अ ात सं ृ त ा ा , ह ीके अनेकानेक ैत, अ ैत, शु ा ैत, व श ा ैता द मतावल य , आयसमाजक ा ा , बंगला, मराठी, गुजराती आ द व भ ा ीय भाषा तथा च, अं ेजी आ द अ वदेशी भाषा म कये गये अनुवाद, टीका- ट णय क तो यहाँ को◌इ बात ही नह छेड़नी है; क उनका अ ही नह होना है। रामायणके का गुण, अ



वशेषताएँ



कु छ लोग ने तो यहाँतक कहा है क रामायणके ल ण के आधारपर ही द ी आ दने का क प रभाषा बतलायी। कराज मखानीने सु रका क ा ाम ाय: सभी ोक को अलंकार, रसा दयु मानकर का नामक साथकता दखलायी है। वा वम बात भी ऐसी ही है। सु रका० ५वाँ सग तो नता सु र है ही। ीमखानीने सभीके उदाहरण भी दये ह। यह बड़े आ यक बात है क आ दक वने कसी ाचीन का को बना ही देखे, कसी से बना ही सहारा लये सव म का का नमाण कया। इनका ाकृ तक च ण तो सु र है ही, संवाद सवा धक सु र है। हनुमा ीक वातालापकु शलता सव देखते बनती है। ीरामक तपादनशैली, दशरथजीक संभाषणप त, (अयो ाका २रा सग) कम धकं कह -कह रावणका भी कथन (लंकाका १६वाँ सग) ब त सु र है। इ ने ो तषशा को



भी परम माण माना है। जटाके , ीरामका या ाका लक मु त वचार, वभीषण ारा लंकाके अपशकु न का तपादन (लंकाका १०वाँ सग) आ द ो त व ानके ापक तथा समथक ह। ीराम जब अयो ासे चलते ह तो नौ ह एक हो जाते ह७—इससे लंकायु होता है। दशरथजी ीरामसे ो त षय ारा अपने अ न फलादेशक बात बतलाते ह। (अयो ा० ४ । १८)८। यु का १०२ । ३२—३४ के ोक म रावणमरणके समयक ह त भी ेय है। यु का ९१व सगम आयुवद व ानक बात ह। यु १८ व सग तथा ६३ । २ से २५ ोकतक राजनी तक अ सारभूत अ तु बात ह। यु का ७३ । २४—२८ म त शा क भी याएँ ह। इसम रावण तथा मेघनादको भारी ता क दखलाया गया है। मेघनादक सब वजय त मूलक है। जब वह जी वत कृ छागक ब ल देता है, तब त का नके तु अ क द णावत शखाएँ उसे वजय सू चत करती ह— ‘ द णावत शख का नस भ:।’ (६ । ७३। २३)। रावण भी भारी ता क है। उसक जापर (ता कका च ) नर शरकपाल—मनु क खोपड़ीका च था। (६ । १०० । १४)। कतु उसके पराभव आ द ारा ऋ ष वाममागके इन ब ल-मांस-सुरा द या क असमीचीनता द शत करते ह (गो ामी तुलसीदासजीने भी ‘त ज ु त पंथ बाम मग चलह ,’ (अयो ा० १६८। ७-८), ‘कौल कामबस कृ पन बमूढा’ (लंका० ३१ । २) आ दसे इसी बातका समथन कया है)। इस तरह हम मह षक म ौ तष, त , आयुवद, शकु न आ द शा क ाचीनता एवं समीचीनता ात होती है। व ुत: यही परम आ कक होती है। धमशा के लये तो यह परम माण है ही, अ ऐ तहा सक कथाएँ भी ब त ह, अथशा क भी पया साम ी है। वहार तथा आचारक भी बात ह, कु शलमागका भी दशन है। प व दाश नकता



मह ष वा ी कक अ तु क वता एवं अ ा मह ाम उनक तप ा ही हेतु है। इसम वा ी करामायण ही सा ी है। ‘तप: ा ाय नरतं तप ी वा दांवरम्’ से इस का का ‘तप’ श से ही आर होता है और थम अधालीम ही दो बार ‘तप’ श आया और ‘तप ी’ श ारा मह षने एक कारसे अपनी जीवनी भी लख दी। तप ारा ही ाजीका उ ने सा ात् कया, रामायणक द का ताका आशीवाद लया और रामच र का दशन कया। बादम व ा म के व च तपका वणन, ग ाजीके आगमनम भगीरथक अ तु तप ा, चूली ऋ षक तप ा, भृगुक तप ा आ दका भी वणन है। इनके मतसे गा द सभी



सुखभोग का हेतु तप है। कम धकं ; रावणा दके रा , सुख, श , आयु आ दका मूल भी तप है। ीराम तो शु तप ी ह। वे तप य के आ मम वेश करते ह। वहाँ वे वैखानस, बाल ख , स ाल, मरी चप (के वल च करण पान करनेवाले), प ाहारी, उ क (सदा क तक पानीम डू बकर तप ा करनेवाले), प ा सेवी, वायुभ ी, जलभ ी, लशायी, आकाश नलयी एवं ऊ वासी (पवत- शखर, वृ , मचान आ दपर रहनेवाले) तप य को देखते ह। ये सभी जपम लीन थे। (अर का ६ठा सग) इनका जप स वत: ‘ ीराम’ म रहा हो, क इनमसे अ धकांश ीरामको देखते ही योगा म शरीर छोड़ देते ह। व ुत: का व धसे का ास त मधुर वाणीम वा ी कका यही दाश नक उपदेश है। उनका मूल त इस कार प व तापूवक रहकर तपोऽनु ान करते ए ◌इ रक आराधना करना एवं अधमसे सदा दूर रहना ही है। ीरामक पर



ता



कु छ लोग रामायणम नरच र मानते ह और ीरामके ◌इ रता तपादक (दे खये, बालका १५ से १८ सग, पुन: ७६ । १७, १९, अयो ा० १ । ७, अर ० ३ । ३७, सु र० २५ । २७, ३१; ५१ । ३८, यु ० ५९। ११०; ९५ । २५; पूरा १११ तथा ११७ वाँ सग ११९ । १८, ११९ । ३२ म सु ‘ ’ श उ रका० ८ । २६, ५१। १२—२२; १०४ । ४ आ द। ब तथा प मी शाखाम भी ये सब ोक ह, ब कह -कह तो इससे भी अ धक ह।) हजार वचन को मानते ह। कतु ानसे पढ़नेपर ीरामक ◌इ रता सव दीखती है। ग ीर च नके बाद तो ेक ोक ही ीरामक अ च श म ा, लोको र धम यता, आ तव लता एवं ◌इ रताका तपादक दीखता है। वभीषणशरणाग तके समय य प को◌इ भी ऐ य दशक वचन नह आया, पर ीरामके अ तम मादव, कपोतके आ त स ारके उदाहरण देन,े परम ष क ु क गाथा पढ़ने एवं अपने शरणम आये सम ा णय को* सम ा णय से अभयदान देनेके ाभा वक नयमको घो षत करनेके बाद तवादी सु ीवको ववश होकर कहना ही पड़ा क ‘धम ! लोकनाथ के शरोम ण! आपके इस कथनम को◌इ आ य नह है; क आप महान् श शाली एवं स थपर आ ढ़ ह— कम यत्



च ं धम लोकनाथ शखामणे। माय भाषेथा: स वान् स थे



त:॥ (६ । १८ । ३६)



इसी कार हनुमा ीने सीताजीके सामने और रावणके सामने जो ीरामके गुण कहे ह, उनम उ ◌इ र तो नह बतलाया, कतु ‘ ीरामम यह साम है क वे एक ही णम सम ावर-जंगमा क व को सं त कर दूसरे ही ण पुन: इस संसारका -का- नमाण कर सकते ह’ इस कथनम ा ◌इ रताका भाव नह हो जाता? कतनी ता है— स ं रा सराजे रामदास



दत ू



ृणु वानर



सवाल्ँलोकान् सुसं पुनरेव तथा



ुं श



वचनं मम। वशेषत:॥ सभूतान् सचराचरान्।



ो रामो महायशा:॥ (वा



ी० सु रका ५१ । ३८-३९) स ी बात तो यह है क तप ी वा ी क ‘राम’ के ही जापक थे। (उनके ‘मरा-मरा’ जपनेक कथाको भी ब त ने नमूल माना है, कतु यह कथा अ ा रामायण अयो ाका , आन रामायण रा का १४ तथा पुराणम भी क◌इ बार आती है, तुलसीदासजी आ दने भी लखा है) इसीसे उ तथा अ को सारी स याँ मली थ , अत: इसम ‘ ीम ारायण’ को ही का पम गाया है। अ था त ालीन क -मूल-फलाशी वनवासी सवथा नरपे तप ीको कसी राजाके च र -वणनसे को◌इ लाभ न था। ‘योगवा स ’ म भी, जो उनक दूसरी वशाल रचना है, उ ने गु पसे ीरामका व ृत च र गाया है। कतु थम अ ायम तथा अ भी य -त उनके नारायण का तपादन कर ही दया है। व ुत: ेमक मधुरता उसक गूढ़ताम ही है। देवता के स म तो यह स भी है क वे ‘परो य’ होते ह—‘परो या इव ह देवा:, ष:’ (ऐतरेय० १ । ३ । १४; बृहदा० ४ । २ । २) अत: मह षक यह वणन णाली गूढ़ ेमक ही है, कतु साधकके लये वह सव ही है, तरो हत नह है। इसपर ाय: सैकड़ सं ृ त ा ाएँ भी इसीके सा ी ह। ऐ तहा सक



वा ी कका वणन आधु नक ऐ तहा सक शैलीसे नह है, इस लये लोग उसे इ तहास पम ीकार नह करते। कतु वा ी कका संसार हजार, दो हजार वष का न था। फर भला अरब वष का इ तहास ा आजके वकासके च ेसे पढ़ा जा सकता है? ऐसी दशाम के वल उपयोगी य का इ तहास ही लाभदायक है। इसी लये अपने यहाँ इ तहासक प रभाषा ही दूसरी क गयी है—



धमाथकाममो ाणामुपदेशसम पूववृ ं कथायु



तम्।



म तहासं च ते॥ (व



धु म० ३। १५। १) और व ृत एवं दीघका लक व का इ तहास तो रामायण-महाभारतक भाँ त ही हो सकता है और धम, अथ, लोक- वहार, परलोक-सुखक से वही लाभकर भी स हो सकता है। भौगो लक ववरण



रामायणके भूगोलपर भी ब त अनुसंधान आ है। ‘क ाण’का रामायणा , क न मक ‘ऐ े ड नरी’, ीदेके ‘जागर फकल ड नरी’म इसपर ब त अनुसंधान है। क◌इ लोग ने त लेख भी लखे ह। लंदनके ‘ए शया टक सोसाइटी जनल’ म एक मह पूण लेख छपा था। ‘वेद धरातल’ (पं० गरीशच ) म भी कु छ अ ी साम ी है। के वल ‘लंका’ पर ही क◌इ ब ह। ‘सव र’ के एक लेखम ‘मालदीप’ को लंका स कया है। कु छ लोग इसे , म त या दु य भी मानते ह। वा ी० १। २२ क कौशा ी यागसे १४ मील द ण-प म कोसम गाँव है। धमार आजक गया है। ‘महोदय’ नगर कु शनाभक क ा के कु होनेसे आगे चलकर का कु ,९० पुन: क ौज आ, ग र ज ‘राज गर’ ( बहार) है। १। २४ के मलद-क ष आरा जलेके उ री भाग ह। के कयदेश कु छ लोग ‘गजनी’ को और कु छ झेलम एवं क कनाको कहते ह। बालका २। ३-४ म आयी तमसा नदीपर वा ी कजीका आ म था। यह उस तमसासे सवथा भ है, जसका उ ेख ग ाके उ र तथा अयो ाके द णम मलता है। वा ी क-आ मका उ ेख २। ५६। १६ म भी आया है। प मो रशाखीय रामायणके २। ११४ म भी इस आ मका उ ेख है। बी० एच० वडेरने ‘क ाण’ रामायणा के ४९६ पृ पर इसे यागसे २० मील द ण लखा है। स ेलनप का ४३। २ के १३३ पृ पर वा ी क-आ म याग-झाँसीरोड और राजापुर-मा नकपुर रोडके स मपर त बतलाया गया है। गो ामी तुलसीदासजीके मतसे इनका आ म ‘वा रपुर दगपुर बीच ( वलस तभू म)’ था। मूल गोसा◌इं च रतकार ‘ दगवा रपुरा बीच सीतामढ़ी’ को वा ी क-आ म मानते ह। कु छ लोग कानपुरके बठू रको भी वा ीका म मानते ह।११ २। ५६। १६ क टीकाम कतक, तीथ, गो व राज, शरोम णकार आ द इनका समाधान करते ए लखते ह क ऋ ष ाय: घूमते रहते थे। ीरामके वनवासके समय वे च कू टके समीप तथा



रा ारोहणकालम ग ातटपर ( बठू र) रहते थे। वा ी० ७। ६६। १ तथा ७। ७१। १४ से भी वा ीका म बठू रम ही स होता है। अ ववरण ाय: ुत क ट णय म ही दये गये ह। रामायणम राजनी त, मनो व ान



वा ी कक राजनी त ब त उ को टक है। उसके सामने सभी राजनी तक वचार तु तीत होते ह। हनुमा ी तो नी तक मू त ही तीत होते ह। वभीषणके आनेपर ीराम सबसे स त माँगते ह। सु ीव कहते ह क यह श ुका ही भा◌इ है, पता नह अब अक ात् हमारी सेनाम वेश पाना चाहता है। स व है, अवसर पाकर उ ू जैसे कौ का वध कर देता है, वैसे यह हम भी मार डाले। कृ तसे रा स है, इसका ा व ास? साथ ही नी त यह है क म क भेजी ◌इ, मोल ली ◌इ तथा जंगली जा तय क भी सहायता ा है, पर श ुक सहायता तो सदा शंकनीय है। अ दने भी ाय: ऐसी ही बात कही। जा व ने कहा क हम भी इसको अदेशकालम आया देख बड़ी शंका हो रही है। शरभने कहा क इसपर गु चर छोड़ा जाय। अ पु मै ने कहा क इससे - त कये जायँ, जसके उ रसे भाव जान लये जायँगे। पर हनुमा ीने इनका ऐसा ख न कया, जो आज भी अभूतपूव है। वे बोले—‘ भो! आपके सम बृह तका भाषण भी तु है। पर आपक आ ा शरोधाय है। म ववाद, तक, धा आ दके कारण नह , कायक गु ताके कारण कु छ नवेदन करना चाहता ँ । ‘आपके म य मसे कु छने वभीषणके पीछे गु चर लगानेक राय दी है, पर गु चर तो दूर रहनेवाले तथा ‘अ अ ातवृ ’ के पीछे लगाया जाता है, यह तो ही सामने है, अपना नाम-काम भी यं ही कह रहा है, यहाँ गु चरका ा उपयोग? कु छ लोग ने कहा है क ‘यह अदेशकालम आया है’, कतु मुझे तो लगता है क यही इसके आनेका देशकाल है। आपके ारा वालीको मारा गया और सु ीवको अ भ ष सुनकर आपके परम श ु तथा वालीके म रावणके संहारके लये ही आया है। इससे करनेक बात भी दोषयु दीखती है, क उससे इसके मै ीभावम बाधा प ँ चेगी और यह म दू षत करनेका काय हो जायगा। य तो आप कु छ भी बात करते समय इसके रभेद, आकार, मुख व या आ दसे इसक मन: त भाँप ही लगे। सुतरां मने अपनी तु बु के अनुसार यह कु छ नवेदन कया, माण तो यं आप ही ह।’ इसी तरह उनका लंका वेशके बाद १३व सगका वमश, सीतासे बात करनेके पहले, ‘ कस भाषाम कस कार बात क ँ ’ इ ा द परामश, पुन: सीतासे बात कर



वापस चलनेके समय दूता दके कत एवं ल ाके बलाबलक जानकारीके लये कया गया ऊहापोह, सु ीवको भोग ल देखकर दया गया परामश तथा रावणको जो उपदेश कया है, उसम इनक अपूव नी तम ा, रामभ , वचार वणता, साधुता तथा अ तम बु म ा कट होती है। इ सब कारण से उ —‘बु मतां व र म्’ कहा गया है। यं ीराम भी बार-बार इनके भाषणचातुय, बु कौशलपर च कत होते ह ( क ा० ४। २५—३५; यु का १)। ीरामक नी तम ा, साधुता, स णु स ता तो सव प र है ही। ील ण भी कम नह ह। वे मारीचको पहले ही रा स बतलाकर सावधान करते ह। सीतासे बार-बार कहते ह क ‘ ीरामपर को◌इ संकट नह है, आपपर ही संकट आया दीखता है। यह सब रा स क माया है’ इ ा द। इसी कार वभीषण आ दक बात भी ान- ानपर देखते बनती ह। उपसंहार



इन सभी गुण के आकर होनेसे ही यह का सवा धक लोक य, अजर, अमर, द तथा क ाणकर१२ है। संत के श म यह ‘रामायण ीरामतनु’ है। इसका पठन, मनन, अनु ान सा ात् भु ीरामका सं नधान ा करना है।१३ हनुमा ीक स ताके लये इस ीरामच रतके गानसे बढ़कर दूसरा उपाय नह । (इसम हनुम र भी न पम, उ ल तथा द है।) इस लये अना दकालसे इसके वण-पठन-अनु ाना दक पर रा है। रामलीलाका भी पहले यही आधार रहा। हम पहले यदुवं शय ारा ह रवंशम व णत रामायणनाटक खेलनेका उ ेख कर चुके ह। वहाँ इसका बड़ा रोचक वणन है। जब सुपुरम इ सफलता मली तो व नाभके व पुरम भी बुलाया गया। वहाँ इ ने लोमपाद ारा ृ ऋ षका आनयन, पुन: दशरथ-य , ग ावतरण, र ा भसार आ द नाटक खेले। रामायणं महाका मु लोमपादो दशरथ ऋ



नाटकं कृतम्। ृ ं महामु नम्॥



शा ाम ानयामास ग णका भ: सहानघ। (२। ९३। ८)



लयतालसमं ु ा ग ावतरणं शुभम्। (२। ९३। २५)



यहाँ ु , गद एवं सा ना ी बाजा बजा रहे थे। (नगाड़ क नको ही यहाँ ना ी कहा गया है।) शूर नामके यादव ही ‘रावण’ का नाटक खेल रहे थे। ( ोक २८) ु



नलकू बर बने और सा वदूषक। इससे स है क भगवान् ीकृ के समयसे ही सफल रामलीला-काय आर था। य तो ‘खेल तहाँ बालकन मीला। कर सदा रघुनायक लीला॥’ से रामकथाक तरह रामलीला आ दक भी अना दता स है, तथा प इ तहासके व ान क उ ुकताके लये इस घटनाका उ ेख कर दया गया। इसके बाद तो हनुम ाटक, स राघवनाटक, अनघराघवनाटक, महानाटक, बालरामायणनाटक आ द अग णत रामलीलानाटक ही लख डाले गये। इन सभी नाटक का एकमा आधार यह वा ी करामायण ही रहा। इतना ही नह —इस वा ीक य रामायण एवं रामकथाका चारव ार जावा, बाली आ द ीप तक आ। भारतम इसके चार पाठ च लत ह। प मो र शाखा (लाहौरका १९३१ का सं रण), बंगशाखीय (Gorresio’s edition—गोरे शय का सं रण), दा णा सं रण, (गुजराती ट ेस ब ◌इका तीन टीकावाला सं रण तथा म वलास बुक डपो, कु कोण का सं रण) एवं उ र भारतका सं रण (का ीरी सं रण)। इनम दा णा तथा औदी सं रण तो सवथा एक ही है। इनम कह नाममा का भी अ र नह है। प म-पूववाल म अ ाय का अ र है। पर उनपर को◌इ सं ृ त टीका नह मलती। बंगशाखीयपर के वल एक लोकनाथर चत मनोरमा टीका मलती है। इस लये दा णा सं रण (औदी भी वही है ही) का ही सव चार तथा ामा है। गीता ेससे भी जनताक ब त दन से इसक माँग थी। अत: इसी दा णा पाठका ट णय तथा च स हत शु , सटीक एवं स ा सं रण जनताक सेवाके लये का शत कया गया है। इसीके साथ एक स ा के वल मूलपाठका सं रण भी का शत कया गया है। के वल हदी जाननेवाल के लये अलगसे के वल हदीका ही एक स ा सं रण का शत कया जा रहा है। आशा है, स नगण इनसे यथायो लाभ उठायगे। —जानक नाथ शमा



१. (क) पठ रामायणं ास का बीजं सनातनम्। य रामच र ं ात् तदहं त श मान्॥ (बृह मपुराण, थमख ३० । ४७, ५१) (ख) रामायणं पा ठतं मे स ोऽ कृ त या। क र ा म पुराणा न महाभारतमेव च॥ (बृह मपुराण १ । ३० । ५५) २. A curious Ms. is that of ‘Rāmāyaṇatātparyadīpikā which is said to have been an exposition of the meaning of the Rāmāyaṇa’ by Vyāsa at the request of Yudhistira. (‘Studies in Rāmāyaṇa’, ‘Riddles of Rāmāyaṇa’ By K. S. Rāmaśāstrī, Book II, P.I.)



३. यह ोक इस कार है— अ प चायं पुरा गीत: ोको वा ी कना भु व। न ह



ा: य े त यद् वी ष व ङम। ..........



पीडाकरम म ाणां य ात् कत मेव तत्॥



(महा० उ



ोग० १४३ । ६७-६८)



भ का का १७ । २२ ोक भी इसीपर आधा रत है। ४. वा ी कय च रतं च े भागवस म:। ५. आ दक व वा ी क उस समय कु श, स मधा आ द लेने नकले थे। ाधके ारा मारे गये ौ को देखकर उ बड़ा शोक आ और वही ोक पम प रणत हो गया। ‘ ालोक’ कार ीआन वधनने भी इसीसे मलते-जुलते श म कहा है —



वयोगो : शोक: ोक मागत:।’ ( ालोक १ । ५) व ुत: इन दोन ही प का मूल यं आ दक व (वा ी० १ । २ । ४०) का ही ोक है, जो इस कार है— ‘सोऽनु ाहरणाद ् भूय: शोक: ोक मागत:।’ ६. ‘ चेतसोऽहं दशम: पु ो राघवन न।’ ७. दे खये—‘दा णा: सोमम े हा: सव व ता:।’ (अयो ा० ४१ । ११) पर तलक तथा शरोम ण- ा ा। ८. ‘अव ं च मे राम न ं दा ण है:। आवेदय दैव ा: सूया ङारकरा भ:॥’ * यहाँ ‘सवभूते :’ म ाय: सभी ाचीन टीकाकार ने चतुथ और प मी दोन मानकर इस पदका दो बार अथ कया है। ९०. इसक उ क एक दूसरी रोचक कथा ‘क ाण’ वष ३४ अंक १२ के पृ १३८९ पर देख। ११. पुराण आव ख १। २४ म इनका आ म व दशा (आजका मेलसा म भारत) तथा भ व पुराण, तसगपव ४। १०। ५४ म उ लार -उ लावत ( बठू र, कानपुर) म माना है। १२. ी ाजी कहते ह— न ते वागनृता का े का चद भ व त। यावत् ा गरय: स रत महीतले॥ तावद् रामायणकथा लोके षु च र त। (बाल० २। ३५-३६-३७) १३. वा ीक य रामायणके पठन- वण एवं अनु ानसे ा लाभ है, इसे आगेके रामायणमाहा , यु का के १२८ व सगके १०४ से १२२ ोक तक तथा बृह मपुराण, पूवख के २५ से ३० अ ाय तक देखना चा हये। ‘







वषय-सूची



१ ीम ा ीक य रामायणक पाठ व ध अ ाय ( ीम ा ीक यरामायणमाहा म्) १ क लयुगक त, क लकालके मनु के उ ारका उपाय, रामायणपाठ, उसक म हमा, उसके वणके लये उ म काल आ दका वणन २ नारद-सन ु मार-संवाद, सुदास या सोमद नामक ा णको रा स क ा तथा रामायण-कथा- वण ारा उससे उ ार ३ माघमासम रामायण- वणका फल—राजा सुम त और स वतीके पूवज का इ तहास ४ चै मासम रामायणके पठन और वणका माहा , क लक नामक ाध और उ मु नक कथा ५ रामायणके नवाह वणक व ध, म हमा तथा फलका वणन सग (बालका ) १ नारदजीका वा ी क मु नको सं ेपसे ीराम-च र सुनाना २ रामायणका का उप म—तमसाके तटपर ौ वधसे संत ए मह ष वा ी कके शोकका ोक पम कट होना तथा ाजीका उ रामच र मय का के नमाणका आदेश देना ३ वा ी क मु न ारा रामायणका म नब वषय का सं ेपसे उ ेख ४ मह ष वा ी कका चौबीस हजार ोक से यु रामायणका का नमाण करके उसे लवकु शको पढ़ाना, मु नम लीम रामायणगान करके लव और कु शका शं सत होना तथा अयो ाम ीराम ारा स ा नत हो उन दोन का रामदरबारम रामायणगान सुनाना ५ राजा दशरथ ारा सुर त अयो ापुरीका वणन ६ राजा दशरथके शासनकालम अयो ा और वहाँके नाग रक क उ म तका वणन ७ राजम य के गुण और नी तका वणन ८ राजाका पु के लये अ मेधय करनेका ाव और म य तथा ा ण ारा उनका अनुमोदन ९ सुम का राजाको ऋ ृ मु नको बुलानेक सलाह देते ए उनके अ देशम जाने और शा ासे ववाह करनेका स सुनाना



१० अ देशम ऋ ृ के आने तथा शा ाके साथ ववाह होनेके स का कु छ व ारके साथ वणन ११ सुम के कहनेसे राजा दशरथका सप रवार अ राजके यहाँ जाकर वहाँसे शा ा और ऋ ृ को अपने घर ले आना १२ राजाका ऋ षय से य करानेके लये ाव, ऋ षय का राजाको और राजाका म य को य क आव क तैयारी करनेके लये आदेश देना १३ राजाका व स जीसे य क तैयारीके लये अनुरोध, व स जी ारा इसके लये सेवक क नयु और सुम को राजा को बुलानेके लये आदेश, समागत राजा का स ार तथा प य -स हत राजा दशरथका य क दी ा लेना १४ महाराज दशरथके ारा अ मेध य का सा ोपा अनु ान १५ ऋ ृ ारा राजा दशरथके पु े य का आर , देवता क ाथनासे ाजीका रावणके वधका उपाय ढूँ ढ़ नकालना तथा भगवान् व ुका देवता को आ ासन देना १६ देवता का ीह रसे रावणवधके लये मनु पम अवतीण होनेको कहना, राजाके पु े य म अ कु से ाजाप पु षका कट होकर खीर अपण करना और उसे खाकर रा नय का गभवती होना १७ ाजीक ेरणासे देवता आ दके ारा व भ वानरयूथप तय क उ १८ राजा तथा ऋ ृ को वदा करके राजा दशरथका रा नय स हत पुरीम आगमन, ीराम, भरत, ल ण तथा श ु के ज , सं ार, शील- भाव एवं स णु , राजाके दरबारम व ा म का आगमन और उनका स ार १९ व ा म के मुखसे ीरामको साथ ले जानेक माँग सुनकर राजा दशरथका दु: खत एवं मू त होना २० राजा दशरथका व ा म को अपना पु देनेसे इनकार करना और व ा म का कु पत होना २१ व ा म के रोषपूण वचन तथा व स का राजा दशरथको समझाना २२ राजा दशरथका वाचनपूवक राम-ल णको मु नके साथ भेजना, मागम उ व ा म से बला और अ तबला नामक व ाक ा २३ व ा म स हत ीराम और ल णका सरयू-ग ा-संगमके समीप पु आ मम रातको ठहरना



२४ ीराम और ल णका ग ापार होते समय व ा म जीसे जलम उठती ◌इ तुमुल नके वषयम करना, व ा म जीका उ इसका कारण बताना तथा मलद, क ष एवं ताटका वनका प रचय देते ए इ ताटकावधके लये आ ा दान करना. २५ ीरामके पूछनेपर व ा म जीका उनसे ताटकाक उ , ववाह एवं शाप आ दका स सुनाकर उ ताटकावधके लये े रत करना २६ ीराम ारा ताटकाका वध २७ व ा म ारा ीरामको द ा -दान २८ व ा म का ीरामको अ क संहार व ध बताना तथा उ अ ा अ का उपदेश करना, ीरामका एक आ म एवं य ानके वषयम मु नसे २९ व ा म जीका ीरामसे स ा मका पूववृ ा बताना और उन दोन भाइय के साथ अपने आ मपर प ँ चकर पू जत होना ३० ीराम ारा व ा म के य क र ा तथा रा स का संहार ३१ ीराम, ल ण तथा ऋ षय स हत व ा म का म थलाको ान तथा मागम सं ाके समय शोणभ तटपर व ाम ३२ पु कु शके चार पु का वणन, शोणभ -तटवत देशको वसुक भू म बताना, कु शनाभक सौ क ा का वायुके कोपसे ‘कु ा’ होना ३३ राजा कु शनाभ ारा क ा के धैय एवं माशीलताक शंसा, द क उ तथा उनके साथ कु शनाभक क ा का ववाह ३४ गा धक उ , कौ शक क शंसा, व ा म जीका कथा बंद करके आधी रातका वणन करते ए सबको सोनेक आ ा देकर शयन करना ३५ शोणभ पार करके व ा म आ दका ग ाजीके तटपर प ँ चकर वहाँ रा वास करना तथा ीरामके पूछनेपर व ा म जीका उ ग ाजीक उ क कथा सुनाना ३६ देवता का शव-पावतीको सुरत डासे नवृ करना तथा उमादेवीका देवता और पृ ीको शाप देना ३७ ग ासे का तके यक उ का स ३८ राजा सगरके पु क उ तथा य क तैयारी ३९ इ के ारा राजा सगरके य स ी अ का अपहरण, सगरपु ारा सारी पृ ीका भेदन तथा देवता का ाजीको यह सब समाचार बताना



४० सगरपु के भावी वनाशक सूचना देकर ाजीका देवता को शा करना, सगरके पु का पृ ीको खोदते ए क पलजीके पास प ँ चना और उनके रोषसे जलकर भ होना ४१ सगरक आ ासे अंशुमा ा रसातलम जाकर घोड़ेको ले आना और अपने चाचा के नधनका समाचार सुनाना ४२ अंशुमान् और भगीरथक तप ा, ाजीका भगीरथको अभी वर देकर ग ाजीको धारण करनेके लये भगवान् शंकरको राजी करनेके न म य करनेक सलाह देना ४३ भगीरथक तप ासे संतु ए भगवान् शंकरका ग ाको अपने सरपर धारण करके ब सु रोवरम छोड़ना और उनका सात धारा म वभ हो भगीरथके साथ जाकर उनके पतर का उ ार करना ४४ ाजीका भगीरथक शंसा करते ए उ ग ाजलसे पतर के तपणक आ ा देना और राजाका वह सब करके अपने नगरको जाना, ग ावतरणके उपा ानक म हमा ४५ देवता और दै ारा ीर-समु -म न, भगवान् ारा हालाहल वषका पान, सग वषय पृ -सं ा सग वषय पृ -सं ा (१०) भगवान् व ुके सहयोगसे म राचलका पातालसे उ ार और उसके ारा म न, ध र, अ रा, वा णी, उ :ै वा, कौ ुभ तथा अमृतक उ और देवासुर-सं ामम दै का संहार ४६ पु वधसे दु:खी द तका क पजीसे इ ह ा पु क ा के उ े से तपके लये आ ा लेकर कु श वम तप करना, इ ारा उनक प रचया तथा उ अप व अव ाम पाकर इ का उनके गभके सात टुकड़े कर डालना ४७ द तका अपने पु को म ण बनाकर देवलोकम रखनेके लये इ से अनुरोध, इ ारा उसक ीकृ त, द तके तपोवनम ही इ ाकु -पु वशाल ारा वशाला नगरीका नमाण तथा वहाँके त ालीन राजा सुम त ारा व ा म मु नका स ार ४८ राजा सुम तसे स ृ त हो एक रात वशालाम रहकर मु नय स हत ीरामका म थलापुरीम प ँ चना और वहाँ सूने आ मके वषयम पूछनेपर व ा म जीका उनसे अह ाको शाप ा होनेक कथा सुनाना ४९ पतृदेवता ारा इ को भेड़के े अ कोषसे यु करना तथा भगवान् ीरामके ारा अह ाका उ ार एवं उन दोन द तके ारा इनका स ार ५० ीराम आ दका म थला-गमन, राजा जनक ारा व ा म का स ार तथा उनका ीराम और ल णके वषयम ज ासा करना एवं प रचय पाना



५१ शतान के पूछनेपर व ा म का उ ीरामके ारा अह ाके उ ारका समाचार बताना तथा शतान ारा ीरामका अ भन न करते ए व ा म जीके पूवच र का वणन ५२ मह ष व स ारा व ा म का स ार और कामधेनुको अभी व ु क सृ करनेका आदेश ५३ कामधेनुक सहायतासे उ म अ -पान ारा सेनास हत तृ ए व ा म का व स से उनक कामधेनुको माँगना और उनका देनेसे अ ीकार करना ५४ व ा म का व स जीक गौको बलपूवक ले जाना, गौका दु:खी होकर व स जीसे इसका कारण पूछना और उनक आ ासे शक, यवन, प व आ द वीर क सृ करके उनके ारा व ा म जीक सेनाका संहार करना ५५ अपने सौ पु और सारी सेनाके न हो जानेपर व ा म का तप ा करके महादेवजीसे द ा पाना तथा उनका व स के आ मपर योग करना एवं व स जीका द लेकर उनके सामने खड़ा होना ५६ व ा म ारा व स जीपर नाना कारके द ा का योग और व स ारा द से ही उनका शमन एवं व ा म का ा ण क ा के लये तप करनेका न य ५७ व ा म क तप ा, राजा श ु का अपना य करानेके लये पहले व स जीसे ाथना करना और उनके इनकार कर देनेपर उ के पु क शरणम जाना ५८ व स ऋ षके पु का श ु को डाँट बताकर घर लौटनेके लये आ ा देना तथा उ दूसरा पुरो हत बनानेके लये उ त देख शाप- दान और उनके शापसे चा ाल ए श ु का व ा म जीक शरणम जाना ५९ व ा म का श ु को आ ासन देकर उनका य करानेके लये ऋ ष-मु नय को आम त करना और उनक बात न माननेवाले महोदय तथा ऋ षपु को शाप देकर न करना ६० व ा म का ऋ षय से श ु का य करानेके लये अनुरोध, ऋ षय ारा य का आर , श ु का सशरीर गगमन, इ ारा गसे उनके गराये जानेपर ु ए व ा म का नूतन देवसगके लये उ ोग, फर देवता के अनुरोधसे उनका इस कायसे वरत होना ६१ व ा म क पु रतीथम तप ा तथा राज ष अ रीषका ऋचीकके म म पु शुन:शेपको य -पशु बनानेके लये खरीदकर लाना ६२ व ा म ारा शुन:शेपक र ाका सफल य और तप ा



६३ व ा म को ऋ ष एवं मह षपदक ा , मेनका ारा उनका तपोभ तथा षपदक ा के लये उनक घोर तप ा ६४ व ा म का र ाको शाप देकर पुन: घोर तप ाके लये दी ा लेना ६५ व ा म क घोर तप ा, उ ा ण क ा तथा राजा जनकका उनक शंसा करके उनसे वदा ले राजभवनको लौटना ६६ राजा जनकका व ा म और राम-ल णका स ार करके उ अपने यहाँ रखे ए धनुषका प रचय देना और धनुष चढ़ा देनेपर ीरामके साथ उनके ाहका न य कट करना ६७ ीरामके ारा धनुभ तथा राजा जनकका व ा म क आ ासे राजा दशरथको बुलानेके लये म य को भेजना ६८ राजा जनकका संदेश पाकर म य स हत महाराज दशरथका म थला जानेके लये उ त होना ६९ दल-बलस हत राजा दशरथक म थलाया ा और वहाँ राजा जनकके ारा उनका ागतस ार ७० राजा जनकका अपने भा◌इ कु श जको सांका ा नगरीसे बुलवाना, राजा दशरथके अनुरोधसे व स जीका सूयवंशका प रचय देते ए ीराम और ल णके लये सीता तथा ऊ मलाको वरण करना ७१ राजा जनकका अपने कु लका प रचय देते ए ीराम और ल णके लये मश: सीता और ऊ मलाको देनेक त ा करना ७२ व ा म ारा भरत और श ु के लये कु श जक क ा का वरण, राजा जनक ारा इसक ीकृ त तथा राजा दशरथका अपने पु के म लके लये ना ी ा एवं गोदान करना ७३ ीराम आ द चार भाइय का ववाह ७४ व ा म का अपने आ मको ान, राजा जनकका क ा को भारी दहेज देकर राजा दशरथ आ दको वदा करना, मागम शुभाशुभ शकु न और परशुरामजीका आगमन ७५ राजा दशरथक बात अनसुनी करके परशुरामका ीरामको वै व-धनुषपर बाण चढ़ानेके लये ललकारना



७६ ीरामका वै व-धनुषको चढ़ाकर अमोघ बाणके ारा परशुरामके तप: ा पु लोक का नाश करना तथा परशुरामका महे पवतको लौट जाना ७७ राजा दशरथका पु और वधु के साथ अयो ाम वेश, श ु स हत भरतका मामाके यहाँ जाना, ीरामके बतावसे सबका संतोष तथा सीता और ीरामका पार रक ेम (अयो ाका



)



१ ीरामके स णु का वणन, राजा दशरथका ीरामको युवराज बनानेका वचार तथा व भ नरेश और नगर एवं जनपदके लोग को म णाके लये अपने दरबारम बुलाना २ राजा दशरथ ारा ीरामके रा ा भषेकका ाव तथा सभासद ारा ीरामके गुण का वणन करते ए उ ावका सहष यु यु समथन ३ राजा दशरथका व स और वामदेवजीको ीरामके रा ा भषेकक तैयारी करनेके लये कहना और उनका सेवक को तदनु प आदेश देना, राजाक आ ासे सुम का ीरामको राजसभाम बुला लाना और राजाका अपने पु ीरामको हतकर राजनी तक बात बताना ४ ीरामको रा देनेका न य करके राजाका सुम ारा पुन: ीरामको बुलवाकर उ आव क बात बताना, ीरामका कौस ाके भवनम जाकर माताको यह समाचार बताना और मातासे आशीवाद पाकर ल णसे ेमपूवक वातालाप करके अपने महलम जाना ५ राजा दशरथके अनुरोधसे व स जीका सीता-स हत ीरामको उपवास तक दी ा देकर आना और राजाको इस समाचारसे अवगत कराना, राजाका अ :पुरम वेश ६ सीतास हत ीरामका नयमपरायण होना, हषम भरे पुरवा सय ारा नगरक सजावट, राजाके त कृ त ता कट करना तथा अयो ापुरीम जनपदवासी मनु क भीड़का एक होना ७ ीरामके अ भषेकका समाचार पाकर ख ◌इ म राका कै के यीको उभाड़ना, परंतु स ◌इ कै के यीका उसे पुर ार पम आभूषण देना और वर माँगनेके लये े रत करना ८ म राका पुन: ीरामके रा ा भषेकको कै के यीके लये अ न कारी बताना, कै के यीका ीरामके गुण को बताकर उनके अ भषेकका समथन करना त ात् कु ाका पुन: ीरामरा को भरतके लये भयजनक बताकर कै के यीको भड़काना ९ कु ाके कु च से कै के यीका कोपभवनम वेश १० राजा दशरथका कै के यीके भवनम जाना, उसे कोपभवनम त देखकर दु:खी होना और उसको अनेक कारसे सा ना देना



११ कै के यीका राजाको त ाब करके उ पहलेके दये ए दो वर का रण दलाकर भरतके लये अ भषेक और रामके लये चौदह वष का वनवास माँगना १२ महाराज दशरथक च ा, वलाप, कै के यीको फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न माँगनेके लये अनुरोध करना १३ राजाका वलाप और कै के यीसे अनुनय वनय १४ कै के यीका राजाको स पर ढ़ रहनेके लये ेरणा देकर अपने वर क पू तके लये दुरा ह दखाना, मह ष व स का अ :पुरके ारपर आगमन और सुम को महाराजके पास भेजना, राजाक आ ासे सुम का ीरामको बुलानेके लये जाना १५ सुम का राजाक आ ासे ीरामको बुलानेके लये उनके महलम जाना १६ सुम का ीरामके महलम प ँ चकर महाराजका संदेश सुनाना और ीरामका सीतासे अनुम त ले ल णके साथ रथपर बैठकर गाजे-बाजेके साथ मागम ी-पु ष क बात सुनते ए जाना १७ ीरामका राजपथक शोभा देखते और सु द क बात सुनते ए पताके भवनम वेश १८ ीरामका कै के यीसे पताके च त होनेका कारण पूछना और कै के यीका कठोरतापूवक अपने माँगे ए वर का वृ ा बताकर ीरामको वनवासके लये े रत करना १९ ीरामक कै के यीके साथ बातचीत और वनम जाना ीकार करके उनका माता कौस ाके पास आ ा लेनेके लये जाना २० राजा दशरथक अ रा नय का वलाप, ीरामका कौस ाजीके भवनम जाना और उ अपने वनवासक बात बताना, कौस ाका अचेत होकर गरना और ीरामके उठा देनेपर उनक ओर देखकर वलाप करना २१ ल णका रोष, उनका ीरामको बलपूवक रा पर अ धकार कर लेनेके लये े रत करना तथा ीरामका पताक आ ाके पालनको ही धम बताकर माता और ल णको समझाना २२ ीरामका ल णको समझाते ए अपने वनवासम दैवको ही कारण बताना और अ भषेकक साम ीको हटा लेनेका आदेश देना २३ ल णक ओजभरी बात, उनके ारा दैवका ख न और पु षाथका तपादन तथा उनका ीरामके अ भषेकके न म वरो धय से लोहा लेनेके लये उ त होना २४ वलाप करती ◌इ कौस ाका ीरामसे अपनेको भी साथ ले चलनेके लये आ ह करना तथा प तक सेवा ही नारीका धम है, यह बताकर ीरामका उ रोकना और वन जानेके



लये उनक अनुम त ा करना २५ कौस ाका ीरामक वनया ाके लये म लकामनापूवक वाचन करना और ीरामका उ णाम करके सीताके भवनक ओर जाना २६ ीरामको उदास देखकर सीताका उनसे इसका कारण पूछना और ीरामका पताक आ ासे वनम जानेका न य बताते ए सीताको घरम रहनेके लये समझाना २७ सीताक ीरामसे अपनेको भी साथ ले चलनेके लये ाथना २८ ीरामका वनवासके क का वणन करते ए सीताको वहाँ चलनेसे मना करना २९ सीताका ीरामके सम उनके साथ अपने वनगमनका औ च बताना ३० सीताका वनम चलनेके लये अ धक आ ह, वलाप और घबराहट देखकर ीरामका उ साथ ले चलनेक ीकृ त देना, पता-माता और गु जन क सेवाका मह बताना तथा सीताको वनम चलनेक तैयारीके लये घरक व ु का दान करनेक आ ा देना ३१ ीराम और ल णका संवाद, ीरामक आ ासे ल णका सु द से पूछकर और द आयुध लाकर वनगमनके लये तैयार होना, ीरामका उनसे ा ण को धन बाँटनेका वचार करना ३२ सीतास हत ीरामका व स पु सुय को बुलाकर उनके तथा उनक प ीके लये ब मू आभूषण, र और धन आ दका दान तथा ल णस हत ीराम ारा ा ण , चा रय , सेवक , जट ा ण और सु न को धनका वतरण ३३ सीता और ल णस हत ीरामका दु:खी नगरवा सय के मुखसे तरह-तरहक बात सुनते ए पताके दशनके लये कै के यीके महलम जाना ३४ सीता और ल णस हत ीरामका रा नय -स हत राजा दशरथके पास जाकर वनवासके लये वदा माँगना, राजाका शोक और मू ा, ीरामका उ समझाना तथा राजाका ीरामको दयसे लगाकर पुन: मू त हो जाना ३५ सुम के समझाने और फटकारनेपर भी कै के यीका टस-से-मस न होना ३६ राजा दशरथका ीरामके साथ सेना और खजाना भेजनेका आदेश, कै के यी ारा इसका वरोध, स ाथका कै के यीको समझाना तथा राजाका ीरामके साथ जानेक इ ा कट करना ३७ ीराम आ दका व ल-व -धारण, सीताके व ल-धारणसे र नवासक य को खेद तथा गु व स का कै के यीको फटकारते ए सीताके व ल-धारणका अनौ च बताना



३८ राजा दशरथका सीताको व ल धारण कराना अनु चत बताकर कै के यीको फटकारना और ीरामका उनसे कौस ापर कृ पा रखनेके लये अनुरोध करना ३९ राजा दशरथका वलाप, उनक आ ासे सुम का रामके लये रथ जोतकर लाना, कोषा का सीताको ब मू व और आभूषण देना, कौस ाका सीताको प तसेवाका उपदेश, सीताके ारा उसक ीकृ त तथा ीरामका अपनी मातासे पताके त दोष न रखनेका अनुरोध करके अ माता से भी वदा माँगना ४० सीता, राम और ल णका दशरथक प र मा करके कौस ा आ दको णाम करना, सु म ाका ल णको उपदेश, सीता-स हत ीराम और ल णका रथम बैठकर वनक ओर ान, पुरवा सय तथा रा नय स हत महाराज दशरथक शोकाकु ल अव ा ४१ ीरामके वनगमनसे रनवासक य का वलाप तथा नगर नवा सय क शोकाकु ल अव ा ४२ राजा दशरथका पृ ीपर गरना, ीरामके लये वलाप करना, कै के यीको अपने पास आनेसे मना करना और उसे ाग देना, कौस ा और सेवक क सहायतासे उनका कौस ाके भवनम आना और वहाँ भी ीरामके लये दु:खका ही अनुभव करना ४३ महारानी कौस ाका वलाप ४४ सु म ाका कौस ाको आ ासन देना ४५ ीरामका पुरवा सय से भरत और महाराज दशरथके त ेमभाव रखनेका अनुरोध करते ए लौट जानेके लये कहना, नगरके वृ ा ण का ीरामसे लौट चलनेके लये आ ह करना तथा उन सबके साथ ीरामका तमसातटपर प ँ चना ४६ सीता और ल णस हत ीरामका रा म तमसातटपर नवास, माता- पता और अयो ाके लये च ा तथा पुरवा सय को सोते छोड़कर वनक ओर जाना ४७ ात:काल उठनेपर पुरवा सय का वलाप करना और नराश होकर नगरको लौटना ४८ नगर नवा सनी य का वलाप करना ४९ ामवा सय क बात सुनते ए ीरामका कोसल जनपदको लाँघते ए आगे जाना और वेद ु त, गोमती एवं का न दय को पार करके सुम से कु छ कहना ५० ीरामका मागम अयो ापुरीसे वनवासक आ ा माँगना और ृ वेरपुरम ग ातटपर प ँ चकर रा म नवास करना, वहाँ नषादराज गुह ारा उनका स ार ५१ नषादराज गुहके सम ल णका वलाप



५२ ीरामक आ ासे गुहका नाव मँगाना, ीरामका सुम को समझा-बुझाकर अयो ापुरीको लौट जानेके लये आ ा देना और माता-पता आ दसे कहनेके लये संदेश सुनाना, सुम के वनम ही चलनेके लये आ ह करनेपर ीरामका उ यु पूवक समझाकर लौटनेके लये ववश करना, फर तीन का नावपर बैठना, सीताक ग ाजीसे ाथना, नावसे पार उतरकर ीराम आ दका व देशम प ँ चना और सायंकालम एक वृ के नीचे रहनेके लये जाना ५३ ीरामका राजाको उपाल देते ए कै के यीसे कौस ा आ दके अ न क आश ा बताकर ल णको अयो ा लौटानेके लये य करना, ल णका ीरामके बना अपना जीवन अस व बताकर वहाँ जानेसे इनकार करना, फर ीरामका उ वनवासक अनुम त देना ५४ ल ण और सीतास हत ीरामका यागम ग ा-यमुना-संगमके समीप भर ाज-आ मम जाना, मु नके ारा उनका अ त थ-स ार, उ च कू ट पवतपर ठहरनेका आदेश तथा च कू टक मह ा एवं शोभाका वणन ५५ भर ाजजीका ीराम आ दके लये वाचन करके उ च कू टका माग बताना, उन सबका अपने ही बनाये ए बेड़से े यमुनाजीको पार करना, सीताक यमुना और ामवटसे ाथना; तीन का यमुनाके कनारेके मागसे एक कोसतक जाकर वनम घूमना- फरना, यमुनाजीके समतल तटपर रा म नवास करना ५६ वनक शोभा देखते- दखाते ए ीराम आ दका च कू टम प ँ चना, वा ी कजीका दशन करके ीरामक आ ासे ल ण ारा पणशालाका नमाण तथा उसक वा ुशा करके उन सबका कु टीम वेश ५७ सुम का अयो ाको लौटना, उनके मुखसे ीरामका संदेश सुनकर पुरवा सय का वलाप, राजा दशरथ और कौस ाक मू ा तथा अ :पुरक रा नय का आतनाद ५८ महाराज दशरथक आ ासे सुम का ीराम और ल णके संदेश सुनाना ५९ सुम ारा ीरामके शोकसे जड-चेतन एवं अयो ापुरीक दुरव ाका वणन तथा राजा दशरथका वलाप ६० कौस ाका वलाप और सार थ सुम का उ समझाना ६१ कौस ाका वलापपूवक राजा दशरथको उपाल देना ६२ दु:खी ए राजा दशरथका कौस ाको हाथ जोड़कर मनाना और कौस ाका उनके चरण म पड़कर मा माँगना



६३ राजा दशरथका शोक और उनका कौस ासे अपने ारा मु नकु मारके मारे जानेका स सुनाना ६४ राजा दशरथका अपने ारा मु नकु मारके वधसे दु:खी ए उनके माता- पताके वलाप और उनके दये ए शापका संग सुनाकर कौस ाके समीप रोते- बलखते ए आधी रातके समय अपने ाण को ाग देना ६५ व ीजन का ु तपाठ, राजा दशरथको दवंगत आ जान उनक रा नय का क ण वलाप ६६ राजाके लये कौस ाका वलाप और कै के यीक भ ना, म य का राजाके शवको तेलसे भरे ए कड़ाहम सुलाना, रा नय का वलाप, पुरीक ीहीनता और पुरवा सय का शोक ६७ माक ये आ द मु नय तथा म य का राजाके बना होनेवाली देशक दुरव ाका वणन करके व स जीसे कसीको राजा बनानेके लये अनुरोध ६८ व स जीक आ ासे पाँच दूत का अयो ासे के कयदेशके राजगृह नगरम जाना ६९ भरतक च ा, म ारा उ स करनेका यास तथा उनके पूछनेपर भरतका म के सम अपने देखे ए भयंकर दु: का वणन करना ७० दूत का भरतको उनके नाना और मामाके लये उपहारक व ुएँ अ पत करना और व स जीका संदेश सुनाना, भरतका पता आ दक कु शल पूछना और नानासे आ ा तथा उपहारक व ुएँ पाकर श ु के साथ अयो ाक ओर ान करना ७१ रथ और सेनास हत भरतक या ा, व भ ान को पार करके उनका उ हाना नगरीके उ ानम प ँ चना और सेनाको धीरे-धीरे आनेक आ ा दे यं रथ ारा ती वेगसे आगे बढ़ते ए सालवनको पार करके अयो ाके नकट जाना, वहाँसे अयो ाक दुरव ा देखते ए आगे बढ़ना और सार थसे अपना दु:खपूण उ ार कट करते ए राजभवनम वेश करना ७२ भरतका कै के यीके भवनम जाकर उसे णाम करना, उसके ारा पताके परलोकवासका समाचार पा दु:खी हो वलाप करना तथा ीरामके वषयम पूछनेपर कै के यी ारा उनका ीरामके वनगमनके वृ ा से अवगत होना ७३ भरतका कै के यीको ध ारना और उसके त महान् रोष कट करना ७४ भरतका कै के यीको कड़ी फटकार देना



७५ कौस ाके सामने भरतका शपथ खाना ७६ राजा दशरथका अ े सं ार ७७ भरतका पताके ा म ा ण को ब त धन-र आ दका दान देना, तेरहव दन अ संचयका शेष काय पूण करनेके लये पताक चताभू मपर जाकर भरत और श ु का वलाप करना और व स तथा सुम का उ समझाना ७८ श ु का रोष, उनका कु ाको घसीटना और भरतजीके कहनेसे उसे मू त अव ाम छोड़ देना ७९ म ी आ दका भरतसे रा हण करनेके लये ाव तथा भरतका अ भषेक-साम ीक प र मा करके ीरामको ही रा का अ धकारी बताकर उ लौटा लानेके लये चलनेके न म व ा करनेक सबको आ ा देना ८० अयो ासे ग ातटतक सुर श वर और कू प आ दसे यु सुखद राजमागका नमाण ८१ ात:कालके म लवा -घोषको सुनकर भरतका दु:खी होना और उसे बंद कराकर वलाप करना, व स जीका सभाम आकर म ी आ दको बुलानेके लये दूत भेजना ८२ व स जीका भरतको रा पर अ भ ष होनेके लये आदेश देना तथा भरतका उसे अनु चत बताकर अ ीकार करना और ीरामको लौटा लानेके लये वनम चलनेक तैयारीके न म सबको आदेश देना ८३ भरतक वनया ा और ृ वेरपुरम रा वास ८४ नषादराज गुहका अपने ब ु को नदीक र ा करते ए यु के लये तैयार रहनेका आदेश दे भटक साम ी ले भरतके पास जाना और उनसे आ त ीकार करनेके लये अनुरोध करना ८५ गुह और भरतक बातचीत तथा भरतका शोक ८६ नषादराज गुहके ारा ल णके स ाव और वलापका वणन ८७ भरतक मू ासे गुह, श ु और माता का दु:खी होना, होशम आनेपर भरतका गुहसे ीराम आ दके भोजन और शयन आ दके वषयम पूछना और गुहका उ सब बात बताना ८८ ीरामक कु श-श ा देखकर भरतका शोकपूण उ ार तथा यं भी व ल और जटाधारण करके वनम रहनेका वचार कट करना ८९ भरतका सेनास हत ग ापार करके भर ाजके आ मपर जाना



९० भरत और भर ाज मु नक भट एवं बातचीत तथा मु नका अपने आ मपर ही ठहरनेका आदेश देना ९१ भर ाज मु नके ारा सेनास हत भरतका द स ार ९२ भरतका भर ाज मु नसे जानेक आ ा लेते ए ीरामके आ मपर जानेका माग जानना और मु नको अपनी माता का प रचय देकर वहाँसे च कू टके लये सेनास हत ान करना ९३ सेनास हत भरतक च कू ट-या ाका वणन ९४ ीरामका सीताको च कू टक शोभा दखाना ९५ ीरामका सीताके त म ा कनी नदीक शोभाका वणन ९६ वन-ज ु के भागनेका कारण जाननेके लये ीरामक आ ासे ल णका शाल-वृ पर चढ़कर भरतक सेनाको देखना और उनके त अपना रोषपूण उ ार कट करना ९७ ीरामका ल णके रोषको शा करके भरतके स ावका वणन करना, ल णका ल त हो ीरामके पास खड़ा होना और भरतक सेनाका पवतके नीचे छावनी डालना ९८ भरतके ारा ीरामके आ मक खोजका ब तथा उ आ मका दशन ९९ भरतका श ु आ दके साथ ीरामके आ मपर जाना, उनक पणशालाको देखना तथा रोते-रोते उनके चरण म गर जाना, ीरामका उन सबको दयसे लगाना और मलना १०० ीरामका भरतको कु शल- के बहाने राजनी तका उपदेश करना १०१ ीरामका भरतसे वनम आगमनका योजन पूछना, भरतका उनसे रा हण करनेके लये कहना और ीरामका उसे अ ीकार कर देना १०२ भरतका पुन: ीरामसे रा हण करनेका अनुरोध करके उनसे पताक मृ ुका समाचार बताना १०३ ीराम आ दका वलाप, पताके लये जला ल-दान, प दान और रोदन १०४ व स जीके साथ आती ◌इ कौस ाका म ा कनीके तटपर सु म ा आ दके सम दु:खपूण उ ार, ीराम, ल ण और सीताके ारा माता क चरण-व ना तथा व स जीको णाम करके ीराम आ दका सबके साथ बैठना १०५ भरतका ीरामको अयो ाम चलकर रा हण करनेके लये कहना, ीरामका जीवनक अ न ता बताते ए पताक मृ ुके लये शोक न करनेका भरतको उपदेश देना



और पताक आ ाका पालन करनेके लये ही रा हण न करके वनम रहनेका ही ढ़ न य बताना १०६ भरतक पुन: ीरामसे अयो ा लौटने और रा हण करनेक ाथना १०७ ीरामका भरतको समझाकर उ अयो ा जानेका आदेश देना १०८ जाबा लका ना क के मतका अवल न करके ीरामको समझाना १०९ ीरामके ारा जाबा लके ना क मतका ख न करके आ क मतका ापन ११० व स जीका सृ -पर राके साथ इ ाकु कु ल-क पर रा बताकर े के ही रा ा भषेकका औ च स करना और ीरामसे रा हण करनेके लये कहना १११ व स जीके समझानेपर भी ीरामको पताक आ ाके पालनसे वरत होते न देख भरतका धरना देनेको तैयार होना तथा ीरामका उ समझाकर अयो ा लौटनेक आ ा देना ११२ ऋ षय का भरतको ीरामक आ ाके अनुसार लौट जानेक सलाह देना, भरतका पुन: ीरामके चरण म गरकर चलनेक ाथना करना, ीरामका उ समझाकर अपनी चरणपादुका देकर उन सबको वदा करना ११३ भरतका भर ाजसे मलते ए अयो ाको लौट आना ११४ भरतके ारा अयो ाक दुरव ाका दशन तथा अ :पुरम वेश करके भरतका दु:खी होना ११५ भरतका न ामम जाकर ीरामक चरण-पादुका को रा पर अ भ ष करके उ नवेदनपूवक रा का सब काय करना ११६ वृ कु लप तस हत ब त-से ऋ षय का च कू ट छोड़कर दूसरे आ मम जाना ११७ ीराम आ दका अ मु नके आ मपर जाकर उनके ारा स ृ त होना तथा अनसूया ारा सीताका स ार ११८ सीता-अनसूया-संवाद, अनसूयाका सीताको ेमोपहार देना तथा अनसूयाके पूछनेपर सीताका उ अपने यंवरक कथा सुनाना ११९ अनसूयाक आ ासे सीताका उनके दये ए व ाभूषण को धारण करके ीरामजीके पास आना तथा ीराम आ दका रा म आ मपर रहकर ात:काल अ जानेके लये ऋ षय से वदा लेना (अर



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१ ीराम, ल ण और सीताका तापस के आ मम लम स ार



२ वनके भीतर ीराम, ल ण और सीतापर वराधका आ मण ३ वराध और ीरामक बातचीत, ीराम और ल णके ारा वराधपर हार तथा वराधका इन दोन भाइय को साथ लेकर दूसरे वनम जाना ४ ीराम और ल णके ारा वराधका वध ५ ीराम, ल ण और सीताका शरभ मु नके आ मपर जाना, देवता का दशन करना और मु नसे स ा नत होना तथा शरभ मु नका लोक-गमन ६ वान मु नय का रा स के अ ाचारसे अपनी र ाके लये ीरामच जीसे ाथना करना और ीरामका उ आ ासन देना ७ सीता और ातास हत ीरामका सुती णके आ मपर जाकर उनसे बातचीत करना तथा उनसे स ृ त हो रातम वह ठहरना ८ ात:काल सुती णसे वदा ले ीराम, ल ण, सीताका वहाँसे ान ९ सीताका ीरामसे नरपराध ा णय को न मारने और अ हसा-धमका पालन करनेके लये अनुरोध १० ीरामका ऋ षय क र ाके लये रा स के वधके न म क ◌इ त ाके पालनपर ढ़ रहनेका वचार कट करना ११ प ा र तीथ एवं मा क ण मु नक कथा, व भ आ म म घूमकर ीराम आ दका सुती णके आ मम आना, वहाँ कु छ कालतक रहकर उनक आ ासे अग के भा◌इ तथा अग के आ मपर जाना तथा अग के भावका वणन १२ ीराम आ दका अग के आ मम वेश, अ त थ-स ार तथा मु नक ओरसे उ द अ -श क ा १३ मह ष अग का ीरामके त अपनी स ता कट करके सीताक शंसा करना, ीरामके पूछनेपर उ प वटीम आ म बनाकर रहनेका आदेश देना तथा ीराम आ दका ान १४ प वटीके मागम जटायुका मलना और ीरामको अपना व ृत प रचय देना. १५ प वटीके रमणीय देशम ीरामक आ ासे ल ण ारा सु र पणशालाका नमाण तथा उसम सीता और ल णस हत ीरामका नवास १६ ल णके ारा हेम ऋतुका वणन और भरतक शंसा तथा ीरामका उन दोन के साथ गोदावरी नदीम ान



१७ ीरामके आ मम शूपणखाका आना, उनका प रचय जानना और अपना प रचय देकर उनसे अपनेको भायाके पम हण करनेके लये अनुरोध करना १८ ीरामके टाल देनेपर शूपणखाका ल णसे णययाचना करना, फर उनके भी टालनेपर उसका सीतापर आ मण और ल णका उसके नाक-कान काट लेना १९ शूपणखाके मुखसे उसक दुदशाका वृ ा सुनकर ोधम भरे ए खरका ीराम आ दके वधके लये चौदह रा स को भेजना २० ीराम ारा खरके भेजे ए चौदह रा स का वध २१ शूपणखाका खरके पास आकर उन रा स के वधका समाचार बताना और रामका भय दखाकर उसे यु के लये उ े जत करना २२ चौदह हजार रा स क सेनाके साथ खर-दूषणका जन ानसे प वटीक ओर ान ४०९ २३ भयंकर उ ात को देखकर भी खरका उनक परवा नह करना तथा रा स-सेनाका ीरामके आ मके समीप प ँ चना २४ ीरामका ता ा लक शकु न ारा रा स के वनाश और अपनी वजयक स ावना करके सीतास हत ल णको पवतक गुफाम भेजना और यु के लये उ त होना २५ रा स का ीरामपर आ मण और ीरामच जीके ारा रा स का संहार २६ ीरामके ारा दूषणस हत चौदह सह रा स का वध २७ शराका वध २८ खरके साथ ीरामका घोर यु २९ ीरामका खरको फटकारना तथा खरका भी उ कठोर उ र देकर उनके ऊपर गदाका हार करना और ीराम ारा उस गदाका ख न ३० ीरामके करनेपर खरका उ फटकारकर उनके ऊपर सालवृ का हार करना, ीरामका उस वृ को काटकर एक तेज ी बाणसे खरको मार गराना तथा देवता और मह षय ारा ीरामक शंसा ३१ रावणका अक नक सलाहसे सीताका अपहरण करनेके लये जाना और मारीचके कहनेसे ल ाको लौट आना ३२ शूपणखाका ल ाम रावणके पास जाना ३३ शूपणखाका रावणको फटकारना



३४ रावणके पूछनेपर शूपणखाका उससे राम, ल ण और सीताका प रचय देते ए सीताको भाया बनानेके लये उसे े रत करना ३५ रावणका समु तटवत ा क शोभा देखते ए पुन: मारीचके पास जाना ३६ रावणका मारीचसे ीरामके अपराध बताकर उनक प ी सीताके अपहरणम सहायताके लये कहना ३७ मारीचका रावणको ीरामच जीके गुण और भाव बताकर सीताहरणके उ ोगसे रोकना ३८ ीरामक श के वषयम अपना अनुभव बताकर मारीचका रावणको उनका अपराध करनेसे मना करना ३९ मारीचका रावणको समझाना ४० रावणका मारीचको फटकारना और सीताहरणके कायम सहायता करनेक आ ा देना ४१ मारीचका रावणको वनाशका भय दखाकर पुन: समझाना ४२ मारीचका सुवणमय मृग प धारण करके ीरामके आ मपर जाना और सीताका उसे देखना ४३ कपटमृगको देखकर ल णका संदेह, सीताका उस मृगको जी वत या मृत अव ाम भी ले आनेके लये ीरामको े रत करना तथा ीरामका ल णको समझा-बुझाकर सीताक र ाका भार स पकर उस मृगको मारनेके लये जाना ४४ ीरामके ारा मारीचका वध और उसके ारा सीता और ल णके पुकारनेका श सुनकर ीरामक च ा ४५ सीताके मा मक वचन से े रत होकर ल णका ीरामके पास जाना ४६ रावणका साधुवेषम सीताके पास जाकर उनका प रचय पूछना और सीताका आ त के लये उसे आम त करना ४७ सीताका रावणको अपना और प तका प रचय देकर वनम आनेका कारण बताना, रावणका उ अपनी पटरानी बनानेक इ ा कट करना और सीताका उसे फटकारना ४८ रावणके ारा अपने परा मका वणन और सीता ारा उसको कड़ी फटकार ४९ रावण ारा सीताका अपहरण, सीताका वलाप और उनके ारा जटायुका दशन ५० जटायुका रावणको सीताहरणके दु मसे नवृ होनेके लये समझाना और अ म यु के लये ललकारना ५१ जटायु तथा रावणका घोर यु और रावणके ारा जटायुका वध



५२ रावण ारा सीताका अपहरण ५३ सीताका रावणको ध ारना ५४ सीताका पाँच वानर के बीच अपने भूषण और व को गराना, रावणका ल ाम प ँ चकर सीताको अ :पुरम रखना तथा जन ानम आठ रा स को गु चरके पम रहनेके लये भेजना ५५ रावणका सीताको अपने अ :पुरका दशन कराना और अपनी भाया बन जानेके लये समझाना ५६ सीताका ीरामके त अपना अन अनुराग दखाकर रावणको फटकारना तथा रावणक आ ासे रा सय का उ अशोकवा टकाम ले जाकर डराना    ( सग)— ाजीक आ ासे देवराज इ का न ास हत ल ाम जाकर सीताको द खीर अ पत करना और उनसे वदा लेकर लौटना ५७ ीरामका लौटना, मागम अपशकु न देखकर च त होना तथा ल णसे मलनेपर उ उलाहना दे सीतापर संकट आनेक आश ा करना ५८ मागम अनेक कारक आश ा करते ए ल णस हत ीरामका आ मम आना और वहाँ सीताको न पाकर थत होना ५९ ीराम और ल णक बातचीत ६० ीरामका वलाप करते ए वृ और पशु से सीताका पता पूछना, ा होकर रोना और बार ार उनक खोज करना ६१ ीराम और ल णके ारा सीताक खोज और उनके न मलनेसे ीरामक ाकु लता ६२ ीरामका वलाप ६३ ीरामका वलाप ६४ ीराम और ल णके ारा सीताक खोज, ीरामका शोको ार, मृग ारा संकेत पाकर दोन भाइय का द ण दशाक ओर जाना, पवतपर ोध, सीताके बखरे ए फू ल, आभूषण के कण और यु के च देखकर ीरामका देवता आ द स हत सम लोक पर रोष कट करना ६५ ल णका ीरामको समझा-बुझाकर शा करना ६६ ल णका ीरामको समझाना ६७ ीराम और ल णक प राज जटायुसे भट तथा ीरामका उ गलेसे लगाकर रोना



६८ जटायुका ाण- ाग और ीराम ारा उनका दाह-सं ार ६९ ल णका अयोमुखीको द देना तथा ीराम और ल णका कब के बा ब म पड़कर च त होना ७० ीराम और ल णका पर र वचार करके कब क दोन भुजा को काट डालना तथा कब के ारा उनका ागत ७१ कब क आ कथा, अपने शरीरका दाह हो जानेपर उसका ीरामको सीताके अ ेषणम सहायता देनेका आ ासन ७२ ीराम और ल णके ारा चताक आगम कब का दाह तथा उसका द पम कट होकर उ सु ीवसे म ता करनेके लये कहना ७३ द पधारी कब का ीराम और ल णको ऋ मूक और प ासरोवरका माग बताना तथा मत मु नके वन एवं आ मका प रचय देकर ान करना ७४ ीराम और ल णका प ासरोवरके तटपर मत वनम शबरीके आ मपर जाना, उसका स ार हण करना और उसके साथ मत वनको देखना, शबरीका अपने शरीरक आ त दे द धामको ान करना. ७५ ीराम और ल णक बातचीत तथा उन दोन भाइय का प ासरोवरके तटपर जाना (क



ाका



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१ प ासरोवरके दशनसे ीरामक ाकु लता, ीरामका ल णसे प ाक शोभा तथा वहाँक उ ीपनसाम ीका वणन करना, ल णका ीरामको समझाना तथा दोन भाइय को ऋ मूकक ओर आते देख सु ीव तथा अ वानर का भयभीत होना २ सु ीव तथा वानर क आश ा, हनुमा ी ारा उसका नवारण तथा सु ीवका हनुमा ीको ीराम-ल णके पास उनका भेद लेनेके लये भेजना ३ हनुमा ीका ीराम और ल णसे वनम आनेका कारण पूछना और अपना तथा सु ीवका प रचय देना, ीरामका उनके वचन क शंसा करके ल णको अपनी ओरसे बात करनेक आ ा देना तथा ल ण ारा अपनी ाथना ीकृ त होनेसे हनुमा ीका स होना ४ ल णका हनुमा ीसे ीरामके वनम आने और सीताजीके हरे जानेका वृ ा बताना तथा इस कायम सु ीवके सहयोगक इ ा कट करना, हनुमा ीका उ आ ासन देकर उन दोन भाइय को अपने साथ ले जाना



५ ीराम और सु ीवक मै ी तथा ीराम ारा वा लवधक त ा ६ सु ीवका ीरामको सीताजीके आभूषण दखाना तथा ीरामका शोक एवं रोषपूण वचन ७ सु ीवका ीरामको समझाना तथा ीरामका सु ीवको उनक काय स का व ास दलाना ८ सु ीवका ीरामसे अपना दु:ख नवेदन करना और ीरामका उ आ ासन देते ए दोन भाइय म वैर होनेका कारण पूछना ९ सु ीवका ीरामच जीको वालीके साथ अपने वैर होनेका कारण बताना १० भा◌इके साथ वैरका कारण बतानेके स म सु ीवका वालीको मनाने और वाली ारा अपने न ा सत होनेका वृ ा सुनाना ११ सु ीवके ारा वालीके परा मका वणन— वालीका दु ु भ दै को मारकर उसक लाशको मत वनम फ कना, मत मु नका वालीको शाप देना, ीरामका दु ु भके अ समूहको दूर फ कना और सु ीवका उनसे साल-भेदनके लये आ ह करना १२ ीरामके ारा सात साल-वृ का भेदन, ीरामक आ ासे सु ीवका क ाम आकर वालीको ललकारना और यु म उससे परा जत होकर मत वनम भाग जाना, वहाँ ीरामका उ आ ासन देना और गलेम पहचानके लये गजपु ीलता डालकर उ पुन: यु के लये भेजना १३ ीराम आ दका मागम वृ , व वध ज ु , जलाशय तथा स जन आ मका दूरसे दशन करते ए पुन: क ापुरीम प ँ चना १४ वाली-वधके लये ीरामका आ ासन पाकर सु ीवक वकट गजना १५ सु ीवक गजना सुनकर वालीका यु के लये नकलना और ताराका उसे रोककर सु ीव और ीरामके साथ मै ी कर लेनेके लये समझाना १६ वालीका ताराको डाँटकर लौटाना और सु ीवसे जूझना तथा ीरामके बाणसे घायल होकर पृ ीपर गरना १७ वालीका ीरामच जीको फटकारना १८ ीरामका वालीक बातका उ र देते ए उसे दये गये द का औ च बताना, वालीका न र होकर भगवा े अपने अपराधके लये मा माँगते ए अ दक र ाके लये ाथना करना और ीरामका उसे आ ासन देना



१९ अ दस हत ताराका भागे ए वानर से बात करके वालीके समीप आना और उसक दुदशा देखकर रोना २० ताराका वलाप २१ हनुमा ीका ताराको समझाना और ताराका प तके अनुगमनका ही न य करना २२ वालीका सु ीव और अ दसे अपने मनक बात कहकर ाण को ाग देना २३ ताराका वलाप २४ सु ीवका शोकम होकर ीरामसे ाण ागके लये आ ा माँगना, ताराका ीरामसे अपने वधके लये ाथना करना और ीरामका उसे समझाना २५ ल णस हत ीरामका सु ीव, तारा और अ दको समझाना तथा वालीके दाह-सं ारके लये आ ा दान करना, फर तारा आ दस हत सब वानर का वालीके शवको शानभू मम ले जाकर अ दके ारा उसका दाह-सं ार कराना और उसे जला ल देना २६ हनुमा ीका सु ीवके अ भषेकके लये ीरामच जीसे क ाम पधारनेक ाथना, ीरामका पुरीम न जाकर के वल अनुम त देना त ात् सु ीव और अ दका अ भषेक २७ वण ग रपर ीराम और ल णक पर र बातचीत २८ ीरामके ारा वषा-ऋतुका वणन. २९ हनुमा ीके समझानेसे सु ीवका नीलको वानर-सै नक को एक करनेका आदेश देना ३० शरद-् ऋतुका वणन तथा ीरामका ल णको सु ीवके पास जानेका आदेश देना ३१ सु ीवपर ल णका रोष, ीरामका उ समझाना, ल णका क ाके ारपर जाकर अ दको सु ीवके पास भेजना, वानर का भय तथा और भावका सु ीवको कत का उपदेश देना ३२ हनुमा ीका च त ए सु ीवको समझाना ३३ ल णका क ापुरीक शोभा देखते ए सु ीवके महलम वेश करके ोधपूवक धनुषको टंकारना, भयभीत सु ीवका ताराको उ शा करनेके लये भेजना तथा ताराका समझा-बुझाकर उ अ :पुरम ले आना ३४ सु ीवका ल णके पास जाना और ल णका उ फटकारना ३५ ताराका ल णको यु यु वचन ारा शा करना ३६ सु ीवका अपनी लघुता तथा ीरामक मह ा बताते ए ल णसे मा माँगना और ल णका उनक शंसा करके उ अपने साथ चलनेके लये कहना.



३७ सु ीवका हनुमा ीको वानरसेनाके सं हके लये दोबारा दूत भेजनेक आ ा देना, उन दूत से राजाक आ ा सुनकर सम वानर का क ाके लये ान और दूत का लौटकर सु ीवको भट देनेके साथ ही वानर के आगमनका समाचार सुनाना ३८ ल णस हत सु ीवका भगवान् ीरामके पास आकर उनके चरण म णाम करना, ीरामका उ समझाना, सु ीवका अपने कये ए सै सं ह वषयक उ ोगको बताना और उसे सुनकर ीरामका स होना ३९ ीरामच जीका सु ीवके त कृ त ता कट करना तथा व भ वानर-यूथप तय का अपनी सेना के साथ आगमन ४० ीरामक आ ासे सु ीवका सीताक खोजके लये पूव दशाम वानर को भेजना और वहाँके ान का वणन करना ४१ सु ीवका द ण दशाके ान का प रचय देते ए वहाँ मुख वानर वीर को भेजना. ४२ सु ीवका प म दशाके ान का प रचय देते ए सुषेण आ द वानर को वहाँ भेजना ४३ सु ीवका उ र दशाके ान का प रचय देते ए शतब ल आ द वानर को वहाँ भेजना ४४ ीरामका हनुमा ीको अँगूठी देकर भेजना ४५ व भ दशा म जाते ए वानर का सु ीवके सम अपने उ ाहसूचक वचन सुनाना ४६ सु ीवका ीरामच जीको अपने भूम ल- मणका वृ ा बताना ४७ पूव आ द तीन दशा म गये ए वानर का नराश होकर लौट आना ४८ द ण दशाम गये ए वानर का सीताक खोज आर करना ४९ अ द और ग मादनके आ ासन देनेपर वानर का पुन: उ ाहपूवक अ ेषण-कायम वृ होना ५० भूख-े ासे वानर का एक गुफाम घुसकर वहाँ द वृ , द सरोवर, द भवन तथा एक वृ ा तप नीको देखना और हनुमा ीका उससे उसका प रचय पूछना ५१ हनुमा ीके पूछनेपर वृ ा तापसीका अपना तथा उस द ानका प रचय देकर सब वानर को भोजनके लये कहना ५२ तापसी यं भाके पूछनेपर वानर का उसे अपना वृ ा बताना और उसके भावसे गुफाके बाहर नकलकर समु तटपर प ँ चना ५३ लौटनेक अव ध बीत जानेपर भी काय स न होनेके कारण सु ीवके कठोर द से डरनेवाले अ द आ द वानर का उपवास करके ाण ाग देनेका न य



५४ हनुमा ीका भेदनी तके ारा वानर को अपने प म करके अ दको अपने साथ चलनेके लये समझाना ५५ अ दस हत वानर का ायोपवेशन ५६ स ा तसे वानर को भय, उनके मुखसे जटायुके वधक बात सुनकर स ा तका दु:खी होना और अपनेको नीचे उतारनेके लये वानर से अनुरोध करना ५७ अ दका स ा तको पवत- शखरसे नीचे उतारकर उ जटायुके मारे जानेका वृ ा बताना तथा राम-सु ीवक म ता एवं वा लवधका स सुनाकर अपने आमरण उपवासका कारण नवेदन करना ५८ स ा तका अपने पंख जलनेक कथा सुनाना, सीता और रावणका पता बताना तथा वानर क सहायतासे समु तटपर जाकर भा◌इको जला ल देना ५९ स ा तका अपने पु सुपा के मुखसे सुनी ◌इ सीता और रावणको देखनेक घटनाका वृ ा बताना ६० स ा तक आ कथा ६१ स ा तका नशाकर मु नको अपने पंखके जलनेका कारण बताना ६२ नशाकर मु नका स ा तको सा ना देते ए उ भावी ीरामच जीके कायम सहायता देनेके लये जी वत रहनेका आदेश देना ६३ स ा तका पंखयु होकर वानर को उ ा हत करके उड़ जाना और वानर का वहाँसे द ण दशाक ओर ान करना ६४ समु क वशालता देखकर वषादम पड़े ए वानर को आ ासन दे अ दका उनसे पृथक् पृथक् समु -ल नके लये उनक श पूछना ६५ बारी-बारीसे वानर-वीर के ारा अपनी-अपनी गमनश का वणन, जा वान् और अंगदक बातचीत तथा जा वा ा हनुमा ीको े रत करनेके लये उनके पास जाना ६६ जा वा ा हनुमा ीको उनक उ कथा सुनाकर समु ल नके लये उ ा हत करना ६७ हनुमा ीका समु लाँघनेके लये उ ाह कट करना, जा वा े ारा उनक शंसा तथा वेगपूवक छलाँग मारनेके लये हनुमा ीका महे पवतपर चढ़ना (सु रका



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१- हनुमा ीके ारा समु का ल न, मैनाकके ारा उनका ागत, सुरसापर उनक वजय तथा स हकाका वध करके उनका समु के उस पार प ँ चकर ल ाक शोभा देखना



२- ल ापुरीका वणन, उसम वेश करनेके वषयम हनुमा ीका वचार, उनका लघु पसे पुरीम वेश तथा च ोदयका वणन ३- ल ापुरीका अवलोकन करके हनुमा ीका व त होना, उसम वेश करते समय नशाचरी ल ाका उ रोकना और उनक मारसे व ल होकर उ पुरीम वेश करनेक अनुम त देना ४- हनुमा ीका ल ापुरी एवं रावणके अ :पुरम वेश ५- हनुमा ीका रावणके अ :पुरम घर-घरम सीताको ढूँ ढ़ना और उ न देखकर दु:खी होना ६- हनुमा ीका रावण तथा अ ा रा स के घर म सीताजीक खोज करना ७- रावणके भवन एवं पु क वमानका वणन ८- हनुमा ीके ारा पुन: पु क वमानका दशन ९- हनुमा ीका रावणके े भवन, पु क वमान तथा रावणके रहनेक सु र हवेलीको देखकर उसके भीतर सोयी ◌इ सह सु री य का अवलोकन करना १०- हनुमा ीका अ :पुरम सोये ए रावण तथा गाढ़ न ाम पड़ी ◌इ उसक य को देखना तथा म ोदरीको सीता समझकर स होना ११- वह सीता नह है—ऐसा न य होनेपर हनुमा ीका पुन: अ :पुरम और उसक पानभू मम सीताका पता लगाना, उनके मनम धमलोपक आश ा और त: उसका नवारण होना १२- सीताके मरणक आश ासे हनुमा ीका श थल होना; फर उ ाहका आ य लेकर अ ान म उनक खोज करना और कह भी पता न लगनेसे पुन: उनका च त होना १३- सीताजीके नाशक आश ासे हनुमा ीक च ा, ीरामको सीताके न मलनेक सूचना देनेसे अनथक स ावना देख हनुमा ीका न लौटनेका न य करके पुन: खोजनेका वचार करना और अशोकवा टकाम ढूँ ढ़नेके वषयम तरहतर हक बात सोचना १४- हनुमा ीका अशोकवा टकाम वेश करके उसक शोभा देखना तथा एक अशोक-वृ पर छपे रहकर वह से सीताका अनुस ान करना १५- वनक शोभा देखते ए हनुमा ीका एक चै ासाद (म र)-के पास सीताको दयनीय अव ाम देखना, पहचानना और स होना १६- हनुमा ीका मन-ही-मन सीताजीके शील और सौ यक सराहना करते ए उ क म पड़ी देख यं भी उनके लये शोक करना १७- भयंकर रा सय से घरी ◌इ सीताके दशनसे हनुमा ीका स होना १८- अपनी य से घरे ए रावणका अशोक-वा टकाम आगमन और हनुमा ीका उसे देखना



१९- रावणको देखकर दु:ख, भय और च ाम डू बी ◌इ सीताक अव ाका वणन २०- रावणका सीताजीको लोभन २१- सीताजीका रावणको समझाना और उसे ीरामके सामने नग बताना २२- रावणका सीताको दो मासक अव ध देना, सीताका उसे फटकारना, फर रावणका उ धमकाकर रा सय के नय णम रखकर य स हत पुन: महलको लौट जाना २३- रा सय का सीताजीको समझाना २४- सीताजीका रा सय क बात माननेसे इनकार कर देना तथा रा सय का उ मारनेकाटनेक धमक देना २५- रा सय क बात माननेसे इनकार करके शोक-संत सीताका वलाप करना २६- सीताका क ण- वलाप तथा अपने ाण को ाग देनेका न य करना २७- जटाका , रा स के वनाश और ीरघुनाथजीक वजयक शुभ सूचना. २८- वलाप करती ◌इ सीताका ाण- ागके लये उ त होना २९- सीताजीके शुभ शकु न ३०- सीताजीसे वातालाप करनेके वषयम हनुमा ीका वचार करना ३१- हनुमा ीका सीताको सुनानेके लये ीराम-कथाका वणन करना ३२- सीताजीका तक- वतक ३३- सीताजीका हनुमा ीको अपना प रचय देते ए अपने वनगमन और अपहरणका वृ ा बताना ३४- सीताजीका हनुमा ीके त संदेह और उसका समाधान तथा हनुमा ीके ारा ीरामच जीके गुण का गान ३५- सीताजीके पूछनेपर हनुमा ीका ीरामके शारी रक च और गुण का वणन करना तथा नर-वानरक म ताका स सुनाकर सीताजीके मनम व ास उ करना ३६- हनुमा ीका सीताको मु का देना, सीताका ‘ ीराम कब मेरा उ ार करगे’ यह उ ुक होकर पूछना तथा हनुमा ीका ीरामके सीता वषयक ेमका वणन करके उ सा ना देना ३७- सीताका हनुमा ीसे ीरामको शी बुलानेका आ ह, हनुमा ीका सीतासे अपने साथ चलनेका अनुरोध तथा सीताका अ ीकार करना



३८- सीताजीका हनुमा ीको पहचानके पम च कू ट पवतपर घ टत ए एक कौएके स को सुनाना, भगवान् ीरामको शी बुला लानेके लये अनुरोध करना और चूड़ाम ण देना ३९- चूड़ाम ण लेकर जाते ए हनुमा ीसे सीताका ीराम आ दको उ ा हत करनेके लये कहना तथा समु -तरणके वषयम श त ◌इ सीताको वानर का परा म बताकर हनुमा ीका आ ासन देना ४०- सीताका ीरामसे कहनेके लये पुन: संदेश देना तथा हनुमा ीका उ आ ासन दे उ र दशाक ओर जाना ४१- हनुमा ीके ारा मदावन (अशोक-वा टका)-का व ंस ४२- रा सय के मुखसे एक वानरके ारा मदावनके व ंसका समाचार सुनकर रावणका ककर नामक रा स को भेजना और हनुमा ीके ारा उन सबका संहार ४३- हनुमा ीके ारा चै ासादका व ंस तथा उसके र क का वध ४४- ह -पु ज ुमालीका वध ४५- म ीके सात पु का वध ४६- रावणके पाँच सेनाप तय का वध ४७- रावणपु अ कु मारका परा म और वध ४८- इ जत् और हनुमा ीका यु , उसके द ा के ब नम बँधकर हनुमा ीका रावणके दरबारम उप त होना ४९- रावणके भावशाली पको देखकर हनुमा ीके मनम अनेक कारके वचार का उठना ५०- रावणका ह के ारा हनुमा ीसे ल ाम आनेका कारण पुछवाना और हनुमा ा अपनेको ीरामका दूत बताना. ५१- हनुमा ीका ीरामके भावका वणन करते ए रावणको समझाना ५२- वभीषणका दूतके वधको अनु चत बताकर उसे दूसरा को◌इ द देनेके लये कहना तथा रावणका उनके अनुरोधको ीकार कर लेना ५३- रा स का हनुमा ीक पूँछम आग लगाकर उ नगरम घुमाना ५४- ल ापुरीका दहन और रा स का वलाप ५५- सीताजीके लये हनुमा ीक च ा और उसका नवारण ५६- हनुमा ीका पुन: सीताजीसे मलकर लौटना और समु को लाँघना



५७- हनुमा ीका समु को लाँघकर जा वान् और अ द आ द सु द से मलना ५८- जा वा े पूछनेपर हनुमा ीका अपनी ल ाया ाका सारा वृ ा सुनाना ५९- हनुमा ीका सीताक दुरव ा बताकर वानर को ल ापर आ मण करनेके लये उ े जत करना ६०- अ दका ल ाको जीतकर सीताको ले आनेका उ ाहपूण वचार और जा वा े ारा उसका नवारण ६१- वानर का मधुवनम जाकर वहाँके मधु एवं फल का मनमाना उपभोग करना और वनर कको घसीटना ६२- वानर ारा मधुवनके र क और द धमुखका पराभव तथा सेवक स हत द धमुखका सु ीवके पास जाना ६३- द धमुखसे मधुवनके व ंसका समाचार सुनकर सु ीवका हनुमान् आ द वानर क सफलताके वषयम अनुमान ६४- द धमुखसे सु ीवका संदेश सुनकर अ द-हनुमान् आ द वानर का क ाम प ँ चना और हनुमा ीका ीरामको णाम करके सीता देवीके दशनका समाचार बताना ६५- हनुमा ीका ीरामको सीताका समाचार सुनाना ६६- चूड़ाम णको देखकर और सीताका समाचार पाकर ीरामका उनके लये वलाप ६७- हनुमा ीका भगवान् ीरामको सीताका संदेश सुनाना ६८- हनुमा ीका सीताके संदेह और अपने ारा उनके नवारणका वृ ा बताना (यु का



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१- हनुमा ीक शंसा करके ीरामका उ दयसे लगाना और समु को पार करनेके लये च त होना २- सु ीवका ीरामको उ ाह दान करना ३- हनुमा ीका ल ाके दुग, फाटक, सेना वभा ग और सं म आ दका वणन करके भगवान् ीरामसे सेनाको कू च करनेक आ ा देनेके लये ाथना करना ४- ीराम आ दके साथ वानर-सेनाका ान और समु -तटपर उसका पड़ाव ५- ीरामका सीताके लये शोक और वलाप ६- रावणका कत - नणयके लये अपने म य से समु चत सलाह देनेका अनुरोध करना



७- रा स का रावण और इ ज े बल-परा मका वणन करते ए उसे रामपर वजय पानेका व ास दलाना ८- ह , दुमुख, व दं , नकु और व हनुका रावणके सामने श ु-सेनाको मार गरानेका उ ाह दखाना ९- वभीषणका रावणसे ीरामक अजेयता बताकर सीताको लौटा देनेके लये अनुरोध करना १०- वभीषणका रावणके महलम जाना, उसे अपशकु न का भय दखाकर सीताको लौटा देनेके लये ाथना करना और रावणका उनक बात न मानकर उ वहाँसे वदा कर देना ११- रावण और उसके सभासद का सभाभवनम एक होना १२-नगरक र ाके लये सै नक क नयु , रावणका सीताके त अपनी आस बताकर उनके हरणका संग बताना और भावी कत के लये सभासद क स त माँगना, कु कणका पहले तो उसे फटकारना, फर सम श ु के वधका यं ही भार उठाना १३- महापा का रावणको सीतापर बला ारके लये उकसाना और रावणका शापके कारण अपनेको ऐसा करनेम असमथ बताना तथा अपने परा मके गीत गाना १४- वभीषणका रामको अजेय बताकर उनके पास सीताको लौटा देनेक स त देना १५- इ ज ारा वभीषणका उपहास तथा वभीषणका उसे फटकारकर सभाम अपनी उ चत स त देना १६- रावणके ारा वभीषणका तर ार और वभीषणका भी उसे फटकारकर चल देना १७- वभीषणका ीरामक शरणम आना और ीरामका अपने म य के साथ उ आ य देनेके वषयम वचार करना १८- भगवान् ीरामका शरणागतक र ाका मह एवं अपना त बताकर वभीषणसे मलना १९- वभीषणका आकाशसे उतरकर भगवान् ीरामके चरण क शरण लेना, उनके पूछनेपर रावणक श का प रचय देना और ीरामका रावण-वधक त ा करके वभीषणको ल ाके रा पर अ भ ष कर उनक स तसे समु तटपर धरना देनेके लये बैठना २०- शादूलके कहनेसे रावणका शुकको दूत बनाकर सु ीवके पास संदेश भेजना, वहाँ वानर ारा उसक दुदशा, ीरामक कृ पासे उसका संकटसे छू टना और सु ीवका रावणके लये उ र देना २१- ीरामका समु के तटपर कु शा बछाकर तीन दन तक धरना देनेपर भी समु के दशन न देनेसे कु पत हो उसे बाण मारकर व ु कर देना



२२- समु क सलाहके अनुसार नलके ारा सागरपर सौ योजन लंबे पुलका नमाण तथा उसके ारा ीराम आ दस हत वानरसेनाका उस पार प ँ चकर पड़ाव डालना २३- ीरामका ल णसे उ ातसूचक ल ण का वणन और ल ापर आ मण २४- ीरामका ल णसे ल ाक शोभाका वणन करके सेनाको ूहब खड़ी होनेके लये आदेश देना, ीरामक आ ासे ब नमु ए शुकका रावणके पास जाकर उनक सै श क बलता बताना तथा रावणका अपने बलक ड ग हाँकना २५- रावणका शुक और सारणको गु पसे वानरसेनाम भेजना, वभीषण ारा उनका पकड़ा जाना, ीरामक कृ पासे छु टकारा पाना तथा ीरामका संदेश लेकर ल ाम लौटकर उनका रावणको समझाना २६- सारणका रावणको पृथक् -पृथक् वानरयूथ प तय का प रचय देना २७- वानरसेनाके धान यूथप तय का प रचय २८- शुकके ारा सु ीवके म य का, मै और वदका, हनुमा ा, ीराम, ल ण, वभीषण और सु ीवका प रचय देकर वानर-सेनाक सं ाका न पण करना २९- रावणका शुक और सारणको फटकारकर अपने दरबारसे नकाल देना, उसके भेजे ए गु चर का ीरामक दयासे वानर के चंगुलसे छू टकर ल ाम आना ३०- रावणके भेजे ए गु चर एवं शादूलका उससे वानर-सेनाका समाचार बताना और मु मु वीर का प रचय देना ३१- मायार चत ीरामका कटा म क दखाकर रावण ारा सीताको मोहम डालनेका य ३२- ीरामके मारे जानेका व ास करके सीताका वलाप तथा रावणका सभाम जाकर म य के सलाहसे यु वषयक उ ोग करना ३३- सरमाका सीताको सा ना देना, रावणक मायाका भेद खोलना, ीरामके आगमनका य समाचार सुनाना और उनके वजयी होनेका व ास दलाना ३४- सीताके अनुरोधसे सरमाका उ म य स हत रावणका न त वचार बताना ३५- मा वा ा रावणको ीरामसे सं ध करनेके लये समझाना ३६- मा वा र आ ेप और नगरक र ाका ब करके रावणका अपने अ :पुरम जाना ३७- वभीषणका ीरामसे रावण ारा कये गये ल ाक र ाके ब का वणन तथा ीराम ारा ल ाके व भ ार पर आ मण करनेके लये अपने सेनाप तय क नयु ३८- ीरामका मुख वानर के साथ सुवेल पवतपर चढ़कर वहाँ रातम नवास करना



३९- वानर स हत ीरामका सुवेल- शखरसे ल ापुरीका नरी ण करना ४०- सु ीव और रावणका म यु . ४१- ीरामका सु ीवको दु:साहससे रोकना, ल ाके चार ार पर वानरसै नक क नयु , रामदूत अ दका रावणके महलम परा म तथा वानर के आ मणसे रा स को भय ४२- ल ापर वानर क चढ़ा◌इ तथा रा स के साथ उनका घोर यु ४३- यु म वानर ारा रा स क पराजय ४४- रातम वानर और रा स का घोर यु , अ दके ारा इ ज पराजय, मायासे अ ए इ ज ा नागमय बाण ारा ीराम और ल णको बाँधना ४५- इ ज े बाण से ीराम और ल णका अचेत होना और वानर का शोक करना ४६- ीराम और ल णको मू त देख वानर का शोक, इ ज ा हष ार, वभीषणका सु ीवको समझाना, इ ज ा ल ाम जाकर पताको श ुवधका वृ ा बताना और स ए रावणके ारा अपने पु का अ भन न ४७- वानर ारा ीराम और ल णक र ा, रावणक आ ासे रा सय का सीताको पु क वमान ारा रणभू मम ले जाकर ीराम और ल णका दशन कराना और सीताका दु:खी होकर रोना ४८- सीताका वलाप और जटाका उ समझा-बुझाकर ीराम-ल णके जी वत होनेका व ास दलाकर पुन: ल ाम ही लौटा लाना ४९- ीरामका सचेत होकर ल णके लये वलाप करना और यं ाण ागका वचार करके वानर को लौट जानेक आ ा देना ५०- वभीषणको इ जत् समझकर वानर का पलायन और सु ीवक आ ासे जा वा ा उ सा ना देना, वभीषणका वलाप और सु ीवका उ समझाना, ग ड़का आना और ीराम-ल णको नागपाशसे मु करके चला जाना ५१- ीरामके ब नमु होनेका पता पाकर च त ए रावणका धू ा को यु के लये भेजना और सेनास हत धू ा का नगरसे बाहर आना ५२- धू ा का यु और हनुमा ीके ारा उसका वध ५३- व दं का सेनास हत यु के लये ान, वानर और रा स का यु , व दं ारा वानर का तथा अ द ारा रा स का संहार ५४- व दं और अ दका यु तथा अ दके हाथसे उस नशाचरका वध



५५- रावणक आ ासे अक न आ द रा स का यु म आना और वानर के साथ उनका घोर यु ५६- हनुमा ीके ारा अक नका वध ५७- ह का रावणक आ ासे वशाल सेनास हत यु के लये ान ५८- नीलके ारा ह का वध ५९- ह के मारे जानेसे दु:खी ए रावणका यं ही यु के लये पधारना, उसके साथ आये ए मु वीर का प रचय, रावणक मारसे सु ीवका अचेत होना, ल णका यु म आना, हनुमान् और रावणम थ ड़ क मार, रावण ारा नीलका मू चछत होना, ल णका श के आघातसे मू त एवं सचेत होना तथा ीरामसे परा होकर रावणका ल ाम घुस जाना ६०- अपनी पराजयसे दु:खी ए रावणक आ ासे सोये ए कु कणका जगाया जाना और उसे देखकर वानर का भयभीत होना ६१- वभीषणका ीरामसे कु कणका प रचय देना और ीरामक आ ासे वानर का यु के लये ल ाके ार पर डट जाना ६२- कु कणका रावणके भवनम वेश तथा रावणका रामसे भय बताकर उसे श ुसेनाके वनाशके लये े रत करना ६३- कु कणका रावणको उसके कु कृ के लये उपाल देना और उसे धैय बँधाते ए यु वषयक उ ाह कट करना ६४- महोदरका कु कणके त आ ेप करके रावणको बना यु के ही अभी व ुक ा का उपाय बताना ६५- कु कणक रणया ा ६६- कु कणके भयसे भागे ए वानर का अ द ारा ो ाहन और आवाहन, कु कण ारा वानर का संहार, पुन: वानर-सेनाका पलायन और अ दका उसे समझा-बुझाकर लौटाना ६७- कु कणका भयंकर यु और ीरामके हाथसे उसका वध ६८- कु कणके वधका समाचार सुनकर रावणका वलाप ६९- रावणके पु और भाइय का यु के लये जाना और नरा कका अ दके ारा वध ७०- हनुमा ीके ारा देवा क और शराका, नीलके ारा महोदरका तथा ऋषभके ारा महापा का वध



७१- अ तकायका भयंकर यु और ल णके ारा उसका वध ७२- रावणक च ा तथा उसका रा स को पुरीक र ाके लये सावधान रहनेका आदेश ७३- इ ज े ा से वानरसेनास हत ीराम और ल णका मू त होना ७४- जा वा े आदेशसे हनुमा ीका हमालयसे द ओष धय के पवतको लाना और उन ओष धय क ग से ीराम, ल ण एवं सम वानर का पुन: होना ७५- ल ापुरीका दहन तथा रा स और वानर का भयंकर यु ७६- अ दके ारा क न और ज का, वदके ारा शो णता का, मै के ारा यूपा का और सु ीवके ारा कु का वध ७७- हनुमा े ारा नकु का वध ७८- रावणक आ ासे मकरा का यु के लये प थान ७९- ीरामच जीके ारा मकरा का वध ८०- रावणक आ ासे इ ज ा घोर यु तथा उसके वधके वषयम ीराम और ल णक बातचीत ८१- इ ज े ारा मायामयी सीताका वध ८२- हनुमा ीके नेतृ म वानर और नशाचर का यु , हनुमा ीका ीरामके पास लौटना और इ ज ा नकु ला-म रम जाकर होम करना ८३- सीताके मारे जानेक बात सुनकर ीरामका शोकसे मू त होना और ल णका उ समझाते ए पु षाथके लये उ त होना ८४- वभीषणका ीरामको इ ज मायाका रह बताकर सीताके जी वत होनेका व ास दलाना और ल णको सेनास हत नकु ला-म रम भेजनेके लये अनुरोध करना ८५- वभीषणके अनुरोधसे ीरामच जीका ल णको इ ज े वधके लये जानेक आ ा देना और सेनास हत ल णका नकु ला-म रके पास प ँ चना ८६- वानर और रा स का यु , हनुमा ीके ारा रा ससेनाका संहार और उनका इ ज ो यु के लये ललकारना तथा ल णका उसे देखना ८७- इ जत् और वभीषणक रोषपूण बातचीत ८८- ल ण और इ ज पर र रोषभरी बातचीत और घोर यु ८९- वभीषणका रा स पर हार, उनका वानरयूथ प तय को ो ाहन देना, ल ण ारा इ ज े सार थका और वानर ारा उसके घोड़ का वध



९०- इ जत् और ल णका भयंकर यु तथा इ ज ा वध ९१- ल ण और वभीषण आ दका ीरामच जीके पास आकर इ ज े वधका समाचार सुनाना, स ए ीरामके ारा ल णको दयसे लगाकर उनक शंसा तथा सुषेण ारा ल ण आ दक च क ा ९२- रावणका शोक तथा सुपा के समझानेसे उसका सीता-वधसे नवृ होना ९३- ीराम ारा रा ससेनाका संहार ९४- रा सय का वलाप ९५- रावणका अपने म य को बुलाकर श ुवध व षयक अपना उ ाह कट करना और सबके साथ रणभू मम आकर परा म दखाना ९६- सु ीव ारा रा ससेनाका संहार और व पा का वध ९७- सु ीवके साथ महोदरका घोर यु तथा वध ९८- अ दके ारा महापा का वध. ९९- ीराम और रावणका यु १००- राम और रावणका यु , रावणक श से ल णका मू त होना तथा रावणका यु से भागना १०१- ीरामका वलाप तथा हनुमा ीक लायी ◌इ ओष धके सुषेण ारा कये गये योगसे ल णका सचेत हो उठना १०२- इ के भेजे ए रथपर बैठकर ीरामका रावणके साथ यु करना १०३- ीरामका रावणको फटकारना और उनके ार घायल कये गये रावणको सार थका रणभू मसे बाहर ले जाना १०४- रावणका सार थको फटकारना और सार थका अपने उ रसे रावणको संतु करके उसके रथको रणभू मम प ँ चाना १०५- अग मु नका ीरामको वजयके लये ‘आ द दय’ के पाठक स त देना १०६- रावणके रथको देख ीरामका मात लको सावधान करना, रावणक पराजयके सूचक उ ात तथा रामक वजय सू चत करनेवाले शुभ शकु न का वणन १०७- ीराम और रावणका घोर यु १०८- ीरामके ारा रावणका वध



१०९- वभीषणका वलाप और ीरामका उ समझाकर रावणके अ े -सं ारके लये आदेश देना ११०- रावणक य का वलाप १११- म ोदरीका वलाप तथा रावणके शवका दाह-सं ार ११२- वभीषणका रा ा भषेक और ीरघुनाथजीका हनुमा ीके ारा सीताके पास संदेश भेजना ११३- हनुमा ीका सीताजीसे बातचीत करके लौटना और उनका संदेश ीरामको सुनाना ११४- ीरामक आ ासे वभीषणका सीताको उनके समीप लाना और सीताका यतमके मुखच का दशन करना ११५- सीताके च र पर संदेह करके ीरामका उ हण करनेसे इनकार करना और अ जानेके लये कहना ११६- सीताका ीरामको उपाल पूण उ र देकर अपने सती क परी ा देनेके लये अ म वेश करना ११७- भगवान् ीरामके पास देवता का आगमन तथा ा ारा उनक भगव ाका तपादन एवं वन ११८- मू तमान् अ देवका सीताको लेकर चतासे कट होना और ीरामको सम पत करके उनक प व ताको मा णत करना तथा ीरामका सीताको सहष ीकार करना ११९- महादेवजीक आ ासे ीराम और ल णका वमान ारा आये ए राजा दशरथको णाम करना और दशरथका दोन पु तथा सीताको आव क संदेश दे इ लोकको जाना १२०- ीरामके अनुरोधसे इ का मरे ए वानर को जी वत करना, देवता का ान और वानरसेनाका व ाम १२१- ीरामका अयो ा जानेके लये उ त होना और उनक आ ासे वभीषणका पु क वमानको मँगाना १२२- ीरामक आ ासे वभीषण ारा वानर का वशेष स ार तथा सु ीव और वभीषणस हत वानर को साथ लेकर ीरामका पु क वमान ारा अयो ाको ान करना १२३- अयो ाक या ा करते समय ीरामका सीताजीको मागके ान दखाना



१२४- ीरामका भर ाज-आ मपर उतरकर मह षसे मलना और उनसे वर पाना १२५- हनुमा ीका नषादराज गुह तथा भरतजीको ीरामके आगमनक सूचना देना और स ए भरतका उ उपहार देनेक घोषणा करना १२६- हनुमा ीका भरतको ीराम, ल ण और सीताके वनवासस ी सारे वृ ा को सुनाना १२७- अयो ाम ीरामके ागतक तैयारी, भरतके साथ सबका ीरामक अगवानीके लये न ामम प ँ चना, ीरामका आगमन, भरत आ दके साथ उनका मलाप तथा पु क वमानको कु बेरके पास भेजना १२८- भरतका ीरामको रा लौटाना, ीरामक नगरया ा, रा ा भषेक, वानर क वदा◌इ तथा का माहा (उ रका ) दरबारम मह षय का आगमन, उनके साथ उनक



१- ीरामके बातचीत तथा ीरामके प न २- मह ष अग के ारा पुल के गुण और तप ाका वणन तथा उनसे व वा मु नक उ का कथन ३- व वासे वै वण (कु बेर)-क उ , उनक तप ा, वर ा तथा ल ाम नवास ४- रा सवंशका वणन—हे त, व ु े श और सुकेशक उ ५- सुकेशके पु मा वान्, सुमाली और मालीक संतान का वणन ६- देवता का भगवान् श रक सलाहसे रा स के वधके लये भगवान् व ुक शरणम जाना और उनसे आ ासन पाकर लौटना, रा स का देवता पर आ मण और भगवान् व ुका उनक सहायताके लये आना ७- भगवान् व ु ारा रा स का संहार और पलायन ८- मा वा ा यु और पराजय तथा सुमाली आ द सब रा स का रसातलम वेश ९- रावण आ दका ज और उनका तपके लये गोकण-आ मम जाना १०- रावण आ दक तप ा और वर- ा ११- रावणका संदेश सुनकर पताक आ ासे कु बेरका ल ाको छोड़कर कै लासपर जाना, ल ाम रावणका रा ा भषेक तथा रा स का नवास १२- शूपणखा तथा रावण आ द तीन भाइय का ववाह और मेघनादका ज



१३- रावण ारा बनवाये गये शयनागारम कु कणका सोना, रावणका अ ाचार, कु बेरका दूत भेजकर उसे समझाना तथा कु पत ए रावणका उस दूतको मार डालना १४- म य स हत रावणका य पर आ मण और उनक पराजय १५- मा णभ तथा कु बेरक पराजय और रावण ारा पु क वमानका अपहरण १६- न ी रका रावणको शाप, भगवान् श र ारा रावणका मान-भ तथा उनसे च हास नामक खड् गक ा १७- रावणसे तर ृ त ष क ा वेदवतीका उसे शाप देकर अ म वेश करना और दूसरे ज म सीताके पम ादुभूत होना १८- रावण ारा म क पराजय तथा इ आ द देवता का मयूर आ द प य को वरदान देना १९- रावणके ारा अनर का वध तथा उनके ारा उसे शापक ा २०- नारदजीका रावणको समझाना, उनके कहनेसे रावणका यु के लये यमलोकको जाना तथा नारदजीका इस यु के वषयम वचार करना २१- रावणका यमलोकपर आ मण और उसके ारा यमराजके सै नक का संहार २२- यमराज और रावणका यु , यमका रावणके वधके लये उठाये ए कालद को ाजीके कहनेसे लौटा लेना, वजयी रावणका यमलोकसे ान २३- रावणके ारा नवातकवच से मै ी, कालके य का वध तथा व णपु क पराजय २४- रावण ारा अप त ◌इ देवता आ दक क ा और य का वलाप एवं शाप, रावणका रोती ◌इ शूपणखाको आ ासन देना और उसे खरके साथ द कार म भेजना २५- य ारा मेघनादक सफलता, वभीषणका रावणको पर- ी-हरणके दोष बताना, कु ीनसीको आ ासन दे मधुको साथ ले रावणका देवलोकपर आ मण करना २६- रावणका र ापर बला ार करना और नल-कू बरका रावणको भयंकर शाप देना २७- सेनास हत रावणका इ लोकपर आ मण, इ क भगवान् व ुसे सहायताके लये ाथना, भ व म रावण-वधक त ा करके व ुका इ को लौटाना, देवता और रा स का यु तथा वसुके ारा सुमालीका वध २८- मेघनाद और जय का यु , पुलोमाका जय को अ ले जाना, देवराज इ का यु भू मम पदापण, तथा म ण ारा रा ससेनाका संहार और इ तथा रावणका यु



२९- रावणका देवसेनाके बीचसे होकर नकलना, देवता का उसे कै द करनेके लये य , मेघनादका माया ारा इ को ब ी बनाना तथा वजयी होकर सेनास हत ल ाको लौटना ३०- ाजीका इ ज ो वरदान देकर इ को उसक कै दसे छु ड़ाना और उनके पूवकृ त पापकमको याद दलाकर उनसे वै वय का अनु ान करनेके लये कहना, उस य को पूण करके इ का गलोकम जाना ३१- रावणका मा ह तीपुरीम जाना और वहाँके राजा अजुनको न पाकर म य स हत उसका व ग रके समीप नमदाम नहाकर भगवान् शवक आराधना करना ३२- अजुनक भुजा से नमदाके वाहका अव होना, रावणके पु ोपहारका बह जाना, फर रावण आ द नशाचर का अजुनके साथ यु तथा अजुनका रावणको कै द करके अपने नगरम ले जाना ३३- पुल जीका रावणको अजुनक कै दसे छु टकारा दलाना ३४- वालीके ारा रावणका पराभव तथा रावणका उ अपना म बनाना ३५- हनुमा ीक उ , शैशवाव ाम इनका सूय, रा और ऐरावतपर आ मण, इ के व से इनक मू ा, वायुके कोपसे संसारके ा णय को क और उ स करनेके लये देवता स हत ाजीका उनके पास जाना ३६- ा आ द देवता का हनुमा ीको जी वत करके नाना कारके वरदान देना और वायुका उ लेकर अ नाके घर जाना, ऋ षय के शापसे हनुमा ीको अपने बलक व ृ त, ीरामका अग आ द ऋ षय से अपने य म पधारनेके लये ाव करके उ वदा देना ३७- ीरामका सभासद के साथ राजसभाम बैठना ३८- ीरामके ारा राजा जनक, युधा जत्, तदन तथा अ नरेश क वदा◌इ ३९- राजा का ीरामके लये भट देना और ीरामका वह सब लेकर अपने म , वानर , रीछ और रा स को बाँट देना तथा वानर आ दका वहाँ सुखपूवक रहना ४०- वानर , रीछ और रा स क बदा◌इ ४१- कु बेरके भेजे ए पु क वमानका आना और ीरामसे पू जत एवं अनुगृहीत होकर अ हो जाना, भरतके ारा ीरामरा के वल ण भावका वणन ४२- अशोकव नकाम ीराम और सीताका वहार, ग भणी सीताका तपोवन देखनेक इ ा कट करना और ीरामका इसके लये ीकृ त देना



४३- भ का पुरवा सय के मुखसे सीताके वषयम सुनी ◌इ अशुभ चचासे ीरामको अवगत कराना ४४- ीरामके बुलानेसे सब भाइय का उनके पास आना ४५- ीरामका भाइय के सम सव फै ले ए लोकापवादक चचा करके सीताको वनम छोड़ आनेके लये ल णको आदेश देना ४६- ल णका सीताको रथपर बठाकर उ वनम छोड़नेके लये ले जाना और ग ाजीके तटपर प ँ चना ४७- ल णका सीताजीको नावसे ग ाजीके उस पार प ँ चाकर बड़े दु:खसे उ उनके ागे जानेक बात बताना ४८- सीताका दु:खपूण वचन, ीरामके लये उनका संदेश, ल णका जाना और सीताका रोना ४९- मु नकु मार से समाचार पाकर वा ी कका सीताके पास आ उ सा ना देना और आ मम लवा ले जाना ५०- ल ण और सुम क बातचीत ५१- मागम सुम का दुवासाके मुखसे सुनी ◌इ भृगुऋ षके शापक कथा कहकर तथा भ व म होनेवाली कु छ बात बताकर दु:खी ल णको शा करना. ५२- अयो ाके राजभवनम प ँ चकर ल णका दु:खी ीरामसे मलना और उ सा ना देना ५३- ीरामका कायाथ पु ष क उपे ासे राजा नृगको मलनेवाली शापक कथा सुनाकर ल णको देखभालके लये आदेश देना ५४- राजा नृगका एक सु र ग ा बनवाकर अपने पु को रा दे यं उसम वेश करके शाप भोगना ५५- राजा न म और व स का एक-दूसरेके शापसे देह ाग ५६- ाजीके कहनेसे व स का व णके वीयम आवेश, व णका उवशीके समीप एक कु म अपने वीयका आधान तथा म के शापसे उवशीका भूतलम राजा पु रवाके पास रहकर पु उ करना ५७- व स का नूतन शरीर धारण और न मका ा णय के नयन म नवास ५८- यया तको शु ाचायका शाप



५९- यया तका अपने पु पू को अपना बुढ़ापा देकर बदलेम उसका यौवन लेना और भोग से तृ होकर पुन: दीघकालके बाद उसे उसका यौवन लौटा देना, पू का अपने पताक ग ीपर अ भषेक तथा यदुको शाप सग १- ीरामके ारपर कायाथ कु ेका आगमन और ीरामका उसे दरबारम लानेका आदेश २- कु ेके त ीरामका ाय, उसक इ ाके अनुसार उसे मारनेवाले ा णको मठाधीश बना देना और कु ेका मठाधीश होनेका दोष बताना ६०- ीरामके दरबारम वन आ द ऋ षय का शुभागमन, ीरामके ारा उनका स ार करके उनके अभी कायको पूण करनेक त ा तथा ऋ षय ारा उनक शंसा ६१- ऋ षय का मधुको ा ए वर तथा लवणासुरके बल और अ ाचारका वणन करके उससे ा होनेवाले भयको दूर करनेके लये ीरघुनाथजीसे ाथना करना ६२- ीरामका ऋ षय से लवणासुरके आहार- वहारके वषयम पूछना और श ु क च जानकर उ लवण-वधके कायम नयु करना ६३- ीराम ारा श ु का रा ा भषेक तथा उ लवणासुरके शूलसे बचनेके उपायका तपादन ६४- ीरामक आ ाके अनुसार श ु का सेनाको आगे भेजकर एक मासके प ात् यं भी ान करना ६५- मह ष वा ी कका श ु को सुदासपु क ाषपादक कथा सुनाना ६६- सीताके दो पु का ज , वा ी क ारा उनक र ाक व ा और इस समाचारसे स ए श ु का वहाँसे ान करके यमुनातटपर प ँ चना ६७- वन मु नका श ु को लवणासुरके शूलक श का प रचय देते ए राजा मा ाताके वधका संग सुनाना ६८- लवणासुरका आहारके लये नकलना, श ु का मधुपुरीके ारपर डट जाना और लौटे ए लवणासुरके साथ उनक रोषभरी बातचीत ६९- श ु और लवणासुरका यु तथा लवणका वध ७०- देवता से वरदान पा श ु का मधुरापुरीको बसाकर बारहव वषम वहाँसे ीरामके पास जानेका वचार करना



७१- श ु का थोड़े-से सै नक के साथ अयो ाको ान, मागम वा ी कके आ मम रामच रतका गान सुनकर उन सबका आ यच कत होना ७२- वा ी कजीसे वदा ले श ु जीका अयो ाम जाकर ीराम आ दसे मलना और सात दन तक वहाँ रहकर पुन: मधुपुरीको ान करना ७३- एक ा णका अपने मरे ए बालकको राज ारपर लाना तथा राजाको ही दोषी बताकर वलाप करना ७४- नारदजीका ीरामसे एक तप ी शू के अधमाचरणको ा ण-बालकक मृ ुम कारण बताना ७५- ीरामका पु क वमान ारा अपने रा क सभी दशा म घूमकर दु मका पता लगाना; कतु सव स म ही देखकर द ण दशाम एक शू तप ीके पास प ँ चना ७६- ीरामके ारा श ूकका वध, देवता ारा उनक शंसा, अग ा मपर मह ष अग के ारा उनका स ार और उनके लये आभूषण-दान ७७- मह ष अग का एक ग य पु षके शवभ णका संग सुनाना ७८- राजा ेतका अग जीको अपने लये घृ णत आहारक ा का कारण बताते ए ाजीके साथ ए अपनी वाताको उप त करना और उ द आभूषणका दान दे भूख- ासके क से मु होना ७९- इ ाकु पु राजा द का रा ८०- राजा द का भागव-क ाके साथ बला ार ८१- शु के शापसे सप रवार राजा द और उनके रा का नाश ८२- ीरामका अग -आ मसे अयो ापुरीको लौटना ८३- भरतके कहनेसे ीरामका राजसूय-य करनेके वचारसे नवृ होना ८४- ल णका अ मेध-य का ाव करते ए इ और वृ ासुरक कथा सुनाना, वृ ासुरक तप ा और इ का भगवान् व ुसे उसके वधके लये अनुरोध ८५- भगवान् व ुके तेजका इ और व आ दम वेश, इ के व से वृ ासुरका वध तथा ह ा इ का अ कारमय देशम जाना ८६- इ के बना जग अशा तथा अ मेधके अनु ानसे इ का ह ासे मु होना ८७- ीरामका ल णको राजा इलक कथा सुनाना—इलको एक-एक मासतक ी और पु ष क ा



८८- इला और बुधका एक-दूसरेको देखना तथा बुधका उन सब य को कपु षी नाम देकर पवतपर रहनेके लये आदेश देना ८९- बुध और इलाका समागम तथा पु रवाक उ ९०- अ मेधके अनु ानसे इलाको पु ष क ा ९१- ीरामके आदेशसे अ मेध-य क तैयारी ९२- ीरामके अ मेध-य म दान-मानक वशेषता ९३- ीरामके य म मह ष वा ी कका आगमन और उनका रामायणगानके लये कु श और लवको आदेश ९४- लव-कु श ारा रामायण-का का गान तथा ीरामका उसे भरी सभाम सुनना ९५- ीरामका सीतासे उनक शु ता मा णत करनेके लये शपथ करानेका वचार ९६- मह ष वा ी क ारा सीताक शु ताका समथन ९७- सीताका शपथ- हण और रसातलम वेश ९८- सीताके लये ीरामका खेद, ाजीका उ समझाना और उ रका का शेष अंश सुननेके लये े रत करना ९९- सीताके रसातल- वेशके प ात् ीरामक जीवनचया, रामरा क त तथा माता के परलोक-गमन आ दका वणन १००- के कयदेशसे ष गा का भट लेकर आना और उनके संदेशके अनुसार ीरामक आ ासे कु मार स हत भरतका ग वदेशपर आ मण करनेके लये ान १०१- भरतका ग व पर आ मण और उनका संहार करके वहाँ दो सु र नगर बसाकर अपने दोन पु को स पना और फर अयो ाको लौट आना १०२- ीरामक आ ासे भरत और ल ण ारा कु मार अ द और च के तुक का पथ देशके व भ रा पर नयु १०३- ीरामके यहाँ कालका आगमन और एक कठोर शतके साथ उनका वाताके लये उ त होना १०४- कालका ीरामच जीको ाजीका संदेश सुनाना और ीरामका उसे ीकार करना १०५- दुवासाके शापके भयसे ल णका नयम भ करके ीरामके पास इनके आगमनका समाचार देनेके लये जाना, ीरामका दुवासा मु नको भोजन कराना और उनके चले जानेपर ल णके लये च त होना



१०६- ीरामके ाग देनेपर ल णका सशरीर गगमन १०७- व स जीके कहनेसे ीरामका पुरवा सय को अपने साथ ले जानेका वचार तथा कु श और लवका रा ा भषेक करना १०८- ीरामच जीका भाइय , सु ीव आ द वानर तथा रीछ के साथ परमधाम जानेका न य और वभीषण, हनुमान्, जा वान्, मै एवं वदको इस भूतलपर ही रहनेका आदेश देना १०९- परमधाम जानेके लये नकले ए ीरामके साथ सम अयो ावा सय का ान ११०- भाइय स हत ीरामका व ु पम वेश तथा साथ आये ए सब लोग को संतानकलोकक ा १११- रामायण-का का उपसंहार और इसक म हमा







ीसीतारामच ा ां नम:॥



ीम ा ीक य रामायणक पाठ व ध वा ीक य रामायणक अनेक कारक पारायण व धयाँ ह। ीरामसेवा , अनु ान काश, ा ो रामायण-माहा , बृह मपुराण तथा शा र, रामानुज, म , रामान आ द व भ स दाय क अलग-अलग व धयाँ ह, य प उनका अ र साधारण है। इसी कार इसके सकाम और न ाम अनु ान के भी भेद ह। सबपर व ृत वचार यहाँ स व नह । वा ीक यके परम स नवा -पारायणक ही व ध यहाँ लखी जा रही है। चै , माघ तथा का तक शु प मीसे योदशीतक इसके नवा -पारायणक व ध है१। कसी पु े , प व तीथ, म रम या अपने घरपर ही भगवान् व ु तथा तुलसीके सं नधानम वा ी करामायणका पाठ करना चा हये। एतदथ यथास व कथा- ानक भू मको संशोधन, माजन, लेपना द सं ार से सं ृ तकर कदली- तथा जा-पताका- वताना दसे म त कर देना चा हये। म पका मान १६ हाथ लंबा-चौड़ा हो और उसके बीचम सवतोभ से यु एक वेदी हो। अ वे दयाँ, कु तथा ल आ द भी ह । म पके द ण-प म भागम व ा ( ास) एवं ोताका आसन हो। ासासनके आगे पु कका आसन होना चा हये। ोता का आसन व ृत हो। ासका आसन ोतासे तथा पु कका आसन व ासे भी ऊँ चा होना चा हये२। फर ाय तथा न कृ करके भगवान् ीरामक तमा ा पत करनी चा हये। अथवा पु कपर ही सप रकर-सप र द ीसीतारामजीका अथात् भगवान् ीरामच , भगवती सीताजी, ल णजी, भरतजी, श ु जी, ीहनुमा ी आ दका आवाहन करना चा हये। त ात् सम उपकरण से अलंकृत, प प वा दसे यु कलश ा पतकर यनपूवक गणप तपूजन, बटुक, े पाल, यो गनी, मातृका, नव ह, तुलसी, लोकपाल, द ाल आ दका पूजन तथा ना ी ा करके सप रकर-सप र द भगवान् रामक पूजा करे। तदन र काल- त थ-गो -नाम आ द बोलकर— ॐ



भूभुव:



रोम्।



ममोपा द ु रत यपूवकं



ीसीता-राम ी थ



ीसीताल णभरतश ु हनुम मेत ीरामच - साद स ाथ च ीरामच सादेन सवाभी स ाथ ीराम-च पूजनमहं क र । े ीवा ीक यरामायण पारायणं च



क र ,े तद भूतं कलश ापनं वटु क े पालयो गनीमातृकानव हतुलसीलोकपाल द



यनपाठं गणप तपूजनं ाला द-पूजनं चाहं क र े।



—इस



कार संक करनेके बाद पूजन करे।



ॐअ



ुताय नम:, ॐ अन ाय नम:, ॐ गो व ाय नम:, ॐ नारायणाय नम:, ॐ



मधुसूदनाय नम:, ॐ षीकेशाय नम:, ॐ माधवाय नम:, ॐ व माय नम:, ॐ दामोदराय नम:, ॐ मुकु ाय नम:, ॐ वामनाय नम:, ॐ प नाभाय नम:, ॐ केशवाय नम:, ॐ व वे नम:, ॐ ीधराय नम:, ॐ ीसीतारामा ां नम:।



इस कार नम ार करके न करे।



ीसीताल



कारसे पूजा करे—



णभरतश ु हनुम मेतं



ीरामच ं



ाया म—भगवान्



रामका ान



,, आवाहया म—आवाहन करे।



ीसीताल णभरतश ु हनुम मेताय समपया म— सहासन अपण करे। ,, पा ं समपया म—पा



ीरामच ाय



दे। ,, अ समपया म—अ दे। ,, ानीयं समपया म— ान करावे। ,, आचमनीयं समपया म—आचमन करावे। ,, व ं समपया म—व अपण करे। ,, य ोपवीताभरणं समपया म—य ोपवीत-आभूषण दे। ,, ग ान् समपया म—च न-कु ु म लगावे। ,, अ तान् समपया म—चावल चढ़ावे। ,, पु ा ण समपया म—पु माला दे। ,, धूपमा ापया म—धूप दे। ,, दीपं दशया म—दीपक दखावे। ,, नैवे ं फला न च समपया म—नैवे और फल अपण करे।



नम:—र



सहासनं



,, ता ूलं समपया म—पान दे।



,, कपूरनीराजनं समपया म—आरती करे।



,, छ चामरा द समपया म—छ -चँवरा द अपण करे।



ा ल अपण करे। ,, द णानम ारान् समपया म— द णा और नम ार करे। त ात् न कारसे प ोपचारसे ीरामायण- क पूजा करे— ,, पु ा



ल समपया म—पु



ॐ सदा वणमा ेण पा पनां स त दे। शुभे रामकथे तु ं ग म समपये॥ —इ त ग ं समपया म।



ॐ बाला दस का ेन सवलोकसुख द। रामायण महोदार पु ं तेऽ समपये॥ —इ त पु ा ण पु मालां च समपया म।



ॐ य ैक



ोकपाठ



फलं सवफला धकम्।



त ै रामायणाया दशा ं धूपमपये॥ —इ त धूपमा ापया म।



ॐय



लोके णेतारो वा







ा दमहषय:।



त ै रामच र ाय घृतदीपं समपये॥ —इ त दीपं दशया म।



ॐ ूयते



णो लोके शतको ट व रम्।



पं रामायण ा



त ै नैवे मपये॥ —इ त नैवे ं समपया म।



पूजा करनेके बाद कपूरक आरती करके चार बार द णा कर पु ा ल अपण करे। फर सा ा णाम कर इस कार नम ार करे— वा



ी क ग रस ूता रामसागरगा मनी।



पुना त भुवनं पु



ा रामायणमहानदी॥



ोकसारसमाक ण सगक का



ोलसंकुलम्।



ाहमहामीनं व े रामायणाणवम्॥



फर देवता, ा णा दक पूजा कर पाठका संक करके ऋ ा द ास करे। अनु ान काशके अनुसार कामनाभेदसे य द पूरी रामायणका पाठ न हो सके तो अलग-अलग का के अनु ानक भी व ध है। जैसे पु क कामनावाला बालका पढ़े, ल ीक इ ावाला अयो ाका पढ़े। इसी कार न रा क ा क इ ावाल को क ाका का, सभी कामना क इ ावाल को सु रका का और श ुनाशक कामनावाल को ल ाका का पाठ करना चा हये। ‘बृह मपुराण’ के अनुसार इनका अ भी सकाम उपयोग है। वह तथा उसके ासा दका कार आगे लखा जायगा। ॐअ ीवा ी करामायणमहाम भगवान् वा ी कऋ ष:। अनु ु प् छ :। ीराम: परमा ा देवता। अभयं सवभूते इ त बीजम्। अ ु ेण तान् ह ा म त श :। एतद बलं द म त क लकम्। भगवा ारायणो देव इ त त म्। धमा ा स संध े म्। पु षाथचतु य स ाथ पाठे व नयोग:। ॐ



रां आपदामपहतार म



ु ा ां नम:। र दातार म त तजनी ां नम:। ॐ र ं सवस दा म त म मा ां नम:।



ॐ ॐ



र लोका भराम म ना मका ां नम:। ॐ







ीराम म त क न का ां



नम:। ॐ र र: भूयो भूयो नमा ह म त करतलकरपृ ा ां नम:।



इ म से इसी कार दया द३ ास करे। फर— ा स —इ त द



य ूभगवान् देवा ैव तप दश ु मे सव देवा: स षगणा



न:। ्वह॥



:।



य कहकर चार ओर हाथ घुमाकर अ म फर इस कार ान करे— वामे भू मसुता पुर ु हनुमान् प ात् सु म ासुत:।



श ु ो भरत पा दलयोवा वा दकोणेषु च। सु ीव



वभीषण युवराट् तारासुतो जा वान्।



म े नीलसरोजकोमल च रामं भजे



ामलम्॥



‘आपदामपहतारं दातारं सवस दाम्।



लोका भरामं ीरामं भूयो भूयो नमा हम्॥’



है।



यह स ुटका म है। इससे स ु टत पाठ करनेसे सम मन:कामना क स होती फर४ न शु



कारसे म लाचरण करके पाठ आर करना चा हये— गणप तका



ान



ा रधरं देवं श शवण चतुभुजम्।



स वदनं



ायेत् सव व ोपशा ये॥



वागीशा ा: सुमनस: सवाथानामुप मे। यं न ा कृतकृ ा:



ु ं नमा म गजाननम्॥



गु क व ना गु



ा गु व



ुगु दवो महे र:।



गु : सा ात् परं अख







लाकारं



त ै ीगुरवे नम:॥ ा ं येन चराचरम्।



त दं द शतं येन त ै ीगुरवे नम:॥



सर तीका दो भयु



ा चतु भ:



रण



टकम णमयीम मालां दधाना।



ह ेनैकेन प ं सतम प च शुकं पु कं चापरेण। भासा कु े श ु



टकम ण नभा भासमानासमाना



सा मे वा ेवतेयं नवसतु वदने सवदा सु स ा॥



वा



ी कजीक व ना



कूज ं राम रामे त मधुरं मधुरा रम्।







क वताशाखां व े वा



ी कको कलम्॥



य: पबन् सततं रामच रतामृतसागरम्। अतृ



ं मु न व े ाचेतसमक



षम्॥



हनुमा ीको नम



ार



गो दीकृतवारीशं मशक कृतरा सम्। रामायणमहामालार ं व ेऽ नला जम्॥ अ नान नं वीरं जानक शोकनाशनम्। कपीशम ह ारं व े ल ाभय रम्॥ उ



ङ् स ो: स ललं सलीलं य: शोकव जनका जाया:। आदाय तेनैव ददाह ल ां नमा म तं ा लरा नेयम्॥ आ नेयम तपाटलाननं का ना कमनीय व हम्। पा रजातत मूलवा सनं भावया म पवमानन नम्॥ य य रघुनाथक तनं त त कृतम का लम्। बा वा रप रपूणलोचनं मा त नमत रा सा कम्॥ मनोजवं मा ततु वेगं जते यं बु मतां व र म्। वाता जं वानरयूथमु ीरामदत ू ं शरसा नमा म॥



ीरामके



ानका







वैदेहीस हतं सुर म ु तले हैमे महाम पे म े पु कमासने म णमये वीरासने सं



तम्।



अ े वाचय त भ नसुते त ं मु न : परं ा ा ं भरता द भ: प रवृतं रामं भजे



ामलम्॥



वामे भू मसुता पुर ु हनुमान् प ात् सु म ासुत: श ु ो भरत पा दलयोवा वा दकोणेषु च। सु ीव वभीषण युवराट् तारासुतो जा वान् म े नीलसरोजकोमल च रामं भजे ामलम्॥



ीरामप रकरको नम



ार



रामं रामानुजं सीतां भरतं भरतानुजम्। सु ीवं वायुसूनुं च णमा म पुन: पुन:॥ नमोऽ ु रामाय सल नमोऽ ु



णाय दे ै च त ै जनका जायै।



े यमा नले ो नमोऽ ु च ाकम



रामायणको नम च रतं रघुनाथ



णे :॥



ार



शतको ट व रम्।



एकैकम रं पुंसां महापातकनाशनम्॥ वा



ी क ग रस ूता रामा ो न धसंगता।



ीम ामायणी ग ा पुना त भुवन यम्॥ वा ृ



ीकेमु न सह



क वतावनचा रण:।



न् रामकथानादं को न या त परां ग तम्॥



पाठ आर करनेके बाद अ ायके बीचम कना नह चा हये। क जानेपर फर उसी अ ायको आर से पढ़ना चा हये। म म रसे, उ ारण करते ए ा तथा ेमसे पाठ करना चा हये। गीत गाकर, सर हलाकर, ज बाजीसे तथा बना अथ समझे पाठ करना ठीक नह है। सं ा-समय न ल खत ल पर त दन व ाम करते जाना चा हये। थम दन अयो ाका



के६ ठे सगक समा



पर थम व ाम



तीय ,, ,, ८०व ,, ,, तृतीय ,, अर



का



तीय ,, के २०व ,, ,, तृतीय ,,



चतुथ ,, क



ाका



के४६ व सगक समा



पर चतुथ व ाम



प म ,,सु रका ष ,, यु का



के ४७ व ,, ,, प म ,, के ५०व ,, ,, ष ,,



स म ,, ,, ९९ व ,, ,, स म ,, अ म ,, उ रका



३६ व ,, ,, अ म ,,



नवम ,, ,, अ



म सगके बाद पुन: यु -का का अ म सग पढ़कर व ाम करना चा हये।५ इसके अ भी व ाम ल ह। एक पारायण- म ऐसा भी है, जसम उ रका का पाठ नह कया जाता। उसके व ाम ल मश: इस कार ह— थम दवस बालका



के ७७ वसगक समा



तीय ,, अयो ाका



के ६० व ,,



पर



तृतीय ,, ,, ११९ व ,, चतुथ ,, अर



का



के ६८ व ,,



प म ,, क



ाका



ष ,, सु रका



के ५६ व ,,



स म ,, यु का



के ४९ व ,,



के ५० व ,,



अ म ,, ,, १११ व ,, नवम ,, ,, १३१ व ,,



त दन कथा-समा के समय न ा त ोक के ारा म लाशासन करके पारायण पूरा करे। जा : प रपालय ां ा ेन मागण मह महीशा:। गो ा णे : शुभम ु न ं लोका: सम ा: सु खनो भव ु॥



काले वषतु पज : पृ थवी स शा लनी। देशोऽयं



ोभर हतो ा णा: स ु नभया:॥



अपु ा: पु ण: स ु पु ण: स ु पौ ण:। अधना: सधना: स ु जीव ु शरदां शतम्॥ च रतं रघुनाथ



शतको ट व रम्।



एकैकम रं ो



ं महापातकनाशनम्॥







न् रामायणं भ



स या त



ण:



ा य: पादं पदमेव वा। ानं



णा पू



ते सदा॥



रामाय रामभ ाय रामच ाय वेधसे। रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम:॥ य



लं सह ा े सवदेवनम ृ ते।



वृ नाशे समभवत् तत् ते भवतु म लम्॥ य



लं सुपण



अमृतं ाथयान



वनताक



यत् पुरा।



त े भवतु म लम्॥



म लं कोसले ाय महनीयगुणा ने। च व ततनूजाय सावभौमाय म लम्॥ अमृतो ादने दै ान्



तो व धर



यत्।



अ द तम लं ादात् तत् ते भवतु म लम्॥ ीन् व मान् यदासी



मतो व



ोर मततेजस:।



लं राम तत् ते भवतु म लम्॥



ऋषय: सागरा ीपा वेदा लोका दश ते। म ला न महाबाहो दश ु तव सवदा॥ कायेन वाचा मनसे यैवा बु ाऽऽ ना वा कृ त भावात्।



करो म यद ् यत् सकलं पर ै नारायणाये त समपये तत्॥



अलग-अलग का के सकाम६ पाठका ऋ ा द ास इस कार है— बालका



का व नयोग



ॐ अ ीबालका महाम ऋ ृ ऋ ष:। अनु ु प् छ :। दाशर थ: परमा ा देवता। रां बीजम्। नम: श :। रामाये त क लकम्। ीराम ी थ बालका



पारायणे व नयोग:।











ृ ऋषये



ऋ ा द ास



नम:



शर स।







अनु ु छ से नम: मुखे। ॐ दाशर थपरमा देवतायै नम: द। ॐ रां बीजाय नम: गु े। ॐ नम: श ये नम: पादयो:। ॐ रामाय क लकाय नम: सवा े । कर ास ॐ सु स ाय अ ु ा ां नम:। ॐ शा मनसे तजनी ां नम:। ॐ स स ाय म मा ां नम:। ॐ जते याय अना मका ां नम:। ॐ धम ाय नयसार ाय क न का ां नम:। ॐ रा े दाशरथये ज यने करतलकरपृ ा ां नम:।



इ म से पूव



कारसे दया द ास कर न



कारसे ान करे—



ीराममा तजनामरभू हेशमान शु म खलामरव ताङ् म्। सीता नासु म लतं सततं सु म ापु ा तं धृतधनु:शरमा ददेवम्॥ ॐ सु स : शा मना: स संधो जते



य:।



धम ो नयसार ो राजा दाशर थजयी॥



इस म से ीरामक पूजा करे और इसीसे अथवा ीरामम से स ु टत कर बालका का पाठ करे। इससे हशा , ◌इ त-भी त-शा तथा पु ा स व है। अयो ाका



ॐअ



ीअयो ाका



का व नयोग तथा ऋ ा द ास



महाम



भगवान् व स ऋ ष:। अनु ु प् छ :। भरतो दाशर थ: परमा ा देवता। भं बीजम्। नम: श :। भरताये त क लकम्। मम



भरत साद स ाथमयो ाका



पारायणे व नयोग:। ॐ व स ऋषये नम: शर स। ॐ



अनु ु छ से नम: मुखे। ॐ दाशर थभरतपरमा देवतायै नम: द। ॐ भं बीजाय नम: गु े। ॐ नम: श ये नम: पादयो:। ॐ भरताय क लकाय नम: सवा े । कर ास ॐ भरताय नम



ै—अ ु ा ां नम:। ॐ सार ाय तजनी ां नम:। ॐ महा ने म मा ां नम:। ॐ तापसाय अना मका ां नम:। ॐ अ तशा ाय क न का ां नम:। ॐ श ु स हताय च करतलकरपृ ा ां नम:।



फर इसी कार दया दका भी ास करके न ल खत



चा हये—



ीरामपाद यपादक ु ा संस



च ं कमलायता म्।



ामं स वदनं कमलावदातश ु यु भरताय नम



ोकानुसार ान करना



म नशं भरतं नमा म॥



ै सार ाय महा ने।



तापसाया तशा ाय श ु स हताय च॥



इस म से प ोपचार ारा भरतजीक पूजा करे। चाहे तो इसी म से ल ी- ा क इ ासे अयो ाका का स ु टत पाठ करे। अर



ॐअ



ीमदर



का



का



का व नयोग एवं ऋ ा द ास



महाम



भगवानृ ष:। अनु ु प् छ :। ीरामो दाशर थ: परमा ा महे ो देवता। ◌इं बीजम्। नम: श :। इ ाये त क लकम्। इ साद स ाथ अर का पारायणे जपे व नयोग:। ॐ भगव षये नम: शर स। ॐ अनु ु छ से नम: मुखे। ॐ दाशर थ ीराम-परमा महे देवतायै नम: द। ॐ ◌इं बीजाय नम: गु े। ॐ नम: श ये नम: पादयो:। ॐ इ ाय क लकाय नम: सवा े । कर ास ॐ सह नयनाय अ ु ा ां नम:। ॐ देवाय तजनी ां नम:। ॐ सवदेवनम ृ ताय म मा ां नम:। ॐ द व धराय अना मका ां नम:। ॐ महे ाय क न का ां नम:। ॐ शचीपतये करतलकरपृ ा ां नम:।



इ म से दया द ास करके इस ोकसे ान करना चा हये।



शचीप त सवसुरश े व ं सवा तहतारम च







ीरामसेवा नरतं महा ं व े महे ं धृतव मी



म्। म्॥



फर— सह नयनं देवं सवदेवनम ृ तम्। द व धरं व े महे ं च शचीप तम्॥



इस म से इ क पूजा करे और न पाठ करे। क



ॐ अ ीक ाका देवता। सुं बीजम्। नम: श



-



ाका



ा आ दक कामनासे इसीसे स ु टत कर



का ऋ ा द ास



महाम भगवान् ऋ ष:। अनु ु प् छ :। सु ीवो :। सु ीवे त क लकम्। मम सु ीव साद स ाथ



क ाका पारायणे व नयोग:। ॐ भगव षये नम: शर स। ॐ अनु ु छ से नम: मुखे। ॐ सु ीवदेवतायै नम: दये। ॐ सुं बीजाय नम: गु े। ॐ नम: श ये नम: पादयो:। ॐ सु ीवाय क लकाय नम: सवा े । कर ास ॐ सु ीवाय अ ु ा ां नम:। ॐ सूयतनयाय तजनी ां नम:। ॐ सववानरपु वाय म मा ां नम:। ॐ बलवते अना मका ां नम:। ॐ राघवसखाय क न का ां नम:। ॐ वशी रा



ं य



तु इ त करतलकरपृ ा ां नम:।



इ म से दया द ास करके इस कार ान करे— सु ीवमकतनयं क पवयव मारो पता ुतपदा ुजमादरेण। पा ण हारकुशलं बलपौ षा माशा दा नपुणं द भावया म॥



फर ‘सुं सु



ीवाय नम:’ तथा—



सु ीव: सूयतनय: सववानरपु व:। बलवान् राघवसखा वशी रा



ं य



तु॥



करे।



इस म से सु ीवक पूजाकर—चाहे तो इसी ोकसे क सु रका ॐ अ



ाका का स ु टत पाठ



का व नयोग एवं ऋ ा द ास



ीम ु रका



महाम



भगवान् हनुमान् ऋ ष:। अनु ु प् छ :। बीजम्। ाहा श :। सीतायै क लकम्।



ीजग ाता सीता देवता।



सीता साद स ाथ सु रका पारायणे व नयोग:। ॐ भगव नुम षये नम: शर स। अनु ु छ से नम: मुखे। ीजग ातृसीतादेवतायै नम: द। बीजाय नम: गु े। ाहा श



ये नम: पादयो:। सीतायै क लकाय नम: सवा े । कर ास



ॐ सीतायै अ ु ा ां नम:। ॐ वदेहराजसुतायै तजनी ां नम:। रामसु य म मा ां नम:। हनुमता समा तायै अना मका ां नम:। ॐ भू मसुतायै क न का ां नम:। ॐ शरणं भजे करतलकरपृ ा ां नम:।



फर इ म से दया द ास करके इस कार ान करे— सीतामुदारच रतां व धसा व ुव ां लोकजनन शतक हेमैरनेकम णर तको टभागैभूषाचयैरनु दनं स हतां नमा म॥







ीम्।



सु रका के पाठक वशेष व ध है क त दन एको रवृ से मश: एक-एक सग पाठ बढ़ाते ए ारहव दन पाठ समा कर दे। १२ व दन अव श दो सगके साथ आर के १० सग पढ़े जायँ, १३ व दन ११ से २३ तक इस तरह तीन आवृ के पाठसे सम कायक स होती है। दूसरा म है— त दन ५ अ ाय पाठका। इसम भी पूवक भाँ त १४ व दन अ के ३ तथा ार के दो सगका पाठ करे। स ुट पाठका म है— ‘‘ ीसीतायै नम:।’*



ल ाका



का व नयोग एवं ऋ ा द ास



ॐअ ीयु का महाम वभीषण ऋ ष:। अनु ु छ बीजम्। नम: श :। वधाते त क लकम्। ीधातृ साद स व नयोग:। ॐ वभीषणऋषये नम: शर स। ॐ अनु ु छ वधातृदेवतायै नम: द। ॐ बं बीजाय नम: गु े। ॐ नम: श वधाते त क लकाय नम: सवा े ।



:। वधाता देवता। बं ाथ यु का पारायणे से नम: मुखे। ॐ ये नम: पादयो:। ॐ



कर ास भ



ॐ वधा े नम: अ ु ा ां नम:। ॐ महादेवाय तजनी ां नम:। ॐ ानामभय दाय म मा ां नम:। ॐ सवदेव ी तकराय अना मका ां नम:। ॐ



भगव



याय क न का ां नम:। ॐ ◌इ राय करतलकरपृ ा ां नम:।



फर इ म से दया द ास करके इस कार ान करना चा हये— देवं वधातारमन वीय भ



ाभयं ीपरमा ददेवम्।



सवामर ी तकरं शा ं व े सदा भूतप त सुभू तम्॥



फर— वधातारं महादेवं भ



ानामभय दम्।



सवदेव ी तकरं भगव



यमी रम्॥



इस म से प ोपचार ारा पूजाकर चाहे तो इसी म से स ु टत पाठ करे। इससे श ुपर वजय ा होती है एवं अ त ा न होती है। पुनवसुसे ार कर आ ातक २७ दन म भी पूण रामायण-पाठक व ध है। ४० दन का भी एक पारायण होता है। नवरा म भी इसके नवा पाठका नयम है। १. चै े माघे का तके च सते प े च वाचयेत्। नवाहं सुमहापु ं ोत ं च य त:॥ प ा दनमार रामायणकथामृतम्। नवाह वणेनैव सवपापै: मु ते॥ २. ोतृ



तथा व ु ासाद्



(रामसेवा



)



(रामसेवा



)



चो ता।



३. दया द ासक व ध यह है क ‘अ ु ा ां नम:’ के ानपर ‘ दयाय नम:’ कहकर पाँच अ ु लय से दयका श कया जाय। ‘तजनी ां नम:’ के ानपर ‘ शरसे ाहा’ कहकर सरका अ भाग छु आ जाय। ‘म मा ां नम:’ के ानपर ‘ शखायै वौषट्’ कहकर शखाका श कया जाय। ‘अना मका ां नम:’ के बदले ‘कवचाय म्’ कहकर दा हने हाथसे बाय कं धे तथा बाय हाथसे दा हने कं धेका श करे। ‘क न का ां नम:’ के बदले ‘ने याय वौषट्’ कहकर ने का श करे तथा ‘करतलकरपृ ा ां नम:’ के बदले ‘अ ाय फट्’ कहकर तीन बार ताली बजाये।



४. ‘बृह मपुराणके अनुसार रामायणके पारायणके पहले रामायणकवचका भी पाठ कर लेना चा हये। वह म लाचरणके पहले होना चा हये। कम-से-कम थम दन इसका पाठ तो कर ही लेना चा हये। कवच इस कार है— ॐ नमोऽ ादशत पाय रामायणाय महाम पाय। मा नषादे त मूलं शरोऽवतु। अनु म णकाबीजं मुखमवतु। ऋ ृ ोपा ानमृ ष ज ामवतु। जानक लाभोऽनु ु ोऽवतु गलम्। के क ा देवता दयमवतु। सीताल णानुगमन ीरामहषा: माणं जठरमवतु। भगव : श रवतु मे म मम्। श मान् धम मुनीनां पालनं ममो र तु। मारीचवचनं तपालनमवतु पादौ। सु ीवमै मथ ऽवतु नौ। नणयो हनुम े ावतु बा । कता स ा तप ो मोऽवतु ौ। योजनं वभीषणरा ं ीवां ममावतु। रावणवध: पमवतु कण । सीतो ारो ल णमवतु ना सके । अमोघ व सं वोऽवतु जीवा ानम्। नय: कालल णसंवादोऽवतु ना भम्। आचरणीयं ीरामा दधम सवा ं ममावतु। इ त रामायणकवचम्। (बृह मपुराणम्, पूवख म् २५ वाँ अ ाय)



५. थमे तु अयो ाया: षट्सगा े शुभा त:॥ तथा वश तसगा े चार क ा का प मे दवसे कु यादथ ष एकोनशतसं ाके सगा तथा चो रका षट् शेषं समा यु चा एवं पाठ म: पूवराचाय



त:। त ैवाशी तसगा े तीये दवसे



तृतीयके । दने चतुथ षट्च ा रशं ग कथा त:॥ पाठ व दा ता। सुस च ा रशं े सगा े सु रे तम्॥ े तथो ते। यु का प ाश गा े वमला त:॥ े स मे दने। यु ैव तु का व ाम: स क तत:॥ श गपूरणे। अ मे दवसे कृ ा त च नवमे दने॥ ं सग पुन: पठे त्। रामरा कथा य न् सववा तदा यनी॥ व न मत:।



(अनु



ान काश) ६. बृह मपुराणम अलग-अलग का के पाठके योजन इस कार बतलाये गये ह— अनावृ महापीडा हपीडा पी डता:। आ दका ं पठे युय ते मु े ततो भयात्॥ पु ज ववाहादौ गु दशन एव च। पठे ृणुया ैव तीयं का मु मम्॥ वने राजकु ले व जलपीडायुतो नर:। पठे दार कं का ं ृणुयाद् वा स म ली॥ म लाभे तथा न च गवेषणे। ु ा प ठ ा कै ं का ं त त् फलं लभेत्॥ ा ेषु देवकायषु पठे त् सु रका कम्। श ोजये समु ाहे जनवादे वग हते॥ ल ाका ं पठे त् क वा ृणुयात् स सुखी भवेत्। य: पठे ृ णुयाद् वा प का म ुदयो रम्। आन काय या ायां स जयी परतोऽ च॥ मो ाथ लभते मो ं भ ाथ भ मेव च। ानाथ लभते ानं त ोपल कम्॥ (बृह *



मपुराण, पूवख , अ ाय २६। ९—१५)



रामभ महे ास रघुवीर नृपो म। भो दशा ा का ाकं र ां दे ह यं च ते॥ इस म के स ुटसे सु रका का पाठ भी कया जा सकता है।







ीम ा



ीसीतारामच ा ां नम:॥



ीक य रामायणमाहा पहला अ ाय



क लयुगक



त, क लकालके मनु के उ ारका उपाय, रामायणपाठ, उसक म हमा, उसके वणके लये उ म काल आ दका वणन



ीरामच जी सम संसारको शरण देनेवाले ह। ीरामके बना दूसरी कौन-सी ग त है। ीराम क लयुगके सम दोष को न कर देते ह; अत: ीरामच जीको नम ार करना चा हये। ीरामसे काल पी भयंकर सप भी डरता है। जग ा सब कु छ भगवान् ीरामके वशम है। ीरामम मेरी अख भ बनी रहे। हे राम! आप ही मेरे आधार ह॥ १ ॥ च कू टम नवास करनेवाले, भगवती ल ी (सीता) के आन नके तन और भ को अभय देनेवाले परमान प भगवान् ीरामच जीको म नम ार करता ँ ॥ २ ॥ स ूण जग े अभी मनोरथ को स करनेवाले (अथवा सृ , पालन एवं संहारके ारा जग ावहा रक स ाको स करनेवाले), ा, व ु और महेश आ द देवता जनके अ भ अंशमा ह, उन परम वशु स दान मय परमा देव ीरामच जीको म नम ार करता ँ तथा उ के भजन- च नम मन लगाता ँ ॥ ३ ॥ ऋ षय ने कहा—भगवन्! आप व ान् ह, ानी ह। हमने जो कु छ पूछा था, वह सब आपने हम भलीभाँ त बताया है। संसार-ब नम बँधे ए जीव के दु:ख ब त ह॥ ४ ॥ इस संसारब नका उ ेद करनेवाला कौन है? आपने कहा है क क लयुगम वेदो माग न हो जायँगे॥ ५ ॥ अधमपरायण पु ष को ा होनेवाली यातना का भी आपने वणन कया है। घोर क लयुग आनेपर जब वेदो माग लु हो जायँग,े उस समय पाख फै ल जायगा—यह बात स है। ाय: सभी लोग ने ऐसी बात कही है॥ ६ १/२ ॥



क लयुगके सभी लोग कामवेदनासे पी ड़त, नाटे शरीरके और लोभी ह गे तथा धम और ◌इ रका आ य छोड़कर आपसम एक-दूसरेपर ही नभर रहनेवाले ह गे। ाय: सब लोग थोड़ी आयु और अ धक संतानवाले ह गे*॥ ७ १/२ ॥ उस युगक याँ अपने ही शरीरके पोषणम त र और वे ा के समान आचरणम वृ ह गी। वे अपने प तक आ ाका अनादर करके सदा दूसर के घर जाया-आया करगी। दुराचारी पु ष से मलनेक सदैव अ भलाषा करगी॥ ८-९ ॥ उ म कु लक याँ भी परपु ष के नकट ओछी बात करनेवाली ह गी, कठोर और अस बोलगी तथा शरीरको शु और सुसं ृ त बनाये रखनेके स णु से व त ह गी॥ १० ॥ क लयुगम अ धकांश याँ वाचाल ( थ बकवास करनेवाली) ह गी। भ ासे जीवननवाह करनेवाले सं ासी भी म आ दके ेह-स म बँधे रहनेवाले ह गे॥ ११ ॥ वे भोजनके लये च त होनेके कारण लोभवश श का सं ह करगे। याँ दोन हाथ से सर खुजलाती ◌इ गृहप तक आ ाका जान-बूझकर उ न करगी॥ १२ १/२ ॥ जब ा ण पाख ी लोग के साथ रहकर पाख पूण बात करने लग, तब जानना चा हये क क लयुग खूब बढ़ गया॥ १३ १/२ ॥ न्! इस कार घोर क लयुग आनेपर सदा पापपरायण रहनेके कारण जनका अ :करण शु नह हो सके गा, उन लोग क मु कै से होगी?॥ १४ १/२ ॥ धमा ा म े सव सूतजी! देवा धदेव देवे र जग ु भगवान् ीरामच जी जस कार संतु ह , वह उपाय हम बताइये॥ १५ १/२ ॥ मु न े सूतजी! इन सारी बात पर आप पूण पसे काश डा लये। आपके वचनामृतका पान करनेसे कसको संतोष नह होता है॥ १६-१७ ॥ सूतजीने कहा—मु नवरो! आप सब लोग सु नये। आपको जो सुनना अभी है, वह म बताता ँ । महा ा नारदजीने सन ु मारको जस रामायण नामक महाका का गान सुनाया था, वह सम पाप का नाश और दु ह क बाधाका नवारण करनेवाला है। वह स ूण वेदाथ क स तके अनुकूल है॥ १८-१९ ॥ उससे सम दु: का नाश हो जाता है। वह ध वादके यो तथा भोग और मो प फल दान करनेवाला है। उसम भगवान् ीरामच जीक लीला-कथाका वणन है। वह का



अपने पाठक और ोता के लये सम क ाणमयी स य को देनेवाला है॥ २० ॥ धम, अथ, काम और मो —इन चार पु षाथ का साधक है, महान् फल देनेवाला है। यह अपूव का पु मय फल दान करनेक श रखता है। आपलोग एका च होकर इसे वण कर॥ २१ ॥ महान् पातक अथवा स ूण उपपातक से यु मनु भी उस ऋ ष णीत द का का वण करनेसे शु (अथवा स ) ा कर लेता है। स ूण जग े हत-साधनम लगे रहनेवाले जो मनु सदा रामायणके अनुसार बताव करते ह, वे ही स ूण शा के ममको समझनेवाले और कृ ताथ ह॥ २२-२३ ॥ व वरो! रामायण धम, अथ, काम और मो का साधन तथा परम अमृत प है; अत: सदा भ भावसे उसका वण करना चा हये॥ २४ ॥ जस मनु के पूवज ोपा जत सारे पाप न हो जाते ह, उसीका रामायणके त अ धक ेम होता है। यह न त बात है॥ २५ ॥ जो पापके ब नम जकड़ा आ है, वह रामायणक कथा आर होनेपर उसक अवहेलना करके दूसरी-दूसरी न को टक बात म फँ स जाता है। उन अस ाथा म अपनी बु के आस होनेके कारण वह तदनु प ही बताव करने लगता है॥ २६ ॥ इस लये जे गण! आपलोग रामायण नामक परम पु दायक उ म का का वण कर; जसके सुननेसे ज , जरा और मृ ुके भयका नाश हो जाता है तथा वण करनेवाला मनु पाप-दोषसे र हत हो अ ुत प हो जाता है॥ २७ ॥ रामायण का अ उ म, वरणीय और मनोवा त वर देनेवाला है। वह उसका पाठ और वण करनेवाले सम जग ो शी ही संसार-सागरसे पार कर देता है। उस आ दका को सुनकर मनु ीरामच जीके परमपदको ा कर लेता है॥ २८ ॥ जो ा, और व ु नामक भ - भ प धारण करके व क सृ , संहार और पालन करते ह, उन आ ददेव परमो ृ परमा ा ीरामच जीको अपने दय-म रम ा पत करके मनु मो का भागी होता है॥ २९ ॥ जो नाम तथा जा त आ द वक से र हत, काय-कारणसे परे, सव ृ , वेदा शा के ारा जाननेयो एवं अपने ही काशसे का शत होनेवाला परमा ा है, उसका



सम वेद और पुराण के ारा सा ा ार होता है (इस रामायणके अनुशीलनसे भी उसीक ा होती है।)॥ ३० ॥ व वरो! का तक, माघ और चै मासके शु प म नौ दन म रामायणक अमृतमयी कथाका वण करना चा हये॥ जो इस कार ीरामच जीके मंगलमय च र का वण करता है, वह इस लोक और परलोकम भी अपनी सम उ म कामना को ा कर लेता है॥ वह सब पाप से मु हो अपनी इ स पी ढ़य के साथ ीरामच जीके उस परमधामम चला जाता है, जहाँ जाकर मनु को कभी शोक नह करना पड़ता है॥ चै , माघ और का तकके शु प म परम पु मय रामायण-कथाका नवाह-पारायण करना चा हये तथा नौ दन तक इसे य पूवक सुनना चा हये॥ ३४ ॥ रामायण आ दका है। यह ग और मो देनेवाला है, अत: स ूण धम से र हत घोर क लयुग आनेपर नौ दन म रामायणक अमृतमयी कथाको वण करना चा हये॥ ३५ १/२ ॥ ा णो! जो लोग भयंकर क लकालम ीराम-नामका आ य लेते ह, वे ही कृ ताथ होते ह। क लयुग उ बाधा नह प ँ चाता॥ ३६ १/२ ॥ जस घरम त दन रामायणक कथा होती है, वह तीथ प हो जाता है। वहाँ जानेसे दु के पाप का नाश होता है॥ ३७ १/२ ॥ तपोधनो! इस शरीरम तभीतक पाप रहते ह, जबतक मनु ीरामायणकथाका भलीभाँ त वण नह करता॥ संसारम ीरामायणक कथा परम दुलभ ही है। जब करोड़ ज के पु का उदय होता है, तभी उसक ा होती है॥ ३९ १/२ ॥ े ा णो! का तक, माघ और चै के शु प म रामायणके वणमा से (रा सभावाप ) सौदास भी शापमु हो गये थे॥ ४० १/२ ॥ सौदासने मह ष गौतमके शापसे रा स-शरीर ा कया था। वे रामायणके भावसे ही पुन: उस शापसे छु टकारा पा सके थे ॥ ४१ १/२ ॥



जो पु ष ीरामच जीक भ का आ य ले ेमपूवक इस कथाका वण करता है, वह बड़े-बड़े पाप तथा पातक आ दसे मु हो जाता है॥ ४२-४३ ॥ इस कार ी पुराणके उ रख म नारद-सन ु मार-संवादके अ गत रामायणमाहा वषयक क का अनुक तन नामक थम अ ाय पूरा आ॥ १॥ कसी- कसी तम ‘ ायुब पु का:’ के ानम ‘ रायोब जा:’ पाठ है। इसके अनुसार क लयुगम ाय: सब लोग थोड़े धन और अ धक संतानवाले ह गे; ऐसा अथ समझना चा हये। *



दस ू रा अ ाय नारद-सन ु मार-संवाद, सुदास या सोमद नामक ा णको रा स क रामायण-कथा- वण ारा उससे उ ार







तथा



ऋ षय ने पूछा—महामुन!े



देव ष नारदमु नने सन ु मारजीसे रामायणस ी स ूण धम का कस कार वणन कया था? उन दोन वादी महा ा का कस े म मलन आ था? तात! वे दोन कहाँ ठहरे थे? नारदजीने उनसे जो कु छ कहा था, वह सब आप हमलोग को बताइये॥ १-२ ॥ सूतजीने कहा—मु नवरो! सनका द महा ा भगवान् ाजीके पु माने गये ह। उनम ममता और अहंकारका तो नाम भी नह है। वे सब-के -सब ऊ रेता (नै क चारी) ह॥ ३ ॥ म आपलोग से उनके नाम बताता ँ , सु नये। सनक, सन न, सन ु मार और सनातन—ये चार सनका द माने गये ह॥ ४ ॥ वे भगवान् व ुके भ और महा ा ह। सदा के च नम लगे रहते ह। बड़े स वादी ह। सह सूय के समान तेज ी एवं मो के अ भलाषी ह॥ ५ ॥ एक दन वे महातेज ी पु सनका द ाजीक सभा देखनेके लये मे पवतके शखरपर गये॥ ६ ॥ वहाँ भगवान् व ुके चरण से कट ◌इ परम पु मयी गंगानदी, ज सीता भी कहते ह, बह रही थ । उनका दशन करके वे तेज ी महा ा उनके जलम ान करनेको उ त ए॥ ७ ॥



ा णो! इतनेम ही देव ष नारदमु न भगवा े नारायण आ द नाम का उ ारण करते ए वहाँ आ प ँ चे॥ ८ ॥ वे ‘नारायण! अ ुत! अन ! वासुदेव! जनादन! य ेश! य पु ष! राम! व ो! आपको नम ार है।’ इस कार भगव ामका उ ारण करके स ूण जग ो प व बनाते और एकमा लोकपावनी गंगाक ु त करते ए वहाँ आये॥ ९-१० ॥ उ आते देख महातेज ी सनका द मु नय ने उनक यथो चत पूजा क तथा नारदजीने भी उन मु नय को म क कु ाया॥ ११ ॥



तदन र वहाँ मु नय क सभाम सन ु मारजीने भगवान् नारायणके परम भ मु नवर नारदसे इस कार कहा॥ १२ ॥ सन ु मार बोले—महा ा नारदजी! आप सम मुनी र म सव ह। सदा ीह रक भ म त र रहते ह, अत: आपसे बढ़कर दूसरा को◌इ नह है॥ १३ ॥ इस लये म पूछता ँ , जनसे सम चराचर जग उ ◌इ है तथा ये गंगाजी जनके चरण से कट ◌इ ह, उन ीह रके पका ान कै से होता है? य द आपक हमलोग पर कृ पा हो तो हमारे इस का यथाथ पसे ववेचन क जये॥ १४ १/२ ॥ नारदजीने कहा—जो परसे भी परतर ह, उन परमदेव ीरामको नम ार है। जनका नवास- ान (परमधाम) उ ृ से भी उ ृ है तथा जो सगुण और नगुण प ह, उन ीरामको मेरा नम ार है॥ ान-अ ान, धम-अधम तथा व ा और अ व ा— ये सब जनके अपने ही प ह तथा जो सबके आ प ह, उन आप परमे रको नम ार है॥ १६ १/२ ॥ जो दै का वनाश और नरकका अ करनेवाले ह, जो अपने हाथके संकेतमा से अथवा अपनी भुजा के बलसे धमक र ा करते ह, पृ ीके भारका वनाश जनका मनोर नमा है और जो उस मनोर नक सदा अ भलाषा रखते ह, उन रघुकुलदीप ीरामदेवको म नम ार करता ँ ॥ १७ १/२ ॥ जो एक होकर भी चार प म अवतीण होते ह, ज ने वानर को साथ लेकर रा ससेनाका संहार कया है, उन दशरथन न ीरामच जीका म भजन करता ँ ॥ १८ १/२ ॥ भगवान् ीरामके ऐसे-ऐसे अनेक च र ह, जनके नाम करोड़ वष म भी नह गनाये जा सकते ह॥ १९ १/२ ॥ जनके नामक म हमाका मनु और मुनी र भी पार नह पा सकते, वहाँ मेरे-जैसे ु जीवक प ँ च कै से हो सकती है॥ २० १/२ ॥ जनके नामके रणमा से बड़े-बड़े पातक भी पावन बन जाते ह, उन परमा ाका वन मेरे-जैसा तु बु वाला ाणी कै से कर सकता है॥ २१ १/२ ॥ जो ज घोर क लयुगम रामायण-कथाका आ य लेते ह, वे ही कृ तकृ ह। उनके लये तु सदा नम ार करना चा हये॥ २२ १/२ ॥



सन ु मारजी! भगवा म हमाको जाननेके लये का तक, माघ और चै के शु प म रामायणक अमृतमयी कथाका नवाह वण करना चा हये॥ २३ १/२ ॥ ा ण सुदास गौतमके शापसे रा स-शरीरको ा हो गये थे; परंतु रामायणके भावसे ही उ उस शापसे छु टकारा मला था॥ २४ १/२ ॥ सन ु मारने पूछा—मु न े ! स ूण धम का फल देनेवाली रामायणकथाका कसने वणन कया है? सौदासको गौतम ारा कै से शाप ा आ? फर वे रामायणके भावसे कस कार शापमु ए थे॥ मुने! य द आपका हमलोग पर अनु ह हो तो सब कु छ ठीक-ठीक बताइये। इन सारी बात से हम अवगत कराइये; क भगवा कथा व ा और ोता दोन के पाप का नाश करनेवाली है॥ २७ १/२ ॥ नारदजीने कहा— न्! रामायणका ादुभाव मह ष वा ी कके मुखसे आ है। तुम उसीको वण करो। रामायणक अमृतमयी कथाका वण नौ दन म करना चा हये॥ २८ १/२ ॥



स युगम एक ा ण थे, ज धम-कमका वशेष ान था। उनका नाम था सोमद । वे सदा धमके पालनम ही त र रहते थे॥ २९ १/२ ॥ (वे ा ण सौदास नामसे भी व ात थे।) ा णने वादी गौतम मु नसे गंगाजीके मनोरम तटपर स ूण धम का उपदेश सुना था। गौतमने पुराण और शा क कथा ारा उ त का ान कराया था। सौदासने गौतमसे उनके बताये ए स ूण धम का वण कया था॥ ३०-३१ १/२ ॥ एक दनक बात है, सौदास परमे र शवक आराधनाम लगे ए थे। उसी समय वहाँ उनके गु गौतमजी आ प ँ च;े परंतु सौदासने अपने नकट आये ए गु को भी उठकर णाम नह कया॥ ३२ १/२ ॥ परम बु मान् गौतम तेजक न ध थे, वे श के बतावसे न होकर शा ही बने रहे। उ यह जानकर स ता ◌इ क मेरा श सौदास शा ो कम का अनु ान करता है॥ ३३ १/२ ॥



कतु सौदासने जनक आराधना क थी, वे स ूण जग े गु महादेव शव गु क अवहेलनासे होनेवाले पापको न सह सके । उ ने सौदासको रा सक यो नम जानेका शाप दे दया। तब वनयकलाको वद ा णने हाथ जोड़कर गौतमसे कहा॥ ३४-३५ ॥ ा ण बोले—स ूण धम के ाता! सवदश ! सुरे र! भगवन्! मने जो अपराध कया है, वह सब आप मा क जये॥ ३६ ॥ गौतमने कहा—व ! का तक मासके शु प म तुम रामायणक अमृतमयी कथाको भ भावसे आदरपूवक वण करो। इस कथाको नौ दन म सुनना चा हये। ऐसा करनेसे यह शाप अ धक दन तक नह रहेगा। के वल बारह वष तक ही रह सके गा॥ ३७ १/२ ॥ ा णने पूछा—रामायणक कथा कसने कही है? तथा उसम कसके च र का वणन कया गया है? महामते! यह सब सं ेपसे बतानेक कृ पा कर। य कहकर मन-ही-मन स हो सौदासने गु के चरण म णाम कया॥ ३८-३९ ॥ गौतमने कहा— न्! सुनो। रामायण-का का नमाण वा ी क मु नने कया है। जन भगवान् ीरामने अवतार हण करके रावण आ द रा स का संहार कया और देवता का काय सँवारा था, उ के च र का रामायण-का म वणन है। तुम उसीका वण करो। का तकमासके शु प म नव दन अथात् तपदासे नवमीतक रामायणक कथा सुननी चा हये। वह सम पाप का नाश करनेवाली है॥ ४०-४१ १/२ ॥ ऐसा कहकर पूणकाम गौतम ऋ ष अपने आ मको चले गये। इधर सोमद या सुदास नामक ा णने दु:खम होकर रा स-शरीरका आ य लया॥ ४२ १/२ ॥ वे सदा भूख- ाससे पी ड़त तथा ोधके वशीभूत रहते थे। उनके शरीरका रंग कृ प क रातके समान काला था। वे भयानक रा स होकर नजन वनम मण करने लगे॥ ४३ १/२ ॥



वहाँ वे नाना कारके पशु , मनु , साँप- ब ू आ द ज ु , प य और वानर को बलपूवक पकड़कर खा जाते थे॥ ४४ १/२ ॥ षयो! उस रा सके ारा यह पृ ी ब त-सी ह य तथा लाल-पीले शरीरवाले र पायी ेत से प रपूण हो अ भयंकर दखायी देने लगी॥ ४५ १/२ ॥



छ: महीनेम ही सौ योजन व ृत भूभागको अ दु: खत करके वह रा स पुन: दूसरे कसी वनम चला गया॥ ४६ १/२ ॥ वहाँ भी वह त दन नरमांसका भोजन करता रहा। स ूण लोक के मनम भय उ करनेवाला वह रा स घूमता-घामता नमदाजीके तटपर जा प ँ चा॥ ४७ १/२ ॥ इसी समय को◌इ अ धमा ा ा ण उधर आ नकला। उसका ज क लगदेशम आ था। लोग म वह गग नामसे व ात था॥ ४८ १/२ ॥ कं धेपर गंगाजल लये भगवान् व नाथक ु त तथा ीरामके नाम का गान करता आ वह ा ण बड़े हष और उ ाहम भरकर उस पु देशम आया था॥ ४९ १/२ ॥ गग मु नको आते देख रा स सुदास बोल उठा, ‘हम भोजन ा हो गया।’ ऐसा कहकर अपनी दोन भुजा को ऊपर उठाये ए वह मु नक ओर चला; परंतु उनके ारा उ ा रत होनेवाले भगव ाम को सुनकर वह दूर ही खड़ा रहा। उन षको मारनेम असमथ होकर रा स उनसे इस कार बोला॥ ५०-५१ १/२ ॥ रा सने कहा—यह तो बड़े आ यक बात है! भ ! महाभाग! आप महा ाको नम ार है। आप जो भगव ाम का रण कर रहे ह, इतनेसे ही रा स भी दूर भाग जाते ह। मने पहले को ट सह ा ण का भ ण कया है॥ ५२-५३ ॥ न्! आपके पास जो नाम पी कवच है, वही रा स के महान् भयसे आपक र ा करता है। आपके ारा कये गये नाम रणमा से हम रा स को भी परम शा ा हो गयी। यह भगवान् अ ुतक कै सी म हमा है॥ ५४ १/२ ॥ महाभाग ा ण! आप ीरामकथाके भावसे सवथा राग आ द दोष से र हत हो गये ह। अत: आप मुझे इस अधम पातकसे बचाइये॥ ५५ १/२ ॥ मु न े ! मने पूवकालम अपने गु क अवहेलना क थी। फर गु जीने मुझपर अनु ह कया और यह बात कही॥ ५६ १/२ ॥ ‘पूवकालम वा ी क मु नने जो रामायणक कथा कही है, उसका का तकमासके शु प म य पूवक वण करना चा हये’॥ ५७ १/२ ॥



इतना कहकर गु देवने पुन: यह सु र एवं शुभदायक वचन कहा—‘रामायणक अमृतमयी कथा नौ दनम सुननी चा हये’॥ ५८ १/२ ॥ अत: स ूण शा के त को जाननेवाले महाभाग ा ण! आप मुझे रामायणकथा सुनाकर इस पापकमसे मेरी र ा क जये॥ ५९ १/२ ॥ नारदजी कहते ह—उस समय वहाँ रा सके मुखसे रामायणका प रचय तथा ीरामके उ म माहा का वणन सुनकर ज े गग आ यच कत हो उठे । ीरामका नाम ही उनके जीवनका अवल था। वे ा णदेवता उस रा सके त दयासे वत हो गये और सुदाससे इस कार बोले॥ ६०-६१ १/२ ॥ ा णने कहा—महाभाग! रा सराज! तु ारी बु नमल हो गयी है। इस समय का तकमासका शु प चल रहा है। इसम रामायणक कथा सुनो। रामभ परायण रा स! तुम ीरामच जीके माहा को वण करो॥ ६२-६३ ॥ ीरामच जीके ानम त र रहनेवाले मनु को बाधा प ँ चानेम कौन समथ हो सकता है। जहाँ ीरामका भ है, वहाँ ा, व ु और शव वराजमान ह। वह देवता, स तथा रामायणका आ य लेनेवाले मनु ह॥ ६४ १/२ ॥ अत: इस का तकमासके शु प म तुम रामायणक कथा सुनो। नौ दन तक इस कथाको सुननेका वधान है। अत: तुम सदा सावधान रहो॥ ६५ १/२ ॥ ऐसा कहकर गग मु नने उसे रामायणक कथा सुनायी। कथा सुनते ही उसका रा स दूर हो गया। रा स-भावका प र ाग करके वह देवता के समान सु र, करोड़ सूय के समान तेज ी और भगवान् नारायणके समान का मान् हो गया। अपनी चार भुजा म श , च , गदा और प लये वह ीह रके वैकु धामम चला गया। ा ण गग मु नक भू र-भू र शंसा करता आ वह भगवा े उ म धामम जा प ँ चा॥ ६६—६९ ॥ नारदजी कहते ह— व वरो! अत: आपलोग भी रामायणक अमृतमयी कथा सु नये। इसके वणक सदा ही म हमा है, कतु का तकमासम वशेष बतायी गयी है॥ ७० ॥ रामायणके नामका रण करनेसे ही मनु करोड़ महापातक तथा सम पाप से मु हो परमग तको ा होता है॥ ७१ ॥



मनु ‘रामायण’ इस नामका जब एक बार भी उ ारण करता है, तभी वह सम पाप से मु हो जाता है और अ म भगवान् व ुके लोकम चला जाता है॥ ७२ ॥ जो मनु सदा भ भावसे रामायण-कथाको पढ़ते और सुनते ह, उ गंगा ानक अपे ा सौगुना पु फल ा होता है॥ ७३ ॥ इस कार ी पुराणके उ रख म नारद-सन ु मारसंवादके अ गत वा ीक य रामायणमाहा के संगम रा सका उ ार नामक दूसरा अ ाय पूरा आ॥ २॥



तीसरा अ ाय माघमासम रामायण- वणका फल—राजा सुम त और स वतीके पूव-ज का इ तहास



ष नारदजी! आपने यह अ तु इ तहास सुनाया है। अब रामायणके माहा का पुन: व ारपूवक वणन क जये॥ १ ॥ (आपने का तक मासम रामायणके वणक म हमा बतायी।) अब कृ पापूवक दूसरे मासका माहा बताइये। मुने! आपके वचनामृतसे कसको संतोष नह होगा!॥ नारदजीने कहा—महा ाओ! आप सब लोग न य ही बड़े भा शाली और कृ तकृ ह, इसम संशय नह है; क आप भ भावसे भगवान् ीरामक म हमा सुननेके लये उ त ए ह॥ ३ ॥ वादी मु नय ने भगवान् ीरामके माहा का वण पु ा ा पु ष के लये परम दुलभ बताया है॥ मह षयो! अब आपलोग एक व च पुरातन इ तहास सु नये, जो सम पाप का नवारण और स ूण रोग का वनाश करनेवाला है॥ ५ ॥ पूवकालक बात है, ापरम सुम त नामसे स एक राजा हो गये ह। उनका ज च वंशम आ था। वे ीस और सात ीप के एकमा स ाट् थे॥ उनका मन सदा धमम ही लगा रहता था। वे स वादी तथा सब कारक स य से सुशो भत थे। सदा ीरामकथाके सेवन और ीरामक ही समाराधनाम संल रहते थे॥ ७ ॥ ीरामक पूजा-अचाम लगे रहनेवाले भ क वे सदा सेवा करते थे। उनम अहंकारका नाम भी नह था। वे पू पु ष के पूजनम त र रहनेवाले, समदश तथा स णु स थे॥ ८ सन ु मारने कहा—







राजा सुम त सम ा णय के हतैषी, शा , कृ त और यश ी थे। उनक परम सौभा शा लनी प ी भी सम शुभ ल ण से सुशो भत थी॥ ९ ॥ उसका नाम स वती था। वह प त ता थी। प तम ही उसके ाण बसते थे। वे दोन प त-प ी सदा रामायणके ही पढ़ने और सुननेम संल रहते थे॥ १० ॥



सदा अ का दान करते और त दन जलदानम वृ रहते थे। उ ने असं पोखर , बगीच और बाव ड़य का नमाण कराया था॥ ११ ॥ महाभाग राजा सुम त भी सदा रामायणके ही अनुशीलनम लगे रहते थे। वे भ भावसे भा वत हो रामायणको ही बाँचते अथवा सुनते थे॥ १२ ॥ इस कार वे धम नरेश सदा ीरामक आराधनाम ही त र रहते थे। उनक ारी प ी स वती भी ऐसी ही थी। देवता भी उन दोन द तक सदा भू र-भू र शंसा करते थे॥ १३ ॥ एक दन उन भुवन व ात धमा ा राजा-रानीको देखनेके लये वभा क मु न अपने ब त-से श के साथ वहाँ आये॥ १४ ॥ मु नवर वभा कको आया देख राजा सुम तको बड़ा सुख मला। वे पूजाक व ृत साम ी साथ ले प ीस हत उनक अगवानीके लये गये॥ १५ ॥ जब मु नका अ त थ-स ार स हो गया और वे शा भावसे आसनपर वराजमान हो गये, उस समय अपने आसनपर बैठे ए भूपालने मु नसे हाथ जोड़कर कहा॥ १६ ॥ राजा बोले—भगवन्! आज आपके शुभागमनसे म कृ ताथ हो गया; क े पु ष संत के आगमनको सुखदायक बताकर उसक शंसा करते ह॥ १७ ॥ जहाँ महापु ष का ेम होता है, वहाँ सारी स याँ अपने-आप उप त हो जाती ह। वहाँ तेज, क त, धन और पु —सभी व ुएँ उपल होती ह—ऐसा व ान् पु ष का कथन है॥ १८ ॥ मुने! भो! जहाँ संत-महा ा बड़ी भारी कृ पा करते ह, वहाँ त दन क ाणमय साधन क वृ होती है॥ १९ ॥ न्! जो अपने म कपर ा ण का चरणोदक धारण करता है, उस पु ा ा पु षने सब तीथ म ान कर लया—इसम संशय नह है॥ २० ॥ शा प महष! मेरे पु , प ी तथा सारी स आपके चरण म सम पत है। आ ा दी जये, हम आपक ा सेवा कर?॥ २१ ॥ ऐसी बात कहते ए राजा सुम तक ओर देखकर मुनी र वभा क बड़े स ए और उ ने अपने हाथसे राजाका श करते ए कहा॥ २२ ॥



ऋ ष बोले—राजन्!



तुमने जो कु छ कहा है, वह सब तु ारे कु लके अनु प है। जो इस कार वनयसे कु जाते ह, वे सब लोग परम क ाणके भागी होते ह॥ २३ ॥ भूपाल! तुम स ागपर चलनेवाले हो। म तुमपर ब त स ँ । महाभाग! तु ारा क ाण हो। म तुमसे जो कु छ पूछता ँ , उसे बताओ॥ २४ ॥ य प भगवान् ीह रको संतु करनेवाले ब त-से पुराण भी थे, जनका तुम पाठ कर सकते थे, तथा प इस माघमासम सब कारसे य शील होकर तुम जो रामायणके ही पारायणम लगे ए हो तथा तु ारी यह सा ी प ी भी सदा जो ीरामक ही आराधनाम रत रहती है, इसका ा कारण है? यह वृ ा यथावत्- पसे मुझे बताओ॥ २५-२६ ॥ राजाने कहा—भगवन्! सु नये, आप जो कु छ पूछते ह, वह सब म बता रहा ँ । मुन!े हम दोन का च र स ूण जग े लये आ यजनक है॥ २७ ॥ साधु शरोमणे! पूवज म म माल त नामक शू था। सदा कु मागपर ही चलता और सब लोग के अ हत-साधनम ही संल रहता था॥ २८ ॥ दूसर क चुगली खानेवाला, धम ोही, देवतास ी का अपहरण करनेवाला तथा महापात कय के संसगम रहनेवाला था। म देव-स से ही जी वका चलाता था॥ गोह ा, ा णह ा और चोरी करना—यही अपना धंधा था। म सदा दूसरे ा णय क हसाम ही लगा रहता था। त दन दूसर से कठोर बात बोलता, पाप करता और वे ा म आस रहता था॥ ३० ॥ इस कार कु छ कालतक घरम रहा, फर बड़े लोग क आ ाका उ न करनेके कारण मेरे सभी भा◌इ-ब ु ने मुझे ाग दया और म दु:खी होकर वनम चला आया॥ ३१ ॥ वहाँ त दन मृग का मांस खाकर रहता था और काँटे आ द बछाकर लोग के आनेजानेका माग अव कर देता था। इस तरह अके ला ब त दु:ख भोगता आ म उस नजन वनम रहने लगा॥ ३२ ॥ एक दनक बात है, म भूखा- ासा, थका-माँदा, न ासे झूमता आ एक नजन वनम आया। वहाँ दैवयोगसे व स जीके आ मपर मेरी पड़ी॥ ३३ ॥ उस आ मके नकट एक वशाल सरोवर था, जसम हंस और कार व आ द जलप ी छा रहे थे। मुनी र! वह सरोवर चार ओरसे व पु -समूह ारा आ ा दत था॥ ३४ ॥



वहाँ जाकर मने पानी पया और उसके तटपर बैठकर अपनी थकावट दूर क । फर कु छ वृ क जड़ उखाड़कर उनके ारा अपनी भूख बुझायी॥ ३५ ॥ व स के उस आ मके पास ही म नवास करने लगा। टूटी-फू टी टक- शला को जोड़कर मने वहाँ दीवार खड़ी क ॥ ३६ ॥ फर प , तनक और का ारा एक सु र घर बना लया। उसी घरम रहकर म ाध क वृ का आ य ले नाना कारके मृग को मारकर उ के ारा बीस वष तक अपनी जी वका चलाता रहा॥ ३७ १/२ ॥ तदन र मेरी ये सा ी प ी वहाँ मेरे पास आय । पूवज म इनका नाम काली था। काली नषादकु लक क ा थी और व देशम उ ◌इ थी। उसके भा◌इ-ब ु ने उसे ाग दया था। वह दु:खसे पी ड़त थी। उसका शरीर वृ हो चला था॥ ३८-३९ ॥ न्! वह भूख- ाससे श थल हो गयी थी और इस सोचम पड़ी थी क भोजनका काय कै से चलेगा? दैवयोगसे घूमती-घामती वह उसी नजन वनम आ प ँ ची, जसम म रहता था॥ ४० ॥ गम का महीना था। बाहर इसे धूप सता रही थी और भीतर मान सक संताप अ पीड़ा दे रहा था। इस दु: खनी नारीको देखकर मेरे मनम बड़ी दया आयी॥ ४१ ॥ मने इसे पीनेके लये जल तथा खानेके लये मांस और जंगली फल दये। न्! काली जब व ाम कर चुक , तब मने उससे उसका यथावत् वृ ा पूछा॥ ४२ ॥ महामुन!े मेरे पूछनेपर उसने जो अपने ज -कम नवेदन कये थे, उ बताता ँ । सु नये— उसका नाम काली था और वह नषादकु लक क ा थी॥ ४३ ॥ व न्! उसके पताका नाम दा क (या दा वक) था। वह उसीक पु ी थी और व पवतपर नवास करती थी। सदा दूसर का धन चुराना और चुगली खाना ही उसका काम था॥ ४४ ॥ एक दन उसने अपने प तक ह ा कर डाली, इसी लये भा◌इ-ब ु ने उसे घरसे नकाल दया। न्! इस तरह प र ा काली उस दुगम एवं नजन वनम मेरे पास आयी थी॥ ४५ ॥



उसने अपनी सारी करतूत मुझे इसी पम बतायी थ । मुन!े तब व स जीके उस प व आ मके नकट म और काली—दोन प त-प ीका स ीकार करके रहने और मांसाहारसे ही जीवन- नवाह करने लगे॥ ४६ १/२ ॥ एक दन हम दोन जी वकाके न म कु छ उ म करनेके लये वहाँ व स जीके आ मपर गये। महा न्! वहाँ देव षय का समाज जुटा आ था। वही देखकर हमलोग उधर गये थे। वहाँ माघमासम त दन ा णलोग रामायणका पाठ करते दखायी देते थे॥ ४७-४८ ॥ उस समय हमलोग नराहार थे और पु षाथ करनेम समथ होकर भी भूख- ाससे क पा रहे थे। अत: बना इ ाके ही व स जीके आ मपर चले गये थे। फर लगातार नौ दन तक भ पूवक रामायणक कथा सुननेके लये हम दोन वहाँ जाते रहे। मुन!े उसी समय हम दोन क मृ ु हो गयी॥ ४९-५० ॥ हमारे उस कमसे भगवान् मधुसूदनका मन स हो गया था, अत: उ ने हम ले आनेके लये दूत भेजे॥ ५१ ॥ वे दूत हम दोन को वमानम बठाकर भगवा े परम पद (उ म धाम) म ले गये। हम दोन देवा धदेव च पा णके नकट जा प ँ च*े ॥ ५२ ॥ वहाँ हमने जतने समयतक बड़े-बड़े भोग भोगे थे, वह बता रहे ह। सु नये—को ट सह और को ट शत युग तक ीरामधामम नवास करके हमलोग लोकम आये। वहाँ भी उतने ही समयतक रहकर हम इ लोकम आ गये॥ ५३-५४ ॥ मु न े ! इ लोकम भी उतने ही कालतक परम उ म भोग भोगनेके प ात् हम मश: इस पृ ीपर आये ह॥ ५५ ॥ यहाँ भी रामायणके सादसे हम अतुल स ा ◌इ है। मुन!े अ न ासे रामायणका वण करनेपर भी हम ऐसा फल ा आ है॥ ५६ ॥ धमा न्! य द नौ दन तक भ -भावसे रामायणक अमृतमयी कथा सुनी जाय तो वह ज , जरा और मृ ुका नाश करनेवाली होती है॥ ५७ ॥ व वर! सु नये, ववश होकर भी जो कम कया जाता है, वह रामायणके सादसे परम महान् फल दान करता है॥ ५८ ॥



नारदजी कहते ह—यह



सब सुनकर मुनी र वभा क राजा सुम तका अ भन न करके अपने तपोवनको चले गये॥ ५९ ॥ व वरो! अत: आपलोग देवा धदेव च पा ण भगवान् ीह रक कथा सु नये। रामायणकथा कामधेनुके समान अभी फल देनेवाली बतायी गयी है॥ ६० ॥ माघमासके शु प म य पूवक रामायणक नवा कथा सुननी चा हये। वह स ूण धम का फल दान करनेवाली है॥ ६१ ॥ यह प व आ ान सम पाप का नाश करनेवाला है। जो इसे बाँचता अथवा सुनता है, वह भगवान् ीरामका भ होता है॥ ६२ ॥ इस कार ी पुराणके उ रख म नारदसन ु मारसंवादके अ गत रामायणमाहा के संगम माघमासम रामायणकथा वणके फलका वणन नामक तीसरा अ ाय पूरा आ॥ ३॥ यहाँ जस परम पदसे लौटनेका वणन है, वह लोकसे भ को◌इ उ म लोक था, जहाँ भगवान् मधुसूदनके सां न तथा ीरामके दशन-सुखका अनुभव होता था, इसे सा ात् वैकु या साके त नह मानना चा हये; क वहाँसे पुनरावृ नह होती। अ न ासे कथा- वण करनेके कारण उ अपुनरावत लोक नह मला था। *



चौथा अ ाय चै मासम रामायणके पठन और वणका माहा , क लक नामक मु नक कथा नारदजी कहते ह—मह षयो!



ाध और उ



अब म रामायणके पाठ और वणके लये उपयोगी दूसरे मासका वणन करता ँ , एका च होकर सुनो। रामायणका माहा सम पाप को हर लेनेवाला, पु जनक तथा स ूण दु:ख का नवारण करनेवाला है। वह ा ण, य, वै , शू तथा ी—इन सबको सम मनोवा त फल दान करनेवाला है। उससे सब कारके त का फल भी ा होता है। वह दु: का नाशक, धनक ा करानेवाला तथा भोग और मो प फल देनेवाला है। अत: उसे य पूवक सुनना चा हये॥ १—३ ॥ इसी वषयम व पु ष एक ाचीन इ तहासका उदाहरण देते ह। वह इ तहास अपने पाठक और ोता के सम पाप का नाश करनेवाला है॥ ४ ॥ ाचीन क लयुगम एक क लक नामवाला ाध रहता था। वह सदा परायी ी और पराये धनके अपहरणम ही लगा रहता था॥ ५ ॥ दूसर क न ा करना उसका न का काम था। वह सदा सभी ज ु को पीड़ा दया करता था। उसने कतने ही ा ण तथा सैकड़ , हजार गौ क ह ा कर डाली थी॥ ६ ॥ पराये धनका तो वह न अपहरण करता ही था, देवताके धनको भी हड़प लेता था। उसने अपने जीवनम अनेक बड़े-बड़े पाप कये थे॥ ७ ॥ उसके पाप क गणना करोड़ वष म भी नह क जा सकती थी। एक समय वह महापापी ाध, जो जीव-ज ु के लये यमराजके समान भयंकर था, सौवीरनगरम गया। वह नगर सब कारके वैभवसे स , व ाभूषण से वभू षत युव तय ारा सुशो भत, जलवाले सरोवर से अलंकृत तथा भाँ त-भाँ तक दूकान से सुस त था। देवनगरके समान उसक शोभा हो रही थी। ाध उस नगरम गया॥ ८-९ १/२ ॥ सौवीरनगरके उपवनम भगवान् के शवका बड़ा सु र म र था, जो सोनेके अनेकानेक कलश से ढका आ था। उसे देखकर ाधको बड़ी स ता ◌इ। उसने यह न य कर लया क म यहाँसे ब त-सा सुवण चुराकर ले चलूँगा॥ १०-११ ॥



ऐसा न य करके वह चोरीपर ल ू रहनेवाला ाध ीरामके म रम गया। वहाँ उसने शा , त ाथवे ा और भगवा आराधनाम त र उ मु नका दशन कया, जो तप ाक न ध थे। वे अके ले ही रहते थे। उनके दयम सबके त दया भरी थी। वे सब ओरसे न: ृह थे। उनके मनम के वल भगवा े ानका ही लोभ बना रहता था॥ १२-१३ ॥ उ वहाँ उप त देख ाधने उनको चोरीम व डालनेवाला समझा। तदन र जब आधी रात ◌इ, तब वह देवतास ी समूह लेकर चला॥ १४ ॥ उस मदो ाधने उ मु नक छातीको अपने एक पैरसे दबाकर हाथसे उनका गला पकड़ लया और तलवार उठाकर उ मार डालनेका उप म कया॥ १५ ॥ उ ने देखा ाध मुझे मार डालना चाहता है तो वे उससे इस कार बोले॥ १५ १/२ ॥ उ ने कहा—ओ भले मानुष! तुम थ ही मुझे मारना चाहते हो। म तो सवथा नरपराध ँ ॥ १६ ॥ लु क! बताओ तो सही, मने तु ारा ा अपराध कया है? संसारम लोग अपराधीक ही य पूवक हसा करते ह। सौ ! स न नरपराधक थ हसा नह करते ह॥ १७ १/२ ॥ शा च साधु पु ष अपने वरोधी तथा मूख मनु म भी स णु क त देखकर उनके साथ वरोध नह रखते ह॥ १८ १/२ ॥ जो मनु बार ार दूसर क गाली सुनकर भी माशील बना रहता है, वह उ म कहलाता है। उसे भगवान् व ुका अ यजन बताया गया है॥ दूसर के हत-साधनम लगे रहनेवाले साधुजन कसीके ारा अपने वनाशका समय उप त होनेपर भी उसके साथ वैर नह करते। च नका वृ अपनेको काटनेपर भी कु ठारक धारको सुवा सत ही करता है॥ अहो! वधाता बड़ा बलवान् है। वह लोग को नाना कारसे क देता रहता है। जो सब कारके संगसे र हत है, उसे भी दुरा ा मनु सताया करते ह॥ अहो! दु जन इस संसारम ब त-से जीव को बना कसी अपराधके ही पीड़ा देते ह। म ाह मछ लय के , चुगलखोर स न के और ाध मृग के इस जग अकारण वैरी होते ह॥ २३ ॥



अहो! माया बड़ी बल है। यह स ूण जग ो मोहम डाल देती है तथा ी, पु और म आ दके ारा सबको सब कारके दु:ख से संयु कर देती है॥ मनु पराये धनका अपहरण करके जो अपनी ी आ दका पोषण करता है, वह कस कामका; क अ म उन सबको छोड़कर वह अके ला ही परलोकक राह लेता है॥ २५ ॥ ‘मेरी माता, मेरे पता, मेरी प ी, मेरे पु तथा मेरा यह घरबार’—इस कार ममता थ ही ा णय को क देती रहती है॥ २६ ॥ मनु जबतक कमाकर धन देता है, तभीतक लोग उसके भा◌इ-ब ु बने रहते ह और उसके कमाये ए धनको सारे ब ु-बा व सदा भोगते रहते ह; कतु मूख मनु अपने कये ए पापके फल प दु:खको अके ला ही भोगता है॥ २७ १/२ ॥ उ मु न जब इस कार कह रहे थे, तब उनक बात पर वचार करके क लक नामक ाध भयसे ाकु ल हो उठा और हाथ जोड़कर बार ार कहने लगा—‘ भो! मेरे अपराधको मा क जये’॥ उन महा ाके संगके भावसे तथा भगवा ा सां न मल जानेसे उस लु कके सारे पाप न हो गये तथा उसके मनम न य ही बड़ा प ा ाप होने लगा॥ वह बोला—‘ व वर! मने जीवनम ब त-से बड़े-बड़े पाप कये ह; कतु वे सब आपके दशनमा से न हो गये॥ ३० १/२ ॥ ‘ भो! मेरी बु सदा पापम ही डू बी रहती थी। मने नर र बड़े-बड़े पाप का ही आचरण कया है। उनसे मेरा उ ार कस कार होगा? म कसक शरणम जाऊँ ॥ ३१ १/२ ॥ ‘पूवज के कये ए पाप के फलसे मुझे ाध होना पड़ा है, यहाँ भी मने पाप के ही जाल बटोरे ह। ये पाप करके म कस ग तको ा होऊँ गा?’॥ ३२ १/२ ॥ महामना क लकक यह बात सुनकर ष उ इस कार बोले॥ ३३ १/२ ॥ उ ने कहा—महामते ाध! तुम ध हो, ध हो, तु ारी बु बड़ी नमल और उ ल है; क तुम संसारस ी दु:ख के नाशका उपाय जानना चाहते हो॥ ३४ १/२ ॥ चै मासके शु प म तु भ भावसे आदरपूवक रामायणक नवाह कथा सुननी चा हये। उसके वणमा से मनु सम पाप से छु टकारा पा जाता है॥ ३५-३६ ॥



उस समय क लक ाधके सारे पाप न हो गये। वह रामायणक कथा सुनकर त ाल मृ ुको ा हो गया॥ ३७ ॥ ाधको धरतीपर पड़ा आ देख दयालु उ मु न बड़े व त ए। फर उ ने भगवान् कमलाप तका वन कया॥ ३८ ॥ रामायणक कथा सुनकर न ाप आ ाध द वमानपर आ ढ़ हो उ मु नसे इस कार बोला॥ ३९ ॥ ‘ व न्! आपके सादसे म महापातक के संकटसे मु हो गया। अत: म आपके चरण म णाम करता ँ । मने जो कया है, मेरे उस अपराधको आप मा क जये’॥ ४० ॥ सूतजी कहते ह—ऐसा कहकर क लकने मु न े उ पर देवकु सुम क वषा क और तीन बार उनक प र मा करके उ बार ार नम ार कया॥ ४१ ॥ त ात् अ रा से भरे ए स ूण मनोवा त भोग से स वमानपर आ ढ़ हो वह ीह रके परम धामम जा प ँ चा॥ ४२ ॥ अत: व वरो! आप सब लोग रामायणक कथा सुन। चै मासके शु प म य पूवक रामायणक अमृतमयी कथाका नवाह-पारायण अव सुनना चा हये॥ ४४ १/२ ॥ इस लये रामायण सभी ऋतु म हतकारक है। इसके ारा भगवा पूजा करनेवाला पु ष मनसे जो-जो चाहता है, उसे न:संदेह ा कर लेता है॥ ४४ १/२ ॥ सन ु मार! तुमने जो रामायणका माहा पूछा था, वह सब मने बता दया। अब और ा सुनना चाहते हो?॥ ४५-४५ ॥ इस कार ी पुराणके उ रख म नारद-सन ु मारसंवादके अ गत रामायणमाहा के संगम चै मासम रामायण सुननेके फलका वणन नामक चौथा अ ाय पूरा आ॥ ४॥



पाँचवाँ अ ाय रामायणके नवाह वणक व ध, म हमा तथा फलका वणन सूतजी कहते ह—रामायणका यह माहा



सुनकर मुनी र सन ु मार ब त स



ए।



उ ने मु न े नारदजीसे पुन: ज ासा क ॥ १ ॥ सन ु मार बोले—मुनी र! आपने रामायणका माहा कहा। अब म उसक व ध सुनना चाहता ँ ॥ महाभाग मुने! आप त ाथ- ानम कु शल ह; अत: अ कृ पापूवक इस वषयको यथाथ पसे बताय॥ नारदजीने कहा—मह षयो! तुमलोग एका च होकर रामायणक वह व ध सुनो, जो स ूण लोक म व ात है। वह ग तथा मो -स क वृ करनेवाली है॥ ४ ॥ म रामायणकथा- वणका वधान बता रहा ँ ; तुम सब लोग उसे सुनो। रामायणकथाका अनु ान करनेवाले व ा एवं ोताको भ भावसे भा वत होकर उस वधानका पालन करना चा हये॥ ५ ॥ उस व धका पालन करनेसे करोड़ पाप न हो जाते ह। चै , माघ तथा का तकमासके शु प क प मी त थको कथा आर करनी चा हये॥ ६ ॥ पहले वाचन करके फर यह संक करे क ‘हम नौ दन तक रामायणक अमृतमयी कथा सुनगे’॥ फर भगवा े ाथना करे—‘ ीराम! आजसे त दन म आपक अमृतमयी कथा सुनूँगा। यह आपके कृ पा सादसे प रपूण हो’॥ ८ ॥ न त अपामागक शाखासे द शु करके रामभ म त र हो व धपूवक ान करे॥ ९ ॥ अपनी इ य को संयमम रखकर भा◌इ-ब ु के साथ यं कथा सुने। पहले अपने कु लाचारके अनुसार द धावनपूवक ान करके ेत व धारण करे और शु हो घर आकर मौनभावसे दोन पैर धोनेके प ात् आचमन करके भगवान् नारायणका रण करे॥ १०-११ ॥ फर त दन देवपूजन करके संक पूवक भ भावसे रामायण क पूजा करे॥ १२ ॥



ती पु ष आवाहन, आसन, ग , पु आ दके ारा ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस म से भ परायण होकर पूजन करे॥ १३ ॥ स ूण पाप क नवृ के लये अपनी श के अनुसार एक, दो या तीन बार य पूवक होम करे॥ इस कार जो मन और इ य को संयमम रखकर रामायणक व धका अनु ान करता है, वह भगवान् व ुके धामम जाता है; जहाँसे लौटकर वह फर इस संसारम नह आता॥ १५ ॥ जो रामायणस ी तको धारण करनेवाला तथा धमा ा है, वह े पु ष चा ाल अथवा प तत मनु का व और अ से भी स ार न करे॥ १६ ॥ जो ना क, धममयादाको तोड़नेवाले, पर न क और चुगलखोर ह, उनका रामायण तधारी पु ष वाणीमा से भी आदर न करे॥ १७ ॥ जो प तके जी वत रहते ही परपु षके समागमसे माता ारा उ कया जाता है, उस जारज पु को ‘कु ’ कहते ह। ऐसे कु के यहाँ जो भोजन करता है, जो गीत गाकर जी वका चलाता है, देवतापर चढ़ी ◌इ व ुका उपभोग करनेवाले मनु का अ खाता है, वै है, लोग क म ा शंसाम क वता लखता है, देवता तथा ा ण का वरोध करता है, पराये अ का लोभी है और पर- ीम आस रहता है, ऐसे मनु का भी रामायण ती पु ष वाणीमा से भी आदर न करे॥ १८-१९ ॥ इस कार दोष से दूर एवं शु होकर जते य एवं सबके हतम त र रहते ए जो रामायणका आ य लेता है, वह परम स को ा होता है॥ २० ॥ गंगाके समान तीथ, माताके तु गु , भगवान् व ुके स श देवता तथा रामायणसे बढ़कर को◌इ उ म व ु नह है॥ २१ ॥ वेदके समान शा , शा के समान सुख, शा से बढ़कर ो त तथा रामायणसे उ ृ को◌इ का नह है॥ २२ ॥ माके स श बल, क तके समान धन, ानके स श लाभ तथा रामायणसे बढ़कर को◌इ उ म नह है॥ २३ ॥ रामायणकथाके अ म वेद वाचकको द णास हत गौका दान करे। उ रामायणक पु क तथा व और आभूषण आ द दे॥ २४ ॥



जो वाचकको रामायणक पु क देता है, वह भगवान् व ुके धामम जाता है; जहाँ जाकर उसे कभी शोक नह करना पड़ता॥ २५ ॥ धमा ा म े सन ु मार! रामायणक नवाह कथा सुननेसे यजमानको जो फल ा होता है, उसे सुनो। प मी त थको रामायणक अमृतमयी कथाको आर करके उसके वणमा से मनु सब पाप से मु हो जाता है॥ २६ १/२ ॥ य द दो बार यह कथा वण क गयी तो ोताको पु रीकय का फल मलता है। जो जते य पु ष तधारणपूवक रामायण-कथाको वण करता है, वह दो अ मेधय का फल पाता है। मु नवरो! जसने चार बार इस कथाका वण कया है, वह आठ अ ग्न ोमके परम पु फलका भागी होता है॥ २७—२९ ॥ जस महामन ी पु षने पाँच बार रामायणकथा वणका त पूरा कर लया है, वह अ ग्न ोमय के गुण पु -फलका भागी होता है॥ ३० ॥ जो एका च होकर इस कार छ: बार रामायणकथाके तका अनु ान पूरा कर लेता है, वह अ ग्न ोमय के आठगुने फलका भागी होता है॥ ३१ ॥ मुनी रो! ी हो या पु ष, जो आठ बार रामायणकथाको सुन लेता है, वह नरमेधय का पाँचगुना फल पाता है॥ ३२ ॥ जो ी या पु ष नौ बार इस तका आचरण करता है, उसे तीन गोमेध-य का पु फल ा होता है॥ जो पु ष शा च और जते य होकर रामायणय का अनु ान करता है, वह उस परमान मय धामम जाता है, जहाँ जाकर उसे कभी शोक नह करना पड़ता॥ ३४ ॥ जो त दन रामायणका पाठ अथवा वण करता है, गंगा नहाता है और धममागका उपदेश देता है; ऐसे लोग संसारसागरसे मु ही ह, इसम संशय नह है॥ महा ाओ! य तय , चा रय तथा वीर को भी रामायणक नवाह कथा सुननी चा हये॥ ३६ ॥ रामकथाको अ भ पूवक सुनकर मनु महान् तेजसे उ ी हो उठता है और लोकम जाकर वह आन का अनुभव करता है॥ ३७ ॥



इस लये व े गण! आपलोग रामायणक अमृतमयी कथा सु नये। ोता के लये यह सव म वणीय व ु है और प व म भी परम उ म है॥ ३८ ॥ दु: को न करनेवाली यह कथा ध है। इसे य पूवक सुनना चा हये। जो मनु ायु होकर इसका एक ोक या आधा ोक भी पढ़ता है, वह त ाल ही करोड़ उपपातक से छु टकारा पा जाता है। यह गु से भी गु तम व ु है, इसे स ु ष को ही सुनाना चा हये॥ ३९-४० ॥ भगवान् ीरामके म रम अथवा कसी पु े म, स ु ष क सभाम रामायणकथाका वचन करना चा हये। जो ोही, पाख पूण आचारम त र तथा लोग को ठगनेवाली वृ से यु ह, उ यह परम उ म कथा नह सुनानी चा हये॥ ४१ १/२ ॥ जो काम आ द दोष का ाग कर चुके ह, जनका मन रामभ म अनुर रहता है तथा जो गु जन क सेवाम त र ह, उ के सम यह मो क साधनभूत कथा बाँचनी चा हये॥ ४२ १/ ॥ २



ीराम सवदेवमय माने गये ह। वे आत ा णय क पीड़ाका नाश करनेवाले ह तथा े भ पर सदा ही ेह रखते ह। वे भगवान् भ से ही संतु होते ह, दूसरे कसी उपायसे नह ॥ ४३ १/२ ॥ मनु ववश होकर भी उनके नामका क तन अथवा रण कर लेनेपर सम पातक से मु हो परमपदका भागी होता है॥ ४४ १/२ ॥ महा ाओ! भगवान् मधुसूदन संसार पी भयंकर एवं दुगम वनको भ करनेके लये दावानलके समान ह। वे अपना रण करनेवाले मनु के सम पाप का शी ही नाश कर देते ह॥ ४५ १/२ ॥ इस प व का के तपा वषय वे ही ह, अत: यह परम उ म का सदा ही वण करनेयो है। इसका वण अथवा पाठ करनेसे यह सम पाप का नाश करनेवाला है॥ ४६ १/ ॥ २



जसक ीराम-रसम ी त एवं भ कृ तकृ है॥



है, वही स ूण शा के अथ ानम नपुण और



ा णो! उसक उपा जत क ◌इ तप ा प व , स और सफल है; क रामरसम ी त ए बना रामायणके अथ- वणम ेम नह होता है॥ ४८ १/२ ॥ जो ज इस भयंकर क लकालम रामायण तथा ीरामनामका सहारा लेते ह, वे ही कृ तकृ ह॥ ४९ १/२ ॥ रामायणक इस अमृतमयी कथाका नवाह वण करना चा हये। जो महा ा ऐसा करते ह, वे कृ त ह। उ त दन मेरा बार ार नम ार है॥ ५० १/२ ॥ ीरामका नाम—के वल ीराम-नाम ही मेरा जीवन है। क लयुगम और कसी उपायसे जीव क स त नह होती, नह होती, नह होती॥ ५१ १/२ ॥ सूतजी कहते ह—महा ा नारदजीके ारा इस कार ानोपदेश पाकर सन ु मारजीको त ाल ही परमान क ा हो गयी॥ ५२ १/२ ॥ अत: व वरो! तुम सब लोग रामायणक अमृतमयी कथा सुनो। रामायणको नौ दन म ही सुनना चा हये। ऐसा करनेवाला सम पाप से मु हो जाता है॥ ५३ १/२ ॥ जो मो! इस महान् का को सुनकर जो वाचकक पूजा करता है, उसपर ल ीस हत भगवान् व ु स होते ह॥ ५४ १/२ ॥ व े गण! वाचकके स होनेपर ा, व ु और महादेवजी स हो जाते ह। इस वषयम को◌इ अ था वचार नह करना चा हये॥ ५५ १/२ ॥ रामायणके वाचकको अपने वैभवके अनुसार गौ, व , सुवण तथा रामायणक पु क आ द व ुएँ देनी चा हये॥ ५६ १/२ ॥ उस दानका पु फल बता रहा ँ , आपलोग एका च होकर सुन। उस दाताको ह तथा भूतवेताल आ द कभी बाधा नह प ँ चाते। ीरामच र का वण करनेपर ोताके स ूण ेयक वृ होती है॥ उसे न तो अ ग्नक बाधा ा होती है और न चोर आ दका भय ही। वह इस ज म उपा जत कये ए सम पाप से त ाल मु हो जाता है। वह इस शरीरका अ होनेपर अपनी सात पी ढ़य के साथ मो का भागी होता है॥ ५९ १/२ ॥



पूवकालम सन ु मार मु नके भ पूवक पूछनेपर नारदजीने उनसे जो कु छ कहा था, वह सब मने आपलोग को बता दया॥ ६० १/२ ॥ रामायण आ दका है। यह स ूण वेदाथ क स तके अनुकूल है। इसके ारा सम पाप का नवारण हो जाता है। यह पु मय का स ूण दु:ख का वनाशक तथा सम पु और य का फल देनेवाला है॥ ६१-६२ ॥ जो व ान् इसके एक या आधे ोकका भी पाठ करते ह, उ कभी पाप का ब न नह ा होता॥ ६३ ॥ ीरामको सम पत कया आ यह पु का स ूण कामना को देनेवाला है। जो लोग भ पूवक इसे सुनते और समझते ह, उनको ा होनेवाले पु फलका वणन सुनो॥ ६४ ॥ वे लोग सौ ज म उपा जत कये ए पाप से त ाल मु हो अपनी हजार पी ढ़य के साथ परमपदको ा होते ह॥ ६५ ॥ जो त दन ीरामका क तन सुनते ह, उनके लये तीथ-सेवन, गोदान, तप ा तथा य क ा आव कता है॥ ६६ ॥ चै , माघ तथा का तकम रामायणक अमृतमयी कथाका नवाह-पारायण सुनना चा हये॥ ६७ ॥ रामायण ीरामच जीक स ता ा करानेवाला, ीरामभ को बढ़ानेवाला, सम पाप का वनाशक तथा सभी स य क वृ करनेवाला है॥ ६८ ॥ जो एका च होकर रामायणको सुनता अथवा पढ़ता है, वह सब पाप से मु हो भगवान् व ुके लोकम जाता है॥ ६९ ॥ इस कार ी पुराणके उ रख म ीनारद-सन ु मार-संवादके अ गत रामायणमाहा के संगम फलका वणन नामक पाँचवाँ अ ाय पूरा आ॥ ५॥







ीसीतारामच ा ां नम:॥



ीम ा



ीक य रामायण बालका पहला सग



नारदजीका वा



ी क मु नको सं ेपसे ीरामच र सुनाना



तप ी वा ी कजीने तप ा और ा ायम लगे ए व ान म े मु नवर नारदजीसे पूछा—॥ १ ॥ ‘[मुन!े ] इस समय इस संसारम गुणवान्, वीयवान्, धम , उपकार माननेवाला, स व ा और ढ़ त कौन है?॥ २ ॥ ‘सदाचारसे यु , सम ा णय का हतसाधक, व ान्, साम शाली और एकमा यदशन (सु र) पु ष कौन है?॥ ३ ॥ ‘मनपर अ धकार रखनेवाला, ोधको जीतनेवाला, का मान् और कसीक भी न ा नह करनेवाला कौन है? तथा सं ामम कु पत होनेपर कससे देवता भी डरते ह?॥ ४ ॥ ‘महष! म यह सुनना चाहता ँ , इसके लये मुझे बड़ी उ ुकता है और आप ऐसे पु षको जाननेम समथ ह’॥ ५ ॥ मह ष वा ी कके इस वचनको सुनकर तीन लोक का ान रखनेवाले नारदजीने उ स ो धत करके कहा, अ ा सु नये और फर स तापूवक बोले—॥ ६ ॥ ‘मुन!े आपने जन ब त-से दुलभ गुण का वणन कया है, उनसे यु पु षको म वचार करके कहता ँ , आप सुन॥ ७ ॥ ‘इ ाकु के वंशम उ ए एक ऐसे पु ष ह, जो लोग म राम-नामसे व ात ह, वे ही मनको वशम रखनेवाले, महाबलवान्, का मान्, धैयवान् और जते य ह॥ ८ ॥



‘वे



बु मान्, नी त , व ा, शोभायमान तथा श ुसंहारक ह। उनके कं धे मोटे और भुजाएँ बड़ी-बड़ी ह। ीवा श के समान और ठोढ़ी मांसल (पु ) है॥ ‘उनक छाती चौड़ी तथा धनुष बड़ा है, गलेके नीचेक ह ी (हँ सली) मांससे छपी ◌इ है। वे श ु का दमन करनेवाले ह। भुजाएँ घुटनेतक ल ी ह, म क सु र है, ललाट भ और चाल मनोहर है॥ १० ॥ ‘उनका शरीर [अ धक ऊँ चा या नाटा न होकर] म म और सुडौल है, देहका रंग चकना है। वे बड़े तापी ह। उनका व : ल भरा आ है, आँ ख बड़ी-बड़ी ह। वे शोभायमान और शुभ ल ण से स ह॥ ११ ॥ ‘धमके ाता, स त तथा जाके हत-साधनम लगे रहनेवाले ह। वे यश ी, ानी, प व , जते य और मनको एका रखनेवाले ह॥ १२ ॥ ‘ जाप तके समान पालक, ीस , वै र व ंसक और जीव तथा धमके र क ह॥ १३ ॥ ‘ धम और जन के पालक, वेद-वेदांग के त वे ा तथा धनुवदम वीण ह॥ १४ ॥ ‘वे अ खल शा के त , रणश से यु और तभास ह। अ े वचार और उदार दयवाले वे ीरामच जी बातचीत करनेम चतुर तथा सम लोक के य ह॥ १५ ॥ ‘जैसे



न दयाँ समु म मलती ह, उसी कार सदा रामसे साधु पु ष मलते रहते ह। वे आय एवं सबम समान भाव रखनेवाले ह, उनका दशन सदा ही य मालूम होता है॥ १६ ॥ ‘स ूण गुण से यु वे ीरामच जी अपनी माता कौस ाके आन बढ़ानेवाले ह, ग ीरताम समु और धैयम हमालयके समान ह॥ १७ ॥ ‘वे व ुभगवा े समान बलवान् ह। उनका दशन च माके समान मनोहर तीत होता है। वे ोधम काला ग्नके समान और माम पृ थवीके स श ह, ागम कु बेर और स म तीय धमराजके समान ह॥ १८ १/२ ॥ ‘इस कार उ म गुण से यु और स परा मवाले स ण ु शाली अपने यतम े पु को, जो जाके हतम संल रहनेवाले थे, जावगका हत करनेक इ ासे राजा दशरथने ेमवश युवराजपदपर अ भ ष करना चाहा॥ १९-२० १/२ ॥



‘तदन



र रामके रा ा भषेकक तैया रयाँ देखकर रानी कै के यीने, जसे पहले ही वर दया जा चुका था, राजासे यह वर माँगा क रामका नवासन (वनवास) और भरतका रा ा भषेक हो॥ २१-२२ ॥ ‘राजा दशरथने स वचनके कारण धम-ब नम बँधकर ारे पु रामको वनवास दे दया॥ २३ ॥ ‘कै के यीका य करनेके लये पताक आ ाके अनुसार उनक त ाका पालन करते ए वीर रामच वनको चले॥ २४ ॥ ‘तब सु म ाके आन बढ़ानेवाले वनयशील ल णजीने भी, जो अपने बड़े भा◌इ रामको ब त ही य थे, अपने सुब ु का प रचय देते ए ेहवश वनको जानेवाले ब ुवर रामका अनुसरण कया॥ २५ १/२ ॥ ‘और जनकके कु लम उ सीता भी, जो अवतीण ◌इ देवमायाक भाँ त सु री, सम शुभल ण से वभू षत, य म उ म, रामके ाण के समान यतमा प ी तथा सदा ही प तका हत चाहनेवाली थी, रामच जीके पीछे चली; जैसे च माके पीछे रो हणी चलती है। उस समय पता दशरथ [ने अपना सार थ भेजकर] और पुरवासी मनु ने [ यं साथ जाकर] दूरतक उनका अनुसरण कया॥ २६—२८ ॥ ‘ फर ृंगवेरपुरम गंगा-तटपर अपने य नषादराज गुहके पास प ँ चकर धमा ा ीरामच जीने सार थको [अयो ाके लये] वदा कर दया॥ २९ ॥ ‘ नषादराज गुह, ल ण और सीताके साथ राम—ये चार एक वनसे दूसरे वनम गये। मागम ब त जल वाली अनेक न दय को पार करके [भर ाजके आ मपर प ँ चे और गुहको वह छोड़] भर ाज मु नक आ ासे च कू टपवतपर गये। वहाँ वे तीन देवता और ग व के समान वनम नाना कारक लीलाएँ करते ए एक रमणीय पणकु टी बनाकर उसम सान रहने लगे॥ ३०-३१ १/२ ॥ ‘रामके च कू ट चले जानेपर पु शोकसे पी डत राजा दशरथ उस समय पु के लये [उसका नाम ले-लेकर] वलाप करते ए गगामी ए॥ ३२ १/२ ॥ ‘उनके गगमनके प ात् व स आ द मुख ा ण ारा रा संचालनके लये नयु कये जानेपर भी महाबलशाली वीर भरतने रा क कामना न करके पू रामको स करनेके



लये वनको ही ान कया॥ ३३-३४ ॥ ‘वहाँ प ँ चकर स ावनायु भरतजीने अपने बड़े भा◌इ स परा मी महा ा रामसे याचना क और य कहा—धम ! आप ही राजा ह ’॥ ३५ १/२ ॥ ‘परंतु महान् यश ी परम उदार स मुख महाबली रामने भी पताके आदेशका पालन करते ए रा क अ भलाषा न क और उन भरता जने रा के लये ास ( च ) पम अपनी खड़ाऊँ भरतको देकर उ बार-बार आ ह करके लौटा दया॥ ३६-३७ १/२ ॥ ‘अपनी अपूण इ ाको लेकर ही भरतने रामके चरण का श कया और रामके आगमनक ती ा करते ए वे न ामम रा करने लगे॥ ३८ १/२ ॥ ‘भरतके लौट जानेपर स त जते य ीमान् रामने वहाँपर पुन: नाग रक जन का आना-जाना देखकर [उनसे बचनेके लये] एका भावसे द कार म वेश कया॥ ३९-४० ॥ ‘उस महान् वनम प ँ चनेपर कमललोचन रामने वराध नामक रा सको मारकर शरभंग, सुती ण, अग मु न तथा अग के ाताका दशन कया॥ ४१ १/२ ॥ ‘ फर अग मु नके कहनेसे उ ने ऐ धनुष, एक खंग और दो तूणीर, जनम बाण कभी नह घटते थे, स तापूवक हण कये॥ ४२ १/२ ॥ ‘एक दन वनम वनचर के साथ रहनेवाले ीरामके पास असुर तथा रा स के वधके लये नवेदन करनेको वहाँके सभी ऋ ष आये॥ ४३ १/२ ॥ ‘उस समय वनम ीरामने द कार वासी अ ग्नके समान तेज ी उन ऋ षय को रा स के मारनेका वचन दया और सं ामम उनके वधक त ा क ॥ ‘वहाँ ही रहते ए ीरामने इ ानुसार प बनानेवाली जन ान नवा सनी शूपणखा नामक रा सीको [ल णके ारा उसक नाक कटाकर] कु प कर दया॥ ४६ ॥ ‘तब शूपणखाके कहनेसे चढ़ा◌इ करनेवाले सभी रा स को और खर, दूषण, शरा तथा उनके पृ पोषक असुर को रामने यु म मार डाला॥ ४७ १/२ ॥ ‘उस वनम नवास करते ए उ ने जन ानवासी चौदह हजार रा स का वध कया॥ ४८ १/२ ॥



र अपने कु टु का वध सुनकर रावण नामका रा स ोधसे मू त हो उठा और उसने मारीच रा ससे सहायता माँगी॥ ४९ १/२ ॥ ‘य प मारीचने यह कहकर क ‘रावण! उस बलवान् रामके साथ तु ारा वरोध ठीक नह है’ रावणको अनेक बार मना कया; परंतु कालक ेरणासे रावणने मारीचके वा को टाल दया और उसके साथ ही रामके आ मपर गया॥ ५०-५१ १/२ ॥ ‘मायावी मारीचके ारा उसने दोन राजकु मार को आ मसे दूर हटा दया और यं रामक प ी सीताका अपहरण कर लया, [जाते समय मागम व डालनेके कारण] उसने जटायु नामक गृ का वध कया॥ ५२ १/२ ॥ ‘त ात् जटायुको आहत देखकर और (उसीके मुखसे) सीताका हरण सुनकर रामच जी शोकसे पी ड़त होकर वलाप करने लगे, उस समय उनक सभी इ याँ ाकु ल हो उठी थ ॥ ५३ १/२ ॥ ‘ फर उसी शोकम पड़े ए उ ने जटायु गृ का अ ग्नसं ार कया और वनम सीताको ढूँ ढ़ते ए कब नामक रा सको देखा, जो शरीरसे वकृ त तथा भयंकर दीखनेवाला था। महाबा रामने उसे मारकर उसका भी दाह कया, अत: वह गको चला गया॥ ‘जाते समय उसने रामसे धमचा रणी शबरीका पता बतलाया और कहा—‘रघुन न! आप धमपरायणा सं ा सनी शबरीके आ मपर जाइये’॥ ५६ १/२ ॥ ‘श ुह ा महान् तेज ी दशरथकु मार राम शबरीके यहाँ गये, उसने इनका भलीभाँ त पूजन कया॥ ५७ १/२ ॥ ‘ फर वे प ासरके तटपर हनुमान् नामक वानरसे मले और उ के कहनेसे सु ीवसे भी मेल कया॥ ‘तदन र महाबलवान् रामने आ दसे ही लेकर जो कु छ आ था वह और वशेषत: सीताका वृ ा सु ीवसे कह सुनाया॥ ५९ १/२ ॥ ‘वानर सु ीवने रामक सारी बात सुनकर उनके साथ ेमपूवक अ ग्नको सा ी बनाकर म ता क ॥ ‘उसके बाद वानरराज सु ीवने ेहवश वालीके साथ वैर होनेक सारी बात रामसे दु:खी होकर बतलाय ॥ ‘तदन



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समय रामने वालीको मारनेक त ा क , तब वानर सु ीवने वहाँ वालीके बलका वणन कया; क सु ीवको रामके बलके वषयम बराबर शंका बनी रहती थी॥ ६२-६३ ॥ ‘रामक ती तके लये उ ने दु ु भ दै का महान् पवतके समान वशाल शरीर दखलाया॥ ६४ ॥ ‘महाबली महाबा ीरामने त नक मुसकराकर उस अ समूहको देखा और पैरके अँगूठेसे उसे दस योजन दूर फ क दया॥ ६५ ॥ ‘ फर एक ही महान् बाणसे उ ने अपना व ास दलाते ए सात तालवृ को और पवत तथा रसातलको ब ध डाला॥ ६६ ॥ ‘तदन र रामके इस कायसे महाक प सु ीव मन-ही-मन स ए और उ रामपर व ास हो गया। फर वे उनके साथ क ा गुहाम गये॥ ६७ ॥ ‘वहाँपर सुवणके समान पगलवणवाले वीरवर सु ीवने गजना क , उस महानादको सुनकर वानरराज वाली अपनी प ी ताराको आ ासन देकर त ाल घरसे बाहर नकला और सु ीवसे भड़ गया। वहाँ रामने वालीको एक ही बाणसे मार गराया॥ ६८-६९ ॥ ‘सु ीवके कथनानुसार उस सं ामम वालीको मारकर उसके रा पर रामने सु ीवको ही बठा दया॥ ‘तब उन वानरराजने भी सभी वानर को बुलाकर जानक का पता लगानेके लये उ चार दशा म भेजा॥ ‘त ात् स ा त नामक गृ के कहनेसे बलवान् हनुमा ी सौ योजन व ारवाले ार समु को कू दकर लाँघ गये॥ ७२ ॥ ‘वहाँ रावणपा लत ल ापुरीम प ँ चकर उ ने अशोकवा टकाम सीताको च ाम देखा॥ ७३ ॥ ‘तब उन वदेहन नीको अपनी पहचान देकर रामका संदेश सुनाया और उ सा ना देकर उ ने वा टकाका ार तोड़ डाला॥ ७४ ॥ ‘ फर पाँच सेनाप तय और सात म कु मार क ह ा कर वीर अ कु मारका भी कचूमर नकाला, इसके बाद वे [जान-बूझकर] पकड़े गये॥ ७५ ॥



ाजीके वरदानसे अपनेको पाशसे छू टा आ जानकर भी वीर हनुमा ीने अपनेको बाँधनेवाले उन रा स का अपराध े ानुसार सह लया॥ ७६ ॥ ‘त ात् म थलेशकु मारी सीताके [ ानके ] अ त र सम ल ाको जलाकर वे महाक प हनुमा ी रामको य संदेश सुनानेके लये लंकासे लौट आये॥ ७७ ॥ ‘अप र मत बु शाली हनुमा ीने वहाँ जा महा ा रामक द णा करके य स नवेदन कया—‘मने सीताजीका दशन कया है’॥ ७८ ॥ ‘इसके अन र सु ीवके साथ भगवान् रामने महासागरके तटपर जाकर सूयके समान तेज ी बाण से समु को ु कया॥ ७९ ॥ ‘तब नदीप त समु ने अपनेको कट कर दया, फर समु के ही कहनेसे रामने नलसे पुल नमाण कराया॥ ‘उसी पुलसे ल ापुरीम जाकर रावणको मारा, फर सीताके मलनेपर रामको बड़ी ल ा ◌इ॥ ८१ ॥ ‘तब भरी सभाम सीताके त वे ममभेदी वचन कहने लगे। उनक इस बातको न सह सकनेके कारण सा ी सीता अ ग्नम वेश कर गय ॥ ८२ ॥ ‘इसके बाद अ ग्नके कहनेसे उ ने सीताको न ल माना। महा ा रामच जीके इस महान् कमसे देवता और ऋ षय स हत चराचर भुवन संतु हो गया॥ ८३ १/२ ॥ ‘ फर सभी देवता से पू जत होकर राम ब त ही स ए और रा सराज वभीषणको ल ाके रा पर अ भ ष करके कृ ताथ हो गये। उस समय न होनेके कारण उनके आन का ठकाना न रहा॥ ८४-८५ ॥ ‘यह सब हो जानेपर राम देवता से वर पाकर और मरे ए वानर को जीवन दलाकर अपने सभी सा थय के साथ पु क वमानपर चढ़कर अयो ाके लये त ए॥ ८६ ॥ ‘भर ाज मु नके आ मपर प ँ चकर सबको आराम देनेवाले स परा मी रामने भरतके पास हनुमा ो भेजा॥ ८७ ॥ ‘ फर सु ीवके साथ कथा-वाता कहते ए पु का ढ़ हो वे न ामको गये॥ ८८ ॥ ‘ न ाप रामच जीने न ामम अपनी जटा कटाकर भाइय के साथ, सीताको पानेके अन र, पुन: अपना रा ा कया है॥ ८९ ॥ ‘



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रामके रा म लोग स , सुखी, संतु , पु , धा मक तथा रोग- ा धसे मु रहगे, उ दु भ का भय न होगा॥ ९० ॥ ‘को◌इ कह भी अपने पु क मृ ु नह देखगे, याँ वधवा न ह गी, सदा ही प त ता ह गी॥ ९१ ॥ ‘आग लगनेका क चत् भी भय न होगा, को◌इ ाणी जलम नह डू बगे, वात और रका भय थोड़ा भी नह रहेगा॥ ९२ ॥ ‘ ध ु ा तथा चोरीका डर भी जाता रहेगा, सभी नगर और रा धन-धा स ह गे। स युगक भाँ त सभी लोग सदा स रहगे॥ ९३ १/२ ॥ ‘महायश ी राम ब त-से सुवण क द णावाले सौ अ मेध य करगे, उनम व धपूवक व ान को दस हजार करोड़ (एक खरब) गौ और ा ण को अप र मत धन दगे तथा सौगुने राजवंश क ापना करगे। संसारम चार वण को वे अपने-अपने धमम नयु रखगे॥ ‘ फर ारह हजार वष तक रा करनेके अन र ीरामच जी अपने परमधामको पधारगे॥ ९७ ॥ ‘वेद के समान प व , पापनाशक और पु मय इस रामच रतको जो पढ़ेगा, वह सब पाप से मु हो जायगा॥ ‘आयु बढ़ानेवाली इस रामायण-कथाको पढ़नेवाला मनु मृ ुके अन र पु , पौ तथा अ प रजनवगके साथ ही गलोकम त त होगा॥ ९९ ॥ ‘इसे ा ण पढ़े तो व ान् हो, य पढ़ता हो तो पृ ीका रा ा करे, वै को ापारम लाभ हो और शू भी त ा ा करे’॥ १०० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पहला सग पूरा आ॥ १॥



दस ू रा सग रामायणका का उप म—तमसाके तटपर ौ वधसे संत ए मह ष वा ी कके शोकका ोक पम कट होना तथा ाजीका उ रामच र मय का के नमाणका आदेश देना



देव ष नारदजीके उपयु वचन सुनकर वाणी वशारद धमा ा ऋ ष वा ी कजीने अपने श स हत उन महामु नका पूजन कया॥ १ ॥ वा ी कजीसे यथावत् स ा नत हो देव ष नारदजीने जानेके लये उनसे आ ा माँगी और उनसे अनुम त मल जानेपर वे आकाशमागसे चले गये॥ २ ॥ उनके देवलोक पधारनेके दो ही घड़ी बाद वा ी कजी तमसा नदीके तटपर गये, जो गंगाजीसे अ धक दूर नह था॥ ३ ॥ तमसाके तटपर प ँ चकर वहाँके घाटको क चड़से र हत देख मु नने अपने पास खड़े ए श से कहा—॥ ४ ॥ ‘भर ाज! देखो, यहाँका घाट बड़ा सु र है। इसम क चड़का नाम नह है। यहाँका जल वैसा ही है, जैसा स ु षका मन होता है॥ ५ ॥ ‘तात! यह कलश रख दो और मुझे मेरा व ल दो। म तमसाके इसी उ म तीथम ान क ँ गा’॥ ६ ॥ महा ा वा ी कके ऐसा कहनेपर नयम-परायण श भर ाजने अपने गु मु नवर वा ी कको व लव दया॥ ७ ॥ श के हाथसे व ल लेकर वे जते य मु न वहाँके वशाल वनक शोभा देखते ए सब ओर वचरने लगे॥ ८ ॥ उनके पास ही ौ प य का एक जोड़ा, जो कभी एक-दूसरेसे अलग नह होता था, वचर रहा था। वे दोन प ी बड़ी मधुर बोली बोलते थे। भगवान् वा ी कने प य के उस जोड़ेको वहाँ देखा॥ ९ ॥ उसी समय पापपूण वचार रखनेवाले एक नषादने, जो सम ज ु का अकारण वैरी था, वहाँ आकर प य के उस जोड़ेमसे एक—नर प ीको मु नके देखते-देखते बाणसे मार



डाला॥ १० ॥ वह प ी खूनसे लथपथ होकर पृ ीपर गर पड़ा और पंख फड़फड़ाता आ तड़पने लगा। अपने प तक ह ा ◌इ देख उसक भाया ौ ी क णाजनक रम ची ार कर उठी॥ ११ ॥ उ म पंख से यु वह प ी सदा अपनी भायाके साथ-साथ वचरता था। उसके म कका रंग ताँबेके समान लाल था और वह कामसे मतवाला हो गया था। ऐसे प तसे वयु होकर ौ ी बड़े दु:खसे रो रही थी॥ १२ ॥ नषादने जसे मार गराया था, उस नर प ीक वह दुदशा देख उन धमा ा ऋ षको बड़ी दया आयी॥ १३ ॥ भावत: क णाका अनुभव करनेवाले षने ‘यह अधम आ है’ ऐसा न य करके रोती ◌इ ौ ीक ओर देखते ए नषादसे इस कार कहा—॥ १४ ॥ ‘ नषाद! तुझे न - नर र—कभी भी शा न मले; क तूने इस ौ के जोड़ेमसे एकक , जो कामसे मो हत हो रहा था, बना कसी अपराधके ही ह ा कर डाली’॥ १५ ॥ ऐसा कहकर जब उ ने इसपर वचार कया, तब उनके मनम यह च ा ◌इ क ‘अहो! इस प ीके शोकसे पी ड़त होकर मने यह ा कह डाला’॥ १६ ॥ यही सोचते ए महा ानी और परम बु मान् मु नवर वा ी क एक न यपर प ँ च गये और अपने श से इस कार बोले—॥ १७ ॥ ‘तात! शोकसे पी ड़त ए मेरे मुखसे जो वा नकल पड़ा है, यह चार चरण म आब है। इसके ेक चरणम बराबर-बराबर (यानी आठ-आठ) अ र ह तथा इसे वीणाके लयपर गाया भी जा सकता है; अत: मेरा यह वचन ोक प (अथात् ोक नामक छ म आब का प या यश: प) होना चा हये, अ था नह ’॥ १८ ॥ मु नक यह उ म बात सुनकर उनके श भर ाजको बड़ी स ता ◌इ और उसने उनका समथन करते ए कहा—‘हाँ, आपका यह वा ोक प ही होना चा हये।’ श के इस कथनसे मु नको वशेष संतोष आ॥ १९ ॥ त ात् उ ने उ म तीथम व धपूवक ान कया और उसी वषयका वचार करते ए वे आ मक ओर लौट पड़े॥ २० ॥



फर उनका वनीत एवं शा श भर ाज भी वह जलसे भरा आ कलश लेकर गु जीके पीछे-पीछे चला॥ २१ ॥ श के साथ आ मम प ँ चकर धम ऋ ष वा ी कजी आसनपर बैठे और दूसरी-दूसरी बात करने लगे; परंतु उनका ान उस ोकक ओर ही लगा था॥ २२ ॥ इतनेहीम अ खल व क सृ करनेवाले, सवसमथ, महातेज ी चतुमुख ाजी मु नवर वा ी कसे मलनेके लये यं उनके आ मपर आये॥ २३ ॥ उ देखते ही मह ष वा ी क सहसा उठकर खड़े हो गये। वे मन और इ य को वशम रखकर अ व त हो हाथ जोड़े चुपचाप कु छ कालतक खड़े ही रह गये, कु छ बोल न सके ॥ २४ ॥ त ात् उ ने पा , अ , आसन और ु त आ दके ारा भगवान् ाजीका पूजन कया और उनके चरण म व धवत् णाम करके उनसे कु शल-समाचार पूछा॥ २५ ॥ भगवान् ाने एक परम उ म आसनपर वराजमान होकर वा ी क मु नको भी आसनहण करनेक आ ा दी॥ २६ ॥ ाजीक आ ा पाकर वे भी आसनपर बैठे। उस समय सा ात् लोक पतामह ा सामने बैठे ए थे तो भी वा ी कका मन उस ौ प ीवाली घटनाक ओर ही लगा रहा। वे उसीके वषयम सोचने लगे—‘ओह! जसक बु वैरभावको हण करनेम ही लगी रहती है, उस पापा ा ाधने बना कसी अपराधके ही वैसे मनोहर कलरव करनेवाले ौ प ीके ाण ले लये’॥ २७-२८ १/२ ॥ यही सोचते-सोचते उ ने ौ ीके आतनादको सुनकर नषादको ल करके जो ोक कहा था, उसीको फर ाजीके सामने दुहराया। उसे दुहराते ही फर उनके मनम अपने दये ए शापके अनौ च का ान आया। तब वे शोक और च ाम डू ब गये॥ २९ १/२ ॥ ाजी उनक मन: तको समझकर हँ सने लगे और मु नवर वा ी कसे इस कार बोले—‘ न्! तु ारे मुँहसे नकला आ यह छ ोब वा ोक प ही होगा। इस वषयम तु को◌इ अ था वचार नह करना चा हये। मेरे संक अथवा ेरणासे ही तु ारे मुँहसे ऐसी वाणी नकली है॥ ३०-३१ ॥



‘मु न



े ! तुम ीरामके स ूण च र का वणन करो। परम बु मान् भगवान् ीराम संसारम सबसे बड़े धमा ा और धीर पु ष ह। तुमने नारदजीके मुँहसे जैसा सुना है, उसीके अनुसार उनके च र का च ण करो॥ ३२ १/२ ॥ ‘बु मान् ीरामका जो गु या कट वृ ा है तथा ल ण, सीता और रा स के जो स ूण गु या कट च र ह, वे सब अ ात होनेपर भी तु ात हो जायँगे॥ ३३-३४ १/२ ॥ ‘इस का म अं कत तु ारी को◌इ भी बात झूठी नह होगी; इस लये तुम ीरामच जीक परम प व एवं मनोरम कथाको ोकब करके लखो॥ ३५ १/२ ॥ ‘इस पृ ीपर जबतक न दय और पवत क स ा रहेगी, तबतक संसारम रामायणकथाका चार होता रहेगा॥ ३६ १/२ ॥ ‘जबतक तु ारी बनायी ◌इ ीरामकथाका लोकम चार रहेगा, तबतक तुम इ ानुसार ऊपर-नीचे तथा मेरे लोक म नवास करोगे’॥ ३७ १/२ ॥ ऐसा कहकर भगवान् ाजी वह अ धान हो गये। उनके वह अ धान होनेसे श स हत भगवान् वा ी क मु नको बड़ा व य आ॥ ३८ ॥ तदन र उनके सभी श अ स होकर बार-बार इस ोकका गान करने लगे तथा परम व त हो पर र इस कार कहने लगे—॥ ३९ ॥ ‘हमारे गु देव मह षने ौ प ीके दु:खसे दु:खी होकर जस समान अ र वाले चार चरण से यु वा का गान कया था, वह था तो उनके दयका शोक; कतु उनक वाणी ारा उ ा रत होकर ोक प* हो गया’॥ ४० ॥ इधर शु अ :करणवाले मह ष वा ी कके मनम यह वचार आ क म ऐसे ही ोक म स ूण रामायणका क रचना क ँ ॥ ४१ ॥ यह सोचकर उदार वाले उन यश ी मह षने भगवान् ीरामच जीके च र को लेकर हजार ोक से यु महाका क रचना क , जो उनके यशको बढ़ानेवाला है। इसम ीरामके उदार च र का तपादन करनेवाले मनोहर पद का योग कया गया है॥ ४२ ॥ मह ष वा ी कके बनाये ए इस का म त ु ष आ द समास , दीघ-गुण आ द सं धय और कृ त- यके स का यथायो नवाह आ है। इसक रचनाम समता (पतत्- कष आ द दोष का अभाव) है, पद म माधुय है और अथम साद-गुणक अ धकता है।



भावुकजनो! इस कार शा ीय प तके अनुकूल बने ए इस रघुवर-च र और रावण-वधके संगको ान देकर सुनो॥ ४३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म दूसरा सग पूरा आ॥ २॥



तीसरा सग वा



ी क मु न ारा रामायणका म नब



वषय का सं ेपसे उ



ेख



नारदजीके मुखसे धम, अथ एवं काम पी फलसे यु , हतकर (मो दायक) तथा कट और गु —स ूण रामच र को, जो रामायण महाका क धान कथाव ु था, सुनकर मह ष वा ी कजी बु मान् ीरामके उस जीवनवृ का पुन: भलीभाँ त सा ा ार करनेके लये य करने लगे॥ १ ॥ वे पूवा कु श के आसनपर बैठ गये और व धवत् आचमन करके हाथ जोड़े ए र भावसे त हो योगधम (समा ध) के ारा ीराम आ दके च र का अनुसंधान करने लगे॥ २ ॥



ीराम-ल ण-सीता तथा रा और रा नय स हत राजा दशरथसे स रखनेवाली जतनी बात थ —हँ सना, बोलना, चलना और रा पालन आ द जतनी चे ाएँ ◌इं —उन सबका मह षने अपने योगधमके बलसे भलीभाँ त सा ा ार कया॥ ३-४ ॥ स त ीरामच जीने ल ण और सीताके साथ वनम वचरते समय जो-जो लीलाएँ क थ , वे सब उनक म आ गय ॥ ५ ॥ योगका आ य लेकर उन धमा ा मह षने पूवकालम जो-जो घटनाएँ घ टत ◌इ थ , उन सबको वहाँ हाथपर रखे ए आँ वलेक तरह देखा॥ ६ ॥ सबके मनको य लगनेवाले भगवान् ीरामके स ूण च र का योगधम (समा ध) के ारा यथाथ पसे नरी ण करके महाबु मान् मह ष वा ी कने उन सबको महाका का प देनेक चे ा क ॥ ७ ॥ महा ा नारदजीने पहले जैसा वणन कया था, उसीके मसे भगवान् वा ी क मु नने रघुवंश वभूषण ीरामके च र वषयक रामायण का का नमाण कया। जैसे समु सब र क न ध है, उसी कार यह महाका गुण, अल ार एवं न आ द र का भ ार है। इतना ही नह , यह स ूण ु तय के सारभूत अथका तपादक होनेके कारण सबके कान को य लगनेवाला तथा सभीके च को आकृ करनेवाला है। यह धम, अथ, काम, मो पी गुण (फल ) से यु तथा इनका व ारपूवक तपादन एवं दान करनेवाला है॥ ८-९ ॥



ीरामके ज , उनके महान् परा म, उनक सवानुकूलता, लोक यता, मा, सौ भाव तथा स शीलताका इस महाका म मह षने वणन कया॥ व ा म जीके साथ ीराम-ल णके जानेपर जो उनके ारा नाना कारक व च लीलाएँ तथा अ तु बात घ टत ◌इं , उन सबका इसम मह षने वणन कया। ीराम ारा म थलाम धनुषके तोड़े जाने तथा जनकन नी सीता और उ मला आ दके ववाहका भी इसम च ण कया॥ ११ ॥ ीराम-परशुराम-संवाद, दशरथन न ीरामके गुण, उनके अ भषेक, कै के यीक दु ता, ीरामके रा ा भषेकम व , उनके वनवास, राजा दशरथके शोक- वलाप और परलोक-गमन, जा के वषाद, साथ जानेवाली जा को मागम छोड़ने, नषादराज गुहके साथ बात करने तथा सूत सुम को अयो ा लौटाने आ दका भी इसम उ ेख कया॥ १२—१४ ॥ ीराम आ दका गंगाके पार जाना, भर ाज मु नका दशन करना, भर ाज मु नक आ ा लेकर च कू ट जाना और वहाँक नैस गक शोभाका अवलोकन करना, च कू टम कु टया बनाना, उसम नवास करना, वहाँ भरतका ीरामसे मलनेके लये आना, उ अयो ा लौट चलनेके लये स करना (मनाना), ीराम ारा पताको जला ल दान, भरत ारा अयो ाके राज सहासनपर ीरामच जीक े पादुका का अ भषेक एवं ापन, न ामम भरतका नवास, ीरामका द कार म गमन, उनके ारा वराधका वध, शरभंगमु नका दशन, सुती णके साथ समागम, अनसूयाके साथ सीतादेवीक कु छ कालतक त, उनके ारा सीताको अंगराग-समपण, ीराम आ दके ारा अग का दशन, उनके दये ए वै व धनुषका हण, शूपणखाका संवाद, ीरामक आ ासे ल ण ारा उसका व पकरण (उसक नाक और कानका छे दन), ीराम ारा खर-दूषण और शराका वध, शूपणखाके उ े जत करनेसे रावणका ीरामसे बदला लेनेके लये उठना, ीराम ारा मारीचका वध, रावण ारा वदेहन नी सीताका हरण, सीताके लये ीरघुनाथजीका वलाप, रावण ारा गृ राज जटायुका वध, ीराम और ल णक कब से भट, उनके ारा प ासरोवरका अवलोकन, ीरामका शबरीसे मलना और उसके दये ए फल-मूलको हण करना, ीरामका सीताके लये लाप, प ासरोवरके नकट हनुमा ीसे भट, ीराम और ल णका हनुमा ीके साथ ऋ मूक पवतपर जाना, वहाँ सु ीवके साथ भट करना, उ अपने बलका व ास दलाना और उनसे म ता ा पत करना, वाली और सु ीवका यु , ीराम ारा वालीका वनाश, सु ीवको रा -समपण, अपने प त वालीके लये ताराका वलाप, शर ालम सीताक खोज



करानेके लये सु ीवक त ा, ीरामका बरसातके दन म मा वान् पवतके वण नामक शखरपर नवास, रघुकुल सह ीरामका सु ीवके त ोध- दशन, सु ीव ारा सीताक खोजके लये वानरसेनाका सं ह, सु ीवका स ूण दशा म वानर को भेजना और उ पृ ीके ीप-समु आ द वभाग का प रचय देना, ीरामका सीताके व ासके लये हनुमा ीको अपनी अँगूठी देना, वानर को ऋ बल ( यं भा-गुफा) का दशन, उनका ायोपवेशन ( ाण ागके लये अनशन), स ातीसे उनक भट और बातचीत, समु ल नके लये हनुमा ीका महे पवतपर चढ़ना, समु को लाँघना, समु के कहनेसे ऊपर उठे ए मैनाकका दशन करना, इनको रा सीका डाँटना, हनुमा ारा छाया ा हणी स हकाका दशन एवं नधन, ल ाके आधारभूत पवत ( कू ट) का दशन, रा के समय ल ाम वेश, अके ला होनेके कारण अपने कत का वचार करना, रावणके म पान- ानम जाना, उसके अ :पुरक य को देखना, हनुमा ीका रावणको देखना, पु क वमानका नरी ण करना, अशोकवा टकाम जाना और सीताजीके दशन करना, पहचानके लये सीताजीको अँगूठी देना और उनसे बातचीत करना, रा सय ारा सीताको डाँट-फटकार, जटाको ीरामके लये शुभसूचक का दशन, सीताका हनुमा ीको चूड़ाम ण दान करना, हनुमा ीका अशोकवा टकाके वृ को तोड़ना, रा सय का भागना, रावणके सेवक का हनुमा ीके ारा संहार, वायुन न हनुमा ा ब ी होकर रावणक सभाम जाना, उनके ारा गजन और ल ाका दाह, फर लौटती बार समु को लाँघना, वानर का मधुवनम आकर मधुपान करना, हनुमा ीका ीरामच जीको आ ासन देना और सीताजीक दी ◌इ चूड़ाम ण सम पत करना, सेनास हत सु ीवके साथ ीरामक ल ाया ाके समय समु से भट, नलका समु पर सेतु बाँधना, उसी सेतुके ारा वानरसेनाका समु के पार जाना, रातको वानर का ल ापर चार ओरसे घेरा डालना, वभीषणके साथ ीरामका मै ी-स होना, वभीषणका ीरामको रावणके वधका उपाय बताना, कु कणका नधन, मेघनादका वध, रावणका वनाश, सीताक ा , श ुनगरी ल ाम वभीषणका अ भषेक, ीराम ारा पु क वमानका अवलोकन, उसके ारा दलबलस हत उनका अयो ाके लये ान, ीरामका भर ाजमु नसे मलना, वायुपु हनुमा ो दूत बनाकर भरतके पास भेजना तथा अयो ाम आकर भरतसे मलना, ीरामके रा ा भषेकका उ व, फर ीरामका सारी वानरसेनाको वदा करना, अपने रा क जाको स रखना तथा उनक स ताके लये ही वदेहन नी सीताको वनम ाग देना इ ा द



वृ ा को एवं इस पृ ीपर ीरामका जो कु छ भ व च र था, उसको भी भगवान् वा ी क मु नने अपने उ ृ महाका म अं कत कया॥ १५—३९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म तीसरा सग पूरा आ॥ ३॥



चौथा सग मह ष वा ी कका चौबीस हजार ोक से यु रामायणका का नमाण करके उसे लव-कुशको पढ़ाना, मु नम लीम रामायणगान करके लव और कुशका शं सत होना तथा अयो ाम ीराम ारा स ा नत हो उन दोन का रामदरबारम रामायणगान सुनाना



ीरामच जीने जब वनसे लौटकर रा का शासन अपने हाथम ले लया, उसके बाद भगवान् वा ी क मु नने उनके स ूण च र के आधारपर व च पद और अथसे यु रामायणका का नमाण कया॥ १ ॥ इसम मह षने चौबीस हजार ोक, पाँच सौ सग तथा उ रस हत सात का का तपादन कया है॥ २ ॥ भ व तथा उ रका स हत सम रामायण पूण कर लेनेके प ात् साम शाली, महा ानी मह षने सोचा क कौन ऐसा श शाली पु ष होगा, जो इस महाका को पढ़कर जनसमुदायम सुना सके ॥ ३ ॥ शु अ :करणवाले उन मह षके इस कार वचार करते ही मु नवेषम रहनेवाले राजकु मार कु श और लवने आकर उनके चरण म णाम कया॥ ४ ॥ राजकु मार कु श और लव दोन भा◌इ धमके ाता और यश ी थे। उनका र बड़ा ही मधुर था और वे मु नके आ मपर ही रहते थे। उनक धारणाश अ तु थी और वे दोन ही वेद म पारंगत हो चुके थे। भगवान् वा ी कने उनक ओर देखा और उ सुयो समझकर उ म तका पालन करनेवाले उन मह षने वेदाथका व ारके साथ ान करानेके लये उ सीताके च र से यु स ूण रामायण नामक महाका का, जसका दूसरा नाम पौल वध अथवा दशाननवध था, अ यन कराया॥ ५—७ ॥ वह महाका पढ़ने और गानेम भी मधुर, तु , म और वल त—इन तीन ग तय से अ त, षड् ज आ द सात र से यु , वीणा बजाकर र और तालके साथ गाने यो तथा ृंगार, क ण, हा , रौ , भयानक तथा वीर आ द सभी रस से अनु ा णत है। दोन भा◌इ कु श और लव उस महाका को पढ़कर उसका गान करने लगे॥ ८-९ ॥ वे दोन भा◌इ गा व व ा (संगीत-शा ) के त , ान१ और मू नाके 2 जानकार, मधुर रसे स तथा ग व के समान मनोहर पवाले थे॥ १० ॥



सु र प और शुभ ल ण उनक सहज स थे। वे दोन भा◌इ बड़े मधुर रसे वातालाप करते थे। जैसे ब से त ब कट होते ह, उसी कार ीरामके शरीरसे उ ए वे दोन राजकु मार दूसरे युगल ीराम ही तीत होते थे॥ ११ ॥ वे दोन राजपु सब लोग क शंसाके पा थे, उ ने उस धमानुकूल उ म उपा ानमय स ूण का को ज ा कर लया था और जब कभी ऋ षय , ा ण तथा साधु का समागम होता था, उस समय उनके बीचम बैठकर वे दोन त बालक एका च हो रामायणका गान कया करते थे॥ १२-१३ ॥ एक दनक बात है, ब त-से शु अ :करणवाले मह षय क म ली एक ◌इ थी। उसम महान् सौभा शाली तथा सम शुभ ल ण से सुशो भत महामन ी कु श और लव भी उप त थे। उ ने बीच सभाम उन महा ा के समीप बैठकर उस रामायणका का गान कया। उसे सुनकर सभी मु नय के ने म आँ सू भर आये और वे अ व य- वमु होकर उ साधुवाद देने लगे। मु न धमव ल तो होते ही ह; वह धा मक उपा ान सुनकर उन सबके मनम बड़ी स ता ◌इ॥ वे रामायण-कथाके गायक कु मार कु श और लवक , जो शंसाके ही यो थे, इस कार शंसा करने लगे—‘अहो! इन बालक के गीतम कतना माधुय है। ोक क मधुरता तो और भी अ तु है॥ १७ ॥ ‘य प इस का म व णत घटना ब त दन पहले हो चुक है तो भी इन दोन बालक ने इस सभाम वेश करके एक साथ ऐसे सु र भावसे रस , रागयु मधुरगान कया है क वे पहलेक घटनाएँ भी -सी दखायी देने लगी ह—मानो अभी-अभी आँ ख के सामने घ टत हो रही ह ’॥ १८ १/२ ॥ इस कार उ म तप ासे यु मह षगण उन दोन कु मार क शंसा करते और वे उनसे शं सत होकर अ मधुर रागसे रामायणका गान करते थे॥ उनके गानसे संतु ए कसी मु नने उठकर उ पुर ारके पम एक कलश दान कया। कसी दूसरे महायश ी मह षने स होकर उन दोन को व ल व दया। कसीने काला मृगचम भट कया तो कसीने य ोपवीत॥ २०-२१ ॥ एकने कम लु दया तो दूसरे महामु नने मु क मेखला भट क । तीसरेने आसन और चौथेने कौपीन दान कया। कसी अ मु नने हषम भरकर उन दोन बालक के लये कु ठार



अ पत कया। कसीने गे आ व दया तो कसी मु नने चीर भट कया॥ २२—२३ ॥ कसी दूसरेने आन म होकर जटा बाँधनेके लये र ी दी तो कसीने स मधा बाँधकर लानेके लये डोरी दान क । एक ऋ षने य पा दया तो दूसरेने का भार सम पत कया। कसीने गूलरक लकड़ीका बना आ पीढ़ा अ पत कया। कु छ लोग उस समय आशीवाद देने लगे—‘ब ो! तुम दोन का क ाण हो।’ दूसरे मह ष स तापूवक बोल उठे —‘तु ारी आयु बढ़े।’ इस कार सभी स वादी मु नय ने उन दोन को नाना कारके वर दये॥ २४-२५ १/२ ॥ मह ष वा ी क ारा व णत यह आ यमय का परवत क वय के लये े आधार शला है। ीरामच जीके स ूण च र का मश: वणन करते ए इसक समा क गयी है॥ २६ १/२ ॥ स ूण गीत के वशेष राजकु मारो! यह का आयु एवं पु दान करनेवाला तथा सबके कान और मनको मोहनेवाला मधुर संगीत है। तुम दोन ने बड़े सु र ढंगसे इसका गान कया है॥ २७ १/२ ॥ एक समय सव शं सत होनेवाले राजकु मार कु श और लव अयो ाक ग लय और सड़क पर रामायणके ोक का गान करते ए वचर रहे थे। इसी समय उनके ऊपर भरतके बड़े भा◌इ ीरामक पड़ी। उ ने उन समादरयो ब ु को अपने घर बुलाकर उनका यथो चत स ान कया। तदन र श ु का संहार करनेवाले ीराम सुवणमय द सहासनपर वराजमान ए। उनके म ी और भा◌इ भी उनके पास ही बैठे थे। उन सबके साथ सु र पवाले उन दोन वनयशील भाइय क ओर देखकर ीरामच जीने भरत, ल ण और श ु से कहा—‘ये देवताके समान तेज ी दोन कु मार व च अथ और पद से यु मधुर का बड़े सु र ढंगसे गाकर सुनाते ह। तुम सब लोग इसे सुनो।’ य कहकर उ ने उन दोन भाइय को गानेक आ ा दी॥ आ ा पाकर वे दोन भा◌इ वीणाके लयके साथ अपने मनके अनुकूल तार (उ ) एवं मधुर रम राग अलापते ए रामायणका का गान करने लगे। उनका उ ारण इतना था क सुनते ही अथका बोध हो जाता था। उनका गान सुनकर ोता के सम अंग म हषज नत रोमा हो आया तथा उन सबके मन और आ ाम आन क तरंग उठने लग । उस जनसभाम होनेवाला वह गान सबक वणे य को अ सुखद तीत होता था॥ ३३-३४ ॥



उस समय ीरामने अपने भाइय का ान आकृ करते ए कहा—‘ये दोन कु मार मु न होकर भी राजो चत ल ण से स ह। संगीतम कु शल होनेके साथ ही महान् तप ी ह। ये जस च र का— ब का का गान करते ह, वह श ाथाल ार, उ म गुण एवं सु र री त आ दसे यु होनेके कारण अ भावशाली है। मेरे लये भी अ ुदयकारक है; ऐसा वृ पु ष का कथन है। अत: तुम सब लोग ान देकर इसे सुनो’॥ ३५ ॥ तदन र ीरामक आ ासे े रत हो वे दोन भा◌इ माग वधानक * री तसे रामायणका गान करने लगे। सभाम बैठे ए भगवान् ीराम भी धीरे-धीरे उनका गान सुननेम त य हो गये॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म चौथा सग पूरा आ॥ ४॥ १. ान श से यहाँ म , म म और तार प वध र क उ का ान बताया गया है। दयक से ऊपर और कपोलफलकसे नीचे जो ाण के संचारका ान है, उसीको ान कहते ह; उनके तीन भेद ह— दय, क और सर। उसके पुन: तीन-तीन भेद होते ह—म , म और तार; जैसा क शा का वचन है— यद ू दय े: कपोलफलकादध:। ाणसंचारण ानं ान म भधीयते॥ उर: क : शर े त त ुन वधं भवेत्। म ं म ं च तारं च ... ...॥



२. जहाँ र पूण होते ह, उस ानको मूछना कहते ह। जैसा क कहा गया है— य ैव



ु:



रा: पूणा मूछना से ुदा ता।



वैजय ीकोशके अनुसार वीणा आ दके वादनको मूछना कहते ह—‘वादने मूछना ो ा।’ * गान दो



कारके होते ह—माग और देशी। भ - भ देश क ाकृ त भाषाम गाये जानेवाले गानको देशी कहते ह और समूचे रा म स सं ृ त आ द भाषाका आ य लेकर गाया आ गान मागके नामसे स है। कु मार कु श और लव सं ृ त भाषाका आ य लेकर इसीक री तसे गा रहे थे।



पाँचवाँ सग राजा दशरथ ारा सुर



त अयो ापुरीका वणन



यह सारी पृ ी पूवकालम जाप त मनुसे लेकर अबतक जस वंशके वजयशाली नरेश के अ धकारम रही है, ज ने समु को खुदवाया था और ज या ाकालम साठ हजार पु घेरकर चलते थे, वे महा तापी राजा सगर जनके कु लम उ ए, इ इ ाकु वंशी महा ा राजा क कु लपर राम रामायणनामसे स इस महान् ऐ तहा सक का क अवतारणा ◌इ है॥ १—३ ॥ हम दोन आ दसे अ तक इस सारे का का पूण पसे गान करगे। इसके ारा धम, अथ, काम और मो चार पु षाथ क स होती है; अत: आपलोग दोष का प र ाग करके इसका वण कर॥ ४ ॥ कोशल नामसे स एक ब त बड़ा जनपद है, जो सरयू नदीके कनारे बसा आ है। वह चुर धनधा से स , सुखी और समृ शाली है॥ ५ ॥ उसी जनपदम अयो ा नामक एक नगरी है, जो सम लोक म व ात है। उस पुरीको यं महाराज मनुने बनवाया और बसाया था॥ ६ ॥ वह शोभाशा लनी महापुरी बारह योजन ल ी और तीन योजन चौड़ी थी। वहाँ बाहरके जनपद म जानेका जो वशाल राजमाग था, वह उभयपा म व वध वृ ाव लय से वभू षत होनेके कारण सु तया अ माग से वभ जान पड़ता था॥ ७ ॥ सु र वभागपूवक बना आ महान् राजमाग उस पुरीक शोभा बढ़ा रहा था। उसपर खले ए फू ल बखेरे जाते थे तथा त दन उसपर जलका छड़काव होता था॥ ८ ॥ जैसे गम देवराज इ ने अमरावतीपुरी बसायी थी, उसी कार धम और ायके बलसे अपने महान् रा क वृ करनेवाले राजा दशरथने अयो ापुरीको पहलेक अपे ा वशेष पसे बसाया था॥ ९ ॥ वह पुरी बड़े-बड़े फाटक और कवाड़ से सुशो भत थी। उसके भीतर पृथक् -पृथक् बाजार थ । वहाँ सब कारके य और अ -श सं चत थे। उस पुरीम सभी कला के श ी नवास करते थे॥ १० ॥



ु त-पाठ करनेवाले सूत और वंशावलीका बखान करनेवाले मागध वहाँ भरे ए थे। वह पुरी सु र शोभासे स थी। उसक सुषमाक कह तुलना नह थी। वहाँ ऊँ ची-ऊँ ची अ ा लकाएँ थ , जनके ऊपर ज फहराते थे। सैकड़ शत य (तोप ) से वह पुरी ा थी॥ ११ ॥ उस पुरीम ऐसी ब त-सी नाटक-म लयाँ थ , जनम के वल याँ ही नृ एवं अ भनय करती थ । उस नगरीम चार ओर उ ान तथा आम के बगीचे थे। ल ा◌इ और चौड़ा◌इक से वह पुरी ब त वशाल थी तथा साखूके वन उसे सब ओरसे घेरे ए थे॥ १२ ॥ उसके चार ओर गहरी खा◌इ खुदी थी, जसम वेश करना या जसे लाँघना अ क ठन था। वह नगरी दूसर के लये सवथा दुगम एवं दुजय थी। घोड़े, हाथी, गाय-बैल, ऊँ ट तथा गदहे आ द उपयोगी पशु से वह पुरी भरी-पूरी थी॥ १३ ॥ कर देनेवाले साम नरेश के समुदाय उसे सदा घेरे रहते थे। व भ देश के नवासी वै उस पुरीक शोभा बढ़ाते थे॥ १४ ॥ वहाँके महल का नमाण नाना कारके र से आ था। वे गगनचु ी ासाद पवत के समान जान पड़ते थे। उनसे उस पुरीक बड़ी शोभा हो रही थी। ब सं क कू टागार (गु गृह अथवा य के ड़ाभवन ) से प रपूण वह नगरी इ क अमरावतीके समान जान पड़ती थी॥ १५ ॥ उसक शोभा व च थी। उसके महल पर सोनेका पानी चढ़ाया गया था (अथवा वह पुरी ूतफलकके १ आकारम बसायी गयी थी)। े एवं सु री ना रय के समूह उस पुरीक शोभा बढ़ाते थे। वह सब कारके र से भरी-पूरी तथा सतमहले ासाद से सुशो भत थी॥ पुरवा सय के घर से उसक आबादी इतनी घनी हो गयी थी क कह थोड़ा-सा भी अवकाश नह दखायी देता था। उसे समतल भू मपर बसाया गया था। वह नगरी जड़हन धानके चावल से भरपूर थी। वहाँका जल इतना मीठा या ा द था, मानो ◌इखका रस हो॥ भूम लक वह सव म नगरी दु ु भ, मृदंग, वीणा, पणव आ द वा क मधुर नसे अ गूँजती रहती थी॥ १८ ॥ देवलोकम तप ासे ा ए स के वमानक भाँ त उस पुरीका भूम लम सव म ान था। वहाँके सु र महल ब त अ े ढंगसे बनाये और बसाये गये थे। उनके भीतरी भाग ब त ही सु र थे। ब त-से े पु ष उस पुरीम नवास करते थे॥ १९ ॥



जो अपने समूहसे बछु ड़कर असहाय हो गया हो, जसके आगे-पीछे को◌इ न हो (अथात् जो पता और पु दोन से हीन हो) तथा जो श वेधी बाण ारा बेधने यो ह अथवा यु से हारकर भागे जा रहे ह , ऐसे पु ष पर जो लोग बाण का हार नह करते, जनके सधे-सधाये हाथ शी तापूवक ल वेध करनेम समथ ह, अ -श के योगम कु शलता ा कर चुके ह तथा जो वनम गजते ए मतवाले सह , ा और सूअर को तीखे श से एवं भुजा के बलसे भी बलपूवक मार डालनेम समथ ह, ऐसे सह महारथी वीर से अयो ापुरी भरी-पूरी थी। उसे महाराज दशरथने बसाया और पाला था॥ २०—२२ ॥ अ ग्नहो ी, शम-दम आ द उ म गुण से स तथा छह अंग स हत स ूण वेद के पारंगत व ान् े ा ण उस पुरीको सदा घेरे रहते थे। वे सह का दान करनेवाले और स म त र रहनेवाले थे। ऐसे मह षक महा ा तथा ऋ षय से अयो ापुरी सुशो भत थी तथा राजा दशरथ उसक र ा करते थे॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पाँचवाँ सग पूरा आ॥ ५॥ १. गो व राजक टीकाम अ ापदका अथ शा रफल या ूतफलक कया गया है। वह चौक जसपर पासा बछाया या खेला जाय, ूतफलक कहलाती है। पुरीके बीचम राजमहल था। उसके चार ओर राजबी थयाँ थ और बीचम खाली जगह थ । यही ‘अ ापदाकारा’ का भाव है।



छठा सग राजा दशरथके शासनकालम अयो ा और वहाँके नाग रक क उ म



तका वणन



उस अयो ापुरीम रहकर राजा दशरथ जावगका पालन करते थे। वे वेद के व ान् तथा सभी उपयोगी व ु का सं ह करनेवाले थे। दूरदश और महान् तेज ी थे। नगर और जनपदक जा उनसे ब त ेम रखती थी। वे इ ाकु कु लके अ तरथी१ वीर थे। य करनेवाले, धमपरायण और जते य थे। मह षय के समान द गुणस राज ष थे। उनक तीन लोक म ा त थी। वे बलवान्, श ुहीन, म से यु एवं इ य वजयी थे। धन और अ व ु के संचयक से इ और कु बेरके समान जान पड़ते थे। जैसे महातेज ी जाप त मनु स ूण जग र ा करते थे, उसी कार महाराज दशरथ भी करते थे॥ १—४ ॥ धम, अथ और कामका स ादन करनेवाले कम का अनु ान करते ए वे स त नरेश उस े अयो ापुरीका उसी तरह पालन करते थे, जैसे इ अमरावतीपुरीका॥ ५ ॥ उस उ म नगरम नवास करनेवाले सभी मनु स , धमा ा, ब ुत, नल भ, स वादी तथा अपने-अपने धनसे संतु रहनेवाले थे॥ ६ ॥ उस े पुरीम को◌इ भी ऐसा कु टु ी नह था, जसके पास उ ृ व ु का सं ह अ धक मा ाम न हो, जसके धम, अथ और काममय पु षाथ स न हो गये ह तथा जसके पास गाय-बैल, घोड़े, धनधा आ दका अभाव हो॥ ७ ॥ अयो ाम कह भी को◌इ कामी, कृ पण, ू र, मूख और ना क मनु देखनेको भी नह मलता था॥ ८ ॥ वहाँके सभी ी-पु ष धमशील, संयमी, सदा स रहनेवाले तथा शील और सदाचारक से मह षय क भाँ त नमल थे॥ ९ ॥ वहाँ को◌इ भी कु ल, मुकुट और पु हारसे शू नह था। कसीके पास भोगसाम ीक कमी नह थी। को◌इ भी ऐसा नह था, जो नहा-धोकर साफ-सुथरा न हो, जसके अंग म च नका लेप न आ हो तथा जो सुग से व त हो॥ १० ॥ अप व अ भोजन करनेवाला, दान न देनेवाला तथा मनको काबूम न रखनेवाला मनु तो वहाँ को◌इ दखायी ही नह देता था। को◌इ भी ऐसा पु ष देखनेम नह आता था, जो



बाजूब , न ( णपदक या मोहर) तथा हाथका आभूषण (कड़ा आ द) धारण न कये हो॥ ११ ॥ अयो ाम को◌इ भी ऐसा नह था, जो अ ग्नहो और य न करता हो; जो ु , चोर, सदाचारशू अथवा वणसंकर हो॥ १२ ॥ वहाँ नवास करनेवाले ा ण सदा अपने कम म लगे रहते, इ य को वशम रखते, दान और ा ाय करते तथा त हसे बचे रहते थे॥ १३ ॥ वहाँ कह एक भी ऐसा ज नह था, जो ना क, अस वादी, अनेक शा के ानसे र हत, दूसर के दोष ढूँ ढ़नेवाला, साधनम असमथ और व ाहीन हो॥ उस पुरीम वेदके छह अंग को न जाननेवाला, तहीन, सह से कम दान देनेवाला, दीन, व च अथवा दु:खी भी को◌इ नह था॥ १५ ॥ अयो ाम को◌इ भी ी या पु ष ऐसा नह देखा जा सकता था, जो ीहीन, पर हत तथा राजभ से शू हो॥ १६ ॥ ा ण आ द चार वण के लोग देवता और अ त थय के पूजक, कृ त , उदार, शूरवीर और परा मी थे॥ १७ ॥ उस े नगरम नवास करनेवाले सब मनु दीघायु तथा धम और स का आ य लेनेवाले थे। वे सदा ी-पु और पौ आ द प रवारके साथ सुखसे रहते थे॥ १८ ॥ य ा ण का मुँह जोहते थे, वै य क आ ाका पालन करते थे और शू अपने कत का पालन करते ए उपयु तीन वण क सेवाम संल रहते थे॥ १९ ॥ इ ाकु कु लके ामी राजा दशरथ अयो ापुरीक र ा उसी कार करते थे, जैसे बु मान् महाराज मनुने पूवकालम उसक र ा क थी॥ २० ॥ शौयक अ धकताके कारण अ ग्नके समान दुधष, कु टलतासे र हत, अपमानको सहन करनेम असमथ तथा अ -श के ाता यो ा के समुदायसे वह पुरी उसी तरह भरी-पूरी रहती थी, जैसे पवत क गुफा सह के समूहसे प रपूण होती है॥ २१ ॥ का ोज और बा ीक देशम उ ए उ म घोड़ से, वनायु देशके अ से तथा स ुनदके नकट पैदा होनेवाले द रया◌इ घोड़ से, जो इ के अ उ ै: वाके समान े थे, अयो ापुरी भरी रहती थी॥ २२ ॥



व और हमालय पवत म उ होनेवाले अ बलशाली पवताकार मदम गजराज से भी वह नगरी प रपूण रहती थी॥ २३ ॥ ऐरावतकु लम उ , महाप के वंशम पैदा ए तथा अ न और वामन नामक द ज से भी कट ए हाथी उस पुरीक पूणताम सहायक हो रहे थे॥ २४ ॥ हमालय पवतपर उ भ जा तके , व पवतपर उ ए म जा तके तथा स पवतपर पैदा ए मृग जा तके हाथी भी वहाँ मौजूद थे। भ , म और मृग— इन तीन के मेलसे उ ए संकरजा तके , भ और म —इन दो जा तय के मेलसे पैदा ए संकर जा तके , भ और मृग जा तके संयोगसे उ संकरजा तके तथा मृग और म —इन दो जा तय के स णसे पैदा ए पवताकार गजराज भी, जो सदा मदो रहते थे, उस पुरीम भरे ए थे। (तीन योजनके व ारवाली अयो ाम) दो योजनक भू म तो ऐसी थी, जहाँ प ँ चकर कसीके लये भी यु करना अस व था, इस लये वह पुरी ‘अयो ा’ इस स एवं साथक नामसे का शत होती थी; जसम रहते ए राजा दशरथ इस जग ा (अपने रा का) पालन करते थे॥ २५-२६ ॥



जैसे च मा न लोकका शासन करते ह, उसी कार महातेज ी महाराज दशरथ अयो ापुरीका शासन करते थे। उ ने अपने सम श ु को न कर दया था॥ २७ ॥ जसका अयो ा नाम स एवं साथक था, जसके दरवाजे और अगला सु ढ़ थे, जो व च गृह से सदा सुशो भत होती थी, सह मनु से भरी ◌इ उस क ाणमयी पुरीका इ तु तेज ी राजा दशरथ ायपूवक शासन करते थे॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म छठा सग पूरा आ॥ ६॥ १. जो दस हजार महार थय के साथ अके ला ही यु करनेम समथ हो, वह ‘अ तरथी’ कहलाता है।



सातवाँ सग राजम



य के गुण और नी तका वणन



इ ाकु वंशी वीर महामना महाराज दशरथके म जनो चत गुण से स आठ म ी थे, जो म के त को जाननेवाले और बाहरी चे ा देखकर ही मनके भावको समझ लेनेवाले थे। वे सदा ही राजाके य एवं हतम लगे रहते थे। इसी लये उनका यश ब त फै ला आ था। वे सभी शु आचार- वचारसे यु थे और राजक य काय म नर र संल रहते थे॥ १-२ ॥ उनके नाम इस कार ह—धृ , जय , वजय, सुरा , रा वधन, अकोप, धमपाल और आठव सुम , जो अथशा के ाता थे॥ ३ ॥ ऋ षय म े तम व स और वामदेव—ये दो मह ष राजाके माननीय ऋ ज् (पुरो हत) थे। इनके सवा सुय , जाबा ल, का प, गौतम, दीघायु माक ये और व वर का ायन भी महाराजके म ी थे॥ ४-५ ॥ इन षय के साथ राजाके पूवपर रागत ऋ ज् भी सदा म ीका काय करते थे। वे सब-के -सब व ान् होनेके कारण वनयशील, सल , कायकु शल, जते य, ीस , महा ा, श व ाके ाता, सु ढ़ परा मी, यश ी, सम राजकाय म सावधान, राजाक आ ाके अनुसार काय करनेवाले, तेज ी, माशील, क तमान् तथा मुसकराकर बात करनेवाले थे। वे कभी काम, ोध या ाथके वशीभूत होकर झूठ नह बोलते थे॥ ६—८ ॥ अपने या श ुप के राजा क को◌इ भी बात उनसे छपी नह रहती थी। दूसरे राजा ा करते ह, ा कर चुके ह और ा करना चाहते ह—ये सभी बात गु चर ारा उ मालूम रहती थ ॥ ९ ॥ वे सभी वहारकु शल थे। उनके सौहादक अनेक अवसर पर परी ा ली जा चुक थी। वे मौका पड़नेपर अपने पु को भी उ चत द देनेम भी नह हचकते थे॥ १० ॥ कोषके संचय तथा चतुरं गणी सेनाके सं हम सदा लगे रहते थे। श ुने भी य द अपराध न कया हो तो वे उसक हसा नह करते थे॥ ११ ॥ उन सबम सदा शौय एवं उ ाह भरा रहता था। वे राजनी तके अनुसार काय करते तथा अपने रा के भीतर रहनेवाले स ु ष क सदा र ा करते थे॥ १२ ॥



ा ण और य को क न प ँ चाकर ायो चत धनसे राजाका खजाना भरते थे। वे अपराधी पु षके बलाबलको देखकर उसके त ती ण अथवा मृदु द का योग करते थे॥ १३ ॥ उन सबके भाव शु और वचार एक थे। उनक जानकारीम अयो ापुरी अथवा कोसलरा के भीतर कह एक भी मनु ऐसा नह था, जो म ावादी, दु और पर ील ट हो। स ूण रा और नगरम पूण शा छायी रहती थी॥ १४-१५ ॥ उन म य के व और वेष एवं सु र होते थे। वे उ म तका पालन करनेवाले तथा राजाके हतैषी थे। नी त पी ने से देखते ए सदा सजग रहते थे॥ १६ ॥ अपने गुण के कारण वे सभी म ी गु तु समादरणीय राजाके अनु हपा थे। अपने परा म के कारण उनक सव ा त थी। वदेश म भी सब लोग उ जानते थे। वे सभी बात म बु ारा भलीभाँ त वचार करके कसी न यपर प ँ चते थे॥ १७ ॥ सम देश और काल म वे गुणवान् ही स होते थे, गुणहीन नह । सं ध और व हके उपयोग और अवसरका उ अ ी तरह ान था। वे भावसे ही स शाली (दैवी स से यु ) थे॥ १८ ॥ उनम राजक य म णाको गु रखनेक पूण श थी। वे सू वषयका वचार करनेम कु शल थे। नी तशा म उनक वशेष जानकारी थी तथा वे सदा ही य लगनेवाली बात बोलते थे॥ १९ ॥ ऐसे गुणवान् म य के साथ रहकर न ाप राजा दशरथ उस भूम लका शासन करते थे॥ २० ॥ वे गु चर के ारा अपने और श ु-रा के वृ ा पर रखते थे, जाका धमपूवक पालन करते थे तथा जापालन करते ए अधमसे दूर ही रहते थे॥ २१ ॥ उनक तीन लोक म स थी। वे उदार और स त थे। पु ष सह राजा दशरथ अयो ाम ही रहकर इस पृ ीका शासन करते थे॥ २२ ॥ उ कभी अपनेसे बड़ा अथवा अपने समान भी को◌इ श ु नह मला। उनके म क सं ा ब त थी। सभी साम उनके चरण म म क कु ाते थे। उनके तापसे रा के सारे क क (श ु एवं चोर आ द) न हो गये थे। जैसे देवराज इ गम रहकर तीन लोक का



पालन करते ह, उसी कार राजा दशरथ अयो ाम रहकर स ूण जग ा शासन करते थे॥ २३ ॥



उनके म ी म णाको गु रखने तथा रा के हत-साधनम संल रहते थे। वे राजाके त अनुर , कायकु शल और श शाली थे। जैसे सूय अपनी तेजोमयी करण के साथ उ दत होकर का शत होते ह, उसी कार राजा दशरथ उन तेज ी म य से घरे रहकर बड़ी शोभा पाते थे॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म सातवाँ सग पूरा आ॥ ७॥



आठवाँ सग राजाका पु के लये अ मेधय करनेका ाव और म अनुमोदन



य तथा ा ण ारा उनका



स ूण धम को जाननेवाले महा ा राजा दशरथ ऐसे भावशाली होते ए भी पु के लये सदा च त रहते थे। उनके वंशको चलानेवाला को◌इ पु नह था॥ १ ॥ उसके लये च ा करते-करते एक दन उन महामन ी नरेशके मनम यह वचार आ क म पु ा के लये अ मेध य का अनु ान न क ँ ?॥ अपने सम शु बु वाले म य के साथ परामशपूवक य करनेका ही न त वचार करके उन महातेज ी, बु मान् एवं धमा ा राजाने सुम से कहा—‘म वर! तुम मेरे सम गु जन एवं पुरो हत को यहाँ शी बुला ले आओ’॥ ३-४ ॥ तब शी तापूवक परा म कट करनेवाले सुम तुरंत जाकर उन सम वेद व ाके पारंगत मु नय को वहाँ बुला लाये॥ ५ ॥ सुय , वामदेव, जाबा ल, का प, कु लपुरो हत व स तथा और भी जो े ा ण थे, उन सबक पूजा करके धमा ा राजा दशरथने धम और अथसे यु यह मधुर वचन कहा—॥ ६-७ ॥ ‘मह षयो! म सदा पु के लये वलाप करता रहता ँ । उसके बना इस रा आ दसे मुझे सुख नह मलता; अत: मने यह न य कया है क म पु - ा के लये अ मेध ारा भगवा ा यजन क ँ ॥ ८ ॥ ‘मेरी इ ा है क शा ो व धसे इस य का अनु ान क ँ ; अत: कस कार मुझे मेरी मनोवा त व ु ा होगी? इसका वचार आपलोग यहाँ कर’॥ ९ ॥ राजाके ऐसा कहनेपर व स आ द सब ा ण ने ‘ब त अ ा’ कहकर उनके मुखसे कहे गये पूव वचनक शंसा क ॥ १० ॥ फर वे सभी अ स होकर राजा दशरथसे बोले—‘महाराज! य -साम ीका सं ह कया जाय।



भूम लम मणके लये य स ी अ छोड़ा जाय तथा सरयूके उ र तटपर य भू मका नमाण कया जाय। तुम य ारा सवथा अपनी इ ाके अनु प पु ा कर लोगे; क पु के लये तु ारे दयम ऐसी धा मक बु का उदय आ है’॥ ११-१२ १/२ ॥ ा ण का यह कथन सुनकर राजा ब त संतु ए। हषसे उनके ने च ल हो उठे । वे अपने म य से बोले—‘गु जन क आ ाके अनुसार य क साम ी यहाँ एक क जाय। श शाली वीर के संर णम उपा ायस हत अ को छोड़ा जाय। सरयूके उ र तटपर य भू मका नमाण हो। शा ो व धके अनुसार मश: शा कमका व ार कया जाय ( जससे व का नवारण हो)। य द इस े य म क द अपराध बन जानेका भय न हो तो सभी राजा इसका स ादन कर सकते ह; परंतु ऐसा होना क ठन है; क व ान् रा स य म व डालनेके लये छ ढूँ ढ़ा करते ह॥ १३—१७ ॥ ‘ व धहीन य का अनु ान करनेवाला यजमान त ाल न हो जाता है; अत: मेरा यह य जस तरह व धपूवक स हो सके , वैसा उपाय कया जाय। तुम सब लोग ऐसे साधन ुत करनेम समथ हो’॥ राजाके ारा स ा नत ए सम म ी पूववत् उनके वचन को सुनकर बोले—‘ब त अ ा, ऐसा ही होगा’॥ १९ १/२ ॥ इसी कार वे सभी धम ा ण भी नृप े दशरथको बधा◌इ देते ए उनक आ ा लेकर जैसे आये थे, वैसे ही फर लौट गये॥ २० १/२ ॥ उन ा ण को वदा करके राजाने म य से कहा—‘पुरो हत के उपदेशके अनुसार इस य को व धवत् पूण करना चा हये’॥ २१ १/२ ॥ वहाँ उप त ए म य से ऐसा कहकर परम बु मान् नृप े दशरथ उ वदा करके अपने महलम चले गये॥ २२ १/२ ॥ वहाँ जाकर नरेशने अपनी ारी प त्नय से कहा—‘दे वयो! दी ा हण करो। म पु के लये य क ँ गा’॥ २३ १/२ ॥ उस मनोहर वचनसे उन सु र का वाली रा नय के मुखकमल वस ऋतुम वक सत होनेवाले प ज के समान खल उठे और अ शोभा पाने लगे॥ २४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म आठवाँ सग पूरा आ॥ ८॥



नवाँ सग सुम का राजाको ऋ



ृ मु नको बुलानेक सलाह देते ए उनके अंगदेशम जाने और ंग शा ासे ववाह करनेका संग सुनाना



पु के लये अ मेध य करनेक बात सुनकर सुम ने राजासे एका म कहा —‘महाराज! एक पुराना इ तहास सु नये। मने पुराणम भी इसका वणन सुना है॥ १ ॥ ‘ऋ ज ने पु - ा के लये इस अ मेध प उपायका उपदेश कया है; परंतु मने इ तहासके पम कु छ वशेष बात सुनी है। राजन्! पूवकालम भगवान् सन ु मारने ऋ षय के नकट एक कथा सुनायी थी। वह आपक पु ा से स रखनेवाली है॥ २ १/२ ॥ ‘उ ने कहा था, मु नवरो! मह ष का पके वभा क नामसे स एक पु ह। उनके भी एक पु होगा, जसक लोग म ऋ ृंग नामसे स होगी। वे ऋ ृंग मु न सदा वनम ही रहगे और वनम ही सदा लालन-पालन पाकर वे बड़े ह गे॥ ३-४ ॥ ‘सदा पताके ही साथ रहनेके कारण व वर ऋ ृंग दूसरे कसीको नह जानगे। राजन्! लोकम चयके दो प व ात ह और ा ण ने सदा उन दोन प का वणन कया है। एक तो है द , मेखला आ द धारण प मु चय और दूसरा है ऋतुकालम प ीसमागम प गौण चय। उन महा ाके ारा उ दोन कारके चय का पालन होगा॥ ५ १/२ ॥ ‘‘इस कार रहते ए मु नका समय अ ग्न तथा यश ी पताक सेवाम ही तीत होगा॥ ६ १/२ ॥ ‘‘उसी समय अंगदेशम रोमपाद नामक एक बड़े तापी और बलवान् राजा ह गे; उनके ारा धमका उ न हो जानेके कारण उस देशम घोर अनावृ हो जायगी, जो सब लोग को अ भयभीत कर देगी॥ ‘‘वषा बंद हो जानेसे राजा रोमपादको भी ब त दु:ख होगा। वे शा ानम बढ़े-चढ़े ा ण को बुलाकर कहगे—‘ व वरो! आपलोग वेद-शा के अनुसार कम करनेवाले तथा लोग के आचार- वचारको जाननेवाले ह; अत: कृ पा करके मुझे ऐसा को◌इ नयम बताइये, जससे मेरे पापका ाय हो जाय’॥ ९-१० १/२ ॥



‘‘राजाके ऐसा सलाह दगे—॥ ‘राजन्!



कहनेपर वे वेद के पारंगत व ान्—सभी े



ा ण उ इस कार



वभा कके पु ऋ ृंग वेद के पारगामी व ान् ह। भूपाल! आप सभी उपाय से उ यहाँ ले आइये। बुलाकर उनका भलीभाँ त स ार क जये। फर एका च हो वै दक व धके अनुसार उनके साथ अपनी क ा शा ाका ववाह कर दी जये’॥ १२-१३ ॥ उनक बात सुनकर राजा इस च ाम पड़ जायँगे क कस उपायसे उन श शाली मह षको यहाँ लाया जा सकता है॥ १४ ॥ ‘‘ फर वे मन ी नरेश म य के साथ न य करके अपने पुरो हत और म य को स ारपूवक वहाँ भेजगे॥ १५ ॥ ‘‘राजाक बात सुनकर वे म ी और पुरो हत मुँह लटकाकर दु:खी हो य कहने लगगे क ‘हम मह षसे डरते ह, इस लये वहाँ नह जायँगे।’ य कहकर वे राजासे बड़ी अनुनय- वनय करगे॥ १६ ॥ ‘इसके बाद सोच- वचारकर वे राजाको यो उपाय बतायगे और कहगे क ‘हम उन ा णकु मारको कसी उपायसे यहाँ ले आयगे। ऐसा करनेसे को◌इ दोष नह घ टत होगा’॥ १७ ॥ ‘‘इस कार वे ा क सहायतासे अंगराज मु नकु मार ऋ ृंगको अपने यहाँ बुलायगे। उनके आते ही इ देव उस रा म वषा करगे। फर राजा उ अपनी पु ी शा ा सम पत कर दगे॥ १८ ॥ ‘‘इस तरह ऋ ृंग आपके जामाता ए। वे ही आपके लये पु को सुलभ करानेवाले य कमका स ादन करगे। यह सन ु मारजीक कही ◌इ बात मने आपसे नवेदन क है’’॥ १९ ॥ यह सुनकर राजा दशरथको बड़ी स ता ◌इ। उ ने सुम से कहा—‘मु नकु मार ऋ ृंगको वहाँ जस कार और जस उपायसे बुलाया गया, वह पसे बताओ’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म नवाँ सग पूरा आ॥ ९॥



दसवाँ सग अंगदेशम ऋ



ृंगके आने तथा शा ाके साथ ववाह होनेके संगका कुछ व ारके साथ वणन



राजाक आ ा पाकर उस समय सुम ने इस कार कहना आर कया—‘‘राजन्! रोमपादके म य ने ऋ ृंगको वहाँ जस कार और जस उपायसे बुलाया था, वह सब म बता रहा ँ । आप म य स हत मेरी बात सु नये॥ १ ॥ ‘‘उस समय अमा स हत पुरो हतने राजा रोमपादसे कहा—‘महाराज! हमलोग ने एक उपाय सोचा है, जसे कामम लानेसे कसी भी व -बाधाके आनेक स ावना नह है॥ २ ॥ ‘‘ऋ ृंग मु न सदा वनम ही रहकर तप ा और ा ायम लगे रहते ह। वे य को पहचानतेतक नह ह और वषय के सुखसे भी सवथा अन भ ह॥ ‘‘हम मनु के च को मथ डालनेवाले मनोवा त वषय का लोभन देकर उ अपने नगरम ले आयगे; अत: इसके लये शी य कया जाय॥ ४ ॥ ‘‘य द सु र आभूषण से वभू षत मनोहर पवाली वे ाएँ वहाँ जायँ तो वे भाँ त-भाँ तके उपाय से उ लुभाकर इस नगरम ले आयगी; अत: इ स ारपूवक भेजना चा हये’॥ ५ ॥ ‘‘यह सुनकर राजाने पुरो हतको उ र दया, ‘ब त अ ा, आपलोग ऐसा ही कर।’ आ ा पाकर पुरो हत और म य ने उस समय वैसी ही व ा क ॥ ६ ॥ ‘‘तब नगरक मु -मु वे ाएँ राजाका आदेश सुनकर उस महान् वनम गय और मु नके आ मसे थोड़ी ही दूरपर ठहरकर उनके दशनका उ ोग करने लग ॥ ७ ॥ ‘‘मु नकु मार ऋ ृंग बड़े ही धीर भावके थे। सदा आ मम ही रहा करते थे। उ सवदा अपने पताके पास रहनेम ही अ धक सुख मलता था। अत: वे कभी आ मके बाहर नह नकलते थे॥ ८ ॥ ‘‘उन तप ी ऋ षकु मारने ज से लेकर उस समयतक पहले कभी न तो को◌इ ी देखी थी और न पताके सवा दूसरे कसी पु षका ही दशन कया था। नगर या रा के गाँव म उ ए दूसरे-दूसरे ा णय को भी वे नह देख पाये थे॥ ९ ॥



‘‘तदन



र एक दन वभा ककु मार ऋ ृंग अक ात् घूमते- फरते उस ानपर चले आये, जहाँ वे वे ाएँ ठहरी ◌इ थ । वहाँ उ ने उन सु री व नता को देखा॥ १० ॥ ‘‘उन मदा का वेष बड़ा ही सु र और अ तु था। वे मीठे रम गा रही थ । ऋ षकु मारको आया देख सभी उनके पास चली आय और इस कार पूछने लग —॥ ११ ॥ ‘‘ न्! आप कौन ह? ा करते ह? तथा इस नजन वनम आ मसे इतनी दूर आकर अके ले वचर रहे ह? यह हम बताइये। हमलोग इस बातको जानना चाहती ह’॥ १२ ॥ ‘‘ऋ ृंगने वनम कभी य का प नह देखा था और वे याँ तो अ कमनीय पसे सुशो भत थ ; अत: उ देखकर उनके मनम ेह उ हो गया। इस लये उ ने उनसे अपने पताका प रचय देनेका वचार कया॥ १३ ॥ ‘‘वे बोले—‘मेरे पताका नाम वभा क मु न है। म उनका औरस पु ँ । मेरा ऋ ृंग नाम और तप ा आ द कम इस भूम लम स है॥ १४ ॥ ‘‘यहाँ पास ही मेरा आ म है। आपलोग देखनेम परम सु र ह। (अथवा आपका दशन मेरे लये शुभकारक है।) आप मेरे आ मपर चल। वहाँ म आप सब लोग क व धपूवक पूजा क ँ गा’॥ १५ ॥ ‘‘ऋ षकु मारक यह बात सुनकर सब उनसे सहमत हो गय । फर वे सब सु री याँ उनका आ म देखनेके लये वहाँ गय ॥ १६ ॥ ‘‘वहाँ जानेपर ऋ षकु मारने ‘यह अ है, यह पा है तथा यह भोजनके लये फल-मूल ुत है’ ऐसा कहते ए उन सबका व धवत् पूजन कया॥ १७ ॥ ‘‘ऋ षक पूजा ीकार करके वे सभी वहाँसे चली जानेको उ ुक ◌इं । उ वभा क मु नका भय लग रहा था, इस लये उ ने शी ही वहाँसे चली जानेका वचार कया॥ १८ ॥ ‘‘वे बोल —‘ न्! हमारे पास भी ये उ म-उ म फल ह। व वर! इ हण क जये। आपका क ाण हो। इन फल को शी ही खा ली जये, वल न क जये’॥ १९ ॥ ‘‘ऐसा कहकर उन सबने हषम भरकर ऋ षका आ लगन कया और उ खानेयो भाँ तभाँ तके उ म पदाथ तथा ब त-सी मठाइयाँ द ॥ २० ॥ ‘‘उनका रसा ादन करके उन तेज ी ऋ षने समझा क ये भी फल ह; क उस दनके पहले उ ने कभी वैसे पदाथ नह खाये थे। भला, सदा वनम रहनेवाल के लये वैसी



व ु के ाद लेनेका अवसर ही कहाँ है॥ २१ ॥ ‘‘त ात् उनके पता वभा क मु नके डरसे डरी ◌इ वे याँ त और अनु ानक बात बता उन ा णकु मारसे पूछकर उसी बहाने वहाँसे चली गयी॥ २२ ॥ ‘‘उन सबके चले जानेपर का पकु मार ा ण ऋ ृंग मन-ही-मन ाकु ल हो उठे और बड़े दु:खसे इधर-उधर टहलने लगे॥ २३ ॥ ‘‘तदन र दूसरे दन फर मनसे उ का बार ार च न करते ए श शाली वभा ककु मार ीमान् ऋ ृंग उसी ानपर गये, जहाँ पहले दन उ ने व और आभूषण से सजी ◌इ उन मनोहर पवाली वे ा को देखा था॥ २४ १/२ ॥ ‘‘ ा ण ऋ ृंगको आते देख तुरंत ही उन वे ा का दय स तासे खल उठा। वे सब-क -सब उनके पास जाकर उनसे इस कार कहने लग —‘सौ ! आओ, आज हमारे आ मपर चलो॥ २५-२६ ॥ य प यहाँ नाना कारके फल-मूल ब त मलते ह तथा प वहाँ भी न य ही इन सबका वशेष पसे ब हो सकता है’॥ २७ ॥ ‘‘उन सबके मनोहर वचन सुनकर ऋ ृंग उनके साथ जानेको तैयार हो गये और वे याँ उ अंगदेशम ले गय ॥ २८ ॥ ‘‘उन महा ा ा णके अंगदेशम आते ही इ ने स ूण जग ो स करते ए सहसा पानी बरसाना आर कर दया॥ २९ ॥ ‘‘वषासे ही राजाको अनुमान हो गया क वे तप ी ा णकु मार आ गये। फर बड़ी वनयके साथ राजाने उनक अगवानी क और पृ ीपर म क टेककर उ सा ांग णाम कया॥ ३० ॥ ‘‘ फर एका च होकर उ ने ऋ षको अ नवेदन कया तथा उन व शरोम णसे वरदान माँगा, ‘भगवन्! आप और आपके पताजीका कृ पा साद मुझे ा हो।’ ऐसा उ ने इस लये कया क कह कपटपूवक यहाँतक लाये जानेका रह जान लेनेपर व वर ऋ ृंग अथवा वभा क मु नके मनम मेरे त ोध न हो॥ ३१ ॥ ‘‘त ात् ऋ ृंगको अ :पुरम ले जाकर उ ने शा च से अपनी क ा शा ाका उनके साथ व धपूवक ववाह कर दया। ऐसा करके राजाको बड़ी स ता ◌इ॥ ३२ ॥



‘‘इस



कार महातेज ी ऋ ृंग राजासे पू जत हो स ूण मनोवा त भोग ा कर अपनी धमप ी शा ाके साथ वहाँ रहने लगे’॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म दसवाँ सग पूरा आ॥ १०॥



ारहवाँ सग सुम के कहनेसे राजा दशरथका सप रवार अंगराजके यहाँ जाकर वहाँसे शा ा और ऋ ृंगको अपने घर ले आना



तदन र सुम ने फर कहा—‘‘राजे ! आप पुन: मुझसे अपने हतक वह बात सु नये, जसे देवता म े बु मान् सन ु मारजीने ऋ षय को सुनाया था॥ ‘‘उ ने कहा था—इ ाकु वंशम दशरथ नामसे स एक परम धा मक स त राजा ह गे॥ २ ॥ ‘‘उनक अंगराजके साथ म ता होगी। दशरथके एक परम सौभा शा लनी क ा होगी, जसका नाम होगा ‘शा ा’। अंगदेशके राजकु मारका नाम होगा ‘रोमपाद’। महायश ी राजा दशरथ उनके पास जायँगे और कहगे—‘धमा न्! म संतानहीन ँ । य द आप आ ा द तो शा ाके प त ऋ ृंग मु न चलकर मेरा य करा द। इससे मुझे पु क ा होगी और मेरे वंशक र ा हो जायगी’॥ ३—५ ॥ ‘‘राजाक यह बात सुनकर मन-ही-मन उसपर वचार करके मन ी राजा रोमपाद शा ाके पु वान् प तको उनके साथ भेज दगे॥ ६ ॥ ‘‘ ा ण ऋ ृंगको पाकर राजा दशरथक सारी च ा दूर हो जायगी और वे स च होकर उस य का अनु ान करगे॥ ७ ॥ ‘‘यशक इ ा रखनेवाले धम राजा दशरथ हाथ जोड़कर ज े ऋ ृंगका य , पु और गके लये वरण करगे तथा वे जापालक नरेश उन े षसे अपनी अभी व ु ा कर लगे॥ ८-९ ॥ ‘‘राजाके चार पु ह गे, जो अ मेय परा मी, वंशक मयादा बढ़ानेवाले और सव व ात ह गे॥ ‘‘महाराज! पहले स युगम श शाली देव वर भगवान् सन ु मारजीने ऋ षय के सम ऐसी कथा कही थी॥ ११ ॥ ‘‘पु ष सह महाराज! इस लये आप यं ही सेना और सवा रय के साथ अंगदेशम जाकर मु नकु मार ऋ ृंगको स ारपूवक यहाँ ले आइये’’॥ १२ ॥



सुम का वचन सुनकर राजा दशरथको बड़ा हष आ। उ ने मु नवर व स जीको भी सुम क बात सुनाय और उनक आ ा लेकर र नवासक रा नय तथा म य के साथ अंगदेशके लये ान कया, जहाँ व वर ऋ ृंग नवास करते थे॥ १३ १/२ ॥ मागम अनेकानेक वन और न दय को पार करके वे धीरे-धीरे उस देशम जा प ँ च,े जहाँ मु नवर ऋ ृंग वराजमान थे॥ १४ १/२ ॥ वहाँ प ँ चनेपर उ ज े ऋ ृंग रोमपादके पास ही बैठे दखायी दये। वे ऋ षकु मार लत अ ग्नके समान तेज ी जान पड़ते थे॥ १५ १/२ ॥ तदन र राजा रोमपादने म ताके नाते अ स दयसे महाराज दशरथका शा ो व धके अनुसार वशेष पसे पूजन कया और बु मान् ऋ षकु मार ऋ ृंगको राजा दशरथके साथ अपनी म ताक बात बतायी। उसपर उ ने भी राजाका स ान कया॥ इस कार भलीभाँ त आदर-स ार पाकर नर े राजा दशरथ रोमपादके साथ वहाँ सातआठ दन तक रहे। इसके बाद वे अंगराजसे बोले—‘ जापालक नरेश! तु ारी पु ी शा ा अपने प तके साथ मेरे नगरम पदापण करे; क वहाँ एक महान् आव क काय उप त आ है’॥ १८-१९ १/२ ॥ राजा रोमपादने ‘ब त अ ा’ कहकर उन बु मान् मह षका जाना ीकार कर लया और ऋ ृंगसे कहा—‘ व वर! आप शा ाके साथ महाराज दशरथके यहाँ जाइये।’ राजाक आ ा पाकर उन ऋ षपु ने ‘तथा ’ु कहकर राजा दशरथको अपने चलनेक ीकृ त दे दी॥ २०-२१ ॥ राजा रोमपादक अनुम त ले ऋ ृंगने प ीके साथ वहाँसे ान कया। उस समय श शाली राजा रोमपाद और दशरथने एक-दूसरेको हाथ जोड़कर ेहपूवक छातीसे लगाया तथा अ भन न कया। फर म से वदा ले रघुकुलन न दशरथ वहाँसे त ए॥ २२-२३ ॥



उ ने पुरवा सय के पास अपने शी गामी दूत भेजे और कहलाया क ‘सम नगरको शी ही सुस त कया जाय। सव धूपक सुग फै ले। नगरक सड़क को झाड़-बुहारकर उनपर पानीका छड़काव कर दया जाय तथा सारा नगर जा-पताका से अलंकृत हो’॥ २४ १/ ॥ २



राजाका आगमन सुनकर पुरवासी बड़े स ए। महाराजने उनके लये जो संदेश भेजा था, उसका उ ने उस समय पूण पसे पालन कया॥ २५ १/२ ॥ तदन र राजा दशरथने श और दु ु भ आ द वा क नके साथ व वर ऋ ृंगको आगे करके अपने सजे-सजाये नगरम वेश कया॥ २६ १/२ ॥ उन जकु मारका दशन करके सभी नगर नवासी ब त स ए। उ ने इ के समान परा मी नरे दशरथके साथ पुरीम वेश करते ए ऋ ृंगका उसी कार स ार कया, जैसे देवता ने गम सह ा इ के साथ वेश करते ए क पन न वामनजीका समादर कया था॥ २७-२८ ॥ ऋ षको अ :पुरम ले जाकर राजाने शा व धके अनुसार उनका पूजन कया और उनके नकट आ जानेसे अपनेको कृ तकृ माना॥ २९ ॥ वशाललोचना शा ाको इस कार अपने प तके साथ उप त देख अ :पुरक सभी रा नय को बड़ी स ता ◌इ। वे आन म हो गय ॥ ३० ॥ शा ा भी उन रा नय से तथा वशेषत: महाराज दशरथके ारा आदर-स ार पाकर वहाँ कु छ कालतक अपने प त व वर ऋ ृंगके साथ बड़े सुखसे रही॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म ारहवाँ सग पूरा आ॥ ११॥



बारहवाँ सग राजाका ऋ षय से य करानेके लये ाव, ऋ षय का राजाको और राजाका म य क आव क तैयारी करनेके लये आदेश देना



य को



तदन र ब त समय बीत जानेके प ात् को◌इ परम मनोहर—दोषर हत समय ा आ। उस समय वस ऋतुका आर आ था। राजा दशरथने उसी शुभ समयम य आर करनेका वचार कया॥ १ ॥ त ात् उ ने देवोपम का वाले व वर ऋ ृंगको म क कु ाकर णाम कया और वंशपर राक र ाके लये पु - ा के न म य करानेके उ े से उनका वरण कया॥ २ ॥ ऋ ृंगने ‘ब त अ ा’ कहकर उनक ाथना ीकार क और उन पृ ीप त नरेशसे कहा—‘राजन्! य क साम ी एक कराइये। भूम लम मणके लये आपका य स ी अ छोड़ा जाय और सरयूके उ र तटपर य भू मका नमाण कया जाय’॥ ३ १/२ ॥ तब राजाने कहा—‘सुम ! तुम शी ही वेद व ाके पारंगत ा ण तथा वादी ऋ ज को बुला ले आओ। सुय , वामदेव, जाबा ल, का प, पुरो हत व स तथा अ जो े ा ण ह, उन सबको बुलाओ’॥ तब शी गामी सुम तुरंत जाकर वेद व ाके पारगामी उन सम ा ण को बुला लाये॥ ६ १/२ ॥ धमा ा राजा दशरथने उन सबका पूजन कया और उनसे धम तथा अथसे यु मधुर वचन कहा॥ ७ १/२ ॥ ‘मह षयो! म पु के लये नर र संत रहता ँ । उसके बना इस रा आ दसे भी मुझे सुख नह मलता है। अत: मने यह वचार कया है क पु के लये अ मेध य का अनु ान क ँ ॥ ८ १/२ ॥ ‘इसी संक के अनुसार म अ मेध य का आर करना चाहता ँ । मुझे व ास है क ऋ षपु ऋ ृंगके भावसे म अपनी स ूण कामना को ा कर लूँगा’॥ ९ १/२ ॥



राजा दशरथके मुखसे नकले ए इस वचनक व स आ द सब ा ण ने ‘साधु-साधु’ कहकर बड़ी सराहना क ॥ १० १/२ ॥ इसके बाद ऋ ृंग आ द सब मह षय ने उस समय राजा दशरथसे पुन: यह बात कही —‘महाराज! य साम ीका सं ह कया जाय, य स ी अ छोड़ा जाय तथा सरयूके उ र तटपर य भू मका नमाण कया जाय॥ ११-१२ ॥ ‘तुम य ारा सवथा चार अ मत परा मी पु ा करोगे; क पु के लये तु ारे मनम ऐसे धा मक वचारका उदय आ है’॥ १३ ॥ ा ण क यह बात सुनकर राजाको बड़ी स ता ◌इ। उ ने बड़े हषके साथ अपने म य से यह शुभ अ र वाली बात कही॥ १४ ॥ ‘गु जन क आ ाके अनुसार तुमलोग शी ही मेरे लये य क साम ी जुटा दो। श शाली वीर के संर णम य य अ छोड़ा जाय और उसके साथ धान ऋ ज् भी रह॥ १५ ॥ ‘सरयूके उ र तटपर य भू मका नमाण हो, शा ो व धके अनुसार मश: शा कम—पु ाहवाचन आ दका व ारपूवक अनु ान कया जाय, जससे व का नवारण हो॥ १६ ॥ ‘य द इस े य म क द अपराध बन जानेका भय न हो तो सभी राजा इसका स ादन कर सकते ह॥ १७ ॥ ‘परंतु ऐसा होना क ठन है; क ये व ान् रा स य म व डालनेके लये छ ढूँ ढ़ा करते ह। व धहीन य का अनु ान करनेवाला यजमान त ाल न हो जाता है॥ १८ ॥ ‘अत: मेरा यह य जस तरह व धपूवक स ूण हो सके वैसा उपाय कया जाय। तुम सब लोग ऐसे साधन ुत करनेम समथ हो’॥ १९ ॥ तब ‘ब त अ ा’ कहकर सभी म य ने राजराजे र दशरथके उस कथनका आदर कया और उनक आ ाके अनुसार सारी व ा क ॥ २० ॥ त ात् उन ा ण ने भी धम नृप े दशरथक शंसा क और उनक आ ा पाकर सब जैसे आये थे, वैसे ही फर चले गये॥ २१ ॥



उन ा ण के चले जानेपर म य को भी वदा करके वे महाबु मान् नरेश अपने महलम गये॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म बारहवाँ सग पूरा आ॥ १२॥



तेरहवाँ सग राजाका व स जीसे य क तैयारीके लये अनुरोध, व स जी ारा इसके लये सेवक क नयु और सुम को राजा को बुलानेके लये आदेश, समागत राजा का स ार तथा प य स हत राजा दशरथका य क दी ा लेना



वतमान वस ऋतुके बीतनेपर जब पुन: दूसरा वस आया, तबतक एक वषका समय पूरा हो गया। उस समय श शाली राजा दशरथ संतानके लये अ मेध य क दी ा लेनेके न म व स जीके समीप गये॥ व स जीको णाम करके राजाने ायत: उनका पूजन कया और पु - ा का उ े लेकर उन ज े मु नसे यह वनययु बात कही॥ २ ॥ ‘ न्! मु न वर! आप शा व धके अनुसार मेरा य कराव और य के अंगभूत अ संचारण आ दम रा स आ द जस तरह व न डाल सक, वैसा उपाय क जये॥ ३ ॥ ‘आपका मुझपर वशेष ेह है, आप मेरे सु द— ् अकारण हतैषी, गु और परम महान् ह। यह जो य का भार उप त आ है, इसको आप ही वहन कर सकते ह’॥ ४ ॥ तब ‘ब त अ ा’ कहकर व वर व स मु न राजासे इस कार बोले—‘नरे र! तुमने जसके लये ाथना क है, वह सब म क ँ गा’॥ ५ ॥ तदन र व स जीने य स ी कम म नपुण तथा य वषयक श कमम कु शल, परम धमा ा, बूढ़े ा ण , य कम समा होनेतक उसम सेवा करनेवाले सेवक , श कार , बढ़इय , भू म खोदनेवाल , ो त षय , कारीगर , नट , नतक , वशु शा वे ा तथा ब ुत पु ष को बुलाकर उनसे कहा—‘तुमलोग महाराजक आ ासे य कमके लये आव क ब करो॥ ‘शी ही क◌इ हजार ◌इं ट लायी जायँ। राजा के ठहरनेके लये उनके यो अ -पान आ द अनेक उपकरण से यु ब त-से महल बनाये जायँ॥ ९ ॥ ‘ ा ण के रहनेके लये भी सैकड़ सु र घर बनाये जाने चा हये। वे सभी गृह ब त-से भोजनीय अ -पान आ द उपकरण से यु तथा आँ धी-पानी आ दके नवारणम समथ ह ॥ १० ॥



‘इसी तरह पुरवा सय के लये भी व ृत मकान बनने चा हये। दूरसे आये लये पृथक् -पृथक् महल बनाये जायँ॥ ११ ॥ ‘घोड़े और हा थय के



ए भूपाल के



लये भी शालाएँ बनायी जायँ। साधारण लोग के सोनेके लये भी घर क व ा हो। वदेशी सै नक के लये भी बड़ी-बड़ी छाव नयाँ बननी चा हये॥ १२ ॥ ‘जो घर बनाये जायँ, उनम खाने-पीनेक चुर साम ी सं चत रहे। उनम सभी मनोवां छत पदाथ सुलभ ह तथा नगरवा सय को भी ब त सु र अ भोजनके लये देना चा हये। वह भी व धवत् स ारपूवक दया जाय, अवहेलना करके नह ॥ १३ १/२ ॥ ‘ऐसी व ा होनी चा हये, जससे सभी वणके लोग भलीभाँ त स ृ त हो स ान ा कर। काम और ोधके वशीभूत होकर भी कसीका अनादर नह करना चा हये॥ ‘जो श ी मनु य कमक आव क तैयारीम लगे ह , उनका तो बड़े-छोटेका खयाल रखकर वशेष पसे समादर करना चा हये॥ १५ १/२ ॥ ‘जो सेवक या कारीगर धन और भोजन आ दके ारा स ा नत कये जाते ह, वे सब प र मपूवक काय करते ह। उनका कया आ सारा काय सु र ढंगसे स होता है। उनका को◌इ काम बगड़ने नह पाता; अत: तुम सब लोग स च होकर ऐसा ही करो’॥ तब वे सब लोग व स जीसे मलकर बोले—‘आपको जैसा अभी है, उसके अनुसार ही करनेके लये अ ी व ा क जायगी। को◌इ भी काम बगड़ने नह पायेगा। आपने जैसा कहा है, हमलोग वैसा ही करगे। उसम को◌इ ु ट नह आने दगे’॥ १८ १/२ ॥ तदन र व स जीने सुम को बुलाकर कहा— ‘इस पृ ीपर जो-जो धा मक राजा, ा ण, य, वै और सह शू ह, उन सबको इस य म आनेके लये नम त करो॥ २० ॥ ‘सब देश के अ े लोग को स ारपूवक यहाँ ले आओ। म थलाके ामी शूरवीर महाभाग जनक स वादी नरेश ह। उनको अपना पुराना स ी जानकर तुम यं ही जाकर उ बड़े आदर-स ारके साथ यहाँ ले आओ; इसी लये पहले तु यह बात बता देता ँ ॥ २१-२२ ॥ ‘इसी कार काशीके राजा अपने ेही म ह और सदा य वचन बोलनेवाले ह। वे सदाचारी तथा देवता के तु तेज ी ह; अत: उ भी यं ही जाकर ले आओ॥ २३ ॥



‘के कयदेशके



बूढ़े राजा बड़े धमा ा ह, वे राज सह महाराज दशरथके शुर ह; अत: उ भी पु स हत यहाँ ले आओ॥ २४ ॥ ‘अंगदेशके ामी महाधनुधर राजा रोमपाद हमारे महाराजके म ह, अत: उ पु स हत यहाँ स ारपूवक ले आओ॥ २५ ॥ ‘कोशलराज भानुमा ो भी स ारपूवक ले आओ। मगधदेशके राजा ा को, जो शूरवीर, सवशा वशारद, परम उदार तथा पु ष म े ह, यं जाकर स ारपूवक बुला ले आओ॥ २६ १/२ ॥ ‘महाराजक आ ा लेकर तुम पूवदेशके े नरेश को तथा स ु-सौवीर एवं सुरा देशके भूपाल को यहाँ आनेके लये नम ण दो॥ २७ ॥ ‘द ण भारतके सम नरेश को भी आम त करो। इस भूतलपर और भी जो-जो नरेश महाराजके त ेह रखते ह, उन सबको सेवक और सगे-स य -स हत यथास व शी बुला लो। महाराजक आ ासे बड़भागी दूत ारा इन सबके पास बुलावा भेज दो’॥ २८-२९ ॥ व स का यह वचन सुनकर सुम ने तुरंत ही अ े पु ष को राजा क बुलाहटके लये जानेका आदेश दे दया॥ ३० ॥ परम बु मान् धमा ा सुम व स मु नक आ ासे खास-खास राजा को बुलानेके लये यं ही गये॥ ३१ ॥ य कमक व ाके लये जो सेवक नयु कये गये थे, उन सबने आकर उस समयतक य स ी जो-जो काय स हो गया था, उस सबक सूचना मह ष व स को दी॥ ३२ ॥ यह सुनकर वे ज े मु न बड़े स ए और उन सबसे बोले—‘भ पु षो! कसीको जो कु छ देना हो; उसे अवहेलना या अनादरपूवक नह देना चा हये; क अनादरपूवक दया आ दान दाताको न कर देता है—इसम संशय नह है’॥ ३३ १/२ ॥ तदन र कु छ दन के बाद राजा लोग महाराज दशरथके लये ब त-से र क भट लेकर अयो ाम आये॥ ३४ १/२ ॥ इससे व स जीको बड़ी स ता ◌इ। उ ने राजासे कहा—‘पु ष सह! तु ारी आ ासे राजालोग यहाँ आ गये। नृप े ! मने भी यथायो उन सबका स ार कया है॥



३५-३६ ॥ ‘हमारे कायकता ने पूणत: सावधान रहकर य के लये सारी तैयारी क है। अब तुम भी य करनेके लये य म पके समीप चलो॥ ३७ ॥ ‘राजे ! य म पम सब ओर सभी वा नीय व ुएँ एक कर दी गयी ह। आप यं चलकर देख। यह म प इतना शी तैयार कया गया है, मानो मनके संक से ही बन गया हो’॥ ३८ ॥ मु नवर व स तथा ऋ ृंग दोन के आदेशसे शुभ न वाले दनको राजा दशरथ य के लये राजभवनसे नकले॥ ३९ ॥ त ात् व स आ द सभी े ज ने य म पम जाकर ऋ ृंगको आगे करके शा ो व धके अनुसार य कमका आर कया। प य स हत ीमान् अवधनरेशने य क दी ा ली॥ ४०-४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म तेरहवाँ सग पूरा आ॥ १३॥



चौदहवाँ सग महाराज दशरथके ारा अ मेध य का सांगोपांग अनु ान



इधर वष पूरा होनेपर य स ी अ भूम लम मण करके लौट अया। फर सरयू नदीके उ र तटपर राजाका य आर आ॥ १ ॥ महामन ी राजा दशरथके उस अ मेध नामक महाय म ऋ ृंगको आगे करके े ा ण य स ी कम करने लगे॥ २ ॥ य करानेवाले सभी ा ण वेद के पारंगत व ान् थे; अत: वे ाय तथा व धके अनुसार सब कम का उ चत री तसे स ादन करते थे और शा के अनुसार कस मसे कस समय कौन-सी या करनी चा हये, इसको रण रखते ए ेक कमम वृ होते थे॥ ३ ॥ ा ण ने व (अ मेधके अंगभूत कम वशेष) का शा ( व ध, मीमांसा और क सू ) के अनुसार स ादन करके उपसद नामक इ वशेषका भी शा के अनुसार ही अनु ान कया। त ात् शा ीय उपदेशसे अ धक जो अ तदेशत: ा कम है, उस सबका भी व धवत् स ादन कया॥ ४ ॥ तदन र त त् कम के अंगभूत देवता का पूजन करके हषम भरे ए उन सभी मु नवर ने व धपूवक ात:सवन आ द (अथात् ात:सवन, मा नसवन तथा तृतीय सवन) कम कये॥ ५ ॥ इ देवताको व धपूवक ह व का भाग अ पत कया गया। पाप नवतक राजा सोम (सोमलता)* का रस नकाला गया। फर मश: मा नसवनका काय ार आ॥ ६ ॥ त ात् उन े ा ण ने शा से देख-भालकर मन ी राजा दशरथके तृतीय सवनकमका भी व धवत् स ादन कया॥ ७ ॥ ऋ ृंग आ द मह षय ने वहाँ अ ासकालम सीखे गये अ र से यु — र और वणसे स म ारा इ आ द े देवता का आवाहन कया॥ ८ ॥ मधुर एवं मनोरम सामगानके लयम गाये ए आ ान-म ारा देवता का आवाहन करके होता ने उ उनके यो ह व के भाग सम पत कये॥ ९ ॥



उस य म को◌इ अयो अथवा वपरीत आ त नह पड़ी। कह को◌इ भूल नह ◌इ —अनजानम भी को◌इ कम छू टने नह पाया; क वहाँ सारा कम म ो ारण-पूवक स होता दखायी देता था। मह षय ने सब कम ेमयु एवं न व प रपूण कये॥ १० ॥



य के दन म को◌इ भी ऋ ज् थका-माँदा या भूखा- ासा नह दखायी देता था। उसम को◌इ भी ा ण ऐसा नह था, जो व ान् न हो अथवा जसके सौसे कम श या सेवक रहे ह ॥ ११ ॥ उस य म त दन ा ण भोजन करते थे ( य और वै भी भोजन पाते थे) तथा शू को भी भोजन उपल होता था। तापस और मण भी भोजन करते थे॥ १२ ॥ बूढ़,े रोगी, याँ तथा ब े भी यथे भोजन पाते थे। भोजन इतना ा द होता था क नर र खाते रहनेपर भी कसीका मन नह भरता था॥ १३ ॥ ‘अ दो, नाना कारके व दो’ अ धका रय क ऐसी आ ा पाकर कायकता लोग बार ार वैसा ही करते थे॥ १४ ॥ वहाँ त दन व धवत् पके ए अ के ब त-से पवत -जैसे ढेर दखायी देते थे॥ १५ ॥ महामन ी राजा दशरथके उस य म नाना देश से आये ए ी-पु ष अ -पान ारा भलीभाँ त तृ कये गये थे॥ १६ ॥ े ा ण ‘भोजन व धवत् बनाया गया है। ब त ा द है’—ऐसा कहकर अ क शंसा करते थे। भोजन करके उठे ए लोग के मुखसे राजा सदा यही सुनते थे क ‘हमलोग खूब तृ ए। आपका क ाण हो’॥ १७ ॥ व -आभूषण से अलंकृत ए पु ष ा ण को भोजन परोसते थे और उन लोग क जो दूसरे लोग सहायता करते थे, उ ने भी वशु म णमय कु ल धारण कर रखे थे॥ १८ ॥ एक सवन समा करके दूसरे सवनके आर होनेसे पूव जो अवकाश मलता था, उसम उ म व ा धीर ा ण एक-दूसरेको जीतनेक इ ासे ब तेरे यु वाद उप त करते ए शा ाथ करते थे॥ १९ ॥ उस य म नयु ए कमकु शल ा ण त दन शा के अनुसार सब काय का स ादन करते थे॥ २० ॥



राजाके उस य म को◌इ भी सद ऐसा नह था, जो ाकरण आ द छह अंग का ाता न हो, जसने चय तका पालन न कया हो तथा जो ब ुत न हो। वहाँ को◌इ ऐसा ज नह था, जो वाद- ववादम कु शल न हो॥ २१ ॥ जब यूप खड़ा करनेका समय आया, तब बेलक लकड़ीके छ: यूप गाड़े गये। उतने ही खैरके यूप खड़े कये गये तथा पलाशके भी उतने ही यूप थे, जो ब न मत यूप के साथ खड़े कये गये थे॥ २२ ॥ बहेड़के े वृ का एक यूप अ मेध य के लये व हत है। देवदा के बने ए यूपका भी वधान है; परंतु उसक सं ा न एक है न छ:। देवदा के दो ही यूप व हत ह। दोन बाँह फै ला देनेपर जतनी दूरी होती है, उतनी ही दूरपर वे दोन ा पत कये गये थे॥ २३ ॥ य कु शल शा ा ण ने ही इन सब यूप का नमाण कराया था। उस य क शोभा बढ़ानेके लये उन सबम सोना जड़ा गया था॥ २४ ॥ पूव इ स यूप इ स-इ स अर १ (पाँच सौ चार अ ु ल) ऊँ चे बनाये गये थे। उन सबको पृथक् -पृथक् इ स कपड़ से अलंकृत कया गया था॥ २५ ॥ कारीगर ारा अ ी तरह बनाये गये वे सभी सु ढ़ यूप व धपूवक ा पत कये गये थे। वे सब-के -सब आठ कोण से सुशो भत थे। उनक आकृ त सु र एवं चकनी थी॥ २६ ॥ उ व से ढक दया गया था और पु -च नसे उनक पूजा क गयी थी। जैसे आकाशम तेज ी स षय क शोभा होती है, उसी कार य म पम वे दी मान् यूप सुशो भत होते थे॥ २७ ॥ सू म बताये अनुसार ठीक मापसे ◌इं ट तैयार करायी गयी थ । उन ◌इं ट के ारा य स ी श कमम कु शल ा ण ने अ का चयन कया था॥ २८ ॥ राज सह महाराज दशरथके य म चयन ारा स ा दत अ क कमका कु शल ा ण ारा शा व धके अनुसार ापना क गयी। उस अ क आकृ त दोन पंख और पु फै लाकर नीचे देखते ए पूवा भमुख खड़े ए ग ड़क -सी तीत होती थी। सोनेक ◌इं ट से पंखका नमाण होनेसे उस ग ड़के पंख सुवणमय दखायी देते थे। कृ त-अव ाम च -अ के छ: ार होते ह; कतु अ मेध य म उसका ार तीनगुना हो जाता है। इस लये वह ग ड़ाकृ त अ अठारह ार से यु थी॥ २९ ॥



वहाँ पूव यूप म शा व हत पशु, सप और प ी व भ देवता के उ े से बाँधे गये थे॥ ३० ॥ शा म कमम य य अ तथा कू म आ द जलचर ज ु जो वहाँ लाये गये थे, ऋ षय ने उन सबको शा व धके अनुसार पूव यूप म बाँध दया॥ ३१ ॥ उस समय उन यूप म तीन सौ पशु बँधे ए थे तथा राजा दशरथका वह उ म अ र भी वह बाँधा गया था॥ ३२ ॥ रानी कौस ाने वहाँ ो ण आ दके ारा सब ओरसे उस अ का सं ार करके बड़ी स ताके साथ तीन तलवार से उसका श कया॥ ३३ ॥ तदन र कौस ा देवीने सु र च से धमपालनक इ ा रखकर उस अ के नकट एक रात नवास कया॥ ३४ ॥ त ात् होता, अ यु और उ ाताने राजाक ( यजातीय) म हषी ‘कौस ा’, (वै जातीय ी) ‘वावाता’ तथा (शू जातीय ी) ‘प रवृ ’—इन सबके हाथसे उस अ का श कराया२॥ ३५ ॥ इसके बाद परम चतुर जते य ऋ े व धपूवक अ क के गूदेको नकालकर शा ो री तसे पकाया॥ ३६ ॥ त ात् उस गूदेक आ त दी गयी। राजा दशरथने अपने पापको दूर करनेके लये ठीक समयपर आकर व धपूवक उसके धूएँक ग को सूँघा॥ ३७ ॥ उस अ मेध य के अंगभूत जो-जो हवनीय पदाथ थे, उन सबको लेकर सम सोलह ऋ ज् ा ण अ म व धवत् आ त देने लगे॥ ३८ ॥ अ मेधके अ त र अ य म जो ह व दी जाती है, वह पाकरक शाखा म रखकर दी जाती है; परंतु अ मेध य का ह व बतक चटा◌इम रखकर देनेका नयम है॥ ३९ ॥ क सू और ा ण के ारा अ मेधके तीन सवनीय दन बताये गये ह। उनमसे थम दन जो सवन होता है, उसे चतु ोम (‘अ ोम’) कहा गया है। तीय दवस सा सवनको ‘उ ’ नाम दया गया है तथा तीसरे दन जस सवनका अनु ान होता है, उसे ‘अ तरा ’ कहते ह। उसम शा ीय से व हत ब त-से दूसरे-दूसरे तु भी स कये गये॥ ४०-४१ ॥



ो त ोम, आयु ोम य , दो बार अ तरा य , पाँचवाँ अ भ जत्, छठा व जत् तथा सातव-आठव आ ोयाम—ये सब-के -सब महा तु माने गये ह, जो अ मेधके उ र कालम स ा दत ए॥ ४२ ॥ अपने कु लक वृ करनेवाले राजा दशरथने य पूण होनेपर होताको द णा पम अयो ासे पूव दशाका सारा रा स प दया, अ युको प म दशा तथा ाको द ण दशाका रा दे दया॥ ४३ ॥ इसी तरह उ ाताको उ र दशाक सारी भू म दे दी। पूवकालम भगवान् ाजीने जसका अनु ान कया था, उस अ मेध नामक महाय म ऐसी ही द णाका वधान कया गया है*॥ ४४ ॥ इस कार व धपूवक य समा करके अपने कु लक वृ करनेवाले पु ष शरोम ण राजा दशरथने ऋ ज को सारी पृ ी दान कर दी॥ ४५ ॥ य दान देकर इ ाकु कु लन न ीमान् महाराज दशरथके हषक सीमा न रही, परंतु सम ऋ ज् उन न ाप नरेशसे इस कार बोले—॥ ४६ ॥ ‘महाराज! अके ले आप ही इस स ूण पृ ीक र ा करनेम समथ ह। हमम इसके पालनक श नह है; अत: भू मसे हमारा को◌इ योजन नह है॥ ४७ ॥ ‘भू मपाल! हम तो सदा वेद के ा ायम ही लगे रहते ह (इस भू मका पालन हमसे नह हो सकता); अत: आप हम यहाँ इस भू मका कु छ न य (मू ) ही दे द॥ ४८ ॥ ‘नृप े ! म ण, र , सुवण, गौ अथवा जो भी व ु यहाँ उप त हो, वही हम द णा पसे दे दी जये। इस धरतीसे हम को◌इ योजन नह है’॥ ४९ ॥ वेद के पारगामी व ान् ा ण के ऐसा कहनेपर राजाने उ दस लाख गौएँ दान क । दस करोड़ णमु ा तथा उससे चौगुनी रजतमु ा अ पत क ॥ तब उस सम ऋ ज ने एक साथ होकर वह सारा धन मु नवर ऋ ृंग तथा बु मान् व स को स प दया॥ ५१ १/२ ॥ तदन र उन दोन मह षय के सहयोगसे उस धनका ायपूवक बँटवारा करके वे सभी े ा ण मन-ही-मन बड़े स ए और बोले—महाराज! इस द णासे हमलोग ब त संतु ह’॥ ५२ १/२ ॥



इसके बाद एका च होकर राजा दशरथने अ ागत ा ण को एक करोड़ जा ूनद सुवणक मु ाएँ बाँट ॥ [सारा धन दे देनेके बाद जब कु छ नह बच रहा, तब] एक द र ा णने आकर राजासे धनक याचना क । उस समय उन रघुकुलन न नरेशने उसे अपने हाथका उ म आभूषण उतारकर दे दया॥ ५४ १/२ ॥ त ात् जब सभी ा ण व धवत् संतु हो गये, उस समय उनपर ेह रखनेवाले नरेशने उन सबको णाम कया। णाम करते समय उनक सारी इ याँ हषसे व ल हो रही थ ॥ ५५ १/२ ॥ पृ ीपर पड़े ए उन उदार नरवीरको ा ण ने नाना कारके आशीवाद दये॥ ५६ १/२ ॥ तदन र उस परम उ म य का पु फल पाकर राजा दशरथके मनम बड़ी स ता ◌इ। वह य उनके सब पाप का नाश करनेवाला तथा उ गलोकम प ँ चानेवाला था। साधारण राजा के लये उस य को आ दसे अ तक पूण कर लेना ब त ही क ठन था॥ य समा होनेपर राजा दशरथने ऋ ृंगसे कहा—‘उ म तका पालन करनेवाले मुनी र! अब जो कम मेरी कु लपर राको बढ़ानेवाला हो, उसका स ादन आपको करना चा हये’॥ ५८ १/२ ॥ तब ज े ऋ ृंग ‘तथा ु’ कहकर राजासे बोले—‘राजन्! आपके चार पु ह गे, जो इस कु लके भारको वहन करनेम समथ ह गे’॥ ५९ ॥ उनका यह मधुर वचन सुनकर मन और इ य को संयमम रखनेवाले महामना महाराज दशरथ उ णाम करके बड़े हषको ा ए तथा उ ने ऋ ृंगको पुन: पु ा करानेवाले कमका अनु ान करनेके लये े रत कया॥ ६० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म चौदहवाँ सग पूरा आ॥ १४॥ इस वषयम सू कारका वचन है—सोमं राजानं ष द नधाय...... ष र भह ात् अथात् ‘राजा सोम (सोमलता) को प रपर रखकर........प रसे कूँ चे। १. तथा च सू म्—‘चतु वश ु लयोऽर :’ अथात् एक अर चौबीस अ ु लके बराबर होता है। २. जा तके अनुसार नाम अलग-अलग होते ह। दशरथके तो कौस ा, कै के यी और सु म ा तीन य जा तक ही थ । *



जाप तने अ मेध य का अनु ान कया।)’ इस ु तके ारा यह सू चत होता है क पूवकालम ाजीने इस महाय का अनु ान कया था। इसम द णा पसे ेक दशाके दानका वधान क सू ारा कया गया है। यथा—‘ त दशं द णां ददा त ाची द ोतुद णा ण: ती य दी ु ातु:’॥ * ‘ जाप तर मेधमसृजत (



प हवाँ सग ऋ ृंग ारा राजा दशरथके पु े य का आर , देवता क ाथनासे ाजीका रावणके वधका उपाय ढूँ ढ़ नकालना तथा भगवान् व ुका देवता को आ ासन देना



महा ा ऋ ृंग बड़े मेधावी और वेद के ाता थे। उ ने थोड़ी देरतक ान लगाकर अपने भावी कत का न य कया। फर ानसे वरत हो वे राजासे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘महाराज!



म आपको पु क ा करानेके लये अथववेदके म से पु े नामक य क ँ गा। वेदो व धके अनुसार अनु ान करनेपर वह य अव सफल होगा’॥ २ ॥ यह कहकर उन तेज ी ऋ षने पु ा के उ े से पु े नामक य ार कया और ौत व धके अनुसार अ म आ त डाली॥ ३ ॥ तब देवता, स , ग व और मह षगण व धके अनुसार अपना-अपना भाग हण करनेके लये उस य म एक ए॥ ४ ॥ उस य -सभाम मश: एक होकर (दूसर क से अ रहते ए) सब देवता लोककता ाजीसे इस कार बोले—॥ ५ ॥ ‘भगवन्! रावण नामक रा स आपका कृ पा साद पाकर अपने बलसे हम सब लोग को बड़ा क दे रहा है। हमम इतनी श नह है क अपने परा मसे उसको दबा सक॥ ६ ॥ ‘ भो! आपने स होकर उसे वर दे दया है। तबसे हमलोग उस वरका सदा समादर करते ए उसके सारे अपराध को सहते चले आ रहे ह॥ ७ ॥ ‘उसने तीन लोक के ा णय का नाक दम कर रखा है। वह दु ा ा जनको कु छ ऊँ ची तम देखता है, उ के साथ ेष करने लगता है। देवराज इ को परा करनेक अ भलाषा रखता है॥ ८ ॥ ‘आपके वरदानसे मो हत होकर वह इतना उ हो गया है क ऋ षय , य , ग व , असुर तथा ा ण को पीड़ा देता और उनका अपमान करता फरता है॥ ९ ॥ ‘सूय उसको ताप नह प ँ चा सकते। वायु उसके पास जोरसे नह चलती तथा जसक उ ाल तरंग सदा ऊपर-नीचे होती रहती ह, वह समु भी रावणको देखकर भयके मारे -सा



हो जाता है—उसम क न नह होता॥ १० ॥ ‘वह रा स देखनेम भी बड़ा भयंकर है। उससे हम महान् भय ा हो रहा है; अत: भगवन्! उसके वधके लये आपको को◌इ-न-को◌इ उपाय अव करना चा हये’॥ ११ ॥ सम देवता के ऐसा कहनेपर ाजी कु छ सोचकर बोले—‘देवताओ! लो, उस दुरा ाके वधका उपाय मेरी समझम आ गया। उसने वर माँगते समय यह बात कही थी क म ग व, य , देवता तथा रा स के हाथसे न मारा जाऊँ । मने भी ‘तथा ु’ कहकर उसक ाथना ीकार कर ली॥ १२-१३ ॥ ‘मनु को तो वह तु समझता था, इस लये उनके त अवहेलना होनेके कारण उनसे अव होनेका वरदान नह माँगा। इस लये अब मनु के हाथसे ही उसका वध होगा। मनु के सवा दूसरा को◌इ उसक मृ ुका कारण नह है’॥ १४ ॥ ाजीक कही ◌इ यह य बात सुनकर उस समय सम देवता और मह ष बड़े स ए॥ १५ ॥ इसी समय महान् तेज ी जग त भगवान् व ु भी मेघके ऊपर त ए सूयक भाँ त ग ड़पर सवार हो वहाँ आ प ँ चे। उनके शरीरपर पीता र और हाथ म श , च एवं गदा आ द आयुध शोभा पा रहे थे। उनक दोन भुजा म तपाये ए सुवणके बने के यूर का शत हो रहे थे। उस समय स ूण देवता ने उनक व ना क और वे ाजीसे मलकर सावधानीके साथ सभाम वराजमान हो गये॥ १६-१७ १/२ ॥ तब सम देवता ने वनीत भावसे उनक ु त करके कहा—‘सव ापी परमे र! हम तीन लोक के हतक कामनासे आपके ऊपर एक महान् कायका भार दे रहे ह॥ १८ १/२ ॥ ‘ भो! अयो ाके राजा दशरथ धम , उदार तथा मह षय के समान तेज ी ह। उनके तीन रा नयाँ ह जो ी, ी और क त—इन तीन दे वय के समान ह। व ुदेव! आप अपने चार प बनाकर राजाक उन तीन रा नय के गभसे पु पम अवतार हण क जये। इस कार मनु पम कट होकर आप संसारके लये बल क क प रावणको, जो देवता के लये अव है, समरभू मम मार डा लये॥ १९—२१ १/२ ॥ ‘वह मूख रा स रावण अपने बढ़े ए परा मसे देवता, ग व, स तथा े मह षय को ब त क दे रहा है॥ २२ १/२ ॥



‘उस



रौ नशाचरने ऋ षय को तथा न नवनम ड़ा करनेवाले ग व और अ रा को भी गसे भू मपर गरा दया है॥ २३ १/२ ॥ ‘इस लये मु नय स हत हम सब स , ग व, य तथा देवता उसके वधके लये आपक शरणम आये ह॥ २४ १/२ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले देव! आप ही हम सब लोग क परमग त ह, अत: इन देव ो हय का वध करनेके लये आप मनु लोकम अवतार लेनेका न य क जये’॥ २५ १/२ ॥



उनके इस कार ु त करनेपर सवलोक-व त देव वर देवा धदेव भगवान् व ुने वहाँ एक ए उन सम ा आ द धमपरायण देवता से कहा—॥ २६-२७ ॥ ‘देवगण! तु ारा क ाण हो। तुम भयको ाग दो। म तु ारा हत करनेके लये रावणको पु , पौ , अमा , म ी और ब -ु बा व स हत यु म मार डालूँगा। देवता तथा ऋ षय को भय देनेवाले उस ू र एवं दुधष रा सका नाश करके म ारह हजार वष तक इस पृ ीका पालन करता आ मनु लोकम नवास क ँ गा’॥ २८-२९ १/२ ॥ देवता को ऐसा वर देकर मन ी भगवान् व ुने मनु लोकम पहले अपनी ज भू मके स म वचार कया॥ ३० १/२ ॥ इसके बाद कमलनयन ीह रने अपनेको चार प म कट करके राजा दशरथको पता बनानेका न य कया॥ ३१ १/२ ॥ तब देवता, ऋ ष, ग व, तथा अ रा ने द ु तय के ारा भगवान् मधुसूदनका वन कया॥ ३२ ॥ वे कहने लगे—‘ भो! रावण बड़ा उ है। उसका तेज अ उ और घम ब त बढ़ा-चढ़ा है। वह देवराज इ से सदा ेष रखता है। तीन लोक को लाता है, साधु और तप ी जन के लये तो वह ब त बड़ा क क है; अत: तापस को भय देनेवाले उस भयानक रा सक आप जड़ उखाड़ डा लये॥ ३३ ॥ ‘उपे ! सारे जग ो लानेवाले उस उ परा मी रावणको सेना और ब -ु बा व स हत न करके अपनी ाभा वक न ताके साथ अपने ही ारा सुर त उस



चर न वैकु धामम आ जाइये; जसे राग- ेष आ द दोष का कलुष कभी छू नह पाता है’॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पं हवाँ सग पूरा आ॥ १५॥



सोलहवाँ सग देवता का ीह रसे रावणवधके लये मनु पम अवतीण होनेको कहना, राजाके पु े य म अ कु से ाजाप पु षका कट होकर खीर अपण करना और उसे खाकर रा नय का गभवती होना



तदन र उन े देवता ारा इस कार रावणवधके लये नयु होनेपर सव ापी नारायणने रावणवधके उपायको जानते ए भी देवता से यह मधुर वचन कहा—॥ १ ॥ ‘देवगण! रा सराज रावणके वधके लये कौन-सा उपाय है, जसका आ य लेकर म मह षय के लये क क प उस नशाचरका वध क ँ ?’॥ २ ॥ उनके इस तरह पूछनेपर सब देवता उन अ वनाशी भगवान् व ुसे बोले—‘ भो! आप मनु का प धारण करके यु म रावणको मार डा लये॥ ३ ॥ ‘उस श ुदमन नशाचरने दीघकालतक ती तप ा क थी, जससे सब लोग के पूवज लोक ा ाजी उसपर स हो गये॥ ४ ॥ ‘उसपर संतु ए भगवान् ाने उस रा सको यह वर दया क तु नाना कारके ा णय मसे मनु के सवा और कसीसे भय नह है॥ ५ ॥ ‘पूवकालम वरदान लेते समय उस रा सने मनु को दुबल समझकर उनक अवहेलना कर दी थी। इस कार पतामहसे मले ए वरदानके कारण उसका घम बढ़ गया है॥ ६ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले देव! वह तीन लोक को पीड़ा देता और य का भी अपहरण कर लेता है; अत: उसका वध मनु के हाथसे ही न त आ है’॥ ७ ॥ सम जीवा ा को वशम रखनेवाले भगवान् व ुने देवता क यह बात सुनकर अवतारकालम राजा दशरथको ही पता बनानेक इ ा क ॥ ८ ॥ उसी समय वे श ुसूदन महातेज ी नरेश पु हीन होनेके कारण पु ा क इ ासे पु े य कर रहे थे॥ ९ ॥ उ पता बनानेका न य करके भगवान् व ु पतामहक अनुम त ले देवता और मह षय से पू जत हो वहाँसे अ धान हो गये॥ १० ॥



त ात् पु े य करते ए राजा दशरथके य म अ कु से एक वशालकाय पु ष कट आ। उसके शरीरम इतना काश था, जसक कह तुलना नह थी। उसका बलपरा म महान् था॥ ११ ॥ उसक अंगका काले रंगक थी। उसने अपने शरीरपर लाल व धारण कर रखा था। उसका मुख भी लाल ही था। उसक वाणीसे दु ु भके समान ग ीर न कट होती थी। उसके रोम, दाढ़ी-मूँछ और बड़े-बड़े के श चकने और सहके समान थे॥ १२ ॥ वह शुभ ल ण से स , द आभूषण से वभू षत, शैल शखरके समान ऊँ चा तथा गव ले सहके समान चलनेवाला था॥ १३ ॥ उसक आकृ त सूयके समान तेजोमयी थी। वह लत अ क लपट के समान देदी मान हो रहा था। उसके हाथम तपाये ए जा ूनद नामक सुवणक बनी ◌इ परात थी, जो चाँदीके ढ नसे ढँ क ◌इ थी। वह (परात) थाली ब त बड़ी थी और द खीरसे भरी ◌इ थी। उसे उस पु षने यं अपनी दोन भुजा पर इस तरह उठा रखा था, मानो को◌इ र सक अपनी यतमा प ीको अ म लये ए हो। वह अ तु परात मायामयी-सी जान पड़ती थी॥ १४-१५ ॥ उसने राजा दशरथक ओर देखकर कहा— ‘नरे र! मुझे जाप तलोकका पु ष जानो। म जाप तक ही आ ासे यहाँ आया ँ ’॥ १६ ॥ तब राजा दशरथने हाथ जोड़कर उससे कहा— ‘भगवन्! आपका ागत है। क हये, म आपक ा सेवा क ँ ?॥ १७ ॥ फर उस ाजाप पु षने पुन: यह बात कही— ‘राजन्! तुम देवता क आराधना करते हो; इसी लये तु आज यह व ु ा ◌इ है॥ १८ ॥ ‘नृप े ! यह देवता क बनायी ◌इ खीर है, जो संतानक ा करानेवाली है। तुम इसे हण करो। यह धन और आरो क भी वृ करनेवाली है॥ १९ ॥ ‘राजन्! यह खीर अपनी यो प य को दो और कहो—‘तुमलोग इसे खाओ।’ ऐसा करनेपर उनके गभसे आपको अनेक पु क ा होगी, जनके लये तुम यह य कर रहे हो’॥ २० ॥ राजाने स तापूवक ‘ब त अ ा’ कहकर उस द पु षक दी ◌इ देवा से प रपूण सोनेक थालीको लेकर उसे अपने म कपर धारण कया। फर उस अ तु एवं



यदशन पु षको णाम करके बड़े आन के साथ उसक प र मा क ॥ २१-२२ ॥ इस कार देवता क बनायी ◌इ उस खीरको पाकर राजा दशरथ ब त स ए, मानो नधनको धन मल गया हो। इसके बाद वह परम तेज ी अ तु पु ष अपना वह काम पूरा करके वह अ धान हो गया॥ २३-२४ ॥ उस समय राजाके अ :पुरक याँ हष ाससे बढ़ी ◌इ का मयी करण से का शत हो ठीक उसी तरह शोभा पाने लग , जैसे शर ालके नयना भराम च माक र र य से उ ा सत होनेवाला आकाश सुशो भत होता है॥ २५ ॥ राजा दशरथ वह खीर लेकर अ :पुरम गये और कौस ासे बोले—‘दे व! यह अपने लये पु क ा करानेवाली खीर हण करो’॥ २६ ॥ ऐसा कहकर नरेशने उस समय उस खीरका आधा भाग महारानी कौस ाको दे दया। फर बचे ए आधेका आधा भाग रानी सु म ाको अपण कया॥ २७ ॥ उन दोन को देनेके बाद जतनी खीर बच रही, उसका आधा भाग तो उ ने पु ा के उ े से कै के यीको दे दया। त ात् उस खीरका जो अव श आधा भाग था, उस अमृतोपम भागको महाबु मान् नरेशने कु छ सोच- वचारकर पुन: सु म ाको ही अ पत कर दया। इस कार राजाने अपनी सभी रा नय को अलग-अलग खीर बाँट दी॥ २८-२९ ॥ महाराजक उन सभी सा ी रा नय ने उनके हाथसे वह खीर पाकर अपना स ान समझा। उनके च म अ हष ास छा गया॥ ३० ॥ उस उ म खीरको खाकर महाराजक उन तीन सा ी महारा नय ने शी ही पृथक् -पृथक् गभ धारण कया। उनके वे गभ अ और सूयके समान तेज ी थे॥ ३१ ॥ तदन र अपनी उन रा नय को गभवती देख राजा दशरथको बड़ी स ता ◌इ। उ ने समझा, मेरा मनोरथ सफल हो गया। जैसे गम इ , स तथा ऋ षय से पू जत हो ीह र स होते ह, उसी कार भूतलम देवे , स तथा मह षय से स ा नत हो राजा दशरथ संतु ए थे॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म सोलहवाँ सग पूरा आ॥ १६॥



स हवाँ सग ाजीक



ेरणासे देवता आ दके ारा व भ



वानरयूथप तय क उ



जब भगवान् व ु महामन ी राजा दशरथके पु भावको ा हो गये, तब भगवान् ाजीने स ूण देवता से इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘देवगण! भगवान् व ु स त , वीर और हम सब लोग के हतैषी ह। तुमलोग उनके सहायक पसे ऐसे पु क सृ करो, जो बलवान्, इ ानुसार प धारण करनेम समथ, माया जाननेवाले, शूरवीर, वायुके समान वेगशाली, नी त , बु मान्, व ुतु परा मी, कसीसे परा न होनेवाले, तरह-तरहके उपाय के जानकार, द शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवता के समान सब कारक अ व ाके गुण से स ह ॥ ‘ धान- धान अ रा , ग व क य , य और नाग क क ा , रीछ क य , व ाध रय , क रय तथा वान रय के गभसे वानर पम अपने ही तु परा मी पु उ करो॥ ५-६ ॥ ‘मने पहलेसे ही ऋ राज जा वा सृ कर रखी है। एक बार म जँभा◌इ ले रहा था, उसी समय वह सहसा मेरे मुँहसे कट हो गया’॥ ७ ॥ भगवान् ाके ऐसा कहनेपर देवता ने उनक आ ा ीकार क और वानर पम अनेकानेक पु उ कये॥ ८ ॥ महा ा, ऋ ष, स , व ाधर, नाग और चारण ने भी वनम वचरनेवाले वानर-भालु के पम वीर पु को ज दया॥ ९ ॥ देवराज इ ने वानरराज वालीको पु पम उ कया, जो महे पवतके समान वशालकाय और ब ल था। तपनेवाल म े भगवान् सूयने सु ीवको ज दया॥ १० ॥ बृह तने तार नामक महाकाय वानरको उ कया, जो सम वानर सरदार म परम बु मान् और े था॥ ११ ॥ तेज ी वानर ग मादन कु बेरका पु था। व कमाने नल नामक महान् वानरको ज दया॥ १२ ॥



अ के समान तेज ी ीमान् नील सा ात् अ देवका ही पु था। वह परा मी वानर तेज, यश और बल-वीयम सबसे बढ़कर था॥ १३ ॥ प-वैभवसे स , सु र पवाले दोन अ श्वनीकु मार ने यं ही मै और वदको ज दया था॥ १४ ॥ व णने सुषेण नामक वानरको उ कया और महाबली पज ने शरभको ज दया॥ १५ ॥ हनुमान् नामवाले ऐ यशाली वानर वायुदेवताके औरस पु थे। उनका शरीर व के समान सु ढ़ था। वे तेज चलनेम ग ड़के समान थे॥ १६ ॥ सभी े वानर म वे सबसे अ धक बु मान् और बलवान् थे। इस कार क◌इ हजार वानर क उ ◌इ। वे सभी रावणका वध करनेके लये उ त रहते थे॥ १७ ॥ उनके बलक को◌इ सीमा नह थी। वे वीर, परा मी और इ ानुसार प धारण करनेवाले थे। गजराज और पवत के समान महाकाय तथा महाबली थे॥ १८ ॥ रीछ, वानर तथा गोलांगूल (लंगूर) जा तके वीर शी ही उ हो गये। जस देवताका जैसा प, वेष और परा म था, उससे उसीके समान पृथक् -पृथक् पु उ आ। लंगूर म जो देवता उ ए, वे देवाव ाक अपे ा भी कु छ अ धक परा मी थे॥ १९-२० ॥ कु छ वानर रीछ जा तक माता से तथा कु छ क रय से उ ए। देवता, मह ष, ग व, ग ड़, यश ी य , नाग, क ु ष, स , व ाधर तथा सप जा तके ब सं क य ने अ हषम भरकर सह पु उ कये॥ २१-२२ ॥ देवता का गुण गानेवाले वनवासी चारण ने ब त-से वीर, वशालकाय वानरपु उ कये। वे सब जंगली फल-मूल खानेवाले थे॥ २३ ॥ मु -मु अ रा , व ाध रय , नागक ा तथा ग व-प य के गभसे भी इ ानुसार प और बलसे यु तथा े ानुसार सव वचरण करनेम समथ वानरपु उ ए॥ २४ ॥ वे दप और बलम सह और ा के समान थे। प रक च ान से हार करते और पवत उठाकर लड़ते थे॥ २५ ॥



वे सभी नख और दाँत से भी श का काम लेते थे। उन सबको सब कारके अ श का ान था। वे पवत को भी हला सकते थे और रभावसे खड़े ए वृ को भी तोड़ डालनेक श रखते थे॥ २६ ॥ अपने वेगसे स रता के ामी समु को भी ु कर सकते थे। उनम पैर से पृ ीको वदीण कर डालनेक श थी। वे महासागर को भी लाँघ सकते थे॥ २७ ॥ वे चाह तो आकाशम घुस जायँ, बादल को हाथ से पकड़ ल तथा वनम वेगसे चलते ए मतवाले गजराज को भी ब ी बना ल॥ २८ ॥ घोर श करते ए आकाशम उड़नेवाले प य को भी वे अपने सहनादसे गरा सकते थे। ऐसे बलशाली और इ ानुसार प धारण करनेवाले महाकाय वानर यूथप त करोड़ क सं ाम उ ए थे। वे वानर के धान यूथ के भी यूथप त थे॥ २९-३० ॥ उन यूथप तय ने भी ऐसे वीर वानर को उ कया था, जो यूथप से भी े थे। वे और ही कारके वानर थे—इन ाकृ त वानर से वल ण थे। उनमसे सह वानर-यूथप त ऋ वान् पवतके शखर पर नवास करने लगे॥ ३१ ॥ दूसर ने नाना कारके पवत और जंगल का आ य लया। इ कु मार वाली और सूयन न सु ीव ये दोन भा◌इ थे। सम वानरयूथप त उन दोन भाइय क सेवाम उप त रहते थे। इसी कार वे नल-नील, हनुमान् तथा अ वानर सरदार का आ य लेते थे। वे सभी ग ड़के समान बलशाली तथा यु क कलाम नपुण थे। वे वनम वचरते समय सह, ा और बड़े-बड़े नाग आ द सम वनज ु को र द डालते थे॥ महाबा वाली महान् बलसे स तथा वशेष परा मी थे। उ ने अपने बा बलसे रीछ , लंगूर तथा अ वानर क र ा क थी॥ ३५ ॥ उन सबके शरीर और पाथ सूचक ल ण नाना कारके थे। वे शूरवीर वानर पवत, वन और समु स हत सम भूम लम फै ल गये॥ ३६ ॥ वे वानरयूथप त मेघसमूह तथा पवत शखरके समान वशालकाय थे। उनका बल महान् था। उनके शरीर और प भयंकर थे। भगवान् ीरामक सहायताके लये कट ए उन वानर वीर से यह सारी पृ ी भर गयी थी॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म स हवाँ सग पूरा आ॥ १७॥



अठारहवाँ सग राजा तथा ऋ ृंगको वदा करके राजा दशरथका रा नय स हत पुरीम आगमन, ीराम, भरत, ल ण तथा श ु के ज , सं ार, शील- भाव एवं स ण ु , राजाके दरबारम व ा म का आगमन और उनका स ार



महामना राजा दशरथका य समा होनेपर देवतालोग अपना-अपना भाग ले जैसे आये थे, वैसे लौट गये॥ १ ॥ दी ाका नयम समा होनेपर राजा अपनी प य को साथ ले सेवक, सै नक और सवा रय स हत पुरीम व ए॥ २ ॥ भ - भ देश के राजा भी (जो उनके य म स लत होनेके लये आये थे) महाराज दशरथ ारा यथावत् स ा नत हो मु नवर व स तथा ऋ ृंगको णाम करके स तापूवक अपने-अपने देशको चले गये॥ ३ ॥ अयो ापुरीसे अपने घरको जाते ए उन ीमान् नरेश के शु सै नक अ हषम होनेके कारण बड़ी शोभा पा रहे थे॥ ४ ॥ उन राजा के वदा हो जानेपर ीमान् महाराज दशरथने े ा ण को आगे करके अपनी पुरीम वेश कया॥ ५ ॥ राजा ारा अ स ा नत हो ऋ ृंग मु न भी शा ाके साथ अपने ानको चले गये। उस समय सेवक स हत बु मान् महाराज दशरथ कु छ दूरतक उनके पीछे-पीछे उ प ँ चाने गये थे॥ ६ ॥ इस कार उन सब अ त थय को वदा करके सफलमनोरथ ए राजा दशरथ पु ो क ती ा करते ए वहाँ बड़े सुखसे रहने लगे॥ ७ ॥ य -समा के प ात् जब छ: ऋतुएँ बीत गय , तब बारहव मासम चै के शु प क नवमी त थको पुनवसु न एवं कक ल म कौस ादेवीने द ल ण से यु , सवलोकव त जगदी र ीरामको ज दया। उस समय (सूय, मंगल, श न, गु और शु — ये) पाँच ह अपने-अपने उ ानम व मान थे तथा ल म च माके साथ बृह त वराजमान थे॥



वे व ु प ह व या खीरके आधे भागसे कट ए थे। कौस ाके महाभाग पु ीराम इ ाकु कु लका आन बढ़ानेवाले थे। उनके ने म कु छ-कु छ ला लमा थी। उनके ओठ लाल, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और र दु ु भके श के समान ग ीर था॥ ११ ॥ उस अ मततेज ी पु से महारानी कौस ाक बड़ी शोभा ◌इ, ठीक उसी तरह, जैसे सुर े व पा ण इ से देवमाता अ द त सुशो भत ◌इ थ ॥ १२ ॥ तदन र कै के यीसे स परा मी भरतका ज आ, जो सा ात् भगवान् व ुके ( पभूत पायस— खीरके ) चतुथाशसे भी ून भागसे कट ए थे। ये सम स ण ु से स थे॥ १३ ॥ इसके बाद रानी सु म ाने ल ण और श ु —इन दो पु को ज दया। ये दोन वीर सा ात् भगवान् व ुके अधभागसे स और सब कारके अ क व ाम कु शल थे॥ १४ ॥



भरत सदा स च रहते थे। उनका ज पु न तथा मीन ल म आ था। सु म ाके दोन पु आ ेषा न और ककल म उ ए थे। उस समय सूय अपने उ ानम वराजमान थे॥ १५ ॥ राजा दशरथके ये चार महामन ी पु पृथक् -पृथक् गुण से स और सु र थे। ये भा पदा नामक चार तार के समान का मान् थे१॥ १६ ॥ इनके ज के समय ग व ने मधुर गीत गाये। अ रा ने नृ कया। देवता क दु ु भयाँ बजने लग तथा आकाशसे फू ल क वषा होने लगी॥ १७ ॥ अयो ाम ब त बड़ा उ व आ। मनु क भारी भीड़ एक ◌इ। ग लयाँ और सड़क लोग से खचाखच भरी थ । ब त-से नट और नतक वहाँ अपनी कलाएँ दखा रहे थे॥ १८ ॥ वहाँ सब ओर गाने-बजानेवाले तथा दूसरे लोग के श गूँज रहे थे। दीन-दु: खय के लये लुटाये गये सब कारके र वहाँ बखरे पड़े थे॥ १९ ॥ राजा दशरथने सूत, मागध और व ीजन को देनेयो पुर ार दये तथा ा ण को धन एवं सह गोधन दान कये॥ २० ॥ ारह दन बीतनेपर महाराजने बालक का नामकरण-सं ार कया२। उस समय मह ष व स ने स ताके साथ सबके नाम रखे। उ ने े पु का नाम ‘राम’ रखा। ीराम महा ा



(परमा



ा) थे। कै के यीकु मारका नाम भरत तथा सु म ाके एक पु का नाम ल ण और दूसरेका श ु न त कया॥ २१-२२ ॥ राजाने ा ण , पुरवा सय तथा जनपदवा सय को भी भोजन कराया। ा ण को ब तसे उ ल र समूह दान कये॥ २३ ॥ मह ष व स ने समय-समयपर राजासे उन बालक के जातकम आ द सभी सं ार करवाये थे। उन सबम ीरामच जी े होनेके साथ ही अपने कु लक क त- जाको फहरानेवाली पताकाके समान थे। वे अपने पताक स ताको बढ़ानेवाले थे॥ २४ ॥ सभी भूत के लये वे य ू ाजीके समान वशेष य थे। राजाके सभी पु वेद के व ान् और शूरवीर थे। सब-के -सब लोक हतकारी काय म संल रहते थे॥ २५ ॥ सभी ानवान् और सम स णु से स थे। उनम भी स परा मी ीरामच जी सबसे अ धक तेज ी और सब लोग के वशेष य थे। वे न ल च माके समान शोभा पाते थे। उ ने हाथीके कं धे और घोड़ेक पीठपर बैठने तथा रथ हाँकनेक कलाम भी स ानपूण ान ा कया था। वे सदा धनुवदका अ ास करते और पताजीक सेवाम लगे रहते थे॥ ल ीक वृ करनेवाले ल ण बा ाव ासे ही ीरामच जीके त अ अनुराग रखते थे। वे अपने बड़े भा◌इ लोका भराम ीरामका सदा ही य करते थे और शरीरसे भी उनक सेवाम ही जुटे रहते थे॥ शोभास ल ण ीरामच जीके लये बाहर वचरनेवाले दूसरे ाणके समान थे। पु षो म ीरामको उनके बना न द भी नह आती थी। य द उनके पास उ म भोजन लाया जाता तो ीरामच जी उसमसे ल णको दये बना नह खाते थे॥ ३० १/२ ॥ जब ीरामच जी घोड़ेपर चढ़कर शकार खेलनेके लये जाते, उस समय ल ण धनुष लेकर उनके शरीरक र ा करते ए पीछे-पीछे जाते थे। इसी कार ल णके छोटे भा◌इ श ु भरतजीको ाण से भी अ धक य थे और वे भी भरतजीको सदा ाण से भी अ धक य मानते थे॥ ३१-३२ १/२ ॥ इन चार महान् भा शाली य पु से राजा दशरथको बड़ी स ता ा होती थी, ठीक वैसे ही जैसे चार देवता ( द ाल ) से ाजीको स ता होती है॥ ३३ १/२ ॥



वे सब बालक जब समझदार ए, तब सम स णु से स हो गये। वे सभी ल ाशील, यश ी, सव और दूरदश थे। ऐसे भावशाली और अ तेज ी उन सभी पु क ा से राजा दशरथ लोके र ाक भाँ त ब त स थे॥ ३४-३५ १/२ ॥ वे पु ष सह राजकु मार त दन वेद के ा ाय, पताक सेवा तथा धनुवदके अ ासम द - च रहते थे॥ ३६ १/२ ॥ एक दन धमा ा राजा दशरथ पुरो हत तथा ब -ु बा व के साथ बैठकर पु के ववाहके वषयम वचार कर रहे थे। म य के बीचम वचार करते ए उन महामना नरेशके यहाँ महातेज ी महामु न व ा म पधारे॥ ३७-३८ १/२ ॥ वे राजासे मलना चाहते थे। उ ने ारपाल से कहा—‘तुमलोग शी जाकर महाराजको यह सूचना दो क कु शकवंशी गा धपु व ा म आये ह’॥ ३९ १/२ ॥ उनक यह बात सुनकर वे ारपाल दौड़े ए राजाके दरबारम गये। वे सब व ा म के उस वा से े रत होकर मन-ही-मन घबराये ए थे॥ ४० १/२ ॥ राजाके दरबारम प ँ चकर उ ने इ ाकु कु ल-न न अवधनरेशसे कहा—‘महाराज! मह ष व ा म पधारे ह’॥ ४१ १/२ ॥ उनक वह बात सुनकर राजा सावधान हो गये। उ ने पुरो हतको साथ लेकर बड़े हषके साथ उनक अगवानी क , मानो देवराज इ ाजीका ागत कर रहे ह ॥ ४२ १/२ ॥ व ा म जी कठोर तका पालन करनेवाले तप ी थे। वे अपने तेजसे लत हो रहे थे। उनका दशन करके राजाका मुख स तासे खल उठा और उ ने मह षको अ नवेदन कया॥ ४३ १/२ ॥ राजाका वह अ शा ीय व धके अनुसार ीकार करके मह षने उनसे कु शल-मंगल पूछा॥ ४४ १/२ ॥ धमा ा व ा म ने मश: राजाके नगर, खजाना, रा , ब ु-बा व तथा म वग आ दके वषयम कु शल कया—॥ ४५ १/२ ॥ ‘राजन्! आपके रा क सीमाके नकट रहनेवाले श ु राजा आपके सम नतम क तो ह? आपने उनपर वजय तो ा क है न? आपके य याग आ द देवकम और अ त थ-स ार



आ द मनु कम तो अ ी तरह स होते ह न?’॥ ४६ १/२ ॥ इसके बाद महाभाग मु नवर व ा म ने व स जी तथा अ ा ऋ षय से मलकर उन सबका यथावत् कु शल-समाचार पूछा॥ ४७ १/२ ॥ फर वे सब लोग स च होकर राजाके दरबारम गये और उनके ारा पू जत हो यथायो आसन पर बैठे॥ ४८ १/२ ॥ तदन र स च परम उदार राजा दशरथने पुल कत होकर महामु न व ा म क शंसा करते ए कहा—॥ ४९ १/२ ॥ ‘महामुने! जैसे कसी मरणधमा मनु को अमृतक ा हो जाय, नजल देशम पानी बरस जाय, कसी संतानहीनको अपने अनु प प ीके गभसे पु ा हो जाय, खोयी ◌इ न ध मल जाय तथा कसी महान् उ वसे हषका उदय हो, उसी कार आपका यहाँ शुभागमन आ है। ऐसा म मानता ँ । आपका ागत है। आपके मनम कौन-सी उ म कामना है, जसको म हषके साथ पूण क ँ ? ५०—५२ ॥ ‘ न्! आप मुझसे सब कारक सेवा लेने यो उ म पा ह। मानद! मेरा अहोभा है, जो आपने यहाँतक पधारनेका क उठाया। आज मेरा ज सफल और जीवन ध हो गया॥ ५३ ॥ ‘मेरी बीती ◌इ रात सु र भात दे गयी, जससे मने आज आप ा ण शरोम णका दशन कया। पूवकालम आप राज ष श से उपल त होते थे, फर तप ासे अपनी अ तु भाको का शत करके आपने षका पद पाया; अत: आप राज ष और ष दोन ही प म मेरे पूजनीय ह। आपका जो यहाँ मेरे सम शुभागमन आ है, यह परम प व और अ तु है॥ ‘‘ भो! आपके दशनसे आज मेरा घर तीथ हो गया। म अपने-आपको पु े क या ा करके आया आ मानता ँ । बताइये, आप ा चाहते ह? आपके शुभागमनका शुभ उ े ा है?॥ ५६ ॥ ‘उ म तका पालन करनेवाले महष! म चाहता ँ क आपक कृ पासे अनुगृहीत होकर आपके अभी मनोरथको जान लूँ और अपने अ ुदयके लये उसक पू त क ँ । ‘काय स होगा या नह ’ ऐसे संशयको अपने मनम ान न दी जये॥ ५७ ॥



‘आप जो भी आ



ा दगे, म उसका पूण पसे पालन क ँ गा; क स ाननीय अ त थ होनेके नाते आप मुझ गृह के लये देवता ह। न्! आज आपके आगमनसे मुझे स ूण धम का उ म फल ा हो गया। यह मेरे महान् अ ुदयका अवसर आया है’॥ ५८ ॥ मन ी नरेशके कहे ए ये वनययु वचन, जो दय और कान को सुख देनेवाले थे, सुनकर व ात गुण और यशवाले, शम-दम आ द स णु से स मह ष व ा म ब त स ए॥ ५९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म अठारहवाँ सग पूरा आ॥ १८॥ १. ो पदा कहते ह—भा पदा न को। उसके दो भेद ह—पूवभा पदा और उ रभा पदा। इन दोन म दो-दो तारे ह। यह बात ौ तषशा म स है। (रा० त०) २. रामायण तलकके नमाताने मूलके एकादशाह श को सूतकके अ म दनका उपल ण माना है। उनका कहना है क य द ऐसा न माना जाय तो ‘ य ादशाहं सूतकम्’ ( यको बारह दन का सूतक लगता है) इस ृ तवा से वरोध होगा; अत: रामज के बारह दन बीत जानेके बाद तेरहव दन राजाने नामकरण-सं ार कया—ऐसा मानना चा हये।



उ ीसवाँ सग व ा म के मुखसे ीरामको साथ ले जानेक माँग सुनकर राजा दशरथका द:ु खत एवं मू त होना



नृप े महाराज दशरथका यह अ तु व ारसे यु वचन सुनकर महातेज ी व ा म पुल कत हो उठे और इस कार बोले॥ १ ॥ राज सह! ये बात आपके ही यो ह। इस पृ ीपर दूसरेके मुखसे ऐसे उदार वचन नकलनेक स ावना नह है। न हो, आप महान् कु लम उ ह और व स -जैसे ष आपके उपदेशक ह॥ २ ॥ ‘अ ा, अब जो बात मेरे दयम है, उसे सु नये। नृप े ! सुनकर उस कायको अव पूण करनेका न य क जये। आपने मेरा काय स करनेक त ा क है। इस त ाको स कर दखाइये॥ ३ ॥ ‘पु ष वर! म स के लये एक नयमका अनु ान करता ँ । उसम इ ानुसार प धारण करनेवाले दो रा स व डाल रहे ह॥ ४ ॥ ‘मेरे इस नयमका अ धकांश काय पूण हो चुका है। अब उसक समा के समय वे दो रा स आ धमके ह। उनके नाम ह मारीच और सुबा । वे दोन बलवान् और सु श त ह॥ ५ ॥ ‘उ



ने मेरी य वेदीपर र और मांसक वषा कर दी है। इस कार उस समा ाय नयमम व पड़ जानेके कारण मेरा प र म थ गया और म उ ाहहीन होकर उस ानसे चला आया॥ ६ १/२ ॥ ‘पृ ीनाथ! उनके ऊपर अपने ोधका योग क ँ — उ शाप दे दूँ, ऐसा वचार मेरे मनम नह आता है॥ ‘ क वह नयम ही ऐसा है, जसको आर कर देनेपर कसीको शाप नह दया जाता; अत: नृप े ! आप अपने काकप धारी, स परा मी, शूरवीर े पु ीरामको मुझे दे द॥ ८ १/२ ॥



‘ये मुझसे सुर



त रहकर अपने द तेजसे उन व कारी रा स का नाश करनेम समथ ह। म इ अनेक कारका ेय दान क ँ गा, इसम संशय नह है॥ ‘उस ेयको पाकर ये तीन लोक म व ात ह गे। ीरामके सामने आकर वे दोन रा स कसी तरह ठहर नह सकते॥ ११ ॥ ‘इन रघुन नके सवा दूसरा को◌इ पु ष उन रा स को मारनेका साहस नह कर सकता। नृप े ! अपने बलका घम रखनेवाले वे दोन पापी नशाचर कालपाशके अधीन हो गये ह; अत: महा ा ीरामके सामने नह टक सकते॥ १२ १/२ ॥ ‘भूपाल! आप पु वषयक ेहको सामने न लाइये। म आपसे त ापूवक कहता ँ क उन दोन रा स को इनके हाथसे मरा आ ही सम झये॥ १३ १/२ ॥ ‘स परा मी महा ा ीराम ा ह—यह म जानता ँ । महातेज ी व स जी तथा ये अ तप ी भी जानते ह॥ १४ १/२ ॥ ‘राजे ! य द आप इस भूम लम धम-लाभ और उ म यशको र रखना चाहते ह तो ीरामको मुझे दे दी जये॥ १५ १/२ ॥ ‘ककु न न! य द व स आ द आपके सभी म ी आपको अनुम त द तो आप ीरामको मेरे साथ वदा कर दी जये॥ १६ १/२ ॥ ‘मुझे रामको ले जाना अभी है। ये भी बड़े होनेके कारण अब आस र हत हो गये ह; अत: आप य के अव श दस दन के लये अपने पु कमलनयन ीरामको मुझे दे दी जये॥ १७ १/२ ॥ ‘रघुन न! आप ऐसा क जये जससे मेरे य का समय तीत न हो जाय। आपका क ाण हो। आप अपने मनको शोक और च ाम न डा लये’॥ १८ १/२ ॥ यह धम और अथसे यु वचन कहकर धमा ा, महातेज ी, परमबु मान् व ा म जी चुप हो गये॥ व ा म का यह शुभ वचन सुनकर महाराज दशरथको पु - वयोगक आश ासे महान् दु:ख आ। वे उससे पी ड़त हो सहसा काँप उठे और बेहोश हो गये॥ २० १/२ ॥



थोड़ी देर बाद जब उ होश आ, तब वे भयभीत हो वषाद करने लगे। व ा म मु नका वचन राजाके दय और मनको वदीण करनेवाला था। उसे सुनकर उनके मनम बड़ी था ◌इ। वे महामन ी महाराज अपने आसनसे वच लत हो मू त हो गये॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ १९॥



बीसवाँ सग राजा दशरथका व ा म को अपना पु देनेसे इनकार करना और व ा म का कु पत होना



व ा म जीका वचन सुनकर नृप े दशरथ दो घड़ीके लये सं ाशू -से हो गये। फर सचेत होकर इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘महष! मेरा कमलनयन राम अभी पूरे सोलह वषका भी नह आ है। म इसम रा स के साथ यु करनेक यो ता नह देखता॥ २ ॥ ‘यह मेरी अ ौ हणी सेना है, जसका म पालक और ामी भी ँ । इस सेनाके साथ म यं ही चलकर उन नशाचर के साथ यु क ँ गा॥ ३ ॥ ‘ये मेरे शूरवीर सै नक, जो अ व ाम कु शल और परा मी ह, रा स के साथ जूझनेक यो ता रखते ह; अत: इ ही ले जाइये; रामको ले जाना उ चत नह होगा॥ ४ ॥ ‘म यं ही हाथम धनुष ले यु के मुहानेपर रहकर आपके य क र ा क ँ गा और जबतक इस शरीरम ाण रहगे तबतक नशाचर के साथ लड़ता र ँ गा॥ ५ ॥ ‘मेरे ारा सुर त होकर आपका नयमानु ान बना कसी व -बाधाके पूण होगा; अत: म ही वहाँ आपके साथ चलूँगा। आप रामको न ले जाइये॥ ६ ॥ ‘मेरा राम अभी बालक है। इसने अभीतक यु क व ा ही नह सीखी है। यह दूसरेके बलाबलको नह जानता है। न तो यह अ -बलसे स है और न यु क कलाम नपुण ही॥ ७॥ ‘अत: यह रा स से यु करने यो नह है; क रा स मायासे—छल-कपटसे यु करते ह। इसके सवा रामसे वयोग हो जानेपर म दो घड़ी भी जी वत नह रह सकता; मु न े ! इस लये आप मेरे रामको न ले जाइये। अथवा न्! य द आपक इ ा रामको ही ले जानेक हो तो चतुर णी सेनाके साथ म भी चलता ँ । मेरे साथ इसे ले च लये॥ ८-९ १/२ ॥ ‘कु शकन न! मेरी अव ा साठ हजार वषक हो गयी। इस बुढ़ापेम बड़ी क ठना◌इसे मुझे पु क ा ◌इ है, अत: आप रामको न ले जाइये॥ १० १/२ ॥



‘धम



धान राम मेरे चार पु म े है; इस लये उसपर मेरा ेम सबसे अ धक है; अत: आप रामको न ले जाइये॥ ११ १/२ ॥ ‘वे रा स कै से परा मी ह, कसके पु ह और कौन ह? उनका डीलडौल कै सा है? मुनी र! उनक र ा कौन करते ह? राम उन रा स का सामना कै से कर सकता है? ॥ १२-१३ ॥ ‘ न्! मेरे सै नक को या यं मुझे ही उन मायायोधी रा स का तीकार कै से करना चा हये? भगवन्! ये सारी बात आप मुझे बताइये। उन दु के साथ यु म मुझे कै से खड़ा होना चा हये? क रा स बड़े बला भमानी होते ह’॥ १४ १/२ ॥ राजा दशरथक इस बातको सुनकर व ा म जी बोले—‘महाराज! रावण नामसे स एक रा स है, जो मह ष पुल के कु लम उ आ है। उसे ाजीसे मुँहमाँगा वरदान ा आ है; जससे महान् बलशाली और महापरा मी होकर ब सं क रा स से घरा आ वह नशाचर तीन लोक के नवा सय को अ क दे रहा है। सुना जाता है क रा सराज रावण व वा मु नका औरस पु तथा सा ात् कु बेरका भा◌इ है॥ ‘वह महाबली नशाचर इ ा रहते ए भी यं आकर य म व नह डालता (अपने लये इसे तु काय समझता है); इस लये उसीक ेरणासे दो महान् बलवान् रा स मारीच और सुबा य म व डाला करते ह’॥ १८-१९ ॥ व ा म मु नके ऐसा कहनेपर राजा दशरथ उनसे इस कार बोले—‘मु नवर! म उस दुरा ा रावणके सामने यु म नह ठहर सकता॥ २० ॥ ‘धम महष! आप मेरे पु पर तथा मुझ म भागी दशरथपर भी कृ पा क जये; क आप मेरे देवता तथा गु ह॥ २१ ॥ ‘यु म रावणका वेग तो देवता, दानव, ग व, य , ग ड़ और नाग भी नह सह सकते; फर मनु क तो बात ही ा है॥ २२ ॥ ‘मु न े ! रावण समरांगणम बलवान के बलका अपहरण कर लेता है, अत: म अपनी सेना और पु के साथ रहकर भी उससे तथा उसके सै नक से यु करनेम असमथ ँ ॥ २३ १/२ ॥ ‘ न्! यह मेरा देवोपम पु यु क कलासे सवथा अन भ है। इसक अव ा भी अभी ब त थोड़ी है; इस लये म इसे कसी तरह नह दूँगा॥ २४ १/२ ॥



‘मारीच



और सुबा सु स दै सु और उपसु के पु ह। वे दोन यु म यमराजके समान ह। य द वे ही आपके य म व डालनेवाले ह तो म उनका सामना करनेके लये अपने पु को नह दूँगा; क वे दोन बल परा मी और यु वषयक उ म श ासे स ह॥ २५-२६ ॥ ‘म उन दोन मसे कसी एकके साथ यु करनेके लये अपने सु द के साथ चलूँगा; अ था—य द आप मुझे न ले जाना चाह तो म भा◌इ-ब ु स हत आपसे अनुनय- वनय क ँ गा क आप रामको छोड़ द’॥ २७ ॥ राजा दशरथके ऐसे वचन सुनकर व वर कु शकन न व ा म के मनम महान् ोधका आवेश हो आया, जैसे य शालाम अ को भलीभाँ त आ त देकर घीक धारासे अ भ ष कर दया जाय और वह लत हो उठे , उसी तरह अ तु तेज ी मह ष व ा म भी ोधसे जल उठे ॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म बीसवाँ सग पूरा आ॥ २०॥







सवाँ सग



व ा म के रोषपूण वचन तथा व स का राजा दशरथको समझाना



राजा दशरथक बातके एक-एक अ रम पु के त ेह भरा आ था, उसे सुनकर मह ष व ा म कु पत हो उनसे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘राजन्! पहले मेरी माँगी ◌इ व ुके देनेक त ा करके अब तुम उसे तोड़ना चाहते हो। त ाका यह ाग रघुवं शय के यो तो नह है। यह बताव तो इस कु लके वनाशका सूचक है॥ २ ॥ ‘नरे र! य द तु ऐसा ही उ चत तीत होता है तो म जैसे आया था, वैसे ही लौट जाऊँ गा। ककु कु लके र ! अब तुम अपनी त ा झूठी करके हतैषी सु द से घरे रहकर सुखी रहो’॥ ३ ॥ बु मान् व ा म के कु पत होते ही सारी पृ ी काँप उठी और देवता के मनम महान् भय समा गया॥ ४ ॥ उनके रोषसे सारे संसारको आ जान उ म तका पालन करनेवाले धीर च मह ष व स ने राजासे इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘महाराज! आप इ ाकु वंशी राजा के कु लम सा ात् दूसरे धमके समान उ ए ह। धैयवान्, उ म तके पालक तथा ीस ह। आपको अपने धमका प र ाग नह करना चा हये॥ ६ ॥ ‘‘रघुकुलभूषण दशरथ बड़े धमा ा ह’ यह बात तीन लोक म स है। अत: आप अपने धमका ही पालन क जये; अधमका भार सरपर न उठाइये॥ ७ ॥ ‘म अमुक काय क ँ गा’—ऐसी त ा करके भी जो उस वचनका पालन नह करता, उसके य -यागा द इ तथा बावली-तालाब बनवाने आ द पूत कम के पु का नाश हो जाता है, अत: आप ीरामको व ा म जीके साथ भेज दी जये॥ ८ ॥ ‘ये अ व ा जानते ह या न जानते ह , रा स इनका सामना नह कर सकते। जैसे लत अ ारा सुर त अमृतपर को◌इ हाथ नह लगा सकता, उसी कार कु शकन न व ा म से सुर त ए ीरामका वे रा स कु छ भी बगाड़ नह सकते॥ ९ ॥



‘ये



ीराम तथा मह ष व ा म सा ात् धमक मू त ह। ये बलवान म े ह। व ाके ारा ही ये संसारम सबसे बढ़े-चढ़े ह। तप ाके तो ये वशाल भ ार ही ह॥ १० ॥ ‘चराचर ा णय स हत तीन लोक म जो नाना कारके अ ह, उन सबको ये जानते ह। इ मेरे सवा दूसरा को◌इ पु ष न तो अ ी तरह जानता है और न को◌इ जानगे ही॥ ११ ॥ ‘देवता, ऋ ष, रा स, ग व, य , क र तथा बड़े-बड़े नाग भी इनके भावको नह जानते ह॥ १२ ॥ ‘ ाय: सभी अ जाप त कृ शा के परम धमा ा पु ह। उ जाप तने पूवकालम कु शकन न व ा म को जब क वे रा शासन करते थे, सम पत कर दया था॥ १३ ॥ ‘कृ शा के वे पु जाप त द क दो पु य क संतान ह। उनके अनेक प ह। वे सबके -सब महान् श शाली, काशमान और वजय दलानेवाले ह॥ १४ ॥ ‘ जाप त द क दो सु री क ाएँ ह, उनके नाम ह जया और सु भा। उन दोन ने एक सौ परम काशमान अ -श को उ कया है॥ १५ ॥ ‘उनमसे जयाने वर पाकर पचास े पु को ा कया है, जो अप र मत श शाली और पर हत ह। वे सब-के -सब असुर क सेना का वध करनेके लये कट ए ह॥ १६ ॥ ‘ फर सु भाने भी संहार नामक पचास पु को ज दया, जो अ दुजय ह। उनपर आ मण करना कसीके लये भी सवथा क ठन है तथा वे सब-के -सब अ ब ल ह॥ १७ ॥ ‘ये



धम कु शकन न उन सब अ -श को अ ी तरह जानते ह। जो अ अबतक उपल नह ए ह, उनको भी उ करनेक इनम पूण श है॥ १८ ॥ ‘रघुन न! इस लये इन मु न े धम महा ा व ा म जीसे भूत या भ व क को◌इ बात छपी नह है॥ १९ ॥ ‘राजन्! ये महातेज ी, महायश ी व ा म ऐसे भावशाली ह। अत: इनके साथ रामको भेजनेम आप कसी कारका संदेह न कर॥ २० ॥ ‘मह ष कौ शक यं भी उन रा स का संहार करनेम समथ ह; कतु ये आपके पु का क ाण करना चाहते ह, इसी लये यहाँ आकर आपसे याचना कर रहे ह’॥ २१ ॥



मह ष व स के इस वचनसे व ात यशवाले रघुकुल शरोम ण नृप े दशरथका मन स हो गया। वे आन म हो गये और बु से वचार करनेपर व ा म जीक स ताके लये उनके साथ ीरामका जाना उ चके अनुकूल तीत होने लगा॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म इ सवाँ सग पूरा आ॥ २१॥



बा◌इसवाँ सग राजा दशरथका वाचनपूवक राम-ल णको मु नके साथ भेजना, मागम उ व ा म से बला और अ तबला नामक व ाक ा



व स के ऐसा कहनेपर राजा दशरथका मुख स तासे खल उठा। उ ने यं ही ल णस हत ीरामको अपने पास बुलाया। फर माता कौस ा, पता दशरथ और पुरो हत व स ने वाचन करनेके प ात् उनका या ास ी मंगलकाय स कया— ीरामको मंगलसूचक म से अ भम त कया गया॥ १-२ ॥ तदन र राजा दशरथने पु का म क सूँघकर अ स च से उसको व ा म को स प दया॥ ३ ॥ उस समय धूलर हत सुखदा यनी वायु चलने लगी। कमलनयन ीरामको व ा म जीके साथ जाते देख देवता ने आकाशसे वहाँ फू ल क बड़ी भारी वषा क । देवदु ु भयाँ बजने लग । महा ा ीरामक या ाके समय श और नगाड़ क न होने लगी॥ आगे-आगे व ा म , उनके पीछे काकप धारी महायश ी ीराम तथा उनके पीछे सु म ाकु मार ल ण जा रहे थे॥ ६ ॥ उन दोन भाइय ने पीठपर तरकस बाँध रखे थे। उनके हाथ म धनुष शोभा पा रहे थे तथा वे दोन दस दशा को सुशो भत करते ए महा ा व ा म के पीछे तीन-तीन फनवाले दो सप के समान चल रहे थे। एक ओर कं धेपर धनुष, दूसरी ओर पीठपर तूणीर और बीचम म क —इ तीन क तीन फनसे उपमा दी गयी है॥ ७ ॥ उनका भाव उ एवं उदार था। अपनी अनुपम का से का शत होनेवाले वे दोन अ न सु र राजकु मार सब ओर शोभाका सार करते ए व ा म जीके पीछे उसी तरह जा रहे थे, जैसे ाजीके पीछे दोन अ नीकु मार चलते ह॥ ८ ॥ वे दोन भा◌इ कु मार ीराम और ल ण व और आभूषण से अ ी तरह अलंकृत थे। उनके हाथ म धनुष थे। उ ने अपने हाथ क अंगु लय म गोहटीके चमड़ेके बने ए द ाने पहन रखे थे। उनके क ट देशम तलवार लटक रही थ । उनके ीअंग बड़े मनोहर थे। वे महातेज ी े वीर अ तु का से उ ा सत हो सब ओर अपनी शोभा फै लाते ए कु शकपु



व ा म का अनुसरण कर रहे थे। उस समय वे दोन वीर अ च श शाली ाणुदेव (महादेव) के पीछे चलनेवाले दो अ कु मार और वशाखक भाँ त शोभा पाते थे॥ अयो ासे डेढ़ योजन दूर जाकर सरयूके द ण तटपर व ा म ने मधुर वाणीम रामको स ो धत कया और कहा—‘व राम! अब सरयूके जलसे आचमन करो। इस आव क कायम वल न हो॥ ‘बला और अ तबला नामसे स इस म -समुदायको हण करो। इसके भावसे तु कभी म (थकावट) का अनुभव नह होगा। र (रोग या च ाज नत क ) नह होगा। तु ारे पम कसी कारका वकार या उलट-फे र नह होने पायेगा॥ १३ ॥ ‘सोते समय अथवा असावधानीक अव ाम भी रा स तु ारे ऊपर आ मण नह कर सकगे। इस भूतलपर बा बलम तु ारी समानता करनेवाला को◌इ न होगा॥ १४ ॥ ‘तात! रघुकुलन न राम! बला और अ तबलाका अ ास करनेसे तीन लोक म तु ारे समान को◌इ नह रह जायगा॥ १५ ॥ ‘अनघ! सौभा , चातुय, ान और बु स ी न यम तथा कसीके का उ र देनेम भी को◌इ तु ारी तुलना नह कर सके गा॥ १६ ॥ ‘इन दोन व ा के ा हो जानेपर को◌इ तु ारी समानता नह कर सके गा; क ये बला और अ तबला नामक व ाएँ सब कारके ानक जननी ह॥ १७ ॥ ‘नर े ीराम! तात रघुन न! बला और अ तबलाका अ ास कर लेनेपर तु भूखासका भी क नह होगा; अत: रघुकुलको आन त करनेवाले राम! तुम स ूण जग र ाके लये इन दोन व ा को हण करो॥ १८ १/२ ॥ ‘इन दोन व ा का अ यन कर लेनेपर इस भूतलपर तु ारे यशका व ार होगा। ये दोन व ाएँ ाजीक तेज नी पु याँ ह॥ १९ ॥ ‘ककु न न! मने इन दोन को तु देनेका वचार कया है। राजकु मार! तु इनके यो पा हो। य प तुमम इस व ाको ा करने यो ब त-से गुण ह अथवा सभी उ म गुण व मान ह, इसम संशय नह है तथा प मने तपोबलसे इनका अजन कया है। अत: मेरी तप ासे प रपूण होकर ये तु ारे लये ब पणी ह गी— अनेक कारके फल दान करगी’॥ २० १/२ ॥



तब ीराम आचमन करके प व हो गये। उनका मुख स तासे खल उठा। उ ने उन शु अ :करणवाले मह षसे वे दोन व ाएँ हण क ॥ २१ १/२ ॥ व ासे स होकर भय र परा मी ीराम सह करण से यु शर ालीन भगवान् सूयके समान शोभा पाने लगे॥ २२ १/२ ॥ त ात् ीरामने व ा म जीक सारी गु जनो चत सेवाएँ करके हषका अनुभव कया। फर वे तीन वहाँ सरयूके तटपर रातम सुखपूवक रहे॥ २३ ॥ राजा दशरथके वे दोन े राजकु मार उस समय वहाँ तृणक श ापर, जो उनके यो नह थी, सोये थे। मह ष व ा म अपनी वाणी ारा उन दोन के त लाड़- ार कट कर रहे थे। इससे उ वह रात बड़ी सुखमयी-सी तीत ◌इ॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म बा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २२॥



ते◌इसवाँ सग व ा म स हत ीराम और ल



णका सरयू-गंगासंगमके समीप पु ठहरना



आ मम रातको



जब रात बीती और भात आ, तब महामु न व ा म ने तनक और प के बछौनेपर सोये ए उन दोन ककु वंशी राजकु मार से कहा—॥ १ ॥ ‘नर े राम! तु ारे-जैसे पु को पाकर महारानी कौस ा सुपु जननी कही जाती ह। यह देखो, ात:कालक सं ाका समय हो रहा है; उठो और त दन कये जानेवाले देवस ी काय को पूण करो’॥ २ ॥ मह षका यह परम उदार वचन सुनकर उन दोन नर े वीर ने ान करके देवता का तपण कया और फर वे परम उ म जपनीय म गाय ीका जप करने लगे॥ ३ ॥ न कम समा करके महापरा मी ीराम और ल ण अ स हो तपोधन व ा म को णाम करके वहाँसे आगे जानेको उ त हो गये॥ ४ ॥ जाते-जाते उन महाबली राजकु मार ने गंगा और सरयूके शुभ संगमपर प ँ चकर वहाँ द पथगा नदी गंगाजीका दशन कया॥ ५ ॥ संगमके पास ही शु अ :करणवाले मह षय का एक प व आ म था, जहाँ वे क◌इ हजार वष से ती तप ा करते थे॥ ६ ॥ उस प व आ मको देखकर रघुकुलर ीराम और ल ण बड़े स ए। उ ने महा ा व ा म से यह बात कही—॥ ७ ॥ ‘भगवन्! यह कसका प व आ म है? और इसम कौन पु ष नवास करता है? यह हम दोन सुनना चाहते ह। इसके लये हमारे मनम बड़ी उ ा है’॥ ८ ॥ उन दोन का यह वचन सुनकर मु न े व ा म हँ सते ए बोले—‘राम! यह आ म पहले जसके अ धकारम रहा है, उसका प रचय देता ँ , सुनो॥ ९ ॥ ‘ व ान् पु ष जसे काम कहते ह, वह क प पूवकालम मू तमान् था—शरीर धारण करके वचरता था। उन दन भगवान् ाणु ( शव) इसी आ मम च को एका करके नयमपूवक तप ा करते थे॥ १० ॥



‘एक



दन समा धसे उठकर देवे र शव म ण के साथ कह जा रहे थे। उसी समय दुबु कामने उनपर आ मण कया। यह देख महा ा शवने ार करके उसे रोका॥ ११ ॥ ‘रघुन न! भगवान् ने रोषभरी से अवहेलनापूवक उसक ओर देखा; फर तो उस दुबु के सारे अंग उसके शरीरसे जीण-शीण होकर गर गये॥ १२ ॥ ‘वहाँ द ए महामना क पका शरीर न हो गया। देवे र ने अपने ोधसे कामको अंगहीन कर दया॥ १३ ॥ ‘राम! तभीसे वह ‘अनंग’ नामसे व ात आ। शोभाशाली क पने जहाँ अपना अंग छोड़ा था, वह देश अंगदेशके नामसे व ात आ॥ १४ ॥ ‘यह उ महादेवजीका पु आ म है। वीर! ये मु नलोग पूवकालम उ ाणुके धमपरायण श थे। इनका सारा पाप न हो गया है॥ १५ ॥ ‘शुभदशन राम! आजक रातम हमलोग यह इन पु स लला स रता के बीचम नवास कर। कल सबेरे इ पार करगे॥ १६ ॥ ‘हम सब लोग प व होकर इस पु आ मम चल। यहाँ रहना हमारे लये ब त उ म होगा। नर े ! यहाँ ान करके जप और हवन करनेके बाद हम रातम बड़े सुखसे रहगे’॥ १७ १/ ॥ २



वे लोग वहाँ इस कार आपसम बातचीत कर ही रहे थे क उस आ मम नवास करनेवाले मु न तप ा ारा ा ◌इ दूर से उनका आगमन जानकर मन-ही-मन बड़े स ए। उनके दयम हषज नत उ ास छा गया॥ १८ १/२ ॥ उ ने व ा म जीको अ , पा और अ त थ-स ारक साम ी अ पत करनेके बाद ीराम और ल णका भी आ त कया॥ १९ १/२ ॥ यथो चत स ार करके उन मु नय ने इन अ त थय का भाँ त-भाँ तक कथा-वाता ारा मनोर न कया। फर उन मह षय ने एका च होकर यथावत् सं ाव न एवं जप कया॥ २० १/२ ॥ तदन र वहाँ रहनेवाले मु नय ने अ उ म तधारी मु नय के साथ व ा म आ दको शयनके लये उपयु ानम प ँ चा दया। स ूण कामना क पू त करनेवाले उस पु आ मम उन व ा म आ दने बड़े सुखसे नवास कया॥ २१ १/२ ॥



धमा ा मु न े व ा म ने उन मनोहर राजकु मार का सु र कथा ारा मनोर न कया॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म ते◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २३॥



चौबीसवाँ सग ीराम और ल णका गंगापार होते समय व ा म जीसे जलम उठती ◌इ तुमुल नके वषयम करना, व ा म जीका उ इसका कारण बताना तथा मलद, क ष एवं ताटका वनका प रचय देते ए इ ताटकावधके लये आ ा दान करना



तदन र नमल भातकालम न कमसे नवृ ए व ा म जीको आगे करके श ुदमन वीर ीराम और ल ण गंगानदीके तटपर आये॥ १ ॥ उस समय उ म तका पालन करनेवाले उन पु ा म नवासी महा ा मु नय ने एक सु र नाव मँगवाकर व ा म जीसे कहा—॥ २ ॥ ‘महष! आप इन राजकु मार को आगे करके इस नावपर बैठ जाइये और मागको न व तापूवक तै क जये, जससे वल न हो’॥ ३ ॥ व ा म जीने ‘ब त अ ा’ कहकर उन मह षय क सराहना क और वे ीराम तथा ल णके साथ समु -गा मनी गंगानदीको पार करने लगे॥ ४ ॥ गंगाक बीच धाराम आनेपर छोटे भा◌इस हत महातेज ी ीरामको दो जल के टकरानेक बड़ी भारी आवाज सुनायी देने लगी। ‘यह कै सी आवाज है? तथा कहाँसे आ रही है?’ इस बातको न त पसे जाननेक इ ा उनके भीतर जाग उठी॥ ५ १/२ ॥ तब ीरामने नदीके म भागम मु नवर व ा म से पूछा—‘जलके पर र मलनेसे यहाँ ऐसी तुमुल न हो रही है?’॥ ६ १/२ ॥ ीरामच जीके वचनम इस रह को जाननेक उ ा भरी ◌इ थी। उसे सुनकर धमा ा व ा म ने उस महान् श (तुमुल न) का सु न त कारण बताते ए कहा—॥ ७ १/ ॥ २



‘नर



े राम! कै लासपवतपर एक सु र सरोवर है। उसे ाजीने अपने मान सक संक से कट कया था। मनके ारा कट होनेसे ही वह उ म सरोवर ‘मानस’ कहलाता है॥ ८ १/२ ॥ ‘उस सरोवरसे एक नदी नकली है, जो अयो ापुरीसे सटकर बहती है। सरसे नकलनेके कारण वह प व नदी सरयूके नामसे व ात है॥ ९ १/२ ॥



‘उसीका जल गंगाजीम मल रहा है। दो न दय के जल के संघषसे ही यह भारी रही है; जसक कह तुलना नह है। राम! तुम अपने मनको संयमम रखकर इस



आवाज संगमके



हो जलको णाम करो’॥ १० १/२ ॥ यह सुनकर उन दोन अ धमा ा भाइय ने उन दोन न दय को णाम कया और गंगाके द ण कनारेपर उतरकर वे दोन ब ु ज ी-ज ी पैर बढ़ाते ए चलने लगे॥ ११ १/२ ॥



उस समय इ ाकु न न राजकु मार ीरामने अपने सामने एक भय र वन देखा, जसम मनु के आने-जानेका को◌इ च नह था। उसे देखकर उ ने मु नवर व ा म से पूछा—॥ १२ १/२ ॥ ‘गु देव! यह वन तो बड़ा ही अ तु एवं दुगम है। यहाँ चार ओर झ य क झनकार सुनायी देती है। भयानक हसक ज ु भरे ए ह। भय र बोली बोलनेवाले प ी सब ओर फै ले ए ह। नाना कारके वहंगम भीषण रम चहचहा रहे ह॥ १३-१४ ॥ ‘ सह, ा , सूअर और हाथी भी इस जंगलक शोभा बढ़ा रहे ह। धव (धौरा), अ कण (एक कारके शालवृ ), ककु भ (अजुन), बेल, त क ु (ते )ू , पाटल (पाड़र) तथा बेरके वृ से भरा आ यह भय र वन ा है?—इसका ा नाम है?’॥ १५ १/२ ॥ तब महातेज ी महामु न व ा म ने उनसे कहा—‘व ! ककु न न! यह भय र वन जसके अ धकारम रहा है, उसका प रचय सुनो॥ १६ १/२ ॥ ‘नर े ! पूवकालम यहाँ दो समृ शाली जनपद थे—मलद और क ष। ये दोन देश देवता के य से न मत ए थे॥ १७ १/२ ॥ ‘राम! पहलेक बात है, वृ ासुरका वध करनेके प ात् देवराज इ मलसे ल हो गये। धु ाने भी उ धर दबाया और उनके भीतर ह ा व हो गयी॥ ‘तब देवता तथा तपोधन ऋ षय ने म लन इ को यहाँ गंगाजलसे भरे ए कलश ारा नहलाया तथा उनके मल (और का ष— धु ा) को छु ड़ा दया॥ इस भूभागम देवराज इ के शरीरसे उ ए मल और का षको देकर देवतालोग बड़े स ए॥



‘इ



पूववत् नमल, न ष ( धु ाहीन) एवं शु हो गये। तब उ ने स होकर इस देशको यह उ म वर दान कया—‘ये दो जनपद लोकम मलद और क ष नामसे व ात ह गे। मेरे अंगज नत मलको धारण करनेवाले ये दोन देश बड़े समृ शाली ह गे’॥ ‘बु मान् इ के ारा क गयी उस देशक वह पूजा देखकर देवता ने पाकशासनको बार ार साधुवाद दया॥ २३ १/२ ॥ ‘श ुदमन! मलद और क ष—ये दोन जनपद दीघकालतक समृ शाली, धन-धा से स तथा सुखी रहे ह॥ २४ १/२ ॥ ‘कु छ कालके अन र यहाँ इ ानुसार प धारण करनेवाली एक य णी आयी, जो अपने शरीरम एक हजार हा थय का बल धारण करती है॥ २५ १/२ ॥ ‘उसका नाम ताटका है। वह बु मान् सु नामक दै क प ी है। तु ारा क ाण हो। मारीच नामक रा स, जो इ के समान परा मी है, उस ताटकाका ही पु है। उसक भुजाएँ गोल, म क ब त बड़ा, मुँह फै ला आ और शरीर वशाल है॥ २६-२७ ॥ ‘वह भयानक आकारवाला रा स यहाँक जाको सदा ही ास प ँ चाता रहता है। रघुन न! वह दुराचा रणी ताटका भी सदा मलद और क ष—इन दोन जनपद का वनाश करती रहती है॥ २८ १/२ ॥ ‘वह य णी डेढ़ योजन (छ: कोस) तकके मागको घेरकर इस वनम रहती है; अत: हमलोग को जस ओर ताटकावन है, उधर ही चलना चा हये। तुम अपने बा बलका सहारा लेकर इस दुराचा रणीको मार डालो॥ २९-३० ॥ ‘मेरी आ ासे इस देशको पुन: न क बना दो। यह देश ऐसा रमणीय है तो भी इस समय को◌इ यहाँ आ नह सकता है॥ ३१ ॥ ‘राम! उस अस एवं भयानक य णीने इस देशको उजाड़ कर डाला है। यह वन ऐसा भय र है, यह सारा रह मने तु बता दया। उस य णीने ही इस सारे देशको उजाड़ दया है और वह आज भी अपने उस ू र कमसे नवृ नह ◌इ है’॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म चौबीसवाँ सग पूरा आ॥ २४॥



पचीसवाँ सग ीरामके पूछनेपर व ा म जीका उनसे ताटकाक उ , ववाह एवं शाप आ दका संग सुनाकर उ ताटका-वधके लये े रत करना



अप र मत भावशाली व ा म मु नका यह उ म वचन सुनकर पु ष सह ीरामने यह शुभ बात कही—॥ १ ॥ ‘मु न े ! जब वह य णी एक अबला सुनी जाती है, तब तो उसक श थोड़ी ही होनी चा हये; फर वह एक हजार हा थय का बल कै से धारण करती है?’॥ २ ॥ अ मत तेज ी ीरघुनाथके कहे ए इस वचनको सुनकर व ा म जी अपनी मधुर वाणी ारा ल णस हत श ुदमन ीरामको हष दान करते ए बोले— ‘रघुन न! जस कारणसे ताटका अ धक बलशा लनी हो गयी है, वह बताता ँ , सुनो। उसम वरदानज नत बलका उदय आ है; अत: वह अबला होकर भी बल धारण करती है (सबला हो गयी है)॥ ३-४ ॥ ‘पूवकालक बात है, सुकेतु नामसे स एक महान् य थे। वे सदाचारी थे; परंतु उ को◌इ संतान नह थी; इस लये उ ने बड़ी भारी तप



बड़े परा मी और ाक॥५॥ ‘ ीराम! य राज सुकेतुक उस तप ासे ाजीको बड़ी स ता ◌इ। उ ने सुकेतुको एक क ार दान कया, जसका नाम ताटका था॥ ६ ॥ ाजीने ही उस क ाको एक हजार हा थय के समान बल दे दया; परंतु उन महायश ी पतामहने उस य को पु नह ही दया (उसके संक के अनुसार पु ा हो जानेपर उसके ारा जनताका अ धक उ ीड़न होता, यही सोचकर ाजीने पु नह दया)॥ ७ ॥ ‘धीरे-धीरे वह य -बा लका बढ़ने लगी और बढ़कर प-यौवनसे सुशो भत होने लगी। उस अव ाम सुकेतुने अपनी उस यश नी क ाको ज पु सु के हाथम उसक प ीके पम दे दया॥ ८ ॥ ‘कु छ कालके बाद उस य ी ताटकाने मारीच नामसे स एक दुजय पु को ज दया, जो अग मु नके शापसे रा स हो गया॥ ९ ॥



ीराम! अग ने ही शाप देकर ताटकाप त सु को भी मार डाला। उसके मारे जानेपर ताटका पु स हत जाकर मु नवर अग को भी मौतके घाट उतार देनेक इ ा करने लगी॥ १० ‘



॥ ‘वह कु



पत हो मु नको खा जानेके लये गजना करती ◌इ दौड़ी। उसे आती देख भगवान् अग मु नने मारीचसे कहा—‘तू देवयो न- पका प र ाग करके रा सभावको ा हो जा’॥ ११ १/२ ॥ ‘ फर अ अमषम भरे ए ऋ षने ताटकाको भी शाप दे दया—‘तू वकराल मुखवाली नरभ णी रा सी हो जा। तू है तो महाय ी; परंतु अब शी ही इस पको ागकर तेरा भय र प हो जाय’॥ १२-१३ ॥ ‘इस कार शाप मलनेके कारण ताटकाका अमष और भी बढ़ गया। वह ोधसे मू त हो उठी और उन दन अग जी जहाँ रहते थे, उस सु र देशको उजाड़ने लगी॥ १४ ॥ ‘रघुन न! तुम गौ और ा ण का हत करनेके लये दु परा मवाली इस परम भय र दुराचा रणी य ीका वध कर डालो॥ १५ ॥ ‘रघुकुलको आन त करनेवाले वीर! इस शाप ताटकाको मारनेके लये तीन लोक म तु ारे सवा दूसरा को◌इ पु ष समथ नह है॥ १६ ॥ ‘नर े ! तुम ी-ह ाका वचार करके इसके त दया न दखाना। एक राजपु को चार वण के हतके लये ीह ा भी करनी पड़े तो उससे मुँह नह मोड़ना चा हये॥ १७ ॥ ‘ जापालक नरेशको जाजन क र ाके लये ू रतापूण या ू रतार हत, पातकयु अथवा सदोष कम भी करना पड़े तो कर लेना चा हये। यह बात उसे सदा ही ानम रखनी चा हये॥ १८ ॥ ‘ जनके ऊपर रा के पालनका भार है, उनका तो यह सनातन धम है। ककु कु लन न! ताटका महापा पनी है। उसम धमका लेशमा भी नह है; अत: उसे मार डालो॥ १९ ॥ ‘नरे र! सुना जाता है क पूवकालम वरोचनक पु ी म रा सारी पृ ीका नाश कर डालना चाहती थी। उसके इस वचारको जानकर इ ने उसका वध कर डाला॥ २० ॥



ीराम! ाचीन कालम शु ाचायक माता तथा भृगुक प त ता प ी भुवनको इ से शू कर देना चाहती थ । यह जानकर भगवान् व ुने उनको मार डाला॥ ‘इ ने तथा अ ब त-से महामन ी पु ष वर राजकु मार ने पापचा रणी य का वध कया है। नरे र! अत: तुम भी मेरी आ ासे दया अथवा घृणाको ागकर इस रा सीको मार डालो’॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पचीसवाँ सग पूरा आ॥ २५॥ ‘



छ ीसवाँ सग ीराम ारा ताटकाका वध



मु नके ये उ ाहभरे वचन सुनकर ढ़तापूवक उ म तका पालन करनेवाले राजकु मार ीरामने हाथ जोड़कर उ र दया—॥ १ ॥ ‘भगवन्! अयो ाम मेरे पता महामना महाराज दशरथने अ गु जन के बीच मुझे यह उपदेश दया था क ‘बेटा! तुम पताके कहनेसे पताके वचन का गौरव रखनेके लये कु शकन न व ा म क आ ाका न:श होकर पालन करना। कभी भी उनक बातक अवहेलना न करना’॥ २-३ ॥ ‘अत: म पताजीके उस उपदेशको सुनकर आप वादी महा ाक आ ासे ताटकावधस ी कायको उ म मानकर क ँ गा—इसम संदेह नह है॥ ४ ॥ ‘गौ, ा ण तथा समूचे देशका हत करनेके लये म आप-जैसे अनुपम भावशाली महा ाके आदेशका पालन करनेको सब कारसे तैयार ँ ’॥ ५ ॥ ऐसा कहकर श ुदमन ीरामने धनुषके म भागम मु ी बाँधकर उसे जोरसे पकड़ा और उसक ापर ती ट ार दी। उसक आवाजसे स ूण दशाएँ गूँज उठ ॥ ६ ॥ उस श से ताटकावनम रहनेवाले सम ाणी थरा उठे । ताटका भी उस ट ार-घोषसे पहले तो ककत वमूढ़ हो उठी; परंतु फर कु छ सोचकर अ ोधम भर गयी॥ ७ ॥ उस श को सुनकर वह रा सी ोधसे अचेत-सी हो गयी थी। उसे सुनते ही वह जहाँसे आवाज आयी थी, उसी दशाक ओर रोषपूवक दौड़ी॥ ८ ॥ उसके शरीरक ऊँ चा◌इ ब त अ धक थी। उसक मुखाकृ त वकृ त दखायी देती थी। ोधम भरी ◌इ उस वकराल रा सीक ओर पात करके ीरामने ल णसे कहा—॥ ९ ॥ ‘ल



ण! देखो तो सही, इस य णीका शरीर कै सा दा ण एवं भय र है! इसके दशनमा से भी पु ष के दय वदीण हो सकते ह॥ १० ॥ ‘मायाबलसे स होनेके कारण यह अ दुजय हो रही है। देखो, म अभी इसके कान और नाक काटकर इसे पीछे लौटनेको ववश कये देता ँ ॥ ११ ॥



‘यह



अपने ी भावके कारण र त है; अत: मुझे इसे मारनेम उ ाह नह है। मेरा वचार यह है क म इसके बल-परा म तथा गमनश को न कर दूँ (अथात् इसके हाथ-पैर काट डालूँ)’॥ १२ ॥ ीराम इस कार कह ही रहे थे क ोधसे अचेत ◌इ ताटका वहाँ आ प ँ ची और एक बाँह उठाकर गजना करती ◌इ उ क ओर झपटी॥ १३ ॥ यह देख ष व ा म ने अपने कं ारके ारा उसे डाँटकर कहा—‘रघुकुलके इन दोन राजकु मार का क ाण हो। इनक वजय हो’॥ १४ ॥ तब ताटकाने उन दोन रघुवंशी वीर पर भय र धूल उड़ाना आर कया। वहाँ धूलका वशाल बादल-सा छा गया। उसके ारा उसने ीराम और ल णको दो घड़ीतक मोहम डाल दया॥ १५ ॥ त ात् मायाका आ य लेकर वह उन दोन भाइय पर प र क बड़ी भारी वषा करने लगी। यह देख रघुनाथजी उसपर कु पत हो उठे ॥ १६ ॥ रघुवीरने अपनी बाणवषाके ारा उसक बड़ी भारी शलावृ को रोककर अपनी ओर आती ◌इ उस नशाचरीके दोन हाथ तीखे सायक से काट डाले॥ १७ ॥ दोन भुजाएँ कट जानेसे थक ◌इ ताटका उनके नकट खड़ी होकर जोर-जोरसे गजना करने लगी। यह देख सु म ाकु मार ल णने ोधम भरकर उसके नाक-कान काट लये॥ १८ ॥ परंतु वह तो इ ानुसार प धारण करनेवाली य णी थी; अत: अनेक कारके प बनाकर अपनी मायासे ीराम और ल णको मोहम डालती ◌इ अ हो गयी॥ १९ ॥ अब वह प र क भय र वषा करती ◌इ आकाशम वचरने लगी। ीराम और ल णपर चार ओरसे र क वृ होती देख तेज ी गा धन न व ा म ने इस कार कहा—‘ ीराम! इसके ऊपर तु ारा दया करना थ है। यह बड़ी पा पनी और दुराचा रणी है। सदा य म व डाला करती है। यह अपनी मायासे पुन: बल हो उठे , इसके पहले ही इसे मार डालो। अभी सं ाकाल आना चाहता है, इसके पहले ही यह काय हो जाना चा हये; क सं ाके समय रा स दुजय हो जाते ह’॥ २०—२२ १/२ ॥ व ा म जीके ऐसा कहनेपर ीरामने श वेधी बाण चलानेक श का प रचय देते ए बाण मारकर र क वषा करनेवाली उस य णीको सब ओरसे अव कर दया॥ २३



१/ ॥ २



उनके बाण-समूहसे घर जानेपर मायाबलसे यु वह य णी जोर-जोरसे गजना करती ◌इ ीराम और ल णके ऊपर टूट पड़ी। उसे चलाये ए इ के व क भाँ त वेगसे आती देख ीरामने एक बाण मारकर उसक छाती चीर डाली। तब ताटका पृ ीपर गरी और मर गयी॥ २४-२५ १/२ ॥ उस भय र रा सीको मारी गयी देख देवराज इ तथा देवता ने ीरामको साधुवाद देते ए उनक सराहना क ॥ २६ १/२ ॥ उस समय सह लोचन इ तथा सम देवता ने अ स एवं हष ु होकर व ा म जीसे कहा—॥ २७ १/२ ॥ ‘मुन!े कु शकन न! आपका क ाण हो। आपने इस कायसे इ स हत स ूण देवता को संतु कया है। अब रघुकुल तलक ीरामपर आप अपना ेह कट क जये॥ २८ १/२ ॥ ‘ न्! जाप त कृ शा के अ - पधारी पु को, जो स परा मी तथा तपोबलसे स ह, ीरामको सम पत क जये॥ २९ १/२ ॥ ‘ व वर! ये आपके अ दानके सुयो पा ह तथा आपके अनुसरण (सेवा-शु ूषा) म त र रहते ह। राजकु मार ीरामके ारा देवता का महान् काय स होनेवाला है’॥ ३० १/२ ॥



ऐसा कहकर सभी देवता व ा म जीक शंसा करते ए स तापूवक आकाशमागसे चले गये। त ात् सं ा हो गयी॥ ३१ १/२ ॥ तदन र ताटकावधसे संतु ए मु नवर व ा म ने ीरामच जीका म क सूँघकर उनसे यह बात कही—॥ ३२ १/२ ॥ ‘शुभदशन राम! आजक रातम हमलोग यह नवास कर। कल सबेरे अपने आ मपर चलगे’॥ ३३ १/२ ॥ व ा म जीक यह बात सुनकर दशरथकु मार ीराम बड़े स ए। उ ने ताटकावनम रहकर वह रा बड़े सुखसे तीत क ॥ ३४ १/२ ॥



उसी दन वह वन शापमु होकर रमणीय शोभासे स हो गया और चै रथवनक भाँ त अपनी मनोहर छटा दखाने लगा॥ ३५ ॥ य क ा ताटकाका वध करके ीरामच जी देवता तथा स समूह क शंसाके पा बन गये। उ ने ात:कालक ती ा करते ए व ा म जीके साथ ताटकावनम नवास कया॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ २६॥



स ा◌इसवाँ सग व ाम



ारा ीरामको द ा -दान



ताटकावनम वह रात बताकर महायश ी व ा म हँ सते ए मीठे रम ीरामच जीसे बोले—॥ १ ॥ ‘महायश ी राजकु मार! तु ारा क ाण हो। ताटकावधके कारण म तुमपर ब त संतु ँ ; अत: बड़ी स ताके साथ तु सब कारके अ दे रहा ँ ॥ ‘इनके भावसे तुम अपने श ु को—चाहे वे देवता, असुर, ग व अथवा नाग ही न ह , रणभू मम बलपूवक अपने अधीन करके उनपर वजय पा जाओगे॥ ३ ॥ ‘रघुन न! तु ारा क ाण हो। आज म तु वे सभी द ा दे रहा ँ । वीर! म तुमको द एवं महान् द च , धमच , कालच , व ुच तथा अ भयंकर ऐ च दूँगा॥ ४-५ ॥ ‘नर े राघव! इ का व ा , शवका े शूल तथा ाजीका शर नामक अ भी दूँगा। महाबाहो! साथ ही तु ऐषीका तथा परम उ म ा भी दान करता ँ ॥ ६ १/२ ॥ ‘ककु कु लभूषण! इनके सवा दो अ उ ल और सु र गदाएँ , जनके नाम मोदक और शखरी ह, म तु अपण करता ँ । पु ष सह राजकु मार राम! धमपाश, कालपाश और व णपाश भी बड़े उ म अ ह। इ भी आज तु अ पत करता ँ ॥ ७-८ ॥ ‘रघुन न! सूखी और गीली दो कारक अश न तथा पनाक एवं नारायणा भी तु दे रहा ँ ॥ ९ १/२ ॥ ‘अ का य आ ेय-अ , जो शखरा के नामसे भी स है, तु अपण करता ँ । अनघ! अ म धान जो वाय ा है, वह भी तु दे रहा ँ ॥ १० १/२ ॥ ‘ककु कु लभूषण राघव! हय शरा नामक अ , ौ -अ तथा दो श य को भी तु देता ँ ॥



‘क



ाल, घोर मूसल, कपाल तथा क णी आ द सब अ , जो रा स के वधम उपयोगी होते ह, तु दे रहा ँ ॥ १२ १/२ ॥ ‘महाबा राजकु मार! न न नामसे स व ाधर का महान् अ तथा उ म खड् ग भी तु अ पत करता ँ ॥ १३ १/२ ॥ ‘रघुन न! ग व का य स ोहन नामक अ , ापन, शमन तथा सौ -अ भी देता ँ ॥ १४ १/२ ॥ ‘महायश ी पु ष सह राजकु मार! वषण, शोषण, संतापन, वलापन तथा कामदेवका य दुजय अ मादन, ग व का य मानवा तथा पशाच का य मोहना भी मुझसे हण करो॥ १५—१७ ॥ ‘नर े राजपु महाबा राम! तामस, महाबली सौमन, संवत, दुजय, मौसल, स और मायामय उ म अ भी तु अपण करता ँ । सूयदेवताका तेज: भ नामक अ , जो श ुके तेजका नाश करनेवाला है, तु अ पत करता ँ ॥ १८-१९ ॥ ‘सोम देवताका श शर नामक अ , ा ( व कमा) का अ दा ण अ , भगदेवताका भी भयंकर अ तथा मनुका शीतेषु नामक अ भी तु देता ँ ॥ २० ॥ ‘महाबा राजकु मार ीराम! ये सभी अ इ ानुसार प धारण करनेवाले, महान् बलसे स तथा परम उदार ह। तुम शी ही इ हण करो’॥ २१ ॥ ऐसा कहकर मु नवर व ा म जी उस समय ान आ दसे शु हो पूवा भमुख होकर बैठ गये और अ स ताके साथ उ ने ीरामच जीको उन सभी उ म अ का उपदेश दया॥ २२ ॥ जन अ का पूण पसे सं ह करना देवता के लये भी दुलभ है, उन सबको व वर व ा म जीने ीरामच जीको सम पत कर दया॥ २३ ॥ बु मान् व ा म जीने ही जप आर कया ही वे सभी परम पू द ा त: आकर ीरघुनाथजीके पास उप त हो गये और अ हषम भरकर उस समय ीरामच जीसे हाथ जोड़कर कहने लगे—‘परम उदार रघुन न! आपका क ाण हो। हम सब आपके क र ह। आप हमसे जो-जो सेवा लेना चाहगे, वह सब हम करनेको तैयार रहगे’॥ २४-२५ १/२ ॥



उन महान् भावशाली अ के इस कार कहनेपर ीरामच जी मन-ही-मन ब त स ए और उ हण करनेके प ात् हाथसे उनका श करके बोले— ‘आप सब मेरे मनम नवास कर’॥ २६-२७ ॥ तदन र महातेज ी ीरामने स च होकर महामु न व ा म को णाम कया और आगेक या ा आर क ॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म स ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २७॥



अ ा◌इसवाँ सग व ा म का ीरामको अ क संहार व ध बताना तथा उ अ ा अ करना, ीरामका एक आ म एवं य ानके वषयम मु नसे



का उपदेश



उन अ को हण करके परम प व ीरामका मुख स तासे खल उठा था। वे चलते-चलते ही व ा म से बोले—॥ १ ॥ ‘भगवन्! आपक कृ पासे इन अ को हण करके म देवता के लये भी दुजय हो गया ँ । मु न े ! अब म अ क संहार व ध जानना चाहता ँ ’॥ २ ॥ ककु कु ल तलक ीरामके ऐसा कहनेपर महातप ी, धैयवान्, उ म तधारी और प व व ा म मु नने उ अ क संहार व धका उपदेश दया॥ ३ ॥ तदन र वे बोले—‘रघुकुलन न राम! तु ारा क ाण हो! तुम अ व ाके सुयो पा हो; अत: न ा त अ को भी हण करो—स वान्, स क त, धृ , रभस, तहारतर, ाङ् मुख, अवाङ् मुख, ल , अल , ढ़नाभ, सुनाभ, दशा , शतव क, दशशीष, शतोदर, प नाभ, महानाभ, दु नु ाभ, नाभ, ो तष, शकु न, नैरा , वमल, दै नाशक यौगंधर और व न , शु चबा , महाबा , न ल, व च, सा चमाली, धृ तमाली, वृ मान्, चर, प , सौमनस, वधूत, मकर, परवीर, र त, धन, धा , काम प, काम च, मोह, आवरण, जृ क, सपनाथ, प ान और व ण—ये सभी जाप त कृ शा के पु ह। ये इ ानुसार प धारण करनेवाले तथा परम तेज ी ह। तुम इ हण करो’॥ ४—१० ॥ तब ‘ब त अ ा’ कहकर ीरामच जीने स मनसे उन अ को हण कया। उन मू तमान् अ के शरीर द तेजसे उ ा सत हो रहे थे। वे अ जग ो सुख देनेवाले थे॥ ११ ॥



उनमसे कतने ही अंगार के समान तेज ी थे। कतने ही धूमके समान काले तीत होते थे तथा कु छ अ सूय और च माके समान काशमान थे। वे सब-के -सब हाथ जोड़कर ीरामके सम खड़े ए॥ १२ ॥ उ ने अ ल बाँधे मधुर वाणीम ीरामसे इस कार कहा—‘पु ष सह! हमलोग आपके दास ह। आ ा क जये, हम आपक ा सेवा कर?’॥ १३ ॥



तब रघुकुलन न रामने उनसे कहा—‘इस समय तो आपलोग अपने अभी ानको जायँ; परंतु आव कताके समय मेरे मनम त होकर सदा मेरी सहायता करते रह’॥ १४ ॥ त ात् वे ीरामक प र मा करके उनसे वदा ले उनक आ ाके अनुसार काय करनेक त ा करके जैसे आये थे, वैसे चले गये॥ १५ ॥ इस कार उन अ का ान ा करके ीरघुनाथजीने चलते-चलते ही महामु न व ा म से मधुर वाणीम पूछा—‘भगवन्! सामनेवाले पवतके पास ही जो यह मेघ क घटाके समान सघन वृ से भरा ान दखायी देता है, ा है? उसके वषयम जाननेके लये मेरे मनम बड़ी उ ा हो रही है॥ १६-१७ ॥ ‘यह दशनीय ान मृग के ंडु से भरा आ होनेके कारण अ मनोहर तीत होता है। नाना कारके प ी अपनी मधुर श ावलीसे इस ानक शोभा बढ़ाते ह॥ १८ ॥ ‘मु न े ! इस देशक इस सुखमयी तसे यह जान पड़ता है क अब हमलोग उस रोमा कारी दुगम ताटकावनसे बाहर नकल आये ह॥ १९ ॥ ‘भगवन्! मुझे सब कु छ बताइये। यह कसका आ म है? भगवन्! महामुन!े जहाँ आपक य या हो रही है, जहाँ वे पापी, दुराचारी, ह ारे, दुरा ा रा स आपके य म व डालनेके लये आया करते ह और जहाँ मुझे य क र ा तथा रा स के वधका काय करना है, उस आपके आ मका कौन-सा देश है? न्! मु न े भो! यह सब म सुनना चाहता ँ ’॥ २०—२२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म अ ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २८॥



उनतीसवाँ सग व ा म जीका ीरामसे स ा मका पूववृ ा बताना और उन दोन भाइय के साथ अपने आ मपर प ँ चकर पू जत होना



अप र मत भावशाली भगवान् ीरामका वचन सुनकर महातेज ी व ा म ने उनके का उ र देना आर कया—॥ १ ॥ ‘महाबा ीराम! पूवकालम यहाँ देवव त भगवान् व ुने ब त वष एवं सौ युग तक तप ाके लये नवास कया था। उ ने यहाँ ब त बड़ी तप ा क थी। यह ान महा ा वामनका—वामन अवतार धारण करनेको उ त ए ी व ुका अवतार हणसे पूव आ म था॥ ‘इसक स ा मके नामसे स थी; क यहाँ महातप ी व ुको स ा ◌इ थी। जब वे तप ा करते थे, उसी समय वरोचनकु मार राजा ब लने इ और म ण स हत सम देवता को परा जत करके उनका रा अपने अ धकारम कर लया था। वे तीन लोक म व ात हो गये थे॥ ४-५ ॥ ‘उन महाबली महान् असुरराजने एक य का आयोजन कया। उधर ब ल य म लगे ए थे, इधर अ आ द देवता यं इस आ मम पधारकर भगवान् व ुसे बोले—॥ ‘‘सव ापी परमे र! वरोचनकु मार ब ल एक उ म य का अनु ान कर रहे ह। उनका वह य -स ी नयम पूण होनेसे पहले ही हम अपना काय स कर लेना चा हये॥ ७ ॥ ‘‘इस समय जो भी याचक इधर-उधरसे आकर उनके यहाँ याचनाके लये उप त होते ह, वे गो, भू म और सुवण आ द स य मसे जस व ुको भी लेना चाहते ह, उनको वे सारी व ुएँ राजा ब ल यथावत्- पसे अ पत करते ह॥ ८ ॥ ‘‘अत: व ो! आप देवता के हतके लये अपनी योगमायाका आ य ले वामन प धारण करके उस य म जाइये और हमारा उ म क ाण-साधन क जये’॥ ९ ॥ ‘ ीराम! इसी समय अ के समान तेज ी मह ष क प धमप ी अ द तके साथ अपने तेजसे का शत होते ए वहाँ आये। वे एक सह द वष तक चालू रहनेवाले महान् तको



अ द तदेवीके साथ ही समा करके आये थे। उ ने वरदायक भगवान् मधुसूदनक इस कार ु त क —॥ १०-११ ॥ ‘‘भगवन्! आप तपोमय ह। तप ाक रा श ह। तप आपका प है। आप ान प ह। म भलीभाँ त तप ा करके उसके भावसे आप पु षो मका दशन कर रहा ँ ॥ १२ ॥ ‘‘ भो! म इस सारे जग ो आपके शरीरम त देखता ँ । आप अना द ह। देश, काल और व ुक सीमासे परे होनेके कारण आपका इद म ं पसे नदश नह कया जा सकता। म आपक शरणम आया ँ ’॥ १३ ॥ ‘क पजीके सारे पाप धुल गये थे। भगवान् ीह रने अ स होकर उनसे कहा —‘महष! तु ारा क ाण हो। तुम अपनी इ ाके अनुसार को◌इ वर माँगो; क तुम मेरे वचारसे वर पानेके यो हो’॥ १४ ॥ ‘भगवा ा यह वचन सुनकर मरी चन न क पने कहा—‘उ म तका पालन करनेवाले वरदायक परमे र! स ूण देवता क , अ द तक तथा मेरी भी आपसे एक ही बातके लये बार ार याचना है। आप अ स होकर मुझे वह एक ही वर दान कर। भगवन्! न ाप नारायणदेव! आप मेरे और अ द तके पु हो जायँ॥ १५-१६ ॥ ‘‘असुरसूदन! आप इ के छोटे भा◌इ ह और शोकसे पी ड़त ए इन देवता क सहायता कर॥ १७ ॥ ‘‘देवे र! भगवन्! आपक कृ पासे यह ान स ा मके नामसे व ात होगा। अब आपका तप प काय स हो गया है; अत: यहाँसे उ ठये’॥ १८ ॥ ‘तदन र महातेज ी भगवान् व ु अ द तदेवीके गभसे कट ए और वामन प धारण करके वरोचनकु मार ब लके पास गये॥ १९ ॥ ‘स ूण लोक के हतम त र रहनेवाले भगवान् व ु ब लके अ धकारसे लोक का रा ले लेना चाहते थे; अत: उ ने तीन पग भू मके लये याचना करके उनसे भू मदान हण कया और तीन लोक को आ ा करके उ पुन: देवराज इ को लौटा दया। महातेज ी ीह रने अपनी श से ब लका न ह करके लोक को पुन: इ के अधीन कर दया॥ २०-२१ ॥ ‘उ भगवा े पूवकालम यहाँ नवास कया था; इस लये यह आ म सब कारके म (दु:ख-शोक) का नाश करनेवाला है। उ भगवान् वामनम भ होनेके कारण म भी इस



ानको अपने उपयोगम लाता ँ ॥ २२ ॥ ‘इसी आ मपर मेरे य म व डालनेवाले रा स आते ह। पु ष सह! यह तु उन दुराचा रय का वध करना है॥ २३ ॥ ‘ ीराम! अब हमलोग उस परम उ म स ा मम प ँ च रहे ह। तात! वह आ म जैसे मेरा है, वैसे ही तु ारा भी है’॥ २४ ॥ ऐसा कहकर महामु नने बड़े ेमसे ीराम और ल णके हाथ पकड़ लये और उन दोन के साथ आ मम वेश कया। उस समय पुनवसु नामक दो न के बीचम त तुषारर हत च माक भाँ त उनक शोभा ◌इ॥ २५ ॥ व ा म जीको आया देख स ा मम रहनेवाले सभी तप ी उछलते-कू दते ए सहसा उनके पास आये और सबने मलकर उन बु मान् व ा म जीक यथो चत पूजा क । इसी कार उ ने उन दोन राजकु मार का भी अ त थ-स ार कया॥ २६-२७ ॥ दो घड़ीतक व ाम करनेके बाद रघुकुलको आन देनेवाले श ुदमन राजकु मार ीराम और ल ण हाथ जोड़कर मु नवर व ा म से बोले—॥ २८ ॥ ‘मु न े ! आप आज ही य क दी ा हण कर। आपका क ाण हो। यह स ा म वा वम यथानाम तथागुण स हो और रा स के वधके वषयम आपक कही ◌इ बात स ी हो’॥ २९ ॥ उनके ऐसा कहनेपर महातेज ी मह ष व ा म जते यभावसे नयमपूवक य क दी ाम व ए। वे दोन राजकु मार भी सावधानीके साथ रात तीत करके सबेरे उठे और ान आ दसे शु हो ात:कालक सं ोपासना तथा नयमपूवक सव े गाय ीम का जप करने लगे। जप पूरा होनेपर उ ने अ हो करके बैठे ए व ा म जीके चरण म व ना क ॥ ३०—३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म उनतीसवाँ सग पूरा आ॥ २९॥



तीसवाँ सग ीराम ारा व ा म के य क र ा तथा रा स का संहार



तदन र देश और कालको जाननेवाले श ुदमन राजकु मार ीराम और ल ण जो देश और कालके अनुसार बोलने यो वचनके मम थे, कौ शक मु नसे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘भगवन्! अब हम दोन यह सुनना चाहते ह क कस समय उन दोन नशाचर का आ मण होता है? जब क हम उन दोन को य भू मम आनेसे रोकना है। कह ऐसा न हो, असावधानीम ही वह समय हाथसे नकल जाय; अत: उसे बता दी जये’॥ २ ॥ ऐसी बात कहकर यु क इ ासे उतावले ए उन दोन ककु वंशी राजकु मार क ओर देखकर वे सब मु न बड़े स ए और उन दोन ब ु क भू र-भू र शंसा करने लगे॥ ३ ॥ वे बोले—‘ये मु नवर व ा म जी य क दी ा ले चुके ह; अत: अब मौन रहगे। आप दोन रघुवंशी वीर सावधान होकर आजसे छ: रात तक इनके य क र ा करते रह’॥ ४ ॥ मु नय का यह वचन सुनकर वे दोन यश ी राजकु मार लगातार छ: दन और छ: राततक उस तपोवनक र ा करते रहे; इस बीचम उ ने न द भी नह ली॥ ५ ॥ श ु का दमन करनेवाले वे परम धनुधर वीर सतत सावधान रहकर मु नवर व ा म के पास खड़े हो उनक (और उनके य क ) र ाम लगे रहे॥ ६ ॥ इस कार कु छ काल बीत जानेपर जब छठा दन आया, तब ीरामने सु म ाकु मार ल णसे कहा—‘सु म ान न! तुम अपने च को एका करके सावधान हो जाओ’॥ ७ ॥ यु क इ ासे शी ता करते ए ीराम इस कार कह ही रहे थे क उपा ाय ( ा), पुरो हत (उप ा) तथा अ ा ऋ ज से घरी ◌इ य क वेदी सहसा लत हो उठी (वेदीका यह जलना रा स के आगमनका सूचक उ ात था)॥ ८ ॥ इसके बाद कु श, चमस, ुक्, स मधा और फू ल के ढेरसे सुशो भत होनेवाली व ा म तथा ऋ ज स हत जो य क वेदी थी, उसपर आहवनीय अ लत ◌इ (अ का यह लन य के उ े से आ था)॥ ९ ॥ फर तो शा ीय व धके अनुसार वेद-म के उ ारणपूवक उस य का काय आर आ। इसी समय आकाशम बड़े जोरका श आ, जो बड़ा ही भयानक था॥ १० ॥



जैसे वषाकालम मेघ क घटा सारे आकाशको घेरकर छायी ◌इ दखायी देती है, उसी कार मारीच और सुबा नामक रा स सब ओर अपनी माया फै लाते ए य म पक ओर दौड़े आ रहे थे। उनके अनुचर भी साथ थे। उन भयंकर रा स ने वहाँ आकर र क धाराएँ बरसाना आर कर दया॥ ११-१२ ॥ र के उस वाहसे य -वेदीके आस-पासक भू मको भीगी ◌इ देख ीरामच जी सहसा दौड़े और इधर-उधर डालनेपर उ ने उन रा स को आकाशम त देखा। मारीच और सुबा को सहसा आते देख कमलनयन ीरामने ल णक ओर देखकर कहा—॥ १३-१४ ॥ ‘ल



ण! वह देखो, मांसभ ण करनेवाले दुराचारी रा स आ प ँ चे। म मानवा से इन सबको उसी कार मार भगाऊँ गा, जैसे वायुके वेगसे बादल छ - भ हो जाते ह। मेरे इस कथनम त नक भी संदेह नह है। ऐसे कायर को म मारना नह चाहता’॥ १५ १/२ ॥ ऐसा कहकर वेगशाली ीरामने अपने धनुषपर परम उदार मानवा का संधान कया। वह अ अ तेज ी था। ीरामने बड़े रोषम भरकर मारीचक छातीम उस बाणका हार कया॥ १६-१७ ॥ उस उ म मानवा का गहरा आघात लगनेसे मारीच पूरे सौ योजनक दूरीपर समु के जलम जा गरा॥ १८ ॥ शीतेषु नामक मानवा से पी ड़त हो मारीच अचेत-सा होकर च र काटता आ दूर चला जा रहा है। यह देख ीरामने ल णसे कहा—॥ १९ ॥ ‘ल ण! देखो, मनुके ारा यु शीतेषु नामक मानवा इस रा सको मू छत करके दूर लये जा रहा है, कतु उसके ाण नह ले रहा है॥ २० ॥ ‘अब य म व डालनेवाले इन दूसरे नदय, दुराचारी, पापकम एवं र भोजी रा स को भी मार गराता ँ ’॥ २१ ॥ ल णसे ऐसा कहकर रघुन न ीरामने अपने हाथक फु त दखाते ए-से शी ही महान् आ ेया का संधान करके उसे सुबा क छातीपर चलाया। उसक चोट लगते ही वह मरकर पृ ीपर गर पड़ा। फर महायश ी परम उदार रघुवीरने वाय ा लेकर शेष नशाचर का भी संहार कर डाला और मु नय को परम आन दान कया॥ २२-२३ ॥



इस कार रघुकुलन न ीराम य म व डालनेवाले सम रा स का वध करके वहाँ ऋ षय ारा उसी कार स ा नत ए जैसे पूवकालम देवराज इ असुर पर वजय पाकर मह षय ारा पू जत ए थे॥ २४ ॥ य समा होनेपर महामु न व ा म ने स ूण दशा को व -बाधा से र हत देख ीरामच जीसे कहा—॥ २५ ॥ ‘महाबाहो! म तु पाकर कृ ताथ हो गया। तुमने गु क आ ाका पूण पसे पालन कया। महायश ी वीर! तुमने इस स ा मका नाम साथक कर दया।’ इस कार ीरामच जीक शंसा करके मु नने उन दोन भाइय के साथ सं ोपासना क ॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३०॥



इकतीसवाँ सग ीराम, ल



ण तथा ऋ षय स हत व ा म का म थलाको समय शोणभ तटपर व ाम



ान तथा मागम सं ाके



तदन र ( व ा म के य क र ा करके ) कृ तकृ ए ीराम और ल णने उस य शालाम ही वह रात बतायी। उस समय वे दोन वीर बड़े स थे। उनका दय हष ाससे प रपूण था॥ १ ॥ रात बीतनेपर जब ात:काल आया, तब वे दोन भा◌इ पूवा कालके न - नयमसे नवृ हो व ा म मु न तथा अ ऋ षय के पास साथ-साथ गये॥ २ ॥ वहाँ जाकर उ ने लत अ के समान तेज ी मु न े ! व ा म को णाम कया और मधुर भाषाम यह परम उदार वचन कहा—॥ ३ ॥ ‘मु न वर! हम दोन क र आपक सेवाम उप त ह। मु न े ! आ ा दी जये, हम ा सेवा कर?’॥ ४ ॥ उन दोन के ऐसा कहनेपर वे सभी मह ष व ा म को आगे करके ीरामच जीसे बोले —॥ ५ ॥ ‘नर े ! म थलाके राजा जनकका परम धममय य ार होनेवाला है। उसम हम सब लोग जायँगे॥ ६ ॥ ‘पु ष सह! तु भी हमारे साथ वहाँ चलना है। वहाँ एक बड़ा ही अ तु धनुषर है। तु उसे देखना चा हये॥ ७ ॥ ‘पु ष वर! पहले कभी य म पधारे ए देवता ने जनकके कसी पूवपु षको वह धनुष दया था। वह कतना बल और भारी है, इसका को◌इ माप-तोल नह है। वह ब त ही काशमान एवं भयंकर है॥ ८ ॥ ‘मनु क तो बात ही ा है। देवता, ग व, असुर तथा रा स भी कसी तरह उसक ा नह चढ़ा पाते॥ ९ ॥ ‘उस धनुषक श का पता लगानेके लये कतने ही महाबली राजा और राजकु मार आये; कतु को◌इ भी उसे चढ़ा न सके ॥ १० ॥



‘ककु



कु लन न पु ष सह राम! वहाँ चलनेसे तुम महामना म थलानरेशके उस धनुषको तथा उनके परम अ तु य को भी देख सकोगे॥ ११ ॥ ‘नर े ! म थलानरेशने अपने य के फल पम उस उ म धनुषको माँगा था; अत: स ूण देवता तथा भगवान् श रने उ वह धनुष दान कया था। उस धनुषका म भाग जसे मु ीसे पकड़ा जाता है, ब त ही सु र है॥ १२ ॥ ‘रघुन न! राजा जनकके महलम वह धनुष पूजनीय देवताक भाँ त त त है और नाना कारके ग , धूप तथा अगु आ द सुग त पदाथ से उसक पूजा होती है’॥ १३ ॥ ऐसा कहकर मु नवर व ा म जीने वनदेवता से आ ा ली और ऋ षम ली तथा रामल णके साथ वहाँसे ान कया॥ १४ ॥ चलते समय उ ने वनदेवता से कहा—‘म अपना य काय स करके इस स ा मसे जा रहा ँ । गंगाके उ र तटपर होता आ हमालयपवतक उप काम जाऊँ गा। आपलोग का क ाण हो’॥ १५ ॥ ऐसा कहकर तप ाके धनी मु न े कौ शकने उ र दशाक ओर ान आर कया॥ १६ ॥ उस समय— ानके समय या ा करते ए मु नवर व ा म के पीछे उनके साथ जानेवाले वादी मह षय क सौ गा ड़याँ चल ॥ १७ ॥ स ा मम नवास करनेवाले मृग और प ी भी तपोधन व ा म के पीछे-पीछे जाने लगे॥ १८ ॥ कु छ दूर जानेपर ऋ षम लीस हत व ा म ने उन पशु-प य को लौटा दया। फर दूरतकका माग तै कर लेनेके बाद जब सूय अ ाचलको जाने लगे, तब उन ऋ षय ने पूण सावधान रहकर शोणभ के तटपर पड़ाव डाला। जब सूयदेव अ हो गये, तब ान करके उन सबने अ हो का काय पूण कया॥ इसके बाद वे सभी अ मततेज ी ऋ ष मु नवर व ा म को आगे करके बैठे; फर ल णस हत ीराम भी उन ऋ षय का आदर करते ए बु मान् व ा म जीके सामने बैठ गये॥ २१ १/२ ॥



त ात् महातेज ी ीरामने तप ाके धनी मु न े व ा म से कौतूहलपूवक पूछा —॥ २२ १/२ ॥ भगवन्! यह हरे-भरे समृ शाली वनसे सुशो भत देश कौन-सा है? म इसका प रचय सुनना चाहता ँ । आपका क ाण हो। आप मुझे ठीक-ठीक इसका रह बताइये’॥ २३ १/२ ॥



ीरामच जीके इस से े रत होकर उ म तका पालन करनेवाले महातप ी व ा म ने ऋ षम लीके बीच उस देशका पूण पसे प रचय देना ार कया॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म इकतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३१॥



ब ीसवाँ सग पु कुशके चार पु का वणन, शोणभ -तटवत देशको वसुक भू म बताना, कुशनाभक सौ क ा का वायुके कोपसे ‘कु ा’ होना (व



ा म जी कहते ह—) ीराम! पूवकालम कु श नामसे स एक महातप ी राजा हो गये ह। वे सा ात् ाजीके पु थे। उनका ेक त एवं संक बना कसी ेश या क ठना◌इके ही पूण होता था। वे धमके ाता, स ु ष का आदर करनेवाले और महान् थे॥ १ ॥



उ म कु लम उ वदभदेशक राजकु मारी उनक प ी थी। उसके गभसे उन महा ा नरेशने चार पु उ कये, जो उ के समान थे॥ २ ॥ उनके नाम इस कार ह—कु शा , कु शनाभ, असूतरजस१ तथा वसु। ये सब-के -सब तेज ी तथा महान् उ ाही थे। राजा कु शने ‘ जार ण प’ यध मके पालनक इ ासे अपने उन ध म तथा स वादी पु से कहा—‘पु ो! जाका पालन करो, इससे तु धमका पूरा-पूरा फल ा होगा’॥ ३-४ ॥ अपने पता महाराज कु शक यह बात सुनकर उन चार लोक शरोम ण नर े राजकु मार ने उस समय अपने-अपने लये पृथक् -पृथक् नगर नमाण कराया॥ ५ ॥ महातेज ी कु शा ने ‘कौशा ी’ पुरी बसायी ( जसे आजकल ‘कोसम’ कहते ह)। धमा ा कु शनाभने ‘महोदय’ नामक नगरका नमाण कराया॥ ६ ॥ परम बु मान् असूतरजसने ‘धमार ’ नामक एक े नगर बसाया तथा राजा वसुने ‘ ग र ज’ नगरक ापना क ॥ ७ ॥ महा ा वसुक यह ‘ ग र ज’ नामक राजधानी वसुमतीके नामसे स ◌इ। इसके चार ओर ये पाँच े पवत सुशो भत होते ह२॥ ८ ॥ यह रमणीय (सोन) नदी द ण-प मक ओरसे बहती ◌इ मगध देशम आयी है, इस लये यहाँ ‘सुमागधी’ नामसे व ात ◌इ है। यह इन पाँच े पवत के बीचम मालाक भाँ त सुशो भत हो रही है॥ ९ ॥



ीराम! इस कार ‘मागधी’ नामसे स ◌इ यह सोन नदी पूव महा ा वसुसे स रखती है। रघुन न! यह द ण-प मसे आकर पूव र दशाक ओर वा हत ◌इ है। इसके दोन तट पर सु र े (उपजाऊ खेत) ह, अत: यह सदा स -माला से अलंकृत (हरी-भरी खेतीसे सुशो भत) रहती है॥ १० ॥ रघुकुलको आन त करनेवाले ीराम! धमा ा राज ष कु शनाभने घृताची अ राके गभसे परम उ म सौ क ा को ज दया॥ ११ ॥ वे सब-क -सब सु र प-लाव से सुशो भत थ । धीरे-धीरे युवाव ाने आकर उनके सौ यको और भी बढ़ा दया। रघुवीर! एक दन व और आभूषण से वभू षत हो वे सभी राजक ाएँ उ ान-भू मम आकर वषाऋतुम का शत होनेवाली व ु ाला क भाँ त शोभा पाने लग । सु र अलंकार से अलंकृत ◌इ वे अंगनाएँ गाती, बजाती और नृ करती ◌इ वहाँ परम आमोद- मोदम म हो गय ॥ १२-१३ ॥ उनके सभी अंग बड़े मनोहर थे। इस भूतलपर उनके प-सौ यक कह भी तुलना नह थी। उस उ ानम आकर वे बादल के ओटम कु छ-कु छ छपी ◌इ ता रका के समान शोभा पा रही थ ॥ १४ ॥ उस समय उ म गुण से स तथा प और यौवनसे सुशो भत उन सब राजक ा को देखकर सव प वायु देवताने उनसे इस कार कहा—॥ ‘सु रयो! म तुम सबको अपनी ेयसीके पम ा करना चाहता ँ । तुम सब मेरी भायाएँ बनोगी। अब मनु भावका ाग करो और मुझे अंगीकार करके देवांगना क भाँ त दीघ आयु ा कर लो॥ ‘ वशेषत: मानव-शरीरम जवानी कभी र नह रहती— त ण ीण होती जाती है। मेरे साथ स हो जानेपर तुमलोग अ य यौवन ा करके अमर हो जाओगी’॥ १७ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले वायुदेवका यह कथन सुनकर वे सौ क ाएँ अवहेलनापूवक हँ सकर बोल —॥ १८ ॥ ‘सुर े ! आप ाणवायुके पम सम ा णय के भीतर वचरते ह (अत: सबके मनक बात जानते ह; आपको यह मालूम होगा क हमारे मनम आपके त को◌इ आकषण नह है)। हम सब ब हन आपके अनुपम भावको भी जानती ह (तो भी हमारा आपके त अनुराग नह है); ऐसी दशाम यह अनु चत ाव करके आप हमारा अपमान कस लये कर रहे ह?॥ १९ ॥



‘देव!



देव शरोमणे! हम सब-क -सब राज ष कु शनाभक क ाएँ ह। देवता होनेपर भी आपको शाप देकर वायुपदसे कर सकती ह, कतु ऐसा करना नह चाहत ; क हम अपने तपको सुर त रखती ह॥ २० ॥ ‘दुमते! वह समय कभी न आवे, जब क हम अपने स वादी पताक अवहेलना करके कामवश या अ अधमपूवक यं ही वर ढूँ ढ़ने लग॥ २१ ॥ ‘हमलोग पर हमारे पताजीका भु है, वे हमारे लये सव े देवता ह। पताजी हम जसके हाथम दे दगे, वही हमारा प त होगा’॥ २२ ॥ उनक यह बात सुनकर वायुदेव अ कु पत हो उठे । उन ऐ यशाली भुने उनके भीतर व हो सब अंग को मोड़कर टेढ़ा कर दया। शरीर मुड़ जानेके कारण वे कु बड़ी हो गय । उनक आकृ त मु ी बँधे ए एक हाथके बराबर हो गयी। वे भयसे ाकु ल हो उठ ॥ २३ १/२ ॥ वायुदेवके ारा कु बड़ी क ◌इ उन क ा ने राजभवनम वेश कया। वेश करके वे ल त और उ हो गय । उनके ने से आँ सु क धाराएँ बहने लग ॥ २४ ॥ अपनी परम सु री ारी पु य को कु ताके कारण अ दयनीय दशाम पड़ी देख राजा कु शनाभ घबरा गये और इस कार बोले—॥ २५ ॥ ‘पु यो! यह ा आ? बताओ। कौन ाणी धमक अवहेलना करता है? कसने तु कु बड़ी बना दया, जससे तुम तड़प रही हो, कतु कु छ बताती नह हो।’ य कहकर राजाने लंबी साँस ख ची और उनका उ र सुननेके लये वे सावधान होकर बैठ गये॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म ब ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३२॥ १. रामायण शरोम ण नामक ा ाके नमाताने ‘अमू तरजसम्’ पाठ माना है। महाभारतके अनुसार इनका नाम ‘अमूतरयस्’ या ‘अमूतरया’ था (वन० ९५। १७)। यहाँ इनके ारा धमार नामक नगर बसानेका उ ेख है। यह नगर धमार नामक तीथभूत वनम था। यह वन गयाके आस-पासका ही देश है। अमूतरयाके पु गयने ही गया नामक नगर बसाया था। अत: धमार और गयाक एकता स होती है। महाभारत वनपव (८४। ८५) म गयाके सरोवरको धमार से सुशो भत बताया गया है। (वन० ८२। ४७) धमार म पतृ-पूजनक मह ा बतायी गयी है। २. महाभारत सभापव (२१। १—१०) म इन पाँच पवत के नाम इस कार व णत ह—(१) वपुल, (२) वराह, (३) वृषभ (ऋषभ), (४) ऋ ष ग र (मात ) तथा (५) चै क।



ततीसवाँ सग राजा कुशनाभ ारा क ा के धैय एवं माशीलताक शंसा, उनके साथ कुशनाभक क ा का ववाह



द क उ



तथा



बु मान् महाराज कु शनाभका वह वचन सुनकर उन सौ क ा ने पताके चरण म सर रखकर णाम कया और इस कार कहा—॥ १ ॥ राजन्! सव संचार करनेवाले वायुदेव अशुभ मागका अवल न करके हमपर बला ार करना चाहते थे। धमपर उनक नह थी॥ २ ॥ हमने उनसे कहा—‘देव! आपका क ाण हो, हमारे पता व मान ह; हम नह ह। आप पताजीके पास जाकर हमारा वरण क जये। य द वे हम आपको स प दगे तो हम आपक हो जायँगी’॥ ३ ॥ परंतु उनका मन तो पापसे बँधा आ था। उ ने हमारी बात नह मानी। हम सब ब हन ये ही धमसंगत बात कह रही थ , तो भी उ ने हम गहरी चोट प ँ चायी— बना अपराधके ही हम पीड़ा दी॥ ४ ॥ उनक बात सुनकर परम धमा ा महातेज ी राजाने उन अपनी परम उ म सौ क ा को इस कार उ र दया—॥ ५ ॥ ‘पु यो! माशील महापु ष ही जसे कर सकते ह, वही मा तुमने भी क है। यह तुमलोग के ारा महान् काय स आ है। तुम सबने एकमत होकर जो मेरे कु लक मयादापर ही रखी है—कामभावको अपने मनम ान नह दया है—यह भी तुमने ब त बड़ा काम कया है॥ ६ ॥ ‘ ी हो या पु ष, उसके लये मा ही आभूषण है। पु यो! तुम सब लोग म समान पसे जैसी मा या स ह ुता है, वह वशेषत: देवता के लये भी दु र ही है॥ ७ १/२ ॥ ‘पु



यो! मा दान है, मा स है, मा य है, मा यश है और मा धम है, मापर भी यह स ूण जगत् टका आ है’॥ ८ १/२ ॥



ककु कु लन न ीराम! देवतु परा मी राजा कु शनाभने क ा से ऐसा कहकर उ अ :पुरम जानेक आ ा दे दी और म णाके त को जाननेवाले उन नरेशने यं म य के साथ बैठकर क ा के ववाहके वषयम वचार आर कया। वचारणीय वषय यह था क ‘ कस देशम कस समय और कस सुयो वरके साथ उनका ववाह कया जाय?’॥ ९-१० ॥ उ दन चूली नामसे स एक महातेज ी, सदाचारी एवं ऊ रेता (नै क चारी) मु न वेदो तपका अनु ान कर रहे थे (अथवा च न प तप ाम संल थे)॥ ११ ॥ ीराम! तु ारा भला हो, उस समय एक ग वकु मारी वहाँ रहकर उन तप ी मु नक उपासना (अनु हक इ ासे सेवा) करती थी। उसका नाम था सोमदा। वह ऊ मलाक पु ी थी॥ १२ ॥ वह त दन मु नको णाम करके उनक सेवाम लगी रहती थी तथा धमम त रहकर समय-समयपर सेवाके लये उप त होती थी; इससे उसके ऊपर वे गौरवशाली मु न ब त संतु ए॥ १३ ॥ रघुन न! शुभ समय आनेपर चूलीने उस ग वक ासे कहा—‘शुभे! तु ारा क ाण हो, म तुमपर ब त संतु ँ । बोलो, तु ारा कौन-सा य काय स क ँ ’॥ १४ ॥ मु नको संतु जानकर ग व-क ा ब त स ◌इ। वह बोलनेक कला जानती थी; उसने वाणीके मम मु नसे मधुर रम इस कार कहा—॥ १५ ॥ ‘महष! आप ा ी स ( तेज) से स होकर प हो गये ह, अतएव आप महान् तप ी ह। म आपसे ा तप ( - ान एवं वेदो तप) से यु धमा ा पु ा करना चाहती ँ ॥ १६ ॥ ‘मुन!े आपका भला हो। मेरे को◌इ प त नह है। म न तो कसीक प ी ◌इ ँ और न आगे होऊँ गी। आपक सेवाम आयी ँ ; आप अपने ा बल (तप:श ) से मुझे पु दान कर’॥ १७ ॥ उस ग वक ाक सेवासे संतु ए ष चूलीने उसे परम उ म ा तपसे स पु दान कया। वह उनके मान सक संक से कट आ मानस पु था। उसका नाम ‘ द ’ आ॥ १८ ॥



(कु शनाभके



यहाँ जब क ा के ववाहका वचार चल रहा था) उस समय राजा द उ म ल ीसे स हो ‘का ा’ नामक नगरीम उसी तरह नवास करते थे, जैसे गक अमरावतीपुरीम देवराज इ ॥ १९ ॥ ककु कु लभूषण ीराम! तब परम धमा ा राजा कु शनाभने द के साथ अपनी सौ क ा को ाह देनेका न य कया॥ २० ॥ महातेज ी भूपाल राजा कु शनाभने द को बुलाकर अ स च से उ अपनी सौ क ाएँ स प द ॥ २१ ॥ रघुन न! उस समय देवराज इ के समान तेज ी पृ ीप त द ने मश: उन सभी क ा का पा ण हण कया॥ २२ ॥ ववाहकालम उन क ा के हाथ का द के हाथसे श होते ही वे सब-क -सब क ाएँ कु दोषसे र हत, नीरोग तथा उ म शोभासे स तीत होने लग ॥ २३ ॥ वातरोगके पम आये ए वायुदेवने उन क ा को छोड़ दया—यह देख पृ ीप त राजा कु शनाभ बड़े स ए और बार ार हषका अनुभव करने लगे॥ २४ ॥ भूपाल राजा द का ववाह-काय स हो जानेपर महाराज कु शनाभने उ प य तथा पुरो हत स हत आदरपूवक वदा कया॥ २५ ॥ ग व सोमदाने अपने पु को तथा उसके यो ववाह-स को देखकर अपनी उन पु वधु का यथो चत पसे अ भन न कया। उसने एक-एक करके उन सभी राजक ा को दयसे लगाया और महाराज कु शनाभक सराहना करके वहाँसे ान कया॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म ततीसवाँ सग पूरा आ॥ ३३॥



च तीसवाँ सग गा धक उ



, कौ शक क शंसा, व ा म जीका कथा बंद करके आधी रातका वणन करते ए सबको सोनेक आ ा देकर शयन करना



रघुन न! ववाह करके जब राजा द चले गये, तब पु हीन महाराज कु शनाभने े पु क ा के लये पु े य का अनु ान कया॥ १ ॥ उस य के होते समय परम उदार कु मार महाराज कु शने भूपाल कु शनाभसे कहा—॥ २॥ ‘बेटा! तु अपने समान ही परम धमा ा पु ा होगा। तुम ‘गा ध’ नामक पु ा करोगे और उसके ारा तु संसारम अ य क त उपल होगी’॥ ३ ॥ ीराम! पृ ीप त कु शनाभसे ऐसा कहकर राज ष कु श आकाशम व हो सनातन लोकको चले गये॥ ४ ॥ कु छ कालके प ात् बु मान् राजा कु शनाभके यहाँ परम धमा ा ‘गा ध’ नामक पु का ज आ॥ ५ ॥ ककु कु लभूषण रघुन न! वे परम धमा ा राजा गा ध मेरे पता थे। म कु शके कु लम उ होनेके कारण ‘कौ शक’ कहलाता ँ ॥ ६ ॥ राघव! मेरे एक े ब हन भी थी, जो उ म तका पालन करनेवाली थी। उसका नाम स वती था। वह ऋचीक मु नको ाही गयी थी॥ ७ ॥ अपने प तका अनुसरण करनेवाली स वती शरीरस हत गलोकको चली गयी थी। वही परम उदार महानदी कौ शक के पम भी कट होकर इस भूतलपर वा हत होती है॥ ८ ॥ मेरी वह ब हन जग े हतके लये हमालयका आ य लेकर नदी पम वा हत ◌इ। वह पु स लला द नदी बड़ी रमणीय है॥ ९ ॥ रघुन न! मेरा अपनी ब हन कौ शक के त ब त ेह है; अत: म हमालयके नकट उसीके तटपर नयमपूवक बड़े सुखसे नवास करता ँ ॥ १० ॥ पु मयी स वती स धमम त त है। वह परम सौभा शा लनी प त ता देवी यहाँ स रता म े कौ शक के पम व मान है॥ ११ ॥



ीराम! म य स ी नयमक स के लये ही अपनी ब हनका सां न छोड़कर स ा म (ब र) म आया था। अब तु ारे तेजसे मुझे वह स ा हो गयी है॥ १२ ॥ महाबा ीराम! तुमने मुझसे जो पूछा था, उसके उ रम मने तु शोणभ तटवत देशका प रचय देते ए यह अपनी तथा अपने कु लक उ बतायी है॥ १३ ॥ काकु ! मेरे कथा कहते-कहते आधी रात बीत गयी। अब थोड़ी देर न द ले लो। तु ारा क ाण हो। म चाहता ँ क अ धक जागरणके कारण हमारी या ाम व न पड़े॥ १४ ॥ सारे वृ न जान पड़ते ह—इनका एक प ा भी नह हलता है। पशु-प ी अपनेअपने वास ानम छपकर बसेरे लेते ह। रघुन न! रा के अ कारसे स ूण दशाएँ ा हो रही ह॥ १५ ॥ धीरे-धीरे सं ा दूर चली गयी। न तथा तारा से भरा आ आकाश (सह ा इ क भाँ त) सह ो तमय ने से ा -सा होकर का शत हो रहा है॥ १६ ॥ स ूण लोकका अ कार दूर करनेवाले शीतर च मा अपनी भासे जग े ा णय के मनको आ ाद दान करते ए उ दत हो रहे ह*॥ १७ ॥ रातम वचरनेवाले सम ाणी—य -रा स के समुदाय तथा भयंकर पशाच इधरउधर वचर रहे ह॥ १८ ॥ ऐसा कहकर महातेज ी महामु न व ा म चुप हो गये। उस समय सभी मु नय ने साधुवाद देकर व ा म जीक भू र-भू र शंसा क —॥ १९ ॥ ‘कु शपु का यह वंश सदा ही महान् धमपरायण रहा है। कु शवंशी महा ा े मानव ाजीके समान तेज ी ए ह॥ २० ॥ ‘महायश ी व ा म जी! अपने वंशम सबसे बड़े महा ा आप ही ह तथा स रता म े कौ शक भी आपके कु लक क तको का शत करनेवाली है’॥ इस कार आन म ए उन मु नवर ारा शं सत ीमान् कौ शक मु न अ ए सूयक भाँ त न द लेने लगे॥ २२ ॥ वह कथा सुनकर ल णस हत ीरामको भी कु छ व य हो आया। वे भी मु न े व ा म क सराहना करके न द लेने लगे॥ २३ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म च तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३४॥ * इस वणनसे जान पड़ता है



क उस रा को कृ प क नवमी त थ थी।



पतीसवाँ सग शोणभ पार करके व ा म आ दका गंगाजीके तटपर प ँ चकर वहाँ रा वास करना तथा ीरामके पूछनेपर व ा म जीका उ गंगाजीक उ क कथा सुनाना



मह षय स हत व ा म ने रा के शेषभागम शोणभ के तटपर शयन कया। जब रात बीती और भात आ, तब वे ीरामच जीसे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘ ीराम! रात बीत गयी। सबेरा हो गया। तु ारा क ाण हो, उठो, उठो और चलनेक तैयारी करो’॥ २ ॥ मु नक बात सुनकर पूवा कालका न नयम पूण करके ीराम चलनेको तैयार हो गये और इस कार बोले—॥ ३ ॥ ‘ न्! शुभ जलसे प रपूण तथा अपने तट से सुशो भत होनेवाला यह शोणभ तो अथाह जान पड़ता है। हमलोग कस मागसे चलकर इसे पार करगे?’॥ ४ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर व ा म बोले—‘ जस मागसे मह षगण शोणभ को पार करते ह, उसका मने पहलेसे ही न य कर रखा है, वह माग यह है’॥ ५ ॥ बु मान् व ा म के ऐसा कहनेपर वे मह ष नाना कारके वन क शोभा देखते ए वहाँसे त ए॥ ६ ॥ ब त दूरका माग तै कर लेनेपर दोपहर होते-होते उन सब लोग ने मु नजनसे वत, स रता म े गंगाजीके तटपर प ँ चकर उनका दशन कया॥ ७ ॥ हंस तथा सारस से से वत पु स लला भागीरथीका दशन करके ीरामच जीके साथ सम मु न ब त स ए॥ ८ ॥ उस समय सबने गंगाजीके तटपर डेरा डाला। फर व धवत् ान करके देवता और पतर का तपण कया। उसके बाद अ हो करके अमृतके समान मीठे ह व का भोजन कया। तदन र वे सभी क ाणकारी मह ष स च हो महा ा व ा म को चार ओरसे घेरकर गंगाजीके तटपर बैठ गये॥ ९-१० १/२ ॥ जब वे सब मु न रभावसे वराजमान हो गये और ीराम तथा ल ण भी यथायो ानपर बैठ गये, तब ीरामने स च होकर व ा म जीसे पूछा—॥ ११ ॥



‘भगवन्! म यह सुनना चाहता



ँ क तीन माग से वा हत होनेवाली नदी ये गंगाजी कस कार तीन लोक म घूमकर नद और न दय के ामी समु म जा मली ह?’॥ १२ ॥ ीरामके इस ारा े रत हो महामु न व ा म ने गंगाजीक उ और वृ क कथा कहना आर कया—॥ १३ ॥ ‘ ीराम! हमवान् नामक एक पवत है, जो सम पवत का राजा तथा सब कारके धातु का ब त बड़ा खजाना है। हमवा दो क ाएँ ह, जनके सु र पक इस भूतलपर कह तुलना नह है॥ १४ ॥ ‘मे पवतक मनोहा रणी पु ी मेना हमवा ारी प ी है। सु र क ट देशवाली मेना ही उन दोन क ा क जननी ह॥ १५ ॥ ‘रघुन न! मेनाके गभसे जो पहली क ा उ ◌इ, वही ये गंगाजी ह। ये हमवा े पु ी ह। हमवा ही दूसरी क ा, जो मेनाके गभसे उ ◌इं , उमा नामसे स ह॥ १६ ॥ कु छ कालके प ात् सब देवता ने देवकायक स के लये े क ा गंगाजीको, जो आगे चलकर गसे पथगा नदीके पम अवतीण ◌इं , ग रराज हमालयसे माँगा॥ १७ ॥ ‘ हमवा े भुवनका हत करनेक इ ासे पथपर वचरनेवाली अपनी लोकपावनी पु ी गंगाको धमपूवक उ दे दया॥ १८ ॥ ‘तीन लोक के हतक इ ावाले देवता भुवनक भला◌इके लये ही गंगाजीको लेकर मन-ही-मन कृ ताथताका अनुभव करते ए चले गये॥ १९ ॥ ‘रघुन न! ग रराजक जो दूसरी क ा उमा थ , वे उ म एवं कठोर तका पालन करती ◌इ घोर तप ाम लग गय । उ ने तपोमय धनका संचय कया॥ २० ॥ ‘ ग रराजने उ तप ाम संल ◌इ अपनी वह व व ता पु ी उमा अनुपम भावशाली भगवान् को ाह दी॥ २१ ॥ ‘रघुन न! इस कार स रता म े गंगा तथा भगवती उमा—ये दोन ग रराज हमालयक क ाएँ ह। सारा संसार इनके चरण म म क कु ाता है॥ २२ ॥ ‘ग तशील म े तात ीराम! गंगाजीक उ के वषयम ये सारी बात मने तु बता द । ये पथगा मनी कै से ◌इं ? यह भी सुन लो। पहले तो ये आकाशमागम गयी थ ।



त ात् ये ग रराजकु मारी गंगा रमणीया देवनदीके पम देवलोकम आ ढ़ ◌इ थ । फर जल पम वा हत हो लोग के पाप दूर करती ◌इ रसातलम प ँ ची थ ’॥ २३-२४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३५॥



छ ीसवाँ सग देवता



का शव-पावतीको सुरत



डासे नवृ करना तथा उमादेवीका देवता पृ ीको शाप देना



और



व ा म जीक बात समा होनेपर ीराम और ल ण दोन वीर ने उनक कही ◌इ कथाका अ भन न करके मु नवर व ा म से इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘ न्! आपने यह बड़ी उ म धमयु कथा सुनायी। अब आप ग रराज हमवा े पु ी गंगाके द लोक तथा मनु लोकसे स होनेका वृ ा व ारके साथ सुनाइये; क आप व ृत वृ ा के ाता ह॥ २ ॥ ‘लोकको प व करनेवाली गंगा कस कारणसे तीन माग म वा हत होती ह? स रता म े गंगाक ‘ पथगा’ नामसे स ◌इ?॥ ३ ॥ ‘धम महष! तीन लोक म वे अपनी तीन धारा के ारा कौन-कौन-से काय करती ह?’ ीरामच जीके इस कार पूछनेपर तपोधन व ा म ने मु नम लीके बीच गंगाजीसे स रखनेवाली सारी बात पूण पसे कह सुनाय —॥ ४ १/२ ॥ ‘ ीराम! पूवकालम महातप ी भगवान् नीलक ने उमादेवीके साथ ववाह करके उनको नववधूके पम अपने नकट आयी देख उनके साथ र त- डा आर क ॥ ५ १/२ ॥ ‘परम बु मान् महान् देवता भगवान् नीलक के उमादेवीके साथ डा- वहार करते सौ द वष बीत गये॥ ६ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले ीराम! इतने वष तक वहारके बाद भी महादेवजीके उमादेवीके गभसे को◌इ पु नह आ। यह देख ा आ द सभी देवता उ रोकनेका उ ोग करने लगे॥ ७ ॥ ‘उ ने सोचा—इतने दीघकालके प ात् य द के तेजसे उमादेवीके गभसे को◌इ महान् ाणी कट हो भी जाय तो कौन उसके तेजको सहन करेगा? यह वचारकर सब देवता भगवान् शवके पास जा उ णाम करके य बोले—॥ ८ ॥ ‘इस लोकके हतम त र रहनेवाले देवदेव महादेव! देवता आपके चरण म म क क ु ाते ह। इससे स होकर आप इन देवता पर कृ पा कर॥ ९ ॥



‘सुर



े ! ये लोक आपके तेजको नह धारण कर सकगे; अत: आप डासे नवृ हो वेदबो धत तप ासे यु होकर उमादेवीके साथ तप क जये॥ १० ॥ ‘तीन लोक के हतक कामनासे अपने तेज (वीय) को तेज: प अपने-आपम ही धारण क जये। इन सब लोक क र ा क जये। लोक का वनाश न कर डा लये’॥ ११ ॥ ‘देवता क यह बात सुनकर सवलोकमहे र शवने ‘ब त अ ा’ कहकर उनका अनुरोध ीकार कर लया; फर उनसे इस कार कहा—॥ १२ ॥ ‘देवताओ! उमास हत म अथात् हम दोन अपने तेजसे ही तेजको धारण कर लगे। पृ ी आ द सभी लोक के नवासी शा लाभ कर॥ १३ ॥ ‘ कतु सुर े गण! य द मेरा यह सव म तेज (वीय) ु होकर अपने ानसे लत हो जाय तो उसे कौन धारण करेगा?—यह मुझे बताओ’॥ १४ ॥ उनके ऐसा कहनेपर देवता ने वृषभ ज भगवान् शवसे कहा—‘भगवन्! आज आपका जो तेज ु होकर गरेगा, उसे यह पृ ीदेवी धारण करेगी’॥ १५ ॥ ‘देवता का यह कथन सुनकर महाबली देवे र शवने अपना तेज छोड़ा, जससे पवत और वन स हत यह सारी पृ ी ा हो गयी॥ १६ ॥ ‘तब देवता ने अ देवसे कहा—‘अ े! तुम वायुके सहयोगसे भगवान् शवके इस महान् तेजको अपने भीतर रख लो’॥ १७ ॥ ‘अ से ा होनेपर वह तेज ेत पवतके पम प रणत हो गया। साथ ही वहाँ द सरकं ड का वन भी कट आ, जो अ और सूयके समान तेज ी तीत होता था॥ १८ ॥ ‘उसी वनम अ ज नत महातेज ी का तके यका ादुभाव आ। तदन र ऋ षय स हत देवता ने अ स च होकर देवी उमा और भगवान् शवका बड़े भ भावसे पूजन कया॥ १९ १/२ ॥ ‘ ीराम! इसके बाद ग रराजन नी उमाके ने ोधसे लाल हो गये। उ ने सम देवता को रोषपूवक शाप दे दया। वे बोल —॥ २० १/२ ॥ ‘देवताओ! मने पु - ा क इ ासे प तके साथ समागम कया था, परंतु तुमने मुझे रोक दया। अत: अब तुमलोग भी अपनी प य से संतान उ करने यो नह रह जाओगे। आजसे तु ारी प याँ संतानो ादन नह कर सकगी—संतानहीन हो जायँगी’॥ २१-२२ ॥



‘सब



देवता से ऐसा कहकर उमादेवीने पृ थवीको भी शाप दया—‘भूम!े तेरा एक प नह रह जायगा। तू ब त क भाया होगी॥ २३ ॥ ‘खोटी बु वाली पृ ी! तू चाहती थी क मेरे पु न हो। अत: मेरे ोधसे कलु षत होकर तू भी पु ज नत सुख या स ताका अनुभव न कर सके गी’॥ २४ ॥ ‘उन सब देवता को उमादेवीके शापसे पी डत देख देवे र भगवान् शवने उस समय प म दशाक ओर ान कर दया॥ २५ ॥ ‘वहाँसे जाकर हमालय पवतके उ र भागम उसीके एक शखरपर उमादेवीके साथ भगवान् महे र तप करने लगे॥ २६ ॥ ‘ल णस हत ीराम! यह मने तु ग रराज हमवा छोटी पु ी उमादेवीका व ृत वृ ा बताया है। अब मुझसे गंगाके ादुभावक कथा सुनो’॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३६॥



सतीसवाँ सग गंगासे का तकेयक उ



का संग



जब महादेवजी तप ा कर रहे थे, उस समय इ और अ आ द स ूण देवता अपने लये सेनाप तक इ ा लेकर ाजीके पास आये॥ १ ॥ देवता को आराम देनेवाले ीराम! इ और अ स हत सम देवता ने भगवान् ाको णाम करके इस कार कहा—॥ २ ॥ ‘ भो! पूवकालम जन भगवान् महे रने हम (बीज पसे) सेनाप त दान कया था, वे उमादेवीके साथ उ म तपका आ य लेकर तप ा करते ह॥ ३ ॥ ‘ व ध- वधानके ाता पतामह! अब लोक हतके लये जो कत ा हो, उसको पूण क जये; क आप ही हमारे परम आ य ह’॥ ४ ॥ देवता क यह बात सुनकर स ूण लोक के पतामह ाजीने मधुर वचन ारा उ सा ना देते ए कहा—॥ ५ ॥ ‘देवताओ! ग रराजकु मारी पावतीने जो शाप दया है, उसके अनुसार तु अपनी प य के गभसे अब को◌इ संतान नह होगी। उमादेवीक वाणी अमोघ है; अत: वह स होकर ही रहेगी; इसम संशय नह है॥ ‘ये ह उमाक बड़ी ब हन आकाशगंगा, जनके गभम श रजीके उस तेजको ा पत करके अ देव एक ऐसे पु को ज दगे, जो देवता के श ु का दमन करनेम समथ सेनाप त होगा॥ ७ ॥ ‘ये गंगा ग रराजक े पु ी ह, अत: अपनी छोटी ब हनके उस पु को अपने ही पु के समान मानगी। उमाको भी यह ब त य लगेगा। इसम संशय नह है’॥ ८ १/२ ॥ रघुन न! ाजीका यह वचन सुनकर सब देवता कृ तकृ हो गये। उ ने ाजीको णाम करके उनका पूजन कया॥ ९ ॥ ीराम! व वध धातु से अलंकृत उ म कै लास पवतपर जाकर उन स ूण देवता ने अ देवको पु उ करनेके कायम नयु कया॥ १० ॥



वे बोले—‘देव! ताशन! यह देवता का काय है, इसे स क जये। भगवान् के उस महान् तेजको अब आप गंगाजीम ा पत कर दी जये’॥ ११ ॥ तब देवता से ‘ब त अ ा’ कहकर अ देव गंगाजीके नकट आये और बोले—‘दे व! आप इस गभको धारण कर। यह देवता का य काय है’॥ १२ ॥ अ देवक यह बात सुनकर गंगादेवीने द प धारण कर लया। उनक यह म हमा— यह प-वैभव देखकर अ देवने उस -तेजको उनके सब ओर बखेर दया॥ १३ ॥ रघुन न! अ देवने जब गंगादेवीको सब ओरसे उस -तेज ारा अ भ ष कर दया, तब गंगाजीके सारे ोत उससे प रपूण हो गये॥ १४ ॥ तब गंगाने सम देवता के अ गामी अ देवसे इस कार कहा—‘देव! आपके ारा ा पत कये गये इस बढ़े ए तेजको धारण करनेम म असमथ ँ । इसक आँ चसे जल रही ँ और मेरी चेतना थत हो गयी है’॥ १५ १/२ ॥ तब स ूण देवता के ह व को भोग लगानेवाले अ देवने गंगादेवीसे कहा—‘दे व! हमालय पवतके पा भागम इस गभको ा पत कर दी जये’॥ १६ १/२ ॥ न ाप रघुन न! अ क यह बात सुनकर महातेज नी गंगाने उस अ काशमान गभको अपने ोत से नकालकर यथो चत ानम रख दया॥ गंगाके गभसे जो तेज नकला, वह तपाये ए जा ूनद नामक सुवणके समान का मान् दखायी देने लगा (गंगा सुवणमय मे ग रसे कट ◌इ ह; अत: उनका बालक भी वैसे ही प-रंगका आ)। पृ ीपर जहाँ वह तेज ी गभ ा पत आ, वहाँक भू म तथा ेक व ु सुवणमयी हो गयी। उसके आस-पासका ान अनुपम भासे का शत होनेवाला रजत हो गया। उस तेजक ती णतासे ही दूरवत भूभागक व ुएँ ताँबे और लोहेके पम प रणत हो गय ॥ १८-१९ ॥ उस तेज ी गभका जो मल था, वही वहाँ राँगा और सीसा आ। इस कार पृ ीपर पड़कर वह तेज नाना कारके धातु के पम वृ को ा आ॥ २० ॥ पृ ीपर उस गभके रखे जाते ही उसके तेजसे ा होकर पूव ेतपवत और उससे स रखनेवाला सारा वन सुवणमय होकर जगमगाने लगा॥ २१ ॥



पु ष सह रघुन न! तभीसे अ के समान का शत होनेवाले सुवणका नाम जात प हो गया; क उसी समय सुवणका तेज ी प कट आ था। उस गभके स कसे वहाँका तृण, वृ , लता और गु —सब कु छ सोनेका हो गया॥ २२ ॥ तदन र इ और म ण स हत स ूण देवता ने वहाँ उ ए कु मारको दूध पलानेके लये छह कृ का को नयु कया॥ २३ ॥ तब उन कृ का ने ‘यह हम सबका पु हो’ ऐसी उ म शत रखकर और इस बातका न त व ास लेकर उस नवजात बालकको अपना दूध दान कया॥ २४ ॥ उस समय सब देवता बोले—‘यह बालक का तके य कहलायेगा और तुमलोग का भुवन व ात पु होगा—इसम संशय नह है’॥ २५ ॥ देवता का यह अनुकूल वचन सुनकर शव और पावतीसे त ( लत) तथा गंगा ारा गभ ाव होनेपर कट ए अ के समान उ म भासे का शत होनेवाले उस बालकको कृ का ने नहलाया॥ २६ ॥ ककु कु लभूषण ीराम! अ तु तेज ी महाबा का तके य गभ ावकालम त ए थे; इस लये देवता ने उ कहकर पुकारा॥ २७ ॥ तदन र कृ का के न म परम उ म दूध कट आ। उस समय ने अपने छ: मुख कट करके उन छह का एक साथ ही नपान कया॥ २८ ॥ एक ही दन दूध पीकर उस सुकुमार शरीरवाले श शाली कु मारने अपने परा मसे दै क सारी सेना पर वजय ा क ॥ २९ ॥ त ात् अ आ द सब देवता ने मलकर उन महातेज ी का देवसेनाप तके पदपर अ भषेक कया॥ ३० ॥ ीराम! यह मने तु गंगाजीके च र को व ारपूवक बताया है; साथ ही कु मार का तके यके ज का भी संग सुनाया है, जो ोताको ध एवं पु ा ा बनानेवाला है॥ ३१ ॥



काकु ! इस पृ ीपर जो मनु का तके यम भ भाव रखता है, वह इस लोकम दीघायु तथा पु -पौ से स हो मृ ुके प ात् के लोकम जाता है॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म सतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३७॥



अड़तीसवाँ सग राजा सगरके पु क उ



तथा य क तैयारी



व ा म जीने मधुर अ र से यु वह कथा ीरामको सुनाकर फर उनसे दूसरा संग इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘वीर! पहलेक बात है, अयो ाम सगर नामसे स एक धमा ा राजा रा करते थे। उ को◌इ पु नह था; अत: वे पु - ा के लये सदा उ ुक रहा करते थे॥ २ ॥ ‘ ीराम! वदभराजकु मारी के शनी राजा सगरक े प ी थी। वह बड़ी धमा ा और स वा दनी थी॥ ३ ॥ ‘सगरक दूसरी प ीका नाम सुम त था। वह अ र ने म क पक पु ी तथा ग डक ब हन थी॥ ४ ॥ ‘महाराज सगर अपनी उन दोन प य के साथ हमालय पवतपर जाकर भृगु वण नामक शखरपर तप ा करने लगे॥ ५ ॥ ‘सौ वष पूण होनेपर उनक तप ा ारा स ए स वा दय म े मह ष भृगुने राजा सगरको वर दया॥ ६ ॥ ‘ न ाप नरेश! तु ब त-से पु क ा होगी। पु ष वर! तुम इस संसारम अनुपम क त ा करोगे॥ ७ ॥ ‘तात! तु ारी एक प ी तो एक ही पु को ज देगी, जो अपनी वंशपर राका व ार करनेवाला होगा तथा दूसरी प ी साठ हजार पु क जननी होगी॥ ८ ॥ ‘महा ा भृगु जब इस कार कह रहे थे, उस समय उन दोन राजकु मा रय (रा नय )-ने उ स करके यं भी अ आन त हो दोन हाथ जोड़कर पूछा—॥ ९ ॥ ‘ न्! कस रानीके एक पु होगा और कौन ब त-से पु क जननी होगी? हम दोन यह सुनना चाहती ह। आपक वाणी स हो’॥ १० ॥ ‘उन दोन क यह बात सुनकर परम धमा ा भृगुने उ म वाणीम कहा—‘दे वयो! तुमलोग यहाँ अपनी इ ा कट करो। तु वंश चलानेवाला एक ही पु ा हो अथवा महान्



बलवान्, यश ी एवं अ उ ाही ब त-से पु ? इन दो वर मसे कस वरको कौन-सी रानी हण करना चाहती है?’॥ ११-१२ ॥ ‘रघुकुलन न ीराम! मु नका यह वचन सुनकर के शनीने राजा सगरके समीप वंश चलानेवाले एक ही पु का वर हण कया॥ १३ ॥ ‘तब ग ड़क ब हन सुम तने महान् उ ाही और यश ी साठ हजार पु को ज देनेका वर ा कया॥ १४ ॥ ‘रघुन न! तदन र रा नय स हत राजा सगरने मह षक प र मा करके उनके चरण म म क कु ाया और अपने नगरको ान कया॥ १५ ॥ ‘कु छ काल तीत होनेपर बड़ी रानी के शनीने सगरके औरस पु ‘असम ’ को ज दया॥ १६ ॥ ‘पु ष सह! (छोटी रानी) सुम तने तूँबीके आकारका एक गभ प उ कया। उसको फोड़नेसे साठ हजार बालक नकले॥ १७ ॥ ‘उ घीसे भरे ए घड़ म रखकर धाइयाँ उनका पालन-पोषण करने लग । धीरे-धीरे जब ब त दन बीत गये, तब वे सभी बालक युवाव ाको ा ए॥ ‘इस तरह दीघकालके प ात् राजा सगरके प और युवाव ासे सुशो भत होनेवाले साठ हजार पु तैयार हो गये॥ १९ ॥ ‘नर े रघुन न! सगरका े पु असम नगरके बालक को पकड़कर सरयूके जलम फ क देता और जब वे डू बने लगते, तब उनक ओर देखकर हँ सा करता॥ २० १/२ ॥ ‘इस कार पापाचारम वृ होकर जब वह स ु ष को पीड़ा देने और नगरनवा सय का अ हत करने लगा, तब पताने उसे नगरसे बाहर नकाल दया॥ २१ १/२ ॥ ‘असम के पु का नाम था अंशुमान्। वह बड़ा ही परा मी, सबसे मधुर वचन बोलनेवाला तथा सब लोग को य था॥ २२ १/२ ॥ ‘नर े ! कु छ कालके अन र महाराज सगरके मनम यह न त वचार आ क ‘म य क ँ ’॥ २३ १/२ ॥ ‘यह ढ़ न य करके वे वेदवे ा नरेश अपने उपा ाय के साथ य करनेक तैयारीम लग गये’॥ २४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म अड़तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३८॥



उनतालीसवाँ सग इ के ारा राजा सगरके य स ी अ का अपहरण, सगरपु ारा सारी पृ ीका भेदन तथा देवता का ाजीको यह सब समाचार बताना



व ा म जीक कही ◌इ कथा सुनकर ीरामच जी बड़े स ए। उ ने कथाके अ म अ तु तेज ी व ा म मु नसे कहा—॥ १ ॥ ‘ न्! आपका क ाण हो। म इस कथाको व ारके साथ सुनना चाहता ँ । मेरे पूवज महाराज सगरने कस कार य कया था?’॥ २ ॥ उनक वह बात सुनकर व ा म जीको बड़ा कौतूहल आ। वे यह सोचकर क म जो कु छ कहना चाहता ँ , उसीके लये ये कर रहे ह, जोर-जोरसे हँ स पड़े। हँ सते ए-से ही उ ने ीरामसे कहा—॥ ‘राम! तुम महा ा सगरके य का व ारपूवक वणन सुनो। पु षो म! श रजीके शुर हमवान् नामसे व ात पवत व ाचलतक प ँ चकर तथा व पवत हमवा क प ँ चकर दोन एक-दूसरेको देखते ह (इन दोन के बीचम दूसरा को◌इ ऐसा ऊँ चा पवत नह है, जो दोन के पार रक दशनम बाधा उप त कर सके )। इ दोन पवत के बीच आयावतक पु भू मम उस य का अनु ान आ था॥ ४-५ ॥ ‘पु ष सह! वही देश य करनेके लये उ म माना गया है। तात ककु न न! राजा सगरक आ ासे य य अ क र ाका भार सु ढ़ धनुधर महारथी अंशुमा े ीकार कया था॥ ६ १/२ ॥ ‘परंतु पवके दन य म लगे ए राजा सगरके य स ी घोड़ेको इ ने रा सका प धारण करके चुरा लया॥ ७ १/२ ॥ ‘काकु ! महामना सगरके उस अ का अपहरण होते समय सम ऋ ज ने यजमान सगरसे कहा— ‘ककु न न! आज पवके दन को◌इ इस य स ी अ को चुराकर बड़े वेगसे लये जा रहा है। आप चोरको मा रये और घोड़ा वापस लाइये, नह तो य म व पड़ जायगा और वह हम सब लोग के लये अमंगलका कारण होगा। राजन्! आप ऐसा य क जये, जससे यह य बना कसी व -बाधाके प रपूण हो’॥



‘उस य -सभाम बैठे कहा—‘पु ष वर पु ो!



ए राजा सगरने उपा ाय क बात सुनकर अपने साठ हजार पु से यह महान् य वेदम से प व अ :करणवाले महाभाग महा ा ारा स ा दत हो रहा है; अत: यहाँ रा स क प ँ च हो, ऐसा मुझे नह दखायी देता (अत: यह अ चुरानेवाला को◌इ देवको टका पु ष होगा)॥ ‘अत: पु ो! तुमलोग जाओ, घोड़ेक खोज करो। तु ारा क ाण हो। समु से घरी ◌इ इस सारी पृ ीको छान डालो। एक-एक योजन व ृत भू मको बाँटकर उसका च ाच ा देख डालो। जबतक घोड़ेका पता न लग जाय, तबतक मेरी आ ासे इस पृ ीको खोदते रहो। इस खोदनेका एक ही ल है— उस अ के चोरको ढूँ ढ़ नकालना॥ १३—१५ ॥ ‘म य क दी ा ले चुका ँ , अत: यं उसे ढूँ ढ़नेके लये नह जा सकता; इस लये जबतक उस अ का दशन न हो, तबतक म उपा ाय और पौ अंशुमा े साथ यह र ँ गा’॥ १६ ॥ ‘ ीराम! पताके आदेश पी ब नसे बँधकर वे सभी महाबली राजकु मार मन-ही-मन हषका अनुभव करते ए भूतलपर वचरने लगे॥ १७ ॥ ‘सारी पृ ीका च र लगानेके बाद भी उस अ को न देखकर उन महाबली पु ष सह राजपु ने ेकके ह ेम एक-एक योजन भू मका बँटवारा करके अपनी भुजा ारा उसे खोदना आर कया। उनक उन भुजा का श व के शक भाँ त दु ह था॥ १८ ॥ ‘रघुन न! उस समय व तु शूल और अ दा ण हल ारा सब ओरसे वदीण क जाती ◌इ वसुधा आतनाद करने लगी॥ १९ ॥ ‘रघुवीर! उन राजकु मार ारा मारे जाते ए नाग , असुर , रा स तथा दूसरे-दूसरे ा णय का भयंकर आतनाद गूँजने लगा॥ २० ॥ ‘रघुकुलको आन त करनेवाले ीराम! उ ने साठ हजार योजनक भू म खोद डाली। मानो वे सव म रसातलका अनुसंधान कर रहे ह ॥ २१ ॥ ‘नृप े राम! इस कार पवत से यु ज ू ीपक भू म खोदते ए वे राजकु मार सब ओर च र लगाने लगे॥ २२ ॥ ‘इसी समय ग व , असुर और नाग स हत स ूण देवता मन-ही-मन घबरा उठे और ाजीके पास गये॥ २३ ॥



‘उनके



मुखपर वषाद छा रहा था। वे भयसे अ सं हो गये थे। उ ने महा ा ाजीको स करके इस कार कहा—॥ २४ ॥ ‘भगवन्! सगरके पु इस सारी पृ ीको खोदे डालते ह और ब त-से महा ा तथा जलचारी जीव का वध कर रहे ह॥ २५ ॥ ‘यह हमारे य म व डालनेवाला है। यह हमारा अ चुराकर ले जाता है’ ऐसा कहकर वे सगरके पु सम ा णय क हसा कर रहे ह’॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म उनतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ३९॥



चालीसवाँ सग सगरपु के भावी वनाशक सूचना देकर ाजीका देवता को शा करना, सगरके पु का पृ ीको खोदते ए क पलजीके पास प ँ चना और उनके रोषसे जलकर भ होना



देवता क बात सुनकर भगवान् ाजीने कतने ही ा णय का अ करनेवाले सगरपु के बलसे मो हत एवं भयभीत ए उन देवता से इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘देवगण! यह सारी पृ ी जन भगवान् वासुदेवक व ु है तथा जन भगवान् ल ीप तक यह रानी है, वे ही सवश मान् भगवान् ीह र क पल मु नका प धारण करके नर र इस पृ ीको धारण करते ह। उनक कोपा से ये सारे राजकु मार जलकर भ हो जायँगे॥ २-३ ॥ ‘पृ ीका यह भेदन सनातन है— ेक क म अव ावी है। ( ु तय और ृ तय म आये ए सागर आ द श से यह बात सु ात होती है।) इसी कार दूरदश पु ष ने सगरके पु का भावी वनाश भी देखा ही है; अत: इस वषयम शोक करना अनु चत है’॥ ाजीका यह कथन सुनकर श ु का दमन करनेवाले ततीस देवता बड़े हषम भरकर जैसे आये थे, उसी तरह पुन: लौट गये॥ ५ ॥ सगरपु के हाथसे जब पृ ी खोदी जा रही थी, उस समय उससे व पातके समान बड़ा भयंकर श होता था॥ ६ ॥ इस तरह सारी पृ ी खोदकर तथा उसक प र मा करके वे सभी सगरपु पताके पास खाली हाथ लौट आये और बोले—॥ ७ ॥ ‘ पताजी! हमने सारी पृ ी छान डाली। देवता, दानव, रा स, पशाच और नाग आ द बड़े-बड़े बलवान् ा णय को मार डाला। फर भी हम न तो कह घोड़ा दखायी दया और न घोड़ेका चुरानेवाला ही। आपका भला हो। अब हम ा कर? इस वषयम आप ही को◌इ उपाय सो चये’॥ ८-९ ॥ ‘रघुन न! पु का यह वचन सुनकर राजा म े सगरने उनसे कु पत होकर कहा—॥ १० ॥



‘जाओ,



फरसे सारी पृ ी खोदो और इसे वदीण करके घोड़ेके चोरका पता लगाओ। चोरतक प ँ चकर काम पूरा होनेपर ही लौटना’॥ ११ ॥ अपने महा ा पता सगरक यह आ ा शरोधाय करके वे साठ हजार राजकु मार रसातलक ओर बढ़े (और रोषम भरकर पृ ी खोदने लगे)॥ १२ ॥ उस खुदा◌इके समय ही उ एक पवताकार द ज दखायी दया, जसका नाम व पा है। वह इस भूतलको धारण कये ए था॥ १३ ॥ रघुन न! महान् गजराज व पा ने पवत और वन स हत इस स ूण पृ ीको अपने म कपर धारण कर रखा था॥ १४ ॥ काकु ! वह महान् द ज जस समय थककर व ामके लये अपने म कको इधरउधर हटाता था, उस समय भूक होने लगता था॥ १५ ॥ ीराम! पूव दशाक र ा करनेवाले वशाल गजराज व पा क प र मा करके उसका स ान करते ए वे सगरपु रसातलका भेदन करके आगे बढ़ गये॥ १६ ॥ पूव दशाका भेदन करनेके प ात् वे पुन: द ण दशाक भू मको खोदने लगे। द ण दशाम भी उ एक महान् द ज दखायी दया॥ १७ ॥ उसका नाम था महाप । महान् पवतके समान ऊँ चा वह वशालकाय गजराज अपने म कपर पृ ीको धारण करता था। उसे देखकर उन राजकु मार को बड़ा व य आ॥ १८ ॥ महा ा सगरके वे साठ हजार पु उस द जक प र मा करके प म दशाक भू मका भेदन करने लगे॥ १९ ॥ प म दशाम भी उन महाबली सगरपु ने महान् पवताकार द ज सौमनसका दशन कया॥ २० ॥ उसक भी प र मा करके उसका कु शल-समाचार पूछकर वे सभी राजकु मार भू म खोदते ए उ र दशाम जा प ँ चे॥ २१ ॥ रघु े ! उ र दशाम उ हमके समान ेतभ नामक द ज दखायी दया, जो अपने क ाणमय शरीरसे इस पृ ीको धारण कये ए था॥ २२ ॥ उसका कु शल-समाचार पूछकर राजा सगरके वे सभी साठ हजार पु उसक प र मा करनेके प ात् भू म खोदनेके कामम जुट गये॥ २३ ॥



तदन र सु व ात पूव र दशाम जाकर उन सगरकु मार ने एक साथ होकर रोषपूवक पृ ीको खोदना आर कया॥ २४ ॥ इस बार उन सभी महामना, महाबली एवं भयानक वेगशाली राजकु मार ने वहाँ सनातन वासुदेव प भगवान् क पलको देखा॥ २५ ॥ राजा सगरके य का वह घोड़ा भी भगवान् क पलके पास ही चर रहा था। रघुन न! उसे देखकर उन सबको अनुपम हष ा आ॥ २६ ॥ भगवान् क पलको अपने य म व डालनेवाला जानकर उनक आँ ख ोधसे लाल हो गय । उ ने अपने हाथ म खंती, हल और नाना कारके वृ एवं प र के टुकड़े ले रखे थे॥ २७ ॥ वे अ रोषम भरकर उनक ओर दौड़े और बोले— ‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह। तू ही हमारे य के घोड़ेको यहाँ चुरा लाया है। दुबु े! अब हम आ गये। तू समझ ले, हम महाराज सगरके पु ह’॥ २८ १/२ ॥ रघुन न! उनक बात सुनकर भगवान् क पलको बड़ा रोष आ और उस रोषके आवेशम ही उनके मुँहसे एक कं ार नकल पड़ा॥ २९ १/२ ॥ ीराम! उस कं ारके साथ ही उन अन भावशाली महा ा क पलने उन सभी सगरपु को जलाकर राखका ढेर कर दया॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म चालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४०॥



इकतालीसवाँ सग सगरक आ ासे अंशुमा



ा रसातलम जाकर घोड़ेको ले आना और अपने चाचा नधनका समाचार सुनाना



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रघुन न! ‘पु को गये ब त दन हो गये’—ऐसा जानकर राजा सगरने अपने पौ अंशुमा ,े जो अपने तेजसे देदी मान हो रहा था, इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘व ! तुम शूरवीर, व ान् तथा अपने पूवज के तु तेज ी हो। तुम भी अपने चाचा के पथका अनुसरण करो और उस चोरका पता लगाओ, जसने मेरे य -स ी अ का अपहरण कर लया है॥ २ ॥ ‘देखो, पृ ीके भीतर बड़े-बड़े बलवान् जीव रहते ह; अत: उनसे ट र लेनेके लये तुम तलवार और धनुष भी लेते जाओ॥ ३ ॥ ‘जो व नीय पु ष ह , उ णाम करना और जो तु ारे मागम व डालनेवाले ह , उनको मार डालना। ऐसा करते ए सफलमनोरथ होकर लौटो और मेरे इस य को पूण कराओ’॥ ४ ॥ महा ा सगरके ऐसा कहनेपर शी तापूवक परा म कर दखानेवाला वीरवर अंशुमान् धनुष और तलवार लेकर चल दया॥ ५ ॥ नर े ! उसके महामन ी चाचा ने पृ ीके भीतर जो माग बना दया था, उसीपर वह राजा सगरसे े रत होकर गया॥ ६ ॥ वहाँ उस महातेज ी वीरने एक द जको देखा, जसक देवता, दानव, रा स, पशाच, प ी और नाग—सभी पूजा कर रहे थे॥ ७ ॥ उसक प र मा करके कु शल-मंगल पूछकर अंशुमा े उस द जसे अपने चाचा का समाचार तथा अ चुरानेवालेका पता पूछा॥ ८ ॥ उसका सुनकर परम बु मान् द जने इस कार उ र दया—‘असमंजकु मार! तुम अपना काय स करके घोड़ेस हत शी लौट आओगे’॥ ९ ॥ उसक यह बात सुनकर अंशुमा े मश: सभी द ज से ायानुसार उ पूछना आर कया॥ १० ॥



वा के ममको समझने तथा बोलनेम कु शल उन सम द ज ने अंशुमा ा स ार कया और यह शुभ कामना कट क क तुम घोड़ेस हत लौट आओगे॥ उनका यह आशीवाद सुनकर अंशुमान् शी तापूवक पैर बढ़ाता आ उस ानपर जा प ँ चा, जहाँ उसके चाचा सगरपु राखके ढेर ए पड़े थे॥ १२ ॥ उनके वधसे असमंजपु अंशुमा ो बड़ा दु:ख आ। वह शोकके वशीभूत हो अ आतभावसे फू ट-फू टकर रोने लगा॥ १३ ॥ दु:ख-शोकम डू बे ए पु ष सह अंशुमा े अपने य -स ी अ को भी वहाँ पास ही चरते देखा॥ १४ ॥ महातेज ी अंशुमा े उन राजकु मार को जला ल देनेके लये जलक इ ा क ; कतु वहाँ कह भी को◌इ जलाशय नह दखायी दया॥ १५ ॥ ीराम! तब उसने दूरतकक व ु को देखनेम समथ अपनी को फै लाकर देखा। उस समय उसे वायुके समान वेगशाली प राज ग ड़ दखायी दये, जो उसके चाचा (सगरपु ) के मामा थे॥ १६ ॥ महाबली वनतान न ग ड़ने अंशुमा े कहा— ‘पु ष सह! शोक न करो। इन राजकु मार का वध स ूण जग े मंगलके लये आ है॥ १७ ॥ ‘ व न्! अन भावशाली महा ा क पलने इन महाबली राजकु मार को द कया है। इनके लये तु लौ कक जलक अ ल देना उ चत नह है॥ १८ ॥ ‘नर े ! महाबाहो! हमवा जो े पु ी गंगाजी ह, उ के जलसे अपने इन चाचा का तपण करो॥ १९ ॥ ‘ जस समय लोकपावनी गंगा राखके ढेर होकर गरे ए उन साठ हजार राजकु मार को अपने जलसे आ ा वत करगी, उसी समय उन सबको गलोकम प ँ चा दगी। लोककमनीया गंगाके जलसे भीगी ◌इ यह भ रा श इन सबको गलोकम भेज देगी॥ २० ॥ ‘महाभाग! पु ष वर! वीर! अब तुम घोड़ा लेकर जाओ और अपने पतामहका य पूण करो’॥ २१ ॥ ग ड़क यह बात सुनकर अ परा मी महातप ी अंशुमान् घोड़ा लेकर तुरंत लौट आया॥



रघुन न! य म दी त ए राजाके पास आकर उसने सारा समाचार नवेदन कया और ग ड़क बतायी ◌इ बात भी कह सुनायी॥ २३ ॥ अंशुमा े मुखसे यह भयंकर समाचार सुनकर राजा सगरने क ो नयमके अनुसार अपना य व धवत् पूण कया॥ २४ ॥ य समा करके पृ ीप त महाराज सगर अपनी राजधानीको लौट आये। वहाँ आनेपर उ ने गंगाजीको ले आनेके वषयम ब त वचार कया; कतु वे कसी न यपर न प ँ च सके ॥ २५ ॥ दीघकालतक वचार करनेपर भी उ को◌इ न त उपाय नह सूझा और तीस हजार वष तक रा करके वे गलोकको चले गये॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म इकतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४१॥



बयालीसवाँ सग अंशुमान् और भगीरथक तप ा, ाजीका भगीरथको अभी वर देकर गंगाजीको धारण करनेके लये भगवान् श रको राजी करनेके न म य करनेक सलाह देना



ीराम! सगरक मृ ु हो जानेपर जाजन ने परम धमा ा अंशुमा ो राजा बनानेक च कट क ॥ १ ॥ रघुन न! अंशुमान् बड़े तापी राजा ए। उनके पु का नाम दलीप था। वह भी एक महान् पु ष था॥ २ ॥ रघुकुलको आन त करनेवाले वीर! अंशुमान् दलीपको रा देकर हमालयके रमणीय शखरपर चले गये और वहाँ अ कठोर तप ा करने लगे॥ ३ ॥ महान् यश ी राजा अंशुमा े उस तपोवनम जाकर ब ीस हजार वष तक तप कया। तप ाके धनसे स ए उस नरेशने वह शरीर ागकर गलोक ा कया॥ ४ ॥ अपने पतामह के वधका वृ ा सुनकर महातेज ी दलीप भी ब त दु:खी रहते थे। अपनी बु से ब त सोचने- वचारनेके बाद भी वे कसी न यपर नह प ँ च सके ॥ ५ ॥ वे सदा इसी च ाम डू बे रहते थे क कस कार पृ ीपर गंगाजीका उतरना स व होगा? कै से गंगाजल ारा उ जला ल दी जायेगी और कस कार म अपने उन पतर का उ ार कर सकूँ गा॥ ६ ॥ त दन इ सब च ा म पड़े ए राजा दलीपको, जो अपने धमाचरणसे ब त व ात थे, भगीरथ नामक एक परम धमा ा पु ा आ॥ ७ ॥ महातेज ी दलीपने ब त-से य का अनु ान तथा तीस हजार वष तक रा कया॥ ८ ॥



पु ष सह! उन पतर के उ ारके वषयम कसी न यको न प ँ चकर राजा दलीप रोगसे पी ड़त हो मृ ुको ा हो गये॥ ९ ॥ पु भगीरथको रा पर अ भ ष करके नर े राजा दलीप अपने कये ए पु कमके भावसे इ लोकम गये॥ १० ॥



रघुन न! धमा ा राज ष महाराज भगीरथके को◌इ संतान नह थी। वे संतान- ा क इ ा रखते थे तो भी जा और रा क र ाका भार म य पर रखकर गंगाजीको पृ ीपर उतारनेके य म लग गये और गोकणतीथम बड़ी भारी तप ा करने लगे॥ ११-१२ ॥ महाबाहो! वे अपनी दोन भुजाएँ ऊपर उठाकर प ा का सेवन करते और इ य को काबूम रखकर एक-एक महीनेपर आहार हण करते थे। इस कार घोर तप ाम लगे ए महा ा राजा भगीरथके एक हजार वष तीत हो गये॥ १३ १/२ ॥ इससे जा के ामी भगवान् ाजी उनपर ब त स ए। पतामह ाने देवता के साथ वहाँ आकर तप ाम लगे ए महा ा भगीरथसे इस कार कहा—॥ १४-१५ ॥ ‘महाराज



भगीरथ! तु ारी इस उ म तप ासे म ब त स ँ । े तका पालन करनेवाले नरे र! तुम को◌इ वर माँगो’॥ १६ ॥ तब महातेज ी महाबा भगीरथ हाथ जोड़कर उनके सामने खड़े हो गये और उन सवलोक पतामह ासे इस कार बोले—॥ १७ ॥ ‘भगवन्! य द आप मुझपर स ह और य द इस तप ाका को◌इ उ म फल है तो सगरके सभी पु को मेरे हाथसे गंगाजीका जल ा हो॥ १८ ॥ ‘इन महा ा क भ रा शके गंगाजीके जलसे भीग जानेपर मेरे उन सभी पतामह को अ य गलोक मले॥ १९ ॥ ‘देव! म संत तके लये भी आपसे ाथना करता ँ । हमारे कु लक पर रा कभी न न हो। भगवन्! मेरे ारा माँगा आ उ म वर स ूण इ ाकु वंशके लये लागू होना चा हये’॥ २० ॥



राजा भगीरथके ऐसा कहनेपर सवलोक पतामह ाजीने मधुर अ र वाली परम क ाणमयी मीठी वाणीम कहा—॥ २१ ॥ ‘इ ाकु वंशक वृ करनेवाले महारथी भगीरथ! तु ारा क ाण हो। तु ारा यह महान् मनोरथ इसी पम पूण हो॥ २२ ॥ ‘राजन्! ये ह हमालयक े पु ी हैमवती गंगाजी। इनको धारण करनेके लये भगवान् श रको तैयार करो॥ २३ ॥



‘महाराज!



गंगाजीके गरनेका वेग यह पृ ी नह सह सके गी। म शूलधारी भगवान् श रके सवा और कसीको ऐसा नह देखता, जो इ धारण कर सके ’॥ २४ ॥ राजासे ऐसा कहकर लोक ा ाजीने भगवती गंगासे भी भगीरथपर अनु ह करनेके लये कहा। इसके बाद वे स ूण देवता तथा म ण के साथ गलोकको चले गये॥ २५ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म बयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४२॥



ततालीसवाँ सग भगीरथक तप ासे संतु ए भगवान् श रका गंगाको अपने सरपर धारण करके ब स ु रोवरम छोड़ना और उनका सात धारा म वभ हो भगीरथके साथ जाकर उनके पतर का उ ार करना



ीराम! देवा धदेव ाजीके चले जानेपर राजा भगीरथ पृ ीपर के वल अँगूठेके अ भागको टकाये ए खड़े हो एक वषतक भगवान् श रक उपासनाम लगे रहे॥ १ ॥ वष पूरा होनेपर सवलोकव त उमाव भ भगवान् पशुप तने कट होकर राजासे इस कार कहा—॥ २ ॥ ‘नर े ! म तुमपर ब त स ँ । तु ारा य काय अव क ँ गा। म ग रराजकु मारी गंगादेवीको अपने म कपर धारण क ँ गा’॥ ३ ॥ ीराम! श रजीक ीकृ त मल जानेपर हमालयक े पु ी गंगाजी, जनके चरण म सारा संसार म क कु ाता है, ब त बड़ा प धारण करके अपने वेगको दु ह बनाकर आकाशसे भगवान् श रके शोभायमान म कपर गर ॥ ४ १/२ ॥ उस समय परम दुधर गंगादेवीने यह सोचा था क म अपने खर वाहके साथ श रजीको लये- दये पातालम घुस जाऊँ गी॥ ५ १/२ ॥ उनके इस अहंकारको जानकर ने धारी भगवान् हर कु पत हो उठे और उ ने उस समय गंगाको अ कर देनेका वचार कया॥ ६ १/२ ॥ पु पा गंगा भगवान् के प व म कपर गर । उनका वह म क जटाम ल पी गुफासे सुशो भत हमालयके समान जान पड़ता था। उसपर गरकर वशेष य करनेपर भी कसी तरह वे पृ ीपर न जा सक ॥ ७-८ ॥ भगवान् शवके जटा-जालम उलझकर कनारे आकर भी गंगादेवी वहाँसे नकलनेका माग न पा सक और ब त वष तक उस जटाजूटम ही भटकती रह ॥ ९ ॥ रघुन न! भगीरथने देखा, गंगाजी भगवान् श रके जटाम लम अ हो गयी ह; तब वे पुन: वहाँ भारी तप ाम लग गये। उस तप ा ारा उ ने भगवान् शवको ब त संतु कर लया॥ १० ॥



तब महादेवजीने गंगाजीको ब सु रोवरम ले जाकर छोड़ दया। वहाँ छू टते ही उनक सात धाराएँ हो गय ॥ ११ ॥ ा दनी, पावनी और न लनी—ये क ाणमय जलसे सुशो भत गंगाक तीन मंगलमयी धाराएँ पूव दशाक ओर चली गय ॥ १२ ॥ सुच ,ु सीता और महानदी स ु—ये तीन शुभ धाराएँ प म दशाक ओर वा हत ◌इं ॥ १३ ॥ उनक अपे ा जो सातव धारा थी, वह महाराज भगीरथके रथके पीछे-पीछे चलने लगी। महातेज ी राज ष भगीरथ भी द रथपर आ ढ़ हो आगे-आगे चले और गंगा उ के पथका अनुसरण करने लग । इस कार वे आकाशसे भगवान् श रके म कपर और वहाँसे इस पृ ीपर आयी थ ॥ १४-१५ ॥ गंगाजीक वह जलरा श महान् कलकल नादके साथ ती ग तसे वा हत ◌इ। म , क प और शशुमार (सूँस) ंडु -के - ंडु उसम गरने लगे। उन गरे ए जलज ु से वसु राक बड़ी शोभा हो रही थी॥ १६ १/२ ॥ तदन र देवता, ऋ ष, ग व, य और स गण नगरके समान आकारवाले वमान , घोड़ तथा गजराज पर बैठकर आकाशसे पृ ीपर गयी ◌इ गंगाजीक शोभा नहारने लगे॥ १७-१८ ॥ देवतालोग आ यच कत होकर वहाँ खड़े थे। जग गंगावतरणके इस अ तु एवं उ म को देखनेक इ ासे अ मत तेज ी देवता का समूह वहाँ जुटा आ था॥ १९ १/२ ॥ ती ग तसे आते ए देवता तथा उनके द आभूषण के काशसे वहाँका मेघर हत नमल आकाश इस तरह का शत हो रहा था, मानो उसम सैकड़ सूय उ दत हो गये ह ॥ २० १/ ॥ २



शशुमार, सप तथा च ल म समूह के उछलनेसे गंगाजीके जलसे ऊपरका आकाश ऐसा जान पड़ता था, मानो वहाँ च ल चपला का काश सब ओर ा हो रहा हो॥ २१ १/ ॥ २



वायु आ दसे सह टुकड़ म बँटे ए फे न आकाशम सब ओर फै ल रहे थे। मानो शरद-् ऋतुके ेत बादल अथवा हंस उड़ रहे ह ॥ २२ १/२ ॥



गंगाजीक वह धारा कह तेज, कह टेढ़ी और कह चौड़ी होकर बहती थी। कह बलकु ल नीचेक ओर गरती और कह ऊँ चेक ओर उठी ◌इ थी। कह समतल भू मपर वह धीरे-धीरे बहती थी और कह -कह अपने ही जलसे उसके जलम बार ार ट र लगती रहती थ ॥ २३-२४ ॥ गंगाका वह जल बार-बार ऊँ चे मागपर उठता और पुन: नीची भू मपर गरता था। आकाशसे भगवान् श रके म कपर तथा वहाँसे फर पृ ीपर गरा आ वह नमल एवं प व गंगाजल उस समय बड़ी शोभा पा रहा था॥ उस समय भूतल नवासी ऋ ष और ग व यह सोचकर क भगवान् श रके म कसे गरा आ यह जल ब त प व है, उसम आचमन करने लगे॥ २६ १/२ ॥ जो शाप होकर आकाशसे पृ ीपर आ गये थे, वे गंगाके जलम ान करके न ाप हो गये तथा उस जलसे पाप धुल जानेके कारण पुन: शुभ पु से संयु हो आकाशम प ँ चकर अपने लोक को पा गये॥ उस काशमान जलके स कसे आन त ए स ूण जग ो सदाके लये बड़ी स ता ◌इ। सब लोग गंगाम ान करके पापहीन हो गये॥ २९ १/२ ॥ (हम पहले बता आये ह क) राज ष महाराज भगीरथ द रथपर आ ढ़ हो आगे-आगे चल रहे थे और गंगाजी उनके पीछे-पीछे जा रही थ ॥ ३० १/२ ॥ ीराम! उस समय सम देवता, ऋ ष, दै , दानव, रा स, ग व, य वर, क र, बड़े-बड़े नाग, सप तथा अ रा—ये सब लोग बड़ी स ताके साथ राजा भगीरथके रथके पीछे गंगाजीके साथ-साथ चल रहे थे। सब कारके जलज ु भी गंगाजीक उस जलरा शके साथ सान जा रहे थे॥ ३१-३२ १/२ ॥ जस ओर राजा भगीरथ जाते, उसी ओर सम पाप का नाश करनेवाली स रता म े यश नी गंगा भी जाती थ ॥ ३३ १/२ ॥ उस समय मागम अ तु परा मी महामना राजा ज ु य कर रहे थे। गंगाजी अपने जलवाहसे उनके य म पको बहा ले गय ॥ ३४ १/२ ॥ रघुन न! राजा ज ु इसे गंगाजीका गव समझकर कु पत हो उठे ; फर तो उ ने गंगाजीके उस सम जलको पी लया। यह संसारके लये बड़ी अ तु बात ◌इ॥ ३५ १/२ ॥



तब देवता, ग व तथा ऋ ष अ व त होकर पु ष वर महा ा ज ु क ु त करने लगे॥ ३६ १/२ ॥ उ ने गंगाजीको उन महा ा नरेशक क ा बना दया। (अथात् उ यह व ास दलाया क गंगाजीको कट करके आप इनके पता कहलायगे।) इससे साम शाली महातेज ी ज ु ब त स ए और उ ने अपने कान के छ ारा गंगाजीको पुन: कट कर दया, इस लये गंगा ज ु क पु ी एवं जा वी कहलाती ह॥ ३७-३८ ॥ वहाँसे गंगा फर भगीरथके रथका अनुसरण करती ◌इ चल । उस समय स रता म े जा वी समु तक जा प ँ च और राजा भगीरथके पतर के उ ार पी कायक स के लये रसातलम गय ॥ ३९ १/२ ॥ राज ष भगीरथ भी य पूवक गंगाजीको साथ ले वहाँ गये। उ ने शापसे भ ए अपने पतामह को अचेत-सा होकर देखा॥ ४० १/२ ॥ रघुकुलके े वीर! तदन र गंगाके उस उ म जलने सगर-पु क उस भ रा शको आ ा वत कर दया और वे सभी राजकु मार न ाप होकर गम प ँ च गये॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म ततालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४३॥



चौवालीसवाँ सग ाजीका भगीरथक शंसा करते ए उ गंगाजलसे पतर के तपणक आ ा देना और राजाका वह सब करके अपने नगरको जाना, गंगावतरणके उपा ानक म हमा



ीराम! इस कार गंगाजीको साथ लये राजा भगीरथने समु तक जाकर रसातलम, जहाँ उनके पूवज भ ए थे, वेश कया। वह भ रा श जब गंगाजीके जलसे आ ा वत हो गयी, तब स ूण लोक के ामी भगवान् ाने वहाँ पधारकर राजासे इस कार कहा—॥ १-२ ॥ ‘नर े ! महा ा राजा सगरके साठ हजार पु का तुमने उ ार कर दया। अब वे देवता क भाँ त गलोकम जा प ँ चे॥ ३ ॥ ‘भूपाल! इस संसारम जबतक सागरका जल मौजूद रहेगा; तबतक सगरके सभी पु देवता क भाँ त गलोकम त त रहगे॥ ४ ॥ ‘ये गंगा तु ारी भी े पु ी होकर रहगी और तु ारे नामपर रखे ए भागीरथी नामसे इस जग व ात ह गी॥ ५ ॥ ‘ पथगा, द ा और भागीरथी—इन तीन नाम से गंगाक स होगी। ये आकाश, पृ ी और पाताल तीन पथ को प व करती ◌इ गमन करती ह, इस लये पथगा मानी गयी ह॥ ६ ॥ ‘नरे र! महाराज! अब तुम गंगाजीके जलसे यहाँ अपने सभी पतामह का तपण करो और इस कार अपनी तथा अपने पूवज ारा क ◌इ त ाको पूण कर लो॥ ७ ॥ ‘राजन्! तु ारे पूवज धमा ा म े महायश ी राजा सगर भी गंगाको यहाँ लाना चाहते थे; कतु उनका यह मनोरथ नह पूण आ॥ ८ ॥ ‘व ! इसी कार लोकम अ तम भावशाली, उ म गुण व श , मह षतु तेज ी, मेरे समान तप ी तथा य-धमपरायण राज ष अंशुमा े भी गंगाको यहाँ लानेक इ ा क ; परंतु वे इस पृ ीपर उ लानेक त ा पूरी न कर सके ॥ ९-१० ॥ ‘ न ाप महाभाग! तु ारे अ तेज ी पता दलीप भी गंगाको यहाँ लानेक इ ा करके भी इस कायम सफल न हो सके ॥ ११ ॥



‘पु



ष वर! तुमने गंगाको भूतलपर लानेक वह त ा पूण कर ली। इससे संसारम तु परम उ म एवं महान् यशक ा ◌इ है॥ १२ ॥ श ुदमन! तुमने जो गंगाजीको पृ ीपर उतारनेका काय पूरा कया है, इससे उस महान् लोकपर अ धकार ा कर लया है, जो धमका आ य है॥ ‘नर े ! पु ष वर! गंगाजीका जल सदा ही ानके यो है। तुम यं भी इसम ान करो और प व होकर पु का फल ा करो॥ १४ ॥ ‘नरे र! तुम अपने सभी पतामह का तपण करो। तु ारा क ाण हो। अब म अपने लोकको जाऊँ गा। तुम भी अपनी राजधानीको लौट जाओ’॥ १५ ॥ ऐसा कहकर सवलोक पतामह महायश ी देवे र ाजी जैसे आये थे, वैसे ही देवलोकको लौट गये॥ १६ ॥ नर े ! महायश ी राज ष राजा भगीरथ भी गंगाजीके उ म जलसे मश: सभी सगरपु का व धवत् तपण करके प व हो अपने नगरको चले गये। इस कार सफलमनोरथ होकर वे अपने रा का शासन करने लगे॥ १७-१८ ॥ रघुन न! अपने राजाको पुन: सामने पाकर जावगको बड़ी स ता ◌इ। सबका शोक जाता रहा। सबके मनोरथ पूण ए और च ा दूर हो गयी॥ १९ ॥ ीराम! यह गंगाजीक कथा मने तु व ारके साथ कह सुनायी। तु ारा क ाण हो। अब जाओ, मंगलमय सं ाव न आ दका स ादन करो। देखो, सं ाकाल बीता जा रहा है॥ २० ॥ यह गंगावतरणका मंगलमय उपा ान आयु बढ़ानेवाला है। धन, यश, आयु, पु और गक ा करानेवाला है। जो ा ण , य तथा दूसरे वणके लोग को भी यह कथा सुनाता है, उसके ऊपर देवता और पतर स होते ह॥ २१-२२ ॥ ककु कु लभूषण! जो इसका वण करता है, वह स ूण कामना को ा कर लेता है। उसके सारे पाप न हो जाते ह और आयुक वृ एवं क तका व ार होता है॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म चौवालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४४॥



पतालीसवाँ सग देवता और दै ारा ीर-समु -म न, भगवान् ारा हालाहल वषका पान, भगवान् व ुके सहयोगसे म राचलका पातालसे उ ार और उसके ारा म न, ध र, अ रा, वा णी, उ ै: वा, कौ ुभ तथा अमृतक उ और देवासुर-सं ामम दै का संहार



व ा म जीक बात सुनकर ल णस हत ीरामच जीको बड़ा व य आ। वे मु नसे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘ न्! आपने गंगाजीके गसे उतरने और समु के भरनेक यह बड़ी उ म और अ अ तु कथा सुनायी॥ २ ॥ ‘काम- ोधा द श ु को संताप देनेवाले महष! आपक कही ◌इ इस स ूण कथापर पूण पसे वचार करते ए हम दोन भाइय क यह रा एक णके समान बीत गयी है॥ ३ ॥ ‘ व ा म जी! ल णके साथ इस शुभ कथापर वचार करते ए ही मेरी यह सारी रात बीती है’॥ ४ ॥ त ात् नमल भातकाल उप त होनेपर तपोधन व ा म जी जब न कमसे नवृ हो चुके, तब श ुदमन ीरामच जीने उनके पास जाकर कहा—॥ ५ ॥ ‘मुन!े यह पूजनीया रा चली गयी। सुनने यो सव म कथा मने सुन ली। अब हमलोग स रता म े पु स लला पथगा मनी नदी गंगाजीके उस पार चल॥ ६ ॥ ‘सदा पु कमम त र रहनेवाले ऋ षय क यह नाव उप त है। इसपर सुखद आसन बछा है। आप परमपू मह षको यहाँ उप त जानकर ऋ षय क भेजी ◌इ यह नाव बड़ी ती ग तसे यहाँ आयी है’॥ ७ ॥ महा ा रघुन नका यह वचन सुनकर व ा म जीने पहले ऋ षय स हत ीरामल णको पार कराया॥ ८ ॥ त ात् यं भी उ र तटपर प ँ चकर उ ने वहाँ रहनेवाले ऋ षय का स ार कया। फर सब लोग गंगाजीके कनारे ठहरकर वशाला नामक पुरीक शोभा देखने लगे॥ ९ ॥



तदन र ीराम-ल णको साथ ले मु नवर व ा म तुरंत उस द एवं रमणीय नगरी वशालाक ओर चल दये, जो अपनी सु र शोभासे गके समान जान पड़ती थी॥ १० ॥ उस समय परम बु मान् ीरामने हाथ जोड़कर उस उ म वशाला पुरीके वषयम महामु न व ा म से पूछा—॥ ११ ॥ ‘महामुने! आपका क ाण हो। म यह सुनना चाहता ँ क वशालाम कौन-सा राजवंश रा कर रहा है? इसके लये मुझे बड़ी उ ा है’॥ १२ ॥ ीरामका यह वचन सुनकर मु न े व ा म ने वशाला पुरीके ाचीन इ तहासका वणन आर कया—॥ १३ ॥ ‘रघुकुलन न ीराम! मने इ के मुखसे वशाला-पुरीके वैभवका तपादन करनेवाली जो कथा सुनी है, उसे बता रहा ँ , सुनो। इस देशम जो वृ ा घ टत आ है, उसे यथाथ पसे वण करो॥ १४ ॥ ‘ ीराम! पहले स युगम द तके पु दै बड़े बलवान् थे और अ द तके परम धमा ा पु महाभाग देवता भी बड़े श शाली थे॥ १५ ॥ ‘पु ष सह! उन महामना दै और देवता के मनम यह वचार आ क हम कै से अजरअमर और नीरोग ह ?॥ १६ ॥ ‘इस कार च न करते ए उन वचारशील देवता और दै क बु म यह बात आयी क हमलोग य द ीरसागरका म न कर तो उसम न य ही अमृतमय रस ा कर लगे॥ १७ ॥ ‘समु म नका न य करके उन अ मततेज ी देवता और दै ने वासु क नागको र ी और म राचलको मथानी बनाकर ीर-सागरको मथना आर कया॥ १८ ॥ ‘तदन र एक हजार वष बीतनेपर र ी बने ए सपके ब सं क मुख अ वष उगलते ए वहाँ म राचलक शला को अपने दाँत से डँ सने लगे॥ १९ ॥ ‘अत: उस समय वहाँ अ के समान दाहक हालाहल नामक महाभयंकर वष ऊपरको उठा। उसने देवता, असुर और मनु स हत स ूण जग ो द करना आर कया॥ २० ॥ ‘यह देख देवतालोग शरणाथ होकर सबका क ाण करनेवाले महान् देवता पशुप त क शरणम गये और ा ह- ा हक पुकार लगाकर उनक ु त करने लगे॥ २१ ॥



‘देवता



के इस कार पुकारनेपर देवदेवे र भगवान् शव वहाँ कट ए। फर वह श -च धारी भगवान् ीह र भी उप त हो गये॥ २२ ॥ ‘ ीह रने शूलधारी भगवान् से मुसकराकर कहा—‘सुर े ! देवता के समु म न करनेपर जो व ु सबसे पहले ा ◌इ है, वह आपका भाग है; क आप सब देवता म अ ग ह। भो! अ पूजाके पम ा ए इस वषको आप यह खड़े होकर हण कर’॥ २३-२४ ॥ ‘ऐसा कहकर देव शरोम ण व ु वह अ धान हो गये। देवता का भय देखकर और भगवान् व ुक पूव बात सुनकर देवे र भगवान् ने उस घोर हालाहल वषको अमृतके समान मानकर अपने क म धारण कर लया तथा देवता को वदा करके वे अपने ानको चले गये॥ २५-२६ ॥ ‘रघुन न! त ात् देवता और असुर सब मलकर ीरसागरका म न करने लगे। उस समय मथानी बना आ उ म पवत म र पातालम घुस गया॥ २७ ‘तब देवता और ग व भगवान् मधुसूदनक ु त करने लगे—‘महाबाहो! आप ही स ूण ा णय क ग त ह। वशेषत: देवता के अवल न तो आप ही ह। आप हमारी र ा कर और इस पवतको उठाव’॥ २८ १/२ ॥ ‘यह सुनकर भगवान् षीके शने क पका प धारण कर लया और उस पवतको अपनी पीठपर रखकर वे ीह र वह समु के भीतर सो गये॥ २९ १/२ ॥ ‘ फर व ा ा पु षो म भगवान् के शव उस पवत शखरको हाथसे पकड़कर देवता के बीचम खड़े हो यं भी समु का म न करने लगे॥ ३० १/२ ॥ ‘तदन र एक हजार वष बीतनेपर उस ीरसागरसे एक आयुवदमय धमा ा पु ष कट ए, जनके एक हाथम द और दूसरेम कम लु था। उनका नाम ध र था। उनके ाक के बाद सागरसे सु र का वाली ब त-सी अ राएँ कट ◌इं ॥ ३१-३२ ॥ ‘नर े ! म न करनेसे ही अप् (जल) म उसके रससे वे सु री याँ उ ◌इ थ , इस लये अ रा कहलाय ॥ ३३ ॥ ‘काकु ! उन सु र का वाली अ रा क सं ा साठ करोड़ थी और जो उनक प रचा रकाएँ थ , उनक गणना नह क जा सकती। वे सब असं थ ॥ ३४ ॥



‘उन



अ रा को सम देवता और दानव को◌इ भी अपनी ‘प ी’ पसे हण न कर सके , इस लये वे साधारणा (सामा ा) मानी गय ॥ ३५ ॥ ‘रघुन न! तदन र व णक क ा वा णी, जो सुराक अ भमा ननी देवी थी, कट ◌इ और अपनेको ीकार करनेवाले पु षक खोज करने लगी॥ ३६ ॥ ‘वीर ीराम! दै ने उस व णक ा सुराको नह हण कया, परंतु अ द तके पु ने इस अ न सु रीको हण कर लया॥ ३७ ॥ ‘सुरासे र हत होनेके कारण ही दै ‘असुर’ कहलाये और सुरा-सेवनके कारण ही अ द तके पु क ‘सुर’ सं ा ◌इ। वा णीको हण करनेसे देवतालोग हषसे उ ु एवं आन म हो गये॥ ३८ ॥ ‘नर े ! तदन र घोड़ म उ म उ :ै वा, म णर कौ ुभ तथा परम उ म अमृतका ाक आ॥ ३९ ॥ ‘ ीराम! उस अमृतके लये देवता और असुर के कु लका महान् संहार आ। अ द तके पु द तके पु के साथ यु करने लगे॥ ४० ॥ सम असुर रा स के साथ मलकर एक हो गये। वीर! देवता के साथ उनका महाघोर सं ाम होने लगा, जो तीन लोक को मोहम डालनेवाला था॥ ४१ ॥ ‘जब देवता और असुर का वह सारा समूह ीण हो चला, तब महाबली भगवान् व ुने मो हनी मायाका आ य लेकर तुरंत ही अमृतका अपहरण कर लया॥ ४२ ॥ ‘जो दै बलपूवक अमृत छीन लानेके लये अ वनाशी पु षो म भगवान् व ुके सामने गये, उ भावशाली भगवान् व ुने उस समय यु म पीस डाला॥ ४३ ॥ ‘देवता और दै के उस घोर महायु म अ द तके वीर पु ने द तके पु का वशेष संहार कया॥ ४४ ॥ ‘दै का वध करनेके प ात् लोक का रा पाकर देवराज इ बड़े स ए और ऋ षय तथा चारण स हत सम लोक का शासन करने लगे’॥ ४५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४५॥



छयालीसवाँ सग पु वधसे द:ु खी द तका क पजीसे इ ह ा पु क ा के उ े से तपके लये आ ा लेकर कुश वम तप करना, इ ारा उनक प रचया तथा उ अप व अव ाम पाकर इ का उनके गभके सात टु कड़े कर डालना



अपने उन पु के मारे जानेपर द तको बड़ा दु:ख आ। वे अपने प त मरी चन न क पके पास जाकर बोल —॥ १ ॥ ‘भगवन्! आपके महाबली पु देवता ने मेरे पु को मार डाला; अत: म दीघकालक तप ासे उपा जत एक ऐसा पु चाहती ँ जो इ का वध करनेम समथ हो॥ २ ॥ ‘म तप ा क ँ गी, आप इसके लये मुझे आ ा द और मेरे गभम ऐसा पु दान कर, जो सब कु छ करनेम समथ तथा इ का वध करनेवाला हो’॥ ३ ॥ उसक यह बात सुनकर महातेज ी मरी चन न क पने उस परम दु: खनी द तको इस कार उ र दया—॥ ४ ॥ ‘तपोधने! ऐसा ही हो। तुम शौचाचारका पालन करो। तु ारा भला हो। तुम ऐसे पु को ज दोगी, जो यु म इ को मार सके ॥ ५ ॥ ‘य द पूरे एक सह वषतक प व तापूवक रह सकोगी तो तुम मुझसे लोक नाथ इ का वध करनेम समथ पु ा कर लोगी’॥ ६ ॥ ऐसा कहकर महातेज ी क पने द तके शरीरपर हाथ फे रा। फर उनका श करके कहा—‘तु ारा क ाण हो।’ ऐसा कहकर वे तप ाके लये चले गये॥ ७ ॥ नर े ! उनके चले जानेपर द त अ हष और उ ाहम भरकर कु श व नामक तपोवनम आय और अ कठोर तप ा करने लग ॥ ८ ॥ पु ष वर ीराम! द तके तप ा करते समय सह लोचन इ वनय आ द उ म गुणस से यु हो उनक सेवा-टहल करने लगे॥ ९ ॥ सह ा इ अपनी मौसी द तके लये अ , कु शा, का , जल, फल, मूल तथा अ ा अ भल षत व ु को ला-लाकर देते थे॥ १० ॥



इ मौसीक शारी रक सेवाएँ करते, उनके पैर दबाकर उनक थकावट मटाते तथा ऐसी ही अ आव क सेवा ारा वे हर समय द तक प रचया करते थे॥ ११ ॥ रघुन न! जब सह वष पूण होनेम कु ल दस वष बाक रह गये, तब एक दन द तने अ हषम भरकर सह लोचन इ से कहा—॥ १२ ॥ ‘बलवान म े वीर! अब मेरी तप ाके के वल दस वष और शेष रह गये ह। तु ारा भला हो। दस वष बाद तुम अपने होनेवाले भा◌इको देख सकोगे॥ १३ ॥ ‘बेटा! मने तु ारे वनाशके लये जस पु क याचना क थी, वह जब तु जीतनेके लये उ ुक होगा, उस समय म उसे शा कर दूँगी—तु ारे त उसे वैर-भावसे र हत तथा ातृेहसे यु बना दूँगी। फर तुम उसके साथ रहकर उसीके ारा क ◌इ भुवन- वजयका सुख न होकर भोगना॥ १४ ॥ ‘सुर े ! मेरे ाथना करनेपर तु ारे महा ा पताने एक हजार वषके बाद पु होनेका मुझे वर दया है’॥ १५ ॥ ऐसा कहकर द त न दसे अचेत हो गय । उस समय सूयदेव आकाशके म भागम आ गये थे— दोपहरका समय हो गया था। देवी द त आसनपर बैठी-बैठी झपक लेने लग । सर कु गया और के श पैर से जा लगे। इस कार न ाव ाम उ ने पैर को सरसे लगा लया॥ १६ ॥ उ ने अपने के श को पैर पर डाल रखा था। सरको टकानेके लये दोन पैर को ही आधार बना लया था। यह देख द तको अप व ◌इ जान इ हँ से और बड़े स ए॥ १७ ॥



ीराम! फर तो सतत सावधान रहनेवाले इ माता द तके उदरम व हो गये और उसम त ए गभके उ ने सात टुकड़े कर डाले॥ १८ ॥ ीराम! उनके ारा सौ पव वाले व से वदीण कये जाते समय वह गभ बालक जोरजोरसे रोने लगा। इससे द तक न ा टूट गयी—वे जागकर उठ बैठ ॥ १९ ॥ तब इ ने उस रोते ए गभसे कहा—‘भा◌इ! मत रो, मत रो’ परंतु महातेज ी इ ने रोते रहनेपर भी उस गभके टुकड़े कर ही डाले॥ २० ॥



उस समय द तने कहा—‘इ ! ब ेको न मारो, न मारो।’ माताके वचनका गौरव मानकर इ सहसा उदरसे नकल आये॥ २१ ॥ फर व स हत इ ने हाथ जोड़कर द तसे कहा—‘दे व! तु ारे सरके बाल पैर से लगे थे। इस कार तुम अप व अव ाम सोयी थ । यही छ पाकर मने इस ‘इ ह ा’ बालकके सात टुकड़े कर डाले ह। इस लये माँ! तुम मेरे इस अपराधको मा करो’॥ २२-२३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म छयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४६॥



सतालीसवाँ सग द तका अपने पु को म ण बनाकर देवलोकम रखनेके लये इ से अनुरोध, इ ारा उसक ीकृ त, द तके तपोवनम ही इ ाकु-पु वशाल ारा वशाला नगरीका नमाण तथा वहाँके त ालीन राजा सुम त ारा व ा म मु नका स ार



इ ारा अपने गभके सात टुकड़े कर दये जानेपर देवी द तको बड़ा दु:ख आ। वे दु ष वीर सह ा इ से अनुनयपूवक बोल —॥ १ ॥ ‘देवेश! बलसूदन! मेरे ही अपराधसे इस गभके सात टुकड़े ए ह। इसम तु ारा को◌इ दोष नह है॥ २ ॥ ‘इस गभको न करनेके न म तुमने जो ू रतापूण कम कया है, वह तु ारे और मेरे लये भी जस तरह य हो जाय—जैसे भी उसका प रणाम तु ारे और मेरे लये सुखद हो जाय, वैसा उपाय म करना चाहती ँ । मेरे गभके वे सात ख सात होकर सात म ण के ान का पालन करनेवाले हो जायँ॥ ३ ॥ ‘बेटा! ये मेरे द पधारी पु ‘मा त’ नामसे स होकर आकाशम जो सु व ात सात वात * ह, उनम वचर॥ ४ ॥ ‘(ऊपर जो सात म त् बताये गये ह, वे सात-सातके गण ह। इस कार उनचास म त् समझने चा हये। इनमसे) जो थम गण है, वह लोकम वचरे, दूसरा इ लोकम वचरण करे तथा तीसरा महायश ी म ण द वायुके नामसे व ात हो अ र म बहा करे॥ ५ ॥ ‘सुर



े ! तु ारा क ाण हो। मेरे शेष चार पु के गण तु ारी आ ासे समयानुसार स ूण दशा म संचार करगे। तु ारे ही रखे ए नामसे (तुमने जो ‘मा द:’ कहकर उ रोनेसे मना कया था, उसी ‘मा द:’—इस वा से) वे सब-के -सब मा त कहलायगे। मा त नामसे ही उनक स होगी’॥ ६ १/२ ॥ द तका वह वचन सुनकर बल दै को मारनेवाले सह ा इ ने हाथ जोड़कर यह बात कही—॥ ७ १/२ ॥



‘मा!



तु ारा क ाण हो। तुमने जैसा कहा है, वह सब वैसा ही होगा; इसम संशय नह है। तु ारे ये पु देव प होकर वचरगे’॥ ८ १/२ ॥ ीराम! उस तपोवनम ऐसा न य करके वे दोन माता-पु — द त और इ कृ तकृ हो गलोकको चले गये—ऐसा हमने सुन रखा है॥ ९ १/२ ॥ काकु ! यही वह देश है, जहाँ पूवकालम रहकर देवराज इ ने तप: स द तक प रचया क थी॥ १० १/२ ॥ पु ष सह! पूवकालम महाराज इ ाकु के एक परम धमा ा पु थे, जो वशाल नामसे स ए। उनका ज अल ुषाके गभसे आ था। उ ने इस ानपर वशाला नामक पुरी बसायी थी॥ ११-१२ ॥ ीराम! वशालके पु का नाम था हेमच , जो बड़े बलवान् थे। हेमच के पु सुच नामसे व ात ए॥ १३ ॥ ीरामच ! सुच के पु धू ा और धू ा के पु सृंजय ए॥ १४ ॥ सृंजयके तापी पु ीमान् सहदेव ए। सहदेवके परम धमा ा पु का नाम कु शा था॥ १५ ॥ कु शा के महातेज ी पु तापी सोमद ए और सोमद के पु काकु नामसे व ात ए॥ १६ ॥ काकु के महातेज ी पु सुम त नामसे स ह; जो परम का मान् एवं दुजय वीर ह। वे ही इस समय इस पुरीम नवास करते ह॥ १७ ॥ महाराज इ ाकु के सादसे वशालाके सभी नरेश दीघायु, महा ा, परा मी और परम धा मक होते आये ह॥ १८ ॥ नर े ! आज एक रात हमलोग यह सुखपूवक शयन करगे; फर कल ात:काल यहाँसे चलकर तुम म थलाम राजा जनकका दशन करोगे॥ १९ ॥ नरेश म े , महातेज ी, महायश ी राजा सुम त व ा म जीको पुरीके समीप आया आ सुनकर उनक अगवानीके लये यं आये॥ २० ॥ अपने पुरो हत और ब ु-बा व के साथ राजाने व ा म जीक उ म पूजा करके हाथ जोड़ उनका कु शल-समाचार पूछा और उनसे इस कार कहा—॥



‘मुन!े



म ध ँ । आपका मुझपर बड़ा अनु ह है; क आपने यं मेरे रा म पधारकर मुझे दशन दया। इस समय मुझसे बढ़कर ध पु ष दूसरा को◌इ नह है’॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म सतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४७॥ * आवह,



वह, संवह, उ ह, ववह, प रवह और परावह—ये सात म त् ह। इ को सात वात



कहते ह।



अड़तालीसवाँ सग राजा सुम तसे स ृ त हो एक रात वशालाम रहकर मु नय स हत ीरामका म थलापुरीम प ँ चना और वहाँ सूने आ मके वषयम पूछनेपर व ा म जीका उनसे अह ाको शाप ा होनेक कथा सुनाना



वहाँ पर र समागमके समय एक-दूसरेका कु शल-मंगल पूछकर बातचीतके अ म राजा सुम तने महामु न व ा म से कहा—॥ १ ॥ ‘ न्! आपका क ाण हो। ये दोन कु मार देवता के तु परा मी जान पड़ते ह। इनक चाल-ढाल हाथी और सहक ग तके समान है। ये दोन वीर सह और साँड़के समान तीत होते ह॥ २ ॥ इनके बड़े-बड़े ने वक सत कमलदलके समान शोभा पाते ह। ये दोन तलवार, तरकस और धनुष धारण कये ए ह। अपने सु र पके ारा दोन अ श्वनीकु मार को ल त करते ह तथा युवाव ाके नकट आ प ँ चे ह॥ ‘इ देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो दो देवकु मार दैवे ावश देवलोकसे पृ ीपर आ गये ह । मुन!े ये दोन कसके पु ह और कै से, कस लये यहाँ पैदल ही आये ह?॥ ४ ॥ ‘जैसे च मा और सूय आकाशक शोभा बढ़ाते ह, उसी कार ये दोन कु मार इस देशको सुशो भत कर रहे ह। शरीरक ऊँ चा◌इ, मनोभावसूचक संकेत तथा चे ा (बोलचाल) म ये दोन एक-दूसरेके समान ह॥ ५ ॥ ‘ े आयुध धारण करनेवाले ये दोन नर े वीर इस दुगम मागम कस लये आये ह? यह म यथाथ पसे सुनना चाहता ँ ’॥ ६ ॥ सुम तका यह वचन सुनकर व ा म जीने उ सब वृ ा यथाथ पसे नवेदन कया। स ा मम नवास और रा स के वधका संग भी यथावत् पसे कह सुनाया। व ा म जीक बात सुनकर राजा सुम तको बड़ा व य आ॥ ७ ॥ उ ने परम आदरणीय अ त थके पम आये ए उन दोन महाबली दशरथ-पु का व धपूवक आ त -स ार कया॥ ८ ॥



सुम तसे उ म आदर-स ार पाकर वे दोन रघुवंशी कु मार वहाँ एक रात रहे और सबेरे उठकर म थलाक ओर चल दये॥ ९ ॥ म थलाम प ँ चकर जनकपुरीक सु र शोभा देख सभी मह ष साधु-साधु कहकर उसक भू र-भू र शंसा करने लगे॥ १० ॥ म थलाके उपवनम एक पुराना आ म था, जो अ रमणीय होकर भी सूनसान दखायी देता था। उसे देखकर ीरामच जीने मु नवर व ा म जीसे पूछा—॥ ११ ॥ ‘भगवन्! यह कै सा ान है, जो देखनेम तो आ म-जैसा है; कतु एक भी मु न यहाँ गोचर नह होते ह। म यह सुनना चाहता ँ क पहले यह आ म कसका था?’॥ १२ ॥ ीरामच जीका यह सुनकर वचनकु शल महातेज ी महामु न व ा म ने इस कार उ र दया—॥ १३ ॥ ‘रघुन न! पूवकालम यह जस महा ाका आ म था और ज ने ोधपूवक इसे शाप दे दया था, उनका तथा उनके इस आ मका सब वृ ा तुमसे कहता ँ । तुम यथाथ पसे इसको सुनो॥ १४ ॥ ‘नर े ! पूवकालम यह ान महा ा गौतमका आ म था। उस समय यह आ म बड़ा ही द जान पड़ता था। देवता भी इसक पूजा एवं शंसा कया करते थे॥ १५ ॥ ‘महायश ी राजपु ! पूवकालम मह ष गौतम अपनी प ी अह ाके साथ रहकर यहाँ तप ा करते थे। उ ने ब त वष तक यहाँ तप कया था॥ १६ ॥ ‘एक दन जब मह ष गौतम आ मपर नह थे, उपयु अवसर समझकर शचीप त इ गौतम मु नका वेष धारण कये वहाँ आये और अह ासे इस कार बोले—॥ १७ ॥ ‘‘सदा सावधान रहनेवाली सु री! र तक इ ा रखनेवाले ाथ पु ष ऋतुकालक ती ा नह करते ह। सु र क ट देशवाली सु री! म (इ ) तु ारे साथ समागम करना चाहता ँ ’॥ १८ ॥ ‘रघुन न! मह ष गौतमका वेष धारण करके आये ए इ को पहचानकर भी उस दुबु नारीने ‘अहो! देवराज इ मुझे चाहते ह’ इस कौतूहलवश उनके साथ समागमका न य करके वह ाव ीकार कर लया॥



‘र तके



प ात् उसने देवराज इ से संतु च होकर कहा—‘सुर े ! म आपके समागमसे कृ ताथ हो गयी। भो! अब आप शी यहाँसे चले जाइये। देवे र! मह ष गौतमके कोपसे आप अपनी और मेरी भी सब कारसे र ा क जये’॥ २० १/२ ॥ ‘तब इ ने अह ासे हँ सते ए कहा—‘सु री! म भी संतु हो गया। अब जैसे आया था, उसी तरह चला जाऊँ गा’॥ २१ १/२ ॥ ‘ ीराम! इस कार अह ासे समागम करके इ जब उस कु टीसे बाहर नकले, तब गौतमके आ जानेक आश ासे बड़ी उतावलीके साथ वेगपूवक भागनेका य करने लगे॥ २२ १/ ॥ २



‘इतनेहीम



उ ने देखा, देवता और दानव के लये भी दुधष, तपोबलस महामु न गौतम हाथम स मधा लये आ मम वेश कर रहे ह। उनका शरीर तीथके जलसे भीगा आ है और वे लत अ के समान उ ी हो रहे ह॥ २३-२४ १/२ ॥ ‘उनपर पड़ते ही देवराज इ भयसे थरा उठे । उनके मुखपर वषाद छा गया। दुराचारी इ को मु नका वेष धारण कये देख सदाचारस मु नवर गौतमजीने रोषम भरकर कहा—॥ २५-२६ ॥ ‘‘दुमते! तूने मेरा प धारण करके यह न करनेयो पापकम कया है, इस लये तू वफल (अ कोष से र हत) हो जायगा’॥ २७ ॥ ‘रोषम भरे ए महा ा गौतमके ऐसा कहते ही सह ा इ के दोन अ कोष उसी ण पृ ीपर गर पड़े॥ २८ ॥ इ को इस कार शाप देकर गौतमने अपनी प ीको भी शाप दया—‘दुराचा रणी! तू भी यहाँ क◌इ हजार वष तक के वल हवा पीकर या उपवास करके क उठाती ◌इ राखम पड़ी रहेगी। सम ा णय से अ रहकर इस आ मम नवास करेगी। जब दुधष दशरथ-कु मार राम इस घोर वनम पदापण करगे, उस समय तू प व होगी। उनका आ त -स ार करनेसे तेरे लोभ-मोह आ द दोष दूर हो जायँगे और तू स तापूवक मेरे पास प ँ चकर अपना पूव शरीर धारण कर लेगी’॥ २९—३२ ॥ ‘अपनी दुराचा रणी प ीसे ऐसा कहकर महातेज ी, महातप ी गौतम इस आ मको छोड़कर चले गये और स तथा चारण से से वत हमालयके रमणीय शखरपर रहकर तप ा



करने लगे’॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म अड़तालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४८॥



उनचासवाँ सग पतृदेवता



ारा इ को भेड़ेके अ कोषसे यु करना तथा भगवान् ीरामके ारा अह ाका उ ार एवं उन दोन द तके ारा इनका स ार



तदन र इ अ कोषसे र हत होकर ब त डर गये। उनके ने म ास छा गया। वे अ आ द देवता , स , ग व और चारण से इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘देवताओ! महा ा गौतमक तप ाम व डालनेके लये मने उ ोध दलाया है। ऐसा करके मने यह देवता का काय ही स कया है॥ २ ॥ ‘मु नने ोधपूवक भारी शाप देकर मुझे अ कोषसे र हत कर दया और अपनी प ीका भी प र ाग कर दया। इससे मेरे ारा उनक तप ाका अपहरण आ है॥ ३ ॥ ‘(य द म उनक तप ाम व नह डालता तो वे देवता का रा ही छीन लेते। अत: ऐसा करके ) मने देवता का ही काय स कया है। इस लये े देवताओ! तुम सब लोग, ऋ षसमुदाय और चारणगण मलकर मुझे अ कोषसे यु करनेका य करो’॥ ४ ॥ इ का यह वचन सुनकर म ण स हत अ आ द सम देवता क वाहन आ द पतृदेवता के पास जाकर बोले—॥ ५ ॥ ‘ पतृगण! यह आपका भेड़ा अ कोषसे यु है और इ अ कोषर हत कर दये गये ह। अत: इस भेड़के े दोन अ कोष को लेकर आप शी ही इ को अ पत कर द॥ ६ ॥ ‘अ कोषसे र हत कया आ यह भेड़ा इसी ानम आपलोग को परम संतोष दान करेगा। अत: जो मनु आपलोग क स ताके लये अ कोषर हत भेड़ा दान करगे, उ आपलोग उस दानका उ म एवं पूण फल दान करगे’॥ ७ ॥ अ क यह बात सुनकर पतृदेवता ने एक हो भेड़के े अ कोष को उखाड़कर इ के शरीरम उ चत ानपर जोड़ दया॥ ८ ॥ ककु न न ीराम! तभीसे वहाँ आये ए सम पतृ-देवता अ कोषर हत भेड़ को ही उपयोगम लाते ह और दाता को उनके दानज नत फल के भागी बनाते ह॥ ९ ॥ रघुन न! उसी समयसे महा ा गौतमके तप ाज नत भावसे इ को भेड़ के अ कोष धारण करने पड़े॥ १० ॥



महातेज ी ीराम! अब तुम पु कमा मह ष गौतमके इस आ मपर चलो और इन देव पणी महाभागा अह ाका उ ार करो॥ ११ ॥ व ा म जीका यह वचन सुनकर ल णस हत ीरामने उन मह षको आगे करके उस आ मम वेश कया॥ १२ ॥ वहाँ जाकर उ ने देखा—महासौभा शा लनी अह ा अपनी तप ासे देदी मान हो रही ह। इस लोकके मनु तथा स ूण देवता और असुर भी वहाँ आकर उ देख नह सकते थे॥ १३ ॥ उनका प द था। वधाताने बड़े य से उनके अंग का नमाण कया था। वे मायामयी-सी तीत होती थ । धूमसे घरी ◌इ लत अ शखा-सी जान पड़ती थ । ओले और बादल से ढक ◌इ पूण च माक भा-सी दखायी देती थ तथा जलके भीतर उ ा सत होनेवाली सूयक दुधष भाके समान गोचर होती थ ॥ १४-१५ ॥ गौतमके शापवश ीरामच जीका दशन होनेसे पहले तीन लोक के कसी भी ाणीके लये उनका दशन होना क ठन था। ीरामका दशन मल जानेसे जब उनके शापका अ हो गया, तब वे उन सबको दखायी देने लग ॥ उस समय ीराम और ल णने बड़ी स ताके साथ अह ाके दोन चरण का श कया। मह ष गौतमके वचन का रण करके अह ाने बड़ी सावधानीके साथ उन दोन भाइय को आदरणीय अ त थके पम अपनाया और पा , अ आ द अ पत करके उनका आ त -स ार कया। ीरामच जीने शा ीय व धके अनुसार अह ाका वह आ त हण कया॥ १७-१८ ॥ उस समय देवता क दु ु भ बज उठी। साथ ही आकाशसे फू ल क बड़ी भारी वषा होने लगी। ग व और अ रा ारा महान् उ व मनाया जाने लगा॥ १९ ॥ मह ष गौतमके अधीन रहनेवाली अह ा अपनी तप:श से वशु पको ा ◌इं —यह देख स ूण देवता उ साधुवाद देते ए उनक भू र-भू र शंसा करने लगे॥ २० ॥ महातेज ी, महातप ी गौतम भी अह ाको अपने साथ पाकर सुखी हो गये। उ ने ीरामक व धवत् पूजा करके तप ा आर क ॥ २१ ॥ महामु न गौतमक ओरसे व धपूवक उ म पूजा— आदर-स ार पाकर ीराम भी मु नवर व ा म जीके साथ म थलापुरीको चले गये॥ २२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म उनचासवाँ सग पूरा आ॥ ४९॥



पचासवाँ सग ीराम आ दका म थला-गमन, राजा जनक ारा व ा म का स ार तथा उनका ीराम और ल णके वषयम ज ासा करना एवं प रचय पाना



तदन र ल णस हत ीराम व ा म जीको आगे करके मह ष गौतमके आ मसे ◌इशानकोणक ओर चले और म थलानरेशके य म पम जा प ँ चे॥ १ ॥ वहाँ ल णस हत ीरामने मु न े व ा म से कहा—‘महाभाग! महा ा जनकके य का समारोह तो बड़ा सु र दखायी दे रहा है। यहाँ नाना देश के नवासी सह ा ण जुटे ए ह, जो वेद के ा ायसे शोभा पा रहे ह॥ २-३ ॥ ‘ऋ षय के बाड़े सैकड़ छकड़ से भरे दखायी दे रहे ह। न्! अब ऐसा को◌इ ान न त क जये, जहाँ हमलोग भी ठहर’॥ ४ ॥ ीरामच जीका यह वचन सुनकर महामु न व ा म ने एका ानम डेरा डाला, जहाँ पानीका सुभीता था॥ ५ ॥ अ न (उ म) आचार- वचारवाले नृप े महाराज जनकने जब सुना क व ा म जी पधारे ह, तब वे तुरंत अपने पुरो हत शतान को आगे करके [अ लये वनीतभावसे उनका ागत करनेको चल दये]॥ ६ ॥ उनके साथ अ लये महा ा ऋ ज् भी शी तापूवक चले। राजाने वनीतभावसे सहसा आगे बढ़कर मह षक अगवानी क तथा धमशा के अनुसार व ा म को धमयु अ सम पत कया॥ ७ १/२ ॥ महा ा राजा जनकक वह पूजा हण करके मु नने उनका कु शल-समाचार पूछा तथा उनके य क नबाध तके वषयम ज ासा क ॥ ८ १/२ ॥ राजाके साथ जो मु न, उपा ाय और पुरो हत आये थे, उनसे भी कु शल-मंगल पूछकर व ा म जी बड़े हषके साथ उन सभी मह षय से यथायो मले॥ ९ १/२ ॥ इसके बाद राजा जनकने मु नवर व ा म से हाथ जोड़कर कहा—‘भगवन्! आप इन मुनी र के साथ आसनपर वराजमान होइये’॥ १० १/२ ॥



यह बात सुनकर महामु न व ा म आसनपर बैठ गये। फर पुरो हत, ऋ ज् तथा म य स हत राजा भी सब ओर यथायो आसन पर वराजमान हो गये॥ त ात् राजा जनकने व ा म जीक ओर देखकर कहा—‘भगवन्! आज देवता ने मेरे य क आयोजना सफल कर दी॥ १३ ॥ ‘आज पू चरण के दशनसे मने य का फल पा लया। न्! आप मु नय म े ह। आपने इतने मह षय के साथ मेरे य म पम पदापण कया, इससे म ध हो गया। यह मेरे ऊपर आपका ब त बड़ा अनु ह है॥ १४ १/२ ॥ ‘ ष! मनीषी ऋ ज का कहना है क ‘मेरी य दी ाके बारह दन ही शेष रह गये ह। अत: कु शकन न! बारह दन के बाद यहाँ भाग हण करनेके लये आये ए देवता का दशन क जयेगा’॥ मु नवर व ा म से ऐसा कहकर उस समय स मुख ए जते य राजा जनकने पुन: उनसे हाथ जोड़कर पूछा—॥ १६ १/२ ॥ ‘महामुने! आपका क ाण हो। देवताके समान परा मी और सु र आयुध धारण करनेवाले ये दोन वीर राजकु मार जो हाथीके समान म ग तसे चलते ह, सह और साँड़के समान जान पड़ते ह, फु कमलदलके समान सुशो भत ह, तलवार, तरकस और धनुष धारण कये ए ह, अपने मनोहर पसे अ श्वनीकु मार को भी ल त कर रहे ह, ज ने अभी-अभी यौवनाव ाम वेश कया है तथा जो े ानुसार देवलोकसे उतरकर पृ ीपर आये ए दो देवता के समान जान पड़ते ह, कसके पु ह? और यहाँ कै से, कस लये अथवा कस उ े से पैदल ही पधारे ह? जैसे च मा और सूय आकाशक शोभा बढ़ाते ह, उसी कार ये अपनी उप तसे इस देशको वभू षत कर रहे ह। ये दोन एक-दूसरेसे ब त मलते-जुलते ह। इनके शरीरक ऊँ चा◌इ, संकेत और चे ाएँ ाय: एक-सी ह। म इन दोन काकप धारी वीर का प रचय एवं वृ ा यथाथ पसे सुनना चाहता ँ ’॥ १७—२१ ॥ महा ा जनकका यह सुनकर अ मत आ बलसे स व ा म जीने कहा —‘राजन्! ये दोन महाराज दशरथके पु ह’॥ २२ ॥ इसके बाद उ ने उन दोन के स ा मम नवास, रा स के वध, बना कसी घबराहटके म थलातक आगमन, वशालापुरीके दशन, अह ाके सा ा ार तथा मह ष गौतमके साथ



समागम आ दका व ारपूवक वणन कया। फर अ म यह भी बताया क ‘ये आपके यहाँ रखे ए महान् धनुषके स म कु छ जाननेक इ ासे यहाँतक आये ह’॥ २३-२४ ॥ महा ा राजा जनकसे ये सब बात नवेदन करके महातेज ी महामु न व ा म चुप हो गये॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पचासवाँ सग पूरा आ॥ ५०॥







ावनवाँ सग



शतान के पूछनेपर व ा म का उ ीरामके ारा अह ाके उ ारका समाचार बताना तथा शतान ारा ीरामका अ भन न करते ए व ा म जीके पूवच र का वणन



परम बु मान् व ा म जीक वह बात सुनकर महातेज ी महातप ी शतान जीके शरीरम रोमा हो आया॥ १ ॥ वे गौतमके े पु थे। तप ासे उनक का का शत हो रही थी। वे ीरामच जीके दशनमा से ही बड़े व त ए॥ २ ॥ उन दोन राजकु मार को सुखपूवक बैठे देख शतान ने मु न े व ा म जीसे पूछा—॥ ३॥ ‘मु न वर! मेरी यश नी माता अह ा ब त दन से तप ा कर रही थ । ा आपने राजकु मार ीरामको उनका दशन कराया?॥ ४ ॥ ‘ ा मेरी महातेज नी एवं यश नी माता अह ाने वनम होनेवाले फल-फू ल आ दसे सम देहधा रय के लये पूजनीय ीरामच जीका पूजन (आदर-स ार) कया था?॥ ५ ॥ ‘महातेज ी मुने! ा आपने ीरामसे वह ाचीन वृ ा कहा था, जो मेरी माताके त देवराज इ ारा कये गये छल-कपट एवं दुराचार ारा घ टत आ था?॥ ‘मु न े कौ शक! आपका क ाण हो। ा ीरामच जीके दशन आ दके भावसे मेरी माता शापमु हो पताजीसे जा मल ?॥ ७ ॥ ‘कु शकन न! ा मेरे पताने ीरामका पूजन कया था? ा उन महा ाक पूजा हण करके ये महातेज ी ीराम यहाँ पधारे ह?॥ ८ ॥ ‘ व ा म जी! ा यहाँ आकर मेरे माता- पता ारा स ा नत ए ीरामने मेरे पू पताका शा च से अ भवादन कया था?’॥ ९ ॥ शतान का यह सुनकर बोलनेक कला जाननेवाले महामु न व ा म ने बातचीत करनेम कु शल शतान को इस कार उ र दया—॥ १० ॥ ‘मु न े ! मने कु छ उठा नह रखा है। मेरा जो कत था, उसे मने पूरा कया। मह ष गौतमसे उनक प ी अह ा उसी कार जा मली ह, जैसे भृगुवंशी जमद से रेणुका मली



है’॥ ११ ॥ बु मान् व ा म क यह बात सुनकर महातेज ी शतान ने ीरामच जीसे यह बात कही—॥ १२ ॥ ‘नर े ! आपका ागत है। रघुन न! मेरा अहोभा जो आपने कसीसे परा जत न होनेवाले मह ष व ा म को आगे करके यहाँतक पधारनेका क उठाया॥ १३ ॥ ‘मह ष व ा म के कम अ च ह। ये तप ासे षपदको ा ए ह। इनक का असीम है और ये महातेज ी ह। म इनको जानता ँ । ये जग े परम आ य ( हतैषी) ह॥ १४ ॥ ‘ ीराम! इस पृ ीपर आपसे बढ़कर ध ा तध पु ष दूसरा को◌इ नह है; क कु शकन न व ा म आपके र क ह, ज ने बड़ी भारी तप ा क है॥ १५ ॥ ‘म महा ा कौ शकके बल और पका यथाथ वणन करता ँ । आप ान देकर मुझसे यह सब सु नये॥ १६ ॥ ‘ये व ा म पहले एक धमा ा राजा थे। इ ने श ु के दमनपूवक दीघकालतक रा कया था। ये धम और व ान् होनेके साथ ही जावगके हतसाधनम त र रहते थे॥ १७ ॥ ‘ ाचीनकालम कु श नामसे स एक राजा हो गये ह। वे जाप तके पु थे। कु शके बलवान् पु का नाम कु शनाभ आ। वह बड़ा ही धमा ा था॥ १८ ॥ ‘कु शनाभके पु गा ध नामसे व ात थे। उ गा धके महातेज ी पु ये महामु न व ा म ह॥ १९ ॥ ‘महातेज ी राजा व ा म ने क◌इ हजार वष तक इस पृ ीका पालन तथा रा का शासन कया॥ २० ॥ ‘एक समयक बात है महातेज ी राजा व ा म सेना एक करके एक अ ौ हणी सेनाके साथ पृ ीपर वचरने लगे॥ २१ ॥ ‘वे अनेकानेक नगर , रा , न दय , बड़े-बड़े पवत और आ म म मश: वचरते ए मह ष व स के आ मपर आ प ँ च,े जो नाना कारके फू ल , लता और वृ से शोभा पा रहा



था। नाना कारके मृग (व पशु) वहाँ सब ओर फै ले ए थे तथा स और चारण उस आ मम नवास करते थे॥ २२-२३ ॥ ‘देवता, दानव, ग व और क र उसक शोभा बढ़ाते थे। शा मृग वहाँ भरे रहते थे। ब त-से ा ण , षय और देव षय के समुदाय उसका सेवन करते थे॥ २४ १/२ ॥ ‘तप ासे स ए अ के समान तेज ी महा ा तथा ाके समान महाम हम महा ा सदा उस आ मम भरे रहते थे। उनमसे को◌इ जल पीकर रहता था तो को◌इ हवा पीकर। कतने ही महा ा फल-मूल खाकर अथवा सूखे प े चबाकर रहते थे। राग आ द दोष को जीतकर मन और इ य पर काबू रखनेवाले ब त-से ऋ ष जप-होमम लगे रहते थे। वाल ख मु नगण तथा अ ा वैखानस महा ा सब ओरसे उस आ मक शोभा बढ़ाते थे। इन सब वशेषता के कारण मह ष व स का वह आ म दूसरे लोकके समान जान पड़ता था। वजयी वीर म े महाबली व ा म ने उसका दशन कया’॥ २५—२८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म इ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५१॥



बावनवाँ सग मह ष व स



ारा व ा म का स



‘जप करनेवाल म



ार और कामधेनुको अभी व ु आदेश



क सृ



करनेका



े व स का दशन करके महाबली वीर व ा म बड़े स ए और वनयपूवक उ ने उनके चरण म णाम कया॥ १ ॥ ‘तब महा ा व स ने कहा—‘राजन्! तु ारा ागत है।’ ऐसा कहकर भगवान् व स ने उ बैठनेके लये आसन दया॥ २ ॥ ‘जब बु मान् व ा म आसनपर वराजमान ए, तब मु नवर व स ने उ व धपूवक फल-मूलका उपहार अ पत कया॥ ३ ॥ ‘व स जीसे वह आ त -स ार हण करके राज शरोम ण महातेज ी व ा म ने उनके तप, अ हो , श वग और लता-वृ आ दका कु शल-समाचार पूछा। फर व स जीने उन नृप े से सबके सकु शल होनेक बात बतायी॥ ४-५ ॥ ‘ फर जप करनेवाल म े कु मार महातप ी व स ने वहाँ सुखपूवक बैठे ए राजा व ा म से इस कार पूछा—॥ ६ ॥ ‘राजन्! तुम सकु शल तो हो न? धमा ा नरेश! ा तुम धमपूवक जाको स रखते ए राजो चत री त-नी तसे जावगका पालन करते हो?॥ ७ ॥ ‘श ुसूदन! ा तुमने अपने भृ का अ ी तरह भरण-पोषण कया है? ा वे तु ारी आ ाके अधीन रहते ह? ा तुमने सम श ु पर वजय पा ली है?॥ ८ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले पु ष सह न ाप नरेश! ा तु ारी सेना, कोश, म वग तथा पु -पौ आ द सब सकु शल ह?’॥ ९ ॥ ‘तब महातेज ी राजा व ा म ने वनयशील मह ष व स को उ र दया—‘हाँ भगवन्! मेरे यहाँ सव कु शल है?’॥ १० ॥ ‘त ात् वे दोन धमा ा पु ष बड़ी स ताके साथ ब त देरतक पर र वातालाप करते रहे। उस समय एकका दूसरेके साथ बड़ा ेम हो गया॥ ११ ॥



‘रघुन न! कहा—॥ १२ ॥



बातचीत करनेके प ात् भगवान् व स ने व ा म से हँ सते ए-से इस कार



‘महाबली नरेश! तु ारा आ त -स ार करना चाहता



भाव असीम है। म तु ारा और तु ारी इस सेनाका यथायो ँ । तुम मेरे इस अनुरोधको ीकार करो॥ १३ ॥ ‘राजन्! तुम अ त थय म े हो, इस लये य पूवक तु ारा स ार करना मेरा कत है। अत: मेरे ारा कये गये इस स ारको तुम हण करो’॥ १४ ॥ ‘व स के ऐसा कहनेपर महाबु मान् राजा व ा म ने कहा—‘मुन!े आपके स ारपूण वचन से ही मेरा पूण स ार हो गया॥ १५ ॥ ‘भगवन्! आपके आ मपर जो व मान ह, उन फल-मूल, पा और आचमनीय आ द व ु से मेरा भलीभाँ त आदर-स ार आ है। सबसे बढ़कर जो आपका दशन आ, इसीसे मेरी पूजा हो गयी॥ १६ ॥ ‘महा ानी महष! आप सवथा मेरे पूजनीय ह तो भी आपने मेरा भलीभाँ त पूजन कया। आपको नम ार है। अब म यहाँसे जाऊँ गा। आप मै ीपूण से मेरी ओर दे खये’॥ १७ ॥ ऐसा कहते ए राजा व ा म से उदारचेता धमा ा व स ने नम ण ीकार करनेके लये बार ार आ ह कया॥ १८ ॥ तब गा धन न व ा म ने उ उ र देते ए कहा—‘ब त अ ा। मुझे आपक आ ा ीकार है। मु न वर! आप मेरे पू ह। आपक जैसी च हो— आपको जो य लगे, वही हो’॥ १९ ॥ ‘राजाके ऐसा कहनेपर जप करनेवाल म े मु नवर व स बड़े स ए। उ ने अपनी उस चतकबरी होम-धेनुको बुलाया, जसके पाप (अथवा मैल) धुल गये थे(वह कामधेनु थी)॥ २० ॥ ‘(उसे बुलाकर ऋ षने कहा—) शबले! शी आओ, आओ और मेरी यह बात सुनो—मने सेनास हत इन राज षका महाराजा के यो उ म भोजन आ दके ारा आ त -स ार करनेका न य कया है। तुम मेरे इस मनोरथको सफल करो॥ २१ ॥ ‘ष स भोजन मसे जसको जो-जो पसंद हो, उसके लये वह सब ुत कर दो। द कामधेनो! आज मेरे कहनेसे इन अ त थय के लये अभी व ु क वषा करो॥ २२ ॥



‘शबले!



सरस पदाथ, अ , पान, ले (चटनी आ द) और चो (चूसनेक व )ु से यु भाँ तभाँ तके अ क ढेरी लगा दो। सभी आव क व ु क सृ कर दो। शी ता करो— वल न होने पावे’॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म बावनवाँ सग पूरा आ॥ ५२॥



तरपनवाँ सग कामधेनुक सहायतासे उ म अ -पान ारा सेनास हत तृ ए व ा म का व स से उनक कामधेनुको माँगना और उनका देनेसे अ ीकार करना ‘श



सु ूदन! मह ष व स के ऐसा कहनेपर चतकबरे रंगक उस कामधेनुने जसक जैसी इ ा थी, उसके लये वैसी ही साम ी जुटा दी॥ १ ॥ ‘◌इख, मधु, लावा, मैरेय, े आसव, पानक रस आ द नाना कारके ब मू भ पदाथ ुत कर दये॥ २ ॥ ‘गरम-गरम भातके पवतके स श ढेर लग गये। म ा (खीर) और दाल भी तैयार हो गयी। दूध, दही और घीक तो नहर बह चल ॥ ३ ॥ ‘भाँ त-भाँ तके सु ादु रस, खा व तथा नाना कारके भोजन से भरी ◌इ चाँदीक सह था लयाँ सज गय ॥ ४ ॥ ‘ ीराम! मह ष व स ने व ा म जीक सारी सेनाके लोग को भलीभाँ त तृ कया। उस सेनाम ब त-से -पु सै नक थे। उन सबको वह द भोजन पाकर बड़ा संतोष आ॥ ५॥ ‘राज ष व ा म भी उस समय अ :पुरक रा नय , ा ण और पुरो हत के साथ ब त ही -पु हो गये॥ ६ ॥ ‘अमा , म ी और भृ स हत पू जत हो वे ब त स ए और व स जीसे इस कार बोले— ‘ न्! आप यं मेरे पूजनीय ह तो भी आपने मेरा पूजन कया, भलीभाँ त ागतस ार कया। बातचीत करनेम कु शल महष! अब म एक बात कहता ँ , उसे सु नये॥ ८ ॥ ‘भगवन्! आप मुझसे एक लाख गौएँ लेकर यह चतकबरी गाय मुझे दे दी जये; क यह गौ र प है और र लेनेका अ धकारी राजा होता है। न्! मेरे इस कथनपर ान देकर मुझे यह शबला गौ दे दी जये; क यह धमत: मेरी ही व ु है’॥ ९ १/२ ॥ ‘ व ा म के ऐसा कहनेपर धमा ा मु नवर भगवान् व स राजाको उ र देते ए बोले —॥ १० १/२ ॥



‘श



ु का दमन करनेवाले नरे र! म एक लाख या सौ करोड़ अथवा चाँदीके ढेर लेकर भी बदलेम इस शबला गौको नह दूँगा। यह मेरे पाससे अलग होने यो नह है॥ १२ ॥ ‘जैसे मन ी पु षक अ य क त कभी उससे अलग नह रह सकती, उसी कार यह सदा मेरे साथ स रखनेवाली शबला गौ मुझसे पृथक् नह रह सकती। मेरा ह -क और जीवन- नवाह इसीपर नभर है॥ १३ ॥ ‘मेरे अ हो , ब ल, होम, ाहा, वषट्कार और भाँ त-भाँ तक व ाएँ इस कामधेनुके ही अधीन ह॥ १४ ॥ ‘राजष! मेरा यह सब कु छ इस गौके ही अधीन है, इसम संशय नह है। म सच कहता ँ —यह गौ ही मेरा सव है और यही मुझे सब कारसे संतु करनेवाली है। राजन्! ब त-से ऐसे कारण ह, जनसे बा होकर म यह शबला गौ आपको नह दे सकता’॥ १५ १/२ ॥ ‘व स जीके ऐसा कहनेपर बोलनेम कु शल व ा म अ ोधपूवक इस कार बोले —॥ १६ १/२ ॥ ‘मुन!े म आपको चौदह हजार ऐसे हाथी दे रहा ँ , जनके कसनेवाले र े, गलेके आभूषण और अंकुश भी सोनेके बने ह गे और उन सबसे वे हाथी वभू षत ह गे॥ १७ १/२ ॥ ‘उ म तका पालन करनेवाले मुनी र! इनके सवा म आठ सौ सुवणमय रथ दान क ँ गा; जनम शोभाके लये सोनेके घुँघु लगे ह गे और हर एक रथम चारचार सफे द रंगके घोड़े जुते ए ह गे तथा अ ी जा त और उ म देशम उ महातेज ी ारह हजार घोड़े भी आपक सेवाम अ पत क ँ गा। इतना ही नह , नाना कारके रंगवाली नयी अव ाक एक करोड़ गौएँ भी दूँगा, परंतु यह शबला गौ मुझे दे दी जये॥ १८—२० ॥ ‘ ज े ! इनके अ त र भी आप जतने र या सुवण लेना चाह, वह सब आपको देनेके लये म तैयार ँ ; कतु यह चतकबरी गाय मुझे दे दी जये’॥ २१ ॥ ‘बु मान् व ा म के ऐसा कहनेपर भगवान् व स बोले—‘राजन्! म यह चतकबरी गाय तु कसी तरह भी नह दूँगा॥ २२ ॥ ‘यही मेरा र है, यही मेरा धन है, यही मेरा सव है और यही मेरा जीवन है॥ २३ ॥ ‘राजन्! मेरे दश, पौणमास, चुर द णावाले य तथा भाँ त-भाँ तके पु कम—यह गौ ही है। इसीपर ही मेरा सब कु छ नभर है॥ २४ ॥



‘नरे र!



मेरे सारे शुभ कम का मूल यही है, इसम संशय नह है। ब त थ बात करनेसे ा लाभ। म इस कामधेनुको कदा प नह दूँगा’॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म तरपनवाँ सग पूरा आ॥ ५३॥



चौवनवाँ सग व ा म का व स जीक गौको बलपूवक ले जाना, गौका द:ु खी होकर व स जीसे इसका कारण पूछना और उनक आ ासे शक, यवन, प व आ द वीर क सृ करके उनके ारा व ा म जीक सेनाका संहार करना



ीराम! जब व स मु न कसी तरह भी उस कामधेनु गौको देनेके लये तैयार न ए, तब राजा व ा म उस चतकबरे रंगक धेनुको बलपूवक घसीट ले चले॥ १ ॥ ‘रघुन न! महामन ी राजा व ा म के ारा इस कार ले जायी जाती ◌इ वह गौ शोकाकु ल हो मन-ही-मन रो पड़ी और अ दु: खत हो वचार करने लगी—॥ २ ॥ ‘अहो! ा महा ा व स ने मुझे ाग दया है, जो ये राजाके सपाही मुझ दीन और अ दु: खया गौको इस तरह बलपूवक लये जा रहे ह?॥ ३ ॥ ‘प व अ :करणवाले उन मह षका मने ा अपराध कया है क वे धमा ा मु न मुझे नरपराध और अपना भ जानकर भी ाग रहे ह?’॥ ४ ॥ ‘श ुसूदन! यह सोचकर वह गौ बार ार लंबी साँस लेने लगी और राजाके उन सैकड़ सेवक को झटककर उस समय महातेज ी व स मु नके पास बड़े वेगसे जा प ँ ची॥ ५ १/२ ॥ ‘वह शबला गौ वायुके समान वेगसे उन महा ाके चरण के समीप गयी और उनके सामने खड़ी हो मेघके समान ग ीर रसे रोती-ची ार करती ◌इ उनसे इस कार बोली—॥ ६-७ ‘



॥ ‘भगवन्!



कु मार! ा आपने मुझे ाग दया, जो ये राजाके सै नक मुझे आपके पाससे दूर लये जा रहे ह?’॥ ८ ॥ ‘उसके ऐसा कहनेपर ष व स शोकसे संत दयवाली दु: खया ब हनके समान उस गौसे इस कार बोले—॥ ९ ॥ ‘शबले! म तु ारा ाग नह करता। तुमने मेरा को◌इ अपराध नह कया है। ये महाबली राजा अपने बलसे मतवाले होकर तुमको मुझसे छीनकर ले जा रहे ह॥ १० ॥ ‘मेरा बल इनके समान नह है। वशेषत: आजकल ये राजाके पदपर त त ह। राजा, य तथा इस पृ ीके पालक होनेके कारण ये बलवान् ह॥ ११ ॥



‘इनके



पास हाथी, घोड़े और रथ से भरी ◌इ यह अ ौ हणी सेना है, जसम हा थय के हौद पर लगे ए ज सब ओर फहरा रहे ह। इस सेनाके कारण भी ये मुझसे बल ह’॥ १२ ॥ ‘व स जीके ऐसा कहनेपर बातचीतके ममको समझनेवाली उस कामधेनुने उन अनुपम तेज ी षसे यह वनययु बात कही—॥ १३ ॥ ‘‘ न्! यका बल को◌इ बल नह है। ा ण ही य आ दसे अ धक बलवान् होते ह। ा णका बल द है। वह य-बलसे अ धक बल होता है॥ ‘‘आपका बल अ मेय है। महापरा मी व ा म आपसे अ धक बलवान् नह ह। आपका तेज दुधष है॥ १५ ॥ ‘‘महातेज ी महष! म आपके बलसे प रपु ◌इ ँ । अत: आप के वल मुझे आ ा दे दी जये। म इस दुरा ा राजाके बल, य और अ भमानको अभी चूण कये देती ँ ’॥ १६ ॥



ीराम! कामधेनुके ऐसा कहनेपर महायश ी व स ने कहा—‘इस श -ु सेनाको न करनेवाले सै नक क सृ करो’॥ १७ ॥ ‘राजकु मार! उनका वह आदेश सुनकर उस गौने उस समय वैसा ही कया। उसके क ं ार करते ही सैकड़ प व जा तके वीर पैदा हो गये॥ १८ ॥ ‘वे सब व ा म के देखते-देखते उनक सारी सेनाका नाश करने लगे। इससे राजा व ा म को बड़ा ोध आ। वे रोषसे आँ ख फाड़-फाड़कर देखने लगे॥ १९ ॥ ‘उ ने छोटे-बड़े क◌इ तरहके अ का योग करके उन प व का संहार कर डाला। व ा म ारा उन सैकड़ प व को पी ड़त एवं न आ देख उस समय उस शबला गौने पुन: यवन म त शक जा तके भयंकर वीर को उ कया। उन यवन म त शक से वहाँक सारी पृ ी भर गयी॥ २०-२१ ॥ ‘वे वीर महापरा मी और तेज ी थे। उनके शरीरक का सुवण तथा के सरके समान थी। वे सुनहरे व से अपने शरीरको ढँ के ए थे। उ ने हाथ म तीखे खड् ग और प श ले रखे थे। लत अ के समान उ ा सत होनेवाले उन वीर ने व ा म क सारी सेनाको भ करना आर कया। तब महातेज ी व ा म ने उनपर ब त-से अ छोड़े। उन अ क चोट खाकर वे यवन, का ोज और बबर जा तके यो ा ाकु ल हो उठे ’॥ २२-२३ ॥ ‘



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म चौवनवाँ सग पूरा आ॥ ५४॥



पचपनवाँ सग अपने सौ पु और सारी सेनाके न हो जानेपर व ा म का तप ा करके महादेवजीसे द ा पाना तथा उनका व स के आ मपर योग करना एवं व स जीका द लेकर उनके सामने खड़ा होना ‘व



ा म के अ से घायल होकर उ ाकु ल आ देख व स जीने फर आ ा दी —‘कामधेनो! अब योगबलसे दूसरे सै नक क सृ करो’॥ १ ॥ ‘तब उस गौने फर क ं ार कया। उसके कं ारसे सूयके समान तेज ी का ोज उ ए। थनसे श धारी बबर कट ए॥ २ ॥ ‘यो नदेशसे यवन और शकृ श े (गोबरके ान) से शक उ ए। रोमकू प से े , हारीत और करात कट ए॥ ३ ॥ ‘रघुन न! उन सब वीर ने पैदल, हाथी, घोड़े और रथस हत व ा म क सारी सेनाका त ाल संहार कर डाला॥ ४ ॥ ‘महा ा व स ारा अपनी सेनाका संहार आ देख व ा म के सौ पु अ ोधम भर गये और नाना कारके अ -श लेकर जप करनेवाल म े व स मु नपर टूट पड़े। तब उन मह षने कं ारमा से उन सबको जलाकर भ कर डाला॥ ५-६ ॥ ‘महा ा व स ारा व ा म के वे सभी पु दो ही घड़ीम घोड़े, रथ और पैदल सै नक स हत जलाकर भ कर डाले गये॥ ७ ॥ ‘अपने सम पु तथा सारी सेनाका वनाश आ देख महायश ी व ा म ल त हो बड़ी च ाम पड़ गये॥ ८ ॥ ‘समु के समान उनका सारा वेग शा हो गया। जसके दाँत तोड़ लये गये ह उस सपके समान तथा रा सूयक भाँ त वे त ाल ही न ेज हो गये॥ ‘पु और सेना दोन के मारे जानेसे वे पंख कटे ए प ीके समान दीन हो गये। उनका सारा बल और उ ाह न हो गया। वे मन-ही-मन ब त ख हो उठे ॥ १० ॥ ‘उनके एक ही पु बचा था, उसको उ ने राजाके पदपर अ भ ष करके रा क र ाके लये नयु कर दया और य-धमके अनुसार पृ ीके पालनक आ ा देकर वे



वनम चले गये॥ ११ ॥ ‘ हमालयके पा भागम, जो क र और नाग से से वत देश है, वहाँ जाकर महादेवजीक स ताके लये महान् तप ाका आ य ले वे तपम ही संल हो गये॥ १२ ॥ ‘कु छ कालके प ात् वरदायक देवे र भगवान् वृषभ ज ( शव) ने महामु न व ा म को दशन दया और कहा—॥ १३ ॥ ‘‘राजन्! कस लये तप करते हो? बताओ ा कहना चाहते हो? म तु वर देनेके लये आया ँ । तु जो वर पाना अभी हो, उसे कहो’॥ १४ ॥ ‘महादेवजीके ऐसा कहनेपर महातप ी व ा म ने उ णाम करके इस कार कहा —॥ १५ ॥ ‘‘ न ाप महादेव! य द आप संतु ह तो अंग, उपांग, उप नषद ् और रह स हत धनुवद मुझे दान क जये॥ ‘‘अनघ! देवता , दानव , मह षय , ग व , य तथा रा स के पास जो-जो अ ह , वे सब आपक कृ पासे मेरे दयम ु रत हो जायँ। देवदेव! यही मेरा मनोरथ है, जो मुझे ा होना चा हये’॥ १७ १/२ ॥ ‘तब ‘एवम ु’ कहकर देवे र भगवान् श र वहाँसे चले गये। देवे र महादेवसे वे अ पाकर महाबली व ा म को बड़ा घमंड हो गया। वे अ भमानम भर गये॥ १८-१९ ॥ ‘जैसे पू णमाको समु बढ़ने लगता है, उसी कार वे परा म ारा अपनेको ब त बढ़ाचढ़ा मानने लगे। ीराम! उ ने मु न े व स को उस समय मरा आ ही समझा॥ २० ॥ फर तो वे पृ ीप त व ा म व स के आ मपर जाकर भाँ त-भाँ तके अ का योग करने लगे। जनके तेजसे वह सारा तपोवन द होने लगा॥ २१ ॥ ‘बु मान् व ा म के उस बढ़ते ए अ तेजको देखकर वहाँ रहनेवाले सैकड़ मु न भयभीत हो स ूण दशा म भाग चले॥ २२ ॥ ‘व स जीके जो श थे, जो वहाँके पशु और प ी थे, वे सह ाणी भयभीत हो नाना दशा क ओर भाग गये॥ २३ ॥ ‘महा ा व स का वह आ म सूना हो गया। दो ही घड़ीम ऊसर भू मके समान उस ानपर स ाटा छा गया॥ २४ ॥



‘व स



जी बार-बार कहने लगे—‘डरो मत, म अभी इस गा धपु को न कये देता ँ । ठीक उसी तरह, जैसे सूय कु हासेको मटा देता है’॥ २५ ॥ ‘जपनेवाल म े महातेज ी व स ऐसा कहकर उस समय व ा म जीसे रोषपूवक बोले— ‘‘अरे! तूने चरकालसे पाले-पोसे तथा हरे-भरे कये ए इस आ मको न कर दया— उजाड़ डाला, इस लये तू दुराचारी और ववेकशू है और इस पापके कारण तू कु शलसे नह रह सकता’॥ २७ ॥ ‘ऐसा कहकर वे अ ु हो धूमर हत काला के समान उ ी हो उठे और दूसरे यमद के समान भयंकर डंडा हाथम उठाकर तुरंत उनका सामना करनेके लये तैयार हो गये’॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पचपनवाँ सग पूरा आ॥ ५५॥



छ नवाँ सग व ा म ारा व स जीपर नाना कारके द ा का योग और व स ारा द से ही उनका शमन एवं व ा म का ा ण क ा के लये तप करनेका न य



व स जीके ऐसा कहनेपर महाबली व ा म आ ेया लेकर बोले—‘अरे खड़ा रह, खड़ा रह’॥ १ ॥ उस समय तीय कालद के समान द को उठाकर भगवान् व स ने ोधपूवक इस कार कहा—॥ २ ॥ ‘ याधम! ले, यह म खड़ा ँ । तेरे पास जो बल हो, उसे दखा। गा धपु ! आज तेरे अ -श के ानका घमंड म अभी धूलम मला दूँगा॥ ३ ॥ ‘ यकु लकल ! कहाँ तेरा ा बल और कहाँ महान् बल। मेरे द बलको देख ले’॥ ४ ॥ गा धपु व ा म का वह उ म एवं भयंकर आ ेया व स जीके द से उसी कार शा हो गया, जैसे पानी पड़नेसे जलती ◌इ आगका वेग॥ ५ ॥ तब गा धपु व ा म ने कु पत होकर वा ण, रौ , ऐ , पाशुपत और ऐषीक नामक अ का योग कया॥ रघुन न! उसके प ात् मश: मानव, मोहन, गा व, ापन, जृ ण, मादन, संतापन, वलापन, शोषण, वदारण, सुदजु य व ा , पाश, कालपाश, वा णपाश, परम य पनाका , सूखी-गीली दो कारक अश न, द ा , पैशाचा , ौ ा , धमच , कालच , व ुच , वाय ा , म ना , हय शरा, दो कारक श , क ाल, मूसल, महान् वै ाधरा , दा ण काला , भयंकर शूला , कापाला और क णा —ये सभी अ उ ने व स जीके ऊपर चलाये॥ ७—१२ ॥ जपनेवाल म े मह ष व स पर इतने अ का हार वह एक अ तु -सी घटना थी, परंतु ाके पु व स जीने उन सभी अ को के वल अपने डंडसे े ही न कर दया॥ १३ ॥ उन सब अ के शा हो जानेपर गा धन न व ा म ने ा का योग कया। ा को उ त देख अ आ द देवता, देव ष, ग व और बड़े-बड़े नाग भी दहल गये।



ा के ऊपर उठते ही तीन लोक के ाणी थरा उठे ॥ १४-१५ ॥ राघव! व स जीने अपने तेजके भावसे उस महाभयंकर ा को भी द के ारा ही शा कर दया॥ १६ ॥ उस ा को शा करते समय महा ा व स का वह रौ प तीन लोक को मोहम डालनेवाला और अ भयंकर जान पड़ता था॥ १७ ॥ महा ा व स के सम रोमकू प मसे करण क भाँ त धूमयु आगक लपट नकलने लग ॥ १८ ॥ व स जीके हाथम उठा आ तीय यमद के समान वह द धूमर हत काला के समान लत हो रहा था॥ १९ ॥ उस समय सम मु नगण म जपनेवाल म े व स मु नक ु त करते ए बोले —‘ न्! आपका बल अमोघ है। आप अपने तेजको अपनी ही श से समेट ली जये॥ २० ॥ ‘महाबली



व ा म आपसे परा जत हो गये। मु न े ! आपका बल अमोघ है। अब आप शा हो जाइये, जससे लोग क था दूर हो’॥ २१ ॥ मह षय के ऐसा कहनेपर महातेज ी महाबली व स जी शा हो गये और परा जत व ा म ल ी साँस ख चकर य बोले—॥ २२ ॥ ‘ यके बलको ध ार है। तेजसे ा होनेवाला बल ही वा वम बल है; क आज एक द ने मेरे सभी अ न कर दये॥ २३ ॥ ‘इस घटनाको देखकर अब म अपने मन और इ य को नमल करके उस महान् तपका अनु ान क ँ गा, जो मेरे लये ा ण क ा का कारण होगा’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म छ नवाँ सग पूरा आ॥ ५६॥



स ावनवाँ सग व ा म क तप ा, राजा शंकुका अपना य करानेके लये पहले व स जीसे ाथना करना और उनके इ ार कर देनेपर उ के पु क शरणम जाना



ीराम! तदन र व ा म अपनी पराजयको याद करके मन-ही-मन संत होने लगे। महा ा व स के साथ वैर बाँधकर महातप ी व ा म बार ार ल ी साँस ख चते ए अपनी रानीके साथ द ण दशाम जाकर अ उ ृ एवं भयंकर तप ा करने लगे॥ १-२ ॥



वहाँ मन और इ य को वशम करके वे फल-मूलका आहार करते तथा उ म तप ाम लगे रहते थे। वह उनके ह व , मधु , ढने और महारथ नामक चार पु उ ए, जो स और धमम त र रहनेवाले थे॥ ३ १/२ ॥ एक हजार वष पूरे हो जानेपर लोक पतामह ाजीने तप ाके धनी व ा म को दशन देकर मधुर वाणीम कहा—‘कु शकन न! तुमने तप ाके ारा राज षय के लोक पर वजय पायी है। इस तप ाके भावसे हम तु स ा राज ष समझते ह’॥ ४-५ १/२ ॥ यह कहकर स ूण लोक के ामी ाजी देवता के साथ गलोक होते ए लोकको चले गये॥ ६ १/२ ॥ उनक बात सुनकर व ा म का मुख ल ासे कु छ कु गया। वे बड़े दु:खसे थत हो दीनतापूवक मन-ही-मन य कहने लगे—‘अहो! मने इतना बड़ा तप कया तो भी ऋ षय स हत स ूण देवता मुझे राज ष ही समझते ह। मालूम होता है, इस तप ाका को◌इ फल नह आ’॥ ७-८ १/२ ॥ ीराम! मनम ऐसा सोचकर अपने मनको वशम रखनेवाले महातप ी धमा ा व ा म पुन: भारी तप ाम लग गये॥ ९ १/२ ॥ इसी समय इ ाकु कु लक क त बढ़ानेवाले एक स वादी और जते य राजा रा करते थे। उनका नाम था शंकु॥ १० १/२ ॥ रघुन न! उनके मनम यह वचार आ क ‘म ऐसा को◌इ य क ँ , जससे अपने इस शरीरके साथ ही देवता क परम ग त— गलोकको जा प ँ च’ूँ ॥



तब उ ने व स जीको बुलाकर अपना यह वचार उ कह सुनाया। महा ा व स ने उ बताया क ‘ऐसा होना अस व है’॥ १२ १/२ ॥ जब व स ने उ कोरा उ र दे दया, तब वे राजा उस कमक स के लये द ण दशाम उ के पु के पास चले गये॥ १३ १/२ ॥ व स जीके वे पु जहाँ दीघकालसे तप ाम वृ होकर तप करते थे, उस ानपर प ँ चकर महातेज ी शंकुने देखा क मनको वशम रखनेवाले वे सौ परमतेज ी व स कु मार तप ाम संल ह॥ उन सभी महा ा गु पु के पास जाकर उ ने मश: उ णाम कया और ल ासे अपने मुखको कु छ नीचा कये हाथ जोड़कर उन सब महा ा से कहा—॥ १६ १/२ ॥ ‘गु पु ो! आप शरणागतव ल ह। म आपलोग क शरणम आया ँ , आपका क ाण हो। महा ा व स ने मेरा य कराना अ ीकार कर दया है। म एक महान् य करना चाहता ँ । आपलोग उसके लये आ ा द॥ १७-१८ ॥ ‘म सम गु पु को नम ार करके स करना चाहता ँ । आपलोग तप ाम संल रहनेवाले ा ण ह। म आपके चरण म म क रखकर यह याचना करता ँ क आपलोग एका च हो मुझसे मेरी अभी स के लये ऐसा को◌इ य कराव, जससे म इस शरीरके साथ ही देवलोकम जा सकूँ ॥ १९-२० ॥ ‘तपोधनो! महा ा व स के अ ीकार कर देनेपर अब म अपने लये सम गु पु क शरणम जानेके सवा दूसरी को◌इ ग त नह देखता॥ २१ ॥ ‘सम इ ाकु वं शय के लये पुरो हत व स जी ही परमग त ह। उनके बाद आप सब लोग ही मेरे परम देवता ह’॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म स ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५७॥



अ ावनवाँ सग व स ऋ षके पु का शंकुको डाँट बताकर घर लौटनेके लये आ ा देना तथा उ दस ू रा पुरो हत बनानेके लये उ त देख शाप- दान और उनके शापसे चा ाल ए शंकुका व ा म जीक शरणम जाना



रघुन न! राजा शंकुका यह वचन सुनकर व स मु नके वे सौ पु कु पत हो उनसे इस कार बोले— ‘दुबु े! तु ारे स वादी गु ने जब तु मना कर दया है, तब तुमने उनका उ न करके दूसरी शाखाका आ य कै से लया?॥ १-२ ॥ ‘सम इ ाकु वंशी य के लये पुरो हत व स जी ही परमग त ह। उन स वादी महा ाक बातको को◌इ अ था नह कर सकता॥ ३ ॥ ‘ जस य कमको उन भगवान् व स मु नने अस व बताया है, उसे हमलोग कै से कर सकते ह॥ ४ ॥ ‘नर े ! तुम अभी नादान हो, अपने नगरको लौट जाओ। पृ ीनाथ! भगवान् व स तीन लोक का य करानेम समथ ह, हमलोग उनका अपमान कै से कर सकगे’॥ ५ १/२ ॥ गु पु का वह ोधयु वचन सुनकर राजा शंकुने पुन: उनसे इस कार कहा —‘तपोधनो! भगवान् व स ने तो मुझे ठु करा ही दया था, आप गु पु गण भी मेरी ाथना नह ीकार कर रहे ह; अत: आपका क ाण हो, अब म दूसरे कसीक शरणम जाऊँ गा’॥ शंकुका यह घोर अ भसं धपूण वचन सुनकर मह षके पु ने अ कु पत हो उ शाप दे दया— ‘अरे! जा तू चा ाल हो जायगा।’ ऐसा कहकर वे महा ा अपने-अपने आ मम व हो गये॥ ८-९ ॥ तदन र रात तीत होते ही राजा शंकु चा ाल हो गये। उनके शरीरका रंग नीला हो गया। कपड़े भी नीले हो गये। ेक अंगम ता आ गयी। सरके बाल छोटे-छोटे हो गये। सारे शरीरम चताक राख-सी लपट गयी। व भ अंग म यथा ान लोहेके गहने पड़ गये॥ १० १/२ ॥ ीराम! अपने राजाको चा ालके पम देखकर सब म ी और पुरवासी जो उनके साथ आये थे, उ छोड़कर भाग गये। ककु न न! वे धीर भाव नरेश दन-रात च ाक आगम



जलने लगे और अके ले ही तपोधन व ा म क शरणम गये॥ ११-१२ १/२ ॥ ीराम! व ा म ने देखा राजाका जीवन न ल हो गया है। उ चा ालके पम देखकर उन महातेज ी परम धमा ा मु नके दयम क णा भर आयी। वे दयासे वत होकर भयंकर दखायी देनेवाले राजा शंकुसे इस कार बोले— ‘महाबली राजकु मार! तु ारा भला हो, यहाँ कस कामसे तु ारा आना आ है। वीर अयो ानरेश! जान पड़ता है तुम शापसे चा ालभावको ा ए हो’॥ १३—१५ १/२ ॥ व ा म क बात सुनकर चा ालभावको ा ए और वाणीके ता यको समझनेवाले राजा शंकुने हाथ जोड़कर वा ाथको वद व ा म मु नसे इस कार कहा—॥ १६ १/२ ॥ ‘महष! मुझे गु तथा गु पु ने ठु करा दया। म जस मनोऽभी व ुको पाना चाहता था, उसे न पाकर इ ाके वपरीत अनथका भागी हो गया॥ १७ १/२ ॥ ‘सौ दशन मुनी र! म चाहता था क इसी शरीरसे गको जाऊँ , परंतु यह इ ा पूण न हो सक । मने सैकड़ य कये ह; कतु उनका भी को◌इ फल नह मल रहा है॥ १८ १/२ ॥ ‘सौ ! म यधमक शपथ खाकर आपसे कहता ँ क बड़े-से-बड़े स टम पड़नेपर भी न तो पहले कभी मने म ा भाषण कया है और न भ व म ही कभी क ँ गा॥ १९ १/२ ॥ ‘मने नाना कारके य का अनु ान कया, जाजन क धमपूवक र ा क और शील एवं सदाचारके ारा महा ा तथा गु जन को संतु रखनेका यास कया। इस समय भी म य करना चाहता था; अत: मेरा यह य धमके लये ही था। मु न वर! तो भी मेरे गु जन मुझपर संतु न हो सके । यह देखकर म दैवको ही बड़ा मानता ँ । पु षाथ तो नरथक जान पड़ता है॥ २०—२२ ॥ ‘दैव सबपर आ मण करता है। दैव ही सबक परमग त है। मुन!े म अ आत होकर आपक कृ पा चाहता ँ । दैवने मेरे पु षाथको दबा दया है। आपका भला हो। आप मुझपर अव कृ पा कर॥ २३ ॥ ‘अब म आपके सवा दूसरे कसीक शरणम नह जाऊँ गा। दूसरा को◌इ मुझे शरण देनेवाला है भी नह । आप ही अपने पु षाथसे मेरे दुदवको पलट सकते ह’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म अ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५८॥



उनसठवाँ सग व ा म का शंकुको आ ासन देकर उनका य करानेके लये ऋ ष-मु नय को आम त करना और उनक बात न माननेवाले महोदय तथा ऋ षपु को शाप देकर न करना



ीराम!] सा ात् चा ालके पको ा ए राजा शंकुके पूव वचनको सुनकर कु शकन न व ा म जीने दयासे वत होकर उनसे मधुर वाणीम कहा—॥ १ ॥ ‘व ! इ ाकु कु लन न! तु ारा ागत है। म जानता ँ , तुम बड़े धमा ा हो। नृप वर! डरो मत, म तु शरण दूँगा॥ २ ॥ ‘राजन्! तु ारे य म सहायता करनेवाले सम पु कमा मह षय को म आम त करता ँ । फर तुम आन पूवक य करना॥ ३ ॥ ‘गु के शापसे तु जो यह नवीन प ा आ है इसके साथ ही तुम सदेह गलोकको जाओगे। नरे र! तुम जो शरणागतव ल व ा म क शरणम आ गये, इससे म यह समझता ँ क गलोक तु ारे हाथम आ गया है’॥ ४-५ ॥ ऐसा कहकर महातेज ी व ा म ने अपने परम धमपरायण महा ानी पु को य क साम ी जुटानेक आ ा दी॥ ६ ॥ त ात् सम श को बुलाकर उनसे यह बात कही—‘तुमलोग मेरी आ ासे अनेक वषय के ाता सम ऋ ष-मु नय को, जनम व स के पु भी स लत ह, उनके श , सु द तथा ऋ ज स हत बुला लाओ॥ ७ १/२ ॥ ‘ जसे मेरा संदेश देकर बुलाया गया हो वह अथवा दूसरा को◌इ य द इस य के वषयम को◌इ अवहेलनापूण बात कहे तो तुमलोग वह सब पूरा-पूरा मुझसे आकर कहना’॥ ८ १/२ ॥ उनक आ ा मानकर सभी श चार दशा म चले गये। फर तो सब देश से वादी मु न आने लगे। व ा म के वे श उन लत तेजवाले मह षके पास सबसे पहले लौट आये और सम वा दय ने जो बात कही थ , उ सबने व ा म जीसे कह सुनाया॥ ९-१० १/२ ॥ [शतान जी कहते ह—



वे बोले—‘गु देव! आपका आदेश या संदेश सुनकर ाय: स ूण देश म रहनेवाले सभी ा ण आ रहे ह। के वल महोदय नामक ऋ ष तथा व स -पु को छोड़कर सभी मह ष यहाँ आनेके लये ान कर चुके ह॥ ११ १/२ ॥ ‘मु न े ! व स के जो सौ पु ह, उन सबने ोधभरी वाणीम जो कु छ कहा है, वह सब आप सु नये॥ १२ १/२ ॥ ‘वे कहते ह—जो वशेषत: च ाल है और जसका य करानेवाला आचाय य है, उसके य म देव ष अथवा महा ा ा ण ह व का भोजन कै से कर सकते ह? अथवा च ालका अ खाकर व ा म से पा लत ए ा ण गम कै से जा सकगे?’॥ १३-१४ १/२ ॥ ‘मु न



वर! महोदयके साथ व स के सभी पु ने ोधसे लाल आँ ख करके ये उपयु न ु रतापूण बात कही थ ’॥ १५ १/२ ॥ उन सबक वह बात सुनकर मु नवर व ा म के दोन ने ोधसे लाल हो गये और वे रोषपूवक इस कार बोले—॥ १६ १/२ ॥ ‘म उ तप ाम लगा ँ और दोष या दुभावनासे र हत ँ तो भी जो मुझपर दोषारोपण करते ह, वे दुरा ा भ ीभूत हो जायँग,े इसम संशय नह है॥ १७ १/२ ॥ ‘आज कालपाशसे बँधकर वे यमलोकम प ँ चा दये गये। अब ये सात सौ ज तक मुद क रखवाली करनेवाली, न त पसे कु ेका मांस खानेवाली मु क नामक स नदय च ाल-जा तम ज हण कर॥ १८-१९ ॥ ‘वे लोग वकृ त एवं व प होकर इन लोक म वचर। साथ ही दुबु महोदय भी, जसने मुझ दोषहीनको भी दू षत कया है, मेरे ोधसे दीघ कालतक सब लोग म न त, दूसरे ा णय क हसाम त र और दयाशू नषादयो नको ा करके दुग त भोगेगा’॥ २०-२१ १/२ ॥



ऋ षय के बीचम ऐसा कहकर महातप ी, महातेज ी एवं महामु न व ा म चुप हो गये॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म उनसठवाँ सग पूरा आ॥ ५९॥



साठवाँ सग व ा म का ऋ षय से शंकुका य करानेके लये अनुरोध, ऋ षय ारा य का आर , शंकुका सशरीर गगमन, इ ारा गसे उनके गराये जानेपर ु ए व ा म का नूतन देवसगके लये उ ोग, फर देवता के अनुरोधसे उनका इस कायसे वरत होना



ीराम!] महोदयस हत व स के पु को अपने तपोबलसे न आ जान महातेज ी व ा म ने ऋ षय के बीचम इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘मु नवरो! ये इ ाकु वंशम उ राजा शंकु ह। ये व ात नरेश बड़े ही धमा ा और दानी रहे ह तथा इस समय मेरी शरणम आये ह॥ २ ॥ ‘इनक इ ा है क म अपने इसी शरीरसे देवलोकपर अ धकार ा क ँ । अत: आपलोग मेरे साथ रहकर ऐसे य का अनु ान कर, जससे इ इस शरीरसे ही देवलोकक ा हो सके ’॥ ३ १/२ ॥ व ा म जीक यह बात सुनकर धमको जाननेवाले सभी मह षय ने सहसा एक होकर आपसम धमयु परामश कया—‘ ा णो! कु शकके पु व ा म मु न बड़े ोधी ह। ये जो बात कह रहे ह, उसका ठीक तरहसे पालन करना चा हये। इसम संशय नह है॥ ४-५ १/२ ॥ ‘ये भगवान् व ा म अ के समान तेज ी ह। य द इनक बात नह मानी गयी तो ये रोषपूवक शाप दे दगे। इस लये ऐसे य का आर करना चा हये, जससे व ा म के तेजसे ये इ ाकु न न शंकु सशरीर गलोकम जा सक’॥ ६-७ ॥ इस तरह वचार करके उ ने सवस तसे यह न य कया क ‘य आर कया जाय।’ ऐसा न य करके मह षय ने उस समय अपना-अपना काय आर कया॥ ८ ॥ महातेज ी व ा म यं ही उस य म याजक (अ यु) ए। फर मश: अनेक म वे ा ा ण ऋ ज् ए; ज ने क शा के अनुसार व ध एवं म ो ारणपूवक सारे काय स कये॥ ९ १/२ ॥ तदन र ब त समयतक य पूवक म पाठ करके महातप ी व ा म ने अपना-अपना भाग हण करनेके लये स ूण देवता का आवाहन कया; परंतु उस समय वहाँ भाग लेनेके लये वे सब देवता नह आये॥ १०-११ ॥ [शतान जी कहते ह—



इससे महामु न व ा म को बड़ा ोध आया और उ ने ुवा उठाकर रोषके साथ राजा शंकुसे इस कार कहा—॥ १२ ॥ ‘नरे र! अब तुम मेरे ारा उपा जत तप ाका बल देखो। म अभी तु अपनी श से सशरीर गलोकम प ँ चाता ँ ॥ १३ ॥ ‘राजन्! आज तुम अपने इस शरीरके साथ ही दुलभ गलोकको जाओ। नरे र! य द मने तप ाका कु छ भी फल ा कया है तो उसके भावसे तुम सशरीर गलोकको जाओ’॥ १४ १/२ ॥ ीराम! व ा म मु नके इतना कहते ही राजा शंकु सब मु नय के देखते-देखते उस समय अपने शरीरके साथ ही गलोकको चले गये॥ १५ १/२ ॥ शंकुको गलोकम प ँ चा आ देख सम देवता के साथ पाकशासन इ ने उनसे इस कार कहा—॥ १६ १/२ ॥ ‘मूख शंकु! तू फर यहाँसे लौट जा, तेरे लये गम ान नह है। तू गु के शापसे न हो चुका है, अत: नीचे मुँह कये पुन: पृ ीपर गर जा’॥ १७ १/२ ॥ इ के इतना कहते ही राजा शंकु तपोधन व ा म को पुकारकर ‘ ा ह- ा ह’ क रट लगाते ए पुन: गसे नीचे गरे॥ १८ १/२ ॥ चीखते- च ाते ए शंकुक वह क ण पुकार सुनकर कौ शक मु नको बड़ा ोध आ। वे शंकुसे बोले— ‘राजन्! वह ठहर जा, वह ठहर जा’ (उनके ऐसा कहनेपर शंकु बीचम ही लटके रह गये)॥ १९ १/२ ॥ त ात् तेज ी व ा म ने ऋ षम लीके बीच दूसरे जाप तके समान द णमागके लये नये स षय क सृ क तथा ोधसे भरकर उ ने नवीन न का भी नमाण कर डाला॥ २०-२१ ॥ वे महायश ी मु न ोधसे कलु षत हो द ण दशाम ऋ षम लीके बीच नूतन न माला क सृ करके यह वचार करने लगे क ‘म दूसरे इ क सृ क ँ गा अथवा मेरे ारा र चत गलोक बना इ के ही रहेगा।’ ऐसा न य करके उ ने ोधपूवक नूतन देवता क सृ ार क ॥ २२-२३ ॥



इससे सम देवता, असुर और ऋ ष-समुदाय ब त घबराये और सभी वहाँ आकर महा ा व ा म से वनयपूवक बोले—॥ २४ ॥ ‘महाभाग! ये राजा शंकु गु के शापसे अपना पु न करके चा ाल हो गये ह; अत: तपोधन! ये सशरीर गम जानेके कदा प अ धकारी नह ह’॥ उन देवता क यह बात सुनकर मु नवर कौ शकने स ूण देवता से परमो ृ वचन कहा—॥ २६ ॥ ‘देवगण! आपका क ाण हो। मने राजा शंकुको सदेह ग भेजनेक त ा कर ली है; अत: उसे म झूठी नह कर सकता॥ २७ ॥ ‘इन महाराज शंकुको सदा गलोकका सुख ा होता रहे। मने जन न का नमाण कया है, वे सब सदा मौजूद रह। जबतक संसार रहे, तबतक ये सभी व ुएँ, जनक मेरे ारा सृ ◌इ है, सदा बनी रह। देवताओ! आप सब लोग इन बात का अनुमोदन कर’॥ उनके ऐसा कहनेपर सब देवता मु नवर व ा म से बोले—‘महष! ऐसा ही हो। ये सभी व ुएँ बनी रह और आपका क ाण हो। मु न े ! आपके रचे ए अनेक न आकाशम वै ानरपथसे बाहर का शत ह गे और उ ो तमय न के बीचम सर नीचा कये शंकु भी काशमान रहगे। वहाँ इनक त देवता के समान होगी और ये सभी न इन कृ ताथ एवं यश ी नृप े का ग य पु षक भाँ त अनुसरण करते रहगे’॥ इसके बाद स ूण देवता ने ऋ षय के बीचम ही महातेज ी धमा ा व ा म मु नक ु त क । इससे स होकर उ ने ‘ब त अ ा’ कहकर देवता का अनुरोध ीकार कर लया॥ ३३ १/२ ॥ नर े ीराम! तदन र य समा होनेपर सब देवता और तपोधन मह ष जैसे आये थे, उसी कार अपने-अपने ानको लौट गये॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म साठवाँ सग पूरा आ॥ ६०॥



एकसठवाँ सग व ा म क पु र तीथम तप ा तथा राज ष अ रीषका ऋचीकके म म पु शुन:शेपको य -पशु बनानेके लये खरीदकर लाना



पु ष सह ीराम! य म आये ए उन सब वनवासी ऋ षय को वहाँसे जाते देख महातेज ी व ा म ने उनसे कहा—॥ १ ॥ ‘मह षयो! इस द ण दशाम रहनेसे हमारी तप ाम महान् व आ पड़ा है; अत: अब हम दूसरी दशाम चले जायँगे और वह रहकर तप ा करगे॥ २ ॥ ‘ वशाल प म दशाम जो महा ा ाजीके तीन पु र ह, उ के पास रहकर हम सुखपूवक तप ा करगे; क वह तपोवन ब त ही सुखद है’॥ ३ ॥ ऐसा कहकर वे महातेज ी महामु न पु रम चले गये और वहाँ फल-मूलका भोजन करके उ एवं दुजय तप ा करने लगे॥ ४ ॥ इ दन अयो ाके महाराज अ रीष एक य क तैयारी करने लगे॥ ५ ॥ जब वे य म लगे ए थे, उस समय इ ने उनके य पशुको चुरा लया। पशुके खो जानेपर पुरो हतजीने राजासे कहा—॥ ६ ॥ ‘राजन्! जो पशु यहाँ लाया गया था, वह आपक दुन तके कारण खो गया। नरे र! जो राजा य -पशुक र ा नह करता, उसे अनेक कारके दोष न कर डालते ह॥ ७ ॥ ‘पु ष वर! जबतक कमका आर होता है, उसके पहले ही खोये ए पशुक खोज कराकर उसे शी यहाँ ले आओ। अथवा उसके त न ध पसे कसी पु ष पशुको खरीद लाओ। यही इस पापका महान् ाय है’॥ पुरो हतक यह बात सुनकर महाबु मान् पु ष े राजा अ रीषने हजार गौ के मू पर खरीदनेके लये एक पु षका अ ेषण कया॥ ९ ॥ तात रघुन न! व भ देश , जनपद , नगर , वन तथा प व आ म म खोज करते ए राजा अ रीष भृगुतुंग पवतपर प ँ चे और वहाँ उ ने प ी तथा पु के साथ बैठे ए ऋचीक मु नका दशन कया॥ १०-११ ॥ [शतान जी कहते ह—]



अ मत का मान् एवं महातेज ी राज ष अ रीषने तप ासे उ ी होनेवाले मह ष ऋचीकको णाम कया और उ स करके कहा॥ १२ ॥ पहले तो उ ने ऋचीक मु नसे उनक सभी व ु के वषयम कु शल-समाचार पूछा, उसके बाद इस कार कहा—‘महाभाग भृगुन न! य द आप एक लाख गौएँ लेकर अपने एक पु को पशु बनानेके लये बेच तो म कृ तकृ हो जाऊँ गा॥ १३ १/२ ॥ ‘म सारे देश म घूम आया; परंतु कह भी य ोपयोगी पशु नह पा सका। अत: आप उ चत मू लेकर यहाँ मुझे अपने एक पु को दे दी जये’॥ १४ १/२ ॥ उनके ऐसा कहनेपर महातेज ी ऋचीक बोले— ‘नर े ! म अपने े पु को तो कसी तरह नह बेचूँगा’॥ १५ १/२ ॥ ऋचीक मु नक बात सुनकर उन महा ा पु क माताने पु ष सह अ रीषसे इस कार कहा—॥ १६ १/२ ॥ ‘ भो! भगवान् भागव कहते ह क े पु कदा प बेचनेयो नह है; परंतु आपको मालूम होना चा हये जो सबसे छोटा पु शुनक है, वह मुझे भी ब त ही य है। अत: पृ ीनाथ! म अपना छोटा पु आपको कदा प नह दूँगी॥ १७-१८ ॥ ‘नर े ! ाय: जेठे पु पता को य होते ह और छोटे पु माता को। अत: म अपने क न पु क अव र ा क ँ गी’॥ १९ ॥ ीराम! मु न और उनक प ीके ऐसा कहनेपर मझले पु शुन:शेपने यं कहा—॥ २० ॥ ‘राजपु !



पताने े को और माताने क न पु को बेचनेके लये अयो बतलाया है। अत: म समझता ँ इन दोन क म मझला पु ही बेचनेके यो है। इस लये तुम मुझे ही ले चलो’॥ २१ ॥ महाबा रघुन न! वादी मझले पु के ऐसा कहनेपर राजा अ रीष बड़े स ए और एक करोड़ णमु ा, र के ढेर तथा एक लाख गौ के बदले शुन:शेपको लेकर वे घरक ओर चले॥ २२-२३ ॥ महातेज ी महायश ी राज ष अ रीष शुन:शेपको रथपर बठाकर बड़ी उतावलीके साथ ती ग तसे चले॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म एकसठवाँ सग पूरा आ॥ ६१॥



बासठवाँ सग व ाम



ारा शुन:शेपक र ाका सफल य



और तप ा



नर े रघुन न! महायश ी राजा अ रीष शुन:शेपको साथ लेकर दोपहरके समय पु र तीथम आये और वहाँ व ाम करने लगे॥ १ ॥ ीराम! जब वे व ाम करने लगे, उस समय महायश ी शुन:शेप े पु रम आकर ऋ षय के साथ तप ा करते ए अपने मामा व ा म से मला। वह अ आतुर एवं दीन हो रहा था। उसके मुखपर वषाद छा गया था। वह भूख- ास और प र मसे दीन हो मु नक गोदम गर पड़ा और इस कार बोला—॥ २-३ १/२ ॥ ‘सौ ! मु नपुंगव! न मेरे माता ह, न पता, फर भा◌इ-ब ु कहाँसे हो सकते ह। (म असहाय ँ अत:) आप ही धमके ारा मेरी र ा क जये॥ ४ १/२ ॥ ‘नर े ! आप सबके र क तथा अभी व ुक ा करानेवाले ह। ये राजा अ रीष कृ ताथ हो जायँ और म भी वकारर हत दीघायु होकर सव म तप ा करके गलोक ा कर लूँ—ऐसी कृ पा क जये॥ ५-६ ॥ ‘धमा न्! आप अपने नमल च से मुझ अनाथके नाथ (असहायके संर क) हो जायँ। जैसे पता अपने पु क र ा करता है, उसी कार आप मुझे इस पापमूलक वप से बचाइये’॥ ७ ॥ शुन:शेपक वह बात सुनकर महातप ी व ा म उसे नाना कारसे सा ना दे अपने पु से इस कार बोले—॥ ८ ॥ ‘ब ो! शुभक अ भलाषा रखनेवाले पता जस पारलौ कक हतके उ े से पु को ज देते ह, उसक पू तका यह समय आ गया है॥ ९ ॥ ‘पु ो! यह बालक मु नकु मार मुझसे अपनी र ा चाहता है, तुमलोग अपना जीवनमा देकर इसका य करो॥ १० ॥ ‘तुम सब-के -सब पु ा ा और धमपरायण हो। अत: राजाके य म पशु बनकर अ देवको तृ दान करो॥ ११ ॥ [ शतान जी बोले—]



‘इससे शुन:शेप जायगा, देवता भी तृ



सनाथ होगा, राजाका य भी बना कसी व -बाधाके पूण हो ह गे और तु ारे ारा मेरी आ ाका पालन भी हो जायगा’॥ १२ ॥ ‘नर े ! व ा म मु नका वह वचन सुनकर उनके मधु आ द पु अ भमान और अवहेलनापूवक इस कार बोले—॥ १३ ॥ ‘ भो! आप अपने ब त-से पु को ागकर दूसरेके एक पु क र ा कै से करते ह? जैसे प व भोजनम कु ेका मांस पड़ जाय तो वह अ ा हो जाता है, उसी कार जहाँ अपने पु क र ा आव क हो, वहाँ दूसरेके पु क र ाके कायको हम अक क को टम ही देखते ह’॥ १४ ॥ उन पु का वह कथन सुनकर मु नवर व ा म के ने ोधसे लाल हो गये। वे इस कार कहने लगे—॥ १५ ॥ ‘अरे! तुमलोग ने नभय होकर ऐसी बात कही है, जो धमसे र हत एवं न त है। मेरी आ ाका उ न करके जो यह दा ण एवं रोमा कारी बात तुमने मुँहसे नकाली है, इस अपराधके कारण तुम सब लोग भी व स के पु क भाँ त कु ेका मांस खानेवाली मु क आ द जा तय म ज लेकर पूरे एक हजार वष तक इस पृ ीपर रहोगे’॥ १६-१७ ॥ इस कार अपने पु को शाप देकर मु नवर व ा म ने उस समय शोकात शुन:शेपक न व र ा करके उससे इस कार कहा—॥ १८ ॥ ‘मु नकु मार! अ रीषके इस य म जब तु कु श आ दके प व पाश से बाँधकर लाल फू ल क माला और लाल च न धारण करा दया जाय, उस समय तुम व ुदेवता-स ी यूपके पास जाकर वाणी ारा अ क (इ और व ुक ) ु त करना और इन दो द गाथा का गान करना। इससे तुम मनोवां छत स ा कर लोगे’॥ १९-२० ॥ शुन:शेपने एका च होकर उन दोन गाथा को हण कया और राज सह अ रीषके पास जाकर उनसे शी तापूवक कहा—॥ २१ ॥ ‘राजे ! परम बु मान् राज सह! अब हम दोन शी चल। आप य क दी ा ल और य काय स कर’॥ २२ ॥ ऋ षकु मारका वह वचन सुनकर राजा अ रीष आल छोड़ हषसे उ ु हो शी तापूवक य शालाम गये॥ २३ ॥



वहाँ सद क अनुम त ले राजा अ रीषने शुन:शेपको कु शके प व पाशसे बाँधकर उसे पशुके ल णसे स कर दया और य -पशुको लाल व प हनाकर यूपम बाँध दया॥ २४ ॥



बँधे ए मु नपु शुन:शेपने उ म वाणी ारा इ और उपे इन दोन देवता क यथावत् ु त क ॥ २५ ॥ उस रह भूत ु तसे संतु होकर सह ने धारी इ बड़े स ए। उस समय उ ने शुन:शेपको दीघायु दान क ॥ २६ ॥ नर े ीराम! राजा अ रीषने भी देवराज इ क कृ पासे उस य का ब गुणस उ म फल ा कया॥ २७ ॥ पु ष वर! इसके बाद महातप ी धमा ा व ा म ने भी पु र तीथम पुन: एक हजार वष तक ती तप ा क ॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म बासठवाँ सग पूरा आ॥ ६२॥



तरसठवाँ सग व ा म को ऋ ष एवं मह षपदक ा , मेनका ारा उनका तपोभंग तथा ा के लये उनक घोर तप ा



षपदक



ीराम!] जब एक हजार वष पूरे हो गये, तब उ ने तक समा का ान कया। ान कर लेनेपर महामु न व ा म के पास स ूण देवता उ तप ाका फल देनेक इ ासे आये॥ उस समय महातेज ी ाजीने मधुर वाणीम कहा— ‘मुन!े तु ारा क ाण हो। अब तुम अपने ारा उपा जत शुभकम के भावसे ऋ ष हो गये’॥ २ ॥ उनसे ऐसा कहकर देवे र ाजी पुन: गको चले गये। इधर महातेज ी व ा म पुन: बड़ी भारी तप ाम लग गये॥ ३ ॥ नर े ! तदन र ब त समय तीत होनेपर परम सु री अ रा मेनका पु रम आयी और वहाँ ानक तैयारी करने लगी॥ ४ ॥ महातेज ी कु शकन न व ा म ने वहाँ उस मेनकाको देखा। उसके प और लाव क कह तुलना नह थी। जैसे बादलम बजली चमकती हो, उसी कार वह पु रके जलम शोभा पा रही थी॥ ५ ॥ उसे देखकर व ा म मु न कामके अधीन हो गये और उससे इस कार बोले—‘अ रा! तेरा ागत है, तू मेरे इस आ मम नवास कर॥ ६ ॥ ‘तेरा भला हो। म कामसे मो हत हो रहा ँ । मुझपर कृ पा कर।’ उनके ऐसा कहनेपर सु र क ट देशवाली मेनका वहाँ नवास करने लगी॥ ७ ॥ इस कार तप ाका ब त बड़ा व व ा म जीके पास यं उप त हो गया। रघुन न! मेनकाको व ा म जीके उस सौ आ मपर रहते ए दस वष बड़े सुखसे बीते॥ ८ [शतान जी कहते ह—



१/ ॥ २



इतना समय बीत जानेपर महामु न व ा म ल त-से हो गये। च ा और शोकम डू ब गये॥ ९ १/२ ॥



रघुन न! मु नके मनम रोषपूवक यह वचार उ आ क ‘यह सब देवता क करतूत है। उ ने हमारी तप ाका अपहरण करनेके लये यह महान् यास कया है॥ १० १/२ ॥ ‘म कामज नत मोहसे ऐसा आ ा हो गया क मेरे दस वष एक दन-रातके समान बीत गये। यह मेरी तप ाम ब त बड़ा व उप त हो गया’॥ ११ १/२ ॥ ऐसा वचारकर मु नवर व ा म ल ी साँस ख चते ए प ा ापसे दु: खत हो गये॥ १२ ॥ उस समय मेनका अ रा भयभीत हो थर-थर काँपती ◌इ हाथ जोड़कर उनके सामने खड़ी हो गयी। उसक ओर देखकर कु शकन न व ा म ने मधुर वचन ारा उसे वदा कर दया और यं वे उ र पवत ( हमवान्) पर चले गये॥ १३ १/२ ॥ वहाँ उन महायश ी मु नने न या क बु का आ य ले कामदेवको जीतनेके लये कौ शक -तटपर जाकर दुजय तप ा आर क ॥ १४ १/२ ॥ ीराम! वहाँ उ र पवतपर एक हजार वष तक घोर तप ाम लगे ए व ा म से देवता को बड़ा भय आ॥ १५ १/२ ॥ सब देवता और ऋ ष पर र मलकर सलाह करने लगे—‘ये कु शकन न व ा म मह षक पदवी ा कर, यही इनके लये उ म बात होगी’॥ १६ १/२ ॥ देवता क बात सुनकर सवलोक पतामह ाजी तपोधन व ा म के पास जा मधुर वाणीम बोले— ‘महष! तु ारा ागत है। व कौ शक! म तु ारी उ तप ासे ब त संतु ँ और तु मह ा एवं ऋ षय म े ता दान करता ँ ’॥ १७-१८ १/२ ॥ ाजीका यह वचन सुनकर तपोधन व ा म हाथ जोड़ णाम करके उनसे बोले —‘भगवन्! य द अपने ारा उपा जत शुभकम के फलसे मुझे आप षका अनुपम पद दान कर सक तो म अपनेको जते य समझूँगा’॥ १९-२० १/२ ॥ तब ाजीने उनसे कहा—‘मु न े ! अभी तुम जते य नह ए हो। इसके लये य करो।’ ऐसा कहकर वे गलोकको चले गये॥ २१ १/२ ॥ देवता के चले जानेपर महामु न व ा म ने पुन: घोर तप ा आर क । वे दोन भुजाएँ ऊपर उठाये बना कसी आधारके खड़े होकर के वल वायु पीकर रहते ए तपम संल



हो गये॥ २२ १/२ ॥ गम के दन म प ा का सेवन करते, वषाकालम खुले आकाशके नीचे रहते और जाड़ेके समय रात- दन पानीम खड़े रहते थे। इस कार उन तपोधनने एक हजार वष तक घोर तप ा क ॥ २३-२४ ॥ महामु न व ा म के इस कार तप ा करते समय देवता और इ के मनम बड़ा भारी संताप आ॥ सम म ण स हत इ ने उस समय र ा अ रासे ऐसी बात कही, जो अपने लये हतकर और व ा म के लये अ हतकर थी॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म तरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६३॥



च सठवाँ सग व ा म का र ाको शाप देकर पुन: घोर तप ाके लये दी ा लेना



र े! देवता का एक ब त बड़ा काय उप त आ है। इसे तु ही पूरा करना है। तू मह ष व ा म को इस कार लुभा, जससे वे काम और मोहके वशीभूत हो जायँ॥ १ ॥ ीराम! बु मान् इ के ऐसा कहनेपर वह अ रा ल त हो हाथ जोड़कर देवे र इ से बोली—॥ २ ॥ ‘सुरपते! ये महामु न व ा म बड़े भयंकर ह। देव! इसम संदेह नह क ये मुझपर भयानक ोधका योग करगे॥ ३ ॥ ‘अत: देवे र! मुझे उनसे बड़ा डर लगता है, आप मुझपर कृ पा कर।’ ीराम! डरी ◌इ र ाके इस कार भयपूवक कहनेपर सह ने धारी इ हाथ जोड़कर खड़ी और थर-थर काँपती ◌इ र ासे इस कार बोले—‘र !े तू भय न कर, तेरा भला हो, तू मेरी आ ा मान ले॥ ४-५ ॥ ‘वैशाख मासम जब क ेक वृ नवप व से परम सु र शोभा धारण कर लेता है, अपनी मधुर काकलीसे सबके दयको ख चनेवाले को कल और कामदेवके साथ म भी तेरे पास र ँ गा॥ ६ ॥ ‘भ े! तू अपने परम का मान् पको हावभाव आ द व वध गुण से स करके उसके ारा व ा म मु नको तप ासे वच लत कर दे’॥ ७ ॥ देवराजका यह वचन सुनकर उस मधुर मुसकानवाली सु री अ राने परम उ म प बनाकर व ा म को लुभाना आर कया॥ ८ ॥ व ा म ने मीठी बोली बोलनेवाले को कलक मधुर काकली सुनी। उ ने स च होकर जब उस ओर पात कया, तब सामने र ा खड़ी दखायी दी॥ ९ ॥ को कलके कलरव, र ाके अनुपम गीत और अ ा शत दशनसे मु नके मनम संदेह हो गया॥ १० ॥ (इ



बोले—)



देवराजका वह सारा कु च उनक समझम आ गया। फर तो मु नवर व ा म ने ोधम भरकर र ाको शाप देते ए कहा—॥ ११ ॥ ‘दुभगे र !े म काम और ोधपर वजय पाना चाहता ँ और तू आकर मुझे लुभाती है। अत: इस अपराधके कारण तू दस हजार वष तक प रक तमा बनकर खड़ी रहेगी॥ १२ ॥ ‘र े! शापका समय पूरा हो जानेके बाद एक महान् तेज ी और तपोबलस ा ण ( ाजीके पु व स ) मेरे ोधसे कलु षत तेरा उ ार करगे’॥ ऐसा कहकर महातेज ी महामु न व ा म अपना ोध न रोक सकनेके कारण मन-हीमन संत हो उठे ॥ १४ ॥ मु नके उस महाशापसे र ा त ाल प रक तमा बन गयी। मह षका वह शापयु वचन सुनकर क प और इ वहाँसे खसक गये॥ १५ ॥ ीराम! ोधसे तप ाका य हो गया और इ याँ अभीतक काबूम न आ सक , यह वचारकर उन महातेज ी मु नके च को शा नह मलती थी॥ १६ ॥ तप ाका अपहरण हो जानेपर उनके मनम यह वचार उ आ क ‘अबसे न तो ोध क ँ गा और न कसी भी अव ाम मुँहसे कु छ बोलूँगा॥ १७ ॥ ‘अथवा सौ वष तक म ास भी न लूँगा। इ य को जीतकर इस शरीरको सुखा डालूँगा॥ १८ ॥ ‘जबतक अपनी तप ासे उपा जत ा ण मुझे ा न होगा, तबतक चाहे अन वष बीत जायँ, म बना खाये-पीये खड़ा र ँ गा और साँसतक न लूँगा॥ १९ ॥ ‘तप ा करते समय मेरे शरीरके अवयव कदा प न नह ह गे।’ रघुन न! ऐसा न य करके मु नवर व ा म ने पुन: एक हजार वष तक तप ा करनेके लये दी ा हण क । उ ने जो त ा क थी, उसक संसारम कह तुलना नह है॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म च सठवाँ सग पूरा आ॥ ६४॥



पसठवाँ सग व ा म क घोर तप ा, उ ा ण क ा तथा राजा जनकका उनक करके उनसे वदा ले राजभवनको लौटना



शंसा



ीराम! पूव त ाके अन र महामु न व ा म उ र दशाको ागकर पूव दशाम चले गये और वह रहकर अ कठोर तप ा करने लगे॥ १ ॥ रघुन न! एक सह वष तक परम उ म मौनव ◌त धारण करके वे परम दु र तप ाम लगे रहे। उनके उस तपक कह तुलना न थी॥ २ ॥ एक हजार वष पूण होनेतक वे महामु न का क भाँ त न े बने रहे। बीच-बीचम उनपर ब त-से व का आ मण आ, परंतु ोध उनके भीतर नह घुसने पाया॥ ३ ॥ ीराम! अपने न यपर अटल रहकर उ ने अ य तपका अनु ान कया। उनका एक सह वष का त पूण होनेपर वे महान् तधारी मह ष त समा करके अ हण करनेको उ त ए। रघुकुलभूषण! इसी समय इ ने ा णके वेषम आकर उनसे तैयार अ क याचना क ॥ ४-५ ॥ तब उ ने वह सारा तैयार कया आ भोजन उस ा णको देनेका न य करके दे डाला। उस अ मसे कु छ भी शेष नह बचा। इस लये वे महातप ी भगवान् व ा म बना खाये-पीये ही रह गये॥ ६ ॥ फर भी उ ने उस ा णसे कु छ कहा नह । अपने मौन- तका यथाथ पसे पालन कया। इसके बाद पुन: पहलेक ही भाँ त ासो ाससे र हत मौन- तका अनु ान आर कया॥ ७ ॥ पूरे एक हजार वष तक उन मु न े ने साँसतक नह ली। इस तरह साँस न लेनेके कारण उनके म कसे धुआँ उठने लगा॥ ८ ॥ उससे तीन लोक के ाणी घबरा उठे , सभी संत -से होने लगे। उस समय देवता, ऋ ष, ग व, नाग, सप और रा स सब मु नक तप ासे मो हत हो गये। उनके तेजसे सबक का फ क पड़ गयी। वे सब-के -सब दु:खसे ाकु ल हो पतामह ाजीसे बोले—॥ ९-१० ॥ (शतान जी कहते ह—)



‘देव! अनेक कारके न म गयी; कतु वे अपनी तप ाके



ारा महामु न व ा म को लोभ और ोध दलानेक चे ा क भावसे नर र आगे बढ़ते जा रहे ह॥ ११ ॥ ‘हम उनम को◌इ छोटा-सा भी दोष नह दखायी देता। य द इ इनक मनचाही व ु नह दी गयी तो ये अपनी तप ासे चराचर ा णय स हत तीन लोक का नाश कर डालगे। इस समय सारी दशाएँ धूमसे आ ा दत हो गयी ह, कह कु छ भी सूझता नह है॥ ‘समु ु हो उठे ह, सारे पवत वदीण ए जाते ह, धरती डगमग हो रही है और च आँ धी चलने लगी है॥ १४ ॥ ‘ न्! हम इस उप वके नवारणका को◌इ उपाय नह समझम आता है। सब लोग ना कक भाँ त कमानु ानसे शू हो रहे ह। तीन लोक के ा णय का मन ु हो गया है। सभी ककत वमूढ़-से हो रहे ह॥ १५ ॥ ‘मह ष व ा म के तेजसे सूयक भा फ क पड़ गयी है। भगवन्! ये महाका मान् मु न अ प हो रहे ह। देव! महामु न व ा म जबतक जग े वनाशका वचार नह करते तबतक ही इ स कर लेना चा हये॥ १६ १/२ ॥ ‘जैसे पूवकालम लयका लक अ ने स ूण लोक को द कर डाला था, उसी कार ये भी सबको जलाकर भ कर दगे। य द ये देवता का रा ा करना चाह तो वह भी इ दे दया जाय। इनके मनम जो भी अ भलाषा हो, उसे पूण कया जाय’॥ तदन र ा आ द सब देवता महा ा व ा म के पास जाकर मधुर वाणीम बोले—॥ १८ १/२ ॥ ‘ ष! तु ारा ागत है, हम तु ारी तप ासे ब त संतु ए ह। कु शकन न! तुमने अपनी उ तप ासे ा ण ा कर लया॥ १९ १/२ ॥ ‘ न्! म ण स हत म तु दीघायु दान करता ँ । तु ारा क ाण हो। सौ ! तुम मंगलके भागी बनो और तु ारी जहाँ इ ा हो वहाँ सुखपूवक जाओ’॥ २० १/२ ॥ पतामह ाजीक यह बात सुनकर महामु न व ा म ने अ स होकर स ूण देवता को णाम कया और कहा—॥ २१ १/२ ॥ ‘देवगण! य द मुझे (आपक कृ पासे) ा ण मल गया और दीघ आयुक भी ा हो गयी तो ॐकार, वषट्कार और चार वेद यं आकर मेरा वरण कर। इसके सवा जो



य-वेद (धनुवद आ द) तथा वेद (ऋक् आ द चार वेद) के ाता म भी सबसे े ह, वे पु व स यं आकर मुझसे ऐसा कह ( क तुम ा ण हो गये), य द ऐसा हो जाय तो म समझूँगा क मेरा उ म मनोरथ पूण हो गया। उस अव ाम आप सभी े देवगण यहाँसे जा सकते ह’॥ २२—२४ ॥ तब देवता ने म जप करनेवाल म े व स मु नको स कया। इसके बाद ष व स ने ‘एवम ’ु कहकर व ा म का ष होना ीकार कर लया और उनके साथ म ता ा पत कर ली॥ २५ ॥ ‘मुन!े तुम ष हो गये, इसम संदेह नह है। तु ारा सब ा णो चत सं ार स हो गया।’ ऐसा कहकर स ूण देवता जैसे आये थे वैसे लौट गये॥ २६ ॥ इस कार उ म ा ण ा करके धमा ा व ा म जीने भी म -जप करनेवाल म े ष व स का पूजन कया॥ २७ ॥ इस तरह अपना मनोरथ सफल करके तप ाम लगे रहकर ही ये स ूण पृ ीपर वचरने लगे। ीराम! इस कार कठोर तप ा करके इन महा ाने ा ण ा कया॥ २८ ॥ रघुन न! ये व ा म जी सम मु नय म े ह, ये तप ाके मू तमान् प ह, उ म धमके सा ात् व ह ह और परा मक परम न ध ह॥ २९ ॥ ऐसा कहकर महातेज ी व वर शतान जी चुप हो गये। शतान जीके मुखसे यह कथा सुनकर महाराज जनकने ीराम और ल णके समीप व ा म जीसे हाथ जोड़कर कहा—॥ ३० १/२ ॥ ‘मु न वर कौ शक! आप ककु कु लन न ीराम और ल णके साथ मेरे य म पधारे, इससे म ध हो गया। आपने मुझपर बड़ी कृ पा क । महामुन!े न्! आपने दशन देकर मुझे प व कर दया॥ ‘आपके दशनसे मुझे बड़ा लाभ आ, अनेक कारके गुण उपल ए। न्! आज इस सभाम आकर मने महा ा राम तथा अ सद के साथ आपके महान् तेज ( भाव) का वणन सुना है, ब त-से गुण सुने ह। न्! शतान जीने आपके महान् तपका वृ ा व ारपूवक बताया है॥ ३३-३४ ॥



‘कु



शकन न! आपक तप ा अ मेय है, आपका बल अन है तथा आपके गुण भी सदा ही माप और सं ासे परे ह॥ ३५ ॥ ‘ भो! आपक आ यमयी कथा के वणसे मुझे तृ नह होती है; कतु मु न े ! य का समय हो गया है, सूयदेव ढलने लगे ह॥ ३६ ॥ ‘जप करनेवाल म े महातेज ी मुन!े आपका ागत है। कल ात:काल फर मुझे दशन द, इस समय मुझे जानेक आ ा दान कर’॥ ३७ ॥ राजाके ऐसा कहनेपर मु नवर व ा म जी मन-ही-मन बड़े स ए। उ ने ी तयु नर े राजा जनकक शंसा करके शी ही उ वदा कर दया॥ ३८ ॥ उस समय म थलाप त वदेहराज जनकने मु न े व ा म से पूव बात कहकर अपने उपा ाय और ब ु-बा व के साथ उनक शी ही प र मा क । फर वहाँसे वे चल दये॥ ३९ ॥ त ात् धमा ा व ा म भी महा ा से पू जत होकर ीराम और ल णके साथ अपने व ाम- ानपर लौट आये॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पसठवाँ सग पूरा आ॥ ६५॥



छाछठवाँ सग राजा जनकका व ा म और राम-ल णका स ार करके उ अपने यहाँ रखे ए धनुषका प रचय देना और धनुष चढ़ा देनेपर ीरामके साथ उनके ाहका न य कट करना



तदन र दूसरे दन नमल भातकाल आनेपर धमा ा राजा जनकने अपना न नयम पूरा करके ीराम और ल णस हत महा ा व ा म जीको बुलाया और शा ीय व धके अनुसार मु न तथा उन दोन महामन ी राजकु मार का पूजन करके इस कार कहा—॥ १-२ ॥ ‘भगवन्! आपका ागत है। न ाप महष! आप मुझे आ ा दी जये, म आपक ा सेवा क ँ ; क म आपका आ ापालक ँ ’॥ ३ ॥ महा ा जनकके ऐसा कहनेपर बोलनेम कु शल धमा ा मु न े व ा म ने उनसे यह बात कही—॥ ४ ॥ ‘महाराज! राजा दशरथके ये दोन पु व व ात य वीर ह और आपके यहाँ जो यह े धनुष रखा है, उसे देखनेक इ ा रखते ह॥ ५ ॥ ‘आपका क ाण हो, वह धनुष इ दखा दी जये। इससे इनक इ ा पूरी हो जायगी। फर ये दोन राजकु मार उस धनुषके दशनमा से संतु हो इ ानुसार अपनी राजधानीको लौट जायँग’े ॥ ६ ॥ मु नके ऐसा कहनेपर राजा जनक महामु न व ा म से बोले—‘मु नवर! इस धनुषका वृ ा सु नये। जस उ े से यह धनुष यहाँ रखा गया, वह सब बताता ँ ॥ ७ ॥ ‘भगवन्! न मके े पु राजा देवरातके नामसे व ात थे। उ महा ाके हाथम यह धनुष धरोहरके पम दया गया था॥ ८ ॥ ‘कहते ह, पूवकालम द य - व ंसके समय परम परा मी भगवान् श रने खेल-खेलम ही रोषपूवक इस धनुषको उठाकर य - व ंसके प ात् देवता से कहा—‘देवगण! म य म भाग ा करना चाहता था, कतु तुमलोग ने नह दया। इस लये इस धनुषसे म तुम सब लोग के परम पूजनीय े अंग—म क काट डालूँगा’॥ ९-१० ॥



‘मु न



े ! यह सुनकर स ूण देवता उदास हो गये और ु तके ारा देवा धदेव महादेवजीको स करने लगे। अ म उनपर भगवान् शव स हो गये॥ ११ ॥ ‘ स होकर उ ने उन सब महामन ी देवता को यह धनुष अपण कर दया। वही यह देवा धदेव महा ा भगवान् श रका धनुष-र है, जो मेरे पूवज महाराज देवरातके पास धरोहरके पम रखा गया था॥ १२ १/२ ॥ ‘एक दन म य के लये भू मशोधन करते समय खेतम हल चला रहा था। उसी समय हलके अ भागसे जोती गयी भू म (हरा◌इ या सीता) से एक क ा कट ◌इ। सीता (हल ारा ख ची गयी रेखा) से उ होनेके कारण उसका नाम सीता रखा गया। पृ ीसे कट ◌इ वह मेरी क ा मश: बढ़कर सयानी ◌इ॥ १३-१४ ॥ ‘अपनी इस अयो नजा क ाके वषयम मने यह न य कया क जो अपने परा मसे इस धनुषको चढ़ा देगा, उसीके साथ म इसका ाह क ँ गा। इस तरह इसे वीयशु ा (परा म प शु वाली) बनाकर अपने घरम रख छोड़ा है। मु न े ! भूतलसे कट होकर दन - दन बढ़नेवाली मेरी पु ी सीताको क◌इ राजा ने यहाँ आकर माँगा॥ १५ १/२ ॥ ‘परंतु भगवन्! क ाका वरण करनेवाले उन सभी राजा को मने यह बता दया क मेरी क ा वीयशु ा है। (उ चत परा म कट करनेपर ही को◌इ पु ष उसके साथ ववाह करनेका अ धकारी हो सकता है।) यही कारण है क मने आजतक कसीको अपनी क ा नह दी॥ १६ १/२ ॥ ‘मु नपुंगव! तब सभी राजा मलकर म थलाम आये और पूछने लगे क राजकु मारी सीताको ा करनेके लये कौन-सा परा म न त कया गया है॥ ‘मने परा मक ज ासा करनेवाले उन राजा के सामने यह शवजीका धनुष रख दया; परंतु वे लोग इसे उठाने या हलानेम भी समथ न हो सके ॥ १८ १/२ ॥ ‘महामुने! उन परा मी नरेश क श ब त थोड़ी जानकर मने उ क ा देनेसे इनकार कर दया। तपोधन! इसके बाद जो घटना घटी, उसे भी आप सुन ली जये॥ १९ १/२ ॥ ‘मु न वर! मेरे इनकार करनेपर ये सब राजा अ कु पत हो उठे और अपने परा मके वषयम संशयाप हो म थलाको चार ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥ २० १/२ ॥



‘मेरे



ारा अपना तर ार आ मानकर उन े नरेश ने अ हो म थलापुरीको सब ओरसे पीड़ा देना ार कर दया॥ २१ १/२ ॥ ‘मु न े ! पूरे एक वषतक वे घेरा डाले रहे। इस बीचम यु के सारे साधन ीण हो गये। इससे मुझे बड़ा दु:ख आ॥ २२ १/२ ॥ ‘तब मने तप ाके ारा सम देवता को स करनेक चे ा क । देवता ब त स ए और उ ने मुझे चतुरं गणी सेना दान क ॥ २३ १/२ ॥ ‘ फर तो हमारे सै नक क मार खाकर वे सभी पापाचारी राजा, जो बलहीन थे अथवा जनके बलवान् होनेम संदेह था, म य स हत भागकर व भ दशा म चले गये॥ २४ १/२ ॥ ‘मु न े ! यही वह परम काशमान धनुष है। उ म तका पालन करनेवाले महष! म उसे ीराम और ल णको भी दखाऊँ गा॥ २५ १/२ ॥ ‘मुन!े य द ीराम इस धनुषक ा चढ़ा द तो म अपनी अयो नजा क ा सीताको इन दशरथकु मारके हाथम दे दूँ’॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म छाछठवाँ सग पूरा आ॥ ६६॥



सरसठवाँ सग ीरामके ारा धनुभग तथा राजा जनकका व ा म क आ ासे राजा दशरथको बुलानेके लये म य को भेजना



जनकक यह बात सुनकर महामु न व ा म बोले—‘राजन्! आप ीरामको अपना धनुष दखाइये’॥ तब राजा जनकने म य को आ ा दी—‘च न और माला से सुशो भत वह द धनुष यहाँ ले आओ’॥ २ ॥ राजा जनकक आ ा पाकर वे अ मत तेज ी म ी नगरम गये और उस धनुषको आगे करके पुरीसे बाहर नकले॥ ३ ॥ वह धनुष आठ प हय वाली लोहेक ब त बड़ी संदकू म रखा गया था। उसे मोटे-ताजे पाँच हजार महामन ी वीर कसी तरह ठे लकर वहाँतक ला सके ॥ ४ ॥ लोहेक वह संदकू , जसम धनुष रखा गया था, लाकर उन म य ने देवोपम राजा जनकसे कहा—॥ ‘राजन्! म थलापते! राजे ! यह सम राजा ारा स ा नत े धनुष है। य द आप इन दोन राजकु मार को दखाना चाहते ह तो दखाइये’॥ ६ ॥ उनक बात सुनकर राजा जनकने हाथ जोड़कर महा ा व ा म तथा दोन भा◌इ ीराम और ल णसे कहा—॥ ७ ॥ ‘ न्! यही वह े धनुष है, जसका जनकवंशी नरेश ने सदा ही पूजन कया है तथा जो इसे उठानेम समथ न हो सके , उन महापरा मी नरेश ने भी इसका पूवकालम स ान कया है॥ ८ ॥ ‘इसे सम देवता, असुर, रा स, ग व, बड़े-बड़े य , क र और महानाग भी नह चढ़ा सके ह॥ ९ ॥ ‘ फर इस धनुषको ख चने, चढ़ाने, इसपर बाण संधान करने, इसक ापर ट ार देने तथा इसे उठाकर इधर-उधर हलानेम मनु क कहाँ श है?॥ १० ॥



‘मु न वर! यह दखाइये’॥ ११ ॥



े धनुष यहाँ लाया गया है। महाभाग! आप इसे इन दोन राजकु मार को



ीरामस हत व ा म ने जनकका वह कथन सुनकर रघुन नसे कहा—‘व राम! इस धनुषको देखो’॥ १२ ॥ मह षक आ ासे ीरामने जसम वह धनुष था उस संदकू को खोलकर उस धनुषको देखा और कहा—॥ १३ ॥ ‘अ ा अब म इस द एवं े धनुषम हाथ लगाता ँ । म इसे उठाने और चढ़ानेका भी य क ँ गा’॥ १४ ॥ तब राजा और मु नने एक रसे कहा—‘हाँ, ऐसा ही करो।’ मु नक आ ासे रघुकुलन न धमा ा ीरामने उस धनुषको बीचसे पकड़कर लीलापूवक उठा लया और खेलसा करते ए उसपर ा चढ़ा दी। उस समय क◌इ हजार मनु क उनपर लगी थी॥ १५-१६ ॥ ा चढ़ाकर महायश ी नर े ीरामने ही उस धनुषको कानतक ख चा ही वह बीचसे ही टूट गया॥ १७ ॥ टूटते समय उससे व पातके समान बड़ी भारी आवाज ◌इ। ऐसा जान पड़ा मानो पवत फट पड़ा हो। उस समय महान् भूक आ गया॥ १८ ॥ मु नवर व ा म , राजा जनक तथा रघुकुलभूषण दोन भा◌इ ीराम और ल णको छोड़कर शेष जतने लोग वहाँ खड़े थे, वे सब धनुष टूटनेके उस भयंकर श से मू त होकर गर पड़े॥ १९ ॥ थोड़ी देरम जब सबको चेत आ, तब नभय ए राजा जनकने, जो बोलनेम कु शल और वा के ममको समझनेवाले थे, हाथ जोड़कर मु नवर व ा म से कहा—॥ २० ॥ ‘भगवन्! मने दशरथन न ीरामका परा म आज अपनी आँ ख देख लया। महादेवजीके धनुषको चढ़ाना— यह अ अ तु , अ च और अत कत घटना है॥ ‘मेरी पु ी सीता दशरथकु मार ीरामको प त पम ा करके जनकवंशक क तका व ार करेगी॥ २२ ॥



‘कु



शकन न! मने सीताको वीयशु ा (परा म पी शु से ही ा होनेवाली) बताकर जो त ा क थी, वह आज स एवं सफल हो गयी। सीता मेरे लये ाण से भी बढ़कर है। अपनी यह पु ी म ीरामको सम पत क ँ गा॥ २३ ॥ ‘ न्! कु शकन न! आपका क ाण हो। य द आपक आ ा हो तो मेरे म ी रथपर सवार होकर बड़ी उतावलीके साथ शी ही अयो ाको जायँ और वनययु वचन ारा महाराज दशरथको मेरे नगरम लवा लाय। साथ ही यहाँका सब समाचार बताकर यह नवेदन कर क जसके लये परा मका ही शु नयत कया गया था, उस जनककु मारी सीताका ववाह ीरामच जीके साथ होने जा रहा है॥ २४-२५ ॥ ‘ये लोग महाराज दशरथसे यह भी कह द क आपके दोन पु ीराम और ल ण व ा म जीके ारा सुर त हो म थलाम प ँ च गये ह। इस कार ी तयु ए राजा दशरथको ये शी गामी स चव ज ी यहाँ बुला लाय’॥ २६ ॥ व ा म ने ‘तथा ’ु कहकर राजाक बातका समथन कया। तब धमा ा राजा जनकने अपनी आ ाका पालन करनेवाले म य को समझा-बुझाकर यहाँका ठीक-ठीक समाचार महाराज दशरथको बताने और उ म थलापुरीम ले आनेके लये भेज दया॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म सरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६७॥



अड़सठवाँ सग राजा जनकका संदेश पाकर म



य स हत महाराज दशरथका म थला जानेके लये उ त होना



राजा जनकक आ ा पाकर उनके दूत अयो ाके लये त ए। रा ेम वाहन के थक जानेके कारण तीन रात व ाम करके चौथे दन वे अयो ापुरीम जा प ँ चे॥ १ ॥ राजाक आ ासे उनका राजमहलम वेश आ। वहाँ जाकर उ ने देवतु तेज ी बूढ़े महाराज दशरथका दशन कया॥ २ ॥ उन सभी दूत ने दोन हाथ जोड़ नभय हो राजासे मधुर वाणीम यह वनययु बात कही —‘महाराज! म थलाप त राजा जनकने अ हो क अ को सामने रखकर ेहयु मधुर वाणीम सेवक स हत आपका तथा आपके उपा ाय और पुरो हत का बार ार कु शल-मंगल पूछा है॥ ३—५ ॥ ‘इस कार तार हत कु शल पूछकर म थलाप त वदेहराजने मह ष व ा म क आ ासे आपको यह संदेश दया है॥ ६ ॥ ‘राजन्! आपको मेरी पहले क ◌इ त ाका हाल मालूम होगा। मने अपनी पु ीके ववाहके लये परा मका ही शु नयत कया था। उसे सुनकर कतने ही राजा अमषम भरे ए आये; कतु यहाँ परा महीन स ए और वमुख होकर घर लौट गये॥ ७ ॥ ‘नरे र! मेरी इस क ाको व ा म जीके साथ अक ात् घूमते- फरते आये ए आपके पु ीरामने अपने परा मसे जीत लया है॥ ८ ॥ ‘महाबाहो! महा ा ीरामने महान् जनसमुदायके म मेरे यहाँ रखे ए र पद धनुषको बीचसे तोड़ डाला है॥ ९ ॥ ‘अत: म इन महा ा ीरामच जीको अपनी वीयशु ा क ा सीता दान क ँ गा। ऐसा करके म अपनी त ासे पार होना चाहता ँ । आप इसके लये मुझे आ ा देनेक कृ पा कर॥ १० ॥ ‘महाराज! आप अपने गु एवं पुरो हतके साथ यहाँ शी पधार और अपने दोन पु रघुकुलभूषण ीराम और ल णको देख। आपका भला हो॥ ११ ॥



‘राजे !



यहाँ पधारकर आप मेरी त ा पूण कर। यहाँ आनेसे आपको अपने दोन पु के ववाहज नत आन क ा होगी॥ १२ ॥ ‘राजन्! इस तरह वदेहराजने आपके पास यह मधुर संदेश भेजा था। इसके लये उ व ा म जीक आ ा और शतान जीक स त भी ा ◌इ थी’॥ १३ ॥ संदेशवाहक म य का यह वचन सुनकर राजा दशरथ बड़े स ए। उ ने मह ष व स , वामदेव तथा अ म य से कहा—॥ १४ ॥ ‘कु शकन न व ा म से सुर त हो कौस ाका आन वधन करनेवाले ीराम अपने छोटे भा◌इ ल णके साथ वदेहदेशम नवास करते ह॥ १५ ॥ ‘वहाँ महा ा राजा जनकने ककु कु लभूषण ीरामके परा मको देखा है। इस लये वे अपनी पु ी सीताका ववाह रघुकुलर रामके साथ करना चाहते ह॥ १६ ॥ ‘य द आपलोग क च एवं स त हो तो हमलोग शी ही महा ा जनकक म थलापुरीको चल। इसम वल न हो’॥ १७ ॥ यह सुनकर सम मह षय स हत म य ने ‘ब त अ ा’ कहकर एक रसे चलनेक स त दी। राजा बड़े स ए और म य से बोले—‘कल सबेरे ही या ा कर देनी चा हये’॥ १८ ॥ महाराज दशरथके सभी म ी सम स णु से स थे। राजाने उनका बड़ा स ार कया। अत: बारात चलनेक बात सुनकर उ ने बड़े आन से वह रा तीत क ॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म अड़सठवाँ सग पूरा आ॥ ६८॥



उनह रवाँ सग दल-बलस हत राजा दशरथक म थला-या ा और वहाँ राजा जनकके ारा उनका ागत-स ार



तदन र रा तीत होनेपर उपा ाय और ब ु-बा व स हत राजा दशरथ हषम भरकर सुम से इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘आज हमारे सभी धना (खजांची) ब त-सा धन लेकर नाना कारके र से स हो सबसे आगे चल। उनक र ाके लये हर तरहक सु व ा होनी चा हये॥ २ ॥ ‘सारी चतुरं गणी सेना भी यहाँसे शी ही कू च कर दे। अभी मेरी आ ा सुनते ही सु रसु र पाल कयाँ और अ े-अ े घोड़े आ द वाहन तैयार होकर चल द॥ ३ ॥ ‘व स , वामदेव, जाबा ल, क प, दीघजीवी माक य े मु न तथा का ायन—ये सभी ष आगे-आगे चल। मेरा रथ भी तैयार करो। देर नह होनी चा हये। राजा जनकके दूत मुझे ज ी करनेके लये े रत कर रहे ह’॥ ४-५ ॥ राजाक इस आ ाके अनुसार चतुरं गणी सेना तैयार हो गयी और ऋ षय के साथ या ा करते ए महाराज दशरथके पीछे-पीछे चली॥ ६ ॥ चार दनका माग तय करके वे सब लोग वदेह-देशम जा प ँ चे। उनके आगमनका समाचार सुनकर ीमान् राजा जनकने ागत-स ारक तैयारी क ॥ ७ ॥ त ात् आन म ए राजा जनक बूढ़े महाराज दशरथके पास प ँ चे। उनसे मलकर उ बड़ा हष आ॥ राजा म े म थलानरेशने आन म ए पु ष वर राजा दशरथसे कहा—‘नर े रघुन न! आपका ागत है। मेरे बड़े भा , जो आप यहाँ पधारे॥ ९ ॥ ‘आप यहाँ अपने दोन पु क ी त ा करगे, जो उ ने अपने परा मसे जीतकर पायी है। महातेज ी भगवान् व स मु नने भी हमारे सौभा से ही यहाँ पदापण कया है। ये इन सभी े ा ण के साथ वैसी ही शोभा पा रहे ह, जैसे देवता के साथ इ सुशो भत होते ह॥ १० १/२ ॥



‘सौभा



से मेरी सारी व -बाधाएँ परा जत हो गय । रघुकुलके महापु ष महान् बलसे स और परा मम सबसे े होते ह। इस कु लके साथ स होनेके कारण आज मेरे कु लका स ान बढ़ गया॥ ११ १/२ ॥ ‘नर े नरे ! कल सबेरे इन सभी मह षय के साथ उप त हो मेरे य क समा के बाद आप ीरामके ववाहका शुभकाय स कर’॥ १२ १/२ ॥ ऋ षय क म लीम राजा जनकक यह बात सुनकर बोलनेक कला जाननेवाले व ान म े एवं वा मम महाराज दशरथने म थलानरेशको इस कार उ र दया—॥ १३ १/२ ॥ ‘धम ! मने पहलेसे यह सुन रखा है क त ह दाताके अधीन होता है। अत: आप जैसा कहगे, हम वैसा ही करगे’॥ १४ १/२ ॥ स वादी राजा दशरथका वह धमानुकूल तथा यशोवधक वचन सुनकर वदेहराज जनकको बड़ा व य आ॥ १५ १/२ ॥ तदन र सभी मह ष एक-दूसरेसे मलकर ब त स ए और सबने बड़े सुखसे वह रात बतायी॥ १६ १/२ ॥ इधर महातेज ी ीराम व ा म जीको आगे करके ल णके साथ पताजीके पास गये और उनके चरण का श कया॥ १७ १/२ ॥ राजा दशरथने भी जनकके ारा आदर-स ार पाकर बड़ी स ताका अनुभव कया तथा अपने दोन रघुकुल-र पु को सकु शल देखकर उ अपार हष आ। वे रातम बड़े सुखसे वहाँ रहे॥ १८ १/२ ॥ महातेज ी त राजा जनकने भी धमके अनुसार य काय स कया तथा अपनी दोन क ा के लये मंगलाचारका स ादन करके सुखसे वह रा तीत क ॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म उनह रवाँ सग पूरा आ॥ ६९॥



स रवाँ सग राजा जनकका अपने भा◌इ कुश जको सांका ा नगरीसे बुलवाना, राजा दशरथके अनुरोधसे व स जीका सूयवंशका प रचय देते ए ीराम और ल णके लये सीता तथा ऊ मलाको वरण करना



तदन र जब सबेरा आ और राजा जनक मह षय के सहयोगसे अपना य -काय स कर चुके, तब वे वा मम नरेश अपने पुरो हत शतान जीसे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘ न्! मेरे महातेज ी और परा मी भा◌इ कु श ज जो अ धमा ा ह, इस समय इ मु ती नदीका जल पीते ए उसके कनारे बसी ◌इ क ाणमयी सांका ा नगरीम नवास करते ह। उसके चार ओरके परकोट क र ाके लये श ु के नवारणम समथ बड़े-बड़े य लगाये गये ह। वह पुरी पु क वमानके समान व ृत तथा पु से उपल होनेवाले गलोकके स श सु र है॥ २-३ ॥ ‘वहाँ रहनेवाले अपने भा◌इको इस शुभ अवसरपर म यहाँ उप त देखना चाहता ँ ; क मेरी म वे मेरे इस य के संर क ह। महातेज ी कु श ज भी मेरे साथ ीसीतारामके ववाहस ी इस मंगल समारोहका सुख उठावगे’॥ ४ ॥ राजाके इस कार कहनेपर शतान जीके समीप कु छ धीर भावके पु ष आये और राजा जनकने उ पूव आदेश सुनाया॥ ५ ॥ राजाक आ ासे वे े दूत तेज चलनेवाले घोड़ पर सवार हो पु ष सह कु श जको बुला लानेके लये चल दये। मानो इ क आ ासे उनके दूत भगवान् व ुको बुलाने जा रहे ह॥६॥ सांका ाम प ँ चकर उ ने कु श जसे भट क और म थलाका यथाथ समाचार एवं जनकका अ भ ाय भी नवेदन कया॥ ७ ॥ उन महावेगशाली े दूत के मुखसे म थलाका सारा वृ ा सुनकर राजा कु श ज महाराज जनकक आ ाके अनुसार म थलाम आये॥ ८ ॥ वहाँ उ ने धमव ल महा ा जनकका दशन कया। फर शतान जी तथा अ धा मक जनकको णाम करके वे राजाके यो परम द सहासनपर वराजमान ए॥ ९ १/२ ॥



सहासनपर बैठे ए उन दोन अ मततेज ी वीरब ु ने म वर सुदामनको भेजा और कहा—‘म वर! आप शी ही अ मत तेज ी इ ाकु कु लभूषण महाराज दशरथके पास जाइये और पु तथा म य स हत उन दुजय नरेशको यहाँ बुला लाइये’॥ १०-११ १/२ ॥ आ ा पाकर म ी सुदामन महाराज दशरथके खेमेम जाकर रघुकुलक क त बढ़ानेवाले उन नरेशसे मले और म क कु ाकर उ णाम करनेके प ात् इस कार बोले—॥ १२ १/२ ॥ ‘वीर



अयो ानरेश! म थलाप त वदेहराज जनक इस समय उपा ाय और पुरो हतस हत आपका दशन करना चाहते ह’॥ १३ १/२ ॥ म वर सुदामनक बात सुनकर राजा दशरथ ऋ षय और ब -ु बा व के साथ उस ानपर गये जहाँ राजा जनक व मान थे॥ १४ १/२ ॥ म ी, उपा ाय और भा◌इ-ब ु स हत राजा दशरथ, जो बोलनेक कला जाननेवाले व ान म े थे, वदेहराज जनकसे इस कार बोले—॥ १५ १/२ ॥ ‘महाराज! आपको तो व दत ही होगा क इ ाकु कु लके देवता ये मह ष व स जी ह। हमारे यहाँ सभी काय म ये भगवान् व स मु न ही कत का उपदेश करते ह और इ क आ ाका पालन कया जाता है॥ १६ १/२ ॥ ‘य द स ूण मह षय स हत व ा म जीक आ ा हो तो ये धमा ा व स ही पहले मेरी कु ल-पर राका मश: प रचय दगे’॥ १७ १/२ ॥ य कहकर जब राजा दशरथ चुप हो गये, तब वा वे ा भगवान् व स मु न पुरो हतस हत वदेहराजसे इस कार बोले—॥ १८ १/२ ॥ ‘ ाजीक उ का कारण अ है—ये य ू ह। न , शा त और अ वनाशी ह। उनसे मरी चक उ ◌इ। मरी चके पु क प ह, क पसे वव ा ा और वव ा े वैव त मनुका ज आ॥ १९-२० ॥ ‘मनु पहले जाप त थे, उनसे इ ाकु नामक पु आ। उन इ ाकु को ही आप अयो ाके थम राजा समझ॥ २१ ॥ ‘इ ाकु के पु का नाम कु था। वे बड़े तेज ी थे। कु से वकु नामक का मान् पु का ज आ॥ २२ ॥



‘ वकु



के पु महातेज ी और तापी बाण ए। बाणके पु का नाम अनर था। वे भी बड़े तेज ी और तापी थे॥ २३ ॥ ‘अनर से पृथु और पृथुसे शंकुका ज आ। शंकुके पु महायश ी धु ुमार थे॥ २४ ॥ ‘धु ुमारसे महातेज ी महारथी युवना का ज आ। युवना के पु मा ाता ए, जो सम भूम लके ामी थे॥ २५ ॥ ‘मा ातासे सुस नामक का मान् पु का ज आ। सुस के भी दो पु ए— ुवस और सेन जत्॥ २६ ॥ ‘ ुवस से भरत नामक यश ी पु का ज आ। भरतसे महातेज ी अ सतक उ ◌इ॥ २७ ॥ ‘राजा अ सतके साथ हैहय, तालज और शश ब — ु इन तीन राजवंश के लोग श ुता रखने लगे थे॥ २८ ॥ ‘यु म इन तीन श ु का सामना करते ए राजा अ सत वासी हो गये। वे अपनी दो रा नय के साथ हमालयपर आकर रहने लगे॥ २९ ॥ ‘राजा अ सतके पास ब त थोड़ी सेना शेष रह गयी थी। वे हमालयपर ही मृ ुको ा हो गये। उस समय उनक दोन रा नयाँ गभवती थ , ऐसा सुना गया है॥ ३० ॥ ‘उनमसे एक रानीने अपनी सौतका गभ न करनेके लये उसे वषयु भोजन दे दया॥ ३० १/२ ॥ ‘उस समय उस रमणीय एवं े पवतपर भृगुकुलम उ ए महामु न वन तप ाम लगे ए थे। हमालयपर ही उनका आ म था। उन दोन रा नय मसे एक ( जसे जहर दया गया था) का ल ीनामसे स थी। वक सत कमलदलके समान ने वाली महाभागा का ल ी एक उ म पु पानेक इ ा रखती थी। उसने देवतु तेज ी भृगुन न वनके पास जाकर उ णाम कया॥ ३१—३३ ॥ ‘उस समय ष वनने पु क अ भलाषा रखनेवाली का ल ीसे पु -ज के वषयम कहा—‘महाभागे! तु ारे उदरम एक महान् बलवान्, महातेज ी और महापरा मी उ म पु है,



वह का मान् बालक थोड़े ही दन म गर (जहर) के साथ उ होगा। अत: कमललोचने! तुम पु के लये च ा न करो’॥ ‘वह वधवा राजकु मारी का ल ी बड़ी प त ता थी। मह ष वनको नम ार करके वह देवी अपने आ मपर लौट आयी। फर समय आनेपर उसने एक पु को ज दया॥ ३६ ॥ ‘उसक सौतने उसके गभको न कर देनेके लये जो गर ( वष) दया था, उसके साथ ही उ होनेके कारण वह राजकु मार ‘सगर’ नामसे व ात आ॥ ३७ ॥ ‘सगरके पु असमंज और असमंजके पु अंशुमान् ए। अंशुमा े पु दलीप और दलीपके पु भगीरथ ए॥ ३८ ॥ ‘भगीरथसे ककु और ककु से रघुका ज आ। रघुके तेज ी पु वृ ए, जो शापसे रा स हो गये थे॥ ३९ ॥ ‘वे ही क ाषपाद नामसे भी स ए थे। उनसे श ण नामक पु का ज आ था। श णके पु सुदशन और सुदशनके अ वण ए॥ ४० ॥ ‘अ वणके शी ग और शी गके पु म थे। म से शु ुक और शु ुकसे अ रीषक उ ◌इ॥ ‘अ रीषके पु राजा न ष ए। न षके यया त और यया तके पु नाभाग थे। नाभागके अज ए। अजसे दशरथका ज आ। इ महाराज दशरथसे ये दोन भा◌इ ीराम और ल णउ ए ह॥ ४२-४३ ॥ ‘इ ाकु कु लम उ ए राजा का वंश आ दकालसे ही शु रहा है। ये सब-के -सब परम धमा ा, वीर और स वादी होते आये ह॥ ४४ ॥ ‘नर े ! नरे र! इसी इ ाकु कु लम उ ए ीराम और ल णके लये म आपक दो क ा का वरण करता ँ । ये आपक क ा के यो ह और आपक क ाएँ इनके यो । अत: आप इ क ादान कर’॥ ४५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म स रवाँ सग पूरा आ॥ ७०॥



इकह रवाँ सग राजा जनकका अपने कुलका प रचय देते ए ीराम और ल णके लये और ऊ मलाको देनेक त ा करना



मश: सीता



मह ष व स जब इस कार इ ाकु वंशका प रचय दे चुके, तब राजा जनकने हाथ जोड़कर उनसे कहा— ‘मु न े ! आपका भला हो। अब हम भी अपने कु लका प रचय दे रहे ह, सु नये। महामते! कु लीन पु षके लये क ादानके समय अपने कु लका पूण पेण प रचय देना आव क है; अत: आप सुननेक कृ पा कर॥ १-२ ॥ ‘ ाचीन कालम न म नामक एक परम धमा ा राजा ए ह, जो स ूण धैयशाली महापु ष म े तथा अपने परा मसे तीन लोक म व ात थे॥ ३ ॥ ‘उनके म थ नामक एक पु आ। म थके पु का नाम जनक आ। ये ही हमारे कु लम पहले जनक ए ह (इ के नामपर हमारे वंशका ेक राजा ‘जनक’ कहलाता है)। जनकसे उदावसुका ज आ॥ ४ ॥ ‘उदावसुसे धमा ा न वधन उ ए। न वधनके शूरवीर पु का नाम सुकेतु आ॥ ५॥ ‘सुकेतुके भी देवरात नामक पु आ। देवरात महान् बलवान् और धमा ा थे। राज ष देवरातके बृह थ नामसे स एक पु आ॥ ६ ॥ ‘बृह थके पु महावीर ए, जो शूर और तापी थे। महावीरके सुधृ त ए, जो धैयवान् और स परा मी थे॥ ७ ॥ ‘सुधृ तके भी धमा ा धृ के तु ए, जो परम धा मक थे। राज ष धृ के तुका पु हय नामसे व ात आ॥ ८ ॥ ‘हय के पु म , म के पु ती क तथा ती कके पु धमा ा राजा क तरथ ए॥ ९॥ ‘क तरथके पु देवमीढ नामसे व ात ए। देवमीढके वबुध और वबुधके पु मही क ए॥ १० ॥



उ १२ ॥



‘मही



कके पु महाबली राजा क तरात ए। राज ष क तरातके महारोमा नामक पु आ॥ ‘महारोमासे धमा ा णरोमाका ज आ। राज ष णरोमासे रोमा उ ए॥ ‘धम



महा ा राजा रोमाके दो पु उ ए, जनम े तो म ही ँ और क न मेरा छोटा भा◌इ वीर कु श ज है॥ १३ ॥ ‘मेरे पता मुझ े पु को रा पर अ भ ष करके कु श जका सारा भार मुझे स पकर वनम चले गये॥ ‘वृ पताके गगामी हो जानेपर अपने देवतु भा◌इ कु श जको ेह- से देखता आ म इस रा का भार धमके अनुसार वहन करने लगा॥ १५ ॥ ‘कु छ कालके अन र परा मी राजा सुध ाने सांका नगरसे आकर म थलाको चार ओरसे घेर लया॥ १६ ॥ ‘उसने मेरे पास दूत भेजकर कहलाया क ‘तुम शवजीके परम उ म धनुष तथा अपनी कमलनयनी क ा सीताको मेरे हवाले कर दो’॥ १७ ॥ ‘महष! मने उसक माँग पूरी नह क । इस लये मेरे साथ उसका यु आ। उस सं ामम स ुख यु करता आ राजा सुध ा मेरे हाथसे मारा गया॥ १८ ॥ ‘मु न े ! राजा सुध ाका वध करके मने सांका नगरके रा पर अपने शूरवीर ाता कु श जको अ भ ष कर दया॥ १९ ॥ ‘महामुने! ये मेरे छोटे भा◌इ कु श ज ह और म इनका बड़ा भा◌इ ँ । मु नवर! म बड़ी स ताके साथ आपको दो ब एँ दान करता ँ ॥ २० ॥ ‘आपका भला हो! म सीताको ीरामके लये और ऊ मलाको ल णके लये सम पत करता ँ । परा म ही जसको पानेका शु (शत) था, उस देवक ाके समान सु री अपनी थम पु ी सीताको ीरामके लये तथा दूसरी पु ी ऊ मलाको ल णके लये दे रहा ँ । म इस बातको तीन बार दुहराता ँ , इसम संशय नह है। मु न वर! म परम स होकर आपको दो ब एँ दे रहा ँ ’॥ २१-२२ ॥



(व स



जीसे ऐसा कहकर राजा जनकने महाराज दशरथसे कहा—) ‘राजन्! अब आप ीराम और ल णके मंगलके लये इनसे गोदान करवाइये, आपका क ाण हो। ना ीमुख ा का काय भी स क जये। इसके बाद ववाहका काय आर क जयेगा॥ २३ ॥ ‘महाबाहो! भो! आज मघा न है। राजन्! आजके तीसरे दन उ रा-फा ुनी न म वैवा हक काय क जयेगा। आज ीराम और ल णके अ ुदयके लये (गो, भू म, तल और सुवण आ दका) दान कराना चा हये; क वह भ व म सुख देनेवाला होता है’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म इकह रवाँ सग पूरा आ॥ ७१॥



बह रवाँ सग व ा म ारा भरत और श ु के लये कुश जक क ा का वरण, राजा जनक ारा इसक ीकृ त तथा राजा दशरथका अपने पु के मंगलके लये ना ी ा एवं गोदान करना



वदेहराज जनक जब अपनी बात समा कर चुके, तब व स स हत महामु न व ा म उन वीर नरेशसे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘नर े ! इ ाकु और वदेह दोन ही राजा के वंश अ च नीय ह। दोन के ही भावक को◌इ सीमा नह है। इन दोन क समानता करनेवाला दूसरा को◌इ राजवंश नह है॥ २ ॥ ‘राजन्! इन दोन कु ल म जो यह धम-स ा पत होने जा रहा है, सवथा एक-दूसरेके यो है। प-वैभवक से भी समान यो ताका है; क ऊ मलास हत सीता ीराम और ल णके अनु प है॥ ३ ॥ ‘नर े ! इसके बाद मुझे भी कु छ कहना है; आप मेरी बात सु नये। राजन्! आपके छोटे भा◌इ जो ये धम राजा कु श ज बैठे ह, इन धमा ा नरेशके भी दो क ाएँ ह, जो इस भूम लम अनुपम सु री ह। नर े ! भूपाल! म आपक उन दोन क ा का कु मार भरत और बु मान् श ु इन दोन महामन ी राजकु मार के लये इनक धमप ी बनानेके उ े से वरण करता ँ ॥ ४—६ ॥ ‘राजा दशरथके ये सभी पु प और यौवनसे सुशो भत, लोकपाल के समान तेज ी तथा देवता के तु परा मी ह॥ ७ ॥ ‘राजे ! इन दोन भाइय (भरत और श ु ) को भी क ादान करके आप इस सम इ ाकु कु लको अपने स से बाँध ली जये। आप पु कमा पु ष ह; आपके च म ता नह आनी चा हये (अथात् आप यह सोचकर न ह क ऐसे महान् स ाट्के साथ म एक ही समय चार वैवा हक स का नवाह कै से कर सकता ँ ।)’॥ ८ ॥ व स जीक स तके अनुसार व ा म जीका यह वचन सुनकर उस समय राजा जनकने हाथ जोड़कर उन दोन मु नवर से कहा—॥ ९ ॥ ‘मु नपुंगवो! म अपने इस कु लको ध मानता ँ , जसे आप दोन इ ाकु वंशके यो समझकर इसके साथ स जोड़नेके लये यं आ ा दे रहे ह॥



‘आपका



क ाण हो। आप जैसा कहते ह, ऐसा ही हो। ये सदा साथ रहनेवाले दोन भा◌इ भरत और श ु कु श जक इन दोन क ा (मसे एक-एक) को अपनी-अपनी धमप ीके पम हण कर॥ ११ ॥ ‘महामुने! ये चार महाबली राजकु मार एक ही दन हमारी चार राजकु मा रय का पा ण हण कर॥ १२ ॥ ‘ न्! अगले दो दन फा ुनी नामक न से यु ह। इनम (पहले दन तो पूवा फा ुनी है और) दूसरे दन (अथात् परस ) उ रा फा ुनी नामक न होगा, जसके देवता जाप त भग (तथा अयमा) ह। मनीषी पु ष उस न म वैवा हक काय करना ब त उ म बताते ह’॥ १३ ॥ इस कार सौ (मनोहर) वचन कहकर राजा जनक उठकर खड़े हो गये और उन दोन मु नवर से हाथ जोड़कर बोले—॥ १४ ॥ ‘आपलोग ने क ा का ववाह न त करके मेरे लये महान् धमका स ादन कर दया; म आप दोन का श ँ । मु नवरो! इन े आसन पर आप दोन वराजमान ह ॥ १५ ॥ ‘आपके



लये जैसी राजा दशरथक अयो ा है, वैसी ही यह मेरी म थलापुरी भी है। आपका इसपर पूरा अ धकार है, इसम संदेह नह ; अत: आप हम यथायो आ ा दान करते रह’॥ १६ ॥ वदेहराज जनकके ऐसा कहनेपर रघुकुलका आन बढ़ानेवाले राजा दशरथने स होकर उन म थलानरेशको इस कार उ र दया—॥ १७ ॥ ‘ म थले र! आप दोन भाइय के गुण असं ह; आपलोग ने ऋ षय तथा राजसमूह का भलीभाँ त स ार कया है॥ १८ ॥ ‘आपका क ाण हो, आप मंगलके भागी ह । अब हम अपने व ाम ानको जायँगे। वहाँ जाकर म व धपूवक ना ीमुख ा का काय स क ँ गा।’ यह बात भी राजा दशरथने कही॥ १९ ॥ तदन र म थलानरेशक अनुम त ले महायश ी राजा दशरथ मु न े व ा म और व स को आगे करके तुरंत अपने आवास ानपर चले गये॥ २० ॥



डेरेपर जाकर राजा दशरथने (अपरा कालम) व धपूवक आ ुद यक ा स कया। त ात् (रात बीतनेपर) ात:काल उठकर राजाने त ालो चत उ म गोदान-कम कया॥ २१ ॥ राजा दशरथने अपने एक-एक पु के मंगलके लये धमानुसार एक-एक लाख गौएँ ा ण को दान क ॥ २२ ॥ उन सबके स ग सोनेसे मढ़े ए थे। उन सबके साथ बछड़े और काँसेके दु पा थे। इस कार पु व ल रघुकुलन न पु ष शरोम ण राजा दशरथने चार लाख गौ का दान कया तथा और भी ब त-सा धन पु के लये गोदानके उ े से ा ण को दया॥ २३-२४ ॥ गोदान-कम स करके आये ए पु से घरे ए राजा दशरथ उस समय लोकपाल से घरकर बैठे ए शा भाव जाप त ाके समान शोभा पा रहे थे॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म बह रवाँ सग पूरा आ॥ ७२॥



तह रवाँ सग ीराम आ द चार भाइय का ववाह



राजा दशरथने जस दन अपने पु के ववाहके न म उ म गोदान कया, उसी दन भरतके सगे मामा के कयराजकु मार वीर युधा जत् वहाँ आ प ँ चे। उ ने महाराजका दशन करके कु शल-मंगल पूछा और इस कार कहा—॥ १-२ ॥ ‘रघुन न! के कयदेशके महाराजने बड़े ेहके साथ आपका कु शल-समाचार पूछा है और आप भी हमारे यहाँके जन- जन लोग क कु शलवाता जानना चाहते ह गे, वे सब इस समय और सान ह। राजे ! के कयनरेश मेरे भा े भरतको देखना चाहते ह। अत: इ लेनेके लये ही म अयो ा आया था॥ ४ १/२ ॥ ‘परंतु पृ ीनाथ! अयो ाम यह सुनकर क ‘आपके सभी पु ववाहके लये आपके साथ म थला पधारे ह, म तुरंत यहाँ चला आया; क मेरे मनम अपनी ब हनके बेटेको देखनेक बड़ी लालसा थी’॥ ५ १/२ ॥ महाराज दशरथने अपने य अ त थको उप त देख बड़े स ारके साथ उनक आवभगत क ; क वे स ान पानेके ही यो थे॥ ६ १/२ ॥ तदन र अपने महामन ी पु के साथ वह रात तीत करके वे त नरेश ात:काल उठे और न कम करके ऋ षय को आगे कये जनकक य शालाम जा प ँ चे॥ ७-८ ॥ त ात् ववाहके यो वजय नामक मु त आनेपर दू के े अनु प सम वेश-भूषासे अलंकृत ए भाइय के साथ ीरामच जी भी वहाँ आये। वे ववाहकालो चत मंगलाचार पूण कर चुके थे तथा व स मु न एवं अ ा मह षय को आगे करके उस म पम पधारे थे। उस समय भगवान् व स ने वदेहराज जनकके पास जाकर इस कार कहा—॥ ९-१० ॥ ‘राजन्! नरेश म े महाराज दशरथ अपने पु का वैवा हकसू -ब न प मंगलाचार स करके उन सबके साथ पधारे ह और भीतर आनेके लये दाताके आदेशक ती ा कर रहे ह॥ ११ ॥ ‘ क दाता और त हीता (दान हण करनेवाले) का संयोग होनेपर ही सम दानधम का स ादन स व होता है; अत: आप ववाह-कालोपयोगी शुभ कम का अनु ान करके



उ बुलाइये और क ादान प धमका पालन क जये’॥ १२ ॥ महा ा व स के ऐसा कहनेपर परम उदार, परम धम और महातेज ी राजा जनकने इस कार उ र दया—॥ १३ ॥ ‘मु न े ! महाराजके लये मेरे यहाँ कौन-सा पहरेदार खड़ा है। वे कसके आदेशक ती ा करते ह। अपने घरम आनेके लये कै सा सोच- वचार है? यह जैसे मेरा रा है, वैसे ही आपका है। मेरी क ा का वैवा हक सू -ब न प मंगलकृ स हो चुका है। अब वे य वेदीके पास आकर बैठी ह और अ क लत शखा के समान का शत हो रही ह॥ १४-१५ ॥ ‘इस समय तो म आपक ही ती ाम वेदीपर बैठा ँ । आप न व तापूवक सब काय पूण क जये। वल कस लये करते ह?’॥ १६ ॥ व स जीके मुखसे राजा जनकक कही ◌इ बात सुनकर महाराज दशरथ उस समय अपने पु और स ूण मह षय को महलके भीतर ले आये॥ १७ ॥ तदन र वदेहराजने व स जीसे इस कार कहा—‘धमा ा महष! भो! आप ऋ षय को साथ लेकर लोका भराम ीरामके ववाहक स ूण या कराइये’॥ १८ १/२ ॥ तब जनकजीसे ‘ब त अ ा’ कहकर महातप ी भगवान् व स मु नने व ा म और धमा ा शतान जीको आगे करके ववाह-म पके म भागम व धपूवक वेदी बनायी और ग तथा फू ल के ारा उसे चार ओरसे सु र पम सजाया। साथ ही ब त-सी सुवणपा लकाएँ , यवके अंकुर से यु च त कलश, अंकुर जमाये ए सकोरे, धूपयु धूपपा , श पा , ुवा, ुक्, अ आ द पूजनपा , लावा (खील ) से भरे ए पा तथा धोये ए अ त आ द सम साम य को भी यथा ान रख दया। त ात् महातेज ी मु नवर व स जीने बराबर-बराबर कु श को वेदीके चार ओर बछाकर म ो ारण करते ए व धपूवक अ ा पन कया और व धको धानता देते ए म पाठपूवक लत अ म हवन कया॥ १९—२४ ॥ तदन र राजा जनकने सब कारके आभूषण से वभू षत सीताको ले आकर अ के सम ीरामच जीके सामने बठा दया और माता कौस ाका आन बढ़ानेवाले उन ीरामसे कहा—‘रघुन न! तु ारा क ाण हो। यह मेरी पु ी सीता तु ारी सहध मणीके



पम उप त है; इसे ीकार करो और इसका हाथ अपने हाथम लो। यह परम प त ता, महान् सौभा वती और छायाक भाँ त सदा तु ारे पीछे चलनेवाली होगी’॥ २५—२७ ॥ यह कहकर राजाने ीरामके हाथम म से प व आ संक का जल छोड़ दया। उस समय देवता और ऋ षय के मुखसे जनकके लये साधुवाद सुनायी देने लगा॥ २८ ॥ देवता के नगाड़े बजने लगे और आकाशसे फू ल क बड़ी भारी वषा ◌इ। इस कार म और संक के जलके साथ अपनी पु ी सीताका दान करके हषम ए राजा जनकने ल णसे कहा—‘ल ण! तु ारा क ाण हो। आओ, म ऊ मलाको तु ारी सेवाम दे रहा ँ । इसे ीकार करो। इसका हाथ अपने हाथम लो। इसम वल नह होना चा हये’॥ २९-३० १/ ॥ २



ल णसे ऐसा कहकर जनकने भरतसे कहा— ‘रघुन न! मा वीका हाथ अपने हाथम लो’॥ ३१ १/२ ॥ फर धमा ा म थलेशने श ु को स ो धत करके कहा—‘महाबाहो! तुम अपने हाथसे ुतक तका पा ण हण करो। तुम चार भा◌इ शा भाव हो। तुम सबने उ म तका भलीभाँ त आचरण कया है। ककु कु लके भूषण प तुम चार भा◌इ प ीसे संयु हो जाओ। इस कायम वल नह होना चा हये’॥ ३२-३३ १/२ ॥ राजा जनकका यह वचन सुनकर उन चार राजकु मार ने चार राजकु मा रय के हाथ अपने हाथम लये। फर व स जीक स तसे उन रघुकुलर महामन ी राजकु मार ने अपनी-अपनी प ीके साथ अ , वेदी, राजा दशरथ तथा ऋ ष-मु नय क प र मा क और वेदो व धके अनुसार वैवा हक काय पूण कया॥ ३४—३६ ॥ उस समय आकाशसे फू ल क बड़ी भारी वषा ◌इ, जो सुहावनी लगती थी। द दु ु भय क ग ीर न, द गीत के मनोहर श और द वा के मधुर घोषके साथ ंडु -क - ंडु अ राएँ नृ करने लग और ग व मधुर गीत गाने लगे। उन रघुवंश शरोम ण राजकु मार के ववाहम वह अ तु दखायी दया॥ ३७-३८ ॥ शहना◌इ आ द बाज के मधुर घोषसे गूँजते ए उस वतमान ववाहो वम उन महातेज ी राजकु मार ने अ क तीन बार प र मा करके प य को ीकार करते ए ववाहकम स कया॥ ३९ ॥



तदन र रघुकुलको आन दान करनेवाले वे चार भा◌इ अपनी प य के साथ जनवासेम चले गये। राजा दशरथ भी ऋ षय और ब -ु बा व के साथ पु और पु वधु को देखते ए उनके पीछे-पीछे गये॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म तह रवाँ सग पूरा आ॥ ७३॥



चौह रवाँ सग व ा म का अपने आ मको ान, राजा जनकका क ा को भारी दहेज देकर राजा दशरथ आ दको वदा करना, मागम शुभाशुभ शकुन और परशुरामजीका आगमन



तदन र जब रात बीती और सबेरा आ, तब महामु न व ा म राजा जनक और महाराज दशरथ दोन राजा से पूछकर उनक ीकृ त ले उ रपवतपर ( हमालयक शाखाभूत पवतपर, जहाँ कौ शक के तटपर उनका आ म था, वहाँ) चले गये॥ १ ॥ व ा म जीके चले जानेपर महाराज दशरथ भी वदेहराज म थलानरेशसे अनुम त लेकर ही शी अपनी पुरी अयो ाको जानेके लये तैयार हो गये॥ २ ॥ उस समय वदेहराज जनकने अपनी क ा के न म दहेजम ब त अ धक धन दया। उन म थला नरेशने क◌इ लाख गौएँ , कतनी ही अ ी-अ ी कालीन तथा करोड़ क सं ाम रेशमी और सूती व दये, भाँ त-भाँ तके गहन से सजे ए ब त-से द हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सै नक भट कये॥ ३-४ ॥ अपनी पु य के लये सहेलीके पम उ ने सौ-सौ क ाएँ तथा उ म दास-दा सयाँ अ पत क । इन सबके अ त र राजाने उन सबके लये एक करोड़ णमु ा, रजतमु ा, मोती तथा मूँगे भी दये॥ ५ ॥ इस कार म थलाप त राजा जनकने बड़े हषके साथ उ मो म क ाधन (दहेज) दया। नाना कारक व ुएँ दहेजम देकर महाराज दशरथक आ ा ले वे पुन: म थलानगरके भीतर अपने महलम लौट आये। उधर अयो ानरेश राजा दशरथ भी स ूण मह षय को आगे करके अपने महा ा पु , सै नक तथा सेवक के साथ अपनी राजधानीक ओर त ए॥ ६-७ १/ ॥ २



उस समय ऋ ष-समूह तथा ीरामच जीके साथ या ा करते ए पु ष सह महाराज दशरथके चार ओर भयंकर बोली बोलनेवाले प ी चहचहाने लगे और भू मपर वचरनेवाले सम मृग उ दा हने रखकर जाने लगे॥ ८-९ ॥ उन सबको देखकर राज सह दशरथने व स जीसे पूछा—‘मु नवर! एक ओर तो ये भयंकर प ी घोर श कर रहे ह और दूसरी ओर ये मृग हम दा हनी ओर करके जा रहे ह; यह अशुभ



और शुभ दो कारका शकु न कै सा? यह मेरे दयको क त कये देता है। मेरा मन वषादम डू बा जाता है’॥ १० १/२ ॥ राजा दशरथका यह वचन सुनकर मह ष व स ने मधुर वाणीम कहा—‘राजन्! इस शकु नका जो फल है, उसे सु नये—आकाशम प य के मुखसे जो बात नकल रही है, वह बताती है क इस समय को◌इ घोर भय उप त होनेवाला है, परंतु हम दा हने रखकर जानेवाले ये मृग उस भयके शा हो जानेक सूचना दे रहे ह; इस लये आप यह च ा छो ड़ये’॥ ११-१२ १/२ ॥ इन लोग म इस कार बात हो ही रही थ क वहाँ बड़े जोर क आँ धी उठी। वह सारी पृ ीको कँ पाती ◌इ बड़े-बड़े वृ को धराशायी करने लगी। सूय अ कारसे आ हो गये। कसीको दशा का भान न रहा। धूलसे ढक जानेके कारण वह सारी सेना मू त-सी हो गयी॥ १३-१४ १/२ ॥ उस समय के वल व स मु न, अ ा ऋ षय तथा पु स हत राजा दशरथको ही चेत रह गया था, शेष सभी लोग अचेत हो गये थे। उस घोर अ कारम राजाक वह सेना धूलसे आ ा दत-सी हो गयी थी॥ उस समय राजा दशरथने देखा— य राजा का मानमदन करनेवाले भृगुकुलन न जमद कु मार परशुराम सामनेसे आ रहे ह। वे बड़े भयानक-से दखायी देते थे। उ ने म कपर बड़ी-बड़ी जटाएँ धारण कर रखी थ । वे कै लासके समान दुजय और काला के समान दु:सह तीत होते थे। तेजोम ल ारा जा मान-से हो रहे थे। साधारण लोग के लये उनक ओर देखना भी क ठन था। वे कं धेपर फरसा रखे और हाथम व ु ण के समान दी मान् धनुष एवं भयंकर बाण लये पुर वनाशक भगवान् शवके समान जान पड़ते थे॥ १७—१९ ॥ लत अ के समान भयानक-से तीत होनेवाले परशुरामको उप त देख जप और होमम त र रहनेवाले व स आ द सभी ष एक हो पर र इस कार बात करने लगे —॥ २० १/२ ॥ ‘ ा अपने पताके वधसे अमषके वशीभूत हो ये य का संहार नह कर डालगे? पूवकालम य का वध करके इ ने अपना ोध उतार लया है। अब इनक बदला लेनेक



च ा दूर हो चुक है। अत: फर य का संहार करना इनके लये अभी नह है, यह न यपूवक कहा जा सकता है’॥ २१-२२ ॥ ऐसा कहकर ऋ षय ने भयंकर दखायी देनेवाले भृगुन न परशुरामको अ लेकर दया और ‘राम! राम!’ कहकर उनसे मधुर वाणीम बातचीत क ॥ २३ ॥ ऋ षय क दी ◌इ उस पूजाको ीकार करके तापी जमद पु परशुरामने दशरथन न ीरामसे इस कार कहा॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म चौह रवाँ सग पूरा आ॥ ७४॥



पचह रवाँ सग राजा दशरथक बात अनसुनी करके परशुरामका ीरामको वै लये ललकारना



व-धनुषपर बाण चढ़ानेके



न ीराम! वीर! सुना जाता है क तु ारा परा म अ तु है। तु ारे ारा शवधनुषके तोड़े जानेका सारा समाचार भी मेरे कान म पड़ चुका है॥ १ ॥ ‘उस धनुषका तोड़ना अ तु और अ च है; उसके टूटनेक बात सुनकर म एक दूसरा उ म धनुष लेकर आया ँ ॥ २ ॥ ‘यह है वह जमद कु मार परशुरामका भयंकर और वशाल धनुष। तुम इसे ख चकर इसके ऊपर बाण चढ़ाओ और अपना बल दखाओ॥ ३ ॥ ‘इस धनुषके चढ़ानेम भी तु ारा बल कै सा है? यह देखकर म तु ऐसा यु दान क ँ गा, जो तु ारे परा मके लये ृहणीय होगा’॥ ४ ॥ परशुरामजीका वह वचन सुनकर उस समय राजा दशरथके मुखपर वषाद छा गया। वे दीनभावसे हाथ जोड़कर बोले—॥ ५ ॥ ‘ न्! आप ा ाय और तसे शोभा पानेवाले भृगुवंशी ा ण के कु लम उ ए ह और यं भी महान् तप ी और ानी ह; य पर अपना रोष कट करके अब शा हो चुके ह; इस लये मेरे बालक पु को आप अभयदान देनेक कृ पा कर; क आपने इ के समीप त ा करके श का प र ाग कर दया है॥ ६-७ ॥ ‘इस तरह आप धमम त र हो क पजीको पृ ीका दान करके वनम आकर महे पवतपर आ म बनाकर रहते ह॥ ८ ॥ ‘महामुने! (इस कार श ागक त ा करके भी) आप मेरा सवनाश करनेके लये कै से आ गये? (य द कह—मेरा रोष तो के वल रामपर है तो) एकमा रामके मारे जानेपर ही हम सब लोग अपने जीवनका प र ाग कर दगे’॥ ९ ॥ राजा दशरथ इस कार कहते ही रह गये; परंतु तापी परशुरामने उनके उन वचन क अवहेलना करके रामसे ही बातचीत जारी रखी॥ १० ॥ ‘दशरथन



वे बोले—‘रघुन न! ये दो धनुष सबसे े और द थे। सारा संसार इ स ानक से देखता था। सा ात् व कमाने इ बनाया था। ये बड़े बल और ढ़ थे॥ ११ ॥ ‘नर े ! इनमसे एकको देवता ने पुरासुरसे यु करनेके लये भगवान् श रको दे दया था। ककु न न! जससे पुरका नाश आ था, वह वही धनुष था; जसे तुमने तोड़ डाला है॥ १२ ॥ ‘और दूसरा दुधष धनुष यह है, जो मेरे हाथम है। इसे े देवता ने भगवान् व ुको दया था। ीराम! श ुनगरीपर वजय पानेवाला वही यह वै व धनुष है॥ १३ ॥ ‘ककु न न! यह भी शवजीके धनुषके समान ही बल है। उन दन सम देवता ने भगवान् शव और व ुके बलाबलक परी ाके लये पतामह ाजीसे पूछा था क ‘इन दोन देवता म कौन अ धक बलशाली है’॥ १४ १/२ ॥ ‘देवता के इस अ भ ायको जानकर स वा दय म े पतामह ाजीने उन दोन देवता ( शव और व ु) म वरोध उ कर दया॥ १५ १/२ ॥ ‘ वरोध पैदा होनेपर एक-दूसरेको जीतनेक इ ावाले शव और व ुम बड़ा भारी यु आ, जो र गटे खड़े कर देनेवाला था॥ १६ १/२ ॥ ‘उस समय भगवान् व ुने ारमा से शवजीके भयंकर बलशाली धनुषको श थल तथा ने धारी महादेवजीको भी त कर दया॥ १७ १/२ ॥ ‘तब ऋ षसमूह तथा चारण स हत देवता ने आकर उन दोन े देवता से शा के लये याचना क ; फर वे दोन वहाँ शा हो गये॥ १८ १/२ ॥ ‘भगवान् व ुके परा मसे शवजीके उस धनुषको श थल आ देख ऋ षय स हत देवता ने भगवान् व ुको े माना॥ १९ १/२ ॥ ‘तदन र कु पत ए महायश ी ने बाण-स हत अपना धनुष वदेहदेशके राज ष देवरातके हाथम दे दया॥ २० १/२ ॥ ‘ ीराम! श ुनगरीपर वजय पानेवाले इस वै वधनुषको भगवान् व ुने भृगुवंशी ऋचीक मु नको उ म धरोहरके पम दया था॥ २१ १/२ ॥



‘ फर



महातेज ी ऋचीकने तीकार ( तशोध) क भावनासे र हत अपने पु एवं मेरे पता महा ा जमद के अ धकारम यह द धनुष दे दया॥ २२ १/२ ॥ ‘तपोबलसे स मेरे पता जमद अ -श का प र ाग करके जब ान होकर बैठे थे, उस समय ाकृ त बु का आ य लेनेवाले कृ तवीयकु मार अजुनने उनको मार डाला॥ २३ १/२ ॥ ‘ पताके इस अ भयंकर वधका, जो उनके यो नह था, समाचार सुनकर मने रोषपूवक बारंबार उ ए य का अनेक बार संहार कया॥ २४ ॥ ‘ ीराम! फर सारी पृ ीपर अ धकार करके मने एक य कया और उस य के समा होनेपर पु कमा महा ा क पको द णा पसे यह सारी पृ ी दे डाली॥ २५ ॥ ‘पृ ीका दान करके म महे पवतपर रहने लगा और वहाँ तप ा करके तपोबलसे स आ। वहाँसे शवजीके धनुषके तोड़े जानेका समाचार सुनकर म शी तापूवक यहाँ आया ँ ॥ २६ ॥ ‘ ीराम! इस कार यह महान् वै वधनुष मेरे पता- पतामह के अ धकारम रहता चला आया है; अब तुम यधमको सामने रखकर यह उ म धनुष हाथम लो और इस े धनुषपर एक ऐसा बाण चढ़ाओ, जो श ुनगरीपर वजय पानेम समथ हो; य द तुम ऐसा कर सके तो म तु -यु का अवसर दूँगा॥ २७-२८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म पचह रवाँ सग पूरा आ॥ ७५॥



छह रवाँ सग ीरामका वै व-धनुषको चढ़ाकर अमोघ बाणके ारा परशुरामके तप: ा पु लोक का नाश करना तथा परशुरामका महे पवतको लौट जाना



दशरथन न ीरामच जी अपने पताके गौरवका ान रखकर संकोचवश वहाँ कु छ बोल नह रहे थे, परंतु जमद कु मार परशुरामजीक उपयु बात सुनकर उस समय वे मौन न रह सके । उ ने परशुरामजीसे कहा— ‘भृगुन न! न्! आपने पताके ऋणसे ऊऋण होनेक — पताके मारनेवालेका वध करके वैरका बदला चुकानेक भावना लेकर जो य-संहार पी कम कया है, उसे मने सुना है और हमलोग आपके उस कमका अनुमोदन भी करते ह ( क वीर पु ष वैरका तशोध लेते ही ह)॥ २ ॥ ‘भागव! म यधमसे यु ँ (इसी लये आप ा ण-देवताके सम वनीत रहकर कु छ बोल नह रहा ँ ) तो भी आप मुझे परा महीन और असमथ-सा मानकर मेरा तर ार कर रहे ह। अ ा, अब मेरा तेज और परा म दे खये’॥ ३ ॥ ऐसा कहकर शी परा म करनेवाले ीरामच जीने कु पत हो परशुरामजीके हाथसे वह उ म धनुष और बाण ले लया (साथ ही उनसे अपनी वै वी श को भी वापस ले लया)॥ ४॥ उस धनुषको चढ़ाकर ीरामने उसक ापर बाण रखा, फर कु पत होकर उ ने जमद कु मार परशुरामजीसे इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘(भृगुन न) राम! आप ा ण होनेके नाते मेरे पू ह तथा व ा म जीके साथ भी आपका स है—इन सब कारण से म इस ाण-संहारक बाणको आपके शरीरपर नह छोड़ सकता॥ ६ ॥ ‘राम! मेरा वचार है क आपको जो सव शी तापूवक आने-जानेक श ा ◌इ है उसे अथवा आपने अपने तपोबलसे जन अनुपम पु लोक को ा कया है उ को न कर डालू;ँ क अपने परा मसे वप ीके बलके घमंडको चूर कर देनेवाला यह द वै व बाण, जो श ु क नगरीपर वजय दलानेवाला है, कभी न ल नह जाता है’॥ ७-८ ॥



उस समय उस उ म धनुष और बाणको धारण करके खड़े ए ीरामच जीको देखनेके लये स ूण देवता और ऋ ष ाजीको आगे करके वहाँ एक हो गये॥ ९ ॥ ग व, अ राएँ , स , चारण, क र, य , रा स और नाग भी उस अ अ तु को देखनेके लये वहाँ आ प ँ चे॥ १० ॥ जब ीरामच जीने वह े धनुष हाथम ले लया, उस समय सब लोग आ यसे जडवत् हो गये। (परशुरामजीका वै व तेज नकलकर ीरामच जीम मल गया। इस लये) वीयहीन ए जमद कु मार रामने दशरथन न ीरामक ओर देखा॥ ११ ॥ तेज नकल जानेसे वीयहीन हो जानेके कारण जडवत् बने ए जमद कु मार परशुरामने कमलनयन ीरामसे धीरे-धीरे कहा—॥ १२ ॥ ‘रघुन न! पूवकालम मने क पजीको जब यह पृ थवी दान क थी, तब उ ने मुझसे कहा था क ‘तु मेरे रा म नह रहना चा हये’॥ १३ ॥ ‘ककु कु लन न! तभीसे अपने गु क पजीक इस आ ाका पालन करता आ म कभी रातम पृ थवीपर नह नवास करता ँ ; क यह बात सव व दत है क मने क पके सामने रातको पृ थवीपर न रहनेक त ा कर रखी है॥ १४ ॥ ‘इस लये वीर राघव! आप मेरी इस गमनश को न न कर। म मनके समान वेगसे अभी महे नामक े पवतपर चला जाऊँ गा॥ १५ ॥ ‘परंतु ीराम! मने अपनी तप ासे जन अनुपम लोक पर वजय पायी है, उ को आप इस े बाणसे न कर द; अब इसम वल नह होना चा हये॥ १६ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले वीर! आपने जो इस धनुषको चढ़ा दया, इससे मुझे न त पसे ात हो गया क आप मधु दै को मारनेवाले अ वनाशी देवे र व ु ह। आपका क ाण हो॥ १७ ॥ ‘ये सब देवता एक होकर आपक ओर देख रहे ह। आपके कम अनुपम ह; यु म आपका सामना करनेवाला दूसरा को◌इ नह है॥ १८ ॥ ‘ककु कु लभूषण! आपके सामने जो मेरी असमथता कट ◌इ—यह मेरे लये ल ाजनक नह हो सकती; क आप लोक नाथ ीह रने मुझे परा जत कया है॥ १९ ॥



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म तका पालन करनेवाले ीराम! अब आप अपना अनुपम बाण छो ड़ये; इसके छू टनेके बाद ही म े महे पवतपर जाऊँ गा’॥ २० ॥ जमद न न परशुरामजीके ऐसा कहनेपर तापी दशरथन न ीमान् रामच जीने वह उ म बाण छोड़ दया॥ २१ ॥ अपनी तप ा ारा उपा जत कये ए पु लोक को ीरामच जीके चलाये ए उस बाणसे न आ देखकर परशुरामजी शी ही उ म महे पवतपर चले गये॥ २२ ॥ उनके जाते ही सम दशा तथा उप दशा का अ कार दूर हो गया। उस समय ऋ षय स हत देवता उ म आयुधधारी ीरामक भू र-भू र शंसा करने लगे॥ २३ ॥ तदन र दशरथन न ीरामने जमद कु मार परशुरामका पूजन कया। उनसे पू जत हो भावशाली परशुराम दशरथकु मार ीरामक प र मा करके अपने ानको चले गये॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म छह रवाँ सग पूरा आ॥ ७६॥



सतह रवाँ सग राजा दशरथका पु और वधु के साथ अयो ाम वेश, श ु स हत भरतका मामाके यहाँ जाना, ीरामके बतावसे सबका संतोष तथा सीता और ीरामका पार रक ेम



जमद कु मार परशुरामजीके चले जानेपर महायश ी दशरथन न ीरामने शा च होकर अपार श शाली व णके हाथम वह धनुष दे दया॥ १ ॥ त ात् व स आ द ऋ षय को णाम करके रघुन न ीरामने अपने पताको वकल देखकर उनसे कहा—॥ २ ॥ ‘ पताजी! जमद कु मार परशुरामजी चले गये। अब आपके अ धनायक म सुर त यह चतुरं गणी सेना अयो ाक ओर ान करे’॥ ३ ॥ ीरामका यह वचन सुनकर राजा दशरथने अपने पु रघुनाथजीको दोन भुजा से ख चकर छातीसे लगा लया और उनका म क सूँघा। ‘परशुरामजी चले गये’ यह सुनकर राजा दशरथको बड़ा हष आ, वे आन म हो गये। उस समय उ ने अपना और अपने पु का पुनज आ माना॥ ४-५ ॥ तदन र उ ने सेनाको नगरक ओर कूँ च करनेक आ ा दी और वहाँसे चलकर बड़ी शी ताके साथ वे अयो ापुरीम जा प ँ चे। उस समय उस पुरीम सब ओर जा-पताकाएँ फहरा रही थ । सजावटसे नगरक रमणीयता बढ़ गयी थी और भाँ त-भाँ तके वा क नसे सारी अयो ा गूँज उठी थी॥ ६ ॥ सड़क पर जलका छड़काव आ था, जससे पुरीक सुर शोभा बढ़ गयी थी। य -त ढेर-के -ढेर फू ल बखेरे गये थे। पुरवासी मनु हाथ म मांग लक व ुएँ लेकर राजाके वेशमागपर स मुख होकर खड़े थे। इन सबसे भरी-पूरी तथा भारी जनसमुदायसे अलंकृत ◌इ अयो ापुरीम राजाने वेश कया। नाग रक तथा पुरवासी ा ण ने दूरतक आगे जाकर महाराजक अगवानी क थी॥ ७-८ ॥ अपने का मान् पु के साथ महायश ी ीमान् राजा दशरथने अपने य राजभवनम, जो हमालयके समान सु र एवं गगनचु ी था, वेश कया॥ ९ ॥



राजमहलम जन ारा मनोवा त व ु से परम पू जत हो राजा दशरथने बड़े आन का अनुभव कया। महारानी कौस ा, सु म ा, सु र क ट देशवाली कै के यी तथा जो अ राजप याँ थ , वे सब ब को उतारनेके कायम जुट गय ॥ १० १/२ ॥ तदन र राजप रवारक उन य ने परम सौभा वती सीता, यश नी ऊ मला तथा कु श जक दोन क ा —मा वी और ुतक तको सवारीसे उतारा और मंगल गीत गाती ◌इ सब वधु को घरम ले गय । वे वेशका लक होमकमसे सुशो भत तथा रेशमी सा ड़य से अलंकृत थ ॥ ११-१२ ॥ उन सबने देवम र म ले जाकर उन ब से देवता का पूजन करवाया। तदन र नववधू पम आयी ◌इ उन सभी राजकु मा रय ने व नीय सास-ससुर आ दके चरण म णाम कया और अपने-अपने प तके साथ एका म रहकर वे सब-क -सब बड़े आन से समय तीत करने लग ॥ १३ १/२ ॥ ीराम आ द पु ष े चार भा◌इ अ व ाम नपुण और ववा हत होकर धन और म के साथ रहते ए पताक सेवा करने लगे। कु छ कालके बाद रघुकुलन न राजा दशरथने अपने पु कै के यीकु मार भरतसे कहा—॥ १४-१५ १/२ ॥ ‘बेटा! ये तु ारे मामा के कयराजकु मार वीर युधा जत् तु लेनेके लये आये ह और क◌इ दन से यहाँ ठहरे ए ह’॥ १६ १/२ ॥ दशरथजीक यह बात सुनकर कै के यीकु मार भरतने उस समय श ु के साथ मामाके यहाँ जानेका वचार कया॥ १७ १/२ ॥ वे नर े शूरवीर भरत अपने पता राजा दशरथ, अनायास ही महान् कम करनेवाले ीराम तथा सभी माता से पूछकर उनक आ ा ले श ु स हत वहाँसे चल दये॥ १८ १/२ ॥ श ु स हत भरतको साथ लेकर वीर युधा ज े बड़े हषके साथ अपने नगरम वेश कया, इससे उनके पताको बड़ा संतोष आ॥ १९ १/२ ॥ भरतके चले जानेपर महाबली ीराम और ल ण उन दन अपने देवोपम पताक सेवापूजाम संल रहने लगे॥ २० १/२ ॥ पताक आ ा शरोधाय करके वे नगरवा सय के सब काम देखने तथा उनके सम य तथा हतकर काय करने लगे॥ २१ १/२ ॥



वे अपनेको बड़े संयमम रखते थे और समय-समयपर माता के लये उनके आव क काय पूण करके गु जन के भारी-से-भारी काय को भी स करनेका ान रखते थे॥ २२ १/२ ॥ उनके इस बतावसे राजा दशरथ, वेदवे ा ा ण तथा वै वग बड़े स रहते थे; ीरामके उ म शील और सद-् वहारसे उस रा के भीतर नवास करनेवाले सभी मनु ब त संतु रहते थे॥ २३ १/२ ॥ राजाके उन चार पु म स परा मी ीराम ही लोकम अ यश ी तथा महान् गुणवान् ए—ठीक उसी तरह जैसे सम भूत म य ू ा ही अ यश ी और महान् गुणवान् ह॥ २४ १/२ ॥ ीरामच जी सदा सीताके दयम रम वराजमान रहते थे तथा मन ी ीरामका मन भी सीताम ही लगा रहता था; ीरामने सीताके साथ अनेक ऋतु तक वहार कया॥ २५ १/२ ॥



सीता ीरामको ब त ही य थ ; क वे अपने पता राजा जनक ारा ीरामके हाथम प ी- पसे सम पत क गयी थ । सीताके पा त आ द गुणसे तथा उनके सौ यगुणसे भी ीरामका उनके त अ धका धक ेम बढ़ता रहता था; इसी कार सीताके दयम भी उनके प त ीराम अपने गुण और सौ यके कारण गुण ी तपा बनकर रहते थे॥ २६-२७ ॥ जनकन नी म थलेशकु मारी सीता ीरामके हा दक अ भ ायको भी अपने दयसे ही और अ धक पसे जान लेती थ तथा पसे बता भी देती थ । वे पम देवांगना के समान थ और मू तमती ल ी-सी तीत होती थ ॥ २८ ॥ े राजकु मारी सीता ीरामक ही कामना रखती थ और ीराम भी एकमा उ को चाहते थे; जैसे ल ीके साथ देवे र भगवान् व ुक शोभा होती है, उसी कार उन सीतादेवीके साथ राज ष दशरथकु मार ीराम परम स रहकर बड़ी शोभा पाने लगे॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के बालका म सतह रवाँ सग पूरा आ॥ ७७॥ ॥ बालका



समा ॥



॥ ीसीतारामच ा ां नम:॥



ीम ा



ीक य रामायण



अयो ाका पहला सग ीरामके स ण ु का वणन, राजा दशरथका ीरामको युवराज बनानेका वचार तथा व भ नरेश और नगर एवं जनपदके लोग को म णाके लये अपने दरबारम बुलाना (पहले



यह बताया जा चुका है क) भरत अपने मामाके यहाँ जाते समय काम आ द श ु को सदाके लये न कर देनेवाले न ाप श ु को भी ेमवश अपने साथ लेते गये थे॥ १॥ वहाँ भा◌इस हत उनका बड़ा आदर-स ार आ और वे वहाँ सुखपूवक रहने लगे। उनके मामा युधा जत्, जो अ यूथके अ धप त थे, उन दोन पर पु से भी अ धक ेह रखते और बड़ा लाड़- ार करते थे॥ २ ॥ य प मामाके यहाँ उन दोन वीर भाइय क सभी इ ाएँ पूण करके उ पूणत: तृ कया जाता था, तथा प वहाँ रहते ए भी उ अपने वृ पता महाराज दशरथक याद कभी नह भूलती थी॥ ३ ॥ महातेज ी राजा दशरथ भी परदेशम गये ए महे और व णके समान परा मी अपने उन दोन पु भरत और श ु का सदा रण कया करते थे॥ ४ ॥ अपने शरीरसे कट ◌इ चार भुजा के समान वे सब चार ही पु ष शरोम ण पु महाराजको ब त ही य थे॥ ५ ॥ परंतु उनम भी महातेज ी ीराम सबक अपे ा अ धक गुणवान् होनेके कारण सम ा णय के लये ाजीक भाँ त पताके लये वशेष ी तवधक थे॥ ६ ॥ इसका एक कारण और भी था—वे सा ात् सनातन व ु थे और परम च रावणके वधक अ भलाषा रखनेवाले देवता क ाथनापर मनु लोकम अवतीण ए थे॥ ७ ॥



उन अ मत तेज ी पु ीरामच जीसे महारानी कौस ाक वैसी ही शोभा होती थी, जैसे व धारी देवराज इ से देवमाता अ द त सुशो भत होती ह॥ ८ ॥ ीराम बड़े ही पवान् और परा मी थे। वे कसीके दोष नह देखते थे। भूम लम उनक समता करनेवाला को◌इ नह था। वे अपने गुण से पता दशरथके समान एवं यो पु थे॥ ९ ॥ वे सदा शा च रहते और सा नापूवक मीठे वचन बोलते थे; य द उनसे को◌इ कठोर बात भी कह देता तो वे उसका उ र नह देते थे॥ १० ॥ कभी को◌इ एक बार भी उपकार कर देता तो वे उसके उस एक ही उपकारसे सदा संतु रहते थे और मनको वशम रखनेके कारण कसीके सैकड़ अपराध करनेपर भी उसके अपराध को याद नह रखते थे॥ ११ ॥ अ -श के अ ासके लये उपयु समयम भी बीच-बीचम अवसर नकालकर वे उ म च र म, ानम तथा अव ाम बढ़े-चढ़े स ु ष के साथ ही सदा बातचीत करते (और उनसे श ा लेते थे)॥ १२ ॥ वे बड़े बु मान् थे और सदा मीठे वचन बोलते थे। अपने पास आये ए मनु से पहले यं ही बात करते और ऐसी बात मुँहसे नकालते जो उ य लग; बल और परा मसे स होनेपर भी अपने महान् परा मके कारण उ कभी गव नह होता था॥ १३ ॥ झूठी बात तो उनके मुखसे कभी नकलती ही नह थी। वे व ान् थे और सदा वृ पु ष का स ान कया करते थे। जाका ीरामके त और ीरामका जाके त बड़ा अनुराग था॥ १४ ॥ वे परम दयालु ोधको जीतनेवाले और ा ण के पुजारी थे। उनके मनम दीनदु: खय के त बड़ी दया थी। वे धमके रह को जाननेवाले, इ य को सदा वशम रखनेवाले और बाहर-भीतरसे परम प व थे॥ अपने कु लो चत आचार, दया, उदारता और शरणागतर ा आ दम ही उनका मन लगता था। वे अपने यधमको अ धक मह देते और मानते थे। वे उस यधमके पालनसे महान् ग (परम धाम) क ा मानते थे; अत: बड़ी स ताके साथ उसम संल रहते थे॥ १६ ॥



अम लकारी न ष कमम उनक कभी वृ नह होती थी; शा व बात को सुननेम उनक च नह थी; वे अपने ाययु प के समथनम बृह तके समान एक-से-एक बढ़कर यु याँ देते थे॥ १७ ॥ उनका शरीर नीरोग था और अव ा त ण। वे अ े व ा, सु र शरीरसे सुशो भत तथा देश-कालके त को समझनेवाले थे। उ देखकर ऐसा जान पड़ता था क वधाताने संसारम सम पु ष के सारत को समझनेवाले साधु पु षके पम एकमा ीरामको ही कट कया है॥ १८ ॥ राजकु मार ीराम े गुण से यु थे। वे अपने स णु के कारण जाजन को बाहर वचरनेवाले ाणक भाँ त य थे॥ १९ ॥ भरतके बड़े भा◌इ ीराम स ूण व ा के तम न ात और छह अ स हत स ूण वेद के यथाथ ाता थे। बाण व ाम तो वे अपने पतासे भी बढ़कर थे॥ २० ॥ वे क ाणक ज भू म, साधु, दै र हत, स वादी और सरल थे; धम और अथके ाता वृ ा ण के ारा उ उ म श ा ा ◌इ थी॥ २१ ॥ उ धम, काम और अथके त का स क् ान था। वे रणश से स और तभाशाली थे। वे लोक वहारके स ादनम समथ और समयो चत धमाचरणम कु शल थे॥ २२ ॥ वे वनयशील, अपने आकार (अ भ ाय)-को छपानेवाले, म को गु रखनेवाले और उ म सहायक से स थे। उनका ोध अथवा हष न ल नह होता था। वे व ु के ाग और सं हके अवसरको भलीभाँ त जानते थे॥ २३ ॥ गु जन के त उनक ढ़ भ थी। वे त थे और अस ु को कभी हण नह करते थे। उनके मुखसे कभी दुवचन नह नकलता था। वे आल र हत, मादशू तथा अपने और पराये मनु के दोष को अ ी कार जाननेवाले थे॥ २४ ॥ वे शा के ाता, उपका रय के त कृ त तथा पु ष के तारत को अथवा दूसरे पु ष के मनोभावको जाननेम कु शल थे। यथायो न ह और अनु ह करनेम वे पूण चतुर थे॥ २५ ॥ उ स ु ष के सं ह और पालन तथा दु पु ष के न हके अवसर का ठीक-ठीक ान था। धनक आयके उपाय को वे अ ी तरह जानते थे (अथात् फू ल को न न करके उनसे रस



लेनेवाले मर क भाँ त वे जा को क दये बना ही उनसे ायो चत धनका उपाजन करनेम कु शल थे) तथा शा व णत य कमका भी उ ठीक-ठीक ान था१॥ २६ ॥ उ ने सब कारके अ समूह तथा सं ृ त, ाकृ त आ द भाषा से म त नाटक आ दके ानम नपुणता ा क थी। वे अथ और धमका सं ह (पालन) करते ए तदनुकूल कामका सेवन करते थे और कभी आल को पास नह फटकने देते थे॥ २७ ॥ वहार ( डा या मनोर न)-के उपयोगम आनेवाले संगीत, वा और च कारी आ द श के भी वे वशेष थे। अथ के वभाजनका भी उ स क् ान था।२ वे हा थय और घोड़ पर चढ़ने और उ भाँ तभाँ तक चाल क श ा देनेम भी नपुण थे॥ २८ ॥ ीरामच जी इस लोकम धनुवदके सभी व ान म े थे। अ तरथी वीर भी उनका वशेष स ान करते थे। श ुसेनापर आ मण और हार करनेम वे वशेष कु शल थे। सेनासंचालनक नी तम उ ने अ धक नपुणता ा क थी॥ २९ ॥ सं ामम कु पत होकर आये ए सम देवता और असुर भी उनको परा नह कर सकते थे। उनम दोष का सवथा अभाव था। वे ोधको जीत चुके थे। दप और ◌इ ाका उनम अ अभाव था॥ ३० ॥ कसी भी ाणीके मनम उनके त अवहेलनाका भाव नह था। वे कालके वशम होकर उसके पीछे-पीछे चलनेवाले नह थे (काल ही उनके पीछे चलता था)। इस कार उ म गुण से यु होनेके कारण राजकु मार ीराम सम जा तथा तीन लोक के ा णय के लये आदरणीय थे। वे अपने मास ी गुण के ारा पृ ीक समानता करते थे। बु म बृह त और बल-परा मम शचीप त इ के तु थे॥ ३१-३२ ॥ जैसे सूयदेव अपनी करण से का शत होते ह। उसी कार ीरामच जी सम जा को य लगनेवाले तथा पताक ी त बढ़ानेवाले स णु से सुशो भत होते थे॥ ३३ ॥ ऐसे सदाचारस , अजेय परा मी और लोकपाल के समान तेज ी ीरामच जीको पृ ी (भूदेवी और भूम लक जा)-ने अपना ामी बनानेक कामना क ॥ ३४ ॥ अपने पु ीरामको अनेक अनुपम गुण से यु देखकर श ु को संताप देनेवाले राजा दशरथने मन-ही-मन कु छ वचार करना आर कया॥ ३५ ॥ उन चर ीवी बूढ़े महाराज दशरथके दयम यह च ा ◌इ क कस कार मेरे जीते-जी ीरामच राजा हो जायँ और उनके रा ा भषेकसे ा होनेवाली यह स ता मुझे कै से



सुलभ हो॥ ३६ ॥ उनके दयम यह उ म अ भलाषा बार ार च र लगाने लगी क कब म अपने य पु ीरामका रा ा भषेक देखूँगा॥ ३७ ॥ वे सोचने लगे क ‘ ीराम सब लोग के अ ुदयक कामना करते और स ूण जीव पर दया रखते ह। वे लोकम वषा करनेवाले मेघक भाँ त मुझसे भी बढ़कर य हो गये ह॥ ३८ ॥ ‘ ीराम बल-परा मम यम और इ के समान, बु म बृह तके समान और धैयम पवतके समान ह। गुण म तो वे मुझसे सवथा बढ़े-चढ़े ह॥ ३९ ॥ ‘म इसी उ म अपने बेटे ीरामको इस सारी पृ ीका रा करते देख यथासमय सुखसे ग ा क ँ , यही मेरे जीवनक साध है’॥ ४० ॥ इस कार वचारकर तथा अपने पु ीरामको उन-उन नाना कारके वल ण, स नो चत, असं तथा लोको र गुण से, जो अ राजा म दुलभ ह, वभू षत देख राजा दशरथने म य के साथ सलाह करके उ युवराज बनानेका न य कर लया॥ ४१-४२ ॥ बु मान् महाराज दशरथने म ीको ग, अ र तथा भूतलम गोचर होनेवाले उ ात का घोर भय सू चत कया और अपने शरीरम वृ ाव ाके आगमनक भी बात बतायी॥ ४३ ॥ पूण च माके समान मनोहर मुखवाले महा ा ीराम सम जाके य थे। लोकम उनका सव य होना राजाके अपने आ रक शोकको दूर करनेवाला था, इस बातको राजाने अ ी तरह समझा॥ ४४ ॥ तदन र उपयु समय आनेपर धमा ा राजा दशरथने अपने और जाके क ाणके लये म य को ीरामके रा ा भषेकके लये शी तैयारी करनेक आ ा दी। इस उतावलीम उनके दयका ेम और जाका अनुराग भी कारण था॥ ४५ ॥ उन भूपालने भ - भ नगर म नवास करनेवाले धान- धान पु ष तथा अ जनपद के साम राजा को भी म य ारा अयो ाम बुलवा लया॥ ४६ ॥ उन सबको ठहरनेके लये घर देकर नाना कारके आभूषण ारा उनका यथायो स ार कया। त ात् यं भी अलंकृत होकर राजा दशरथ उन सबसे उसी कार मले, जैसे जाप त ा जावगसे मलते ह॥ ४७ ॥



ज ीबाजीके कारण राजा दशरथने के कयनरेशको तथा म थलाप त जनकको भी नह बुलवाया।* उ ने सोचा वे दोन स ी इस य समाचारको पीछे सुन लगे॥ ४८ ॥ तदन र श ुनगरीको पी ड़त करनेवाले राजा दशरथ जब दरबारम आ बैठे, तब (के कयराज और जनकको छोड़कर) शेष सभी लोक य नरेश ने राजसभाम वेश कया॥ ४९ ॥



वे सभी नरेश राजा ारा दये गये नाना कारके सहासन पर उ क ओर मुँह करके वनीतभावसे बैठे थे॥ ५० ॥ राजासे स ा नत होकर वनीतभावसे उ के आस-पास बैठे ए साम नरेश तथा नगर और जनपदके नवासी मनु से घरे ए महाराज दशरथ उस समय देवता के बीचम वराजमान सह ने धारी भगवान् इ के समान शोभा पा रहे थे॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पहला सग पूरा आ॥ १॥ १. शा म यका वधान इस कार देखा जाता है— क



दाय



चाधन चतुभागेन वा पुन:। पादभागै



भवा प



य: संशु ाते तव॥ (महा० सभा० ५। ७१)



नारदजी कहते ह—यु ध र! ा तु ारी आयके एक चौथा◌इ या आधे अथवा तीन चौथा◌इ भागसे तु ारा सारा खच चल जाता है? २. नीचे लखी पाँच व ु के लये अथका वभाजन करनेवाला मनु इहलोक और परलोकम भी सुखी होता है। वे व ुएँ ह—धम, यश, अथ, आ ा और जन। यथा— धमाय यशसेऽथाय कामाय ( ीम ा० ८। १९। ३७) १६१ * के कयनरेशके



जनाय च। प धा वभजन् व महामु च मोदते॥



साथ भरत-श ु भी आ जाते। इन सबके तथा राजा जनकके रहनेसे ीरामका रा ा भषेक स जाता और वे वनम नह जाने पाते—इसी डरसे देवता ने राजा दशरथको इन सबको नह बुलानेक बु दे दी।



हो



दस ू रा सग राजा दशरथ ारा ीरामके रा ा भषेकका ाव तथा सभासद ारा ीरामके गुण का वणन करते ए उ ावका सहष यु यु समथन



उस समय राजसभाम बैठे ए सब लोग को स ो धत करके महाराज दशरथने मेघके समान श करते ए दु ु भक नके स श अ ग ीर एवं गूँजते ए उ रसे सबके आन को बढ़ानेवाली यह हतकारक बात कही॥ १-२ ॥ राजा दशरथका र राजो चत ता और ग ीरता आ द गुण से यु था, अ कमनीय और अनुपम था। वे उस अ तु रसमय रसे सम नरेश को स ो धत करके बोले —॥ ३ ॥ ‘स नो! आपलोग को यह तो व दत ही है क मेरे पूवज राजा धराज ने इस े रा का (यहाँक जाका) कस कार पु क भाँ त पालन कया था॥ ‘सम इ ाकु वंशी नरेश ने जसका तपालन कया है, उस सुख भोगनेके यो स ूण जग ो अब म भी क ाणका भागी बनाना चाहता ँ ॥ ५ ॥ ‘मेरे पूवज जस मागपर चलते आये ह, उसीका अनुसरण करते ए मने भी सदा जाग क रहकर सम जाजन क यथाश र ा क है॥ ६ ॥ ‘सम संसारका हत-साधन करते ए मने इस शरीरको ेत राजछ क छायाम बूढ़ा कया है॥ ७ ॥ ‘अनेक सह (साठ हजार) वष क आयु पाकर जी वत रहते ए अपने इस जराजीण शरीरको अब म व ाम देना चाहता ँ ॥ ८ ॥ ‘जग े धमपूवक संर णका भारी भार राजा के शौय आ द भाव से ही उठाना स व है। अ जते य पु ष के लये इस बोझको ढोना अ क ठन है। म दीघकालसे इस भारी भारको वहन करते-करते थक गया ँ ॥ ९ ॥ ‘इस लये यहाँ पास बैठे ए इन स ूण े ज क अनुम त लेकर जाजन के हतके कायम अपने पु ीरामको नयु करके अब म राजकायसे व ाम लेना चाहता ँ ॥ १० ॥



‘मेरे



पु ीराम मेरी अपे ा सभी गुण म े ह। श ु क नगरीपर वजय पानेवाले ीरामच बल-परा मम देवराज इ के समान ह॥ ११ ॥ ‘पु -न से यु च माक भाँ त सम काय के साधनम कु शल तथा धमा ा म े उन पु ष शरोम ण ीरामच को म कल ात:काल पु न म युवराजके पदपर नयु क ँ गा॥ १२ ॥ ‘ल णके बड़े भा◌इ ीमान् राम आपलोग के लये यो ामी स ह गे; उनके -जैसे ामीसे स ूण लोक भी परम सनाथ हो सकती है॥ १३ ॥ ‘ये ीराम क ाण प ह; इनका शी ही अ भषेक करके म इस भूम लको त ाल क ाणका भागी बनाऊँ गा। अपने पु ीरामपर रा का भार रखकर म सवथा ेशर हत— न हो जाऊँ गा॥ १४ ॥ ‘य द मेरा यह ाव आपलोग को अनुकूल जान पड़े और य द मने यह अ ी बात सोची हो तो आपलोग इसके लये मुझे सहष अनुम त द अथवा यह बताव क म कस कारसे काय क ँ ॥ १५ ॥ ‘य प यह ीरामके रा ा भषेकका वचार मेरे लये अ धक स ताका वषय है तथा प य द इसके अ त र भी को◌इ सबके लये हतकर बात हो तो आपलोग उसे सोच; क म पु ष का वचार एकप ीय पु षक अपे ा वल ण होता है, कारण क वह पूवप और अपरप को ल करके कया गया होनेके कारण अ धक अ ुदय करनेवाला होता है’॥ १६ ॥ राजा दशरथ जब ऐसी बात कह रहे थे, उस समय वहाँ उप त नरेश ने अ स होकर उन महाराजका उसी कार अ भन न कया, जैसे मोर मधुर के कारव फै लाते ए वषा करनेवाले महामेघका अ भन न करते ह॥ १७ ॥ त ात् सम जनसमुदायक ेहमयी हष न सुनायी पड़ी। वह इतनी बल थी क सम पृ ीको कँ पाती ◌इ-सी जान पड़ी॥ १८ ॥ धम और अथके ाता महाराज दशरथके अ भ ायको पूण पसे जानकर स ूण ा ण और सेनाप त नगर और जनपदके धान- धान य के साथ मलकर पर र सलाह करनेके लये बैठे और मनसे सब कु छ समझकर जब वे एक न यपर प ँ च गये, तब बूढ़े राजा दशरथसे इस कार बोले—॥ १९-२० ॥



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ीनाथ! आपक अव ा क◌इ हजार वष क हो गयी। आप बूढ़े हो गये। अत: पृ ीके पालनम समथ अपने पु ीरामका अव ही युवराजके पदपर अ भषेक क जये॥ २१ ॥ ‘रघुकुलके



वीर महाबलवान् महाबा ीराम महान् गजराजपर बैठकर या ा करते ह और उनके ऊपर ेत छ तना आ हो—इस पम हम उनक झाँक करना चाहते ह’॥ २२ ॥ उनक यह बात राजा दशरथके मनको य लगनेवाली थी; इसे सुनकर राजा दशरथ अनजान-से बनकर उन सबके मनोभावको जाननेक इ ासे इस कार बोले—॥ २३ ॥ ‘राजागण! मेरी यह बात सुनकर जो आपलोग ने ीरामको राजा बनानेक इ ा कट क है, इसम मुझे यह संशय हो रहा है जसे आपके सम उप त करता ँ । आप इसे सुनकर इसका यथाथ उ र द॥ २४ ॥ ‘म धमपूवक इस पृ ीका नर र पालन कर रहा ँ , फर मेरे रहते ए आपलोग महाबली ीरामको युवराजके पम देखना चाहते ह?’॥ २५ ॥ यह सुनकर वे महा ा नरेश नगर और जनपदके लोग के साथ राजा दशरथसे इस कार बोले— ‘महाराज! आपके पु ीरामम ब त-से क ाणकारी स णु ह॥ २६ ॥ ‘देव! देवता के तु बु मान् और गुणवान् ीरामच जीके सारे गुण सबको य लगनेवाले और आन दायक ह, हम इस समय उनका य त्कं चत् वणन कर रहे ह, आप उ सु नये॥ २७ ॥ ‘ जानाथ! स परा मी ीराम देवराज इ के समान द गुण से स ह। इ ाकु कु लम भी ये सबसे े ह॥ २८ ॥ ‘ ीराम संसारम स वादी, स परायण और स ु ष ह। सा ात् ीरामने ही अथके साथ धमको भी त त कया है॥ २९ ॥ ‘ये जाको सुख देनेम च माक और मा पी गुणम पृ ीक समानता करते ह। बु म बृह त और बल-परा मम सा ात् शचीप त इ के समान ह॥ ३० ॥ ‘ ीराम धम , स त , शीलवान्, अदोषदश , शा , दीन-दु: खय को सा ना दान करनेवाले, मृदभु ाषी, कृ त , जते य, कोमल भाववाले, रबु , सदा



क ाणकारी, असूयार हत, सम ा णय के त य वचन बोलनेवाले और स वादी ह॥ ३१-३२ ॥ ‘वे ब ुत व ान , बड़े-बूढ़ तथा ा ण के उपासक ह—सदा ही उनका संग कया करते ह, इस लये इस जग ीरामक अनुपम क त, यश और तेजका व ार हो रहा है॥ ३३ ॥ ‘देवता,



असुर और मनु के स ूण अ का उ वशेष पसे ान है। वे सा वेदके यथाथ व ान् और स ूण व ा म भलीभाँ त न ात ह॥ ३४ ॥ ‘भरतके बड़े भा◌इ ीराम गा ववेद (संगीतशा )म भी इस भूतलपर सबसे े ह। क ाणक तो वे ज भू म ह। उनका भाव साधु पु ष के समान है, दय उदार और बु वशाल है॥ ३५ ॥ ‘धम और अथके तपादनम कु शल े ा ण ने उ उ म श ा दी है। वे ाम अथवा नगरक र ाके लये ल णके साथ जब सं ामभू मम जाते ह, उस समय वहाँ जाकर वजय ा कये बना पीछे नह लौटते॥ ३६ १/२ ॥ ‘सं ामभू मसे हाथी अथवा रथके ारा पुन: अयो ा लौटनेपर वे पुरवा सय से जन क भाँ त त दन उनके पु , अ हो क अ य , य , सेवक और श का कु शलसमाचार पूछते रहते ह॥ ‘जैसे पता अपने औरस पु का कु शल-म ल पूछता है, उसी कार वे सम पुरवा सय से मश: उनका सारा समाचार पूछा करते ह। पु ष सह ीराम ा ण से सदा पूछते रहते ह क ‘आपके श आपलोग क सेवा करते ह न?’ य से यह ज ासा करते ह क ‘आपके सेवक कवच आ दसे सुस त हो आपक सेवाम त र रहते ह न?’॥ ३९ १/२ ॥ ‘नगरके मनु पर संकट आनेपर वे ब त दु:खी हो जाते ह और उन सबके घर म सब कारके उ व होनेपर उ पताक भाँ त स ता होती है॥ ४० १/२ ॥ ‘वे स वादी, महान् धनुधर, वृ पु ष के सेवक और जते य ह। ीराम पहले मुसकराकर वातालाप आर करते ह। उ ने स ूण दयसे धमका आ य ले रखा है। वे क ाणका स क् आयोजन करनेवाले ह, न नीय बात क चचाम उनक कभी च नह होती है॥ ४१-४२ ॥



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रो र उ म यु देते ए वातालाप करनेम वे सा ात् बृह तके समान ह। उनक भ ह सु र ह, आँ ख वशाल और कु छ ला लमा लये ए ह। वे सा ात् व ुक भाँ त शोभा पाते ह॥ ४३ ॥ ‘स ूण लोक को आन त करनेवाले ये ीराम शूरता, वीरता और परा म आ दके ारा सदा जाका पालन करनेम लगे रहते ह। उनक इ याँ राग आ द दोष से दू षत नह होती ह॥ ४४ ॥ ‘इस पृ ीक तो बात ही ा है, वे स ूण लोक क भी र ा कर सकते ह। उनका ोध और साद कभी थ नह होता है॥ ४५ ॥ ‘जो शा के अनुसार ाणद पानेके अ धकारी ह, उनका ये नयमपूवक वध कर डालते ह तथा जो शा से अव ह, उनपर ये कदा प कु पत नह होते ह। जसपर ये संतु होते ह, उसे हषम भरकर धनसे प रपूण कर देते ह॥ ४६ ॥ ‘सम जा के लये कमनीय तथा मनु का आन बढ़ानेवाले मन और इ य के संयम आ द स णु ारा ीराम वैसे ही शोभा पाते ह, जैसे तेज ी सूय अपनी करण से सुशो भत होते ह॥ ४७ ॥ ‘ऐसे सवगुणस , लोकपाल के समान भावशाली एवं स परा मी ीरामको इस पृ ीक जनता अपना ामी बनाना चाहती है॥ ४८ ॥ ‘हमारे सौभा से आपके वे पु ीरघुनाथजी जाका क ाण करनेम समथ हो गये ह तथा आपके सौभा से वे मरी चन न क पक भाँ त पु ो चत गुण से स ह॥ ४९ ॥ ‘देवता , असुर , मनु , ग व और नाग मसे ेक वगके लोग तथा इस रा और राजधानीम भी बाहर-भीतर आने-जानेवाले नगर और जनपदके सभी लोग सु व ात शील भाववाले ीरामच जीके लये सदा ही बल, आरो और आयुक शुभ कामना करते ह॥ ५०-५१ ॥ ‘इस नगरक बूढ़ी और युवती—सब तरहक याँ सबेरे और सायंकालम एका च होकर परम उदार ीरामच जीके युवराज होनेके लये देवता से नम ारपूवक ाथना कया करती ह। देव! उनक वह ाथना आपके कृ पा- सादसे अब पूण होनी चा हये॥ ५२ ॥ ‘नृप े ! जो नीलकमलके समान ामका से सुशो भत तथा सम श ु का संहार करनेम समथ ह, आपके उन े पु ीरामको हम युवराज-पदपर वराजमान देखना चाहते



ह॥ ५३ ॥ ‘अत: वरदायक महाराज! आप देवा धदेव ी व ुके समान परा मी, स ूण लोक के हतम संल रहनेवाले और महापु ष ारा से वत अपने पु ीरामच जीका जतना शी हो सके स तापूवक रा ा भषेक क जये, इसीम हमलोग का हत है’॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म दूसरा सग पूरा आ॥ २॥



तीसरा सग राजा दशरथका व स और वामदेवजीको ीरामके रा ा भषेकक तैयारी करनेके लये कहना और उनका सेवक को तदनु प आदेश देना; राजाक आ ासे सुम का ीरामको राजसभाम बुला लाना और राजाका अपने पु ीरामको हतकर राजनी तक बात बताना



सभासद ने कमलपु क -सी आकृ तवाली अपनी अ लय को सरसे लगाकर सब कारसे महाराजके ावका समथन कया; उनक वह प ा ल ीकार करके राजा दशरथ उन सबसे य और हतकारी वचन बोले—॥ १ ॥ ‘अहो! आपलोग जो मेरे परम य े पु ीरामको युवराजके पदपर त त देखना चाहते ह इससे मुझे बड़ी स ता ◌इ है तथा मेरा भाव अनुपम हो गया है’॥ २ ॥ इस कारक बात से पुरवासी तथा अ ा सभासद का स ार करके राजाने उनके सुनते ए ही वामदेव और व स आ द ा ण से इस कार कहा—॥ ३ ॥ ‘यह चै मास बड़ा सु र और प व है, इसम सारे वन-उपवन खल उठे ह; अत: इस समय ीरामका युवराजपदपर अ भषेक करनेके लये आपलोग सब साम ी एक कराइये’॥ ४ ॥



राजाक यह बात समा होनेपर सब लोग हषके कारण महान् कोलाहल करने लगे। धीरे-धीरे उस जनरवके शा होनेपर जापालक नरेश दशरथने मु न वर व स से यह बात कही —॥ ५ १/२ ॥ ‘भगवन्! ीरामके अ भषेकके लये जो कम आव क हो, उसे सा ोपा बताइये और आज ही उस सबक तैयारी करनेके लये सेवक को आ ा दी जये’॥ ६ १/२ ॥ महाराजका यह वचन सुनकर मु नवर व स ने राजाके सामने ही हाथ जोड़कर खड़े ए आ ापालनके लये तैयार रहनेवाले सेवक से कहा—॥ ७ १/२ ॥ ‘तुमलोग सुवण आ द र , देवपूजनक साम ी, सब कारक ओष धयाँ, ेत पु क मालाएँ , खील, अलग-अलग पा म शहद और घी, नये व , रथ, सब कारके अ -श , चतुर णी सेना, उ म ल ण से यु हाथी, चमरी गायक पूँछके बाल से बने ए दो जन, ज, ेत छ , अ के समान देदी मान सोनेके सौ कलश, सुवणसे मढ़े ए स ग वाला एक



साँड, समूचा ा चम तथा और जो कु छ भी वांछनीय व ुएँ ह, उन सबको एक करो और ात:काल महाराजक अ शालाम प ँ चा दो॥ ८—१२ ॥ ‘अ :पुर तथा सम नगरके सभी दरवाज को च न और माला से सजा दो तथा वहाँ ऐसे धूप सुलगा दो जो अपनी सुग से लोग को आक षत कर ल॥ १३ ॥ ‘दही, दूध और घी आ दसे संयु अ उ म एवं गुणकारी अ तैयार कराओ, जो एक लाख ा ण के भोजनके लये पया हो॥ १४ ॥ ‘कल ात:काल े ा ण का स ार करके उ वह अ दान करो; साथ ही घी, दही, खील और पया द णाएँ भी दो॥ १५ ॥ ‘कल सूय दय होते ही वाचन होगा, इसके लये ा ण को नम त करो और उनके लये आसन का ब कर लो॥ १६ ॥ ‘नगरम सब ओर पताकाएँ फहरायी जायँ तथा राजमाग पर छड़काव कराया जाय। सम तालजीवी (संगीत नपुण) पु ष और सु र वेष-भूषासे वभू षत वारा नाएँ (नत कयाँ) राजमहलक दूसरी क ा ( ौढ़ी) म प ँ चकर खड़ी रह॥ १७ १/२ ॥ ‘देव-म र म तथा चै वृ के नीचे या चौराह पर जो पूजनीय देवता ह, उ पृथक् पृथक् भ -भो पदाथ एवं द णा ुत करनी चा हये॥ १८ १/२ ॥ ‘लंबी तलवार लये और गोधाचमके बने द ाने पहने और कमर कसकर तैयार रहनेवाले शूर-वीर यो ा व धारण कये महाराजके महान् अ ुदयशाली आँ गनम वेश कर’॥ १९ १/२ ॥ सेवक को इस कार काय करनेका आदेश देकर दोन ा ण व स और वामदेवने पुरो हत ारा स ा दत होने यो या को यं पूण कया। राजाके बताये ए काय के अ त र भी जो शेष आव क कत था उसे भी उन दोन ने राजासे पूछकर यं ही स कया॥ २० १/२ ॥ तदन र महाराजके पास जाकर स ता और हषसे भरे ए वे दोन े ज बोले —‘राजन्! आपने जैसा कहा था, उसके अनुसार सब काय स हो गया’॥ २१ १/२ ॥ इसके बाद तेज ी राजा दशरथने सुम से कहा— ‘सखे! प व ा ा ीरामको तुम शी यहाँ बुला लाओ’॥ २२ १/२ ॥



तब ‘जो आ ा’ कहकर सुम गये तथा राजाके आदेशानुसार र थय म े ीरामको रथपर बठाकर ले आये॥ २३ १/२ ॥ उस राजभवनम साथ बैठे ए पूव, उ र, प म और द णके भूपाल, े , आय तथा वन और पवत म रहनेवाले अ ा मनु सब-के -सब उस समय राजा दशरथक उसी कार उपासना कर रहे थे जैसे देवता देवराज इ क ॥ २४-२५ १/२ ॥ उनके बीच अ ा लकाके भीतर बैठे ए राजा दशरथ म ण के म देवराज इ क भाँ त शोभा पा रहे थे; उ ने वह से अपने पु ीरामको अपने पास आते देखा, जो ग वराजके समान तेज ी थे, उनका पौ ष सम संसारम व ात था॥ २६-२७ ॥ उनक भुजाएँ बड़ी और बल महान् था। वे मतवाले गजराजके समान बड़ी म ीके साथ चल रहे थे। उनका मुख च मासे भी अ धक का मान् था। ीरामका दशन सबको अ य लगता था। वे अपने प और उदारता आ द गुण से लोग क और मन आक षत कर लेते थे। जैसे धूपम तपे ए ा णय को मेघ आन दान करता है, उसी कार वे सम जाको परम आ ाद देते रहते थे॥ २८-२९ ॥ आते ए ीरामच क ओर एकटक देखते ए राजा दशरथको तृ नह होती थी। सुम ने उस े रथसे ीरामच जीको उतारा और जब वे पताके समीप जाने लगे, तब सुम भी उनके पीछे-पीछे हाथ जोड़े ए गये॥ ३० १/२ ॥ वह राजमहल कै लास शखरके समान उ ल और ऊँ चा था, रघुकुलको आन त करनेवाले ीराम महाराजका दशन करनेके लये सुम के साथ सहसा उसपर चढ़ गये॥ ३१ १/२ ॥



ीराम दोन हाथ जोड़कर वनीतभावसे पताके पास गये और अपना नाम सुनाते ए उ ने उनके दोन चरण म णाम कया॥ ३२ १/२ ॥ ीरामको पास आकर हाथ जोड़ णाम करते देख राजाने उनके दोन हाथ पकड़ लये और अपने य पु को पास ख चकर छातीसे लगा लया॥ ३३ १/२ ॥ उस समय राजाने उन ीरामच जीको म णज टत सुवणसे भू षत एक परम सु र सहासनपर बैठनेक आ ा दी, जो पहलेसे उ के लये वहाँ उप त कया गया था॥ ३४ १/२ ॥



जैसे नमल सूय उदयकालम मे पवतको अपनी करण से उ ा सत कर देते ह उसी कार ीरघुनाथजी उस े आसनको हण करके अपनी ही भासे उसे का शत करने लगे॥ ३५



१/ ॥ २



उनसे का शत ◌इ वह सभा भी बड़ी शोभा पा रही थी। ठीक उसी तरह जैसे नमल ह और न से भरा आ शरत्-कालका आकाश च मासे उ ा सत हो उठता है॥ ३६ १/२ ॥ जैसे सु र वेश-भूषासे अलंकृत ए अपने ही त ब को दपणम देखकर मनु को बड़ा संतोष ा होता है, उसी कार अपने शोभाशाली य पु उन ीरामको देखकर राजा बड़े स ए॥ ३७ १/२ ॥ जैसे क प देवराज इ को पुकारते ह, उसी कार पु वान म े राजा दशरथ सहासनपर बैठे ए अपने पु ीरामको स ो धत करके उनसे इस कार बोले॥ ‘बेटा! तु ारा ज मेरी बड़ी महारानी कौस ाके गभसे आ है। तुम अपनी माताके अनु प ही उ ए हो। ीराम! तुम गुण म मुझसे भी बढ़कर हो, अत: मेरे परम य पु हो; तुमने अपने गुण से इन सम जा को स कर लया है, इस लये कल पु न के योगम युवराजका पद हण करो॥ ३९-४० १/२ ॥ ‘बेटा! य प तुम भावसे ही गुणवान् हो और तु ारे वषयम यही सबका नणय है तथा प म ेहवश स णु स होनेपर भी तु कु छ हतक बात बताता ँ । तुम और भी अ धक वनयका आ य लेकर सदा जते य बने रहो॥ ४१-४२ ॥ ‘काम और ोधसे उ होनेवाले दु सन का सवथा ाग कर दो, परो वृ से (अथात् गु चर ारा यथाथ बात का पता लगाकर) तथा वृ से (अथात् दरबारम सामने आकर कहनेवाली जनताके मुखसे उसके वृ ा को देख-सुनकर) ठीक-ठीक ाय वचारम त र रहो॥ ४३ ॥ ‘म ी, सेनाप त आ द सम अ धका रय तथा जाजन को सदा स रखना। जो राजा को ागार (भ ारगृह) तथा श ागार आ दके ारा उपयोगी व ु का ब त बड़ा सं ह करके म ी, सेनाप त और जा आ द सम कृ तय को य मानकर उ अपने त अनुर एवं स रखते ए पृ ीका पालन करता है, उसके म उसी कार आन त होते ह, जैसे अमृतको पाकर देवता स ए थे॥ ४४-४५ ॥



‘इस लये बेटा! रहो।’ राजाक



तुम अपने च को वशम रखकर इस कारके उ म आचरण का पालन करते ये बात सुनकर ीरामच जीका य करनेवाले सु द ने तुरंत माता कौस ाके पास जाकर उ यह शुभ समाचार नवेदन कया॥ ४६ १/२ ॥ ना रय म े कौस ाने वह य संवाद सुनानेवाले उन सु द को तरह-तरहके र , सुवण और गौएँ पुर ार पम द ॥ ४७ १/२ ॥ इसके बाद ीरामच जी राजाको णाम करके रथपर बैठे और जाजन से स ा नत होते ए वे अपने शोभाशाली भवनम चले गये॥ ४८ ॥ नगर नवासी मनु ने राजाक बात सुनकर मन-ही-मन यह अनुभव कया क हम शी ही अभी व ुक ा होगी, फर भी महाराजक आ ा लेकर अपने घर को गये और अ हषसे भरकर अभी - स के उपल म देवता क पूजा करने लगे॥ ४९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तीसरा सग पूरा आ॥ ३॥



चौथा सग ीरामको रा देनेका न य करके राजाका सुम ारा पुन: ीरामको बुलवाकर उ आव क बात बताना, ीरामका कौस ाके भवनम जाकर माताको यह समाचार बताना और मातासे आशीवाद पाकर ल णसे ेमपूवक वातालाप करके अपने महलम जाना



राजसभासे पुरवा सय के चले जानेपर काय स के यो देश-कालके नयमको जाननेवाले भावशाली नरेशने पुन: म य के साथ सलाह करके यह न य कया क ‘कल ही पु -न होगा, अत: कल ही मुझे अपने पु कमलनयन ीरामका युवराजके पदपर अ भषेक कर देना चा हये’॥ १-२ ॥ तदन र अ :पुरम जाकर महाराज दशरथने सूतको बुलाया और आ ा दी—‘जाओ, ीरामको एक बार फर यहाँ बुला लाओ’॥ ३ ॥ उनक आ ा शरोधाय करके सुम ीरामको शी बुला लानेके लये पुन: उनके महलम गये॥ ४ ॥ ारपाल ने ीरामको सुम के पुन: आगमनक सूचना दी। उनका आगमन सुनते ही ीरामके मनम संदेह हो गया॥ ५ ॥ उ भीतर बुलाकर ीरामने उनसे बड़ी उतावलीके साथ पूछा—‘आपको पुन: यहाँ आनेक ा आव कता पड़ी?’ यह पूण पसे बताइये॥ ६ ॥ तब सूतने उनसे कहा—‘महाराज आपसे मलना चाहते ह। मेरी इस बातको सुनकर वहाँ जाने या न जानेका नणय आप यं कर’॥ ७ ॥ सूतका यह वचन सुनकर ीरामच जी महाराज दशरथका पुन: दशन करनेके लये तुरंत उनके महलक ओर चल दये॥ ८ ॥ ीरामको आया आ सुनकर राजा दशरथने उनसे य तथा उ म बात कहनेके लये उ महलके भीतर बुला लया॥ ९ ॥ पताके भवनम वेश करते ही ीमान् रघुनाथजीने उ देखा और दूरसे ही हाथ जोड़कर वे उनके चरण म पड़ गये॥ १० ॥



णाम करते ए ीरामको उठाकर महाराजने छातीसे लगा लया और उ बैठनेके लये आसन देकर पुन: उनसे इस कार कहना आर कया—॥ ११ ॥ ‘ ीराम! अब म बूढ़ा आ। मेरी आयु ब त अ धक हो गयी। मने ब त-से मनोवा त भोग भोग लये, अ और ब त-सी द णा से यु सैकड़ य भी कर लये॥ १२ ॥ ‘पु षो म! तुम मेरे परम य अभी संतानके पम ा ए जसक इस भूम लम कह उपमा नह है, मने दान, य और ा ाय भी कर लये॥ १३ ॥ ‘वीर! मने अभी सुख का भी अनुभव कर लया। म देवता, ऋ ष, पतर और ा ण के तथा अपने ऋणसे भी उऋण हो गया॥ १४ ॥ ‘अब तु युवराज-पदपर अ भ ष करनेके सवा और को◌इ कत मेरे लये शेष नह रह गया है, अत: म तुमसे जो कु छ क ँ , मेरी उस आ ाका तु पालन करना चा हये॥ १५ ॥ ‘बेटा! अब सारी जा तु अपना राजा बनाना चाहती है, अत: म तु युवराजपदपर अ भ ष क ँ गा॥ १६ ॥ ‘रघुकुलन न ीराम! आजकल मुझे बड़े बुरे सपने दखायी देते ह। दनम व पातके साथ-साथ बड़ा भयंकर श करनेवाली उ ाएँ भी गर रही ह॥ १७ ॥ ‘ ीराम! ो त षय का कहना है क मेरे ज -न को सूय, म ल और रा नामक भयंकर ह ने आ ा कर लया है॥ १८ ॥ ‘ऐसे अशुभ ल ण का ाक होनेपर ाय: राजा घोर आप म पड़ जाता है और अ तोग ा उसक मृ ु भी हो जाती है॥ १९ ॥ ‘अत: रघुन न! जबतक मेरे च म मोह नह छा जाता, तबतक ही तुम युवराज-पदपर अपना अ भषेक करा लो; क ा णय क बु च ल होती है॥ ‘आज च मा पु से एक न पहले पुनवसुपर वराजमान ह, अत: न य ही कल वे पु न पर रहगे—ऐसा ो तषी कहते ह॥ २१ ॥ ‘इस लये उस पु न म ही तुम अपना अ भषेक करा लो। श ु को संताप देनेवाले वीर! मेरा मन इस कायम ब त शी ता करनेको कहता है। इस कारण कल अव ही म तु ारा युवराजपदपर अ भषेक कर दूँगा॥ २२ ॥



‘अत:



तुम इस समयसे लेकर सारी रात इ यसंयमपूवक रहते ए वधू सीताके साथ उपवास करो और कु शक श ापर सोओ॥ २३ ॥ ‘आज तु ारे सु द ् सावधान रहकर सब ओरसे तु ारी र ा कर; क इस कारके शुभ काय म ब त-से व आनेक स ावना रहती है॥ २४ ॥ ‘जबतक भरत इस नगरसे बाहर अपने मामाके यहाँ नवास करते ह, तबतक ही तु ारा अ भषेक हो जाना मुझे उ चत तीत होता है॥ २५ ॥ ‘इसम संदेह नह क तु ारे भा◌इ भरत स ु ष के आचार- वहारम त ह, अपने बड़े भा◌इका अनुसरण करनेवाले, धमा ा, दयालु और जते य ह तथा प मनु का च ाय: र नह रहता—ऐसा मेरा मत है। रघुन न! धमपरायण स ु ष का मन भी व भ कारण से राग- ेषा दसे संयु हो जाता है’ ॥ २६-२७ ॥ राजाके इस कार कहने और कल होनेवाले रा ा भषेकके न म तपालनके लये जानेक आ ा देनेपर ीरामच जी पताको णाम करके अपने महलम गये॥ २८ ॥ राजाने रा ा भषेकके लये तपालनके न म जो आ ा दी थी, उसे सीताको बतानेके लये अपने महलके भीतर वेश करके जब ीरामने वहाँ सीताको नह देखा, तब वे त ाल ही वहाँसे नकलकर माताके अ :पुरम चले गये॥ २९ ॥ वहाँ जाकर उ ने देखा माता कौस ा रेशमी व पहने मौन हो देवम रम बैठकर देवताक आराधनाम लगी ह और पु के लये राजल ीक याचना कर रही ह॥ ३० ॥ ीरामके रा ा भषेकका य समाचार सुनकर सु म ा और ल ण वहाँ पहलेसे ही आ गये थे तथा बादम सीता वह बुला ली गयी थ ॥ ३१ ॥ ीरामच जी जब वहाँ प ँ च,े उस समय भी कौस ा ने बंद कये ान लगाये बैठी थ और सु म ा, सीता तथा ल ण उनक सेवाम खड़े थे॥ ३२ ॥ पु न के योगम पु के युवराजपदपर अ भ ष होनेक बात सुनकर वे उसक म लकामनासे ाणायामके ारा परमपु ष नारायणका ान कर रही थ ॥ ३३ ॥ इस कार नयमम लगी ◌इ माताके नकट उसी अव ाम जाकर ीरामने उनको णाम कया और उ हष दान करते ए यह े बात कही—॥ ३४ ॥



‘माँ!



पताजीने मुझे जापालनके कमम नयु कया है। कल मेरा अ भषेक होगा। जैसा क मेरे लये पताजीका आदेश है, उसके अनुसार सीताको भी मेरे साथ इस रातम उपवास करना होगा। उपा ाय ने ऐसी ही बात बतायी थी, जसे पताजीने मुझसे कहा है॥ ‘अत: कल होनेवाले अ भषेकके न म से आज मेरे और सीताके लये जो-जो म लकाय आव क ह , वे सब कराओ’॥ ३७ ॥ चरकालसे माताके दयम जस बातक अ भलाषा थी, उसक पू तको सू चत करनेवाली यह बात सुनकर माता कौस ाने आन के आँ सू बहाते ए ग द क से इस कार कहा—॥ ३८ ॥ ‘बेटा ीराम! चर ीवी होओ। तु ारे मागम व डालनेवाले श ु न हो जायँ। तुम राजल ीसे यु होकर मेरे और सु म ाके ब -ु बा व को आन त करो॥ ‘बेटा! तुम मेरे ारा कसी म लमय न म उ ए थे, जससे तुमने अपने गुण ारा पता दशरथको स कर लया॥ ४० ॥ ‘बड़े हषक बात है क मने कमलनयन भगवान् व ुक स ताके लये जो तउपवास आ द कया था, वह आज सफल हो गया। बेटा! उसीके फलसे यह इ ाकु कु लक राजल ी तु ा होनेवाली है’॥ ४१ ॥ माताके ऐसा कहनेपर ीरामने वनीतभावसे हाथ जोड़कर खड़े ए अपने भा◌इ ल णक ओर देखकर मुसकराते ए-से कहा—॥ ४२ ॥ ‘ल ण! तुम मेरे साथ इस पृ ीके रा का शासन (पालन) करो। तुम मेरे तीय अ रा ा हो। यह राजल ी तु को ा हो रही है॥ ४३ ॥ ‘सु म ान न! तुम अभी भोग और रा के े फल का उपभोग करो। तु ारे लये ही म इस जीवन तथा रा क अ भलाषा करता ँ ’॥ ४४ ॥ ल णसे ऐसा कहकर ीरामने दोन माता को णाम कया और सीताको भी साथ चलनेक आ ा दलाकर वे उनको लये ए अपने महलम चले गये॥ ४५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौथा सग पूरा आ॥ ४॥



पाँचवाँ सग राजा दशरथके अनुरोधसे व स जीका सीतास हत ीरामको उपवास तक दी ा देकर आना और राजाको इस समाचारसे अवगत कराना; राजाका अ :पुरम वेश



उधर महाराज दशरथ जब ीरामच जीको दूसरे दन होनेवाले अ भषेकके वषयम आव क संदेश दे चुके, तब अपने पुरो हत व स जीको बुलाकर बोले—॥ १ ॥ ‘ नयमपूवक तका पालन करनेवाले तपोधन! आप जाइये और व नवारण प क ाणक स तथा रा क ा के लये ब स हत ीरामसे उपवास तका पालन कराइये’॥ २ ॥ तब राजासे ‘तथा ु’ कहकर वेदवे ा व ान म े तथा उ म तधारी यं भगवान् व स म वे ा वीर ीरामको उपवास- तक दी ा देनेके लये ा णके चढ़नेयो जुतेजुताये े रथपर आ ढ़ हो ीरामके महलक ओर चल दये॥ ३-४ ॥ ीरामका भवन ेत बादल के समान उ ल था, उसके पास प ँ चकर मु नवर व स ने उसक तीन ो ढ़य म रथके ारा ही वेश कया॥ ५ ॥ वहाँ पधारे ए उन स ाननीय मह षका स ान करनेके लये ीरामच जी बड़ी उतावलीके साथ वेगपूवक घरसे बाहर नकले॥ ६ ॥ उन मनीषी मह षके रथके समीप शी तापूवक जाकर ीरामने यं उनका हाथ पकड़कर उ रथसे नीचे उतारा॥ ७ ॥ ीराम य वचन सुननेके यो थे। उ इतना वनीत देखकर पुरो हतजीने ‘व !’ कहकर पुकारा और उ स करके उनका हष बढ़ाते ए इस कार कहा—॥ ८ ॥ ‘ ीराम! तु ारे पता तुमपर ब त स ह, क तु उनसे रा ा होगा; अत: आजक रातम तुम वधू सीताके साथ उपवास करो॥ ९ ॥ ‘रघुन न! जैसे न षने यया तका अ भषेक कया था, उसी कार तु ारे पता महाराज दशरथ कल ात:काल बड़े ेमसे तु ारा युवराज-पदपर अ भषेक करगे’॥ १० ॥ ऐसा कहकर उन तधारी एवं प व मह षने म ो ारणपूवक सीतास हत ीरामको उस समय उपवास- तक दी ा दी॥ ११ ॥



तदन र ीरामच जीने महाराजके भी गु व स का यथावत् पूजन कया; फर वे मु न ीरामक अनुम त ले उनके महलसे बाहर नकले॥ १२ ॥ ीराम भी वहाँ यवचन बोलनेवाले सु द के साथ कु छ देरतक बैठे रहे; फर उनसे स ा नत हो उन सबक अनुम त ले पुन: अपने महलके भीतर चले गये॥ १३ ॥ उस समय ीरामका भवन हष ु नरना र य से भरा आ था और मतवाले प य के कलरव से यु खले ए कमलवाले तालाबके समान शोभा पा रहा था॥ १४ ॥ राजभवन म े ीरामके महलसे बाहर आकर व स जीने सारे माग मनु क भीड़से भरे ए देखे॥ १५ ॥ अयो ाक सड़क पर सब ओर ंडु -के - ंडु मनु , जो ीरामका रा ा भषेक देखनेके लये उ ुक थे, खचाखच भरे ए थे; सारे राजमाग उनसे घरे ए थे॥ जनसमुदाय पी लहर के पर र टकरानेसे उस समय जो हष न कट होती थी, उससे ा आ राजमागका कोलाहल समु क गजनाक भाँ त सुनायी देता था॥ १७ ॥ उस दन वन और उपवन क पं य से सुशो भत ◌इ अयो ापुरीके घर-घरम ऊँ चीऊँ ची जाएँ फहरा रही थ ; वहाँक सभी ग लय और सड़क को झाड़-बुहारकर वहाँ छड़काव कया गया था॥ १८ ॥ य और बालक स हत अयो ावासी जनसमुदाय ीरामके रा ा भषेकको देखनेक इ ासे उस समय शी सूय दय होनेक कामना कर रहा था॥ १९ ॥ अयो ाका वह महान् उ व जा के लये अलंकार प और सब लोग के आन को बढ़ानेवाला था; वहाँके सभी मनु उसे देखनेके लये उ त हो रहे थे॥ २० ॥ इस कार मनु क भीड़से भरे ए राजमागपर प ँ चकर पुरो हतजी उस जनसमूहको एक ओर करते ए-से धीरे-धीरे राजमहलक ओर गये॥ २१ ॥ ेत जलद-ख के समान सुशो भत होनेवाले महलके ऊपर चढ़कर व स जी राजा दशरथसे उसी कार मले, जैसे बृह त देवराज इ से मल रहे ह ॥ २२ ॥ उ आया देख राजा सहासन छोड़कर खड़े हो गये और पूछने लगे—‘मुन!े ा आपने मेरा अ भ ाय स कया।’ व स जीने उ र दया— ‘हाँ! कर दया’॥ २३ ॥



उनके साथ ही उस समय वहाँ बैठे ए अ सभासद् भी पुरो हतका समादर करते ए अपने-अपने आसन से उठकर खड़े हो गये॥ २४ ॥ तदन र गु जीक आ ा ले राजा दशरथने उस जनसमुदायको वदा करके पवतक क राम घुसनेवाले सहके समान अपने अ :पुरम वेश कया॥ २५ ॥ सु र वेश-भूषा धारण करनेवाली सु रय से भरे ए इ सदनके समान उस मनोहर राजभवनको अपनी शोभासे का शत करते ए राजा दशरथने उसके भीतर उसी कार वेश कया, जैसे च मा तारा से भरे ए आकाशम पदापण करते ह॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पाँचवाँ सग पूरा आ॥ ५॥



छठा सग सीतास हत ीरामका नयमपरायण होना, हषम भरे पुरवा सय ारा नगरक सजावट, राजाके त कृत ता कट करना तथा अयो ापुरीम जनपदवासी मनु क भीड़का एक होना



पुरो हतजीके चले जानेपर मनको संयमम रखनेवाले ीरामने ान करके अपनी वशाललोचना प ीके साथ ीनारायणक * उपासना आर क ॥ १ ॥ उ ने ह व -पा को सर कु ाकर नम ार कया और लत अ म महान् देवता (शेषशायी नारायण) क स ताके लये व धपूवक उस ह व क आ त दी॥ २ ॥ त ात् अपने य मनोरथक स का संक लेकर उ ने उस य शेष ह व का भ ण कया और मनको संयमम रखकर मौन हो वे राजकु मार ीराम वदेहन नी सीताके साथ भगवान् व ुके सु र म रम ीनारायणदेवका ान करते ए वहाँ अ ी तरह बछी ◌इ कु शक चटा◌इपर सोये॥ ३-४ ॥ जब तीन पहर बीतकर एक ही पहर रात शेष रह गयी, तब वे शयनसे उठ बैठे। उस समय उ ने सभाम पको सजानेके लये सेवक को आ ा दी॥ ५ ॥ वहाँ सूत, मागध और बं दय क वणसुखद वाणी सुनते ए ीरामने ात:का लक सं ोपासना क ; फर एका च होकर वे जप करने लगे॥ ६ ॥ तदन र रेशमी व धारण कये ए ीरामने म क कु ाकर भगवान् मधुसूदनको णाम और उनका वन कया; इसके बाद ा ण से वाचन कराया॥ ७ ॥ उन ा ण का पु ाहवाचनस ी ग ीर एवं मधुर घोष नाना कारके वा क नसे ा होकर सारी अयो ापुरीम फै ल गया॥ ८ ॥ उस समय अयो ावासी मनु ने जब यह सुना क ीरामच जीने सीताके साथ उपवास- त आर कर दया है, तब उन सबको बड़ी स ता ◌इ॥ ९ ॥ सबेरा होनेपर ीरामके रा ा भषेकका समाचार सुनकर सम पुरवासी अयो ापुरीको सजानेम लग गये॥ १० ॥



जनके शखर पर ेत बादल व ाम करते ह, उन पवत के समान गगनचु ी देवम र , चौराह , ग लय , देववृ , सम सभा , अ ा लका , नाना कारक बेचनेयो व ु से भरी ◌इ ापा रय क बड़ी-बड़ी दूकान तथा कु टु ी गृह के सु र समृ शाली भवन म और दूरसे दखायी देनेवाले वृ पर भी ऊँ ची जाएँ लगायी गय और उनम पताकाएँ फहरायी गय ॥ ११—१३ ॥ उस समय वहाँक जनता सब ओर नट और नतक के समूह तथा गानेवाले गायक क मन और कान को सुख देनेवाली वाणी सुनती थी॥ १४ ॥ ीरामके रा ा भषेकका शुभ अवसर ा होनेपर ाय: सब लोग चौराह पर और घर म भी आपसम ीरामके रा ा भषेकक ही चचा करते थे॥ १५ ॥ घर के दरवाज पर खेलते ए ंडु -के - ंडु बालक भी आपसम ीरामके रा ा भषेकक ही बात करते थे॥ १६ ॥ पुरवा सय ने ीरामके रा ा भषेकके समय राजमागपर फू ल क भट चढ़ाकर वहाँ सब ओर धूपक सुग फै ला दी; ऐसा करके उ ने राजमागको ब त सु र बना दया॥ १७ ॥ रा ा भषेक होते-होते रात हो जानेक आश ासे काशक व ा करनेके लये पुरवा सय ने सब ओर सड़क के दोन तरफ वृ क भाँ त अनेक शाखा से यु दीप खड़े कर दये॥ १८ ॥ इस कार नगरको सजाकर ीरामके युवराजपदपर अ भषेकक अ भलाषा रखनेवाले सम पुरवासी चौराह और सभा म ंडु -के - ंडु एक हो वहाँ पर र बात करते ए महाराज दशरथक शंसा करने लगे—॥ ‘अहो! इ ाकु कु लको आन त करनेवाले ये राजा दशरथ बड़े महा ा ह, जो क अपनेआपको बूढ़ा आ जानकर ीरामका रा ा भषेक करने जा रहे ह॥ २१ ॥ ‘भगवा ा हम सब लोग पर बड़ा अनु ह है क ीरामच जी हमारे राजा ह गे और चरकालतक हमारी र ा करते रहगे; क वे सम लोक के नवा सय म जो भला◌इ या बुरा◌इ है, उसे अ ी तरह देख चुके ह॥ २२ ॥ ‘ ीरामका मन कभी उ त नह होता। वे व ान्, धमा ा और अपने भाइय पर ेह रखनेवाले ह। उनका अपने भाइय पर जैसा ेह है, वैसा ही हमलोग पर भी है॥ २३ ॥



‘धमा



ा एवं न ाप राजा दशरथ चरकालतक जी वत रह, जनके सादसे हम ीरामके रा ा भषेकका दशन सुलभ होगा’॥ २४ ॥ अ भषेकका वृ ा सुनकर नाना दशा से उस जनपदके लोग भी वहाँ प ँ चे थे, उ ने उपयु बात कहनेवाले पुरवा सय क सभी बात सुन ॥ २५ ॥ वे सब-के -सब ीरामका रा ा भषेक देखनेके लये अनेक दशा से अयो ापुरीम आये थे। उन जनपद नवासी मनु ने ीरामपुरीको अपनी उप तसे भर दया था॥ २६ ॥ वहाँ मनु क भीड़-भाड़ बढ़नेसे जो जनरव सुनायी देता था, वह पव के दन बढ़े ए वेगवाले महासागरक गजनाके समान जान पड़ता था॥ २७ ॥ उस समय ीरामके अ भषेकका उ व देखनेके लये पधारे ए जनपदवासी मनु ारा सब ओरसे भरा आ वह इ पुरीके समान नगर अ कोलाहलपूण होनेके कारण मकर, न , त म ल आ द वशाल जल-ज ु से प रपूण महासागरके समान तीत होता था॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छठा सग पूरा आ॥ ६॥ ऐसा माना जाता है क यहाँ नारायण श से ीर नाथजीक वह अचा-मू त अ भ ेत है; जो क पूवज के समयसे ही दीघकालतक अयो ाम उपा देवताके पम रही। बादम ीरामजीने वह मू त वभीषणको दे दी थी, जससे वह वतमान ीरंग े म प ँ ची। इसक व ृत कथा प पुराणम है। *



सातवाँ सग ीरामके अ भषेकका समाचार पाकर ख ◌इ म राका कैकेयीको उभाड़ना, परंतु स ◌इ कैकेयीका उसे पुर ार पम आभूषण देना और वर माँगनेके लये े रत करना



रानी कै के यीके पास एक दासी थी, जो उसके मायके से आयी ◌इ थी। वह सदा कै के यीके ही साथ रहा करती थी। उसका ज कहाँ आ था? उसके देश और माता- पता कौन थे? इसका पता कसीको नह था। अ भषेकसे एक दन पहले वह े ासे ही कै के यीके च माके समान का मान् महलक छतपर जा चढ़ी॥ १ ॥ उस दासीका नाम था—म रा। उसने उस महलक छतसे देखा—अयो ाक सड़क पर छड़काव कया गया है और सारी पुरीम य -त खले ए कमल और उ ल बखेरे गये ह॥ २ ॥



सब ओर ब मू पताकाएँ फहरा रही ह। जा से इस पुरीक अपूव शोभा हो रही है। राजमाग पर च न म त जलका छड़काव कया गया है तथा अयो ापुरीके सब लोग उबटन लगाकर सरके ऊपरसे ान कये ए ह॥ ३ ॥ ीरामके दये ए मा और मोदक हाथम लये े ा ण हषनाद कर रहे ह, देवम र के दरवाजे चूने और च न आ दसे लीपकर सफे द एवं सु र बनाये गये ह, सब कारके बाज क मनोहर न हो रही है, अ हषम भरे ए मनु से सारा नगर प रपूण है और चार ओर वेदपाठक क न गूँज रही है, े हाथी और घोड़े हषसे उ ु दखायी देते ह तथा गाय-बैल स होकर रँभा रहे ह॥ ४-५ ॥ सारे नगर नवासी हषज नत रोमा से यु और आन म ह तथा नगरम सब ओर ेणीब ऊँ चे-ऊँ चे ज फहरा रहे ह। अयो ाक ऐसी शोभाको देखकर म राको बड़ा आ य आ॥ ६ ॥ उसने पासके ही कोठे पर रामक धायको खड़ी देखा, उसके ने स तासे खले ए थे और शरीरपर पीले रंगक रेशमी साड़ी शोभा पा रही थी। उसे देखकर म राने उससे पूछा—॥ ७॥ ‘धाय! आज ीरामच जीक माता अपने कसी अभी मनोरथके साधनम त र हो अ हषम भरकर लोग को धन बाँट रही ह? आज यहाँके सभी मनु को इतनी अ धक



स ता है? इसका कारण मुझे बताओ! आज महाराज दशरथ अ स होकर कौनसा कम करायगे’॥ ८-९ ॥ ीरामक धाय तो हषसे फू ली नह समाती थी, उसने कु ाके पूछनेपर बड़े आन के साथ उसे बताया—‘कु े! रघुनाथजीको ब त बड़ी स ा होनेवाली है। कल महाराज दशरथ पु न के योगम ोधको जीतनेवाले, पापर हत, रघुकुलन न ीरामको युवराजके पदपर अ भ ष करगे’॥ १०-११ ॥ धायका यह वचन सुनकर कु ा मन-ही-मन कु ढ़ गयी और उस कै लास- शखरक भाँ त उ ल एवं गगनचु ी ासादसे तुरंत ही नीचे उतर गयी॥ १२ ॥ म राको इसम कै के यीका अ न दखायी देता था, वह ोधसे जल रही थी। उसने महलम लेटी ◌इ कै के यीके पास जाकर इस कार कहा—॥ १३ ॥ ‘मूख! उठ। ा सो रही है? तुझपर बड़ा भारी भय आ रहा है। अरी! तेरे ऊपर वप का पहाड़ टूट पड़ा है, फर भी तुझे अपनी इस दुरव ाका बोध नह होता?’॥ १४ ॥ ‘तेरे यतम तेरे सामने ऐसा आकार बनाये आते ह मानो सारा सौभा तुझे ही अ पत कर देते ह , परंतु पीठ-पीछे वे तेरा अ न करते ह। तू उ अपनेम अनुर जानकर सौभा क ड ग हाँका करती है, परंतु जैसे ी ऋतुम नदीका वाह सूखता चला जाता है, उसी कार तेरा वह सौभा अब अ र हो गया है— तेरे हाथसे चला जाना चाहता है!’॥ १५ ॥ इ म भी अ न का दशन करानेवाली रोषभरी कु ाके इस कार कठोर वचन कहनेपर कै के यीके मनम बड़ा दु:ख आ॥ १६ ॥ उस समय के कयराजकु मारीने कु ासे पूछा— ‘म रे! को◌इ अम लक बात तो नह हो गयी; क तेरे मुखपर वषाद छा रहा है और तू मुझे ब त दु:खी दखायी देती है’॥ १७ ॥



म रा बातचीत करनेम बड़ी कु शल थी, वह कै के यीके मीठे वचन सुनकर और भी ख हो गयी, उसके त अपनी हतै षता कट करती ◌इ कु पत हो उठी और कै के यीके मनम ीरामके त भेदभाव और वषाद उ करती ◌इ इस कार बोली—॥ ‘दे व! तु ारे सौभा के महान् वनाशका काय आर हो गया है, जसका को◌इ तीकार नह है। कल महाराज दशरथ ीरामको युवराजके पदपर अ भ ष कर दगे॥ २० ॥



‘यह



समाचार पाकर म दु:ख और शोकसे ाकु ल हो अगाध भयके समु म डू ब गयी ँ , च ाक आगसे मानो जली जा रही ँ और तु ारे हतक बात बतानेके लये यहाँ आयी ँ ’॥ २१ ॥ ‘के कयन न! य द तुमपर को◌इ दु:ख आया तो उससे मुझे भी बड़े भारी दु:खम पड़ना होगा। तु ारी उ तम ही मेरी भी उ त है, इसम संशय नह है॥ २२ ॥ ‘दे व! तुम राजा के कु लम उ ◌इ हो और एक महाराजक महारानी हो, फर भी राजधम क उ ताको कै से नह समझ रही हो?॥ २३ ॥ ‘तु ारे ामी धमक बात तो ब त करते ह, परंतु ह बड़े शठ। मुँहसे चकनी-चुपड़ी बात करते ह, परंतु दयके बड़े ू र ह। तुम समझती हो क वे सारी बात शु भावसे ही कहते ह, इसी लये आज उनके ारा तुम बेतरह ठगी गयी॥ २४ ॥ ‘तु ारे प त तु थ सा ना देनेके लये यहाँ उप त होते ह, वे ही अब रानी कौस ाको अथसे स करने जा रहे ह॥ २५ ॥ ‘उनका दय इतना दू षत है क भरतको तो उ ने तु ारे मायके भेज दया और कल सबेरे ही अवधके न क रा पर वे ीरामका अ भषेक करगे॥ २६ ॥ ‘बाले! जैसे माता हतक कामनासे पु का पोषण करती है, उसी कार ‘प त’ कहलानेवाले जस का तुमने पोषण कया है, वह वा वम श ु नकला। जैसे को◌इ अ ानवश सपको अपनी गोदम लेकर उसका लालन करे, उसी कार तुमने उन सपवत् बताव करनेवाले महाराजको अपने अ म ान दया है॥ २७ ॥ ‘उपे त श ु अथवा सप जैसा बताव कर सकता है, राजा दशरथने आज पु स हत तुझ कै के यीके त वैसा ही बताव कया है॥ २८ ॥ ‘बाले! तुम सदा सुख भोगनेके यो हो, परंतु मनम पाप (दुभावना) रखकर ऊपरसे झूठी सा ना देनेवाले महाराजने अपने रा पर ीरामको ा पत करनेका वचार करके आज सगेस य स हत तुमको मानो मौतके मुखम डाल दया है॥ २९ ॥ ‘के कयराजकु मारी! तुम दु:खजनक बात सुनकर भी मेरी ओर इस तरह देख रही हो, मानो तु स ता ◌इ हो और मेरी बात से तु व य हो रहा हो, परंतु यह व य छोड़ो और जसे करनेका समय आ गया है, अपने उस हतकर कायको शी करो तथा ऐसा करके अपनी, अपने पु क और मेरी भी र ा करो’॥ ३० ॥



म राक यह बात सुनकर सु र मुखवाली कै के यी सहसा श ासे उठ बैठी। उसका दय हषसे भर गया। वह शर ू णमाके च म लक भाँ त उ ी हो उठी॥ ३१ ॥ कै के यी मन-ही-मन अ संतु ◌इ। व य वमु हो मुसकराते ए उसने कु ाको पुर ारके पम एक ब त सु र द आभूषण दान कया॥ ३२ ॥ कु ाको वह आभूषण देकर हषसे भरी ◌इ रमणी शरोम ण कै के यीने पुन: म रासे इस कार कहा— ‘म रे! यह तूने मुझे बड़ा ही य समाचार सुनाया। तूने मेरे लये जो यह य संवाद सुनाया, इसके लये म तेरा और कौन-सा उपकार क ँ ॥ ३३-३४ ॥ ‘म भी राम और भरतम को◌इ भेद नह समझती। अत: यह जानकर क राजा ीरामका अ भषेक करनेवाले ह, मुझे बड़ी खुशी ◌इ है॥ ३५ ॥ ‘म रे! तू मुझसे य व ु पानेके यो है। मेरे लये ीरामके अ भषेकस ी इस समाचारसे बढ़कर दूसरा को◌इ य एवं अमृतके समान मधुर वचन नह कहा जा सकता। ऐसी परम य बात तुमने कही है; अत: अब यह य संवाद सुनानेके बाद तू को◌इ े वर माँग ले, म उसे अव दूँगी’॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सातवाँ सग पूरा आ॥ ७॥



आठवाँ सग म राका पुन: ीरामके रा ा भषेकको कैकेयीके लये अ न कारी बताना, कैकेयीका ीरामके गुण को बताकर उनके अ भषेकका समथन करना त ात् कु ाका पुन: ीरामरा को भरतके लये भयजनक बताकर कैकेयीको भड़काना



यह सुनकर म राने कै के यीक न ा करके उसके दये ए आभूषणको उठाकर फ क दया और कोप तथा दु:खसे भरकर वह इस कार बोली—॥ १ ॥ ‘रानी! तुम बड़ी नादान हो। अहो! तुमने यह बेमौके हष कस लये कट कया? तु शोकके ानपर स ता कै से हो रही है? अरी! तुम शोकके समु म डू बी ◌इ हो, तो भी तु अपनी इस वप ाव ाका बोध नह हो रहा है॥ २ ॥ ‘दे व! महान् संकटम पड़नेपर जहाँ तु शोक होना चा हये, वह हष हो रहा है। तु ारी यह अव ा देखकर मुझे मन-ही-मन बड़ा ेश सहन करना पड़ता है। म दु:खसे ाकु ल ◌इ जाती ँ ॥ ३ ॥ ‘मुझे तु ारी दुबु के लये ही अ धक शोक होता है। अरी! सौतका बेटा श ु होता है। वह सौतेली माँके लये सा ात् मृ ुके समान है। भला, उसके अ ुदयका अवसर आया देख कौन बु मती ी अपने मनम हष मानेगी॥ ४ ॥ ‘यह रा भरत और राम दोन के लये साधारण भो व ु है, इसपर दोन का समान अ धकार है, इस लये ीरामको भरतसे ही भय है। यही सोचकर म वषादम डू बी जाती ँ ; क भयभीतसे ही भय ा होता है अथात् आज जसे भय है, वही रा ा कर लेनेपर जब सबल हो जायगा, तब अपने भयके हेतुको उखाड़ फ के गा॥ ५ ॥ ‘महाबा ल ण स ूण दयसे ीरामच जीके अनुगत ह। जैसे ल ण ीरामके अनुगत ह, उसी तरह श ु भी भरतका अनुसरण करनेवाले ह॥ ६ ॥ ‘भा म न! उ के मसे ीरामके बाद भरतका ही पहले रा पर अ धकार हो सकता है (अत: भरतसे भय होना ाभा वक है)। ल ण और श ु तो छोटे ह; अत: उनके लये रा ा क स ावना दूर है॥ ‘ ीराम सम शा के ाता ह, वशेषत: यच र (राजनी त) के प त ह तथा समयो चत कत का पालन करनेवाले ह; अत: उनका तु ारे पु के त जो ू रतापूण बताव



होगा, उसे सोचकर म भयसे काँप उठती ँ ॥ ८ ॥ ‘वा वम कौस ा ही सौभा वती ह, जनके पु का कल पु न के योगम े ा ण ारा युवराजके महान् पदपर अ भषेक होने जा रहा है॥ ९ ॥ ‘वे भूम लका न क रा पाकर स ह गी; क वे राजाक व ासपा ह और तुम दासीक भाँ त हाथ जोड़कर उनक सेवाम उप त होओगी॥ १० ॥ ‘इस कार हमलोग के साथ तुम भी कौस ाक दासी बनोगी और तु ारे पु भरतको भी ीरामच जीक गुलामी करनी पड़ेगी॥ ११ ॥ ‘ ीरामच जीके अ :पुरक परम सु री याँ— सीतादेवी और उनक स खयाँ न य ही ब त स ह गी और भरतके भु का नाश होनेसे तु ारी ब एँ शोकम हो जायँगी’॥ १२ ॥ म राको अ अ स ताके कारण इस कार बहक -बहक बात करती देख देवी कै के यीने ीरामके गुण क ही शंसा करते ए कहा—॥ १३ ॥ ‘कु े! ीराम धमके ाता, गुणवान्, जते य, कृ त , स वादी और प व होनेके साथ ही महाराजके े पु ह; अत: युवराज होनेके यो वे ही ह॥ ‘वे दीघजीवी होकर अपने भाइय और भृ का पताक भाँ त पालन करगे। कु े! उनके अ भषेकक बात सुनकर तू इतनी जल रही है?॥ १५ ॥ ‘ ीरामक रा ा के सौ वष बाद नर े भरतको भी न य ही अपने पतापतामह का रा मलेगा॥ १६ ॥ ‘म रे! ऐसे अ ुदयक ा के समय, जब क भ व म क ाण-ही-क ाण दखायी दे रहा है, तू इस कार जलती ◌इ-सी संत हो रही है?॥ १७ ॥ ‘मेरे लये जैसे भरत आदरके पा ह, वैसे ही ब उनसे भी बढ़कर ीराम ह; क वे कौस ासे भी बढ़कर मेरी ब त सेवा कया करते ह॥ १८ ॥ ‘य द ीरामको रा मल रहा है तो उसे भरतको मला आ समझ; क ीरामच अपने भाइय को भी अपने ही समान समझते ह’॥ १९ ॥ कै के यीक यह बात सुनकर म राको बड़ा दु:ख आ। वह लंबी और गरम साँस ख चकर कै के यीसे बोली—॥ २० ॥



‘रानी! तुम मूखतावश अनथको ही अथ समझ रही हो। तु अपनी तुम दु:खके उस महासागरम डू ब रही हो, जो शोक (इ से वयोगक



तका पता नह च ा) और सन



है। (अ न क ा के दु:ख) से महान् व ारको ा हो रहा है॥ २१ ॥ ‘के कयराजकु मारी! जब ीरामच राजा हो जायँग,े तब उनके बाद उनका जो पु होगा, उसीको रा मलेगा। भरत तो राजपर रासे अलग हो जायँगे॥ २२ ॥ ‘भा म न! राजाके सभी पु रा सहासनपर नह बैठते ह; य द सबको बठा दया जाय तो बड़ा भारी अनथ हो जाय॥ २३ ॥ ‘परमसु री के कयन न! इसी लये राजालोग राजकाजका भार े पु पर ही रखते ह। य द े पु गुणवान् न हो तो दूसरे गुणवान् पु को भी रा स प देते ह॥ २४ ॥ ‘पु व ले! तु ारा पु रा के अ धकारसे तो ब त दूर हटा ही दया जायगा, वह अनाथक भाँ त सम सुख से भी व त हो जायगा॥ २५ ॥ ‘इस लये म तु ारे ही हतक बात सुझानेके लये यहाँ आयी ँ ; परंतु तुम मेरा अ भ ाय तो समझती नह , उलटे सौतका अ ुदय सुनकर मुझे पा रतो षक देने चली हो॥ २६ ॥ ‘याद रखो, य द ीरामको न क रा मल गया तो वे भरतको अव ही इस देशसे बाहर नकाल दगे अथवा उ परलोकम भी प ँ चा सकते ह॥ २७ ॥ ‘छोटी अव ाम ही तुमने भरतको मामाके घर भेज दया। नकट रहनेसे सौहाद उ होता है। यह बात ावर यो नय म भी देखी जाती है (लता और वृ आ द एक-दूसरेके नकट होनेपर पर र आ ल न-पाशम ब हो जाते ह। य द भरत यहाँ होते तो राजाका उनम भी समान पसे ेह बढ़ता; अत: वे उ भी आधा रा दे देत)े ॥ २८ ॥ ‘भरतके अनुरोधसे श ु भी उनके साथ ही चले गये (य द वे यहाँ होते तो भरतका काम बगड़ने नह पाता। क—) जैसे ल ण रामके अनुगामी ह, उसी कार श ु भरतका अनुसरण करनेवाले ह॥ २९ ॥ ‘सुना जाता है, जंगलक लकड़ी बेचकर जी वका चलानेवाले कु छ लोग ने कसी वृ को काटनेका न य कया, परंतु वह वृ कँ टीली झा ड़य से घरा आ था; इस लये वे उसे काट नह सके । इस कार उन कँ टीली झा ड़य ने नकट रहनेके कारण उस वृ को महान् भयसे बचा लया॥ ३० ॥



‘सु म



ाकु मार ल ण ीरामक र ा करते ह और ीराम उनक । उन दोन का उ म ातृ- ेम दोन अ नीकु मार क भाँ त तीन लोक म स है॥ ३१ ॥ ‘इस लये ीराम ल णका तो क त् भी अ न नह करगे, परंतु भरतका अ न कये बना वे रह नह सकते; इसम संशय नह है॥ ३२ ॥ ‘अत: ीरामच महाराजके महलसे ही सीधे वनको चले जायँ—मुझे तो यही अ ा जान पड़ता है और इसीम तु ारा परम हत है॥ ३३ ॥ ‘य द भरत धमानुसार अपने पताका रा ा कर लगे तो तु ारा और तु ारे प के अ सब लोग का भी क ाण होगा॥ ३४ ॥ ‘सौतेला भा◌इ होनेके कारण जो ीरामका सहज श ु है, वह सुख भोगनेके यो तु ारा बालक भरत रा और धनसे व त हो रा पाकर समृ शाली बने ए ीरामके वशम पड़कर कै से जी वत रहेगा॥ ३५ ॥ ‘जैसे वनम सह हा थय के यूथप तपर आ मण करता है और वह भागा फरता है, उसी कार राजा राम भरतका तर ार करगे; अत: उस तर ारसे तुम भरतक र ा करो॥ ३६ ॥ ‘तुमने पहले प तका अ ेम ा होनेके कारण घमंडम आकर जनका अनादर कया था, वे ही तु ारी सौत ीराममाता कौस ा पु क रा ा से परम सौभा शा लनी हो उठी ह; अब वे तुमसे अपने वैरका बदला नह लगी॥ ३७ ॥ ‘भा म न! जब ीराम अनेक समु और पवत से यु सम भूम लका रा ा कर लगे, तब तुम अपने पु भरतके साथ ही दीन-हीन होकर अशुभ पराभवका पा बन जाओगी॥ ३८ ॥ ‘याद रखो, जब ीराम इस पृ ीपर अ धकार ा कर लगे, तब न य ही तु ारे पु भरत न ाय हो जायँगे। अत: ऐसा को◌इ उपाय सोचो, जससे तु ारे पु को तो रा मले और श ुभूत ीरामका वनवास हो जाय’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म आठवाँ सग पूरा आ॥ ८॥



नवाँ सग कु



ाके कुच से कैकेयीका कोपभवनम वेश



म राके ऐसा कहनेपर कै के यीका मुख ोधसे तमतमा उठा। वह लंबी और गरम साँस ख चकर उससे इस कार बोली—॥ १ ॥ ‘कु े! म ीरामको शी ही यहाँसे वनम भेजूँगी और तुरंत ही युवराजके पदपर भरतका अ भषेक कराऊँ गी॥ २ ॥ ‘परंतु इस समय यह तो सोचो क कस उपायसे अपना अभी साधन क ँ ? भरतको रा ा हो जाय और ीराम उसे कसी तरह भी न पा सक— यह काम कै से बने?’॥ ३ ॥ देवी कै के यीके ऐसा कहनेपर पापका माग दखानेवाली म रा ीरामके ाथपर कु ठाराघात करती ◌इ वहाँ कै के यीसे इस कार बोली—॥ ४ ॥ ‘के कयन न! अ ा, अब देखो क म ा करती ँ ? तुम मेरी बात सुनो, जससे के वल तु ारे पु भरत ही रा ा करगे ( ीराम नह )॥ ५ ॥ ‘कै के य! ा तु रण नह है? या रण होनेपर भी मुझसे छपा रही हो? जसक तुम मुझसे अनेक बार चचा करती रहती हो, अपने उसी योजनको तुम मुझसे सुनना चाहती हो? इसका ा कारण है?॥ ‘ वला स न! य द मेरे ही मुँहसे सुननेके लये तु ारा आ ह है तो बताती ँ , सुनो और सुनकर इसीके अनुसार काय करो’॥ ७ ॥ म राका यह वचन सुनकर कै के यी अ ी तरहसे बछे ए उस पलंगसे कु छ उठकर उससे य बोली—॥ ८ ॥ म रे! मुझसे वह उपाय बताओ। कस उपायसे भरतको तो रा मल जायगा, कतु ीराम उसे कसी तरह नह पा सकगे’॥ ९ ॥ देवी कै के यीके ऐसा कहनेपर पापका माग दखानेवाली म रा ीरामके ाथपर कु ठाराघात करती ◌इ उस समय कै के यीसे इस कार बोली—॥ १० ॥ ‘दे व! पूवकालक बात है क देवासुर-सं ामके अवसरपर राज षय के साथ तु ारे प तदेव तु साथ लेकर देवराजक सहायता करनेके लये गये थे॥ ११ ॥



‘के कयराजकु मारी! द है, जहाँ श र नामसे



ण दशाम द कार के भीतर वैजय नामसे व ात एक नगर स एक महान् असुर रहता था। वह अपनी जाम त म ( ले मछली) का च धारण करता था और सैकड़ माया का जानकार था। देवता के समूह भी उसे परा जत नह कर पाते थे। एक बार उसने इ के साथ यु छेड़ दया॥ १२-१३ ॥ ‘उस महान् सं ामम त- व त ए पु ष जब रातम थककर सो जाते, उस समय रा स उ उनके ब रसे ख च ले जाते और मार डालते थे॥ १४ ॥ ‘उन दन महाबा राजा दशरथने भी वहाँ असुर के साथ बड़ा भारी यु कया। उस यु म असुर ने अपने अ -श ारा उनके शरीरको जजर कर दया॥ १५ ॥ ‘दे व! जब राजाक चेतना लु -सी हो गयी, उस समय सार थका काम करती ◌इ तुमने अपने प तको रणभू मसे दूर हटाकर उनक र ा क । जब वहाँ भी रा स के श से वे घायल हो गये, तब तुमने पुन: वहाँसे अ ले जाकर उनक र ा क ॥ १६ ॥ ‘शुभदशने! इससे संतु होकर महाराजने तु दो वरदान देनेको कहा—दे व! उस समय तुमने अपने प तसे कहा—‘ ाणनाथ! जब मेरी इ ा होगी, तब म इन वर को माँग लूँगी।’ उस समय उन महा ा नरेशने ‘तथा ’ु कहकर तु ारी बात मान ली थी। दे व! म इस कथाको नह जानती थी। पूवकालम तु ने मुझसे यह वृ ा कहा था॥ १७-१८ ॥ ‘तबसे तु ारे ेहवश म इस बातको मन-ही-मन सदा याद रखती आयी ँ । तुम इन वर के भावसे ामीको वशम करके ीरामके अ भषेकके आयोजनको पलट दो॥ १९ ॥ ‘तुम उन दोन वर को अपने ामीसे माँगो। एक वरके ारा भरतका रा ा भषेक और दूसरेके ारा ीरामका चौदह वषतकका वनवास माँग लो॥ २० ॥ ‘जब ीराम चौदह वष के लये वनम चले जायँगे।’ तब उतने समयम तु ारे पु भरत सम जाके दयम अपने लये ेह पैदा कर लगे और इस रा पर र हो जायँगे॥ २१ ॥ ‘अ प तकु मारी! तुम इस समय मैले व पहन लो और कोपभवनम वेश करके कु पतसी होकर बना ब रके ही भू मपर लेट जाओ॥ २२ ॥ ‘राजा आव तो उनक ओर आँ ख उठाकर न देखो और न उनसे को◌इ बात ही करो। महाराजको देखते ही रोती ◌इ शोकम हो धरतीपर लोटने लगो॥ २३ ॥



‘इसम



त नक भी संदेह नह क तुम अपने प तको सदा ही बड़ी ारी रही हो। तु ारे लये महाराज आगम भी वेश कर सकते ह॥ २४ ॥ ‘वे न तो तु कु पत कर सकते ह और न कु पत अव ाम तु देख ही सकते ह। राजा दशरथ तु ारा य करनेके लये अपने ाण का भी ाग कर सकते ह॥ २५ ॥ ‘महाराज तु ारी बात कसी तरह टाल नह सकते। मु े! तुम अपने सौभा के बलका रण करो॥ २६ ॥ ‘राजा दशरथ तु भुलावेम डालनेके लये म ण, मोती, सुवण तथा भाँ त-भाँ तके र देनेक चे ा करगे; कतु तुम उनक ओर मन न चलाना॥ २७ ॥ ‘महाभागे! देवासुर-सं ामके अवसरपर राजा दशरथने वे जो दो वर दये थे, उनका उ रण दलाना। वरदानके पम माँगा गया वह तु ारा अभी मनोरथ स ए बना नह रह सकता॥ २८ ॥ ‘रघुकुलन न राजा दशरथ जब यं तु धरतीसे उठाकर वर देनेको उ त हो जायँ, तब उन महाराजको स क शपथ दलाकर खूब प ा करके उनसे वर माँगना॥ २९ ॥ ‘वर माँगते समय कहना क नृप े ! आप ीरामको चौदह वष के लये ब त दूर वनम भेज दी जये और भरतको भूम लका राजा बनाइये॥ ३० ॥ ‘ ीरामके चौदह वष के लये वनम चले जानेपर तु ारे पु भरतका रा सु ढ़ हो जायगा और जा आ दको वशम कर लेनेसे यहाँ उनक जड़ जम जायगी। फर चौदह वष के बाद भी वे आजीवन र बने रहगे॥ ३१ ॥ ‘दे व! तुम राजासे ीरामके वनवासका वर अव माँगो। पु के लये रा क कामना करनेवाली कै के य! ऐसा करनेसे तु ारे पु के सभी मनोरथ स हो जायँगे॥ ३२ ॥ ‘इस कार वनवास मल जानेपर ये राम राम नह रह जायँगे (इनका आज जो भाव है वह भ व म नह रह सके गा) और तु ारे भरत भी श ुहीन राजा ह गे॥ ‘ जस समय ीराम वनसे लौटगे, उस समयतक तु ारे पु भरत भीतर और बाहरसे भी ढ़मूल हो जायँगे॥ ‘उनके पास सै नक-बलका भी सं ह हो जायगा; जते य तो वे ह ही; अपने सु द के साथ रहकर ढ़मूल हो जायँगे। इस समय मेरी मा ताके अनुसार राजाको ीरामके



रा ा भषेकके संक से हटा देनेका समय आ गया है; अत: तुम नभय होकर राजाको अपने वचन म बाँध लो और उ ीरामके अ भषेकके संक से हटा दो’॥ ३५ १/२ ॥ ऐसी बात कहकर म राने कै के यीक बु म अनथको ही अथ पम जँचा दया। कै के यीको उसक बातपर व ास हो गया और वह मन-ही-मन ब त स ◌इ। य प वह ब त समझदार थी, तो भी कु बरीके कहनेसे नादान बा लकाक तरह कु मागपर चली गयी— अनु चत काम करनेको तैयार हो गयी। उसे म राक बु पर बड़ा आ य आ और वह उससे इस कार बोली—॥ ३६-३७ १/२ ॥ ‘ हतक बात बतानेम कु शल कु े! तू एक े ी है; म तेरी बु क अवहेलना नह क ँ गी। बु के ारा कसी कायका न य करनेम तू इस पृ ीपर सभी कु ा म उ म है। के वल तू ही मेरी हतै षणी है और सदा सावधान रहकर मेरा काय स करनेम लगी रहती है॥ ३८-३९ ॥ ‘कु े! य द तू न होती तो राजा जो ष रचना चाहते ह, वह कदा प मेरी समझम नह आता। तेरे सवा जतनी कु ाएँ ह, वे बेडौल शरीरवाली, टेढ़ी-मेढ़ी और बड़ी पा पनी होती ह॥ ४० ॥ ‘तू तो वायुके ारा क ु ायी ◌इ कम लनीक भाँ त कु छ कु ◌इ होनेपर भी देखनेम य (सु र) है। तेरा व : ल कु ताके दोषसे ा है, अतएव कं ध तक ऊँ चा दखायी देता है॥ ४१ ॥ ‘व : लसे नीचे सु र ना भसे यु जो उदर है, वह मानो व : लक ऊँ चा◌इ देखकर ल त-सा हो गया है, इसी लये शा —कृ श तीत होता है। तेरा जघन व ृत है और दोन न सु र एवं ूल ह॥ ‘म रे! तेरा मुख नमल च माके समान अ तु शोभा पा रहा है। करधनीक ल ड़य से वभू षत तेरी क टका अ भाग ब त ही —रोमा दसे र हत है॥ ४३ ॥ ‘म रे! तेरी प लयाँ पर र अ धक सटी ◌इ ह और दोन पैर बड़े-बड़े ह। तू वशाल ऊ (जाँघ ) से सुशो भत होती है। शोभने! जब तू रेशमी साड़ी पहनकर मेरे आगेआगे चलती है, तब तेरी बड़ी शोभा होती है॥ ४४ १/२ ॥



‘असुरराज



श रको जन सह माया का ान है, वे सब तेरे दयम त ह; इनके अलावे भी तू हजार कारक मायाएँ जानती है। इन माया का समुदाय ही तेरा यह बड़ा-सा कु ड़ है, जो रथके नकु ए (अ भाग) के समान बड़ा है। इसीम तेरी म त, ृ त और बु , व ा (राजनी त) तथा नाना कारक मायाएँ नवास करती ह॥ ४५-४६ १/२ ॥ ‘सु री कु े! य द भरतका रा ा भषेक आ और ीराम वनको चले गये तो म सफलमनोरथ एवं संतु होकर अ ी जा तके खूब तपाये ए सोनेक बनी ◌इ सु र णमाला तेरे इस कु ड़को पहनाऊँ गी और इसपर च नका लेप लगवाऊँ गी॥ ४७-४८ १/२ ॥ ‘कु े! तेरे मुख (ललाट) पर सु र और व च सोनेका टीका लगवा दूँगी और तू ब तसे सु र आभूषण एवं दो उ म व (लहँ गा और दुप ा) धारण करके देवा नाके समान वचरण करेगी॥ ४९-५० ॥ ‘च मासे होड़ लगानेवाले अपने मनोहर मुख ारा तू ऐसी सु र लगेगी क तेरे मुखक कह समता नह रह जायगी तथा श ु के बीचम अपने सौभा पर गव कट करती ◌इ तू सव े ान ा कर लेगी॥ ५१ ॥ ‘जैसे तू सदा मेरे चरण क सेवा कया करती है, उसी कार सम आभूषण से वभू षत ब त-सी कु ाएँ तुझ कु ाके भी चरण क सदा प रचया कया करगी’॥ जब इस कार कु ाक शंसा क गयी, तब उसने वेदीपर लत अ - शखाके समान शु श ापर शयन करनेवाली कै के यीसे इस कार कहा—॥ ५३ ॥ ‘क ा ण! नदीका पानी नकल जानेपर उसके लये बाँध नह बाँधा जाता, (य द रामका अ भषेक हो गया तो तु ारा वर माँगना थ होगा; अत: बात म समय न बताओ) ज ी उठो और अपना क ाण करो। कोपभवनम जाकर राजाको अपनी अव ाका प रचय दो’॥ ५४ ॥ म राके इस कार ो ाहन देनेपर सौभा के मदसे गव करनेवाली वशाललोचना सु री कै के यी देवी उसके साथ ही कोपभवनम जाकर लाख क लागतके मो तय के हार तथा दूसरे-दूसरे सु र ब मू आभूषण को अपने शरीरसे उतार-उतारकर फ कने लगी॥ ५५-५६ ॥ सोनेके समान सु र का वाली कै के यी कु ाक बात के वशीभूत हो गयी थी, अत: वह धरतीपर लेटकर म रासे इस कार बोली—॥ ५७ ॥



‘कु



े! मुझे न तो सुवणसे, न र से और न भाँ त-भाँ तके भोजन से ही को◌इ योजन है; य द ीरामका रा ा भषेक आ तो यह मेरे जीवनका अ होगा। अब या तो ीरामके वनम चले जानेपर भरतको इस भूतलका रा ा होगा अथवा तू यहाँ महाराजको मेरी मृ ुका समाचार सुनायेगी’॥ ५८-५९ ॥ तदन र कु ा महाराज दशरथक रानी और भरतक माता कै के यीसे अ ूर वचन ारा पुन: ऐसी बात कहने लगी, जो लौ कक से भरतके लये हतकर और ीरामके लये अ हतकर थी—॥ ६० ॥ ‘क ा ण! य द ीराम इस रा को ा कर लगे तो न य ही अपने पु भरतस हत तुम भारी संतापम पड़ जाओगी; अत: ऐसा य करो, जससे तु ारे पु भरतका रा ा भषेक हो जाय’॥ ६१ ॥ इस कार कु ाने अपने वचन पी बाण का बारंबार हार करके जब रानी कै के यीको अ घायल कर दया, तब वह अ व त और कु पत हो अपने दयपर दोन हाथ रखकर कु ासे बारंबार इस कार कहने लगी—॥ ६२ ॥ ‘कु े! अब या तो रामच के अ धक कालके लये वनम चले जानेपर भरतका मनोरथ सफल होगा या तू मुझे यहाँसे यमलोकम चली गयी सुनकर महाराजसे यह समाचार नवेदन करेगी॥ ६३ ॥ ‘य द राम यहाँसे वनको नह गये तो म न तो भाँ त-भाँ तके बछौने, न फू ल के हार, न च न, न अ न, न पान, न भोजन और न दूसरी ही को◌इ व ु लेना चा ँ गी। उस दशाम तो म यहाँ इस जीवनको भी नह रखना चा ँ गी’॥ ६४ ॥ ऐसे अ कठोर वचन कहकर कै के यीने सारे आभूषण उतार दये और बना ब रके ही वह खाली जमीनपर लेट गयी। उस समय वह गसे भूतलपर गरी ◌इ कसी क रीके समान जान पड़ती थी॥ ६५ ॥ उसका मुख बढ़े ए अमष पी अ कारसे आ ा दत हो रहा था। उसके अ से उ म पु हार और आभूषण उतर चुके थे। उस दशाम उदास मनवाली राजरानी कै के यी जसके तारे डू ब गये ह , उस अ कारा आकाशके समान तीत होती थी॥ ६६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म नवाँ सग पूरा आ॥ ९॥



दसवाँ सग राजा दशरथका कैकेयीके भवनम जाना, उसे कोपभवनम त देखकर द:ु खी होना और उसको अनेक कारसे सा ना देना



पा पनी कु ाने जब देवी कै के यीको ब त उलटी बात समझा द , तब वह वषा बाणसे व ◌इ क रीके समान धरतीपर लोटने लगी॥ १ ॥ म राके बताये ए सम कायको यह ब त उ म है—ऐसा मन-ही-मन न य करके बातचीतम कु शल भा मनी कै के यीने म रासे धीरे-धीरे अपना सारा म बता दया॥ २ ॥ म राके वचन से मो हत एवं दीन ◌इ भा मनी कै के यी पूव न य करके नागक ाक भाँ त गरम और लंबी साँस ख चने लगी और दो घड़ीतक अपने लये सुखदायक मागका वचार करती रही॥ ३ १/२ ॥ और वह म रा जो कै के यीका हत चाहनेवाली सु द् थी और उसीके मनोरथको स करनेक अ भलाषा रखती थी, कै के यीके उस न यको सुनकर ब त स ◌इ; मानो उसे को◌इ ब त बड़ी स मल गयी हो॥ तदन र रोषम भरी ◌इ देवी कै के यी अपने कत का भलीभाँ त न य कर मुखम लम त भ ह को टेढ़ी करके धरतीपर सो गयी। और ा करती अबला ही तो थी॥ ५ १/२ ॥ तदन र उस के कयराजकु मारीने अपने व च पु हार और द आभूषण को उतारकर फ क दया। वे सारे आभूषण धरतीपर य -त पड़े थे॥ ६ १/२ ॥ जैसे छटके ए तारे आकाशक शोभा बढ़ाते ह, उसी कार फ के ए वे पु हार और आभूषण वहाँ भू मक शोभा बढ़ा रहे थे॥ ७ १/२ ॥ म लन व पहनकर और सारे के श को ढ़ता-पूवक एक ही वेणीम बाँधकर कोपभवनम पड़ी ◌इ कै के यी बलहीन अथवा अचेत ◌इ क रीके समान जान पड़ती थी॥ ८ १/२ ॥ उधर महाराज दशरथ म ी आ दको ीरामके रा ा भषेकक तैयारीके लये आ ा दे सबको यथासमय उप त होनेके लये कहकर र नवासम गये॥ ९ १/२ ॥



ही ीरामके अ भषेकक बात स क गयी है, इस लये यह समाचार अभी कसी रानीको नह मालूम आ होगा; ऐसा वचारकर जते य राजा दशरथने अपनी ारी रानीको यह य संवाद सुनानेके लये अ :पुरम वेश कया॥ १० १/२ ॥ उन महायश ी नरेशने पहले कै के यीके े भवनम वेश कया, मानो ेत बादल से यु रा यु आकाशम च माने पदापण कया हो॥ ११ १/२ ॥ उस भवनम तोते, मोर, ौ और हंस आ द प ी कलरव कर रहे थे, वहाँ वा का मधुर घोष गूँज रहा था, ब त-सी कु ा और बौनी दा सयाँ भरी ◌इ थ , च ा और अशोकसे सुशो भत ब त-से लताभवन और च म र उस महलक शोभा बढ़ा रहे थे॥ १२-१३ ॥ हाथीदाँत, चाँदी और सोनेक बनी ◌इ वे दय से संयु उस भवनको न फू लनेफलनेवाले वृ और ब त-सी बाव ड़याँ सुशो भत कर रही थ ॥ १४ ॥ उसम हाथीदाँत, चाँदी और सोनेके बने ए उ म सहासन रखे गये थे। नाना कारके अ , पान और भाँ त-भाँ तके भ -भो पदाथ से वह भवन भरा-पूरा था। ब मू आभूषण से स कै के यीका वह भवन गके समान शोभा पा रहा था॥ १५ १/२ ॥ अपने उस समृ शाली अ :पुरम वेश करके महाराज राजा दशरथने वहाँक उ म श ापर रानी कै के यीको नह देखा॥ १६ १/२ ॥ कामबलसे संयु वे नरेश रानीक स ता बढ़ानेक अ भलाषासे भीतर गये थे। वहाँ अपनी ारी प ीको न देखकर उनके मनम बड़ा वषाद आ और वे उनके वषयम पूछ-ताछ करने लगे॥ १७ १/२ ॥ इससे पहले रानी कै के यी राजाके आगमनक उस बेलाम कह अ नह जाती थ , राजाने कभी सूने भवनम वेश नह कया था, इसी लये वे घरम आकर कै के यीके बारेम पूछने लगे। उ यह मालूम नह था क वह मूखा को◌इ ाथ स करना चाहती है, अत: उ ने पहलेक ही भाँ त तहारीसे उसके वषयम पूछा॥ १८-१९ १/२ ॥ तहारी ब त डरी ◌इ थी। उसने हाथ जोड़कर कहा—‘देव! देवी कै के यी अ कु पत हो कोपभवनक ओर दौड़ी गयी ह’॥ २० १/२ ॥ तहारीक यह बात सुनकर राजाका मन ब त उदास हो गया, उनक इ याँ च ल एवं ाकु ल हो उठ और वे पुन: अ धक वषाद करने लगे॥ २१ १/२ ॥ उ



ने सोचा—आज



कोपभवनम वह भू मपर पड़ी थी और इस तरह लेटी ◌इ थी, जो उसके लये यो नह था। राजाने दु:खके कारण संत -से होकर उसे इस अव ाम देखा॥ २२ १/२ ॥ राजा बूढ़े थे और उनक वह प ी त णी थी, अत: वे उसे अपने ाण से भी बढ़कर मानते थे। राजाके मनम को◌इ पाप नह था; परंतु कै के यी अपने मनम पापपूण संक लये ए थी। उ ने उसे कटी ◌इ लताक भाँ त पृ ीपर पड़ी देखा—मानो को◌इ देवा ना गसे भूतलपर गर पड़ी हो ॥ २३-२४ ॥ वह ग क री, देवलोकसे ुत ◌इ अ रा, ल माया और जालम बँधी ◌इ ह रणीके समान जान पड़ती थी॥ २५ ॥ जैसे को◌इ महान् गजराज वनम ाधके ारा वष ल बाणसे व होकर गरी ◌इ अ दु: खत ह थनीका ेहवश श करता है, उसी कार कामी राजा दशरथने महान् दु:खम पड़ी ◌इ कमलनयनी भाया कै के यीका ेहपूवक दोन हाथ से श कया। उस समय उनके मनम सब ओरसे यह भय समा गया था क न जाने यह ा कहेगी और ा करेगी? वे उसके अ पर हाथ फे रते ए उससे इस कार बोले—॥ २६-२७ ॥ ‘दे व! तु ारा ोध मुझपर है, ऐसा तो मुझे व ास नह होता। फर कसने तु ारा तर ार कया है? कसके ारा तु ारी न ा क गयी है?॥ ‘क ा ण! तुम जो इस तरह मुझे दु:ख देनेके लये धूलम लोट रही हो, इसका ा कारण है? मेरे च को मथ डालनेवाली सु री! मेरे मनम तो सदा तु ारे क ाणक ही भावना रहती है। फर मेरे रहते ए तुम कस लये धरतीपर सो रही हो? जान पड़ता है तु ारे च पर कसी पशाचने अ धकार कर लया है॥ २९ १/२ ॥ ‘भा म न! तुम अपना रोग बताओ। मेरे यहाँ ब त-से च क ाकु शल वै ह, ज मने सब कारसे संतु कर रखा है, वे तु सुखी कर दगे॥ ३० १/२ ॥ ‘अथवा कहो, आज कसका य करना है? या कसने तु ारा अ य कया है? तु ारे कस उपकारीको आज य मनोरथ ा हो अथवा कस अपकारीको अ अ य—कठोर द दया जाय?॥ ३१ १/२ ॥ ‘दे व! तुम न रोओ, अपनी देहको न सुखाओ; आज तु ारी इ ाके अनुसार कस अव का वध कया जाय? अथवा कस ाणद पानेयो अपराधीको भी मु कर दया



जाय? कस द र को धनवान् और कस धनवा ो कं गाल बना दया जाय?॥ ३२-३३ ॥ ‘म और मेरे सभी सेवक तु ारी आ ाके अधीन ह। तु ारे कसी भी मनोरथको म भंग नह कर सकता—उसे पूरा करके ही र ँ गा, चाहे उसके लये मुझे अपने ाण ही न देने पड़; अत: तु ारे मनम जो कु छ हो, उसे कहो॥ ३४ १/२ ॥ ‘अपने बलको जानते ए भी तु मुझपर संदेह नह करना चा हये। म अपने स म क शपथ खाकर कहता ँ , जससे तु स ता हो, वही क ँ गा॥ ३५ १/२ ॥ ‘जहाँतक सूयका च घूमता है, वहाँतक सारी पृ ी मेरे अ धकारम है। वड़, स -ु सौवीर, सौरा , द ण भारतके सारे देश तथा अ , व , मगध, म , काशी और कोसल— इन सभी समृ शाली देश पर मेरा आ धप है॥ ३६-३७ ॥ ‘के कयराजन न! उनम पैदा होनेवाले भाँ त-भाँ तके , धन-धा और बकरी-भड़ आ द जो भी तुम मनसे लेना चाहती हो, वह मुझसे माँग लो॥ ३८ ॥ ‘भी ! इतना ेश उठाने— यास करनेक ा आव कता है? शोभने! उठो, उठो। कै के य! ठीक-ठीक बताओ, तु कससे कौन-सा भय ा आ है? जैसे अंशुमाली सूय कु हरा दूर कर देते ह, उसी कार म तु ारे भयका सवथा नवारण कर दूँगा’॥ ३९ ॥ राजाके ऐसा कहनेपर कै के यीको कु छ सा ना मली। अब उसे अपने ामीसे वह अ य बात कहनेक इ ा ◌इ। उसने प तको और अ धक पीड़ा देनेक तैयारी क ॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म दसवाँ सग पूरा आ॥ १०॥



ारहवाँ सग कैकेयीका राजाको त ाब करके उ पहलेके दये ए दो वर का रण दलाकर भरतके लये अ भषेक और रामके लये चौदह वष का वनवास माँगना



भूपाल दशरथ कामदेवके बाण से पी ड़त तथा कामवेगके वशीभूत हो उसीका अनुसरण कर रहे थे। उनसे कै के यीने यह कठोर वचन कहा—॥ १ ॥ ‘देव! न तो कसीने मेरा अपकार कया है और न कसीके ारा म अपमा नत या न त ही ◌इ ँ । मेरा को◌इ एक अ भ ाय (मनोरथ) है और म आपके ारा उसक पू त चाहती ँ ॥ २॥ ‘य द आप उसे पूण करना चाहते ह तो त ा क जये। इसके बाद म अपना वा वक अ भ ाय आपसे क ँ गी’॥ ३ ॥ महाराज दशरथ कामके अधीन हो रहे थे। वे कै के यीक बात सुनकर क चत् मु राये और पृ ीपर पड़ी ◌इ उस देवीके के श को हाथसे पकड़कर— उसके सरको अपनी गोदम रखकर उससे इस कार बोले—॥ ४ ॥ ‘अपने सौभा पर गव करनेवाली कै के यी! ा तु मालूम नह है क नर े ीरामके अ त र दूसरा को◌इ ऐसा मनु नह है, जो मुझे तुमसे अ धक य हो॥ ‘जो ाण के ारा भी आराधनीय ह और ज जीतना कसीके लये भी अस व है, उन मुख वीर महा ा ीरामक शपथ खाकर कहता ँ क तु ारी कामना पूण होगी; अत: तु ारे मनक जो इ ा हो उसे बताओ॥ ६ ॥ ‘कै के य! ज दो घड़ी भी न देखनेपर न य ही म जी वत नह रह सकता, उन ीरामक शपथ खाकर कहता ँ क तुम जो कहोगी, उसे पूण क ँ गा॥ ७ ॥ ‘के कयन न! अपने तथा अपने दूसरे पु को नछावर करके भी म जन नर े ीरामका वरण करनेको उ त ँ , उ क शपथ खाकर कहता ँ क तु ारी कही ◌इ बात पूरी क ँ गा॥ ८ ॥ ‘भ े! के कयराजकु मारी! मेरा यह दय भी तु ारे वचन क पू तके लये त र है। ऐसा सोचकर तुम अपनी इ ा करके इस दु:खसे मेरा उ ार करो। ीराम सबको अ धक य



ह—इस बातपर पात करके तु जो अ ा जान पड़े, वह कहो॥ ९ ॥ ‘अपने बलको देखते ए भी तु मुझपर श ा नह करनी चा हये। म अपने स म क शपथ खाकर त ा करता ँ क तु ारा य काय अव स क ँ गा’॥ १० ॥ रानी कै के यीका मन ाथक स म ही लगा आ था। उसके दयम भरतके त प पात था और राजाको अपने वशम देखकर हष हो रहा था; अत: यह सोचकर क अब मेरे लये अपना मतलब साधनेका अवसर आ गया है, वह राजासे ऐसी बात बोली, जसे मुँहसे नकालना (श ुके लये भी) क ठन है॥ ११ ॥ राजाके उस शपथयु वचनसे उसको बड़ा हष आ था। उसने अपने उस अ भ ायको जो पास आये ए यमराजके समान अ भयंकर था, इन श म कया—॥ १२ ॥ ‘राजन्! आप जस तरह मश: शपथ खाकर मुझे वर देनेको उ त ए ह, उसे इ आ द ततीस देवता सुन ल॥ १३ ॥ ‘च मा, सूय, आकाश, ह, रात, दन, दशा, जगत्, यह पृ ी, ग व, रा स, रातम वचरनेवाले ाणी, घर म रहनेवाले गृहदेवता तथा इनके अ त र भी जतने ाणी ह , वे सब आपके कथनको जान ल— आपक बात के सा ी बन॥ १४-१५ ॥ ‘सब देवता सुन! महातेज ी, स त , धमके ाता, स वादी तथा शु आचारवचारवाले ये महाराज मुझे वर दे रहे ह’॥ १६ ॥ इस कार काममो हत होकर वर देनेको उ त ए महाधनुधर राजा दशरथको अपनी मु ीम करके देवी कै के यीने पहले उनक शंसा क ; फर इस कार कहा—॥ १७ ॥ ‘राजन्! उस पुरानी बातको याद क जये, जब क देवासुरसं ाम हो रहा था। वहाँ श ुने आपको घायल करके गरा दया था, के वल ाण नह लये थे॥ १८ ॥ ‘देव! उस यु लम सारी रात जागकर अनेक कारके य करके जो मने आपके जीवनक र ा क थी उससे संतु होकर आपने मुझे दो वर दये थे॥ १९ ॥ ‘देव! पृ ीपाल रघुन न! आपके दये ए वे दोन वर मने धरोहरके पम आपके ही पास रख दये थे। आज इस समय उ क म खोज करती ँ ॥ २० ॥ ‘इस कार धमत: त ा करके य द आप मेरे उन वर को नह दगे तो म अपनेको आपके ारा अपमा नत ◌इ समझकर आज ही ाण का प र ाग कर दूँगी’॥ २१ ॥



जैसे मृग बहे लयेक वाणीमा से अपने ही वनाशके लये उसके जालम फँ स जाता है, उसी कार कै के यीके वशीभूत ए राजा दशरथ उस समय पूवकालके वरदान-वा का रण करानेमा से अपने ही वनाशके लये त ाके ब नम बँध गये॥ २२ ॥ तदन र कै के यीने काममो हत होकर वर देनेके लये उ त ए राजासे इस कार कहा —‘देव! पृ ीनाथ! उन दन आपने जो दो वर देनेक त ा क थी, उ अब मुझे देना चा हये। उन दोन वर को म अभी बताऊँ गी—आप मेरी बात सु नये—यह जो ीरामके रा ा भषेकक तैयारी क गयी है, इसी अ भषेक-साम ी ारा मेरे पु भरतका अ भषेक कया जाय॥ २३-२४ ॥ ‘देव! आपने उस समय देवासुरसं ामम स होकर मेरे लये जो दूसरा वर दया था, उसे ा करनेका यह समय भी अभी आया है॥ २५ १/२ ॥ ‘धीर भाववाले ीराम तप ीके वेशम व ल तथा मृगचम धारण करके चौदह वष तक द कार म जाकर रह। भरतको आज न क युवराजपद ा हो जाय॥ २६-२७ ॥ ‘यही मेरी सव े कामना है। म आपसे पहलेका दया आ वर ही माँगती ँ । आप ऐसी व ा कर, जससे म आज ही ीरामको वनक ओर जाते देखूँ॥ ‘आप राजा के राजा ह; अत: स त ब नये और उस स के ारा अपने कु ल, शील तथा ज क र ा क जये। तप ी पु ष कहते ह क स बोलना सबसे े धम है। वह परलोकम नवास होनेपर मनु के लये परम क ाणकारी होता है॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म ारहवाँ सग पूरा आ॥ ११॥



बारहवाँ सग महाराज दशरथक च ा, वलाप, कैकेयीको फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न माँगनेके लये अनुरोध करना



कै के यीका यह कठोर वचन सुनकर महाराज दशरथको बड़ी च ा ◌इ। वे एक मु ततक अ संताप करते रहे॥ १ ॥ उ ने सोचा—‘ ा दनम ही यह मुझे दखायी दे रहा है? अथवा मेरे च का मोह है? या कसी भूत ( ह आ द) के आवेशसे च म वकलता आ गयी है? या आ ध- ा धके कारण यह को◌इ मनका ही उप व है’॥ २ ॥ यही सोचते ए उ अपने मके कारणका पता नह लगा। उस समय राजाको मू त कर देनेवाला महान् दु:ख ा आ। त ात् होशम आनेपर कै के यीक बातको याद करके उ पुन: संताप होने लगा॥ ३ ॥ जैसे कसी बा घनको देखकर मृग थत हो जाता है, उसी कार वे नरेश कै के यीको देखकर पी ड़त एवं ाकु ल हो उठे । ब रर हत खाली भू मपर बैठे ए राजा लंबी साँस ख चने लगे, मानो को◌इ महा वषैला सप कसी म लम म ारा अव हो गया हो॥ ४ १/ ॥ २



राजा दशरथ रोषम भरकर ‘अहो! ध ार है’ यह कहकर पुन: मू त हो गये। शोकके कारण उनक चेतना लु -सी हो गयी॥ ५ १/२ ॥ ब त देरके बाद जब उ फर चेत आ, तब वे नरेश अ दु:खी होकर कै के यीको अपने तेजसे द -सी करते ए ोधपूवक उससे बोले—॥ ६ १/२ ॥ ‘दयाहीन दुराचा रणी कै के य! तू इस कु लका वनाश करनेवाली डाइन है। पा प न! बता, मने अथवा ीरामने तेरा ा बगाड़ा है?॥ ७ १/२ ॥ ‘ ीरामच तो तेरे साथ सदा सगी माताका-सा बताव करते आये ह; फर तू कस लये उनका इस तरह अ न करनेपर उता हो गयी है॥ ८ १/२ ॥ ‘मालूम होता है—मने अपने वनाशके लये ही तुझे अपने घरम लाकर रखा था। म नह जानता था क तू राजक ाके पम तीखे वषवाली ना गन है॥ ९ १/२ ॥



‘जब सारा जीव-जगत्



ीरामके गुण क शंसा करता है, तब म कस अपराधके कारण अपने उस ारे पु को ाग दूँ?॥ १० १/२ ॥ ‘म कौस ा और सु म ाको भी छोड़ सकता ँ , राजल ीका भी प र ाग कर सकता ँ , परंतु अपने ाण प पतृभ ीरामको नह छोड़ सकता॥ ११ १/२ ॥ ‘अपने े पु ीरामको देखते ही मेरे दयम परम ेम उमड़ आता है; परंतु जब म ीरामको नह देखता ँ , तब मेरी चेतना न होने लगती है॥ १२ १/२ ॥ ‘स व है सूयके बना यह संसार टक सके अथवा पानीके बना खेती उपज सके , परंतु ीरामके बना मेरे शरीरम ाण नह रह सकते॥ १३ १/२ ॥ ‘अत: ऐसा वर माँगनेसे को◌इ लाभ नह । पापपूण न यवाली कै के य! तू इस न य अथवा दुरा हको ाग दे। यह लो, म तेरे पैर पर अपना म क रखता ँ , मुझपर स हो जा। पा प न! तूने ऐसी परम ू रतापूण बात कस लये सोची है?॥ १४-१५ ॥ ‘य द यह जानना चाहती है क भरत मुझे य ह या अ य तो रघुन न भरतके स म तू पहले जो कु छ कह चुक है, वह पूण हो अथात् तेरे थम वरके अनुसार म भरतका रा ा भषेक ीकार करता ँ ॥ १६ ॥ ‘तू पहले कहा करती थी क ‘ ीराम मेरे बड़े बेटे ह, वे धमाचरणम भी सबसे बड़े ह!’ परंतु अब मालूम आ क तू ऊपर-ऊपरसे चकनी-चुपड़ी बात कया करती थी और वह बात तूने ीरामसे अपनी सेवा करानेके लये ही कही होगी॥ १७ ॥ ‘आज ीरामके अ भषेकक बात सुनकर तू शोकसे संत हो उठी है और मुझे भी ब त संताप दे रही है; इससे जान पड़ता है क इस सूने घरम तुझपर भूत आ दका आवेश हो गया है, अत: तू परवश होकर ऐसी बात कह रही है॥ १८ ॥ ‘दे व! ायशील इ ाकु वंशम यह बड़ा भारी अ ाय आकर उप त आ है, जहाँ तेरी बु इस कार वकृ त हो गयी है॥ १९ ॥ ‘ वशाललोचने! आजसे पहले तूने कभी को◌इ ऐसा आचरण नह कया है, जो अनु चत अथवा मेरे लये अ य हो; इसी लये तेरी आजक बातपर भी मुझे व ास नह होता है॥ २० ॥



‘तेरे



लये तो ीराम भी महा ा भरतके ही तु ह। बाले! तू ब त बार बातचीतके संगम यं ही यह बात मुझसे कहती रही है॥ २१ ॥ ‘भी भाववाली दे व! उ धमा ा और यश ी ीरामका चौदह वष के लये वनवास तुझे कै से अ ा लगता है?॥ २२ ॥ ‘जो अ सुकुमार और धमम ढ़तापूवक मन लगाये रखनेवाले ह, उ ीरामको वनवास देना तुझे कै से चकर जान पड़ता है? अहो! तेरा दय बड़ा कठोर है॥ २३ ॥ ‘सु र ने वाली कै के य! जो सदा तेरी सेवा-शु ूषाम लगे रहते ह, उन नयना भराम ीरामको देश नकाला दे देनेक इ ा तुझे कस लये हो रही है?॥ ‘म देखता ँ , भरतसे अ धक ीराम ही सदा तेरी सेवा करते ह। भरत उनसे अ धक तेरी सेवाम रहते ह , ऐसा मने कभी नह देखा है॥ २५ ॥ ‘नर े ीरामसे बढ़कर दूसरा कौन है, जो गु जन क सेवा करने, उ गौरव देने, उनक बात को मा ता देने और उनक आ ाका तुरंत पालन करनेम अ धक त रता दखाता हो॥ २६ ॥ ‘मेरे



यहाँ क◌इ सह याँ ह और ब त-से उपजीवी भृ जन ह, परंतु कसीके मुँहसे ीरामके स म स ी या झूठी कसी कारक शकायत नह सुनी जाती॥ २७ ॥ ‘पु ष सह ीराम सम ा णय को शु दयसे सा ना देते ए य आचरण ारा रा क सम जा को अपने वशम कये रहते ह॥ २८ ॥ ‘वीर ीरामच अपने सा ्वक भावसे सम लोक को, दानके ारा ज को, सेवासे गु जन को और धनुष-बाण ारा यु लम श -ु सै नक को जीतकर अपने अधीन कर लेते ह॥ २९ ॥ ‘स , दान, तप, ाग, म ता, प व ता, सरलता, व ा और गु -शु ूषा—ये सभी स णु ीरामम र पसे रहते ह॥ ३० ॥ ‘दे व! मह षय के समान तेज ी उन सीधे-सादे देवतु ीरामका तू अ न करना चाहती है?॥ ‘ ीराम सब लोग से य बोलते ह। उ ने कभी कसीको अ य वचन कहा हो, ऐसा मुझे याद नह पड़ता। ऐसे सव य रामसे म तेरे लये अ य बात कै से क ँ गा?॥ ३२ ॥



‘ जनम



मा, तप, ाग, स , धम, कृ त ता और सम जीव के त दया भरी ◌इ है, उन ीरामके बना मेरी ा ग त होगी?॥ ३३ ॥ ‘कै के य! म बूढ़ा ँ । मौतके कनारे बैठा ँ । मेरी अव ा शोचनीय हो रही है और म दीनभावसे तेरे सामने गड़ गड़ा रहा ँ । तुझे मुझपर दया करनी चा हये॥ ‘समु पय पृ ीपर जो कु छ मल सकता है, वह सब म तुझे दे दूँगा, परंतु तू ऐसे दुरा हम न पड़, जो मुझे मौतके मुँहम ढके लनेवाला हो॥ ३५ ॥ ‘के कयन न! म हाथ जोड़ता ँ और तेरे पैर पड़ता ँ । तू ीरामको शरण दे, जससे यहाँ मुझे पाप न लगे’॥ ३६ ॥ महाराज दशरथ इस कार दु:खसे संत होकर वलाप कर रहे थे। उनक चेतना बारबार लु हो जाती थी। उनके म म च र आ रहा था और वे शोकम हो उस शोकसागरसे शी पार होनेके लये बारंबार अनुनय- वनय कर रहे थे, तो भी कै के यीका दय नह पघला। वह और भी भीषण प धारण करके अ कठोर वाणीम उ इस कार उ र देने लगी—॥ ३७-३८ ॥ ‘राजन्! य द दो वरदान देकर आप फर उनके लये प ा ाप करते ह तो वीर नरे र! इस भूम लम आप अपनी धा मकताका ढढोरा कै से पीट सकगे?॥ ‘धमके ाता महाराज! जब ब त-से राज ष एक होकर आपके साथ मुझे दये ए वरदानके वषयम बातचीत करगे, उस समय वहाँ आप उ ा उ र दगे?॥ ४० ॥ ‘यही कहगे न, क जसके सादसे म जी वत ँ , जसने (ब त बड़े संकटसे) मेरी र ा क , उसी कै के यीको वर देनेके लये क ◌इ त ा मने झूठी कर दी॥ ४१ ॥ ‘महाराज! आज ही वरदान देकर य द आप फर उससे वपरीत बात कहगे तो अपने कु लके राजा के माथे कलंकका टीका लगायगे॥ ४२ ॥ ‘राजा शै ने बाज और कबूतरके झगड़ेम (कबूतरके ाण बचानेक त ाको पूण करनेके लये) बाज नामक प ीको अपने शरीरका मांस काटकर दे दया था। इसी तरह राजा अलकने (एक अंधे ा णको) अपने दोन ने का दान करके परम उ म ग त ा क थी॥ ४३ ॥



‘समु



ने (देवता के सम ) अपनी नयत सीमाको न लाँघनेक त ा क थी, सो अबतक वह उसका उ न नह करता है। आप भी पूववत महापु ष के बतावको सदा ानम रखकर अपनी त ा झूठी न कर॥ ४४ ॥ ‘(परंतु आप मेरी बात सुनगे?) दुबु नरेश! आप तो धमको तला ल देकर ीरामको रा पर अ भ ष करके रानी कौस ाके साथ सदा मौज उड़ाना चाहते ह॥ ४५ ॥ ‘अब धम हो या अधम, झूठ हो या सच, जस बातके लये आपने मुझसे त ा कर ली है, उसम को◌इ प रवतन नह हो सकता॥ ४६ ॥ ‘य द ीरामका रा ा भषेक होगा तो म आपके सामने आपके देखते-देखते आज ही ब त-सा वष पीकर मर जाऊँ गी॥ ४७ ॥ ‘य द म एक दन भी राममाता कौस ाको राजमाता होनेके नाते दूसरे लोग से अपनेको हाथ जोड़वाती देख लूँगी तो उस समय म अपने लये मर जाना ही अ ा समझूँगी॥ ४८ ॥ ‘नरे र! म आपके सामने अपनी और भरतक शपथ खाकर कहती ँ क ीरामको इस देशसे नकाल देनेके सवा दूसरे कसी वरसे मुझे संतोष नह होगा’॥ इतना कहकर कै के यी चुप हो गयी। राजा ब त रोये- गड़ गड़ाये; कतु उसने उनक कसी बातका जवाब नह दया॥ ५० ॥ ‘ ीरामका वनवास हो और भरतका रा ा भषेक’ कै के यीके मुखसे यह परम अम लकारी वचन सुनकर राजाक सारी इ याँ ाकु ल हो उठ । वे एक मु ततक कै के यीसे कु छ न बोले। उस अ य वचन बोलनेवाली ारी रानीक ओर के वल एकटक से देखते रहे॥ ५१-५२ ॥ मनको अ य लगनेवाली कै के यीक वह व के समान कठोर तथा दु:ख-शोकमयी वाणी सुनकर राजाको बड़ा दु:ख आ। उनक सुख-शा छन गयी॥ ५३ ॥ देवी कै के यीके उस घोर न य और कये ए शपथक ओर ान जाते ही वे ‘हा राम!’ कहकर लंबी साँस ख चते ए कटे वृ क भाँ त गर पड़े॥ ५४ ॥ उनक चेतना लु -सी हो गयी। वे उ ाद -से तीत होने लगे। उनक कृ त वपरीत-सी हो गयी। वे रोगी-से जान पड़ते थे। इस कार भूपाल दशरथ म से जसका तेज हर लया गया हो उस सपके समान न े हो गये॥ ५५ ॥



तदन र उ ने दीन और आतुर वाणीम कै के यीसे इस कार कहा—‘अरी! तुझे अनथ ही अथ-सा तीत हो रहा है, कसने तुझे इसका उपदेश दया है?॥ ५६ ॥ ‘जान पड़ता है, तेरा च कसी भूतके आवेशसे दू षत हो गया है। पशाच नारीक भाँ त मेरे सामने ऐसी बात कहती ◌इ तू ल त नह होती? मुझे पहले इस बातका पता नह था क तेरा यह कु ला नो चत शील इस तरह न हो गया है॥ ५७ ॥ ‘बालाव ाम जो तेरा शील था, उसे इस समय म वपरीत-सा देख रहा ँ । तुझे कस बातका भय हो गया है जो इस तरहका वर माँगती है ? भरत रा सहासनपर बैठ और ीराम वनम रह—यही तू माँग रही है। यह बड़ा अस तथा ओछा वचार है। तू अब भी इससे वरत हो जा॥ ५८-५९ ॥ ‘ ू र भाव और पापपूण वचारवाली नीच दुराचा र ण! य द अपने प तका, सारे जग ा और भरतका भी य करना चाहती है तो इस दू षत संक को ाग दे॥ ६० ॥ ‘तू मुझम या ीरामम कौन-सा दु:खदायक या अ य बताव देख रही है ( क ऐसा नीच कम करनेपर उता हो गयी है); ीरामके बना भरत कसी तरह रा लेना ीकार नह करगे॥ ६१ ॥ ‘ क मेरी समझम धमपालनक से भरत ीरामसे भी बढ़े-चढ़े ह। ीरामसे यह कह देनेपर क तुम वनको जाओ; जब उनके मुखक का रा च माक भाँ त फ क पड़ जायगी, उस समय म कै से उनके उस उदास मुखक ओर देख सकूँ गा?॥ ६२ १/२ ॥ ‘मने ीरामके अ भषेकका न य सु द के साथ वचार करके कया है, मेरी यह बु शुभ कमम वृ ◌इ है; अब म इसे श ु ारा परा जत ◌इ सेनाक भाँ त पलटी ◌इ कै से देखूँगा?॥ ६३ १/२ ॥ ‘नाना दशा से आये ए राजालोग मुझे ल करके खेदपूवक कहगे क इस मूढ इ ाकु वंशी राजाने कै से दीघकालतक इस रा का पालन कया है?॥ ६४ १/२ ॥ ‘जब ब त-से ब ुत गुणवान् एवं वृ पु ष आकर मुझसे पूछगे क ीराम कहाँ ह? तब म उनसे कै से यह क ँ गा क कै के यीके दबाव देनेपर मने अपने बेटेको घरसे नकाल दया॥ ६५-६६ ॥



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क ँ क ीरामको वनवास देकर मने स का पालन कया है तो इसके पहले जो उ रा देनेक बात कह चुका ँ , वह अस हो जायगी। य द राम वनको चले गये तो कौस ा मुझे ा कहेगी? उसका ऐसा महान् अपकार करके म उसे ा उ र दूँगा॥ ६७ १/२ ॥ ‘हाय!



जसका पु मुझे सबसे अ धक य है, वह य वचन बोलनेवाली कौस ा जब-जब दासी, सखी, प ी, ब हन और माताक भाँ त मेरा य करनेक इ ासे मेरी सेवाम उप त होती थी, तब-तब उस स ार पानेयो देवीका भी मने तेरे ही कारण कभी स ार नह कया॥ ६८-६९ १/२ ॥ ‘तेरे साथ जो मने इतना अ ा बताव कया, वह याद आकर इस समय मुझे उसी कार संताप दे रहा है, जैसे अप (हा नकारक) न से यु खाया आ अ कसी रोगीको क देता है॥ ७० १/२ ॥ ‘ ीरामके अ भषेकका नवारण और उनका वनक ओर ान देखकर न य ही सु म ा भयभीत हो जायगी, फर वह कै से मेरा व ास करेगी?॥ ७१ १/२ ॥ ‘हाय! बेचारी सीताको एक ही साथ दो दु:खद एवं अ य समाचार सुनने पड़गे— ीरामका वनवास और मेरी मृ ु॥ ७२ १/२ ॥ ‘जब वह ीरामके लये शोक करने लगेगी, उस समय मेरे ाण का नाश कर डालेगी— उसका शोक देखकर मेरे ाण इस शरीरम नह रह सकगे। उसक दशा हमालयके पा भागम अपने ामी क रसे बछु ड़ी ◌इ क रीके समान हो जायगी॥ ७३ १/२ ॥ ‘म ीरामको वशाल वनम नवास करते और म थलेशकु मारी सीताको रोती देख अ धक कालतक जी वत रहना नह चाहता। ऐसी दशाम तू न य ही वधवा होकर बेटेके साथ अयो ाका रा करना॥ ‘ओह! म तुझे अ सती-सा ी समझता था, परंतु तू बड़ी दु ा नकली; ठीक उसी तरह जैसे को◌इ मनु देखनेम सु र म दराको पीकर पीछे उसके ारा कये गये वकारसे यह समझ पाता है क इसम वष मला आ था॥ ७६ ॥ ‘अबतक जो तू सा नापूण मीठे वचन बोलकर मुझे आ ासन देती ◌इ बात कया करती थी, वे तेरी कही ◌इ सारी बात झूठी थ । जैसे ाध ह रणको मधुर संगीतसे आकृ



करके उसे मार डालता है, उसी कार तू भी पहले मुझे लुभाकर अब मेरे ाण ले रही है॥ ७७ ॥ ‘ े पु ष न य ही मुझे नीच और एक नारीके मोहम पड़कर बेटेको बेच देनेवाला कहकर शराबी ा णक भाँ त मेरी राह-बाट और गली-कू च म न ा करगे॥ ७८ ॥ ‘अहो! कतना दु:ख है! कतना क है!! जहाँ मुझे तेरी ये बात सहन करनी पड़ती ह। मानो यह मेरे पूवज के कये ए पापका ही अशुभ फल है, जो मुझपर ऐसा महान् दु:ख आ पड़ा॥ ७९ ॥ ‘पा प न! मुझ पापीने ब त दन से तेरी र ा क और अ ानवश तुझे गले लगाया; कतु तू आज मेरे गलेम पड़ी ◌इ फाँसीक र ी बन गयी॥ ८० ॥ ‘जैसे बालक एका म खेलता-खेलता काले नागको हाथम पकड़ ले, उसी कार मने एका म तेरे साथ ड़ा करते ए तेरा आ ल न कया है; परंतु उस समय मुझे यह न सूझा क तू ही एक दन मेरी मृ ुका कारण बनेगी॥ ८१ ॥ ‘हाय! मुझ दुरा ाने जीते-जी ही अपने महा ा पु को पतृहीन बना दया। मुझे यह सारा संसार न य ही ध ारेगा—गा लयाँ देगा, जो उ चत ही होगा॥ ८२ ॥ ‘लोग मेरी न ा करते ए कहगे क राजा दशरथ बड़ा ही मूख और कामी है, जो एक ीको संतु करनेके लये अपने ारे पु को वनम भेज रहा है॥ ८३ ॥ ‘हाय! अबतक तो ीराम वेद का अ यन करने, चय तका पालन करने तथा अनेकानेक गु जन क सेवाम संल रहनेके कारण दुबले होते चले आये ह। अब जब इनके लये सुखभोगका समय आया है, तब ये वनम जाकर महान् क म पड़गे॥ ८४ ॥ ‘अपने पु ीरामसे य द म कह दूँ क तुम वनको चले जाओ तो वे तुरंत ‘ब त अ ा’ कहकर मेरी आ ाको ीकार कर लगे। मेरे पु राम दूसरी को◌इ बात कहकर मुझे तकू ल उ र नह दे सकते॥ ‘य द मेरे वन जानेक आ ा दे देनेपर भी ीरामच उसके वपरीत करते—वनम नह जाते तो वही मेरे लये य काय होगा; कतु मेरा बेटा ऐसा नह कर सकता॥ ८६ ॥ ‘य द रघुन न राम वनको चले गये तो सब लोग के ध ारपा बने ए मुझ अ अपराधीको मृ ु अव यमलोकम प ँ चा देगी॥ ८७ ॥



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नर े ीरामके वनम चले जानेपर मेरी मृ ु हो गयी तो शेष जो मेरे यजन (कौस ा आ द) यहाँ रहगे, उनपर तू कौन-सा अ ाचार करेगी?॥ ८८ ॥ ‘देवी कौस ाको य द मुझसे, ीरामसे तथा शेष दोन पु ल ण और श ु से वछोह हो जायगा तो वह इतने बड़े दु:खको सहन नह कर सके गी; अत: मेरे ही पीछे वह भी परलोक सधार जायगी। (सु म ाका भी यही हाल होगा)॥ ८९ ॥ ‘कै के य! इस कार कौस ाको, सु म ाको और तीन पु के साथ मुझे भी नरक-तु महान् शोकम डालकर तू यं सुखी होना॥ ९० ॥ ‘अनेकानेक गुण से स ृ त, शा त तथा ोभर हत यह इ ाकु कु ल जब मुझसे और ीरामसे प र होकर शोकसे ाकु ल हो जायगा, तब उस अव ाम तू इसका पालन करेगी॥ ९१ ॥ ‘य द भरतको भी ीरामका यह वनम भेजा जाना य लगता हो तो मेरी मृ ुके बाद वे मेरे शरीरका दाहसं ार न कर॥ ९२ ॥ ‘पु ष शरोम ण ीरामके वन-गमनके प ात् मेरी मृ ु हो जानेपर अब वधवा होकर तू बेटेके साथ अयो ाका रा करेगी॥ ९३ ॥ ‘राजकु मारी! तू मेरे दुभा से मेरे घरम आकर बस गयी। तेरे कारण संसारम पापाचारीक भाँ त मुझे न य ही अनुपम अपयश, तर ार और सम ा णय से अवहेलना ा होगी॥ ९४ ॥ ‘मेरे पु साम शाली राम बारंबार रथ , हा थय और घोड़ से या ा कया करते थे। वे ही अब उस वशाल वनम पैदल कै से चलगे?॥ ९५ ॥ ‘भोजनके समय जनके लये कु लधारी रसोइये स होकर ‘पहले म बनाऊँ गा’ ऐसा कहते ए खाने-पीनेक व ुएँ तैयार करते थे, वे ही मेरे पु रामच वनम कसैले, त और कड़वे फल का आहार करते ए कस तरह नवाह करगे॥ ९६-९७ ॥ ‘जो सदा ब मू व पहना करते थे और जनका चरकालसे सुखम ही समय बीता है, वे ही ीराम वनम गे ए व पहनकर कै से रह सकगे?॥ ९८ ॥ ‘ ीरामका वनगमन और भरतका अ भषेक— ऐसा कठोर वा तूने कसक ेरणासे अपने मुँहसे नकाला है॥ ९९ ॥



य को ध ार है; क वे शठ और ाथपरायण होती ह; परंतु म सारी य के लये ऐसा नह कह सकता, के वल भरतक माताक ही न ा करता ँ ॥ १०० ॥ ‘अनथम ही अथबु रखनेवाली ू र कै के य! तू मुझे संताप देनेके लये ही इस घरम बसायी गयी है। अरी! मेरे कारण तू अपना कौन-सा अ य होता देख रही है? अथवा सबका नर र हत करनेवाले ीरामम ही तुझे कौन-सी बुरा◌इ दखायी देती है॥ १०१ ॥ ‘ ीरामको संकटके समु म डू बा आ देखकर तो पता अपने पु को ाग दगे। अनुरा गणी याँ भी अपने प तय को ाग दगी। इस कार यह सारा जगत् ही कु पत— वपरीत वहार करनेवाला हो जायगा॥ १०२ ॥ ‘देवकु मारके समान कमनीय पवाले अपने पु ीरामको जब व और आभूषण से वभू षत होकर सामने आते देखता ँ तो ने से उनक शोभा नहारकर नहाल हो जाता ँ । उ देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो म फर जवान हो गया॥ १०३ ॥ ‘कदा चत् सूयके बना भी संसारका काम चल जाय, व धारी इ के वषा न करनेपर भी ा णय का जीवन सुर त रह जाय, परंतु रामको यहाँसे वनक ओर जाते देखकर को◌इ भी जी वत नह रह सकता— मेरी ऐसी धारणा है॥ १०४ ॥ ‘अरी! तू मेरा वनाश चाहनेवाली, अ हत करनेवाली और श ु प है। जैसे को◌इ अपनी ही मृ ुको घरम ान दे दे, उसी कार मने तुझे घरम बसा लया है। खेदक बात है क मने मोहवश तुझ महा वषैली ना गनको चरकालसे अपने अ म धारण कर रखा है; इसी लये आज म मारा गया॥ १०५ ॥ ‘मुझसे, ीराम और ल णसे हीन होकर भरत सम बा व का वनाश करके तेरे साथ इस नगर तथा रा का शासन कर तथा तू मेरे श ु का हष बढ़ानेवाली हो॥ १०६ ॥ ‘ ू रतापूण बताव करनेवाली कै के यी! तू संकटम पड़े एपर हार कर रही है। अरी! जब तू दुरा हपूवक आज ऐसी कठोर बात मुँहसे नकालती है, उस समय तेरे दाँत के हजार टुकड़े होकर मुँहसे नीचे नह गर जाते?॥ १०७ ॥ ‘ ीराम कभी कसीसे को◌इ अ हतकारक या अ य वचन नह करते ह। वे कटुवचन बोलना जानते ही नह ह। उनका अपने गुण के कारण सदा-सवदा स ान होता है। उ मनोहर वचन बोलनेवाले ीरामम तू दोष कै से बता रही है? क वनवास उसीको दया जाता है, जसके ब त-से दोष स हो चुके ह ॥ १०८ ॥ ‘



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के कयराजके कु लक जीती-जागती कल ! तू चाहे ा नम डू ब जा अथवा आगम जलकर खाक हो जा या वष खाकर ाण दे दे अथवा पृ ीम हजार दरार बनाकर उसीम समा जा; परंतु मेरा अ हत करनेवाली तेरी यह अ कठोर बात म कदा प नह मानूँगा॥ १०९ ॥ ‘तू छु रेके समान घात करनेवाली है। बात तो मीठी-मीठी करती है, परंतु वे सदा झूठी और स ावनासे र हत होती ह। तेरे दयका भाव अ दू षत है तथा तू अपने कु लका भी नाश करनेवाली है। इतना ही नह , तू ाण स हत मेरे दयको भी जलाकर भ कर डालना चाहती है; इसी लये मेरे मनको नह भाती है। तुझ पा पनीका जी वत रहना म नह सह सकता॥ ११० ॥ ‘दे व! अपने बेटे ीरामके बना मेरा जीवन नह रह सकता, फर कहाँसे सुख हो सकता है? आ पु ष को भी अपने पु से बछोह हो जानेपर कै से चैन मल सकता है? अत: तू मेरा अ हत न कर। म तेरे पैर छू ता ँ , तू मुझपर स हो जा’॥ १११ ॥ इस कार महाराज दशरथ मयादाका उ न करनेवाली उस हठीली ीके वशम पड़कर अनाथक भाँ त वलाप कर रहे थे। वे देवी कै के यीके फै लाये ए दोन चरण को छू ना चाहते थे; परंतु उ न पाकर बीचम ही मू त होकर गर पड़े। ठीक उसी तरह, जैसे को◌इ रोगी कसी व ुको छू ना चाहता है; कतु दुबलताके कारण वहाँतक न प ँ चकर बीचम ही अचेत होकर गर जाता है॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बारहवाँ सग पूरा आ॥ १२॥



तेरहवाँ सग राजाका वलाप और कैकेयीसे अनुनय- वनय



महाराज दशरथ उस अयो और अनु चत अव ाम पृ ीपर पड़े थे। उस समय वे पु समा होनेपर देवलोकसे ए राजा यया तके समान जान पड़ते थे। उनक वैसी दशा देख अनथक सा ात् मू त कै के यी, जसका योजन अभीतक स नह आ था, जो लोकापवादका भय छोड़ चुक थी और ीरामसे भरतके लये भय देखती थी, पुन: उसी वरके लये राजाको स ो धत करके कहने लगी—॥ १-२ ॥ ‘महाराज! आप तो ड ग मारा करते थे क म बड़ा स वादी और ढ़ त ँ , फर आप मेरे इस वरदानको हजम कर जाना चाहते ह?’॥ ३ ॥ कै के यीके ऐसा कहनेपर राजा दशरथ दो घड़ीतक ाकु लक -सी अव ाम रहे। त ात् कु पत होकर उसे इस कार उ र देने लगे—॥ ४ ॥ ‘ओ नीच! तू मेरी श ु है। नर े ीरामके वनम चले जानेपर जब मेरी मृ ु हो जायगी, उस समय तू सफलमनोरथ होकर सुखसे रहना॥ ५ ॥ ‘हाय! गम भी जब देवता मुझसे ीरामका कु शल समाचार पूछगे, उस समय म उ ा उ र दूँगा? य द क ँ , उ वनम भेज दया तो उसके बाद वे लोग जो मेरे त ध ारपूण बात कहगे, उसे कै से सह सकूँ गा? इसके लये मुझे बड़ा खेद है॥ ६ ॥ ‘कै के यीका य करनेक इ ासे उसके माँगे ए वरदानके अनुसार मने ीरामको वनम भेज दया, य द ऐसा क ँ और इसे स बताऊँ तो मेरी वह पहली बात अस हो जायगी, जसके ारा मने रामको रा देनेका आ ासन दया है॥ ७ ॥ ‘म पहले पु हीन था, फर महान् प र म करके मने जन महातेज ी महापु ष ीरामको पु पम ा कया है, उनका मेरे ारा ाग कै से कया जा सकता है?॥ ८ ॥ ‘जो शूरवीर, व ान्, ोधको जीतनेवाले और मापरायण ह, उन कमलनयन ीरामको म देश नकाला कै से दे सकता ँ ?॥ ९ ॥ ‘ जनक अ का नीलकमलके समान ाम है, भुजाएँ वशाल और बल महान् ह, उन नयना भराम ीरामको म द कवनम कै से भेज सकूँ गा?॥ १० ॥



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सदा सुख भोगनेके ही यो ह, कदा प दु:ख भोगनेके यो नह ह, उन बु मान् ीरामको दु:ख उठाते म कै से देख सकता ँ ?॥ ११ ॥ ‘जो दु:ख भोगनेके यो नह ह, उन ीरामको यह वनवासका दु:ख दये बना ही य द म इस संसारसे वदा हो जाता तो मुझे बड़ा सुख मलता॥ १२ ॥ ‘ओ पापपूण वचार रखनेवाली पाषाण दया कै के य! स परा मी ीराम मुझे ब त य ह, तू मुझसे उनका वछोह करा रही है? अरी! ऐसा करनेसे न य ही संसारम तेरी वह अपक त फै लेगी, जसक कह तुलना नह है’॥ १३ १/२ ॥ इस कार वलाप करते-करते राजा दशरथका च अ ाकु ल हो उठा। इतनेम ही सूयदेव अ ाचलको चले गये और दोषकाल आ प ँ चा॥ १४ १/२ ॥ वह तीन पहर वाली रात य प च म लक चा च कासे आलो कत हो रही थी, तो भी उस समय आत होकर वलाप करते ए राजा दशरथके लये काश या उ ास न दे सक ॥ १५ १/२ ॥ बूढ़े राजा दशरथ नर र गरम उ ास लेते ए आकाशक ओर लगाये आतक भाँ त दु:खपूण वलाप करने लगे—॥ १६ १/२ ॥ ‘न माला से अलंकृत क ाणमयी रा दे व! म नह चाहता क तु ारे ारा भातकाल लाया जाय। मुझपर दया करो। म तु ारे सामने हाथ जोड़ता ँ ॥ ‘अथवा शी बीत जाओ; क जसके कारण मुझे भारी संकट ा आ है, उस नदय और ू र कै के यीको अब म नह देखना चाहता’॥ १८ १/२ ॥ कै के यीसे ऐसा कहकर राजधमके ाता राजा दशरथने पुन: हाथ जोड़कर उसे मनाने या स करनेक चे ा आर क —॥ १९ १/२ ॥ ‘क ाणमयी दे व! जो सदाचारी, दीन, तेरे आ त, गतायु (मरणास ) और वशेषत: राजा है— ऐसे मुझ दशरथपर कृ पा कर॥ २० १/२ ॥ ‘सु र क ट देशवाली के कयन न! मने जो यह ीरामको रा देनेक बात कही है, वह कसी सूने घरम नह , भरी सभाम घो षत क है, अत: बाले! तू बड़ी स दय है; इस लये मुझपर भलीभाँ त कृ पा कर ( जससे सभासद ारा मेरा उपहास न हो)॥ २१ १/२ ॥



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स हो जा। कजरारे ने ा वाली ये! मेरे ीराम तेरे ही दये ए इस अ य रा को ा कर, इससे तुझे उ म यशक ा होगी॥ २२ १/२ ॥ ‘पृथुल नत वाली दे व! सुमु ख! सुलोचने! यह ाव मुझको, ीरामको, सम जावगको, गु जन को तथा भरतको भी य होगा, अत: इसे पूण कर’॥ २३ ॥ राजाके दयका भाव अ शु था, उनके आँ सूभरे ने लाल हो गये थे और वे दीनभावसे व च क णाजनक वलाप कर रहे थे, कतु मनम दू षत वचार रखनेवाली न ु र कै के यीने प तके उस वलापको सुनकर भी उनक आ ाका पालन नह कया॥ २४ ॥ (इतनी अनुनय- वनयके बाद भी) जब या कै के यी कसी तरह संतु न हो सक और बराबर तकू ल बात ही मुँहसे नकालती गयी, तब पु के वनवासक बात सोचकर राजा पुन: दु:खके मारे मू चछत हो गये और सुध-बुध खोकर पृ ीपर गर पड़े॥ २५ ॥ इस कार थत होकर भयंकर उ ास लेते ए मन ी राजा दशरथक वह रात धीरेधीरे बीत गयी। ात:काल राजाको जगानेके लये मनोहर वा के साथ म लगान होने लगा, परंतु उन राज- शरोम णने त ाल मनाही भेजकर वह सब बंद करा दया॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तेरहवाँ सग पूरा आ॥ १३॥



चौदहवाँ सग कैकेयीका राजाको स पर ढ़ रहनेके लये ेरणा देकर अपने वर क पू तके लये दरु ा ह दखाना, मह ष व स का अ :पुरके ारपर आगमन और सुम को महाराजके पास भेजना, राजाक आ ासे सुम का ीरामको बुलानेके लये जाना



इ ाकु न न राजा दशरथ पु शोकसे पी ड़त हो पृ ीपर अचेत पड़े थे और वेदनासे छटपटा रहे थे, उ इस अव ाम देखकर पा पनी कै के यी इस कार बोली—॥ १ ॥ ‘महाराज! आपने मुझे दो वर देनेक त ा क थी और जब मने उ माँगा, तब आप इस कार स होकर पृ ीपर गर पड़े, मानो को◌इ पाप करके पछता रहे ह , यह ा बात है? आपको स ु ष क मयादाम र रहना चा हये॥ २ ॥ ‘धम पु ष स को ही सबसे े धम बतलाते ह, उस स का सहारा लेकर मने आपको धमका पालन करनेके लये ही े रत कया है॥ ३ ॥ ‘पृ ीप त राजा शै ने बाज प ीको अपना शरीर देनेक त ा करके उसे दे ही दया और देकर उ म ग त ा कर ली॥ ४ ॥ ‘इसी कार तेज ी राजा अलकने वेद के पार त व ान् ा णको उसके याचना करनेपर मनम खेद न लाते ए अपनी दोन आँ ख नकालकर दे दी थ ॥ ५ ॥ ‘स को ा आ समु स का ही अनुसरण करनेके कारण पव आ दके समय भी अपनी छोटी-सी सीमातट—भू मका भी उ न नह करता॥ ६ ॥ ‘स ही णव प श है, स म ही धम त त है, स ही अ वनाशी वेद है और स से ही पर क ा होती है॥ ७ ॥ ‘इस लये य द आपक बु धमम त है तो स का अनुसरण क जये। साधु शरोमणे! मेरा माँगा आ वह वर सफल होना चा हये; क आप यं ही उस वरके दाता ह॥ ८ ॥ ‘धमके ही अभी फलक स के लये तथा मेरी ेरणासे भी आप अपने पु ीरामको घरसे नकाल दी जये। म अपने इस कथनको तीन बार दुहराती ँ ॥ ९ ॥



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‘आय! य द मुझसे क ◌इ इस त ाका आप पालन नह करगे तो म आपसे (उपे त) होकर आपके सामने ही अपने ाण का प र ाग कर दूँगी’॥ १० ॥



इस कार कै के यीने जब न:श होकर राजाको े रत कया, तब वे उस स पी ब नको वैसे ही नह खोल सके —उस ब नसे अपनेको उसी तरह नह मु कर सके , जैसे राजा ब ल इ े रत वामनके पाशसे अपनेको मु करनेम असमथ हो गये थे॥ ११ ॥ दो प हय के बीचम फँ सकर वहाँसे नकलनेक चे ा करनेवाले गाड़ीके बैलक भाँ त उनका दय उद् ा हो उठा था और उनके मुखक का भी फ क पड़ गयी थी॥ १२ ॥ अपने वकल ने से कु छ भी देखनेम असमथ-से होकर भूपाल दशरथने बड़ी क ठना◌इसे धैय धारण करके अपने दयको सँभाला और कै के यीसे इस कार कहा—॥ १३ ॥ ‘पा प न! मने अ के समीप ‘सा ु ं ते गृ णा म सौभग ाय ह म्०’ इ ा द वै दक म का पाठ करके तेरे जस हाथको पकड़ा था, उसे आज छोड़ रहा ँ । साथ ही तेरे और अपने ारा उ ए तेरे पु का भी ाग करता ँ ॥ १४ ॥ ‘दे व! रात बीत गयी। सूय दय होते ही सब लोग न य ही ीरामका रा ा भषेक करनेके लये मुझे शी ता करनेको कहगे॥ १५ ॥ ‘उस समय जो सामान ीरामके अ भषेकके लये जुटाया गया है, उसके ारा मेरे मरनेके बाद ीरामके हाथसे मुझे जला ल दलवा देना; परंतु अपने पु स हत तू मेरे लये जला ल न देना॥ १६ १/२ ॥ ‘पापाचा र ण! य द तू ीरामके अ भषेकम व डालेगी (तो तुझे मेरे लये जला ल देनेका को◌इ अ धकार न होगा)। म पहले ीरामके रा ा भषेकके समाचारसे जो जनसमुदायका हष ाससे प रपूण उ त मुख देख चुका ँ , वैसा देखनेके प ात् आज पुन: उसी जनताके हष और आन से शू , नीचे लटके ए मुखको म नह देख सकूँ गा’॥ १७-१८ ॥ महा ा राजा दशरथके कै के यीसे इस तरहक बात करते-करते ही च मा और न माला से अलंकृत वह पु मयी रजनी बीत गयी और भातकाल आ गया॥ १९ ॥ तदन र बातचीतके ममको समझनेवाली पापाचा रणी कै के यी रोषसे मू त-सी होकर राजासे पुन: कठोर वाणीम बोली—॥ २० ॥



‘राजन्! आप



वष और शूल आ द रोग के समान क देनेवाले ऐसे वचन बोल रहे ह (इन बात से कु छ होने-जानेवाला नह है)। आप बना कसी ेशके अपने पु ीरामको यहाँ बुलवाइये। मेरे पु को रा पर त त क जये और ीरामको वनम भेजकर मुझे न क बनाइये; तभी आप कृ तकृ हो सकगे’॥ २१-२२ ॥ तीखे कोड़ेक मारसे पी ड़त ए उ म अ क भाँ त कै के यी ारा बारंबार े रत होनेपर थत ए राजा दशरथने इस कार कहा—॥ २३ ॥ ‘म धमके ब नम बँधा आ ँ । मेरी चेतना लु होती जा रही है। इस लये इस समय म अपने धमपरायण परम य े पु ीरामको देखना चाहता ँ ’॥ २४ ॥ उधर जब रात बीती, भात आ, सूयदेवका उदय हो गया और पु न के योगम अ भषेकका शुभ मु त आ प ँ चा, उस समय श से घरे ए शुभगुणस मह ष व स अ भषेकक आव क साम य का सं ह करके शी तापूवक उस े पुरीम आये॥ २५-२६ ॥



उस पु वेलाम अयो ाक सड़क झाड़-बुहारकर साफ क गयी थ और उनपर जलका छड़काव आ था। सारी पुरी उ म पताका से सुशो भत थी। वहाँके सभी मनु हष और उ ाहसे भरे ए थे। बाजार और दूकान इस तरह सजी ◌इ थ क उनक समृ देखते ही बनती थी॥ २७ ॥ सब ओर महान् उ व हो रहा था। सारी नगरी ीरामच जीके अ भषेकके लये उ ुक थी। चार ओर च न, अगर और धूपक सुग ा हो रही थी॥ २८ ॥ इ नगरी अमरावतीके समान शोभा पानेवाली उस पुरीको पार करके ीमान् व स जीने राजा दशरथके अ :पुरका दशन कया। जहाँ सह जाएँ फहरा रही थ ॥ २९ ॥ नगर और जनपदके लोग वहाँ भरे ए थे। ब त-से ा ण उस ानक शोभा बढ़ाते थे। छड़ीदार राजसेवक तथा सजे-सजाये सु र घोड़े वहाँ अ धक सं ाम उप त थे॥ ३० ॥ े मह षय से घरे ए व स जी परम स हो उस अ :पुरम प ँ चकर उस जनसमुदायको लाँघकर आगे बढ़ गये॥ ३१ ॥ वहाँ उ ने महाराजके सु र स चव तथा सार थ सुम को अ :पुरके ारपर उप त देखा, जो उसी समय भीतरसे नकले थे॥ ३२ ॥



तब महातेज ी व स ने परम चतुर सूतपु सुम से कहा—‘सूत! तुम महाराजको शी ही मेरे आगमनक सूचना दो॥ ३३ ॥ ‘(उ बताओ क ीरामके रा ा भषेकके लये सारी साम ी एक कर ली गयी है) ये ग ाजलसे भरे कलश रखे ह, इन सोनेके कलश म समु से लाया आ जल भरा आ है। यह गूलरक लकड़ीका बना आ भ पीठ है, जो अ भषेकके लये लाया गया है (इसीपर बठाकर ीरामका अ भषेक होगा)॥ ३४ ॥ ‘सब कारके बीज, ग , भाँ त-भाँ तके र , मधु, दही, घी, लावा या खील, कु श, फू ल, दूध, आठ सु री क ाएँ , म गजराज, चार घोड़ वाला रथ, चमचमाता आ खड् ग, उ म धनुष, मनु ारा ढोयी जानेवाली सवारी (पालक आ द), च माके समान ेत छ , सफे द चँवर, सोनेक झारी, सुवणक मालासे अलंकृत ऊँ चे डीलवाला ेत पीतवणका वृषभ, चार दाढ़ वाला सह, महाबलवान् उ म अ , सहासन, ा चम, स मधाएँ , अ , सब कारके बाजे, वारा नाएँ , ृ ारयु सौभा वती याँ, आचाय, ा ण, गौ, प व पशु-प ी, नगर और जनपदके े पु ष अपने सेवक-गण स हत स - स ापारी—ये तथा और भी ब त-से यवादी मनु ब सं क राजा के साथ स तापूवक ीरामके अ भषेकके लये यहाँ उप त ह॥ ३५—४१ ॥ ‘तुम महाराजसे शी ता करनेके लये कहो, जससे अब सूय दयके प ात् पु न के योगम ीराम रा ा कर ल’॥ ४२ ॥ व स जीके ये वचन सुनकर महाबली सूतपु सुम ने राज सह दशरथक ु त करते ए उनके भवनम वेश कया॥ ४३ ॥ राजाका य करनेक इ ा रखनेवाले और उनके ारा स ा नत ारपाल उन बूढ़े स चवको भीतर जानेसे रोक न सके ; क उनके लये पहलेसे ही महाराजक आ ा थी क ये कसी समय भी भीतर आनेसे रोके न जायँ॥ ४४ ॥ सुम राजाके पास जाकर खड़े हो गये। उ उनक उस अव ाका पता नह था; इस लये वे अ संतोषदायक वचन ारा उनक ु त करनेको उ त ए॥ ४५ ॥ सूत सुम राजाके उस महलम पहलेक ही भाँ त हाथ जोड़कर उन महाराजक ु त करने लगे—॥ ४६ ॥



‘महाराज!



जैसे सूय दय होनेपर तेज ी समु यं हषक तरंग से उ सत हो उसम ानक इ ावाले मनु को आन त करता है, उसी कार आप यं स हो स तापूण दयसे हम सेवक को आन दान क जये॥ ४७ ॥ ‘देवसार थ मात लने इसी बेलाम देवराज इ क ु त क थी, जससे उ ने सम दानव पर वजय ा कर ली, उसी कार म भी ु त-वचन ारा आपको जगा रहा ँ ॥ ४८ ॥ ‘छह अ स हत चार वेद तथा सम व ाएँ जैसे य ू भगवान् ाको जगाती ह, उसी कार आज म आपको जगा रहा ँ ॥ ४९ ॥ ‘जैसे च माके साथ सूय सम भूत क आधारभूता इस शुभ- पा पृ ीको जगाया करते ह, उसी कार आज म आपको जगा रहा ँ ॥ ५० ॥ ‘महाराज! उ ठये और उ वका लक म लकृ पूण करके व ाभूषण से सुशो भत शरीरसे सहासनपर वराजमान होइये। फर मे पवतसे ऊपर उठनेवाले सूयदेवके समान आपक शोभा होती रहे॥ ५१ ॥ ‘ककु कु लन न! च मा, सूय, शव, कु बेर, व ण, अ और इ आपको वजय दान कर॥ ५२ ॥ ‘राज सह! भगवती रा देवी वदा हो गय । आपने जसके लये आ ा दी थी, आपका वह सारा काय पूण हो गया। इस बातको आप जान ल और इसके बाद जो अ भषेकका काय शेष है, उसे पूण कर॥ ५३ ॥ ‘ ीरामके अ भषेकक सारी तैयारी हो चुक है। नगर और जनपदके लोग तथा मु मु ापारी भी हाथ जोड़े ए उप त ह॥ ५४ ॥ ‘राजन्! ये भगवान् व स मु न ा ण के साथ ारपर खड़े ह; अत: ीरामके अ भषेकका काय आर करनेके लये शी आ ा दी जये॥ ५५ ॥ ‘जैसे चरवाह के बना पशु, सेनाप तके बना सेना, च माके बना रा और साँड़के बना गौ क शोभा नह होती, ऐसी ही दशा उस रा क हो जाती है, जहाँ राजाका दशन नह होता है’॥ ५६ १/२ ॥ सुम के इस कार कहे ए सा नापूण और साथक वचनको सुनकर राजा दशरथ पुन: शोकसे हो गये॥ ५७ १/२ ॥



उस समय पु के वयोगक स ावनासे उनक स ता न हो चुक थी। शोकके कारण उनके ने लाल हो गये थे। उन धमा ा ीमान् नरेशने एक बार उठाकर सूतक ओर देखा और इस कार कहा—‘तुम ऐसी बात सुनाकर मेरे मम- ान पर और अ धक आघात कर रहे हो’॥ ५८-५९ ॥ राजाके ये क ण वचन सुनकर और उनक दीन दशापर पात करके सुम हाथ जोड़े ए उस ानसे कु छ पीछे हट गये॥ ६० ॥ जब दु:ख और दीनताके कारण राजा यं कु छ भी न कह सके , तब म णाका ान रखनेवाली कै के यीने सुम को इस कार उ र दया—॥ ६१ ॥ ‘सुम ! राजा रातभर ीरामके रा ा भषेकज नत हषके कारण उ त होकर जागते रहे ह। अ धक जागरणसे थक जानेके कारण इस समय इ न द आ गयी है॥ ६२ ॥ ‘अत: सूत! तु ारा भला हो। तुम तुरंत जाओ और यश ी राजकु मार ीरामको यहाँ बुला लाओ। इस वषयम तु को◌इ अ था वचार नह करना चा हये’॥ ६३ ॥ तब सुम ने कहा—‘भा म न! म महाराजक आ ा सुने बना कै से जा सकता ँ ?’ म ीक बात सुनकर राजाने उनसे कहा—॥ ६४ ॥ ‘सुम ! म सु र ीरामको देखना चाहता ँ । तुम शी उ यहाँ ले आओ।’ उस समय ीरामके दशनसे ही क ाण मानते ए राजा मन-ही-मन आन का अनुभव करने लगे॥ ६५ ॥ इधर सुम राजाक आ ासे तुरंत स तापूवक वहाँसे चल दये। कै के यीने जो तुरंत ीरामको बुला लानेक आ ा दी थी, उसे याद करके वे सोचने लगे— ‘पता नह , यह उ बुलानेके लये इतनी ज ी मचा रही है?॥ ६६ ॥ ‘जान पड़ता है, ीरामच के अ भषेकके लये ही यह ज ी कर रही है। इस कायम धमराज राजा दशरथको अ धक आयास करना पड़ता है (शायद इसी लये ये बाहर नह नकलते)।’ ऐसा न य करके महातेज ी सूत सुम फर बड़े हषके साथ ीरामके दशनक इ ासे चल पड़े। समु के अ वत जलाशयके समान उस सु र अ :पुरसे नकलकर सुम ने ारके सामने मनु क भारी भीड़ एक ◌इ देखी॥ ६७-६८ ॥ राजाके अ :पुरसे सहसा नकलकर सुम ने ारपर एक ए लोग क ओर पात कया। उ ने देखा, ब सं क पुरवासी वहाँ उप त थे और अनेकानेक महाधनी पु ष राज ारपर आकर खड़े थे॥ ६९ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौदहवाँ सग पूरा आ॥ १४॥



पं हवाँ सग सुम का राजाक आ ासे ीरामको बुलानेके लये उनके महलम जाना



वे वेद के पार त ा ण तथा राजपुरो हत वह रात बताकर ात:काल (राजाक ेरणाके अनुसार) राज ारपर उप त ए थे॥ १ ॥ म ी, सेनाके मु -मु अ धकारी और बड़े-बड़े सेठ-सा कार ीरामच जीके अ भषेकके लये बड़ी स ताके साथ वहाँ एक ए थे॥ २ ॥ नमल सूय दय होनेपर दनम जब पु न का योग आया तथा ीरामके ज का कक ल उप त आ, उस समय े ा ण ने ीरामके अ भषेकके लये सारी साम ी एक करके उसे जँचाकर रख दया। जलसे भरे ए सोनेके कलश, भलीभाँ त सजाया आ भ पीठ, चमक ले ा चमसे अ ी तरह आवृत रथ, ग ा-यमुनाके प व स मसे लाया आ जल— ये सब व ुएँ एक कर ली गयी थ ॥ ३—५ ॥ इनके सवा जो अ न दयाँ, प व जलाशय, कू प और सरोवर ह तथा जो पूवक ओर बहनेवाली (गोदावरी और कावेरी आ द) न दयाँ ह, ऊपरक ओर वाहवाले जो ( ावत आ द) सरोवर ह तथा द ण और उ रक ओर बहनेवाली जो (ग क एवं शोणभ आ द) न दयाँ ह, जनम दूधके समान नमल जल भरा रहता है, उन सबसे और सम समु से भी लाया आ जल वहाँ सं ह करके रखा गया था। इनके अ त र दूध, दही, घी, मधु, लावा, कु श, फू ल, आठ सु र क ाएँ , मदम गजराज और दूधवाले वृ के प व से ढके ए सोनेचाँदीके जलपूण कलश भी वहाँ वराजमान थे, जो उ म जलसे भरे होनेके साथ ही प और उ ल से संयु होनेके कारण बड़ी शोभा पा रहे थे॥ ६—८ १/२ ॥ ीरामके लये च माक करण के समान वक सत का से यु ेत, पीतवणका र ज टत उ म चँवर सुस त पसे रखा आ था॥ ९ १/२ ॥ च म लके समान सुस त ेत छ भी अ भषेक-साम ीके साथ शोभा पा रहा था, जो परम सु र और काश फै लानेवाला था॥ १० १/२ ॥ सुस त ेत वृषभ और ेत अ भी खड़े थे॥ ११ ॥



सब कारके बाजे मौजूद थे। ु त-पाठ करनेवाले व ी तथा अ मागध आ द भी उप त थे। इ ाकु वंशी राजा के रा म जैसी अ भषेक-साम ीका सं ह होना चा हये, राजकु मारके अ भषेकक वैसी ही साम ी साथ लेकर वे सब लोग महाराज दशरथक आ ाके अनुसार वहाँ उनके दशनके लये एक ए थे॥ १२-१३ ॥ राजाको ारपर न देखकर वे कहने लगे—‘कौन महाराजके पास जाकर हमारे आगमनक सूचना देगा। हम महाराजको यहाँ नह देखते ह। सूय दय हो गया है और बु मान् ीरामके यौवरा ा भषेकक सारी साम ी जुट गयी है’॥ १४ १/२ ॥ वे सब लोग जब इस कारक बात कर रहे थे, उसी समय राजा ारा स ा नत सुम ने वहाँ खड़े ए उन सम भूप तय से यह बात कही—॥ १५ १/२ ॥ ‘म महाराजक आ ासे ीरामको बुलानेके लये तुरंत जा रहा ँ । आप सब लोग महाराजके तथा वशेषत: ीरामच जीके पूजनीय ह। म उ क ओरसे आप सम चरंजीवी पु ष के कु शल-समाचार पूछ रहा ँ । आपलोग सुखसे ह न?’॥ १६-१७ ॥ ऐसा कहकर और जगे ए होनेपर ीमहाराजके बाहर न आनेका कारण बताकर पुरातन वृ ा को जाननेवाले सुम पुन: अ :पुरके ारपर लौट आये॥ १८ ॥ वह राजभवन सुम के लये सदा खुला रहता था। उ ने भीतर वेश कया और वेश करके महाराजके वंशक ु त क ॥ १९ ॥ तदन र वे राजाके शयनगृहके पास जाकर खड़े हो गये। उस घरके अ नकट प ँ चकर जहाँ बीचम के वल चकका अ र रह गया था, खड़े हो वे गुणवणनपूवक आशीवादसूचक वचन ारा रघुकुलनरेशक ु त करने लगे—॥ २० १/२ ॥ ‘ककु न न! च मा, सूय, शव, कु बेर, व ण, अ और इ आपको वजय दान कर॥ २१ १/२ ॥ ‘भगवती रा वदा हो गयी। अब क ाण प दन उप त आ है। राज सह! न ा ागकर जग जाइये और अब जो काय ा है, उसे क जये॥ २२ १/२ ॥ ‘ ा ण, सेनाके मु अ धकारी और बड़े-बड़े सेठ-सा कार यहाँ आ गये ह। वे सब लोग आपका दशन चाहते ह। रघुन न! जा गये’॥ २३ १/२ ॥



म णा करनेम कु शल सूत सुम जब इस कार ु त करने लगे, तब राजाने जागकर उनसे यह बात कही—॥ २४ १/२ ॥ ‘सूत! ीरामको बुला लाओ’—यह जो मने तुमसे कहा था, उसका पालन नह आ? ऐसा कौन-सा कारण है, जससे मेरी आ ाका उ न कया जा रहा है? म सोया नह ँ । तुम ीरामको शी यहाँ बुला लाओ’॥ २५-२६ ॥ इस कार राजा दशरथने जब सूतको फर उपदेश दया, तब वे राजाक वह आ ा सुनकर सर कु ाकर उसका स ान करते ए राजभवनसे बाहर नकल गये। वे मन-ही-मन अपना महान् य आ मानने लगे। राजभवनसे नकलकर सुम जा-पताका से सुशो भत राजमागपर आ गये॥ २७-२८ ॥ वे हष और उ ासम भरकर सब ओर डालते ए शी तापूवक आगे बढ़ने लगे। सूत सुम वहाँ मागम सब लोग के मुँहसे ीरामके रा ा भषेकक आन दा यनी बात सुनते जा रहे थे॥ २९ १/२ ॥ तदन र सुम को ीरामका सु र भवन दखायी दया, जो कै लासपवतके समान ेत भासे का शत हो रहा था। वह इ भवनके समान दी मान् था। उसका फाटक वशाल कवाड़ से बंद था (उसके भीतरका छोटा-सा ार ही खुला आ था)। सैकड़ वे दकाएँ उस भवनक शोभा बढ़ा रही थ ॥ ३०-३१ ॥ उसका मु अ भाग सोनेक देव- तमा से अलंकृत था। उसके बाहर फाटकम म ण और मूँगे जड़े ए थे। वह सारा भवन शरद् ऋतुके बादल क भाँ त ेत का से यु , दी मान् और मे पवतक क राके समान शोभायमान था॥ ३२ ॥ सुवण न मत पु क माला के बीच-बीचम परोयी ◌इ ब मू म णय से वह भवन सजा आ था। दीवार म जड़ी ◌इ मु ाम णय से ा होकर जगमगा रहा था (अथवा वहाँ मोती और म णय के भ ार भरे ए थे)। च न और अगरक सुग उसक शोभा बढ़ा रही थी॥ ३३ ॥ वह भवन मलयाचलके समीपवत ददुर नामक च न ग रके शखरक भाँ त सब ओर मनोहर सुग बखेर रहा था। कलरव करते ए सारस और मयूर आ द प ी उसक शोभावृ कर रहे थे॥ ३४ ॥



सोने आ दक सु र ढंगसे बनी ◌इ भे ड़य क मू तय से वह ा था। श य ने उसक दीवार म बड़ी सु र न ाशी क थी। वह अपनी उ ृ शोभासे सम ा णय के मन और ने को आकृ कर लेता था॥ ३५ ॥ च मा और सूयके समान तेज ी, कु बेरभवनके समान अ य स से पूण तथा इ धामके समान भ एवं मनोरम उस ीरामभवनम नाना कारके प ी चहक रहे थे॥ ३६ ॥ सुम ने देखा— ीरामका महल मे -पवतके शखरक भाँ त शोभा पा रहा है। हाथ जोड़कर ीरामक व ना करनेके लये उप त ए असं मनु से वह भरा आ है॥ ३७ ॥ भाँ त-भाँ तके उपहार लेकर जनपद- नवासी मनु उस समय वहाँ प ँ चे ए थे। ीरामके अ भषेकका समाचार सुनकर उनके मुख स तासे खल उठे थे। वे उस उ वको देखनेके लये उ त थे। उन सबक उप तसे भवनक बड़ी शोभा हो रही थी॥ वह वशाल राजभवन महान् मेघख के समान ऊँ चा और सु र शोभासे स था। उसक दीवार म नाना कारके र जड़े गये थे और कु बड़े सेवक से वह भरा आ था॥ ३९ ॥ सार थ सुम राजभवनक ओर जानेवाले व थ (लोहेक च र या स कच के बने ए आवरण) से यु तथा अ े घोड़ से जुते ए रथके ारा मनु क भीड़से भरे राजमागक शोभा बढ़ाते तथा सम नगर नवा स य के मनको आन दान करते ए ीरामके भवनके पास जा प ँ चे॥ ४० ॥ उ म व ुको ा करनेके अ धकारी ीरामका वह महान् समृ शाली वशाल भवन शचीप त इ के भवनक भाँ त सुशो भत होता था। इधर-उधर फै ले ए मृग और मयूर से उसक शोभा और भी बढ़ गयी थी। वहाँ प ँ चकर सार थ सुम के शरीरम अ धक हषके कारण रोमा हो आया॥ ४१ ॥ वहाँ कै लास और गके समान द शोभासे यु , सु र सजी ◌इ अनेक ौ ढ़य को लाँघकर ीरामच जीक आ ाम चलनेवाले ब तेरे े मनु को बीचम छोड़ते ए रथस हत सुम अ :पुरके ारपर उप त ए॥ ४२ ॥ उस ानपर उ ने ीरामके अ भषेक-स ी कम करनेवाले लोग क हषभरी बात सुन , जो राजकु मार ीरामके लये सब ओरसे म लकामना सू चत करती थ । इसी कार उ ने अ सब लोग क भी हष ाससे प रपूण वाता को वण कया॥ ४३ ॥



ीरामका वह भवन इ सदनक शोभाको तर ृ त कर रहा था। मृग और प य से से वत होनेके कारण उसक रमणीयता और भी बढ़ गयी थी। सुम ने उस भवनको देखा। वह अपनी भासे का शत होनेवाले मे ग रके ऊँ चे शखरक भाँ त सुशो भत हो रहा था॥ ४४ ॥ उस भवनके ारपर प ँ चकर सुम ने देखा— ीरामक व नाके लये हाथ जोड़े उप त ए जनपदवासी मनु अपनी सवा रय से उतरकर हाथ म भाँ त-भाँ तके उपहार लये करोड़ और पराध क सं ाम खड़े थे, जससे वहाँ बड़ी भारी भीड़ लग गयी थी॥ ४५ ॥ तदन र उ ने ीरामक सवारीम आनेवाले सु र श ु य नामक वशालकाय गजराजको देखा, जो महान् मेघसे यु पवतके समान तीत होता था। उसके ग लसे मदक धारा बह रही थी। वह अंकुशसे काबूम आनेवाला नह था। उसका वेग श ु के लये अ अस था। उसका जैसा नाम था, वैसा ही गुण भी था॥ ४६ ॥ उ ने वहाँ राजाके परम य मु -मु म य को भी एक साथ उप त देखा, जो सु र व ाभूषण से वभू षत थे और घोड़े, रथ तथा हा थय के साथ वहाँ आये थे। सुम ने उन सबको एक ओर हटाकर यं ीरामके समृ शाली अ :पुरम वेश कया॥ ४७ ॥ जैसे मगर चुर र से भरे ए समु म बेरोक-टोक वेश करता है, उसी कार सार थ सुम ने पवत- शखरपर आ ढ़ ए अ वचल मेघके समान शोभायमान महान् वमानके स श सु र गृह से संयु तथा चुर र -भ ारसे भरपूर उस महलम बना कसी रोक-टोकके वेश कया॥ ४८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पं हवाँ सग पूरा आ॥ १५॥



सोलहवाँ सग सुम का ीरामके महलम प ँ चकर महाराजका संदेश सुनाना और ीरामका सीतासे अनुम त ले ल णके साथ रथपर बैठकर गाजे-बाजेके साथ मागम ी-पु ष क बात सुनते ए जाना



पुरातन वृ ा के ाता सूत सुम मनु क भीड़से भरे ए उस अ :पुरके ारको लाँघकर महलक एका क ाम जा प ँ च,े जहाँ भीड़ बलकु ल नह थी॥ १ ॥ वहाँ ीरामके चरण म अनुराग रखनेवाले एका च एवं सावधान युवक ास और धनुष आ द लये डटे ए थे। उनके कान म शु सुवणके बने ए कु ल झलमला रहे थे॥ २ ॥ उस ौढ़ीम सुम को गे आ व पहने और हाथम छड़ी लये व ाभूषण से अलंकृत ब त-से वृ पु ष बड़ी सावधानीके साथ ारपर बैठे दखायी दये, जो अ :पुरक य के अ (संर क) थे॥ ३ ॥ सुम को आते देख ीरामका य करनेक इ ावाले वे सभी पु ष सहसा वेगपूवक आसन से उठकर खड़े हो गये॥ ४ ॥ राजसेवाम अ कु शल तथा वनीत दयवाले सूतपु सुम ने उनसे कहा—‘आपलोग ीरामच जीसे शी जाकर कह, क सुम दरवाजेपर खड़े ह’॥ ५ ॥ ामीका य करनेक इ ावाले वे सब सेवक ीरामच जीके पास जा प ँ चे। उस समय ीराम अपनी धमप ी सीताके साथ वराजमान थे। उन सेवक ने शी ही उ सुम का संदेश सुना दया॥ ६ ॥ ारर क ारा दी ◌इ सूचना पाकर ीरामने पताक स ताके लये उनके अ र सेवक सुम को वह अ :पुरम बुलवा लया॥ ७ ॥ वहाँ प ँ चकर सुम ने देखा ीरामच जी व ाभूषण से अलंकृत हो कु बेरके समान जान पड़ते ह और बछौन से यु सोनेके पलंगपर वराजमान ह॥ ८ ॥ श ु को संताप देनेवाले रघुनाथजीके ीअ म वाराहके धरक भाँ त लाल, प व और सुग त उ म च नका लेप लगा आ है और देवी सीता उनके पास बैठकर अपने हाथसे



चवँर डु ला रही ह। सीताके अ समीप बैठे ए ीराम च ासे संयु च माक भाँ त शोभा पाते ह॥ ९-१० ॥ वनयके ाता व ी सुम ने तपते ए सूयक भाँ त अपने न काशसे स रहकर अ धक का शत होनेवाले वरदायक ीरामको वनीतभावसे णाम कया॥ वहारका लक शयनके लये जो आसन था, उस पलंगपर बैठे ए स मुखवाले राजकु मार ीरामका दशन करके राजा दशरथ ारा स ा नत सुम ने हाथ जोड़कर इस कार कहा—॥ १२ ॥ ‘ ीराम! आपको पाकर महारानी कौस ा सव े संतानवाली हो गयी ह। इस समय रानी कै के यीके साथ बैठे ए आपके पताजी आपको देखना चाहते ह, अत: वहाँ च लये, वल न क जये’॥ १३ ॥ सुम के ऐसा कहनेपर महातेज ी नर े ीरामने सीताजीका स ान करते ए स तापूवक उनसे इस कार कहा—॥ १४ ॥ ‘दे व! जान पड़ता है, पताजी और माता कै के यी दोन मलकर मेरे वषयम ही कु छ वचार कर रहे ह। न य ही मेरे अ भषेकके स म ही को◌इ बात होती होगी॥ १५ ॥ ‘मेरे अ भषेकके वषयम राजाके अ भ ायको ल करके उनका य करनेक इ ावाली परम उदार एवं समथ कजरारे ने वाली कै के यी मेरे अ भषेकके लये ही राजाको े रत कर रही ह गी॥ १६ ॥ ‘मेरी माता के कयराजकु मारी इस समाचारसे ब त स ◌इ ह गी। वे महाराजका हत चाहनेवाली और उनक अनुगा मनी ह। साथ ही वे मेरा भी भला चाहती ह। अत: वे महाराजको अ भषेक करनेके लये ज ी करनेको कह रही ह गी॥ १७ ॥ ‘सौभा क बात है क महाराज अपनी ारी रानीके साथ बैठे ह और उ ने मेरे अभी अथको स करनेवाले सुम को ही दूत बनाकर भेजा है॥ ‘जैसी वहाँ अ र प रषद ् बैठी है, वैसे ही दूत सुम जी यहाँ पधारे ह। अव आज ही महाराज मुझे युवराजके पदपर अ भ ष करगे॥ १९ ॥ ‘अत: म स तापूवक यहाँसे शी जाकर महाराजका दशन क ँ गा। तुम प रजन के साथ यहाँ सुखपूवक बैठो और आन करो’॥ २० ॥



प तके ारा इस कार स ा नत होकर कजरारे ने वाली सीतादेवी उनका म ल- च न करती ◌इ ामीके साथ-साथ ारतक उ प ँ चानेके लये गय ॥ उस समय वे बोल —‘आयपु ! ा ण के साथ रहकर आपका युवराजपदपर अ भषेक करके महाराज दूसरे समयम राजसूय-य म स ाट्के पदपर आपका अ भषेक करनेयो ह। ठीक उसी तरह जैसे लोक ा ाने देवराज इ का अ भषेक कया था॥ २२ ॥ ‘आप राजसूय-य म दी त हो तदनुकूल तका पालन करनेम त र, े मृगचमधारी, प व तथा हाथम मृगका ृ धारण करनेवाले ह और इस पम आपका दशन करती ◌इ म आपक सेवाम संल र ँ — यही मेरी शुभ-कामना है॥ २३ ॥ ‘आपक पूव दशाम व धारी इ , द ण दशाम यमराज, प म दशाम व ण और उ र दशाम कु बेर र ा कर’॥ २४ ॥ तदन र सीताक अनुम त ले उ वका लक म लकृ पूण करके ीरामच जी सुम के साथ अपने महलसे बाहर नकले॥ २५ ॥ पवतक गुफाम शयन करनेवाला सह जैसे पवतसे नकलकर आता है, उसी कार महलसे नकलकर ीरामच जीने ारपर ल णको उप त देखा, जो वनीतभावसे हाथ जोड़े खड़े थे॥ २६ ॥ तदन र म म क ाम आकर वे म से मले। फर ाथ जन को उप त देख उन सबसे मलकर उ संतु करके पु ष सह राजकु मार ीराम ा चमसे आवृत, शोभाशाली तथा अ के समान तेज ी उ म रथपर आ ढ़ ए॥ २७-२८ ॥ उस रथक घरघराहट मेघक ग ीर गजनाके समान तीत होती थी। उसम ानक संक णता नह थी। वह व ृत था और म ण एवं सुवणसे वभू षत था। उसक का सुवणमय मे पवतके समान जान पड़ती थी। वह रथ अपनी भासे लोग क आँ ख म चकाच ध-सा पैदा कर देता था॥ २९ ॥ उसम उ म घोड़े जुते ए थे, जो अ धक पु होनेके कारण हाथीके ब के समान तीत होते थे। जैसे सह ने धारी इ हरे रंगके घोड़ से यु शी गामी रथपर सवार होते ह, उसी कार ीराम अपने उस रथपर आ ढ़ थे॥ ३० ॥ अपनी सहज शोभासे का शत ीरघुनाथजी उस रथपर आ ढ़ हो तुरंत वहाँसे चल दये। वह तेज ी रथ आकाशम गरजनेवाले मेघक भाँ त अपनी घघर नसे स ूण दशा को



त नत करता आ महान् मेघख से नकलनेवाले च माके समान ीरामके उस भवनसे बाहर नकला॥ ३१ १/२ ॥ ीरामके छोटे भा◌इ ल ण भी हाथम व च चवँर लये उस रथपर बैठ गये और पीछेसे अपने े ाता ीरामक र ा करने लगे॥ ३२ १/२ ॥ फर तो सब ओरसे मनु क भारी भीड़ नकलने लगी। उस समय उस जन-समूहके चलनेसे सहसा भयंकर कोलाहल मच गया॥ ३३ १/२ ॥ ीरामके पीछे-पीछे अ े-अ े घोड़े और पवत के समान वशालकाय े गजराज सैकड़ और हजार क सं ाम चलने लगे॥ ३४ १/२ ॥ उनके आगे-आगे कवच आ दसे सुस त तथा च न और अगु से वभू षत हो खड् ग और धनुष धारण कये ब त-से शूरवीर तथा म लाशंसी मनु — व ी आ द चल रहे थे॥ ३५ १/ ॥ २



तदन र मागम वा क न, व ीजन के ु तपाठके श तथा शूरवीर के सहनाद सुनायी देने लगे। महल क खड़ कय म बैठी ◌इ व ाभूषण से वभू षत व नताएँ सब ओरसे श ुदमन ीरामपर ढेर-के -ढेर सु र पु बखेर रही थ । इस अव ाम ीराम आगे बढ़ते चले जा रहे थे॥ ३६-३७ १/२ ॥ उस समय अ ा लका और भूतलपर खड़ी ◌इ सवा सु री युव तयाँ ीरामका य करनेक इ ासे े वचन ारा उनक ु त गाने लग ॥ ३८ १/२ ॥ ‘माताको आन दान करनेवाले रघुवीर! आपक यह या ा सफल होगी और आपको पैतृक रा ा होगा। इस अव ाम आपको देखती ◌इ आपक माता कौस ा न य ही आन त हो रही ह गी॥ ३९ १/२ ॥ ‘वे ना रयाँ ीरामक दयव भा सीम नी सीताको संसारक सम सौभा वती य से े मानती ◌इ कहने लग —‘उन देवी सीताने पूवकालम न य ही बड़ा भारी तप कया होगा, तभी उ ने च मासे संयु ◌इ रो हणीक भाँ त ीरामका संयोग ा कया है’॥ ४०-४१ १/२ ॥ इस कार राजमागपर रथपर बैठे ए ीरामच जी ासाद शखर पर बैठी ◌इ युवती य के ारा कही गयी ये ारी बात सुन रहे थे॥ ४२ ॥



उस समय अयो ाम आये ए दूर-दूरके लोग अ हषसे भरकर वहाँ ीरामच जीके वषयम जो वातालाप और तरह-तरहक बात करते थे, अपने वषयम कही गयी उन सभी बात को ीरघुनाथजी सुनते जा रहे थे॥ ४३ ॥ वे कहते थे—‘इस समय ये ीरामच जी महाराज दशरथक कृ पासे ब त बड़ी स के अ धकारी होने जा रहे ह। अब हम सब लोग क सम कामनाएँ पूण हो जायँगी, क ये ीराम हमारे शासक ह गे॥ ४४ ॥ य द यह सारा रा चरकालके लये इनके हाथम आ जाय तो इस जग सम जनताके लये यह महान् लाभ होगा। इनके राजा होनेपर कभी कसीका अ य नह होगा और कसीको को◌इ दु:ख भी नह देखना पड़ेगा’॥ ४५ ॥ हन हनाते ए घोड़ , च ाड़ते ए हा थय , जय-जयकार करते ए आगे-आगे चलनेवाले व य , ु तपाठ करनेवाले सूत , वंशक व दाव ल बखाननेवाले मागध तथा सव े गुणगायक के तुमुल घोषके बीच उन व ी आ दसे पू जत एवं शं सत होते ए ीरामच जी कु बेरके समान चल रहे थे॥ ४६ ॥ या ा करते ए ीरामने उस वशाल राजमागको देखा, जो ह थ नय , मतवाले हा थय , रथ और घोड़ से खचाखच भरा आ था। उसके ेक चौराहेपर मनु क भारी भीड़ इक ी हो रही थी। उसके दोन पा भाग म चुर र से भरी ◌इ दुकान थ तथा व यके यो और भी ब त-से के ढेर वहाँ दखायी देते थे। वह राजमाग ब त साफ-सुथरा था॥ ४७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सोलहवाँ सग पूरा आ॥ १६॥



स हवाँ सग ीरामका राजपथक शोभा देखते और सु द क बात सुनते ए पताके भवनम वेश



इस कार ीमान् रामच जी अपने सु द को आन दान करते ए रथपर बैठे राजमागके बीचसे चले जा रहे थे; उ ने देखा—सारा नगर जा और पताका से सुशो भत हो रहा है, चार ओर ब मू अगु नामक धूपक सुग छा रही है और सब ओर असं मनु क भीड़ दखायी देती है। वह राजमाग ेत बादल के समान उ ल भ भवन से सुशो भत तथा अगु क सुग से ा हो रहा था॥ २ १/२ ॥ अ ी ेणीके च न , अगु नामक धूप , उ म ग , अलसी या सन आ दके रेश से बने ए कपड़ तथा रेशमी व के ढेर, अन बधे मोती और उ मो म टक र उस व ृत एवं उ म राजमागक शोभा बढ़ा रहे थे। वह नाना कारके पु तथा भाँ त-भाँ तके भ पदाथ से भरा आ था। उसके चौराह क दही, अ त, ह व , लावा, धूप, अगर, च न, नाना कारके पु हार और ग से सदा पूजा क जाती थी। गलोकम बैठे ए देवराज इ क भाँ त रथा ढ़ ीरामने उस राजमागको देखा॥ ३—६ १/२ ॥ वे अपने सु द के मुखसे कहे गये ब त-से आशीवाद को सुनते और यथायो उन सब लोग का स ान करते ए चले जा रहे थे॥ ७ १/२ ॥ (उनके हतैषी सु द ् कहते थे—) ‘रघुन न! तु ारे पतामह और पतामह (दादे और परदादे) जसपर चलते आये ह, आज उसी मागको हण करके युवराज-पदपर अ भ ष हो आप हम सब लोग का नर र पालन कर’॥ ८ १/२ ॥ ( फर वे आपसम कहने लगे—)‘भाइयो! ीरामके पता तथा सम पतामह ारा जस कार हमलोग का पालन-पोषण आ है, ीरामके राजा होनेपर हम उससे भी अ धक सुखी रहगे॥ ९ ॥ ‘य द हम रा पर त त ए ीरामको पताके घरसे नकलते ए देख ल—य द राजा रामका दशन कर ल तो अब हम इहलोकके भोग और परमाथ प मो लेकर ा करना है॥ १० ॥



‘अ मत



तेज ी ीरामका य द रा पर अ भषेक हो जाय तो वह हमारे लये जैसा यतर काय होगा, उससे बढ़कर दूसरा को◌इ परम य काय नह होगा’॥ ११ ॥ सु द के मुँहसे नकली ◌इ ये तथा और भी क◌इ तरहक अपनी शंसासे स रखनेवाली सु र बात सुनते ए ीरामच जी राजपथपर बढ़े चले जा रहे थे॥ (जो ीरामक ओर एक बार देख लेता, वह उ देखता ही रह जाता था।) ीरघुनाथजीके दूर चले जानेपर भी को◌इ उन पु षो मक ओरसे अपना मन या नह हटा पाता था॥ १३ ॥ उस समय जो ीरामको नह देखता और जसे ीराम नह देख लेते थे, वह सम लोक म न त समझा जाता था तथा यं उसक अ रा ा भी उसे ध ारती थी॥ १४ ॥ धमा ा ीराम चार वण के सभी मनु पर उनक अव ाके अनु प दया करते थे, इस लये वे सभी उनके भ थे॥ १५ ॥ राजकु मार ीराम चौराह , देवमाग , चै वृ तथा देवम र को अपने दा हने छोड़ते ए आगे बढ़ रहे थे॥ १६ ॥ राजा दशरथका भवन मेघसमूह के समान शोभा पानेवाले, सु र अनेक प-रंगवाले कै लास शखरके समान उ ल ासाद शखर (अ ा लका ) से सुशो भत था। उसम र क जालीसे वभू षत तथा वमानाकार ड़ागृह भी बने ए थे, जो अपनी ेत आभासे का शत होते थे। वे अपनी ऊँ चा◌इसे आकाशको भी लाँघते ए-से तीत होते थे; ऐसे गृह से यु वह े भवन इस भूतलपर इ सदनके समान शोभा पाता था। उस राजभवनके पास प ँ चकर अपनी शोभासे का शत होनेवाले राजकु मार ीरामने पताके महलम वेश कया॥ १७—१९ ॥



उ ने धनुधर वीर ारा सुर त महलक तीन ौ ढ़य को तो घोड़े जुते ए रथसे ही पार कया, फर दो ौ ढ़य म वे पु षो म राम पैदल ही गये॥ २० ॥ इस कार सारी ौ ढ़य को पार करके दशरथन न ीराम साथ आये ए सब लोग को लौटाकर यं अ :पुरम गये॥ २१ ॥ जब राजकु मार ीराम पताके पास जानेके लये अ :पुरम व ए, तब आन म ए सब लोग बाहर खड़े होकर उनके पुन: नकलनेक ती ा करने लगे, ठीक उसी तरह जैसे स रता का ामी समु च ोदयक ती ा करता रहता है॥ २२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म स हवाँ सग पूरा आ॥ १७॥



अठारहवाँ सग ीरामका कैकेयीसे पताके च त होनेका कारण पूछना और कैकेयीका कठोरतापूवक अपने माँगे ए वर का वृ ा बताकर ीरामको वनवासके लये े रत करना



महलम जाकर ीरामने पताको कै के यीके साथ एक सु र आसनपर बैठे देखा। वे वषादम डू बे ए थे, उनका मुँह सूख गया था और वे बड़े दयनीय दखायी देते थे॥ २ ॥ नकट प ँ चनेपर ीरामने वनीतभावसे पहले अपने पताके चरण म णाम कया; उसके बाद बड़ी सावधानीके साथ उ ने कै के यीके चरण म भी म क कु ाया॥ २ ॥ उस समय दीनदशाम पड़े ए राजा दशरथ एक बार ‘राम!’ ऐसा कहकर चुप हो गये (इससे आगे उनसे बोला नह गया)। उनके ने म आँ सू भर आये, अत: वे ीरामक ओर न तो देख सके और न उनसे को◌इ बात ही कर सके ॥ ३ ॥ राजाका वह अभूतपूव भयंकर प देखकर ीरामको भी भय हो गया, मानो उ ने पैरसे कसी सपको छू दया हो॥ ४ ॥ राजाक इ य म स ता नह थी; वे शोक और संतापसे दुबल हो रहे थे, बारंबार लंबी साँस भरते थे तथा उनके च म बड़ी था और ाकु लता थी। वे ऐसे दीखते थे, मानो तर माला से उपल त अ ो समु ु हो उठा हो, सूयको रा ने स लया हो अथवा कसी मह षने झूठ बोल दया हो॥ ६ ॥ राजाका वह शोक स ावनासे परे था। इस शोकका ा कारण है—यह सोचते ए ीरामच जी पू णमाके समु क भाँ त अ व ु हो उठे ॥ ७ ॥ पताके हतम त र रहनेवाले परम चतुर ीराम सोचने लगे क ‘आज ही ऐसी ा बात हो गयी’ जससे महाराज मुझसे स होकर बोलते नह ह॥ ८ ॥ ‘और दन तो पताजी कु पत होनेपर भी मुझे देखते ही स हो जाते थे, आज मेरी ओर पात करके इ ेश हो रहा है’॥ ९ ॥ यह सब सोचकर ीराम दीन-से हो गये, शोकसे कातर हो उठे , वषादके कारण उनके मुखक का फ क पड़ गयी। वे कै के यीको णाम करके उसीसे पूछने लगे—॥ १० ॥



‘मा! मुझसे अनजानम को◌इ अपराध तो नह



हो गया, जससे पताजी मुझपर नाराज हो गये ह। तुम यह बात मुझे बताओ और तु इ मना दो॥ ११ ॥ ‘ये तो सदा मुझे ार करते थे, आज इनका मन अ स हो गया? देखता ँ , ये आज मुझसे बोलतेतक नह ह, इनके मुखपर वषाद छा रहा है और ये अ दु:खी हो रहे ह॥ १२ ॥ ‘को◌इ शारी रक ा धज नत संताप अथवा मान सक अ भताप ( च ा) तो इ पी ड़त नह कर रहा है? क मनु को सदा सुख-ही-सुख मले— ऐसा सुयोग ाय: दुलभ होता है॥ १३ ॥ ‘ यदशन कु मार भरत, महाबली श ु अथवा मेरी माता का तो को◌इ अम ल नह आ है?॥ १४ ॥ ‘महाराजको असंतु करके अथवा इनक आ ा न मानकर इ कु पत कर देनेपर म दो घड़ी भी जी वत रहना नह चा ँ गा॥ १५ ॥ ‘मनु जसके कारण इस जग अपना ादुभाव (ज ) देखता है, उस देवता पताके जीते-जी वह उसके अनुकूल बताव न करेगा?॥ १६ ॥ ‘कह तुमने तो अ भमान या रोषके कारण मेरे पताजीसे को◌इ कठोर बात नह कह डाली, जससे इनका मन दु:खी हो गया है?॥ १७ ॥ ‘दे व! म स ी बात पूछता ँ , बताओ, कस कारणसे महाराजके मनम आज इतना वकार (संताप) है? इनक ऐसी अव ा तो पहले कभी नह देखी गयी थी’॥ १८ ॥ महा ा ीरामके इस कार पूछनेपर अ नल कै के यी बड़ी ढठा◌इके साथ अपने मतलबक बात इस कार बोली—॥ १९ ॥ ‘राम! महाराज कु पत नह ह और न इ को◌इ क ही आ है। इनके मनम को◌इ बात है, जसे तु ारे डरसे ये कह नह पा रहे ह॥ २० ॥ ‘तुम इनके य हो, तुमसे को◌इ अ य बात कहनेके लये इनक जबान नह खुलती; कतु इ ने जस कायके लये मेरे सामने त ा क है, उसका तु अव पालन करना चा हये॥ २१ ॥



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ने पहले तो मेरा स ार करते ए मुझे मुँहमाँगा वरदान दे दया और अब ये दूसरे गँवार मनु क भाँ त उसके लये प ा ाप करते ह॥ २२ ॥ ‘ये जानाथ पहले ‘म दूँगा’—ऐसी त ा करके मुझे वर दे चुके ह और अब उसके नवारणके लये थ य कर रहे ह, पानी नकल जानेपर उसे रोकनेके लये बाँध बाँधनेक नरथक चे ा करते ह॥ २३ ॥ ‘राम! स ही धमक जड़ है, यह स ु ष का भी न य है। कह ऐसा न हो क ये महाराज तु ारे कारण मुझपर कु पत होकर अपने उस स को ही छोड़ बैठ। जैसे भी इनके स का पालन हो, वैसा तु करना चा हये॥ २४ ॥ ‘य द राजा जस बातको कहना चाहते ह, वह शुभ हो या अशुभ, तुम सवथा उसका पालन करो तो म सारी बात पुन: तुमसे क ँ गी॥ २५ ॥ ‘य द राजाक कही ◌इ बात तु ारे कान म पड़कर वह न न हो जाय—य द तुम उनक ेक आ ाका पालन कर सको तो म तुमसे सब कु छ खोलकर बता दूँगी, ये यं तुमसे कु छ नह कहगे’॥ २६ ॥ कै के यीक कही ◌इ यह बात सुनकर ीरामके मनम बड़ी था ◌इ। उ ने राजाके समीप ही देवी कै के यीसे इस कार कहा—॥ २७ ॥ ‘अहो! ध ार है! दे व! तु मेरे त ऐसी बात मुँहसे नह नकालनी चा हये। म महाराजके कहनेसे आगम भी कू द सकता ँ , ती वषका भी भ ण कर सकता ँ और समु म भी गर सकता ँ ! महाराज मेरे गु , पता और हतैषी ह, म उनक आ ा पाकर ा नह कर सकता? इस लये दे व! राजाको जो अभी है, वह बात मुझे बताओ! म त ा करता ँ , उसे पूण क ँ गा। राम दो तरहक बात नह करता है’॥ २८—३० ॥ ीराम सरल भावसे यु और स वादी थे, उनक बात सुनकर अनाया कै के यीने अ दा ण वचन कहना आर कया—॥ ३१ ॥ ‘रघुन न! पहलेक बात है, देवासुरसं ामम तु ारे पता श ु के बाण से बध गये थे, उस महासमरम मने इनक र ा क थी, उससे स होकर इ ने मुझे दो वर दये थे॥ ३२ ॥ ‘राघव! उ मसे एक वरके ारा तो मने महाराजसे यह याचना क है क भरतका रा ा भषेक हो और दूसरा वर यह माँगा है क तु आज ही द कार म भेज दया जाय॥ ३३ ॥



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े ! य द तुम अपने पताको स त बनाना चाहते हो और अपनेको भी स वादी स करनेक इ ा रखते हो तो मेरी यह बात सुनो॥ ३४ ॥ ‘तुम पताक आ ाके अधीन रहो, जैसी इ ने त ा क है, उसके अनुसार तु चौदह वष के लये वनम वेश करना चा हये॥ ३५ ॥ ‘रघुन न! राजाने तु ारे लये जो यह अ भषेकका सामान जुटाया है, उस सबके ारा यहाँ भरतका अ भषेक कया जाय॥ ३६ ॥ ‘और तुम इस अ भषेकको ागकर चौदह वष तक द कार म रहते ए जटा और चीर धारण करो॥ ३७ ॥ ‘कोसलनरेशक इस वसुधाका, जो नाना कारके र से भरी-पूरी और घोड़े तथा रथ से ा है, भरत शासन कर॥ ३८ ॥ ‘बस इतनी ही बात है, ऐसा करनेसे तु ारे वयोगका क सहन करना पड़ेगा, यह सोचकर महाराज क णाम डू ब रहे ह। इसी शोकसे इनका मुख सूख गया है और इ तु ारी ओर देखनेका साहस नह होता॥ ‘रघुन न राम! तुम राजाक इस आ ाका पालन करो और इनके महान् स क र ा करके इन नरेशको संकटसे उबार लो’॥ ४० ॥ कै के यीके इस कार कठोर वचन कहनेपर भी ीरामके दयम शोक नह आ, परंतु महानुभाव राजा दशरथ पु के भावी वयोगज नत दु:खसे संत एवं थत हो उठे ॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अठारहवाँ सग पूरा आ॥ १८॥



उ ीसवाँ सग ीरामक कैकेयीके साथ बातचीत और वनम जाना ीकार करके उनका माता कौस ाके पास आ ा लेनेके लये जाना



वह अ य तथा मृ ुके समान क दायक वचन सुनकर भी श ुसूदन ीराम थत नह ए। उ ने कै के यीसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘मा! ब त अ ा! ऐसा ही हो। म महाराजक त ाका पालन करनेके लये जटा और चीर धारण करके वनम रहनेके न म अव यहाँसे चला जाऊँ गा॥ २ ॥ ‘परंतु म यह जानना चाहता ँ क आज दुजय तथा श ु का दमन करनेवाले महाराज मुझसे पहलेक तरह स तापूवक बोलते नह ह?॥ ३ ॥ ‘दे व! म तु ारे सामने ऐसी बात पूछ रहा ँ , इस लये तु ोध नह करना चा हये। न य चीर और जटा धारण करके म वनको चला जाऊँ गा, तुम स रहो॥ ४ ॥ ‘राजा मेरे हतैषी, गु , पता और कृ त ह। इनक आ ा होनेपर म इनका कौन-सा ऐसा य काय है, जसे न:श होकर न कर सकूँ ?॥ ५ ॥ ‘ कतु मेरे मनको एक ही हा दक दु:ख अ धक जला रहा है क यं महाराजने मुझसे भरतके अ भषेकक बात नह कही॥ ६ ॥ ‘म के वल तु ारे कहनेसे भी अपने भा◌इ भरतके लये इस रा को, सीताको, ारे ाण को तथा सारी स को भी स तापूवक यं ही दे सकता ँ ॥ ‘ फर य द यं महाराज—मेरे पताजी आ ा द और वह भी तु ारा य काय करनेके लये, तो म त ाका पालन करते ए उस कायको नह क ँ गा?॥ ८ ॥ ‘तुम मेरी ओरसे व ास दलाकर इन ल ाशील महाराजको आ ासन दो। ये पृ ीनाथ पृ ीक ओर कये धीरे-धीरे आँ सू बहा रहे ह?॥ ९ ॥ ‘आज ही महाराजक आ ासे दूत शी गामी घोड़ पर सवार होकर भरतको मामाके यहाँसे बुलानेके लये चले जायँ॥ १० ॥ ‘म अभी पताक बातपर को◌इ वचार न करके चौदह वष तक वनम रहनेके लये तुरंत द कार को चला ही जाता ँ ॥ ११ ॥



ीरामक वह बात सुनकर कै के यी ब त स ◌इ। उसे व ास हो गया क ये वनको चले जायँगे। अत: ीरामको ज ी जानेक ेरणा देती ◌इ वह बोली—॥ १२ ॥ ‘तुम ठीक कहते हो, ऐसा ही होना चा हये। भरतको मामाके यहाँसे बुला लानेके लये दूतलोग शी गामी घोड़ पर सवार होकर अव जायँगे॥ १३ ॥ ‘परंतु राम! तुम वनम जानेके लये यं ही उ ुक जान पड़ते हो; अत: तु ारा वल करना म ठीक नह समझती। जतना शी स व हो, तु यहाँसे वनको चल देना चा हये॥ १४ ॥ ‘नर



े ! राजा ल त होनेके कारण जो यं तुमसे नह कहते ह, यह को◌इ वचारणीय बात नह है। अत: इसका दु:ख तुम अपने मनसे नकाल दो॥ १५ ॥ ‘ ीराम! तुम जबतक अ उतावलीके साथ इस नगरसे वनको नह चले जाते, तबतक तु ारे पता ान अथवा भोजन नह करगे’॥ १६ ॥ कै के यीक यह बात सुनकर शोकम डू बे ए राजा दशरथ लंबी साँस ख चकर बोले —‘ ध ार है! हाय! बड़ा क आ!’ इतना कहकर वे मू त हो उस सुवणभू षत पलंगपर गर पड़े॥ १७ ॥ उस समय ीरामने राजाको उठाकर बैठा दया और कै के यीसे े रत हो कोड़ेक चोट खाये ए घोड़ेक भाँ त वे शी तापूवक वनको जानेके लये उतावले हो उठे ॥ १८ ॥ अनाया कै के यीके उस अ य एवं दा ण वचनको सुनकर भी ीरामके मनम था नह ◌इ। वे कै के यीसे बोले—॥ १९ ॥ ‘दे व! म धनका उपासक होकर संसारम नह रहना चाहता। तुम व ास रखो! मने भी ऋ षय क ही भाँ त नमल धमका आ य ले रखा है॥ २० ॥ ‘पू पताजीका जो भी य काय म कर सकता ँ , उसे ाण देकर भी क ँ गा। तुम उसे सवथा मेरे ारा आ ही समझो॥ २१ ॥ ‘ पताक सेवा अथवा उनक आ ाका पालन करना, जैसा मह पूण धम है, उससे बढ़कर संसारम दूसरा को◌इ धमाचरण नह है॥ २२ ॥ ‘य प पू पताजीने यं मुझसे नह कहा है, तथा प म तु ारे ही कहनेसे चौदह वष तक इस भूतलपर नजन वनम नवास क ँ गा॥ २३ ॥



‘कै के



य! तु ारा मुझपर पूरा अ धकार है। म तु ारी ेक आ ाका पालन कर सकता ँ ; फर भी तुमने यं मुझसे न कहकर इस कायके लये महाराजसे कहा—इनको क दया। इससे जान पड़ता है क तुम मुझम को◌इ गुण नह देखती हो॥ २४ ॥ ‘अ ा! अब म माता कौस ासे आ ा ले लूँ और सीताको भी समझा-बुझा लू,ँ इसके बाद आज ही वशाल द कवनक या ा क ँ गा॥ २५ ॥ ‘तुम ऐसा य करना, जससे भरत इस रा का पालन और पताजीक सेवा करते रह; क यही सनातन धम है’॥ २६ ॥ ीरामका यह वचन सुनकर पताको ब त दु:ख आ। वे शोकके आवेगसे कु छ बोल न सके , के वल फू ट-फू टकर रोने लगे॥ २७ ॥ महातेज ी ीराम उस समय अचेत पड़े ए पता महाराज दशरथ तथा अनाया कै के यीके भी चरण म णाम करके उस भवनसे नकले॥ २८ ॥ पता दशरथ और माता कै के यीक प र मा करके उस अ :पुरसे बाहर नकलकर ीराम अपने सु द से मले॥ २९ ॥ सु म ाका आन बढ़ानेवाले ल ण उस अ ायको देखकर अ कु पत हो उठे थे, तथा प दोन ने म आँ सू भरकर वे चुपचाप ीरामच जीके पीछे-पीछे चले गये॥ ३० ॥ ीरामच जीके मनम अब वन जानेक आकां ाका उदय हो गया था, अत: अ भषेकके लये एक क ◌इ साम य क द णा करते ए वे धीरे-धीरे आगे बढ़ गये। उनक ओर उ ने पात नह कया॥ ३१ ॥ ीराम अ वनाशी का से यु थे, इस लये उस समय रा का न मलना उन लोककमनीय ीरामक महती शोभाम को◌इ अ र न डाल सका; जैसे च माका ीण होना उसक सहज शोभाका अपकष नह कर पाता है॥ ३२ ॥ वे वनम जानेको उ ुक थे और सारी पृ ीका रा छोड़ रहे थे; फर भी उनके च म सवलोकातीत जीव ु महा ाक भाँ त को◌इ वकार नह देखा गया॥ ३३ ॥ ीरामने अपने ऊपर सु र छ लगानेक मनाही कर दी। डु लाये जानेवाले सुस त चँवर भी रोक दये। वे रथको लौटाकर जन तथा पुरवासी मनु को भी बदा करके (आ ीय जन के दु:खसे होनेवाले) दु:खको मनम ही दबाकर इ य को काबूम करके यह



अ य समाचार सुनानेके लये माता कौस ाके महलम गये। उस समय उ ने मनको पूणत: वशम कर रखा था॥ ३४-३५ ॥ जो शोभाशाली मनु सदा स वादी ीमान् रामके नकट रहा करते थे, उ ने भी उनके मुखपर को◌इ वकार नह देखा॥ ३६ ॥ मनको वशम रखनेवाले महाबा ीरामने अपनी ाभा वक स ता उसी तरह नह छोड़ी थी, जैसे शरद-् कालका उ ी करण वाला च मा अपने सहज तेजका प र ाग नह करता है॥ ३७ ॥ महायश ी धमा ा ीराम मधुर वाणीसे सब लोग का स ान करते ए अपनी माताके समीप गये॥ ३८ ॥ उस समय गुण म ीरामक ही समानता करनेवाले महापरा मी ाता सु म ाकु मार ल ण भी अपने मान सक दु:खको मनम ही धारण कये ए ीरामके पीछे-पीछे गये॥ ३९ ॥ अ आन से भरे ए उस भवनम वेश करके लौ कक से अपने अभी अथका वनाश आ देखकर भी हतैषी सु द के ाण पर संकट आ जानेक आश ासे ीरामने यहाँ अपने मुखपर को◌इ वकार नह कट होने दया॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ १९॥



बीसवाँ सग राजा दशरथक अ रा नय का वलाप, ीरामका कौस ाजीके भवनम जाना और उ अपने वनवासक बात बताना, कौस ाका अचेत होकर गरना और ीरामके उठा देनेपर उनक ओर देखकर वलाप करना



उधर पु ष सह ीराम हाथ जोड़े ए ही कै के यीके महलसे बाहर नकलने लगे, ही अ :पुरम रहनेवाली राजम हला का महान् आतनाद कट आ॥ वे कह रही थ —‘हाय! जो पताके आ ा न देनेपर भी सम अ :पुरके आव क काय म त: संल रहते थे, जो हमलोग के सहारे और र क थे, वे ीराम आज वनको चले जायँगे॥ २ ॥ ‘वे रघुनाथजी ज से ही अपनी माता कौस ाके त सदा जैसा बताव करते थे, वैसा ही हमारे साथ भी करते थे॥ ३ ॥ ‘जो कठोर बात कह देनेपर भी कु पत नह होते थे, दूसर के मनम ोध उ करनेवाली बात नह बोलते थे तथा जो सभी ठे ए य को मना लया करते थे, वे ही ीराम आज यहाँसे वनको चले जायँगे॥ ‘बड़े खेदक बात है क हमारे महाराजक बु मारी गयी। ये इस समय स ूण जीवजग ा वनाश करनेपर तुले ए ह, तभी तो ये सम ा णय के जीवनाधार ीरामका प र ाग कर रहे ह’॥ ५ ॥ इस कार सम रा नयाँ अपने प तको कोसने लग और बछड़ से बछु ड़ी ◌इ गौ क तरह उ रसे न करने लग ॥ ६ ॥ अ :पुरका वह भय र आतनाद सुनकर महाराज दशरथने पु शोकसे संत हो ल ाके मारे बछौनेम ही अपनेको छपा लया॥ ७ ॥ इधर जते य ीरामच जी जन के दु:खसे अ धक ख होकर हाथीके समान लंबी साँस ख चते ए भा◌इ ल णके साथ माताके अ :पुरम गये॥ ८ ॥ वहाँ उ ने उस घरके दरवाजेपर एक परम पू जत वृ पु षको बैठा आ देखा और दूसरे भी ब त-से मनु वहाँ खड़े दखायी दये॥ ९ ॥



वे सब-के -सब वजयी वीर म े रघुन न ीरामको देखते ही जय-जयकार करते ए उनक सेवाम उप त ए और उ बधा◌इ देने लगे॥ १० ॥ पहली ोढ़ी पार करके जब वे दूसरीम प ँ चे, तब वहाँ उ राजाके ारा स ा नत ब तसे वेद ा ण दखायी दये॥ ११ ॥ उन वृ ा ण को णाम करके ीरामच जी जब तीसरी ोढ़ीम प ँ च,े तब वहाँ उ ारर ाके कायम लगी ◌इ ब त-सी नववय ा एवं वृ अव ावाली याँ दखायी द ॥ १२ ॥ उ देखकर उन य को बड़ा हष आ। ीरामको बधा◌इ देकर उन य ने त ाल महलके भीतर वेश कया और तुरंत ही ीरामच जीक माताको उनके आगमनका य समाचार सुनाया॥ १३ ॥ उस समय देवी कौस ा पु क म लकामनासे रातभर जागकर सबेरे एका च हो भगवान् व ुक पूजा कर रही थ ॥ १४ ॥ वे रेशमी व पहनकर बड़ी स ताके साथ नर र तपरायण होकर म लकृ पूण करनेके प ात् म ो ारणपूवक उस समय अ म आ त दे रही थ ॥ १५ ॥ उसी समय ीरामने माताके शुभ अ :पुरम वेश करके वहाँ माताको देखा। वे अ म हवन करा रही थ ॥ १६ ॥ रघुन नने देखा तो वहाँ देव-कायके लये ब त-सी साम ी सं ह करके रखी ◌इ है। दही, अ त, घी, मोदक, ह व , धानका लावा, सफे द माला, खीर, खचड़ी, स मधा और भरे ए कलश—ये सब वहाँ गोचर ए॥ १७-१८ ॥ उ म का वाली माता कौस ा सफे द रंगक रेशमी साड़ी पहने ए थ । वे तके अनु ानसे दुबल हो गयी थ और इ देवताका तपण कर रही थ । इस अव ाम ीरामने उ देखा॥ १९ ॥ माताका आन बढ़ानेवाले य पु को ब त देरके बाद सामने उप त देख कौस ादेवी बड़े हषम भरकर उसक ओर चल , मानो को◌इ घोड़ी अपने बछेड़के ो देखकर बड़े हषसे उसके पास आयी हो॥ २० ॥



ीरघुनाथजीने नकट आयी ◌इ माताके चरण म णाम कया और माता कौस ाने उ दोन भुजा से कसकर छातीसे लगा लया तथा बड़े ारसे उनका म क सूँघा॥ २१ ॥ उस समय कौस ादेवीने अपने दुजय पु ीरामच जीसे पु ेहवश यह य एवं हतकर बात कही—॥ २२ ॥ ‘बेटा! तुम धमशील, वृ एवं महा ा राज षय के समान आयु, क त और कु लो चत धम ा करो॥ २३ ॥ ‘रघुन न! अब तुम जाकर अपने स त पता राजाका दशन करो। वे धमा ा नरेश आज ही तु ारा युवराजके पदपर अ भषेक करगे’॥ २४ ॥ यह कहकर माताने उ बैठनेके लये आसन दया और भोजन करनेको कहा। भोजनके लये नम त होकर ीरामने उस आसनका शमा कर लया। फर वे अ ल फै लाकर मातासे कु छ कहनेको उ त ए॥ वे भावसे ही वनयशील थे तथा माताके गौरवसे भी उनके सामने नतम क हो गये थे। उ द कार को ान करना था, अत: वे उसके लये आ ा लेनेका उप म करने लगे॥ २६ ॥ उ ने कहा—‘दे व! न य ही तु मालूम नह है, तु ारे ऊपर महान् भय उप त हो गया है। इस समय म जो बात कहने जा रहा ँ , उसे सुनकर तुमको, सीताको और ल णको भी दु:ख होगा; तथा प क ँ गा॥ ‘अब तो म द कार म जाऊँ गा, अत: ऐसे ब मू आसनक मुझे ा आव कता है? अब मेरे लये यह कु शक चटा◌इपर बैठनेका समय आया है॥ ‘म राजभो व ुका ाग करके मु नक भाँ त क , मूल और फल से जीवन- नवाह करता आ चौदह वष तक नजन वनम नवास क ँ गा॥ २९ ॥ ‘महाराज युवराजका पद भरतको दे रहे ह और मुझे तप ी बनाकर द कार म भेज रहे ह॥ ३० ॥ ‘अत: चौदह वष तक नजन वनम र ँ गा और जंगलम सुलभ होनेवाले व ल आ दको धारण करके फल-मूलके आहारसे ही जीवन- नवाह करता र ँ गा’॥



यह अ य बात सुनकर वनम फरसेसे काटी ◌इ शालवृ क शाखाके समान कौस ा देवी सहसा पृ ीपर गर पड़ , मानो गसे को◌इ देवा ना भूतलपर आ गरी हो॥ ३२ ॥ ज ने जीवनम कभी दु:ख नह देखा था—जो दु:ख भोगनेके यो थ ही नह , उ माता कौस ाको कटी ◌इ कदलीक भाँ त अचेत-अव ाम भू मपर पड़ी देख ीरामने हाथका सहारा देकर उठाया॥ ३३ ॥ जैसे को◌इ घोड़ी पहले बड़ा भारी बोझ ढो चुक हो और थकावट दूर करनेके लये धरतीपर लोट-पोटकर उठी हो, उसी तरह उठी ◌इ कौस ाजीके सम अ म धूल लपट गयी थी और वे अ दीन दशाको प ँ च गयी थ । उस अव ाम ीरामने अपने हाथसे उनके अ क धूल प छी॥ ३४ ॥ कौस ाजीने जीवनम पहले सदा सुख ही देखा था और उसीके यो थ , परंतु उस समय वे दु:खसे कातर हो उठी थ । उ ने ल णके सुनते ए अपने पास बैठे पु ष सह ीरामसे इस कार कहा—॥ ३५ ॥ ‘बेटा रघुन न! य द तु ारा ज न आ होता तो मुझे इस एक ही बातका शोक रहता। आज जो मुझपर इतना भारी दु:ख आ पड़ा है, इसे व ा होनेपर मुझे नह देखना पड़ता॥ ३६ ॥ ‘बेटा!



व ाको एक मान सक शोक होता है। उसके मनम यह संताप बना रहता है क मुझे को◌इ संतान नह है, इसके सवा दूसरा को◌इ दु:ख उसे नह होता॥ ‘बेटा राम! प तके भु कालम एक े प ीको जो क ाण या सुख ा होना चा हये, वह मुझे पहले कभी नह देखनेको मला। सोचती थी, पु के रा म म सब सुख देख लूँगी और इसी आशासे म अबतक जीती रही॥ ३८ ॥ ‘बड़ी रानी होकर भी मुझे अपनी बात से दयको वदीण कर देनेवाली छोटी सौत के ब त-से अ य वचन सुनने पड़गे॥ ३९ ॥ ‘ य के लये इससे बढ़कर महान् दु:ख और ा होगा; अत: मेरा शोक और वलाप जैसा है, उसका कभी अ नह है॥ ४० ॥ ‘तात! तु ारे नकट रहनेपर भी म इस कार सौत से तर ृ त रही ँ , फर तु ारे परदेश चले जानेपर मेरी ा दशा होगी? उस दशाम तो मेरा मरण ही न त है॥ ४१ ॥



‘प तक



ओरसे मुझे सदा अ तर ार अथवा कड़ी फटकार ही मली है, कभी ार और स ान नह ा आ है। म कै के यीक दा सय के बराबर अथवा उनसे भी गयी-बीती समझी जाती ँ ॥ ‘जो को◌इ मेरी सेवाम रहता या मेरा अनुसरण करता है, वह भी कै के यीके बेटेको देखकर चुप हो जाता है, मुझसे बात नह करता है॥ ४३ ॥ ‘बेटा! इस दुग तम पड़कर म सदा ोधी भावके कारण कटुवचन बोलनेवाले उस कै के यीके मुखको कै से देख सकूँ गी॥ ४४ ॥ ‘रघुन न! तु ारे उपनयन प तीय ज लये स ह वष बीत गये (अथात् तुम अब स ा◌इस वषके हो गये)। अबतक म यही आशा लगाये चली आ रही थी क अब मेरा दु:ख दूर हो जायगा॥ ४५ ॥ ‘राघव! अब इस बुढ़ापेम इस तरह सौत का तर ार और उससे होनेवाले महान् अ य दु:खको म अ धक कालतक नह सह सकती॥ ४६ ॥ ‘पूण च माके समान तु ारे मनोहर मुखको देखे बना म दु: खनी दयनीय जीवनवृ से रहकर कै से नवाह क ँ गी॥ ४७ ॥ ‘बेटा! (य द तुझे इस देशसे नकल ही जाना है तो) मुझ भा हीनाने बारंबार उपवास, देवता का ान तथा ब त-से प र मजनक उपाय करके थ ही तु ारा इतने क से पालनपोषण कया है॥ ४८ ॥ ‘म समझती ँ क न य ही यह मेरा दय बड़ा कठोर है, जो तु ारे बछोहक बात सुनकर भी वषाकालके नूतन जलके वाहसे टकराये ए महानदीके कगारक भाँ त फट नह जाता है॥ ४९ ॥ न य ही मेरे लये कह मौत नह है, यमराजके घरम भी मेरे लये जगह नह है, तभी तो जैसे कसी रोती ◌इ मृगीको सह जबरद ी उठा ले जाता है, उसी कार यमराज मुझे आज ही उठा ले जाना नह चाहता है॥ ५० ॥ ‘अव ही मेरा कठोर दय लोहेका बना आ है, जो पृ थवीपर पड़नेपर भी न तो फटता है और न टूक-टूक हो जाता है। इसी दु:खसे ा ए इस शरीरके भी टुकड़े-टुकड़े नह हो जाते ह। न य ही, मृ ुकाल आये बना कसीका मरण नह होता है॥



‘सबसे अ धक दु:खक



बात तो यह है क पु के सुखके लये मेरे ारा कये गये त, दान और संयम सब थ हो गये। मने संतानक हत-कामनासे जो तप कया है, वह भी ऊसरम बोये ए बीजक भाँ त न ल हो गया॥ ५२ ॥ ‘य द को◌इ मनु भारी दु:खसे पी ड़त हो असमयम भी अपनी इ ाके अनुसार मृ ु पा सके तो म तु ारे बना अपने बछड़ेसे बछु ड़ी ◌इ गायक भाँ त आज ही यमराजक सभाम चली जाऊँ ॥ ५३ ॥ ‘च माके समान मनोहर मुख-का वाले ीराम! य द मेरी मृ ु नह होती है तो तु ारे बना यहाँ थ कु त जीवन बताऊँ ? बेटा! जैसे गौ दुबल होनेपर भी अपने बछड़ेके लोभसे उसके पीछे-पीछे चली जाती है, उसी कार म भी तु ारे साथ ही वनको चली चलूँगी’॥ ५४ ॥ आनेवाले भारी दु:खको सहनेम असमथ हो महान् संकटका वचार करके स के ानम बँधे ए अपने पु ीरघुनाथजीक ओर देखकर माता कौस ा उस समय ब त वलाप करने लग , मानो को◌इ क री अपने पु को ब नम पड़ा आ देखकर बलख रही हो॥ ५५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बीसवाँ सग पूरा आ॥ २०॥







सवाँ सग



ल णका रोष, उनका ीरामको बलपूवक रा पर अ धकार कर लेनेके लये े रत करना तथा ीरामका पताक आ ाके पालनको ही धम बताकर माता और ल णको समझाना



इस कार वलाप करती ◌इ ीराममाता कौस ासे अ दु:खी ए ल णने उस समयके यो बात कही—॥ १ ॥ ‘बड़ी माँ! मुझे भी यह अ ा नह लगता क ीराम रा ल ीका प र ाग करके वनम जायँ। महाराज तो इस समय ीक बातम आ गये ह, इस लये उनक कृ त वपरीत हो गयी है। एक तो वे बूढ़े ह, दूसरे वषय ने उ वशम कर लया है; अत: कामदेवके वशीभूत ए वे नरेश कै के यी-जैसी ीक ेरणासे ा नह कह सकते ह?॥ २-३ ॥ ‘म ीरघुनाथजीका ऐसा को◌इ अपराध या दोष नह देखता, जससे इ रा से नकाला जाय और वनम रहनेके लये ववश कया जाय॥ ४ ॥ ‘म संसारम एक मनु को भी ऐसा नह देखता, जो अ श ु एवं तर ृ त होनेपर भी परो म भी इनका को◌इ दोष बता सके ॥ ५ ॥ ‘धमपर रखनेवाला कौन ऐसा राजा होगा, जो देवताके समान शु , सरल, जते य और श ु पर भी ेह रखनेवाले ( ीराम-जैसे) पु का अकारण प र ाग करेगा?॥ ६ ॥ ‘जो पुन: बालभाव ( ववेकशू ता) को ा हो गये ह, ऐसे राजाके इस वचनको राजनी तका ान रखनेवाला कौन पु अपने दयम ान दे सकता है?॥ ‘रघुन न! जबतक को◌इ भी मनु आपके वनवासक बातको नह जानता है, तबतक ही, आप मेरी सहायतासे इस रा के शासनक बागडोर अपने हाथम ले ली जये॥ ८ ॥ ‘रघुवीर! जब म धनुष लये आपके पास रहकर आपक र ा करता र ँ और आप कालके समान यु के लये डट जायँ, उस समय आपसे अ धक पौ ष कट करनेम कौन समथ हो सकता है?॥ ९ ॥ ‘नर े ! य द नगरके लोग वरोधम खड़े ह गे तो म अपने तीखे बाण से सारी अयो ाको मनु से सूनी कर दूँगा॥ १० ॥



‘जो-जो भरतका प लेगा अथवा के वल जो उ का हत चाहेगा, उन सबका म वध कर डालूँगा; क जो कोमल या न होता है, उसका सभी तर ार करते ह॥ ११ ॥ ‘य द



कै के यीके ो ाहन देनेपर उसके ऊपर संतु हो पताजी हमारे श ु बन रहे ह तो हम भी मोह-ममता छोड़कर इ कै द कर लेना या मार डालना चा हये॥ १२॥ ‘ क य द गु भी घमंडम आकर कत ाकत का ान खो बैठे और कु मागपर चलने लगे तो उसे भी द देना आव क हो जाता है॥ १३ ॥ ‘पु षो म! राजा कस बलका सहारा लेकर अथवा कस कारणको सामने रखकर आपको ायत: ा आ यह रा अब कै के यीको देना चाहते ह?॥ ‘श ुदमन ीराम! आपके और मेरे साथ भारी वैर बाँधकर इनक ा श है क यह रा ल ी ये भरतको दे द?॥ १५ ॥ ‘दे व! (बड़ी माँ!) म स , धनुष, दान तथा य आ दक शपथ खाकर तुमसे स ी बात कहता ँ क मेरा अपने पू ाता ीरामम हा दक अनुराग है॥ १६ ॥ ‘दे व! आप व ास रख, य द ीराम जलती ◌इ आगम या घोर वनम वेश करनेवाले ह गे तो म इनसे भी पहले उसम व हो जाऊँ गा॥ १७ ॥ ‘इस समय आप, रघुनाथजी तथा अ सब लोग भी मेरे परा मको देख। जैसे सूय उ दत होकर अ कारका नाश कर देता है, उसी कार म भी अपनी श से आपके सब दु:ख दूर कर दूँगा॥ १८ ॥ ‘जो कै के यीम आस च होकर दीन बन गये ह, बालभाव (अ ववेक) म त ह और अ धक बुढ़ापेके कारण न त हो रहे ह, उन वृ पताको म अव मार डालूँगा’॥ १९ ॥ महामन ी ल णके ये ओज ी वचन सुनकर शोकम कौस ा ीरामसे रोती ◌इ बोल —॥ २० ॥ ‘बेटा! तुमने अपने भा◌इ ल णक कही ◌इ सारी बात सुन ल , य द जँचे तो अब इसके बाद तुम जो कु छ करना उ चत समझो, उसे करो॥ २१ ॥ ‘मेरी सौतक कही ◌इ अधमयु बात सुनकर मुझ शोकसे संत ◌इ माताको छोड़कर तु यहाँसे नह जाना चा हये॥ २२ ॥



‘ध म !



तुम धमको जाननेवाले हो, इस लये य द धमका पालन करना चाहो तो यह रहकर मेरी सेवा करो और इस कार परम उ म धमका आचरण करो॥ ‘व ! अपने घरम नयमपूवक रहकर माताक सेवा करनेवाले का प उ म तप ासे यु हो गलोकम चले गये थे॥ २४ ॥ ‘जैसे गौरवके कारण राजा तु ारे पू ह, उसी कार म भी ँ । म तु वन जानेक आ ा नह देती, अत: तु यहाँसे वनको नह जाना चा हये॥ २५ ॥ ‘तु ारे साथ तनके चबाकर रहना भी मेरे लये ेय र है, परंतु तुमसे वलग हो जानेपर न मुझे इस जीवनसे को◌इ योजन है और न सुखसे॥ २६ ॥ ‘य द तुम मुझे शोकम डू बी ◌इ छोड़कर वनको चले जाओगे तो म उपवास करके ाण ाग दूँगी, जी वत नह रह सकूँ गी॥ २७ ॥ ‘बेटा! ऐसा होनेपर तुम संसार स वह नरक-तु क पाओगे, जो ह ाके समान है और जसे स रता के ामी समु ने अपने अधमके फल पसे ा कया था’*॥ २८ ॥ माता कौस ाको इस कार दीन होकर वलाप करती देख धमा ा ीरामच ने यह धमयु वचन कहा—॥ २९ ॥ ‘माता! म तु ारे चरण म सर क ु ाकर तु स करना चाहता ँ । मुझम पताजीक आ ाका उ न करनेक श नह है, अत: म वनको ही जाना चाहता ँ ॥ ३० ॥ ‘वनवासी व ान् क ु मु नने पताक आ ाका पालन करनेके लये अधम समझते ए भी गौका वध कर डाला था॥ ३१ ॥ ‘हमारे कु लम भी पहले राजा सगरके पु ऐसे हो गये ह, जो पताक आ ासे पृ ी खोदते ए बुरी तरहसे मारे गये॥ ३२ ॥ ‘जमद के पु परशुरामने पताक आ ाका पालन करनेके लये ही वनम फरसेसे अपनी माता रेणुकाका गला काट डाला था॥ ३३ ॥ ‘दे व! इ ने तथा और भी ब त-से देवतु मनु ने उ ाहके साथ पताके आदेशका पालन कया है। अत: म भी कायरता छोड़कर पताका हत-साधन क ँ गा॥ ३४ ॥ ‘दे व! के वल म ही इस कार पताके आदेशका पालन नह कर रहा ँ । जनक मने अभी चचा क है, उन सबने भी पताके आदेशका पालन कया है॥



‘मा!



म तु ारे तकू ल कसी नवीन धमका चार नह कर रहा ँ । पूवकालके धमा ा पु ष को भी यह अभी था। म तो उनके चले ए मागका ही अनुसरण करता ँ ॥ ३६ ॥ ‘इस भूम लपर जो सबके लये करनेयो है, वही म भी करने जा रहा ँ । इसके वपरीत को◌इ न करनेयो काम नह कर रहा ँ । पताक आ ाका पालन करनेवाला को◌इ भी पु ष धमसे नह होता’॥ अपनी मातासे ऐसा कहकर वा वे ा म े सम धनुधर शरोम ण ीरामने पुन: ल णसे कहा—॥ ३८ ॥ ‘ल ण! मेरे त तु ारा जो परम उ म ेह है, उसे म जानता ँ । तु ारे परा म, धैय और दुधष तेजका भी मुझे ान है॥ ३९ ॥ ‘शुभल ण ल ण! मेरी माताको जो अनुपम एवं महान् दु:ख हो रहा है, वह स और शमके वषयम मेरे अ भ ायको न समझनेके कारण है॥ ४० ॥ ‘संसारम धम ही सबसे े है। धमम ही स क त ा है। पताजीका यह वचन भी धमके आ त होनेके कारण परम उ म है॥ ४१ ॥ ‘वीर! धमका आ य लेकर रहनेवाले पु षको पता, माता अथवा ा णके वचन का पालन करनेक त ा करके उसे म ा नह करना चा हये॥ ४२ ॥ ‘वीर! अत: म पताजीक आ ाका उ न नह कर सकता; क पताजीके कहनेसे ही कै के यीने मुझे वनम जानेक आ ा दी है॥ ४३ ॥ ‘इस लये के वल ा धमका अवल न करनेवाली इस ओछी बु का ाग करो, धमका आ य लो, कठोरता छोड़ो और मेरे वचारके अनुसार चलो’॥ ४४ ॥ अपने भा◌इ ल णसे सौहादवश ऐसी बात कहकर उनके बड़े ाता ीरामने पुन: कौस ाके चरण म म क कु ाया और हाथ जोड़कर कहा—॥ ४५ ॥ ‘दे व! म यहाँसे वनको जाऊँ गा। तुम मुझे आ ा दो और वाचन कराओ। यह बात म अपने ाण क शपथ दलाकर कहता ँ ॥ ४६ ॥ ‘जैसे पूवकालम राज ष यया त गलोकका ाग करके पुन: भूतलपर उतर आये थे, उसी कार म भी त ा पूण करके पुन: वनसे अयो ापुरीको लौट आऊँ गा॥ ४७ ॥



‘मा! शोकको अपने



दयम ही अ ी तरह दबाये रखो। शोक न करो। पताक आ ाका पालन करके म फर वनवाससे यहाँ लौट आऊँ गा॥ ४८ ॥ ‘तुमको, मुझको, सीताको, ल णको और माता सु म ाको भी पताजीक आ ाम ही रहना चा हये। यही सनातन धम है॥ ४९ ॥ ‘मा! यह अ भषेकक साम ी ले जाकर रख दो। अपने मनका दु:ख मनम ही दबा लो और वनवासके स म जो मेरा धमानुकूल वचार है, उसका अनुसरण करो—मुझे जानेक आ ा दो’॥ ५० ॥ ीरामच जीक यह धमानुकूल तथा ता और आकु लतासे र हत बात सुनकर जैसे मरे ए मनु म ाण आ जाय, उसी कार देवी कौस ा मू ा ागकर होशम आ गय तथा अपने पु ीरामक ओर देखकर इस कार कहने लग —॥ ५१ ॥ ‘बेटा! धम और सौहादके नाते जैसे पता तु ारे लये आदरणीय गु जन ह, वैसी ही म भी ँ । म तु वनम जानेक आ ा नह देती। व ! मुझ दु: खयाको छोड़कर तु कह नह जाना चा हये॥ ५२ ॥ ‘तु ारे बना मुझे यहाँ इस जीवनसे ा लाभ है? इन जन से, देवता तथा पतर क पूजासे और अमृतसे भी ा लेना है? तुम दो घड़ी भी मेरे पास रहो तो वही मेरे लये स ूण संसारके रा से भी बढ़कर सुख देनेवाला है’॥ ५३ ॥ जैसे को◌इ वशाल गजराज कसी अ कू पम पड़ जाय और लोग उसे जलते लुआठ से मार-मारकर पी ड़त करने लग, उस दशाम वह ोधसे जल उठे ; उसी कार ीराम भी माताका बारंबार क ण- वलाप सुनकर (इसे धमपालनम बाधा मानकर) आवेशम भर गये। (वनम जानेका ही ढ़ न य कर लया)॥ ५४ ॥ उ ने धमम ही ढ़तापूवक त रहकर अचेत-सी हो रही मातासे और आत एवं संत ए सु म ाकु मार ल णसे भी ऐसी धमानुकूल बात कही, जैसी उस अवसरपर वे ही कह सकते थे॥ ५५ ॥ ‘ल ण! म जानता ँ , तुम सदा ही मुझम भ रखते हो और तु ारा परा म कतना महान् है, यह भी मुझसे छपा नह है; तथा प तुम मेरे अ भ ायक ओर ान न देकर माताजीके साथ यं भी मुझे पीड़ा दे रहे हो। इस तरह मुझे अ दु:खम न डालो॥ ५६ ॥



‘इस जीवजग पूवकृ त धमके फलक ा के अवसर पर जो धम, अथ और काम तीन देखे गये ह, वे सब-के -सब जहाँ धम है, वहाँ अव ा होते ह—इसम संशय नह है; ठीक उसी तरह जैसे भाया धम, अथ और काम तीन क साधन होती है। वह प तके वशीभूत या



अनुकूल रहकर अ त थ-स ार आ द धमके पालनम सहायक होती है। ेयसी पसे कामका साधन बनती है और पु वती होकर उ म लोकक ा प अथक सा धका होती है॥ ५७ ॥ ‘ जस कमम धम आ द सब पु षाथ का समावेश न हो, उसको नह करना चा हये। जससे धमक स होती हो, उसीका आर करना चा हये। जो के वल अथपरायण होता है, वह लोकम सबके ेषका पा बन जाता है तथा धम व कामम अ आस होना शंसा नह , न ाक बात है॥ ५८ ॥ ‘महाराज हमलोग के गु , राजा और पता होनेके साथ ही बड़े-बूढ़े माननीय पु ष ह। वे ोधसे, हषसे अथवा कामसे े रत होकर भी य द कसी कायके लये आ ा द तो हम धम समझकर उसका पालन करना चा हये। जसके आचरण म ू रता नह है, ऐसा कौन पु ष पताक आ ाके पालन प धमका आचरण नह करेगा॥ ५९ ॥ ‘इस लये म पताक इस स ूण त ाका यथावत् पालन करनेसे मुँह नह मोड़ सकता। तात ल ण! वे हम दोन को आ ा देनेम समथ गु ह और माताजीके तो वे ही प त, ग त तथा धम ह॥ ६० ॥ ‘वे धमके वतक महाराज अभी जी वत ह और वशेषत: अपने धममय मागपर त ह, ऐसी दशाम माताजी, जैसे दूसरी को◌इ वधवा ी बेटेके साथ रहती है, उस कार मेरे साथ यहाँसे वनम कै से चल सकती ह?॥ ६१ ॥ ‘अत: दे व! तुम मुझे वनम जानेक आ ा दो और हमारे म लके लये वाचन कराओ, जससे वनवासक अव ध समा होनेपर म फर तु ारी सेवाम आ जाऊँ । जैसे राजा यया त स के भावसे फर गम लौट आये थे॥ ६२ ॥ ‘के वल धमहीन रा के लये म महान् फलदायक धमपालन प सुयशको पीछे नह ढके ल सकता। मा! जीवन अ धक कालतक रहनेवाला नह है; इसके लये म आज अधमपूवक इस तु पृ ीका रा लेना नह चाहता’॥ ६३ ॥ इस कार नर े ीरामच जीने धैयपूवक द कार म जानेक इ ासे माताको स करनेका य कया तथा अपने छोटे भा◌इ ल णको भी अपने वचारके अनुसार



भलीभाँ त धमका रह समझाकर मन-ही-मन माताक प र मा करनेका संक कया॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म इ सवाँ सग पूरा आ॥ २१॥ कसी क म समु ने अपनी माताको दु:ख दया था, उससे प लाद नामक षने उस अधमका द देनेके लये उसके ऊपर एक कृ ाका योग कया। इससे समु को नरकवासतु महान् दु:ख भोगना पड़ा था। *



बा◌इसवाँ सग ीरामका ल



णको समझाते ए अपने वनवासम दैवको ही कारण बताना और अ भषेकक साम ीको हटा लेनेका आदेश देना



ीरामके रा ा भषेकम व पड़नेके कारण) सु म ाकु मार ल ण मान सक थासे ब त दु:खी थे। उनके मनम वशेष अमष भरा आ था। वे रोषसे भरे ए गजराजक भाँ त ोधसे आँ ख फाड़-फाड़कर देख रहे थे। अपने मनको वशम रखनेवाले ीराम धैयपूवक च को न वकार पसे काबूम रखते ए अपने हतैषी सु द् य भा◌इ ल णके पास जाकर इस कार बोले—॥ १-२ ॥ ‘ल ण! के वल धैयका आ य लेकर अपने मनके ोध और शोकको दूर करो, च से अपमानक भावना नकाल दो और दयम भलीभाँ त हष भरकर मेरे अ भषेकके लये यह जो उ म साम ी एक क गयी है, इसे शी हटा दो और ऐसा काय करो, जससे मेरे वनगमनम बाधा उप त न हो॥ ३-४ ॥ ‘सु म ान न! अबतक अ भषेकके लये साम ी जुटानेम जो तु ारा उ ाह था, वह इसे रोकने और मेरे वन जानेक तैयारी करनेम होना चा हये॥ ५ ॥ ‘मेरे अ भषेकके कारण जसके च म संताप हो रहा है, उस हमारी माता कै के यीको जससे कसी तरहक श ा न रह जाय, वही काम करो॥ ६ ॥ ‘ल ण! उसके मनम संदेहके कारण दु:ख उ हो, इस बातको म दो घड़ीके लये भी नह सह सकता और न इसक उपे ा ही कर सकता ँ ॥ ‘मने यहाँ कभी जान-बूझकर या अनजानम माता का अथवा पताजीका को◌इ छोटासा भी अपराध कया हो, ऐसा याद नह आता॥ ८ ॥ ‘ पताजी सदा स वादी और स परा मी रहे ह। वे परलोकके भयसे सदा डरते रहते ह; इस लये मुझे वही काम करना चा हये, जससे मेरे पताजीका पारलौ कक भय दूर हो जाय॥ ९ (



॥ ‘य द



इस अ भषेकस ी कायको रोक नह दया गया तो पताजीको भी मन-ही-मन यह सोचकर संताप होगा क मेरी बात स ी नह ◌इ और उनका वह मन ाप मुझे सदा



संत करता रहेगा॥ १० ॥ ‘ल ण! इ सब कारण से म अपने अ भषेकका काय रोककर शी ही इस नगरसे वनको चला जाना चाहता ँ ॥ ११ ॥ ‘आज मेरे चले जानेसे कृ तकृ ◌इ राजकु मारी कै के यी अपने पु भरतका नभय एवं न होकर अ भषेक करावे॥ १२ ॥ ‘म व ल और मृगचम धारण करके सरपर जटाजूट बाँधे जब वनको चला जाऊँ गा, तभी कै के यीके मनको सुख ा होगा॥ १३ ॥ ‘ जस वधाताने कै के यीको ऐसी बु दान क है तथा जसक ेरणासे उसका मन मुझे वन भेजनेम अ ढ़ हो गया है, उसे वफलमनोरथ करके क देना मेरे लये उ चत नह है॥ १४ ॥ ‘सु म ाकु मार! मेरे इस वासम तथा पता ारा दये ए रा के फर हाथसे नकल जानेम दैवको ही कारण समझना चा हये॥ १५ ॥ ‘मेरी समझसे कै के यीका यह वपरीत मनोभाव दैवका ही वधान है। य द ऐसा न होता तो वह मुझे वनम भेजकर पीड़ा देनेका वचार करती॥ १६ ॥ ‘सौ ! तुम तो जानते ही हो क मेरे मनम पहले भी कभी माता के त भेदभाव नह आ और कै के यी भी पहले मुझम या अपने पु म को◌इ अ र नह समझती थी॥ १७ ॥ ‘मेरे अ भषेकको रोकने और मुझे वनम भेजनेके लये उसने राजाको े रत करनेके न म जन भयंकर और कटुवचन का योग कया है, उ साधारण मनु के लये भी मुँहसे नकालना क ठन है। उसक ऐसी चे ाम म दैवके सवा दूसरे कसी कारणका समथन नह करता॥ १८ ॥ ‘य द ऐसी बात न होती तो वैसे उ म भाव और े गुण से यु राजकु मारी कै के यी एक साधारण ीक भाँ त अपने प तके समीप मुझे पीड़ा देनेवाली बात कै से कहती—मुझे क देनेके लये रामको वनम भेजनेका ाव कै से उप त करती॥ १९ ॥ ‘ जसके वषयम कभी कु छ सोचा न गया हो, वही दैवका वधान है। ा णय म अथवा उनके अ ध ाता देवता म भी को◌इ ऐसा नह है, जो उस दैवके वधानको मेट सके ; अत:



न य ही उसीक ेरणासे मुझम और कै के यीम यह भारी उलट-फे र आ है (मेरे हाथम आया आ रा चला गया और कै के यीक बु बदल गयी)॥ २० ॥ ‘सु म ान न! कम के सुख-दु:खा द प फल ा होनेपर ही जसका ान होता है, कमफलसे अ कह भी जसका पता नह चलता, उस दैवके साथ कौन पु ष यु कर सकता है?॥ २१ ॥ ‘सुख-दु:ख, भय- ोध ( ोभ), लाभ-हा न, उ और वनाश तथा इस कारके और भी जतने प रणाम ा होते ह, जनका को◌इ कारण समझम नह आता, वे सब दैवके ही कम ह॥ २२ ॥ ‘उ तप ी ऋ ष भी दैवसे े रत होकर अपने ती नयम को छोड़ बैठते और कामोधके ारा ववश हो मयादासे हो जाते ह॥ २३ ॥ ‘जो बात बना सोचे- वचारे अक ात् सरपर आ पड़ती है और य ारा आर कये ए कायको रोककर एक नया ही का उप त कर देती है, अव वह दैवका ही वधान है॥ २४ ॥ ‘इस ता ्वक बु के ारा यं ही मनको र कर लेनेके कारण मुझे अपने अ भषेकम व पड़ जानेपर भी दु:ख या संताप नह हो रहा है॥ २५ ॥ ‘इसी कार तुम भी मेरे वचारका अनुसरण करके संतापशू हो रा ा भषेकके इस आयोजनको शी बंद करा दो॥ २६ ॥ ‘ल ण! रा ा भषेकके लये सँजोकर रखे गये इ सब कलश ारा मेरा तापस- तके संक के लये आव क ान होगा॥ २७ ॥ ‘अथवा रा ा भषेकस ी म ल मय इस कलशजलक मुझे ा आव कता है? यं मेरे ारा अपने हाथसे नकाला आ जल ही मेरे तादेशका साधक होगा॥ २८ ॥ ‘ल ण! ल ीके इस उलट-फे रके वषयम तुम को◌इ च ा न करो। मेरे लये रा अथवा वनवास दोन समान ह, ब वशेष वचार करनेपर वनवास ही महान् अ ुदयकारी तीत होता है॥ २९ ॥ ‘ल ण! मेरे रा ा भषेकम जो व आया है, इसम मेरी सबसे छोटी माता कारण है, ऐसी श ा नह करनी चा हये; क वह दैवके अधीन थी। इसी कार पताजी भी कसी



तरह इसम कारण नह ह। तुम तो दैव और उसके अ तु भावको जानते ही हो, वही कारण है’॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २२॥



ते◌इसवाँ सग ल



णक ओजभरी बात, उनके ारा दैवका ख न और पु षाथका तपादन तथा उनका ीरामके अ भषेकके न म वरो धय से लोहा लेनेके लये उ त होना



ीरामच जी जब इस कार कह रहे थे, उस समय ल ण सर कु ाये कु छ सोचते रहे; फर सहसा शी तापूवक वे दु:ख और हषके बीचक तम आ गये ( ीरामके रा ा भषेकम व पड़नेके कारण उ दु:ख आ और उनक धमम ढ़ता देखकर स ता ◌इ)॥ नर े ल णने उस समय ललाटम भ ह को चढ़ाकर लंबी साँस ख चना आर कया, मानो बलम बैठा आ महान् सप रोषम भरकर फुं कार मार रहा हो॥ तनी ◌इ भ ह के साथ उस समय उनका मुख कु पत ए सहके मुखके समान जान पड़ता था, उसक ओर देखना क ठन हो रहा था॥ ३ ॥ जैसे हाथी अपनी सूँड हलाया करता है, उसी कार वे अपने दा हने हाथको हलाते और गदनको शरीरम ऊपर-नीचे और अगल-बगल सब ओर घुमाते ए ने के अ भागसे टेढ़ी नजर ारा अपने भा◌इ ीरामको देखकर उनसे बोले—॥ ४ १/२ ॥ ‘भैया! आप समझते ह क य द पताक इस आ ाका पालन करनेके लये म वनको न जाऊँ तो धमके वरोधका स उप त होता है, इसके सवा लोग के मनम यह बड़ी भारी श ा उठ खड़ी होगी क जो पताक आ ाका उ न करता है, वह य द राजा ही हो जाय तो हमारा धमपूवक पालन कै से करेगा? साथ ही आप यह भी सोचते ह क य द म पताक इस आ ाका पालन नह क ँ तो दूसरे लोग भी नह करगे। इस कार धमक अवहेलना होनेसे जग े वनाशका भय उप त होगा। इन सब दोष और श ा का नराकरण करनेके लये आपके मनम वनगमनके त जो यह बड़ा भारी स म (उतावलापन) आ गया है, यह सवथा अनु चत एवं ममूलक ही है; क आप असमथ ‘दैव’ नामक तु व ुको बल बता रहे ह। दैवका नराकरण करनेम समथ आप-जैसा य शरोम ण वीर य द मम नह पड़ गया होता तो ऐसी बात कै से कह सकता था? अत: असमथ पु ष ारा ही अपनाये जाने यो और पौ षके नकट कु छ भी करनेम असमथ ‘दैव’ क आप साधारण मनु के समान इतनी ु त या शंसा कर रहे ह?॥ ५—७ ॥



‘धमा



न्! आपको उन दोन पा पय पर संदेह नह होता? संसारम कतने ही ऐसे पापास मनु ह, जो दूसर को ठगनेके लये धमका ढ ग बनाये रहते ह, ा आप उ नह जानते ह?॥ ८ ॥ ‘रघुन न! वे दोन अपना ाथ स करनेके लये शठतावश धमके बहाने आप-जैसे स र पु षका प र ाग करना चाहते ह। य द उनका ऐसा वचार न होता तो जो काय आज आ है, वह पहले ही हो गया होता। य द वरदानवाली बात स ी होती तो आपके अ भषेकका काय ार होनेसे पहले ही इस तरहका वर दे दया गया होता॥ ९ ॥ (गुणवान् े पु के रहते ए छोटेका अ भषेक करना) यह लोक व काय है, जसका आज आर कया गया है। आपके सवा दूसरे कसीका रा ा भषेक हो, यह मुझसे सहन नह होनेका। इसके लये आप मुझे मा करगे॥ १० ॥ ‘महामते! पताके जस वचनको मानकर आप मोहम पड़े ए ह और जसके कारण आपक बु म दु वधा उ हो गयी है, म उसे धम माननेका प पाती नह ँ ; ऐसे धमका तो म घोर वरोध करता ँ ॥ ११ ॥ ‘आप अपने परा मसे सब कु छ करनेम समथ होकर भी कै के यीके वशम रहनेवाले पताके अधमपूण एवं न त वचनका पालन कै से करगे?॥ १२ ॥ ‘वरदानक झूठी क नाका पाप करके आपके अ भषेकम रोड़ा अटकाया गया है, फर भी आप इस पम नह हण करते ह। इसके लये मेरे मनम बड़ा दु:ख होता है। ऐसे कपटपूण धमके त होनेवाली आस न त है॥ १३ ॥ ‘ऐसे पाख पूण धमके पालनम जो आपक वृ हो रही है, वह यहाँके जनसमुदायक म न त है। आपके सवा दूसरा को◌इ पु ष सदा पु का अ हत करनेवाले, पता-माता नामधारी उन कामाचारी श ु के मनोरथको मनसे भी कै से पूण कर सकता है (उसक पू तका वचार भी मनम कै से ला सकता है?)॥ १४ ॥ ‘माता- पताके इस वचारको क—‘आपका रा ा भषेक न हो’ जो आप दैवक ेरणाका फल मानते ह, यह भी मुझे अ ा नह लगता। य प वह आपका मत है, तथा प आपको उसक उपे ा कर देनी चा हये॥ १५ ॥ ‘जो कायर है, जसम परा मका नाम नह है, वही दैवका भरोसा करता है। सारा संसार ज आदरक से देखता है, वे श शाली वीर पु ष दैवक उपासना नह करते ह॥ १६ ॥



‘जो



अपने पु षाथसे दैवको दबानेम समथ है, वह पु ष दैवके ारा अपने कायम बाधा पड़नेपर खेद नह करता— श थल होकर नह बैठता॥ १७ ॥ ‘आज संसारके लोग देखगे क दैवक श बड़ी है या पु षका पु षाथ। आज दैव और मनु म कौन बलवान् है और कौन दुबल—इसका नणय हो जायगा॥ १८ ॥ ‘ जन लोग ने दैवके बलसे आज आपके रा ा भषेकको न आ देखा है, वे ही आज मेरे पु षाथसे अव ही दैवका भी वनाश देख लगे॥ १९ ॥ ‘जो अ ु शक परवा नह करता और र े या साँकलको भी तोड़ देता है, मदक धारा बहानेवाले उस म गजराजक भाँ त वेगपूवक दौड़नेवाले दैवको भी आज म अपने पु षाथसे पीछे लौटा दूँगा॥ २० ॥ ‘सम लोकपाल और तीन लोक के स ूण ाणी आज ीरामके रा ा भषेकको नह रोक सकते, फर के वल पताजीक तो बात ही ा है?॥ २१ ॥ ‘राजन्! जन लोग ने आपसम आपके वनवासका समथन कया है, वे यं चौदह वष तक वनम जाकर छपे रहगे॥ २२ ॥ ‘म पताक और जो आपके अ भषेकम व डालकर अपने पु को रा देनेके य म लगी ◌इ है, उस कै के यीक भी उस आशाको जलाकर भ कर डालूँगा॥ २३ ॥ ‘जो मेरे बलके वरोधम खड़ा होगा, उसे मेरा भयंकर पु षाथ जैसा दु:ख देनेम समथ होगा, वैसा दैवबल उसे सुख नह प ँ चा सके गा॥ २४ ॥ ‘सह वष बीतनेके प ात् जब आप अव ा मसे वनम नवास करनेके लये जायँग,े उस समय आपके बाद आपके पु जापालन प काय करगे (अथात् उस समय भी दूसर को इस रा म दखल देनेका अवसर नह ा होगा)॥ २५ ॥ ‘पुरातन राज षय क आचारपर राके अनुसार जाका पु वत् पालन करनेके न म जावगको पु के हाथम स पकर वृ राजाका वनम नवास करना उ चत बताया जाता है॥ २६ ॥ ‘धमा



ा ीराम! हमारे महाराज वान धमके पालनम च को एका नह कर रहे ह, इसी लये य द आप यह समझते ह क उनक आ ाके व रा हण कर लेनेपर सम जनता व ोही हो जायगी, अत: रा अपने हाथम नह रह सके गा और इसी श ासे य द आप



अपने ऊपर रा का भार नह लेना चाहते ह अथवा वनम चले जाना चाहते ह तो इस श ाको छोड़ दी जये॥ २७ ॥ ‘वीर! म त ा करता ँ क जैसे तटभू म समु को रोके रहती है, उसी कार म आपक और आपके रा क र ा क ँ गा। य द ऐसा न क ँ तो वीरलोकका भागी न होऊँ ॥ २८ ॥ ‘इस लये आप म लमयी अ भषेक-साम ीसे अपना अ भषेक होने दी जये। इस अ भषेकके कायम आप त र हो जाइये। म अके ला ही बलपूवक सम वरोधी भूपाल को रोक रखनेम समथ ँ ॥ २९ ॥ ‘ये मेरी दोन भुजाएँ के वल शोभाके लये नह ह। मेरे इस धनुषका आभूषण नह बनेगा। यह तलवार के वल कमरम बाँधे रखनेके लये नह है तथा इन बाण के ख े नह बनगे॥ ३० ॥ ‘ये सब चार व ुएँ श ु का दमन करनेके लये ही ह। जसे म अपना श ु समझता ँ , उसे कदा प जी वत रहने देना नह चाहता॥ ३१ ॥ ‘ जस समय म इस तीखी धारवाली तलवारको हाथम लेता ँ , यह बजलीक तरह च ल भासे चमक उठती है। इसके ारा अपने कसी भी श ुको, वह व धारी इ ही न हो, म कु छ नह समझता॥ ३२ ॥ ‘आज मेरे खड् गके हारसे पीस डाले गये हाथी, घोड़े और र थय के हाथ, जाँघ और म क ारा पटी ◌इ यह पृ ी ऐसी गहन हो जायगी क इसपर चलना- फरना क ठन हो जायगा॥ ३३ ॥ ‘मेरी तलवारक धारसे कटकर र से लथपथ ए श ु जलती ◌इ आगके समान जान पड़गे और बजलीस हत मेघ के समान आज पृ ीपर गरगे॥ ३४ ॥ ‘अपने हाथ म गोहके चमसे बने ए द ानेको बाँधकर जब हाथम धनुष ले म यु के लये खड़ा हो जाऊँ गा, उस समय पु ष मसे को◌इ भी मेरे सामने कै से अपने पौ षपर अ भमान कर सके गा?॥ ३५ ॥ ‘म ब त-से बाण ारा एकको और एक ही बाणसे ब त-से यो ा को धराशायी करता आ मनु , घोड़ और हा थय के मम ान पर बाण मा ँ गा॥ ३६ ॥ ‘ भो! आज राजा दशरथक भुताको मटाने और आपके भु क ापना करनेके लये अ बलसे स मुझ ल णका भाव कट होगा॥ ३७ ॥



ीराम! आज मेरी ये दोन भुजाएँ , जो च नका लेप लगाने, बाजूबंद पहनने, धनका दान करने और सु द के पालनम संल रहनेके यो ह, आपके रा ा भषेकम व डालनेवाल को रोकनेके लये अपने अनु प परा म कट करगी॥ ३८-३९ ॥ ‘ भो! बतलाइये, म आपके कस श ुको अभी ाण, यश और सु न से सदाके लये बलग कर दूँ। जस उपायसे भी यह पृ ी आपके अ धकारम आ जाय, उसके लये मुझे आ ा दी जये, म आपका दास ँ ’॥ रघुवंशक वृ करनेवाले ीरामने ल णक ये बात सुनकर उनके आँ सू प छे और उ बारंबार सा ना देते ए कहा—‘सौ ! मुझे तो तुम माता- पताक आ ाके पालनम ही ढ़तापूवक त समझो। यही स ु ष का माग है’॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म ते◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २३॥ ‘



चौबीसवाँ सग वलाप करती ◌इ कौस ाका ीरामसे अपनेको भी साथ ले चलनेके लये आ ह करना तथा प तक सेवा ही नारीका धम है, यह बताकर ीरामका उ रोकना और वन जानेके लये उनक अनुम त ा करना



कौस ाने जब देखा क ीरामने पताक आ ाके पालनका ही ढ़ न य कर लया है, तब वे आँ सु से ँ धी ◌इ ग द वाणीम धमा ा ीरामसे इस कार बोल —॥ १ ॥ ‘हाय! जसने जीवनम कभी दु:ख नह देखा है, जो सम ा णय से सदा य वचन बोलता है, जसका ज महाराज दशरथसे मेरे ारा आ है, वह मेरा धमा ा पु उ वृ से —खेतम गरे ए अनाजके एक-एक दानेको बीनकर कै से जीवन- नवाह कर सके गा?॥ २ ॥ ‘ जनके भृ और दास भी शु , ा द अ खाते ह, वे ही ीराम वनम फल-मूलका आहार कै से करगे?॥ ३ ॥ ‘जो स ण ु स और महाराज दशरथके य ह, उ ककु -कु ल-भूषण ीरामको जो वनवास दया जा रहा है, इसे सुनकर कौन इसपर व ास करेगा? अथवा ऐसी बात सुनकर कसको भय नह होगा?॥ ४ ॥ ‘ ीराम! न य ही इस जग दैव सबसे बड़ा बलवान् है। उसक आ ा सबके ऊपर चलती है—वही सबको सुख-दु:खसे संयु करता है; क उसीके भावम आकर तु ारेजैसा लोक य मनु भी वनम जानेको उ त है॥ ५ ॥ ‘परंतु बेटा! तुमसे बछु ड़ जानेपर यहाँ मुझे शोकक अनुपम एवं ब त बढ़ी ◌इ आग उसी तरह जलाकर भ कर डालेगी, जैसे ी ऋतुम दावानल सूखी लक ड़य और घासफू सको जला डालता है। शोकक यह आग मेरे अपने ही मनम कट ◌इ है। तु न देख पानेक स ावना ही वायु बनकर इस अ को उ ी कर रही है। वलापज नत दु:ख ही इसम ◌इं धनका काम कर रहे ह। रोनेसे जो अ ुपात होते ह, वे ही मानो इसम दी ◌इ घीक आ त ह। च ाके कारण जो गरम-गरम उ ास उठ रहा है, वही इसका महान् धूम है। तुम दूर देशम जाकर फर कस तरह आओगे—इस कारक चता ही इस शोका को ज दे रही है। साँस लेनेका जो य है, उसीसे इस आगक त ण वृ हो रही है। तु इसे बुझानेके लये जल हो। तु ारे बना यह आग मुझे अ धक सुखाकर जला डालेगी॥ ६—८ ॥



‘व ! धेनु आगे जाते ए अपने बछड़ेके पीछे -पीछे कै से चली जाती है, उसी तुम जहाँ भी जाओगे, तु ारे पीछे-पीछे चली चलूँगी’॥ ९ ॥



कार म भी



माता कौस ाने जैसे जो कु छ कहा, उस वचनको सुनकर पु षो म ीरामने अ दु:खम डू बी ◌इ अपनी माँसे पुन: इस कार कहा—॥ १० ॥ ‘माँ! कै के यीने राजाके साथ धोखा कया है। इधर म वनको चला जा रहा ँ । इस दशाम य द तुम भी उनका प र ाग कर दोगी तो न य ही वे जी वत नह रह सकगे॥ ११ ॥ ‘प तका प र ाग नारीके लये बड़ा ही ू रतापूण कम है। स ु ष ने इसक बड़ी न ा क है; अत: तु तो ऐसी बात कभी मनम भी नह लानी चा हये॥ १२ ॥ ‘मेरे पता ककु कु ल-भूषण महाराज दशरथ जबतक जी वत ह, तबतक तुम उ क सेवा करो। प तक सेवा ही ीके लये सनातन धम है’॥ १३ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर शुभ कम पर रखनेवाली देवी कौस ाने अ स होकर अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामसे कहा— ‘अ ा बेटा! ऐसा ही क ँ गी’॥ १४ ॥ माँके इस कार ीकृ तसूचक बात कहनेपर धमा ा म े ीरामने अ दु:खम पड़ी ◌इ अपनी मातासे पुन: इस कार कहा—॥ १५ ॥ ‘माँ! पताजीक आ ाका पालन करना मेरा और तु ारा—दोन का कत है; क राजा हम सब लोग के ामी, े गु , ◌इ र एवं भु ह॥ १६ ॥ ‘इन चौदह वष तक म वशाल वनम घूम- फरकर लौट आऊँ गा और बड़े ेमसे तु ारी आ ाका पालन करता र ँ गा’॥ १७ ॥ उनके ऐसा कहनेपर पु व ला कौस ाके मुखपर पुन: आँ सु क धारा बह चली। वे उस समय अ आत होकर अपने य पु से बोल —॥ १८ ॥ ‘बेटा राम! अब मुझसे इन सौत के बीचम नह रहा जायगा। काकु ! य द पताक आ ाका पालन करनेक इ ासे तुमने वनम जानेका ही न य कया है तो मुझे भी वनवा सनी ह रणीक भाँ त वनम ही ले चलो’॥ १९ १/२ ॥ यह कहकर माता कौस ा रोने लग । उ उस तरह रोती देख ीराम भी रो पड़े और उ सा ना देते ए बोले—‘माँ! ीके जीते-जी उसका प त ही उसके लये देवता और ◌इ रके समान है। महाराज तु ारे और मेरे दोन के भु ह॥ २०-२१ ॥



‘जबतक बु



मान् जगदी र महाराज दशरथ जी वत ह, तबतक हम अपनेको अनाथ नह समझना चा हये। भरत भी बड़े धमा ा ह। वे सम ा णय के त य वचन बोलनेवाले और सदा ही धमम त र रहनेवाले ह; अत: वे तु ारा अनुसरण—तु ारी सेवा करगे॥ २२ १/२ ॥ ‘मेरे चले जानेपर जस तरह भी महाराजको पु शोकके कारण को◌इ वशेष क न हो, तुम सावधानीके साथ वैसा ही य करना॥ २३ १/२ ॥ ‘कह ऐसा न हो क यह दा ण शोक इनक जीवनलीला ही समा कर डाले। जैसे भी स व हो, तुम सदा सावधान रहकर बूढ़े महाराजके हत-साधनम लगी रहना॥ २४ १/२ ॥ ‘उ ृ गुण और जा त आ दक से परम उ म तथा त-उपवासम त र होकर भी जो नारी प तक सेवा नह करती है, उसे पा पय को मलनेवाली ग त (नरक आ द)-क ा होती है॥ २५ १/२ ॥ ‘जो अ ा देवता क व ना और पूजासे दूर रहती है, वह नारी भी के वल प तक सेवामा से उ म गलोकको ा कर लेती है॥ २६ १/२ ॥ ‘अत: नारीको चा हये क वह प तके य एवं हतसाधनम त र रहकर सदा उसक सेवा ही करे, यही ीका वेद और लोकम स न (सनातन) धम है। इसीका ु तय और ृ तय म भी वणन है॥ २७ १/२ ॥ ‘दे व! तु मेरी म ल-कामनासे सदा अ हो के अवसर पर पु से देवता का तथा स ारपूवक ा ण का भी पूजन करते रहना चा हये॥ २८ १/२ ॥ ‘इस कार तुम नय मत आहार करके नयम का पालन करती ◌इ ामीक सेवाम लगी रहो और मेरे आगमनक इ ा रखकर समयक ती ा करो॥ २९ १/२ ॥ ‘य द धमा ा म े महाराज जी वत रहगे तो मेरे लौट आनेपर तु ारी भी शुभ कामना पूण होगी’॥ ीरामके ऐसा कहनेपर कौस ाके ने म आँ सू छलक आये। वे पु शोकसे पी ड़त होकर ीरामच जीसे बोल —॥ ३१ १/२ ॥ ‘बेटा! म तु ारे वनम जानेके न त वचारको नह पलट सकती। वीर! न य ही कालक आ ाका उ न करना अ क ठन है॥ ३२ १/२ ॥



‘साम



शाली पु ! अब तुम न होकर वनको जाओ, तु ारा सदा ही क ाण हो। जब फर तुम वनसे लौट आओगे, उस समय मेरे सारे ेश— सब संताप दूर हो जायँगे॥ ३३ १/ ॥ २



‘बेटा!



जब तुम वनवासका महान् त पूण करके कृ ताथ एवं महान् सौभा शाली होकर लौट आओगे और ऐसा करके पताके ऋणसे उऋण हो जाओगे, तभी म उ म सुखक न द सो सकूँ गी॥ ३४ ॥ ‘बेटा रघुन न! इस भूतलपर दैवक ग तको समझना ब त ही क ठन है, जो मेरी बात काटकर तु वन जानेके लये े रत कर रहा है॥ ३५ ॥ ‘बेटा! महाबाहो! इस समय जाओ, फर कु शलपूवक लौटकर सा नाभरे मधुर एवं मनोहर वचन से मुझे आन त करना॥ ३६ ॥ ‘व ! ा वह समय अभी आ सकता है, जब क जटा-व ल धारण कये वनसे लौटकर आये ए तुमको फर देख सकूँ गी’॥ ३७ ॥ देवी कौस ाने जब देखा क इस कार ीराम वनवासका ढ़ न य कर चुके ह, तब वे परम आदरयु दयसे उनको शुभसूचक आशीवाद देने और उनके लये वाचन करानेक इ ा करने लग ॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौबीसवाँ सग पूरा आ॥ २४॥



पचीसवाँ सग कौस



ाका ीरामक वनया ाके लये म लकामनापूवक वाचन करना और ीरामका उ णाम करके सीताके भवनक ओर जाना



तदन र उस ेशजनक शोकको मनसे नकालकर ीरामक मन नी माता कौस ाने प व जलसे आचमन कया, फर वे या ाका लक म लकृ का अनु ान करने लग ॥ १ ॥ (इसके बाद वे आशीवाद देती ◌इ बोल —) ‘रघुकुलभूषण! अब म तु रोक नह सकती, इस समय जाओ, स ु ष के मागपर र रहो और शी ही वनसे लौट आओ॥ २ ॥ ‘रघुकुल सह! तुम नयमपूवक स ताके साथ जस धमका पालन करते हो, वही सब ओरसे तु ारी र ा करे॥ ३ ॥ ‘बेटा! देव ान और म र म जाकर तुम जनको णाम करते हो, वे सब देवता मह षय के साथ वनम तु ारी र ा कर॥ ४ ॥ ‘तुम स ण ु से का शत हो, बु मान् व ा म जीने तु जो-जो अ दये ह, वे सबके -सब सदा सब ओरसे तु ारी र ा कर॥ ५ ॥ ‘महाबा पु ! तुम पताक शु ूषा, माताक सेवा तथा स के पालनसे सुर त होकर चरंजीवी बने रहो॥ ‘नर े ! स मधा, कु शा, प व ी, वे दयाँ, म र, ा ण के देवपूजनस ी ान, पवत, वृ , पु (छोटी शाखावाले वृ ), जलाशय, प ी, सप और सह वनम तु ारी र ा कर॥ ७ ॥ ‘सा , व ेदेव तथा मह षय स हत म ण तु ारा क ाण कर; धाता और वधाता तु ारे लये म लकारी ह ; पूषा, भग और अयमा तु ारा क ाण कर॥ ८ ॥ ‘वे इ आ द सम लोकपाल, छह ऋतुएँ, सभी मास, संव र, रा , दन और मु त सदा तु ारा म ल कर। बेटा! ु त, ृ त और धम भी सब ओरसे तु ारी र ा कर॥ ९-१० ॥ ‘भगवान् देव, सोम, बृह त, स षगण और नारद—ये सभी सब ओरसे तु ारी र ा कर॥ ११ ॥



‘बेटा!



वे स स गण, दशाएँ और द ाल मेरी क ◌इ ु तसे संतु हो उस वनम सदा सब ओरसे तु ारी र ा कर॥ १२ ॥ ‘सम पवत, समु , राजा व ण, ुलोक, अ र , पृ थवी, वायु, चराचर ाणी, सम न , देवता स हत ह, दन और रात तथा दोन सं ाएँ — ये सब-के -सब वनम जानेपर सदा तु ारी र ा कर॥ १३-१४ ॥ ‘छ: ऋतुएँ, अ ा मास, संव र, कला और का ा—ये सब तु क ाण दान कर॥ १५ ॥ ‘मु नका वेष धारण करके उस वशाल वनम वचरते ए तुझ बु मान् पु के लये सम देवता और दै सदा सुखदायक ह ॥ १६ ॥ ‘बेटा! तु भयंकर रा स , ू रकमा पशाच तथा सम मांसभ ी ज ु से कभी भय न हो॥ १७ ॥ ‘वनम जो मेढक या वानर, ब ू , डाँस, म र, पवतीय सप और क ड़े होते ह, वे उस गहन वनम तु ारे लये हसक न ह ॥ १८ ॥ ‘पु ! बड़े-बड़े हाथी, सह, ा , रीछ, दाढ़वाले अ जीव तथा वशाल स गवाले भयंकर भसे वनम तुमसे ोह न कर॥ १९ ॥ ‘व ! इनके सवा जो सभी जा तय म नरमांसभ ी भयंकर ाणी ह, वे मेरे ारा यहाँ पू जत होकर वनम तु ारी हसा न कर॥ २० ॥ ‘बेटा राम! सभी माग तु ारे लये म लकारी ह । तु ारे परा म सफल ह तथा तु सब स याँ ा होती रह। तुम सकु शल या ा करो॥ २१ ॥ ‘तु आकाशचारी ा णय से, भूतलके जीव-ज ु से, सम देवता से तथा जो तु ारे श ु ह, उनसे भी सदा क ाण ा होता रहे॥ २२ ॥ ‘ ीराम! शु , सोम, सूय, कु बेर तथा यम—ये मुझसे पू जत हो द कार म नवास करते समय सदा तु ारी र ा कर॥ २३ ॥ ‘रघुन न! ान और आचमनके समय अ , वायु, धूम तथा ऋ षय के मुखसे नकले ए म तु ारी र ा कर॥ २४ ॥



‘सम



लोक के ामी ा, जग े कारणभूत पर , ऋ षगण तथा उनके अ त र जो देवता ह, वे सब-के -सब वनवासके समय तु ारी र ा कर’॥ २५ ॥ ऐसा कहकर वशाललोचना यश नी रानी कौस ाने पु माला और ग आ द उपचार से तथा अनु प ु तय ारा देवता का पूजन कया॥ २६ ॥ उ ने ीरामक म लकामनासे अ को लाकर एक महा ा ा णके ारा उसम व धपूवक होम करवाया॥ े नारी महारानी कौस ाने घी, ेत पु और माला, स मधा तथा सरस आ द व ुएँ ा णके समीप रखवा द ॥ २८ ॥ पुरो हतजीने सम उप व क शा और आरो के उ े से व धपूवक अ म होम करके हवनसे बचे ए ह व के ारा होमक वेदीसे बाहर दस दशा म इ आ द लोकपाल के लये ब ल अ पत क ॥ २९ ॥ तदन र वाचनके उ े से ा ण को मधु, दही, अ त और घृत अ पत करके ‘वनम ीरामका सदा म ल हो’ इस कामनासे कौस ाजीने उन सबसे यनस ी म का पाठ करवाया॥ ३० ॥ इसके बाद यश नी ीराममाताने उन व वर पुरो हतजीको उनक इ ाके अनुसार द णा दी और ीरघुनाथजीसे इस कार कहा—॥ ३१ ॥ ‘वृ ासुरका नाश करनेके न म सवदेवव त सह ने धारी इ को जो म लमय आशीवाद ा आ था, वही म ल तु ारे लये भी हो॥ ३२ ॥ ‘पूवकालम वनतादेवीने अमृत लानेक इ ावाले अपने पु ग ड़के लये जो म लकृ कया था, वही म ल तु भी ा हो॥ ३३ ॥ ‘अमृतक उ के समय दै का संहार करनेवाले व धारी इ के लये माता अ द तने जो म लमय आशीवाद दया था, वही म ल तु ारे लये भी सुलभ हो॥ ३४ ॥ ‘ ीराम! तीन पग को बढ़ाते ए अनुपम तेज ी भगवान् व ुके लये जो म लाशंसा क गयी थी, वही म ल तु ारे लये भी ा हो॥ ३५ ॥ ‘महाबाहो! ऋ ष, समु , ीप, वेद, सम लोक और दशाएँ तु म ल दान कर। तु ारा सदा शुभ म ल हो’॥ ३६ ॥



इस कार आशीवाद देकर वशाललोचना भा मनी कौस ाने पु के म कपर अ त रखकर च न और रोली लगायी तथा सब मनोरथ को स करनेवाली वश करणी नामक शुभ ओष ध लेकर र ाके उ े से म पढ़ते ए उसको ीरामके हाथम बाँध दया; फर उसम उ ष लानेके लये म का जप भी कया॥ ३७-३८ ॥ तदन र दु:खके अधीन ◌इ कौस ाने ऊपरसे स -सी होकर म का उ ारण भी कया। उस समय वे वाणीमा से ही म ो ारण कर सक , दयसे नह ( क दय ीरामके वयोगक स ावनासे थत था, इसी लये) वे खेदसे ग द, लड़खड़ाती ◌इ वाणीसे म बोल रही थ ॥ ३९ ॥ इसके बाद उनके म कको कु छ कु ाकर यश नी माताने सूँघा और बेटेको दयसे लगाकर कहा—‘व राम! तुम सफलमनोरथ होकर सुखपूवक वनको जाओ। जब पूणकाम होकर रोगर हत सकु शल अयो ाम लौटोगे, उस समय तु राजमागपर त देखकर सुखी होऊँ गी॥ ४०-४१ ॥ ‘उस समय मेरे दु:खपूण संक मट जायँग,े मुखपर हषज नत उ ास छा जायगा और म वनसे आये ए तुमको पू णमाक रातम उ दत ए पूण च माक भाँ त देखूँगी॥ ४३ ॥ ‘ ीराम! वनवाससे यहाँ आकर पताक त ाको पूण करके जब तुम राज सहासनपर बैठोगे, उस समय म पुन: स तापूवक तु ारा दशन क ँ गी॥ ४३ ॥ ‘अब जाओ और वनवाससे यहाँ लौटकर राजो चत म लमय व ाभूषण से वभू षत हो तुम सदा मेरी ब सीताक सम कामनाएँ पूण करते रहो॥ ४४ ॥ ‘रघुन न! मने सदा जनका पूजन और स ान कया है, वे शव आ द देवता, मह ष, भूतगण, देवोपम नाग और स ूण दशाएँ —ये सब-के -सब वनम जानेपर चरकालतक तु ारे हतसाधनक कामना करते रह’॥ ४५ ॥ इस कार माताने ने म अ आँ सू भरकर व धपूवक वह वाचन कम पूण कया। फर ीरामक प र मा क और बारंबार उनक ओर देखकर उ छातीसे लगाया॥ ४६ ॥



देवी कौस ाने जब ीरामक द णा कर ली, तब महायश ी रघुनाथजी बारंबार माताके चरण को दबाकर णाम करके माताक म लकामना-ज नत उ ृ शोभासे स हो सीताजीके महलक ओर चल दये॥ ४७ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पचीसवाँ सग पूरा आ॥ २५॥



छ ीसवाँ सग ीरामको उदास देखकर सीताका उनसे इसका कारण पूछना और ीरामका पताक आ ासे वनम जानेका न य बताते ए सीताको घरम रहनेके लये समझाना



ध म मागपर त ए ीराम माता ारा वाचन-कम स हो जानेपर कौस ाको णाम करके वहाँसे वनके लये त ए॥ १ ॥ उस समय मनु क भीड़से भरे ए राजमागको का शत करते ए राजकु मार ीराम अपने स णु के कारण लोग के मनको मथने-से लगे (ऐसे गुणवान् ीरामको वनवास दया जा रहा है, यह सोचकर वहाँके लोग का जी कचोटने लगा)॥ २ ॥ तप नी वदेहन नी सीताने अभीतक वह सारा हाल नह सुना था। उनके दयम यही बात समायी ◌इ थी क मेरे प तका युवराजपदपर अ भषेक हो रहा होगा॥ वदेहराजकु मारी सीता साम यक कत तथा राजधम को जानती थ , अत: देवता क पूजा करके स च से ीरामके आगमनक ती ा कर रही थ ॥ इतनेम ही ीरामने अपने भलीभाँ त सजे-सजाये अ :पुरम, जो स मनु से भरा आ था, वेश कया। उस समय ल ासे उनका मुख कु छ नीचा हो रहा था॥ सीता उ देखते ही आसनसे उठकर खड़ी हो गय । उनक अव ा देखकर काँपने लग और च ासे ाकु ल इ य वाले अपने उन शोकसंत प तको नहारने लग ॥ ६ ॥ धमा ा ीराम सीताको देखकर अपने मान सक शोकका वेग सहन न कर सके , अत: उनका वह शोक कट हो गया॥ ७ ॥ उनका मुख उदास हो गया था। उनके अ से पसीना नकल रहा था। वे अपने शोकको दबाये रखनेम असमथ हो गये थे। उ इस अव ाम देखकर सीता दु:खसे संत हो उठ और बोल —‘ भो! इस समय यह आपक कै सी दशा है?॥ ८ ॥ ‘रघुन न! आज बृह त देवता-स ी म लमय पु न है, जो अ भषेकके यो है। उसक पु न के योगम व ान् ा ण ने आपका अ भषेक बताया है। ऐसे समयम जब क आपको स होना चा हये था, आपका मन इतना उदास है?॥ ९ ॥



‘म



देखती ँ , इस समय आपका मनोहर मुख जलके फे नके समान उ ल तथा सौ ती लय वाले ेत छ से आ ा दत नह है, अतएव अ धक शोभा नह पा रहा है॥ १० ॥ ‘कमल-जैसे सु र ने धारण करनेवाले आपके इस मुखपर च मा और हंसके समान ेत वणवाले दो े चँवर ारा हवा नह क जा रही है॥ ११ ॥ ‘नर े ! वचनकु शल व ी, सूत और मागधजन आज अ स हो अपने मा लक वचन ारा आपक ु त करते नह दखायी देते ह॥ १२ ॥ ‘वेद के पार त व ान् ा ण ने आज मूधा भ ष ए आपके म कपर तीथ दक म त मधु और द धका व धपूवक अ भषेक नह कया॥ १३ ॥ ‘म ी-सेनाप त आ द सारी कृ तयाँ, व ाभूषण से वभू षत मु -मु सेठ-सा कार तथा नगर और जनपदके लोग आज आपके पीछे-पीछे चलनेक इ ा नह कर रहे ह! (इसका ा कारण है?)॥ १४ ॥ ‘सुनहरे साज-बाजसे सजे ए चार वेगशाली घोड़ से जुता आ े पु रथ (पु भू षत के वल मणोपयोगी रथ) आज आपके आगे-आगे नह चल रहा है?॥ १५ ॥ ‘वीर! आपक या ाके समय सम शुभ ल ण से शं सत तथा काले मेघवाले पवतके समान वशालकाय तेज ी गजराज आज आपके आगे नह दखायी देता है?॥ १६ ॥ ‘ यदशन वीर! आज आपके सुवणज टत भ ासनको सादर हाथम लेकर अ गामी सेवक आगे जाता नह दखायी देता है?॥ १७ ॥ ‘जब अ भषेकक सारी तैयारी हो चुक है, ऐसे समयम आपक यह ा दशा हो रही है? आपके मुखक का उड़ गयी है। ऐसा पहले कभी नह आ था। आपके चेहरेपर स ताका को◌इ च नह दखायी देता है। इसका ा कारण है?’॥ १८ ॥ इस कार वलाप करती ◌इ सीतासे रघुन न ीरामने कहा—‘सीते! आज पू पताजी मुझे वनम भेज रहे ह॥ १९ ॥ ‘महान् कु लम उ , धमको जाननेवाली तथा धमपरायणे जनकन न! जस कारण यह वनवास आज मुझे ा आ है, वह मश: बताता ँ , सुनो॥ ‘मेरे स त पता महाराज दशरथने माता कै के यीको पहले कभी दो महान् वर दये थे॥ २१ ॥



‘इधर



जब महाराजके उ ोगसे मेरे रा ा भषेकक तैयारी होने लगी, तब कै के यीने उस वरदानक त ाको याद दलाया और महाराजको धमत: अपने काबूम कर लया॥ २२ ॥ ‘इससे ववश होकर पताजीने भरतको तो युवराजके पदपर नयु कया और मेरे लये दूसरा वर ीकार कया, जसके अनुसार मुझे चौदह वष तक द कार म नवास करना होगा॥ २३ ॥ ‘इस समय म नजन वनम जानेके लये ान कर चुका ँ और तुमसे मलनेके लये यहाँ आया ँ । तुम भरतके समीप कभी मेरी शंसा न करना; क समृ शाली पु ष दूसरेक ु त नह सहन कर पाते ह। इसी लये कहता ँ क तुम भरतके सामने मेरे गुण क शंसा न करना॥ २४-२५ ॥ ‘ वशेषत: तु भरतके सम अपनी स खय के साथ भी बारंबार मेरी चचा नह करनी चा हये; क उनके मनके अनुकूल बताव करके ही तुम उनके नकट रह सकती हो॥ २६ ॥ ‘सीते! राजाने उ सदाके लये युवराजपद दे दया है, इस लये तु वशेष य पूवक उ स रखना चा हये; क अब वे ही राजा ह गे॥ २७ ॥ ‘म भी पताजीक उस त ाका पालन करनेके लये आज ही वनको चला जाऊँ गा। मन न! तुम धैय धारण करके रहना॥ २८ ॥ ‘क ा ण! न ाप सीते! मेरे मु नजनसे वत वनको चले जानेपर तु ाय: त और उपवासम संल रहना चा हये॥ २९ ॥ ‘ त दन सबेरे उठकर देवता क व धपूवक पूजा करके तु मेरे पता महाराज दशरथक व ना करनी चा हये॥ ३० ॥ ‘मेरी माता कौस ाको भी णाम करना चा हये। एक तो वे बूढ़ी ◌इं , दूसरे दु:ख और संतापने उ दुबल कर दया है; अत: धमको ही सामने रखकर तुमसे वे वशेष स ान पानेके यो ह॥ ३१ ॥ ‘जो मेरी शेष माताएँ ह, उनके चरण म भी तु त दन णाम करना चा हये; क ेह, उ ृ ेम और पालन-पोषणक से सभी माताएँ मेरे लये समान ह॥ ३२ ॥ ‘भरत और श ु मुझे ाण से भी बढ़कर य ह, अत: तु उन दोन को वशेषत: अपने भा◌इ और पु के समान देखना और मानना चा हये॥ ३३ ॥



‘ वदेहन



न! तु भरतक इ ाके व को◌इ काम नह करना चा हये; क इस समय वे मेरे देश और कु लके राजा ह॥ ३४ ॥ ‘अनुकूल आचरणके ारा आराधना और य पूवक सेवा करनेपर राजा लोग स होते ह तथा वपरीत बताव करनेपर वे कु पत हो जाते ह॥ ३५ ॥ ‘जो अ हत करनेवाले ह, वे अपने औरस पु ही न ह , राजा उ ाग देते ह और आ ीय न होनेपर भी जो साम वान् होते ह, उ वे अपना बना लेते ह॥ ३६ ॥ ‘अत: क ा ण! तुम राजा भरतके अनुकूल बताव करती ◌इ धम एवं स तम त र रहकर यहाँ नवास करो॥ ३७ ॥ ‘ ये! अब म उस वशाल वनम चला जाऊँ गा। भा म न! तु यह नवास करना होगा। तु ारे बतावसे कसीको क न हो, इसका ान रखते ए तु यहाँ मेरी इस आ ाका पालन करते रहना चा हये’॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ २६॥



स ा◌इसवाँ सग सीताक



ीरामसे अपनेको भी साथ ले चलनेके लये ाथना



ीरामके ऐसा कहनेपर यवा दनी वदेहकु मारी सीताजी, जो सब कारसे अपने ामीका ार पाने यो थ , ेमसे ही कु छ कु पत होकर प तसे इस कार बोल —॥ १ ॥ ‘नर े ीराम! आप मुझे ओछी समझकर यह ा कह रहे ह? आपक ये बात सुनकर मुझे ब त हँ सी आती है॥ २ ॥ ‘नरे र! आपने जो कु छ कहा है, वह अ -श के ाता वीर राजकु मार के यो नह है। वह अपयशका टीका लगानेवाला होनेके कारण सुनने यो भी नह है॥ ३ ॥ ‘आयपु ! पता, माता, भा◌इ, पु और पु वधू— ये सब पु ा द कम का फल भोगते ए अपने-अपने भा (शुभाशुभ कम) के अनुसार जीवन- नवाह करते ह॥ ४ ॥ ‘पु ष वर! के वल प ी ही अपने प तके भा का अनुसरण करती है, अत: आपके साथ ही मुझे भी वनम रहनेक आ ा मल गयी है॥ ५ ॥ ‘ना रय के लये इस लोक और परलोकम एकमा प त ही सदा आ य देनेवाला है। पता, पु , माता, स खयाँ तथा अपना यह शरीर भी उसका स ा सहायक नह है॥ ६ ॥ ‘रघुन न! य द आप आज ही दुगम वनक ओर ान कर रहे ह तो म रा ेके कु श और काँट को कु चलती ◌इ आपके आगे-आगे चलूँगी॥ ७ ॥ ‘अत: वीर! आप ◌इ ा१ और रोषको२ दूर करके पीनेस३े बचे ए जलक भाँ त मुझे न:श होकर साथ ले च लये। मुझम ऐसा को◌इ पाप—अपराध नह है, जसके कारण आप मुझे यहाँ ाग द॥ ८ ॥ ‘ऊँ चे-ऊँ चे महल म रहना, वमान पर चढ़कर घूमना अथवा अ णमा आ द स य के ारा आकाशम वचरना—इन सबक अपे ा ीके लये सभी अव ा म प तके चरण क छायाम रहना वशेष मह रखता है॥ ९ ॥ ‘मुझे कसके साथ कै सा बताव करना चा हये, इस वषयम मेरी माता और पताने मुझे अनेक कारसे श ा दी है। इस समय इसके वषयम मुझे को◌इ उपदेश देनेक आव कता नह है॥ १० ॥



‘अत: नाना



कारके व पशु से ा तथा सह और ा से से वत उस नजन एवं दुगम वनम म अव चलूँगी॥ ११ ॥ ‘म तो जैसे अपने पताके घरम रहती थी, उसी कार उस वनम भी सुखपूवक नवास क ँ गी। वहाँ तीन लोक के ऐ यको भी कु छ न समझती ◌इ म सदा प त त-धमका च न करती ◌इ आपक सेवाम लगी र ँ गी॥ १२ ॥ ‘वीर! नयमपूवक रहकर चय तका पालन क ँ गी और सदा आपक सेवाम त र रहकर आपहीके साथ मीठी-मीठी सुग से भरे ए वन म वच ँ गी॥ १३ ॥ ‘दूसर को मान देनेवाले ीराम! आप तो वनम रहकर दूसरे लोग क भी र ा कर सकते ह, फर मेरी र ा करना आपके लये कौन बड़ी बात है?॥ १४ ॥ ‘महाभाग! अत: म आपके साथ आज अव वनम चलूँगी। इसम संशय नह है। म हर तरह चलनेको तैयार ँ । मुझे कसी तरह भी रोका नह जा सकता॥ १५ ॥ ‘वहाँ चलकर म आपको को◌इ क नह दूँगी, सदा आपके साथ र ँ गी और त दन फल-मूल खाकर ही नवाह क ँ गी। मेरे इस कथनम कसी कारके संदेहके लये ान नह है॥ १६ ॥ ‘आपके आगे-आगे चलूँगी और आपके भोजन कर लेनेपर जो कु छ बचेगा, उसे ही खाकर र ँ गी। भो! मेरी बड़ी इ ा है क म आप बु मान् ाणनाथके साथ नभय हो वनम सव घूमकर पवत , छोटे-छोटे तालाब और सरोवर को देखूँ॥ १७ १/२ ॥ ‘आप मेरे वीर ामी ह। म आपके साथ रहकर सुखपूवक उन सु र सरोवर क शोभा देखना चाहती ँ , जो े कमलपु से सुशो भत ह तथा जनम हंस और कार व आ द प ी भरे रहते ह॥ १८ १/२ ॥ ‘ वशाल ने वाले आयपु ! आपके चरण म अनुर रहकर म त दन उन सरोवर म ान क ँ गी और आपके साथ वहाँ सब ओर वच ँ गी, इससे मुझे परम आन का अनुभव होगा॥ १९ १/२ ॥ ‘इस तरह सैकड़ या हजार वष तक भी य द आपके साथ रहनेका सौभा मले तो मुझे कभी क का अनुभव नह होगा। य द आप साथ न ह तो मुझे गलोकक ा भी अभी नह है॥ २० १/२ ॥



‘पु



ष सह रघुन न! आपके बना य द मुझे गलोकका नवास भी मल रहा हो तो वह मेरे लये चकर नह हो सकता—म उसे लेना नह चा ँ गी॥ २१ ॥ ‘ ाणनाथ! अत: उस अ दुगम वनम, जहाँ सह मृग, वानर और हाथी नवास करते ह, म अव चलूँगी और आपके ही चरण क सेवाम रहकर आपके अनुकूल चलती ◌इ उस वनम उसी तरह सुखसे र ँ गी, जैसे पताके घरम रहा करती थी॥ २२ ॥ ‘मेरे दयका स ूण ेम एकमा आपको ही अ पत है, आपके सवा और कह मेरा मन नह जाता, य द आपसे वयोग आ तो न य ही मेरी मृ ु हो जायगी। इस लये आप मेरी याचना सफल कर, मुझे साथ ले चल, यही अ ा होगा; मेरे रहनेसे आपपर को◌इ भार नह पड़ेगा’॥ २३ ॥ धमम अनुर रहनेवाली सीताके इस कार ाथना करनेपर भी नर े ीरामको उ साथ ले जानेक इ ा नह ◌इ। वे उ वनवासके वचारसे नवृ करनेके लये वहाँके क का अनेक कारसे व ारपूवक वणन करने लगे॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म स ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २७॥ १. ी होकर यह वनम जानेका साहस कै से करती है? इस वचारसे ◌इ ा होती है। २. यह मेरी बात नह मान रही है, यह सोचकर रोष कट होता है। इन दोन का ाग अपे त है। ३. जैसे कसी जलहीन बीहड़ पथम लोग अपने पीनेसे बचे ए पानीको साथ ले चलते ह, उसी कार मुझे भी आप साथ ले चल—यह सीताका अनुरोध है।



अ ा◌इसवाँ सग ीरामका वनवासके क का वणन करते ए सीताको वहाँ चलनेसे मना करना



धमको जाननेवाली सीताके इस कार कहनेपर भी धमव ल ीरामने वनम होनेवाले दु:ख को सोचकर उ साथ ले जानेका वचार नह कया॥ १ ॥ सीताके ने म आँ सू भरे ए थे। धमा ा ीराम उ वनवासके वचारसे नवृ करनेके लये सा ना देते ए इस कार बोले—॥ २ ॥ ‘सीते! तुम अ उ म कु लम उ ◌इ हो और सदा धमके आचरणम ही लगी रहती हो; अत: यह रहकर धमका पालन करो, जससे मेरे मनको संतोष हो॥ ‘सीते! म तुमसे जैसा क ँ , वैसा ही करना तु ारा कत है। तुम अबला हो, वनम नवास करनेवाले मनु को ब त-से दोष ा होते ह; उ बता रहा ँ , मुझसे सुनो॥ ४ ॥ ‘सीते! वनवासके लये चलनेका यह वचार छोड़ दो, वनको अनेक कारके दोष से ा और दुगम बताया जाता है॥ ५ ॥ ‘तु ारे हतक भावनासे ही म ये सब बात कह रहा ँ । जहाँतक मेरी जानकारी है, वनम सदा सुख नह मलता। वहाँ तो सदा दु:ख ही मला करता है॥ ६ ॥ ‘पवत से गरनेवाले झरन के श को सुनकर उन पवत क क रा म रहनेवाले सह दहाड़ने लगते ह। उनक वह गजना सुननेम बड़ी दु:खदा यनी तीत होती है, इस लये वन दु:खमय ही है॥ ७ ॥ ‘सीते! सूने वनम नभय होकर ड़ा करनेवाले मतवाले जंगली पशु मनु को देखते ही उसपर चार ओरसे टूट पड़ते ह; अत: वन दु:खसे भरा आ है॥ ‘वनम जो न दयाँ होती ह, उनके भीतर ाह नवास करते ह, उनम क चड़ अ धक होनेके कारण उ पार करना अ क ठन होता है। इसके सवा वनम मतवाले हाथी सदा घूमते रहते ह। इस सब कारण से वन ब त ही दु:खदायक होता है॥ ९ ॥ ‘वनके माग लता और काँट से भरे रहते ह। वहाँ जंगली मुग बोला करते ह, उन माग पर चलनेम बड़ा क होता है तथा वहाँ आस-पास जल नह मलता, इससे वनम दु:ख-ही-दु:ख है॥ १० ॥



‘ दनभरके



प र मसे थके -माँदे मनु को रातम जमीनके ऊपर अपने-आप गरे ए सूखे प के बछौनेपर सोना पड़ता है, अत: वन दु:खसे भरा आ है॥ ११ ॥ ‘सीते! वहाँ मनको वशम रखकर वृ से त: गरे ए फल के आहारपर ही दन-रात संतोष करना पड़ता है, अत: वन दु:ख देनेवाला ही है॥ १२ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! अपनी श के अनुसार उपवास करना, सरपर जटाका भार ढोना और व ल व धारण करना—यही वहाँक जीवनशैली है॥ १३ ॥ ‘देवता का, पतर का तथा आये ए अ त थय का त दन शा ो व धके अनुसार पूजन करना—यह वनवासीका धान कत है॥ १४ ॥ ‘वनवासीको त दन नयमपूवक तीन समय ान करना होता है। इस लये वन ब त ही क देनेवाला है॥ ‘सीते! वहाँ यं चुनकर लाये ए फू ल ारा वेदो व धसे वेदीपर देवता क पूजा करनी पड़ती है। इस लये वनको क द कहा गया है॥ १६ ॥ ‘ म थलेशकु मारी जानक ! वनवा सय को जब जैसा आहार मल जाय उसीपर संतोष करना पड़ता है; अत: वन दु:ख प ही है॥ १७ ॥ ‘वनम च आँ धी, घोर अ कार, त दन भूखका क तथा और भी बड़े-बड़े भय ा होते ह, अत: वन अ क द है॥ १८ ॥ ‘भा म न! वहाँ ब त-से पहाड़ी सप, जो अनेक कारके पवाले होते ह, दपवश बीच रा ेम वचरते रहते ह; अत: वन अ क दायक है॥ १९ ॥ ‘जो न दय म नवास करते और न दय के समान ही कु टल ग तसे चलते ह, ऐसे ब सं क सप वनम रा ेको घेरकर पड़े रहते ह; इस लये वन ब त ही क दायक है॥ २० ॥ ‘अबले! पतंग,े ब ू , क ड़े, डाँस और म र वहाँ सदा क प ँ चाते रहते ह; अत: सारा वन दु:ख प ही है॥ २१ ॥ ‘भा म न! वनम काँटेदार वृ , कु श और कास होते ह, जनक शाखा के अ भाग सब ओर फै ले ए होते ह; इस लये वन वशेष क दायक होता है॥ २२ ॥ ‘वनम नवास करनेवाले मनु को ब त-से शारी रक ेश और नाना कारके भय का सामना करना पड़ता है, अत: वन सदा दु:ख प ही होता है॥ २३ ॥



‘वहाँ



ोध और लोभको ाग देना होता है, तप ाम मन लगाना पड़ता है और जहाँ भयका ान है, वहाँ भी भयभीत न होनेक आव कता होती है; अत: वनम सदा दु:ख-ही-दु:ख है॥ २४ ॥ ‘इस लये तु ारा वनम जाना ठीक नह है। वहाँ जाकर तुम सकु शल नह रह सकती। म ब त सोच वचार कर देखता और समझता ँ — क वनम रहना अनेक दोष का उ ादक ब त ही क दायक है॥ २५ ॥ जब महा ा ीरामने उस समय सीताको वनम ले जानेका वचार नह कया, तब सीताने भी उनक उस बातको नह माना। वे अ दु:खी होकर ीरामसे इस कार बोल ॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अ ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २८॥



उनतीसवाँ सग सीताका ीरामके सम



उनके साथ अपने वनगमनका औ च



बताना



ीरामच जीक यह बात सुनकर सीताको बड़ा दु:ख आ, उनके मुखपर आँ सु क धारा बह चली और वे धीरे-धीरे इस कार कहने लग —॥ १ ॥ ‘ ाणनाथ! आपने वनम रहनेके जो-जो दोष बताये ह, वे सब आपका ेह पाकर मेरे लये गुण प हो जायँगे। इस बातको आप अ ी तरह समझ ल॥ ‘रघुन न! मृग, सह, हाथी, शेर, शरभ, चमरी गाय, नीलगाय तथा जो अ जंगली जीव ह, वे सब-के -सब आपका प देखकर भाग जायँग;े क ऐसा भावशाली प उ ने पहले कभी नह देखा होगा। आपसे तो सभी डरते ह; फर वे पशु नह डरगे?॥ ३-४ ॥ ‘ ीराम! मुझे गु जन क आ ासे न य ही आपके साथ चलना है; क आपका वयोग हो जानेपर म यहाँ अपने जीवनका प र ाग कर दूँगी॥ ५ ॥ ‘रघुनाथजी! आपके समीप रहनेपर देवता के राजा इ भी बलपूवक मेरा तर ार नह कर सकते॥ ६ ॥ ‘ ीराम! प त ता ी अपने प तसे वयोग होनेपर जी वत नह रह सके गी; ऐसी बात आपने भी मुझे भलीभाँ त दशायी है॥ ७ ॥ ‘महा ा ! य प वनम दोष और दु:ख ही भरे ह, तथा प अपने पताके घरपर रहते समय म ा ण के मुखसे पहले यह बात सुन चुक ँ क ‘मुझे अव ही वनम रहना पड़ेगा’ यह बात मेरे जीवनम स होकर रहेगी॥ ८ ॥ ‘महाबली वीर! ह रेखा देखकर भ व क बात जान लेनेवाले ा ण के मुखसे अपने घरपर ऐसी बात सुनकर म सदा ही वनवासके लये उ ा हत रहती ँ ॥ ‘ यतम! ा णसे ात आ वनम रहनेका आदेश एक-न-एक दन मुझे पूरा करना ही पड़ेगा, यह कसी तरह पलट नह सकता। अत: म अपने ामी आपके साथ वनम अव चलूँगी॥ १० ॥ ‘ऐसा होनेसे म उस भा के वधानको भोग लूँगी। उसके लये यह समय आ गया है, अत: आपके साथ मुझे चलना ही है; इससे उस ा णक बात भी स ी हो जायगी॥ ११ ॥



‘वीर! म जानती ँ क वनवासम अव ही ब त-से दु:ख ा होते ह; परंतु वे उ दु:ख जान पड़ते ह, जनक इ याँ और मन अपने वशम नह ह॥ १२ ॥ ‘ पताके



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घरपर कु मारी अव ाम एक शा परायणा भ कु के मुखसे भी मने अपने वनवासक बात सुनी थी। उसने मेरी माताके सामने ही ऐसी बात कही थी॥ ‘ भो! यहाँ आनेपर भी मने पहले ही क◌इ बार आपसे कु छ कालतक वनम रहनेके लये ाथना क थी और आपको राजी भी कर लया था। इससे आप न त पसे जान ल क आपके साथ वनको चलना मुझे पहलेसे ही अभी है॥ १४ ॥ ‘रघुन न! आपका भला हो। म वहाँ चलनेके लये पहलेसे ही आपक अनुम त ा कर चुक ँ । अपने शूरवीर वनवासी प तक सेवा करना मेरे लये अ धक चकर है॥ १५ ॥ ‘शु ा न्! आप मेरे ामी ह, आपके पीछे ेमभावसे वनम जानेपर मेरे पाप दूर हो जायँग;े क ामी ही ीके लये सबसे बड़ा देवता है॥ १६ ॥ ‘आपके अनुगमनसे परलोकम भी मेरा क ाण होगा और सदा आपके साथ मेरा संयोग बना रहेगा। इस वषयम यश ी ा ण के मुखसे एक प व ु त सुनी जाती है (जो इस कार है—)॥ १७ ॥ ‘महाबली वीर! इस लोकम पता आ दके ारा जो क ा जस पु षको अपने धमके अनुसार जलसे संक करके दे दी जाती है, वह मरनेके बाद परलोकम भी उसीक ी होती है॥ १८ ॥ ‘म आपक धमप ी ँ , उ म तका पालन करनेवाली और प त ता ँ , फर ा कारण है क आप मुझे यहाँसे अपने साथ ले चलना नह चाहते ह॥ १९ ॥ ‘ककु कु लभूषण! म आपक भ ँ , पा त का पालन करती ँ , आपके बछोहके भयसे दीन हो रही ँ तथा आपके सुख-दु:खम समान पसे हाथ बँटानेवाली ँ । मुझे सुख मले या दु:ख, म दोन अव ा म सम र ँ गी—हष या शोकके वशीभूत नह होऊँ गी। अत: आप अव ही मुझे साथ ले चलनेक कृ पा कर॥ २० ॥ ‘य द आप इस कार दु:खम पड़ी ◌इ मुझ से वकाको अपने साथ वनम ले जाना नह चाहते ह तो म मृ ुके लये वष खा लूँगी, आगम कू द पडँ गी अथवा जलम डू ब जाऊँ गी’॥ २१ ॥



इस तरह अनेक कारसे सीताजी वनम जानेके लये याचना कर रही थ तथा प महाबा ीरामने उ अपने साथ नजन वनम ले जानेक अनुम त नह दी॥ इस कार उनके अ ीकार कर देनेपर म थलेशकु मारी सीताको बड़ी च ा ◌इ और वे अपने ने से गरम-गरम आँ सू बहाकर धरतीको भगोने-सी लग ॥ २३ ॥ उस समय वदेहन नी जानक को च त और कु पत देख मनको वशम रखनेवाले ीरामच जीने उ वनवासके वचारसे नवृ करनेके लये भाँ तभाँ तक बात कहकर समझाया॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म उनतीसवाँ सग पूरा आ॥ २९॥



तीसवाँ सग सीताका वनम चलनेके लये अ धक आ ह, वलाप और घबराहट देखकर ीरामका उ साथ ले चलनेक ीकृ त देना, पता-माता और गु जन क सेवाका मह बताना तथा सीताको वनम चलनेक तैयारीके लये घरक व ु का दान करनेक आ ा देना



ीरामके समझानेपर म थलेशकु मारी जानक वनवासक आ ा ा करनेके लये अपने प तसे फर इस कार बोल ॥ १ ॥ सीता अ डरी ◌इ थ । वे ेम और ा भमानके कारण वशाल व : लवाले ीरामच जीपर आ ेप-सा करती ◌इ कहने लग —॥ २ ॥ ‘ ीराम! ा मेरे पता म थलानरेश वदेहराज जनकने आपको जामाताके पम पाकर कभी यह भी समझा था क आप के वल शरीरसे ही पु ष ह; कायकलापसे तो ी ही ह॥ ३ ॥ ‘नाथ! आपके मुझे छोड़कर चले जानेपर संसारके लोग अ ानवश य द यह कहने लग क सूयके समान तपनेवाले ीरामच म तेज और परा मका अभाव है तो उनक यह अस धारणा मेरे लये कतने दु:खक बात होगी॥ ४ ॥ ‘आप ा सोचकर वषादम पड़े ए ह अथवा कससे आपको भय हो रहा है, जसके कारण आप अपनी प ी मुझ सीताका, जो एकमा आपके ही आ त है, प र ाग करना चाहते ह॥ ५ ॥ ‘जैसे सा व ी ुम ेनकु मार वीरवर स वा ही अनुगा मनी थी, उसी कार आप मुझे भी अपनी ही आ ाके अधीन सम झये॥ ६ ॥ ‘ न ाप रघुन न! जैसी दूसरी को◌इ कु लकल नी ी परपु षपर रखती है, वैसी म नह ँ । म तो आपके सवा कसी दूसरे पु षको मनसे भी नह देख सकती। इस लये आपके साथ ही चलूँगी (आपके बना अके ली यहाँ नह र ँ गी)॥ ७ ॥ ‘ ीराम! जसका कु माराव ाम ही आपके साथ ववाह आ है और जो चरकालतक आपके साथ रह चुक है, उसी मुझ अपनी सती-सा ी प ीको आप औरतक कमा◌इ खानेवाले नटक भाँ त दूसर के हाथम स पना चाहते ह?॥ ८ ॥



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ाप रघुन न! आप मुझे जसके अनुकूल चलनेक श ा दे रहे ह और जसके लये आपका रा ा भषेक रोक दया गया है, उस भरतके सदा ही वशवत और आ ापालक बनकर आप ही र हये, म नह र ँ गी॥ ९ ॥ ‘इस लये आपका मुझे अपने साथ लये बना वनक ओर ान करना उ चत नह है। य द तप ा करनी हो, वनम रहना हो अथवा गम जाना हो तो सभी जगह म आपके साथ रहना चाहती ँ ॥ १० ॥ ‘जैसे बगीचेम घूमने और पलंगपर सोनेम को◌इ क नह होता, उसी कार आपके पीछे-पीछे वनके मागपर चलनेम भी मुझे को◌इ प र म नह जान पड़ेगा॥ ‘रा ेम जो कु श-कास, सरकं डे, स क और काँटेदार वृ मलगे, उनका श मुझे आपके साथ रहनेसे ◌इ और मृगचमके समान सुखद तीत होगा॥ ‘ ाणव भ! च आँ धीसे उड़कर मेरे शरीरपर जो धूल पड़ेगी, उसे म उ म च नके समान समझूँगी॥ १३ ॥ ‘जब वनके भीतर र ँ गी, तब आपके साथ घास पर भी सो लूँगी। रंग- बरंगे कालीन और मुलायम बछौन से यु पलंग पर ा उससे अ धक सुख हो सकता है?॥ १४ ॥ ‘आप अपने हाथसे लाकर थोड़ा या ब त फल, मूल या प ा, जो कु छ दे दगे, वही मेरे लये अमृत-रसके समान होगा॥ १५ ॥ ‘ऋतुके अनुकूल जो भी फल-फू ल ा ह गे, उ खाकर र ँ गी और माता- पता अथवा महलको कभी याद नह क ँ गी॥ १६ ॥ ‘वहाँ रहते समय मेरा को◌इ भी तकू ल वहार आप नह देख सकगे। मेरे लये आपको को◌इ क नह उठाना पड़ेगा। मेरा नवाह आपके लये दूभर नह होगा॥ १७ ॥ ‘आपके साथ जहाँ भी रहना पड़े, वही मेरे लये ग है और आपके बना जो को◌इ भी ान हो, वह मेरे लये नरकके समान है। ीराम! मेरे इस न यको जानकर आप मेरे साथ अ स तापूवक वनको चल॥ १८ ॥ ‘मुझे वनवासके क से को◌इ घबराहट नह है। य द इस दशाम भी आप अपने साथ मुझे वनम नह ले चलगे तो म आज ही वष पी लूँगी, परंतु श ु के अधीन होकर नह र ँ गी॥ १९ ॥



नाथ! य द आप मुझे ागकर वनको चले जायँगे तो पीछे भी इस भारी दु:खके कारण मेरा जी वत रहना स व नह है; ऐसी दशाम म इसी समय आपके जाते ही अपना ाण ाग देना अ ा समझती ँ ॥ २० ॥ ‘आपके वरहका यह शोक म दो घड़ी भी नह सह सकूँ गी। फर मुझ दु: खयासे यह चौदह वष तक कै से सहा जायगा?’॥ २१ ॥ इस कार ब त देरतक क णाजनक वलाप करके शोकसे संत ◌इ सीता श थल हो अपने प तको जोरसे पकड़कर—उनका गाढ़ आ ल न करके फू ट-फू टकर रोने लग ॥ २२ ॥ जैसे को◌इ ह थनी वषम बुझे ए ब सं क बाण ारा घायल कर दी गयी हो, उसी कार सीता ीरामच जीके पूव अनेकानेक वचन ारा ममाहत हो उठी थ ; अत: जैसे अरणी आग कट करती है, उसी कार वे ब त देरसे रोके ए आँ सु को बरसाने लग ॥ २३ ॥ उनके दोन ने से टकके समान नमल संतापज नत अ ुजल झर रहा था, मानो दो कमल से जलक धारा गर रही हो॥ २४ ॥ बड़े-बड़े ने से सुशो भत और पू णमाके नमल च माके समान का मान् उनका वह मनोहर मुख संतापज नत तापके कारण पानीसे बाहर नकाले ए कमलके समान सूख-सा गया था॥ २५ ॥ सीताजी दु:खके मारे अचेत-सी हो रही थ । ीरामच जीने उ दोन हाथ से सँभालकर दयसे लगा लया और उस समय उ सा ना देते ए कहा—॥ २६ ॥ ‘दे व! तु दु:ख देकर मुझे गका सुख मलता हो तो म उसे भी लेना नह चा ँ गा। य ू ाजीक भाँ त मुझे कसीसे क त् भी भय नह है॥ २७ ॥ ‘शुभानने! य प वनम तु ारी र ा करनेके लये म सवथा समथ ँ तो भी तु ारे हा दक अ भ ायको पूण पसे जाने बना तुमको वनवा सनी बनाना म उ चत नह समझता था॥ २८ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! जब तुम मेरे साथ वनम रहनेके लये ही उ ◌इ हो तो म तु छोड़ नह सकता, ठीक उसी तरह जैसे आ ानी पु ष अपनी ाभा वक स ताका ाग नह करते॥ २९ ॥ ‘हाथीक सूँड़के समान जाँघवाली जनक कशोरी! पूवकालके स ु ष ने अपनी प ीके साथ रहकर जस धमका आचरण कया था, उसीका म भी तु ारे साथ रहकर अनुसरण क ँ गा



तथा जैसे सुवचला (सं ा) अपने प त सूयका अनुगमन करती है, उसी कार तुम भी मेरा अनुसरण करो॥ ३० ॥ ‘जनकन न! यह तो कसी कार स व ही नह है क म वनको न जाऊँ ; क पताजीका वह स यु वचन ही मुझे वनक ओर ले जा रहा है॥ ‘सु ो ण! पता और माताक आ ाके अधीन रहना पु का धम है, इस लये म उनक आ ाका उ न करके जी वत नह रह सकता॥ ३२ ॥ ‘जो अपनी सेवाके अधीन ह, उन देवता माता, पता एवं गु का उ न करके जो सेवाके अधीन नह है, उस अ देवता दैवक व भ कारसे कस तरह आराधना क जा सकती है॥ ३३ ॥ ‘सु र ने ा वाली सीते! जनक आराधना करनेपर धम, अथ और काम तीन ा होते ह तथा तीन लोक क आराधना स हो जाती है, उन माता, पता और गु के समान दूसरा को◌इ प व देवता इस भूतलपर नह है। इसी लये भूतलके नवासी इन तीन देवता क आराधना करते ह॥ ३४ ॥ ‘सीते! पताक सेवा करना क ाणक ा का जैसा बल साधन माना गया है, वैसा न स है, न दान है, न मान है और न पया द णावाले य ही ह॥ ३५ ॥ ‘गु जन क सेवाका अनुसरण करनेसे ग, धन-धा , व ा, पु और सुख—कु छ भी दुलभ नह है॥ ३६ ॥ ‘माता- पताक सेवाम लगे रहनेवाले महा ा पु ष देवलोक, ग वलोक, लोक, गोलोक तथा अ लोक को भी ा कर लेते ह॥ ३७ ॥ ‘इसी लये स और धमके मागपर त रहनेवाले पू पताजी मुझे जैसी आ ा दे रहे ह, म वैसा ही बताव करना चाहता ँ ; क वह सनातनधम है॥ ‘सीते! ‘म आपके साथ वनम नवास क ँ गी’— ऐसा कहकर तुमने मेरे साथ चलनेका ढ़ न य कर लया है, इस लये तु द कार ले चलनेके स म जो मेरा पहला वचार था, वह अब बदल गया है॥ ३९ ॥ ‘मदभरे ने वाली सु री! अब म तु वनम चलनेके लये आ ा देता ँ । भी ! तुम मेरी अनुगा मनी बनो और मेरे साथ रहकर धमका आचरण करो॥ ४० ॥



ाणव भे सीते! तुमने मेरे साथ चलनेका जो यह परम सु र न य कया है, यह तु ारे और मेरे कु लके सवथा यो ही है॥ ४१ ॥ ‘सु ो ण! अब तुम वनवासके यो दान आ द कम ार करो। सीते! इस समय तु ारे इस कार ढ़ न य कर लेनेपर तु ारे बना ग भी मुझे अ ा नह लगता है॥ ४२ ॥ ‘ ा ण को र प उ म व ुएँ दान करो और भोजन माँगनेवाले भ कु को भोजन दो। शी ता करो, वल नह होना चा हये॥ ४३ ॥ तु ारे पास जतने ब मू आभूषण ह , जो-जो अ े-अ े व ह , जो को◌इ भी रमणीय पदाथ ह तथा मनोर नक जो-जो सु र साम याँ ह , मेरे और तु ारे उपयोगम आनेवाली जो उ मो म श ाएँ , सवा रयाँ तथा अ व ुएँ ह , उनमसे ा ण को दान करनेके प ात् जो बच उन सबको अपने सेवक को बाँट दो’॥ ४४-४५ ॥ ‘ ामीने वनम मेरा जाना ीकार कर लया— मेरा वनगमन उनके मनके अनुकूल हो गया’ यह जानकर देवी सीता ब त स ◌इं और शी तापूवक सब व ु का दान करनेम जुट गय ॥ ४६ ॥ तदन र अपना मनोरथ पूण हो जानेसे अ हषम भरी ◌इ यश नी एवं मन नी सीता देवी ामीके आदेशपर वचार करके धमा ा ा ण को धन और र का दान करनेके लये उ त हो गय ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३०॥ ‘



इकतीसवाँ सग ीराम और ल णका संवाद, ीरामक आ ासे ल णका सु द से पूछकर और द आयुध लाकर वनगमनके लये तैयार होना, ीरामका उनसे ा ण को धन बाँटनेका वचार करना



जस समय ीराम और सीताम बातचीत हो रही थी, ल ण वहाँ पहलेसे ही आ गये थे। उन दोन का ऐसा संवाद सुनकर उनका मुखम ल आँ सु से भ ग गया। भा◌इके वरहका शोक अब उनके लये भी अस हो उठा॥ १ ॥ रघुकुलको आन त करनेवाले ल णने े ाता ीरामच जीके दोन पैर जोरसे पकड़ लये और अ यश नी सीता तथा महान् तधारी ीरघुनाथजीसे कहा—॥ २ ॥ ‘आय! य द आपने सह व पशु तथा हा थय से भरे ए वनम जानेका न य कर ही लया है तो म भी आपका अनुसरण क ँ गा। धनुष हाथम लेकर आगे-आगे चलूँगा॥ ३ ॥ ‘आप मेरे साथ प य के कलरव और मर-समूह के गु ारवसे गूँजते ए रमणीय वन म सब ओर वचरण क जयेगा॥ ४ ॥ ‘म आपके बना गम जाने, अमर होने तथा स ूण लोक का ऐ य ा करनेक भी इ ा नह रखता’॥ ५ ॥ वनवासके लये न त वचार करके ऐसी बात कहनेवाले सु म ाकु मार ल णको ीरामच जीने ब त-से सा नापूण वचन ारा समझाकर जब वनम चलनेसे मना कया, तब वे फर बोले—॥ ६ ॥ ‘भैया! आपने तो पहलेसे ही मुझे अपने साथ रहनेक आ ा दे रखी है, फर इस समय आप मुझे रोकते ह?॥ ७ ॥ ‘ न ाप रघुन न! जस कारणसे आपके साथ चलनेक इ ावाले मुझको आप मना करते ह, उस कारणको म जानना चाहता ँ । मेरे दयम इसके लये बड़ा संशय हो रहा है’॥ ८ ॥



ऐसा कहकर धीर-वीर ल ण आगे जानेके लये तैयार हो भगवान् ीरामके सामने खड़े हो गये और हाथ जोड़कर याचना करने लगे। तब महातेज ी ीरामने उनसे कहा—॥ ९ ॥



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ण! तुम मेरे ेही, धमपरायण, धीर-वीर तथा सदा स ागम त रहनेवाले हो। मुझे ाण के समान य हो तथा मेरे वशम रहनेवाले आ ापालक और सखा हो॥ १० ॥ ‘सु म ान न! य द आज मेरे साथ तुम भी वनको चल दोगे तो परम यश नी माता कौस ा और सु म ाक सेवा कौन करेगा?॥ ११ ॥ ‘जैसे मेघ पृ ीपर जलक वषा करता है, उसी कार जो सबक कामनाएँ पूण करते थे, वे महातेज ी महाराज दशरथ अब कै के यीके ेमपाशम बँध गये ह॥ १२ ॥ ‘के कयराज अ प तक पु ी कै के यी महाराजके इस रा को पाकर मेरे वयोगके दु:खम डू बी ◌इ अपनी सौत के साथ अ ा बताव नह करेगी॥ १३ ॥ ‘भरत भी रा पाकर कै के यीके अधीन रहनेके कारण दु: खया कौस ा और सु म ाका भरण-पोषण नह करगे॥ १४ ॥ ‘अत: सु म ाकु मार! तुम यह रहकर अपने य से अथवा राजाक कृ पा ा करके माता कौस ाका पालन करो। मेरे बताये ए इस योजनको ही स करो॥ ‘ऐसा करनेसे मेरे त जो तु ारी भ है, वह भी भलीभाँ त कट हो जायगी तथा धम गु जन क पूजा करनेसे जो अनुपम एवं महान् धम होता है, वह भी तु ा हो जायगा॥ १६ ॥ ‘रघुकुलको आन त करनेवाले सु म ाकु मार! तुम मेरे लये ऐसा ही करो; क हमलोग से बछु ड़ी ◌इ हमारी माँको कभी सुख नह होगा (वह सदा हमारी ही च ाम डू बी रहेगी)’॥ १७ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर बातचीतके ममको समझनेवाले ल णने उस समय बातका ता य समझनेवाले ीरामको मधुर वाणीम उ र दया—॥ १८ ॥ ‘वीर! आपके ही तेज ( भाव) से भरत माता कौस ा और सु म ा दोन का प व भावसे पूजन करगे, इसम संशय नह है॥ १९ ॥ ‘वीरवर! इस उ म रा को पाकर य द भरत बुरे रा ेपर चलगे और दू षत दय एवं वशेषत: घम के कारण माता क र ा नह करगे तो म उन दुबु और ू र भरतका तथा उनके प का समथन करनेवाले उन सब लोग का वध कर डालूँगा; इसम संशय नह है। य द सारी लोक उनका प करने लगे तो उसे भी अपने ाण से हाथ धोना पड़ेगा, परंतु बड़ी



माता कौस ा तो यं ही मेरे-जैसे सह मनु का भी भरण कर सकती ह; क उ अपने आ त का पालन करनेके लये एक सह गाँव मले ए ह॥ ‘इस लये वे मन नी कौस ा यं ही अपना, मेरी माताका तथा मेरे-जैसे और भी ब त-से मनु का भरण-पोषण करनेम समथ ह॥ २३ ॥ ‘अत: आप मुझको अपना अनुगामी बना ली जये। इसम को◌इ धमक हा न नह होगी। म कृ ताथ हो जाऊँ गा तथा आपका भी योजन मेरे ारा स आ करेगा॥ २४ ॥ ‘ ास हत धनुष लेकर खंती और पटारी लये आपको रा ा दखाता आ म आपके आगे-आगे चलूँगा॥ २५ ॥ ‘ त दन आपके लये फल-मूल लाऊँ गा तथा तप ीजन के लये वनम मलनेवाली तथा अ ा हवन-साम ी जुटाता र ँ गा॥ २६ ॥ ‘आप वदेहकु मारीके साथ पवत शखर पर मण करगे। वहाँ आप जागते ह या सोते, म हर समय आपके सभी आव क काय पूण क ँ गा’॥ २७ ॥ ल णक इस बातसे ीरामच जीको बड़ी स ता ◌इ और उ ने उनसे कहा —‘सु म ान न! जाओ, माता आ द सभी सु द से मलकर अपनी वनया ाके वषयम पूछ लो —उनक आ ा एवं अनुम त ले लो॥ २८ ॥ ‘ल ण! राजा जनकके महान् य म यं महा ा व णने उ जो देखनेम भयंकर दो द धनुष दये थे, साथ ही, जो दो द अभे कवच, अ य बाण से भरे ए दो तरकस तथा सूयक भाँ त नमल दी से दमकते ए जो दो सुवणभू षत खड् ग दान कये थे (वे सभी द ा म थलानरेशने मुझे दहेजम दे दये थे), उन सबको आचायदेवके घरम स ारपूवक रखा गया है। तुम उन सारे आयुध को लेकर शी लौट आओ’॥ २९—३१ ॥ आ ा पाकर ल णजी गये और सु न क अनुम त लेकर वनवासके लये न त पसे तैयार हो इ ाकु कु लके गु व स जीके यहाँ गये। वहाँसे उ ने उन उ म आयुध को ले लया॥ ३२ ॥ य शरोम ण सु म ाकु मार ल णने स ारपूवक रखे ए उन मा वभू षत सम द आयुध को लाकर उ ीरामको दखाया॥ ३३ ॥



तब मन ी ीरामने वहाँ आये ए ल णसे स होकर कहा—‘सौ ! ल ण! तुम ठीक समयपर आ गये। इसी समय तु ारा आना मुझे अभी था॥ ३५ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले वीर! मेरा जो यह धन है, इसे म तु ारे साथ रहकर तप ी ा ण को बाँटना चाहता ँ ॥ ३५ ॥ ‘गु जन के त सु ढ़ भ भावसे यु जो े ा ण यहाँ मेरे पास रहते ह, उनको तथा सम आ तजन को भी मुझे अपना यह धन बाँटना है॥ ३६ ॥ ‘व स जीके पु जो ा ण म े आय सुय ह, उ तुम शी यहाँ बुला लाओ। म इन सबका तथा और जो ा ण शेष रह गये ह , उनका भी स ार करके वनको जाऊँ गा’॥ ३७ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म इकतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३१॥



ब ीसवाँ सग सीतास हत ीरामका व स पु सुय को बुलाकर उनके तथा उनक प ीके लये ब मू आभूषण, र और धन आ दका दान तथा ल णस हत ीराम ारा ा ण , चा रय , सेवक , जट ा ण और सु न को धनका वतरण



तदन र अपने भा◌इ ीरामक यकारक एवं हतकर आ ा पाकर ल ण वहाँसे चल दये। उ ने शी ही गु पु सुय के घरम वेश कया॥ १ ॥ उस समय व वर सुय अ शालाम बैठे ए थे। ल णने उ णाम करके कहा —‘सखे! दु र कम करनेवाले ीरामच जीके घरपर आओ और उनका काय देखो’॥ २ ॥ सुय ने म ा कालक सं ोपासना पूरी करके ल णके साथ जाकर ीरामके रमणीय भवनम वेश कया, जो ल ीसे स था॥ ३ ॥ होमकालम पू जत अ के समान तेज ी वेदवे ा सुय को आया जान सीतास हत ीरामने हाथ जोड़कर उनक अगवानी क ॥ ४ ॥ त ात् ककु कु लभूषण ीरामने सोनेके बने ए े अ द , सु र कु ल , सुवणमय सू म परोयी ◌इ म णय , के यूर , वलय तथा अ ब त-से र ारा उनका पूजन कया॥ ५ १/२ ॥ इसके बाद सीताक ेरणासे ीरामने सुय से कहा—‘सौ ! तु ारी प ीक सखी सीता तु अपना हार, सुवणसू और करधनी देना चाहती है। इन व ु को अपनी प ीके लये ले जाओ॥ ६-७ ॥ ‘वनको ान करनेवाली तु ारी ीक सखी सीता तु तु ारी प ीके लये व च अ द और सु र के यूर भी देना चाहती है॥ ८ ॥ ‘उ म बछौन से यु तथा नाना कारके र से वभू षत जो पलंग है, उसे भी वदेहन नी सीता तु ारे ही घरम भेज देना चाहती है॥ ९ ॥ ‘ व वर! श ु य नामक जो हाथी है, जसे मेरे मामाने मुझे भट कया था, उसे एक हजार अश फय के साथ म तु अ पत करता ँ ’॥ १० ॥



ीरामके ऐसा कहनेपर सुय ने वे सब व ुएँ हण करके ीराम, ल ण और सीताके लये म लमय आशीवाद दान कये॥ ११ ॥ तदन र ीरामने शा भावसे खड़े ए और य वचन बोलनेवाले अपने य ाता सु म ाकु मार ल णसे उसी तरह न ा त बात कही, जैसे ा देवराज इ से कु छ कहते ह॥ १२ ॥ ‘सु म ान न! अग और व ा म दोन उ म ा ण को बुलाकर र ारा उनक पूजा करो। महाबा रघुन न! जैसे मेघ जलक वषा ारा खेतीको तृ करता है, उसी कार तुम उ सह गौ , सुवणमु ा , रजत और ब मू म णय ारा संतु करो॥ १३-१४ ॥ ‘ल



ण! यजुवदीय तै रीय शाखाका अ यन करनेवाले ा ण के जो आचाय और स ूण वेद के व ान् ह, साथ ही जनम दान ा क यो ता है तथा जो माता कौस ाके त भ भाव रखकर त दन उनके पास आकर उ आशीवाद दान करते ह, उनको सवारी, दास-दासी, रेशमी व और जतने धनसे वे ा णदेवता संतु ह , उतना धन खजानेसे दलवाओ॥ १५-१६ ॥ ‘ च रथ नामक सूत े स चव भी ह। वे सुदीघकालसे यह राजकु लक सेवाम रहते ह। इनको भी तुम ब मू र , व और धन देकर संतु करो। साथ ही, इ उ म ेणीके अज आ द सभी पशु और एक सह गौएँ अ पत करके पूण संतोष दान करो॥ १७ १/२ ॥ ‘मुझसे स रखनेवाले जो कठशाखा और कलाप-शाखाके अ ेता ब त-से द धारी चारी ह, वे सदा ा ायम ही संल रहनेके कारण दूसरा को◌इ काय नह कर पाते। भ ा माँगनेम आलसी ह, परंतु ा द अ खानेक इ ा रखते ह। महान् पु ष भी उनका स ान करते ह। उनके लये र के बोझसे लदे ए अ ी ऊँ ट, अगहनी चावलका भार ढोनेवाले एक सह बैल तथा भ क नामक धा वशेष (चने, मूँग आ द) का भार लये ए दो सौ बैल और दलवाओ॥ ‘सु म ाकु मार! उपयु व ु के सवा उनके लये दही, घी आ द नके न म एक सह गौएँ भी हँ कवा दो। माता कौस ाके पास मेखलाधारी चा रय का ब त बड़ा समुदाय आया है। उनमसे ेकको एक-एक हजार णमु ाएँ दलवा दो॥ २१ ॥



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ण! उन सम चारी ा ण को मेरे ारा दलायी ◌इ द णा देखकर जस कार मेरी माता कौस ा आन त हो उठे , उसी कार तुम उन सबक सब कारसे पूजा करो’॥ २२ ॥ इस कार आ ा ा होनेपर पु ष सह ल णने यं ही कु बेरक भाँ त ीरामके कथनानुसार उन े ा ण को उस धनका दान कया॥ २३ ॥ इसके बाद वहाँ खड़े ए अपने आ त सेवक को जनका गला आँ सु से ँ धा आ था, बुलाकर ीरामने उनमसे एक-एकको चौदह वष तक जी वका चलानेयो ब त-सा दान कया और उन सबसे कहा— ‘जबतक म वनसे लौटकर न आऊँ , तबतक तुमलोग ल णके और मेरे इस घरको कभी सूना न करना— छोड़कर अ न जाना’॥ २४-२५ ॥ वे सब सेवक ीरामके वनगमनसे ब त दु:खी थे। उनसे उपयु बात कहकर ीराम अपने धना (खजांची) से बोले—‘खजानेम मेरा जतना धन है, वह सब ले आओ’॥ २६ ॥ यह सुनकर सभी सेवक उनका धन ढो-ढोकर ले आने लगे। वहाँ उस धनक ब त बड़ी रा श एक ◌इ दखायी देने लगी, जो देखने ही यो थी॥ २७ ॥ तब ल णस हत पु ष सह ीरामने बालक और बूढ़े ा ण तथा दीन-दु: खय को वह सारा धन बँटवा दया॥ २८ ॥ उन दन वहाँ अयो ाके आस-पास वनम जट नामवाले एक गगगो ीय ा ण रहते थे। उनके पास जी वकाका को◌इ साधन नह था, इस लये उपवास आ दके कारण उनके शरीरका रंग पीला पड़ गया था। वे सदा फाल, कु दाल और हल लये वनम फल-मूलक तलाशम घूमा करते थे॥ २९ ॥ वे यं तो बूढ़े हो चले थे, परंतु उनक प ी अभी त णी थी। उसने छोटे ब को लेकर ा णदेवतासे यह बात कही—‘ ाणनाथ! (य प) य के लये प त ही देवता है, (अत: मुझे आपको आदेश देनेका को◌इ अ धकार नह है, तथा प म आपक भ ँ ; इस लये वनयपूवक यह अनुरोध करती ँ क—) आप यह फाल और कु दाल फ ककर मेरा कहना क जये। धम ीरामच जीसे म लये। य द आप ऐसा कर तो वहाँ अव कु छ पा जायँग’े ॥ ३०-३१ ॥ प ीक बात सुनकर ा ण एक फटी धोती, जससे मु लसे शरीर ढक पाता था, पहनकर उस मागपर चल दये, जहाँ ीरामच जीका महल था॥ ३२ ॥



भृगु और अ राके समान तेज ी जट, जनसमुदायके बीचसे होकर ीराम-भवनक पाँचव ौढ़ीतक चले गये, परंतु उनके लये कसीने रोक-टोक नह क ॥ ३३ ॥ उस समय ीरामके पास प ँ चकर जटने कहा—‘महाबली राजकु मार! म नधन ँ , मेरे ब त-से पु ह, जी वका न हो जानेसे सदा वनम ही रहता ँ , आप मुझपर कृ पा क जये’॥ ३४ १/२ ॥ तब ीरामने वनोदपूवक कहा—‘ न्! मेरे पास असं गौएँ ह, इनमसे एक सह का भी मने अभीतक कसीको दान नह कया है। आप अपना डंडा जतनी दूर फ क सकगे, वहाँतकक सारी गौएँ आपको मल जायँगी’॥ ३६ ॥ यह सुनकर उ ने बड़ी तेजीके साथ धोतीके प ेको सब ओरसे कमरम लपेट लया और अपनी सारी श लगाकर डंडके ो बड़े वेगसे घुमाकर फ का॥ ा णके हाथसे छू टा आ वह डंडा सरयूके उस पार जाकर हजार गौ से भरे ए गो म एक साँड़के पास गरा॥ ३८ ॥ धमा ा ीरामने जटको छातीसे लगा लया और उस सरयूतटसे लेकर उस पार गरे ए डंडके े ानतक जतनी गौएँ थ , उन सबको मँगवाकर जटके आ मपर भेज दया॥ ३९ ॥



उस समय ीरामने गगवंशी जटको सा ना देते ए कहा—‘ न्! मने वनोदम यह बात कही थी, आप इसके लये बुरा न मा नयेगा॥ ४० ॥ ‘आपका यह जो दुलङ् तेज है, इसीको जाननेक इ ासे मने आपको यह डंडा फ कनेके लये े रत कया था, य द आप और कु छ चाहते ह तो माँ गये॥ ४१ ॥ म सच कहता ँ क इसम आपके लये को◌इ संकोचक बात नह है। मेरे पास जो-जो धन ह, वह सब ा ण के लये ही है। आप-जैसे ा ण को शा ीय व धके अनुसार दान देनेसे मेरे ारा उपा जत कया आ धन मेरे यशक वृ करनेवाला होगा’॥ ४२ ॥ गौ के उस महान् समूहको पाकर प ीस हत महामु न जटको बड़ी स ता ◌इ, वे महा ा ीरामको यश, बल, ी त तथा सुख बढ़ानेवाले आशीवाद देने लगे॥ ४३ ॥ तदन र पूण परा मी भगवान् ीराम धमबलसे उपा जत कये ए उस महान् धनको लोग के यथायो स ानपूण वचन से े रत हो ब त देरतक अपने सु द म बाँटते रहे॥ ४४ ॥



उस समय वहाँ को◌इ भी ा ण, सु द,् सेवक, द र अथवा भ कु ऐसा नह था, जो ीरामके यथायो स ान, दान तथा आदर-स ारसे तृ न कया गया हो॥ ४५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म ब ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३२॥



ततीसवाँ सग सीता और ल



णस हत ीरामका द:ु खी नगरवा सय के मुखसे तरह-तरहक बात सुनते ए पताके दशनके लये कैकेयीके महलम जाना



वदेहकु मारी सीताके साथ ीराम और ल ण ा ण को ब त-सा धन दान करके वन जानेके लये उ त हो पताका दशन करनेके लये गये॥ १ ॥ उनके साथ दो सेवक ीराम और ल णके वे धनुष आ द आयुध लेकर चले, ज फू लक माला से सजाया गया था और सीताजीने पूजाके लये चढ़ाये ए च न आ दसे अलंकृत कया था। उन दोन के आयुध क उस समय बड़ी शोभा हो रही थी॥ २ ॥ उस अवसरपर धनी लोग ासाद ( तमं जले महल ), ह गृह (राजभवन ) तथा वमान (सात मं जले महल ) क ऊपरी छत पर चढ़कर उदासीन भावसे उन तीन क ओर देखने लगे॥ ३॥ उस समय सड़क मनु क भीड़से भरी थ । इस लये उनपर सुगमतापूवक चलना क ठन हो गया था। अत: अ धकांश मनु ासाद ( तमं जले मकान ) पर चढ़कर वह से दु:खी होकर ीरामच जीक ओर देख रहे थे॥ ४ ॥ ीरामको अपने छोटे भा◌इ ल ण और प ी सीताके साथ पैदल जाते देख ब त-से मनु का दय शोकसे ाकु ल हो उठा। वे खेदपूवक कहने लगे—॥ ५ ॥ ‘हाय! या ाके समय जनके पीछे वशाल चतुर णी सेना चलती थी, वे ही ीराम आज अके ले जा रहे ह और उनके पीछे सीताके साथ ल ण चल रहे ह॥ ६ ॥ ‘जो ऐ यके सुखका अनुभव करनेवाले तथा भो व ु के महान् भ ार थे—जहाँ सबक कामनाएँ पूण होती थ , वे ही ीराम आज धमका गौरव रखनेके लये पताक बात झूठी करना नह चाहते ह॥ ७ ॥ ‘ओह! पहले जसे आकाशम वचरनेवाले ाणी भी नह देख पाते थे, उसी सीताको इस समय सड़क पर खड़े ए लोग देख रहे ह॥ ८ ॥ ‘सीता अ राग-सेवनके यो ह, लाल च नका सेवन करनेवाली ह। अब वषा, गम और सद शी ही इनके अ क का फ क कर देगी॥ ९ ॥



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य ही आज राजा दशरथ कसी पशाचके आवेशम पड़कर अनु चत बात कह रहे ह; क अपनी ाभा वक तम रहनेवाला को◌इ भी राजा अपने ारे पु को घरसे नकाल नह सकता॥ १० ॥ ‘पु य द गुणहीन हो तो भी उसे घरसे नकाल देनेका साहस कै से हो सकता है? फर जसके के वल च र से ही यह सारा संसार वशीभूत हो जाता है, उसको वनवास देनेक तो बात ही कै से क जा सकती है?॥ ‘ ू रताका अभाव, दया, व ा, शील, दम (इ यसंयम) और शम (मनो न ह)—ये छ: गुण नर े ीरामको सदा ही सुशो भत करते ह॥ १२ ॥ ‘अत: इनके ऊपर आघात करने—इनके रा ा भषेकम व डालनेसे जाको उसी तरह महान् ेश प ँ चा है, जैसे गम म जलाशयका पानी सूख जानेसे उसके भीतर रहनेवाले जीव तड़पने लगते ह॥ ‘इन जगदी र ीरामक थासे स ूण जगत् थत हो उठा है, जैसे जड़ काट देनेसे पु और फलस हत सारा वृ सूख जाता है॥ १४ ॥ ‘ये महान् तेज ी ीराम स ूण मनु के मूल ह, धम ही इनका बल है। जग े दूसरे ाणी प , पु , फल और शाखाएँ ह॥ १५ ॥ ‘अत: हमलोग भी ल णक भाँ त प ी और ब -ु बा व के साथ शी ही इन जानेवाले ीरामके ही पीछे-पीछे चल द। जस मागसे ीरघुनाथजी जा रहे ह, उसीका हम भी अनुसरण कर॥ १६ ॥ ‘बाग-बगीचे, घर- ार और खेती-बारी—सब छोड़कर धमा ा ीरामका अनुगमन कर। इनके दु:ख-सुखके साथी बन॥ १७ ॥ ‘हम अपने घर क गड़ी ◌इ न ध नकाल। आँ गनक फश खोद डाल। सारा धन-धा साथ ले ल। सारी आव क व ुएँ हटा ल। इनम चार ओर धूल भर जाय। देवता इन घर को छोड़कर भाग जायँ। चूहे बलसे बाहर नकलकर इनम चार ओर दौड़ लगाने लग और उनसे ये घर भर जायँ। इनम न कभी आग जले, न पानी रहे और न झाड ही लगे। यहाँ ब लवै देव, य , म पाठ, होम और जप बंद हो जाय। मानो बड़ा भारी अकाल पड़ गया हो, इस कार ये सारे घर ढह जायँ। इनम टूटे बतन बखरे पड़े ह और हम सदाके लये इ छोड़ द—ऐसी दशाम इन घर पर कै के यी आकर अ धकार कर ले॥ १८—२१ ॥



‘जहाँ प



ँ चनेके लये ये ीरामच जी जा रहे ह, वह वन ही नगर हो जाय और हमारे छोड़ देनेपर यह नगर भी वनके पम प रणत हो जाय॥ २२ ॥ ‘वनम हमलोग के भयसे साँप अपने बल छोड़कर भाग जायँ। पवतपर रहनेवाले मृग और प ी उसके शखर को छोड़ द तथा हाथी और सह भी उन वन को ागकर दूर चले जायँ॥ २३ ॥ ‘वे ाग द,



सप आ द उन ान म चले जायँ, ज हमलोग ने छोड़ रखा है और उन ान को जनका हम सेवन करते ह। यह देश घास चरनेवाले पशु , मांसभ ी हसक ज ु और फल खानेवाले प य का नवास ान बन जाय। यहाँ सप, पशु और प ी रहने लग। उस दशाम पु और ब ु-बा व स हत कै के यी इसे अपने अ धकारम कर ले। हम सब लोग वनम ीरघुनाथजीके साथ बड़े आन से रहगे’॥ २४-२५ ॥ इस कार ीरामच जीने ब त-से मनु के मुँहसे नकली ◌इ तरह-तरहक बात सुन ; कतु सुनकर भी उनके मनम को◌इ वकार नह आ। मतवाले गजराजके समान परा मी धमा ा ीराम पुन: माता कै के यीके कै लास शखरके स श शु भवनम गये॥ २६-२७ ॥ वनयशील वीर पु ष से यु उस राजभवनम वेश करके उ ने देखा—सुम पास ही दु:खी होकर खड़े ह॥ २८ ॥ पूवज क नवासभू म अवधके मनु वहाँ शोकसे आतुर होकर खड़े थे। उ देखकर भी ीराम यं शोकसे पी ड़त नह ए—उनके शरीरपर थाका को◌इ च कट नह आ। वे पताक आ ाका व धपूवक पालन करनेक इ ासे उनका दशन करनेके लये हँ सते ए-से आगे बढ़े॥ २९ ॥ शोकाकु ल पसे पड़े ए राजाके पास जानेवाले महा ा महामना इ ाकु कु लन न ीराम वहाँ प ँ चनेसे पहले सुम को देखकर पताके पास अपने आगमनक सूचना भेजनेके लये उस समय वह ठहर गये॥ ३० ॥ पताके आदेशसे वनम वेश करनेका बु पूवक न य करके आये ए धमव ल ीरामच जी सुम क ओर देखकर बोले—‘आप महाराजको मेरे आगमनक सूचना दे द’॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म ततीसवाँ सग पूरा आ॥ ३३॥



च तीसवाँ सग सीता और ल णस हत ीरामका रा नय स हत राजा दशरथके पास जाकर वनवासके लये वदा माँगना, राजाका शोक और मू ा, ीरामका उ समझाना तथा राजाका ीरामको दयसे लगाकर पुन: मू त हो जाना



जब कमलनयन ामसु र उपमार हत महापु ष ीरामने सूत सुम से कहा—‘आप पताजीको मेरे आगमनक सूचना दे दी जये’ तब ीरामक ेरणासे शी ही भीतर जाकर सार थ सुम ने राजाका दशन कया। उनक सारी इ याँ संतापसे कलु षत हो रही थ । वे ल ी साँस ख च रहे थे॥ १-२ ॥ सुम ने देखा, पृ ीप त महाराज दशरथ रा सूय, राखसे ढक ◌इ आग तथा जलशू तालाबके समान ीहीन हो रहे ह। उनका च अ ाकु ल है और वे ीरामका ही च न कर रहे ह। तब महा ा सूतने महाराजको स ो धत करके हाथ जोड़कर कहा॥ पहले तो सूत सुम ने वजयसूचक आशीवाद देते ए महाराजक अ ुदय-कामना क ; फर भयसे ाकु ल म -मधुर वाणी ारा यह बात कही—॥ ५ ॥ ‘पृ ीनाथ! आपके पु ये स परा मी पु ष सह ीराम ा ण तथा आ त सेवक को अपना सारा धन देकर ारपर खड़े ह। आपका क ाण हो, ये अपने सब सु द से मलकर—उनसे वदा लेकर इस समय आपका दशन करना चाहते ह। आ ा हो तो यहाँ आकर आपका दशन कर। राजन्! अब ये वशाल वनम चले जायँग,े अत: करण से यु सूयक भाँ त सम राजो चत गुणसे स इन ीरामको आप भी जी भरकर देख ली जये’॥ ६—८ ॥ यह सुनकर समु के समान ग ीर तथा आकाशक भाँ त नमल, स वादी धमा ा महाराज दशरथने उ उ र दया—॥ ९ ॥ ‘सुम ! यहाँ जो को◌इ भी मेरी याँ ह, उन सबको बुलाओ। उन सबके साथ म ीरामको देखना चाहता ँ ’॥ १० ॥ तब सुम ने बड़े वेगसे अ :पुरम जाकर सब य से कहा—‘दे वयो! आपलोग को महाराज बुला रहे ह, अत: वहाँ शी चल’॥ ११ ॥ राजाक आ ासे सुम के ऐसा कहनेपर वे सब रा नयाँ ामीका आदेश समझकर उस भवनक ओर चल ॥ १२ ॥



कु छ-कु छ लाल ने वाली साढ़े तीन सौ प त ता युवती याँ महारानी कौस ाको सब ओरसे घेरकर धीरे-धीरे उस भवनम गय ॥ १३ ॥ उन सबके आ जानेपर उ देखकर पृ ीप त राजा दशरथने सूतसे कहा—‘सुम ! अब मेरे पु को ले आओ’॥ आ ा पाकर सुम गये और ीराम, ल ण तथा सीताको साथ लेकर शी ही महाराजके पास लौट आये॥ १५ ॥ महाराज दूरसे ही अपने पु को हाथ जोड़कर आते देख सहसा अपने आसनसे उठ खड़े ए। उस समय य से घरे ए वे नरेश शोकसे आत हो रहे थे॥ ीरामको देखते ही वे जापालक महाराज बड़े वेगसे उनक ओर दौड़े, कतु उनके पास प ँ चनेके पहले ही दु:खसे ाकु ल हो पृ ीपर गर पड़े और मू त हो गये॥ १७ ॥ उस समय ीराम और महारथी ल ण बड़ी तेजीसे चलकर दु:खके कारण अचेत-से ए शोकम महाराजके पास जा प ँ चे॥ १८ ॥ इतनेहीम उस राजभवनके भीतर सहसा आभूषण क नके साथ सह य का ‘हा राम! हा राम!’ यह आतनाद गूँज उठा॥ १९ ॥ ीराम और ल ण दोन भा◌इ भी सीताके साथ रो पड़े और उन तीन ने महाराजको दोन भुजा से उठाकर पलंगपर बठा दया॥ २० ॥ शोका ुके सागरम डू बे ए महाराज दशरथको दो घड़ीम जब फर चेत आ, तब ीरामने हाथ जोड़कर उनसे कहा—॥ २१ ॥ ‘महाराज! आप हमलोग के ामी ह। म द कार को जा रहा ँ और आपसे आ ा लेने आया ँ । आप अपनी क ाणमयी से मेरी ओर दे खये॥ ‘मेरे साथ ल णको भी वनम जानेक आ ा दी जये। साथ ही यह भी ीकार क जये क सीता भी मेरे साथ वनको जाय। मने ब त-से स े कारण बताकर इन दोन को रोकनेक चे ा क है, परंतु ये यहाँ रहना नह चाहते ह; अत: दूसर को मान देनेवाले नरेश! आप शोक छोड़कर हम सबको—मुझको, ल णको और सीताको भी उसी तरह वनम जानेक आ ा दी जये, जैसे ाजीने अपने पु सनका दक को तपके लये वनम जानेक अनुम त दी थी’॥ २३-२४ ॥



इस कार शा भावसे वनवासके लये राजाक आ ाक ती ा करते ए ीरामच जीक ओर देखकर महाराजने उनसे कहा—॥ २५ ॥ ‘रघुन न! म कै के यीको दये ए वरके कारण मोहम पड़ गया ँ । तुम मुझे कै द करके यं ही अब अयो ाके राजा बन जाओ’॥ २६ ॥ महाराजके ऐसा कहनेपर बातचीत करनेम कु शल धमा ा म े ीरामने दोन हाथ जोड़कर पताको इस कार उ र दया—॥ २७ ॥ ‘महाराज! आप सह वष तक इस पृ ीके अ धप त बने रह। म तो अब वनम ही नवास क ँ गा। मुझे रा लेनेक इ ा नह है॥ २८ ॥ ‘नरे र! चौदह वष तक वनम घूम- फरकर आपक त ा पूरी कर लेनेके प ात् म पुन: आपके युगल चरण म म क कु ाऊँ गा’॥ २९ ॥ राजा दशरथ एक तो स के ब नम बँधे ए थे, दूसरे एका म कै के यी उ ीरामको वनम तुरंत भेजनेके लये बा कर रही थी—इस अव ाम वे आतभावसे रोते ए वहाँ अपने य पु ीरामसे बोले—॥ ३० ॥ ‘तात! तुम क ाणके लये, वृ के लये और फर लौट आनेके लये शा भावसे जाओ। तु ारा माग व -बाधा से र हत और नभय हो॥ ३१ ॥ ‘बेटा रघुन न! तुम स प और धमा ा हो। तु ारे वचारको पलटना तो अस व है; परंतु रातभर और रह जाओ। सफ एक रातके लये सवथा अपनी या ा रोक दो। के वल एक दन भी तो तु देखनेका सुख उठा लूँ॥ ३२-३३ ॥ ‘अपनी माताको और मुझको इस अव ाम देखकर आजक इस रातम यह रह जाओ। मेरे ारा स ूण अ भल षत व ु से तृ होकर कल ात:काल यहाँसे जाना॥ ३४ ॥ ‘मेरे य पु ीराम! तुम सवथा दु र काय कर रहे हो। मेरा य करनेके लये ही तुमने इस कार वनका आ य लया है॥ ३५ ॥ ‘परंतु बेटा रघुन न! म स क शपथ खाकर कहता ँ क यह मुझे य नह है। मुझे तु ारा वनम जाना अ ा नह लगता। यह मेरी ी कै के यी राखम छपी ◌इ आगके समान भयंकर है। इसने अपने ू र अ भ ायको छपा रखा था। इसीने आज मुझे मेरे अभी संक से वच लत कर दया है। कु लो चत सदाचारका वनाश करनेवाली इस कै के यीने मुझे वरदानके



लये े रत करके मेरे साथ ब त बड़ा धोखा कया है। इसके ारा जो व ना मुझे ा ◌इ है, उसीको तुम पार करना चाहते हो॥ ३६-३७ ॥ ‘पु ! तुम अपने पताको स वादी बनाना चाहते हो। तु ारे लये यह को◌इ अ धक आ यक बात नह है; क तुम गुण और अव ा दोन ही य से मेरे े पु हो’॥ ३८ ॥



अपने शोकाकु ल पताका यह कथन सुनकर उस समय छोटे भा◌इ ल णस हत ीरामने दु:खी होकर कहा—॥ ३९ ॥ ‘महाराज! आज या ा करके म जन गुण (लाभ ) को पाऊँ गा, उ कल कौन मुझे देगा? * अत: म स ूण कामना के बदले आज यहाँसे नकल जाना ही अ ा समझता ँ और इसीका वरण करता ँ ॥ ‘रा और यहाँके नवासी मनु स हत धनधा से स यह सारी पृ ी मने छोड़ दी। आप इसे भरतको दे द॥ ४१ ॥ ‘मेरा वनवास वषयक न य अब बदल नह सके गा। वरदायक नरेश! आपने देवासुरसं ामम कै के यीको जो वर देनेक त ा क थी, उसे पूण पसे दी जये और स वादी ब नये॥ ४२ १/२ ॥ ‘म आपक उ आ ाका पालन करता आ चौदह वष तक वनम वनचारी ा णय के साथ नवास क ँ गा। आपके मनम को◌इ अ था वचार नह होना चा हये। आप यह सारी पृ ी भरतको दे दी जये॥ ‘रघुन न! मने अपने मनको सुख देने अथवा जन का य करनेके उ े से रा लेनेक इ ा नह क थी। आपक आ ाका यथाव ूपसे पालन करनेके लये ही मने उसे हण करनेक अ भलाषा क थी॥ ४५ ॥ ‘आपका दु:ख दूर हो जाय, आप इस कार आँ सू न बहाव। स रता का ामी दुधष समु ु नह होता है—अपनी मयादाका ाग नह करता है (इसी तरह आपको भी ु नह होना चा हये)॥ ४६ ॥ ‘मुझे न तो इस रा क , न सुखक , न पृ ीक , न इन स ूण भोग क , न गक और न जीवनक ही इ ा है॥ ४७ ॥



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ष शरोमणे! मेरे मनम य द को◌इ इ ा है तो यही क आप स वादी बन। आपका वचन म ा न होने पावे। यह बात म आपके सामने स और शुभ कम क शपथ खाकर कहता ँ ॥ ४८ ॥ ‘तात! भो! अब म यहाँ एक ण भी नह ठहर सकता। अत: आप इस शोकको अपने भीतर ही दबा ल। म अपने न यके वपरीत कु छ नह कर सकता॥ ‘रघुन न! कै के यीने मुझसे यह याचना क क ‘राम! तुम वनको चले जाओ’ मने वचन दया था क ‘अव जाऊँ गा’ उस स का मुझे पालन करना है॥ ‘देव! बीचम हम देखने या हमसे मलनेके लये आप उ त न ह गे। शा भाववाले मृग से भरे ए और भाँ त-भाँ तके प य के कलरव से गूँजते ए उस वनम हमलोग बड़े आन से रहगे॥ ५१ ॥ ‘तात! पता देवता के भी देवता माने गये ह। अत: म देवता समझकर ही पता (आप) क आ ाका पालन क ँ गा॥ ५२ ॥ ‘नृप े ! अब यह संताप छो ड़ये। चौदह वष बीत जानेपर आप फर मुझे आया आ देखगे॥ ५३ ॥ ‘पु ष सह! यहाँ जतने लोग आँ सू बहा रहे ह, इन सबको धैय बँधाना आपका कत है; फर आप यं ही इतने वकल कै से हो रहे ह?॥ ५४ ॥ ‘यह नगर, यह रा और यह सारी पृ ी मने छोड़ दी। आप यह सब कु छ भरतको दे दी जये। अब म आपके आदेशका पालन करता आ दीघकालतक वनम नवास करनेके लये यहाँसे या ा कर रहा ँ ॥ ‘मेरी छोड़ी ◌इ पवतख , नगर और उपवन स हत इस सारी पृ ीका भरत क ाणका रणी मयादा म त रहकर पालन कर। नरे र! आपने जो वचन दया है, वह पूण हो॥ ५६ ॥ ‘पृ ीनाथ! न ाप महाराज! स ु ष ारा अनुमो दत आपक आ ाका पालन करनेम मेरा मन जैसा लगता है, वैसा बड़े-बड़े भोग म तथा अपने कसी य पदाथम भी नह लगता; अत: मेरे लये आपके मनम जो दु:ख है, वह दूर हो जाना चा हये॥ ५७ ॥



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ाप नरेश! आज आपको म ावादी बनाकर म अ य रा , सब कारके भोग, वसुधाका आ धप , म थलेशकु मारी सीता तथा अ कसी अ भल षत पदाथको भी ीकार नह कर सकता। मेरी एकमा इ ा यही है क ‘आपक त ा स हो’॥ ५८ ॥ ‘म व च वृ से यु वनम वेश करके फल-मूलका भोजन करता आ वहाँके पवत , न दय और सरोवर को देख-देखकर सुखी होऊँ गा; इस लये आप अपने मनको शा क जये’॥ ५९ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर पु - बछोहके संकटम पड़े ए राजा दशरथने दु:ख और संतापसे पी ड़त हो उ छातीसे लगाया और फर अचेत होकर वे पृ ीपर गर पड़े। उस समय उनका शरीर जडक भाँ त कु छ भी चे ा न कर सका॥ ६० ॥ यह देख राजरानी कै के यीको छोड़कर वहाँ एक ◌इ अ सभी रा नयाँ रो पड़ । सुम भी रोते-रोते मू त हो गये तथा वहाँ सब ओर हाहाकार मच गया॥ ६१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म च तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३४॥ ा ा म......’ इस आधे ोकका अथ यह भी हो सकता है क आज यहाँ रहकर जन उ मो म अभी पदाथ को म पाऊँ गा, उ कलसे कौन देगा ? *‘



पतीसवाँ सग सुम के समझाने और फटकारनेपर भी कैकेयीका टस-से-मस न होना



तदन र होशम आनेपर सार थ सुम सहसा उठकर खड़े हो गये। उनके मनम बड़ा संताप आ, जो अम लकारी था। वे ोधके मारे काँपने लगे। उनके शरीर और मुखक पहली ाभा वक का बदल गयी। वे ोधसे आँ ख लाल करके दोन हाथ से सर पीटने लगे और बार ार ल ी साँस ख चकर, हाथ-से-हाथ मलकर, दाँत कटकटाकर राजा दशरथके मनक वा वक अव ा देखते ए अपने वचन पी तीखे बाण से कै के यीके दयको क त-सा करने लगे॥ १—३ ॥ अपने अशुभ एवं अनुपम वचन पी व से कै के यीके सारे मम ान को वदीण-से करते ए सुम ने उससे इस कार कहना आर कया—॥ ४ ॥ ‘दे व! जब तुमने स ूण चराचर जग े ामी यं अपने प त महाराज दशरथका ही ाग कर दया, तब इस जग को◌इ ऐसा कु कम नह है, जसे तुम न कर सको; म तो समझता ँ क तुम प तक ह ा करनेवाली तो हो ही; अ त: कु लघा तनी भी हो॥ ५-६ ॥ ‘ओह! जो देवराज इ के समान अजेय, पवतके समान अक नीय और महासागरके समान ोभर हत ह, उन महाराज दशरथको भी तुम अपने कम से संत कर रही हो॥ ७ ॥ राजा दशरथ तु ारे प त, पालक और वरदाता ह। तुम इनका अपमान न करो। ना रय के लये प तक इ ाका मह करोड़ पु से भी अ धक है॥ ८ ॥ ‘इस कु लम राजाका परलोकवास हो जानेपर उसके पु क अव ाका वचार करके जो े पु होते ह, वे ही रा पाते ह। राजकु लके इस पर रागत आचारको तुम इन इ ाकु वंशके ामी महाराज दशरथके जीते-जी ही मटा देना चाहती हो॥ ९ ॥ ‘तु ारे पु भरत राजा हो जायँ और इस पृ ीका शासन कर; कतु हमलोग तो वह चले जायँगे जहाँ ीराम जायँगे॥ १० ॥ ‘तु ारे रा म को◌इ भी ा ण नवास नह करेगा; य द तुम आज वैसा मयादाहीन कम करोगी तो न य ही हम सब लोग उसी मागपर चले जायँग,े जसका ीरामने सेवन कया है॥ ११ १/२ ॥



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णू ब -ु बा व और सदाचारी ा ण भी तु ारा ाग कर दगे। दे व! फर इस रा को पाकर तु ा आन मलेगा। ओह! तुम ऐसा मयादाहीन कम करना चाहती हो॥ १२-१३ ॥ ‘मुझे तो यह देखकर आ य-सा हो रहा है क तु ारे इतने बड़े अ ाचार करनेपर भी पृ ी तुरंत फट नह जाती?॥ १४ ॥ ‘अथवा बड़े-बड़े षय के ध ारपूण वा (शाप) जो देखनेम भयंकर और जलाकर भ कर देनेवाले होते ह, ीरामको घरसे नकालनेके लये तैयार खड़ी ◌इ तुम-जैसी पाषाण दयाका सवनाश नह कर डालते ह?॥ १५ ॥ ‘भला आमको कु ाड़ीसे काटकर उसक जगह नीमका सेवन कौन करेगा? जो आमक जगह नीमको ही दूधसे स चता है, उसके लये भी यह नीम मीठा फल देनेवाला नह हो सकता (अत: वरदानके बहाने ीरामको वनवास देकर कै के यीके च को संतु करना राजाके लये कभी सुखद प रणामका जनक नह हो सकता)॥ १६ ॥ ‘कै के य! म समझता ँ क तु ारी माताका अपने कु लके अनु प जैसा भाव था, वैसा ही तु ारा भी है। लोकम कही जानेवाली यह कहावत स ही है क नीमसे मधु नह टपकता॥ १७ ॥ ‘तु ारी माताके दुरा हक बात भी हम जानते ह। इसके वषयम पहले जैसा सुना गया है, वह बताया जाता है। एक समय कसी वर देनेवाले साधुने तु ारे पताको अ उ म वर दया था॥ १८ ॥ ‘उस वरके भावसे के कयनरेश सम ा णय क बोली समझने लगे। तयक् यो नम पड़े ए ा णय क बात भी उनक समझम आ जाती थ ॥ १९ ॥ ‘एक दन तु ारे महातेज ी पता श ापर लेटे ए थे। उसी समय जृ नामक प ीक आवाज उनके कान म पड़ी। उसक बोलीका अ भ ाय उनक समझम आ गया। अत: वे वहाँ क◌इ बार हँ से॥ २० ॥ ‘उसी श ापर तु ारी माँ भी सोयी थी। वह यह समझकर क राजा मेरी ही हँ सी उड़ा रहे ह, कु पत हो उठी और गलेम मौतक फाँसी लगानेक इ ा रखती ◌इ बोली—‘सौ ! नरे र! तु ारे हँ सनेका ा कारण है, यह म जानना चाहती ँ ’॥ २१ ॥



‘तब राजाने उस देवीसे कहा—‘रानी! य द म अपने हँ सनेका कारण बता दूँ तो उसी मेरी मृ ु हो जायगी, इसम संशय नह है’॥ २२ ॥ ‘दे व! यह सुनकर तु ारी रानी माताने तु ारे पता के कयराजसे फर कहा—‘तुम या मरो, मुझे कारण बता दो। भ व म तुम फर मेरी हँ सी नह उड़ा सकोगे’॥ २३ ॥ ‘अपनी







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ारी रानीके ऐसा कहनेपर के कयनरेशने उस वर देनेवाले साधुके पास जाकर सारा समाचार ठीक-ठीक कह सुनाया॥ २४ ॥ ‘तब उस वर देनेवाले साधुने राजाको उ र दया— ‘महाराज! रानी मरे या घरसे नकल जाय; तुम कदा प यह बात उसे न बताना’॥ २५ ॥ ‘ स च वाले उस साधुका यह वचन सुनकर के कयनरेशने तु ारी माताको तुरंत घरसे नकाल दया और यं कु बेरके समान वहार करने लगे॥ २६ ॥ ‘तुम भी इसी कार दुजन के मागपर त हो पापपर ही रखकर मोहवश राजासे यह अनु चत आ ह कर रही हो॥ २७ ॥ ‘आज मुझे यह लोको सोलह आने सच मालूम होती है क पु पताके समान होते ह और क ाएँ माताके समान॥ २८ ॥ ‘तुम ऐसी न बनो—इस लोको को अपने जीवनम च रताथ न करो। राजाने जो कु छ कहा है, उसे ीकार करो ( ीरामका रा ा भषेक होने दो)। अपने प तक इ ाका अनुसरण करके इस जन-समुदायको यहाँ शरण देनेवाली बनो॥ २९ ॥ ‘पापपूण वचार रखनेवाले लोग के बहकावेम आकर तुम देवराज इ के तु तेज ी अपने लोक- तपालक ामीको अनु चत कमम न लगाओ॥ ३० ॥ ‘दे व! कमलनयन ीमान् राजा दशरथ पापसे दूर रहते ह। वे अपनी त ा झूठी नह करगे॥ ३१ ॥ ‘ ीरामच जी अपने भाइय म े , उदार, कमठ, धमके पालक, जीवजग े र क और बलवान् ह। इनका इस रा पर अ भषेक होने दो॥ ३२ ॥ ‘दे व! य द ीराम अपने पता राजा दशरथको छोड़कर वनको चले जायँगे तो संसारम तु ारी बड़ी न ा होगी॥ ३३ ॥



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ीरामच जी ही अपने रा का पालन कर और तुम न होकर बैठो। ीरामके सवा दूसरा को◌इ राजा इस े नगरम रहकर तु ारे अनुकूल आचरण नह कर सकता॥ ३४ ॥



ीरामके युवराजपदपर त त हो जानेके बाद महाधनुधर राजा दशरथ पूवज के वृ ा का रण करके यं वनम वेश करगे’॥ ३५ ॥ इस कार सुम ने हाथ जोड़कर कै के यीको उस राजभवनम सा नापूण तथा तीखे वचन से भी बार ार वच लत करनेक चे ा क ; कतु वह टस-से-मस न ◌इ। देवी कै के यीके मनम न तो ोभ आ और न दु:ख ही। उस समय उसके चेहरेके रंगम भी को◌इ फक पड़ता नह दखायी दया॥ ३६-३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३५॥ ‘



छ ीसवाँ सग राजा दशरथका ीरामके साथ सेना और खजाना भेजनेका आदेश, कैकेयी ारा इसका वरोध, स ाथका कैकेयीको समझाना तथा राजाका ीरामके साथ जानेक इ ा कट करना



तब इ ाकु कु लन न राजा दशरथ वहाँ अपनी त ासे पी ड़त हो आँ सू बहाते ए ल ी साँस ख चकर सुम से फर इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘सूत! तुम शी ही र से भरी-पूरी चतुर णी सेनाको ीरामके पीछे -पीछे जानेक आ ा दो॥ २ ॥ ‘ पसे आजी वका चलाने और सरस वचन बोलनेवाली याँ तथा महाधनी एवं व ययो का सारण करनेम कु शल वै राजकु मार ीरामक सेना को सुशो भत कर॥ ३ ॥ ‘जो ीरामके पास रहकर जीवन- नवाह करते ह तथा जन म से ये उनका परा म देखकर स रहते ह, उन सबको अनेक कारका धन देकर उ भी इनके साथ जानेक आ ा दे दो॥ ४ ॥ ‘मु -मु आयुध, नगरके नवासी, छकड़े तथा वनके भीतरी रह को जाननेवाले ाध ककु कु लभूषण ीरामके पीछे-पीछे जायँ॥ ५ ॥ ‘वे रा ेम आये ए मृग एवं हा थय को पीछे लौटाते, जंगली मधुका पान करते और नाना कारक न दय को देखते ए अपने रा का रण नह करगे॥ ‘ ीराम नजन वनम नवास करनेके लये जा रहे ह, अत: मेरा खजाना और अ भ ार— ये दोन व ुएँ इनके साथ जायँ॥ ७ ॥ ‘ये वनके पावन देश म य करगे, उनम आचाय आ दको पया द णा दगे तथा ऋ षय से मलकर वनम सुखपूवक रहगे॥ ८ ॥ ‘महाबा भरत अयो ाका पालन करगे। ीमान् रामको स ूण मनोवा त भोग से स करके यहाँसे भेजा जाय’॥ ९ ॥



जब महाराज दशरथ ऐसी बात कहने लगे, तब कै के यीको बड़ा भय आ। उसका मुँह सूख गया और उसका र भी ँ ध गया॥ १० ॥ वह के कयराजकु मारी वषाद एवं होकर सूखे मुँहसे राजाक ओर ही मुँह करके बोली—॥ ११ ॥ ‘ े महाराज! जसका सारभाग पहलेसे ही पी लया गया हो, उस आ ादर हत सुराको जैसे उसका सेवन करनेवाले लोग नह हण करते ह, उसी कार इस धनहीन और सूने रा को, जो कदा प सेवन करनेयो नह रह जायगा, भरत कदा प नह हण करगे’॥ १२ ॥ कै के यी लाज छोड़कर जब वह अ दा ण वचन बोलने लगी, तब राजा दशरथने उस वशाललोचना कै के यीसे इस कार कहा—॥ १३ ॥ ‘अनाय! अ हतका र ण! तू रामको वनवास देनेके दुवह भारम लगाकर जब म उस भारको ढो रहा ँ , उस अव ाम अपने वचन का चाबुक मारकर मुझे पीड़ा दे रही है? इस समय जो काय तूने आर कया है अथात् ीरामके साथ सेना और साम ी भेजनेम जो तब लगाया है, इसके लये तूने पहले ही नह ाथना क थी? (अथात् पहले ही यह नह कह दया था क ीरामको अके ले वनम जाना पड़ेगा, उनके साथ सेना आ द साम ी नह जा सकती)’॥ १४ ॥ राजाका यह ोधयु वचन सुनकर सु री कै के यी उनक अपे ा दूना ोध करके उनसे इस कार बोली—॥ १५ ॥ ‘महाराज! आपके ही वंशम पहले राजा सगर हो गये ह, ज ने अपने े पु असम को नकालकर उसके लये रा का दरवाजा सदाके लये बंद कर दया था। इसी तरह इनको भी यहाँसे नकल जाना चा हये’॥ १६ ॥ उसके ऐसा कहनेपर राजा दशरथने कहा— ‘ ध ार है।’ वहाँ जतने लोग बैठे थे सभी लाजसे गड़ गये; कतु कै के यी अपने कथनके अनौ च को अथवा राजा ारा दये गये ध ारके औ च को नह समझ सक ॥ १७ ॥ उस समय वहाँ राजाके धान और वयोवृ म ी स ाथ बैठे थे। वे बड़े ही शु भाववाले और राजाके वशेष आदरणीय थे। उ ने कै के यीसे इस कार कहा—॥ १८ ॥ ‘दे व! असम बड़ी दु बु का राजकु मार था। वह मागपर खेलते ए बालक को पकड़कर सरयूके जलम फ क देता था और ऐसे ही काय से अपना मनोर न करता था॥ १९ ॥



‘उसक



यह करतूत देखकर सभी नगर नवासी कु पत हो राजाके पास जाकर बोले —‘रा क वृ करनेवाले महाराज! या तो आप अके ले असम को लेकर र हये या इ नकालकर हम इस नगरम रहने दी जये’॥ २० ॥ ‘तब राजाने उनसे पूछा—‘तु असम से कस कारण भय आ है?’ राजाके पूछनेपर उन जाजन ने यह बात कही—॥ २१ ॥ ‘महाराज! यह हमारे खेलते ए छोटे-छोटे ब को पकड़ लेते ह और जब वे ब त घबरा जाते ह, तब उ सरयूम फ क देते ह। मूखतावश ऐसा करके इ अनुपम आन ा होता है’॥ २२ ॥ ‘उन जाजन क वह बात सुनकर राजा सगरने उनका य करनेक इ ासे अपने उस अ हतकारक दु पु को ाग दया॥ २३ ॥ ‘ पताने अपने उस पु को प ी और आव क साम ीस हत शी रथपर बठाकर अपने सेवक को आ ा दी—‘इसे जीवनभरके लये रा से बाहर नकाल दो’॥ २४ ॥ ‘असम ने फाल और पटारी लेकर पवत क दुगम गुफा को ही अपने नवासके यो देखा और क आ दके लये वह स ूण दशा म वचरने लगा। वह जैसा क बताया गया है, पापाचारी था, इस लये परम धा मक राजा सगरने उसको ाग दया था। ीरामने ऐसा कौनसा अपराध कया है, जसके कारण इ इस तरह रा पानेसे रोका जा रहा है?॥ ‘हमलोग तो ीरामच जीम को◌इ अवगुण नह देखते ह; जैसे (शु प क तीयाके ) च माम म लनताका दशन दुलभ है, उसी कार इनम को◌इ पाप या अपराध ढूँ ढ़नेसे भी नह मल सकता॥ २७ ॥ ‘अथवा दे व! य द तु ीरामच जीम को◌इ दोष दखायी देता हो तो आज उसे ठीकठीक बताओ। उस दशाम ीरामको नकाल दया जा सकता है॥ २८ ॥ ‘ जसम को◌इ दु ता नह है, जो सदा स ागम ही त है, ऐसे पु षका ाग धमसे व माना जाता है। ऐसा धम वरोधी कम तो इ के भी तेजको द कर देगा॥ २९ ॥ ‘अत: दे व! ीरामच जीके रा ा भषेकम व डालनेसे तु को◌इ लाभ नह होगा। शुभानने! तु लोक न ासे भी बचनेक चे ा करनी चा हये’॥ ३० ॥



स ाथक बात सुनकर राजा दशरथ अ थके ए रसे शोकाकु ल वाणीम कै के यीसे इस कार बोले—॥ ३१ ॥ ‘पा प न! ा तुझे यह बात नह ची? तुझे मेरे या अपने हतका भी बलकु ल ान नह है? तू दु:खद मागका आ य लेकर ऐसी कु चे ा कर रही है। तेरी यह सारी चे ा साधु पु ष के मागके वपरीत है॥ ३२ ॥ ‘अब म भी यह रा , धन और सुख छोड़कर ीरामके पीछे चला जाऊँ गा। ये सब लोग भी उ के साथ जायँगे। तू अके ली राजा भरतके साथ चरकालतक सुखपूवक रा भोगती रह’॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३६॥



सतीसवाँ सग ीराम आ दका व ल-व -धारण, सीताके व ल-धारणसे र नवासक य को खेद तथा गु व स का कैकेयीको फटकारते ए सीताके व ल-धारणका अनौ च बताना



धान म ीक पूव बात सुनकर वनयके ाता ीरामने उस समय राजा दशरथसे वनीत होकर कहा—॥ १ ॥ ‘राजन्! म भोग का प र ाग कर चुका ँ । मुझे जंगलके फल-मूल से जीवन- नवाह करना है। जब म सब ओरसे आस छोड़ चुका ँ , तब मुझे सेनासे ा योजन है?॥ २ ॥ ‘जो े गजराजका दान करके उसके र ेम मन लगाता है—लोभवश र ेको रख लेना चाहता है, वह अ ा नह करता; क उ म हाथीका ाग करनेवाले पु षको उसके र ेम आस रखनेक ा आव कता है?॥ ३ ॥ ‘स ु ष म े महाराज! इसी तरह मुझे सेना लेकर ा करना है? म ये सारी व ुएँ भरतको अ पत करनेक अनुम त देता ँ । मेरे लये तो (माता कै के यीक दा सयाँ) चीर ( चथड़े या व ल-व ) ला द॥ ४ ॥ ‘दा सयो! जाओ, ख ी और पेटारी अथवा कु दारी और खाँची ये दोन व ुएँ लाओ। चौदह वष तक वनम रहनेके लये ये चीज उपयोगी हो सकती ह’॥ कै के यी लाज-संकोच छोड़ चुक थी। वह यं ही जाकर ब त-सी चीर ले आयी और जनसमुदायम ीरामच जीसे बोली, ‘लो, पहन लो’॥ ६ ॥ पु ष सह ीरामने कै के यीके हाथसे दो चीर ले लये और अपने महीन व उतारकर मु नय के -से व धारण कर लये॥ ७ ॥ इसी कार ल णने भी अपने पताके सामने ही दोन सु र व उतारकर तप य के से व ल-व पहन लये॥ ८ ॥ तदन र रेशमी-व पहनने और धमपर ही रखनेवाली धम ा शुभल णा जनकन नी सीता अपने पहननेके लये भी चीरव को ुत देख उसी कार डर गय , जैसे मृगी बछे ए जालको देखकर भयभीत हो जाती है। वे कै के यीके हाथसे दो व ल-व लेकर ल त-सी हो गय । उनके मनम बड़ा दु:ख आ और ने म आँ सू भर आये। उस समय उ ने



ग वराजके समान तेज ी प तसे इस कार पूछा— ‘नाथ! वनवासी मु नलोग चीर कै से बाँधते ह?’ यह कहकर उसे धारण करनेम कु शल न होनेके कारण सीता बार ार मोहम पड़ जाती थ —भूल कर बैठती थ ॥ चीर-धारणम कु शल न होनेसे जनकन नी सीता ल त हो एक व ल गलेम डाल दूसरा हाथम लेकर चुपचाप खड़ी रह ॥ १३ ॥ तब धमा ा म े ीराम ज ीसे उनके पास आकर यं अपने हाथ से उनके रेशमी व के ऊपर व ल-व बाँधने लगे॥ १४ ॥ सीताको उ म चीरव पहनाते ए ीरामक ओर देखकर रनवासक याँ अपने ने से आँ सू बहाने लग ॥ १५ ॥ वे सब अ ख होकर उदी तेजवाले ीरामसे बोल —‘बेटा! मन नी सीताको इस कार वनवासक आ ा नह दी गयी है॥ १६ ॥ ‘ भो! तुम पताक आ ाका पालन करनेके लये जबतक नजन वनम जाकर रहोगे, तबतक इसीको देखकर हमारा जीवन सफल होने दो॥ १७ ॥ ‘बेटा! तुम ल णको अपना साथी बनाकर उनके साथ वनको जाओ, परंतु यह क ाणी सीता तप ी मु नक भाँ त वनम नवास करनेके यो नह है॥ १८ ॥ ‘पु ! तुम हमारी यह याचना सफल करो। भा मनी सीता यह रहे। तुम तो न धमपरायण हो अत: यं इस समय यहाँ नह रहना चाहते हो (परंतु सीताको तो रहने दो)’॥ १९ ॥



माता क ऐसी बात सुनते ए भी दशरथन न ीरामने सीताको व ल-व पहना ही दया। प तके समान शील भाववाली सीताके व ल धारण कर लेनेपर राजाके गु व स जीके ने म आँ सू भर आया। उ ने सीताको रोककर कै के यीसे कहा—॥ २०-२१ ॥ ‘मयादाका उ न करके अधमक ओर पैर बढ़ानेवाली दुबु कै के यी! तू के कयराजके कु लक जीती-जागती कल है। अरी! राजाको धोखा देकर अब तू सीमाके भीतर नह रहना चाहती है?॥ २२ ॥ ‘शीलका प र ाग करनेवाली दु !े देवी सीता वनम नह जायँगी। रामके लये ुत ए राज सहासनपर ये ही बैठगी॥ २३ ॥



‘स ूण गृह ा ह; अत: उनक



क प याँ उनका आधा अ ह। इस तरह सीता देवी भी ीरामक आ जगह ये ही इस रा का पालन करगी॥ २४ ॥ ‘य द वदेहन नी सीता ीरामके साथ वनम जायँगी तो हमलोग भी इनके साथ चले जायँगे। यह सारा नगर भी चला जायगा और अ :पुरके र क भी चले जायँगे। अपनी प ीके साथ ीरामच जी जहाँ नवास करगे, वह इस रा और नगरके लोग भी धन-दौलत और आव क सामान लेकर चले जायँगे॥ ‘भरत और श ु भी चीरव धारण करके वनम रहगे और वहाँ नवास करनेवाले अपने बड़े भा◌इ ीरामक सेवा करगे॥ २७ ॥ ‘ फर तू वृ के साथ अके ली रहकर इस नजन एवं सूनी पृ ीका रा करना। तू बड़ी दुराचा रणी है और जाका अ हत करनेम लगी ◌इ है॥ २८ ॥ ‘याद रख, ीराम जहाँके राजा न ह गे, वह रा रा नह रह जायगा—जंगल हो जायगा तथा ीराम जहाँ नवास करगे, वह वन एक त रा बन जायगा॥ २९ ॥ ‘य द भरत राजा दशरथसे पैदा ए ह तो पताके स तापूवक दये बना इस रा को कदा प लेना नह चाहगे तथा तेरे साथ पु वत् बताव करनेके लये भी यहाँ बैठे रहनेक इ ा नह करगे॥ ३० ॥ ‘तू पृ ी छोड़कर आसमानम उड़ जाय तो भी अपने पतृकुलके आचार- वहारको जाननेवाले भरत उसके व कु छ नह करगे॥ ३१ ॥ ‘तूने पु का य करनेक इ ासे वा वम उसका अ य ही कया है; क संसारम को◌इ ऐसा पु ष नह है जो ीरामका भ न हो॥ ३२ ॥ ‘कै के य! तू आज ही देखेगी क वनको जाते ए ीरामके साथ पशु, सप, मृग और प ी भी चले जा रहे ह। और क तो बात ही ा, वृ भी उनके साथ जानेको उ ुक ह॥ ३३ ॥ ‘दे व! सीता तेरी पु वधू ह। इनके शरीरसे व ल-व हटाकर तू इ पहननेके लये उ मो म व और आभूषण दे। इनके लये व ल-व देना कदा प उ चत नह है।’ ऐसा कहकर व स ने उसे जानक को व ल-व पहनानेसे मना कया॥ ३४ ॥ वे फर बोले—‘के कयराजकु मारी! तूने अके ले ीरामके लये ही वनवासका वर माँगा है (सीताके लये नह ); अत: ये राजकु मारी व ाभूषण से वभू षत होकर सदा ृ ार धारण करके



वनम ीरामच जीके साथ नवास कर॥ ३५ ॥ ‘राजकु मारी सीता मु -मु सेवक तथा सवा रय के साथ सब कारके व और आव क उपकरण से स होकर वनक या ा कर। तूने वर माँगते समय पहले सीताके वनवासक को◌इ चचा नह क थी (अत: इ व ल-व नह पहनाया जा सकता)’॥ ा ण शरोम ण अ तम भावशाली राजगु मह ष व स के ऐसा कहनेपर भी सीता अपने यतम प तके समान ही वेशभूषा धारण करनेक इ ा रखकर उस चीर-धारणसे वरत नह ◌इं ॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३७॥



अड़तीसवाँ सग राजा दशरथका सीताको व ल धारण कराना अनु चत बताकर कैकेयीको फटकारना और ीरामका उनसे कौस ापर कृपा रखनेके लये अनुरोध करना



सीताजी सनाथ होकर भी जब अनाथक भाँ त चीरव धारण करने लग , तब सब लोग च ा- च ाकर कहने लगे—‘राजा दशरथ! तु ध ार है!’॥ १ ॥ वहाँ होनेवाले उस कोलाहलसे दु:खी हो इ ाकु वंशी महाराज दशरथने अपने जीवन, धम और यशक उ ट इ ा ाग दी। फर वे गरम साँस ख चकर अपनी भाया कै के यीसे इस कार बोले— ‘कै के य! सीता कु श-चीर (व ल-व ) पहनकर वनम जानेके यो नह है॥ २-३ ॥ ‘यह सुकुमारी है, बा लका है और सदा सुख म ही पली है। मेरे गु जी ठीक कहते ह क यह सीता वनम जाने यो नह है॥ ४ ॥ ‘राजा म े जनकक यह तप नी पु ी ा कसीका भी कु छ बगाड़ती है? जो इस कार जन-समुदायके बीच कसी ककत वमूढ़ भ कु के समान चीर धारण करके खड़ी है?॥ ५ ॥ ‘जनकन नी अपने चीर-व उतार डाले। ‘यह इस पम वन जाय’ ऐसी को◌इ त ा मने पहले नह क है और न कसीको इस तरहका वचन ही दया है। अत: राजकु मारी सीता स ूण व ालंकार से स हो सब कारके र के साथ जस तरह भी वह सुखी रह सके , उसी तरह वनको जा सकती है॥ ६ ॥ ‘म जी वत रहनेयो नह ँ । मने तेरे वचन म बँधकर एक तो य ही नयम (शपथ) पूवक बड़ी ू र त ा कर डाली है, दूसरे तूने अपनी नादानीके कारण सीताको इस तरह चीर पहनाना ार कर दया। जस कार बाँसका फू ल उसीको सुखा डालता है, उसी कार मेरी क ◌इ त ा मुझीको भ कये डालती है॥ ७ ॥ ‘नीच पा प न! य द ीरामने तेरा को◌इ अपराध कया है तो (उ तो तू वनवास दे ही चुक ) वदेहन नी सीताने ऐसा द पानेयो तेरा कौन-सा अपकार कर डाला है?॥ ८ ॥



‘ जसके ने मधुर है, वह मन



ह रणीके ने के समान खले ए ह, जसका भाव अ कोमल एवं नी जनकन नी तेरा कौन-सा अपराध कर रही है?॥ ९ ॥ ‘पा प न! तूने ीरामको वनवास देकर ही पूरा पाप कमा लया है। अब सीताको भी वनम भेजने और व ल पहनाने आ दका अ दु:खद काय करके फर तू इतने पातक कस लये बटोर रही है?॥ १० ॥ ‘दे व! ीराम जब अ भषेकके लये यहाँ आये थे, उस समय तूने उनसे जो कु छ कहा था, उसे सुनकर मने उतनेके लये ही त ा क थी॥ ११ ॥ ‘उसका उ न करके जो तू म थलेशकु मारी जानक को भी व ल-व पहने देखना चाहती है, इससे जान पड़ता है, तुझे नरकम ही जानेक इ ा हो रही है’॥ १२ ॥ राजा दशरथ सर नीचा कये बैठे ए जब इस कार कह रहे थे, उस समय वनक ओर जाते ए ीरामने पतासे इस कार कहा—॥ १३ ॥ ‘धमा न्! ये मेरी यश नी माता कौस ा अब वृ हो चली ह। इनका भाव ब त ही उ और उदार है। देव! यह कभी आपक न ा नह करती ह। इ ने पहले कभी ऐसा भारी संकट नह देखा होगा। वरदायक नरेश! ये मेरे न रहनेसे शोकके समु म डू ब जायँगी। अत: आप सदा इनका अ धक स ान करते रह॥ १४-१५ ॥ ‘आप पू तम प तसे स ा नत हो जस कार यह पु शोकका अनुभव न कर सक और मेरा च न करती ◌इ भी आपके आ यम ही ये मेरी तप नी माता जीवन धारण कर, ऐसा य आपको करना चा हये॥ १६ ॥ ‘इ के समान तेज ी महाराज! ये नर र अपने बछु ड़े ए बेटेको देखनेके लये उ ुक रहगी। कह ऐसा न हो मेरे वनम रहते समय ये शोकसे कातर हो अपने ाण को ाग करके यमलोकको चली जायँ। अत: आप मेरी माताको सदा ऐसी ही प र तम रख, जससे उ आश ाके लये अवकाश न रह जाय’॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अड़तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३८॥



उनतालीसवाँ सग राजा दशरथका वलाप, उनक आ ासे सुम का रामके लये रथ जोतकर लाना, कोषा का सीताको ब मू व और आभूषण देना, कौस ाका सीताको प तसेवाका उपदेश, सीताके ारा उसक ीकृ त तथा ीरामका अपनी मातासे पताके त दोष न रखनेका अनुरोध करके अ माता से भी वदा माँगना



ीरामक बात सुनकर और उ मु नवेष धारण कये देख य स हत राजा दशरथ शोकसे अचेत हो गये॥ १ ॥ दु:खसे संत होनेके कारण वे ीरामक ओर भर आँ ख देख भी न सके और देखकर भी मनम दु:ख होनेके कारण उ कु छ उ र न दे सके ॥ २ ॥ दो घड़ीतक अचेत-सा रहनेके बाद जब उ होश आ, तब वे महाबा नरेश ीरामका ही च न करते ए दु:खी होकर वलाप करने लगे—॥ ३ ॥ ‘मालूम होता है, मने पूवज म अव ही ब त-सी गौ का उनके बछड़ से वछोह कराया है अथवा अनेक ा णय क हसा क है, इसीसे आज मेरे ऊपर यह संकट आ पड़ा है॥ ४॥ ‘समय पूरा ए बना कसीके शरीरसे ाण नह नकलते; तभी तो कै के यीके ारा इतना ेश पानेपर भी मेरी मृ ु नह हो रही है॥ ५ ॥ ‘ओह! अपने अ के समान तेज ी पु को महीन व ागकर तप य के -से व लव धारण कये सामने खड़ा देख रहा ँ ( फर भी मेरे ाण नह नकलते ह)॥ ६ ॥ ‘इस वरदान प शठताका आ य लेकर अपने ाथसाधनके य म लगी ◌इ एकमा कै के यीके कारण ये सब लोग महान् क म पड़ गये ह’॥ ७ ॥ ‘ऐसी बात कहते-कहते राजाके ने म आँ सू भर आये। उनक इ याँ श थल हो गय और वे एक ही बार ‘हे राम!’ कहकर मू त हो गये। आगे कु छ न बोल सके ’॥ ८ ॥ दो घड़ी बाद होशम आते ही वे महाराज आँ सूभरे ने से देखते ए सुम से इस कार बोले—॥ ९ ॥



‘तुम सवारीके



यो एक रथको उसम उ म घोड़े जोतकर यहाँ ले आओ और इन महाभाग ीरामको उसपर बठाकर इस जनपदसे बाहरतक प ँ चा आओ॥ ‘अपने े वीर पु को यं माता- पता ही जब घरसे नकालकर वनम भेज रहे ह, तब ऐसा मालूम होता है क शा म गुणवान् पु ष के गुण का यही फल बताया जाता है’॥ ११ ॥ राजाक आ ा शरोधाय करके शी गामी सुम गये और उ म घोड़ से सुशो भत रथ जोतकर ले आये॥ फर सूत सुम ने हाथ जोड़कर कहा— ‘महाराज! राजकु मार ीरामके लये उ म घोड़ से जुता आ सुवणभू षत रथ तैयार है’॥ १३ ॥ तब देश और कालको समझनेवाले, सब ओरसे शु (इहलोक और परलोकसे उऋण) राजा दशरथने तुरंत ही धन-सं हके ापारम नयु कोषा को बुलाकर यह न त बात कही—॥ १४ ॥ ‘तुम वदेहकु मारी सीताके पहननेयो ब मू व और महान् आभूषण जो चौदह वष के लये पया ह , गनकर शी ले आओ’॥ १५ ॥ महाराजके ऐसा कहनेपर कोषा ने खजानेम जा वहाँसे सब चीज लाकर शी ही सीताको सम पत कर द ॥ १६ ॥ उ म कु लम उ अथवा अयो नजा और वनवासके लये त वदेहकु मारी सीताने सु र ल ण से यु अपने सभी अ को उन व च आभूषण से वभू षत कया॥ १७ ॥ उन आभूषण से वभू षत ◌इ वदेहन नी सीता उस घरको उसी कार सुशो भत करने लग , जैसे ात:काल उगते ए अंशुमाली सूयक भा आकाशको का शत करती है॥ १८ ॥ उस समय सास कौस ाने कभी दु:खद बताव न करनेवाली म थलेशकु मारी सीताको अपनी दोन भुजा से कसकर छातीसे लगा लया और उनके म कको सूँघकर कहा—॥ १९ ॥ ‘बेटी!



जो याँ अपने यतम प तके ारा सदा स ा नत होकर भी संकटम पड़नेपर उसका आदर नह करती ह, वे इस स ूण जग ‘असती’ (दु ा) के नामसे पुकारी जाती ह॥ २० ॥



‘दु



ा य का यह भाव होता है क पहले तो वे प तके ारा यथे सुख भोगती ह, परंतु जब वह थोड़ी-सी भी वप म पड़ता है, तब उसपर दोषारोपण करती और उसका साथ छोड़ देती ह॥ २१ ॥ ‘जो झूठ बोलनेवाली, वकृ त चे ा करनेवाली, दु पु ष से संसग रखनेवाली, प तके त सदा दयहीनताका प रचय देनेवाली, कु लटा, पापके ही मनसूबे बाँधनेवाली और छोटीसी बातके लये भी णमा म प तक ओरसे वर हो जानेवाली ह, वे सब-क -सब असती या दु ा कही गयी ह॥ २२ ॥ ‘उ म कु ल, कया आ उपकार, व ा, भूषण आ दका दान और सं ह (प तके ारा ेहपूवक अपनाया जाना), यह सब कु छ दु ा य के दयको नह वशम कर पाता है; क उनका च अ व त होता है॥ ‘इसके वपरीत जो स , सदाचार, शा क आ ा और कु लो चत मयादा म त रहती ह, उन सा ी य के लये एकमा प त ही परम प व एवं सव े देवता है॥ २४ ॥ ‘इस लये तुम मेरे पु ीरामका, ज वनवासक आ ा मली है, कभी अनादर न करना। ये नधन ह या धनी, तु ारे लये देवताके तु ह’॥ २५ ॥ सासके धम और अथयु वचन का ता य भलीभाँ त समझकर उनके सामने खड़ी ◌इ सीताने हाथ जोड़कर उनसे इस कार कहा—॥ २६ ॥ ‘आय! आप मेरे लये जो कु छ उपदेश दे रही ह, म उसका पूण पसे पालन क ँ गी। ामीके साथ कै सा बताव करना चा हये, यह मुझे भलीभाँ त व दत है; क इस वषयको मने पहलेसे ही सुन रखा है॥ ‘पूजनीया माताजी! आपको मुझे असती य के समान नह मानना चा हये; क जैसे भा च मासे दूर नह हो सकती, उसी कार म प त त-धमसे वच लत नह हो सकती॥ २८ ॥ ‘जैसे बना तारक वीणा नह बज सकती और बना प हयेका रथ नह चल सकता है, उसी कार नारी सौ बेट क माता होनेपर भी बना प तके सुखी नह हो सकती॥ २९ ॥ ‘ पता, ाता और पु —ये प र मत सुख दान करते ह, परंतु प त अप र मत सुखका दाता है— उसक सेवासे इहलोक और परलोक दोन म क ाण होता है; अत: ऐसी कौन ी है, जो अपने प तका स ार नह करेगी॥ ३० ॥



‘आय! मने



े य —माता आ दके मुखसे नारीके सामा और वशेष धम का वण कया है। इस कार पा त का मह जानकर भी म प तका अपमान क ँ गी? म जानती ँ क प त ही ीका देवता है’॥ ३१ ॥ सीताका यह मनोहर वचन सुनकर शु अ :करणवाली देवी कौस ाके ने से सहसा दु:ख और हषके आँ सू बहने लगे॥ ३२ ॥ तब परम धमा ा ीरामने माता के बीचम अ स ा नत होकर खड़ी ◌इ माता कौस ाक ओर देख हाथ जोड़कर कहा—॥ ३३ ॥ ‘माँ! (इ के कारण मेरे पु का वनवास आ है; ऐसा समझकर) तुम मेरे पताजीक ओर दु: खत होकर न देखना। वनवासक अव ध भी शी ही समा हो जायगी॥ ३४ ॥ ‘ये चौदह वष तो तु ारे सोते-सोते नकल जायँग,े फर एक दन देखोगी क म अपने सु द से घरा आ सीता और ल णके साथ स ूण पसे यहाँ आ प ँ चा ँ ’॥ ३५ ॥ मातासे इस कार अपना न त अ भ ाय बताकर दशरथन न ीरामने अपनी अ साढ़े तीन सौ माता क ओर पात कया और उनको भी कौस ाक ही भाँ त शोकाकु ल पाया। तब उ ने हाथ जोड़कर उन सबसे यह धमयु बात कही—॥ ३६-३७ ॥ ‘माताओ! सदा एक साथ रहनेके कारण मने जो कु छ कठोर वचन कह दये ह अथवा अनजानम भी मुझसे जो अपराध बन गये ह , उनके लये आप मुझे मा कर द। म आप सब माता से वदा माँगता ँ ’॥ ३८ ॥ राजा दशरथक उन सभी य ने ीरघुनाथजीका यह समाधानकारी धमयु वचन सुना, सुनकर उन सबका च शोकसे ाकु ल हो गया॥ ३९ ॥ ीरामके ऐसी बात कहते समय महाराज दशरथक रा नयाँ कु र रय के समान वलाप करने लग । उनका वह आतनाद उस राजभवनम सब ओर गूँज उठा॥ ४० ॥ राजा दशरथका जो भवन पहले मुरज, पणव और मेघ आ द वा के ग ीर घोषसे गूँजता रहता था, वही वलाप और रोदनसे ा हो संकटम पड़कर अ दु:खमय तीत होने लगा॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म उनतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ३९॥



चालीसवाँ सग सीता, राम और ल णका दशरथक प र मा करके कौस ा आ दको णाम करना, सु म ाका ल णको उपदेश, सीतास हत ीराम और ल णका रथम बैठकर वनक ओर ान, पुरवा सय तथा रा नय स हत महाराज दशरथक शोकाकुल अव ा



तदन र राम, ल ण और सीताने हाथ जोड़कर दीनभावसे राजा दशरथके चरण का श करके उनक द णावत प र मा क ॥ १ ॥ उनसे वदा लेकर सीतास हत धम रघुनाथजीने माताका क देखकर शोकसे ाकु ल हो उनके चरण म णाम कया॥ २ ॥ ीरामके बाद ल णने भी पहले माता कौस ाको णाम कया, फर अपनी माता सु म ाके भी दोन पैर पकड़े॥ ३ ॥ अपने पु महाबा ल णको णाम करते देख उनका हत चाहनेवाली माता सु म ाने बेटेका म क सूँघकर कहा—॥ ४ ॥ ‘व ! तुम अपने सु द ् ीरामके परम अनुरागी हो, इस लये म तु वनवासके लये वदा करती ँ । अपने बड़े भा◌इके वनम इधर-उधर जाते समय तुम उनक सेवाम कभी माद न करना॥ ५ ॥ ‘ये संकटम ह या समृ म, ये ही तु ारी परम ग त ह। न ाप ल ण! संसारम स ु ष का यही धम है क सवदा अपने बड़े भा◌इक आ ाके अधीन रह॥ ‘दान देना, य म दी ा हण करना और यु म शरीर ागना—यही इस कु लका उ चत एवं सनातन आचार है’॥ ७ ॥ अपने पु ल णसे ऐसा कहकर सु म ाने वनवासके लये न त वचार रखनेवाले सव य ीरामच जीसे कहा—‘बेटा! जाओ, जाओ (तु ारा माग म लमय हो)।’ इसके बाद वे ल णसे फर बोल —॥ ८ ॥ ‘बेटा! तुम ीरामको ही अपने पता महाराज दशरथ समझो, जनकन नी सीताको ही अपनी माता सु म ा मानो और वनको ही अयो ा जानो। अब सुखपूवक यहाँसे ान करो’॥ ९॥



इसके बाद जैसे मात ल इ से को◌इ बात कहते ह, उसी कार वनयके ाता सुम ने ककु कु लभूषण ीरामसे वनयपूवक हाथ जोड़कर कहा—॥ १० ॥ ‘महायश ी राजकु मार ीराम! आपका क ाण हो। आप इस रथपर बै ठये। आप मुझसे जहाँ कहगे, वह म शी आपको प ँ चा दूँगा॥ ११ ॥ ‘आपको जन चौदह वष तक वनम रहना है, उनक गणना आजसे ही आर हो जानी चा हये; क देवी कै के यीने आज ही आपको वनम जानेके लये े रत कया है’॥ १२ ॥ तब सु री सीता अपने अ म उ म अलंकार धारण करके स च से उस सूयके समान तेज ी रथपर आ ढ़ ◌इं ॥ १३ ॥ प तके साथ जानेवाली सीताके लये उनके शुरने वनवासक वषसं ा गनकर उसके अनुसार ही व और आभूषण दये थे॥ १४ ॥ इसी कार महाराजने दोन भा◌इ ीराम और ल णके लये जो ब त-से अ -श और कवच दान कये थे, उ रथके पछले भागम रखकर उ ने चमड़ेसे मढ़ी ◌इ पटारी और ख ी या कु दारी भी उसीपर रख दी॥ १५ ॥ इसके बाद दोन भा◌इ ीराम और ल ण उस अ के समान दी मान् सुवणभू षत रथपर शी ही आ ढ़ हो गये॥ १६ ॥ जनम सीताक सं ा तीसरी थी, उन ीराम आ दको रथपर आ ढ़ आ देख सार थ सुम ने रथको आगे बढ़ाया। उसम जुते ए वायुके समान वेगशाली उ म घोड़ को हाँका॥ १७ ॥



जब ीरामच जी सुदीघकालके लये महान् वनक ओर जाने लगे, उस समय सम पुरवा सय , सै नक तथा दशक पम आये ए बाहरी लोग को भी मू ा आ गयी॥ १८ ॥ उस समय सारी अयो ाम महान् कोलाहल मच गया। सब लोग ाकु ल होकर घबरा उठे । मतवाले हाथी ीरामके वयोगसे कु पत हो उठे और इधर-उधर भागते ए घोड़ के हन हनाने एवं उनके आभूषण के खनखनानेक आवाज सब ओर गूँजने लगी॥ १९ ॥ अयो ापुरीके आबाल वृ सब लोग अ पी ड़त होकर ीरामके ही पीछे दौड़े, मानो धूपसे पी ड़त ए ाणी पानीक ओर भागे जाते ह ॥ २० ॥



उनमसे कु छ लोग रथके पीछे और अगल-बगलम लटक गये। सभी ीरामके लये उ त थे और सबके मुखपर आँ सु क धारा बह रही थी। वे सब-के -सब उ रसे कहने लगे—॥ २१ ॥ ‘सूत! घोड़ क लगाम ख चो। रथको धीरे-धीरे ले चलो। हम ीरामका मुख देखगे; क अब इस मुखका दशन हमलोग के लये दुलभ हो जायगा॥ २२ ॥ न य ही ीरामच जीक माताका दय लोहेका बना आ है, इसम त नक भी संशय नह है। तभी तो देवकु मारके समान तेज ी पु के वनक ओर जाते समय फट नह जाता है॥ २३ ॥ ‘ वदेहन नी सीता कृ ताथ हो गय ; क वे प त तधमम त र रहकर छायाक भाँ त प तके पीछे-पीछे चली जा रही ह। वे ीरामका साथ उसी कार नह छोड़ती ह, जैसे सूयक भा मे पवतका ाग नह करती है॥ २४ ॥ ‘अहो ल ण! तुम भी कृ ताथ हो गये; क तुम सदा य वचन बोलनेवाले अपने देवतु भा◌इक वनम सेवा करोगे॥ २५ ॥ ‘तु ारी यह बु वशाल है। तु ारा यह महान् अ ुदय है और तु ारे लये यह गका माग मल गया है; क तुम ीरामका अनुसरण कर रहे हो’॥ २६ ॥ ऐसी बात कहते ए वे पुरवासी मनु उमड़े ए आँ सु का वेग न सह सके । वे लोग सबके ेमपा इ ाकु कु लन न ीरामच जीके पीछे-पीछे चले जा रहे थे॥ २७ ॥ उसी समय दयनीय दशाको ा ◌इ अपनी य से घरे ए राजा दशरथ अ दीन होकर ‘म अपने ारे पु ीरामको देखूँगा’ ऐसा कहते ए महलसे बाहर नकल आये॥ २८ ॥ उ ने अपने आगे रोती ◌इ य का महान् आतनाद सुना। वह वैसा ही जान पड़ता था, जैसे बड़े हाथी यूथप तके बाँध लये जानेपर ह थ नय का ची ार सुनायी देता है॥ २९ ॥ उस समय ीरामके पता ककु वंशी ीमान् राजा दशरथ उसी तरह ख जान पड़ते थे, जैसे पवके समय रा से होनेपर पूण च मा ीहीन तीत होते ह॥ ३० ॥ यह देख अ च प दशरथन न ीमान् भगवान् रामने सुम को े रत करते ए कहा —‘आप रथको तेजीसे चलाइये’॥ ३१ ॥



एक ओर ीरामच जी सार थसे रथ हाँकनेके लये कहते थे और दूसरी ओर सारा जनसमुदाय उ ठहर जानेके लये कहता था। इस कार दु वधाम पड़कर सार थ सुम उस मागपर दोन मसे कु छ न कर सके —न तो रथको आगे बढ़ा सके और न सवथा रोक ही सके ॥ ३२ ॥



महाबा ीरामके नगरसे नकलते समय पुरवा सय के ने से गरे ए आँ सु ारा भीगकर धरतीक उड़ती ◌इ धूल शा हो गयी॥ ३३ ॥ ीरामच जीके ान करते समय सारा नगर अ पी ड़त हो गया। सब रोने और आँ सू बहाने लगे तथा सभी हाहाकार करते-करते अचेत-से हो गये॥ ३४ ॥ ना रय के ने से उसी तरह खेदज नत अ ु झर रहे थे, जैसे मछ लय के उछलनेसे हले ए कमल ारा जलकण क वषा होने लगती है॥ ३५ ॥ ीमान् राजा दशरथ सारी अयो ापुरीके लोग को एक-सा ाकु ल च देखकर अ दु:खके कारण जड़से कटे ए वृ क भाँ त भू मपर गर पड़े॥ ३६ ॥ उस समय राजाको अ दु:खम म हो क पाते देख ीरामके पीछे जाते ए मनु का पुन: महान् कोलाहल कट आ॥ ३७ ॥ अ :पुरक रा नय के स हत राजा दशरथको उ रसे वलाप करते देख को◌इ ‘हा राम!’ कहकर और को◌इ ‘हा राममाता!’ क पुकार मचाकर क ण न करने लगे॥ ३८ ॥ उस समय ीरामच जीने पीछे घूमकर देखा तो उ वषाद तथा ा च पता राजा दशरथ और दु:खम डू बी ◌इ माता कौस ा दोन ही मागपर अपने पीछे आते ए दखायी दये॥ ३९ ॥ जैसे र ीम बँधा आ घोड़ेका ब ा अपनी माको नह देख पाता, उसी कार धमके ब नम बँधे ए ीरामच जी अपनी माताक ओर पसे न देख सके ॥ ४० ॥ जो सवारीपर चलने यो , दु:ख भोगनेके अयो और सुख भोगनेके ही यो थे, उन माता- पताको पैदल ही अपने पीछे-पीछे आते देख ीरामच जीने सार थको शी रथ हाँकनेके लये े रत कया॥ ४१ ॥ जैसे अंकुशसे पी ड़त कया आ गजराज उस क को नह सहन कर पाता है, उसी कार पु ष सह ीरामके लये माता- पताको इस दु:खद अव ाम देखना अस हो गया॥ ४२ ॥



जैसे बँधे ए बछड़ेवाली सव ा गौ शामको घरक ओर लौटते समय बछड़ेके ेहसे दौड़ी चली आती है, उसी कार ीरामक माता कौस ा उनक ओर दौड़ी आ रही थ ॥ ४३ ॥ ‘हा



राम! हा राम! हा सीते! हा ल ण!’ क रट लगाती और रोती ◌इ कौस ा उस रथके पीछे दौड़ रही थ । वे ीराम, ल ण और सीताके लये ने से आँ सू बहा रही थ एवं इधर-उधर नाचती—च र लगाती-सी डोल रही थ । इस अव ाम माता कौस ाको ीरामच जीने बारंबार देखा॥ ४४-४५ ॥ राजा दशरथ च ाकर कहते थे—‘सुम ! ठहरो।’ कतु ीरामच जी कहते थे —‘आगे ब ढ़ये, शी आगे ब ढ़ये।’ उन दो कारके आदेश म पड़े ए बेचारे सुम का मन उस समय दो प हय के बीचम फँ से ए मनु का-सा हो रहा था॥ ४६ ॥ उस समय ीरामने सुम से कहा—‘यहाँ अ धक वल करना मेरे और पताजीके लये दु:ख ही नह , महान् दु:खका कारण होगा; इस लये रथ आगे बढ़ाइये। लौटनेपर महाराज उलाहना द तो कह दी जयेगा, मने आपक बात नह सुनी’॥ ४७ ॥ अ म ीरामके ही आदेशका पालन करते ए सार थने पीछेसे आनेवाले लोग से जानेक आ ा ली और त: चलते ए घोड़ को भी ती ग तसे चलनेके लये हाँका॥ ४८ ॥ राजा दशरथके साथ आनेवाले लोग मन-ही-मन ीरामक प र मा करके शरीरमा से लौटे (मनसे नह लौटे); क वह उनके रथक अपे ा भी ती गामी था। दूसरे मनु का समुदाय शी गामी मन और शरीर दोन से ही नह लौटा (वे सब लोग ीरामके पीछे-पीछे दौड़े चले गये)॥ ४९ ॥ इधर म य ने महाराज दशरथसे कहा—‘राजन्! जसके लये यह इ ा क जाय क वह पुन: शी लौट आये, उसके पीछे दूरतक नह जाना चा हये’॥ ५० ॥ सवगुणस राजा दशरथका शरीर पसीनेसे भीग रहा था। वे वषादके मू तमान् प जान पड़ते थे। अपने म य क उपयु बात सुनकर वे वह खड़े हो गये और रा नय स हत अ दीनभावसे पु क ओर देखने लगे॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४०॥



इकतालीसवाँ सग ीरामके वनगमनसे रनवासक



य का वलाप तथा नगर नवा सय क शोकाकुल अव ा



पु ष सह ीरामने माता स हत पताके लये दूरसे ही हाथ जोड़ रखे थे, उसी अव ाम जब वे रथ ारा नगरसे बाहर नकलने लगे, उस समय रनवासक रा नय म बड़ा हाहाकार मच गया॥ १ ॥ वे रोती ◌इ कहने लग —‘हाय! जो हम अनाथ, दुबल और शोचनीय जन क ग त (सब सुख क ा करानेवाले) और शरण (सम आप य से र ा करनेवाले) थे, वे हमारे नाथ (मनोरथ पूण करनेवाले) ीराम कहाँ चले जा रहे ह?॥ २ ॥ ‘जो कसीके ारा झूठा कलंक लगाये जानेपर भी ोध नह करते थे, ोध दलानेवाली बात नह कहते थे और ठे ए सभी लोग को मनाकर स कर लेते थे, वे दूसर के दु:खम समवेदना कट करनेवाले राम कहाँ जा रहे ह?॥ ३ ॥ ‘जो महातेज ी महा ा ीराम अपनी माता कौस ाके साथ जैसा बताव करते थे, वैसा ही बताव हमारे साथ भी करते थे, वे कहाँ चले जा रहे ह?॥ ४ ॥ ‘कै के यीके ारा ेशम डाले गये महाराजके वन जानेके लये कहनेपर हमलोग क अथवा सम जग र ा करनेवाले ीरघुवीर कहाँ चले जा रहे ह?॥ ‘अहो! ये राजा बड़े बु हीन ह, जो क जीव-जग े आ यभूत, धमपरायण, स ती ीरामको वनवासके लये देश नकाला दे रहे ह’॥ ६ ॥ इस कार वे सब-क -सब रा नयाँ बछड़ से बछु ड़ी ◌इ गौ क तरह दु:खसे आत होकर रोने और उ रसे न करने लग ॥ ७ ॥ अ :पुरम वह घोर आतनाद सुनकर पु शोकसे संत ए महाराज दशरथ ब त दु:खी हो गये॥ ८ ॥ उस दन अ हो बंद हो गया, गृह के घर भोजन नह बना, जा ने को◌इ काम नह कया, सूयदेव अ ाचलको चले गये, हा थय ने मुँहम लया आ चारा छोड़ दया, गौ ने



बछड़ को दूध नह पलाया और पहले-पहल पु को ज देकर भी को◌इ माता स नह ◌इ॥ ९-१० ॥ शंकु, म ल, गु , बुध तथा अ सम ह शु , श न आ द रातम व ग तसे च माके पास प ँ चकर दा ण ( ू रका यु ) होकर त हो गये॥ न क का फ क पड़ गयी और ह न ेज हो गये। वे सब-के -सब आकाशम वपरीत मागपर त हो धूमा तीत हो रहे थे॥ १२ ॥ आकाशम छायी ◌इ मेघमाला वायुके वेगसे उमड़े ए समु के समान तीत होती थी। ीरामके वनको जाते समय वह सारा नगर जोर-जोरसे हलने लगा (वहाँ भूक आ गया)॥ १३ ॥



सम दशाएँ ाकु ल हो उठ , उनम अ कार-सा छा गया। न को◌इ ह का शत होता था, न न ॥ सहसा सारे नाग रक दीन-दशाको ा हो गये। कसीने भी आहार या वहारम मन नह लगाया॥ १५ ॥ अयो ावासी सब लोग शोकपर रासे संत हो नर र लंबी साँस ख चते ए राजा दशरथको कोसने लगे॥ सड़कपर नकला आ को◌इ भी मनु स नह दखायी देता था। सबका मुख आँ सु से भीगा आ था और सभी शोकम हो रहे थे॥ १७ ॥ शीतल वायु नह चलती थी। च मा सौ नह दखायी देता था। सूय भी जग ो उ चत मा ाम ताप या काश नह दे रहा था। सारा संसार ही ाकु ल हो उठा था॥ १८ ॥ बालक माँ-बापको भूल गये। प तय को य क याद नह आती थी और भा◌इ भा◌इका रण नह करते थे—सभी सब कु छ छोड़कर के वल ीरामका ही च न करने लगे॥ १९ ॥ जो ीरामके म थे, वे सब तो और भी अपनी सुध-बुध खो बैठे थे। शोकके भारसे आ ा होनेके कारण वे रातम सोयेतक नह ॥ २० ॥ इस कार सारी अयो ापुरी ीरामसे र हत होकर भय और शोकसे लत-सी होकर उसी कार घोर हलचलम पड़ गयी, जैसे देवराज इ से र हत ◌इ मे -पवतस हत यह पृ ी



डगमगाने लगती है। हाथी, घोड़े और सै नक स हत उस नगरीम भयंकर आतनाद होने लगा॥ २१ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म इकतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४१॥



बयालीसवाँ सग राजा दशरथका पृ ीपर गरना, ीरामके लये वलाप करना, कैकेयीको अपने पास आनेसे मना करना और उसे ाग देना, कौस ा और सेवक क सहायतासे उनका कौस ाके भवनम आना और वहाँ भी ीरामके लये द:ु खका ही अनुभव करना



वनक ओर जाते ए ीरामके रथक धूल जबतक दखायी देती रही, तबतक इ ाकु वंशके ामी राजा दशरथने उधरसे अपनी आँ ख नह हटाय ॥ १ ॥ वे महाराज अपने अ धा मक य पु को जबतक देखते रहे, तबतक पु को देखनेके लये उनका शरीर मानो पृ ीपर बढ़ रहा था—वे ऊँ चे उठ-उठकर उनक ओर नहार रहे थे॥ २ ॥



जब राजाको ीरामके रथक धूल भी नह दखायी देने लगी, तब वे अ आत और वषाद हो पृ ीपर गर पड़े॥ ३ ॥ उस समय उ सहारा देनेके लये उनक धमप ी कौस ा देवी दा हनी बाँहके पास आय और सु री कै के यी उनके वामभागम जा प ँ च ॥ ४ ॥ कै के यीको देखते ही नय, वनय और धमसे स राजा दशरथक सम इ याँ थत हो उठ ; वे बोल उठे —॥ ५ ॥ ‘पापपूण वचार रखनेवाली कै के य! तू मेरे अ का श न कर। म तुझे देखना नह चाहता। तू न तो मेरी भाया है और न बा वी॥ ६ ॥ ‘जो तेरा आ य लेकर जीवन- नवाह करते ह, म उनका ामी नह ँ और वे मेरे प रजन नह ह। तूने के वल धनम आस होकर धमका ाग कया है, इस लये म तेरा प र ाग करता ँ॥ ७ ॥ ‘मने जो तेरा पा ण हण कया है और तुझे साथ लेकर अ क प र मा क है, तेरे साथका वह सारा स इस लोक और परलोकके लये भी ाग देता ँ ॥ ८ ॥ ‘तेरा पु भरत भी य द इस व -बाधासे र हत रा को पाकर स हो तो वह मेरे लये ा म जो कु छ प या जल आ द दान करे, वह मुझे ा न हो’॥ ९ ॥



तदन र शोकसे कातर ◌इ कौस ा देवी उस समय धरतीपर लोटनेके कारण धूलसे ा ए महाराजको उठाकर उनके साथ राजभवनक ओर लौट ॥ १० ॥ जैसे को◌इ जान-बूझकर े ापूवक ा णक ह ा कर डाले अथवा हाथसे लत अ का श कर ले और ऐसा करके संत होता रहे, उसी कार धमा ा राजा दशरथ अपने ही दये ए वरदानके कारण वनम गये ए ीरामका च न करके अनुत हो रहे थे॥ ११ ॥ राजा दशरथ बारंबार पीछे लौटकर रथके माग पर देखनेका क उठाते थे। उस समय उनका प रा सूयक भाँ त अ धक शोभा नह पाता था॥ १२ ॥ वे अपने य पु का बारंबार रण करके दु:खसे आतुर हो वलाप करने लगे। वे बेटेको नगरक सीमापर प ँ चा आ समझकर इस कार कहने लगे—॥ १३ ॥ ‘हाय! मेरे पु को वनक ओर ले जाते ए े वाहन (घोड़ ) के पद च तो मागम दखायी देते ह; परंतु उन महा ा ीरामका दशन नह हो रहा है॥ १४ ॥ ‘जो मेरे े पु ीराम च नसे च चत हो त कय का सहारा लेकर उ म श ा पर सुखसे सोते थे और उ म अलंकार से वभू षत सु री याँ ज जन डु लाती थ , वे न य ही आज कह वृ क जड़का आ य ले अथवा कसी काठ या प रको सरके नीचे रखकर भू मपर ही शयन करगे॥ १५-१६ ॥ ‘ फर अ म धूल लपेटे दीनक भाँ त लंबी साँस ख चते ए वे उस शयन-भू मसे उसी कार उठगे, जैसे कसी झरनेके पाससे गजराज उठता है॥ ‘ न य ही वनम रहनेवाले मनु लोकनाथ महाबा ीरामको वहाँसे अनाथक भाँ त उठकर जाते ए देखगे॥ १८ ॥ ‘जो सदा सुख भोगनेके ही यो है, वह जनकक ारी पु ी सीता आज अव ही काँट पर पैर पड़नेसे थाका अनुभव करती ◌इ वनको जायगी॥ १९ ॥ ‘वह वनके क से अन भ है। वहाँ ा आ द हसक ज ु का ग ीर तथा रोमा कारी गजन-तजन सुनकर न य ही भयभीत हो जायगी॥ २० ॥ ‘अरी कै के यी! तू अपनी कामना सफल कर ले और वधवा होकर रा भोग। म पु ष सह ीरामके बना जी वत नह रह सकता’॥ २१ ॥



इस कार वलाप करते ए राजा दशरथने मरघटसे नहाकर आये ए पु षक भाँ त मनु क भारी भीड़से घरकर अपने शोकपूण उ म भवनम वेश कया॥ २२ ॥ उ ने देखा, अयो ापुरीके ेक घरका बाहरी चबूतरा और भीतरी भाग भी सूना हो रहा है। ( क उन घर के सब लोग ीरामके पीछे चले गये थे।) बाजार-हाट बंद है। जो लोग नगरम ह, वे भी अ ा , दुबल और दु:खसे आतुर हो रहे ह तथा बड़ी-बड़ी सड़क पर भी अ धक आदमी जाते-आते नह दखायी देते ह। सारे नगरक यह अव ा देखकर ीरामके लये ही च ा और वलाप करते ए राजा उसी तरह महलके भीतर गये, जैसे सूय मेघ क घटाम छप जाते ह॥ २३-२४ ॥ ीराम, ल ण और सीतासे र हत वह राजभवन उस महान् अ ो जलाशयके समान जान पड़ता था, जसके भीतरके नागको ग ड़ उठा ले गये ह ॥ २५ ॥ उस समय वलाप करते ए राजा दशरथने ग द वाणीम ारपाल से यह मधुर, अ , दीनतायु और ाभा वक रसे र हत बात कही—॥ २६ ॥ ‘मुझे शी ही ीराम-माता कौस ाके घरम प ँ चा दो; क मेरे दयको और कह शा नह मल सकती’॥ २७ ॥ ऐसी बात कहते ए राजा दशरथको ारपाल ने बड़ी वनयके साथ रानी कौस ाके भवनम प ँ चाया और पलंगपर सुला दया॥ २८ ॥ वहाँ कौस ाके भवनम वेश करके पलंगपर आ ढ़ हो जानेपर भी राजा दशरथका मन च ल एवं म लन ही रहा॥ २९ ॥ दोन पु और पु वधू सीतासे र हत वह भवन राजाको च हीन आकाशक भाँ त ीहीन दखायी देने लगा॥ ३० ॥ उसे देखकर परा मी महाराजने एक बाँह ऊपर उठाकर उ रसे वलाप करते ए कहा —‘हा राम! तुम हम दोन माता- पताको ाग दे रहे हो। जो नर े चौदह वष क अव धतक जी वत रहगे और अयो ाम पुन: लौटे ए ीरामको दयसे लगाकर देखगे, वे ही वा वम सुखी ह गे’॥ ३१-३२ ॥ तदन र अपनी कालरा के समान वह रा आनेपर राजा दशरथने आधी रात होनेपर कौस ासे इस कार कहा—॥ ३३ ॥



‘कौस



!े मेरी



ीरामके ही साथ चली गयी और वह अबतक नह लौटी है; अत: म तु देख नह पाता ँ । एक बार अपने हाथसे मेरे शरीरका श तो करो’॥ ३४ ॥ श ापर पड़े ए महाराज दशरथको ीरामका ही च न करते और लंबी साँस ख चते देख देवी कौस ा अ थत हो उनके पास आ बैठ और बड़े क से वलाप करने लग ॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४२॥



ततालीसवाँ सग महारानी कौस



ाका वलाप



श ापर पड़े ए राजाको पु शोकसे ाकु ल देख पु के ही शोकसे पी ड़त ◌इ कौस ाने उन महाराजसे कहा—॥ १ ॥ ‘नर े ीरामपर अपना वष उँ ड़ले कर टेढ़ी चालसे चलनेवाली कै के यी कचुल छोड़कर नूतन शरीरसे कट ◌इ स पणीक भाँ त अब वचरेगी॥ २ ॥ ‘जैसे घरम रहनेवाला दु सप बारंबार भय देता रहता है, उसी कार ीरामच को वनवास देकर सफलमनोरथ ◌इ सुभगा कै के यी सदा सावधान होकर मुझे ास देती रहेगी॥ ३ ॥ ‘य द



ीराम इस नगरम भीख माँगते ए भी घरम रहते अथवा मेरे पु को कै के यीका दास भी बना दया गया होता तो वैसा वरदान मुझे भी अभी होता ( क उस दशाम मुझे भी ीरामका दशन होता रहता। ीरामके वनवासका वरदान तो कै के यीने मुझे दु:ख देनेके लये ही माँगा है।)॥ ४ ॥ ‘कै के यीने अपनी इ ाके अनुसार ीरामको उनके ानसे करके वैसा ही कया है, जैसे कसी अ हो ीने पवके दन देवता को उनके भागसे व त करके रा स को वह भाग अ पत कर दया हो॥ ५ ॥ ‘गजराजके समान म ग तसे चलनेवाले वीर महाबा धनुधर ीराम न य ही अपनी प ी और ल णके साथ वनम वेश कर रहे ह गे॥ ६ ॥ ‘महाराज! ज ने जीवनम कभी दु:ख नह देखे थे, उन ीराम, ल ण और सीताको आपने कै के यीक बात म आकर वनम भेज दया। अब उन बेचार क वनवासके क भोगनेके सवा और ा अव ा होगी?॥ ‘र तु उ म व ु से व त वे तीन त ण सुख प फल भोगनेके समय घरसे नकाल दये गये। अब वे बेचारे फल-मूलका भोजन करके कै से रह सकगे?॥ ८ ॥ ‘ ा अब फर मेरे शोकको न करनेवाला वह शुभ समय आयेगा, जब म सीता और ल णके साथ वनसे लौटे ए ीरामको देखूँगी?॥ ९ ॥



‘कब वह शुभ अवसर



ा होगा जब क ‘वीर ीराम और ल ण वनसे लौट आये’ यह सुनते ही यश नी अयो ापुरीके सब लोग हषसे उ सत हो उठगे और घर-घर फहराये गये ऊँ चे-ऊँ चे ज-समूह पुरीक शोभा बढ़ाने लगगे॥ १० ॥ ‘नर े ीराम और ल णको पुन: वनसे आया आ देख यह अयो ापुरी पू णमाके उमड़ते ए समु क भाँ त कब हष ाससे प रपूण होगी?॥ ११ ॥ ‘जैसे साँड़ गायको आगे करके चलता है, उसी कार वीर महाबा ीराम रथपर सीताको आगे करके कब अयो ापुरीम वेश करगे?॥ १२ ॥ ‘कब यहाँके सह मनु पुरीम वेश करते और राजमागपर चलते ए मेरे दोन श ुदमन पु पर लावा (खील)-क वषा करगे?॥ १३ ॥ ‘उ म आयुध एवं खड् ग लये शखरयु पवत के समान तीत होनेवाले ीराम और ल ण सु र कु ल से अलंकृत हो कब अयो ापुरीम वेश करते ए मेरे ने के सम कट ह गे?॥ १४ ॥ ‘कब ा ण क क ाएँ हषपूवक फू ल और फल अपण करती ◌इ अयो ापुरीक प र मा करगी?॥ १५ ॥ ‘कब ानम बढ़े-चढ़े और अव ाम देवता के समान तेज ी धमा ा ीराम उ म वषाक भाँ त जनसमुदायका लालन करते ए यहाँ पधारगे?॥ १६ ॥ ‘वीर! इसम संदेह नह क पूव ज म मुझ नीच आचार- वचारवाली नारीने बछड़ के दूध पीनेके लये उ त होते ही उनक माता के न काट दये ह गे॥ १७ ॥ ‘पु ष सह! जैसे कसी सहने छोटे-से बछड़ेवाली व ला गौको बलपूवक बछड़ेसे हीन कर दया हो, उसी कार कै के यीने मुझे बलात् अपने बेटेसे वलग कर दया है॥ १८ ॥ ‘जो उ म गुण से यु और स ूण शा म वीण ह, उन अपने पु ीरामके बना म इकलौते बेटेवाली माँ जी वत नह रह सकती॥ १९ ॥ ‘अब ारे पु ीराम और महाबली ल णको देखे बना मुझम जी वत रहनेक कु छ भी श नह है॥ २० ॥ ‘जैसे ी ऋतुम उ ृ भावाले भगवान् सूय अपनी करण ारा इस पृ ीको अ धक ताप देते ह, उसी कार यह पु शोकज नत महान् अ हतकारक अ आज मुझे जलाये दे रही



है’॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म ततालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४३॥



चौवालीसवाँ सग सु म ाका कौस



ाको आ ासन देना



ना रय म े कौस ाको इस कार वलाप करती देख धमपरायणा सु म ा यह धमयु बात बोली—॥ १ ॥ ‘आय! तु ारे पु ीराम उ म गुण से यु और पु ष म े ह। उनके लये इस कार वलाप करना और दीनतापूवक रोना थ है, इस तरह रोने-धोनेसे ा लाभ?॥ २ ॥ ‘ब हन! जो रा छोड़कर अपने महा ा पताको भलीभाँ त स वादी बनानेके लये वनम चले गये ह, वे तु ारे महाबली े पु ीराम उस उ म धमम त ह, जसका स ु ष ने सवदा और स क् कारसे पालन कया है तथा जो परलोकम भी सुखमय फल दान करनेवाला है। ऐसे धमा ाके लये कदा प शोक नह करना चा हये॥ ३-४ ॥ ‘ न ाप ल ण सम ा णय के त दयालु ह। वे सदा ीरामके त उ म बताव करते ह, अत: उन महा ा ल णके लये यह लाभक ही बात है॥ ५ ॥ ‘ वदेहन नी सीता भी जो सुख भोगनेके ही यो है, वनवासके दु:ख को भलीभाँ त सोच-समझकर ही तु ारे धमा ा पु का अनुसरण करती है॥ ६ ॥ ‘जो भु संसारम अपनी क तमयी पताका फहरा रहे ह और सदा स तके पालनम त र रहते ह, उन धम प तु ारे पु ीरामको कौन-सा ेय ा नह आ है॥ ७ ॥ ‘ ीरामक प व ता और उ म माहा को जानकर न य ही सूय अपनी करण ारा उनके शरीरको संत नह कर सकते॥ ८ ॥ ‘सभी समय म वन से नकली ◌इ उ चत सरदी और गरमीसे यु सुखद एवं म लमय वायु ीरघुनाथजीक सेवा करेगी॥ ९ ॥ ‘रा कालम धूपका क दूर करनेवाले शीतल च मा सोते ए न ाप ीरामका अपने करण पी कर से आ ल न और श करके उ आ ाद दान करगे॥ १० ॥ ‘ ीरामके ारा रणभू मम त म ज (श र)-के पु दानवराज सुबा को मारा गया देख व ा म जीने उन महातेज ी वीरको ब त-से द ा दान कये थे॥ ११ ॥



‘वे पु ष सह ीराम रहते थे, उसी तरह वनम भी



बड़े शूरवीर ह। वे अपने ही बा बलका आ य लेकर जैसे महलम नडर होकर रहगे॥ १२ ॥ ‘ जनके बाण का ल बनकर सभी श ु वनाशको ा होते ह, उनके शासनम यह पृ ी और यहाँके ाणी कै से नह रहगे?॥ १३ ॥ ‘ ीरामक जैसी शारी रक शोभा है, जैसा परा म है और जैसी क ाणका रणी श है, उससे जान पड़ता है क वे वनवाससे लौटकर शी ही अपना रा ा कर लगे॥ १४ ॥ ‘दे व! ीराम सूयके भी सूय ( काशक) और अ के भी अ (दाहक) ह। वे भुके भी भु, ल ीक भी उ म ल ी और माक भी मा ह। इतना ही नह —वे देवता के भी देवता तथा भूत के भी उ म भूत ह। वे वनम रह या नगरम, उनके लये कौन-से चराचर ाणी दोषावह हो सकते ह॥ १५-१६ ॥ ‘पु ष शरोम ण ीराम शी ही पृ ी, सीता और ल ी—इन तीन के साथ रा पर अ भ ष ह गे॥ १७ ॥ जनको नगरसे नकलते देख अयो ाका सारा जनसमुदाय शोकके वेगसे आहत हो ने से दु:खके आँ सू बहा रहा है, कु श और चीर धारण करके वनको जाते ए जन अपरा जत न वजयी वीरके पीछे-पीछे सीताके पम सा ात् ल ी ही गयी है, उनके लये ा दुलभ है?॥ १८-१९ ॥ ‘ जनके आगे धनुधा रय म े ल ण यं बाण और खड् ग आ द अ लये जा रहे ह, उनके लये जग कौन-सी व ु दुलभ है?॥ २० ॥ ‘दे व! म तुमसे स कहती ँ । तुम वनवासक अव ध पूण होनेपर यहाँ लौटे ए ीरामको फर देखोगी, इस लये तुम शोक और मोह छोड़ दो॥ २१ ॥ ‘क ा ण! अ न ते! तुम नवो दत च माके समान अपने पु को पुन: अपने चरण म म क रखकर णाम करते देखोगी॥ २२ ॥ ‘राजभवनम व होकर पुन: राजपदपर अ भ ष ए अपने पु को बड़ी भारी राजल ीसे स देखकर तुम शी ही अपने ने से आन के आँ सू बहाओगी॥ २३ ॥ ‘दे व! ीरामके लये तु ारे मनम शोक और दु:ख नह होना चा हये; क उनम को◌इ अशुभ बात नह दखायी देती। तुम सीता और ल णके साथ अपने पु ीरामको



शी ही यहाँ उप त देखोगी॥ २४ ॥ ‘पापर हत दे व! तु तो इन सब लोग को धैय बँधाना चा हये, फर यं ही इस समय अपने दयम इतना दु:ख करती हो?॥ २५ ॥ ‘दे व! तु शोक नह करना चा हये; क तु रघुकुलन न राम-जैसा बेटा मला है। ीरामसे बढ़कर स ागम र रहनेवाला मनु संसारम दूसरा को◌इ नह है॥ २६ ॥ ‘जैसे वषाकालके मेघ क घटा जलक वृ करती है, उसी कार तुम सु द स हत अपने पु ीरामको अपने चरण म णाम करते देख शी ही आन पूवक आँ सु क वषा करोगी॥ २७ ॥ ‘तु ारे वरदायक पु पुन: शी ही अयो ाम आकर अपने मोटे-मोटे कोमल हाथ ारा तु ारे दोन पैर को दबायँगे॥ २८ ॥ ‘जैसे मेघमाला पवतको नहलाती है, उसी कार तुम अ भवादन करके नम ार करते ए सु द स हत अपने शूरवीर पु का आन के आँ सु से अ भषेक करोगी’॥ २९ ॥ बातचीत करनेम कु शल, दोषर हत तथा रमणीय पवाली देवी सु म ा इस कार तरहतरहक बात से ीराममाता कौस ाको आ ासन देती ◌इ उपयु बात कहकर चुप हो गय ॥ ३० ॥ ल णक माताका वह वचन सुनकर महाराज दशरथक प ी तथा ीरामक माता कौस ाका सारा शोक उनके शरीर (मन) म ही त ाल वलीन हो गया। ठीक उसी तरह, जैसे शरद् ऋतुका थोड़े जलवाला बादल शी ही छ - भ हो जाता है॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौवालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४४॥



पतालीसवाँ सग ीरामका पुरवा सय से भरत और महाराज दशरथके त ेम-भाव रखनेका अनुरोध करते ए लौट जानेके लये कहना; नगरके वृ ा ण का ीरामसे लौट चलनेके लये आ ह करना तथा उन सबके साथ ीरामका तमसातटपर प ँ चना



उधर स परा मी महा ा ीराम जब वनक ओर जाने लगे, उस समय उनके त अनुराग रखनेवाले ब त-से अयो ावासी मनु वनम नवास करनेके लये उनके पीछे-पीछे चल दये॥ १ ॥ ‘ जसके ज ी लौटनेक कामना क जाय, उस जनको दूरतक नह प ँ चाना चा हये’—इ ा द पसे बताये गये सु मके अनुसार जब राजा दशरथ बलपूवक लौटा दये गये, तब भी जो ीरामजीके रथके पीछे-पीछे लगे ए थे, वे अयो ावासी अपने घरक ओर नह लौटे॥ २ ॥ क अयो ावासी पु ष के लये स णु स महायश ी ीराम पूण च माके समान य हो गये थे॥ उन जाजन ने ीरामसे घर लौट चलनेके लये ब त ाथना क ; कतु वे पताके स क र ा करनेके लये वनक ओर ही बढ़ते गये॥ ४ ॥ वे जाजन को इस कार ेहभरी से देख रहे थे मानो ने से उ पी रहे ह । उस समय ीरामने अपनी संतानके समान य उन जाजन से ेहपूवक कहा—॥ ५ ॥ ‘अयो ा नवा सय का मेरे त जो ेम और आदर है, वह मेरी ही स ताके लये भरतके त और अ धक पम होना चा हये॥ ६ ॥ ‘उनका च र बड़ा ही सु र और सबका क ाण करनेवाला है। कै के यीका आन बढ़ानेवाले भरत आप लोग का यथावत् य और हत करगे॥ ७ ॥ ‘वे अव ाम छोटे होनेपर भी ानम बड़े ह। परा मो चत गुण से स होनेपर भी भावके बड़े कोमल ह। वे आपलोग के लये यो राजा ह गे और जाके भयका नवारण करगे॥ ८ ॥



‘वे



मुझसे भी अ धक राजो चत गुण से यु ह, इसी लये महाराजने उ युवराज बनानेका न य कया है; अत: आपलोग को अपने ामी भरतक आ ाका सदा पालन करना चा हये॥ ९ ॥ ‘मेरे वनम चले जानेपर महाराज दशरथ जस कार भी शोकसे संत न होने पाय, इस बातके लये आपलोग सदा चे ा रख। मेरा य करनेक इ ासे आपको मेरी इस ाथनापर अव ान देना चा हये’॥ दशरथन न ीरामने - धमका आ य लेनेके लये ही ढ़ता दखायी, -हीजाजन के मनम उ को अपना ामी बनानेक इ ा बल होती गयी॥ सम पुरवासी अ दीन होकर आँ सू बहा रहे थे और ल णस हत ीराम मानो अपने गुण म बाँधकर उ ख चे लये जा रहे थे॥ १२ ॥ उनम ब त-से ा ण थे, जो ान, अव ा और तपोबल—तीन ही य से बड़े थे। वृ ाव ाके कारण कतन के तो सर काँप रहे थे। वे दूरसे ही इस कार बोले—॥ १३ ॥ ‘अरे! ओ तेज चलनेवाले अ ी जा तके घोड़ो! तुम बड़े वेगशाली हो और ीरामको वनक ओर लये जा रहे हो, लौटो! अपने ामीके हतैषी बनो! तु वनम नह जाना चा हये॥ १४ ॥ ‘य तो सभी ा णय के कान होते ह, परंतु घोड़ के कान बड़े होते ह; अत: तु हमारी याचनाका ान तो हो ही गया होगा; इस लये घरक ओर लौट चलो॥ १५ ॥ ‘तु ारे ामी ीराम वशु ा ा, वीर और उ म तका ढ़तासे पालन करनेवाले ह, अत: तु इनका उपवहन करना चा हये—इ बाहरसे नगरके समीप ले चलना चा हये। नगरसे वनक ओर इनका अपवहन करना— इ ले जाना तु ारे लये कदा प उ चत नह है’॥ १६ ॥ वृ ा ण को इस कार आतभावसे लाप करते देख ीरामच जी सहसा रथसे नीचे उतर गये॥ वे सीता और ल णके साथ पैदल ही चलने लगे। ा ण का साथ न छू टे, इसके लये वे अपना पैर ब त नकट रखते थे—लंबे डगसे नह चलते थे। वनम प ँ चना ही उनक या ाका परम ल था॥ १८ ॥



ीरामच जीके च र म वा -गुणक धानता थी। उनक म दया भरी ◌इ थी; इस लये वे रथके ारा चलकर उन पैदल चलनेवाले ा ण को पीछे छोड़नेका साहस न कर सके ॥ १९ ॥ ीरामको अब भी वनक ओर ही जाते देख वे ा ण मन-ही-मन घबरा उठे और अ संत होकर उनसे इस कार बोले—॥ २० ॥ ‘रघुन न! तुम ा ण के हतैषी हो, इसीसे यह सारा ा ण-समाज तु ारे पीछे -पीछे चल रहा है। इन ा ण के कं ध पर चढ़कर अ देव भी तु ारा अनुसरण कर रहे ह॥ २१ ॥ ‘वषा बीतनेपर शरद ् ऋतुम दखायी देनेवाले सफे द बादल के समान हमारे इन ेत छ क ओर देखो, जो तु ारे पीछे-पीछे चल पड़े ह। ये हम वाजपेय-य म ा ए थे॥ २२ ॥ ‘तु



राजक य ेत नह ा आ, अतएव तुम सूयदेवक करण से संत हो रहे हो। इस अव ाम हम वाजपेय-य म ा ए इन अपने छ ारा तु ारे लये छाया करगे॥ २३ ॥ ‘व ! हमारी जो बु सदा वेदम के पीछे चलती थी—उ के च नम लगी रहती थी, वही तु ारे लये वनवासका अनुसरण करनेवाली हो गयी है॥ २४ ॥ ‘जो हमारे परम धन वेद ह, वे हमारे दय म त ह। हमारी याँ अपने च र बलसे सुर त रहकर घर म ही रहगी॥ २५ ॥ ‘अब हम अपने कत के वषयम पुन: कु छ न य नह करना है। हमने तु ारे साथ जानेका वचार र कर लया है। तो भी हम इतना अव कहना है क ‘जब तुम ही ा णक आ ाके पालन पी धमक ओरसे नरपे हो जाओगे, तब दूसरा कौन ाणी धममागपर त रह सके गा॥ २६ ॥ ‘सदाचारका पोषण करनेवाले ीराम! हमारे सरके बाल पककर हंसके समान सफे द हो गये ह और पृ ीपर पड़कर सा ा णाम करनेसे इनम धूल भर गयी है। हम अपने ऐसे म क को कु ाकर तुमसे याचना करते ह क तुम घरको लौट चलो (वे त ा ण यह जानते थे क ीराम सा ात् भगवान् व ु ह। इसी लये उनका ीरामके त णाम करना दोषक बात नह है)॥



‘(इतनेपर भी जब



ीराम नह के , तब वे ा ण बोले—) व ! जो लोग यहाँ आये ह, इनम ब त-से ऐसे ा ण ह, ज ने य आर कर दया है; अब इनके य क समा तु ारे लौटनेपर ही नभर है॥ ‘संसारके ावर और ज म सभी ाणी तु ारे त भ रखते ह। वे सब तुमसे लौट चलनेक ाथना कर रहे ह। अपने उन भ पर तुम अपना ेह दखाओ॥ ‘ये वृ अपनी जड़ के कारण अ वेगहीन ह, इसीसे तु ारे पीछे नह चल सकते; परंतु वायुके वेगसे इनम जो सनसनाहट पैदा होती है, उनके ारा ये ऊँ चे वृ मानो तु पुकार रहे ह—तुमसे लौट चलनेक ाथना कर रहे ह॥ ३० ॥ ‘जो सब कारक चे ा छोड़ चुके ह, चारा चुगनेके लये भी कह उड़कर नह जाते ह और न त पसे वृ के एक ानपर ही पड़े रहते ह, वे प ी भी तुमसे लौट चलनेके लये ाथना कर रहे ह; क तुम सम ा णय पर कृ पा करनेवाले हो’॥ ३१ ॥ इस कार ीरामसे लौटनेके लये पुकार मचाते ए उन ा ण पर मानो कृ पा करनेके लये मागम तमसा नदी दखायी दी, जो अपने तयक् - वाह ( तरछी धारा) से ीरघुनाथजीको रोकती ◌इ-सी तीत होती थी॥ ३२ ॥ वहाँ प ँ चनेपर सुम ने भी थके ए घोड़ को शी ही रथसे खोलकर उन सबको टहलाया, फर पानी पलाया और नहलाया, त ात् तमसाके नकट ही चरनेके लये छोड़ दया॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४५॥



छयालीसवाँ सग सीता और ल णस हत ीरामका रा म तमसा-तटपर नवास, माता- पता और अयो ाके लये च ा तथा पुरवा सय को सोते छोड़कर वनक ओर जाना



तदन र तमसाके रमणीय तटका आ य लेकर ीरामने सीताक ओर देखकर सु म ाकु मार ल णसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘सु म ान न! तु ारा क ाण हो। हमलोग जो वनक ओर त ए ह, हमारे उस वनवासक आज यह पहली रात ा ◌इ है; अत: अब तु नगरके लये उ त नह होना चा हये॥ २ ॥ ‘इन सूने वन क ओर तो देखो, इनम व पशु-प ी अपने-अपने ानपर आकर अपनी बोली बोल रहे ह। उनके श से सारी वन ली ा हो गयी है, मानो ये सारे वन हम इस अव ाम देखकर ख हो सब ओरसे रो रहे ह॥ ३ ॥ ‘आज मेरे पताक राजधानी अयो ा नगरी वनम आये ए हमलोग के लये सम नरना रय स हत शोक करेगी, इसम संशय नह है॥ ४ ॥ ‘पु ष सह! अयो ाके मनु ब त-से स ण ु के कारण महाराजम, तुमम, मुझम तथा भरत और श ु म भी अनुर ह॥ ५ ॥ ‘इस समय मुझे पता और यश नी माताके लये बड़ा शोक हो रहा है; कह ऐसा न हो क वे नर र रोते रहनेके कारण अंधे हो जायँ॥ ६ ॥ ‘परंतु भरत बड़े धमा ा ह। अव ही वे धम, अथ और काम—तीन के अनुकूल वचन ारा पताजीको और मेरी माताको भी सा ना दगे॥ ७ ॥ ‘महाबाहो! जब म भरतके कोमल भावका बार-बार रण करता ँ , तब मुझे मातापताके लये अ धक च ा नह होती॥ ८ ॥ ‘नर े ल ण! तुमने मेरे साथ आकर बड़ा ही मह पूण काय कया है; क तुम न आते तो मुझे वदेहकु मारी सीताक र ाके लये को◌इ सहायक ढूँ ढ़ना पड़ता॥ ९ ॥ ‘सु म ान न! य प यहाँ नाना कारके जंगली फल-मूल मल सकते ह तथा प आजक यह रात म के वल जल पीकर ही बताऊँ गा। यही मुझे अ ा जान पड़ता है’॥ १० ॥



ल णसे ऐसा कहकर ीरामच जीने सुम से भी कहा—‘सौ ! अब आप घोड़ क र ापर ान द, उनक ओरसे असावधान न ह ’॥ ११ ॥ सुम ने सूया हो जानेपर घोड़ को लाकर बाँध दया और उनके आगे ब त-सा चारा डालकर वे ीरामके पास आ गये॥ १२ ॥ फर (वणानुकूल) क ाणमयी सं ोपासना करके रात आयी देख ल णस हत सुम ने ीरामच जीके शयन करनेयो ान और आसन ठीक कया॥ १३ ॥ तमसाके तटपर वृ के प से बनी ◌इ वह श ा देखकर ीरामच जी ल ण और सीताके साथ उसपर बैठे॥ १४ ॥ थोड़ी देरम सीतास हत ीरामको थककर सोया आ देख ल ण सुम से उनके नाना कारके गुण का वणन करने लगे॥ १५ ॥ सुम और ल ण तमसाके कनारे ीरामके गुण क चचा करते ए रातभर जागते रहे। इतनेहीम सूय दयका समय नकट आ प ँ चा॥ १६ ॥ तमसाका वह तट गौ के समुदायसे भरा आ था। ीरामच जीने जाजन के साथ वह रा म नवास कया। वे जाजन से कु छ दूरपर सोये थे॥ १७ ॥ महातेज ी ीराम तड़के ही उठे और जाजन को सोते देख प व ल ण वाले भा◌इ ल णसे इस कार बोले—॥ १८ ॥ ‘सु म ाकु मार ल ण! इन पुरवा सय क ओर देखो, ये इस समय वृ क जड़से सटकर सो रहे ह। इ के वल हमारी चाह है। ये अपने घर क ओरसे भी पूण नरपे हो गये ह॥ १९ ॥ ‘हम लौटा ले चलनेके लये ये जैसा उ ोग कर रहे ह, इससे जान पड़ता है, ये अपना ाण ाग दगे; कतु अपना न य नह छोड़गे॥ २० ॥ ‘अत: जबतक ये सो रहे ह तभीतक हमलोग रथपर सवार होकर शी तापूवक यहाँसे चल द। फर हम इस मागपर और कसीके आनेका भय नह रहेगा॥ २१ ॥ ‘अयो ावासी हमलोग के अनुरागी ह। जब हम यहाँसे नकल चलगे, तब उ फर अब इस कार वृ क जड़ से सटकर नह सोना पड़ेगा॥ २२ ॥ ‘राजकु मार का यह कत है क वे पुरवा सय को अपने ारा होनेवाले दु:खसे मु कर, न क अपना दु:ख देकर उ और दु:खी बना द’॥ २३ ॥



यह सुनकर ल णने सा ात् धमके समान वराजमान भगवान् ीरामसे कहा—‘परम बु मान् आय! मुझे आपक राय पसंद है। शी ही रथपर सवार होइये’॥ २४ ॥ तब ीरामने सुम से कहा—‘ भो! आप जाइये और शी ही रथ जोतकर तैयार क जये। फर म ज ी ही यहाँसे वनक ओर चलूँगा’॥ २५ ॥ आ ा पाकर सुम ने उन उ म घोड़ को तुरंत ही रथम जोत दया और ीरामके पास हाथ जोड़कर नवेदन कया—॥ २६ ॥ ‘महाबाहो! र थय म े वीर! आपका क ाण हो। आपका यह रथ जुता आ तैयार है। अब सीता और ल णके साथ शी इसपर सवार होइये’॥ २७ ॥ ीरामच जी सबके साथ रथपर बैठकर ती -ग तसे बहनेवाली भँवर से भरी ◌इ तमसा नदीके उस पार गये॥ २८ ॥ नदीको पार करके महाबा ीमान् राम ऐसे महान् मागपर जा प ँ चे जो क ाण द, क कर हत तथा सव भय देखनेवाल के लये भी भयसे र हत था॥ २९ ॥ उस समय ीरामने पुरवा सय को भुलावा देनेके लये सुम से यह बात कही—‘सारथे! (हमलोग तो यह उतर जाते ह;) परंतु आप रथपर आ ढ़ होकर पहले उ र दशाक ओर जाइये। दो घड़ीतक ती ग तसे उ र जाकर फर दूसरे मागसे रथको यह लौटा लाइये। जस तरह भी पुरवा सय को मेरा पता न चले, वैसा एका तापूवक य क जये’॥ ३०-३१ ॥ ीरामजीका यह वचन सुनकर सार थने वैसा ही कया और लौटकर पुन: ीरामक सेवाम रथ उप त कर दया॥ ३२ ॥ त ात् सीतास हत ीराम और ल ण, जो रघुवंशक वृ करनेवाले थे, लौटाकर लाये गये उस रथपर चढ़े। तदन र सार थने घोड़ को उस मागपर बढ़ा दया, जससे तपोवनम प ँ चा जा सकता था॥ ३३ ॥ तदन र सार थस हत महारथी ीरामने या ाका लक म लसूचक शकु न देखनेके लये पहले तो उस रथको उ रा भमुख खड़ा कया; फर वे उस रथपर आ ढ़ होकर वनक ओर चल दये॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४६॥



सतालीसवाँ सग ात:काल उठनेपर पुरवा सय का वलाप करना और नराश होकर नगरको लौटना



इधर रात बीतनेपर जब सबेरा आ, तब अयो ावासी मनु ीरघुनाथजीको न देखकर अचेत हो गये। शोकसे ाकु ल होनेके कारण उनसे को◌इ भी चे ा करते न बनी॥ १ ॥ वे शोकज नत आँ सू बहाते ए अ ख हो गये तथा इधर-उधर उनक खोज करने लगे। परंतु उन दु:खी पुरवा सय को ीराम कधर गये, इस बातका पता देनेवाला को◌इ च तक नह दखायी दया॥ २ ॥ बु मान् ीरामसे वलग होकर वे अ दीन हो गये। उनके मुखपर वषादज नत वेदना दखायी देती थी। वे मनीषी पुरवासी क णाभरे वचन बोलते ए वलाप करने लगे—॥ ३॥ ‘हाय! हमारी उस न ाको ध ार है, जससे अचेत हो जानेके कारण हम उस समय वशाल व वाले महाबा ीरामके दशनसे व त हो गये ह॥ ४ ॥ ‘ जनक को◌इ भी या कभी न ल नह होती, वे तापसवेषधारी महाबा ीराम हम भ जन को छोड़कर परदेश (वन) म कै से चले गये?॥ ५ ॥ ‘जैसे पता अपने औरस पु का पालन करता है, उसी कार जो सदा हमारी र ा करते थे, वे ही रघुकुल े ीराम आज हम छोड़कर वनको चले गये?॥ ६ ॥ ‘अब हमलोग यह ाण दे द या मरनेका न य करके उ र दशाक ओर चल द। ीरामसे र हत होकर हमारा जीवन-धारण कस लये हतकर हो सकता है?॥ ७ ॥ ‘अथवा यहाँ ब त-से बड़े-बड़े सूखे काठ पड़े ह, उनसे चता जलाकर हम सब लोग उसीम वेश कर जायँ॥ ८ ॥ ‘(य द हमसे को◌इ ीरामका वृ ा पूछेगा तो हम उसे ा उ र दगे?) ा हम यह कहगे क जो कसीके दोष नह देखते और सबसे य वचन बोलते ह, उन महाबा ीरघुनाथजीको हमने वनम प ँ चा दया है? हाय! यह अयो बात हमारे मुँहसे कै से नकल सकती है?॥ ९ ॥



ीरामके बना हमलोग को लौटा आ देखकर ी, बालक और वृ स हत सारी अयो ानगरी न य ही दीन और आन हीन हो जायगी॥ १० ॥ ‘हमलोग वीरवर महा ा ीरामके साथ सवदा नवास करनेके लये नकले थे। अब उनसे बछु ड़कर हम अयो ापुरीको कै से देख सकगे’॥ ११ ॥ इस कार अनेक तरहक बात कहते ए वे सम पुरवासी अपनी भुजा उठाकर वलाप करने लगे। वे बछड़ से बछु ड़ी ◌इ अ गा मनी गौ क भाँ त दु:खसे ाकु ल हो रहे थे॥ १२ ‘







फर रा ेपर रथक लीक देखते ए सब-के -सब कु छ दूरतक गये; कतु णभरम मागका च न मलनेके कारण वे महान् शोकम डू ब गये॥ १३ ॥ उस समय यह कहते ए क ‘यह ा आ? अब हम ा कर? दैवने हम मार डाला’ वे मन ी पु ष रथक लीकका अनुसरण करते ए अयो ाक ओर लौट पड़े॥ १४ ॥ उनका च ा हो रहा था। वे सब जस मागसे गये थे, उसीसे लौटकर अयो ापुरीम जा प ँ चे, जहाँके सभी स ु ष ीरामके लये थत थे॥ १५ ॥ उस नगरीको देखकर उनका दय दु:खसे ाकु ल हो उठा। वे अपने शोकपी ड़त ने ारा आँ सु क वषा करने लगे॥ १६ ॥ (वे बोले—)‘ जसके गहरे कु से वहाँका नाग ग ड़के ारा नकाल लया गया हो, वह नदी जैसे शोभाहीन हो जाती है, उसी कार ीरामसे र हत ◌इ यह अयो ानगरी अब अ धक शोभा नह पाती है’॥ उ ने देखा, सारा नगर च हीन आकाश और जलहीन समु के समान आन शू हो गया है। पुरीक यह दुरव ा देख वे अचेत-से हो गये॥ १८ ॥ उनके दयका सारा उ ास न हो चुका था। वे दु:खसे पी ड़त हो उन महान् वैभवस गृह म बड़े ेशके साथ व हो सबको देखते ए भी अपने और परायेक पहचान न कर सके ॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४७॥



अड़तालीसवाँ सग नगर नवा सनी



य का वलाप करना



इस कार जो वषाद , अ पी ड़त, शोकम तथा ाण ाग देनेक इ ासे यु हो ने से आँ सू बहा रहे थे, ीरामच जीके साथ जाकर भी जो उ लये बना लौट आये थे और इसी लये जनका च ठकाने नह था, उन नगरवा सय क ऐसी दशा हो रही थी मानो उनके ाण नकल गये ह ॥ १-२ ॥ वे सब अपने-अपने घरम आकर प ी और पु से घरे ए आँ सू बहाने लगे। उनके मुख अ ुधारासे आ ा दत थे॥ ३ ॥ उनके शरीरम हषका को◌इ च नह दखायी देता था तथा मनम भी आन का अभाव ही था। वै ने अपनी दुकान नह खोल । य- व यक व ुएँ बाजार म फै लायी जानेपर भी उनक शोभा नह ◌इ (उ लेनेके लये ाहक नह आये)। उस दन गृह के घरम चू े नह जले—रसो◌इ नह बनी॥ ४ ॥ खोयी ◌इ व ु मल जानेपर भी कसीको स ता नह ◌इ, वपुल धन-रा श ा हो जानेपर भी कसीने उसका अ भन न नह कया। जसने थम बार पु को ज दया था, वह माता भी आन त नह ◌इ॥ ५ ॥ ेक घरक याँ अपने प तय को ीरामके बना ही लौटकर आये देख रो पड़ और दु:खसे आतुर हो कठोर वचन ारा उ कोसने लग , मानो महावत अंकुश से हा थय को मार रहे ह॥६॥ वे बोल —‘जो लोग ीरामको नह देखते, उ घर- ार, ी-पु , धन-दौलत और सुखभोग से ा योजन है?॥ ७ ॥ ‘संसारम एकमा ल ण ही स ु ष ह, जो सीताके साथ ीरामक सेवा करनेके लये उनके पीछे-पीछे वनम जा रहे ह॥ ८ ॥ ‘उन न दय , कमलम त बाव ड़य तथा सरोवर ने अव ही ब त पु कया होगा, जनके प व जलम ान करके ीरामच जी आगे जायँगे॥ ९ ॥



‘ जनम रमणीय वृ



ाव लयाँ शोभा पाती ह, वे सु र वन े णयाँ, बड़े कछारवाली न दयाँ और शखर से स पवत ीरामक शोभा बढ़ायगे॥ १० ॥ ‘ ीराम जस वन अथवा पवतपर जायँग,े वहाँ उ अपने य अ त थक भाँ त आया आ देख वे वन और पवत उनक पूजा कये बना नह रह सकगे॥ ‘ व च फू ल के मुकुट पहने और ब त-सी म रयाँ धारण कये मर से सुशो भत वृ वनम ीरामच जीको अपनी शोभा दखायगे॥ १२ ॥ ‘वहाँके पवत अपने यहाँ पधारे ए ीरामको अ आदरके कारण असमयम भी उ मउ म फू ल और फल दखायगे (भट करगे)॥ १३ ॥ ‘वे पवत बारंबार नाना कारके व च झरने दखाते ए ीरामके लये नमल जलके ोत बहायगे॥ ‘पवत- शखर पर लहलहाते ए वृ ीरघुनाथजीका मनोरंजन करगे। जहाँ ीराम ह वहाँ न तो को◌इ भय है और न कसीके ारा पराभव ही हो सकता है; क दशरथन न महाबा ीराम बड़े शूरवीर ह। अत: जबतक वे हमलोग से ब त दूर नह नकल जाते, इसके पहले ही हम उनके पास प ँ चकर पीछे लग जाना चा हये॥ १५-१६ ॥ ‘उनके -जैसे महा ा एवं ामीके चरण क छाया ही हमारे लये परम सुखद है। वे ही हमारे र क, ग त और परम आ य ह॥ १७ ॥ ‘हम याँ सीताजीक सेवा करगी और तुम सब लोग ीरघुनाथजीक सेवाम लगे रहना।’ इस कार पुरवा सय क याँ दु:खसे आतुर हो अपने प तय से उपयु बात कहने लग ॥ १८ ॥ (वे पुन: बोल —) ‘वनम ीरामच जी आपलोग का योग ेम स करगे और सीताजी हम ना रय के योग ेमका नवाह करगी॥ १९ ॥ ‘यहाँका नवास ी त और ती तसे र हत है। यहाँके सब लोग ीरामके लये उ त रहते ह। कसीको यहाँका रहना अ ा नह लगता तथा यहाँ रहनेसे मन अपनी सुध-बुध खो बैठता है। भला, ऐसे नवाससे कसको स ता होगी?॥ २० ॥ ‘य द इस रा पर कै के यीका अ धकार हो गया तो यह अनाथ-सा हो जायगा। इसम धमक मयादा नह रहने पायेगी। ऐसे रा म तो हम जी वत रहनेक ही आव कता नह जान



पड़ती, फर यहाँ धन और पु से ा लेना है?॥ २१ ॥ ‘ जसने रा -वैभवके लये अपने पु और प तको ाग दया, वह कु लकल नी कै के यी दूसरे कसका ाग नह करेगी?॥ २२ ॥ ‘हम अपने पु क शपथ खाकर कहती ह क जबतक कै के यी जी वत रहेगी, तबतक हम जीते-जी कभी उसके रा म नह रह सकगी, भले ही यहाँ हमारा पालन-पोषण होता रहे ( फर भी हम यहाँ रहना नह चाहगी)॥ २३ ॥ ‘ जस नदय भाववाली नारीने महाराजके पु को रा से बाहर नकलवा दया है, उस अधमपरायणा दुराचा रणी कै के यीके अ धकारम रहकर कौन सुखपूवक जीवन तीत कर सकता है?॥ २४ ॥ ‘कै के यीके कारण यह सारा रा अनाथ एवं य र हत होकर उप वका के बन गया है, अत: एक दन सबका वनाश हो जायगा॥ २५ ॥ ‘ ीरामच जीके वनवासी हो जानेपर महाराज दशरथ जी वत नह रहगे। साथ ही यह भी है क राजा दशरथक मृ ुके प ात् इस रा का लोप हो जायगा॥ २६ ॥ ‘इस लये अब तुमलोग यह समझ लो क अब हमारे पु समा हो गये। यहाँ रहकर हम अ दु:ख ही भोगना पड़ेगा। ऐसी दशाम या तो जहर घोलकर पी जाओ या ीरामका अनुसरण करो अथवा कसी ऐसे देशम चले चलो, जहाँ कै के यीका नाम भी न सुनायी पड़े॥ २७ ॥ ‘झूठे



वरक क ना करके प ी और ल णके साथ ीरामको देश नकाला दे दया गया और हम भरतके साथ बाँध दया गया। अब हमारी दशा कसा◌इके घर बँधे ए पशु के समान हो गयी है॥ २८ ॥ ‘ल णके े ाता ीरामका मुख पूण च माके समान मनोहर है। उनके शरीरक का ाम, गलेक हँ सली मांससे ढक ◌इ, भुजाएँ घुटन तक लंबी और ने कमलके समान सु र ह। वे सामने आनेपर पहले ही बातचीत छेड़ते ह तथा मीठे और स वचन बोलते ह। ीराम श ु का दमन करनेवाले और महान् बलवान् ह। सम जग े लये सौ (कोमल भाववाले) ह। उनका दशन च माके समान ारा है॥ २९-३० ॥ ‘ न य ही मतवाले गजराजके समान परा मी पु ष सह महारथी ीराम भूतलपर वचरते ए वन लय क शोभा बढ़ायगे’॥ ३१ ॥



नगरम नाग रक क याँ इस कार वलाप करती ◌इ दु:खसे संत हो इस तरह जोर-जोरसे रोने लग , मानो उनपर मृ ुका भय आ गया हो॥ ३२ ॥ अपने-अपने घर म ीरामके लये याँ इस कार दनभर वलाप करती रह । धीरे-धीरे सूयदेव अ ाचलको चले गये और रात हो गयी॥ ३३ ॥ उस समय कसीके घरम अ हो के लये भी आग नह जली। ा ाय और कथावाता भी नह ◌इ। सारी अयो ापुरी अ कारसे पुती ◌इ-सी तीत होती थी॥ ३४ ॥ ब नय क दुकान बंद होनेके कारण वहाँ चहल-पहल नह थी, सारी पुरीक हँ सी-खुशी छन गयी थी, ीराम पी आ यसे र हत अयो ानगरी जसके तारे छप गये ह , उस आकाशके समान ीहीन जान पड़ती थी॥ ३५ ॥ उस समय नगरवा सनी याँ ीरामके लये इस तरह शोकातुर हो रही थ , मानो उनके सगे बेटे या भा◌इको देश नकाला दे दया गया हो। वे अ दीनभावसे वलाप करके रोने लग और रोते-रोते अचेत हो गय ; क ीराम उनके लये पु (तथा भाइय )-से भी बढ़कर थे॥ ३६ ॥ वहाँ गाने, बजाने और नाचनेके उ व बंद हो गये, सबका उ ाह जाता रहा, बाजारक दुकान नह खुल , इन सब कारण से उस समय अयो ानगरी जलहीन समु के समान सूनसान लग रही थी॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अड़तालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४८॥



उनचासवाँ सग ामवा सय क बात सुनते ए ीरामका कोसल जनपदको लाँघते ए आगे जाना और वेद ु त, गोमती एवं का न दय को पार करके सुम से कुछ कहना



उधर पु ष सह ीराम भी पताक आ ाका बारंबार रण करते ए उस शेष रा म ही ब त दूर नकल गये॥ उसी तरह चलते-चलते उनक वह क ाणमयी रजनी भी तीत हो गयी। सबेरा होनेपर म लमयी सं ोपासना करके वे व भ जनपद को लाँघते ए चल दये॥ २ ॥ जनक सीमाके पासक भू म जोत दी गयी थी, उन ाम तथा फू ल से सुशो भत वन को देखते ए वे उन उ म घोड़ ारा शी तापूवक आगे बढ़े जा रहे थे तथा प सु र के देखनेम त य रहनेके कारण उ उस रथक ग त धीमी-सी ही जान पड़ती थी॥ मागम जो बड़े और छोटे गाँव मलते थे, उनम नवास करनेवाले मनु क न ा त बात उनके कान म पड़ रही थ —‘अहो! कामके वशम पड़े ए राजा दशरथको ध ार है!॥ ४ ॥ ‘हाय! हाय! पापशीला, पापास , ू र तथा धममयादाका ाग करनेवाली कै के यीको तो दया छू भी नह गयी है, वह ू र अब न ु र कमम ही लगी रहती है॥ ५ ॥ ‘ जसने महाराजके ऐसे धमा ा, महा ानी, दयालु और जते य पु को वनवासके लये घरसे नकलवा दया है॥ ६ ॥ ‘जनकन नी महाभागा सीता, जो सदा सुख म ही रत रहती थ , अब वनवासके दु:ख कै से भोग सकगी? ‘अहो! ा राजा दशरथ अपने पु के त इतने ेहहीन हो गये, जो जा के त को◌इ अपराध न करनेवाले ीरामच जीका यहाँ प र ाग कर देना चाहते ह’॥ ८ ॥ छोटे-बड़े गाँव म रहनेवाले मनु क ये बात सुनते ए वीर कोसलप त ीराम कोसल जनपदक सीमा लाँघकर आगे बढ़ गये॥ ९ ॥ तदन र शीतल एवं सुखद जल बहानेवाली वेद ु त नामक नदीको पार करके ीरामच जी अग से वत द ण- दशाक ओर बढ़ गये॥ १० ॥



दीघकालतक चलकर उ ने समु गा मनी गोमती नदीको पार कया, जो शीतल जलका ोत बहाती थी। उसके कछारम ब त-सी गौएँ वचरती थ ॥ ११ ॥ शी गामी घोड़ ारा गोमती नदीको लाँघ करके ीरघुनाथजीने मोर और हंस के कलरव से ा का नामक नदीको भी पार कया॥ १२ ॥ वहाँ जाकर ीरामने धन-धा से स और अनेक अवा र जनपद से घरी ◌इ भू मका सीताको दशन कराया, जसे पूवकालम राजा मनुने इ ाकु को दया था॥ १३ ॥ फर ीमान् पु षो म ीरामने ‘सूत!’ कहकर सार थको बारंबार स ो धत कया और मदम हंसके समान मधुर रम इस कार कहा—॥ १४ ॥ ‘सूत! म कब पुन: लौटकर माता- पतासे मलूँगा और सरयूके पा वत पु त वनम मृगयाके लये मण क ँ गा?॥ १५ ॥ ‘म सरयूके वनम शकार खेलनेक ब त अ धक अ भलाषा नह रखता। यह लोकम एक कारक अनुपम ड़ा है, जो राज षय के समुदायको अ भमत है॥ १६ ॥ ‘इस लोकम वनम जाकर शकार खेलना राज षय क ड़ाके लये च लत आ था। अत: मनुपु ारा उस समय क गयी यह ड़ा अ धनुधर को भी अभी ◌इ’॥ १७ ॥ इ ाकु न न ीरामच जी व भ वषय को लेकर सूतसे मधुर वाणीम उपयु बात कहते ए उस मागपर बढ़ते चले गये॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म उनचासवाँ सग पूरा आ॥ ४९॥



पचासवाँ सग ीरामका मागम अयो ापुरीसे वनवासक आ ा माँगना और ृ वेरपुरम ग ातटपर प ँ चकर रा म नवास करना, वहाँ नषादराज गुह ारा उनका स ार



इस कार वशाल और रमणीय कोसलदेशक सीमाको पार करके ल णके बड़े भा◌इ बु मान् ीरामच जीने अयो ाक ओर अपना मुख कया और हाथ जोड़कर कहा—॥ १ ॥ ‘ककु वंशी राजा से प रपा लत पुरी शरोम ण अयो े! म तुमसे तथा जो-जो देवता तु ारी र ा करते और तु ारे भीतर नवास करते ह, उनसे भी वनम जानेक आ ा चाहता ँ ॥ २ ॥ ‘वनवासक



अव ध पूरी करके महाराजके ऋणसे उऋण हो म पुन: लौटकर तु ारा दशन क ँ गा और अपने माता- पतासे भी मलूँगा’॥ ३ ॥ इसके बाद सु र एवं अ ण ने वाले ीरामने दा हनी भुजा उठाकर ने से आँ सू बहाते ए दु:खी होकर जनपदके लोग से कहा—॥ ४ ॥ ‘आपने मुझपर बड़ी कृ पा क और यथो चत दया दखायी। मेरे लये आपलोग ने ब त देरतक क सहन कया। इस तरह आपका देरतक दु:खम पड़े रहना अ ा नह है; इस लये अब आपलोग अपना-अपना काय करनेके लये जाइये’॥ ५ ॥ यह सुनकर उन मनु ने महा ा ीरामको णाम करके उनक प र मा क और घोर वलाप करते ए वे जहाँ-तहाँ खड़े हो गये॥ ६ ॥ उनक आँ ख अभी ीरामके दशनसे तृ नह ◌इ थ और वे पूव पसे वलाप कर ही रहे थे, इतनेम ीरघुनाथजी उनक से ओझल हो गये, जैसे सूय दोषकालम छप जाते ह॥ ७ ॥ इसके बाद पु ष सह ीराम रथके ारा ही उस कोसल जनपदको लाँघ गये, जो धनधा से स और सुखदायक था। वहाँके सब लोग दानशील थे। उस जनपदम कह से को◌इ भय नह था। वहाँके भूभाग रमणीय एवं चै -वृ तथा य -स ी यूप से ा थे। ब त-से उ ान और आम के वन उस जनपदक शोभा बढ़ाते थे। वहाँ जलसे भरे ए ब तसे जलाशय सुशो भत थे। सारा जनपद -पु मनु से भरा था; गौ के समूह से ा और



से वत था। वहाँके ाम क ब त-से नरेश र ा करते थे तथा वहाँ वेदम क न गूँजती रहती थी॥ ८—१० ॥ कोसलदेशसे आगे बढ़नेपर धैयवान म े ीरामच जी म मागसे ऐसे रा म होकर नकले, जो सुख-सु वधासे यु , धन-धा से स , रमणीय उ ान से ा तथा साम नरेश के उपभोगम आनेवाला था॥ ११ ॥ उस रा म ीरघुनाथजीने पथगा मनी द नदी ग ाका दशन कया, जो शीतल जलसे भरी ◌इ, सेवार से र हत तथा रमणीय थ । ब त-से मह ष उनका सेवन करते थे॥ १२ ॥



उनके तटपर थोड़ी-थोड़ी दूरपर ब त-से सु र आ म बने थे, जो उन देवनदीक शोभा बढ़ाते थे। समय-समयपर हषभरी अ राएँ भी उतरकर उनके जलकु का सेवन करती ह। वे ग ा सबका क ाण करनेवाली ह॥ १३ ॥ देवता, दानव, ग व और क र उन शव पा भागीरथीक शोभा बढ़ाते ह। नाग और ग व क प याँ उनके जलका सदा सेवन करती ह॥ १४ ॥ ग ाके दोन तट पर देवता के सैकड़ पवतीय ड़ा ल ह। उनके कनारे देवता के ब त-से उ ान भी ह। वे देवता क ड़ाके लये आकाशम भी व मान ह और वहाँ देवप नीके पम व ात ह॥ १५ ॥ रख से ग ाके जलके टकरानेसे जो श होता है, वही मानो उनका उ अ हास है। जलसे जो फे न कट होता है, वही उन द नदीका नमल हास है। कह तो उनका जल वेणीके आकारका है और कह वे भँवर से सुशो भत होती ह॥ १६ ॥ कह उनका जल न ल एवं गहरा है। कह वे महान् वेगसे ा ह। कह उनके जलसे मृद आ दके समान ग ीर घोष कट होता है और कह व पात आ दके समान भयंकर नाद सुनायी पड़ता है॥ १७ ॥ उनके जलम देवता के समुदाय गोते लगाते ह। कह -कह उनका जल नील कमल अथवा कु मुद से आ ा दत होता है। कह वशाल पु लनका दशन होता है तो कह नमल बालुका-रा शका॥ १८ ॥ हंस और सारस के कलरव वहाँ गूँजते रहते ह। चकवे उन देवनदीक शोभा बढ़ाते ह। सदा मदम रहनेवाले वहंगम उनके जलपर मँडराते रहते ह। वे उ म शोभासे स ह॥ १९ ॥



कह तटवत वृ मालाकार होकर उनक शोभा बढ़ाते ह। कह तो उनका जल खले ए उ ल से आ ा दत है और कह कमलवन से ा ॥ २० ॥ कह कु मुदसमूह तथा कह क लकाएँ उ सुशो भत करती ह। कह नाना कारके पु के पराग से ा होकर वे मदम नारीके समान तीत होती ह॥ वे मलसमूह (पापरा श) दूर कर देती ह। उनका जल इतना है क म णके समान नमल दखायी देता है। उनके तटवत वनका भीतरी भाग मदम द ज , जंगली हा थय तथा देवराजक सवारीम आनेवाले े गजराज से कोलाहलपूण बना रहता है॥ वे फल , फू ल , प व , गु तथा प य से आवृत होकर उ म आभूषण से य पूवक वभू षत ◌इ युवतीके समान शोभा पाती ह। उनका ाक भगवान् व ुके चरण से आ है। उनम पापका लेश भी नह है। वे द नदी ग ा जीव के सम पाप का नाश कर देनेवाली ह॥ २३-२४ ॥ उनके जलम सूँस, घ ड़याल और सप नवास करते ह। सगरवंशी राजा भगीरथके तपोमय तेजसे जनका शंकरजीके जटाजूटसे अवतरण आ था, जो समु क रानी ह तथा जनके नकट सारस और ौ प ी कलरव करते रहते ह, उ देवनदी ग ाके पास महाबा ीरामजी प ँ चे। ग ाक वह धारा ृ वेरपुरम बह रही थी॥ २५-२६ ॥ जनके आवत (भँवर) लहर से ा थे, उन ग ाजीका दशन करके महारथी ीरामने सार थ सुम से कहा— ‘सूत! आज हमलोग यह रहगे’॥ २७ ॥ ‘सारथे! ग ाजीके समीप ही जो यह ब त-से फू ल और नये-नये प व से सुशो भत महान् इ ु दीका वृ है, इसीके नीचे आज रातम हम नवास करगे॥ २८ ॥ ‘ जनका जल देवता , मनु , ग व , सप , पशु तथा प य के लये भी समादरणीय है, उन क ाण पा, स रता म े ग ाजीका भी मुझे यहाँसे दशन होता रहेगा’॥ २९ ॥ तब ल ण और सुम भी ीरामच जीसे ब त अ ा कहकर अ ारा उस इं गुदीवृ के समीप गये॥ उस रमणीय वृ के पास प ँ चकर इ ाकु न न ीराम अपनी प ी सीता और भा◌इ ल णके साथ रथसे उतर गये॥ ३१ ॥



फर सुम ने भी उतरकर उ म घोड़ को खोल दया और वृ क जड़पर बैठे ए ीरामच जीके पास जाकर वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ ३२ ॥ ृ वेरपुरम गुहनामका राजा रा करता था। वह ीरामच जीका ाण के समान य म था। उसका ज नषादकु लम आ था। वह शारी रक श और सै नक श क से भी बलवान् था तथा वहाँके नषाद का सु व ात राजा था॥ ३३ ॥ उसने जब सुना क पु ष सह ीराम मेरे रा म पधारे ह, तब वह बूढ़े म य और ब -ु बा व से घरा आ वहाँ आया॥ ३४ ॥ नषादराजको दूरसे आया आ देख ीरामच जी ल णके साथ आगे बढ़कर उससे मले॥ ३५ ॥ ीरामच जीको व ल आ द धारण कये देख गुहको बड़ा दु:ख आ। उसने ीरघुनाथजीको दयसे लगाकर कहा—‘ ीराम! आपके लये जैसे अयो ाका रा है, उसी कार यह रा भी है। बताइये, म आपक ा सेवा क ँ ? महाबाहो! आप-जैसा य अ त थ कसको सुलभ होगा?’॥ ३६ १/२ ॥ फर भाँ त-भाँ तका उ म अ लेकर वह सेवाम उप त आ। उसने शी ही अ नवेदन कया और इस कार कहा—‘महाबाहो! आपका ागत है। यह सारी भू म, जो मेरे अ धकारम है, आपक ही है। हम आपके सेवक ह और आप हमारे ामी, आजसे आप ही हमारे इस रा का भलीभाँ त शासन कर। यह भ (अ आ द), भो (खीर आ द), पेय (पानकरस आ द) तथा ले (चटनी आ द) आपक सेवाम उप त है, इसे ीकार कर। ये उ मो म श ाएँ ह तथा आपके घोड़ के खानेके लये चने और घास आ द भी ुत ह—ये सब साम ी हण कर’॥ ३७—३९ ॥ गुहके ऐसा कहनेपर ीरामच जीने उसे इस कार उ र दया—‘सखे! तु ारे यहाँतक पैदल आने और ेह दखानेसे ही हमारा सदाके लये भलीभाँ त पूजन— ागत-स ार हो गया। तुमसे मलकर हम बड़ी स ता ◌इ है’॥ ४० १/२ ॥ फर ीरामने अपनी दोन गोल-गोल भुजा से गुहका अ ी तरह आ ल न करते ए कहा— ‘गुह! सौभा क बात है क म आज तु ब ु-बा व के साथ एवं सान देख रहा ँ । बताओ, तु ारे रा म, म के यहाँ तथा वन म सव कु शल तो है?॥ ४१-४२ ॥



‘तुमने



ेमवश यह जो कु छ साम ी ुत क है, इसे ीकार करके म तु वा पस ले जानेक आ ा देता ँ ; क इस समय दूसर क दी ◌इ को◌इ भी व ु म हण नह करता —अपने उपयोगम नह लाता॥ ‘व ल और मृगचम धारण करके फल-मूलका आहार करता ँ और धमम त रहकर तापसवेशम वनके भीतर ही वचरता ँ । इन दन तुम मुझे इसी नयमम त जानो॥ ४४ ॥ ‘इन साम य म जो घोड़ के खाने-पीनेक व ु है, उसीक इस समय मुझे आव कता है, दूसरी कसी व ुक नह । घोड़ को खला- पला देनेमा से तु ारे ारा मेरा पूण स ार हो जायगा॥ ४५ ॥ ‘ये घोड़े मेरे पता महाराज दशरथको ब त य ह। इनके खाने-पीनेका सु र ब कर देनेसे मेरा भलीभाँ त पूजन हो जायगा’॥ ४६ ॥ तब गुहने अपने सेवक को उसी समय यह आ ा दी क तुम घोड़ के खाने-पीनेके लये आव क व ुएँ शी लाकर दो॥ ४७ ॥ त ात् व लका उ रीय-व धारण करनेवाले ीरामने सायंकालक सं ोपासना करके भोजनके नामपर यं ल णका लाया आ के वल जलमा पी लया॥ ४८ ॥ फर प ीस हत ीराम भू मपर ही तृणक श ा बछाकर सोये। उस समय ल ण उनके दोन चरण को धो-प छकर वहाँसे कु छ दूरपर हट आये और एक वृ का सहारा लेकर बैठ गये॥ ४९ ॥ गुह भी सावधानीके साथ धनुष धारण करके सुम के साथ बैठकर सु म ाकु मार ल णसे बातचीत करता आ ीरामक र ाके लये रातभर जागता रहा॥ ५० ॥ इस कार सोये ए यश ी मन ी दशरथन न महा ा ीरामक , ज ने कभी दु:ख नह देखा था तथा जो सुख भोगनेके ही यो थे, वह रात उस समय (न द न आनेके कारण) ब त देरके बाद तीत ◌इ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पचासवाँ सग पूरा आ॥ ५०॥







ावनवाँ सग



नषादराज गुहके सम







णका वलाप



ल णको अपने भा◌इके लये ाभा वक अनुरागसे जागते देख नषादराज गुहको बड़ा संताप आ। उसने रघुकुलन न ल णसे कहा—॥ १ ॥ ‘तात! राजकु मार! तु ारे लये यह आराम देनेवाली श ा तैयार है, इसपर सुखपूवक सोकर भलीभाँ त व ाम कर लो॥ २ ॥ ‘यह (म) सेवक तथा इसके साथके सब लोग वनवासी होनेके कारण सब कारके ेश सहन करनेके यो ह ( क हम सबको क सहनेका अ ास है), परंतु तुम सुखम ही पले हो, अत: उसीके यो हो (इस लये सो जाओ)। हम सब लोग ीरामच जीक र ाके लये रातभर जागते रहगे॥ ३ ॥ ‘म स क ही शपथ खाकर तुमसे स कहता ँ क इस भूतलपर मुझे ीरामसे बढ़कर य दूसरा को◌इ नह है॥ ४ ॥ ‘इन ीरघुनाथजीके सादसे ही म इस लोकम महान् यश, वपुल धम-लाभ तथा चुर अथ एवं भो व ु पानेक आशा करता ँ ॥ ५ ॥ ‘अत: म अपने ब ु-बा व के साथ हाथम धनुष लेकर सीतास हत सोये ए यसखा ीरामक सब कारसे र ा क ँ गा॥ ६ ॥ ‘इस वनम सदा वचरते रहनेके कारण मुझसे यहाँक को◌इ बात छपी नह है। हमलोग यहाँ श ुक अ श शा लनी वशाल चतुर णी सेनाको भी अनायास ही जीत लगे’॥ ७ ॥



यह सुनकर ल णने कहा—‘ न ाप नषादराज! तुम धमपर ही रखते ए हमारी र ा करते हो, इस लये इस ानपर हम सब लोग के लये को◌इ भय नह है। फर भी जब महाराज दशरथके े पु सीताके साथ भू मपर शयन कर रहे ह, तब मेरे लये उ म श ापर सोकर न द लेना, जीवन-धारणके लये ा द अ खाना अथवा दूसरे-दूसरे सुख को भोगना कै से स व हो सकता है?॥ ८-९ ॥



‘देखो!



स ूण देवता और असुर मलकर भी यु म जनके वेगको नह सह सकते, वे ही ीराम इस समय सीताके साथ तनक के ऊपर सुखसे सो रहे ह॥ १० ॥ ‘गाय ी आ द म के जप, कृ चा ायण आ द तप तथा नाना कारके परा म (य ानु ान आ द य ) करनेसे जो महाराज दशरथको अपने समान उ म ल ण से यु े पु के पम ा ए ह, उ इन ीरामके वनम आ जानेसे अब राजा दशरथ अ धक कालतक जीवन धारण नह कर सकगे। जान पड़ता है, न य ही यह पृ ी अब शी वधवा हो जायगी॥ ११-१२ ॥ ‘तात! र नवासक याँ बड़े जोरसे आतनाद करके अ धक मके कारण अब चुप हो गयी ह गी। म समझता ँ , राजभवनका हाहाकार और ची ार अब शा हो गया होगा॥ १३ ॥ ‘महारानी कौस ा, राजा दशरथ तथा मेरी माता सु म ा—ये सब लोग आजक राततक जी वत रहगे या नह , यह म नह कह सकता॥ १४ ॥ ‘श ु क बाट देखनेके कारण स व है मेरी माता जी वत रह जाय, परंतु य द वीरजननी कौस ा ीरामके वरहम न हो जायँगी तो यह हमलोग के लये बड़े दु:खक बात होगी॥ १५ ॥ ‘ जसम



ीरामके अनुरागी मनु भरे ए ह तथा जो सदा सुखका दशन प य व ुक ा करानेवाली रही है, वह अयो ापुरी राजा दशरथके नधनज नत दु:खसे यु होकर न हो जायगी॥ १६ ॥ ‘अपने े पु महा ा ीरामको न देखनेपर महामना राजा दशरथके ाण उनके शरीरम कै से टके रह सकगे॥ १७ ॥ ‘महाराजके न होनेपर देवी कौस ा भी न हो जायँगी। तदन र मेरी माता सु म ा भी न ए बना नह रहगी॥ १८ ॥ ‘(महाराजक इ ा थी क ीरामको रा पर अ भ ष क ँ ) अपने उस मनोरथको न पाकर ीरामको रा पर ा पत कये बना ही ‘हाय! मेरा सब कु छ न हो गया, न हो गया’ ऐसा कहते ए मेरे पताजी अपने ाण का प र ाग कर दगे॥ १९ ॥ ‘उनक उस मृ ुका समय उप त होनेपर जो लोग रहगे और मेरे मरे ए पता रघुकुल शरोम ण दशरथका सभी ेतकाय म सं ार करगे, वे ही सफलमनोरथ और भा शाली ह॥ २० ॥



‘(य द पृथक् -पृथक्



पताजी जी वत रहे तो) रमणीय चबूतर और चौराह के सु र ान से यु , बने ए वशाल राजमाग से अलंकृत, ध नक क अ ा लका और देवम र एवं राजभवन से स , े वारा ना से सुशो भत, रथ , घोड़ और हा थय के आवागमनसे भरी ◌इ, व वध वा क नय से नना दत, सम क ाणकारी व ु से भरपूर, पु मनु से से वत, पु वा टका और उ ान से वभू षत तथा सामा जक उ व से सुशो भत ◌इ मेरे पताक राजधानी अयो ापुरीम जो लोग वचरगे, वा वम वे ही सुखी ह॥ २१—२३ ॥ ‘ ा मेरे पता महाराज दशरथ हमलोग के लौटनेतक जी वत रहगे? ा वनवाससे लौटकर उन उ म तधारी महा ाका हम फर दशन कर सकगे?॥ २४ ॥ ‘ ा वनवासक इस अव धके समा होनेपर हमलोग स त ीरामके साथ कु शलपूवक अयो ापुरीम वेश कर सकगे?’॥ २५ ॥ इस कार दु:खसे आत होकर वलाप करते ए महामना राजकु मार ल णको वह सारी रात जागते ही बीती॥ २६ ॥ जाके हतम संल रहनेवाले राजकु मार ल ण जब बड़े भा◌इके त सौहादवश उपयु पसे यथाथ बात कह रहे थे, उस समय उसे सुनकर नषादराज गुह दु:खसे पी ड़त हो उठा और थासे ाकु ल हो रसे आतुर ए हाथीक भाँ त आँ सू बहाने लगा॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म इ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५१॥



बावनवाँ सग ीरामक आ ासे गुहका नाव मँगाना, ीरामका सुम को समझा-बुझाकर अयो ापुरी लौट जानेके लये आ ा देना और माता- पता आ दसे कहनेके लये संदेश सुनाना, सुम के वनम ही चलनेके लये आ ह करनेपर ीरामका उ यु पूवक समझाकर लौटनेके लये ववश करना, फर तीन का नावपर बैठना, सीताक ग ाजीसे ाथना, नावसे पार उतरकर ीराम आ दका व देशम प ँ चना और सायंकालम एक वृ के नीचे रहनेके लये जाना



जब रात बीती और भात आ, उस समय वशाल व वाले महायश ी ीरामने शुभल णस सु म ाकु मार ल णसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘तात! भगवती रा तीत हो गयी। अब सूय दयका समय आ प ँ चा है। वह अ काले रंगका प ी को कल कु -कु बोल रहा है॥ २ ॥ ‘वनम अ श करनेवाले मयूर क के का वाणी भी सुनायी देती है; अत: सौ ! अब हम ती ग तसे बहनेवाली समु गा मनी ग ाजीके पार उतरना चा हये’॥ म को आन त करनेवाले सु म ाकु मार ल णने ीरामच जीके कथनका अ भ ाय समझकर गुह और सुम को बुलाकर पार उतरनेक व ा करनेके लये कहा और यं वे भा◌इके सामने आकर खड़े हो गये॥ ीरामच जीका वचन सुनकर उनका आदेश शरोधाय करके नषादराजने तुरंत अपने स चव को बुलाया और इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘तुम घाटपर शी ही एक ऐसी नाव ले आओ, जो मजबूत होनेके साथ ही सुगमतापूवक खेनेयो हो, उसम डाँड़ लगा आ हो, कणधार बैठा हो तथा वह नाव देखनेम सु र हो’॥ ६ ॥ नषादराज गुहका वह आदेश सुनकर उसका महान् म ी गया और एक सु र नाव घाटपर प ँ चाकर उसने गुहको इसक सूचना दी॥ ७ ॥ तब गुहने हाथ जोड़कर ीरामच जीसे कहा— ‘देव! यह नौका उप त है; बताइये, इस समय आपक और ा सेवा क ँ ?॥ ८ ॥ ‘देवकु मारके समान तेज ी तथा उ म तका पालन करनेवाले पु ष सह ीराम! समु गा मनी ग ानदीको पार करनेके लये आपक सेवाम यह नाव आ गयी है, अब आप शी



इसपर आ ढ़ होइये’॥ ९ ॥ तब महातेज ी ीराम गुहसे इस कार बोले— ‘सखे! तुमने मेरा सारा मनोरथ पूण कर दया, अब शी ही सब सामान नावपर चढ़ाओ’॥ १० ॥ यह कहकर ीराम और ल णने कवच धारण करके तरकस एवं तलवार बाँधी तथा धनुष लेकर वे दोन भा◌इ जस मागसे सब लोग घाटपर जाया करते थे, उसीसे सीताके साथ ग ाजीके तटपर गये॥ ११ ॥ उस समय धमके ाता भगवान् ीरामके पास जाकर सार थ सुम ने वनीतभावसे हाथ जोड़कर पूछा—‘ भो! अब म आपक ा सेवा क ँ ?’॥ १२ ॥ तब दशरथन न ीरामने सुम को उ म दा हने हाथसे श करते ए कहा —‘सुम जी! अब आप शी ही पुन: महाराजके पास लौट जाइये और वहाँ सावधान होकर र हये’॥ १३ ॥ उ ने फर कहा—‘इतनी दूरतक महाराजक आ ासे मने रथ ारा या ा क है, अब हमलोग रथ छोड़कर पैदल ही महान् वनक या ा करगे; अत: आप लौट जाइये’॥ १४ ॥ अपनेको घर लौटनेक आ ा ा ◌इ देख सार थ सुम शोकसे ाकु ल हो उठे और इ ाकु न न पु ष सह ीरामसे इस कार बोले—॥ १५ ॥ ‘रघुन न! जसक ेरणासे आपको भा◌इ और प ीके साथ साधारण मनु क भाँ त वनम रहनेको ववश होना पड़ा है, उस दैवका इस संसारम कसी भी पु षने उ न नह कया॥ १६ ॥ ‘जब आप-जैसे महान् पु षपर यह संकट आ गया, तब म समझता ँ क चय-पालन, वेद के ा ाय, दयालुता अथवा सरलताम भी कसी फलक स नह है॥ १७ ॥ ‘वीर रघुन न! (इस कार पताके स क र ाके लये) वदेहन नी सीता और भा◌इ ल णके साथ वनम नवास करते ए आप तीन लोक पर वजय ा करनेवाले महापु ष नारायणक भाँ त उ ष (महान् यश) ा करगे॥ १८ ॥ ‘ ीराम! न य ही हमलोग हर तरहसे मारे गये; क आपने हम पुरवा सय को अपने साथ न ले जाकर अपने दशनज नत सुखसे व त कर दया। अब हम पा पनी कै के यीके वशम पड़गे और दु:ख भोगते रहगे’॥ १९ ॥



आ ाके समान य ीरामच जीसे ऐसी बात कहकर उ दूर जानेको उ त देख सार थ सुम दु:खसे ाकु ल होकर देरतक रोते रहे॥ २० ॥ आँ सु का वाह कनेपर आचमन करके प व ए सार थसे ीरामच जीने बारंबार मधुर वाणीम कहा—॥ २१ ॥ ‘सुम जी! मेरी म इ ाकु वं शय का हत करनेवाला सु द् आपके समान दूसरा को◌इ नह है। आप ऐसा य कर, जससे महाराज दशरथको मेरे लये शोक न हो॥ २२ ॥ ‘पृ थवीप त महाराज दशरथ एक तो बूढ़े ह, दूसरे उनका सारा मनोरथ चूर-चूर हो गया है; इस लये उनका दय शोकसे पी ड़त है। यही कारण है क म आपको उनक सँभालके लये कहता ँ ॥ २३ ॥ ‘वे महामन ी महाराज कै के यीका य करनेक इ ासे आपको जो कु छ जैसी भी आ ा द, उसका आप आदरपूवक पालन कर—यही मेरा अनुरोध है॥ २४ ॥ ‘राजालोग इसी लये रा का पालन करते ह क कसी भी कायम इनके मनक इ ापू तम व न डाला जाय॥ २५ ॥ ‘सुम जी! जस कसी भी कायम जस कसी तरह भी महाराजको अ य बातसे ख होनेका अवसर न आवे तथा वे शोकसे दुबले न ह , वह आपको उसी कार करना चा हये॥ २६ ॥ ‘ज



ने कभी दु:ख नह देखा है, उन आय, जते य और वृ महाराजको मेरी ओरसे णाम करके यह बात क हयेगा॥ २७ ॥ ‘हमलोग अयो ासे नकल गये अथवा हम वनम रहना पड़ेगा, इस बातको लेकर न तो म कभी शोक करता ँ और न ल णको ही इसका शोक है॥ २८ ॥ ‘चौदह वष समा होनेपर हम पुन: शी ही लौट आयँगे और उस समय आप मुझ,े ल णको और सीताको भी फर देखगे॥ २९ ॥ ‘सुम जी! महाराजसे ऐसा कहकर आप मेरी मातासे, उनके साथ बैठी ◌इ अ दे वय (माता ) से तथा कै के यीसे भी बारंबार मेरा कु शल-समाचार क हयेगा॥ ३० ॥ ‘माता कौस ासे क हयेगा क तु ारा पु एवं स है। इसके बाद सीताक ओरसे, मुझ े पु क ओरसे तथा ल णक ओरसे भी माताक चरणव ना कह



दी जयेगा॥ ३१ ॥ ‘तदन र मेरी ओरसे महाराजसे भी यह नवेदन क जयेगा क आप भरतको शी ही बुलवा ल और जब वे आ जायँ, तब अपने अभी युवराजपदपर उनका अ भषेक कर द॥ ३२ ॥ ‘भरतको छातीसे लगाकर और युवराजके पदपर अ भ ष करके आपको हमलोग के वयोगसे होनेवाला दु:ख दबा नह सके गा॥ ३३ ॥ ‘भरतसे भी हमारा यह संदेश कह दी जयेगा क महाराजके त जैसा तु ारा बताव है, वैसा ही समान पसे सभी माता के त होना चा हये॥ ३४ ॥ ‘तु ारी म कै के यीका जो ान है, वही समान पसे सु म ा और मेरी माता कौस ाका भी होना उ चत है, इन सबम को◌इ अ र न रखना॥ ३५ ॥ ‘ पताजीका य करनेक इ ासे युवराजपदको ीकार करके य द तुम राजकाजक देखभाल करते रहोगे तो इहलोक और परलोकम सदा ही सुख पाओगे’॥ ीरामच जीने सुम को लौटाते ए जब इस कार समझाया, तब उनक सारी बात सुनकर वे ीरामसे ेहपूवक बोले—॥ ३७ ॥ ‘तात! सेवकका ामीके त जो स ारपूण बताव होना चा हये, उसका य द म आपसे बात करते समय पालन न कर सकूँ , य द मेरे मुखसे ेहवश को◌इ धृ तापूण बात नकल जाय तो ‘यह मेरा भ है’ ऐसा समझकर आप मुझे मा क जयेगा। जो आपके वयोगसे पु शोकसे आतुर ◌इ माताक भाँ त संत हो रही है, उस अयो ापुरीम म आपको साथ लये बना कै से लौटकर जा सकूँ गा? ॥ ३८-३९ ॥ ‘आते समय लोग ने मेरे रथम ीरामको वराजमान देखा था, अब इस रथको ीरामसे र हत देखकर उन लोग का और उस अयो ापुरीका भी दय वदीण हो जायगा॥ ४० ॥ ‘जैसे यु म अपने ामी वीर रथीके मारे जानेपर जसम के वल सार थ शेष रह गया हो ऐसे रथको देखकर उसक अपनी सेना अ दयनीय अव ाम पड़ जाती है, उसी कार मेरे इस रथको आपसे सूना देखकर सारी अयो ा नगरी दीन दशाको ा हो जायगी॥ ४१ ॥ ‘आप दूर रहकर भी जाके दयम नवास करनेके कारण सदा उसके सामने ही खड़े रहते ह। न य ही इस समय जावगके सब लोग ने आपका ही च न करते ए खाना-पीना छोड़ दया होगा॥ ४२ ॥



ीराम! जस समय आप वनको आने लगे, उस समय आपके शोकसे ाकु ल च ◌इ जाने जैसा आतनाद एवं ोभ कट कया था, उसे तो आपने देखा ही था॥ ४३ ॥ ‘आपके अयो ासे नकलते समय पुरवा सय ने जैसा आतनाद कया था, आपके बना मुझे खाली रथ लये लौटा देख वे उससे भी सौगुना हाहाकार करगे॥ ‘ ा म महारानी कौस ासे जाकर क ँ गा क मने आपके बेटेको मामाके घर प ँ चा दया है? इस लये आप संताप न कर, यह बात य होनेपर भी अस है, अत: ऐसा अस वचन भी म कभी नह कह सकता। फर यह अ य स भी कै से सुना सकूँ गा क म आपके पु को वनम प ँ चा आया॥ ४५-४६ ॥ ‘ये उ म घोड़े मेरी आ ाके अधीन रहकर आपके ब ुजन का भार वहन करते ह (आपके ब ुजन से हीन रथका ये वहन नह करते ह), ऐसी दशाम आपसे सूने रथको ये कै से ख च सकगे?॥ ४७ ॥ ‘अत: न ाप रघुन न! अब म आपके बना अयो ा लौटकर नह जा सकूँ गा। मुझे भी वनम चलनेक ही आ ा दी जये॥ ४८ ॥ ‘य द इस तरह याचना करनेपर भी आप मुझे ाग ही दगे तो म आपके ारा प र होकर यहाँ रथस हत अ म वेश कर जाऊँ गा॥ ४९ ॥ ‘रघुन न! वनम आपक तप ाम व डालनेवाले जो-जो ज ु उप त ह गे, म इस रथके ारा उन सबको दूर भगा दूँगा॥ ५० ॥ ‘ ीराम! आपक कृ पासे मुझे आपको रथपर बठाकर यहाँतक लानेका सुख ा आ। अब आपके ही अनु हसे म आपके साथ वनम रहनेका सुख भी पानेक आशा करता ँ ॥ ५१ ॥ ‘आप स होकर आ ा दी जये। म वनम आपके पास ही रहना चाहता ँ । मेरी इ ा है क आप स तापूवक कह द क तुम वनम मेरे साथ ही रहो॥ ५२ ॥ ‘वीर! ये घोड़े भी य द वनम रहते समय आपक सेवा करगे तो इ परमग तक ा होगी॥ ५३ ॥ ‘ भो! म वनम रहकर अपने सरसे (सारे शरीरसे) आपक सेवा क ँ गा और इस सुखके आगे अयो ा तथा देवलोकका भी सवथा ाग कर दूँगा॥ ‘



‘जैसे



सदाचारहीन ाणी इ क राजधानी गम नह वेश कर सकता, उसी कार आपके बना म अयो ापुरीम नह जा सकता॥ ५५ ॥ ‘मेरी यह अ भलाषा है क जब वनवासक अव ध समा हो जाय, तब फर इसी रथपर बठाकर आपको अयो ापुरीम ले चलूँ॥ ५६ ॥ ‘वनम आपके साथ रहनेसे ये चौदह वष मेरे लये चौदह ण के समान बीत जायँगे। अ था चौदह सौ वष के समान भारी जान पड़गे॥ ५७ ॥ ‘अत: भ व ल! आप मेरे ामीके पु ह। आप जस पथपर चल रहे ह, उसीपर आपक सेवाके लये साथ चलनेको म भी तैयार खड़ा ँ । म आपके त भ रखता ँ , आपका भृ ँ और भृ जनो चत मयादाके भीतर त ँ ; अत: आप मेरा प र ाग न कर’॥ ५८ ॥ इस तरह अनेक कारसे दीन वचन कहकर बारंबार याचना करनेवाले सुम से सेवक पर कृ पा करनेवाले ीरामने इस कार कहा—॥ ५९ ॥ ‘सुम जी! आप ामीके त ेह रखनेवाले ह। मुझम आपक जो उ ृ भ है, उसे म जानता ँ ; फर भी जस कायके लये म आपको यहाँसे अयो ापुरीम भेज रहा ँ , उसे सु नये॥ ६० ॥ ‘जब आप नगरको लौट जायँग,े तब आपको देखकर मेरी छोटी माता कै के यीको यह व ास हो जायगा क राम वनको चले गये॥ ६१ ॥ ‘इसके वपरीत य द आप नह गये तो उसे संतोष नह होगा। मेरे वनवासी हो जानेपर भी वह धमपरायण महाराज दशरथके त म ावादी होनेका संदेह करे, ऐसा म नह चाहता॥ ६२ ॥ ‘आपको



भेजनेम मेरा मु उ े यही है क मेरी छोटी माता कै के यी भरत ारा सुर त समृ शाली रा को ह गत कर ले॥ ६३ ॥ ‘सुम जी! मेरा तथा महाराजका य करनेके लये आप अयो ापुरीको अव पधा रये और आपको जनके लये जो संदेश दया गया है, वह सब वहाँ जाकर उन लोग से कह दी जये’॥ ६४ ॥



ऐसा कहकर ीरामने सुम को बारंबार सा ना दी। इसके बाद उ ने गुहसे उ ाहपूवक यह यु यु बात कही—॥ ६५ ॥ ‘ नषादराज गुह! इस समय मेरे लये ऐसे वनम रहना उ चत नह है, जहाँ जनपदके लोग का आना-जाना अ धक होता हो, अब अव मुझे नजन वनके आ मम ही वास करना होगा। इसके लये जटा धारण आ द आव क व धका मुझे पालन करना चा हये॥ ‘अत: फल-मूलका आहार और पृ ीपर शयन आ द नयम को हण करके म सीता और ल णक अनुम त लेकर पताका हत करनेक इ ासे सरपर तप ी जन के आभूषण प जटा धारण करके यहाँसे वनको जाऊँ गा। मेरे के श को जटाका प देनेके लये तुम बड़का दूध ला दो।’ गुहने तुरंत ही बड़का दूध लाकर ीरामको दया॥ ६७-६८ ॥ ीरामने उसके ारा ल णक तथा अपनी जटाएँ बनाय । महाबा पु ष सह ीराम त ाल जटाधारी हो गये॥ ६९ ॥ उस समय वे दोन भा◌इ ीराम-ल ण व ल व और जटाम ल धारण करके ऋ षय के समान शोभा पाने लगे॥ ७० ॥ तदन र वान मागका आ य लेकर ल णस हत ीरामने वान ो चत तको हण कया। त ात् वे अपने सहायक गुहसे बोले—॥ ७१ ॥ ‘ नषादराज! तुम सेना, खजाना, कला और रा के वषयम सदा सावधान रहना; क रा क र ाका काम बड़ा क ठन माना गया है’॥ ७२ ॥ गुहको इस कार आ ा देकर उससे वदा ले इ ाकु कु लन न ीरामच जी प ी और ल णके साथ तुरंत ही वहाँसे चल दये। उस समय उनके च म त नक भी ता नह थी॥ ७३ ॥ नदीके तटपर लगी ◌इ नावको देखकर इ ाकु न न ीरामने शी गामी ग ानदीके पार जानेक इ ासे ल णको स ो धत करके कहा—॥ ७४ ॥ ‘पु ष सह! यह सामने नाव खड़ी है। तुम मन नी सीताको पकड़कर धीरेसे उसपर बठा दो, फर यं भी नावपर बैठ जाओ’॥ ७५ ॥ भा◌इका यह आदेश सुनकर मनको वशम रखनेवाले ल णने पूणत: उसके अनुकूल चलते ए पहले म थलेशकु मारी ीसीताको नावपर बठाया, फर यं भी उसपर आ ढ़



ए॥ ७६ ॥ सबके अ म ल णके बड़े भा◌इ तेज ी ीराम यं नौकापर बैठे। तदन र नषादराज गुहने अपने भा◌इ-ब ु को नौका खेनेका आदेश दया॥ ७७ ॥ महातेज ी ीरामच जी भी उस नावपर आ ढ़ होनेके प ात् अपने हतके उ े से ा ण और यके जपनेयो ‘दैवी नाव’ इ ा द वै दक म का जप करने लगे॥ ७८ ॥ फर शा व धके अनुसार आचमन करके सीताके साथ उ ने स च होकर ग ाजीको णाम कया। महारथी ल णने भी उ म क कु ाया॥ ७९ ॥ इसके बाद ीरामने सुम को तथा सेनास हत गुहको भी जानेक आ ा दे नावपर भलीभाँ त बैठकर म ाह को उसे चलानेका आदेश दया॥ ८० ॥ तदन र म ाह ने नाव चलायी। कणधार सावधान होकर उसका संचालन करता था। वेगसे सु र डाँड़ चलानेके कारण वह नाव बड़ी तेजीसे पानीपर बढ़ने लगी॥ ८१ ॥ भागीरथीक बीच धाराम प ँ चकर सती सा ी वदेहन नी सीताने हाथ जोड़कर ग ाजीसे यह ाथना क —॥ ८२ ॥ ‘दे व ग े ! ये परम बु मान् महाराज दशरथके पु ह और पताक आ ाका पालन करनेके लये वनम जा रहे ह। ये आपसे सुर त होकर पताक इस आ ाका पालन कर सक —ऐसी कृ पा क जये॥ ८३ ॥ ‘वनम पूरे चौदह वष तक नवास करके ये मेरे तथा अपने भा◌इके साथ पुन: अयो ापुरीको लौटगे॥ ८४ ॥ ‘सौभा शा लनी दे व ग े ! उस समय वनसे पुन: कु शलपूवक लौटनेपर स ूण मनोरथ से स ◌इ म बड़ी स ताके साथ आपक पूजा क ँ गी॥ ८५ ॥ ‘ ग, भूतल और पाताल—तीन माग पर वचरनेवाली दे व! तुम यहाँसे लोकतक फै ली ◌इ हो और इस लोकम समु राजक प ीके पम दखायी देती हो॥ ८६ ॥ ‘शोभाशा लनी दे व! पु ष सह ीराम जब पुन: वनसे सकु शल लौटकर अपना रा ा कर लगे, तब म सीता पुन: आपको म क कु ाऊँ गी और आपक ु त क ँ गी॥ ८७ ॥ ‘इतना ही नह , म आपका य करनेक इ ासे ा ण को एक लाख गौएँ , ब त-से व तथा उ मो म अ दान क ँ गी॥ ८८ ॥



‘दे व!



पुन: अयो ापुरीम लौटनेपर म सह देवदुलभ पदाथ से तथा राजक य भागसे र हत पृ ी, व और अ के ारा भी आपक पूजा क ँ गी। आप मुझपर स ह *॥ ८९ ॥ ‘आपके कनारे जो-जो देवता, तीथ और म र ह, उन सबका म पूजन क ँ गी॥ ९० ॥ ‘ न ाप ग े ! ये महाबा पापर हत मेरे प तदेव मेरे तथा अपने भा◌इके साथ वनवाससे लौटकर पुन: अयो ा नगरीम वेश कर’॥ ९१ ॥ प तके अनुकूल रहनेवाली सती-सा ी सीता इस कार ग ाजीसे ाथना करती ◌इ शी ही द णतटपर जा प ँ च ॥ ९२ ॥ कनारे प ँ चकर श ु को संताप देनेवाले नर े ीरामने नाव छोड़ दी और भा◌इ ल ण तथा वदेहन नी सीताके साथ आगेको ान कया॥ ९३ ॥ तदन र महाबा ीराम सु म ान न ल णसे बोले—‘सु म ाकु मार! अब तुम सजन या नजन वनम सीताक र ाके लये सावधान हो जाओ। हम-जैसे लोग को नजन वनम नारीक र ा अव करनी चा हये। अत: तुम आगे-आगे चलो, सीता तु ारे पीछे-पीछे चल और म सीताक तथा तु ारी र ा करता आ सबसे पीछे चलूँगा। पु ष वर! हमलोग को एक-दूसरेक र ा करनी चा हये॥ ९४—९६ ॥ ‘अबतक को◌इ भी दु र काय समा नह आ है—इस समयसे ही क ठनाइय का सामना आर आ है। आज वदेहकु मारी सीताको वनवासके वा वक क का अनुभव होगा॥ ९७ ॥ ‘अब ये ऐसे वनम वेश करगी, जहाँ मनु के आने-जानेका को◌इ च नह दखायी देगा, न धान आ दके खेत ह गे, न टहलनेके लये बगीचे। जहाँ ऊँ ची-नीची भू म होगी और ग े मलगे, जसम गरनेका भय रहेगा’॥ ९८ ॥ ीरामच जीका यह वचन सुनकर ल ण आगे बढ़े। उनके पीछे सीता चलने लग तथा सीताके पीछे रघुकुलन न ीराम थे॥ ९९ ॥ ीरामच जी शी ग ाजीके उस पार प ँ चकर जबतक दखायी दये तबतक सुम नर र उ क ओर लगाये देखते रहे। जब वनके मागम ब त दूर नकल जानेके कारण वे से ओझल हो गये, तब तप ी सुम के दयम बड़ी था ◌इ। वे ने से आँ सू बहाने लगे॥ १०० ॥



लोकपाल के समान भावशाली वरदायक महा ा ीराम महानदी ग ाको पार करके मश: समृ शाली व देश ( याग)-म जा प ँ चे, जो सु र धन-धा से स था। वहाँके लोग बड़े -पु थे॥ १०१ ॥ वहाँ उन दोन भाइय ने मृगया- वनोदके लये वराह, ऋ , पृषत् और महा —इन चार महामृग पर बाण का हार कया। त ात् जब उ भूख लगी, तब प व क -मूल आ द लेकर सायंकालके समय ठहरनेके लये (वे सीताजीके साथ) एक वृ के नीचे चले गये॥ १०२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बावनवाँ सग पूरा आ॥ ५२॥



इस ोकम आये ए ‘सुराघटसह ेण’ क ु इस कार है—‘सुरेषु देवेषु न घट े न स ी थ:, तेषां सह ं तेन सह सं ाकसुरदुलभपदाथने थ:।’ ‘मांसभूतौदनेन’ क ु इस कार समझनी चा हये—‘मांसभूतौदनेन मा ना अंसो राजभागो य ां सा एव भू: पृ ी च उतं व ं च ओदनं च एतेषां समाहार:, तेन च ां य े।’ *



तरपनवाँ सग ीरामका राजाको उपाल देते ए कैकेयीसे कौस ा आ दके अ न क आश ा बताकर ल णको अयो ा लौटानेके लये य करना, ल णका ीरामके बना अपना जीवन अस व बताकर वहाँ जानेसे इनकार करना, फर ीरामका उ वनवासक अनुम त देना



उस वृ के नीचे प ँ चकर आन दान करनेवाल म े ीरामने सायंकालक सं ोपासना करके ल णसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘सु म ान न! आज हम अपने जनपदसे बाहर यह पहली रात ा ◌इ है; जसम सुम हमारे साथ नह ह। इस रातको पाकर तु नगरक सुख-सु वधा के लये उ त नह होना चा हये॥ २ ॥ ‘ल ण! आजसे हम दोन भाइय को आल छोड़कर रातम जागना होगा; क सीताके योग ेम हम दोन के ही अधीन ह॥ ३ ॥ ‘सु म ान न! यह रात हमलोग कसी तरह बतायँगे और यं सं ह करके लाये ए तनक और प क श ा बनाकर उसे भू मपर बछाकर उसपर कसी तरह सो लगे’॥ ४ ॥ जो ब मू श ापर सोनेके यो थे, वे ीराम भू मपर ही बैठकर सु म ाकु मार ल णसे ये शुभ बात कहने लगे—*॥ ५ ॥ ‘ल ण! आज महाराज न य ही बड़े दु:खसे सो रहे ह गे; परंतु कै के यी सफलमनोरथ होनेके कारण ब त संतु होगी॥ ६ ॥ ‘कह ऐसा न हो क रानी कै के यी भरतको आया देख रा के लये महाराजको ाण से भी वयु कर दे॥ ७ ॥ ‘महाराजका को◌इ र क न होनेके कारण वे इस समय अनाथ ह, बूढ़े ह और उ मेरे वयोगका सामना करना पड़ा है। उनक कामना मनम ही रह गयी तथा वे कै के यीके वशम पड़ गये ह; ऐसी दशाम वे बेचारे अपनी र ाके लये ा करगे?॥ ८ ॥ ‘अपने ऊपर आये ए इस संकटको और राजाक म त ा को देखकर मुझे ऐसा मालूम होता है क अथ और धमक अपे ा कामका ही गौरव अ धक है॥ ९ ॥



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ण! पताजीने जस तरह मुझे ाग दया है, उस कार अ अ होनेपर भी कौन ऐसा पु ष होगा, जो एक ीके लये अपने आ ाकारी पु का प र ाग कर दे?॥ १० ॥ ‘कै के यीकु मार भरत ही सुखी और सौभा वती ीके प त ह, जो अके ले ही -पु मनु से भरे ए कोसलदेशका स ाट्क भाँ त पालन करगे॥ ११ ॥ ‘ पताजी अ वृ हो गये ह और म वनम चला आया ँ , ऐसी दशाम के वल भरत ही सम रा के े सुखका उपभोग करगे॥ १२ ॥ ‘सच है, जो अथ और धमका प र ाग करके के वल कामका अनुसरण करता है, वह उसी कार शी ही आप म पड़ जाता है, जैसे इस समय महाराज दशरथ पड़े ह॥ १३ ॥ ‘सौ ! म समझता ँ क महाराज दशरथके ाण का अ करने, मुझे देश नकाला देने और भरतको रा दलानेके लये ही कै के यी इस राजभवनम आयी थी॥ १४ ॥ ‘इस समय भी सौभा के मदसे मो हत ◌इ कै के यी मेरे कारण कौस ा और सु म ाको क प ँ चा सकती है॥ १५ ॥ ‘हमलोग के कारण तु ारी माता सु म ादेवीको बड़े दु:खके साथ वहाँ रहना पड़ेगा; अत: ल ण! तुम यह से कल ात:काल अयो ाको लौट जाओ॥ १६ ॥ ‘म अके ला ही सीताके साथ द कवनको जाऊँ गा। तुम वहाँ मेरी असहाय माता कौस ाके सहायक हो जाओगे॥ १७ ॥ ‘धम ल ण! कै के यीके कम बड़े खोटे ह। वह ेषवश अ ाय भी कर सकती है। तु ारी और मेरी माताको जहर भी दे सकती है॥ १८ ॥ ‘तात सु म ाकु मार! न य ही पूवज म मेरी माताने कु छ य का उनके पु से वयोग कराया होगा, उसी पापका यह पु - बछोह प फल आज उ ा आ है॥ १९ ॥ ‘मेरी माताने चरकालतक मेरा पालन-पोषण कया और यं दु:ख सहकर मुझे बड़ा कया। अब जब पु से ा होनेवाले सुख पी फलके भोगनेका अवसर आया, तब मने माता कौस ाको अपनेसे बलग कर दया। मुझे ध ार है!॥ २० ॥ ‘सु म ान न! को◌इ भी सौभा वती ी कभी ऐसे पु को ज न दे, जैसा म ँ ; क म अपनी माताको अन शोक दे रहा ँ ॥ २१ ॥



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ण! म तो ऐसा मानता ँ क माता कौस ाम मुझसे अ धक ेम उनक पाली ◌इ वह सा रका ही करती है; क उसके मुखसे माँको सदा यह बात सुनायी देती है क ‘ऐ तोते! तू श ुके पैरको काट खा’ (अथात् हम पालनेवाली माता कौस ाके श ुके पाँवको च च मार दे। वह प णी होकर माताका इतना ान रखती है और म उनका पु होकर भी उनके लये कु छ नह कर पाता)॥ २२ ॥ ‘श ुदमन! जो मेरे लये शोकम रहती है, म भा गनी-सी हो रही है और पु का को◌इ फल न पानेके कारण नपूती-सी हो गयी है, उस मेरी माताको कु छ भी उपकार न करनेवाले मुझ-जैसे पु से ा योजन है?॥ २३ ॥ ‘मुझसे बछु ड़ जानेके कारण माता कौस ा वा वम म भा गनी हो गयी है और शोकके समु म पड़कर अ दु:खसे आतुर हो उसीम शयन करती है॥ ‘ल ण! य द म कु पत हो जाऊँ तो अपने बाण ारा अके ला ही अयो ापुरी तथा सम भूम लको न क बनाकर अपने अ धकारम कर लू;ँ परंतु पारलौ कक हतसाधनम बल-परा म कारण नह होता है (इसी लये म ऐसा नह कर रहा ँ ।)॥ २५ ॥ ‘ न ाप ल ण! म अधम और परलोकके डरसे डरता ँ ; इसी लये आज अयो ाके रा पर अपना अ भषेक नह कराता ँ ’॥ २६ ॥ यह तथा और भी ब त-सी बात कहकर ीरामने उस नजन वनम क णाजनक वलाप कया। त ात् वे उस रातम चुपचाप बैठ गये। उस समय उनके मुखपर आँ सु क धारा बह रही थी और दीनता छा रही थी॥ वलापसे नवृ होनेपर ीराम ालार हत अ और वेगशू समु के समान शा तीत होते थे। उस समय ल णने उ आ ासन देते ए कहा—॥ २८ ॥ ‘अ धा रय म े ीराम! आपके नकल आनेसे न य ही आज अयो ापुरी च हीन रा के समान न ेज हो गयी॥ २९ ॥ ‘पु षो म ीराम! आप जो इस तरह संत हो रहे ह, यह आपके लये कदा प उ चत नह है। आप ऐसा करके सीताको और मुझको भी खेदम डाल रहे ह॥ ३० ॥ ‘रघुन न! आपके बना सीता और म दोन दो घड़ी भी जी वत नह रह सकते। ठीक उसी तरह, जैसे जलसे नकाले ए म नह जीते ह॥ ३१ ॥



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ु को ताप देनेवाले रघुवीर! आपके बना आज म न तो पताजीको, न भा◌इ श ु को, न माता सु म ाको और न गलोकको ही देखना चाहता ँ ’॥ तदन र वहाँ बैठे ए धमव ल सीता और ीरामने थोड़ी ही दूरपर वटवृ के नीचे ल ण ारा सु र ढंगसे न मत ◌इ श ा देखकर उसीका आ य लया (अथात् वे दोन वहाँ जाकर सो गये।)॥ ३३ ॥ श ु को संताप देनेवाले रघुनाथजीने इस कार वनवासके त आदरपूवक कहे ए ल णके अ उ म वचन को सुनकर यं भी दीघकालके लये वनवास प धमको ीकार करके स ूण वष तक ल णको अपने साथ वनम रहनेक अनुम त दे दी॥ तदन र उस महान् नजन वनम रघुवंशक वृ करनेवाले वे दोन महाबली वीर पवत शखरपर वचरनेवाले दो सह के समान कभी भय और उ ेगको नह ा ए॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तरपनवाँ सग पूरा आ॥ ५३॥ ोक ६ से लेकर २६ तक ीरामच जीने जो बात कही ह, वे ल णक परी ाके लये तथा उ अयो ा लौटानेके लये कही गयी ह; वा वम उनक ऐसी मा ता नह थी। यही बात यहाँ सभी ा ाकार ने ीकार क है। *



चौवनवाँ सग ल ण और सीतास हत ीरामका यागम ग ा-यमुना-संगमके समीप भर ाज-आ मम जाना, मु नके ारा उनका अ त थस ार, उ च कूट पवतपर ठहरनेका आदेश तथा च कूटक मह ा एवं शोभाका वणन



उस महान् वृ के नीचे वह सु र रात बताकर वे सब लोग नमल सूय दयकालम उस ानसे आगेको त ए॥ १ ॥ जहाँ भागीरथी ग ासे यमुना मलती ह, उस ानपर जानेके लये वे महान् वनके भीतरसे होकर या ा करने लगे॥ २ ॥ वे तीन यश ी या ी मागम जहाँ-तहाँ जो पहले कभी देखनेम नह आये थे, ऐसे अनेक कारके भू-भाग तथा मनोहर देश देखते ए आगे बढ़ रहे थे॥ ३ ॥ सुखपूवक आरामसे उठते-बैठते या ा करते ए उन तीन ने फू ल से सुशो भत भाँ तभाँ तके वृ का दशन कया। इस कार जब दन ाय: समा हो चला, तब ीरामने ल णसे कहा—॥ ४ ॥ ‘सु म ान न! वह देखो, यागके पास भगवान् अ देवक जा प उ म धूम उठ रहा है। मालूम होता है, मु नवर भर ाज यह ह॥ ५ ॥ ‘ न य ही हमलोग ग ा-यमुनाके स मके पास आ प ँ चे ह; क दो न दय के जल के पर र टकरानेसे जो श कट होता है, वह सुनायी दे रहा है॥ ६ ॥ ‘वनम उ ए फल-मूल और का आ दसे जी वका चलानेवाले लोग ने जो लक ड़याँ काटी ह, वे दखायी देती ह तथा जनक लक ड़याँ काटी गयी ह, वे नाना कारके वृ भी आ मके समीप गोचर हो रहे ह’॥ ७ ॥ इस कार बातचीत करते ए वे दोन धनुधर वीर ीराम और ल ण सूया होते-होते ग ा-यमुनाके स मके समीप मु नवर भर ाजके आ मपर जा प ँ चे॥ ८ ॥ ीरामच जी आ मक सीमाम प ँ चकर अपने धनुधर वेशके ारा वहाँके पशुप य को डराते ए दो ही घड़ीम तै करनेयो मागसे चलकर भर ाज मु नके समीप जा प ँ चे॥ ९ ॥



आ मम प ँ चकर मह षके दशनक इ ावाले सीतास हत वे दोन वीर कु छ दूरपर ही खड़े हो गये॥ (दूर खड़े हो मह षके श से अपने आगमनक सूचना दलवाकर भीतर आनेक अनुम त ा कर लेनेके बाद) पणशालाम वेश करके उ ने तप ाके भावसे तीन काल क सारी बात देखनेक द ा कर लेनेवाले एका च तथा ती ण तधारी महा ा भर ाज ऋ षका दशन कया, जो अ हो करके श से घरे ए आसनपर वराजमान थे। मह षको देखते ही ल ण और सीतास हत महाभाग ीरामने हाथ जोड़कर उनके चरण म णाम कया॥ ११-१२ ॥ त ात् ल णके बड़े भा◌इ ीरघुनाथजीने उनसे इस कार अपना प रचय दया —‘भगवन्! हम दोन राजा दशरथके पु ह। मेरा नाम राम और इनका ल ण है तथा ये वदेहराज जनकक पु ी और मेरी क ाणमयी प ी सती सा ी सीता ह, जो नजन तपोवनम भी मेरा साथ देनेके लये आयी ह॥ १३-१४ ॥ ‘ पताक आ ासे मुझे वनक ओर आते देख ये मेरे य अनुज भा◌इ सु म ाकु मार ल ण भी वनम ही रहनेका त लेकर मेरे पीछे-पीछे चले आये ह॥ १५ ॥ ‘भगवन्! इस कार पताक आ ासे हम तीन तपोवनम जायँगे और वहाँ फल-मूलका आहार करते ए धमका ही आचरण करगे’॥ १६ ॥ परम बु मान् राजकु मार ीरामका वह वचन सुनकर धमा ा भर ाज मु नने उनके लये आ त -स ारके पम एक गौ तथा अ -जल सम पत कये॥ १७ ॥ उन तप ी महा ाने उन सबको नाना कारके अ , रस और जंगली फल-मूल दान कये। साथ ही उनके ठहरनेके लये ानक भी व ा क ॥ १८ ॥ मह षके चार ओर मृग, प ी और ऋ ष-मु न बैठे थे और उनके बीचम वे वराजमान थे। उ ने अपने आ मपर अ त थ पम पधारे ए ीरामका ागतपूवक स ार कया। उनके उस स ारको हण करके ीरामच जी जब आसनपर वराजमान ए, तब भर ाजजीने उनसे यह धमयु वचन कहा—॥ ‘ककु कु लभूषण ीराम! म इस आ मपर दीघकालसे तु ारे शुभागमनक ती ा कर रहा ँ (आज मेरा मनोरथ सफल आ है)। मने यह भी सुना है क तु अकारण ही वनवास दे दया गया है॥ २१ ॥



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ा और यमुना—इन दोन महान दय के संगमके पासका यह ान बड़ा ही प व और एका है। यहाँक ाकृ तक छटा भी मनोरम है, अत: तुम यह सुखपूवक नवास करो’॥ २२ ॥



भर ाज मु नके ऐसा कहनेपर सम ा णय के हतम त र रहनेवाले रघुकुलन न ीरामने इन शुभ वचन के ारा उ उ र दया—॥ २३ ॥ ‘भगवन्! मेरे नगर और जनपदके लोग यहाँसे ब त नकट पड़ते ह, अत: म समझता ँ क यहाँ मुझसे मलना सुगम समझकर लोग इस आ मपर मुझे और सीताको देखनेके लये ाय: आते-जाते रहगे; इस कारण यहाँ नवास करना मुझे ठीक नह जान पड़ता॥ ‘भगवन्! कसी एका देशम आ मके यो उ म ान दे खये (सोचकर बताइये), जहाँ सुख भोगनेके यो वदेहराजकु मारी जानक स तापूवक रह सक’॥ २६ ॥ ीरामच जीका यह शुभ वचन सुनकर महामु न भर ाजजीने उनके उ उ े क स का बोध करानेवाली बात कही—॥ २७ ॥ ‘तात! यहाँसे दस कोस (अ ा ाके अनुसार ३० कोस)* क दूरीपर एक सु र और मह षय ारा से वत परम प व पवत है, जसपर तु नवास करना होगा॥ २८ ॥ ‘उसपर ब त-से लंगूर वचरते रहते ह। वहाँ वानर और रीछ भी नवास करते ह। वह पवत च कू ट नामसे व ात है और ग मादनके समान मनोहर है॥ ‘जब मनु च कू टके शखर का दशन कर लेता है, तब क ाणकारी पु कम का फल पा लेता है और कभी पापम मन नह लगाता है॥ ३० ॥ ‘वहाँ ब त-से ऋ ष, जनके सरके बाल वृ ाव ाके कारण खोपड़ीक भाँ त सफे द हो गये थे, तप ा ारा सैकड़ वष तक ड़ा करके गलोकको चले गये ह॥ ३१ ॥ ‘उसी पवतको म तु ारे लये एका वासके यो और सुखद मानता ँ अथवा ीराम! तुम वनवासके उ े से मेरे साथ इस आ मपर ही रहो’॥ ३२ ॥ ऐसा कहकर भर ाजजीने प ी और ातास हत य अ त थ ीरामका हष बढ़ाते ए सब कारक मनोवा त व ु ारा उन सबका आ त स ार कया॥ ३३ ॥ यागम ीरामच जी मह षके पास बैठकर व च बात करते रहे, इतनेम ही पु मयी रा का आगमन आ॥ ३४ ॥



वे सुख भोगनेयो होनेपर भी प र मसे ब त थक गये थे, इस लये भर ाज मु नके उस मनोहर आ मम ीरामने ल ण और सीताके साथ सुखपूवक वह रा तीत क ॥ ३५ ॥ तदन र जब रात बीती और ात:काल आ, तब पु ष सह ीराम लत तेजवाले भर ाज मु नके पास गये और बोले—॥ ३६ ॥ ‘भगवन्! आप भावत: स बोलनेवाले ह। आज हमलोग ने आपके आ मम बड़े आरामसे रात बतायी है, अब आप हम आगेके ग - ानपर जानेके लये आ ा दान कर’॥ ३७ ॥ रात बीतने और सबेरा होनेपर ीरामके इस कार पूछनेपर भर ाजजीने कहा—‘महाबली ीराम! तुम मधुर फल-मूलसे स च कू ट पवतपर जाओ। म उसीको तु ारे लये उपयु नवास ान मानता ँ ॥ ‘वह सु व ात च कू ट पवत नाना कारके वृ से हरा-भरा है। वहाँ ब त-से क र और सप नवास करते ह। मोर के कलरव से वह और भी रमणीय तीत होता है। ब त-से गजराज उस पवतका सेवन करते ह। तुम वह चले जाओ॥ ३९-४० ‘वह पवत परम प व , रमणीय तथा ब सं क फल-मूल से स है। वहाँ ंडु -के ंडु हाथी और हरन वनके भीतर वचरते रहते ह। रघुन न! तुम उन सबको देखोगे। म ा कनी नदी, अनेकानेक जल ोत, पवत शखर, गुफा, क रा और झरने भी तु ारे देखनेम आयगे। वह पवत सीताके साथ वचरते ए तु ारे मनको आन दान करेगा॥ ४१-४२ ॥ ‘हषम भरे ए ट भ और को कल के कलरव ारा वह पवत या य का मनोर न-सा करता है। वह परम सुखद एवं क ाणकारी है, मदम मृग और ब सं क मतवाले हा थय ने उसक रमणीयताको और बढ़ा दया है। तुम उसी पवतपर जाकर डेरा डालो और उसम नवास करो’॥ ४३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौवनवाँ सग पूरा आ॥ ५४॥ रामायण शरोम णकार दस कोसका अथ तीस कोस करते ह और ‘दश च दश च दश च’ ऐसी ु करके एकशेषके नयमानुसार एक ही दशका योग होनेपर भी उसे ३० सं ाका बोधक मानते ह। यागसे च कू टक दूरी लगभग २८ कोस मानी जाती है, जो उपयु सं ासे मलती-जुलती ही है। आधु नक मापके अनुसार यागसे च कू ट ८० मील है। इस हसाबसे चालीस कोसक दूरी ◌इ। परंतु पहलेका ोशमान आधु नक मानसे कु छ बड़ा रहा होगा, तभी यह अ र है। *



पचपनवाँ सग भर ाजजीका ीराम आ दके लये वाचन करके उ च कूटका माग बताना, उन सबका अपने ही बनाये ए बेड़ेसे यमुनाजीको पार करना, सीताक यमुना और ामवटसे ाथना, तीन का यमुनाके कनारेके मागसे एक कोसतक जाकर वनम घूमना- फरना, यमुनाजीके समतल तटपर रा म नवास करना



उस आ मम रातभर रहकर श ु का दमन करनेवाले वे दोन राजकु मार मह षको णाम करके च कू ट पवतपर जानेको उ त ए॥ १ ॥ उन तीन को ान करते देख मह षने उनके लये उसी कार वाचन कया जैसे पता अपने औरस पु को या ा करते देख उनके लये मंगलसूचक आशीवाद देता है॥ २ ॥ तदन र महातेज ी महामु न भर ाजने स परा मी ीरामसे इस कार कहना आर कया— ‘नर े ! तुम दोन भा◌इ ग ा और यमुनाके संगमपर प ँ चकर जनम प ममुखी होकर ग ा मली ह, उन महानदी यमुनाके नकट जाना॥ ४ ॥ ‘रघुन न! तदन र ग ाजीके जलके वेगसे अपने वाहके तकू ल दशाम मुड़ी ◌इ यमुनाके पास प ँ चकर लोग के आने-जानेके कारण उनके पद च से च त ए अवतरणदेश (पार उतरनेके लये उपयोगी घाट) को अ ी तरह देख-भालकर वहाँ जाना और एक बेड़ा बनाकर उसीके ारा सूयक ा यमुनाके उस पार उतर जाना॥ ५ ॥ ‘त ात् आगे जानेपर एक ब त बड़ा बरगदका वृ मलेगा, जसके प े हरे रंगके ह। वह चार ओरसे ब सं क दूसरे वृ ारा घरा आ है। उस वृ का नाम ामवट है। उसक छायाके नीचे ब त-से स पु ष नवास करते ह। वहाँ प ँ चकर सीता दोन हाथ जोड़कर उस वृ से आशीवादक याचना कर। या ीक इ ा हो तो उस वृ के पास जाकर कु छ कालतक वहाँ नवास करे अथवा वहाँसे आगे बढ़ जाय॥ ६-७ ॥ ‘ ामवटसे एक कोस दूर जानेपर तु नीलवनका दशन होगा; वहाँ स क (चीड़) और बेरके भी पेड़ मले ए ह। यमुनाके तटपर उ ए बाँस के कारण वह और भी रमणीय दखायी देता है॥ ८ ॥ ‘यह वही ान है जहाँसे च कू टको रा ा जाता है। म उस मागसे क◌इ बार गया ँ । वहाँक भू म कोमल और रमणीय है। उधर कभी दावानलका भय नह होता है’॥ ९ ॥



इस कार माग बताकर जब मह ष भर ाज लौटने लगे, तब ीरामने ‘तथा ु’ कहकर उनके चरण म णाम कया और कहा—‘अब आप आ मको लौट जाइये’॥ १० ॥ उन मह षके लौट जानेपर ीरामने ल णसे कहा—‘सु म ान न! तु ारा क ाण हो। ये मु न हमारे ऊपर जो इतनी कृ पा रखते ह, इससे जान पड़ता है क हमलोग ने पहले कभी महान् पु कया है’॥ इस कार बातचीत करते ए वे दोन मन ी पु ष सह सीताको ही आगे करके यमुना नदीके तटपर गये॥ १२ ॥ वहाँ का ल ीका ोत बड़ी ती ग तसे वा हत हो रहा था; वहाँ प ँ चकर वे इस च ाम पड़े क कै से नदीको पार कया जाय; क वे तुरंत ही यमुनाजीके जलको पार करना चाहते थे॥ १३ ॥ फर उन दोन भाइय ने जंगलके सूखे काठ बटोरकर उ के ारा एक ब त बड़ा बेड़ा तैयार कया। वह बेड़ा सूखे बाँस से ा था और उसके ऊपर खस बछाया गया था। तदन र परा मी ल णने बत और जामुनक टह नय को काटकर सीताके बैठनेके लये एक सुखद आसन तैयार कया॥ १४-१५ ॥ दशरथन न ीरामने ल ीके समान अ च ऐ यवाली अपनी या सीताको जो कु छ ल त-सी हो रही थ , उस बेड़पे र चढ़ा दया और उनके बगलम व एवं आभूषण रख दये; फर ीरामने बड़ी सावधानीके साथ ख ी (कु दारी) और बकरेके चमड़ेसे मढ़ी ◌इ पटारीको भी बेड़पे र ही रखा॥ १६-१७ ॥ इस कार पहले सीताको चढ़ाकर वे दोन भा◌इ दशरथकु मार ीराम और ल ण उस बेड़के ो पकड़कर खेने लगे। उ ने बड़े य और स ताके साथ नदीको पार करना आर कया॥ १८ ॥ यमुनाक बीच धाराम आनेपर सीताने उ णाम कया और कहा—‘दे व! इस बेड़े ारा म आपके पार जा रही ँ । आप ऐसी कृ पा कर, जससे हमलोग सकु शल पार हो जायँ और मेरे प तदेव अपनी वनवास वषयक त ाको न व पूण कर॥ १९ ॥ ‘इ ाकु वंशी वीर ारा पा लत अयो ापुरीम ीरघुनाथजीके सकु शल लौट आनेपर म आपके कनारे एक सह गौ का दान क ँ गी और सैकड़ देवदुलभ पदाथ अ पत करके आपक पूजा स क ँ गी’॥ २० ॥



इस कार सु री सीता हाथ जोड़कर यमुनाजीसे ाथना कर रही थ , इतनेहीम वे द ण तटपर जा प ँ च ॥ २१ ॥ इस तरह उन तीन ने उसी बेड़े ारा ब सं क तटवत वृ से सुशो भत और तर माला से अलंकृत शी गा मनी सूय-क ा यमुना नदीको पार कया॥ २२ ॥ पार उतरकर उ ने बेड़के ो तो वह तटपर छोड़ दया और यमुना-तटवत वनसे ान करके वे हरे-हरे प से सुशो भत शीतल छायावाले ामवटके पास जा प ँ चे॥ २३ ॥ वटके समीप प ँ चकर वदेहन नी सीताने उसे म क कु ाया और इस कार कहा —‘महावृ ! आपको नम ार है। आप ऐसी कृ पा कर, जससे मेरे प तदेव अपने वनवासवषयक तको पूण कर॥ २४ ॥ ‘तथा हमलोग वनसे सकु शल लौटकर माता कौस ा तथा यश नी सु म ादेवीका दशन कर सक।’ इस कार कहकर मन नी सीताने हाथ जोड़े ए उस वृ क प र मा क ॥ २५ ॥ सदा अपनी आ ाके अधीन रहनेवाली ाण ारी सती-सा ी सीताको ामवटसे आशीवादक याचना करती देख ीरामने ल णसे कहा—॥ २६ ॥ ‘भरतके छोटे भा◌इ नर े ल ण! तुम सीताको साथ लेकर आगे-आगे चलो और म धनुष धारण कये पीछेसे तुमलोग क र ा करता आ चलूँगा॥ २७ ॥ ‘ वदेहकु लन नी जनकदुलारी सीता जो-जो फल या फू ल माँग अथवा जस व ुको पाकर इनका मन स रहे, वह सब इ देते रहो’॥ २८ ॥ अबला सीता एक-एक वृ , झाड़ी अथवा पहलेक न देखी ◌इ पु शो भत लताको देखकर उसके वषयम ीरामच जीसे पूछती थ ॥ २९ ॥ तथा ल ण सीताके कथनानुसार तुरंत ही भाँ तभाँ तके वृ क मनोहर शाखाएँ और फू ल के गु े ला-लाकर उ देते थे॥ ३० ॥ उस समय जनकराज कशोरी सीता व च वालुका और जलरा शसे सुशो भत तथा हंस और सारस के कलनादसे मुख रत यमुना नदीको देखकर ब त स होती थ ॥ ३१ ॥ इस तरह एक कोसक या ा करके दोन भा◌इ ीराम और ल ण ( ा णय के हतके लये) मागम मले ए हसक पशु का वध करते ए यमुनातट वत वनम वचरने लगे॥ ३२







उदार वाले वे सीता, ल ण और ीराम मोर के ंडु क मीठी बोलीसे गूँजते तथा हा थय और वानर से भरे ए उस सु र वनम घूम- फरकर शी ही यमुनानदीके समतल तटपर आ गये और रातम उ ने वह नवास कया॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पचपनवाँ सग पूरा आ॥ ५५॥



छ नवाँ सग वनक शोभा देखते- दखाते ए ीराम आ दका च कूटम प ँ चना, वा ी कजीका दशन करके ीरामक आ ासे ल ण ारा पणशालाका नमाण तथा उसक वा ुशा करके उन सबका कुटीम वेश



तदन र रा तीत होनेपर रघुकुल शरोम ण ीरामने अपने जागनेके बाद वहाँ सोये ए ल णको धीरेसे जगाया (और इस कार कहा—)॥ १ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले सु म ाकु मार! मीठी बोली बोलनेवाले शुक- पक आ द जंगली प य का कलरव सुनो। अब हमलोग यहाँसे ान कर; क ानके यो समय आ गया है’॥ २ ॥ सोये ए ल णने अपने बड़े भा◌इ ारा ठीक समयपर जगा दये जानेपर न ा, आल तथा राह चलनेक थकावटको दूर कर दया॥ ३ ॥ फर सब लोग उठे और यमुना नदीके शीतल जलम ान आ द करके ऋ ष-मु नय ारा से वत च कू टके उस मागपर चल दये॥ ४ ॥ उस समय ल णके साथ वहाँसे त ए ीरामने कमलनयनी सीतासे इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘ वदेहराजन नी! इस वस -ऋतुम सब ओरसे खले ए इन पलाश-वृ को तो देखो। ये अपने ही पु से पु मालाधारी-से तीत होते ह और उन फू ल क अ ण भाके कारण लत होते-से दखायी देते ह॥ ६ ॥ ‘देखो, ये भलावे और बेलके पेड़ अपने फू ल और फल के भारसे क ु े ए ह। दूसरे मनु का यहाँतक आना स व न होनेसे ये उनके ारा उपयोगम नह लाये गये ह; अत: न य ही इन फल से हम जीवन नवाह कर सकगे’॥ ७ ॥ ( फर ल णसे कहा—) ‘ल ण! देखो, यहाँके एक-एक वृ म मधुम य ारा लगाये और पु कये गये मधुके छ े कै से लटक रहे ह। इन सबम एक-एक ोण (लगभग सोलह सेर) मधु भरा आ है॥ ८ ॥



‘वनका



यह भाग बड़ा ही रमणीय है, यहाँ फू ल क वषा-सी हो रही है और सारी भू म पु से आ ा दत दखायी देती है। इस वन ा म यह चातक ‘पी कहाँ’ ‘पी कहाँ’ क रट लगा रहा है। उधर वह मोर बोल रहा है, मानो पपीहेक बातका उ र दे रहा हो॥ ९ ॥ ‘यह रहा च कू ट पवत—इसका शखर ब त ऊँ चा है। ंडु -के - ंडु हाथी उसी ओर जा रहे ह और वहाँ ब त-से प ी चहक रहे ह॥ १० ॥ ‘तात! जहाँक भू म समतल है और जो ब त-से वृ से भरा आ है, च कू टके उस प व काननम हमलोग बड़े आन से वचरगे’॥ ११ ॥ सीताके साथ दोन भा◌इ ीराम और ल ण पैदल ही या ा करते ए यथासमय रमणीय एवं मनोरम पवत च कू टपर जा प ँ चे॥ १२ ॥ वह पवत नाना कारके प य से प रपूण था। वहाँ फल-मूल क ब तायत थी और ा द जल पया मा ाम उपल होता था। उस रमणीय शैलके समीप जाकर ीरामने कहा—॥ १३ ॥ ‘सौ ! यह पवत बड़ा मनोहर है। नाना कारके वृ और लताएँ इसक शोभा बढ़ाती ह। यहाँ फल-मूल भी ब त ह; यह रमणीय तो है ही। मुझे जान पड़ता है क यहाँ बड़े सुखसे जीवन- नवाह हो सकता है॥ १४ ॥ ‘इस पवतपर ब त-से महा ा मु न नवास करते ह। तात! यही हमारा वास ान होनेयो है। हम यह नवास करगे’॥ १५ ॥ ऐसा न य करके सीता, ीराम और ल णने हाथ जोड़कर मह ष वा ी कके आ मम वेश कया और सबने उनके चरण म म क कु ाया॥ १६ ॥ धमको जाननेवाले मह ष उनके आगमनसे ब त स ए और ‘आपलोग का ागत है। आइये, बै ठये।’ ऐसा कहते ए उ ने उनका आदर-स ार कया॥ १७ ॥ तदन र महाबा भगवान् ीरामने मह षको अपना यथो चत प रचय दया और ल णसे कहा—॥ १८ ॥ ‘सौ ल ण! तुम जंगलसे अ ी-अ ी मजबूत लक ड़याँ ले आओ और रहनेके लये एक कु टी तैयार करो। यह नवास करनेको मेरा जी चाहता है’॥ १९ ॥



ीरामक यह बात सुनकर श ुदमन ल ण अनेक कारके वृ क डा लयाँ काट लाये और उनके ारा एक पणशाला तैयार क ॥ २० ॥ वह कु टी बाहर-भीतरसे लकड़ीक ही दीवारसे सु र बनायी गयी थी और उसे ऊपरसे छा दया गया था, जससे वषा आ दका नवारण हो। वह देखनेम बड़ी सु र लगती थी। उसे तैयार ◌इ देखकर एका च होकर अपनी बात सुननेवाले ल णसे ीरामने इस कार कहा—॥ २१ ॥ ‘सु म ाकु मार! हम गजक का गूदा लेकर उसीसे पणशालाके अ ध ाता देवता का पूजन करगे;१ क दीघ जीवनक इ ा करनेवाले पु ष को वा ुशा अव करनी चा हये॥ २२ ॥ ‘क ाणदश ल ण! तुम ‘गजक ’ नामक क को२ उखाड़कर या खोदकर शी यहाँ ले आओ; क शा ो व धका अनु ान हमारे लये अव -कत है। तुम धमका ही सदा च न कया करो’॥ २३ ॥ भा◌इक इस बातको समझकर श ुवीर का वध करनेवाले ल णने उनके कथनानुसार काय कया। तब ीरामने पुन: उनसे कहा—॥ २४ ॥ ‘ल ण! इस गजक को पकाओ। हम पणशालाके अ ध ाता देवता का पूजन करगे। ज ी करो। यह सौ मु त है और यह दन भी ‘ ुव’३ सं क है (अत: इसीम यह शुभ काय होना चा हये)’॥ २५ ॥ तापी सु म ाकु मार ल णने प व और काले छलके वाले गजक को उखाड़कर लत आगम डाल दया॥ २६ ॥ र वकारका नाश करनेवाले४ उस गजकं दको भलीभाँ त पका आ जानकर ल णने पु ष सह ीरघुनाथजीसे कहा—॥ २७ ॥ ‘देवोपम तेज ी ीरघुनाथजी! यह काले छलके वाला गजक , जो बगड़े ए सभी अ को ठीक करनेवाला है,५ मेरे ारा स ूणत: पका दया गया है। अब आप वा ुदेवता का यजन क जये; क आप इस कमम कु शल ह॥ २८ ॥ स णु स तथा जपकमके ाता ीरामच जीने ान करके शौच-संतोषा द नयम के पालनपूवक सं ेपसे उन सभी म का पाठ एवं जप कया, जनसे वा ुय क पू त हो जाती है॥ २९ ॥



सम देवता का पूजन करके प व भावसे ीरामने पणकु टीम वेश कया। उस समय अ मततेज ी ीरामके मनम बड़ा आ ाद आ॥ ३० ॥ त ात् ब लवै देव कम, याग तथा वै वयाग करके ीरामने वा ुदोषक शा के लये म लपाठ कया॥ ३१ ॥ नदीम व धपूवक ान करके ायत: गाय ी आ द म का जप करनेके अन र ीरामने प सूना आ द दोष क शा के लये उ म ब लकम स कया॥ ३२ ॥ रघुनाथजीने अपनी छोटी-सी कु टीके अनु प ही वे द ल (आठ द ाल के लये ब लसमपणके ान ), चै (गणेश आ दके ान ) तथा आयतन ( व ु आ द देव के ान ) का नमाण एवं ापना क ॥ ३३ ॥ वह मनोहर कु टी उपयु ानपर बनी थी। उसे वृ के प से छाया गया था और उसके भीतर च वायुसे बचनेका पूरा ब था। सीता, ल ण और ीराम सबने एक साथ उसम नवासके लये वेश कया। ठीक वैसे ही, जैसे देवतालोग सुधमा सभाम वेश करते ह॥ ३४ ॥



च कू ट पवत बड़ा ही रमणीय था। वहाँ उ म तीथ (तीथ ान, सीढ़ी और घाट ) से सुशो भत मा वती (म ा कनी) नदी बह रही थी, जसका ब त-से पशु-प ी सेवन करते थे। उस पवत और नदीका सां न पाकर ीरामच जीको बड़ा हष और आन आ। वे नगरसे दूर वनम आनेके कारण होनेवाले क को भूल गये॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छ नवाँ सग पूरा आ॥ ५६॥ १. यहाँ ‘ऐणेयं मांसम्’ का अथ है—गजक नामक क वशेषका गूदा। इस संगम मांसपरक अथ नह लेना चा हये; क ऐसा अथ लेनेपर ‘ ह ा मु नवदा मषम्’ (२। २०। २९), ‘फला न मूला न च भ यन् वने’ (२। ३४। ५९) तथा ‘धममेवाच र ाम मूलफलाशना:’ (२। ५४। १६) इ ा द पसे क ◌इ ीरामक त ा से वरोध पड़ेगा। इन वचन म नरा मष रहने और फल-मूल खाकर धमाचरण करनेक ही बात कही गयी है। ‘रामो ना भभाषते’ ( ीराम दो तरहक बात नह कहते ह, एक बार जो कह दया, वह अटल है) इस कथनके अनुसार ीरामक त ा टलनेवाली नह है। २. मदनपाल- नघ ुके अनुसार ‘मृग’ का अथ गजक है। ३. ‘उ रा यरो ह ो भा र ुवं रम्।’ (मु त च ाम ण) अथात तीन उ रा और रो हणी न तथा र ववार—ये ‘ ुव’ एवं ‘ र’ सं क ह। इसम गृहशा या वा ुशा आ द काय अ े माने गये ह।



४. ‘ छ शो णतम्’ क ु इस कार है—‘ छ ं शो णतं र वकार पं रोगजातं येन स: तम्।’ ‘गजक ’ रोग वकारका नाशक है’ यह वै कम स है। मदनपाल- नघ ुके ‘षड् दोषा दकु ह ा’ आ द वचनसे भी यह चमदोष तथा कु आ द र वकारका नाशक स होता है। ५. ‘सम ा :’ क ु य समझनी चा हये—‘स ग् भव अ ा न अ ा न येन स:।’



स ावनवाँ सग सुम का अयो ाको लौटना, उनके मुखसे ीरामका संदेश सुनकर पुरवा सय का वलाप, राजा दशरथ और कौस ाक मू ा तथा अ :पुरक रा नय का आतनाद



इधर, जब ीराम ग ाके द णतटपर उतर गये, तब गुह दु:खसे ाकु ल हो सुम के साथ बड़ी देरतक बातचीत करता रहा। इसके बाद वह सुम को साथ ले अपने घरको चला गया॥ १ ॥ ीरामच जीका यागम भर ाजके आ मपर जाना, मु नके ारा स ार पाना तथा च कू ट पवतपर प ँ चना—ये सब वृ ा ृ वेरके नवासी गु चर ने देखे और लौटकर गुहको इन बात से अवगत कराया॥ २ ॥ इन सब बात को जानकर सुम गुहसे वदा ले अपने उ म घोड़ को रथम जोतकर अयो ाक ओर ही लौट पड़े। उस समय उनके मनम बड़ा दु:ख हो रहा था॥ ३ ॥ वे मागम सुग त वन , न दय , सरोवर , गाँव और नगर को देखते ए बड़ी सावधानीके साथ शी तापूवक जा रहे थे॥ ४ ॥ ृ वेरपुरसे लौटनेके दूसरे दन सायंकालम अयो ा प ँ चकर उ ने देखा, सारी पुरी आन शू हो गयी है॥ ५ ॥ वहाँ कह एक श भी सुनायी नह देता था। सारी पुरी ऐसी नीरव थी, मानो मनु से सूनी हो गयी हो। अयो ाक ऐसी दशा देखकर सुम के मनम बड़ा दु:ख आ। वे शोकके वेगसे पी ड़त हो इस कार च ा करने लगे—॥ ६ ॥ ‘कह ऐसा तो नह आ क ीरामके वरहज नत संतापके दु:खसे थत हो हाथी, घोड़े, मनु और महाराजस हत सारी अयो ापुरी शोका से द हो गयी हो’॥ ७ ॥ इसी च ाम पड़े ए सार थ सुम ने शी गामी घोड़ ारा नगर ारपर प ँ चकर तुरंत ही पुरीके भीतर वेश कया॥ ८ ॥ सुम को देखकर सैकड़ और हजार पुरवासी मनु दौड़े आये और ‘ ीराम कहा ह?’ यह पूछते ए उनके रथके साथ-साथ दौड़ने लगे॥ ९ ॥



उस समय सुम ने उन लोग से कहा—‘स नो! म ग ाजीके कनारेतक ीरघुनाथजीके साथ गया था। वहाँसे उन धम न महा ाने मुझे लौट जानेक आ ा दी। अत: म उनसे बदा लेकर यहाँ लौट आया ँ । ‘वे तीन ग ाके उस पार चले गये’ यह जानकर सब लोग के मुखपर आँ सु क धाराएँ बह चल । ‘अहो! हम ध ार है।’ ऐसा कहकर वे लंबी साँस ख चते और ‘हा राम!’ क पुकार मचाते ए जोर-जोरसे क ण न करने लगे॥ १०-११ ॥ सुम ने उनक बात सुन । वे ंडु -के - ंडु खड़े होकर कह रहे थे—‘हाय! न य ही हमलोग मारे गये; क अब हम यहाँ ीरामच जीको नह देख पायँगे॥ १२ ॥ ‘दान, य , ववाह तथा बड़े-बड़े सामा जक उ व के समय अब हम कभी धमा ा ीरामको अपने बीचम खड़ा आ नह देख सकगे॥ १३ ॥ ‘अमुक पु षके लये कौन-सी व ु उपयोगी है? ा करनेसे उसका य होगा? और कै से कस- कस व ुसे उसे सुख मलेगा, इ ा द बात का वचार करते ए ीरामच जी पताक भाँ त इस नगरका पालन करते थे’॥ १४ ॥ बाजारके बीचसे नकलते समय सार थके कान म य के रोनेक आवाज सुनायी दी, जो महल क खड़ कय म बैठकर ीरामके लये ही संत हो वलाप कर रही थ ॥ १५ ॥ राजमागके बीचसे जाते ए सुम ने कपड़ेसे अपना मुँह ढक लया। वे रथ लेकर उसी भवनक ओर गये, जहाँ राजा दशरथ मौजूद थे॥ १६ ॥ राजमहलके पास प ँ चकर वे शी ही रथसे उतर पड़े और भीतर वेश करके ब त-से मनु से भरी ◌इ सात ो ढ़य को पार कर गये॥ १७ ॥ ध नय क अ ा लका , सतमं जले मकान तथा राजभवन म बैठी ◌इ याँ सुम को लौटा आ देख ीरामके दशनसे व त होनेके दु:खसे दुबल हो हाहाकार कर उठ ॥ १८ ॥ उनके क ल आ दसे र हत बड़े-बड़े ने आँ सु के वेगम डू बे ए थे। वे याँ अ आत होकर अ भावसे एक-दूसरीक ओर देख रही थ ॥ १९ ॥ तदन र राजमहल म जहाँ-तहाँसे ीरामके शोकसे संत ◌इ राजा दशरथक रा नय के म रम कहे गये वचन सुनायी पड़े॥ २० ॥



‘ये



सार थ सुम ीरामके साथ यहाँसे गये थे और उनके बना ही यहाँ लौटे ह, ऐसी दशाम क ण न करती ◌इ कौस ाको ये ा उ र दगे?॥ २१ ॥ ‘म समझती ँ , जैसे जीवन दु:खज नत है, न य ही उसी कार इसका नाश भी सुकर नह है; तभी तो ायत: ा ए अ भषेकको ागकर पु के वनम चले जानेपर भी कौस ा अभीतक जी वत ह’॥ २२ ॥ रा नय क वह स ी बात सुनकर शोकसे द -से होते ए सुम ने सहसा राजभवनम वेश कया॥ २३ ॥ आठव ोढ़ीम वेश करके उ ने देखा, राजा एक ेत भवनम बैठे और पु शोकसे म लन, दीन एवं आतुर हो रहे ह॥ २४ ॥ सुम ने वहाँ बैठे ए महाराजके पास जाकर उ णाम कया और उ ीरामच जीक कही ◌इ बात -क - सुना द ॥ २५ ॥ राजाने चुपचाप ही वह सुन लया, सुनकर उनका दय वत ( ाकु ल) हो गया। फर वे ीरामके शोकसे अ पी ड़त हो मू त होकर पृ ीपर गर पड़े॥ २६ ॥ महाराजके मू त हो जानेपर सारा अ :पुर दु:खसे थत हो उठा। राजाके पृ ीपर गरते ही सब लोग दोन बाँह उठाकर जोर-जोरसे ची ार करने लगे॥ २७ ॥ उस समय कौस ाने सु म ाक सहायतासे अपने गरे ए प तको उठाया और इस कार कहा—॥ २८ ॥ ‘महाभाग! ये सुम जी दु र कम करनेवाले ीरामके दूत होकर—उनका संदेश लेकर वनवाससे लौटे ह। आप इनसे बात नह करते ह?॥ २९ ॥ ‘रघुन न! पु को वनवास दे देना अ ाय है। यह अ ाय करके आप ल त हो रहे ह? उ ठये, आपको अपने स के पालनका पु ा हो। जब आप इस तरह शोक करगे, तब आपके सहायक का समुदाय भी आपके साथ ही न हो जायगा॥ ३० ॥ ‘देव! आप जसके भयसे सुम जीसे ीरामका समाचार नह पूछ रहे ह, वह कै के यी यहाँ मौजूद नह है; अत: नभय होकर बात क जये’॥ ३१ ॥ महाराजसे ऐसा कहकर कौस ाका गला भर आया। आँ सु के कारण उनसे बोला नह गया और वे शोकसे ाकु ल होकर तुरंत ही पृ ीपर गर पड़ ॥ ३२ ॥



इस कार वलाप करती ◌इ कौस ाको भू मपर पड़ी देख और अपने प तक मू त दशापर पात करके सभी रा नयाँ उ चार ओरसे घेरकर रोने लग ॥ ३३ ॥ अ :पुरसे उठे ए उस आतनादको देख-सुनकर नगरके बूढ़े और जवान पु ष रो पड़े। सारी याँ भी रोने लग । वह सारा नगर उस समय सब ओरसे पुन: शोकसे ाकु ल हो उठा॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म स ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५७॥



अ ावनवाँ सग महाराज दशरथक आ ासे सुम का ीराम और ल



णके संदेश सुनाना



मू ा दूर होनेपर जब राजाको चेत आ तब सु र च होकर उ ने ीरामका वृ ा सुननेके लये सार थ सुम को सामने बुलाया॥ १ ॥ उस समय सुम ीरामके ही शोक और च ाम नर र डू बे रहनेवाले दु:ख-शोकसे ाकु ल महाराज दशरथके पास हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ २ ॥ जैसे जंगलसे तुरंत पकड़कर लाया आ हाथी अपने यूथप त गजराजका च न करके लंबी साँस ख चता और अ संत तथा अ हो जाता है, उसी कार बूढ़े राजा दशरथ ीरामके लये अ संत हो लंबी साँस ख चकर उ का ान करते ए अ -से हो गये थे। राजाने देखा, सार थका सारा शरीर धूलसे भर गया है। यह सामने खड़ा है। इसके मुखपर आँ सु क धारा बह रही है और यह अ दीन दखायी देता है। उस अव ाम राजाने अ आत होकर उससे पूछा—॥ ‘सूत! धमा ा ीराम वृ क जड़का सहारा ले कहाँ नवास करगे? जो अ सुखम पले थे, वे मेरे लाड़ले राम वहाँ ा खायगे?॥ ५ ॥ ‘सुम ! जो दु:ख भोगनेके यो नह ह, उ ीरामको भारी दु:ख ा आ है। जो राजो चत श ापर शयन करनेयो ह, वे राजकु मार ीराम अनाथक भाँ त भू मपर कै से सोते ह गे?॥ ६ ॥ ‘ जनके या ा करते समय पीछे -पीछे पैदल , र थय और हाथीसवार क सेना चलती थी, वे ही ीराम नजन वनम प ँ चकर वहाँ कै से नवास करगे?॥ ‘जहाँ अजगर और ा - सह आ द हसक पशु वचरते ह तथा काले सप जसका सेवन करते ह, उसी वनका आ य लेनेवाले मेरे दोन कु मार सीताके साथ वहाँ कै से रहगे?॥ ८ ॥ ‘सुम ! परम सुकुमारी तप नी सीताके साथ वे दोन राजकु मार ीराम और ल ण रथसे उतरकर पैदल कै से गये ह गे?॥ ९ ॥ ‘सारथे! तुम कृ तकृ हो गये; क जैसे दोन अ नीकु मार म राचलके वनम जाते ह, उसी कार वनके भीतर वेश करते ए मेरे दोन पु को तुमने अपनी आँ ख से देखा है॥ १० ॥



‘सुम !



वनम प ँ चकर ीरामने तुमसे ा कहा? ल णने भी ा कहा? तथा म थलेशकु मारी सीताने ा संदेश दया?॥ ११ ॥ ‘सूत! तुम ीरामके बैठने, सोने और खाने-पीनेसे स रखनेवाली बात बताओ। जैसे गसे गरे ए राजा यया त स ु ष के बीचम उप त होनेपर स ंगके भावसे पुन: सुखी हो गये थे, उसी कार तुम-जैसे साधुपु षके मुखसे पु का वृ ा सुननेसे म सुखपूवक जीवन धारण कर सकूँ गा’॥ १२ ॥ महाराजके इस कार पूछनेपर सार थ सुम ने आँ सु से ँ धी ◌इ ग द वाणी ारा उनसे कहा—॥ ‘महाराज! ीरामच जीने धमका ही नर र पालन करते ए दोन हाथ जोड़कर और म क कु ाकर कहा है—‘सूत! तुम मेरी ओरसे आ ानी तथा व नीय मेरे महा ा पताके दोन चरण म णाम कहना तथा अ :पुरम सभी माता को मेरे आरो का समाचार देते ए उनसे वशेष पसे मेरा यथो चत णाम नवेदन करना॥ १४—१६ ॥ ‘इसके बाद मेरी माता कौस ासे मेरा णाम करके बताना क ‘म कु शलसे ँ और धमपालनम सावधान रहता ँ ।’ फर उनको मेरा यह संदेश सुनाना क ‘माँ! तुम सदा धमम त र रहकर यथासमय अ शालाके सेवन (अ हो -काय) म संल रहना। दे व! महाराजको देवताके समान मानकर उनके चरण क सेवा करना॥ ‘अ भमान१ और मानको२ ागकर सभी माता के त समान बताव करना—उनके साथ हल- मलकर रहना। अ !े जसम राजाका अनुराग है, उस कै के यीको भी े मानकर उसका स ार करना॥ १९ ॥ ‘कु मार भरतके त राजो चत बताव करना। राजा छोटी उ के ह तो भी वे आदरणीय ही होते ह—इस राजधमको याद रखना’॥ २० ॥ ‘कु मार भरतसे भी मेरा कु शल-समाचार बताकर उनसे मेरी ओरसे कहना—‘भैया! तुम सभी माता के त ायो चत बताव करते रहना॥ २१ ॥ ‘इ ाकु कु लका आन बढ़ानेवाले महाबा भरतसे यह भी कहना चा हये क युवराजपदपर अ भ ष होनेके बाद भी तुम रा सहासनपर वराजमान पताजीक र ा एवं सेवाम संल रहना॥ २२ ॥



‘राजा



ब त बूढ़े हो गये ह—ऐसा मानकर तुम उनका वरोध न करना—उ राज सहासनसे न उतारना। युवराजपदपर ही त त रहकर उनक आ ाका पालन करते ए ही जीवन- नवाह करना॥ २३ ॥ ‘ फर उ ने ने से ब त आँ सू बहाते ए मुझसे भरतसे कहनेके लये ही यह संदेश दया —‘भरत! मेरी पु व ला माताको अपनी ही माताके समान समझना।’ मुझसे इतना ही कहकर महाबा महायश ी कमलनयन ीराम बड़े वेगसे आँ सु क वषा करने लगे॥ ‘परंतु ल ण उस समय अ कु पत हो लंबी साँस ख चते ए बोले—‘सुम जी! कस अपराधके कारण महाराजने इन राजकु मार ीरामको देश नकाला दे दया है?॥ २६ ॥ ‘राजाने कै के यीका आदेश सुनकर झटसे उसे पूण करनेक त ा कर ली। उनका यह काय उ चत हो या अनु चत, परंतु हमलोग को उसके कारण क भोगना ही पड़ता है॥ २७ ॥ ‘ ीरामको वनवास देना कै के यीके लोभके कारण आ हो अथवा राजाके दये ए वरदानके कारण, मेरी म यह सवथा पाप ही कया गया है॥ २८ ॥ ‘यह ीरामको वनवास देनेका काय राजाक े ाचा रताके कारण कया गया हो अथवा ◌इ रक ेरणासे, परंतु मुझे ीरामके प र ागका को◌इ समु चत कारण नह दखायी देता है॥ २९ ॥ ‘बु क कमी अथवा तु ताके कारण उ चत-अनु चतका वचार कये बना ही जो यह राम-वनवास पी शा व काय आर कया गया है, यह अव ही न ा और दु:खका जनक होगा॥ ३० ॥ ‘मुझे इस समय महाराजम पताका भाव नह दखायी देता। अब तो रघुकुलन न ीराम ही मेरे भा◌इ, ामी, ब -ु बा व तथा पता ह॥ ३१ ॥ ‘जो स ूण लोक के हतम त र होनेके कारण सब लोग के य ह, उन ीरामका प र ाग करके राजाने जो यह ू रतापूण पापकृ कया है, इसके कारण अब सारा संसार उनम कै से अनुर रह सकता है? (अब उनम राजो चत गुण कहाँ रह गया है?)॥ ३२ ॥ ‘ जनम सम जाका मन रमता है, उन धमा ा ीरामको देश नकाला देकर सम लोक का वरोध करनेके कारण अब वे कै से राजा हो सकगे?॥ ३३ ॥



‘महाराज!



तप नी जनकन नी सीता तो लंबी साँस ख चती ◌इ इस कार न े खड़ी थ , मानो उनम कसी भूतका आवेश हो गया हो। वे भूली-सी जान पड़ती थ ॥ ३४ ॥ ‘उन यश नी राजकु मारीने पहले कभी ऐसा संकट नह देखा था। वे प तके ही दु:खसे दु:खी होकर रो रही थ । उ ने मुझसे कु छ भी नह कहा॥ ३५ ॥ ‘मुझे इधर आनेके लये उ त देख वे सूखे मुँहसे प तक ओर देखती ◌इ सहसा आँ सू बहाने लगी थ ॥ ‘इसी कार ल णक भुजा से सुर त ीराम उस समय हाथ जोड़े खड़े थे। उनके मुखपर आँ सु क धारा बह रही थी। मन नी सीता भी रोती ◌इ कभी आपके इस रथक ओर देखती थ और कभी मेरी ओर’॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५८॥ १. मु पटरानी होनेका अह ार। २. अपने बड़ नके घमंडम आकर दूसर के तर ार करनेक भावना।



उनसठवाँ सग सुम



ारा ीरामके शोकसे जड-चेतन एवं अयो ापुरीक दरु व दशरथका वलाप



ाका वणन तथा राजा



सुम ने कहा—‘जब ीरामच जी वनक ओर त ए, तब मने उन दोन राजकु मार को हाथ जोड़कर णाम कया और उनके वयोगके दु:खको दयम धारण करके रथपर आ ढ़ हो उधरसे लौटा। लौटते समय मेरे घोड़े ने से गरम-गरम आँ सू बहाने लगे। रा ा चलनेम उनका मन नह लगता था॥ १-२ ॥ ‘म गुहके साथ क◌इ दन तक वहाँ इस आशासे ठहरा रहा क स व है, ीराम फर मुझे बुला ल॥ ३ ॥ ‘महाराज! आपके रा म वृ भी इस महान् संकटसे कृ शकाय हो गये ह, फू ल, अंकुर और क लय स हत मुरझा गये ह॥ ४ ॥ ‘न दय , छोटे जलाशय तथा बड़े सरोवर के जल गरम हो गये ह। वन और उपवन के प े सूख गये ह॥ ‘वनके जीव-ज ु आहारके लये भी कह नह जाते ह। अजगर आ द सप भी जहाँ-के तहाँ पड़े ह, आगे नह बढ़ते ह। ीरामके शोकसे पी ड़त आ वह सारा वन नीरव-सा हो गया है॥ ६ ॥ ‘न दय के जल म लन हो गये ह। उनम फै ले ए कमल के प े गल गये ह। सरोवर के कमल भी सूख गये ह। उनम रहनेवाले म और प ी भी न ाय हो गये ह॥ ७ ॥ ‘जलम उ होनेवाले पु तथा लसे पैदा होनेवाले फू ल भी ब त थोड़ी सुग से यु होनेके कारण अ धक शोभा नह पाते ह तथा फल भी पूववत् नह गोचर होते ह॥ ८ ॥ ‘नर



े ! अयो ाके उ ान भी सूने हो गये ह, उनम रहनेवाले प ी भी कह छप गये ह। यहाँके बगीचे भी मुझे पहलेक भाँ त मनोहर नह दखायी देते ह॥ ९ ॥ ‘अयो ाम वेश करते समय मुझसे कसीने स होकर बात नह क । ीरामको न देखकर लोग बारंबार लंबी साँस ख चने लगे॥ १० ॥



‘देव! सड़कपर आये



ए सब लोग राजाका रथ ीरामके बना ही यहाँ लौट आया है, यह देखकर दूरसे ही आँ सू बहाने लगे थे॥ ११ ॥ ‘अ ा लका , वमान और ासाद पर बैठी ◌इ याँ वहाँसे रथको सूना ही लौटा देखकर ीरामको न देखनेके कारण थत हो उठ और हाहाकार करने लग ॥ १२ ॥ ‘उनके क ल आ दसे र हत बड़े-बड़े ने आँ सु के वेगम डू बे ए थे। वे याँ अ आत होकर अ भावसे एक-दूसरीक ओर देख रही थ ॥ ‘श ु , म तथा उदासीन (म ) मनु को भी मने समान पसे दु:खी देखा है। कसीके शोकम मुझे कु छ अ र नह दखायी दया है॥ १४ ॥ ‘महाराज! अयो ाके मनु का हष छन गया है। वहाँके घोड़े और हाथी भी ब त दु:खी ह। सारी पुरी आतनादसे म लन दखायी देती है। लोग क लंबी-लंबी साँस ही इस नगरीका उ ास बन गयी ह। यह अयो ापुरी ीरामके वनवाससे ाकु ल ◌इ पु वयो गनी कौस ाक भाँ त मुझे आन शू तीत हो रही है’॥ १५-१६ ॥ सुम के वचन सुनकर राजाने उनसे अ -ु ग द परम दीन वाणीम कहा—॥ १७ ॥ ‘सूत! जो पापी कु ल और पापपूण देशम उ ◌इ है तथा जसके वचार भी पापसे भरे ह, उस कै के यीके कहनेम आकर मने सलाह देनेम कु शल वृ पु ष के साथ बैठकर इस वषयम को◌इ परामश भी नह कया॥ १८ ॥ ‘सु द , म य और वेदवे ा से सलाह लये बना ही मने मोहवश के वल एक ीक इ ा पूण करनेके लये सहसा यह अनथमय काय कर डाला है॥ ‘सुम ! होनहारवश यह भारी वप न य ही इस कु लका वनाश करनेके लये अक ात् आ प ँ ची है॥ २० ॥ ‘सारथे! य द मने तु ारा कभी कु छ थोड़ा-सा भी उपकार कया हो तो तुम मुझे शी ही ीरामके पास प ँ चा दो। मेरे ाण मुझे ीरामके दशनके लये शी ता करनेक ेरणा दे रहे ह॥ २१ ॥ ‘य द आज भी इस रा म मेरी ही आ ा चलती हो तो तुम मेरे ही आदेशसे जाकर ीरामको वनसे लौटा ले आओ; क अब म उनके बना दो घड़ी भी जी वत नह रह सकूँ गा॥ २२ ॥



‘अथवा



महाबा ीराम तो अब दूर चले गये ह गे, इस लये मुझे ही रथपर बठाकर ले चलो और शी ही रामका दशन कराओ॥ २३ ॥ ‘कु कलीके समान ेत दाँत वाले, ल णके बड़े भा◌इ महाधनुधर ीराम कहाँ ह? य द सीताके साथ भली-भाँ त उनका दशन कर लू,ँ तभी म जी वत रह सकता ँ ॥ २४ ॥ ‘ जनके लाल ने और बड़ी-बड़ी भुजाएँ ह तथा जो म णय के कु ल धारण करते ह, उन ीरामको य द म नह देखूँगा तो अव यमलोकको चला जाऊँ गा॥ २५ ॥ ‘इससे बढ़कर दु:खक बात और ा होगी क म इस मरणास अव ाम प ँ चकर भी इ ाकु कु लन न राघवे ीरामको यहाँ नह देख रहा ँ ॥ २६ ॥ ‘हा राम! हा ल ण! हा वदेहराजकु मारी तप नी सीते! तु पता नह होगा क म कस कार दु:खसे अनाथक भाँ त मर रहा ँ ’॥ २७ ॥ राजा उस दु:खसे अ अचेत हो रहे थे, अत: वे उस परम दुलङ् शोकसमु म नम होकर बोले—॥ २८ ॥ ‘दे व कौस े! म ीरामके बना जस शोक-समु म डू बा आ ँ , उसे जीते-जी पार करना मेरे लये अ क ठन है। ीरामका शोक ही उस समु का महान् वेग है। सीताका बछोह ही उसका दूसरा छोर है। लंबी-लंबी साँस उसक लहर और बड़ी-बड़ी भँवर ह। आँ सु का वेगपूवक उमड़ा आ वाह ही उसका म लन जल है। मेरा हाथ पटकना ही उसम उछलती ◌इ मछ लय का वलास है। क ण- न ही उसक महान् गजना है। ये बखरे ए के श ही उसम उपल होनेवाले सेवार ह। कै के यी बड़वानल है। वह शोक-समु मेरी वेगपूवक होनेवाली अ ुवषाक उ का मूल कारण है। म राके कु टलतापूण वचन ही उस समु के बड़े-बड़े ाह ह। ू र कै के यीके माँगे ए दो वर ही उसके दो तट ह तथा ीरामका वनवास ही उस शोक-सागरका महान् व ार है॥ २९—३२ ॥ ‘म ल णस हत ीरामको देखना चाहता ँ , परंतु इस समय उ यहाँ देख नह पाता ँ —यह मेरे ब त बड़े पापका फल है।’ इस तरह वलाप करते ए महायश ी राजा दशरथ तुरंत ही मू त होकर श ापर गर पड़े॥ ३३ ॥ ीरामच जीके लये इस कार वलाप करते ए राजा दशरथके मू त हो जानेपर उनके उस अ क णाजनक वचनको सुनकर राममाता देवी कौस ाको पुन: दुगुना भय हो गया॥ ३४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म उनसठवाँ सग पूरा आ॥ ५९॥



साठवाँ सग कौस



ाका वलाप और सार थ सुम का उ समझाना



तदन र जैसे उनम भूतका आवेश हो गया हो, इस कार कौस ा देवी बारंबार काँपने लग और अचेत-सी होकर पृ ीपर गर पड़ । उसी अव ाम उ ने सार थसे कहा—॥ १ ॥ ‘सुम ! जहाँ ीराम ह, जहाँ सीता और ल ण ह, वह मुझे भी प ँ चा दो। म उनके बना अब एक ण भी जी वत नह रह सकती॥ २ ॥ ‘ज ी रथ लौटाओ और मुझे भी द कार म ले चलो। य द म उनके पास न जा सक तो यमलोकक या ा क ँ गी’॥ ३ ॥ देवी कौस ाक बात सुनकर सार थ सुम ने हाथ जोड़कर उ समझाते ए आँ सु के वेगसे अव ◌इ ग दवाणीम कहा—॥ ४ ॥ ‘महारानी! यह शोक, मोह और दु:खज नत ाकु लता छो ड़ये। ीरामच जी इस समय सारा संताप भूलकर वनम नवास करते ह॥ ५ ॥ ‘धम एवं जते य ल ण भी उस वनम ीरामच जीके चरण क सेवा करते ए अपना परलोक बना रहे ह॥ ६ ॥ ‘सीताका मन भगवान् ीरामम ही लगा आ है। इस लये नजन वनम रहकर भी घरक ही भाँ त ेम एवं स ता पाती तथा नभय रहती ह॥ ७ ॥ ‘वनम रहनेके कारण उनके मनम कु छ थोड़ा-सा भी दु:ख नह दखायी देता। मुझे तो ऐसा तीत होता है, मानो वदेहराजकु मारी सीताको परदेशम रहनेका पहलेसे ही अ ास हो॥ ८ ॥ ‘जैसे यहाँ नगरके उपवनम जाकर वे पहले घूमा करती थ , उसी कार नजन वनम भी सीता सान वचरती ह॥ ९ ॥ ‘पूण च माके समान मनोहर मुखवाली रमणी श् ◌ारोम ण उदार दया सती-सा ी सीता उस नजन वनम भी ीरामके समीप बा लकाके समान खेलती और स रहती ह॥ १० ॥ ‘उनका



दय ीरामम ही लगा आ है। उनका जीवन भी ीरामके ही अधीन है, अत: रामके बना अयो ा भी उनके लये वनके समान ही होगी (और ीरामके साथ रहनेपर वे वनम



भी अयो ाके समान ही सुखका अनुभव करगी)॥ ११ ॥ ‘ वदेहन नी सीता मागम मलनेवाले गाँव , नगर , न दय के वाह और नाना कारके वृ को देखकर उनका प रचय पूछा करती ह॥ १२ ॥ ‘ ीराम और ल णको अपने पास देखकर जानक को यही जान पड़ता है क म अयो ासे एक कोसक दूरीपर मानो घूमने- फरनेके लये ही आयी ँ ॥ ‘सीताके स म मुझे इतना ही रण है। उ ने कै के यीको ल करके जो सहसा को◌इ बात कह दी थी, वह इस समय मुझे याद नह आ रही है’॥ १४ ॥ इस कार भूलसे नकली ◌इ कै के यी वषयक उस बातको पलटकर सार थ सुम ने देवी कौस ाके दयको आ ाद दान करनेवाला मधुर वचन कहा—॥ १५ ॥ ‘मागम चलनेक थकावट, वायुके वेग, भयदायक व ु को देखनेके कारण होनेवाली घबराहट तथा धूपसे भी वदेहराजकु मारीक च करण के समान कमनीय का उनसे दूर नह होती है॥ १६ ॥ ‘उदार दया सीताका वक सत कमलके समान सु र तथा पूण च माके समान आन दायक का से यु मुख कभी म लन नह होता है॥ १७ ॥ ‘ जनम महावरके रंग नह लग रहे ह, सीताके वे दोन चरण आज भी महावरके समान ही लाल तथा कमलकोशके समान का मान् ह॥ १८ ॥ ‘ ीरामच जीके त अनुरागके कारण उ क स ताके लये ज ने आभूषण का प र ाग नह कया है, वे वदेहराजकु मारी भा मनी सीता इस समय भी अपने नूपुर क झनकारसे हंस के कलनादका तर ार-सा करती ◌इ लीला वलासयु ग तसे चलती ह॥ १९ ॥ ‘वे ीरामच जीके बा बलका भरोसा करके वनम रहती ह और हाथी, बाघ अथवा सहको भी देखकर कभी भय नह मानती ह॥ २० ॥ ‘अत: आप ीराम, ल ण अथवा सीताके लये शोक न कर, अपने और महाराजके लये भी च ा छोड़। ीरामच जीका यह पावन च र संसारम सदा ही र रहेगा॥ २१ ॥ ‘वे तीन ही शोक छोड़कर स च हो मह षय के मागपर ढ़तापूवक त ह और वनम रहकर फल-मूलका भोजन करते ए पताक उ म त ाका पालन कर रहे ह’॥ २२ ॥



इस कार यु यु वचन कहकर सार थ सुम ने पु शोकसे पी ड़त ◌इ कौस ाको च ा करने और रोनेसे रोका तो भी देवी कौस ा वलापसे वरत न ◌इं । वे ‘हा ारे!’ ‘हा पु !’ और ‘हा रघुन न!’ क रट लगाती ◌इ क ण न करती ही रह ॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म साठवाँ सग पूरा आ॥ ६०॥



इकसठवाँ सग कौस



ाका वलापपूवक राजा दशरथको उपाल



देना



जाजन को आन दान करनेवाले पु ष म े धमपरायण ीरामके वनम चले जानेपर आत होकर रोती ◌इ कौस ाने अपने प तसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘महाराज! य प तीन लोक म आपका महान् यश फै ला आ है,—सब लोग यही जानते ह क— रघुकुलनरेश दशरथ बड़े दयालु, उदार और य वचन बोलनेवाले ह॥ २ ॥ ‘नरेश म े आयपु ! तथा प आपने इस बातका वचार नह कया क सुखम पले ए आपके वे दोन पु सीताके साथ वनवासका क कै से सहन करगे॥ ३ ॥ ‘वह सोलह-अठारह वष क सुकुमारी त णी म थलेशकु मारी सीता, जो सुख भोगनेके ही यो है, वनम सद -गरमीका दु:ख कै से सहेगी?॥ ४ ॥ ‘ वशाललोचना सीता सु र न से यु सु र ा द अ भोजन कया करती थी, अब वह जंगलक त ीके चावलका सूखा भात कै से खायगी?॥ ‘जो मा लक व ु से स रहकर सदा गीत और वा क मधुर न सुना करती थी, वही जंगलम मांसभ ी सह का अशोभन (अम लकारी) श कै से सुन सके गी?॥ ६ ॥ ‘जो इ जके समान सम लोक के लये उ व दान करनेवाले थे, वे महाबली, महाबा ीराम अपनी प रघ-जैसी मोटी बाँहका त कया लगाकर कहाँ सोते ह गे?॥ ७ ॥ ‘ जसक का कमलके समान है, जसके ऊपर सु र के श शोभा पाते ह, जसक ेक साँससे कमलक -सी सुग नकलती है तथा जसम वक सत कमलके स श सु र ने सुशो भत होते ह, ीरामके उस मनोहर मुखको म कब देखूँगी?॥ ८ ॥ ‘मेरा दय न य ही लोहेका बना आ है, इसम संशय नह है; क ीरामको न देखनेपर भी मेरे इस दयके सह टुकड़े नह हो जाते ह॥ ९ ॥ ‘आपने यह बड़ा ही नदयतापूण कम कया है क बना कु छ सोच- वचार कये मेरे बा व को (कै के यीके कहनेसे) नकाल दया है, जसके कारण वे सुख भोगनेके यो होनेपर भी दीन होकर वनम दौड़ रहे ह॥ १० ॥



‘य द पं हव वषम ीरामच पुन: वनसे लौट छोड़ दगे, ऐसी स ावना नह दखायी देती॥ ११ ॥ ‘कहते ह,



तो भरत उनके लये रा और खजाना



कु छ लोग ा म पहले अपने बा व (दौ ह आ द)-को ही भोजन करा देते ह, उसके बाद कृ तकृ होकर नम त े ा ण क ओर ान देते ह। परंतु वहाँ जो गुणवान् एवं व ान् देवतु उ म ा ण होते ह, वे पीछे अमृत भी परोसा गया हो तो उसको ीकार नह करते ह॥ १२-१३ ॥ ‘य प पहली पं म भी ा ण ही भोजन करके उठे होते ह, तथा प जो े और व ान् ा ण ह, वे अपमानके भयसे उस भु शेष अ को उसी तरह हण नह कर पाते जैसे अ े बैल अपने स ग कटानेको नह तैयार होते ह॥ १४ ॥ ‘महाराज! इसी कार े और े ाता अपने छोटे भा◌इके भोगे ए रा को कै से हण करगे? वे उसका तर ार ( ाग) नह कर दगे?॥ १५ ॥ ‘जैसे बाघ गीदड़ आ द दूसरे ज ु के लाये या खाये ए भ पदाथ ( शकार)-को खाना नह चाहता, इसी कार पु ष सह ीराम दूसर के चाटे (भोगे) ए रा -भोगको नह ीकार करगे॥ १६ ॥ ‘ह व , घृत, पुरोडाश, कु श और ख दर (खैर)-के यूप—ये एक य के उपयोगम आ जानेपर ‘यातयाम’ (उपभु ) हो जाते ह; इस लये व ान् इनका फर दूसरे य म उपयोग नह करते ह॥ १७ ॥ ‘इसी कार न:सार सुरा और भु ाव श य स ी सोमरसक भाँ त इस भोगे ए रा को ीराम नह हण कर सकते॥ १८ ॥ ‘जैसे बलवान् शेर कसीके ारा अपनी पूँछका पकड़ा जाना नह सह सकता, उसी कार ीराम ऐसे अपमानको नह सह सकगे॥ १९ ॥ ‘सम लोक एक साथ होकर य द महासमरम आ जायँ तो भी वे ीरामच जीके मनम भय उ नह कर सकते, तथा प इस तरह रा लेनेम अधम मानकर उ ने इसपर अ धकार नह कया। जो धमा ा सम जग ो धमम लगाते ह, वे यं अधम कै से कर सकते ह?॥ २० ॥ ‘वे महापरा मी महाबा ीराम अपने सुवणभू षत बाण ारा सारे समु को भी उसी कार द कर सकते ह, जैसे संवतक अ देव लयकालम स ूण ा णय को भ कर



डालते ह॥ २१ ॥ ‘ सहके समान बल और बैलके समान बड़े-बड़े ने वाला वैसा नर े वीर पु यं अपने पताके ही हाथ ारा मारा गया (रा से व त कर दया गया)। ठीक उसी तरह, जैसे म का ब ा अपने पता म के ारा ही खा लया जाता है॥ २२ ॥ ‘आपके ारा धमपरायण पु को देश नकाला दे दया गया, अत: यह उठता है क सनातन ऋ षय ने वेदम जसका सा ा ार कया है तथा े ज जसे अपने आचरणम लाये ह, वह धम आपक म स है या नह ॥ २३ ॥ ‘राजन्! नारीके लये एक सहारा उसका प त है, दूसरा उसका पु है तथा तीसरा सहारा उसके पताभाई आ द ब -ु बा व ह, चौथा को◌इ सहारा उसके लये नह है॥ २४ ॥ ‘इन सहार मसे आप तो मेरे ह ही नह ( क आप सौतके अधीन ह)। दूसरा सहारा ीराम ह, जो वनम भेज दये गये (और ब -ु बा व भी दूर ह। अत: तीसरा सहारा भी नह रहा)। आपक सेवा छोड़कर म ीरामके पास वनम जाना नह चाहती ँ , इस लये सवथा आपके ारा मारी ही गयी॥ २५ ॥ ‘आपने ीरामको वनम भेजकर इस रा का तथा आस-पासके अ रा का भी नाश कर डाला, म य स हत सारी जाका वध कर डाला। आपके ारा पु स हत म भी मारी गयी और इस नगरके नवासी भी न ाय हो गये। के वल आपके पु भरत और प ी कै के यी दो ही स ए ह’॥ २६ ॥ कौस ाक यह कठोर श से यु वाणी सुनकर राजा दशरथको बड़ा दु:ख आ। वे ‘हा राम!’ कहकर मू त हो गये। राजा शोकम डू ब गये। फर उसी समय उ अपने एक पुराने दु मका रण हो आया, जसके कारण उ यह दु:ख ा आ था॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म इकसठवाँ सग पूरा आ॥ ६१॥



बासठवाँ सग द:ु खी ए राजा दशरथका कौस ाको हाथ जोड़कर मनाना और कौस चरण म पड़कर मा माँगना



ाका उनके



शोकम हो कु पत ◌इ ीराममाता कौस ाने जब राजा दशरथको इस कार कठोर वचन सुनाया, तब वे दु: खत होकर बड़ी च ाम पड़ गये॥ १ ॥ च त होनेके कारण राजाक सारी इ याँ मोहसे आ हो गय । तदन र दीघकालके प ात् श ु को संताप देनेवाले राजा दशरथको चेत आ॥ २ ॥ होशम आनेपर उ ने गरम-गरम लंबी साँस ली और कौस ाको बगलम बैठी ◌इ देख वे फर च ाम पड़ गये॥ ३ ॥ च ाम पड़े-पड़े ही उ अपने एक दु मका रण हो आया, जो इन श वेधी बाण चलानेवाले नरेशके ारा पहले अनजानम बन गया था॥ ४ ॥ उस शोकसे तथा ीरामके शोकसे भी राजाके मनम बड़ी वेदना ◌इ। उन दोन ही शोक से महाराज संत होने लगे॥ ५ ॥ उन दोन शोक से द होते ए दु:खी राजा दशरथ नीचे मुँह कये थर-थर काँपने लगे और कौस ाको मनानेके लये हाथ जोड़कर बोले—॥ ६ ॥ ‘कौस !े म तुमसे नहोरा करता ँ , तुम स हो जाओ। देखो, मने ये दोन हाथ जोड़ लये ह। तुम तो दूसर पर भी सदा वा और दया दखानेवाली हो ( फर मेरे त कठोर हो गयी?)॥ ७ ॥ ‘दे व! प त गुणवान् हो या गुणहीन, धमका वचार करनेवाली सती ना रय के लये वह देवता है॥ ‘तुम तो सदा धमम त र रहनेवाली और लोकम भले-बुरेको समझनेवाली हो। य प तुम भी दु: खत हो तथा प म भी महान् दु:खम पड़ा आ ँ , अत: तु मुझसे कठोर वचन नह कहना चा हये’॥ ९ ॥ दु:खी ए राजा दशरथके मुखसे कहे गये उस क णाजनक वचनको सुनकर कौस ा अपने ने से आँ सू बहाने लग , मानो छतक नालीसे नूतन (वषाका) जल गर रहा हो॥ १० ॥



वे अधमके भयसे रो पड़ और राजाके जुड़े ए कमलस श हाथ को अपने सरसे सटाकर घबराहटके कारण शी तापूवक एक-एक अ रका उ ारण करती ◌इ बोल —॥ ११ ॥ ‘देव! म आपके सामने पृ ीपर पड़ी ँ । आपके चरण म म क रखकर याचना करती ँ , आप स ह । य द आपने उलटे मुझसे ही याचना क , तब तो म मारी गयी। मुझसे अपराध आ हो तो भी म आपसे मा पानेके यो ँ , हार पानेके नह ॥ १२ ॥ ‘प त अपनी ीके लये इहलोक और परलोकम भी ृहणीय है। इस जग जो ी अपने बु मान् प तके ारा मनायी जाती है, वह कु ल- ी कहलानेके यो नह है॥ १३ ॥ ‘धम महाराज! म ी-धमको जानती ँ और यह भी जानती ँ क आप स वादी ह। इस समय मने जो कु छ भी न कहने यो बात कह दी है, वह पु शोकसे पी ड़त होनेके कारण मेरे मुखसे नकल गयी है॥ १४ ॥ ‘शोक धैयका नाश कर देता है। शोक शा ानको भी लु कर देता है तथा शोक सब कु छ न कर देता है; अत: शोकके समान दूसरा को◌इ श ु नह है॥ १५ ॥ ‘श ुके हाथसे अपने ऊपर पड़ा आ श का हार सह लया जा सकता है; परंतु दैववश ा आ थोड़ा-सा भी शोक नह सहा जा सकता॥ १६ ॥ ‘ ीरामको वनम गये आज पाँच रात बीत गय । म यही गनती रहती ँ । शोकने मेरे हषको न कर दया है, अत: ये पाँच रात मेरे लये पाँच वष के समान तीत ◌इ ह॥ १७ ॥ ‘ ीरामका ही च न करनेके कारण मेरे दयका यह शोक बढ़ता जा रहा है, जैसे न दय के वेगसे समु का जल ब त बढ़ जाता है’॥ १८ ॥ कौस ा इस कार शुभ वचन कह ही रही थ क सूयक करण म पड़ गय और रा काल आ प ँ चा। देवी कौस ाक इन बात से राजाको बड़ी स ता ◌इ। साथ ही वे ीरामके शोकसे भी पी ड़त थे। इस हष और शोकक अव ाम उ न द आ गयी॥ १९-२० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बासठवाँ सग पूरा आ॥ ६२॥



तरसठवाँ सग राजा दशरथका शोक और उनका कौस



ासे अपने ारा मु नकुमारके मारे जानेका स सुनाना



राजा दशरथ दो ही घड़ीके बाद फर जाग उठे । उस समय उनका दय शोकसे ाकु ल हो रहा था। वे मन-ही-मन च ा करने लगे॥ १ ॥ ीराम और ल णके वनम चले जानेसे इन इ तु तेज ी महाराज दशरथको शोकने उसी कार धर दबाया था, जैसे रा का अ कार सूयको ढक देता है॥ २ ॥ प ीस हत ीरामके वनम चले जानेपर कोसलनरेश दशरथने अपने पुरातन पापका रण करके कजरारे ने वाली कौस ासे कहनेका वचार कया॥ ३ ॥ उस समय ीरामच जीको वनम गये छठी रात बीत रही थी। जब आधी रात ◌इ, तब राजा दशरथको उस पहलेके कये ए दु मका रण आ॥ ४ ॥ पु शोकसे पी ड़त ए महाराजने अपने उस दु मको याद करके पु शोकसे ाकु ल ◌इ कौस ासे इस कार कहना आर कया—॥ ५ ॥ ‘क ा ण! मनु शुभ या अशुभ जो भी कम करता है, भ े! अपने उसी कमके फल प सुख या दु:ख कताको ा होते ह॥ ६ ॥ ‘जो कम का आर करते समय उनके फल क गु ता या लघुताको नह जानता, उनसे होनेवाले लाभ पी गुण अथवा हा न पी दोषको नह समझता, वह मनु बालक (मूख) कहा जाता है॥ ७ ॥ ‘को◌इ मनु पलाशका सु र फू ल देखकर मन-ही-मन यह अनुमान करके क इसका फल और भी मनोहर तथा सु ादु होगा, फलक अ भलाषासे आमके बगीचेको काटकर वहाँ पलाशके पौदे लगाता और स चता है, वह फल लगनेके समय प ा ाप करता है ( क उससे अपनी आशाके अनु प फल वह नह पाता है)॥ ८ ॥ ‘जो यमाण कमके फलका ान या वचार न करके के वल कमक ओर ही दौड़ता है, उसे उसका फल मलनेके समय उसी तरह शोक होता है, जैसा क आम काटकर पलाश स चनेवालेको आ करता है॥ ९ ॥



अब



‘मने भी आमका वन काटकर पलाश को ही स चा है, इस कमके फलक ीरामको खोकर म प ा ाप कर रहा ँ । मेरी बु कै सी खोटी है?॥



ा के समय



पताके जीवनकालम जब म के वल राजकु मार था, एक अ े धनुधरके पम मेरी ा त फै ल गयी थी। सब लोग यही कहते थे क ‘राजकु मार दशरथ श -वेधी बाण चलाना जानते ह।’ इसी ा तम पड़कर मने यह एक पाप कर डाला था ( जसे अभी बताऊँ गा)॥ ११ ॥ ‘दे व! उस अपने ही कये ए कु कमका फल मुझे इस महान् दु:खके पम ा आ है। जैसे को◌इ बालक अ ानवश वष खा ले तो उसे भी वह वष मार ही डालता है, उसी कार मोह या अ ानवश कये ए दु मका फल भी यहाँ मुझे भोगना पड़ रहा है॥ ‘जैसे दूसरा को◌इ गँवार मनु पलाशके फू ल पर ही मो हत हो उसके कड़वे फलको नह जानता, उसी कार म भी ‘श वेधी बाण- व ा’ क शंसा सुनकर उसपर ल ू हो गया। उसके ारा ऐसा ू रतापूण पापकम बन सकता है और ऐसा भयंकर फल ा हो सकता है, इसका ान मुझे नह आ॥ १३ ॥ ‘दे व! तु ारा ववाह नह आ था और म अभी युवराज ही था, उ दन क बात है। मेरी कामभावनाको बढ़ानेवाली वषा ऋतु आयी॥ १४ ॥ ‘सूयदेव पृ ीके रस को सुखाकर और जग ो अपनी करण से भलीभाँ त संत करके जसम यमलोकवत ेत वचरा करते ह, उस भयंकर द ण दशाम संचरण करते थे॥ १५ ॥ ‘सब ओर सजल मेघ गोचर होने लगे और गरमी त ाल शा हो गयी; इससे सम मेढक , चातक और मयूर म हष छा गया॥ १६ ॥ ‘प य क पाँख ऊपरसे भ ग गयी थ । वे नहा उठे थे और बड़ी क ठना◌इसे उन वृ तक प ँ च पाते थे, जनक डा लय के अ भाग वषा और वायुके झोक से झूम रहे थे॥ १७ ‘कौस



!े



॥ ‘ गरे



ए और बारंबार गरते ए जलसे आ ा दत आ मतवाला हाथी तर र हत शा समु तथा भीगे पवतके समान तीत होता था॥ १८ ॥ ‘पवत से गरनेवाले ोत या झरने नमल होनेपर भी पवतीय धातु के स कसे ेत, लाल और भ यु होकर सप क भाँ त कु टल ग तसे बह रहे थे॥ १९ ॥



‘वषा



ऋतुके उस अ सुखद सुहावने समयम म धनुष-बाण लेकर रथपर सवार हो शकार खेलनेके लये सरयू नदीके तटपर गया॥ २० ॥ ‘मेरी इ याँ मेरे वशम नह थ । मने सोचा था क पानी पीनेके घाटपर रातके समय जब को◌इ उप वकारी भसा, मतवाला हाथी अथवा सह- ा आ द दूसरा को◌इ हसक ज ु आवेगा तो उसे मा ँ गा॥ २१ ॥ ‘उस समय वहाँ सब ओर अ कार छा रहा था। मुझे अक ात् पानीम घड़ा भरनेक आवाज सुनायी पड़ी। मेरी तो वहाँतक प ँ चती नह थी, कतु वह आवाज मुझे हाथीके पानी पीते समय होनेवाले श के समान जान पड़ी॥ २२ ॥ ‘तब मने यह समझकर क हाथी ही अपनी सूँड़म पानी ख च रहा होगा; अत: वही मेरे बाणका नशाना बनेगा। तरकससे एक तीर नकाला और उस श को ल करके चला दया। वह दी मान् बाण वषधर सपके समान भयंकर था॥ २३ ॥ ‘वह उष:कालक वेला थी। वषैले सपके स श उस तीखे बाणको मने ही छोड़ा, ही वहाँ पानीम गरते ए कसी वनवासीका हाहाकार मुझे पसे सुनायी दया। मेरे बाणसे उसके ममम बड़ी पीड़ा हो रही थी। उस पु षके धराशायी हो जानेपर वहाँ यह मानववाणी कट ◌इ—सुनायी देने लगी—॥ २४-२५ ॥ ‘‘आह! मेरे-जैसे तप ीपर श का हार कै से स व आ? म तो नदीके इस एका तटपर रातम पानी लेनेके लये आया था॥ २६ ॥ ‘‘ कसने मुझे बाण मारा है? मने कसका ा बगाड़ा था? म तो सभी जीव को पीड़ा देनेक वृ का ाग करके ऋ ष-जीवन बताता था, वनम रहकर जंगली फल-मूल से ही जी वका चलाता था। मुझ-जैसे नरपराध मनु का श से वध कया जा रहा है? म व ल और मृगचम पहननेवाला जटाधारी तप ी ँ । मेरा वध करनेम कसने अपना ा लाभ सोचा होगा? मने मारनेवालेका ा अपराध कया था? मेरी ह ाका य थ ही कया गया! इससे कसीको कु छ लाभ नह होगा, के वल अनथ ही हाथ लगेगा॥ २७—२९ ॥ ‘‘इस ह ारेको संसारम कह भी को◌इ उसी तरह अ ा नह समझेगा, जैसे गु प ीगामीको। मुझे अपने इस जीवनके न होनेक उतनी च ा नह है; मेरे मारे जानेसे मेरे माता- पताको जो क होगा, उसीके लये मुझे बारंबार शोक हो रहा है। मने इन दोन वृ का ब त समयसे पालन-पोषण कया है; अब मेरे शरीरके न रहनेपर ये कस कार जीवन- नवाह



करगे? घातकने एक ही बाणसे मुझे और मेरे बूढ़े माता- पताको भी मौतके मुखम डाल दया। कस ववेकहीन और अ जते य पु षने हम सब लोग का एक साथ ही वध कर डाला?’॥ ३० —३२ १/२ ॥ ‘ये क णाभरे वचन सुनकर मेरे मनम बड़ी था ◌इ। कहाँ तो म धमक अ भलाषा रखनेवाला था और कहाँ यह अधमका काय बन गया। उस समय मेरे हाथ से धनुष और बाण छू टकर पृ ीपर गर पड़े॥ ‘रातम वलाप करते ए ऋ षका वह क ण वचन सुनकर म शोकके वेगसे घबरा उठा। मेरी चेतना अ वलु -सी होने लगी॥ ३४ १/२ ॥ ‘मेरे दयम दीनता छा गयी, मन ब त दु:खी हो गया। सरयूके कनारे उस ानपर जाकर मने देखा— एक तप ी बाणसे घायल होकर पड़े ह। उनक जटाएँ बखरी ◌इ ह, घड़ेका जल गर गया है तथा सारा शरीर धूल और खूनम सना आ है। वे बाणसे बधे ए पड़े थे। उनक अव ा देखकर म डर गया, मेरा च ठकाने नह था। उ ने दोन ने से मेरी ओर इस कार देखा, मानो अपने तेजसे मुझे भ कर देना चाहते ह । वे कठोर वाणीम य बोले—॥ ३५—३७ १/२ ॥ ‘‘राजन्! वनम रहते ए मने तु ारा कौन-सा अपराध कया था, जससे तुमने मुझे बाण मारा? म तो माता- पताके लये पानी लेनेक इ ासे यहाँ आया था॥ ३८ १/२ ॥ ‘‘तुमने एक ही बाणसे मेरा मम वदीण करके मेरे दोन अ े और बूढ़े माता- पताको भी मार डाला॥ ३९ १/२ ॥ ‘‘वे दोन ब त दुबले और अ े ह। न य ही ाससे पी ड़त होकर वे मेरी ती ाम बैठे ह गे। वे देरतक मेरे आगमनक आशा लगाये दु:खदा यनी ास लये बाट जोहते रहगे॥ ४० १/२ ॥ ‘‘अव



ही मेरी तप ा अथवा शा ानका को◌इ फल यहाँ कट नह हो रहा है; क पताजीको यह नह मालूम है क म पृ ीपर गरकर मृ ुश ापर पड़ा आ ँ ॥ ४१



१/ ॥ २



‘‘य द जान भी ल तो



ा कर सकते ह; क असमथ ह और चल- फर भी नह सकते ह। जैसे वायु आ दके ारा तोड़े जाते ए वृ को को◌इ दूसरा वृ नह बचा सकता, उसी



कार मेरे पता भी मेरी र ा नह कर सकते॥ ४२ १/२ ॥ ‘‘अत: रघुकुलनरेश! अब तु जाकर शी ही मेरे पताको यह समाचार सुना दो। (य द यं कह दोगे तो) जैसे लत अ समूचे वनको जला डालती है, उस कार वे ोधम भरकर तुमको भ नह करगे॥ ४३ १/२ ॥ ‘‘राजन्! यह पगडंडी उधर ही गयी है, जहाँ मेरे पताका आ म है। तुम जाकर उ स करो, जससे वे कु पत होकर तु शाप न द॥ ४४ १/२ ॥ ‘‘राजन्! मेरे शरीरसे इस बाणको नकाल दो। यह तीखा बाण मेरे मम ानको उसी कार पीड़ा दे रहा है, जैसे नदीके जलका वेग उसके कोमल बालुकामय ऊँ चे तटको छ - भ कर देता है’॥ ४५ १/२ ॥ ‘मु नकु मारक यह बात सुनकर मेरे मनम यह च ा समायी क य द बाण नह नकालता ँ तो इ ेश होता है और नकाल देता ँ तो ये अभी ाण से भी हाथ धो बैठते ह। इस कार बाणको नकालनेके वषयम मुझ दीन-दु:खी और शोकाकु ल दशरथक इस च ाको उस समय मु नकु मारने ल कया॥ ४६-४७ १/२ ॥ ‘यथाथ बातको समझ लेनेवाले उन मह षने मुझे अ ा नम पड़ा आ देख बड़े क से कहा— ‘राजन्! मुझे बड़ा क हो रहा है। मेरी आँ ख चढ़ गयी ह, अ -अ म तड़पन हो रही है। मुझसे को◌इ चे ा नह बन पाती। अब म मृ ुके समीप प ँ च गया ँ , फर भी धैयके ारा शोकको रोककर अपने च को र करता ँ (अब मेरी बात सुनो)॥ ४८-४९ ॥ ‘‘मुझसे ह ा हो गयी—इस च ाको अपने दयसे नकाल दो। राजन्! म ा ण नह ँ , इस लये तु ारे मनम ा णवधको लेकर को◌इ था नह होनी चा हये॥ ५० ॥ ‘‘नर े ! म वै पता ारा शू जातीय माताके गभसे उ आ ँ ।’ बाणसे ममम आघात प ँ चनेके कारण वे बड़े क से इतना ही कह सके । उनक आँ ख घूम रही थ । उनसे को◌इ चे ा नह बनती थी। वे पृ ीपर पड़े-पड़े छटपटा रहे थे और अ क का अनुभव करते थे। उस अव ाम मने उनके शरीरसे उस बाणको नकाल दया। फर तो अ भयभीत हो उन तपोधनने मेरी ओर देखकर अपने ाण ाग दये॥ ५१ ॥ ‘पानीम गरनेके कारण उनका सारा शरीर भीग गया था। ममम आघात लगनेके कारण बड़े क से वलाप करके और बारंबार उ ास लेकर उ ने ाण का ाग कया था।



क ाणी कौस े! उस अव ाम सरयूके तटपर मरे पड़े मु नपु को देखकर मुझे बड़ा दु:ख आ’॥ ५३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६३॥



च सठवाँ सग राजा दशरथका अपने ारा मु नकुमारके वधसे द:ु खी ए उनके माता- पताके वलाप और उनके दये ए शापका संग सुनाकर कौस ाके समीप रोते- बलखते ए आधी रातके समय अपने ाण को ाग देना



उन मह षके अनु चत वधका रण करके धमा ा रघुकुलनरेशने अपने पु के लये वलाप करते ए ही रानी कौस ासे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘दे व! अनजानम यह महान् पाप कर डालनेके कारण मेरी सारी इ याँ ाकु ल हो रही थ । म अके ला ही बु लगाकर सोचने लगा, अब कस उपायसे मेरा क ाण हो?॥ २ ॥ ‘तदन र उस घड़ेको उठाकर मने सरयूके उ म जलसे भरा और उसे लेकर मु नकु मारके बताये ए मागसे उनके आ मपर गया॥ ३ ॥ ‘वहाँ प ँ चकर मने उनके दुबले, अ े और बूढ़े माता- पताको देखा, जनका दूसरा को◌इ सहायक नह था। उनक अव ा पंख कटे ए दो प य के समान थी॥ ४ ॥ ‘वे अपने पु क ही चचा करते ए उसके आनेक आशा लगाये बैठे थे। उस चचाके कारण उ कु छ प र म या थकावटका अनुभव नह होता था। य प मेरे कारण उनक वह आशा धूलम मल चुक थी तो भी वे उसीके आसरे बैठे थे। अब वे दोन सवथा अनाथ-से हो गये थे॥ ५ ॥ ‘मेरा दय पहलेसे ही शोकके कारण घबराया आ था। भयसे मेरा होश ठकाने नह था। मु नके आ मपर प ँ चकर मेरा वह शोक और भी अ धक हो गया॥ ६ ॥ ‘मेरे पैर क आहट सुनकर वे मु न इस कार बोले—‘बेटा! देर लगा रहे हो? शी पानी ले आओ॥ ७ ॥ ‘‘तात! जस कारणसे तुमने बड़ी देरतक जलम ड़ा क है, उसी कारणको लेकर तु ारी यह माता तु ारे लये उ त हो गयी है; अत: शी ही आ मके भीतर वेश करो॥ ८ ॥ ‘‘बेटा! तात! य द तु ारी माताने अथवा मने तु ारा को◌इ अ य कया हो तो उसे तु अपने मनम नह लाना चा हये; क तुम तप ी हो॥ ९ ॥



‘हम



असहाय ह, तु हमारे सहायक हो। हम अ े ह, तु हमारे ने हो। हमलोग के ाण तु म अटके ए ह। बताओ, तुम बोलते नह हो?’॥ १० ॥ ‘मु नको देखते ही मेरे मनम भय-सा समा गया। मेरी जबान लड़खड़ाने लगी। कतने अ र का उ ारण नह हो पाता था। इस कार अ वाणीम मने बोलनेका यास कया॥ ११ ॥ ‘मान सक भयको बाहरी चे ा से दबाकर मने कु छ कहनेक मता ा क और मु नपर पु क मृ ुसे जो संकट आ पड़ा था, वह उनपर कट करते ए कहा—॥ १२ ॥ ‘‘महा न्! म आपका पु नह , दशरथ नामका एक य ँ । मने अपने कमवश यह ऐसा दु:ख पाया है, जसक स ु ष ने सदा न ा क है॥ १३ ॥ ‘‘भगवन्! म धनुष-बाण लेकर सरयूके तटपर आया था। मेरे आनेका उ े यह था क को◌इ जंगली हसक पशु अथवा हाथी घाटपर पानी पीनेके लये आवे तो म उसे मा ँ ॥ १४ ॥ ‘‘थोड़ी देर बाद मुझे जलम घड़ा भरनेका श सुनायी पड़ा। मने समझा को◌इ हाथी आकर पानी पी रहा है, इस लये उसपर बाण चला दया॥ १५ ॥ ‘‘ फर सरयूके तटपर जाकर देखा क मेरा बाण एक तप ीक छातीम लगा है और वे मृत ाय होकर धरतीपर पड़े ह॥ १६ ॥ ‘‘उस बाणसे उ बड़ी पीड़ा हो रही थी, अत: उस समय उ के कहनेसे मने सहसा वह बाण उनके मम- ानसे नकाल दया॥ १७ ॥ ‘‘बाण नकलनेके साथ ही वे त ाल ग सधार गये। मरते समय उ ने आप दोन पूजनीय अंधे पता-माताके लये बड़ा शोक और वलाप कया था॥ १८ ॥ ‘‘इस कार अनजानम मेरे हाथसे आपके पु का वध हो गया है। ऐसी अव ामे मेरे त जो शाप या अनु ह शेष हो, उसे देनेके लये आप मह ष मुझपर स ह ’॥ १९ ॥ ‘मने अपने मुँहसे अपना पाप कट कर दया था, इस लये मेरी ू रतासे भरी ◌इ वह बात सुनकर भी वे पू पाद मह ष मुझे कठोर द —भ हो जानेका शाप नह दे सके ॥ २० ॥ ‘उनके



मुखपर आँ सु क धारा बह चली और वे शोकसे मू त होकर दीघ न: ास लेने लगे। म हाथ जोड़े उनके सामने खड़ा था। उस समय उन महातेज ी मु नने मुझसे कहा—॥ २१



॥ ‘‘राजन्!



य द यह अपना पापकम तुम यं यहाँ आकर न बताते तो शी ही तु ारे म कके सैकड़ -हजार टुकड़े हो जाते॥ २२ ॥ ‘‘नरे र! य द य जान-बूझकर वशेषत: कसी वान ीका वध कर डाले तो वह व धारी इ ही न हो, वह उसे अपने ानसे कर देता है॥ ‘‘तप ाम लगे ए वैसे वादी मु नपर जान-बूझकर श का हार करनेवाले पु षके म कके सात टुकड़े हो जाते ह॥ २४ ॥ ‘‘तुमने अनजानम यह पाप कया है, इसी लये अभीतक जी वत हो। य द जान-बूझकर कया होता तो सम रघुवं शय का कु ल ही न हो जाता, अके ले तु ारी तो बात ही ा है?’॥ २५ ॥ ‘उ ने मुझसे यह भी कहा—‘नरे र! तुम हम दोन को उस ानपर ले चलो, जहाँ हमारा पु मरा पड़ा है। इस समय हम उसे देखना चाहते ह। यह हमारे लये उसका अ म दशन होगा’॥ २६ ॥ ‘तब म अके ला ही अ दु:खम पड़े ए उन द तको उस ानपर ले गया, जहाँ उनका पु कालके अधीन होकर पृ ीपर अचेत पड़ा था। उसके सारे अ खूनसे लथपथ हो रहे थे, मृगचम और व बखरे पड़े थे। मने प ीस हत मु नको उनके पु के शरीरका श कराया॥ २७-२८ ॥ ‘वे दोन तप ी अपने उस पु का श करके उसके अ नकट जाकर उसके शरीरपर गर पड़े। फर पताने पु को स ो धत करके उससे कहा—॥ २९ ॥ ‘‘बेटा! आज तुम मुझे न तो णाम करते हो और न मुझसे बोलते ही हो। तुम धरतीपर सो रहे हो? ा तुम हमसे ठ गये हो?॥ ३० ॥ ‘‘बेटा! य द म तु ारा य नह ँ तो तुम अपनी इस धमा ा माताक ओर तो देखो। तुम इसके दयसे नह लग जाते हो? व ! कु छ तो बोलो॥ ३१ ॥ ‘‘अब पछली रातम मधुर रसे शा या पुराण आ द अ कसी का वशेष पसे ा ाय करते ए कसके मुँहसे म मनोरम शा चचा सुनूँगा?॥ ३२ ॥



‘‘अब



कौन ान, सं ोपासना तथा अ हो करके मेरे पास बैठकर पु शोकके भयसे पी ड़त ए मुझ बूढ़के ो सा ना देता आ मेरी सेवा करेगा?॥ ३३ ॥ ‘‘अब कौन ऐसा है, जो क , मूल और फल लाकर मुझ अकम , अ सं हसे र हत और अनाथको य अ त थक भाँ त भोजन करायेगा॥ ३४ ॥ ‘‘बेटा! तु ारी यह तप नी माता अ ी, बूढ़ी, दीन तथा पु के लये उ त रहनेवाली है। म ( यं अ ा होकर) इसका भरण-पोषण कै से क ँ गा?॥ ‘‘पु ! ठहरो, आज यमराजके घर न जाओ। कल मेरे और अपनी माताके साथ चलना॥ ३६ ॥ ‘‘हम दोन शोकसे आत, अनाथ और दीन ह। तु ारे न रहनेपर हम शी ही यमलोकक राह लगे॥ ‘‘तदन र सूयपु यमराजका दशन करके म उनसे यह बात क ँ गा—धमराज मेरे अपराधको मा कर और मेरे पु को छोड़ द, जससे यह अपने माता- पताका भरण-पोषण कर सके ॥ ३८ ॥ ‘‘ये धमा ा ह, महायश ी लोकपाल ह। मुझ-जैसे अनाथको वह एक बार अभय दान दे सकते ह॥ ‘‘बेटा! तुम न ाप हो, कतु एक पापकमा यने तु ारा वध कया है, इस कारण मेरे स के भावसे तुम शी ही उन लोक म जाओ, जो अ योधी शूरवीर को ा होते ह। बेटा! यु म पीठ न दखानेवाले शूरवीर स ुख यु म मारे जानेपर जस ग तको ा होते ह, उसी उ म ग तको तुम भी जाओ॥ ४०-४१ ॥ ‘व ! राजा सगर, शै , दलीप, जनमेजय, न ष और धु ुमार जस ग तको ा ए ह, वही तु भी मले॥ ४२ ॥ ‘‘ ा ाय और तप ासे सम ा णय के आ यभूत जस पर क ा होती है, वही तु भी ा हो। व ! भू मदाता, अ हो ी, एकप ी ती, एक हजार गौ का दान करनेवाले, गु क सेवा करनेवाले तथा महा ान आ दके ारा देह ाग करनेवाले पु ष को जो ग त मलती है, वही तु भी ा हो॥



‘‘हम-जैसे



तप य के इस कु लम पैदा आ को◌इ पु ष बुरी ग तको नह ा हो सकता। बुरी ग त तो उसक होगी, जसने मेरे बा व प तु अकारण मारा है?’॥ ४५ ॥ ‘इस कार वे दीनभावसे बार ार वलाप करने लगे। त ात् अपनी प ीके साथ वे पु को जला ल देनेके कायम वृ ए॥ ४६ ॥ ‘इसी समय वह धम मु नकु मार अपने पु -कम के भावसे द प धारण करके शी ही इ के साथ गको जाने लगा॥ ४७ ॥ ‘इ स हत उस तप ीने अपने दोन बूढ़े पता-माताको एक मु ततक आ ासन देते ए उनसे बातचीत क ; फर वह अपने पतासे बोला—॥ ४८ ॥ ‘‘म आप दोन क सेवासे महान् ानको ा आ ँ , अब आपलोग भी शी ही मेरे पास आ जाइयेगा’॥ ४९ ॥ ‘यह कहकर वह जते य मु नकु मार उस सु र आकारवाले द वमानसे शी ही देवलोकको चला गया॥ ५० ॥ ‘तदन र प ीस हत उन महातेज ी तप ी मु नने तुरंत ही पु को जला ल देकर हाथ जोड़े खड़े ए मुझसे कहा—॥ ५१ ॥ ‘‘राजन्! तुम आज ही मुझे भी मार डालो; अब मरनेम मुझे क नह होगा। मेरे एक ही बेटा था, जसे तुमने अपने बाणका नशाना बनाकर मुझे पु हीन कर दया॥ ५२ ॥ ‘‘तुमने अ ानवश जो मेरे बालकक ह ा क है, उसके कारण म तु भी अ भयंकर एवं भलीभाँ त दु:ख देनेवाला शाप दूँगा॥ ५३ ॥ ‘राजन्! इस समय पु के वयोगसे मुझे जैसा क हो रहा है, ऐसा ही तु भी होगा। तुम भी पु शोकसे ही कालके गालम जाओगे॥ ५४ ॥ ‘‘नरे र! य होकर अनजानम तुमने वै जातीय मु नका वध कया है, इस लये शी ही तु ह ाका पाप तो नह लगेगा तथा प ज ी ही तु भी ऐसी ही भयानक और ाण लेनेवाली अव ा ा होगी। ठीक उसी तरह, जैसे द णा देनेवाले दाताको उसके अनु प फल ा होता है,॥ ५५-५६ ॥ ‘इस कार मुझे शाप देकर वे ब त देरतक क णाजनक वलाप करते रहे; फर वे दोन प त-प ी अपने शरीर को जलती ◌इ चताम डालकर गको चले गये॥ ५७ ॥



‘दे व!



इस कार बाल भावके कारण मने पहले श वेधी बाण मारकर और फर उस मु नके शरीरसे बाणको ख चकर जो उनका वध पी पाप कया था, वह आज इस पु वयोगक च ाम पड़े ए मुझे यं ही रण हो आया है॥ ५८ ॥ ‘दे व! अप व ु के साथ अ रस हण कर लेनेपर जैसे शरीरम रोग पैदा हो जाता है, उसी कार यह उस पापकमका फल उप त आ है। अत: क ा ण! उन उदार महा ाका शाप पी वचन इस समय मेरे पास फल देनेके लये आ गया है’॥ ५९ १/२ ॥ ऐसा कहकर वे भूपाल मृ ुके भयसे हो अपनी प ीसे रोते ए बोले—‘कौस े! अब म पु शोकसे अपने ाण का ाग क ँ गा। इस समय म तु अपनी आँ ख से देख नह पाता ँ ; तुम मेरा श करो॥ ६०-६१ ॥ ‘जो मनु यमलोकम जानेवाले (मरणास ) होते ह, वे अपने बा वजन को नह देख पाते ह। य द ीराम आकर एक बार मेरा श कर अथवा यह धनवैभव और युवराजपद ीकार कर ल तो मेरा व ास है क म जी सकता ँ ॥ ६२ १/२ ॥ ‘दे व! मने ीरामके साथ जो बताव कया है, वह मेरे यो नह था; परंतु ीरामने मेरे साथ जो वहार कया है, वह सवथा उ के यो है॥ ६३ १/२ ॥ ‘कौन बु मान् पु ष इस भूतलपर अपने दुराचारी पु का भी प र ाग कर सकता है? (एक म ँ , जसने अपने धमा ा पु को ाग दया) तथा कौन ऐसा पु है, जसे घरसे नकाल दया जाय और वह पताको कोसेतक नह ? (परंतु ीराम चुपचाप चले गये। उ ने मेरे व एक श भी नह कहा)॥ ६४ १/२ ॥ ‘कौस !े अब मेरी आँ ख तु नह देख पाती ह, रण-श भी लु होती जा रही है। उधर देखो, ये यमराजके दूत मुझे यहाँसे ले जानेके लये उतावले हो उठे ह॥ ६५ १/२ ॥ ‘इससे बढ़कर दु:ख मेरे लये और ा हो सकता है क म ाणा के समय स परा मी धम रामका दशन नह पा रहा ँ ॥ ६६ १/२ ॥ ‘ जनक समता करनेवाला संसारम दूसरा को◌इ नह है, उन य पु ीरामके न देखनेका शोक मेरे ाण को उसी तरह सुखाये डालता है, जैसे धूप थोड़े-से जलको शी सुखा देती है॥ ६७ १/२ ॥



‘वे



मनु नह देवता ह, जो आपके पं हव वष वनसे लौटनेपर ीरामका सु र मनोहर कु ल से अलंकृत मुख देखगे॥ ६८ १/२ ॥ ‘जो कमलके समान ने , सु र भ ह, दाँत और मनोहर ना सकासे सुशो भत ीरामके च ोपम मुखका दशन करगे, वे ध ह॥ ६९ १/२ ॥ ‘जो मेरे ीरामके शर स श मनोहर और फु कमलके समान सुवा सत मुखका दशन करगे, वे ध ह। जैसे (मूढ़ता आ द अव ा को ागकर अपने उ ) मागम त शु का दशन करके लोग सुखी होते ह, उसी कार वनवासक अव ध पूरी करके पुन: अयो ाम लौटकर आये ए ीरामको जो लोग देखगे वे ही सुखी ह गे॥ ७०-७१ १/२ ॥ ‘कौस !े मेरे च पर मोह छा रहा है, दय वदीण-सा हो रहा है, इ य से संयोग होनेपर भी मुझे श , श और रस आ द वषय का अनुभव नह हो रहा है॥ ७२ १/२ ॥ ‘जैसे तेल समा हो जानेपर दीपकक अ ण भा वलीन हो जाती है, उसी कार चेतनाके न होनेसे मेरी सारी इ याँ ही न हो चली ह॥ ७३ ॥ ‘ जस कार नदीका वेग अपने ही कनारेको काट गराता है, उसी कार मेरा अपना ही उ कया आ शोक मुझे वेगपूवक अनाथ और अचेत कये दे रहा है॥ ७४ ॥ ‘हा महाबा रघुन न! हा मेरे क को दूर करनेवाले ीराम! हा पताके य पु ! हा मेरे नाथ! हा मेरे बेटे! तुम कहाँ चले गये?॥ ७५ ॥ ‘हा कौस े! अब मुझे कु छ नह दखायी देता। हा तप न सु म े! अब म इस लोकसे जा रहा ँ । हा मेरी श ु, ू र, कु ला ार कै के य! (तेरी कु टल इ ा पूरी ◌इ)’॥ ७६ ॥ इस कार ीराम-माता कौस ा और सु म ाके नकट शोकपूण वलाप करते ए राजा दशरथके जीवनका अ हो गया॥ ७७ ॥ अपने य पु के वनवाससे शोकाकु ल ए राजा दशरथ इस कार दीनतापूण वचन कहते ए आधी रात बीतते-बीतते अ दु:खसे पी ड़त हो गये और उसी समय उन उदारदश नरेशने अपने ाण को ाग दया॥ ७८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म च सठवाँ सग पूरा आ॥ ६४॥



पसठवाँ सग व ीजन का



ु तपाठ, राजा दशरथको दवंगत आ जान उनक रा नय का क ण वलाप



तदन र रात बीतनेपर दूसरे दन सबेरे ही व ीजन (महाराजक ु त करनेके लये) राजमहलम उप त ए॥ १ ॥ ाकरण- ानसे स (अथवा उ म अल ार से वभू षत) सूत, उ म पसे वंशपर राका वण करानेवाले मागध और स ीतशा का अनुशीलन करनेवाले गायक अपनेअपने मागके अनुसार पृथक् -पृथक् यशोगान करते ए वहाँ आये॥ २ ॥ उ रसे आशीवाद देते ए राजाक ु त करनेवाले उन सूत-मागध आ दका श राजमहल के भीतरी भागम फै लकर गूँजने लगा॥ ३ ॥ वे सूतगण ु त कर रहे थे; इतनेहीम पा णवादक (हाथ से ताल देकर गानेवाले) वहाँ आये और राजा के बीते ए अ तु कम का बखान करते ए तालग तके अनुसार ता लयाँ बजाने लगे॥ ४ ॥ उस श से वृ क शाखा पर बैठे ए तथा राजकु लम ही वचरनेवाले पजड़ेम बंद शुक आ द प ी जागकर चहचहाने लगे॥ ५ ॥ शुक आ द प य तथा ा ण के मुखसे नकले ए प व श , वीणा के मधुर नाद तथा गाथा के आशीवादयु गानसे वह सारा भवन गूँज उठा॥ ६ ॥ तदन र सदाचारी तथा प रचयाकु शल सेवक, जनम य और खोज क सं ा अ धक थी, पहलेक भाँ त उस दन भी राजभवनम उप त ए॥ ७ ॥ ान व धके ाता भृ जन व धपूवक सोनेके घड़ म च न म त जल लेकर ठीक समयपर आये॥ ८ ॥ प व आचार- वचारवाली याँ, जनम कु मारी क ा क सं ा अ धक थी, म लके लये श करने यो गौ आ द, पीनेयो ग ाजल आ द तथा अ उपकरण—दपण, आभूषण और व आ द ले आय ॥ ९ ॥



ात:काल राजा के म लके लये जो-जो व ुएँ लायी जाती ह, उनका नाम आ भहा रक है। वहाँ लायी गयी सारी आ भहा रक साम ी सम शुभ ल ण से स , व धके अनु प, आदर और शंसाके यो उ म गुणसे यु तथा शोभायमान थी॥ १० ॥ सूय दय होनेतक राजाक सेवाके लये उ ुक आ सारा प रजनवग वहाँ आकर खड़ा हो गया। जब उस समयतक राजा बाहर नह नकले, तब सबके मनम यह श ा हो गयी क महाराजके न आनेका ा कारण हो सकता है?॥ ११ ॥ तदन र जो कोसलनरेश दशरथके समीप रहनेवाली याँ थ , वे उनक श ाके पास जाकर अपने ामीको जगाने लग ॥ १२ ॥ वे याँ उनका श आ द करनेके यो थ ; अत: वनीतभावसे यु पूवक उ ने उनक श ाका श कया। श करके भी वे उनम जीवनका को◌इ च नह पा सक ॥ १३ ॥



सोये ए पु षक जैसी त होती है, उसको भी वे याँ अ ी तरह समझती थ ; अत: उ ने दय एवं हाथके मूलभागम चलनेवाली ना ड़य क भी परी ा क , कतु वहाँ भी को◌इ चे ा नह तीत ◌इ। फर तो वे काँप उठ । उनके मनम राजाके ाण के नकल जानेक आश ा हो गयी॥ १४ ॥ वे जलके वाहके स ुख पड़े ए तनक के अ भागक भाँ त काँपती ◌इ तीत होने लग । संशयम पड़ी ◌इ उन य को राजाक ओर देखकर उनक मृ ुके वषयम जो श ा ◌इ थी, उसका उस समय उ पूरा न य हो गया॥ १५ ॥ पु शोकसे आ ा ◌इ कौस ा और सु म ा उस समय मरी ◌इके समान सो गयी थ और उस समयतक उनक न द नह खुल पायी थी॥ १६ ॥ सोयी ◌इ कौस ा ीहीन हो गयी थ । उनके शरीरका रंग बदल गया था। वे शोकसे परा जत एवं पी ड़त हो अ कारसे आ ा दत ◌इ ता रकाके समान शोभा नह पा रही थ ॥ १७ ॥ राजाके पास कौस ा थ और कौस ाके समीप देवी सु म ा थ । दोन ही न ाम हो जानेके कारण शोभाहीन तीत होती थ । उन दोन के मुखपर शोकके आँ सू फै ले ए थे॥ १८ ॥ उस समय उन दोन दे वय को न ाम देख अ :पुरक अ य ने यही समझा क सोते अव ाम ही महाराजके ाण नकल गये ह॥ १९ ॥



फर तो जैसे जंगलम यूथप त गजराजके अपने वास ानसे अ चले जानेपर ह थ नयाँ क ण ची ार करने लगती ह, उसी कार वे अ :पुरक सु री रा नयाँ अ दु:खी हो उ रसे आतनाद करने लग ॥ २० ॥ उनके रोनेक आवाजसे कौस ा और सु म ाक भी न द टूट गयी और वे दोन सहसा जाग उठ ॥ २१ ॥ कौस ा और सु म ाने राजाको देखा, उनके शरीरका श कया और ‘हा नाथ!’ क पुकार मचाती ◌इ वे दोन रा नयाँ पृ ीपर गर पड़ ॥ २२ ॥ कोसलराजकु मारी कौस ा धरतीपर लोटने और छटपटाने लग । उनका धू ल-धूस रत शरीर शोभाहीन दखायी देने लगा, मानो आकाशसे टूटकर गरी ◌इ को◌इ तारा धूलम लोट रही हो॥ २३ ॥ राजा दशरथके शरीरक उ ता शा हो गयी थी। इस कार उनका जीवन शा हो जानेपर भू मपर अचेत पड़ी ◌इ कौस ाको अ :पुरक उन सारी य ने मरी ◌इ ना गनके समान देखा॥ २४ ॥ तदन र पीछे आयी ◌इ महाराजक कै के यी आ द सारी रा नयाँ शोकसे संत होकर रोने लग और अचेत होकर गर पड़ ॥ २५ ॥ उन न करती ◌इ रा नय ने वहाँ पहलेसे होनेवाले बल आतनादको और भी बढ़ा दया। उस बढ़े ए आतनादसे वह सारा राजमहल पुन: बड़े जोरसे गूँज उठा॥ कालधमको ा ए राजा दशरथका वह भवन डरे, घबराये और अ उ ुक ए मनु से भर गया। सब ओर रोने- च ानेका भयंकर श होने लगा। वहाँ राजाके सभी ब -ु बा व शोक-संतापसे पी ड़त होकर जुट गये। वह सारा भवन त ाल आन शू हो दीनदु:खी एवं ाकु ल दखायी देने लगा॥ २७-२८ ॥ उन यश ी भूपाल शरोम णको दव त आ जान उनक सारी प याँ उ चार ओरसे घेरकर अ दु:खी हो जोर-जोरसे रोने लग और उनक दोन बाँह पकड़कर अनाथक भाँ त क ण- वलाप करने लग ॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पसठवाँ सग पूरा आ॥ ६५॥



छाछठवाँ सग राजाके लये कौस ाका वलाप और कैकेयीक भ ना, म य का राजाके शवको तेलसे भरे ए कड़ाहम सुलाना, रा नय का वलाप, पुरीक ीहीनता और पुरवा सय का शोक



बुझी ◌इ आग, जलहीन समु तथा भाहीन सूयक भाँ त शोभाहीन ए दव त राजाका शव देखकर कौस ाके ने म आँ सू भर आये। वे अनेक कारसे शोकाकु ल होकर राजाके म कको गोदम ले कै के यीसे इस कार बोल —॥ १-२ ॥ ‘दुराचा रणी ू र कै के यी! ले, तेरी कामना सफल ◌इ। अब राजाको भी ागकर एका च हो अपना अक क रा भोग॥ ३ ॥ ‘राम मुझे छोड़कर वनम चले गये और मेरे ामी ग सधारे। अब म दुगम मागम सा थय से बछु ड़कर असहाय ◌इ अबलाक भाँ त जी वत नह रह सकती॥ ‘नारीधमको ाग देनेवाली कै के यीके सवा संसारम दूसरी कौन ऐसी ी होगी जो अपने लये आरा देव प प तका प र ाग करके जीना चाहेगी?॥ ५ ॥ ‘जैसे को◌इ धनका लोभी दूसर को वष खला देता है और उससे होनेवाले ह ाके दोष पर ान नह देता, उसी कार इस कै के यीने कु ाके कारण रघुवं शय के इस कु लका नाश कर डाला॥ ६ ॥ ‘कै के यीने महाराजको अयो कायम लगाकर उनके ारा प ीस हत ीरामको वनवास दलवा दया। यह समाचार जब राजा जनक सुनगे, तब मेरे ही समान उनको भी बड़ा क होगा॥ ७ ॥ ‘म अनाथ और वधवा हो गयी—यह बात मेरे धमा ा पु कमलनयन ीरामको नह मालूम है। वे तो यहाँसे जीते-जी अ हो गये ह॥ ८ ॥ ‘प त-सेवा प मनोहर तप करनेवाली वदेहराजकु मारी सीता दु:ख भोगनेके यो नह है। वह वनम दु:खका अनुभव करके उ हो उठे गी॥ ९ ॥ ‘रातके समय भयानक श करनेवाले पशु-प य क बोली सुनकर भयभीत हो सीता ीरामक ही शरण लेगी— उ क गोदम जाकर छपेगी॥ १० ॥



‘जो



बूढ़े हो गये ह, क ाएँ मा ही जनक संत त ह, वे राजा जनक भी सीताक ही बार ार च ा करते ए शोकम डू बकर अव ही अपने ाण का प र ाग कर दगे॥ ११ ॥ ‘म भी आज ही मृ ुका वरण क ँ गी। एक प त ताक भाँ त प तके शरीरका आ ल न करके चताक आगम वेश कर जाऊँ गी’॥ १२ ॥ प तके शरीरको दयसे लगाकर अ दु:खसे आत हो क ण वलाप करती ◌इ तप नी कौस ाको राजकाज देखनेवाले म य ने दूसरी य ारा वहाँसे हटवा दया॥ १३ ॥



फर उ ने महाराजके शरीरको तेलसे भरे ए कड़ाहम रखकर व स आ दक आ ाके अनुसार शवक र ा आ द अ सब राजक य काय क सँभाल आर कर दी॥ १४ ॥ वे सव म ी पु के बना राजाका दाह-सं ार न कर सके , इस लये उनके शवक र ा करने लगे॥ जब म य ने राजाके शवको तैलके कड़ाहम सुलाया, तब यह जानकर सारी रा नयाँ ‘हाय! ये महाराज परलोकवासी हो गये’ ऐसा कहती ◌इ पुन: वलाप करने लग ॥ १६ ॥ उनके मुखपर ने से आँ सु के झरने झर रहे थे। वे अपनी भुजा को ऊपर उठाकर दीनभावसे रोने और शोकसंत हो दयनीय वलाप करने लग ॥ १७ ॥ वे बोल —‘हा महाराज! हम स त एवं सदा य बोलनेवाले अपने पु ीरामसे तो बछु ड़ी ही थ , अब आप भी हमारा प र ाग कर रहे ह?॥ १८ ॥ ‘ ीरामसे बछु ड़कर हम सब वधवाएँ इस दु वचारवाली सौत कै के यीके समीप कै से रहगी?॥ १९ ॥ ‘जो हमारे और आपके भी र क और भु थे, वे मन ी ीरामच राजल ीको छोड़कर वन चले गये॥ ‘वीरवर ीराम और आपके भी न रहनेसे हमारे ऊपर बड़ा भारी संकट आ गया, जससे हम मो हत हो रही ह। अब सौत कै के यीके ारा तर ृ त हो हम यहाँ कै से रह सकगी?॥ २१ ॥ ‘ जसने राजाका तथा सीतास हत ीराम और महाबली ल णका भी प र ाग कर दया, वह दूसरे कसका ाग नह करेगी?॥ २२ ॥



रघुकुलनरेश दशरथक वे सु री रा नयाँ महान् शोकसे हो आँ सू बहाती ◌इ नाना कारक चे ाएँ और वलाप कर रही थ । उनका आन लुट गया था॥ महामना राजा दशरथसे हीन ◌इ वह अयो ापुरी न हीन रा और प त वहीना नारीक भाँ त ीहीन हो गयी थी॥ २४ ॥ नगरके सभी मनु आँ सू बहा रहे थे। कु लवती याँ हाहाकार कर रही थ । चौराहे तथा घर के ार सूने दखायी देते थे। (वहाँ झाड़-बुहार, लीपने-पोतने तथा ब ल अपण करने आ दक याएँ नह होती थ ।) इस कार वह पुरी पहलेक भाँ त शोभा नह पाती थी॥ राजा दशरथ शोकवश ग सधारे और उनक रा नयाँ शोकसे ही भूतलपर लोटती रह । इस शोकम ही सहसा सूयक करण का चार बंद हो गया और सूयदेव अ हो गये। त ात् अ कारका चार करती ◌इ रा उप त ◌इ॥ २६ ॥ वहाँ पधारे ए सु द ने कसी भी पु के बना राजाका दाह-सं ार होना नह पसंद कया। अब राजाका दशन अ च हो गया, यह सोचते ए उन सबने उस तैलपूण कड़ाहम उनके शवको सुर त रख दया॥ २७ ॥ सूयके बना भाहीन आकाश तथा न के बना शोभाहीन रा क भाँ त अयो ापुरी महा ा राजा दशरथसे र हत हो ीहीन तीत होती थी। उसक सड़क और चौराह पर आँ सु से अव क वाले मनु क भीड़ एक हो गयी थी॥ २८ ॥ ंडु -के - ंडु ी और पु ष एक साथ खड़े होकर भरत-माता कै के यीक न ा करने लगे। उस समय महाराजक मृ ुसे अयो ापुरीम रहनेवाले सभी लोग शोकाकु ल हो रहे थे। को◌इ भी शा नह पाता था॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छाछठवाँ सग पूरा आ॥ ६६॥



सरसठवाँ सग माक ेय आ द मु नय तथा म य का राजाके बना होनेवाली देशक दरु व करके व स जीसे कसीको राजा बनानेके लये अनुरोध



ाका वणन



अयो ाम लोग क वह रात रोते-कलपते ही बीती। उसम आन का नाम भी नह था। आँ सु से सब लोग के क भरे ए थे। दु:खके कारण वह रात सबको बड़ी ल ी तीत ◌इ थी॥ १ ॥ जब रात बीत गयी और सूय दय आ, तब रा का ब करनेवाले ा णलोग एक हो दरबारम आये॥ २ ॥ माक ये , मौ , वामदेव, क प, का ायन, गौतम और महायश ी जाबा ल—ये सभी ा ण े राजपुरो हत व स जीके सामने बैठकर म य के साथ अपनी अलग-अलग राय देने लगे॥ ३-४ ॥ वे बोले—‘पु शोकसे इन महाराजके गवासी होनेके कारण यह रात बड़े दु:खसे बीती है, जो हमारे लये सौ वष के समान तीत ◌इ थी॥ ५ ॥ ‘महाराज दशरथ ग सधारे। ीरामच जी वनम रहने लगे और तेज ी ल ण भी ीरामके साथ ही चले गये॥ ६ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले दोन भा◌इ भरत और श ु के कयदेशके रमणीय राजगृहम नानाके घरम नवास करते ह॥ ७ ॥ ‘इ ाकु वंशी राजकु मार मसे कसीको आज ही यहाँका राजा बनाया जाय; क राजाके बना हमारे इस रा का नाश हो जायगा॥ ८ ॥ ‘जहाँ को◌इ राजा नह होता, ऐसे जनपदम व ु ाला से अलंकृत महान् गजन करनेवाला मेघ पृ ीपर द जलक वषा नह करता है॥ ९ ॥ ‘ जस जनपदम को◌इ राजा नह , वहाँके खेत म मु ी-के -मु ी बीज नह बखेरे जाते। राजासे र हत देशम पु पता और ी प तके वशम नह रहती॥ १० ॥ ‘राजहीन देशम धन अपना नह होता है। बना राजाके रा म प ी भी अपनी नह रह पाती है। राजार हत देशम यह महान् भय बना रहता है। (जब वहाँ प त-प ी आ दका स







नह रह सकता) तब फर दूसरा को◌इ स कै से रह सकता है?॥ ११ ॥ ‘ बना राजाके रा म मनु को◌इ प ायत-भवन नह बनवाते, रमणीय उ ानका भी नमाण नह करवाते तथा हष और उ ाहके साथ पु गृह (धमशाला, म र आ द) भी नह बनवाते ह॥ १२ ॥ ‘जहाँ को◌इ राजा नह , उस जनपदम भावत: य करनेवाले ज और कठोर तका पालन करनेवाले जते य ा ण उन बड़े-बड़े य का अनु ान नह करते, जनम सभी ऋ ज् और सभी यजमान होते ह॥ ‘राजार हत जनपदम कदा चत् महाय का आर हो भी तो उनम धनस ा ण भी ऋ ज को पया द णा नह देते (उ भय रहता है क लोग हम धनी समझकर लूट न ल)॥ १४ ॥ ‘अराजक देशम रा को उ तशील बनानेवाले उ व, जनम नट और नतक हषम भरकर अपनी कलाका दशन करते ह, बढ़ने नह पाते ह तथा दूसरे-दूसरे रा हतकारी संघ भी नह पनपने पाते ह॥ १५ ॥ ‘ बना राजाके रा म वादी और तवादीके ववादका संतोषजनक नपटारा नह हो पाता अथवा ापा रय को लाभ नह होता। कथा सुननेक इ ावाले लोग कथावाचक पौरा णक क कथा से स नह होते॥ ‘राजार हत जनपदम सोनेके आभूषण से वभू षत ◌इ कु मा रयाँ एक साथ मलकर सं ाके समय उ ान म ड़ा करनेके लये नह जाती ह॥ १७ ॥ ‘ बना राजाके रा म धनीलोग सुर त नह रह पाते तथा कृ ष और गोर ासे जीवननवाह करनेवाले वै भी दरवाजा खोलकर नह सो पाते ह॥ १८ ॥ ‘राजासे र हत जनपदम कामी मनु ना रय के साथ शी गामी वाहन ारा वन वहारके लये नह नकलते ह॥ १९ ॥ ‘जहाँ को◌इ राजा नह होता, उस जनपदम साठ वषके द ार हाथी घंटे बाँधकर सड़क पर नह घूमते ह॥ २० ॥ ‘ बना राजाके रा म धनु व ाके अ ासकालम नर र ल क ओर बाण चलानेवाले वीर क ा तथा करतलका श नह सुनायी देता है॥ २१ ॥



‘राजासे



र हत जनपदम दूर जाकर ापार करनेवाले व णक् बेचनेक ब त-सी व ुएँ साथ लेकर कु शलपूवक माग तै नह कर सकते॥ २२ ॥ ‘जहाँ को◌इ राजा नह होता, उस जनपदम जहाँ सं ा हो वह डेरा डाल देनेवाला, अपने अ :करणके ारा परमा ाका ान करनेवाला और अके ला ही वचरनेवाला जते य मु न नह घूमता- फरता है ( क उसे को◌इ भोजन देनेवाला नह होता)॥ २३ ॥ ‘अराजक देशम लोग को अ ा व ुक ा और ा व ुक र ा नह हो पाती। राजाके न रहनेपर सेना भी यु म श ु का सामना नह करती॥ २४ ॥ ‘ बना राजाके रा म लोग व ाभूषण से वभू षत हो -पु उ म घोड़ तथा रथ ारा सहसा या ा नह करते ह ( क उ लुटेर का भय बना रहता है)॥ ‘राजासे र हत रा म शा के व श व ान् मनु वन और उपवन म शा क ा ा करते ए नह ठहर पाते ह॥ २६ ॥ ‘जहाँ अराजकता फै ल जाती है, उस जनपदम मनको वशम रखनेवाले लोग देवता क पूजाके लये फू ल, मठा◌इ और द णाक व ा नह करते ह॥ २७ ॥ ‘ जस जनपदम को◌इ राजा नह होता है, वहाँ च न और अगु का लेप लगाये ए राजकु मार वस -ऋतुके खले ए वृ क भाँ त शोभा नह पाते ह॥ २८ ॥ ‘जैसे जलके बना न दयाँ, घासके बना वन और ाल के बना गौ क शोभा नह होती, उसी कार राजाके बना रा शोभा नह पाता है॥ २९ ॥ ‘जैसे ज रथका ान कराता है और धूम अ का बोधक होता है, उसी कार राजकाज देखनेवाले हमलोग के अ धकारको का शत करनेवाले जो महाराज थे, वे यहाँसे देवलोकको चले गये॥ ३० ॥ ‘राजाके न रहनेपर रा म कसी भी मनु क को◌इ भी व ु अपनी नह रह जाती। जैसे म एक-दूसरेको खा जाते ह, उसी कार अराजक देशके लोग सदा एक-दूसरेको खाते— लूटते-खसोटते रहते ह॥ ३१ ॥ ‘जो वेद-शा क तथा अपनी-अपनी जा तके लये नयत वणा मक मयादाको भ करनेवाले ना क मनु पहले राजद से पी ड़त होकर दबे रहते थे, वे भी अब राजाके न रहनेसे न:श होकर अपना भु कट करगे॥ ३२ ॥



‘जैसे



सदा ही शरीरके हतम वृ रहती है, उसी कार राजा रा के भीतर स और धमका व क होता है॥ ३३ ॥ ‘राजा ही स और धम है। राजा ही कु लवान का कु ल है। राजा ही माता और पता है तथा राजा ही मनु का हत करनेवाला है॥ ३४ ॥ ‘राजा अपने महान् च र के ारा यम, कु बेर, इ और महाबली व णसे भी बढ़ जाते ह (यमराज के वल द देते ह, कु बेर के वल धन देते ह, इ के वल पालन करते ह और व ण के वल सदाचारम नय त करते ह; परंतु एक े राजाम ये चार गुण मौजूद होते ह। अत: वह इनसे बढ़ जाता है)॥ ३५ ॥ ‘य द संसारम भले-बुरेका वभाग करनेवाला राजा न हो तो यह सारा जगत् अ कारसे आ -सा हो जाय, कु छ भी सूझ न पड़े॥ ३६ ॥ ‘व स जी! जैसे उमड़ता आ समु अपनी तटभू मतक प ँ चकर उससे आगे नह बढ़ता, उसी कार हम सब लोग महाराजके जीवनकालम भी के वल आपक ही बातका उ न नह करते थे॥ ३७ ॥ ‘अत: व वर! इस समय हमारे वहारको देखकर तथा राजाके अभावम जंगल बने ए इस देशपर पात करके आप ही कसी इ ाकु वंशी राजकु मारको अथवा दूसरे कसी यो पु षको राजाके पदपर अ भ ष क जये’॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६७॥



अड़सठवाँ सग व स जीक आ ासे पाँच दत ू का अयो ासे केकयदेशके राजगृह नगरम जाना



माक ये आ दके ऐसे वचन सुनकर मह ष व स ने म , म य और उन सम ा ण को इस कार उ र दया—॥ १ ॥ ‘राजा दशरथने जनको रा दया है, वे भरत इस समय अपने भा◌इ श ु के साथ मामाके यहाँ बड़े सुख और स ताके साथ नवास करते ह॥ २ ॥ ‘उन दोन वीर ब ु को बुलानेके लये शी ही तेज चलनेवाले दूत घोड़ पर सवार होकर यहाँसे जायँ, इसके सवा हमलोग और ा वचार कर सकते ह?’॥ ३ ॥ इसपर सबने व स जीसे कहा—‘हाँ, दूत अव भेजे जायँ।’ उनका वह कथन सुनकर व स जीने दूत को स ो धत करके कहा—॥ ४ ॥ ‘ स ाथ! वजय! जय ! अशोक! और न न! तुम सब यहाँ आओ और तु जो काम करना है, उसे सुनो। म तुम सब लोग से ही कहता ँ ॥ ५ ॥ ‘तुमलोग शी गामी घोड़ पर सवार होकर तुरंत ही राजगृह नगरको जाओ और शोकका भाव न कट करते ए मेरी आ ाके अनुसार भरतसे इस कार कहो॥ ६ ॥ ‘कु मार! पुरो हतजी तथा सम म य ने आपसे कु शल-म ल कहा है। अब आप यहाँसे शी ही च लये। अयो ाम आपसे अ आव क काय है॥ ‘भरतको ीरामच के वनवास और पताक मृ ुका हाल मत बतलाना और इन प र तय के कारण रघुवं शय के यहाँ जो कु हराम मचा आ है, इसक चचा भी न करना॥ ८ ॥ ‘के कयराज



तथा भरतको भट देनेके लये रेशमी व और उ म आभूषण लेकर तुमलोग यहाँसे शी चल दो’॥ के कय देशको जानेवाले वे दूत रा ेका खच ले अ े घोड़ पर सवार हो अपने-अपने घरको गये॥ १० ॥ तदन र या ास ी शेष तैयारी पूरी करके व स जीक आ ा ले सभी दूत तुरंत वहाँसे त हो गये॥ ११ ॥



अपरताल नामक पवतके अ म छोर अथात् द ण भाग और ल ग रके उ रभागम दोन पवत के बीचसे बहनेवाली मा लनी नदीके तटपर होते ए वे दूत आगे बढ़े॥ १२ ॥ ह नापुरम ग ाको पार करके वे प मक ओर गये और पा ालदेशम प ँ चकर कु जा ल देशके बीचसे होते ए आगे बढ़ गये॥ १३ ॥ मागम सु र फू ल से सुशो भत सरोवर तथा नमल जलवाली न दय का दशन करते ए वे दूत कायवश ती ग तसे आगे बढ़ते गये॥ १४ ॥ तदन र वे जलसे सुशो भत, पानीसे भरी ◌इ और भाँ त-भाँ तके प य से से वत द नदी शरद ाके तटपर प ँ चकर उसे वेगपूवक लाँघ गये॥ १५ ॥ शरद ाके प मतटपर एक द वृ था, जसपर कसी देवताका आवास था; इसी लये वहाँ जो याचना क जाती थी, वह स (सफल) होती थी, अत: उसका नाम स ोपयाचन हो गया था। उस व नीय वृ के नकट प ँ चकर दूत ने उसक प र मा क और वहाँसे आगे जाकर उ ने कु ल ा नामक पुरीम वेश कया॥ वहाँसे तेजोऽ भभवन नामक गाँवको पार करते ए वे अ भकाल नामक गाँवम प ँ चे और वहाँसे आगे बढ़नेपर उ ने राजा दशरथके पता- पतामह ारा से वत पु स लला इ मु ती नदीको पार कया॥ १७ ॥ वहाँ के वल अ लभर जल पीकर तप ा करनेवाले वेद के पारगामी ा ण का दशन करके वे दूत बा ीक देशके म भागम त सुदामा नामक पवतके पास जा प ँ चे॥ १८ ॥ उस पवतके शखरपर त भगवान् व ुके चरण च का दशन करके वे वपाशा ( ास) नदी और उसके तटवत शा ली वृ के नकट गये। वहाँसे आगे बढ़नेपर ब त-सी न दय , बाव ड़य , पोखर , छोटे तालाब , सरोवर तथा भाँ त-भाँ तके वनज ु — सह, ा , मृग और हा थय का दशन करते ए वे दूत अ वशाल मागके ारा आगे बढ़ने लगे। वे अपने ामीक आ ाका शी पालन करनेक इ ा रखते थे॥ १९-२० ॥ उन दूत के वाहन (घोड़े) चलते-चलते थक गये थे। वह माग बड़ी दूरका होनेपर उप वसे र हत था। उसे तै करके सारे दूत शी ही बना कसी क के े नगर ग र जम जा प ँ चे॥ २१ ॥



अपने ामी (आ ा देनेवाले व स जी) का य और जावगक र ा करने तथा महाराज दशरथके वंशपर रागत रा को भरतजीसे ीकार करानेके लये सादर त र ए वे



दूत बड़ी उतावलीके साथ चलकर रातम ही उस नगरम जा प ँ चे॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अड़सठवाँ सग पूरा आ॥ ६८॥



उनह रवाँ सग भरतक च ा, म ारा उ स करनेका यास तथा उनके पूछनेपर भरतका म के सम अपने देखे ए भयंकर द:ु का वणन करना



जस रातम दूत ने उस नगरम वेश कया था, उससे पहली रातम भरतने भी एक अ य देखा था॥ रात बीतकर ाय: सबेरा हो चला था तभी उस अ य को देखकर राजा धराज दशरथके पु भरत मन-ही-मन ब त संत ए॥ २ ॥ उ च त जान उनके अनेक यवादी म ने उनका मान सक ेश दूर करनेक इ ासे एक गो ी क और उसम अनेक कारक बात करने लगे॥ ३ ॥ कु छ लोग वीणा आ द बजाने लगे। दूसरे लोग उनके खेदक शा के लये नृ कराने लगे। दूसरे म ने नाना कारके नाटक का आयोजन कया, जनम हा रसक धानता थी॥ ४॥ कतु रघुकुलभूषण महा ा भरत उन यवादी म क गो ीम हा वनोद करनेपर भी स नह ए॥ ५ ॥ तब सु द से घरकर बैठे ए एक य म ने म के बीचम वराजमान भरतसे पूछा —‘सखे! तुम आज स नह होते हो?’॥ ६ ॥ इस कार पूछते ए सु दक् ो भरतने इस कार उ र दया—‘ म ! जस कारणसे मेरे मनम यह दै आया है, वह बताता ँ , सुनो। मने आज म अपने पताजीको देखा है। उनका मुख म लन था; बाल खुले ए थे और वे पवतक चोटीसे एक ऐसे गंदे गढेम गर पड़े थे, जसम गोबर भरा आ था॥ ७-८ ॥ ‘मने उस गोबरके कु म उ तैरते देखा था। वे अ लम तेल लेकर पी रहे थे और बार ार हँ सते ए-से तीत होते थे॥ ९ ॥ ‘ फर उ ने तल और भात खाया। इसके बाद उनके सारे शरीरम तेल लगाया गया और फर वे सर नीचे कये तैलम ही गोते लगाने लगे॥ १० ॥



म ही मने यह भी देखा है क समु सूख गया, च मा पृ ीपर गर पड़े ह, सारी पृ ी उप वसे और अ कारसे आ ा दत-सी हो गयी है॥ ११ ॥ ‘महाराजक सवारीके कामम आनेवाले हाथीका दाँत टूक-टूक हो गया है और पहलेसे लत होती ◌इ आग सहसा बुझ गयी है॥ १२ ॥ ‘मने यह भी देखा है क पृ ी फट गयी है, नाना कारके वृ सूख गये ह तथा पवत ढह गये ह और उनसे धुआँ नकल रहा है॥ १३ ॥ ‘काले लोहेक चौक पर महाराज दशरथ बैठे ह। उ ने काला ही व पहन रखा है और काले एवं प लवणक याँ उनके ऊपर हार करती ह॥ १४ ॥ ‘धमा ा राजा दशरथ लाल रंगके फू ल क माला पहने और लाल च न लगाये गधे जुते ए रथपर बैठकर बड़ी तेजीके साथ द ण दशाक ओर गये ह॥ ‘लाल व धारण करनेवाली एक ी, जो वकराल मुखवाली रा सी तीत होती थी, महाराजको हँ सती ◌इ-सी ख चकर लये जा रही थी। यह भी मेरे देखनेम आया॥ १६ ॥ ‘इस कार इस भयंकर रा के समय मने यह देखा है। इसका फल यह होगा क म, ीराम, राजा दशरथ अथवा ल ण—इनमसे कसी एकक अव मृ ु होगी॥ १७ ॥ ‘जो मनु म गधे जुते ए रथसे या ा करता दखायी देता है, उसक चताका धुआँ शी ही देखनेम आता है। यही कारण है क म दु:खी हो रहा ँ और आपलोग क बात का आदर नह करता ँ । मेरा गला सूखा-सा जा रहा है और मन अ -सा हो चला है॥ ‘म भयका को◌इ कारण नह देखता तो भी भयको ा हो रहा ँ । मेरा र बदल गया है तथा मेरी का भी फ क पड़ गयी है। म अपने-आपसे घृणा-सी करने लगा ँ , परंतु इसका कारण ा है, यह मेरी समझम नह आता॥ २० ॥ ‘ जनके वषयम मने पहले कभी सोचातक नह था, ऐसे अनेक कारके दु: को देखकर तथा महाराजका दशन इस पम आ, जसक मेरे मनम को◌इ क ना नह थी —यह सोचकर मेरे दयसे महान् भय दूर नह हो रहा है’॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म उनह रवाँ सग पूरा आ॥ ६९॥ ‘



स रवाँ सग दत ू का भरतको उनके नाना और मामाके लये उपहारक व ुएँ अ पत करना और व स जीका संदेश सुनाना, भरतका पता आ दक कुशल पूछना और नानासे आ ा तथा उपहारक व ुएँ पाकर श ु के साथ अयो ाक ओर ान करना



इस कार भरत जब अपने म को का वृ ा बता रहे थे, उसी समय थके ए वाहन वाले वे दूत उस रमणीय राजगृहपुरम व ए, जसक खा◌इको लाँघनेका क श ु के लये अस था॥ १ ॥ नगरम आकर वे दूत के कयदेशके राजा और राजकु मारसे मले तथा उन दोन ने भी उनका स ार कया। फर वे भावी राजा भरतके चरण का श करके उनसे इस कार बोले—॥ २ ॥ ‘कु मार! पुरो हतजी तथा सम



म य ने आपसे कु शल-म ल कहा है। अब आप यहाँसे शी च लये। अयो ाम आपसे अ आव क काय है॥ ३ ॥ ‘ वशाल ने वाले राजकु मार! ये ब मू व और आभूषण आप यं भी हण क जये और अपने मामाको भी दी जये॥ ४ ॥ ‘राजकु मार! यहाँ जो ब मू साम ी लायी गयी है, इसम बीस करोड़क लागतका सामान आपके नाना के के यनरेशके लये है और पूरे दस करोड़क लागतका सामान आपके मामाके लये है’॥ ५ ॥ वे सारी व ुएँ लेकर मामा आ द सु द म अनुराग रखनेवाले भरतने उ भट कर द । त ात् इ ानुसार व ुएँ देकर दूत का स ार करनेके अन र उनसे इस कार कहा—॥ ६ ॥ ‘मेरे न?॥ ७ ॥



पता महाराज दशरथ सकु शल तो ह न? महा ा ीराम और ल ण नीरोग तो ह



‘धमको



जानने और धमक ही चचा करनेवाली बु मान् ीरामक माता धमपरायणा आया कौस ाको तो को◌इ रोग या क नह है?॥ ८ ॥



ा वीर ल ण और श ु क जननी मेरी मझली माता धम ा सु म ा और सुखी ह?॥ ९ ॥ ‘जो सदा अपना ही ाथ स करना चाहती और अपनेको बड़ी बु मती समझती है, उस उ भाववाली कोपशीला मेरी माता कै के यीको तो को◌इ क नह है? उसने ा कहा है?’॥ १० ॥ महा ा भरतके इस कार पूछनेपर उस समय दूत ने वनयपूवक उनसे यह बात कही—॥ ११ ॥ ‘पु ष सह! आपको जनका कु शल-म ल अ भ ेत है, वे सकु शल ह। हाथम कमल लये रहनेवाली ल ी (शोभा) आपका वरण कर रही है। अब या ाके लये शी ही आपका रथ जुतकर तैयार हो जाना चा हये’॥ १२ ॥ उन दूत के ऐसा कहनेपर भरतने उनसे कहा— ‘अ ा म महाराजसे पूछता ँ क दूत मुझसे शी अयो ा चलनेके लये कह रहे ह। आपक ा आ ा है?’॥ १३ ॥ दूत से ऐसा कहकर राजकु मार भरत उनसे े रत हो नानाके पास जाकर बोले—॥ १४ ॥ ‘राजन्! म दूत के कहनेसे इस समय पताजीके पास जा रहा ँ । पुन: जब आप मुझे याद करगे, यहाँ आ जाऊँ गा’॥ भरतके ऐसा कहनेपर नाना के कयनरेशने उस समय उन रघुकुलभूषण भरतका म क सूँघकर यह शुभ वचन कहा—॥ १६ ॥ ‘तात! जाओ, म तु आ ा देता ँ । तु पाकर कै के यी उ म संतानवाली हो गयी। श ु को संताप देनेवाले वीर! तुम अपनी माता और पतासे यहाँका कु शल-समाचार कहना॥ १७ ॥ ‘तात! अपने पुरो हतजीसे तथा अ जो े ा ण ह , उनसे भी मेरा कु शल-म ल कहना। उन महाधनुधर दोन भा◌इ ीराम और ल णसे भी यहाँका कु शल-समाचार सुना देना’॥ १८ ॥ ऐसा कहकर के कयनरेशने भरतका स ार करके उ ब त-से उ म हाथी, व च कालीन, मृगचम और ब त-सा धन दये॥ १९ ॥ ‘



जो अ :पुरम पाल-पोसकर बड़े कये गये थे, बल और परा मम बाघ के समान थे, जनक दाढ़ बड़ी-बड़ी और काया वशाल थी, ऐसे ब त-से कु े भी के कयनरेशने भरतको भटम दये॥ २० ॥ दो हजार सोनेक मोहर और सोलह सौ घोड़े भी दये। इस कार के कयनरेशने के कयीकु मार भरतको स ारपूवक ब त-सा धन दया॥ २१ ॥ उस समय के कयनरेश अ प तने अपने अभी , व ासपा और गुणवान् म य को भरतके साथ जानेके लये शी आ ा दी॥ २२ ॥ भरतके मामाने उ उपहारम दये जानेवाले फलके पम इरावान् पवत और इ शर नामक ानके आस-पास उ होनेवाले ब त-से सु र-सु र हाथी तथा तेज चलनेवाले सु श त ख र दये॥ २३ ॥ उस समय जानेक ज ी होनेके कारण के कयीपु भरतने के कयराजके दये ए उस धनका अ भन न नह कया॥ २४ ॥ उस अवसरपर उनके दयम बड़ी भारी च ा हो रही थी। इसके दो कारण थे, एक तो दूत वहाँसे चलनेक ज ी मचा रहे थे, दूसरे उ दु: का दशन भी आ था॥ २५ ॥ वे या ाक तैयारीके लये पहले अपने आवास- ानपर गये। फर वहाँसे नकलकर मनु , हा थय और घोड़ से भरे ए परम उ म राजमागपर गये। उस समय भरतजीके पास ब त बड़ी स जुट गयी थी॥ सड़कको पार करके ीमान् भरतने राजभवनके परम उ म अ :पुरका दशन कया और उसम वे बेरोक-टोक घुस गये॥ २७ ॥ वहाँ नाना, नानी, मामा युधा जत् और मामीसे वदा ले श ु स हत रथपर सवार हो भरतने या ा आर क ॥ २८ ॥ गोलाकार प हयेवाले सौसे भी अ धक रथ म ऊँ ट, बैल, घोड़े और ख र जोतकर सेवक ने जाते ए भरतका अनुसरण कया॥ २९ ॥ श ुहीन महामना भरत अपनी और मामाक सेनासे सुर त हो श ु को अपने साथ रथपर लेकर नानाके अपने ही समान माननीय म य के साथ मामाके घरसे चले; मानो को◌इ स पु ष इ लोकसे कसी अ ानके लये त आ हो॥ ३० ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म स रवाँ सग पूरा आ॥ ७०॥



इकह रहवाँ सग रथ और सेनास हत भरतक या ा, व भ ान को पार करके उनका उ हाना नगरीके उ ानम प ँ चना और सेनाको धीरे-धीरे आनेक आ ा दे यं रथ ारा ती वेगसे आगे बढ़ते ए सालवनको पार करके अयो ाके नकट जाना, वहाँसे अयो ाक दरु व ा देखते ए आगे बढ़ना और सार थसे अपना द:ु खपूण उ ार कट करते ए राजभवनम वेश करना



राजगृहसे नकलकर परा मी भरत पूव दशाक ओर चले।* उन तेज ी राजकु मारने मागम सुदामा नदीका दशन करके उसे पार कया। त ात् इ ाकु न न ीमान् भरतने, जसका पाट दूरतक फै ला आ था, उस ा दनी नदीको लाँघकर प मा भमुख बहनेवाली शत ु नदी (सतलज) को पार कया॥ १-२ ॥ वहाँसे ऐलधान नामक गाँवम जाकर वहाँ बहनेवाली नदीको पार कया। त ात् वे अपरपवत नामक जनपदम गये। वहाँ शला नामक नदी बहती थी, जो अपने भीतर पड़ी ◌इ व ुको शला प बना देती थी। उसे पार करके भरत वहाँसे आ ेय कोणम त श कषण नामक देशम गये, जहाँ शरीरसे काँटेको नकालनेम सहायता करनेवाली ओष ध उपल होती थी॥ ३ ॥ तदन र स त भरतने प व होकर शलावहा नामक नदीका दशन कया (जो अपनी खर धारासे शलाख —बड़ी-बड़ी च ान को भी बहा ले जानेके कारण उ नामसे स थी)। उस नदीका दशन करके वे आगे बढ़ गये और बड़े-बड़े पवत को लाँघते ए चै रथ नामक वनम जा प ँ चे॥ ४ ॥ त ात् प मवा हनी सर ती तथा ग ाक धारा- वशेषके स मसे होते ए उ ने वीरम देशके उ रवत देश म पदापण कया और वहाँसे आगे बढ़कर वे भा वनके भीतर गये॥ ५ ॥ फर अ वेगसे बहनेवाली तथा पवत से घरी होनेके कारण अपने खर वाहके ारा कलकल नाद करनेवाली कु ल ा नदीको पार करके यमुनाके तटपर प ँ चकर उ ने सेनाको व ाम कराया॥ ६ ॥



थके ए घोड़ को नहलाकर उनके अ को शीतलता दान करके उ छायाम घास आ द देकर आराम करनेका अवसर दे राजकु मार भरत यं भी ान और जलपान करके रा ेके लये जल साथ ले आगे बढ़े। म लाचारसे यु हो मा लक रथके ारा उ ने, जसम मनु का ब धा आना-जाना या रहना नह होता था, उस वशाल वनको उसी कार वेगपूवक पार कया, जैसे वायु आकाशको लाँघ जाती है॥ ७-८ ॥ त ात् अंशुधान नामक ामके पास महानदी भागीरथी ग ाको दु र जानकर रघुन न भरत तुरंत ही ा ट नामसे व ात नगरम आ गये॥ ९ ॥ ा ट नगरम ग ाको पार करके वे कु टको का नामवाली नदीके तटपर आये और सेनास हत उसको भी पार करके धमवधन नामक ामम जा प ँ चे॥ १० ॥ वहाँसे तोरण ामके द णाध भागम होते ए ज ू म गये। तदन र दशरथकु मार भरत एक रमणीय ामम गये, जो व थके नामसे व ात था॥ वहाँ एक रमणीय वनम नवास करके वे ात:काल पूव दशाक ओर गये। जाते-जाते उ हाना नगरीके उ ानम प ँ च गये, जहाँ कद नामवाले वृ क ब तायत थी॥ १२ ॥ उन कद के उ ानम प ँ चकर अपने रथम शी गामी घोड़ को जोतकर सेनाको धीरे-धीरे आनेक आ ा दे भरत ती ग तसे चल दये॥ १३ ॥ त ात् सवतीथ नामक ामम एक रात रहकर उ ा नका नदी तथा अ न दय को भी नाना कारके पवतीय घोड़ ारा जुते ए रथसे पार करके नर े भरतजी ह पृ क नामक ामम जा प ँ चे। वहाँसे आगे जानेपर उ ने कु टका नदी पार क । फर लो ह नामक ामम प ँ चकर कपीवती नामक नदीको पार कया॥ १४-१५ ॥ फर एकसाल नगरके पास ाणुमती और वनत- ामके नकट गोमती नदीको पार करके वे तुरंत ही क ल नगरके पास सालवनम जा प ँ चे॥ १६ ॥ वहाँ जाते-जाते भरतके घोड़े थक गये। तब उ व ाम देकर वे रात -रात शी ही सालवनको लाँघ गये और अ णोदयकालम राजा मनुक बसायी ◌इ अयो ापुरीका उ ने दशन कया। पु ष सह भरत मागम सात रात तीत करके आठव दन अयो ापुरीका दशन कर सके थे॥ १७-१८ ॥ सामने अयो ापुरीको देखकर वे अपने सार थसे इस कार बोले—‘सूत! प व उ ान से सुशो भत यह यश नी नगरी आज मुझे अ धक स नह दखायी देती है। यह वही नगरी है,



जहाँ नर र य -याग करनेवाले गुणवान् और वेद के पार त व ान् ा ण नवास करते ह, जहाँ ब त-से ध नय क भी ब ी है तथा राज षय म े महाराज दशरथ जसका पालन करते ह, वही अयो ा इस समय दूरसे सफे द म ीके ढू हक भाँ त दीख रही है॥ १९-२० १/२ ॥ ‘पहले अयो ाम चार ओर नर-ना रय का महान् तुमुलनाद सुनायी पड़ता था; परंतु आज म उसे नह सुन रहा ँ ॥ २१ १/२ ॥ ‘सायंकालके समय लोग उ ान म वेश करके वहाँ ड़ा करते और उस ड़ासे नवृ होकर सब ओरसे अपने घर क ओर दौड़ते थे, अत: उस समय इन उ ान क अपूव शोभा होती थी, परंतु आज ये मुझे कु छ और ही कारके दखायी देते ह। वे ही उ ान आज कामीजन से प र होकर रोते ए-से तीत होते ह॥ २२-२३ ॥ ‘सारथे! यह पुरी मुझे जंगल-सी जान पड़ती है। अब यहाँ पहलेक भाँ त घोड़ , हा थय तथा दूसरी-दूसरी सवा रय से आते-जाते ए े मनु नह दखायी दे रहे ह॥ २४ ॥ ‘जो उ ान पहले मदम एवं आन म मर , को कल और नर-ना रय से भरे तीत होते थे तथा लोग के ेम- मलनके लये अ गुणकारी (अनुकूल सु वधा से स ) थे, उ को आज म सवथा आन शू देख रहा ँ । वहाँ मागपर वृ के जो प े गर रहे ह, उनके ारा मानो वे वृ क ण न कर रहे ह (और उनसे उपल त होनेके कारण वे उ ान आन हीन तीत होते ह)॥ २५-२६ ॥ ‘रागयु मधुर कलरव करनेवाले मतवाले मृग और प य का तुमुल श अभीतक सुनायी नह पड़ रहा है॥ २७ ॥ ‘च न और अगु क सुग से म त तथा धूपक मनोहर ग से ा नमल मनोरम समीर आज पहलेक भाँ त नह वा हत हो रहा है?॥ २८ ॥ ‘वादनद ारा बजायी जानेवाली भेरी, मृद और वीणाका जो आघातज नत श होता है, वह पहले अयो ाम सदा होता रहता था, कभी उसक ग त अव नह होती थी; परंतु आज वह श न जाने बंद हो गया है?॥ २९ ॥ ‘मुझे अनेक कारके अ न कारी, ू र और अशुभसूचक अपशकु न दखायी दे रहे ह, जससे मेरा मन ख हो रहा है॥ ३० ॥



‘सारथे! इससे



तीत होता है क इस समय मेरे बा व को कु शल-म ल सवथा दुलभ है, तभी तो मोहका को◌इ कारण न होनेपर भी मेरा दय बैठा जा रहा है’॥ ३१ ॥ भरत मन-ही-मन ब त ख थे। उनका दय श थल हो रहा था। वे डरे ए थे और उनक सारी इ याँ ु हो उठी थ , इसी अव ाम उ ने शी तापूवक इ ाकु वंशी राजा ारा पा लत अयो ापुरीम वेश कया॥ ३२ ॥ पुरीके ारपर सदा वैजय ी पताका फहरानेके कारण उस ारका नाम वैजय रखा गया था। (यह पुरीके प म भागम था।) उस वैजय ारसे भरत पुरीके भीतर व ए। उस समय उनके रथके घोड़े ब त थके ए थे। ारपाल ने उठकर कहा—‘महाराजक जय हो!’ फर वे उनके साथ आगे बढ़े॥ ३३ ॥ भरतका दय एका नह था—वे घबराये ए थे। अत: उन रघुकुलन न भरतने साथ आये ए ारपाल को स ारपूवक लौटा दया और के कयराज अ प तके थके -माँदे सार थसे वहाँ इस कार कहा—॥ ३४ ॥ ‘ न ाप सूत! म बना कारण ही इतनी उतावलीके साथ बुलाया गया? इस बातका वचार करके मेरे दयम अशुभक आश ा होती है। मेरा दीनतार हत भाव भी अपनी तसे -सा हो रहा है॥ ३५ ॥ ‘सारथे! अबसे पहले मने राजा के वनाशके जैस-े जैसे ल ण सुन रखे ह, उन सभी ल ण को आज म यहाँ देख रहा ँ ॥ ३६ ॥ ‘म देखता ँ —गृह के घर म झाड नह लगी है। वे खे और ीहीन दखायी देते ह। इनक कवाड़ खुली ह। इन घर म ब लवै देवकम नह हो रहे ह। ये धूपक सुग से व त ह। इनम रहनेवाले कु टु ीजन को भोजन नह ा आ है तथा ये सारे गृह भाहीन (उदास) दखायी देते ह। जान पड़ता है— इनम ल ीका नवास नह है॥ ३७-३८ १/२ ॥ ‘देवम र फू ल से सजे ए नह दखायी देते। इनके आँ गन झाड़े-बुहारे नह गये ह। ये मनु से सूने हो रहे ह, अतएव इनक पहले-जैसी शोभा नह हो रही है॥ ३९ १/२ ॥ ‘देव तमा क पूजा बंद हो गयी है। य शाला म य नह हो रहे ह। फू ल और माला के बाजारम आज बकनेक को◌इ व ुएँ नह शो भत हो रही ह। यहाँ पहलेके समान



ब नये भी आज नह दखायी देते ह। च ासे उनका दय उ जान पड़ता है और अपना ापार न हो जानेके कारण वे संकु चत हो रहे ह॥ ४०-४१ १/२ ॥ ‘देवालय तथा चै (देव) वृ पर जनका नवास है, वे पशु-प ी दीन दखायी दे रहे ह। म देखता ँ , नगरके सभी ी-पु ष का मुख म लन है, उनक आँ ख म आँ सू भरे ह और वे सब-के -सब दीन, च त, दुबल तथा उ त ह’॥ ४२-४३ ॥ सार थसे ऐसा कहकर अयो ाम होनेवाले उन अ न सूचक च को देखते ए भरत मनही-मन दु:खी हो राजमहलम गये॥ ४४ ॥ जो अयो ापुरी कभी देवराज इ क नगरीके समान शोभा पाती थी; उसीके चौराहे, घर और सड़क आज सूनी दखायी देती थ तथा दरवाज क कवाड़ धू ल-धूसर हो रही थ , उसक ऐसी दुदशा देख भरत पूणत: दु:खम नम हो गये॥ ४५ ॥ उस नगरम जो पहले कभी नह ◌इ थ , ऐसी अ य बात को देखकर महा ा भरतने अपना म क नीचेको कु ा लया, उनका हष छन गया और उ ने दीन- दयसे पताके भवनम वेश कया॥ ४६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म इकह रहवाँ सग पूरा आ॥ ७१॥ अयो ासे जो पाँच दूत चले थे, वे सीधी राहसे राजगृहम आये थे; अत: उनके मागम जो-जो ान पड़े थे, वे भरतके मागम नह पड़े थे। भरतके साथ रथ और चतुर णी सेना थी, अत: उसके नवाहके अनुकूल मागसे चलकर वे अयो ा प ँ चे थे। इस लये इनके मागम सवथा नये ाम और ान का उ ेख मलता है। *



बह रवाँ सग भरतका कैकेयीके भवनम जाकर उसे णाम करना, उसके ारा पताके परलोकवासका समाचार पा द:ु खी हो वलाप करना तथा ीरामके वषयम पूछनेपर कैकेयी ारा उनका ीरामके वनगमनके वृ ा से अवगत होना



तदन र पताके घरम पताको न देखकर भरत माताका दशन करनेके लये अपनी माताके महलम गये॥ १ ॥ अपने परदेश गये ए पु को घर आया देख उस समय कै के यी हषसे भर गयी और अपने सुवणमय आसनको छोड़ उछलकर खड़ी हो गयी॥ २ ॥ धमा ा भरतने अपने उस घरम वेश करके देखा क सारा घर ीहीन हो रहा है, फर उ ने माताके शुभ चरण का श कया॥ ३ ॥ अपने यश ी पु भरतको छातीसे लगाकर कै के यीने उनका म क सूँघा और उ गोदम बठाकर पूछना आर कया—॥ ४ ॥ ‘बेटा! तु अपने नानाके घरसे चले आज कतनी रात तीत हो गय ? तुम रथके ारा बड़ी शी ताके साथ आये हो। रा ेम तु अ धक थकावट तो नह ◌इ?॥ ५ ॥ ‘तु ारे नाना सकु शल तो ह न? तु ारे मामा युधा जत् तो कु शलसे ह? बेटा! जब तुम यहाँसे गये थे, तबसे लेकर अबतक सुखसे रहे हो न? ये सारी बात मुझे बताओ’॥ ६ ॥ कै के यीके इस कार य वाणीम पूछनेपर दशरथन न कमलनयन भरतने माताको सब बात बताय ॥ ७ ॥ (वे बोले—) ‘मा! नानाके घरसे चले मेरी यह सातव रात बीती है। मेरे नानाजी और मामा युधा जत् भी कु शलसे ह॥ ८ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले के कयनरेशने मुझे जो धन-र दान कये ह, उनके भारसे मागम सब वाहन थक गये थे, इस लये म राजक य संदेश लेकर गये ए दूत के ज ी मचानेसे यहाँ पहले ही चला आया ँ । अ ा माँ, अब म जो कु छ पूछता ँ , उसे तुम बताओ’॥ ९-१० ॥ ‘यह तु ारी श ा सुवणभू षत पलंग इस समय सूना है, इसका ा कारण है (आज यहाँ महाराज उप त नह ह)? ये महाराजके प रजन आज स नह जान पड़ते



ह?॥ ११ ॥ ‘महाराज ( पताजी) ाय: माताजीके ही महलम रहा करते थे, कतु आज म उ यहाँ नह देख रहा ँ । म उ का दशन करनेक इ ासे यहाँ आया ँ ॥ ‘म पूछता ँ , बताओ, पताजी कहाँ ह? म उनके पैर पकडँ गा। अथवा बड़ी माता कौस ाके घरम तो वे नह ह?’॥ १३ ॥ कै के यी रा के लोभसे मो हत हो रही थी। वह राजाका वृ ा न जाननेवाले भरतसे उस घोर अ य समाचारको य-सा समझती ◌इ इस कार बताने लगी—॥ १४ ॥ ‘बेटा! तु ारे पता महाराज दशरथ बड़े महा ा, तेज ी, य शील और स ु ष के आ यदाता थे। एक दन सम ा णय क जो ग त होती है, उसी ग तको वे भी ा ए ह’॥ १५ ॥ भरत धा मक कु लम उ ए थे और उनका दय शु था। माताक बात सुनकर वे पतृशोकसे अ पी ड़त हो सहसा पृ ीपर गर पड़े और ‘हाय, म मारा गया!’ इस कार अ दीन और दु:खमय वचन कहकर रोने लगे। परा मी महाबा भरत अपनी भुजा को बार ार पृ ीपर पटककर गरने और लोटने लगे॥ १६-१७ ॥ उन महातेज ी राजकु मारक चेतना ा और ाकु ल हो गयी। वे पताक मृ ुसे दु:खी और शोकसे ाकु ल च होकर वलाप करने लगे—॥ १८ ॥ ‘हाय! मेरे पताजीक जो यह अ सु र श ा पहले शर ालक रातम च मासे सुशो भत होनेवाले नमल आकाशक भाँ त शोभा पाती थी, वही यह आज उ बु मान् महाराजसे र हत होकर च मासे हीन आकाश और सूखे ए समु के समान ीहीन तीत होती है’॥ १९-२० ॥ वजयी वीर म े भरत अपने सु र मुख व से ढककर अपने क रके साथ आँ सू गराकर मन-ही-मन अ पी ड़त हो पृ ीपर पड़कर वलाप करने लगे॥ २१ ॥ देवतु भरत शोकसे ाकु ल हो वनम फरसेसे काटे गये साखूके तनेक भाँ त पृ ीपर पड़े थे, मतवाले हाथीके समान पु तथा च मा या सूयके समान तेज ी अपने शोकाकु ल पु को इस तरह भू मपर पड़ा देख माता कै के यीने उ उठाया और इस कार कहा—॥ २२-२३ ॥



‘राजन्! उठो! उठो! महायश



ी कु मार! तुम इस तरह यहाँ धरतीपर पड़े हो? तु ारेजैसे सभा म स ा नत होनेवाले स ु ष शोक नह कया करते ह॥ २४ ॥ ‘बु स पु ! जैसे सूयम लम भा न ल पसे रहती है, उसी कार तु ारी बु सु र है। वह दान और य म लगनेक अ धका रणी है; क सदाचार और वेदवा का अनुसरण करनेवाली है’॥ २५ ॥ भरत पृ ीपर लोटते-पोटते ब त देरतक रोते रहे। त ात् अ धका धक शोकसे आकु ल होकर वे मातासे इस कार बोले—॥ २६ ॥ ‘मने तो यह सोचा था क महाराज ीरामका रा ा भषेक करगे और यं य का अनु ान करगे— यही सोचकर मने बड़े हषके साथ वहाँसे या ा क थी॥ २७ ॥ ‘ कतु यहाँ आनेपर सारी बात मेरी आशाके वपरीत हो गय । मेरा दय फटा जा रहा है; क सदा अपने य और हतम लगे रहनेवाले पताजीको म नह देख रहा ँ ॥ २८ ॥ ‘मा! महाराजको ऐसा कौन-सा रोग हो गया था, जससे वे मेरे आनेके पहले ही चल बसे? ीराम आ द सब भा◌इ ध ह, ज ने यं उप त रहकर पताजीका अ े -सं ार कया॥ २९ ॥ ‘ न य ही मेरे पू पता यश ी महाराजको मेरे यहाँ आनेका कु छ पता नह है, अ था वे शी ही मेरे म कको कु ाकर उसे ारसे सूँघते॥ ३० ॥ ‘हा! अनायास ही महान् कम करनेवाले मेरे पताका वह कोमल हाथ कहाँ है, जसका श मेरे लये ब त ही सुखदायक था? वे उसी हाथसे मेरे धू लधूसर शरीरको बारंबार प छा करते थे॥ ३१ ॥ ‘अब जो मेरे भा◌इ, पता और ब ु ह तथा जनका म परम य दास ँ , अनायास ही महान् परा म करनेवाले उन ीरामच जीको तुम शी ही मेरे आनेक सूचना दो॥ ३२ ॥ ‘धमके ाता े पु षके लये बड़ा भा◌इ पताके समान होता है। म उनके चरण म णाम क ँ गा। अब वे ही मेरे आ य ह॥ ३३ ॥ ‘आय! धमका आचरण जनका भाव बन गया था तथा जो बड़ी ढ़ताके साथ उ म तका पालन करते थे, वे मेरे स परा मी और धम पता महाराज दशरथ अ म समयम ा कह गये थे? मेरे लये जो उनका अ म संदेश हो उसे म सुनना चाहता ँ ’॥ ३४ १/२ ॥



भरतके इस कार पूछनेपर कै के यीने सब बात ठीक-ठीक बता दी। वह कहने लगी —‘बेटा! बु मान म े तु ारे महा ा पता महाराजने ‘हा राम! हा सीते! हा ल ण!’ इस कार वलाप करते ए परलोकक या ा क थी॥ ३५-३६ ॥ ‘जैसे पाश से बँधा आ महान् गज ववश हो जाता है, उसी कार कालधमके वशीभूत ए तु ारे पताने अ म वचन इस कार कहा था—॥ ३७ ॥ ‘जो लोग सीताके साथ पुन: लौटकर आये ए महाबा ीराम और ल णको देखगे, वे ही कृ ताथ ह गे’॥ माताके ारा यह दूसरी अ य बात कही जानेपर भरत और भी दु:खी ही ए। उनके मुखपर वषाद छा गया और उ ने पुन: मातासे पूछा—॥ ३९ ॥ ‘मा! माता कौस ाका आन बढ़ानेवाले धमा ा ीरामच जी इस अवसरपर भा◌इ ल ण और सीताके साथ कहाँ चले गये ह?’॥ ४० ॥ इस कार पूछनेपर उनक माता कै के यीने एक साथ ही य बु से वह अ य संवाद यथो चत री तसे सुनाना आर कया—॥ ४१ ॥ ‘बेटा! राजकु मार ीराम व ल-व धारण करके सीताके साथ द कवनम चले गये ह। ल णने भी उ का अनुसरण कया है’॥ ४२ ॥ यह सुनकर भरत डर गये, उ अपने भा◌इके च र पर श ा हो आयी। (वे सोचने लगे— ीराम कह धमसे गर तो नह गये?) अपने वंशक मह ा (धमपरायणता) का रण करके वे कै के यीसे इस कार पूछने लगे—॥ ४३ ॥ ‘मा! ीरामने कसी कारणवश ा णका धन तो नह हर लया था? कसी न ाप धनी या द र क ह ा तो नह कर डाली थी?॥ ४४ ॥ ‘राजकु मार ीरामका मन कसी परायी ीक ओर तो नह चला गया? कस अपराधके कारण भैया ीरामको द कार म जानेके लये नवा सत कर दया गया है?’॥ ४५ ॥ तब चपल भाववाली भरतक माता कै के यीने उस ववेकशू च ल नारी भावके कारण ही अपनी करतूतको ठीक-ठीक बताना आर कया॥ ४६ ॥ महा ा भरतके पूव पसे पूछनेपर थ ही अपनेको बड़ी वदुषी माननेवाली कै के यीने बड़े हषम भरकर कहा—॥ ४७ ॥



‘बेटा!



ीरामने कसी कारणवश क ा भी ा णके धनका अपहरण नह कया है। कसी नरपराध धनी या द र क ह ा भी उ ने नह क है। ीराम कभी कसी परायी ीपर नह डालते ह॥ ४८ ॥ ‘बेटा! (उनके वनम जानेका कारण इस कार है)—मने सुना था क अयो ाम ीरामका रा ा भषेक होने जा रहा है, तब मने तु ारे पतासे तु ारे लये रा और ीरामके लये वनवासक ाथना क ॥ ४९ ॥ ‘उ ने अपने स त भावके अनुसार मेरी माँग पूरी क । ीराम ल ण और सीताके साथ वनको भेज दये गये, फर अपने य पु ीरामको न देखकर वे महायश ी महाराज पु शोकसे पी ड़त हो परलोकवासी हो गये॥ ५०-५१ ॥ ‘धम ! अब तुम राजपद ीकार करो। तु ारे लये ही मने इस कारसे यह सब कु छ कया है॥ ५२ ॥ ‘बेटा! शोक और संताप न करो, धैयका आ य लो। अब यह नगर और न क रा तु ारे ही अधीन है॥ ५३ ॥ ‘अत: व ! अब व ध- वधानके ाता व स आ द मुख ा ण के साथ तुम उदार दयवाले महाराजका अ े -सं ार करके इस पृ ीके रा पर अपना अ भषेक कराओ’॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बह रवाँ सग पूरा आ॥ ७२॥



तह रवाँ सग भरतका कैकेयीको ध



ारना और उसके



त महान् रोष कट करना



पताके परलोकवास और दोन भाइय के वनवासका समाचार सुनकर भरत दु:खसे संत हो उठे और इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘हाय! तूने मुझे मार डाला। म पतासे सदाके लये बछु ड़ गया और पतृतु बड़े भा◌इसे भी बलग हो गया। अब तो म शोकम डू ब रहा ँ , मुझे यहाँ रा लेकर ा करना है?॥ २ ॥ ‘तूने राजाको परलोकवासी तथा ीरामको तप ी बनाकर मुझे दु:ख-पर-दु:ख दया है, घावपर नमक-सा छड़क दया है॥ ३ ॥ ‘तू इस कु लका वनाश करनेके लये कालरा बनकर आयी थी। मेरे पताने तुझे अपनी प ी ा बनाया, दहकते ए अ ारको दयसे लगा लया था; कतु उस समय यह बात उनक समझम नह आयी थी॥ ४ ॥ ‘पापपर ही रखनेवाली! कु लकल नी! तूने मेरे महाराजको कालके गालम डाल दया और मोहवश इस कु लका सुख सदाके लये छीन लया॥ ५ ॥ ‘तुझे पाकर मेरे स त महायश ी पता महाराज दशरथ इन दन दु:सह दु:खसे संत होकर ाण ागनेको ववश ए ह॥ ६ ॥ ‘बता, तूने मेरे धमव ल पता महाराज दशरथका वनाश कया? मेरे बड़े भा◌इ ीरामको घरसे नकाला और वे भी (तेरे ही कहनेस)े वनको चले गये?॥ ७ ॥ ‘कौस ा और सु म ा भी मेरी माता कहलानेवाली तुझ कै के यीको पाकर पु शोकसे पी ड़त हो गय । अब उनका जी वत रहना अ क ठन है॥ ८ ॥ ‘बड़े भैया ीराम धमा ा ह; गु जन के साथ कै सा बताव करना चा हये—इसे वे अ ी तरह जानते ह, इस लये उनका अपनी माताके त जैसा बताव था, वैसा ही उ म वहार वे तेरे साथ भी करते थे॥ ९ ॥ ‘मेरी बड़ी माता कौस ा भी बड़ी दूरद शनी ह। वे धमका ही आ य लेकर तेरे साथ ब हनका-सा बताव करती ह॥ १० ॥



‘पा प न!



उनके महा ा पु को चीर और व ल पहनाकर तूने वनम रहनेके लये भेज दया। फर भी तुझे शोक नह हो रहा है॥ ११ ॥ ‘ ीराम कसीक बुरा◌इ नह देखते। वे शूरवीर, प व ा ा और यश ी ह। उ चीर पहनाकर वनवास दे देनेम तू कौन-सा लाभ देख रही है?॥ १२ ॥ ‘तू लो भन है। म समझता ँ , इसी लये तुझे यह पता नह है क मेरा ीरामच जीके त कै सा भाव है, तभी तूने रा के लये यह महान् अनथ कर डाला है॥ १३ ॥ ‘म पु ष सह ीराम और ल णको न देखकर कस श के भावसे इस रा क र ा कर सकता ँ ? (मेरे बल तो मेरे भा◌इ ही ह)॥ १४ ॥ ‘मेरे धमा ा पता महाराज दशरथ भी सदा उन महातेज ी बलवान् ीरामका ही आ य लेते थे (उ से अपने लोक-परलोकक स क आशा रखते थे), ठीक उसी तरह जैसे मे पवत अपनी र ाके लये अपने ऊपर उ ए गहन वनका ही आ य लेता है (य द वह दुगम वनसे घरा आ न हो तो दूसरे लोग न य ही उसपर आ मण कर सकते ह)॥ १५ ॥ ‘यह रा का भार, जसे कसी महाधुरंधरने धारण कया था, म कै से, कस बलसे धारण कर सकता ँ ? जैसे को◌इ छोटा-सा बछड़ा बड़े-बड़े बैल ारा ढोये जानेयो महान् भारको नह ख च सकता, उसी कार यह रा का महान् भार मेरे लये अस है॥ १६ ॥ ‘अथवा नाना कारके उपाय तथा बु बलसे मुझम रा के भरण-पोषणक श हो तो भी के वल अपने बेटेके लये रा चाहनेवाली तुझ कै के यीक मन:कामना पूरी नह होने दूँगा॥ १७ ॥ ‘य द ीराम तुझे सदा अपनी माताके समान नह देखते होते तो तेरी-जैसी पापपूण वचारवाली माताका ाग करनेम मुझे त नक भी हचक नह होती॥ १८ ॥ ‘उ म च र से गरी ◌इ पा प न! मेरे पूवज ने जसक सदा न ा क है, वह पापपर ही रखनेवाली बु तुझम कै से उ हो गयी?॥ १९ ॥ ‘इस कु लम जो सबसे बड़ा होता है, उसीका रा ा भषेक होता है; दूसरे भा◌इ सावधानीके साथ बड़ेक आ ाके अधीन रहकर काय करते ह॥ २० ॥ ‘ ू र भाववाली कै के य! मेरी समझम तू राजधमपर नह रखती है अथवा उसे बलकु ल नह जानती। राजा के बतावका जो सनातन प है, उसका भी तुझे ान नह है॥



२१ ॥



‘राजकु मार म



जो े होता है, सदा उसीका राजाके पदपर अ भषेक कया जाता है। सभी राजा के यहाँ समान पसे इस नयमका पालन होता है। इ ाकु वंशी नरेश के कु लम इसका वशेष आदर है॥ २२ ॥ ‘ जनक एकमा धमसे ही र ा होती आयी है तथा जो कु लो चत सदाचारके पालनसे ही सुशो भत ए ह, उनका यह च र वषयक अ भयान आज तुझे पाकर—तेरे स के कारण दूर हो गया॥ २३ ॥ ‘महाभागे! तेरा ज भी तो महाराज के कयके कु लम आ है, फर तेरे दयम यह न त बु मोह कै से उ हो गया?॥ २४ ॥ ‘अरी! तेरा वचार बड़ा ही पापपूण है। म तेरी इ ा कदा प नह पूण क ँ गा। तूने मेरे लये उस वप क न व डाल दी है, जो मेरे ाणतक ले सकती है॥ २५ ॥ ‘यह ले, म अभी तेरा अ य करनेके लये तुल गया ँ । म वनसे न ाप ाता ीरामको, जो जन के य ह, लौटा लाऊँ गा॥ २६ ॥ ीरामको लौटा लाकर उ ी तेजवाले उ महापु षका दास बनकर च से जीवन तीत क ँ गा’॥ २७ ॥ ऐसा कहकर महा ा भरत शोकसे पी ड़त हो पुन: जली-कटी बात से कै के यीको थत करते ए उसे जोर-जोरसे फटकारने लगे, मानो म राचलक गुहाम बैठा आ सह गरज रहा हो॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तह रवाँ सग पूरा आ॥ ७३॥



चौह रवाँ सग भरतका कैकेयीको कड़ी फटकार देना



इस कार माताक न ा करके भरत उस समय महान् रोषावेशसे भर गये और फर कठोर वाणीम कहने लगे—॥ १ ॥ ‘ तापूण बताव करनेवाली ू र दया कै के य! तू रा से हो जा। धमने तेरा प र ाग कर दया है, अत: अब तू मरे ए महाराजके लये रोना मत, ( क तू प ीधमसे गर चुक है) अथवा मुझे मरा आ समझकर तू ज भर पु के लये रोया कर॥ २ ॥ ‘ ीरामने अथवा अ धमा ा महाराज ( पताजी) ने तेरा ा बगाड़ा था, जससे एक साथ ही उ तु ारे कारण वनवास और मृ ुका क भोगना पड़ा?॥ ३ ॥ कै के य! तूने इस कु लका वनाश करनेके कारण ूणह ाका पाप अपने सरपर लया है, इस लये तू नरकम जा और पताजीका लोक तुझे न मले॥ ४ ॥ ‘तूने इस घोर कमके ारा सम लोक के य ीरामको देश नकाला देकर जो ऐसा बड़ा पाप कया है, उसने मेरे लये भी भय उप त कर दया है॥ ५ ॥ ‘तेरे कारण मेरे पताक मृ ु ◌इ, ीरामको वनका आ य लेना पड़ा और मुझे भी तूने इस जीवजग अपयशका भागी बना दया॥ ६ ॥ ‘रा के लोभम पड़कर ू रतापूण कम करनेवाली दुराचा रणी प तघा त न! तू माताके पम मेरी श ु है। तुझे मुझसे बात नह करनी चा हये॥ ७ ॥ ‘कौस ा, सु म ा तथा जो अ मेरी माताएँ ह, वे सब तुझ कु लकल नीके कारण महान् दु:खम पड़ गयी ह॥ ८ ॥ ‘तू बु मान् धमराज अ प तक क ा नह है। तू उनके कु लम को◌इ रा सी पैदा हो गयी है, जो पताके वंशका व ंस करनेवाली है॥ ९ ॥ ‘तूने सदा स म त र रहनेवाले धमा ा वीर ीरामको जो वनम भेज दया और तेरे कारण जो मेरे पता गवासी हो गये, इन सब कु कृ ारा तूने धान पसे जस पापका अजन कया है, वह पाप मुझम आकर अपना फल दखा रहा है; इस लये म पतृहीन हो गया, अपने दो भाइय से बछु ड़ गया और सम जग े लोग के लये अ य बन गया॥ १०-११ ॥



‘पापपूण



वचार रखनेवाली नरकगा मनी कै के य! धमपरायणा माता कौस ाको प त और पु से व त करके अब तू कस लोकम जायगी?॥ १२ ॥ ‘ ू र दये! कौस ापु ीराम मेरे बड़े भा◌इ और पताके तु ह। वे जते य और ब ु के आ यदाता ह। ा तू उ इस पम नह जानती है?॥ १३ ॥ ‘पु माताके अ और दयसे उ होता है, इस लये वह माताको अ धक य होता है। अ भा◌इ-ब ु के वल य ही होते ह ( कतु पु यतर होता है)॥ १४ ॥ ‘एक समयक बात है क धमको जाननेवाली देव-स ा नत सुर भ (कामधेन)ु ने पृ ीपर अपने दो पु को देखा, जो हल जोतते-जोतते अचेत हो गये थे॥ १५ ॥ ‘म ा का समय होनेतक लगातार हल जोतनेसे वे ब त थक गये थे। पृ ीपर अपने उन दोन पु को ऐसी दुदशाम पड़ा देख सुर भ पु शोकसे रोने लगी। उसके ने म आँ सू उमड़ आये॥ १६ ॥ ‘उसी समय महा ा देवराज इ सुर भके नीचेसे होकर कह जा रहे थे। उनके शरीरपर कामधेनुके दो बूँद सुग त आँ सू गर पड़े॥ १७ ॥ ‘जब इ ने ऊपर डाली, तब देखा— आकाशम सुर भ खड़ी ह और अ दु:खी हो दीनभावसे रो रही ह॥ १८ ॥ ‘यश नी सुर भको शोकसे संत ◌इ देख व धारी देवराज इ उ हो उठे और हाथ जोड़कर बोले—॥ १९ ॥ ‘सबका हत चाहनेवाली दे व! हमलोग पर कह से को◌इ महान् भय तो नह उप त आ है? बताओ, कस कारणसे तु यह शोक ा आ है?॥ २० ॥ ‘बु मान् देवराज इ के इस कार पूछनेपर बोलनेम चतुर और धीर भाववाली सुर भने उ इस कार उ र दया—॥ २१ ॥ ‘देवे र! पाप शा हो। तुमलोग पर कह से को◌इ भय नह है। म तो अपने इन दोन पु को वषम अव ा (घोर स ट) म म आ देख शोक कर रही ँ ॥ २२ ॥ ‘ये दोन बैल अ दुबल और दु:खी ह, सूयक करण से ब त तप गये ह और ऊपरसे वह दु कसान इ पीट रहा है॥ २३ ॥



‘मेरे



शरीरसे इनक उ ◌इ है। ये दोन भारसे पी ड़त और दु:खी ह, इसी लये इ देखकर म शोकसे संत हो रही ँ ; क पु के समान य दूसरा को◌इ नह है’॥ २४ ॥ ‘ जनके सह पु से यह सारा जगत् भरा आ है, उ कामधेनुको इस तरह रोती देख इ ने यह माना क पु से बढ़कर और को◌इ नह है॥ २५ ॥ ‘देवे र इ ने अपने शरीरपर उस प व ग वाले अ ुपातको देखकर देवी सुर भको इस जग सबसे े माना॥ २६ ॥ ‘ जनका च र सम ा णय के लये समान पसे हतकर और अनुपम है, जो अभी दान प ऐ यश से स , स प धान गुणसे यु तथा लोकर ाक कामनासे कायम वृ होनेवाली ह और जनके सह पु ह, वे कामधेनु भी जब अपने दो पु के लये उनके ाभा वक चे ाम रत होनेपर भी क पानेके कारण शोक करती ह तब जनके एक ही पु है, वे माता कौस ा ीरामके बना कै से जी वत रहगी?॥ २७-२८ ॥ ‘इकलौते बेटेवाली इन सती-सा ी कौस ाका तूने उनके पु से बछोह करा दया है, इस लये तू सदा ही इस लोक और परलोकम भी दु:ख ही पायेगी॥ २९ ॥ ‘म तो यह रा लौटाकर भा◌इक पूजा क ँ गा और यह सारा अ े सं ार आ द करके पताका भी पूण पसे पूजन क ँ गा तथा न:संदेह म वही कम क ँ गा, जो (तेरे दये ए कल को मटानेवाला और) मेरे यशको बढ़ानेवाला हो॥ ३० ॥ ‘महाबली महाबा कोसलनरेश ीरामको यहाँ लौटा लाकर म यं ही मु नजनसे वत वनम वेश क ँ गा॥ ‘पापपूण संक करनेवाली पा प न! पुरवासी मनु आँ सू बहाते ए अव क हो मुझे देख और म तेरे कये ए इस पापका बोझ ढोता र ँ —यह मुझसे नह हो सकता॥ ३२ ॥ ‘अब तू जलती आगम वेश कर जा, या यं द कार म चली जा अथवा गलेम र ी बाँधकर ाण दे दे, इसके सवा तेरे लये दूसरी को◌इ ग त नह है॥ ३३ ॥ ‘स परा मी ीरामच जी जब अयो ाक भू मपर पदापण करगे, तभी मेरा कल दूर होगा और तभी म कृ तकृ होऊँ गा’॥ ३४ ॥ यह कहकर भरत वनम तोमर और अंकुश ारा पी ड़त कये गये हाथीक भाँ त मू त होकर पृ ीपर गर पड़े और ोधम भरकर फु फकारते ए साँपक भाँ त ल ी साँस ख चने



लगे॥ ३५ ॥ श ु को तपानेवाले राजकु मार भरत उ व समा होनेपर नीचे गराये गये शचीप त इ के जक भाँ त उस समय पृ ीपर पड़े थे, उनके ने ोधसे लाल हो गये थे, व ढीले पड़ गये थे और सारे आभूषण टूटकर बखर गये थे॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौह रवाँ सग पूरा आ॥ ७४॥



पचह रवाँ सग कौस



ाके सामने भरतका शपथ खाना



ब त देरके बाद होशम आनेपर जब परा मी भरत उठे , तब आँ सूभरे ने से दीन बनी बैठी ◌इ माताक ओर देखकर म य के बीचम उसक न ा करते ए बोले—॥ १ १/२ ॥ ‘म वरो! म रा नह चाहता और न मने कभी मातासे इसके लये बातचीत ही क है। महाराजने जस अ भषेकका न य कया था, उसका भी मुझे पता नह था; क उस समय म श ु के साथ दूर देशम था॥ २-३ ॥ ‘महा ा ीरामके वनवास और सीता तथा ल णके नवासनका भी मुझे ान नह है क वह कब और कै से आ?’॥ ४ ॥ महा ा भरत जब इस कार अपनी माताको कोस रहे थे, उस समय उनक आवाजको पहचानकर कौस ाने सु म ासे इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘ ू र कम करनेवाली कै के यीके पु भरत आ गये ह। वे बड़े दूरदश ह, अत: म उ देखना चाहती ँ ’॥ ६ ॥ सु म ासे ऐसा कहकर उदास मुखवाली, दुबल और अचेत-सी ◌इ कौस ा जहाँ भरत थे, उस ानपर जानेके लये काँपती ◌इ चल ॥ ७ ॥ उसी समय उधरसे राजकु मार भरत भी श ु को साथ लये उसी मागसे चले आ रहे थे, जससे कौस ाके भवनम आना-जाना होता था॥ ८ ॥ तदन र श ु और भरतने दूरसे ही देखा क माता कौस ा दु:खसे ाकु ल और अचेत होकर पृ ीपर गर पड़ी ह। यह देखकर उ बड़ा दु:ख आ और वे दौड़कर उनक गोदीसे लग गये तथा फू ट-फू टकर रोने लगे। आया मन नी कौस ा भी दु:खसे रो पड़ और उ छातीसे लगाकर अ दु: खत हो भरतसे इस कार बोल —॥ ९-१० ॥ ‘बेटा! तुम रा चाहते थे न? सो यह न क रा तु ा हो गया; कतु खेद यही है क कै के यीने ज ीके कारण बड़े ू र कमके ारा इसे पाया है॥ ‘ ू रतापूण रखनेवाली कै के यी न जाने इसम कौन-सा लाभ देखती थी क उसने मेरे बेटेको चीर-व पहनाकर वनम भेज दया और उसे वनवासी बना दया॥ १२ ॥



‘अब



कै के यीको चा हये क मुझे भी शी ही उसी ानपर भेज दे, जहाँ इस समय सुवणमयी ना भसे सुशो भत मेरे महायश ी पु ीराम ह॥ १३ ॥ ‘अथवा सु म ाको साथ लेकर और अ हो को आगे करके म यं ही सुखपूवक उस ानको ान क ँ गी, जहाँ ीराम नवास करते ह॥ १४ ॥ ‘अथवा तुम यं ही अपनी इ ाके अनुसार अब मुझे वह प ँ चा दो, जहाँ मेरे पु पु ष सह ीराम तप करते ह॥ १५ ॥ ‘यह धन-धा से स तथा हाथी, घोड़े एवं रथ से भरा-पूरा व ृत रा कै के यीने ( ीरामसे छीनकर) तु दलाया है’॥ १६ ॥ इस तरहक ब त-सी कठोर बात कहकर जब कौस ाने नरपराध भरतक भ ना क , तब उनको बड़ी पीड़ा ◌इ; मानो कसीने घावम सू◌इ चुभो दी हो॥ १७ ॥ वे कौस ाके चरण म गर पड़े, उस समय उनके च म बड़ी घबराहट थी। वे बार ार वलाप करके अचेत हो गये। थोड़ी देर बाद उ फर चेत आ॥ १८ ॥ तब भरत अनेक कारके शोक से घरी ◌इ और पूव पसे वलाप करती ◌इ माता कौस ासे हाथ जोड़कर इस कार बोले—॥ १९ ॥ ‘आय! यहाँ जो कु छ आ है, इसक मुझे बलकु ल जानकारी नह थी। म सवथा नरपराध ँ , तो भी आप मुझे दोष दे रही ह? आप तो जानती ह क ीरघुनाथजीम मेरा कतना गाढ़ ेम है॥ २० ॥ ‘ जसक अनुम तसे स ु ष म े , स त , आय ीरामजी वनम गये ह , उस पापीक बु कभी गु से सीखे ए शा म बताये गये मागका अनुसरण करनेवाली न हो॥ २१ ॥ ‘ जसक



सलाहसे बड़े भा◌इ ीरामको वनम जाना पड़ा हो, वह अ पा पय —हीन जा तय का सेवक हो। सूयक ओर मुँह करके मल-मू का ाग करे और सोयी ◌इ गौ को लातसे मारे (अथात् वह इन पापकम के दु रणामका भागी हो)॥ २२ ॥ ‘ जसक स तसे भैया ीरामने वनको ान कया हो, उसको वही पाप लगे, जो सेवकसे भारी काम कराकर उसे समु चत वेतन न देनेवाले ामीको लगता है॥ २३ ॥



‘ जसके



कहनेसे आय ीरामको वनम भेजा गया हो, उसको वही पाप लगे, जो सम ा णय का पु क भाँ त पालन करनेवाले राजासे ोह करनेवाले लोग को लगता है॥ २४ ॥ ‘ जसक अनुम तसे आय ीराम वनम गये ह , वह उसी अधमका भागी हो, जो जासे उसक आयका छठा भाग लेकर भी जावगक र ा न करनेवाले राजाको ा होता है॥ २५ ॥ ‘ जसक



सलाहसे भैया ीरामको वनम जाना पड़ा हो, उसे वही पाप लगे, जो य म क सहनेवाले ऋ ज को द णा देनेक त ा करके पीछे इनकार कर देनेवाले लोग को लगता है॥ २६ ॥ ‘हाथी, घोड़े और रथ से भरे एवं अ -श क वषासे ा सं ामम स ु ष के धमका पालन न करनेवाले यो ा को जो पाप लगता है, वही उस मनु को भी ा हो, जसक स तसे आय ीरामजीको वनम भेजा गया हो॥ २७ ॥ ‘ जसक सलाहसे आय ीरामको वनम ान करना पड़ा है, वह दु ा ा बु मान् गु के ारा य पूवक ा आ शा के सू वषयका उपदेश भुला दे॥ २८ ॥ ‘ जसक सलाहसे बड़े भैया ीरामको वनम भेजा गया हो, वह च मा और सूयके समान तेज ी तथा वशाल भुजा और कं ध से सुशो भत ीरामच जीको रा सहासनपर वराजमान न देख सके —वह राजा ीरामके दशनसे व त रह जाय॥ २९ ॥ ‘ जसक सलाहसे आय ीरामच जी वनम गये ह , वह नदय मनु खीर, खचड़ी और बकरीके दूधको देवता , पतर एवं भगवा ो नवेदन कये बना थ करके खाय॥ ३० ॥ ‘ जसक स तसे ीरामच जीको वनम जाना पड़ा हो, वह पापी मनु गौ के शरीरका पैरसे श, गु जन क न ा तथा म के त अ ोह करे॥ ३१ ॥ ‘ जसके कहनेसे बड़े भैया ीराम वनम गये ह , वह दु ा ा गु रखनेके व ासपर एका म कहे ए कसीके दोषको दूसर पर कट कर दे (अथात् उसे व ासघात करनेका पाप लगे)॥ ३२ ॥ ‘ जसक अनुम तसे आय ीराम वनम गये ह , वह मनु उपकार न करनेवाला, कृ त , स ु ष ारा प र , नल और जग सबके ेषका पा हो॥



‘ जसक



सलाहसे आय ीराम वनम गये ह , वह अपने घरम पु , दास और भृ से घरा रहकर भी अके ले ही म ा भोजन करनेके पापका भागी हो॥ ‘ जसक अनुम तसे आय ीरामका वनगमन आ हो, वह अपने अनु प प ीको न पाकर अ हो आ द धा मक कम का अनु ान कये बना संतानहीन अव ाम ही मर जाय॥ ३५ ॥ ‘ जसक स तसे मेरे बड़े भा◌इ ीराम वनम गये ह , वह सदा दु:खी रहकर अपनी धमप ीसे होनेवाली संतानका मुँह न देखे तथा स ूण आयुका उपभोग कये बना ही मर जाय॥ ३६ ॥ ‘राजा, ी, बालक और वृ का वध करने तथा भृ को ाग देनेम जो पाप होता है, वही पाप उसे भी लगे॥ ३७ ॥ ‘ जसक स तसे ीरामका वनगमन आ हो, वह सदैव लाह, मधु, मांस, लोहा और वष आ द न ष व ु को बेचकर कमाये ए धनसे अपने भरण-पोषणके यो कु टु ीजन का पालन करे॥ ३८ ॥ ‘ जसक रायसे ीराम वनम जानेको ववश ए ह , वह श ुप को भय देनेवाले यु के ा होनेपर उसम पीठ दखाकर भागता आ मारा जाय॥ ३९ ॥ ‘ जसक स तसे आय ीराम वनम गये ह , वह फटे-पुराने, मैले-कु चैले व से अपने शरीरको ढककर हाथम ख र ले भीख माँगता आ उ क भाँ त पृ ीपर घूमता फरे॥ ४० ॥ ‘ जसक



सलाहसे ीरामच जीको वनम जाना पड़ा हो, वह काम- ोधके वशीभूत होकर सदा ही म पान, ीसमागम और ूत ड़ाम आस रहे॥ ४१ ॥ ‘ जसक अनुम तसे आय ीराम वनम गये ह , उसका मन कभी धमम न लगे, वह अधमका ही सेवन करे और अपा को धन दान करे॥ ४२ ॥ ‘ जसक सलाहसे आय ीरामका वन-गमन आ हो, उसके ारा सह क सं ाम सं चत कये गये नाना कारके धन-वैभव को लुटेरे लूट ले जायँ॥ ४३ ॥ ‘ जसके कहनेसे भैया ीरामको वनम भेजा गया हो, उसे वही पाप लगे, जो दोन सं ा के समय सोये ए पु षको ा होता है। आग लगानेवाले मनु को जो पाप लगता



है, गु प ीगामीको जस पापक ा होती है तथा म ोह करनेसे जो पाप ा होता है, वही पाप उसे भी लगे॥ ४४-४५ ॥ ‘ जसक स तसे आय ीरामको वनम जाना पड़ा है, वह देवता , पतर और मातापताक सेवा कभी न करे (अथात् उनक सेवाके पु से व त रह जाय)॥ ४६ ॥ ‘ जसक अनुम तसे ववश होकर भैया ीरामने वनम पदापण कया है, वह पापी आज ही स ु ष के लोकसे, स ु ष क क तसे तथा स ु ष ारा से वत कमसे शी हो जाय॥ ४७ ॥ ‘ जसक स तसे बड़ी-बड़ी बाँह और वशाल व वाले आय ीरामको वनम जाना पड़ा है, वह माताक सेवा छोड़कर अनथके पथम त रहे॥ ४८ ॥ ‘ जसक सलाहसे ीरामका वनगमन आ हो, वह द र हो, उसके यहाँ भरण-पोषण पानेके यो पु आ दक सं ा ब त अ धक हो तथा वह र-रोगसे पी ड़त होकर सदा ेश भोगता रहे॥ ४९ ॥ ‘ जसक अनुम त पाकर आय ीराम वनम गये ह , वह आशा लगाये ऊपरक ओर आँ ख उठाकर दाताके मुँहक ओर देखनेवाले दीन याचक क आशाको न ल कर दे॥ ५० ॥ ‘ जसके कहनेसे भैया ीरामने वनको ान कया हो, वह पापा ा पु ष चुगला, अप व तथा राजासे भयभीत रहकर सदा छल-कपटम ही रचा-पचा रहे॥ ५१ ॥ ‘ जसके परामशसे आयका वनमगन आ हो, वह दु ा ा ऋतु- ानकाल ा होनेके कारण अपने पास आयी ◌इ सती-सा ी ऋतु ाता प ीको ठु करा दे (उसक इ ा न पूण करनेके पापका भागी हो)॥ ५२ ॥ ‘ जसक सलाहसे मेरे बड़े भा◌इको वनम जाना पड़ा हो, उसको वही पाप लगे, जो (अ आ दका दान न करने अथवा ीसे ेष रखनेके कारण ) न ◌इ संतानवाले ा णको ा होता है॥ ५३ ॥ ‘ जसक रायसे आयने वनम पदापण कया हो, वह म लन इ यवाला पु ष ा णके लये क जाती ◌इ पूजाम व डाल दे और छोटे बछड़ेवाली (दस दनके भीतरक ायी ◌इ) गायका दूध दुह॥े ५४ ॥



‘ जसने आय



ीरामके वनमगनक अनुम त दी हो, वह मूढ़ धमप ीको छोड़कर पर ीका सेवन करे तथा धम वषयक अनुरागको ाग दे॥ ५५ ॥ ‘पानीको ग ा करनेवाले तथा दूसर को जहर देनेवाले मनु को जो पाप लगता है, वह सारा पाप अके ला वही ा करे, जसक अनुम तसे ववश होकर आय ीरामको वनम जाना पड़ा है॥ ५६ ॥ ‘ जसक स तसे आयका वनगमन आ हो, उसे वही पाप ा हो, जो पानी होते ए भी ासेको उससे व त कर देनेवाले मनु को लगता है॥ ५७ ॥ ‘ जसक अनुम तसे आय ीराम वनम गये ह , वह उस पापका भागी हो, जो पर र झगड़ते ए मनु मसे कसी एकके त प पात रखकर मागम खड़ा हो उनका झगड़ा देखनेवाले कलह य मनु को ा होता है’॥ ५८ ॥ इस कार प त और पु से बछु ड़ी ◌इ कौस ाको शपथके ारा आ ासन देते ए ही राजकु मार भरत दु:खसे ाकु ल होकर पृ ीपर गर पड़े॥ ५९ ॥ उस समय दु र शपथ ारा अपनी सफा◌इ देते ए शोकसंत एवं अचेत भरतसे कौस ाने इस कार कहा—॥ ६० ॥ ‘बेटा! तुम अनेकानेक शपथ खाकर जो मेरे ाण को पीड़ा दे रहे हो, इससे मेरा यह दु:ख और भी बढ़ता जा रहा है॥ ६१ ॥ ‘व ! सौभा क बात है क शुभ ल ण से स तु ारा च धमसे वच लत नह आ है। तुम स त हो, इस लये तु स ु ष के लोक ा ह गे’॥ ६२ ॥ ऐसा कहकर कौस ाने ातृभ महाबा भरतको गोदम ख च लया और अ दु:खी हो उ गलेसे लगाकर वे फू ट-फू टकर रोने लग ॥ ६३ ॥ महा ा भरत भी दु:खसे आत होकर वलाप कर रहे थे। उनका मन मोह और शोकके वेगसे ाकु ल हो गया था॥ ६४ ॥ पृ ीपर पड़े ए भरतक बु ( ववेकश ) न हो गयी थी। वे अचेत-से होकर वलाप करते और बारंबार लंबी साँस ख चते थे। इस तरह शोकम ही उनक वह रात बीत गयी॥ ६५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पचह रवाँ सग पूरा आ॥ ७५॥



छह रवाँ सग राजा दशरथका अ



े सं



ार



इस कार शोकसे संत ए के कयीकु मार भरतसे व ा म े मह ष व स ने उ म वाणीम कहा— ‘महायश ी राजकु मार! तु ारा क ाण हो। यह शोक छोड़ो, क इससे कु छ होनेजानेवाला नह है। अब समयो चत कत पर ान दो। राजा दशरथके शवको दाहसं ारके लये ले चलनेका उ म ब करो’॥ २ ॥ व स जीका वचन सुनकर धम भरतने पृ ीपर पड़कर उ सा ा णाम कया और म य ारा पताके स ूण ेतकमका ब करवाया॥ ३ ॥ राजा दशरथका शव तेलके कड़ाहसे नकालकर भू मपर रखा गया। अ धक समयतक तेलम पड़े रहनेसे उनका मुख कु छ पीला हो गया। उसे देखनेसे ऐसा जान पड़ता था, मानो भू मपाल दशरथ सो रहे ह ॥ ४ ॥ तदन र मृत राजा दशरथको धो-प छकर नाना कारके र से वभू षत उ म श ा ( वमान) पर सुलाकर उनके पु भरत अ दु:खी हो वलाप करने लगे—॥ ५ ॥ ‘राजन्! म परदेशम था और आपके पास प ँ चने भी नह पाया था, तबतक ही धम ीराम और महाबली ल णको वनम भेजकर आपने इस तरह गम जानेका न य कै से कर लया?॥ ६ ॥ ‘महाराज! अनायास ही महान् कम करनेवाले पु ष सह ीरामसे हीन इस दु:खी सेवकको छोड़ आप कहाँ चले जायँग?े ॥ ७ ॥ ‘तात! आप गको चल दये और ीरामने वनका आ य लया—ऐसी दशाम आपके इस नगरम न तापूवक जाके योग ेमक व ा कौन करेगा?॥ ८ ॥ ‘राजन्! आपके बना यह पृ ी वधवाके समान हो गयी है, अत: इसक शोभा नह हो रही है। यह पुरी भी मुझे च हीन रा के समान ीहीन तीत होती है’॥ ९ ॥ इस कार दीन च होकर वलाप करते ए भरतसे महामु न व स ने फर कहा—॥ १० ॥



‘महाबाहो! इन महाराजके होकर करो’॥ ११ ॥



लये जो कु छ भी ेतकम करने ह, उ बना वचारे शा च



तब ‘ब त अ ा’ कहकर भरतने व स जीक आ ा शरोधाय क तथा ऋ क् , पुरो हत और आचाय— सबको इस कायके लये ज ी करनेको कहा—॥ राजाक अ शालासे जो अ याँ बाहर नकाली गयी थ , उनम ऋ ज और याजक ारा व धपूवक हवन कया गया॥ १३ ॥ त ात् महाराज दशरथके ाणहीन शरीरको पालक म बठाकर प रचारकगण उ शानभू मको ले चले। उस समय आँ सु से उनका गला ँ ध गया था और मन-ही-मन उ बड़ा दु:ख हो रहा था॥ १४ ॥ मागम राजक य पु ष राजाके शवके आगे-आगे सोने, चाँदी तथा भाँ त-भाँ तके व लुटाते चलते थे॥ शानभू मम प ँ चकर चता तैयार क जाने लगी, कसीने च न लाकर रखा तो कसीने अगर, को◌इ-को◌इ गु ुल तथा को◌इ सरल, प क और देवदा क लक ड़याँ ला-लाकर चताम डालने लगे। कु छ लोग ने तरह-तरहके सुग त पदाथ लाकर छोड़े। इसके बाद ऋ ज ने राजाके शवको चतापर रखा॥ उस समय अ म आ त देकर उनके ऋ ज ने वेदो म का जप कया। सामगान करनेवाले व ान् शा ीय प तके अनुसार साम- ु तय का गायन करने लगे॥ १८ ॥ (इसके बाद चताम आग लगायी गयी) तदन र राजा दशरथक कौस ा आ द रा नयाँ बूढ़े र क से घरी ◌इ यथायो श बका तथा रथ पर आ ढ़ होकर नगरसे नकल तथा शोकसे संत हो शानभू मम आकर अ मेधा य के अनु ाता राजा दशरथके शवक प र मा करने लग । साथ ही ऋ ज ने भी उस शवक प र मा क ॥ १९-२० ॥ उस समय वहाँ क ण न करती ◌इ सह शोकात रा नय का आतनाद कु र रय के ची ारके समान सुनायी देता था॥ २१ ॥ दाहकमके प ात् ववश होकर रोती ◌इ वे राजरा नयाँ बारंबार वलाप करके सवा रय से ही सरयूके तटपर जाकर उतर ॥ २२ ॥



भरतके साथ रा नय , म य और पुरो हत ने भी राजाके लये जला ल दी, फर सबके -सब ने से आँ सू बहाते ए नगरम आये और दस दन तक भू मपर शयन करते ए उ ने बड़े दु:खसे अपना समय तीत कया॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छह रवाँ सग पूरा आ॥ ७६॥



सतह रवाँ सग भरतका पताके ा म ा ण को ब त धन-र आ दका दान देना, तेरहव दन अ संचयका शेष काय पूण करनेके लये पताक चताभू मपर जाकर भरत और श ु का वलाप करना और व स तथा सुम का उ समझाना



तदन र दशाह तीत हो जानेपर राजकु मार भरतने ारहव दन आ शु के लये ान और एकादशाह ा का अनु ान कया, फर बारहवाँ दन आनेपर उ ने अ ा कम (मा सक और स प ीकरण ा ) कये॥ १ ॥ उसम भरतने ा ण को धन, र , चुर अ , ब मू व , नाना कारके र , ब त-से बकरे, चाँदी और ब तेरी गौएँ दान क ॥ २ ॥ राजपु भरतने राजाके पारलौ कक हतके लये ब त-से दास, दा सयाँ, सवा रयाँ तथा बड़े-बड़े घर भी ा ण को दये॥ ३ ॥ तदन र तेरहव दन ात:काल महाबा भरत शोकसे मू त होकर वलाप करने लगे॥ ४॥ उस समय रोनेसे उनका गला भर आया था, वे पताके चता ानपर अ संचयके लये आये और अ दु:खी होकर इस कार कहने लगे—‘तात! आपने मुझे जन े ाता ीरघुनाथजीके हाथम स पा था, उनके वनम चले जानेपर आपने मुझे सूनेम ही छोड़ दया (इस समय मेरा को◌इ सहारा नह )॥ ५-६ ॥ ‘तात! नरे र! जन अनाथ ◌इ देवीके एकमा आधार पु को आपने वनम भेज दया, उन माता कौस ाको छोड़कर आप कहाँ चले गये?’॥ ७ ॥ पताक चताका वह ानम ल भ से भरा आ था, अ दाहके कारण कु छ लाल दखायी देता था। वहाँ पताक जली ◌इ ह याँ बखरी ◌इ थ । पताके शरीरके नवाणका वह ान देखकर भरत अ वलाप करते ए शोकम डू ब गये॥ ८ ॥ उस ानको देखते ही वे दीनभावसे रोकर पृ ीपर गर पड़े। जैसे इ का य ब ऊँ चा ज ऊपरको उठाये जाते समय खसककर गर पड़ा हो॥ ९ ॥



तब उनके सारे म ी उन प व तवाले भरतके पास आ प ँ च,े जैसे पु का अ होनेपर गसे गरे ए राजा यया तके पास अ क आ द राज ष आ गये थे॥ १० ॥ भरतको शोकम डू बा आ देख श ु भी अपने पता महाराज दशरथका बारंबार रण करते ए अचेत होकर पृ ीपर गर पड़े॥ ११ ॥ वे समय-समयपर अनुभवम आये ए पताके लालन-पालनस ी उन-उन गुण का रण करके अ दु:खी हो सुध-बुध खोकर उ के समान वलाप करने लगे—॥ १२ ॥ हाय! म रासे जसका ाक आ है, कै के यी पी ाहसे जो ा है तथा जो कसी कार भी मटाया नह जा सकता, उस वरदानमय शोक पी उ समु ने हम सब लोग को अपने भीतर नम कर दया है॥ १३ ॥ ‘तात! आपने जनका सदा लाड़- ार कया है तथा जो सुकुमार और बालक ह, उन रोतेबलखते ए भरतको छोड़कर आप कहाँ चले गये?॥ १४ ॥ ‘भोजन, पान, व और आभूषण—इन सबको अ धक सं ाम एक करके आप हम सब लोग से अपनी चक व ुएँ हण करनेको कहते थे। अब कौन हमारे लये ऐसी व ा करेगा?॥ १५ ॥ ‘आप-जैसे धम महा ा राजासे र हत होनेपर पृ ीको फट जाना चा हये। इस फटनेके अवसरपर भी जो यह फट नह रही है, यह आ यक बात है॥ १६ ॥ ‘ पता गवासी हो गये और ीराम वनम चले गये। अब मुझम जी वत रहनेक ा श है? अब तो म अ म ही वेश क ँ गा॥ १७ ॥ ‘बड़े भा◌इ और पतासे हीन होकर इ ाकु वंशी नरेश ारा पा लत इस सूनी अयो ाम म वेश नह क ँ गा; तपोवनको ही चला जाऊँ गा’॥ १८ ॥ उन दोन का वलाप सुनकर और उस संकटको देखकर सम अनुचर-वगके लोग पुन: अ शोकसे ाकु ल हो उठे ॥ १९ ॥ उस समय भरत और श ु दोन भा◌इ वषाद और थ कत होकर टूटे स ग वाले दो बैल के समान पृ ीपर लोट रहे थे॥ २० ॥ तदन र दैवी कृ तसे यु और सव व स जी, जो इन ीराम आ दके पताके पुरो हत थे, भरतको उठाकर उनसे इस कार बोले—॥ २१ ॥



‘ भो! तु ारे पताके दाहसं काय है, उसके करनेम तुम यहाँ वल



ार ए यह तेरहवाँ दन है; अब अ संचयका जो शेष लगा रहे हो?॥ २२ ॥ ‘भूख- ास, शोक-मोह तथा जरा-मृ ु—ये तीन सभी ा णय म समान पसे उपल होते ह। इ रोकना सवथा अस व है—ऐसी तम तु इस तरह शोकाकु ल नह होना चा हये’॥ २३ ॥ त सुम ने भी श ु को उठाकर उनके च को शा कया तथा सम ा णय के ज और मरणक अ नवायताका उपदेश सुनाया॥ २४ ॥ उस समय उठे ए वे दोन यश ी नर े वषा और धूपसे म लन ए दो अलग-अलग इ ज के समान का शत हो रहे थे॥ २५ ॥ वे आँ सू प छते ए दीनतापूण वाणीम बोलते थे। उन दोन क आँ ख लाल हो गयी थ तथा म ीलोग उन दोन राजकु मार को दूसरी-दूसरी याएँ शी करनेके लये े रत कर रहे थे॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सतह रवाँ सग पूरा आ॥ ७७॥



अठह रवाँ सग श ु का रोष, उनका कु



ाको घसीटना और भरतजीके कहनेसे उसे मू छोड़ देना



त अव



ाम



तेरहव दनका काय पूण करके ीरामच जीके पास जानेका वचार करते ए शोकसंत भरतसे ल णके छोटे भा◌इ श ु ने इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘भैया! जो दु:खके समय अपने तथा आ ीयजन के लये तो बात ही ा है, सम ा णय को भी सहारा देनेवाले ह, वे स गुणस ीराम एक ीके ारा वनम भेज दये गये (यह कतने खेदक बात है)॥ २ ॥ ‘तथा वे जो बल और परा मसे स ल ण नामधारी शूरवीर ह, उ ने भी कु छ नह कया। म पूछता ँ क उ ने पताको कै द करके भी ीरामको इस संकटसे नह छु ड़ाया?॥ ३ ॥ ‘जब राजा एक नारीके वशम होकर बुरे मागपर आ ढ़ हो चुके थे, तब ाय और अ ायका वचार करके उ पहले ही कै द कर लेना चा हये था’॥ ४ ॥ ल णके छोटे भा◌इ श ु जब इस कार रोषम भरकर बोल रहे थे, उसी समय कु ा सम आभूषण से वभू षत हो उस राजभवनके पूव ारपर आकर खड़ी हो गयी॥ ५ ॥ उसके अ म उ मो म च नका लेप लगा आ था तथा वह राजरा नय के पहनने यो व वध व धारण करके भाँ त-भाँ तके आभूषण से सज-धजकर वहाँ आयी थी॥ ६ ॥ करधनीक व च ल ड़य तथा अ ब सं क सु र अलंकार से अलंकृत हो वह ब त-सी र य म बँधी ◌इ वानरीके समान जान पड़ती थी॥ ७ ॥ वही सारी बुराइय क जड़ थी। वही ीरामके वनवास पी पापका मूल कारण थी। उसपर पड़ते ही ारपालने उसे पकड़ लया और बड़ी नदयताके साथ घसीट लाकर श ु के हाथम देते ए कहा—॥ ८ ॥ ‘राजकु मार! जसके कारण ीरामको वनम नवास करना पड़ा है और आपलोग के पताने शरीरका प र ाग कया है, वह ू र कम करनेवाली पा पनी यही है। आप इसके साथ जैसा बताव उ चत समझ कर’॥



ारपालक बातपर वचार करके श ु का दु:ख और बढ़ गया। उ ने अपने कत का न य कया और अ :पुरम रहनेवाले सब लोग को सुनाकर इस कार कहा—॥ १० ॥ ‘इस पा पनीने मेरे भाइय तथा पताको जैसा दु:सह दु:ख प ँ चाया है, अपने उस ू र कमका वैसा ही फल यह भी भोगे’॥ ११ ॥ ऐसा कहकर श ु ने स खय से घरी ◌इ कु ाको तुरंत ही बलपूवक पकड़ लया। वह डरके मारे ऐसा चीखने- च ाने लगी क वह सारा महल गूँज उठा॥ १२ ॥ फर तो उसक सारी स खयाँ अ संत हो उठ और श ु को कु पत जानकर सब ओर भाग चल ॥ १३ ॥ उसक स ूण स खय ने एक जगह एक होकर आपसम सलाह क क ‘ जस कार इ ने बलपूवक कु ाको पकड़ा है, उससे जान पड़ता है, ये हमलोग मसे कसीको जी वत नह छोड़गे॥ १४ ॥ ‘अत: हमलोग परम दयालु, उदार, धम और यश नी महारानी कौस ाक शरणम चल। इस समय वे ही हमारी न ल ग त ह’॥ १५ ॥ श ु का दमन करनेवाले श ु रोषम भरकर कु ाको जमीनपर घसीटने लगे। उस समय वह जोर-जोरसे ची ार कर रही थी॥ १६ ॥ जब म रा घसीटी जा रही थी, उस समय उसके नाना कारके व च आभूषण टूटटूटकर पृ ीपर इधर-उधर बखरे जाते थे॥ १७ ॥ आभूषण के उन टुकड़ से वह शोभाशाली वशाल राजभवन न माला से अलंकृत शर ालके आकाशक भाँ त अ धक सुशो भत हो रहा था॥ १८ ॥ बलवान् नर े श ु जस समय रोषपूवक म राको जोरसे पकड़कर घसीट रहे थे, उस समय उसे छु ड़ानेके लये कै के यी उनके पास आयी। तब उ ने उसे ध ारते ए उसके त बड़ी कठोर बात कह —उसे रोषपूवक फटकारा॥ १९ ॥ श ु के वे कठोर वचन बड़े ही दु:खदायी थे। उ सुनकर कै के यीको ब त दु:ख आ। वह श ु के भयसे थरा उठी और अपने पु क शरणम आयी॥ २० ॥ श ु को ोधम भरा आ देख भरतने उनसे कहा—‘सु म ाकु मार! मा करो। याँ सभी ा णय के लये अव होती ह॥ २१ ॥



‘य द



मुझे यह भय न होता क धमा ा ीराम मातृघाती समझकर मुझसे घृणा करने लगगे तो म भी इस दु आचरण करनेवाली पा पनी कै के यीको मार डालता॥ २२ ॥ ‘धमा ा ीरघुनाथजी तो इस कु ाके भी मारे जानेका समाचार य द जान ल तो वे न य ही तुमसे और मुझसे बोलना भी छोड़ दगे’॥ २३ ॥ भरतजीक यह बात सुनकर ल णके छोटे भा◌इ श ु म राके वध पी दोषसे नवृ हो गये और उसे मू त अव ाम ही छोड़ दया॥ २४ ॥ म रा कै के यीके चरण म गर पड़ी और लंबी साँस ख चती ◌इ अ दु:खसे आत हो क ण वलाप करने लगी॥ २५ ॥ श ु के पटकने और घसीटनेसे आत एवं अचेत ◌इ कु ाको देखकर भरतक माता कै के यी धीरे-धीरे उसे आ ासन देन— े होशम लानेक चे ा करने लगी। उस समय कु ा पजड़म बँधी ◌इ ौ ीक भाँ त कातर से उसक ओर देख रही थी॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अठह रवाँ सग पूरा आ॥ ७८॥



उ ासीवाँ सग म ी आ दका भरतसे रा हण करनेके लये ाव तथा भरतका अ भषेक-साम ीक प र मा करके ीरामको ही रा का अ धकारी बताकर उ लौटा लानेके लये चलनेके नम व ा करनेक सबको आ ा देना



तदन र चौदहव दन ात:काल सम राजकमचारी मलकर भरतसे इस कार बोले —॥ १ ॥ ‘महायश ी राजकु मार! जो हमारे सव े गु थे, वे महाराज दशरथ तो अपने े पु ीराम तथा महाबली ल णको वनम भेजकर यं गलोकको चले गये, अब इस रा का को◌इ ामी नह है; इस लये अब आप ही हमारे राजा ह । आपके बड़े भा◌इको यं महाराजने वनवासक आ ा दी और आपको यह रा दान कया! अत: आपका राजा होना ायस त है। इस स तके कारण ही आप रा को अपने अ धकारम लेकर कसीके त को◌इ अपराध नह कर रहे ह॥ २-३ ॥ ‘राजकु मार रघुन न! ये म ी आ द जन, पुरवासी तथा सेठलोग अ भषेकक सब साम ी लेकर आपक राह देखते ह॥ ४ ॥ ‘भरतजी! आप अपने माता- पतामह के इस रा को अव हण क जये। नर े ! राजाके पदपर अपना अ भषेक कराइये और हमलोग क र ा क जये’॥ यह सुनकर उ म तको धारण करनेवाले भरतने अ भषेकके लये रखी ◌इ कलश आ द सब साम ीक द णा क और वहाँ उप त ए सब लोग को इस कार उ र दया —॥ ६ ॥ ‘स नो! आपलोग बु मान् ह, आपको मुझसे ऐसी बात नह कहनी चा हये। हमारे कु लम सदा े पु ही रा का अ धकारी होता आया है और यही उ चत भी है॥ ७ ॥ ‘ ीरामच जी हमलोग के बड़े भा◌इ ह, अत: वे ही राजा ह गे। उनके बदले म ही चौदह वष तक वनम नवास क ँ गा॥ ८ ॥ ‘आपलोग वशाल चतुर णी सेना, जो सब कारसे सबल हो, तैयार क जये। म अपने े ाता ीरामच जीको वनसे लौटा लाऊँ गा॥ ९ ॥



‘अ भषेकके



लये सं चत ◌इ इस सारी साम ीको आगे करके म ीरामसे मलनेके लये वनम चलूँगा और उन नर े ीरामच जीका वह अ भषेक करके य से लायी जानेवाली अ के समान उ आगे करके अयो ाम ले आऊँ गा॥ १०-११ ॥ ‘परंतु जसम लेशमा मातृभाव शेष है, अपनी माता कहलानेवाली इस कै के यीको म कदा प सफलमनोरथ नह होने दूँगा। ीराम यहाँके राजा ह गे और म दुगम वनम नवास क ँ गा॥ १२ ॥ ‘कारीगर आगे जाकर रा ा बनाय, ऊँ ची-नीची भू मको बराबर कर तथा मागम दुगम ान क जानकारी रखनेवाले र क भी साथ-साथ चल’॥ १३ ॥ ीरामच जीके लये ऐसी बात कहते ए राजकु मार भरतसे वहाँ आये ए सब लोग ने इस कार सु र एवं परम उ म बात कही—॥ १४ ॥ ‘भरतजी! ऐसे उ म वचन कहनेवाले आपके पास कमलवनम नवास करनेवाली ल ी अव त ह ; क आप राजाके े पु ीरामको यं ही इस पृ थवीका रा लौटा देना चाहते ह’॥ १५ ॥ उन लोग का कहा आ वह परम उ म आशीवचन जब कानम पड़ा, तब उसे सुनकर राजकु मार भरतको बड़ी स ता ◌इ। उन सबक ओर देखकर भरतके मुखम लम सुशो भत होनेवाले ने से हषज नत आँ सु क बूँद गरने लग ॥ १६ ॥ भरतके मुखसे ीरामको ले आनेक बात सुनकर उस सभाके सभी सद और म य स हत सम राजकमचारी हषसे खल उठे । उनका सारा शोक दूर हो गया और वे भरतसे बोले—‘नर े ! आपक आ ाके अनुसार राजप रवारके त भ भाव रखनेवाले कारीगर और र क को माग ठीक करनेके लये भेज दया गया है’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म उ ासीवाँ सग पूरा आ॥ ७९॥



अ अयो ासे ग ातटतक सुर



ीवाँ सग



श वर और कूप आ दसे यु



सुखद राजमागका नमाण



त ात् ऊँ ची-नीची एवं सजल- नजल भू मका ान रखनेवाले, सू कम (छावनी आ द बनानेके लये सूत धारण करने) म कु शल, मागक र ा आ द अपने कमम सदा सावधान रहनेवाले शूर-वीर, भू म खोदने या सुर आ द बनानेवाले, नदी आ द पार करनेके लये तुरंत साधन उप त करनेवाले अथवा जलके वाहको रोकनेवाले वेतनभोगी कारीगर, थव◌इ, रथ और य आ द बनानेवाले पु ष, बढ़◌इ, मागर क, पेड़ काटनेवाले, रसोइये, चूनेसे पोतने आ दका काम करनेवाले, बाँसक चटा◌इ और सूप आ द बनानेवाले, चमड़ेका चारजामा आ द बनानेवाले तथा रा ेक वशेष जानकारी रखनेवाले साम शाली पु ष ने पहले ान कया॥ १—३ ॥ उस समय माग ठीक करनेके लये एक वशाल जनसमुदाय बड़े हषके साथ वन देशक ओर अ सर आ, जो पू णमाके दन उमड़े ए समु के महान् वेगक भाँ त शोभा पा रहा था॥ ४ ॥



वे माग- नमाणम नपुण कारीगर अपना-अपना दल साथ लेकर अनेक कारके औजार के साथ आगे चल दये॥ ५ ॥ वे लोग लताएँ , बेल, झा ड़याँ, ठूँ ठे वृ तथा प र को हटाते और नाना कारके वृ को काटते ए माग तैयार करने लगे॥ ६ ॥ जन ान म वृ नह थे, वहाँ कु छ लोग ने वृ भी लगाये। कु छ कारीगर ने कु ाड़ , टंक (प र तोड़नेके औजार ) तथा हँ सय से कह -कह वृ और घास को काट-काटकर रा ा साफ कया॥ ७ ॥ अ बल मनु ने जनक जड़ नीचेतक जमी ◌इ थ , उन कु श, कास आ दके रु मुट को हाथ से ही उखाड़ फ का। वे जहाँ-तहाँ ऊँ चे-नीचे दुगम ान को खोद-खोदकर बराबर कर देते थे। दूसरे लोग कु और लंबे-चौड़े ग को धूल से ही पाट देते थे। जो ान नीचे होते, वहाँ सब ओरसे म ी डालकर वे उ शी ही बराबर कर देते थे॥ ८-९ ॥



उ ने जहाँ पुल बाँधनेके यो पानी देखा, वहाँ पुल बाँध दये। जहाँ कँ करीली जमीन दखायी दी, वहाँ उसे ठोक-पीटकर मुलायम कर दया और जहाँ पानी बहनेके लये माग बनाना आव क समझा, वहाँ बाँध काट दया। इस कार व भ देश म वहाँक आव कताके अनुसार काय कया॥ १० ॥ छोटे-छोटे सोत को, जनका पानी सब ओर बह जाया करता था, चार ओरसे बाँधकर शी ही अ धक जलवाला बना दया। इस तरह थोड़े ही समयम उ ने भ - भ आकारकारके ब त-से सरोवर तैयार कर दये, जो अगाध जलसे भरे होनेके कारण समु के समान जान पड़ते थे॥ ११ ॥ नजल ान म नाना कारके अ े-अ े कु एँ और बावड़ी आ द बनवा दये, जो आसपास बनी ◌इ वे दका से अलंकृत थे॥ १२ ॥ इस कार सेनाका वह माग देवता के मागक भाँ त अ धक शोभा पाने लगा। उसक भू मपर चूना-सुख और कं करीट बछाकर उसे कू ट-पीटकर प ा कर दया गया था। उसके कनारे- कनारे फू ल से सुशो भत वृ लगाये गये थे। वहाँके वृ पर मतवाले प ी चहक रहे थे। सारे मागको पताका से सजा दया गया था, उसपर च न म त जलका छड़काव कया गया था तथा अनेक कारके फू ल से वह सड़क सजायी गयी थी॥ माग बन जानेपर जहाँ-तहाँ छावनी आ द बनानेके लये ज अ धकार दया गया था, कायम द - च रहनेवाले उन लोग ने भरतक आ ाके अनुसार सेवक को काम करनेका आदेश देकर जहाँ ा द फल क अ धकता थी उन सु र देश म छाव नयाँ बनवाय और जो भरतको अभी था, मागके भूषण प उस श वरको नाना कारके अलंकार से और भी सजा दया॥ १५-१६ ॥ वा ु-कमके ाता व ान ने उ म न और मु त म महा ा भरतके ठहरनेके लये जोजो ान बने थे, उनक त ा करवायी॥ १७ ॥ मागम बने ए वे नवेश ( व ाम- ान) इ पुरीके समान शोभा पाते थे। उनके चार ओर खाइयाँ खोदी गयी थ , धूल- म ीके ऊँ चे ढेर लगाये गये थे। खेम के भीतर इ नीलम णक बनी ◌इ तमाएँ सजायी गयी थ । ग लय और सड़क से उनक वशेष शोभा होती थी। राजक य गृह और देव ान से यु वे श वर चूने पुते ए ाकार (चहारदीवा रय )से घरे थे। सभी व ाम ान पताका से सुशो भत थे। सव बड़ी-बड़ी सड़क का सु र ढंगसे नमाण



कया गया था। वट (कबूतर के रहनेके ान —कावक ) और ऊँ चे-ऊँ चे े वमान के कारण उन सभी श वर क बड़ी शोभा हो रही थी॥ १८—२० ॥ नाना कारके वृ और वन से सुशो भत, शीतल नमल जलसे भरी ◌इ और बड़े-बड़े म से ा ग ाके कनारेतक बना आ वह रमणीय राजमाग उस समय बड़ी शोभा पा रहा था। अ े कारीगर ने उसका नमाण कया था। रा के समय वह च मा और तारागण से म त नमल आकाशके समान सुशो भत होता था॥ २१-२२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अ ीवाँ सग पूरा आ॥ ८०॥







ासीवाँ सग



ात:कालके म लवा -घोषको सुनकर भरतका द:ु खी होना और उसे बंद कराकर वलाप करना, व स जीका सभाम आकर म ी आ दको बुलानेके लये दत ू भेजना



इधर अयो ाम उस अ ुदयसूचक रा का थोड़ा-सा ही भाग अव श देख ु तकलाके वशेष सूत और मागध ने म लमयी ु तय ारा भरतका वन आर कया॥ १ ॥ हरक समा को सू चत करनेवाली दु ु भ सोनेके डंडसे े आहत होकर बज उठी। बाजे बजानेवाल ने श तथा दूसरे-दूसरे नाना कारके सैकड़ बाजे बजाये॥ २ ॥ वा का वह महान् तुमुल घोष सम आकाशको ा करता आ-सा गूँज उठा और शोकसंत भरतको पुन: शोका क आँ चसे राँधने लगा॥ ३ ॥ वा क उस नसे भरतक न द खुल गयी; वे जाग उठे और ‘म राजा नह ँ ’ ऐसा कहकर उ ने उन बाज का बजना बंद करा दया। त ात् वे श ु से बोले— ‘श ु ! देखो तो सही, कै के यीने जग ा कतना महान् अपकार कया है। महाराज दशरथ मुझपर ब त-से दु:ख का बोझ डालकर गलोकको चले गये॥ ५ ॥ ‘आज उन धमराज महामना नरेशक यह धममूला राजल ी जलम पड़ी ◌इ बना ना वकक नौकाके समान इधर-उधर डगमगा रही है॥ ६ ॥ ‘जो हमलोग के सबसे बड़े ामी और संर क ह, उन ीरघुनाथजीको भी यं मेरी इस माताने धमको तला ल देकर वनम भेज दया’॥ ७ ॥ उस समय भरतको इस कार अचेत हो-होकर वलाप करते देख र नवासक सारी याँ दीनभावसे फू ट-फू टकर रोने लग ॥ ८ ॥ जब भरत इस कार वलाप कर रहे थे, उसी समय राजधमके ाता महायश ी मह ष व स ने इ ाकु नाथ राजा दशरथके सभाभवनम वेश कया॥ ९ ॥ वह सभाभवन अ धकांश सुवणका बना आ था। उसम सोनेके ख े लगे थे। वह रमणीय सभा देवता क सुधमा सभाके समान शोभा पाती थी। स ूण वेद के ाता धमा ा व स ने अपने श गणके साथ उस सभाम पदापण कया और सुवणमय पीठपर जो



काकार बछौनेसे ढका आ था, वे वराजमान ए। आसन हण करनेके प ात् उ ने दूत को आ ा दी—॥ १०-११ ॥ ‘तुमलोग शा भावसे जाकर ा ण , य , यो ा , अमा और सेनाप तय को शी बुला लाओ। अ राजकु मार के साथ यश ी भरत और श ु को, म ी युधा जत् और सुम को तथा और भी जो हतैषी पु ष वहाँ ह उन सबको शी बुलाओ। हम उनसे ब त ही आव क काय है’॥ १२-१३ ॥ तदन र घोड़े, हाथी और रथ से आनेवाले लोग का महान् कोलाहल आर आ॥ १४ ॥ त ात् जैसे देवता इ का अ भन न करते ह, उसी कार सम कृ तय (म ी- जा आ द) ने आते ए भरतका राजा दशरथक ही भाँ त अ भन न कया॥ १५ ॥ त म नामक महान् म और जलह ीसे यु , र जलवाले तथा मु ा आ द म णय से यु श और बालुकावाले समु के जलाशयक भाँ त वह सभा दशरथपु भरतसे सुशो भत होकर वैसी ही शोभा पाने लगी, जैसे पूवकालम राजा दशरथक उप तसे शोभा पाती थी*॥ १६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म इ ासीवाँ सग पूरा आ॥ ८१॥ * यहाँ सभा उपमेय और



द (जलाशय) उपमान है। जलाशयके जो वशेषण दये गये ह, वे सभाम इस कार संगत होते ह—सभाम त म और जलह ीके च लगे ह। र जलक जगह उसम र तेज है, ख म म णयाँ जड़ी गयी ह, श के च ह तथा फशम सोनेका लेप लगा है, जो णबालुका-सा तीत होता है।



बयासीवाँ सग व स जीका भरतको रा पर अ भ ष होनेके लये आदेश देना तथा भरतका उसे अनु चत बताकर अ ीकार करना और ीरामको लौटा लानेके लये वनम चलनेक तैयारीके न म सबको आदेश देना



बु मान् भरतने उ म ह-न से सुशो भत और पूण च म लसे का शत रा क भाँ त उस सभाको देखा। वह े पु ष क म लीसे भरी-पूरी तथा व स आ द े मु नय क उप तसे शोभायमान थी॥ १ ॥ उस समय यथायो आसन पर बैठे ए आय पु ष के व तथा अ राग क भासे वह उ म सभा अ धक दी मती हो उठी थी॥ २ ॥ जैसे वषाकाल तीत होनेपर शरद-् ऋतुक पू णमाको पूण च म लसे अलंकृत रजनी बड़ी मनोहर दखायी देती है, उसी कार व ान के समुदायसे भरी ◌इ वह सभा बड़ी सु र दखायी देती थी॥ ३ ॥ उस समय धमके ाता पुरो हत व स जीने राजाक स ूण कृ तय को उप त देख भरतसे यह मधुर वचन कहा—॥ ४ ॥ ‘तात! राजा दशरथ यह धन-धा से प रपूण समृ शा लनी पृ थवी तु देकर यं धमका आचरण करते ए गवासी ए ह॥ ५ ॥ ‘स पूण बताव करनेवाले ीरामच जीने स ु ष के धमका वचार करके पताक आ ाका उसी कार उ न नह कया, जैसे उ दत च मा अपनी चाँदनीको नह छोड़ता है॥ ६॥ ‘इस कार पता और े ाता—दोन ने ही तु यह अक क रा दान कया है। अत: तुम म य को स रखते ए इसका पालन करो और शी ही अपना अ भषेक करा लो। जससे उ र, प म, द ण, पूव और अपरा देशके नवासी राजा तथा समु म जहाज ारा ापार करनेवाले वसायी तु असं र दान कर॥ ७-८ ॥ यह बात सुनकर धम भरत शोकम डू ब गये और धमपालनक इ ासे उ ने मन-ही-मन ीरामक शरण ली॥ ९ ॥



नवयुवक भरत उस भरी सभाम आँ सू बहाते ए ग द वाणी ारा कलहंसके समान मधुर रसे वलाप करने और पुरो हतजीको उपाल देने लगे—॥ १० ॥ ‘गु देव! ज ने चयका पालन कया, जो स ूण व ा म न ात ए तथा जो सदा ही धमके लये य शील रहते ह, उन बु मान् ीरामच जीके रा का मेरे-जैसा कौन मनु अपहरण कर सकता है?॥ ११ ॥ ‘महाराज दशरथका को◌इ भी पु बड़े भा◌इके रा का अपहरण कै से कर सकता है? यह रा और म दोन ही ीरामके ह; यह समझकर आपको इस सभाम धमसंगत बात कहनी चा हये (अ ाययु नह )॥ १२ ॥ ‘धमा ा ीराम मुझसे अव ाम बड़े और गुण म भी े ह। वे दलीप और न षके समान तेज ी ह; अत: महाराज दशरथक भाँ त वे ही इस रा को पानेके अ धकारी ह॥ १३ ॥ ‘पापका आचरण तो नीच पु ष करते ह। वह मनु को न य ही नरकम डालनेवाला है। य द ीरामच जीका रा लेकर म भी पापाचरण क ँ तो संसारम इ ाकु कु लका कलंक समझा जाऊँ गा॥ १४ ॥ ‘मेरी माताने जो पाप कया है, उसे म कभी पसंद नह करता; इसी लये यहाँ रहकर भी म दुगम वनम नवास करनेवाले ीरामच जीको हाथ जोड़कर णाम करता ँ ॥ १५ ॥ ‘म ीरामका ही अनुसरण क ँ गा। मनु म े ीरघुनाथजी ही इस रा के राजा ह। वे तीन ही लोक के राजा होनेयो ह’॥ १६ ॥ भरतका वह धमयु वचन सुनकर सभी सभासद् ीरामम च लगाकर हषके आँ सू बहाने लगे॥ १७ ॥ भरतने फर कहा—‘य द म आय ीरामको वनसे न लौटा सकूँ गा तो यं भी नर े ल णक भाँ त वह नवास क ँ गा॥ १८ ॥ ‘म आप सभी स ण ु यु बताव करनेवाले पूजनीय े सभासद के सम ीरामच जीको बलपूवक लौटा लानेके लये सारे उपाय से चे ा क ँ गा॥ १९ ॥ ‘मने मागशोधनम कु शल सभी अवैत नक तथा वेतनभोगी कायकता को पहले ही यहाँसे भेज दया है। अत: मुझे ीरामच जीके पास चलना ही अ ा जान पड़ता है’॥ २० ॥



सभासद से ऐसा कहकर ातृव ल धमा ा भरत पास बैठे ए म वे ा सुम से इस कार बोले—॥ ‘सुम जी! आप ज ी उठकर जाइये और मेरी आ ासे सबको वनम चलनेका आदेश सू चत कर दी जये और सेनाको भी शी ही बुला भे जये’॥ २२ ॥ महा ा भरतके ऐसा कहनेपर सुम ने बड़े हषके साथ सबको उनके कथनानुसार वह य संदेश सुना दया॥ २३ ॥ ‘ ीरामच जीको लौटा लानेके लये भरत जायँगे और उनके साथ जानेके लये सेनाको भी आदेश ा आ है’—यह समाचार सुनकर वे सभी जाजन तथा सेनाप तगण ब त स ए॥ २४ ॥ तदन र उस या ाका समाचार पाकर सै नक क सभी याँ घर-घरम हषसे खल उठ और अपने प तय को ज ी तैयार होनेके लये े रत करने लग ॥ सेनाप तय ने घोड़ , बैलगा ड़य तथा मनके समान वेगशाली रथ स हत स ूण सेनाको य स हत या ाके लये शी तैयार होनेक आ ा दी॥ २६ ॥ सेनाको कूँ चके लये उ त देख भरतने गु के समीप ही बगलम खड़े ए सुम से कहा —‘आप मेरे रथको शी तैयार करके लाइये’॥ २७ ॥ भरतक उस आ ाको शरोधाय करके सुम बड़े हषके साथ गये और उ म घोड़ से जुता आ रथ लेकर लौट आये॥ २८ ॥ तब सु ढ़ एवं स परा मवाले स परायण तापी भरत वशाल वनम गये ए अपने बड़े भा◌इ यश ी ीरामको लौटा लानेके न म राजी करनेके लये या ाके उ े से उस समय इस कार बोले—॥ २९ ॥ ‘सुम जी! आप शी उठकर सेनाप तय के पास जाइये और उनसे कहकर सेनाको कल कूँ च करनेके लये तैयार होनेका ब क जये; क म सारे जग ा क ाण करनेके लये उन वनवासी ीरामको स करके यहाँ ले आना चाहता ँ ’॥ ३० ॥ भरतक यह उ म आ ा पाकर सूतपु सुम ने अपना मनोरथ सफल आ समझा और उ ने जावगके सभी धान य , सेनाप तय तथा सु द को भरतका आदेश सुना दया॥ ३१ ॥



तब ेक घरके लोग ा ण, य, वै और शू उठ-उठकर अ ी जा तके घोड़े, हाथी, ऊँ ट, गधे तथा रथ को जोतने लगे॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बयासीवाँ सग पूरा आ॥ ८२॥



तरासीवाँ सग भरतक वनया ा और ृ वेरपुरम रा वास



तदन र ात:काल उठकर भरतने उ म रथपर आ ढ़ हो ीरामच जीके दशनक इ ासे शी तापूवक ान कया॥ १ ॥ उनके आगे-आगे सभी म ी और पुरो हत घोड़े जुते ए रथ पर बैठकर या ा कर रहे थे। वे रथ सूयदेवके रथके समान तेज ी दखायी देते थे॥ २ ॥ या ा करते ए इ ाकु कु लन न भरतके पीछे-पीछे व धपूवक सजाये गये नौ हजार हाथी चल रहे थे॥ या ापरायण यश ी राजकु मार भरतके पीछे साठ हजार रथ और नाना कारके आयुध धारण करनेवाले धनुधर यो ा भी जा रहे थे॥ ४ ॥ उसी कार एक लाख घुड़सवार भी उन यश ी रघुकुलन न राजकु मार भरतक या ाके समय उनका अनुसरण कर रहे थे॥ ५ ॥ कै के यी, सु म ा और यश नी कौस ा देवी भी ीरामच जीको लौटा लानेके लये क जानेवाली उस या ासे संतु हो तेज ी रथके ारा त ◌इं ॥ ा ण आ द आय ( ैव णक ) के समूह मनम अ हष लेकर ल णस हत ीरामका दशन करनेके लये उ के स म व च बात कहते-सुनते ए या ा कर रहे थे॥ ७॥ (वे आपसम कहते थे—) ‘हमलोग ढ़ताके साथ उ म तका पालन करनेवाले तथा संसारका दु:ख दूर करनेवाले, त , ामवण महाबा ीरामका कब दशन करगे?॥ ८ ॥ ‘जैसे सूयदेव उदय लेते ही सारे जग ा अ कार हर लेते ह, उसी कार ीरघुनाथजी हमारी आँ ख के सामने पड़ते ही हमलोग का सारा शोक-संताप दूर कर दगे’॥ ९ ॥ इस कारक बात कहते और अ हषसे भरकर एक-दूसरेका आ ल न करते ए अयो ाके नाग रक उस समय या ा कर रहे थे॥ १० ॥ उस नगरम जो दूसरे स ा नत पु ष थे, वे सब लोग तथा ापारी और शुभ वचारवाले जाजन भी बड़े हषके साथ ीरामसे मलनेके लये त ए॥ ११ ॥



जो को◌इ म णकार (म णय को सानपर चढ़ाकर चमका देनेवाले), अ े कु कार, सूतका ताना-बाना करके व बनानेक कलाके वशेष , श नमाण करके जी वका चलानेवाले, मायूरक (मोरक पाँख से छ - जन आ द बनानेवाले), आरेसे च न आ दक लकड़ी चीरनेवाले, म ण-मोती आ दम छेद करनेवाले, रोचक (दीवार और वेदी आ दम शोभाका स ादन करनेवाले), द कार (हाथीके दाँत आ दसे नाना कारक व ु का नमाण करनेवाले), सुधाकार (चूना बनानेवाले), ग ी, स सोनार, क ल और कालीन बनानेवाले, गरम जलसे नहलानेका काम करनेवाले, वै , धूपक (धूपन- या ारा जी वका चलानेवाले), शौ क (म व े ता), धोबी, दज , गाँव तथा गोशाला के महतो, य स हत नट, के वट तथा समा हत च सदाचारी वेदवे ा सह ा ण बैलगा ड़य पर चढ़कर वनक या ा करनेवाले भरतके पीछे-पीछे गये॥ १२—१६ ॥ सबके वेश सु र थे। सबने शु व धारण कर रखे थे तथा सबके अ म ताँबेके समान लाल रंगका अ राग लगा था। वे सब-के -सब नाना कारके वाहन ारा धीरे-धीरे भरतका अनुसरण कर रहे थे॥ १७ ॥ हष और आन म भरी ◌इ वह सेना भा◌इको बुलानेके लये त ए कै के यीकु मार ातृव ल भरतके पीछे-पीछे चलने लगी॥ १८ ॥ इस कार रथ, पालक , घोड़े और हा थय के ारा ब त दूरतकका माग तय कर लेनेके बाद वे सब लोग ृ वेरपुरम ग ाजीके तटपर जा प ँ चे॥ १९ ॥ जहाँ ीरामच जीका सखा वीर नषादराज गुह सावधानीके साथ उस देशक र ा करता आ अपने भा◌इ-ब ु के साथ नवास करता था॥ २० ॥ च वाक से अलंकृत ग ातटपर प ँ चकर भरतका अनुसरण करनेवाली वह सेना ठहर गयी॥ २१ ॥ पु स लला भागीरथीका दशन करके अपनी उस सेनाको श थल ◌इ देख बातचीत करनेक कलाम कु शल भरतने सम स चव से कहा—॥ २२ ॥ ‘आपलोग मेरे सै नक को उनक इ ाके अनुसार यहाँ सब ओर ठहरा दी जये। आज रातम व ाम कर लेनेके बाद हम सब लोग कल सबेरे इन सागरगा मनी नदी गंगाजीको पार करगे॥ २३ ॥



‘यहाँ



ठहरनेका एक और योजन है—म चाहता ँ क ग ाजीम उतरकर ग य महाराजके पारलौ कक क ाणके लये जला ल दे दूँ’॥ २४ ॥ उनके इस कार कहनेपर सभी म य ने ‘तथा ु’ कहकर उनक आ ा ीकार क और सम सै नक को उनक इ ाके अनुसार भ - भ ान पर ठहरा दया॥ २५ ॥ महानदी ग ाके तटपर खेमे आ दसे सुशो भत होनेवाली उस सेनाको व ापूवक ठहराकर भरतने महा ा ीरामके लौटनेके वषयम वचार करते ए उस समय वह नवास कया॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तरासीवाँ सग पूरा आ॥ ८३॥



चौरासीवाँ सग नषादराज गुहका अपने ब ु को नदीक र ा करते ए यु के लये तैयार रहनेका आदेश दे भटक साम ी ले भरतके पास जाना और उनसे आ त ीकार करनेके लये अनुरोध करना



उधर नषादराज गुहने ग ा नदीके तटपर ठहरी ◌इ भरतक सेनाको देखकर सब ओर बैठे ए अपने भा◌इ-ब ु से कहा—॥ १ ॥ ‘भाइयो! इस ओर जो यह वशाल सेना ठहरी ◌इ है समु के समान अपार दखायी देती है; म मनसे ब त सोचनेपर भी इसका पार नह पाता ँ ॥ २ ॥ ‘ न य ही इसम यं दुबु भरत भी आया आ है; यह को वदारके च वाली वशाल जा उसीके रथपर फहरा रही है॥ ३ ॥ ‘म समझता ँ क यह अपने म य ारा पहले हमलोग को पाश से बँधवायगा अथवा हमारा वध कर डालेगा; त ात् ज पताने रा से नकाल दया है, उन दशरथन न ीरामको भी मार डालेगा॥ ४ ॥ ‘कै के यीका पु भरत राजा दशरथक स एवं सुदलु भ राजल ीको अके ला ही हड़प लेना चाहता है, इसी लये वह ीरामच जीको वनम मार डालनेके लये जा रहा है॥ ५ ॥ ‘परंतु दशरथकु मार ीराम मेरे ामी और सखा ह, इस लये उनके हतक कामना रखकर तुमलोग अ -श से सुस त हो यहाँ ग ाके तटपर मौजूद रहो॥ ‘सभी म ाह सेनाके साथ नदीक र ा करते ए ग ाके तटपर ही खड़े रह और नावपर रखे ए फल-मूल आ दका आहार करके ही आजक रात बताव॥ ७ ॥ ‘हमारे पास पाँच सौ नाव ह, उनमसे एक-एक नावपर म ाह के सौ-सौ जवान यु साम ीसे लैस होकर बैठे रह।’ इस कार गुहने उन सबको आदेश दया॥ ८ ॥ उसने फर कहा क ‘य द यहाँ भरतका भाव ीरामके त संतोषजनक होगा, तभी उनक यह सेना आज कु शलपूवक ग ाके पार जा सके गी’॥ ९ ॥ य कहकर नषादराज गुह म ी* ( म ी), फलके गूदे और मधु आ द भटक साम ी लेकर भरतके पास गया॥ १० ॥



उसे आते देख समयो चत कत को समझनेवाले तापी सूतपु सुम ने वनीतक भाँ त भरतसे कहा—॥ ११ ॥ ‘ककु कु लभूषण! यह बूढ़ा नषादराज गुह अपने सह भा◌इ-ब ु के साथ यहाँ नवास करता है। यह तु ारे बड़े भा◌इ ीरामका सखा है। इसे द कार के मागक वशेष जानकारी है। न य ही इसे पता होगा क दोन भा◌इ ीराम और ल ण कहाँ ह, अत: नषादराज गुह यहाँ आकर तुमसे मल, इसके लये अवसर दो’॥ १२-१३ ॥ सुम के मुखसे यह शुभ वचन सुनकर भरतने कहा—‘ नषादराज गुह मुझसे शी मल— इसक व ा क जाय’॥ १४ ॥ मलनेक अनुम त पाकर गुह अपने भा◌इ-ब ु के साथ वहाँ स तापूवक आया और भरतसे मलकर बड़ी न ताके साथ बोला—॥ १५ ॥ ‘यह वन- देश आपके लये घरम लगे ए बगीचेके समान है। आपने अपने आगमनक सूचना न देकर हम धोखेम रख दया—हम आपके ागतक को◌इ तैयारी न कर सके । हमारे पास जो कु छ है, वह सब आपक सेवाम अ पत है। यह नषाद का घर आपका ही है, आप यहाँ सुखपूवक नवास कर॥ १६ ॥ ‘यह फल-मूल आपक सेवाम ुत है। इसे नषाद लोग यं तोड़कर लाये ह। इनमसे कु छ फल तो अभी हरे ताजे ह और कु छ सूख गये ह। इनके साथ तैयार कया आ फलका गूदा भी है। इन सबके सवा नाना कारके दूसरे-दूसरे व पदाथ भी ह। इन सबको हण कर॥ १७ ॥ ‘हम आशा करते ह



क यह सेना आजक रात यह ठहरेगी और हमारा दया आ भोजन ीकार करेगी। नाना कारक मनोवा त व ु से आज हम सेनास हत आपका स ार करगे, फर कल सबेरे आप अपने सै नक के साथ यहाँसे अ जाइयेगा’॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौरासीवाँ सग पूरा आ॥ ८४॥ यहाँ मूलम ‘म ’ श ‘म ी’ अथात् म ीका वाचक है। ‘म नामके एक अंशके हणसे स ूण नामका हण कया गया है। *



ी’ इस नामका एक अंश ‘म



’ है,



अत:



पचासीवाँ सग गुह और भरतक बातचीत तथा भरतका शोक



नषादराज गुहके ऐसा कहनेपर महाबु मान् भरतने यु और योजनयु वचन म उसे इस कार उ र दया—॥ १ ॥ ‘भैया! तुम मेरे बड़े भा◌इ ीरामके सखा हो। मेरी इतनी बड़ी सेनाका स ार करना चाहते हो, यह तु ारा मनोरथ ब त ही ऊँ चा है। तुम उसे पूण ही समझो—तु ारी ासे ही हम सब लोग का स ार हो गया’॥ २ ॥ यह कहकर महातेज ी ीमान् भरतने ग मागको हाथके संकेतसे दखाते ए पुन: गुहसे उ म वाणीम पूछा—॥ ३ ॥ ‘ नषादराज! इन दो माग मसे कसके ारा मुझे भर ाज मु नके आ मपर जाना होगा? ग ाके कनारेका यह देश तो बड़ा गहन मालूम होता है। इसे लाँघकर आगे बढ़ना क ठन है’॥ ४॥ बु मान् राजकु मार भरतका यह वचन सुनकर वनम वचरनेवाले गुहने हाथ जोड़कर कहा —॥ ५ ॥ ‘महाबली राजकु मार! आपके साथ ब त-से म ाह जायँग,े जो इस देशसे पूण प र चत तथा भलीभाँ त सावधान रहनेवाले ह। इनके सवा म भी आपके साथ चलूँगा॥ ६ ॥ ‘पर ु एक बात बताइये, अनायास ही महान् परा म करनेवाले ीरामच जीके त आप को◌इ दुभावना लेकर तो नह जा रहे ह? आपक यह वशाल सेना मेरे मनम श ा-सी उ कर रही है’॥ ७ ॥ ऐसी बात कहते ए गुहसे आकाशके समान नमल भरतने मधुर वाणीम कहा—॥ ८ ॥ ‘ नषादराज! ऐसा समय कभी न आये। तु ारी बात सुनकर मुझे बड़ा क आ। तु मुझपर संदेह नह करना चा हये। ीरघुनाथजी मेरे बड़े भा◌इ ह। म उ पताके समान मानता ँ॥ ९ ॥ ‘ककु कु लभूषण ीराम वनम नवास करते ह, अत: उ लौटा लानेके लये जा रहा ँ । गुह! म तुमसे सच कहता ँ । तु मेरे वषयम को◌इ अ था वचार नह करना चा हये’॥



१० ॥



भरतक बात सुनकर नषादराजका मुँह स तासे खल उठा। वह हषसे भरकर पुन: भरतसे बोला—॥ ११ ॥ ‘आप ध ह, जो बना य के हाथम आये ए रा को ाग देना चाहते ह। आपके समान धमा ा मुझे इस भूम लम को◌इ नह दखायी देता॥ १२ ॥ ‘क द वनम नवास करनेवाले ीरामको जो आप लौटा लाना चाहते ह, इससे सम लोक म आपक अ य क तका सार होगा’॥ १३ ॥ जब गुह भरतसे इस कारक बात कह रहा था, उसी समय सूयदेवक भा अ हो गयी और रातका अ कार सब ओर फै ल गया॥ १४ ॥ गुहके बतावसे ीमान् भरतको बड़ा संतोष आ और वे सेनाको व ाम करनेक आ ा दे श ु के साथ शयन करनेके लये गये॥ १५ ॥ धमपर रखनेवाले महा ा भरत शोकके यो नह थे तथा प उनके मनम ीरामच जीके लये च ाके कारण ऐसा शोक उ आ, जसका वणन नह हो सकता॥ १६ ॥ जैसे वनम फै ले ए दावानलसे संत ए वृ को उसके खोखलेम छपी ◌इ आग और भी अ धक जलाती है, उसी कार दशरथ-मरणज च ाक आगसे संत ए रघुकुलन न भरतको वह राम- वयोगसे उ ◌इ शोका और भी जलाने लगी॥ १७ ॥ जैसे सूयक करण से तपा आ हमालय अपनी पघली ◌इ बफको बहाने लगता है, उसी कार भरत शोका से संत होनेके कारण अपने स ूण अ से पसीना बहाने लगे॥ १८ ॥



उस समय कै के यीकु मार भरत दु:खके वशाल पवतसे आ ा हो गये थे। ीरामच जीका ान ही उसम छ र हत शला का समूह था। दु:खपूण उ ास ही गै रक आ द धातुका ान ले रहा था। दीनता (इ य क अपने वषय से वमुखता) ही वृ समूह के पम तीत होती थी। शोकज नत आयास ही उस दु:ख पी पवतके ऊँ चे शखर थे। अ तशय मोह ही उसम अन ाणी थे। बाहर-भीतरक इ य म होनेवाले संताप ही उस पवतक ओष धयाँ तथा बाँसके वृ थे॥ १९-२० ॥



उनका मन ब त दु:खी था। वे लंबी साँस ख चते ए सहसा अपनी सुध-बुध खोकर बड़ी भारी आप म पड़ गये। मान सक च ासे पी ड़त होनेके कारण नर े भरतको शा नह मलती थी। उनक दशा अपने ंडु से बछु ड़े ए वृषभक -सी हो रही थी॥ २१ ॥ प रवारस हत एका च महानुभाव भरत जब गुहसे मले, उस समय उनके मनम बड़ा दु:ख था। वे अपने बड़े भा◌इके लये च त थे, अत: गुहने उ पुन: आ ासन दया॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पचासीवाँ सग पूरा आ॥ ८५॥



छयासीवाँ सग नषादराज गुहके ारा ल



णके स ाव और वलापका वणन



वनचारी गुहने अ मेय श शाली भरतसे महा ा ल णके स ावका इस कार वणन कया—॥ १ ॥ ‘ल ण अपने भा◌इक र ाके लये े धनुष और बाण धारण कये अ धक कालतक जागते रहे। उस समय उन स णु शाली ल णसे मने इस कार कहा—॥ २ ॥ ‘तात रघुकुलन न! मने तु ारे लये यह सुखदा यनी श ा तैयार क है। तुम इसपर सुखपूवक सोओ और भलीभाँ त व ाम करो। यह (म) सेवक तथा इसके साथके सब लोग वनवासी होनेके कारण दु:ख सहन करनेके यो ह ( क हम सबको क सहनेका अ ास है); परंतु तुम सुखम ही पले होनेके कारण उसीके यो हो। धमा न्! हमलोग ीरामच जीक र ाके लये रातभर जागते रहगे॥ ३-४ ॥ ‘म तु ारे सामने स कहता ँ क इस भूम लम मुझे ीरामसे बढ़कर य दूसरा को◌इ नह है; अत: तुम इनक र ाके लये उ ुक न होओ॥ ५ ॥ ‘इन ीरघुनाथजीके सादसे ही म इस लोकम महान् यश, चुर धमलाभ तथा वशु अथ एवं भो व ु पानेक आशा करता ँ ॥ ६ ॥ ‘अत: म अपने सम ब -ु बा व के साथ हाथम धनुष लेकर सीताके साथ सोये य सखा ीरामक (सब कारसे) र ा क ँ गा॥ ७ ॥ ‘इस वनम सदा वचरते रहनेके कारण मुझसे यहाँक को◌इ बात छपी नह है। हमलोग यहाँ यु म श ुक चतुर णी सेनाका भी अ ी तरह सामना कर सकते ह’॥ ८ ॥ ‘हमारे इस कार कहनेपर धमपर ही रखनेवाले महा ा ल णने हम सब लोग से अनुनयपूवक कहा—॥ ९ ॥ ‘ नषादराज! जब दशरथन न ीराम देवी सीताके साथ भू मपर शयन कर रहे ह, तब मेरे लये उ म श ापर सोकर न द लेना, जीवन-धारणके लये ा द अ खाना अथवा दूसरेदूसरे सुख को भोगना कै से स व हो सकता है?॥ १० ॥



‘गुह! देखो, स



णू देवता और असुर मलकर भी यु म जनके वेगको नह सह सकते, वे ही ीराम इस समय सीताके साथ तनक पर सो रहे ह॥ ११ ॥ ‘महान् तप और नाना कारके प र मसा उपाय ारा जो यह महाराज दशरथको अपने समान उ म ल ण से यु े पु के पम ा ए ह, उ इन ीरामके वनम आ जानेसे राजा दशरथ अ धक कालतक जी वत नह रह सकगे। जान पड़ता है न य ही यह पृ ी अब शी वधवा हो जायगी॥ १२-१३ ॥ ‘अव ही अब र नवासक याँ बड़े जोरसे आतनाद करके अ धक मके कारण अब चुप हो गयी ह गी और राजमहलका वह हाहाकार इस समय शा हो गया होगा॥ १४ ॥ ‘महारानी कौस ा, राजा दशरथ तथा मेरी माता सु म ा—ये सब लोग आजक इस राततक जी वत रह सकगे या नह ; यह म नह कह सकता॥ १५ ॥ ‘श ु क बाट देखनेके कारण स व है, मेरी माता सु म ा जी वत रह जायँ; परंतु पु के वरहसे दु:खम डू बी ◌इ वीर-जननी कौस ा अव न हो जायँगी॥ १६ ॥ ‘(महाराजक इ ा थी क ीरामको रा पर अ भ ष क ँ ) अपने उस मनोरथको न पाकर ीरामको रा पर ा पत कये बना ही ‘हाय! मेरा सब कु छ न हो गया! न हो गया!!’ ऐसा कहते ए मेरे पताजी अपने ाण का प र ाग कर दगे॥ १७ ॥ ‘उनक उस मृ ुका समय उप त होनेपर जो लोग वहाँ रहगे और मेरे मरे ए पता महाराज दशरथका सभी ेतकाय म सं ार करगे, वे ही सफलमनोरथ और भा शाली ह॥ १८ ॥ ‘(य द पृथक् -पृथक्



पताजी जी वत रहे तो) रमणीय चबूतर और चौराह के सु र ान से यु , बने ए वशाल राजमाग से अलंकृत, ध नक क अ ा लका और देवम र एवं राजभवन से स , सब कारके र से वभू षत, हा थय , घोड़ और रथ के आवागमनसे भरी ◌इ, व वध वा क नय से नना दत, सम क ाणकारी व ु से भरपूर, पु मनु से ा , पु वा टका और उ ान से प रपूण तथा सामा जक उ व से सुशो भत ◌इ मेरे पताक राजधानी अयो ापुरीम जो लोग वचरगे, वा वम वे ही सुखी ह॥ १९—२१ ॥



ा वनवासक इस अव धके समा होनेपर सकु शल लौटे ए स साथ हमलोग अयो ापुरीम वेश कर सकगे’॥ २२ ॥ ‘







ीरामके



‘इस



कार वलाप करते ए महामन ी राजकु मार ल णक वह सारी रात जागते ही



बीती॥ २३ ॥ ‘ ात:काल नमल सूय दय होनेपर मने भागीरथीके तटपर (वटके दूधसे) उन दोन के के श को जटाका प दलवाया और उ सुखपूवक पार उतारा॥ २४ ॥ ‘ सरपर जटा धारण करके व ल एवं चीरव पहने ए, महाबली, श ुसंतापी ीराम और ल ण दो गजयूथप तय के समान शोभा पाते थे। वे सु र तरकस और धनुष धारण कये इधर-उधर देखते ए सीताके साथ चले गये’॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छयासीवाँ सग पूरा आ॥ ८६॥



सतासीवाँ सग भरतक मू ासे गुह, श ु और माता का द:ु खी होना, होशम आनेपर भरतका गुहसे ीराम आ दके भोजन और शयन आ दके वषयम पूछना और गुहका उ सब बात बताना



गुहका ीरामके जटाधारण आ दसे स रखनेवाला अ अ य वचन सुनकर भरत च ाम हो गये। जन ीरामके वषयम उ ने अ य बात सुनी थी, उ का वे च न करने लगे (उ यह च ा हो गयी क अब मेरा मनोरथ पूण न हो सके गा। ीरामने जब जटा धारण कर ली, तब वे शायद ही लौट)॥ १ ॥ भरत सुकुमार होनेके साथ ही महान् बलशाली थे, उनके कं धे सहके समान थे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और ने वक सत कमलके स श सु र थे। उनक अव ा त ण थी और वे देखनेम बड़े मनोरम थे। उ ने गुहक बात सुनकर दो घड़ीतक कसी कार धैय धारण कया, फर उनके मनम बड़ा दु:ख आ। वे अंकुशसे व ए हाथीके समान अ थत होकर सहसा दु:खसे श थल एवं मू त हो गये॥ २-३ ॥ भरतको मू त आ देख गुहके चेहरेका रंग उड़ गया। वह भूक के समय म थत ए वृ क भाँ त वहाँ थत हो उठा॥ ४ ॥ श ु भरतके पास ही बैठे थे। वे उनक वैसी अव ा देख उ दयसे लगाकर जोरजोरसे रोने लगे और शोकसे पी ड़त हो अपनी सुध-बुध खो बैठे॥ ५ ॥ तदन र भरतक सभी माताएँ वहाँ आ प ँ च । वे प त वयोगके दु:खसे दु:खी, उपवास करनेके कारण दुबल और दीन हो रही थ ॥ ६ ॥ भू मपर पड़े ए भरतको उ ने चार ओरसे घेर लया और सब-क -सब रोने लग । कौस ाका दय तो दु:खसे और भी कातर हो उठा। उ ने भरतके पास जाकर उ अपनी गोदम चपका लया॥ ७ ॥ जैसे व ला गौ अपने बछड़ेको गलेसे लगाकर चाटती है, उसी तरह शोकसे ाकु ल ◌इ तप नी कौस ाने भरतको गोदम लेकर रोते-रोते पूछा—॥ ‘बेटा! तु ारे शरीरको को◌इ रोग तो क नह प ँ चा रहा है? अब इस राजवंशका जीवन तु ारे ही अधीन है॥ ९ ॥



‘व ! म तु



को देखकर जी रही ँ । ीराम ल णके साथ वनम चले गये और महाराज दशरथ गवासी हो गये; अब एकमा तु हमलोग के र क हो॥ १० ॥ ‘बेटा! सच बताओ, तुमने ल णके स म अथवा मुझ एक ही पु वाली माके बेटे वनम सीतास हत गये ए ीरामके वषयम को◌इ अ य बात तो नह सुनी है?’॥ ११ ॥ दो ही घड़ीम जब महायश ी भरतका च आ, तब उ ने रोते-रोते ही कौस ाको सा ना दी (और कहा—‘मा! घबराओ मत, मने को◌इ अ य बात नह सुनी है’)। फर नषादराज गुहसे इस कार पूछा—॥ १२ ॥ ‘गुह! उस दन रातम मेरे भा◌इ ीराम कहाँ ठहरे थे? सीता कहाँ थ ? और ल ण कहाँ रहे? उ ने ा भोजन करके कै से बछौनेपर शयन कया था? ये सब बात मुझे बताओ’॥ १३ ॥



ये सुनकर नषादराज गुह ब त स आ और उसने अपने य एवं हतकारी अ त थ ीरामके आनेपर उनके त जैसा बताव कया था, वह सब बताते ए भरतसे कहा —॥ १४ ॥ ‘मने भाँ त-भाँ तके अ , अनेक कारके खा -पदाथ और क◌इ तरहके फल ीरामच जीके पास भोजनके लये चुर मा ाम प ँ चाये॥ १५ ॥ ‘स परा मी ीरामने मेरी दी ◌इ सब व ुएँ ीकार तो क ; कतु यधमका रण करते ए उनको हण नह कया—मुझे आदरपूवक लौटा दया॥ ‘ फर उन महा ाने हम सब लोग को समझाते ए कहा—‘सखे! हम-जैसे य को कसीसे कु छ लेना नह चा हये; अ पतु सदा देना ही चा हये’॥ १७ ॥ ‘सीतास हत ीरामने उस रातम उपवास ही कया। ल ण जो जल ले आये थे, के वल उसीको उन महा ाने पीया॥ १८ ॥ ‘उनके पीनेसे बचा आ जल ल णने हण कया। (जलपानके पहले) उन तीन ने मौन एवं एका च होकर सं ोपासना क थी॥ १९ ॥ ‘तदन र ल णने यं कु श लाकर ीरामच जीके लये शी ही सु र बछौना बछाया॥ २० ॥



‘उस



सु र ब रपर जब सीताके साथ ीराम वराजमान ए, तब ल ण उन दोन के चरण पखारकर वहाँसे दूर हट आये॥ २१ ॥ ‘यही वह इ ु दी-वृ क जड़ है और यही वह तृण है, जहाँ ीराम और सीता—दोन ने रा म शयन कया था॥ २२ ॥ ‘श ुसंतापी ल ण अपनी पीठपर बाण से भरे दो तरकस बाँध,े दोन हाथ क अंगु लय म द ाने पहने और महान् धनुष चढ़ाये ीरामके चार ओर घूमकर के वल पहरा देते ए रातभर खड़े रहे॥ २३ ॥ ‘तदन र म भी उ म बाण और धनुष लेकर वह आ खड़ा आ, जहाँ ल ण थे। उस समय अपने ब ु-बा व के साथ, जो न ा और आल का ाग करके धनुष-बाण लये सदा सावधान रहे, म देवराज इ के समान तेज ी ीरामक र ा करता रहा’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सतासीवाँ सग पूरा आ॥ ८७॥



अ ासीवाँ सग ीरामक कुश-श ा देखकर भरतका शोकपूण उ ार तथा यं भी व जटाधारण करके वनम रहनेका वचार कट करना



ल और



नषादराजक सारी बात ानसे सुनकर म य स हत भरतने इं गुदी-वृ क जड़के पास आकर ीरामच जीक श ाका नरी ण कया॥ १ ॥ फर उ ने सम माता से कहा—‘यह महा ा ीरामने भू मपर शयन करके रा तीत क थी। यही वह कु शसमूह है, जो उनके अ से वम दत आ था॥ ‘महाराज के कु लम उ ए परम बु मान् महाभाग राजा दशरथने ज ज दया है, वे ीराम इस तरह भू मपर शयन करनेके यो नह ह॥ ३ ॥ ‘जो पु ष सह ीराम मुलायम मृगचमक वशेष चादरसे ढके ए तथा अ े -अ े बछौन के समूहसे सजे ए पलंगपर सदा सोते आये ह, वे इस समय पृ ीपर कै से शयन करते ह गे?॥ ४ ॥ ‘जो सदा वमानाकार ासाद के े भवन और अ ा लका म सोते आये ह तथा जनक फश सोने और चाँदीक बनी ◌इ है, जो अ े बछौन से सुशो भत ह, पु रा शसे वभू षत होनेके कारण जनक व च शोभा होती है, जनम च न और अगु क सुग फै ली रहती है, जो ेत बादल के समान उ ल का धारण करते ह, जनम शुकसमूह का कलरव होता रहता है, जो शीतल ह एवं कपूर आ दक सुग से ा होते ह, जनक दीवार पर सुवणका काम कया गया है तथा जो ऊँ चा◌इम मे पवतके समान जान पड़ते ह, ऐसे सव म राजमहल म जो नवास कर चुके ह, वे ीराम वनम पृ ीपर कै से सोते ह गे?॥ ५—७ ॥ ‘जो गीत और वा क नय से, े आभूषण क झनकार से तथा मृद के उ म श से सदा जगाये जाते थे, ब त-से व ीगण समय-समयपर जनक व ना करते थे, सूत और मागध अनु प गाथा और ु तय से जनको जगाते थे, वे श ुसंतापी ीराम अब भू मपर कै से शयन करते ह गे?॥ ८-९ ॥ ‘यह बात जग व ासके यो नह है। मुझे यह स नह तीत होती। मेरा अ :करण अव ही मो हत हो रहा है। मुझे तो ऐसा मालूम होता है क यह को◌इ है॥ १० ॥



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य ही कालके समान बल को◌इ दूसरा देवता नह है, जसके भावसे दशरथन न ीरामको भी इस कार भू मपर सोना पड़ा॥ ११ ॥ ‘उस कालके ही भावसे वदेहराजक परम सु री पु ी और महाराज दशरथक ारी पु वधू सीता भी पृ ीपर शयन करती ह॥ १२ ॥ ‘यही मेरे बड़े भा◌इक श ा है। यह उ ने करवट बदली थ । इस कठोर वेदीपर उनका शुभ शयन आ था, जहाँ उनके अ से कु चला गया सारा तृण अभीतक पड़ा है॥ १३ ॥ ‘जान पड़ता है, शुभल णा सीता श ापर आभूषण पहने ही सोयी थ ; क यहाँ य -त सुवणके कण सटे दखायी देते ह॥ १४ ॥ ‘यहाँ उस समय सीताक चादर उलझ गयी थी, यह साफ दखायी दे रहा है; क यहाँ सटे ए ये रेशमके तागे चमक रहे ह॥ १५ ॥ ‘म समझता ँ क प तक श ा कोमल हो या कठोर, सा ी य के लये वही सुखदा यनी होती है, तभी तो वह तप नी एवं सुकुमारी बाला सती-सा ी म थलेशकु मारी सीता यहाँ दु:खका अनुभव नह कर रही ह॥ १६ ॥ ‘हाय! म मर गया—मेरा जीवन थ है। म बड़ा ू र ँ , जसके कारण सीतास हत ीरामको अनाथक भाँ त ऐसी श ापर सोना पड़ता है॥ १७ ॥ ‘जो च वत स ाट्के कु लम उ ए ह, सम लोक को सुख देनेवाले ह तथा सबका य करनेम त र रहते ह, जनका शरीर नीले कमलके समान ाम, आँ ख लाल और दशन सबको य लगनेवाला है तथा जो सुख भोगनेके ही यो ह, दु:ख भोगनेके कदा प यो नह ह, वे ही ीरघुनाथजी परम उ म य रा का प र ाग करके इस समय पृ ीपर शयन करते ह॥ १८-१९ ॥ ‘उ म ल ण वाले ल ण ही ध एवं बड़भागी ह, जो संकटके समय बड़े भा◌इ ीरामके साथ रहकर उनक सेवा करते ह॥ २० ॥ ‘ न य ही वदेहन नी सीता भी कृ ताथ हो गय , ज ने प तके साथ वनका अनुसरण कया है। हम सब लोग उन महा ा ीरामसे बछु ड़कर संशयम पड़ गये ह (हम यह संदेह होने लगा है क ीराम हमारी सेवा ीकार करगे या नह )॥ २१ ॥



‘महाराज



दशरथ गलोकको गये और ीराम वनवासी हो गये, ऐसी दशाम यह पृ ी बना ना वकक नौकाके समान मुझे सूनी-सी तीत हो रही है॥ २२ ॥ ‘वनम नवास करनेपर भी उ ीरामके बा बलसे सुर त ◌इ इस वसु राको को◌इ श ु मनसे भी नह लेना चाहता है॥ २३ ॥ ‘इस समय अयो ाक चहारदीवारीक सब ओरसे र ाका को◌इ ब नह है, हाथी और घोड़े बँधे नह रहते ह—खुले वचरते ह, नगर ारका फाटक खुला ही रहता है, सारी राजधानी अर त है, सेनाम हष और उ ाहका अभाव है, सम नगरी र क से सूनी-सी जान पड़ती है, स टम पड़ी ◌इ है, र क के अभावसे आवरणर हत हो गयी है, तो भी श ु वष म त भोजनक भाँ त इसे हण करनेक इ ा नह करते ह। ीरामके बा बलसे ही इसक र ा हो रही है॥ २४-२५ ॥ ‘आजसे म भी पृ ीपर अथवा तनक पर ही सोऊँ गा, फल-मूलका ही भोजन क ँ गा और सदा व ल व तथा जटा धारण कये र ँ गा॥ २६ ॥ ‘वनवासके जतने दन बाक ह, उतने दन तक म ही वहाँ सुखपूवक नवास क ँ गा, ऐसा होनेसे आय ीरामक क ◌इ त ा झूठी नह होगी॥ २७ ॥ ‘भा◌इके लये वनम नवास करते समय श ु मेरे साथ रहगे और मेरे बड़े भा◌इ ीराम ल णको साथ लेकर अयो ाका पालन करगे॥ २८ ॥ ‘अयो ाम ा णलोग ककु कु लभूषण ीरामका अ भषेक करगे। ा देवता मेरे इस मनोरथको स (सफल) करगे?॥ २९ ॥ ‘म उनके चरण पर म क रखकर उ मनानेक चे ा क ँ गा। य द मेरे ब त कहनेपर भी वे लौटनेको राजी न ह गे तो उन वनवासी ीरामके साथ म भी दीघकालतक वह नवास क ँ गा। वे मेरी उपे ा नह करगे’॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अ ासीवाँ सग पूरा आ॥ ८८॥



नवासीवाँ सग भरतका सेनास हत ग ापार करके भर ाजके आ मपर जाना



ृ वेरपुरम ही ग ाके तटपर रा बताकर रघुकुलन न भरत ात:काल उठे और श ु से इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘श ु ! उठो, ा सो रहे हो। तु ारा क ाण हो, तुम नषादराज गुहको शी बुला लाओ, वही हम ग ाके पार उतारेगा’॥ २ ॥ उनसे इस कार े रत होनेपर श ु ने कहा— ‘भैया! म भी आपक ही भाँ त आय ीरामका च न करता आ जाग रहा ँ , सोता नह ँ ’॥ ३ ॥ वे दोन पु ष सह जब इस कार पर र बातचीत कर रहे थे, उसी समय गुह उपयु वेलाम आ प ँ चा और हाथ जोड़कर बोला—॥ ४ ॥ ‘ककु कु लभूषण भरतजी! इस नदीके तटपर आप रातम सुखसे रहे ह न? सेनास हत आपको यहाँ को◌इ क तो नह आ है? आप सवथा नीरोग ह न?’॥ गुहके ेहपूवक कहे गये इस वचनको सुनकर ीरामके अधीन रहनेवाले भरतने य कहा —॥ ६ ॥ ‘बु मान् नषादराज! हम सब लोग क रात बड़े सुखसे बीती है। तुमने हमारा बड़ा स ार कया। अब ऐसी व ा करो, जससे तु ारे म ाह ब त-सी नौका ारा हम ग ाके पार उतार द’॥ ७ ॥ भरतका यह आदेश सुनकर गुह तुरंत अपने नगरम गया और भा◌इ-ब ु से बोला—॥ ८॥ ‘उठो, जागो, सदा तु ारा क ाण हो। नौका को ख चकर घाटपर ले आओ। भरतक सेनाको ग ाजीके पार उता ँ गा’॥ ९ ॥ गुहके इस कार कहनेपर अपने राजाक आ ासे सभी म ाह शी ही उठ खड़े ए और चार ओरसे पाँच सौ नौकाएँ एक कर लाये॥ १० ॥ इन सबके अ त र कु छ क नामसे स नौकाएँ थ ; जो कके च से अलंकृत होनेके कारण उ च से पहचानी जाती थ । उनपर ऐसी पताकाएँ फहरा रही थ ,



जनम बड़ी-बड़ी घ याँ लटक रही थ । ण आ दके बने ए च से उन नौका क वशेष शोभा हो रही थी। उनम नौका खेनेके लये ब त-से डाँड़ लगे ए थे तथा चतुर ना वक उ चलानेके लये तैयार बैठे थे। वे सभी नौकाएँ बड़ी मजबूत बनी थ ॥ ११ ॥ उ मसे एक क ाणमयी नाव गुह यं लेकर आया, जसम ेत कालीन बछे ए थे तथा उस क नामवाली नावपर मा लक श हो रहा था॥ १२ ॥ उसपर सबसे पहले पुरो हत, गु और ा ण बैठे। त ात् उसपर भरत, महाबली श ु , कौस ा, सु म ा, कै के यी तथा राजा दशरथक जो अ रा नयाँ थ , वे सब सवार ◌इं । तदन र राजप रवारक दूसरी याँ बैठ । गा ड़याँ तथा य- व यक साम याँ दूसरी-दूसरी नाव पर लादी गय ॥ १३-१४ ॥ कु छ सै नक बड़ी-बड़ी मशाल जलाकर१ अपने खेम म छू टी ◌इ व ु को सँभालने लगे। कु छ लोग शी तापूवक घाटपर उतरने लगे तथा ब त-से सै नक अपने-अपने सामानको ‘यह मेरा है, यह मेरा है’ इस तरह पहचानकर उठाने लगे। उस समय जो महान् कोलाहल मचा, वह आकाशम गूँज उठा॥ १५ ॥ उन सभी नाव पर पताकाएँ फहरा रही थ । सबके ऊपर खेनेवाले क◌इ म ाह बैठे थे। वे सब नौकाएँ उस समय चढ़े ए मनु को ती ग तसे पार ले जाने लग ॥ १६ ॥ कतनी ही नौकाएँ के वल य से भरी थ , कु छ नाव पर घोड़े थे तथा कु छ नौकाएँ गा ड़य , उनम जोते जानेवाले घोड़े, ख र, बैल आ द वाहन तथा ब मू र आ दको ढो रही थ ॥ १७ ॥ वे दूसरे तटपर प ँ चकर वहाँ लोग को उतारकर जब लौट , उस समय म ाहब ु जलम उनक व च ग तय का दशन करने लगे॥ १८ ॥ वैजय ी पताका से सुशो भत होनेवाले हाथी महावत से े रत होकर यं ही नदी पार करने लगे। उस समय वे पंखधारी पवत के समान तीत होते थे॥ कतने ही मनु नाव पर बैठे थे और कतने ही बाँस तथा तनक से बने ए बेड़ पर सवार थे। कु छ लोग बड़े-बड़े कलश , कु छ छोटे घड़ और कु छ अपनी बा से ही तैरकर पार हो रहे थे॥ २० ॥



इस कार म ाह क सहायतासे वह सारी प व सेना ग ाके पार उतारी गयी। फर वह यं मै २ नामक मु तम उ म यागवनक ओर त हो गयी॥ २१ ॥ वहाँ प ँ चकर महा ा भरत सेनाको सुखपूवक व ामक आ ा दे उसे यागवनम ठहराकर यं ऋ ज तथा राजसभाके सद के साथ ऋ ष े भर ाजका दशन करनेके लये गये॥ २२ ॥ देवपुरो हत महा ा ा ण भर ाज मु नके आ मपर प ँ चकर भरतने उन व शरोम णके रमणीय एवं वशाल वनको देखा, जो मनोहर पणशाला तथा वृ ाव लय से सुशो भत था॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म नवासीवाँ सग पूरा आ॥ ८९॥ १. यहाँ ‘आवासमादीपयताम्’ का अथ कु छ टीकाकार ने यह कया है क ‘वे अपने आवास ानम आग लगाने लगे।’ आव क व ु को लाद लेनेके बाद जो मामूली झ पड़े और नग व ुएँ शेष रह जाती ह, उनम छावनी उखाड़ते समय आग लगा देना—यह सेनाका धम बताया गया है। इसके दो रह ह, कसी श ुप ीय के लये अपना को◌इ नशान न छोड़ना—यह सै नक नी त है। दूसरा यह है क इस तरह आग लगाकर जानेसे वजय-ल ीक ा होती है—ऐसा उनका पर रागत व ास है।



२. दो-दो घड़ी (द ) का एक मु त होता है। दनम कु ल पं ह मु त बीतते ह। इनमसे तीसरे मु तको ‘मै ’ कहते ह। बृह तने पं ह मु त के नाम इस कार गनाये ह—रौ , साप, मै , पै , वासव, आ , वै , ा , ाज, ◌इश, ऐ , ऐ ा , नैऋ त, वा णायमण तथा भगी। जैसा क वचन है— रौ : साप था मै : पै ो वासव एव च। आ ो वै ऐ ा ो नैऋ त ैव वा णायमणो भगी। एतेऽ



था ा : ाजेशै ा थैव च॥



मशो ेया मु ता दश प च॥



न ेवाँ सग भरत और भर ाज मु नक भट एवं बातचीत तथा मु नका अपने आ मपर ही ठहरनेका आदेश देना



धमके ाता नर े भरतने भर ाज-आ मके पास प ँ चकर अपने साथके सब लोग को आ मसे एक कोस इधर ही ठहरा दया था और अपने भी अ -श तथा राजो चत व उतारकर वह रख दये थे। के वल दो रेशमी व धारण करके पुरो हतको आगे कये वे म य के साथ पैदल ही वहाँ गये॥ १-२ ॥ आ मम वेश करके जहाँ दूरसे ही मु नवर भर ाजका दशन होने लगा। वह उ ने उन म य को खड़ा कर दया और पुरो हत व स जीको आगे करके वे पीछे-पीछे ऋ षके पास गये॥ ३ ॥ मह ष व स को देखते ही महातप ी भर ाज आसनसे उठ खड़े ए और श से शी तापूवक अ ले आनेको कहा॥ ४ ॥ फर वे व स से मले। त ात् भरतने उनके चरण म णाम कया। महातेज ी भर ाज समझ गये क ये राजा दशरथके पु ह॥ ५ ॥ धम ऋ षने मश: व स और भरतको अ , पा तथा फल आ द नवेदन करके उन दोन के कु लका कु शल-समाचार पूछा॥ ६ ॥ इसके बाद अयो ा, सेना, खजाना, म वग तथा म म लका हाल पूछा। राजा दशरथक मृ ुका वृ ा वे जानते थे; इस लये उनके वषयम उ ने कु छ नह पूछा॥ ७ ॥ व स और भरतने भी मह षके शरीर, अ हो , श वग, पेड़-प े तथा मृग-प ी आ दका कु शल समाचार पूछा॥ ८ ॥ महायश ी भर ाज ‘सब ठीक है’ ऐसा कहकर ीरामके त ेह होनेके कारण भरतसे इस कार बोले—॥ ९ ॥ ‘तुम तो रा कर रहे हो न? तु यहाँ आनेक ा आव कता पड़ गयी? यह सब मुझे बताओ, क मेरा मन तु ारी ओरसे शु नह हो रहा है— मेरा व ास तुमपर नह जमता है॥ १० ॥



‘जो



श ु का नाश करनेवाला है, जस आन वधक पु को कौस ाने ज दया है तथा तु ारे पताने ीके कारण जस महायश ी पु को चौदह वष तक वनम रहनेक आ ा देकर उसे भा◌इ और प ीके साथ दीघकालके लये वनम भेज दया है, उस नरपराध ीराम और उसके छोटे भा◌इ ल णका तुम अक क रा भोगनेक इ ासे को◌इ अ न तो नह करना चाहते हो?’॥ ११—१३ ॥ भर ाजजीके ऐसा कहनेपर दु:खके कारण भरतक आँ ख डबडबा आय । वे लड़खड़ाती ◌इ वाणीम उनसे इस कार बोले—॥ १४ ॥ ‘भगवन्! य द आप पू पाद मह ष भी मुझे ऐसा समझते ह, तब तो म हर तरहसे मारा गया। यह म न त पसे जानता ँ क ीरामके वनवासम मेरी ओरसे को◌इ अपराध नह आ है, अत: आप मुझसे ऐसी कठोर बात न कह॥ १५ ॥ ‘मेरी आड़ लेकर मेरी माताने जो कु छ कहा या कया है, यह मुझे अभी नह है। म इससे संतु नह ँ और न माताक उस बातको ीकार ही करता ँ ॥ ‘म तो उन पु ष सह ीरामको स करके अयो ाम लौटा लाने और उनके चरण क व ना करनेके लये जा रहा ँ ॥ १७ ॥ ‘इसी उ े से म यहाँ आया ँ । ऐसा समझकर आपको मुझपर कृ पा करनी चा हये। भगवन्! आप मुझे बताइये क इस समय महाराज ीराम कहाँ ह?’॥ १८ ॥ इसके बाद व स आ द ऋ ज ने भी यह ाथना क क भरतका को◌इ अपराध नह है। आप इनपर स ह । तब भगवान् भर ाजने स होकर भरतसे कहा—॥ १९ ॥ ‘पु ष सह! तुम रघुकुलम उ ए हो। तुमम गु जन क सेवा, इ यसंयम तथा े पु ष के अनुसरणका भाव होना उ चत ही है॥ २० ॥ ‘तु ारे मनम जो बात है, उसे म जानता ँ ; तथा प मने इस लये पूछा है क तु ारा यह भाव और भी ढ़ हो जाय तथा तु ारी क तका अ धका धक व ार हो॥ २१ ॥ ‘म सीता और ल णस हत धम ीरामका पता जानता ँ । ये तु ारे ाता ीरामच महापवत च कू टपर नवास करते ह॥ २२ ॥ ‘अब कल तुम उस ानक या ा करना। आज अपने म य के साथ इस आ मम ही रहो। महाबु मान् भरत! तुम मेरी इस अभी व ुको देनेम समथ हो, अत: मेरी यह अ भलाषा



पूण करो’॥ २३ ॥ तब जनके प एवं भावका प रचय मल गया था, उन उदार वाले भरतने ‘तथा ु’ कहकर मु नक आ ा शरोधाय क तथा उन राजकु मारने उस समय रातको उस आ मम ही नवास करनेका वचार कया॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म न ेवाँ सग पूरा आ॥ ९०॥







ानबेवाँ सग



भर ाज मु नके ारा सेनास हत भरतका द







ार



जब भरतने उस आ मम ही नवासका ढ़ न य कर लया, तब मु नने कै के यीकु मार भरतको अपना आ त हण करनेके लये ौता दया॥ १ ॥ यह सुनकर भरतने उनसे कहा—‘मुने! वनम जैसा आ त -स ार स व है, वह तो आप पा , अ और फल-मूल आ द देकर कर ही चुके’॥ २ ॥ उनके ऐसा कहनेपर भर ाजजी भरतसे हँ सते ए-से बोले—‘भरत! म जानता ँ , मेरे त तु ारा ेम है; अत: म तु जो कु छ दूँगा, उसीसे तुम संतु हो जाओगे॥ ३ ॥ ‘ कतु इस समय म तु ारी सेनाको भोजन कराना चाहता ँ । नर े ! इससे मुझे स ता होगी और जस तरह मुझे स ता हो, वैसा काय तु अव करना चा हये॥ ४ ॥ ‘पु ष वर! तुम अपनी सेनाको कस लये इतनी दूर छोड़कर यहाँ आये हो, सेनास हत यहाँ नह आये?’॥ ५ ॥ तब भरतने हाथ जोड़कर उन तपोधन मु नको उ र दया—‘भगवन्! म आपके ही भयसे सेनाके साथ यहाँ नह आया॥ ६ ॥ ‘ भो! राजा और राजपु को चा हये क वे सभी देश म य पूवक तप ीजन को दूर छोड़कर रह ( क उनके ारा उ क प ँ चनेक स ावना रहती है)॥ ‘भगवन्! मेरे साथ ब त-से अ े -अ े घोड़े, मनु और मतवाले गजराज ह, जो ब त बड़े भूभागको ढककर मेरे पीछे-पीछे चलते ह॥ ८ ॥ ‘वे आ मके वृ , जल, भू म और पणशाला को हा न न प ँ चाय, इस लये म यहाँ अके ला ही आया ँ ’॥ तदन र उन मह षने आ ा दी क ‘सेनाको यह ले आओ।’ तब भरतने सेनाको वह बुलवा लया॥ १० ॥ इसके बाद मु नवर भर ाजने अ शालाम वेश करके जलका आचमन कया और ओठ प छकर भरतके आ त -स ारके लये व कमा आ दका आवाहन कया॥ ११ ॥



वे बोले—‘म व कमा ा देवताका आवाहन करता ँ । मेरे मनम सेनास हत भरतका आ त -स ार करनेक इ ा ◌इ है। इसम मेरे लये वे आव क ब कर॥ १२ ॥ ‘ जनके अगुआ इ ह, उन तीन लोकपाल का (अथात् इ स हत यम, व ण और कु बेर नामक देवता का) म आवाहन करता ँ । इस समय भरतका आ त -स ार करना चाहता ँ , इसम मेरे लये वे लोग आव क ब कर॥ १३ ॥ ‘पृ थवी और आकाशम जो पूव एवं प मक ओर वा हत होनेवाली न दयाँ ह, उनका भी म आवाहन करता ँ ; वे सब आज यहाँ पधार॥ १४ ॥ ‘कु छ न दयाँ मैरेय ुत कर। दूसरी अ ी तरह तैयार क ◌इ सुरा ले आव तथा अ न दयाँ ◌इं खके पो म होनेवाले रसक भाँ त मधुर एवं शीतल जल तैयार करके रख॥ १५ ॥ ‘म व ावसु, हाहा और आ द देव-ग व का तथा उनके साथ सम अ रा का भी आवाहन करता ँ ॥ ‘घृताची व ाची, म के शी, अल ुषा नागद ा, हेमा, सोमा तथा अ कृ त ली (अथवा पवतपर नवास करनेवाली सोमा) का भी म आवाहन करता ँ ॥ १७ ॥ ‘जो अ राएँ इ क सभाम उप त होती ह तथा जो देवा नाएँ ाजीक सेवाम जाया करती ह, उन सबका म तु ु के साथ आवाहन करता ँ । वे अल ार तथा नृ गीतके लये अपे त अ ा उपकरण के साथ यहाँ पधार॥ १८ ॥ ‘उ र कु वषम जो द चै रथ नामक वन है, जसम द व और आभूषण ही वृ के प े ह और द ना रयाँ ही फल ह, कु बेरका वह सनातन द वन यह आ जाय॥ १९ ॥ ‘यहाँ



भगवान् सोम मेरे अ त थय के लये उ म अ , नाना कारके भ , भो , ले और चो क चुर मा ाम व ा कर॥ २० ॥ ‘वृ से तुरंत चुने गये नाना कारके पु , मधु आ द पेय पदाथ तथा नाना कारके फल के गूदे भी भगवान् सोम यहाँ ुत कर’॥ २१ ॥ इस कार उ म तका पालन करनेवाले भर ाज मु नने एका च और अनुपम तेजसे स हो श ा ( श ाशा म बतायी गयी उ ारण व ध) और ( ाकरणशा ो कृ तय स ी) रसे यु वाणीम उन सबका आवाहन कया॥ २२ ॥



इस तरह आवाहन करके मु न पूवा भमुख हो हाथ जोड़े मन-ही-मन ान करने लगे। उनके रण करते ही वे सभी देवता एक-एक करके वहाँ आ प ँ चे॥ २३ ॥ फर तो वहाँ मलय और ददुर नामक पवत का श करके बहनेवाली अ य और सुखदा यनी हवा धीरे-धीरे चलने लगी, जो शमा से शरीरके पसीनेको सुखा देनेवाली थी॥ २४ ॥ त ात् मेघगण द पु क वषा करने लगे। स ूण दशा म देवता क दु ु भय का मधुर श सुनायी देने लगा॥ २५ ॥ उ म वायु चलने लगी। अ रा के समुदाय का नृ होने लगा। देवग व गाने लगे और सब ओर वीणा क रलह रयाँ फै ल गय ॥ २६ ॥ स ीतका वह श पृ ी, आकाश तथा ा णय के कणकु हर म व होकर गूँजने लगा। आरोह-अवरोहसे यु वह श कोमल एवं मधुर था, समतालसे व श और लयगुणसे स था॥ २७ ॥ इस कार मनु के कान को सुख देनेवाला वह द श हो ही रहा था क भरतक सेनाको व कमाका नमाणकौशल दखायी पड़ा॥ २८ ॥ चार ओर पाँच योजनतकक भू म समतल हो गयी। उसपर नीलम और वैदयू म णके समान नाना कारक घनी घास छा रही थी॥ २९ ॥ ान- ानपर बेल, कै थ, कटहल, आँ वला, बजौरा तथा आमके वृ लगे थे, जो फल से सुशो भत हो रहे थे॥ ३० ॥ उ र कु वषसे द भोग-साम य से स चै रथ नामक वन वहाँ आ गया। साथ ही वहाँक रमणीय न दयाँ भी आ प ँ च , जो ब सं क तटवत वृ से घरी ◌इ थ ॥ ३१ ॥ उ ल, चार-चार कमर से यु गृह (अथवा गृहयु चबूतरे) तैयार हो गये। हाथी और घोड़ के रहनेके लये शालाएँ बन गय । अ ा लका तथा सतमं जले महल से यु सु र नगर ार भी न मत हो गये॥ ३२ ॥ राजप रवारके लये बना आ सु र ारसे यु द भवन ेत बादल के समान शोभा पा रहा था। उसे सफे द फू ल क माला से सजाया और द सुग त जलसे स चा गया था॥ ३३ ॥



वह महल चौकोना तथा ब त बड़ा था—उसम संक णताका अनुभव नह होता था। उसम सोने, बैठने और सवा रय के रहनेके लये अलग-अलग ान थे। वहाँ सब कारके द रस, द भोजन और द व ुत थे॥ ३४ ॥ सब तरहके अ और धुले ए पा रखे गये थे। उस सु र भवनम कह बैठनेके लये सब कारके आसन उप त थे और कह सोनेके लये सु र श ाएँ बछी थ ॥ ३५ ॥ मह ष भर ाजक आ ासे कै के यीपु महाबा भरतने नाना कारके र से भरे ए उस महलम वेश कया। उनके साथ-साथ पुरो हत और म ी भी उसम गये। उस भवनका नमाणकौशल देखकर उन सब लोग को बड़ी स ता ◌इ॥ ३६-३७ ॥ उस भवनम भरतने द राज सहासन, चँवर और छ भी देखे तथा वहाँ राजा ीरामक भावना करके म य के साथ उन सम राजभो व ु क द णा क ॥ ३८ ॥ सहासनपर ीरामच जी महाराज वराजमान ह, ऐसी धारणा बनाकर उ ने ीरामको णाम कया और उस सहासनक भी पूजा क । फर अपने हाथम चँवर ले, वे म ीके आसनपर जा बैठे॥ ३९ ॥ त ात् पुरो हत और म ी भी मश: अपने यो आसन पर बैठे; फर सेनाप त और शा ा (छावनीक र ा करनेवाले) भी बैठ गये॥ ४० ॥ तदन र वहाँ दो ही घड़ीम भर ाज मु नक आ ासे भरतक सेवाम न दयाँ उप त ◌इं , जनम क चके ानम खीर भरी थी॥ ४१ ॥ उन न दय के दोन तट पर ष भर ाजक कृ पासे द एवं रमणीय भवन कट हो गये थे, जो चूनेसे पुते ए थे॥ ४२ ॥ उसी मु तम ाजीक भेजी ◌इ द आभूषण से वभू षत बीस हजार द ा नाएँ वहाँ आय ॥ ४३ ॥ इसी तरह सुवण, म ण, मु ा और मूँग के आभूषण से सुशो भत, कु बेरक भेजी ◌इ बीस हजार द म हलाएँ भी वहाँ उप त ◌इं , जनका श पाकर पु ष उ ाद -सा दखायी देता है॥ ४४ १/२ ॥ इनके सवा न नवनसे बीस हजार अ राएँ भी आय । नारद, तु ु और गोप अपनी का से सूयके समान का शत होते थे। ये तीन ग वराज भरतके सामने गीत गाने लगे॥



४५-४६ ॥ अल ुषा, म के शी, पु रीका और वामना— ये चार अ राएँ भर ाज मु नक आ ासे भरतके समीप नृ करने लग ॥ ४७ ॥ जो फू ल देवता के उ ान म और जो चै रथ वनम आ करते ह, वे मह ष भर ाजके तापसे यागम दखायी देने लगे॥ ४८ ॥ भर ाज मु नके तेजसे बेलके वृ मृद बजाते, बहेड़के े पेड़ श ा नामक ताल देते और पीपलके वृ वहाँ नृ करते थे॥ ४९ ॥ तदन र देवदा , ताल, तलक और तमाल नामक वृ कु बड़े और बौने बनकर बड़े हषके साथ भरतक सेवाम उप त ए॥ ५० ॥ शशपा, आमलक और ज ू आ द ी ल वृ तथा मालती, म का और जा त आ द वनक लताएँ नारीका प धारण करके भर ाज मु नके आ मम आ बस ॥ ५१ ॥ (वे भरतके सै नक को पुकार-पुकारकर कहती थ —) ‘मधुका पान करनेवाले लोगो! लो, यह मधु पान कर लो। तुममसे ज भूख लगी हो, वे सब लोग यह खीर खाओ और परम प व फल के गूदे भी ुत ह, इनका आ ादन करो। जसक जो इ ा हो, वही भोजन करो’॥ ५२ ॥



सात-आठ त णी याँ मलकर एक-एक पु षको नदीके मनोहर तट पर उबटन लगालगाकर नहलाती थ ॥ बड़े-बड़े ने वाली सु री रम णयाँ अ त थय का पैर दबानेके लये आयी थ । वे उनके भीगे ए अ को व से प छकर शु व धारण कराकर उ ा द पेय (दूध आ द) पलाती थ ॥ ५४ ॥ त ात् भ - भ वाहन क र ाम नयु मनु ने हाथी, घोड़े, गधे, ऊँ ट और बैल को भलीभाँ त दाना-घास आ दका भोजन कराया॥ ५५ ॥ इ ाकु कु लके े यो ा क सवारीम आनेवाले वाहन को वे महाबली वाहन-र क ( ज मह षने सेवाके लये नयु कया था) ेरणा दे-देकर ग ेके टुकड़े और मधु म त लावे खलाते थे॥ ५६ ॥



घोड़े बाँधनेवाले स◌इसको अपने घोड़ेका और हाथीवानको अपने हाथीका कु छ पता नह था। सारी सेना वहाँ म - म और आन म तीत होती थी॥ ५७ ॥ स ूण मनोवा त पदाथ से तृ होकर लाल च नसे च चत ए सै नक अ रा का संयोग पाकर न ा त बात कहने लगे—॥ ५८ ॥ ‘अब हम अयो ा नह जायँग,े द कार म भी नह जायँगे। भरत सकु शल रह ( जनके कारण हम इस भूतलपर गका सुख मला) तथा ीरामच जी भी सुखी रह ( जनके दशनके लये आनेपर हम इस द सुखक ा ◌इ)’॥ ५९ ॥ इस कार पैदल सै नक तथा हाथीसवार, घुड़सवार, स◌इस और महावत आ द उस स ारको पाकर हो उपयु बात कहने लगे॥ ६० ॥ भरतके साथ आये ए हजार मनु वहाँका वैभव देखकर हषके मारे फू ले नह समाते थे और जोर-जोरसे कहते थे—यह ान ग है॥ ६१ ॥ सह सै नक फू ल के हार पहनकर नाचते, हँ सते और गाते ए सब ओर दौड़ते फरते थे॥ ६२ ॥ उस अमृतके समान ा द अ का भोजन कर चुकनेपर भी उन द भ पदाथ को देखकर उ पुन: भोजन करनेक इ ा हो जाती थी॥ ६३ ॥ दास-दा सयाँ, सै नक क याँ और सै नक सब-के -सब नूतन व धारण करके सब कारसे अ स हो गये थे॥ ६४ ॥ हाथी, घोड़े, गदहे, ऊँ ट, बैल, मृग तथा प ी भी वहाँ पूण तृ हो गये थे; अत: को◌इ दूसरी कसी व ुक इ ा नह करता था॥ ६५ ॥ उस समय वहाँ को◌इ भी मनु ऐसा नह दखायी देता था, जसके कपड़े सफे द न ह , जो भूखा या म लन रह गया हो, अथवा जसके के श धूलसे धूस रत हो गये ह ॥ ६६ ॥ अजवाइन मलाकर बनाये गये, वराही क से तैयार कये गये तथा आम आ द फल के गरम कये ए रसम पकाये गये उ मो म न के सं ह , सुग यु रसवाली दाल तथा ेत रंगके भात से भरे ए सह सुवण आ दके पा वहाँ सब ओर रखे ए थे, ज फू ल क जा से सजाया गया था। भरतके साथ आये ए सब लोग ने उन पा को आ यच कत होकर देखा॥



वनके आस-पास जतने कु एँ थे, उन सबम गाढ़ी ा द खीर भरी ◌इ थी। वहाँक गौएँ कामधेनु (सब कारक कामना को पूण करनेवाली) हो गयी थ और उस द वनके वृ मधुक वषा करते थे॥ ६९ ॥ भरतक सेनाम आये ए नषाद आ द न वगके लोग क तृ के लये वहाँ मधुसे भरी ◌इ बाव ड़याँ कट हो गयी थ तथा उनके तट पर तपे ए पठर (कु ) म पकाये गये मृग, मोर और मुग के मांस भी ढेर-के -ढेर रख दये गये थे॥ ७० ॥ वहाँ सह सोनेके अ पा , लाख नपा और लगभग एक अरब था लयाँ संगृहीत थ ॥ ७१ ॥ पठर, छोटे-छोटे घड़े तथा मटके दहीसे भरे ए थे और उनम दहीको सु ादु बनानेवाले स ठ आ द मसाले पड़े ए थे। एक पहर पहलेके तैयार कये ए के सर म त पीतवणवाले सुग त त के क◌इ तालाब भरे ए थे। जीरा आ द मलाये ए त (रसाल), सफे द दही तथा दूधके भी क◌इ कु पृथक् -पृथक् भरे ए थे। श र के क◌इ ढेर लगे थे॥ ७२-७३ ॥ ान करनेवाले मनु को नदीके घाट पर भ भ पा म पीसे ए आँ वले, सुग त चूण तथा और भी नाना कारके ानोपयोगी पदाथ दखायी देते थे॥ ७४ ॥ साथ ही ढेर-के -ढेर दाँतन, जो सफे द कूँ चेवाले थे, वहाँ रखे ए थे। स ुट म घसे ए सफे द च न व मान थे। इन सब व ु को लोग ने देखा॥ ७५ ॥ इतना ही नह , वहाँ ब त-से दपण, ढेर-के -ढेर व और हजार जोड़े खड़ाऊँ और जूते भी दखायी देते थे॥ ७६ ॥ काजल स हत कजरौटे, कं घे, कू च (थकरी या श), छ , धनुष, मम ान क र ा करनेवाले कवच आ द तथा व च श ा और आसन भी वहाँ गोचर होते थे॥ ७७ ॥ गधे, ऊँ ट, हाथी और घोड़ के पानी पीनेके लये क◌इ जलाशय भरे थे, जनके घाट बड़े सु र और सुखपूवक उतरनेयो थे। उन जलाशय म कमल और उ ल शोभा पा रहे थे। उनका जल आकाशके समान था तथा उनम सुखपूवक तैरा जा सकता था॥ पशु के खानेके लये वहाँ सब ओर नील वैदयू म णके समान रंगवाली हरी एवं कोमल घासक ढे रयाँ लगी थ । उन सब लोग ने वे सारी व ुएँ देख ॥ ७९ ॥



मह ष भर ाजके ारा सेनास हत भरतका कया आ वह अ नवचनीय आ त -स ार अ तु और के समान था। उसे देखकर वे सब मनु आ यच कत हो उठे ॥ ८० ॥ जैसे देवता न नवनम वहार करते ह, उसी कार भर ाज मु नके रमणीय आ मम यथे डा— वहार करते ए उन लोग क वह रा बड़े सुखसे बीती॥ त ात् वे न दयाँ, ग व और सम सु री अ राएँ भर ाजजीक आ ा ले जैसे आयी थ , उसी कार लौट गय ॥ ८२ ॥ सबेरा हो जानेपर भी लोग उसी कार मधुपानसे म एवं उ दखायी देते थे। उनके अ पर द अगु यु च नका लेप -कागोचर हो रहा था। मनु के उपभोगम लाये गये नाना कारके द उ म पु हार भी उसी अव ाम पृथक् -पृथक् बखरे पड़े थे॥ ८३ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म इ ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९१॥



बानबेवाँ सग भरतका भर ाज मु नसे जानेक आ ा लेते ए ीरामके आ मपर जानेका माग जानना और मु नको अपनी माता का प रचय देकर वहाँसे च कूटके लये सेनास हत ान करना



प रवारस हत भरत इ ानुसार मु नका आ त हण करके रातभर आ मम ही रहे। फर सबेरे जानेक आ ा लेनेके लये वे मह ष भर ाजके पास गये॥ १ ॥ पु ष सह भरतको हाथ जोड़े अपने पास आया देख भर ाजजी अ हो का काय करके उनसे बोले—॥ २ ॥ ‘ न ाप भरत! ा हमारे इस आ मम तु ारी यह रात सुखसे बीती है? ा तु ारे साथ आये ए सब लोग इस आ त से संतु ए ह? यह बताओ’॥ तब भरतने आ मसे बाहर नकले ए उन उ म तेज ी मह षको णाम करके उनसे हाथ जोड़कर कहा—॥ ४ ॥ ‘भगवन्! म स ूण सेना और सवारीके साथ यहाँ सुखपूवक रहा ँ तथा सै नक स हत मुझे पूण पसे तृ कया गया है॥ ५ ॥ ‘सेवक स हत हम सब लोग ा न और संतापसे र हत हो उ म अ -पान हण करके सु र गृह का आ य ले बड़े सुखसे यहाँ रातभर रहे ह॥ ६ ॥ ‘भगवन्! मु न े ! अब म अपनी इ ाके अनुसार आपसे आ ा लेने आया ँ और अपने भा◌इके समीप ान कर रहा ँ ; आप मुझे ेहपूण से दे खये॥ ‘धम मुनी र! बताइये, धमपरायण महा ा ीरामका आ म कहाँ है? कतनी दूर है? और वहाँ प ँ चनेके लये कौन-सा माग है? इसका भी मुझसे पसे वणन क जये’॥ ८ ॥ इस कार पूछे जानेपर महातप ी, महातेज ी भर ाज मु नने भा◌इके दशनक लालसावाले भरतको इस कार उ र दया—॥ ९ ॥ ‘भरत! यहाँसे ढा◌इ योजन (दस कोस)* क दूरीपर एक नजन वनम च कू ट नामक पवत है, जहाँके झरने और वन बड़े ही रमणीय ह ( यागसे च कू टक आधु नक दूरी लगभग २८ कोस है)॥ १० ॥



‘उसके उ री कनारेसे म ा कनी नदी बहती है, जो फू ल से लदे सघन वृ से आ ा दत रहती है, उसके आस-पासका वन बड़ा ही रमणीय और नाना कारके पु से सुशो भत है। उस



नदीके उस पार च कू ट पवत है। तात! वहाँ प ँ चकर तुम नदी और पवतके बीचम ीरामक पणकु टी देखोगे। वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण न य ही उसीम नवास करते ह॥ ११-१२ ॥ ‘सेनापते!



तुम यहाँसे हाथी-घोड़ से भरी ◌इ अपनी सेना लेकर पहले यमुनाके द णी कनारेसे जो माग गया है, उससे जाओ। आगे जाकर दो रा े मलगे, उनमसे जो रा ा बाय दाबकर द ण दशाक ओर गया है, उसीसे सेनाको ले जाना। महाभाग! उस मागसे चलकर तुम शी ही ीरामच जीका दशन पा जाओगे’॥ ‘अब यहाँसे ान करना है’—यह सुनकर महाराज दशरथक याँ, जो सवारीपर ही रहने यो थ , सवा रय को छोड़कर ष भर ाजको णाम करनेके लये उ चार ओरसे घेरकर खड़ी हो गय ॥ उपवासके कारण अ दुबल एवं दीन ◌इ देवी कौस ाने, जो काँप रही थ , सु म ा देवीके साथ अपने दोन हाथ से भर ाज मु नके पैर पकड़ लये॥ त ात् जो अपनी असफल कामनाके कारण सब लोग के लये न त हो गयी थी, उस कै के यीने ल त होकर वहाँ मु नके चरण का श कया और उन महामु न भगवान् भर ाजक प र मा करके वह दीन च हो उस समय भरतके ही पास आकर खड़ी हो गयी॥ १६-१७ १/२ ॥ तब महामु न भर ाजने वहाँ भरतसे पूछा— ‘रघुन न! तु ारी इन माता का वशेष प रचय ा है? यह म जानना चाहता ँ ’॥ १८ १/२ ॥ भर ाजके इस कार पूछनेपर बोलनेक कलाम कु शल धमा ा भरतने हाथ जोड़कर कहा —॥ १९ १/२ ॥ ‘भगवन्! आप ज शोक और उपवासके कारण अ दुबल एवं दु:खी देख रहे ह, जो देवी-सी गोचर हो रही ह’ ये मेरे पताक सबसे बड़ी महारानी कौस ा ह। जैसे अ द तने धाता नामक आ द को उ कया था, उसी कार इन कौस ा देवीने सहके समान परा मसूचक ग तसे चलनेवाले पु ष सह ीरामको ज दया है॥ २०-२१ १/२ ॥



‘इनक



बाय बाँहसे सटकर जो उदास मनसे खड़ी ह तथा दु:खसे आतुर हो रही ह और आभूषणशू होनेसे वनके भीतर झड़े ए पु वाले कनेरक डालके समान दखायी देती ह, ये महाराजक मझली रानी देवी सु म ा ह। स परा मी वीर तथा देवता के तु का मान् वे दोन भा◌इ राजकु मार ल ण और श ु इ सु म ा देवीके पु ह॥ २२—२४ ॥ ‘और जसके कारण पु ष सह ीराम और ल ण यहाँसे ाण-स टक अव ा (वनवास) म जा प ँ चे ह तथा राजा दशरथ पु वयोगका क पाकर गवासी ए ह, जो भावसे ही ोध करनेवाली, अ श त बु वाली, गव ली, अपने-आपको सबसे अ धक सु री और भा वती समझनेवाली तथा रा का लोभ रखनेवाली है, जो श -सूरतसे आया होनेपर भी वा वम अनाया है, इस कै के यीको मेरी माता सम झये। यह बड़ी ही ू र और पापपूण वचार रखनेवाली है। म अपने ऊपर जो महान् संकट आया आ देख रहा ँ , इसका मूल कारण यही है’॥ २५—२७ ॥ अ ुग द वाणीसे इस कार कहकर लाल आँ ख कये पु ष सह भरत रोषसे भरकर फु फकारते ए सपक भाँ त लंबी साँस ख चने लगे॥ २८ ॥ उस समय ऐसी बात कहते ए भरतसे ीरामावतारके योजनको जाननेवाले महाबु मान् मह ष भर ाजने उनसे यह बात कही—॥ २९ ॥ ‘भरत! तुम कै के यीके त दोषन करो। ीरामका यह वनवास भ व म बड़ा ही सुखद होगा॥ ‘ ीरामके वनम जानेसे देवता , दानव तथा परमा ाका च न करनेवाले मह षय का इस जग हत ही होनेवाला है’॥ ३१ ॥ ीरामका पता जानकर और मु नका आशीवाद पाकर कृ तकृ ए भरतने मु नको म क कु ा उनक द णा करके जानेक आ ा ले सेनाको कू चके लये तैयार होनेका आदेश दया॥ ३२ ॥ तदन र अनेक कारक वेश-भूषावाले लोग ब त-से द घोड़ और द रथ को, जो सुवणसे वभू षत थे, जोतकर या ाके लये उनपर सवार ए॥ ब त-सी ह थ नयाँ और हाथी, जो सुनहरे र से कसे गये थे और जनके ऊपर पताकाएँ फहरा रही थ , वषा-कालके गरजते ए मेघ के समान घ ानाद करते ए वहाँसे त ए॥ ३४ ॥



नाना कारके छोटे-बड़े ब मू वाहन पर सवार हो उनके अ धकारी चले और पैदल सै नक अपने पैर से ही या ा करने लगे॥ ३५ ॥ त ात् कौस ा आ द रा नयाँ उ म सवा रय पर बैठकर ीरामच जीके दशनक अ भलाषासे स तापूवक चल ॥ ३६ ॥ इसी कार ीमान् भरत नवो दत च मा और सूयके समान का मती श वकाम बैठकर आव क साम य के साथ त ए। उस श वकाको कहाँर ने अपने कं ध पर उठा रखा था॥ ३७ ॥ हाथी-घोड़ से भरी ◌इ वह वशाल वा हनी द ण दशाको घेरकर उमड़ी ◌इ महामेघ क घटाके समान चल पड़ी॥ ३८ ॥ ग ाके उस पार पवत तथा न दय के नकटवत वन को, जो मृग और प य से से वत थे, लाँघकर वह आगे बढ़ गयी॥ ३९ ॥ उस सेनाके हाथी और घोड़ के समुदाय बड़े स थे। जंगलके मृग और प समूह को भयभीत करती ◌इ भरतक वह सेना उस वशाल वनम वेश करके वहाँ बड़ी शोभा पा रही थी॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म बानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९२॥ * सग ५४ के



ोक २८ म मूल म दस कोसक दूरी लखी है और यहाँ ढा◌इ योजन। दोन ल म दस कोसका ही संकेत है। रामायण शरोम ण नामक ा ाम दोन जगह क प-जला धकरण ायसे अथवा एकशेषके ारा यह दूरी तगुनी करके दखायी गयी है। यागसे च कू टक दूरी लगभग २८ कोसक मानी जाती है। रामायण शरोम णकारक मा ताके अनुसार ३० कोसक दूरीम और इस दूरीम अ धक अ र नह है। मीलका माप पुराने ोश-मानक अपे ा छोटा है, इस लये ८० मीलक यह दूरी मानी जाती है।



तरानबेवाँ सग सेनास हत भरतक च कूट-या ाका वणन



या ा करनेवाली उस वशाल वा हनीसे पी ड़त हो वनवासी यूथप त मतवाले हाथी आ द अपने यूथ के साथ भाग चले॥ १ ॥ रीछ, चतकबरे मृग तथा नामक मृग वन देश म, पवत म और न दय के तट पर चार ओर उस सेनासे पी ड़त दखायी देते थे॥ २ ॥ महान् कोलाहल करनेवाली उस वशाल चतुरं गणी सेनासे घरे ए धमा ा दशरथन न भरत बड़ी स ताके साथ या ा कर रहे थे॥ ३ ॥ जैसे वषा-ऋतुम मेघ क घटा आकाशको ढक लेती है, उसी कार महा ा भरतक समु -जैसी उस वशाल सेनाने दूरतकके भूभागको आ ा दत कर लया था॥ ४ ॥ घोड़ के समूह तथा महाबली हा थय से भरी और दूरतक फै ली ◌इ वह सेना उस समय ब त देरतक म ही नह आती थी॥ ५ ॥ दूरतकका रा ा तै कर लेनेपर जब भरतक सवा रयाँ ब त थक गय , तब ीमान् भरतने म य म े व स जीसे कहा—॥ ६ ॥ ‘ न्! मने जैसा सुन रखा था और जैसा इस देशका प दखायी देता है, इससे जान पड़ता है क भर ाजजीने जहाँ प ँ चनेका आदेश दया था, उस देशम हमलोग आ प ँ चे ह॥ ७ ॥ ‘जान पड़ता है यही च कू ट पवत है तथा वह म ा कनी नदी बह रही है। यह पवतके आस-पासका वन दूरसे नील मेघके समान का शत हो रहा है॥ ८ ॥ ‘इस समय मेरे पवताकार हाथी च कू टके रमणीय शखर का अवमदन कर रहे ह॥ ९ ॥ ‘ये वृ पवत शखर पर उसी कार फू ल क वषा कर रहे ह, जैसे वषाकालम नील जलधर मेघ उनपर जलक वृ करते ह’॥ १० ॥ (इसके बाद भरत श ु से कहने लगे—) ‘श ु ! देखो, इस पवतक उप काम जो देश है, जहाँपर क र वचरा करते ह, वही देश हमारी सेनाके घोड़ से ा होकर मगर से भरे ए समु के समान तीत होता है॥ ११ ॥



‘सै नक के



खदेड़े ए ये मृग के ंडु ती वेगसे भागते ए वैसी ही शोभा पा रहे ह, जैसे शरत्-कालके आकाशम हवासे उड़ाये गये बादल के समूह सुशो भत होते ह॥ १२ ॥ ‘ये सै नक अथवा वृ मेघके समान का वाली ढाल से उपल त होनेवाले द ण भारतीय मनु के समान अपने म क अथवा शाखा पर सुग त पु गु मय आभूषण को धारण करते ह॥ १३ ॥ ‘यह वन जो पहले जनरव-शू होनेके कारण अ भयंकर दखायी देता था, वही इस समय हमारे साथ आये ए लोग से ा होनेके कारण मुझे अयो ापुरीके समान तीत होता है॥ १४ ॥ ‘घोड़ क टाप से उड़ी ◌इ धूल आकाशको आ ा दत करके त होती है, परंतु उसे हवा मेरा य करती ◌इ-सी शी ही अ उड़ा ले जाती है॥ ‘श ु ! देखो, इस वनम घोड़ से जुते ए और े सार थय ारा संचा लत ए ये रथ कतनी शी तासे आगे बढ़ रहे ह॥ १६ ॥ ‘जो देखनेम बड़े ारे लगते ह उन मोर को तो देखो। ये हमारे सै नक के भयसे कतने डरे ए ह। इसी कार अपने आवास- ान पवतक ओर उड़ते ए अ प य पर भी पात करो॥ १७ ॥ ‘ न ाप श ु ! यह देश मुझे बड़ा ही मनोहर तीत होता है। तप ी जन का यह नवास ान वा वम ग य पथ है॥ १८ ॥ ‘इस वनम मृ गय के साथ वचरनेवाले ब त-से चतकबरे मृग ऐसे मनोहर दखायी देते ह, मानो इ फू ल से च त—सुस त कया गया हो॥ १९ ॥ ‘मेरे सै नक यथो चत पसे आगे बढ़ और वनम सब ओर खोज, जससे उन दोन पु ष सह ीराम और ल णका पता लग जाय’॥ २० ॥ भरतका यह वचन सुनकर ब त-से शूरवीर पु ष ने हाथ म ह थयार लेकर उस वनम वेश कया। तदन र आगे जानेपर उ कु छ दूरपर ऊपरको धुआँ उठता दखायी दया॥ २१ ॥ उस धूम शखाको देखकर वे लौट आये और भरतसे बोले—‘ भो! जहाँ को◌इ मनु नह होता, वहाँ आग नह होती। अत: ीराम और ल ण अव यह ह गे॥



‘य द श ु को संताप देनेवाले पु ीराम-जैसे तेज ी दूसरे को◌इ तप



ष सह राजकु मार ीराम और ल ण यहाँ न ह तो भी ी तो अव ही ह गे’॥ २३ ॥ उनक बात े पु ष ारा मानने यो थ , उ सुनकर श ुसेनाका मदन करनेवाले भरतने उन सम सै नक से कहा—॥ २४ ॥ ‘तुम सब लोग सावधान होकर यह ठहरो! यहाँसे आगे न जाना। अब म ही वहाँ जाऊँ गा। मेरे साथ सुम और धृ त भी रहगे’॥ २५ ॥ उनक ऐसी आ ा पाकर सम सै नक वह सब ओर फै लकर खड़े हो गये और भरतने जहाँ धुआँ उठ रहा था, उस ओर अपनी र क ॥ २६ ॥ भरतके ारा वहाँ ठहरायी गयी वह सेना आगेक भू मका नरी ण करती ◌इ भी वहाँ हषपूवक खड़ी रही; क उस समय उसे मालूम हो गया था क अब शी ही ीरामच जीसे मलनेका अवसर आनेवाला है॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म तरानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९३॥



चौरानबेवाँ सग ीरामका सीताको च कूटक शोभा दखाना



ग रवर च कू ट ीरामको ब त ही य लगता था। वे उस पवतपर ब त दन से रह रहे थे। एक दन अमरतु तेज ी दशरथन न ीराम वदेहराजकु मारी सीताका य करनेक इ ासे तथा अपने मनको भी बहलानेके लये अपनी भायाको व च च कू टक शोभाका दशन कराने लगे, मानो देवराज इ अपनी प ी शचीको पवतीय सुषमाका दशन करा रहे ह ॥ (वे बोले—) ‘भ े! य प म रा से हो गया ँ तथा मुझे अपने हतैषी सु द से वलग होकर रहना पड़ता है, तथा प जब म इस रमणीय पवतक ओर देखता ँ , तब मेरा सारा दु:ख दूर हो जाता है— रा का न मलना और सु द का वछोह होना भी मेरे मनको थत नह कर पाता है॥ ३ ॥ ‘क ा ण! इस पवतपर पात तो करो, नाना कारके असं प ी यहाँ कलरव कर रहे ह। नाना कारके धातु से म त इसके गगनचु ी शखर मानो आकाशको बेध रहे ह। इन शखर से वभू षत आ यह च कू ट कै सी शोभा पा रहा है!॥ ४ ॥ ‘ व भ धातु से अलंकृत अचलराज च कू टके देश कतने सु र लगते ह! इनमसे को◌इ तो चाँदीके समान चमक रहे ह। को◌इ लो क लाल आभाका व ार करते ह। क देश के रंग पीले और मं ज वणके ह। को◌इ े म णय के समान उ ा सत होते ह। को◌इ पुखराजके समान, को◌इ टकके स श और को◌इ के वड़ेके फू लके समान का वाले ह तथा कु छ देश न और पारेके समान का शत होते ह॥ ५-६ ॥ ‘यह पवत ब सं क प य से ा है तथा नाना कारके मृग , बड़े-बड़े ा , चीत और रीछ से भरा आ है। वे ा आ द हसक ज ु अपने दु भावका प र ाग करके यहाँ रहते ह और इस पवतक शोभा बढ़ाते ह॥ ७ ॥ ‘आम, जामुन, असन, लोध, याल, कटहल, धव, अंकोल, भ , त नश, बेल, त क ु , बाँस, का री (मधुप णका), अ र (नीम), वरण, म आ, तलक, बेर, आँ वला, कद , बेत, ध न (इ जौ), बीजक (अनार) आ द घनी छायावाले वृ से, जो फू ल और फल से लदे होनेके कारण मनोरम तीत होते थे, ा आ यह पवत अनुपम शोभाका पोषण एवं व ार कर रहा है॥ ८—१० ॥



‘इन



रमणीय शैल शखर पर उन देश को देखो, जो ेम- मलनक भावनाका उ ीपन करके आ रक हषको बढ़ानेवाले ह। वहाँ मन ी क र दो-दो एक साथ होकर टहल रहे ह॥ ११ ॥ ‘इन क र के खड् ग पेड़ क डा लय म लटक रहे ह। इधर व ाधर क य के मनोरम ड़ा ल तथा वृ क शाखा पर रखे ए उनके सु र व क ओर भी देखो॥ १२ ॥ ‘इसके ऊपर कह ऊँ चेसे झरने गर रहे ह, कह जमीनके भीतरसे सोते नकले ह और कह -कह छोटे-छोटे ोत वा हत हो रहे ह। इन सबके ारा यह पवत मदक धारा बहानेवाले हाथीके समान शोभा पाता है॥ १३ ॥ ‘गुफा से नकली ◌इ वायु नाना कारके पु क चुर ग लेकर ना सकाको तृ करती ◌इ कस पु षके पास आकर उसका हष नह बढ़ा रही है॥ १४ ॥ ‘सती-सा ी सीते! य द तु ारे और ल णके साथ म यहाँ अनेक वष तक र ँ तो भी नगर ागका शोक मुझे कदा प पी ड़त नह करेगा॥ १५ ॥ ‘भा म न! ब तेरे फू ल और फल से यु तथा नाना कारके प य से से वत इस व च शखरवाले रमणीय पवतपर मेरा मन ब त लगता है॥ १६ ॥ ‘ ये! इस वनवाससे मुझे दो फल ा ए ह—दो लाभ ए ह—एक तो धमानुसार पताक आ ाका पालन प ऋण चुक गया और दूसरा भा◌इ भरतका य आ॥ १७ ॥ ‘ वदेहकु मारी! ा च कू ट पवतपर मेरे साथ मन, वाणी और शरीरको य लगनेवाले भाँ त-भाँ तके पदाथ को देखकर तु आन ा होता है?॥ १८ ॥ ‘रानी! मेरे पतामह मनु आ द उ ृ राज षय ने नयमपूवक कये गये इन वनवासको ही अमृत बतलाया है; इससे शरीर ागके प ात् परम क ाणक ा होती है॥ १९ ॥ ‘चार ओर इस पवतक सैकड़ वशाल शलाएँ शोभा पा रही ह, जो नीले, पीले, सफे द और लाल आ द व वध रंग से अनेक कारक दखायी देती ह॥ २० ॥ ‘रातम इस पवतराजके ऊपर लगी ◌इ सह ओष धयाँ अपनी भास से का शत होती ◌इ अ शखाके समान उ ा सत होती ह॥ २१ ॥ ‘भा म न! इस पवतके क◌इ ान घरक भाँ त दखायी देते ह ( क वे वृ क घनी छायासे आ ा दत ह) और क◌इ ान च ा, मालती आ द फू ल क अ धकताके कारण



उ ानके समान सुशो भत होते ह तथा कतने ही ान ऐसे ह जहाँ ब त दूरतक एक ही शला फै ली ◌इ है। इन सबक बड़ी शोभा होती है॥ २२ ॥ ‘ऐसा जान पड़ता है क यह च कू ट पवत पृ ीको फाड़कर ऊपर उठ आया है। च कू टका यह शखर सब ओरसे सु र दखायी देता है॥ २३ ॥ ‘ ये! देखो, ये वला सय के ब र ह, जनपर उ ल, पु जीवक, पु ाग और भोजप —इनके प े ही चादरका काम देते ह तथा इनके ऊपर सब ओरसे कमल के प े बछे ए ह॥ २४ ॥ ‘ यतमे! ये कमल क मालाएँ दखायी देती ह, जो वला सय ारा मसलकर फ क दी गयी ह। उधर देखो, वृ म नाना कारके फल लगे ए ह॥ २५ ॥ ‘ब त-से फल, मूल और जलसे स यह च कू ट पवत कु बेर-नगरी व ौकसारा (अलका), इ पुरी न लनी (अमरावती अथवा न लनी नामसे स कु बेरक सौग क कमल से यु पु रणी) तथा उ र कु को भी अपनी शोभासे तर ृ त कर रहा है॥ २६ ॥ ‘ ाणव भे सीते! अपने उ म नयम को पालन करते ए स ागपर त रहकर य द तु ारे और ल णके साथ यह चौदह वष का समय म सान तीत कर लूँगा तो मुझे वह सुख ा होगा जो कु लधमको बढ़ानेवाला है’॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म चौरानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९४॥



पंचानबेवाँ सग ीरामका सीताके



त म ा कनी नदीक शोभाका वणन



तदन र उस पवतसे नकलकर कोसलनरेश ीरामच जीने म थलेशकु मारी सीताको पु स लला रमणीय म ा कनी नदीका दशन कराया॥ १ ॥ और उस समय कमलनयन ीरामने च माके समान मनोहर मुख तथा सु र क ट देशवाली वदेहराजन नी सीतासे इस कार कहा—॥ २ ॥ ‘ ये! अब म ा कनी नदीक शोभा देखो, हंस और सारस से से वत होनेके कारण यह कतनी सु र जान पड़ती है। इसका कनारा बड़ा ही व च है। नाना कारके पु इसक शोभा बढ़ा रहे ह॥ ३ ॥ ‘फल और फू ल के भारसे लदे ए नाना कारके तटवत वृ से घरी ◌इ यह म ा कनी कु बेरके सौग क सरोवरक भाँ त सब ओरसे सुशो भत हो रही है॥ ४ ॥ ‘ह रन के ंडु पानी पीकर इस समय य प यहाँका जल गँदला कर गये ह तथा प इसके रमणीय घाट मेरे मनको बड़ा आन दे रहे ह॥ ५ ॥ ‘ ये! वह देखो, जटा, मृगचम और व लका उ रीय धारण करनेवाले मह ष उपयु समयम आकर इस म ा कनी नदीम ान कर रहे ह॥ ६ ॥ ‘ वशाललोचने! ये दूसरे मु न, जो कठोर तका पालन करनेवाले ह, नै क नयमके कारण दोन भुजाएँ ऊपर उठाकर सूयदेवका उप ान कर रहे ह॥ ‘हवाके झ के से जनक शखाएँ झूम रही ह, अतएव जो म ा कनी नदीके उभय तट पर फू ल और प े बखेर रहे ह, उन वृ से उपल त आ यह पवत मानो नृ -सा करने लगा है॥ ८॥ ‘देखो! म ा कनी नदीक कै सी शोभा है; कह तो इसम मो तय के समान जल बहता दखायी देता है, कह यह ऊँ चे कगार से ही शोभा पाती है (वहाँका जल कगार म छप जानेके कारण दखायी नह देता है) और कह स जन इसम अवगाहन कर रहे ह तथा यह उनसे ा दखायी देती है॥ ९ ॥



‘सू



क ट देशवाली सु र! देखो, वायुके ारा उड़ाकर लाये ए ये ढेर-के -ढेर फू ल कस तरह म ा कनीके दोन तट पर फै ले ए ह और वे दूसरे पु समूह कै से पानीपर तैर रहे ह॥ १० ॥ ‘क ा ण! देखो तो सही, ये मीठी बोली बोलनेवाले च वाक प ी सु र कलरव करते ए कस तरह नदीके तट पर आ ढ़ हो रहे ह॥ ११ ॥ ‘शोभने! यहाँ जो त दन च कू ट और म ा कनीका दशन होता है, वह न - नर र तु ारा दशन होनेके कारण अयो ा नवासक अपे ा भी अ धक सुखद जान पड़ता है॥ १२ ॥ ‘इस नदीम त दन तप ा, इ यसंयम और मनो न हसे स न ाप स महा ा के अवगाहन करनेसे इसका जल व ु होता रहता है। चलो, तुम भी मेरे साथ इसम ान करो॥ १३ ॥ ‘भा म न सीते! एक सखी दूसरी सखीके साथ जैसे ड़ा करती है, उसी कार तुम म ा कनी नदीम उतरकर इसके लाल और ेत कमल को जलम डु बोती ◌इ इसम ानड़ा करो॥ १४ ॥ ‘ ये! तुम इस वनके नवा सय को पुरवासी मनु के समान समझो, च कू ट पवतको अयो ाके तु मानो और इस म ा कनी नदीको सरयूके स श जानो॥ १५ ॥ ‘ वदेहन न! धमा ा ल ण सदा मेरी आ ाके अधीन रहते ह और तुम भी मेरे मनके अनुकूल ही चलती हो; इससे मुझे बड़ी स ता होती है॥ १६ ॥ ‘ ये! तु ारे साथ तीन काल ान करके मधुर फल-मूलका आहार करता आ म न तो अयो ा जानेक इ ा रखता ँ और न रा पानेक ही॥ १७ ॥ ‘ जसे हा थय के समूह मथे डालते ह तथा सह और वानर जसका जल पया करते ह, जसके तटपर सु र पु से लदे वृ शोभा पाते ह तथा जो पु समूह से अलंकृत है, ऐसी इस रमणीय म ा कनी नदीम ान करके जो ा नर हत और सुखी न हो जाय—ऐसा मनु इस संसारम नह है’॥ १८ ॥ रघुवंशक वृ करनेवाले ीरामच जी म ा कनी नदीके त ऐसी अनेक कारक सुसंगत बात कहते ए नील-का वाले रमणीय च कू ट पवतपर अपनी या प ी सीताके साथ वचरने लगे॥ १९ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म पंचानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९५॥



छयानबेवाँ सग वन-ज ु के भागनेका कारण जाननेके लये ीरामक आ ासे ल णका शाल-वृ पर चढ़कर भरतक सेनाको देखना और उनके त अपना रोषपूण उ ार कट करना



इस कार म थलेशकु मारी सीताको म ा कनी नदीका दशन कराकर उस समय ीरामच जी पवतके समतल देशम उनके साथ बैठ गये और तप ी-जन के उपभोगम आने यो फल-मूलके गूदेसे उनक मान सक स ताको बढ़ाने—उनका लालन करने लगे॥ १ ॥ धमा ा रघुन न सीताजीके साथ इस कारक बात कर रहे थे—‘ ये! यह फल परम प व है। यह ब त ा द है तथा इस क को अ ी तरह आगपर सेका गया है’॥ २ ॥ इस कार वे उस पवतीय देशम बैठे ए ही थे क उनके पास आनेवाली भरतक सेनाक धूल और कोलाहल दोन एक साथ कट ए और आकाशम फै लने लगे॥ ३ ॥ इसी बीचम सेनाके महान् कोलाहलसे भयभीत एवं पी ड़त हो हा थय के कतने ही मतवाले यूथप त अपने यूथ के साथ स ूण दशा म भागने लगे॥ ४ ॥ ीरामच जीने सेनासे कट ए उस महान् कोलाहलको सुना तथा भागे जाते ए उन सम यूथप तय को भी देखा॥ ५ ॥ उन भागे ए हा थय को देखकर और उस महाभयंकर श को सुनकर ीरामच जी उ ी तेजवाले सु म ाकु मार ल णसे बोले—॥ ६ ॥ ‘ल ण! इस जग तुमसे ही माता सु म ा े पु वाली ◌इ ह। देखो तो सही—यह भयंकर गजनाके साथ कै सा ग ीर तुमुल नाद सुनायी देता है॥ ७ ॥ ‘सु म ान न! पता तो लगाओ, इस वशाल वनम ये जो हा थय के ंडु अथवा भसे या मृग जो सहसा स ूण दशा क ओर भाग चले ह, इसका ा कारण है? इ सह ने तो नह डरा दया है अथवा को◌इ राजा या राजकु मार इस वनम आकर शकार तो नह खेल रहा है या दूसरा को◌इ हसक ज ु तो नह कट हो गया है?॥ ८-९ ॥ ‘ल ण! इस पवतपर अप र चत प य का आना-जाना भी अ क ठन है ( फर यहाँ कसी हसक ज ु वा राजाका आ मण कै से स व है)। अत: इन सारी बात क ठीक-ठीक जानकारी ा करो’॥ १० ॥



भगवान् ीरामक आ ा पाकर ल ण तुरंत ही फू ल से भरे ए एक शाल-वृ पर चढ़ गये और स ूण दशा क ओर देखते ए उ ने पूव दशाक ओर पात कया॥ ११ ॥ त ात् उ रक ओर मुँह करके देखनेपर उ एक वशाल सेना दखायी दी, जो हाथी, घोड़े और रथ से प रपूण तथा य शील पैदल सै नक से संयु थी॥ १२ ॥ घोड़ और रथ से भरी ◌इ तथा रथक जासे वभू षत उस सेनाक सूचना उ ने ीरामच जीको दी और यह बात कही—॥ १३ ॥ ‘आय! अब आप आग बुझा द (अ था धुआँ देखकर यह सेना यह चली आयगी); देवी सीता गुफाम जा बैठ। आप अपने धनुषपर ा चढ़ा ल और बाण तथा कवच धारण कर ल’॥ १४ ॥ यह सुनकर पु ष सह ीरामने ल णसे कहा— ‘ य सु म ाकु मार! अ ी तरह देखो तो सही, तु ारी समझम यह कसक सेना हो सकती है?’॥ १५ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर ल ण रोषसे लत ए अ देवक भाँ त उस सेनाक ओर इस तरह देखने लगे, मानो उसे जलाकर भ कर देना चाहते ह और इस कार बोले—॥ १६ ॥ ‘भैया!



न य ही यह कै के यीका पु भरत है, जो अयो ाम अ भ ष होकर अपने रा को न क बनानेक इ ासे हम दोन को मार डालनेके लये यहाँ आ रहा है॥ १७ ॥ ‘सामनेक ओर यह जो ब त बड़ा शोभास वृ दखायी देता है, उसके समीप जो रथ है, उसपर उ ल तनेसे यु को वदार वृ से च त ज शोभा पा रहा है॥ १८ ॥ ‘ये घुड़सवार सै नक इ ानुसार शी गामी घोड़ पर आ ढ़ हो इधर ही आ रहे ह और ये हाथीसवार भी बड़े हषसे हा थय पर चढ़कर आते ए का शत हो रहे ह॥ १९ ॥ ‘वीर! हम दोन को धनुष लेकर पवतके शखरपर चलना चा हये अथवा कवच बाँधकर अ -श धारण कये यह डटे रहना चा हये॥ २० ॥ ‘रघुन न! आज यह को वदारके च से यु जवाला रथ रणभू मम हम दोन के अ धकारम आ जायगा और आज म अपनी इ ाके अनुसार उस भरतको भी सामने देखूँगा क जसके कारण आपको, सीताको और मुझे भी महान् संकटका सामना करना पड़ा है तथा जसके कारण आप अपने सनातन रा ा धकारसे व त कये गये ह॥ २२ ॥



‘वीर रघुनाथजी! यह भरत हमारा श



ु है और सामने आ गया है; अत: वधके ही यो है। भरतका वध करनेम मुझे को◌इ दोष नह दखायी देता॥ २३ ॥ ‘रघुन न! जो पहलेका अपकारी रहा हो, उसको मारकर को◌इ अधमका भागी नह होता है। भरतने पहले हमलोग का अपकार कया है, अत: उसे मारनेम नह , जी वत छोड़ देनेम ही अधम है॥ २४ ॥ ‘इस भरतके मारे जानेपर आप सम वसुधाका शासन कर। जैसे हाथी कसी वृ को तोड़ डालता है, उसी कार रा का लोभ करनेवाली कै के यी आज अ दु:खसे आत हो इसे मेरे ारा यु म मारा गया देखे॥ २५ १/२ ॥ ‘म कै के यीका भी उसके सगे-स य एवं ब ु-बा व स हत वध कर डालूँगा। आज यह पृ ी कै के यी प महान् पापसे मु हो जाय॥ २६ १/२ ॥ ‘मानद! आज म अपने रोके ए ोध और तर ारको श ुक सेना पर उसी कार छोडँ गा, जैसे सूखे घास-फूँ सके ढेरम आग लगा दी जाय॥ २७ १/२ ॥ ‘अपने तीखे बाण से श ु के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके म अभी च कू टके इस वनको र से स च दूँगा॥ २८ १/२ ॥ ‘मेरे बाण से वदीण ए दयवाले हा थय और घोड़ को तथा मेरे हाथसे मारे गये मनु को भी गीदड़ आ द मांसभ ी ज ु इधर-उधर घसीट॥ २९ १/२ ॥ ‘इस महान् वनम सेनास हत भरतका वध करके म धनुष और बाणके ऋणसे उऋण हो जाऊँ गा—इसम संशय नह है’॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म छयानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९६॥



स ानबेवाँ सग ीरामका ल णके रोषको शा करके भरतके स ावका वणन करना, ल णका ल त हो ीरामके पास खड़ा होना और भरतक सेनाका पवतके नीचे छावनी डालना



ल ण भरतके त रोषावेशके कारण ोधवश अपना ववेक खो बैठे थे, उस अव ाम ीरामने उ समझा-बुझाकर शा कया और इस कार कहा—॥ ‘ल ण! महाबली और महान् उ ाही भरत जब यं यहाँ आ गये ह, तब इस समय यहाँ धनुष अथवा ढाल-तलवारसे ा काम है?॥ २ ॥ ‘ल ण! पताके स क र ाके लये त ा करके य द म यु म भरतको मारकर उनका रा छीन लूँ तो संसारम मेरी कतनी न ा होगी, फर उस कलं कत रा को लेकर म ा क ँ गा?॥ ३ ॥ ‘अपने ब ु-बा व या म का वनाश करके जस धनक ा होती हो, वह तो वष म त भोजनके समान सवथा ाग देने यो है; उसे म कदा प हण नह क ँ गा॥ ४ ॥ ‘ल ण! म तुमसे त ापूवक कहता ँ क— धम, अथ, काम और पृ ीका रा भी म तु लोग के लये चाहता ँ ॥ ५ ॥ ‘सु म ाकु मार! म भाइय के सं ह और सुखके लये ही रा क भी इ ा करता ँ और इस बातक स ा◌इके लये म अपना धनुष छू कर शपथ खाता ँ ॥ ‘सौ ल ण! समु से घरी ◌इ यह पृ थवी मेरे लये दुलभ नह है, परंतु म अधमसे इ का पद पानेक भी इ ा नह कर सकता॥ ७ ॥ ‘मानद! भरतको, तुमको और श ु को छोड़कर य द मुझे को◌इ सुख मलता हो तो उसे अ देव जलाकर भ कर डाल॥ ८ ॥ ‘वीर! पु ष वर! भरत बड़े ातृभ ह। वे मुझे ाण से भी बढ़कर य ह। मुझे तो ऐसा मालूम होता है, भरतने अयो ाम आनेपर जब सुना है क म तु ारे और जानक के साथ जटाव ल धारण करके वनम आ गया ँ , तब उनक इ याँ शोकसे ाकु ल हो उठी ह और वे कु लधमका वचार करके ेहयु दयसे हमलोग से मलने आये ह। इन भरतके आगमनका इसके सवा दूसरा को◌इ उ े नह हो सकता॥ ९—११ ॥



‘माता



कै के यीके त कु पत हो, उ कठोर वचन सुनाकर और पताजीको स करके ीमान् भरत मुझे रा देनेके लये आये ह॥ १२ ॥ ‘भरतका हमलोग से मलनेके लये आना सवथा समयो चत है। वे हमसे मलनेके यो ह। हमलोग का को◌इ अ हत करनेका वचार तो वे कभी मनम भी नह ला सकते॥ १३ ॥ ‘भरतने तु ारे त पहले कब कौन-सा अ य बताव कया है, जससे आज तु उनसे ऐसा भय लग रहा है और तुम उनके वषयम इस तरहक आश ा कर रहे हो?॥ १४ ॥ ‘भरतके आनेपर तुम उनसे को◌इ कठोर या अ य वचन न बोलना। य द तुमने उनसे को◌इ तकू ल बात कही तो वह मेरे ही त कही ◌इ समझी जायगी॥ १५ ॥ ‘सु म ान न! कतनी ही बड़ी आप न आ जाय, पु अपने पताको कै से मार सकते ह? अथवा भा◌इ अपने ाण के समान य भा◌इक ह ा कै से कर सकता है?॥ १६ ॥ ‘य द तुम रा के लये ऐसी कठोर बात कहते हो तो म भरतसे मलनेपर उ कह दूँगा क तुम यह रा ल णको दे दो॥ १७ ॥ ‘ल ण! य द म भरतसे यह क ँ क ‘तुम रा इ दे दो’ तो वे ‘ब त अ ा’ कहकर अव मेरी बात मान लगे’॥ १८ ॥ अपने धमपरायण भा◌इके ऐसा कहनेपर उ के हतम त र रहनेवाले ल ण ल ावश मानो अपने अ म ही समा गये—लाजसे गड़ गये॥ १९ ॥ ीरामका पूव वचन सुनकर ल त ए ल णने कहा—‘भैया! म समझता ँ , हमारे पता महाराज दशरथ यं ही आपसे मलने आये ह’॥ २० ॥ ल णको ल त आ देख ीरामने उ र दया—‘म भी ऐसा ही मानता ँ क हमारे महाबा पताजी ही हमलोग से मलने आये ह॥ २१ ॥ ‘अथवा म ऐसा समझता ँ क हम सुख भोगनेके यो मानते ए पताजी वनवासके क का वचार करके हम दोन को न य ही घर लौटा ले जायँगे॥ २२ ॥ ‘मेरे पता रघुकुल तलक ीमान् महाराज दशरथ अ सुखका सेवन करनेवाली इन वदेहराजन नी सीताको भी वनसे साथ लेकर ही घरको लौटगे॥ २३ ॥ ‘अ े घोड़ के कु लम उ ए ये ही वे दोन वायुके समान वेगशाली, शी गामी, वीर एवं मनोरम अपने उ म घोड़े चमक रहे ह॥ २४ ॥



‘परम बु मान् गजराज है, जो सेनाके



पताजीक सवारीम रहनेवाला यह वही वशालकाय श ुंजय नामक बूढ़ा मुहानेपर झूमता आ चल रहा है॥ २५ ॥ ‘महाभाग! परंतु इसके ऊपर पताजीका वह व व ात द ेतछ मुझे नह दखायी देता है— इससे मेरे मनम संशय उ होता है॥ २६ ॥ ‘ल ण! अब मेरी बात मानो और पेड़से नीचे उतर आओ।’ धमा ा ीरामने सु म ाकु मार ल णसे जब ऐसी बात कही, तब यु म वजय पानेवाले ल ण उस शाल वृ के अ भागसे उतरे और ीरामके पास हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ २७-२८ ॥ उधर भरतने सेनाको आ ा दी क ‘यहाँ कसीको हमलोग के ारा बाधा नह प ँ चनी चा हये।’ उनका यह आदेश पाकर सम सै नक पवतके चार ओर नीचे ही ठहर गये॥ २९ ॥ उस समय हाथी, घोड़े और मनु से भरी ◌इ इ ाकु वंशी नरेशक वह सेना पवतके आस-पासक डेढ़ योजन (छ: कोस) भू म घेरकर पड़ाव डाले ए थी॥ नी त भरत धमको सामने रखते ए गवको ागकर रघुकुलन न ीरामको स करनेके लये जसे अपने साथ ले आये थे, वह सेना च कू ट पवतके समीप बड़ी शोभा पा रही थी॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म स ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९७॥



अ ानबेवाँ सग भरतके ारा ीरामके आ मक खोजका ब



तथा उ आ मका दशन



इस कार सेनाको ठहराकर जंगम ा णय म े एवं भावशाली भरतने गु सेवापरायण (एवं पताके आ ापालक) ीरामच जीके पास जानेका वचार कया। जब सारी सेना वनीत भावसे यथा ान ठहर गयी, तब भरतने अपने भा◌इ श ु से इस कार कहा—॥ १-२ ॥ ‘सौ ! ब त-से मनु के साथ इन नषाद को भी साथ लेकर तु शी ही इस वनम चार ओर ीरामच जीक खोज करनी चा हये॥ ३ ॥ ‘ नषादराज गुह यं भी धनुष-बाण और तलवार धारण करनेवाले अपने सह ब -ु बा व से घरे ए जायँ और इस वनम ककु वंशी ीराम और ल णका अ ेषण कर॥ ४ ॥ ‘म



यं भी म य , पुरवा सय , गु जन तथा ा ण के साथ उन सबसे घरा रहकर पैदल ही सारे वनम वचरण क ँ गा॥ ५ ॥ ‘जबतक ीराम, महाबली ल ण अथवा महाभागा वदेहराजकु मारी सीताको न देख लूँगा, तबतक मुझे शा नह मलेगी॥ ६ ॥ ‘जबतक अपने पू ाता ीरामके कमलदलके स श वशाल ने वाले सु र मुखच का दशन न कर लूँगा, तबतक मेरे मनको शा नह ा होगी॥ ७ ॥ ‘ न य ही सु म ाकु मार ल ण कृ ताथ हो गये, जो ीरामच जीके उस कमलस श ने वाले महातेज ी मुखका नर र दशन करते ह, जो च माके समान नमल एवं आ ाद दान करनेवाला है॥ ८ ॥ ‘जबतक भा◌इ ीरामके राजो चत ल ण से यु चरणार व को अपने सरपर नह रखूँगा, तबतक मुझे शा नह मलेगी॥ ९ ॥ ‘जबतक रा के स े अ धकारी आय ीराम पता- पतामह के रा पर त त हो अ भषेकके जलसे आ नह हो जायँग,े तबतक मेरे मनको शा नह ा होगी॥ १० ॥ ‘जो समु पय पृ ीके ामी अपने प तदेव ीरामच जीका अनुसरण करती ह, वे जनक कशोरी वदेहराजन नी महाभागा सीता अपने इस स मसे कृ ताथ हो गय ॥ ११ ॥



‘जैसे



न नवनम कु बेर नवास करते ह, उसी कार जसके वनम ककु कु लभूषण ीरामच जी वराज रहे ह, वह च कू ट परम म लकारी तथा ग रराज हमालय एवं वकटाचलके समान े पवत है॥ १२ ॥ ‘यह सपसे वत दुगम वन भी कृ ताथ हो गया, जहाँ श धा रय म े महाराज ीराम नवास करते ह’॥ ऐसा कहकर महातेज ी पु ष वर महाबा भरतने उस वशाल वनम पैदल ही वेश कया॥ १४ ॥ व ा म े भरत पवत शखर पर उ ए वृ समूह के , जनक शाखा के अ भाग फू ल से भरे थे, बीचसे नकले॥ १५ ॥ आगे जाकर वे बड़ी तेजीसे च कू ट पवतके एक शाल-वृ पर चढ़ गये और वहाँसे उ ने ीरामच जीके आ मपर सुलगती ◌इ आगका ऊपर उठता आ धुआँ देखा॥ १६ ॥ उस धूमको देखकर ीमान् भरतको अपने भा◌इ श ु -स हत बड़ी स ता ◌इ और ‘यह ीराम ह’ यह जानकर उ अथाह जलसे पार हो जानेके समान संतोष ा आ॥ १७ ॥



इस कार च कू ट पवतपर पु ा ा मह षय से यु ीरामच जीका आ म देखकर महा ा भरतने ढूँ ढ़नेके लये आयी ◌इ सेनाको पुन: पूव ानपर ठहरा दया और वे यं गुहके साथ शी तापूवक आ मक ओर चल दये॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म अ ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९८॥



न ानबेवाँ सग भरतका श ु आ दके साथ ीरामके आ मपर जाना, उनक पणशालाको देखना तथा रोते-रोते उनके चरण म गर जाना, ीरामका उन सबको दयसे लगाना और मलना



सेनाके ठहर जानेपर भा◌इके दशनके लये उ त होकर भरत अपने छोटे भा◌इ श ु को आ मके च दखाते ए उसक ओर चले॥ १ ॥ गु भ भरत मह ष व स को यह संदेश देकर क आप मेरी माता को साथ लेकर शी ही आइये, तुरंत आगे बढ़ गये॥ २ ॥ सुम भी श ु के समीप ही पीछे-पीछे चल रहे थे। उ भी भरतके समान ही ीरामच जीके दशनक ती अ भलाषा थी॥ ३ ॥ चलते-चलते ही ीमान् भरतने तप ीजन के आ म के समान त त ◌इ भा◌इक पणकु टी और झ पड़ी देखी॥ ४ ॥ उस पणशालाके सामने भरतने उस समय ब त-से कटे ए का के टुकड़े देख,े जो होमके लये संगृहीत थे। साथ ही वहाँ पूजाके लये सं चत कये ए फू ल भी गोचर ए॥ ५ ॥ आ मपर आने-जानेवाले ीराम और ल णके ारा न मत मागबोधक च भी उ वृ म लगे दखायी दये, जो कु श और चीर ारा तैयार करके कह -कह वृ क शाखा म लटका दये गये थे॥ ६ ॥ उस वनम शीत- नवारणके लये मृग क लडी और भस के सूखे ए गोबरके ढेर एक करके रखे गये थे, ज भरतने अपनी आँ ख देखा॥ ७ ॥ उस समय चलते-चलते ही परम का मान् महाबा भरतने श ु तथा स ूण म य से अ स होकर कहा—॥ ८ ॥ ‘जान पड़ता है क मह ष भर ाजने जस ानका पता बताया था, वहाँ हमलोग आ गये ह। म समझता ँ म ा कनी नदी यहाँसे अ धक दूर नह है॥ ९ ॥ ‘वृ म ऊँ चे बँधे ए ये चीर दखायी दे रहे ह। अत: समय-बेसमय जल आ द लानेके न म बाहर जानेक इ ावाले ल णने जसक पहचानके लये यह च बनाया है, वह आ मको जानेवाला माग यही हो सकता है॥ १० ॥



‘इधरसे



बड़े-बड़े दाँतवाले वेगशाली हाथी नकलकर एक-दूसरेके त गजना करते ए इस पवतके पा भागम च र लगाते रहते ह (अत: उधर जानेसे रोकनेके लये ल णने ये च बनाये ह गे)॥ ११ ॥ ‘वनम तप ी मु न सदा जनका आधान करना चाहते ह, उन अ देवका यह अ त सघन धूम गोचर हो रहा है॥ १२ ॥ ‘यहाँ म गु जन का स ार करनेवाले पु ष सह आय रघुन नका सदा आन म रहनेवाले मह षक भाँ त दशन क ँ गा’॥ १३ ॥ तदन र रघुकुलभूषण भरत दो ही घड़ीम म ा कनीके तटपर वराजमान च कू टके पास जा प ँ चे और अपने साथवाले लोग से इस कार बोले—॥ ‘अहो! मेरे ही कारण पु ष सह महाराज ीरामच इस नजन वनम आकर खुली पृ ीके ऊपर वीरासनसे बैठते ह; अत: मेरे ज और जीवनको ध ार है॥ १५ ॥ ‘मेरे ही कारण महातेज ी लोकनाथ रघुनाथ भारी संकटम पड़कर सम कामना का प र ाग करके वनम नवास करते ह॥ १६ ॥ ‘इस लये म सब लोग के ारा न त ँ , अत: मेरे ज को ध ार है! आज म ीरामको स करनेके लये उनके चरण म गर जाऊँ गा। सीता और ल णके भी पैर पडँ गा’॥ १७ ॥ इस तरह वलाप करते ए दशरथकु मार भरतने उस वनम एक बड़ी पणशाला देखी, जो परम प व और मनोरम थी॥ १८ ॥ वह शाल, ताल और अ कण नामक वृ के ब त-से प ारा छायी ◌इ थी; अत: य शालाम जसपर कोमल कु श बछाये गये ह , उस लंबी-चौड़ी वेदीके समान शोभा पा रही थी॥ १९ ॥ वहाँ इ धनुषके समान ब त-से धनुष रखे गये थे, जो गु तर काय-साधनम समथ थे। जनके पृ भाग सोनेसे मढ़े गये थे और जो ब त ही बल तथा श ु को पीड़ा देनेवाले थे। उनसे उस पणकु टीक बड़ी शोभा हो रही थी॥ २० ॥ वहाँ तरकस म ब त-से बाण भरे थे, जो सूयक करण के समान चमक ले और भय र थे। उन बाण से वह पणशाला उसी कार सुशो भत होती थी, जैसे दी मान् मुखवाले सप से



भोगवती पुरी शो भत होती है॥ २१ ॥ सोनेक ान म रखी ◌इ दो तलवार और णमय ब ु से वभू षत दो व च ढाल भी उस आ मक शोभा बढ़ा रही थ ॥ २२ ॥ वहाँ गोहके चमड़ेके बने ए ब त-से सुवणज टत द ाने भी टँगे ए थे। जैसे मृग सहक गुफापर आ मण नह कर सकते, उसी कार वह पणशाला श ुसमूह के लये अग एवं अजेय थी॥ २३ ॥ ीरामके उस नवास ानम भरतने एक प व एवं वशाल वेदी भी देखी, जो ◌इशानकोणक ओर कु छ नीची थी। उसपर अ लत हो रही थी॥ २४ ॥ पणशालाक ओर थोड़ी देरतक देखकर भरतने कु टयाम बैठे ए अपने पूजनीय ाता ीरामको देखा, जो सरपर जटाम ल धारण कये ए थे। उ ने अपने अ म कृ मृगचम तथा चीर एवं व ल व धारण कर रखे थे। भरतको दखायी दया क ीराम पास ही बैठे ह और लत अ के समान अपनी द भा फै ला रहे ह॥ २५-२६ ॥ समु पय पृ ीके ामी, धमा ा, महाबा ीराम सनातन ाक भाँ त कु श बछी ◌इ वेदीपर बैठे थे। उनके कं धे सहके समान, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और ने फु कमलके समान थे। उस वेदीपर वे सीता और ल णके साथ वराजमान थे॥ २७-२८ ॥ उ इस अव ाम देख धमा ा ीमान् कै के यीकु मार भरत शोक और मोहम डू ब गये तथा बड़े वेगसे उनक ओर दौड़े॥ २९ ॥ भा◌इक ओर पड़ते ही भरत आतभावसे वलाप करने लगे। वे अपने शोकके आवेगको धैयसे रोक न सके और आँ सू बहाते ए ग द वाणीम बोले—॥ ३० ॥ ‘हाय! जो राजसभाम बैठकर जा और म वगके ारा सेवा तथा स ान पानेके यो ह, वे ही ये मेरे बड़े ाता ीराम यहाँ जंगली पशु से घरे ए बैठे ह॥ ‘जो महा ा पहले क◌इ सह व का उपयोग करते थे, वे अब धमाचरण करते ए यहाँ के वल दो मृगचम धारण करते ह॥ ३२ ॥ ‘जो सदा नाना कारके व च फू ल को अपने सरपर धारण करते थे, वे ही ये ीरघुनाथजी इस समय इस जटाभारको कै से सहन करते ह?॥ ३३ ॥



‘ जनके



लये शा ो य के अनु ान ारा धमका सं ह करना उ चत है, वे इस समय शरीरको क देनेसे ा होनेवाले धमका अनुसंधान कर रहे ह॥ ३४ ॥ ‘ जनके अ क ब मू च नसे सेवा होती थी, उ मेरे पू ाताका यह शरीर कै से मलसे से वत हो रहा है॥ ३५ ॥ ‘हाय! जो सवथा सुख भोगनेके यो ह, वे ीराम मेरे ही कारण ऐसे दु:खम पड़ गये ह। ओह! म कतना ू र ँ ? मेरे इस लोक न त जीवनको ध ार है!’॥ ३६ ॥ इस कार वलाप करते-करते भरत अ दु:खी हो गये। उनके मुखार व पर पसीनेक बूँद दखायी देने लग । वे ीरामच जीके चरण तक प ँ चनेके पहले ही पृ ीपर गर पड़े॥ ३७ ॥ अ दु:खसे संत होकर महाबली राजकु मार भरतने एक बार दीनवाणीम ‘आय’ कहकर पुकारा। फर वे कु छ न बोल सके ॥ ३८ ॥ आँ सु से उनका गला ँ ध गया था। यश ी ीरामक ओर देख वे ‘हा! आय’ कहकर चीख उठे । इससे आगे उनसे कु छ बोला न जा सका॥ ३९ ॥ फर श ु ने भी रोते-रोते ीरामके चरण म णाम कया। ीरामने उन दोन को उठाकर छातीसे लगा लया। फर वे भी ने से आँ सु क धारा बहाने लगे॥ ४० ॥ त ात् राजकु मार ीराम तथा ल ण उस वनम सुम और नषादराज गुहसे मले, मानो आकाशम सूय और च मा, शु और बृह तसे मल रहे ह ॥ यूथप त गजराजपर बैठकर या ा करनेयो उन चार राजकु मार को उस वशाल वनम आया देख सम वनवासी हष छोड़कर शोकके आँ सू बहाने लगे॥ ४२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म न ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९९॥



सौवाँ सग ीरामका भरतको कुशल-



के बहाने राजनी तका उपदेश करना



जटा और चीर-व धारण कये भरत हाथ जोड़कर पृ ीपर पड़े थे, मानो लयकालम सूयदेव धरतीपर गर गये ह । उनको उस अव ाम देखना कसी भी ेही सु दक् े लये अ क ठन था। ीरामने उ देखा और जैसे-तैसे कसी तरह पहचाना। उनका मुख उदास हो गया था। वे ब त दुबल हो गये थे। ीरामने भा◌इ भरतको अपने हाथसे पकड़कर उठाया और उनका म क सूँघकर उ दयसे लगा लया। इसके बाद रघुकुलभूषण भरतको गोदम बठाकर ीरामने बड़े आदरसे पूछा—॥ १—३ ॥ ‘तात! पताजी कहाँ थे क तुम इस वनम आये हो? उनके जीते-जी तो तुम वनम नह आ सकते थे॥ ‘म दीघकालके बाद दूरसे (नानाके घरसे) आये ए भरतको आज इस वनम देख रहा ँ ; परंतु इनका शरीर ब त दुबल हो गया है। तात! तुम वनम आये हो?॥ ५ ॥ ‘भा◌इ! महाराज जी वत ह न? कह ऐसा तो नह आ क वे अ दु:खी होकर सहसा परलोकवासी हो गये ह और इसी लये तु यं यहाँ आना पड़ा हो?॥ ६ ॥ ‘सौ ! तुम अभी बालक हो, इस लये पर रासे चला आता आ तु ारा रा न तो नह हो गया? स परा मी तात भरत! तुम पताजीक सेवा-शु ूषा तो करते हो न?॥ ७ ॥ ‘जो धमपर अटल रहनेवाले ह तथा ज ने राजसूय एवं अ मेध-य का अनु ान कया है, वे स त महाराज दशरथ सकु शल तो ह न?॥ ८ ॥ ‘तात! ा तुम सदा धमम त र रहनेवाले, व ान्, वे ा और इ ाकु कु लके आचाय महातेज ी व स जीक यथावत् पूजा करते हो?॥ ९ ॥ ‘भा◌इ! ा माता कौस ा सुखसे ह? उ म संतानवाली सु म ा स ह और आया कै के यी देवी भी आन त ह?॥ १० ॥ ‘जो उ म कु लम उ , वनयस , ब ुत, कसीके दोष न देखनेवाले तथा शा ो धम पर नर र रखनेवाले ह, उन पुरो हतजीका तुमने पूणत: स ार कया है?॥ ११ ॥



‘हवन व धके ाता, बु हो -कायके लये नयु



मान् और सरल भाववाले जन ा ण देवताको तुमने अ कया है, वे सदा ठीक समयपर आकर ा तु यह सू चत करते ह क इस समय अ म आ त दे दी गयी और अब अमुक समयम हवन करना है?॥ १२ ॥ ‘तात!



ा तुम देवता , पतर , भृ , गु जन , पताके समान आदरणीय वृ , वै और ा ण का स ान करते हो?॥ १३ ॥ ‘भा◌इ! जो म र हत े बाण के योग तथा म स हत उ म अ के योगके ानसे स और अथशा (राजनी त) के अ े प त ह, उन आचाय सुध ाका ा तुम समादर करते हो?॥ १४ ॥ ‘तात! ा तुमने अपने ही समान शूरवीर, शा , जते य, कु लीन तथा बाहरी चे ा से ही मनक बात समझ लेनेवाले सुयो य को ही म ी बनाया है?॥ १५ ॥ ‘रघुन न! अ ी म णा ही राजा क वजयका मूलकारण है। वह भी तभी सफल होती है, जब नी त-शा नपुण म शरोम ण अमा उसे सवथा गु रख॥ १६ ॥ ‘भरत! तुम असमयम ही न ाके वशीभूत तो नह होते? समयपर जाग जाते हो न? रातके पछले पहरम अथ स के उपायपर वचार करते हो न?॥ १७ ॥ ‘(को◌इ भी गु म णा दोसे चार कान तक ही गु रहती है; छ: कान म जाते ही वह फू ट जाती है, अत: म पूछता ँ —) तुम कसी गूढ़ वषयपर अके ले ही तो वचार नह करते? अथवा ब त लोग के साथ बैठकर तो म णा नह करते? कह ऐसा तो नह होता क तु ारी न त क ◌इ गु म णा फू टकर श ुके रा तक फै ल जाती हो?॥ १८ ॥ ‘रघुन न! जसका साधन ब त छोटा और फल ब त बड़ा हो, ऐसे कायका न य करनेके बाद तुम उसे शी ार कर देते हो न? उसम वल तो नह करते?॥ १९ ॥ ‘तु ारे सब काय पूण हो जानेपर अथवा पूरे होनेके समीप प ँ चनेपर ही दूसरे राजा को ात होते ह न? कह ऐसा तो नह होता क तु ारे भावी काय मको वे पहले ही जान लेते ह ?॥ २० ॥ ‘तात! तु ारे न त कये ए वचार को तु ारे या म य के कट न करनेपर भी दूसरे लोग तक और यु य के ारा जान तो नह लेते ह? (तथा तुमको और तु ारे अमा को दूसर के गु वचार का पता लगता रहता है न?)॥ २१ ॥



ा तुम सह मूख के बदले एक प तको ही अपने पास रखनेक इ ा रखते हो? क व ान् पु ष ही अथसंकटके समय महान् क ाण कर सकता है॥ २२ ॥ ‘य द राजा हजार या दस हजार मूख को अपने पास रख ले तो भी उनसे अवसरपर को◌इ अ ी सहायता नह मलती॥ २३ ॥ ‘य द एक म ी भी मेधावी, शूर-वीर, चतुर एवं नी त हो तो वह राजा या राजकु मारको ब त बड़ी स क ा करा सकता है॥ २४ ॥ ‘तात! तुमने धान य को धान, म म ेणीके मनु को म म और छोटी ेणीके लोग को छोटे ही काम म नयु कया है न?॥ २५ ॥ ‘जो घूस न लेते ह अथवा न ल ह , बाप-दाद के समयसे ही काम करते आ रहे ह तथा बाहरभीतर से प व एवं े ह , ऐसे अमा को ही तुम उ म काय म नयु करते हो न?॥ २६ ॥ ‘कै के यीकु मार! तु ारे रा क जा कठोर द से अ उ होकर तु ारे म य का तर ार तो नह करती?॥ २७ ॥ ‘जैसे प व याजक प तत यजमानका तथा याँ कामचारी पु षका तर ार कर देती ह, उसी कार जा कठोरतापूवक अ धक कर लेनेके कारण तु ारा अनादर तो नह करती?॥ २८ ॥ ‘जो साम-दाम आ द उपाय के योगम कु शल, राजनी तशा का व ान्, व ासी भृ को फोड़नेम लगा आ, शूर (मरनेसे न डरनेवाला) तथा राजाके रा को हड़प लेनेक इ ा रखनेवाला है—ऐसे पु षको जो राजा नह मार डालता है, वह यं उसके हाथसे मारा जाता है॥ २९ ॥ ‘ ा तुमने सदा संतु रहनेवाले, शूर-वीर, धैयवान्, बु मान्, प व , कु लीन एवं अपनेम अनुराग रखनेवाले, रणकमद पु षको ही सेनाप त बनाया है?॥ ३० ॥ ‘तु ारे धान- धान यो ा (सेनाप त) बलवान्, यु कु शल और परा मी तो ह न? ा तुमने उनके शौयक परी ा कर ली है? तथा ा वे तु ारे ारा स ारपूवक स ान पाते रहते ह?॥ ३१ ॥ ‘



‘सै नक को देनेके



लये नयत कया आ समु चत वेतन और भ ा तुम समयपर दे देते हो न? देनेम वल तो नह करते?॥ ३२ ॥ ‘य द समय बताकर भ ा और वेतन दये जाते ह तो सै नक अपने ामीपर भी अ कु पत हो जाते ह और इसके कारण बड़ा भारी अनथ घ टत हो जाता है॥ ‘ ा उ म कु लम उ म ी आ द सम धान अ धकारी तुमसे ेम रखते ह? ा वे तु ारे लये एक च होकर अपने ाण का ाग करनेके लये उ त रहते ह?॥ ३४ ॥ ‘भरत! तुमने जसे राजदूतके पदपर नयु कया है, वह पु ष अपने ही देशका नवासी, व ान्, कु शल, तभाशाली और जैसा कहा जाय, वैसी ही बात दूसरेके सामने कहनेवाला और सदस वेकयु है न?॥ ३५ ॥ ‘ ा तुम श ुप के अठारह१ और अपने प के पं ह२ तीथ क तीन-तीन अ ात गु चर ारा देख-भाल या जाँच-पड़ताल करते रहते हो?॥ ३६ ॥ ‘श ुसूदन! जन श ु को तुमने रा से नकाल दया है, वे य द फर लौटकर आते ह तो तुम उ दुबल समझकर उनक उपे ा तो नह करते?॥ ३७ ॥ ‘तात! तुम कभी ना क ा ण का संग तो नह करते हो? क वे बु को परमाथक ओरसे वच लत करनेम कु शल होते ह तथा वा वम अ ानी होते ए भी अपनेको ब त बड़ा प त मानते ह॥ ३८ ॥ ‘उनका ान वेदके व होनेके कारण दू षत होता है और वे माणभूत धान- धान धमशा के होते ए भी ता कक बु का आ य लेकर थ बकवाद कया करते ह॥ ३९ ॥ ‘तात! अयो ा हमारे वीर पूवज क नवासभू म है; उसका जैसा नाम है, वैसा ही गुण है। उसके दरवाजे सब ओरसे सु ढ़ ह। वह हाथी, घोड़े और रथ से प रपूण है। अपने-अपने कम म लगे ए ा ण, य और वै सह क सं ाम वहाँ सदा नवास करते ह। वे सब-के -सब महान् उ ाही, जते य और े ह। नाना कारके राजभवन और म र उसक शोभा बढ़ाते ह। वह नगरी ब सं क व ान से भरी है। ऐसी अ ुदयशील और समृ शा लनी नगरी अयो ाक तुम भलीभाँ त र ा तो करते हो न?॥ ४०—४२ ॥ ‘रघुन न भरत! जहाँ नाना कारके अ मेध आ द महाय के ब त-से चयन- देश (अनु ान ल) शोभा पाते ह, जसम त त मनु अ धक सं ाम नवास करते ह, अनेकानेक देव ान, प सले और तालाब जसक शोभा बढ़ाते ह, जहाँके ी-पु ष सदा स



रहते ह, जो सामा जक उ व के कारण सदा शोभास दखायी देता है, जहाँ खेत जोतनेम समथ पशु क अ धकता है, जहाँ कसी कारक हसा नह होती, जहाँ खेतीके लये वषाके जलपर नभर नह रहना पड़ता (न दय के जलसे ही सचा◌इ हो जाती है), जो ब त ही सु र और हसक पशु से र हत है, जहाँ कसी तरहका भय नह है, नाना कारक खान जसक शोभा बढ़ाती ह, जहाँ पापी मनु का सवथा अभाव है तथा हमारे पूवज ने जसक भलीभाँ त र ा क है, वह अपना कोसल देश धन-धा से स और सुखपूवक बसा आ है न?॥ ४३ —४६ ॥ ‘तात! कृ ष और गोर ासे आजी वका चलानेवाले सभी वै तु ारे ी तपा ह न? क कृ ष और ापार आ दम संल रहनेपर ही यह लोक सुखी एवं उ तशील होता है॥ ४७ ॥ ‘उन वै को इ क ा कराकर और उनके अ न का नवारण करके तुम उन सब लोग का भरण-पोषण तो करते हो न? क राजाको अपने रा म नवास करनेवाले सब लोग का धमानुसार पालन करना चा हये॥ ४८ ॥ ‘ ा तुम अपनी य को संतु रखते हो? ा वे तु ारे ारा भलीभाँ त सुर त रहती ह? तुम उनपर अ धक व ास तो नह करते? उ अपनी गु बात तो नह कह देते?॥ ४९ ॥ ‘जहाँ हाथी उ होते ह, वे जंगल तु ारे ारा सुर त ह न? तु ारे पास दूध देनेवाली गौएँ तो अ धक सं ाम ह न? (अथवा हा थय को फँ सानेवाली ह थ नय क तो तु ारे पास कमी नह है?) तु ह थ नय , घोड़ और हा थय के सं हसे कभी तृ तो नह होती?॥ ५० ॥ ‘राजकु मार! ा तुम त दन पूवा कालम व ाभूषण से वभू षत हो धान सड़कपर जा-जाकर नगरवासी मनु को दशन देते हो?॥ ५१ ॥ ‘काम-काजम लगे ए सभी मनु नडर होकर तु ारे सामने तो नह आते? अथवा वे सब सदा तुमसे दूर तो नह रहते? क कमचा रय के वषयम म म तका अवल न करना ही अथ स का कारण होता है॥ ५२ ॥ ‘ ा तु ारे सभी दुग ( कले) धन-धा , अ -श , जल, य (मशीन), श ी तथा धनुधर सै नक से भरे-पूरे रहते ह?॥ ५३ ॥ ‘रघुन न! ा तु ारी आय अ धक और य ब त कम है? तु ारे खजानेका धन अपा के हाथम तो नह चला जाता?॥ ५४ ॥



‘देवता, है न?॥ ५५ ॥



पतर, ा ण, अ ागत, यो ा तथा म के लये ही तो तु ारा धन खच होता



‘कभी ऐसा तो नह



होता क को◌इ मनु कसी े , नद ष और शु ा ा पु षपर भी दोष लगा दे तथा शा ानम कु शल व ान ारा उसके वषयम वचार कराये बना ही लोभवश उसे आ थक द दे दया जाता हो?॥ ५६ ॥ ‘नर े ! जो चोरीम पकड़ा गया हो, जसे कसीने चोरी करते समय देखा हो, पूछताछसे भी जसके चोर होनेका माण मल गया हो तथा जसके व (चोरीका माल बरामद होना आ द) और भी ब त-से कारण (सबूत) ह , ऐसे चोरको भी तु ारे रा म धनके लालचसे छोड़ तो नह दया जाता है?॥ ५७ ॥ ‘रघुकुलभूषण! य द धनी और गरीबम को◌इ ववाद छड़ा हो और वह रा के ायालयम नणयके लये आया हो तो तु ारे ब म ी धन आ दके लोभको छोड़कर उस मामलेपर वचार करते ह न?॥ ५८ ॥ ‘रघुन न! नरपराध होनेपर भी ज म ा दोष लगाकर द दया जाता है, उन मनु क आँ ख से जो आँ सू गरते ह, वे प पातपूण शासन करनेवाले राजाके पु और पशु का नाश कर डालते ह॥ ५९ ॥ ‘राघव! ा तुम वृ पु ष , बालक और धान- धान वै का आ रक अनुराग, मधुर वचन और धनदान—इन तीन के ारा स ान करते हो?॥ ६० ॥ ‘गु जन , वृ , तप य , देवता , अ त थय , चै वृ और सम पूणकाम ा ण को नम ार करते हो न?॥ ६१ ॥ ‘तुम अथके ारा धमको अथवा धमके ारा अथको हा न तो नह प ँ चाते? अथवा आस और लोभ प कामके ारा धम और अथ दोन म बाधा तो नह आने देत?े ॥ ६२ ॥ ‘ वजयी वीर म े , समयो चत कत के ाता तथा दूसर को वर देनेम समथ भरत! ा तुम समयका वभाग करके धम, अथ और कामका यो समयम सेवन करते हो?॥ ६३ ॥ ‘महा ा ! स ूण शा के अथको जाननेवाले ा ण पुरवासी और जनपदवासी मनु के साथ तु ारे क ाणक कामना करते ह न?॥ ६४ ॥



‘ना , ने



कता, अस -भाषण, ोध, माद, दीघसू ता, ानी पु ष का संग न करना, आल आ द पाँच इ य के वशीभूत होना, राजकाय के वषयम अके ले ही वचार करना, योजनको न समझनेवाले वपरीतदश मूख से सलाह लेना, न त कये ए काय का शी ार न करना, गु म णाको सुर त न रखकर कट कर देना, मा लक आ द काय का अनु ान न करना तथा सब श ु पर एक ही साथ चढ़ा◌इ कर देना—ये राजाके चौदह दोष ह। तुम इन दोष का सदा प र ाग करते हो न?॥ ६५—६७ ॥ ‘महा ा भरत! दशवग,३ प वग,४ चतुवग,५ स वग,६ अ वग,७ वग,८ तीन व ा,९ बु के ारा इ य को जीतना, छ: गुण,१० दैवी११ और मानुषी बाधाएँ , राजाके नी तपूण काय,१२ वश तवग,१३ कृ तम ल,१४ या ा (श ुपर आ मण), द वधान ( ूहरचना) तथा दो-दो गुण क १५ यो नभूत सं ध और व ह—इन सबक ओर तुम यथाथ पसे ान देते हो न? इनमसे ागनेयो दोष को ागकर हण करनेयो गुण को हण करते हो न?॥ ६८— ७० ॥ ‘ व न्! ा तुम नी तशा क आ ाके अनुसार चार या तीन म य के साथ—सबको एक करके अथवा सबसे अलग-अलग मलकर सलाह करते हो?॥ ७१ ॥ ‘ ा तुम वेद क आ ाके अनुसार काम करके उ सफल करते हो? ा तु ारी याएँ सफल (उ े क स करनेवाली) ह? ा तु ारी याँ भी सफल (संतानवती) ह? और ा तु ारा शा ान भी वनय आ द गुण का उ ादक होकर सफल आ है?॥ ७२ ॥ ‘रघुन न! मने जो कु छ कहा है, तु ारी बु का भी ऐसा ही न य है न? क यह वचार आयु और यशको बढ़ानेवाला तथा धम, काम और अथक स करनेवाला है॥ ७३ ॥ ‘हमारे पताजी जस वृ का आ य लेते ह, हमारे पतामह ने जस आचरणका पालन कया है, स ु ष भी जसका सेवन करते ह और जो क ाणका मूल है, उसीका तुम पालन करते हो न?॥ ७४ ॥ ‘रघुन न! तुम ा द अ अके ले ही तो नह खा जाते? उसक आशा रखनेवाले म को भी देते हो न?॥ ७५ ॥ ‘इस कार धमके अनुसार द धारण करनेवाला व ान् राजा जा का पालन करके समूची पृ ीको यथाव ूपसे अपने अ धकारम कर लेता है तथा देह ाग करनेके प ात् गलोकम जाता है’॥ ७६ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म सौवाँ सग पूरा आ॥ १००॥ १. श ुप के म ी, पुरो हत, युवराज, सेनाप त, ारपाल, अ व शक (अ :पुरका अ ), कारागारा , कोषा , यथायो काय म धनका य करनेवाला स चव, दे ा (पहरेदार को काम बतानेवाला), नगरा (कोतवाल), काय नमाणकता ( श य का प रचालक), धमा , सभा , द पाल, दुगपाल, रा सीमापाल तथा वनर क—ये अठारह तीथ ह, जनपर राजाको रखनी चा हये। मता रसे ये अठारह तीथ इस कार ह—म ी, पुरो हत, युवराज, सेनाप त, ारपाल, अ :पुरा , कारागारा , धना , राजाक आ ासे सेवक को काम बतानेवाला, वादी- तवादीसे मामलेक पूछताछ करनेवाला, ा वाक (वक ल), धमासना धकारी ( ायाधीश), वहार- नणता, स , सेनाको जी वकानवाहके लये धन देनेका अ धकारी (सेनानायक), कमचा रय को काम पूरा होनेपर वेतन देनेके लये राजासे धन लेनेवाला, नगरा , रा सीमापाल तथा वनर क, दु को द देनेका अ धकारी तथा जल, पवत, वन एवं दुगम भू मक र ा करनेवाला—इनपर राजाको रखनी चा हये। २. उपयु अठारह तीथ मसे आ दके तीनको छोड़कर शेष पं ह तीथ अपने प के भी सदा परी णीय ह। ३. कामसे उ होनेवाले दस दोष को दशवग कहते ह। ये राजाके लये ा ह। मनुजीने उनके नाम इस कार गनाये ह—आखेट, जुआ, दनम सोना, दूसर क न ा करना, ीम आस होना, म पान, नाचना, गाना, बाजा बजाना और थ घूमना। ४. जलदुग, पवतदुग, वृ दुग, ◌इ रणदुग और ध दुग—ये पाँच कारके दुग प वग कहलाते ह। इनम आर के तीन तो स ही ह। जहाँ कसी कारक खेती नह होती, ऐसे देशको ◌इ रण कहते ह। बालूसे भरी म भू मको ध कहते ह। गम के दन म वह श ु के लये दुगम होती है। इन सब दुग का यथासमय उपयोग करके राजाको आ र ा करनी चा हये। ५. साम, दान, भेद और द —इन चार कारक नी तको चतुवग कहते ह। ६. राजा, म ी, रा , कला, खजाना, सेना और म वग—ये पर र उपकार करनेवाले रा के सात अ ह। इ को स वग कहा गया है। ७. चुगली, साहस, ोह, ◌इ ा, दोषदशन, अथदूषण, वाणीक कठोरता और द क कठोरता—ये ोधसे उ होनेवाले आठ दोष अ वग माने गये ह। कसी- कसीके मतम खेतीक उ त करना, ापारको बढ़ाना, दुग बनवाना, पुल नमाण कराना, जंगलसे हाथी पकड़कर मँगवाना, खान पर अ धकार ा करना, अधीन राजा से कर लेना और नजन देशको आबाद करना—ये राजाके लये उपादेय आठ गुण ही अ वग ह। ८. धम, अथ और कामको अथवा उ ाह-श , भुश तथा म श को वग कहते ह। ९. यी, वाता और द नी त—ये तीन व ाएँ ह। इनम तीन वेद को यी कहते ह। कृ ष और गोर ा आ द वाताके अ गत ह तथा नी तशा का नाम द नी त है। १०. सं ध, व ह, यान, आसन, ैधीभाव और समा य—ये छ: गुण ह। इनम श ुसे मेल रखना सं ध, उससे लड़ा◌इ छेड़ना व ह, आ मण करना यान, अवसरक ती ाम बैठे रहना आसन, दुरंगी नी त बतना ैधीभाव और अपनेसे बलवान् राजाक शरण लेना समा य कहलाता है। ११. आग लगना, बाढ़ आना, बीमारी फै लना, अकाल पड़ना और महामारीका कोप होना—ये पाँच दैवी बाधाएँ ह। रा के अ धका रय , चोर , श ु और राजाके य य से तथा यं राजाके लोभसे जो भय ा होता है, उसे मानवी बाधा कहते ह। १२. श ु राजा के सेवक मसे जनको वेतन न मला हो, जो अपमा नत कये गये ह , जो अपने मा लकके कसी बतावसे कु पत ह तथा ज भय दखाकर डराया गया हो, ऐसे लोग को मनचाही व ु देकर फोड़ लेना राजाका कृ (नी तपूण काय) माना गया है।



१३. बालक, वृ , दीघकालका रोगी, जा त ुत, डरपोक, भी मनु को साथ रखनेवाला, लोभी-लालची लोग को आ य देनेवाला, म ी, सेनाप त आ द कृ तय को असंतु रखनेवाला, वषय म आस , च ल च मनु से सलाह लेनेवाला, देवता और ा ण क न ा करनेवाला, दैवका मारा आ, भा के भरोसे पु षाथ न करनेवाला, दु भ से पी ड़त, सै नक-क से यु (सेनार हत), देशम न रहनेवाला, अ धक श ु वाला, अकाल ( ू र हदशा आ दसे यु ) और स धमसे र हत—ये बीस कारके राजा सं धके यो नह माने गये ह। इ को वश तवगके नामसे कहा गया है। १४. रा के ामी, अमा , सु द,् कोष, रा , दुग और सेना—रा के इन सात अ को ही कृ तम ल कहते ह। कसी- कसीके मतम म ी, रा , कला, खजाना और द — ये पाँच कृ तयाँ अलग ह और बारह राजा के समूहको म ल कहा है। १५. ैधीभाव और समा य—ये इनक यो नसं ध ह और यान तथा आसन इनक यो न व ह ह, अथात् थम दो सं धमूलक और अ म दो व हमूलक ह।



एक सौ एकवाँ सग ीरामका भरतसे वनम आगमनका योजन पूछना, भरतका उनसे रा कहना और ीरामका उसे अ ीकार कर देना



हण करनेके लये



ल णस हत ीरामच जीने अपने गु भ भा◌इ भरतको अ ी तरह समझाकर अथवा उ अपनेम अनुर जानकर उनसे इस कार पूछना आर कया—॥ १ ॥ ‘भा◌इ! तुम रा छोड़कर व ल, कृ मृगचम और जटा धारण करके जो इस देशम आये हो, इसका ा कारण है? जस न म से इस वनम तु ारा वेश आ है, यह म तु ारे मुँहसे सुनना चाहता ँ । तु सब कु छ साफ-साफ बताना चा हये’॥ २-३ ॥ ककु वंशी महा ा ीरामच जीके इस कार पूछनेपर भरतने बलपूवक आ रक शोकको दबा पुन: हाथ जोड़कर इस कार कहा—॥ ४ ॥ ‘आय! हमारे महाबा पता अ दु र कम करके पु शोकसे पी ड़त हो हम छोड़कर गलोकको चले गये॥ ५ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले रघुन न! अपनी ी एवं मेरी माता कै के यीक ेरणासे ही ववश हो पताजीने ऐसा कठोर काय कया था। मेरी माँने अपने सुयशको न करनेवाला यह बड़ा भारी पाप कया है॥ ६ ॥ ‘अत: वह रा पी फल न पाकर वधवा हो गयी। अब मेरी माता शोकसे दुबल हो महाघोर नरकम पड़ेगी॥ ७ ॥ ‘अब आप अपने दास प मुझ भरतपर कृ पा क जये और इ क भाँ त आज ही रा हण करनेके लये अपना अ भषेक कराइये॥ ८ ॥ ‘ये सारी कृ तयाँ ( जा आ द) और सभी वधवा माताएँ आपके पास आयी ह। आप इन सबपर कृ पा कर॥ ९ ॥ ‘दूसर को मान देनेवाले रघुवीर! आप े होनेके नाते रा - ा के मक अ धकारसे यु ह, ायत: आपको ही रा मलना उ चत है; अत: आप धमानुसार रा हण कर और अपने सु द को सफल-मनोरथ बनाव॥ १० ॥



‘आप-जैसे



प तसे यु हो यह सारी वसुधा वैध र हत हो जाय और नमल च मासे सनाथ ◌इ शर ालक रा के समान शोभा पाने लगे॥ ११ ॥ ‘म इन सम स चव के साथ आपके चरण म म क रखकर यह याचना करता ँ क आप रा हण कर। म आपका भा◌इ, श और दास ँ । आप मुझपर कृ पा कर॥ १२ ॥ ‘पु ष सह! यह सारा म म ल अपने यहाँ कु लपर रासे चला आ रहा है। ये सभी स चव पताजीके समयम भी थे। हम सदासे इनका स ान करते आये ह, अत: आप इनक ाथना न ठु कराय’॥ १३ ॥ ऐसा कहकर कै के यीपु महाबा भरतने ने से आँ सू बहाते ए पुन: ीरामच जीके चरण से माथा टेक दया॥ १४ ॥ उस समय वे मतवाले हाथीके समान बारंबार लंबी साँस ख चने लगे, तब ीरामने भा◌इ भरतको उठाकर दयसे लगा लया और इस कार कहा—॥ १५ ॥ ‘भा◌इ! तु बताओ। उ म कु लम उ , स गुणस , तेज ी और े त का पालन करनेवाला मेरे-जैसा मनु रा के लये पताक आ ाका उ न प पाप कै से कर सकता है?॥ १६ ॥ ‘श ुसूदन! म तु ारे अंदर थोड़ा-सा भी दोष नह देखता। अ ानवश तु अपनी माताक भी न ा नह करनी चा हये॥ १७ ॥ ‘ न ाप महा ा ! गु जन का अपनी अभी य और य पु पर सदा पूण अ धकार होता है। वे उ चाहे जैसी आ ा दे सकते ह॥ १८ ॥ ‘सौ ! माता स हत हम भी इस लोकम े पु ष - ारा महाराजके ी-पु और श कहे गये ह, अत: हम भी उनको सब तरहक आ ा देनेका अ धकार था। इस बातको तुम भी समझने यो हो॥ ‘सौ ! महाराज मुझे व ल व और मृगचम धारण कराकर वनम ठहराव अथवा रा पर बठाव— इन दोन बात के लये वे सवथा समथ थे॥ २० ॥ ‘धम ! धमा ा म े भरत! मनु क व व पताम जतनी गौरव-बु होती है, उतनी ही माताम भी होनी चा हये॥ २१ ॥



‘रघुन



न! इन धमशील माता और पता दोन ने जब मुझे वनम जानेक आ ा दे दी है, तब म उनक आ ाके वपरीत दूसरा को◌इ बताव कै से कर सकता ँ ?॥ २२ ॥ ‘तु अयो ाम रहकर सम जग े लये आदरणीय रा ा करना चा हये और मुझे व ल व धारण करके द कार म रहना चा हये॥ २३ ॥ ‘ क महाराज दशरथ ब त लोग के सामने हम दोन के लये इस कार पृथक् -पृथक् दो आ ाएँ देकर गको सधारे ह॥ २४ ॥ ‘इस वषयम लोकगु धमा ा राजा ही तु ारे लये माणभूत ह—उ क आ ा तु माननी चा हये और पताने तु ारे ह ेम जो कु छ दया है, उसीका तु यथावत् पसे उपभोग करना चा हये॥ २५ ॥ ‘सौ ! चौदह वष तक द कार म रहनेके बाद ही महा ा पताके दये ए रा भागका म उपभोग क ँ गा॥ २६ ॥ ‘मनु लोकम स ा नत और देवराज इ के तु तेज ी मेरे महा ा पताने मुझे जो वनवासक आ ा दी है, उसीको म अपने लये परम हतकारी समझता ँ । उनक आ ाके व सवलोके र ाका अ वनाशी पद भी मेरे लये ेय र नह है’॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ एकवाँ सग पूरा आ॥ १०१॥* * कु छ



तय म यह सग १०४ व सगके पम व णत है। १०० व सगके बादके तीन सग के बाद इसका उ ेख आ है।



एक सौ दोवाँ सग भरतका पुन: ीरामसे रा



हण करनेका अनुरोध करके उनसे पताक मृ ुका समाचार बताना



ीरामच जीक बात सुनकर भरतने इस कार उ र दया—‘भैया! म रा का अ धकारी न होनेके कारण उस राजधमके अ धकारसे र हत ँ , अत: मेरे लये यह राजधमका उपदेश कस काम आयगा?॥ १ ॥ ‘नर े ! हमारे यहाँ सदासे ही इस शा त धमका पालन होता आया है क े पु के रहते ए छोटा पु राजा नह हो सकता॥ २ ॥ ‘अत: रघुन न! आप मेरे साथ समृ शा लनी अयो ापुरीको च लये और हमारे कु लके अ ुदयके लये राजाके पदपर अपना अ भषेक कराइये॥ ३ ॥ ‘य प सब लोग राजाको मनु कहते ह, तथा प मेरी रायम वह देव पर त त है; क उसके धम और अथयु आचारको साधारण मनु के लये अस ा वत बताया गया है॥ ४ ॥ ‘जब म के कयदेशम था और आप वनम चले आये थे, तब अ मेध आ द य के कता और स ु ष ारा स ा नत बु मान् महाराज दशरथ गलोकको चले गये॥ ५ ॥ ‘सीता और ल णके साथ आपके रा से नकलते ही दु:ख-शोकसे पी ड़त ए महाराज गलोकको चल दये॥ ६ ॥ ‘पु ष सह! उ ठये और पताको जला ल दान क जये। म और यह श ु —दोन पहले ही उनके लये जला ल दे चुके ह॥ ७ ॥ ‘रघुन न! कहते ह, य पु का दया आ जल आ द पतृलोकम अ य होता है और आप पताके परम य पु ह॥ ८ ॥ ‘आपके पता आपसे वलग होते ही शोकके कारण हो गये और आपके ही शोकम म हो, आपको ही देखनेक इ ा रखकर, आपम ही लगी ◌इ बु को आपक ओरसे न हटाकर, आपका ही रण करते ए गको चले गये’॥ ९ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ दोवाँ सग पूरा आ॥ १०२॥



एक सौ तीनवाँ सग ीराम आ दका वलाप, पताके लये जला



ल-दान, प



दान और रोदन



भरतक कही ◌इ पताक मृ ुसे स रखनेवाली क णाजनक बात सुनकर ीरामच जी दु:खके कारण अचेत हो गये॥ १ ॥ भरतके मुखसे नकला आ वह वचन व -सा लगा, मानो दानवश ु इ ने यु लम व का हार-सा कर दया हो। मनको य न लगनेवाले उस वाग्-व को सुनकर श ु को संताप देनेवाले ीराम दोन भुजा को ऊपर उठाकर जसक डा लयाँ खली ◌इ ह , वनम कु ाड़ीसे कटे ए उस वृ क भाँ त पृ ीपर गर पड़े (भरतके दशनसे ीरामको हष आ था, पताक मृ ुके संवादसे दु:ख; अत: उ खले और कटे ए पेड़क उपमा दी गयी है)॥ २-३ ॥ पृ ीप त ीराम इस कार पृ ीपर गरकर नदीके तटको दाँत से वदीण करनेके प र मसे थककर सोये ए हाथीके समान तीत होते थे। शोकके कारण दुबल ए उन महाधनुधर ीरामको सब ओरसे घेरकर सीतास हत रोते ए वे तीन भा◌इ आँ सु के जलसे भगोने लगे॥ ४-५ ॥ थोड़ी देर बाद पुन: होशम आनेपर ने से अ ुवषा करते ए ककु कु लभूषण ीरामने अ दीन वाणीम वलाप आर कया॥ ६ ॥ पृ ीप त महाराज दशरथको गगामी आ सुनकर धमा ा ीरामने भरतसे यह धमयु बात कही—॥ ‘भैया! जब पताजी परलोकवासी हो गये, तब अयो ाम चलकर अब म ा क ँ गा? उन राज शरोम ण पतासे हीन ◌इ उस अयो ाका अब कौन पालन करेगा?॥ ८ ॥ ‘हाय! जो पताजी मेरे ही शोकसे मृ ुको ा ए, उ का म दाह-सं ारतक न कर सका। मुझ-जैसे थ ज लेनेवाले पु से उन महा ा पताका कौन-सा काय स आ?॥ ९ ॥ ‘न



ाप भरत! तु कृ ताथ हो, तु ारा अहोभा है, जससे तुमने और श ु ने सभी ेतकाय (पारलौ कक कृ ) म सं ार-कमके ारा महाराजका पूजन कया है॥ १० ॥



‘महाराज



दशरथसे हीन ◌इ अयो ा अब धान शासकसे र हत हो अ एवं आकु ल हो उठी है; अत: वनवाससे लौटनेपर भी मेरे मनम अयो ा जानेका उ ाह नह रह गया है॥ ११ ॥ ‘परंतप भरत! वनवासक अव ध समा करके य द म अयो ाम जाऊँ तो फर कौन मुझे कत का उपदेश देगा; क पताजी तो परलोकवासी हो गये॥ १२ ॥ ‘पहले जब म उनक कसी आ ाका पालन करता था, तब वे मेरे सद ् वहारको देखकर मेरा उ ाह बढ़ानेके लये जो-जो बात कहा करते थे, कान को सुख प ँ चानेवाली उन बात को अब म कसके मुखसे सुनूँगा’॥ १३ ॥ भरतसे ऐसा कहकर शोकसंत ीरामच जी पूण च माके समान मनोहर मुखवाली अपनी प ीके पास आकर बोले—॥ १४ ॥ ‘सीते! तु ारे शुर चल बसे। ल ण! तुम पतृहीन हो गये। भरत पृ ीप त महाराज दशरथके गवासका दु:खदायी समाचार सुना रहे ह’॥ १५ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर उन सभी यश ी कु मार के ने म ब त अ धक आँ सू उमड़ आये॥ १६ ॥ तदन र सभी भाइय ने दु:खी ए ीरामच जीको सा ना देते ए कहा—‘भैया! अब पृ ीप त पताजीके लये जला ल दान क जये’॥ १७ ॥ अपने शुर महाराज दशरथके गवासका समाचार सुनकर सीताके ने म आँ सू भर आये। वे अपने यतम ीरामच जीक ओर देख न सक ॥ १८ ॥ तदन र रोती ◌इ जनककु मारीको सा ना देकर दु:खम ीरामने अ दु:खी ए ल णसे कहा— ‘भा◌इ! तुम इ ु दीका पसा आ फल और चीर एवं उ रीय ले आओ। म महा ा पताको जलदान देनेके लये चलूँगा॥ २० ॥ ‘सीता आगे-आगे चल। इनके पीछे तुम चलो और तु ारे पीछे म चलूँगा। शोकके समयक यही प रपाटी है, जो अ दा ण होती है’॥ २१ ॥ त ात् उनके कु लके पर रागत सेवक, आ ानी, परम बु मान्, कोमल भाववाले, जते य, तेज ी और ीरामके सु ढ़ भ सुम सम राजकु मार के साथ



ीरामको धैय बँधाकर उ हाथका सहारा दे क ाणमयी म ा कनीके तटपर ले गये॥ २२-२३ ॥



वे यश ी राजकु मार सदा पु त काननसे सुशो भत, शी ग तसे वा हत होनेवाली और उ म घाटवाली रमणीय नदी म ा कनीके तटपर क ठना◌इसे प ँ चे तथा उसके प र हत, क ाण द, तीथभूत जलको लेकर उ ने राजाके लये जल दया। उस समय वे बोले— ‘ पताजी! यह जल आपक सेवाम उप त हो’॥ पृ ीपालक ीरामने जलसे भरी ◌इ अ ल ले द ण दशाक ओर मुँह करके रोते ए इस कार कहा—‘मेरे पू पता राज शरोम ण महाराज दशरथ! आज मेरा दया आ यह नमल जल पतृलोकम गये ए आपको अ य पसे ा हो’॥ २६-२७ ॥ इसके बाद म ा कनीके जलसे नकलकर कनारेपर आकर तेज ी ीरघुनाथजीने अपने भाइय के साथ मलकर पताके लये प दान कया॥ २८ ॥ उ ने इ ु दीके गूदेम बेर मलाकर उसका प तैयार कया और बछे ए कु श पर उसे रखकर अ दु:खसे आत हो रोते ए यह बात कही—॥ २९ ॥ ‘महाराज! स तापूवक यह भोजन ीकार क जये; क आजकल यही हमलोग का आहार है। मनु यं जो अ खाता है, वही उसके देवता भी हण करते ह’॥ ३० ॥ इसके बाद उसी मागसे म ा कनीतटके ऊपर आकर पृ ीपालक पु ष सह ीराम सु र शखरवाले च कू ट पवतपर चढ़े और पणकु टीके ारपर आकर भरत और ल ण दोन भाइय को दोन हाथ से पकड़कर रोने लगे॥ ३१-३२ ॥ सीतास हत रोते ए उन चार भाइय के दन-श से उस पवतपर गरजते ए सह के दहाड़नेके समान त न होने लगी॥ ३३ ॥ पताको जला ल देकर रोते ए उन महाबली भाइय के रोदनका तुमुल नाद सुनकर भरतके सै नक कसी भयक आश ासे डर गये। फर उसे पहचानकर वे एक-दूसरेसे बोले —‘ न य ही भरत ीरामच जीसे मले ह। अपने परलोकवासी पताके लये शोक करनेवाले उन चार भाइय के रोनेका ही यह महान् श है’॥ ३४-३५ ॥ य कहकर उन सबने अपनी सवा रय को तो वह छोड़ दया और जस ानसे वह आवाज आ रही थी, उसी ओर मुँह कये एक च होकर वे दौड़ पड़े॥



उनसे भ जो सुकुमार मनु थे, उनमसे कु छ लोग घोड़ से, कु छ हा थय से और कु छ सजे-सजाये रथ से ही आगे बढ़े। कतने ही मनु पैदल ही चल दये॥ ३७ ॥ य प ीरामच जीको परदेशम आये अभी थोड़े ही दन ए थे, तथा प लोग को ऐसा जान पड़ता था क मानो वे दीघकालसे परदेशम रह रहे ह; अत: सब लोग उनके दशनक इ ासे सहसा आ मक ओर चल दये॥ ३८ ॥ वे लोग चार भाइय का मलन देखनेक इ ासे खुर एवं प हय से यु नाना कारक सवा रय ारा बड़ी उतावलीके साथ चले॥ ३९ ॥ अनेक कारक सवा रय तथा रथक प हय से आ ा ◌इ वह भू म भयंकर श करने लगी; ठीक उसी तरह जैसे मेघ क घटा घर आनेपर आकाशम गड़गड़ाहट होने लगती है॥ ४० ॥ उस तुमुल नादसे भयभीत ए हाथी ह थ नय से घरकर मदक ग से उस ानको सुवा सत करते ए वहाँसे दूसरे वनम भाग गये॥ ४१ ॥ वराह, भे ड़ये, सह, भसे, सृमर (मृग वशेष), ा , गोकण (मृग वशेष) और गवय (नीलगाय), चतकबरे ह रण स हत सं हो उठे ॥ ४२ ॥ च वाक, हंस, जलकु ु ट, वक, कार व, नरको कल और ौ प ी होश-हवाश खोकर व भ दशा म उड़ गये॥ ४३ ॥ उस श से डरे ए प ी आकाशम छा गये और नीचेक भू म मनु से भर गयी। इस कार उन दोन क समान पसे शोभा होने लगी॥ ४४ ॥ लोग ने सहसा प ँ चकर देखा—यश ी, पापर हत, पु ष सह ीराम वेदीपर बैठे ह॥ ४५ ॥



ीरामके पास जानेपर सबके मुख आँ सु से भीग गये और सब लोग म रास हत कै के यीक न ा करने लगे॥ ४६ ॥ उन सब लोग के ने आँ सु से भरे ए थे और वे सब-के -सब अ दु:खी हो रहे थे। धम ीरामने उ देखकर पता-माताक भाँ त दयसे लगाया॥ ीरामने कु छ मनु को वहाँ छातीसे लगाया तथा कु छ लोग ने प ँ चकर वहाँ उनके चरण म णाम कया। राजकु मार ीरामने उस समय वहाँ आये ए सभी म और ब -ु



बा व का यथायो स ान कया॥ ४८ ॥ उस समय वहाँ रोते ए उन महा ा का वह रोदन-श पृ ी, आकाश, पवत क गुफा और स ूण दशा को नर र त नत करता आ मृद क नके समान सुनायी पड़ता था॥ ४९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ तीनवाँ सग पूरा आ॥ १०३॥



एक सौ चारवाँ सग व स जीके साथ आती ◌इ कौस ाका म ा कनीके तटपर सु म ा आ दके सम द:ु खपूण उ ार, ीराम, ल ण और सीताके ारा माता क चरणव ना तथा व स जीको णाम करके ीराम आ दका सबके साथ बैठना



मह ष व स जी महाराज दशरथक रा नय को आगे करके ीरामच जीको देखनेक अ भलाषा लये उस ानक ओर चले, जहाँ उनका आ म था॥ १ ॥ राजरा नयाँ म ग तसे चलती ◌इ जब म ा कनीके तटपर प ँ च , तब उ ने वहाँ ीराम और ल णके ान करनेका घाट देखा॥ २ ॥ इस समय कौस ाके मुँहपर आँ सु क धारा बह चली। उ ने सूखे एवं उदास मुखसे दीन सु म ा तथा अ राजरा नय से कहा—॥ ३ ॥ ‘जो रा से नकाल दये गये ह तथा जो दूसर को ेश न देनेवाले काय ही करते ह, उन मेरे अनाथ ब का यह वनम दुगम तीथ है, जसे इ ने पहले-पहल ीकार कया है॥ ४ ॥ ‘सु म े! आल र हत तु ारे पु ल ण यं आकर सदा यह से मेरे पु के लये जल ले जाया करते ह॥ ५ ॥ ‘य प तु ारे पु ने छोटे-से-छोटा सेवा-काय भी ीकार कया है, तथा प इससे वे न त नह ए ह; क स णु से यु े भा◌इके योजनसे र हत जो काय होते ह, वे ही सब न त माने गये ह॥ ६ ॥ ‘तु ारा यह पु भी उन ेश के यो नह है, ज आजकल वह सहन करता है। अब ीराम लौट चल और न ेणीके पु ष के यो जो दु:खजनक काय उसके सामने ुत है, उसे वह छोड़ दे—उसे करनेका अवसर ही उसके लये न रह जाय’॥ ७ ॥ आगे जाकर वशाललोचना कौस ाने देखा क ीरामने पृ ीपर बछे ए द णा कु श के ऊपर अपने पताके लये पसे ए इ ु दीके फलका प रख छोड़ा है॥ ८ ॥ दु:खी रामके ारा पताके लये भू मपर रखे ए उस प को देखकर देवी कौस ाने दशरथक सब रा नय से कहा—॥ ९ ॥



‘बहनो!



देखो, ीरामने इ ाकु कु लके ामी रघुकुलभूषण महा ा पताके लये यह व धपूवक प दान कया है॥ १० ॥ ‘देवताके समान तेज ी वे महामना भूपाल नाना कारके उ म भोग भोग चुके ह। उनके लये यह भोजन म उ चत नह मानती॥ ११ ॥ ‘जो चार समु तकक पृ ीका रा भोगकर भूतलपर देवराज इ के समान तापी थे, वे भूपाल महाराज दशरथ पसे ए इ ु दी-फलका प कै से खा रहे ह गे?॥ १२ ॥ ‘संसारम इससे बढ़कर महान् दु:ख मुझे और को◌इ नह तीत होता है, जसके अधीन होकर ीराम समृ शाली होते ए भी अपने पताको इ ु दीके पसे ए फलका प द॥ १३ ॥



ीरामने अपने पताको इ ु दीका प ाक ( पसा आ फल) दान कया है—यह देखकर दु:खसे मेरे दयके सह टुकड़े नह हो जाते ह?॥ १४ ॥ ‘यह लौ कक ु त (लोक व ात कहावत) न य ही मुझे स तीत हो रही है क मनु यं जो अ खाता है, उसके देवता भी उसी अ को हण करते ह’॥ १५ ॥ इस कार शोकसे आत ◌इ कौस ाको उस समय उनक सौत समझा-बुझाकर उ आगे ले गय । आ मपर प ँ चकर उन सबने ीरामको देखा, जो गसे गरे ए देवताके समान जान पड़ते थे॥ १६ ॥ भोग का प र ाग करके तप ी जीवन तीत करनेवाले ीरामको देखकर उनक माताएँ शोकसे कातर हो गय और आतभावसे फू ट-फू टकर रोती ◌इ आँ सू बहाने लग ॥ १७ ॥ स त नर े ीराम माता को देखते ही उठकर खड़े हो गये और बारी-बारीसे उन सबके चरणार व का श कया॥ १८ ॥ वशाल ने वाली माताएँ ेहवश जनक अंगु लयाँ कोमल और श सुखद था, उन सु र हाथ से ीरामक पीठसे धूल प छने लग ॥ १९ ॥ ीरामके बाद ल ण भी उन सभी दु: खया माता को देखकर दु:खी हो गये और उ ने ेहपूवक धीरे-धीरे उनके चरण म णाम कया॥ २० ॥ उन सब माता ने ीरामके साथ जैसा बताव कया था, वैसे ही उ म ल ण से यु दशरथन न ल णके साथ भी कया॥ २१ ॥ ‘



तदन र आँ सूभरे ने वाली दु: खनी सीता भी सभी सासु के चरण म णाम करके उनके आगे खड़ी हो गयी॥ २२ ॥ तब दु:खसे पी ड़त ◌इ कौस ाने जैसे माता अपनी बेटीको दयसे लगा लेती है, उसी कार वनवासके कारण दीन (दुबल) ◌इ सीताको छातीसे चपका लया और इस कार कहा—॥ २३ ॥ ‘ वदेहराज जनकक पु ी, राजा दशरथक पु वधू तथा ीरामक प ी इस नजन वनम दु:ख भोग रही है?॥ २४ ॥ ‘बेटी! तु ारा मुख धूपसे तपे ए कमल, कु चले ए उ ल, धूलसे ए सुवण और बादल से ढके ए च माक भाँ त ीहीन हो रहा है॥ २५ ॥ ‘ वदेहन न! जैसे आग अपने उ ान का को द कर देती है, उसी कार तु ारे इस मुखको देखकर मेरे मनम संकट पी अर णसे उ आ यह शोकानल मुझे जलाये देता है’॥ २६ ॥ शोकाकु ल ◌इ माता जब इस कार वलाप कर रही थी, उसी समय भरतके बड़े भा◌इ ीरामने व स जीके चरण म पड़कर उ दोन हाथ से पकड़ लया॥ २७ ॥ जैसे देवराज इ बृह तके चरण का श करते ह, उसी कार अ के समान बढ़े ए तेजवाले पुरो हत व स जीके दोन पैर पकड़कर ीरामच जी उनके साथ ही पृ ीपर बैठ गये॥ २८ ॥ तदन र धमा ा भरत एक साथ आये ए अपने सभी म य , धान- धान पुरवा सय , सै नक तथा परम धम पु ष के साथ अपने बड़े भा◌इके पास उनके पीछे जा बैठे॥ २९ ॥ उस समय ीरामके आसनके समीप बैठे ए अ परा मी भरतने द दी से का शत होनेवाले ीरघुनाथजीको तप ीके वेशम देखकर उनके त उसी कार हाथ जोड़ लये जैसे देवराज इ जाप त ाके सम वनीतभावसे हाथ जोड़ते ह॥ ३० ॥ उस समय वहाँ बैठे ए े पु ष के दयम यथाथ पसे यह उ म कौतूहल-सा जाग उठा क देख ये भरतजी ीरामच जीको स ारपूवक णाम करके आज उ म री तसे उनके सम ा कहते ह?॥ ३१ ॥



वे स त ीराम, महानुभाव ल ण तथा धमा ा भरत—ये तीन भा◌इ अपने सु द से घरकर य शालाम सद ारा घरे ए वध अ य के समान शोभा पा रहे थे॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ चारवाँ सग पूरा आ॥ १०४॥



एक सौ पाँचवाँ सग भरतका ीरामको अयो ाम चलकर रा हण करनेके लये कहना, ीरामका जीवनक अ न ता बताते ए पताक मृ ुके लये शोक न करनेका भरतको उपदेश देना और पताक आ ाका पालन करनेके लये ही रा हण न करके वनम रहनेका ही ढ़ न य बताना



अपने सु द से घरकर बैठे ए पु ष सह ीराम आ द भाइय क वह रा पताक मृ ुके दु:खसे शोक करते ए ही तीत ◌इ। सबेरा होनेपर भरत आ द तीन भा◌इ सु द के साथ ही म ा कनीके तटपर गये और ान, होम एवं जप आ द करके पुन: ीरामके पास लौट आये॥ १-२ ॥ वहाँ आकर सभी चुपचाप बैठ गये। को◌इ कु छ नह बोल रहा था। तब सु द के बीचम बैठे ए भरतने ीरामसे इस कार कहा—॥ ३ ॥ ‘भैया! पताजीने वरदान देकर मेरी माताको संतु कर दया और माताने यह रा मुझे दे दया। अब म अपनी ओरसे यह अक क रा आपक ही सेवाम सम पत करता ँ । आप इसका पालन एवं उपभोग क जये॥ ४ ॥ ‘वषाकालम जलके महान् वेगसे टूटे ए सेतुक भाँ त इस वशाल रा ख को सँभालना आपके सवा दूसरेके लये अ क ठन है॥ ५ ॥ ‘पृ ीनाथ! जैसे गदहा घोड़ेक और अ साधारण प ी ग ड़क चाल नह चल सकते, उसी कार मुझम आपक ग तका—आपक पालन-प तका अनुसरण करनेक श नह है॥ ६ ॥ ‘ ीराम! जसके पास आकर दूसरे लोग जीवन नवाह करते ह, उसीका जीवन उ म है और जो दूसर का आ य लेकर जीवन- नवाह करता है, उसका जीवन दु:खमय है (अत: आपके लये रा करना ही उ चत है)॥ ७ ॥ ‘जैसे फलक इ ा रखनेवाले कसी पु षने एक वृ लगाया, उसे पाल-पोसकर बड़ा कया; फर उसके तने मोटे हो गये और वह ऐसा वशाल वृ हो गया क कसी नाटे कदके पु षके लये उसपर चढ़ना अ क ठन था। उस वृ म जब फू ल लग जायँ, उसके बाद भी य द वह फल न दखा सके तो जसके लये उस वृ को लगाया गया था, वह उ े पूरा न हो



सका। ऐसी तम उसे लगानेवाला पु ष उस स ताका अनुभव नह करता, जो फलक ा होनेसे स ा वत थी। महाबाहो ! यह एक उपमा है, इसका अथ आप यं समझ ल (अथात् पताजीने आप-जैसे सवस ण ु स पु को लोकर ाके लये उ कया था। य द आपने रा पालनका भार अपने हाथम नह लया तो उनका वह उ े थ हो जायगा)। इस रा पालनके अवसरपर आप े एवं भरण-पोषणम समथ होकर भी य द हम भृ का शासन नह करगे तो पूव उपमा ही आपके लये लागू होगी॥ ८—१० ॥ ‘महाराज! व भ जा तय के स और धान- धान पु ष आप श ुदमन नरेशको सब ओर तपते ए सूयक भाँ त रा सहासनपर वराजमान देख॥ ११ ॥ ‘ककु कु लभूषण! इस कार आपके अयो ाको लौटते समय मतवाले हाथी गजना कर और अ :पुरक याँ एका च होकर स ता-पूवक आपका अ भन न कर’॥ १२ ॥ इस कार ीरामसे रा - हणके लये ाथना करते ए भरतजीक बात सुनकर नगरके भ - भ मनु ने उसका भलीभाँ त अनुमोदन कया॥ १३ ॥ तब श त बु वाले अ धीर भगवान् ीरामने यश ी भरतको इस तरह दु:खी हो वलाप करते देख उ सा ना देते ए कहा—॥ १४ ॥ ‘भा◌इ! यह जीव ◌इ रके समान त नह है, अत: को◌इ यहाँ अपनी इ ाके अनुसार कु छ नह कर सकता। काल इस पु षको इधर-उधर ख चता रहता है॥ १५ ॥ ‘सम सं ह का अ वनाश है। लौ कक उ तय का अ पतन है। संयोगका अ वयोग है और जीवनका अ मरण है॥ १६ ॥ ‘जैसे पके ए फल को पतनके सवा और कसीसे भय नह है, उसी कार उ ए मनु को मृ ुके सवा और कसीसे भय नह है॥ १७ ॥ ‘जैसे सु ढ़ ख ेवाला मकान भी पुराना होनेपर गर जाता है, उसी कार मनु जरा और मृ ुके वशम पड़कर न हो जाते ह॥ १८ ॥ ‘जो रात बीत जाती है, वह लौटकर फर नह आती है। जैसे यमुना जलसे भरे ए समु क ओर जाती ही है, उधरसे लौटती नह ॥ १९ ॥ ‘ दन-रात लगातार बीत रहे ह और इस संसारम सभी ा णय क आयुका ती ग तसे नाश कर रहे ह। ठीक वैसे ही जैसे सूयक करण ी -ऋतुम जलको शी तापूवक सोखती



रहती ह॥ २० ॥ ‘तुम अपने ही लये च ा करो, दूसरेके लये बार-बार शोक करते हो। को◌इ इस लोकम त हो या अ गया हो, जस कसीक भी आयु तो नर र ीण ही हो रही है॥ २१ ॥ ‘मृ



ु साथ ही चलती है, साथ ही बैठती है और ब त बड़े मागक या ाम भी साथ ही जाकर वह मनु के साथ ही लौटती है॥ २२ ॥ ‘शरीरम ु रयाँ पड़ गय , सरके बाल सफे द हो गये। फर जराव ासे जीण आ मनु कौन-सा उपाय करके मृ ुसे बचनेके लये अपना भाव कट कर सकता है?॥ २३ ॥ ‘लोग सूय दय होनेपर स होते ह, सूया होनेपर भी खुश होते ह; कतु यह नह जानते क त दन अपने जीवनका नाश हो रहा है॥ २४ ॥ ‘ कसी ऋतुका ार देखकर मानो वह नयीनयी आयी हो (पहले कभी आयी ही न हो), ऐसा समझकर लोग हषसे खल उठते ह, परंतु यह नह जानते क इन ऋतु के प रवतनसे ा णय के ाण का (आयुका) मश: य हो रहा है॥ २५ ॥ ‘जैसे महासागरम बहते ए दो काठ कभी एक-दूसरेसे मल जाते ह और कु छ कालके बाद अलग भी हो जाते ह, उसी कार ी, पु , कु टु और धन भी मलकर बछु ड़ जाते ह; क इनका वयोग अव ावी है॥ २६-२७ ॥ ‘इस संसारम को◌इ भी ाणी यथासमय ा होनेवाले ज -मरणका उ न नह कर सकता। इस लये जो कसी मरे ए के लये बारंबार शोक करता है, उसम भी यह साम नह है क वह अपनी ही मृ ुको टाल सके ॥ २८ ॥ ‘जैसे आगे जाते ए या य अथवा ापा रय के समुदायसे रा ेम खड़ा आ प थक य कहे क म भी आप लोग के पीछे-पीछे आऊँ गा और तदनुसार वह उनके पीछे-पीछे जाय, उसी कार हमारे पूवज पता- पतामह आ द जस मागसे गये ह, जसपर जाना अ नवाय है तथा जससे बचनेका को◌इ उपाय नह है, उसी मागपर त आ मनु कसी औरके लये शोक कै से करे?॥ २९-३० ॥ ‘जैसे न दय का वाह पीछे नह लौटता, उसी कार दन- दन ढलती ◌इ अव ा फर नह लौटती है। उसका मश: नाश हो रहा है, यह सोचकर आ ाको क ाणके साधनभूत धमम लगावे; क सभी लोग अपना क ाण चाहते ह॥ ३१ ॥



‘तात! हमारे



पता धमा ा थे। उ ने पया द णाएँ देकर ाय: सभी परम शुभकारक य का अनु ान कया था। उनके सारे पाप धुल गये थे। अत: वे महाराज गलोकम गये ह॥ ३२ ॥ ‘वे भरण-पोषणके यो प रजन का भरण करते थे। जाजन का भलीभाँ त पालन करते थे और जाजन से धमके अनुसार कर आ दके पम धन लेते थे—इन सब कारण से हमारे पता उ म गलोकम पधारे ह॥ ३३ ॥ ‘सव य शुभ कम तथा चुर द णवाले य के अनु ान से हमारे पता पृ ीप त महाराज दशरथ गलोकम गये ह॥ ३४ ॥ ‘उ ने नाना कारके य ारा य पु षक आराधना क , चुर भोग ा कये और उ म आयु पायी थी, इसके बाद वे महाराज यहाँसे गलोकको पधारे ह॥ ‘तात! अ राजा क अपे ा उ म आयु और े भोग को पाकर हमारे पता सदा स ु ष के ारा स ा नत ए ह; अत: गवासी हो जानेपर भी वे शोक करनेयो नह ह॥ ३६ ॥ ‘हमारे पताने जराजीण मानव-शरीरका प र ाग करके दैवी स ा क है, जो लोकम वहार करानेवाली है॥ ३७ ॥ ‘को◌इ भी ऐसा व ान्, जो तु ारे और मेरे समान शा - ान-स एवं परम बु मान् है, पताजीके लये शोक नह कर सकता॥ ३८ ॥ ‘धीर एवं ावान् पु षको सभी अव ा म ये नाना कारके शोक, वलाप तथा रोदन ाग देने चा हये॥ ‘इस लये तुम हो जाओ, तु ारे मनम शोक नह होना चा हये। व ा मे े भरत! तुम यहाँसे जाकर अयो ापुरीम नवास करो; क मनको वशम रखनेवाले पू पताजीने तु ारे लये यही आदेश दया है॥ ४० ॥ ‘उन पु कमा महाराजने मुझे भी जहाँ रहनेक आ ा दी है, वह रहकर म उन पू पताके आदेशका पालन क ँ गा॥ ४१ ॥ ‘श ुदमन भरत! पताक आ ाक अवहेलना करना मेरे लये कदा प उ चत नह है। वे तु ारे लये भी सवदा स ानके यो ह; क वे ही हमलोग के हतैषी ब ु और ज दाता



थे॥ ४२ ॥ ‘रघुन न! म इस वनवास पी कमके ारा पताजीके ही वचनका जो धमा ा को भी मा है, पालन क ँ गा॥ ४३ ॥ ‘नर े ! परलोकपर वजय पानेक इ ा रखनेवाले मनु को धा मक, ू रतासे र हत और गु जन का आ ापालक होना चा हये॥ ४४ ॥ ‘मनु म े भरत! हमारे पू पता दशरथके शुभ आचरण पर पात करके तुम अपने धा मक भावके ारा आ ाक उ तके लये य करो’॥ सवश मान् महा ा ीराम एक मु ततक अपने छोटे भा◌इ भरतसे पताक आ ाका पालन करानेके उ े से ये अथयु वचन कहकर चुप हो गये॥ ४६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ पाँचवाँ सग पूरा आ॥ १०५॥



एक सौ छठाँ सग भरतक पुन: ीरामसे अयो ा लौटने और रा



हण करनेक



ाथना



ऐसा अथयु वचन कहकर जब ीराम चुप हो गये, तब धमा ा भरतने म ा कनीके तटपर जाव ल धमा ा ीरामसे यह व च बात कही— ‘श ुदमन रघुवीर! इस जग जैसे आप ह, वैसा दूसरा कौन हो सकता है?॥ १-२ ॥ ‘को◌इ भी दु:ख आपको थत नह कर सकता। कतनी ही य बात न हो, वह आपको हष ु नह कर सकती। वृ पु ष के स ाननीय होकर भी आप उनसे संदेहक बात पूछते ह॥ ३ ॥ ‘जैसे मरे ए जीवका अपने शरीर आ दसे को◌इ स नह रहता, उसी कार जीते-जी भी वह उनके स से र हत है। जैसे व ुके अभावम उसके त राग- ेष नह होता, वैसे ही उसके रहनेपर भी मनु को राग- ेषसे शू होना चा हये। जसे ऐसी ववेकयु बु ा हो गयी है, उसको संताप होगा?॥ ४ ॥ ‘नरे र! जसे आपके समान आ ा और अना ाका ान है, वही संकटम पड़नेपर भी वषाद नह कर सकता॥ ‘रघुन न! आप देवता क भाँ त स गुणसे स , महा ा, स त , सव , सबके सा ी और बु मान् ह॥ ६ ॥ ‘ऐसे उ म गुण से यु और ज -मरणके रह को जाननेवाले आपके पास अस दु:ख नह आ सकता॥ ७ ॥ ‘जब म परदेशम था, उस समय नीच वचार रखनेवाली मेरी माताने मेरे लये जो पाप कर डाला, वह मुझे अभी नह है; अत: आप उसे मा करके मुझपर स ह ॥ ८ ॥ ‘म धमके ब नम बँधा ँ , इस लये इस पाप करनेवाली एवं द नीय माताको म कठोर द देकर मार नह डालता॥ ९ ॥ ‘ जनके कु ल और कम दोन ही शुभ थे, उन महाराज दशरथसे उ होकर धम और अधमको जानता आ भी म मातृवध पी लोक न त कम कै से क ँ ?॥ १० ॥



‘महाराज मेरे गु ,



े य कम करनेवाले, बड़े-बूढ़,े राजा, पता और देवता रहे ह और इस समय परलोकवासी हो चुके ह, इसी लये इस भरी सभाम म उनक न ा नह करता ँ ॥ ११ ॥ ‘धम रघुन न! कौन ऐसा मनु है, जो धमको जानते ए भी ीका य करनेक इ ासे ऐसा धम और अथसे हीन कु त कम कर सकता है?॥ १२ ॥ ‘लोकम एक ाचीन कवद ी है क अ कालम सब ाणी मो हत हो जाते ह—उनक बु न हो जाती है। राजा दशरथने ऐसा कठोर कम करके उस कवद ीक स ताको कर दखाया॥ १३ ॥ ‘ पताजीने ोध, मोह और साहसके कारण ठीक समझ कर जो धमका उ न कया है, उसे आप पलट द—उसका संशोधन कर द॥ १४ ॥ ‘जो पु पताक क ◌इ भूलको ठीक कर देता है, वही लोकम उ म संतान माना गया है। जो इसके वपरीत बताव करता है, वह पताक े संत त नह है॥ १५ ॥ ‘अत: आप पताक यो संतान ही बने रह। उनके अनु चत कमका समथन न कर। उ ने इस समय जो कु छ कया है, वह धमक सीमासे बाहर है। संसारम धीर पु ष उसक न ा करते ह॥ १६ ॥ ‘कै के यी, म, पताजी, सु ण, ब -ु बा व, पुरवासी तथा रा क जा—इन सबक र ाके लये आप मेरी ाथना ीकार कर॥ १७ ॥ ‘कहाँ वनवास और कहाँ ा धम? कहाँ जटाधार ण और कहाँ जाका पालन? ऐसे पर र वरोधी कम आपको नह करने चा हये॥ १८ ॥ ‘महा ा ! यके लये पहला धम यही है क उसका रा पर अ भषेक हो, जससे वह जाका भलीभाँ त पालन कर सके ॥ १९ ॥ ‘भला कौन ऐसा य होगा, जो सुखके साधनभूत जापालन प धमका प र ाग करके संशयम त, सुखके ल णसे र हत, भ व म फल देनेवाले अ न त धमका आचरण करेगा?॥ २० ॥ ‘य द आप ेशसा धमका ही आचरण करना चाहते ह तो धमानुसार चार वण का पालन करते ए ही क उठाइये॥ २१ ॥



‘धम



रघुन न! धमके ाता पु ष चार आ म म गाह को ही े बतलाते ह, फर आप उसका प र ाग करना चाहते ह?॥ २२ ॥ ‘म शा ान और ज जात अव ा दोन ही य से आपक अपे ा बालक ँ , फर आपके रहते ए म वसुधाका पालन कै से क ँ गा?॥ २३ ॥ ‘म बु और गुण दोन से हीन ँ , बालक ँ तथा मेरा ान आपसे ब त छोटा है; अत: म आपके बना जीवन-धारण भी नह कर सकता, रा का पालन तो दूरक बात है॥ २४ ॥ ‘धम रघुन न! पताका यह सारा रा े और न क है, अत: आप ब -ु बा व के साथ धमानुसार इसका पालन क जये॥ २५ ॥ ‘म रघुवीर! म के ाता मह ष व स आ द सभी ऋ ज् तथा म ी, सेनाप त और जा आ द सारी कृ तयाँ यहाँ उप त ह। ये सब लोग यह आपका रा ा भषेक कर॥ २६ ॥ ‘हमलोग के



ारा अ भ ष होकर आप म ण से अ भ ष ए इ क भाँ त वेगपूवक सब लोक को जीतकर जाका पालन करनेके लये अयो ाको चल॥ ‘वहाँ देवता, ऋ ष और पतर का ऋण चुकाय, दु श ु का भलीभाँ त दमन कर तथा म को उनके इ ानुसार व ु ारा तृ करते ए आप ही अयो ाम मुझे धमक श ा देते रह॥ २८ ॥ ‘आय! आपका अ भषेक स होनेपर सु ण स ह और दु:ख देनेवाले आपके श ु भयभीत होकर दस दशा म भाग जायँ॥ २९ ॥ ‘पु ष वर! आज आप मेरी माताके कल को धो-प छकर पू पताजीको भी न ासे बचाइये॥ ३० ॥ ‘म आपके चरण म माथा टेककर याचना करता ँ । आप मुझपर दया क जये। जैसे महादेवजी सब ा णय पर अनु ह करते ह, उसी कार आप भी अपने ब ु-बा व पर कृ पा क जये॥ ३१ ॥ ‘अथवा य द आप मेरी ाथनाको ठु कराकर यहाँसे वनको ही जायँगे तो म भी आपके साथ जाऊँ गा’॥ ३२ ॥



ा नम पड़े ए भरतने मनो भराम राजा ीरामको उनके चरण म माथा टेककर स करनेक चे ा क तथा प उन स गुणस रघुनाथजीने पताक आ ाम ही ढ़तापूवक त रहकर अयो ा जानेका वचार नह कया॥ ३३ ॥ ीरामच जीक वह अ तु ढ़ता देखकर सब लोग एक ही साथ दु:खी भी ए और हषको भी ा ए। ये अयो ा नह जा रहे ह—यह सोचकर वे दु:खी ए और त ापालनम उनक ढ़ता देखकर उ हष आ॥ ३४ ॥ उस समय ऋ ज् पुरवासी, भ - भ समुदायके नेता और माताएँ अचेत-सी होकर आँ सू बहाती ◌इ पूव बात कहनेवाली भरतक भू र-भू र शंसा करने लग और सबने उनके साथ ही यो तानुसार ीरामजीके सामने वनीत होकर उनसे अयो ा लौट चलनेक याचना क ॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ छठाँ सग पूरा आ॥ १०६॥



एक सौ सातवाँ सग ीरामका भरतको समझाकर उ अयो ा जानेका आदेश देना



जब भरत पुन: इस कार ाथना करने लगे, तब कु टु ीजन के बीचम स ारपूवक बैठे ए ल णके बड़े भा◌इ ीमान् रामच जीने उ इस कार उ र दया—॥ १ ॥ ‘भा◌इ! तुम नृप े महाराज दशरथके ारा के कय-राजक ा माता कै के यीके गभसे उ ए हो; अत: तुमने जो ऐसे उ म वचन कहे ह, वे सवथा तु ारे यो ह॥ ‘भैया! आजसे ब त पहलेक बात है— पताजीका जब तु ारी माताजीके साथ ववाह आ था, तभी उ ने तु ारे नानासे कै के यीके पु को रा देनेक उ म शत कर ली थी॥ ३ ॥ ‘इसके बाद देवासुर-सं ामम तु ारी माताने भावशाली महाराजक बड़ी सेवा क ; इससे संतु होकर राजाने उ वरदान दया॥ ४ ॥ ‘उसीक पू तके लये त ा कराकर तु ारी े वणवाली यश नी माताने उन नर े पताजीसे दो वर माँगे॥ ५ ॥ ‘पु ष सह! एक वरके ारा इ ने तु ारे लये रा माँगा और दूसरेके ारा मेरा वनवास। इनसे इस कार े रत होकर राजाने वे दोन वर इ दे दये॥ ‘पु ष वर! इस कार उन पताजीने वरदानके पम मुझे चौदह वष तक वनवासक आ ा दी है॥ ‘यही कारण है क म सीता और ल णके साथ इस नजन वनम चला आया ँ । यहाँ मेरा को◌इ त ी नह है। म यहाँ पताजीके स क र ाम त र ँ गा॥ ‘राजे ! तुम भी उनक आ ा मानकर शी ही रा पदपर अपना अ भषेक करा लो और पताको स वादी बनाओ—यही तु ारे लये उ चत है॥ ९ ॥ ‘धम भरत! तुम मेरे लये पू पता राजा दशरथको कै के यीके ऋणसे मु करो, उ नरकम गरनेसे बचाओ और माताका भी आन बढ़ाओ॥ १० ॥ ‘तात! सुना जाता है क बु मान्, यश ी राजा गयने गय-देशम ही य करते ए पतर के त एक कहावत कही थी॥ ११ ॥



‘(वह इस



कार है—) बेटा पुत् नामक नरकसे पताका उ ार करता है, इस लये वह पु कहा गया है। वही पु है, जो पतर क सब ओरसे र ा करता है॥ ‘ब त-से गुणवान् और ब ुत पु क इ ा करनी चा हये। स व है क ा ए उन पु मसे को◌इ एक भी गयाक या ा करे?॥ १३ ॥ ‘रघुन न! नर े भरत! इस कार सभी राज षय ने पतर के उ ारका न य कया है, अत: भो! तुम भी अपने पताका नरकसे उ ार करो॥ १४ ॥ ‘वीर भरत! तुम श ु तथा सम ा ण को साथ लेकर अयो ाको लौट जाओ और जाको सुख दो॥ ‘वीर! अब म भी ल ण और सीताके साथ शी ही द कार म वेश क ँ गा॥ १६ ॥ ‘भरत! तुम यं मनु के राजा बनो और म जंगली पशु का स ाट् बनूँगा। अब तुम अ हषपूवक े नगर अयो ाको जाओ और म भी स तापूवक द कवनम वेश क ँ गा॥ १७ ॥ ‘भरत! सूयक भाको तरो हत कर देनेवाला छ तु ारे म कपर शीतल छाया करे। अब म भी धीरे-धीरे इन जंगली वृ क घनी छायाका आ य लूँगा॥ १८ ॥ ‘भरत! अतु लत बु वाले श ु तु ारी सहायताम रह और सु व ात सु म ाकु मार ल ण मेरे धान म (सहायक) ह; हम चार पु अपने पता राजा दशरथके स क र ा कर। तुम वषाद मत करो’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ सातवाँ सग पूरा आ॥ १०७॥



एक सौ आठवाँ सग जाबा लका ना



क के मतका अवल न करके ीरामको समझाना



जब धम ीरामच जी भरतको इस कार समझा-बुझा रहे थे, उसी समय ा ण शरोम ण जाबा लने उनसे यह धम व वचन कहा—॥ १ ॥ ‘रघुन न! आपने ठीक कहा, परंतु आप े बु वाले और तप ी ह; अत: आपको गँवार मनु क तरह ऐसा नरथक वचार मनम नह लाना चा हये॥ २ ॥ ‘संसारम कौन पु ष कसका ब ु है और कससे कसको ा पाना है? जीव अके ला ही ज लेता और अके ला ही न हो जाता है॥ ३ ॥ ‘अत: ीराम! जो मनु माता या पता समझकर कसीके त आस होता है, उसे पागलके समान समझना चा हये; क यहाँ को◌इ कसीका कु छ भी नह है॥ ४ ॥ ‘जैसे को◌इ मनु दूसरे गाँवको जाते समय बाहर कसी धमशालाम एक रातके लये ठहर जाता है और दूसरे दन उस ानको छोड़कर आगेके लये त हो जाता है, इसी कार पता, माता, घर और धन— ये मनु के आवासमा ह। ककु कु लभूषण! इनम स न पु ष आस नह होते ह॥ ५-६ ॥ ‘अत: नर े ! आपको पताका रा छोड़कर इस दु:खमय, नीचे-ऊँ चे तथा ब क काक ण वनके कु त मागपर नह चलना चा हये॥ ७ ॥ ‘आप समृ शा लनी अयो ाम राजाके पदपर अपना अ भषेक कराइये। वह नगरी ो षतभतृका नारीक भाँ त एक वेणी धारण करके आपक ती ा करती है॥ ८ ॥ ‘राजकु मार! जैसे देवराज इ गम वहार करते ह, उसी कार आप ब मू राजभोग का उपभोग करते ए अयो ाम वहार क जये॥ ९ ॥ ‘राजा दशरथ आपके को◌इ नह थे और आप भी उनके को◌इ नह ह। राजा दूसरे थे और आप भी दूसरे ह; इस लये म जो कहता ँ , वही क जये॥ १० ॥ ‘ पता जीवके ज म न म कारणमा होता है। वा वम ऋतुमती माताके ारा गभम धारण कये ए वीय और रजका पर र संयोग होनेपर ही पु षका यहाँ ज होता है॥ ११ ॥



तो



‘राजाको जहाँ जाना था, वहाँ चले गये। यह थ ही मारे जाते (क उठाते) ह॥ १२ ॥ ‘जो-जो मनु ा करता ँ , दूसर के



ा णय के लये ाभा वक



त है। आप



ए अथका प र ाग करके धमपरायण ए ह, उ -उ के लये म लये नह । वे इस जग धमके नामपर के वल दु:ख भोगकर मृ ुके



शोक प ात् न हो गये ह॥ ‘अ का आ द जतने ा ह, उनके देवता पतर ह— ा का दान पतर को मलता है। यही सोचकर लोग ा म वृ होते ह; क ु वचार करके दे खये तो इसम अ का नाश ही होता है। भला, मरा आ मनु ा खायेगा॥ १४ ॥ ‘य द यहाँ दूसरेका खाया आ अ दूसरेके शरीरम चला जाता हो तो परदेशम जानेवाल के लये ा ही कर देना चा हये; उनको रा ेके लये भोजन देना उ चत नह है॥ १५ ॥ ‘देवता घर- ार



के लये य और पूजन करो, दान दो, य क दी ा हण करो, तप ा करो और छोड़कर सं ासी बन जाओ इ ा द बात बतानेवाले बु मान् मनु ने दानक ओर लोग क वृ करानेके लये ही बनाये ह॥ १६ ॥ ‘अत: महामते! आप अपने मनम यह न य क जये क इस लोकके सवा को◌इ दूसरा लोक नह है (अत: वहाँ फल भोगनेके लये धम आ दके पालनक आव कता नह है)। जो रा लाभ है, उसका आ य ली जये, परो (पारलौ कक लाभ) को पीछे ढके ल दी जये॥ १७ ॥ ‘स ु ष क बु , जो सब लोग के लये राह दखानेवाली होनेके कारण माणभूत है, आगे करके भरतके अनुरोधसे आप अयो ाका रा हण क जये’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ आठवाँ सग पूरा आ॥ १०८॥



एक सौ नौवाँ सग ीरामके ारा जाबा लके ना



क मतका ख



न करके आ



क मतका



ापन



जाबा लका यह वचन सुनकर स परा मी ीरामच जीने अपनी संशयर हत बु के ारा ु तस त सदु का आ य लेकर कहा—॥ १ ॥ ‘ व वर! आपने मेरा य करनेक इ ासे यहाँ जो बात कही है, वह कत -सी दखायी देती है; कतु वा वम करनेयो नह है। वह प -सी दीखनेपर भी वा वम अप है॥ २ ॥ ‘जो पु ष धम अथवा वेदक मयादाको ाग देता है, वह पापकमम वृ हो जाता है। उसके आचार और वचार दोन हो जाते ह; इस लये वह स ु ष म कभी स ान नह पाता है॥ ३ ॥ ‘आचार ही यह बताता है क कौन पु ष उ म कु लम उ आ है और कौन अधम कु लम, कौन वीर है और कौन थ ही अपनेको पु ष मानता है तथा कौन प व है और कौन अप व ?॥ ४ ॥ ‘आपने जो आचार बताया है, उसे अपनानेवाला पु ष े -सा दखायी देनेपर भी वा वम अनाय होगा। बाहरसे प व दीखनेपर भी भीतरसे अप व होगा। उ म ल ण से यु -सा तीत होनेपर भी वा वम उसके वपरीत होगा तथा शीलवान्-सा दीखनेपर भी व ुत: वह दु:शील ही होगा॥ ५ ॥ ‘आपका उपदेश चोला तो धमका पहने ए है, कतु वा वम अधम है। इससे संसारम वण-संकरताका चार होगा। य द म इसे ीकार करके वेदो शुभकम का अनु ान छोड़ दूँ और व धहीन कम म लग जाऊँ तो कत -अकत का ान रखनेवाला कौन समझदार मनु मुझे े समझकर आदर देगा? उस दशाम तो म इस जग दुराचारी तथा लोकको कल त करनेवाला समझा जाऊँ गा॥ ६-७ ॥ ‘जहाँ अपनी क ◌इ त ा तोड़ दी जाती है, उस वृ के अनुसार बताव करनेपर म कस साधनसे गलोक ा क ँ गा तथा आपने जस आचारका उपदेश दया है, वह कसका है, जसका मुझे अनुसरण करना होगा; क आपके कथनानुसार म पता आ दमसे कसीका कु छ भी नह ँ ॥ ८ ॥



‘आपके



बताये ए मागसे चलनेपर पहले तो म े ाचारी ँ गा। फर यह सारा लोक े ाचारी हो जायगा; क राजा के जैसे आचरण होते ह, जा भी वैसा ही आचरण करने लगती है॥ ९ ॥ ‘स का पालन ही राजा का दया धान धम है— सनातन आचार है, अत: रा स प है। स म ही स ूण लोक त त है॥ १० ॥ ‘ऋ षय और देवता ने सदा स का ही आदर कया है। इस लोकम स वादी मनु अ य परम धामम जाता है॥ ११ ॥ ‘झूठ बोलनेवाले मनु से सब लोग उसी तरह डरते ह, जैसे साँपसे। संसारम स ही धमक पराका ा है और वही सबका मूल कहा जाता है॥ १२ ॥ ‘जग स ही ◌इ र है। सदा स के ही आधारपर धमक त रहती है। स ही सबक जड़ है। स से बढ़कर दूसरा को◌इ परम पद नह है॥ १३ ॥ ‘दान, य , होम, तप ा और वेद—इन सबका आधार स ही है; इस लये सबको स परायण होना चा हये॥ १४ ॥ ‘एक मनु स ूण जग ा पालन करता है, एक समूचे कु लका पालन करता है, एक नरकम डू बता है और एक गलोकम त त होता है॥ १५ ॥ ‘म स त ँ और स क शपथ खाकर पताके स का पालन ीकार कर चुका ँ , ऐसी दशाम म पताके आदेशका कस लये पालन नह क ँ ?॥ १६ ॥ ‘पहले स पालनक त ा करके अब लोभ, मोह अथवा अ ानसे ववेकशू होकर म पताके स क मयादा भ नह क ँ गा॥ १७ ॥ ‘हमने सुना है क जो अपनी त ा झूठी करनेके कारण धमसे हो जाता है, उस च ल च वाले पु षके दये ए ह -क को देवता और पतर नह ीकार करते ह॥ १८ ॥ ‘म इस स पी धमको सम ा णय के लये हतकर और सब धम म े समझता ँ । स ु ष ने जटा-व ल आ दके धारण प तापस धमका पालन कया है, इस लये म भी उसका अ भन न करता ँ ॥ ‘जो धमयु तीत हो रहा है, कतु वा वम अधम प है, जसका नीच, ू र, लोभी और पापाचारी पु ष ने सेवन कया है, ऐसे ा धमका ( पताक आ ा भ करके रा हण



करनेका) म अव ाग क ँ गा ( क वह ाययु नह है)॥ २० ॥ ‘मनु अपने शरीरसे जो पाप करता है, उसे पहले मनके ारा कत पसे न त करता है। फर ज ाक सहायतासे उस अनृत कम (पाप) को वाणी ारा दूसर से कहता है, त ात् और के सहयोगसे उसे शरीर ारा स करता है। इस तरह एक ही पातक का यक, वा चक और मान सक भेदसे तीन कारका होता है॥ २१ ॥ ‘पृ ी, क त, यश और ल ी—ये सब-क -सब स वादी पु षको पानेक इ ा रखती ह और श पु ष स का ही अनुसरण करते ह, अत: मनु को सदा स का ही सेवन करना चा हये॥ २२ ॥ ‘आपने उ चत स करके तकपूण वचन के ारा मुझसे जो यह कहा है क रा हण करनेम ही क ाण है; अत: इसे अव ीकार करो। आपका यह आदेश े -सा तीत होनेपर भी स न पु ष ारा आचरणम लानेयो नह है ( क इसे ीकार करनेसे स और ायका उ न होता है)॥ २३ ॥ ‘म पताजीके सामने इस तरह वनम रहनेक त ा कर चुका ँ । अब उनक आ ाका उ न करके म भरतक बात कै से मान लूँगा॥ २४ ॥ ‘गु के समीप क ◌इ मेरी वह त ा अटल है— कसी तरह तोड़ी नह जा सकती। उस समय जब क मने त ा क थी, देवी कै के यीका दय हषसे खल उठा था॥ २५ ॥ ‘म वनम ही रहकर बाहर-भीतरसे प व हो नय मत भोजन क ँ गा और प व फल, मूल एवं पु ारा देवता और पतर को तृ करता आ त ाका पालन क ँ गा॥ २६ ॥ ‘ ा करना चा हये और ा नह , इसका न य म कर चुका ँ । अत: फल-मूल आ दसे पाँच इ य को संतु करके न ल, ापूवक लोकया ा ( पताक आ ाके पालन प वहार) का नवाह क ँ गा॥ २७ ॥ ‘इस कमभू मको पाकर जो शुभ कम हो, उसका अनु ान करना चा हये; कअ , वायु तथा सोम भी कम के ही फलसे उन-उन पद के भागी ए ह॥ ‘देवराज इ सौ य का अनु ान करके गलोकको ा ए ह। मह षय ने भी उ तप ा करके द लोक म ान ा कया है’॥ २९ ॥



उ तेज ी राजकु मार ीराम परलोकक स ाका ख न करनेवाले जाबा लके पूव वचन को सुनकर उ सहन न कर सकनेके कारण उन वचन क न ा करते ए पुन: उनसे बोले —॥ ३० ॥ ‘स , धम, परा म, सम ा णय पर दया, सबसे य वचन बोलना तथा देवता , अ त थय और ा ण क पूजा करना—इन सबको साधु पु ष ने गलोकका माग बताया है॥ ३१ ॥ ‘स ु ष के इस वचनके अनुसार धमका प जानकर तथा अनुकूल तकसे उसका यथाथ नणय करके एक न यपर प ँ चे ए सावधान ा ण भलीभाँ त धमाचरण करते ए उन-उन उ म लोक को ा करना चाहते ह॥ ३२ ॥ ‘आपक बु वषम-मागम त है—आपने वेद- व मागका आ य ले रखा है। आप घोर ना क और धमके रा ेसे कोस दूर ह। ऐसी पाख मयी बु के ारा अनु चत वचारका चार करनेवाले आपको मेरे पताजीने जो अपना याजक बना लया, उनके इस कायक म न ा करता ँ ॥ ३३ ॥ ‘जैसे चोर द नीय होता है, उसी कार (वेद वरोधी) बु (बौ मतावल ी) भी द नीय है। तथागत (ना क वशेष) और ना क (चावाक) को भी यहाँ इसी को टम समझना चा हये। इस लये जापर अनु ह करनेके लये राजा ारा जस ना कको द दलाया जा सके , उसे तो चोरके समान द दलाया ही जाय; परंतु जो वशके बाहर हो, उस ना कके त व ान् ा ण कभी उ ुख न हो— उससे वातालापतक न करे॥ ३४ ॥ ‘आपके सवा पहलेके े ा ण ने इहलोक और परलोकक फल-कामनाका प र ाग करके वेदो धम समझकर सदा ही ब त-से शुभकम का अनु ान कया है। अत: जो भी ा ण ह, वे वेद को ही माण मानकर (अ हसा और स आ द), कृ त (तप, दान और परोपकार आ द) तथा त (य या ग आ द) कम का स ादन करते ह॥ ३५ ॥ ‘जो धमम त र रहते ह, स ु ष का साथ करते ह, तेजसे स ह, जनम दान पी गुणक धानता है, जो कभी कसी ाणीक हसा नह करते तथा जो मलसंसगसे र हत ह, ऐसे े मु न ही संसारम पूजनीय होते ह’॥ ३६ ॥ महा ा ीराम भावसे ही दै भावसे र हत थे। उ ने जब रोषपूवक पूव बात कही, तब ा ण जाबा लने वनयपूवक यह आ कतापूण स एवं हतकर वचन कहा—॥



३७ ॥



‘रघुन न! न तो म ना क ँ नह है, ऐसा मेरा मत नह है।



और न ना क क बात ही करता ँ । परलोक आ द कु छ भी म अवसर देखकर फर आ क हो गया और लौ कक वहारके समय आव कता होनेपर पुन: ना क हो सकता ँ —ना क क -सी बात कर सकता ँ ॥ ३८ ॥ ‘इस समय ऐसा अवसर आ गया था, जससे मने धीरे-धीरे ना क क -सी बात कह डाल । ीराम! मने जो यह बात कही, इसम मेरा उ े यही था क कसी तरह आपको राजी करके अयो ा लौटनेके लये तैयार कर लू’ँ ॥ ३९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ नौवाँ सग पूरा आ॥ १०९॥



एक सौ दसवाँ सग व स जीका सृ पर राके साथ इ ाकुकुलक पर रा बताकर े के ही रा ा भषेकका औ च स करना और ीरामसे रा हण करनेके लये कहना



ीरामच जीको जानकर मह ष व स जीने उनसे कहा—‘रघुन न! मह ष जाबा ल भी यह जानते ह क इस लोकके ा णय का परलोकम जाना और आना होता रहता है (अत: ये ना क नह ह)॥ १ ॥ ‘जगदी र! इस समय तु लौटानेक इ ासे ही इ ने यह ना कतापूण बात कही थी। तुम मुझसे इस लोकक उ का वृ ा सुनो॥ २ ॥ ‘सृ के ार कालम सब कु छ जलमय ही था। उस जलके भीतर ही पृ ीका नमाण आ। तदन र देवता के साथ यंभू ा कट ए॥ ३ ॥ ‘इसके बाद उन भगवान् व ु प ाने ही वराह पसे कट होकर जलके भीतरसे इस पृ ीको नकाला और अपने कृ ता ा पु के साथ इस स ूण जग सृ क ॥ ४ ॥ ‘आकाश प पर परमा ासे ाजीका ादुभाव आ है, जो न , सनातन एवं अ वनाशी ह। उनसे मरी च उ ए और मरी चके पु क प ए॥ ‘क पसे वव ा ा ज आ। वव ा े पु सा ात् वैव त मनु ए, जो पहले जाप त थे। मनुके पु इ ाकु ए॥ ६ ॥ ‘ ज मनुने सबसे पहले इस पृ ीका समृ शाली रा स पा था, उन राजा इ ाकु को तुम अयो ाका थम राजा समझो॥ ७ ॥ ‘इ ाकु के पु ीमान् कु के नामसे व ात ए। कु के वीर पु वकु ए॥ ८ ॥ ‘ वकु



के महातेज ी तापी पु बाण ए। बाणके महाबा पु अनर ए, जो बड़े भारी तप ी थे॥ ‘स ु ष म े महाराज अनर के रा म कभी अनावृ नह ◌इ, अकाल नह पड़ा और को◌इ चोर भी नह उ आ॥ १० ॥



‘महाराज! अनर



से राजा पृथु ए। उन पृथुसे महातेज ी शंकुक उ



◌इ॥ ११



॥ ‘वे



वीर शंकु व ा म के स वचनके भावसे सदेह गलोकको चले गये थे। शंकुके महायश ी धु ुमार ए॥ १२ ॥ ‘धु ुमारसे महातेज ी युवना का ज आ। युवना के पु ीमान् मा ाता ए॥ १३ ॥



मा ाताके महान् तेज ी पु सुसं ध ए। सुसं धके दो पु ए— ुवसं ध और सेन जत्॥ १४ ॥ ‘ ुवसं धके यश ी पु श ुसूदन भरत थे। महाबा भरतसे अ सत नामक पु उ आ॥ १५ ॥ ‘ जसके श ुभूत तप ी राजा ये हैहय, तालजंघ और शूर शश ब ु उ ए थे॥ १६ ॥ ‘उन



सबका सामना करनेके लये सेनाका ूह बनाकर यु के लये डटे रहनेपर भी श ु क सं ा अ धक होनेके कारण राजा अ सतको हारकर परदेशक शरण लेनी पड़ी। वे रमणीय शैल- शखरपर स तापूवक रहकर मु नभावसे परमा ाका मनन- च न करने लगे॥ ‘सुना जाता है क अ सतक दो प याँ गभवती थ । उनमसे एक महाभागा कमललोचना राजप ीने उ म पु पानेक अ भलाषा रखकर देवतु तेज ी भृगुवंशी वन मु नके चरण म व ना क और दूसरी रानीने अपनी सौतके गभका वनाश करनेके लये उसे जहर दे दया॥ ‘उन दन भृगुवंशी वन मु न हमालयपर रहते थे। राजा अ सतक का ल ी नामवाली प ीने ऋ षके चरण म प ँ चकर उ णाम कया॥ २० ॥ ‘मु नने स होकर पु क उ के लये वरदान चाहनेवाली रानीसे इस कार कहा —‘दे व! तु एक महामन ी लोक व ात पु ा होगा, जो धमा ा, श ु के लये अ भयंकर, अपने वंशको चलानेवाला और श ु का संहारक होगा’॥ २१ १/२ ॥ ‘यह सुनकर रानीने मु नक प र मा क और उनसे वदा लेकर वहाँसे अपने घर आनेपर उस रानीने एक पु को ज दया, जसक का कमलके भीतरी भागके समान सु र थी और



ने कमलदलके समान मनोहर थे॥ २२-२३ ॥ ‘सौतने उसके गभको न करनेके लये जो गर ( वष) दया था, उस गरके साथ ही वह बालक कट आ; इस लये सगर नामसे स आ॥ २४ ॥ ‘राजा सगर वे ही ह, ज ने पवके दन य क दी ा हण करके खुदा◌इके वेगसे इन सम जा को भयभीत करते ए अपने पु ारा समु को खुदवाया था॥ ‘हमारे सुननेम आया है क सगरके पु असम ए, ज पापकमम वृ होनेके कारण पताने जीते-जी ही रा से नकाल दया था॥ २६ ॥ ‘असम के पु अंशुमान् ए, जो बड़े परा मी थे। अंशुमा े दलीप और दलीपके पु भगीरथ ए॥ २७ ॥ ‘भगीरथसे ककु का ज आ, जनसे उनके वंशवाले ‘काकु ’ कहलाते ह। ककु के पु रघु ए, जनसे उस वंशके लोग ‘राघव’ कहलाये॥ २८ ॥ ‘रघुके तेज ी पु क ाषपाद ए, जो बड़े होनेपर शापवश कु छ वष के लये नरभ ी रा स हो गये थे। वे इस पृ ीपर सौदास नामसे व ात थे॥ ‘क ाषपादके पु श ण ए, यह हमारे सुननेम आया है, जो यु म सु स परा म ा करके भी सेनास हत न हो गये थे॥ ३० ॥ ‘श णके शूरवीर पु ीमान् सुदशन ए। सुदशनके पु अ वण और अ वणके पु शी ग थे॥ ‘शी गके पु म , म के पु शु ुव तथा शु ुवके महाबु मान् पु अ रीष ए॥ ३२ ॥ ‘अ रीषके पु स परा मी न ष थे। न षके पु नाभाग ए, जो बड़े धमा ा थे॥ ३३ ॥ ‘नाभागके



दो पु ए—अज और सु त। अजके धमा ा पु राजा दशरथ थे॥ ३४ ॥ ‘दशरथके े पु तुम हो, जसक ‘ ीराम’ के नामसे स है। नरे र! यह अयो ाका रा तु ारा है, इसे हण करो और इसक देखभाल करते रहो॥ ३५ ॥ ‘सम इ ाकु वं शय के यहाँ े पु ही राजा होता आया है। े के होते ए छोटा पु राजा नह होता है। े पु का ही राजाके पदपर अ भषेक होता है॥ ३६ ॥



‘महायश



ी ीराम! रघुवं शय का जो अपना सनातन कु लधम है, उसको आज तुम न न करो। ब त-से अवा र देश वाली तथा चुर र रा शसे स इस वसुधाका पताक भाँ त पालन करो’॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ दसवाँ सग पूरा आ॥ ११०॥



एक सौ



ारहवाँ सग



व स जीके समझानेपर भी ीरामको पताक आ ाके पालनसे वरत होते न देख भरतका धरना देनेको तैयार होना तथा ीरामका उ समझाकर अयो ा लौटनेक आ ा देना



उस समय राजपुरो हत व स ने पूव बात कहकर पुन: ीरामसे दूसरी धमयु बात कह —॥ १ ॥ ‘रघुन न! ककु कु लभूषण! इस संसारम उ ए पु षके सदा तीन गु होते ह— आचाय, पता और माता॥ २ ॥ ‘पु ष वर! पता पु षके शरीरको उ करता है, इस लये गु है और आचाय उसे ान देता है, इस लये गु कहलाता है॥ ३ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले रघुवीर! म तु ारे पताका और तु ारा भी आचाय ँ ; अत: मेरी आ ाका पालन करनेसे तुम स ु ष के पथका ाग करनेवाले नह समझे जाओगे॥ ४ ॥ ‘तात! ये तु ारे सभासद,् ब ु-बा व तथा साम राजा पधारे ए ह, इनके त धमानुकूल बताव करनेसे भी तु ारे ारा स ागका उ न नह होगा॥ ५ ॥ ‘अपनी धमपरायणा बूढ़ी माताक बात तो तु कभी टालनी ही नह चा हये। इनक आ ाका पालन करके तुम े पु ष के आ यभूत धमका उ न करनेवाले नह माने जाओगे॥ ६ ॥ ‘स , धम और परा मसे स रघुन न! भरत अपने आ प तुमसे रा हण करने और अयो ा लौटनेक ाथना कर रहे ह, उनक बात मान लेनेसे भी तुम धमका उ न करनेवाले नह कहलाओगे’॥ गु व स ने सुमधुर वचन म जब इस कार कहा, तब सा ात् पु षो म ीराघवे ने वहाँ बैठे ए व स जीको य उ र दया॥ ८ ॥ ‘माता और पता पु के त जो सवदा ेहपूण बताव करते ह, अपनी श के अनुसार उ म खा पदाथ देने, अ े बछौनेपर सुलाने, उबटन आ द लगाने, सदा मीठी बात बोलने तथा पालन-पोषण करने आ दके ारा माता और पताने जो उपकार कया है, उसका बदला सहज ही नह चुकाया जा सकता॥



११ ॥



‘अत: मेरे ज



दाता पता महाराज दशरथने मुझे जो आ ा दी है, वह म ा नह होगी’॥



ीरामच जीके ऐसा कहनेपर चौड़ी छातीवाले भरतजीका मन ब त उदास हो गया। वे पास ही बैठे ए सूत सुम से बोले—॥ १२ ॥ ‘सारथे! आप इस वेदीपर शी ही ब त-से कु श बछा दी जये। जबतक आय मुझपर स नह ह गे, तबतक म यह इनके पास धरना दूँगा। जैसे सा कार या महाजनके ारा नधन कया आ ा ण उसके घरके दरवाजेपर मुँह ढककर बना खाये- पये पड़ा रहता है, उसी कार म भी उपवासपूवक मुखपर आवरण डालकर इस कु टयाके सामने लेट जाऊँ गा। जबतक मेरी बात मानकर ये अयो ाको नह लौटगे, तबतक म इसी तरह पड़ा र ँ गा’॥ १३-१४ ॥ यह सुनकर सुम ीरामच जीका मुँह ताकने लगे। उ इस अव ाम देख भरतके मनम बड़ा दु:ख आ और वे यं ही कु शक चटा◌इ बछाकर जमीनपर बैठ गये॥ १५ ॥ तब महातेज ी राज ष शरोम ण ीरामने उनसे कहा— ‘तात भरत! म तु ारी ा बुरा◌इ करता ँ , जो मेरे आगे धरना दोगे?॥ १६ ॥ ‘ ा ण एक करवटसे सोकर—धरना देकर मनु को अ ायसे रोक सकता है, परंतु राज तलक हण करनेवाले य के लये इस कार धरना देनेका वधान नह है॥ १७ ॥ ‘अत: नर े रघुन न! इस कठोर तका प र ाग करके उठो और यहाँसे शी ही अयो ापुरीको जाओ’॥ यह सुनकर भरत वहाँ बैठे-बैठे ही सब ओर डालकर नगर और जनपदके लोग से बोले —‘आपलोग भैयाको नह समझाते ह?’॥ १९ ॥ तब नगर और जनपदके लोग महा ा भरतसे बोले—‘हम जानते ह, काकु ीरामच जीके त आप रघुकुल तलक भरतजी ठीक ही कहते ह॥ २० ॥ ‘परंतु ये महाभाग ीरामच जी भी पताक आ ाके पालनम लगे ह, इस लये यह भी ठीक ही है। अतएव हम इ सहसा उस ओरसे लौटानेम असमथ ह’॥ २१ ॥ उन पुरवा सय के वचनका ता य समझकर ीरामने भरतसे कहा—‘भरत! धमपर रखनेवाले सु द के इस कथनको सुनो और समझो॥ २२ ॥



‘रघुन न! मेरी और इनक दोन बात को महाबाहो! अब शी उठो तथा मेरा और जलका



सुनकर उनपर स क् पसे वचार करो। श करो’॥ २३ ॥ यह सुनकर भरत उठकर खड़े हो गये और ीराम एवं जलका श करके बोले—‘मेरे सभासद् और म ी सब लोग सुन—न तो मने पताजीसे रा माँगा था और न मातासे ही कभी इसके लये कु छ कहा था। साथ ही, परम धम ीरामच जीके वनवासम भी मेरी को◌इ स त नह है॥ २४-२५ ॥ ‘ फर भी य द इनके लये पताजीक आ ाका पालन करना और वनम रहना अ नवाय है तो इनके बदले म ही चौदह वष तक वनम नवास क ँ गा’॥ २६ ॥ भा◌इ भरतक इस स बातसे धमा ा ीरामको बड़ा व य आ और उ ने पुरवासी तथा रा नवासी लोग क ओर देखकर कहा—॥ २७ ॥ ‘ पताजीने अपने जीवनकालम जो व ु बच दी है, या धरोहर रख दी है, अथवा खरीदी है, उसे म अथवा भरत को◌इ भी पलट नह सकता॥ २८ ॥ ‘मुझे वनवासके लये कसीको त न ध नह बनाना चा हये; क साम रहते ए त न धसे काम लेना लोकम न त है। कै के यीने उ चत माँग ही ुत क थी और मेरे पताजीने उसे देकर पु कम ही कया था॥ २९ ॥ ‘म जानता ँ , भरत बड़े माशील और गु जन का स ार करनेवाले ह, इन स त महा ाम सभी क ाणकारी गुण मौजूद ह॥ ३० ॥ ‘चौदह वष क अव ध पूरी करके जब म वनसे लौटूँगा, तब अपने इन धमशील भा◌इके साथ इस भूम लका े राजा होऊँ गा॥ ३१ ॥ ‘कै के यीने राजासे वर माँगा और मने उसका पालन ीकार कर लया, अत: भरत! अब तुम मेरा कहना मानकर उस वरके पालन ारा अपने पता महाराज दशरथको अस के ब नसे मु करो’॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ ारहवाँ सग पूरा आ॥ १११॥



एक सौ बारहवाँ सग ऋ षय का भरतको ीरामक आ ाके अनुसार लौट जानेक सलाह देना, भरतका पुन: ीरामके चरण म गरकर चलनेक ाथना करना, ीरामका उ समझाकर अपनी चरणपादक ु ा देकर उन सबको वदा करना



उन अनुपम तेज ी ाता का वह रोमा कारी समागम देख वहाँ आये ए मह षय को बड़ा व य आ॥ १ ॥ अ र म अ भावसे खड़े ए मु न तथा वहाँ पम बैठे ए मह ष उन महान् भा शाली ककु वंशी ब ु क इस कार शंसा करने लगे—॥ २ ॥ ‘ये दोन राजकु मार सदा े , धमके ाता और धममागपर ही चलनेवाले ह। इन दोन क बातचीत सुनकर हम उसे बारंबार सुनते रहनेक ही इ ा होती है’॥ ३ ॥ तदन र दश ीव रावणके वधक अ भलाषा रखनेवाले ऋ षय ने मलकर राज सह भरतसे तुरंत ही यह बात कही—॥ ४ ॥ ‘महा ा ! तुम उ म कु लम उ ए हो। तु ारा आचरण ब त उ म और यश महान् है। य द तुम अपने पताक ओर देखो—उ सुख प ँ चाना चाहो तो तु ीरामच जीक बात मान लेनी चा हये॥ ५ ॥ ‘हमलोग इन ीरामको पताके ऋणसे सदा उऋण देखना चाहते ह। कै के यीका ऋण चुका देनेके कारण ही राजा दशरथ गम प ँ चे ह’॥ ६ ॥ इतना कहकर वहाँ आये ए ग व, मह ष और राज ष सब अपने-अपने ानको चले गये॥ ७ ॥ जनके दशनसे जग ा क ाण हो जाता है, वे भगवान् ीराम मह षय के वचनसे ब त स ए। उनका मुख हष ाससे खल उठा, इससे उनक बड़ी शोभा ◌इ और उ ने उन मह षय क सादर शंसा क ॥ ८ ॥ परंतु भरतका सारा शरीर थरा उठा। वे लड़खड़ाती ◌इ जबानसे हाथ जोड़कर ीरामच जीसे बोले—॥ ९ ॥



‘ककु



कु लभूषण ीराम! हमारे कु लधमसे स रखनेवाला जो े पु का रा हण और जापालन प धम है, उसक ओर डालकर आप मेरी तथा माताक याचना सफल क जये॥ १० ॥ ‘म अके ला ही इस वशाल रा क र ा नह कर सकता तथा आपके चरण म अनुराग रखनेवाले इन पुरवासी तथा जनपदवासी लोग को भी आपके बना स नह रख सकता॥ ११ ॥ ‘जैसे



कसान मेघक ती ा करते रहते ह, उसी कार हमारे ब -ु बा व, यो ा, म और सु द् सब लोग आपक ही बाट जोहते ह॥ १२ ॥ ‘महा ा ! आप इस रा को ीकार करके दूसरे कसीको इसके पालनका भार स प दी जये। वही पु ष आपके जावग अथवा लोकका पालन करनेम समथ हो सकता है’॥ १३ ॥ ऐसा कहकर भरत अपने भा◌इके चरण पर गर पड़े। उस समय उ ने ीरघुनाथजीसे अ य वचन बोलकर उनसे रा हण करनेके लये बड़ी ाथना क ॥ तब ीरामच जीने ामवण कमलनयन भा◌इ भरतको उठाकर गोदम बठा लया और मदम हंसके समान मधुर रम यं यह बात कही—॥ १५ ॥ ‘तात! तु जो यह ाभा वक वनयशील बु ा ◌इ है इस बु के ारा तुम सम भूम लक र ा करनेम भी पूण पसे समथ हो सकते हो॥ १६ ॥ ‘इसके सवा अमा , सु द और बु मान् म य से सलाह लेकर उनके ारा सब काय, वे कतने ही बड़े न ह , करा लया करो॥ १७ ॥ ‘च मासे उसक भा अलग हो जाय, हमालय हमका प र ाग कर दे, अथवा समु अपनी सीमाको लाँघकर आगे बढ़ जाय, कतु म पताक त ा नह तोड़ सकता॥ १८ ॥ ‘तात! माता कै के यीने कामनासे अथवा लोभवश तु ारे लये जो कु छ कया है, उसको मनम न लाना और उसके त सदा वैसा ही बताव करना जैसा अपनी पूजनीया माताके त करना उ चत है’॥ १९ ॥ जो सूयके समान तेज ी ह तथा जनका दशन तपदा ( तीया) के च माक भाँ त आ ादजनक है, उन कौस ान न ीरामके इस कार कहनेपर भरत उनसे य बोले—॥ २० ॥



‘आय!



ये दो सुवणभू षत पादुकाएँ आपके चरण म अ पत ह, आप इनपर अपने चरण रख। ये ही स ूण जग े योग ेमका नवाह करगी’॥ २१ ॥ तब महातेज ी पु ष सह ीरामने उन पादुका पर चढ़कर उ फर अलग कर दया और महा ा भरतको स प दया॥ २२ ॥ उन पादुका को णाम करके भरतने ीरामसे कहा—‘वीर रघुन न! म भी चौदह वष तक जटा और चीर धारण करके फल-मूलका भोजन करता आ आपके आगमनक ती ाम नगरसे बाहर ही र ँ गा। परंतप! इतने दन तक रा का सारा भार आपक इन चरणपादुका पर ही रखकर म आपक बाट जोहता र ँ गा॥ ‘रघुकुल शरोमणे! य द चौदहवाँ वष पूण होनेपर नूतन वषके थम दन ही मुझे आपका दशन नह मलेगा तो म जलती ◌इ आगम वेश कर जाऊँ गा’॥ ीरामच जीने ‘ब त अ ा’ कहकर ीकृ त दे दी और बड़े आदरके साथ भरतको दयसे लगाया। त ात् श ु को भी छातीसे लगाकर यह बात कही— ‘रघुन न! म तु अपनी और सीताक शपथ दलाकर कहता ँ क तुम माता कै के यीक र ा करना, उनके त कभी ोध न करना’—इतना कहते-कहते उनक आँ ख म आँ सू उमड़ आये। उ ने थत दयसे भा◌इ श ु को वदा कया॥ २७-२८ ॥ धम भरतने भलीभाँ त अलंकृत क ◌इ उन परम उ ल चरणपादुका को लेकर ीरामच जीक प र मा क तथा उन पादुका को राजाक सवारीम आनेवाले सव े गजराजके म कपर ा पत कया॥ तदन र अपने धमम हमालयक भाँ त अ वचल भावसे त रहनेवाले रघुवंशवधन ीरामने मश: वहाँ आये ए जनसमुदाय, गु , म ी, जा तथा दोन भाइय का यथायो स ार करके उ वदा कया॥ उस समय कौस ा आ द सभी माता का गला आँ सु से ँ ध गया था। वे दु:खके कारण ीरामको स ो धत भी न कर सक । ीराम भी सब माता को णाम करके रोते ए अपनी कु टयाम चले गये॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ बारहवाँ सग पूरा आ॥ ११२॥



एक सौ तेरहवाँ सग भरतका भर ाजसे मलते ए अयो ाको लौट आना ३६५



तदन र ीरामच जीक दोन चरण-पादुका को अपने म कपर रखकर भरत श ु के साथ स तापूवक रथपर बैठे॥ १ ॥ व स , वामदेव तथा ढ़तापूवक उ म तका पालन करनेवाले जाबा ल आ द सब म ी, जो उ म म णा देनेके कारण स ा नत थे, आगे-आगे चले॥ २ ॥ वे सब लोग च कू ट नामक महान् पवतक प र मा करते ए परम रमणीय म ा कनी नदीको पार करके पूव दशाक ओर त ए॥ ३ ॥ उस समय भरत अपनी सेनाके साथ सह कारके रमणीय धातु को देखते ए च कू टके कनारेसे होकर नकले॥ ४ ॥ च कू टसे थोड़ी ही दूर जानेपर भरतने वह आ म देखा, जहाँ मु नवर भर ाजजी नवास करते थे*॥ ५ ॥ अपने कु लको आन त करनेवाले परा मी भरत मह ष भर ाजके उस आ मपर प ँ चकर रथसे उतर पड़े और उ ने मु नके चरण म णाम कया॥ ६ ॥ उनके आनेसे मह ष भर ाजको बड़ी स ता ◌इ और उ ने भरतसे पूछा—‘तात! ा तु ारा काय स आ? ा ीरामच जीसे भट ◌इ?’॥ ७ ॥ बु मान् भर ाजजीके इस कार पूछनेपर धमव ल भरतने उ इस कार उ र दया —॥ ८ ॥ ‘मुन!े भगवान् ीराम अपने परा मपर ढ़ रहनेवाले ह। मने उनसे ब त ाथना क । गु जीने भी अनुरोध कया। तब उ ने अ स होकर गु देव व स जीसे इस कार कहा —॥ ९ ॥ ‘म चौदह वष तक वनम र ँ , इसके लये मेरे पताजीने जो त ा कर ली थी, उनक उस त ाका ही म यथाथ पसे पालन क ँ गा’॥ १० ॥ ‘उनके ऐसा कहनेपर बातके ममको समझनेवाले महा ानी व स जीने बातचीत करनेम कु शल ीरघुनाथजीसे यह मह पूण बात कही—॥ ११ ॥



‘महा



ा ! तुम स तापूवक ये णभू षत पादुकाएँ अपने त न धके पम भरतको दे दो और इ के ारा अयो ाके योग ेमका नवाह करो’॥ ‘गु व स जीके ऐसा कहनेपर पूवा भमुख खड़े ए ीरघुनाथजीने अयो ाके रा का संचालन करनेके लये ये दोन णभू षत पादुकाएँ मुझे दे द ॥ १३ ॥ ‘त ात् म महा ा ीरामक आ ा पाकर लौट आया ँ और उनक इन म लमयी चरणपादुका को लेकर अयो ाको ही जा रहा ँ ’॥ १४ ॥ महा ा भरतका यह शुभ वचन सुनकर भर ाज मु नने यह परम म लमय बात कही—॥ १५ ॥ ‘भरत! तुम मनु म सहके समान वीर तथा शील और सदाचारके ाता म े हो। जैसे जल नीची भू मवाले जलाशयम सब ओरसे बहकर चला आता है, उसी कार तुमम सारे े गुण त ह — यह को◌इ आ यक बात नह है॥ १६ ॥ ‘तु ारे पता महाबा राजा दशरथ सब कारसे उऋण हो गये, जनके तुम-जैसा धम ेमी एवं धमा ा पु है’॥ १७ ॥ उन महा ानी मह षके ऐसा कहनेपर भरतने हाथ जोड़कर उनके चरण का श कया; फर वे उनसे जानेक आ ा लेनेको उ त ए॥ १८ ॥ तदन र ीमान् भरत बारंबार भर ाज मु नक प र मा करके म य स हत अयो ाक ओर चल दये॥ १९ ॥ फर वह व ृत सेना रथ , छकड़ , घोड़ और हा थय के साथ भरतका अनुसरण करती ◌इ अयो ाको लौटी॥ २० ॥ त ात् आगे जाकर उन सब लोग ने तरंग-माला से सुशो भत द नदी यमुनाको पार करके पुन: शुभस लला ग ाजीका दशन कया॥ २१ ॥ फर ब -ु बा व और सै नक के साथ मनोहर जलसे भरी ◌इ ग ाके भी पार होकर वे परम रमणीय ृ वेरपुरम जा प ँ चे॥ २२ ॥ ृ वेरपुरसे ान करनेपर उ पुन: अयो ापुरीका दशन आ, जो उस समय पता और भा◌इ दोन से वहीन थी। उसे देखकर भरतने दु:खसे संत हो सार थसे इस कार कहा —॥ २३ १/२ ॥



‘सार थ



सुम जी! दे खये, अयो ाक सारी शोभा न हो गयी है; अत: यह पहलेक भाँ त का शत नह होती है। इसका वह सु र प, वह आन जाता रहा। इस समय यह अ दीन और नीरव हो रही है’॥ २४-२५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ तेरहवाँ सग पूरा आ॥ ११३॥ * यह आ



म यमुनासे द ण दशाम च कू टके कु छ नकट था। ग ा और यमुनाके बीच यागवाला आ म, जहाँ वनम जाते समय ीरामच जी तथा भरत आ दने व ाम कया था, इससे भ जान पड़ता है। तभी इस आ मपर भर ाजसे मलनेके बाद भरत आ दके यमुना पार करनेका उ ेख मलता है—‘तत े यमुनां द ां नद ती वो ममा लनीम्।’ इस तीय आ मसे ीराम और भरतके समागमका समाचार शी ा हो सकता था; इसी लये भर ाजजी भरतके लौटनेके समय यह मौजूद थे।



एक सौ चौदहवाँ सग भरतके ारा अयो ाक दरु व



ाका दशन तथा अ :पुरम वेश करके भरतका द:ु खी होना



इसके बाद भावशाली महायश ी भरतने , ग ीर घघर घोषसे यु रथके ारा या ा करके शी ही अयो ाम वेश कया॥ १ ॥ उस समय वहाँ बलाव और उ ू वचर रहे थे। घर के कवाड़ बंद थे। सारे नगरम अ कार छा रहा था। काश न होनेके कारण वह पुरी कृ प क काली रातके समान जान पड़ती थी॥ २ ॥ जैसे च माक य प ी और अपनी शोभासे का शत का वाली रो हणी उ दत ए रा नामक हके ारा अपने प तके स लये जानेपर अके ली— असहाय हो जाती है, उसी कार द ऐ यसे का शत होनेवाली अयो ा राजाके कालकव लत हो जानेके कारण पी ड़त एवं असहाय हो रही थी॥ ३ ॥ वह पुरी उस पवतीय नदीक भाँ त कृ शकाय दखायी देती थी, जसका जल सूयक करण से तपकर कु छ गरम और गँदला हो रहा हो, जसके प ी धूपसे संत होकर भाग गये ह तथा जसके मीन, म और ाह गहरे जलम छप गये ह ॥ ४ ॥ जो अयो ा पहले धूमर हत सुनहरी का वाली लत अ शखाके समान का शत होती थी, वही ीरामवनवासके बाद हवनीय दु से स ची गयी अ क ालाके समान बुझकर वलीन-सी हो गयी है॥ ५ ॥ उस समय अयो ा महासमरम संकट ◌इ उस सेनाके समान तीत होती थी, जसके कवच कटकर गर गये ह , हाथी, घोड़े, रथ और जा छ - भ हो गये ह और मु -मु वीर मार डाले गये ह ॥ ६ ॥ बल वायुके वेगसे फे न और गजनाके साथ उठी ◌इ समु क उ ाल तरंग सहसा वायुके शा हो जानेपर जैसे श थल और नीरव हो जाती है, उसी कार कोलाहलपूण अयो ा अब श शू -सी जान पड़ती थी॥ ७ ॥



य काल समा होनेपर ‘ ’ आ द य स ी आयुध तथा े याजक से सूनी ◌इ वेदी जैसे म ो ारणक नसे र हत हो जाती है, उसी कार अयो ा सुनसान दखायी देती थी॥ ८ ॥ जैसे को◌इ गाय साँड़के साथ समागमके लये उ ुक हो, उसी अव ाम उसे साँड़से अलग कर दया गया हो और वह नूतन घास चरना छोड़कर आत भावसे गो म बँधी ◌इ खड़ी हो, उसी तरह अयो ापुरी भी आ रक वेदनासे पी ड़त थी॥ ९ ॥ ीराम आ दसे र हत ◌इ अयो ा मो तय क उस नूतन मालाके समान ीहीन हो गयी थी, जसक अ चकनी-चमक ली, उ म तथा अ ी जा तक प राग आ द म णयाँ उससे नकालकर अलग कर दी गयी ह ॥ १० ॥ जो पु - य होनेके कारण सहसा अपने ानसे हो पृ ीपर आ प ँ ची हो, अतएव जसक व ृत भा ीण हो गयी हो, आकाशसे गरी ◌इ उस ता रकाक भाँ त अयो ा शोभाहीन हो गयी थी॥ ११ ॥ जो ी -ऋतुम पहले फू ल से लदी ◌इ होनेके कारण मतवाले मर से सुशो भत होती रही हो और फर सहसा दावानलके लपेटम आकर मुरझा गयी हो, वनक उस लताके समान पहलेक उ ासपूण अयो ा अब उदास हो गयी थी॥ १२ ॥ वहाँके ापारी व णक् शोकसे ाकु ल होनेके कारण ककत वमूढ़ हो गये थे, बाजारहाट और दूकान ब त कम खुली थ । उस समय सारी पुरी उस आकाशक भाँ त शोभाहीन हो गयी थी, जहाँ बादल क घटाएँ घर आयी ह और तारे तथा च मा ढक गये ह ॥ १३ ॥ (उन दन अयो ापुरीक सड़क झाड़ी-बुहारी नह गयी थ , इस लये य -त कू ड़ेकरकटके ढेर पड़े थे। उस अव ाम) वह नगरी उस उजड़ी ◌इ पानभू म (मधुशाला) के समान ीहीन दखायी देती थी, जसक सफा◌इ न क गयी हो, जहाँ मधुसे खाली टूटी-फू टी ा लयाँ पड़ी ह और जहाँके पीनेवाले भी न हो गये ह ॥ १४ ॥ उस पुरीक दशा उस प सलेक -सी हो रही थी, जो ख के टूट जानेसे ढह गया हो, जसका चबूतरा छ - भ हो गया हो, भू म नीची हो गयी हो, पानी चुक गया हो और जलपा टूट-फू टकर इधर-उधर सब ओर बखरे पड़े ह ॥ १५ ॥ जो वशाल और स ूण धनुषम फै ली ◌इ हो, उसक दोन को टय ( कनार ) म बाँधनेके लये जसम र ी जुड़ी ◌इ हो, कतु वेगशाली वीर के बाण से कटकर धनुषसे



पृ ीपर गर पड़ी हो, उस ाके समान ही अयो ापुरी भी ान ◌इ-सी दखायी देती थी॥ १६ ॥ जसपर यु कु शल घुड़सवारने सवारी क हो और जसे श ुप क सेनाने सहसा मार गराया हो, यु भू मम पड़ी ◌इ उस घोड़ीक जो दशा होती है, वही उस समय अयो ापुरीक भी थी (कै के यीके कु च से उसके संचालक नरेशका गवास और युवराजका वनवास हो गया था)॥ १७ ॥ रथपर बैठे ए ीमान् दशरथन न भरतने उस समय े रथका संचालन करनेवाले सार थ सुम से इस कार कहा—॥ १८ ॥ ‘अब अयो ाम पहलेक भाँ त सब ओर फै ला आ गाने-बजानेका ग ीर नाद नह सुनायी पड़ता; यह कतने क क बात है!॥ १९ ॥ ‘अब चार ओर वा णी (मधु) क मादक ग , ा ◌इ फू ल क सुग तथा च न और अगु क प व ग नह फै ल रही है॥ २० ॥ ‘अ ी-अ ी सवा रय क आवाज, घोड़ के ह सनेका सु श , मतवाले हा थय का च ाड़ना तथा रथ क घघराहटका महान् श —ये सब नह सुनायी दे रहे ह॥ २१ ॥



ीरामच जीके नवा सत होनेके कारण ही इस पुरीम इस समय इन सब कारके श का वण नह हो रहा है। ीरामके चले जानेसे यहाँके त ण ब त ही संत ह। वे च न और अगु क सुग का सेवन नह करते तथा ब मू वनमालाएँ भी नह धारण करते। अब इस पुरीके लोग व च फू ल के हार पहनकर बाहर घूमनेके लये नह नकलते ह॥ २२-२३ ॥ ‘ ीरामके शोकसे पी ड़त ए इस नगरम अब नाना कारके उ व नह हो रहे ह। न य ही इस पुरीक वह सारी शोभा मेरे भा◌इके साथ ही चली गयी॥ ‘जैसे वेगयु वषाके कारण शु प क चाँदनी रात भी शोभा नह पाती है, उसी कार ने से आँ सू बहाती ◌इ यह अयो ा भी शो भत नह हो रही है। अब कब मेरे भा◌इ महो वक भाँ त अयो ाम पधारगे और ी -ऋतुम कट ए मेघक भाँ त सबके दयम हषका संचार करगे॥ २५ १/२ ॥ ‘



‘अब



अयो ाक बड़ी-बड़ी सड़क हषसे उछलकर चलते ए मनोहर वेषधारी त ण के शुभागमनसे शोभा नह पा रही ह’॥ २६ १/२ ॥ इस कार सार थके साथ बातचीत करते ए दु:खी भरत उस समय सहसे र हत गुफाक भाँ त राजा दशरथसे हीन पताके नवास ान राजमहलम गये॥ जैसे सूयके छप जानेसे दनक शोभा न हो जाती है और देवता शोक करने लगते ह, उसी कार उस समय वह अ :पुर शोभाहीन हो गया था और वहाँके लोग शोकम थे। उसे सब ओरसे ता और सजावटसे हीन देख भरत धैयवान् होनेपर भी अ दु:खी हो आँ सू बहाने लगे॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ चौदहवाँ सग पूरा आ॥ ११४॥



एक सौ पं हवाँ सग भरतका न



ामम जाकर ीरामक चरणपादक ु ा को रा पर अ भ ष नवेदनपूवक रा का सब काय करना



करके उ



तदन र सब माता को अयो ाम रखकर ढ त भरतने शोकसे संत हो गु जन से इस कार कहा— ‘अब म न ामको जाऊँ गा, इसके लये आप सब लोग क आ ा चाहता ँ । वहाँ ीरामके बना ा होनेवाले इस सारे दु:खको सहन क ँ गा॥ २ ॥ ‘अहो! महाराज (पू पताजी) तो गको सधारे और वे मेरे गु (पूजनीय ाता) ीरामच जी वनम वराज रहे ह। म इस रा के लये वहाँ ीरामक ती ा करता र ँ गा; क वे महायश ी ीराम ही हमारे राजा ह’॥ ३ ॥ महा ा भरतका यह शुभ वचन सुनकर सब म ी और पुरो हत व स जी बोले—॥ ४ ॥ ‘भरत! ातृभ से े रत होकर तुमने जो बात कही है, वह ब त ही शंसनीय है। वा वम वह तु ारे ही यो है॥ ५ ॥ ‘तुम अपने भा◌इके दशनके लये सदा लाला यत रहते हो और भा◌इके ही सौहाद ( हतसाधन) म संल हो। साथ ही े मागपर त हो, अत: कौन पु ष तु ारे वचारका अनुमोदन नह करेगा’॥ ६ ॥ म य का अपनी चके अनु प य वचन सुनकर भरतने सार थसे कहा—‘मेरा रथ जोतकर तैयार कया जाय’॥ ७ ॥ फर उ ने स वदन होकर सब माता से बातचीत करके जानेक आ ा ली। इसके बाद श ु के स हत ीमान् भरत रथपर सवार ए॥ ८ ॥ रथपर आ ढ़ होकर परम स ए भरत और श ु दोन भा◌इ म य तथा पुरो हत से घरकर शी तापूवक वहाँसे त ए॥ ९ ॥ आगे-आगे व स आ द सभी गु जन एवं ा ण चल रहे थे। उन सब लोग ने अयो ासे पूवा भमुख होकर या ा क और उस मागको पकड़ा, जो न ामक ओर जाता था॥ १० ॥ भरतके त होनेपर हाथी, घोड़े और रथ से भरी ◌इ सारी सेना भी बना बुलाये ही उनके पीछे-पीछे चल दी और सम पुरवासी भी उनके साथ हो लये॥ ११ ॥



धमा ा ातृव ल भरत अपने म कपर भगवान् ीरामक चरणपादुका लये रथपर बैठकर बड़ी शी तासे न ामक ओर चले॥ १२ ॥ न ामम शी प ँ चकर भरत तुरंत ही रथसे उतर पड़े और गु जन से इस कार बोले —॥ १३ ॥ ‘मेरे भा◌इने यह उ म रा मुझे धरोहरके पम दया है, उनक ये सुवण वभू षत चरणपादुकाएँ ही सबके योग ेमका नवाह करनेवाली ह’॥ १४ ॥ त ात् भरतने म क कु ाकर उन चरण-पादुका के त उस धरोहर प रा को सम पत करके दु:खसे संत हो सम कृ तम ल (म ी, सेनाप त और जा आ द) से कहा —॥ १५ ॥ ‘आप सब लोग इन चरणपादुका के ऊपर छ धारण कर। म इ आय रामच जीके सा ात् चरण मानता ँ । मेरे गु क इन चरणपादुका से ही इस रा म धमक ापना होगी॥ १६ ॥ ‘मेरे भा◌इने ेमके कारण ही यह धरोहर मुझे स पी है, अत: म उनके लौटनेतक इसक भलीभाँ त र ा क ँ गा॥ १७ ॥ ‘इसके बाद म यं इन पादुका को पुन: शी ही ीरघुनाथजीके चरण से संयु करके इन पादुका से सुशो भत ीरामके उन युगल चरण का दशन क ँ गा॥ १८ ॥ ‘ ीरघुनाथजीके आनेपर उनसे मलते ही म अपने उन गु देवको यह रा सम पत करके उनक आ ाके अधीन हो उ क सेवाम लग जाऊँ गा। रा का यह भार उनपर डालकर म हलका हो जाऊँ गा॥ १९ ॥ ‘मेरे पास धरोहर पम रखे ए इस रा को, अयो ाको तथा इन े पादुका को ीरघुनाथजीक सेवाम सम पत करके म सब कारके पापतापसे मु हो जाऊँ गा॥ २० ॥ ‘ककु कु लभूषण ीरामका अयो ाके रा पर अ भषेक हो जानेपर जब सब लोग हष और आन म नम हो जायँगे, तब मुझे रा पानेक अपे ा चौगुनी स ता और चौगुने यशक ा होगी’॥ २१ ॥ इस कार दीनभावसे वलाप करते ए दु:खम महायश ी भरत म य के साथ न ामम रहकर रा का शासन करने लगे॥ २२ ॥



सेनास हत भावशाली धीर-वीर भरतने उस समय व ल और जटा धारण करके मु नवेषधारी हो न ामम नवास कया॥ २३ ॥ भा◌इक आ ाका पालन और त ाके पार जानेक इ ा करनेवाले ातृव ल भरत ीरामच जीके आगमनक आकां ा रखते ए उनक चरणपादुका को रा पर अ भ ष करके उन दन न ामम रहने लगे॥ भरतजी रा -शासनका सम काय भगवान् ीरामक चरणपादुका को नवेदन करके करते थे तथा यं ही उनके ऊपर छ लगाते और चँवर डु लाते थे॥ २५ ॥ ीमान् भरत बड़े भा◌इक उन पादुका को रा पर अ भ ष करके सदा उनके अधीन रहकर उन दन रा का सब काय म ी आ दसे कराते थे॥ २६ ॥ उस समय जो को◌इ भी काय उप त होता, जो भी ब मू भट आती, वह सब पहले उन पादुका को नवेदन करके पीछे भरतजी उसका यथावत् ब करते थे॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ पं हवाँ सग पूरा आ॥ ११५॥



एक सौ सोलहवाँ सग वृ कुलप तस हत ब त-से ऋ षय का च कूट छोड़कर दस ू रे आ मम जाना



भरतके लौट जानेपर ीरामच जी उन दन जब वनम नवास करने लगे, तब उ ने देखा क वहाँके तप ी उ हो वहाँसे अ चले जानेके लये उ ुक ह॥ १ ॥ पहले च कू टके उस आ मम जो तप ी ीरामका आ य लेकर सदा आन म रहते थे, उ को ीरामने उ त देखा (मानो वे कह जानेके वषयम कु छ कहना चाहते ह )॥ २ ॥



ने से, भ ह टेढ़ी करके , ीरामक ओर संकेत करके मन-ही-मन श त हो आपसम कु छ सलाह करते ए वे तप ी मु न धीरे-धीरे पर र वातालाप कर रहे थे॥ ३ ॥ उनक उ ा देख ीरामच जीके मनम यह श ा ◌इ क मुझसे को◌इ अपराध तो नह बन गया। तब वे हाथ जोड़कर वहाँके कु लप त मह षसे इस कार बोले—॥ ४ ॥ ‘भगवन्! ा मुझम पूववत राजा का-सा को◌इ बताव नह दखायी देता अथवा मुझम को◌इ वकृ त भाव गोचर होता है, जससे यहाँके तप ी मु न वकारको ा हो रहे ह॥ ५ ॥ ‘ ा मेरे छोटे भा◌इ महा ा ल णका मादवश कया आ को◌इ ऐसा आचरण ऋ षय ने देखा है, जो उसके यो नह है॥ ६ ॥ ‘अथवा ा जो अ -पा आ दके ारा सदा आपलोग क सेवा करती रही है, वह सीता इस समय मेरी सेवाम लग जानेके कारण एक गृह क सती नारीके अनु प ऋ षय क समु चत सेवा नह कर पाती है?’॥ ७ ॥ ीरामके इस कार पूछनेपर एक मह ष जो जराव ाके कारण तो वृ थे ही, तप ा ारा भी वृ हो गये थे, सम ा णय पर दया करनेवाले ीरामसे काँपते ए-से बोले —॥ ८ ॥ ‘तात! जो भावसे ही क ाणमयी है और सदा सबके क ाणम ही रत रहती है, वह वदेहन नी सीता वशेषत: तप ीजन के त बताव करते समय अपने क ाणमय भावसे वच लत हो जाय, यह कै से स व है?॥ ९ ॥



‘आपके



ही कारण तापस पर यह रा स क ओरसे भय उप त होनेवाला है, उससे उ ए ऋ ष आपसम कु छ बात (कानाफू सी) कर रहे ह॥ १० ॥ ‘तात! यहाँ वन ा म रावणका छोटा भा◌इ खर नामक रा स है, जसने जन ानम रहनेवाले सम तापस को उखाड़ फ का है। वह बड़ा ही ढीठ, वजयो , ू र, नरभ ी और घमंडी है। वह आपको भी सहन नह कर पाता है॥ ११-१२ ॥ ‘तात! जबसे आप इस आ मम रह रहे ह, तबसे सब रा स तापस को वशेष पसे सताने लगे ह॥ ‘वे अनाय रा स बीभ (घृ णत), ू र और भीषण, नाना कारके वकृ त एवं देखनेम दु:खदायक प धारण करके सामने आते ह और पापजनक अप व पदाथ से तप य का श कराकर अपने सामने खड़े ए अ ऋ षय को भी पीड़ा देते ह॥ १४-१५ ॥ ‘वे उन-उन आ म म अ ात पसे आकर छप जाते ह और अ अथवा असावधान तापस का वनाश करते ए वहाँ सान वचरते रहते ह॥ १६ ॥ ‘होमकम आर होनेपर वे ुक्- ुवा आ द य -साम य को इधर-उधर फ क देते ह। लत अ म पानी डाल देते ह और कलश को फोड़ डालते ह॥ १७ ॥ ‘उन दुरा ा रा स से आ व ए आ म को ाग देनेक इ ा रखकर ये ऋ षलोग आज मुझे यहाँसे अ ानम चलनेके लये े रत कर रहे ह॥ १८ ॥ ‘ ीराम! वे दु रा स तप य क शारी रक हसाका दशन कर, इसके पहले ही हम इस आ मको ाग दगे॥ १९ ॥ ‘यहाँसे थोड़ी ही दूरपर एक व च वन है, जहाँ फल-मूलक अ धकता है। वह अ मु नका आ म है, अत: ऋ षय के समूहको साथ लेकर म पुन: उसी आ मका आ य लूँगा॥ २० ॥ ‘ ीराम! खर आपके त भी को◌इ अनु चत बताव करे, उसके पहले ही य द आपका वचार हो तो हमारे साथ ही यहाँसे चल दी जये॥ २१ ॥ ‘रघुन न! य प आप सदा सावधान रहनेवाले तथा रा स के दमनम समथ ह, तथा प प ीके साथ आजकल उस आ मम आपका रहना संदेहजनक एवं दु:खदायक है’॥ २२ ॥



ऐसी बात कहकर अ जानेके लये उ त ए उन तप ी मु नको राजकु मार ीराम सा नाजनक उ रवा ारा वहाँ रोक नह सके ॥ २३ ॥ त ात् वे कु लप त मह ष ीरामच जीका अ भन न करके उनसे पूछकर और उ सा ना देकर इस आ मको छोड़ वहाँसे अपने दलके ऋ षय के साथ चले गये॥ २४ ॥ ीरामच जी वहाँसे जानेवाले ऋ षय के पीछे-पीछे जाकर उ वदा दे कु लप त ऋ षको णाम करके परम स ए उन ऋ षय क अनुम त ले उनके दये ए कत वषयक उपदेशको सुनकर लौटे और नवास करनेके लये अपने प व आ मम आये॥ २५ ॥ उन ऋ षय से र हत ए आ मको भगवान् ीरामने एक णके लये भी नह छोड़ा। जनका ऋ षय के समान ही च र था, उन ीरामच जीम न य ही ऋ षय क र ाक श प गुण व मान है। ऐसा व ास रखनेवाले कु छ तप ीजन ने सदा ीरामका ही अनुसरण कया। वे दूसरे कसी आ मम नह गये॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ सोलहवाँ सग पूरा आ॥ ११६॥



एक सौ स हवाँ सग ीराम आ दका अ मु नके आ मपर जाकर उनके ारा स ृ त होना तथा अनसूया ारा सीताका स ार



उन सब ऋ षय के चले जानेपर ीरामच जीने जब बारंबार वचार कया, तब उ ब त-से ऐसे कारण ात ए, जनसे उ ने यं भी वहाँ रहना उ चत न समझा॥ १ ॥ उ ने मन-ही-मन सोचा, ‘इस आ मम म भरतसे, माता से तथा पुरवासी मनु से मल चुका ँ । वह ृ त मुझे बराबर बनी रहती है और म त दन उन सब लोग का च न करके शोकम हो जाता ँ ॥ ‘महा ा भरतक सेनाका पड़ाव पड़नेके कारण हाथी और घोड़ क लीद से यहाँक भू म अ धक अप व कर दी गयी है॥ ३ ॥ ‘अत: हमलोग भी अ चले जायँ’ ऐसा सोचकर ीरघुनाथजी सीता और ल णके साथ वहाँसे चल दये॥ वहाँसे अ के आ मपर प ँ चकर महायश ी ीरामने उ णाम कया तथा भगवान् अ ने भी उ अपने पु क भाँ त ेहपूवक अपनाया॥ ५ ॥ उ ने यं ही ीरामका स ूण आ त -स ार करके महाभाग ल ण और सीताको भी स ारपूवक संतु कया॥ ६ ॥ स ूण ा णय के हतम त र रहनेवाले धम मु न े अ ने अपने समीप आयी ◌इ सबके ारा स ा नत तापसी एवं धमपरायणा बूढ़ी प ी महाभागा अनसूयाको स ो धत करके सा नापूण वचन ारा संतु कया और कहा—‘दे व! वदेहराजन नी सीताको स ारपूवक दयसे लगाओ’॥ ७-८ ॥ त ात् उ ने ीरामच जीको धमपरायणा तप नी अनसूयाका प रचय देते ए कहा—‘एक समय दस वष तक वृ नह ◌इ, उस समय जब सारा जगत् नर र द होने लगा, तब ज ने उ तप ासे यु तथा कठोर नयम से अलंकृत होकर अपने तपके भावसे यहाँ फल-मूल उ कये और म ा कनीक प व धारा बहायी तथा तात! ज ने दस हजार



वष तक बड़ी भारी तप ा करके अपने उ म त के भावसे ऋ षय के सम व का नवारण कया था, वे ही यह अनसूया देवी ह॥ ९—११ ॥ ‘ न ाप ीराम! इ ने देवता के कायके लये अ उतावली होकर दस रातके बराबर एक ही रात बनायी थी; वे ही ये अनसूया देवी तु ारे लये माताक भाँ त पूजनीया ह॥ १२ ॥ ‘ये स ूण ा णय के लये व नीया तप नी ह। ोध तो इ कभी छू भी नह सका है। वदेहन नी सीता इन वृ ा अनसूया देवीके पास जायँ’॥ १३ ॥ ऐसी बात कहते ए अ मु नसे ‘ब त अ ा’ कहकर ीरामच जीने धम ा सीताक ओर देखकर यह बात कही—॥ १४ ॥ ‘राजकु मारी! मह ष अ के वचन तो तुमने सुन ही लये; अब अपने क ाणके लये तुम शी ही इन तप नी देवीके पास जाओ॥ १५ ॥ ‘जो अपने स म से संसारम अनसूयाके नामसे व ात ◌इ ह, वे तप नी देवी तु ारे आ य लेने यो ह; तुम शी उनके पास जाओ’॥ १६ ॥ ीरामच जीक यह बात सुनकर यश नी म थलेशकु मारी सीता धमको जाननेवाली अ प ी अनसूयाके पास गय ॥ १७ ॥ अनसूया वृ ाव ाके कारण श थल हो गयी थ ; उनके शरीरम ु रयाँ पड़ गय थ तथा सरके बाल सफे द हो गये थे। अ धक हवा चलनेपर हलते ए कदलीवृ के समान उनके सारे अ नर र काँप रहे थे॥ सीताने नकट जाकर शा भावसे अपना नाम बताया और उन महाभागा प त ता अनसूयाको णाम कया॥ १९ ॥ उन संयमशीला तप नीको णाम करके हषसे भरी ◌इ सीताने दोन हाथ जोड़कर उनका कु शल-समाचार पूछा॥ २० ॥ धमका आचरण करनेवाली महाभागा सीताको देखकर बूढ़ी अनसूया देवी उ सा ना देती ◌इ बोल —‘सीते! सौभा क बात है क तुम धमपर ही रखती हो॥ २१ ॥ ‘मा ननी सीते! ब ु-बा व को छोड़कर और उनसे ा होनेवाली मान- त ाका प र ाग करके तुम वनम भेजे ए ीरामका अनुसरण कर रही हो— यह बड़े सौभा क बात



है॥ २२ ॥ ‘अपने ामी नगरम रह या वनम, भले ह या बुरे, जन य को वे य होते ह, उ महान् अ ुदयशाली लोक क ा होती है॥ २३ ॥ ‘प त बुरे भावका, मनमाना बताव करनेवाला अथवा धनहीन ही न हो, वह उ म भाववाली ना रय के लये े देवताके समान है॥ २४ ॥ ‘ वदेहराजन न! म ब त वचार करनेपर भी प तसे बढ़कर को◌इ हतकारी ब ु नह देखती। अपनी क ◌इ तप ाके अ वनाशी फलक भाँ त वह इस लोकम और परलोकम सव सुख प ँ चानेम समथ होता है॥ २५ ॥ ‘जो अपने प तपर भी शासन करती ह, वे कामके अधीन च वाली असा ी याँ इस कार प तका अनुसरण नह करत । उ गुण-दोष का ान नह होता; अत: वे इ ानुसार इधर-उधर वचरती रहती ह॥ २६ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! ऐसी ना रयाँ अव ही अनु चत कमम फँ सकर धमसे हो जाती ह और संसारम उ अपयशक ा होती है॥ २७ ॥ ‘ कतु जो तु ारे समान लोक-परलोकको जाननेवाली सा ी याँ ह, वे उ म गुण से यु होकर पु कम म संल रहती ह; अत: वे दूसरे पु ा ा क भाँ त गलोकम वचरण करगी॥ २८ ॥ ‘अत: तुम इसी कार अपने इन प तदेव ीरामच जीक सेवाम लगी रहो—सतीधमका पालन करो, प तको धान देवता समझो और ेक समय उनका अनुसरण करती ◌इ अपने ामीक सहध मणी बनो, इससे तु सुयश और धम दोन क ा होगी’॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ स हवाँ सग पूरा आ॥ ११७॥



एक सौ अठारहवाँ सग सीता-अनसूया-संवाद, अनसूयाका सीताको ेमोपहार देना तथा अनसूयाके पूछनेपर सीताका उ अपने यंवरक कथा सुनाना



तप नी अनसूयाके इस कार उपदेश देनेपर कसीके त दोष न रखनेवाली वदेहराजकु मारी सीताने उनके वचन क भू र-भू र शंसा करके धीरेधीरे इस कार कहना आर कया—॥ १ ॥ ‘दे व! आप संसारक य म सबसे े ह। आपके मुँहसे ऐसी बात का सुनना को◌इ आ यक बात नह है। नारीका गु प त ही है, इस वषयम जैसा आपने उपदेश कया है, यह बात मुझे भी पहलेसे ही व दत है॥ २ ॥ ‘मेरे प तदेव य द अनाय (च र हीन) तथा जी वकाके साधन से र हत ( नधन) होते तो भी म बना कसी दु वधाके इनक सेवाम लगी रहती॥ ३ ॥ ‘ फर जब क ये अपने गुण के कारण ही सबक शंसाके पा ह, तब तो इनक सेवाके लये कहना ही ा है। ये ीरघुनाथजी परम दयालु, जते य, ढ़ अनुराग रखनेवाले, धमा ा तथा माता- पताके समान य ह॥ ४ ॥ ‘महाबली ीराम अपनी माता कौस ाके त जैसा बताव करते ह वैसा ही महाराज दशरथक दूसरी रा नय के साथ भी करते ह॥ ५ ॥ ‘महाराज दशरथने एक बार भी जन य को ेम से देख लया है, उनके त भी ये पतृव ल धम वीर ीराम मान छोड़कर माताके समान ही बताव करते ह॥ ६ ॥ ‘जब म प तके साथ नजन वनम आने लगी, उस समय मेरी सास कौस ाने मुझे जो कत का उपदेश दया था, वह मेरे दयम -कारभावसे अ त है॥ ७ ॥ ‘पहले मेरे ववाह-कालम अ के समीप माताने मुझे जो श ा दी थी, वह भी मुझे अ ी तरह याद है॥ ८ ॥ ‘धमचा र ण! इसके सवा मेरे अ जन ने अपने वचन ारा जो-जो उपदेश कया है, वह भी मुझे भूला नह है। ीके लये प तक सेवाके अ त र दूसरे कसी तपका वधान नह है॥ ९ ॥



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वा प ी सा व ी प तक सेवा करके ही गलोकम पू जत हो रही ह। उ के समान बताव करनेवाली आप (अनसूया देवी) ने भी प तक सेवाके ही भावसे गलोकम ान ा कर लया है॥ १० ॥ ‘स ूण य म े यह गक देवी रो हणी प तसेवाके भावसे ही एक मु तके लये भी च मासे बलग होती नह देखी जाती॥ ११ ॥ ‘इस कार ढ़तापूवक पा त -धमका पालन करनेवाली ब त-सी सा ी याँ अपने पु कमके बलसे देवलोकम आदर पा रही ह’॥ १२ ॥ तदन र सीताके कहे ए वचन सुनकर अनसूयाको बड़ा हष आ। उ ने उनका म क सूँघा और फर उन म थलेशकु मारीका हष बढ़ाते ए इस कार कहा— ‘उ म तका पालन करनेवाली सीते! मने अनेक कारके नयम का पालन करके ब त बड़ी तप ा सं चत क है। उस तपोबलका ही आ य लेकर म तुमसे इ ानुसार वर माँगनेके लये कहती ँ ॥ १४ ॥ ‘ म थलेशकु मारी सीते! तुमने ब त ही यु यु और उ म वचन कहा है। उसे सुनकर मुझे बड़ा संतोष आ है, अत: बताओ म तु ारा कौन-सा य काय क ँ ?’॥ उनका यह कथन सुनकर सीताको बड़ा आ य आ। वे तपोबलस अनसूयासे म म मुसकराती ◌इ बोल —‘आपने अपने वचन ारा ही मेरा सारा य काय कर दया, अब और कु छ करनेक आव कता नह है’॥ सीताके ऐसा कहनेपर धम अनसूयाको बड़ी स ता ◌इ। वे बोल —‘सीते! तु ारी नल भतासे जो मुझे वशेष हष आ है (अथवा तुमम जो लोभहीनताके कारण सदा आन ो व भरा रहता है), उसे म अव सफल क ँ गी॥ १७ ॥ ‘यह सु र द हार, यह व , ये आभूषण, यह अ राग और ब मू अनुलेपन म तु देती ँ । वदेह-न न सीते! मेरी दी ◌इ ये व ुएँ तु ारे अ क शोभा बढ़ायगी। ये सब तु ारे ही यो ह और सदा उपयोगम लायी जानेपर नद ष एवं न वकार रहगी॥ ‘जनक कशोरी! इस द अ रागको अ म लगाकर तुम अपने प तको उसी कार सुशो भत करोगी, जैसे ल ी अ वनाशी भगवान् व ुक शोभा बढ़ाती है’॥ अनसूयाक आ ासे धीर भाववाली यश नी म थलेशकु मारी सीताने उस व , अ राग, आभूषण और हारको उनक स ताका परम उ म उपहार समझकर ले लया। उस ेमोपहारको हण करके वे दोन हाथ जोड़कर उन तपोधना अनसूयाक सेवाम बैठी रह ॥



तदन र इस कार अपने नकट बैठी ◌इ सीतासे ढ़तापूवक उ म तका पालन करनेवाली अनसूयाने को◌इ परम य कथा सुनानेके लये इस कार पूछना आर कया —॥ २३ ॥ ‘सीते! इन यश ी राघवे ने तु यंवरम ा कया था, यह बात मेरे सुननेम आयी है॥ २४ ॥ ‘ म थलेशन न! म उस वृ ा को व ारके साथ सुनना चाहती ँ । अत: जो कु छ जस कार आ, वह सब पूण पसे मुझे बताओ’॥ २५ ॥ उनके इस कार आ ा देनेपर सीताने उन धमचा रणी तापसी अनसूयासे कहा —‘माताजी! सु नये।’ ऐसा कहकर उ ने उस कथाको इस कार कहना आर कया— ‘ म थला जनपदके वीर राजा ‘जनक’ नामसे स ह। वे धमके ाता ह, अत: यो चत कमम त र रहकर ायपूवक पृ ीका पालन करते ह॥ २७ ॥ ‘एक समयक बात है, वे य के यो े को हाथम हल लेकर जोत रहे थे; इसी समय म पृ ीको फाड़कर कट ◌इ। इतनेमा से ही म राजा जनकक पु ी ◌इ॥ ‘वे राजा उस े म ओष धय को मु ीम लेकर बो रहे थे। इतनेहीम उनक मेरे ऊपर पड़ी। मेरे सारे अ म धूल लपटी ◌इ थी। उस अव ाम मुझे देखकर राजा जनकको बड़ा व य आ॥ २९ ॥ ‘उन दन उनके को◌इ दूसरी संतान नह थी, इस लये ेहवश उ ने यं मुझे गोदम ले लया और ‘यह मेरी बेटी है’ ऐसा कहकर मुझपर अपने दयका सारा ेह उड़ेल दया॥ ३० ॥ ‘इसी



समय आकाशवाणी ◌इ, जो पत: मानवी भाषाम कही गयी थी (अथवा मेरे वषयम कट ◌इ वह वाणी अमानुषी— द थी)। उसने कहा—‘नरे र! तु ारा कथन ठीक है, यह क ा धमत: तु ारी ही पु ी है’॥ ‘यह आकाशवाणी सुनकर मेरे धमा ा पता म थलानरेश बड़े स ए। मुझे पाकर उन नरेशने मानो को◌इ बड़ी समृ पा ली थी॥ ३२ ॥ ‘उ ने पु कमपरायणा बड़ी रानीको, जो उ अ धक य थ , मुझे दे दया। उन ेहमयी महारानीने मातृसमु चत सौहादसे मेरा लालन-पालन कया॥ ३३ ॥



‘जब



पताने देखा क मेरी अव ा ववाहके यो हो गयी, तब इसके लये वे बड़ी च ाम पड़े। जैसे कमाये ए धनका नाश हो जानेसे नधन मनु को बड़ा दु:ख होता है, उसी कार वे मेरे ववाहक च ासे ब त दु:खी हो गये॥ ३४ ॥ ‘संसारम क ाके पताको, वह भूतलपर इ के ही तु न हो, वरप के लोग से, वे अपने समान या अपनेसे छोटी है सयतके ही न ह , ाय: अपमान उठाना पड़ता है॥ ३५ ॥ ‘वह अपमान सहन करनेक घड़ी अपने लये ब त समीप आ गयी है, यह देखकर राजा च ाके समु म डू ब गये। जैसे नौकार हत मनु पार नह प ँ च पाता, उसी कार मेरे पता भी च ाका पार नह पा रहे थे॥ ‘मुझे अयो नजा क ा समझकर वे भूपाल मेरे लये यो और परम सु र प तका वचार करने लगे; कतु कसी न यपर नह प ँ च सके ॥ ३७ ॥ ‘सदा मेरे ववाहक च ाम पड़े रहनेवाले उन महाराजके मनम एक दन यह वचार उ आ क म धमत: अपनी पु ीका यंवर क ँ गा॥ ३८ ॥ ‘उ दन उनके एक महान् य म स होकर महा ा व णने उ एक े द धनुष तथा अ य बाण से भरे ए दो तरकस दये॥ ३९ ॥ ‘वह धनुष इतना भारी था क मनु पूरा य करनेपर भी उसे हला भी नह पाते थे। भूम लके नरेश म भी उस धनुषको कु ानेम असमथ थे॥ ४० ॥ ‘उस धनुषको पाकर मेरे स वादी पताने पहले भूम लके राजा को आम त करके उन नरेश के समूहम यह बात कही—॥ ४१ ॥ ‘जो मनु इस धनुषको उठाकर इसपर ा चढ़ा देगा, मेरी पु ी सीता उसीक प ी होगी; इसम संशय नह है॥ ४२ ॥ ‘अपने भारीपनके कारण पहाड़-जैसे तीत होनेवाले उस े धनुषको देखकर वहाँ आये ए राजा जब उसे उठानेम समथ न हो सके , तब उसे णाम करके चले गये॥ ४३ ॥ ‘तदन र दीघकालके प ात् ये महातेज ी रघुकुल-न न स परा मी ीराम अपने भा◌इ ल णको साथ ले व ा म जीके साथ मेरे पताका य देखनेके लये म थलाम पधारे। उस समय मेरे पताने धमा ा व ा म मु नका बड़ा आदर-स ार कया॥ ४४-४५ ॥



‘तब



वहाँ व ा म जी मेरे पतासे बोले—‘राजन्! ये दोन रघुकुलभूषण ीराम और ल ण महाराज दशरथके पु ह और आपके उस द धनुषका दशन करना चाहते ह। आप अपना वह देव द धनुष राजकु मार ीरामको दखाइये’॥ ४६ ॥ ‘ व वर व ा म के ऐसा कहनेपर पताजीने उस द धनुषको मँगवाया और राजकु मार ीरामको उसे दखाया॥ ४७ ॥ ‘महाबली और परम परा मी ीरामने पलक मारते-मारते उस धनुषपर ा चढ़ा दी और उसे तुरंत कानतक ख चा॥ ४८ ॥ ‘उनके वेगपूवक ख चते समय वह धनुष बीचसे ही टूट गया और उसके दो टुकड़े हो गये। उसके टूटते समय ऐसा भयंकर श आ मानो वहाँ व टूट पड़ा हो॥ ४९ ॥ ‘तब मेरे स त पताने जलका उ म पा लेकर ीरामके हाथम मुझे दे देनेका उ ोग कया॥ ५० ॥ ‘उस समय अपने पता अयो ानरेश महाराज दशरथके अ भ ायको जाने बना ीरामने राजा जनकके देनेपर भी मुझे नह हण कया॥ ५१ ॥ ‘तदन र मेरे बूढ़े शुर राजा दशरथक अनुम त लेकर पताजीने आ ानी ीरामको मेरा दान कर दया॥ ५२ ॥ ‘त ात् पताजीने यं ही मेरी छोटी ब हन सती सा ी परम सु री ऊ मलाको ल णक प ी पसे उनके हाथम दे दया॥ ५३ ॥ ‘इस कार उस यंवरम पताजीने ीरामके हाथम मुझको स पा था। म धमके अनुसार अपने प त बलवान म े ीरामम सदा अनुर रहती ँ ’॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ अठारहवाँ सग पूरा आ॥ ११८॥



एक सौ उ ीसवाँ सग अनसूयाक आ ासे सीताका उनके दये ए व ाभूषण को धारण करके ीरामजीके पास आना तथा ीराम आ दका रा म आ मपर रहकर ात:काल अ जानेके लये ऋ षय से वदा लेना



धमको जाननेवाली अनसूयाने उस लंबी कथाको सुनकर म थलेशकु मारी सीताको अपनी दोन भुजा से अ म भर लया और उनका म क सूँघकर कहा— ‘बेटी! तुमने सु अ रवाले श म यह व च एवं मधुर स सुनाया। तु ारा यंवर जस कार आ था, वह सब मने सुन लया॥ २ ॥ ‘मधुरभा षणी सीते! तु ारी इस कथाम मेरा मन ब त लग रहा है; तथा प तेज ी सूयदेव रजनीक शुभ वेलाको नकट प ँ चाकर अ हो गये। जो दनम चारा चुगनेके लये चार ओर छटके ए थे, वे प ी अब सं ाकालम न द लेनेके लये अपने घ सल म आकर छप गये ह; उनक यह न सुनायी दे रही है॥ ३-४ ॥ ‘ये जलसे भीगे ए व ल धारण करनेवाले मु न, जनके शरीर ानके कारण आ दखायी देते ह, जलसे भरे कलश उठाये एक साथ आ मक ओर लौट रहे ह॥ ५ ॥ ‘मह ष (अ ) ने व धपूवक अ हो -स ी होमकम स कर लया है, अत: वायुके वेगसे ऊपरको उठा आ यह कबूतरके क क भाँ त ामवणका धूम दखायी दे रहा है॥ ६ ॥ ‘अपनी इ य से दूर देशम चार ओर जो वृ दखायी देते ह, वे थोड़े प ेवाले होनेपर भी अ कारसे ा हो घनीभूत हो गये ह; अतएव दशा का भान नह हो रहा है॥ ७ ॥ ‘रातको वचरनेवाले ाणी (उ ू आ द) सब ओर वचरण कर रहे ह तथा ये तपोवनके मृग पु े प आ मके वेदी आ द व भ देश म सो रहे ह॥ ८ ॥ ‘सीते! अब रात हो गयी, वह न से सज गयी है। आकाशम च देव चाँदनीक चादर ओढ़े उ दत दखायी देते ह॥ ९ ॥ ‘अत: अब जाओ, म तु जानेक आ ा देती ँ । जाकर ीरामच जीक सेवाम लग जाओ। तुमने अपनी मीठी-मीठी बात से मुझे भी ब त संतु कया है॥ १० ॥



‘बेटी!



म थलेशकु मारी! पहले मेरी आँ ख के सामने अपने-आपको अलंकृत करो। इन द व और आभूषण को धारण करके इनसे सुशो भत हो मुझे स करो’॥ ११ ॥ यह सुनकर देवक ाके समान सु री सीताने उस समय उन व ाभूषण से अपना ृ ार कया और अनसूयाके चरण म सर कु ाकर णाम करनेके अन र वे ीरामके स ुख गय ॥ १२ ॥ ीरामने जब इस कार सीताको व और आभूषण से वभू षत देखा, तब तप नी अनसूयाके उस ेमोपहारके दशनसे व ा म े ीरघुनाथजीको बड़ी स ता ◌इ॥ १३ ॥



उस समय म थलेशकु मारी सीताने तप नी अनसूयाके हाथसे जस कार व , आभूषण और हार आ दका ेमोपहार ा आ था, वह सब ीरामच जीसे कह सुनाया॥ १४ ॥



भगवान् ीराम और महारथी ल ण सीताका वह स ार, जो मनु के लये सवथा दुलभ है, देखकर ब त स ए॥ १५ ॥ तदन र सम तप जन से स ा नत ए रघुकुलन न ीरामने अनसूयाके दये ए प व अलंकार आ दसे अलंकृत च मुखी सीताको देखकर बड़ी स ताके साथ वहाँ रा भर नवास कया॥ १६ ॥ वह रात बीतनेपर जब सभी वनवासी तप ी मु न ान करके अ हो कर चुके, तब पु ष सह ीराम और ल णने उनसे जानेके लये आ ा माँगी॥ १७ ॥ तब वे धमपरायण वनवासी तप ी उन दोन भाइय से इस कार बोले—‘रघुन न! इस वनका माग रा स से आ ा है—यहाँ उनका उप व होता रहता है। इस वशाल वनम नाना पधारी नरभ ी रा स तथा र भोजी हसक पशु नवास करते ह॥ १८-१९ ॥ ‘राघवे ! जो तप ी और चारी यहाँ अप व अथवा असावधान अव ाम मल जाता है, उसे वे रा स और हसक ज ु इस महान् वनम खा जाते ह; अत: आप उ रो कये— यहाँसे मार भगाइये॥ २० ॥ ‘रघुकुलभूषण! यही वह माग है, जससे मह षलोग वनके भीतर फल-मूल लेनेके लये जाते ह। आपको भी इसी मागसे इस दुगम वनम वेश करना चा हये’॥ २१ ॥



तप ी ा ण ने हाथ जोड़कर जब ऐसी बात कह और उनक म लया ाके लये वाचन कया, तब श ु को संताप देनेवाले भगवान् ीरामने अपनी प ी सीता और भा◌इ ल णके साथ उस वनम वेश कया, मानो सूयदेव मेघ क घटाके भीतर घुस गये ह ॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अयो ाका म एक सौ उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ११९॥ ॥ अयो ाका



समा ॥



क र पूजा क ह बचन सुहाए। दए मूल फल भु मन भाए॥



॥ ीसीतारामच ा ां नम:॥



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ीक य रामायण अर



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द कार नामक महान् वनम वेश करके मनको वशम रखनेवाले दुजय वीर ीरामने तप ी मु नय के ब त-से आ म देखे॥ १ ॥ वहाँ कु श और व ल व फै ले ए थे। वह आ मम ल ऋ षय क व ाके अ ाससे कट ए वल ण तेजसे ा था, इस लये आकाशम का शत होनेवाले दुदश सूय-म लक भाँ त वह भूतलपर उ ी हो रहा था। रा स आ दके लये उसक ओर देखना भी क ठन था॥ २ ॥ वह आ मसमुदाय सभी ा णय को शरण देनेवाला था। उसका आँ गन सदा झाड़नेबुहारनेसे बना रहता था। वहाँ ब त-से व पशु भरे रहते थे और प य के समुदाय भी उसे सब ओरसे घेरे रहते थे॥ ३ ॥ वहाँका देश इतना मनोरम था क वहाँ अ राएँ त दन आकर नृ करती थ । उस ानके त उनके मनम बड़े आदरका भाव था। बड़ी-बड़ी अ शालाएँ , ुवा आ द य पा , मृगचम, कु श, स मधा, जलपूण कलश तथा फल-मूल उसक शोभा बढ़ाते थे। ा द फल देनेवाले परम प व तथा बड़े-बड़े व वृ से वह आ मम ल घरा आ था॥ ४-५ ॥ ब लवै देव और होमसे पू जत वह प व आ मसमूह वेदम के पाठक नसे गूँजता रहता था। कमलपु से सुशो भत पु रणी उस ानक शोभा बढ़ाती थी तथा वहाँ और भी ब त-से फू ल सब ओर बखरे ए थे॥ ६ ॥ उन आ म म चीर और काला मृगचम धारण करनेवाले तथा फल-मूलका आहार करके रहनेवाले, जते य एवं सूय और अ के तु महातेज ी, पुरातन मु न नवास करते थे॥ ७







नय मत आहार करनेवाले प व मह षय से सुशो भत वह आ मसमूह ाजीके धामक भाँ त तेज ी तथा वेद नसे नना दत था॥ ८ ॥ अनेक महाभाग वे ा ा ण उन आ म क शोभा बढ़ाते थे। महातेज ी ीरामने उस आ मम लको देखकर अपने महान् धनुषक ा उतार दी, फर वे आ मके भीतर गये॥ ९ १/२ ॥ ीराम तथा यश नी सीताको देखकर वे द ानसे स मह ष बड़ी स ताके साथ उनके पास गये॥ १० ॥ ढ़तापूवक उ म तका पालन करनेवाले वे मह ष उदयकालके च माक भाँ त मनोहर, धमा ा ीरामको, ल णको और यश नी वदेहराजकु मारी सीताको भी देखकर उन सबके लये म लमय आशीवाद देने लगे। उ ने उन तीन को आदरणीय अ त थके पम हण कया॥ ११-१२ ॥ ीरामके प, शरीरक गठन, का , सुकुमारता तथा सु र वेषको उन वनवासी मु नय ने आ यच कत होकर देखा॥ १३ ॥ वनम नवास करनेवाले वे सभी मु न ीराम, ल ण और सीता—तीन को एकटक ने से देखने लगे। उनका प उ आ यमय तीत होता था॥ १४ ॥ सम ा णय के हतम त र रहनेवाले उन महाभाग मह षय ने वहाँ अपने य अ त थ इन भगवान् ीरामको पणशालाम ले जाकर ठहराया॥ १५ ॥ अ तु तेज ी और धमपरायण उन महाभाग मु नय ने ीरामको व धवत् स ारके साथ जल सम पत कया॥ १६ ॥ फर बड़ी स ताके साथ म लसूचक आशीवाद देते ए उन महा ा ीरामको उ ने फल-मूल और फू ल आ दके साथ सारा आ म भी सम पत कर दया॥ १७ ॥ सब कु छ नवेदन करके वे धम मु न हाथ जोड़कर बोले—‘रघुन न! द धारण करनेवाला राजा धमका पालक, महायश ी, इस जन-समुदायको शरण देनेवाला माननीय, पूजनीय और सबका गु है। इस भूतलपर इ (आ द लोकपाल ) का ही चौथा अंश होनेके कारण वह जाक र ा करता है, अत: राजा सबसे व त होता तथा उ म एवं रमणीय



भोग का उपभोग करता है। (जब साधारण राजाक यह त है, तब आपके लये तो ा कहना है। आप तो सा ात् भगवान् ह)॥ १८-१९ ॥ ‘हम आपके रा म नवास करते ह, अत: आपको हमारी र ा करनी चा हये। आप नगरम रह या वनम, हमलोग के राजा ही ह। आप सम जनसमुदायके शासक एवं पालक ह॥ २० ॥ ‘राजन्! हमने जीवमा को द देना छोड़ दया है, ोध और इ य को जीत लया है। अब तप ा ही हमारा धन है। जैसे माता गभ बालकक र ा करती है, उसी कार आपको सदा सब तरहसे हमारी र ा करनी चा हये’॥ २१ ॥ ऐसा कहकर उन तप ी मु नय ने वनम उ होनेवाले फल, मूल, फू ल तथा अ अनेक कारके आहार से ल ण (और सीता) स हत भगवान् ीरामच जीका स ार कया॥ २२ ॥ इनके सवा दूसरे अ तु तेज ी तथा ाययु बताववाले स तापस ने भी सव र भगवान् ीरामको यथो चत पसे तृ कया॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पहला सग पूरा आ॥ १॥



दस ू रा सग वनके भीतर ीराम, ल



ण और सीतापर वराधका आ मण



रा म उन मह षय का आ त हण करके सबेरे सूय दय होनेपर सम मु नय से वदा ले ीरामच जी पुन: वनम ही आगे बढ़ने लगे॥ १ ॥ जाते-जाते ल णस हत ीरामने वनके म भागम एक ऐसे ानको देखा, जो नाना कारके मृग से ा था। वहाँ ब त-से रीछ और बाघ रहा करते थे। वहाँके वृ , लता और झा ड़याँ न - हो गयी थ । उस वन ा म कसी जलाशयका दशन होना क ठन था। वहाँके प ी वह चहक रहे थे। झ गुर क झंकार गूँज रही थी॥ २-३ ॥ भयंकर जंगली पशु से भरे ए उस दुगम वनम सीताके साथ ीरामच जीने एक नरभ ी रा स देखा, जो पवत शखरके समान ऊँ चा था और उ रसे गजना कर रहा था॥ ४ ॥



उसक आँ ख गहरी, मुँह ब त बड़ा, आकार वकट और पेट वकराल था। वह देखनेम बड़ा भयंकर, घृ णत, बेडौल, ब त बड़ा और वकृ त वेशसे यु था॥ ५ ॥ उसने खूनसे भीगा और चरबीसे गीला ा चम पहन रखा था। सम ा णय को ास प ँ चानेवाला वह रा स यमराजके समान मुँह बाये खड़ा था॥ ६ ॥ वह एक लोहेके शूलम तीन सह, चार बाघ, दो भे ड़ये, दस चतकबरे ह रण और दाँत स हत एक ब त बड़ा हाथीका म क, जसम चब लपटी ◌इ थी, गाँथकर जोर-जोरसे दहाड़ रहा था॥ ७ १/२ ॥ ीराम, ल ण और म थलेशकु मारी सीताको देखते ही वह ोधम भरकर भैरवनाद करके पृ ीको क त करता आ उन सबक ओर उसी कार दौड़ा, जैसे ाणा कारी काल जाक ओर अ सर होता है॥ वह वदेहन नी सीताको गोदम ले कु छ दूर जाकर खड़ा हो गया। फर उन दोन भाइय से बोला— ‘तुम दोन जटा और चीर धारण करके भी ीके साथ रहते हो और हाथम धनुष-बाण और तलवार लये द कवनम घुस आये हो; अत: जान पड़ता है, तु ारा जीवन ीण हो चला है॥ १० १/२ ॥



‘तुम



दोन तो तप ी जान पड़ते हो, फर तु ारा युवती ीके साथ रहना कै से स व आ? अधमपरायण, पापी तथा मु नसमुदायको कल त करनेवाले तुम दोन कौन हो?॥ ११



१/ ॥ २



‘म



वराध नामक रा स ँ और त दन ऋ षय के मांसका भ ण करता आ हाथम अ -श लये इस दुगम वनम वचरता रहता ँ ॥ १२ १/२ ॥ ‘यह ी बड़ी सु री है, अत: मेरी भाया बनेगी और तुम दोन पा पय का म यु लम र पान क ँ गा’॥ दुरा ा वराधक ये दु ता और घमंडसे भरी बात सुनकर जनकन नी सीता घबरा गय और जैसे तेज हवा चलनेपर के लेका वृ जोर-जोरसे हलने लगता है, उसी कार वे उ ेगके कारण थरथर काँपने लग ॥ १४-१५ ॥ शुभल णा सीताको सहसा वराधके चंगुलम फँ सी देख ीरामच जी सूखते ए मुँहसे ल णको स ो धत करके बोले—॥ १६ ॥ ‘सौ ! देखो तो सही, महाराज जनकक पु ी और मेरी सती-सा ी प ी सीता वराधके अ म ववशतापूवक जा प ँ ची ह॥ १७ ॥ ‘अ सुखम पली ◌इ यश नी राजकु मारी सीताक यह अव ा! (हाय! कतने क क बात है!) ल ण! वनम हमारे लये जस दु:खक ा कै के यीको अभी थी और जो कु छ उसे य था, जसके लये उसने वर माँगे थे, वह सब आज ही शी तापूवक स हो गया। तभी तो वह दूरद शनी कै के यी अपने पु के लये के वल रा लेकर नह संतु ◌इ थी॥ १८-१९ ॥ ‘ जसने सम ा णय के लये य होनेपर भी मुझे वनम भेज दया, वह मेरी मझली माता कै के यी आज इस समय सफलमनोरथ ◌इ है॥ २० ॥ ‘ वदेहन नीका दूसरा को◌इ श कर ले, इससे बढ़कर दु:खक बात मेरे लये दूसरी को◌इ नह है। सु म ान न! पताजीक मृ ु तथा अपने रा के अपहरणसे भी उतना क मुझे नह आ था, जतना अब आ है’॥ २१ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर शोकके आँ सू बहाते ए ल ण कु पत हो म से अव ए सपक भाँ त फु फकारते ए बोले—॥ २२ ॥



‘ककु



कु लभूषण! आप इ के समान सम ा णय के ामी एवं संर क ह। मुझ दासके रहते ए आप कस लये अनाथक भाँ त संत हो रहे ह?॥ ‘म अभी कु पत होकर अपने बाणसे इस रा सका वध करता ँ । आज यह पृ ी मेरे ारा मारे गये ाणशू वराधका र पीयेगी॥ २४ ॥ ‘रा क इ ा रखनेवाले भरतपर मेरा जो ोध कट आ था, उसे आज म वराधपर छोडँ गा। जैसे व धारी इ पवतपर अपना व छोड़ते ह॥ २५ ॥ ‘मेरी भुजा के बलके वेगसे वेगवान् होकर छू टा आ मेरा महान् बाण आज वराधके वशाल व : लपर गरे। इसके शरीरसे ाण को अलग करे। त ात् यह वराध च र खाता आ पृ ीपर पड़ जाय’॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म दूसरा सग पूरा आ॥ २॥



तीसरा सग वराध और ीरामक बातचीत, ीराम और ल णके ारा वराधपर हार तथा वराधका इन दोन भाइय को साथ लेकर दस ू रे वनम जाना



तदन र वराधने उस वनको गुँजाते ए कहा—‘अरे! म पूछता ँ , मुझे बताओ। तुम दोन कौन हो और कहाँ जाओगे?’॥ १ ॥ तब महातेज ी ीरामने अपना प रचय पूछते ए लत मुखवाले उस रा ससे इस कार कहा—‘तुझे मालूम होना चा हये क महाराज इ ाकु का कु ल ही मेरा कु ल है। हम दोन भा◌इ सदाचारका पालन करनेवाले य ह और कारणवश इस समय वनम नवास करते ह। अब हम तेरा प रचय जानना चाहते ह। तू कौन है, जो द कवनम े ासे वचर रहा है?’॥ २-३ ॥ यह सुनकर वराधने स परा मी ीरामसे कहा— ‘रघुवंशी नरेश! म स तापूवक अपना प रचय देता ँ । तुम मेरे वषयम सुनो॥ ४ ॥ ‘म ‘जव’ नामक रा सका पु ँ , मेरी माताका नाम ‘शत दा’ है। भूम लके सम रा स मुझे वराधके नामसे पुकारते ह॥ ५ ॥ ‘मने तप ाके ारा ाजीको स करके यह वरदान ा कया है क कसी भी श से मेरा वध न हो। म संसारम अ े और अभे होकर र ँ —को◌इ भी मेरे शरीरको छ भ नह कर सके ॥ ६ ॥ ‘अब तुम दोन इस युवती ीको यह छोड़कर इसे पानेक इ ा न रखते ए जैसे आये हो उसी कार तुरंत यहाँसे भाग जाओ। म तुम दोन के ाण नह लूँगा’॥ ७ ॥ यह सुनकर ीरामच जीक आँ ख ोधसे लाल हो गय । वे पापपूण वचार और वकट आकारवाले उस पापी रा स वराधसे इस कार बोले—॥ ८ ॥ ‘नीच! तुझे ध ार है। तेरा अ भ ाय बड़ा ही खोटा है। न य ही तू अपनी मौत ढूँ ढ़ रहा है और वह तुझे यु म मलेगी। ठहर, अब तू मेरे हाथसे जी वत नह छू ट सके गा’॥ ९ ॥ यह कहकर भगवान् ीरामने अपने धनुषपर ा चढ़ायी और तुरंत ही तीखे बाण का अनुसंधान करके उस रा सको ब धना आर कया॥ १० ॥



उ ने ायु धनुषके ारा वराधके ऊपर लगातार सात बाण छोड़े, जो ग ड़ और वायुके समान महान् वेगशाली थे और सोनेके पंख से सुशो भत हो रहे थे॥ ११ ॥ लत अ के समान तेज ी और मोरपंख लगे ए वे बाण वराधके शरीरको छेदकर र र त हो पृ ीपर गर पड़े॥ १२ ॥ घायल हो जानेपर उस रा सने वदेहकु मारी सीताको अलग रख दया और यं हाथम शूल लये अ कु पत होकर ीराम तथा ल णपर त ाल टूट पड़ा॥ वह बड़े जोरसे गजना करके इ जके समान शूल लेकर उस समय मुँह बाये ए कालके समान शोभा पा रहा था॥ १४ ॥ तब काल, अ क और यमराजके समान उस भयंकर रा स वराधके ऊपर उन दोन भाइय ने लत बाण क वषा आर कर दी॥ १५ ॥ ‘यह देख वह महाभयंकर रा स अ हास करके खड़ा हो गया और जँभा◌इके साथ अँगड़ा◌इ लेने लगा। उसके वैसा करते ही शी गामी बाण उसके शरीरसे नकलकर पृ ीपर गर पड़े॥ १६ ॥ वरदानके स से उस रा स वराधने ाण को रोक लया और शूल उठाकर उन दोन रघुवंशी वीर पर आ मण कया॥ १७ ॥ उसका वह शूल आकाशम व और अ के समान लत हो उठा; परंतु श धा रय म े ीरामच जीने दो बाण मारकर उसे काट डाला॥ १८ ॥ ीरामच जीके बाण से कटा आ वराधका वह शूल व से छ - भ ए मे के शलाख क भाँ त पृ ीपर गर पड़ा॥ १९ ॥ फर तो वे दोन भा◌इ शी ही काले सप के समान दो तलवार लेकर तुरंत उसपर टूट पड़े और त ाल बलपूवक हार करने लगे॥ २० ॥ उनके आघातसे अ घायल ए उस भयंकर रा सने अपनी दोन भुजा से उन अक पु ष सह वीर को पकड़कर अ जानेक इ ा क ॥ २१ ॥ उसके अ भ ायको जानकर ीरामने ल णसे कहा—‘सु म ान न! यह रा स अपनी इ ाके अनुसार हम लोग को इस मागसे ढोकर ले चले। यह जैसा चाहता है, उसी तरह हमारा



वाहन बनकर हम ले चले (इसम बाधा डालनेक आव कता नह है)। जस मागसे यह नशाचर चल रहा है, यही हमलोग के लये आगे जानेका माग है’॥ २२-२३ ॥ अ बलसे उ बने ए नशाचर वराधने अपने बल-परा मसे उन दोन भाइय को बालक क तरह उठाकर अपने दोन कं ध पर बठा लया॥ २४ ॥ उन दोन रघुवंशी वीर को कं धेपर चढ़ा लेनेके बाद रा स वराध भयंकर गजना करता आ वनक ओर चल दया॥ २५ ॥ तदन र उसने एक ऐसे वनम वेश कया, जो महान् मेघ क घटाके समान घना और नीला था। नाना कारके बड़े-बड़े वृ वहाँ भरे ए थे। भाँ त-भाँ तके प य के समुदाय उसे व च शोभासे स बना रहे थे तथा ब त-से गीदड़ और हसक पशु उसम सब ओर फै ले ए थे॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म तीसरा सग पूरा आ॥ ३॥



चौथा सग ीराम और ल



णके ारा वराधका वध



रघुकुलके े वीर ककु कु लभूषण ीराम और ल णको रा स लये जा रहा है— यह देखकर सीता अपनी दोन बाँह ऊपर उठाकर जोर-जोरसे रोने- च ाने लग —॥ १ ॥ ‘हाय! इन स वादी, शीलवान् और शु आचार वचार वाले दशरथन न ीराम और ल णको यह रौ पधारी रा स लये जा रहा है॥ २ ॥ ‘रा स शरोमणे! तु नम ार है। इस वनम रीछ, ा और चीते मुझे खा जायँगे, इस लये तुम मुझे ही ले चलो, कतु इन दोन ककु वंशी वीर को छोड़ दो’॥ ३ ॥ वदेहन नी सीताक यह बात सुनकर वे दोन वीर ीराम और ल ण उस दुरा ा रा सका वध करनेम शी ता करने लगे॥ ४ ॥ सु म ाकु मार ल णने उस रा सक बाय और ीरामने उसक दा हनी बाँह बड़े वेगसे तोड़ डाली॥ ५ ॥ भुजा के टूट जानेपर वह मेघके समान काला रा स ाकु ल हो गया और शी ही मू त होकर व के ारा टूटे ए पवत शखरक भाँ त पृ ीपर गर पड़ा॥ ६ ॥ तब ीराम और ल ण वराधको भुजा , मु और लात से मारने लगे तथा उसे उठा-उठाकर पटकने और पृ ीपर रगड़ने लगे॥ ७ ॥ ब सं क बाण से घायल और तलवार से त व त होनेपर तथा पृ ीपर बार-बार रगड़ा जानेपर भी वह रा स मरा नह ॥ ८ ॥ अव तथा पवतके समान अचल वराधको बारंबार देखकर भयके अवसर पर अभय देनेवाले ीमान् रामने ल णसे यह बात कही—॥ ९ ॥ ‘पु ष सह! यह रा स तप ासे (वर पाकर) अव हो गया है। इसे श के ारा यु म नह जीता जा सकता। इस लये हमलोग नशाचर वराधको परा जत करनेके लये अब ग ा खोदकर गाड़ द॥ १० ॥ ‘ल ण! हाथीके समान भयंकर तथा रौ तेजवाले इस रा सके लये इस वनम ब त बड़ा ग ा खोदो’॥ ११ ॥



इस कार ल णको ग ा खोदनेक आ ा देकर परा मी ीराम अपने एक पैरसे वराधका गला दबाकर खड़े हो गये॥ १२ ॥ ीरामच जीक कही ◌इ यह बात सुनकर रा स वराधने पु ष वर ीरामसे यह वनययु बात कही—॥ १३ ॥ ‘पु ष सह! नर े ! आपका बल देवराज इ के समान है। म आपके हाथसे मारा गया। मोहवश पहले म आपको पहचान न सका॥ १४ ॥ ‘तात! आपके ारा माता कौस ा उ म संतानवाली ◌इ ह। म यह जान गया क आप ही ीरामच जी ह। यह महाभागा वदेहन नी सीता ह और ये आपके छोटे भा◌इ महायश ी ल ण ह॥ १५ ॥ ‘मुझे शापके कारण इस भयंकर रा सशरीरम आना पड़ा था। म तु ु नामक ग व ँ । कु बेरने मुझे रा स होनेका शाप दया था॥ १६ ॥ ‘जब मने उ स करनेक चे ा क , तब वे महायश ी कु बेर मुझसे इस कार बोले —‘ग व! जब दशरथन न ीराम यु म तु ारा वध करगे, तब तुम अपने पहले पको ा होकर गलोकको जाओगे॥ १७ १/२ ॥ ‘म र ा नामक अ राम आस था, इस लये एक दन ठीक समयसे उनक सेवाम उप त न हो सका। इसी लये कु पत हो राजा वै वण (कु बेर) ने मुझे पूव शाप देकर उससे छू टनेक अव ध बतायी थी॥ १८ १/२ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले रघुवीर! आज आपक कृ पासे मुझे उस भयंकर शापसे छु टकारा मल गया। आपका क ाण हो, अब म अपने लोकको जाऊँ गा॥ ‘तात! यहाँसे डेढ़ योजनक दूरीपर सूयके समान तेज ी तापी और धमा ा महामु न शरभ नवास करते ह। उनके पास आप शी चले जाइये, वे आपके क ाणक बात बतायगे॥ २०-२१ ॥ ‘ ीराम! आप मेरे शरीरको ग म े गाड़कर कु शलपूवक चले जाइये। मरे ए रा स के शरीरको ग मे गाड़ना (क खोदकर उसम दफना देना) यह उनके लये सनातन (पर रा ा ) धम है॥ २२ ॥



‘जो रा



स ग मे गाड़ दये जाते ह, उ सनातन लोक क ा होती है।’ ीरामसे ऐसा कहकर बाण से पी ड़त आ महाबली वराध (जब उसका शरीर ग मे डाला गया, तब) उस शरीरको छोड़कर गलोकको चला गया॥ २३ १/२ ॥ (वह कस तरह ग म े डाला गया?—यह बात अब बतायी जाती है—) उसक बात सुनकर ीरघुनाथजीने ल णको आ ा दी—‘ल ण! भयंकर कम करनेवाले तथा हाथीके समान भयानक इस रा सके लये इस वनम ब त बड़ा ग ा खोदो’॥ २४-२५ ॥ इस कार ल णको ग ा खोदनेका आदेश दे परा मी ीराम एक पैरसे वराधका गला दबाकर खड़े हो गये॥ २६ ॥ तब ल णने फावड़ा लेकर उस वशालकाय वराधके पास ही एक ब त बड़ा ग ा खोदकर तैयार कया॥ २७ ॥ तब ीरामने उसके गलेको छोड़ दया और ल णने खूँटे-जैसे कानवाले उस वराधको उठाकर उस ग मे डाल दया, उस समय वह बड़ी भयानक आवाजम जोर-जोरसे गजना कर रहा था॥ २८ ॥ यु म र रहकर शी तापूवक परा म कट करनेवाले उन दोन भा◌इ ीराम और ल णने रणभू मम ू रतापूण कम करनेवाले उस भयंकर रा स वराधको बलपूवक उठाकर ग मे फ क दया। उस समय वह जोर-जोरसे च ा रहा था। उसे ग मे डालकर वे दोन ब ु बड़े स ए॥ २९ ॥ महान् असुर वराधका तीखे श से वध होनेवाला नह है, यह देखकर अ कु शल दोन भा◌इ नर े ीराम और ल णने उस समय ग ा खोदकर उस ग मे उसे डाल दया और उसे म ीसे पाटकर उस रा सका वध कर डाला॥ ३० ॥ वा वम ीरामके हाथसे ही हठपूवक मरना उसे अभी था। उस अपनी मनोवा त मृ ुक ा के उ े से यं वनचारी वराधने ही ीरामको यह बता दया था क श ारा मेरा वध नह हो सकता॥ ३१ ॥ उसक कही ◌इ उसी बातको सुनकर ीरामने उसे ग मे गाड़ देनेका वचार कया था। जब वह ग मे डाला जाने लगा, उस समय उस अ बलवान् रा सने अपनी च ाहटसे सारे वन ा को गुँजा दया॥



रा स वराधको पृ ीके अंदर ग मे गराकर ीराम और ल णने बड़ी स ताके साथ उसे ऊपरसे ब तेरे प र डालकर पाट दया। फर वे नभय हो उस महान् वनम सान वचरने लगे॥ ३३ ॥ इस कार उस रा सका वध करके म थलेश-कु मारी सीताको साथ ले सोनेके व च धनुष से सुशो भत हो वे दोन भा◌इ आकाशम त ए च मा और सूयक भाँ त उस महान् वनम आन म हो वचरण करने लगे॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म चौथा सग पूरा आ॥ ४॥



पाँचवाँ सग ीराम, ल



ण और सीताका शरभ मु नके आ मपर जाना, देवता का दशन करना और मु नसे स ा नत होना तथा शरभ मु नका लोक-गमन



वनम उस भयंकर बलशाली रा स वराधका वध करके परा मी ीरामने सीताको दयसे लगाकर सा ना दी और उ ी तेजवाले भा◌इ ल णसे इस कार कहा —‘सु म ान न! यह दुगम वन बड़ा क द है। हमलोग इसके पहले कभी ऐसे वन म नह रहे ह (अत: यहाँके क का न तो अनुभव है और न अ ास ही है)। अ ा! हमलोग अब शी ही तपोधन शरभ जीके पास चल’—ऐसा कहकर ीरामच जी शरभ मु नके आ मपर गये॥ १ —३ ॥ देवता के तु भावशाली तथा तप ासे शु अ :करणवाले (अथवा तपके ारा पर परमा ाका सा ा ार करनेवाले) शरभ मु नके समीप जानेपर ीरामने एक बड़ा अ तु देखा॥ ४ ॥ वहाँ उ ने आकाशम एक े रथपर बैठे ए देवता के ामी इ देवका दशन कया, जो पृ ीका श नह कर रहे थे। उनक अ का सूय और अ के समान का शत होती थी। वे अपने तेज ी शरीरसे देदी मान हो रहे थे। उनके पीछे और भी ब त-से देवता थे। उनके दी मान् आभूषण चमक रहे थे तथा उ ने नमल व धारण कर रखा था॥ ५-६ ॥ उ के समान वेशभूषावाले दूसरे ब त-से महा ा इ देवक पूजा ( ु त- शंसा) कर रहे थे। उनका रथ आकाशम खड़ा था और उसम हरे रंगके घोड़े जुते ए थे। ीरामने नकटसे उस रथको देखा। वह नवो दत सूयके समान का शत होता था॥ ७ १/२ ॥ उ ने यह भी देखा क इ के म कके ऊपर ेत बादल के समान उ ल तथा च म लके समान का मान् नमल छ तना आ है, जो व च फू ल क माला से सुशो भत है॥ ८ १/२ ॥ ीरामने सुवणमय डंडवे ाले दो े एवं ब मू चँवर और जन भी देखे, ज दो सु रयाँ लेकर देवराजके म कपर हवा कर रही थ ॥ ९ १/२ ॥



उस समय ब त-से ग व, देवता, स और मह षगण उ म वचन ारा अ र म वराजमान देवे क ु त करते थे और देवराज इ शरभ मु नके साथ वातालाप कर रहे थे। वहाँ इस कार शत तु इ का दशन करके ीरामने उनके अ तु रथक ओर अँगुलीसे संकेत करते ए उसे भा◌इको दखाया और ल णसे इस कार कहा—॥ १०—१२ ॥ ‘ल ण! आकाशम वह अ तु रथ तो देखो, उससे तेजक लपट नकल रही ह। वह सूयके समान तप रहा है। शोभा मानो मू तमती होकर उसक सेवा करती है॥ १३ ॥ ‘हमलोग ने पहले देवराज इ के जन द घोड़ के वषयम जैसा सुन रखा है, न य ही आकाशम ये वैसे ही द अ वराजमान ह॥ १४ ॥ ‘पु ष सह! इस रथके दोन ओर जो ये हाथ म खड् ग लये कु लधारी सौ-सौ युवक खड़े ह, इनके व : ल वशाल एवं व ृत ह, भुजाएँ प रघ के समान सु ढ़ एवं बड़ी-बड़ी ह। ये सब-के -सब लाल व धारण कये ए ह और ा के समान दुजय तीत होते ह॥ १५-१६ ॥ ‘सु म



ान न! इन सबके दयदेश म अ के समान तेजसे जगमगाते ए हार शोभा पाते ह। ये नवयुवक पचीस वष क अव ाका प धारण करते ह॥ १७ ॥ ‘कहते ह, देवता क सदा ऐसी ही अव ा रहती है, जैसे ये पु ष वर दखायी देते ह। इनका दशन कतना ारा लगता है॥ १८ ॥ ‘ल ण! जबतक क म पसे यह पता न लगा लूँ क रथपर बैठे ए ये तेज ी पु ष कौन ह? तबतक तुम वदेहन नी सीताके साथ एक मु ततक यह ठहरो’॥ १९ ॥ इस कार सु म ाकु मारको वह ठहरनेका आदेश देकर ीरामच जी टहलते ए शरभ मु नके आ मपर गये॥ २० ॥ ीरामको आते देख शचीप त इ ने शरभ मु नसे वदा ले देवता से इस कार कहा —॥ २१ ॥ ‘ ीरामच जी यहाँ आ रहे ह। वे जबतक मुझसे को◌इ बात न कर, उसके पहले ही तुमलोग मुझे यहाँसे दूसरे ानम ले चलो। इस समय ीरामसे मेरी मुलाकात नह होनी चा हये॥ २२ ॥



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वह महान् कम करना है, जसका स ादन करना दूसर के लये ब त क ठन है। जब ये रावणपर वजय पाकर अपना कत पूण करके कृ ताथ हो जायँगे, तब म शी ही आकर इनका दशन क ँ गा’॥ २३ ॥ यह कहकर व धारी श ुदमन इ ने तप ी शरभ का स ार कया और उनसे पूछकर अनुम त ले वे घोड़े जुते ए रथके ारा गलोकको चल दये॥ सह ने धारी इ के चले जानेपर ीरामच जी अपनी प ी और भा◌इके साथ शरभ मु नके पास गये। उस समय वे अ के समीप बैठकर अ हो कर रहे थे॥ २५ ॥ ीराम, सीता और ल णने मु नके चरण म णाम कया और उनक आ ासे वहाँ बैठ गये। शरभ जीने उ आ त के लये नम ण दे ठहरनेके लये ान दया॥ २६ ॥ तदन र ीरामच जीने उनसे इ के आनेका कारण पूछा। तब शरभ मु नने ीरघुनाथजीसे सब बात नवेदन करते ए कहा—॥ २७ ॥ ‘ ीराम! ये वर देनेवाले इ मुझे लोकम ले जाना चाहते ह। मने अपनी उ तप ासे उस लोकपर वजय पायी है। जनक इ याँ वशम नह ह, उन पु ष के लये वह अ दुलभ है॥ २८ ॥ ‘पु ष सह! परंतु जब मुझे मालूम हो गया क आप इस आ मके नकट आ गये ह, तब मने न य कया क आप-जैसे य अ त थका दशन कये बना म लोकको नह जाऊँ गा॥ २९ ॥ ‘नर े ! आप धमपरायण महा ा पु षसे मलकर ही म गलोक तथा उससे ऊपरके लोकको जाऊँ गा॥ ३० ॥ ‘पु ष शरोमणे! मने लोक और गलोक आ द जन अ य शुभ लोक पर वजय पायी है, मेरे उन सभी लोक को आप हण कर’॥ ३१ ॥ शरभ मु नके ऐसा कहनेपर स ूण शा के ाता नर े ीरघुनाथजीने यह बात कही —॥ ३२ ॥ ‘महामुने! म ही आपको उन सब लोक क ा कराऊँ गा। इस समय तो म इस वनम आपके बताये ए ानपर नवासमा करना चाहता ँ ’॥ ३३ ॥



इ के समान बलशाली ीरामच जीके ऐसा कहनेपर महा ानी शरभ मु न फर बोले —॥ ३४ ॥ ‘ ीराम! इस वनम थोड़ी ही दूरपर महातेज ी धमा ा सुती ण मु न नयमपूवक नवास करते ह। वे ही आपका क ाण (आपके लये ान आ दका ब ) करगे॥ ३५ ॥ ‘आप इस रमणीय वन ा के उस प व ानम तप ी सुती ण मु नके पास चले जाइये। वे आपके नवास ानक व ा करगे॥ ३६ ॥ ‘ ीराम! आप फू लके समान छोटी-छोटी ड गय से पार होने यो अथवा पु मयी नौकाको बहानेवाली इस म ा कनी नदीके ोतके वपरीत दशाम इसीके कनारे- कनारे चले जाइये। इससे वहाँ प ँ च जाइयेगा॥ ३७ ॥ ‘नर े ! यही वह माग है, परंतु तात! दो घड़ी यह ठह रये और जबतक पुरानी कचुलका ाग करनेवाले सपक भाँ त म अपने इन जराजीण अ का ाग न कर दूँ, तबतक मेरी ही ओर दे खये’॥ ३८ ॥ य कहकर महातेज ी शरभ मु नने व धवत् अ क ापना करके उसे लत कया और म ो ारणपूवक घीक आ त देकर वे यं भी उस अ म व हो गये॥ ३९ ॥ उस समय अ ने उन महा ाके रोम, के श, जीण चा, ह ी, मांस और र सबको जलाकर भ कर दया॥ ४० ॥ वे शरभ मु न अ तु तेज ी कु मारके पम कट हो गये और उस अ रा शसे ऊपर उठकर बड़ी शोभा पाने लगे॥ ४१ ॥ वे अ हो ी पु ष , महा ा मु नय और देवता के भी लोक को लाँघकर लोकम जा प ँ चे॥ ४२ ॥ पु कम करनेवाले ज े शरभ ने लोकम पाषद स हत पतामह ाजीका दशन कया। ाजी भी उन षको देखकर बड़े स ए और बोले— ‘महामुने! तु ारा शुभ ागत है’॥ ४३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पाँचवाँ सग पूरा आ॥ ५॥



छठा सग वान



मु नय का रा स के अ ाचारसे अपनी र ाके लये ीरामच जीसे ाथना करना और ीरामका उ आ ासन देना



शरभ मु नके लोक चले जानेपर लत तेजवाले ककु वंशी ीरामच जीके पास ब त-से मु नय के समुदाय पधारे॥ १ ॥ उनम वैखानस१, वाल ख २, स ाल३, मरी चप४, ब सं क अ कु ५, प ाहार६, द ोलूखली७, उ क८, गा श ९, अश १०, अनवका शक११, स ललाहार१२, वायुभ १३, आकाश नलय१४, लशायी१५, ऊ वासी१६, दा १७, आ पटवासा१८, सजप१९, तपो न २० और प ा सेवी२१—इन सभी े णय के तप ी मु न थे॥ २—५ ॥ वे सभी तप ी तेजसे स थे और सु ढ़ योगके अ ाससे उन सबका च एका हो गया था। वे सब-के -सब शरभ मु नके आ मपर ीरामच जीके समीप आये॥ ६ ॥ धमा ा म े परम धम ीरामच जीके पास आकर वे धमके ाता समागत ऋ षसमुदाय उनसे बोले—॥ ७ ॥ ‘रघुन न! आप इस इ ाकु वंशके साथ ही सम भूम लके भी ामी, संर क एवं धान महारथी वीर ह। जैसे इ देवता के र क ह, उसी कार आप मनु लोकक र ा करनेवाले ह॥ ८ ॥ ‘आप अपने यश और परा मसे तीन लोक म व ात ह। आपम पताक आ ाके पालनका त, स भाषण तथा स ूण धम व मान ह॥ ९ ॥ ‘नाथ! आप महा ा, धम और धमव ल ह। हम आपके पास ाथ होकर आये ह; इसी लये ये ाथक बात नवेदन करना चाहते ह। आपको इसके लये हम मा करना चा हये॥ १० ॥ ‘ ा मन्! जो राजा जासे उसक आयका छठा भाग करके पम ले ले और पु क भाँ त जाक र ा न करे, उसे महान् अधमका भागी होना पड़ता है॥ ११ ॥ ‘ ीराम! जो भूपाल जाक र ाके कायम संल हो अपने रा म नवास करनेवाले सब लोग को ाण के समान अथवा ाण से भी अ धक य पु के समान समझकर सदा



सावधानीके साथ उनक र ा करता है, वह ब त वष तक र रहनेवाली अ य क त पाता है और अ म लोकम जाकर वहाँ भी वशेष स ानका भागी होता है॥ १२-१३ ॥ ‘राजाके रा म मु न फल-मूलका आहार करके जस उ म धमका अनु ान करता है, उसका चौथा भाग धमके अनुसार जाक र ा करनेवाले उस राजाको ा हो जाता है॥ १४ ॥



ीराम! इस वनम रहनेवाला वान महा ा का यह महान् समुदाय, जसम ा ण क ही सं ा अ धक है तथा जसके र क आप ही ह, रा स के ारा अनाथक तरह मारा जा रहा है—इस मु न-समुदायका ब त अ धक मा ाम संहार हो रहा है॥ १५ ॥ ‘आइये, दे खये, ये भयंकर रा स ारा बार ार अनेक कारसे मारे गये ब सं क प व ा ा मु नय के शरीर (शव या कं काल) दखायी देते ह॥ १६ ॥ ‘प ा सरोवर और उसके नकट बहनेवाली तु भ ा नदीके तटपर जनका नवास है, जो म ा कनीके कनारे रहते ह तथा ज ने च कू टपवतके कनारे अपना नवास ान बना लया है, उन सभी ऋ ष-मह षय का रा स ारा महान् संहार कया जा रहा है॥ १७ ॥ ‘इन भयानक कम करनेवाले रा स ने इस वनम तप ी मु नय का जो ऐसा भयंकर वनाशका मचा रखा है, वह हमलोग से सहा नह जाता है॥ १८ ॥ ‘अत: इन रा स से बचनेके लये शरण लेनेके उ े से हम आपके पास आये ह। ीराम! आप शरणागतव ल ह, अत: इन नशाचर से मारे जाते ए हम मु नय क र ा क जये॥ १९ ॥ ‘वीर राजकु मार! इस भूम लम हम आपसे बढ़कर दूसरा को◌इ सहारा नह दखायी देता। आप इन रा स से हम सबको बचाइये’॥ २० ॥ तप ाम लगे रहनेवाले उन तप ी मु नय क ये बात सुनकर ककु कु लभूषण धमा ा ीरामने उन सबसे कहा—॥ २१ ॥ ‘मु नवरो! आपलोग मुझसे इस कार ाथना न कर। म तो तप ी महा ा का आ ापालक ँ । मुझे के वल अपने ही कायसे वनम तो वेश करना ही है (इसके साथ ही आपलोग क सेवाका सौभा भी मुझे ा हो जायगा)॥ २२ ॥ ‘



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स के ारा जो आपको यह क प ँ च रहा है, इसे दूर करनेके लये ही म पताके आदेशका पालन करता आ इस वनम आया ँ ॥ २३ ॥ ‘आपलोग के योजनक स के लये म दैवात् यहाँ आ प ँ चा ँ । आपक सेवाका अवसर मलनेसे मेरे लये यह वनवास महान् फलदायक होगा॥ २४ ॥ ‘तपोधनो! म तप ी मु नय से श ुता रखनेवाले उन रा स का यु म संहार करना चाहता ँ । आप सब मह ष भा◌इस हत मेरा परा म देख’॥ २५ ॥ इस कार उन तपोधन को वर देकर धमम मन लगानेवाले तथा े दान देनेवाले वीर ीरामच जी ल ण तथा तप ी महा ा के साथ सुती ण मु नके पास गये॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म छठा सग पूरा आ॥ ६॥ १. ऋ षय का एक समुदाय जो ाजीके नखसे उ आ है। २. ाजीके बाल (रोम) से कट ए मह षय का समूह। ३. जो भोजनके बाद अपने बतन धो-प छकर रख देते ह, दूसरे समयके लये कु छ नह बचाते। ४. सूय अथवा च माक करण का पान करके रहनेवाले। ५. क े अ को प रसे कू टकर खानेवाले। ६. प का आहार करनेवाले। ७. दाँत से ही ऊखलका काम लेनेवाले। ८. क तक पानीम डू बकर तप ा करनेवाले। ९. शरीरसे ही श ाका काम लेनेवाले अथात् बना बछौनेके ही भुजापर सर रखकर सोनेवाले। १०. श ाके साधन से र हत। ११. नर र स मम लगे रहनेके कारण कभी अवकाश न पानेवाले। १२. जल पीकर रहनेवाले। १३. हवा पीकर जीवन नवाह करनेवाले। १४. खुले मैदानम रहनेवाले। १५. वेदीपर सोनेवाले। १६. पवत शखर आ द ऊँ चे ान म नवास करनेवाले। १७. मन और इ य को वशम रखनेवाले। १८. सदा भीगे कपड़े पहननेवाले। १९. नर र जप करनेवाले। २०. तप ा अथवा परमा त के वचारम त रहनेवाले। २१. गम के मौसमम ऊपरसे सूयका और चार ओरसे अ का ताप सहन करनेवाले।



सातवाँ सग सीता और ातास हत ीरामका सुती णके आ मपर जाकर उनसे बातचीत करना तथा उनसे स ृ त हो रातम वह ठहरना



श ु को संताप देनेवाले ीरामच जी ल ण, सीता तथा उन ा ण के साथ सुती ण मु नके आ मक ओर चले॥ १ ॥ वे दूरतकका माग तै करके अगाध जलसे भरी ◌इ ब त-सी न दय को पार करते ए जब आगे गये, तब उ महान् मे ग रके समान एक अ ऊँ चा पवत दखायी दया, जो बड़ा ही नमल था॥ २ ॥ वहाँसे आगे बढ़कर वे दोन इ ाकु कु लके े वीर रघुवंशी ब ु सीताके साथ नाना कारके वृ से भरे ए एक वनम प ँ चे॥ ३ ॥ उस घोर वनम व हो ीरघुनाथजीने एका ानम एक आ म देखा, जहाँके वृ चुर फल-फू ल से लदे ए थे। इधर-उधर टँगे ए चीर व के समुदाय उस आ मक शोभा बढ़ाते थे॥ ४ ॥ वहाँ आ रक मलक शु के लये प ासन धारण कये सुती ण मु न ानम होकर बैठे थे। ीरामने उन तपोधन मु नके पास व धवत् जाकर उनसे इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘स परा मी धम महष! भगवन्! म राम ँ और यहाँ आपका दशन करनेके लये आया ँ , अत: आप मुझसे बात क जये’॥ ६ ॥ धमा ा म े भगवान् ीरामका दशन करके धीर मह ष सुती णने अपनी दोन भुजा से उनका आ ल न कया और इस कार कहा—॥ ७ ॥ ‘स वा दय म े रघुकुलभूषण ीराम! आपका ागत है। इस समय आपके पदापण करनेसे यह आ म सनाथ हो गया॥ ८ ॥ ‘महायश ी वीर! म आपक ही ती ाम था, इसी लये अबतक इस पृ ीपर अपने शरीरको ागकर म यहाँसे देवलोक ( धाम) म नह गया॥ ९ ॥ ‘मने सुना था क आप रा से हो च कू ट पवतपर आकर रहते ह। काकु ! यहाँ सौ य का अनु ान करनेवाले देवराज इ आये थे॥ १० ॥



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महान् देवता देवे र इ देव मेरे पास आकर कह रहे थे क ‘तुमने अपने पु कमके ारा सम शुभ लोक पर वजय पायी है’॥ ११ ॥ ‘उनके कथनानुसार मने तप ासे जन देव षसे वत लोक पर अ धकार ा कया है, उन लोक म आप सीता और ल णके साथ वहार कर। म बड़ी स ताके साथ वे सारे लोक आपक सेवाम सम पत करता ँ ’॥ जैसे इ ाजीसे बात करते ह, उसी कार मन ी ीरामने उन उ तप ावाले तेज ी एवं स वादी मह षको इस कार उ र दया—॥ १३ ॥ ‘महामुने! वे लोक तो म यं ही आपको ा कराऊँ गा, इस समय तो मेरी यह इ ा है क आप बताव क म इस वनम अपने ठहरनेके लये कहाँ कु टया बनाऊँ ?॥ १४ ॥ ‘आप सम ा णय के हतम त र तथा इहलोक और परलोकक सभी बात के ानम नपुण ह, यह बात मुझसे गौतमगो ीय महा ा शरभ ने कही थी’॥ १५ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर उन लोक व ात मह षने बड़े हषके साथ मधुर वाणीम कहा—॥ १६ ॥ ‘ ीराम! यही आ म सब कारसे गुणवान् (सु वधाजनक) है, अत: आप यह सुखपूवक नवास क जये। यहाँ ऋ षय का समुदाय सदा आता-जाता रहता है और फल-मूल भी सवदा सुलभ होते ह॥ १७ ॥ ‘इस आ मपर बड़े-बड़े मृग के ंडु आते और अपने प, का एवं ग तसे मनको लुभाकर कसीको क दये बना ही यहाँसे लौट जाते ह। उ यहाँ कसीसे को◌इ भय नह ा होता है॥ १८ ॥ ‘इस आ मम मृग के उप वके सवा और को◌इ दोष नह है, यह आप न त पसे जान ल।’ मह षका यह वचन सुनकर ल णके बड़े भा◌इ धीर-वीर भगवान् ीरामने हाथम धनुष-बाण लेकर कहा—॥ १९ १/२ ॥ ‘महाभाग! यहाँ आये ए उन उप वकारी मृगसमूह को य द म क ु ◌इ गाँठ और तीखी धारवाले बाणसे मार डालूँ तो इसम आपका अपमान होगा। य द ऐसा आ तो इससे बढ़कर क क बात मेरे लये और ा हो सकती है?॥ २०-२१ ॥



‘इस लये म इस आ



मम अ धक समय नह नवास करना चाहता।’ मु नसे ऐसा कहकर मौन हो ीरामच जी सं ोपासना करने चले गये॥ २२ ॥ सायंकालक सं ोपासना करके ीरामने सीता और ल णके साथ सुती ण मु नके उस रमणीय आ मम नवास कया॥ २३ ॥ सं ाका समय बीतनेपर रात ◌इ देख महा ा सुती णने यं ही तप ी-जन के सेवन करने यो शुभ अ ले आकर उन दोन पु ष शरोम ण ब ु को बड़े स ारके साथ अ पत कया॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म सातवाँ सग पूरा आ॥ ७॥



आठवाँ सग ात:काल सुती णसे वदा ले ीराम, ल



ण, सीताका वहाँसे



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सुती णके ारा भलीभाँ त पू जत हो ल णस हत ीराम उनके आ मम ही रात बताकर ात:काल जाग उठे ॥ १ ॥ सीतास हत ीराम और ल णने ठीक समयसे उठकर कमलक सुग से सुवा सत परम शीतल जलके ारा ान कया। तदन र उन तीन ने ही मलकर व धपूवक अ और देवता क ात:का लक पूजा क । इसके बाद तप ीजन के आ यभूत वनम उ दत ए सूयदेवका दशन करके वे तीन न ाप प थक सुती ण मु नके पास गये और यह मधुर वचन बोले—॥ २—४ ॥ ‘भगवन्! आपने पूजनीय होकर भी हमलोग क पूजा क है। हम आपके आ मम बड़े सुखसे रहे ह। अब हम यहाँसे जायँग,े इसके लये आपक आ ा चाहते ह। ये मु न हम चलनेके लये ज ी मचा रहे ह॥ ५ ॥ ‘हमलोग द कार म नवास करनेवाले पु ा ा ऋ षय के स ूण आ मम लका दशन करनेके लये उतावले हो रहे ह॥ ६ ॥ ‘अत: हमारी इ ा है क आप धूमर हत अ के समान तेज ी, तप ा ारा इ य को वशम रखनेवाले तथा न -धमपरायण इन े मह षय के साथ यहाँसे जानेके लये हम आ ा द॥ ७ ॥ ‘जैसे अ ायसे आयी ◌इ स को पाकर कसी नीच कु लके मनु म अस उ ता आ जाती है, उसी कार यह सूयदेव जबतक अस ताप देनेवाले होकर च तेजसे का शत न होने लग, उसके पहले ही हम यहाँसे चल देना चाहते ह।’ ऐसा कहकर ल ण और सीतास हत ीरामने मु नके चरण क व ना क ॥ अपने चरण का श करते ए ीराम और ल णको उठाकर मु नवर सुती णने कसकर दयसे लगा लया और बड़े ेहसे इस कार कहा—॥ १० ॥ ‘ ीराम! आप छायाक भाँ त अनुसरण करनेवाली इस धमप ी सीता तथा सु म ाकु मार ल णके साथ या ा क जये। आपका माग व -बाधा से र हत परम म लमय हो॥ ११ ॥



‘वीर!



तप ासे शु अ :करणवाले द कार वासी इन तप ी मु नय के रमणीय आ म का दशन क जये॥ १२ ॥ ‘इस या ाम आप चुर फल-मूल से यु तथा फू ल से सुशो भत अनेक वन देखगे; वहाँ उ म मृग के ंडु वचरते ह गे और प ी शा भावसे रहते ह गे॥ १३ ॥ ‘आपको ब त-से ऐसे तालाब और सरोवर दखायी दगे, जनम फु कमल के समूह शोभा दे रहे ह गे। उनम जल भरे ह गे तथा कार व आ द जलप ी सब ओर फै ल रहे ह गे॥ १४ ॥ ‘ने को रमणीय तीत होनेवाले पहाड़ी झरन और मोर क मीठी बोलीसे गूँजती ◌इ सुर वन लय को भी आप देखगे॥ १५ ॥ ‘ ीराम! जाइये, व सु म ाकु मार! तुम भी जाओ। द कार के आ म का दशन करके आपलोग को फर इसी आ मम आ जाना चा हये’॥ १६ ॥ उनके ऐसा कहनेपर ल णस हत ीरामने ‘ब त अ ा’ कहकर मु नक प र मा क और वहाँसे ान करनेक तैयारी क ॥ १७ ॥ तदन र वशाल ने वाली सीताने उन दोन भाइय के हाथम दो परम सु र तूणीर, धनुष और चमचमाते ए खड् ग दान कये॥ १८ ॥ उन सु र तूणीर को पीठपर बाँधकर टंकारते ए धनुष को हाथम ले वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण आ मसे बाहर नकले॥ १९ ॥ वे दोन रघुवंशी वीर बड़े ही पवान् थे, उ ने खड् ग और धनुष धारण करके मह षक आ ा ले सीताके साथ शी ही वहाँसे ान कया॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म आठवाँ सग पूरा आ॥ ८॥



नवाँ सग सीताका ीरामसे नरपराध ा णय को न मारने और अ हसा-धमका पालन करनेके लये अनुरोध



सुती णक आ ा लेकर वनक ओर त ए अपने ामी रघुकुलन न ीरामसे सीताने ेहभरी मनोहर वाणीम इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘आयपु ! य प आप महान् पु ष ह तथा प अ सू व धसे वचार करनेपर आप अधमको ा हो रहे ह। जब कामज नत सनसे आप सवथा नवृ ह, तब यहाँ इस अधमसे भी बच सकते ह॥ २ ॥ ‘इस जग कामसे उ होनेवाले तीन ही सन होते ह। म ाभाषण ब त बड़ा सन है, कतु उससे भी भारी दो सन और ह—पर ीगमन और बना वैरके ही दूसर के त ू रतापूण बताव। रघुन न! इनमसे म ाभाषण प सन तो न आपम कभी आ है और न आगे होगा ही॥ ३-४ ॥ ‘पर ी वषयक अ भलाषा तो आपको हो ही कै से सकती है? नरे ! धमका नाश करनेवाली यह कु त इ ा न आपके मनम कभी ◌इ थी, न है और न भ व म कभी होनेक स ावना ही है। राजकु मार ीराम! यह दोष तो आपके मनम भी कभी उ दत नह आ है। ( फर वाणी और याम कै से आ सकता है?) आप सदा ही अपनी धमप ीम अनुर रहनेवाले, धम न , स त तथा पताक आ ाका पालन करनेवाले ह। आपम धम और स दोन क त है। आपम ही सब कु छ त त है॥ ५—७ ॥ ‘महाबाहो! जो लोग जते य ह, वे सदा स और धमको पूण पसे धारण कर सकते ह। शुभदश महापु ष! आपक जते यताको म अ ी तरह जानती ँ (इसी लये मुझे व ास है क आपम पूव दोन दोष कदा प नह रह सकते)॥ ८ ॥ ‘परंतु दूसर के ाण क हसा प जो यह तीसरा भयंकर दोष है, उसे लोग मोहवश बना वैर वर ◌ोधके भी कया करते ह। वही दोष आपके सामने भी उप त है॥ ९ ॥ ‘वीर! आपने द कार नवासी ऋ षय क र ाके लये यु म रा स का वध करनेक त ा क है॥ १० ॥



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लये आप भा◌इके साथ धनुष-बाण लेकर द कार के नामसे व ात वनक ओर त ए ह॥ ११ ॥ ‘अत: आपको इस घोर कमके लये त आ देख मेरा च च ासे ाकु ल हो उठा है। आपके त ा-पालन प तका वचार करके म सदा यही सोचती रहती ँ क कै से आपका क ाण हो?॥ १२ ॥ ‘वीर! मुझे इस समय आपका द कार म जाना अ ा नह लगता है। इसका ा कारण है—यह बता रही ँ ; आप मेरे मुँहसे सु नये॥ १३ ॥ ‘आप हाथम धनुष-बाण लेकर अपने भा◌इके साथ वनम आये ह। स व है, सम वनचारी रा स को देखकर कदा चत् आप उनके त अपने बाण का योग कर बैठ॥ १४ ॥ ‘जैसे आगके समीप रखे ए ◌इं धन उसके तेज प बलको अ उ ी कर देते ह, उसी कार जहाँ य के पास धनुष हो तो वह उनके बल और तापको उ धत कर देता है॥ १५ ॥ ‘महाबाहो! पूवकालक बात है, कसी प व वनम, जहाँ मृग और प ी बड़े आन से रहते थे, एक स वादी एवं प व तप ी नवास करते थे॥ १६ ॥ ‘उ क तप ाम व डालनेके लये शचीप त इ कसी यो ाका प धारण करके हाथम तलवार लये एक दन उनके आ मपर आये॥ १७ ॥ ‘उ ने मु नके आ मम अपना उ म खड् ग रख दया। प व तप ाम लगे ए मु नको धरोहरके पम वह खड् ग दे दया॥ १८ ॥ ‘उस श को पाकर मु न उस धरोहरक र ाम लग गये। वे अपने व ासक र ाके लये वनम वचरते समय भी उसे साथ रखते थे॥ १९ ॥ ‘धरोहरक र ाम त र रहनेवाले वे मु न फल-मूल लानेके लये जहाँ-कह भी जाते, उस खड् गको साथ लये बना नह जाते थे॥ २० ॥ ‘तप ही जनका धन था, उन मु नने त दन श ढोते रहनेके कारण मश: तप ाका न य छोड़कर अपनी बु को ू रतापूण बना लया॥ २१ ॥ ‘ फर तो अधमने उ आकृ कर लया। वे मु न मादवश रौ -कमम त र हो गये और उस श के सहवाससे उ नरकम जाना पड़ा॥ २२ ॥



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कार श का संयोग होनेके कारण पूवकालम उन तप ी मु नको ऐसी दुदशा भोगनी पड़ी। जैसे आगका संयोग ◌इं धन को जलानेका कारण होता है, उसी कार श का संयोग श धारीके दयम वकारका उ ादक कहा गया है॥ २३ ॥ ‘मेरे मनम आपके त जो ेह और वशेष आदर है, उसके कारण म आपको उस ाचीन घटनाक याद दलाती ँ तथा यह श ा भी देती ँ क आपको धनुष लेकर कसी तरह बना वैरके ही द कार वासी रा स के वधका वचार नह करना चा हये। वीरवर! बना अपराधके ही कसीको मारना संसारके लोग अ ा नह समझगे॥ २४-२५ ॥ ‘अपने मन और इ य को वशम रखनेवाले य वीर के लये वनम धनुष धारण करनेका इतना ही योजन है क वे संकटम पड़े ए ा णय क र ा कर॥ २६ ॥ ‘कहाँ श -धारण और कहाँ वनवास! कहाँ यका हसामय कठोर कम और कहाँ सब ा णय पर दया करना प तप—ये पर र व जान पड़ते ह। अत: हमलोग को देशधमका ही आदर करना चा हये (इस समय हम तपोवन प देशम नवास करते ह, अत: यहाँके अ हसामय धमका पालन करना ही हमारा कत है)॥ २७ ॥ ‘के वल श का सेवन करनेसे मनु क बु कृ पण पु ष के समान कलु षत हो जाती है; अत: आप अयो ाम चलनेपर ही पुन: ा धमका अनु ान क जयेगा॥ २८ ॥ ‘रा ागकर वनम आ जानेपर य द आप मु नवृ से ही रह तो इससे मेरी सास और शुरको अ य स ता होगी॥ २९ ॥ ‘धमसे अथ ा होता है, धमसे सुखका उदय होता है और धमसे ही मनु सब कु छ पा लेता है। इस संसारम धम ही सार है॥ ३० ॥ ‘चतुर मनु भ - भ वान ो चत नयम के ारा अपने शरीरको ीण करके य पूवक धमका स ादन करते ह; क सुखदायक साधनसे सुखके हेतुभूत धमक ा नह होती है॥ ३१ ॥ ‘सौ ! त दन शु च होकर तपोवनम धमका अनु ान क जये। लोक म जो कु छ भी है, आपको तो वह सब कु छ यथाथ पसे व दत ही है॥ ३२ ॥ ‘मने नारीजा तक ाभा वक चपलताके कारण ही आपक सेवाम ये बात नवेदन कर दी ह। वा वम आपको धमका उपदेश करनेम कौन समथ है? आप इस वषयम अपने छोटे



भा◌इके साथ बु पूवक वचार कर ल। फर आपको जो ठीक जँचे, उसे ही शी तापूवक कर’॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म नवाँ सग पूरा आ॥ ९॥



दसवाँ सग ीरामका ऋ षय क र ाके लये रा स के वधके न म क ढ़ रहनेका वचार कट करना



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त ाके पालनपर



अपने ामीके त भ रखनेवाली वदेहकु मारी सीताक कही ◌इ यह बात सुनकर सदा धमम त रहनेवाले ीरामच जीने जानक को इस कार उ र दया—॥ १ ॥ ‘दे व! धमको जाननेवाली जनक कशोरी! तु ारा मेरे ऊपर ेह है, इस लये तुमने मेरे हतक बात कही है। य के कु लधमका उपदेश करती ◌इ तुमने जो कु छ कहा है, वह तु ारे ही यो है॥ २ ॥ ‘दे व! म तु ा उ र दूँ, तुमने ही पहले यह बात कही है क यलोग इस लये धनुष धारण करते ह क कसीको दु:खी होकर हाहाकार न करना पड़े (य द को◌इ दु:ख या संकटम पड़ा हो तो उसक र ा क जाय)॥ ३ ॥ ‘सीते! द कार म रहकर कठोर तका पालन करनेवाले वे मु न ब त दु:खी ह, इसी लये मुझे शरणागतव ल जानकर वे यं मेरे पास आये और शरणागत ए॥ ४ ॥ ‘भी ! सदा ही वनम रहकर फल-मूलका आहार करनेवाले वे मु न इन ू रकमा रा स के कारण कभी सुख नह पाते ह। मनु के मांससे जीवन नवाह करनेवाले ये भयानक रा स उ मारकर खा जाते ह॥ ‘उन रा स के ास बने ए वे द कार वासी ज े मु न हमलोग के पास आकर मुझसे बोले— ‘ भो! हमपर अनु ह क जये’॥ ६ १/२ ॥ ‘उनके मुखसे नकली ◌इ इस कार र ाक पुकार सुनकर और उनक आ ापालन पी सेवाका वचार मनम लेकर मने उनसे यह बात कही॥ ७ १/२ ॥ ‘मह षयो! आप-जैसे ा ण क सेवाम मुझे यं ही उप त होना चा हये था, परंतु आप यं ही अपनी र ाके लये मेरे पास आये, यह मेरे लये अनुपम ल ाक बात है; अत: आप स ह । बताइये, म आपलोग क ा सेवा क ँ ?’ यह बात मने उन ा ण के सामने कही॥ ८-९ ॥



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उन सभीने मलकर अपना मनोभाव इन वचन म कट कया—‘ ीराम! द कार म इ ानुसार प धारण करनेवाले ब त-से रा स रहते ह। उनसे हम बड़ा क प ँ च रहा है, अत: वहाँ उनके भयसे आप हमारी र ा कर॥ १० १/२ ॥ ‘ न ाप रघुन न! अ हो का समय आनेपर तथा पवके अवसर पर ये अ दुधष मांसभोजी रा स हम धर दबाते ह॥ ११ १/२ ॥ ‘रा स ारा आ ा होनेवाले हम तप ी तापस सदा अपने लये को◌इ आ य ढूँ ढ़ते रहते ह, अत: आप ही हमारे परम आ य ह ॥ १२ १/२ ॥ ‘रघुन न! य प हम तप ाके भावसे इ ानुसार इन रा स का वध करनेम समथ ह तथा प चरकालसे उपा जत कये ए तपको ख त करना नह चाहते ह; क तपम सदा ही ब त-से व आते रहते ह तथा इसका स ादन ब त ही क ठन होता है॥ १३-१४ ॥ ‘यही कारण है क रा स के ास बन जानेपर भी हम उ शाप नह देते ह, इस लये द कार वासी नशाचर से पी ड़त ए हम तापस क भा◌इस हत आप र ा कर; क इस वनम अब आप ही हमारे र क ह’॥ १५ १/२ ॥ ‘जनकन न! द कार म ऋ षय क यह बात सुनकर मने पूण पसे उनक र ा करनेक त ा क है॥ १६ १/२ ॥ ‘मु नय के सामने यह त ा करके अब म जीते-जी इस त ाको म ा नह कर सकूँ गा; क स का पालन मुझे सदा ही य है॥ १७ १/२ ॥ ‘सीते! म अपने ाण छोड़ सकता ँ , तु ारा और ल णका भी प र ाग कर सकता ँ , कतु अपनी त ाको, वशेषत: ा ण के लये क गयी त ाको म कदा प नह तोड़ सकता॥ १८ १/२ ॥ ‘इस लये ऋ षय क र ा करना मेरे लये आव क कत है। वदेहन न! ऋ षय के बना कहे ही उनक मुझे र ा करनी चा हये थी; फर जब उ ने यं कहा और मने त ा भी कर ली, तब अब उनक र ासे कै से मुँह मोड़ सकता ँ ॥ १९ १/२ ॥ ‘सीते! तुमने ेह और सौहादवश जो मुझसे ये बात कही ह, इससे म ब त संतु ँ ; क जो अपना य न हो, उसे को◌इ हतकर उपदेश नह देता॥ २० १/२ ॥



‘शोभने! तु



ारा यह कथन तु ारे यो तो है ही, तु ारे कु लके भी सवथा अनु प है। तुम मेरी सहध मणी हो और मुझे ाण से भी बढ़कर य हो’॥ महा ा ीरामच जी अपनी या म थलेशकु मारी सीतासे ऐसा वचन कहकर हाथम धनुष ले ल णके साथ रमणीय तपोवन म वचरण करने लगे॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म दसवाँ सग पूरा आ॥ १०॥



ारहवाँ सग प ा र तीथ एवं मा क ण मु नक कथा, व भ आ म म घूमकर ीराम आ दका सुती णके आ मम आना, वहाँ कुछ कालतक रहकर उनक आ ासे अग के भा◌इ तथा अग के आ मपर जाना तथा अग के भावका वणन



तदन र आगे-आगे ीराम चले, बीचम परम सु री सीता चल रही थ और उनके पीछे हाथम धनुष लये ल ण चलने लगे॥ १ ॥ सीताके साथ वे दोन भा◌इ भाँ त-भाँ तके पवतीय शखर , वन तथा नाना कारक रमणीय न दय को देखते ए अ सर होने लगे॥ २ ॥ उ ने देखा, कह न दय के तट पर सारस और च वाक वचर रहे ह और कह खले ए कमल और जलचर प य से यु सरोवर शोभा पाते ह॥ ३ ॥ कह चतकबरे मृग यूथ बाँधे चले जा रहे थे, कह बड़े-बड़े स गवाले मदम भसे तथा बढ़े ए दाँतवाले जंगली सूअर और वृ के वैरी द ार हाथी दखायी देते थे॥ ४ ॥ दूरतक या ा तै करनेके बाद जब सूय अ ाचलको जाने लगे, तब उन तीन ने एक साथ देखा—सामने एक बड़ा ही सु र तालाब है, जसक ल ा◌इ-चौड़ा◌इ एक-एक योजनक जान पड़ती है॥ ५ ॥ वह सरोवर लाल और ेत कमल से भरा आ था। उसम ड़ा करते ए ंडु -के - ंडु हाथी उसक शोभा बढ़ाते थे। तथा सारस, राजहंस और कलहंस आ द प य एवं जलम उ होनेवाले म आ द ज ु से वह ा दखायी देता था॥ ६ ॥ जलसे भरे ए उस रमणीय सरोवरम गाने-बजानेका श सुनायी देता था, कतु को◌इ दखायी नह दे रहा था॥ ७ ॥ तब ीराम और महारथी ल णने कौतूहलवश अपने साथ आये ए धमभृत् नामक मु नसे पूछना आर कया—॥ ८ ॥ ‘महामुने! यह अ अ तु संगीतक न सुनकर हम सब लोग को बड़ा कौतूहल हो रहा है। यह ा है, इसे अ ी तरह बताइये’॥ ९ ॥



ीरामच जीके इस कार पूछनेपर धमा ा धमभृत् नामक मु नने तुरंत ही उस सरोवरके भावका वणन आर कया—॥ १० ॥ ‘ ीराम! यह प ा र नामक सरोवर है, जो सवदा अगाध जलसे भरा रहता है। मा क ण नामक मु नने अपने तपके ारा इसका नमाण कया था॥ ११ ॥ ‘महामु न मा क णने एक जलाशयम रहकर के वल वायुका आहार करते ए दस सह वष तक ती तप ा क थी॥ १२ ॥ ‘उस समय अ आ द सब देवता उनके तपसे अ थत हो उठे और आपसम मलकर वे सब-के -सब इस कार कहने लगे॥ १३ ॥ ‘जान पड़ता है, ये मु न हमलोग मसे कसीके ानको लेना चाहते ह, ऐसा सोचकर वे सब देवता वहाँ मन-ही-मन उ हो उठे ॥ १४ ॥ ‘तब उनक तप ाम व डालनेके लये स ूण देवता ने पाँच धान अ रा को नयु कया, जनक अ का व ु े समान च ल थी॥ १५ ॥ ‘तदन र ज ने लौ कक एवं पारलौ कक धमाधमका ान ा कर लया था, उन मु नको उन पाँच अ रा ने देवता का काय स करनेके लये कामके अधीन कर दया॥ १६ ॥ ‘मु नक प ी बनी ◌इ वे ही पाँच अ राएँ यहाँ रहती ह। उनके रहनेके लये इस तालाबके भीतर घर बना आ है, जो जलके अंदर छपा आ है॥ १७ ॥ ‘उसी घरम सुखपूवक रहती ◌इ पाँच अ राएँ तप ाके भावसे युवाव ाको ा ए मु नको अपनी सेवा से संतु करती ह॥ १८ ॥ ‘ ड़ा- वहारम लगी ◌इ उन अ रा के ही वा क यह न सुनायी देती है, जो भूषण क झनकारके साथ मली ◌इ है। साथ ही उनके गीतका भी मनोहर श सुन पड़ता है’॥ १९ ॥ अपने भा◌इके साथ महायश ी ीरघुनाथजीने उन भा वता ा मह षके इस कथनको ‘यह तो बड़े आ यक बात है’ य कहकर ीकार कया॥ २० ॥ इस कार कहते ए ीरामच जीको एक आ मम ल दखायी दया, जहाँ सब ओर कु श और व ल व फै ले ए थे। वह आ म ा ी ल ी ( तेज) से का शत होता



था॥ २१ ॥ वदेहन नी सीता तथा ल णके साथ उस तेज ी आ मम लम वेश करके ककु कु लभूषण ीरामने उस समय सुखपूवक नवास कया। वहाँके मह षय ने उनका बड़ा आदर-स ार कया॥ २२ १/२ ॥ तदन र महान् अ के ाता ीरामच जी बारी-बारीसे उन सभी तप ी मु नय के आ म पर गये, जनके यहाँ वे पहले रह चुके थे। उनके पास भी (उनक भ देख) दुबारा जाकर रहे॥ २३ १/२ ॥ कह दस महीने, कह साल भर, कह चार महीने, कह पाँच या छ: महीने, कह इससे भी अ धक समय (अथात् सात महीने), कह उससे भी अ धक (आठ महीने), कह आधे मास अ धक अथात् साढ़े आठ महीने, कह तीन महीने और कह आठ और तीन अथात् ारह महीनेतक ीरामच जीने सुखपूवक नवास कया॥ २४-२५ १/२ ॥ इस कार मु नय के आ म पर रहते और अनुकूलता पाकर आन का अनुभव करते ए उनके दस वष बीत गये॥ २६ १/२ ॥ इस कार सब ओर घूम- फरकर धमके ाता भगवान् ीराम सीताके साथ फर सुती णके आ मपर ही लौट आये॥ २७ १/२ ॥ श ु का दमन करनेवाले ीराम उस आ मम आकर वहाँ रहनेवाले मु नय ारा भलीभाँ त स ा नत हो वहाँ भी कु छ कालतक रहे॥ २८ १/२ ॥ उस आ मम रहते ए ीरामने एक दन महामु न सुती णके पास बैठकर वनीतभावसे कहा—॥ २९ १/२ ॥ ‘भगवन्! मने त दन बातचीत करनेवाले लोग के मुँहसे सुना है क इस वनम कह मु न े अग जी नवास करते ह; कतु इस वनक वशालताके कारण म उस ानको नह जानता ँ ॥ ३०-३१ ॥ ‘उन बु मान् मह षका सु र आ म कहाँ है? म ल ण और सीताके साथ भगवान् अग को स करनेके लये उन मुनी रको णाम करनेके उ े से उनके आ मपर जाऊँ — यह महान् मनोरथ मेरे दयम च र लगा रहा है॥ ३२-३३ ॥



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चाहता ँ क यं भी मु नवर अग क सेवा क ँ ।’ धमा ा ीरामका यह वचन सुनकर सुती ण मु न बड़े स ए और उन दशरथन नसे इस कार बोले—॥ ३४ १/२ ॥ ‘रघुन न! म भी ल णस हत आपसे यही कहना चाहता था क आप सीताके साथ मह ष अग के पास जायँ। सौभा क बात है क इस समय आप यं ही मुझसे वहाँ जानेके वषयम पूछ रहे ह॥ ३५-३६ ॥ ‘ ीराम! महामु न अग जहाँ रहते ह, उस आ मका पता म अभी आपको बताये देता ँ । तात! इस आ मसे चार योजन द ण चले जाइये। वहाँ आपको अग के भा◌इका ब त बड़ा एवं सु र आ म मलेगा॥ ३७ ॥ ‘वहाँके वनक भू म ाय: समतल है तथा प लीका वन उस आ मक शोभा बढ़ाता है। वहाँ फू ल और फल क ब तायत है। नाना कारके प य के कलरव से गूँजते ए उस रमणीय आ मके पास भाँ त-भाँ तके कमलम त सरोवर ह, जो जलसे भरे ए ह। हंस और कार व आ द प ी उनम सब ओर फै ले ए ह तथा च वाक उनक शोभा बढ़ाते ह॥ ३८-३९ ॥ ‘ ीराम! आप एक रात उस आ मम ठहरकर ात:काल उस वनख के कनारे द ण दशाक ओर जायँ। इस कार एक योजन आगे जानेपर अनेकानेक वृ से सुशो भत वनके रमणीय भागम अग मु नका आ म मलेगा॥ ४०-४१ ॥ ‘वहाँ वदेहन नी सीता और ल ण आपके साथ सान वचरण करगे: क ब सं क वृ से सुशो भत वह वन ा बड़ा ही रमणीय है॥ ४२ ॥ ‘महामते! य द आपने महामु न अग के दशनका न त वचार कर लया है तो आज ही वहाँक या ा करनेका भी न य कर’॥ ४३ ॥ मु नका यह वचन सुनकर भा◌इस हत ीरामच जीने उ णाम कया और सीता तथा ल णके साथ अग जीके आ मक ओर चल दये॥ ४४ ॥ मागम मले ए व च - व च वन , मेघमालाके समान पवतमाला , सरोवर और स रता को देखते ए वे आगे बढ़ते गये॥ ४५ ॥ इस कार सुती णके बताये ए मागसे सुखपूवक चलते-चलते ीरामच जीने अ हषम भरकर ल णसे यह बात कही—॥ ४६ ॥



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ान न! न य ही यह पु कम का अनु ान करनेवाले महा ा अग मु नके भा◌इका आ म दखायी दे रहा है॥ ४७ ॥ ‘ क सुती णजीने जैसा बतलाया था, उसके अनुसार इस वनके मागम फू ल और फल के भारसे कु े ए सह प र चत वृ शोभा पा रहे ह॥ ४८ ॥ ‘इस वनम पक ◌इ पीप लय क यह ग वायुसे े रत होकर सहसा इधर आयी है, जससे कटु रसका उदय हो रहा है॥ ४९ ॥ ‘जहाँ-तहाँ लक ड़य के ढेर लगे दखायी देते ह और वैदय ू म णके समान रंगवाले कु श कटे ए गोचर होते ह॥ ५० ॥ ‘यह देखो, जंगलके बीचम आ मक अ का धुआँ उठता दखायी दे रहा है, जसका अ भाग काले मेघ के ऊपरी भाग-सा तीत होता है॥ ५१ ॥ ‘यहाँके एका एवं प व तीथ म ान करके आये ए ा ण यं चुनकर लाये ए फू ल से देवता के लये पु ोपहार अ पत करते ह॥ ५२ ॥ ‘सौ ! मने सुती णजीका कथन जैसा सुना था, उसके अनुसार यह न य ही अग जीके भा◌इका आ म होगा॥ ५३ ॥ ‘इ के भा◌इ पु कमा अग जीने सम लोक के हतक कामनासे मृ ु प वाता प और इ लका वेगपूवक दमन करके इस द ण दशाको शरण लेनेके यो बना दया॥ ५४ ॥ ‘एक समयक बात है, यहाँ ू र भाववाला वाता प और इ ल—ये दोन भा◌इ एक साथ रहते थे। ये दोन महान् असुर ा ण क ह ा करनेवाले थे॥ ‘ नदयी इ ल ा णका प धारण करके सं ृ त बोलता आ जाता और ा के लये ा ण को नम ण दे आता था। फर मेष (जीवशाक) का प धारण करनेवाले अपने भा◌इ वाता पका सं ार करके ा क ो व धसे ा ण को खला देता था॥ ‘वे ा ण जब भोजन कर लेत,े तब इ ल उ रसे बोलता—‘वातापे! नकलो’॥ ५८ ॥ ‘भा◌इक बात सुनकर वाता प भेड़क े े समान ‘म-म’ करता आ उन ा ण के पेट फाड़फाड़कर नकल आता था॥ ५९ ॥



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कार इ ानुसार प धारण करनेवाले उन मांसभ ी असुर ने त दन मलकर सह ा ण का वनाश कर डाला॥ ६० ॥ ‘उस समय देवता क ाथनासे मह ष अग ने ा म शाक पधारी उस महान् असुरको जान-बूझकर भ ण कया॥ ६१ ॥ ‘तदन र ा कम स हो गया। ऐसा कहकर ा ण के हाथम अवनेजनका जल दे इ लने भा◌इको स ो धत करके कहा, ‘ नकलो’॥ ६२ ॥ ‘इस कार भा◌इको पुकारते ए उस ा णघाती असुरसे बु मान् मु न े अग ने हँ सकर कहा— ‘ जस जीवशाक पधारी तेरे भा◌इ रा सको मने खाकर पचा लया, वह तो यमलोकम जा प ँ चा है। अब उसम नकलनेक श कहाँ है’॥ ६४ ॥ ‘भा◌इक मृ ुको सू चत करनेवाले मु नके इस वचनको सुनकर उस नशाचरने ोधपूवक उ मार डालनेका उ ोग आर कया॥ ६५ ॥ ‘उसने ही जराज अग पर धावा कया, ही उ ी तेजवाले उन मु नने अपनी अ तु से उस रा सको द कर डाला। इस कार उसक मृ ु हो गयी॥ ६६ ॥ ‘ ा ण पर कृ पा करके ज ने यह दु र कम कया था, उ मह ष अग के भा◌इका यह आ म है, जो सरोवर और वनसे सुशो भत हो रहा है’॥ ६७ ॥ ीरामच जी ल णके साथ इस कार बातचीत कर रहे थे। इतनेम ही सूयदेव अ हो गये और सं ाका समय हो गया॥ ६८ ॥ तब भा◌इके साथ व धपूवक सायं सं ोपासना करके ीरामने आ मम वेश कया और उन मह षके चरण म म क कु ाया॥ ६९ ॥ मु नने उनका यथावत् आदर-स ार कया। सीता और ल णस हत ीराम वहाँ फलमूल खाकर एक रात उस आ मम रहे॥ ७० ॥ वह रात बीतनेपर जब सूय दय आ, तब ीरामच जीने अग के भा◌इसे वदा माँगते ए कहा— ‘भगवन्! म आपके चरण म णाम करता ँ । यहाँ रातभर बड़े सुखसे रहा ँ । अब आपके बड़े भा◌इ मु नवर अग का दशन करनेके लये जाऊँ गा। इसके लये आपसे आ ा चाहता ँ ’॥ ७२ ॥



तब मह षने कहा, ‘ब त अ ा, जाइये।’ इस कार मह षसे आ ा पाकर भगवान् ीराम सुती णके बताये ए मागसे वनक शोभा देखते ए आगे चले॥ ७३ ॥ ीरामने वहाँ मागम नीवार (जलकद ), कटहल, साखू, अशोक, त नश, च र ब , म आ, बेल, तदू तथा और भी सैकड़ जंगली वृ देख,े जो फू ल से भरे थे तथा खली ◌इ लता से प रवे त हो बड़ी शोभा पा रहे थे। उनमसे क◌इ वृ को हा थय ने अपनी सूड़ से तोड़कर मसल डाला था और ब त-से वृ पर बैठे ए वानर उनक शोभा बढ़ाते थे। सैकड़ मतवाले प ी उनक डा लय पर चहक रहे थे॥ ७४—७६ ॥ उस समय कमलनयन ीराम अपने पीछे-पीछे आते ए शोभावधक वीर ल णसे, जो उनके नकट ही थे, इस कार बोले—॥ ७७ ॥ ‘यहाँके वृ के प े जैसे सुने गये थे, वैसे ही चकने दखायी देते ह तथा पशु और प ी माशील एवं शा ह। इससे जान पड़ता है, उन भा वता ा (शु अ :करणवाले) मह ष अग का आ म यहाँसे अ धक दूर नह है॥ ७८ ॥ ‘जो अपने कमसे ही संसारम अग * के नामसे व ात ए ह, उ का यह आ म दखायी देता है, जो थके -माँदे प थक क थकावटको दूर करनेवाला है॥ ‘इस आ मके वन य -यागस ी अ धक धूम से ा ह। चीरव क पं याँ इसक शोभा बढ़ाती ह। यहाँके मृग के ंडु सदा शा रहते ह तथा इस आ मम नाना कारके प य के कलरव गूँजते रहते ह॥ ८० ॥ ‘ जन पु कमा मह ष अग ने सम लोक क हतकामनासे मृ ु प रा स का वेगपूवक दमन करके इस द ण दशाको शरण लेनेके यो बना दया तथा जनके भावसे रा स इस द ण दशाको के वल दूरसे भयभीत होकर देखते ह, इसका उपभोग भी नह करते, उ का यह आ म है॥ ८१-८२ ॥ ‘पु कमा मह ष अग ने जबसे इस दशाम पदापण कया है, तबसे यहाँके नशाचर वैरर हत और शा हो गये ह॥ ८३ ॥ ‘भगवान् अग क म हमासे इस आ मके आस-पास नवरता आ द गुण के स ादनम समथ तथा ू रकमा रा स के लये दुजय होनेके कारण यह स ूण दशा नामसे भी तीन लोक म ‘द णा’ ही कहलायी, इसी नामसे व ात ◌इ तथा इसे ‘अग क दशा’ भी कहते ह॥ ८४ ॥



‘एक



बार पवत े व सूयका माग रोकनेके लये बढ़ा था, कतु मह ष अग के कहनेसे वह न हो गया। तबसे आजतक नर र उनके आदेशका पालन करता आ वह कभी नह बढ़ता॥ ८५ ॥ ‘वे दीघायु महा ा ह। उनका कम (समु शोषण आ द काय) तीन लोक म व ात है। उ अग का यह शोभास आ म है, जो वनीत मृग से से वत है॥ ८६ ॥ ‘ये महा ा अग जी स ूण लोक के ारा पू जत तथा सदा स न के हतम लगे रहनेवाले ह। अपने पास आये ए हमलोग को वे अपने आशीवादसे क ाणके भागी बनायँगे॥ ८७ ॥ ‘सेवा करनेम समथ सौ ल ण! यहाँ रहकर म उन महामु न अग क आराधना क ँ गा और वनवासके शेष दन यह रहकर बताऊँ गा॥ ८८ ॥ ‘देवता, ग व, स और मह ष यहाँ नय मत आहार करते ए सदा अग मु नक उपासना करते ह॥ ८९ ॥ ‘ये ऐसे भावशाली मु न ह क इनके आ मम को◌इ झूठ बोलनेवाला, ू र, शठ, नृशंस अथवा पापाचारी मनु जी वत नह रह सकता॥ ९० ॥ ‘यहाँ धमक आराधना करनेके लये देवता, य , नाग और प ी नय मत आहार करते ए नवास करते ह॥ ९१ ॥ ‘इस आ मपर अपने शरीर को ागकर अनेकानेक स , महा ा, मह ष नूतन शरीर के साथ सूयतु तेज ी वमान ारा गलोकको ा ए ह॥ ९२ ॥ ‘यहाँ स मपरायण ा णय ारा आरा धत ए देवता उ य , अमर तथा नाना कारके रा दान करते ह॥ ९३ ॥ ‘सु म ान न! अब हमलोग आ मपर आ प ँ चे। तुम पहले वेश करो और मह षय को सीताके साथ मेरे आगमनक सूचना दो’॥ ९४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म ारहवाँ सग पूरा आ॥ ११॥ * अगं पवतं



य त इ त अग



:—जो अग अथात् पवतको



त कर दे, उसे अग कहते ह।



बारहवाँ सग ीराम आ दका अग



के आ मम वेश, अ त थ-स अ -श क ा



ार तथा मु नक ओरसे उ







ीरामच जीके छोटे भा◌इ ल णने आ मम वेश करके अग जीके श से भट क और उनसे यह बात कही—॥ १ ॥ ‘मुन!े अयो ाम जो दशरथ नामसे स राजा थे, उ के े पु महाबली ीरामच जी अपनी प ी सीताके साथ मह षका दशन करनेके लये आये ह॥ ‘म उनका छोटा भा◌इ, हतैषी और अनुकूल चलनेवाला भ ँ । मेरा नाम ल ण है। स व है यह नाम कभी आपके कान म पड़ा हो॥ ३ ॥ ‘हम सब लोग पताक आ ासे इस अ भयंकर वनम आये ह और भगवान् अग मु नका दशन करना चाहते ह। आप उनसे यह समाचार नवेदन क जये’॥ ४ ॥ ल णक वह बात सुनकर उन तपोधनने ‘ब त अ ा’ कहकर मह षको समाचार देनेके लये अ शालाम वेश कया॥ ५ ॥ अ शालाम वेश करके अग के उस य श ने जो अपनी तप ाके भावसे दूसर के लये दुजय थे, उन मु न े अग के पास जा हाथ जोड़ ल णके कथनानुसार उ ीरामच जीके आगमनका समाचार शी तापूवक य सुनाया—॥ ६ १/२ ॥ ‘महामुने! राजा दशरथके ये दो पु ीराम और ल ण आ मम पधारे ह। ीराम अपनी धमप ी सीताके साथ ह। वे दोन श ुदमन वीर आपक सेवाके उ े से आपका दशन करनेके लये आये ह। अब इस वषयम जो कु छ कहना या करना हो, इसके लये आप मुझे आ ा द’॥ ७-८ १/२ ॥ श से ल णस हत ीराम और महाभागा वदेहन नी सीताके शुभागमनका समाचार सुनकर मह षने इस कार कहा—॥ ९ १/२ ॥ ‘सौभा क बात है क आज चरकालके बाद ीरामच जी यं ही मुझसे मलनेके लये आ गये। मेरे मनम भी ब त दन से यह अ भलाषा थी क वे एक बार मेरे आ मपर



पधारते। जाओ, प ीस हत ीराम और ल णको स ारपूवक आ मके भीतर मेरे समीप ले आओ। तुम अबतक उ ले नह आये?’॥ धम महा ा अग मु नके ऐसा कहनेपर श ने हाथ जोड़कर उ णाम कया और कहा— ‘ब त अ ा अभी ले आता ँ ’॥ १२ १/२ ॥ इसके बाद वह श आ मसे नकलकर शी तापूवक ल णके पास गया और बोला — ‘ ीरामच जी कौन ह? वे यं आ मम वेश कर और मु नका दशन करनेके लये चल’॥ १३ १/२ ॥ तब ल णने श के साथ आ मके ारपर जाकर उसे ीरामच जी तथा जनक कशोरी ीसीताका दशन कराया॥ १४ १/२ ॥ श ने बड़ी वनयके साथ मह ष अग क कही ◌इ बात वहाँ दुहरायी और जो स ारके यो थे, उन ीरामका यथो चत री तसे भलीभाँ त स ार करके वह उ आ मम ले गया॥ १५ १/२ ॥ उस समय ीरामने ल ण और सीताके साथ आ मम वेश कया। वह आ म शा भावसे रहनेवाले ह रण से भरा आ था। आ मक शोभा देखते ए उ ने वहाँ ाजीका ान और अ देवका ान देखा॥ १६-१७ ॥ फर मश: भगवान् व ,ु महे , सूय, च मा, भग, कु बेर, धाता, वधाता, वायु, पाशधारी महा ा व ण, गाय ी, वसु, नागराज अन , ग ड़, का तके य तथा धमराजके पृथक् पृथक् ानका नरी ण कया॥ १८—२० १/२ ॥ इतनेहीम मु नवर अग भी श से घरे ए अ शालासे बाहर नकले। वीर ीरामने मु नय के आगे-आगे आते ए उ ी तेज ी अग जीका दशन कया और अपनी शोभाका व ार करनेवाले ल णसे इस कार कहा—॥ २१-२२ ॥ ‘ल ण! भगवान् अग मु न आ मसे बाहर नकल रहे ह। ये तप ाके न ध ह। इनके व श तेजके आ ध से ही मुझे पता चलता है क ये अग जी ह’॥ २३ ॥ सूयतु तेज ी मह ष अग के वषयम ऐसा कहकर महाबा रघुन नने सामनेसे आते ए उन मुनी रके दोन चरण पकड़ लये॥ २४ ॥



जनम यो गय का मन रमण करता है अथवा जो भ को आन दान करनेवाले ह, वे धमा ा ीराम उस समय वदेहकु मारी सीता और ल णके साथ मह षके चरण म णाम करके हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ २५ ॥ मह षने भगवान् ीरामको दयसे लगाया और आसन तथा जल (पा , अ आ द) देकर उनका आ त -स ार कया। फर कु शल-समाचार पूछकर उ बैठनेको कहा॥ २६ ॥ अग जीने पहले अ म आ त दी, फर वान धमके अनुसार अ दे अ त थय का भलीभाँ त पूजन करके उनके लये भोजन दया॥ २७ ॥ धमके ाता मु नवर अग जी पहले यं बैठे, फर धम ीरामच जी हाथ जोड़कर आसनपर वराजमान ए। इसके बाद मह षने उनसे कहा— ‘काकु ! वान को चा हये क वह पहले अ को आ त दे। तदन र अ देकर अ त थका पूजन करे। जो तप ी इसके वपरीत आचरण करता है, उसे झूठी गवाही देनेवालेक भाँ त परलोकम अपने ही शरीरका मांस खाना पड़ता है॥ २८-२९ ॥ ‘आप स ूण लोकके राजा, महारथी और धमका आचरण करनेवाले ह तथा मेरे य अ त थके पम इस आ मपर पधारे ह, अतएव आप हमलोग के माननीय एवं पूजनीय ह’॥ ३० ॥ ऐसा कहकर मह ष अग ने फल, मूल, फू ल तथा अ उपकरण से इ ानुसार भगवान् ीरामका पूजन कया। त ात् अग जी उनसे इस कार बोले—॥ ३१ ॥ ‘पु ष सह! यह महान् द धनुष व कमाजीने बनाया है। इसम सुवण और हीरे जड़े ह। यह भगवान् व ुका दया आ है तथा यह जो सूयके समान देदी मान अमोघ उ म बाण है, ाजीका दया आ है। इनके सवा इ ने ये दो तरकस दये ह, जो तीखे तथा लत अ के समान तेज ी बाण से सदा भरे रहते ह। कभी खाली नह होते। साथ ही यह तलवार भी है जसक मूठम सोना जड़ा आ है। इसक ान भी सोनेक ही बनी ◌इ है॥ ३२—३४ ॥ ‘ ीराम! पूवकालम भगवान् व ुने इसी धनुषसे यु म बड़े-बड़े असुर का संहार करके देवता क उ ी ल ीको उनके अ धकारसे लौटाया था। मानद! आप यह धनुष, ये दोन तरकस, ये बाण और यह तलवार (रा स पर) वजय पानेके लये हण क जये। ठीक उसी तरह, जैसे व धारी इ व हण करते ह’॥ ३५-३६ ॥



ऐसा कहकर महान् तेज ी अग ने वे सभी े आयुध ीरामच जीको स प दये। त ात् वे फर बोले॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म बारहवाँ सग पूरा आ॥ १२॥



तेरहवाँ सग मह ष अग का ीरामके त अपनी स ता कट करके सीताक शंसा करना, ीरामके पूछनेपर उ प वटीम आ म बनाकर रहनेका आदेश देना तथा ीराम आ दका ान



ीराम! आपका क ाण हो। म आपपर ब त स ँ । ल ण! म तुमपर भी ब त संतु ँ । आप दोन भा◌इ मुझे णाम करनेके लये जो सीताके साथ यहाँतक आये, इससे मुझे बड़ी स ता ◌इ है॥ १ ॥ ‘रा ा चलनेके प र मसे आपलोग को ब त थकावट ◌इ है। इसके कारण जो क आ है, वह आप दोन को पीड़ा दे रहा होगा। म थलेशकु मारी जानक भी अपनी थकावट दूर करनेके लये अ धक उ त है, यह बात ही जान पड़ती है॥ २ ॥ ‘यह सुकुमारी है और इससे पहले इसे ऐसे दु:ख का सामना नह करना पड़ा है। वनम अनेक कारके क होते ह, फर भी यह प त ेमसे े रत होकर यहाँ आयी है॥ ३ ॥ ‘ ीराम! जस कार सीताका यहाँ मन लगे— जैसे भी यह स रहे, वही काय आप कर। वनम आपके साथ आकर इसने दु र काय कया है॥ ४ ॥ ‘रघुन न! सृ कालसे लेकर अबतक य का ाय: यही भाव रहता आया है क य द प त सम अव ाम है अथात् धनधा से स , एवं सुखी है, तब तो वे उसम अनुराग रखती ह, परंतु य द वह वषम अव ाम पड़ जाता है—द र एवं रोगी हो जाता है, तब उसे ाग देती ह॥ ५ ॥ ‘ याँ व ु चपलता, श क ती णता तथा ग ड एवं वायुक ती ग तका अनुसरण करती ह॥ ‘आपक यह धमप ी सीता इन सब दोष से र हत है। ृहणीय एवं प त ता म उसी तरह अ ग है, जैसे दे वय म अ ती॥ ७ ॥ ‘श ुदमन ीराम! आजसे इस देशक शोभा बढ़ गयी, जहाँ सु म ाकु मार ल ण और वदेहन नी सीताके साथ आप नवास करगे’॥ ८ ॥ ‘



मु नके ऐसा कहनेपर ीरामच जीने लत अ के समान तेज ी उन मह षसे दोन हाथ जोड़कर यह वनययु बात कही—॥ ९ ॥ ‘भा◌इ और प ीस हत जसके अथात् मेरे गुण से हमारे गु देव मु नवर अग जी य द संतु हो रहे ह, तब तो म ध ँ , मुझपर मुनी रका महान् अनु ह है॥ ‘परंतु मुने! अब आप मुझे ऐसा को◌इ ान बताइये जहाँ ब त-से वन ह , जलक भी सु वधा हो तथा जहाँ आ म बनाकर म सुखपूवक सान नवास कर सकूँ ’॥ ११ ॥ ीरामका यह कथन सुनकर मु न े धमा ा अग ने दो घड़ीतक कु छ सोच- वचार कया। तदन र वे यह शुभ वचन बोले—॥ १२ ॥ ‘तात! यहाँसे दो योजनक दूरीपर प वटी नामसे व ात एक ब त ही सु र ान है, जहाँ ब त-से मृग रहते ह तथा फल-मूल और जलक अ धक सु वधा है॥ ‘वह जाकर ल णके साथ आप आ म बनाइये और पताक यथो आ ाका पालन करते ए वहाँ सुखपूवक नवास क जये॥ १४ ॥ ‘अनघ! आपका और राजा दशरथका यह सारा वृ ा मुझे अपनी तप ाके भावसे तथा आपके त ेह होनेके कारण अ ी तरह व दत है॥ १५ ॥ ‘आपने तपोवनम मेरे साथ रहनेक और वनवासका शेष समय यह बतानेक अ भलाषा कट करके भी जो यहाँसे अ रहने यो ानके वषयम मुझसे पूछा है, इसम आपका हा दक अ भ ाय ा है? यह मने अपने तपोबलसे जान लया है (आपने ऋ षय क र ाके लये रा स के वधक त ा क है। इस त ाका नवाह अ रहनेसे ही हो सकता है; क यहाँ रा स का आना-जाना नह होता)॥ १६ ॥ ‘इसी लये म आपसे कहता ँ क प वटीम जाइये। वहाँक वन ली बड़ी ही रमणीय है। वहाँ म थलेशकु मारी सीता आन पूवक सब ओर वचरगी॥ ‘रघुन न! वह ृहणीय ान यहाँसे अ धक दूर नह है। गोदावरीके पास (उसीके तटपर) है, अत: मै थलीका मन वहाँ खूब लगेगा॥ १८ ॥ ‘महाबाहो! वह ान चुर फल-मूल से स , भाँ त-भाँ तके वह म से से वत, एका , प व और रमणीय है॥ १९ ॥



ीराम! आप भी सदाचारी और ऋ षय क र ा करनेम समथ ह। अत: वहाँ रहकर तप ी मु नय का पालन क जयेगा॥ २० ॥ ‘वीर! यह जो म का वशाल वन दखायी देता है, इसके उ रसे होकर जाना चा हये। उस मागसे जाते ए आपको आगे एक बरगदका वृ मलेगा। उससे आगे कु छ दूरतक ऊँ चा मैदान है, उसे पार करनेके बाद एक पवत दखायी देगा। उस पवतसे थोड़ी ही दूरपर प वटी नामसे स सु र वन है, जो सदा फू ल से सुशो भत रहता है’॥ २१-२२ ॥ मह ष अग के ऐसा कहनेपर ल णस हत ीरामने उनका स ार करके उन स वादी मह षसे वहाँ जानेक आ ा माँगी॥ २३ ॥ उनक आ ा पाकर उन दोन भाइय ने उनके चरण क व ना क और सीताके साथ वे प वटी नामक आ मक ओर चले॥ २४ ॥ राजकु मार ीराम और ल णने पीठपर तरकस बाँध हाथम धनुष ले लये। वे दोन भा◌इ समरा ण म कातरता दखानेवाले नह थे। वे दोन ब ु मह षके बताये ए मागसे बड़ी सावधानीके साथ प वटीक ओर त ए॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म तेरहवाँ सग पूरा आ॥ १३॥ ‘



चौदहवाँ सग प वटीके मागम जटायुका मलना और ीरामको अपना व ृत प रचय देना



प वटी जाते समय बीचम ीरामच जीको एक वशालकाय गृ मला, जो भयंकर परा म कट करनेवाला था॥ १ ॥ वनम बैठे ए उस वशाल प ीको देखकर महाभाग ीराम और ल णने उसे रा स ही समझा और पूछा—‘आप कौन ह?’॥ २ ॥ तब उस प ीने बड़ी मधुर और कोमल वाणीम उ स करते ए-से कहा—‘बेटा! मुझे अपने पताका म समझो’॥ ३ ॥ पताका म जानकर ीरामच जीने गृ का आदर कया और शा भावसे उसका कु ल एवं नाम पूछा॥ ४ ॥ ीरामका यह सुनकर उस प ीने उ अपने कु ल और नामका प रचय देते ए सम ा णय क उ का म ही बताना आर कया॥ ५ ॥ ‘महाबा रघुन न! पूवकालम जो-जो जाप त हो चुके ह, उन सबका आ दसे ही वणन करता ँ , सुनो॥ ६ ॥ ‘उन जाप तय म सबसे थम कदम ए। तदन र दूसरे जाप तका नाम वकृ त आ, तीसरे शेष, चौथे सं य और पाँचव जाप त परा मी ब पु ए॥ ७ ॥ ‘छठे ाणु, सातव मरी च, आठव अ , नव महान् श शाली तु, दसव पुल , ारहव अ रा, बारहव चेता (व ण) और तेरहव जाप त पुलह ए॥ ८ ॥ ‘चौदहव द , पं हव वव ान्, सोलहव अ र ने म और स हव जाप त महातेज ी क प ए। रघुन न! यह क पजी अ म जाप त कहे गये ह॥ ९ ॥ ‘महायश ी ीराम! जाप त द के साठ यश नी क ाएँ ◌इं , जो ब त ही व ात थ ॥ १० ॥ उनमसे आठ* सु री क ा को जाप त क पने प ी पम हण कया। जनके नाम इस कार ह— अ द त, द त, दनु, कालका, ता ा, ोधवशा, मनु और अनला॥ ११ १/२ ॥



तदन र उन क ा से स होकर क पजीने फर उनसे कहा—‘दे वयो! तुमलोग ऐसे पु को ज दोगी, जो तीन लोक का भरण-पोषण करनेम समथ और मेरे समान तेज ी ह गे’॥ १२ १/२ ॥ ‘महाबा ीराम! इनमसे अ द त, द त, दनु और कालका—इन चार ने क पजीक कही ◌इ बातको मनसे हण कया; परंतु शेष य ने उधर मन नह लगाया। उनके मनम वैसा मनोरथ नह उ आ॥ ‘श ु का दमन करनेवाले रघुवीर! अ द तके गभसे ततीस देवता उ ए—बारह आ द , आठ वसु, ारह और दो अ नीकु मार। श ु को ताप देनेवाले ीराम! ये ही ततीस देवता ह॥ १४ १/२ ॥ ‘तात! द तने दै नामसे स यश ी पु को ज दया। पूवकालम वन और समु स हत सारी पृ थवी उ के अ धकारम थी॥ १५ १/२ ॥ ‘श ुदमन! दनुने अ ीव नामक पु को उ कया और कालकाने नरक एवं कालक नामक दो पु को ज दया॥ १६ १/२ ॥ ‘ता ाने ौ ी, भासी, ेनी, धृतरा ी तथा शुक —इन पाँच व व ात क ा को उ कया॥ १७ १/२ ॥ ‘इनमसे ौ ीने उ ु को, भासीने भास नामक प य को, ेनीने परम तेज ी ेन (बाज ) और गीध को तथा धृतरा ीने सब कारके हंस और कलहंस को ज दया॥ १८-१९ ॥



ीराम! आपका क ाण हो, उसी भा मनी धृतरा ीने च वाक नामक प य को भी उ कया था। ता ाक सबसे छोटी पु ी शुक ने नता नामवाली क ाको ज दया। नतासे वनता नामवाली पु ी उ ◌इ॥ २० ॥ ‘ ीराम! ोधवशाने अपने पेटसे दस क ा को ज दया। जनके नाम ह—मृगी, मृगम ा, हरी, भ मदा, मात ी, शादूली, ेता, सुरभी, सवल णस ा सुरसा और क कु ा॥ २१-२२ ॥ ‘नरेश म े ीराम! मृगीक संतान सारे मृग ह और मृगम ाके ऋ , सृमर और चमर॥ २३ ॥ ‘



‘भ मदाने गजराज, जो सम



इरावती नामक क ाको ज दया, जसका पु है ऐरावत नामक महान् लोक को अभी है॥ २४ ॥ ‘हरीक संतान ह र ( सह) तथा तप ी ( वचारशील) वानर तथा गोलांगूल (लंगूर) ह। ोधवशाक पु ी शादूलीने ा नामक पु उ कये॥ २५ ॥ ‘नर े ! मात ीक संतान मात (हाथी) ह। काकु ! ेताने अपने पु के पम एक द जको ज दया॥ २६ ॥ ‘ ीराम! आपका भला हो। ोधवशाक पु ी सुरभी देवीने दो क ाएँ उ क— रो हणी और यश नी ग व ॥ २७ ॥ ‘रो हणीने गौ को ज दया और ग व ने घोड़ को ही पु पम कट कया। ीराम! सुरसाने नाग को और क नू े प ग को ज दया॥ २८ ॥ ‘नर े ! महा ा क पक प ी मनुने ा ण, य, वै तथा शू जा तवाले मनु को ज दया॥ ‘मुखसे ा ण उ ए और दयसे य। दोन ऊ से वै का ज आ और दोन पैर से शू का—ऐसी स है॥ ३० ॥ ‘(क पप ी) अनलाने प व फलवाले सम वृ को ज दया। क पप ी ता ाक पु ी जो शुक थी, उसक पौ ी वनता थी तथा क ू सुरसाक ब हन (एवं ोधवशाक पु ी) कही गयी है॥ ३१ ॥ ‘इनमसे क नू े एक सह नाग को उ कया, जो इस पृ ीको धारण करनेवाले ह तथा वनताके दो पु ए—ग ड़ और अ ण॥ ३२ ॥ ‘उ वनतान न अ णसे म तथा मेरे बड़े भा◌इ स ा त उ ए। श ुदमन रघुवीर! आप मेरा नाम जटायु समझ। म ेनीका पु ँ (ता ाक पु ी जो ेनी बतायी गयी है, उसीक पर राम उ ◌इ एक ेनी मेरी माता ◌इ)॥ ३३ ॥ ‘तात! य द आप चाह तो म यहाँ आपके नवासम सहायक होऊँ गा। यह दुगम वन मृग तथा रा स से से वत है। ल णस हत आप य द अपनी पणशालासे कभी बाहर चले जायँ तो उस अवसरपर म देवी सीताक र ा क ँ गा’॥ ३४ ॥



यह सुनकर ीरामच जीने जटायुका बड़ा स ान कया और स तापूवक उनके गले लगकर वे उनके सामने नतम क हो गये। फर पताके साथ जस कार उनक म ता ◌इ थी, वह स मन ी ीरामने जटायुके मुखसे बारंबार सुना॥ ३५ ॥ त ात् वे म थलेशकु मारी सीताको उनके संर णम स पकर ल ण और उन अ बलशाली प ी जटायुके साथ ही प वटीक ओर ही चल दये। ीरामच जी मु न ोही रा स को श ु समझकर उ उसी कार द कर डालना चाहते थे, जैसे आग प त को जलाकर भ कर देती है॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म चौदहवाँ सग पूरा आ॥ १४॥ *य



प पुराण म ‘क पाय योदश’ इ ा द वचन ारा क पक तेरह प य का उ ेख कया गया है, तथा प यहाँ जस संतानपर राका वणन करना है, उसम इन आठ का ही उपयोग है, इस लये यहाँ आठक ही सं ा दी गयी है।



पं हवाँ सग प वटीके रमणीय देशम ीरामक आ ासे ल ण ारा सु र पणशालाका नमाण तथा उसम सीता और ल णस हत ीरामका नवास



नाना कारके सप , हसक ज ु और मृग से भरी ◌इ प वटीम प ँ चकर ीरामने उ ी तेजवाले अपने भा◌इ ल णसे कहा—॥ १ ॥ ‘सौ ! मु नवर अग ने हम जस ानका प रचय दया था, उनके तथाक थत ानम हमलोग आ प ँ चे। यही प वटीका देश है। यहाँका वन ा पु से कै सी शोभा पा रहा है॥ २॥ ‘ल ण! तुम इस वनम चार ओर डालो; क इस कायम नपुण हो। देखकर यह न य करो क कस ानपर आ म बनाना हमारे लये अ ा होगा॥ ३ ॥ ‘ल ण! तुम कसी ऐसे ानको ढूँ ढ़ नकालो, जहाँसे जलाशय नकट हो, जहाँ वदेहकु मारी सीताका मन लगे, जहाँ तुम और हम भी स तापूवक रह सक, जहाँ वन और जल दोन का रमणीय हो तथा जस ानके आस-पास ही स मधा, फू ल, कु श और जल मलनेक सु वधा हो’॥ ४-५ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर ल ण दोन हाथ जोड़कर सीताके सामने ही उन ककु कु लभूषण ीरामसे इस कार बोले—॥ ६ ॥ ‘काकु ! आपके रहते ए म सदा पराधीन ही ँ । म सैकड़ या अन वष तक आपक आ ाके अधीन ही रहना चाहता ँ ; अत: आप यं ही देखकर जो ान सु र जान पड़े, वहाँ आ म बनानेके लये मुझे आ ा द—मुझसे कह क तुम अमुक ानपर आ म बनाओ’॥ ७ ॥



ल णके इस वचनसे अ तेज ी भगवान् ीरामको बड़ी स ता ◌इ और उ ने यं ही सोच- वचारकर एक ऐसा ान पसंद कया, जो सब कारके उ म गुण से स और आ म बनानेके यो था। उस सु र ानपर आकर ीरामने ल णका हाथ अपने हाथम लेकर कहा—॥ ८-९ ॥



‘सु म



ान न! यह ान समतल और सु र है तथा फू ले ए वृ से घरा है। तु इसी ानपर यथो चत पसे एक रमणीय आ मका नमाण करना चा हये॥ ‘यह पास ही सूयके समान उ ल का वाले मनोरम ग यु कमल से रमणीय तीत होनेवाली तथा प क शोभासे स पु रणी दखायी देती है॥ ११ ॥ ‘प व अ :करणवाले अग मु नने जसके वषयम कहा था, वह वक सत वृ ाव लय से घरी ◌इ रमणीय गोदावरी नदी यही है॥ १२ ॥ ‘इसम हंस और कार व आ द जलप ी वचर रहे ह। चकवे इसक शोभा बढ़ा रहे ह तथा पानी पीनेके लये आये ए मृग के ंडु इसके तटपर छाये रहते ह। यह नदी इस ानसे न तो अ धक दूर है और न अ नकट ही॥ १३ ॥ ‘सौ ! यहाँ ब त-सी क रा से यु ऊँ चे-ऊँ चे पवत दखायी दे रहे ह, जहाँ मयूर क मीठी बोली गूँज रही है। ये रमणीय पवत खले ए वृ से ा ह॥ १४ ॥ ‘ ान- ानपर सोने, चाँदी तथा ताँबेके समान रंगवाले सु र गै रक धातु से उपल त ये पवत ऐसे तीत हो रहे ह, मानो झरोखेके आकारम क गयी नीले, पीले और सफे द आ द रंग क उ म ृ ाररचना से अलंकृत हाथी शोभा पा रहे ह ॥ १५ ॥ पु , गु तथा लता-व रय से यु साल, ताल, तमाल, खजूर, कटहल, जलकद , त नश, पुंनाग, आम, अशोक, तलक, के वड़ा, च ा, न, च न, कद , पणास, लकु च, धव, अ कण, खैर, शमी, पलाश और पाटल (पाडर) आ द वृ से घरे ए ये पवत बड़ी शोभा पा रहे ह॥ १६—१८ ॥ ‘सु म ान न! यह ब त ही प व और बड़ा रमणीय ान है। यहाँ ब त-से पशु-प ी नवास करते ह। हमलोग भी यह इन प राज जटायुके साथ रहगे’॥ ीरामके ऐसा कहनेपर श ुवीर का संहार करनेवाले महाबली ल णने भा◌इके लये शी ही आ म बनाकर तैयार कया॥ २० ॥ वह आ म एक अ व ृत पणशालाके पम बनाया गया था। महाबली ल णने पहले वहाँ म ी एक करके दीवार खड़ी क , फर उसम सु र एवं सु ढ़ ख े लगाये। ख के ऊपर बड़े-बड़े बाँस तरछे करके रखे। बाँस के रख दये जानेपर वह कु टी बड़ी सु र दखायी देने लगी। फर उन बाँस पर उ ने शमीवृ क शाखाएँ फै ला द और उ मजबूत र य से कसकर बाँध दया। इसके बाद ऊपरसे कु श, कास, सरकं डे और प े बछाकर उस



पणशालाको भलीभाँ त छा दया तथा नीचेक भू मको बराबर करके उस कु टीको बड़ा रमणीय बना दया। इस कार ल णने ीरामच जीके लये परम उ म नवासगृह बना दया, जो देखने ही यो था॥ २१—२३ ॥ उसे तैयार करके ीमान् ल णने गोदावरी नदीके तटपर जाकर त ाल उसम ान कया और कमलके फू ल तथा फल लेकर वे फर वह लौट आये॥ २४ ॥ तदन र शा ीय व धके अनुसार देवता के लये फू ल क ब ल (उपहारसाम ी) अ पत क तथा वा ुशा करके उ ने अपना बनाया आ आ म ीरामच जीको दखाया॥ २५ ॥ भगवान् ीराम सीताके साथ उस नये बने ए सु र आ मको देखकर ब त स ए और कु छ कालतक उसके भीतर खड़े रहे॥ २६ ॥ त ात् अ हषम भरकर उ ने दोन भुजा से ल णको कसकर दयसे लगा लया और बड़े ेहके साथ यह बात कही—॥ २७ ॥ ‘साम शाली ल ण! म तुमपर ब त स ँ । तुमने यह महान् काय कया है। उसके लये और को◌इ समु चत पुर ार न होनेसे मने तु गाढ़ आ ल न दान कया है॥ २८ ॥ ‘ल ण! तुम मेरे मनोभावको त ाल समझ लेनेवाले, कृ त और धम हो। तुम-जैसे पु के कारण मेरे धमा ा पता अभी मरे नह ह—तु ारे पम वे अब भी जी वत ही ह’॥ २९ ॥ ल णसे ऐसा कहकर अपनी शोभाका व ार करनेवाले सुखी ीरामच जी चुर फल से स उस प वटी- देशम सबके साथ सुखपूवक रहने लगे॥ ३० ॥ सीता और ल णसे से वत हो धमा ा ीराम कु छ कालतक वहाँ उसी कार रहे, जैसे गलोकम देवता नवास करते ह॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पं हवाँ सग पूरा आ॥ १५॥



सोलहवाँ सग ल



णके ारा हेम



ऋतुका वणन और भरतक शंसा तथा ीरामका उन दोन के साथ गोदावरी नदीम ान



महा ा ीरामको उस आ मम रहते ए शरद् ऋतु बीत गयी और य हेम का आर आ॥ १ ॥ एक दन ात:काल रघुकुलन न ीराम ान करनेके लये परम रमणीय गोदावरी नदीके तटपर गये॥ २ ॥ उनके छोटे भा◌इ ल ण भी, जो बड़े ही वनीत और परा मी थे, सीताके साथ-साथ हाथम घड़ा लये उनके पीछे-पीछे गये। जाते-जाते वे ीरामच जीसे इस कार बोले—॥ ३ ॥



य वचन बोलनेवाले भैया ीराम! यह वही हेम काल आ प ँ चा है, जो आपको अ धक य है और जससे यह शुभ संव र अलंकृत-सा तीत होता है॥ ४ ॥ ‘इस ऋतुम अ धक ठ क या पालेके कारण लोग का शरीर खा हो जाता है। पृ ीपर रबीक खेती लहलहाने लगती है। जल अ धक शीतल होनेके कारण पीनेके यो नह रहता और आग बड़ी य लगती है॥ ५ ॥ ‘नवस े ’ कमके अनु ानक इस वेलाम नूतन अ हण करनेके लये क गयी आ यणकम प पूजा ारा देवता तथा पतर को संतु करके उ आ यणकमका स ादन करनेवाले स ु ष न ाप हो गये ह॥ ६ ॥ ‘इस ऋतुम ाय: सभी जनपद के नवा सय क अ ा वषयक कामनाएँ चुर पसे पूण हो जाती ह। गोरसक भी ब तायत होती है तथा वजयक इ ा रखनेवाले भूपालगण यु -या ाके लये वचरते रहते ह॥ ७ ॥ ‘सूयदेव इन दन यमसे वत द ण दशाका ढ़तापूवक सेवन करने लगे ह। इस लये उ र दशा सदूर व सु े व त ◌इ नारीक भाँ त सुशो भत या का शत नह हो रही है॥ ८ ॥ ‘ हमालयपवत तो भावसे ही घनीभूत हमके खजानेसे भरा-पूरा होता है, परंतु इस समय सूयदेव भी द णायनम चले जानेके कारण उससे दूर हो गये ह; अत: अब अ धक हमके



संचयसे स होकर हमवान् ग र ही अपने नामको साथक कर रहा है॥ ९ ॥ ‘म ा कालम धूपका श होनेसे हेम के सुखमय दन अ सुखसे इधर-उधर वचरनेके यो होते ह। इन दन सुसे होनेके कारण सूयदेव सौभा शाली जान पड़ते ह और सेवनके यो न होनेके कारण छाँह तथा जल अभागे तीत होते ह॥ १० ॥ ‘आजकलके दन ऐसे ह क सूयक करण का श कोमल ( य) जान पड़ता है। कु हासे अ धक पड़ते ह। सरदी सबल होती है, कड़ाके का जाड़ा पड़ने लगता है। साथ ही ठ ी हवा चलती रहती है। पाला पड़नेसे प के झड़ जानेके कारण जंगल सूने दखायी देते ह और हमके शसे कमल गल जाते ह॥ ११ ॥ ‘इस हेम कालम रात बड़ी होने लगती ह। इनम सरदी ब त बढ़ जाती है। खुले आकाशम को◌इ नह सोते ह। पौषमासक ये रात हमपातके कारण धूसर तीत होती ह॥ १२ ॥ ‘हेम



कालम च माका सौभा सूयदेवम चला गया है (च मा सरदीके कारण असे और सूय म र होनेके कारण से हो गये ह)। च म ल हमकण से आ होकर धू मल जान पड़ता है; अत: च देव न: ासवायुसे म लन ए दपणक भाँ त का शत नह हो रहे ह॥ १३ ॥ ‘इन दन पू णमाक चाँदनी रात भी तु हन ब अ ु ◌ से म लन दखायी देती है— का शत नह होती है। ठीक उसी तरह, जैसे सीता अ धक धूप लगनेसे साँवली-सी दीखती है —पूववत् शोभा नह पाती॥ १४ ॥ ‘ भावसे ही जसका श शीतल है, वह पछु आ हवा इस समय हमकण से ा हो जानेके कारण दूनी सरदी लेकर बड़े वेगसे बह रही है॥ १५ ॥ ‘जौ और गे ँ के खेत से यु ये ब सं क वन भापसे ढँ के ए ह तथा ौ और सारस इनम कलरव कर रहे ह। सूय दयकालम इन वन क बड़ी शोभा हो रही है॥ १६ ॥ ‘ये सुनहरे रंगके जड़हन धान खजूरके फू लके -से आकारवाली बाल से, जनम चावल भरे ए ह, कु छ लटक गये ह। इन बाल के कारण इनक बड़ी शोभा होती है॥ १७ ॥ ‘कु हासेसे ढक और फै लती ◌इ करण से उपल त होनेवाले दूरो दत सूय च माके समान दखायी देते ह॥ १८ ॥



‘इस



समय अ धक लाल और कु छ-कु छ ेत, पीत वणक धूप पृ ीपर फै लकर शोभा पा रही है। पूवा कालम तो कु छ इसका बल जान ही नह पड़ता है, परंतु म ा कालम इसके शसे सुखका अनुभव होता है॥ ‘ओसक बूँद पड़नेसे जहाँक घास कु छ-कु छ भीगी ◌इ जान पड़ती ह, वह वनभू म नवो दत सूयक धूपका वेश होनेसे अ तु शोभा पा रही है॥ २० ॥ ‘यह जंगली हाथी ब त ासा आ है। यह सुखपूवक ास बुझानेके लये अ शीतल जलका श तो करता है, कतु उसक ठं डक अस होनेके कारण अपनी सूँड़को तुरंत ही सकोड़ लेता है॥ २१ ॥ ‘ये जलचर प ी जलके पास ही बैठे ह; परंतु जैसे डरपोक मनु यु भू मम वेश नह करते ह, उसी कार ये पानीम नह उतर रहे ह॥ २२ ॥ ‘रातम ओस व ु और अ कारसे आ ा दत तथा ात:काल कु हासेके अँधेरेसे ढक ◌इ ये पु हीन वन े णयाँ सोयी ◌इ-सी दखायी देती ह॥ २३ ॥ ‘इस समय न दय के जल भापसे ढके ए ह। इनम वचरनेवाले सारस के वल अपने कलरव से पहचाने जाते ह तथा ये स रताएँ भी ओससे भीगी ◌इ बालूवाले अपने तट से ही काशम आती ह (जलसे नह )॥ २४ ॥ ‘बफ पड़नेसे और सूयक करण के म होनेसे अ धक सद के कारण इन दन पवतके शखरपर पड़ा आ जल भी ाय: ा द तीत होता है॥ २५ ॥ ‘जो पुराने पड़ जानेके कारण जजर हो गये ह, जनक क णका और के सर जीण-शीण हो गये ह, ऐसे दल से उपल त होनेवाले कमल के समूह पाला पड़नेसे गल गये ह। उनम डंठलमा शेष रह गये ह। इसी लये उनक शोभा न हो गयी है॥ २६ ॥ ‘पु ष सह ीराम! इस समय धमा ा भरत आपके लये ब त दु:खी ह और आपम भ रखते ए नगरम ही तप ा कर रहे ह॥ २७ ॥ ‘वे रा , मान तथा नाना कारके ब सं क भोग का प र ाग करके तप ाम संल ह एवं नय मत आहार करते ए इस शीतल महीतलपर बना व रके ही शयन करते ह॥ २८ ॥ ‘ न य ही भरत भी इसी बेलाम ानके लये उ त हो म ी एवं जाजन के साथ त दन सरयू नदीके तटपर जाते ह गे॥ २९ ॥



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सुखम पले ए सुकुमार भरत जाड़ेका क सहते ए रातके पछले पहरम कै से सरयूजीके जलम डु बक लगाते ह गे॥ ३० ॥ ‘ जनके ने कमलदलके समान शोभा पाते ह, जनक अ का ाम है और जनके उदरका कु छ पता ही नह लगता है, ऐसे महान् धम , स वादी, ल ाशील, जते य, य वचन बोलनेवाले, मृदलु भाववाले महाबा श ुदमन ीमान् भरतने नाना कारके सुख को ागकर सवथा आपका ही आ य हण कया है॥ ३१-३२ ॥ ‘आपके भा◌इ महा ा भरतने न य ही ग-लोकपर वजय ा कर ली है; क वे भी तप ाम त होकर आपके वनवासी जीवनका अनुसरण कर रहे ह॥ ३३ ॥ ‘मनु ाय: माताके गुण का ही अनुवतन करते ह पताके नह ; इस लौ कक उ को भरतने अपने बतावसे म ा मा णत कर दया है॥ ३४ ॥ ‘महाराज दशरथ जसके प त ह और भरत-जैसा साधु जसका पु है, वह माता कै के यी वैसी ू रतापूण वाली कै से हो गयी?’॥ ३५ ॥ धमपरायण ल ण जब ेहवश इस कार कह रहे थे, उस समय ीरामच जीसे माता कै के यीक न ा नह सही गयी। उ ने ल णसे कहा—॥ ३६ ॥ ‘तात! तु मझली माता कै के यीक कभी न ा नह करनी चा हये। (य द कु छ कहना हो तो) पहलेक भाँ त इ ाकु वंशके ामी भरतक ही चचा करो॥ ३७ ॥ ‘य प मेरी बु ढ़तापूवक तका पालन करते ए वनम रहनेका अटल न य कर चुक है, तथा प भरतके ेहसे संत होकर पुन: च ल हो उठती है॥ ३८ ॥ ‘मुझे भरतक वे परम य, मधुर, मनको भानेवाली और अमृतके समान दयको आ ाद दान करनेवाली बात याद आ रही ह॥ ३९ ॥ ‘रघुकुलन न ल ण! कब वह दन आयेगा, जब म तु ारे साथ चलकर महा ा भरत और वीरवर श ु से मलूँगा’॥ ४० ॥ इस कार वलाप करते ए ककु कु लभूषण भगवान् ीरामने ल ण और सीताके साथ गोदावरी नदीके तटपर जाकर ान कया॥ ४१ ॥ वहाँ ान करके उ ने गोदावरीके जलसे देवता और पतर का तपण कया। तदन र जब सूय दय आ, तब वे तीन न ाप भगवान् सूयका उप ान करके अ



देवता क भी ु त करने लगे॥ सीता और ल णके साथ ान करके भगवान् ीराम उसी कार शोभा पाने लगे, जैसे पवतराजपु ी उमा और न ीके साथ ग ाजीम अवगाहन करके भगवान् सुशो भत होते ह॥ ४३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म सोलहवाँ सग पूरा आ॥ १६॥



स हवाँ सग ीरामके आ मम शूपणखाका आना, उनका प रचय जानना और अपना प रचय देकर उनसे अपनेको भायाके पम हण करनेके लये अनुरोध करना



ान करके ीराम, ल ण और सीता तीन ही उस गोदावरीतटसे अपने आ मम लौट आये॥ १ ॥ उस आ मम आकर ल णस हत ीरामने पूवा कालके होम-पूजन आ द काय पूण कये, फर वे दोन भा◌इ पणशालाम आकर बैठे॥ २ ॥ वहाँ सीताके साथ वे सुखपूवक रहने लगे। उन दन बड़े-बड़े ऋ ष-मु न आकर वहाँ उनका स ार करते थे। पणशालाम सीताके साथ बैठे ए महाबा ीरामच जी च ाके साथ वराजमान च माक भाँ त शोभा पा रहे थे। वे अपने भा◌इ ल णके साथ वहाँ तरह-तरहक बात कया करते थे॥ ३-४ ॥ उस समय जब क ीरामच जी ल णके साथ बातचीतम लगे ए थे, एक रा सी अक ात् उस ानपर आ प ँ ची। वह दशमुख रा स रावणक ब हन शूपणखा थी। उसने वहाँ आकर देवता के समान मनोहर पवाले ीरामच जीको देखा॥ ५-६ ॥ उनका मुख तेज ी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और ने फु कमलदलके समान वशाल एवं सु र थे। वे हाथीके समान म ग तसे चलते थे। उ ने म कपर जटाम ल धारण कर रखा था॥ ७ ॥ परम सुकुमार, महान् बलशाली, राजो चत ल ण से यु , नील कमलके समान ाम का से सुशो भत, कामदेवके स श सौ यशाली तथा इ के समान तेज ी ीरामको देखते ही वह रा सी कामसे मो हत हो गयी॥ ८ १/२ ॥ ीरामका मुख सु र था और शूपणखाका मुख ब त ही भ ा एवं कु प था। उनका म भाग (क ट देश और उदर) ीण था; कतु शूपणखा बेडौल लंबे पेटवाली थी। ीरामक आँ ख बड़ी-बड़ी होनेके कारण मनोहर थ , परंतु उस रा सीके ने कु प और डरावने थे। ीरघुनाथजीके के श चकने और सु र थे, परंतु उस नशाचरीके सरके बाल ताँब-े जैसे लाल थे। ीरामका प बड़ा ारा लगता था, कतु शूपणखाका प बीभ और वकराल था। ीराघवे मधुर रम बोलते थे, कतु वह रा सी भैरवनाद करनेवाली थी॥ ९-१० ॥



ये देखनेम सौ और न नूतन त ण थे, कतु वह नशाचरी ू र और हजार वष क बु ढ़या थी। ये सरलतासे बात करनेवाले और उदार थे, कतु उसक बात म कु टलता भरी रहती थी। ये ायो चत सदाचारका पालन करनेवाले थे और वह अ दुराचा रणी थी। ीराम देखनेम ारे लगते थे और शूपणखाको देखते ही घृणा पैदा होती थी॥ ११ ॥ तो वह रा सी कामभावसे आ व हो (मनोहर प बनाकर) ीरामके पास आयी और बोली—‘तप ीके वेशम म कपर जटा धारण कये, साथम ीको लये और हाथम धनुषबाण हण कये, इस रा स के देशम तुम कै से चले आये? यहाँ तु ारे आगमनका ा योजन है? यह सब मुझे ठीक-ठीक बताओ’॥ १२-१३ ॥ रा सी शूपणखाके इस कार पूछनेपर श ु को संताप देनेवाले ीरामच जीने अपने सरल भावके कारण सब कु छ बताना आर कया—॥ १४ ॥ ‘दे व! दशरथ नामसे स एक च वत राजा हो गये ह, जो देवता के समान परा मी थे। म उ का े पु ँ और लोग म राम नामसे व ात ँ ॥ १५ ॥ ‘ये मेरे छोटे भा◌इ ल ण ह, जो सदा मेरी आ ाके अधीन रहते ह और ये मेरी प ी ह, जो वदेहराज जनकक पु ी तथा सीता नामसे स ह॥ १६ ॥ ‘अपने पता महाराज दशरथ और माता कै के यीक आ ासे े रत होकर म धमपालनक इ ा रखकर धमर ाके ही उ े से इस वनम नवास करनेके लये यहाँ आया ँ ॥ १७ ॥ ‘अब म तु ारा प रचय ा करना चाहता ँ । तुम कसक पु ी हो? तु ारा नाम ा है? और तुम कसक प ी हो? तु ारे अ इतने मनोहर ह क तुम मुझे इ ानुसार प धारण करनेवाली को◌इ रा सी तीत होती हो। यहाँ कस लये तुम आयी हो? यह ठीक-ठीक बताओ’॥ १८ १/२ ॥ ीरामच जीक यह बात सुनकर वह रा सी कामसे पी ड़त होकर बोली—‘ ीराम! म सब कु छ ठीक-ठीक बता रही ँ । तुम मेरी बात सुनो। मेरा नाम शूपणखा है और म इ ानुसार प धारण करनेवाली रा सी ँ ॥ ‘म सम ा णय के मनम भय उ करती ◌इ इस वनम अके ली वचरती ँ । मेरे भा◌इका नाम रावण है। स व है, उसका नाम तु ारे कान तक प ँ चा हो॥



‘रावण



व वा मु नका वीर पु है, यह बात भी तु ारे सुननेम आयी होगी। मेरा दूसरा भा◌इ महाबली कु कण है, जसक न ा सदा ही बढ़ी रहती है॥ ‘मेरे तीसरे भा◌इका नाम वभीषण है, परंतु वह धमा ा है, रा स के आचार- वचारका वह कभी पालन नह करता। यु म जनका परा म व ात है, वे खर और दूषण भी मेरे भा◌इ ही ह॥ २३ ॥ ‘ ीराम! बल और परा मम म अपने उन सभी भाइय से बढ़कर ँ । तु ारे थम दशनसे ही मेरा मन तुमम आस हो गया है। (अथवा तु ारा प-सौ य अपूव है। आजसे पहले देवता म भी कसीका ऐसा प मेरे देखनेम नह आया है, अत: इस अपूव पके दशनसे म तु ारे त आकृ हो गयी ँ ।) यही कारण है क म तुम-जैसे पु षो मके त प तक भावना रखकर बड़े ेमसे पास आयी ँ ॥ २४ ॥ ‘म भाव (उ ृ भाव—अनुराग अथवा महान् बल-परा म) से स ँ और अपनी इ ा तथा श से सम लोक म वचरण कर सकती ँ , अत: अब तुम दीघकालके लये मेरे प त बन जाओ। इस अबला सीताको लेकर ा करोगे?॥ २५ ॥ ‘यह वकारयु और कु पा है, अत: तु ारे यो नह है। म ही तु ारे अनु प ँ , अत: मुझे अपनी भायाके पम देखो॥ २६ ॥ ‘यह सीता मेरी म कु प, ओछी, वकृ त, धँसे ए पेटवाली और मानवी है, म इसे तु ारे इस भा◌इके साथ ही खा जाऊँ गी॥ २७ ॥ ‘ फर तुम कामभावयु हो मेरे साथ पवतीय शखर और नाना कारके वन क शोभा देखते ए द कवनम वहार करना’॥ २८ ॥ शूपणखाके ऐसा कहनेपर बातचीत करनेम कु शल ककु कु लभूषण ीरामच जी जोर-जोरसे हँ सने लगे, फर उ ने उस मतवाले ने वाली नशाचरीसे इस कार कहना आर कया॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म स हवाँ सग पूरा आ॥ १७॥



अठारहवाँ सग ीरामके टाल देनेपर शूपणखाका ल णसे णययाचना करना, फर उनके भी टालनेपर उसका सीतापर आ मण और ल णका उसके नाक-कान काट लेना



ीरामने कामपाशसे बँधी ◌इ उस शूपणखासे अपनी इ ाके अनुसार मधुर वाणीम म -म मुसकराते ए कहा—॥ १ ॥ ‘आदरणीया दे व! म ववाह कर चुका ँ । यह मेरी ारी प ी व मान है। तुम-जैसी य के लये तो सौतका रहना अ दु:खदायी ही होगा॥ २ ॥ ‘ये मेरे छोटे भा◌इ ीमान् ल ण बड़े शीलवान्, देखनेम य लगनेवाले और बलपरा मसे स ह। इनके साथ ी नह है। ये अपूव गुण से स ह। ये त ण तो ह ही, इनका प भी देखनेम बड़ा मनोरम है। अत: य द इ भायाक चाह होगी तो ये ही तु ारे इस सु र पके यो प त ह गे॥ ३-४ ॥ ‘ वशाललोचने! वरारोहे! जैसे सूयक भा मे पवतका सेवन करती है, उसी कार तुम मेरे इन छोटे भा◌इ ल णको प तके पम अपनाकर सौतके भयसे र हत हो इनक सेवा करो’॥ ५ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर वह कामसे मो हत ◌इ रा सी उ छोड़कर सहसा ल णके पास जा प ँ ची और इस कार बोली—॥ ६ ॥ ‘ल ण! तु ारे इस सु र पके यो म ही ँ , अत: म ही तु ारी परम सु री भाया हो सकती ँ । मुझे अ ीकार कर लेनेपर तुम मेरे साथ समूचे द कार म सुखपूवक वचरण कर सकोगे’॥ ७ ॥ उस रा सीके ऐसा कहनेपर बातचीतम नपुण सु म ाकु मार ल ण मुसकराकर सूप-जैसे नखवाली उस नशाचरीसे यह यु यु बात बोले—॥ ८ ॥ ‘लाल कमलके समान गौर वणवाली सु र! म तो दास ँ , अपने बड़े भा◌इ भगवान् ीरामके अधीन ँ , तुम मेरी ी होकर दासी बनना चाहती हो?॥ ९ ॥ ‘ वशाललोचने! मेरे बड़े भैया स ूण ऐ य (अथवा सभी अभी व ु ) से स ह। तुम उ क छोटी ी हो जाओ। इससे तु ारे सभी मनोरथ स हो जायँगे और तुम सदा



स रहोगी। तु ारे प-रंग उ के यो नमल ह॥ १० ॥ ‘कु प, ओछी, वकृ त, धँसे ए पेटवाली और वृ ा भायाको ागकर ये तु ही सादर हण करगे*॥ ११ ॥ ‘सु र क ट देशवाली वरव ण न! कौन ऐसा बु मान् मनु होगा, जो तु ारे इस े पको छोड़कर मानवक ा से ेम करेगा?’॥ १२ ॥ ल णके इस कार कहनेपर प रहासको न समझनेवाली उस लंबे पेटवाली वकराल रा सीने उनक बातको स ी माना॥ १३ ॥ वह पणशालाम सीताके साथ बैठे ए श ुसंतापी दुजय वीर ीरामच जीके पास लौट आयी और कामसे मो हत होकर बोली—॥ १४ ॥ ‘राम! तुम इस कु प, ओछी, वकृ त, धँसे ए पेटवाली और वृ ाका आ य लेकर मेरा वशेष आदर नह करते हो॥ १५ ॥ ‘अत: आज तु ारे देखते-देखते म इस मानुषीको खा जाऊँ गी और इस सौतके न रहनेपर तु ारे साथ सुखपूवक वचरण क ँ गी’॥ १६ ॥ ऐसा कहकर दहकते ए अंगार के समान ने वाली शूपणखा अ ोधम भरकर मृगनयनी सीताक ओर झपटी, मानो को◌इ बड़ी भारी उ ा रो हणी नामक तारेपर टूट पड़ी हो॥ १७ ॥ महाबली ीरामने मौतके फं देक तरह आती ◌इ उस रा सीको कं ारसे रोककर कु पत हो ल णसे कहा— ‘सु म ान न! ू र कम करनेवाले अनाय से कसी कारका प रहास भी नह करना चा हये। सौ ! देखो न, इस समय सीताके ाण कसी कार बड़ी मु लसे बचे ह॥ १९ ॥ ‘पु ष सह! तु इस कु पा, कु लटा, अ मतवाली और लंबे पेटवाली रा सीको कु प— कसी अ से हीन कर देना चा हये’॥ २० ॥ ीरामच जीके इस कार आदेश देनेपर ोधम भरे ए महाबली ल णने उनके देखतेदेखते ानसे तलवार ख च ली और शूपणखाके नाक-कान काट लये॥ नाक और कान कट जानेपर भयंकर रा सी शूपणखा बड़े जोरसे च ाकर जैसे आयी थी, उसी तरह वनम भाग गयी॥ २२ ॥



खूनसे भीगी ◌इ वह महाभयंकर एवं वकराल पवाली नशाचरी नाना कारके र म जोर-जोरसे ची ार करने लगी, मानो वषाकालम मेघ क घटा गजन-तजन कर रही हो॥ २३ ॥ वह देखनेम बड़ी भयानक थी। उसने अपने कटे ए अ से बारंबार खूनक धारा बहाते और दोन भुजाएँ ऊपर उठाकर च ाड़ते ए एक वशाल वनके भीतर वेश कया॥ २४ ॥ ल णके ारा कु प क गयी शूपणखा वहाँसे भागकर रा ससमूहसे घरे ए भयंकर तेजवाले जन ान नवासी ाता खरके पास गयी और जैसे आकाशसे बजली गरती है, उसी कार वह पृ ीपर गर पड़ी॥ खरक वह बहन र से नहा गयी थी और भय तथा मोहसे अचेत-सी हो रही थी। उसने वनम सीता और ल णके साथ ीरामच जीके आने और अपने कु प कये जानेका सारा वृ ा खरसे कह सुनाया॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म अठारहवाँ सग पूरा आ॥ १८॥ * यहाँ ल



णने उ वशेषण को दुहराया है, ज शूपणखाने सीताके लये यु कया था। शूपणखाक से जो अथ है, वह ऊपर दे दया है; परंतु ल णक म वे वशेषण न ापरक नह , ु तपरक है, अत: उनक से उन वशेषण का अथ यहाँ दया जाता है— व पा— व श पवाली भुवनसु री। असती— जससे बढ़कर दूसरी को◌इ सती नह है ऐसी। कराला—शरीरक गठनके अनुसार ऊँ चे-नीचे अ वाली। नणतोदरी— न उदर अथवा ीण क टदेशवाली। वृ ा— ानम बढ़ी-चढ़ी अथात् तु छोड़कर उ वशेषण वाली सीताको ही वे हण करगे।



उ ीसवाँ सग शूपणखाके मुखसे उसक ददु शाका वृ ा सुनकर ोधम भरे ए खरका ीराम आ दके वधके लये चौदह रा स को भेजना



अपनी ब हनको इस कार अ हीन और र से भीगी ◌इ अव ाम पृ ीपर पड़ी देख रा स खर ोधसे जल उठा और इस कार पूछने लगा—॥ १ ॥ ‘ब हन उठो और अपना हाल बताओ। मू ा और घबराहट छोड़ो तथा साफ-साफ कहो, कसने तु इस तरह पहीन बनाया है?॥ २ ॥ ‘कौन अपने सामने आकर चुपचाप बैठे ए नरपराध एवं वषैले काले साँपको अपनी अँगु लय के अ भागसे खेल-खेलम पीड़ा दे रहा है?॥ ३ ॥ ‘ जसने आज तुमपर आ मण करके तु ारे नाक-कान काटे ह, उसने उ को टका वष पी लया है तथा अपने गलेम कालका फं दा डाल लया है, फर भी मोहवश वह इस बातको समझ नह रहा है॥ ४ ॥ ‘तुम तो यं ही दूसरे ा णय के लये यमराजके समान हो, बल और परा मसे स हो तथा इ ानुसार सव वचरने और अपनी चके अनुसार प धारण करनेम समथ हो, फर भी तु कसने इस दुरव ाम डाला है; जससे दु:खी होकर तुम यहाँ आयी हो?॥ ५ ॥ ‘देवता , ग व , भूत तथा महा ा ऋ षय म यह कौन ऐसा महान् बलशाली है, जसने तु पहीन बना दया?॥ ६ ॥ ‘संसारम तो म कसीको ऐसा नह देखता, जो मेरा अ य कर सके । देवता म सह ने धारी पाकशासन इ भी ऐसा साहस कर सक, यह मुझे नह दखायी देता॥ ७ ॥ ‘जैसे हंस जलम मले ए दूधको पी लेता है, उसी कार म आज इन ाणा कारी बाण से तु ारे अपराधीके शरीरसे उसके ाण ले लूँगा॥ ८ ॥ ‘यु म मेरे बाण से जसके मम ान छ - भ हो गये ह तथा जो मेरे हाथ मारा गया है, ऐसे कस पु षके फे नस हत गरम-गरम र को यह पृ ी पीना चाहती है?॥ ९ ॥ ‘रणभू मम मेरे ारा मारे गये कस के शरीरसे मांस कु तर-कु तरकर ये हषम भरे ए ंडु -के - ंडु प ी खायँग?े ॥ १० ॥



‘ जसे म महासमरम ख च लू,ँ उस दीन अपराधीको देवता, ग



व, पशाच और रा स भी



नह बचा सकते॥ ‘धीरे-धीरे होशम आकर तुम मुझे उसका नाम बताओ, जस उ ने वनम तुमपर बलपूवक आ मण करके तु परा कया है’॥ १२ ॥ भा◌इका वशेषत: ोधम भरे ए भा◌इ खरका यह वचन सुनकर शूपणखा ने से आँ सू बहाती ◌इ इस कार बोली—॥ १३ ॥ ‘भैया! वनम दो त ण पु ष आये ह, जो देखनेम बड़े ही सुकुमार, पवान् और महान् बलवान् ह। उन दोन के बड़े-बड़े ने ऐसे जान पड़ते ह मानो खले ए कमल ह । वे दोन ही व ल-व और मृगचम पहने ए ह॥ १४ ॥ ‘फल और मूल ही उनका भोजन है। वे जते य, तप ी और चारी ह। दोन ही राजा दशरथके पु और आपसम भा◌इ-भा◌इ ह। उनके नाम राम और ल ण ह॥ १५ ॥ ‘वे दो ग वराज के समान जान पड़ते ह और राजो चत ल ण से स ह। ये दोन भा◌इ देवता अथवा दानव ह, यह म अनुमानसे भी नह जान सकती॥ १६ ॥ ‘उन दोन के बीचम एक त ण अव ावाली पवती ी भी वहाँ देखी है, जसके शरीरका म भाग बड़ा ही सु र है। वह सब कारके आभूषण से वभू षत है॥ ‘उस ीके ही कारण उन दोन ने मलकर मेरी एक अनाथ और कु लटा ीक भाँ त ऐसी दुग त क है॥ १८ ॥ ‘म यु म उस कु टल आचारवाली ीके और उन दोन राजकु मार के भी मारे जानेपर उनका फे नस हत र पीना चाहती ँ ॥ १९ ॥ ‘रणभू मम उस ीका और उन पु ष का भी र म पी सकूँ —यह मेरी पहली और मुख इ ा है, जो तु ारे ारा पूण क जानी चा हये॥ २० ॥ शूपणखाके ऐसा कहनेपर खरने कु पत होकर अ बलवान् चौदह रा स को, जो यमराजके समान भयंकर थे, यह आदेश दया—॥ २१ ॥ ‘वीरो! इस भयंकर द कार के भीतर चीर और काला मृगचम धारण कये दो श धारी मनु एक युवती ीके साथ घुस आये ह॥ २२ ॥



‘तुमलोग वहाँ जाकर पहले उन दोन



पु ष को मार डालो; फर उस दुराचा रणी ीके भी ाण ले लो। मेरी यह ब हन उन तीन का र पीयेगी॥ २३ ॥ ‘रा सो! मेरी इस ब हनका यह य मनोरथ है। तुम वहाँ जाकर अपने भावसे उन दोन मनु को मार गराओ और ब हनके इस मनोरथको शी पूरा करो॥ ‘रणभू मम उन दोन भाइय को तु ारे ारा मारा गया देख यह हषसे खल उठे गी और आन म होकर यु लम उनका र पान करेगी’॥ २५ ॥ खरक ऐसी आ ा पाकर वे चौदह रा स हवाके उड़ाये ए बादल के समान ववश हो शूपणखाके साथ प वटीको गये॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ १९॥



बीसवाँ सग ीराम ारा खरके भेजे ए चौदह रा स का वध



तदन र भयानक रा सी शूपणखा ीरामच जीके आ मपर आयी। उसने सीतास हत उन दोन भाइय का उन रा स को प रचय दया॥ १ ॥ रा स ने देखा—महाबली ीराम सीताके साथ पणशालाम बैठे ह और ल ण भी उनक सेवाम उप त ह॥ २ ॥ इधर ीमान् रघुनाथजीने भी शूपणखा तथा उसके साथ आये ए उन रा स को भी देखा। देखकर वे उ ी तेजवाले अपने भा◌इ ल णसे इस कार बोले—॥ ३ ॥ ‘सु म ाकु मार! तुम थोड़ी देरतक सीताके पास खड़े हो जाओ। म इस रा सीके सहायक बनकर पीछे-पीछे आये ए इन नशाचर का यहाँ अभी वध कर डालूँगा’॥ ४ ॥ अपने पको समझनेवाले ीरामच जीक यह बात सुनकर ल णने इसक भू र-भू र सराहना करते ए ‘तथा ु’ कहकर उनक आ ा शरोधाय क ॥ ५ ॥ तब धमा ा रघुनाथजीने अपने सुवणम त वशाल धनुषपर ा चढ़ायी और उन रा स से कहा—॥ ‘हम दोन भा◌इ राजा दशरथके पु राम और ल ण ह तथा सीताके साथ इस दुगम द कार म आकर फल-मूलका आहार करते ए इ यसंयमपूवक तप ाम संल ह और चयका पालन करते ह। इस कार द कवनम नवास करनेवाले हम दोन भाइय क तुम कस लये हसा करना चाहते हो?॥ ७-८ ॥ ‘देखो, तुम सब-के -सब पापा ा तथा ऋ षय का अपराध करनेवाले हो। उन ऋ षमु नय क आ ासे ही म धनुष-बाण लेकर महासमरम तु ारा वध करनेके लये यहाँ आया ँ ॥ ९॥ ‘ नशाचरो! य द तु यु से संतोष ा होता हो तो यहाँ खड़े ही रहो, भाग मत जाना और य द तु ाण का लोभ हो तो लौट जाओ (एक णके लये भी यहाँ न को)’॥ १० ॥ ीरामक यह बात सुनकर वे चौदह रा स अ कु पत हो उठे । ा ण क ह ा करनेवाले वे घोर नशाचर हाथ म शूल लये ोधसे लाल आँ ख करके कठोर वाणीम हष और



उ ाहके साथ भावत: लाल ने वाले मधुरभाषी ीरामसे, जनका परा म वे देख चुके थे, य बोले—॥ ११-१२ ॥ ‘अरे! तूने हमारे ामी महाकाय खरको ोध दलाया है; अत: हमलोग के हाथसे यु म मारा जाकर तू यं ही त ाल अपने ाण से हाथ धो बैठेगा॥ १३ ॥ ‘हम ब त-से ह और तू अके ला, तेरी ा श है क तू हमारे सामने रणभू मम खड़ा भी रह सके , फर यु करना तो दूरक बात है॥ १४ ॥ ‘हमारी भुजा ारा छोड़े गये इन प रघ , शूल और प श क मार खाकर तू अपने हाथम दबाये ए इस धनुषको, बल-परा मके अ भमानको तथा अपने ाण को भी एक साथ ही ाग देगा’॥ १५ ॥ ऐसा कहकर ोधम भरे ए वे चौदह रा स तरह-तरहके आयुध और तलवार लये ीरामपर ही टूट पड़े॥ १६ ॥ उन रा स ने दुजय वीर ीराघवे पर वे शूल चलाये, परंतु ककु कु लभूषण ीरामच जीने उन सम चौदह शूल को उतने ही सुवणभू षत बाण ारा काट डाला॥ १७ १/ ॥ २



त ात् महातेज ी रघुनाथजीने अ कु पत हो शानपर चढ़ाकर तेज कये गये सूयतु तेज ी चौदह नाराच हाथम लये। फर धनुष लेकर उसपर उन बाण को रखा और कानतक ख चकर रा स को ल करके छोड़ दया। मानो इ ने व का हार कया हो॥ १८-१९ १/२ ॥ वे बाण बड़े वेगसे उन रा स क छाती छेदकर धरम डू बे ए नकले और बाँबीसे बाहर आये ए सप क भाँ त त ाल पृ ीपर गर पड़े॥ २० १/२ ॥ उन नाराच से दय वदीण हो जानेके कारण वे रा स जड़से कटे ए वृ क भाँ त धराशायी हो गये। वे सब-के -सब खूनसे नहा गये थे। उनके शरीर वकृ त हो गये थे। उस अव ाम उनके ाणपखे उड़ गये॥ २१ १/२ ॥ उन सबको पृ ीपर पड़ा देख वह रा सी ोधसे मू त हो गयी और खरके पास जाकर पुन: आतभावसे गर पड़ी। उसके कटे ए कान और नाक का खून सूख गया था, इस लये ग दयु लताके समान तीत होती थी॥ २२-२३ ॥



भा◌इके नकट शोकसे पी ड़त ◌इ शूपणखा बड़े जोरसे आतनाद करने और फू टफू टकर रोने तथा आँ सू बहाने लगी। उस समय उसके मुखक का फ क पड़ गयी थी॥ २४ ॥



रणभू मम उन रा स को मारा गया देख खरक ब हन शूपणखा पुन: वहाँसे भागी ◌इ आयी। उसने उन सम रा स के वधका सारा समाचार भा◌इसे कह सुनाया॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म बीसवाँ सग पूरा आ॥ २०॥







सवाँ सग



शूपणखाका खरके पास आकर उन रा स के वधका समाचार बताना और रामका भय दखाकर उसे यु के लये उ े जत करना



शूपणखाको पुन: पृ ीपर पड़ी ◌इ देख अनथके लये आयी ◌इ उस ब हनसे खरने ोधपूवक वाणीम फर कहा—॥ १ ॥ ‘ब हन! मने तु ारा य करनेके लये उस समय ब त-से शूरवीर एवं मांसाहारी रा स को जानेक आ ा दे दी थी, अब फर तुम कस लये रो रही हो?॥ २ ॥ ‘मने जन रा स को भेजा था, वे मेरे भ , मुझम अनुराग रखनेवाले और सदा मेरा हत चाहनेवाले ह। वे कसीके मारनेपर भी मर नह सकते। उनके ारा मेरी आ ाका पालन न हो, यह भी स व नह है॥ ३ ॥ ‘ फर ऐसा कौन-सा कारण उप त हो गया, जसके लये तुम ‘हा नाथ’ क पुकार मचाती ◌इ साँपक तरह धरतीपर लोट रही हो। म उसे सुनना चाहता ँ ॥ ४ ॥ ‘मेरे-जैसे संर कके रहते ए तुम अनाथक तरह वलाप करती हो? उठो! उठो!! इस तरह लोटो मत। घबराहट छोड़ दो’॥ ५ ॥ खरके इस कार सा ना देनेपर वह दुधष रा सी अपने आँ सूभरे ने को प छकर भा◌इ खरसे बोली—॥ ‘भैया म इस समय फर तु ारे पास आयी ँ —यह बताती ँ , सुनो—मेरे नाक-कान कट गये और म खूनक धारासे नहा उठी, उस अव ाम जब पहली बार म आयी थी, तब तुमने मुझे बड़ी सा ना दी थी॥ ७ ॥ ‘त ात् मेरा य करनेके लये ल णस हत रामका वध करनेके उ े से तुमने जो वे चौदह शूरवीर रा स भेजे थे, वे सब-के -सब अमषम भरकर हाथ म शूल और प श लये वहाँ जा प ँ चे, परंतु रामने अपने ममभेदी बाण ारा उन सबको समरा णम मार गराया॥ ८-९ ॥ ‘उन महान् वेगशाली नशाचर को णभरम ही धराशायी आ देख रामके उस महान् परा मपर पात करके मेरे मनम बड़ा भय उ हो गया॥



‘ नशाचरराज! म भयभीत, उ और वषाद दखायी देता है, इसी लये फर तु ारी शरणम आयी



हो गयी ँ । मुझे सब ओर भय-ही-भय ँ ॥ ११ ॥ ‘म शोकके उस वशाल समु म डू ब गयी ँ , जहाँ वषाद पी मगर नवास करते ह और ासक तर मालाएँ उठती रहती ह। तुम उस शोकसागरसे मेरा उ ार नह करते हो?॥ १२



॥ ‘जो



मांसभ ी रा स मेरे साथ गये थे, वे सब-के -सब रामके पैने बाण से मारे जाकर पृ ीपर पड़े ह॥ ‘रा सराज! य द मुझपर और उन मरे ए रा स पर तु दया आती हो तथा य द रामके साथ लोहा लेनेके लये तुमम श और तेज हो तो उ मार डालो; क द कार म घर बनाकर रहनेवाले राम रा स के लये क क ह॥ १४ १/२ ॥ ‘य द तुम आज ही श ुघाती रामका वध नह कर डालोगे तो म तु ारे सामने ही अपने ाण ाग दूँगी; क मेरी लाज लुट चुक है॥ १५ १/२ ॥ ‘म बु से बारंबार सोचकर देखती ँ क तुम महासमरम सबल होकर भी रामके सामने यु म नह ठहर सकोगे॥ १६ १/२ ॥ ‘तुम अपनेको शूरवीर मानते हो, कतु तुमम शौय है ही नह । तुमने झूठे ही अपने-आपम परा मका आरोप कर लया है। मूढ़! तुम समरा णम उन दोन को मार डालो अ था अपने कु लम कल लगाकर भा◌इ-ब ु के साथ तुरंत ही इस जन ानसे भाग जाओ॥ १७-१८ ॥ ‘राम और ल ण मनु ह, य द उ भी मारनेक तुमम श नह है तो तु ारे-जैसे नबल और परा मशू रा सका यहाँ रहना कै से स व हो सकता है?॥ १९ ॥ ‘तुम रामके तेजसे परा जत होकर शी ही न हो जाओगे; क दशरथकु मार राम बड़े तेज ी ह। उनका भा◌इ भी महान् परा मी है, जसने मुझे नाक-कानसे हीन करके अ कु प बना दया’॥ २० १/२ ॥ इस कार ब त वलाप करके गुफाके समान गहरे पेटवाली वह रा सी शोकसे आतुर हो अपने भा◌इके पास मू त-सी हो गयी और अ दु:खी हो दोन हाथ से पेट पीटती ◌इ फू ट-फू टकर रोने लगी॥ २१-२२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म इ सवाँ सग पूरा आ॥ २१॥



बा◌इसवाँ सग चौदह हजार रा स क सेनाके साथ खर-दष ू णका जन



ानसे प वटीक ओर



ान



शूपणखा ारा इस कार तर ृ त होकर शूरवीर खरने रा स के बीच अ कठोर वाणीम कहा—॥ १ ॥ ‘ब हन! तु ारे अपमानके कारण मुझे बेतरह ोध चढ़ आया है। इसे धारण करना या दबा देना उसी कार अस व है, जैसे पू णमाको च वेगसे बढ़े ए खारे पानीके समु के जलको (अथवा यह उसी कार अस है, जैसे घावपर नमक न पानीका छड़कना)॥ २ ॥ ‘म परा मक से रामको कु छ भी नह गनता ँ ; क उस मनु का जीवन अब ीण हो चला है। वह अपने दु म से ही मारा जाकर आज ाण से हाथ धो बैठेगा॥ ३ ॥ ‘तुम अपने आँ सु को रोको और यह घबराहट छोड़ो। म भा◌इस हत रामको अभी यमलोक प ँ चा देता ँ ॥ ४ ॥ ‘रा सी! आज मेरे फरसेक मारसे न ाण होकर धरतीपर पड़े ए रामका गरम-गरम र तु पीनेको मलेगा’॥ ५ ॥ खरके मुखसे नकली ◌इ इस बातको सुनकर शूपणखाको पड़ी स ता ◌इ। उसने मूखतावश रा स म े भा◌इ खरक पुन: भू र-भू र शंसा क ॥ ६ ॥ उसने पहले जसका कठोर वाणी ारा तर ार कया और पुन: जसक अ सराहना क , उस खरने उस समय अपने सेनाप त दूषणसे कहा—॥ ७ ॥ ‘सौ ! मेरे मनके अनुकूल चलनेवाले, यु के मैदानसे पीछे न हटनेवाले, भयंकर वेगशाली, मेघ क काली घटाके समान काले रंगवाले, लोग क हसासे ही ड़ा- वहार करनेवाले तथा यु म उ ाहपूवक आगे बढ़नेवाले चौदह सह रा स को यु के लये भेजनेक पूरी तैयारी कराओ॥ ८-९ ॥ सौ सेनापते! तुम शी ही मेरा रथ भी यहाँ मँगवा लो। उसपर ब त-से धनुष, बाण, व च व च खड् ग और नाना कारक तीखी श य को भी रख दो॥ १० ॥ ‘रणकु शल वीर! म इस उ रामका वध करनेके लये महामन ी पुल वंशी रा स के आगे-आगे जाना चाहता ँ ’॥ ११ ॥



उसके इस कार आ ा देते ही एक सूयके समान काशमान और चतकबरे रंगके अ े घोड़ से जुता आ वशाल रथ वहाँ आ गया। दूषणने खरको इसक सूचना दी॥ १२ ॥ वह रथ मे पवतके शखरक भाँ त ऊँ चा था, उसे तपाये ए सोनेके बने ए साज-बाजसे सजाया गया था, उसके प हय म सोना जड़ा आ था, उसका व ार ब त बड़ा था, उस रथके कू बर वैदयू म णसे जड़े गये थे, उसक सजावटके लये सोनेके बने ए म , फू ल, वृ , पवत, च मा, सूय, मा लक प य के समुदाय तथा ता रका से वह रथ सुशो भत हो रहा था, उसपर जा फहरा रही थी तथा रथके भीतर खड् ग आ द अ -श रखे ए थे, छोटी-छोटी घ य अथवा सु र घुँघु से सजे और उ म घोड़ से जुते ए उस रथपर रा सराज खर उस समय आ ढ़ आ। अपनी ब हनके अपमानका रण करके उसके मनम बड़ा अमष हो रहा था॥ १३—१५ ॥ रथ, ढाल, अ -श तथा जसे स उस वशाल सेनाक ओर देखकर खर और दूषणने सम रा स से कहा—‘ नकलो, आगे बढ़ो’॥ १६ ॥ कू च करनेक आ ा ा होते ही भयंकर ढाल, अ -श तथा जासे यु वह वशाल रा स-सेना जोर-जोरसे गजना करती ◌इ जन ानसे बड़े वेगके साथ नकली॥ १७ ॥



सै नक के हाथम मु र, प श, शूल, अ तीखे फरसे, खड् ग, च और तोमर चमक उठे । श , भयंकर प रघ, वशाल धनुष, गदा, तलवार, मुसल तथा व (आठ कोणवाले आयुध वशेष) उन रा स के हाथ म आकर बड़े भयानक दखायी दे रहे थे। इन अ -श से उपल त और खरके मनक इ ाके अनुसार चलनेवाले अ भयंकर चौदह हजार रा स जन ानसे यु के लये चले॥ १८—२० ॥ उन भयंकर दखायी देनेवाले रा स को धावा करते देख खरका रथ भी कु छ देर सै नक के नकलनेक ती ा करके उनके साथ ही आगे बढ़ा॥ २१ ॥ तदन र खरका अ भ ाय जानकर उसके सार थने तपाये ए सोनेके आभूषण से वभू षत उन चतकबरे घोड़ को हाँका॥ २२ ॥ उसके हाँकनेपर श ुघाती खरका रथ शी ही अपने घर-घर श से स ूण दशा तथा उप दशा को त नत करने लगा॥ २३ ॥



उस समय खरका ोध बढ़ा आ था। उसका र भी कठोर हो गया था। वह श ुके वधके लये उतावला होकर यमराजके समान भयानक जान पड़ता था। जैसे ओल क वषा करनेवाला मेघ बड़े जोरसे गजना करता है, उसी कार महाबली खरने उ रसे सहनाद करके पुन: सार थको रथ हाँकनेके लये े रत कया॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म बा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २२॥



ते◌इसवाँ सग भयंकर उ ात को देखकर भी खरका उनक परवा नह करना तथा रा स-सेनाका ीरामके आ मके समीप प ँ चना



उस सेनाके ान करते समय आकाशम गधेके समान धूसर रंगवाले बादल क महाभयंकर घटा घर आयी। उसक तुमुल गजना होने लगी तथा सै नक के ऊपर घोर अम लसूचक र मय जलक वषा आर हो गयी॥ १ ॥ खरके रथम जुते ए महान् वेगशाली घोड़े फू ल बछे ए समतल ानम सड़कपर चलतेचलते अक ात् गर पड़े॥ २ ॥ सूयम लके चार ओर अलातच के समान गोलाकार घेरा दखायी देने लगा, जसका रंग काला और कनारेका रंग लाल था॥ ३ ॥ तदन र खरके रथक सुवणमय द वाली ऊँ ची जापर एक वशालकाय गीध आकर बैठ गया, जो देखनेम बड़ा ही भयंकर था॥ ४ ॥ कठोर रवाले मांसभ ी पशु और प ी जन ानके पास आकर वकृ त रम अनेक कारके वकट श बोलने लगे तथा सूयक भासे का शत ◌इ दशा म जोर-जोरसे ची ार करनेवाले और मुँहसे आग उगलनेवाले भयंकर गीदड़ रा स के लये अम लजनक भैरवनाद करने लगे॥ ५-६ ॥ भयंकर मेघ, जो मदक धारा बहानेवाले गजराजके समान दखायी देते थे और जलक जगह र धारण कये ए थे, त ाल घर आये। उ ने समूचे आकाशको ढक दया। थोड़ासा भी अवकाश नह रहने दया॥ ७ ॥ सब ओर अ भयंकर तथा रोमा कारी घना अ कार छा गया। दशा अथवा कोण का पसे भान नह हो पाता था॥ ८ ॥ बना समयके ही खूनसे भीगे ए व के समान रंगवाली सं ा कट हो गयी। उस समय भयंकर पशु-प ी खरके सामने आकर गजना करने लगे॥ ९ ॥ भयक सूचना देनेवाले क (सफे द चील), गीदड़ और गीध खरके सामने ची ार करने लगे। यु म सदा अम ल सू चत करनेवाली और भय दखानेवाली गीद ड़याँ खरक सेनाके



सामने आकर आग उगलनेवाले मुख से घोर श करने लग ॥ १० १/२ ॥ सूयके नकट प रघके समान कब ( सर कटा आ धड़) दखायी देने लगा। महान् ह रा अमावा ाके बना ही सूयको सने लगा। हवा ती ग तसे चलने लगी एवं सूयदेवक भा फ क पड़ गयी॥ ११-१२ ॥ बना रातके ही जुगनूके समान चमकनेवाले तारे आकाशम उ दत हो गये। सरोवर म मछली और जलप ी वलीन हो गये। उनके कमल सूख गये॥ १३ ॥ उस णम वृ के फू ल और फल झड़ गये। बना हवाके ही बादल के समान धूसर रंगक धूल ऊपर उठकर आकाशम छा गयी॥ १४ ॥ वहाँ वनक सा रकाएँ च-च करने लग । भारी आवाजके साथ भयानक उ ाएँ आकाशसे पृ ीपर गरने लग ॥ १५ ॥ पवत, वन और कानन स हत धरती डोलने लगी। बु मान् खर रथपर बैठकर गजना कर रहा था। उस समय उसक बाय भुजा सहसा काँप उठी। र अव हो गया और सब ओर देखते समय उसक आँ ख म आँ सू आने लगे॥ १६-१७ ॥ उसके सरम दद होने लगा, फर भी मोहवश वह यु से नवृ नह आ। उस समय कट ए उन बड़े-बड़े रोमा कारी उ ात को देखकर खर जोर-जोरसे हँ सने लगा और सम रा स से बोला—॥ १८ १/२ ॥ ‘ये जो भयानक दखायी देनेवाले बड़े-बड़े उ ात कट हो रहे ह, इन सबक म अपने बलके भरोसे को◌इ परवा नह करता; ठीक उसी तरह, जैसे बलवान् वीर दुबल श ु को कु छ नह समझता है। म अपने तीखे बाण ारा आकाशसे तार को भी गरा सकता ँ ॥ १९-२० ॥ ‘य द कु पत हो जाऊँ तो मृ ुको भी मौतके मुखम डाल सकता ँ । आज बलका घमंड रखनेवाले राम और उसके भा◌इ ल णको तीखे बाण से मारे बना म पीछे नह लौट सकता॥ २१ १/२ ॥ ‘ जसे द देनेके लये राम और ल णक बु म वपरीत वचार ( ू रतापूण कम करनेके भाव) का उदय आ है, वह मेरी ब हन शूपणखा उन दोन का खून पीकर सफलमनोरथ हो जाय॥ २२ १/२ ॥



‘आजतक



जतने यु ए ह, उनमसे कसीम भी पहले मेरी कभी पराजय नह ◌इ है; यह तुमलोग ने देखा है। म झूठ नह कहता ँ ॥ २३ १/२ ॥ ‘म मतवाले ऐरावतपर चलनेवाले व धारी देवराज इ को भी रणभू मम कु पत होकर कालके गालम डाल सकता ँ , फर उन दो मनु क तो बात ही ा है?’॥ २४ १/२ ॥ खरक यह गजना सुनकर रा स क वह वशाल सेना, जो मौतके पाशसे बँधी ◌इ थी, अनुपम हषसे भर गयी॥ २५ १/२ ॥ उस समय यु देखनेक इ ावाले ब त-से पु कमा महा ा, ऋ ष, देवता, ग व, स और चारण वहाँ एक हो गये। एक हो वे सभी मलकर एक-दूसरेसे कहने लगे—॥ २६-२७ ॥ ‘गौ और ा ण का क ाण हो तथा जो अ लोक य महा ा ह, वे भी क ाणके भागी ह । जैसे च धारी भगवान् व ु सम असुर शरोम णय को परा कर देते ह, उसी कार रघुकुलभूषण ीराम यु म इन पुल वंशी नशाचर को परा जत कर’॥ २८ १/२ ॥



ये तथा और भी ब त-सी म लकामनासूचक बात कहते ए वे मह ष और देवता कौतूहलवश वमानपर बैठकर जनक आयु समा हो चली थी, उन रा स क उस वशाल वा हनीको देखने लगे॥ २९-३० ॥ खर रथके ारा बड़े वेगसे चलकर सारी सेनासे आगे नकल आया और ेनगामी, पृथु ीव, य श ु, वहंगम, दुजय, करवीरा , प ष, कालकामुक, हेममाली, महामाली, सपा तथा धराशन—ये बारह महापरा मी रा स खरको दोन ओरसे घेरकर उसके साथ-साथ चलने लगे॥ ३१-३२ १/२ ॥ महाकपाल, ूला , माथ और शरा—ये चार रा स-वीर सेनाके आगे और सेनाप त दूषणके पीछे-पीछे चल रहे थे॥ ३३ ॥ रा स वीर क वह भयंकर वेगवाली अ दा ण सेना, जो यु क अ भलाषासे आ रही थी, सहसा उन दोन राजकु मार ीराम और ल णके पास जा प ँ ची, मानो ह क पं च मा और सूयके समीप का शत हो रही हो॥ ३४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म ते◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २३॥



चौबीसवाँ सग ीरामका ता ा लक शकुन ारा रा स के वनाश और अपनी वजयक स ावना करके सीतास हत ल णको पवतक गुफाम भेजना और यु के लये उ त होना



च परा मी खर जब ीरामके आ मक ओर चला, तब भा◌इस हत ीरामने भी उ उ ात-सूचक ल ण को देखा॥ १ ॥ जाके अ हतक सूचना देनेवाले उन महाभयंकर उ ात को देखकर ीरामच जी रा स के उप वका वचार करके अ अमषम भर गये और ल णसे इस कार बोले—॥ २॥ ‘महाबाहो! ये जो बड़े-बड़े उ ात कट हो रहे ह, इनक ओर पात करो। सम भूत के संहारक सूचना देनेवाले ये महान् उ ात इस समय इन सारे रा स का संहार करनेके लये उ ए ह॥ ३ ॥ ‘आकाशम जो गध के समान धूसर वणवाले बादल इधर-उधर वचर रहे ह, ये च गजना करते ए खूनक धाराएँ बरसा रहे ह॥ ४ ॥ ‘यु कु शल ल ण! मेरे सारे बाण उ ातवश उठनेवाले धूमसे स हो यु के लये मानो आन त हो रहे ह तथा जनके पृ भागम सुवण मढ़ा आ है, वे मेरे धनुष भी ासे जुड़ जानेके लये यं ही चे ाशील जान पड़ते ह॥ ५ ॥ ‘यहाँ जैस-े जैसे वनचारी प ी बोल रहे ह, उनसे हमारे लये भ व म अभयक और रा स के लये ाणसंकटक ा सू चत हो रही है॥ ६ ॥ ‘मेरी यह दा हनी भुजा बारंबार फड़ककर इस बातक सूचना देती है क कु छ ही देरम ब त बड़ा यु होगा, इसम संशय नह है॥ ७ ॥ ‘शूरवीर ल ण! परंतु नकटभ व म ही हमारी वजय और श ुक पराजय होगी; क तु ारा मुख का मान् एवं स दखायी दे रहा है॥ ८ ॥ ‘ल ण! यु के लये उ त होनेपर जनका मुख भाहीन (उदास) हो जाता है, उनक आयु न हो जाती है॥ ९ ॥



‘गरजते



ए रा स का यह घोर नाद सुनायी देता है, तथा ू रकमा रा स ारा बजायी गयी भे रय क यह महाभयंकर न कान म पड़ रही है॥ १० ॥ ‘अपना क ाण चाहनेवाले व ान् पु षको उ चत है क आप क आश ा होनेपर पहलेसे ही उससे बचनेका उपाय कर ले॥ ११ ॥ ‘इस लये तुम धनुष-बाण धारण करके वदेहकु मारी सीताको साथ ले पवतक उस गुफाम चले जाओ, जो वृ से आ ा दत है॥ १२ ॥ ‘व ! तुम मेरे इस वचनके तकू ल कु छ कहो या करो, यह म नह चाहता। अपने चरण क शपथ दलाकर कहता ँ , शी चले जाओ॥ १३ ॥ ‘इसम संदेह नह क तुम बलवान् और शूरवीर हो तथा इन रा स का वध कर सकते हो; तथा प म यं ही इन नशाचर का संहार करना चाहता ँ (इस लये तुम मेरी बात मानकर सीताको सुर त रखनेके लये इसे गुफाम ले जाओ)’॥ १४ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर ल ण धनुष-बाण ले सीताके साथ पवतक दुगम गुफाम चले गये॥ सीतास हत ल णके गुफाके भीतर चले जानेपर ीरामच जीने ‘हषक बात है, ल णने शी मेरी बात मान ली और सीताक र ाका समु चत ब हो गया’ ऐसा कहकर कवच धारण कया॥ १६ ॥ लत आगके समान का शत होनेवाले उस कवचसे वभू षत हो ीराम अ कारम कट ए महान् अ देवके समान शोभा पाने लगे॥ १७ ॥ परा मी ीराम महान् धनुष एवं बाण हाथम लेकर यु के लये डटकर खड़े हो गये और ाक टंकारसे स ूण दशा को गुँजाने लगे॥ १८ ॥ तदन र ीराम और रा स का यु देखनेक इ ासे देवता, ग व, स और चारण आ द महा ा वहाँ एक हो गये॥ १९ ॥ इनके सवा, जो तीन लोक म स ष- शरोम ण पु कमा महा ा ऋ ष ह, वे सभी वहाँ जुट गये और एक साथ खड़े हो पर र मलकर य कहने लगे—‘गौ , ा ण और सम लोक का क ाण हो। जैसे च धारी भगवान् व ु यु म सम े असुर को परा



कर देते ह, उसी कार इस सं ामम ीरामच जी पुल वंशी नशाचर पर वजय ा कर’॥ ऐसा कहकर वे पुन: एक-दूसरेक ओर देखते ए बोले—‘एक ओर भयंकर कम करनेवाले चौदह हजार रा स ह और दूसरी ओर अके ले धमा ा ीराम ह, फर यह यु कै से होगा?’॥ २२-२३ ॥ ऐसी बात करते ए राज ष, स , व ाधर आ द देवयो नगणस हत े ष तथा वमानपर त ए देवता कौतूहलवश वहाँ खड़े हो गये॥ २४ ॥ यु के मुहानेपर वै व तेजसे आ व ए ीरामको खड़ा देख उस समय सब ाणी (उनके भावको न जाननेके कारण) भयसे थत हो उठे ॥ २५ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले तथा रोषम भरे ए महा ा ीरामका वह प कु पत ए देवके समान तुलनार हत तीत होता था॥ २६ ॥ जब देवता, ग व और चारण पूव पसे ीरामक म लकामना कर रहे थे, उसी समय भयंकर ढाल-तलवार आ द आयुध और जा से उपल त होनेवाली नशाचर क वह सेना ग ीर गजना करती ◌इ चार ओरसे ीरामजीके पास आ प ँ ची॥ २७ १/२ ॥ वे रा स-सै नक वीरो चत वातालाप करते, यु का ढंग बतानेके लये एक-दूसरेके सामने जाते, धनुष को ख चकर उनक टंकार फै लाते, बारंबार मदम होकर उछलते, जोर-जोरसे गजना करते और नगाड़े पीटते थे। उनका वह अ तुमुल नाद उस वनम सब ओर गूँजने लगा॥ २८-२९ १/२ ॥ उस श से डरे ए वनचारी हसक ज ु उस वनम गये, जहाँ कसी कारका कोलाहल नह सुनायी पड़ता था। वे व ज ु भयके मारे पीछे फरकर देखते भी नह थे॥ ३० १/२ ॥ वह सेना बड़े वेगसे ीरामक ओर चली। उसम नाना कारके आयुध धारण करनेवाले सै नक थे। वह समु के समान ग ीर दखायी देती थी॥ ३१ १/२ ॥ यु कलाके व ान् ीरामच जीने भी चार ओर पात करते ए खरक सेनाका नरी ण कया और वे यु के लये उसके सामने बढ़ गये॥ ३२ १/२ ॥ फर उ ने तरकससे अनेक बाण नकाले और अपने भयंकर धनुषको ख चकर स ूण रा स का वध करनेके लये ती ोध कट कया। कु पत होनेपर वे लयका लक अ के



समान



लत होने लगे। उस समय उनक ओर देखना भी क ठन हो गया॥ ३३-३४ ॥ तेजसे आ व ए ीरामको देखकर वनके देवता थत हो उठे । उस समय रोषम भरे ए ीरामका प द य का वनाश करनेके लये उ त ए पनाकधारी महादेवजीके समान दखायी देने लगा॥ ३५ ॥ धनुष , आभूषण , रथ और अ के समान का वाले चमक ले कवच से यु वह पशाच क सेना सूय दयकालम नीले मेघ क घटाके समान तीत होती थ ॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म चौबीसवाँ सग पूरा आ॥ २४॥



पचीसवाँ सग रा स का ीरामपर आ मण और ीरामच जीके ारा रा स का संहार



खरने अपने अ गामी सै नक के साथ आ मके पास प ँ चकर ोधम भरे ए श ुघाती ीरामको देखा, जो हाथम धनुष लये खड़े थे। उ देखते ही अपने ती टंकार करनेवाले ास हत धनुषको उठाकर सूतको आ ा दी—‘मेरा रथ रामके सामने ले चलो’॥ १-२ ॥ खरक आ ासे सार थने घोड़ को उधर ही बढ़ाया, जहाँ महाबा ीराम अके ले खड़े होकर अपने धनुषक टंकार कर रहे थे॥ ३ ॥ खरको ीरामके समीप प ँ चा देख ेनगामी आ द उसके नशाचर म ी भी बड़े जोरसे सहनाद करके उसे चार ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥ ४ ॥ उन रा स के बीचम रथपर बैठा आ खर तार के म भागम उगे ए म लक भाँ त शोभा पा रहा था॥ ५ ॥ उस समय खरने समरा णम सह बाण ारा अ तम बलशाली ीरामको पी ड़त-सा करके बड़े जोरसे गजना क ॥ ६ ॥ तदन र ोधम भरे ए सम नशाचर भयंकर धनुष धारण करनेवाले दुजय वीर ीरामपर नाना कारके अ -श क वषा करने लगे॥ ७ ॥ उस समरा णम ए रा स ने शूरवीर ीरामपर लोहेके मु र , शूल , ास , खड् ग और फरस ारा हार कया॥ ८ ॥ वे मेघ के समान काले, वशालकाय और महाबली नशाचर रथ , घोड़ और पवत शखरके समान गजराज ारा ककु कु लभूषण ीरामपर चार ओरसे टूट पड़े। वे यु म उ मार डालना चाहते थे॥ ९ १/२ ॥ जैसे बड़े-बड़े मेघ ग रराजपर जलक धाराएँ बरसा रहे ह , उसी कार वे रा सगण ीरामपर बाण क वृ कर रहे थे॥ १० १/२ ॥ ू रतापूण से देखनेवाले उन सभी रा स ने ीरामको उसी कार घेर रखा था, जैसे दोषसं क त थय म भगवान् शवके पाषदगण उ घेरे रहते ह॥



ीरघुनाथजीने रा स के छोड़े ए उन अ -श को अपने बाण ारा उसी तरह स लया, जैसे समु न दय के वाहको आ सात् कर लेता है॥ १२ १/२ ॥ उन रा स के घोर अ -श के हारसे य प ीरामका शरीर त- व त हो गया था तो भी वे थत या वच लत नह ए, जैसे ब सं क दी मान् व के आघात सहकर भी महान् पवत अ डग बना रहता है॥ १३ १/२ ॥ ीरघुनाथजीके सारे अ म अ -श के आघातसे घाव हो गया था। वे ल लुहान हो रहे थे, अत: उस समय सं ाकालके बादल से घरे ए सूयदेवके समान शोभा पा रहे थे॥ १४ १/ ॥ २



ीराम अके ले थे। उस समय उ अनेक सह श ु से घरा आ देख देवता, स , ग व और मह ष वषादम डू ब गये॥ १५ १/२ ॥ त ात् ीरामच जीने अ कु पत हो अपने धनुषको इतना ख चा क वह गोलाकार दखायी देने लगा। फर तो वे उस धनुषसे रणभू मम सैकड़ , हजार ऐसे पैने बाण छोड़ने लगे, ज रोकना सवथा क ठन था, जो दु:सह होनेके साथ ही कालपाशके समान भयंकर थे॥ १६-१७ ॥ उ ने खेल-खेलम ही चीलके पर से यु असं सुवणभू षत बाण छोड़े। श ुके सै नक पर ीराम ारा लीलापूवक छोड़े गये वे बाण कालपाशके समान रा स के ाण लेने लगे॥ १८ १/२ ॥ रा स के शरीर को छेदकर खूनम डू बे ए वे बाण जब आकाशम प ँ चते, तब लत अ के समान तेजसे का शत होने लगते थे॥ १९ १/२ ॥ ीरामके म लाकार धनुषसे अ भयंकर और रा स के ाण लेनेवाले असं बाण छू टने लगे॥ २० १/२ ॥ उन बाण ारा ीरामने समरा णम श ु के सैकड़ -हजार धनुष, जा के अ भाग, ढाल, कवच, आभूषण स हत भुजाएँ तथा हाथीक सूँड़के समान जाँघ काट डाल ॥ २१-२२ ॥ ासे छू टे ए ीरामके बाण ने उस समय सोनेके साज-बाज एवं कवचसे सजे और रथ म जुते ए घोड़ , सार थय , हा थय , हाथीसवार , घोड़ और घुड़सवार को भी छ - भ



कर डाला। इसी कार ीरामने समरभू मम पैदल सै नक को भी मारकर यमलोक प ँ चा दया॥ २३-२४ ॥ उस समय उनके नालीक, नाराच और तीखे अ भागवाले वकण नामक बाण ारा छ - भ होते ए नशाचर भयंकर आतनाद करने लगे॥ २५ ॥ ीरामके चलाये ए नाना कारके ममभेदी बाण ारा पी ड़त ◌इ वह रा ससेना आगसे जलते ए सूखे वनक भाँ त सुख-शा नह पाती थी॥ २६ ॥ कु छ भयंकर बलशाली शूरवीर नशाचर अ कु पत हो ीरामपर ास , शूल और फरस का हार करने लगे॥ २७ ॥ परंतु परा मी महाबा ीरामने रणभू मम अपने बाण ारा उनके उन अ -श को रोककर उनके गले काट डाले और ाण हर लये॥ २८ ॥ सर, ढाल और धनुषके कट जानेपर वे नशाचर ग ड़के पंखक हवासे टूटकर गरनेवाले न नवनके वृ क भाँ त धराशायी हो गये। जो बचे थे, वे रा स भी ीरामके बाण से आहत हो वषादम डू ब गये और अपनी र ाके लये खरके पास ही दौड़े गये॥ २९-३० ॥ परंतु बीचम दूषणने धनुष लेकर उन सबको आ ासन दया और अ कु पत हो रोषम भरे ए यमराजक भाँ त वह ु होकर यु के लये डटे ए ीरामच जीक ओर दौड़ा॥ ३१ ॥



दूषणका सहारा मल जानेसे नभय हो वे सब-के -सब फर लौट आये और साखू, ताड़ आ दके वृ तथा प र लेकर पुन: ीरामपर ही टूट पड़े॥ ३२ ॥ उस यु लम अपने हाथ म शूल, मु र और पाश धारण कये वे महाबली नशाचर बाण तथा अ अ -श क वषा करने लगे॥ ३३ ॥ को◌इ रा स वृ क वषा करने लगे तो को◌इ प र क । उस समय इन ीराम और उन नशाचर म पुन: बड़ा ही अ तु , महाभयंकर, घमासान और रोमा कारी यु होने लगा॥ ३४ १/ ॥ २



वे रा स कु पत होकर चार ओरसे पुन: ीरामच जीको पी ड़त करने लगे। तब सब ओरसे आये ए रा स से स ूण दशा और उप दशा को घरी ◌इ देख बाण-वषासे



आ ा दत ए महाबली ीरामने भैरव-नाद करके उन रा स पर परम तेज ी गा व नामक अ का योग कया॥ ३५—३७ ॥ फर तो उनके म लाकार धनुषसे सह बाण छू टने लगे। उन बाण से दस दशाएँ पूणत: आ ा दत हो गय ॥ ३८ ॥ बाण से पी ड़त रा स यह नह देख पाते थे क ीरामच जी कब भयंकर बाण हाथम लेते ह और कब उन उ म बाण को छोड़ देते ह। वे के वल उनको धनुष ख चते देखते थे॥ ३९ ॥



ीरामच जीके बाणसमुदाय पी अ कारने सूयस हत सारे आकाशम लको ढक दया। उस समय ीराम उन बाण को लगातार छोड़ते ए एक ानपर खड़े थे॥ ४० ॥ एक ही समय बाण ारा अ घायल हो एक साथ ही गरते और गरे ए ब सं क रा स क लाश से वहाँक भू म पट गयी॥ ४१ ॥ जहाँ-जहाँ जाती थी, वह -वह वे हजार रा स मरे, गरे, ीण ए, कटे- पटे और वदीण ए दखायी देते थे॥ ४२ ॥ वहाँ ीरामके बाण से कटे ए पग ड़य -स हत म क , बाजूबंदस हत भुजा , जाँघ , बाँह , भाँ त-भाँ तके आभूषण , घोड़ , े हा थय , टूटे-फू टे अनेकानेक रथ , चँवर , जन , छ , नाना कारक जा , छ - भ ए शूल , प श , ख त खड् ग , बखरे ास , फरस , चूर-चूर ◌इ शला तथा टुकड़े-टुकड़े ए ब तेरे व च बाण से पटी ◌इ वह समरभू म अ भयंकर दखायी देती थी॥ ४३—४६ ॥ उन सबको मारा गया देख शेष रा स अ आतुर हो वहाँ श ुनगरीपर वजय पानेवाले ीरामके स ुख जानेम असमथ हो गये॥ ४७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पचीसवाँ सग पूरा आ॥ २५॥



छ ीसवाँ सग ीरामके ारा दष ू णस हत चौदह सह रा स का वध



महाबा दूषणने जब देखा क मेरी सेना बुरी तरहसे मारी जा रही है, तब उसने यु से पीछे पैर न हटानेवाले भयंकर वेगशाली पाँच हजार रा स को, ज जीतना बड़ा ही क ठन था, आगे बढ़नेक आ ा दी॥ १ १/२ ॥ वे ीरामपर चार ओरसे शूल, प श, तलवार, प र, वृ और बाण क लगातार वषा करने लगे॥ २ १/२ ॥ यह देख धमा ा ीरघुनाथजीने वृ और शला क उस ाणहा रणी महावृ को अपने तीखे सायक ारा रोका॥ ३ १/२ ॥ उस सारी वषाको रोककर आँ ख मूँदे ए साँड़क भाँ त अ वचल भावसे खड़े ए ीरामने सम रा स के वधके लये महान् ोध धारण कया॥ ४ १/२ ॥ ोधसे यु और तेजसे उ ी ए ीरामने दूषणस हत सारी रा स-सेनापर चार ओरसे बाणक वषा आर कर दी॥ ५ १/२ ॥ इससे श ुदषू ण सेनाप त दूषणको बड़ा ोध आ और उसने व के समान बाण से ीरामच जीको रोका॥ ६ १/२ ॥ तब अ कु पत ए वीर ीरामने समरा णम रु नामक बाणसे दूषणके वशाल धनुषको काट डाला और चार तीखे सायक से उसके चार घोड़ को मौतके घाट उतारकर एक अधच ाकार बाणसे सार थका भी सर उड़ा दया तथा तीन बाण से उस रा सक भी छातीम चोट प ँ चायी॥ ७-८ १/२ ॥ धनुष कट जाने और घोड़ तथा सार थके मारे जानेपर रथहीन ए दूषणने पवत शखरके समान एक रोमा कारी प रघ हाथम लया, जसके ऊपर सोनेके प मढ़े गये थे। वह प रघ देवता क सेनाको भी कु चल डालनेवाला था॥ ९-१० ॥ उसपर चार ओरसे लोहेक तीखी क ल लगी ◌इ थ । वह श ु क चब से लपटा आ था। उसका श हीरे तथा व के समान कठोर एवं अस था। वह श ु के नगर ारको



वदीण कर डालनेम समथ था॥ रणभू मम ब त बड़े सपके समान भयंकर उस प रघको हाथम लेकर वह ू रकमा नशाचर दूषण ीरामपर टूट पड़ा॥ १२ ॥ उसे अपने ऊपर आ मण करते देख ीरामच जीने दो बाण से आभूषण स हत उसक दोन भुजाएँ काट डाल ॥ १३ ॥ यु के मुहानेपर जसक दोन भुजाएँ कट गयी थ , उस दूषणके हाथसे खसककर वह वशालकाय प रघ इ जके समान सामने गर पड़ा॥ १४ ॥ जैसे दोन दाँत के उखाड़ लये जानेपर महान् मन ी गजराज उनके साथ ही धराशायी हो जाता है, उसी कार कटकर गरी ◌इ अपनी भुजा के साथ ही दूषण भी पृ ीपर गर पड़ा॥ १५ ॥ रणभू मम मारे गये दूषणको धराशायी आ देख सम ा णय ने ‘साधु-साधु’ कहकर भगवान् ीरामक शंसा क ॥ १६ ॥ इसी समय सेनाके आगे चलनेवाले महाकपाल, ूला और महाबली माथी—ये तीन रा स कु पत हो मौतके फं देम फँ सकर संग ठत पसे ीरामच जीके ऊपर टूट पड़े॥ १७ १/२ ॥ रा स महाकपालने एक वशाल शूल उठाया, ूला ने प श हाथम लया और माथीने फरसा सँभालकर आ मण कया॥ १८ १/२ ॥ उन तीन को अपनी ओर आते देख भगवान् ीरामने तीखे अ भागवाले पैने सायक ारा ारपर आये ए अ त थय के समान उनका ागत कया॥ ीरघुन नने महाकपालका सर एवं कपाल उड़ा दया। माथीको असं बाणसमूह से मथ डाला और ूला क ूल आँ ख को सायक से भर दया॥ तीन अ गामी सै नक का वह समूह अनेक शाखावाले वशाल वृ क भाँ त पृ ीपर गर पड़ा। तदन र ीरामच जीने कु पत हो दूषणके अनुयायी पाँच हजार रा स को उतने ही बाण का नशाना बनाकर णभरम यमलोक प ँ चा दया॥ २२ १/२ ॥ दूषण और उसके अनुयायी मारे गये—यह सुनकर खरको बड़ा ोध आ। उसने अपने महाबली सेनाप तय को आ ा दी—‘वीरो! यह दूषण अपने सेवक स हत यु म मार डाला



गया। अत: अब तुम सभी रा स ब त बड़ी सेनाके साथ धावा करके इस दु मनु रामके साथ यु करो और नाना कारके श ारा इसका वध कर डालो’॥ २३—२५ ॥ ऐसा कहकर कु पत ए खरने ीरामपर ही धावा कया। साथ ही ेनगामी, पृथु ीव, य श ु, वह म, दुजय, करवीरा , प ष, कालकामुक, हेममाली, महामाली, सपा तथा धराशन—ये बारह महापरा मी सेनाप त भी उ म बाण क वषा करते ए अपने सै नक के साथ ीरामपर ही टूट पड़े॥ २६—२८ ॥ तब तेज ी ीरामच जीने सोने और हीर से वभू षत अ तु तेज ी सायक ारा उस सेनाके बचे-खुचे सपा हय का भी संहार कर डाला॥ २९ ॥ जैसे व बड़े-बड़े वृ को न कर डालते ह, उसी कार धूमयु अ के समान तीत होनेवाले उन सोनेक पाँखवाले बाण ने उन सम रा स का वनाश कर डाला॥ ३० ॥ उस यु के मुहानेपर ीरामने क णनामक सौ बाण से सौ रा स का और सह बाण से सह नशाचर का एक साथ ही संहार कर डाला॥ ३१ ॥ उन बाण से नशाचर के कवच, आभूषण और धनुष छ - भ हो गये तथा वे खूनसे लथपथ हो पृ ीपर गर पड़े॥ ३२ ॥ कु श से ढक ◌इ वशाल वेदीके समान यु म ल लुहान होकर गरे ए खुले के शवाले रा स से सारी रणभू म पट गयी॥ ३३ ॥ रा स के मारे जानेसे उस समय वहाँ र और मांसक क चड़ जम गयी; अत: वह महाभयंकर वन नरकके समान तीत होने लगा॥ ३४ ॥ मानव पधारी ीराम अके ले और पैदल थे, तो भी उ ने भयानक कम करनेवाले चौदह हजार रा स को त ाल मौतके घाट उतार दया॥ ३५ ॥ उस समूची सेनाम के वल महारथी खर और शरा—ये दो ही रा स बच रहे। उधर श ुसंहारक भगवान् ीराम -के - यु के लये डटे रहे॥ ३६ ॥ उपयु दो रा स को छोड़कर शेष सभी नशाचर, जो महान् परा मी, भयंकर और दुधष थे, यु के मुहानेपर ल णके बड़े भा◌इ ीरामके हाथ मारे गये॥ ३७ ॥ तदन र महासमरम महाबली ीरामके ारा अपनी भयंकर सेनाको मारी गयी देख खर एक वशाल रथके ारा ीरामका सामना करनेके लये आया, मानो व धारी इ ने कसी



श ुपर आ मण कया हो॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ २६॥



स ा◌इसवाँ सग शराका वध



खरको भगवान् ीरामके स ुख जाते देख सेनाप त रा स शरा तुरंत उसके पास आ प ँ चा और इस कार बोला—॥ १ ॥ ‘रा सराज! मुझ परा मी वीरको इस यु म लगाइये और यं इस साहसपूण कायसे अलग र हये। दे खये, म अभी महाबा रामको यु म मार गराता ँ ॥ ‘आपके सामने म स ी त ा करता ँ और अपने ह थयार छू कर शपथ खाता ँ क जो सम रा स के लये वधके यो ह, उन रामका म अव वध क ँ गा॥ ३ ॥ ‘इस यु म या तो म इनक मृ ु बनूँगा, या ये ही समरा णम मेरी मृ ुका कारण ह गे। आप इस समय अपने यु वषयक उ ाहको रोककर एक मु तके लये जय-पराजयका नणय करनेवाले सा ी बन जाइये॥ ४ ॥ ‘य द मेरे ारा राम मारे गये तो आप स तापूवक जन ानको लौट जाइये अथवा य द रामने ही मुझे मार दया तो आप यु के लये इनपर धावा बोल दी जयेगा’॥ ५ ॥ भगवा े हाथसे मृ ुका लोभ होनेके कारण जब शराने इस कार खरको राजी कया, तब उसने आ ा दे दी—‘अ ा जाओ, यु करो। आ ा पाकर वह ीरामच जीक ओर चला॥ ६ ॥ घोड़े जुते ए एक तेज ी रथके ारा शराने रणभू मम ीरामपर आ मण कया। उस समय वह तीन शखर वाले पवतके समान जान पड़ता था॥ ७ ॥ उसने आते ही बड़े भारी मेघक भाँ त बाण पी धारा क वषा ार कर दी और वह जलसे भीगे ए नगाड़ेक तरह वकट गजना करने लगा॥ ८ ॥ शरा नामक रा सको आते देख ीरघुनाथजीने धनुषके ारा पैने बाण छोड़ते ए उसे अपने त ीके पम हण कया (अथवा उसे आगे बढ़नेसे रोक दया)॥ ९ ॥ अ बलशाली ीराम और शराका वह सं ाम महाबली सह और गजराजके यु क भाँ त बड़ा भयंकर तीत होता था॥ १० ॥



उस समय शराने तीन बाण से ीरामच जीके ललाटको ब ध डाला। ीराम उसक यह उ ता सहन न कर सके । वे कु पत हो रोषावेशम भरकर इस कार बोले—॥ ११ ॥ ‘अहो! परा म कट करनेम शूरवीर रा सका ऐसा ही बल है, जो तुमने फू ल -जैसे बाण ारा मेरे ललाटपर हार कया है। अ ा, अब धनुषक डोरीसे छू टे ए मेरे बाण को भी हण करो’॥ १२ १/२ ॥ ऐसा कहकर रोषम भरे ए ीरामने शराक छातीम ोधपूवक चौदह बाण मारे, जो वषधर सप के समान भयंकर थे॥ १३ १/२ ॥ तदन र तेज ी रघुनाथजीने कु गाँठवाले चार बाण से उसके चार घोड़ को मार गराया। फर आठ सायक ारा उसके सार थको भी रथक बैठकम ही सुला दया॥ १४-१५ ॥ इसके बाद ीरामने एक बाणसे उसक जा भी काट डाली। तदन र जब वह उस न ए रथसे कू दने लगा, उसी समय ीराघवे ने अनेक बाण ारा उस नशाचरक छाती छेद डाली। फर तो वह जडवत् हो गया॥ १६ १/२ ॥ इसके बाद अ मेय प ीरामने अमषम भरकर तीन वेगशाली एवं वनाशकारी बाण ारा उस रा सके तीन म क काट गराये॥ १७ १/२ ॥ समरा णम खड़ा आ वह नशाचर ीरामच जीके बाण से पी ड़त हो अपने धड़से भापस हत धर उगलता आ पहले गरे ए म क के साथ ही धराशायी हो गया॥ १८ १/२ ॥ त ात् खरक सेवाम रहनेवाले रा स, जो मरनेसे बचे ए थे, भाग खड़े ए। वे ा से डरे ए मृग के समान भागते ही चले जाते थे, खड़े नह होते थे॥ उ भागते देख रोषम भरे ए खरने तुरंत लौटाया और जैसे रा च मापर आ मण करता है, उसी कार उसने ीरामपर ही धावा कया॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म स ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २७॥



अ ा◌इसवाँ सग खरके साथ ीरामका घोर यु



शरास हत दूषणको रणभू मम मारा गया देख ीरामके परा मपर पात करके खरको भी बड़ा भय आ॥ १ ॥ एकमा ीरामने महान् बलशाली और अस रा स-सेनाका वध कर डाला। दूषण और शराको भी मार गराया तथा मेरी सेनाके अ धकांश (चौदह हजार) मुख वीर को कालके गालम भेज दया—यह सब देख और सोचकर रा स खर उदास हो गया। उसने ीरामपर उसी तरह आ मण कया, जैसे नमु चने इ पर कया था॥ २-३ ॥ खरने एक बल धनुषको ख चकर ीरामके त ब त-से नाराच चलाये, जो र पीनेवाले थे। वे सम नाराच रोषम भरे ए वषधर सप के समान तीत होते थे॥ ४ ॥ धनु व ाके अ ाससे ाको हलाता और नाना कारके अ का दशन करता आ रथा ढ़ खर समरा णम यु के अनेक पतरे दखाता आ वचरने लगा॥ ५ ॥ उस महारथी वीरने अपने बाण से सम दशा और व दशा को ढक दया। उसे ऐसा करते देख ीरामने भी अपना वशाल धनुष उठाया और सम दशा को बाण से आ ा दत कर दया॥ ६ ॥ जैसे मेघ जलक वषासे आकाशको ढक देता है, उसी कार ीरघुनाथजीने भी आगक चनगा रय के समान दु:सह सायक क वषा करके आकाशको ठसाठस भर दया। वहाँ थोड़ीसी भी जगह खाली नह रहने दी॥ खर और ीराम ारा छोड़े गये पैने बाण से ा हो सब ओर फै ला आ आकाश चार ओरसे बाण ारा भर जानेके कारण अवकाशर हत हो गया॥ ८ ॥ एक-दूसरेके वधके लये रोषपूवक जूझते ए उन दोन वीर के बाणजालसे आ ा दत होकर सूयदेव का शत नह होते थे॥ ९ ॥ तदन र खरने रणभू मम ीरामपर नालीक, नाराच और तीखे अ भागवाले वक ण नामक बाण ारा हार कया, मानो कसी महान् गजराजको अ ु श ारा मारा गया हो॥ १० ॥



उस समय हाथम धनुष लेकर रथम रतापूवक बैठे ए रा स खरको सम ा णय ने पाशधारी यमराजके समान देखा॥ ११ ॥ उस वेलाम सम सेना का वध करनेवाले तथा पु षाथपर डटे ए महान् बलशाली ीरामको खरने थका आ समझा॥ १२ ॥ य प वह सहके समान चलता और सहके ही तु परा म कट करता था तो भी उस खरको देखकर ीराम उसी तरह उ नह होते थे, जैसे छोटे-से मृगको देखकर सह भयभीत नह होता है॥ त ात् जैसे प त ा आगके पास जाता है, उसी कार खर अपने सूयतु तेज ी वशाल रथके ारा ीरामच जीके पास गया॥ १४ ॥ वहाँ जाकर उस रा स खरने अपने हाथक फु त दखाते ए महा ा ीरामके बाणस हत धनुषको मु ी पकड़नेक जगहसे काट डाला॥ १५ ॥ फर इ के व क भाँ त का शत होनेवाले दूसरे सात बाण लेकर रणभू मम कु पत ए खरने उनके ारा ीरामके मम लम चोट प ँ चायी॥ १६ ॥ तदन र अ तम बलशाली ीरामको सह बाण से पी ड़त करके नशाचर खर समरभू मम जोर-जोरसे गजना करने लगा॥ १७ ॥ खरके छोड़े ए उ म गाँठवाले बाण ारा कटकर ीरामका सूयतु तेज ी कवच पृ ीपर गर पड़ा॥ १८ ॥ उनके सभी अ म खरके बाण धँस गये थे। उस समय कु पत हो समरभू मम खड़े ए ीरघुनाथजी धूमर हत लत अ क भाँ त शोभा पा रहे थे॥ १९ ॥ तब श ु का नाश करनेवाले भगवान् ीरामने अपने वप ीका वनाश करनेके लये एक-दूसरे वशाल धनुषपर, जसक न ब त ही ग ीर थी, ा चढ़ायी॥ २० ॥ मह ष अग ने जो महान् और उ म वै व धनुष दान कया था, उसीको लेकर उ ने खरपर धावा कया॥ २१ ॥ उस समय अ ोधम भरकर ीरामने सोनेक पाँख और कु ◌इ गाँठवाले बाण ारा समरा णम खरक जा काट डाली॥ २२ ॥



वह दशनीय सुवणमय ज अनेक टुकड़ म कटकर धरतीपर गर पड़ा, मानो देवता क आ ासे सूयदेव भू मपर उतर आये ह ॥ २३ ॥ ोधम भरे ए खरको मम ान का ान था। उसने ीरामके अ म, वशेषत: उनक छातीम चार बाण मारे, मानो कसी महावतने गजराजपर तोमर से हार कया हो॥ २४ ॥ खरके धनुषसे छू टे ए ब सं क बाण से घायल होकर ीरामका सारा शरीर ल लुहान हो गया। इससे उनको बड़ा रोष आ॥ २५ ॥ धनुधर म े महाधनुधर ीरामने यु लम पूव े धनुषको हाथम लेकर ल न त करके खरको छ: बाण मारे॥ २६ ॥ उ ने एक बाण उसके म कम, दोसे उसक भुजा म और तीन अधच ाकार बाण से उसक छातीम गहरी चोट प ँ चायी॥ २७ ॥ त ात् महातेज ी ीरामच जीने कु पत होकर उस रा सको शानपर तेज कये ए और सूयके समान चमकनेवाले तेरह बाण मारे॥ २८ ॥ एक बाणसे तो उसके रथका जूआ काट दया, चार बाण से चार चतकबरे घोड़े मार डाले और छठे बाणसे यु लम खरके सार थका म क काट गराया॥ त ात् तीन बाण से वेणु (जूएके आधारद ) और दोसे रथके धुरेको ख त करके महान् श शाली और बलवान् ीरामने बारहव बाणसे खरके बाणस हत धनुषके दो टुकड़े कर दये। इसके बाद इ के समान तेज ी ीराघवे ने हँ सते-हँ सते व तु तेरहव बाणके ारा समरा णम खरको घायल कर दया॥ ३०-३१ ॥ धनुषके ख त होने, रथके टूटने, घोड़ के मारे जाने और सार थके भी न हो जानेपर खर उस समय हाथम गदा ले रथसे कू दकर धरतीपर खड़ा हो गया॥ ३२ ॥ उस अवसरपर वमानपर बैठे ए देवता और मह ष हषसे उ ु हो पर र मलकर हाथ जोड़ महारथी ीरामके उस कमक भू र-भू र शंसा करने लगे॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म अ ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २८॥



उनतीसवाँ सग ीरामका खरको फटकारना तथा खरका भी उ कठोर उ र देकर उनके ऊपर गदाका हार करना और ीराम ारा उस गदाका ख न



खरको रथहीन होकर गदा हाथम लये सामने उप त देख महातेज ी भगवान् ीराम पहले कोमल और फर कठोर वाणीम बोले—॥ १ ॥ ‘ नशाचर! हाथी, घोड़े और रथ से भरी ◌इ वशाल सेनाके बीचम खड़े रहकर (असं रा स के ा म का अ भमान लेकर) तूने सदा जो ू रतापूण कम कया है, उसक सम लोक ारा न ा ◌इ है। जो सम ा णय को उ ेगम डालनेवाला, ू र और पापाचारी है, वह तीन लोक का ◌इ र हो तो भी अ धक कालतक टक नह सकता। जो लोक वरोधी कठोर कम करनेवाला है, उसे सब लोग सामने आये ए दु सपक भाँ त मारते ह॥ २—४ ॥ ‘जो व ु ा नह ◌इ है, उसक इ ाको ‘काम’ कहते ह और ा ◌इ व ुको अ धक-से-अ धक सं ाम पानेक इ ाका नाम ‘लोभ’ है। जो काम अथवा लोभसे े रत हो पाप करता है और उसके ( वनाशकारी) प रणामको नह समझता है, उलटे उस पापम हषका अनुभव करता है, वह उसी कार अपना वनाश प प रणाम देखता है जैसे वषाके साथ गरे ए ओलेको खाकर ा णी (र पु का) नामवाली क ड़ी अपना वनाश देखती है *॥ ५ ॥ ‘रा स! द कार म नवास करनेवाले तप ाम संल धमपरायण महाभाग मु नय क ह ा करके न जाने तू कौन-सा फल पायेगा?॥ ६ ॥ ‘ जनक जड़ खोखली हो गयी हो, वे वृ जैसे अ धक कालतक नह खड़े रह सकते, उसी कार पापकम करनेवाले लोक न त ू र पु ष ( कसी पूवपु के भावसे) ऐ यको पाकर भी चरकालतक उसम त त नह रह पाते (उससे हो ही जाते ह)॥ ७ ॥ ‘जैसे समय आनेपर वृ म ऋतुके अनुसार फू ल लगते ही ह, उसी कार पापकम करनेवाले पु षको समयानुसार अपने उस पापकमका भयंकर फल अव ही ा होता है॥ ८ ॥ ‘ नशाचर!



जैसे खाये ए वष म त अ का प रणाम तुरंत ही भोगना पड़ता है, उसी कार लोकम कये गये पापकम का फल शी ही ा होता है॥ ९ ॥



‘रा



स! जो संसारका बुरा चाहते ए घोर पापकमम लगे ए ह, उ ाणद देनेके लये मेरे पता महाराज दशरथने मुझे यहाँ वनम भेजा है॥ १० ॥ ‘आज मेरे छोड़े ए सुवणभू षत बाण जैसे सप बाँबीको छे दकर नकलते ह, उसी कार तेरे शरीरको फाड़कर पृ ीको भी वदीण करके पातालम जाकर गरगे॥ ११ ॥ ‘तूने द कार म जन धमपरायण ऋ षय का भ ण कया है, आज यु म मारा जाकर सेनास हत तू भी उ का अनुसरण करेगा॥ १२ ॥ ‘पहले तूने जनका वध कया है, वे मह ष वमानपर बैठकर आज तुझे मेरे बाण से मारा गया और नरकतु क भोगता आ देख॥ १३ ॥ ‘कु लाधम! तेरी जतनी इ ा हो, हार कर। जतना स व हो, मुझे परा करनेका य कर, कतु आज म तेरे म कको ताड़के फलक भाँ त अव काट गराऊँ गा’॥ १४ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर खर कु पत हो उठा। उसक आँ ख लाल हो गय । वह ोधसे अचेत-सा होकर हँ सता आ ीरामको इस कार उ र देने लगा—॥ १५ ॥ ‘दशरथकु मार! तुम साधारण रा स को यु म मारकर यं ही अपनी इतनी शंसा कै से कर रहे हो? तुम शंसाके यो कदा प नह हो॥ १६ ॥ ‘जो े पु ष परा मी अथवा बलवान् होते ह, वे अपने तापके कारण अ धक घमंडम भरकर को◌इ बात नह कहते ह (अपने वषयम मौन ही रहते ह)॥ १७ ॥ ‘राम! जो ु , अ जता ा और यकु लकलंक होते ह, वे ही संसारम अपनी बड़ा◌इके लये थ ड ग हाँका करते ह; जैसे इस समय तुम (अपने वषयम) बढ़-बढ़कर बात बना रहे हो॥ १८ ॥ ‘जब क मृ ुके समान यु का अवसर उप त है, ऐसे समयम बना कसी ावके ही समरा णम कौन वीर अपनी कु लीनता कट करता आ आप ही अपनी ु त करेगा?॥ १९ ॥ ‘जैसे पीतल सुवणशोधक आगम तपाये जानेपर अपनी लघुता (कालेपन) को ही करता है, उसी कार अपनी झूठी शंसाके ारा तुमने सवथा अपने ओछेपनका ही प रचय दया है॥ २० ॥ ‘ ा तुम नह देखते क म नाना कारके धातु क खान से यु तथा पृ ीको धारण करनेवाले अ वचल कु लपवतके समान यहाँ रभावसे तु ारे सामने गदा लेकर खड़ा ँ ॥ २१



॥ ‘म



अके ला ही पाशधारी यमराजक भाँ त गदा हाथम लेकर रणभू मम तु ारे और तीन लोक के भी ाण लेनेक श रखता ँ ॥ २२ ॥ ‘य प तु ारे वषयम म इ ानुसार ब त कु छ कह सकता ँ तथा प इस समय कु छ नह क ँ गा; क सूयदेव अ ाचलको जा रहे ह, अत: यु म व पड़ जायगा॥ २३ ॥ ‘तुमने चौदह हजार रा स का संहार कया है, अत: आज तु ारा भी वनाश करके म उन सबके आँ सू पोछू ँगा—उनक मौतका बदला चुकाऊँ गा’॥ २४ ॥ ऐसा कहकर अ ोधसे भरे ए खरने उ म वलय (कड़े) से वभू षत तथा लत व के समान भयंकर गदाको ीरामच जीके ऊपर चलाया॥ २५ ॥ खरके हाथ से छू टी ◌इ वह दी मान् वशाल गदा वृ और लता को भ करके उनके समीप जा प ँ ची॥ २६ ॥ मृ ुके पाशक भाँ त उस वशाल गदाको अपने ऊपर आती देख ीरामच जीने अनेक बाण मारकर आकाशम ही उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ २७ ॥ बाण से वदीण एवं चूर-चूर होकर वह गदा पृ ीपर गर पड़ी, मानो को◌इ स पणी म और ओष धय के बलसे गरायी गयी हो॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म उनतीसवाँ सग पूरा आ॥ २९॥ लाल पूँछवाली एक क ड़ी होती है, जो ओला खा लेनेपर मर जाती है। वह उसके लये वषका काम करता है—यह बात लोकम स है। *



तीसवाँ सग ीरामके करनेपर खरका उ फटकारकर उनके ऊपर सालवृ का हार करना, ीरामका उस वृ को काटकर एक तेज ी बाणसे खरको मार गराना तथा देवता और मह षय ारा ीरामक शंसा



धम ेमी भगवान् ीरामने अपने बाण ारा खरक उस गदाको वदीण करके मुसकराते ए यह रोषसूचक बात कही—॥ १ ॥ ‘रा साधम! यही तेरा सारा बल है, जसे तूने इस गदाके साथ दखाया है। अब स हो गया क तू मुझसे अ श हीन है, थ ही अपने बलक ड ग हाँक रहा था॥ २ ॥ ‘मेरे बाण से छ - भ होकर तेरी यह गदा पृ ीपर पड़ी ◌इ है। तेरे मनम जो यह व ास था क म इस गदासे श ुका वध कर डालूँगा, इसका ख न तेरी इस गदाने ही कर दया। अब यह हो गया क तू के वल बात बनानेम ढीठ है (तुझसे को◌इ परा म नह हो सकता)॥ ३ ॥ ‘तूने जो यह कहा था क म तु ारा वध करके तु ारे हाथसे मारे गये रा स का अभी आँ सू पोछू ँगा, तेरी वह बात भी झूठी हो गयी॥ ४ ॥ ‘तू नीच, ु भावसे यु और म ाचारी रा स है। म तेरे ाण को उसी कार हर लूँगा, जैसे ग ड़ने देवता के यहाँसे अमृतका अपहरण कया था॥ ५ ॥ ‘अब म अपने बाण से तेरे शरीरको वदीण करके तेरा गला भी काट डालूँगा। फर यह पृ ी फे न और बु दु से यु तेरे गरम-गरम र का पान करेगी॥ ६ ॥ ‘तेरे सारे अ धूलसे धूसर हो जायँग,े तेरी दोन भुजाएँ शरीरसे अलग होकर पृ ीपर गर जायँगी और उस दशाम तू दुलभ युवतीके समान इस पृ ीका आ ल न करके सदाके लये सो जायगा॥ ७ ॥ ‘तेरे-जैसे रा सकु लकल के सदाके लये महा न ाम सो जानेपर ये द कवनके देश शरणा थय को शरण देनेवाले हो जायँगे॥ ८ ॥ ‘रा स! मेरे बाण से जन ानम बने ए तेरे नवास ानके न हो जानेपर मु नगण इस वनम सब ओर नभय वचर सकगे॥ ९ ॥



‘जो



अबतक दूसर को भय देती थ , वे रा सयाँ आज अपने बा वजन के मारे जानेसे दीन हो आँ सु से भ गे मुँह लये जन ानसे यं ही भयके कारण भाग जायँगी॥ १० ॥ ‘ जनका तुझ-जैसा दुराचारी प त है, वे तदनु प कु लवाली तेरी प याँ आज तेरे मारे जानेपर काम आ द पु षाथ से व त हो शोक पी ायी भाववाले क णरसका अनुभव करनेवाली ह गी॥ ११ ॥ ‘ ू र भाववाले नशाचर! तेरा दय सदा ही ु वचार से भरा रहता है। तू ा ण के लये क क प है। तेरे ही कारण मु नलोग श त रहकर ही अ म ह व क आ तयाँ डालते ह’॥ १२ ॥ वनम ीरामच जी जब इस कार रोषपूण बात कह रहे थे, उस समय ोधके कारण खरका भी र अ कठोर हो गया और उसने उ फटकारते ए कहा—॥ १३ ॥ ‘अहो! न य ही तुम बड़े घमंडी हो, भयके अवसर पर भी नभय बने ए हो। जान पड़ता है क तुम मृ ुके अधीन हो गये हो, इस कारणसे ही तु यह भी पता नह है क कब ा कहना चा हये और ा नह कहना चा हये?॥ १४ ॥ ‘जो पु ष कालके फ म े फँ स जाते ह, उनक छह इ याँ बेकाम हो जाती ह; इसी लये उ कत और अकत का ान नह रह जाता है’॥ १५ ॥ ऐसा कहकर उस नशाचरने एक बार ीरामक ओर भ ह टढ़ी करके देखा और रणभू मम उनपर हार करनेके लये वह चार ओर पात करने लगा। इतनेम ही उसे एक वशाल साखूका वृ दखायी दया, जो नकट ही था। खरने अपने होठ को दाँत से दबाकर उस वृ को उखाड़ लया॥ १६-१७ ॥ फर उस महाबली नशाचरने वकट गजना करके दोन हाथ से उस वृ को उठा लया और ीरामपर दे मारा। साथ ही यह भी कहा—‘लो, अब तुम मारे गये’॥ १८ ॥ परम तापी भगवान् ीरामने अपने ऊपर आते ए उस वृ को बाण-समूह से काट गराया और उस समरभू मम खरको मार डालनेके लये अ ोध कट कया॥ १९ ॥ उस समय ीरामके शरीरम पसीना आ गया। उनके ने ा रोषसे र वणके हो गये। उ ने सह बाण का हार करके समरा णम खरको त- व त कर दया॥ २० ॥



उनके बाण के आघातसे उस नशाचरके शरीरम जो घाव ए थे, उनसे अ धक मा ाम फे नयु र वा हत होने लगा, मानो पवतके झरनेसे जलक धाराएँ गर रही ह ॥ २१ ॥ ीरामने यु लम अपने बाण क मारसे खरको ाकु ल कर दया; तो भी (उसका साहस कम नह आ।) वह खूनक ग से उ होकर बड़े वेगसे ीरामक ओर ही दौड़ा॥ २२ ॥



अ - व ाके ाता भगवान् ीरामने देखा क यह रा स खूनसे लथपथ होनेपर भी अ ोधपूवक मेरी ही ओर बढ़ा आ रहा है तो वे तुरंत चरण का संचालन करके दो-तीन पग पीछे हट गये ( क ब त नकट होनेपर बाण चलाना स व नह हो सकता था)॥ २३ ॥ तदन र ीरामने समरा णम खरका वध करनेके लये एक अ के समान तेज ी बाण हाथम लया, जो दूसरे द के समान भयंकर था॥ २४ ॥ वह बाण बु मान् देवराज इ का दया आ था। धमा ा ीरामने उसे धनुषपर रखा और खरको ल करके छोड़ दया॥ २५ ॥ उस महाबाणके छू टते ही व पातके समान भयानक श आ। ीरामने अपने धनुषको कानतक ख चकर उसे छोड़ा था। वह खरक छातीम जा लगा॥ २६ ॥ जैसे ेतवनम भगवान् ने अ कासुरको जलाकर भ कया था, उसी कार द कवनम ीरामके उस बाणक आगम जलता आ नशाचर खर पृ ीपर गर पड़ा॥ २७ ॥ जैसे व से वृ ासुर, फे नसे नमु च और इ क अश नसे बलासुर मारा गया था, उसी कार ीरामके उस बाणसे आहत होकर खर धराशायी हो गया॥ २८ ॥ इसी समय देवता चारण के साथ मलकर आये और हषम भरकर दु ु भ बजाते ए वहाँ ीरामके ऊपर चार ओरसे फू ल क वषा करने लगे। उस समय उ यह देखकर बड़ा आ य आ था क ीरामने अपने पैने बाण से डेढ़ मु तम ही इ ानुसार प धारण करनेवाले खरदूषण आ द चौदह हजार रा स का इस महासमरम संहार कर डाला॥ २९—३१ ॥ वे बोले—‘अहो! अपने पको जाननेवाले भगवान् ीरामका यह कम महान् और अ तु है, इनका बल-परा म भी अ तु है और इनम भगवान् व ुक भाँ त आ यजनक ढ़ता दखायी देती है’॥ ३२ ॥



ऐसा कहकर वे सब देवता जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। तदन र ब त-से राज ष और अग आ द मह ष मलकर वहाँ आये तथा स तापूवक ीरामका स ार करके उनसे इस कार बोले—॥ ३३ १/२ ॥ ‘रघुन न! इसी लये महातेज ी पाकशासन पुरंदर इ शरभ मु नके प व आ मपर आये थे और इसी कायक स के लये मह षय ने वशेष उपाय करके आपको प वटीके इस देशम प ँ चाया था॥ ३४-३५ ॥ ‘मु नय के श ु प इन पापाचारी रा स के वधके लये ही आपका यहाँ शुभागमन आव क समझा गया था। दशरथन न! आपने हमलोग का यह ब त बड़ा काय स कर दया। अब बड़े-बड़े ऋ ष-मु न द कार के व भ देश म नभय होकर अपने धमका अनु ान करगे’॥ ३६ १/२ ॥ इसी बीचम वीर ल ण भी सीताके साथ पवतक क रासे नकलकर स तापूवक आ मम आ गये॥ त ात् मह षय से शं सत और ल णसे पू जत वजयी वीर ीरामने आ मम वेश कया॥ ३८ १/२ ॥ मह षय को सुख देनेवाले अपने श ुह ा प तका दशन करके वदेहराजन नी सीताको बड़ा हष आ। उ ने परमान म नम होकर अपने ामीका आ ल न कया। रा स-समूह मारे गये और ीरामको को◌इ त नह प ँ ची—यह देख और जानकर जानक जीको ब त संतोष आ॥ ३९-४० ॥ स तासे भरे ए महा ा मु न जनक भू र-भू र शंसा कर रहे थे तथा ज ने रा स के समुदायको कु चल डाला था, उन ाणव भ, ीरामका बार ार आ ल न करके उस समय जनकन नी सीताको बड़ा हष आ। उनका मुख स तासे खल उठा॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३०॥



इकतीसवाँ सग रावणका अक नक सलाहसे सीताका अपहरण करनेके लये जाना और मारीचके कहनेसे ल ाको लौट आना



तदन र जन ानसे अक न नामक रा स बड़ी उतावलीके साथ ल ाक ओर गया और शी ही उस पुरीम वेश करके रावणसे इस कार बोला—॥ १ ॥ ‘राजन्! जन ानम जो ब त-से रा स रहते थे, वे मार डाले गये। खर यु म मारा गया। म कसी तरह जान बचाकर यहाँ आया ँ ’॥ २ ॥ अक नके ऐसा कहते ही दशमुख रावण ोधसे जल उठा और लाल आँ ख करके उससे इस तरह बोला, मानो उसे अपने तेजसे जलाकर भ कर डालेगा॥ ३ ॥ वह बोला—‘कौन मौतके मुखम जाना चाहता है, जसने मेरे भयंकर जन ानका वनाश कया है? कौन वह दु:साहसी है, जसे सम लोक म कह भी ठौर- ठकाना नह मलनेवाला है?॥ ४ ॥ ‘मेरा अपराध करके इ , यम, कु बेर और व ु भी चैनसे नह रह सकगे॥ ५ ॥ ‘म कालका भी काल ँ , आगको भी जला सकता ँ तथा मौतको भी मृ ुके मुखम डाल सकता ँ ॥ ६ ॥ ‘य द म ोधम भर जाऊँ तो अपने वेगसे वायुक ग तको भी रोक सकता ँ तथा अपने तेजसे सूय और अ को भी जलाकर भ कर सकता ँ ’॥ ७ ॥ रावणको इस कार ोधसे भरा देख भयके मारे अक नक बोलती बंद हो गयी। उसने हाथ जोड़कर संशययु वाणीम रावणसे अभयक याचना क ॥ ८ ॥ तब रा स म े दश ीवने उसे अभयदान दया। इससे अक नको अपने ाण बचनेका व ास आ और वह संशयर हत होकर बोला—॥ ९ ॥ ‘रा सराज! राजा दशरथके नवयुवक पु ीराम प वटीम रहते ह। उनके शरीरक गठन सहके समान है, कं धे मोटे और भुजाएँ गोल तथा ल ी ह, शरीरका रंग साँवला है। वे बड़े यश ी और तेज ी दखायी देते ह। उनके बल और परा मक कह तुलना नह है। उ ने जन ानम रहनेवाले खर और दूषण आ दका वध कया है’॥ १०-११ ॥



अक नक यह बात सुनकर रा सराज रावणने नागराज (महान् सप) क भाँ त ल ी साँस ख चकर इस कार कहा—॥ १२ ॥ अक न! बताओ तो सही ा राम स ूण देवता तथा देवराज इ के साथ जन ानम आये ह?’॥ १३ ॥ रावणका यह सुनकर अक नने महा ा ीरामके बल और परा मका पुन: इस कार वणन कया— ‘ल े र! जनका नाम राम है, वे संसारके सम धनुधर म े और अ तेज ी ह। द ा के योगका जो गुण है, उससे भी वे पूणत: स ह। यु क कलाम तो वे पराका ाको प ँ चे ए ह॥ १५ ॥ ‘ ीरामके साथ उनके छोटे भा◌इ ल ण भी ह, जो उ के समान बलवान् ह। उनका मुख पू णमाके च माक भाँ त मनोहर है। उनक आँ ख कु छ-कु छ लाल ह और र दु ु भके समान ग ीर है॥ १६ ॥ ‘जैसे अ के साथ वायु ह , उसी कार अपने भा◌इके साथ संयु ए राजा धराज ीमान् राम बड़े बल ह। उ ने ही जन ानको उजाड़ डाला है॥ १७ ॥ ‘उनके साथ न को◌इ देवता ह, न महा ा मु न। इस वषयम आप को◌इ वचार न कर। ीरामके छोड़े ए सोनेक पाँखवाले बाण पाँच मुखवाले सप बनकर रा स को खा जाते थे॥ १८ १/२ ॥ ‘भयसे कातर ए रा स जस- जस मागसे भागते थे, वहाँ-वहाँ वे ीरामको ही अपने सामने खड़ा देखते थे। अनघ! इस कार अके ले ीरामने ही आपके जन ानका वनाश कया है’॥ १९-२० ॥ अक नक यह बात सुनकर रावणने कहा— ‘म अभी ल णस हत रामका वध करनेके लये जन ानको जाऊँ गा’॥ २१ ॥ उसके ऐसा कहनेपर अक न बोला—‘राजन्! ीरामका बल और पु षाथ जैसा है, उसका यथावत् वणन मुझसे सु नये॥ २२ ॥ ‘महायश ी ीराम य द कु पत हो जायँ तो उ अपने परा मके ारा को◌इ भी काबूम नह कर सकता। वे अपने बाण से भरी ◌इ नदीके वेगको भी पलट सकते ह तथा तारा, ह और न स हत स ूण आकाशम लको पीड़ा दे सकते ह॥ २३ १/२ ॥



‘वे



ीमान् भगवान् राम समु म डू बती ◌इ पृ ीको ऊपर उठा सकते ह, महासागरक मयादाका भेदन करके सम लोक को उसके जलसे आ ा वत कर सकते ह तथा अपने बाण से समु के वेग अथवा वायुको भी न कर सकते ह॥ २४-२५ ॥ ‘वे महायश ी पु षो म अपने परा मसे स ूण लोक का संहार करके पुन: नये सरेसे जाक सृ करनेम समथ ह॥ २६ ॥ ‘दश ीव! जैसे पापी पु ष गपर अ धकार नह ा कर सकते, उसी कार आप अथवा सम रा स-जगत् भी यु म ीरामको नह जीत सकते॥ २७ ॥ ‘मेरी समझम स ूण देवता और असुर मलकर भी उनका वध नह कर सकते। उनके वधका यह एक उपाय मुझे सूझा है, उसे आप मेरे मुखसे एक च होकर सु नये॥ २८ ॥ ‘ ीरामक प ी सीता संसारक सव म सु री है। उसने यौवनके म म पदापण कया है। उसके अ सु र और सुडौल ह। वह र मय आभूषण से वभू षत रहती है। सीता स ूण य म एक र है॥ २९ ॥ ‘देवक ा, ग वक ा, अ रा अथवा नागक ा को◌इ भी पम उसक समानता नह कर सकती, फर मनु -जा तक दूसरी को◌इ नारी उसके समान कै से हो सकती है॥ ३० ॥ ‘उस वशाल वनम जस कसी भी उपायसे ीरामको धोखेम डालकर आप उनक प ीका अपहरण कर ल। सीतासे बछु ड़ जानेपर ीराम कदा प जी वत नह रहगे’॥ ३१ ॥ रा सराज रावणको अक नक वह बात पसंद आ गयी। उस महाबा दश ीवने कु छ सोचकर अक नसे कहा—॥ ३२ ॥ ‘ठीक है, कल ात:काल सार थके साथ म अके ला ही जाऊँ गा और वदेहकु मारी सीताको स तापूवक इस महापुरीम ले आऊँ गा’॥ ३३ ॥ ऐसा कहकर रावण गध से जुते ए सूयतु तेज ी रथपर आ ढ़ हो स ूण दशा को का शत करता आ वहाँसे चला॥ ३४ ॥ न के मागपर वचरता आ रा सराजका वह वशाल रथ बादल क आड़म का शत होनेवाले च माके समान शोभा पा रहा था॥ ३५ ॥ कु छ दूरपर त एक आ मम जाकर वह ताटकापु मारीचसे मला। मारीचने अलौ कक भ -भो अ पत करके राजा रावणका ागत-स ार कया॥ ३६ ॥



आसन और जल आ दके ारा यं ही उसका पूजन करके मारीचने अथयु वाणीम पूछा—॥ ३७ ॥ ‘रा सराज! तु ारे रा म लोग क कु शल तो है न? तुम बड़ी उतावलीके साथ आ रहे हो, इस लये मेरे मनम कु छ खटका आ है। म समझता ँ , तु ारे यहाँका अ ा हाल नह है’॥ ३८ ॥ मारीचके इस कार पूछनेपर बातचीतक कलाको जाननेवाले महातेज ी रावणने इस कार कहा—॥ ३९ ॥ ‘तात! अनायास ही महान् परा म दखानेवाले ीरामने मेरे रा क सीमाके र क खरदूषण आ दको मार डाला है तथा जो जन ान अव समझा जाता था, वहाँके सारे रा स को उ ने यु म मार गराया है॥ ४० ॥ ‘अत: इसका बदला लेनेके लये म उनक ीका अपहरण करना चाहता ँ । इस कायम तुम मेरी सहायता करो।’ रा सराज रावणका यह वचन सुनकर मारीच बोला—॥ ४१ ॥ ‘ नशाचर शरोमणे! म के पम तु ारा वह कौन-सा ऐसा श ु है, जसने तु सीताको हर लेनेक सलाह दी है? कौन ऐसा पु ष है, जो तुमसे सुख और आदर पाकर भी स नह है, अत: तु ारी बुरा◌इ करना चाहता है?॥ ४२ ॥ ‘कौन कहता है क तुम सीताको यहाँ हर ले आओ? मुझे उसका नाम बताओ। वह कौन है, जो सम रा स-जग ा स ग काट लेना चाहता है?॥ ‘जो इस कायम तु ो ाहन दे रहा है, वह तु ारा श ु है, इसम संशय नह है। वह तु ारे हाथ वषधर सपके मुखसे उसके दाँत उखड़वाना चाहता है॥ ४४ ॥ ‘राजन्! कसने तु ऐसी खोटी सलाह देकर कु मागपर प ँ चाया है? कसने सुखपूवक सोते समय तु ारे म कपर लात मारी है॥ ४५ ॥ ‘रावण! राघवे ीराम वह ग यु गजराज ह, जसक ग सूँघकर ही गज पी यो ा दूर भाग जाते ह। वशु कु लम ज हण करना ही उस राघव पी गजराजका शु द है, ताप ही मद है और सुडौल बाँह ही दोन दाँत ह। यु लम उनक ओर देखना भी तु ारे लये उ चत नह है; फर जूझनेक तो बात ही ा है॥ ४६ ॥



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ीराम मनु के पम एक सह ह। रणभू मके भीतर त होना ही उनके अ क सं धयाँ तथा बाल ह। वह सह चतुर रा स पी मृग का वध करनेवाला है, बाण पी अ से प रपूण है तथा तलवार ही उसक तीखी दाढ़ ह। उस सोते ए सहको तुम नह जगा सकते॥ ४७ ॥ ‘रा सराज! ीराम एक पातालतल ापी महासागर ह, धनुष ही उस समु के भीतर रहनेवाला ाह है, भुजा का वेग ही क चड़ है, बाण ही तरंगमालाएँ ह और महान् यु ही उसक अगाध जलरा श है। उसके अ भयंकर मुख अथात् बड़वानलम कू द पड़ना तु ारे लये कदा प उ चत नह है॥ ४८ ॥ ‘लंके र! स होओ। रा सराज! सान रहो और सकु शल लंकाको लौट जाओ। तुम सदा पुरीम अपनी य के साथ रमण करो और राम अपनी प ीके साथ वनम वहार कर’॥ ४९ ॥ मारीचके ऐसा कहनेपर दशमुख रावण लंकाको लौटा और अपने सु र महलम चला गया॥ ५० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म इकतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३१॥



ब ीसवाँ सग शूपणखाका लंकाम रावणके पास जाना



उधर शूपणखाने जब देखा क ीरामने भयंकर कम करनेवाले चौदह हजार रा स को अके ले ही मार गराया तथा यु के मैदानम दूषण, खर और शराको भी मौतके घाट उतार दया, तब वह शोकके कारण मेघ-गजनाके समान पुन: बड़े जोर-जोरसे घोर ची ार करने लगी॥ १-२ ॥ ीरामने वह कम कर दखाया, जो दूसर के लये अ दु र है; यह अपनी आँ ख देखकर वह अ उ हो उठी और रावण ारा सुर त लंकापुरीको गयी॥ ३ ॥ वहाँ प ँ चकर उसने देखा, रावण पु क वमान (या सतमहले मकान) के ऊपरी भागम बैठा आ है। उसका राजो चत तेज उ ी हो रहा है तथा म ण से घरे ए इ क भाँ त वह आस-पास बैठे ए म य से घरा है॥ ४ ॥ रावण जस उ म सुवणमय सहासनपर वराजमान था, वह सूयके समान जगमगा रहा था। जैसे सोनेक ◌इं ट से बनी ◌इ वेदीपर ा पत अ देव घीक अ धक आ त पाकर लत हो उठे ह , उसी कार उस ण सहासनपर रावण शोभा पा रहा था॥ ५ ॥ देवता, ग व, भूत और महा ा ऋ ष भी उसे जीतनेम असमथ थे। समरभू मम वह मुँह फै लाकर खड़े ए यमराजक भाँ त भयानक जान पड़ता था। देवता और असुर के सं ामके अवसर पर उसके शरीरम व और अश नके जो घाव ए थे, उनके च अबतक व मान थे। उसक छातीम ऐरावत हाथीने जो अपने दाँत गड़ाये थे, उसके नशान अब भी दखायी देते थे॥ उसके बीस भुजाएँ और दस म क थे। उसके छ , चँवर और आभूषण आ द उपकरण देखने ही यो थे। व : ल वशाल था। वह वीर राजो चत ल ण से स दखायी देता था। वह अपने शरीरम जो वैदयू म ण (नीलम) का आभूषण पहने ए था, उसके समान ही उसके शरीरक का भी थी। उसने तपाये ए सोनेके आभूषण भी पहन रखे थे। उसक भुजाएँ सु र, दाँत सफे द, मुँह ब त बड़ा और शरीर पवतके समान वशाल था॥ ८-९ ॥ देवता के साथ यु करते समय उसके अ पर सैकड़ बार भगवान् व ुके च का हार आ था। बड़े-बड़े यु म अ ा अ -श क भी उसपर मार पड़ी थी (उन सबके च



गोचर होते थे)॥ देवता के सम आयुध के हार से भी जो ख त न हो सके थे, उ अ से वह अ ो समु म भी ोभ (हलचल) पैदा कर देता था। वह सभी काय बड़ी शी तासे करता था॥ ११ ॥ पवत शखर को भी तोड़कर फ क देता था, देवता को भी र द डालता था। धमक तो वह जड़ ही काट देता था और परायी य के सती का नाश करनेवाला था॥ वह सब कारके द ा का योग करनेवाला और सदा य म व डालनेवाला था। एक समय पातालक भोगवती पुरीम जाकर नागराज वासु कको परा करके त कको भी हराकर उसक ारी प ीको वह हर ले आया था॥ १३ १/२ ॥ इसी तरह कै लास पवतपर जाकर कु बेरको यु म परा जत करके उसने उनके इ ानुसार चलनेवाले पु क वमानको अपने अ धकारम कर लया॥ १४ १/२ ॥ वह परा मी नशाचर ोधपूवक कु बेरके द चै रथ वनको, सौग क कमल से यु न लनी नामवाली पु रणीको, इ के न नवनको तथा देवता के दूसरे-दूसरे उ ान को न करता रहता था॥ १५ १/२ ॥ वह पवत- शखरके समान आकार धारण करके श ु को संताप देनेवाले महाभाग च मा और सूयको उनके उदयकालम अपने हाथ से रोक देता था॥ १६ १/२ ॥ उस धीर भाववाले रावणने पूवकालम एक वशाल वनके भीतर दस हजार वष तक घोर तप ा करके ाजीको अपने म क क ब ल दे दी थी॥ १७ १/२ ॥ उसके भावसे उसे देवता, दानव, ग व, पशाच, प ी और सप से भी सं ामम अभय ा हो गया था। मनु के सवा और कसीके हाथसे उसे मृ ुका भय नह था॥ १८ १/२ ॥ वह महाबली रा स सोमसवनकम व श य म जा तय ारा वेदम के उ ारणपूवक नकाले गये तथा वै दक म से ही सुसं ृ त एवं ुत ए प व सोमरसको वहाँ प ँ चकर न कर देता था॥ १९ १/२ ॥ समा के नकट प ँ चे ए य का व ंस करनेवाला वह दु नशाचर ा ण क ह ा तथा दूसरे-दूसरे ू र कम करता था। वह बड़े ही खे भावका और नदय था। सदा जाजन के अ हतम ही लगा रहता था॥ २० १/२ ॥



सम लोक को भय देनेवाले और स ूण ा णय को लानेवाले अपने इस महाबली ू र भा◌इको रा सी शूपणखाने उस समय देखा॥ २१ १/२ ॥ वह द व और आभूषण से वभू षत था। द पु क मालाएँ उसक शोभा बढ़ा रही थ । सहासनपर बैठा आ रा सराज पुल कु लन न महाभाग दश ीव लयकालम संहारके लये उ त ए महाकालके समान जान पड़ता था॥ २२-२३ ॥ म य से घरे ए श ुह ा भा◌इ रावणके पास जाकर भयसे व ल ◌इ वह रा सी कु छ कहनेको उ त ◌इ॥ २४ ॥ महा ा ल णने नाक-कान काटकर जसे कु प कर दया था तथा जो नभय वचरनेवाली थी, वह भय और लोभसे मो हत ◌इ शूपणखा बड़े-बड़े चमक ले ने वाले अ ू र रावणको अपनी दुदशा दखाकर उससे बोली॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म ब ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३२॥



ततीसवाँ सग शूपणखाका रावणको फटकारना



उस समय शूपणखा ीरामसे तर ृ त होनेके कारण ब त दु:खी थी। उसने म य के बीचम बैठे ए सम लोक को लानेवाले रावणसे अ कु पत होकर कठोर वाणीम कहा —॥ १ ॥ ‘रा सराज! तुम े ाचारी और नर ु श होकर वषय-भोग म मतवाले हो रहे हो। तु ारे लये घोर भय उ हो गया है। तु इसक जानकारी होनी चा हये थी, कतु तुम इसके वषयम कु छ नह जानते हो॥ २ ॥ ‘जो राजा न ेणीके भोग म आस हो े ाचारी और लोभी हो जाता है, उसे मरघटक आगके समान हेय मानकर जा उसका अ धक आदर नह करती है॥ ३ ॥ ‘जो राजा ठीक समयपर यं ही अपने काय का स ादन नह करता है, वह रा और उन काय के साथ ही न हो जाता है॥ ४ ॥ ‘जो रा क देखभालके लये गु चर को नयु नह करता है, जाजन को जसका दशन दुलभ हो जाता है और का मनी आ द भोग म आस होनेके कारण अपनी ाधीनता खो बैठता है, ऐसे राजाको जा दूरसे ही ाग देती है। ठीक उसी तरह, जैसे हाथी नदीक क चड़से दूर ही रहते ह॥ ५ ॥ जो नरेश अपने रा के उस ा क , जो अपनी ही असावधानीके कारण दूसरेके अ धकारम चला गया हो, र ा नह करते—उसे पुन: अपने अ धकारम नह लाते, वे समु म डू बे ए पवत क भाँ त अपने अ ुदयसे का शत नह होते ह॥ ६ ॥ ‘जो अपने मनको काबूम रखनेवाले एवं य शील ह, उन देवता , ग व तथा दानव के साथ वरोध करके तुमने अपने रा क देखभालके लये गु चर नह नयु कये ह, ऐसी दशाम तुम-जैसा वषयलोलुप चपल पु ष कै से राजा बना रह सके गा?॥ ७ ॥ ‘रा स! तु ारा भाव बालक -जैसा है। तुम नरे बु हीन हो। तु जाननेयो बात का भी ान नह है। ऐसी दशाम तुम कस तरह राजा बने रह सकोगे?॥ ८ ॥



‘ वजयी वीर म े नशाचरपते! जन नरेश के गु अधीन नह ह, वे साधारण लोग के ही समान ह॥ ९ ॥ ‘गु



चर, कोष और नी त—ये सब अपने



चर क सहायतासे राजालोग दूर-दूरके सारे काय क देखभाल करते रहते ह, इसी लये वे दीघदश या दूरदश कहलाते ह॥ १० ॥ ‘म समझती ँ , तुम गवाँर म य से घरे ए हो, तभी तो तुमने अपने रा के भीतर गु चर नह तैनात कये ह। तु ारे जन मारे गये और जन ान उजाड़ हो गया, फर भी तु इसका पता नह लगा है॥ ११ ॥ ‘अके ले रामने, जो अनायास ही महान् कम करनेवाले ह, भीमकमा रा स क चौदह हजार सेनाको यमलोक प ँ चा दया, खर और दूषणके भी ाण ले लये, ऋ षय को भी अभयदान कर दया तथा द कार म रा स क ओरसे जो व -बाधाएँ थ , उन सबको दूर करके वहाँ शा ा पत कर दी। जन ानको तो उ ने चौपट ही कर डाला॥ १२-१३ ॥ ‘रा स! तुम तो लोभ और मादम फँ सकर पराधीन हो रहे हो, अत: अपने ही रा म उ ए भयका तु कु छ पता ही नह है॥ १४ ॥ ‘जो राजा कठोरतापूण बताव करता अथवा तीखे भावका प रचय देता है, सेवक को ब त कम वेतन देता है, मादम पड़ा और गवम भरा रहता है तथा भावसे ही शठ होता है, उसके संकटम पड़नेपर सभी ाणी उसका साथ छोड़ देते ह—उसक सहायताके लये आगे नह बढ़ते ह॥ १५ ॥ ‘जो अ अ भमानी, अपनानेके अयो , आप ही अपनेको ब त बड़ा माननेवाला और ोधी होता है, ऐसे नर अथवा नरेशको संकटकालम आ ीय जन भी मार डालते ह॥ १६ ॥ ‘जो राजा अपने कत का पालन अथवा करनेयो काय का स ादन नह करता तथा भयके अवसर पर भयभीत (एवं अपनी र ाके लये सावधान) नह होता, वह शी ही रा से एवं दीन होकर इस भूतलपर तनक के समान उपे णीय हो जाता है॥ १७ ॥ ‘लोग को सूखे काठ से, म ीके ढेल तथा धूलसे भी कु छ योजन होता है, कतु ान राजा से उ को◌इ योजन नह रहता॥ १८ ॥ ‘जैसे पहना आ व और मसल डाली गयी फू ल क माला दूसर के उपयोगम आनेयो नह होती, इसी कार रा से आ राजा समथ होनेपर भी दूसर के लये नरथक है॥ १९ ॥



‘परंतु



जो राजा सदा सावधान रहता, रा के सम काय क जानकारी रखता, इ य को वशम कये रहता, कृ त (दूसर के उपकारको माननेवाला) तथा भावसे ही धमपरायण होता है, वह राजा ब त दन तक रा करता है॥ २० ॥ ‘जो ूल आँ ख से तो सोता है, परंतु नी तक आँ ख से सदा जागता रहता है तथा जसके ोध और अनु हका फल कट होता है, उसी राजाक लोग पूजा करते ह॥ २१ ॥ ‘रावण! तु ारी बु दू षत है और तुम इन सभी राजो चत गुण से व त हो; क तु अबतक गु चर क सहायतासे रा स के इस महान् संहारका समाचार ात नह हो सका था॥ २२ ॥ ‘तुम दूसर का अनादर करनेवाले, वषयास और देश-कालके वभागको यथाथ पसे न जाननेवाले हो, तुमने गुण और दोषके वचार एवं न यम कभी अपनी बु को नह लगाया है, अत: तु ारा रा शी ही न हो जायगा और तुम यं भी भारी वप म पड़ जाओगे’॥ २३ ॥



शूपणखाके ारा कहे गये अपने दोष पर बु पूवक वचार करके धन, अ भमान और बलसे स वह नशाचर रावण ब त देरतक सोच- वचार एवं च ाम पड़ा रहा॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म ततीसवाँ सग पूरा आ॥ ३३॥



च तीसवाँ सग रावणके पूछनेपर शूपणखाका उससे राम, ल ण और सीताका प रचय देते ए सीताको भाया बनानेके लये उसे े रत करना



शूपणखाको इस कार कठोर बात कहती देख म य के बीचम बैठे ए रावणने अ कु पत होकर पूछा—॥ १ ॥ ‘राम कौन है? उसका बल कै सा है? प और परा म कै से ह? अ दु र द कार म उसने कस लये वेश कया है?॥ २ ॥ ‘रामके पास कौन-सा ऐसा अ है, जससे वे सब रा स मारे गये तथा यु म खर, दूषण और शराका भी संहार हो गया॥ ३ ॥ ‘मनोहर अ वाली शूपणखे! ठीक-ठीक बताओ, कसने तु कु प बनाया है— कसने तु ारी नाक और कान काट डाले ह?’ रा सराज रावणके इस कार पूछनेपर वह रा सी ोधसे अचेत-सी हो उठी॥ ४ ॥ तदन र उसने ीरामका यथावत् प रचय देना आर कया—‘भैया! ीरामच राजा दशरथके पु ह, उनक भुजाएँ लंबी, आँ ख बड़ी-बड़ी और प कामदेवके समान है। वे चीर और काला मृगचम धारण करते ह॥ ५ १/२ ॥ ‘ ीराम इ धनुषके समान अपने वशाल धनुषको, जसम सोनेके छ े शोभा दे रहे ह, ख चकर उसके ारा महा वषैले सप के समान तेज ी नाराच क वषा करते ह॥ ६ १/२ ॥ ‘वे महाबली राम यु लम कब धनुष ख चते, कब भयंकर बाण हाथम लेते और कब उ छोड़ते ह—यह म नह देख पाती थी॥ ७ १/२ ॥ ‘उनके बाण क वषासे रा स क सेना मर रही है— इतना ही मुझे दखायी देता था। जैसे इ (मेघ) ारा बरसाये गये ओल क वृ से अ ी खेती चौपट हो जाती है, उसी कार रामके बाण से रा स का वनाश हो गया॥ ८ १/२ ॥ ‘ ीराम अके ले और पैदल थे, तो भी उ ने डेढ़ मु त (तीन घड़ी) के भीतर ही खर और दूषणस हत चौदह हजार भयंकर बलशाली रा स का तीखे बाण से संहार कर डाला,



ऋ षय को अभय दे दया और सम द कवनको रा स क व -बाधासे र हत कर दया॥ ९—११ ॥ ‘आ ानी महा ा ीरामने ीका वध हो जानेके भयसे एकमा मुझे कसी तरह के वल अपमा नत करके ही छोड़ दया॥ १२ ॥ ‘उनका एक बड़ा ही तेज ी भा◌इ है, जो गुण और परा मम उ के समान है। उसका नाम है ल ण। वह परा मी वीर अपने बड़े भा◌इका ेमी और भ है, उसक बु बड़ी ती ण है, वह अमषशील, दुजय, वजयी तथा बल- व मसे स है। ीरामका वह मानो दा हना हाथ और सदा बाहर वचरनेवाला ाण है॥ १३-१४ ॥ ‘ ीरामक धमप ी भी उनके साथ है। वह प तको ब त ारी है और सदा अपने ामीका य तथा हत करनेम ही लगी रहती है। उसक आँ ख वशाल और मुख पूण च के समान मनोरम है॥ १५ ॥ ‘उसके के श, ना सका, ऊ तथा प बड़े ही सु र तथा मनोहर ह। वह यश नी राजकु मारी इस द कवनक देवी-सी जान पड़ती है और दूसरी ल ीके समान शोभा पाती है॥ १६ ॥ ‘उसका सु र शरीर तपाये ए सुवणक का धारण करता है, नख ऊँ चे तथा लाल ह। वह शुभल ण से स है। उसके सभी अ सुडौल ह और क टभाग सु र तथा पतला है। वह वदेहराज जनकक क ा है और सीता उसका नाम है॥ १७ ॥ ‘देवता , ग व , य और क र क य म भी को◌इ उसके समान सु री नह है। इस भूतलपर वैसी पवती नारी मने पहले कभी नह देखी थी॥ १८ ॥ ‘सीता जसक भाया हो और वह हषम भरकर जसका आ ल न करे, सम लोक म उसीका जीवन इ से भी अ धक भा शाली है॥ १९ ॥ ‘उसका शील- भाव बड़ा ही उ म है। उसका एक-एक अ ु एवं ृहणीय है। उसके पक समानता करनेवाली भूम लम दूसरी को◌इ ी नह है। वह तु ारे यो भाया होगी और तुम भी उसके यो े प त होओगे॥ २० ॥ ‘महाबाहो! व ृत जघन और उठे ए पु कु च वाली उस सुमुखी ीको जब म तु ारी भाया बनानेके लये ले आनेको उ त ◌इ, तब ू र ल णने मुझे इस तरह कु प कर दया॥



२१ १/२ ॥ ‘पूण च माके समान मनोहर मुखवाली वदेहराजकु मारी सीताको देखते ही तुम कामदेवके बाण के ल बन जाओगे॥ २२ १/२ ॥ ‘य द तु सीताको अपनी भाया बनानेक इ ा हो तो शी ही ीरामको जीतनेके लये यहाँ अपना दा हना पैर आगे बढ़ाओ॥ २३ ॥ ‘रा सराज रावण! य द तु मेरी यह बात पसंद हो तो न:श होकर मेरे कथनानुसार काय करो॥ २४ ॥ ‘महाबली रा से र! इन राम आ दक असमथता और अपनी श का वचार करके सवा सु री सीताको अपनी भाया बनानेका य करो (उसे हर लाओ)॥ २५ ॥ ‘ ीरामने अपने सीधे जानेवाले बाण ारा जन ान नवासी नशाचर को मार डाला और खर तथा दूषणको भी मौतके घाट उतार दया, यह सब सुनकर और देखकर अब तु ारा ा कत है, इसका न य तु कर लेना चा हये’॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म च तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३४॥



पतीसवाँ सग रावणका समु तटवत



ा क शोभा देखते ए पुन: मारीचके पास जाना



शूपणखाक ये र गट खड़ी कर देनेवाली बात सुनकर रावण म य से सलाह ले अपने कत का न य करके वहाँसे चल दया॥ १ ॥ उसने पहले सीताहरण पी कायपर मन-ही-मन वचार कया। फर उसके दोष और गुण का यथावत् ान ा करके बलाबलका न य कया। अ म यह र कया क इस कामको करना ही चा हये। जब इस बातपर उसक बु जम गयी, तब वह रमणीय रथशालाम गया॥ २-३ ॥ गु पसे रथशालाम जाकर रा सराज रावणने अपने सार थको यह आ ा दी क ‘मेरा रथ जोतकर तैयार करो’॥ ४ ॥ सार थ शी तापूवक काय करनेम कु शल था। रावणक उपयु आ ा पाकर उसने एक ही णम उसके मनके अनुकूल उ म रथ जोतकर तैयार कर दया॥ ५ ॥ वह रथ इ ानुसार चलनेवाला तथा सुवणमय था। उसे र से वभू षत कया गया था। उसम सोनेके साज-बाज से सजे ए गधे जुते थे, जनका मुख पशाच के समान था। रावण उसपर आ ढ़ होकर चला॥ ६ ॥ वह रथ मेघ-गजनाके समान ग ीर घर-घर न फै लाता आ चलता था। उसके ारा वह कु बेरका छोटा भा◌इ ीमान् रा सराज रावण समु के तटपर गया॥ ७ ॥ उस समय उसके लये सफे द चँवरसे हवा क जा रही थी। सरके ऊपर ेत छ तना आ था। उसक अ का स्न वैदयू म णके समान नीली या काली थी। वह प े सोनेके आभूषण से वभू षत था। उसके दस मुख, दस क और बीस भुजाएँ थ । उसके व ाभूषण आ द अ उपकरण भी देखने ही यो थे। देवता का श ु और मुनी र का ह ारा वह नशाचर दस शखर वाले पवतराजके समान तीत होता था॥ ८-९ ॥ इ ानुसार चलनेवाले उस रथपर आ ढ़ हो रा सराज रावण आकाशम व ु लसे घरे ए तथा वकपं य से सुशो भत मेघके समान शोभा पा रहा था॥ १० ॥



परा मी रावण पवतयु समु के तटपर प ँ चकर उसक शोभा देखने लगा। सागरका वह कनारा नाना कारके फल-फू लवाले सह वृ से ा था। चार ओर म लकारी शीतल जलसे भरी ◌इ पु र णयाँ और वे दका से म त वशाल आ म उस स ुतटक शोभा बढ़ा रहे थे॥ ११-१२ ॥ कह कदलीवन और कह ना रयलके कु शोभा दे रहे थे। साल, ताल, तमाल तथा सु र फू ल से भरे ए दूसरे-दूसरे वृ उस तट ा को अलंकृत कर रहे थे॥ अ नय मत आहार करनेवाले बड़े-बड़े मह षय , नाग , सुपण (ग ड़ ), ग व तथा सह क र से भी उस ानक बड़ी शोभा हो रही थी॥ १४ ॥ काम वजयी स , चारण , ाजीके पु , वान , माष गो म उ मु नय , बाल ख महा ा तथा के वल सूय- करण का पान करनेवाले तप ीजन से भी वह सागरका तट ा सुशो भत हो रहा था॥ १५ ॥ द आभूषण और पु माला को धारण करनेवाली तथा ड़ा- वहारक व धको जाननेवाली सह द पणी अ राएँ वहाँ सब ओर वचर रही थ । कतनी ही शोभाशा लनी देवा नाएँ उस स ुतटका सेवन करती ◌इ आस-पास बैठी थ । देवता और दानव के समूह तथा अमृतभोजी देवगण वहाँ वचर रहे थे॥ १६-१७ ॥ स ुका वह तट समु के तेजसे उसक तर माला के शसे स्न एवं शीतल था। वहाँ हंस, ौ तथा मेढक सब ओर फै ले ए थे और सारस उसक शोभा बढ़ा रहे थे। उस तटपर वैदयू म णके स श ाम रंगके र दखायी देते थे॥ १८ ॥ आकाशमागसे या ा करते ए कु बेरके छोटे भा◌इ रावणने रा ेम सब ओर ब त-से ेत वणके वमान , ग व तथा अ रा को भी देखा। वे इ ानुसार चलनेवाले वशाल वमान उन पु ा ा पु ष के थे, ज ने तप ासे पु लोक पर वजय पायी थी। उन वमान को द पु से सजाया गया था और उनके भीतरसे गीत-वा क न कट हो रही थी॥ १९-२० ॥



आगे बढ़नेपर उसने, जनक जड़ से ग द नकले ए थे, ऐसे च न के सह वन देखे, जो बड़े ही सुहावने और अपनी सुग से ना सकाको तृ करनेवाले थे॥ २१ ॥ कह े अगु के वन थे, कह उ म जा तके सुग त फलवाले त ोल (वृ वशेष ) के उपवन थे। कह तमालके फू ल खले ए थे। कह गोल मचक झा ड़याँ शोभा पाती थ



और कह समु के तटपर ढेर-के -ढेर मोती सूख रहे थे। कह े पवतमालाएँ , कह मूग क रा शयाँ, कह सोने-चाँदीके शखर तथा कह सु र, अ तु और पानीके झरने दखायी देते थे। कह धन-धा से स , ी-र से भरे ए तथा हाथी, घोड़े और रथ से ा नगर गोचर होते थे। इन सबको देखता आ रावण आगे बढ़ा॥ २२—२५ १/२ ॥ फर उसने सधुराजके तटपर एक ऐसा ान देखा, जो गके समान मनोहर, सब ओरसे समतल और स्न था। वहाँ म -म वायु चलती थी, जसका श बड़ा कोमल जान पड़ता था॥ २६ १/२ ॥ वहाँ सागरतटपर एक बरगदका वृ दखायी दया, जो अपनी घनी छायाके कारण मेघ क घटाके समान तीत होता था। उसके नीचे चार ओर मु न नवास करते थे। उस वृ क सु स शाखाएँ चार ओर सौ योजन तक फै ली ◌इ थ ॥ २७ १/२ ॥ यह वही वृ था, जसक शाखापर कसी समय महाबली ग ड़ एक वशालकाय हाथी और कछु एको लेकर उ खानेके लये आ बैठे थे॥ २८ १/२ ॥ प य म े महाबली ग ड़ने ब सं क प से भरी ◌इ उस शाखाको सहसा अपने भारसे तोड़ डाला था॥ २९ १/२ ॥ उस शाखाके नीचे ब त-से वैखानस, माष, बाल ख , मरी चप (सूय- करण का पान करनेवाले), पु और धू प सं ावाले मह ष एक साथ रहते थे॥ ३० १/२ ॥ उनपर दया करके उनके जीवनक र ा करनेके लये प य म े धमा ा ग ड़ने उस टूटी ◌इ सौ योजन लंबी शाखाको और उन दोन हाथी तथा कछु एको भी वेगपूवक एक ही पंजेसे पकड़ लया तथा आकाशम ही उन दोन जंतु के मांस खाकर फ क ◌इ उस डालीके ारा नषाद देशका संहार कर डाला। उस समय पूव महामु नय को मृ ुके संकटसे बचा लेनेसे ग ड़को अनुपम हष ा आ॥ ३१—३३ ॥ उस महान् हषसे बु मान् ग ड़का परा म दूना हो गया और उ ने अमृत ले आनेके लये प ा न य कर लया॥ ३४ ॥ त ात् इ लोकम जाकर उ ने इ भवनक उन जा लय को तोड़ डाला, जो लोहेक स कच से बनी ◌इ थ । फर र न मत े भवनको न भ ◌ करके वहाँ छपाकर रखे ए अमृतको वे महे भवनसे हर लाये॥ ३५ ॥



ग ड़के ारा तोड़ी ◌इ डालीका वह च उस बरगदम उस समय भी मौजूद था। उस वृ का नाम था सुभ वट। ब त-से मह ष उस वृ क छायाम नवास करते थे। कु बेरके छोटे भा◌इ रावणने उस वटवृ को देखा॥ ३६ ॥ न दय के ामी समु के दूसरे तटपर जाकर उसने एक रमणीय वनके भीतर प व एवं एका ानम एक आ मका दशन कया॥ ३७ ॥ वहाँ शरीरम काला मृगचम और सरपर जटा का समूह धारण कये नय मत आहार करते ए मारीच नामक रा स नवास करता था। रावण वहाँ जाकर उससे मला॥ ३८ ॥ मलनेपर उस रा स मारीचने सब कारके अलौ कक कमनीय पदाथ अ पत करके राजा रावणका व धपूवक आ त -स ार कया॥ ३९ ॥ अ और जलसे यं उसका पूण स ार करके मारीचने योजनक बात पूछते ए उससे इस कार कहा—॥ ४० ॥ ‘राजन्! तु ारी ल ाम कु शल तो है? रा सराज! तुम कस कामके लये पुन: इतनी ज ी यहाँ आये हो?॥ ४१ ॥ मारीचके इस कार पूछनेपर बातचीत करनेम कु शल महातेज ी रावणने उससे इस कार कहा—॥ ४२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३५॥



छ ीसवाँ सग रावणका मारीचसे ीरामके अपराध बताकर उनक प ी सीताके अपहरणम सहायताके लये कहना ‘तात



मारीच! म सब बता रहा ँ । मेरी बात सुनो। इस समय म ब त दु:खी ँ और इस दु:खक अव ाम तु मुझे सबसे बढ़कर सहारा देनेवाले हो॥ १ ॥ ‘तुम जन ानको जानते हो, जहाँ मेरा भा◌इ खर, महाबा दूषण, मेरी ब हन शूपणखा, मांसभोजी रा स महाबा शरा तथा और भी ब त-से ल वेधम कु शल शूरवीर नशाचर रहा करते थे॥ २-३ ॥ ‘वे सभी रा स मेरी आ ासे वहाँ घर बनाकर रहते थे और उस वशाल वनम जो धमाचरण करनेवाले मु न थे, उ सताया करते थे॥ ४ ॥ ‘वहाँ खरके मनका अनुसरण करनेवाले तथा यु वषयक उ ाहसे स चौदह हजार शूरवीर रा स रहते थे, जो भयंकर कम करनेवाले थे॥ ५ ॥ ‘जन ानम नवास करनेवाले जतने महाबली रा स थे, वे सब-के -सब उस समय अ ी तरह स होकर यु े म रामके साथ जा भड़े थे॥ ६ ॥ ‘वे खर आ द रा स नाना कारके अ -श का हार करनेम कु शल थे, परंतु यु के मुहानेपर रोषम भरे ए ीरामने अपने मुँहसे को◌इ कड़वी बात न कहकर बाण के साथ धनुषका ही ापार आर कया॥ ७ १/२ ॥ ‘पैदल और मनु होकर भी रामने अपने दमकते ए बाण से भयंकर तेजवाले चौदह हजार रा स का वनाश कर डाला और उसी यु म खरको भी मौतके घाट उतारकर दूषणको भी मार गराया। साथ ही शराका वध करके उसने द कार को दूसर के लये नभय बना दया॥ ८-९ १/२ ॥ ‘उसके पताने कु पत होकर उसे प ीस हत घरसे नकाल दया है। उसका जीवन ीण हो चला है। यह यकु ल-कल राम ही उस रा स-सेनाका घातक है॥ १० १/२ ॥ ‘वह शीलर हत, ू र, तीखे भाववाला, मूख, लोभी, अ जते य, धम ागी, अधमा ा और सम ा णय के अ हतम त र रहनेवाला है। जसने बना कसी वैर- वरोधके के वल



बलका आ य ले मेरी ब हनके नाक-कान काटकर उसका प बगाड़ दया, उससे बदला लेनेके लये म भी उसक देवक ाके समान सु री प ी सीताको जन ानसे बलपूवक हर लाऊँ गा। तुम उस कायम मेरी सहायता करो॥ ११—१३ १/२ ॥ ‘महाबली रा स! तुम-जैसे पा वत सहायकके और अपने भाइय के बलपर ही म सम देवता क यहाँ को◌इ परवा नह करता, अत: तुम मेरे सहायक हो जाओ; क तुम मेरी सहायता करनेम समथ हो॥ १४-१५ ॥ ‘परा मम, यु म और वीरो चत अ भमानम तु ारे समान को◌इ नह है। नाना कारके उपाय बतानेम भी तुम बड़े बहादुर हो। बड़ी-बड़ी माया का योग करनेम भी वशेष कु शल हो॥ १६ ॥ ‘ नशाचर! इसी लये म तु ारे पास आया ँ । सहायताके लये मेरे कथनानुसार तु कौन-सा काम करना है, वह भी सुनो॥ १७ ॥ ‘तुम सोनेके बने ए मृग-जैसा प धारण करके रजतमय ब ु से यु चतकबरे हो जाओ और रामके आ मम सीताके सामने वचरो॥ १८ ॥ ‘ व च मृगके पम तु देखकर सीता अव ही अपने प त रामसे तथा ल णसे भी कहेगी क आपलोग इसे पकड़ लाव॥ १९ ॥ ‘जब वे दोन तु पकड़नेके लये दूर नकल जायँग,े तब म बना कसी व -बाधाके सूने आ मसे सीताको उसी तरह सुखपूवक हर लाऊँ गा, जैसे रा च माक भाका अपहरण कर लेता है॥ २० ॥ ‘उसके बाद ीका अपहरण हो जानेसे जब राम अ दु:खी और दुबल हो जायगा, उस समय म नभय हो सुखपूवक उसके ऊपर कृ ताथ च से हार क ँ गा’॥ २१ ॥ रावणके मुखसे ीरामच जीक चचा सुनकर महा ा मारीचका मुँह सूख गया। वह भयसे थरा उठा॥ वह अपलक ने से देखता आ अपने सूखे ओठ को चाटने लगा। उसे इतना दु:ख आ क वह मुदा-सा दखायी देने लगा। उसी अव ाम उसने रावणक ओर देखा॥ २३ ॥ उसे महान् वनम ीरामच जीके परा मका ान हो चुका था; इस लये वह मन-ही-मन अ भयभीत और दु:खी हो गया तथा हाथ जोड़कर रावणसे यथाथ वचन बोला। उसक वह



बात रावणके तथा अपने लये भी हतकर थी॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३६॥



सतीसवाँ सग मारीचका रावणको ीरामच जीके गुण और भाव बताकर सीताहरणके उ ोगसे रोकना



रा सराज रावणक पूव बात सुनकर बातचीत करनेम कु शल महातेज ी मारीचने उसे इस कार उ र दया—॥ १ ॥ ‘राजन्! सदा य वचन बोलनेवाले पु ष तो सव सुलभ होते ह; परंतु जो अ य होनेपर भी हतकर हो, ऐसी बातके कहने और सुननेवाले दोन ही दुलभ ह॥ २ ॥ ‘तुम को◌इ गु चर तो रखते नह और तु ारा दय भी ब त ही च ल है; अत: न य ही तुम ीरामच जीको बलकु ल नह जानते। वे परा मो चत गुण म ब त बढ़े-चढ़े तथा इ और व णके समान ह॥ ३ ॥ ‘तात! म तो यही चाहता ँ क सम रा स का क ाण हो। कह ऐसा न हो क ीरामच जी अ कु पत हो सम लोक को रा स से शू कर द?॥ ४ ॥ ‘जनकन नी सीता तु ारे जीवनका अ करनेके लये तो नह उ ◌इ है? कह ऐसा न हो क सीताके कारण तु ारे ऊपर को◌इ ब त बड़ा स ट आ जाय?॥ ५ ॥ ‘तुम-जैसे े ाचारी और उ ृ ल राजाको पाकर ल ापुरी तु ारे और रा स के साथ ही न न हो जाय?॥ ६ ॥ ‘जो राजा तु ारे समान दुराचारी, े ाचारी, पापपूण वचार रखनेवाला और खोटी बु वाला होता है, वह अपना, अपने जन का तथा समूचे रा का भी वनाश कर डालता है॥ ७॥ ‘ ीरामच जी न तो पता ारा ागे या नकाले गये ह, न उ ने धमक मयादाका कसी तरह ाग कया है, न वे लोभी, न दू षत आचार- वचारवाले और न यकु ल-कल ही ह॥ ८ ॥ ‘कौस ाका आन बढ़ानेवाले ीराम धमस ी गुण से हीन नह ए ह। उनका भाव भी कसी ाणीके त तीखा नह है। वे सदा सम ा णय के हतम ही त र रहते ह॥ ९ ॥



‘रानी



कै के यीने पताको धोखेम डालकर मेरे वनवासका वर माँग लया—यह देखकर धमा ा ीरामने मन-ही-मन यह न य कया क म पताको स वादी बनाऊँ गा (उनके दये ए वर या वचनको पूरा क ँ गा); इस न यके अनुसार वे यं ही वनको चल दये॥ १० ॥ ‘माता कै के यी और पता राजा दशरथका य करनेक इ ासे ही वे यं रा और भोग का प र ाग करके द कवनम व ए ह॥ ११ ॥ ‘तात! ीराम ू र नह ह। वे मूख और अ जते य भी नह ह। ीरामम म ाभाषणका दोष मने कभी नह सुना है; अत: उनके वषयम तु ऐसी उलटी बात कभी नह कहनी चा हये॥ १२ ॥ ‘ ीराम धमके मू तमान् प ह। वे साधु और स परा मी ह। जैसे इ सम देवता के अ धप त ह, उसी कार ीराम भी स ूण जग े राजा ह॥ १३ ॥ ‘उनक प ी वदेहराजकु मारी सीता अपने ही पा त के तेजसे सुर त ह। जैसे सूयक भा उससे अलग नह क जा सकती, उसी तरह सीताको ीरामसे अलग करना अस व है। ऐसी दशाम तुम बलपूवक उनका अपहरण कै से करना चाहते हो?॥ १४ ॥ ‘ ीराम लत अ के समान ह। बाण ही उस अ क ाला है। धनुष और खड् ग ही उसके लये ◌इं धनका काम करते ह। तु यु के लये सहसा उस अ म वेश नह करना चा हये॥ १५ ॥ ‘तात! धनुष ही जसका फै ला आ दी मान् मुख है और बाण ही भा है, जो अमषम भरा आ है, धनुष और बाण धारण कये खड़ा है, रोषवश तीखे भावका प रचय देता है और श ुसेनाके ाण लेनेम समथ है, उस राम पी यमराजके पास तु यहाँ अपने रा सुख और ारे ाण का मोह छोड़कर सहसा नह जाना चा हये॥ १६-१७ ॥ ‘जनक कशोरी सीता जनक धमप ी ह, उनका तेज अ मेय है। ीरामच जीका धनुष उनका आ य है, अत: तुमम इतनी श नह है क वनम उनका अपहरण कर सको॥ १८ ॥ ‘ ीरामच जी मनु म सहके समान परा मी ह। उनका व : ल सहके समान उ त है। भा मनी सीता उनक ाण से भी अ धक यतमा प ी ह। वे सदा अपने प तका ही अनुसरण करती ह॥ १९ ॥ ‘ म थलेशकु मारी सीता ओज ी ीरामक ारी प ी ह। वे लत अ क ालाके समान अस



ह, अत: उन सु री सीतापर बलात् नह कया जा सकता॥ २० ॥ ‘रा सराज! यह थका उ ोग करनेसे तु ा लाभ होगा? जस दन यु म तु ारे ऊपर ीरामक पड़ जाय, उसी दन तुम अपने जीवनका अ समझना॥ २१ ॥ ‘य द तुम अपने जीवनका, सुखका और परम दुलभ रा का चरकालतक उपभोग करना चाहते हो तो ीरामका अपराध न करो॥ २२ ॥ ‘तुम वभीषण आ द सभी धमा ा म य के साथ सलाह करके अपने कत का न य करो। अपने और ीरामके दोष तथा गुण के बलाबलपर भलीभाँ त वचार करके अपनी और ीरामच जीक श को ठीक-ठीक समझ लो। फर ा करनेसे तु ारा हत होगा, इसका न य करके जो उ चत जान पड़े, वही काय तु करना चा हये॥ २३-२४ ॥ ‘ नशाचरराज! म तो समझता ँ क कोसल-राजकु मार ीरामच जीके साथ तु ारा यु करना उ चत नह है। अब पुन: मेरी एक बात और सुनो, यह तु ारे लये ब त ही उ म, उ चत और उपयु स होगी’॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म सतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३७॥



अड़तीसवाँ सग ीरामक श ‘एक



के वषयम अपना अनुभव बताकर मारीचका रावणको उनका अपराध करनेसे मना करना



समयक बात है क म अपने परा मके अ भमानम आकर पवतके समान शरीर धारण कये इस पृ ीपर च र लगा रहा था। उस समय मुझम एक हजार हा थय का बल था॥ १ ॥ ‘मेरा शरीर नील मेघके समान काला था। मने कान म प े सोनेके कु ल पहन रखे थे। मेरे म कपर करीट था और हाथम प रघ। म ऋ षय के मांस खाता और सम जग े मनम भय उ करता आ द कार म वचर रहा था॥ २ १/२ ॥ ‘उन दन धमा ा महामु न व ा म को मुझसे बड़ा भय हो गया था। वे यं राजा दशरथके पास गये और उनसे इस कार बोले—॥ ३ १/२ ॥ ‘नरे र! मुझे मारीच नामक रा ससे घोर भय ा आ है, अत: ये ीराम मेरे साथ चल और पवके दन एका च हो मेरी र ा कर’॥ ४ १/२ ॥ ‘मु नके ऐसा कहनेपर उस समय धमा ा राजा दशरथने महाभाग महामु न व ा म को इस कार उ र दया— ‘मु न े ! रघुकुलन न रामक अव ा अभी बारह* वषसे भी कम है। इ अ -श के चलानेका पूरा अ ास भी नह है। आप चाह तो मेरे साथ मेरी सारी सेना वहाँ चलेगी और म चतुर णी सेनाके साथ यं ही चलकर आपक इ ाके अनुसार उस श ु प नशाचरका वध क ँ गा’॥ ६-७ १/२ ॥ ‘राजाके ऐसा कहनेपर मु न उनसे इस कार बोले—‘उस रा सके लये ीरामके सवा दूसरी को◌इ श पया नह है॥ ८ १/२ ॥ ‘राजन्! इसम संदेह नह क आप समरभू मम देवता क भी र ा करनेम समथ ह। आपने जो महान् काय कया है, वह तीन लोक म स है॥ ९ १/२ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले नरेश! आपके पास जो वशाल सेना है, वह आपक इ ा हो तो यह रहे (आप भी यह रह)। महातेज ी ीराम बालक ह तो भी उस रा सका दमन करनेम समथ ह, अत: म ीरामको ही साथ लेकर जाऊँ गा; आपका क ाण हो’॥ १०-११ ॥



‘ऐसा



कहकर (ल णस हत) राजकु मार ीरामको साथ ले महामु न व ा म बड़ी स ताके साथ अपने आ मको गये॥ १२ ॥ ‘इस कार द कार म जाकर उ ने य के लये दी ा हण क और ीराम अपने अ तु धनुषक ट ार करते ए उनक र ाके लये पास ही खड़े हो गये॥ ‘उस समयतक ीरामम जवानीके च कट नह ए थे। (उनक कशोराव ा थी।) वे एक शोभाशाली बालकके पम दखायी देते थे। उनके ीअ का रंग साँवला और आँ ख बड़ी सु र थ । वे एक व धारण कये, हाथ म धनुष लये सु र शखा और सोनेके हारसे सुशो भत थे॥ १४ ॥ ‘उस समय अपने उ ी तेजसे द कार क शोभा बढ़ाते ए ीरामच नवो दत बालच के समान ष्टगोचर होते थे॥ १५ ॥ ‘इधर म भी मेघके समान काले शरीरसे बड़े घमंडके साथ उस आ मके भीतर घुसा। मेरे कान म तपाये ए सुवणके कु ल झलमला रहे थे। म बलवान् तो था ही, मुझे वरदान भी मल चुका था क देवता मुझे मार नह सकगे॥ १६ ॥ ‘भीतर वेश करते ही ीरामच जीक ष्ट मुझपर पड़ी। मुझे देखते ही उ ने सहसा धनुष उठा लया और बना कसी घबराहटके उसपर डोरी चढ़ा दी॥ ‘म मोहवश ीरामच जीको ‘यह बालक है’ ऐसा समझकर उनक अवहेलना करता आ बड़ी तेजीके साथ व ा म क उस य वेदीक ओर दौड़ा॥ १८ ॥ ‘इतनेहीम ीरामने एक ऐसा तीखा बाण छोड़ा, जो श ुका संहार करनेवाला था; परंतु उस बाणक चोट खाकर (म मरा नह ) सौ योजन दूर समु म आकर गर पड़ा॥ ‘तात! वीर ीरामच जी उस समय मुझे मारना नह चाहते थे, इसी लये मेरी जान बच गयी। उनके बाणके वेगसे म ा च होकर दूर फ क दया गया और समु के गहरे जलम गरा दया गया। तात! फर दीघकालके प ात् जब मुझे चेत आ, तब म लंकापुरीम गया॥ २०-२१ ॥ ‘इस कार उस समय म मरनेसे बचा। अनायास ही महान् कम करनेवाले ीराम उन दन अभी बालक थे और उ अ चलानेका पूरा अ ास भी नह था तो भी उ ने मेरे उन सभी सहायक को मार गराया, जो मेरे साथ गये थे॥ २२ ॥



‘इस लये



मेरे मना करनेपर भी य द तुम ीरामके साथ वरोध करोगे तो शी ही घोर आप म पड़ जाओगे और अ म अपने जीवनसे भी हाथ धो बैठोगे॥ ‘खेल-कू द और भोग- वलासके मको जाननेवाले तथा सामा जक उ व को ही देखदेखकर दल बहलानेवाले रा स के लये तुम संताप और अनथ (मौत) बुला लाओगे॥ २४ ॥ ‘ म थलेशकु मारी सीताके लये तु ध नय क अ ा लका तथा राजभवन से भरी ◌इ एवं नाना कारके र से वभू षत लंकापुरीका वनाश भी अपनी आँ ख देखना पड़ेगा॥ २५ ॥ ‘जो लोग आचार- वचारसे शु ह और पाप या अपराध नह करते ह, वे भी य द पा पय के स कम चले जायँ तो दूसर के पाप से ही न हो जाते ह, जैसे साँपवाले सरोवरम नवास करनेवाली मछ लयाँ उस सपके साथ ही मारी जाती ह॥ २६ ॥ ‘तुम देखोगे क जनके अ द च नसे च चत होते थे तथा जो द आभूषण से वभू षत रहते थे, वे ही रा स तु ारे ही अपराधसे मारे जाकर पृ ीपर पड़े ए ह॥ २७ ॥ ‘तु यह भी दखायी देगा क कतने ही नशाचर क याँ हर ली गयी ह और कु छक याँ साथ ह तथा वे यु म मरनेसे बचकर असहाय अव ाम दस दशा क ओर भाग रहे ह॥ २८ ॥ ‘ न:संदेह तु ारे सामने वह भी आयेगा क लंकापुरीपर बाण का जाल-सा बछ गया है। वह आगक ाला से घर गयी है और उसका एक-एक घर जलकर भ हो गया है॥ २९ ॥ ‘राजन्! परायी ीके संसगसे बढ़कर दूसरा को◌इ महान् पाप नह है। तु ारे अ :पुरम हजार युवती याँ ह, उन अपनी ही य म अनुराग रखो। अपने कु लक र ा करो, रा स के ाण बचाओ तथा अपनी मान, त ा, उ त, रा और ारे जीवनको न न होने दो॥ ३०-३१ ॥ ‘य द तुम अपनी सु री य तथा म का सुख अ धक कालतक भोगना चाहते हो तो ीरामका अपराध न करो॥ ३२ ॥ ‘म तु ारा हतैषी सु द ् ँ । य द मेरे बारंबार मना करनेपर भी तुम हठपूवक सीताका अपहरण करोगे तो तु ारी सारी सेना न हो जायगी और तुम ीरामके बाण से अपने ाण गँवाकर ब ु-बा व के साथ यमलोकक या ा करोगे’॥ ३३ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म अड़तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३८॥ य प बालका के २०व सगके दूसरे ोकम राजा दशरथने ीरामक अव ा सोलह वषसे कम (पं ह वषक ) बतायी थी, तथा प यहाँ मारीचने रावणके मनम भय उ करनेके लये चार वष कम अव ा बतायी है। जो छोटी अव ाम इतने महान् परा मी थे, वे अब बड़े होनेपर न जाने कै से ह गे? यह ल कराना ही यहाँ मारीचको अभी है। *



उनतालीसवाँ सग मारीचका रावणको समझाना ‘इस



कार इस समय तो म कसी तरह ीरामच जीके हाथसे जी वत बच गया। उसके बाद इन दन जो घटना घ टत ◌इ है, उसे भी सुन लो॥ १ ॥ ‘ ीरामने मेरी वैसी दुदशा कर दी थी, तो भी म उनके वरोधसे बाज नह आया। एक दन मृग पधारी दो रा स के साथ म भी मृगका ही प धारण करके द कवनम गया॥ २ ॥ ‘म महान् बलशाली तो था ही, मेरी जीभ आगके समान उ ी हो रही थी। दाढ़ भी ब त बड़ी थ , स ग तीखे थे और म महान् मृगके पम मांस खाता आ द कार म वचरने लगा॥ ३॥ ‘रावण! म अ भयंकर प धारण कये अ शाला म, जलाशय के घाट पर तथा देववृ के नीचे बैठे ए तप ीजन को तर ृ त करता आ सब ओर वचरण करने लगा॥ ४ ॥ ‘द



कार के भीतर धमानु ानम लगे ए तापस को मारकर उनका र पीना और मांस खाना यही मेरा काम था॥ ५ ॥ ‘मेरा भाव तो ू र था ही, म ऋ षय के मांस खाता और वनम वचरनेवाले ा णय को डराता आ र पान करके मतवाला हो द कवनम घूमने लगा॥ ६ ॥ ‘इस कार उस समय द कार म वचरता आ धमको कल त करनेवाला म मारीच तापस धमका आ य लेनेवाले ीराम, वदेहन नी महाभागा सीता तथा मताहारी तप ीके पम सम ा णय के हतम त र रहनेवाले महारथी ल णके पास जा प ँ चा॥ ७-८ ॥ ‘वनम आये ए महाबली ीरामको ‘यह एक तप ी है’ ऐसा जानकर उनक अवहेलना करके म आगे बढ़ा और पहलेके वैरका बारंबार रण करके अ कु पत हो उनक ओर दौड़ा। उस समय मेरी आकृ त मृगके ही समान थी। मेरे स ग बड़े तीखे थे। उनके पहलेके हारको याद करके म उ मार डालना चाहता था। मेरी बु शु न होनेके कारण म उनक श और भावको भूल-सा गया था॥ ९-१० ॥



‘हम तीन को आते देख



ीरामने अपने वशाल धनुषको ख चकर तीन पैने बाण छोड़े, जो ग ड़ और वायुके समान शी गामी तथा श ुके ाण लेनेवाले थे॥ ११ ॥ ‘ क ु ◌इ गाँठवाले वे सब तीन बाण, जो व के समान दु:सह, अ भयंकर तथा र पीनेवाले थे, एक साथ ही हमारी ओर आये॥ १२ ॥ ‘म तो ीरामके परा मको जानता था और पहले एक बार उनके भयका सामना कर चुका था, इस लये शठतापूवक उछलकर भाग नकला। भाग जानेसे म तो बच गया; कतु मेरे वे दोन साथी रा स मारे गये॥ ‘इस बार ीरामके बाणसे कसी तरह छु टकारा पाकर मुझे नया जीवन मला और तभीसे सं ास लेकर सम दु म का प र ाग करके र च हो योगा ासम त र रहकर तप ाम लग गया॥ १४ ॥ ‘अब मुझे एक-एक वृ म चीर, काला मृगचम और धनुष धारण कये ीराम ही दखायी देते ह, जो मुझे पाशधारी यमराजके समान तीत होते ह॥ १५ ॥ ‘रावण! म भयभीत होकर हजार राम को अपने सामने खड़ा देखता ँ । यह सारा वन ही मुझे राममय तीत हो रहा है॥ १६ ॥ ‘रा सराज! जब म एका म बैठता ँ , तब मुझे ीरामके ही दशन होते ह। सपनेम ीरामको देखकर म उद् ा और अचेत-सा हो उठता ँ ॥ १७ ॥ ‘रावण! म रामसे इतना भयभीत हो गया ँ क र और रथ आ द जतने भी रकारा द नाम ह, वे मेरे कान म पड़ते ही मनम भारी भय उ कर देते ह॥ ‘म उनके भावको अ ी तरह जानता ँ । इसी लये कहता ँ क ीरामके साथ तु ारा यु करना कदा प उ चत नह है। रघुकुलन न ीराम राजा ब ल अथवा नमु चका भी वध कर सकते ह॥ १९ ॥ ‘रावण! तु ारी इ ा हो तो रणभू मम ीरामके साथ यु करो अथवा उ मा कर दो, कतु य द मुझे जी वत देखना चाहते हो तो मेरे सामने ीरामक चचा न करो॥ २० ॥ ‘लोकम ब त-से साधुपु ष, जो योगयु होकर के वल धमके ही अनु ानम लगे रहते थे, दूसर के अपराधसे ही प रकर स हत न हो गये॥ २१ ॥



‘ नशाचर! म भी कसी तरह दूसर के अपराधसे न हो सकता ँ , जान पड़े, वह करो। म इस कायम तु ारा साथ नह दे सकता॥ २२ ॥



अत: तु जो उ चत



क ीरामच जी बड़े तेज ी, महान् आ बलसे स तथा अ धक बलशाली ह। वे सम रा स-जग ा भी संहार कर सकते ह॥ २३ ॥ ‘य द शूपणखाका बदला लेनेके लये जन ान नवासी खर पहले ीरामपर चढ़ा◌इ करनेके लये गया और अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामके हाथसे मारा गया तो तु ठीक-ठीक बताओ, इसम ीरामका ा अपराध है?॥ २४ ॥ ‘तुम मेरे ब ु हो। म तु ारा हत करनेक इ ासे ही ये बात कह रहा ँ । य द नह मानोगे तो यु म आज रामके सीधे जानेवाले बाण ारा घायल होकर तु ब ु-बा व स हत ाण का प र ाग करना पड़ेगा’॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म उनतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ३९॥ ‘



चालीसवाँ सग रावणका मारीचको फटकारना और सीताहरणके कायम सहायता करनेक आ ा देना



मारीचका वह कथन उ चत और माननेयो था तो भी जैसे मरनेक इ ावाला रोगी दवा नह लेता, उसी कार उसके ब त कहनेपर भी रावणने उसक बात नह मानी॥ १ ॥ कालसे े रत ए उस रा सराजने यथाथ और हतक बात बतानेवाले मारीचसे अनु चत और कठोर वाणीम कहा—॥ २ ॥ ‘दू षत कु लम उ मारीच! तुमने मेरे त जो ये अनाप-शनाप बात कही ह, ये मेरे लये अनु चत और असंगत ह, ऊसरम बोये ए बीजके समान अ न ल ह॥ ३ ॥ ‘तु ारे इन वचन ारा मूख, पापाचारी और वशेषत: मनु रामके साथ यु करने अथवा उसक ीका अपहरण करनेके न यसे मुझे वच लत नह कया जा सकता॥ ४ ॥ ‘एक ी (कै के यी) के मूखतापूण वचन सुनकर जो रा , म , माता और पताको छोड़कर सहसा जंगलम चला आया है तथा जसने यु म खरका वध कया है, उस रामच क ाण से भी ारी भाया सीताका म तु ारे नकट ही अव हरण क ँ गा॥ ‘मारीच! ऐसा मेरे दयका न त वचार है, इसे इ आ द देवता और सारे असुर मलकर भी बदल नह सकते॥ ७ ॥ ‘य द इस कायका नणय करनेके लये तुमसे पूछा जाता ‘इसम ा दोष है, ा गुण है, इसक स म कौन-सा व है अथवा इस कायको स करनेका कौन-सा उपाय है’ तो तु ऐसी बात कहनी चा हये थ ॥ ८ ॥ ‘जो अपना क ाण चाहता हो, उस बु मान् म ीको उ चत है क वह राजासे उसके पूछनेपर ही अपना अ भ ाय कट करे और वह भी हाथ जोड़कर न ताके साथ॥ ९ ॥ ‘राजाके सामने ऐसी बात कहनी चा हये, जो सवथा अनुकूल, मधुर, उ म, हतकर, आदरसे यु और उ चत हो॥ १० ॥ ‘राजा स ानका भूखा होता है। उसक बातका ख न करके आ ेपपूण भाषाम य द हतकर वचन भी कहा जाय तो उस अपमानपूण वचनका वह कभी अ भन न नह कर सकता॥ ११ ॥



‘ नशाचर! अ मत तेज



ी महामन ी राजा अ , इ , सोम, यम और व ण—इन पाँच देवता के प धारण कये रहते ह, इसी लये वे अपनेम इन पाँच के गुण- ताप, परा म, सौ भाव, द और स ता भी धारण करते ह॥ १२-१३ ॥ ‘अत: सभी अव ा म सदा राजा का स ान और पूजन ही करना चा हये। तुम तो अपने धमको न जानकर के वल मोहके वशीभूत हो रहे हो। म तु ारा अ ागत-अ त थ ँ तो भी तुम दु तावश मुझसे ऐसी कठोर बात कह रहे हो। रा स! म तुमसे अपने कत के गुण-दोष नह पूछता ँ और न यही जानना चाहता ँ क मेरे लये ा उ चत है॥ १४-१५ ॥ ‘अ मतपरा मी मारीच! मने तो तुमसे इतना ही कहा था क इस कायम तु मेरी सहायता करनी चा हये॥ १६ ॥ ‘अ ा, अब तु सहायताके लये मेरे कथनानुसार जो काय करना है, उसे सुनो। तुम सुवणमय चमसे यु चतकबरे रंगके मृग हो जाओ। तु ारे सारे अ म चाँदीक -सी सफे द बूँद रहनी चा हये। ऐसा प धारण करके तुम रामके आ मम सीताके सामने वचरो। एक बार वदेहकु मारीको लुभाकर जहाँ तु ारी इ ा हो उधर ही चले जाओ॥ १७-१८ ॥ ‘तुम मायामय का न मृगको देखकर म थलेशकु मारी सीताको बड़ा आ य होगा और वह शी ही रामसे कहेगी क आप इसे पकड़ लाइये॥ १९ ॥ ‘जब राम तु पकड़नेके लये आ मसे दूर चले जायँ तो तुम भी दूरतक जाकर ीरामक बोलीके अनु प ही—ठीक उ के रम ‘हा सीते! हा ल ण!’ कहकर पुकारना॥ २० ॥ ‘तु ारी उस पुकारको सुनकर सीताक ेरणासे सु म ाकु मार ल ण भी ेहवश घबराये ए अपने भा◌इके ही मागका अनुसरण करगे॥ २१ ॥ ‘इस कार राम और ल ण दोन के आ मसे दूर नकल जानेपर म सुखपूवक सीताको हर लाँऊगा, ठीक उसी तरह जैसे इ शचीको हर लाये थे॥ २२ ॥ ‘उ म तका पालन करनेवाले रा स मारीच! इस कार इस कायको स करके जहाँ तु ारी इ ा हो, वहाँ चले जाना। म इसके लये तु अपना आधा रा दे दूँगा॥ २३ ॥ ‘सौ ! अब इस कायक स के लये ान करो। तु ारा माग म लमय हो। म रथपर बैठकर द कवनतक तु ारे पीछे-पीछे चलूँगा॥ २४ ॥



‘रामको



धोखा देकर बना यु कये ही सीताको अपने हाथम करके कृ ताथ हो तु ारे साथ ही लंकाको लौट चलूँगा॥ २५ ॥ ‘मारीच! य द तुम इनकार करोगे तो तु अभी मार डालूँगा। मेरा यह काय तु अव करना पड़ेगा। म बल योग करके भी तुमसे यह काम कराऊँ गा। राजाके तकू ल चलनेवाला पु ष कभी सुखी नह होता है॥ २६ ॥ ‘रामके सामने जानेपर तु ारे ाण जानेका संदेहमा है, परंतु मेरे साथ वरोध करनेपर तो आज ही तु ारी मृ ु न त है। इन बात पर बु लगाकर भलीभाँ त वचार कर लो। उसके बाद यहाँ जो हतकर जान पड़े, उसे उसी कार तुम करो’॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म चालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४०॥



इकतालीसवाँ सग मारीचका रावणको वनाशका भय दखाकर पुन: समझाना



रावणने जब राजाक भाँ त उसे ऐसी तकू ल आ ा दी, तब मारीचने न:श होकर उस रा सराजसे कठोर वाणीम कहा—॥ १ ॥ ‘ नशाचर! कस पापीने तु पु , रा और म य स हत तु ारे वनाशका यह माग बताया है?॥ ‘राजन्! कौन ऐसा पापाचारी है, जो तु सुखी देखकर स नह हो रहा है? कसने यु से तु मौतके ारपर जानेक यह सलाह दी है?॥ ३ ॥ ‘ नशाचर! आज यह बात पसे ात हो गयी क तु ारे दुबल श ु तु कसी बलवा े भड़ाकर न होते देखना चाहते ह॥ ४ ॥ ‘रा सराज! तु ारे अ हतका वचार रखनेवाले कस नीचने तु यह पाप करनेका उपदेश दया है? जान पड़ता है क वह तु अपने ही कु कमसे न होते देखना चाहता है॥ ५ ॥ ‘रावण! न य ही वधके यो तु ारे वे म ी ह, जो कु मागपर आ ढ़ ए तुम-जैसे राजाको सब कारसे रोक नह रहे ह; कतु तुम उनका वध नह करते हो॥ ‘अ े म य को चा हये क जो राजा े ाचारी होकर कु मागपर चलने लगे, उसे सब कारसे वे रोक। तुम भी रोकनेके ही यो हो; फर भी वे म ी तु रोक नह रहे ह॥ ७ ॥ ‘ वजयी वीर म े नशाचर! म ी अपने ामी राजाक कृ पासे ही धम, अथ, काम और यश पाते ह॥ ८ ॥ ‘रावण! य द ामीक कृ पा न हो तो सब थ हो जाता है। राजाके दोषसे दूसरे लोग को भी क भोगना पड़ता है॥ ९ ॥ ‘ वजयशील म े रा सराज! धम और यशक ा का मूल कारण राजा ही है; अत: सभी अव ा म राजाक र ा करनी चा हये॥ १० ॥ ‘रा म वचरनेवाले रा स! जसका भाव अ तीखा हो, जो जनताके अ तकू ल चलनेवाला और उ हो, ऐसे राजासे रा क र ा नह हो सकती॥ ११ ॥



‘जो



म ी तीखे उपायका उपदेश करते ह, वे अपनी सलाह माननेवाले उस राजाके साथ ही दु:ख भोगते ह, जैसे जनके सार थ मूख ह , ऐसे रथ नीची-ऊँ ची भू मम जानेपर सार थय के साथ ही संकटम पड़ जाते ह॥ १२ ॥ ‘उपयु धमका अनु ान करनेवाले ब त-से साधु-पु ष इस जग दूसर के अपराधसे प रवारस हत न हो गये ह॥ १३ ॥ ‘रावण! तकू ल बताव और तीखे भाववाले राजासे र त होनेवाली जा उसी तरह वृ को नह ा होती है, जैसे गीदड़ या भे ड़येसे पा लत होनेवाली भेड़॥ १४ ॥ ‘रावण! जनके तुम ू र, दुबु और अ जते य राजा हो, वे सब रा स अव ही न हो जायँगे॥ १५ ॥ ‘काकतालीय ायके अनुसार मुझे तुमसे अक ात् ही यह घोर दु:ख ा हो गया। इस वषयम मुझे तुम ही शोकके यो जान पड़ते हो; क सेनास हत तु ारा नाश हो जायगा॥ १६ ॥ ‘ ीरामच जी मुझे मारकर तु ारा भी शी ही वध कर डालगे। जब दोन ही तरहसे मेरी मृ ु न त है, तब ीरामके हाथसे होनेवाली जो यह मृ ु है, इसे पाकर म कृ तकृ हो जाऊँ गा; क श ुके ारा यु म मारा जाकर ाण ाग क ँ गा (तुम-जैसे राजाके हाथसे बलपूवक ाणद पानेका क नह भोगूँगा)॥ १७ ॥ ‘राजन्! यह न त समझो क ीरामके सामने जाकर उनक ष्ट पड़ते ही म मारा जाऊँ गा और य द तुमने सीताका हरण कया तो तुम अपनेको भी ब -ु बा व स हत मरा आ ही मानो॥ १८ ॥ ‘य द तुम मेरे साथ जाकर ीरामके आ मसे सीताका अपहरण करोगे, तब न तो तुम जी वत बचोगे और न म ही। न लंकापुरी रहने पायेगी और न वहाँके नवासी रा स ही॥ १९ ॥ ‘ नशाचर! म तु ारा हतैषी ँ , इसी लये तु पापकमसे रोक रहा ँ ; कतु तु मेरी बात सहन नह होती है। सच है जनक आयु समा हो जाती है, वे मरणास पु ष अपने सु द क कही ◌इ हतकर बात नह ीकार करते ह’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म इकतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४१॥



बयालीसवाँ सग मारीचका सुवणमय मृग प धारण करके ीरामके आ मपर जाना और सीताका उसे देखना



रावणसे इस कार कठोर बात कहकर उस नशाचर-राजके भयसे दु:खी ए मारीचने कहा —‘चलो चल॥ १ ॥ ‘मेरे वधके लये जनका ह थयार सदा उठा ही रहता है, उन धनुष-बाण और तलवार धारण करनेवाले ीरामच जीने य द फर मुझे देख लया तो मेरे जीवनका अ न त है॥ २ ॥



ीरामच जीके साथ परा म दखाकर को◌इ जी वत नह लौटता है। तुम यमद से मारे गये हो (इसी लये उनसे भड़नेक बात सोचते हो)। वे ीरामच जी तु ारे लये यमद के ही समान ह॥ ३ ॥ ‘परंतु जब तुम इस कार दु तापर उता हो गये, तब म ा कर सकता ँ । लो, यह म चलता ँ । तात नशाचर! तु ारा क ाण हो’॥ ४ ॥ मारीचके उस वचनसे रा स रावणको बड़ी स ता ◌इ। उसने उसे कसकर दयसे लगा लया और इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘यह तुमने वीरताक बात कही है; क अब तुम मेरी इ ाके वशवत हो गये हो। इस समय तुम वा वम मारीच हो। पहले तुमम कसी दूसरे रा सका आवेश हो गया था॥ ६ ॥ ‘यह र से वभू षत मेरा आकाशगामी रथ तैयार है, इसम पशाच के -से मुखवाले गधे जुते ए ह, इसपर मेरे साथ ज ीसे बैठ जाओ॥ ७ ॥ ‘(तु ारे ज े एक ही काम है) वदेहकु मारी सीताके मनम अपने लये लोभ उ कर दो। उसे लुभाकर तुम जहाँ चाहो जा सकते हो। आ म सूना हो जानेपर म म थलेशकु मारी सीताको जबरद ी उठा लाऊँ गा’॥ ८ ॥ तब ताटकाकु मार मारीचने रावणसे कहा—‘तथा ु’ ऐसा ही हो। तदन र रावण और मारीच दोन उस वमानाकार रथपर बैठकर शी ही उस आ मम लसे चल दये॥ ९ १/२ ॥ ‘



मागम पहलेक ही भाँ त अनेकानेक प न , वन , पवत , सम न दय , रा तथा नगर को देखते ए दोन ने द कार म वेश कया और वहाँ मारीचस हत रा सराज रावणने ीरामच जीका आ म देखा॥ १०-११ १/२ ॥ तब उस सुवणभू षत रथसे उतरकर रावणने मारीचका हाथ अपने हाथम ले उससे कहा —॥ १२ १/२ ॥ ‘सखे! यह के ल से घरा आ रामका आ म दखायी दे रहा है। अब शी ही वह काय करो, जसके लये हमलोग यहाँ आये ह’॥ १३ १/२ ॥ रावणक बात सुनकर रा स मारीच उस समय मृगका प धारण करके ीरामके आ मके ारपर वचरने लगा॥ १४ ॥ उस समय उसने देखनेम बड़ा ही अ तु प धारण कर रखा था। उसके स ग के ऊपरी भाग इ नील नामक े म णके बने ए जान पड़ते थे, मुखम लपर सफे द और काले रंगक बूँद थ , मुखका रंग लाल कमलके समान था। उसके कान नीलकमलके तु थे और गरदन कु छ ऊँ ची थी, उदरका भाग इ नीलम णक का धारण कर रहा था। पा भाग म एके फू लके समान ेतवणके थे, शरीरका सुनहरा रंग कमलके के सरक भाँ त सुशो भत होता था॥ १५—१७ ॥ उसके खुर वैदयू म णके समान, पड लयाँ पतली और पूँछ ऊपरसे इ धनुषके रंगक थी, जससे उसका संग ठत शरीर वशेष शोभा पा रहा था॥ १८ ॥ उसक देहक का बड़ी ही मनोहर और चकनी थी। वह नाना कारक र मयी बुँद कय से वभू षत दखायी देता था। रा स मारीच णभरम ही परम शोभाशाली मृग बन गया॥ १९ ॥ सीताको लुभानेके लये व वध धातु से च त मनोहर एवं दशनीय प बनाकर वह नशाचर उस रमणीय वन तथा ीरामके उस आ मको का शत करता आ सब ओर उ म घास को चरने और वचरने लगा॥ २०-२१ ॥ सैकड़ रजतमय व ु से यु व च प धारण करके वह मृग बड़ा ारा दखायी देता था। वह वृ के कोमल प व को खाता आ इधर-उधर वचरने लगा॥ २२ ॥



के लेके बगीचेम जाकर वह कनेर के कु म जा प ँ चा। फर जहाँ सीताक ष्ट पड़ सके , ऐसे ानम जाकर म ग तका आ य ले इधर-उधर घूमने लगा॥ २३ ॥ उसका पृ भाग कमलके के सरक भाँ त सुनहरे रंगका होनेके कारण व च दखायी देता था, इससे उस महान् मृगक बड़ी शोभा हो रही थी। ीरामच जीके आ मके नकट ही वह अपनी मौजसे घूम रहा था॥ २४ ॥ वह े मृग कु छ दूर जाकर फर लौट आता था और वह घूमने लगता था। दो घड़ीके लये कह चला जाता और फर बड़ी उतावलीके साथ लौट आता था॥ २५ ॥ वह कह खेलता, कू दता और पुन: भू मपर ही बैठ जाता था, फर आ मके ारपर आकर मृग के ंडु के पीछे-पीछे चल देता॥ २६ ॥ त ात् ंडु -के - ंडु मृग को साथ लये फर लौट आता था। उस मृग पधारी रा सके मनम के वल यह अ भलाषा थी क कसी तरह सीताक ष्ट मुझपर पड़ जाय॥ २७ ॥ सीताके समीप आते समय वह व च म ल (पतरे) दखाता आ चार ओर च र लगाता था। उस वनम वचरनेवाले जो दूसरे मृग थे, वे सब उसे देखकर पास आते और उसे सूँघकर दस दशा म भाग जाते थे॥ २८ १/२ ॥ रा स मारीच य प मृग के वधम ही त र रहता था तथा प उस समय अपने भावको छपानेके लये उन व मृग का श करके भी उ खाता नह था॥ २९ १/२ ॥ उसी समय मदभरे सु र ने वाली वदेहन नी सीता, जो फू ल चुननेम लगी ◌इ थ , कनेर, अशोक और आमके वृ को लाँघती ◌इ उधर आ नकल ॥ फू ल को चुनती ◌इ वे वह वचरने लग । उनका मुख बड़ा ही सु र था। वे वनवासका क भोगनेके यो नह थ । परम सु री सीताने उस र मय मृगको देखा, जसका अ मु ाम णय से च त-सा जान पड़ता था॥ ३२ १/२ ॥ उसके दाँत और ओठ बड़े सु र थे तथा शरीरके रोएँ चाँदी एवं ताँबे आ द धातु के बने ए जान पड़ते थे। उसके ऊपर ष्ट पड़ते ही सीताजीक आँ ख आ यसे खल उठ और वे बड़े ेहसे उसक ओर नहारने लग ॥ ३३ १/२ ॥ वह मायामय मृग भी ीरामक ाणव भा सीताको देखता और उस वनको का शतसा करता आ वह वचरने लगा॥ ३४ १/२ ॥



सीताने वैसा मृग पहले कभी नह देखा था। वह नाना कारके र का ही बना जान पड़ता था। उसे देखकर जनक कशोरी सीताको बड़ा व य आ॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म बयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४२॥



ततालीसवाँ सग कपटमृगको देखकर ल णका संदेह, सीताका उस मृगको जी वत या मृत अव ाम भी ले आनेके लये ीरामको े रत करना तथा ीरामका ल णको समझा-बुझाकर सीताक र ाका भार स पकर उस मृगको मारनेके लये जाना



वह मृग सोने और चाँदीके समान का वाले पा -भाग से सुशो भत था। शु सुवणके समान का तथा नद ष अ वाली सु री सीता फू ल चुनते-चुनते ही उस मृगको देखकर मनही-मन ब त स ◌इं और अपने प त ीराम तथा देवर ल णको ह थयार लेकर आनेके लये पुकारने लग ॥ १-२ ॥ वे बार-बार उ पुकारत और फर उस मृगको अ ी तरह देखने लगती थ । वे बोल , ‘आयपु ! अपने भा◌इके साथ आइये, शी आइये’॥ ३ ॥ वदेहकु मारी सीताके ारा पुकारे जानेपर नर े ीराम और ल ण वहाँ आये और उस ानपर सब ओर ष्ट डालते ए उ ने उस समय उस मृगको देखा॥ ४ ॥ उसे देखकर ल णके मनम संदेह आ और वे बोले—‘भैया! म तो समझता ँ क इस मृगके पम वह मारीच नामका रा स ही आया है॥ ५ ॥ ‘ ीराम! े ानुसार प धारण करनेवाले इस पापीने कपट-वेष बनाकर वनम शकार खेलनेके लये आये ए कतने ही हष ु नरेश का वध कया है॥ ‘पु ष सह! यह अनेक कारक मायाएँ जानता है। इसक जो माया सुनी गयी है, वही इस काशमान मृग पम प रणत हो गयी है। यह ग व-नगरके समान देखनेभरके लये ही है (इसम वा वकता नह है)॥ ‘रघुन न! पृ ीनाथ! इस भूतलपर कह भी ऐसा व च र मय मृग नह है; अत: न:संदेह यह माया ही है’॥ ८ ॥ मारीचके छलसे जनक वचारश हर ली गयी थी, उन प व मुसकानवाली सीताने उपयु बात कहते ए ल णको रोककर यं ही बड़े हषके साथ कहा— ‘आयपु ! यह मृग बड़ा ही सु र है। इसने मेरे मनको हर लया है। महाबाहो! इसे ले आइये। यह हमलोग के मनबहलावके लये रहेगा॥ १० ॥



‘राजन्! महाबाहो! य प हमारे इस आ मपर ब त-से प व एवं दशनीय मृग एक साथ आकर चरते ह तथा सृमर (काली पूँछवाली चवँरी गाय), चमर (सफे द पूँछवाली चवँरी गाय),



रीछ, चतकबरे मृग के ंडु , वानर तथा सु र पवाले महाबली क र भी वचरण करते ह, तथा प आजके पहले मने दूसरा को◌इ ऐसा तेज ी, सौ और दी मान् मृग नह देखा था, जैसा क यह े मृग दखायी दे रहा है॥ ११—१३ ॥ ‘नाना कारके रंग से यु होनेके कारण इसके अ व च जान पड़ते ह। ऐसा तीत होता है मानो यह अ का ही बना आ हो। मेरे आगे नभय एवं शा भावसे त होकर इस वनको का शत करता आ यह च माके समान शोभा पा रहा है॥ १४ ॥ ‘इसका प अ तु है। इसक शोभा अवणनीय है। इसक रस (बोली) बड़ी सु र है। व च अ से सुशो भत यह अ तु मृग मेरे मनको मोहे लेता है॥ १५ ॥ ‘य द यह मृग जीते-जी ही आपक पकड़म आ जाय तो एक आ यक व ु होगा और सबके दयम व य उ कर देगा॥ १६ ॥ ‘जब हमारे वनवासक अव ध पूरी हो जायगी और हम पुन: अपना रा पा लगे, उस समय यह मृग हमारे अ :पुरक शोभा बढ़ायेगा॥ १७ ॥ ‘ भो! इस मृगका यह द प भरतके , आपके , मेरी सासु के और मेरे लये भी व यजनक होगा॥ ‘पु ष सह! य द कदा चत् यह े मृग जीते-जी पकड़ा न जा सके तो इसका चमड़ा ही ब त सु र होगा॥ १९ ॥ ‘घास-फू सक बनी ◌इ चटा◌इपर इस मरे ए मृगका सुवणमय चमड़ा बछाकर म इसपर आपके साथ बैठना चाहती ँ ॥ २० ॥ ‘य प े ासे े रत होकर अपने प तको ऐसे कामम लगाना यह भयंकर े ाचार है और सा ी य के लये उ चत नह माना गया है तथा प इस ज ुके शरीरने मेरे दयम व य उ कर दया है (इसी लये म इसको पकड़ लानेके लये अनुरोध करती ँ )’॥ २१ ॥ सुनहरी रोमावली, इ नील म णके समान स ग, उदयकालके सूयक -सी का तथा न लोकक भाँ त व यु ु तेजसे सुशो भत उस मृगको देखकर ीरामच जीका मन भी व त हो उठा। सीताक पूव बातको सुनकर, उस मृगके अ तु पको देखकर, उसके उस



पपर लुभाकर और सीतासे े रत होकर हषसे भरे ए ीरामने अपने भा◌इ ल णसे कहा —॥ २२—२४ ॥ ‘ल ण! देखो तो सही, वदेहन नी सीताके मनम इस मृगको पानेके लये कतनी बल इ ा जाग उठी है? वा वम इसका प है भी ब त ही सु र। अपने पक इस े ताके कारण ही यह मृग आज जी वत नह रह सके गा॥ २५ ॥ ‘सु म ान न! देवराज इ के न नवनम और कु बेरके चै रथवनम भी को◌इ ऐसा मृग नह होगा, जो इसक समानता कर सके । फर पृ ीपर तो हो ही कहाँसे सकता है॥ २६ ॥ ‘टेढ़ी और सीधी चर रोमाव लयाँ इस मृगके शरीरका आ य ले सुनहरे व ु से च त हो बड़ी शोभा पा रही ह॥ २७ ॥ ‘देखो न, जब यह जँभा◌इ लेता है, तब इसके मुखसे लत अ शखाके समान दमकती ◌इ ज ा बाहर नकल आती है और मेघसे कट ◌इ बजलीके समान चमकने लगती है॥ २८ ॥ ‘इसका मुख-स ुट इ नीलम णके बने ए चषक (पानपा ) के समान जान पड़ता है, उदर श और मोतीके समान सफे द है। यह अवणनीय मृग कसके मनको नह लुभा लेगा॥ २९ ॥ ‘नाना



कारके र से वभू षत इसके सुनहरी भावाले द पको देखकर कसके मनम व य नह होगा॥ ३० ॥ ‘ल ण! राजालोग बड़े-बड़े वन म मृगया खेलते समय मांस (मृगचम) के लये और शकार खेलनेका शौक पूरा करनेके लये भी धनुष हाथम लेकर मृग को मारते ह॥ ३१ ॥ ‘मृगयाके उ ोगसे ही राजालोग वशाल वनम धनका भी सं ह करते ह; क वहाँ म ण, र और सुवण आ दसे यु नाना कारक धातुएँ उपल होती ह॥ ३२ ॥ ‘ल ण! कोशक वृ करनेवाला वह व धन मनु के लये अ उ ृ होता है। ठीक उसी तरह, जैसे भावको ा ए पु षके लये मनके च नमा से ा ◌इ सारी व ुएँ अ उ म बतायी गयी ह॥ ३३ ॥ ‘ल ण! अथ मनु जस अथ ( योजन) का स ादन करनेके लये उसके त आकृ हो बना वचारे ही चल देता है, उस अ आव क योजनको ही अथसाधनम चतुर एवं



अथशा के ाता व ान् ‘अथ’ कहते ह॥ ३४ ॥ ‘इस र प े मृगके ब मू सुनहरे चमड़ेपर सु री वदेहराजन नी सीता मेरे साथ बैठेगी॥ ३५ ॥ ‘कदली (कोमल ऊँ चे चतकबरे और नीला रोमवाले मृग वशेष), यक (कोमल ऊँ चे चकने और घने रोमवाले मृग वशेष), वेण ( वशेष कारके बकरे) और अ व (भेड़) क चा भी श करनेम इस का न मृगके छालेके समान कोमल एवं सुखद नह हो सकती, ऐसा मेरा व ास है॥ ३६ ॥ ‘यह सु र मृग और वह जो द आकाशचारी मृग (मृग शरा न ) है, ये दोन ही द मृग ह। इनमसे एक तारामृग१ और दूसरा महीमृग२ है॥ ३७ ॥ ‘ल ण! तुम मुझसे जैसा कह रहे हो य द वैसा ही यह मृग हो, य द यह रा सक माया ही हो तो भी मुझे उसका वध करना ही चा हये॥ ३८ ॥ ‘ क अप व (दु ) च वाले इस ू रकमा मारीचने वनम वचरते समय पहले अनेकानेक े मु नय क ह ा क है॥ ३९ ॥ ‘इसने मृगयाके समय कट होकर ब त-से महाधनुधर नरेश का वध कया है, अत: इस मृगके पम इसका भी वध अव करनेयो है॥ ४० ॥ ‘इसी वनम पहले वाता प नामक रा स रहता था, जो तप ी महा ा का तर ार करके कपटपूण उपायसे उनके पेटम प ँ च जाता और जैसे ख रीको अपने ही गभका ब ा न कर देता है, उसी कार उन षय को न कर देता था॥ ४१ ॥ ‘वह वाता प एक दन दीघकालके प ात् लोभवश तेज ी महामु न अग जीके पास जा प ँ चा और ( ा कालम) उनका आहार बन गया। उनके पेटम प ँ च गया॥ ४२ ॥ ‘ ा के अ म जब वह अपना रा स प कट करनेक इ ा करने लगा—उनका पेट फाड़कर नकल आनेको उ त आ, तब उस वाता पको ल करके भगवान् अग मुसकराये और उससे इस कार बोले—॥ ४३ ॥ ‘वातापे! तुमने बना सोचे- वचारे इस जीव-जग ब त-से े ा ण को अपने तेजसे तर ृ त कया है, उसी पापसे अब तुम पच गये’॥ ४४ ॥



‘ल



ण! जो सदा धमम त र रहनेवाले मुझ-जैसे जते य पु षका भी अ त मण करे, उस मारीच नामक रा सको भी वाता पके समान ही न हो जाना चा हये॥ ४५ ॥ ‘जैसे वाता प अग के ारा न आ, उसी कार यह मारीच अब मेरे सामने आकर अव ही मारा जायगा। तुम अ और कवच आ दसे सुस त हो जाओ और यहाँ सावधानीके साथ म थलेशकु मारीक र ा करो॥ ४६ ॥ ‘रघुन न! हमलोग का जो आव क कत है, वह सीताक र ाके ही अधीन है। म इस मृगको मार डालूँगा अथवा इसे जीता ही पकड़ लाऊँ गा॥ ४७ ॥ ‘सु म ाकु मार ल ण! देखो, इस मृगका चम ह गत करनेके लये वदेहन नीको कतनी उ ा हो रही है, इस लये इस मृगको ले आनेके लये म तुरंत ही जा रहा ँ ॥ ४८ ॥ ‘इस मृगको मारनेका धान हेतु है, इसके चमड़ेको ा करना। आज इसीके कारण यह मृग जी वत नह रह सके गा। ल ण! तुम आ मपर रहकर सीताके साथ सावधान रहना— सावधानीके साथ तबतक इसक र ा करना, जबतक क म एक ही बाणसे इस चतकबरे मृगको मार नह डालता ँ । मारनेके प ात् इसका चमड़ा लेकर म शी लौट आऊँ गा॥ ४९-५० ॥ ‘ल



ण! बु मान् प ी गृ राज जटायु बड़े ही बलवान् और साम शाली ह। उनके साथ ही यहाँ सदा सावधान रहना। म थलेशकु मारी सीताको अपने संर णम लेकर त ण सब दशा म रहनेवाले रा स क ओरसे चौक े रहना’॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म ततालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४३॥ १. न लोकम वचरनेवाला मृग (मृग शरा न २. दूसरा पृ ीपर वचरनेवाला का न मृग।



)।



चौवालीसवाँ सग ीरामके ारा मारीचका वध और उसके ारा सीता और ल सुनकर ीरामक च ा



णके पुकारनेका श



ल णको इस कार आदेश देकर रघुकुलका आन बढ़ानेवाले महातेज ी ीरामच जीने सोनेक मूँठवाली तलवार कमरम बाँध ली॥ १ ॥ त ात् महापरा मी रघुनाथजी तीन ान म कु े ए अपने आभूषण प धनुषको हाथम ले पीठपर दो तरकस बाँधकर वहाँसे चल दये॥ २ ॥ राजा धराज ीरामको आते देख वह व मृग का राजा का नमृग भयके मारे छप गया, कतु फर तुरंत ही उनके ष्टपथम आ गया॥ ३ ॥ तब तलवार बाँधे और धनुष लये ीराम जस ओर वह मृग था, उसी ओर दौड़े। धनुधर ीरामने देखा, वह अपने पसे सामनेक दशाको का शत-सी कर रहा था। उस महान् वनम वह पीछेक ओर देख-देखकर आगेक ओर भाग रहा था। कभी छलाँग मारकर ब त दूर नकल जाता और कभी इतना नकट दखायी देता क हाथसे पकड़ लेनेका लोभ पैदा कर देता था। कभी डरा आ, कभी घबराया आ और कभी आकाशम उछलता आ दीख पड़ता था। कभी वनके क ान म छपकर अ हो जाता था, मानो शरद-् ऋतुका च म ल मेघख से आवृत हो गया हो। एक ही मु तम वह नकट दखायी देता और पुन: ब त दूरके ानम चमक उठता था॥ ४—७ ॥ इस तरह कट होता और छपता आ वह मृग पधारी मारीच ीरघुनाथजीको उनके आ मसे ब त दूर ख च ले गया॥ ८ ॥ उस समय उससे मो हत और ववश होकर ीराम कु छ कु पत हो उठे और थककर एक जगह छायाका आ य ले हरी-हरी घासवाली भू मपर खड़े हो गये॥ ९ ॥ इस मृग पधारी नशाचरने उ उ -सा कर दया था। थोड़ी ही देरम वह दूसरे मृग से घरा आ पास ही दखायी दया॥ १० ॥ ीराम मुझे पकड़ना चाहते ह, यह देखकर वह फर भागा और भयके मारे पुन: त ाल ही अ हो गया॥ ११ ॥



तदन र वह पुन: दूरवत वृ -समूहसे होकर नकला। उसे देखकर महातेज ी ीरामने मार डालनेका न य कया॥ १२ ॥ तब वहाँ ोधम भरे ए बलवान् राघवे ीरामने तरकससे सूयक करण के समान तेज ी एक लत एवं श ु-संहारक बाण नकालकर उसे अपने सु ढ़ धनुषपर रखा और उस धनुषको जोरसे ख चकर उस मृगको ही ल करके फु फकारते सपके समान सनसनाता आ वह लत एवं तेज ी बाण, जसे ाजीने बनाया था, छोड़ दया॥ १३-१४ १/२ ॥ व के समान तेज ी उस उ म बाणने मृग पधारी मारीचके शरीरको चीरकर उसके दयको भी वदीण कर दया॥ १५ १/२ ॥ ‘उसक चोटसे अ आतुर हो वह रा स ताड़के बराबर उछलकर पृ ीपर गर पड़ा। उसका जीवन समा हो चला। वह पृ ीपर पड़ा-पड़ा भयंकर गजना करने लगा॥ १६ १/२ ॥ मरते समय मारीचने अपने उस कृ म शरीरको ाग दया। फर रावणके वचनका रण करके उस रा सने सोचा, कस उपायसे सीता ल णको यहाँ भेज दे और सूने आ मसे रावण उसे हर ले जाय॥ रावणके बताये ए उपायको कामम लानेका अवसर आ गया है—यह समझकर उसने ीरामच जीके ही समान रम ‘हा सीते! हा ल ण!’ कहकर पुकारा॥ ीरामके अनुपम बाणसे उसका मम वदीण हो गया था, अत: उस मृग पको ागकर उसने रा स प धारण कर लया॥ २० ॥ ाण ाग करते समय मारीचने अपने शरीरको ब त बड़ा बना लया था। भयंकर दखायी देनेवाले उस रा सको भू मपर पड़कर खूनसे लथपथ हो धरतीपर लोटते और छटपटाते देख ीरामको ल णक कही ◌इ बात याद आ गयी और वे मन-ही-मन सीताक च ा करने लगे॥ २१-२२ ॥ वे सोचने लगे, ‘अहो! जैसा ल णने पहले कहा था, उसके अनुसार यह वा वम मारीचक माया ही थी। ल णक बात ठीक नकली। आज मेरे ारा यह मारीच ही मारा गया॥ २३ ॥ ‘परंतु यह रा स उ रसे ‘हा सीते! हा ल ण!’ क पुकार करके मरा है। उसके उस श को सुनकर सीताक कै सी अव ा हो जायगी और महाबा ल णक भी ा दशा



होगी?’॥ २४ १/२ ॥ ऐसा सोचकर धमा ा ीरामके र गटे खड़े हो गये। उस समय वहाँ मृग पधारी उस रा सको मारकर और उसके उस श को सुनकर ीरामके मनम वषादज नत ती भय समा गया॥ २५-२६ ॥ उस लोक वल ण मृगका वध करके तप ीके उपभोगम आनेयो फल-मूल आ द लेकर ीराम त ाल ही जन ानके नकटवत प वटीम त अपने आ मक ओर बड़ी उतावलीके साथ चले॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म चौवालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४४॥



पतालीसवाँ सग सीताके मा मक वचन से े रत होकर ल



णका ीरामके पास जाना



उस समय वनम जो आतनाद आ, उसे अपने प तके रसे मलता-जुलता जान ीसीताजी ल णसे बोल —‘भैया! जाओ, ीरघुनाथजीक सु ध लो— उनका समाचार जानो॥ १ ॥ ‘उ ने बड़े आत रसे हमलोग को पुकारा है। मने उनका वह श सुना है। वह ब त उ रसे बोला गया था। उसे सुनकर मेरे ाण और मन अपने ानपर नह रह गये ह—म घबरा उठी ँ ॥ २ ॥ ‘तु ारे भा◌इ वनम आतनाद कर रहे ह। वे को◌इ शरण—र ाका सहारा चाहते ह। तुम उ बचाओ। ज ी ही अपने भा◌इके पास दौड़े ए जाओ। जैसे को◌इ साँड़ सह के पंजेम फँ स गया हो, उसी कार वे रा स के वशम पड़ गये ह, अत: जाओ।’ सीताके ऐसा कहनेपर भी भा◌इके आदेशका वचार करके ल ण नह गये॥ ३-४ ॥ उनके इस वहारसे वहाँ जनक कशोरी सीता ु हो उठ और उनसे इस कार बोल — ‘सु म ाकु मार! तुम म पम अपने भा◌इके श ु ही जान पड़ते हो, इसी लये तुम इस संकटक अव ाम भी भा◌इके पास नह प ँ च रहे हो। ल ण! म जानती ँ , तुम मुझपर अ धकार करनेके लये इस समय ीरामका वनाश ही चाहते हो॥ ५-६ ॥ ‘मेरे लये तु ारे मनम लोभ हो गया है, न य ही इसी लये तुम ीरघुनाथजीके पीछे नह जा रहे हो। म समझती ँ , ीरामका संकटम पड़ना ही तु य है। तु ारे मनम अपने भा◌इके त ेह नह है॥ ७ ॥ ‘यही कारण है क तुम उन महातेज ी ीरामच जीको देखने न जाकर यहाँ न खड़े हो। हाय! जो मु त: तु ारे से ह, जनक र ा और सेवाके लये तुम यहाँ आये हो, य द उ के ाण संकटम पड़ गये तो यहाँ मेरी र ासे ा होगा?’॥ ८ १/२ ॥ ‘ वदेहकु मारी सीताजीक दशा भयभीत ◌इ ह रणीके समान हो रही थी। उ ने शोकम होकर आँ सू बहाते ए जब उपयु बात कह , तब ल ण उनसे इस कार बोले —॥ ९ १/२ ॥



‘ वदेहन



न! आप व ास कर, नाग, असुर, ग व, देवता, दानव तथा रा स—ये सब मलकर भी आपके प तको परा नह कर सकते, मेरे इस कथनम संशय नह है॥ १० १/२ ॥ ‘दे व! शोभने! देवता , मनु , ग व , प य , रा स , पशाच , क र , मृग तथा घोर दानव म भी ऐसा को◌इ वीर नह है, जो समरा णम इ के समान परा मी ीरामका सामना कर सके । भगवान् ीराम यु म अव ह, अतएव आपको ऐसी बात ही नह कहनी चा हये॥ ११—१३ ॥ ‘ ीरामच जीक अनुप तम इस वनके भीतर म आपको अके ली नह छोड़ सकता। सै नक-बलसे स बड़े-बड़े राजा अपनी सारी सेना के ारा भी ीरामके बलको कु त नह कर सकते। देवता तथा इ आ दके साथ मले ए तीन लोक भी य द आ मण कर तो वे ीरामके बलका वेग नह रोक सकते; अत: आपका दय शा हो। आप संताप छोड़ द॥ १४-१५ ॥ ‘आपके प तदेव उस सु र मृगको मारकर शी ही लौट आयँगे। वह श जो आपने सुना था, अव ही उनका नह था। कसी देवताने को◌इ श कट कया हो, ऐसी बात भी नह है। वह तो उस रा सक ग वनगरके समान झूठी माया ही थी॥ १६ १/२ ॥ ‘सु र! वदेहन न! महा ा ीरामच जीने मुझपर आपक र ाका भार स पा है। इस समय आप मेरे पास उनक धरोहरके पम ह। अत: आपको म यहाँ अके ली नह छोड़ सकता॥ १७ १/२ ॥ ‘क ाणमयी दे व! जस समय खरका वध कया गया, उस समय जन ान नवासी दूसरे ब त-से रा स भी मारे गये थे, इस कारण इन नशाचर ने हमारे साथ वैर बाँध लया है॥ १८ १/२ ॥ ‘ वदेहन



न! ा णय क हसा ही जनका ड़ा- वहार या मनोर न है, वे रा स ही इस वशाल वनम नाना कारक बो लयाँ बोला करते ह; अत: आपको च ा नह करनी चा हये’॥ १९ १/२ ॥ ल णके ऐसा कहनेपर सीताको बड़ा ोध आ, उनक आँ ख लाल हो गय और वे स वादी ल णसे कठोर बात कहने लग —॥ २० १/२ ॥



‘अनाय!



नदयी! ू रकमा! कु ला ार! म तुझे खूब समझती ँ । ीराम कसी भारी वप म पड़ जायँ, यही तुझे य है। इसी लये तू रामपर संकट आया देखकर भी ऐसी बात बना रहा है॥ २१-२२ ॥ ‘ल ण! तेरे-जैसे ू र एवं सदा छपे ए श ु के मनम इस तरहका पापपूण वचार होना को◌इ आ यक बात नह है॥ २३ ॥ ‘तू बड़ा दु है, ीरामको अके ले वनम आते देख मुझे ा करनेके लये ही अपने भावको छपाकर तू भी अके ला ही उनके पीछे-पीछे चला आया है, अथवा यह भी स व है क भरतने ही तुझे भेजा हो॥ ‘परंतु सु म ाकु मार! तेरा या भरतका वह मनोरथ स नह हो सकता। नीलकमलके समान ामसु र कमलनयन ीरामको प त पम पाकर म दूसरे कसी ु पु षक कामना कै से कर सकती ँ ?॥ २५ १/२ ॥ ‘सु म ाकु मार! म तेरे सामने ही न:संदेह अपने ाण ाग दूँगी, कतु ीरामके बना एक ण भी इस भूतलपर जी वत नह रह सकूँ गी’॥ २६ १/२ ॥ सीताने जब इस कार कठोर तथा र गटे खड़े कर देनेवाली बात कही, तब जते य ल ण हाथ जोड़कर उनसे बोले—‘दे व! म आपक बातका जवाब नह दे सकता; क आप मेरे लये आराधनीया देवीके समान ह॥ २७-२८ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! ऐसी अनु चत और तकू ल बात मुँहसे नकालना य के लये आ यक बात नह है; क इस संसारम ना रय का ऐसा भाव ब धा देखा जाता है॥ २९ ॥



याँ ाय: वनय आ द धम से र हत, च ल, कठोर तथा घरम फू ट डालनेवाली होती ह। वदेहकु मारी जानक ! आपक यह बात मेरे दोन कान म तपाये ए लोहेके समान लगी है। म ऐसी बात सह नह सकता॥ ३० १/२ ॥ ‘इस वनम वचरनेवाले सभी ाणी सा ी होकर मेरा कथन सुन। मने ाययु बात कही है तो भी आपने मेरे त ऐसी कठोर बात अपने मुँहसे नकाली है। न य ही आज आपक बु मारी गयी है। आप न होना चाहती ह। ध ार है आपको, जो आप मुझपर ऐसा संदेह करती ह। म बड़े भा◌इक आ ाका पालन करनेम ढ़तापूवक त र ँ और आप के वल नारी ‘



होनेके कारण साधारण य के दु भावको अपनाकर मेरे त ऐसी आश ा करती ह। अ ा अब म वह जाता ँ , जहाँ भैया ीराम गये ह। सुमु ख! आपका क ाण हो॥ ३१—३३ ॥ ‘ वशाललोचने! वनके



स ूण देवता आपक र ा कर; क इस समय मेरे सामने जो बड़े भयंकर अपशकु न कट हो रहे ह, उ ने मुझे संशयम डाल दया है। ा म ीरामच जीके साथ लौटकर पुन: आपको सकु शल देख सकूँ गा?’॥ ३४ ॥ ल णके ऐसा कहनेपर जनक कशोरी सीता रोने लग । उनके ने से आँ सु क ती धारा बह चली। वे उ इस कार उ र देती ◌इ बोल —॥ ३५ ॥ ‘ल ण! म ीरामसे बछु ड़ जानेपर गोदावरी नदीम समा जाऊँ गी अथवा गलेम फाँसी लगा लूँगी अथवा पवतके दुगम शखरपर चढ़कर वहाँसे अपने शरीरको नीचे डाल दूँगी या ती वष पान कर लूँगी अथवा जलती आगम वेश कर जाऊँ गी, परंतु ीरघुनाथजीके सवा दूसरे कसी पु षका कदा प श नह क ँ गी’॥ ३६-३७ ॥ ल णके सामने यह त ा करके शोकम होकर रोती ◌इ सीता अ धक दु:खके कारण दोन हाथ से अपने उदरपर आघात करने लग —छाती पीटने लग ॥ ३८ ॥ वशाललोचना सीताको आत होकर रोती देख सु म ाकु मार ल णने मन-ही-मन उ सा ना दी, परंतु सीता उस समय अपने देवरसे कु छ नह बोल ॥ तब मनको वशम रखनेवाले ल णने दोन हाथ जोड़ कु छ कु कर म थलेशकु मारी सीताको णाम कया और बारंबार उनक ओर देखते ए वे ीरामच जीके पास चल दये॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४५॥



छयालीसवाँ सग रावणका साधुवेषम सीताके पास जाकर उनका प रचय पूछना और सीताका आ त के लये उसे आम त करना



सीताके कठोर वचन कहनेपर कु पत ए ल ण ीरामसे मलनेक वशेष इ ा रखकर शी ही वहाँसे चल दये॥ १ ॥ ल णके चले जानेपर रावणको मौका मल गया, अत: वह सं ासीका वेष धारण करके शी ही वदेहकु मारी सीताके समीप गया॥ २ ॥ वह शरीरपर साफ-सुथरा गे ए रंगका व लपेटे ए था। उसके म कपर शखा, हाथम छाता और पैर म जूते थे। उसने बाय कं धेपर डंडा रखकर उसम कम लु लटका रखा था॥ ३ ॥ अ बलवान् रावण उस वनम प र ाजकका प धारण करके ीराम और ल ण दोन ब ु से र हत ◌इ अके ली वदेहकु मारी सीताके पास गया॥ ४ ॥ जैसे सूय और च मासे हीन ◌इ सं ाके पास महान् अंधकार उप त हो, उसी कार वह सीताके नकट गया। तदन र जैसे च मासे र हत ◌इ रो हणीपर अ दा ण ह मंगल या शनै रक ष्ट पड़े, उसी कार उस अ तशय ू र रावणने उस भोली-भाली यश नी राजकु मारीक ओर देखा॥ ५ १/२ ॥ उस भयंकर पापाचारीको आया देख जन ानके वृ ने हलना बंद कर दया और हवाका वेग क गया। लाल ने वाले रावणको अपनी ओर ष्टपात करते देख ती ग तसे बहनेवाली गोदावरी नदी भयके मारे धीरे-धीरे बहने लगी॥ ६-७ १/२ ॥ रामसे बदला लेनेका अवसर ढूँ ढ़नेवाला दशमुख रावण उस समय भ ु पसे वदेहकु मारी सीताके पास प ँ चा॥ ८ १/२ ॥ उस समय वदेहराजकु मारी सीता अपने प तके लये शोक और च ाम डू बी ◌इ थ । उसी अव ाम अभ रावण भ प धारण करके उनके सामने उप त आ, मानो शनै र ह च ाके सामने जा प ँ चा हो॥ जैसे कु आँ तनक से ढका आ हो, उसी कार भ पसे अपनी अभ ताको छपाकर रावण सहसा वहाँ जा प ँ चा और यश नी रामप ी वैदेहीको देखकर खड़ा हो गया॥ १० १/२







उस समय रावण वहाँ खड़ा-खड़ा रामप ी सीताको देखने लगा। वे बड़ी सु री थ । उनके दाँत और ओठ भी सु र थे, मुख पूण च माक शोभाको छीने लेता था। वे पणशालाम बैठी ◌इ शोकसे पी ड़त हो आँ सू बहा रही थ ॥ ११-१२ ॥ वह नशाचर स च हो रेशमी पीता रसे सुशो भत कमलनयनी वदेहकु मारीके सामने गया॥ उ देखते ही कामदेवके बाण से घायल हो रा सराज रावण वेदम का उ ारण करने लगा और उस एका ानम वनीतभावसे उनसे कु छ कहनेको उ त आ॥ १४ ॥ लोकसु री सीता अपने शरीरसे कमलसे र हत कमलालया ल ीक भाँ त शोभा पा रही थ । रावण उनक शंसा करता आ बोला—॥ १५ ॥ ‘उ म सुवणक -सी का वाली तथा रेशमी पीता र धारण करनेवाली सु री! (तुम कौन हो?) तु ारे मुख, ने , हाथ और पैर कमल के समान ह, अत: तुम प नी (पु रणी) क भाँ त कमल क सु र-सी माला धारण करती हो॥ १६ ॥ ‘शुभानने! तुम ी, ी, क त, शुभ पा ल ी अथवा अ रा तो नह हो? अथवा वरारोहे! तुम भू त या े ापूवक वहार करनेवाली कामदेवक प ी र त तो नह हो?॥ १७ ॥ तु ारे दाँत बराबर ह। उनके अ भाग कु क क लय के समान शोभा पाते ह। वे सब-के सब चकने और सफे द ह। तु ारी दोन आँ ख बड़ी-बड़ी और नमल ह। उनके दोन कोये लाल ह और पुत लयाँ काली ह। क टका अ भाग वशाल एवं मांसल है। दोन जाँघ हाथीक सूँड़के समान शोभा पाती ह॥ १८ १/२ ॥ ‘तु ारे ये दोन न पु , गोलाकार, पर र सटे ए, ग , मोटे, उठे ए मुखवाले, कमनीय, चकने ताड़फलके समान आकारवाले, परम सु र और े म णमय आभूषण से वभू षत ह॥ १९-२० ॥ ‘सु र मुसकान, चर द ावली और मनोहर ने वाली वला सनी रमणी! तुम अपने पसौ यसे मेरे मनको वैसे ही हरे लेती हो, जैसे नदी जलके ारा अपने तटका अपहरण करती है॥ २१ ॥



‘तु



ारी कमर इतनी पतली है क मु ीम आ जाय। के श चकने और मनोहर ह। दोन न एक-दूसरेसे सटे ए ह। सु री! देवता, ग व, य और क र जा तक य म भी को◌इ तुम-जैसी नह है॥ २२ ॥ ‘पृ ीपर तो ऐसी पवती नारी मने आजसे पहले कभी देखी ही नह थी। कहाँ तो तु ारा यह तीन लोक म सबसे सु र प, सुकुमारता और नयी अव ा और कहाँ इस दुगम वनम नवास! ये सब बात ानम आते ही मेरे मनको मथे डालती ह। तु ारा क ाण हो। यहाँसे चली जाओ। तुम यहाँ रहनेके यो नह हो॥ ‘यह तो इ ानुसार प धारण करनेवाले भयंकर रा स के रहनेक जगह है। तु तो रमणीय राजमहल , समृ शाली नगर और सुग यु उपवन म नवास करना और वचरना चा हये॥ २५ १/२ ॥ ‘शोभने! वही पु ष े है, वही ग उ म है और वही व सु र है, जो तु ारे उपयोगम आये। कजरारे ने वाली सु र! म उसीको े प त मानता ँ , जसे तु ारा सुखद संयोग ा हो॥ २६ १/२ ॥ ‘प व मुसकान और सु र अ वाली दे व! तुम कौन हो? मुझे तो तुम ,म ण अथवा वसु से स रखनेवाली देवी जान पड़ती हो॥ ‘यहाँ ग व, देवता तथा क र नह आते-जाते ह। यह रा स का नवास ान है, फर तुम कै से यहाँ आ गयी॥ २८ १/२ ॥ ‘यहाँ वानर, सह, चीते, ा , मृग, भे ड़ये, रीछ, शेर और कं क (गीध आ द प ी) रहते ह। तु इनसे भय नह हो रहा है?॥ २९ १/२ ॥ ‘वरानने! इस वशाल वनके भीतर अ वेगशाली और भयंकर मदम गजराज के बीच अके ली रहती ◌इ तुम भयभीत कै से नह होती हो?॥ ३० १/२ ॥ ‘क ाणमयी दे व! बताओ, तुम कौन हो? कसक हो? और कहाँसे आकर कस कारण इस रा ससे वत घोर द कार म अके ली वचरण करती हो?’॥ ३१ १/२ ॥ वेशभूषासे महा ा बनकर आये ए रावणने जब वदेहकु मारी सीताक इस कार शंसा क , तब ा णवेषम वहाँ पधारे ए रावणको देखकर मै थलीने अ त थ-स ारके लये उपयोगी सभी साम य ारा उसका पूजन कया॥ ३२-३३ ॥



पहले बैठनेके लये आसन दे, पा (पैर धोनेके लये जल) नवेदन कया। तदन र ऊपरसे सौ दखायी देनेवाले उस अ त थको भोजनके लये नम ण देते ए कहा—‘ न्! भोजन तैयार है, हण क जये’॥ वह ा णके वेषम आया था, कम लु और गे आ व धारण कये ए था। ा णवेषम आये ए अ त थक उपे ा अस व थी। उसक वेशभूषाम ा ण का न य करानेवाले च दखायी देते थे, अत: उस पम आये ए उस रावणको देखकर मै थलीने ा णके यो स ार करनेके लये ही उसे नम त कया॥ ३५ ॥ वे बोल —‘ ा ण! यह चटा◌इ है, इसपर इ ानुसार बैठ जाइये। यह पैर धोनेके लये जल है, इसे हण क जये और यह वनम ही उ आ उ म फल-मूल आपके लये ही तैयार करके रखा गया है, यहाँ शा भावसे उसका उपभोग क जये’॥ ३६ ॥ ‘अ त थके लये सब कु छ तैयार है’ ऐसा कहकर सीताने जब उसे भोजनके लये नम त कया, तब रावणने ‘सव स म्’ कहनेवाली राजरानी मै थलीक ओर देखा और अपने ही वधके लये उसने हठपूवक सीताका हरण करनेके न म मनम ढ़ न य कर लया॥ ३७ ॥ तदन र सीता शकार खेलनेके लये गये ए ल णस हत अपने सु र वेषधारी प त ीरामच जीक ती ा करने लग । उ ने चार ओर ष्ट दौड़ायी, कतु उ सब ओर हराभरा वशाल वन ही दखायी दया, ीराम और ल ण नह दीख पड़े॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म छयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४६॥



सतालीसवाँ सग सीताका रावणको अपना और प तका प रचय देकर वनम आनेका कारण बताना, रावणका उ अपनी पटरानी बनानेक इ ा कट करना और सीताका उसे फटकारना



सीताको हरनेक इ ासे प र ाजक (सं ासी)का प धारण करके आये ए रावणने उस समय जब वदेहराजकु मारीसे इस कार पूछा, तब उ ने यं ही अपना प रचय दया॥ १ ॥ वे दो घड़ीतक इस वचारम पड़ी रह क ये ा ण और अ त थ ह, य द इनक बातका उ र न दया जाय तो ये मुझे शाप दे दगे। यह सोचकर सीताने इस कार कहना आर कया —॥ २ ॥ ‘ न्! आपका भला हो। म म थलानरेश महा ा जनकक पु ी और अवधनरेश ीरामच जीक ारी रानी ँ । मेरा नाम सीता है॥ ३ ॥ ‘ ववाहके बाद बारह वष तक इ ाकु वंशी महाराज दशरथके महलम रहकर मने अपने प तके साथ सभी मानवो चत भोग भोगे ह। म वहाँ सदा मनोवा त सुख-सु वधा से स रही ँ ॥ ४ ॥ ‘तेरहव वषके ार म साम शाली महाराज दशरथने राजम य से मलकर सलाह क और ीरामच जीका युवराजपदपर अ भषेक करनेका न य कया॥ ५ ॥ ‘जब ीरघुनाथजीके रा ा भषेकक साम ी जुटायी जाने लगी, उस समय मेरी सास कै के यीने अपने प तसे वर माँगा॥ ६ ॥ ‘कै के यीने मेरे शुरको पु क शपथ दलाकर वचनब कर लया, फर अपने स त प त उन राज शरोम णसे दो वर माँगे—मेरे प तके लये वनवास और भरतके लये रा ा भषेक॥ ७ १/२ ॥ ‘कै के यी हठपूवक कहने लग —य द आज ीरामका अ भषेक कया गया तो म न तो खाऊँ गी, न पीऊँ गी और न कभी सोऊँ गी ही। यही मेरे जीवनका अ होगा॥ ८ १/२ ॥ ‘ऐसी बात कहती ◌इ कै के यीसे मेरे शुर महाराज दशरथने यह याचना क क ‘तुम सब कारक उ म व ुएँ ले लो; कतु ीरामके अ भषेकम व न डालो।’ कतु कै के यीने उनक वह याचना सफल नह क ॥



‘उस



समय मेरे महातेज ी प तक अव ा पचीस सालसे ऊपरक थी और मेरे ज कालसे लेकर वनगमनकालतक मेरी अव ा वषगणनाके अनुसार अठारह सालक हो गयी थी॥ १० १/२ ॥ ‘ ीराम जग स वादी, सुशील और प व पसे व ात ह। उनके ने बड़े-बड़े और भुजाएँ वशाल ह। वे सम ा णय के हतम त र रहते ह॥ ‘उनके पता महाराज दशरथने यं कामपी ड़त होनेके कारण कै के यीका य करनेक इ ासे ीरामका अ भषेक नह कया॥ १२ १/२ ॥ ‘ ीरामच जी जब अ भषेकके लये पताके समीप आये, तब कै के यीने मेरे उन प तदेवसे तुरंत यह बात कही॥ १३ १/२ ॥ ‘रघुन न! तु ारे पताने जो आ ा दी है, इसे मेरे मुँहसे सुनो। यह न क रा भरतको दया जायगा, तु तो चौदह वष तक वनम ही नवास करना होगा। काकु ! तुम वनको जाओ और पताको अस के ब नसे छु ड़ाओ॥ १४-१५ १/२ ॥ ‘ कसीसे भी भय न माननेवाले ीरामने कै के यीक वह बात सुनकर कहा—‘ब त अ ा’। उ ने उसे ीकार कर लया। मेरे ामी ढ़तापूवक अपनी त ाका पालन करनेवाले ह॥ १६ १/२ ॥ ‘ ीराम के वल देते ह, कसीसे कु छ लेते नह । वे सदा स बोलते ह, झूठ नह । ा ण! यह ीरामच जीका सव म त है, जसे उ ने धारण कर रखा है॥ १७ १/२ ॥ ‘ ीरामके सौतेले भा◌इ ल ण बड़े परा मी ह। समरभू मम श ु का संहार करनेवाले पु ष सह ल ण ीरामके सहायक ह, ब ु ह, चारी और उ म तका ढ़तापूवक पालन करनेवाले ह॥ १८-१९ ॥ ‘ ीरघुनाथजी मेरे साथ जब वनम आने लगे, तब ल ण भी हाथम धनुष लेकर उनके पीछे हो लये। इस कार मेरे और अपने छोटे भा◌इके साथ ीराम इस द कार म आये ह। वे ढ़ त तथा न - नर र धमम त र रहनेवाले ह और सरपर जटा धारण कये तप ीके वेशम यहाँ रहते ह॥ २० १/२ ॥ ‘ ज े ! इस कार हम तीन कै के यीके कारण रा से व त हो इस ग ीर वनम अपने ही बलके भरोसे वचरते ह। आप यहाँ ठहर सक तो दो घड़ी व ाम कर। अभी मेरे ामी



चुरमा ाम जंगली फल-मूल लेकर आते ह गे॥ २१-२२ १/२ ॥ ‘ , गोह और जंगली सूअर आ द हसक पशु का वध करके तप ी जन के उपभोगम आने यो ब त-सा फल-मूल लेकर वे अभी आयँगे (उस समय आपका वशेष स ार होगा)। न्! अब आप भी अपने नाम-गो और कु लका ठीक-ठीक प रचय दी जये। आप अके ले इस द कार म कस लये वचरते ह!’॥ २३-२४ ॥ ीरामप ी सीताके इस कार पूछनेपर महाबली रा सराज रावणने अ कठोर श म उ र दया— ‘सीते! जसके नामसे देवता, असुर और मनु स हत तीन लोक थरा उठते ह, म वही रा स का राजा रावण ँ ॥ २६ ॥ ‘अ न सु र! तु ारे अ क का सुवणके समान है, जनपर रेशमी साड़ी शोभा पा रही है। तु देखकर अब मेरा मन अपनी य क ओर नह जाता है॥ २७ ॥ ‘म इधर-उधरसे ब त-सी सु री य को हर लाया ँ । उन सबम तुम मेरी पटरानी बनो। तु ारा भला हो॥ २८ ॥ ‘मेरी राजधानीका नाम ल ा है। वह महापुरी समु के बीचम एक पवतके शखरपर बसी ◌इ है। समु ने उसे चार ओरसे घेर रखा है॥ २९ ॥ ‘सीते! वहाँ रहकर तुम मेरे साथ नाना कारके वन म वचरण करोगी। भा म न! फर तु ारे मनम इस वनवासक इ ा कभी नह होगी॥ ३० ॥ ‘सीते! य द तुम मेरी भाया हो जाओगी तो सब कारके आभूषण से वभू षत पाँच हजार दा सयाँ सदा तु ारी सेवा कया करगी’॥ ३१ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर नद ष अ वाली जनकन नी सीता कु पत हो उठ और रा सका तर ार करके उसे य उ र देने लग —॥ ३२ ॥ ‘मेरे प तदेव भगवान् ीराम महान् पवतके समान अ वचल ह, इ के तु परा मी ह और महासागरके समान शा ह, उ को◌इ ु नह कर सकता। म तन-मन- ाणसे उ का अनुसरण करनेवाली तथा उ क अनुरा गणी ँ ॥ ३३ ॥ ‘ ीरामच जी सम शुभ ल ण से स , वटवृ क भाँ त सबको अपनी छायाम आ य देनेवाले, स त और महान् सौभा शाली ह। म उ क अन अनुरा गणी ँ ॥ ३४ ॥



‘उनक



भुजाएँ बड़ी-बड़ी और छाती चौड़ी है। वे सहके समान पाँव बढ़ाते ए बड़े गवके साथ चलते ह और सहके ही समान परा मी ह। म उन पु ष सह ीरामम ही अन भ रखनेवाली ँ ॥ ३५ ॥ ‘राजकु मार ीरामका मुख पूण च माके समान मनोहर है। वे जते य ह और उनका यश महान् है। उन महाबा ीरामम ही ढ़तापूवक मेरा मन लगा आ है॥ ३६ ॥ ‘पापी नशाचर! तू सयार है और म स हनी ँ । म तेरे लये सवथा दुलभ ँ । ा तू यहाँ मुझे ा करनेक इ ा रखता है। अरे! जैसे सूयक भापर को◌इ हाथ नह लगा सकता, उसी कार तू मुझे छू भी नह सकता॥ ३७ ॥ ‘अभागे रा स! तेरा इतना साहस! तू ीरघुनाथजीक ारी प ीका अपहरण करना चाहता है! न य ही तुझे ब त-से सोनेके वृ दखायी देने लगे ह—अब तू मौतके नकट जा प ँ चा है॥ ३८ ॥ ‘तू ीरामक ारी प ीको ह गत करना चाहता है। जान पड़ता है, अ वेगशाली मृगवैरी भूखे सह और वषधर सपके मुखसे उनके दाँत तोड़ लेना चाहता है, पवत े म राचलको हाथसे उठाकर ले जानेक इ ा करता है, कालकू ट वषको पीकर कु शलपूवक लौट जानेक अ भलाषा रखता है तथा आँ खको सू◌इसे प छता और छु रेको जीभसे चाटता है॥ ‘ ा तू अपने गलेम प र बाँधकर समु को पार करना चाहता है? सूय और च मा दोन को अपने दोन हाथ से हर लानेक इ ा करता है? जो ीरामच जीक ारी प ीपर बलात् करनेको उता आ है॥ ४२ १/२ ॥ ‘य द तू क ाणमय आचारका पालन करनेवाली ीरामक भायाका अपहरण करना चाहता है तो अव ही जलती ◌इ आगको देखकर भी तू उसे कपड़ेम बाँधकर ले जानेक इ ा करता है॥ ४३ १/२ ॥ ‘अरे तू ीरामक भायाको, जो सवथा उ के यो है, ह गत करना चाहता है, तो न य ही लोहमय मुखवाले शूल क नोकपर चलनेक अ भलाषा करता है॥ ४४ ॥ ‘वनम रहनेवाले सह और सयारम, समु और छोटी नदीम तथा अमृत और काँजीम जो अ र है, वही अ र दशरथन न ीरामम और तुझम है॥ ४५ ॥



‘सोने



और सीसेम, च न म त जल और क चड़म तथा वनम रहनेवाले हाथी और बलावम जो अ र है, वही अ र दशरथन न ीराम और तुझम है॥ ४६ ॥ ‘ग ड़ और कौएम, मोर और जलकाकम तथा वनवासी हंस और गीधम जो अ र है, वही अ र दशरथन न ीराम और तुझम है॥ ४७ ॥ ‘ जस समय सह ने धारी इ के समान भावशाली ीरामच जी हाथम धनुष और बाण लेकर खड़े हो जायँग,े उस समय तू मेरा अपहरण करके भी मुझे पचा नह सके गा, ठीक उसी तरह जैसे म ी घी पीकर उसे पचा नह सकती’॥ ४८ ॥ सीताके मनम को◌इ दुभाव नह था तो भी उस रा ससे यह अ दु:खजनक बात कहकर सीता रोषसे काँपने लग । शरीरके क नसे कृ शा ी सीता हवासे हलायी गयी कदलीके समान थत हो उठ ॥ ४९ ॥ सीताको काँपती देख मौतके समान भाव रखनेवाला रावण उनके मनम भय उ करनेके लये अपने कु ल, बल, नाम और कमका प रचय देने लगा॥ ५० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म सतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४७॥



अड़तालीसवाँ सग रावणके ारा अपने परा मका वणन और सीता ारा उसको कड़ी फटकार



सीताके ऐसा कहनेपर रावण रोषम भर गया और ललाटम भ ह टेढ़ी करके वह कठोर वाणीम बोला—॥ १ ॥ ‘सु र! म कु बेरका सौतेला भा◌इ परम तापी दश ीव रावण ँ । तु ारा भला हो॥ २ ॥ ‘जैसे



जा मौतके भयसे सदा डरती रहती है, उसी कार देवता, ग व, पशाच, प ी और नाग सदा जससे भयभीत होकर भागते ह, जसने कसी कारणवश अपने सौतेले भा◌इ कु बेरके साथ यु कया और ोधपूवक परा म करके रणभू मम उ परा कर दया था, वही रावण म ँ ॥ ३-४ ॥ ‘मेरे ही भयसे पी ड़त हो नरवाहन कु बेरने अपनी समृ शा लनी पुरी ल ाका प र ाग करके इस समय पवत े कै लासक शरण ली है॥ ५ ॥ ‘भ े! उनका सु स पु क नामक सु र वमान, जो इ ाके अनुसार चलनेवाला है, मने परा मसे जीत लया है और उसी वमानके ारा म आकाशम वचरता ँ ॥ ६ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! जब मुझे रोष चढ़ता है, उस समय इ आ द सब देवता मेरा मुँह देखकर ही भयसे थरा उठते ह और इधर-उधर भाग जाते ह॥ ७ ॥ ‘जहाँ म खड़ा होता ँ , वहाँ हवा डरकर धीरे-धीरे चलने लगती है। मेरे भयसे आकाशम च करण वाला सूय भी च माके समान शीतल हो जाता है॥ ८ ॥ ‘ जस ानपर म ठहरता या मण करता ँ , वहाँ वृ के प ेतक नह हलते और न दय का पानी र हो जाता है॥ ९ ॥ ‘समु के उस पार ल ा नामक मेरी सु र पुरी है, जो इ क अमरावतीके समान मनोहर तथा घोर रा स से भरी ◌इ है॥ १० ॥ ‘उसके चार ओर बनी ◌इ सफे द चहार दवारी उस पुरीक शोभा बढ़ाती है। ल ापुरीके महल के दालान, फश आ द सोनेके बने ह और उसके बाहरी दरवाजे वैदयू मय ह। वह पुरी ब त ही रमणीय है॥ ११ ॥



‘हाथी,



घोड़े और रथ से वहाँक सड़क भरी रहती ह। भाँ त-भाँ तके वा क न गूँजा करती है। सब कारके मनोवा त फल देनेवाले वृ से ल ापुरी ा है। नाना कारके उ ान उसक शोभा बढ़ाते ह॥ १२ ॥ ‘राजकु मारी सीते! तुम मेरे साथ उस पुरीम चलकर नवास करो। मन न! वहाँ रहकर तुम मानवी य को भूल जाओगी॥ १३ ॥ ‘सु र! ल ाम द और मानुष-भोग का उपभोग करती ◌इ तुम उस मनु रामका कभी रण नह करोगी, जसक आयु अब समा हो चली है॥ १४ ॥ ‘ वशाललोचने! राजा दशरथने अपने ारे पु को रा पर बठाकर जस अ परा मी े पु को वनम भेज दया, उस रा , बु हीन एवं तप ाम लगे ए तापस रामको लेकर ा करोगी?॥ १५-१६ ॥ ‘यह रा स का ामी यं तु ारे ारपर आया है, तुम इसक र ा करो, इसे मनसे चाहो। यह कामदेवके बाण से पी ड़त है। इसे ठु कराना तु ारे लये उ चत नह है॥ १७ ॥ ‘भी ! मुझे ठु कराकर तुम उसी तरह प ा ाप करोगी, जैसे पु रवाको लात मारकर उवशी पछतायी थी॥ १८ ॥ ‘सु र! यु म मनु जातीय राम मेरी एक अ ु लके बराबर भी नह है। तु ारे भा से म आ गया ँ । तुम मुझे ीकार करो’॥ १९ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर वदेहकु मारी सीताके ने ोधसे लाल हो गये। उ ने उस एका ानम रा सराज रावणसे कठोर वाणीम कहा—॥ २० ॥ ‘अरे! भगवान् कु बेर तो स ूण देवता के व नीय ह। तू उ अपना भा◌इ बताकर ऐसा पापकम कै से करना चाहता है?॥ २१ ॥ ‘रावण! जनका तुझ-जैसा ू र, दुबु और अ जते य राजा है, वे सब रा स अव ही न हो जायँगे॥ २२ ॥ ‘इ क प ी शचीका अपहरण करके स व है को◌इ जी वत रह जाय; कतु रामप ी मुझ सीताका हरण करके को◌इ कु शलसे नह रह सकता॥ २३ ॥ ‘रा स! व धारी इ क अनुपम पवती भाया शचीका तर ार करके स व है को◌इ उसके बाद भी चरकालतक जी वत रह जाय; परंतु मेरी-जैसी ीका अपमान करके तू अमृत पी



ले तो भी तुझे जीते-जी छु टकारा नह मल सकता’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म अड़तालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४८॥



उनचासवाँ सग रावण ारा सीताका अपहरण, सीताका वलाप और उनके ारा जटायुका दशन



सीताके इस वचनको सुनकर तापी दशमुख रावणने अपने हाथपर हाथ मारकर शरीरको ब त बड़ा बना लया॥ वह बातचीत करनेक कला जानता था। उसने म थलेशकु मारी सीतासे फर इस कार कहना आर कया—‘मेरी समझम तुम पागल हो गयी हो, इसी लये तुमने मेरे बल और परा मक बात अनसुनी कर दी ह॥ ‘अरी! म आकाशम खड़ा हो इन दोन भुजा से ही सारी पृ ीको उठा ले जा सकता ँ । समु को पी जा सकता ँ और यु म त हो मौतको भी मार सकता ँ ॥ ३ ॥ ‘काम तथा पसे उ रहनेवाली नारी! य द चा ँ तो अपने तीखे बाण से सूयको भी थत कर दूँ और इस भूतलको भी वदीण कर डालूँ। म इ ानुसार प धारण करनेम समथ ँ । तुम मेरी ओर देखो’॥ ४ ॥ ऐसा कहते-कहते ोधसे भरे ए रावणक आँ ख, जनके ा भाग काले थे, जलती आगके समान लाल हो गय ॥ ५ ॥ कु बेरके छोटे भा◌इ रावणने त ाल अपने सौ पको ागकर तीखा एवं कालके समान वकराल अपना ाभा वक प धारण कर लया॥ ६ ॥ उस समय ीमान् रावणके सभी ने लाल हो रहे थे। वह प े सोनेके आभूषण से अलंकृत था और महान् ोधसे आ व हो नीलमेघके समान काला दखायी देने लगा॥ ७ ॥ वह वशालकाय नशाचर प र ाजकके उस छ वेशको ागकर दस मुख और बीस भुजा से संयु हो गया॥ ८ ॥ उस समय रा सराज रावणने अपने सहज पको हण कर लया और लाल रंगके व पहनकर वह ी-र सीताक ओर देखता आ खड़ा हो गया॥ ९ ॥ काले के शवाली मै थली व ाभूषण से वभू षत हो सूयक भा-सी जान पड़ती थ । रावणने उनसे कहा—॥ १० ॥



‘वरारोहे! य द तुम तीन



लोक म व ात पु षको अपना प त बनाना चाहती हो तो मेरा आ य लो। म ही तु ारे यो प त ँ ॥ ११ ॥ ‘भ े! मुझे सुदीघकालके लये ीकार करो। म तु ारे लये ृहणीय एवं शंसनीय प त होऊँ गा तथा कभी तु ारे मनके तकू ल को◌इ बताव नह क ँ गा॥ ‘मनु रामके वषयम जो तु ारा अनुराग है, उसे ाग दो और मुझसे ेह करो। अपनेको प त (बु मती) माननेवाली मूढ़ नारी! जो रा से है, जसका मनोरथ सफल नह आ तथा जसक आयु सी मत है, उस रामम कन गुण के कारण तुम अनुर हो॥ १३ १/२ ॥ ‘जो



एक ीके कहनेसे सु द स हत सारे रा का ाग करके इस हसक ज ु से से वत वनम नवास करता है, उसक बु कै सी खोटी है? (वह सवथा मूढ़ है)’॥ १४ १/२ ॥ जो य वचन सुननेके यो और सबसे य वचन बोलनेवाली थ , उन म थलेशकु मारी सीतासे ऐसा अ य वचन कहकर कामसे मो हत ए उस अ दु ा ा रा स रावणने नकट जाकर (माताके समान आदरणीया) सीताको पकड़ लया, मानो बुधने आकाशम अपनी माता रो हणीको पकड़नेका दु ाहस कया हो*॥ १५-१६ ॥ उसने बाय हाथसे कमलनयनी सीताके के श स हत म कको पकड़ा तथा दा हना हाथ उनक दोन जाँघ के नीचे लगाकर उसके ारा उ उठा लया॥ १७ ॥ उस समय तीखी दाढ़ और वशाल भुजा से यु पवत शखरके समान तीत होनेवाले उस कालके समान वकराल रा सको देखकर वनके सम देवता भयभीत होकर भाग गये॥ १८ ॥ इतनेहीम गध से जुता आ और गध के समान ही श करनेवाला रावणका वह वशाल सुवणमय माया न मत द रथ वहाँ दखायी दया॥ १९ ॥ रथके कट होते ही जोर-जोरसे गजना करनेवाले रावणने कठोर वचन ारा वदेहन नी सीताको डाँटा और पूव पसे गोदम उठाकर त ाल रथपर बठा दया॥ २० ॥ रावणके ारा पकड़ी जानेपर यश नी सीता दु:खसे ाकु ल हो गय और वनम दूर गये ए ीरामच जीको ‘हे राम!’ कहकर जोर-जोरसे पुकारने लग ॥ २१ ॥



सीताके मनम रावणक कामना नह थी—वे उसक ओरसे सवथा वर थ और उसक कै दसे अपनेको छु ड़ानेके लये चोट खायी ◌इ ना गनक तरह उस रथपर छटपटा रही थ । उसी अव ाम कामपी ड़त रा स उ लेकर आकाशम उड़ चला॥ २२ ॥ रा सराज जब सीताको हरकर आकाशमागसे ले जाने लगा, उस समय उनका च मत हो उठा। वे पगली-सी हो गय और दु:खसे आतुर-सी होकर जोर-जोरसे वलाप करने लग —॥ २३ ॥ ‘हा महाबा ल ण! तुम गु जन के मनको स करनेवाले हो। इस समय इ ानुसार प धारण करनेवाला रा स मुझे हरकर लये जाता है, कतु तु इसका पता नह है॥ २४ ॥ ‘हा रघुन न! आपने धमके लये ाण का मोह, शरीरका सुख तथा रा -वैभव सब कु छ छोड़ दया है। यह रा स मुझे अधमपूवक हरकर लये जा रहा है, परंतु आप नह देखते ह॥ २५ ॥ ‘श



ु को संताप देनेवाले आयपु ! आप तो कु मागपर चलनेवाले उ पु ष को द देकर उ राहपर लानेवाले ह, फर ऐसे पापी रावणको नह द देते ह॥ २६ ॥ ‘उ पु षके उ तापूण कमका फल त ाल मलता नह दखायी देता है; क इसम काल भी सहकारी कारण होता है, जैसे क खेतीके पकनेके लये तदनुकूल समयक अपे ा होती है॥ २७ ॥ ‘रावण! तेरे सरपर काल नाच रहा है। उसीने तेरी वचारश को न कर दी है, इसी लये तूने ऐसा पापकम कया है। तुझे ीरामसे वह भयंकर संकट ा हो, जो तेरे ाण का अ कर डाले॥ २८ ॥ ‘हाय! इस समय कै के यी अपने ब -ु बा व स हत सफलमनोरथ हो गयी; क धमक अ भलाषा रखनेवाले यश ी ीरामक धमप ी होकर भी म एक रा स ारा हरी जा रही ँ ॥ २९ ॥ ‘म जन ानम खले ए कनेर वृ से ाथना करती ँ , तुमलोग शी ही ीरामसे कहना क सीताको रावण हर ले जा रहा है॥ ३० ॥ ‘हंस और सारस के कलरव से मुख रत ◌इ गोदावरी नदीको म णाम करती ँ । माँ! तुम ीरामसे शी ही कह देना, सीताको रावण हर ले जा रहा है॥ ३१ ॥



‘इस



वनके व भ वृ पर नवास करनेवाले जो-जो देवता ह, उन सबको म नम ार करती ँ । आप सब लोग शी ही मेरे ामीको सूचना दे द क आपक ीको रा स हर ले गया॥ ३२ ॥ ‘यहाँ पशु-प ी आ द जो को◌इ भी नाना कारके ाणी रहते ह , उन सबक म शरण लेती ँ । वे मेरे ामी ीरामच जीसे कह क जो आपको ाण से भी बढ़कर य थी, वह सीता हरी गयी। आपक सीताको असहाय अव ाम रावण हर ले गया॥ ३३-३४ ॥ ‘महाबा ीराम बड़े बलवान् ह। वे मुझे परलोकम भी गयी ◌इ जान ल तो यमराजके ारा अप त होनेपर भी मुझको परा मपूवक वहाँसे लौटा लायगे’॥ ३५ ॥ उस समय अ दु:खी हो क णाजनक बात कहकर वलाप करती ◌इ वशाललोचना सीताने एक वृ पर बैठे ए गृ राज जटायुको देखा॥ ३६ ॥ रावणके वशम पड़ जानेके कारण सु री सीता अ भयभीत हो रही थ । जटायुको देखकर वे दु:खभरी वाणीम क ण न करने लग —॥ ३७ ॥ ‘आय जटायो! दे खये, यह पापाचारी रा सराज अनाथक भाँ त मुझे नदयतापूवक हरकर लये जा रहा है॥ ३८ ॥ ‘परंतु आप इस ू र नशाचरको रोक नह सकते; क यह बलवान् है, अनेक यु म वजय पानेके कारण इसका दु ाहस बढ़ा आ है। इसके हाथ म ह थयार है और इसके मनम दु ता भी भरी ◌इ है॥ ‘आय जटायो! जस कार मेरा अपहरण आ है, यह सब समाचार आप ीराम और ल णसे -का पूण पसे बता दी जयेगा’॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म उनचासवाँ सग पूरा आ॥ ४९॥ यहाँ अभूतोपमालंकार है। बुध च माके पु ह और रो हणी च माक प ी। बुधने न तो कभी रो हणीको पकड़ा है और न वे ऐसा कर ही सकते ह। यहाँ यह दखाया गया है क य द कदा चत् बुध कामवश अपनी माता रो हणीको पकड़ ल तो वह जैसा घोर पाप होगा, वही पाप रावणने सीताको पकड़नेके कारण कया था। *



पचासवाँ सग जटायुका रावणको सीताहरणके द ु



मसे नवृ होनेके लये समझाना और अ म यु के लये ललकारना



जटायु उस समय सो रहे थे। उसी अव ाम उ ने सीताक वह क ण पुकार सुनी। सुनते ही तुरंत आँ ख खोलकर उ ने वदेहन नी सीता तथा रावणको देखा॥ प य म े ीमान् जटायुका शरीर पवत श् ◌ाखरके समान ऊँ चा था और उनक च च बड़ी ही तीखी थी। वे पेड़पर बैठे-ही-बैठे रावणको ल करके यह शुभ वचन बोले—॥ २ ॥ ‘दशमुख रावण! म ाचीन (सनातन) धमम त, स त और महाबलवान् गृ राज ँ । मेरा नाम जटायु है। भैया! इस समय मेरे सामने तु ऐसा न त कम नह करना चा हये॥ ३ १/२ ॥ ‘दशरथन न ीरामच जी स ूण जग े ामी, इ और व णके समान परा मी तथा सब लोग के हतम संल रहनेवाले ह॥ ४ १/२ ॥ ‘ये उ जगदी र ीरामक यश नी धमप ी ह। इन सु र शरीरवाली देवीका नाम सीता है, ज तुम हरकर ले जाना चाहते हो॥ ५ १/२ ॥ ‘अपने धमम त रहनेवाला को◌इ भी राजा भला परायी ीका श कै से कर सकता है? महाबली रावण! राजा क य क तो सभीको वशेष पसे र ा करनी चा हये। परायी ीके शसे जो नीच ग त ा होनेवाली है, उसे अपने-आपसे दूर हटा दो॥ ‘धीर (बु मान्) वह कम न करे जसक दूसरे लोग न ा कर। जैसे पराये पु ष के शसे अपनी ीक र ा क जाती है, उसी कार दूसर क य क भी र ा करनी चा हये॥ ८॥ ‘पुल कु लन न! जनक शा म चचा नह है ऐसे धम, अथ अथवा कामका भी े पु ष के वल राजाक देखादेखी आचरण करने लगते ह (अत: राजाको अनु चत या अशा ीय कमम वृ नह होना चा हये)॥ ९ ॥ ‘राजा धम और कामका वतक तथा क उ म न ध है, अत: धम, सदाचार अथवा पाप—इनक वृ का मूल कारण राजा ही है॥ १० ॥



‘रा



सराज! जब तु ारा भाव ऐसा पापपूण है और तुम इतने चपल हो, तब पापीको देवता के वमानक भाँ त तु यह ऐ य कै से ा हो गया?॥ ‘ जसके भावम कामक धानता है, उसके उस भावका प रमाजन नह कया जा सकता; क दु ा ा के घरम दीघकालके बाद भी पु का आवास नह होता॥ १२ ॥ ‘जब महाबली धमा ा ीराम तु ारे रा अथवा नगरम को◌इ अपराध नह करते ह, तब तुम उनका अपराध कै से कर रहे हो?॥ १३ ॥ ‘य द पहले शूपणखाका बदला लेनेके लये चढ़कर आये ए अ ाचारी खरका अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामने वध कया तो तु ठीक-ठीक बताओ क इसम ीरामका ा अपराध है, जससे तुम उन जगदी रक प ीको हर ले जाना चाहते हो?॥ १४-१५ ॥ ‘रावण! अब शी ही वदेहकु मारी सीताको छोड़ दो, जससे ीरामच जी अपनी अ के समान भयंकर ष्टसे तु जलाकर भ न कर डाल। जैसे इ का व वृ ासुरका वनाश कर डाला था, उसी कार ीरामक रोषपूण ष्ट द कर डालेगी॥ १६ ॥ ‘तुमने अपने कपड़ेम वषधर सपको बाँध लया है, फर भी इस बातको समझ नह पाते हो। तुमने अपने गलेम मौतक फाँसी डाल ली है, फर भी यह तु सूझ नह रहा है॥ १७ ॥ ‘सौ ! पु षको उतना ही बोझ उठाना चा हये, जो उसे श थल न कर दे और वही अ भोजन करना चा हये, जो पेटम जाकर पच जाय, रोग न पैदा करे॥ ‘जो काय करनेसे न तो धम होता हो, न क त बढ़ती हो और न अ य यश ही ा होता हो, उ े शरीरको खेद हो रहा हो, उस कमका अनु ान कौन करेगा?॥ १९ ॥ ‘रावण! बाप-दाद से ा इस प य के रा का व धवत् पालन करते ए मुझे ज से लेकर अबतक साठ हजार वष बीत गये॥ २० ॥ ‘अब म बूढ़ा हो गया ँ और तुम नवयुवक हो। (मेरे पास को◌इ यु का साधन नह है, कतु) तु ारे पास धनुष, कवच, बाण तथा रथ सब कु छ है, फर भी तुम सीताको लेकर कु शलपूवक नह जा सकोगे॥ ‘मेरे देखते-देखते तुम वदेहन नी सीताका बलपूवक अपहरण नह कर सकते; ठीक उसी तरह जैसे को◌इ ायस त हेतु से स स ◌इ वै दक ु तको अपनी यु य के



बलपर पलट नह सकता॥ ‘रावण! य द शूरवीर हो तो यु करो। मेरे सामने दो घड़ी ठहर जाओ; फर जैसे पहले खर मारा गया था, उसी कार तुम भी मेरे ारा मारे जाकर सदाके लये सो जाओगे॥ २३ ॥ ‘ ज ने यु म अनेक बार दै और दानव का वध कया है, वे चीरव धारी भगवान् ीराम तु ारा भी शी ही यु भू मम वनाश करगे॥ २४ ॥ ‘इस समय म ा कर सकता ँ , वे दोन राजकु मार ब त दूर चले गये ह। नीच! (य द म उ बुलाने जाऊँ तो) तुम उन दोन से भयभीत होकर शी ही भाग जाओगे (आँ ख से ओझल हो जाओगे), इसम संशय नह है॥ २५ ॥ ‘कमलके समान ने वाली ये शुभल णा सीता ीरामच जीक ारी पटरानी ह। इ मेरे जीते-जी तुम नह ले जाने पाओगे॥ २६ ॥ ‘मुझे अपने ाण देकर भी महा ा ीराम तथा राजा दशरथका य काय अव करना होगा॥ २७ ॥ ‘दशमुख रावण! ठहरो, ठहरो! के वल दो घड़ी क जाओ, फर देखो, जैसे डंठलसे फल गरता है, उसी कार तु इस उ म रथसे नीचे गराये देता ँ । नशाचर! अपनी श के अनुसार यु म म तु ारा पूरा आ त -स ार क ँ गा— तु भलीभाँ त भटपूजा दूँगा’॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पचासवाँ सग पूरा आ॥ ५०॥







ावनवाँ सग



जटायु तथा रावणका घोर यु और रावणके ारा जटायुका वध



जटायुके ऐसा कहनेपर रा सराज रावण ोधसे आँ ख लाल कये अमषम भरकर उन प राजक ओर दौड़ा। उस समय उसके कान म तपाये ए सोनेके कु ल झलमला रहे थे॥ १ ॥



उस महासमरम उन दोन का एक-दूसरेपर भयंकर हार होने लगा, मानो आकाशम वायुसे उड़ाये गये दो मेघख आपसम टकरा गये ह ॥ २ ॥ उस समय गृ और रा सम वह बड़ा अ तु यु होने लगा, मानो दो पंखधारी मा वान्१ पवत एक-दूसरेसे भड़ गये ह ॥ ३ ॥ रावणने महाबली गृ राज जटायुपर नालीक, नाराच तथा तीखे अ भागवाले वकण नामक महाभयंकर अ क वषा आर कर दी॥ ४ ॥ प राज गृ जातीय जटायुने यु म रावणके उन बाणसमूह तथा अ अ का आघात सह लया॥ ५ ॥ साथ ही उन महाबली प शरोम णने अपने तीखे नख वाले पंज से मार-मारकर रावणके शरीरम ब त-से घाव कर दये॥ ६ ॥ तब दश ीवने ोधम भरकर अपने श ुको मार डालनेक इ ासे दस बाण हाथम लये, जो कालद के समान भयंकर थे॥ ७ ॥ महापरा मी रावणने धनुषको पूणत: ख चकर छोड़े गये उन सीधे जानेवाले तीखे, पैने और भयंकर बाण ारा, जनके मुखपर श (काँटे) लगे ए थे। गृ राजको त- व त कर दया॥ ८ ॥ जटायुने देखा, जनकन नी सीता रा सके रथपर बैठी ह और ने से आँ सू बहा रही ह। उ देखकर गृ राज अपने शरीरम लगते ए उन बाण क परवा न करके सहसा उस रा सपर टूट पड़े॥ ९ ॥ महातेज ी प राज जटायुने मोती-म णय से वभू षत, बाणस हत रावणके धनुषको अपने दोन पैर से मारकर तोड़ दया॥ १० ॥



फर तो रावण ोधसे भर गया और दूसरा धनुष हाथम लेकर उसने सैकड़ -हजार बाण क झड़ी लगा दी॥ ११ ॥ उस समय उस यु लम गृ राजके चार ओर बाण का जाल-सा तन गया। वे उस समय घ सलेम बैठे ए प ीके समान तीत होने लगे॥ १२ ॥ तब महातेज ी जटायुने अपने दोन पंख से ही उन बाण को उड़ा दया और पंज क मारसे पुन: उसके धनुषके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ १३ ॥ रावणका कवच अ के समान लत हो रहा था। महातेज ी प राजने उसे भी पंख से ही मारकर छ - भ कर दया॥ १४ ॥ त ात् उन बलवान् वीरने समरा णम पशाचके -से मुखवाले उन वेगशाली गध को भी, जनक छातीपर सोनेके कवच बँधे ए थे, मार डाला॥ १५ ॥ तदन र अ क भाँ त दी मान्, म णमय सोपानसे व च अ वाले तथा इ ानुसार चलनेवाले उसके वेणुस २ वशाल रथको भी तोड़-फोड़ डाला॥ १६ ॥ इसके बाद पूण च माक भाँ त सुशो भत छ और चवँरको भी उ धारण करनेवाले रा स के साथ ही वेगपूवक मार गराया। फर उन महाबली तेज ी प राजने बड़े वेगसे च च मारकर रावणके सार थका वशाल म क भी धड़से अलग कर दया॥ १७-१८ ॥ इस कार जब धनुष टूटा, रथ चौपट आ, घोड़े मारे गये और सार थ भी कालके गालम चला गया, तब रावण सीताको गोदम लये- लये पृ ीपर गर पड़ा॥ रथ टूट जानेसे रावणको धरतीपर पड़ा देख सब ाणी ‘साधु-साधु’ कहकर गृ राजक शंसा करने लगे॥ वृ ाव ाके कारण प राजको थका आ देख रावणको बड़ा हष आ और वह मै थलीको लये ए फर आकाशम उड़ चला॥ २१ ॥ जनक कशोरीको गोदम लेकर जब रावण स तापूवक जाने लगा, उस समय उसके अ सब साधन तो न हो गये थे, कतु एक तलवार उसके पास शेष रह गयी थी। उसे जाते देख महातेज ी गृ राज जटायु उड़कर रावणक ओर दौड़े और उसे रोककर इस कार बोले —॥ २२-२३ ॥



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बु रावण! जनके बाण का श व के समान है, उन ीरामक इन धमप ी सीताको तुम अव रा स के वधके लये ही लये जा रहे हो॥ ‘जैसे ासा मनु जल पी रहा हो, उसी कार तुम म , ब ,ु म ी, सेना तथा प रवारस हत यह वषपान कर रहे हो॥ २५ ॥ ‘अपने कम का प रणाम न जाननेवाले अ ानीजन जैसे शी ही न हो जाते ह, उसी कार तुम भी वनाशके गतम गरोगे॥ २६ ॥ ‘तुम कालपाशम बँध गये हो। कहाँ जाकर उससे छु टकारा पाओगे? जैसे जलम उ होनेवाला म मांसयु बंसीको अपने वधके लये ही नगल जाता है, उसी कार तुम भी अपने मौतके लये ही सीताका अपहरण करते हो॥ २७ ॥ ‘रावण! ककु कु लभूषण रघुकुलन न ीराम और ल ण दोन भा◌इ दुधष वीर ह। वे तु ारे ारा अपने आ मपर कये गये इस अपमानजनक अपराधको कभी मा नह करगे॥ २८ ॥ ‘तुम कायर और डरपोक हो। तुमने जैसा लोक न त कम कया है, यह चोर का माग है। वीर पु ष ऐसे मागका आ य नह लेते ह॥ २९ ॥ ‘रावण! य द शूरवीर हो तो दो घड़ी और ठहरो और मुझसे यु करो। फर तो तुम भी उसी कार मरकर पृ ीपर सो जाओगे, जैसे तु ारा भा◌इ खर सोया था॥ ३० ॥ ‘ वनाशके समय पु ष जैसा कम करता है, तुमने भी अपने वनाशके लये वैसे ही अधमपूण कमको अपनाया है॥ ३१ ॥ ‘ जस कमको करनेसे कताका पापके फलसे स होता है, उस कमको कौन पु ष न त पसे कर सकता है। लोकपाल इ तथा भगवान् य ू ( ा) भी वैसा कम नह कर सकते’॥ ३२ ॥ इस कार उ म वचन कहकर परा मी जटायु उस रा स दश ीवक पीठपर बड़े वेगसे जा बैठे और उसे पकड़कर अपने तीखे नख ारा चार ओरसे चीरने लगे। मानो को◌इ हाथीवान् कसी दु हाथीके ऊपर सवार होकर उसे अंकुशसे छेद रहा हो॥ ३३-३४ ॥ नख, पाँख और च च—ये ही जटायुके ह थयार थे। वे नख से खर चते थे, पीठपर च च मारते थे और बाल पकड़कर उखाड़ लेते थे॥ ३५ ॥



इस कार जब गृ राजने बारंबार ेश प ँ चाया, तब रा स रावण काँप उठा। ोधके मारे उसके ओठ फड़कने लगे॥ ३६ ॥ उस समय ोधसे भरे रावणने वदेहन नी सीताको बाय गोदम करके अ पी ड़त हो जटायुपर तमाचेका हार कया॥ ३७ ॥ परंतु उस वारको बचाकर श ुदमन गृ राज जटायुने अपनी च चसे मार-मारकर रावणक दस बाय भुजा को उखाड़ लया॥ ३८ ॥ उन बाँह के कट जानेपर बाँबीसे कट होनेवाले वषक ाला-माला से यु सप क भाँ त तुरंत दूसरी नयी भुजाएँ सहसा उ हो गय ॥ ३९ ॥ तब परा मी दशाननने सीताको तो छोड़ दया और गृ राजको ोधपूवक मु और लात से मारना आर कया॥ ४० ॥ उस समय उन दोन अनुपम परा मी वीर रा सराज रावण और प राज जटायुम दो घड़ीतक घोर सं ाम होता रहा॥ ४१ ॥ तदन र रावणने तलवार नकाली और ीरामच जीके लये परा म करनेवाले जटायुके दोन पंख, पैर तथा पा भाग काट डाले॥ ४२ ॥ भयंकर कम करनेवाले उस रा सके ारा सहसा पंख काट लये जानेपर महागृ जटायु पृ ीपर गर पड़े। अब वे थोड़ी ही देरके मेहमान थे॥ ४३ ॥ अपने बा वके समान जटायुको खूनसे लथपथ होकर पृ ीपर पड़ा देख सीता दु:खसे ाकु ल हो उनक ओर दौड़ ॥ ४४ ॥ जटायुके शरीरक का नीले मेघके समान काली थी। उनक छातीका रंग ेत था। वे बड़े परा मी थे, तो भी उस समय बुझे ए दावानलके समान पृ ीपर पड़ गये। ल ाप त रावणने उ इस अव ाम देखा॥ ४५ ॥ तदन र रावणके वेगसे र दे जाकर धराशायी ए जटायुको पकड़कर च मुखी जनकन नी सीता पुन: उस समय वहाँ रोने लग ॥ ४६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म इ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५१॥



१. मा वान् पवत दो माने गये ह, एक तो द कार म क ाके समीप है और दूसरा मे पवतके नकट बताया गया है। ये दोन पवत पर र इतने दूर ह क इनम संघषक को◌इ स ावना नह हो सकती। इस लये ‘सप ’ (पंखधारी) वशेषण दया गया है। पाँखवाले पवत कदा चत् उड़कर एक-दूसरेके समीप प ँ च सकते ह। २. वेणु रथका वह अ है, जो जूएको धारण करता है। इसका पयाय है युग र।



बावनवाँ सग रावण ारा सीताका अपहरण



रावणके ारा मारे गये गृ राजक ओर देखकर च मुखी सीता अ दु:खी होकर वलाप करने लग —॥ १ ॥ ‘मनु को सुख-दु:खक ा के सूचक ल ण, , प य के र तथा उनके दायबाय दशन आ द शुभाशुभ न म अव दखायी देते ह॥ २ ॥ ‘ककु कु लभूषण ीराम! मेरे अपहरणक सूचना देनेके लये न य ही ये मृग और प ी अशुभसूचक मागसे दौड़ रहे ह, परंतु उनके ारा सू चत होनेपर भी अपने इस महान् संकटको अव ही आप नह जानते ह ( क जाननेपर आप इसक उपे ा नह कर सकते थे)॥ ३ ॥ ‘हा राम! मेरा कै सा अभा है क जो कृ पा करके मुझे बचानेके लये यहाँ आये थे, वे प वर जटायु इस नशाचर ारा मारे जाकर पृ ीपर पड़े ह॥ ‘हे राम! हे ल ण! अब आप ही दोन मेरी र ा कर।’ य कहकर अ डरी ◌इ सु री सीता इस कार न करने लग , जससे नकटवत देवता और मनु सुन सक॥ ५ ॥ उनके पु हार और आभूषण मसलकर छ भ हो गये थे। वे अनाथक भाँ त वलाप कर रही थ । उसी अव ाम रा सराज रावण उन वदेहकु मारी सीताक ओर दौड़ा॥ ६ ॥ वे लपटी ◌इ लताक भाँ त बड़े-बड़े वृ से लपट जात और बारंबार कहत —‘मुझे इस संकटसे छु ड़ाओ, छु ड़ाओ।’ इतनेहीम वह नशाचरराज उनके पास जा प ँ चा॥ ७ ॥ वनम ीरामसे र हत होकर सीताको राम-रामक रट लगाती देख उस कालके समान वकराल रा सने अपने ही वनाशके लये उनके के श पकड़ लये। सीताका इस कार तर ार होनेपर सम चराचर जगत् मयादार हत तथा अ कारसे आ -सा हो गया॥ वहाँ वायुक ग त क गयी और सूयक भी भा फ क पड़ गयी। ीमान् पतामह ाजी द ष्टसे वदेहन नीका वह रा सके ारा के शाकषण प अपमान देखकर बोले —‘बस अब काय स हो गया’॥ १० १/२ ॥



सीताके के श का ख चा जाना देखकर द कार म नवास करनेवाले वे सब मह ष मनही-मन थत हो उठे । साथ ही अक ात् रावणका वनाश नकट आया जान उनको बड़ा हष आ॥ ११-१२ ॥ बेचारी सीता ‘हा राम! हा राम’ कहकर रो रही थ । ल णको भी पुकार रही थ । उसी अव ाम रा स का राजा रावण उ लेकर आकाशमागसे चल दया॥ १३ ॥ तपाये ए सोनेके आभूषण से उनका सारा अ वभू षत था। वे पीले रंगक रेशमी साड़ी पहने ए थ । अत: उस समय राजकु मारी सीता सुदाम पवतसे कट ◌इ व ु े समान का शत हो रही थ ॥ १४ ॥ उनके फहराते ए पीले व से उपल त रावण दावानलसे उ ा सत होनेवाले पवतके समान अ धक शोभा पाने लगा॥ १५ ॥ उन परम क ाणी वदेहकु मारीके अ म जो कमलपु थे, उनके क चत् अ ण और सुग त दल बखर- बखरकर रावणपर गरने लगे॥ १६ ॥ आकाशम उड़ता आ उनका सुवणके समान का मान् रेशमी पीता र सं ाकालम सूयक करण से रँगे ए ता वणके मेघख क भाँ त शोभा पाता था॥ १७ ॥ आकाशम रावणके अ म त सीताका नमल मुख ीरामके बना नालर हत कमलक भाँ त शो भत नह होता था॥ १८ ॥ सु र ललाट और मनोहर के श से यु कमलके भीतरी भागके समान का मान्, चेचक आ दके दागसे र हत, ेत, नमल और दी मान् दाँत से अलंकृत तथा सु र ने से सुशो भत सीताका मुख आकाशम रावणके अ म ऐसा जान पड़ता था मानो मेघ क काली घटाका भेदन करके च मा उ दत आ हो॥ च माके समान ारा दखायी देनेवाला सीताका वह सु र मुख तुरंतका रोया आ था। उसके आँ सू प छ दये गये थे। उसक सुघड़ ना सका तथा ताँब-े जैसे लाल-लाल मनोहर ओठ थे। आकाशम वह अपनी सुनहरी भा बखेर रहा था तथा रा सराजके वेगपूवक चलनेसे उसम क न हो रहा था। इस कार वह मनोहर मुख भी ीरामके बना उस समय दनम उगे ए च माके समान शोभाहीन तीत होता था॥ म थलेशकु मारी सीताका ीअ सुवणके समान दी मान् था और रा सराज रावणका शरीर बलकु ल काला था। उसक गोदम वे ऐसी जान पड़ती थ मानो काले हाथीको सोनेक



करधनी पहना दी गयी हो॥ २३ ॥ कमलके के सरक भाँ त पीली एवं सुनहरी का वाली जनककु मारी सीता तपे ए सोनेके आभूषण धारण कये रावणक पीठपर वैसी ही शोभा पा रही थ , जैसे मेघमालाका आ य लेकर बजली चमक रही हो॥ २४ ॥ वदेहन नीके आभूषण क झनकारसे रा सराज रावण गजना करते ए नमल नील मेघके समान तीत होता था॥ २५ ॥ हरकर ले जायी जाती ◌इ सीताके सरसे उनके के श म गुँथे ए फू ल बखरकर सब ओर पृ ीपर गर रहे थे॥ २६ ॥ चार ओर होनेवाली वह फू ल क वषा रावणके वेगसे उठी ◌इ वायुके ारा े रत हो फर उस दशाननपर ही आकर पड़ती थी॥ २७ ॥ कु बेरके छोटे भा◌इ रावणके ऊपर जब वह फू ल क धारा गरती थी, उस समय ऊँ चे मे पवतपर उतरनेवाली नमल न मालाक भाँ त शोभा पाती थी॥ २८ ॥ वदेहन नीका र ज टत नूपुर उनके एक चरणसे खसककर व ु लके समान पृ ीपर गर पड़ा॥ २९ ॥ वृ के नूतन प व के समान क चत् अ ण वणवाली सीता उस काले-कलूटे रा सराजको उसी कार सुशो भत कर रही थ , जैसे हाथीको कसनेवाला सुनहरा र ा उसक शोभा बढ़ाता हो॥ ३० ॥ आकाशम अपने तेजसे ब त बड़ी उ ाके समान का शत होनेवाली सीताको रावण आकाशमागका ही आ य ले हर ले गया॥ ३१ ॥ जानक के शरीरपर अ के समान काशमान् आभूषण थे। वे उस समय खन-खनक आवाज करते ए एक-एक करके गरने लगे, मानो आकाशसे ताराएँ टूट-टूटकर पृ ीपर गर रही ह ॥ ३२ ॥ उन वदेहन नी सीताके न के बीचसे खसककर गरता आ च माके समान उ ल हार गगनम लसे उतरती ◌इ ग ाके समान तीत आ॥ ३३ ॥ रावणके वेगसे उ ◌इ उ ातसूचक वायुके झकोर से हलते ए वृ पर नाना कारके प ी कोलाहल कर रहे थे। उ देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे वृ अपने



सर को हला- हलाकर संकेत करते ए सीतासे कह रहे ह क ‘तुम डरो मत’॥ ३४ ॥ जनके कमल सूख गये थे और म आ द जलचर जीव डर गये थे, वे पु र णयाँ उ ाहहीन ◌इ म थलेशकु मारी सीताको मानो अपनी सखी मानकर उनके लये शोक कर रही थ ॥ ३५ ॥ उस सीताहरणके समय रावणपर रोष-सा करके सह, ा , मृग और प ी सब ओरसे सीताक परछाह का अनुसरण करते ए दौड़ रहे थे॥ ३६ ॥ जब सीता हरी जाने लगी, उस समय वहाँके पवत झरन के पम आँ सू बहाते ए, ऊँ चे शखर के पम अपनी भुजाएँ ऊपर उठाकर मानो जोर-जोरसे ची ार कर रहे थे॥ ३७ ॥ सीताका हरण होता देख ीमान् सूयदेव दु:खी हो गये। उनक भा न -सी हो गयी तथा उनका मुख-म ल पीला पड़ गया॥ ३८ ॥ हाय! हाय! जब ीरामच जीक धमप ी वदेहन नी सीताको रावण हरकर लये जा रहा है, तब यही कहना पड़ता है क ‘संसारम धम नह है, स भी कहाँ है? सरलता और दयाका भी सवथा लोप हो गया है।’ इस कार वहाँ ंडु -के - ंडु एक हो सब ाणी वलाप कर रहे थे। मृग के ब े भयभीत हो दीनमुखसे रो रहे थे॥ ३९-४० ॥ ीरामको जोर-जोरसे पुकारती और वैसे भारी दु:खम पड़ी ◌इ सीताको अपनी वल ण आँ ख से बारंबार देख-देखकर भयके मारे वनदेवता के अ थर-थर काँपने लगे॥ ४१ १/२ ॥ वदेहन नी मधुर रम ‘हा राम, हा ल ण’ क पुकार करती ◌इ बारंबार भूतलक ओर देख रही थ । उनके के श खुलकर सब ओर फै ल गये थे और ललाटक बदी मट गयी थी। वैसी अव ाम दश ीव रावण अपने ही वनाशके लये मन नी सीताको लये जा रहा था॥ ४२-४३ ॥ उस समय मनोहर दाँत और प व मुसकानवाली म थलेशकु मारी सीता, जो अपने ब ुजन से बछु ड़ गयी थ , दोन भा◌इ ीराम और ल णको न देखकर भयके भारसे थत हो उठ । उनके मुखम लक का फ क पड़ गयी॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म बावनवाँ सग पूरा आ॥ ५२॥



तरपनवाँ सग सीताका रावणको ध



ारना



रावणको आकाशम उड़ते देख म थलेशकु मारी जानक दु:खम हो अ उ हो रही थ । वे ब त बड़े भयम पड़ गयी थ ॥ १ ॥ रोष और रोदनके कारण उनक आँ ख लाल हो गयी थ । हरी जाती ◌इ सीता क णाजनक रम रोती ◌इ उस भयंकर ने वाले रा सराजसे इस कार बोल — ‘ओ नीच रावण! ा तुझे अपने इस कु कमसे ल ा नह आती है, जो मुझे ामीसे र हत अके ली और असहाय जानकर चुराये लये भागा जाता है?॥ ३ ॥ ‘दु ा न्! तू बड़ा कायर और डरपोक है। न य ही मुझे हर ले जानेक इ ासे तूने ही माया ारा मृग पम उप त हो मेरे ामीको आ मसे दूर हटा दया था॥ ४ ॥ ‘मेरे शुरके सखा वे जो बूढ़े जटायु मेरी र ा करनेके लये उ त ए थे, उनको भी तूने मार गराया॥ ५ ॥ ‘नीच रा स! अव तुझम बड़ा भारी बल दखायी देता है ( क—तू बूढ़े प ीको भी मार गराता है!), तूने अपना नाम बताकर ीराम-ल णके साथ यु करके मुझे नह जीता है। ओ नीच! जहाँ को◌इ र क न हो—ऐसे ानपर जाकर परायी ीके अपहरण-जैसा न त कम करके तू ल त कै से नह होता है?॥ ६-७ ॥ ‘तू तो अपनेको बड़ा शूर-वीर मानता है, परंतु संसारके सभी वीर पु ष तेरे इस कमको घृ णत, ू रतापूण और पाप प ही बतायगे॥ ८ ॥ ‘तूने पहले यं ही जसका बड़े तावसे वणन कया था, तेरे उस शौय और बलको ध ार है! कु लम कल लगानेवाले तेरे ऐसे च र को संसारम सदा ध ार ही ा होगा॥ ९॥ ‘ कतु इस समय ा कया जा सकता है? क तू बड़े वेगसे भागा जा रहा है। अरे! दो घड़ी भी तो ठहर जा, फर यहाँसे जी वत नह लौट सके गा॥ ‘उन दोन राजकु मार के ष्टपथम आ जानेपर तू सेनाके साथ हो तो भी दो घड़ी भी जी वत नह रह सकता॥ ११ ॥



‘जैसे



को◌इ आकाशचारी प ी वनम लत ए दावानलका श सहन करनेम समथ नह होता, उसी कार तू मेरे प त और उनके भा◌इ दोन के बाण का श कसी तरह सह नह सकता॥ १२ ॥ ‘रावण! य द तू मुझे छोड़ नह देता है तो मेरे तर ारसे कु पत ए मेरे प तदेव अपने भा◌इके साथ चढ़ आयँगे और तेरे वनाशका उपाय करगे, अत: तू अ ी तरह अपनी भला◌इ सोच ले और मुझे छोड़ दे। यही तेरे लये अ ा होगा॥ १३ १/२ ॥ ‘नीच! तू जस संक या अ भ ायसे बलपूवक मेरा हरण करना चाहता है, तेरा वह अ भ ाय थ होगा॥ १४ १/२ ॥ ‘म अपने देवोपम प तका दशन न पानेपर श ुके अधीनताम अ धक कालतक अपने ाण को नह धारण कर सकूँ गी॥ १५ १/२ ॥ ‘ न य ही तू अपने क ाण और हतका वचार नह करता है। जैसे मरनेके समय मनु ा के वरोधी पदाथ का सेवन करने लगता है, वही दशा तेरी है। ाय: सभी मरणास मनु को प ( हतकारक सलाह या भोजन) नह चता है॥ १६-१७ ॥ ‘ नशाचर! म देखती ँ , तेरे गलेम कालक फाँसी पड़ चुक है, इसीसे इस भयके ानपर भी तू नभय बना आ है॥ १८ ॥ ‘रावण! अव ही तू सुवणमय वृ को देख रहा है, र का ोत बहानेवाली भयंकर वैतरणी नदीका दशन कर रहा है, भयानक अ सप -वनको भी देखना चाहता है तथा जसम तपाये ए सुवणके समान फू ल तथा े वैदयू म ण (नीलम) के समान प े ह और जसम लोहेके काँटे चने गये ह, उस तीखी शा लका भी अब तू शी ही दशन करेगा॥ १९-२० १/२ ॥ ‘ नदयी



नशाचर! तू महा ा ीरामका ऐसा महान् अपराध करके वषपान कये ए मनु क भाँ त अ धक कालतक जीवन धारण नह कर सके गा। रावण! तू अटल कालपाशसे बँध गया है॥ २१-२२ ॥ ‘मेरे महा ा प तसे बचकर तू कहाँ जाकर शा पा सके गा। ज ने अपने भा◌इ ल णक सहायता लये बना ही यु म पलक मारते-मारते चौदह हजार रा स का वनाश कर डाला, वे स ूण अ का योग करनेम कु शल बलवान् वीर रघुनाथजी अपनी ारी प ीका



अपहरण करनेवाले तुझ-जैसे पापीको तीखे बाण ारा नह कालके गालम भेज दगे’॥ २३-२४ १/२ ॥ रावणके चंगुलम फँ सी ◌इ वदेहराजकु मारी सीता भय और शोकसे ाकु ल हो ये तथा और भी ब त-से कठोर वचन सुनाकर क ण- रम वलाप करने लग ॥ २५ ॥ अ दु:खसे आतुर हो वलापपूवक ब त-सी क णाजनक बात कहती और छू टनेके लये नाना कारक चे ा करती ◌इ त णी भा मनी राजकु मारी सीताको वह पापी नशाचर हर ले गया। उस समय अ धक बोझके कारण उसका शरीर काँप रहा था॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म तरपनवाँ सग पूरा आ॥ ५३॥



चौवनवाँ सग सीताका पाँच वानर के बीच अपने भूषण और व को गराना, रावणका ल ाम प ँ चकर सीताको अ :पुरम रखना तथा जन ानम आठ रा स को गु चरके पम रहनेके लये भेजना



रावणके ारा हरी जाती ◌इ वदेहन नी सीताको उस समय को◌इ भी अपना सहायक नह दखायी देता था। मागम उ ने एक पवतके शखरपर पाँच े वानर को बैठे देखा॥ १ ॥



तब सु र अ वाली वशाललोचना भा मनी सीताने यह सोचकर क शायद ये भगवान् ीरामको कु छ समाचार कह सक, अपने सुनहरे रंगक रेशमी चादर उतारी और उसम व और आभूषण रखकर उसे उनके बीचम फ क दया॥ २-३ ॥ रावण बड़ी घबराहटम था, इस लये सीताके इस कायको वह न जान सका। वे भूरी आँ ख वाले े वानर उस समय उ रसे वलाप करती ◌इ वशाल-लोचना सीताक ओर एकटक ने से देखने लगे॥ ४ १/२ ॥ रा सराज रावण प ासरोवरको लाँघकर रोती ◌इ मै थली सीताको साथ लये ल ापुरीक ओर चल दया॥ ५ १/२ ॥ नशाचर रावण बड़े हषम भरकर सीताके पम अपनी मौतको ही हरकर लये जा रहा था। उसने वैदेहीके पम तीखे दाढ़वाली महा वषैली ना गनको ही अपनी गोदम उठा रखा था॥ ६ १/ ॥ २



वह धनुषसे छू टे ए बाणक तरह ती ग तसे चलकर आकाशमागसे अनेकानेक वन , न दय , पवत और सरोवर को तुरंत लाँघ गया॥ ७ १/२ ॥ उसने त म नामक म और नाक के नवास ान एवं व णके अ य गृह समु को भी, जो सम न दय का आ य है, पार कर लया॥ ८ १/२ ॥ वदेहन नी जग ाता जानक का अपहरण होते समय व णालय समु को बड़ी घबराहट ◌इ। उससे उसक उठती ◌इ लहर शा हो गय । उसके भीतर रहनेवाली मछ लय और बड़े-बड़े सप क ग त क गयी॥ ९ १/२ ॥



उस समय आकाशम वचरनेवाले चारण य बोले—‘अब दश ीव रावणका यह अ काल नकट आ प ँ चा है’ तथा स ने भी यही बात दुहरायी॥ १० १/२ ॥ सीता छटपटा रही थ । रावणने अपनी साकार मृ ुक भाँ त उ अ म लेकर ल ापुरीम वेश कया॥ ११ १/२ ॥ वहाँ पृथक् -पृथक् वशाल राजमाग बने ए थे। पुरीके ारपर ब त-से रा स इधर-उधर फै ले ए थे तथा उस नगरीका व ार ब त बड़ा था। उसम जाकर रावणने अपने अ :पुरम वेश कया॥ १२ १/२ ॥ कजरारे ने ा वाली सीता शोक और मोहम डू बी ◌इ थ । रावणने उ अ :पुरम रख दया, मानो मयासुरने मू तमती आसुरी मायाको वहाँ ा पत कर दया हो*॥ १३ १/२ ॥ इसके बाद दश ीवने भयंकर आकारवाली पशा चन को बुलाकर कहा—‘(तुम सब सावधानीके साथ सीताक र ा करो।) को◌इ भी ी या पु ष मेरी आ ाके बना सीताको देखने या इनसे मलने न पाये॥ १४ १/२ ॥ ‘उ मोती, म ण, सुवण, व और आभूषण आ द जस- जस व ुक इ ा हो, वह तुरंत दी जाय; इसके लये मेरी खुली आ ा है॥ १५ १/२ ॥ ‘तुमलोग मसे जो को◌इ भी जानकर या बना जाने वदेहकु मारी सीतासे को◌इ अ य बात कहेगी, म समझूँगा, उसे अपनी जदगी ारी नह है’॥ १६ १/२ ॥ रा सय को वैसी आ ा देकर तापी रा सराज ‘अब आगे ा करना चा हये’ यह सोचता आ अ :पुरसे बाहर नकला और क े मांसका आहार करनेवाले आठ महापरा मी रा स से त ाल मला॥ उनसे मलकर ाजीके वरदानसे मो हत ए महापरा मी रावणने उसके बल और वीयक शंसा करके उनसे इस कार कहा—॥ १९ ॥ ‘वीरो! तुमलोग नाना कारके अ -श साथ लेकर शी ही जन ानको, जहाँ पहले खर रहता था, जाओ। वह ान इस समय उजाड़ पड़ा है॥ २० ॥ ‘वहाँके सभी रा स मार डाले गये ह। उस सूने जन ानम तुमलोग अपने ही बलपौ षका भरोसा करके भयको दूर हटाकर रहो॥ २१ ॥



‘मने वहाँ ब त बड़ी सेनाके साथ महापरा मी सब-के -सब यु म रामके बाण से मारे गये॥ २२ ॥



खर और दूषणको बसा रखा था, कतु वे



‘इससे मेरे मनम अपूव



ोध जाग उठा है और वह धैयक सीमासे ऊपर उठकर बढ़ने लगा है; इसी लये रामके साथ मेरा बड़ा भारी और भयंकर वैर ठन गया है॥ २३ ॥ ‘म अपने महान् श ुसे उस वैरका बदला लेना चाहता ँ । उस श ुको सं ामम मारे बना म चैनसे सो नह सकूँ गा॥ २४ ॥ ‘रामने खर और दूषणका वध कया है, अत: म भी इस समय उ मारकर जब बदला चुका लूँगा, तभी मुझे शा मलेगी। जैसे नधन मनु धन पाकर संतु होता है, उसी कार म रामका वध करके शा पा सकूँ गा॥ २५ ॥ ‘जन ानम रहकर तुमलोग रामच का समाचार जानो और वे कब ा कर रहे ह, इसका ठीक-ठीक पता लगाते रहो और जो कु छ मालूम हो, उसक सूचना मेरे पास भेज दया करो॥ २६ ॥ ‘तुम सभी नशाचर सावधानीके साथ वहाँ जाना और रामके वधके लये सदा य करते रहना॥ २७ ॥ ‘मुझे अनेक बार यु के मुहानेपर तुमलोग के बलका प रचय मल चुका है; इसी लये इस जन ानम मने तु लोग को रखनेका न य कया है’॥ २८ ॥ रावणक यह महान् योजनसे भरी ◌इ य बात सुनकर वे आठ रा स उसे णाम करके अ हो एक साथ ही ल ाको छोड़कर जन ानक ओर त हो गये॥ २९ ॥ तदन र म थलेशकु मारी सीताको पाकर उ रा सय क देख-रेखम स पकर रावणको बड़ा हष आ। ीरामके साथ भारी वैर ठानकर वह रा स मोहवश आन मानने लगा॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म चौवनवाँ सग पूरा आ॥ ५४॥ * रामायण तलक नामक



ा ाके व ान् लेखकने यह बताया है क यहाँ जो सीताक मायासे उपमा दी गयी है, उसके ारा यह अ भ ाय कया गया है क मायामयी सीता ही ल ाम आयी थ ; मु सीता तो अ म व हो चुक थ । इसी लये रावण इ ला सका। माया पणी होनेके कारण ही रावणको इनके पका ान न हो सका।



पचपनवाँ सग रावणका सीताको अपने अ :पुरका दशन कराना और अपनी भाया बन जानेके लये समझाना



इस कार आठ महाबली भयंकर रा स को जन ानम जानेक आ ा दे रावणने वपरीत बु के कारण अपनेको कृ तकृ माना॥ १ ॥ वह वदेहकु मारी सीताका रण करके काम-बाण से अ पी ड़त हो रहा था; अत: उ देखनेके लये उसने बड़ी उतावलीके साथ अपने रमणीय अ :पुरम वेश कया॥ २ ॥ उस भवनम वेश करके रा स के राजा रावणने देखा क सीता रा सय के बीचम बैठकर दु:खम डू बी ◌इ ह। उनके मुखपर आँ सु क धारा बह रही है और वे शोकके दु ह भारसे अ पी ड़त एवं दीन हो वायुके वेगसे आ ा हो समु म डू बती ◌इ नौकाके समान जान पड़ती ह। मृग के यूथसे बछु ड़कर कु से घरी ◌इ अके ली ह रणीके समान दखायी देती ह॥ ३-४ १/२ ॥ शोकवश दीन और ववश हो नीचे मुँह कये बैठी ◌इ सीताके पास प ँ चकर रा स के राजा नशाचर रावणने उ जबद ी अपने देवगृहके समान सु र भवनका दशन कराया॥ ५-६ ॥



वह ऊँ चे-ऊँ चे महल और सातमं जले मकान से भरा आ था। उसम सह याँ नवास करती थ । ंडु -के - ंडु नाना जा तके प ी वहाँ कलरव करते थे। नाना कारके र उस अ :पुरक शोभा बढ़ाते थे॥ ७ ॥ उसम ब त-से मनोहर खंभे लगे थे, जो हाथीदाँत, प े सोने, टकम ण, चाँदी, हीरा और वैदयू म ण (नीलम) से ज टत होनेके कारण बड़े व च दखायी देते थे॥ ८ ॥ उस महलम द दु ु भय का मधुर घोष होता रहता था। उस अ :पुरको तपाये ए सुवणके आभूषण से सजाया गया था। रावण सीताको साथ लेकर सोनेक बनी ◌इ व च सीढ़ीपर चढ़ा॥ ९ ॥ वहाँ हाथीदाँत और चाँदीक बनी ◌इ खड़ कयाँ थ , जो बड़ी सुहावनी दखायी देती थ । सोनेक जा लय से ढक ◌इ ासादमालाएँ भी ष्टगोचर होती थ ॥ १० ॥



उस महलम जो भूभाग (फश) थे, वे सुख -चूनाके प े बनाये गये थे और उनम म णयाँ जड़ी गयी थ , जनसे वे सब-के -सब व च दखायी देते थे। दश ीवने अपने महलक वे सारी व ुएँ मै थलीको दखाय ॥ ११ ॥ रावणने ब त-सी बाव ड़याँ और भाँ त-भाँ तके फू ल से आ ा दत ब त-सी पोख रयाँ भी सीताको दखाय । सीता वह सब देखकर शोकम डू ब गय ॥ १२ ॥ वह पापा ा नशाचर वदेहन नी सीताको अपना सारा सु र भवन दखाकर उ लुभानेक इ ासे इस कार बोला—॥ १३ ॥ ‘सीते! मेरे अधीन ब ीस करोड़ रा स ह। यह सं ा बूढ़े और बालक नशाचर को छोड़कर बतायी गयी है। भयंकर कम करनेवाले इन सभी रा स का म ही ामी ँ । अके ले मेरी सेवाम एक हजार रा स रहते ह॥ १४-१५ ॥ ‘ वशाललोचने! मेरा यह सारा रा और जीवन तुमपर ही अवल त है (अथवा यह सब कु छ तु ारे चरण म सम पत है)। तुम मुझे ाण से भी अ धक य हो॥ १६ ॥ ‘सीते! मेरा अ :पुर मेरी ब त-सी सु री भाया से भरा आ है, तुम उन सबक ा मनी बनो— ये! मेरी भाया बन जाओ॥ १७ ॥ ‘मेरे इस हतकर वचनको मान लो—इसे पसंद करो; इससे वपरीत वचारको मनम लानेसे तु ा लाभ होगा? मुझे अ ीकार करो। म पी ड़त ँ , मुझपर कृ पा करो॥ १८ ॥ ‘समु से घरी ◌इ इस ल ाके रा का व ार सौ योजन है। इ स हत स ूण देवता और असुर मलकर भी इसे नह कर सकते॥ १९ ॥ ‘देवता , य , ग व तथा ऋ षय म भी म कसीको ऐसा नह देखता, जो परा मम मेरी समानता कर सके ॥ २० ॥ ‘राम तो रा से , दीन, तप ी, पैदल चलनेवाले और मनु होनेके कारण अ तेजवाले ह, उ लेकर ा करोगी?॥ २१ ॥ ‘सीते! मुझको ही अपनाओ! म तु ारे यो प त ँ । भी ! जवानी सदा रहनेवाली नह है, अत: यहाँ रहकर मेरे साथ रमण करो॥ २२ ॥ ‘वरानने! सीते! अब तुम रामके दशनका वचार छोड़ दो। इस रामम इतनी श कहाँ है क यहाँतक आनेका मनोरथ भी कर सके ॥ २३ ॥



‘आकाशम



महान् वेगसे बहनेवाली वायुको र य म नह बाँधा जा सकता अथवा लत अ क नमल ाला को हाथ से नह पकड़ा जा सकता॥ २४ ॥ ‘शोभने! म तीन लोक म कसी ऐसे वीरको नह देखता, जो मेरी भुजा से सुर त तुमको परा म करके यहाँसे ले जा सके ॥ २५ ॥ ‘ल ाके इस वशाल रा का तु पालन करो। मुझ-जैसे रा स,देवता तथा स ूण चराचर जगत् तु ारे सेवक बनकर रहगे॥ २६ ॥ ‘ ानके जलसे आ (अथवा ल ाके रा पर अपना अ भषेक कराकर उसके जलसे आ ) होकर संतु हो तुम अपने-आपको ड़ा वनोदम लगाओ। तु ारा पहलेका जो दु म था, वह वनवासका क देकर समा हो गया। अब जो तु ारा पु कम शेष है, उसका फल यहाँ भोगो॥ २७ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! तुम मेरे साथ यहाँ रहकर सब कारके पु हार, द ग और े आभूषण आ दका सेवन करो॥ २८ १/२ ॥ ‘सु र क ट देशवाली सु र! वह सूयके समान का शत होनेवाला पु क वमान मेरे भा◌इ कु बेरका था। उसे मने बलपूवक जीता है। यह अ रमणीय, वशाल तथा मनके समान वेगसे चलनेवाला है। सीते! तुम उसके ऊपर मेरे साथ बैठकर सुखपूवक वहार करो॥ २९-३० १/२ ॥ ‘वरारोहे सुमु ख! तु ारा यह कमलके समान सु र नमल और मनोहर दखायी देनेवाला मुख शोकसे पी ड़त होनेके कारण शोभा नह पा रहा है’॥ ३१ १/२ ॥ जब रावण ऐसी बात कहने लगा, तब परम सु री सीता देवी च माके समान मनोहर अपने मुखको आँ चलसे ढककर धीरे-धीरे आँ सू बहाने लग ॥ ३२ १/२ ॥ सीता शोकसे अ -सी हो रही थ , च ासे उनक का न -सी हो गयी थी और वे भगवान् रामका ान करने लगी थ । उस अव ाम उनसे वह वीर नशाचर रावण इस कार बोला—॥ ३३ १/२ ॥ ‘ वदेहन न! अपने प तके ाग और परपु षके अ ीकारसे जो धमलोपक आश ा होती है, उसके कारण तु यहाँ ल ा नह होनी चा हये, इस तरहक लाज थ है। दे व! तु ारे साथ जो मेरा ेह स होगा, यह आष धमशा ारा* सम थत है॥ ३४ १/२ ॥



‘तु



ारे इन कोमल एवं चकने चरण पर म अपने ये दस म क रख रहा ँ । अब शी मुझपर कृ पा करो। म सदा तु ारे अधीन रहनेवाला दास ँ ॥ ३५ १/२ ॥ ‘मने कामा से संत होकर ये बात कही ह। ये शू ( न ल) न ह , ऐसी कृ पा करो; क रावण कसी ीको सर कु ाकर णाम नह करता, (के वल) तु ारे सामने इसका म क कु ा है’॥ ३६ १/२ ॥ म थलेशकु मारी जानक से ऐसा कहकर कालके वशीभूत आ रावण मन-ही-मन मानने लगा क ‘यह अब मेरे अधीन हो गयी’॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पचपनवाँ सग पूरा आ॥ ५५॥ * ऐसा कहकर रावण देवी सीताको धोखा देना चाहता है। वा



वम ऐसे पापपूण कृ का समथन धमशा म कह नह है। कु मारी क ाका बलपूवक अपहरण शा म रा स ववाह कहा गया है; कतु वह भी न ही माना गया है, यहाँ तो वह भी नह है। ववा हता सती सा ीका अपहरण घोर पाप माना गया है। इसी पापसे सोनेक ल ा म ीम मल गयी और रावण दल-बल-कु ल-प रवारस हत न हो गया।



छ नवाँ सग सीताका ीरामके त अपना अन अनुराग दखाकर रावणको फटकारना तथा रावणक आ ासे रा सय का उ अशोकवा टकाम ले जाकर डराना



रावणके ऐसा कहनेपर शोकसे क पाती ◌इ वदेहराजकु मारी सीता बीचम तनके क ओट करके उस नशाचरसे नभय होकर बोल —॥ १ ॥ ‘महाराज दशरथ धमके अचल सेतुके समान थे। वे अपनी स त ताके लये सव व ात थे। उनके पु जो रघुकुलभूषण ीरामच जी ह, वे भी अपने धमा ापनके लये तीन लोक म स ह, उनक भुजाएँ लंबी और आँ ख बड़ी-बड़ी ह। वे ही मेरे आरा देवता और प त ह॥ २-३ ॥ ‘उनका ज इ ाकु कु लम आ है। उनके कं धे सहके समान और तेज महान् है। वे अपने भा◌इ ल णके साथ आकर तेरे ाण का वनाश कर डालगे॥ ४ ॥ ‘य द तू उनके सामने बलपूवक मेरा अपहरण करता तो अपने भा◌इ खरक तरह जन ानके यु लम ही मारा जाकर सदाके लये सो जाता॥ ५ ॥ ‘तूने जो इन घोर पधारी महाबली रा स क चचा क है, ीरामके पास जाते ही इन सबका वष उतर जायगा; ठीक उसी तरह जैसे ग ड़के पास सारे सप वषके भावसे र हत हो जाते ह॥ ६ ॥ ‘जैसे बढ़ी ◌इ ग ाक लहर अपने कगार को काट गराती ह, उसी कार ीरामके धनुषक डोरीसे छू टे ए सुवणभू षत बाण तेरे शरीरको छ - भ कर डालगे॥ ७ ॥ ‘रावण! तू असुर अथवा देवता से य द अव है तो स व है वे तुझे न मार सक; कतु भगवान् ीरामके साथ यह महान् वैर ठानकर तू कसी तरह जी वत नह छू ट सके गा॥ ८ ॥ ‘ ीरघुनाथजी बड़े बलवान् ह। वे तेरे शेष जीवनका अ कर डालगे। यूपम बँधे ए पशुक भाँ त तेरा जीवन दुलभ हो जायगा॥ ९ ॥ ‘रा स! य द ीरामच जी अपनी रोषभरी ष्टसे तुझे देख ल तो तू अभी उसी तरह जलकर खाक हो जायगा जैसे भगवान् श रने कामदेवको भ कया था॥ १० ॥



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च माको आकाशसे पृ ीपर गराने या न करनेक श रखते ह अथवा जो समु को भी सुखा सकते ह, वे भगवान् ीराम यहाँ प ँ चकर सीताको भी छु ड़ा सकते ह॥ ११ ॥ ‘तू समझ ले क तेरे ाण अब चले गये। तेरी रा ल ी न हो गयी। तेरे बल और इ य का भी नाश हो गया तथा तेरे ही पापके कारण तेरी यह ल ा भी अब वधवा हो जायगी॥ १२ ॥ ‘तेरा यह पापकम तुझे भ व म सुख नह भोगने देगा; क तूने मुझे बलपूवक प तके पाससे दूर हटाया है॥ १३ ॥ ‘मेरे ामी महान् तेज ी ह और मेरे देवरके साथ अपने ही परा मका भरोसा करके सूने द कार म नभयतापूवक नवास करते ह॥ १४ ॥ ‘वे यु म बाण क वषा करके तेरे शरीरसे बल, परा म, घमंड तथा ऐसे उ ृ ल आचरणको भी नकाल बाहर करगे॥ १५ ॥ ‘जब कालक ेरणासे ा णय का वनाश नकट आता है, उस समय मृ ुके अधीन ए जीव ेक कायम माद करने लगते ह॥ १६ ॥ ‘अधम नशाचर! मेरा अपहरण करनेके कारण तेरे लये भी वही काल आ प ँ चा है। तेरे अपने लये, सारे रा स के लये तथा इस अ :पुरके लये भी वनाशक घड़ी नकट आ गयी है॥ १७ ॥ ‘य शालाके बीचक वेदीपर, जो जा तय के म ारा प व क गयी होती है तथा जसे ुक्, ुवा आ द य पा सुशो भत करते ह, चा ाल अपना पैर नह रख सकता॥ १८ ॥ ‘उसी कार म न धमपरायण भगवान् ीरामक धमप ी ँ तथा ढ़तापूवक पा त -धमका पालन करती ँ (अत: य वेदीके समान ँ ) और रा साधम! तू महापापी है (अत: चा ालके तु है); इस लये मेरा श नह कर सकता॥ १९ ॥ ‘जो सदा कमलके समूह म राजहंसके साथ ड़ा करती है, वह हंसी तृण म रहनेवाले जलकाकक ओर कै से ष्टपात करेगी॥ २० ॥ ‘रा स! तू इस सं ाशू जड शरीरको बाँधकर रख ले या काट डाल। म यं ही इस शरीर और जीवनको नह रखना चाहती॥ २१ ॥



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इस भूतलपर अपने लये न ा या कल देनेवाला को◌इ काय नह कर सकती।’ रावणसे ोधपूवक यह अ कठोर वचन कहकर वदेहकु मारी जानक चुप हो गय ; वे वहाँ फर कु छ नह बोल ॥ २२ १/२ ॥ सीताका वह कठोर वचन र गटे खड़े कर देनेवाला था। उसे सुनकर रावणने उनसे भय दखानेवाली बात कही—॥ २३ १/२ ॥ ‘मनोहर हा वाली भा म न! म थलेशकु मारी! मेरी बात सुन लो। म तु बारह महीनेका समय देता ँ । इतने समयम य द तुम े ापूवक मेरे पास नह आओगी तो मेरे रसोइये सबेरेका कलेवा तैयार करनेके लये तु ारे शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर डालगे’॥ सीतासे ऐसी कठोर बात कहकर श ु को लानेवाला रावण कु पत हो रा सय से इस कार बोला—॥ २६ ॥ ‘अपने वकराल पके कारण भय र दखायी देनेवाली तथा र -मांसका आहार करनेवाली रा सयो! तुमलोग शी ही इस सीताका अहंकार दूर करो’॥ २७ ॥ रावणके इतना कहते ही वे भयंकर दखायी देनेवाली अ घोर रा सयाँ हाथ जोड़े मै थलीको चार ओरसे घेरकर खड़ी हो गय ॥ २८ ॥ तब राजा रावण अपने पैर के धमाके से पृ ीको वदीण करता आ-सा दो-चार पग चलकर उन भयानक रा सय से बोला—॥ २९ ॥ ‘ नशाच रयो! तुमलोग म थलेशकु मारी सीताको अशोकवा टकाम ले जाओ और चार ओरसे घेरकर वहाँ गूढ़ भावसे इसक र ा करती रहो॥ ३० ॥ ‘वहाँ पहले तो भयंकर गजन-तजन करके इसे डराना; फर मीठे -मीठे वचन से समझाबुझाकर जंगलक ह थनीक भाँ त इस म थलेशकु मारीको तुम सब लोग वशम लानेक चे ा करना’॥ ३१ ॥ रावणके इस कार आदेश देनेपर वे रा सयाँ मै थलीको साथ लेकर अशोकवा टकाम चली गय ॥ वह वा टका सम कामना को फल पम दान करनेवाले क वृ तथा भाँ तभाँ तके फल-फू लवाले दूसरे-दूसरे वृ से भी भरी थी तथा हर समय मदम रहनेवाले प ी उसम नवास करते थे॥ ३३ ॥



परंतु वहाँ जानेपर म थलेशकु मारी जानक के अ -अ म शोक ा हो गया। रा सय के वशम पड़कर उनक दशा बा घन के बीचम घरी ◌इ ह रणीके समान हो गयी थी॥ ३४ ॥ महान् शोकसे ◌इ म थलेशन नी जानक जालम फँ सी ◌इ मृगीके समान भयभीत हो णभरके लये भी चैन नह पाती थ ॥ ३५ ॥ वकराल प और ने वाली रा सय क अ डाँट-फटकार सुननेके कारण म थलेशकु मारी सीताको वहाँ शा नह मली। वे भय और शोकसे पी ड़त हो यतम प त और देवरका रण करती ◌इ अचेत-सी हो गय ॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म छ नवाँ सग पूरा आ॥ ५६॥



सग* ाजीक आ ासे देवराज इ का न ास हत ल ाम जाकर सीताको द अ पत करना और उनसे वदा लेकर लौटना



खीर



जब सीताका ल ाम वेश हो गया, तब पतामह ाजीने संतु ए देवराज इ से इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘देवराज! तीन लोक के हत और रा स के वनाशके लये दुरा ा रावणने सीताको ल ाम प ँ चा दया॥ २ ॥ ‘प त ता महाभागा जानक सदा सुखम ही पली ह। इस समय वे अपने प तके दशनसे वं चत हो गयी ह और रा सय से घरी रहनेके कारण सदा उ को अपने सामने देखती ह। उनके दयम अपने प तके दशनक ती लालसा बनी ◌इ है॥ ३ १/२ ॥ ‘ल ापुरी समु के तटपर बसी ◌इ है। वहाँ रहती ◌इ सती-सा ी सीताका पता ीरामच जीको कै से लगेगा॥ ४ १/२ ॥ ‘सीता दु:खके साथ नाना कारक च ा म डू बी रहती ह। प तके लये इस समय वे अ दुलभ हो गयी ह। ाणया ा (भोजन) नह करती ह; अत: ऐसी दशाम न:संदेह वे अपने ाण का प र ाग कर दगी। सीताके ाण का य हो जानेपर हमारे उ े क स म पुन: पूववत् संदेह उप त हो जायगा॥ ५-६ ॥ ‘अत: तुम शी ही यहाँसे जाकर ल ापुरीम वेश करके सुमुखी सीतासे मलो और उ उ म ह व दान करो’॥ ७ ॥ ाजीके ऐसा कहनेपर पाकशासन भगवान् इ न ाको साथ लेकर रावण ारा पा लत ल ापुरीम आये॥ ८ ॥ वहाँ आकर इ ने न ासे कहा—‘तुम रा स को मो हत करो।’ इ से ऐसी आ ा पाकर देवी न ा ब त स ◌इं । देवता का काय स करनेके लये उ ने रा स को मोह ( न ा) म डाल दया॥ ९ १/२ ॥ इसी बीचम सह ने धारी शचीप त देवराज इ अशोकवा टकाम बैठी ◌इ सीताके पास गये और इस कार बोले—॥ १० १/२ ॥



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मुसकानवाली दे व! आपका भला हो। म देवराज इ यहाँ आपके पास आया ँ । जनक कशोरी! म आपके उ ारकायक स के लये महा ा ीरघुनाथजीक सहायता क ँ गा, अत: आप शोक न कर॥ ११-१२ ॥ ‘वे मेरे सादसे बड़ी भारी सेनाके साथ समु को पार करगे। शुभे! मने ही यहाँ इन रा सय को अपनी मायासे मो हत कया है॥ १३ ॥ ‘ वदेहन नी सीते! इस लये म यं ही यह भोजन—यह ह व ा लेकर न ाके साथ तु ारे पास आया ँ ॥ १४ ॥ ‘शुभ!े र ो ! य द मेरे हाथसे इस ह व को लेकर खा लोगी तो तु हजार वष तक भूख और ास नह सतायेगी’॥ १५ ॥ देवराजके ऐसा कहनेपर श त ◌इ सीताने उनसे कहा—‘मुझे कै से व ास हो क आप शचीप त देवराज इ ही यहाँ पधारे ह?॥ १६ ॥ ‘देवे ! मने ीराम और ल णके समीप देवता के ल ण अपनी आँ ख देखे ह। य द आप सा ात् देवराज ह तो उन ल ण को दखाइये’॥ १७ ॥ सीताक यह बात सुनकर शचीप त इ ने वैसा ही कया। उ ने अपने पैर से पृ ीका श नह कया—आकाशम नराधार खड़े रहे। उनक आँ ख क पलक नह गरती थ । उ ने जो व धारण कया था, उसपर धूलका श नह होता था। उनके क म जो पु माला थी, उसके पु कु लाते नह थे। देवो चत ल ण से इ को पहचानकर सीता ब त स ◌इं ॥ १८-१९ ॥ वे भगवान् ीरामके लये रोती ◌इ बोल — ‘भगवन्! सौभा क बात है क आज भा◌इस हत महाबा ीरामका नाम मेरे कान म पड़ा है॥ २० ॥ ‘मेरे लये जैसे मेरे शुर महाराज दशरथ तथा पता म थलानरेश जनक ह, उसी पम म आज आपको देखती ँ । मेरे प त आपके ारा सनाथ ह॥ २१ ॥ ‘देवे ! आपक आ ासे म यह पायस प ह व (दूधक बनी ◌इ खीर), जसे आपने दया है, खाऊँ गी। यह रघुकुलक वृ करनेवाला हो’॥ २२ ॥ इ के हाथसे उस खीरको लेकर उन प व मुसकानवाली मै थलीने मन-ही-मन पहले उसे अपने ामी ीराम और देवर ल णको नवेदन कया और इस कार कहा—॥ २३ ॥



‘य द मेरे महाबली ामी अपने भा◌इके लये सम पत है।’ इतना कहनेके प ात् उ ने



साथ जी वत ह तो यह भ भावसे उन दोन के यं उस खीरको खाया॥ २४ ॥ इस कार उस ह व को खाकर सु र मुखवाली जानक ने भूख- ासके क को ाग दया और इ के मुखसे ीराम तथा ल णका समाचार पाकर वे जनकन नी मन-ही-मन ब त स ◌इं ॥ २५ ॥ तब न ास हत महा ा देवराज इ भी स हो सीतासे वदा लेकर ीरामच जीके कायक स के लये अपने नवास ान देवलोकको चले गये॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म सग पूरा आ॥ * यह सग



संगके अनुकूल और उ म है। कु छ तय म यह सानुवाद का शत भी है, परंतु इसपर तलक आ द सं ृ त टीकाएँ नह उपल होती ह; इस लये कु छ लोग ने इसे माना है। उपयोगी होनेके कारण इसे भी यहाँ सानुवाद का शत कया जाता है। ४६७



स ावनवाँ सग ीरामका लौटना, मागम अपशकुन देखकर च त होना तथा ल णसे मलनेपर उ उलाहना दे सीतापर स ट आनेक आश ा करना



इधर मृग पसे वचरते ए उस इ ानुसार प धारण करनेवाले रा स मारीचका वध करके ीरामच जी तुरंत ही आ मके मागपर लौटे॥ १ ॥ वे सीताको देखनेके लये ज ी-ज ी पैर बढ़ाते ए आ रहे थे। इतनेहीम पीछेक ओरसे एक सया रन बड़े कठोर रम ची ार करने लगी॥ २ ॥ गीदड़ीके उस रसे ीरामच जीके मनम कु छ श ा ◌इ। उसका र बड़ा ही भयंकर तथा र गटे खड़े कर देनेवाला था। उसका अनुभव करके वे बड़ी च ाम पड़ गये॥ ३ ॥ वे मन-ही-मन कहने लगे—‘यह सया रन जैसी बोली बोल रही है, इससे तो मुझे मालूम हो रहा है क को◌इ अशुभ घटना घ टत हो गयी। ा वदेहन नी सीता कु शलसे ह गी? उ रा स तो नह खा गये?॥ ‘मृग पधारी मारीचने जान-बूझकर मेरे रका अनुसरण करते ए जो आत-पुकार क थी, वह इस लये क शायद इसे ल ण सुन सक॥ ५ ॥ ‘सु म ान न ल ण वह र सुनते ही सीताके ही भेजनेपर उसे अके ली छोड़कर तुरंत मेरे पास यहाँ प ँ चनेके लये चल दगे॥ ६ ॥ ‘रा सलोग तो सब-के -सब मलकर सीताका वध अव कर देना चाहते ह। इसी उ े से यह मारीच रा स सोनेका मृग बनकर मुझे आ मसे दूर हटा ले आया था और मेरे बाण से आहत होनेपर जो उसने आतनाद करते ए कहा था क ‘हा ल ण! म मारा गया’ इसम भी उसका वही उ े छपा था॥ ७-८ ॥ ‘वनम हम दोन भाइय के आ मसे अलग हो जानेपर ा सीता सकु शल वहाँ रह सकगी? जन ानम जो रा स का संहार आ है, उसके कारण सारे रा स मुझसे वैर बाँधे ही ए ह॥ ९ ॥ ‘आज ब त-से भय र अपशकु न भी दखायी देते ह।’ सया रनक बोली सुनकर इस कार च ा करते ए मनको वशम रखनेवाले ीराम तुरंत लौटकर आ मक ओर चले॥ १०



१/ ॥ २



मृग पधारी रा सके ारा अपनेको आ मसे दूर हटानेक घटनापर वचार करके ीरघुनाथजी श त दयसे जन ानको आये॥ ११ १/२ ॥ उनका मन ब त दु:खी था। वे दीन हो रहे थे। उसी अव ाम वनके मृग और प ी उ बाँय रखते ए वहाँ आये और भय र रम अपनी बोली बोलने लगे॥ १२ ॥ उन महाभय र अपशकु न को देखकर ीरामच जी तुरंत ही बड़े वेगसे अपने आ मक ओर लौटे॥ १३ ॥ इतनेहीम उ ल ण आते दखायी दये। उनक का फ क पड़ गयी थी। थोड़ी ही देरम नकट आकर ल ण ीरामच जीसे मले॥ १४ ॥ दु:ख और वषादम डू बे ए ल णने दु:खी और वषाद ीरामच जीसे भट क । उस समय रा स से से वत नजन वनम सीताको अके ली छोड़कर आये ए ल णको देख भा◌इ ीरामने उनक न ा क ॥ १५ १/२ ॥ ल णका बायाँ हाथ पकड़कर रघुन न आत-से हो गये और पहले कठोर तथा अ म मधुर वाणी ारा इस कार बोले—॥ १६ १/२ ॥ ‘अहो सौ ल ण! यह तुमने ब त बुरा कया, जो सीताको अके ली छोड़कर यहाँ चले आये। ा वहाँ सीता सकु शल होगी?॥ १७ १/२ ॥ ‘वीर! मुझे इस बातम संदेह नह है क वनम वचरनेवाले रा स ने जनककु मारी सीताको या तो सवथा न कर दया होगा या वे उ खा गये ह गे॥ ‘ क मेरे आस-पास ब त-से अपशकु न हो रहे ह। पु ष सह ल ण! ा हमलोग जीती-जागती ◌इ जनकदुलारी सीताको पूणत: एवं सकु शल पा सकगे?॥ १९-२० ॥ ‘महाबली ल ण! ये मृग के ंडु (दा हनी ओरसे आकर) जैसा अम ल सू चत कर रहे ह, ये गीदड़ जस तरह भैरवनाद कर रहे ह तथा जलती-सी तीत होनेवाली स ूण दशा म प ी जस तरहक बोली बोल रहे ह—इन सबसे यही अनुमान होता है क राजकु मारी सीता शायद ही कु शलसे ह ॥ २१ ॥ ‘यह रा स मृगके समान प धारण करके मुझे लुभाकर दूर चला आया था। महान् प र म करके जब मने इसे कसी तरह मारा, तब यह मरते ही रा स हो गया॥ २२ ॥



‘ल



ण! अत: मेरा मन अ दीन और अ स हो रहा है। मेरी बाय आँ ख फड़क रही है, इससे जान पड़ता है, न:संदेह आ मपर सीता नह है। उसे को◌इ हर ले गया, वह मारी गयी अथवा ( कसी रा सके साथ) मागम होगी’॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म स ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५७॥



अ ावनवाँ सग मागम अनेक कारक आश ा करते ए ल णस हत ीरामका आ मम आना और वहाँ सीताको न पाकर थत होना



ल णको दीन, संतोषशू तथा सीताको साथ लये बना आया देख धमा ा दशरथन न ीरामने पूछा—॥ १ ॥ ‘ल ण! जो द कार क ओर त होनेपर अयो ासे मेरे पीछे-पीछे चली आयी तथा जसे तुम अके ली छोड़कर यहाँ आ गये, वह वदेहराजकु मारी सीता इस समय कहाँ है?॥ २ ॥ ‘म



रा से और दीन होकर द कार म च र लगा रहा ँ । इस दु:खम जो मेरी सहा यका ◌इ, वह तनुम मा (सू क ट देशवाली) वदेहराजकु मारी कहाँ है?॥ ३ ॥ ‘वीर! जसके बना म दो घड़ी भी जी वत नह रह सकता तथा जो मेरे ाण क सहचरी है, वह देवक ाके समान सु री सीता इस समय कहाँ है?॥ ‘ल ण! तपाये ए सोनेके समान का वाली जनकन नी सीताके बना म पृ ीका रा और देवता का आ धप भी नह चाहता॥ ५ ॥ ‘वीर! जो मुझे ाण से भी बढ़कर य है, वह वदेहराजकु मारी सीता ा अब जी वत होगी? मेरा वनम आना सीताको खो देनेके कारण थ तो नह हो जायगा?॥ ६ ॥ ‘सु म ान न! सीताके न हो जानेके कारण जब म मर जाऊँ गा और तुम अके ले ही अयो ाको लौटोगे, उस समय ा माता कै के यी सफलमनोरथ एवं सुखी होगी?॥ ७ ॥ ‘ जसका इकलौता पु म मर जाऊँ गा, वह तप नी माता कौस ा ा पु और रा से स तथा कृ तकृ ◌इ कै के यीक सेवाम वनीतभावसे उप त होगी?॥ ८ ॥ ‘ल ण! य द वदेहन नी सीता जी वत होगी, तभी म फर आ मम पैर रखूँगा। य द सदाचार-परायणा मै थली मर गयी होगी तो म भी ाण का प र ाग कर दूँगा॥ ९ ॥ ‘ल ण! य द आ मम जानेपर वदेहराजकु मारी सीता हँ सते ए मुखसे सामने आकर मुझसे बात नह करेगी तो म जी वत नह र ँ गा॥ १० ॥



‘ल



ण! बोलो तो सही! वैदेही जी वत है या नह ? तु ारे असावधान होनेके कारण रा स उस तप नीको खा तो नह गये?॥ ११ ॥ ‘जो सुकुमारी है, बाला (भोली-भाली) है तथा जसने वनवासके पहले दु:खका अनुभव नह कया था, वह वैदेही आज मेरे वयोगसे थत- च होकर अव ही शोक कर रही होगी॥ १२ ॥ ‘उस कु टल एवं दुरा ा रा सने उ रसे ‘हा ल ण!’ ऐसा पुकारकर तु ारे मनम भी सवथा भय उ कर दया॥ १३ ॥ ‘जान पड़ता है, वैदेहीने भी मेरे रसे मलता-जुलता उस रा सका र सुन लया और भयभीत होकर तु भेज दया और तुम भी शी ही मुझे देखनेके लये चले आये॥ १४ ॥ ‘जो भी हो—तुमने वनम सीताको अके ली छोड़कर सवथा दु:खद काय कर डाला। ू र कम करनेवाले रा स को बदला लेनेका अवसर दे दया॥ १५ ॥ ‘मांसभ ी नशाचर मेरे हाथ खरके मारे जानेसे ब त दु:खी थे। उन घोर रा स ने सीताको मार डाला होगा, इसम संशय नह है॥ १६ ॥ ‘श ुनाशन! म सवथा संकटके समु म डू ब गया ँ । ऐसे दु:खका अव ही अनुभव करना पड़ेगा— ऐसी श ा हो रही है। अत: अब म ा क ँ ?’॥ १७ ॥ इस कार सु री सीताके वषयम च ा करते ए ही ल णस हत ीरघुनाथजी तुरंत जन ानम आये॥ १८ ॥ अपने दु:खी अनुज ल णको कोसते एवं भूख- ास तथा प र मसे लंबी साँस ख चते ए सूखे मुँहवाले ीरामच जी आ मके नकटवत ानपर आकर उसे सूना देख वषादम डू ब गये॥ १९ ॥ वीर ीरामने आ मम वेश करके उसे भी सूना देख कु छ ऐसे ल म अनुसंधान कया, जो सीताके वहार ान थे। उ भी सूना पाकर उस ड़ाभू मम यही वह ान है, जहाँ मने अमुक कारक ड़ा क थी, ऐसा रण करके उनके शरीरम रोमा हो आया और वे थासे पी ड़त हो गये॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म अ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५८॥



उनसठवाँ सग ीराम और ल (आ



णक बातचीत



मम आनेसे पहले मागम ीराम और ल णने पर र जो बात क थ , उ पुन: व ारके साथ बता रहे ह—) सीताके कथनानुसार आ मसे अपने पास आये ए सु म ाकु मार ल णसे मागम भी रघुकुलन न ीरामने बड़े दु:खसे यह बात पूछी—॥ १ ॥ ‘ल ण! जब मने तु ारे व ासपर ही वनम सीताको छोड़ा था, तब तुम उसे अके ली छोड़कर चले आये?॥ २ ॥ ‘ल ण! म थलेशकु मारीको छोड़कर तुम जो मेरे पास आये हो, तु देखते ही जस महान् अ न क आश ा करके मेरा मन थत हो रहा था, वह स जान पड़ने लगा है॥ ३ ॥ ‘ल ण! मेरी बाय आँ ख और बाय भुजा फड़क रही है। तु आ मसे दूर सीताके बना ही मागपर आते देख मेरा दय भी धक-धक कर रहा है’॥ ४ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर उ म ल ण से स सु म ाकु मार ल ण अ दु:खी होकर अपने शोक भा◌इ ीरामसे बोले—॥ ५ ॥ ‘भैया! म यं अपनी इ ासे उ छोड़कर नह आया ँ । उ के कठोर वचन से े रत होकर मुझे आपके पास आना पड़ा है॥ ६ ॥ ‘आपके ही समान रम कसीने जोरसे पुकारा, ‘ल ण! मुझे बचाओ।’ यह वा म थलेशकु मारीके कान म भी पड़ा॥ ७ ॥ ‘उस आतनादको सुनकर मै थली आपके त ेहके कारण भयसे ाकु ल हो गय और रोती ◌इ मुझसे तुरंत बोल —‘जाओ, जाओ’॥ ८ ॥ ‘जब बारंबार उ ने ‘जाओ’ कहकर मुझे े रत कया, तब उ व ास दलाते ए मने मै थलीसे यह बात कही—॥ ९ ॥ ‘दे व! म ऐसे कसी रा सको नह देखता, जो भगवान् ीरामको भी भयम डाल सके । आप शा रह, यह भैयाक आवाज नह है। कसी दूसरेने इस तरहक पुकार क है॥ १० ॥ ‘सीते! जो देवता क भी र ा कर सकते ह, वे मेरे बड़े भा◌इ ‘मुझे बचाओ’ ऐसा न त (कायरतापूण) वचन कै से कहगे?॥ ११ ॥



‘ कसी दूसरेने



कसी बुरे उ े से मेरे भैयाके रक नकल करके ‘ल ण! मुझे बचाओ’ यह बात जोरसे कही है॥ १२ ॥ ‘शोभने! उस रा सने ही भयके कारण (मुझे बचाओ) यह बात मुँहसे नकाली है। आपको थत नह होना चा हये। ऐसी थाको नीच ेणीक याँ ही अपने मनम ान देती ह॥ १३ ॥ ‘तुम ाकु ल मत होओ, हो जाओ, च ा छोड़ो। तीन लोक म ऐसा को◌इ पु ष न तो उ आ है, न हो रहा है और न होगा ही, जो यु म ीरघुनाथजीको परा कर सके । सं ामम इ आ द देवता भी ीरामको नह जीत सकते’॥ १४-१५ ॥ मेरे ऐसा कहनेपर वदेहराजकु मारीक चेतना मोहसे आ हो गयी। वे आँ सू बहाती ◌इ मुझसे अ कठोर वचन बोल —॥ १६ ॥ ‘ल ण! तेरे मनम मेरे लये अ पापपूण भाव भरा है। तू अपने भा◌इके मरनेपर मुझे ा करना चाहता है, परंतु मुझे पा नह सके गा॥ १७ ॥ ‘तू भरतके इशारेसे अपने ाथके लये ीरामच जीके पीछे -पीछे आया है। तभी तो वे जोर-जोरसे च ा रहे ह और तू उनके पास जातातक नह है॥ १८ ॥ ‘तू अपने भा◌इका छपा आ श ु है। मेरे लये ही ीरामका अनुसरण करता है और ीरामके छ ढूँ ढ़ रहा है तभी तो संकटके समय उनके पास जानेका नाम नह लेता है’॥ १९ ॥ ‘ वदेहकु मारीके ऐसा कहनेपर म रोषसे भर गया। मेरी आँ ख लाल हो गय और ोधसे मेरे ह ठ फड़कने लगे। इस अव ाम म आ मसे नकल आया’॥ २० ॥ ल णक ऐसी बात सुनकर ीरामच जी संतापसे मो हत हो गये और उनसे बोले —‘सौ ! तुमने बड़ा बुरा कया, जो तुम सीताको छोड़कर यहाँ चले आये॥ २१ ॥ ‘म रा स का नवारण करनेम समथ ँ , यह जानते ए भी तुम मै थलीके ोधयु वचनसे उ े जत होकर नकल पड़े॥ २२ ॥ ‘ ोधम भरी ◌इ नारीके कठोर वचनको सुनकर जो तुम म थलेशकु मारीको छोड़कर यहाँ चले आये, इससे म तु ारे ऊपर संतु नह ँ ॥ २३ ॥ ‘सीतासे े रत होकर ोधके वशीभूत हो तुमने मेरे आदेशका पालन नह कया; यह सवथा तु ारा अ ाय है॥ २४ ॥



‘ जसने मृग



प धारण करके मुझे आ मसे दूर हटा दया, वह रा स मेरे बाण से घायल होकर सदाके लये सो रहा है॥ २५ ॥ ‘धनुष ख चकर उस बाणका संधान करके मने लीलापूवक चलाये ए बाण से ही उस मृगको मारा, ही वह मृगके शरीरका प र ाग करके बाँह म बाजूबंद धारण करनेवाला रा स बन गया। उसके रम बड़ी ाकु लता आ गयी थी॥ २६ ॥ ‘बाणसे आहत होनेपर ही उसने आतवाणीम मेरे रक नकल करके ब त दूरतक सुनायी देनेवाला वह अ दा ण वचन कहा था, जससे तुम म थलेशकु मारी सीताको छोड़कर यहाँ चले आये हो’॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म उनसठवाँ सग पूरा आ॥ ५९॥



साठवाँ सग ीरामका वलाप करते ए वृ



और पशु से सीताका पता पूछना, ा बारंबार उनक खोज करना



होकर रोना और



आ मक ओर आते समय ीरामक बाय आँ खक नीचेवाली पलक जोर-जोरसे फड़कने लगी। ीराम चलते-चलते लड़खड़ा गये और उनके शरीरम क होने लगा॥ १ ॥ बारंबार इन अपशकु न को देखकर वे कहने लगे— ा सीता सकु शल होगी?॥ २ ॥ सीताको देखनेके लये उ त हो वे बड़ी उतावलीके साथ आ मपर गये। वहाँ कु टया सूनी देख उनका मन अ उ हो उठा॥ ३ ॥ रघुन न बड़े वेगसे इधर-उधर च र लगाने और हाथ-पैर चलाने लगे। उ ने वहाँ जहाँतहाँ बनी ◌इ एक-एक पणशालाको चार ओरसे देख डाला, कतु उस समय उसे सीतासे सूनी ही पाया। जैसे हेम -ऋतुम कम लनी हमसे हो ीहीन हो जाती है, उसी कार ेक पणशाला शोभाशू हो गयी थी॥ ४-५ ॥ वह ान वृ (क सनसनाहट) के ारा मानो रो रहा था, फू ल मुरझा गये थे, मृग और प ी मन मारे बैठे थे। वहाँक स ूण शोभा न हो गयी थी। सारी कु टी उजाड़ दखायी देती थी। वनके देवता भी उस ानको छोड़कर चले गये थे॥ ६ ॥ सब ओर मृगचम और कु श बखरे ए थे। चटाइयाँ अ - पड़ी थ । पणशालाको सूनी देख भगवान् ीराम बारंबार वलाप करने लगे—॥ ७ ॥ ‘हाय! सीताको कसीने हर तो नह लया। उसक मृ ु तो नह हो गयी अथवा वह खो तो नह गयी या कसी रा सने उसे खा तो नह लया। वह भी कह छप तो नह गयी है अथवा फल-फू ल लानेके लये वनके भीतर तो नह चली गयी॥ ८ ॥ ‘स व है, फल-फू ल लानेके लये ही गयी हो या जल लानेके लये कसी पु रणी अथवा नदीके तटपर गयी हो’॥ ९ ॥ ीरामच जीने य पूवक अपनी य प ी सीताको वनम चार ओर ढूँ ढ़ा, कतु कह भी उनका पता न लगा। शोकके कारण ीमान् रामक आँ ख लाल हो गय । वे उ के समान दखायी देने लगे॥ १० ॥



एक वृ से दूसरे वृ के पास दौड़ते ए वे पवत , न दय और नद के कनारे घूमने लगे। शोकसे समु म डू बे ए ीरामच जी वलाप करते-करते वृ से पूछने लगे—॥ ११ ॥ ‘कद ! मेरी या सीता तु ारे पु से ब त ेम करती थी, ा वह यहाँ है? ा तुमने उसे देखा है? य द जानते हो तो उस शुभानना सीताका पता बताओ। उसके अ सु प व के समान कोमल ह तथा शरीरपर पीले रंगक रेशमी साड़ी शोभा पाती है। ब ! मेरी याके न तु ारे ही समान ह। य द तुमने उसे देखा हो तो बताओ॥ १२-१३ ॥ ‘अथवा अजुन! तु ारे फू ल पर मेरी याका वशेष अनुराग था, अत: तु उसका कु छ समाचार बताओ। कृ शा ी जनक कशोरी जी वत है या नह ॥ ‘यह ककु भ* अपने ही समान ऊ वाली म थलेशकु मारीको अव जानता होगा; क यह वन त लता, प व तथा फू ल से स हो बड़ी शोभा पा रहा है। ककु भ! तुम सब वृ म े हो, क ये मर तु ारे समीप आकर अपने झंकार ारा तु ारा यशोगान करते ह। (तु सीताका पता बताओ, अहो! यह भी को◌इ उ र नह दे रहा है।) यह तलक वृ अव सीताके वषयम जानता होगा; क मेरी या सीताको भी तलकसे ेम था॥ १५-१६ ॥ ‘अशोक! तुम शोक दूर करनेवाले हो। इधर म शोकसे अपनी चेतना खो बैठा ँ । मुझे मेरी यतमाका दशन कराकर शी ही अपने-जैसे नामवाला बना दो— मुझे अशोक (शोकहीन) कर दो॥ १७ ॥ ‘ताल वृ ! तु ारे पके ए फलके समान नवाली सीताको य द तुमने देखा हो तो बताओ। य द मुझपर तु दया आती हो तो उस सु रीके वषयम अव कु छ कहो॥ १८ ॥ ‘जामुन! जा ूनद (सुवण) के समान का वाली मेरी या य द तु ारी ष्टम पड़ी हो, य द तुम उसके वषयम कु छ जानते हो तो न:श होकर मुझे बताओ॥ १९ ॥ ‘कनेर! आज तो फू ल के लगनेसे तु ारी बड़ी शोभा हो रही है। अहो! मेरी या सा ी सीताको तु ारे ये पु ब त पसंद थे। य द तुमने उसे कह देखा हो तो मुझसे कहो’॥ २० ॥ इसी कार आम, कद , वशाल शाल, कटहल, कु रव, धव और अनार आ द वृ को भी देखकर महायश ी ीरामच जी उनके पास गये और वकु ल, पु ाग, च न तथा के वड़े आ दके वृ से भी पूछते फरे। उस समय वे वनम पागलक तरह इधर-उधर भटकते दखायी देते थे॥ २१-२२ ॥



अपने सामने ह रणको देखकर वे बोले—‘मृग! अथवा तु बताओ! मृगनयनी मै थलीको जानते हो। मेरी याक ष्ट भी तुम ह रण क -सी है, अत: स व है, वह ह र णय के ही साथ हो॥ २३ ॥ ‘ े गजराज! तु ारी सूँड़के समान ही जसके दोन ऊ ह, उस सीताको स वत: तुमने देखा होगा। मालूम होता है, तु उसका पता व दत है, अत: बताओ! वह कहाँ है?॥ २४ ॥ ‘ ा ! य द तुमने मेरी या च मुखी मै थलीको देखा हो तो न:श होकर बता दो, मुझसे तु को◌इ भय नह होगा’॥ २५ ॥ (इतनेहीम उनको म आ क सीता उधर भागकर छप रही है, तब वे बोले—) ‘ ये! भागी जा रही हो। कमललोचने! न य ही मने तु देख लया है। तुम वृ क ओटम अपने-आपको छपाकर मुझसे बात नह करती हो?॥ २६ ॥ ‘वरारोहे! ठहरो, ठहरो। ा तु मुझपर दया नह आती है। अ धक हास-प रहास करनेका तु ारा भाव तो नह था, फर कस लये मेरी उपे ा करती हो?॥ २७ ॥ ‘सु र! पीली रेशमी साड़ीसे ही, तुम कहाँ हो—यह सूचना मल जाती है। भागी जाती हो तो भी मने तु देख लया है। य द मेरे त ेह एवं सौहाद हो तो खड़ी हो जाओ’॥ २८ ॥ ( फर म दूर होनेपर बोले—) ‘अथवा न य ही वह नह है। उस मनोहर मुसकानवाली सीताको रा स ने मार डाला, अ था इस तरह संकटम पड़े एक (मेरी) वह कदा प उपे ा नह कर सकती थी॥ २९ ॥ ‘ जान पड़ता है क मांसभ ी रा स ने मुझसे बछु ड़ी ◌इ मेरी भोली-भाली या मै थलीको उसके सारे अ बाँटकर खा लया॥ ३० ॥ ‘सु र दाँत, मनोहर ओ , सुघड़ ना सकासे यु तथा चर कु ल से अलंकृत वह पूण च माके समान अ भराम मुख रा स का ास बनकर न य ही अपनी भा खो बैठा होगा॥ ३१ ॥ ‘रोती- वलखती ◌इ यतमा सीताक वह च ाके समान वणवाली कोमल एवं सु र ीवा, जो हार और हँ सली आ द आभूषण पहननेके यो थी, नशाचर का आहार बन गयी॥ ३२ ॥



‘वे नूतन प



व के समान कोमल भुजाएँ , जो इधर-उधर पटक जा रही ह गी और जनके अ भाग काँप रहे ह गे, हाथ के आभूषण तथा बाजूबंदस हत न य ही रा स के पेटम चली गय ॥ ३३ ॥ ‘मने रा स का भ बननेके लये ही उस बालाको अके ली छोड़ दया। य प उसके ब ु-बा व ब त ह, तथा प वह या य के समुदायसे वलग ◌इ कसी अके ली ीक भाँ त नशाचर का ास बन गयी॥ ३४ ॥ ‘हा महाबा ल ण! ा तुम कह मेरी यतमाको देखते हो! हा ये! हा भ े! हा सीते! तुम कहाँ चली गयी?’ इस तरह बारंबार वलाप करते ए ीरामच जी एक वनसे दूसरे वनम दौड़ने लगे। वे कह सीताक समानता पाकर उद् ा हो उठते (उछल पड़ते थे) और कह शोकक बलताके कारण व ा हो जाते (बवंडरक भाँ त च र काटने लगते) थे॥ ३५-३६ ॥



अपनी यतमाक खोज करते ए वे कभी-कभी पागल क -सी चे ा करने लगते थे। उ ने बड़ी दौड़-धूप करके कह भी व ाम न करते ए वन , न दय , पवत , पहाड़ी झरन और व भ कानन म घूम-घूमकर अ ेषण कया॥ ३७ ॥ उस समय म थलेशकु मारीको ढूँ ढ़नेके लये वे उस वशाल एवं व ृत वनम गये और सबम च र लगाकर थक गये तो भी नराश नह ए। उ ने पुन: अपनी यतमाके अनुसंधानके लये बड़ा भारी प र म कया॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म साठवाँ सग पूरा आ॥ ६०॥ रामायणके ा ाकार मसे कसीने ककु भका अथ म वक लखा है और कसीने अजुन वशेष, कतु कोष म यह कु टजका पयाय बताया गया है। *



इकसठवाँ सग ीराम और ल



णके ारा सीताक खोज और उनके न मलनेसे ीरामक



ाकुलता



दशरथन न ीरामने देखा क आ मके सभी ान सीतासे सूने ह तथा पणशालाम भी सीता नह ह और बैठनेके आसन इधर-उधर फ के पड़े ह। तब उ ने पुन: वहाँके सभी ान का नरी ण कया और चार ओर ढूँ ढ़नेपर भी जब वदेहकु मारीका कह पता नह लगा, तब ीरामच जी अपनी दोन सु र भुजाएँ ऊपर उठाकर सीताका नाम ले जोर-जोरसे पुकार करके ल णसे बोले—॥ १-२ ॥ ‘भैया ल ण! वदेहराजकु मारी कहाँ ह? यहाँसे कस देशम चली गय ? सु म ान न! मेरी या सीताको कौन हर ले गया? अथवा कस रा सने खा डाला?॥ ३ ॥ ( फर वे सीताको स ो धत करके बोले—) ‘सीते! य द तुम वृ क आड़म अपनेको छपाकर मुझसे हँ सी करना चाहती हो तो इस समय यह हँ सी ठीक नह है। म ब त दु:खी हो रहा ँ , तुम मेरे पास आ जाओ॥ ४ ॥ ‘सौ भाववाली सीते! जन व मृगछौन के साथ तुम खेला करती थी, वे आज तु ारे बना दु:खी हो आँ ख म आँ सू भरकर च ाम हो गये ह’॥ ५ ॥ ‘ल ण! सीतासे र हत होकर म जी वत नह रह सकता। सीताहरणज नत महान् शोकने मुझे चार ओरसे घेर लया है। न य ही अब परलोकम मेरे पता महाराज दशरथ मुझे देखगे॥ ६ १/२ ॥ वे मुझे उपाल देते ए कहगे—‘मने तो तु वनवासके लये आ ा दी थी और तुमने भी वहाँ रहनेक त ा कर ली थी। फर उतने समयतक वहाँ रहकर उस त ाको पूण कये बना ही तुम यहाँ मेरे पास कै से चले आये?॥ ७ १/२ ॥ ‘तुम-जैसे े ाचारी, अनाय और म ावादीको ध ार है। यह बात परलोकम पताजी मुझसे अव कहगे’॥ ८ १/२ ॥ ‘वरारोहे! सुम मे! सीते! म ववश, शोकसंत , दीन, भ मनोरथ हो क णाजनक अव ाम पड़ गया ँ । जैसे कु टल मनु को क त ाग देती है, उसी कार तुम मुझे यहाँ छोड़कर कहाँ चली जा रही हो? मुझे न छोड़ो, न छोड़ो॥ ९-१० ॥



‘तु



ारे वयोगम म अपने ाण ाग दूँगा।’ इस कार अ दु:खसे आतुर हो वलाप करते ए रघुकुल-न न ीराम सीताके दशनके लये अ उ त हो गये, कतु वे जनकन नी उ दखायी न पड़ ॥ जैसे को◌इ हाथी कसी बड़ी भारी दलदलम फँ सकर क पा रहा हो, उसी कार सीताको न पाकर अ शोकम डू बे ए ीरामसे उनके हतक कामना रखकर ल ण य बोले—॥ १२-१३ ॥ ‘महामते! आप वषाद न कर; मेरे साथ जानक को ढूँ ढ़नेका य कर। वीरवर! यह सामने जो ऊँ चा पहाड़ दखायी देता है, अनेक क रा से सुशो भत है। म थलेशकु मारीको वनम घूमना य लगता है, वे वनक शोभा देखकर हषसे उ हो उठती ह; अत: वनम गयी ह गी, अथवा सु र कमलके फू ल से भरे ए इस सरोवरके या म तथा वेतसलतासे सुशो भत स रताके तटपर जा प ँ ची ह गी। अथवा पु ष वर! हमलोग को डरानेक इ ासे हम दोन उ खोज पाते ह क नह , इस ज ासासे कह वनम ही छप गयी ह गी॥ १४—१६ १/२ ॥ ‘अत: ीमन्! वनम जहाँ-जहाँ जानक के होनेक स ावना हो, उन सभी ान पर हम दोन शी ही उनक खोजके लये य कर॥ १७ १/२ ॥ ‘रघुन न! य द आपको मेरी यह बात ठीक लगे तो आप शोक छोड़ द।’ ल णके ारा इस कार सौहादपूवक समझाये जानेपर ीरामच जी सावधान हो गये और उ ने सु म ाकु मारके साथ सीताको खोजना आर कया॥ १८-१९ ॥ दशरथके वे दोन पु सीताक खोज करते ए वन म, पवत पर, स रता और सरोवर के कनारे घूम-घूमकर पूरी चे ाके साथ अनुसंधानम लगे रहे। उस पवतक चो टय , शला और शखर पर उ ने अ ी तरह जानक को ढूँ ढ़ा; कतु कह भी उनका पता नह लगा॥ २०-२१ ॥ पवतके चार ओर खोजकर ीरामच जीने ल णसे कहा—‘सु म ान न! इस पवतपर तो म सु री वैदेहीको नह देख पाता ँ ’॥ २२ ॥ तब दु:खसे संत ए ल णने द कार म घूमते-घूमते अपने उ ी तेज ी भा◌इसे इस कार कहा—॥ ‘महामते! जैसे महाबा भगवान् व ुने राजा ब लको बाँधकर यह पृ ी ा कर ली थी, उसी कार आप भी म थलेशकु मारी जानक को पा जायँग’े ॥



वीर ल णके ऐसा कहनेपर दु:खसे ाकु ल च ए ीरघुनाथजीने दीन वाणीम कहा —॥ २५ ॥ ‘महा ा ल ण! मने सारा वन खोज डाला। वक सत कमल से भरे ए सरोवर भी देख लये तथा अनेक क रा और झरन से सुशो भत इस पवतको भी सब ओरसे छान डाला; परंतु मुझे अपने ाण से भी ारी वैदेही कह दखायी नह पड़ी’॥ २६ ॥ इस कार सीता-हरणके क से पी ड़त हो वलाप करते ए ीरामच जी दीन और शोकम हो दो घड़ीतक अ ाकु लताम पड़े रहे॥ २७ ॥ उनका सारा अ व ल ( श थल) हो गया, बु काम नह दे रही थी, चेतना लु -सी होती जा रही थी। वे गरम-गरम लंबी साँस ख चते ए दीन और आतुर होकर वषादम डू ब गये॥ २८ ॥ बारंबार उ ास लेकर कमलनयन ीराम आँ सु से ग द वाणीम ‘हा ये!’ कहकर ब त रोने- वलखने लगे॥ २९ ॥ तब शोकसे पी ड़त ए ल णने वनीतभावसे हाथ जोड़कर अपने य भा◌इको अनेक कारसे सा ना दी॥ ३० ॥ ल णके ओ पुट से नकली ◌इ इस बातका आदर न करके ीरामच जी अपनी ारी प ी सीताको न देखनेके कारण उ बारंबार पुकारने और रोने लगे॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म इकसठवाँ सग पूरा आ॥ ६१॥



बासठवाँ सग ीरामका वलाप



सीताको न देखकर शोकसे ाकु ल च ए धमा ा महाबा कमलनयन ीराम वलाप करने लगे॥ १ ॥ रघुनाथजी सीताके त अ धक ेमके कारण उनके वयोगम क पा रहे थे। वे उ न देखकर भी देखते एके समान ऐसी बात कहने लगे, जो वलापका आ य होनेसे ग दक के कारण क ठनतासे बोली जा रही थी—॥ २ ॥ ‘ ये! तु फू ल अ धक य ह, इस लये खली ◌इ अशोकक शाखा से अपने शरीरको छपाती हो और मेरा शोक बढ़ा रही हो॥ ३ ॥ ‘दे व! म के लेके तन के तु और कदलीदलसे ही छपे ए तु ारे दोन ऊ (जाँघ ) को देख रहा ँ । तुम उ छपा नह सकती॥ ४ ॥ ‘भ े! दे व! तुम हँ सती ◌इ कनेर-पु क वा टकाका सेवन करती हो। बंद करो इस प रहासको, इससे मुझे बड़ा क हो रहा है॥ ५ ॥ ‘ वशेषत: आ मके ानम यह हास-प रहास अ ा नह बताया जाता है। ये! म जानता ँ , तु ारा भाव प रहास य है। वशाललोचने! आओ। तु ारी यह पणशाला सूनी है’॥ ६ १/२ ॥ ( फर म दूर होनेपर वे सु म ाकु मारसे बोले—) ‘ल ण! अब तो भलीभाँ त हो गया क रा स ने सीताको खा लया अथवा हर लया; क म वलाप कर रहा ँ और वह मेरे पास नह आ रही है॥ ७ १/२ ॥ ‘ल ण! ये जो मृगसमूह ह, ये भी अपने ने म आँ सू भरकर मानो मुझसे यही कह रहे ह क देवी सीताको नशाचर खा गये॥ ८ १/२ ॥ ‘हा मेरी आय! (आदरणीये!) तुम कहाँ चली गयी? हा सा ! हा वरव ण न! तुम कहाँ गयी? हा दे व! आज कै के यी सफलमनोरथ हो जायगी॥ ९ १/२ ॥



‘सीताके



साथ अयो ासे नकला था। य द सीताके बना ही वहाँ लौटा तो अपने सूने अ :पुरम कै से वेश क ँ गा॥ १० १/२ ॥ ‘सारा संसार मुझे परा महीन और नदय कहेगा। सीताके अपहरणसे मेरी कायरता ही काशम आयेगी॥ ११ १/२ ॥ ‘जब वनवाससे लौटनेपर म थलानरेश जनक मुझसे कु शल पूछने आयगे, उस समय म कै से उनक ओर देख सकूँ गा?॥ १२ १/२ ॥ ‘मुझे सीतासे र हत देख वदेहराज जनक अपनी पु ीके वनाशसे संत हो न य ही मू त हो जायँगे॥ ‘अथवा अब म भरत ारा पा लत अयो ापुरीको नह जाऊँ गा। जानक के बना मुझे ग भी सूना ही जान पड़ेगा॥ १४ १/२ ॥ ‘इस लये अब तुम मुझे वनम ही छोड़कर सु र अयो ापुरीको लौट जाओ। म तो अब सीताके बना कसी तरह जी वत नह रह सकता॥ १५ १/२ ॥ ‘भरतका गाढ़ आ ल न करके तुम उनसे मेरा संदेश कह देना, ‘कै के यीन न! तुम सारी पृ ीका पालन करो, इसके लये रामने तु आ ा दे दी है’॥ १६ १/२ ॥ ‘ वभो! मेरी माता कौस ा, कै के यी तथा सु म ाको त दन यथो चत री तसे णाम करते ए उन सबक र ा करना और सदा उनक आ ाके अनुसार चलना,’ यह तु ारे लये मेरी आ ा है॥ १७-१८ ॥ ‘श ुसूदन! मेरी माताके सम सीताके वनाशका यह समाचार व ारपूवक कह सुनाना’॥ १९ ॥ सु र के शवाली सीताके वरहम भगवान् ीराम वनके भीतर जाकर जब इस तरह दीनभावसे वलाप करने लगे, तब ल णके भी मुखपर भयज नत ाकु लताके च दखायी देने लगे। उनका मन थत हो उठा और वे अ घबरा गये॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म बासठवाँ सग पूरा आ॥ ६२॥



तरसठवाँ सग ीरामका वलाप



अपनी या सीतासे र हत हो राजकु मार ीराम शोक और मोहसे पी ड़त होने लगे। वे यं तो पी ड़त थे ही, अपने भा◌इ ल णको भी वषादम डालते ए पुन: ती शोकम म हो गये॥ १ ॥ ल ण शोकके अधीन हो रहे थे, उनसे महान् शोकम डू बे ए ीराम दु:खके साथ रोते ए गरम उ ास लेकर अपने ऊपर पड़े ए संकटके अनु प वचन बोले—॥ २ ॥ ‘सु म ान न! मालूम होता है, मेरे-जैसा पापकम करनेवाला मनु इस पृ ीपर दूसरा को◌इ नह है; क एकके बाद दूसरा शोक मेरे दय ( ाण) और मनको वदीण करता आ लगातार मुझपर आता जा रहा है॥ ३ ॥ ‘ न य ही पूवज म मने अपनी इ ाके अनुसार बारंबार ब त-से पापकम कये ह; उ मसे कु छ कम का यह प रणाम आज ा आ है, जससे म एक दु:खसे दूसरे दु:खम पड़ता जा रहा ँ ॥ ४ ॥ ‘पहले तो म रा से व त आ; फर मेरा जन से वयोग आ। त ात् पताजीका परलोकवास आ, फर मातासे भी मुझे बछु ड़ जाना पड़ा। ल ण! ये सारी बात जब मुझे याद आती ह, तब मेरे शोकके वेगको बढ़ा देती ह॥ ५ ॥ ‘ल ण! वनम आकर ेशका अनुभव करके भी यह सारा दु:ख सीताके समीप रहनेसे मेरे शरीरम ही शा हो गया था, परंतु सीताके वयोगसे वह फर उ ी हो उठा है, जैसे सूखे काठका संयोग पाकर आग सहसा लत हो उठती है॥ ६ ॥ ‘हाय! मेरी े भाववाली भी प ीको अव ही रा सने आकाशमागसे हर लया। उस समय सुमधुर रम वलाप करनेवाली सीता भयके मारे बारंबार वकृ त रम न करने लगी होगी॥ ७ ॥ ‘मेरी याके वे दोन गोल-गोल न, जो सदा लाल च नसे च चत होनेयो थे, न य ही र क क चम सन गये ह गे। हाय! इतनेपर भी मेरे शरीरका पतन नह होता॥ ८ ॥



‘रा



सके वशम पड़ी ◌इ मेरी याका वह मुख जो एवं सु मधुर वातालाप करनेवाला तथा काले-काले घुँघराले के श के भारसे सुशो भत था, वैसे ही ीहीन हो गया होगा, जैसे रा के मुखम पड़ा आ च मा शोभा नह पाता है॥ ९ ॥ ‘हाय! उ म तका पालन करनेवाली मेरी यतमाका क हर समय हारसे सुशो भत होनेयो था, कतु र भोजी रा स ने सूने वनम अव उसे फाड़कर उसका र पया होगा॥ १० ॥ ‘मेरे न रहनेके कारण नजन वनम रा स ने उसे ले-लेकर घसीटा होगा और वशाल एवं मनोहर ने वाली वह जानक अ दीनभावसे कु ररीक भाँ त वलाप करती रही होगी॥ ११ ॥ ‘ल



ण! यह वही शलातल है, जसपर उदार भाववाली सीता पहले एक दन मेरे साथ बैठी ◌इ थी। उसक मुसकान कतनी मनोहर थी, उस समय उसने हँ स-हँ सकर तुमसे भी ब त-सी बात कही थ ॥ १२ ॥ ‘स रता म े यह गोदावरी मेरी यतमाको सदा ही य रही है। सोचता ँ , शायद वह इसीके तटपर गयी हो, कतु अके ली तो वह कभी वहाँ नह जाती थी॥ १३ ॥ ‘उसका मुख और वशाल ने फु कमल के समान सु र ह, स व है, वह कमलपु लानेके लये ही गोदावरीतटपर गयी हो, परंतु यह भी ठीक नह है; क वह मुझे साथ लये बना कभी कमल के पास नह जाती थी॥ १४ ॥ ‘हो सकता है क वह इन पु त वृ समूह से यु और नाना कारके प य से से वत वनम मणके लये गयी हो; परंतु यह भी ठीक नह लगता; क वह भी तो अके ली वनम जानेसे ब त डरती थी॥ ‘सूयदेव! संसारम कसने ा कया और ा नह कया—इसे तुम जानते हो; लोग के स -अस (पु और पाप) कम के तु सा ी हो। मेरी या सीता कहाँ गयी अथवा उसे कसने हर लया, यह सब मुझे बताओ; क म उसके शोकसे पी ड़त ँ ॥ १६ ॥ ‘वायुदेव! सम व म ऐसी को◌इ बात नह है, जो तु सदा ात न रहती हो। मेरी कु लपा लका सीता कहाँ है, यह बता दो। वह मर गयी, हर ली गयी अथवा मागम ही है’॥ १७ ॥



इस कार शोकके अधीन होकर जब ीरामच जी सं ाशू हो वलाप करने लगे, तब उनक ऐसी अव ा देख ायो चत मागपर त रहनेवाले उदार च सु म ाकु मार ल णने उनसे यह समयो चत बात कही—॥ १८ ॥ ‘आय! आप शोक छोड़कर धैय धारण कर; सीताक खोजके लये मनम उ ाह रख; क उ ाही मनु जग अ दु र काय आ पड़नेपर भी कभी दु:खी नह होते ह’॥ १९ ॥



बढ़े ए पु षाथवाले सु म ाकु मार ल ण जब इस कारक बात कह रहे थे, उस समय रघुकुलक वृ करनेवाले ीरामने आत होकर उनके कथनके औ च पर को◌इ ान नह दया; उ ने धैय छोड़ दया और वे पुन: महान् दु:खम पड़ गये॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म तरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६३॥



च सठवाँ सग ीराम और ल णके ारा सीताक खोज, ीरामका शोको ार, मृग ारा संकेत पाकर दोन भाइय का द ण दशाक ओर जाना, पवतपर ोध, सीताके बखरे ए फूल, आभूषण के कण और यु के च देखकर ीरामका देवता आ द स हत सम लोक पर रोष कट करना



तदन र दीन ए ीरामच जीने दीन वाणीम ल णसे कहा—‘ल ण! तुम शी ही गोदावरी नदीके तटपर जाकर पता लगाओ। सीता कमल लानेके लये तो नह चली गय ’॥ १ १/ ॥ २



ीरामक ऐसी आ ा पाकर ल ण शी ग तसे पुन: रमणीय गोदावरी नदीके तटपर



गये॥ २ १/२ ॥ अनेक तीथ (घाट )-से यु गोदावरीके तटपर खोजकर ल ण पुन: लौट आये और ीरामसे बोले—‘भैया! म गोदावरीके घाट पर सीताको नह देख पाता ँ ; जोर-जोरसे पुकारनेपर भी वे मेरी बात नह सुनती ह॥ ३ १/२ ॥ ‘ ीराम! ेश का नाश करनेवाली वदेहराजकु मारी न जाने कस देशम चली गय । भैया ीराम! जहाँ कृ शक ट- देशवाली सीता गयी ह, उस ानको म नह जानता’॥ ४ १/२ ॥ ल णक यह बात सुनकर दीन एवं संतापसे मो हत ए ीरामच जी यं ही गोदावरी नदीके तटपर गये॥ ५ १/२ ॥ वहाँ प ँ चकर ीरामने पूछा—‘सीता कहाँ है?’ परंतु वधके यो रा सराज रावण ारा हरी गयी सीताके वषयम सम भूत मसे कसीने कु छ नह कहा। गोदावरी नदीने भी ीरामको को◌इ उ र नह दया॥ ६-७ ॥ तदन र वनके सम ा णय ने उ े रत कया क ‘तुम ीरामको उनक याका पता बता दो!’ कतु शोकम ीरामके पूछनेपर भी गोदावरीने सीताका पता नह बताया॥ ८ ॥



दुरा ा रावणके उस प और कमको याद करके भयके मारे गोदावरी नदीने वैदेहीके वषयम ीरामसे कु छ नह कहा॥ ९ ॥



सीताके दशनके वषयम जब नदीने उ पूण नराश कर दया, तब सीताको न देखनेसे क म पड़े ए ीराम सु म ाकु मारसे इस कार बोले—॥ १० ॥ ‘सौ ल ण! यह गोदावरी नदी तो मुझे को◌इ उ र ही नह देती है। अब म राजा जनकसे मलनेपर उ ा जवाब दूँगा? जानक के बना उसक मातासे मलकर भी म उनसे यह अ य बात कै से सुनाऊँ गा?॥ ‘रा हीन होकर वनम जंगली फल-मूल से नवाह करते समय भी जो मेरे साथ रहकर मेरे सभी दु:ख को दूर कया करती थी, वह वदेहराजकु मारी कहाँ चली गयी?॥ १२ १/२ ॥ ‘ब -ु बा व से तो मेरा बछोह हो ही गया था, अब सीताके दशनसे भी मुझे व त होना पड़ा; उसक च ाम नर र जागते रहनेके कारण अब मेरी सभी रात ब त बड़ी हो जायँगी॥ १३ १/२ ॥ ‘म ा कनी नदी, जन ान तथा वण पवत— इन सभी ान पर म बारंबार मण क ँ गा। शायद वहाँ सीताका पता चल जाय॥ १४ १/२ ॥ ‘वीर ल ण! ये वशाल मृग मेरी ओर बारंबार देख रहे ह, मानो यहाँ ये मुझसे कु छ कहना चाहते ह। म इनक चे ा को समझ रहा ँ ’॥ १५ १/२ ॥ तदन र उन सबक ओर देखकर पु ष सह ीरामच जीने उनसे कहा—‘बताओ, सीता कहाँ ह?’ उन मृग क ओर देखते ए राजा ीरामने जब अ ुग द वाणीसे इस कार पूछा, तब वे मृग सहसा उठकर खड़े हो गये और ऊपरक ओर देखकर आकाशमागक ओर ल कराते ए सब-के -सब द ण दशाक ओर मुँह कये दौड़े॥ १६-१७ १/२ ॥ म थलेशकु मारी सीता हरी जाकर जस दशाक ओर गयी थ , उसी ओरके मागसे जाते ए वे मृग राजा ीरामच जीक ओर मुड़-मुड़कर देखते रहते थे॥ १८ १/२ ॥ वे मृग आकाशमाग और भू म दोन क ओर देखते और गजना करते ए पुन: आगे बढ़ते थे। ल णने उनक इस चे ाको ल कया। वे जो कु छ कहना चाहते थे, उसका सारसव प जो उनक चे ा थी, उसे उ ने अ ी तरह समझ लया॥ १९-२० ॥ तदन र बु मान् ल णने आत-से होकर अपने बड़े भा◌इसे इस कार कहा—‘आय! जब आपने पूछा क सीता कहाँ ह, तब ये मृग सहसा उठकर खड़े हो गये और पृ ी तथा द णक ओर हमारा ल कराने लगे ह; अत: देव! यही अ ा होगा क हमलोग इस



नैऋ दशाक ओर चल। स व है, इधर जानेसे सीताका को◌इ समाचार मल जाय अथवा आया सीता यं ही ष्टगोचर हो जायँ’॥ २१-२२ १/२ ॥ तब ‘ब त अ ा’ कहकर ीमान् रामच जी ल णको साथ ले पृ ीक ओर ानसे देखते ए द ण दशाक ओर चल दये॥ २३ १/२ ॥ वे दोन भा◌इ आपसम इसी कारक बात करते ए ऐसे मागपर जा प ँ च,े जहाँ भू मपर कु छ फू ल गरे दखायी देते थे॥ २४ १/२ ॥ पृ ीपर फू ल क उस वषाको देखकर वीर ीरामने दु:खी हो ल णसे यह दु:खभरा वचन कहा—॥ २५ १/२ ॥ ‘ल ण! म इन फू ल को पहचानता ँ । ये वे ही फू ल यहाँ गरे ह, ज वनम मने वदेहन नीको दया था और उ ने अपने के श म लगा लया था॥ २६ १/२ ॥ ‘म समझता ँ , सूय, वायु और यश नी पृ ीने मेरा य करनेके लये ही इन फू ल को सुर त रखा है’॥ २७ १/२ ॥ पु ष वर ल णसे ऐसा कहकर धमा ा महाबा ीरामने झरन से भरे ए वण ग रसे कहा—॥ २८ १/२ ॥ ‘पवतराज! ा तुमने इस वनके रमणीय देशम मुझसे बछु ड़ी ◌इ सवा सु री रमणी सीताको देखा है?’॥ २९ १/२ ॥ तदन र जैसे सह छोटे मृगको देखकर दहाड़ता है, उसी कार वे कु पत हो वहाँ उस पवतसे बोले—‘पवत! जबतक म तु ारे सारे शखर का व ंस नह कर डालता ँ , इसके पहले ही तुम उस का नक -सी काया-का वाली सीताका मुझे दशन करा दो’॥ ३०-३१ ॥ ीरामके ारा मै थलीके लये ऐसा कहे जानेपर उस पवतने सीताको दखाता आ-सा कु छ च कट कर दया। ीरघुनाथजीके समीप वह सीताको सा ात् उप त न कर सका॥ ३२ ॥ तब दशरथन न ीरामने उस पवतसे कहा— ‘अरे! तू मेरे बाण क आगसे जलकर भ ीभूत हो जायगा। कसी भी ओरसे तू सेवनके यो नह रह जायगा। तेरे तृण, वृ और प व न हो जायँग’े ॥



(इसके



बाद वे सु म ाकु मारसे बोले—) ‘ल ण! य द यह नदी आज मुझे च मुखी सीताका पता नह बताती है तो म अब इसे भी सुखा डालूँगा’॥ ३४ १/२ ॥ ऐसा कहकर रोषम भरे ए ीरामच जी उसक ओर इस तरह देखने लगे, मानो अपनी ष्ट ारा उसे जलाकर भ कर देना चाहते ह। इतनेहीम उस पवत और गोदावरीके समीपक भू मपर रा सका वशाल पद च उभरा आ दखायी दया॥ ३५ १/२ ॥ साथ ही रा सने जनका पीछा कया था और जो ीरामक अ भलाषा रखकर रावणके भयसे सं हो इधर-उधर भागती फरी थ , उन वदेहराजकु मारी सीताके चरण च भी वहाँ दखायी दये॥ ३६ १/२ ॥ सीता और रा सके पैर के नशान, टूटे धनुष, तरकस और छ - भ होकर अनेक टुकड़ म बखरे ए रथको देखकर ीरामच जीका दय घबरा उठा। वे अपने य ाता सु म ाकु मारसे बोले—॥ ३७-३८ ॥ ‘ल ण! देखो, ये सीताके आभूषण म लगे ए सोनेके घुँघु बखरे पड़े ह। सु म ान न! उसके नाना कारके हार भी टूटे पड़े ह॥ ३९ ॥ ‘सु म ाकु मार! देखो, यहाँक भू म सब ओरसे सुवणक बूँद के समान ही व च र ब ु से रँगी दखायी देती है॥ ४० ॥ ‘ल ण! मुझे तो ऐसा मालूम होता है क इ ानुसार प धारण करनेवाले रा स ने यहाँ सीताके टुकड़े-टुकड़े करके उसे आपसम बाँटा और खाया होगा॥ ‘सु म ान न! सीताके लये पर र ववाद करनेवाले दो रा स म यहाँ घोर यु भी आ है॥ ४२ ॥ ‘सौ ! तभी तो यहाँ यह मोती और म णय से ज टत एवं वभू षत कसीका अ सु र और वशाल धनुष ख त होकर पृ ीपर पड़ा है। यह कसका धनुष हो सकता है?॥ ४३ ॥ ‘व ! पता नह , यह रा स का है या देवता का; यह ात:कालके सूयक भाँ त का शत हो रहा है तथा इसम वैदयू म ण (नीलम) के टुकड़े जड़े ए ह॥ ४४ ॥ सौ ! उधर पृ ीपर टूटा आ एक सोनेका कवच पड़ा है, न जाने वह कसका है? द माला से सुशो भत यह सौ कमा नय वाला छ कसका है? इसका डंडा टूट गया है और यह



धरतीपर गरा दया गया है॥ ४५ १/२ ॥ ‘इधर ये पशाच के समान मुखवाले भयंकर पधारी गधे मरे पड़े ह। इनका शरीर ब त ही वशाल रहा है; इन सबक छातीम सोनेके कवच बँधे ह। ये यु म मारे गये जान पड़ते ह। पता नह ये कसके थे॥ ‘तथा सं ामम काम देनेवाला यह कसका रथ पड़ा है? इसे कसीने उलटा गराकर तोड़ डाला है। समरा णम ामीको सू चत करनेवाली जा भी इसम लगी थी। यह तेज ी रथ लत अ के समान दमक रहा है॥ ४७ १/२ ॥ ‘ये भयंकर बाण, जो यहाँ टुकड़े-टुकड़े होकर बखरे पड़े ह, कसके ह? इनक लंबा◌इ और मोटा◌इ रथके धुरेके समान तीत होती है। इनके फल-भाग टूट गये ह तथा ये सुवणसे वभू षत ह॥ ४८ १/२ ॥ ‘ल ण! उधर देखो, ये बाण से भरे ए दो तरकस पड़े ह, जो न कर दये गये ह। यह कसका सार थ मरा पड़ा है, जसके हाथम चाबुक और लगाम अभीतक मौजूद ह॥ ४९ १/२ ॥ ‘सौ ! यह अव ही कसी रा सका पद च दखायी देता है। इन अ ूर दयवाले काम पी रा स के साथ मेरा वैर सौगुना बढ़ गया है। देखो, यह वैर उनके ाण लेकर ही शा होगा॥ ५०-५१ ॥ ‘अव ही तप नी वदेहराजकु मारी हर ली गयी, मृ ुको ा हो गयी अथवा रा स ने उसे खा लया। इस वशाल वनम हरी जाती ◌इ सीताक र ा धम भी नह कर रहा है॥ ५२ ॥ ‘सौ ल ण! जब वदेहन नी रा स का ास बन गयी अथवा उनके ारा हर ली गयी और को◌इ सहायक नह आ, तब इस जग कौन ऐसे पु ष ह, जो मेरा य करनेम समथ ह ॥ ५३ ॥ ‘ल ण! जो सम लोक क सृ ष्ट, पालन और संहार करनेवाले ‘ पुर- वजय’ आ द शौयसे स महे र ह, वे भी जब अपने क णामय भावके कारण चुप बैठे रहते ह, तब सारे ाणी उनके ऐ यको न जाननेसे उनका तर ार करने लग जाते ह॥ ५४ ॥ ‘म लोक हतम त र, यु च , जते य तथा जीव पर क णा करनेवाला ँ , इसी लये ये इ आ द देवे र न य ही मुझे नबल मान रहे ह (तभी तो इ ने सीताक र ा नह क



है)॥ ५५ ॥ ‘ल ण! देखो तो सही, यह दयालुता आ द गुण मेरे पास आकर दोष बन गया (तभी तो मुझे नबल मानकर मेरी ीका अपहरण कया गया है। अत: अब मुझे पु षाथ ही कट करना होगा)। जैसे लयकालम उ दत आ महान् सूय च माक ो ा (चाँदनी) का संहार करके च तेजसे का शत हो उठता है, उसी कार अब मेरा तेज आज ही सम ा णय तथा रा स का अ करनेके लये मेरे उन कोमल भाव आ द गुण को समेटकर च पम का शत होगा, यह भी तुम देखो॥ ५६-५७ ॥ ‘ल ण! अब न तो य , न ग व, न पशाच, न रा स, न क र और न मनु ही चैनसे रहने पायगे॥ ५८ ॥ ‘सु म ान न! देखना, थोड़ी ही देरम आकाशको म अपने चलाये ए बाण से भर दूँगा और तीन लोक म वचरनेवाले ा णय को हलने-डु लने भी न दूँगा॥ ५९ ॥ ‘ ह क ग त क जायगी, च मा छप जायगा, अ , म ण तथा सूयका तेज न हो जायगा, सब कु छ अ कारसे आ हो जायगा, पवत के शखर मथ डाले जायँग,े सारे जलाशय (नदी-सरोवर आ द) सूख जायँग,े वृ , लता और गु न हो जायँगे और समु का भी नाश कर दया जायगा। इस तरह म सारी लोक म ही कालक वनाशलीला आर कर दूँगा॥ ‘सु म ान न! य द देवे रगण इसी मु तम मुझे सीता देवीको सकु शल नह लौटा दगे तो वे मेरा परा म देखगे॥ ६२ १/२ ॥ ‘ल ण! मेरे धनुषक ासे छू टे ए बाणसमूह ारा आकाशके ठसाठस भर जानेके कारण उसम को◌इ ाणी उड़ नह सकगे॥ ६३ १/२ ॥ ‘सु म ान न! देखो, आज मेरे नाराच से र दा जाकर यह सारा जगत् ाकु ल और मयादार हत हो जायगा। यहाँके मृग और प ी आ द ाणी न एवं उद् ा हो जायँगे॥ ६४ १/ ॥ २



‘धनुषको कानतक ख चकर छोड़े गये मेरे बाण को रोकना जीवजग



होगा। म सीताके लये उन बाण ारा इस जग े सम डालूँगा॥ ६५ १/२ ॥



े लये ब त क ठन पशाच और रा स का संहार कर



‘रोष



और अमषपूवक छोड़े गये मेरे फलर हत दूरगामी बाण का बल आज देवतालोग



देखगे॥ ६६ १/२ ॥ ‘मेरे ोधसे लोक का वनाश हो जानेपर न देवता रह जायँगे न दै , न पशाच रहने पायँगे न रा स॥ ६७ १/२ ॥ ‘देवता , दानव , य और रा स के जो लोक ह, वे मेरे बाणसमूह से टुकड़े-टुकड़े होकर बारंबार नीचे गरगे॥ ६८ १/२ ॥ ‘सु म ान न! य द देवे रगण मेरी हरी या मरी ◌इ सीताको लाकर मुझे नह दगे तो आज म अपने सायक क मारसे इन तीन लोक को मयादासे कर दूँगा॥ ६९ १/२ ॥ ‘य द वे मेरी या वदेहराजकु मारीको मुझे उसी पम वापस नह लौटायगे तो म चराचर ा णय स हत सम लोक का नाश कर डालूँगा। जबतक सीताका दशन न होगा, तबतक म अपने सायक से सम संसारको संत करता र ँ गा’॥ ७०-७१ ॥ ऐसा कहकर ीरामच जीके ने ोधसे लाल हो गये, होठ फड़कने लगे। उ ने व ल और मृगचमको अ ी तरह कसकर अपने जटाभारको भी बाँध लया॥ ७२ ॥ उस समय ोधम भरकर उस तरह संहारके लये उ त ए भगवान् ीरामका शरीर पूवकालम पुरका संहार करनेवाले के समान तीत होता था॥ ७३ ॥ उस समय ल णके हाथसे धनुष लेकर ीरामच जीने उसे ढ़तापूवक पकड़ लया और एक वषधर सपके समान भयंकर और लत बाण लेकर उसे उस धनुषपर रखा। त ात् श ुनगरीपर वजय पानेवाले ीराम लया के समान कु पत हो इस कार बोले —॥ ७४-७५ ॥ ‘ल ण! जैसे बुढ़ापा, जैसे मृ ,ु जैसे काल और जैसे वधाता सदा सम ा णय पर हार करते ह, कतु उ को◌इ रोक नह पाता है, उसी कार न ंदेह ोधम भर जानेपर मेरा भी को◌इ नवारण नह कर सकता॥ ७६ ॥ ‘य द देवता आ द आज पहलेक ही भाँ त मनोहर दाँत वाली अ न सु री म थलेशकु मारी सीताको मुझे लौटा नह दगे तो म देवता, ग व, मनु , नाग और पवत स हत सारे संसारको उलट दूँगा’॥ ७७ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म च सठवाँ सग पूरा आ॥ ६४॥



पसठवाँ सग ल



णका ीरामको समझा-बुझाकर शा



करना



सीताहरणके शोकसे पी ड़त ए ीराम जब उस समय संत हो लयका लक अ के समान सम लोक का संहार करनेको उ त हो गये और धनुषक डोरी चढ़ाकर बारंबार उसक ओर देखने लगे तथा लंबी साँस ख चने लगे, साथ ही क ा कालम देवक भाँ त सम संसारको द कर देनेक इ ा करने लगे, तब ज इस पम पहले कभी देखा नह गया था, उन अ कु पत ए ीरामक ओर देखकर ल ण हाथ जोड़ सूखे ए मुँहसे इस कार बोले—॥ १—३ ॥ ‘आय! आप पहले कोमल भावसे यु , जते य और सम ा णय के हतम त र रहे ह। अब ोधके वशीभूत होकर अपनी कृ त ( भाव) का प र ाग न कर॥ ४ ॥ ‘च माम शोभा, सूयम भा, वायुम ग त और पृ ीम मा जैसे न वराजमान रहती है, उसी कार आपम सव म यश सदा का शत होता है॥ ५ ॥ ‘आप कसी एकके अपराधसे सम लोक का संहार न कर। म यह जाननेक चे ा करता ँ क यह टूटा आ यु ोपयोगी रथ कसका है॥ ६ ॥ ‘अथवा कसने कस उ े से जूए तथा अ उपकरण स हत इस रथको तोड़ा है? इसका भी पता लगाना है। राजकु मार! यह ान घोड़ क खुर और थके प हय से खुदा आ है; साथ ही खूनक बूँद से सच उठा है। इससे स होता है क यहाँ बड़ा भयंकर सं ाम आ था, परंतु यह सं ाम- च कसी एक ही रथीका है, दोका नह । व ा म े ीराम! म यहाँ कसी वशाल सेनाका पद च नह देख रहा ँ ; अत: कसी एकहीके अपराधके कारण आपको सम लोक का वनाश नह करना चा हये॥ ७—९ ॥ ‘ क राजालोग अपराधके अनुसार ही उ चत द देनेवाले, कोमल भाववाले और शा होते ह। आप तो सदा ही सम ा णय को शरण देनेवाले तथा उनक परम ग त ह॥ १० ॥ ‘रघुन



न! आपक ीका वनाश या अपहरण कौन अ ा समझेगा? जैसे य म दी त ए पु षका साधु भाववाले ऋ ज् कभी अ य नह कर सकते, उसी कार स रताएँ , समु ,



पवत, देवता, ग व और दानव—ये को◌इ भी आपके तकू ल आचरण नह कर सकते॥ ११ १/ ॥ २



‘राजन्!



जसने सीताका अपहरण कया है, उसीका अ ेषण करना चा हये। आप मेरे साथ धनुष हाथम लेकर बड़े-बड़े ऋ षय क सहायतासे उसका पता लगाव॥ १२ १/२ ॥ ‘हम सब लोग एका च हो समु म खोजगे, पवत और वन म ढूँ ढ़गे, नाना कारक भयंकर गुफा और भाँ त-भाँ तके सरोवर को छान डालगे तथा देवता और ग व के लोक म भी तलाश करगे। जबतक आपक प ीका अपहरण करनेवाले दुरा ाका पता नह लगा लगे, तबतक हम अपना यह य जारी रखगे। कोसलनरेश! य द हमारे शा पूण बतावसे देवे रगण आपक प ीका पता नह दगे तो उस अवसरके अनु प काय आप क जयेगा॥ ‘नरे ! य द अ े शील- भाव, सामनी त, वनय और ायके अनुसार य करनेपर भी आपको सीताका पता न मले, तब आप सुवणमय पंखवाले महे के व तु बाणसमूह से सम लोक का संहार कर डाल’॥ १६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पसठवाँ सग पूरा आ॥ ६५॥



छाछठवाँ सग ल



णका ीरामको समझाना



ीरामच जी शोकसे संत हो अनाथक तरह वलाप करने लगे। वे महान् मोहसे यु और अ दुबल हो गये। उनका च नह था। उ इस अव ाम देखकर सु म ाकु मार ल णने दो घड़ीतक आ ासन दया; फर वे उनका पैर दबाते ए उ समझाने लगे—॥ १-२ ॥ ‘भैया! हमारे पता महाराज दशरथने बड़ी तप ा और महान् कमका अनु ान करके आपको पु पम ा कया, जैसे देवता ने महान् याससे अमृत पा लया था॥ ३ ॥ ‘आपने भरतके मुँहसे जैसा सुना था, उसके अनुसार भूपाल महाराज दशरथ आपके ही गुण से बँधे ए थे और आपका ही वयोग होनेसे देवलोकको ा ए॥ ४ ॥ ‘ककु कु लभूषण! य द अपने ऊपर आये ए इस दु:खको आप ही धैयपूवक नह सहगे तो दूसरा कौन साधारण पु ष, जसक श ब त थोड़ी है, सह सके गा?॥ ५ ॥ ‘नर े ! आप धैय धारण कर। संसारम कस ाणीपर आप याँ नह आत । राजन्! आप याँ अ क भाँ त एक णम श करत और दूसरे ही णम दूर हो जाती ह॥ ६ ॥ ‘पु ष सह! य द आप दु:खी होकर अपने तेजसे सम लोक को द कर डालगे तो पी ड़त ◌इ जा कसक शरणम जाकर सुख और शा पायेगी॥ ७ ॥ ‘यह लोकका भाव ही है क यहाँ सबपर दु:ख-शोक आता-जाता रहता है। न षपु यया त इ के समान लोक (देवे पद) को ा ए थे; कतु वहाँ भी अ ायमूलक दु:ख उनका श कये बना न रहा॥ ८ ॥ ‘हमारे पताके पुरो हत जो मह ष व स जी ह, उ एक ही दनम सौ पु ा ए और फर एक ही दन वे सब-के -सब व ा म के हाथसे मारे गये॥ ९ ॥ ‘कोसले र! यह जो व व ता जग ाता पृ ी है, इसका भी हलना-डु लना देखा जाता है॥ १० ॥ ‘जो धमके वतक और संसारके ने ह, जनके आधारपर ही सारा जगत् टका आ है, वे महाबली सूय और च मा भी रा के ारा हणको ा होते ह॥ ११ ॥



‘पु ष वर! पाते ह; फर सम



बड़े-बड़े भूत और देवता भी दैव ( ार -कम) क अधीनतासे मु नह हो देहधारी ा णय के लये तो कहना ही ा है॥ १२ ॥ ‘नर े ! इ आ द देवता को भी नी त और अनी तके कारण सुख और दु:खक ा होती सुनी जाती है; इस लये आपको शोक नह करना चा हये॥ १३ ॥ ‘वीर रघुन न! वदेहराजकु मारी सीता य द मर जायँ या न हो जायँ तो भी आपको दूसरे गँवार मनु क तरह शोक- च ा नह करनी चा हये॥ १४ ॥ ‘ ीराम! आप-जैसे सव पु ष बड़ी-से-बड़ी वप आनेपर भी कभी शोक नह करते ह। वे नवद (खेद) र हत हो अपनी वचारश को न नह होने देते॥ १५ ॥ ‘नर े ! आप बु के ारा ता ्वक वचार क जये— ा करना चा हये और ा नह ; ा उ चत है और ा अनु चत—इसका न य क जये; क बु यु महा ानी पु ष ही शुभ और अशुभ (कत -अकत एवं उ चत-अनु चत) को अ ी तरह जानते ह॥ १६ ॥ ‘ जनके गुण-दोष देखे या जाने नह गये ह तथा जो अ ुव ह—फल देकर न हो जानेवाले ह, ऐसे कम का शुभाशुभ फल उ आचरणम लाये बना नह ा होता है॥ १७ ॥ ‘वीर! पहले आप ही अनेक बार इस तरहक बात कहकर मुझे समझा चुके ह, आपको कौन सखा सकता है। सा ात् बृह त भी आपको उपदेश देनेक श नह रखते ह॥ १८ ॥ ‘महा ा ! देवता के लये भी आपक बु का पता पाना क ठन है। इस समय शोकके कारण आपका ान सोया—खोया-सा जान पड़ता है। इस लये म उसे जगा रहा ँ ॥ १९ ॥ ‘इ ाकु कु ल शरोमणे! अपने देवो चत तथा मानवो चत परा मको देखकर उसका अवसरके अनु प उपयोग करते ए आप श ु के वधका य क जये॥ २० ॥ ‘पु ष वर! सम संसारका वनाश करनेसे आपको ा लाभ होगा? उस पापी श ुका पता लगाकर उसीको उखाड़ फकनेका य करना चा हये’॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म छाछठवाँ सग पूरा आ॥ ६६॥



सरसठवाँ सग ीराम और ल



णक प



राज जटायुसे भेटं तथा ीरामका उ गलेसे लगाकर रोना



भगवान् ीरामच जी सब व ु का सार हण करनेवाले ह। अव ाम बड़े होनेपर भी उ ने ल णके कहे ए अ सारग भत उ म वचन को सुनकर उ ीकार कया॥ १ ॥ तदन र महाबा ीरामने अपने बढ़े ए रोषको रोका और उस व च धनुषको उतारकर ल णसे कहा—॥ २ ॥ ‘व ! अब हमलोग ा कर? कहाँ जायँ? ल ण! कस उपायसे हम सीताका पता लगे? यहाँ इसका वचार करो’॥ ३ ॥ तब ल णने इस कार संतापपी ड़त ए ीरामसे कहा—‘भैया! आपको इस जन ानम ही सीताक खोज करनी चा हये॥ ४ ॥ ‘नाना कारके वृ और लता से यु यह सघन वन अनेक रा स से भरा आ है। इसम पवतके ऊपर ब त-से दुगम ान, फटे ए प र और क राएँ ह॥ ५ ॥ ‘वहाँ भाँ त-भाँ तक भयंकर गुफाएँ ह, जो नाना कारके मृगगण से भरी रहती ह। यहाँके पवतपर क र के आवास ान और ग व के भवन भी ह॥ ६ ॥ ‘मेरे साथ चलकर आप उन सभी ान म एका च हो सीताक खोज कर। जैसे पवत वायुके वेगसे क त नह होते ह, उसी कार आप-जैसे बु मान् महा ा नर े आप य म वच लत नह होते ह’॥ ७ १/२ ॥ उनके ऐसा कहनेपर ल णस हत ीरामच जी रोषपूवक अपने धनुषपर रु नामक भयंकर बाण चढ़ाये वहाँ सारे वनम वचरण करने लगे॥ ८ १/२ ॥ थोड़ी ही दूर आगे जानेपर उ पवत शखरके समान वशाल शरीरवाले प राज महाभाग जटायु दखायी पड़े जो खूनसे लथपथ हो पृ ीपर पड़े थे। पवत- शखरके समान तीत होनेवाले उन गृ राजको देखकर ीराम ल णसे बोले—॥ ९-१० ॥ ‘ल ण! यह गृ के पम अव ही को◌इ रा स जान पड़ता है, जो इस वनम घूमता रहता है। न:संदेह इसीने वदेहराजकु मारी सीताको खा लया होगा॥ ११ ॥



‘ वशाललोचना



सीताको खाकर यह यहाँ सुखपूवक बैठा आ है। म लत अ भागवाले तथा सीधे जानेवाले अपने भयंकर बाण से इसका वध क ँ गा’॥ ऐसा कहकर ोधम भरे ए ीराम धनुषपर बाण चढ़ाये समु पय पृ ीको क त करते ए उसे देखनेके लये आगे बढ़े॥ १३ ॥ इसी समय प ी जटायु अपने मुँहसे फे नयु र वमन करते ए अ दीन-वाणीम दशरथन न ीरामसे बोले—॥ १४ ॥ ‘आयु न्! इस महान् वनम तुम जसे ओष धके समान ढूँ ढ़ रहे हो, उस देवी सीताको तथा मेरे इन ाण को भी रावणने हर लया॥ १५ ॥ ‘रघुन न! तु ारे और ल णके न रहनेपर महाबली रावण आया और देवी सीताको हरकर ले जाने लगा। उस समय मेरी ष्ट सीतापर पड़ी॥ १६ ॥ ‘ भो! ही मेरी ष्ट पड़ी, म सीताक सहायताके लये दौड़ पड़ा। रावणके साथ मेरा यु आ। मने उस यु म रावणके रथ और छ आ द सभी साधन न कर दये और वह भी घायल होकर पृ ीपर गर पड़ा॥ १७ ॥ ‘ ीराम! यह रहा उसका टूटा आ धनुष, ये ह उसके ख त ए बाण और यह है उसका यु ोपयोगी रथ, जो यु म मेरे ारा तोड़ डाला गया है॥ १८ ॥ ‘यह रावणका सार थ है, जसे मने अपने पंख से मार डाला था। जब म यु करते-करते थक गया, तब रावणने तलवारसे मेरे दोन पंख काट डाले और वह वदेहकु मारी सीताको लेकर आकाशम उड़ गया। म उस रा सके हाथसे पहले ही मार डाला गया ँ , अब तुम मुझे न मारो’॥ १९-२० ॥ सीतासे स रखनेवाली यह य वाता सुनकर ीरामच जीने अपना महान् धनुष फ क दया और गृ राज जटायुको गलेसे लगाकर वे शोकसे ववश हो पृ ीपर गर पड़े और ल णके साथ ही रोने लगे। अ धीर होनेपर भी ीरामने उस समय दूने दु:खका अनुभव कया॥ २१-२२ ॥ असहाय हो एकमा ऊ ासक संकटपूण अव ाम पड़कर बारंबार लंबी साँस ख चते ए जटायुक ओर देखकर ीरामको बड़ा दु:ख आ। उ ने सु म ाकुमारसे कहा—॥ २३ ॥



‘ल



ण! मेरा रा छन गया, मुझे वनवास मला ( पताजीक मृ ु ◌इ), सीताका अपहरण आ और ये मेरे परम सहायक प राज भी मर गये। ऐसा जो मेरा यह दुभा है, यह तो अ को भी जलाकर भ कर सकता है॥ २४ ॥ ‘य द आज म भरे ए महासागरको तैरने लगूँ तो मेरे दुभा क आँ चसे वह स रता का ामी समु भी न य ही सूख जायगा॥ २५ ॥ ‘इस चराचर जग मुझसे बढ़कर भा हीन दूसरा को◌इ नह है, जस अभा के कारण मुझे इस वप के बड़े भारी जालम फँ सना पड़ा है॥ २६ ॥ ‘ये महाबली गृ राज जटायु मेरे पताजीके म थे, कतु आज मेरे दुभा वश मारे जाकर इस समय पृ ीपर पड़े ह’॥ २७ ॥ इस कार ब त-सी बात कहकर ल णस हत ीरघुनाथजीने जटायुके शरीरपर हाथ फे रा और पताके त जैसा ेह होना चा हये, वैसा ही उनके त द शत कया॥ २८ ॥ पंख कट जानेके कारण गृ राज जटायु ल -लुहान हो रहे थे। उसी अव ाम उ गलेसे लगाकर ीरघुनाथजीने पूछा—‘तात! मेरी ाण के समान या म थलेशकु मारी सीता कहाँ चली गयी?’ इतनी ही बात मुँहसे नकालकर वे पृ ीपर गर पड़े॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म सरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६७॥



अरसठवाँ सग जटायुका ाण- ाग और ीराम ारा उनका दाह-सं



ार



भयंकर रा स रावणने जसे पृ ीपर मार गराया था, उस गृ राज जटायुक ओर ष्ट डालकर भगवान् ीराम म ो चत गुणसे स सु म ाकु मार ल णसे बोले—॥ १ ॥ ‘भा◌इ! यह प ी अव मेरा ही काय स करनेके लये य शील था, कतु उस रा सके ारा यु म मारा गया। यह मेरे ही लये अपने ाण का प र ाग कर रहा है॥ २ ॥ ‘ल ण! इस शरीरके भीतर इसके ाण को बड़ी वेदना हो रही है, इसी लये इसक आवाज बंद होती जा रही है तथा यह अ ाकु ल होकर देख रहा है’॥ ३ ॥ (ल णसे ऐसा कहकर ीराम उस प ीसे बोले—) ‘जटायो! य द आप पुन: बोल सकते ह तो आपका भला हो, बताइये, सीताक ा अव ा है? और आपका वध कस कार आ?॥ ४ ॥ ‘ जस अपराधको देखकर रावणने मेरी य भायाका अपहरण कया है, वह अपराध ा है? और मने उसे कब कया? कस न म को लेकर रावणने आया सीताका हरण कया है?॥ ५ ॥ ‘प



वर! सीताका च माके समान मनोहर मुख कै सा हो गया था? तथा उस समय सीताने ा- ा बात कही थ ?॥ ६ ॥ ‘तात! उस रा सका बल-परा म तथा प कै सा है? वह ा काम करता है? और उसका घर कहाँ है? म जो कु छ पूछ रहा ँ , वह सब बताइये’॥ ७ ॥ इस तरह अनाथक भाँ त वलाप करते ए ीरामक ओर देखकर धमा ा जटायुने लड़खड़ाती जबानसे य कहना आर कया—॥ ८ ॥ ‘रघुन न! दुरा ा रा सराज रावणने वपुल मायाका आ य ले आँ धी-पानीक सृ ष्ट करके (घबराहटक अव ाम) सीताका हरण कया था॥ ९ ॥ ‘तात! जब म उससे लड़ता-लड़ता थक गया, उस अव ाम मेरे दोन पंख काटकर वह नशाचर वदेहन नी सीताको साथ लये यहाँसे द ण दशाक ओर गया था॥ १० ॥



‘रघुन



न! अब मेरे ाण क ग त बंद हो रही है, ष्ट घूम रही है और सम वृ मुझे सुनहरे रंगके दखायी देते ह। ऐसा जान पड़ता है क उन वृ पर खशके के श जमे ए ह॥ ११ ॥ ‘रावण सीताको



जस मु तम ले गया है, उसम खोया आ धन शी ही उसके ामीको मल जाता है। काकु ! वह ‘ व ’ नामक मु त था, कतु उस रा सको इसका पता नह था। जैसे मछली मौतके लये ही बंसी पकड़ लेती है, उसी कार वह भी सीताको ले जाकर शी ही न हो जायगा॥ १२-१३ ॥ ‘अत: अब तुम जनकन नीके लये अपने मनम खेद न करो। सं ामके मुहानेपर उस नशाचरका वध करके तुम शी ही पुन: वदेहराजकु मारीके साथ वहार करोगे’॥ १४ ॥ गृ राज जटायु य प मर रहे थे तो भी उनके मनपर मोह या म नह छाया था (उनके होश-हवास ठीक थे)। वे ीरामच जीको उनक बातका उ र दे ही रहे थे क उनके मुखसे मांसयु धर नकलने लगा॥ १५ ॥ वे बोले—‘रावण व वाका पु और कु बेरका सगा भा◌इ है’ इतना कहकर उन प राजने दुलभ ाण का प र ाग कर दया॥ १६ ॥ ीरामच जी हाथ जोड़े कह रहे थे, ‘क हये, क हये, कु छ और क हये!’ कतु उस समय गृ राजके ाण उनका शरीर छोड़कर आकाशम चले गये॥ १७ ॥ उ ने अपना म क भू मपर डाल दया, दोन पैर फै ला दये और अपने शरीरको भी पृ ीपर ही डालते ए वे धराशायी हो गये॥ १८ ॥ गृ राज जटायुक आँ ख लाल दखायी देती थ । ाण नकल जानेसे वे पवतके समान अ वचल हो गये। उ इस अव ाम देखकर ब त-से दु:ख से दु:खी ए ीरामच जीने सु म ाकु मारसे कहा—॥ १९ ॥ ‘ल ण! रा स के नवास ान इस द कार म ब त वष तक सुखपूवक रहकर इन प राजने यह अपने शरीरका ाग कया है॥ २० ॥ ‘इनक अव ा ब त वष क थी। इ ने सुदीघ कालतक अपना अ ुदय देखा है; कतु आज इस वृ ाव ाम उस रा सके ारा मारे जाकर ये पृ ीपर सो रहे ह; क कालका उ न करना सबके ही लये क ठन है॥ २१ ॥



‘ल



ण! देखो, ये जटायु मेरे बड़े उपकारी थे, कतु आज मारे गये। सीताक र ाके लये यु म वृ होनेपर अ बलवान् रावणके हाथसे इनका वध आ है॥ २२ ॥ ‘बाप-दाद के ारा ा ए गीध के वशाल रा का ाग करके इन प राजने मेरे ही लये अपने ाण क आ त दी है॥ २३ ॥ ‘शूर, शरणागतर क, धमपरायण े पु ष सभी जगह देखे जाते ह। पशु-प ीक यो नय म भी उनका अभाव नह है॥ २४ ॥ ‘सौ ! श ु को संताप देनेवाले ल ण! इस समय मुझे सीताके हरणका उतना दु:ख नह है, जतना क मेरे लये ाण ाग करनेवाले जटायुक मृ ुसे हो रहा है॥ २५ ॥ ‘महायश ी ीमान् राजा दशरथ जैसे मेरे माननीय और पू थे, वैसे ही ये प राज जटायु भी ह॥ २६ ॥ ‘सु म ान न! तुम सूखे का ले आओ, म मथकर आग नकालूँगा और मेरे लये मृ ुको ा ए इन गृ राजका दाह-सं ार क ँ गा॥ २७ ॥ ‘सु म ाकु मार! उस भयंकर रा सके ारा मारे गये इन प राजको म चतापर चढ़ाऊँ गा और इनका दाह-सं ार क ँ गा’॥ २८ ॥ ( फर वे जटायुको स ो धत करके बोले—) ‘महान् बलशाली गृ राज! य करनेवाले, अ हो ी, यु म पीठ न दखानेवाले और भू मदान करनेवाले पु ष को जस ग तक — जन उ म लोक क ा होती है, मेरी आ ासे उ सव म लोक म तुम भी जाओ। मेरे ारा दाह-सं ार कये जानेपर तु ारी स त हो’॥ २९-३० ॥ ऐसा कहकर धमा ा ीरामच जीने दु: खत हो प राजके शरीरको चतापर रखा और उसम आग लगाकर अपने ब ुक भाँ त उनका दाह-सं ार कया॥ तदन र ल णस हत परा मी ीराम वनम जाकर मोटे-मोटे महारोही (क मूल वशेष) काट लाये और उ जटायुके लये अ पत करनेके उ े से उ ने पृ ीपर कु श बछाये। महायश ी ीरामने रोहीके गूदे नकालकर उनका प बनाया और उन सु र ह रत कु शा पर जटायुको प दान कया॥ ३२-३३ ॥ ा णलोग परलोकवासी मनु को गक ा करानेके उ े से जन पतृस ी म का जप आव क बतलाते ह, उन सबका भगवान् ीरामने जप कया॥ ३४ ॥



तदन र उन दोन राजकु मार ने गोदावरी नदीके तटपर जाकर उन गृ राजके लये जला ल दी॥ ३५ ॥ रघुकुलके उन दोन महापु ष ने गोदावरीम नहाकर शा ीय व धसे उन गृ राजके लये उस समय जला लका दान कया॥ ३६ ॥ मह षतु ीरामके ारा दाहसं ार होनेके कारण गृ राज जटायुको आ ाका क ाण करनेवाली परम प व ग त ा ◌इ। उ ने रणभू मम अ दु र और यशोवधक परा म कट कया था। परंतु अ म रावणने उ मार गराया॥ ३७ ॥ तपण करनेके प ात् वे दोन भा◌इ प राज जटायुम पतृतु सु रभाव रखकर सीताक खोजके कायम मन लगा देवे र व ु और इ क भाँ त वनम आगे बढ़े॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म अरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६८॥



उनह रवाँ सग ल



णका अयोमुखीको द



देना तथा ीराम और ल पड़कर च त होना



णका कब के बा ब म



इस कार जटायुके लये जला ल दान करके वे दोन रघुवंशी ब ु उस समय वहाँसे त ए और वनम सीताक खोज करते ए प म दशा (नैऋ कोण) क ओर गये॥ १ ॥



धनुष, बाण और खड् ग धारण कये वे दोन इ ाकु वंशी वीर उस द ण-प म दशाक ओर आगे बढ़ते ए एक ऐसे मागपर जा प ँ च,े जसपर लोग का आना-जाना नह होता था॥ २ ॥ वह माग ब त-से वृ , झा ड़य और लता-बेल ारा सब ओरसे घरा आ था। वह ब त ही दुगम, गहन और देखनेम भयंकर था॥ ३ ॥ उसे वेगपूवक लाँघकर वे दोन महाबली राजकु मार द ण दशाका आ य ले उस अ भयानक और वशाल वनसे आगे नकल गये॥ ४ ॥ तदन र जन ानसे तीन कोस दूर जाकर वे महाबली ीराम और ल ण ौ ार नामसे स गहन वनके भीतर गये॥ ५ ॥ वह वन अनेक मेघ के समूहक भाँ त ाम तीत होता था। व वध रंगके सु र फू ल से सुशो भत होनेके कारण वह सब ओरसे हष ु -सा जान पड़ता था। उसके भीतर ब त-से पशु-प ी नवास करते थे॥ ६ ॥ सीताका पता लगानेक इ ासे वे दोन उस वनम उनक खोज करने लगे। जहाँ-तहाँ थक जानेपर वे व ामके लये ठहर जाते थे। वदेहन नीके अपहरणसे उ बड़ा दु:ख हो रहा था॥ ७ ॥ त ात् वे दोन भा◌इ तीन कोस पूव जाकर ौ ार को पार करके मत मु नके आ मके पास गये॥ ८ ॥ वह वन बड़ा भयंकर था। उसम ब त-से भयानक पशु और प ी नवास करते थे। अनेक कारके वृ से ा वह सारा वन गहन वृ ाव लय से भरा था॥ ९ ॥



वहाँ प ँ चकर उन दशरथराजकु मार ने वहाँके पवतपर एक गुफा देखी, जो पातालके समान गहरी थी। वह सदा अ कारसे आवृत रहती थी॥ १० ॥ उसके समीप जाकर उन दोन नर े वीर ने एक वशालकाय रा सी देखी, जसका मुख बड़ा वकराल था॥ वह छोटे-छोटे ज ु को भय देनेवाली तथा देखनेम बड़ी भयंकर थी। उसक सूरत देखकर घृणा होती थी। उसके लंबे पेट, तीखी दाढ और कठोर चा थी। वह बड़ी वकराल दखायी देती थी॥ १२ ॥ भयानक पशु को भी पकड़कर खा जाती थी। उसका आकार वकट था और बाल खुले ए थे। उस क राके समीप दोन भा◌इ ीराम और ल णने उसे देखा॥ १३ ॥ वह रा सी उन दोन वीर के पास आयी और अपने भा◌इके आगे-आगे चलते ए ल णक ओर देखकर बोली—‘आओ हम दोन रमण कर।’ ऐसा कहकर उसने ल णका हाथ पकड़ लया॥ १४ ॥ इतना ही नह , उसने सु म ाकु मारको अपनी भुजा म कस लया और इस कार कहा —‘मेरा नाम अयोमुखी है। म तु भाया पसे मल गयी तो समझ लो, ब त बड़ा लाभ आ और तुम मेरे ारे प त हो’॥ १५ ॥ ‘ ाणनाथ! वीर! यह दीघकालतक र रहनेवाली आयु पाकर तुम पवतक दुगम क रा म तथा न दय के तट पर मेरे साथ सदा रमण करोगे’॥ १६ ॥ रा सीके ऐसा कहनेपर श ुसूदन ल ण ोधसे जल उठे । उ ने तलवार नकालकर उसके कान, नाक और न काट डाले॥ १७ ॥ नाक और कानके कट जानेपर वह भयंकर रा सी जोर-जोरसे च ाने लगी और जहाँसे आयी थी, उधर ही भाग गयी॥ १८ ॥ उसके चले जानेपर वे दोन भा◌इ श शाली ीराम और ल ण बड़े वेगसे चलकर एक गहन वनम जा प ँ चे॥ १९ ॥ उस समय महातेज ी, धैयवान्, सुशील एवं प व आचार- वचारवाले ल णने हाथ जोड़कर अपने तेज ी ाता ीरामच जीसे कहा—॥ २० ॥



‘आय! मेरी बाय



बाँह जोर-जोरसे फड़क रही है और मन उ -सा हो रहा है। मुझे बारबार बुरे शकु न दखायी देते ह, इस लये आप भयका सामना करनेके लये तैयार हो जाइये। मेरी बात मा नये। ये जो बुरे शकु न ह, वे के वल मुझे ही त ाल ा होनेवाले भयक सूचना देते ह॥ २१-२२ ॥ ‘(इसके साथ एक शुभ शकु न भी हो रहा है) यह जो व ल ु नामक अ दा ण प ी है, यह यु म हम दोन क वजय सू चत करता आ-सा जोर-जोरसे बोल रहा है’॥ २३ ॥ इस कार बलपूवक उस सारे वनम वे दोन भा◌इ जब सीताक खोज कर रहे थे, उसी समय वहाँ बड़े जोरका श आ, जो उस वनका व ंस करता आ-सा तीत होता था॥ २४ ॥



उस वनम जोर-जोरसे आँ धी चलने लगी। वह सारा वन उसक लपेटम आ गया। वनम उस श क जो त न उठी, उससे वह सारा वन ा गूँज उठा॥ २५ ॥ भा◌इके साथ तलवार हाथम लये भगवान् ीराम उस श का पता लगाना ही चाहते थे क एक चौड़ी छातीवाले वशालकाय रा सपर उनक ष्ट पड़ी॥ २६ ॥ उन दोन भाइय ने उस रा सको अपने सामने खड़ा पाया। वह देखनेम ब त बड़ा था; कतु उसके न म क था न गला। कब (धड़मा ) ही उसका प था और उसके पेटम ही मुँह बना आ था॥ उसके सारे शरीरम पैने और तीखे रोय थे। वह महान् पवतके समान ऊँ चा था। उसक आकृ त बड़ी भयंकर थी। वह नील मेघके समान काला था और मेघके समान ही ग ीर रम गजना करता था॥ २८ ॥ उसक छातीम ही ललाट था और ललाटम एक ही लंबी-चौड़ी तथा आगक ालाके समान दहकती ◌इ भयंकर आँ ख थी, जो अ ी तरह देख सकती थी। उसक पलक ब त बड़ी थी और वह आँ ख भूरे रंगक थी। उस रा सक दाढ़ ब त बड़ी थ तथा वह अपनी लपलपाती ◌इ जीभसे अपने वशाल मुखको बारंबार चाट रहा था॥ २९-३० ॥ अ भयंकर रीछ, सह, हसक पशु और प ी—ये ही उसके भोजन थे। वह अपनी एक-एक योजन लंबी दोन भयानक भुजा को दूरतक फै ला देता और उन दोन हाथ से नाना कारके अनेक भालू, प ी, पशु तथा मृग के यूथप तय को पकड़कर ख च लेता था। उनमसे



जो उसे भोजनके लये अभी नह होते, उन ज ु को वह उ हाथ से पीछे ढके ल देता था॥ ३१-३२ ॥ दोन भा◌इ ीराम और ल ण जब उसके नकट प ँ च,े तब वह उनका रा ा रोककर खड़ा हो गया। तब वे दोन भा◌इ उससे दूर हट गये और बड़े गौरसे उसे देखने लगे। उस समय वह एक कोस लंबा जान पड़ा। उस रा सक आकृ त के वल कब (धड़) के ही पम थी, इस लये वह कब कहलाता था। वह वशाल, हसापरायण, भयंकर तथा दो बड़ी-बड़ी भुजा से यु था और देखनेम अ घोर तीत होता था॥ ३३-३४ ॥ उस महाबा रा सने अपनी दोन वशाल भुजा को फै लाकर उन दोन रघुवंशी राजकु मार को बलपूवक पीड़ा देते ए एक साथ ही पकड़ लया॥ ३५ ॥ दोन के हाथ म तलवार थ , दोन के पास मजबूत धनुष थे और वे दोन भा◌इ च तेज ी, वशाल भुजा से यु तथा महान् बलवान् थे तो भी उस रा सके ारा ख चे जानेपर ववशताका अनुभव करने लगे॥ ३६ ॥ उस समय वहाँ शूरवीर रघुन न ीराम तो धैयके कारण थत नह ए, परंतु बालबु होने तथा धैयका आ य न लेनेके कारण ल णके मनम बड़ी था ◌इ॥ ३७ ॥ तब ीरामके छोटे भा◌इ ल ण वषाद हो ीरघुनाथजीसे बोले—‘वीरवर! दे खये, म रा सके वशम पड़कर ववश हो गया ँ ॥ ३८ ॥ ‘रघुन न! एकमा मुझे ही इस रा सको भट देकर आप यं इसके बा ब नसे मु हो जाइये। इस भूतको मेरी ही ब ल देकर आप सुखपूवक यहाँसे नकल भा गये॥ ३९ ॥ ‘मेरा व ास है क आप शी ही वदेह-राजकु मारीको ा कर लगे। ककु कु लभूषण ीराम! वनवाससे लौटनेपर पता- पतामह क भू मको अपने अ धकारम लेकर जब आप राज सहासनपर वराजमान होइयेगा, तब वहाँ सदा मेरा भी रण करते र हयेगा’॥ ४० १/२ ॥ ल णके ऐसा कहनेपर ीरामने उन सु म ा-कु मारसे कहा—‘वीर! तुम भयभीत न होओ। तु ारे-जैसे शूरवीर इस तरह वषाद नह करते ह’॥ ४१ १/२ ॥ इसी बीचम ू र दयवाले दानव शरोम ण महाबा कब ने उन दोन भा◌इ ीराम और ल णसे कहा—॥ ४२ १/२ ॥



‘तुम दोन



कौन हो? तु ारे कं धे बैलके समान ऊँ चे ह। तुमने बड़ी-बड़ी तलवार और धनुष धारण कर रखे ह। इस भयंकर देशम तुम दोन कस लये आये हो? यहाँ तु ारा ा काय है? बताओ। भा से ही तुम दोन मेरी आँ ख के सामने पड़ गये॥ ४३-४४ ॥ ‘म यहाँ भूखसे पी ड़त होकर खड़ा था और तुम यं धनुष-बाण और खड् ग लये तीखे स गवाले दो बैल के समान तुरंत ही इस ानपर मेरे नकट आ प ँ चे। अत: अब तुम दोन का जी वत रहना क ठन है’॥ ४५ १/२ ॥ दुरा ा कब क ये बात सुनकर ीरामने सूखे मुखवाले ल णसे कहा—‘स परा मी वीर! क ठन-से-क ठन अस दु:खको पाकर हम दु:खी थे ही, तबतक पुन: यतमा सीताके ा होनेसे पहले ही हम दोन पर यह महान् संकट आ गया, जो जीवनका अ कर देनेवाला है॥ ४६-४७ १/२ ॥ ‘नर े ल ण! कालका महान् बल सभी ा णय पर अपना भाव डालता है। देखो न, तुम और म दोन ही कालके दये ए अनेकानेक संकट से मो हत हो रहे ह। सु म ान न! दैव अथवा कालके लये स ूण ा णय पर शासन करना भार प (क ठन) नह है॥ ४८-४९ ॥ ‘जैसे बालूके बने ए पुल पानीके आघातसे ढह जाते ह, उसी कार बड़े-बड़े शूरवीर, बलवान् और अ वे ा पु ष भी समरा णम कालके वशीभूत हो क म पड़ जाते ह’॥ ५० ॥ ऐसा कहकर सु ढ़ एवं स परा मवाले महान् बल- व मसे स महायश ी तापशाली दशरथन न ीरामने सु म ाकु मारक ओर देखकर उस समय यं ही अपनी बु को सु र कर लया॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म उनह रवाँ सग पूरा आ॥ ६९॥



स रवाँ सग ीराम और ल



णका पर र वचार करके कब क दोन भुजा कब के ारा उनका ागत



को काट डालना तथा



अपने बा पाशसे घरकर वहाँ खड़े ए उन दोन भा◌इ ीराम और ल णक ओर देखकर कब ने कहा—॥ १ ॥ ‘ य शरोम ण राजकु मारो! मुझे भूखसे पी ड़त देखकर भी खड़े हो? (मेरे मुँहम चले आओ) क दैवने मेरे भोजनके लये ही तु यहाँ भेजा है। इसी लये तुम दोन क बु मारी गयी है’॥ २ ॥ यह सुनकर पी ड़त ए ल णने उस समय परा मका ही न य करके यह समयो चत एवं हतकर बात कही—॥ ३ ॥ ‘भैया! यह नीच रा स मुझको और आपको तुरंत मुँहम ले ले, इसके पहले ही हमलोग अपनी तलवार से इसक बड़ी-बड़ी बाँह शी ही काट डाल॥ ४ ॥ ‘यह महाकाय रा स बड़ा भीषण है। इसक भुजा म ही इसका सारा बल और परा म न हत है। यह सम संसारको सवथा परा जत-सा करके अब हमलोग को भी यहाँ मार डालना चाहता है॥ ५ ॥ ‘राजन्! रघुन न! य म लाये गये पशु के समान न े ा णय का वध राजाके लये न त बताया गया है (इस लये हम इसके ाण नह लेने चा हये, के वल भुजा का ही उ ेद कर देना चा हये)’॥ ६ ॥ उन दोन क यह बातचीत सुनकर उस रा सको बड़ा ोध आ और वह अपना भयंकर मुख फै लाकर उ खा जानेको उ त हो गया॥ ७ ॥ इतनेम ही देश-काल (अवसर) का ान रखनेवाले उन दोन रघुवंशी राजकु मार ने अ हषम भरकर तलवार से ही उसक दोन भुजाएँ कं ध से काट गराय ॥ ८ ॥ भगवान् ीराम उसके दा हने भागम खड़े थे। उ ने अपनी तलवारसे उसक दा हनी बाँह बना कसी कावटके वेगपूवक काट डाली तथा वाम भागम खड़े वीर ल णने उसक बाय भुजाको तलवारसे उड़ा दया॥ ९ ॥



भुजाएँ कट जानेपर वह महाबा रा स मेघके समान ग ीर गजना करके पृ ी, आकाश तथा दशा को गुँजाता आ धरतीपर गर पड़ा॥ १० ॥ अपनी भुजा को कटी ◌इ देख खूनसे लथपथ ए उस दानवने दीन वाणीम पूछा —‘वीरो! तुम दोन कौन हो?’॥ ११ ॥ कब के इस कार पूछनेपर शुभ ल ण वाले महाबली ल णने उसे ीरामच जीका प रचय देना आर कया—॥ १२ ॥ ‘ये इ ाकु वंशी महाराज दशरथके पु ह और लोग म ीराम नामसे व ात ह। मुझे इ का छोटा भा◌इ समझो। मेरा नाम ल ण है॥ १३ ॥ ‘माता कै के यीके ारा जब इनका रा ा भषेक रोक दया गया, तब ये पताक आ ासे वनम चले आये और मेरे तथा अपनी प ीके साथ इस वशाल वनम वचरण करने लगे। इस नजन वनम रहते ए इन देवतु भावशाली ीरघुनाथजीक प ीको कसी रा सने हर लया है। उ का पता लगानेक इ ासे हमलोग यहाँ आये ह॥ १४-१५ ॥ ‘तुम कौन हो? और कब के समान प धारण करके इस वनम पड़े हो? छातीके नीचे चमकता आ मुँह और टूटी ◌इ जंघा ( प ली) लये तुम कस कारण इधर-उधर लुढ़कते फरते हो?’॥ १६ ॥ ल णके ऐसा कहनेपर कब को इ क कही ◌इ बातका रण हो आया। अत: उसने बड़ी स ताके साथ ल णको उनक बातका उ र दया—॥ ‘पु ष सह वीरो! आप दोन का ागत है। बड़े भा से मुझे आपलोग का दशन मला है। ये मेरी दोन भुजाएँ मेरे लये भारी ब न थ । सौभा क बात है क आपलोग ने इ काट डाला॥ १८ ॥ ‘नर े ीराम! मुझे जो ऐसा कु प प ा आ है, यह मेरी ही उ ताका फल है। यह सब कै से आ, वह स आपको म ठीक-ठीक बता रहा ँ । आप मुझसे सुन’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म स रवाँ सग पूरा आ॥ ७०॥



एकह रवाँ सग कब क आ कथा, अपने शरीरका दाह हो जानेपर उसका ीरामको सीताके अ ेषणम सहायता देनेका आ ासन ‘महाबा



ीराम! पूवकालम मेरा प महान् बलपरा मसे स , अ च तथा तीन लोक म व ात था॥ १ ॥ ‘सूय, च मा और इ का शरीर जैसा तेज ी है, वैसा ही मेरा भी था। ऐसा होनेपर भी म लोग को भयभीत करनेवाले इस अ भयंकर रा स पको धारण करके इधर-उधर घूमता और वनम रहनेवाले ऋ षय को डराया करता था॥ २ १/२ ॥ अपने इस बतावसे एक दन मने ूल शरा नामक मह षको कु पत कर दया। वे नाना कारके जंगली फल-मूल आ दका संचय कर रहे थे, उसी समय मने उ इस रा स पसे डरा दया। मुझे ऐसे वकट पम देखकर उ ने घोर शाप देते ए कहा—॥ ३-४ ॥ ‘दुरा न्! आजसे सदाके लये तु ारा यही ू र और न त प रह जाय।’ यह सुनकर मने उन कु पत मह षसे ाथना क —‘भगवन्! इस अ भशाप ( तर ार) ज नत शापका अ होना चा हये।’ तब उ ने इस कार कहा—॥ ५ १/२ ॥ ‘जब ीराम (और ल ण) तु ारी दोन भुजाएँ काटकर तु नजन वनम जलायगे, तब तुम पुन: अपने उसी परम उ म, सु र और शोभास पको ा कर लोगे।’ ल ण! इस कार तुम मुझे एक दुराचारी दानव समझो॥ ६-७ ॥ ‘मेरा जो यह ऐसा प है, यह समरा णम इ के ोधसे ा आ है। मने पूवकालम रा स होनेके प ात् घोर तप ा करके पतामह ाजीको संतु कया और उ ने मुझे दीघजीवी होनेका वर दया। इससे मेरी बु म यह म या अहंकार उ हो गया क मुझे तो दीघकालतक बनी रहनेवाली आयु ा ◌इ है; फर इ मेरा ा कर लगे?॥ ८-९ ॥ ‘ऐसे वचारका आ य लेकर एक दन मने यु म देवराजपर आ मण कया। उस समय इ ने मुझपर सौ धार वाले व का हार कया। उनके छोड़े ए उस व से मेरी जाँघ और म क मेरे ही शरीरम घुस गये॥ १० १/२ ॥



‘मने



ब त ाथना क , इस लये उ ने मुझे यमलोक नह पठाया और कहा—‘ पतामह ाजीने जो तु दीघजीवी होनेके लये वरदान दया है, वह स हो’॥ ११ १/२ ॥ ‘तब मने कहा—देवराज! आपने अपने व क मारसे मेरी जाँघ, म क और मुँह सभी तोड़ डाले। अब म कै से आहार हण क ँ गा और नराहार रहकर कस कार सुदीघकालतक जी वत रह सकूँ गा?॥ ‘मेरे ऐसा कहनेपर इ ने मेरी भुजाएँ एक-एक योजन लंबी कर द एवं त ाल ही मेरे पेटम तीखे दाढ़ वाला एक मुख बना दया॥ १३ १/२ ॥ ‘इस कार म वशाल भुजा ारा वनम रहनेवाले सह, चीते, ह रन और बाघ आ द ज ु को सब ओरसे समेटकर खाया करता था॥ १४ १/२ ॥ ‘इ ने मुझे यह भी बतला दया था क जब ल णस हत ीराम तु ारी भुजाएँ काट दगे, उस समय तुम गम जाओगे॥ १५ १/२ ॥ ‘तात! राज शरोमणे! इस शरीरसे इस वनके भीतर म जो-जो व ु देखता ँ , वह सब हण कर लेना मुझे ठीक लगता है॥ १६ १/२ ॥ ‘इ तथा मु नके कथनानुसार मुझे यह व ास था क एक दन ीराम अव मेरी पकड़म आ जायँगे। इसी वचारको सामने रखकर म इस शरीरको ाग देनेके लये य शील था॥ १७ १/२ ॥ ‘रघुन न! अव ही आप ीराम ह। आपका क ाण हो। म आपके सवा दूसरे कसीसे नह मारा जा सकता था। यह बात मह षने ठीक ही कही थी॥ १८ १/२ ॥ ‘नर े ! आप दोन जब अ के ारा मेरा दाह-सं ार कर दगे, उस समय म आपक बौ क सहायता क ँ गा। आप दोन के लये एक अ े म का पता बताऊँ गा’॥ १९ १/२ ॥ उस दानवके ऐसा कहनेपर धमा ा ीरामच जीने ल णके सामने उससे यह बात कही —॥ २० १/२ ॥ ‘कब ! मेरी यश नी भाया सीताको रावण हर ले गया है। उस समय म अपने भा◌इ ल णके साथ सुखपूवक जन ानके बाहर चला गया था। म उस रा सका नाममा जानता ँ । उसक शकल-सूरतसे प र चत नह ँ ॥ २१-२२ ॥



‘वह



कहाँ रहता है और कै सा उसका भाव है, इस बातसे हमलोग सवथा अन भ ह। इस समय सीताका शोक हम बड़ी पीड़ा दे रहा है। हम असहाय होकर इसी तरह सब ओर दौड़ रहे ह। तुम हमारे ऊपर समु चत क णा करनेके लये इस वषयम हमारा कु छ उपकार करो॥ २३ १/ ॥ २



‘वीर!



फर हमलोग हा थय ारा तोड़े गये सूखे काठ लाकर यं खोदे ए एक ब त बड़े ग मे तु ारे शरीरको रखकर जला दगे॥ २४ १/२ ॥ ‘अत: अब तुम हम सीताका पता बताओ। इस समय वह कहाँ है? तथा उसे कौन कहाँ ले गया है? य द ठीक-ठीक जानते हो तो सीताका समाचार बताकर हमारा अ क ाण करो’॥ २५ १/२ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर बातचीतम कु शल उस दानवने उन वचनपटु रघुनाथजीसे यह परम उ म बात कही—॥ २६ १/२ ॥ ‘ ीराम! इस समय मुझे द ान नह है, इस लये म म थलेशकु मारीके वषयम कु छ भी नह जानता। जब मेरे इस शरीरका दाह हो जायगा, तब म अपने पूव पको ा होकर कसी ऐसे का पता बता सकूँ गा, जो सीताके वषयम आपको कु छ बतायेगा तथा जो उस उ ृ रा सको भी जानता होगा, ऐसे पु षका आपको प रचय दूँगा॥ २७-२८ ॥ ‘ भो! जबतक मेरे इस शरीरका दाह नह होगा तबतक मुझम यह जाननेक श नह आ सकती क वह महापरा मी रा स कौन है, जसने आपक सीताका अपहरण कया है॥ २९ ॥ ‘रघुन



न! शाप-दोषके कारण मेरा महान् व ान न हो गया है। अपनी ही करतूतसे मुझे यह लोक न त प ा आ है॥ ३० ॥ ‘ कतु ीराम! जबतक सूयदेव अपने वाहन के थक जानेपर अ नह हो जाते, तभीतक मुझे ग मे डालकर शा ीय व धके अनुसार मेरा दाह-सं ार कर दी जये॥ ३१ ॥ ‘महावीर रघुन न! आपके ारा व धपूवक ग म े मेरे शरीरका दाह हो जानेपर म ऐसे महापु षका प रचय दूँगा, जो उस रा सको जानते ह गे॥ ३२ ॥ ‘शी परा म कट करनेवाले वीर रघुनाथजी! ायो चत आचारवाले उन महापु षके साथ आपको म ता कर लेनी चा हये। वे आपक सहायता करगे॥



‘रघुन



न! उनके लये तीन लोक म कु छ भी अ ात नह है; क कसी कारणवश वे पहले सम लोक म च र लगा चुके ह’॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म एकह रवाँ सग पूरा आ॥ ७१॥



बह रवाँ सग ीराम और ल



णके ारा चताक आगम कब का दाह तथा उसका द होकर उ सु ीवसे म ता करनेके लये कहना



पम कट



कब के ऐसा कहनेपर उन दोन वीर नरे र ीराम और ल णने उसके शरीरको एक पवतके ग मे डालकर उसम आग लगा दी॥ १ ॥ ल णने जलती ◌इ बड़ी-बड़ी लुका रय के ारा चार ओरसे उसक चताम आग लगायी; फर तो वह सब ओरसे लत हो उठी॥ २ ॥ चताम जलते ए कब का वशाल शरीर च बय से भरा होनेके कारण घीके लोदेके समान तीत होता था। चताक आग उसे धीरे-धीरे जलाने लगी॥ ३ ॥ तदन र वह महाबली कब तुरंत ही चताको हलाकर दो नमल व और द पु का हार धारण कये धूमर हत अ के समान उठ खड़ा आ॥ ४ ॥ फर वेगपूवक चतासे ऊपरको उठा और शी ही एक तेज ी वमानपर जा बैठा। नमल व से वभू षत हो वह बड़ा तेज ी दखायी देता था। उसके मनम हष भरा आ था तथा सम अ - म द आभूषण शोभा दे रहे थे। हंस से जुते ए उस यश ी वमानपर बैठा आ महान् तेज ी कब अपनी भासे दस दशा को का शत करने लगा और अ र म त हो ीरामसे इस कार बोला—॥ ५-६ १/२ ॥ ‘रघुन न! आप जस कार सीताको पा सकगे, वह ठीक-ठीक बता रहा ँ , सु नये। ीराम! लोकम छ: यु याँ ह, जनसे राजा ारा सब कु छ ा कया जाता है (उन यु य तथा उपाय के नाम ह—सं ध, व ह, यान, आसन, ैधीभाव और समा य*)। जो मनु दुदशासे होता है, वह दूसरे कसी दुदशा पु षसे ही सेवा या सहायता ा करता है (यह नी त है)॥ ७-८ ॥ ‘ ीराम! ल णस हत आप बुरी दशाके शकार हो रहे ह; इसी लये आपलोग रा से व त ह तथा उस बुरी दशाके कारण ही आपको अपनी भायाके अपहरणका महान् दु:ख ा आ है॥ ९ ॥



‘अत:



सु द म े रघुन न! आप अव ही उस पु षको अपना सु द् बनाइये, जो आपक ही भाँ त दुदशाम पड़ा आ हो (इस कार आप सु दक् ा आ य लेकर समा य नी तको अपनाइये)। म ब त सोचनेपर भी ऐसा कये बना आपक सफलता नह देखता ँ ॥ १० ॥ ‘ ीराम! सु नये, म ऐसे पु षका प रचय दे रहा ँ , उनका नाम है सु ीव। वे जा तके वानर ह। उ उनके भा◌इ इ कु मार वालीने कु पत होकर घरसे नकाल दया है॥ ११ ॥ ‘वे मन ी वीर सु ीव इस समय चार वानर के साथ उस ग रवर ऋ मूकपर नवास करते ह, जो प ासरोवरतक फै ला आ है॥ १२ ॥ ‘वे वानर के राजा महापरा मी सु ीव तेज ी, अ का मान्, स त , वनयशील, धैयवान्, बु मान्, महापु ष, कायद , नभ क, दी मान् तथा महान् बल और परा मसे स ह॥ १३ १/२ ॥ ‘वीर ीराम! उनके महामना भा◌इ वालीने सारे रा को अपने अ धकारम कर लेनेके लये उ रा से बाहर नकाल दया है; अत: वे सीताक खोजके लये आपके सहायक और म ह गे। इस लये आप अपने मनको शोकम न डा लये॥ १४-१५ ॥ ‘इ ाकु वंशी वीर म े ीराम! जो होनहार है, उसे को◌इ भी पलट नह सकता। कालका वधान सभीके लये दुलङ् होता है (अत: आपपर जो कु छ भी बीत रहा है, इसे काल या ार का वधान समझकर आपको धैय धारण करना चा हये)॥ १६ ॥ ‘वीर रघुनाथजी! आप यहाँसे शी ही महाबली सु ीवके पास जाइये और जाकर तुरंत उ अपना म बना ली जये॥ १७ ॥ ‘ लत अ को सा ी बनाकर पर र ोह न करनेके लये मै ी ा पत क जये और ऐसा करनेके बाद आपको कभी उन वानरराज सु ीवका अपमान नह करना चा हये॥ १८ ॥ ‘वे



इ ानुसार प धारण करनेवाले, परा मी और कृ त ह तथा इस समय यं ही अपने लये एक सहायक ढूँ ढ़ रहे ह। उनका जो अभी काय है उसे स करनेम आप दोन भा◌इ समथ ह॥ १९ ॥



‘सु



ीवका मनोरथ पूण हो या न हो, वे आपका काय अव स करगे। वे ऋ रजाके े ज पु ह और वालीसे श त रहकर प ासरोवरके तटपर मण करते ह॥ २० ॥ ‘उ सूयदेवका औरस पु कहा गया है। उ ने वालीका अपराध कया है (इसी लये वे उससे डरते ह)। रघुन न! अ के समीप ह थयार रखकर शी ही स क शपथ खाकर ऋ मूक नवासी वनचारी वानर सु ीवको आप अपना म बना ली जये॥ २१ १/२ ॥ ‘क प े सु ीव संसारम नरमांसभ ी रा स के जतने ान ह, उन सबको पूण पसे नपुणतापूवक जानते ह॥ २२ १/२ ॥ ‘रघुन न! श ुदमन! सह करण वाले सूयदेव जहाँतक तपते ह, वहाँतक संसारम को◌इ ऐसा ान या व ु नह है, जो सु ीवके लये अ ात हो॥ २३ १/२ ॥ ‘वे वानर के साथ रहकर सम न दय , बड़े-बड़े पवत , पहाड़ी दुगम ान और क रा म भी खोज कराकर आपक प ीका पता लगा लगे॥ २४ १/२ ॥ ‘राघव! वे आपके वयोगम शोक करती ◌इ सीताक खोजके लये स ूण दशा म वशालकाय वानर को भेजगे, तथा रावणके घरसे भी सु र अ वाली म थलेशकु मारीको ढूँ ढ़ नकालगे॥ २५-२६ ॥ ‘आपक या सती-सा ी सीता मे शखरके अ भागपर प ँ चायी गयी ह या पातालम वेश करके रखी गयी ह , वानर शरोम ण सु ीव सम रा स का वध करके उ पुन: आपके पास ला दगे’॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म बह रवाँ सग पूरा आ॥ ७२॥ * सं ध आ दका



ववेचन पृ ३४१ क ट णीम देखना चा हये। ४९१



तह रवाँ सग द



पधारी कब का ीराम और ल णको ऋ मूक और प ासरोवरका माग बताना तथा मत मु नके वन एवं आ मका प रचय देकर ान करना



ीरामको सीताक खोजका उपाय दखाकर अथवे ा कब ने उनसे पुन: यह योजनयु बात कही—॥ १ ॥ ‘ ीराम! यहाँसे प म दशाका आ य लेकर जहाँ ये फू ल से भरे ए मनोरम वृ शोभा पा रहे ह, यही आपके जाने लायक सुखद माग है॥ २ ॥ ‘जामुन, याल ( चर जी), कटहल, बड़, पाकड़, तदू, पीपल, कनेर, आम तथा अ वृ , धव, नागके सर, तलक, न माल, नील, अशोक, कद , खले ए करवीर, भलावा, अशोक, लाल च न तथा म ार—ये वृ मागम पड़गे। आप दोन भा◌इ इनक डा लय को बलपूवक भू मपर कु ाकर अथवा इन वृ पर चढ़कर इनके अमृततु मधुर फल का आहार करते ए या ा क जयेगा॥ ३—५ १/२ ॥ ‘काकु ! खले ए वृ से सुशो भत उस वनको लाँघकर आपलोग एक दूसरे वनम वेश क जयेगा, जो न नवनके समान मनोहर है। उस वनके वृ उ र कु वषके वृ क भाँ त मधुक धारा बहानेवाले ह तथा उनम सभी ऋतु म सदा फल लगे रहते ह॥ ६-७ ॥ ‘चै रथ वनक भाँ त उस मनोहर काननम सभी ऋतुएँ नवास करती ह। वहाँके वृ बड़ीबड़ी शाखा धारण करनेवाले तथा फल के भारसे कु े ए ह॥ ८ ॥ ‘वे वहाँ सब ओर मेघ और पवत के समान शोभा पाते ह। ल ण उन वृ पर चढ़कर अथवा सुखपूवक उ पृ ीपर कु ाकर उनके अमृततु मधुर फल आपको दगे॥ ९ १/२ ॥ ‘इस कार सु र पवत पर मण करते ए आप दोन भा◌इ एक पहाड़से दूसरे पहाड़पर तथा एक वनसे दूसरे वनम प ँ चगे और इस तरह अनेक पवत तथा वन को लाँघते ए आप दोन वीर प ा नामक पु रणीके तटपर प ँ च जायगे॥ १० १/२ ॥ ‘ ीराम! वहाँ कं कड़का नाम नह है। उसके तटपर पैर फसलने लायक क चड़ आ द नह है। उसके घाटक भू म सब ओरसे बराबर है—ऊँ चीनीची या ऊबड़-खाबड़ नह है। उस



पु रणीम सेवारका सवथा अभाव है। उसके भीतरक भू म वालुकापूण है। कमल और उ ल उस सरोवरक शोभा बढ़ाते ह॥ ११ १/२ ॥ ‘रघुन न! वहाँ प ाके जलम वचरनेवाले हंस, कार व, ौ और कु रर सदा मधुर रम कू जते रहते ह। वे मनु को देखकर उ नह होते ह। क कसी मनु के ारा कसी प ीका वध भी हो सकता है, ऐसे भयका उ अनुभव नह है। ये सभी प ी बड़े सु र ह॥ १२-१३ ॥ ‘बाण के अ भागसे जनके छलके छु ड़ा दये गये ह, अतएव जनम एक भी काँटा नह रह गया है, जो घीके लोदेके समान चकने तथा आ ह—सूखे नह ह, ज लोहमय बाण के अ भागम गूँथकर आगम सेका और पकाया गया है, ऐसे फल-मूलके ढेर वहाँ भ पदाथके पम उपल ह गे। आपके त भ भावसे स ल ण आपको वे भ पदाथ अ पत करगे। आप दोन भा◌इ उन पदाथ को लेकर उस सरोवरके मोटे-मोटे सु स जलचर प य तथा े रो हत (रो ), व तु और नलमीन आ द म को थोड़ा-थोड़ा करके खलाइयेगा (इससे आपका मनोर न होगा)॥ १४-१५ १/२ ॥ ‘ जस समय आप प ासरोवरक पु रा शके समीप मछ लय को भोजन करानेक ड़ाम अ संल ह गे, उस समय ल ण उस सरोवरका कमलक ग से सुवा सत, क ाणकारी, सुखद, शीतल, रोगनाशक, ेशहारी तथा चाँदी और टकम णके समान जल कमलके प ेम नकालकर लायगे और आपको पलायगे॥ १६-१७ १/२ ॥ ‘ ीराम! सायंकालम आपके साथ वचरते ए ल ण आपको उन मोटे-मोटे वनचारी वानर का दशन करायगे, जो पवत क गुफा म सोते और रहते ह॥ १८ १/२ ॥ ‘नर े ! वे वानर पानी पीनेके लोभसे प ाके तटपर आकर साँड़ के समान गजते ह। उनके शरीर मोटे और रंग पीले होते ह। आप उन सबको वहाँ देखगे॥ १९ १/२ ॥ ‘ ीराम! सायंकालम चलते समय आप बड़ी-बड़ी शाखावाले, पु धारी वृ तथा प ाके शीतल जलका दशन करके अपना शोक ाग दगे॥ २० १/२ ॥ ‘रघुन न! वहाँ फू ल से भरे ए तलक और न मालके वृ शोभा पाते ह तथा जलके भीतर उ ल और कमल फू ले ए दखायी देते ह॥ २१ १/२ ॥



‘रघुन



न! को◌इ भी मनु वहाँ उन फू ल को उतारकर धारण नह करता है। ( क वहाँतक कसीक प ँ च ही नह हो पाती है) प ासरोवरके फू ल न तो मुरझाते ह और न झरते ही ह॥ २२ १/२ ॥ ‘कहते ह, वहाँ पहले मतंग मु नके श ऋ षगण नवास करते थे, जनका च सदा एका एवं शा रहता था। वे अपने गु मतंग मु नके लये जब जंगली फल-मूल ले आते और उनके भारसे थक जाते, तब उनके शरीरसे पृ ीपर पसीन क जो बूँद गरती थ , वे ही उन मु नय क तप ाके भावसे त ाल फू लके पम प रणत हो जाती थ । राघव! पसीन क बूँद से उ होनेके कारण वे फू ल न नह होते ह॥ २३—२५ ॥ ‘वे सब-के -सब ऋ ष तो अब चले गये; कतु उनक सेवाम रहनेवाली तप नी शबरी आज भी वहाँ दखायी देती है। काकु ! शबरी चरजीवनी होकर सदा धमके अनु ानम लगी रहती है। ीराम! आप सम ा णय के लये न व नीय और देवताके तु ह। आपका दशन करके शबरी गलोक (साके तधाम) को चली जायगी॥ २६-२७ ॥ ‘ककु कु लभूषण ीराम! तदन र आप प ाके प म तटपर जाकर एक अनुपम आ म देखगे, जो (सवसाधारणक प ँ चके बाहर होनेके कारण) गु है॥ २८ ॥ ‘उस आ मपर तथा उस वनम मतंग मु नके भावसे हाथी कभी आ मण नह कर सकते॥ २९ ॥ ‘रघुन न! वहाँका जंगल मतंगवनके नामसे स है। उस न नतु मनोहर और देववनके समान सु र वनम नाना कारके प ी भरे रहते ह। ीराम! आप वहाँ बड़ी स ताके साथ सान वचरण करगे॥ ३० १/२ ॥ ‘प ासरोवरके पूवभागम ऋ मूक पवत है, जहाँके वृ फू ल से सुशो भत दखायी देते ह। उसके ऊपर चढ़नेम बड़ी क ठना◌इ होती है, क वह छोटे-छोटे सप अथवा हा थय के ब ारा सब ओरसे सुर त है। ऋ मूक पवत उदार (अभी फलको देनेवाला) है। पूवकालम सा ात् ाजीने उसका नमाण कया और उसे औदाय आ द गुण से स बनाया॥ ३१-३२ ॥ ‘ ीराम! उस पवतके शखरपर सोया आ पु ष सपनेम जस स को पाता है उसे जागनेपर भी ा कर लेता है। जो पापकम तथा वषम बताव करनेवाला पु ष उस पवतपर



चढ़ता है, उसे इस पवत शखरपर ही सो जानेपर रा स लोग उठाकर उसके ऊपर हार करते ह॥ ३३-३४ ॥ ‘ ीराम! मतंग मु नके आ मके आस-पासके वनम रहने और प ासरोवरम डा करनेवाले छोटे-छोटे हा थय के च ाड़नेका महान् श उस पवतपर भी सुनायी देता है॥ ३५ ॥ ‘ जनके



ग ल पर कु छ लाल रंगक मदक धाराएँ बहती ह, वे वेगशाली और मेघके समान काले बड़े-बड़े गजराज ंडु -के - ंडु एक साथ होकर दूसरी जा तवाले हा थय से पृथक् हो वहाँ वचरते रहते ह। वनम वचरनेवाले वे हाथी जब प ासरोवरका नमल, मनोहर, सु र, छू नेम अ सुखद तथा सब कारक सुग से सुवा सत जल पीकर लौटते ह, तब उन वन म वेश करते ह॥ ३६-३७ १/२ ॥ ‘रघुन न! वहाँ रीछ , बाघ और नील कोमल का वाले मनु को देखकर भागनेवाले तथा दौड़ लगानेम कसीसे परा जत न होनेवाले मृग को देखकर आप अपना सारा शोक भूल जायँगे॥ ३८ १/२ ॥ ‘ ीराम! उस पवतके ऊपर एक ब त बड़ी गुफा शोभा पाती है, जसका ार प रसे ढका है। उसके भीतर वेश करनेम बड़ा क होता है॥ ३९ १/२ ॥ ‘उस गुफाके पूव ारपर शीतल जलसे भरा आ एक ब त बड़ा कु है। उसके आसपास ब त-से फल और मूल सुलभ ह तथा वह रमणीय द नाना कारके वृ से ा है॥ ४० १/२ ॥ ‘धमा ा सु ीव वानर के साथ उसी गुफाम नवास करते ह। वे कभी-कभी उस पवतके शखरपर भी रहते ह’॥ ४१ १/२ ॥ इस कार ीराम और ल ण दोन भाइय को सब बात बताकर सूयके समान तेज ी और परा मी कब द पु क माला धारण कये आकाशम का शत होने लगा॥ ४२ १/२ ॥



उस समय वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण वहाँसे ान करनेके लये उ त हो आकाशम खड़े ए महाभाग कब से उसके नकट खड़े होकर बोले—‘अब तुम परम धामको जाओ’॥ ४३ १/२ ॥



कब ने भी उन दोन भाइय से कहा—‘आपलोग भी अपने कायक स के लये या ा कर।’ ऐसा कहकर परम स ए उन दोन ब ु से आ ा ले कब ने त ाल ान कया॥ ४४-४५ ॥ कब अपने पहले पको पाकर अ तु शोभासे स हो गया। उसका सारा शरीर सूयतु भासे का शत हो उठा। वह रामक ओर देखकर उ प ासरोवरका माग दखाता आ आकाशम ही त होकर बोला—‘आप सु ीवके साथ म ता अव कर’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म तह रवाँ सग पूरा आ॥ ७३॥



चौह रवाँ सग ीराम और ल णका प ासरोवरके तटपर मत वनम शबरीके आ मपर जाना, उसका स ार हण करना और उसके साथ मत वनको देखना, शबरीका अपने शरीरक आ त दे द धामको ान करना



तदन र राजकु मार ीराम और ल ण कब के बताये ए प ासरोवरके मागका आ य ले प म दशाक ओर चल दये॥ १ ॥ दोन भा◌इ ीराम और ल ण पवत पर फै ले ए ब त-से वृ को, जो फू ल, फल और मधुसे स थे, देखते ए सु ीवसे मलनेके लये आगे बढ़े॥ २ ॥ रातम एक पवत- शखरपर नवास करके रघुकुलका आन बढ़ानेवाले वे दोन रघुवंशी ब ु प ासरोवरके प म तटपर जा प ँ चे॥ ३ ॥ प ानामक पु रणीके प म तटपर प ँ चकर उन दोन भाइय ने वहाँ शबरीका रमणीय आ म देखा॥ उसक शोभा नहारते ए वे दोन भा◌इ ब सं क वृ से घरे ए उस सुर आ मपर जाकर शबरीसे मले॥ ५ ॥ शबरी स तप नी थी। उन दोन भाइय को आ मपर आया देख वह हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी तथा उसने बु मान् ीराम और ल णके चरण म णाम कया॥ ६ ॥ फर पा , अ और आचमनीय आ द सब साम ी सम पत क और व धवत् उनका स ार कया। त ात् ीरामच जी उस धमपरायणा तप नीसे बोले—॥ ७ ॥ ‘तपोधने! ा तुमने सारे व पर वजय पा ली? ा तु ारी तप ा बढ़ रही है? ा तुमने ोध और आहारको काबूम कर लया है?॥ ८ ॥ ‘तुमने जन नयम को ीकार कया है, वे नभ तो जाते ह न? तु ारे मनम सुख और शा है न? चा भा ष ण! तुमने जो गु जन क सेवा क है, वह पूण पसे सफल हो गयी है न?’॥ ९ ॥ ीरामच जीके इस कार पूछनेपर वह स तप नी बूढ़ी शबरी, जो स के ारा स ा नत थी, उनके सामने खड़ी होकर बोली—॥ १० ॥



‘रघुन



न! आज आपका दशन मलनेसे ही मुझे अपनी तप ाम स ा ◌इ है। आज मेरा ज सफल आ और गु जन क उ म पूजा भी साथक हो गयी॥ ११ ॥ ‘पु ष वर ीराम! आप देवे रका यहाँ स ार आ, इससे मेरी तप ा सफल हो गयी और अब मुझे आपके द धामक ा भी होगी ही॥ १२ ॥ ‘सौ ! मानद! आपक सौ ष्ट पड़नेसे म परम प व हो गयी। श ुदमन! आपके सादसे ही अब म अ य लोक म जाऊँ गी॥ १३ ॥ ‘जब आप च कू ट पवतपर पधारे थे, उसी समय मेरे गु जन, जनक म सदा सेवा कया करती थी, अतुल का मान् वमानपर बैठकर यहाँसे द लोकको चले गये॥ १४ ॥ ‘उन धम महाभाग मह षय ने जाते समय मुझसे कहा था क तेरे इस परम प व आ मपर ीरामच जी पधारगे और ल णके साथ तेरे अ त थ ह गे। तुम उनका यथावत् स ार करना। उनका दशन करके तू े एवं अ य लोक म जायगी॥ १५-१६ ॥ ‘पु ष वर! उन महाभाग महा ा ने मुझसे उस समय ऐसी बात कही थी। अत: पु ष सह! मने आपके लये प ातटपर उ होनेवाले नाना कारके जंगली फल-मूल का संचय कया है’॥ १७ १/२ ॥ शबरी (जा तसे वणबा होनेपर भी) व ानम ब ह ृ त नह थी—उसे परमा ाके त का न ान ा था। उसक पूव बात सुनकर धमा ा ीरामने उससे कहा—॥ १८ १/ ॥ २



‘तपोधने! मने कब



के मुखसे तु ारे महा ा गु जन का यथाथ भाव सुना है। य द तुम ीकार करो तो म उनके उस भावको देखना चाहता ँ ’॥ १९ १/२ ॥ ीरामके मुखसे नकले ए इस वचनको सुनकर शबरीने उन दोन भाइय को उस महान् वनका दशन कराते ए कहा—॥ २० १/२ ॥ ‘रघुन न! मेघ क घटाके समान ाम और नाना कारके पशु-प य से भरे ए इस वनक ओर ष्टपात क जये। यह मतंगवनके नामसे ही व ात है॥ २१ १/२ ॥ ‘महातेज ी ीराम! यह वे मेरे भा वता ा (शु अ :करणवाले एवं परमा च नपरायण) गु जन नवास करते थे। इसी ानपर उ ने गाय ीम के जपसे वशु ए अपने देह पी प रको म ो ारण-पूवक अ म होम दया था॥ २२ ॥



‘यह



ली नामवाली वेदी है, जहाँ मेरे ारा भलीभाँ त पू जत ए वे मह ष वृ ाव ाके कारण मसे काँपते ए हाथ ारा देवता को फू ल क ब ल चढ़ाया करते थे॥ २३ ॥ ‘रघुवंश शरोमणे! दे खये, उनक तप ाके भावसे आज भी यह वेदी अपने तेजके ारा स ूण दशा को का शत कर रही है। इस समय भी इसक भा अतुलनीय है॥ २४ ॥ ‘उपवास करनेसे दुबल होनेके कारण जब वे चलने- फरनेम असमथ हो गये, तब उनके च नमा से वहाँ सात समु का जल कट हो गया। वह स सागर तीथ आज भी मौजूद है। उसम सात समु के जल मले ए ह, उसे चलकर दे खये॥ २५ ॥ ‘रघुन न! उसम ान करके उ ने वृ पर जो व ल व फै ला दये थे, वे इस देशम अबतक सूखे नह ह॥ २६ ॥ ‘देवता क पूजा करते ए मेरे गु जन ने कमल के साथ अ फू ल क जो मालाएँ बनायी थ , वे आज भी मुरझायी नह ह॥ २७ ॥ ‘भगवन्! आपने सारा वन देख लया और यहाँके स म जो बात सुननेयो थ , वे भी सुन ल । अब म आपक आ ा लेकर इस देहका प र ाग करना चाहती ँ ॥ २८ ॥ ‘ जनका यह आ म है और जनके चरण क म दासी रही ँ , उ प व ा ा मह षय के समीप अब म जाना चाहती ँ ’॥ २९ ॥ शबरीके धमयु वचन सुनकर ल णस हत ीरामको अनुपम स ता ा ◌इ। उनके मुँहसे नकल पड़ा, ‘आ य है!’॥ ३० ॥ तदन र ीरामने कठोर तका पालन करनेवाली शबरीसे कहा—‘भ े! तुमने मेरा बड़ा स ार कया। अब तुम अपनी इ ाके अनुसार आन पूवक अभी लोकक या ा करो’॥ ३१ ॥



ीरामच जीके इस कार आ ा देनेपर म कपर जटा और शरीरपर चीर एवं काला मृगचम धारण करनेवाली शबरीने अपनेको आगम होमकर लत अ के समान तेज ी शरीर ा कया। वह द व , द आभूषण, द फू ल क माला और द अनुलेपन धारण कये बड़ी मनोहर दखायी देने लगी तथा सुदाम पवतपर कट होनेवाली बजलीके समान उस देशको का शत करती ◌इ ग (साके त) लोकको ही चली गयी॥ ३२—३४ ॥



उसने अपने च को एका करके उस पु धामक या ा क , जहाँ उसके वे गु जन पु ा ा मह ष वहार करते थे॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म चौह रवाँ सग पूरा आ॥ ७४॥



पचह रवाँ सग ीराम और ल



णक बातचीत तथा उन दोन भाइय का प ासरोवरके तटपर जाना



अपने तेजसे का शत होनेवाली शबरीके द लोकम चले जानेपर भा◌इ ल णस हत धमा ा ीरघुनाथजीने उन महा ा मह षय के भावका च न कया। च न करके अपने हतम संल रहनेवाले एका च ल णसे ीरामने इस कार कहा—॥ १-२ ॥ ‘सौ ! मने उन पु ा ा मह षय का यह प व आ म देखा। यहाँ ब त-सी आ यजनक बात ह। ह रण और बाघ एक-दूसरेपर व ास करते ह। नाना कारके प ी इस आ मका सेवन करते ह॥ ३ ॥ ‘ल ण! यहाँ जो सात समु के जलसे भरे ए तीथ ह, उनम हमने व धपूवक ान तथा पतर का तपण कये ह। इससे हमारा सारा अशुभ न हो गया और अब हमारे क ाणका समय उप त आ है। सु म ाकु मार! इससे इस समय मेरे मनम अ धक स ता हो रही है॥ ४-५ ॥ ‘नर े ! अब मेरे दयम को◌इ शुभ संक उठनेवाला है। इस लये आओ, अब हम दोन परम सु र प ासरोवरके तटपर चल॥ ६ ॥ ‘वहाँसे थोड़ी ही दूरपर वह ऋ मूक पवत शोभा पाता है, जसपर सूयपु धमा ा सु ीव नवास करते ह॥ ७ ॥ ‘वालीके भयसे सदा डरे रहनेके कारण वे चार वानर के साथ उस पवतपर रहते ह। म वानर े सु ीवसे मलनेके लये उतावला हो रहा ँ ; क सीताके अ ेषणका काय उ के अधीन है’॥ ८ १/२ ॥ इस कारक बात कहते ए वीर ीरामसे सु म ाकु मार ल णने य कहा—‘भैया! हम दोन को शी ही वहाँ चलना चा हये। मेरा मन भी चलनेके लये उतावला हो रहा है’॥ ९ १/२ ॥ तदन र जापालक भगवान् ीराम ल णके साथ उस आ मसे नकलकर सब ओर फू ल से लदे ए नाना कारके वृ क शोभा नहारते ए प ा-सरोवरके तटपर आये॥ १०-११ ॥



वह वशाल वन ट भ , मोर , कठफोड़व , तोत तथा अ ब त-से प य के कलरव से गूँज रहा था॥ १२ ॥ ीरामके मनम सीताजीसे मलनेक ती लालसा जाग उठी थी, इससे संत हो वे नाना कारके वृ और भाँ त-भाँ तके सरोवर क शोभा देखते ए उस उ म जलाशयके पास गये॥ १३ ॥ प ानामसे स वह सरोवर पीनेयो जल बहानेवाला था। ीराम दूर देशसे चलकर उसके तटपर आये। आकर उ ने मतंगसरस नामक कु म ान कया॥ १४ ॥ वे दोन रघुवंशी वीर वहाँ शा और एका च होकर प ँ चे थे। सीताके शोकसे ाकु ल ए दशरथन न ीरामने उस रमणीय पु रणी प ाम वेश कया, जो कमल से ा थी॥ १५ १/२ ॥ उसके तटपर तलक, अशोक, नागके सर, वकु ल तथा लसोड़ेके वृ उसक शोभा बढ़ा रहे थे। भाँ तभाँ तके रमणीय उपवन से वह घरी ◌इ थी। उसका जल कमलपु से आ ा दत था और टक म णके समान दखायी देता था। जलके नीचे वालुका फै ली ◌इ थी। म और क प उसम भरे ए थे। तटवत वृ उसक शोभा बढ़ाते थे। सब ओर लता ारा आवे ष्टत होनेके कारण वह स खय से संयु -सी तीत होती थी। क र, नाग, ग व, य और रा स उसका सेवन करते थे। भाँ त-भाँ तके वृ और लता से ा ◌इ प ा शीतल जलक सु र न ध तीत होती थी॥ १६—१९ ॥ अ ण कमल से वह ता वणक , कु मुद-कु सुम के समूहसे शु वणक तथा नील कमल के समुदायसे नीलवणक दखायी देनेके कारण ब रंगे कालीनके समान शोभा पाती थी॥ २० ॥ उस पु रणीम अर व और उ ल खले थे। प और सौग क जा तके पु शोभा पाते थे। मौर लगी ◌इ अमराइय से वह घरी ◌इ थी तथा मयूर के के कानाद वहाँ गूँज रहे थे॥ २१ ॥ सु म ाकु मार ल णस हत ीरामने जब उस मनोहर प ाको देखा, तब उनके दयम सीताक वयोग- था उ ी हो उठी; अत: वे तेज ी दशरथन न ीराम वहाँ वलाप करने लगे॥ २२ ॥



तलक, बजौरा, वट, लोध, खले ए करवीर, पु त नागके सर, मालती, कु , झाड़ी, भंडीर (बरगद), व लु , अशोक, छतवन, कतक, माधवी लता तथा अ नाना कारके वृ से सुशो भत ◌इ प ा भाँ त-भाँ तक व भूषा से सजी ◌इ युवतीके समान जान पड़ती थी। उसीके तटपर व वध धातु से म त पूव ऋ मूक नामसे व ात पवत सुशो भत था। उसके ऊपर फू ल से भरे ए व च वृ शोभा दे रहे थे॥ २३—२५ १/२ ॥ ऋ रजा नामक महा ा वानरके पु क प े महापरा मी सु ीव वह नवास करते थे॥ २६ १/२ ॥ उस समय स परा मी ीरामने पुन: ल णसे कहा—‘नर े ल ण! तुम वानरराज सु ीवके पास चलो, म सीताके बना कै से जी वत रह सकता ँ ’॥ २७-२८ ॥ ऐसा कहकर सीताके दशनक कामनासे पी ड़त तथा उनके त अन अनुराग रखनेवाले ीराम उस महान् शोकको कट करते ए उस मनोरम पु रणी प ाम उतरे॥ २९ ॥ वनक शोभा देखते ए मश: वहाँ जाकर ल णस हत ीरामने प ाको देखा। उसके समीपवत कानन बड़े सु र और दशनीय थे। अनेक कारके ंडु -के - ंडु प ी वहाँ सब ओर भरे ए थे। भा◌इस हत ीरघुनाथजीने प ाके जलम वेश कया॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के अर का म पचह रवाँ सग पूरा आ॥ ७५॥ ॥ अर



का



समा ॥



॥ ीसीतारामच ा ां नम:॥



ीम ा



ीक य रामायण







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पहला सग प ासरोवरके दशनसे ीरामक ाकुलता, ीरामका ल णसे प ाक शोभा तथा वहाँक उ ीपनसाम ीका वणन करना, ल णका ीरामको समझाना तथा दोन भाइय को ऋ मूकक ओर आते देख सु ीव तथा अ वानर का भयभीत होना



कमल, उ ल तथा म से भरी ◌इ उस प ा नामक पु रणीके पास प ँ चकर सीताक सु ध आ जानेके कारण ीरामक इ याँ शोकसे ाकु ल हो उठ । वे वलाप करने लगे। उस समय सु म ाकु मार ल ण उनके साथ थे॥ १ ॥ वहाँ प ापर पड़ते ही (कमल-पु म सीताके ने मुख आ दका क त् सा पाकर) हष ाससे ीरामक सारी इ याँ च ल हो उठ । उनके मनम सीताके दशनक बल इ ा जाग उठी। उस इ ाके अधीन-से होकर वे सु म ाकु मार ल णसे इस कार बोले—॥ २ ॥ ‘सु म ान न! यह प ा कै सी शोभा पा रही है? इसका जल वैदय ू म णके समान एवं ाम है। इसम ब त-से प और उ ल खले ए ह। तटपर उ ए नाना कारके वृ से इसक शोभा और भी बढ़ गयी है॥ ३ ॥ ‘सु म ाकु मार! देखो तो सही, प ाके कनारेका वन कतना सु र दखायी दे रहा है। यहाँके ऊँ चे-ऊँ चे वृ अपनी फै ली ◌इ शाखा के कारण अनेक शखर से यु पवत के समान सुशो भत होते ह॥ ४ ॥ ‘परंतु म इस समय भरतके दु:ख और सीताहरणक च ाके शोकसे संत हो रहा ँ । मान सक वेदनाएँ मुझे ब त क प ँ चा रही ह॥ ५ ॥



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प म शोकसे पी ड़त ँ तो भी मुझे यह प ा बड़ी सुहावनी लग रही है। इसके नकटवत वन बड़े व च दखायी देते ह। यह नाना कारके फू ल से ा है। इसका जल ब त शीतल है और यह ब त सुखदा यनी तीत होती है॥ ६ ॥ ‘कमल से यह सारी पु रणी ढक ◌इ है। इस लये बड़ी सु र दखायी देती है। इसके आस-पास सप तथा हसक ज ु वचर रहे ह। मृग आ द पशु और प ी भी सब ओर छा रहे ह॥ ७ ॥ ‘नयी-नयी घास से ढका आ यह ान अपनी नीली-पीली आभाके कारण अ धक शोभा पा रहा है। यहाँ वृ के नाना कारके पु सब ओर बखरे ए ह। इससे ऐसा जान पड़ता है मानो यहाँ ब त-से गलीचे बछा दये गये ह ॥ ८ ॥ ‘चार ओर वृ के अ भाग फू ल के भारसे लदे होनेके कारण समृ शाली तीत होते ह। ऊपरसे खली ◌इ लताएँ उनम सब ओरसे लपटी ◌इ ह॥ ९ ॥ ‘सु म ान न! इस समय म -म सुखदा यनी हवा चल रही है, जससे कामनाका उ ीपन हो रहा है (सीताको देखनेक इ ा बल हो उठी है)। यह चै का महीना है। वृ म फू ल और फल लग गये ह और सब ओर मनोहर सुग छा रही है॥ १० ॥ ‘ल ण! फू ल से सुशो भत होनेवाले इन वन के प तो देखो। ये उसी तरह फू ल क वषा कर रहे ह जैसे मेघ जलक वृ करते ह॥ ११ ॥ ‘वनके ये व वध वृ वायुके वेगसे झूम-झूमकर रमणीय शला पर फू ल बरसा रहे ह और यहाँक भू मको ढक देते ह॥ १२ ॥ ‘सु म ाकु मार! उधर तो देखो, जो वृ से झड़ गये ह, झड़ रहे ह तथा जो अभी डा लय म ही लगे ए ह, उन सभी फू ल के साथ सब ओर वायु खेल-सा कर रही है॥ १३ ॥ ‘फू ल से भरी ◌इ वृ क व भ शाखा को झकझोरती ◌इ वायु जब आगेको बढ़ती है, तब अपने-अपने ानसे वच लत ए मर मानो उसका यशोगान करते ए उसके पीछे-पीछे चलने लगते ह॥ १४ ॥ ‘पवतक क रासे वशेष नके साथ नकली ◌इ वायु मानो उ रसे गीत गा रही है। मतवाले को कल के कलनाद वा का काम देते ह और उन वा क नके साथ वह वायु इन झूमते ए वृ को मानो नृ क श ा-सी दे रही है॥ १५ ॥



वृ



‘वायुके वेगपूवक हलानेसे जनक शाखा के अ एक-दूसरेसे गुँथे एक भाँ त जान पड़ते ह॥ १६ ॥



भाग सब ओरसे पर र सट गये ह, वे



‘मलयच



नका श करके बहनेवाली यह शीतलवायु शरीरसे छू जानेपर कतनी सुखद जान पड़ती है। यह थकावट दूर करती ◌इ बह रही है और सव प व सुग फै ला रही है॥ १७ ॥ ‘मधुर मकर और सुग से भरे ए इन वन म गुनगुनाते ए मर के ाजसे ये वायु ारा हलाये गये वृ मानो नृ के साथ गान कर रहे ह॥ १८ ॥ ‘अपने रमणीय पृ भाग पर उ फू ल से स तथा मनको लुभानेवाले वशाल वृ से सटे ए शखरवाले पवत अ तु शोभा पा रहे ह॥ १९ ॥ ‘ जनक शाखा के अ भाग फू ल से ढके ह, जो वायुके झ के से हल रहे ह तथा मर को पगड़ीके पम सरपर धारण कये ए ह, वे वृ ऐसे जान पड़ते ह मानो इ ने नाचना-गाना आर कर दया है॥ २० ॥ ‘देखो, सब ओर सु र फू ल से भरे ए ये कनेर सोनेके आभूषण से वभू षत पीता रधारी मनु के समान शोभा पा रहे ह॥ २१ ॥ ‘सु म ान न! नाना कारके वह म के कलरव से गूँजता आ यह वस का समय सीतासे बछु ड़े ए मेरे लये शोकको बढ़ानेवाला हो गया है॥ २२ ॥ ‘ वयोगके शोकसे तो म पी ड़त ँ ही, यह कामदेव (सीता- वषयक अनुराग) मुझे और भी संताप दे रहा है। को कल बड़े हषके साथ कलनाद करता आ मानो मुझे ललकार रहा है॥ २३ ॥ ‘ल



ण! वनके रमणीय झरनेके नकट बड़े हषके साथ बोलता आ यह जलकु ु ट सीतासे मलनेक इ ावाले मुझ रामको शोकम कये देता है॥ २४ ॥ ‘पहले मेरी या जब आ मम रहती थी, उन दन इसका श सुनकर आन म हो जाती थी और मुझे भी नकट बुलाकर अ आन त कर देती थी॥ २५ ॥ ‘देखो, इस कार भाँ त-भाँ तक बोली बोलनेवाले व च प ी चार ओर वृ , झा रय और लता क ओर उड़ रहे ह॥ २६ ॥



‘सु म



ान न! देखो, ये प णयाँ नर प य से संयु हो अपने ंडु म आन का अनुभव कर रही ह, भ र का गु ारव सुनकर स हो रही ह और यं भी मीठी बोली बोल रही ह॥ २७ ॥ ‘इस प ाके तटपर यहाँ ंडु -के - ंडु प ी आन म होकर चहक रहे ह। जलकु ु ट के र तस ी कू जन तथा नर को कल के कलनादके ाजसे मानो ये वृ ही मधुर बोली बोलते ह और मेरी अन वेदनाको उ ी कर रहे ह॥ २८ १/२ ॥ ‘जान पड़ता है, यह वस पी आग मुझे जलाकर भ कर देगी। अशोक पु के लाललाल गु े ही इस अ के अ ार ह, नूतन प व ही इसक लाल-लाल लपट ह तथा मर का गु ारव ही इस जलती आगका ‘चट-चट’ श है॥ २९ १/२ ॥ ‘सु म ान न! य द म सू बरौ नय और सु र के श वाली मधुरभा षणी सीताको न देख सका तो मुझे इस जीवनसे को◌इ योजन नह है॥ ३० १/२ ॥ ‘ न ाप ल ण! वस ऋतुम वनक शोभा बड़ी मनोहर हो जाती है, इसक सीमाम सब ओर कोयलक मधुर कू क सुनायी पड़ती है। मेरी या सीताको यह समय बड़ा ही य लगता था॥ ३१ १/२ ॥ ‘अन वेदनासे उ ◌इ शोका वस ऋतुके गुण का* ◌इं धन पाकर बढ़ गयी है; जान पड़ता है, यह मुझे शी ही अ वल जला देगी॥ ३२ १/२ ॥ ‘अपनी उस यतमा प ीको म नह देख पाता ँ और इन मनोहर वृ को देख रहा ँ , इस लये मेरा यह अन र अब और बढ़ जायगा॥ ३३ १/२ ॥ ‘ वदेहन नी सीता यहाँ मुझे नह दखायी दे रही है, इस लये मेरा शोक बढ़ाती है तथा म मलया नलके ारा ेदसंसगका नवारण करनेवाला यह वस भी मेरे शोकक वृ कर रहा है॥ ३४ १/२ ॥ ‘सु म ाकु मार! मृगनयनी सीता च ा और शोकसे बलपूवक पी डत कये गये मुझ रामको और भी संताप दे रही है। साथ ही यह वनम बहनेवाली चै मासक वायु भी मुझे पीड़ा दे रही है॥ ३५ १/२ ॥ ‘ये मोर टकम णके बने ए गवा (झरोख ) के समान तीत होनेवाले अपने फै ले ए पंख से, जो वायुसे क त हो रहे ह, इधर-उधर नाचते ए कै सी शोभा पा रहे ह?॥ ३६ १/२



॥ ‘मयू रय से



घरे ए ये मदम मयूर अन वेदनासे संत



ए मेरी इस कामपीड़ाको और



भी बढ़ा रहे ह॥ ‘ल ण! वह देखो, पवत शखरपर नाचते ए अपने ामी मयूरके साथ-साथ वह मोरनी भी कामपी ड़त होकर नाच रही है॥ ३८ १/२ ॥ ‘मयूर भी अपने दोन सु र पंख को फै लाकर मन-ही-मन अपनी उसी रामा ( या) का अनुसरण कर रहा है तथा अपने मधुर र से मेरा उपहास करता-सा जान पड़ता है॥ ३९ १/२ ॥ ‘ न य ही वनम कसी रा सने मोरक याका अपहरण नह कया है, इसी लये यह रमणीय वन म अपनी व भाके साथ नृ कर रहा है*॥ ४० १/२ ॥ ‘फू ल से भरे ए इस चै मासम सीताके बना यहाँ नवास करना मेरे लये अ दु:सह है। ल ण! देखो तो सही, तय ो नम पड़े ए ा णय म भी पर र कतना अ धक अनुराग है। इस समय यह मोरनी कामभावसे अपने ामीके सामने उप त ◌इ है॥ ४१-४२ ॥ ‘य द वशाल ने वाली सीताका अपहरण न आ होता तो वह भी इसी कार बड़े ेमसे वेगपूवक मेरे पास आती॥ ४३ ॥ ‘ल ण! इस वस ऋतुम फू ल के भारसे स ए इन वन के ये सारे फू ल मेरे लये न ल हो रहे ह। या सीताके यहाँ न होनेसे इनका मेरे लये को◌इ योजन नह रह गया है॥ ४४ ॥ ‘अ शोभासे मनोहर तीत होनेवाले ये वृ के फू ल भी न ल होकर मरसमूह के साथ ही पृ ीपर गर जाते ह॥ ४५ ॥ ‘हषम भरे ए ये ंडु -के - ंडु प ी एक-दूसरेको बुलाते ए-से इ ानुसार कलरव कर रहे ह और मेरे मनम ेमो ाद उ कये देते ह॥ ४६ ॥ ‘जहाँ मेरी या सीता नवास करती है, वहाँ भी य द इसी तरह वस छा रहा हो तो उसक ा दशा होगी? न य ही वहाँ पराधीन ◌इ सीता मेरी ही तरह शोक कर रही होगी॥ ४७ ॥ ‘अव ही जहाँ सीता है, उस एका ानम वस का वेश नह है तो भी मेरे बना वह कजरारे ने वाली कमलनयनी सीता कै से जी वत रह सके गी॥ ४८ ॥



‘अथवा



स व है जहाँ मेरी या है वहाँ भी इसी तरह वस छा रहा हो, परंतु उसे तो श ु क डाँट-फटकार सुननी पड़ती होगी; अत: वह बेचारी सु री सीता ा कर सके गी॥ ४९ ॥ ‘ जसक



अभी नयी-नयी अव ा है और फु कमलदलके समान मनोहर ने ह, वह मीठी बोली बोलनेवाली मेरी ाणव भा जानक न य ही इस वस ऋतुको पाकर अपने ाण ाग देगी॥ ५० ॥ ‘मेरे दयम यह वचार ढ़ होता जा रहा है क सा ी सीता मुझसे अलग होकर अ धक कालतक जी वत नह रह सकती॥ ५१ ॥ ‘वा वम वदेहकु मारीका हा दक अनुराग मुझम और मेरा स ूण ेम सवथा वदेहन नी सीताम ही त त है॥ ५२ ॥ ‘फू ल क सुग लेकर बहनेवाली यह शीतल वायु, जसका श ब त ही सुखद है, ाणव भा सीताक याद आनेपर मुझे आगक भाँ त तपाने लगती है॥ ५३ ॥ ‘पहले जानक के साथ रहनेपर जो मुझे सदा सुखद जान पड़ती थी, वही वायु आज सीताके वरहम मेरे लये शोकजनक हो गयी है॥ ५४ ॥ ‘जब सीता मेरे साथ थी उन दन जो प ी कौआ आकाशम जाकर काँव-काँव करता था, वह उसके भावी वयोगको सू चत करनेवाला था। अब सीताके वयोगकालम वह कौआ वृ पर बैठकर बड़े हषके साथ अपनी बोली बोल रहा है (इससे सू चत हो रहा है क सीताका संयोग शी ही सुलभ होगा)॥ ५५ ॥ ‘यही वह प ी है, जो आकाशम त होकर बोलनेपर वैदेहीके अपहरणका सूचक आ; कतु आज यह जैसी बोली बोल रहा है, उससे जान पड़ता है क यह मुझे वशाललोचना सीताके समीप ले जायगा॥ ५६ ॥ ‘ल ण! देखो, जनक ऊपरी डा लयाँ फू ल से लदी ह, वनम उन वृ पर कलरव करनेवाले प य का यह मधुर श वरहीजन के मदनो ादको बढ़ानेवाला है॥ ५७ ॥ ‘वायुके ारा हलायी जाती ◌इ उस तलक वृ क मंजरीपर मर सहसा जा बैठा है। मानो को◌इ ेमी काममदसे क त ◌इ ेयसीसे मल रहा हो॥ ५८ ॥



‘यह



अशोक या वरही कामी पु ष के लये अ शोक बढ़ानेवाला है। यह वायुके झ के से क त ए पु गु ारा मुझे डाँट बताता आ-सा खड़ा है॥ ५९ ॥ ‘ल ण! ये म रय से सुशो भत होनेवाले आमके वृ ृ ार- वलाससे मदम दय होकर च न आ द अ राग धारण करनेवाले मनु के समान दखायी देते ह॥ ६० ॥ ‘नर े सु म ाकु मार! देखो, प ाक व च वन- े णय म इधर-उधर क र वचर रहे ह॥ ६१ ॥ ‘ल ण! देखो, प ाके जलम सब ओर खले ए ये सुग त कमल ात:कालके सूयक भाँ त का शत हो रहे ह॥ ६२ ॥ ‘प ाका जल बड़ा ही है। इसम लाल कमल और नील कमल खले ए ह। हंस और कार व आ द प ी सब ओर फै ले ए ह तथा सौग क कमल इसक शोभा बढ़ा रहे ह॥ ६३ ॥ ‘जलम ात:कालके सूयक भाँ त का शत होनेवाले कमल के ारा सब ओरसे घरी ◌इ प ा बड़ी शोभा पा रही है। उन कमल के के सर को मर ने चूस लया है॥ ६४ ॥ ‘इसम च वाक सदा नवास करते ह। यहाँके वन म व च - व च ान ह तथा पानी पीनेके लये आये ए हा थय और मृग के समूह से इस प ाक शोभा और भी बढ़ जाती है॥ ६५ ॥ ‘ल ण! वायुके थपेड़स े े जनम वेग पैदा होता है, उन लहर से ता ड़त होनेवाले कमल प ाके नमल जलम बड़ी शोभा पाते ह॥ ६६ ॥ ‘ फु कमलदलके समान वशाल ने वाली वदेहराजकु मारी सीताको कमल सदा ही य रहे ह। उसे न देखनेके कारण मुझे जी वत रहना अ ा नह लगता है॥ ६७ ॥ ‘अहो! काम कतना कु टल है, जो अ गयी ◌इ एवं परम दुलभ होनेपर भी क ाणमय वचन बोलनेवाली उस क ाण पा सीताका बारंबार रण दला रहा है॥ ६८ ॥ ‘य द



खले ए वृ वाला यह वस मुझपर पुन: हार न करे तो ा कामवेदनाको म कसी तरह मनम ही रोके रह सकता ँ ॥ ६९ ॥



◌इ



‘सीताके



साथ रहनेपर जो-जो व ुएँ मुझे रमणीय तीत होती थ , वे ही आज उसके बना असु र जान पड़ती ह॥ ७० ॥ ‘ल ण! ये कमलकोश के दल सीताके ने कोश के समान ह। इस लये मेरी आँ ख इ ही देखना चाहती ह॥ ‘कमलके सर का श करके दूसरे वृ के बीचसे नकली ◌इ यह सौरभयु मनोहर वायु सीताके न: ासक भाँ त चल रही है॥ ७२ ॥ ‘सु म ान न! वह देखो, प ाके द ण भागम पवत- शखर पर खली ◌इ कनेरक डाल कतनी अ धक शोभा पा रही है॥ ७३ ॥ ‘ व भ धातु से वभू षत आ यह पवतराज ऋ मूक वायुके वेगसे लायी ◌इ व च धू लक सृ कर रहा है॥ ७४ ॥ ‘सु म ाकु मार! चार ओर खले ए और सब ओरसे रमणीय तीत होनेवाले प हीन पलाश वृ से उपल त इस पवतके पृ भाग आगम जलते ए-से जान पड़ते ह॥ ७५ ॥ ‘प ाके तटपर उ ए ये वृ इसीके जलसे अ भ ष हो बढ़े ह और मधुर मकर एवं ग से स ए ह। इनके नाम इस कार ह—मालती, म का, प और करवीर। ये सब-के -सब फू ल से सुशो भत ह॥ ७६ ॥ ‘के तक (के वड़े), स वु ार तथा वास ी लताएँ भी सु र फू ल से भरी ◌इ ह! ग भरी माधवी लता तथा कु -कु सुम क झा ड़याँ सब ओर शोभा पा रही ह॥ ७७ ॥ ‘ च र ब ( चल बल), म आ, बत, मौल सरी, च ा, तलक और नागके सर भी खले दखायी देते ह॥ ७८ ॥ ‘पवतके पृ भाग पर प क और खले ए नील अशोक भी शोभा पाते ह। वह सहके अयालक भाँ त प ल वणवाले लो भी सुशो भत हो रहे ह॥ ७९ ॥ ‘अ ोल, कु रंट, चूणक (सेमल), पा रभ क (नीम या मदार), आम, पाट ल, को वदार, मुचुकु (नार ) और अजुन नामक वृ भी पवत- शखर पर फू ल से लदे दखायी देते ह॥ ८० १/ ॥ २







‘के तक, उ ालक (लसोड़ा), शरीष, शीशम, धव, सेमल, पलाश, लाल कु रबक, त नश, माल, च न, न, ह ाल, तलक तथा नागके सरके पेड़ भी फू ल से भरे दखायी देते



ह॥ ८१-८२ १/२ ॥ सु म ान न! जनके अ भाग फू ल से भरे ए ह, उन लता-व रय से लपटे ए प ाके इन मनोहर और ब सं क वृ को तो देखो। वे सब-के -सब यहाँ फू ल के भारसे लदे ए ह॥ ८३ १/२ ॥ ‘हवाके झ के खाकर जनक डाल हल रही ह, वे ये वृ कु कर इतने नकट आ जाते ह क हाथसे इनक डा लय का श कया जा सके । सलोनी लताएँ मदम सु रय क भाँ त इनका अनुसरण करती ह॥ ८४ १/२ ॥ ‘एक वृ से दूसरे वृ पर, एक पवतसे दूसरे पवतपर तथा एक वनसे दूसरे वनम जाती ◌इ वायु अनेक रस के आ ादनसे आन त-सी होकर बह रही है॥ ८५ १/२ ॥ ‘कु छ वृ चुर पु से भरे ए ह और मधु एवं सुग से स ह। कु छ मुकुल से आवे त हो ामवण-से तीत हो रहे ह॥ ८६ १/२ ॥ ‘वह मर रागसे रँगा आ है और ‘यह मधुर है, यह ा द है तथा यह अ धक खला आ है’ इ ा द बात सोचता आ फू ल म ही लीन हो रहा है॥ ८७ १/२ ॥ ‘पु म छपकर फर ऊपरको उड़ जाता है और सहसा अ चल देता है। इस कार मधुका लोभी मर प ातीरवत वृ पर वचर रहा है॥ ८८ ॥ ‘ यं झड़कर गरे ए पु समूह से आ ा दत ◌इ यह भू म ऐसी सुखदा यनी हो गयी है, मानो इसपर शयन करनेके लये मुलायम बछौने बछा दये गये ह ॥ ८९ ॥ ‘सु म ान न! पवतके शखर पर जो नाना कारक वशाल शलाएँ ह, उनपर झड़े ए भाँ तभाँ तके फू ल ने उ लाल-पीले रंगक श ा के समान बना दया है॥ ९० ॥ ‘सु म ाकु मार! वस ऋतुम वृ के फू ल का यह वैभव तो देखो। इस चै मासम ये वृ मानो पर र होड़ लगाकर फू ले ए ह॥ ९१ ॥ ‘ल ण! वृ अपनी ऊपरी डा लय पर फू ल का मुकुट धारण करके बड़ी शोभा पा रहे ह तथा वे मर के गु ारवसे इस तरह कोलाहलपूण हो रहे ह, मानो एक-दूसरेका आ ान कर रहे ह ॥ ९२ ॥ ‘यह कार व प ी प ाके जलम वेश करके अपनी यतमाके साथ रमण करता आ कामका उ ीपन-सा कर रहा है॥ ९३ ॥



‘म



ा कनीके समान तीत होनेवाली इस प ाका जब ऐसा मनोरम प है, तब संसारम उसके जो मनोरम गुण व ात ह, वे उ चत ही ह॥ ९४ ॥ ‘रघु े ल ण! य द सा ी सीता दीख जाय और य द उसके साथ हम यहाँ नवास करने लग तो हम न इ लोकम जानेक इ ा होगी और न अयो ाम लौटनेक ही॥ ९५ ॥ ‘हरी-हरी घास से सुशो भत ऐसे रमणीय देश म सीताके साथ सान वचरनेका अवसर मले तो मुझे (अयो ाका रा न मलनेके कारण) को◌इ च ा नह होगी और न दूसरे ही द भोग क अ भलाषा हो सके गी॥ ९६ ॥ ‘इस वनम भाँ त-भाँ तके प व से सुशो भत और नाना कारके फू ल से उपल त ये वृ ाण-व भा सीताके बना मेरे मनम च ा उ कर देते ह॥ ‘सु म ाकु मार! देखो, इस प ाका जल कतना शीतल है। इसम असं कमल खले ए ह। चकवे वचरते ह और कार व नवास करते ह। इतना ही नह , जलकु ु ट तथा ौ भरे ए ह एवं बड़े-बड़े मृग इसका सेवन करते ह॥ ९८ १/२ ॥ ‘चहकते ए प य से इस प ाक बड़ी शोभा हो रही है। आन म नम ए ये नाना कारके प ी मेरे सीता वषयक अनुरागको उ ी कर देते ह; क इनक बोली सुनकर मुझे नूतन अव ावाली कमलनयनी च मुखी यतमा सीताका रण हो आता है॥ ९९-१०० ॥ ‘ल ण! देखो, पवतके व च शखर पर ये ह रण अपनी ह र णय के साथ वचर रहे ह और म मृगनयनी सीतासे बछु ड़ गया ँ । इधर-उधर वचरते ए ये मृग मेरे च को थत कये देते ह॥ १०१ ॥ ‘मतवाले प य से भरे ए इस पवतके रमणीय शखरपर य द ाणव भा सीताका दशन पा सकूँ तभी मेरा क ाण होगा॥ १०२ ॥ ‘सु म ान न! य द सुम मा सीता मेरे साथ रहकर इस प ासरोवरके तटपर सुखद समीरका सेवन कर सके तो म न य ही जी वत रह सकता ँ ॥ १०३ ॥ ‘ल ण! जो लोग अपनी यतमाके साथ रहकर प और सौग क कमल क सुग लेकर बहनेवाली शीतल, म एवं शोकनाशन प ा-वनक वायुका सेवन करते ह, वे ध ह॥ १०४ ॥



‘हाय!



वह नयी अव ावाली कमललोचना जनकन नी या सीता मुझसे बछु ड़कर बेबसीक दशाम अपने ाण को कै से धारण करती होगी॥ १०५ ॥ ‘ल ण! धमके जाननेवाले स वादी राजा जनक जब जन-समुदायम बैठकर मुझसे सीताका कु शल-समाचार पूछगे, उस समय म उ ा उ र दूँगा॥ १०६ ॥ ‘हाय! पताके ारा वनम भेजे जानेपर जो धमका आ य ले मेरे पीछे -पीछे यहाँ चली आयी, वह मेरी या इस समय कहाँ है?॥ १०७ ॥ ‘ल ण! जसने रा से व त और हताश हो जानेपर भी मेरा साथ नह छोड़ा—मेरा ही अनुसरण कया, उसके बना अ दीन होकर म कै से जीवन धारण क ँ गा॥ १०८ ॥ ‘जो कमलदलके समान सु र, मनोहर एवं शंसनीय ने से सुशो भत है, जससे मीठीमीठी सुग नकलती रहती है, जो नमल तथा चेचक आ दके च से र हत है, जनक कशोरीके उस दशनीय मुखको देखे बना मेरी सुध-बुध खोयी जा रही है॥ १०९ ॥ ‘ल ण! वैदेहीके ारा कभी हँ सकर और कभी मुसकराकर कही ◌इ वे मधुर, हतकर एवं लाभदायक बात जनक कह तुलना नह है, मुझे अब कब सुननेको मलगी?॥ ११० ॥ ‘सोलह वषक -सी अव ावाली सा ी सीता य प वनम आकर क उठा रही थी, तथा प जब मुझे अन वेदना या मान सक क से पी ड़त देखती, तब मानो उसका अपना सारा दु:ख न हो गया हो, इस कार स -सी होकर मेरी पीड़ा दूर करनेके लये अ ी-अ ी बात करने लगती थी॥ १११ ॥ ‘राजकु मार! अयो ाम चलनेपर जब मन नी माता कौस ा पूछगी क ‘मेरी ब रानी कहाँ है?’ तो म उ ा उ र दूँगा?॥ ११२ ॥ ‘ल ण! तुम जाओ, ातृव ल भरतसे मलो। म तो जनकन नी सीताके बना जी वत नह रह सकता।’ इस कार महा ा ीरामको अनाथक भाँ त वलाप करते देख भा◌इ ल णने यु यु एवं नद ष वाणीम कहा—॥ ११३-११४ ॥ ‘पु षो म ीराम! आपका भला हो। आप अपनेको सँभा लये। शोक न क जये। आपजैसे पु ा ा पु ष क बु उ ाहशू नह होती॥ ११५ ॥ ‘ जन के अव ावी वयोगका दु:ख सभीको सहना पड़ता है, इस बातको रण करके अपने य जन के त अ धक ेह (आस ) को ाग दी जये; क जल आ दसे



भीगी ◌इ ब ी भी अ धक ेह (तेल) म डु बो दी जानेपर जलने लगती है॥ ११६ ॥ ‘तात रघुन न! य द रावण पातालम या उससे भी अ धक दूर चला जाय तो भी वह अब कसी तरह जी वत नह रह सकता॥ ११७ ॥ ‘पहले उस पापी रा सका पता लगाइये। फर या तो वह सीताको वापस करेगा या अपने ाण से हाथ धो बैठेगा॥ ११८ ॥ ‘रावण य द सीताको साथ लेकर द तके गभम जाकर छप जाय तो भी य द म थलेशकु मारीको लौटा न देगा तो म वहाँ भी उसे मार डालूँगा॥ ११९ ॥ ‘अत: आय! आप क ाणकारी धैयको अपनाइये। वह दीनतापूण वचार ाग दी जये। जनका य और धन न हो गया है, वे पु ष य द उ ाहपूवक उ ोग न कर तो उ उस अभी अथक ा नह हो सकती॥ १२० ॥ ‘भैया! उ ाह ही बलवान् होता है। उ ाहसे बढ़कर दूसरा को◌इ बल नह है। उ ाही पु षके लये संसारम को◌इ भी व ु दुलभ नह है॥ १२१ ॥ ‘ जनके दयम उ ाह होता है वे पु ष क ठन-से-क ठन काय आ पड़नेपर ह त नह हारते। हमलोग के वल उ ाहका आ य लेकर ही जनक-न नीको ा कर सकते ह॥ १२२ ॥ ‘शोकको पीछे छोड़कर कामीके -से



वहारका ाग क जये। आप महा ा एवं कृ ता ा (प व अ :करणवाले) ह, कतु इस समय अपने-आपको भूल गये ह—अपने पका रण नह कर रहे ह’॥ १२३ ॥ ल णके इस कार समझानेपर शोकसे संत च ए ीरामने शोक और मोहका प र ाग करके धैय धारण कया॥ १२४ ॥ तदन र तार हत (शा प) अ च -परा मी ीरामच जी जसके तटवत वृ वायुके झ के खाकर झूम रहे थे, उस परम सु र रमणीय प ासरोवरको लाँघकर आगे बढ़े॥ १२५ ॥ सीताके रणसे जनका च उ हो गया था, अतएव जो दु:खम डू बे ए थे, वे महा ा ीराम ल णक कही ◌इ बात पर वचार करके सहसा सावधान हो गये और झरन



तथा क रा स हत उस स ूण वनका नरी ण करते ए वहाँसे आगेको



त ए॥ १२६







मतवाले हाथीके समान वलासपूण ग तसे चलनेवाले शा च महा ा ल ण आगेआगे चलते ए ीरघुनाथजीक उनके अनुकूल चे ा करते धम और बलके ारा र ा करने लगे॥ १२७ ॥ ऋ मूक पवतके समीप वचरनेवाले बलवान् वानरराज सु ीव प ाके नकट घूम रहे थे। उसी समय उ ने उन अ तु दशनीय वीर ीराम और ल णको देखा। देखते ही उनके मनम यह भय हो गया क हो न हो इ मेरे श ु वालीने ही भेजा होगा, फर तो वे इतने डर गये क खाने-पीने आ दक भी चे ा न कर सके ॥ १२८ ॥ हाथीके समान म ग तसे चलनेवाले महामना वानरराज सु ीव जो वहाँ वचर रहे थे, उस समय एक साथ आगे बढ़ते ए उन दोन भाइय को देखकर च त हो उठे । भयके भारी भारसे उनका उ ाह न हो गया। वे महान् दु:खम पड़ गये॥ १२९ ॥ मत मु नका वह आ म परम प व एवं सुखदायक था। मु नके शापसे उसम वालीका वेश होना क ठन था, इस लये वह दूसरे वानर का आ य बना आ था। उस आ म या वनके भीतर सदा ही अनेकानेक शाखामृग नवास करते थे। उस दन उन महातेज ी ीराम और ल णको देखकर दूसरे-दूसरे वानर भी भयभीत हो आ मके भीतर चले गये॥ १३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म पहला सग पूरा आ॥ १॥ * म -म



मलया नलका चलना, वनके वृ का नूतन प व और फू ल से सज जाना, को कल का कू कना, कमल का खल जाना तथा सब ओर मधुर सुग का छा जाना आ द वस के गुण ह, जो वरहीक शोका को उ ी करते ह। * रामायण शरोम णकार इस ोकके पूवाधका अथ य लखते ह— न य ही इस मोरके नवासभूत वनम उस रा सने मेरी या सीताका अपहरण नह कया; नह तो यह भी उसीके शोकम डू बा रहता।



दस ू रा सग सु ीव तथा वानर क आश ा, हनुमा ी ारा उसका नवारण तथा सु ीवका हनुमा ीको ीराम-ल णके पास उनका भेद लेनेके लये भेजना



महा ा ीराम और ल ण दोन भाइय को े आयुध धारण कये वीर वेशम आते देख (ऋ मूक पवतपर बैठे ए) सु ीवके मनम बड़ी श ा ◌इ॥ १ ॥ वे उ च होकर चार दशा क ओर देखने लगे। उस समय वानर शरोम ण सु ीव कसी एक ानपर र न रह सके ॥ २ ॥ महाबली ीराम और ल णको देखते ए सु ीव अपने मनको र न रख सके । उस समय अ भयभीत ए उन वानरराजका च ब त दु:खी हो गया॥ सु ीव धमा ा थे—उ राजधमका ान था। उ ने म य के साथ वचारकर अपनी दुबलता और श ुप क बलताका न य कया। त ात् वे सम वानर के साथ अ उ हो उठे ॥ ४ ॥ वानरराज सु ीवके दयम बड़ा उ ेग हो गया था। वे ीराम और ल णक ओर देखते ए अपने म य से इस कार बोले—॥ ५ ॥ ‘ न य ही ये दोन वीर वालीके भेजे ए ही इस दुगम वनम वचरते ए यहाँ आये ह। इ ने छलसे चीर व धारण कर लये ह, जससे हम इ पहचान न सक’॥ ६ ॥ उधर सु ीवके सहायक दूसरे-दूसरे वानर ने जब उन महाधनुधर ीराम और ल णको देखा, तब वे उस पवततटसे भागकर दूसरे उ म शखरपर जा प ँ चे॥ ७ ॥ वे यूथप त वानर शी तापूवक जाकर यूथप तय के सरदार वानर शरोम ण सु ीवको चार ओरसे घेरकर उनके पास खड़े हो गये॥ ८ ॥ इस तरह एक पवतसे दूसरे पवतपर उछलते-कू दते और अपने वेगसे उन पवत- शखर को क त करते ए वे सम महाबली वानर एक मागपर आ गये। उन सबने उछल-कू दकर उस समय वहाँ दुगम ान म त ए पु शो भत ब सं क वृ को तोड़ डाला था॥ ९-१० ॥ उस बेलाम चार ओरसे उस महान् पवतपर उछलकर आते ए वे े वानर वहाँ रहनेवाले मृग , बलाव तथा ा को भयभीत करते ए जा रहे थे॥



इस कार सु ीवके सभी स चव पवतराज ऋ मूकपर आ प ँ चे और एका च हो उन वानरराजसे मलकर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ १२ ॥ तदन र वालीसे बुरा◌इक आश ा करके सु ीवको भयभीत देख बातचीत करनेम कु शल हनुमा ी बोले—॥ १३ ॥ ‘आप सब लोग वालीके कारण होनेवाली इस भारी घबराहटको छोड़ दी जये। यह मलय नामक े पवत है। यहाँ वालीसे को◌इ भय नह है॥ १४ ॥ ‘वानर शरोमणे! जससे उ च होकर आप भागे ह, उस ू र दखायी देनेवाले नदय वालीको म यहाँ नह देखता ँ ॥ १५ ॥ ‘सौ ! आपको अपने जस पापाचारी बड़े भा◌इसे भय ा आ है, वह दु ा ा वाली यहाँ नह आ सकता; अत: मुझे आपके भयका को◌इ कारण नह दखायी देता॥ १६ ॥ ‘आ य है क इस समय आपने अपनी वानरो चत चपलताको ही कट कया है। वानर वर! आपका च च ल है। इस लये आप अपनेको वचार-मागपर र नह रख पाते ह॥ १७ ॥ ‘बु और व ानसे स होकर आप दूसर क चे ा के ारा उनका मनोभाव समझ और उसीके अनुसार सभी आव क काय कर; क जो राजा बु -बलका आ य नह लेता, वह स ूण जापर शासन नह कर सकता’॥ १८ ॥ हनुमा ीके मुखसे नकले ए इन सभी े वचन को सुनकर सु ीवने उनसे ब त ही उ म बात कही—॥ १९ ॥ ‘इन दोन वीर क भुजाएँ लंबी और ने बड़े-बड़े ह। ये धनुष, बाण और तलवार धारण कये देवकु मार के समान शोभा पा रहे ह। इन दोन को देखकर कसके मनम भयका संचार न होगा॥ २० ॥ ‘मेरे मनम संदेह है क ये दोन े पु ष वालीके ही भेजे ए ह; क राजा के ब तसे म होते ह। अत: उनपर व ास करना उ चत नह है॥ २१ ॥ ‘ ा णमा को छ वेषम वचरनेवाले श ु को वशेष पसे पहचाननेक चे ा करनी चा हये; क वे दूसर पर अपना व ास जमा लेते ह, परंतु यं कसीका व ास नह करते और अवसर पाते ही उन व ासी पु ष पर ही हार कर बैठते ह॥ २२ ॥



‘वाली



इन सब काय म बड़ा कु शल है। राजालोग ब दश होते ह—व नाके अनेक उपाय जानते ह, इसी लये श ु का व ंस कर डालते ह। ऐसे श ुभूत राजा को ाकृ त वेशभूषावाले मनु (गु चर ) ारा जाननेका य करना चा हये॥ २३ ॥ ‘अत: क प े ! तुम भी एक साधारण पु षक भाँ त यहाँसे जाओ और उनक चे ा से, पसे तथा बातचीतके तौर-तरीक से उन दोन का यथाथ प रचय ा करो॥ २४ ॥ ‘उनके मनोभाव को समझो। य द वे स च जान पड़ तो बारंबार मेरी शंसा करके तथा मेरे अ भ ायको सू चत करनेवाली चे ा ारा मेरे त उनका व ास उ करो॥ २५ ॥ ‘वानर शरोमणे!



तुम मेरी ही ओर मुँह करके खड़ा होना और उन धनुधर वीर से इस वनम वेश करनेका कारण पूछना॥ २६ ॥ ‘य द उनका दय शु जान पड़े तो भी तरह-तरहक बात और आकृ तके ारा यह जाननेक वशेष चे ा करनी चा हये क वे दोन को◌इ दुभावना लेकर तो नह आये ह’॥ २७ ॥



वानरराज सु ीवके इस कार आदेश देनेपर पवनकु मार हनुमा ीने उस ानपर जानेका वचार कया, जहाँ ीराम और ल ण व मान थे॥ २८ ॥ अ डरे ए दुजय वानर सु ीवके उस वचनका आदर करके ‘ब त अ ा कहकर’ महानुभाव हनुमा ी जहाँ अ बलशाली ीराम और ल ण थे, उस ानके लये त ाल चल दये॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म दूसरा सग पूरा आ॥ २॥



तीसरा सग हनुमा ीका ीराम और ल णसे वनम आनेका कारण पूछना और अपना तथा सु ीवका प रचय देना, ीरामका उनके वचन क शंसा करके ल णको अपनी ओरसे बात करनेक आ ा देना तथा ल ण ारा अपनी ाथना ीकृत होनेसे हनुमा ीका स होना



महा ा सु ीवके कथनका ता य समझकर हनुमा ी ऋ मूक पवतसे उस ानक ओर उछलते ए चले, जहाँ वे दोन रघुवंशी ब ु वराजमान थे॥ पवनकु मार वानरवीर हनुमा े यह सोचकर क मेरे इस क प पपर कसीका व ास नह जम सकता, अपने उस पका प र ाग करके भ ु (सामा तप ी) का प धारण कर लया॥ २ ॥ तदन र हनुमा े वनीतभावसे उन दोन रघुवंशी वीर के पास जाकर उ णाम करके मनको अ य लगनेवाली मधुर वाणीम उनके साथ वातालाप आर कया। वानर शरोम ण हनुमा े पहले तो उन दोन वीर क यथो चत शंसा क । फर व धवत् उनका पूजन (आदर) करके पसे मधुर वाणीम कहा—‘वीरो! आप दोन स परा मी, राज षय और देवता के समान भावशाली, तप ी तथा कठोर तका पालन करनेवाले जान पड़ते ह॥ ३—५ ॥ ‘आपके शरीरक का बड़ी सु र है। आप दोन इस व देशम कस लये आये ह। वनम वचरनेवाले मृगसमूह तथा अ जीव को भी ास देते प ासरोवरके तटवत वृ को सब ओरसे देखते और इस सु र जलवाली नदी-सरीखी प ाको सुशो भत करते ए आप दोन वेगशाली वीर कौन ह? आपके अ क का सुवणके समान का शत होती है। आप दोन बड़े धैयशाली दखायी देते ह। आप दोन के अ पर चीर व शोभा पाता है। आप दोन लंबी साँस ख च रहे ह। आपक भुजाएँ वशाल ह। आप अपने भावसे इस वनके ा णय को पीड़ा दे रहे ह। बताइये, आपका ा प रचय है?॥ ६—८ ॥ ‘आप दोन वीर क सहके समान है। आपके बल और परा म महान् ह। इ धनुषके समान महान् शरासन धारण करके आप श ु को न करनेक श रखते ह॥ ९ ॥



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मान् तथा पवान् ह। आप वशालकाय साँड़के समान म ग तसे चलते ह। आप दोन क भुजाएँ हाथीक सूँड़के समान जान पड़ती ह। आप मनु म े और परम तेज ी ह॥ १० ॥ ‘आप दोन क भासे ग रराज ऋ मूक जगमगा रहा है। आपलोग देवता के समान परा मी और रा भोगनेके यो ह। भला, इस दुगम वन देशम आपका आगमन कै से स व आ॥ ११ ॥ ‘आपके ने फु कमल-दलके समान शोभा पाते ह। आपम वीरता भरी है। आप दोन अपने म कपर जटाम ल धारण करते ह और दोन ही एक-दूसरेके समान ह। वीरो! ा आप देवलोकसे यहाँ पधारे ह?॥ १२ ॥ ‘आप दोन को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो च मा और सूय े ासे ही इस भूतलपर उतर आये ह। आपके व : ल वशाल ह। मनु होकर भी आपके प देवता के तु ह॥ १३ ॥ ‘आपके कं धे सहके समान ह। आपम महान् उ ाह भरा आ है। आप दोन मदम साँड़ के समान तीत होते ह। आपक भुजाएँ वशाल, सु र, गोल-गोल और प रघके समान सु ढ़ ह। ये सम आभूषण को धारण करनेके यो ह तो भी आपने इ वभू षत नह कया है? म तो समझता ँ क आप दोन समु और वन से यु तथा व और मे आ द पवत से वभू षत इस सारी पृ ीक र ा करनेके यो ह॥ १४-१५ १/२ ॥ ‘आपके ये दोन धनुष व च , चकने तथा अ तु अनुलेपनसे च त ह। इ सुवणसे वभू षत कया गया है; अत: ये इ के व के समान का शत हो रहे ह॥ १६ १/२ ॥ ‘ ाण का अ कर देनेवाले सप के समान भयंकर तथा काशमान तीखे बाण से भरे ए आप दोन के तूणीर बड़े सु र दखायी देते ह’॥ १७ १/२ ॥ ‘आपके ये दोन खड् ग ब त बड़े और व ृत ह। इ प े सोनेसे वभू षत कया गया है। ये दोन कचुल छोड़कर नकले ए सप के समान शोभा पाते ह॥ १८ १/२ ॥ ‘वीरो! इस तरह म बार ार आपका प रचय पूछ रहा ँ , आपलोग मुझे उ र नह दे रहे ह? यहाँ सु ीव नामक एक े वानर रहते ह, जो बड़े धमा ा और वीर ह। उनके भा◌इ



वालीने उ घरसे नकाल दया है; इस लये वे अ दु:खी होकर सारे जग मारे-मारे फरते ह॥ १९-२० ॥ ‘उ वानर शरोम णय के राजा महा ा सु ीवके भेजनेसे म यहाँ आया ँ । मेरा नाम हनुमान् है। म भी वानरजा तका ही ँ ॥ २१ ॥ ‘धमा ा सु ीव आप दोन से म ता करना चाहते ह। मुझे आपलोग उ का म ी समझ। म वायुदेवताका वानरजातीय पु ँ । मेरी जहाँ इ ा हो, जा सकता ँ और जैसा चा ँ , प धारण कर सकता ँ । इस समय सु ीवका य करनेके लये भ कु े पम अपनेको छपाकर म ऋ मूक पवतसे यहाँपर आया ँ ’॥ २२-२३ ॥ उन दोन भा◌इ वीरवर ीराम और ल णसे ऐसा कहकर बातचीत करनेम कु शल तथा बातका मम समझनेम नपुण हनुमान् चुप हो गये; फर कु छ न बोले॥ २४ ॥ उनक यह बात सुनकर ीरामच जीका मुख स तासे खल उठा। वे अपने बगलम खड़े ए छोटे भा◌इ ल णसे इस कार कहने लगे—॥ २५ ॥ ‘सु म ान न! ये महामन ी वानरराज सु ीवके स चव ह और उ के हतक इ ासे यहाँ मेरे पास आये ह॥ २६ ॥ ‘ल ण! इन श ुदमन सु ीवस चव क पवर हनुमा ,े जो बातके ममको समझनेवाले ह, तुम ेहपूवक मीठी वाणीम बातचीत करो॥ २७ ॥ ‘ जसे ऋ ेदक श ा नह मली, जसने यजुवदका अ ास नह कया तथा जो सामवेदका व ान् नह है, वह इस कार सु र भाषाम वातालाप नह कर सकता॥ २८ ॥ ‘ न य ही इ ने समूचे ाकरणका क◌इ बार ा ाय कया है; क ब त-सी बात बोल जानेपर भी इनके मुँहसे को◌इ अशु नह नकली॥ २९ ॥ ‘स ाषणके समय इनके मुख, ने , ललाट, भ ह तथा अ सब अ से भी को◌इ दोष कट आ हो, ऐसा कह ात नह आ॥ ३० ॥ ‘इ ने थोड़ेम ही बड़ी ताके साथ अपना अ भ ाय नवेदन कया है। उसे समझनेम कह को◌इ संदेह नह आ है। क- ककर अथवा श या अ र को तोड़-मरोड़कर कसी ऐसे वा का उ ारण नह कया है, जो सुननेम कणकटु हो। इनक वाणी दयम



म मा पसे त है और क से बैखरी पम कट होती है, अत: बोलते समय इनक आवाज न ब त धीमी रही है न ब त ऊँ ची। म म रम ही इ ने सब बात कही ह॥ ३१ ॥ ‘ये सं ार१ और मसे२ स , अ तु , अ वल त३ तथा दयको आन दान करनेवाली क ाणमयी वाणीका उ ारण करते ह॥ ३२ ॥ ‘ दय, क और मूधा—इन तीन ान ारा पसे अ भ होनेवाली इनक इस व च वाणीको सुनकर कसका च स न होगा। वध करनेके लये तलवार उठाये ए श ुका दय भी इस अ तु वाणीसे बदल सकता है॥ ३३ ॥ ‘ न ाप ल ण! जस राजाके पास इनके समान दूत न हो, उसके काय क स कै से हो सकती है॥ ‘ जसके कायसाधक दूत ऐसे उ म गुण से यु ह , उस राजाके सभी मनोरथ दूत क बातचीतसे ही स हो जाते ह’॥ ३५ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर बातचीतक कला जाननेवाले सु म ान न ल ण बातका मम समझनेवाले पवनकु मार सु ीवस चव क पवर हनुमा े इस कार बोले—॥ ३६ ॥ ‘ व न्! महामना सु ीवके गुण हम ात हो चुके ह। हम दोन भा◌इ वानरराज सु ीवक ही खोजम यहाँ आये ह॥ ३७ ॥ ‘साधु शरोम ण हनुमा ी! आप सु ीवके कथनानुसार यहाँ आकर जो मै ीक बात चला रहे ह, वह हम ीकार है। हम आपके कहनेसे ऐसा कर सकते ह’॥ ३८ ॥ ल णके यह ीकृ तसूचक नपुणतायु वचन सुनकर पवनकु मार क पवर हनुमान् बड़े स ए। उ ने सु ीवक वजय स म मन लगाकर उस समय उन दोन भाइय के साथ उनक म ता करनेक इ ा क ॥ ३९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म तीसरा सग पूरा आ॥ ३॥ १. ाकरणके नयमानुकूल शु वाणीको सं ारस (सं ृ त) कहते ह। २. श ो ारणक शा ीय प रपाटीका नाम म है। ३. बना के धारा वाह पसे बोलना अ वल त कहलाता है।



चौथा सग ल णका हनुमा ीसे ीरामके वनम आने और सीताजीके हरे जानेका वृ ा बताना तथा इस कायम सु ीवके सहयोगक इ ा कट करना, हनुमा ीका उ आ ासन देकर उन दोन भाइय को अपने साथ ले जाना



ीरामजीक बात सुनकर तथा सु ीवके वषयम उनका सौ भाव जानकर और साथ ही यह समझकर क इ भी सु ीवसे को◌इ आव क काम है, हनुमा ीको बड़ी स ता ◌इ। उ ने मन-ही-मन सु ीवका रण कया॥ १ ॥ ‘अब अव ही महामना सु ीवको रा क ा होनेवाली है; क ये महानुभाव कसी काय या योजनसे यहाँ आये ह और यह काय सु ीवके ही ारा स होनेवाला है॥ २ ॥



त ात् बातचीतम कु शल वानर े हनुमा ी अ हषम भरकर ीरामच जीसे बोले—॥ ३ ॥ ‘प ा-तटवत काननसे सुशो भत यह वन भयंकर और दुगम है। इसम नाना कारके हसक ज ु नवास करते ह। आप अपने छोटे भा◌इके साथ यहाँ कस लये आये ह?’॥ ४ ॥ हनुमा ीका यह वचन सुनकर ीरामक आ ासे ल णने दशरथन न महा ा ीरामका इस कार प रचय देना आर कया—॥ ५ ॥ ‘ व न्! इस पृ ीपर दशरथ नामसे स जो धमानुरागी तेज ी राजा थे, वे सदा ही अपने धमके अनुसार चार वण क जाका पालन करते थे॥ ६ ॥ ‘इस भूतलपर उनसे ेष रखनेवाला को◌इ नह था और वे भी कसीसे ेष नह रखते थे। वे सम ा णय पर दूसरे ाजीके समान ेह रखते थे॥ ७ ॥ ‘उ ने पया द णावाले अ ोम आ द य का अनु ान कया था। ये उ महाराजके े पु ह। लोग इ ीराम कहते ह॥ ८ ॥ ‘ये सब ा णय को शरण देनेवाले और पताक आ ाका पालन करनेवाले ह। महाराज दशरथके चार पु म ये सबसे अ धक गुणवान् ह॥ ९ ॥



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राजाके उ म ल ण से स ह। जब इ रा -स से संयु कया जा रहा था, उस समय कु छ ऐसा कारण आ पड़ा, जससे ये रा से व त हो गये और वनम नवास करनेके लये मेरे साथ यहाँ आ गये॥ १० ॥ ‘महाभाग! जैसे दनका य होनेपर सायंकाल महातेज ी सूय अपने भाके साथ अ ाचलको जाते ह, उसी कार ये जते य ीरघुनाथजी अपनी प ी सीताके साथ वनम आये थे॥ ११ ॥ ‘म इनका छोटा भा◌इ ँ । मेरा नाम ल ण है। म अपने कृ त और ब भा◌इके गुण से आकृ होकर इनका दास हो गया ँ ॥ १२ ॥ ‘स ूण भूत के हतम मन लगानेवाले, सुख भोगनेके यो , महापु ष ारा पूजनीय, ऐ यसे हीन तथा वनवासम त र मेरे भा◌इक प ीको इ ानुसार प धारण करनेवाले एक रा सने सूने आ मसे हर लया। जसने इनक प ीका हरण कया है, वह रा स कौन है और कहाँ रहता है? इ ा द बात का ठीक-ठीक पता नह लग रहा है॥ १३-१४ ॥ ‘दनु नामक एक दै था, जो शापसे रा सभावको ा आ था। उसने सु ीवका नाम बताया और कहा— ‘वानरराज सु ीव साम शाली और महान् परा मी ह। वे आपक प ीका अपहरण करनेवाले रा सका पता लगा दगे।’ ऐसा कहकर तेजसे का शत होता आ दनु गलोकम प ँ चनेके लये आकाशम उड़ गया॥ ‘आपके के अनुसार मने सब बात ठीक-ठीक बता द । म और ीराम दोन ही सु ीवक शरणम आये ह॥ १७ ॥ ‘ये पहले ब त-से धन-वैभवका दान करके परम उ म यश ा कर चुके ह। जो पूवकालम स ूण जग े नाथ (संर क) थे, वे आज सु ीवको अपना र क बनाना चाहते ह॥ १८ ॥ ‘सीता जनक पु वधू है, जो शरणागतपालक और धमव ल रहे ह, उ महाराज दशरथके पु शरणदाता ीराम आज सु ीवक शरणम आये ह॥ १९ ॥ ‘जो मेरे धमा ा बड़े भा◌इ ीरघुनाथजी पहले स ूण जग ो शरण देनेवाले तथा शरणागतव ल रहे ह, वे इस समय सु ीवक शरणम आये ह॥ २० ॥ ‘ जनके स होनेपर सदा यह सारी जा स तासे खल उठती थी, वे ही ीराम आज वानरराज सु ीवक स ता चाहते ह॥ २१ ॥



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राजा दशरथने सदा अपने यहाँ आये ए भूम लके सवस णु स सम राजा का नर र स ान कया, उ के ये भुवन व ात े पु ीराम आज वानरराज सु ीवक शरणम आये ह॥ ‘ ीराम शोकसे अ भभूत और आत होकर शरणम आये ह। यूथप तय स हत सु ीवको इनपर कृ पा करनी चा हये॥’॥ २४ ॥ ने से आँ सू बहाकर क णाजनक रम ऐसी बात कहते ए सु म ाकु मार ल णसे कु शल व ा हनुमा ीने इस कार कहा—॥ २५ ॥ ‘राजकु मारो! वानरराज सु ीवको आप-जैसे बु मान्, ोध वजयी और जते य पु ष से मलनेक आव कता थी। सौभा क बात है क आपने यं ही दशन दे दया॥ २६ ॥ ‘वे भी रा



से ह। वालीके साथ उनक श ुता हो गयी है। उनक ीका भी वालीने ही अपहरण कर लया है तथा उस दु भा◌इने उ घरसे नकाल दया है, इस लये वे अ भयभीत होकर वनम नवास करते ह॥ २७ ॥ ‘सूयन न सु ीव सीताका पता लगानेम हमारे साथ यं रहकर आप दोन क पूण सहायता करगे’॥ २८ ॥ ऐसा कहकर हनुमा ीने ीरघुनाथजीसे मधुर वाणीम कहा—‘अ ा, अब हमलोग सु ीवके पास चल’॥ २९ ॥ उस समय धमा ा ल णने उपयु बात कहनेवाले हनुमा ीका यथो चत स ान कया और ीरामच जीसे कहा—॥ ३० ॥ ‘भैया रघुन न! ये वानर े पवनकु मार हनुमान् अ हषसे भरकर जैसी बात कह रहे ह, उससे जान पड़ता है क सु ीवको भी आपसे कु छ काम है। ऐसी दशाम आप अपना काय स आ ही समझ॥ ३१ ॥ ‘इनके मुखक का त: स दखायी देती है और ये हषसे उ ु होकर बातचीत करते ह। अत: मेरा व ास है क पवनपु वीर हनुमा ी झूठ नह बोलगे’॥ ३२ ॥ तदन र परम बु मान् पवनपु हनुमा ी उन दोन रघुवंशी वीर को साथ ले सु ीवसे मलनेके लये चले॥ ३३ ॥



क पवर हनुमा े भ ु पको ागकर वानर प धारण कर लया। वे उन दोन वीर को पीठपर बठाकर वहाँसे चल दये॥ ३४ ॥ महान् यश ी तथा शुभ वचारवाले महापरा मी वे क पवीर पवनकु मार कृ तकृ -से होकर अ हषम भर गये और ीराम-ल णके साथ ग रवर ऋ मूकपर जा प ँ चे॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म चौथा सग पूरा आ॥ ४॥



पाँचवाँ सग ीराम और सु ीवक मै ी तथा ीराम ारा वा लवधक



त ा



ीराम और ल णको ऋ मूक पवतपर सु ीवके वास- ानम बठाकर हनुमा ी वहाँसे मलयपवतपर गये (जो ऋ मूकका ही एक शखर है) और वहाँ वानरराज सु ीवको उन दोन रघुवंशी वीर का प रचय देते ए इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘महा ा ! जनका परा म अ ढ़ और अमोघ है, वे ीरामच जी अपने भा◌इ ल णके साथ पधारे ह॥ २ ॥ ‘इन ीरामका आ वभाव इ ाकु कु लम आ है। ये महाराज दशरथके पु ह और धमपालनके लये संसारम व ात ह। अपने पताक आ ाका पालन करनेके लये इस वनम इनका आगमन आ है॥ ३ ॥ ‘ ज ने राजसूय और अ मेध-य का अनु ान करके अ देवको तृ कया था, ा ण को ब त-सी द णाएँ बाँटी थ और लाख गौएँ दानम दी थ । ज ने स भाषणपूवक तपके ारा वसुधाका पालन कया था, उ महाराज दशरथके पु ये ीराम पता ारा अपनी प ी कै के यीके लये दये ए वरका पालन करनेके न म इस वनम आये ह॥ ४-५ ॥ ‘महा ा ीराम मु नय क भाँ त नयमका पालन करते ए द कार म नवास करते थे। एक दन रावणने आकर सूने आ मसे इनक प ी सीताका अपहरण कर लया। उ क खोजम आपसे सहायता लेनेके लये ये आपक शरणम आये ह॥ ६ ॥ ‘ये दोन भा◌इ ीराम और ल ण आपसे म ता करना चाहते ह। आप चलकर इ अपनाव और इनका यथो चत स ार कर; क ये दोन ही वीर हमलोग के लये परम पूजनीय ह’॥ ७ ॥ हनुमा ीका यह वचन सुनकर वानरराज सु ीव े ासे अ दशनीय प धारण करके ीरघुनाथजीके पास आये और बड़े ेमसे बोले—॥ ८ ॥ ‘ भो! आप धमके वषयम भलीभाँ त सु श त, परम तप ी और सबपर दया करनेवाले ह। पवनकु मार हनुमा ीने मुझसे आपके यथाथ गुण का वणन कया है॥ ९ ॥



‘भगवन्! म वानर



ँ और आप नर। मेरे साथ जो आप मै ी करना चाहते ह, इसम मेरा ही स ार है और मुझे ही उ म लाभ ा हो रहा है॥ १० ॥ ‘य द मेरी मै ी आपको पसंद हो तो मेरा यह हाथ फै ला आ है। आप इसे अपने हाथम ले ल और पर र मै ीका अटूट स बना रहे—इसके लये र मयादा बाँध द’॥ ११ ॥ सु ीवका यह सु र वचन सुनकर भगवान् ीरामका च स हो गया। उ ने अपने हाथसे उनका हाथ पकड़कर दबाया और सौहादका आ य ले बड़े हषके साथ शोकपी ड़त सु ीवको छातीसे लगा लया॥ १२ १/२ ॥ (सु ीवके पास जानेसे पूव हनुमा ीने पुन: भ ु प धारण कर लया था।) ीरामसु ीवक मै ीके समय श ुदमन हनुमा ीने भ ु पको ागकर अपना ाभा वक प धारण कर लया और दो लक ड़य को रगड़कर आग पैदा क ॥ १३ १/२ ॥ त ात् उस अ को लत करके उ ने फू ल ारा अ देवका सादर पूजन कया; फर एका च हो ीराम और सु ीवके बीचम सा ीके पम उस अ को स तापूवक ा पत कर दया॥ १४ १/२ ॥ इसके बाद सु ीव और ीरामच जीने उस लत अ क द णा क और दोन एक-दूसरेके म बन गये॥ १५ १/२ ॥ इससे उन वानरराज तथा ीरघुनाथजी दोन के दयम बड़ी स ता ◌इ। वे एकदूसरेक ओर देखते ए तृ नह होते थे॥ १६ १/२ ॥ उस समय सु ीवने ीरामच जीसे स तापूवक कहा—‘आप मेरे य म ह। आजसे हम दोन का दु:ख और सुख एक है’॥ १७ १/२ ॥ यह कहकर सु ीवने अ धक प े और फू ल वाली शाल वृ क एक शाखा तोड़ी और उसे बछाकर वे ीरामच जीके साथ उसपर बैठे॥ १८ १/२ ॥ तदन र पवनपु हनुमा े अ स हो च न-वृ क एक डाली, जसम ब त-से फू ल लगे ए थे, तोड़कर ल णको बैठनेके लये दी॥ १९ १/२ ॥ इसके बाद हषसे भरे ए सु ीवने जनके ने हषसे खल उठे थे, उस समय भगवान् ीरामसे मधुर वाणीम कहा—॥ २० १/२ ॥



ीराम! म घरसे नकाल दया गया ँ और भयसे पी ड़त होकर यहाँ वचरता ँ । मेरी प ी भी मुझसे छीन ली गयी। मने आत त होकर वनम इस दुगम पवतका आ य लया है॥ २१ १/२ ॥ ‘रघुन न! मेरे बड़े भा◌इ वालीने मुझे घरसे नकालकर मेरे साथ वैर बाँध लया है। उसीके ास और भयसे उद् ा च होकर म इस वनम नवास करता ँ ॥ २२ १/२ ॥ ‘महाभाग! वालीके भयसे पी ड़त ए मुझ सेवकको आप अभय-दान दी जये। काकु ! आपको ऐसा करना चा हये, जससे मेरे लये कसी कारका भय न रह जाय’॥ २३ १/२ ॥ सु ीवके ऐसा कहनेपर धमके ाता, धमव ल, ककु कु लभूषण तेज ी ीरामने हँ सते ए-से वहाँ सु ीवको इस कार उ र दया—॥ २४ १/२ ॥ ‘महाकपे! मुझे मालूम है क म उपकार पी फल देनेवाला होता है। म तु ारी प ीका अपहरण करनेवाले वालीका वध कर दूँगा॥ २५ १/२ ॥ ‘मेरे तूणीरम संगृहीत ए ये सूयतु तेज ी बाण अमोघ ह—इनका वार खाली नह जाता। ये बड़े वेगशाली ह। इनम कं क प ीके पर के पंख लगे ए ह, जनसे ये आ ा दत ह। इनके अ भाग बड़े तीखे ह और गाँठ भी सीधी ह। ये रोषम भरे ए सप के समान छू टते ह और इ के व क भाँ त भयंकर चोट करते ह। उस दुराचारी वालीपर मेरे ये बाण अव गरगे॥ २६-२७ १/२ ॥ ‘आज देखना, म अपने वषधर सप के समान तीखे बाण से मारकर वालीको पृ ीपर गरा दूँगा। वह इ के व से टूट-फू टकर गरे ए पवतके समान दखायी देगा’॥ २८ १/२ ॥ अपने लये परम हतकर वह ीरघुनाथजीका वचन सुनकर सु ीवको बड़ी स ता ◌इ। वे उ म वाणीम बोले—॥ २९ ॥ ‘वीर! पु ष सह! म आपक कृ पासे अपनी ारी प ी तथा रा को ा कर सकूँ , ऐसा य क जये। नरदेव! मेरा बड़ा भा◌इ वैरी हो गया है। आप उसक ऐसी अव ा कर द जससे वह फर मुझे मार न सके ’॥ ३० ॥ सु ीव और ीरामक इस ेमपूण मै ीके स म सीताके फु कमल-जैसे, क पराज वालीके सुवण-जैसे तथा नशाचर के लत अ -जैसे बाय ने एक साथ ही फड़कने लगे॥ ३१ ॥ ‘



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क आ॥ ५॥



ाका म पाँचवाँ सग पूरा



छठा सग सु ीवका ीरामको सीताजीके आभूषण दखाना तथा ीरामका शोक एवं रोषपूण वचन



सु ीवने पुन: स तापूवक रघुकुलन न ीरामच जीसे कहा—‘ ीराम! मेरे म य म े स चव ये हनुमा ी आपके वषयम वह सारा वृ ा बता चुके ह, जसके कारण आपको इस नजन वनम आना पड़ा है॥ १ १/२ ॥ ‘अपने भा◌इ ल णके साथ जब आप वनम नवास करते थे, उस समय रा स रावणने आपक प ी म थलेशकु मारी जनकन नी सीताको हर लया। उस वेलाम आप उनसे अलग थे और बु मान् ल ण भी उ अके ली छोड़कर चले गये थे। रा स इसी अवसरक ती ाम था। उसने गीध जटायुका वध करके रोती ◌इ सीताका अपहरण कया है। इस कार उस रा सने आपको प ी- वयोगके क म डाल दया है॥ २—४ ॥ ‘परंतु इस प ी- वयोगके दु:खसे आप शी ही मु हो जायँगे। म रा स ारा हरी गयी वेदवाणीके समान आपक प ीको वापस ला दूँगा॥ ५ ॥ ‘श ुदमन ीराम! आपक भाया सीता पातालम ह या आकाशम, म उ ढूँ ढ़ लाकर आपक सेवाम सम पत कर दूँगा॥ ६ ॥ ‘रघुन न! आप मेरी इस बातको स मान। महाबाहो! आपक प ी जहर मलाये ए भोजनक भाँ त दूसर के लये अ ा है। इ स हत स ूण देवता और असुर भी उ पचा नह सकते। आप शोक ाग दी जये। म आपक ाणव भाको अव ला दूँगा॥ ७ ॥ ‘एक दन मने देखा, भयंकर कम करनेवाला को◌इ रा स कसी ीको लये जा रहा है। म अनुमानसे समझता ँ , वे म थलेशकु मारी सीता ही रही ह गी, इसम संशय नह है; क वे टूटे ए रम ‘हा राम! हा राम! हा ल ण!’ पुकारती ◌इ रो रही थ तथा रावणक गोदम नागराजक वधू (ना गन) क भाँ त छटपटाती ◌इ का शत हो रही थ ॥ ८—१० ॥ ‘चार म य स हत पाँचवाँ म इस शैल- शखरपर बैठा आ था। मुझे देखकर देवी सीताने अपनी चादर और क◌इ सु र आभूषण ऊपरसे गराये॥ ११ ॥ ‘रघुन न! वे सब व ुएँ हमलोग ने लेकर रख ली ह। म अभी उ लाता ँ , आप उ पहचान सकते ह’॥ १२ ॥



तब ीरामने यह य संवाद सुनानेवाले सु ीवसे कहा—‘सखे! शी ले आओ, वल करते हो?’॥ १३ ॥ उनके ऐसा कहनेपर सु ीव शी ही ीरामच जीका य करनेक इ ासे पवतक एक गहन गुफाम गये और चादर तथा वे आभूषण लेकर नकल आये। बाहर आकर वानरराजने ‘ली जये, यह दे खये’ ऐसा कहकर ीरामको वे सारे आभूषण दखाये॥ १४-१५ ॥ उन व और सु र आभूषण को लेकर ीरामच जी कु हासेसे ढके ए च माक भाँ त आँ सु से अव हो गये॥ १६ ॥ सीताके ेहवश बहते ए आँ सु से उनका मुख और व : ल भीगने लगे। वे ‘हा ये!’ ऐसा कहकर रोने लगे और धैय छोड़कर पृ ीपर गर पड़े॥ १७ ॥ उन उ म आभूषण को बार ार दयसे लगाकर वे बलम बैठे ए रोषम भरे सपक भाँ त जोर-जोरसे साँस लेने लगे॥ १८ ॥ उनके आँ सु का वेग कता ही नह था। अपने पास खड़े ए सु म ाकु मार ल णक ओर देखकर ीराम दीनभावसे वलाप करते ए बोले—॥ १९ ॥ ‘ल ण! देखो, रा सके ारा हरी जाती ◌इ वदेहन नी सीताने यह चादर और ये गहने अपने शरीरसे उतारकर पृ ीपर डाल दये थे॥ २० ॥ ‘ नशाचरके ारा अप त होती ◌इ सीताके ारा ागे गये ये आभूषण न य ही घासवाली भू मपर गरे ह गे; क इनका प -का- दखायी देता है—ये टूटे-फू टे नह ह’॥ २१ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर ल ण बोले—‘भैया! म इन बाजूबंद को तो नह जानता और न इन कु ल को ही समझ पाता ँ क कसके ह; परंतु त दन भाभीके चरण म णाम करनेके कारण म इन दोन नूपुर को अव पहचानता ँ ’॥ २२ १/२ ॥ तब ीरघुनाथजी सु ीवसे इस कार बोले— ‘सु ीव! तुमने तो देखा है, वह भयंकर पधारी रा स मेरी ाण ारी सीताको कस दशाक ओर ले गया है, यह बताओ॥ २३-२४ ॥ ‘मुझे महान्



संकट देनेवाला वह रा स कहाँ रहता है? म के वल उसीके अपराधके कारण सम रा स का वनाश कर डालूँगा॥ २५ ॥



‘उस रा



सने मै थलीका अपहरण करके मेरा रोष बढ़ाकर न य ही अपने जीवनका अ करनेके लये मौतका दरवाजा खोल दया है॥ २६ ॥ ‘वानरराज! जस नशाचरने मुझे धोखेम डालकर मेरा अपमान करके मेरी यतमाका वनसे अपहरण कया है, वह मेरा घोर श ु है। तुम उसका पता बताओ। म अभी उसे यमराजके पास प ँ चाता ँ ’॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म छठा सग पूरा आ॥ ६॥



सातवाँ सग सु ीवका ीरामको समझाना तथा ीरामका सु ीवको उनक काय स दलाना



का व ास



ीरामने शोकसे पी ड़त होकर जब ऐसी बात कह , तब वानरराज सु ीवक आँ ख म आँ सू भर आये और वे हाथ जोड़कर अ ुग द क से इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘ भो! नीच कु लम उ ए उस पापा ा रा सका गु नवास ान कहाँ है, उसम कतनी श है, उसका परा म कै सा है अथवा वह कस वंशका है—इन सब बात को म सवथा नह जानता॥ २ ॥ ‘परंतु आपके सामने स ी त ा करके कहता ँ क म ऐसा य क ँ गा क जससे म थलेशकु मारी सीता आपको मल जायँ, इस लये श ुदमन वीर! आप शोकका ाग कर॥ ३ ॥ ‘म आपके संतोषके ँ गा, जससे आप शी



लये सै नक स हत रावणका वध करके अपना ऐसा पु षाथ कट क ही स हो जायँगे॥ ४ ॥ ‘इस तरह मनम ाकु लता लाना थ है। आपके दयम ाभा वक पसे जो धैय है, उसका रण क जये। इस तरह बु और वचारको हलका बना देना—उसक सहज ग ीरताको खो देना आप-जैसे महापु ष के लये उ चत नह है॥ ५ ॥ ‘मुझे भी प ीके वरहका महान् क ा आ है, परंतु म इस तरह शोक नह करता और न धैयको ही छोड़ता ँ ॥ ६ ॥ ‘य प म एक साधारण वानर ँ तथा प अपनी प ीके लये नर र शोक नह करता ँ । फर आप-जैसे महा ा, सु श त और धैयवान् महापु ष शोक न कर—इसके लये तो कहना ही ा है॥ ७ ॥ ‘आपको चा हये क धैय धारण करके इन गरते ए आँ सु को रोक। सा ्वक पु ष क मयादा और धैयका प र ाग न कर॥ ८ ॥ ‘(आ ीयजन के वयोग आ दसे होनेवाले) शोकम, आ थक संकटम अथवा ाणा कारी भय उप त होनेपर जो अपनी बु से दु:ख- नवारणके उपायका वचार करते



ए धैय धारण करता है, वह क नह भोगता है॥ ९ ॥ ‘जो मूढ़ मानव सदा घबराहटम ही पड़ा रहता है, वह पानीम भारसे दबी ◌इ नौकाके समान शोकम ववश होकर डू ब जाता है॥ १० ॥ ‘म हाथ जोड़ता ँ । ेमपूवक अनुरोध करता ँ क आप स ह और पु षाथका आ य ल। शोकको अपने ऊपर भाव डालनेका अवसर न द॥ ११ ॥ ‘जो शोकका अनुसरण करते ह, उ सुख नह मलता है और उनका तेज भी ीण हो जाता है; अत: आप शोक न कर॥ १२ ॥ ‘राजे ! शोकसे आ ा ए मनु के जीवनम (उसके ाण क र ाम) भी संशय उप त हो जाता है। इस लये आप शोकको ाग द और के वल धैयका आ य ल॥ १३ ॥ ‘म म ताके नाते हतक सलाह देता ँ । आपको उपदेश नह दे रहा ँ । आप मेरी मै ीका आदर करते ए कदा प शोक न कर’॥ १४ ॥ सु ीवने जब मधुर वाणीम इस कार सा ना दी, तब ीरघुनाथजीने आँ सु से भीगे ए अपने मुखको व के छोरसे प छ लया॥ १५ ॥ सु ीवके वचनसे शोकका प र ाग करके च हो ककु कु लभूषण भगवान् ीरामने म वर सु ीवको दयसे लगा लया और इस कार कहा—॥ १६ ॥ ‘सु ीव! एक ेही और हतैषी म को जो कु छ करना चा हये, वही तुमने कया है। तु ारा काय सवथा उ चत और तु ारे यो है॥ १७ ॥ ‘सखे! तु ारे आ ासनसे मेरी सारी च ा जाती रही। अब म पूण ँ । तु ारे-जैसे ब ुका वशेषत: ऐसे संकटके समय मलना क ठन होता है॥ ‘परंतु तु म थलेशकु मारी सीता तथा रौ पधारी दुरा ा रा स रावणका पता लगानेके लये य करना चा हये॥ १९ ॥ ‘साथ ही मुझे भी इस समय तु ारे लये जो कु छ करना आव क हो, उसे बना कसी स ोचके बताओ। जैसे वषाकालम अ े खेतम बोया आ बीज अव फल देता है, उसी कार तु ारा सारा मनोरथ सफल होगा॥ २० ॥ ‘वानर े ! मने जो अ भमानपूवक यह वालीके वध आ द करनेक बात कही है, इसे तुम ठीक ही समझो॥ २१ ॥



‘मने पहले भी कभी झूठी बात नह कही है और भ व म भी कभी अस इस समय जो कु छ कहा है, उसे पूण करनेके लये त ा करता ँ और तु व



नह बोलूँगा। ास दलानेके



लये स क ही शपथ खाता ँ ’॥ २२ ॥ ीरघुनाथजीक बात, वशेषत: उनक त ा सुनकर अपने वानर-म य स हत सु ीवको बड़ी स ता ◌इ॥ २३ ॥ इस कार एका म एक-दूसरेके नकट बैठे ए वे दोन नर और वानर ( ीराम और सु ीव) ने पर र सुख और दु:खक बात कह , जो एक-दूसरेके लये अनु प थ ॥ २४ ॥ राजा धराज महाराज ीरघुनाथजीक बात सुनकर वानर वीर के धान व ान् सु ीवने उस समय मन-ही-मन अपने कायको स आ ही माना॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म सातवाँ सग पूरा आ॥ ७॥



आठवाँ सग सु ीवका ीरामसे अपना द:ु ख नवेदन करना और ीरामका उ आ ासन देते ए दोन भाइय म वैर होनेका कारण पूछना



ीरामच जीक उस बातसे सु ीवको बड़ा संतोष आ। वे हषसे भरकर ल णके बड़े भा◌इ शूरवीर ीरामच जीसे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘भगवन्! इसम संदेह नह क देवता क मेरे ऊपर बड़ी कृ पा है—म सवथा उनके अनु हका पा ँ ; क आप-जैसे गुणवान् महापु ष मेरे सखा हो गये॥ ‘ भो! न ाप ीराम! आप-जैसे सहायकके सहयोगसे तो देवता का रा भी अव ही ा कया जा सकता है; फर अपने खोये ए रा को पाना कौन बड़ी बात है॥ ३ ॥ ‘रघुन न! अब म अपने ब ु और सु द के वशेष स ानका पा हो गया; क आज रघुवंशके राजकु मार आप अ को सा ी बनाकर मुझे म के पम ा ए ह॥ ४ ॥ ‘म भी आपके यो म ँ । इसका ान आपको धीरे-धीरे हो जायगा। इस समय आपके सामने म अपने गुण का वणन करनेम असमथ ँ ॥ ५ ॥ ‘आ ा नय म े ीराम! आप-जैसे पु ा ा महा ा का ेम और धैय अ धका धक बढ़ता और अ वचल होता है॥ ६ ॥ ‘अ े भाववाले म अपने घरके सोने-चाँदी अथवा उ म आभूषण को अपने अ े म के लये अ वभ ही मानते ह—उन म का अपने धनपर अपने ही समान अ धकार समझते ह॥ ७ ॥ ‘अतएव म धनी हो या द र , सुखी हो या दु:खी अथवा नद ष हो या सदोष, वह म के लये सबसे बड़ा सहायक होता है॥ ८ ॥ ‘अनघ! साधुपु ष अपने म का अ उ ृ ेम देख आव कता पड़नेपर उसके लये धन, सुख और देशका भी प र ाग कर देते ह’॥ ९ ॥ यह सुनकर ल ी ( द का ) से उपल त ीरामच जीने इ तु तेज ी बु मान् ल णके सामने ही य वचन बोलनेवाले सु ीवसे कहा—‘सखे! तु ारी बात बलकु ल ठीक है’॥ १० ॥



तदन र (दूसरे दन) महाबली ीराम और ल णको खड़ा देख सु ीवने वनम चार ओर अपनी च ल दौड़ायी॥ ११ ॥ उस समय वानरराजने पास ही एक सालका वृ देखा, जसम थोड़ेसे ही सु र पु लगे ए थे; परंतु उसम प क ब लता थी। उस वृ पर मँडराते ए भ रे उसक शोभा बढ़ा रहे थे॥ १२ ॥ उसक एक डालीको जसम अ धक प े थे और जो पु से सुशो भत थी, सु ीवने तोड़ डाला और उसे ीरामके लये बछाकर वे यं भी उनके साथ ही उसपर बैठ गये॥ १३ ॥ उन दोन को आसनपर वराजमान देख हनुमा ीने भी सालक एक डाल तोड़ डाली और उसपर वनयशील ल णको बैठाया॥ १४ ॥ उस े पवतपर, जहाँ सब ओर सालके पु बखरे ए थे, सुखपूवक बैठे ए ीराम शा समु के समान स दखायी देते थे। उ देखकर अ हषसे भरे ए सु ीवने ीरामसे एवं सु र वाणीम वातालाप आर कया। उस समय आन ा तरेकसे उनक वाणी लड़खड़ा जाती थी—अ र का उ ारण नह हो पाता था॥ १५-१६ ॥ ‘ भो! मेरे भा◌इने मुझे घरसे नकालकर मेरी ीको भी छीन लया है। म उसीके भयसे अ पी ड़त एवं दु:खी होकर इस पवत े ऋ मूकपर वचरता रहता ँ ॥ १७ ॥ ‘मुझे बराबर उसका ास बना रहता है। म भयम डू बा रहकर ा च हो इस वनम भटकता फरता ँ । रघुन न! मेरे भा◌इ वालीने मुझे घरसे नकालनेके बाद भी मेरे साथ वैर बाँध रखा है॥ १८ ॥ ‘ भो! आप सम लोक को अभय देनेवाले ह। म वालीके भयसे दु:खी और अनाथ ँ , अत: आपको मुझपर भी कृ पा करनी चा हये’॥ १९ ॥ सु ीवके ऐसा कहनेपर तेज ी, धम एवं धमव ल भगवान् ीरामने उ हँ सते ए-से इस कार उ र दया—॥ २० ॥ ‘सखे! उपकार ही म ताका फल है और अपकार श ुताका ल ण है; अत: म आज ही तु ारी ीका अपहरण करनेवाले उस वालीका वध क ँ गा॥ २१ ॥ ‘महाभाग! मेरे इन बाण का तेज च है। सुवणभू षत ये शर का तके यक उ के ानभूत शर के वनम उ ए ह। (इस लये अभे ह)॥ २२ ॥



‘ये कं कप



ीके पर से यु ह और इ के व क भाँ त अमोघ ह। इनक गाँठ सु र और अ भाग तीखे ह। ये रोषम भरे भुज क भाँ त भयंकर ह॥ २३ ॥ ‘इन बाण से तुम अपने वाली नामक श ुको, जो भा◌इ होकर भी तु ारी बुरा◌इ कर रहा है, वदीण ए पवतक भाँ त मरकर पृ ीपर पड़ा देखोगे’॥ २४ ॥ ीरघुनाथजीक यह बात सुनकर वानरसेनाप त सु ीवको अनुपम स ता ा ◌इ और वे उ बारंबार साधुवाद देते ए बोले—॥ २५ ॥ ‘ ीराम! म शोकसे पी ड़त ँ और आप शोकाकु ल ा णय क परमग त ह। म समझकर म आपसे अपना दु:ख नवेदन करता ँ ॥ २६ ॥ ‘मने आपके हाथम हाथ देकर अ देवके सामने आपको अपना म बनाया है। इस लये आप मुझे अपने ाण से भी बढ़कर य ह। यह बात म स क शपथ खाकर कहता ँ ॥ २७ ॥ ‘आप



मेरे म ह, इस लये आपपर पूण व ास करके म अपने भीतरका दु:ख, जो सदा मेरे मनको ाकु ल कये रहता है, आपको बता रहा ँ ’॥ २८ ॥ इतनी बात कहते-कहते सु ीवके ने म आँ सू भर आये। उनक वाणी अ ुग द हो गयी। इस लये वे उ रसे बोलनेम समथ न हो सके ॥ २९ ॥ त ात् सु ीवने सहसा बढ़े ए नदीके वेगके समान उमड़े ए आँ सु के वेगको ीरामके समीप धैयपूवक रोका॥ ३० ॥ आँ सु को रोककर अपने दोन सु र ने को प छनेके प ात् तेज ी सु ीव पुन: लंबी साँस ख चकर ीरघुनाथजीसे बोले—॥ ३१ ॥ ‘ ीराम! पहलेक बात है, ब ल वालीने कटुवचन सुनाकर बलपूवक मेरा तर ार कया और अपने रा (युवराजपद) से नीचे उतार दया॥ ३२ ॥ ‘इतना ही नह , मेरी ीको भी, जो मुझे ाण से भी अ धक य है; उसने छीन लया और जतने मेरे सु द् थे, उन सबको कै दम डाल दया॥ ३३ ॥ ‘रघुन न! इसके बाद भी वह दुरा ा वाली मेरे वनाशके लये य करता रहता है। उसके भेजे ए ब त-से वानर का म वध कर चुका ँ ॥ ३४ ॥



‘रघुनाथजी!



आपको भी देखकर मेरे मनम ऐसा ही संदेह आ था, इसी लये डर जानेके कारण म पहले आपके पास न आ सका; क भयका अवसर आनेपर ाय: सभी डर जाते ह॥ ३५ ॥ ‘के वल ये हनुमान् आ द वानर ही मेरे सहायक ह; अतएव महान् संकटम पड़कर भी म अबतक ाण धारण करता ँ ॥ ३६ ॥ ‘इन लोग का मुझपर ेह है, अत: ये सभी वानर सब ओरसे सदा मेरी र ा करते रहते ह। जहाँ जाना होता है वहाँ साथ-साथ जाते ह और जब कह म ठहर जाता ँ वहाँ ये न मेरे साथ रहते ह॥ ३७ ॥ ‘रघुन न! यह मने सं ेपसे अपनी हालत बतलायी है। आपके सामने व ारपूवक कहनेसे ा लाभ? वाली मेरा े भा◌इ है, फर भी इस समय मेरा श ु हो गया है। उसका परा म सव व ात है॥ ३८ ॥ ‘(य प भा◌इका नाश भी दु:खका ही कारण है, तथा प) इस समय जो मेरा दु:ख है, वह उसका नाश होनेपर ही मट सकता है। मेरा सुख और जीवन उसके वनाशपर ही नभर है॥ ३९ ॥



ीराम! यही मेरे शोकके नाशका उपाय है। मने शोकसे पी ड़त होनेके कारण आपसे यह बात नवेदन क है; क म दु:खम हो या सुखम, वह अपने म क सदा ही सहायता करता है’॥ ४० ॥ यह सुनकर ीरामने सु ीवसे कहा—‘तुम दोन भाइय म वैर पड़नेका ा कारण है, यह म ठीक-ठीक सुनना चाहता ँ ॥ ४१ ॥ ‘वानरराज! तुमलोग क श ुताका कारण सुनकर तुम दोन क बलता और नबलताका न य करके फर त ाल ही तु सुखी बनानेवाला उपाय क ँ गा॥ ४२ ॥ ‘जैसे वषाकालम नदी आ दका वेग ब त बढ़ जाता है, उसी कार तु ारे अपमा नत होनेक बात सुनकर मेरा बल रोष बढ़ता जा रहा है और मेरे दयको क त कये देता है॥ ४३ ‘



॥ ‘मेरे धनुष चढ़ानेके पहले ही तुम अपनी सब बात स तापूवक कह डालो; ही मने बाण छोड़ा, तु ारा श ु त ाल कालके गालम चला जायगा’॥ ४४ ॥







महा ा ीरामच जीके ऐसा कहनेपर सु ीवको अपने चार वानर के साथ अपार हष आ॥ ४५ ॥ तदन र सु ीवके मुखपर स ता छा गयी और उ ने ीरामको वालीके साथ वैर होनेका यथाथ कारण बताना आर कया॥ ४६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म आठवाँ सग पूरा आ॥ ८॥



नवाँ सग सु ीवका ीरामच जीको वालीके साथ अपने वैर होनेका कारण बताना ‘रघुन



न! वाली मेरे बड़े भा◌इ ह। उनम श ु का संहार करनेक श है। मेरे पता ऋ रजा उनको ब त मानते थे। वैरसे पहले मेरे मनम भी उनके त आदरका भाव था॥ १ ॥ ‘ पताक मृ ुके प ात् म य ने उ े समझकर वानर का राजा बनाया। वे सबको बड़े य थे, इसी लये क ाके रा पर त त कये गये थे॥ २ ॥ ‘वे पता- पतामह के वशाल रा का शासन करने लगे और म हर समय वनीतभावसे दासक भाँ त उनक सेवाम रहने लगा॥ ३ ॥ ‘उन दन मायावी नामक एक तेज ी दानव रहता था, जो मय दानवका पु और दु ु भका बड़ा भा◌इ था। उसके साथ वालीका ीके कारण ब त बड़ा वैर हो गया था॥ ४ ॥ ‘एक दन आधी रातके समय जब सब लोग सो गये, मायावी क ापुरीके दरवाजेपर आया और ोधसे भरकर गजने तथा वालीको यु के लये ललकारने लगा॥ ५ ॥ ‘उस समय मेरे भा◌इ सो रहे थे। उसका भैरवनाद सुनकर उनक न द खुल गयी। उनसे उस रा सक ललकार सही नह गयी; अत: वे त ाल वेगपूवक घरसे नकले॥ ६ ॥ ‘जब वे ोध करके उस े असुरको मारनेके लये नकले, उस समय मने तथा अ :पुरक य ने पैर पड़कर उ जानेसे रोका॥ ७ ॥ ‘परंतु महाबली वाली हम सबको हटाकर नकल पड़े, तब म भी ेहवश वालीके साथ ही बाहर नकला॥ ८ ॥ ‘उस असुरने मेरे भा◌इको देखा तथा कु छ दूरपर खड़े ए मेरे ऊपर भी उसक पड़ी; फर तो वह भयसे थरा उठा और बड़े जोरसे भागा॥ ९ ॥ ‘उसके भयभीत होकर भागनेपर हम दोन भाइय ने बड़ी तेजीके साथ उसका पीछा कया। उस समय उ दत ए च माने हमारे मागको भी का शत कर दया था॥ १० ॥ ‘आगे जानेपर धरतीम एक ब त बड़ा बल था, जो घास-फू ससे ढका आ था। उसम वेश करना अ क ठन था। वह असुर बड़े वेगसे उस बलम जा घुसा। वहाँ प ँ चकर हम दोन ठहर गये॥ ११ ॥



‘श



कु ो बलके अंदर घुसा देख वालीके ोधक सीमा न रही। उनक सारी इ याँ ु हो उठ और वे मुझसे इस कार बोले—॥ १२ ॥ ‘सु ीव! जबतक म इस बलके भीतर वेश करके यु म श ुको मारता ँ , तबतक तुम आज इसके दरवाजेपर सावधानीसे खड़े रहो’॥ १३ ॥ ‘यह बात सुनकर मने श ु को संताप देनेवाले वालीसे यं भी साथ चलनेके लये ाथना क , कतु वे अपने चरण क सौग दलाकर अके ले ही बलम घुसे॥ १४ ॥ ‘ बलके भीतर गये ए उ एक सालसे अ धक समय बीत गया और बलके दरवाजेपर खड़े-खड़े मेरा भी उतना ही समय नकल गया॥ १५ ॥ ‘जब इतने दन तक मुझे भा◌इका दशन नह आ, तब मने समझा क मेरे भा◌इ इस गुफाम ही कह खो गये। उस समय ातृ ेहके कारण मेरा दय ाकु ल हो उठा। मेरे मनम उनके मारे जानेक श ा होने लगी॥ १६ ॥ ‘तदन र दीघकालके प ात् उस बलसे सहसा फे नस हत खूनक धारा नकली। उसे देखकर म ब त दु:खी हो गया॥ १७ ॥ ‘इतनेहीम गरजते ए असुर क आवाज भी मेरे कान म पड़ी। यु म लगे ए मेरे बड़े भा◌इ भी गरजना कर रहे थे, कतु उनक आवाज म नह सुन सका॥ १८ ॥ ‘इन सब च को देखकर बु ारा वचार करनेपर म इस न यपर प ँ चा क मेरे बड़े भा◌इ मारे गये। फर तो उस गुफाके दरवाजेपर मने पवतके समान एक प रक च ान रख दी और उसे बंद करके भा◌इको जला ल दे शोकसे ाकु ल आ म क ापुरीम लौट आया। सखे! य प म इस यथाथ बातको छपा रहा था, तथा प म य ने य करके सुन लया॥ १९-२० ॥ ‘तब उन सबने मलकर मुझे रा पर अ भ ष कर दया। रघुन न! म ायपूवक रा का संचालन करने लगा। इसी समय अपने श ुभूत उस दानवको मारकर वानरराज वाली घर लौटे। लौटनेपर मुझे रा पर अ भ ष आ देख उनक आँ ख ोधसे लाल हो गय ॥ २१-२२ ॥ ‘मेरे म य को उ ने कै द कर लया और उ कठोर बात सुनाय । रघुवीर! य प म यं भी उस पापीको कै द करनेम समथ था तो भी भा◌इके त गु भाव होनेके कारण मेरी बु म ऐसा वचार



नह आ॥ २३ १/२ ॥ ‘इस कार श ुका वध करके मेरे भा◌इने उस समय नगरम वेश कया। उन महा ाका स ान करते ए मने यथो चत पसे उनके चरण म म क कु ाया तो भी उ ने स च से मुझे आशीवाद नह दया॥ २४-२५ ॥ ‘ भो! मने भा◌इके सामने क ु कर अपने म कके मुकुटसे उनके दोन चरण का श कया तो भी ोधके कारण वाली मुझपर स नह ए’॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म नवाँ सग पूरा आ॥ ९॥



दसवाँ सग भा◌इके साथ वैरका कारण बतानेके स म सु ीवका वालीको मनाने और वाली ारा अपने न ा सत होनेका वृ ा सुनाना (सु



ीव कहते ह—) ‘तदन र ोधसे आ व तथा व ु होकर आये ए अपने बड़े भा◌इको उनके हतक कामनासे म पुन: स करनेक चे ा करने लगा॥ १ ॥ ‘मने कहा—‘अनाथन न! सौभा क बात है क आप सकु शल लौट आये और वह श ु आपके हाथसे मारा गया। म आपके बना अनाथ हो रहा था। अब एकमा आप ही मेरे नाथ ह॥ २ ॥ ‘‘यह ब त-सी ती लय से यु तथा उ दत ए पूण च माके समान ेत छ म आपके म कपर लगाता और चँवर डु लाता ँ । आप इ ीकार कर॥ ‘‘वानरराज! म ब त दु:खी होकर एक वषतक उस बलके दरवाजेपर खड़ा रहा। उसके बाद बलके भीतरसे खूनक धारा नकली। ारपर वह र देखकर मेरा दय शोकसे उ हो उठा और मेरी सारी इ याँ अ ाकु ल हो गय ॥ ४ १/२ ॥ ‘‘तब उस बलके ारको एक पवत- शखरसे ढककर म उस ानसे हट गया और पुन: क ापुरीम चला आया॥ ५ १/२ ॥ ‘‘यहाँ वषादपूवक मुझे अके ला लौटा देख पुरवा सय और म य ने ही इस रा पर मेरा अ भषेक कर दया। मने े ासे इस रा को नह हण कया है। अत: अ ानवश होनेवाले मेरे इस अपराधको आप मा कर॥ ६ १/२ ॥ ‘‘आप ही यहाँके स ाननीय राजा ह और म सदा आपका पूववत् सेवक ँ । आपके वयोगसे ही राजाके पदपर मेरी यह नयु क गयी॥ ७ १/२ ॥ ‘‘म य , पुरवा सय तथा नगरस हत आपका यह सारा अकं टक रा मेरे पास धरोहरके पम रखा था। अब इसे म आपक सेवाम लौटा रहा ँ ॥ ८ १/२ ॥ ‘‘सौ ! श ुसूदन! आप मुझपर ोध न कर। ‘राजन्! म इसके लये म क क ु ाकर ाथना करता ँ और हाथ जोड़ता ँ ॥ ९ १/२ ॥



‘‘म



य तथा पुरवा सय ने मलकर जबद ी मुझे इस रा पर बठाया है। वह भी इस लये क राजासे र हत रा देखकर को◌इ श ु इसे जीतनेक इ ासे आ मण न कर बैठे’’॥ १० १/२ ॥ ‘मने ये सारी बात बड़े ेमसे कही थ , कतु उस वानरने मुझे डाँटकर कहा—‘तुझे ध ार है’। य कहकर उसने मुझे और भी ब त-सी कठोर बात सुनाय ॥ ११ १/२ ॥ ‘त ात् उसने जाजन और स ा म य को बुलाया तथा सु द के बीचम मेरे त अ न त वचन कहा॥ १२ १/२ ॥ ‘वह बोला—‘आपलोग को मालूम होगा क एक दन रातम मेरे साथ यु करनेक इ ासे मायावी नामक महान् असुर यहाँ आया था। उसने ोधम भरकर पहले मुझे यु के लये ललकारा॥ १३ १/२ ॥ ‘‘उसक वह ललकार सुनकर म राजभवनसे नकल पड़ा। उस समय यह ू र भाववाला मेरा भा◌इ भी तुरंत ही मेरे पीछे-पीछे आया॥ १४ १/२ ॥ ‘‘य प वह असुर बड़ा बलवान् था तथा प मुझे एक दूसरे सहायकके साथ देखते ही भयभीत हो उस रातम भाग चला। हम दोन भाइय को आते देख वह बड़े वेगसे दौड़ा और एक वशाल गुफाम घुस गया॥ ‘‘उस अ भयंकर वशाल गुफाम उस असुरको घुसा आ जानकर मने अपने इस ू रदश भा◌इसे कहा—॥ १७ ॥ ‘‘सु ीव! इस श ुको मारे बना म यहाँसे क ापुरीको लौट चलनेम असमथ ँ ; अत: जबतक म इस असुरको मारकर लौटता ँ , तबतक तुम इस गुफाके दरवाजेपर रहकर मेरी ती ा करो’॥ १८ ॥ ‘‘ऐसा कहकर और ‘यह तो यहाँ खड़ा है ही’ ऐसा व ास करके म उस अ दुगम गुफाके भीतर व आ। भीतर जाकर म उस दानवक खोज करने लगा और इसीम मेरा वहाँ एक वषका समय तीत हो गया॥ १९ ॥ ‘‘इसके बाद मने उस भयंकर श ुको देखा। इतने दन तक उसके न मलनेसे मेरे मनम को◌इ ेश या उदासीनता नह ◌इ थी। मने उसे उसके सम ब -ु बा व स हत त ाल कालके गालम डाल दया॥ २० ॥



‘‘उसके



मुखसे और छातीसे भी भूतलपर र का ऐसा वाह जारी आ, जससे वह सारी दुगम गुफा भर गयी॥ २१ ॥ ‘‘इस तरह उस परा मी श ुका सुखपूवक वध करके जब म लौटा, तब मुझे नकलनेका को◌इ माग ही नह दखायी देता था; क बलका दरवाजा बंद कर दया गया था॥ २२ ॥ ‘‘मने ‘सु ीव! सु ीव! कहकर बारंबार पुकारा, कतु को◌इ उ र नह मला। इससे मुझे बड़ा दु:ख आ॥ २३ ॥ ‘‘मने बारंबार लात मारकर कसी तरह उस प रको पीछे क ओर ढके ला। इसके बाद गुफा ारसे नकलकर यहाँक राह पकड़े म इस नगरम लौटा ँ ॥ २४ ॥ ‘‘यह सु ीव ऐसा ू र और नदयी है क इसने ातृ- ेमको भुला दया और सारा रा अपने हाथम कर लेनेके लये मुझे उस गुफाके अंदर बंद कर दया था’॥ ‘ऐसा कहकर वानरराज वालीने नभयतापूवक मुझे घरसे नकाल दया। उस समय मेरे शरीरपर एक ही व रह गया था॥ २६ ॥ ‘रघुन न! उसने मुझे घरसे तो नकाल ही दया, मेरी ीको भी छीन लया। उसके भयसे म वन और समु स हत सारी पृ ीपर मारा-मारा फरता रहा। अ तोग ा म भायाहरणके दु:खसे दु:खी हो इस े पवत ऋ मूकपर चला आया; क एक वशेष कारणवश वालीके लये इस ानपर आ मण करना ब त क ठन है॥ २७-२८ ॥ ‘रघुनाथजी! यही वालीके साथ मेरे वैर पड़नेक व ृत कथा है। यह सब मने आपको सुना दी। दे खये, बना अपराधके ही मुझे यह सब संकट भोगना पड़ता है॥ २९ ॥ ‘वीरवर! आप स ूण जग ा भय दूर करनेवाले ह। मुझपर कृ पा क जये और वालीका दमन करके मुझे उसके भयसे बचाइये’॥ ३० ॥ सु ीवके ऐसा कहनेपर धमके ाता परम तेज ी ीरामच जीने उनसे हँ सते ए-से यह धमयु वचन कहना आर कया—॥ ३१ ॥ ‘ म ! ये मेरे सूयके समान तेज ी तीखे बाण अमोघ ह, जो दुराचारी वालीपर रोषपूवक पड़गे॥ ३२ ॥ ‘जबतक तु ारी भायाका अपहरण करनेवाले उस वानरको म अपने सामने नह देखता ँ तबतक सदाचारको कलं कत करनेवाला वह पापा ा वाली जीवन धारण कर ले॥ ३३ ॥



‘म



अपने ही अनुमानसे समझता ँ क तुम शोकके समु म डू बे ए हो। म तु ारा उ ार क ँ गा। तुम अपनी प ी तथा वशाल रा को भी अव ा कर लोगे’॥ ३४ ॥ ीरामका यह वचन हष और पु षाथको बढ़ानेवाला था। उसे सुनकर सु ीवको बड़ी स ता ◌इ। फर वे ब त ही मह पूण बात कहने लगे॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म दसवाँ सग पूरा आ॥ १०॥



ारहवाँ सग सु ीवके ारा वालीके परा मका वणन— वालीका द ु ु भ दै को मारकर उसक लाशको मत वनम फ कना, मत मु नका वालीको शाप देना, ीरामका द ु ु भके अ समूहको दरू फ कना और सु ीवका उनसे साल-भेदनके लये आ ह करना



ीरामच जीका वचन हष और पु षाथको बढ़ानेवाला था, उसे सुनकर सु ीवने उसके त अपना आदर कट कया और ीरघुनाथजीक इस कार शंसा क —॥ १ ॥ ‘ भो! आपके बाण लत, ती ण एवं ममभेदी ह। य द आप कु पत हो जायँ तो इनके ारा लयकालके सूयक भाँ त सम लोक को भ कर सकते ह। इसम संशयक बात नह है॥ २ ॥ ‘परंतु वालीका जैसा पु षाथ है, जो बल है और जैसा धैय है, वह सब एक च होकर सुन ली जये। उसके बाद जैसा उ चत हो, क जयेगा॥ ३ ॥ ‘वाली सूय दयके पहले ही प म समु से पूव समु तक और द ण सागरसे उ रतक घूम आता है; फर भी वह थकता नह है॥ ४ ॥ ‘परा मी वाली पवत क चो टय पर चढ़कर बड़े-बड़े शखर को बलपूवक उठा लेता और ऊपरको उछालकर फर उ हाथ से थाम लेता है॥ ५ ॥ ‘वन म नाना कारके जो ब त-से सु ढ़ वृ थे, उ अपने बलको कट करते ए वालीने वेगपूवक तोड़ डाला है॥ ६ ॥ ‘पहलेक बात है यहाँ एक दु ु भ नामका असुर रहता था, जो भसेके पम दखायी देता था। वह ऊँ चा◌इम कै लास पवतके समान जान पड़ता था। परा मी दु ु भ अपने शरीरम एक हजार हा थय का बल रखता था॥ ‘बलके घमंडम भरा आ वह वशालकाय दु ा ा दानव अपनेको मले ए वरदानसे मो हत हो स रता के ामी समु के पास गया॥ ८ ॥ ‘ जसम उ ाल तर उठ रही थ तथा जो र क न ध ह, उस महान् जलरा शसे प रपूण समु को लाँघकर—उसे कु छ भी न समझकर दु ु भने उसके अ ध ाता देवतासे कहा—‘मुझे अपने साथ यु का अवसर दो’॥ ९ ॥



‘राजन्! उस बोला—॥ १० ॥ ‘‘यु



समय महान् बलशाली धमा ा समु उस काल े रत असुरसे इस कार



वशारद वीर! म तु यु का अवसर देन— े तु ारे साथ यु करनेम असमथ ँ । जो तु यु दान करेगा, उसका नाम बतलाता ँ , सुनो॥ ११ ॥ ‘ वशाल वनम जो पवत का राजा और भगवान् शंकरका शुर है, तप ी जन का सबसे बड़ा आ य और संसारम हमवान् नामसे व ात है, जहाँसे जलके बड़े-बड़े ोत कट ए ह। तथा जहाँ ब त-सी क राएँ और झरने ह, वह ग रराज हमालय ही तु ारे साथ यु करनेम समथ है। वह तु अनुपम ी त दान कर सकता है॥ १२-१३ ॥ ‘यह सुनकर असुर शरोम ण दु ु भ समु को डरा आ जान धनुषसे छू टे ए बाणक भाँ त तुरंत हमालयके वनम जा प ँ चा और उस पवतक गजराज के समान वशाल ेत शला को बारंबार भू मपर फ कने और गजना करने लगा॥ १४-१५ ॥ ‘तब ेत बादलके समान आकार धारण कये सौ भाववाले हमवान् वहाँ कट ए। उनक आकृ त स ताको बढ़ानेवाली थी। वे अपने ही शखरपर खड़े होकर बोले—॥ १६ ॥ ‘‘धमव ल दु भ ु !े तुम मुझे ेश न दो। म यु कमम कु शल नह ँ । म तो के वल तप ी जन का नवास ान ँ ’॥ १७ ॥ ‘बु मान् ग रराज हमालयक यह बात सुनकर दु ु भके ने ोधसे लाल हो गये और वह इस कार बोला—॥ १८ ॥ ‘य द तुम यु करनेम असमथ हो अथवा मेरे भयसे ही यु क चे ासे वरत हो गये हो तो मुझे उस वीरका नाम बताओ, जो यु क इ ा रखनेवाले मुझको अपने साथ यु करनेका अवसर दे’॥ १९ ॥ ‘उसक यह बात सुनकर बातचीतम कु शल धमा ा हमवा े े असुरसे, जसके लये पहले कसीने कसी त ी यो ाका नाम नह बताया था, ोधपूवक कहा—॥ २० ॥ ‘‘महा ा दानवराज! वाली नामसे स एक परम तेज ी और तापी वानर ह, जो देवराज इ के पु ह और अनुपम शोभासे पूण क ा नामक पुरीम नवास करते ह॥ २१ ॥



‘‘वे बड़े बु



मान् और यु क कलाम नपुण ह। वे ही तुमसे जूझनेम समथ ह। जैसे इ ने नमु चको यु का अवसर दया था, उसी कार वाली तु यु दान कर सकते ह॥ २२ ॥ ‘‘य द तुम यहाँ यु चाहते हो तो शी चले जाओ; क वालीके लये कसी श ुक ललकारको सह सकना ब त क ठन है। वे यु कमम सदा शूरता कट करनेवाले ह’॥ २३ ॥ ‘ हमवा बात सुनकर ोधसे भरा आ दु ु भ त ाल वालीक क ापुरीम जा प ँ चा॥ २४ ॥ ‘उसने भसेका-सा प धारण कर रखा था। उसके स ग बड़े तीखे थे। वह बड़ा भयंकर था और वषाकालके आकाशम छाये ए जलसे भरे महान् मेघके समान जान पड़ता था॥ २५ ॥ ‘वह महाबली दु ु भ क ापुरीके ारपर आकर भू मको कँ पाता आ जोर-जोरसे गजना करने लगा, मानो दु ु भका ग ीर नाद हो रहा हो॥ २६ ॥ ‘वह आसपासके वृ को तोड़ता, धरतीको खुर से खोदता और घमंडम आकर पुरीके दरवाजेको स ग से खर चता आ यु के लये डट गया॥ २७ ॥ ‘वाली उस समय अ :पुरम था। उस दानवक गजना सुनकर वह अमषसे भर गया और तार से घरे ए च माक भाँ त य से घरा आ नगरके बाहर नकल आया॥ २८ ॥ ‘सम वनचारी वानर के राजा वालीने वहाँ सु अ र तथा पद से यु प र मत वाणीम उस दु ु भसे कहा—॥ २९ ॥ ‘‘महाबली दु भ ु !े म तु अ ी तरह जानता ँ । तुम इस नगर ारको रोककर गरज रहे हो? अपने ाण क र ा करो’॥ ३० ॥ ‘बु मान् वानराज वालीका यह वचन सुनकर दु ु भक आँ ख ोधसे लाल हो गय । वह उससे इस कार बोला—॥ ३१ ॥ ‘‘वीर! तु य के समीप ऐसी बात नह कहनी चा हये। मुझे यु का अवसर दो, तब म तु ारा बल समझूँगा॥ ३२ ॥ ‘‘अथवा वानर! म आजक रातम अपने ोधको रोके र ँ गा। तुम े ानुसार कामभोगके लये सूय दयतक समय मुझसे ले लो॥ ३३ ॥ ‘‘वानर को दयसे लगाकर जसे जो कु छ देना हो दे दो; तुम सम क पय के राजा हो न! अपने सु द से मल लो, सलाह कर लो॥ ३४ ॥



‘‘ क



ापुरीको अ ी तरह देख लो। अपने समान पु आ दको इस नगरीके रा पर अ भ ष कर दो और य के साथ आज जीभरकर डा कर लो। इसके बाद म तु ारा घमंड चूर कर दूँगा॥ ३५ ॥ ‘‘जो मधुपानसे म , म (असावधान), यु से भगे ए, अ र हत, दुबल, तु ारे-जैसे य से घरे ए तथा मदमो हत पु षका वध करता है, वह जग गभ-ह ारा कहा जाता है’॥ ३६ ॥ ‘यह सुनकर वाली म -म मुसकराकर उन तारा आ द सब य को दूर हटा उस असुरराजसे ोधपूवक बोला—॥ ३७ ॥ ‘‘य द तुम यु के लये नभय होकर खड़े हो तो यह न समझो क यह वाली मधु पीकर मतवाला हो गया है। मेरे इस मदको तुम यु लम उ ाहवृ के लये वीर ारा कया जानेवाला औषध वशेषका पान समझो’॥ ३८ ॥ ‘उससे ऐसा कहकर पता इ क दी ◌इ वजयदा यनी सुवणमालाको गलेम डालकर वाली कु पत हो यु के लये खड़ा हो गया॥ ३९ ॥ ‘क प े वालीने पवताकार दु ु भके दोन स ग पकड़कर उस समय गजना करते ए उसे बारंबार घुमाया॥ ४० ॥ ‘ फर बलपूवक उसे धरतीपर दे मारा और बड़े जोरसे सहनाद कया। पृ ीपर गराये जाते समय उसके दोन कान से खूनक धाराएँ बहने लग ॥ ४१ ॥ ‘ ोधके आवेशसे यु हो एक-दूसरेको जीतनेक इ ावाले उन दोन दु ु भ और वालीम घोर यु होने लगा॥ ४२ ॥ ‘उस समय इ के तु परा मी वाली दु ु भपर मु , लात , घुटन , शला तथा वृ से हार करने लगा॥ ४३ ॥ ‘उस यु लम पर र हार करते ए वानर और असुर दोन यो ा मसे असुरक श तो घटने लगी और इ कु मार वालीका बल बढ़ने लगा॥ ४४ ॥ ‘उन दोन म वहाँ ाणा कारी यु छड़ गया। उस समय वालीने दु ु भको उठाकर पृ ीपर दे मारा, साथ ही अपने शरीरसे उसको दबा दया, जससे दु ु भ पस गया॥ ४५ ॥



‘ गरते समय उसके



शरीरके सम छ से ब त-सा र बहने लगा। वह महाबा असुर पृ ीपर गरा और मर गया॥ ४६ ॥ ‘जब उसके ाण नकल गये और चेतना लु हो गयी, तब वेगवान् वालीने उसे दोन हाथ से उठाकर एक साधारण वेगसे एक योजन दूर फ क दया॥ ४७ ॥ ‘वेगपूवक फ के गये उस असुरके मुखसे नकली ◌इ र क ब त-सी बूँद हवाके साथ उड़कर मतंगमु नके आ मम पड़ गय ॥ ४८ ॥ ‘महाभाग! वहाँ पड़े ए उन र - ब ु को देखकर मतंगमु न कु पत हो उठे और इस वचारम पड़ गये क ‘यह कौन है, जो यहाँ र के छ टे डाल गया है?॥ ४९ ॥ ‘‘ जस दु ने सहसा मेरे शरीरसे र का श करा दया, यह दुरा ा दुबु , अ जता ा और मूख कौन है?’॥ ५० ॥ ‘ऐसा कहकर मु नवर मतंगने बाहर नकलकर देखा तो उ एक पवताकार भसा पृ ीपर ाणहीन होकर पड़ा दखायी दया॥ ५१ ॥ ‘उ ने अपने तपोबलसे यह जान लया क यह एक वानरक करतूत है। अत: उस लाशको फ कनेवाले वानरके त उ ने बड़ा भारी शाप दया—॥ ५२ ॥ ‘‘ जसने खूनके छ टे डालकर मेरे नवास ान इस वनको अप व कर दया है, वह आजसे इस वनम वेश न करे। य द इसम वेश करेगा तो उसका वध हो जायगा॥ ५३ ॥ ‘‘इस असुरके शरीरको इधर फ ककर जसने इन वृ को तोड़ डाला है, वह दुबु य द मेरे आ मके चार ओर पूरे एक योजनतकक भू मम पैर रखेगा तो अव ही अपने ाण से हाथ धो बैठेगा॥ ५४ १/२ ॥ ‘‘उस वालीके जो को◌इ स चव भी मेरे इस वनम रहते ह , उ अब यहाँका नवास ाग देना चा हये। वे मेरी आ ा सुनकर सुखपूवक यहाँसे चले जायँ। य द वे रहगे तो उ भी न य ही शाप दे दूँगा॥ ५५-५६ ॥ ‘‘मने अपने इस वनक सदा पु क भाँ त र ा क है। जो इसके प और अ ु रका वनाश तथा फल-मूलका अभाव करनेके लये यहाँ रहगे, वे अव शापके भागी ह गे॥ ५७ ॥ ‘‘आजका दन उन सबके आने-जाने या रहनेक अ म अव ध है—आजभरके लये म उन सबको छु ी देता ँ । कलसे जो को◌इ वानर यहाँ मेरी म पड़ जायगा, वह क◌इ हजार



वष के लये प र हो जायगा’॥ ५८ ॥ ‘मु नके इस वचनको सुनकर वे सभी वानर मतंगवनसे नकल गये। उ देखकर वालीने पूछा—॥ ५९ ॥ ‘‘मतंगवनम नवास करनेवाले आप सभी वानर मेरे पास चले आये? वनवा सय क कु शल तो है न?’’॥ ६० ॥ ‘तब उन सभी वानर ने सुवणमालाधारी वालीसे अपने आनेका सब कारण बताया तथा जो वालीको शाप आ था, उसे भी कह सुनाया॥ ६१ ॥ ‘वानर क कही ◌इ यह बात सुनकर वाली मह ष मतंगके पास गया और हाथ जोड़कर मा-याचना करने लगा॥ ६२ ॥ ‘ कतु मह षने उसका आदर नह कया। वे चुपचाप अपने आ मम चले गये। इधर वाली शाप ा होनेसे भयभीत हो ब त ही ाकु ल हो गया॥ ६३ ॥ ‘नरे र! तबसे उस शापके भयसे डरा आ वाली इस महान् पवत ऋ मूकके ान म न तो कभी वेश करना चाहता है और न इस पवतको देखना ही चाहता है॥ ६४ ॥ ‘ ीराम! यहाँ उसका वेश होना अस व है, यह जानकर म अपने म य के साथ इस महान् वनम वषाद-शू होकर वचरता ँ ॥ ६५ ॥ ‘यह रहा दु ु भक ह य का ढेर, जो एक महान् पवत शखरके समान जान पड़ता है। वालीने अपने बलके घमंडम आकर दु ु भके शरीरको इतनी दूर फ का था॥ ६६ ॥ ‘ये सात सालके वशाल एवं मोटे वृ ह, जो अनेक उ म शाखा से सुशो भत होते ह। वाली इनमसे एक-एकको बलपूवक हलाकर प हीन कर सकता है॥ ६७ ॥ ‘ ीराम! यह मने वालीके अनुपम परा मको का शत कया है। नरे र! आप उस वालीको समरा णम कै से मार सकगे’॥ ६८ ॥ सु ीवके ऐसा कहनेपर ल णको बड़ी हँ सी आयी। वे हँ सते ए ही बोले—‘कौन-सा काम कर देनेपर तु व ास होगा क ीरामच जी वालीका वध कर सकगे’॥ ६९ ॥ तब सु ीवने उनसे कहा— ‘पूवकालम वालीने सालके इन सात वृ को एक-एक करके क◌इ बार ब ध डाला है। अत: ीरामच जी भी य द इनमसे कसी एक वृ को एक ही



बाणसे छेद डालगे तो इनका परा म देखकर मुझे वालीके मारे जानेका व ास हो जायगा॥ ७०-७१ ॥ ‘ल ण! य द इस म हष पधारी दु ु भक ह ीको एक ही पैरसे उठाकर बलपूवक दो सौ धनुषक दूरीपर फ क सक तो भी म यह मान लूँगा क इनके हाथसे वालीका वध हो सकता है’॥ ७२ ॥ जनके ने ा कु छ-कु छ लाल थे, उन ीरामसे ऐसा कहकर सु ीव दो घड़ीतक कु छ सोच वचार म पड़े रहे। इसके बाद वे ककु कु लभूषण ीरामसे फर बोले—॥ ७३ ॥ ‘वाली शूर है और यं भी उसे अपने शौयपर अ भमान है। उसके बल और पु षाथ व ात ह। वह बलवान् वानर अबतकके यु म कभी परा जत नह आ है॥ ७४ ॥ ‘इसके ऐसे-ऐसे कम देखे जाते ह, जो देवता के लये दु र ह और जनका च न करके भयभीत हो मने इस ऋ मूक पवतक शरण ली है॥ ७५ ॥ ‘वानरराज वालीको जीतना दूसर के लये अस व है। उसपर आ मण अथवा उसका तर ार भी नह कया जा सकता। वह श ुक ललकारको नह सह सकता। जब म उसके भावका च न करता ँ , तब इस ऋ मूक पवतको एक णके लये भी छोड़ नह पाता ँ ॥ ७६ ॥ ‘ये हनुमान् आ द मेरे े स चव मुझम अनुराग रखनेवाले ह। इनके साथ रहकर भी म इस वशाल वनम वालीसे उ और श त होकर ही वचरता ँ ॥ ७७ ॥ ‘ म व ल! आप मुझे परम ृहणीय े म मल गये ह। पु ष सह! आप मेरे लये हमालयके समान ह और म आपका आ य ले चुका ँ । (इस लये अब मुझे नभय हो जाना चा हये)॥ ७८ ॥ ‘ कतु रघुन न! म उस बलशाली दु ाताके बल-परा मको जानता ँ और समरभू मम आपका परा म मने नह देखा है॥ ७९ ॥ ‘ भो! अव ही म वालीसे आपक तुलना नह करता ँ । न तो आपको डराता ँ और न आपका अपमान ही करता ँ । वालीके भयानक कम ने ही मेरे दयम कातरता उ कर दी है॥ ८० ॥



‘रघुन



न! न य ही आपक वाणी मेरे लये माणभूत है— व सनीय है; क आपका धैय और आपक यह द आकृ त आ द गुण राखसे ढक ◌इ आगके समान आपके उ ृ तेजको सू चत कर रहे ह’॥ ८१ ॥ महा ा सु ीवक यह बात सुनकर भगवान् ीराम पहले तो मुसकराये। फर उस वानरक बातका उ र देते ए उससे बोले—॥ ८२ ॥ ‘वानर! य द तु इस समय परा मके वषयम हम लोग पर व ास नह होता तो यु के समय हम तु उसका उ म व ास करा दगे’॥ ८३ ॥ ऐसा कहकर सु ीवको सा ना देते ए ल णके बड़े भा◌इ महाबा बलवान् ीरघुनाथजीने खलवाड़म ही दु ु भके शरीरको अपने पैरके अँगूठेसे टाँग लया और उस असुरके उस सूखे ए क ालको पैरके अँगूठेसे ही दस योजन दूर फ क दया॥ ८४-८५ ॥ उसके शररीको फ का गया देख सु ीवने ल ण और वानर के सामने ही तपते ए सूयके समान तेज ी वीर ीरामच जीसे पुन: यह अथभरी बात कही—॥ ८६ ॥ ‘सखे! मेरा भा◌इ वाली उस समय मदम और यु से थका आ था और दु ु भका यह शरीर खूनसे भीगा आ, मांसयु तथा नया था। इस दशाम उसने इस शरीरको पूवकालम दूर फ का था॥ ८७ ॥ ‘परंतु रघुन न! इस समय यह मांसहीन होनेके कारण तनके के समान हलका हो गया है और आपने हष एवं उ ाहसे यु होकर इसे फ का है॥ ८८ ॥ ‘अत: ीराम! इस लाशको फ कनेपर भी यह नह जाना जा सकता क आपका बल अ धक है या उसका; क वह गीला था और यह सूखा। यह इन दोन अव ा म महान् अ र है॥ ८९ ॥ ‘‘तात! आपके और उसके बलम वही संशय अबतक बना रह गया। अब इस एक सालवृ को वदीण कर देनेपर दोन के बलाबलका ीकरण हो जायगा॥ ९० ॥ ‘आपका यह धनुष हाथीक फै ली ◌इ सूँड़के समान वशाल है। आप इसपर ा चढ़ाइये और इसे कानतक ख चकर सालवृ को ल करके एक वशाल बाण छो ड़ये॥ ९१ ॥



‘इसम संदेह नह



क आपका छोड़ा आ बाण इस सालवृ को वदीण कर देगा। राजन्! अब वचार करनेक आव कता नह है। म अपनी शपथ दलाकर कहता ँ , आप मेरा यह य काय अव क जये॥ ९२ ॥ ‘जैसे स ूण तेज म सदा सूयदेव ही े ह, जैसे बड़े-बड़े पवत म ग रराज हमवान् े ह और जैसे चौपाय म सह े है, उसी कार परा मके वषयम सब मनु म आप ही े ह’॥ ९३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म ारहवाँ सग पूरा आ॥ ११॥



बारहवाँ सग ीरामके ारा सात साल-वृ का भेदन, ीरामक आ ासे सु ीवका क ाम आकर वालीको ललकारना और यु म उससे परा जत होकर मतंगवनम भाग जाना, वहाँ ीरामका उ आ ासन देना और गलेम पहचानके लये गजपु ीलता डालकर उ पुन: यु के लये भेजना



सु ीवके सु र ढंगसे कहे ए इस वचनको सुनकर महातेज ी ीरामने उ व ास दलानेके लये धनुष हाथम लया॥ १ ॥ दूसर को मान देनेवाले ीरघुनाथजीने वह भयंकर धनुष और एक बाण लेकर धनुषक टंकारसे स ूण दशा को गुँजाते ए उस बाणको सालवृ क ओर छोड़ दया॥ २ ॥ उन बलवान् वीर शरोम णके ारा छोड़ा गया वह सुवणभू षत बाण उन सात सालवृ को एक ही साथ ब धकर पवत तथा पृ ीके सात तल को छेदता आ पातालम चला गया॥ ३ ॥ इस कार एक ही मु तम उन सबका भेदन करके वह महान् वेगशाली बाण पुन: वहाँसे नकलकर उनके तरकसम ही व हो गया॥ ४ ॥ ीरामके बाणके वेगसे उन सात सालवृ को वदीण आ देख वानर शरोम ण सु ीवको बड़ा व य आ॥ ५ ॥ साथ ही उ मन-ही-मन बड़ी स ता ◌इ। सु ीवने हाथ जोड़कर धरतीपर माथा टेक दया और ीरघुनाथजीको सा ा णाम कया। णामके लये कु ते समय उनके क हारा द भूषण लटकते ए दखायी देते थे॥ ६ ॥ ीरामके उस महान् कमसे अ स हो उ ने सामने खड़े ए स ूण अ वे ा म े धम , शूरवीर ीरामच जीसे इस कार कहा—॥ ७ ॥ ‘पु ष वर! भगवन्! आप तो अपने बाण से समरा णम इ स हत स ूण देवता का वध भी करनेम समथ ह। फर वालीको मारना आपके लये कौन बड़ी बात है?॥ ८ ॥ ‘काकु ! ज ने सात बड़े-बड़े सालवृ , पवत और पृ ीको भी एक ही बाणसे वदीण कर डाला, उ आपके सम यु के मुहानेपर कौन ठहर सकता है॥ ९ ॥



‘महे



और व णके समान परा मी आपको सु दक् े पम पाकर आज मेरा सारा शोक दूर हो गया। आज मुझे बड़ी स ता ◌इ है॥ १० ॥ ‘ककु कु लभूषण! म हाथ जोड़ता ँ । आप आज ही मेरा य करनेके लये उस वालीका, जो भा◌इके पम मेरा श ु है, वध कर डा लये’॥ ११ ॥ सु ीव ीरामच जीको ल णके समान य हो गये थे। उनक बात सुनकर महा ा ीरामने अपने उस य सु दक् ो दयसे लगा लया और इस कार उ र दया—॥ १२ ॥ ‘सु ीव! हमलोग शी ही इस ानसे क ाको चलते ह। तुम आगे जाओ और जाकर थ ही भा◌इ कहलानेवाले वालीको यु के लये ललकारो’॥ १३ ॥ तदन र वे सब लोग वालीक राजधानी क ापुरीम गये और वहाँ गहन वनके भीतर वृ क आड़म अपनेको छपकर खड़े हो गये॥ १४ ॥ सु ीवने लँगोटसे अपनी कमर खूब कस ली और वालीको बुलानेके लये भयंकर गजना क । वेगपूवक कये ए उस सहनादसे मानो वे आकाशको फाड़े डालते थे॥ १५ ॥ भा◌इका सहनाद सुनकर महाबली वालीको बड़ा ोध आ। वह अमषम भरकर अ ाचलसे नीचे जानेवाले सूयके समान बड़े वेगसे घरसे नकला॥ १६ ॥ फर तो वाली और सु ीवम बड़ा भयंकर यु छड़ गया, मानो आकाशम बुध और मंगल इन दोन ह म घोर सं ाम हो रहा हो॥ १७ ॥ वे दोन भा◌इ ोधसे मू त हो एक-दूसरेपर व और अश नके समान तमाच और घूँस का हार करने लगे॥ १८ ॥ उसी समय ीरामच जीने धनुष हाथम लया और उन दोन क ओर देखा। वे दोन वीर अ नीकु मार क भाँ त पर र मलते-जुलते दखायी दये॥ १९ ॥ ीरामच जीको यह पता न चला क इनम कौन सु ीव है और कौन वाली; इस लये उ ने अपना वह ाणा कारी बाण छोड़नेका वचार गत कर दया॥ इसी बीचम वालीने सु ीवके पाँव उखाड़ दये। वे अपने र क ीरघुनाथजीको न देखकर ऋ मूक पवतक ओर भागे॥ २१ ॥ वे ब त थक गये थे। उनका सारा शरीर ल लुहान और हार से जजर हो रहा था। इतनेपर भी वालीने ोधपूवक उनका पीछा कया। कतु वे मतंगमु नके महान् वनम घुस गये॥



२२ ॥



सु ीवको उस वनम व आ देख महाबली वाली शापके भयसे वहाँ नह गया और ‘जाओ तुम बच गये’ ऐसा कहकर वहाँसे लौट आया॥ २३ ॥ इधर ीरघुनाथजी भी अपने भा◌इ ल ण तथा ीहनुमा ीके साथ उसी समय वनम आ गये, जहाँ वानर सु ीव व मान थे॥ २४ ॥ ल णस हत ीरामको आया देख सु ीवको बड़ी ल ा ◌इ और वे पृ ीक ओर देखते ए दीन वाणीम उनसे बोले—॥ २५ ॥ ‘रघुन न! आपने अपना परा म दखाया और मुझे यह कहकर भेज दया क जाओ, वालीको यु के लये ललकारो, यह सब हो जानेपर आपने श ुसे पटवाया और यं छप गये। बताइये, इस समय आपने ऐसा कया? आपको उसी समय सच-सच बता देना चा हये था क म वालीको नह मा ँ गा। ऐसी दशाम म यहाँसे उसके पास जाता ही नह ’॥ २६-२७ ॥ महामना सु ीव जब दीन वाणी ारा इस कार क णा जनक बात कहने लगे, तब ीराम फर उनसे बोले—॥ २८ ॥ ‘तात सु ीव! मेरी बात सुनो, ोधको अपने मनसे नकाल दो। मने नह बाण चलाया, इसका कारण बतलाता ँ ॥ २९ ॥ सु ीव! वेशभूषा, कद और चाल-ढालम तुम और वाली दोन एक-दूसरेसे मलते-जुलते हो॥ ३० ॥ ‘ र, का , , परा म और बोलचालके ारा भी मुझे तुम दोन म को◌इ अ र नह दखायी देता॥ ३१॥’ ‘वानर े ! तुम दोन के पक इतनी समानता देखकर म मोहम पड़ गया —तु पहचान न सका; इसी लये मने अपना महान् वेगशाली श ुसंहारक बाण नह छोड़ा॥ ३२॥’ ‘मेरा वह भयंकर बाण श ुके ाण लेनेवाला था, इस लये तुम दोन क समानतासे संदेहम पड़कर मने उस बाणको नह छोड़ा। सोचा, कह ऐसा न हो क हम दोन के मूल उ े का ही वनाश हो जाय॥ ३३॥’ ‘वीर! वानरराज! य द अनजानम या ज बाजीके कारण मेरे बाणसे तु मारे जाते तो मेरी बालो चत चपलता और मूढ़ता ही स होती॥ ३४॥’ ‘ जसको अभय दान दे दया गया हो, उसका वध करनेसे बड़ा भारी पाप होता है; यह एक अ तु पातक है। इस समय म, ल ण और सु री सीता सब तु ारे अधीन ह। इस वनम तु



हमलोग के आ य हो; इस लये वानरराज! श ा न करो; पुन: चलकर यु ार करो॥ ३५-३६ ॥ ‘तुम इसी मु तम वालीको मेरे एक ही बाणका नशाना बनकर धरतीपर लोटता देखोगे॥ ३७ ॥ ‘वानरे र! अपनी पहचानके लये तुम को◌इ च धारण कर लो, जससे यु म वृ होनेपर म तु पहचान सकूँ ’॥ ३८ ॥ (सु ीवसे ऐसा कहकर ीरामच जी ल णसे बोले—) ‘ल ण! यह उ म ल ण से यु गजपु ी लता फू ल रही है। इसे उखाड़कर तुम महामना सु ीवके गलेम पहना दो’॥ ३९ ॥



यह आ ा पाकर ल णने पवतके कनारे उ ◌इ फू ल से भरी वह गजपु ी लता उखाड़कर सु ीवके गलेम डाल दया॥ ४० ॥ गलेम पड़ी ◌इ उस लतासे ीमान् सु ीव वकपं से अलंकृत सं ाकालके मेघक भाँ त शोभा पाने लगे॥ ४१ ॥ ीरामके वचनसे आ ासन पाकर अपने सु र शरीरसे शोभा पानेवाले सु ीव ीरघुनाथजीके साथ फर क ापुरीम जा प ँ चे॥ ४२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म बारहवाँ सग पूरा आ॥ १२॥



तेरहवाँ सग ीराम आ दका मागम वृ , व वध ज ु , जलाशय तथा स जन आ मका दरू से दशन करते ए पुन: क ापुरीम प ँ चना



ल णके बड़े भा◌इ धमा ा ीराम सु ीवको साथ लेकर पुन: ऋ मूकसे उस क ापुरीक ओर चले, जो वालीके परा मसे सुर त थी॥ १ ॥ अपने सुवणभू षत वशाल धनुषको उठाकर और यु म सफलता दखानेवाले सूयतु तेज ी बाण को लेकर ीराम वहाँसे त ए॥ २ ॥ महा ा रघुनाथजीके आगे-आगे सुग ठत ीवावाले सु ीव और महाबली ल ण चल रहे थे॥ ३ ॥ और उनके पीछे वीर हनुमान्, नल, परा मी नील तथा वानर-यूथप के भी यूथप त महातेज ी तार चल रहे थे॥ ४ ॥ वे सब लोग फू ल के भारसे कु े ए वृ , जलवाली समु गा मनी न दय , क रा , पवत , शला- ववर , गुफा , मु -मु शखर और सु र दखायी देनेवाली गहन गुफा को देखते ए आगे बढ़ने लगे॥ ५-६ ॥ उ ने मागम ऐसे सजल सरोवर को भी देखा, जो वैदयू म णके समान रंगवाले, नमल जल तथा कम खले ए मुकुलयु कमल से सुशो भत थे॥ ७ ॥ कार व, सारस, हंस, व लु , जलमुग, च वाक तथा अ प ी उन सरोवर म चहचहा रहे थे। उन सबक त न वहाँ गूँज रही थी॥ ८ ॥ ल म सब ओर हरी-हरी कोमल घासके अ ु र का आहार करनेवाले वनचारी ह रण कह नभय होकर चरते थे और कह खड़े दखायी देते थे (इन सबको देखते ए ीराम आ द क ाक ओर जा रहे थे)॥ ९ ॥ जो सफे द दाँत से सुशो भत थे, देखनेम भयंकर थे, अके ले वचरते थे और कनार को खोदकर न कर देनेके कारण सरोवर के श ु समझे जाते थे, ऐसे दो दाँत वाले मदम ज ली हाथी चलते- फरते पवत के समान जाते दखायी देते थे। उ ने अपने दाँत से पवतके तट ा को वदीण कर दया था। कह हाथी-जैसे वशालकाय वानर गोचर होते थे, जो



धरतीक धूलसे नहा उठे थे। इनके सवा उस वनम और भी ब त-से जंगली जीव-ज ु तथा आकाशचारी प ी वचरते देखे जाते थे। इन सबको देखते ए ीराम आ द सब लोग सु ीवके वशवत हो ती ग तसे आगे बढ़ने लगे॥ १०—१२ ॥ उन या ा करनेवाले लोग म वहाँ रघुकुलन न ीरामने वृ समूह से सघन वनको देखकर सु ीवसे पूछा—॥ १३ ॥ ‘वानरराज! आकाशम मेघक भाँ त जो यह वृ का समूह का शत हो रहा है, ा है? यह इतना व ृत है क मेघ क घटाके समान छा रहा है। इसके कनारे- कनारे के लेके वृ लगे ए ह, जनसे वह सारा वृ समूह घर गया है॥ १४ ॥ ‘सखे! यह कौन-सा वन है, यह म जानना चाहता ँ । इसके लये मेरे मनम बड़ा कौतूहल है। म चाहता ँ क तु ारे ारा मेरे इस कौतूहलका नवारण हो’॥ १५ ॥ महा ा रघुनाथजीक यह बात सुनकर सु ीवने चलते-चलते ही उस वशाल वनके वषयम बताना आर कया॥ १६ ॥ ‘रघुन न! यह एक व ृत आ म है, जो सबके मका नवारण करनेवाला है। यह उ ान और उपवन से यु है। यहाँ ा द फल-मूल और जल सुलभ होते ह॥ १७ ॥ ‘इस आ मम स जन नामसे स सात ही मु न रहते थे, जो कठोर तके पालनम त र थे। वे नीचे सर करके तप ा करते थे। नयमपूवक रहकर जलम शयन करनेवाले थे॥ १८ ॥ ‘सात दन और सात रात तीत करके वे के वल वायुका आहार करते थे तथा एक ानपर न ल भावसे रहते थे। इस कार सात सौ वष तक तप ा करके वे सशरीर गलोकको चले गये॥ १९ ॥ ‘उ के भावसे सघन वृ क चहारदीवारीसे घरा आ यह आ म इ स हत स ूण देवता और असुर के लये भी अ दुधष बना आ है॥ २० ॥ ‘प ी तथा दूसरे वनचर जीव इसे दूरसे ही ाग देते ह। जो मोहवश इसके भीतर वेश करते ह, वे फर कभी नह लौटते ह॥ २१ ॥ ‘रघुन न! यहाँ मधुर अ रवाली वाणीके साथ-साथ आभूषण क झनकार भी सुनी जाती ह। वा और गीतक मधुर न भी कान म पड़ती है और द सुग का भी अनुभव होता है॥



२२ ॥



‘यहाँ



आहवनीय आ द वध अ याँ भी लत होती ह। यह कबूतरके अंग क भाँ त धूसर रंगवाला घना धूम उठता दखायी देता है, जो वृ क शखा को आवे त-सा कर रहा है॥ २३ ॥ ‘ जनके शखा पर होम-धूम छा रहे ह, वे ये वृ मेघसमूह से आ ा दत ए नीलमके पवत क भाँ त का शत हो रहे ह॥ २४ ॥ ‘धमा ा रघुन न! आप मनको एका करके दोन हाथ जोड़कर भा◌इ ल णके साथ उन मु नय के उ े से णाम क जये॥ २५ ॥ ‘ ीराम! जो उन प व अ :करणवाले ऋ षय को णाम करते ह, उनके शरीरम क च ा भी अशुभ नह रह जाता है’॥ २६ ॥ तब भा◌इ ल णस हत ीरामने हाथ जोड़कर उन महा ा ऋ षय के उ े से णाम कया॥ २७ ॥ धमा ा ीराम, उनके छोटे भा◌इ ल ण, सु ीव तथा अ सभी वानर उन ऋ षय को णाम करके स च हो आगे बढ़े॥ २८ ॥ उस स जना मसे दूरतकका माग तय कर लेनेके प ात् उन सबने वाली ारा सुर त क ापुरीको देखा॥ तदन र ीरामके छोटे भा◌इ ल ण, ीराम तथा वानर, जनका उ तेज उ दत आ था, हाथ म अ -श लेकर इ कु मार वालीके परा मसे पा लत क ापुरीम श ुवधके न म पुन: आ प ँ चे॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामयाण आ दका के क ाका म तेरहवाँ सग पूरा आ॥ १३॥



चौदहवाँ सग वाली-वधके लये ीरामका आ ासन पाकर सु ीवक वकट गजना



वे सब लोग शी तापूवक वालीक क ापुरीम प ँ चकर एक गहन वनम वृ क ओटम अपने-आपको छपाकर खड़े हो गये॥ १ ॥ वनके ेमी वशाल ीवावाले सु ीवने उस वनम चार ओर दौड़ायी और अपने मनम अ ोधका संचय कया॥ २ ॥ तदन र अपने सहायक से घरे ए उ ने अपने सहनादसे आकाशको फाड़ते ए-से घोर गजना क और वालीको यु के लये ललकारा॥ ३ ॥ उस समय सु ीव वायुके वेगके साथ गजते ए महामेघके समान जान पड़ते थे। अपनी अ का और तापके ारा ात:कालके सूयक भाँ त का शत होते थे। उनक चाल दपभरे सहके समान तीत होती थी॥ ४ ॥ कायकु शल ीरामच जीक ओर देखकर सु ीवने कहा—‘भगवन्! वालीक यह क ापुरी तपाये ए सुवणके ारा न मत नगर ारसे सुशो भत है। इसम सब ओर वानर का जाल-सा बछा आ है तथा यह ज और य से स है। हम सब लोग इस पुरीम आ प ँ चे ह। वीर! आपने पहले वाली-वधके लये जो त ा क थी, उसे अब शी सफल क जये। ठीक उसी तरह जैसे आया आ अनुकूल समय लताको फल-फू लसे स कर देता है’॥ ५-६ १/२ ॥ सु ीवके ऐसा कहनेपर श ुसूदन धमा ा ीरघुनाथजीने फर अपनी पूव बातको दुहराते ए ही सु ीवसे कहा—॥ ७ १/२ ॥ ‘वीर! अब तो इस गजपु ी लताके ारा तुमने अपनी पहचानके लये च धारण कर ही लया है। ल णने इसे उखाड़कर तु ारे क म पहना ही दया है। तुम क म धारण क ◌इ इस लताके ारा बड़ी शोभा पा रहे हो। य द आकाशमयह वपरीत घटना हो क सूयम ल न मालासे घर जाय तभी इस क -ल नी लतासे सुशो भत होनेवाले तु ारी उस सूयसे तुलना हो सकती है॥ ८-९ १/२ ॥



‘वानरराज!



आज म वालीसे उ ए तु ारे भय और वैर दोन को यु लम एक ही बार बाण छोड़कर मटा दूँगा॥ १० १/२ ॥ ‘सु ीव! तुम मुझे अपने उस ाता पी श ुको दखा तो दो। फर वाली मारा जाकर वनके भीतर धूलम लोटता दखायी देगा॥ ११ १/२ ॥ ‘य द मेरी म पड़ जानेपर भी वह जी वत लौट जाय तो तुम मुझे दोषी समझना और त ाल जी भरकर मेरी न ा करना॥ १२ १/२ ॥ ‘तु ारी आँ ख के सामने मने अपने एक ही बाणसे सात सालके वृ वदीण कये थे, मेरे उसी बलसे आज समरा णम (एक बाणसे ही) तुम वालीको मारा गया समझो॥ १३ १/२ ॥ ‘ब त समयसे संकट झेलते रहनेपर भी म कभी झूठ नह बोला ँ । मेरे मनम धमका लोभ है। इस लये कसी तरह म झूठ तो बोलूँगा ही नह । साथ ही अपनी त ाको भी अव सफल क ँ गा। अत: तुम भय और घबराहटको अपने दयसे नकाल दो॥ १४-१५ ॥ ‘जैसे इ वषा करके उगे ए धानके खेतको फलसे स करते ह, उसी तरह म भी बाणका योग करके वालीके वध ारा तु ारा मनोरथ पूण क ँ गा। इस लये सु ीव! तुम सुवणमालाधारी वालीको बुलानेके लये इस समय ऐसी गजना करो, जससे तु ारा सामना करनेके लये वह वानर नगरसे बाहर नकल आये॥ १६ १/२ ॥ ‘वह अनेक यु म वजय पाकर वजय ीसे सुशो भत आ है। सबपर वजय पानेक इ ा रखता है और उसने कभी तुमसे हार नह खायी है। इसके अलावे यु से उसका बड़ा ेम है, अत: वाली कह भी आस न होकर नगरके बाहर अव नकलेगा॥ ‘ क अपने परा मको जाननेवाले वीर पु ष, वशेषत: य के सामने, यु के लये श ु के तर ारपूण श सुनकर कदा प सहन नह करते ह’॥ ीरामच जीक यह बात सुनकर सुवणके समान प लवणवाले सु ीवने आकाशको वदीण-सा करते ए कठोर रम बड़ी भयंकर गजना क ॥ १९ १/२ ॥ उस सहनादसे भयभीत हो बड़े-बड़े बैल श हीन हो राजाके दोषसे परपु ष ारा पकड़ी जानेवाली कु ला ना के समान ाकु ल च हो सब ओर भाग चले॥ २० ॥ मृग यु लम अ -श क चोट खाकर भागे ए घोड़ के समान ती ग तसे भागने लगे और प ी जनके पु न हो गये ह, ऐसे ह के समान आकाशसे पृ ीपर गरने लगे॥



२१ ॥



तदन र जनका सहनाद मेघक गजनाके समान ग ीर था और शौयके ारा जनका तेज बढ़ा आ था, वे सु व ात सूयकु मार सु ीव बड़ी उतावलीके साथ बारंबार गजना करने लगे, मानो वायुके वेगसे च ल ◌इ उ ाल तर -माला से सुशो भत स रता का ामी समु कोलाहल कर रहा हो॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म चौदहवाँ सग पूरा आ॥ १४॥



पं हवाँ सग सु ीवक गजना सुनकर वालीका यु के लये नकलना और ताराका उसे रोककर सु ीव और ीरामके साथ मै ी कर लेनेके लये समझाना



उस समय अमषशील वाली अपने अ :पुरम था। उसने अपने भा◌इ महामना सु ीवका वह सहनाद वह से सुना॥ १ ॥ सम ा णय को क त कर देनेवाली उनक वह गजना सुनकर उसका सारा मद सहसा उतर गया और उसे महान् ोध उ आ॥ २ ॥ फर तो सुवणके समान पीले रंगवाले वालीका सारा शरीर ोधसे तमतमा उठा। वह रा सूयके समान त ाल ीहीन दखायी देने लगा॥ ३ ॥ वालीक दाढ़ वकराल थ , ने ोधके कारण लत अ के समान उ ी हो रहे थे। वह उस तालाबके समान ीहीन दखायी देता था, जसम कमलपु क शोभा तो न हो गयी हो और के वल मृणाल रह गये ह ॥ ४ ॥ वह दु:सह श सुनकर वाली अपने पैर क धमकसे पृ ीको वदीण-सी करता आ बड़े वेगसे नकला॥ ५ ॥ उस समय वालीक प ी तारा भयभीत हो घबरा उठी। उसने वालीको अपनी दोन भुजा म भर लया और ेहसे सौहादका प रचय देते ए प रणामम हत करनेवाली यह बात कही—॥ ६ ॥ ‘वीर! मेरी अ ी बात सु नये और सहसा आये ए नदीके वेगक भाँ त इस बढ़े ए ोधको ाग दी जये। जैसे ात:काल श ासे उठा आ पु ष रातको उपभोगम लायी गयी पु मालाका ाग कर देता है; उसी कार इस ोधका प र ाग क जये॥ ७ ॥ ‘वानरवीर! कल ात:काल सु ीवके साथ यु क जयेगा (इस समय क जाइये) य प यु म को◌इ श ु आपसे बढ़कर नह है और आप कसीसे छोटे नह ह। तथा प इस समय सहसा आपका घरसे बाहर नकलना मुझे अ ा नह लगता है, आपको रोकनेका एक वशेष कारण भी है। उसे बताती ँ , सु नये॥ ८-९ ॥



‘सु



ीव पहले भी यहाँ आये थे और ोधपूवक उ ने आपको यु के लये ललकारा था। उस समय आपने नगरसे नकलकर उ परा कया और वे आपक मार खाकर स ूण दशा क ओर भागते ए मत वनम चले गये थे॥ १० ॥ ‘इस कार आपके ारा परा जत और वशेष पी ड़त होनेपर भी वे पुन: यहाँ आकर आपको यु के लये ललकार रहे ह। उनका यह पुनरागमन मेरे मनम श ा-सी उ कर रहा है॥ ११ ॥ ‘इस समय गजते ए सु ीवका दप और उ ोग जैसा दखायी देता है तथा उनक गजनाम जो उ ेजना जान पड़ती है, इसका को◌इ छोटा-मोटा कारण नह होना चा हये॥ १२ ॥ ‘म समझती ँ सु ीव कसी बल सहायकके बना अबक बार यहाँ नह आये ह। कसी सबल सहायकको साथ लेकर ही आये ह, जसके बलपर ये इस तरह गरज रहे ह॥ १३ ॥ ‘वानर सु ीव भावसे ही कायकु शल और बु मान् ह। वे कसी ऐसे पु षके साथ मै ी नह करगे, जसके बल और परा मको अ ी तरह परख न लया हो॥ १४ ॥ ‘वीर! मने पहले ही कु मार अ दके मुँहसे यह बात सुन ली है। इस लये आज म आपके हतक बात बताती ँ ॥ १५ ॥ ‘एक दन कु मार अ द वनम गये थे। वहाँ गु चर ने उ एक समाचार बताया, जो उ ने यहाँ आकर मुझसे भी कहा था॥ १६ ॥ ‘वह समाचार इस कार है—अयो ानरेशके दो शूर-वीर पु , ज यु म जीतना अ क ठन है, जनका ज इ ाकु कु लम आ है तथा जो ीराम और ल णके नामसे स ह, यहाँ वनम आये ए ह॥ १७ ॥ ‘वे दोन दुजय वीर सु ीवका य करनेके लये उनके पास प ँ च गये ह। उन दोन मसे जो आपके भा◌इके यु -कमम सहायक बताये गये ह, वे ीराम श ुसेनाका संहार करनेवाले तथा लयकालम लत ◌इ अ के समान तेज ी ह। वे साधु पु ष के आ यदाता क वृ ह और संकटम पड़े ए ा णय के लये सबसे बड़ा सहारा ह॥ १८-१९ ॥ ‘आत पु ष के आ य, यशके एकमा भाजन, ान- व ानसे स तथा पताक आ ाम त रहनेवाले ह॥ २० ॥



‘जैसे



ग रराज हमालय नाना धातु क खान है, उसी कार ीराम उ म गुण के ब त बड़े भंडार ह। अत: उन महा ा रामके साथ आपका वरोध करना कदा प उ चत नह है। क वे यु क कलाम अपना सानी नह रखते ह। उनपर वजय पाना अ क ठन है॥ २१ १/ ॥ २



‘शूरवीर! म आपके गुण म दोष देखना नह चाहती। अत: आपसे कु छ कहती ँ । आपके लये जो हतकर है, वही बता रही ँ । आप उसे सु नये और वैसा ही क जये॥ २२ १/२ ॥ ‘अ



ा यही होगा क आप सु ीवका शी ही युवराजके पदपर अ भषेक कर दी जये। वीर वानरराज! सु ीव आपके छोटे भा◌इ ह, उनके साथ यु न क जये॥ ‘म आपके लये यही उ चत समझती ँ क आप वैरभावको दूर हटाकर ीरामके साथ सौहाद और सु ीवके साथ ेमका स ा पत क जये॥ २४ १/२ ॥ ‘वानर सु ीव आपके छोटे भा◌इ ह। अत: आपका लाड़- ार पानेके यो ह। वे ऋ मूकपर रह या क ाम—सवथा आपके ब ु ही ह। म इस भूतलपर उनके समान ब ु और कसीको नह देखती ँ ॥ २५-२६ ॥ ‘आप दान-मान आ द स ार के ारा उ अपना अ अ र बना ली जये, जससे वे इस वैरभावको छोड़कर आपके पास रह सक॥ २७ ॥ ‘पु ीवावाले सु ीव आपके अ ेमी ब ु ह, ऐसा मेरा मत है। इस समय ातृ ेमका सहारा लेनेके सवा आपके लये यहाँ दूसरी को◌इ ग त नह है॥ २८ ॥ ‘य द आपको मेरा य करना हो तथा आप मुझे अपनी हतका रणी समझते ह तो म ेमपूवक याचना करती ँ , आप मेरी यह नेक सलाह मान ली जये॥ २९ ॥ ‘ ा मन्! आप स होइये। म आपके हतक बात कहती ँ । आप इसे ान देकर सु नये। के वल रोषका ही अनुसरण न क जये। कोसलराजकु मार ीराम इ के समान तेज ी ह। उनके साथ वैर बाँधना या यु छेड़ना आपके लये कदा प उ चत नह है’॥ उस समय ताराने वालीसे उसके हतक ही बात कही थी और यह लाभदायक भी थी। कतु उसक बात उसे नह ची। क उसके वनाशका समय नकट था और वह कालके पाशम बँध चुका था॥ ३१ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क आ॥ १५॥



ाका म पं हवाँ सग पूरा



सोलहवाँ सग वालीका ताराको डाँटकर लौटाना और सु ीवसे जूझना तथा ीरामके बाणसे घायल होकर पृ ीपर गरना



ताराप त च माके समान मुखवाली ताराको ऐसी बात करती देख वालीने उसे फटकारा और इस कार कहा—॥ ‘वरानने! इस गजते ए भा◌इक , जो वशेषत: मेरा श ु है, यह उ ेजनापूण चे ा म कस कारणसे सहन क ँ गा॥ २ ॥ ‘भी ! जो कभी परा नह ए और ज ने यु के अवसर पर कभी पीठ नह दखायी, उन शूरवीर के लये श ुक ललकार सह लेना मृ ुसे भी बढ़कर दु:खदायी होता है॥ ३ ॥ ‘यह हीन ीवावाला सु ीव सं ामभू मम मेरे साथ यु क इ ा रखता है। म इसके रोषावेश और गजनतजनको सहन करनेम असमथ ँ ॥ ४ ॥ ‘ ीरामच जीक बात सोचकर भी तु मेरे लये वषाद नह करना चा हये। क वे धमके ाता तथा कत ाकत को समझनेवाले ह। अत: पाप कै से करगे॥ ५ ॥ ‘तुम इन य के साथ लौट जाओ। मेरे पीछे बार-बार आ रही हो। तुमने मेरे त अपना ेह दखाया। भ का भी प रचय दे दया। अब जाओ, घबराहट छोड़ो। म आगे बढ़कर सु ीवका सामना क ँ गा। उसके घम को चूर-चूर कर डालूँगा। कतु ाण नह लूँगा॥ ६-७ ॥ ‘यु के मैदानम खड़े ए सु ीवक जो-जो इ ा है, उसे म पूण क ँ गा। वृ और मु क मारसे पी ड़त होकर वह यं ही भाग जायगा॥ ८ ॥ ‘तारे! दुरा ा सु ीव मेरे यु वषयक दप और आयास (उ ोग) को नह सह सके गा। तुमने मेरी बौ क सहायता अ ी तरह कर दी और मेरे त अपना सौहाद भी दखा दया॥ ९ ॥ ‘अब म



ाण क सौग दलाकर कहता ँ क अब तुम इन य के साथ लौट जाओ। अब अ धक कहनेक आव कता नह है, म यु म अपने उस भा◌इको जीतकर लौट आऊँ गा’॥ १० ॥



यह सुनकर अ उदार भाववाली ताराने वालीका आ ल न करके म रम रोतेरोते उसक प र मा क ॥ ११ ॥ वह प तक वजय चाहती थी और उसे म का भी ान था। इस लये उसने वालीक म ल-कामनासे वाचन कया और शोकसे मो हत हो वह अ य के साथ अ :पुरको चली गयी॥ १२ ॥ य स हत ताराके अपने महलम चले जानेपर वाली ोधसे भरे ए महान् सपक भाँ त ल ी साँस ख चता आ नगरसे बाहर नकला॥ १३ ॥ महान् रोषसे यु और अ वेगशाली वाली ल ी साँस छोड़कर श ुको देखनेक इ ासे चार ओर अपनी दौड़ाने लगा॥ १४ ॥ इतनेहीम ीमान् वालीने सुवणके समान प ल वणवाले सु ीवको देखा, जो लँगोट बाँधकर यु के लये डटकर खड़े थे और लत अ के समान का शत हो रहे थे॥ १५ ॥ सु ीवको खड़ा देख महाबा वाली अ कु पत हो उठा। उसने अपना लँगोट भी ढ़ताके साथ बाँध लया॥ १६ ॥ लँगोटको मजबूतीके साथ कसकर परा मी वाली हारका अवसर देखता आ मु ा तानकर सु ीवक ओर चला॥ १७ ॥ सु ीव भी सुवणमालाधारी वालीके उ े से बँधा आ मु ा ताने बड़े आवेशके साथ उसक ओर बढ़े॥ यु कलाके प त महावेगशाली सु ीवको अपनी ओर आते देख वालीक आँ ख ोधसे लाल हो गय और वह इस कार बोला—॥ १९ ॥ ‘सु ीव! देख ले। यह बड़ा भारी मु ा खूब कसकर बँधा आ है। इसम सारी अ ु लयाँ सु नय त पसे पर र सटी ◌इ ह। मेरे ारा वेगपूवक चलाया आ यह मु ा तेरे ाण लेकर ही जायगा’॥ २० ॥ वालीके ऐसा कहनेपर सु ीव ोधपूवक उससे बोले—‘मेरा यह मु ा भी तेरे ाण लेनेके लये तेरे म कपर गरे’॥ २१ ॥ इतनेहीम वालीने वेगपूवक आ मण करके सु ीवपर मु े का हार कया। उस चोटसे घायल एवं कु पत ए सु ीव झरन से यु पवतक भाँ त मुँहसे र वमन करने लगे॥ २२ ॥



त ात् सु ीवने भी न:श होकर बलपूवक एक सालवृ को उखाड़ लया और उसे वालीके शरीरपर दे मारा, मानो इ ने कसी वशाल पवतपर व का हार कया हो॥ २३ ॥ उस वृ क चोटसे वालीके शरीरम घाव हो गया। उस आघातसे व ल आ वाली ापा रय के समूहके चढ़नेसे भारी भारके ारा दबकर समु म डगमगाती ◌इ नौकाके समान काँपने लगा॥ २४ ॥ उन दोन भाइय का बल और परा म भयंकर था। दोन के ही वेग ग ड़के समान थे। वे दोन भयंकर प धारण करके बड़े जोरसे जूझ रहे थे और पू णमाके आकाशम च मा और सूयके समान दखायी देते थे॥ वे श ुसूदन वीर अपने वप ीको मार डालनेक इ ासे एक-दूसरेक दुबलता ढूँ ढ़ रहे थे; परंतु उस यु म बल- व मस वाली बढ़ने लगा और महापरा मी सूयपु सु ीवक श ीण होने लगी॥ वालीने सु ीवका घम चूण कर दया। उनका परा म म पड़ने लगा। तब वालीके त अमषम भरे ए सु ीवने ीरामच जीको अपनी अव ाका ल कराया॥ २७ १/२ ॥ इसके बाद डा लय स हत वृ , पवतके शखर , व के समान भयंकर नख , मु , घुटन , लात और हाथ क मारसे उन दोन म इ और वृ ासुरक भाँ त भयंकर सं ाम होने लगा॥ २८-२९ ॥ वे दोन वनचारी वानर ल लुहान होकर लड़ रहे थे और दो बादल क तरह अ भयंकर गजना करते ए एक-दूसरेको डाँट रहे थे॥ ३० ॥ ीरघुनाथजीने देखा, वानरराज सु ीव कमजोर पड़ रहे ह और बारंबार इधर-उधर दौड़ा रहे ह॥ ३१ ॥ वानरराजको पी ड़त देख महातेज ी ीरामने वालीके वधक इ ासे अपने बाणपर पात कया॥ उ ने अपने धनुषपर वषधर सपके समान भयंकर बाण रखा और उसे जोरसे ख चा, मानो यमराजने कालच उठा लया हो॥ ३३ ॥ उसक ाक ट ार नसे भयभीत हो बड़े-बड़े प ी और मृग भाग खड़े ए। वे लयकालके समय मो हत ए जीव के समान ककत वमूढ़ हो गये॥ ३४ ॥



ीरघुनाथजीने व क भाँ त गड़गड़ाहट और लत अश नक भाँ त काश पैदा करनेवाला वह महान् बाण छोड़ दया तथा उसके ारा वालीके व : लपर चोट प ँ चायी॥ ३५ ॥ उस बाणसे वेगपूवक आहत हो महातेज ी परा मी वानरराज वाली त ाल पृ ीपर गर पड़ा॥ ३६ ॥ आ नक पू णमाके दन इ जो वके अ म ऊपर फ का गया इ ज जैसे पृ ीपर गर पड़ता है, उसी कार वाली ी ऋतुके अ म ीहीन, अचेत और आँ सु से ग दक हो धराशायी हो गया और धीरे-धीरे आतनाद करने लगा॥ ३७ ॥ ीरामका वह उ म बाण युगा कालके समान भयंकर तथा सोने-चाँदीसे वभू षत था। पूवकालम महादेवजीने जैसे अपने मुखसे (मुख-म लके अ गत ललाटवत ने से) श ुभूत कामदेवका नाश करनेके लये धूमयु अ क सृ क थी, उसी कार पु षो म ीरामने सु ीवश ु वालीका मदन करनेके लये उस लत बाणको छोड़ा था॥ ३८ ॥ इ कु मार वालीके शरीरसे पानीके समान र क धारा बहने लगी। वह उससे नहा गया और अचेत हो वायुके उखाड़े ए पु त अशोकवृ एवं आकाशसे नीचे गरे ए इ जके समान समरा णम पृ ीपर गर पड़ा॥ ३९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म सोलहवाँ सग पूरा आ॥ १६॥



स हवाँ सग वालीका ीरामच जीको फटकारना



यु म कठोरता दखानेवाला वाली ीरामके बाणसे घायल हो कटे वृ क भाँ त सहसा पृ ीपर गर पड़ा॥ १ ॥ उसका सारा शरीर पृ ीपर पड़ा आ था। तपाये ए सुवणके आभूषण अब भी उसक शोभा बढ़ा रहे थे। वह देवराज इ के ब नर हत जक भाँ त पृ ीपर गर पड़ा था॥ २ ॥ वानर और भालु के यूथप त वालीके धराशायी हो जानेपर यह पृ ी च र हत आकाशक भाँ त शोभाहीन हो गयी॥ ३ ॥ पृ ीपर पड़े होनेपर भी महामना वालीके शरीरको शोभा, ाण, तेज और परा म नह छोड़ सके थे॥ ४ ॥ इ क दी ◌इ र ज टत े सुवणमाला उस वानरराजके ाण, तेज और शोभाको धारण कये ए थी॥ ५ ॥ उस सुवणमालासे वभू षत आ वानरयूथप त वीर वाली सं ाक लालीसे रँगे ए ा भागवाले मेघख के समान शोभा पा रहा था॥ ६ ॥ पृ ीपर गरे होनेपर भी वालीक वह सुवणमाला, उसका शरीर तथा मम लको वदीण करनेवाला वह बाण—ये तीन पृथक् -पृथक् तीन भाग म वभ क ◌इ अ ल ीके समान शोभा पा रहे थे॥ ७ ॥ वीरवर ीरामके धनुषसे चलाये गये उस अ ने वालीके लये गका माग का शत कर दया और उसे परमपदको प ँ चा दया॥ ८ ॥ इस कार यु लम गरा आ इ पु वाली ालार हत अ के समान, पु का य होनेपर पु लोकसे इस पृ ीपर गरे ए राजा यया तके समान तथा महा लयके समय काल ारा पृ ीपर गराये गये सूयके समान जान पड़ता था। उसके गलेम सोनेक माला शोभा दे रही थी। वह महे के समान दुजय और भगवान् व ुके समान दु ह था। उसक छाती चौड़ी, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, मुख दी मान् और ने क पलवणके थे॥ ९—११ ॥



ल णको साथ लये ीरामने वालीको इस अव ाम देखा और वे उसके समीप गये। इस कार ालार हत अ क भाँ त वहाँ गरा आ वह वीर धीरे-धीरे देख रहा था। महापरा मी दोन भा◌इ ीराम और ल ण उस वीरका वशेष स ान करते ए उसके पास गये॥ १२-१३ ॥ उन ीराम तथा महाबली ल णको देखकर वाली धम और वनयसे यु कठोर वाणीम बोला—॥ अब उसम तेज और ाण मा ाम ही रह गये थे। वह बाणसे घायल होकर पृ ीपर पड़ा था और उसक चे ा धीरे-धीरे लु होती जा रही थी। उसने यु म गवयु परा म कट करनेवाले गव ले ीरामसे कठोर वाणीम इस कार कहना आर कया—॥ रघुन न! आप राजा दशरथके सु व ात पु ह। आपका दशन सबको य है। म आपसे यु करने नह आया था। म तो दूसरेके साथ यु म उलझा आ था। उस दशाम आपने मेरा वध करके यहाँ कौन-सा गुण ा कया है— कस महान् यशका उपाजन कया है? क म यु के लये दूसरेपर रोष कट कर रहा था, कतु आपके कारण बीचम ही मृ ुको ा आ॥ १६ ॥ इस भूतलपर सब ाणी आपके यशका वणन करते ए कहते ह— ीरामच जी कु लीन, स गुणस , तेज ी, उ म तका आचरण करनेवाले, क णाका अनुभव करनेवाले, जाके हतैषी, दयालु, महान् उ ाही, समयो चत काय एवं सदाचारके ाता और ढ़ त ह॥ १७-१८ ॥ ‘राजन्! इ य न ह, मनका संयम, मा, धम, धैय, स , परा म तथा अपरा धय को द देना— ये राजाके गुण ह॥ १९ ॥ ‘म आपम इन सभी स ण ु का व ास करके आपके उ म कु लको यादकर ताराके मना करनेपर भी सु ीवके साथ लड़ने आ गया॥ २० ॥ जबतक मने आपको नह देखा था, तबतक मेरे मनम यही वचार उठता था क दूसरेके साथ रोषपूवक जुझते ए मुझको आप असावधान अव ाम अपने बाणसे बेधना उ चत नह समझगे॥ २१ ॥ ‘परंतु आज मुझे मालूम आ क आपक बु मारी गयी है। आप धम जी ह। दखावेके लये धमका चोला पहने ए ह। वा वम अधम ह। आपका आचार- वहार



पापपूण है। आप घास-फू ससे ढके ए कू पके समान धोखा देनेवाले ह॥ २२ ॥ ‘आपने साधु पु ष का-सा वेश धारण कर रखा है; परंतु ह पापी। राखसे ढक ◌इ आगके समान आपका असली प साधु-वेषम छप गया है। म नह जानता था क आपने लोग को छलनेके लये ही धमक आड़ ली है॥ २३ ॥ ‘जब म आपके रा या नगरम को◌इ उप व नह कर रहा था तथा आपका भी तर ार नह करता था, तब आपने मुझ नरपराधको मारा?॥ २४ ॥ ‘म सदा फल-मूलका भोजन करनेवाला और वनम ही वचरनेवाला वानर ँ । म यहाँ आपसे यु नह करता था, दूसरेके साथ मेरी लड़ा◌इ हो रही थी। फर बना अपराधके आपने मुझे मारा?॥ २५ ॥ ‘राजन्! आप एक स ाननीय नरेशके पु ह। व ासके यो ह और देखनेम भी य ह। आपम धमका साधनभूत च (जटा) व ल धारण आ द भी दखायी देता है॥ २६ ॥ ‘ यकु लम उ शा का ाता, संशयर हत तथा धा मक वेश-भूषासे आ होकर भी कौन मनु ऐसा ू रतापूण कम कर सकता है॥ २७ ॥ ‘महाराज! रघुके कु लम आपका ादुभाव आ है। आप धमा ाके पम स ह तो भी इतने अभ ( ू र) नकले! य द यही आपका असली प है तो फर कस लये ऊपरसे भ ( वनीत एवं दयालु) साधु पु षका-सा प धारण करके चार ओर दौड़ते- फरते ह?॥ २८ ॥ ‘राजन्! साम, दान, मा, धम, स , धृ त, परा म और अपरा धय को द देना—ये भूपाल के गुण ह॥ २९ ॥ ‘नरे र राम! हम फल-मूल खानेवाले वनचारी मृग ह। यही हमारी कृ त है; कतु आप तो पु ष (मनु ) ह (अत: हमारे और आपम वैरका को◌इ कारण नह है)॥ ३० ॥ ‘पृ ी, सोना और चाँदी—इ व ु के लये राजा म पर र यु होते ह। ये ही तीन कलहके मूल कारण ह। परंतु यहाँ वे भी नह ह। इस दशाम इस वनम या हमारे फल म आपका ा लोभ हो सकता है॥ ‘नी त और वनय, द और अनु ह—ये राजधम ह, कतु इनके उपयोगके भ - भ अवसर ह (इनका अ ववेकपूवक उपयोग करना उ चत नह है)। राजा को े ाचारी नह होना चा हये॥ ३२ ॥



‘परंतु



आप तो कामके गुलाम, ोधी और मयादाम त न रहनेवाले—च ल ह। नयवनय आ द जो राजा के धम ह, उनके अवसरका वचार कये बना ही कसीका कह भी योग कर देते ह। जहाँ कह भी बाण चलाते- फरते ह॥ ३३ ॥ ‘आपका धमके वषयम आदर नह है और न अथसाधनम ही आपक बु र है। नरे र! आप े ाचारी ह। इस लये आपक इ याँ आपको कह भी ख च ले जाती ह॥ ३४ ॥ ‘काकु



म सवथा नरपराध था तो भी यहाँ मुझे बाणसे मारनेका घृ णत कम करके स ु ष के बीचम आप ा कहगे॥ ३५ ॥ ‘राजाका वध करनेवाला, -ह ारा, गोघाती, चोर, ा णय क हसाम त र रहनेवाला, ना क और प रवे ा (बड़े भा◌इके अ ववा हत रहते अपना ववाह करनेवाला छोटा भा◌इ) ये सब-के -सब नरकगामी होते ह॥ ३६ ॥ ‘चुगली खानेवाला, लोभी, म -ह ारा तथा गु प ीगामी—ये पापा ा के लोकम जाते ह— इसम संशय नह है॥ ३७ ॥ ‘हम वानर का चमड़ा भी तो स ु ष के धारण करनेयो नह होता। हमारे रोम और ह याँ भी व जत ह (छू नेयो नह ह। आप-जैसे धमाचारी पु ष के लये मांस तो सदा ही अभ है; फर कस लोभसे आपने मुझ वानरको अपने बाण का शकार बनाया है?)॥ ३८ ॥ ‘रघुन न! ैव णक म जनक कसी कारणसे मांसाहार (जैसे न नीय कम) म वृ हो गयी है, उनके लये भी पाँच नखवाले जीव मसे पाँच ही भ णके यो बताये गये ह। उनके नाम इस कार ह—गडा, साही, गोह, खरहा और पाँचवाँ कछु आ॥ ३९ ॥ ‘ ीराम! मनीषी पु ष मेरे (वानरके ) चमड़े और ह ीका श नह करते ह। वानरके मांस भी सभीके लये अभ होते ह। इस तरह जसका सब कु छ न ष है, ऐसा पाँच नखवाला म आज आपके हाथसे मारा गया ँ ॥ ४० ॥ ‘मेरी ी तारा सव है। उसने मुझे स और हतक बात बतायी थी। कतु मोहवश उसका उ न करके म कालके अधीन हो गया॥ ४१ ॥ ‘काकु ! जैसे सुशीला युवती पापा ा प तसे सुर त नह हो पाती, उसी कार आपजैसे ामीको पाकर यह वसुधा सनाथ नह हो सकती॥ ४२ ॥ !



‘आप



शठ ( छपे रहकर दूसर का अ य करनेवाले), अपकारी, ु और झूठे ही शा च बने रहनेवाले ह। महा ा राजा दशरथने आप-जैसे पापीको कै से उ कया॥ ४३ ॥ ‘हाय!



जसने सदाचारका र ा तोड़ डाला है, स ु ष के धम एवं मयादाका उ न कया है तथा जसने धम पी अ ु शक भी अवहेलना कर दी है, उस राम पी हाथीके ारा आज म मारा गया॥ ४४ ॥ ‘ऐसा अशुभ, अनु चत और स ु ष ारा न त कम करके आप े पु ष से मलनेपर उनके सामने ा कहगे॥ ४५ ॥ ‘ ीराम! हम उदासीन ा णय पर आपने जो यह परा म कट कया है, ऐसा बलपरा म आप अपना अपकार करनेवाल पर कट कर रहे ह , ऐसा मुझे नह दखायी देता॥ ४६ ॥ ‘राजकु मार! य द आप यु



लम मेरी के सामने आकर मेरे साथ यु करते तो आज मेरे ारा मारे जाकर सूयपु यम देवताका दशन करते होते॥ ४७ ॥ ‘जैसे कसी सोये ए पु षको साँप आकर डँ स ले और वह मर जाय उसी कार रणभू मम मुझ दुजय वीरको आपने छपे रहकर मारा है तथा ऐसा करके आप पापके भागी ए ह॥ ४८ ॥ ‘ जस उ े को लेकर सु ीवका य करनेक कामनासे आपने मेरा वध कया है, उसी उ े क स के लये य द आपने पहले मुझसे ही कहा होता तो म म थलेशकु मारी जानक को एक ही दनम ढूँ ढ़कर आपके पास ला देता॥ ४९ ॥ ‘आपक प ीका अपहरण करनेवाले दुरा ा रा स रावणको म यु म मारे बना ही उसके गलेम र ी बाँधकर पकड़ लाता और उसे आपके हवाले कर देता॥ ‘जैसे मधुकैटभ ारा अप त ◌इ ेता तरी ु तका भगवान् हय ीवने उ ार कया था, उसी कार म आपके आदेशसे म थलेशकु मारी सीताको य द वे समु के जलम या पातालम रखी गयी होती तो भी वहाँसे ला देता॥ ५१ ॥ ‘मेरे गवासी हो जानेपर सु ीव जो यह रा ा करगे, वह तो उ चत ही है। अनु चत इतना ही आ है क आपने मुझे रणभू मम अधमपूवक मारा है॥ ५२ ॥



‘यह



जगत् कभी-न-कभी कालके अधीन होता ही है। इसका ऐसा भाव ही है। अत: भले ही मेरी मृ ु हो जाय, इसके लये मुझे खेद नह है। परंतु मेरे इस तरह मारे जानेका य द आपने उ चत उ र ढूँ ढ़ नकाला हो तो उसे अ ी तरह सोच- वचारकर क हये’॥ ऐसा कहकर महामन ी वानरराजकु मार वाली सूयके समान तेज ी ीरामच जीक ओर देखकर चुप हो गया। उसका मुँह सूख गया था और बाणके आघातसे उसको बड़ी पीड़ा हो रही थी॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म स हवाँ सग पूरा आ॥ १७॥



अठारहवाँ सग ीरामका वालीक बातका उ र देते ए उसे दये गये द का औ च बताना, वालीका न र होकर भगवा े अपने अपराधके लये मा माँगते ए अ दक र ाके लये ाथना करना और ीरामका उसे आ ासन देना



वहाँ मारे जाकर अचेत ए वालीने जब इस कार वनयाभास, धमाभास, अथाभास और हताभाससे यु कठोर बात कह , आ ेप कया, तब उन बात को कहकर मौन ए वानर े वालीसे ीरामच जीने धम, अथ और े गुण से यु परम उ म बात कही। उस समय वाली भाहीन सूय, जलहीन बादल और बुझी ◌इ आगके समान ीहीन तीत होता था॥ १ —३ ॥ ( ीराम बोले—) ‘वानर! धम, अथ, काम और लौ कक सदाचारको तो तुम यं ही नह जानते हो। फर बालो चत अ ववेकके कारण आज यहाँ मेरी न ा करते हो?॥ ४ ॥ ‘सौ ! तुम आचाय ारा स ा नत बु मान् वृ पु ष से पूछे बना ही—उनसे धमके पको ठीक-ठीक समझे बना ही वानरो चत चपलतावश मुझे यहाँ उपदेश देना चाहते हो? अथवा मुझपर आ ेप करनेक इ ा रखते हो॥ ५ ॥ ‘पवत, वन और कानन से यु यह सारी पृ ी इ ाकु वंशी राजा क है; अत: वे यहाँके पशु-प ी और मनु पर दया करने और उ द देनेके भी अ धकारी ह॥ ६ ॥ ‘धमा ा राजा भरत इस पृ ीका पालन करते ह। वे स वादी, सरल तथा धम, अथ और कामके त को जाननेवाले ह; अत: दु के न ह तथा साधु पु ष के त अनु ह करनेम त र रहते ह॥ ७ ॥ ‘ जसम नी त, वनय, स और परा म आ द सभी राजो चत गुण यथावत्- पसे त देखे जायँ, वही देश-काल-त को जाननेवाला राजा होता है (भरतम ये सभी गुण व मान ह)॥ ८॥ ‘भरतक ओरसे हम तथा दूसरे राजा को यह आदेश ा है क जग धमके पालन और सारके लये य कया जाय। इस लये हमलोग धमका चार करनेक इ ासे सारी पृ ीपर वचरते रहते ह॥ ९ ॥



‘राजा



म े भरत धमपर अनुराग रखनेवाले ह। वे समूची पृ ीका पालन कर रहे ह। उनके रहते ए इस पृ ीपर कौन ाणी धमके व आचरण कर सकता है?॥ १० ॥ ‘हम सब लोग अपने े धमम ढ़तापूवक त रहकर भरतक आ ाको सामने रखते ए धममागसे पु षको व धपूवक द देते ह॥ ११ ॥ ‘तुमने अपने जीवनम कामको ही धानता दे रखी थी। राजो चत मागपर तुम कभी र नह रहे। तुमने सदा ही धमको बाधा प ँ चायी और बुरे कम के कारण स ु ष ारा सदा तु ारी न ा क गयी॥ १२ ॥ ‘बड़ा भा◌इ, पता तथा जो व ा देता है, वह गु —ये तीन धममागपर त रहनेवाले पु ष के लये पताके तु माननीय ह, ऐसा समझना चा हये॥ १३ ॥ ‘इसी कार छोटा भा◌इ, पु और गुणवान् श —ये तीन पु के तु समझे जाने यो ह। उनके त ऐसा भाव रखनेम धम ही कारण है॥ १४ ॥ ‘वानर! स न का धम सू होता है, वह परम दु य है—उसे समझना अ क ठन है। सम ा णय के अ :करणम वराजमान जो परमा ा ह, वे ही सबके शुभ और अशुभको जानते ह॥ १५ ॥ ‘तुम यं भी चपल हो और च ल च वाले अ जता ा वानर के साथ रहते हो; अत: जैसे को◌इ ज ा पु ष ज ा से ही रा ा पूछे, उसी कार तुम उन चपल वानर के साथ परामश करते हो, फर तुम धमका वचार ा कर सकते हो?—उसके पको कै से समझ सकते हो?॥ १६ ॥ ‘मने यहाँ जो कु छ कहा है, उसका अ भ ाय तु करके बताता ँ । तु के वल रोषवश मेरी न ा नह करनी चा हये॥ १७ ॥ ‘मने तु मारा है? उसका कारण सुनो और समझो। तुम सनातन धमका ाग करके अपने छोटे भा◌इक ीसे सहवास करते हो॥ १८ ॥ ‘इस महामना सु ीवके जीते-जी इसक प ी माका, जो तु ारी पु वधूके समान है, कामवश उपभोग करते हो। अत: पापाचारी हो॥ १९ ॥ ‘वानर! इस तरह तुम धमसे हो े ाचारी हो गये हो और अपने भा◌इक ीको गले लगाते हो। तु ारे इसी अपराधके कारण तु यह द दया गया है॥ २० ॥



‘वानरराज!



जो लोकाचारसे होकर लोक व आचरण करता है, उसे रोकने या राहपर लानेके लये म द के सवा और को◌इ उपाय नह देखता॥ २१ ॥ ‘म उ म कु लम उ य ँ ; अत: म तु ारे पापको मा नह कर सकता। जो पु ष अपनी क ा, ब हन अथवा छोटे भा◌इक ीके पास काम-बु से जाता है, उसका वध करना ही उसके लये उपयु द माना गया है॥ २२ १/२ ॥ ‘हमारे राजा भरत ह। हमलोग तो के वल उनके आदेशका पालन करनेवाले ह। तुम धमसे गर गये हो; अत: तु ारी उपे ा कै से क जा सकती थी॥ २३ १/२ ॥ ‘ व ान् राजा भरत महान् धमसे ए पु षको द देते और धमा ा पु षका धमपूवक पालन करते ए कामास े ाचारी पु ष के न हम त र रहते ह॥ ‘हरी र! हमलोग तो भरतक आ ाको ही माण मानकर धममयादाका उ न करनेवाले तु ारे-जैसे लोग को द देनेके लये सदा उ त रहते ह॥ २५ ॥ सु ीवके साथ मेरी म ता हो चुक है। उनके त मेरा वही भाव है, जो ल णके त है। वे अपनी ी और रा क ा के लये मेरी भला◌इ करनेके लये भी क टब ह। मने वानर के समीप इ ी और रा दलानेके लये त ा भी कर ली है। ऐसी दशाम मेरे-जैसा मनु अपनी त ाक ओरसे कै से हटा सकता है॥ २६-२७ ॥ ये सभी धमानुकूल महान् कारण एक साथ उप त हो गये, जनसे ववश होकर तु उ चत द देना पड़ा है। तुम भी इसका अनुमोदन करो॥ २८ ॥ ‘धमपर रखनेवाले मनु के लये म का उपकार करना धम ही माना गया है; अत: तु जो यह द दया गया है, वह धमके अनुकूल है। ऐसा ही तु समझना चा हये॥ २९ ॥ ‘य द राजा होकर तुम धमका अनुसरण करते तो तु भी वही काम करना पड़ता, जो मने कया है। मनुने राजो चत सदाचारका तपादन करनेवाले दो ोक कहे ह, जो ृ तय म सुने जाते ह और ज धमपालनम कु शल पु ष ने सादर ीकार कया। उ के अनुसार इस समय यह मेरा बताव आ है (वे ोक इस कार ह—)॥ ३० ॥ ‘मनु पाप करके य द राजाके दये ए द को भोग लेते ह तो वे शु होकर पु ा ा साधु पु ष क भाँ त गलोकम जाते ह। (चोर आ द पापी जब राजाके सामने उप त ह उस समय उ ) राजा द दे अथवा दया करके छोड़ दे। चोर आ द पापी पु ष अपने पापसे मु



हो जाता है; कतु य द राजा पापीको उ चत द नह देता तो उसे यं उसके पापका फल भोगना पड़ता है*॥ ३१-३२ ॥ ‘तुमने जैसा पाप कया है, वैसा ही पाप ाचीन कालम एक मणने कया था। उसे मेरे पूवज महाराज मा ाताने बड़ा कठोर द दया था, जो शा के अनुसार अभी था॥ ३३ ॥ ‘य द राजा द देनेम माद कर जायँ तो उ दूसर के कये ए पाप भी भोगने पड़ते ह तथा उसके लये जब वे ाय करते ह तभी उनका दोष शा होता है॥ ३४ ॥ ‘अत: वानर े ! प ा ाप करनेसे को◌इ लाभ नह है। सवथा धमके अनुसार ही तु ारा वध कया गया है; क हमलोग अपने वशम नह ह (शा के ही अधीन ह)॥ ३५ ॥ ‘वानर शरोमणे! तु ारे वधका जो दूसरा कारण है, उसे भी सुन लो। वीर! उस महान् कारणको सुनकर तु मेरे त ोध नह करना चा हये॥ ३६ ॥ ‘वानर े ! इस कायके लये मेरे मनम न तो संताप होता है और न खेद ही। मनु (राजा आ द) बड़े-बड़े जाल बछाकर फं दे फै लाकर और नाना कारके कू ट उपाय (गु ग के नमाण आ द) करके छपे रहकर सामने आकर ब त-से मृग को पकड़ लेते ह; भले ही वे भयभीत होकर भागते ह या व होकर अ नकट बैठे ह ॥ ३७-३८ ॥ ‘मांसाहारी मनु ( य) सावधान, असावधान अथवा वमुख होकर भागनेवाले पशु को भी अ घायल कर देते ह; कतु उनके लये इस मृगयाम दोष नह होता॥ ३९ ॥ ‘वानर! धम राज ष भी इस जग मृगयाके लये जाते ह और व वध ज ु का वध करते ह। इस लये मने तु यु म अपने बाणका नशाना बनाया है। तुम मुझसे यु करते थे या नह करते थे, तु ारी व ताम को◌इ अ र नह आता; क तुम शाखामृग हो (और मृगया करनेका यको अ धकार है)॥ ४० ॥ ‘वानर े ! राजालोग दुलभ धम, जीवन और लौ कक अ ुदयके देनेवाले होते ह; इसम संशय नह है॥ ४१ ॥ ‘अत: उनक हसा न करे, उनक न ा न करे, उनके त आ ेप भी न करे और न उनसे अ य वचन ही बोले; क वे वा वम देवता ह, जो मनु पसे इस पृ ीपर वचरते रहते ह॥ ४२ ॥ ‘तुम तो धमके पको न समझकर के वल



रोषके वशीभूत हो गये हो, इस लये पता- पतामह के धमपर त रहनेवाले मेरी न ा कर रहे हो’॥ ४३ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर वालीके मनम बड़ी था ◌इ। इसे धमके त का न य हो गया। उसने ीरामच जीके दोषका च न ाग दया॥ ४४ ॥ इसके बाद वानरराज वालीने ीरामच जीसे हाथ जोड़कर कहा—‘नर े ! आप जो कु छ कहते ह, बलकु ल ठीक है; इसम संशय नह है॥ ४५ ॥ ‘आप-जैसे े पु षको मुझ-जैसा न ेणीका ाणी उ चत उ र नह दे सकता; अत: मने मादवश पहले जो अनु चत बात कह डाली है, उसम भी आपको मेरा अपराध नह मानना चा हये। रघुन न! आप परमाथत के यथाथ ाता और जाजन के हतम त र रहनेवाले ह। आपक बु काय-कारणके न यम न ा एवं नमल है॥ ४६-४७ ॥ ‘धम ! म धम ा णय म अ ग ँ और इसी पम मेरी सव स है तो भी आज आपक शरणम आया ँ । अपनी धमत क वाणीसे आज मेरी भी र ा क जये’॥ ४८ ॥



इतना कहते-कहते आँ सु से वालीका गला भर आया और वह क चड़म फँ से ए हाथीक तरह आतनाद करके ीरामक ओर देखता आ धीरे-धीरे बोला॥ ४९ ॥ ‘भगवन्! मुझे अपने लये, ताराके लये तथा ब -ु बा व के लये भी उतना शोक नह होता है, जतना सुवणका अ द धारण करनेवाले े गुणस पु अ दके लये हो रहा है॥ ५० ॥ ‘मने बचपनसे ही उसका बड़ा दुलार कया है; अब मुझे न देखकर वह ब त दु:खी होगा और जसका जल पी लया गया हो, उस तालाबक तरह सूख जायगा॥ ५१ ॥ ‘ ीराम! वह अभी बालक है। उसक बु प रप नह ◌इ है। मेरा इकलौता बेटा होनेके कारण ताराकु मार अ द मुझे बड़ा य है। आप मेरे उस महाबली पु क र ा क जयेगा॥ ५२ ॥ ‘सु ीव और अ द दोन के त आप स ाव रख। अब आप ही इन लोग के र क तथा इ कत -अकत क श ा देनेवाले ह॥ ५३ ॥



‘राजन्!



नरे र! भरत और ल णके त आपका जैसा बताव है, वही सु ीव तथा अ दके त भी होना चा हये। आप उसी भावसे इन दोन का रण कर॥ ५४ ॥ ‘बेचारी ताराक बड़ी शोचनीय अव ा हो गयी है। मेरे ही अपराधसे उसे भी अपरा धनी समझकर सु ीव उसका तर ार न करे, इस बातक भी व ा क जयेगा॥ ५५ ॥ ‘सु ीव आपका कृ पापा होकर ही इस रा का यथाथ पसे पालन कर सकता है। आपके अधीन होकर आपके च का अनुसरण करनेवाला पु ष ग और पृ ीका भी रा पा सकता और उसका अ ी तरह पालन कर सकता है॥ ५६ १/२ ॥ ‘म चाहता था क आपके हाथसे मेरा वध हो; इसी लये ताराके मना करनेपर भी म अपने भा◌इ सु ीवके साथ यु करनेके लये चला आया’॥ ५७ १/२ ॥ ीरामच जीसे ऐसा कहकर वानरराज वाली चुप हो गया। उस समय उसक ानश का वकास हो गया था। ीरामच जीने धमके यथाथ पको कट करनेवाली साधु पु ष ारा शं सत वाणीम उससे कहा—‘वानर े ! तु इसके लये संताप नह करना चा हये। क प वर! तु हमारे और अपने लये भी च ा करनेक आव कता नह है; क हमलोग तु ारी अपे ा वशेष ह, इस लये हमने धमानुकूल काय करनेका ही न य कर रखा है॥ ५८—६० ॥ ‘जो द नीय पु षको द देता है तथा जो द का अ धकारी होकर द भोगता है, उनमसे द नीय अपने अपराधके फल पम शासकका दया आ द भोगकर तथा द देनेवाला शासक उसके उस फलभोगम कारण— न म बनकर कृ ताथ हो जाते ह— अपना-अपना कत पूरा कर लेनेके कारण कम प ऋणसे मु हो जाते ह। अत: वे दु:खी नह होते॥ ६१ ॥ ‘तुम इस द को पाकर पापर हत ए और इस द का वधान करनेवाले शा ारा क थत द हण प मागसे ही चलकर तु धमानुकूल शु पक ा हो गयी॥ ६२ ॥ ‘अब तुम अपने दयम त शोक, मोह और भयका ाग कर दो। वानर े ! तुम दैवके वधानको नह लाँघ सकते॥ ६३ ॥ ‘वानरे र! कु मार अ द तु ारे जी वत रहनेपर जैसा था, उसी कार सु ीवके और मेरे पास भी सुखसे रहेगा, इसम संशय नह है’॥ ६४ ॥



यु म श ुका मानमदन करनेवाले महा ा ीरामच जीका धममागके अनुकूल और मान सक श ा का समाधान करनेवाला मधुर वचन सुनकर वानर वालीने यह सु र यु यु वचन कहा—॥ ६५ ॥ ‘ भो! देवराज इ के समान भयंकर परा म कट करनेवाले नरे र! म आपके बाणसे पी ड़त होनेके कारण अचेत हो गया था। इस लये अनजानम मने जो आपके त कठोर बात कह डाली है, उसे आप मा क जयेगा। इसके लये म ाथनापूवक आपको स करना चाहता ँ ’॥ ६६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म अठारहवाँ सग पूरा आ॥ १८॥ * मनु



ृ तम ये दोन



ोक क चत् पाठा रके साथ इस कार मलते ह—



राज भ: कृतद ा ु कृ ा पापा न मानवा:। नमला: स : सुकृ तनो यथा॥ शासनाद ् वा वमो ाद ् वा ेन: राजा ेन ा ो त क षम्॥



ेयाद ् वमु



गमाया



ते। अशा स ा तु तं (८। ३१८,३१६) ५३५



उ ीसवाँ सग अ दस हत ताराका भागे ए वानर से बात करके वालीके समीप आना और उसक ददु शा देखकर रोना



वानर का महाराज वाली बाणसे पी ड़त होकर भू मपर पड़ा था। ीरामच जीके यु यु वचन ारा अपनी बातका उ र पाकर उसे फर को◌इ जवाब न सूझा॥ १ ॥ प र क मार पड़नेसे उसके अ टूट-फू ट गये थे। वृ के आघातसे भी वह ब त घायल हो गया था और ीरामके बाणसे आ ा होकर तो वह जीवनके अ कालम ही प ँ च गया था। उस समय वह मू त हो गया॥ २ ॥ उसक प ी ताराने सुना क यु लम वानर े वाली ीरामके चलाये ए बाणसे मारे गये॥ ३ ॥ अपने ामीके वधका अ भयंकर एवं अ य समाचार सुनकर वह ब त उ हो उठी और अपने पु अ दको साथ ले उस पवतक क रासे बाहर नकली॥ ४ ॥ अ दको चार ओरसे घेरकर उनक र ा करनेवाले जो महाबली वानर थे, वे ीरामच जीको धनुष लये देख भयभीत होकर भाग चले॥ ५ ॥ ताराने वेगसे भागकर आते ए उन भयभीत वानर को देखा। वे जनके यूथप त मारे गये ह , उन यूथ मृग के समान जान पड़ते थे॥ ६ ॥ वे सब वानर ीरामसे इस कार डरे ए थे, मानो उनके बाण इनके पीछे आ रहे ह । उन दु:खी वानर के पास प ँ चकर सती-सा ी तारा और भी दु:खी हो गयी तथा उनसे इस कार बोली—॥ ७ ॥ ‘वानरो! तुम तो उन राज सह वालीके आगे-आगे चलनेवाले थे। अब उ छोड़कर अ भयभीत हो दुग तम पड़कर भागे जा रहे हो?॥ ८ ॥ ‘य द रा के लोभसे उस ू र भा◌इ सु ीवने ीरामको े रत करके उनके ारा दूरसे चलाये ए और दूरतक जानेवाले बाण ारा अपने भा◌इको मरवा दया है तो तुमलोग भागे जा रहे हो?’॥ ९ ॥



वालीक प ीका वह वचन सुनकर इ ानुसार प धारण करनेवाले उन वानर ने क ाणमयी तारा देवीको स ो धत करके सवस तसे श म यह समयो चत बात कही—॥ १० ॥ ‘दे व! अभी तु ारा पु जी वत है। तुम लौट चलो और अपने पु अ दक र ा करो। ीरामका प धारण करके यं यमराज आ प ँ चा है, जो वालीको मारकर अपने साथ ले जा रहा है॥ ११ ॥ ‘वालीके चलाये ए वृ और बड़ी-बड़ी शला को अपने व तु बाण से वदीण करके ीरामने वालीको मार गराया है। मानो व धारी इ ने अपने व के ारा कसी महान् पवतको धराशायी कर दया हो॥ १२ ॥ ‘इ के समान तेज ी इन वानर े वालीके मारे जानेपर यह सारी वानर-सेना ीरामसे परा जत-सी होकर भाग खड़ी ◌इ है॥ १३ ॥ ‘तुम शूरवीर ारा इस नगरीक र ा करो। कु मार अ दका क ाके रा पर अ भषेक कर दो। राज सहासनपर बैठे ए वा लकु मार अ दक सभी वानर सेवा करगे॥ १४ ॥ ‘अथवा सुमु ख! अब इस नगरम तु ारा रहना हम अ ा नह जान पड़ता; क क ाके दुगम ान म अभी सु ीवप ीय वानर शी वेश करगे। यहाँ ब त-से ऐसे वनचारी वानर ह, जनमसे कु छ तो अपनी य के साथ ह और कु छ य से बछु ड़े ए ह। उनम रा वषयक लोभ पैदा हो गया है और पहले हमलोग के ारा रा -सुखसे व त कये गये ह। अत: इस समय उन सबसे हमलोग को महान् भय ा हो सकता है’॥ १५-१६ ॥ अभी थोड़ी ही दूरतक आये ए उन वानर क यह बात सुनकर मनोहर हासवाली क ाणी ताराने उ अपने अनु प उ र दया—॥ १७ ॥ ‘वानरो! जब मेरे महाभाग प तदेव क प सह वाली ही न हो रहे ह, तब मुझे पु से, रा से तथा अपने इस जीवनसे भी ा योजन है?॥ १८ ॥ ‘म तो, ज ीरामके चलाये ए बाणने मार गराया है, उन महा ा वालीके चरण के समीप ही जाऊँ गी’॥ १९ ॥ ऐसा कहकर शोकसे ाकु ल ◌इ तारा रोती और अपने दोन हाथ से दु:खपूवक सर एवं छाती पीटती ◌इ बड़े जोरसे दौड़ी॥ २० ॥



आगे बढ़ती ◌इ ताराने देखा, जो यु म कभी पीठ न दखानेवाले दानवराज का भी वध करनेम समथ थे, वे मेरे प त वानरराज वाली पृ ीपर पड़े ए ह॥ २१ ॥ व चलानेवाले इ के समान जो रणभू मम बड़े-बड़े पवत को उठाकर फ कते थे, जनके वेगम च आँ धीका समावेश था, जनका सहनाद महान् मेघ क ग ीर गजनाको भी तर ृ त कर देता था तथा जो इ के तु परा मी थे, वे ही इस समय वषा करके शा ए बादलके समान चे ासे वरत हो गये ह। जो यं गजना करके गजनेवाले वीर के मनम भय उ कर देते थे, वे शूरवीर वाली एक दूसरे शूरवीरके ारा मार गराये गये ह। जैसे मांसके लये एक सहने दूसरे सहको मार डाला हो, उसी कार रा के लये अपने भा◌इके ारा ही इनका वध कया गया है॥ २२-२३ ॥ जो सब लोग के ारा पू जत हो, जहाँ पताका फहरायी गयी हो तथा जसके पास देवताक वेदी शोभा पाती हो, उस चै वृ या देवालयको वहाँ छपे ए कसी नागको पकड़नेके लये य द ग ड़ने मथ डाला हो—न - कर दया हो तो उसक जैसी दुरव ा देखी जाती है, वैसी ही दशा आज वालीक हो रही है (यह सब ताराने देखा)॥ २४ ॥ आगे जानेपर उसने देखा, अपने तेज ी धनुषको धरतीपर टेककर उसके सहारे ीरामच जी खड़े ह। साथ ही उनके छोटे भा◌इ ल ण ह और वह प तके छोटे भा◌इ सु ीव भी मौजूद ह॥ २५ ॥ उन सबको पार करके वह रणभू मम घायल पड़े ए अपने प तके पास प ँ ची। उ देखकर उसके मनम बड़ी था ◌इ और वह अ ाकु ल होकर पृ ीपर गर पड़ी॥ २६ ॥



फर मानो वह सोकर उठी हो, इस कार ‘हा आयपु !’ कहकर मृ ुपाशसे बँधे ए प तक ओर देखती ◌इ रोने लगी॥ २७ ॥ उस समय कु ररीके समान क ण न करती ◌इ तारा तथा उसके साथ आये ए अ दको देखकर सु ीवको बड़ा क आ। वे वषादम डू ब गये॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ १९॥



बीसवाँ सग ताराका वलाप



च मुखी ताराने देखा, मेरे ामी वानरराज वाली ीरामच जीके धनुषसे छू टे ए ाणा कारी बाणसे घायल होकर धरतीपर पड़े ह, उस अव ाम उनके पास प ँ चकर वह भा मनी उनके शरीरसे लपट गयी। जो अपने शरीरसे गजराज और ग रराजको भी मात करते थे, उ वानरराजको बाणसे आहत होकर जड़से उखड़े ए वृ क भाँ त धराशायी आ देख ताराका दय शोकसे संत हो उठा और वह आतुर होकर वलाप करने लगी—॥ १—३ ॥ ‘रणम भयानक परा म कट करनेवाले महान् वीर वानरराज! आज इस समय मुझे अपने सामने पाकर भी आप बोलते नह ह?॥ ४ ॥ क प े ! उ ठये और उ म श ाका आ य ली जये। आप-जैसे े भूपाल पृ ीपर नह सोते ह॥ ५ ॥ ‘पृ ीनाथ! न य ही यह पृ ी आपको अ ारी है, तभी तो न ाण होनेपर भी आप आज मुझे छोड़कर अपने अ से इस वसुधाका ही आ ल न कये सो रहे ह॥ ६ ॥ ‘वीरवर! आपने धमयु यु करके गके मागम भी अव ही क ाक भाँ त को◌इ रमणीय पुरी बना ली है, यह बात आज हो गयी (अ था आप क ाको छोड़कर यहाँ सोते)॥ ७ ॥ ‘आपके साथ मधुर सुग यु वन म हमने जो-जो वहार कये ह, उन सबको इस समय आपने सदाके लये समा कर दया॥ ८ ॥ ‘नाथ! आप बड़े-बड़े यूथप तय के भी ामी थे। आज आपके मारे जानेसे मेरा सारा आन लुट गया। म सब कारसे नराश होकर शोकके समु म डू ब गयी ँ ॥ ९ ॥ ‘ न य ही मेरा दय बड़ा कठोर है, जो आज आपको पृ ीपर पड़ा देखकर भी शोकसे संत हो फट नह जाता—इसके हजार टुकड़े नह हो जाते॥ १० ॥ ‘वानरराज! आपने जो सु ीवक ी छीन ली और उ घरसे बाहर नकाल दया, उसीका यह फल आपको ा आ है॥ ११ ॥



‘वानरे ! म आपका



हत चाहती थी और आपके क ाण-साधनम ही लगी रहती थी तो भी मने आपसे जो हतकर बात कही थी, उसे मोहवश आपने नह माना और उलटे मेरी ही न ा क ॥ १२ ॥ ‘दूसर को मान देनेवाले आयपु ! न य ही आप गम जाकर प और यौवनके अ भमानसे म रहनेवाली के लकलाम नपुण अ रा के मनको अपने द सौ यसे मथ डालगे॥ १३ ॥ ‘ न य ही आज आपके जीवनका अ कर देनेवाला संशयर हत काल यहाँ आ प ँ चा था, जसने कसीके भी वशम न आनेवाले आपको बलपूवक सु ीवके वशम डाल दया’॥ १४ ॥ (अब



ीरामको सुनाकर बोली)—‘ककु -कु लम अवतीण ए ीरामच जीने दूसरेके साथ यु करते ए वालीको मारकर अ न त कम कया है। इस कु त कमको करके भी जो ये संत नह हो रहे ह, यह सवथा अनु चत है’॥ १५ ॥ ( फर वालीसे बोली—)‘मने कभी दीनतापूण जीवन नह बताया था, ऐसे महान् दु:खका सामना नह कया था; परंतु आज आपके बना म दीन हो गयी, अब मुझे अनाथक भाँ त शोक-संतापसे पूण वैध जीवन तीत करना होगा॥ १६ ॥ ‘नाथ! आपने अपने वीरपु अ दको, जो सुख भोगने यो और सुकुमार है, बड़ा लाड़ार कया था। अब ोधसे पागल ए चाचाके वशम पड़कर मेरे बेटेक ा दशा होगी?॥ १७ ॥ ‘बेटा अ द! अपने धम ेमी पताको अ ी तरह देख लो। अब तु ारे लये उनका दशन दुलभ हो जायगा॥ १८ ॥ ‘ ाणनाथ! आप दूसरे देशको जा रहे ह। अपने पु का म क सूँघकर इसे धैय बँधाइये और मेरे लये भी कु छ संदेश दी जये॥ १९ ॥ ीरामने आपको मारकर ब त बड़ा कम कया है। उ ने सु ीवसे जो त ा क थी, उसके ऋणको उतार दया’॥ २० ॥ (अब सु ीवको सुनाकर कहने लगी—)‘सु ीव! तु ारा मनोरथ सफल हो। तु ारे भा◌इ, ज तुम अपना श ु समझते थे, मारे गये। अब बेखटके रा भोगो। माको भी ा कर लोगे’॥ २१ ॥



( फर वालीसे बोली—)‘वानरे र! म आपक ँ , फर भी आप मुझसे बोलते नह ह? दे खये,



ारी प ी ँ और इस तरह रोती-कलपती आपक ये ब त-सी सु री भायाएँ यहाँ



उप त ह’॥ २२ ॥ ताराका वलाप सुनकर अ वानर-प याँ भी सब ओरसे अ दको पकड़कर दीन एवं दु:खसे ाकु ल हो जोर-जोरसे न करने लग ॥ २३ ॥ (तदन र ताराने फर कहा—) ‘बाजूब से वभू षत वीर भुजा वाले वानरराज! आप अ दको छोड़कर दीघकालके लये दूसरे देशम जा रहे ह? जो गुण म आपके सवथा नकट है—जो आपके समान ही गुणवान् है तथा जसका य एवं मनोहर वेश है, ऐसे य पु को ागकर इस कार चला जाना आपके लये कदा प उ चत नह है॥ २४ ॥ ‘महाबाहो! य द नासमझीके कारण मने आपका को◌इ अपराध कया हो तो आप उसे मा कर द। वानरवंशके ामी वीर आयपु ! म आपके चरण म म क रखकर यह ाथना करती ँ ’॥ २५ ॥ इस कार अ वानर-प य के साथ प तके समीप क ण वलाप करती ◌इ अ न सु री ताराने जहाँ वाली पृ ीपर पड़ा था, वह उसके समीप बैठकर आमरण अनशन करनेका न य कया॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म बीसवाँ सग पूरा आ॥ २०॥







सवाँ सग



हनुमा ीका ताराको समझाना और ताराका प तके अनुगमनका ही न य करना



ताराको आकाशसे टूटकर गरी ◌इ ता रकाके समान पृ ीपर पड़ी देख वानरयूथप त हनुमा े धीरेधीरे समझाना आर कया—॥ १ ॥ ‘दे व! जीवके ारा गुणबु से अथवा दोषबु से कये ए जो अपने कम ह, वे ही सुखदु:ख प फलक ा करानेवाले होते ह। परलोकम जाकर ेक जीव शा भावसे रहकर अपने शुभ और अशुभ—सभी कम का फल भोगता है॥ २ ॥ ‘तुम यं शोचनीया हो; फर दूसरे कसको शोचनीय समझकर शोक कर रही हो? यं दीन होकर दूसरे कस दीनपर दया करती हो? पानीके बुलबुलेके समान इस शरीरम रहकर कौन जीव कस जीवके लये शोचनीय है?॥ ३ ॥ ‘तु ारे पु कु मार अ द जी वत ह। अब तु इ क ओर देखना चा हये और इनके लये भ व म जो उ तके साधक े काय ह , उनका वचार करना चा हये॥ ४ ॥ दे व! तुम वदुषी हो, अत: जानती ही हो क ा णय के ज और मृ ुका को◌इ न त समय नह है। इस लये शुभ (परलोकके लये सुखद) कम ही करना चा हये। अ धक रोना-धोना आ द जो लौ कक कम ( वहार) है, उसे नह करना चा हये॥ ५ ॥ ‘सैकड़ , हजार और लाख वानर जनपर आशा लगाये जीवन- नवाह करते थे, वे ही ये वानरराज आज अपनी ार न मत आयुक अव ध पूरी कर चुके॥ ६ ॥ ‘इ ने नी तशा के अनुसार अथका साधन— रा -कायका संचालन कया है। ये उपयु समयपर साम, दान और माका वहार करते आये ह। अत: धमानुसार ा होनेवाले लोकम गये ह। इनके लये तु शोक नह करना चा हये॥ ७ ॥ ‘सती सा ी दे व! ये सभी े वानर, ये तु ारे पु अ द तथा वानर और भालु का यह रा —सब तुमसे ही सनाथ ह—तु इन सबक ा मनी हो॥ ८ ॥ ‘भा म न! ये अ द और सु ीव दोन ही शोकसे संत हो रहे ह। तुम इ भावी कायके लये े रत करो। तु ारे अधीन रहकर अ द इस पृ ीका शासन कर॥ ९ ॥



‘शा



म संतान होनेका जो योजन बतलाया गया है तथा इस समय राजा वालीके पारलौ कक क ाणके लये जो कु छ कत है, वही करो—यही समयक न त ेरणा है॥ १० ॥ ‘वानरराजका अ े -सं ार और कु मार अ दका रा ा भषेक कया जाय। बेटेको राज सहासनपर बैठा देखकर तु शा मलेगी’॥ ११ ॥ तारा अपने ामीके वरह-शोकसे पी ड़त थी। वह उपयु वचन सुनकर सामने खड़े ए हनुमा ीसे बोली—॥ १२ ॥ ‘अ दके समान सौ पु एक ओर और मरे होनेपर भी इस वीरवर ामीका आ ल न करके सती होना दूसरी ओर—इन दोन मसे अपने वीर प तके शरीरका आ ल न ही मुझे े जान पड़ता है॥ १३ ॥ ‘म न तो वानर के रा क ा मनी ँ और न मुझे अ दके लये ही कु छ करनेका अ धकार है। इसके चाचा सु ीव ही सम काय के लये समथ ह और वे ही मेरी अपे ा इसके नकटवत भी ह॥ १४ ॥ ‘क प े हनुमा ी! अ दके वषयम आपक यह सलाह मेरे लये कामम लाने यो नह है। आपको यह समझना चा हये क पु के वा वक ब ु (सहायक) पता और चाचा ही ह। माता नह ॥ १५ ॥ मेरे लये वानरराज वालीका अनुगमन करनेसे बढ़कर इस लोक या परलोकम को◌इ भी काय उ चत नह है। यु म श ुसे जूझकर मरे ए अपने वीर ामीके ारा से वत चता आ दक श ापर शयन करना ही मेरे लये सवथा यो है’॥ १६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म इ सवाँ सग पूरा आ॥ २१॥



बा◌इसवाँ सग वालीका सु ीव और अ दसे अपने मनक बात कहकर ाण को



ाग देना



वालीके ाण क ग त श थल पड़ गयी थी। वह धीरे-धीरे ऊ साँस लेता आ सब ओर देखने लगा। सबसे पहले उसने अपने सामने खड़े ए छोटे भा◌इ सु ीवको देखा॥ १ ॥ यु म ज वजय ा ◌इ थी, उन वानरराज सु ीवको स ो धत करके वालीने बड़े ेहके साथ वाणीम कहा—॥ २ ॥ ‘सु ीव! पूवज के कसी पापसे अव ावी बु मोहने मुझे बलपूवक आकृ कर लया था, इसी लये म तु श ु समझने लगा था और इस कारण मेरे ारा जो तु ारे त अपराध ए, उसके लये तु मेरे त दोष- नह करनी चा हये॥ ३ ॥ ‘तात! म समझता ँ हम दोन के लये एक साथ रहकर सुख भोगना नह बदा था, इसी लये दो भाइय म जो ेम होना चा हये, वह न होकर हमलोग म उसके वपरीत वैरभाव उ हो गया॥ ४ ॥ ‘भा◌इ! तुम आज ही यह वानर का रा ीकार करो तथा मुझे अभी यमराजके घर जानेको तैयार समझो॥ ‘म अपने जीवन, रा , वपुल स और शं सत यशका भी तुरंत ही ाग कर रहा ँ॥ ६ ॥ ‘वीर! राजन्! इस अव ाम म जो कु छ क ँ गा, वह य प करनेम क ठन है, तथा प तुम उसे अव करना॥ ७ ॥ ‘देखो, मेरा बेटा अ द धरतीपर पड़ा है। इसका मुँह आँ सु से भीगा है। यह सुखम पला है और सुख भोगनेके ही यो है। बालक होनेपर भी यह मूढ़ नह है॥ ८ ॥ ‘यह मुझे ाण से भी बढ़कर य है। मेरे न रहनेपर तुम इसे सगे पु क भाँ त मानना। इसके लये कसी भी सुख-सु वधाक कमी न होने देना और सदा सब जगह इसक र ा करते रहना॥ ९ ॥ ‘वानरराज! मेरे ही समान तुम भी इसके पता, दाता, सब कारसे र क और भयके अवसर पर अभय देनेवाले हो॥ १० ॥



‘ताराका



यह तेज ी पु तु ारे समान ही परा मी है। उन रा स के वधके समय यह सदा तु ारे आगे रहेगा॥ ११ ॥ ‘यह बलवान् तेज ी त ण ताराकु मार अ द रणभू मम परा म कट करते ए अपने यो कम करेगा॥ १२ ॥ ‘सुषेणक पु ी यह तारा सू वषय के नणय करने तथा नाना कारके उ ात के च को समझनेम सवथा नपुण है॥ १३ ॥ ‘ जस कायको अ ा बताये, उसे संदेहर हत होकर करना। ताराक कसी भी स तका प रणाम उलटा नह होता॥ १४ ॥ ‘ ीरामच जीका काम तु न:श होकर करना चा हये। उसको न करनेसे तु पाप लगेगा और अपमा नत होनेपर ीरामच जी तुझे मार डालगे॥ १५ ॥ ‘सु ीव! मेरी यह सोनेक द माला तुम धारण कर लो। इसम उदार ल ीका वास है। मेरे मर जानेपर इसक ी न हो जायगी। अत: अभीसे पहन लो’॥ १६ ॥ वालीने ातृ ेहके कारण जब ऐसी बात कह , तब उसके वधके कारण जो हष आ था, उसे ागकर सु ीव फर दु:खी हो गये, मानो च मापर हण लग गया हो॥ १७ ॥ वालीके उस वचनसे सु ीवका वैरभाव शा हो गया। वे सावधान होकर उ चत बताव करने लगे। उ ने भा◌इक आ ासे वह सोनेक माला हण कर ली॥ १८ ॥ सु ीवको वह सुवणमयी माला देनेके प ात् वालीने मरनेका न य कर लया। फर अपने सामने खड़े ए पु अ दक ओर देखकर ेहके साथ कहा—॥ १९ ॥ ‘बेटा! अब देश-कालको समझो—कब और कहाँ कै सा बताव करना चा हये, इसका न य करके वैसा ही आचरण करो। समयानुसार य-अ य, सुख-दु:ख—जो कु छ आ पड़े उसको सहो। अपने दयम माभाव रखो और सदा सु ीवक आ ाके अधीन रहो॥ २० ॥ ‘महाबाहो! सदा मेरा दुलार पाकर जस कार तुम रहते आये हो, य द वैसा ही बताव अब भी करोगे तो सु ीव तु ारा वशेष आदर नह करगे॥ २१ ॥ ‘श ुदमन अ द! तुम इनके श ु का साथ मत दो। जो इनके म न ह , उनसे भी न मलो और अपनी इ य को वशम रखकर सदा अपने ामी सु ीवके काय-साधनम संल रहते ए उ के अधीन रहो॥ २२ ॥



‘ कसीके



साथ अ ेम न करो और ेमका सवथा अभाव भी न होने दो; क ये दोन ही महान् दोष ह। अत: म म तपर ही रखो’॥ २३ ॥ ऐसा कहकर बाणके आघातसे अ घायल ए वालीक आँ ख घूमने लग । उसके भयंकर दाँत खुल गये और ाण-पखे उड़ गये॥ २४ ॥ उस समय अपने यूथप तक मृ ु हो जानेसे सभी े वानर जोर-जोरसे रोने और वलाप करने लगे—॥ २५ ॥ ‘हाय! आज वानरराज वालीके गलोक चले जानेसे सारी क ापुरी सूनी हो गयी। उ ान, पवत और वन भी सूने हो गये॥ २६ ॥ ‘वानर े वालीके मारे जानेसे सारे वानर ीहीन हो गये। जनके महान् वेग ( ताप) से सम कानन और वन पु समूह से सदा संयु बने रहते थे, आज उनके न रहनेसे कौन ऐसा चम ारपूण काय करेगा?॥ ‘उ ने महामना महाबा गोलभ नामक ग वको महान् यु का अवसर दया था। वह यु पं ह वष तक लगातार चलता रहा। न दनम बंद होता था, न रातम॥ २९ ॥ ‘तदन र सोलहवाँ वष आर होनेपर गोलभ वालीके हाथसे मारा गया। उस दु ग वका वध करके जन वकराल दाढ़ वाले वालीने हम सबको अभय दान दया था, वे ही ये हमारे ामी वानरराज यं कै से मार गराये गये?’॥ ३० ॥ उस समय वीर वानरराज वालीके मारे जानेपर वन म वचरनेवाले वानर वहाँ चैन न पा सके । जैसे सहसे यु वशाल वनम साँड़के मारे जानेपर गौएँ दु:खी हो जाती ह, वही दशा उन वानर क ◌इ॥ ३१ ॥ तदन र शोकके समु म डू बी ◌इ ताराने जब अपने मरे ए ामीक ओर पात कया, तब वह वालीका आ ल न करके कटे ए महान् वृ से लपटी ◌इ लताक भाँ त पृ ीपर गर पड़ी॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म बा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २२॥



ते◌इसवाँ सग ताराका वलाप



उस समय वानरराजका मुख सूँघती ◌इ लोक व ात ताराने रोकर अपने मृत प तसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘वीर! दु:खक बात है क आपने मेरी बात नह मानी और अब आप रसे पूण अ दु:खदायक और ऊँ चे-नीचे भूतलपर शयन कर रहे ह॥ २ ॥ ‘वानरराज! न य ही यह पृ ी आपको मुझसे भी बढ़कर य है, तभी तो आप इसका आ ल न करके सो रहे ह और मुझसे बाततक नह करते॥ ३ ॥ ‘वीर! साहसपूण काय से ेम रखनेवाले वानरराज! यह ीराम पी वधाता सु ीवके वशम हो गया है (—आपके नह ) यह बड़े आ यक बात है, अत: अब इस रा पर सु ीव ही परा मी राजाके पम आसीन ह गे॥ ४ ॥ ‘ ाणनाथ! धान- धान भालू और वानर जो आप महावीरक सेवाम रहा करते थे, इस समय बड़े दु:खसे वलाप कर रहे ह। बेटा अ द भी शोकम पड़ा है। उन वानर का दु:खमय वलाप, अ दका शोको ार तथा मेरी यह अनुनय- वनयभरी वाणी सुनकर भी आप जागते नह ह?॥ ५ १/२ ॥ ‘यही वह वीर-श ा है, जसपर पूवकालम आपने ही ब त-से श ु को मारकर सुलाया था, कतु आज यं ही यु म मारे जाकर आप इसपर शयन कर रहे ह॥ ६ १/२ ॥ ‘ वशु बलशाली कु लम उ यु ेमी तथा दूसर को मान देनेवाले मेरे यतम! तुम मुझ अनाथाको अके ली छोड़कर कहाँ चले गये?॥ ७ १/२ ॥ ‘ न य ही बु मान् पु षको चा हये क वह अपनी क ा कसी शूरवीरके हाथम न दे। देखो, म शूरवीरक प ी होनेके कारण त ाल वधवा बना दी गयी और इस कार सवथा मारी गयी॥ ८ १/२ ॥ ‘राजरानी होनेका जो मेरा अ भमान था, वह भ हो गया। न - नर र सुख पानेक मेरी आशा न हो गयी तथा म अगाध एवं वशाल शोकसमु म डू ब गयी ँ ॥ ९ १/२ ॥



‘न



य ही यह मेरा कठोर दय लोहेका बना आ है। तभी तो अपने ामीको मारा गया देखकर इसके सैकड़ टुकड़े नह हो जाते॥ १० १/२ ॥ ‘हाय! जो मेरे सु द,् ामी और भावसे ही य थे तथा सं ामम महान् परा म कट करनेवाले शूरवीर थे, वे संसारसे चल बसे॥ ११ १/२ ॥ ‘प तहीन नारी भले ही पु वती एवं धन-धा से समृ भी हो, क ु लोग उसे वधवा ही कहते ह॥ १२ १/२ ॥ ‘वीर! अपने ही शरीरसे कट ◌इ र रा शम आप उसी तरह शयन करते ह, जैसे पहले इ गोप नामक क ड़ेके-से रंगवाले बछौनेसे यु अपने पलंगपर सोया करते थे॥ १३ १/२ ॥ ‘वानर े ! आपका सारा शरीर धूल और र से लथपथ हो रहा है; इस लये म अपनी दोन भुजा से आपका आ ल न नह कर पाती॥ १४ १/२ ॥ ‘इस अ भयंकर वैरम आज सु ीव कृ तकृ हो गये। ीरामके छोड़े ए एक ही बाणने उनका सारा भय हर लया॥ १५ १/२ ॥ ‘आपक छातीम जो बाण धँसा आ है; वह मुझे आपके शरीरका आ ल न करनेसे रोक रहा है, इस कारण आपक मृ ु हो जानेपर भी म चुपचाप देख रही ँ (आपको दयसे लगा नह पाती)’॥ १६ १/२ ॥ उस समय नीलने वालीके शरीरम धँसे ए उस बाणको नकाला, मानो पवतक क राम छपे ए लत मुखवाले वषधर सपको वहाँसे नकाला गया हो॥ १७ १/२ ॥ वालीके शरीरसे नकाले जाते ए उस बाणक का अ ाचलके शखरपर अव करण वाले सूयक भाके समान जान पड़ती थी॥ १८ १/२ ॥ बाणके नकाल लये जानेपर वालीके शरीरके सभी घाव से खूनक धाराएँ गरने लग , मानो कसी पवतसे लाल गे म त जलक धाराएँ बह रही ह ॥ १९ १/२ ॥ वालीका शरीर रणभू मक धूलसे भर गया था। उस समय तारा बाणसे आहत ए अपने शूरवीर ामीके उस शरीरको प छती ◌इ उ ने के अ ुजलसे स चने लगी॥ २० १/२ ॥ अपने मारे गये प तके सारे अ को र से भीगा आ देख वा ल-प ी ताराने अपने भूरे ने वाले पु अ दसे कहा—॥ २१ १/२ ॥



‘बेटा! देखो, तु



ारे पताक अ म अव ा कतनी भयंकर है। ये इस समय पूव पापके कारण ा ए वैरसे पार हो चुके ह॥ २२ १/२ ॥ ‘व ! ात:कालके सूयक भाँ त अ ण गौर शरीरवाले तु ारे पता राजा वाली अब यमलोकको जा प ँ चे। ये तु बड़ा आदर देते थे। तुम इनके चरण म णाम करो’॥ २३ १/२ ॥ माताके ऐसा कहनेपर अ दने उठकर अपनी मोटी और गोलाकार भुजा ारा पताके दोन पैर पकड़ लये और णाम करते ए कहा—‘ पताजी! म अ द ँ ’॥ २४ ॥ तब तारा फर कहने लगी— ‘ ाणनाथ! कु मार अ द पहलेक ही भाँ त आज भी आपके चरण म णाम करता है, कतु आप इसे ‘ चरंजीवी रहो बेटा’ ऐसा कहकर आशीवाद नह देते ह?॥ २५ १/२ ॥ ‘जैसे को◌इ बछड़ेस हत गाय सहके ारा त ाल मार गराये ए साँड़के पास खड़ी हो, उसी कार पु स हत म ाणहीन ए आपक सेवाम बैठी ँ ॥ २६ ॥ ‘आपने यु पी य का अनु ान करके ीरामके बाण पी जलसे मुझ प ीके बना अके ले ही अवभृथ ान कै से कर लया?॥ २७ ॥ ‘यु म आपसे संतु ए देवराज इ ने आपको जो सोनेक य माला दे रखी थी, उसे म इस समय आपके गलेम नह देखती ँ ?॥ २८ ॥ ‘दूसर को मान देनेवाले वानरराज! ाणहीन हो जानेपर भी आपको रा ल ी उसी कार नह छोड़ रही है, जैसे चार ओर च र लगानेवाले सूयदेवक भा ग रराज मे को कभी नह छोड़ती है॥ २९ ॥ ‘मने आपके हतक बात कही थी; परंतु आपने उसे नह ीकार कया। म भी आपको रोक रखनेम समथ न हो सक । इसका फल यह आ क आप यु म मारे गये। आपके मारे जानेसे म भी अपने पु स हत मारी गयी। अब ल ी आपके साथ ही मुझे और मेरे पु को भी छोड़ रही है’॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म ते◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २३॥



चौबीसवाँ सग सु ीवका शोकम होकर ीरामसे ाण ागके लये आ ा माँगना, ताराका ीरामसे अपने वधके लये ाथना करना और ीरामका उसे समझाना



अ वेगशाली और दु:सह शोकसमु म डू बी ◌इ ताराक ओर पात करके वालीके छोटे भा◌इ वेगवान् सु ीवको उस समय अपने भा◌इके वधसे बड़ा संताप आ॥ १ ॥ उनके मुखपर आँ सु क धारा बह चली। उनका मन ख हो गया और वे भीतर-हीभीतर क का अनुभव करते ए अपने भृ के साथ धीरे-धीरे ीरामच जीके पास गये॥ २ ॥ ज ने धनुष ले रखा था, जनम धीरोदा नायकका भाव व मान था, जनके बाण वषधर सपके समान भयंकर थे, जनका ेक अ सामु क शा के अनुसार उ म ल ण से ल त था तथा जो परम यश ी थे, वहाँ खड़े ए उन ीरघुनाथजीके पास जाकर सु ीव इस कार बोले—॥ ३ ॥ ‘नरे ! आपने जैसी त ा क थी, उसके अनुसार यह काम कर दखाया। इस कमका रा -लाभ प फल भी ही है। कतु राजकु मार! इससे मेरा जीवन न नीय हो गया है। अत: अब मेरा मन सभी भोग से नवृ हो गया॥ ४ ॥ ‘ ीराम! राजा वालीके मारे जानेसे ये महारानी तारा अ वलाप कर रही ह। सारा नगर दु:खसे संत होकर चीख रहा है तथा कु मार अ दका जीवन भी संशयम पड़ गया है। इन सब कारण से अब रा म मेरा मन नह लगता है॥ ५ ॥ ‘इ ाकु कु लके गौरव ीरघुनाथजी! भा◌इने मेरा ब त अ धक तर ार कया था, इस लये ोध और अमषके कारण पहले मने उसके वधके लये अनुम त दे दी थी; परंतु अब वानर-यूथप त वालीके मारे जानेपर मुझे बड़ा संताप हो रहा है। स वत: जीवनभर यह संताप बना ही रहेगा॥ ६ ॥ ‘अपनी जातीय वृ के अनुसार जैस-े तैसे जीवन नवाह करते ए उस े पवत ऋ मूकपर चरकालतक रहना ही आज म अपने लये क ाणकारी समझता ँ ; कतु अपने इस भा◌इका वध कराकर अब मुझे गका भी रा मल जाय तो म उसे अपने लये ेय र नह मानता ँ ॥ ७ ॥



‘बु



मान् महा ा वालीने यु के समय मुझसे कहा था क ‘तुम चले जाओ, म तु ारे ाण लेना नह चाहता’। ीराम! उनक यह बात उ के यो थी और मने जो आपसे कहकर उनका वध कराया, मेरा वह ू रतापूण वचन और कम मेरे ही अनु प है॥ ८ ॥ ‘वीर रघुन न! को◌इ कतना ही ाथ न हो? य द रा के सुख तथा ातृ-वधसे होनेवाले दु:खक बलतापर वचार करेगा तो वह भा◌इ होकर अपने महान् गुणवान् भा◌इका वध कै से अ ा समझेगा?॥ ९ ॥ ‘वालीके मनम मेरे वधका वचार नह था; क इससे उ अपनी मान- त ाम ब ा लगनेका डर था। मेरी ही बु म दु ता भरी थी, जसके कारण मने अपने भा◌इके त ऐसा अपराध कर डाला, जो उनके लये घातक स आ॥ १० ॥ ‘जब वालीने मुझे एक वृ क शाखासे घायल कर दया और म दो घड़ीतक कराहता रहा, तब उ ने मुझे सा ना देकर कहा—‘जाओ, फर मेरे साथ यु करनेक इ ा न करना’॥ ११ ॥ ‘उ ने ातृभाव, आयभाव और धमक भी र ा क है; परंतु मने के वल काम, ोध और वानरो चत चपलताका ही प रचय दया है॥ १२ ॥ ‘ म ! जैसे वृ ासुरका वध करनेसे इ पापके भागी ए थे, उसी कार म भा◌इका वध कराकर ऐसे पापका भागी आ ँ , जसको करना तो दूर रहा, सोचना भी अनु चत है। े पु ष के लये जो सवथा ा , अवा नीय तथा देखनेके भी अयो है॥ १३ ॥ ‘इ के पापको तो पृ ी, जल, वृ और य ने े ासे हण कर लया था; परंतु मुझ-जैसे वानरके इस पापको कौन लेना चाहेगा? अथवा कौन ले सके गा?॥ १४ ॥ ‘रघुनाथजी! अपने कु लका नाश करनेवाला ऐसा पापपूण कम करके म जाके स ानका पा नह रहा। रा पाना तो दूरक बात है, मुझम युवराज होनेक भी यो ता नह है॥ १५ ॥ ‘मने वह लोक न त पापकम कया है, जो नीच पु ष के यो तथा स ूण जग ो हा न प ँ चानेवाला है। जैसे वषाके जलका वेग नीची भू मक ओर जाता है, उसी कार यह ातृ-वधज नत महान् शोक सब ओरसे मुझपर ही आ मण कर रहा है॥ १६ ॥ ‘भा◌इका वध ही जसके शरीरका पछला भाग और पु है तथा उससे होनेवाला संताप ही जसक सूँड, ने , म क और दाँत ह, वह पाप पी महान् मदम गजराज नदीतटक भाँ त मुझपर ही आघात कर रहा है॥ १७ ॥



‘नरे र! रघुन



न! मने जो दु:सह पाप कया है, यह मेरे दय त सदाचारको भी न कर रहा है। ठीक उसी तरह, जैसे आगम तपाया जानेवाला म लन सुवण अपने भीतरके मलको न कर देता है॥ १८ ॥ ‘रघुनाथजी! मेरे ही कारण वालीका वध आ, जससे इस अ दका भी शोक-संताप बढ़ गया और इसी लये इन महाबली वानर-यूथप तय का समुदाय अधमरा-सा जान पड़ता है॥ १९ ॥



कहाँ २० ॥



‘वीरवर! सुजन और वशम मलेगा? तथा ऐसा को◌इ ‘अब



रहनेवाला पु तो मल सकता है, परंतु अ दके समान बेटा देश नह है, जहाँ मुझे अपने भा◌इका सामी मल सके ॥



वीरवर अ द भी जी वत नह रह सकता। य द जी सकता तो उसक र ाके लये उसक माता भी जीवन धारण करती। वह बेचारी तो य ही संतापसे दीन हो रही है, य द पु भी न रहा तो उसके जीवनका अ हो जायगा—यह बलकु ल न त बात है॥ २१ ॥ ‘अत: म अपने भा◌इ और पु का साथ देनेक इ ासे लत अ म वेश क ँ गा। ये वानर वीर आपक आ ाम रहकर सीताक खोज करगे॥ २२ ॥ ‘राजकु मार! मेरी मृ ु हो जानेपर भी आपका सारा काय स हो जायगा। म कु लक ह ा करनेवाला और अपराधी ँ । अत: संसारम जीवन धारण करनेके यो नह ँ । इस लये ीराम! मुझे ाण ाग करनेक आ ा दी जये’॥ २३ ॥ दु:खसे आतुर ए सु ीवके , जो वालीके छोटे भा◌इ थे, ऐसे वचन सुनकर श ुवीर का संहार करनेम समथ, रघुकुलके वीर भगवान् ीरामके ने से आँ सू बहने लगे। वे दो घड़ीतक मन-ही-मन दु:खका अनुभव करते रहे॥ २४ ॥ ीरघुनाथजी पृ ीके समान माशील और स ूण जग र ा करनेवाले ह। उ ने उस समय अ धक उ ुक होकर जब इधर-उधर बारंबार दौड़ायी, तब शोकम ा तारा उ दखायी दी, जो अपने ामीके लये रो रही थी॥ २५ ॥ क पय म सहके समान वीर वाली जसके ामी एवं संर क थे, जो वानरराज वालीक रानी थी, जसका दय उदार और ने मनोहर थे, वह तारा उस समय अपने मृत प तका आ ल न करके पड़ी थी। ीरामको आते देख धान- धान म य ने ताराको वहाँसे उठाया॥ २६ ॥



तारा जब प तके समीपसे हटायी जाने लगी, तब बारंबार उसका आ ल न करती ◌इ वह अपनेको छु ड़ाने और छटपटाने लगी। इतनेहीम उसने अपने सामने धनुष-बाण धारण कये ीरामको खड़ा देखा, जो अपने तेजसे सूयदेवके समान का शत हो रहे थे॥ २७ ॥ वे राजो चत शुभ ल ण से स थे। उनके ने बड़े मनोहर थे। उन पु ष वर ीरामको, जो पहले कभी देखनेम नह आये थे, देखकर मृगशावकनयनी तारा समझ गयी क ये ही ककु कु लभूषण ीराम ह॥ २८ ॥ उस समय घोर संकटम पड़ी ◌इ शोकपी ड़त आया तारा अ व ल हो गरतीपड़ती ती ग तसे महे तु दुजय वीर महानुभाव भगवान् ीरामके समीप गयी॥ २९ ॥ शोकके कारण वह अपने शरीरक भी सुध-बुध खो बैठी थी। भगवान् ीराम वशु अ :करणवाले तथा यु लम सबसे अ धक नपुणताके कारण ल बेधनेम अचूक थे, उनके पास प ँ चकर वह मन नी तारा इस कार बोली—॥ ३० ॥ ‘रघुन न! आप अ मेय (देश, काल और व ुक सीमासे र हत) ह। आपको पाना ब त क ठन है। आप जते य तथा उ म धमका पालन करनेवाले ह। आपक क त कभी न नह होती। आप दूरदश एवं पृ ीके समान माशील ह। आपक आँ ख कु छ-कु छ लाल ह॥ ३१ ॥ ‘आपके



हाथम धनुष और बाण शोभा पा रहे ह। आपका बल महान् है। आप सु ढ़ शरीरसे स ह और मनु -शरीरसे ा होनेवाले लौ कक सुखका प र ाग करके भी द शरीरके ऐ यसे यु ह॥ ३२ ॥ (‘अत: म ाथना करती ँ क) आपने जस बाणसे मेरे यतम प तका वध कया है, उसी बाणसे आप मुझे भी मार डा लये। म मरकर उनके समीप चली जाऊँ गी। वीर! मेरे बना वाली कह भी सुखी नह रह सकगे॥ ३३ ॥ ‘अमलकमलदललोचन राम! गम जाकर भी जब वाली सब ओर डालनेपर मुझे नह देखगे, तब उनका मन वहाँ कदा प नह लगेगा; नाना कारके लाल फू ल से वभू षत चोटी धारण करनेवाली तथा व च वेशभूषासे मनोहर तीत होनेवाली गक अ रा को वे कभी ीकार नह करगे॥ ३४ ॥ ‘वीरवर! गम भी वाली मेरे बना शोकका अनुभव करगे और उनके शरीरक का फ क पड़ जायगी। वे उसी तरह दु:खी रहगे जैसे ग रराज ऋ मूकके सुर तट- ा म



वदेहन नी सीताके बना आप क का अनुभव करते ह॥ ३५ ॥ ‘ ीके बना युवा पु षको जो दु:ख उठाना पड़ता है, उसे आप अ ी तरह जानते ह। इस त को समझकर आप मेरा वध क रये, जससे वालीको मेरे वरहका दु:ख न भोगना पड़े॥ ३६ ॥



न ह



‘महाराजकु मार! आप महा ा ह, इस लये य द ऐसा चाहते ह लगे तो ‘यह वालीक आ ा है’ ऐसा समझकर मेरा वध क ाका पाप नह लगेगा॥ ३७ ॥ ‘शा



क मुझे ी-ह ाका पाप जये। इससे आपको ी-



ो य -यागा द कम म प त और प ी दोन का संयु अ धकार होता है— प ीको साथ लये बना पु ष य कमका अनु ान नह कर सकता। इसके सवा नाना कारक वै दक ु तयाँ भी प ीको प तका आधा शरीर बतलाती ह। दूसरे य का अपने प तसे अ भ होना स होता है। (अत: मुझे मारनेसे आपको ीवधका दोष नह लग सकता और वालीको ीक ा हो जायगी; क) संसारम ानी पु ष क म ीदानसे बढ़कर दूसरा को◌इ दान नह है॥ ३८ ॥ ‘वीर शरोमणे! य द धमक ओर रखते ए आप भी मुझे मेरे यतम वालीको सम पत कर दगे तो इस दानके भावसे मेरी ह ा करनेपर भी आपको पाप नह लगेगा॥ ३९ ॥ ‘म दु: खनी और अनाथा ँ । प तसे दूर कर दी गयी ँ । ऐसी दशाम मुझे जी वत छोड़ना आपके लये उ चत नह है। नरे ! म सु र एवं ब मू े सुवणमालासे अलंकृत तथा गजराजके समान वलासयु ग तसे चलनेवाले बु मान् वानर े वालीके बना अ धक कालतक जी वत नह रह सकूँ गी’॥ ४० ॥ ताराके ऐसा कहनेपर महा ा भगवान् ीरामने उसे आ ासन देकर हतक बात कही —‘वीरप ी! तुम मृ -ु वषयक वपरीत वचारका ाग करो; क वधाताने इस स ूण जग सृ क है॥ ४१ ॥ ‘ वधाताने ही इस सारे जग ो सुख-दु:खसे संयु कया है। यह बात साधारणलोग भी कहते और जानते ह। तीन लोक के ाणी वधाताके वधानका उ न नह कर सकते; क सभी उसके अधीन ह॥ ४२ ॥ ‘तु पहलेक ही भाँ त अ सुख एवं आन क ा होगी तथा तु ारा पु युवराजपद ा करेगा। वधाताका ऐसा ही वधान है। शूरवीर क याँ इस कार वलाप



नह करती ह। (अत: तुम भी शोक छोड़कर शा हो जाओ)’॥ ४३ ॥ श ु को संताप देनेवाले परम भावशाली महा ा ीरामके इस कार सा ना देनेपर सु र वेश और पवाली वीरप ी तारा, जसके मुखसे वलापक न नकलती रहती थी, चुप हो गयी—उसने रोनाधोना छोड़ दया॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म चौबीसवाँ सग पूरा आ॥ २४॥



पचीसवाँ सग ल



णस हत ीरामका सु ीव, तारा और अ दको समझाना तथा वालीके दाह-सं ारके लये आ ा दान करना, फर तारा आ दस हत सब वानर का वालीके शवको शानभू मम ले जाकर अ दके ारा उसका दाह-सं ार कराना और उसे जला ल देना



ल णस हत ीरामच जी सु ीव आ दके शोकसे उनके समान ही दु:खी थे। उ ने सु ीव, अ द और ताराको सा ना देते ए इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘शोक-संताप करनेसे मरे ए जीवक को◌इ भला◌इ नह होती। अत: अब आगे जो कु छ कत है, उसको तु व धपूवक स करना चा हये॥ २ ॥ ‘तुम सब लोग ब त आँ सू बहा चुके। अब उसक आव कता नह है। लोकाचारका भी पालन होना चा हये। समय बताकर को◌इ भी व हत कम नह कया जा सकता ( क उ चत समयपर न कया जाय तो उस कमका को◌इ फल नह होता)॥ ३ ॥ ‘जग नय त (काल) ही सबका कारण है। वही सम कम का साधन है और काल ही सम ा णय को व भ कम म नयु करनेका कारण है ( क वही सबका वतक है)॥ ४॥ ‘को◌इ भी पु ष न तो त तापूवक कसी कामको कर सकता है और न कसी दूसरेको ही उसम लगानेक श रखता है। सारा जगत् भावके अधीन है और भावका आधार काल है॥ ५ ॥ ‘काल भी कालका (अपनी क ◌इ व ाका) उ ंघन नह कर सकता। वह काल कभी ीण नह होता। भाव ( ार कम) को पाकर को◌इ भी उसका उ न नह करता॥ ६॥ ‘कालका कसीके साथ भा◌इ-चारेका, म ताका अथवा जा त- बरादरीका स नह है। उसको वशम करनेका को◌इ उपाय नह है तथा उसपर कसीका परा म नह चल सकता। कारण प भगवान् काल जीवके भी वशम नह है॥ ७ ॥ ‘अत: साधुदश ववेक पु षको सब कु छ कालका ही प रणाम समझना चा हये। धम, अथ और काम भी काल मसे ही ा होते ह॥ ८ ॥



‘(मेरे



ारा मारे जानेके कारण) वानरराज वाली शरीरसे मु हो अपने शु पको ा ए ह। नी तशा के अनुकूल साम, दान और अथके समु चत योगसे मलनेवाले जो प व कम ह, वे सभी उ ा हो गये॥ ९ ॥ ‘महा ा वालीने पहले अपने धमके संयोगसे जसपर वजय पायी थी, उसी गको इस समय यु म ाण क र ा न करके उ ने अपने हाथम कर लया है॥ १० ॥ ‘यही सव े ग त है, जसे वानर के सरदार वालीने ा कया है। अत: अब उनके लये शोक करना थ है। इस समय तु ारे सामने जो कत उप त है, उसे पूरा करो’॥ ११ ॥ ीरामच जीक बात समा होनेपर श ुवीर का संहार करनेवाले ल णने, जनक ववेकश न हो गयी थी, उन सु ीवसे न तापूवक इस कार कहा—॥ ‘सु ीव! अब तुम अ द और ताराके साथ रहकर वालीके दाह-सं ार-स ी ेतकाय करो॥ १३ ॥ ‘सेवक को आ ा दो—वे वालीके दाह-सं ारके न म चुर मा ाम सूखी लक ड़याँ और द च न ले आव॥ १४ ॥ ‘अ दका च ब त दु:खी हो गया है। इ धैय बँधाओ। तुम अपने मनम मूढ़ता न लाओ— ककत वमूढ़ न बनो; क यह सारा नगर तु ारे ही अधीन है॥ १५ ॥ ‘अ द पु माला, नाना कारके व , घी, तेल, सुग त पदाथ तथा अ सामान, जनक अभी आव कता है, यं ले आव॥ १६ ॥ ‘तार! तुम शी जाकर वेगपूवक एक पालक ले आओ; क इस समय अ धक फु त दखानी चा हये। ऐसे अवसरपर वही लाभदायक होती है॥ १७ ॥ ‘पालक को उठाकर ले चलनेके यो जो बलवान् एवं समथ वानर ह , वे तैयार हो जायँ। वे ही वालीको यहाँसे शानभू मम ले चलगे’॥ १८ ॥ सु ीवसे ऐसा कहकर श ुवीर का संहार करनेवाले सु म ान न ल ण अपने भा◌इके पास जाकर खड़े हो गये॥ १९ ॥ ल णक बात सुनकर तारके मनम हड़बड़ी मच गयी। वह श बका ले आनेके लये शी तापूवक क ा नामक गुफाम गया॥ २० ॥



वहाँसे श बका ढोनेके यो शूरवीर वानर ारा कं ध पर उठायी ◌इ उस श बकाको साथ लेकर तार फर तुरंत ही लौट आया॥ २१ ॥ वह द पालक रथके समान बनी ◌इ थी। उसके बीचम राजाके बैठने यो उ म आसन था। उसम श य ारा कृ म प ी और वृ बनाये गये थे, जो उस पालक को व च शोभासे स बना रहे थे॥ २२ ॥ वह श बका च के पम बने ए पैदल सपा हय से भरी तीत होती थी। उसक नमाणकला सब ओरसे बड़ी सु र दखायी देती थी। देखनेम वह स के वमान-सी तीत होती थी। उसम क◌इ खड़ कयाँ बनी थ , जनम जा लयाँ लगी ◌इ थ ॥ २३ ॥ कारीगर ने उस पालक को ब त सु र बनानेका य कया था। उसका एक-एक भाग बड़ा सुघड़ बनाया गया था। आकारम वह ब त बड़ी थी। उसम लक ड़य के डा-पवत बने ए थे। वह मनोहर श -कमसे सुशो भत थी॥ २४ ॥ सु र आभूषण और हार से उसको सजाया गया था। व च फू ल से उसक शोभा बढ़ायी गयी थी। श य ारा न मत गुफा और वनसे वह संयु थी तथा लाल च न ारा उसे वभू षत कया गया था॥ २५ ॥ नाना कारके पु समूह ारा वह सब ओरसे आ ा दत थी तथा ात:कालके सूयक भाँ त अ ण का वाली दी मती प माला से अलंकृत थी॥ २६ ॥ ऐसी पालक का अवलोकन करके ीरामच जीने ल णक ओर देखते ए कहा —‘अब वालीको शी ही यहाँसे शानभू मम ले जाया जाय और उनका ेतकाय कया जाय’॥ २७ ॥ तब अ दके साथ क ण- न करते ए सु ीवने वालीके शवको उठाकर उस श बकाम रखा॥ २८ ॥ मृत वालीको श बकाम चढ़ाकर उ नाना कारके अलंकार , फू ल के गजर और भाँ तभाँ तके व से वभू षत कया॥ २९ ॥ तदन र वानर के ामी राजा सु ीवने आ ा दी क ‘मेरे बड़े भा◌इका औ दे हक सं ार शा ानुकूल व धसे स कया जाय॥ ३० ॥



‘आगे-आगे



ब त-से वानर नाना कारके ब सं क र लुटाते ए चल। उनके पीछे श बका चले॥ ३१ ॥ ‘इस भूतलपर राजा के औ दे हक सं ार उनक बढ़ी ◌इ समृ के अनुसार जैसे धूमधामसे होते देखे जाते ह, उसी कार अ धक धन लगाकर सब वानर अपने ामी महाराज वालीका अ े -सं ार कर’॥ ३२ ॥ तब तार आ द वानर ने वालीके औ दे हक सं ारका शी वैसा ही आयोजन कया। जनके बा व वाली मारे गये थे, वे सब-के -सब वानर अ दको दयसे लगाकर शी तापूवक वहाँसे रोते ए शवके साथ चले॥ ३३ १/२ ॥ उनके पीछे वालीके अधीन रहनेवाली सभी वानर-प याँ समीप आकर ‘हा वीर, हा वीर’ कहती ◌इ अपने यतमको पुकार-पुकारकर बारंबार रोने- च ाने लग ॥ ३४ १/२ ॥ जनके जीवनधनका वध कया गया था, वे तारा आ द सब वान रयाँ क ण रसे वलाप करती ◌इ अपने ामीके पीछे-पीछे चलने लग ॥ ३५ १/२ ॥ वनके भीतर रोती ◌इ उन वानर वधु के रोदन-श से गूँजते ए वन और पवत भी सब ओर रोते ए-से तीत होते थे॥ ३६ १/२ ॥ पहाड़ी* नदी तु भ ाके एका तटपर जो जलसे घरा था, प ँ चकर ब त-से वनचारी वानर ने एक चता तैयार क ॥ ३७ १/२ ॥ तदन र पालक ढोनेवाले े वानर ने उसे अपने कं धेसे उतारा और वे सब शोकम हो एका ानम जा बैठे॥ ३८ १/२ ॥ त ात् ताराने श बकाम सुलाये ए अपने प तके शवको देखकर उनके म कको अपनी गोदम ले लया और अ दु:खी होकर वह वलाप करने लगी॥ ३९ १/२ ॥ ‘हा वानर के महाराज! हा मेरे दयालु ाणनाथ! हा परम पूजनीय महाबा वीर! हा मेरे यतम! एक बार मेरी ओर देखो तो सही। इस शोकपी ड़त दासीक ओर तुम पात नह करते हो?॥ ४०-४१ ॥ ‘दूसर को मान देनेवाले ाणव भ! ाण के नकल जानेपर भी तु ारा मुख जी वत अव ाक भाँ त अ ाचलवत सूयके समान अ ण भासे यु एवं स ही दखायी देता है॥ ४२ ॥



‘वानरराज!



ीरामके पम यह काल ही तु ख चकर लये जा रहा है, जसने यु के मैदानम एक ही बाण मारकर हम सबको वधवा बना दया॥ ४३ ॥ ‘महाराज! ये तु ारी ारी वान रयाँ, जो वानर क भाँ त उछलकर चलना नह जानती ह, तु ारे पीछे-पीछे ब त दूरके मागपर पैदल ही चली आयी ह। इस बातको ा तुम नह जानते?॥ ४४ ॥ ‘वानरराज! जो तु परम य थ वे तु ारी सभी च मुखी भायाएँ यहाँ उप त ह। तुम इन सबको तथा अपने भा◌इ सु ीवको भी इस समय नह देख रहे हो?॥ ४५ ॥ ‘राजन्! ये तार आ द तु ारे स चव तथा ये पुरवासीजन तु चार ओरसे घेरकर दु:खी हो रहे ह॥ ‘श ुदमन! आप पहलेक भाँ त इन म य को बदा कर दी जये। फर हम सब ेमो होकर इन वन म आपके साथ डा करगी’॥ ४७ ॥ प तके शोकम डू बी ◌इ ताराको इस कार वलाप करती देख उस समय शोकसे दुबल ◌इ अ वान रय ने उसे उठाया॥ ४८ ॥ इसके बाद संतापपी ड़त इ य वाले अ दने रोते-रोते सु ीवक सहायतासे पताको चतापर रखा॥ ४९ ॥ फर शा ीय व धके अनुसार उसम आग लगाकर उ ने उसक द णा क । इसके बाद यह सोचकर क ‘मेरे पता लंबी या ाके लये त ए ह’ अ दक सारी इ याँ शोकसे ाकु ल हो उठ ॥ ५० ॥ इस कार व धवत् वालीका दाह-सं ार करके सभी वानर जला ल देनेके लये प व जलसे भरी ◌इ क ाणमयी तु भ ा नदीके तटपर आये॥ ५१ ॥ वहाँ अ दको आगे रखकर सु ीव और तारास हत सभी वानर ने वालीके लये एक साथ जला ल दी॥ ५२ ॥ दु:खी ए सु ीवके साथ ही उ के समान शोक एवं दु:खी हो महाबली ीरामने वालीके सम ेतकाय करवाये॥ ५३ ॥ इस कार इ ाकु वंश शरोम ण ीरामके बाणसे मारे गये े परा मी और लत अ के समान तेज ी सु व ात वालीका दाह-सं ार करके सु ीव उस समय ल णस हत



ीरामके पास आये॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क पूरा आ॥ २५॥ * यह नदी स



पवतसे नकलकर क



ाका म पचीसवाँ सग



ाक पवत-माला के बीचसे बहती ◌इ कृ ा नदीम जा मली है।



छ ीसवाँ सग हनुमा ीका सु ीवके अ भषेकके लये ीरामच जीसे क ाम पधारनेक ाथना, ीरामका पुरीम न जाकर केवल अनुम त देना, त ात् सु ीव और अ दका अ भषेक



तदन र वानरसेनाके धान- धान वीर (हनुमान् आ द) भीगे व वाले शोक-संत सु ीवको चार ओरसे घेरकर उ साथ लये अनायास ही महान् कम करनेवाले महाबा ीरामक सेवाम उप त ए। ीरामके पास आकर वे सभी वानर उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये, जैसे ाजीके स ुख मह षगण खड़े रहते ह॥ १-२ ॥ त ात् सुवणमय मे पवतके समान सु र एवं वशाल शरीरवाले वायुपु हनुमा ी, जनका मुख ात:कालके सूयक भाँ त अ ण भासे का शत हो रहा था, दोन हाथ जोड़कर बोले—॥ ३ ॥ ‘ककु कु लन न! आपक कृ पासे सु ीवको सु र दाढ़वाले पूण बलशाली और महामन ी वानर का यह वशाल सा ा ा आ, जो इनके बाप-दाद के समयसे चला आ रहा है। भो! य प इसका मलना ब त ही क ठन था तो भी आपके सादसे यह इ सुलभ हो गया। अब य द आप आ ा द तो ये अपने सु र नगरम वेश करके सु द के साथ अपना सब राजकाय सँभाल॥ ४-५ १/२ ॥ ‘ये शा व धके अनुसार नाना कारके सुग त पदाथ और ओष धय स हत जलसे रा पर अ भ ष होकर माला तथा र ारा आपक वशेष पूजा करगे। अत: आप इस रमणीय पवत-गुफा क ाम पधारनेक कृ पा कर और इ इस रा का ामी बनाकर वानर का हष बढ़ाव’॥ ६-७ १/२ ॥ हनुमा ीके ऐसा कहनेपर श ुवीर का संहार करनेवाले तथा बातचीतम कु शल बु मान् ीरघुनाथजीने उ य उ र दया—॥ ८ १/२ ॥ ‘हनुमन्! सौ ! म पताक आ ाका पालन कर रहा ँ , अत: चौदह वष के पूण होनेतक कसी ाम या नगरम वेश नह क ँ गा॥ ९ १/२ ॥ ‘वानर े वीर सु ीव इस समृ शा लनी द गुफाम वेश कर और वहाँ शी ही इनका व धपूवक रा ा भषेक कर दया जाय’॥ १० १/२ ॥



हनुमा े ऐसा कहकर ीरामच जी सु ीवसे बोले—‘ म ! तुम लौ कक और शा ीय सभी वहार जानते हो। कु मार अ द सदाचारस तथा महान् बल-परा मसे प रपूण ह। इनम वीरता कू ट-कू टकर भरी है, अत: तुम इनको भी युवराजके पदपर अ भ ष करो॥ ११-१२ ॥ ‘ये



तु ारे बड़े भा◌इके े पु ह। परा मम भी उ के समान ह तथा इनका दय उदार है। अत: अ द युवराजपदके सवथा अ धकारी ह॥ १३ ॥ ‘सौ ! वषा कहलानेवाले चार मास या चौमासे आ गये। इनम पहला मास यह ावण, जो जलक ा करानेवाला है, आर हो गया॥ १४ ॥ ‘सौ ! यह कसीपर चढ़ा◌इ करनेका समय नह है। इस लये तुम अपनी सु र नगरीम जाओ। म ल णके साथ इस पवतपर नवास क ँ गा॥ १५ ॥ ‘सौ सु ीव! यह पवतीय गुफा बड़ी रमणीय और वशाल है। इसम आव कताके अनु प हवा भी मल जाती है। यहाँ पया जल भी सुलभ है और कमल तथा उ ल भी ब त ह॥ १६ ॥ ‘सखे! का तक आनेपर तुम रावणके वधके लये य करना। यही हमलोग का न य रहा। अब तुम अपने महलम वेश करो और रा पर अ भ ष होकर सु द को आन त करो’॥ १७ १/२ ॥ ीरामच जीक यह आ ा पाकर वानर े सु ीव उस रमणीय क ापुरीम गये, जसक र ा वालीने क थी॥ १८ १/२ ॥ उस समय गुफाम व ए उन वानरराजको चार ओरसे घेरकर हजार वानर उनके साथ ही गुहाम घुसे॥ १९ १/२ ॥ वानरराजको देखकर जा आ द सम कृ तय ने एका च हो पृ ीपर माथा टेककर उ णाम कया॥ महाबली परा मी सु ीवने उन सबको उठनेक आ ा दी और उन सबसे बातचीत करके वे भा◌इके सौ अ :पुरम व ए॥ २१ १/२ ॥ भयंकर परा म कट करनेवाले वानर े सु ीवको अ :पुरम आया देख उनके सु द ने उनका उसी कार अ भषेक कया, जैसे देवता ने सह ने धारी इ का कया था॥ २२ १/२







पहले तो वे सब लोग उनके लये सुवणभू षत ेत छ , सोनेक डाँड़ीवाले दो सफे द चँवर, सब कारके र , बीज और ओष धयाँ, दूधवाले वृ क नीचे लटकनेवाली जटाएँ , ेत पु , ेत व , ेत अनुलेपन, जल और थलम होनेवाले सुग त फू ल क मालाएँ , द च न, नाना कारके ब त-से सुग त पदाथ, अ त, सोना, य ु (कगनी), मधु, घी, दही, ा चम, सु र एवं ब मू जूते, अ राग, गोरोचन और मैन सल आ द साम ी लेकर वहाँ उप त ए, साथ ही हषसे भरी ◌इ सोलह सु री क ाएँ भी सु ीवके पास आय ॥ २३— २८ ॥ तदन र उन सबने े ा ण को नाना कारके र , व और भ पदाथ से संतु करके वानर े सु ीवका व धपूवक अ भषेक-काय आर कया॥ २९ ॥ म वे ा पु ष ने वेदीपर अ क ापना करके उसे लत कया और अ वेदीके चार ओर कु श बछाये। फर अ का सं ार करके म पूत ह व के ारा लत अ म आ त दी॥ ३० ॥ त ात् रंग- बरंगी पु माला से सुशो भत रमणीय अ ा लकापर एक सोनेका सहासन रखा गया और उसपर सु र बछौना बछाकर उसके ऊपर सु ीवको पूवा भमुख करके व धवत् म ो ारण करते ए बठाया गया॥ ३१ १/२ ॥ इसके बाद े वानर ने न दय , नद , स ूण दशा के तीथ और सम समु से लाये ए नमल जलको एक करके उसे सोनेके कलश म रखा। फर गज, गवा , गवय, शरभ, ग मादन, मै , वद, हनुमान् और जा वा े मह षय क बतायी ◌इ शा ो व धके अनुसार सुवणमय कलश म रखे ए और सुग त जलसे साँड़के स ग ारा सु ीवका उसी कार अ भषेक कया, जैसे वसु ने इ का अ भषेक कया था॥ ३२—३६ १/२ ॥ सु ीवका अ भषेक हो जानेपर वहाँ लाख क सं ाम एक ए सम महामन ी े वानर हषसे भरकर जयघोष करने लगे॥ ३७ ॥ ीरामच जीक आ ाका पालन करते ए वानरराज सु ीवने अ दको दयसे लगाकर उ भी युवराजके पदपर अ भ ष कर दया॥ ३८ ॥ अ दका अ भषेक हो जानेपर महामन ी दयालु वानर ‘साधु-साधु’ कहकर सु ीवक सराहना करने लगे॥



इस कार अ भषेक होकर क ाम सु ीव और अ दके वराजमान होनेपर सम वानर परम स हो महा ा ीराम और ल णक बारंबार ु त करने लगे॥ ४० ॥ उस समय पवतक गुफाम बसी ◌इ क ापुरी -पु पुरवा सय से ा तथा जा-पताका से सुशो भत होनेके कारण बड़ी रमणीय तीत होती थी॥ वानरसेनाके ामी परा मी सु ीवने महा ा ीरामच जीके पास जाकर अपने महा भषेकका समाचार नवेदन कया और अपनी प ी माको पाकर उ ने उसी कार वानर का सा ा ा कया, जैसे देवराज इ ने लोक का॥ ४२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ २६॥



स ा◌इसवाँ सग वण ग रपर ीराम और ल



णक पर र बातचीत



जब वानर सु ीवका रा ा भषेक हो गया और वे क ाम जाकर रहने लगे, उस समय अपने भा◌इ ल णके साथ ीरामजी वण ग रपर चले गये॥ १ ॥ वहाँ चीत और मृग क आवाज गूँजती रहती थी। भयंकर गजना करनेवाले सह से वह ान भरा था। नाना कारक झा ड़याँ और लताएँ उस पवतको आ ा दत कये ए थ और घने वृ के ारा वह सब ओरसे ा था॥ २ ॥ रीछ, वानर, लंगूर और बलाव आ द ज ु वहाँ नवास करते थे। वह पवत मेघ के समूहसा जान पड़ता था। दशन करनेवाले लोग के लये वह सदा ही म लमय और प व कारक था॥ ३ ॥ उस पवतके शखरपर एक ब त बड़ी और व ृत गुफा थी। ल णस हत ीरामने उसीका अपने रहनेके लये आ य लया॥ ४ ॥ रघुकुलका आन बढ़ानेवाले न ाप ीरामच जी वषाका अ होनेपर सु ीवके साथ रावणपर चढ़ा◌इ करनेका न य करके वहाँ आये थे। उ ने ल ीक वृ करनेवाले अपने वनययु ाता ल णसे यह समयो चत बात कही—॥ ५ १/२ ॥ ‘श ुदमन सु म ाकु मार! यह पवतक गुफा बड़ी ही सु र और वशाल है। यहाँ हवाके आने-जानेका भी माग है। हमलोग वषाक रातम इसी गुफाके भीतर नवास करगे॥ ६ १/२ ॥ ‘राजकु मार! पवतका यह शखर ब त ही उ म और रमणीय है। सफे द, काले और लाल हर तरहके र-ख इसक शोभा बढ़ा रहे ह॥ ७ १/२ ॥ ‘यहाँ नाना कारके धातु क खान ह। पास ही नदी बहती है। उसम रहनेवाले मेढक यहाँ भी उछलते-कू दते चले आते ह। नाना कारके वृ -समूह इसक शोभा बढ़ाते ह। सु र और व च लता से यह शैल- शखर हरा-भरा दखायी देता है। भाँ त-भाँ तके प ी यहाँ चहक रहे ह तथा सु र मोर क मीठी बोली गूँज रही है॥ ८-९ ॥ ‘मालती और कु क झा ड़याँ, स वु ार, शरीष, कद , अजुन और सजके फू ले ए वृ इस ानक शोभा बढ़ा रहे ह॥ १० ॥



‘राजकु मार!



यह पु रणी खले ए कमल से अलंकृत हो बड़ी रमणीय दखायी देती है। यह हमलोग क गुफासे अ धक दूर नह होगी॥ ११ ॥ ‘सौ ! यहाँका ान ◌इशानकोणक ओरसे नीचा है, अत: यहाँ यह गुफा हमारे नवासके लये ब त अ ी रहेगी। प म-द णके कोणक ओरसे ऊँ ची यह गुफा हवा और वषासे बचानेके लये अ ी होगी*॥ १२ ॥ ‘सु म ान न! इस गुफाके ारपर समतल शला है, जो बाहर बैठनेके लये सु वधाजनक होनेके कारण सुखदा यनी है। यह लंबी-चौड़ी होनेके साथ ही खानसे काटकर नकाले ए कोयल क रा शके समान काली है॥ १३ ॥ ‘तात! देखो, यह सु र पवत- शखर उ रक ओरसे कटे ए कोयल क रा श तथा घुमड़े ए मेघ क घटाके समान काला दखायी देता है॥ १४ ॥ ‘इसी तरह द ण दशाम भी इसका जो शखर है, वह ेत व और कै लास- ृ के समान ेत दखायी देता है। नाना कारक धातुएँ उसक शोभा बढ़ाती ह॥ १५ ॥ ‘वह देखो, इस गुफाके दूसरी ओर कू ट पवतके समीप बहनेवाली म ा कनीके समान तु भ ा नदी बह रही है। उसक धारा प मसे पूवक ओर जा रही है। उसम क चड़का नाम भी नह है॥ १६ ॥ ‘च न, तलक, साल, तमाल, अ तमु क, प क, सरल और शोक आ द नाना कारके वृ से उस नदीक कै सी शोभा हो रही है?॥ १७ ॥ ‘जलबत, त मद, बकु ल, के तक, ह ाल, त नश, नीप, लबत, कृ तमाल (अ मलतास) आ द भाँ तभाँ तके तटवत वृ से जहाँ-तहाँ सुशो भत ◌इ यह नदी व ाभूषण से वभू षत ृ ारस त युवती ीके समान जान पड़ती है॥ १८-१९ ॥ ‘सैकड़ प समूह से संयु ◌इ यह नदी उनके नाना कारके कलरव से गूँजती रहती है। पर र अनुर ए च वाक इस स रताक शोभा बढ़ाते ह॥ ‘अ रमणीय तट से अलंकृत, नाना कारके र से स तथा हंस और सारस से से वत यह नदी अपनी हा टा बखेरती ◌इ-सी जान पड़ती है॥ २१ ॥ ‘कह तो यह नील कमल से ढक ◌इ है, कह लाल कमल से सुशो भत होती है और कह ेत एवं द कु मुदक लका से शोभा पाती है॥ २२ ॥



‘सैकड़



जल-प य से से वत तथा मोर एवं ौ के कलरव से मुख रत ◌इ यह सौ नदी बड़ी रमणीय तीत होती है। मु नय के समुदाय इसके जलका सेवन करते ह॥ २३ ॥ ‘वह देखो, अजुन और च न वृ क पं याँ कतनी सु र दखायी देती ह। मालूम होता है ये मनके संक के साथ ही कट हो गयी ह॥ २४ ॥ ‘श ुसूदन सु म ाकु मार! यह ान अ रमणीय और अ तु है। यहाँ हमलोग का मन खूब लगेगा। अत: यह रहना ठीक होगा॥ २५ ॥ ‘राजकु मार! व च कानन से सुशो भत सु ीवक रमणीय क ापुरी भी यहाँसे अ धक दूर नह होगी॥ ‘ वजयी वीर म े ल ण! मृद क मधुर नके साथ गजते ए वानर के गीत और वा का ग ीर घोष यहाँसे सुनायी देता है॥ २७ ॥ ‘ न य ही क प े सु ीव अपनी प ीको पाकर, रा को ह गत करके और बड़ी भारी ल ीपर अ धकार ा करके सु द के साथ आन ो व मना रहे ह’॥ २८ ॥ ऐसा कहकर ीरामच जी ल णके साथ उस वण पवतपर जहाँ ब त-सी क रा और कु के दशन होते थे, नवास करने लगे॥ २९ ॥ य प उस पवतपर परम सुख दान करनेवाले ब त-से फल-फू ल आ द आव क पदाथ थे, तथा प रा स ारा हरी गयी ाण से भी बढ़कर आदरणीय सीताका रण करते ए भगवान् ीरामको वहाँ त नक भी सुख नह मलता था॥ ३० १/२ ॥ वशेषत: उदयाचलपर उ दत ए च देवका दशन करके रातम श ापर लेट जानेपर भी उ न द नह आती थी॥ ३१ १/२ ॥ सीताके वयोगज नत शोकसे आँ सू बहाते ए वे अचेत हो जाते थे। ीरामको नर र शोकम रहकर च ा करते देख उनके दु:खम समान पसे भाग लेनेवाले भा◌इ ल णने उनसे वनयपूवक कहा—॥ ३२-३३ ॥ ‘वीर! इस कार थत होनेसे को◌इ लाभ नह है। अत: आपको शोक नह करना चा हये; क शोक करनेवाले पु षके सभी मनोरथ न हो जाते ह, यह बात आपसे छपी नह है॥ ३४ ॥



‘रघुन



न! आप जग कमठ-वीर तथा देवता का समादर करनेवाले ह। आ क, धमा ा और उ ोगी ह॥ ३५ ॥ ‘य द आप शोकवश उ म छोड़ बैठते ह तो परा मके ान प समरा णम कु टल कम करनेवाले उस श ुका, जो वशेषत: रा स है, वध करनेम समथ न हो सकगे॥ ३६ ॥ ‘अत: आप अपने शोकको जड़से उखाड़ फ कये और उ ोगके वचारको सु र क जये। तभी आप प रवारस हत उस रा सका वनाश कर सकते ह॥ ३७ ॥ ‘काकु ! आप तो समु , वन और पवत स हत समूची पृ ीको भी उलट सकते ह; फर उस रावणका संहार करना आपके लये कौन बड़ी बात है?॥ ३८ ॥ ‘यह वषाकाल आ गया है। अब शरद-् ऋतुक ती ा क जये। फर रा और सेनास हत रावणका वध क जयेगा॥ ३९ ॥ ‘जैसे राखम छपी ◌इ आगको हवनकालम आ तय ारा लत कया जाता है, उसी कार म आपके सोये ए परा मको जगा रहा ँ —भूले ए बल- व मक याद दला रहा ँ ’॥ ४० ॥ ल णके इस शुभ एवं हतकर वचनक सराहना करके ीरघुनाथजीने अपने ेही सु त् सु म ाकु मारसे इस कार कहा—॥ ४१ ॥ ‘ल ण! अनुरागी, ेही, हतैषी और स परा मी वीरको जैसी बात कहनी चा हये वैसी ही तुमने कही है॥ ४२ ॥ ‘लो, सब तरहके काम बगाड़नेवाले शोकको मने ाग दया। अब म परा म वषयक दुधष तेजको ो ा हत करता ँ (बढ़ाता ँ )॥ ४३ ॥ ‘तु ारी बात मान लेता ँ । सु ीवके स होकर सहायता करने और न दय के जलके होनेक बाट देखता आ म शरत्-कालक ती ा क ँ गा॥ ४४ ॥ ‘जो वीर पु ष कसीके उपकारसे उपकृ त होता है, वह ुपकार करके उसका बदला अव चुकाता है, कतु य द को◌इ उपकारको न मानकर या भुलाकर ुपकारसे मुँह मोड़ लेता है, वह श शाली े पु ष के मनको ठे स प ँ चाता है॥ ४५ ॥ ‘ ीरामजीके उस कथनको ही यु यु मानकर ल णने उसक भू र-भू र शंसा क और दोन हाथ जोड़कर अपनी शुभ का प रचय देते ए वे नयना भराम ीरामसे इस कार



बोले—॥ ४६ ॥ ‘नरे र! जैसा क आपने कहा है, वानरराज सु ीव शी ही आपका यह सारा मनोरथ स करगे। अत: आप श ुके संहार करनेका ढ़ न य लये शर ालक ती ा क जये और इस वषाकालके वल को सहन क जये॥ ४७ ॥ ‘ ोधको काबूम रखकर शर ालक राह दे खये। बरसातके चार महीन तक जो भी क हो, उसे सहन क जये तथा श ुवधम समथ होनेपर भी इस वषाकालको तीत करते ए मेरे साथ इस सहसे वत पवतपर नवास क जये’॥ ४८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म स ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २७॥ ◌इशानकोणक ओर नीची तथा नैऋ कोणक ओरसे ऊँ ची होनेसे उसका ार नैऋ कोणक ओर था—यह तीत होता है, इससे उसम पूव हवा और उधरसे आनेवाली वषाका वेश नह था। *



अ ा◌इसवाँ सग ीरामके ारा वषा-ऋतुका वणन



इस कार वालीका वध और सु ीवका रा ा भषेक करनेके अन र मा वान् पवतके पृ भागम नवास करते ए ीरामच जी ल णसे कहने लगे—॥ १ ॥ ‘सु म ान न! अब यह जलक ा करानेवाला वह स वषाकाल आ गया। देखो, पवतके समान तीत होनेवाले मेघ से आकाशम ल आ हो गया है॥ २ ॥ ‘यह आकाश पा त णी सूयक करण ारा समु का रस पीकर का तक आ द नौ मास तक धारण कये ए गभके पम जल पी रसायनको ज दे रही है॥ ३ ॥ ‘इस समय मेघ पी सोपानपं य (सी ढ़य ) ारा आकाशम चढ़कर ग रम का और अजुनपु क माला से सूयदेवको अलंकृत करना सरल-सा हो गया है॥ ४ ॥ ‘सं ाकालक लाली कट होनेसे बीचम लाल तथा कनारेके भाग म ेत एवं तीत होनेवाले मेघख से आ ा दत आ आकाश ऐसा जान पड़ता है, मानो उसने अपने घावम र र त सफे द कपड़ क प ी बाँध रखी हो॥ ५ ॥ ‘म -म हवा न: ास-सी तीत होती है, सं ाकालक लाली लाल च न बनकर ललाट आ द अ को अनुर त कर रही है तथा मेघ पी कपोल कु छ-कु छ पा ु वणका तीत होता है। इस तरह यह आकाश कामातुर पु षके समान जान पड़ता है॥ ६ ॥ ‘जो ी -ऋतुम घामसे तप गयी थी, वह पृ ी वषाकालम नूतन जलसे भीगकर (सूयकरण से तपी और आँ सु से भीगी ◌इ) शोकसंत सीताक भाँ त बा वमोचन (उ ताका ाग अथवा अ ुपात) कर रही है॥ ७ ॥ ‘मेघके उदरसे नकली, कपूरक डलीके समान ठं डी तथा के वड़ेक सुग से भरी ◌इ इस बरसाती वायुको मानो अ लय म भरकर पीया जा सकता है॥ ‘यह पवत, जसपर अजुनके वृ खले ए ह तथा जो के वड़ से सुवा सत हो रहा है, शा ए श ुवाले सु ीवक भाँ त जलक धारा से अ भ ष हो रहा है॥ ९ ॥ मेघ पी काले मृगचम तथा वषाक धारा प य ोपवीत धारण कये वायुसे पू रत गुफा (या दय) वाले ये पवत चा रय क भाँ त मानो वेदा यन आर कर रहे ह॥ १० ॥



‘ये



बज लयाँ सोनेके बने ए कोड़ के समान जान पड़ती ह। इनक मार खाकर मानो थत आ आकाश अपने भीतर ◌इ मेघ क ग ीर गजनाके पम आतनाद-सा कर रहा है॥ ११ ॥ ‘नील मेघका आ य लेकर का शत होती ◌इ यह व ुत् मुझे रावणके अ म छटपटाती ◌इ तप नी सीताके समान तीत होती है॥ १२ ॥ ‘बादल का लेप लग जानेसे जनम ह, न और च मा अ हो गये ह, अतएव जो न -सी हो गयी है— जनके पूव, प म आ द भेद का ववेक लु -सा हो गया है, वे दशाएँ , उन का मय को, ज ेयसीका संयोगसुख सुलभ है, हतकर तीत होती ह॥ १३ ॥ ‘सु म ान न! देखो, इस पवतके शखर पर खले ए कु टज कै सी शोभा पाते ह? कह तो पहली बार वषा होनेपर भू मसे नकले ए भापसे ये ा हो रहे ह और कह वषाके आगमनसे अ उ ुक (हष ु ) दखायी देते ह। म तो या- वरहके शोकसे पी ड़त ँ और ये कु टज पु मेरी ेमा को उ ी कर रहे ह॥ १४ ॥ ‘धरतीक धूल शा हो गयी। अब वायुम शीतलता आ गयी। गम के दोष का सार बंद हो गया। भूपाल क यु या ा क गयी और परदेशी मनु अपने-अपने देशको लौट रहे ह॥ १५ ॥ ‘मानसरोवरम नवासके लोभी हंस वहाँके लये त हो गये। इस समय चकवे अपनी या से मल रहे ह। नर र होनेवाली वषाके जलसे माग टूट-फू ट गये ह, इस लये उनपर रथ आ द नह चल रहे ह॥ १६ ॥ ‘आकाशम सब ओर बादल छटके ए ह। कह तो उन बादल से ढक जानेके कारण आकाश दखायी नह देता है और कह उनके फट जानेपर वह दखायी देने लगता है। ठीक उसी तरह जैसे जसक तर मालाएँ शा हो गयी ह , उस महासागरका प कह तो पवतमाला से छप जानेके कारण नह दखायी देता है और कह पवत का आवरण न होनेसे दखायी देता है॥ १७ ॥ ‘इस समय पहाड़ी न दयाँ वषाके नूतन जलको बड़े वेगसे बहा रही ह। वह जल सज और कद के फू ल से म त है, पवतके गे आ द धातु से लाल रंगका हो गया है तथा मयूर क के का न उस जलके कलकलनादका अनुसरण कर रही है॥ १८ ॥



‘काले-काले भ र के



समान तीत होनेवाले जामुनके सरस फल आजकल लोग जी भरकर खाते ह और हवाके वेगसे हले ए आमके पके ए ब रंगी फल पृ ीपर गरते रहते है॥ १९ ॥ ‘जैसे यु लम खड़े ए मतवाले गजराज उ रसे च ाड़ते ह, उसी कार ग रराजके शखर क -सी आकृ तवाले मेघ जोर-जोरसे गजना कर रहे ह। चमकती ◌इ बज लयाँ इन मेघ पी गजराज पर पताका के समान फहरा रही ह और बगुल क पं याँ मालाके समान शोभा देती ह॥ २० ॥ ‘देखो, अपरा कालम इन वन क शोभा अ धक बढ़ जाती है। वषाके जलसे इनम हरीहरी घास बढ़ गयी ह। ंडु -के - ंडु मोर ने अपना नृ ो व आर कर दया है और मेघ ने इनम नर र जल बरसाया है॥ ‘बक-पं य से सुशो भत ये जलधर मेघ जलका अ धक भार ढोते और गजते ए बड़ेबड़े पवत शखर पर मानो व ाम ले-लेकर आगे बढ़ते ह॥ २२ ॥ ‘गभ धारणके लये मेघ क कामना रखकर आकाशम उड़ती ◌इ आन म बलाका क पं ऐसी जान पड़ती है, मानो आकाशके गलेम हवासे हलती ◌इ ेत कमल क सु र माला लटक रही हो॥ ‘छोटे-छोटे इ गोप (वीरब टी) नामक क ड़ से बीच-बीचम च त ◌इ नूतन घाससे आ ा दत भू म उस नारीके समान शोभा पाती है, जसने अपने अ पर तोतेके समान रंगवाला एक ऐसा क ल ओढ रखा हो, जसको बीच-बीचम महावरके रंगसे रँगकर व च शोभासे स कर दया गया हो॥ २४ ॥ ‘चौमासेके इस आर कालम न ा धीरे-धीरे भगवान् के शवके समीप जा रही है। नदी ती वेगसे समु के नकट प ँ च रही है। हषभरी बलाका उड़कर मेघक ओर जा रही है और यतमा सकामभावसे अपने यतमक सेवाम उप त हो रही है॥ २५ ॥ ‘वन ा मोर के सु र नृ से सुशो भत हो गये ह। कद वृ फू ल और शाखा से स हो गये ह। साँड़ गौ के त उ के समान कामभावसे आस ह और पृ ी हरी-हरी खेती तथा हरे-भरे वन से अ रमणीय तीत होने लगी है॥ २६ ॥ ‘न दयाँ बह रही ह, बादल पानी बरसा रहे ह, मतवाले हाथी च ाड़ रहे ह, वन ा शोभा पा रहे ह, यतमाके संयोगसे व त ए वयोगी ाणी च ाम हो रहे ह, मोर नाच रहे ह और वानर न एवं सुखी हो रहे ह॥ २७ ॥



‘वनके



झरन के समीप डासे उ सत ए मदवष गजराज के वड़ेके फू लक सुग को सूँघकर मतवाले हो उठे ह और झरनेके जलके गरनेसे जो श होता है, उससे आकु ल हो ये मोर के बोलनेके साथ-साथ यं भी गजना करते ह॥ २८ ॥ ‘जलक धारा गरनेसे आहत होते और कद क डा लय पर लटकते ए मर त ाल हण कये पु रससे उ गाढ़ मदको धीरे-धीरे ाग रहे ह॥ ‘कोयल क चूणरा शके समान काले और चुर रससे भरे ए बड़े-बड़े फल से लदी ◌इ जामुन-वृ क शाखाएँ ऐसी जान पड़ती ह, मानो मर के समुदाय उनम सटकर उनके रस पी रहे ह॥ ३० ॥ ‘ व ुत-् पी पताका से अलंकृत एवं जोर-जोरसे ग ीर गजना करनेवाले इन बादल के प यु के लये उ ुक ए गजराज के समान तीत होते ह॥ ३१ ॥ ‘पवतीय वन म वचरण करनेवाला तथा अपने त ीके साथ यु क इ ा रखनेवाला मदम गजराज, जो अपने मागका अनुसरण करके आगे बढ़ा जा रहा था, पीछेसे मेघक गजना सुनकर तप ी हाथीके गजनेक आश ा करके सहसा पीछेको लौट पड़ा॥ ३२ ॥ ‘कह



मर के समूह गीत गा रहे ह, कह मोर नाच रहे ह और कह गजराज मदम होकर वचर रहे ह। इस कार ये वन ा अनेक भाव के आ य बनकर शोभा पा रहे ह॥ ३३ ॥ ‘कद , सज, अजुन और ल-कमलसे स वनके भीतरक भू म मधु-जलसे प रपूण हो मोर के मदयु कलरव और नृ से उपल त होकर आपानभू म (मधुशाला) के समान तीत होती है॥ ३४ ॥ ‘आकाशसे गरता आ मोतीके समान एवं नमल जल प के दोन म सं चत आ देख ासे प ी पपीहे हषसे भरकर देवराज इ के दये ए उस जलको पीते ह। वषासे भीग जानेके कारण उनक पाँख व वध रंगक दखायी देती ह॥ ३५ ॥ ‘ मर प वीणाक मधुर झंकार हो रही है। मेढक क आवाज क ताल-सी जान पड़ती है। मेघ क गजनाके पम मृद बज रहे ह। इस कार वन म संगीतो वका आर -सा हो रहा है॥ ३६ ॥ ‘ वशाल पंख पी आभूषण से वभू षत मोर वन म कह नाच रहे ह, कह जोर-जोरसे मीठी बोली बोल रहे ह और कह वृ क शाखा पर अपने सारे शरीरका बोझ डालकर बैठे



ए ह। इस कार उ ने संगीत (नाच-गान) का आयोजन-सा कर रखा है॥ ३७ ॥ ‘मेघ क गजना सुनकर चरकालसे रोक ◌इ न ाको ागकर जागे ए अनेक कारके प, आकार, वण और बोलीवाले मेढक नूतन जलक धारासे अ भहत होकर जोर-जोरसे बोल रहे ह॥ ३८ ॥ (कामातुर युव तय क भाँ त) दपभरी न दयाँ अपने व पर (उरोज के ानम) च वाक को वहन करती ह और मयादाम रखनेवाले जीण-शीण कू लकगार को तोड़-फोड़ एवं दूर बहाकर नूतन पु आ दके उपहारसे पूण भोगके लये सादर ीकृ त अपने ामी समु के समीप वेगपूवक चली जा रही ह॥ ३९ ॥ ‘नीले मेघ म सटे ए नूतन जलसे प रपूण नील मेघ ऐसे तीत होते ह, मानो दावानलसे जले ए पवत म दावानलसे द ए दूसरे पवत ब मूल होकर सट गये ह ॥ ४० ॥ ‘जहाँ मतवाले मोर कलनाद कर रहे ह, जहाँक हरी-हरी घास वीरब टय के समुदायसे ा हो रही ह तथा जो नीप और अजुन-वृ के फू ल क सुग से सुवा सत ह, उन परम रमणीय वन ा म ब त-से हाथी वचरा करते ह॥ ४१ ॥ ‘ मर के समुदाय नूतन जलक धारासे न ए के सरवाले कमल-पु को तुरंत ागकर के सर-शो भत नवीन कद -पु का रस बड़े हषके साथ पी रहे ह॥ ‘गजे (हाथी) मतवाले हो रहे ह। गवे (वृषभ) आन म म ह, मृगे ( सह) वन म अ परा म कट करते ह, नगे (बड़े-बड़े पवत) रमणीय दखायी देते ह, नरे (राजालोग) मौन ह— यु वषयक उ ाह छोड़ बैठे ह और सुरे (इ देव) जलधर के साथ डा कर रहे ह॥ ४३ ॥ ‘आकाशम लटके ए ये मेघ अपनी गजनासे समु के कोलाहलको तर ृ त करके अपने जलके महान् वाहसे नदी, तालाब, सरोवर, बावली तथा समूची पृ ीको आ ा वत कर रहे ह॥ ४४ ॥ ‘बड़े वेगसे वषा हो रही है, जोर क हवा चल रही है और न दयाँ अपने कगार को काटकर अ ती ग तसे जल बहा रही ह। उ ने माग रोक दये ह॥ ‘जैसे मनु जलके कलश से नरेश का अ भषेक करते ह, उसी कार इ के दये और वायुदेवके ारा लाये गये मेघ पी जल-कलश से जनका अ भषेक हो रहा है, वे पवतराज अपने नमल प तथा शोभा स का दशन-सा करा रहे ह॥ ४६ ॥



‘मेघ क



घटासे सम आकाश आ ा दत हो गया है। न रातम तारे दखायी देते ह, न दनम सूय। नूतन जलरा श पाकर पृ ी पूण तृ हो गयी है। दशाएँ अ कारसे आ हो रही ह, अतएव का शत नह होती ह—उनका ान नह हो पाता है॥ ४७ ॥ ‘जलक धारा से घुले ए पवत के वशाल शखर मो तय के लटकते ए हार क भाँ त एवं ब सं क झरन के कारण अ धक शोभा पाते ह॥ ४८ ॥ ‘पवतीय रख पर गरनेसे जनका वेग टूट गया है, वे े पवत के ब तेरे झरने मयूर क बोलीसे गूँजती ◌इ गुफा म टूटकर बखरते ए मो तय के हार के समान तीत होते ह॥ ४९ ॥ ‘ जनके वेग शी गामी ह, जनक सं ा अ धक है, ज ने पवतीय शखर के न देश को धोकर बना दया है तथा जो देखनेम मु ामाला के समान तीत होते ह, पवत के उन झरते ए झरन को बड़ी-बड़ी गुफाएँ अपनी गोदम धारण कर लेती ह॥ ‘सुरत- डाके समय होनेवाले अ के आमदनसे टूटे ए देवा ना के मौ क हार के समान तीत होनेवाली जलक अनुपम धाराएँ स ूण दशा म सब ओर गर रही ह॥ ५१ ॥ ‘प ी अपने घोसल म छप रहे ह, कमल संकु चत हो रहे ह और मालती खलने लगी है; इससे जान पड़ता है क सूयदेव अ हो गये॥ ५२ ॥ ‘राजा क यु -या ा क गयी। त ◌इ सेना भी रा ेम ही पड़ाव डाले पड़ी है। वषाके जलने राजा के वैर शा कर दये ह और माग भी रोक दये ह। इस कार वैर और माग दोन क एक-सी अव ा कर दी है॥ ५३ ॥ ‘भाद का महीना आ गया। यह वेद के ा ायक इ ा रखनेवाले ा ण के लये उपा मका समय उप त आ है। सामगान करनेवाले व ान के ा ायका भी यही समय है॥ ५४ ॥ ‘कोसलदेशके राजा भरतने चार महीनेके लये आव क व ु का सं ह करके गत आषाढक पू णमाको न य ही कसी उ म तक दी ा ली होगी॥ ५५ ॥ ‘मुझे वनक ओर आते देख जस कार अयो ापुरीके लोग का आतनाद बढ़ गया था, उसी कार इस समय वषाके जलसे प रपूण होती ◌इ सरयू नदीका वेग अव ही बढ़ रहा होगा॥ ५६ ॥



‘यह वषा अनेक गुण से स



है। इस समय सु ीव अपने श ुको परा करके वशाल वानर-रा पर त त ह और अपनी ीके साथ रहकर सुख भोग रहे ह॥ ५७ ॥ ‘ कतु ल ण! म अपने महान् रा से तो हो ही गया ँ , मेरी ी भी हर ली गयी है; इस लये पानीसे गले ए नदीके तटक भाँ त क पा रहा ँ ॥ ‘मेरा शोक बढ़ गया है। मेरे लये वषाके दन को बताना अ क ठन हो गया है और मेरा महान् श ु रावण भी मुझे अजेय-सा तीत होता है॥ ५९ ॥ ‘एक तो यह या ाका समय नह है, दूसरे माग भी अ दुगम है। इस लये सु ीवके नतम क होनेपर भी मने उनसे कु छ कहा नह है॥ ६० ॥ ‘वानर सु ीव ब त दन से क भोगते थे और दीघकालके प ात् अब अपनी प ीसे मले ह। इधर मेरा काय बड़ा भारी है (थोड़े दन म स होनेवाला नह है); इस लये म इस समय उससे कु छ कहना नह चाहता ँ ॥ ६१ ॥ ‘कु छ दन तक व ाम करके उपयु समय आया आ जान वे यं ही मेरे उपकारको समझगे; इसम संशय नह है॥ ६२ ॥ ‘अत: शुभल ण ल ण! म सु ीवक स ता और न दय के जलक ता चाहता आ शर ालक ती ाम चुपचाप बैठा आ ँ ॥ ६३ ॥ ‘जो वीर पु ष कसीके उपकारसे उपकृ त होता है, वह ुपकार करके उसका बदला अव चुकाता है; कतु य द को◌इ उपकारको न मानकर या भुलाकर ुपकारसे मुँह मोड़ लेता है, वह श शाली े पु ष के मनको ठे स प ँ चाता है’॥ ६४ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर ल णने सोच वचार कर उसक भू र-भू र शंसा क और दोन हाथ जोड़कर अपनी शुभ का प रचय देते ए वे नयना भराम ीरामसे इस कार बोले॥ ६५ ॥ ‘नरे र! जैसा क आपने कहा है, वानरराज सु ीव शी ही आपका यह सारा मनोरथ स करगे। अत: आप श ुके संहार करनेका ढ़ न य लये शर ालक ती ा क जये और इस वषाकालके वल को सहन क जये’॥ ६६। इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म अ ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २८॥



उनतीसवाँ सग हनुमा ीके समझानेसे सु ीवका नीलको वानर-सै नक को एक करनेका आदेश देना



पवनकु मार हनुमान् शा के न त स ा को जाननेवाले थे। ा करना चा हये और ा नह — इन सभी बात का उ यथाथ ान था। कस समय कस वशेष धमका पालन करना चा हये—इसको भी वे ठीक-ठीक समझते थे। उ बातचीत करनेक कलाका भी अ ा ान था। उ ने देखा, आकाश नमल हो गया है। अब उसम न तो बजली चमकती है और न बादल ही दखायी देते ह। अ र म सब ओर सारस उड़ रहे ह और उनक बोली सुनायी देती है। (च ोदय होनेपर) आकाश ऐसा जान पड़ता है, मानो उसपर ेत च नस श रमणीय चाँदनीका लेप चढ़ा दया गया हो। सु ीवका योजन स हो जानेके कारण अब वे धम और अथके सं हम श थलता दखाने लगे ह। असाधु पु ष के माग (कामसेवन) का ही अ धक आ य ले रहे ह। एका म ही (जहाँ य के स म को◌इ बाधा न पड़े) उनका मन लगता है। उनका काम पूरा हो गया है। उनके अभी योजनक स हो चुक है। अब वे सदा युवती य के साथ डा- वलासम ही लगे रहते ह। उ ने अपने सारे अ भल षत मनोरथ को ा कर लया है। अपनी मनोवा त प ी मा तथा अभी सु री ताराको भी ा करके अब वे कृ तकृ एवं न होकर दन-रात भोग- वलासम लगे रहते ह। जैसे देवराज इ ग व और अ रा के समुदायके साथ डाम त र रहते ह, उसी कार सु ीव भी अपने म य पर राजकायका भार रखकर डा- वहारम त र ह। म य के काय क देखभाल वे कभी नह करते ह। म य क स नताके कारण य प रा को कसी कारक हा न प ँ चनेका संदेह नह है, तथा प यं सु ीव ही े ाचारी-से हो रहे ह। यह सब सोचकर हनुमा ी वानरराज सु ीवके पास गये और उ यु यु व वध एवं मनोरम वचन के ारा स करके बातचीतका मम समझनेवाले उन सु ीवसे हतकर, स , लाभदायक, साम, धम और अथनी तसे यु , शा व ासी पु ष के सु ढ़ न यसे स तथा ेम और स तासे भरे वचन बोले॥ १—८ १/२ ॥ ‘राजन्! आपने रा और यश ा कर लया तथा कु लपर रासे आयी ◌इ ल ीको भी बढ़ाया; कतु अभी म को अपनानेका काय शेष रह गया है, उसे आपको इस समय पूण करना चा हये॥ ९ १/२ ॥



‘जो



राजा ‘कब ुपकार करना चा हये’ इस बातको जानकर म के त सदा साधुतापूण बताव करता है, उसके रा , यश और तापक वृ होती है॥ ‘पृ ीनाथ! जस राजाका कोश, द (सेना), म और अपना शरीर—ये सब-के -सब समान पसे उसके वशम रहते ह, वह वशाल रा का पालन एवं उपभोग करता है॥ ११ ॥ ‘आप सदाचारसे स और न सनातन धमके मागपर त ह; अत: म के कायको सफल बनानेके लये जो त ा क है, उसे यथो चत पसे पूण क जये॥ १२ ॥ ‘जो अपने सब काय को छोड़कर म का काय स करनेके लये वशेष उ ाहपूवक शी ताके साथ नह लग जाता है, उसे अनथका भागी होना पड़ता है॥ ‘कायसाधनका उपयु अवसर बीत जानेके बाद जो म के काय म लगता है, वह बड़ेसे-बड़े काय को स करके भी म के योजनको स करनेवाला नह माना जाता है॥ १४ ॥ ‘श ुदमन! भगवान् ीराम हमारे परम सु द ् ह। उनके इस कायका समय बीता जा रहा है; अत: वदेहकु मारी सीताक खोज आर कर देनी चा हये॥ १५ ॥ ‘राजन्! परम बु मान् ीराम समयका ान रखते ह और उ अपने कायक स के लये ज ी लगी ◌इ है, तो भी वे आपके अधीन बने ए ह। संकोचवश आपसे नह कहते क मेरे कायका समय बीत रहा है॥ १६ ॥ ‘वानरराज! भगवान् ीराम चरकालतक म ता नभानेवाले ह। वे आपके समृ शाली कु लके अ ुदयके हेतु ह। उनका भाव अतुलनीय है। वे गुण म अपना शानी नह रखते ह। अब आप उनका काय स क जये; क उ ने आपका काम पहले ही स कर दया है। आप धान- धान वानर को इस कायके लये आ ा दी जये॥ १७-१८ ॥ ‘ ीरामच जीके कहनेके पहले ही य द हमलोग काय ार कर द तो समय बीता आ नह माना जायगा; कतु य द उ इसके लये ेरणा करनी पड़ी तो यही समझा जायगा क हमने समय बता दया है— उनके कायम ब त वल कर दया है॥ १९ ॥ ‘वानरराज! जसने आपका को◌इ उपकार नह कया हो, उसका काय भी आप स करनेवाले ह। फर ज ने वालीका वध तथा रा दान करके आपका उपकार कया है, उनका काय आप शी स कर, इसके लये तो कहना ही ा है॥ २० ॥



‘वानर और भालू-समुदायके



ामी सु ीव! आप श मान् और अ परा मी ह; फर भी दशरथन न ीरामका य काय करनेके लये वानर को आ ा देनेम वल करते ह?॥ २१ ॥ ‘इसम संदेह नह क दशरथकु मार भगवान् ीराम अपने बाण से सम देवता , असुर और बड़े-बड़े नाग को भी अपने वशम कर सकते ह, तथा प आपने जो उनके कायको स करनेक त ा क है, उसीक वे राह देख रहे ह॥ २२ ॥ ‘उ आपके लये वालीके ाणतक लेनेम हचक नह ◌इ। वे आपका ब त बड़ा य काय कर चुके ह; अत: अब हमलोग उनक प ी वदेहकु मारी सीताका इस भूतलपर और आकाशम भी पता लगाव॥ ‘देवता, दानव, ग व, असुर, म ण तथा य भी ीरामको भय नह प ँ चा सकते; फर रा स क तो बसात ही ा है॥ २४ ॥ ‘वानरराज! ऐसे श शाली तथा पहले ही उपकार करनेवाले भगवान् ीरामका य काय आपको अपनी सारी श लगाकर करना चा हये॥ २५ ॥ ‘कपी र! आपक आ ा हो जाय तो जलम, थलम, नीचे (पातालम) तथा ऊपर आकाशम—कह भी हम लोग क ग त क नह सकती॥ २६ ॥ ‘ न ाप क पराज! अत: आप आ ा दी जये क कौन कहाँसे आपक कस आ ाका पालन करनेके लये उ ोग करे। आपके अधीन करोड़ से भी अ धक ऐसे वानर मौजूद ह, ज को◌इ परा नह कर सकता’॥ २७ ॥ सु ीव स गुणसे स थे। उ ने हनुमा ीके ारा ठीक समयपर अ े ढंगसे कही ◌इ उपयु बात सुनकर भगवान् ीरामका काय स करनेके लये अ उ म न य कया॥ २८ ॥ वे परम बु मान् थे। अत: न उ मशील नील नामक वानरको उ ने सम दशा से स ूण वानर-सेना को एक करनेके लये आ ा दी और कहा— ‘तुम ऐसा य करो, जससे मेरी सारी सेना यहाँ इक ी हो जाय और सभी यूथप त अपनी सेना एवं सेनाप तय के साथ अ वल उप त हो जायँ॥ २९-३० ॥ ‘रा -सीमाक र ा करनेवाले जो-जो उ ोगी और शी गामी वानर ह, वे सब मेरी आ ासे शी यहाँ आ जायँ। उसके बाद जो कु छ कत हो, उसपर तुम यं ही ान दो॥ ३१



॥ ‘जो



वानर पं ह दन के बाद यहाँ प ँ चेगा, उसे ाणा द दया जायगा। इसम को◌इ अ था वचार नह करना चा हये॥ ३२ ॥ ‘यह मेरी न त आ ा है। इसके अनुसार इस व ाका अ धकार लेकर अ दके साथ तुम यं बड़े-बूढ़े वानर के पास जाओ।’ ऐसा ब करके महाबली वानरराज सु ीव अपने महलम चले गये॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म उनतीसवाँ सग पूरा आ॥ २९॥



तीसवाँ सग शरद-् ऋतुका वणन तथा ीरामका ल



णको सु ीवके पास जानेका आदेश देना



पूव आदेश देकर सु ीव तो अपने महलम चले गये और उधर ीरामच जी, जो वषाक रात म वण ग रपर नवास करते थे, आकाशके मेघ से मु एवं नमल हो जानेपर सीतासे मलनेक उ ा लये उनके वरहज शोकसे अ पीड़ाका अनुभव करने लगे॥ १॥ उ ने देखा, आकाश ेत वणका हो रहा है, च म ल दखायी देता है तथा शरद-् ऋतुक रजनीके अ पर चाँदनीका अ राग लगा आ है। यह सब देखकर वे सीतासे मलनेके लये ाकु ल हो उठे ॥ २ ॥ उ ने सोचा ‘सु ीव कामम आस हो रहा है, जनककु मारी सीताका अबतक कु छ पता नह लगा है और रावणपर चढ़ा◌इ करनेका समय भी बीता जा रहा है।’ यह सब देखकर अ आतुर ए ीरामका दय ाकु ल हो उठा॥ ३ ॥ दो घड़ीके बाद जब उनका मन कु छ आ, तब वे बु मान् नरेश ीरघुनाथजी अपने मनम बसी ◌इ वदेहन नी सीताका च न करने लगे॥ ४ ॥ उ ने देखा, आकाश नमल है। न कह बजलीक गड़गड़ाहट है न मेघ क घटा। वहाँ सब ओर सारस क बोली सुनायी देती है। यह सब देखकर वे आतवाणीम वलाप करने लगे॥ ५॥ सुनहरे रंगक धातु से वभू षत पवत शखरपर बैठे ए ीरामच जी शर ालके आकाशक ओर पात करके मन-ही-मन अपनी ारी प ी सीताका ान करने लगे॥ ६ ॥ वे बोले—‘ जसक बोली सारस क आवाजके समान मीठी थी तथा जो मेरे आ मपर सारस ारा पर र एक-दूसरेको बुलानेके लये कये गये मधुर श से मन बहलाती थी, वह मेरी भोली-भाली ी सीता आज कस तरह मनोर न करती होगी?॥ ७ ॥ ‘सुवणमय वृ के समान नमल और खले ए असन नामक वृ को देखकर बार-बार उ नहारती ◌इ भोली-भाली सीता जब मुझे अपने पास नह देखती होगी, तब कै से उसका मन लगता होगा?॥ ८ ॥



‘ जसके



सभी अ मनोहर ह तथा जो भावसे ही मधुर भाषण करनेवाली है, वह सीता पहले कलहंस के मधुर श से जागा करती थी; कतु आज वह मेरी या वहाँ कै से स रहती होगी?॥ ९ ॥ ‘ जसके वशाल ने फु कमलदलके समान शोभा पाते ह, वह मेरी या जब साथ वचरनेवाले चकव क बोली सुनती होगी, तब उसक कै सी दशा हो जाती होगी?॥ १० ॥ ‘हाय! म नदी, तालाब, बावली, कानन और वन सब जगह घूमता ँ ; परंतु कह भी उस मृगशावकनयनी सीताके बना अब मुझे सुख नह मलता है॥ ११ ॥ ‘कह ऐसा तो नह होगा क शरद-् ऋतुके गुण से नर र वृ को ा होनेवाला काम भा मनी सीताको अ पी ड़त कर दे; क ऐसी स ावनाके दो कारण ह—एक तो उसे मेरे वयोगका क है, दूसरे वह अ सुकुमारी होनेके कारण इस क को सहन नह कर पाती होगी’॥ १२ ॥ इ से पानीक याचना करनेवाले ासे पपीहेक भाँ त नर े नरे कु मार ीरामने इस तरहक ब त-सी बात कहकर वलाप कया॥ १३ ॥ उस समय शोभाशाली ल ण फल लेनेके लये गये थे। वे पवतके रमणीय शखर पर घूम- फरकर जब लौटे तब उ ने अपने बड़े भा◌इक अव ापर पात कया॥ १४ ॥ वे दु ह च ाम म होकर अचेत-से हो गये थे और एका म अके ले ही दु:खी होकर बैठे थे। उस समय मन ी सु म ाकु मार ल णने जब उ देखा तब वे तुरंत ही भा◌इके वषादसे अ दु:खी हो गये और उनसे इस कार बोले—॥ १५ ॥ ‘आय! इस कार कामके अधीन होकर अपने पौ षका तर ार करनेस— े परा मको भूल जानेसे ा लाभ होगा? इस ल ाजनक शोकके कारण आपके च क एका ता न हो रही है। ा इस समय योगका सहारा लेनेसे—मनको एका करनेसे यह सारी च ा दूर नह हो सकती?॥ १६ ॥ ‘तात! आप आव क कम के अनु ानम पूण पसे लग जाइये, मनको स क जये और हर समय च क एका ता बनाये र खये। साथ ही, अ :करणम दीनताको ान न देते ए अपने परा मक वृ के लये सहायता और श को बढ़ानेका य क जये॥ ‘मानववंशके नाथ तथा े पु ष के भी पूजनीय वीर रघुन न! जनके ामी आप ह, वे जनकन नी सीता कसी भी दूसरे पु षके लये सुलभ नह ह; क जलती ◌इ आगक



लपटके पास जाकर को◌इ भी द ए बना नह रह सकता’॥ १८ ॥ ल ण उ म ल ण से स थे। उ को◌इ परा नह कर सकता था। भगवान् ीरामने उनसे यह ाभा वक बात कही—‘कु मार! तुमने जो बात कही है, वह वतमान समयम हतकर, भ व म भी सुख प ँ चानेवाली, राजनी तके सवथा अनुकूल तथा सामके साथ-साथ धम और अथसे भी संयु है। न य ही सीताके अनुसंधान कायपर ान देना चा हये तथा उसके लये वशेष काय या उपायका भी अनुसरण करना चा हये; कतु य छोड़कर पूण पसे बढ़े ए दुलभ एवं बलवान् कमके फलपर ही रखना उ चत नह है’॥ १९-२० ॥ तदन र फु कमलदलके समान ने वाली म थलेशकु मारी सीताका बार-बार च न करते ए ीरामच जी ल णको स ो धत करके सूखे ए (उदास) मुँहसे बोले—॥ २१ ॥ ‘सु म ान न! सह ने धारी इ इस पृ ीको जलसे तृ करके यहाँके अनाज को पकाकर अब कृ तकृ हो गये ह॥ २२ ॥ ‘राजकु मार! देखो, जो अ ग ीर रसे गजना कया करते और पवत , नगर तथा वृ के ऊपरसे होकर नकलते थे, वे मेघ अपना सारा जल बरसाकर शा हो गये ह॥ २३ ॥ ‘नील कमलदलके समान ामवणवाले मेघ दस दशा को ाम बनाकर मदर हत गजराज के समान वेगशू हो गये ह; उनका वेग शा हो गया है॥ २४ ॥ ‘सौ ! जनके भीतर जल व मान था तथा जनम कु टज और अजुनके फू ल क सुग भरी ◌इ थी, वे अ वेगशाली झंझावात उमड़-घुमड़कर स ूण दशा म वचरण करके अब शा हो गये ह॥ ‘ न ाप ल ण! बादल , हा थय , मोर और झरन के श इस समय सहसा शा हो गये ह॥ २६ ॥ ‘महान् मेघ ारा बरसाये ए जलसे घुल जानेके कारण ये व च शखर वाले पवत अ नमल हो गये ह। इ देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो च माक करण ारा इनके ऊपर सफे दी कर दी गयी है॥ २७ ॥ ‘आज शरद-् ऋतु स द ( छतवन) क डा लय म, सूय, च मा और तार क भाम तथा े गजराज क लीला म अपनी शोभा बाँटकर आयी है॥ २८ ॥



‘इस



समय शर ालके गुण से स ◌इ ल ी य प अनेक आ य म वभ होकर व च शोभा धारण करती ह, तथा प सूयक थम करण से वक सत ए कमल-वन म वे सबसे अ धक सुशो भत होती ह॥ ‘ छतवनके फू ल क सुग धारण करनेवाला शर ाल भावत: वायुका अनुसरण कर रहा है। मर के समूह उसके गुणगान कर रहे ह। वह मागके जलको सोखता और मतवाले हा थय के दपको बढ़ाता आ अ धक शोभा पा रहा है॥ ३० ॥ ‘ जनके पंख सु र और वशाल ह, ज काम डा अ धक य है, जनके ऊपर कमल के पराग बखरे ए ह, जो बड़ी-बड़ी न दय के तट पर उतरे ह और मानसरोवरसे साथ ही आये ह, उन च वाक के साथ हंस डा कर रहे ह॥ ३१ ॥ ‘मदम गजराज म, दप-भरे वृषभ के समूह म तथा जलवाली स रता म नाना प म वभ ◌इ ल ी वशेष शोभा पा रही है॥ ३२ ॥ ‘आकाशको बादल से शू आ देख वन म पंख पी आभूषण का प र ाग करनेवाले मोर अपनी यतमा से वर हो गये ह। उनक शोभा न हो गयी है और वे आन शू हो ानम होकर बैठे ह॥ ‘वनके भीतर ब त-से असन नामक वृ खड़े ह, जनक डा लय के अ भाग फू ल के अ धक भारसे कु गये ह। उनपर मनोहर सुग छा रही है। वे सभी वृ सुवणके समान गौर तथा ने को आन दान करनेवाले ह। उनके ारा वन ा का शत-से हो रहे ह॥ ३४ ॥ ‘जो अपनी यतमा के साथ वचरते ह, ज कमलके पु तथा वन अ धक य ह, जो छतवनके फू ल को सूँघकर उ हो उठे ह, जनम अ धक मद है तथा ज मदज नत कामभोगक लालसा बनी ◌इ है, उन गजराज क ग त आज म हो गयी है॥ ३५ ॥ ‘इस समय आकाशका रंग शानपर चढ़े ए श क धारके समान दखायी देता है, न दय के जल म ग तसे वा हत हो रहे ह, ेत कमलक सुग लेकर शीतल म वायु चल रही है, दशा का अ कार दूर हो गया है और अब उनम पूण काश छा रहा है॥ ३६ ॥ ‘घाम लगनेसे धरतीका क चड़ सूख गया है। अब उसपर ब त दन के बाद घनी धूल कट ◌इ है। पर र वैर रखनेवाले राजा के लये यु के न म उ ोग करनेका समय अब आ गया है॥ ३७ ॥



‘शरद-् ऋतुके गुण ने जनके है, जनके मदक अ धक वृ



प और शोभाको बढ़ा दया है, जनके सारे अ पर धूल छा रही ◌इ है तथा जो यु के लये लुभाये ए ह, वे साँड़ इस समय गौ के बीचम खड़े होकर अ हषपूवक हँ कड़ रहे ह॥ ३८ ॥ ‘ जसम कामभावका उदय आ है, इसी लये जो अ ती अनुरागसे यु है और अ े कु लम उ ◌इ है, वह म ग तसे चलनेवाली ह थनी वन म जाते ए अपने मदम ामीको घेरकर उसका अनुगमन करती है॥ ३९ ॥ ‘अपने आभूषण प े पंख को ागकर न दय के तट पर आये ए मोर मानो सारससमूह क फटकार सुनकर दु:खी और ख च हो पीछे लौट जाते ह॥ ‘ जनके ग लसे मदक धारा बह रही है, वे गजराज अपनी महती गजनासे कार व तथा च वाक को भयभीत करके वक सत कमल से वभू षत सरोवर म जलको हलोरहलोरकर पी रहे ह॥ ४१ ॥ ‘ जनके क चड़ दूर हो गये ह। जो बालुका से सुशो भत ह, जनका जल ब त ही है तथा गौ के समुदाय जनके जलका सेवन करते ह, सारस के कलरव से गूँजती ◌इ उन स रता म हंस बड़े हषके साथ उतर रहे ह॥ ४२ ॥ ‘नदी, मेघ, झरन के जल, च वायु, मोर और हषर हत मेढक के श न य ही इस समय शा हो गये ह॥ ४३ ॥ ‘नूतन मेघ के उ दत होनेपर जो चरकालसे बल म छपे बैठे थे, जनक शरीरया ा न ाय हो गयी थी और इस कार जो मृतवत् हो रहे थे, वे भयंकर वषवाले ब रंगे सप भूखसे पी ड़त होकर अब बल से बाहर नकल रहे ह॥ ४४ ॥ ‘शोभाशाली च माक करण के शसे होनेवाले हषके कारण जसके तारे क चत् का शत हो रहे ह (अथवा यतमके कर शज नत हषसे जसके ने क पुतली क चत् खल उठी है) वह रागयु सं ा (अथवा अनुरागभरी ना यका) यं ही अ र (आकाश अथवा व ) का ाग कर रही है, यह कै से आ यक बात है!*॥ ४५ ॥ ‘चाँदनीक चादर ओढ़े ए शर ालक यह रा ेत साड़ीसे ढके ए अ वाली एक सु री नारीके समान शोभा पाती है। उ दत आ च मा ही उसका सौ मुख है और तारे ही उसक खुली ◌इ मनोहर आँ ख ह॥ ४६ ॥



‘पके



ए धानक बाल को खाकर हषसे भरी ◌इ और ती वेगसे चलनेवाली सारस क वह सु र पं वायुक त गुँथी ◌इ पु मालाक भाँ त आकाशम उड़ रही है॥ ४७ ॥ ‘कु मुदके फू ल से भरा आ उस महान् तालाबका जल जसम एक हंस सोया आ है, ऐसा जान पड़ता है मानो रातके समय बादल के आवरणसे र हत आकाश सब ओर छटके ए तार से ा होकर पूण च माके साथ शोभा पा रहा हो॥ ४८ ॥ ‘सब ओर बखरे ए हंस ही जनक फै ली ◌इ मेखला (करधनी) ह, जो खले ए कमल और उ ल क मालाएँ धारण करती ह। उन उ म बाव ड़य क शोभा आज व ाभूषण से वभू षत ◌इ सु री व नता के समान हो रही है॥ ४९ ॥ ‘वेणुके रके पम ए वा घोषसे म त और ात:कालक वायुसे वृ को ा होकर सब ओर फै ला आ दही मथनेके बड़े-बड़े भा और साँड़ का श , मानो एकदूसरेका पूरक हो रहा है॥ ५० ॥ ‘न दय के तट म -म वायुसे क त, पु पी हाससे सुशो भत और धुले ए नमल रेशमी व के समान का शत होनेवाले नूतन कास से बड़ी शोभा पा रहे ह॥ ५१ ॥ ‘वनम ढठा◌इके साथ घूमनेवाले तथा कमल और असनके पराग से गौरवणको ा ए मतवाले मर, जो पु के मकर का पान करनेम बड़े चतुर ह, अपनी या के साथ हषम भरकर वन म (ग के लोभसे) वायुके पीछे-पीछे जा रहे ह॥ ५२ ॥ ‘जल हो गया है, धानक खेती पक गयी है, वायु म ग तसे चलने लगी है और च मा अ नमल दखायी देता है—ये सब ल ण उस शर ालके आगमनक सूचना देते ह। जसम वषाक समा हो जाती है, ौ प ी बोलने लगते ह और फू ल उस ऋतुके हासक भाँ त खल उठते ह॥ ५३ ॥ ‘रातको यतमके उपभोगम आकर ात:काल अलसायी ग तसे चलनेवाली का म नय क भाँ त उन नदी पा वधु क ग त भी आज म हो गयी है, जो मछ लय क मेखला-सी धारण कये ए ह॥ ५४ ॥ ‘न दय के मुख नव वधु के मुँहके समान शोभा पाते ह। उनम जो च वाक ह, वे गोरोचन ारा न मत तलकके समान तीत होते ह, जो सेवार ह, वे वधूके मुखपर बनी ◌इ प भ ीके समान जान पड़ते ह तथा जो काश ह, वे ही मानो ेत दुकूल बनकर नदी पणी वधूके मुँहको ढके ए ह॥ ५५ ॥



‘फू ले



ए सरक और असनके वृ से जनक व च शोभा हो रही है तथा जनम हषभरे मर क आवाज गूँजती रहती है, उन वन म आज च धनुधर कामदेव कट आ है, जो धनुष हाथम लेकर वरही जन को द देनेके लये उ त हो अ कोपका प रचय दे रहा है॥ ५६ ॥ ‘अ ी वषासे लोग को संतु करके न दय और तालाब को पानीसे भरकर तथा भूतलको प रप धानक खेतीसे स करके बादल आकाश छोड़कर अ हो गये॥ ५७ ॥ ‘शरद-् ऋतुक न दयाँ धीरे-धीरे जलके हटनेसे अपने न तट को दखा रही ह। ठीक उसी तरह जैसे थम समागमके समय लजीली युव तयाँ शनै:-शनै: अपने जघन- लको दखानेके लये ववश होती ह॥ ५८ ॥ ‘सौ ! सभी जलाशय के जल हो गये ह। वहाँ कु रर प य के कलनाद गूँज रहे ह और च वाक के समुदाय चार ओर बखरे ए ह। इस कार उन जलाशय क बड़ी शोभा हो रही है॥ ५९ ॥ ‘सौ ! राजकु मार! जनम पर र वैर बँधा आ है और जो एक-दूसरेको जीतनेक इ ा रखते ह, उन भू मपाल के लये यह यु के न म उ ोग करनेका समय उप त आ है॥ ६० ॥ ‘नरेशन



न! राजा क वजय-या ाका यह थम अवसर है, कतु न तो म सु ीवको यहाँ उप त देखता ँ और न उनका को◌इ वैसा उ ोग ही गोचर होता है॥ ६१ ॥ ‘पवतके शखर पर असन, छतवन, को वदार, ब -ु जीव तथा ाम तमाल खले दखायी देते ह॥ ६२ ॥ ‘ल ण! देखो तो सही, न दय के तट पर सब ओर हंस, सारस, च वाक और कु रर नामक प ी फै ले ए ह॥ ६३ ॥ ‘म सीताको न देखनेके कारण शोकसे संत हो रहा ँ ; अत: ये वषाके चार महीने मेरे लये सौ वष के समान बीते ह॥ ६४ ॥ ‘जैसे चकवी अपने ामीका अनुसरण करती है, उसी कार क ाणी सीता इस भयंकर एवं दुगम द कार को उ ान-सा समझकर मेरे पीछे यहाँतक चली आयी थी॥ ६५ ॥



‘ल



ण! म अपनी यतमासे बछु ड़ा आ ँ । मेरा रा छीन लया गया है और म देशसे नकाल दया गया ँ । इस अव ाम भी राजा सु ीव मुझपर कृ पा नह कर रहा है॥ ६६ ॥ ‘सौ



ल ण! म अनाथ ँ । रा से हो गया ँ । रावणने मेरा तर ार कया है। म दीन ँ । मेरा घर यहाँसे ब त दूर है। म कामना लेकर यहाँ आया ँ तथा सु ीव यह भी समझता है क राम मेरी शरणम आये ह। इ सब कारण से वानर का राजा दुरा ा सु ीव मेरा तर ार कर रहा है; कतु उसे पता नह है क म सदा श ु को संताप देनेम समथ ँ ॥ ६७-६८ ॥ ‘उसने सीताक खोजके लये समय न त कर दया था; कतु उसका तो अब काम नकल गया है, इसी लये वह दुबु वानर त ा करके भी उसका कु छ खयाल नह कर रहा है॥ ६९ ॥ ‘अत: ल ण! तुम मेरी आ ासे क ापुरीम जाओ और वषयभोगम फँ से ए मूख वानरराज सु ीवसे इस कार कहो—॥ ७० ॥ ‘जो बल-परा मसे स तथा पहले ही उपकार करनेवाले कायाथ पु ष को त ापूवक आशा देकर पीछे उसे तोड़ देता है, वह संसारके सभी पु ष म नीच है॥ ७१ ॥ ‘जो अपने मुखसे त ाके पम नकले ए भले या बुरे सभी तरहके वचन को अव पालनीय समझकर स क र ाके उ े से उनका पालन करता है, वह वीर सम पु ष म े माना जाता है॥ ७२ ॥ ‘जो अपना ाथ स हो जानेपर, जनके काय नह पूरे ए ह। उन म के सहायक नह होते—उनके कायको स करनेक चे ा नह करते, उन कृ त पु ष के मरनेपर मांसाहारी ज ु भी उनका मांस नह खाते ह॥ ७३ ॥ ‘सु ीव! न य ही तुम यु म मेरे ारा ख चे गये सोनेक पीठवाले धनुषका क धती ◌इ बजलीके समान प देखना चाहते हो॥ ७४ ॥ ‘सं ामम कु पत होकर मेरे ारा ख ची गयी ाक भयंकर ट ारको, जो व क गड़गड़ाहटको भी मात करनेवाली है, अब फर तु सुननेक इ ा हो रही है॥ ७५ ॥ ‘वीर राजकु मार! सु ीवको तुम-जैसे सहायकके साथ रहनेवाले मेरे परा मका ान हो चुका है, ऐसी दशाम भी य द उसे यह च ा न हो क ये वालीक भाँ त मुझे मार सकते ह तो यह आ यक ही बात है!॥



‘श ु-नगरीपर



वजय पानेवाले ल ण! जसके लये यह म ता आ दका सारा आयोजन कया गया, सीताक खोज वषयक उस त ाको इस समय वानरराज सु ीव भूल गया है—उसे याद नह कर रहा है; क उसका अपना काम स हो चुका॥ ७७ ॥ ‘सु ीवने यह त ा क थी क वषाका अ होते ही सीताक खोज आर कर दी जायगी, कतु वह ड़ा- वहारम इतना त य हो गया है क इन बीते ए चार महीन का उसे कु छ पता ही नह है॥ ७८ ॥ ‘सु ीव म य तथा प रजन स हत डाज नत आमोद- मोदम फँ सकर व वध पेय पदाथ का ही सेवन कर रहा है। हमलोग शोकसे ाकु ल हो रहे ह। तो भी वह हमपर दया नह करता है॥ ७९ ॥ ‘महाबली वीर ल ण! तुम जाओ। सु ीवसे बात करो। मेरे रोषका जो प है, वह उसे बताओ और मेरा यह संदेश भी कह सुनाओ॥ ८० ॥ सु ीव! वाली मारा जाकर जस रा ेसे गया है, वह आज भी बंद नह आ है। इस लये तुम अपनी त ापर डटे रहो। वालीके मागका अनुसरण न करो॥ ८१ ॥ ‘वाली तो रण े म अके ला ही मेरे बाणसे मारा गया था, परंतु य द तुम स से वच लत ए तो म तु ब ु-बा व स हत कालके गालम डाल दूँगा॥ ८२ ॥ ‘पु ष वर! नर े ल ण! जब इस तरह काय बगड़ने लगे, ऐसे अवसरपर और भी जोजो बात कहनी उ चत ह — जनके कहनेसे अपना हत होता हो, वे सब बात कहना। ज ी करो; क काय आर करनेका समय बीता जा रहा है॥ ८३ ॥ ‘सु ीवसे कहो—‘वानरराज! तुम सनातन धमपर रखकर अपनी क ◌इ त ाको स कर दखाओ, अ था ऐसा न हो क तु आज ही मेरे बाण से े रत हो ेतभावको ा होकर यमलोकम वालीका दशन करना पड़े’॥ ८४ ॥ मानव-वंशक वृ करनेवाले उ तेज ी ल णने जब अपने बड़े भा◌इको दु:खी, बढ़े ए ती रोषसे यु तथा अ धक बोलते देखा, तब वानरराज सु ीवके त कठोर भाव धारण कर लया॥ ८५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३०॥



* यहाँ सं



ाम कामुक ना यकाके वहारका आरोप होनेसे समासो



अलंकार समझना चा हये। ५६१



इकतीसवाँ सग सु ीवपर ल णका रोष, ीरामका उ समझाना, ल णका क ाके ारपर जाकर अ दको सु ीवके पास भेजना, वानर का भय तथा और भावका सु ीवको कत का उपदेश देना



ीरामके छोटे भा◌इ नरे कु मार ल णने उस समय सीताक कामनासे यु , दु:खी, उदार दय, शोक तथा बढ़े ए रोषवाले े ाता महाराजपु ीरामसे इस कार कहा —॥ १ ॥ ‘आय! सु ीव वानर है, वह े पु ष के लये उ चत सदाचारपर र नह रह सके गा। सु ीव इस बातको भी नह मानता है क अ को सा ी देकर ीरघुनाथजीके साथ म ताापन प जो सत्-कम कया गया है, उसीके फलसे मुझे न क रा भोग ा ए ह। अत: वह वानर क रा -ल ीका पालन एवं उपभोग नह कर सके गा; क उसक बु म धमके पालनके लये अ धक आगे नह बढ़ रही है॥ २ ॥ ‘सु ीवक बु मारी गयी है, इस लये वह वषयभोग म आस हो गया है। आपक कृ पासे जो उसे रा आ दका लाभ आ है, उस उपकारका बदला चुकानेक उसक नीयत नह है। अत: अब वह भी मारा जाकर अपने बड़े भा◌इ वीरवर वालीका दशन करे। ऐसे गुणहीन पु षको रा नह देना चा हये॥ ३ ॥ ‘मेरे ोधका वेग बढ़ा आ है। म इसे रोक नह सकता। अस वादी सु ीवको आज ही मारे डालता ँ । अब वा लकु मार अ द ही राजा होकर धान वानरवीर ◌ के साथ राजकु मारी सीताक खोज करे’॥ ४ ॥ य कहकर ल ण धनुष-बाण हाथम ले बड़े वेगसे चल पड़े। उ ने अपने जानेका योजन श म नवेदन कर दया था। यु के लये उनका च कोप बढ़ा आ था तथा वे ा करने जा रहे ह, इसपर उ ने अ ी तरह वचार नह कया था। उस समय वप ी वीर का संहार करनेवाले ीरामच जीने उ शा करनेके लये यह अनुनययु बात कही —॥ ५ ॥ ‘सु म ान न! तुम-जैसे े पु षको संसारम ऐसा ( म वध प) न ष आचरण नह करना चा हये। जो उ म ववेकके ारा अपने ोधको मार देता है, वह वीर सम पु ष म े



है॥ ६ ॥ ‘ल ण! तुम सदाचारी हो। तु इस कार सु ीवके मारनेका न य नह करना चा हये। उसके त जो तु ारा ेम था, उसीका अनुसरण करो और उसके साथ पहले जो म ता क गयी है, उसे नबाहो॥ ७ ॥ ‘तु सा नापूण वाणी ारा कटु वचन का प र ाग करते ए सु ीवसे इतना ही कहना चा हये क तुमने सीताक खोजके लये जो समय नयत कया था, वह बीत गया ( फर भी चुप बैठे हो)’॥ ८ ॥ अपने बड़े भा◌इके इस कार यथो चत पसे समझानेपर श ुवीर का संहार करनेवाले पु ष वर वीर ल णने क ापुरीम वेश (करनेका वचार) कया॥ भा◌इके य और हतम त र रहनेवाले शुभ बु से यु बु मान् ल ण रोषम भरे ए ही वानरराज सु ीवके भवनक ओर चले॥ १० ॥ उस समय वे इ धनुषके समान तेज ी, काल और अ कके समान भयंकर तथा पवतशखरके समान वशाल धनुषको हाथम लेकर ृ स हत म राचलके समान जान पड़ते थे॥ ११ ॥



ीरामके अनुज ल ण अपने बड़े भा◌इक आ ाका यथो पसे पालन करनेवाले तथा बृह तके समान बु मान् थे। वे सु ीवसे जो बात कहते, सु ीव उसका जो कु छ उ र देते और उस उ रका भी ये जो कु छ उ र देत,े उन सबको अ ी तरह समझ-बूझकर वहाँसे त ए थे॥ १२ ॥ सीताक खोज वषयक जो ीरामक कामना थी और सु ीवक असावधानीके कारण उसम बाधा पड़नेसे जो उ ोध आ था, उन दोन के कारण ल णक भी ोधा भड़क उठी थी। उस ोधा से घरे ए ल ण सु ीवके त स नह थे। वे उसी अव ाम वायुके समान वेगसे चले॥ १३ ॥ उनका वेग ऐसा बढ़ा आ था क वे मागम मलनेवाले साल, ताल और अ कण नामक वृ को उसी वेगसे बलपूवक गराते तथा पवत शखर एवं अ वृ को उठा-उठाकर दूर फ कते जाते थे॥ १४ ॥ शी गामी हाथीके समान अपने पैर क ठोकरसे शला को चूर-चूर करते और लंबीलंबी डग भरते ए वे कायवश बड़ी तेजीके साथ चले॥ १५ ॥



इ ाकु कु लके सह ल णने नकट जाकर वानरराज सु ीवक वशाल पुरी क ा देखी, जो पहाड़ के बीचम बसी ◌इ थी। वानरसेनासे ा होनेके कारण वह पुरी दूसर के लये दुगम थी॥ १६ ॥ उस समय ल णके ओ सु ीवके त रोषसे फड़क रहे थे। उ ने क ाके पास ब तेरे भयंकर वानर को देखा जो नगरके बाहर वचर रहे थे॥ १७ ॥ उन वानर के शरीर हा थय के समान वशाल थे। उन सम वानर ने पु ष वर ल णको देखते ही पवतके अंदर व मान सैकड़ शैल- शखर और बड़े-बड़े वृ उठा लये॥ १८ ॥ उन सबको ह थयार उठाते देख ल ण दूने ोधसे जल उठे , मानो जलती आगम ब तसी सूखी लक ड़याँ डाल दी गयी ह ॥ १९ ॥ ु ए ल ण काल, मृ ु तथा लयकालीन अ के समान भयंकर दखायी देने लगे। उ देखकर उन वानर के शरीर भयसे काँपने लगे और वे सैकड़ क सं ाम चार दशा म भाग गये॥ २० ॥ तदन र क◌इ े वानर ने सु ीवके महलम जाकर ल णके आगमन और ोधका समाचार नवेदन कया॥ २१ ॥ उस समय कामके अधीन ए वानरराज सु ीव भोगास हो ताराके साथ थे। इस लये उ ने उन े वानर क बात नह सुन ॥ २२ ॥ तब स चवक आ ासे पवत, हाथी और मेघके समान वशालकाय वानर जो र गटे खड़े कर देनेवाले थे, नगरसे बाहर नकले॥ २३ ॥ वे सब-के -सब वीर थे। नख और दाँत ही उनके आयुध थे। वे बड़े वकराल दखायी देते थे। उन सबक दाढ़ ा क दाढ़ के समान थ और सबके ने खुले ए थे (अथवा उन सबका वहाँ दशन होता था—को◌इ छपे नह थे)॥ २४ ॥ क म दस हा थय के बराबर बल था तो को◌इ सौ हा थय के समान बलशाली थे तथा क - क का तेज (बल और परा म) एक हजार हा थय के तु था॥ २५ ॥ हाथम वृ लये उन महाबली वानर से ा ◌इ क ापुरी अ दुजय दखायी देती थी। ल णने कु पत होकर उस पुरीक ओर देखा॥ २६ ॥



तदन र वे सभी महाबली वानर पुरीक चहारदीवारी और खा◌इं के भीतरसे नकलकर कट पसे सामने आकर खड़े हो गये॥ २७ ॥ आ संयमी वीर ल ण सु ीवके माद तथा अपने बड़े भा◌इके मह पूण कायपर पात करके पुन: वानरराजके त ोधके वशीभूत हो गये॥ २८ ॥ वे अ धक गरम और लंबी साँस ख चने लगे। उनके ने ोधसे लाल हो गये। उस समय पु ष सह ल ण धूमयु अ के समान तीत हो रहे थे॥ २९ ॥ इतना ही नह , वे पाँच मुखवाले सपके समान दखायी देने लगे। बाणका फल ही उस सपक लपलपाती ◌इ ज ा जान पड़ता था, धनुष ही उसका वशाल शरीर था तथा वे सप पी ल ण अपने तेजोमय वषसे ा हो रहे थे॥ ३० ॥ उस अवसरपर कु मार अ द लत लया तथा ोधम भरे ए नागराज शेषक भाँ त गोचर होनेवाले ल णके पास डरते-डरते गये। वे अ वषादम पड़ गये थे॥ ३१ ॥



महायश ी ल णने ोधसे लाल आँ ख करके अ दको आदेश दया—‘बेटा! सु ीवको मेरे आनेक सूचना दो। उनसे कहना—श ुदमन वीर! ीरामच जीके छोटे भा◌इ ल ण अपने ाताके दु:खसे दु:खी होकर आपके पास आये ह और नगर- ारपर खड़े ह। वानरराज! य द आपक इ ा हो तो उनक आ ाका अ ी तरह पालन क जये। श ुदमन व अ द! बस, इतना ही कहकर तुम शी मेरे पास लौट आओ’॥ ३२—३४ ॥ ल णक बात सुनकर शोकाकु ल अ दने पता सु ीवके समीप आकर कहा—‘तात! ये सु म ान न ल ण यहाँ पधारे ह’॥ ३५ ॥ (अब इसी बातको कु छ व ारके साथ कहते ह—) ल णक कठोर वाणीसे अ दके मनम बड़ी घबराहट ◌इ। उनके मुखपर अ दीनता छा गयी। उन वेगशाली कु मारने वहाँसे नकलकर पहले वानरराज सु ीवके , फर तारा तथा माके चरण म णाम कया॥ ३६ ॥ उ तेजवाले अ दने पहले तो पताके दोन पैर पकड़े फर अपनी माता ताराके दोन चरण का श कया। तदन र माके दोन पैर दबाये। इसके बाद पूव बात कही॥ ३७ ॥



कतु सु ीव मदम एवं कामसे मो हत होकर पड़े थे। न ाने उनके ऊपर पूरा अ धकार जमा लया था। इस लये वे जाग न सके ॥ ३८ ॥



इतनेम बाहर ोधम भरे ए ल णको देखकर भयसे मो हत च ए वानर उ स करनेके लये दीनतासूचक वाणीम कल कलाने लगे॥ ३९ ॥ ल णपर पड़ते ही उन वानर ने सु ीवके नकटवत ानम एक साथ ही महान् जल वाह तथा व क गड़गड़ाहटके समान जोर-जोरसे सहनाद कया ( जससे सु ीव जाग उठ)॥ ४० ॥ वानर क उस भयंकर गजनासे क पराज सु ीवक न द खुल गयी। उस समय उनके ने मदसे च ल और लाल हो रहे थे। मन भी नह था। उनके गलेम सु र पु माला शोभा दे रही थी॥ ४१ ॥ अ दक पूव बात सुनकर उ के साथ आये ए दो म ी और भावने भी, जो वानरराजके स ानपा और उदार वाले थे तथा राजाको अथ और धमके वषयम ऊँ च-नीच समझानेके लये नयु थे, ल णके आगमनक सूचना दी॥ ४२-४३ ॥ राजाके नकट खड़े ए उन दोन म य ने देवराज इ के समान बैठे ए सु ीवको खूब सोच वचार कर न त कये ए साथक वचन ारा स कया और इस कार कहा —‘राजन्! महाभाग ीराम और ल ण—दोन भा◌इ स त ह। (वे वा वम भगव प ह) उ ने े ासे मनु -शरीर धारण कया है। वे दोन सम लोक का रा चलानेके यो ह। वे ही आपके रा दाता ह॥ ४४-४५ ॥ ‘उनमसे एक वीर ल ण हाथम धनुष लये क ाके दरवाजेपर खड़े ह, जनके भयसे काँपते ए वानर जोर-जोरसे चीख रहे ह॥ ४६ ॥ ‘ ीरामका आदेशवा ही जनका सार थ और कत का न य ही जनका रथ है, वे ल ण ीरामक आ ासे यहाँ पधारे ह॥ ४७ ॥ ‘राजन्! न ाप वानरराज! ल णने तारादेवीके इन य पु अ दको आपके नकट बड़ी उतावलीके साथ भेजा है॥ ४८ ॥ ‘वानरपते! परा मी ल ण ोधसे लाल आँ ख कये नगर ारपर उप त ह और वानर क ओर इस तरह देख रहे ह, मानो वे अपनी ने ा से उ द कर डालगे॥ ४९ ॥ ‘महाराज! आप शी चल तथा पु और ब -ु बा व के साथ उनके चरण म म क नवाव और इस कार आज उनका रोष शा कर॥ ५० ॥



‘राजन्!



धमा ा ीराम जैसा कहते ह, सावधानीके साथ उसका पालन क जये। आप अपनी दी ◌इ बातपर अटल र हये और स त ब नये’॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म इकतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३१॥



ब ीसवाँ सग हनुमा ीका च



त ए सु ीवको समझाना



म य स हत अ दका वचन सुनकर और ल णके कु पत होनेका समाचार पाकर मनको वशम रखनेवाले सु ीव आसन छोड़कर खड़े हो गये॥ १ ॥ वे म णा (कत वषयक वचार) के प र न त व ान् होनेके कारण म योगम अ कु शल थे। उ ने ीरामच जीक मह ा और अपनी लघुताका वचार करके म म य से कहा—॥ २ ॥ ‘मने न तो को◌इ अनु चत बात मुँहसे नकाली है और न को◌इ बुरा काम ही कया है। फर ीरघुनाथजीके ाता ल ण मुझपर कु पत ए ह? इस बातपर म बारंबार वचार करता ँ ॥ ३ ॥ ‘जो सदा मेरे छ देखनेवाले ह तथा जनका दय मेरे त शु नह है, उन श ु ने न य ही ीरामच जीके छोटे भा◌इ ल णसे मेरे ऐसे दोष सुनाये ह जो मेरे भीतर कभी कट नह ए थे॥ ४ ॥ ‘ल णके कोपके वषयम पहले तुम सब लोग को धीरे-धीरे कु शलतापूवक उनके मनोभावका व धवत् न य कर लेना चा हये, जससे उनके कोपके कारणका यथाथ पसे ान हो जाय॥ ५ ॥ ‘अव ही मुझे ल णसे तथा ीरघुनाथजीसे को◌इ भय नह है, तथा प बना अपराधके कु पत आ म दयम घबराहट उ कर ही देता है॥ ६ ॥ ‘ कसीको म बना लेना सवथा सुकर है, परंतु उस मै ीको पालना या नभाना ब त ही क ठन है; क मनका भाव सदा एक-सा नह रहता। कसीके ारा थोड़ी-सी भी चुगली कर दी जानेपर ेमम अ र आ जाता है॥ ७ ॥ ‘इसी कारण म और भी डर गया ँ ; क महा ा ीरामने मेरा जो उपकार कया है, उसका बदला चुकानेक मुझम श नह है’॥ ८ ॥ सु ीवके ऐसा कहनेपर वानर म े हनुमा ी अपनी यु का सहारा लेकर वानरम य के बीचम बोले—॥ ९ ॥



‘क पराज!



म के ारा अ ेहपूवक कये गये उ म उपकारको जो आप भूल नह रहे ह, इसम सवथा को◌इ आ यक बात नह है ( क अ े पु ष का ऐसा भाव ही होता है)॥ १० ॥ ‘वीरवर ीरघुनाथजीने तो लोकापवादके भयको दूर हटाकर आपका य करनेके लये इ तु परा मी वालीका वध कया है; अत: वे न:संदेह आपपर कु पत नह ह। ीरामच जीने शोभा-स क वृ करनेवाले अपने भा◌इ ल णको जो आपके पास भेजा है, इसम सवथा आपके त उनका ेम ही कारण है॥ ११-१२ ॥ ‘समयका ान रखनेवाल म े क पराज! आपने सीताक खोज करनेके लये जो समय न त कया था, उसे आप इन दन मादम पड़ जानेके कारण भूल गये ह। दे खये न, यह सु र शरद-् ऋतु आर हो गयी है, जो खले ए छतवनके फू ल से ामवणक तीत होती है॥ १३ ॥ ‘आकाशम अब बादल नह रहे। ह, न नमल दखायी देते ह। स ूण दशा म काश छा गया है तथा न दय और सरोवर के जल पूणत: हो गये ह॥ १४ ॥ ‘वानरराज! राजा के लये वजय-या ाक तैयारी करनेका समय आ गया है; कतु आपको कु छ पता ही नह है। इससे तीत होता है क आप मादम पड़ गये ह। इसी लये ल ण यहाँ आये ह॥ १५ ॥ ‘महा ा ीरामच जीक प ीका अपहरण आ है, इस लये वे ब त दु:खी ह। अत: य द ल णके मुखसे उनका कठोर वचन भी सुनना पड़े तो आपको चुपचाप सह लेना चा हये॥ १६ ॥ ‘आपक ओरसे अपराध आ है। अत: हाथ जोड़कर ल णको स करनेके सवा आपके लये और को◌इ उ चत कत म नह देखता॥ १७ ॥ ‘रा क भला◌इके कामपर नयु ए म य का यह कत है क राजाको उसके हतक बात अव बताव। अतएव म भय छोड़कर अपना न त वचार बता रहा ँ ॥ १८ ॥ ‘भगवान् ीराम य द ोध करके धनुष हाथम ले ल तो देवता-असुर-ग व स हत स ूण जग ो अपने वशम कर सकते ह॥ १९ ॥ ‘ जसे पीछे हाथ जोड़कर मनाना पड़े, ऐसे पु षको ोध दलाना कदा प उ चत नह है। वशेषत: वह पु ष जो म के कये ए पहले उपकारको याद रखता हो और कृ त हो, इस



बातका अ धक ान रखे॥ २० ॥ ‘राजन्! इस लये आप पु और म के साथ म क क ु ाकर उ णाम क जये और अपनी त ापर अटल र हये। जैसे प ी अपने प तके वशम रहती है, उसी कार आप सदा ीरामच जीके अधीन र हये॥ २१ ॥ ‘वानरराज! ीराम और ल णके आदेशक आपको मनसे भी उपे ा नह करनी चा हये। देवराज इ के समान तेज ी ल णस हत ीरघुनाथजीके अलौ कक बलका ान तो आपके मनको है ही’॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म ब ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३२॥



ततीसवाँ सग ल णका क ापुरीक शोभा देखते ए सु ीवके महलम वेश करके ोधपूवक धनुषको टंकारना, भयभीत सु ीवका ताराको उ शा करनेके लये भेजना तथा ताराका समझा-बुझाकर उ अ :पुरम ले आना



इधर गुफाम वेश करनेके लये अ दके ाथना करनेपर श ुवीर का संहार करनेवाले ल णने ीरामक आ ाके अनुसार क ा नामक रमणीय गुफाम वेश कया॥ १ ॥ क ाके ारपर जो वशाल शरीरवाले महाबली वानर थे, वे सब ल णको देख हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ २ ॥ दशरथन न ल णको ोधपूवक लंबी साँस ख चते देख वे सब वानर अ भयभीत हो गये थे। इस लये वे उ चार ओरसे घेरकर उनके साथ-साथ नह चल सके ॥ ३ ॥ ीमान् ल णने ारके भीतर वेश करके देखा, क ापुरी एक ब त बड़ी रमणीय गुफाके पम बसी ◌इ है। वह र मयी पुरी नाना कारके र से भरी-पूरी होनेके कारण द शोभासे स है। वहाँके वन-उपवन फू ल से सुशो भत दखायी दये॥ ४ ॥ ह (ध नय क अ ा लका ) तथा ासाद (देवम र और राजभवन ) से वह पुरी अ घनी दखायी देती थी। नाना कारके र उसक शोभा बढ़ाते थे। स ूण कामना को पूण करनेवाले फल से यु खले ए वृ से वह पुरी सुशो भत थी॥ ५ ॥ वहाँ द माला और द व धारण करनेवाले परम सु र वानर, जो देवता और ग व के पु तथा इ ानुसार प धारण करनेवाले थे, नवास करते ए उस नगरीक शोभा बढ़ाते थे॥ ६ ॥ वहाँ च न, अगर और कमल क मनोहर सुग छा रही थी। उस पुरीक लंबी-चौड़ी सड़क भी मैरेय तथा मधुके आमोदसे महक रही थ ॥ ७ ॥ उस पुरीम व ाचल तथा मे के समान ऊँ चे-ऊँ चे महल बने थे, जो क◌इ मं जलके थे। ल णने उस गुफाके नकट ही नमल जलसे भरी ◌इ पहाड़ी न दयाँ देख ॥ ८ ॥ उ ने राजमागपर अ दका रमणीय भवन देखा। साथ ही वहाँ मै , वद, गवय, गवा , गज, शरभ, व ु ाली, स ा त, सूया , हनुमान्, वीरबा , सुबा , महा ा नल, कु मुद,



सुषेण, तार, जा वान्, द धमुख, नील, सुपाटल और सुने —इन महामन ी वानर शरोम णय के भी अ सु ढ़ े भवन ल णको गोचर ए। वे सब-के -सब राजमागपर ही बने ए थे॥ ९—१२ ॥ वे सभी भवन ेत बादल के समान का शत हो रहे थे। उ सुग त पु माला से सजाया गया था। वे चुर धन-धा से स तथा र पा रम णय से सुशो भत थे॥ १३ ॥ वानरराज सु ीवका सु र भवन इ सदनके समान रमणीय दखायी देता था। उसम वेश करना कसीके लये भी अ क ठन था। वह ेत पवतक चहार-दीवारीसे घरा आ था॥ १४ ॥ कै लास- शखरके समान ेत ासाद- शखर तथा सम मनोरथ को पूण करनेवाले फल से यु पु त द वृ उस राजभवनक शोभा बढ़ाते थे॥ १५ ॥ वहाँ इ के दये ए द फल-फू ल से स मनोरम वृ लगाये गये थे, जो परम सु र, नीले मेघके समान ाम तथा शीतल छायासे यु थे॥ १६ ॥ अनेक बलवान् वानर हाथ म ह थयार लये उसक ोढ़ीपर पहरा दे रहे थे। वह सु र महल द माला से अलंकृत था और उसका बाहरी फाटक प े सोनेका बना आ था॥ १७ ॥ महाबली सु म ाकु मार ल णने सु ीवके उस रमणीय भवनम वेश कया। मानो सूयदेव महान् मेघके भीतर व ए ह । उस समय कसीने रोक-टोक नह क ॥ १८ ॥ धमा ा ल णने सवा रय तथा व वध आसन से सुशो भत उस भवनक सात ो ढ़य को पार करके ब त ही गु और वशाल अ :पुरको देखा॥ १९ ॥ उसम जहाँ-तहाँ चाँदी और सोनेके ब त-से पलंग तथा अनेकानेक े आसन रखे ए थे और उन सबपर ब मू बछौने बछे थे। उन सबसे वह अ :पुर सुस त दखायी देता था॥ २० ॥ उसम वेश करते ही ल णके कान म संगीतक मीठी तान सुनायी पड़ी, जो वहाँ नर र गूँज रही थी। वीणाके लयपर को◌इ कोमल क से गा रहा था। ेक पद और अ रका उ ारण सम* तालका दशन करते ए हो रहा था॥ २१ ॥



महाबली ल णने सु ीवके उस अ :पुरम अनेक परंगक ब त-सी सु री याँ देख , जो प और यौवनके गवसे भरी ◌इ थ ॥ २२ ॥ वे सब-क -सब उ म कु लम उ ◌इ थ , फू ल के गजर से अलंकृत थ , उ म पु हार के नमाणम लगी ◌इ थ और सु र आभूषण से वभू षत थ । उन सबको देखकर ल णने सु ीवके सेवक पर भी पात कया, जो अतृ या असंतु नह थे। ामीके काय स करनेके लये अ फु त क भी उनम कमी नह थी तथा उनके व और आभूषण भी न ेणीके नह थे॥ २३-२४ ॥ नूपुर क झनकार और करधनीक खनखनाहट सुनकर ीमान् सु म ाकु मार ल त हो गये (परायी य पर पड़नेके कारण उ भावत: संकोच आ)॥ २५ ॥ त ात् पुन: आभूषण क झनकार सुनकर वीर ल ण रोषके आवेगसे और भी कु पत हो उठे और उ ने अपने धनुषपर टंकार दी, जसक नसे सम दशाएँ गूँज उठ ॥ २६ ॥ रघुकुलो चत सदाचारका खयाल करके महाबा ल ण कु छ पीछे हट गये और एका म जाकर खड़े हो गये। ीरामच जीके कायक स के लये वहाँ को◌इ य होता न देख वे मन-ही-मन कु पत हो रहे थे॥ २७ ॥ धनुषक टंकार सुनकर वानरराज सु ीव समझ गये क ल ण यहाँतक आ प ँ चे ह। फर तो वे भयसे सं होकर अपना सहासन छोड़कर खड़े हो गये॥ २८ ॥ वे मन-ही-मन सोचने लगे क अ दने पहले मुझे जैसा बताया था, उसके अनुसार ये ातृव ल सु म ाकु मार ल ण अव ही यहाँ आ गये॥ २९ ॥ अ दके ारा उनके आगमनका समाचार तो उ पहले ही मल गया था। अब धनुषक टंकारसे वानर सु ीवको इस बातका अनुभव हो गया क ल णने अव यहाँ पदापण कया है। फर तो उनका मुख सूख गया॥ ३० ॥ भयके कारण वे मन-ही-मन घबरा उठे । (ल णके सामने जानेका उ साहस न आ।) तथा प कसी तरह धैय धारण करके वानर े सु ीव परम सु री तारासे हतक बात बोले —॥ ३१ ॥ ‘सु र! इनके रोषका ा कारण हो सकता है? जससे भावत: कोमल च होनेपर भी ये ीरघुनाथजीके छोटे भा◌इ -से होकर यहाँ पधारे ह॥ ३२ ॥



‘अ न



ते! तु ारे देखनेम कु मार ल णके रोषका आधार ा है? ये मनु म े ह। अत: बना कसी कारणके न य ही ोध नह कर सकते॥ ३३ ॥ ‘य द हमलोग ने इनका को◌इ अपराध कया हो और तु उसका पता हो तो अपनी बु से वचारकर शी ही बताओ॥ ३४ ॥ ‘अथवा भा म न! तुम यं ही जाकर ल णको देखो और सा नायु बात कहकर उ स करनेका य करो॥ ३५ ॥ ‘उनका दय शु है। तु ारे सामने वे ोध नह करगे; क महा ा पु ष य के त कभी कठोर बताव नह करते ह॥ ३६ ॥ ‘जब तुम उनके पास जाकर मीठे वचन से उ शा कर दोगी और जब उनका मन एवं इ याँ स हो जायँगी, उस समय म उन श ुदमन कमलनयन ल णका दशन क ँ गा’॥ ३७ ॥ सु ीवके ऐसा कहनेपर शुभल णा तारा ल णके पास गयी। उसका पतला शरीर ाभा वक संकोच एवं वनयसे कु ा आ था। उसके ने मदसे च ल हो रहे थे, पैर लड़खड़ा रहे थे और उसक करधनीके सुवणमय सू लटक रहे थे॥ ३८ ॥ वानरराजक प ी तारापर पड़ते ही राजकु मार महा ा ल ण अपना मुँह नीचा करके उदासीन भावसे खड़े हो गये। ीके समीप होनेसे उनका ोध दूर हो गया॥ ३९ ॥ मधुपानके कारण ताराक नारीसुलभ ल ा नवृ हो गयी थी। उसे राजकु मार ल णक म कु छ स ताका आभास मला। इस लये उसने ेहज नत नभ कताके साथ महान् अथसे यु यह सा नापूण बात कही—॥ ४० ॥ ‘राजकु मार! आपके ोधका ा कारण है? कौन आपक आ ाके अधीन नह है? कौन नडर होकर सूखे वृ से भरे ए वनके भीतर चार ओर फै लते ए दावानलम वेश कर रहा है?’॥ ४१ ॥ ताराके इस वचनम सा ना भरी थी। उसम अ धक ेमपूवक दयका भाव कट कया गया था। उसे सुनकर ल णके दयक आश ा जाती रही। वे कहने लगे—॥ ४२ ॥ ‘अपने ामीके हतम संल रहनेवाली तारा! तु ारा यह प त वषय-भोगम आस होकर धम और अथके सं हका लोप कर रहा है। ा तु इसक इस अव ाका पता नह है?



तुम इसे समझाती नह ?॥ ४३ ॥ ‘तारे! सु ीव अपने रा क रताके लये ही यास करता है। हमलोग शोकम डू बे ए ह, परंतु हमारी इसे त नक भी च ा नह होती है। यह अपने म य तथा राज-सभाके सद स हत के वल वषय-भोग का ही सेवन कर रहा है॥ ४४ ॥ ‘वानरराज सु ीवने चार महीन क अव ध न त क थी। वे कभी बीत गये, परंतु वह मधुपानके मदसे अ उ होकर य के साथ डा- वहार कर रहा है। उसे बीते ए समयका पता ही नह है॥ ४५ ॥ ‘धम और अथक स के न म य करनेवाले पु षके लये इस तरह म पान अ ा नह माना जाता है; क म पानसे अथ, धम और काम तीन का नाश होता है॥ ४६ ॥ ‘ म के कये ए उपकारका य द अवसर आनेपर भी बदला न चुकाया जाय तो धमक हा न तो होती ही है। गुणवान् म के साथ म ताका नाता टूट जानेपर अपने अथक भी ब त बड़ी हा न उठानी पड़ती है॥ ‘ म दो कारके होते ह—एक तो अपने म के अथसाधनम त र होता है और दूसरा स एवं धमके ही आ त रहता है। तु ारे ामीने म के दोन ही गुण का प र ाग कर दया है। वह न तो म का काय स करता है और न यं ही धमम त है॥ ४८ ॥ ‘ऐसी तम ुत कायक स के लये हमलोग को भ व म ा करना चा हये? हमारे लये जो समु चत कत हो, उसे तु बताओ; क तुम कायके त को जानती हो’॥ ४९ ॥ ल णका वचन धम और अथके न यसे संयु था। उससे उनके मधुर भावका प रचय मल रहा था। उसे सुनकर तारा भगवान् ीरामच जीके कायके वषयम, जसका योजन उसे ात हो चुका था, पुन: ल णसे व ासके यो बात बोली—॥ ५० ॥ ‘वीर राजकु मार! यह ोध करनेका समय नह है। आ ीय जन पर ोध करना भी नह चा हये। सु ीवके मनम सदा आपका काय स करनेक इ ा बनी रहती है। अत: य द उनसे को◌इ भूल भी हो जाय तो उसे आपको मा करना चा हये॥ ५१ ॥ ‘कु मार! गुण म े पु ष कसी हीन गुणवाले ाणीपर ोध कै से कर सकता है? जो स गुणसे अव होनेके कारण शा - वपरीत ापारम लग नह सकता, अतएव जो



स चारको ज देनेवाला है, वह आप-जैसा कौन पु ष ोधके वशीभूत हो सकता है?॥ ५२ ॥ ‘वानरवीर सु ीवके म भगवान् ीरामके ोधका कारण म जानती ँ । उनके कायम जो वल आ है, उससे भी म अप र चत नह ँ । सु ीवका जो काय आपके अधीन था और जसे आपलोग ने पूरा कया है, उसका भी मुझे पता है तथा इस समय जो आपका काय ुत है, उसके वषयम हमलोग का ा कत है, इसका भी मुझे अ ी तरह ान है॥ ५३ ॥ ‘नर



े ! इस शरीरम उ ए कामका जो अस बल है, उसको भी म जानती ँ तथा उस काम ारा आब होकर सु ीव जहाँ आस हो रहे ह, वह भी मुझे मालूम है। साथ ही इस बातसे भी म प र चत ँ क कामास के कारण ही इन दन सु ीवका मन दूसरे कसी कामम नह लगता॥ ५४ ॥ ‘आप जो ोधके वशीभूत हो गये ह, इससे जान पड़ता है क कामके अधीन ए पु षक तका आपको बलकु ल ान नह है, वानरक तो बात ही ा है? कामास मनु को भी देश, काल, अथ और धमका ान नह रह जाता—उनक ओर उसक नह जाती है॥ ५५ ॥ ‘ वप



ी वीर का वनाश करनेवाले राजकु मार ! वानरराज सु ीव वषय-भोगम आस होकर इस समय मेरे ही पास थे। कामके आवेशम उ ने अपनी ल ाका प र ाग कर दया है, तो भी उ अपना भा◌इ समझकर मा क जये॥ ५६ ॥ ‘जो नर र धम और तप ाम ही संल रहते ह, ज ने मोहको अव कर दया है— अ ववेकको दूर भगा दया है, वे मह ष भी कभी-कभी वषया भलाषी हो जाते ह; फर जो भावसे ही च ल वानर ह, वह राजा सु ीव सुख-भोगम न आस ह ?’॥ ५७ ॥ अ मेय श शाली ल णसे इस कार महान् अथसे यु बात कहकर मदसे च ल ने वाली वानरप ी ताराने पुन: खेदपूवक ामीके लये यह हतकर वचन कहा—॥ ५८ ॥ ‘नर े ! य प सु ीव इस समय कामके गुलाम हो रहे ह, तथा प इ ने आपका काय स करनेके लये ब त पहलेसे ही उ ोग आर करनेक आ ा दे रखी है॥ ५९ ॥ ‘इसके फल प इस समय व भ पवत पर नवास करनेवाले लाख और करोड़ वानर, जो इ ानुसार प धारण करनेम समथ एवं महान् परा मी ह, यहाँ उप त ए ह॥ ६० ॥



‘महाबाहो! (दूसरेक खड़े रह गये—इसके



य को देखना अनु चत समझकर जो आप भीतर नह आये, बाहर ही ारा) आपने सदाचारक र ा क है; अत: अब भीतर आइये। म भावसे य क ओर देखना (उनके त माता-बहन आ दका भाव रखकर डालना) स ु ष के लये अधम नह है’॥ ६१ ॥ ताराके आ ह और कायक ज ीसे े रत होकर श ुदमन महाबा ल ण सु ीवके महलके भीतर गये॥ वहाँ जाकर उ ने देखा, एक सोनेके सहासनपर ब मू बछौना बछा है और वानरराज सु ीव सूयतु तेज ी प धारण कये उसके ऊपर वराजमान ह॥ ६३ ॥ उस समय द आभूषण के कारण उनके शरीरक व च शोभा हो रही थी। द पधारी यश ी सु ीव द मालाएँ और द व धारण करके दुजय वीर देवराज इ के समान दखायी दे रहे थे॥ ६४ ॥ द आभूषण और माला से अलंकृत युवती याँ उ चार ओरसे घेरकर खड़ी थ । उ इस अव ाम देख ल णके ने रोषावेशके कारण लाल हो गये। वे उस समय यमराजके समान भयंकर तीत होने लगे॥ ६५ ॥ सु र सुवणके समान का और वशाल ने वाले वीर सु ीव अपनी प ी माको गाढ आ ल नपाशम बाँधे ए एक े आसनपर वराजमान थे। उसी अव ाम उ ने उदार दय और वशाल ने वाले सु म ाकु मार ल णको देखा॥ ६६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म ततीसवाँ सग पूरा आ॥ ३३॥ संगीतम वह ान जहाँ गाने-बजानेवाल का सर या हाथ आप-से-आप हल जाता है। यह ान तालके अनुसार न त होता है। जैसे ततालेम दूसरे तालपर और चौतालम पहले तालपर सम होता है। इसी कार भ - भ ताल म भ भ ान पर सम होता है। वा का आर और गीत तथा वा का अ इसी समपर होता है। परंतु गाने-बजानेके बीचबीचम भी सम बराबर आता रहता है। *



च तीसवाँ सग सु ीवका ल



णके पास जाना और ल



णका उ फटकारना



ल ण बेरोक-टोक भीतर घुस आये थे। उन पु ष शरोम णको ोधसे भरा देख सु ीवक सारी इ याँ थत हो उठ ॥ १ ॥ दशरथपु ल ण रोषपूवक लंबी साँस ख च रहे थे और तेजसे लत-से जान पड़ते थे। अपने भा◌इके क से उनके मनम बड़ा संताप था। उ सामने आया देख वानर े सु ीव सुवणका सहासन छोड़कर कू द पड़े, मानो देवराज इ का भलीभाँ त सजाया आ महान् ज आकाशसे पृ ीपर उतर आया हो॥ २-३ ॥ सु ीवके उतरते ही मा आ द याँ भी उनके पीछे उस सहासनसे उतरकर खड़ी हो गय । जैसे आकाशम पूण च माका उदय होनेपर तार के समुदाय भी उ दत हो गये ह ॥ ४ ॥ ीमान् सु ीवके ने मदसे लाल हो रहे थे। वे टहलते ए ल णके पास आये और हाथ जोड़कर खड़े हो गये। ल ण वहाँ महान् क वृ के समान त थे॥ ५ ॥ सु ीवके साथ उनक प ी मा भी थी। वे य के बीचम खड़े होकर ता रका से घरे ए च माक भाँ त शोभा पाते थे। उ देखकर ल णने ोधपूवक कहा—॥ ६ ॥ ‘वानरराज! धैयवान्, कु लीन, दयालु, जते य और स वादी राजाका ही संसारम आदर होता है॥ ‘जो राजा अधमम त होकर उपकारी म के सामने क ◌इ अपनी त ाको झूठी कर देता है, उससे बढ़कर अ ू र कौन होगा?॥ ८ ॥ ‘अ दानक त ा करके उसक पू त न करनेपर ‘अ ानृत’ (अ वषयक अस ) नामक पाप होता है। यह पाप बन जानेपर मनु सौ अ क ह ाके पापका भागी होता है। इसी कार गोदान वषयक त ाको म ा कर देनेपर सह गौ के वधका पाप लगता है तथा कसी पु षके सम उसका काय पूण कर देनेक त ा करके जो उसक पू त नह करता है, वह पु ष आ घात और जन-वधके पापका भागी होता है ( फर जो परम पु ष ीरामके सम क ◌इ त ाको म ा करता है, उसके पापक को◌इ इय ा नह हो सकती)॥ ९ ॥



‘वानरराज!



जो पहले म के ारा अपना काय स करके बदलेम उन म का को◌इ उपकार नह करता है, वह कृ त एवं सब ा णय के लये व है॥ १० ॥ ‘क पराज! कसी कृ त को देखकर कु पत ए ाजीने सब लोग के लये आदरणीय यह एक ोक कहा है, इसे सुनो—॥ ११ ॥ ‘गोह ारे, शराबी, चोर और त-भंग करनेवाले पु षके लये स ु ष ने ाय का वधान कया है; कतु कृ त के उ ारका को◌इ उपाय नह है॥ १२ ॥ ‘वानर! तुम अनाय, कृ त और म ावादी हो; क ीरामच जीक सहायतासे तुमने पहले अपना काम तो बना लया, कतु जब उनके लये सहायता करनेका अवसर आया, तब तुम कु छ नह करते॥ १३ ॥ ‘वानर! तु ारा मनोरथ स हो चुका है; अत: अब तु ुपकारक इ ासे ीरामक प ी सीताक खोजके लये य करना चा हये॥ १४ ॥ ‘परंतु तु ारी दशा यह है क अपनी त ाको झूठी करके ा भोग म आस हो रहे हो। ीरामच जी यह नह जानते ह क तुम मेढकक -सी बोली बोलनेवाले सप हो (जैसे साँप अपने मुँहम कसी मेढकको जब दबा लेता है, तब के वल मेढक ही बोलता है, दूरके लोग उसे मेढक ही समझते ह; परंतु वह वा वम सप होता है। वही दशा तु ारी है। तु ारी बात कु छ और ह और प कु छ और)॥ १५ ॥ ‘महाभाग ीरामच जी परम महा ा तथा दयासे वत हो जानेवाले ह; अतएव उ ने तुम-जैसे पापी और दुरा ाको भी वानर के रा पर बठा दया॥ १६ ॥ ‘य द तुम महा ा रघुनाथजीके कये ए उपकारको नह समझोगे तो शी ही उनके तीखे बाण से मारे जाकर वालीका दशन करोगे॥ १७ ॥ ‘सु ीव! वाली मारा जाकर जस रा ेसे गया है, वह आज भी बंद नह आ है। इस लये तुम अपनी त ापर डटे रहो। वालीके मागका अनुसरण न करो॥ ‘इ ाकु वंश शरोम ण ीरामच जीके धनुषसे छू टे ए उन व तु बाण क ओर न य ही तु ारी नह जा रही है। इसी लये तुम ा सुखका सेवन कर रहे हो और उसीम सुख मानकर ीरामच जीके कायका मनसे भी वचार नह करते हो’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म च तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३४॥



पतीसवाँ सग ताराका ल



णको यु



यु



वचन ारा शा



करना



सु म ाकु मार ल ण अपने तेजके कारण लत-से हो रहे थे। वे जब उपयु बात कह चुके, तब च मुखी तारा उनसे बोली—॥ १ ॥ ‘कु मार ल ण! आपको सु ीवसे ऐसी बात नह कहनी चा हये। ये वानर के राजा ह; अत: इनके त कठोर वचन बोलना उ चत नह है। वशेषत: आप-जैसे सु दक् े मुखसे तो ये कदा प कटु वचन सुननेके अ धकारी नह ह॥ २ ॥ ‘वीर! क पराज सु ीव न कृ त ह, न शठ ह, न ू र ह, न अस वादी ह और न कु टल ही ह॥ ३ ॥ ‘वीर ल ण! ीरामच जीने इनका जो उपकार कया है, वह यु म दूसर के लये दु र है। उसे इन वीर क पराजने कभी भुलाया नह है॥ ४ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले सु म ान न! ीरामच जीके कृ पा सादसे ही सु ीवने वानर के अ य रा को, यशको, माको तथा मुझको भी ा कया है॥ ५ ॥ ‘पहले इ ने बड़ा दु:ख उठाया है। अब इस उ म सुखको पाकर ये इसम ऐसे रम गये क इ ा ए समयका ान ही नह रहा। ठीक उसी तरह, जैसे व ा म मु नको मेनकाम आस हो जानेके कारण समयक सुध-बुध नह रह गयी थी*॥ ६ ॥ ‘ल ण! कहते ह, धमा ा महामु न व ा म ने घृताची (मेनका) नामक अ राम आस होनेके कारण दस वषके समयको एक दन ही माना था॥ ७ ॥ ‘कालका ान रखनेवाल म े महातेज ी व ा म को भी जब भोगास होनेपर कालका ान नह रह गया, तब फर दूसरे साधारण ाणीको कै से रह सकता है?॥ ८ ॥ ‘कु मार ल ण! आहार, न ा और मैथुन आ द जो देहके धम ह, (जो पशु म भी समान पसे पाये जाते ह) उनम त ए ये सु ीव पहले तो चरकालतक दु:ख भोगनेके कारण थके -माँदे एवं ख थे। अब भगवान् ीरामक कृ पासे इ जो काम-भोग ा ए ह, उनसे अभीतक इनक तृ नह ◌इ (इसी लये इनसे कु छ असावधानी हो गयी); अत: परम कृ पालु ीरघुनाथजीको यहाँ इनका अपराध मा करना चा हये॥ ९ ॥



‘तात



ल ण! आपको यथाथ बात जाने बना साधारण मनु क भाँ त सहसा ोधके अधीन नह होना चा हये॥ १० ॥ ‘पु ष वर! आप-जैसे स गुणस पु ष वचार कये बना ही सहसा रोषके वशीभूत नह होते ह॥ ११ ॥ ‘धम ! म एका दयसे सु ीवके लये आपसे कृ पाक याचना करती ँ । आप ोधसे उ ए इस महान् ोभका प र ाग क जये॥ १२ ॥ ‘मेरा तो ऐसा व ास है क सु ीव ीरामच जीका य करनेके लये माका, मेरा, कु मार अ दका तथा धन-धा और पशु स हत स ूण रा का भी प र ाग कर सकते ह॥ १३ ॥ ‘सु ीव उस अधम रा सका वध करके ीरामको सीतासे उसी तरह मलायगे, जैसे च माका रो हणीके साथ संयोग आ हो॥ १४ ॥ ‘कहते ह क ल ाम सौ हजार करोड़, छ ीस अयुत, छ ीस हजार और छ ीस सौ रा स रहते ह*॥ ‘वे सब-के -सब रा स इ ानुसार प धारण करनेवाले तथा दुजय ह। उन सबका संहार कये बना रावणका, जसने म थलेशकु मारी सीताका अपहरण कया है, वध नह हो सकता॥ १६ ॥ ‘ल ण! कसीक सहायता लये बना अके ले कसी वीरके ारा न तो उन रा स का सं ामम वध कया जा सकता है और न ू रकमा रावणका ही। इस लये सु ीवसे सहायता लेनेक वशेष आव कता है॥ १७ ॥ ‘वानरराज वाली ल ाके रा स क इस सं ासे प र चत थे, उ ने मुझे उनक इस तरह गणना बतायी थी। रावणने इतनी सेनाका सं ह कै से कया? यह तो मुझे नह मालूम है। कतु इस सं ाको मने उनके मुँहसे सुना था। वह इस समय म आपको बता रही ँ ॥ १८ ॥ ‘आपक सहायताके लये सु ीवने ब तेरे े वानर को यु के न म असं वानर वीर क सेना एक करनेके लये भेज रखा है॥ १९ ॥ ‘वानरराज सु ीव उन महाबली और परा मी वीर के आनेक ती ा कर रहे ह। अतएव भगवान् ीरामका काय स करनेके लये अभी नगरसे बाहर नह नकल सके ह॥ २० ॥



‘सु म ान न! सु ीवने उन सबके एक होनेके लये पहलेसे ही रखी है, उसके अनुसार उन सम महाबली वानर को आज ही यहाँ उप



२१ ॥



जो अव ध न त कर त हो जाना चा हये॥



‘श



दु मन ल ण! आज आपक सेवाम को ट सह (दस अरब) रीछ, सौ करोड़ (एक अरब) लंगूर तथा और भी बढ़े ए तेजवाले क◌इ करोड़ वानर उप त ह गे। इस लये आप ोधको ाग दी जये॥ २२ ॥ ‘आपका मुख ोधसे तमतमा उठा है और आँ ख रोषसे लाल हो गयी ह। यह सब देखकर हम वानरराजक य को शा नह मल रही है। हम सबको थम भय (वा लवध) के समान ही कसी अ न क आश ा हो रही है’॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म पतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३५॥ * यह



संग बालका के तरसठव सगम आया है। * आधु नक गणनाके अनुसार यह सं ा दस खरब तीन लाख न ानबे हजार छ: सौ होती है।



छ ीसवाँ सग सु ीवका अपनी लघुता तथा ीरामक मह ा बताते ए ल णसे मा माँगना और ल णका उनक शंसा करके उ अपने साथ चलनेके लये कहना



ताराने जब इस कार धमके अनुकूल वनययु बात कही, तब कोमल भाववाले सु म ाकु मार ल णने उसे मान लया ( ोधको ाग दया)॥ १ ॥ उनके ारा ताराक बात मान ली जानेपर वानरयूथप त सु ीवने ल णसे ा होनेवाले महान् भयको भीगे ए व क भाँ त ाग दया॥ २ ॥ तदन र वानरराज सु ीवने अपने क म पड़ी ◌इ फू ल क व च , वशाल एवं ब गुणस माला तोड़ डाली और वे मदसे र हत हो गये॥ ३ ॥ फर सम वानर म शरोम ण सु ीवने भयंकर बलशाली ल णका हष बढ़ाते ए उनसे यह वनययु बात कही—॥ ४ ॥ ‘सु म ाकु मार! मेरी ी, क त तथा सदासे चला आता आ वानर का रा —ये सब न हो चुके थे। भगवान् ीरामक कृ पासे ही मुझे पुन: इन सबक ा ◌इ है॥ ५ ॥ ‘राजकु मार! वे भगवान् ीराम अपने कम से ही सव व ात ह। उनके उपकारका वैसा ही बदला अंशमा से भी कौन चुका सकता है?॥ ६ ॥ ‘धमा ा ीराम अपने ही तेजसे रावणका वध करगे और सीताको ा कर लगे। म तो उनका एक तु सहायकमा र ँ गा॥ ७ ॥ ‘ ज ने एक ही बाणसे सात बड़े-बड़े ताल वृ , पवत, पृ ी, पाताल और वहाँ रहनेवाले दै को भी वदीण कर दया था, उनको दूसरे कसी सहायकक आव कता भी ा है?॥ ८ ॥ ‘ल ण! जनके धनुष ख चते समय उसक टंकारसे पवत स हत पृ ी काँप उठी थी, उ सहायक से ा लेना है?॥ ९ ॥ ‘नर े ! म तो वैरी रावणका वध करनेके लये अ गामी सै नक स हत या ा करनेवाले महाराज ीरामके पीछे-पीछे चलूँगा॥ १० ॥



‘व



ास अथवा ेमके कारण य द को◌इ अपराध बन गया हो तो मुझ दासके उस अपराधको मा कर देना चा हये; क ऐसा को◌इ सेवक नह है, जससे कभी को◌इ अपराध होता ही न हो’॥ ११ ॥ महा ा सु ीवके ऐसा कहनेपर ल ण स हो गये और बड़े ेमसे इस कार बोले —॥ १२ ॥ ‘वानरराज सु ीव! वशेषत: तुम-जैसे वनयशील सहायकको पाकर मेरे भा◌इ ीराम सवथा सनाथ ह॥ ‘सु ीव! तु ारा जो भाव है और तु ारे दयम जो इतना शु भाव है, इससे तुम वानररा क परम उ म ल ीका सदा ही उपभोग करनेके अ धकारी हो॥ ‘सु ीव! तु सहायकके पम पाकर तापी ीराम रणभू मम अपने श ु का शी ही वध कर डालगे, इसम संशय नह है॥ १५ ॥ ‘सु ीव! तुम धम , कृ त तथा यु म कभी पीठ न दखानेवाले हो। तु ारा यह भाषण सवथा यु संगत और उ चत है॥ १६ ॥ ‘वानर शरोमणे! तुमको और मेरे बड़े भा◌इको छोड़कर दूसरा कौन ऐसा व ान् है, जो अपनेम साम होते ए भी ऐसा न तापूण वचन कह सके ॥ १७ ॥ ‘क पराज! तुम बल और परा मम भगवान् ीरामके बराबर हो। देवता ने ही हम दीघकालके लये तुम-जैसा सहायक दान कया है॥ १८ ॥ ‘ कतु वीर! अब तुम शी ही मेरे साथ इस पुरीसे बाहर नकलो। तु ारे म अपनी प ीके अपहरणसे ब त दु:खी ह। उ चलकर सा ना दो॥ १९ ॥ ‘सखे! शोकम ीरामके वचन को सुनकर जो मने तु ारे त कठोर बात कह दी ह, उनके लये मुझे मा करो’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३६॥



सतीसवाँ सग सु ीवका हनुमा ीको वानरसेनाके सं हके लये दोबारा दत ू भेजनेक आ ा देना, उन दत ाके लये ान और दत ू से राजाक आ ा सुनकर सम वानर का क ू का लौटकर सु ीवको भट देनेके साथ ही वानर के आगमनका समाचार सुनाना



महा ा ल णने जब ऐसा कहा, तब सु ीव अपने पास ही खड़े ए हनुमा ीसे य बोले —॥ १ ॥ ‘महे , हमवान्, व , कै लास तथा ेत शखरवाले म राचल—इन पाँच पवत के शखर पर जो े वानर रहते ह, प म दशाम समु के परवत तटपर ात:का लक सूयके समान का मान् और न काशमान पवत पर जन वानर का नवास है, भगवान् सूयके नवास ान तथा सं ाका लक मेघसमूहके समान अ ण वणवाले उदयाचल एवं अ ाचलपर जो वानर वास करते ह, प ाचलवत वनका आ य लेकर जो भयानक परा मी वानरशरोम ण नवास करते ह, अ नपवतपर जो काजल और मेघके समान काले तथा गजराजके समान महाबली वानर रहते ह, बड़े-बड़े पवत क गुफा म नवास करनेवाले तथा मे पवतके आस-पास रहनेवाले जो सुवणक -सी का वाले वानर ह, जो धू ग रका आ य लेकर रहते ह, मैरेय मधुका पान करते ए जो महा ण पवतपर ात:कालके सूयक भाँ त लाल रंगके भयानक वेगशाली वानर नवास करते ह तथा सुग से प रपूण एवं तप य के आ म से सुशो भत बड़ेबड़े रमणीय वन और वना म चार ओर जो वानर रहते ह, भूम लके उन सभी वानर को तुम शी यहाँ ले आओ। श शाली तथा अ वेगवान् वानर को भेजकर उनके ारा साम, दान आ द उपाय का योग करके उन सबको यहाँ बुलवाओ॥ २—९ ॥ ‘मेरी आ ासे पहले जो महान् वेगशाली वानर भेजे गये ह, उनको ज ी करनेके लये ेरणा देनेके न म तुम पुन: दूसरे े वानर को भेजो॥ १० ॥ ‘जो वानर कामभोगम फँ से ए ह तथा जो दीघसू ी ( ेक कायको वल से करनेवाले) ह , उन सभी कपी र को शी यहाँ ले आओ॥ ११ ॥ ‘जो मेरी आ ासे दस दनके भीतर यहाँ न आ जायँ, राजा ाको कल त करनेवाले उन दुरा ा वानर को मार डालना चा हये॥ १२ ॥



‘जो मेरी आ जायँ॥ १३ ॥ ‘जो



ाके अधीन रहते ह , ऐसे सैकड़ , हजार तथा करोड़ वानर सह मेरे आदेशसे



मेघ और पवतके समान अपने वशाल शरीरसे आकाशको आ ा दत-सा कर लेते ह, वे घोर पधारी े वानर मेरा आदेश मानकर यहाँसे या ा कर॥ १४ ॥ ‘वानर के नवास ान को जाननेवाले सभी वानर ती ग तसे भूम लम चार ओर जाकर मेरे आदेशसे उन-उन ान के स ूण वानरगण को तुरंत यहाँ ले आव’॥ वानरराज सु ीवक बात सुनकर वायुपु हनुमा ीने स ूण दशा म ब त-से परा मी वानर को भेजा॥ १६ ॥ राजाक आ ा पाकर वे सब वानर त ाल आकाशम प य और न के मागसे चल दये॥ १७ ॥ उन वानर ने समु के कनारे, पवत पर, वन म और सरोवर के तट पर रहनेवाले सम वानर को ीरामच जीका काय करनेके लये चलनेको कहा॥ १८ ॥ अपने स ाट् सु ीवका, जो मृ ु एवं कालके समान भयानक द देनेवाले थे, आदेश सुनकर वे सभी वानर उनके भयसे थरा उठे और तुरंत ही क ाक ओर त ए॥ १९ ॥ तदन र क ल ग रसे काजलके ही समान काले और महान् बलवान् तीन करोड़ वानर उस ानपर जानेके लये नकले, जहाँ ीरघुनाथजी वराजमान थे॥ २० ॥ जहाँ सूयदेव अ होते ह, उस े पवतपर रहनेवाले दस करोड़ वानर, जनक का तपाये ए सुवणके समान थी, वहाँसे क ाके लये चले॥ कै लासके शखर से सहके अयालक -सी ेत का वाले दस अरब वानर आये॥ २२ ॥ जो हमालयपर रहकर फल-मूलसे जीवन नवाह करते थे, वे वानर एक नीलक सं ाम वहाँ आये॥ २३ ॥ व ाचल पवतसे म लके समान लाल रंगवाले भयानक परा मी भयंकर पधारी वानर क दस अरब सेना बड़े वेगसे क ाम आयी॥ २४ ॥ ीरसमु के कनारे और तमालवनम ना रयल खाकर रहनेवाले वानर इतनी अ धक सं ाम आये क उनक गणना नह हो सकती थी॥ २५ ॥



वन से, गुफा से और न दय के कनार से असं महाबली वानर एक ए। वानर क वह सारी सेना सूयदेवको पीती (आ ा दत करती) ◌इ-सी आयी॥ २६ ॥ जो वानर सम वानर को शी आनेके लये े रत करनेके न म क ासे दुबारा भेजे गये थे, उन वीर ने हमालय पवतपर उस स वशाल वृ को देखा (जो भगवान् शंकरक य शालाम त था)॥ २७ ॥ उस प व एवं े पवतपर पूवकालम भगवान् शंकरका य आ था, जो स ूण देवता के मनको संतोष देनेवाला और अ मनोरम था॥ २८ ॥ उस पवतपर खीर आ द अ (होम ) से घृत आ दका ाव आ था, उससे वहाँ अमृतके समान ा द फल और मूल उ ए थे। उन फल को उन वानर ने देखा॥ २९ ॥ उ अ से उ ए उस द एवं मनोहर फल-मूलको जो को◌इ एक बार खा लेता था, वह एक मासतक उससे तृ बना रहता था॥ ३० ॥ फलाहार करनेवाले उन वानर शरोम णय ने उन द मूल-फल और द औषध को अपने साथ ले लया॥ ३१ ॥ वहाँ जाकर उस य -म पसे वे सब वानर सु ीवका य करनेके लये सुग त पु भी लेते आये॥ ३२ ॥ वे सम े वानर भूम लके स ूण वानर को तुरंत चलनेका आदेश देकर उनके यूथ के प ँ चनेके पहले ही सु ीवके पास आ गये॥ ३३ ॥ वे शी गामी वानर उसी मु तम चलकर बड़ी उतावलीके साथ क ापुरीम जहाँ वानरराज सु ीव थे, जा प ँ चे॥ ३४ ॥ उस स ूण ओष धय और फल-मूल को लेकर उन वानर ने सु ीवक सेवाम अ पत कर दया और इस कार कहा—॥ ३५ ॥ ‘महाराज! हमलोग सभी पवत , न दय और वन म घूम आये। भूम लके सम वानर आपक आ ासे यहाँ आ रहे ह’॥ ३६ ॥ यह सुनकर वानरराज सु ीवको बड़ी स ता ◌इ। उ ने उनक दी ◌इ सारी भटसाम ी सान हण क ॥ ३७ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क पूरा आ॥ ३७॥



ाका म सतीसवाँ सग



अड़तीसवाँ सग ल णस हत सु ीवका भगवान् ीरामके पास आकर उनके चरण म णाम करना, ीरामका उ समझाना, सु ीवका अपने कये ए सै सं ह वषयक उ ोगको बताना और उसे सुनकर ीरामका स होना



उनके लाये ए उन सम उपहार को हण करके सु ीवने स ूण वानर को मधुर वचन ारा सा ना दी। फर सबको वदा कर दया॥ १ ॥ काय पूरा करके लौटे ए उन सह वानर को वदा करके सु ीवने अपने-आपको कृ ताथ माना और महाबली ीरघुनाथजीका भी काय स आ ही समझा॥ २ ॥ त ात् ल ण सम वानर म े भयंकर बलशाली सु ीवका हष बढ़ाते ए उनसे यह वनीत वचन बोले—॥ ३ ॥ ‘सौ ! य द तु ारी च हो तो अब क ासे बाहर नकलो।’ ल णक यह सु र बात सुनकर सु ीव अ स ए और इस कार बोले—॥ ४ १/२ ॥ ‘अ ा, ऐसा ही हो। च लये, चल। मुझे तो आपक आ ाका पालन करना है।’ शुभ ल ण से यु ल णसे ऐसा कहकर सु ीवने तारा आ द सब य को त ाल वदा कर दया॥ ५-६ ॥ इसके बाद सु ीवने शेष वानर को ‘आओ, आओ’ कहकर उ रसे पुकारा। उनक वह पुकार सुनकर सब वानर, जो अ :पुरक य को देखनेके अ धकारी थे, दोन हाथ जोड़े शी तापूवक उनके पास आये॥ ७ १/२ ॥ पास आये ए उन वानर से सूयतु तेज ी राजा सु ीवने कहा—‘वानरो! तुमलोग शी मेरी श बकाको यहाँ ले आओ’॥ ८ १/२ ॥ उनक बात सुनकर शी गामी वानर ने एक सु र श बका (पालक ) वहाँ उप त कर दी॥ ९ १/२ ॥ पालक को वहाँ उप त देख वानरराज सु ीवने सु म ाकु मारसे कहा—‘कु मार ल ण! आप शी इसपर आ ढ़ हो जायँ’॥ १० १/२ ॥



ऐसा कहकर ल णस हत सु ीव उस सूयक -सी भावाली सुवणमयी पालक पर, जसे ढोनेके लये ब त-से वानर लगे थे, आ ढ़ ए॥ ११ १/२ ॥ उस समय सु ीवके ऊपर ेत छ लगाया गया और सब ओरसे सफे द चँवर डु लाये जाने लगे। श और भेरीक नके साथ व ीजन का अ भन न सुनते ए राजा सु ीव परम उ म राजल ीको पाकर क ापुरीसे बाहर नकले॥ १२-१३ १/२ ॥ हाथम श लये ती ण भाववाले क◌इ सौ वानर से घरे ए राजा सु ीव उस ानपर गये, जहाँ भगवान् ीराम नवास करते थे॥ १४ १/२ ॥ ीरामच जीसे से वत उस े ानम प ँ चकर ल णस हत महातेज ी सु ीव पालक से उतरे और ीरामके पास जा हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ १५-१६ ॥ वानरराजके हाथ जोड़कर खड़े होनेपर उनके अनुयायी वानर भी उ क भाँ त अ ल बाँधे खड़े हो गये। मुकु लत कमल से भरे ए वशाल सरोवरक भाँ त वानर क उस बड़ी भारी सेनाको देखकर ीरामच जी सु ीवपर ब त स ए॥ १७ १/२ ॥ वानरराजको चरण म म क रखकर पड़ा आ देख ीरघुनाथजीने हाथसे पकड़कर उठाया और बड़े आदर तथा ेमके साथ उ दयसे लगाया॥ १८ १/२ ॥ दयसे लगाकर धमा ा ीरामने उनसे कहा— ‘बैठो’। उ पृ ीपर बैठा देख ीराम बोले—॥ ‘वीर! वानर शरोमणे! जो धम, अथ और कामके लये समयका वभाग करके सदा उ चत समयपर उनका ( ाययु ) सेवन करता है, वही े राजा है। कतु जो धम-अथका ाग करके के वल कामका ही सेवन करता है, वह वृ क अगली शाखापर सोये ए मनु के समान है। गरनेपर ही उसक आँ ख खुलती है॥ २०-२१ १/२ ॥ ‘जो राजा श ु के वध और म के सं हम संल रहकर यो समयपर धम, अथ और कामका ( ाययु ) सेवन करता है, वह धमके फलका भागी होता है॥ २२ १/२ ॥ ‘श ुसूदन! यह हमलोग के लये उ ोगका समय आया है। वानरराज! तुम इस वषयम इन वानर और म य के साथ वचार करो’॥ २३ १/२ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर सु ीवने उनसे कहा— ‘महाबाहो! मेरी ी, क त तथा सदासे चला आनेवाला वानर का रा —ये सब न हो चुके थे। आपक कृ पासे ही मुझे पुन: इन



सबक ा ◌इ है॥ २४-२५ ॥ ‘ वजयी वीर म े देव! आप और आपके भा◌इक कृ पासे ही म वानर-रा पर पुन: त त आ ँ । जो कये ए उपकारका बदला नह चुकाता है, वह पु ष म धमको कल त करनेवाला माना गया है॥ २६ ॥ ‘श ुसूदन! ये सैकड़ बलवान् और मु वानर भूम लके सभी बलशाली वानर को साथ लेकर यहाँ आये ह॥ २७ ॥ ‘रघुन न! इनम रीछ ह, वानर ह और शौय-स गोला ू ल (ल ू र) ह। ये सब-के -सब देखनेम बड़े भयंकर ह और बीहड़ वन तथा दुगम ान के जानकार ह॥ २८ ॥ ‘रघुनाथजी! जो देवता और ग व के पु ह और इ ानुसार प धारण करनेम समथ ह, वे े वानर अपनी-अपनी सेना के साथ चल पड़े ह और इस समय मागम ह॥ २९ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले वीर! इनमसे कसीके साथ सौ, कसीके साथ लाख, कसीके साथ करोड़, कसीके साथ अयुत (दस हजार) और कसीके साथ एक शंकु वानर ह॥ ३० ॥ ‘ कतने ही वानर अबुद (दस करोड़), सौ अबुद (दस अरब), म (दस प ) तथा अ (एक प ) वानर-सै नक के साथ आ रहे ह। कतने ही वानर तथा वानर-यूथप तय क सं ा समु (दस नील) तथा पराध (शंख) तक प ँ च गयी है*॥ ३१ ॥ ‘राजन्! वे देवराज इ के समान परा मी तथा मेघ और पवत के समान वशालकाय वानर, जो मे और व ाचलम नवास करते ह, यहाँ शी ही उप त ह गे॥ ३२ ॥ ‘जो यु म रावणका वध करके म थलेश-कु मारी सीताको ल ासे ला दगे, वे महान् श शाली वानर सं ामम उस रा ससे यु करनेके लये अव आपके पास आयगे’॥ ३३ ॥



यह सुनकर परम परा मी राजकु मार ीराम अपनी आ ाके अनुसार चलनेवाले वानर के मुख वीर सु ीवका यह सै - वषयक उ ोग देखकर बड़े स ए। उनके ने हषसे खल उठे और फु नील कमलके समान दखायी देने लगे॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म अड़तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३८॥



यहाँ अबुद, शंकु, अ और म आ द सं ावाचक श का आधु नक ग णतके अनुसार मान समझनेके लये ाचीन सं ा का पूण पसे उ ेख कया जाता है और को म उसका आधु नक मान दया जा रहा है—एक (इका◌इ), दश (दहा◌इ), शत (सैकड़ा), सह (हजार), अयुत (दस हजार), ल (लाख), युत (दस लाख), को ट (करोड़), अबुद (दस करोड़), अ (अरब), खव (दस अरब), नखव (खव), महाप (दस खव), शंकु (नील), जल ध (दस नील), अ (प ), म (दस प ), पराध (शंख)—ये सं ाबोधक सं ाएँ उ रो र दसगुनी मानी गयी ह। (नारदपुराणसे) *



उनतालीसवाँ सग ीरामच जीका सु ीवके



त कृत ता कट करना तथा व भ अपनी सेना के साथ आगमन



वानर-यूथप तय का



सु ीवके ऐसा कहनेपर धमा ा म े ीरामने अपनी दोन भुजा से उनका आ ल न कया और हाथ जोड़कर खड़े ए उनसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘सखे! इ जो जलक वषा करते ह, सह करण से शोभा पानेवाले सूयदेव जो आकाशका अ कार दूर कर देते ह तथा सौ ! च मा अपनी भासे जो अँधेरी रातको भी उ ल कर देते ह, इसम को◌इ आ यक बात नह है; क यह उनका ाभा वक गुण है। श ु को संताप देनेवाले सु ीव! इसी तरह तु ारे समान पु ष भी य द अपने म का उपकार करके उ स कर द तो इसम को◌इ आ य नह मानना चा हये॥ २-३ ॥ ‘सौ सु ीव! इसी कार तुमम जो म का हतसाधन प क ाणकारी गुण है, वह आ यका वषय नह है; क म जानता ँ क तुम सदा य बोलनेवाले हो—यह तु ारा ाभा वक गुण है॥ ४ ॥ ‘सखे! तु ारी सहायतासे सनाथ होकर म यु म सम श ु को जीत लूँगा। तु मेरे हतैषी म हो और मेरी सहायता कर सकते हो॥ ५ ॥ ‘रा साधम रावणने अपना नाश करनेके लये ही म थलेशकु मारीको धोखा देकर उसका अपहरण कया है। ठीक उसी तरह, जैसे अनु ादने अपने वनाशके लये ही पुलोमपु ी शचीको छलपूवक हर लया था*॥ ६ ॥ ‘जैसे श ुह ा इ ने शचीके घमंडी पताको मार डाला था, उसी कार म भी शी ही अपने तीखे बाण से रावणका वध कर डालूँगा’॥ ७ ॥ ीराम और सु ीवम जब इस कार बात हो रही थ , उसी समय बड़े जोरक धूल उठी, जसने आकाशम फै लकर सूयक च भाको ढक दया॥ ८ ॥ फर तो उस धूलज नत अ कारसे स ूण दशाएँ दू षत एवं ा हो गय तथा पवत, वन और कानन के साथ समूची पृ ी डगमग होने लगी॥ ९ ॥



तदन र पवतराजके समान शरीर और तीखी दाढ़वाले असं महाबली वानर से वहाँक सारी भू म आ ा दत हो गयी॥ १० ॥ पलक मारते-मारते अरब वानर से घरे ए अनेकानेक यूथप तय ने वहाँ आकर सारी भू मको ढक लया॥ ११ ॥ नदी, पवत, वन और समु सभी ान के नवासी महाबली वानर जुट गये, जो मेघ क गजनाके समान उ रसे सहनाद करते थे॥ १२ ॥ को◌इ बालसूयके समान लाल रंगके थे तो को◌इ च माके समान गौर वणके । कतने ही वानर कमलके के सर के समान पीले रंगके थे और कतने ही हमाचलवासी वानर सफे द दखायी देते थे॥ १३ ॥ उस समय परम का मान् शतब ल नामक वीर वानर दस अरब वानर के साथ गोचर आ॥ १४ ॥ त ात् सुवणशैलके समान सु र एवं वशाल शरीरवाले ताराके महाबली पता क◌इ सह को ट वानर के साथ वहाँ उप त देखे गये॥ १५ ॥ इसी कार माके पता और सु ीवके शुर, जो बड़े वैभवशाली थे, वहाँ उप त ए। उनके साथ भी दस अरब वानर थे॥ १६ ॥ तदन र हनुमा ीके पता क प े ीमान् के सरी दखायी दये। उनके शरीरका रंग कमलके के सर क भाँ त पीला और मुख ात:कालके सूयके समान लाल था। वे बड़े बु मान् और सम वानर म े थे। वे क◌इ सह वानर से घरे ए थे॥ १७-१८ ॥ फर लंगूर-जा तवाले वानर के महाराज भयंकर परा मी गवा का दशन आ। उनके साथ दस अरब वानर क सेना थी॥ १९ ॥ श ु का संहार करनेवाले धू भयंकर वेगशाली बीस अरब रीछ क सेना लेकर आये॥ २० ॥ महापरा मी यूथप त पनस तीन करोड़ वानर के साथ उप त ए। वे सब-के -सब बड़े भयंकर तथा महान् पवताकार दखायी देते थे॥ २१ ॥ यूथप त नीलका शरीर भी बड़ा वशाल था। वे नीले क ल ग रके समान नीलवणके थे और दस करोड़ क पय से घरे ए थे॥ २२ ॥



तदन र यूथप त गवय, जो सुवणमय पवत मे के समान का मान् और महापरा मी थे, पाँच करोड़ वानर के साथ उप त ए॥ २३ ॥ उसी समय वानर के बलवान् सरदार दरीमुख भी आ प ँ चे। वे दस अरब वानर के साथ सु ीवक सेवाम उप त ए थे॥ २४ ॥ अ नीकु मार के महाबली पु मै और वद, ये दोन भा◌इ भी दस-दस अरब वानर क सेनाके साथ वहाँ दखायी दये॥ २५ ॥ तदन र महातेज ी बलवान् वीर गज तीन करोड़ वानर के साथ सु ीवके पास आया॥ २६ ॥ रीछ के राजा जा वान् बड़े तेज ी थे। वे दस करोड़ रीछ से घरे ए आये और सु ीवके अधीन होकर खड़े ए॥ २७ ॥ मण ( म ान्) नामक तेज ी और बलवान् वानर एक अरब परा मी वानर को साथ लये बड़ी ती ग तसे वहाँ आया॥ २८ ॥ इसके बाद यूथप त ग मादन उप त ए। उनके पीछे एक प वानर क सेना आयी थी॥ २९ ॥ त ात् युवराज अ द आये। ये अपने पताके समान ही परा मी थे। इनके साथ एक सह प और सौ शंकु (एक प ) वानर क सेना थी (इनके सै नक क कु ल सं ा दस शंख एक प थी)॥ ३० ॥ तदन र तार के समान का मान् तार नामक वानर पाँच करोड़ भयंकर परा मी वानर वीर के साथ दूरसे आता दखायी दया॥ ३१ ॥ इ जानु (इ भानु) नामक वीर यूथप त, जो बड़ा ही व ान् एवं बु मान् था, ारह करोड़ वानर के साथ उप त देखा गया। वह उन सबका ामी था॥ ३२ ॥ इसके बाद र नामक वानर उप त आ, जो ात:कालके सूयक भाँ त लाल रंगका था। उसके साथ ारह हजार एक सौ वानर क सेना थी॥ ३३ ॥ त ात् वीर यूथप त दुमुख नामक बलवान् वानर उप त देखा गया, जो दो करोड़ वानर सै नक से घरा आ था॥ ३४ ॥



इसके बाद हनुमा ीने दशन दया। उनके साथ कै लास शखरके समान ेत शरीरवाले भयंकर परा मी वानर दस अरबक सं ाम मौजूद थे॥ ३५ ॥ फर महापरा मी नल उप त ए, जो एक अरब एक हजार एक सौ मु वासी वानर से घरे ए थे॥ तदन र ीमान् द धमुख दस करोड़ वानर के साथ गजना करते ए क ाम महा ा सु ीवके पास आये॥ ३७ ॥ इनके सवा शरभ, कु मुद, व तथा रंह—ये और दूसरे भी ब त-से इ ानुसार प धारण करनेवाले वानरयूथप त सारी पृ ी, पवत और वन को आवृत करके वहाँ उप त ए, जनक को◌इ गणना नह क जा सकती॥ ३८-३९ ॥ वहाँ आये ए सभी वानर पृ ीपर बैठे। वे सब-के -सब उछलते, कू दते और गजते ए वहाँ सु ीवके चार ओर जमा हो गये। जैसे सूयको सब ओरसे घेरकर बादल के समूह छा रहे ह ॥ ४० ॥



अपनी भुजा से सुशो भत होनेवाले ब तेरे े वानर ने (जो भीड़के कारण सु ीवके पासतक न प ँ च सके थे) अनेक कारक बोली बोलकर तथा म क कु ाकर वानरराज सु ीवको अपने आगमनक सूचना दी॥ ४१ ॥ ब त-से े वानर उनके पास गये और यथो चत पसे मलकर लौटे तथा कतने ही वानर सु ीवसे मलनेके बाद उनके पास ही हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ ४२ ॥ धमके ाता वानरराज सु ीवने वहाँ आये ए उन सब वानर शरोम णय का समाचार नवेदन करके ीरामच जीको शी तापूवक उनका प रचय दया, फर हाथ जोड़कर वे उनके सामने खड़े हो गये॥ ४३ ॥ उन वानर-यूथप तय ने वहाँके पवतीय झरन के आस-पास तथा सम वन म अपनी सेना को यथो चत पसे सुखपूवक ठहरा दया। त ात् सब सेना के ाता सु ीव उनका पूणत: ान ा करनेम समथ हो सके ॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म उनतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ३९॥



पुलोम दानवक क ा शची इ देवके त अनुर थ , परंतु अनु ादने उनके पताको फु सलाकर अपने प म कर लया और उसक अनुम तसे शचीको हर लया। जब इ को इसका पता लगा, तब वे अनुम त देनेवाले पुलोमको और अपहरण करनेवाले अनु ादको भी मारकर शचीको अपने घर ले आये। यह पुराण स कथा है। (रामायण तलकसे) *



चालीसवाँ सग ीरामक आ ासे सु ीवका सीताक खोजके लये पूव दशाम वानर को भेजना और वहाँके ान का वणन करना



तदन र बल-वैभवसे स वानरराज राजा सु ीव श ुसेनाका संहार करनेवाले पु ष सह ीरामसे बोले—॥ १ ॥ ‘भगवन्! जो मेरे रा म नवास करते ह, वे महे के समान तेज ी, इ ानुसार प धारण करनेवाले और बलवान् वानर-यूथप त यहाँ आकर पड़ाव डाले बैठे ह॥ ‘ये अपने साथ ऐसे बलवान् वानर यो ा को ले आये ह, जो ब त-से यु ल म अपना परा म कट कर चुके ह और भयंकर पु षाथ कर दखानेवाले ह। यहाँ ऐसे-ऐसे वानर उप त ए ह, जो दै और दानव के समान भयानक ह॥ ३ ॥ ‘अनेक यु म इन वानर वीर क शूर-वीरताका प रचय मल चुका है। ये बलके भ ार ह, यु से थकते नह ह—इ ने थकावटको जीत लया है। ये अपने परा मके लये स और उ ोग करनेम े ह॥ ‘ ीराम! यहाँ आये ए ये वानर के करोड़ यूथ व भ पवत पर नवास करनेवाले ह। जल और थल—दोन म समान पसे चलनेक श रखते ह। ये सब-के -सब आपके ककर (आ ापालक) ह॥ ५ ॥ ‘श ुदमन! ये सभी आपक आ ाके अनुसार चलनेवाले ह। आप इनके गु — ामी ह। ये आपके हतसाधनम त र रहकर आपके अभी मनोरथको स कर सकगे॥ ६ ॥ ‘दै और दानव के समान घोर पधारी ये सभी वानर-यूथप त अपने साथ भयंकर परा म करनेवाली क◌इ सह सेनाएँ लेकर आये ह॥ ७ ॥ ‘पु ष सह! अब इस समय आप जो कत उ चत समझते ह, उसे बताइये। आपक यह सेना आपके वशम है। आप इसे यथो चत कायके लये आ ा दान कर॥ ८ ॥ ‘य प सीताजीके अ ेषणका यह काय इन सबको तथा मुझे भी अ ी तरह ात है, तथा प आप जैसा उ चत हो, वैसे कायके लये हम आ ा द’॥ ९ ॥



जब सु ीवने ऐसी बात कही, तब दशरथन न ीरामने दोन भुजा से पकड़कर उ दयसे लगा लया और इस कार कहा—॥ १० ॥ ‘सौ ! महा ा ! पहले यह तो पता लगाओ क वदेहकु मारी सीता जी वत है या नह तथा वह देश, जसम रावण नवास करता है, कहाँ है?॥ ११ ॥ ‘जब सीताके जी वत होनेका और रावणके नवास ानका न त पता मल जायगा, तब जो समयो चत कत होगा, उसका म तु ारे साथ मलकर न य क ँ गा॥ १२ ॥ ‘वानरराज! इस कायको स करनेम न तो म समथ ँ और न ल ण ही। कपी र! इस कायक स तु ारे ही हाथ है। तु इसे पूण करनेम समथ हो॥ १३ ॥ ‘ भो! मेरे कायका भलीभाँ त न य करके तु वानर को उ चत आ ा दो। वीर! मेरा काय ा है? इसे तु ठीक-ठीक जानते हो, इसम संशय नह है॥ १४ ॥ ‘ल णके बाद तु मेरे दूसरे सु द ् हो। तुम परा मी, बु मान्, समयो चत कत के ाता, हतम संल रहनेवाले, हतैषी ब ु, व ासपा तथा मेरे योजनको अ ी तरह समझनेवाले हो’॥ १५ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर सु ीवने उनके और बु मान् ल णके समीप ही वनत नामक यूथप तसे, जो पवतके समान वशालकाय, मेघके समान ग ीर गजना करनेवाले, बलवान् तथा वानर के शासक थे और च मा एवं सूयके समान का वाले वानर के साथ उप त ए थे, कहा—‘वानर शरोमणे! तुम देश और कालके अनुसार नी तका योग करनेवाले तथा कायका न य करनेम चतुर हो। तुम एक लाख वेगवान् वानर के साथ पवत, वन और कानन स हत पूव दशाक ओर जाओ और वहाँ पहाड़ के दुगम देश , वन तथा स रता म वदेहकु मारी सीता एवं रावणके नवास- ानक खोज करो॥ १६—१९ १/२ ॥ ‘भागीरथी ग ा, रमणीय सरयू, कौ शक , सुर क ल न नी यमुना, महापवत यामुन, सर ती नदी, सधु, म णके समान नमल जलवाले शोणभ , मही तथा पवत और वन से सुशो भत कालमही आ द न दय के कनारे ढूँ ढ़ो॥ २०-२१ १/२ ॥ ‘ माल, वदेह, मालव, काशी, कोसल, मगध देशके बड़े-बड़े ाम, पु देश तथा अ आ द जनपद म छानबीन करो॥ २२ १/२ ॥



‘रेशमके



क ड़ क उ के ान और चाँदीके खान म भी खोज करनी चा हये। इधरउधर ढूँ ढ़ते ए तुम सब लोग को इन सभी ान म राजा दशरथक पु वधू तथा ीरामच जीक ारी प ी सीताका अ ेषण करना चा हये॥ २३-२४ ॥ ‘समु के भीतर व ए पवत पर, उसके अ वत ीप के व भ नगर म तथा म राचलक चोटीपर जो को◌इ गाँव बसे ह, उन सबम सीताका अनुसंधान करो॥ २५ ॥ ‘जो कण ावरण (व क भाँ त पैरतक लटके ए कानवाले), ओ कणक (ओठतक फै ले ए कानवाले) तथा घोरलोहमुख (लोहेके समान काले एवं भयंकर मुखवाले) ह, जो एक ही पैरके होते ए भी वेगपूवक चलनेवाले ह, जनक संतानपर रा कभी ीण नह होती, वे पु ष तथा जो बलवान् नरभ ी रा स ह, जो सूचीके अ भागक भाँ त तीखी चोटीवाले, सुवणके समान का मान्, यदशन (सु र), क ी मछली खानेवाले, ीपवासी तथा जलके भीतर वचरनेवाले करात ह, जनके नीचेका आकार मनु -जैसा और ऊपरक आकृ त ा के समान है, ऐसे जो भयंकर ाणी बताये गये ह; वानरो! इन सबके नवास ान म जाकर तु सीता तथा रावणक खोज करनी चा हये॥ २६—२८ १/२ ॥ ‘ जन ीप म पवत पर होकर जाना पड़ता है, जहाँ समु को तैरकर या नाव आ दके ारा प ँ चा जाता है, उन सब ान म सीताको ढूँ ढ़ना चा हये॥ २९ ॥ ‘इसके सवा तुमलोग य शील होकर सात रा से सुशो भत यव ीप (जावा), सुवण ीप (सुमा ा) तथा क ीपम भी जो सुवणक खान से सुशो भत ह, ढूँ ढ़नेका य करो॥ ३० ॥ ‘यव ीपको लाँघकर आगे जानेपर एक श शर नामक पवत मलता है, जसके ऊपर देवता और दानव नवास करते ह। वह पवत अपने उ शखरसे गलोकका श करता-सा जान पड़ता है॥ ३१ ॥ ‘इन सब ीप के पवत तथा श शर पवतके दुगम देश म, झरन के आस-पास और जंगल म तुम सब लोग एक साथ होकर ीरामच जीक यश नी प ी सीताका अ ेषण करो॥ ३२ ॥ ‘तदन र समु के उस पार जहाँ स और चारण नवास करते ह, जाकर लाल जलसे भरे ए शी वा हत होनेवाले शोण नामक नदके तटपर प ँ च जाओगे। उसके तटवत रमणीय



तीथ और व च वन म जहाँ-तहाँ वदेहकु मारी सीताके साथ रावणक खोज करना॥ ३३-३४ ॥ ‘पवत से



नकली ◌इ ब त-सी ऐसी न दयाँ मलगी, जनके तट पर बड़े भयंकर अनेकानेक उपवन ा ह गे। साथ ही वहाँ ब त-सी गुफा वाले पवत उपल ह गे और अनेक वन भी गोचर ह गे। उन सबम सीताका पता लगाना चा हये॥ ३५ ॥ ‘त ात् पूव देश से परे जाकर तुम इ रु ससे प रपूण समु तथा उसके ीप को देखोगे, जो बड़े ही भयंकर तीत होते ह। इ रु सका वह समु महाभयंकर है। उसम हवाके वेगसे उ ाल तरंग उठती रहती ह तथा वह गजना करता आ-सा जान पड़ता है॥ ३६ ॥ ‘उस समु म ब त-से वशालकाय असुर नवास करते ह। वे ब त दन के भूखे होते ह और छाया पकड़कर ही ा णय को अपने पास ख च लेते ह। यही उनका न का आहार है। इसके लये उ ाजीसे अनुम त मल चुक है॥ ३७ ॥ ‘इ रु सका वह समु काले मेघके समान ाम दखायी देता है। बड़े-बड़े नाग उसके भीतर नवास करते ह। उससे बड़ी भारी गजना होती रहती है। वशेष उपाय से उस महासागरके पार जाकर तुम लाल रंगके जलसे भरे ए लो हत नामक भयंकर समु के तटपर प ँ च जाओगे और वहाँ शा ली ीपके च भूत कू टशा ली नामक वशाल वृ का दशन करोगे॥ ३८-३९ ॥ ‘उसके



पास ही व कमाका बनाया आ वनतान न ग ड़का एक सु र भवन है, जो नाना कारके र से वभू षत तथा कै लास पवतके समान उ ल एवं वशाल है॥ ४० ॥ ‘उस ीपम पवतके समान शरीरवाले भयंकर मंदेह नामक रा स नवास करते ह, जो सुरासमु के म वत शैल- शखर पर लटकते रहते ह। वे अनेक कारके प धारण करनेवाले तथा भयदायक ह॥ ४१ ॥ ‘ त दन सूय दयके समय वे रा स ऊ मुख होकर सूयसे जूझने लगते ह, परंतु सूयम लके तापसे संत तथा तेजसे नहत हो सुरा-समु के जलम गर पड़ते ह। वहाँसे फर जी वत हो उ शैल- शखर पर लटक जाते ह। उनका बारंबार ऐसा ही म चला करता है॥ ४२ १/२ ॥ ‘शा ल ीप एवं सुरा-समु से आगे बढ़नेपर ( मश: घृत और द धके समु ा ह गे। वहाँ सीताक खोज करनेके प ात् जब आगे बढ़ोगे, तब) सफे द बादल क -सी आभावाले



ीरसमु का दशन करोगे॥ ४३ ॥ ‘दुधष वानरो! वहाँ प ँ चकर उठती ◌इ लहर से यु ीरसागरको इस कार देखोगे, मानो उसने मो तय के हार पहन रखे ह । उस सागरके बीचम ऋषभ नामसे स एक ब त ऊँ चा पवत है, जो ेत वणका है॥ ‘उस पवतपर सब ओर ब त-से वृ भरे ए ह, जो फू ल से सुशो भत तथा द ग से सुवा सत ह। उसके ऊपर सुदशन नामका एक सरोवर है, जसम चाँदीके समान ेत रंगवाले कमल खले ए ह। उन कमल के के सर सुवणमय होते ह और सदा द दी से दमकते रहते ह। वह सरोवर राजहंस से भरा रहता है॥ ४५ १/२ ॥ ‘देवता, चारण, य , क र और अ राएँ बड़ी स ताके साथ जल- वहार करनेके लये वहाँ आया करती ह॥ ४६ १/२ ॥ ‘वानरो! ीरसागर लाँघकर जब तुमलोग आगे बढ़ोगे, तब शी ही सु ादु जलसे भरे ए समु को देखोगे। वह महासागर सम ा णय को भय देनेवाला है। उसम ष औवके कोपसे कट आ वडवामुख नामक महान् तेज व मान है॥ ४७-४८ ॥ ‘उस समु म जो चराचर ा णय स हत महान् वेगशाली जल है, वही उस वडवामुख नामक अ का आहार बताया जाता है। वहाँ जो वडवानल कट आ है, उसे देखकर उसम पतनके भयसे चीखते- च ाते ए समु नवासी असमथ ा णय का आतनाद नर र सुनायी देता है॥ ४९ ॥ ‘ ा द जलसे भरे ए उस समु के उ र तेरह योजनक दूरीपर सुवणमयी शला से सुशो भत, कनकक कमनीय का धारण करनेवाला एक ब त ऊँ चा पवत है॥ ५० ॥ ‘वानरो! उसके शखरपर इस पृ ीको धारण करनेवाले भगवान् अन बैठे दखायी दगे। उनका ी व ह च माके समान गौरवणका है। वे सप जा तके ह; परंतु उनका प देवता के तु है। उनके ने फु कमलदलके समान ह और शरीर नील व से आ ा दत है। उन अन देवके सह म क ह॥ ‘पवतके ऊपर उन महा ाक ताड़के च से यु सुवणमयी जा फहराती रहती है। उस जाक तीन शखाएँ ह और उसके नीचे आधारभू मपर वेदी बनी ◌इ है। इस तरह उस जक बड़ी शोभा होती है॥ ५३ ॥



‘यही



ताल ज पूव दशाक सीमाके सूचक- च के पम देवता ारा ा पत कया गया है। उसके बाद सुवणमय उदयपवत है, जो द शोभासे स है॥ ५४ ॥ ‘उसका गगनचु ी शखर सौ योजन लंबा है। उसका आधारभूत पवत भी वैसा ही है। उसके साथ वह द सुवण शखर अ तु शोभा पाता है॥ ५५ ॥ ‘वहाँके साल, ताल, तमाल और फू ल से लदे कनेर आ द वृ भी सुवणमय ही ह। उन सूयतु तेज ी द वृ से उदय ग रक बड़ी शोभा होती है॥ ५६ ॥ ‘उस सौ योजन लंबे उदय ग रके शखरपर एक सौमनस नामक सुवणमय शखर है, जसक चौड़ा◌इ एक योजन और ऊँ चा◌इ दस योजन है॥ ५७ ॥ ‘पूवकालम वामन अवतारके समय पु षो म भगवान् व ुने अपना पहला पैर उस सौमनस नामक शखरपर रखकर दूसरा पैर मे पवतके शखरपर रखा था॥ ५८ ॥ ‘सूयदेव उ रसे घूमकर ज ू ीपक प र मा करते ए जब अ ऊँ चे ‘सौमनस’ नामक शखरपर आकर त होते ह, तब ज ू ीप नवा सय को उनका अ धक ताके साथ दशन होता है॥ ५९ ॥ ‘उस सौमनस नामक शखरपर वैखानस महा ा मह ष बाल ख गण का शत होते देखे जाते ह, जो सूयके समान का मान् और तप ी ह॥ ६० ॥ ‘यह उदय ग रके सौमनस शखरके सामनेका ीप सुदशन नामसे स है; कउ शखरपर जब भगवान् सूय उ दत होते ह, तभी इस ीपके सम ा णय का तेजसे स होता है और सबके ने को काश ा होता है (यही इस ीपके ‘सुदशन’ नाम होनेका कारण है)॥ ६१ ॥ ‘उदयाचलके पृ भाग म, क रा म तथा वन म भी तु जहाँ-तहाँ वदेहकु मारी सीतास हत रावणका पता लगाना चा हये॥ ६२ ॥ ‘उस सुवणमय उदयाचल तथा महा ा सूयदेवके तेजसे ा ◌इ उदयका लक पूव सं ा र वणक भासे का शत होती है॥ ६३ ॥ ‘सूयके उदयका यह ान सबसे पहले ाजीने बनाया है; अत: यही पृ ी एवं लोकका ार है (ऊपरके लोक म रहनेवाले ाणी इसी ारसे भूलोकम वेश करते ह तथा



भूलोकके ाणी इसी ारसे लोकम जाते ह)। पहले इसी दशाम इस ारका नमाण आ, इस लये इसे पूव दशा कहते ह॥ ६४ ॥ ‘उदयाचलक घा टय , झरन और गुफा म य -त घूमकर तु वदेहकु मारी सीतास हत रावणका अ ेषण करना चा हये॥ ६५ ॥ ‘इससे आगे पूव दशा अग है। उधर देवता रहते ह। उस ओर च मा और सूयका काश न होनेसे वहाँक भू म अ कारसे आ एवं अ है॥ ६६ ॥ ‘उदयाचलके आस-पासके जो सम पवत, क राएँ तथा न दयाँ ह, उनम तथा जन ान का मने नदश नह कया है, उनम भी तु जानक क खोज करनी चा हये॥ ६७ ॥ ‘वानर शरोम णयो! के वल उदय ग रतक ही वानर क प ँ च हो सकती है। इससे आगे न तो सूयका काश है और न देश आ दक को◌इ सीमा ही है। अत: आगेक भू मके बारेम मुझे कु छ भी मालूम नह है॥ ६८ ॥ ‘तुमलोग उदयाचलतक जाकर सीता और रावणके ानका पता लगाना और एक मास पूरा होते-होतेतक लौट आना॥ ६९ ॥ ‘एक महीनेसे अ धक न ठहरना। जो अ धक कालतक वहाँ रह जायगा, वह मेरे ारा मारा जायगा। म थलेशकु मारीका पता लगाकर अ ेषणका योजन स हो जानेपर अव लौट आना॥ ७० ॥ ‘वानरो! वनसमूहसे अलंकृत पूव दशाम अ ी तरह मण करके ीरामच जीक ारी प ी सीताका समाचार जानकर तुम वहाँसे लौट आओ। इससे तुम सुखी होओगे’॥ ७१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म चालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४०॥



इकतालीसवाँ सग सु ीवका द



ण दशाके



ान का प रचय देते ए वहाँ मुख वानर वीर को भेजना



इस कार वानर क ब त बड़ी सेनाको पूव दशाम ा पत करके सु ीवने द ण दशाक ओर चुने ए वानर को, जो भलीभाँ त परख लये गये थे, भेजा॥ १ ॥ अ पु नील, क पवर हनुमा ी, ाजीके महाबली पु जा वान्, सुहो , शरा र, शरगु , गज, गवा , गवय, सुषेण१ ( थम), वृषभ, मै , वद, सुषेण ( तीय), ग मादन, ताशनके दो पु उ ामुख और अन (अस ) तथा अ द आ द धान- धान वीर को, जो महान् वेग और परा मसे स थे, वशेष वानरराज सु ीवने द णक ओर जानेक आ ा दी॥ २—५ ॥ महान् बलशाली अ दको उन सम वानर वीर का अगुआ बनाकर उ द ण दशाम सीताक खोजका भार स पा॥ ६ ॥ उस दशाम जो को◌इ भी ान अ दुगम थे, उनका भी क पराज सु ीवने उन े वानर को प रचय दया२॥ ७ ॥ वे बोले—‘वानरो! तुमलोग भाँ त-भाँ तके वृ और लता से सुशो भत सह शखर वाले व पवत, बड़े-बड़े नाग से से वत रमणीय नमदा नदी, सुर गोदावरी, महानदी, कृ वेणी तथा बड़े-बड़े नाग से से वत महाभागा वरदा आ द न दय के तट पर और मेखल (मेकल), उ ल एवं दशाण देशके नगर म तथा आ व ी और अव ीपुरीम भी सब जगह सीताक खोज करो॥ ८-९ १/२ ॥ ‘इसी कार वदभ, ऋ क, र मा हषक देश, व ३, क ल तथा कौ शक आ द देश म सब ओर देखभाल करके पवत, नदी और गुफा स हत समूचे द कार म छानबीन करना। वहाँ जो गोदावरी नदी है, उसम सब ओर बारंबार देखना। इसी कार आ , पु , चोल, पा तथा के रल आ द देश म भी ढूँ ढ़ना॥ १०—१२ ॥ ‘तदन र अनेक धातु से अलंकृत अयोमुख४ (मलय) पवतपर भी जाना, उसके शखर बड़े व च ह। वह शोभाशाली पवत फू ले ए व च कानन से यु है। उसके सभी ान म सु र च नके वन ह। उस महापवत मलयपर सीताक अ ी तरह खोज करना॥ १३ १/२ ॥



‘त १४ १/२ ॥



‘उस



ात्



जलवाली द नदी कावेरीको देखना, जहाँ अ राएँ वहार करती ह॥



स मलयपवतके शखरपर बैठे ए सूयके समान महान् तेजसे स



मु न े



अग का५ दशन करना॥ १५ १/२ ॥ ‘इसके बाद उन स च महा ासे आ ा लेकर ाह से से वत महानदी ता पण को पार करना॥ १६ १/२ ॥ ‘उसके ीप और जल व च च नवन से आ ा दत ह; अत: वह सु र साड़ीसे वभू षत युवती ेयसीक भाँ त अपने यतम समु से मलती है॥ १७ १/२ ॥ ‘वानरो! वहाँसे आगे बढ़नेपर तुमलोग पा वंशी राजा के नगर ारपर६ लगे ए सुवणमय कपाटका दशन करोगे, जो मु ाम णय से वभू षत एवं द है॥ ‘त ात् समु के तटपर जाकर उसे पार करनेके स म अपने कत का भलीभाँ त न य करके उसका पालन करना। मह ष अग ने समु के भीतर एक सु र सुवणमय पवतको ा पत कया है, जो महे ग रके नामसे व ात है। उसके शखर तथा वहाँके वृ व च शोभासे स ह। वह शोभाशाली पवत े समु के भीतर गहरा◌इतक घुसा आ है॥ ‘नाना कारके खले ए वृ और लताएँ उस पवतक शोभा बढ़ाती ह। देवता, ऋ ष, े य और अ रा क उप तसे उसक शोभा और भी बढ़ जाती है। स और चारण के समुदाय वहाँ सब ओर फै ले रहते ह। इन सबके कारण महे पवत अ मनोरम जान पड़ता है। सह ने धारी इ ेक पवके दन उस पवतपर पदापण करते ह॥ २१-२२ १/ ॥ २



‘उस



समु के उस पार एक ीप है, जसका व ार सौ योजन है। वहाँ मनु क प ँ च नह है। वह जो दी शाली ीप है, उसम चार ओर पूरा य करके तु सीताक वशेष पसे खोज करनी चा हये॥ ‘वही देश इ के समान तेज ी दुरा ा रा सराज रावणका, जो हमारा व है, नवास ान है॥ २५ ॥



‘उस



द ण समु के बीचम अ ारका नामसे स एक रा सी रहती है, जो छाया पकड़कर ही ा णय को ख च लेती और उ खा जाती है॥ २६ ॥ ‘उस ल ा ीपम जो सं द ान ह, उन सबम इस तरह खोज करके जब तुम उ संदेहर हत समझ लो और तु ारे मनका संशय नकल जाय, तब तुम ल ा ीपको भी लाँघकर आगे बढ़ जाना और अ मततेज ी महाराज ीरामक प ीका अ ेषण करना॥ २७ ॥ ‘ल ाको लाँघकर आगे बढ़नेपर सौ योजन व ृत समु म एक पु तक नामका पवत है, जो परम शोभासे स तथा स और चारण से से वत है॥ २८ ॥ ‘वह च मा और सूयके समान काशमान है तथा समु के जलम गहरा◌इतक घुसा आ है। वह अपने व ृत शखर से आकाशम रेखा ख चता आ-सा सुशो भत होता है॥ २९ ॥ ‘उस पवतका एक सुवणमय शखर है, जसका त दन सूयदेव सेवन करते ह। उसी कार इसका एक रजतमय ेत- शखर है, जसका च मा सेवन करते ह। कृ त , नृशंस और ना क पु ष उस पवत- शखरको नह देख पाते ह॥ ३० ॥ ‘वानरो! तुमलोग म क क ु ाकर उस पवतको णाम करना और वहाँ सब ओर सीताको ढूँ ढ़ना। उस दुधष पवतको लाँघकर आगे बढ़नेपर सूयवान् नामक पवत मलेगा॥ ३१ ॥ ‘वहाँ जानेका माग बड़ा दुगम है और वह पु तकसे चौदह योजन दूर है। सूयवा ो लाँघकर जब तुमलोग आगे जाओगे, तब तु ‘वै ुत’ नामक पवत मलेगा॥ ‘वहाँके वृ स ूण मनोवा त फल से यु और सभी ऋतु म मनोहर शोभासे स ह। वानरो! उनसे सुशो भत वै ुत पवतपर उ म फल-मूल खाकर और सेवन करने यो मधु पीकर तुमलोग आगे जाना॥ ‘ फर कु र नामक पवत दखायी देगा, जो ने और मनको भी अ य लगनेवाला है। उसके ऊपर व कमाका बनाया आ मह ष अग का* एक सु र भवन है॥ ३४ १/२ ॥ ‘कु र पवतपर बना आ अग का वह द भवन सुवणमय तथा नाना कारके र से वभू षत है। उसका व ार एक योजनका और ऊँ चा◌इ दस योजनक है॥ ३५ १/२ ॥ ‘उसी पवतपर सप क नवासभूता एक नगरी है, जसका नाम भोगवती है (यह पातालक भोगवती पुरीसे भ है)। यह पुरी दुजय है। उसक सड़क ब त बड़ी और व ृत ह। वह सब ओरसे सुर त है। तीखी दाढ़वाले महा वषैले भयंकर सप उसक र ा करते ह॥ ३६-३७ ॥



‘उस



भोगवती पुरीम महाभयंकर सपराज वासु क नवास करते ह (ये योगश से अनेक प धारण करके दोन भोगवती पु रय म एक साथ रह सकते ह)। तु वशेष पसे उस भोगवती पुरीम वेश करके वहाँ सीताक खोज करनी चा हये॥ ३८ ॥ ‘उस पुरीम जो गु एवं वधानर हत ान ह , उन सबम सीताका अ ेषण करना चा हये। उस देशको लाँघकर आगे बढ़नेपर तु ऋषभ नामक महान् पवत मलेगा॥ ३९ ॥ ‘वह शोभाशाली ऋषभ पवत स ूण र से भरा आ है। वहाँ गोशीषक, प क, ह र ाम आ द नाम वाला द च न उ होता है। वह च नवृ अ के समान लत होता रहता है। उस च नको देखकर कदा प तु उसका श नह करना चा हये॥ ‘ क ‘रो हत’ नामवाले ग व उस घोर वनक र ा करते ह। वहाँ सूयके समान का मान् पाँच ग वराज रहते ह॥ ४२ ॥ ‘उनके नाम ये ह—शैलूष, ामणी, श ( श ु), शुक और ब ु। उस ऋषभसे आगे पृ थवीक अ म सीमापर सूय, च मा तथा अ के तु तेज ी पु कमा पु ष का नवास- ान है। अत: वहाँ दुधष ग वजयी ( गके अ धकारी) पु ष ही वास करते ह॥ ४३ १/ ॥ २



‘उससे



आगे अ भयानक पतृलोक है; वहाँ तुम लोग को नह जाना चा हये। यह भू म यमराजक राजधानी है, जो क द अ कारसे आ ा दत है॥ ‘वीर वानरपु वो! बस, द ण दशाम इतनी ही दूरतक तु जाना और खोजना है। उससे आगे प ँ चना अस व है; क उधर जंगम ा णय क ग त नह है॥ ४५ ॥ ‘इन सब ान म अ ी तरह देख-भाल करके और भी जो ान अ ेषणके यो दखायी दे, वहाँ भी वदेहकु मारीका पता लगाना; तदन र तुम सबको लौट आना चा हये॥ ४६ ॥ ‘जो एक मास पूण होनेपर सबसे पहले यहाँ आकर यह कहेगा क ‘मने सीताजीका दशन कया है’ वह मेरे समान वैभवसे स हो भो -पदाथ का अनुभव करता आ सुखपूवक वहार करेगा॥ ४७ ॥ ‘उससे



बढ़कर य मेरे लये दूसरा को◌इ नह होगा। वह मेरे लये ाण से भी बढ़कर ारा होगा तथा अनेक बार अपराध कया हो तो भी वह मेरा ब ु होकर रहेगा॥ ४८ ॥



‘तुम



सबके बल और परा म असीम ह। तुम वशेष गुणशाली उ म कु ल म उ ए हो। राजकु मारी सीताका जस कार भी पता मल सके , उसके अनु प उ को टका पु षाथ आर करो’॥ ४९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म इकतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४१॥ १. सुषेण दो थे—एक ताराके पता और दूसरा उनसे भ वानरयूथप त था। २. यहाँ द ण दशाका वभाग क ासे न करके आयावतसे कया गया है। पूव समु से प म समु और हमालयसे व के भागको आयावत कहते ह। सु ीवने द ण दशाके जन ान का प रचय दया है, उनक स त आयावतसे ही दशाका वभाजन करनेपर लगती है। ३. अ पाठके अनुसार यहाँ म देश समझना चा हये। ४. रामायण तलकके लेखक अयोमुखको मलय-पवतका नामा र मानते ह। गो व राज इसे स पवतका पयाय समझते ह तथा रामायण शरोम णकार अयोमुखको इन दोन से भ त पवत मानते ह। यहाँ तलककारके मतका अनुसरण कया गया है। ५. य प पहले प वटीसे उ र भागम अग के आ मका वणन आया है तथा प यहाँ मलयपवतपर भी उनका आ म था, ऐसा मानना चा हये। जैसे वा ी क मु नका आ म अनेक ान म था, उसी तरह इनका भी था अथवा ये उसी नामके को◌इ दूसरे ऋ ष थे। ६. आधु नक तंजौर ही ाचीन पा वंशी नरेश का नगर है। इस नगरम भी छानबीन करनेके लये सु ीव वानर को आदेश दे रहे ह।



बयालीसवाँ सग सु ीवका प म दशाके



ान का प रचय देते ए सुषेण आ द वानर को वहाँ भेजना



द ण दशाक ओर वानर को भेजनेके प ात् राजा सु ीवने ताराके पता और अपने शुर ‘सुषेण’ नामक वानरके पास जाकर उ हाथ जोड़कर णाम कया और कु छ कहना आर कया। सुषेण मेघके समान काले और भयंकर परा मी थे। उनके सवा, मह ष मरी चके पु महाक प अ च ान् भी वहाँ उप त थे, जो देवराज इ के समान तेज ी तथा शूरवीर े वानर से घरे ए थे। उनक का वनतान न ग ड़के समान थी। वे बु और परा मसे स थे। उनके अ त र मरी चके पु मारीच नामवाले वानर भी थे, जो महाबली और ‘अ चमा ’ नामसे स थे। इनके सवा और भी ब त-से ऋ षकु मार थे, जो वानर पम वहाँ वराजमान थे। सुषेणके साथ उन सबको सु ीवने प म दशाक ओर जानेक आ ा दी और कहा—‘क पवरो! आप सब लोग दो लाख वानर को साथ ले सुषेणजीक ाधनताम प मको जाइये और वदेहन नी सीताक खोज क जये॥ १—५ १/२ ॥ ‘ े वानरो! सौरा , बा ीक और च च आ द देश , अ ा समृ शाली एवं रमणीय जनपद , बड़े-बड़े नगर तथा पु ाग, बकु ल और उ ालक आ द वृ से भरे ए कु देशम एवं के वड़ेके वन म सीताक खोज करो॥ ६-७ १/२ ॥ ‘प मक ओर बहनेवाली शीतल जलसे सुशो भत क ाणमयी न दय , तप ी जन के वन तथा दुगम पवत म भी वदेहकु मारीका पता लगाओ॥ ८ १/२ ॥ ‘प म दशाम ाय: म भू म है। अ ऊँ ची और ठं ढी शलाएँ ह तथा पवतमाला से घरे ए ब त-से दुगम देश ह। उन सभी ान म सीताक खोज करते ए मश: आगे बढ़कर प म समु तक जाना और वहाँके ेक ानका नरी ण करना। वानरो! समु का जल त म नामक म तथा बड़े-बड़े ाह से भरा आ है। वहाँ सब ओर देखभाल करना॥ ९-१० १/२ ॥ ‘समु के तटपर के वड़ के कु म, तमालके कानन म तथा ना रयलके वन म तु ारे सै नक वानर भलीभाँ त वचरण करगे। वहाँ तुमलोग सीताको खोजना और रावणके नवास- ानका पता लगाना॥



समु तटवत पवत और वन म भी उ ढूँ ढ़ना चा हये। मुरवीप न (मोरवी) तथा रमणीय जटापुरम, अव ी* तथा अ लेपापुरीम, अल त वनम और बड़े-बड़े रा एवं नगर म जहाँ-तहाँ घूमकर पता लगाना॥ १३-१४ ॥ ‘ सधु-नद और समु के संगमपर सोम ग र नामक एक महान् पवत है, जसके सौ शखर ह। वह पवत ऊँ चे-ऊँ चे वृ से भरा है। उसक रमणीय चो टय पर सह नामक प ी रहते ह। जो त म नामवाले वशालकाय म और हा थय को भी अपने घ सल म उठा लाते ह॥ १५-१६ ॥ ‘ सह नामक प य के उन घ सल म प ँ चकर उस पवत- शखरपर उप त ए जो हाथी ह, वे उस पंखधारी सहसे स ा नत होनेके कारण गवका अनुभव करते और मन-ही-मन संतु होते ह। इसी लये मेघ क गजनाके समान श करते ए उस पवतके जलपूण वशाल शखरपर चार ओर वचरते रहते ह॥ ‘सोम ग रका गगनचु ी शखर सुवणमय है। उसके ऊपर व च वृ शोभा पाते ह। इ ानुसार प धारण करनेवाले वानर को चा हये क वहाँके सब ान को शी तापूवक अ ी तरह देख ल॥ १८ १/२ ॥ ‘वहाँसे आगे समु के बीचम पा रया पवतका सुवणमय शखर दखायी देगा, जो सौ योजन व ृत है। वानरो! उसका दशन दूसर के लये अ क ठन है। वहाँ जाकर तु सीताक खोज करनी चा हये॥ ‘पा रया पवतके शखरपर इ ानुसार प धारण करनेवाले, भयंकर, अ तु तेज ी तथा वेगशाली चौबीस करोड़ ग व नवास करते ह। वे सब-के -सब अ क ालाके समान काशमान ह और सब ओरसे आकर उस पवतपर एक ए ह॥ २०-२१ ॥ ‘भयंकर परा मी वानर को चा हये क वे उन ग व के अ धक नकट न जायँ—उनका को◌इ अपराध न कर और उस पवत शखरसे को◌इ फल न ल॥ २२ ॥ ‘ क वे भयंकर बल- व मसे स धैयवान् महाबली वीर ग व वहाँके फलमूल क र ा करते ह। उनपर वजय पाना ब त ही क ठन है॥ २३ ॥ ‘वहाँ भी जानक क खोज करनी चा हये और उनका पता लगानेके लये पूरा य करना चा हये। ाकृ त वानरके भावका अनुसरण करनेवाले तु ारी सेनाके वीर को उन ग व से को◌इ भय नह है॥ २४ ॥



‘पा रया



पवतके पास ही समु म व नामसे स एक ब त ऊँ चा पवत है, जो नाना कारके वृ और लता से ा दखायी देता है। वह व ग र वैदयू म णके समान नील वणका है। वह कठोरताम व म ण (हीरे) के समान है॥ २५ ॥ ‘वह सु र पवत वहाँ सौ योजनके घेरेम त त है। उसक लंबा◌इ और चौड़ा◌इ दोन बराबर ह। वानरो! उस पवतपर ब त-सी गुफाएँ ह। उन सबम य पूवक सीताका अनुसंधान करना चा हये॥ २६ ॥ ‘समु के चतुथ भागम च वान् नामक पवत है। वह व कमाने सह ार* च का नमाण कया था॥ २७ ॥ ‘वह से पु षो म भगवान् व ु प जन और हय ीव नामक दानव का वध करके पा ज श तथा वह सह ार सुदशन च लाये थे॥ २८ ॥ ‘च वान् पवतके रमणीय शखर और वशाल गुफा म भी इधर-उधर वैदेहीस हत रावणका पता लगाना चा हये॥ २९ ॥ ‘उससे आगे समु क अगाध जलरा शम सुवणमय शखर वाला वराह नामक पवत है, जसका व ार च सठ योजनक दूरीम है॥ ३० ॥ ‘वह ा ो तष नामक सुवणमय नगर है, जसम दु ा ा नरक नामक दानव नवास करता है॥ ३१ ॥ ‘उस पवतके रमणीय शखर पर तथा वहाँक वशाल गुफा म सीतास हत रावणक तलाश करनी चा हये॥ ३२ ॥ ‘ जसका भीतरी भाग सुवणमय दखायी देता है, उस पवतराज वराहको लाँघकर आगे बढ़नेपर एक ऐसा पवत मलेगा, जसका सब कु छ सुवणमय है तथा जसम लगभग दस सह झरने ह॥ ३३ ॥ ‘उसके चार ओर हाथी, सूअर, सह और ा सदा गजना करते ह और अपनी ही गजनाक त नके श से दपम भरकर पुन: दहाड़ने लगते ह॥ ३४ ॥ ‘उस पवतका नाम है मेघ ग र। जसपर देवता ने ह रत रंगके अ वाले ीमान् पाकशासन इ को राजाके पदपर अ भ ष कया था॥ ३५ ॥



‘देवराज इ



ारा सुर त ग रराज मेघको लाँघकर जब तुम आगे बढ़ोगे, तब तु सोनेके साठ हजार पवत मलगे, जो सब ओरसे सूयके समान का से देदी मान हो रहे ह और सु र फू ल से भरे ए सुवणमय वृ से सुशो भत ह॥ ३७ ॥ ‘उनके म भागम पवत का राजा ग र े मे वराजमान है, जसे पूवकालम सूयदेवने स होकर वर दया था। उ ने उस शैलराजसे कहा था क ‘जो दन-रात तु ारे आ यम रहगे, वे मेरी कृ पासे सुवणमय हो जायँगे तथा देवता, दानव, ग व जो भी तु ारे ऊपर नवास करगे, वे सुवणके समान का मान् और मेरे भ हो जायँगे’॥ ३८—४० ॥ ‘ व ेदेव, वसु, म ण तथा अ देवता सायंकालम उ म पवत मे पर आकर सूयदेवका उप ान करते ह। उनके ारा भलीभाँ त पू जत होकर भगवान् सूय सब ा णय क आँ ख से ओझल होकर अ ाचलको चले जाते ह॥ ४१-४२ ॥ ‘मे से अ ाचल दस हजार योजनक दूरीपर है, कतु सूयदेव आधे मु तम ही वहाँ प ँ च जाते ह॥ ४३ ॥ ‘उसके शखरपर व कमाका बनाया आ एक ब त बड़ा द भवन है, जो सूयके समान दी मान् दखायी देता है। वह अनेक ासाद से भरा आ है॥ ‘नाना कारके प य से ा व च - व च वृ उसक शोभा बढ़ाते ह। वह पाशधारी महा ा व णका नवास- ान है॥ ४५ ॥ ‘मे और अ ाचलके बीच एक णमय ताड़का वृ है, जो बड़ा ही सु र और ब त ही ऊँ चा है। उसके दस (बड़ी शाखाएँ ) ह। उसके नीचेक वेदी बड़ी व च है। इस तरह वह वृ बड़ी शोभा पाता है॥ ४६ ॥ ‘वहाँके उन सभी दुगम ान , सरोवर और स रता म इधर-उधर सीतास हत रावणका अनुसंधान करना चा हये॥ ४७ ॥ ‘मे ग रपर धमके ाता मह ष मे साव ण रहते ह, जो अपनी तप ासे ऊँ ची तको ा ए ह। वे जाप तके समान श शाली एवं व ात ऋ ष ह॥ ‘सूयतु तेज ी मह ष मे साव णके चरण म पृ ीपर म क टेककर णाम करनेके अन र तुमलोग उनसे म थलेशकु मारीका समाचार पूछना॥ ४९ ॥



‘रा



के अ म ( ात:काल) उ दत ए भगवान् सूय जीव-जग े इन सभी ान को अ कारर हत (एवं काशपूण) करके अ म अ ाचलको चले जाते ह॥ ‘वानर शरोम णयो! प म दशाम इतनी ही दूरतक वानर जा सकते ह। उसके आगे न तो सूयका काश है और न कसी देश आ दक सीमा ही। अत: वहाँसे आगेक भू मके वषयम मुझे को◌इ जानकारी नह है॥ ‘अ ाचलतक जाकर रावणके ान और सीताका पता लगाओ तथा एक मास पूण होते ही यहाँ लौट आओ॥ ५२ ॥ ‘एक महीनेसे अ धक न ठहरना। जो ठहरेगा, उसे मेरे हाथसे ाणद मलेगा। तुमलोग के साथ मेरे पूजनीय शुरजी भी जायँगे॥ ५३ ॥ ‘तुम सब लोग इनक आ ाके अधीन रहकर इनक सभी बात ानसे सुनना; क ये महाबा महाबली सुषेणजी मेरे शुर एवं गु जन ह (अत: तु ारे लये भी गु क भाँ त ही आदरणीय ह)॥ ५४ ॥ ‘तुम सब लोग भी बड़े परा मी तथा कत ाकत के नणयम माणभूत ( व सनीय) हो, तथा प इ अपना धान बनाकर तुम प म दशाक देखभाल आर करो॥ ५५ ॥ ‘अ मत तेज ी महाराज ीरामक प ीका पता लग जानेपर हम कृ तकृ हो जायँग;े क उ ने जो उपकार कया है, उसका बदला इसी तरह चुक सके गा॥ ‘अत: इस कायके अनुकूल और भी जो कत देश, काल और योजनसे स रखता हो, उसका वचार करके आपलोग उसे भी कर’॥ ५७ ॥ सु ीवक बात अ ी तरह सुनकर सुषेण आ द सब वानर उन वानरराजक अनुम त ले व ण ारा सुर त प म दशाक ओर चल दये॥ ५८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म बयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४२॥ * यह अव *



ी पूव दशाके मागम बतायी गयी अव ीसे भ है। जसम एक हजार अरे ह , उसे सह ार च कहते ह।



ततालीसवाँ सग सु ीवका उ र दशाके



ान का प रचय देते ए शतब ल आ द वानर को वहाँ भेजना



इस कार अपने शुरको प म दशाक ओर जानेका संदेश दे सव , सव-वानरशरोम ण वानरे र राजा सु ीव अपने हतैषी शतब ल नामक वीर वानरसे ीरामच जीके हतक बात बोले—॥ १-२ ॥ ‘परा मी वीर! तुम अपने ही समान एक लाख वनवासी वानर को जो यमराजके बेटे ह, साथ लेकर अपने सम म य स हत उस उ र दशाम वेश करो, जो हमालय पी आभूषण से वभू षत है और वहाँ सब ओर यश नी ीरामप ी सीताका अ ेषण करो॥ ३-४ ॥ ‘अपने



मु योजनको समझनेवाले वीर म े वानरो! य द हमलोग के ारा दशरथन न भगवान् ीरामका यह य काय स हो जाय तो हम उनके उपकारके ऋणसे मु और कृ ताथ हो जायँगे॥ ५ ॥ ‘महा ा ीरघुनाथजीने हमलोग का य काय कया है। उसका य द कु छ बदला दया जा सके तो हमारा जीवन सफल हो जाय॥ ६ ॥ ‘ जसने को◌इ उपकार न कया हो, वह भी य द कसी कायके लये ाथ होकर आया हो तो जो पु ष उसके कायको स कर देता है, उसका ज भी सफल हो जाता है। फर जसने पहलेके उपकारीके कायको स कया हो, उसके जीवनक सफलताके वषयम तो कहना ही ा है॥ ७ ॥ ‘इसी वचारका आ य लेकर मेरा य और हत चाहनेवाले तुम सब वानर को ऐसा य करना चा हये, जससे जनकन नी सीताका पता लग जाय॥ ८ ॥ ‘श ु क नगरीपर वजय पानेवाले ये नर े ीराम सम ा णय के लये माननीय ह। हमलोग पर भी इनका ब त ेम है॥ ९ ॥ ‘तुम सब लोग बु और परा मके ारा इन अ दुगम देश , पवत और न दय के तट पर जा-जाकर सीताक खोज करो॥ १० ॥



‘उ ), कु



रम े , पु ल , शूरसेन, ल, भरत (इ और ह नापुरके आस-पासके ा (द ण कु —कु े के आस-पासक भू म), म , का ोज, यवन, शक के देश एवं नगर म भलीभाँ त अनुसंधान करके दरद देशम और हमालय पवतपर ढूँ ढ़ो॥ १२ ॥ ‘वहाँ लो और प कक झा ड़य म तथा देवदा के जंगल म वैदेहीस हत रावणक खोज करनी चा हये॥ १३ ॥ ‘ फर देवता और ग व से से वत सोमा मम होते ए ऊँ चे शखरवाले काल नामक पवतपर जाओ॥ ‘उस पवतक शाखाभूत अ छोटे-बड़े पवत और उन सबक गुफा म सती-सा ी ीरामप ी महाभागा सीताका अ ेषण करो॥ १५ ॥ ‘ जसके भीतर सुवणक खान ह, उस ग रराज कालको लाँघकर तु सुदशन नामक महान् पवतपर जाना चा हये॥ १६ ॥ ‘उससे आगे बढ़नेपर देवसख नामवाला पहाड़ मलेगा, जो प य का नवास ान है। वह भाँ तभाँ तके वहंगम से ा तथा नाना कारके वृ से वभू षत है॥ १७ ॥ ‘उसके वनसमूह , नझर और गुफा म तु वदेहकु मारी सीतास हत रावणक खोज करनी चा हये॥ ‘वहाँसे आगे बढ़नेपर एक सुनसान मैदान मलेगा, जो सब ओरसे सौ योजन व ृत है। वहाँ नदी, पवत, वृ और सब कारके जीव-ज ु का अभाव है॥ १९ ॥ ‘र गटे खड़े कर देनेवाले उस दुगम ा को शी तापूवक लाँघ जानेपर तु ेतवणका कै लास पवत मलेगा। वहाँ प ँ चनेपर तुम सब लोग हषसे खल उठोगे॥ २० ॥ ‘वह व कमाका बनाया आ कु बेरका रमणीय भवन है, जो ेत बादल के समान तीत होता है। उस भवनको जा ूनद नामक सुवणसे वभू षत कया गया है॥ २१ ॥ ‘उसके पास ही एक ब त बड़ा सरोवर है, जसम कमल और उ ल चुर मा ाम पाये जाते ह। उसम हंस और कार व आ द जलप ी भरे रहते ह तथा अ राएँ उसम जल- ड़ा करती ह॥ २२ ॥ ‘वहाँ य के ामी व वाकु मार ीमान् राजा कु बेर जो सम व के लये व नीय और धन देनेवाले ह, गु क के साथ वहार करते ह॥ २३ ॥



‘उस कै लासके



च माक भाँ त उ ल शाखा-पवत पर तथा उनक गुफा म सब ओर घूम- फरकर तु सीतास हत रावणका अनुसंधान करना चा हये॥ २४ ॥ ‘इसके बाद ौ ग रपर जाकर वहाँक अ दुगम ववर प गुफाम (जो क श से पवतके वदीण होनेके कारण बन गयी है) तु सावधानीके साथ वेश करना चा हये; क उसके भीतर वेश करना अ क ठन माना गया है॥ २५ ॥ ‘उस गुफाम सूयके समान तेज ी महा ा नवास करते ह। उन देव प मह षय क देवतालोग भी अ थना करते ह॥ २६ ॥ ौ पवतक और भी ब त-सी गुफाएँ , अनेकानेक चो टयाँ, शखर, क राएँ तथा नत (ढालू देश) ह; उन सबम सब ओर घूम- फरकर तु सीता और रावणका पता लगाना चा हये॥ २७ ॥ ‘वहाँसे आगे वृ से र हत मानस नामक शखर है, जहाँ शू होनेके कारण कभी प ीतक नह जाते ह। कामदेवक तप ाका ान होनेके कारण वह ौ शखर कामशैलके नामसे व ात है। वहाँ भूत , देवता तथा रा स का भी कभी जाना नह होता है॥ २८ ॥ ‘ शखर , घा टय और शाखापवत स हत समूचे ौ पवतक तुमलोग छानबीन करना। ौ ग रको लाँघकर आगे बढ़नेपर मैनाक पवत मलेगा॥ २९ ॥ ‘वहाँ मयदानवका घर है, जसे उसने यं ही अपने लये बनाया है। तुमलोग को शखर , चौरस मैदान और क रा स हत मैनाक पवतपर भलीभाँ त सीताजीक खोज करनी चा हये॥ ३० ॥ ‘वहाँ य -त घोड़ेके-से मुँहवाली क रय के नवास ान ह। उस देशको लाँघ जानेपर स से वत आ म मलेगा॥ ३१ ॥ ‘उसम स , वैखानख तथा वाल ख नामक तप ी नवास करते ह। तप ासे उनके पाप धुल गये ह। उन स को तुमलोग णाम करना और वनीतभावसे सीताका समाचार पूछना॥ ३२ १/२ ॥ ‘उस आ मके पास ‘वैखानस सर’ के नामसे स एक सरोवर है, जसका जल सुवणमय कमल से आ ा दत रहता है। उसम ात:का लक सूयके समान सुनहरे एवं अ णवणवाले सु र हंस वचरते रहते ह॥



‘कु बेरक



सवारीम काम आनेवाला सावभौम-नामक गजराज अपनी ह थ नय के साथ उस देशम सदा घूमता रहता है॥ ३४ १/२ ॥ ‘उस सरोवरको लाँघकर आगे जानेपर सूना आकाश दखायी देगा। उसम सूय, च मा तथा तार के दशन नह ह गे। वहाँ न तो मेघ क घटा दखायी देगी और न उनक गजना ही सुनायी पड़ेगी॥ ३५ ॥ ‘तथा प उस देशम ऐसा काश छाया होगा, मानो सूयक करण से ही वह का शत हो रहा है। वहाँ अपनी ही भासे का शत तप: स देवोपम मह ष व ाम करते ह। उ क अ भासे उस देशम उजाला छाया रहता है॥ ३६ ॥ ‘उस देशको लाँघकर आगे बढ़नेपर ‘शैलोदा’ नामवाली नदीका दशन होगा। उसके दोन तट पर क चक (वंशीक -सी न करनेवाले) बाँस ह; यह बात स है॥ ३७ ॥ ‘वे बाँस ही (साधन बनकर) स पु ष को शैलोदाके उस पार ले जाते और वहाँसे इस पार ले आते ह। जहाँ के वल पु ा ा पु ष का वास है, वह उ र कु देश शैलोदाके तटपर ही है॥ ३८ ॥ ‘उ र कु देशम नील वैदय ू म णके समान हरे-हरे कमल के प से सुशो भत सह न दयाँ बहती ह, जनके जल सुवणमय प से अलंकृत अनेकानेक पु र णय से मले ए ह॥ ३९ ॥ ‘वहाँके जलाशय लाल और सुनहरे कमल-समूह से म त होकर ात:काल उ दत ए सूयके समान शोभा पाते ह॥ ४० ॥ ‘ब मू म णय के समान प और सुवणके समान का मान् के सर वाले व च व च नील कमल के ारा वहाँका देश सब ओरसे सुशो भत होता है॥ ४१ ॥ ‘वहाँक न दय के तट गोल-गोल मो तय , ब मू म णय और सुवण से स ह। इतना ही नह , उन न दय के कनारे स ूण र से यु व च - व च पवत भी व मान ह, जो उनके जलके भीतरतक घुसे ए ह। उन पवत मसे कतने ही सुवणमय ह, जनसे अ के समान काश फै लता रहता है॥ ४२-४३ ॥ ‘वहाँके वृ म सदा ही फल-फू ल लगे रहते ह और उनपर प ी चहकते रहते ह। वे वृ द ग , द रस और द श दान करते ह तथा ा णय क सारी मनचाही व ु क वषा करते रहते ह॥ ४४ ॥



‘इनके



सवा दूसरे-दूसरे े वृ फल के पम नाना कारके व , मोती और वैदयू म णसे ज टत आभूषण देते ह, जो य तथा पु ष के भी उपयोगम आने यो होते ह॥ ४५ ॥ ‘दूसरे उ म वृ सभी ऋतु म सुखपूवक सेवन करने यो अ े -अ े फल देते ह। अ ा सु र वृ ब मू म णय के समान व च फल उ करते ह॥ ४६ ॥ ‘ कतने ही अ वृ व च बछौन से यु श ा को ही फल के पम कट करते ह, मनको य लगनेवाली सु र मालाएँ भी ुत करते ह, ब मू पेय पदाथ और भाँ तभाँ तके भोजन भी देते ह तथा प और यौवनसे का शत होनेवाली स णु वती युव तय को भी ज देते ह॥ ४७-४८ ॥ ‘वहाँ सूयके समान का मान् ग व, क र, स , नाग और व ाधर सदा ना रय के साथ डा वहार करते ह॥ ४९ ॥ ‘वहाँके सब लोग पु कमा ह, सभी अथ और कामसे स ह तथा सब लोग कामडापरायण होकर युवती य के साथ नवास करते ह॥ ५० ॥ ‘वहाँ नर र उ ृ हास-प रहासक नसे यु गीतवा का मधुर घोष सुनायी देता है, जो सम ा णय के मनको आन दान करनेवाला है॥ ५१ ॥ ‘वहाँ को◌इ भी अ स नह रहता। कसीक भी बुरे काम म ी त नह होती। वहाँ रहनेसे त दन मनोरम गुण क वृ होती है॥ ५२ ॥ ‘उस देशको लाँघकर आगे जानेपर उ र द त समु उपल होगा। उस समु के म भागम सोम ग र नामक एक ब त ऊँ चा सुवणमय पवत है॥ ५३ ॥ ‘जो लोग गलोकम गये ह, वे तथा इ लोक और लोकम रहनेवाले देवता उस ग रराज सोम ग रका दशन करते ह॥ ५४ ॥ ‘वह देश सूयसे र हत है तो भी सोम ग रक भासे सदा का शत होता रहता है। तपते ए सूयक भासे जो देश का शत होते ह, उ क भाँ त उसे सूयदेवक शोभासे स -सा जानना चा हये॥ ५५ ॥ ‘वहाँ व ा ा भगवान् व ु, एकादश के पम कट होनेवाले भगवान् शंकर तथा षय से घरे ए देवे र ाजी नवास करते ह॥ ५६ ॥



‘तुमलोग उ



र कु के मागसे सोम ग रतक जाकर उसक सीमासे आगे कसी तरह बढ़ना। तु ारी तरह दूसरे ा णय क भी वहाँ ग त नह है॥ ५७ ॥ ‘वह सोम ग र देवता के लये भी दुगम है। अत: उसका दशनमा करके तुमलोग शी लौट आना॥ ५८ ॥ ‘ े वानरो! बस, उ र दशाम इतनी ही दूरतक तुम सब वानर जा सकते हो। उसके आगे न तो सूयका काश है और न कसी देश आ दक सीमा ही। अत: आगेक भू मके स म म कु छ नह जानता॥ ५९ ॥ ‘मने जो-जो ान बताये ह, उन सबम सीताक खोज करना और जन ान का नाम नह लया है, वहाँ भी ढूँ ढ़नेका ही न त वचार रखना॥ ६० ॥ ‘अ और वायुके समान तेज ी तथा बलशाली वानरो! वदेहन नी सीताके दशनके लये तुम जो-जो काय या यास करोगे, उन सबके ारा दशरथन न भगवान् ीरामका महान् य काय स होगा तथा उसीसे मेरा भी य काय पूण हो जायगा॥ ६१ ॥ ‘वानरो! ीरामच जीका य काय करके जब तुम लौटोगे, तब म सवगुणस एवं मनोऽनुकूल पदाथ के ारा तुम सब लोग का स ार क ँ गा। त ात् तुमलोग श ुहीन होकर अपने हतै षय और ब -ु बा व स हत कृ ताथ एवं सम ा णय के आ यदाता होकर अपनी यतमा के साथ सारी पृ ीपर सान वचरण करोगे’॥ ६२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म ततालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४३॥



चौवालीसवाँ सग ीरामका हनुमा ीको अँगूठी देकर भेजना



सु ीवने हनुमा ीके सम वशेष पसे सीताके अ ेषण प योजनको उप त कया; क उ यह ढ़ व ास था क वानर े हनुमा ी इस कायको स कर सकगे॥ १ ॥ सम वानर के ामी सु ीवने अ स होकर परम परा मी वायुपु हनुमा े इस कार कहा—॥ २ ॥ क प े ! पृ ी, अ र , आकाश, देवलोक अथवा जलम भी तु ारी ग तका अवरोध म कभी नह देखता ँ ॥ ३ ॥ ‘असुर, ग व, नाग, मनु , देवता, समु तथा पवत स हत स ूण लोक का तु ान है॥ ४ ॥ ‘वीर! महाकपे! सव अबा धत ग त, वेग, तेज और फु त —ये सभी स ण ु तुमम अपने महापरा मी पता वायुके ही समान ह॥ ५ ॥ ‘इस भूम लम को◌इ भी ाणी तु ारे तेजक समानता करनेवाला नह है; अत: जस कार सीताक उपल हो सके , वह उपाय तु सोचो॥ ६ ॥ ‘हनुमन्! तुम नी तशा के प त हो। एकमा तु म बल, बु , परा म, देशकालका अनुसरण तथा नी तपूण बताव एक साथ देखे जाते ह’॥ ७ ॥ सु ीवक बात सुनकर ीरामच जीको यह ात आ क इस कायक स का स —इसे पूण करनेका सारा भार हनुमा र ही है। उ ने यं भी यह अनुभव कया क हनुमान् इस कायको सफल करनेम समथ ह। फर वे इस कार मन-ही-मन वचार करने लगे—॥ ८ ॥ ‘वानरराज सु ीव सवथा हनुमा र ही यह भरोसा कये बैठे ह क ये ही न त पसे हमारे इस योजनको स कर सकते ह। यं हनुमान् भी अ न त पसे इस कायको स करनेका व ास रखते ह॥ ९ ॥ ‘इस कार काय ारा जनक परी ा कर ली गयी है तथा जो सबसे े समझे गये ह, वे हनुमान् अपने ामी सु ीवके ारा सीताक खोजके लये भेजे जा रहे ह। इनके ारा इस कायके फलका उदय (सीताका दशन) होना न त है’॥ १० ॥



ऐसा वचारकर महातेज ी ीरामच जी कायसाधनके उ ोगम सव े हनुमा ीक ओर पात करके अपनेको कृ ताथ-सा मानते ए स हो गये। उनक सारी इ याँ और मन हषसे खल उठे ॥ तदन र श ु को संताप देनेवाले ीरामने स तापूवक अपने नामके अ र से सुशो भत एक अँगूठी हनुमा ीके हाथम दी, जो राजकु मारी सीताको पहचानके पम अपण करनेके लये थी॥ १२ ॥ अँगूठी देकर वे बोले—‘क प े ! इस च के ारा जनक कशोरी सीताको यह व ास हो जायगा क तुम मेरे पाससे ही गये हो। इससे वह भय ागकर तु ारी ओर देख सके गी॥ १३ ॥ ‘वीरवर!



तु ारा उ ोग, धैय, परा म और सु ीवका संदेश—ये सब मुझे इस बातक सूचना-सी दे रहे ह क तु ारे ारा कायक स अव होगी’॥ १४ ॥ वानर े हनुमा े वह अँगूठी लेकर उसे म कपर रखा और फर हाथ जोड़कर ीरामके चरण म णाम करके वे वानर शरोम ण वहाँसे त ए॥ १५ ॥ उस समय वीर-वानर पवनकु मार हनुमान् अपने साथ वानर क उस वशाल सेनाको ले जाते ए उसी तरह शोभा पाने लगे, जैसे मेघर हत आकाशम वशु ( नमल) म लसे उपल त च मा न -समूह के साथ सुशो भत होता है॥ १६ ॥ जाते ए हनुमा ो स ो धत करके ीरामच जीने फर कहा—‘अ बलशाली क प े ! मने तु ारे बलका आ य लया है। पवनकु मार हनुमान्! जस कार भी जनकन नी सीता ा हो सके , तुम अपने महान् बल- व मसे वैसा ही य करो। अ ा, अब जाओ’॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म चौवालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४४॥



पतालीसवाँ सग वभ



दशा



म जाते ए वानर का सु ीवके सम



अपने उ ाहसूचक वचन सुनाना



तदन र वानर शरोम ण राजा सु ीव अ सम वानर को बुलाकर ीरामच जीके कायक स के लये उन सबसे बोले—॥ १ ॥ ‘क पवरो! जैसा मने बताया है, उसके अनुसार तुम सभी े वानर को इस जग सीताक खोज करनी चा हये।’ ामीक उस कठोर आ ाको भलीभाँ त समझकर वे स ूण े वानर ट य के दलक भाँ त पृ ीको आ ा दत करके वहाँसे त ए॥ २ १/२ ॥ ीरामच जी ल णके साथ उस वण ग रपर ही ठहरे रहे और सीताका समाचार लानेके लये जो एक मासक अव ध न त क गयी थी, उसक ती ा करने लगे॥ ३ १/२ ॥ उस समय वीर वानर शतब लने ग रराज हमालयसे घरी ◌इ रमणीय उ र दशाक ओर शी तापूवक ान कया॥ ४ १/२ ॥ वानर-यूथप त वनत पूव दशाक ओर गये। क पगण के अ धप त पवनकु मार वानर हनुमा ी तार और अ द आ दके साथ अग से वत द ण दशाक ओर त ए तथा वानरे र क प े सुषेणने व ण ारा सुर त घोर प म दशाक या ा क ॥ ५—७ ॥ वानर-सेनाके ामी वीर राजा सु ीव स ूण दशा म यथायो वानर को भेजकर ब त सुखी ए और मन-ही-मन हषका अनुभव करने लगे॥ ८ ॥ इस तरह राजाक आ ा पाकर सम वानरयूथ प त बड़ी उतावलीके साथ अपनी-अपनी दशाक ओर त ए॥ ९ ॥ वे सम महाबली वानर और उनके यूथप त अपने राजाके ारा इस कार े रत हो भाँ त-भाँ तके श करते, उ रसे गजते, दहाड़ते, कलका रयाँ मारते, दौड़ते और कोलाहल करते ए कहने लगे— ‘राजन्! हम सीताको साथ लायगे और रावणका वध कर डालगे। यु म य द रावण मेरे सामने आ जाय तो म अके ला ही उसे मार गराऊँ गा। त ात् उसक सारी सेनाको मथकर क एवं भयसे काँपती ◌इ जानक जीको सहसा यहाँ उठा लाऊँ गा। आपलोग यह ठहर। म अके ला ही पातालसे भी जनक कशोरीको नकाल लाऊँ गा, वृ को उखाड़ फे कूँ गा, पवत के टुकड़े-टुकड़े कर डालूँगा, पृ ीको वदीण कर दूँगा और समु को भी



व ु कर डालूँगा। म सौ योजनतक कू द सकता ँ , इसम संशय नह है। म सौ योजनसे भी अ धक दूरतक जा सकता ँ । पृ ी, समु , पवत, वन और पातालम भी मेरी ग त नह कती’॥ १०—१६ ॥ इस तरह वहाँ वानरराज सु ीवके समीप बलके घमंडम भरे ए वानर उस समय एक-एक करके आते और उनके सामने उपयु बात कहते थे॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म पतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४५॥



छयालीसवाँ सग सु ीवका ीरामच जीको अपने भूम



ल- मणका वृ ा



बताना



उन सम वानरयूथप तय के चले जानेपर ीरामच जीने सु ीवसे पूछा—‘सखे! तुम सम भूम लके ान का प रचय कै से जानते हो?’॥ १ ॥ तब सु ीवने वनीत होकर ीरामच जीसे कहा—‘भगवन्! म सब कु छ व ारके साथ बता रहा ँ । मेरी बात सु नये॥ २ ॥ ‘जब वाली म हष पधारी दानव दु ु भ* (उसके पु मायावी) का पीछा कर रहे थे, उस समय वह म हष मलयपवतक ओर भागा और उस पवतक क राम घुस गया। यह देख वालीने उसके वधक इ ासे उस गुफाके भीतर भी वेश कया॥ ३-४ ॥ ‘उस समय म वनीतभावसे उस गुफाके ारपर खड़ा रहा; क वालीने मुझे वह रख छोड़ा था। परंतु एक वष तीत हो जानेपर भी वाली उसके भीतरसे नह नकले॥ ५ ॥ ‘तदन र वेगपूवक बहे ए र क धारासे उस समय वह सारी गुफा भर गयी। यह देखकर मुझे बड़ा व य आ तथा म भा◌इके शोकसे थत हो उठा॥ ६ ॥ ‘ फर मेरी बु म यह बात आयी क अब मेरे बड़े भा◌इ न य ही मारे गये। यह वचार पैदा होते ही मने उस गुफाके ारपर एक पहाड़-जैसी च ान रख दी॥ ७ ॥ ‘सोचा—इस शलासे ार बंद हो जानेपर मायावी नकल नह सके गा, भीतर ही घुटघुटकर मर जायगा। इसके बाद भा◌इके जीवनसे नराश होकर म क ापुरीम लौट आया॥ ८ ॥ ‘यहाँ वशाल रा तथा मास हत ताराको पाकर म के साथ म न तापूवक रहने लगा॥ ९ ॥ ‘त ात् वानर े वाली उस दानवका वध करके आ प ँ चे। उनके आते ही मने भा◌इके गौरवसे भयभीत हो वह रा उ वापस कर दया॥ १० ॥ ‘परंतु दु ा ा वाली मुझे मार डालना चाहता था, उसक सारी इ याँ यह सोचकर थत हो उठी थ क ‘यह मुझे मारनेके लये ही गुफाका ार बंद करके भाग आया था।’ म अपनी ाण-र ाके लये म य के साथ भागा और वाली मेरा पीछा करने लगा॥ ११ ॥



‘वाली न दय , वन



मेरे पीछे लगा रहा और म जोर-जोरको भागता गया। उसी समय मने व भ और नगर को देखते ए सारी पृ ीको गायक खुरीक भाँ त मानकर उसक प र मा कर डाली। भागते समय मुझे यह पृ ी दपण और अलातच के समान दखायी दी॥ १२-१३ ॥ ‘तदन र पूव दशाम जाकर मने नाना कारके वृ , क रा स हत रमणीय पवत और भाँ तभाँ तके सरोवर देखे॥ १४ ॥ ‘वह नाना कारके धातु से म त उदयाचल तथा अ रा के न - नवास ान ीरोद सागरका भी मने दशन कया॥ १५ ॥ ‘उस समय वाली पीछा करते रहे और म भागता रहा। भो! जब म यहाँ फर लौटकर आया, तब वालीके डरसे पुन: सहसा मुझे भागना पड़ा॥ १६ ॥ ‘उस दशाको छोड़कर म फर द ण दशाक ओर त आ, जहाँ व पवत और नाना कारके वृ भरे ए ह तथा च नके वृ जसक शोभा बढ़ाते ह॥ १७ ॥ ‘वृ और पवत क ओटम बारंबार वालीको देखकर मने द ण दशाको छोड़ दया तथा वालीके खदेड़नेपर प म दशाक शरण ली॥ १८ ॥ ‘वहाँ नाना कारके देश को देखता आ म ग र े अ ाचलतक जा प ँ चा। वहाँ प ँ चकर म पुन: उ र दशाक ओर भागा॥ १९ ॥ ‘ हमालय, मे और उ र समु तक प ँ चकर भी जब वालीके पीछा करनेके कारण मुझे कह शरण नह मली, तब परम बु मान् हनुमा ीने मुझसे यह बात कही—॥ २०१/२ ॥ ‘‘राजन्! इस समय मुझे उस घटनाका रण हो आया है, जैसा क मत मु नने उन दन वानरराज वालीको शाप दया था क ‘य द वाली इस आ म-म लम वेश करेगा तो उसके म कके सैकड़ टुकड़े हो जायँगे’॥ २१-२२ ॥ ‘‘अत: वह नवास करना हमलोग के लये सुखद और नभय होगा’। राजकु मार! इस न यके अनुसार हमलोग ऋ मूक पवतपर आकर रहने लगे। उस समय मत ऋ षके भयसे वालीने वहाँ वेश नह कया॥ २३ ॥ ‘राजन्! इस कार मने उन दन सम भूम लको देखा था। उसके बाद ऋ मूकक गुफाम आया था’॥ २४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क सग पूरा आ॥ ४६॥



ाका म छयालीसवाँ



यहाँ दु ु भ और म हष श से उसके पु मायावी नामक दानवका ही वणन आ है—ऐसा मानना चा हये; क आगे कही जानेवाली सारी बात उसीके वृ ा से स रखती ह। पता भसेका प धारण करता था, यही गुण उसके पु मायावीम भी था। इस लये उसको भी म हष या म हषाकृ त कहना अस त नह है। *



सतालीसवाँ सग पूव आ द तीन दशा



म गये ए वानर का नराश होकर लौट आना



वानरराजके ारा सम दशा क ओर जानेक आ ा पाकर वे सभी े वानर, जनके लये जस ओर जानेका आदेश मला था उसी ओर वदेहकु मारी सीताका पता लगानेके लये उ ाहपूवक चल दये॥ १ ॥ वे सरोवर , स रता , लताम प , खुले ान और नगर म तथा न दय के कारण दुगम देश म सब ओर घूम- फरकर सीताक खोज करने लगे॥ २ ॥ सु ीवने ज आ ा दी थी, वे सभी वानरयूथप त अपनी-अपनी दशा के पवत, वन और कानन स हत स ूण देश क छानबीन करने लगे॥ ३ ॥ सीताजीका पता लगानेक न त इ ा मनम लये वे सब वानर दनभर इधर-उधर अ ेषण करते और रातके समय कसी नयत ानपर एक हो जाते थे॥ ४ ॥ सारे दन भ - भ देश म घूम- फरकर वे वानर सभी ऋतु म फल देनेवाले वृ के पास जाकर रातको वह सोया अथवा व ाम कया करते थे॥ ५ ॥ जानेके दनको पहला दन मानकर एक मास पूण होनेतक वे े वानर नराश हो लौट आये और क पराज सु ीवसे मलकर वण ग रपर ठहर गये॥ ६ ॥ महाबली वनत अपने म य के साथ पहले बताये अनुसार पूव दशाम खोज करके वहाँ सीताको न पाकर क ा लौट आये॥ ७ ॥ महाक प शतब ल सारी उ र दशाक छानबीन करके भयभीत हो त ाल सेनास हत क ा आ गये॥ ८ ॥ वानर स हत सुषेण भी प म दशाका अनुसंधान करके वहाँ सीताको न पाकर एक मास पूण होनेपर सु ीवके पास चले आये॥ ९ ॥ वण ग रपर ीरामच जीके साथ बैठे ए सु ीवके पास आकर सब वानर ने उ णाम कया और इस कार कहा—॥ १० ॥ ‘राजन्! हमने सम पवत, घने जंगल, समु पय न दयाँ, स ूण देश, आपक बतायी ◌इ सारी गुफाएँ तथा लता वतानसे ा ◌इ झा ड़याँ भी खोज डाल ॥



‘घने



वन , व भ देश , दुगम ान और ऊँ ची-ऊँ ची भू मय म भी ढूँ ढ़ा है। बड़े-बड़े ा णय क भी तलाशी ली और उ मार डाला। जो-जो देश घने और दुगम जान पड़े, वहाँ बारंबार खोज क ( कतु कह भी सीताजीका पता न लगा)॥ १३ ॥ ‘वानरराज! वायुपु हनुमान् परम श मान् और कु लीन ह। वे ही म थलेशकु मारीका पता लगा सकगे; क वे उसी दशाम गये ह, जधर सीता गयी ह’॥ १४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म सतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४७॥



अड़तालीसवाँ सग द



ण दशाम गये ए वानर का सीताक खोज आर



करना



उधर तार और अ दके साथ हनुमा ी सहसा सु ीवके बताये ए द ण दशाके देश क ओर चले॥ उन सभी े वानर के साथ ब त दूरका रा ा तै करके वे व ाचलपर गये और वहाँक गुफा , जंगल , पवत शखर , न दय , दुगम ान , सरोवर , बड़े-बड़े वृ , झा ड़य और भाँ त-भाँ तके पवत एवं व वृ म सब ओर ढूँ ढ़ते फरे; परंतु वहाँ उन सम वीर वानर ने म थलेशकु मारी जनकन नी सीताको कह नह देखा॥ २—४ ॥ वे सभी दुधष वीर नाना कारके फल-मूलका भोजन करते ए सीताको खोजते और जहाँ-तहाँ ठहर जाया करते थे॥ ५ ॥ व पवतके आस-पासका महान् देश ब त-सी गुफा तथा घने जंगल से भरा था। इससे वहाँ जानक को ढूँ ढ़नेम बड़ी क ठना◌इ होती थी। भयंकर दखायी देनेवाले वहाँके सुनसान जंगलम न तो पानी मलता था और न को◌इ मनु ही दखायी देता था॥ ६ ॥ वैसे जंगल म भी खोज करते समय उन वानर को अ क सहन करना पड़ा। वह वशाल देश अनेक गुहा और सघन वन से ा था। अत: वहाँ अ ेषणका काय ब त क ठन तीत होता था॥ ७ ॥ तदन र वे सम वानर-यूथप त उस देशको छोड़कर दूसरे देशम घुसे, जहाँ जाना और भी क ठन था तो भी उ कह कसीसे भय नह होता था॥ ८ ॥ वहाँके वृ कभी फल नह देते थे। उनम फू ल भी नह लगते थे और उनक डा लय म प े भी नह थे। वहाँक न दय म पानीका नाम नह था। क -मूल आ द तो वहाँ सवथा दुलभ थे॥ ९॥ उस देशम न भसे थे न हरन और हाथी, न बाघ थे न प ी तथा वनम वचरनेवाले अ ा णय का भी वहाँ अभाव था॥ १० ॥ वहाँ न पेड़ थे न पौधे, न ओष धयाँ थ न लता-बेल। उस देशक पोख रय म चकने प और खले ए फू ल से यु कमल भी नह थे। इसी लये न तो वे देखने यो थ , न उनम



सुग छा रही थी और न वहाँ भ रे ही गुंजार करते थे॥ १११/२ ॥ पहले वहाँ क ु नामसे स एक महाभाग स वादी और तप ाके धनी मह ष रहते थे, जो बड़े अमषशील थे—अपने त कये गये अपराधको सहन नह करते थे। शौच-संतोष आ द नयम का पालन करनेके कारण उन मह षको को◌इ तर ृ त या परा जत नह कर सकता था॥ १२१/२ ॥ उस वनम उनका एक बालक पु , जसक अव ा दस वषक थी, कसी कारणसे मर गया। इससे कु पत होकर वे महामु न उस वनके जीवनका अ करनेके लये उ त हो गये॥ १३१/२ ॥ उन धमा ा मह षने उस समूचे वशाल वनको वहाँ शाप दे दया, जससे वह आ यहीन, दुगम तथा पशु-प य से शू हो गया॥ १४१/२ ॥ वहाँ सु ीवका य करनेवाले उन महामन ी वानर ने उस वनके सभी देश , पवत क क रा तथा न दय के उ म ान म एका च होकर अनुसंधान कया; परंतु वहाँ भी उ जनकन नी सीता अथवा उनका अपहरण करनेवाले रावणका कु छ पता नह चला॥ त ात् लता और झा ड़य से ा ए दूसरे कसी भयंकर वनम वेश करके उन हनुमान् आ द वानर ने भयानक कम करनेवाले एक असुरको देखा, जसे देवता से को◌इ भय नह था॥ १७१/२ ॥ उस घोर नशाचरको पहाड़के समान सामने खड़ा देख सभी वानर ने अपने ढीले-ढाले व को अ ी तरह कस लया और सब-के -सब उस पवताकार असुरसे भड़नेको तैयार हो गये॥ १८१/२ ॥ उधर वह बलवान् असुर भी उन सब वानर को देखकर बोला—‘अरे, आज तुम सभी मारे गये।’ इतना कहकर वह अ कु पत हो बँधा आ मु ा तानकर उनक ओर दौड़ा॥ १९१/२ ॥



उसे सहसा आ मण करते देख वा लपु अ दने समझा क यही रावण है; अत: उ ने आगे बढ़कर उसे एक तमाचा जड़ दया॥ २०१/२ ॥ वा लपु के मारनेपर वह असुर मुँहसे र वमन करता आ फटकर गरे ए पहाड़क भाँ त पृ ीपर जा पड़ा और उसके ाणपखे उड़ गये। त ात् वजयो ाससे सुशो भत होनेवाले



वानर ाय: वहाँक सारी पवतीय गुफा म अनुसंधान करने लगे॥ २१-२२१/२ ॥ जब वहाँके सारे देशम खोज कर ली गयी, तब उन सम वनवासी वानर ने कसी दूसरी पवतीय क राम वेश कया, जो पहलेक अपे ा भी भयानक थी॥ २३१/२ ॥ उसम भी ढूँ ढ़ते-ढूँ ढ़ते वे थक गये और नराश होकर नकल आये। फर सब-के -सब एका ानम एक वृ के नीचे ख च होकर बैठ गये॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म अड़तालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४८ ॥



उनचासवाँ सग अ द और ग मादनके आ ासन देनेपर वानर का पुन: उ ाहपूवक अ ेषण-कायम वृ होना



तदन र प र मसे थके ए महाबु मान् अ द स ूण वानर को आ ासन देकर धीरेधीरे इस कार कहने लगे—॥ १ ॥ ‘हमलोग ने वन, पवत, न दयाँ, दुगम ान, घने जंगल, क रा और गुफाएँ भीतर वेश करके अ ी तरह देख डाल ; परंतु उन ान म हम न तो जानक के दशन ए और न उनका अपहरण करनेवाला वह पापी रा स ही मला॥ २-३ ॥ ‘हमारा समय भी ब त बीत गया। राजा सु ीवका शासन बड़ा भयंकर है। अत: आपलोग मलकर पुन: सब ओर सीताक खोज आर कर॥ ४ ॥ ‘आल , शोक और आयी ◌इ न ाका प र ाग करके इस कार ढूँ ढ़, जससे हम जनककु मारी सीताका दशन हो सके ॥ ५ ॥ ‘उ ाह, साम और मनम ह त न हारना— ये कायक स करानेवाले स ण ु कहे गये ह; इसी लये म आपलोग से यह बात कह रहा ँ ॥ ६ ॥ ‘आज भी सारे वानर खेद छोड़कर इस दुगम वनम खोज आर कर और सारे वनको ही छान डाल॥ ७ ॥ ‘कमम लगे रहनेवाले लोग को उस कमका फल अव होता दखायी देता है; अत: अ ख होकर उ ोगको छोड़ बैठना कदा प उ चत नह है॥ ‘सु ीव ोधी राजा ह। उनका द भी बड़ा कठोर होता है। वानरो! उनसे तथा महा ा ीरामसे आपलोग को सदा डरते रहना चा हये॥ ९ ॥ ‘आपलोग क भला◌इके लये ही मने ये बात कही ह। य द अ ी लग तो आप इ ीकार कर। अथवा वानरो! जो सबके लये उ चत हो, वह काय आप ही लोग बताव’॥ १० ॥ अ दक यह बात सुनकर ग मादनने ास और थकावटसे श थल ◌इ वाणीम कहा—॥ ११ ॥



‘वानरो! युवराज अ दने जो बात कही है, वह आपलोग के है; अत: सब लोग इनके कथनानुसार काय कर॥ १२ ॥ ‘हमलोग कर॥ १३ ॥ ‘महा



पुन: पवत , क रा



,



शला



,



यो



,



हतकर और अनुकूल



नजन वन और पवतीय झरन क खोज



ा सु ीवने जन ान क चचा क थी, उन सबम वन और पवतीय दुगम देश म सब वानर एक साथ होकर खोज आर कर’॥ १४ ॥ यह सुनकर वे महाबली वानर उठकर खड़े हो गये और व पवतके कानन से ा द ण दशाम वचरने लगे॥ १५ ॥ सामने शरद-् ऋतुके बादल के समान शोभाशाली रजत पवत दखायी दया, जसम अनेक शखर और क राएँ थ । वे सब वानर उसपर चढ़कर खोजने लगे॥ १६ ॥ सीताके दशनक इ ा रखनेवाले वे सभी े वानर वहाँके रमणीय लो वनम और स पण ( छतवन) के जंगल म उनक खोज करने लगे॥ १७ ॥ उस पवतके शखरपर चढ़े ए वे महापरा मी वानर ढूँ ढ़ते-ढूँ ढ़ते थक गये, परंतु ीरामच जीक ारी रानी सीताका दशन न पा सके ॥ १८ ॥ अनेक क रा वाले उस पवतका अ ी तरह नरी ण करके सब ओर पात करनेवाले वे वानर उससे नीचे उतर गये॥ १९ ॥ पृ ीपर उतरकर अ धक थक जानेके कारण अचेत ए वे सभी वानर वहाँ एक वृ के नीचे गये और दो घड़ीतक वहाँ बैठे रहे॥ २० ॥ एक मु ततक सु ा लेनेपर जब उनक थकावट कु छ कम हो गयी तब वे पुन: स ूण द ण दशाम खोजके लये उ त हो गये॥ २१ ॥ हनुमान् आ द सभी े वानर सीताके अ ेषणके लये त हो पहले व पवतके ही चार ओर वचरने लगे॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म उनचासवाँ सग पूरा आ॥ ४९ ॥



पचासवाँ सग भूख-े ासे वानर का एक गुफाम घुसकर वहाँ द वृ , द सरोवर, द भवन तथा एक वृ ा तप नीको देखना और हनुमा ीका उससे उसका प रचय पूछना



हनुमा ी तार और अ दके साथ मलकर व ग रक गुफा और घने जंगल म सीताजीको ढूँ ढ़ने लगे॥ १ ॥ उ ने सह और बाघ से भरी ◌इ क रा तथा उसके आस-पासक भू मको भी छान डाला। ग रराज व पर जो बड़े-बड़े झरने और दुगम ान थे, वहाँ भी अ ेषण कया॥ २ ॥ घूमते- फरते वे तीन वानर उस पवतके नैऋ -कोणवाले शखरपर जा प ँ चे। वह रहते ए उनका वह समय, जो सु ीवने न त कया था, बीत गया॥ ३ ॥ गुफा और जंगल से भरे ए उस महान् देशम सीताको ढूँ ढ़नेका काम ब त ही क ठन था तो भी वहाँ वायुपु हनुमा ी सारे पवतक छानबीन करने लगे॥ ४ ॥ फर अलग-अलग एक-दूसरेसे थोड़ी ही दूरपर रहकर गज, गवा , गवय, शरभ, ग मादन, मै , वद, हनुमान्, जा वान्, युवराज अ द तथा वनवासी वानर तार—ये द ण दशाके देश म जो पवतमाला से घरे ए थे, सीताक खोज करने लगे। खोजतेखोजते उ वहाँ एक गुफा दखायी दी, जसका ार बंद नह था॥ ५—७ ॥ उसम वेश करना ब त क ठन था। वह गुफा ऋ बल नामसे व ात थी और एक दानव उसक र ाम रहता था। वानर को भूख- ास सता रही थी। वे ब त थक गये थे और पानी पीना चाहते थे॥ ८ ॥ अत: लता और वृ से आ ा दत वशाल गुफाक ओर वे देखने लगे। इतनेम उसके भीतरसे ौ , हंस, सारस तथा जलसे भीगे ए च वाक प ी, जनके अ कमल के परागसे र वणके हो रहे थे, बाहर नकले॥ ९१/२ ॥ तब उस सुग त एवं दुलङ् गुफाके पास जाकर उन सभी े वानर का मन आ यसे च कत हो उठा। उस बलके अंदर उ जल होनेका संदेह आ॥ १०-११ ॥ वे महाबली और तेज ी वानर बड़े हषम भरकर उस गुफाके पास आये, जो नाना कारके ज ु से भरी ◌इ तथा दै राज के नवास ान पातालके समान भयंकर तीत होती थी।



वह इतनी भयानक थी क उसक ओर देखना क ठन जान पड़ता था। उसके भीतर घुसना सवथा क सा था॥ १२१/२ ॥ उस समय पवत- शखरके समान तीत होनेवाले पवनपु हनुमा ी, जो दुगम वनके ाता थे, उन घोर वानर से बोले—॥ १३१/२ ॥ ‘ब ुओ! द ण दशाके देश ाय: पवतमाला से घरे ए ह। इनम म थलेशकु मारी सीताको खोजते-खोजते हम सब लोग ब त थक गये; कतु कह भी हम उनके दशन नह ए॥ १४१/२ ॥ ‘सामनेक इस गुफासे हंस, ौ , सारस और जलसे भीगे ए चकवे सब ओर नकल रहे ह। अत: न य ही इसम पानीका कु आँ अथवा और को◌इ जलाशय होना चा हये। तभी इस गुफाके ारवत वृ हरेभरे ह’॥ १५-१६१/२ ॥ हनुमा ीके ऐसा कहनेपर वे सभी वानर अ कारसे भरी ◌इ गुफाम, जहाँ च मा और सूयक करण भी नह प ँ च पाती थ , घुस गये। भीतर जाकर उ ने देखा, वह गुफा र गटे खड़े कर देनेवाली थी॥ १७१/२ ॥ उस बलसे नकलते ए उन-उन सह , मृग और प य को देखकर वे े वानर अ कारसे आ ा दत ◌इ उस गुफाम वेश करने लगे॥ १८१/२ ॥ उनक कह अटकती नह थी। उनका तेज और परा म भी अव नह होता था। उनक ग त वायुके समान थी। अ कारम भी उनक काम कर रही थी॥ १९१/२ ॥ वे े वानर उस बलम वेगपूवक घुस गये। भीतर जाकर उ ने देखा, वह ान ब त ही उ म, काशमान और मनोहर था॥ २०१/२ ॥ नाना कारके वृ से भरी ◌इ उस भयंकर गुफाम वे एक योजनतक एक-दूसरेको पकड़े ए गये॥ २११/२ ॥ ासके मारे उनक चेतना लु -सी हो रही थी। वे जल पीनेके लये उ ुक होकर घबरा गये थे और कु छ कालतक आल र हत हो उस बलम लगातार आगे बढ़ते गये॥ २२१/२ ॥



वे वानरवीर जब दुबल, ख वदन और ा होकर जीवनसे नराश हो गये, तब उ वहाँ काश दखायी दया॥ २३१/२ ॥ तदन र उस अ कारसे काशपूण देशम आकर उन सौ वानर ने वहाँ अ कारर हत वन देखा, जहाँके सभी वृ सुवणमय थे और उनसे अ के समान भा नकल रही थी॥ २४१/२ ॥



साल, ताल, तमाल, नागके सर, अशोक, धव, च ा, नागवृ और कनेर—ये सभी वृ फू ल से भरे ए थे॥ व च सुवणमय गु े और लाल-लाल प व मानो उन वृ के मुकुट थे। उनम लताएँ लपटी ◌इ थ तथा वे अपने फल प सुवणमय आभूषण से वभू षत थे॥ २६१/२ ॥ वे देखनेम ात:का लक सूयके समान जान पड़ते थे। उनके नीचे वैदयू म णक वेदी बनी थी। वे सुवणमय वृ अपने दी मान् पसे ही का शत हो रहे थे॥ २७१/२ ॥ वहाँ नील वैदयू म णक -सी का वाली प लताएँ दखायी देती थ , जो प य से आवृत थ । क◌इ ऐसे सरोवर भी देखनेम आये, जो बाल सूयक -सी आभावाले वशाल का नवृ से घरे ए थे। उनके भीतर सुनहरे रंगके बड़े-बड़े म शोभा पाते थे। वे सरोवर सुवणमय कमल से सुशो भत तथा जलसे भरे ए थे॥ २८-२९१/२ ॥ वानर ने वहाँ सब ओर सोने-चाँदीके बने ए ब त-से े भवन देखे, जनक खड़ कयाँ मोतीक जा लय से ढक थ । उन भवन म सोनेके जँगले लगे ए थे। सोने-चाँदीके ही वमान भी थे। को◌इ घर सोनेके बने थे तो को◌इ चाँदीके । कतने ही गृह पा थव व ु (◌इं ट, प र, लकड़ी आ द-) से न मत ए थे। उनम वैदयू म णयाँ भी जड़ी गयी थ ॥ ३०-३११/२ ॥ वहाँके वृ म फू ल और फल लगे थे। वे वृ मूँगे और म णय के समान चमक ले थे। उनपर सुनहरे रंगके भ रे मड़रा रहे थे। वहाँके घर म सब ओर मधु सं चत थे। म ण और सुवणसे ज टत व च पलंग तथा आसन सब ओर सजाकर रखे गये थे, जो अनेक कारके और वशाल थे। वानर ने उ भी देखा। वहाँ ढेर-के -ढेर सोने, चाँदी और कांस-(फू ल-) के पा रखे गये थे। अगु तथा द च नक रा शयाँ सुर त थ । प व भोजनके सामान तथा फल-मूल भी व मान थे। ब मू सवा रयाँ, सरस मधु, महामू वान् द व के ढेर, व च क ल एवं



कालीन क रा शयाँ तथा मृगचम के समूह जहाँ-तहाँ रखे ए थे। वे सब अ के समान भासे उ ी हो रहे थे। वानर ने वहाँ चमक ले सुवणके ढेर भी देखे॥ ३२—३७१/२ ॥ उस गुफाम जहाँ-तहाँ खोज करते ए उन महातेज ी शूरवीर वानर ने थोड़ी ही दूरपर कसी ीको भी देखा, जो व ल और काला मृगचम पहनकर नय मत आहार करती तप ाम संल थी और अपने तेजसे दप रही थी। वानर ने वहाँ उसे बड़े ानसे देखा और आ यच कत होकर सब ओर खड़े रहे। उस समय हनुमा ीने उससे पूछा—‘दे व! तुम कौन हो और यह कसक गुफा है?’॥ ३८—४० ॥ पवतके समान वशालकाय हनुमा ीने हाथ जोड़कर उस वृ ा तप नीको णाम कया और पूछा—‘दे व! तुम कौन हो? यह गुफा, ये भवन तथा ये र कसके ह? यह हम बताओ’॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म पचासवाँ सग पूरा आ॥ ५० ॥







ावनवाँ सग



हनुमा ीके पूछनेपर वृ ा तापसीका अपना तथा उस द वानर को भोजनके लये कहना



ानका प रचय देकर सब



इस तरह पूछकर हनुमा ी चीर एवं कृ मृगचम धारण करनेवाली उस धमपरायणा महाभागा तप नीसे वहाँ फर बोले—॥ १ ॥ ‘दे व! हम सब लोग भूख- ास और थकावटसे क पा रहे थे। इस लये सहसा इस अ कारपूण गुफाम घुस आये। भूतलका यह ववर ब त बड़ा है। हम ाससे पी ड़त होनेके कारण यहाँ आये ह, कतु यहाँके इन ऐसे अ तु व वध पदाथ को देखकर हमारे मनम बड़ी था ◌इ है—हम यह सोचकर च त हो उठे ह क यह असुर क माया तो नह है, इसी लये हमारे मनम घबराहट हो रही है। हमारी ववेकश लु -सी हो गयी है। हम जानना चाहते ह क ये बालसूयके समान का मान् सुवणमय वृ कसके ह?॥ २—४ ॥ ‘ये भोजनक प व व ुएँ, फल-मूल, सोनेके वमान, चाँदीके घर, म णय क जालीसे ढक ◌इ सोनेक खड़ कयाँ तथा प व सुग से यु एवं फल-फू ल से लदे ए ये सुवणमय पावन वृ कसके तेजसे कट ए ह?॥ ‘यहाँके नमल जलम सोनेके कमल कै से उ ए? इन सरोवर के म और कछु ए सुवणमय कै से दखायी देते ह? यह सब तु ारे अपने भावसे आ है या और कसीके ? यह कसके तपोबलका भाव है? हम सब अनजान ह; इस लये पूछते ह। तुम हम सारी बात बतानेक कृ पा करो’॥ ७-८१/२ ॥ हनुमा ीके इस कार पूछनेपर सम ा णय के हतम त र रहनेवाली उस धमपरायणा तापसीने उ र दया—॥ ९१/२ ॥ ‘वानर े ! माया वशारद महातेज ी मयका नाम तुमने सुना होगा। उसीने अपनी मायाके भावसे इस समूचे णमय वनका नमाण कया था॥ १०१/२ ॥ ‘मयासुर पहले दानव- शरोम णय का व कमा था, जसने इस द सुवणमय उ म भवनको बनाया है॥ १९१/२ ॥



‘उसने



एक सह वष तक वनमे घोर तप ा करके ाजीसे वरदानके पम शु ाचायका सारा श -वैभव ा कया था॥ १२१/२ ॥ ‘स ूण कामना के ामी बलवान् मयासुरने यहाँक सारी व ु का नमाण करके इस महान् वनम कु छ कालतक सुखपूवक नवास कया था॥ १३१/२ ॥ ‘आगे चलकर उस दानवराजका हेमा नामक अ राके साथ स क हो गया। यह जानकर देवे र इ ने हाथम व ले उसके साथ यु करके उसे मार भगाया॥ १४१/२ ॥ ‘त ात् ाजीने यह उ म वन, यहाँका अ य काम-भोग तथा यह सोनेका भवन हेमाको दे दया॥ ‘म मे साव णक क ा ँ । मेरा नाम यं भा है। वानर े ! म उस हेमाके इस भवनक र ा करती ँ ॥ ‘नृ और गीतक कलाम चतुर हेमा मेरी ारी सखी है। उसने मुझसे अपने भवनक र ाके लये ाथना क थी, इस लये म इस वशाल भवनका संर ण करती ँ ॥ १७१/२ ॥ ‘तुमलोग का यहाँ ा काम है? कस उ े से तुम इन दुगम ान म वचरते हो? इस वनम आना तो ब त क ठन है। तुमने कै से इसे देख लया?॥ १८१/२ ॥ ‘अ ा, ये शु भोजन और फल-मूल ुत ह। इ खाकर पानी पी लो। फर मुझसे अपना सारा वृ ा कहो’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म इ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५१ ॥



बावनवाँ सग तापसी



यं भाके पूछनेपर वानर का उसे अपना वृ ा बताना और उसके भावसे गुफाके बाहर नकलकर समु तटपर प ँ चना



त ात् जब सब वानर-यूथप त खा-पीकर व ाम कर चुके, तब धमका आचरण करनेवाली वह एका दया तप नी उन सबसे इस कार बोली—॥ ‘वानरो! य द फल खानेसे तु ारी थकावट दूर हो गयी हो और य द तु ारा वृ ा मेरे सुनने यो हो तो म उसे सुनना चाहती ँ ’॥ २ ॥ उसक यह बात सुनकर पवनकु मार हनुमा ी बड़ी सरलताके साथ यथाथ बात कहने लगे —॥ ३ ॥ ‘दे व! स ूण जग े राजा दशरथन न ीमान् भगवान् राम, जो देवराज इ और व णके समान तेज ी ह, द कार म पधारे थे॥ ४ ॥ ‘उनके साथ उनके छोटे भा◌इ ल ण तथा उनक धमप ी वदेहन नी सीता भी थ । जन ानम आकर रावणने उनक ीका बलपूवक अपहरण कर लया॥ ५ ॥ ‘ े वानर के राजा वानरजातीय वीरवर सु ीव महाराज ीरामच जीके म ह, ज ने इन अ द आ द धान वीर के साथ हमलोग को सीताक खोज करनेके लये अग से वत और यमराज ारा सुर त द ण दशाम भेजा है॥ ६-७ ॥ ‘उ ने आ ा दी थी क तुम सब लोग एक साथ रहकर वदेहकु मारी सीतास हत उस इ ानुसार प धारण करनेवाले रा सराज रावणका पता लगाना॥ ८ ॥ ‘हमने यहाँका सारा जंगल छान डाला। अब द ण दशाम समु के भीतर उनका अ ेषण करना है। अबतक सीताका कु छ पता नह लगा और हमलोग भूख- ाससे पी ड़त हो गये। अ म हम सब-के -सब एक वृ के नीचे थककर बैठ गये॥ ९ ॥ ‘हमारे मुखक का फ क पड़ गयी। हम सभी च ाम म हो गये। च ाके महासागरम डू बकर हम उसका पार नह पा रहे थे॥ १० ॥ ‘इसी समय चार ओर दौड़ानेपर हमको यह वशाल गुफा दखायी पड़ी, जो लता और वृ से ढक ◌इ तथा अ कारसे आ थी॥ ११ ॥



‘थोड़ी



ही देरम इस गुफासे हंस, कु रर और सारस आ द प ी नकले, जनके पंख जलसे भीगे थे और उनम क चड़ लगी ◌इ थी॥ १२ ॥ ‘तब मने वानर से कहा, ‘अ ा होगा क हमलोग इसके भीतर वेश कर’। इन सब वानर को भी यह अनुमान हो गया क गुफाके भीतर पानी है॥ १३ ॥ ‘हम सब लोग अपने कायक स के लये उतावले थे ही, अत: इस गुफाम कू द पड़े। अपने हाथ से एक-दूसरेको ढ़तापूवक पकड़कर हम गुफाम आगे बढ़ने लगे॥ १४ ॥ ‘इस तरह सहसा हमलोग ने इस अँधेरी गुफाम वेश कया। यही हमारा काय है और इसी कायसे हम इधर आये ह॥ १५ ॥ ‘भूखसे ाकु ल एवं दुबल होनेके कारण हम सबने तु ारी शरण ली। तुमने आ त धमके अनुसार हम फल और मूल अ पत कये और हमने भी भूखसे पी ड़त होनेके कारण उ भरपेट खाया॥ १६१/२ ॥ ‘दे व! हम भूखसे मर रहे थे। तुमने हम सब लोग के ाण बचा लये। अत: बताओ ये वानर तु ारे उपकारका बदला चुकानेके लये ा सेवा कर’॥ १७१/२ ॥ यं भा सव थी। उन वानर के ऐसा कहनेपर उसने उन सभी यूथप तय को इस कार उ र दया’— ‘म तुम सभी वेगशाली वानर पर य ही ब त संतु ँ । धमानु ानम लगी रहनेके कारण मुझे कसीसे को◌इ योजन नह रह गया है’॥ १९१/२ ॥ उस तप नीने जब इस कार धमयु उ म बात कही, तब हनुमा ीने नद ष वाली उस देवीसे य कहा—॥ २०१/२ ॥ ‘दे व! तुम धमाचरणम लगी ◌इ हो। अत: हम सब लोग तु ारी शरणम आये ह। महा ा सु ीवने हमलोग के लौटनेके लये जो समय न त कया था, वह इस गुफाके भीतर घूमनेम ही बीत गया॥ २१-२२ ॥ ‘अब तुम कृ पा करके हम इस बलसे बाहर नकाल दो। सु ीवके बताये ए समयको हम लाँघ चुके ह, इस लये अब हमारी आयु पूरी हो चुक है। हम सबके -सब सु ीवके भयसे डरे ए ह। अत: तुम हमारा उ ार करो॥ २३१/२ ॥



सके



‘धमचा र ण! हम जो महान् काय करना है, उसे भी हम इस गुफाम रहनेके कारण नह ह’॥



कर



हनुमा ीके ऐसा कहनेपर तापसी बोली—‘म समझती ँ जो एक बार इस गुफाम चला आता है, उसका जीते-जी यहाँसे लौटना ब त क ठन हो जाता है। तथा प नयम के पालन और तप ाके उ म भावसे म तुम सभी वानर को इस गुफासे बाहर नकाल दूँगी॥ ‘ े वानरो! तुम सब लोग अपनी-अपनी आँ ख बंद कर लो। आँ ख बंद कये बना यहाँसे नकलना अस व है’॥ २७१/२ ॥ यह सुनकर सबने सुकुमार अ ु लवाले हाथ से आँ ख मूँद ल । गुफासे बाहर नकलनेक इ ासे स होकर उन सबने सहसा ने बंद कर लये॥ २८१/२ ॥ इस कार उस समय हाथ से मुँह ढक लेनेके कारण उन महा ा वानर को यं भाने पलक मारते-मारते बलसे बाहर नकाल दया॥ २९१/२ ॥ त ात् वहाँ उस धमपरायणा तापसीने उस वषम गुफासे बाहर नकले ए सम वानर को आ ासन देकर इस कार कहा—॥ ३०१/२ ॥ ‘ े वानरो! यह रहा नाना कारके वृ और लता से ा शोभाशाली व ग र। इधर यह वण ग र है और सामने यह महासागर लहरा रहा है। तु ारा क ाण हो। अब म अपने ानपर जाती ँ ।’ ऐसा कहकर यं भा उस सु र गुफाम चली गयी॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म बावनवाँ सग पूरा आ॥ ५२ ॥



तरपनवाँ सग लौटनेक अव ध बीत जानेपर भी काय स न होनेके कारण सु ीवके कठोर द से डरनेवाले अ द आ द वानर का उपवास करके ाण ाग देनेका न य ६०१



तदन र उन े वानर ने व णक नवासभू म भयंकर महासागरको देखा, जसका कह पार नह था और जो भयानक लहर से ा होकर नर र गजना कर रहा था॥ १ ॥ मयासुरके अपनी माया ारा बनाये ए पवतक दुगम गुफाम सीताक खोज करते ए उन वानर का वह एक मास बीत गया, जसे राजा सु ीवने लौटनेका समय न त कया था॥ २ ॥ व ग रके पा वत पवतपर, जहाँके वृ फू ल से लदे थे, बैठकर वे सभी महा ा वानर च ा करने लगे॥ ३ ॥ जो वस -ऋतुम फलते ह, उन आम आ द वृ क डा लय को म री एवं फू ल के अ धक भारसे कु ◌इ तथा सैकड़ लता-वेल से ा देख वे सभी सु ीवके भयसे थरा उठे (वे शरद-् ऋतुम चले थे और श शर-ऋतु आ गयी थी। इसी लये उनका भय बढ़ गया था)॥ वे एक-दूसरेको यह बताकर क अब वस का समय आना चाहता है, राजाके आदेशके अनुसार एक मासके भीतर जो काम कर लेना चा हये था, वह न कर सकने या उसे न कर देनेके कारण भयके मारे पृ ीपर गर पड़े॥ ५ ॥ तब जनके कं धे सह और बैलके समान मांसल थे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी और मोटी थ तथा जो बड़े बु मान् थे, वे युवराज अ द उन े वानर तथा अ वनवासी क पय को यथावत् स ान देते ए मधुर वाणीसे स ो धत करके बोले—॥ ६-७ ॥ ‘वानरो! हम सब लोग वानरराजक आ ासे आ न मास बीतते-बीतते एक मासक न त अव ध ीकार करके सीताक खोजके लये नकले थे, कतु हमारा वह एक मास उस गुफाम ही पूरा हो गया, ा आपलोग इस बातको नह जानते? हम जब चले थे, तबसे लौटनेके लये जो मास नधा रत आ था, वह भी बीत गया; अत: अब आगे ा करना चा हये?॥ ‘आपलोग को राजाका व ास ा है। आप नी तमागम नपुण ह और ामीके हतम त र रहते ह। इसी लये आपलोग यथासमय सब काय म नयु कये जाते ह॥ १० ॥



काय स करनेम आपलोग क समानता करनेवाला को◌इ नह है। आप सभी अपने पु षाथके लये सभी दशा म व ात ह। इस समय वानरराज सु ीवक आ ासे मुझे आगे करके आपलोग जस कायके लये नकले थे, उसम आप और हम सफल न हो सके । ऐसी दशाम हमलोग को अपने ाण से हाथ धोना पड़ेगा, इसम संशय नह है। भला वानरराजके आदेशका पालन न करके कौन सुखी रह सकता है?॥ ११-१२ ॥ ‘ यं सु ीवने जो समय न त कया था, उसके बीत जानेपर हम सब वानर के लये उपवास करके ाण ाग देना ही ठीक जान पड़ता है॥ १३ ॥ ‘सु ीव भावसे ही कठोर ह। फर इस समय तो वे हमारे राजाके पदपर त ह। जब हम अपराध करके उनके पास जायँग,े तब वे कभी हम मा नह करगे॥ १४ ॥ ‘उलटे सीताका समाचार न पानेपर हमारा वध ही कर डालगे, अत: हम आज ही यहाँ ी, पु , धन-स और घर- ारका मोह छोड़कर मरणा उपवास आर कर देना चा हये॥ १५१/२ ॥ ‘यहाँसे लौटनेपर राजा सु ीव न य ही हम सबका वध कर डालगे। अनु चत वधक अपे ा यह मर जाना हमलोग के लये ेय र है॥ १६१/२ ॥ ‘सु ीवने युवराजपदपर मेरा अ भषेक नह कया है। अनायास ही महान् कम करनेवाले महाराज ीरामने ही उस पदपर मेरा अ भषेक कया है॥ १७१/२ ॥ ‘राजा सु ीवने तो पहलेसे ही मेरे त वैर बाँध रखा है। इस समय आ ा-ल न प मेरे अपराधको देखकर पूव न यके अनुसार तीखे द ारा मुझे मरवा डालगे॥ १८१/२ ॥ ‘जीवन-कालम मेरा सन (राजाके हाथसे मेरा मरण) देखनेवाले सु द से मुझे ा काम है? यह समु के पावन तटपर म मरणा उपवास क ँ गा’॥ १९ ॥ युवराज वा लकु मार अ दक यह बात सुनकर वे सभी े वानर क ण रम बोले—॥ २० ॥ ‘सचमुच सु ीवका भाव बड़ा कठोर है। उधर ीरामच जी अपनी य प ी सीताके त अनुर ह। सीताको खोजकर लौटनेके लये जो अव ध न त क गयी थी, वह समय तीत हो जानेपर भी य द हम काय कये बना ही वहाँ उप त ह गे तो उस अव ाम हम



देखकर और वदेहकु मारीका दशन कये बना ही हम लौटा आ जानकर ीरामच जीका य करनेक इ ासे सु ीव हम मरवा डालगे, इसम संशय नह है॥ २१-२२ ॥ ‘अत: अपराधी पु ष का ामीके पास लौटकर जाना कदा प उ चत नह है। हम सु ीवके धान सहयोगी या सेवक होनेके कारण इधर उनके भेजनेसे आये थे॥ २३ ॥ ‘य द यह सीताका दशन करके अथवा उनका समाचार जानकर वीर सु ीवके पास नह जायँगे तो अव ही हम यमलोकम जाना पड़ेगा’॥ २४ ॥ भयसे पी ड़त ए उन वानर का यह वचन सुनकर तारने कहा—‘यहाँ बैठकर वषाद करनेसे को◌इ लाभ नह है। य द आपलोग को ठीक जँचे तो हम सब लोग यं भाक उस गुफाम ही वेश करके नवास कर॥ २५ ॥ ‘यह गुफा मायासे न मत होनेके कारण अ दुगम है। यहाँ फल-फू ल, जल और खाने-पीनेक दूसरी व ुएँ भी चुर मा ाम उपल ह। अत: उसम हम न तो देवराज इ से, न ीरामच जीसे और न वानरराज सु ीवसे ही भय है’॥ २६ ॥ तारक कही ◌इ पूव बात, जो अ दके भी अनुकूल थी, सुनकर सभी वानर को उसपर व ास हो गया। वे सब-के -सब बोल उठे —‘ब ुओ! हम वैसा काय आज ही अ वल करना चा हये, जससे हम मारे न जायँ’॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म तरपनवाँ सग पूरा आ॥ ५३ ॥



चौवनवाँ सग हनुमा ीका भेदनी तके ारा वानर को अपने प म करके अ दको अपने साथ चलनेके लये समझाना



ताराप त च माके समान तेज ी तारके ऐसा कहनेपर हनुमा ीने यह माना क अब अ दने वह रा (जो अबतक सु ीवके अ धकारम था) हर लया (इस तरह वानर म फू ट पड़नेसे ब त-से वानर अ दका साथ दगे और बलवान् अ द सु ीवको रा से व त कर दगे —ऐसी स ावनाका हनुमा ीके मनम उदय हो गया)॥ १ ॥ हनुमा ी यह अ ी तरह जानते थे क वा लकु मार अ द आठ१ गुणवाली बु से, चार२ कारके बलसे और चौदह३ गुण से स ह॥ २ ॥ वे तेज, बल और परा मसे सदा प रपूण हो रहे ह। शु प के आर म च माके समान राजकु मार अ दक ी दनो दन बढ़ रही है॥ ३ ॥ ये बु म बृह तके समान और परा मम अपने पता वालीके तु ह। जैसे देवराज इ बृह तके मुखसे नी तक बात सुनते ह, उसी कार ये अ द तारक बात सुनते ह॥ ४ ॥ अपने ामी सु ीवका काय स करनेम ये प र म (थकावट या श थलता) का अनुभव करते ह। ऐसा वचारकर स ूण शा के ानम नपुण हनुमा ीने अ दको तार आ द वानर क ओरसे फोड़नेका य आर कया॥ ५ ॥ वे साम, दाम, भेद और द —इन चार उपाय मसे तीसरेका वणन करते ए अपने यु यु वा वैभवके ारा उन सभी वानर को फोड़ने लगे॥ ६ ॥ जब वे सब वानर फू ट गये, तब उ ने द प चौथे उपायसे यु नाना कारके भयदायक वचन ारा अ दको डराना आर कया—॥ ७ ॥ ‘तारान न! तुम यु म अपने पताके समान ही अ श शाली हो—यह न त पसे सबको व दत है। जैसे तु ारे पता वानर का रा सँभालते थे, उसी कार तुम भी उसे ढ़तापूवक धारण करनेम समथ हो॥ ८ ॥ ‘ कतु वानर शरोमणे! ये क पलोग सदा ही च ल च होते ह। अपने ी-पु से अलग रहकर तु ारी आ ाका पालन करना इनके लये स



नह होगा॥ ९ ॥ ‘म तु ारे सामने कहता ँ , ये को◌इ भी वानर सु ीवसे वरोध करके तु ारे त अनुर नह हो सकते। जैसे ये जा वान्, नील और महाक प सुहो ह, उसी कार म भी ँ । म तथा ये सब लोग साम, दाम आ द उपाय ारा सु ीवसे अलग नह कये जा सकते। तुम द के ारा भी हम सबको वानरराजसे दूर कर सको, यह भी स व नह है (अत: सु ीव तु ारी अपे ा बल ह)॥ १०-११ ॥ ‘दुबलके साथ वरोध करके बलवान् पु ष चुपचाप बैठा रहे, यह तो स व है। परंतु कसी बलवा े वैर बाँधकर को◌इ दुबल पु ष कह भी सुखसे नह रह सकता; अत: अपनी र ा चाहनेवाले दुबल पु षको बलवा े साथ व ह नह करना चा हये—यह नी त पु ष का कथन है॥ १२ ॥ ‘तुम जो ऐसा मानने लगे हो क यह गुफा हम माताके समान अपनी गोदम छपा लेगी, इस लये हमारी र ा हो जायगी तथा इस बलक अभे ताके वषयम जो तुमने तारके मुँहसे कु छ सुना है, यह सब थ है; क इस गुफाको वदीण कर देना ल णके बाण के लये बाय हाथका खेल है (अ तु काय है)॥ १३ ॥ ‘पूवकालम यहाँ व का हार करके इ ने तो इस गुफाको ब त थोड़ी हा न प ँ चायी थी; परंतु ल ण अपने पैने बाण ारा इसे प ेके दोनेक भाँ त वदीण कर डालगे॥ १४ ॥ ‘ल णके पास ऐसे ब त-से नाराच ह, जनका हलका-सा श भी व और अश नके समान चोट प ँ चानेवाला है। वे नाराच पवत को भी वदीण कर सकते ह॥ १५ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले वीर! ही तुम इस गुफाम रहना आर करोगे, ही ये सब वानर तु ाग दगे; क इ ने ऐसा करनेका न य कर लया है॥ १६ ॥ ‘ये अपने बाल-ब को याद करके सदा उ रहगे। जब यहाँ इ भूखका क सहना पड़ेगा और दु:खद श ापर सोने या दुरव ाम रहनेके कारण इनके मनम खेद होगा, तब ये तु पीछे छोड़कर चल दगे॥ ‘ऐसी दशाम तुम हतैषी ब ु और सु द के सहयोगसे व त हो उड़ते ए तनके से भी तु हो जाओगे और सदा अ धक डरते रहोगे (अथवा हलते ए तनके -से अ भयभीत होते रहोगे)॥ १८ ॥



‘ल



णके बाण घोर, महान् वेगशाली और दुजय ह। ीरामके कायसे वमुख होनेपर तु कदा प मारे बना नह रहगे॥ १९ ॥ ‘हमारे साथ चलकर जब तुम वनीत पु षक भाँ त उनक सेवाम उप त होगे, तब सु ीव मश: अपने बाद तु को रा पर बठायगे॥ २० ॥ ‘तु ारे चाचा सु ीव धमके मागपर चलनेवाले राजा ह। वे सदा तु ारी स ता चाहनेवाले, ढ़ त, प व और स त ह। अत: कदा प तु ारा नाश नह कर सकते॥ २१ ॥ ‘अ



द! उनके मनम सदा तु ारी माताका य करनेक इ ा रहती है। उनक स ताके लये ही वे जीवन धारण करते ह। सु ीवके तु ारे सवा को◌इ दूसरा पु भी नह है, इस लये तु उनके पास चलना चा हये’॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म चौवनवाँ सग पूरा आ॥ ५४ ॥ १. बु के आठ गुण ये ह—सुननेक इ ा, सुनना, सुनकर हण करना, हण करके धारण करना, ऊहापोह करना, अथ या ता यको भलीभाँ त समझना तथा त ानसे स होना। २. साम, दान, भेद और द —ये जो श ुको वशम करनेके चार उपाय नी त-शा म बताये गये ह, उ को यहाँ चार कारका बल कहा गया है। क - क के मतम बा बल, मनोबल, उपायबल और ब ुबल—ये चार बल ह। ३. चौदह गुण य बताये गये ह—देश-कालका ान, ढ़ता, सब कारके ेश को सहन करनेक मता, सभी वषय का ान ा करना, चतुरता, उ ाह या बल, म णाको गु रखना, पर र वरोधी बात न कहना, शूरता, अपनी और श ुक श का ान, कृ त ता, शरणागतव लता, अमषशीलता तथा अच लता ( रता या ग ीरता)।



पचपनवाँ सग अ दस हत वानर का ायोपवेशन



हनुमा ीका वचन वनययु , धमानुकूल और ामीके त स ानसे यु था। उसे सुनकर अ दने कहा—॥ १ ॥ ‘क प े ! राजा सु ीवम रता, शरीर और मनक प व ता, ू रताका अभाव, सरलता, परा म और धैय है—यह मा ता ठीक नह जान पड़ती॥ २ ॥ ‘ जसने अपने बड़े भा◌इके जीते-जी उनक ारी महारानीको, जो धमत: उसक माताके समान थी, कु त भावनासे हण कर लया था, वह धमको जानता है, यह कै से कहा जा सकता है? जस दुरा ाने यु के लये जाते ए भा◌इके ारा बलक र ाके कायम नयु होनेपर भी प रसे उसका मुँह बंद कर दया, वह कै से धम माना जा सकता है?॥ ३-४ ॥ ‘ ज ने स को सा ी देकर उसका हाथ पकड़ा और पहले ही उसका काय स कर दया, उन महायश ी भगवान् ीरामको ही जब उसने भुला दया, तब दूसरे कसके उपकारको वह याद रख सकता है?॥ ५ ॥ ‘ जसने अधमके भयसे डरकर नह , ल णके ही भयसे भीत हो हमलोग को सीताक खोजके लये भेजा है, उसम धमक स ावना कै से हो सकती है?॥ ‘उस पापी, कृ त , रण-श से हीन और च ल च सु ीवपर को◌इ े पु ष, वशेषत: जो उसके कु लम उ आ हो, कभी भी कस तरह व ास कर सकता है?॥ ७ ॥ ‘अपना पु गुणवान् हो या गुणहीन, उसीको रा पर बठाना चा हये, ऐसी धारणा रखनेवाला सु ीव मुझ श ुकुलम उ ए बालकको कै से जी वत रहने देगा?॥ ८ ॥ ‘सु ीवसे अलग रहनेका जो मेरा गूढ़ वचार था, वह आज कट हो गया। साथ ही, उसक आ ाका पालन न करनेके कारण म अपराधी भी ँ । इतना ही नह , मेरी श ीण हो गयी है। म अनाथके समान दुबल ँ । ऐसी दशाम क ाम जाकर कै से जी वत रह सकूँ गा?॥ ९ ॥ ‘सु ीव शठ, ू र और नदयी है। वह रा के लये मुझे गु पसे द देगा अथवा सदाके लये मुझे ब नम डाल देगा॥ १० ॥



‘इस



कार ब नज नत क भोगनेक अपे ा उपवास करके ाण दे देना ही मेरे लये ेय र है। अत: सब वानर मुझे यह रहनेक आ ा द और अपने-अपने घरको चले जायँ॥ ११ ॥ ‘म



आपलोग से त ापूवक कहता ँ क म क ापुरीको नह जाऊँ गा। यह मरणा उपवास क ँ गा। मेरा मर जाना ही अ ा है॥ १२ ॥ ‘आपलोग राजा सु ीवको णाम करके उनसे मेरा कु शल-समाचार क हयेगा। अपने बलके कारण शोभा पानेवाले दोन रघुवंशी ब ु से भी मेरा सादर णाम नवेदन करते ए कु शल-समाचार कह दी जयेगा॥ ‘मेरे छोटे पता वानरराज सु ीव और माता मासे भी मेरा आरो पूवक कु शल-समाचार बताइयेगा॥ १४ ॥ ‘मेरी माता ताराको भी धैय बँधाइयेगा। वह बेचारी भावसे ही दयालु और पु पर ेम रखनेवाली है॥ १५ ॥ ‘यहाँ मेरे न होनेका समाचार सुनकर वह न य ही अपने ाण ाग देगी।’ इतना कहकर अ दने उन सभी बड़े-बूढ़े वानर को णाम कया और धरतीपर कु श बछाकर उदास मुँहसे रोते-रोते वे मरणा उपवासके लये बैठ गये॥ १६१/२ ॥ उनके इस कार बैठनेपर सभी े वानर रोने लगे और दु:खी हो ने से गरम-गरम आँ सू बहाने लगे। सु ीवक न ा और वालीक शंसा करते ए उन सबने अ दको सब ओरसे घेरकर आमरण उपवास करनेका न य कया॥ १७-१८१/२ ॥ वा लकु मारके वचन पर वचार करके उन वानर शरोम णय ने मरना ही उ चत समझा और मृ ुक इ ासे आचमन करके समु के उ र तटपर द णा कु श बछाकर वे सब-के -सब पूवा भमुख हो बैठ गये॥ १९-२०१/२ ॥ ीरामके वनवास, राजा दशरथक मृ ,ु जन- ानवासी रा स के संहार, वदेहकु मारी सीताके अपहरण, जटायुके मरण, वालीके वध और ीरामके ोधक चचा करते ए उन वानर पर एक दूसरा ही भय आ प ँ चा॥ २१-२२ ॥ महान् पवत- शखर के समान शरीरवाले वहाँ बैठे ए ब सं क वानर भयके मारे जोरजोरसे श करने लगे, जससे उस पवतक क रा का भीतरी भाग त नत हो उठा और



गजते ए मेघ से यु आकाशके समान तीत होने लगा॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म पचपनवाँ सग पूरा आ॥ ५५ ॥



छ नवाँ सग स ा तसे वानर को भय, उनके मुखसे जटायुके वधक बात सुनकर स ा तका द:ु खी होना और अपनेको नीचे उतारनेके लये वानर से अनुरोध करना



पवतके जस ानपर वे सब वानर आमरण उपवासके लये बैठे थे, उस देशम चरंजीवी प ी ीमान् गृ राज स ा त आये। वे जटायुके भा◌इ थे और अपने बल तथा पु षाथके लये सव स थे॥ १-२ ॥ महा ग र व क क रासे नकलकर स ा तने जब वहाँ बैठे ए वानर को देखा, तब उनका दय हषसे खल उठा और वे इस कार बोले—॥ ३ ॥ ‘जैसे लोकम पूवज के कमानुसार मनु को उसके कयेका फल त: ा होता है, उसी कार आज दीघकालके प ात् यह भोजन त: मेरे लये ा हो गया। अव ही यह मेरे कसी कमका फल है। इन वानर मसे जो-जो मरता जायगा, उसको म मश: भ ण करता जाऊँ गा’ यह बात उस प ीने उन सब वानर को देखकर कहा॥ ४-५ ॥ भोजनपर लुभाये ए उस प ीका यह वचन सुनकर अ दको बड़ा दु:ख आ और वे हनुमा ीसे बोले— ‘दे खये, सीताके न म से वानर को वप म डालनेके लये सा ात् सूयपु यम इस देशम आ प ँ चे॥ ‘हमलोग ने न तो ीरामच जीका काय कया और न राजाक आ ाका पालन ही। इसी बीच वानर पर यह सहसा अ ात वप आ पड़ी॥ ८ ॥ ‘ वदेहकु मारी सीताका य करनेक इ ासे गृ राज जटायुने जो साहसपूण काय कया था, वह सब आपलोग ने सुना ही होगा॥ ९ ॥ ‘सम ाणी, वे पशु-प य क यो नम ही न उ ए ह , हमारी तरह ाण देकर भी ीरामच जीका य काय करते ह॥ १० ॥ ‘ श पु ष ेह और क णाके वशीभूत हो एक-दूसरेका उपकार करते ह, अत: आपलोग भी ीरामके उपकारके लये यं ही अपने शरीरका प र ाग कर॥ ११ ॥ ‘धम जटायुने ही ीरामका य कया है। हमलोग ीरघुनाथजीके लये अपने जीवनका मोह छोड़कर प र म करते ए इस दुगम वनम आये, कतु म थलेशकु मारीका दशन



न कर सके ॥ १२१/२ ॥ ‘गृ राज जटायु ही सुखी ह, जो यु म रावणके हाथसे मारे गये और परमग तको ा ए। वे सु ीवके भयसे मु ह॥ १३ ॥ ‘राजा दशरथक मृ ,ु जटायुका वनाश और वदेहकु मारी सीताका अपहरण—इन घटना से इस समय वानर का जीवन संशयम पड़ गया है॥ १४ ॥ ‘ ीराम और ल णको सीताके साथ वनम नवास करना पड़ा, ीरघुनाथजीके बाणसे वालीका वध आ और अब ीरामके कोपसे सम रा स का संहार होगा—ये सारी बुराइयाँ कै के यीको दये गये वरदानसे ही पैदा ◌इ ह’॥ १५-१६ ॥ वानर के ारा बार ार कहे गये इन दु:खमय वचन को सुनकर और उन सबको पृ ीपर पड़ा आ देखकर परम बु मान् स ा तका दय अ ु हो उठा और वे दीन वाणीम बोलनेको उ त ए॥ १७ ॥ अ दके मुखसे नकले ए उस वचनको सुनकर तीखी च चवाले उस गीधने उ रसे इस कार पूछा—॥ १८ ॥ ‘यह कौन है, जो मेरे ाण से भी बढ़कर य भा◌इ जटायुके वधक बात कह रहा है। इसे सुनकर मेरा दय क त-सा होने लगा है॥ १९ ॥ ‘जन ानम रा सका गृ के साथ कस कार यु आ था? अपने भा◌इका ारा नाम आज ब त दन के बाद मेरे कानम पड़ा है॥ २० ॥ ‘जटायु मुझसे छोटा, गुण और परा मके कारण अ शंसाके यो था। दीघकालके प ात् आज उसका नाम सुनकर मुझे बड़ी स ता ◌इ। म चाहता ँ क पवतके इस दुगम ानसे आपलोग मुझे नीचे उतार द। े वानरो! मुझे अपने भा◌इके वनाशका वृ ा सुननेक इ ा है॥ २१-२२ ॥ ‘मेरा भा◌इ जटायु तो जन ानम रहता था। गु जन के ेमी ीरामच जी जनके े एवं य पु ह, वे महाराज दशरथ मेरे भा◌इके म कै से ए?॥ २३१/२ ॥ ‘श ुदमन वीरो! मेरे पंख सूयक करण से जल गये ह, इस लये म उड़ नह सकता; कतु इस पवतसे नीचे उतरना चाहता ँ ’॥ २४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क पूरा आ॥ ५६ ॥



ाका म छ नवाँ सग



स ावनवाँ सग अ दका स ा तको पवत- शखरसे नीचे उतारकर उ जटायुके मारे जानेका वृ ा बताना तथा राम-सु ीवक म ता एवं वा लवधका संग सुनाकर अपने आमरण उपवासका कारण नवेदन करना



शोकके कारण स ा तका र वकृ त हो गया था। उनक कही ◌इ बात सुनकर भी वानर-यूथप तय ने उसपर व ास नह कया; क वे उनके कमसे श त थे॥ १ ॥ आमरण उपवासके लये बैठे ए उन वानर ने उस समय गीधको देखकर यह भयंकर बात सोची, ‘यह हम सबको खा तो नह जायगा॥ २ ॥ ‘अ ा, हम तो सब कारसे मरणा उपवासका त लेकर बैठे ही थे। य द यह प ी हम खा लेगा तो हमारा काम ही बन जायगा। हम शी ही स ा हो जायगी’॥ ३ ॥ फर तो उन सम वानर-यूथप तय ने यही न य कया। उस समय गीधको उस पवतशखरसे उतारकर अ दने कहा—॥ ४ ॥ ‘प राज! पहले एक तापी वानरराज हो गये ह, जनका नाम था ऋ रजा! राजा ऋ रजा मेरे पतामह लगते थे। उनके दो धमा ा पु ए—सु ीव और वाली। दोन ही बड़े बलवान् ए। उनमसे राजा वाली मेरे पता थे। संसारम अपने परा मके कारण उनक बड़ी ा त थी॥ ५-६ ॥ ‘आजसे कु छ वष पहले इ ाकु वंशके महारथी वीर दशरथकु मार ीमान् रामच जी, जो स ूण जग े राजा ह, पताक आ ाके पालनम त र हो धम-मागका आ य ले द कार म आये थे। उनके साथ उनके छोटे भा◌इ ल ण तथा उनक धमप ी वदेहकु मारी सीता भी थ ॥ ७-८ ॥ ‘जन ानम आनेपर उनक प ी सीताको रावणने बलपूवक हर लया। उस समय गृ राज जटायुन,े जो उनके पताके म थे, देखा—रावण आकाशमागसे वदेहकु मारीको लये जा रहा है। देखते ही वे रावणपर टूट पड़े और उसके रथको न - करके उ ने म थलेशकु मारीको सुर त पसे भू मपर खड़ा कर दया। कतु वे वृ तो थे ही। यु करतेकरते थक गये और अ तोग ा रण े म रावणके हाथसे मारे गये॥ ९-१० ॥



‘इस



कार महाबली रावणके ारा जटायुका वध आ। यं ीरामच जीने उनका दाह-सं ार कया और वे उ म ग त (साके तधामको) ा ए॥ ११ ॥ ‘तदन र ीरघुनाथजीने मेरे चाचा महा ा सु ीवसे म ता क और उनके कहनेसे उ ने मेरे पताका वध कर दया॥ १२ ॥ ‘मेरे पताने म य स हत सु ीवको रा -सुखसे व त कर दया था। इस लये ीरामच जीने मेरे पता वालीको मारकर सु ीवका अ भषेक करवाया॥ १३ ॥ ‘उ ने ही सु ीवको वालीके रा पर ा पत कया। अब सु ीव वानर के ामी ह। मु -मु वानर के भी राजा ह। उ ने हम सीताक खोजके लये भेजा है॥ १४ ॥ ‘इस तरह ीरामसे े रत होकर हमलोग इधर-उधर वदेहकु मारी सीताको खोजते- फरते ह, कतु अबतक उनका पता नह लगा। जैसे रातम सूयक भाका दशन नह होता, उसी कार हम इस वनम जानक का दशन नह आ॥ १५ ॥ ‘हमलोग अपने मनको एका करके द कार म भलीभाँ त खोज करते ए अ ानवश पृ ीके एक खुले ए ववरम घुस गये॥ १६ ॥ ‘वह ववर मयासुरक मायासे न मत आ है। उसम खोजते-खोजते हमारा एक मास बीत गया, जसे राजा सु ीवने हमारे लौटनेके लये अव ध न त कया था॥ १७ ॥ ‘हम सब लोग क पराज सु ीवके आ ाकारी ह, कतु उनके ारा नयत क ◌इ अव धको लाँघ गये ह। अत: उ के भयसे हम यहाँ आमरण उपवास कर रहे ह॥ १८ ॥ ‘ककु कु लभूषण ीराम, ल ण और सु ीव तीन हमपर कु पत ह गे। उस दशाम वहाँ लौट जानेके बाद भी हम सबके ाण नह बच सकते’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म स ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५७ ॥



अ ावनवाँ सग स ा तका अपने पंख जलनेक कथा सुनाना, सीता और रावणका पता बताना तथा वानर क सहायतासे समु -तटपर जाकर भा◌इको जला ल देना



जीवनक आशा ागकर बैठे ए वानर के मुखसे यह क णाजनक बात सुनकर स ा तके ने म आँ सू आ गये। उ ने उ रसे उ र दया—॥ १ ॥ ‘वानरो! तुम जसे महाबली रावणके ारा यु म मारा गया बता रहे हो, वह जटायु मेरा छोटा भा◌इ था॥ ‘म बूढ़ा आ। मेरे पंख जल गये। इस लये अब मुझम अपने भा◌इके वैरका बदला लेनेक श नह रह गयी है। यही कारण है क यह अ य बात सुनकर भी म चुपचाप सहे लेता ँ ॥ ३ ॥ ‘पहलेक बात है जब इ के ारा वृ ासुरका वध हो गया, तब इ को बल जानकर हम दोन भा◌इ उ जीतनेक इ ासे पहले आकाशमागके ारा बड़े वेगसे गलोकम गये। इ को जीतकर लौटते समय हम दोन ही गको का शत करनेवाले अंशुमाली सूयके पास आये। हममसे जटायु सूयके म ा कालम उनके तेजसे श थल होने लगा॥ ४-५ ॥ ‘भा◌इको सूयक करण से पी ड़त और अ ाकु ल देख मने ेहवश अपने दोन पंख से उसे ढक लया॥ ६ ॥ ‘वानर शरोम णयो! उस समय मेरे दोन पंख जल गये और म इस व पवतपर गर पड़ा। यहाँ रहकर म कभी अपने भा◌इका समाचार न पा सका (आज पहले-पहल तुमलोग के मुखसे उसके मारे जानेक बात मालूम ◌इ है)’॥ ७ ॥ जटायुके भा◌इ स ा तके उस समय ऐसा कहनेपर परम बु मान् युवराज अ दने उनसे इस कार कहा— ‘गृ राज! य द आप जटायुके भा◌इ ह, य द आपने मेरी कही ◌इ बात सुनी ह और य द आप उस रा सका नवास ान जानते ह तो हम बताइये॥ ९ ॥ ‘वह अदूरदश नीच रा स रावण यहाँसे नकट हो या दूर, य द आप जानते ह तो हम उसका पता बता द’॥ १० ॥



तब जटायुके बड़े भा◌इ महातेज ी स ा तने वानर का हष बढ़ाते ए अपने अनु प बात कही—॥ ११ ॥ ‘वानरो! मेरे पंख जल गये। अब म बेपरका गीध ँ । मेरी श जाती रही (अत: म शरीरसे तु ारी को◌इ सहायता नह कर सकता, तथा प) वचनमा से भगवान् ीरामक उ म सहायता अव क ँ गा॥ १२ ॥ ‘म व णके लोक को जानता ँ । वामनावतारके समय भगवान् व ुने जहाँ-जहाँ अपने तीन पग रखे थे, उन ान का भी मुझे ान है। अमृत-म न तथा देवासुरसं ाम भी मेरी देखी और जानी ◌इ घटनाएँ ह॥ ‘य प वृ ाव ाने मेरा तेज हर लया है और मेरी ाणश श थल हो गयी है तथा प ीरामच जीका यह काय मुझे सबसे पहले करना है॥ १४ ॥ ‘एक दन मने भी देखा, दुरा ा रावण सब कारके गहन से सजी ◌इ एक पवती युवतीको हरकर लये जा रहा था॥ १५ ॥ ‘वह मा ननी देवी ‘हा राम! हा राम! हा ल ण’ क रट लगाती ◌इ अपने गहने फ कती और अपने शरीरके अवयव को क त करती ◌इ छटपटा रही थी॥ ‘उसका सु र रेशमी पीता र उदयाचलके शखरपर फै ली ◌इ सूयक भाके समान सुशो भत होता था। वह उस काले रा सके समीप बादल म चमकती ◌इ बजलीके समान का शत हो रही थी॥ १७ ॥ ‘ ीरामका नाम लेनेसे म समझता ँ , वह सीता ही थी। अब म उस रा सके घरका पता बताता ँ , सुनो॥ ‘रावण नामक रा स मह ष व वाका पु और सा ात् कु बेरका भा◌इ है। वह ल ा नामवाली नगरीम नवास करता है॥ १९ ॥ ‘यहाँसे पूरे चार सौ कोसके अ रपर समु म एक ीप है, जहाँ व कमाने अ रमणीय ल ापुरीका नमाण कया है॥ २० ॥ ‘उसके व च दरवाजे और बड़े-बड़े महल सुवणके बने ए ह। उनके भीतर सोनेके चबूतरे या वे दयाँ ह॥ २१ ॥



‘उस



नगरीक चहारदीवारी ब त बड़ी है और सूयक भाँ त चमकती रहती है। उसीके भीतर पीले रंगक रेशमी साड़ी पहने वदेहकु मारी सीता बड़े दु:खसे नवास करती ह॥ २२ ॥ ‘रावणके अ :पुरम नजरबंद ह। ब त-सी रा सयाँ उनके पहरेपर तैनात ह। वहाँ प ँ चनेपर तुमलोग राजा जनकक क ा मै थली सीताको देख सकोगे॥ २३ ॥ ‘ल ा चार ओरसे समु के ारा सुर त है। पूरे सौ योजन समु को पार करके उसके द ण तटपर प ँ चनेपर तुमलोग रावणको देख सकोगे। अत: वानरो! समु को पार करनेम ही तुरंत शी तापूवक अपने परा मका प रचय दो॥ २४-२५ ॥ ‘ न य ही म ान से देखता ँ । तुमलोग सीताका दशन करके लौट आओगे। आकाशका पहला माग गौरैय तथा अ खानेवाले कबूतर आ द प य का है॥ २६ ॥ ‘उससे ऊपरका दूसरा माग कौ तथा वृ के फल खाकर रहनेवाले दूसरे-दूसरे प य का है। उससे भी ऊँ चा जो आकाशका तीसरा माग है, उससे चील, ौ और कु रर आ द प ी जाते ह॥ २७ ॥ ‘बाज चौथे और गीध पाँचव मागसे उड़ते ह। प, बल और परा मसे स तथा यौवनसे सुशो भत होनेवाले हंस का छठा माग है। उनसे भी ऊँ ची उड़ान ग ड़क है। वानर शरोम णयो! हम सबका ज ग ड़से ही आ है॥ २८-२९ ॥ ‘परंतु पूवज म हमसे को◌इ न त कम बन गया था, जससे इस समय हम मांसाहारी होना पड़ा है। तुमलोग क सहायता करके मुझे रावणसे अपने भा◌इके वैरका बदला लेना है॥ ३० ॥ ‘म यह से रावण और जानक को देखता ँ । हमलोग म भी ग ड़क भाँ त दूरतक देखनेक द श है॥ ३१ ॥ ‘इस लये वानरो! हम भोजनज नत बलसे तथा ाभा वक श से भी सदा सौ योजन और उससे आगेतक भी देख सकते ह॥ ३२ ॥ ‘जातीय भावके अनुसार हमलोग क जी वकावृ दूरसे देखे गये दूर भ वशेषके ारा नयत क गयी है तथा जो कु ु ट आ द प ी ह, उनक जीवन-वृ वृ क जड़तक ही सी मत है—वे वह तक उपल होनेवाली व ुसे जीवन- नवाह करते ह॥ ३३ ॥



‘अब तुम इस खारे पानीके



समु को लाँघनेका को◌इ उपाय सोचो। वदेहकु मारी सीताके पास जा सफलमनोरथ होकर क ापुरीको लौटोगे॥ ३४ ॥ ‘अब म तु ारी सहायतासे समु के कनारे चलना चाहता ँ । वहाँ अपने गवासी भा◌इ महा ा जटायुको जला ल दान क ँ गा’॥ ३५ ॥ यह सुनकर महापरा मी वानर ने जले पंखवाले प राज स ा तको उठाकर समु के कनारे प ँ चा दया और जला ल देनेके प ात् वे पुन: उनको वहाँसे उठाकर उनके रहनेके ानपर ले आये। उनके मुखसे सीताका समाचार जानकर उन सभी वानर को बड़ी स ता ◌इ॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म अ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५८ ॥



उनसठवाँ सग स ा तका अपने पु सुपा के मुखसे सुनी ◌इ सीता और रावणको देखनेक घटनाका वृ ा बताना



उस समय वातालाप करते ए गृ राजके ारा कहे गये उस अमृतके समान ा द मधुर वचनको सुनकर सब वानर े हषसे खल उठे ॥ १ ॥ वानर और भालु म े जा वान् सब वानर के साथ सहसा भूतलसे उठकर खड़े हो गये और गृ राजसे इस कार पूछने लगे—॥ २ ॥ ‘प राज! सीता कहाँ ह? कसने उ देखा है? और कौन उन म थलेशकु मारीको हरकर ले गया है? ये सब बात बताइये और हम सब वनवासी वानर के आ यदाता होइये॥ ३ ॥ ‘कौन ऐसा धृ है, जो व के समान वेगपूवक चोट करनेवाले दशरथन न ीरामके बाण तथा यं ल णके चलाये ए सायक के परा मको कु छ नह समझता है?’॥ ४ ॥ उस समय उपवास छोड़कर बैठे और सीताजीका वृ ा सुननेके लये एका ए वानर को स ता-पूवक पुन: आ ासन देते ए स ा तने उनसे यह बात कही—॥ ५ ॥ ‘वानरो! वदेहकु मारी सीताका जस कार अपहरण आ है, वशाललोचना सीता इस समय जहाँ है और जसने मुझसे यह सब वृ ा कहा है एवं जस तरह मने सुना है, वह सब बताता ँ , सुनो—॥ ६ ॥ ‘यह दुगम पवत क◌इ योजन तक फै ला है। दीघकाल आ, जब म इस पवतपर गरा था। मेरी ाणश ीण हो गयी थी और म वृ था॥ ७ ॥ ‘इस अव ाम मेरा पु प वर सुपा ही यथासमय आहार देकर त दन मेरा भरणपोषण करता है॥ ८ ॥ ‘जैसे ग व का कामभाव ती होता है, सप का ोध तेज होता है और मृग को भय अ धक होता है, उसी कार हमारी जा तके लोग क भूख बड़ी ती होती है॥ ९ ॥ ‘एक दनक बात है म भूखसे पी ड़त होकर आहार ा करना चाहता था। मेरा पु मेरे लये भोजनक तलाशम नकला था, कतु सूया होनेके बाद वह खाली हाथ लौट आया, उसे कह मांस नह मला॥ १० ॥



‘भोजन न



मलनेसे मने कठोर बात सुनाकर अपनी ी त बढ़ानेवाले उस पु को ब त पीड़ा दी, कतु उसने न तापूवक मुझे आदर देते ए यह यथाथ बात कही—॥ ११ ॥ ‘तात! म यथासमय मांस ा करनेक इ ासे आकाशम उड़ा और महे पवतके ारको रोककर खड़ा हो गया॥ १२ ॥ ‘वहाँ अपनी च च नीची करके म समु के भीतर वचरनेवाले सह ज ु के मागको रोकनेके लये अके ला ठहर गया॥ १३ ॥ ‘उस समय मने देखा खानसे काटकर नकाले ए कोयलेक रा शके समान काला को◌इ पु ष एक ीको लेकर जा रहा है। उस ीक का सूय दयकालक भाके समान का शत हो रही थी॥ १४ ॥ ‘उस ी और उस पु षको देखकर मने उ आपके आहारके लये लानेका न य कया, कतु उस पु षने न तापूवक मधुर वाणीम मुझसे मागक याचना क ॥ १५ ॥ ‘ पताजी! भूतलपर नीच पु ष म भी को◌इ ऐसा नह है, जो वनयपूवक मीठे वचन बोलनेवाल पर हार करे। फर मुझ-जैसा कु लीन पु ष कै से कर सकता है?॥ १६ ॥ ‘ फर तो वह तेजसे आकाशको ा करता आ-सा वेगपूवक चला गया। उसके चले जानेपर आकाशचारी ाणी स -चारण आ दने आकर मेरा बड़ा स ान कया॥ १७ ॥ ‘वे मह ष मुझसे बोले—‘सौभा क बात है क सीता जी वत ह। तु ारी पड़नेपर भी ीके साथ आया आ वह पु ष कसी तरह सकु शल बच गया; अत: अव तु ारा क ाण हो’॥ १८ ॥ ‘उन परम शोभायमान स पु ष ने मुझसे ऐसा कहा, त ात् उ ने यह भी बताया क ‘वह काला पु ष रा स का राजा रावण था’॥ १९ ॥ ‘तात! दशरथन न ीरामक प ी जनक कशोरी सीता शोकके वेगसे परा जत हो गयी थ । उनके आभूषण गर रहे थे और रेशमी व भी सरसे खसक गया था। उनके के श खुले ए थे और वे ीराम तथा ल णका नाम ले-लेकर उ पुकार रही थ । म उनक इस दयनीय दशाको देखता रह गया। यही मेरे वल से आनेका कारण है।’ इस कार बातचीतक कला जाननेवाल म े सुपा ने मेरे सामने इन सारी बात का वणन कया। यह सब सुनकर भी मेरे दयम परा म कर दखानेका को◌इ वचार नह उठा॥ २०—२२ ॥



‘ बना



पंखका प ी कै से को◌इ परा म कर सकता है? अपनी वाणी और बु के ारा सा जो उपकार प गुण है, उसे करना मेरा भाव बन गया है। ऐसे भावसे म जो कु छ कर सकता ँ , वह काय तु बता रहा ँ , सुनो। वह काय तुमलोग के पु षाथसे ही स होनेवाला है॥ २३१/२ ॥ ‘म वाणी और बु के ारा तुम सब लोग का य काय अव क ँ गा; क दशरथन न ीरामका जो काय है, वह मेरा ही है—इसम संशय नह है॥ २४१/२ ॥ ‘तुमलोग भी उ म बु से यु , बलवान्, मन ी तथा देवता के लये भी दुजय हो। इसी लये वानरराज सु ीवने तु इस कायके लये भेजा है॥ २५१/२ ॥ ‘ ीराम और ल णके क प से यु जो बाण ह, वे सा ात् वधाताके बनाये ए ह। वे तीन लोक का संर ण और दमन करनेके लये पया श रखते ह॥ ‘तु ारा वप ी दश ीव रावण भले ही तेज ी और बलवान् है, कतु तुम-जैसे साम शाली वीर के लये उसे परा करना आ द को◌इ भी काय दु र नह है॥ २७ ॥ ‘अत: अब अ धक समय बतानेक आव कता नह है। अपनी बु के ारा ढ न य करके सीताके दशनके लये उ ोग करो; क तुम-जैसे बु मान् लोग काय क स म वल नह करते ह’॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म उनसठवाँ सग पूरा आ॥ ५९ ॥



साठवाँ सग स ा तक आ कथा



गृ राज स ा त अपने भा◌इको जला ल देकर जब ान कर चुके, तब उस रमणीय पवतपर वे सम वानरयूथप त उ चार ओरसे घेरकर बैठ गये॥ १ ॥ उन सम वानर से घरे ए अ द उनके पास बैठे थे। स ा तने सबके दयम अपनी ओरसे व ास पैदा कर दया था। वे हष ु होकर फर इस कार कहने लगे—॥ २ ॥ ‘सब वानर एका च एवं मौन होकर मेरी बात सुनो। म म थलेशकु मारीको जस कार जानता ँ , वह सारा स ठीक-ठीक बता रहा ँ ॥ ३ ॥ ‘ न ाप अ द! ाचीन कालम म सूयक करण से ल ु सकर इस व पवतके शखरपर गरा था। उस समय मेरे सारे अ सूयके च तापसे संत हो रहे थे॥ ४ ॥ ‘छ: रात बीतनेपर जब मुझे होश आ और म ववश एवं व ल-सा होकर स ूण दशा क ओर देखने लगा, तब सहसा कसी भी व ुको म पहचान न सका॥ ‘तदन र धीरे-धीरे समु , पवत, सम नदी, सरोवर, वन और यहाँके व भ देश पर डाली, तब मेरी रण-श लौटी॥ ६ ॥ ‘ फर मने न य कया क यह द ण समु के तटपर त व पवत है, जो हष ु वहंगम के समुदायसे ा है। यहाँ ब त-सी क राएँ , गुफाएँ और शखर ह॥ ७ ॥ ‘पूवकालम



यहाँ एक प व आ म था, जसका देवता भी बड़ा स ान करते थे। उस



आ मम नशाकर (च मा) नामधारी एक ऋ ष रहते थे, जो बड़े ही उ तप ी थे॥ ८ ॥ ‘वे धम नशाकर मु न अब गवासी हो चुके ह। उन मह षके बना इस पवतपर रहते ए मेरे आठ हजार वष बीत गये॥ ९ ॥ ‘होशम आनेके बाद म इस पवतके नीचे-ऊँ चे शखरसे धीरे-धीरे बड़े क के साथ भू मपर उतरा, उस समय ऐसे ानपर आ प ँ चा, जहाँ तीखे कु श उगे ए थे। फर वहाँसे भी क सहन करता आ आगे बढ़ा॥ १० ॥



‘म



उन मह षका दशन करना चाहता था, इसी लये अ क उठाकर वहाँ गया था। इसके पहले म और जटायु दोन क◌इ बार उनसे मल चुके थे॥ ११ ॥ ‘उनके आ मके समीप सदा सुग त वायु चलती थी। वहाँका को◌इ भी वृ फल अथवा फू लसे र हत नह देखा जाता था॥ १२ ॥ ‘उस प व आ मपर प ँ चकर म एक वृ के नीचे ठहर गया और भगवान् नशाकरके दशनक इ ासे उनके आनेक ती ा करने लगा॥ १३ ॥ ‘थोड़ी ही देरम मह ष मुझे दूरसे आते दखायी दये। वे अपने तेजसे दप रहे थे और ान करके उ रक ओर लौटे आ रहे थे। उनका तर ार करना कसीके लये भी क ठन था॥ १४ ॥ ‘अनेकानेक रीछ, ह रन, सह, बाघ और नाना कारके सप उ इस कार घेरे आ रहे थे, जैसे याचना करनेवाले ाणी दाताको घेरकर चलते ह॥ १५ ॥ ‘ऋ षको आ मपर आया जान वे सभी ाणी लौट गये। ठीक उसी तरह, जैसे राजाके अपने महलम चले जानेपर म ीस हत सारी सेना अपने-अपने व ाम ानको लौट जाती है॥ १६ ॥ ‘ऋ ष मुझे देखकर बड़े स ए और अपने आ मम वेश करके पुन: दो ही घड़ीम बाहर नकल आये। फर पास आकर उ ने मेरे आनेका योजन पूछा—॥ १७ ॥ ‘वे बोले—‘सौ ! तु ारे रोएँ गर गये और दोन पंख जल गये ह। इसका कारण नह जान पड़ता। इतनेपर भी तु ारे शरीरम ाण टके ए ह॥ १८ ॥ ‘मने पहले वायुके समान वेगशाली दो गीध को देखा है। वे दोन पर र भा◌इ और इ ानुसार प धारण करनेवाले थे। साथ ही वे गीध के राजा भी थे॥ १९ ॥ ‘स ाते! म तु पहचान गया। तुम उन दो भाइय मसे बड़े हो। जटायु तु ारा छोटा भा◌इ था। तुम दोन मनु प धारण करके मेरा चरण- श कया करते थे॥ २० ॥ ‘यह तु कौन-सा रोग लग गया है। तु ारे दोन पंख कै से गर गये? कसीने द तो नह दया है? म जो कु छ पूछता ँ , वह सब तुम पसे कहो’॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म साठवाँ सग पूरा आ॥ ६० ॥



इकसठवाँ सग स ा तका नशाकर मु नको अपने पंखके जलनेका कारण बताना ‘उनके



इस कार पूछनेपर मने बना सोचे-समझे सूयका अनुगमन प जो दु र एवं दा ण काय कया था, वह सब उ बताया॥ १ ॥ ‘मने कहा—‘भगवन्! मेरे शरीरम घाव हो गया है तथा मेरी इ याँ ल ासे ाकु ल ह, इस लये अ धक क पानेके कारण म अ ी तरह बात भी नह कर सकता॥ २ ॥ ‘म और जटायु दोन ही गवसे मो हत हो रहे थे; अत: अपने परा मक थाह लगानेके लये हम दोन दूरतक प ँ चनेके उ े से उड़ने लगे॥ ३ ॥ ‘कै लास पवतके शखरपर मु नय के सामने हम दोन ने यह शत बदी थी क सूय जबतक अ ाचलपर जायँ, उसके पहले ही हम दोन को उनके पास प ँ च जाना चा हये॥ ४ ॥ ‘यह न य करके हम साथ ही आकाशम जा प ँ चे। वहाँसे पृ ीके भ - भ नगरम हम रथके प हयेके बराबर दखायी देते थे॥ ५ ॥ ‘ऊपरके लोक म कह वा का मधुर घोष हो रहा था, कह आभूषण क झनकार सुनायी पड़ती थ और कह लाल रंगक साड़ी पहने ब त-सी सु रयाँ गीत गा रही थ , ज हम दोन ने अपनी आँ ख देखा था॥ ६ ॥ ‘उससे भी ऊँ चे उड़कर हम तुरंत सूयके मागपर जा प ँ चे। वहाँसे नीचे डालकर जब दोन ने देखा, तब यहाँके जंगल हरी-हरी घासक तरह दखायी देते थे॥ ७ ॥ ‘पवत के कारण यह भू म ऐसी जान पड़ती थी, मानो इसपर प र बछाये गये ह और न दय से ढक ◌इ भू म ऐसी लगती थी, मानो उसम सूतके धागे लपेटे गये ह ॥ ८ ॥ ‘भूतलपर हमालय, मे और व आ द बड़े-बड़े पवत तालाबम खड़े ए हा थय के समान तीत होते थे। उस समय हम दोन भाइय के शरीरसे ब त पसीना नकलने लगा। हम बड़ी थकावट मालूम ◌इ। फर तो हमारे ऊपर भय, मोह और भयानक मू ाने अ धकार जमा लया॥ ९-१० ॥



‘उस समय न द



ण दशाका ान होता था, न अ कोण अथवा प म आ द दशाका ही। य प यह जगत् नय मत पसे त था, तथा प उस समय मानो युगा कालम अ से द हो गया हो, इस कार न ाय दखायी देता था॥ ११ ॥ ‘मेरा मन ने पी आ यको पाकर उसके साथ ही हत ाय हो गया—सूयके तेजसे उसक दशन-श लु हो गयी। तदन र महान् यास करके मने पुन: मन और ने को सूयदेवम लगाया। इस कार वशेष य करनेपर फर सूयदेवका दशन आ। वे हम पृ ीके बराबर ही जान पड़ते थे॥ १२-१३ ॥ ‘जटायु मुझसे पूछे बना ही पृ ीपर उतर पड़ा। उसे नीचे जाते देख मने भी तुरंत अपनेआपको आकाशसे नीचेक ओर छोड़ दया॥ १४ ॥ ‘मने अपने दोन पंख से जटायुको ढक लया था, इस लये वह जल न सका। म ही असावधानीके कारण वहाँ जल गया। वायुके पथसे नीचे गरते समय मुझे ऐसा संदेह आ क जटायु जन ानम गरा है; परंतु म इस व पवतपर गरा था। मेरे दोन पंख जल गये थे, इस लये यहाँ जडवत् हो गया॥ १५-१६ ॥ ‘रा से आ, भा◌इसे बछु ड़ गया और पंख तथा परा मसे भी हाथ धो बैठा। अब म सवथा मरनेक ही इ ासे इस पवत शखरसे नीचे ग ँ गा’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म इकसठवाँ सग पूरा आ॥ ६१ ॥



बासठवाँ सग नशाकर मु नका स ा तको सा ना देते ए उ भावी ीरामच जीके कायम सहायता देनेके लये जी वत रहनेका आदेश देना ‘वानरो!



उन मु न े से ऐसा कहकर म ब त दु:खी हो वलाप करने लगा। मेरी बात सुनकर थोड़ी देरतक ान करनेके बाद मह ष भगवान् नशाकर बोले— ‘स ाते! च ा न करो। तु ारे छोटे और बड़े दोन तरहके पंख फर नये नकल आयगे। आँ ख भी ठीक हो जायँगी तथा खोयी ◌इ ाणश , बल और परा म—सब लौट आयगे॥ २॥ ‘मने पुराणम आगे होनेवाले अनेक बड़े-बड़े काय क बात सुनी है। सुनकर तप ाके ारा भी मने उन सब बात को कया और जाना है॥ ३ ॥ ‘इ ाकु वंशक क त बढ़ानेवाले को◌इ दशरथ नामसे स राजा ह गे। उनके एक महातेज ी पु ह गे, जनक ीरामके नामसे स होगी॥ ४ ॥ ‘स परा मी ीरामच जी अपनी प ी सीता और भा◌इ ल णके साथ वनम जायँग;े इसके लये उ पताक ओरसे आ ा ा होगी॥ ५ ॥ ‘वनवास-कालम जन ानम रहते समय उनक प ी सीताको रा स का राजा रावण नामक असुर हर ले जायगा। वह देवता और दानव के लये भी अव होगा॥ ६ ॥ ‘ म थलेशकु मारी सीता बड़ी ही यश नी और सौभा वती होगी। य प रा सराजक ओरसे उसको तरह-तरहके भोग और भ -भो आ द पदाथ का लोभन दया जायगा, तथा प वह उ ीकार नह करेगी और नर र अपने प तके लये च त होकर दु:खम डू बी रहेगी॥ ७ ॥ ‘सीता रा सका अ नह हण करती—यह मालूम होनेपर देवराज इ उसके लये अमृतके समान खीर, जो देवता को दुलभ है, नवेदन करगे॥ ८ ॥ ‘उस अ को इ का दया आ जानकर जानक उसे ीकार कर लेगी और सबसे पहले उसमसे अ भाग नकालकर ीरामच जीके उ े से पृ ीपर रखकर अपण करेगी॥ ९ ॥



‘उस



समय वह इस कार कहेगी—‘मेरे प त भगवान् ीराम तथा देवर ल ण य द जी वत ह अथवा देवभावको ा हो गये ह , यह अ उनके लये सम पत है’॥ १० ॥ ‘स ाते! रघुनाथजीके भेजे ए उनके दूत वानर यहाँ सीताका पता लगाते ए आयगे। उ तुम ीरामक महारानी सीताका पता बताना॥ ११ ॥ ‘यहाँसे कसी तरह कभी दूसरी जगह न जाना। ऐसी दशाम तुम जाओगे भी कहाँ। देश और कालक ती ा करो। तु फर नये पंख ा हो जायँगे॥ १२ ॥ ‘य प म आज ही तु पंखयु कर सकता ँ ; फर भी इस लये ऐसा नह करता क यहाँ रहनेपर तुम संसारके लये हतकर काय कर सकोगे॥ १३ ॥ ‘तुम भी उन दोन राजकु मार के कायम सहायता करना। वह काय के वल उ का नह , सम ा ण , गु जन , मु नय और देवराज इ का भी है॥ १४ ॥ ‘य प म भी उन दोन भाइय का दशन करना चाहता ँ ; परंतु अ धक कालतक इन ाण को धारण करनेक इ ा नह है। अत: वह समय आनेसे पहले ही म ाण को ाग दूँगा’ ऐसा उन त दश मह षने मुझे कहा था’॥ १५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म बासठवाँ सग पूरा आ॥ ६२ ॥



तरसठवाँ सग स ा तका पंखयु



होकर वानर को उ ा हत करके उड़ जाना और वानर का वहाँसे द ण दशाक ओर ान करना



‘बातचीतक



कलाम चतुर मह ष नशाकरने ये तथा और भी ब त-सी बात कहकर मुझे समझाया और ीरामकायम सहायक बननेके कारण मेरे सौभा क सराहना क । त ात् मेरी अनुम त लेकर वे अपने आ मके भीतर चले गये॥ १ ॥ ‘तदन र क रासे धीरे-धीरे नकलकर म व पवतके शखरपर चढ़ आया और तबसे तुम लोग के आनेक बाट देख रहा ँ ॥ २ ॥ ‘मु नसे बातचीतके बाद आजतक जो समय बीता है, इसम आठ* हजारसे अ धक वष नकल गये। मु नके कथनको दयम धारण करके म देश-कालक ती ा कर रहा ँ ॥ ३ ॥ ‘ नशाकर मु न महा ान करके जब ग-लोकको चले गये, तभीसे म अनेक कारके तक- वतक से घर गया। संतापक आग मुझे रात- दन जलाती रहती है॥ ४ ॥ ‘मेरे मनम क◌इ बार ाण ागनेक इ ा ◌इ, कतु मु नके वचन को याद करके म उस संक को टालता आया ँ । उ ने मुझे ाण को रखनेके लये जो बु (स त) दी थी, वह मेरे दु:खको उसी कार दूर कर देती है, जैसे जलती ◌इ अ शखा अ कारको॥ ५१/२ ॥ ‘दुरा



ा रावणम कतना बल है, इसे म जानता ँ । इस लये मने कठोर वचन ारा अपने पु को डाँटा था क तूने म थलेशकु मारी सीताक र ा नह क ॥ ६१/२ ॥ ‘सीताका वलाप सुनकर और उनसे बछु ड़े ए ीराम तथा ल णका प रचय पाकर तथा राजा दशरथके त मेरे ेहका रण करके भी मेरे पु ने जो सीताक र ा नह क , अपने इस बतावसे उसने मुझे स नह कया—मेरा य काय नह होने दया’॥ ७१/२ ॥ वहाँ एक होकर बैठे ए वानर के साथ स ा त इस कार बात कर ही रहे थे क उन वनचारी वानर के सम उसी समय उनके दो नये पंख नकल आये॥ ८१/२ ॥ अपने शरीरको नये नकले ए लाल रंगके पंख से संयु आ देख स ा तको अनुपम हष ा आ। वे वानर से इस कार बोले—॥ ९१/२ ॥



‘क पवरो!



अ मततेज ी राज ष नशाकरके सादसे सूय करण ारा द ए मेरे दोन पंख फर उ हो गये॥ १०१/२ ॥ ‘युवाव ाम मेरा जैसा परा म और बल था, वैसे ही बल और पु षाथका इस समय म अनुभव कर रहा ँ ॥ १११/२ ॥ ‘वानरो! तुम सब कारसे य करो। न य ही तु सीताका दशन ा होगा। मुझे पंख का ा होना तुमलोग क काय- स का व ास दलानेवाला है’॥ १२१/२ ॥ उन सम वानर से ऐसा कहकर प य म े स ा त अपने आकाश-गमनक श का प रचय पानेके लये उस पवत शखरसे उड़ गये॥ १३१/२ ॥ उनक वह बात सुनकर उन े वानर का दय स तासे खल उठा। वे परा मसा अ ुदयके लये उ त हो गये॥ १४ ॥ तदन र वायुके समान परा मी वे े वानर अपने भूले ए पु षाथको फरसे पा गये और जनकन नी सीताक खोजके लये उ ुक हो अ भ जत् न से यु द ण दशाक ओर चल दये॥ १५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म तरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६३ ॥ यहाँ मूलम सा शतम् (सौ वषसे अ धक) समय बीतनेक बात कही गयी है; परंतु साठव सगके नव ोकम आठ सह वष बीतनेक चचा आयी है। अत: दोन क एकवा ताके लये यहाँ शत श को आठ सह वषका उपल ण मानना चा हये। *



च सठवाँ सग समु क वशालता देखकर वषादम पड़े ए वानर को आ ासन दे अ दका उनसे पृथक्पृथक् समु -ल नके लये उनक श पूछना



गृ राज स ा तके इस कार कहनेपर सहके समान परा मी सभी वानर बड़े स ए और पर र मलकर उछल-उछलकर गजने लगे॥ १ ॥ स ा तक बात से रावणके नवास ान तथा उसके भावी वनाशक सूचना मली थी। उ सुनकर हषसे भरे ए वे सभी वानर सीताजीके दशनक इ ा मनम लये समु के तटपर आये॥ २ ॥ उन भयंकर परा मी वानर ने उस देशम प ँ चकर समु को देखा, जो इस वराट् व के स ूण त ब क भाँ त त था॥ ३ ॥ द ण समु के उ र तटपर जाकर उन महाबली वानर वीर ने डेरा डाला॥ ४ ॥ वह समु कह तो तर हीन एवं शा होनेके कारण सोया आ-सा जान पड़ता था। अ जहाँ थोड़ीथो ड़ी लहर उठ रही थ , वहाँ वह डा करता-सा तीत होता था और दूसरे ल म जहाँ उ ाल तर उठती थ , वहाँ पवतके बराबर जलरा शय से आवृत दखायी देता था॥ ५ ॥ वह सारा समु पाताल नवासी दानवराज से ा था। उस रोमा कारी महासागरको देखकर वे सम े वानर बड़े वषादम पड़ गये॥ ६ ॥ आकाशके समान दुलङ् समु पर पात करके वे सब वानर ‘अब कै से करना चा हये’ ऐसा कहते ए एक साथ बैठकर च ा करने लगे॥ ७ ॥ उस महासागरका दशन करके सारी वानर-सेनाको वषादम डू बी ◌इ देख क प े अ द उन भयातुर वानर को आ ासन देते ए बोले—॥ ८ ॥ ‘वीरो! तु अपने मनको वषादम नह डालना चा हये; क वषादम ब त बड़ा दोष है। जैसे ोधम भरा आ साँप अपने पास आये ए बालकको काट खाता है, उसी कार वषाद पु षका नाश कर डालता है॥ ९ ॥



‘जो परा



मका अवसर आनेपर वषाद हो जाता है, उसके तेजका नाश होता है। उस तेजोहीन पु षका पु षाथ नह स होता है’॥ १० ॥ उस रा के बीत जानेपर बड़े-बड़े वानर के साथ मलकर अ दने पुन: वचार आर कया॥ ११ ॥ उस समय अ दको घेरकर बैठी ◌इ वानर क वह सेना इ को घेरकर त ◌इ देवता क वशाल वा हनीके समान शोभा पाती थी॥ १२ ॥ वा लपु अ द तथा पवनकु मार हनुमा ीको छोड़कर दूसरा कौन वीर उस वानरसेनाको सु र रख सकता था॥ १३ ॥ श ुवीर का दमन करनेवाले ीमान् अ दने उन बड़े-बूढ़े वानर का स ान करके उनसे यह अथयु बात कही—॥ १४ ॥ ‘स नो! तुमलोग म कौन ऐसा महातेज ी वीर है जो इस समय समु को लाँघ जायगा और श ुदमन सु ीवको स त बनायेगा॥ १५ ॥ ‘कौन वीर वानर सौ योजन समु को लाँघ सके गा? और कौन इन सम यूथप तय को महान् भयसे मु कर देगा?॥ १६ ॥ ‘ कसके सादसे हमलोग सफलमनोरथ एवं सुखी होकर यहाँसे लौटगे और घर- ार तथा ी-पु का मुँह देख सकगे॥ १७ ॥ ‘ कसके सादसे हमलोग हष ु होकर ीराम, महाबली ल ण तथा वानरवीर सु ीवके पास चल सकगे॥ १८ ॥ ‘य द तुमलोग मसे को◌इ वानरवीर समु को लाँघ जानेम समथ हो तो वह शी ही हम यहाँ परम प व अभय दान दे’॥ १९ ॥ अ दक यह बात सुनकर को◌इ कु छ नह बोला। वह सारी वानर-सेना वहाँ जडवत् र रही॥ २० ॥ तब वानर े अ दने पुन: उन सबसे कहा— ‘बलवान म े वानरो! तुम सब लोग ढ़तापूवक परा म कट करनेवाले हो। तु ारा ज कल र हत उ म कु लम आ है। इसके लये तु ारी बार ार शंसा हो चुक है॥ २१ ॥



े वानरो! तुमलोग म कभी कसीक भी ग त कह नह कती। इस लये समु को लाँघनेम जसक जतनी श हो, वह उसे बतावे’॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म च सठवाँ सग पूरा आ॥ ६४ ॥ ‘



पसठवाँ सग बारी-बारीसे वानर-वीर के ारा अपनी-अपनी गमनश का वणन, जा वान् और अ दक बातचीत तथा जा वा ा हनुमा ीको े रत करनेके लये उनके पास जाना



अ दक यह बात सुनकर वे सभी े वानर ल ी छलाँग मारनेके स म अपने-अपने उ ाहका—श का मश: प रचय देने लगे॥ १ ॥ गज, गवा , गवय, शरभ, ग मादन, मै , वद, सुषेण और जा वान्—इन सबने अपनी-अपनी श का वणन कया॥ २ ॥ इनमसे गजने कहा—‘म दस योजनक छलाँग मार सकता ँ ।’ गवा बोले—‘म बीस योजनतक चला जाऊँ गा’॥ ३ ॥ इसके बाद वहाँ शरभ नामक वानरने उन क पवर से कहा—‘वानरो! म तीस योजनतक एक छलाँगम चला जाऊँ गा’॥ ४ ॥ तदन र क पवर ऋषभने उन वानर से कहा—‘म चालीस योजनतक चला जाऊँ गा, इसम संशय नह है’॥ त ात् महातेज ी ग मादनने उन वानर से कहा—‘इसम संदेह नह क म पचास योजनतक एक छलाँगम चला जाऊँ गा’॥ ६ ॥ इसके बाद वहाँ वानर-वीर मै उन वानर से बोले— ‘म साठ योजनतक एक छलाँगम कू द जानेका उ ाह रखता ँ ’॥ ७ ॥ तदन र महातेज ी वद बोले—‘म स र योजनतक चला जाऊँ गा, इसम संदेह नह है’॥ ८ ॥ इसके बाद धैयशाली क प े महातेज ी सुषेण बोले—‘म एक छलाँगम असी योजनतक जानेक त ा करता ँ ’॥ ९ ॥ इस कार कहनेवाले सब वानर का स ान करके ऋ राज जा वान्, जो सबसे बूढ़े थे, बोले—॥ १० ॥ ‘पहले युवाव ाम मेरे अंदर भी दूरतक छलाँग मारनेक कु छ श थी। य प अब म उस अव ाको पार कर चुका ँ तो भी जस कायके लये वानरराज सु ीव तथा भगवान् ीराम



ढ़ न य कर चुके ह, उसक मेरे ारा उपे ा नह क जा सकती। इस समय मेरी जो ग त है, उसे आपलोग सुन। म एक छलाँगम न े योजनतक चला जाऊँ गा, इसम संशय नह है’॥ ऐसा कहकर जा वान् उन सम े वानर से पुन: इस कार बोले—‘पूवकालम मेरे अंदर इतनी ही दूरतक चलनेक श नह थी। पहले राजा ब लके य म सव ापी एवं सबके कारणभूत सनातन भगवान् व ु जब तीन पग भू म नापनेके लये अपने पैर बढ़ा रहे थे, उस समय मने उनके उस वराट् पक थोड़े ही समयम प र मा कर ली थी॥ १४-१५ ॥ ‘इस समय तो म बूढ़ा हो गया, अत: छलाँग मारनेक मेरी श ब त कम हो गयी है; कतु युवाव ाम मेरे भीतर वह महान् बल था, जसक कह तुलना नह है॥ १६ ॥ ‘आजकल तो मुझम त: चलनेक इतनी ही श है, परंतु इतनी ही ग तसे समु ल न प इस वतमान कायक स नह हो सकती’॥ १७ ॥ तदन र बु मान् महाक प अ दने उस समय जा वा ा वशेष आदर करके यह उदारतापूण बात कही—॥ १८ ॥ ‘म इस महासागरके सौ योजनक वशाल दूरीको लाँघ जाऊँ गा, कतु उधरसे लौटनेम मेरी ऐसी ही श रहेगी या नह , यह न त पसे नह कहा जा सकता’॥ १९ ॥ तब बातचीतक कलाम चतुर जा वा े क प े अ दसे कहा—‘रीछ और वानर म े युवराज! तु ारी गमनश से हमलोग भलीभाँ त प र चत ह॥ २० ॥ ‘भले ही, तुम एक लाख योजनतक चले जाओ, तथा प तुम सबके ामी हो, अत: तु भेजना हमारे लये उ चत नह है। तुम लाख योजन जाने और वहाँसे लौटनेम समथ हो॥ २१ ॥ ‘ कतु तात! वानर शरोमणे! जो सबको भेजनेवाला ामी है, वह कसी तरह े (आ ापालक) नह हो सकता। ये सब लोग तु ारे सेवक ह, तुम इ मसे कसीको भेजो॥ २२ ॥ ‘तुम



कल ( ीक भाँ त र णीय) हो, (जैसे नारी प तके दयक ा मनी होती है, उसी कार) तुम हमारे ामीके पदपर त त हो। परंतप! ामी सेनाके लये कल ( ी) के समान संर णीय होता है। यही लोकक मा ता है॥ २३ ॥ ‘श ुदमन! तात! तु उस कायके मूल हो, अत: सदा कल क भाँ त तु ारा पालन करना उ चत है॥ २४ ॥



‘कायके



मूलक र ा करनी चा हये। यही कायके त को जाननेवाले व ान क नी त है; क मूलके रहनेपर ही सभी गुण सफल स होते ह॥ २५ ॥ ‘अत: स परा मी श ुदमन वीर! तु इस कायके साधन तथा बु और परा मसे स हेतु हो॥ २६ ॥ ‘क प े ! तु हमारे गु और गु पु हो। तु ारा आ य लेकर ही हम सब लोग कायसाधनम समथ हो सकते ह’॥ २७ ॥ जब परम बु मान् जा वान् पूव बात कह चुके, तब महाक प वा लकु मार अ दने उ इस कार उ र दया—॥ २८ ॥ ‘य द म नह जाऊँ गा और दूसरा को◌इ भी े वानर जानेको तैयार न होगा, तब फर हमलोग को न त पसे मरणा उपवास ही करना चा हये॥ २९ ॥ ‘बु मान् वानरराज सु ीवके आदेशका पालन कये बना य द हमलोग क ाको लौट चल तो वहाँ जाकर भी हम अपने ाण क र ाका को◌इ उपाय नह दखायी देता॥ ३० ॥ ‘वे



हमपर कृ पा करने और अ कु पत होकर हम द देनेम भी समथ ह। उनक आ ाका उ न करके जानेपर हमारा वनाश अव ावी है॥ ३१ ॥ ‘अत: जस उपायसे इस सीता दशन पी कायक स म को◌इ कावट न पड़े, उसका आप ही वचार कर; क आपको सब बात का अनुभव है’॥ ३२ ॥ उस समय अ दके ऐसा कहनेपर वीर वानर- शरोम ण जा वा े उनसे यह उ म बात कही—॥ ३३ ॥ ‘वीर! तु ारे इस कायम को◌इ क चत् भी ु ट नह आने पायेगी। अब म ऐसे वीरको े रत कर रहा ँ , जो इस कायको स कर सके गा’॥ ३४ ॥ ऐसा कहकर वानर और भालु के वीर यूथप त जा वा े वानरसेनाके े वीर हनुमा ीको ही े रत कया, जो एका म जाकर मौजसे बैठे ए थे। उ कसी बातक च ा नह थी और वे दूरतकक छलाँग मारनेवाल म सबसे े थे॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म पसठवाँ सग पूरा आ॥ ६५ ॥



छाछठवाँ सग जा वा



ा हनुमा ीको उनक उ



कथा सुनाकर समु ल नके लये उ ा हत करना



लाख वानर क सेनाको इस तरह वषादम पड़ी देख जा वा े हनुमा ीसे कहा—॥ १ ॥ ‘वानरजग े वीर तथा स ूण शा वे बैठे हो? कु छ बोलते नह ?॥ २ ॥ ‘हनूमन्!



ा म े हनुमान्! तुम एका म आकर चुपचाप



तुम तो वानरराज सु ीवके समान परा मी हो तथा तेज और बलम ीराम और ल णके तु हो॥ ३ ॥ ‘क पजीके महाबली पु और सम प य म े जो वनतान न ग ड़ ह, उ के समान तुम भी व ात श शाली एवं ती गामी हो॥ ४ ॥ ‘महाबली महाबा प राज ग ड़को मने समु म क◌इ बार देखा है, जो बड़े-बड़े सप को वहाँसे नकाल लाते ह॥ ५ ॥ ‘उनके दोन पंख म जो बल है, वही बल, वही परा म तु ारी इन दोन भुजा म भी है। इसी लये तु ारा वेग और व म भी उनसे कम नह है॥ ६ ॥ ‘वानर शरोमणे! तु ारा बल, बु , तेज और धैय भी सम ा णय म सबसे बढ़कर है। फर तुम अपने-आपको ही समु लाँघनेके लये नह तैयार करते?॥ ७ ॥ ‘(वीरवर! तु ारे ादुभावक कथा इस कार है—) पु क ला नामसे व ात जो अ रा है, वह सम अ रा म अ ग है। तात! एक समय शापवश वह क पयो नम अवतीण ◌इ। उस समय वह वानरराज महामन ी कु रक पु ी इ ानुसार प धारण करनेवाली थी। इस भूतलपर उसके पक समानता करनेवाली दूसरी को◌इ ी नह थी। वह तीन लोक म व ात थी। उसका नाम अ ना था। वह वानरराज के सरीक प ी ◌इ॥ ८-९१/२ ॥ ‘एक दनक बात है, प और यौवनसे सुशो भत होनेवाली अ ना मानवी ीका शरीर धारण करके वषाकालके मेघक भाँ त ाम का वाले एक पवत- शखरपर वचर रही थी।



उसके अ पर रेशमी साड़ी शोभा पाती थी। वह फू ल के व च आभूषण से वभू षत थी॥ १०-११ ॥ ‘उस वशाललोचना बालाका सु र व तो पीले रंगका था, कतु उसके कनारेका रंग लाल था। वह पवतके शखरपर खड़ी थी। उसी समय वायुदेवताने उसके उस व को धीरेसे हर लया॥ १२ ॥ ‘त ात् उ ने उसक पर र सटी ◌इ गोल-गोल जाँघ , एक-दूसरेसे लगे ए पीन उरोज तथा मनोहर मुखको भी देखा॥ १३ ॥ ‘उसके नत ऊँ चे और व ृत थे। क टभाग ब त ही पतला था। उसके सारे अ परम सु र थे। इस कार बलपूवक यश नी अ नाके अ का अवलोकन करके पवन देवता कामसे मो हत हो गये॥ ‘उनके स ूण अ म कामभावका आवेश हो गया। मन अ नाम ही लग गया। उ ने उस अ न सु रीको अपनी दोन वशाल भुजा म भरकर दयसे लगा लया॥ १५ ॥ ‘अ ना उ म तका पालन करनेवाली सती नारी थी। अत: उस अव ाम पड़कर वह वह घबरा उठी और बोली—‘कौन मेरे इस पा त का नाश करना चाहता है’?॥ १६ ॥ अ नाक बात सुनकर पवनदेवने उ र दया—‘सु ो ण! म तु ारे एकप ी- तका नाश नह कर रहा ँ । अत: तु ारे मनसे यह भय दूर हो जाना चा हये॥ १७ ॥ ‘यश न! मने अ पसे तु ारा आ ल न करके मान सक संक के ारा तु ारे साथ समागम कया है। इससे तु बल-परा मसे स एवं बु मान् पु ा होगा॥ १८ ॥ ‘वह महान् धैयवान्, महातेज मेरे समान होगा’॥ १९ ॥ ‘महाकपे!



ी, महाबली, महापरा मी तथा लाँघने और छलाँग मारनेम



वायुदेवके ऐसा कहनेपर तु ारी माता स हो गय । महाबाहो! वानर े ! फर उ ने तु एक गुफाम ज दया॥ २० ॥ ‘बा ाव ाम एक वशाल वनके भीतर एक दन उ दत ए सूयको देखकर तुमने समझा क यह भी को◌इ फल है; अत: उसे लेनेके लये तुम सहसा आकाशम उछल पड़े॥ २१ ॥



‘महाकपे! तीन सौ योजन ऊँ चे जानेके बाद सूयके खेद या च ा नह ◌इ॥ २२ ॥ ‘क प



तेजसे आ ा होनेपर भी तु ारे मनम



वर! अ र म जाकर जब तुरंत ही तुम सूयके पास प ँ च गये, तब इ ने कु पत होकर तु ारे ऊपर तेजसे का शत व का हार कया॥ २३ ॥ ‘उस समय उदय ग रके शखरपर तु ारे हनु (ठोड़ी) का बायाँ भाग व क चोटसे ख त हो गया। तभीसे तु ारा नाम हनुमान् पड़ गया॥ २४ ॥ ‘तुमपर हार कया गया है, यह देखकर ग वाहक वायुदेवताको बड़ा ोध आ। उन भ नदेवने तीन लोक म वा हत होना छोड़ दया॥ २५ ॥ ‘इससे स ूण देवता घबरा गये; क वायुके अव हो जानेसे तीन लोक म खलबली मच गयी थी। उस समय सम लोकपाल कु पत ए वायुदेवको मनाने लगे॥ २६ ॥ ‘स परा मी तात! पवनदेवके स होनेपर ाजीने तु ारे लये यह वर दया क तुम समरा णम कसी भी अ -श के ारा मारे नह जा सकोगे॥ २७ ॥ ‘ भो! व के हारसे भी तु पी ड़त न देखकर सह ने धारी इ के मनम बड़ी स ता ◌इ और उ ने तु ारे लये यह उ म वर दया—‘मृ ु तु ारी इ ाके अधीन होगी—तुम जब चाहोगे, तभी मर सकोगे, अ था नह ’॥ २८१/२ ॥ ‘इस कार तुम के सरीके े ज पु हो। तु ारा परा म श ु के लये भयंकर है। तुम वायुदेवके औरस पु हो, इस लये तेजक से भी उ के समान हो॥ २९१/२ ॥ ‘व ! तुम पवनके पु हो, अत: छलाँग मारनेम भी उ के तु हो। हमारी ाणश अब चली गयी। इस समय तु हमलोग म दूसरे वानरराजक भाँ त चातुय एवं पौ षसे स हो॥ ३०-३१ ॥ ‘तात! भगवान् वामनने लोक को नापनेके लये जब पैर बढ़ाया था, उस समय मने पवत, वन और कानन स हत समूची पृ ीक इ स बार द णा क थी॥ ३२ ॥ ‘समु -म नके समय देवता क आ ासे हमने उन ओष धय का संचय कया था, जनके ारा अमृतको मथकर नकालना था। उन दन हमम महान् बल था॥ ३३ ॥ ‘अब तो म बूढ़ा हो गया ँ । मेरा परा म घट गया है। इस समय हमलोग म तु सब कारके गुण से स हो॥ ३४ ॥



‘अत:



परा मी वीर! तुम अपने असीम बलका व ार करो। छलाँग मारनेवाल म तुम सबसे े हो। यह सारी वानरसेना तु ारे बल-परा मको देखना चाहती है॥ ३५ ॥ ‘वानर े हनुमान्! उठो और इस महासागरको लाँघ जाओ; क तु ारी ग त सभी ा णय से बढ़कर है॥ ३६ ॥ ‘हनुमन्! सम वानर च ाम पड़े ह। तुम इनक उपे ा करते हो? महान् वेगशाली वीर! जैसे भगवान् व ुने लोक को नापनेके लये तीन पग बढ़ाये थे, उसी कार तुम भी अपने पैर बढ़ाओ’॥ ३७ ॥ इस कार वानर और भालु म े जा वा ेरणा पाकर क पवर पवनकु मार हनुमा ो अपने महान् वेगपर व ास हो आया। उ ने वानर वीर क उस सेनाका हष बढ़ाते ए उस समय अपना वरा ूप कट कया॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म छाछठवाँ सग पूरा आ॥ ६६ ॥



सरसठवाँ सग हनुमा ीका समु लाँघनेके लये उ ाह कट करना, जा वा े ारा उनक शंसा तथा वेगपूवक छलाँग मारनेके लये हनुमा ीका महे पवतपर चढ़ना



सौ योजनके समु को लाँघनेके लये वानर े हनुमा ीको सहसा बढ़ते और वेगसे प रपूण होते देख सब वानर तुरंत शोक छोड़कर अ हषसे भर गये और महाबली हनुमा ीक ु त करते ए जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ १-२ ॥ वे उनके चार ओर खड़े हो स एवं च कत होकर उ इस कार देखने लगे, जैसे उ ाहयु नारायणावतार वामनजीको सम जाने देखा था॥ ३ ॥ अपनी शंसा सुनकर महाबली हनुमा े शरीरको और भी बढ़ाना आर कया। साथ ही हषके साथ अपनी पूँछको बार ार घुमाकर अपने महान् बलका रण कया॥ ४ ॥ बड़े-बूढ़े वानर शरोम णय के मुखसे अपनी शंसा सुनते और तेजसे प रपूण होते ए हनुमा ीका प उस समय बड़ा ही उ म तीत होता था॥ ५ ॥ जैसे पवतक व ृत क राम सह अँगड़ा◌इ लेता है, उसी कार वायुदेवताके औरस पु ने उस समय अपने शरीरको अँगड़ा◌इ ले-लेकर बढ़ाया॥ ६ ॥ जँभा◌इ लेते समय बु मान् हनुमा ीका दी मान् मुख जलते ए भाड़ तथा धूमर हत अ के समान शोभा पा रहा था॥ ७ ॥ वे वानर के बीचसे उठकर खड़े हो गये। उनके स ूण शरीरम रोमा हो आया। उस अव ाम हनुमा ीने बड़े-बूढ़े वानर को णाम करके इस कार कहा—॥ ८ ॥ ‘आकाशम वचरनेवाले वायुदेवता बड़े बलवान् ह। उनक श क को◌इ सीमा नह है। वे अ देवके सखा ह और अपने वेगसे बड़े-बड़े पवत- शखर को भी तोड़ डालते ह॥ ९ ॥ ‘अ शी वेगसे चलनेवाले उन शी गामी महा ा वायुका म औरस पु ँ और छलाँग मारनेम उ के समान ँ ॥ १० ॥ ‘क◌इ सह योजन तक फै ले ए मे ग रक , जो आकाशके ब त बड़े भागको ढके ए है और उसम रेखा ख चता-सा जान पड़ता है, म बना व ाम लये सह बार प र मा कर सकता ँ ॥ ११ ॥



‘अपनी



भुजा के वेगसे समु को व ु करके उसके जलसे म पवत, नदी और जलाशय स हत स ूण जग ो आ ा वत कर सकता ँ ॥ १२ ॥ ‘व णका नवास ान यह महासागर मेरी जाँघ और पड लय के वेगसे व ु हो उठे गा और इसके भीतर रहनेवाले बड़े-बड़े ाह ऊपर आ जायँगे॥ १३ ॥ ‘सम प ी जनक सेवा करते ह, वे सपभोजी वनतान न ग ड़ आकाशम उड़ते ह तो भी म हजार बार उनके चार ओर घूम सकता ँ ॥ १४ ॥ ‘ े वानरो! उदयाचलसे चलकर अपने तेजसे लत होते ए सूयदेवको म अ होनेसे पहले ही छू सकता ँ और वहाँसे पृ ीतक आकर यहाँ पैर रखे बना ही पुन: उनके पासतक बड़े भयंकर वेगसे जा सकता ँ ॥ १५-१६ ॥ ‘आकाशचारी सम ह-न आ दको लाँघकर आगे बढ़ जानेका उ ाह रखता ँ । म चा ँ तो समु को सोख लूँगा, पृ ीको वदीण कर दूँगा और कू द-कू दकर पवत को चूर-चूर कर डालूँगा; क म दूरतकक छलाँग मारनेवाला वानर ँ । महान् वेगसे महासागरको फाँदता आ म अव उसके पार प ँ च जाऊँ गा॥ ‘आज आकाशम वेगपूवक जाते समय लता और वृ के नाना कारके फू ल मेरे साथसाथ उड़ते जायँगे॥ १९ ॥ ‘ब त-से फू ल बखरे होनेके कारण मेरा माग आकाशम अनेक न पु से सुशो भत ा तमाग (छायापथ) के समान तीत होगा। वानरो! आज सम ाणी मुझे भयंकर आकाशम सीधे जाते ए, ऊपर उछलते ए और नीचे उतरते ए देखगे॥ २०१/२ ॥ ‘क पवरो! तुम देखोगे, म महा ग र मे के समान वशाल शरीर धारण करके गको ढकता और आकाशको नगलता आ-सा आगे बढँ गा, बादल को छ - भ कर डालूँगा, पवत को हला दूँगा और एक च हो छलाँग मारकर आगे बढ़नेपर समु को भी सुखा दूँगा॥ २१-२२ ॥ ‘ वनतान न ग डम, मुझम अथवा वायुदेवताम ही समु को लाँघ जानेक श है। प राज ग ड अथवा महाबली वायुदेवताके सवा और कसी ाणीको म ऐसा नह देखता, जो यहाँसे छलाँग मारनेपर मेरे साथ जा सके ॥ २३ ॥



‘मेघसे







◌इ व ु



भाँ त म पलक मारते-मारते सहसा नराधार आकाशम उड़



जाऊँ गा॥ २४ ॥ ‘समु को लाँघते समय मेरा वही प कट होगा, जो तीन पग को बढ़ाते समय वामन पधारी भगवान् व ुका आ था॥ २५ ॥ ‘वानरो! म बु से जैसा देखता या सोचता ँ , मेरे मनक चे ा भी उसके अनु प ही होती है। मुझे न य जान पड़ता है क म वदेहकु मारीका दशन क ँ गा, अत: अब तुमलोग खु शयाँ मनाओ॥ २६ ॥ ‘म वेगम वायुदेवता तथा ग डके समान ँ । मेरा तो ऐसा व ास है क इस समय म दस हजार योजनतक जा सकता ँ ॥ २७ ॥ ‘व धारी इ अथवा य ू ाजीके हाथसे भी म बलपूवक अमृत छीनकर सहसा यहाँ ला सकता ँ । समूची ल ाको भी भू मसे उखाड़कर हाथपर उठाये चल सकता ँ । ऐसा मेरा व ास है’॥ २८१/२ ॥ अ मततेज ी वानर े हनुमा ी जब इस कार गजना कर रहे थे, उस समय स ूण वानर अ हषम भरकर च कतभावसे उनक ओर देख रहे थे॥ २९१/२ ॥ हनुमा ीक बात भा◌इ-ब ुव के शोकको न करनेवाली थ । उ सुनकर वानरसेनाप त जा वा ो बड़ी स ता ◌इ। वे बोले—॥ ३०१/२ ॥ ‘वीर! के सरीके सुपु ! वेगशाली पवनकु मार! तात! तुमने अपने ब ु का महान् शोक न कर दया॥ ३११/२ ॥ ‘यहाँ आये ए सभी े वानर तु ारे क ाणक कामना करते ह। अब ये कायक स के उ े से एका च हो तु ारे लये म लकृ — वाचन आ दका अनु ान करगे॥ ३२१/२ ॥ ‘ऋ षय के साद, वृ वानर क अनुम त तथा गु जन क कृ पासे तुम इस महासागरके पार हो जाओ॥ ३३१/२ ॥ ‘जबतक तुम लौटकर यहाँ आओगे, तबतक हम तु ारी ती ाम एक पैरसे खड़े रहगे; क हम सब वानर का जीवन तु ारे ही अधीन है’॥ ३४१/२ ॥



तदन र क प े हनुमा े उन वनवासी वानर से कहा—‘जब म यहाँसे छलाँग मा ँ गा, उस समय संसारम को◌इ भी मेरे वेगको धारण नह कर सके गा॥ ३५१/२ ॥ ‘ शला के समूहसे शोभा पानेवाले के वल इस महे पवतके ये शखर ही ऊँ चे-ऊँ चे और र ह, जनपर नाना कारके वृ फै ले ए ह तथा गै रक ६१९ आ द धातु के समुदाय शोभा दे रहे ह। इन महे - शखर पर ही वेगपूवक पैर रखकर म यहाँसे छलाँग मा ँ गा॥ ३६-३७१/२ ॥ ‘यहाँसे सौ योजनके लये छलाँग मारते समय महे पवतके ये महान् शखर ही मेरे वेगको धारण कर सकगे’॥ ३८१/२ ॥ य कहकर वायुके समान महापरा मी श ुमदन पवनकु मार हनुमा ी पवत म े महे पर चढ़ गये॥ ३९ ॥ वह पवत नाना कारके पु यु वृ से भरा आ था, व पशु वहाँक हरी-हरी घास चर रहे थे, लता और फू ल से वह सघन जान पड़ता था और वहाँके वृ म सदा ही फल-फू ल लगे रहते थे॥ ४० ॥ महे पवतके वन म सह और बाघ भी नवास करते थे, मतवाले गजराज वचरते थे, मदम प य के समूह सदा कलरव कया करते थे तथा जलके ोत और झरन से वह पवत ा दखायी देता था॥ ४१ ॥ बड़े-बड़े शखर से ऊँ चे तीत होनेवाले महे पवतपर आ ढ़ हो इ तु परा मी महाबली क प े हनुमान् वहाँ इधर-उधर टहलने लगे॥ ४२ ॥ महाकाय हनुमा ीके दोन पैर से दबा आ वह महान् पवत सहसे आ ा ए महान् मदम गजराजक भाँ त ची ार-सा करने लगा (वहाँ रहनेवाले ा णय का श ही मानो उसका आत ची ार था)॥ ४३ ॥ उसके शलासमूह इधर-उधर बखर गये। उससे नये-नये झरने फू ट नकले। वहाँ रहनेवाले मृग और हाथी भयसे थरा उठे और बड़े-बड़े वृ झ के खाकर झूमने लगे॥ ४४ ॥ मधुपानके संसगसे उ त च वाले अनेकानेक ग व के जोड़े, व ाधर के समुदाय और उड़ते ए प ी भी उस पवतके वशाल शखर को छोड़कर जाने लगे। बड़े-बड़े सप बल म



छप गये तथा उस पवतके शखर से बड़ी-बड़ी शलाएँ टूट-टूटकर गरने लग । इस कार वह महान् पवत बड़ी दुरव ाम पड़ गया॥ ४५-४६ ॥ बल से अपने आधे शरीरको बाहर नकालकर ल ी साँस ख चते ए सप से उपल त होनेवाला वह महान् पवत उस समय अनेकानेक पताका से अलंकृत-सा तीत होता था॥ ४७ ॥



भयसे घबराये ए ऋ ष-मु न भी उस पवतको छोड़ने लगे। जैसे वशाल दुगम वनम अपने सा थय से बछु ड़ा आ एक राही भारी वप म फँ स जाता है, यही दशा उस महान् पवत महे क हो रही थी॥ ४८ ॥ श ुवीर का संहार करनेवाले वानरसेनाके े वीर वेगशाली महामन ी महानुभाव हनुमा ीका मन वेगपूवक छलाँग मारनेक योजनाम लगा आ था। उ ने च को एका करके मन-ही-मन ल ाका रण कया॥ ४९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के क ाका म सरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६७ ॥ ॥ क



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॥ ीसीतारामच ा ां नम:॥



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ीक य रामायण सु रका पहला सग



हनुमा ीके ारा समु का ल न, मैनाकके ारा उनका ागत, सुरसापर उनक वजय तथा स हकाका वध करके उनका समु के उस पार प ँ चकर लंकाक शोभा देखना



तदन र श ु का संहार करनेवाले हनुमा ीने रावण ारा हरी गयी सीताके नवास ानका पता लगानेके लये उस आकाशमागसे जानेका वचार कया, जसपर चारण (देवजा त वशेष) वचरा करते ह॥ १ ॥ क पवर हनुमा ी ऐसा कम करना चाहते थे, जो दूसर के लये दु र था तथा उस कायम उ कसी और क सहायता भी नह ा थी। उ ने म क और ीवा ऊँ ची क । उस समय वे -पु साँड़के समान तीत होने लगे॥ २ ॥ फर धीर भाववाले वे महाबली पवनकु मार वैदयू म ण (नीलम) और समु के जलक भाँ त हरी-हरी घासपर सुखपूवक वचरने लगे॥ ३ ॥ उस समय बु मान् हनुमा ी प य को ास देत,े वृ को व : लके आघातसे धराशायी करते तथा ब त-से मृग (वन-ज ु ) को कु चलते ए परा मम बढ़े-चढ़े सहके समान शोभा पा रहे थे॥ ४ ॥ उस पवतका जो तल देश था, वह पहाड़ म भावसे ही उ होनेवाली नीली, लाल, मजीठ और कमलके -से रंगवाली ेत तथा ाम वणवाली नमल धातु से अ ी तरह अलंकृत था॥ ५ ॥ उसपर देवोपम य , क र, ग व और नाग, जो इ ानुसार प धारण करनेवाले थे, नर र प रवारस हत नवास करते थे॥ ६ ॥



बड़े-बड़े गजराज से भरे ए उस पवतके समतल देशम खड़े ए क पवर हनुमा ी वहाँ जलाशयम त ए वशालकाय हाथीके समान जान पड़ते थे॥ उ ने सूय, इ , पवन, ा और भूत (देवयो न वशेष ) को भी हाथ जोड़कर उस पार जानेका वचार कया॥ ८ ॥ फर पूवा भमुख होकर अपने पता पवनदेवको णाम कया। त ात् कायकु शल हनुमा ी द ण दशाम जानेके लये बढ़ने लगे (अपने शरीरको बढ़ाने लगे)॥ ९ ॥ बड़े-बड़े वानर ने देखा, जैसे पू णमाके दन समु म ार आने लगता है, उसी कार समु -ल नके लये ढ़ न य करनेवाले हनुमा ी ीरामक काय- स के लये बढ़ने लगे॥ १० ॥ समु को लाँघनेक इ ासे उ ने अपने शरीरको बेहद बढ़ा लया और अपनी दोन भुजा तथा चरण से उस पवतको दबाया॥ ११ ॥ क पवर हनुमा ीके ारा दबाये जानेपर तुरंत ही वह पवत काँप उठा और दो घड़ीतक डगमगाता रहा। उसके ऊपर जो वृ उगे थे, उनक डा लय के अ भाग फू ल से लदे ए थे; कतु उस पवतके हलनेसे उनके वे सारे फू ल झड़ गये॥ १२ ॥ वृ से झड़ी ◌इ उस सुग त पु रा शके ारा सब ओरसे आ ा दत आ वह पवत ऐसा जान पड़ता था, मानो वह फू ल का ही बना आ हो॥ १३ ॥ महापरा मी हनुमा ीके ारा दबाया जाता आ महे पवत जलके ोत बहाने लगा, मानो को◌इ मदम गजराज अपने कु लसे मदक धारा बहा रहा हो॥ १४ ॥ बलवान् पवनकु मारके भारसे दबा आ महे ग र सुनहरे, पहले और काले रंगके जल ोत वा हत करने लगा॥ १५ ॥ इतना ही नह , जैसे म म ालासे यु अ लगातार धुआँ छोड़ रही हो, उसी कार वह पवत मैन सलस हत बड़ी-बड़ी शलाएँ गराने लगा॥ १६ ॥ हनुमा ीके उस पवत-पीडनसे पी ड़त होकर वहाँके सम जीव गुफा म घुसे ए बुरी तरहसे च ाने लगे॥ १७ ॥ इस कार पवतको दबानेके कारण उ आ वह जीव-ज ु का महान् कोलाहल पृ ी, उपवन और स ूण दशा म भर गया॥ १८ ॥



जनम क* च दखायी दे रहे थे, उन ूल फण से वषक भयानक आग उगलते ए बड़े-बड़े सप उस पवतक शला को अपने दाँत से डँ सने लगे॥ १९ ॥ ोधसे भरे ए उन वषैले साँप के काटनेपर वे बड़ी- बड़ी शलाएँ इस कार जल उठ , मानो उनम आग लग गयी हो। उस समय उन सबके सह टुकड़े हो गये॥ २० ॥ उस पवतपर जो ब त-सी ओष धयाँ उगी ◌इ थ , वे वषको न करनेवाली होनेपर भी उन नाग के वषको शा न कर सक ॥ २१ ॥ उस समय वहाँ रहनेवाले तप ी और व ाधर ने समझा क इस पवतको भूतलोग तोड़ रहे ह, इससे भयभीत होकर वे अपनी य के साथ वहाँसे ऊपर उठकर अ र म चले गये॥ २२ ॥ मधुपानके ानम रखे ए सुवणमय आसवपा , ब मू बतन, सोनेके कलश, भाँ तभाँ तके भ पदाथ, चटनी, नाना कारके फल के गूदे, बैल क खालक बनी ◌इ ढाल और सुवणज टत मूठवाली तलवार छोड़कर क म माला धारण कये, लाल रंगके फू ल और अनुलेपन (च न) लगाये, फु कमलके स श सु र एवं लाल ने वाले वे मतवाले व ाधरगण भयभीत-से होकर आकाशम चले गये॥ २३—२५ ॥ उनक याँ गलेम हार, पैर म नूपुर,भुजा म बाजूबंद और कलाइय म कं गन धारण कये आकाशम अपने प तय के साथ म -म मुसकराती ◌इ च कत-सी खड़ी हो गय ॥ २६ ॥



व ाधर और मह ष अपनी महा व ा (आकाशम नराधार खड़े होनेक श )-का प रचय देते ए अ र म एक साथ खड़े हो गये और उस पवतक ओर देखने लगे॥ २७ ॥ उ ने उस समय नमल आकाशम खड़े ए भा वता ा (प व अ :करणवाले) मह षय , चारण और स क ये बात सुन —॥ २८ ॥ ‘अहा! ये पवतके समान वशालकाय महान् वेगशाली पवनपु हनुमा ी व णालय समु को पार करना चाहते ह॥ २९ ॥ ‘ ीरामच जी और वानर के कायक स के लये दु र कम करनेक इ ा रखनेवाले ये पवनकु मार समु के दूसरे तटपर प ँ चना चाहते ह, जहाँ जाना अ क ठन है’॥ ३० ॥



इस कार व ाधर ने उन तप ी महा ा क कही ◌इ ये बात सुनकर पवतके ऊपर अतु लत बलशाली वानर शरोम ण हनुमा ीको देखा॥ ३१ ॥ उस समय हनुमा ी अ के समान जान पड़ते थे। उ ने अपने शरीरको हलाया और रोएँ झाड़े तथा महान् मेघके समान बड़े जोर-जोरसे गजना क ॥ ३२ ॥ हनुमा ी अब ऊपरको उछलना ही चाहते थे। उ ने मश: गोलाकार मुड़ी तथा रोमाव लय से भरी ◌इ अपनी पूँछको उसी कार आकाशम फ का, जैसे प राज ग ड़ सपको फ कते ह॥ ३३ ॥ अ वेगशाली हनुमा ीके पीछे आकाशम फै ली ◌इ उनक कु छ-कु छ मुड़ी ◌इ पूँछ ग ड़के ारा ले जाये जाते ए महान् सपके समान दखायी देती थी॥ ३४ ॥ उ ने अपनी वशाल प रघके समान भुजा को पवतपर जमाया। फर ऊपरके सब अंग को इस तरह सकोड़ लया क वे क टक सीमाम ही आ गये; साथ ही उ ने दोन पैर को भी समेट लया॥ ३५ ॥ त ात् तेज ी और परा मी हनुमा ीने अपनी दोन भुजा और गदनको भी सकोड़ लया। इस समय उनम तेज, बल और परा म—सभीका आवेश आ॥ ३६ ॥ उ ने अपने ल े मागपर दौड़ानेके लये ने को ऊपर उठाया और आकाशक ओर देखते ए ाण को दयम रोका॥ ३७ ॥ इस कार ऊपरको छलाँग मारनेक तैयारी करते ए क प े महाबली हनुमा े अपने पैर को अ ी तरह जमाया और कान को सकोड़कर उन वानर शरोम णने अ वानर से इस कार कहा—॥ ३८१/२ ॥ ‘जैसे ीरामच जीका छोड़ा आ बाण वायुवेगसे चलता है, उसी कार म रावण ारा पा लत लंकापुरीम जाऊँ गा॥ ३९१/२ ॥ ‘य द लंकाम जनकन नी सीताको नह देखूँगा तो इसी वेगसे म गलोकम चला जाऊँ गा॥ ४०१/२ ॥ ‘इस कार प र म करनेपर य द मुझे गम भी सीताका दशन नह होगा तो रा सराज रावणको बाँधकर लाऊँ गा॥ ४११/२ ॥



कृ तकृ होकर म सीताके साथ लौटूँगा अथवा रावणस हत लंकापुरीको ही उखाड़कर लाऊँ गा’॥ ४२ ॥ ऐसा कहकर वेगशाली वानर वर ीहनुमा ीने व -बाधा का को◌इ वचार न करके बड़े वेगसे ऊपरक ओर छलाँग मारी। उस समय उन वानर शरोम णने अपनेको सा ात् ग ड़के समान ही समझा॥ ४३-४४ ॥ जस समय वे कू दे, उस समय उनके वेगसे आकृ हो पवतपर उगे ए सब वृ उखड़ गये और अपनी सारी डा लय को समेटकर उनके साथ ही सब ओरसे वेगपूवक उड़ चले॥ ४५ ॥ वे हनुमा ी मतवाले कोय आ द प य से यु , ब सं क पु शो भत वृ को अपने महान् वेगसे ऊपरक ओर ख चते ए नमल आकाशम अ सर होने लगे॥ ४६ ॥ उनक जाँघ के महान् वेगसे ऊपरको उठे ए वृ एक मु ततक उनके पीछे-पीछे इस कार गये, जैसे दूर-देशके पथपर जानेवाले अपने भा◌इ-ब ुको उसके ब -ु बा व प ँ चाने जाते ह॥ ४७ ॥ हनुमा ीक जाँघ के वेगसे उखड़े ए साल तथा दूसरे-दूसरे े वृ उनके पीछे-पीछे उसी कार चले, जैसे राजाके पीछे उसके सै नक चलते ह॥ ४८ ॥ जनक डा लय के अ भाग फू ल से सुशो भत थे, उन ब तेरे वृ से संयु ए पवताकार हनुमा ी अ तु शोभासे स दखायी दये॥ ४९ ॥ उन वृ मसे जो भारी थे, वे थोड़ी ही देरम गरकर ारसमु म डू ब गये। ठीक उसी तरह, जैसे कतने ही पंखधारी पवत देवराज इ के भयसे व णालयम नम हो गये थे॥ ५० ॥ मेघके समान वशालकाय हनुमा ी अपने साथ ख चकर आये ए वृ के अंकुर और कोरस हत फू ल से आ ा दत हो जुगुनु क जगमगाहटसे यु पवतके समान शोभा पाते थे॥ ५१ ॥ वे वृ जब हनुमा ीके वेगसे मु हो जाते (उनके आकषणसे छू ट जाते), तब अपने फू ल बरसाते ए इस कार समु के जलम डू ब जाते थे, जैसे सु गके लोग परदेश जानेवाले अपने कसी ब ुको दूरतक प ँ चाकर लौट आते ह॥ ५२ ॥ हनुमा ीके शरीरसे उठी ◌इ वायुसे े रत हो वृ के भाँ त-भाँ तके पु अ हलके होनेके कारण जब समु म गरते थे, तब डू बते नह थे। इस लये उनक व च शोभा होती थी। ‘सवथा



उन फू ल के कारण वह महासागर तार से भरे ए आकाशके समान सुशो भत होता था॥ ५३ ॥ अनेक रंगक सुग त पु रा शसे उपल त वानर-वीर हनुमा ी बजली-से सुशो भत होकर उठते ए मेघके समान जान पड़ते थे॥ ५४ ॥ उनके वेगसे झड़े ए फू ल के कारण समु का जल उगे ए रमणीय तार से ख चत आकाशके समान दखायी देता था॥ ५५ ॥ आकाशम फै लायी गयी उनक दोन भुजाएँ ऐसी दखायी देती थ , मानो कसी पवतके शखरसे पाँच फनवाले दो सप नकले ए ह ॥ ५६ ॥ उस समय महाक प हनुमान् ऐसे तीत होते थे, मानो तर माला स हत महासागरको पी रहे ह । वे ऐसे दखायी देते थे, मानो आकाशको भी पी जाना चाहते ह ॥ ५७ ॥ वायुके मागका अनुसरण करनेवाले हनुमा ीके बजलीक -सी चमक पैदा करनेवाले दोन ने ऐसे का शत हो रहे थे, मानो पवतपर दो ान म लगे ए दावानल दहक रहे ह ॥ ५८ ॥ पगल ने वाले वानर म े हनुमा ीक दोन गोल बड़ी-बड़ी और पीले रंगक आँ ख च मा और सूयके समान का शत हो रही थ ॥ ५९ ॥ लाल-लाल ना सकाके कारण उनका सारा मुँह लाली लये ए था, अत: वह सं ाकालसे संयु सूयम लके समान सुशो भत होता था॥ ६० ॥ आकाशम तैरते ए पवनपु हनुमा उठी ◌इ टेढ़ी पूँछ इ क ऊँ ची जाके समान जान पड़ती थी॥ ६१ ॥ महाबु मान् पवनपु हनुमा ीक दाढ़ सफे द थ और पूँछ गोलाकार मुड़ी ◌इ थी। इस लये वे प र धसे घरे ए सूयम लके समान जान पड़ते थे॥ उनक कमरके नीचेका भाग ब त लाल था। इससे वे महाक प हनुमान् फटे ए गे से यु वशाल पवतके समान शोभा पाते थे॥ ६३ ॥



ऊपर-ऊपरसे समु को पार करते ए वानर सह हनुमा वायु बादलके समान गरजती थी॥ ६४ ॥



काँखसे होकर नकली ◌इ



जैसे ऊपरक दशासे कट ◌इ पु यु उ ा आकाशम जाती देखी जाती है, उसी कार अपनी पूँछके कारण क प े हनुमा ी भी दखायी देते थे॥ ६५ ॥ चलते ए सूयके समान वशालकाय हनुमा ी अपनी पूँछके कारण ऐसी शोभा पा रहे थे, मानो को◌इ बड़ा गजराज अपनी कमरम बँधी ◌इ र ीसे सुशो भत हो रहा हो॥ ६६ ॥ हनुमा ीका शरीर समु से ऊपर-ऊपर चल रहा था और उनक परछा◌इं जलम डू बी ◌इ-सी दखायी देती थी। इस कार शरीर और परछा◌इं दोन से उपल त ए वे क पवर हनुमान् समु के जलम पड़ी ◌इ उस नौकाके समान तीत होते थे, जसका ऊपरी भाग (पाल) वायुसे प रपूण हो और न भाग समु के जलसे लगा आ हो॥ ६७ ॥ वे समु के जस- जस भागम जाते थे, वहाँ-वहाँ उनके अंगके वेगसे उ ाल तर उठने लगती थ । अत: वह भाग उ ( व ु )-सा दखायी देता था॥ ६८ ॥ महान् वेगशाली महाक प हनुमान् पवत के समान ऊँ ची महासागरक तर माला को अपनी छातीसे चूर-चूर करते ए आगे बढ़ रहे थे॥ ६९ ॥ क प ेठ हनुमा े शरीरसे उठी ◌इ तथा मेघ क घटाम ा ◌इ बल वायुने भीषण गजना करनेवाले समु म भारी हलचल मचा दी॥ ७० ॥ वे क पके सरी अपने च वेगसे समु म ब त-सी ऊँ ची-ऊँ ची तर को आक षत करते ए इस कार उड़े जा रहे थे, मानो पृ ी और आकाश दोन को व ु कर रहे ह॥ ७१ ॥ वे महान् वेगशाली वानरवीर उस महासमु म उठी ◌इ सुमे और म राचलके समान उ ाल तर क मानो गणना करते ए आगे बढ़ रहे थे॥ ७२ ॥ उस समय उनके वेगसे ऊँ चे उठकर मेघम लके साथ आकाशम त आ समु का जल शर ालके फै ले ए मेघ के समान जान पड़ता था॥ ७३ ॥ जल हट जानेके कारण समु के भीतर रहनेवाले मगर, नाक , मछ लयाँ और कछु ए साफसाफ दखायी देते थे। जैसे व ख च लेनेपर देहधा रय के शरीर नंगे दीखने लगते ह॥ ७४ ॥ समु म वचरनेवाले सप आकाशम जाते ए क प े हनुमा ीको देखकर उ ग ड़के ही समान समझने लगे॥ ७५ ॥ क पके सरी हनुमा ीक दस योजन चौड़ी और तीस योजन ल ी छाया वेगके कारण अ रमणीय जान पड़ती थी॥ ७६ ॥



खारे पानीके समु म पड़ी ◌इ पवनपु हनुमा ा अनुसरण करनेवाली उनक वह छाया ेत बादल क पं के समान शोभा पाती थी॥ ७७ ॥ वे परम तेज ी महाकाय महाक प हनुमान् आल नहीन आकाशम पंखधारी पवतके समान जान पड़ते थे॥ ७८ ॥ वे बलवान् क प े जस मागसे वेगपूवक नकल जाते थे, उस मागसे संयु समु सहसा कठौते या कड़ाहके समान हो जाता था (उनके वेगसे उठी ◌इ वायुके ारा वहाँका जल हट जानेसे वह ान कठौते आ दके समान गहरा-सा दखायी पड़ता था)॥ ७९ ॥ प ी-समूह के उड़नेके मागम प राज ग ड़क भाँ त जाते ए हनुमान् वायुके समान मेघमाला को अपनी ओर ख च लेते थे॥ ८० ॥ हनुमा ीके ारा ख चे जाते ए वे ेत, अ ण, नील और मजीठके -से रंगवाले बड़े-बड़े मेघ वहाँ बड़ी शोभा पाते थे॥ ८१ ॥ वे बार ार बादल के समूहम घुस जाते और बाहर नकल आते थे। इस तरह छपते और का शत होते ए च माके समान गोचर होते थे॥ ८२ ॥ उस समय ती ग तसे आगे बढ़ते ए वानरवीर हनुमा ीको देखकर देवता, ग व और चारण उनके ऊपर फू ल क वषा करने लगे॥ ८३ ॥ वे ीरामच जीका काय स करनेके लये जा रहे थे, अत: उस समय वेगसे जाते ए वानरराज हनुमा ो सूयदेवने ताप नह प ँ चाया और वायुदेवने भी उनक सेवा क ॥ ८४ ॥ आकाशमागसे या ा करते ए वानरवीर हनुमा ऋ ष-मु न ु त करने लगे तथा देवता और ग व उनक शंसाके गीत गाने लगे॥ ८५ ॥ उन क प े को बना थकावटके सहसा आगे बढ़ते देख नाग, य और नाना कारके रा स सभी उनक ु त करने लगे॥ ८६ ॥ जस समय क पके सरी हनुमा ी उछलकर समु पार कर रहे थे, उस समय इ ाकु कु लका स ान करनेक इ ासे समु ने वचार कया—॥ ८७ ॥ ‘य द म वानरराज हनुमा ीक सहायता नह क ँ गा तो बोलनेक इ ावाले सभी लोग क म म सवथा न नीय हो जाऊँ गा॥ ८८ ॥



‘मुझे इ



ाकु कु लके महाराज सगरने बढ़ाया था। इस समय ये हनुमा ी भी इ ाकु वंशी वीर ीरघुनाथजीक सहायता कर रहे ह, अत: इ इस या ाम कसी कारका क नह होना चा हये॥ ८९ ॥ ‘मुझे ऐसा को◌इ उपाय करना चा हये, जससे वानरवीर यहाँ कु छ व ाम कर ल। मेरे आ यम व ाम कर लेनेपर मेरे शेष भागको ये सुगमतासे पार कर लगे’॥ यह शुभ वचार करके समु ने अपने जलम छपे ए सुवणमय ग र े मैनाकसे कहा —॥ ९१ ॥ ‘शैल वर! महामना देवराज इ ने तु यहाँ पातालवासी असुरसमूह के नकलनेके मागको रोकनेके लये प रघ पसे ा पत कया है॥ ९२ ॥ ‘इन असुर का परा म सव स है। वे फर पातालसे ऊपरको आना चाहते ह, अत: उ रोकनेके लये तुम अ मेय पाताललोकके ारको बंद करके खड़े हो॥ ९३ ॥ ‘शैल! ऊपर-नीचे और अगल-बगलम सब ओर बढ़नेक तुमम श है। ग र े ! इसी लये म तु आ ा देता ँ क तुम ऊपरक ओर उठो॥ ९४ ॥ ‘देखो, ये परा मी क पके सरी हनुमान् तु ारे ऊपर होकर जा रहे ह। ये बड़ा भयंकर कम करनेवाले ह, इस समय ीरामका काय स करनेके लये इ ने आकाशम छलाँग मारी है॥ ९५ ॥ ‘ये इ ाकु वंशी रामके सेवक ह, अत: मुझे इनक सहायता करनी चा हये। इ ाकु वंशके लोग मेरे पूजनीय ह और तु ारे लये तो वे परम पूजनीय ह॥ ‘अत: तुम हमारी सहायता करो। जससे हमारे कत -कमका (हनुमा ीके स ार पी कायका) अवसर बीत न जाय। य द कत का पालन नह कया जाय तो वह स ु ष के ोधको जगा देता है॥ ९७ ॥ ‘इस लये तुम पानीसे ऊपर उठो, जससे ये छलाँग मारनेवाल म े क पवर हनुमान् तु ारे ऊपर कु छ कालतक ठहर— व ाम कर। वे हमारे पूजनीय अ त थ भी ह॥ ९८ ॥ ‘देवता और ग व ारा से वत तथा सुवणमय वशाल शखरवाले मैनाक! तु ारे ऊपर व ाम करनेके प ात् हनुमा ी शेष मागको सुखपूवक तय कर लगे॥ ९९ ॥



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वंशी ीरामच जीक दयालुता, म थलेशकु मारी सीताका परदेशम रहनेके लये ववश होना तथा वानरराज हनुमा ा प र म देखकर तु अव ऊपर उठना चा हये’॥ १०० ॥ यह सुनकर बड़े-बड़े वृ और लता से आवृत सुवणमय मैनाक पवत तुरंत ही ार समु के जलसे ऊपरको उठ गया॥ १०१ ॥ जैसे उ ी करण वाले दवाकर (सूय) मेघ के आवरणको भेदकर उ दत होते ह, उसी कार उस समय महासागरके जलका भेदन करके वह पवत ब त ऊँ चा उठ गया॥ १०२ ॥ समु क आ ा पाकर जलम छपे रहनेवाले उस वशालकाय पवतने दो ही घड़ीम हनुमा ीको अपने शखर का दशन कराया॥ १०३ ॥ उस पवतके वे शखर सुवणमय थे। उनपर क र और बड़े-बड़े नाग नवास करते थे। सूय दयके समान तेज:पु से वभू षत वे शखर इतने ऊँ चे थे क आकाशम रेखा-सी ख च रहे थे॥ १०४ ॥ उस पवतके उठे ए सुवणमय शखर के कारण श के समान नील वणवाला आकाश सुनहरी भासे उ ा सत होने लगा॥ १०५ ॥ उन परम का मान् और तेज ी सुवणमय शखर से वह ग र े मैनाक सैकड़ सूय के समान देदी मान हो रहा था॥ १०६ ॥ ार समु के बीचम अ वल उठकर सामने खड़े ए मैनाकको देखकर हनुमा ीने मनही-मन न त कया क यह को◌इ व उप त आ है॥ १०७ ॥ अत: वायु जैसे बादलको छ - भ कर देती है, उसी कार महान् वेगशाली महाक प हनुमा े ब त ऊँ चे उठे ए मैनाक पवतके उस उ तर शखरको अपनी छातीके ध े से नीचे गरा दया॥ १०८ ॥ इस कार क पवर हनुमा ीके ारा नीचा देखनेपर उनके उस महान् वेगका अनुभव करके पवत े मैनाक बड़ा स आ और गजना करने लगा॥ १०९ ॥ तब आकाशम त ए उस पवतने आकाशगत वीर वानर हनुमा ीसे स च होकर कहा। वह मनु प धारण करके अपने ही शखरपर त हो इस कार बोला—॥ ११०१/२ ॥



‘वानर शरोमणे!



आपने यह दु र कम कया है। अब उतरकर मेरे इन शखर पर सुखपूवक व ाम कर ली जये, फर आगेक या ा क जयेगा॥ ११११/२ ॥ ‘ ीरघुनाथजीके पूवज ने समु क वृ क थी, इस समय आप उनका हत करनेम लगे ह; अत: समु आपका स ार करना चाहता है॥ ११२१/२ ॥ ‘ कसीने उपकार कया हो तो बदलेम उसका भी उपकार कया जाय—यह सनातन धम है। इस से ुपकार करनेक इ ावाला यह सागर आपसे स ान पानेके यो है (आप इसका स ार हण कर, इतनेसे ही इसका स ान हो जायगा)॥ ११३१/२ ॥ ‘आपके स ारके लये समु ने बड़े आदरसे मुझे नयु कया है और कहा है—‘इन क पवर हनुमा े सौ योजन दूर जानेके लये आकाशम छलाँग मारी है, अत: कु छ देरतक तु ारे शखर पर ये व ाम कर ल, फर शेष भागका ल न करगे’॥ ११४-११५ ॥ ‘अत: क प े ! आप कु छ देरतक मेरे ऊपर व ाम कर ली जये, फर जाइयेगा। इस ानपर ये ब त-से सुग त और सु ादु क , मूल तथा फल ह। वानर शरोमणे! इनका आ ादन करके थोड़ी देरतक सु ा ली जये। उसके बाद आगेक या ा क जयेगा॥ ११६१/२ ॥ ‘क पवर! आपके साथ हमारा भी कु छ स है। आप महान् गुण का सं ह करनेवाले और तीन लोक म व ात ह॥ ११७ ॥ ‘क प े पवनन न! जो-जो वेगशाली और छलाँग मारनेवाले वानर ह, उन सबम म आपको ही े तम मानता ँ ॥ ११८ ॥ ‘धमक ज ासा रखनेवाले व पु षके लये एक साधारण अ त थ भी न य ही पूजाके यो माना गया है। फर आप-जैसे असाधारण शौयशाली पु ष कतने स ानके यो ह, इस वषयम तो कहना ही ा है?॥ ११९ ॥ ‘क प े ! आप देव शरोम ण महा ा वायुके पु ह और वेगम भी उ के समान ह॥ १२० ॥ ‘आप धमके ाता ह। आपक पूजा होनेपर सा ात् वायुदेवका पूजन हो जायगा। इस लये आप अव ही मेरे पूजनीय ह। इसम एक और भी कारण है, उसे सु नये॥ १२१ ॥ ‘तात! पूवकालके स युगक बात है। उन दन पवत के भी पंख होते थे। वे भी ग ड़के समान वेगशाली होकर स ूण दशा म उड़ते फरते थे॥ १२२ ॥



‘उनके



इस तरह वेगपूवक उड़ने और आने-जानेपर देवता, ऋ ष और सम ा णय को उनके गरनेक आश ासे बड़ा भय होने लगा॥ १२३ ॥ ‘इससे सह ने वाले देवराज इ कु पत हो उठे और उ ने अपने व से लाख पवत के पंख काट डाले॥ १२४ ॥ ‘उस समय कु पत ए देवराज इ व उठाये मेरी ओर भी आये, क ु महा ा वायुने सहसा मुझे इस समु म गरा दया॥ १२५ ॥ ‘वानर े ! इस ार समु म गराकर आपके पताने मेरे पंख क र ा कर ली और म अपने स ूण अंशसे सुर त बच गया॥ १२६ ॥ ‘पवनन न! क प े ! इसी लये म आपका आदर करता ँ , आप मेरे माननीय ह। आपके साथ मेरा यह स महान् गुण से यु है॥ १२७ ॥ ‘महामते! इस कार चरकालके बाद जो यह ुपकार प काय (आपके पताके उपकारका बदला चुकानेका अवसर) ा आ है, इसम आप स च होकर मेरी और समु क भी ी तका स ादन कर (हमारा आ त हण करके हम संतु कर)॥ १२८ ॥ ‘वानर शरोमणे! आप यहाँ अपनी थकान उता रये, हमारी पूजा हण क जये और मेरे ेमको भी ीकार क जये। म आप-जैसे माननीय पु षके दशनसे ब त स आ ँ ’॥ १२९ ॥



मैनाकके ऐसा कहनेपर क प े हनुमा ीने उस उ म पवतसे कहा—‘मैनाक! मुझे भी आपसे मलकर बड़ी स ता ◌इ है। मेरा आ त हो गया। अब आप अपने मनसे यह दु:ख अथवा च ा नकाल दी जये क इ ने मेरी पूजा हण नह क ॥ १३० ॥ ‘मेरे कायका समय मुझे ब त ज ी करनेके लये े रत कर रहा है। यह दन भी बीता जा रहा है। मने वानर के समीप यह त ा कर ली है क म यहाँ बीचम कह नह ठहर सकता’॥ १३१ ॥ ऐसा कहकर महाबली वानर शरोम ण हनुमा े हँ सते एसे वहाँ मैनाकका अपने हाथसे श कया और आकाशम ऊपर उठकर चलने लगे॥ १३२ ॥ उस समय पवत और समु दोन ने ही बड़े आदरसे उनक ओर देखा, उनका स ार कया और यथो चत आशीवाद से उनका अ भन न कया॥ १३३ ॥



फर पवत और समु को छोड़कर उनसे दूर ऊपर उठकर अपने पताके मागका आ य ले हनुमा ी नमल आकाशम चलने लगे॥ १३४ ॥ त ात् और भी ऊँ चे उठकर उस पवतको देखते एक प े पवनपु हनुमा ी बना कसी आधारके आगे बढ़ने लगे॥ १३५ ॥ हनुमा ीका यह दूसरा अ दु र कम देखकर स ूण देवता, स और मह षगण उनक शंसा करने लगे॥ १३६ ॥ वहाँ आकाशम ठहरे ए देवता तथा सह ने धारी इ उस सु र म भागवाले सुवणमय मैनाक पवतके उस कायसे ब त स ए॥ १३७ ॥ उस समय यं बु मान् शचीप त इ ने अ संतु होकर पवत े सुनाभ मैनाकसे ग द वाणीम कहा—॥ १३८ ॥ ‘सुवणमय शैलराज मैनाक! म तुमपर ब त स ँ । सौ ! तु अभय दान देता ँ । तुम सुखपूवक जहाँ चाहो, जाओ॥ १३९ ॥ ‘सौ योजन समु को लाँघते समय जनके मनम को◌इ भय नह रहा है, फर भी जनके लये हमारे दयम यह भय था क पता नह इनका ा होगा ? उ हनुमा ीको व ामका अवसर देकर तुमने उनक ब त बड़ी सहायता क है॥ १४० ॥ ‘ये वानर े हनुमान् दशरथन न ीरामक सहायताके लये ही जा रहे ह। तुमने यथाश इनका स ार करके मुझे पूण संतोष दान कया है’॥ १४१ ॥ देवता के ामी शत तु इ को संतु देखकर पवत म े मैनाकको बड़ा हष ा आ॥ १४२ ॥ इस कार इ का दया आ वर पाकर मैनाक उस समय जलम त हो गया और हनुमा ी समु के उस देशको उसी मु तम लाँघ गये॥ १४३ ॥ तब देवता, ग व, स और मह षय ने सूयतु तेज नी नागमाता सुरसासे कहा—॥ १४४ ॥ ‘ये पवनन न ीमान् हनुमा ी समु के ऊपर होकर जा रहे ह। तुम दो घड़ीके लये इनके मागम व डाल दो॥ १४५ ॥



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पवतके समान अ भयंकर रा सीका प धारण करो। उसम वकराल दाढ़, पीले ने और आकाशको श करनेवाला वकट मुँह बनाओ॥ १४६ ॥ ‘हमलोग पुन: हनुमा ीके बल और परा मक परी ा लेना चाहते ह। या तो कसी उपायसे ये तु जीत लगे अथवा वषादम पड़ जायँगे (इससे इनके बलाबलका ान हो जायगा)’॥ १४७ ॥ देवता के स ारपूवक इस कार कहनेपर देवी सुरसाने समु के बीचम रा सीका प धारण कया। उसका वह प बड़ा ही वकट, बेडौल और सबके लये भयावना था। वह समु के पार जाते ए हनुमा ीको घेरकर उनसे इस कार बोली—॥ १४८-१४९ ॥ ‘क प े ! देवे र ने तु मेरा भ बताकर मुझे अ पत कर दया है, अत: म तु खाऊँ गी। तुम मेरे इस मुँहम चले आओ॥ १५० ॥ ‘पूवकालम ाजीने मुझे यह वर दया था।’ ऐसा कहकर वह तुरंत ही अपना वशाल मुँह फै लाकर हनुमा ीके सामने खड़ी हो गयी॥ १५१ ॥ सुरसाके ऐसा कहनेपर हनुमा ीने स मुख होकर कहा—‘दे व! दशरथन न ीरामच जी अपने भा◌इ ल ण और धमप ी सीताजीके साथ द कार म आये थे॥ १५२ ॥ ‘वहाँ पर हत-साधनम लगे ए ीरामका रा स के साथ वैर बँध गया। अत: रावणने उनक यश नी भाया सीताको हर लया॥ १५३ ॥ ‘म ीरामक आ ासे उनका दूत बनकर सीताजीके पास जा रहा ँ । तुम भी ीरामके रा म नवास करती हो। अत: तु उनक सहायता करनी चा हये॥ १५४ ॥ ‘अथवा (य द तुम मुझे खाना ही चाहती हो तो) म सीताजीका दशन करके अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामच जीसे जब मल लूँगा, तब तु ारे मुखम आ जाऊँ गा—यह तुमसे स ी त ा करके कहता ँ ’॥ १५५ ॥ हनुमा ीके ऐसा कहनेपर इ ानुसार प धारण करनेवाली सुरसा बोली—‘मुझे यह वर मला है क को◌इ भी मुझे लाँघकर आगे नह जा सकता’॥ १५६ ॥ फर भी हनुमा ीको जाते देख उनके बलको जाननेक इ ा रखनेवाली नागमाता सुरसाने उनसे कहा—॥ १५७ ॥



‘वानर



े ! आज मेरे मुखम वेश करके ही तु आगे जाना चा हये। पूवकालम वधाताने मुझे ऐसा ही वर दया था।’ ऐसा कहकर सुरसा तुरंत अपना वशाल मुँह फै लाकर हनुमा ीके सामने खड़ी हो गयी॥ १५८१/२ ॥ सुरसाके ऐसा कहनेपर वानर शरोम ण हनुमा ी कु पत हो उठे और बोले—‘तुम अपना मुँह इतना बड़ा बना लो जससे उसम मेरा भार सह सको’ य कहकर जब वे मौन ए, तब सुरसाने अपना मुख दस योजन व ृत बना लया। यह देखकर कु पत ए हनुमा ी भी त ाल दस योजन बड़े हो गये। उ मेघके समान दस योजन व ृत शरीरसे यु आ देख सुरसाने भी अपने मुखको बीस योजन बड़ा बना लया॥ १५९—१६१ ॥ तब हनुमा ीने ु होकर अपने शरीरको तीस योजन अ धक बढ़ा दया। फर तो सुरसाने भी अपने मुँहको चालीस योजन ऊँ चा कर लया॥ १६२ ॥ यह देख वीर हनुमान् पचास योजन ऊँ चे हो गये। तब सुरसाने अपना मुँह साठ योजन ऊँ चा बना लया॥ फर तो वीर हनुमान् उसी ण स र योजन ऊँ चे हो गये। अब सुरसाने अ ी योजन ऊँ चा मुँह बना लया॥ १६४ ॥ तदन र अ के समान तेज ी हनुमान् न े योजन ऊँ चे हो गये। यह देख सुरसाने भी अपने मुँहका व ार सौ योजनका कर लया*॥ १६५ ॥ सुरसाके फै लाये ए उस वशाल ज ासे यु और नरकके समान अ भयंकर मुँहको देखकर बु मान् वायुपु हनुमा े मेघक भाँ त अपने शरीरको संकु चत कर लया। वे उसी ण अँगूठेके बराबर छोटे हो गये॥ १६६-१६७ ॥ फर वे महाबली ीमान् पवनकु मार सुरसाके उस मुँहम वेश करके तुरंत नकल आये और आकाशम खड़े होकर इस कार बोले—॥ १६८ ॥ ‘द कु मारी! तु नम ार है। म तु ारे मुँहम वेश कर चुका। लो तु ारा वर भी स हो गया। अब म उस ानको जाऊँ गा, जहाँ वदेहकु मारी सीता व मान ह’॥ १६९ ॥ रा के मुखसे छू टे ए च माक भाँ त अपने मुखसे मु ए हनुमा ीको देखकर सुरसा देवीने अपने असली पम कट होकर उन वानरवीरसे कहा—॥ १७० ॥



‘क प



े ! तुम भगवान् ीरामके कायक स के लये सुखपूवक जाओ। सौ ! वदेहन नी सीताको महा ा ीरामसे शी मलाओ’॥ १७१ ॥ क पवर हनुमा ीका यह तीसरा अ दु र कम देख सब ाणी वाह-वाह करके उनक शंसा करने लगे॥ १७२ ॥ वे व णके नवासभूत अलङ् समु के नकट आकर आकाशका ही आ य ले ग ड़के समान वेगसे आगे बढ़ने लगे॥ १७३ ॥ जो जलक धारा से से वत, प य से संयु , गान व ाके आचाय तु ु आ द ग व के वचरणका ान तथा ऐरावतके आने-जानेका माग है, सह, हाथी, बाघ, प ी और सप आ द वाहन से जुते और उड़ते ए नमल वमान जसक शोभा बढ़ाते ह, जनका श व और अश नके समान दु:सह तथा तेज अ के समान काशमान है तथा जो गलोकपर वजय पा चुके ह, ऐसे महाभाग पु ा ा पु ष का जो नवास ान है, देवताके लये अ धक मा ाम ह व का भार वहन करनेवाले अ देव जसका सदा सेवन करते ह, ह, न , च मा, सूय और तारे आभूषणक भाँ त जसे सजाते ह, मह षय के समुदाय, ग व, नाग और य जहाँ भरे रहते ह, जो जग ा आ य ान, एका और नमल है, ग वराज व ावसु जसम नवास करते ह, देवराज इ का हाथी जहाँ चलता- फरता है, जो च मा और सूयका भी म लमय माग है, इस जीव-जग े लये वमल वतान (चँदोवा) है, सा ात् पर परमा ाने ही जसक सृ क है, जो ब सं क वीर से से वत और व ाधरगण से आवृत है, उस वायुपथ आकाशम पवनन न हनुमा ी ग ड़के समान वेगसे चले॥ १७४—१८० ॥ वायुके समान हनुमा ी अगरके समान काले तथा लाल, पीले और ेत बादल को ख चते ए आगे बढ़ने लगे॥ १८१ ॥ उनके ारा ख चे जाते ए वे बड़े-बड़े बादल अ तु शोभा पा रहे थे। वे बार ार मेघसमूह म वेश करते और बाहर नकलते थे। उस अव ाम बादल म छपते तथा कट होते ए वषाकालके च माक भाँ त उनक बड़ी शोभा हो रही थी॥ १८२१/२ ॥ सव दखायी देते ए पवनकु मार हनुमा ी पंखधारी ग रराजके समान नराधार आकाशका आ य लेकर आगे बढ़ रहे थे॥ १८३१/२ ॥ इस तरह जाते ए हनुमा ीको इ ानुसार प धारण करनेवाली वशालकाया स हका नामवाली रा सीने देखा। देखकर वह मन-ही-मन इस कार वचार करने लगी—॥ १८४१/२ ॥



‘आज



दीघकालके बाद यह वशाल जीव मेरे वशम आया है। इसे खा लेनेपर ब त दन के लये मेरा पेट भर जायगा’॥ १८५१/२ ॥ अपने दयम ऐसा सोचकर उस रा सीने हनुमा ीक छाया पकड़ ली। छाया पकड़ी जानेपर वानरवीर हनुमा े सोचा—‘अहो! सहसा कसने मुझे पकड़ लया, इस पकड़के सामने मेरा परा म प ु हो गया है। जैसे तकू ल हवा चलनेपर समु म जहाजक ग त अव हो जाती है, वैसी ही दशा आज मेरी भी हो गयी है’॥ १८६-१८७१/२ ॥ यही सोचते ए क पवर हनुमा े उस समय अगल-बगलम, ऊपर और नीचे डाली। इतनेहीम उ समु के जलके ऊपर उठा आ एक वशालकाय ाणी दखायी दया॥ १८८१/२ ॥



उस वकराल मुखवाली रा सीको देखकर पवनकु मार हनुमान् सोचने लगे—वानरराज सु ीवने जस महापरा मी छाया ाही अ तु जीवक चचा क थी, वह न:संदेह यही है॥ १८९-१९० ॥ तब बु मान् क पवर हनुमा ीने यह न य करके क वा वम यही स हका है, वषाकालके मेघक भाँ त अपने शरीरको बढ़ाना आर कया। इस कार वे वशालकाय हो गये॥ १९१ ॥ उन महाक पके शरीरको बढ़ते देख स हकाने अपना मुँह पाताल और आकाशके म भागके समान फै ला लया और मेघ क घटाके समान गजना करती ◌इ उन वानरवीरक ओर दौड़ी॥ १९२१/२ ॥ हनुमा ीने उसका अ वकराल और बढ़ा आ मुँह देखा। उ अपने शरीरके बराबर ही उसका मुँह दखायी दया। उस समय बु मान् महाक प हनुमा े स हकाके मम ान को अपना ल बनाया॥ तदन र व ोपम शरीरवाले महाक प पवनकु मार अपने शरीरको संकु चत करके उसके वकराल मुखम आ गरे॥ १९४१/२ ॥ उस समय स और चारण ने हनुमा ीको स हकाके मुखम उसी कार नम होते देखा, जैसे पू णमाक रातम पूण च मा रा के ास बन गये ह ॥



मुखम वेश करके उन वानरवीरने अपने तीखे नख से उस रा सीके मम ान को वदीण कर डाला। इसके प ात् वे मनके समान ग तसे उछलकर वेगपूवक बाहर नकल आये॥ १९६१/२ ॥



दैवके अनु ह, ाभा वक धैय तथा कौशलसे उस रा सीको मारकर वे मन ी वानरवीर पुन: वेगसे बढ़कर बड़े हो गये॥ १९७१/२ ॥ हनुमा ीने ाण के आ यभूत उसके दय लको ही न कर दया, अत: वह ाणशू होकर समु के जलम गर पड़ी। वधाताने ही उसे मार गरानेके लये हनुमा ीको न म बनाया था॥ १९८ ॥ उन वानरवीरके ारा शी ही मारी जाकर स हका जलम गर पड़ी। यह देख आकाशम वचरनेवाले ाणी उन क प े से बोले—॥ १९९ ॥ ‘क पवर! तुमने यह बड़ा ही भयंकर कम कया है, जो इस वशालकाय ाणीको मार गराया है। अब तुम बना कसी व -बाधाके अपना अभी काय स करो॥ २०० ॥ ‘वानरे ! जस पु षम तु ारे समान धैय, सूझ, बु और कु शलता—ये चार गुण होते ह, उसे अपने कायम कभी असफलता नह होती’॥ २०१ ॥ इस कार अपना योजन स हो जानेसे उन आकाशचारी ा णय ने हनुमा ीका बड़ा स ार कया। इसके बाद वे आकाशम चढ़कर ग ड़के समान वेगसे चलने लगे॥ २०२ ॥ सौ योजनके अ म ाय: समु के पार प ँ चकर जब उ ने सब ओर डाली, तब उ एक हरी-भरी वन ेणी दखायी दी॥ २०३ ॥ आकाशम उड़ते ए ही शाखामृग म े हनुमा ीने भाँ त-भाँ तके वृ से सुशो भत लंका नामक ीप देखा। उ र तटक भाँ त समु के द ण तटपर भी मलय नामक पवत और उसके उपवन दखायी दये॥ २०४ ॥ समु , सागरतटवत जल ाय देश तथा वहाँ उगे ए वृ एवं सागरप ी स रता के मुहान को भी उ ने देखा॥ २०५ ॥ मनको वशम रखनेवाले बु मान् हनुमा ीने अपने शरीरको महान् मेघ क घटाके समान वशाल तथा आकाशको अव करता-सा देख मन-ही-मन इस कार वचार कया—॥ २०६ ॥



‘अहो!



मेरे शरीरक वशालता तथा मेरा यह ती वेग देखते ही रा स के मनम मेरे त बड़ा कौतूहल होगा—वे मेरा भेद जाननेके लये उ ुक हो जायँगे।’ परम बु मान् हनुमा ीके मनम यह धारणा प हो गयी॥ २०७ ॥ मन ी हनुमान् अपने पवताकार शरीरको संकु चत करके पुन: अपने वा वक पम त हो गये। ठीक उसी तरह, जैसे मनको वशम रखनेवाला मोहर हत पु ष अपने मूल पम त त होता है॥ २०८ ॥ जैसे ब लके परा मस ी अ भमानको हर लेनेवाले ीह रने वरा ूपसे तीन पग चलकर तीन लोक को नाप लेनेके प ात् अपने उस पको समेट लया था, उसी कार हनुमा ी समु को लाँघ जानेके बाद अपने उस वशाल पको संकु चत करके अपने वा वक पम त हो गये॥ २०९ ॥ हनुमा ी बड़े ही सु र और नाना कारके प धारण कर लेते थे। उ ने समु के दूसरे तटपर, जहाँ दूसर का प ँ चना अस व था, प ँ चकर अपने वशाल शरीरक ओर पात कया। फर अपने कत का वचार करके छोटा-सा प धारण कर लया॥ २१० ॥ महान् मेघ-समूहके समान शरीरवाले महा ा हनुमा ी के वड़े, लसोड़े और ना रयलके वृ से वभू षत ल पवतके व च लघु शखर वाले महान् समृ शाली ृ पर कू द पड़े॥ २११ ॥ तदन र समु के तटपर प ँ चकर वहाँसे उ ने एक े पवतके शखरपर बसी ◌इ लंकाको देखा। देखकर अपने पहले पको तरो हत करके वे वानरवीर वहाँके पशु-प य को थत करते ए उसी पवतपर उतर पड़े॥ २१२ ॥ इस कार दानव और सप से भरे ए तथा बड़ी-बड़ी उ ाल तर माला से अलंकृत महासागरको बलपूवक लाँघकर वे उसके तटपर उतर गये और अमरावतीके समान सुशो भत लंकापुरीक शोभा देखने लगे॥ २१३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पहला सग पूरा आ॥ १॥ * साँपके



फन म दखायी देनेवाली नील रेखाको ‘ क’ कहते ह। * १६२ से लेकर १६५ तकके चार ोक कु छ टीकाकार ने बताये ह, कतु रामायण शरोम ण नामक टीकाम इनक ा ा उपल होती है। अत: यहाँ मूलम इ स लत कर लया गया है। ६२९



दस ू रा सग लंकापुरीका वणन, उसम वेश करनेके वषयम हनुमा ीका वचार, उनका लघु पसे पुरीम वेश तथा च ोदयका वणन



महाबली हनुमा ी अल नीय समु को पार करके कू ट (ल ) नामक पवतके शखरपर भावसे खड़े हो लंकापुरीक शोभा देखने लगे॥ १ ॥ उस समय उनके ऊपर वहाँ वृ से झड़े ए फू ल क वषा होने लगी। इससे वहाँ बैठे ए परा मी हनुमान् फू लके बने ए वानरके समान तीत होने लगे॥ २ ॥ उ म परा मी ीमान् वानरवीर हनुमान् सौ योजन समु लाँघकर भी वहाँ ल ी साँस नह ख च रहे थे और न ा नका ही अनुभव करते थे॥ ३ ॥ उलटे वे यह सोचते थे, म सौ-सौ योजन के ब त-से समु लाँघ सकता ँ ; फर इस गनेगनाये सौ योजन समु को पार करना कौन बड़ी बात है?॥ ४ ॥ बलवान म े तथा वानर म उ म वे वेगवान् पवनकु मार महासागरको लाँघकर शी ही लंकाम जा प ँ चे॥ ५ ॥ रा ेम हरी-हरी दूब और वृ से भरे ए मकर पूण सुग त वन देखते ए वे म मागसे जा रहे थे॥ ६ ॥ तेज ी वानर शरोम ण हनुमान् वृ से आ ा दत पवत और फू ल से भरी ◌इ वने णय म वचरने लगे॥ ७ ॥ उस पवतपर त हो पवनपु हनुमा े ब त-से वन और उपवन देखे तथा उस पवतके अ भागम बसी ◌इ लंकाका भी अवलोकन कया॥ ८ ॥ उन क प े ने वहाँ सरल (चीड़), कनेर, खले ए खजूर, याल ( चर जी), मुचु ल (ज ीरी नीबू), कु टज, के तक (के वड़े), सुग पूण य ु ( प ली), नीप (कद या अशोक), छतवन, असन, को वदार तथा खले ए करवीर भी देखे। फू ल के भारसे लदे ए तथा मुकु लत (अध खले) ब त-से वृ उ गोचर ए, जनम प ी भरे ए थे और हवाके झ के से जनक डा लयाँ झूम रही थ ॥ ९— ११ ॥



हंस और कार व से ा तथा कमल और उ लसे आ ा दत ◌इ ब त-सी बाव ड़याँ, भाँ तभाँ तके रमणीय ड़ा ान तथा नाना कारके जलाशय उनके पथम आये॥ १२ ॥ उन जलाशय के चार ओर सभी ऋतु म फल-फू ल देनेवाले अनेक कारके वृ फै ले ए थे। उन वानर शरोम णने वहाँ ब त-से रमणीय उ ान भी देखे॥ १३ ॥ अ तु शोभासे स हनुमा ी धीरे-धीरे रावण-पा लत लंकापुरीके पास प ँ चे। उसके चार ओर खुदी ◌इ खाइयाँ उस नगरीक शोभा बढ़ा रही थ । उनम उ ल और प आ द क◌इ जा तय के कमल खले थे। सीताको हर लानेके कारण रावणने लंकापुरीक र ाका वशेष ब कर रखा था। उसके चार ओर भयंकर धनुष धारण करनेवाले रा स घूमते रहते थे॥ १४-१५ ॥ वह महापुरी सोनेक चहारदीवारीसे घरी ◌इ थी तथा पवतके समान ऊँ चे और शरद-् ऋतुके बादल के समान ेत भवन से भरी ◌इ थी॥ १६ ॥ ेत रंगक ऊँ ची-ऊँ ची सड़क उस पुरीको सब ओरसे घेरे ए थ । सैकड़ अ ा लकाएँ वहाँ शोभा पा रही थ तथा फहराती ◌इ जा-पताकाएँ उस नगरीक शोभा बढ़ा रही थ ॥ १७ ॥ उसके बाहरी फाटक सोनेके बने ए थे और उनक दीवार लता-बेल के च से सुशो भत थ । हनुमा ीने उन फाटक से सुशो भत लंकाको उसी कार देखा, जैसे को◌इ देवता देवपुरीका नरी ण कर रहा हो॥ १८ ॥ तेज ी क प हनुमा े सु र शु सदन से सुशो भत और पवतके शखरपर त लंकाको इस तरह देखा, मानो वह आकाशम वचरनेवाली नगरी हो॥ १९ ॥ क पवर हनुमा े व कमा ारा न मत तथा रा सराज रावण ारा सुर त उस पुरीको आकाशम तैरती-सी देखा॥ २० ॥ व कमाक बनायी ◌इ लंका मानो उनके मान सक संक से रची गयी एक सु री ी थी। चहारदीवारी और उसके भीतरक वेदी उसक जघन ली जान पड़ती थ , समु का वशाल जलरा श और वन उसके व थे, शत ी और शूल नामक अ ही उसके के श थे और बड़ी-बड़ी अ ा लकाएँ उसके लये कणभूषण-सी तीत हो रही थ ॥ २११/२ ॥



उस पुरीके उ र ारपर प ँ चकर वानरवीर हनुमा ी च ाम पड़ गये। वह ार कै लास पवतपर बसी ◌इ अलकापुरीके ब ह ारके समान ऊँ चा था और आकाशम रेखा-सी ख चता जान पड़ता था। ऐसा जान पड़ता था मानो अपने ऊँ चे-ऊँ चे ासाद पर आकाशको उठा रखा है॥ २२-२३ ॥ लंकापुरी भयानक रा स से उसी तरह भरी थी, जैसे पातालक भोगवतीपुरी नाग से भरी रहती है। उसक नमाणकला अ च थी। उसक रचना सु र ढंगसे क गयी थी। वह हनुमा ीको दखायी देती थी। पूवकालम सा ात् कु बेर वहाँ नवास करते थे। हाथ म शूल और प श लये बड़ी-बड़ी दाढ वाले ब त-से शूरवीर घोर रा स लंकापुरीक उसी कार र ा करते थे, जैसे वषधर सप अपनी पुरीक करते ह॥ २४-२५ ॥ उस नगरक बड़ी भारी चौकसी, उसके चार ओर समु क खा◌इं तथा रावण-जैसे भयंकर श ुको देखकर हनुमा ी इस कार वचारने लगे—॥ २६ ॥ ‘य द वानर यहाँतक आ जायँ तो भी वे थ ही स ह गे; क यु के ारा देवता भी लंकापर वजय नह पा सकते॥ २७ ॥ ‘ जससे बढ़कर वषम (संकटपूण) ान और को◌इ नह है, उस रावणपा लत इस दुगम लंकाम आकर महाबा ीरघुनाथजी भी ा करगे?॥ २८ ॥ ‘रा स पर सामनी तके योगके लये तो को◌इ गुंजाइश ही नह है। इनपर दान,भेद और यु (द ) नी तका योग भी सफल होता नह दखायी देता॥ २९ ॥ ‘यहाँ चार ही वेगशाली वानर क प ँ च हो सकती है—बा लपु अंगदक , नीलक , मेरी और बु मान् राजा सु ीवक ॥ ३० ॥ ‘अ ा, पहले यह तो पता लगाऊँ क वदेहकु मारी सीता जी वत ह या नह । जनक कशोरीका दशन करनेके प ात् ही म इस वषयम को◌इ वचार क ँ गा’॥ ३१ ॥ तदन र उस पवत- शखरपर खड़े ए क प े हनुमा ी ीरामच जीके अ ुदयके लये सीताजीका पता लगानेके उपायपर दो घड़ीतक वचार करते रहे॥ ३२ ॥ उ ने सोचा—‘म इस पसे रा स क इस नगरीम वेश नह कर सकता; क ब त-से ू र और बलवान् रा स इसक र ा कर रहे ह॥ ३३ ॥



‘जानक क



खोज करते समय मुझे अपनेको छपानेके लये यहाँके सभी महातेज ी, महापरा मी और बलवान् रा स से आँ ख बचानी होगी॥ ३४ ॥ ‘अत: मुझे रा के समय ही नगरम वेश करना चा हये और सीताका अ ेषण प यह महान् समयो चत काय स करनेके लये ऐसे पका आ य लेना चा हये, जो आँ खसे देखा न जा सके । के वल कायसे यह अनुमान हो क को◌इ आया था’॥ ३५ ॥ देवता और असुर के लये भी दुजय वैसी लंकापुरीको देखकर हनुमा ी बार ार ल ी साँस ख चते ए य वचार करने लगे—॥ ३६ ॥ ‘ कस उपायसे काम लूँ, जससे दुरा ा रा सराज रावणक से ओझल रहकर म म थलेशन नी जनक कशोरी सीताका दशन ा कर सकूँ ॥ ३७ ॥ ‘ कस री तसे काय कया जाय, जससे जग ात ीरामच जीका काम भी न बगड़े और म एका म अके ली जानक जीसे भट भी कर लूँ॥ ३८ ॥ ‘क◌इ बार कातर अथवा अ ववेकपूण काय करनेवाले दूतके हाथम पड़कर देश और कालके वपरीत वहार होनेके कारण बने-बनाये काम भी उसी तरह बगड़ जाते ह, जैसे सूय दय होनेपर अ कार न हो जाता है॥ ३९ ॥ ‘राजा और म य के ारा न त कया आ कत ाकत वषयक वचार भी कसी अ ववेक दूतका आ य लेनेसे शोभा (सफलता) नह पाता है। अपनेको प त माननेवाले अ ववेक दूत सारा काम ही चौपट कर देते ह॥ ४० ॥ ‘अ ा तो कस उपायका अवल न करनेसे ामीका काय नह बगड़ेगा; मुझे घबराहट या अ ववेक नह होगा और मेरा यह समु का लाँघना भी थ नह होने पायेगा॥ ४१ ॥ ‘य द रा स ने मुझे देख लया तो रावणका अनथ चाहनेवाले उन व ातनामा भगवान् ीरामका यह काय सफल न हो सके गा॥ ४२ ॥ ‘यहाँ दूसरे कसी पक तो बात ही ा है, रा सका प धारण करके भी रा स से अ ात रहकर कह ठहरना अस व है॥ ४३ ॥ ‘मेरा तो ऐसा व ास है क रा स से छपे रहकर वायुदेव भी इस पुरीम वचरण नह कर सकते। यहाँ को◌इ भी ऐसा ान नह है, जो इन भयंकर कम करनेवाले रा स को ात न हो॥ ४४ ॥



‘य द यहाँ म अपने इस भी हा न प ँ चेगी॥ ४५ ॥ ‘अत: म



पसे छपकर भी र ँ गा तो मारा जाऊँ गा और मेरे ामीके कायम



ीरघुनाथजीका काय स करनेके लये रातम अपने इसी पसे छोटा-सा शरीर धारण करके लंकाम वेश क ँ गा॥ ४६ ॥ ‘य प रावणक इस पुरीम जाना ब त ही क ठन है तथा प रातको इसके भीतर वेश करके सभी घर म घुसकर म जानक जीक खोज क ँ गा’॥ ४७ ॥ ऐसा न य करके वीर वानर हनुमान् वदेहन नीके दशनके लये उ ुक हो उस समय सूया क ती ा करने लगे॥ ४८ ॥ सूया हो जानेपर रातके समय उन पवनकु मारने अपने शरीरको छोटा बना लया। वे ब ीके बराबर होकर अ अ तु दखायी देने लगे॥ ४९ ॥ दोषकालम परा मी हनुमान् तुरंत ही उछलकर उस रमणीय पुरीम घुस गये। वह नगरी पृथक् -पृथक् बने ए चौड़े और वशाल राजमाग से सुशो भत थी॥ ५० ॥ उसम ासाद क लंबी पं याँ दूरतक फै ली ◌इ थ । सुनहरे रंगके ख और सोनेक जा लय से वभू षत वह नगरी ग वनगरके समान रमणीय तीत होती थी॥ ५१ ॥ हनुमा ीने उस वशाल पुरीको सतमहले, अठमहले मकान और सुवणज टत टक म णक फश से सुशो भत देखा। उनम वैदयू (नीलम) भी जड़े गये थे, जससे उनक व च शोभा होती थी। मो तय क जा लयाँ भी उन महल क शोभा बढ़ाती थ । ६३३ उन सबके कारण रा स के वे भवन बड़ी सु र शोभासे स हो रहे थे॥ ५२-५३ ॥ सोनेके बने ए व च फाटक सब ओरसे सजी ◌इ रा स क उस लंकाको और भी उ ी कर रहे थे॥ ५४ ॥ ऐसी अ च और अ तु आकारवाली लंकाको देखकर महाक प हनुमान् वषादम पड़ गये; परंतु जानक जीके दशनके लये उनके मनम बड़ी उ ा थी, इस लये उनका हष और उ ाह भी कम नह आ॥ ५५ ॥ पर र सटे ए ेतवणके सतमं जले महल क पं याँ लंकापुरीक शोभा बढ़ा रही थ । ब मू जा ूनद नामक सुवणक जा लय और व नवार से वहाँके घर को सजाया गया था। भयंकर बलशाली नशाचर उस पुरीक अ ी तरह र ा करते थे। रावणके बा बलसे भी वह



सुर त थी। उसके यशक ा त सुदरू तक फै ली ◌इ थी। ऐसी लंकापुरीम हनुमा ीने वेश कया॥ ५६ ॥ उस समय तारागण के साथ उनके बीचम वराजमान अनेक सह करण वाले च देव भी हनुमा ीक सहायता-सी करते ए सम लोक पर अपनी चाँदनीका चँदोवा-सा तानकर उ दत हो गये॥ ५७ ॥ वानर के मुख वीर ीहनुमा ीने श क -सी का तथा दूध और मृणालके -से वणवाले च माको आकाशम इस कार उ दत एवं का शत होते देखा, मानो कसी सरोवरम को◌इ हंस तैर रहा हो॥ ५८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म दूसरा सग पूरा आ॥ २॥



तीसरा सग लंकापुरीका अवलोकन करके हनुमा ीका व त होना, उसम वेश करते समय नशाचरी लंकाका उ रोकना और उनक मारसे व ल होकर उ पुरीम वेश करनेक अनुम त देना



ऊँ चे शखरवाले लंब ( कू ट) पवतपर जो महान् मेघ क घटाके समान जान पड़ता था, बु मान् महाश शाली क प े पवनकु मार हनुमा े स -गुणका आ य ले रातके समय रावणपा लत लंकापुरीम वेश कया। वह नगरी सुर वन और जलाशय से सुशो भत थी॥ १-२ ॥ शर ालके बादल क भाँ त ेत का वाले सु र भवन उसक शोभा बढ़ाते थे। वहाँ समु क गजनाके समान ग ीर श होता रहता था। सागरक लहर को छू कर बहनेवाली वायु इस पुरीक सेवा करती थी॥ ३ ॥ वह अलकापुरीके समान श शा लनी सेना से सुर त थी। उस पुरीके सु र फाटक पर मतवाले हाथी शोभा पाते थे। उस पुरीके अ ार और ब ह ार दोन ही ेत का से सुशो भत थे॥ ४ ॥ उस नगरीक र ाके लये बड़े-बड़े सप का संचरण (आना-जाना) होता रहता है, इस लये वह नाग से सुर त सु र भोगवतीपुरीके समान जान पड़ती थी। अमरावतीपुरीके समान वहाँ आव कताके अनुसार बज लय स हत मेघ छाये रहते थे। ह और न के स श व ुत्दीप के काशसे वह पुरी का शत थी तथा च वायुक न वहाँ सदा होती रहती थी॥ ५१/२ ॥ सोनेके बने ए वशाल परकोटेसे घरी ◌इ लंकापुरी ु घं टका क झनकारसे यु पताका ारा अलंकृत थी॥ ६१/२ ॥ उस पुरीके समीप प ँ चकर हष और उ ाहसे भरे ए हनुमा ी सहसा उछलकर उसके परकोटेपर चढ़ गये। वहाँ सब ओरसे लंकापुरीका अवलोकन करके हनुमा ीका च आ यसे च कत हो उठा॥ ७१/२ ॥ सुवणके बने ए ार से उस नगरीक अपूव शोभा हो रही थी। उन सभी ार पर नीलमके चबूतरे बने ए थे। वे सब ार हीर , टक और मो तय से जड़े गये थे। म णमयी फश उनक



शोभा बढ़ा रही थ । उनके दोन ओर तपाये सुवणके बने ए हाथी शोभा पाते थे। उन ार का ऊपरी भाग चाँदीसे न मत होनेके कारण और ेत था। उनक सी ढ़याँ नीलमक बनी ◌इ थ । उन ार के भीतरी भाग टक म णके बने ए और धूलसे र हत थे। वे सभी ार रमणीय सभा-भवन से यु और सु र थे तथा इतने ऊँ चे थे क आकाशम उठे ए-से जान पड़ते थे॥ ८—१० ॥ वहाँ ौ और मयूर के कलरव गूँजते रहते थे, उन ार पर राजहंस नामक प ी भी नवास करते थे। वहाँ भाँ त-भाँ तके वा और आभूषण क मधुर न होती रहती थी, जससे लंकापुरी सब ओरसे त नत हो रही थी॥ ११ ॥ कु बेरक अलकाके समान शोभा पानेवाली लंकानगरी कू टके शखरपर त त होनेके कारण आकाशम उठी ◌इ-सी तीत होती थी। उसे देखकर क पवर हनुमा ो बड़ा हष आ॥ १२ ॥ रा सराजक वह सु र पुरी लंका सबसे उ म और समृ शा लनी थी। उसे देखकर परा मी हनुमान् इस कार सोचने लगे—॥ १३ ॥ ‘रावणके सै नक हाथ म अ -श लये इस पुरीक र ा करते ह, अत: दूसरा को◌इ बलपूवक इसे अपने काबूम नह कर सकता॥ १४ ॥ ‘के वल कु मुद, अंगद, महाक प सुषेण, मै , वद, सूयपु सु ीव, वानर कु शपवा और वानरसेनाके मुख वीर ऋ राज जा वा तथा मेरी भी प ँ च इस पुरीके भीतर हो सकती है’॥ १५-१६ ॥ फर महाबा ीराम और ल णके परा मका वचार करके क पवर हनुमा ो बड़ी स ता ◌इ॥ १७ ॥ महाक प हनुमा े देखा, रा सराज रावणक नगरी लंका व ाभूषण से वभू षत सु री युवतीके समान जान पड़ती है। र मय परकोटे ही इसके व ह, गो (गोशाला) तथा दूसरेदूसरे भवन आभूषण ह। परकोट पर लगे ए य के जो गृह ह, ये ही मानो इस लंका पी युवतीके न ह। यह सब कारक समृ य से स है। काशपूण ीप और महान् ह ने यहाँका अ कार न कर दया है॥ १८-१९ ॥ तदन र वानर े महाक प पवनकु मार हनुमान् उस पुरीम वेश करने लगे। इतनेम ही उस नगरीक अ ध ा ी देवी लंकाने अपने ाभा वक पम कट होकर उ देखा॥ २० ॥



वानर े हनुमा ो देखते ही रावणपा लत लंका यं ही उठ खड़ी ◌इ। उसका मुँह देखनेम बड़ा वकट था॥ २१ ॥ वह उन वीर पवनकु मारके सामने खड़ी हो गयी और बड़े जोरसे गजना करती ◌इ उनसे इस कार बोली—॥ २२ ॥ ‘वनचारी वानर! तू कौन है और कस कायसे यहाँ आया है ? तु ारे ाण जबतक बने ए ह, तबतक ही यहाँ आनेका जो यथाथ रह है, उसे ठीक-ठीक बता दो॥ २३ ॥ ‘वानर! रावणक सेना सब ओरसे इस पुरीक र ा करती है, अत: न य ही तू इस लंकाम वेश नह कर सकता’॥ २४ ॥ तब वीरवर हनुमान् अपने सामने खड़ी ◌इ लंकासे बोले—‘ ू र भाववाली नारी! तू मुझसे जो कु छ पूछ रही है, उसे म ठीक-ठीक बता दूँगा; कतु पहले यह तो बता, तू है कौन? तेरी आँ ख बड़ी भयंकर ह। तू इस नगरके ारपर खड़ी है। ा कारण है क तू इस कार ोध करके मुझे डाँट रही है’॥ २५-२६ ॥ हनुमा ीक यह बात सुनकर इ ानुसार प धारण करनेवाली लंका कु पत हो उन पवनकु मारसे कठोर वाणीम बोली—॥ २७ ॥ ‘म महामना रा सराज रावणक आ ाक ती ा करनेवाली उनक से वका ँ । मुझपर आ मण करना कसीके लये भी अ क ठन है। म इस नगरीक र ा करती ँ ॥ २८ ॥ ‘मेरी अवहेलना करके इस पुरीम वेश करना कसीके लये भी स व नह है। आज मेरे हाथसे मारा जाकर तू ाणहीन हो इस पृ ीपर शयन करेगा॥ २९ ॥ ‘वानर! म यं ही लंका नगरी ँ , अत: सब ओरसे इसक र ा करती ँ । यही कारण है क मने तेरे त कठोर वाणीका योग कया है’॥ ३० ॥ लंकाक यह बात सुनकर पवनकु मार क प े हनुमान् उसे जीतनेके लये य शील हो दूसरे पवतके समान वहाँ खड़े हो गये॥ ३१ ॥ लंकाको वकराल रा सीके पम देखकर बु मान् वानर शरोम ण श शाली क प े हनुमा े उससे इस कार कहा—॥ ३२ ॥ ‘म अ ा लका , परकोट और नगर ार स हत इस लंका नगरीको देखूँगा। इसी योजनसे यहाँ आया ँ । इसे देखनेके लये मेरे मनम बड़ा कौतूहल है॥



‘इस लंकाके



जो वन, उपवन, कानन और मु -मु भवन ह, उ देखनेके लये ही यहाँ मेरा आगमन आ है’॥ ३४ ॥ हनुमा ीका यह कथन सुनकर इ ानुसार प धारण करनेवाली लंका पुन: कठोर वाणीम बोली—॥ ‘खोटी बु वाले नीच वानर! रा से र रावणके ारा मेरी र ा हो रही है। तू मुझे परा कये बना आज इस पुरीको नह देख सकता’॥ ३६ ॥ तब उन वानर शरोम णने उस नशाचरीसे कहा— ‘भ े! इस पुरीको देखकर म फर जैसे आया ँ , उसी तरह लौट जाऊँ गा’॥ ३७ ॥ यह सुनकर लंकाने बड़ी भयंकर गजना करके वानर े हनुमा ो बड़े जोरसे एक थ ड़ मारा॥ ३८ ॥ लंका ारा इस कार जोरसे पीटे जानेपर उन परम परा मी पवनकु मार क प े हनुमा े बड़े जोरसे सहनाद कया॥ ३९ ॥ फर उ ने अपने बाय हाथक अंगु लय को मोड़कर मु ी बाँध ली और अ कु पत हो उस लंकाको एक मु ा जमा दया॥ ४० ॥ उसे ी समझकर हनुमा ीने यं ही अ धक ोध नह कया। कतु उस लघु हारसे ही उस नशाचरीके सारे अंग ाकु ल हो गये। वह सहसा पृ ीपर गर पड़ी। उस समय उसका मुख बड़ा वकराल दखायी देता था॥ ४१ ॥ अपने ही ारा गरायी गयी उस लंकाक ओर देखकर और उसे ी समझकर तेज ी वीर हनुमा ो उसपर दया आ गयी। उ ने उसपर बड़ी कृ पा क ॥ उधर अ उ ◌इ लंका उन वानरवीर हनुमा े अ भमानशू ग दवाणीम इस कार बोली—॥ ४३ ॥ ‘महाबाहो! स होइये। क प े ! मेरी र ा क जये। सौ ! महाबली स गुणशाली वीर पु ष शा क मयादापर र रहते ह (शा म ीको अव बताया है, इस लये आप मेरे ाण न ली जये)॥ ‘महाबली वीर वानर! म यं लंकापुरी ही ँ , आपने अपने परा मसे मुझे परा कर दया है॥ ४५ ॥



‘वानरे र!



म आपसे एक स ी बात कहती ँ । आप इसे सु नये। सा ात् य ू ाजीने मुझे जैसा वरदान दया था, वह बता रही ँ ॥ ४६ ॥ ‘उ ने कहा था—‘जब को◌इ वानर तुझे अपने परा मसे वशम कर ले, तब तुझे यह समझ लेना चा हये क अब रा स पर बड़ा भारी भय आ प ँ चा है॥ ४७ ॥ ‘सौ ! आपका दशन पाकर आज मेरे सामने वही घड़ी आ गयी है। ाजीने जस स का न य कर दया है, उसम को◌इ उलट-फे र नह हो सकता॥ ४८ ॥ ‘अब सीताके कारण दुरा ा राजा रावण तथा सम रा स के वनाशका समय आ प ँ चा है॥ ४९ ॥ ‘क प े ! अत: आप इस रावणपा लत पुरीम वेश क जये और यहाँ जो-जो काय करना चाहते ह , उन सबको पूण कर ली जये॥ ५० ॥ ‘वानरे र! रा सराज रावणके ारा पा लत यह सु र पुरी अ भशापसे न ाय हो चुक है। अत: इसम वेश करके आप े ानुसार सुखपूवक सव सती-सा ी जनकन नी सीताक खोज क जये’॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म तीसरा सग पूरा आ॥ ३॥



चौथा सग हनुमा ीका लंकापुरी एवं रावणके अ :पुरम वेश



इ ानुसार प धारण करनेवाली े रा सी लंकापुरीको अपने परा मसे परा करके महातेज ी महाबली महान् स शाली वानर शरोम ण क पकु र हनुमान् बना दरवाजेके ही रातम चहारदीवारी फाँद गये और लंकाके भीतर घुस गये॥ १-२ ॥ क पराज सु ीवका हत करनेवाले हनुमा ीने इस तरह लंकापुरीम वेश करके मानो श ु के सरपर अपना बायाँ पैर रख दया॥ ३ ॥ स गुणसे स पवनपु हनुमान् उस रातम परकोटेके भीतर वेश करके बखेरे गये फू ल से सुशो भत राजमागका आ य ले उस रमणीय लंकापुरीक ओर चले॥ ४१/२ ॥ जैसे आकाश ेत बादल से सुशो भत होता है, उसी कार वह रमणीय पुरी अपने ेत मेघस श गृह से उ म शोभा पा रही थी। वे गृह अ हासज नत उ ृ श तथा वा घोष से मुख रत थे। उनम व तथा अंकुश के च अ त थे और हीर के बने ए झरोखे उनक शोभा बढ़ाते थे॥ ५-६ ॥ उस समय लंका ेत बादल के समान सु र एवं व च रा स-गृह से का शत हो रही थी। उन गृह मसे को◌इ तो कमलके आकारम बने ए थे। को◌इ१ कके च या आकारसे यु थे और क का नमाण वधमानसं क२ गृह के पम आ था। वे सभी सब ओरसे सजाये गये थे॥ ७१/२ ॥ वानरराज सु ीवका हत करनेवाले ीमान् हनुमान् ीरघुनाथजीक काय स के लये व च पु मय आभरण से अलंकृत लंकाम वचरने लगे। उ ने उस पुरीको अ ी तरह देखा और देखकर स ताका अनुभव कया॥ ८१/२ ॥ उन क प े ने जहाँ-तहाँ एक घरसे दूसरे घरपर जाते ए व वध आकार- कारके भवन देखे तथा दय, क और मूधा—इन तीन ान से नकलनेवाले म , म म और उ रसे वभू षत मनोहर गीत सुने॥ ९-१० ॥ उ ने ग य अ रा के समान सु री तथा कामवेदनासे पी ड़त का म नय क करधनी और पायजेब क झनकार सुनी॥ ११ ॥



इसी तरह जहाँ-तहाँ महामन ी रा स के घर म सी ढ़य पर चढ़ते समय य क का ी और मंजीरक मधुर न तथा पु ष के ताल ठोकने और गजनेक भी आवाज उ सुनायी द ॥ १२ ॥ रा स के घर म ब त को तो उ ने वहाँ म जपते ए सुना और कतने ही नशाचर को ा ायम त र देखा॥ १३ ॥ क◌इ रा स को उ ने रावणक ु तके साथ गजना करते और नशाचर क एक बड़ी भीड़को राजमाग रोककर खड़ी ◌इ देखा॥ १४ ॥ नगरके म भागम उ रावणके ब त-से गु चर दखायी दये। उनम को◌इ योगक दी ा लये ए, को◌इ जटा बढ़ाये, को◌इ मूड़ मुँड़ाये, को◌इ गोचम या मृगचम धारण कये और को◌इ नंग-धड़ंग थे। को◌इ मु ीभर कु श को ही अ - पसे धारण कये ए थे। क का अ कु ही आयुध था। क के हाथम कू ट या मु र था। को◌इ डंडके ो ही ह थयार पम लये ए थे॥ क के एक ही आँ ख थी तो क के प ब रंगे थे। कतन के पेट और न ब त बड़े थे। को◌इ बड़े वकराल थे। क के मुँह टेढ़-े मेढ़े थे। को◌इ वकट थे तो को◌इ बौने॥ १७ ॥



क के पास धनुष, खड् ग, शत ी और मूसल प आयुध थे। क के हाथ म उ म प रघ व मान थे और को◌इ व च कवच से का शत हो रहे थे॥ १८ ॥ कु छ नशाचर न तो अ धक मोटे थे, न अ धक दुबल, न ब त लंबे थे न अ धक छोटे, न ब त गोरे थे न अ धक काले तथा न अ धक कु बड़े थे न वशेष बौने ही॥ १९ ॥ को◌इ बड़े कु प थे, को◌इ अनेक कारके प धारण कर सकते थे, क का प सु र था, को◌इ बड़े तेज ी थे तथा क के पास जा, पताका और अनेक कारके अ -श थे॥ २० ॥ को◌इ श और वृ प आयुध धारण कये देखे जाते थे तथा क के पास प ट्टश, व , गुलेल और पाश थे। महाक प हनुमा े उन सबको देखा॥ २१ ॥ क के गलेम फू ल के हार थे और ललाट आ द अंग च नसे च चत थे। को◌इ े आभूषण से सजे ए थे। कतने ही नाना कारके वेशभूषासे संयु थे और ब तेरे े ानुसार वचरनेवाले जान पड़ते थे॥ २२ ॥



कतने ही रा स तीखे शूल तथा व लये ए थे। वे सब-के -सब महान् बलसे स थे। इनके सवा क पवर हनुमा े एक लाख र क सेनाको रा सराज रावणक आ ासे सावधान होकर नगरके म भागक र ाम संल देखा। वे सारे सै नक रावणके अ :पुरके अ भागम त थे॥२३१/२ ॥ र क सेनाके लये जो वशाल भवन बना था, उसका फाटक ब मू सुवण ारा न मत आ था। उस आर ाभवनको देखकर महाक प हनुमा ीने रा सराज रावणके सु स राजमहलपर पात कया, जो कू ट पवतके एक शखरपर त त था। वह सब ओरसे ेत कमल ारा अलंकृत खाइय से घरा आ था। उसके चार ओर ब त ऊँ चा परकोटा था, जसने उस राजभवनको घेर रखा था। वह द भवन गलोकके समान मनोहर था और वहाँ संगीत आ दके द श गूँज रहे थे॥ २४—२६ ॥ घोड़ क हन हनाहटक आवाज भी वहाँ सब ओर फै ली ◌इ थी। आभूषण क न नु भी कान म पड़ती रहती थी। नाना कारके रथ, पालक आ द सवारी, वमान, सु र हाथी, घोड़े, ेत बादल क घटाके समान दखायी देनेवाले चार दाँत से यु सजे-सजाये मतवाले हाथी तथा मदम पशु-प य के संचरणसे उस राजमहलका ार बड़ा सु र दखायी देता था॥ २७-२८ ॥ सह महापरा मी नशाचर रा सराजके उस महलक र ा करते थे। उस गु भवनम भी क पवर हनुमा ी जा प ँ चे॥ २९ ॥ तदन र जसके चार ओर सुवण एवं जा ूनदका परकोटा था, जसका ऊपरी भाग ब मू मोती और म णय से वभू षत था तथा अ उ म काले अगु एवं च नसे जसक अचना क जाती थी, रावणके उस अ :पुरम हनुमा ीने वेश कया॥ ३० ॥ १-२ वाराह म हरक सं हताम गृह के व भ सं ान (आकृ तय ) का वणन कया गया है। उ सं ान के अनुसार उनके नाम दये गये ह। जहाँ कसं ान और वधमानसं क गृहका उ ेख आ है, इनके ल ण को करनेवाले वचन को यहाँ उ तृ कया जाता है— चतु:शालं चतु ारं सवतोभ सं तम्। प म ारर हतं न ावता य ु तत्॥ द



ण ारर हतं वधमानं धन दम्। ा ारर हतं



का



ं पु धन दम्॥



चार शाला से यु गृहको, जसके ेक दशाम एक-एक करके चार ार ह , ‘सवतोभ ’ कहते ह। जसम तीन ही ार ह , प म दशाक ओर ार न हो, उसका नाम ‘न ावत’ है। जसम द णके सवा अ तीन दशा म ार ह , उसे ‘वधमान’ गृह कहते ह। वह धन देनेवाला होता है तथा जसम के वल पूव दशाक ओर ार न हो, उस गृहका नाम ‘ क’ है। वह पु और धन देनेवाला होता है। इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म चौथा सग पूरा आ॥ ४॥



पाँचवाँ सग हनुमा ीका रावणके अ :पुरम घर-घरम सीताको ढूँ ढ़ना और उ न देखकर द:ु खी होना



त ात् बु मान् हनुमा ीने देखा, जस कार गोशालाके भीतर गौ के ंडु म मतवाला साँड़ वचरता है, उसी कार पृ ीके ऊपर बार ार अपनी चाँदनीका चँदोवा तानते ए च देव आकाशके म भागम ता रका के बीच वचरण कर रहे ह॥ १ ॥ वे शीतर च मा जग े पाप-तापका नाश कर रहे ह, महासागरम ार उठा रहे ह, सम ा णय को नयी दी एवं काश दे रहे ह और आकाशम मश: ऊपरक ओर उठ रहे ह॥ २ ॥ भूतलपर म राचलम, सं ाके समय महासागरम और जलके भीतर कमल म जो ल ी जस कार सुशो भत होती ह, वे ही उसी कार मनोहर च माम शोभा पा रही थ ॥ ३ ॥ जैसे चाँदीके पजरेम हंस, म राचलक क राम सह तथा मदम हाथीक पीठपर वीर पु ष शोभा पाते ह, उसी कार आकाशम च देव सुशो भत हो रहे थे॥ जैसे तीखे स गवाला बैल खड़ा हो, जैसे ऊपरको उठे शखरवाला महान् पवत ेत ( हमालय) शोभा पाता हो और जैसे सुवणज टत दाँत से यु गजराज सुशो भत होता हो, उसी कार ह रणके ृ पी च से यु प रपूण च मा छ ब पा रहे थे॥ ५ ॥ जनका शीतल जल और हम पी प से संसगका दोष न हो गया है, अथात् जो इनके संसगसे ब त दूर है, सूय- करण को हण करनेके कारण ज ने अपने अ कार पी प को भी न कर दया है तथा काश प ल ीका आ य ान होनेके कारण जनक का लमा भी नमल तीत होती है, वे भगवान् शशला न च देव आकाशम का शत हो रहे थे॥ ६ ॥ जैसे गुफाके बाहर शलातलपर बैठा आ मृगराज ( सह) शोभा पाता है, जैसे वशाल वनम प ँ चकर गजराज सुशो भत होता है तथा जैसे रा पाकर राजा अ धक शोभासे स हो जाता है, उसी कार नमल काशसे यु होकर च देव सुशो भत हो रहे थे॥ ७ ॥ काशयु च माके उदयसे जसका अ कार पी दोष दूर हो गया है, जसम रा स के जीव- हसा और मांसभ ण पी दोष बढ़ गये ह तथा रम णय के रमण व षयक च दोष



णय-कलह) नवृ हो गये ह, वह पूजनीय दोषकाल गस श सुखका काश करने लगा॥ ८ ॥ वीणाके वणसुखद श झ ृ त हो रहे थे, सदाचा रणी याँ प तय के साथ सो रही थ तथा अ अ तु और भयंकर शील- भाववाले नशाचर नशीथ कालम वहार कर रहे थे॥ ९॥ बु मान् वानर हनुमा े वहाँ ब त-से घर देखे। क म ऐ य-मदसे म नशाचर नवास करते थे, क म म दरापानसे मतवाले रा स भरे ए थे। कतने ही घर रथ, घोड़े आ द वाहन और भ ासन से स थे तथा कतने ही वीर-ल ीसे ा दखायी देते थे। वे सभी गृह एक-दूसरेसे मले ए थे॥ १० ॥ रा सलोग आपसम एक-दूसरेपर अ धक आ ेप करते थे। अपनी मोटी-मोटी भुजा को भी हलाते और चलाते थे। मतवाल क -सी बहक -बहक बात करते थे और म दरासे उ होकर पर र कटु वचन बोलते थे॥ ११ ॥ इतना ही नह , वे मतवाले रा स अपनी छाती भी पीटते थे। अपने हाथ आ द अंग को अपनी ारी प य पर रख देते थे। सु र पवाले च का नमाण करते थे और अपने सु ढ़ धनुष को कानतक ख चा करते थे॥ १२ ॥ हनुमा ीने यह भी देखा क ना यकाएँ अपने अंग म च न आ दका अनुलेपन करती ह। दूसरी वह सोती ह। तीसरी सु र प और मनोहर मुखवाली ललनाएँ हँ सती ह तथा अ व नताएँ णय-कलहसे कु पत हो लंबी साँस ख च रही ह॥ १३ ॥ च ाड़ते ए महान् गजराज , अ स ा नत े सभासद तथा लंबी साँस छोड़नेवाले वीर के कारण वह लंकापुरी फु फकारते ए सप से यु सरोवर के समान शोभा पा रही थी॥ १४ ॥ हनुमा ीने उस पुरीम ब त-से उ ृ बु वाले, सु र बोलनेवाले, स क् ा रखनेवाले, अनेक कारके प-रंगवाले और मनोहर नाम धारण करनेवाले व व ात रा स देखे॥ १५ ॥ वे सु र पवाले, नाना कारके गुण से स , अपने गुण के अनु प वहार करनेवाले और तेज ी थे। उ देखकर हनुमा ी बड़े स ए। उ ने ब तेरे रा स को सु र पसे स देखा और को◌इ-को◌इ उ बड़े कु प दखायी दये॥ १६ ॥ (



तदन र वहाँ उ ने सु र व ाभूषण धारण करनेके यो सु री रा स-रम णय को देखा, जनका भाव अ वशु था। वे बड़ी भावशा लनी थ । उनका मन यतमम तथा मधुपानम आस था। वे ता रका क भाँ त का मती और सु र भाववाली थ ॥ १७ ॥ हनुमा ीक म कु छ ऐसी याँ भी आय , जो अपने प-सौ यसे का शत हो रही थ । वे बड़ी लजीली थ और आधी रातके समय अपने यतमके आ ल नपाशम इस कार बँधी ◌इ थ जैसे प णी प ीके ारा आ ल त होती है। वे सब-के -सब आन म म थ ॥ १८ ॥ दूसरी ब त-सी याँ महल क छत पर बैठी थ । वे प तक सेवाम त र रहनेवाली, धमपरायणा, ववा हता और कामभावनासे भा वत थ । हनुमा ीने उन सबको अपने यतमके अ म सुखपूवक बैठी देखा॥ १९ ॥ कतनी ही का म नयाँ सुवण-रेखाके समान का मती दखायी देती थ । उ ने अपनी ओढ़नी उतार दी थी। कतनी ही उ म व नताएँ तपाये ए सुवणके समान रंगवाली थ तथा कतनी ही प त वयो गनी बालाएँ च माके समान ेत वणक दखायी देती थ । उनक अंगका बड़ी ही सु र थी॥ २० ॥ तदन र वानर के मुख वीर हनुमा ीने व भ गृह म ऐसी परम सु री रम णय का अवलोकन कया, जो मनो भराम यतमका संयोग पाकर अ स हो रही थ । फू ल के हारसे वभू षत होनेके कारण उनक रमणीयता और भी बढ़ गयी थी और वे सब-क -सब हषसे उ ु दखायी देती थ ॥ २१ ॥ उ ने च माके समान काशमान मुख क पं याँ, सु र पलक वाले तरछे ने क पं याँ और चमचमाती ◌इ व ु ेखा के समान आभूषण क भी मनोहर पं याँ देख ॥ २२ ॥ कतु जो परमा ाके मान सक संक से धममागपर र रहनेवाले राजकु लम कट ◌इ थ , जनका ादुभाव परम ऐ यक ा करानेवाला है, जो परम सु र पम उ ◌इ फु लताके समान शोभा पाती थ , उन कृ शा ी सीताको उ ने वहाँ कह नह देखा था॥ २३ ॥ जो सदा सनातन मागपर त रहनेवाली, ीरामपर ही रखनेवाली, ीराम वषयक काम या ेमसे प रपूण, अपने प तके तेज ी मनम बसी ◌इ तथा दूसरी सभी य से सदा



ही े थ ; ज वरहज नत ताप सदा पीड़ा देता रहता था, जनके ने से नर र आँ सु क झड़ी लगी रहती थी और क उन आँ सु से ग द रहता था, पहले संयोग-कालम जनका क े एवं ब मू न (पदक)-से वभू षत रहा करता था, जनक पलक ब त ही सु र थ और क र अ मधुर था तथा जो वनम नृ करनेवाली मयूरीके समान मनोहर लगती थ , जो मेघ आ दसे आ ा दत होनेके कारण अ रेखावाली च लेखाके समान दखायी देती थ , धू ल-धूसर सुवण-रेखा-सी तीत होती थ , बाणके आघातसे उ ◌इ रेखा ( च )-सी जान पड़ती थ तथा वायुके ारा उड़ायी जाती ◌इ बादल क रेखा-सी गोचर होती थ । व ा म े नरे र ीरामच जीक प ी उन सीताजीको ब त देरतक ढूँ ढ़नेपर भी जब हनुमा ी न देख सके , तब वे त ण अ दु:खी और श थल हो गये॥ २४—२७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पाँचवाँ सग पूरा आ॥ ५ ॥



छठा सग हनुमा ीका रावण तथा अ ा



रा स के घर म सीताजीक खोज करना



फर इ ानुसार प धारण करनेवाले क पवर हनुमा ी बड़ी शी ताके साथ लंकाके सतमहले मकान म यथे वचरने लगे॥ १ ॥ अ बल-वैभवसे स वे पवनकु मार रा सराज रावणके महलम प ँ च,े जो चार ओरसे सूयके समान चमचमाते ए सुवणमय परकोट से घरा आ था॥ २ ॥ जैसे सह वशाल वनक र ा करते ह, उसी कार ब तेरे भयानक रा स रावणके उस महलक र ा कर रहे थे। उस भवनका नरी ण करते ए क पकु र हनुमा ी मन-ही-मन हषका अनुभव करने लगे॥ ३ ॥ वह महल चाँदीसे मढ़े ए च , सोने जड़े ए दरवाज और बड़ी अ तु ो ढ़य तथा सु र ार से यु था॥ ४ ॥ हाथीपर चढ़े ए महावत तथा महीन शूरवीर वहाँ उप त थे। जनके वेगको को◌इ रोक नह सकता था, ऐसे रथवाहक अ भी वहाँ शोभा पा रहे थे॥ ५ ॥ सह और बाघ के चमड़ के बने ए कवच से वे रथ ढके ए थे, उनम हाथी-दाँत, सुवण तथा चाँदीक तमाएँ रखी ◌इ थ । उन रथ म लगी ◌इ छोटी-छोटी घं टका क मधुर न वहाँ होती रहती थी; ऐसे व च रथ उस रावण-भवनम सदा आ-जा रहे थे॥ रावणका वह भवन अनेक कारके र से ा था, ब मू आसन उसक शोभा बढ़ाते थे। उसम सब ओर बड़े-बड़े रथ के ठहरनेके ान बने थे और महारथी वीर के लये वशाल वास ान बनाये गये थे॥ दशनीय एवं परम सु र नाना कारके सह पशु और प ी वहाँ सब ओर भरे ए थे॥ ८ ॥



सीमाक र ा करनेवाले वनयशील रा स उस भवनक र ा करते थे। वह सब ओरसे मु -मु सु रय से भरा रहता था॥ ९ ॥ वहाँक र पा युवती रम णयाँ सदा स रहा करती थ । सु र आभूषण क झनकार से झंकृत रा सराजका वह महल समु के कल-कलनादक भाँ त मुख रत रहता था॥



१० ॥



वह भवन राजो चत साम ीसे पूण था, े एवं सु र च न से च चत था तथा सह से भरे ए वशाल वनक भाँ त धान- धान पु ष से प रपूण था॥ ११ ॥ वहाँ भेरी और मृद क न सब ओर फै ली ◌इ थी। वहाँ श क न गूँज रही थी। उसक न पूजा एवं सजावट होती थी। पव के दन वहाँ होम कया जाता था। रा सलोग सदा ही उस राजभवनक पूजा करते थे॥ १२ ॥ वह समु के समान ग ीर और उसीके समान कोलाहलपूण था। महामना रावणका वह वशाल भवन महान् र मय अलंकार से अलंकृत था॥ १३ ॥ उसम हाथी-घोड़े और रथ भरे ए थे तथा वह महान् र से ा होनेके कारण अपने पसे का शत हो रहा था। महाक प हनुमा े उसे देखा॥ १४ ॥ देखकर क पवर हनुमा े उस भवनको लंकाका आभूषण ही माना। तदन र वे उस रावणभवनके आस-पास ही वचरने लगे॥ १५ ॥ इस कार वे एक घरसे दूसरे घरम जाकर रा स के बगीच के सभी ान को देखते ए बना कसी भयसे अ ा लका पर वचरण करने लगे॥ १६ ॥ महान् वेगशाली और परा मी वीर हनुमान् वहाँसे कू दकर ह के घरम उतर गये। फर वहाँसे उछले और महापा के महलम प ँ च गये॥ १७ ॥ तदन र वे महाक प हनुमान् मेघके समान तीत होनेवाले कु कणके भवनम और वहाँसे वभीषणके महलम कू द गये॥ १८ ॥ इसी तरह मश: ये महोदर, व पा , व ु और व ु ा लके घरम गये॥ १९ ॥ इसके बाद महान् वेगशाली महाक प हनुमा े फर छलाँग मारी और वे व दं , शुक तथा बु मान् सारणके घर म जा प ँ चे॥ २० ॥ इसके बाद वे वानर-यूथप त क प े इ ज े घरम गये और वहाँसे ज ुमा ल तथा सुमा लके घरम प ँ च गये॥ २१ ॥ तदन र वे महाक प उछलते-कू दते ए र के तु, सूयश ु और व कायके महल म जा प ँ चे॥ २२ ॥



फर मश: वे क पवर पवनकु मार धू ा , स ा त, व ु पू , भीम, घन, वघन, शुकनाभ, च , शठ, कपट, कण, ं , लोमश, यु ो , म , ज ीव, व ु , ज , ह मुख, कराल, पशाच और शो णता आ दके महल म गये। इस कार मश: कू दते-फाँदते ए महा यश ी पवनपु हनुमान् उन-उन ब मू भवन म पधारे। वहाँ उन महाक पने उन समृ शाली रा स क समृ देखी॥ २३—२७ ॥ त ात् बल-वैभवसे स हनुमान् उन सब भवन को लाँघकर पुन: रा सराज रावणके महलपर आ गये॥ २८ ॥ वहाँ वचरते ए उन वानर शरोम ण क प े ने रावणके नकट सोनेवाली (उसके पलंगक र ा करनेवाली) रा सय को देखा, जनक आँ ख बड़ी वकराल थ ॥ २९ ॥ साथ ही, उ ने उस रा सराजके भवनम रा सय के ब त-से समुदाय देख,े जनके हाथ म शूल, मु र, श और तोमर आ द अ -श व मान थे॥ ३० ॥ उनके सवा, वहाँ ब त-से वशालकाय रा स भी दखायी दये, जो नाना कारके ह थयार से लैस थे। इतना ही नह , वहाँ लाल और सफे द रंगके ब त-से अ वेगशाली घोड़े भी बँधे ए थे॥ ३१ ॥ साथ ही अ ी जा तके पवान् हाथी भी थे, जो श -ु सेनाके हा थय को मार भगानेवाले थे। वे सब-के -सब गज श ाम सु श त, यु म ऐरावतके समान परा मी तथा श ुसेना का संहार करनेम समथ थे। वे बरसते ए मेघ और झरने बहाते ए पवत के समान मदक धारा बहा रहे थे। उनक गजना मेघ-गजनाके समान जान पड़ती थी। वे समरा णम श ु के लये दुजय थे। हनुमा ीने रावणके भवनम उन सबको देखा॥ ३२-३३१/२ ॥ रा सराज रावणके उस महलम उ ने सह ऐसी सेनाएँ देख , जो जा ूनदके आभूषण से वभू षत थ । उनके सारे अंग सोनेके गहन से ढके ए थे तथा वे ात:कालके सूयक भाँ त उ ी हो रही थ ॥ पवनपु हनुमा ीने रा सराज रावणके उस भवनम अनेक कारक पाल कयाँ, व च लता-गृह, च शालाएँ , डाभवन, का मय डापवत, रमणीय वलासगृह और दनम उपयोगम आनेवाले वलासभवन भी देखे॥ ३६-३७१/२ ॥ उ ने वह महल म राचलके समान ऊँ चा, डा-मयूर के रहनेके ान से यु , जा से ा , अन र का भ ार और सब ओरसे न धय से भरा आ देखा। उसम धीर



पु ष ने न धर ाके उपयु कमा का अनु ान कया था तथा वह सा ात् भूतनाथ (महे र या कु बेर)-के भवनके समान जान पड़ता था॥ र क करण तथा रावणके तेजके कारण वह घर करण से यु सूयके समान जगमगा रहा था॥ ४० ॥ वानरयूथप त हनुमा े वहाँके पलंग, चौक और पा सभी अ उ ल तथा जा ूनद सुवणके बने ए ही देखे॥ ४१ ॥ उसम मधु और आसवके गरनेसे वहाँक भू म गीली हो रही थी। म णमय पा से भरा आ वह सु व ृत महल कु बेर-भवनके समान मनोरम जान पड़ता था। नूपुर क झनकार, करध नय क खनखनाहट, मृद और ता लय क मधुर न तथा अ ग ीर घोष करनेवाले वा से वह भवन मुख रत हो रहा था॥ उसम सैकड़ अ ा लकाएँ थ , सैकड़ रमणी-र से वह ा था। उसक ो ढ़याँ ब त बड़ी-बड़ी थ । ऐसे वशाल भवनम हनुमा ीने वेश कया॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म छठा सग पूरा आ॥ ६॥



सातवाँ सग रावणके भवन एवं पु क वमानका वणन



बलवान् वीर हनुमा ीने नीलमसे जड़ी ◌इ सोनेक खड़ कय से सुशो भत तथा प समूह से यु भवन का समुदाय देखा, जो वषाकालम बजलीसे यु महती मेघमालाके समान मनोहर जान पड़ता था॥ १ ॥ उसम नाना कारक बैठक, श , आयुध और धनुष क मु -मु शालाएँ तथा पवत के समान ऊँ चे महल के ऊपर मनोहर एवं वशाल च शालाएँ (अ ा लकाएँ ) देख ॥ २ ॥



क पवर हनुमा े वहाँ नाना कारके र से सुशो भत ऐसे-ऐसे घर देखे, जनक देवता और असुर भी शंसा करते थे। वे गृह स ूण दोष से र हत थे तथा रावणने उ अपने पु षाथसे ा कया था॥ ३ ॥ वे भवन बड़े य से बनाये गये थे और ऐसे अ तु लगते थे, मानो सा ात् मयदानवने ही उनका नमाण कया हो। हनुमा ीने उ देखा, लंकाप त रावणके वे घर इस भूतलपर सभी गुण म सबसे बढ़-चढ़कर थे॥ ४ ॥ फर उ ने रा सराज रावणका उसक श के अनु प अ उ म और अनुपम भवन (पु क वमान) देखा, जो मेघके समान ऊँ चा, सुवणके समान सु र का वाला तथा मनोहर था॥ ५ ॥ वह इस भूतलपर बखरे ए णके समान जान पड़ता था। अपनी का से लत-सा हो रहा था। अनेकानेक र से ा , भाँ त-भाँ तके वृ के फू ल से आ ा दत तथा पु के परागसे भरे ए पवत- शखरके समान शोभा पाता था॥ ६ ॥ वह वमान प भवन व ु ाला से पू जत मेघके समान रमणी-र से देदी मान हो रहा था और े हंस ारा आकाशम ढोये जाते ए वमानक भाँ त जान पड़ता था। उस द वमानको ब त सु र ढंगसे बनाया गया था। वह अ तु शोभासे स दखायी देता था॥ जैसे अनेक धातु के कारण पवत शखर, ह और च माके कारण आकाश तथा अनेक वण से यु होनेके कारण मनोहर मेघ व च शोभा धारण करते ह, उसी तरह नाना कारके



र से न मत होनेके कारण वह वमान भी व च शोभासे स दखायी देता था॥ ८ ॥ उस वमानक आधारभू म (आरो हय के खड़े होनेका ान) सोने और म णय के ारा न मत कृ म पवत-माला से पूण बनायी गयी थी। वे पवत वृ क व ृत पं य से हरेभरे रचे गये थे। वे वृ फू ल के बा से ा बनाये गये थे तथा वे पु भी के सर एवं पंखु ड़य से पूण न मत ए थे*॥ ९ ॥ उस वमानम ेतभवन बने ए थे। सु र फू ल से सुशो भत पोखरे बनाये गये थे। के सरयु कमल, व च वन और अ तु सरोवर का भी नमाण कया गया था॥ १० ॥ महाक प हनुमा े जस सु र वमानको वहाँ देखा, उसका नाम पु क था। वह र क भासे काशमान था और इधर-उधर मण करता था। देवता के गृहाकार उ म वमान म सबसे अ धक आदर उस महा वमान पु कका ही होता था॥ ११ ॥ उसम नीलम, चाँदी और मूँग के आकाशचारी प ी बनाये गये थे। नाना कारके र से व च वणके सप का नमाण कया गया था और अ ी जा तके घोड़ के समान ही सु र अंगवाले अ भी बनाये गये थे॥ १२ ॥ उस वमानपर सु र मुख और मनोहर पंखवाले ब त-से ऐसे वह म न मत ए थे, जो सा ात् कामदेवके सहायक जान पड़ते थे। उनक पाँख मूँगे और सुवणके बने ए फू ल से यु थ तथा उ ने लीलापूवक अपने बाँके पंख को समेट रखा था॥ १३ ॥ उस वमानके कमलम त सरोवरम ऐसे हाथी बनाये गये थे, जो ल ीके अ भषेककायम नयु थे। उनक सूँड़ बड़ी सु र थी। उनके अंग म कमल के के सर लगे ए थे तथा उ ने अपनी सूँड़ म कमल-पु धारण कये थे। उनके साथ ही वहाँ तेज नी ल ी देवीक तमा भी वराजमान थी, जनका उन हा थय के ारा अ भषेक हो रहा था। उनके हाथ बड़े सु र थे। उ ने अपने हाथम कमल-पु धारण कर रखा था॥ १४ ॥ इस कार सु र क रा वाले पवतके समान तथा वस -ऋतुम सु र कोटर वाले परम सुग यु वृ के समान उस शोभायमान मनोहर भवन ( वमान)-म प ँ चकर हनुमा ी बड़े व त ए॥ १५ ॥ तदन र दशमुख रावणके बा बलसे पा लत उस शं सत पुरीम जाकर चार ओर घूमनेपर भी प तके गुण के वेगसे परा जत ( वमु ) अ दु: खनी और परम पूजनीया जनक कशोरी सीताको न देखकर क पवर हनुमान् बड़ी च ाम पड़ गये॥ १६ ॥



महा ा हनुमा ी अनेक कारसे परमाथ- च नम त र रहनेवाले कृ ता ा (प व अ :करणवाले) स ागगामी तथा उ म रखनेवाले थे। इधर-उधर ब त घूमनेपर भी जब उन महा ाको जानक जीका पता न लगा, तब उनका मन ब त दु:खी हो गया॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म सातवाँ सग पूरा आ॥ ७ ॥ जहाँ पूवक थत व ु के त उ रो र क थत व ु का वशेषण-भावसे ापन कया जाय, वहाँ ‘एकावली’ अलंकार माना गया है। इस ल णके अनुसार इस ोकम एकावली अलंकार है। यहाँ ‘मही’ का वशेषण पवत, पवतका वृ और वृ का वशेषण पु आ द समझना चा हये। गो व राजने यहाँ ‘अ धक’ नामक अलंकार माना है, परंतु जहाँ आधारसे आधेयक वशेषता बतायी गयी हो वही इसका वषय है; यहाँ ऐसी बात नह है। *



आठवाँ सग हनुमा ीके ारा पुन: पु क वमानका दशन



रावणके भवनके म भागम खड़े ए बु मान् पवनकु मार क पवर हनुमा ीने म ण तथा र से ज टत एवं तपे ए सुवणमय गवा क रचनासे यु उस वशाल वमानको पुन: देखा॥ १ ॥ उसक रचनाको सौ य आ दक से मापा नह जा सकता था। उसका नमाण अनुपम री तसे कया गया था। यं व कमाने ही उसे बनाया था और ब त उ म कहकर उसक शंसा क थी। जब वह आकाशम उठकर वायुमागम त होता था, तब सौर मागके च -सा सुशो भत होता था॥ २ ॥ उसम को◌इ ऐसी व ु नह थी, जो अ य से न बनायी गयी हो तथा वहाँ को◌इ भी ऐसा ान या वमानका अंग नह था, जो ब मू र से ज टत न हो। उसम जो वशेषताएँ थ , वे देवता के वमान म भी नह थ । उसम को◌इ ऐसी चीज नह थी, जो बड़ी भारी वशेषतासे यु न हो॥ ३ ॥ रावणने जो नराहार रहकर तप कया था और भगवा े च नम च को एका कया था, इससे मले ए परा मके ारा उसने उस वमानपर अ धकार ा कया था। मनम जहाँ भी जानेका संक उठता, वह वह वमान प ँ च जाता था। अनेक कारक व श नमाणकला ारा उस वमानक रचना ◌इ थी तथा जहाँ-तहाँसे ा क गयी द वमान न माणो चत वशेषता से उसका नमाण आ था॥ ४ ॥ वह ामीके मनका अनुसरण करते ए बड़ी शी तासे चलनेवाला, दूसर के लये दुलभ और वायुके समान वेगपूवक आगे बढ़नेवाला था तथा े आन (महान् सुख)के भागी, बढ़ेचढ़े तपवाले, पु कारी महा ा का ही वह आ य था॥ ५ ॥ वह वमान ग त वशेषका आ य ले ोम प देश- वशेषम त था। आ यजनक व च व ु का समुदाय उसम एक कया गया था। ब त-सी शाला के कारण उसक बड़ी शोभा हो रही थी। वह शरद-् ऋतुके च माके समान नमल और मनको आन दान करनेवाला था। व च छोटे-छोटे शखर से यु कसी पवतके धान शखरक जैसी शोभा होती है, उसी कार अ तु शखरवाले उस पु क वमानक भी शोभा हो रही थी॥



जनके मुखम ल कु ल से सुशो भत और ने घूमते या घूरते रहनेवाले, नमेषर हत तथा बड़े-बड़े थे, वे अप र मत भोजन करनेवाले, महान् वेगशाली, आकाशम वचरनेवाले तथा रातम भी दनके समान ही चलनेवाले सह भूतगण जसका भार वहन करते थे, जो वस का लक पु -पु के समान रमणीय दखायी देता था और वस माससे भी अ धक सुहावना गोचर होता था, उस उ म पु क वमानको वानर शरोम ण हनुमा ीने वहाँ देखा॥ ७-८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म आठवाँ सग पूरा आ॥ ८ ॥



नवाँ सग हनुमा ीका रावणके े भवन पु क वमान तथा रावणके रहनेक सु र हवेलीको देखकर उसके भीतर सोयी ◌इ सह सु री य का अवलोकन करना



लंकावत सव े महान् गृहके म भागम पवनपु हनुमा ीने देखा—एक उ म भवन शोभा पा रहा है। वह ब त ही नमल एवं व ृत था। उसक लंबा◌इ एक योजनक और चौड़ा◌इ आधे योजनक थी। रा सराज रावणका वह वशाल भवन ब त-सी अ ा लका से ा था॥ १-२ ॥ वशाललोचना वदेह-न नी सीताक खोज करते ए श ुसूदन हनुमा ी उस भवनम सब ओर च र लगाते फरे॥ ३ ॥ बल-वैभवसे स हनुमान् रा स के उस उ म आवासका अवलोकन करते ए एक ऐसे सु र गृहम जा प ँ चे, जो रा सराज रावणका नजी नवास- ान था॥ ४ ॥ चार दाँत तथा तीन दाँत वाले हाथी इस व ृत भवनको चार ओरसे घेरकर खड़े थे और हाथ म ह थयार लये ब त-से रा स उसक र ा करते थे॥ ५ ॥ रावणका वह महल उसक रा सजातीय प य तथा परा मपूवक हरकर लायी ◌इ राजक ा से भरा आ था॥ ६ ॥ इस कार नर-ना रय से भरा आ वह कोलाहलपूण भवन नाके और मगर से ा , त मगल और म से पूण, वायुवेगसे व ु तथा सप से आवृत महासागरके समान तीत होता था॥ ७ ॥ जो ल ी कु बेर, च मा और इ के यहाँ नवास करती ह, वे ही और भी सुर पसे रावणके घरम न ही न ल होकर रहती थ ॥ ८ ॥ जो समृ महाराज कु बेर, यम और व णके यहाँ गोचर होती है, वही अथवा उससे भी बढ़कर रा स के घर मे देखी जाती थ ॥ ९ ॥ उस (एक योजन लंबे और आधे योजन चौड़े) महलके म भागम एक दूसरा भवन (पु क वमान) था, जसका नमाण बड़े सु र ढंगसे कया गया था। वह भवन ब सं क मतवाले हा थय से यु था। पवनकु मार हनुमा ीने फर उसे देखा॥ १० ॥



वह सब कारके र से वभू षत पु क नामक द वमान गलोकम व कमाने ाजीके लये बनाया था॥ ११ ॥ कु बेरने बड़ी भारी तप ा करके उसे ाजीसे ा कया और फर कु बेरको बलपूवक परा करके रा सराज रावणने उसे अपने हाथम कर लया॥ १२ ॥ उसम भे ड़य क मू तय से यु सोने-चाँदीके सु र ख े बनाये गये थे, जनके कारण वह भवन अ तु का से उ ी -सा हो रहा था॥ १३ ॥ उसम सुमे और म राचलके समान ऊँ चे अनेकानेक गु गृह और म ल भवन बने थे, जो अपनी ऊँ चा◌इसे आकाशम रेखा-सी ख चते ए जान पड़ते थे। उनके ारा वह वमान सब ओरसे सुशो भत होता था॥ १४ ॥ उनका काश अ और सूयके समान था। व कमाने बड़ी कारीगरीसे उसका नमाण कया था। उसम सोनेक सी ढ़याँ और अ मनोहर उ म वे दयाँ बनायी गयी थ ॥ १५ ॥ सोने और टकके झरोखे और खड़ कयाँ लगायी गयी थ । इ नील और महानील म णय क े तम वे दयाँ रची गयी थ ॥ १६ ॥ उसक फश व च मूँग,े ब मू म णय तथा अनुपम गोल-गोल मो तय से जड़ी गयी थी, जससे उस वमानक बड़ी शोभा हो रही थी॥ १७ ॥ सुवणके समान लाल रंगके सुग यु च नसे संयु होनेके कारण वह बालसूयके समान जान पड़ता था॥ १८ ॥ महाक प हनुमा ी उस द पु क वमानपर चढ़ गये, जो नाना कारके सु र कू टागार (अ ा लका ) से अलंकृत था। वहाँ बैठकर वे सब ओर फै ली ◌इ नाना कारके पेय, भ और अ क द ग सूँघने लगे। वह ग मू तमान् पवन-सी तीत होती थी॥ १९१/२ ॥ जैसे को◌इ ब ु-बा व अपने उ म ब ुको अपने पास बुलाता है, उसी कार वह सुग उन महाबली हनुमा ीको मानो यह कहकर क ‘इधर चले आओ’ जहाँ रावण था, वहाँ बुला रही थी॥ २०१/२ ॥ तदन र हनुमा ी उस ओर त ए। आगे बढ़नेपर उ ने एक ब त बड़ी हवेली देखी, जो ब त ही सु र और सुखद थी। वह हवेली रावणको ब त ही य थी, ठीक वैसे ही



जैसे प तको का मयी सु री प ी अ धक य होती है॥ २११/२ ॥ उसम म णय क सी ढ़याँ बनी थ और सोनेक खड़ कयाँ उसक शोभा बढ़ाती थ । उसक फश टक म णसे बनायी गयी थी, जहाँ बीच-बीचम हाथीके दाँतके ारा व भ कारक आकृ तयाँ बनी ◌इ थ । मोती, हीरे, मूँगे, चाँदी और सोनेके ारा भी उसम अनेक कारके आकार अ त कये गये थे॥ म णय के बने ए ब त-से ख े, जो समान, सीधे, ब त ही ऊँ चे और सब ओरसे वभू षत थे, आभूषणक भाँ त उस हवेलीक शोभा बढ़ा रहे थे॥ अपने अ ऊँ चे पी पंख से मानो वह आकाशको उड़ती ◌इ-सी जान पड़ती थी। उसके भीतर पृ ीके वन-पवत आ द च से अ त एक ब त बड़ा कालीन बछा आ था॥ २५ ॥ रा और गृह आ दके च से सुशो भत वह शाला पृ ीके समान व ीण जान पड़ती थी। वहाँ मतवाले वह म के कलरव गूँजते रहते थे तथा वह द सुग से सुवा सत थी॥ २६ ॥



उस हवेलीम ब मू बछौने बछे ए थे तथा यं रा सराज रावण उसम नवास करता था। वह अगु नामक धूपके धूएँसे धू मल दखायी देती थी, कतु वा वम हंसके समान ेत एवं नमल थी॥ २७ ॥ प -पु के उपहारसे वह शाला चतकबरी-सी जान पड़ती थी। अथवा व स मु नक शबला गौक भाँ त स ूण कामना क देनेवाली थी। उसक का बड़ी ही सु र थी। वह मनको आन देनेवाली तथा शोभाको भी सुशो भत करनेवाली थी॥ २८ ॥ वह द शाला शोकका नाश करनेवाली तथा स क जननी-सी जान पड़ती थी। हनुमा ीने उसे देखा। उस रावणपा लत शालाने उस समय माताक भाँ त श , श आ द पाँच वषय से हनुमा ीक ो आ द पाँच इ य को तृ कर दया॥ २९१/२ ॥ उसे देखकर हनुमा ी यह तक- वतक करने लगे क स व है, यही गलोक या देवलोक हो। यह इ क पुरी भी हो सकती है अथवा यह परम स ( लोकक ा प्त) है॥ ३० ॥



हनुमा ीने उस शालाम सुवणमय दीपक को एकतार जलते देखा, मानो वे ानम हो रहे ह ; ठीक उसी तरह जैसे कसी बड़े जुआरीसे जुएम हारे ए छोटे जुआरी धननाशक च ाके कारण ानम डू बे ए-से दखायी देते ह॥ ३१ ॥ दीपक के काश, रावणके तेज और आभूषण क का से वह सारी हवेली जलती ◌इ-सी जान पड़ती थी॥ तदन र हनुमा ीने कालीनपर बैठी ◌इ सह सु री याँ देख , जो रंग- बरंगे व और पु माला धारण कये अनेक कारक वेश-भूषा से वभू षत थ ॥ ३३ ॥ आधी रात बीत जानेपर वे ड़ासे उपरत हो मधुपानके मद और न ाके वशीभूत हो उस समय गाढ़ी न दम सो गयी थ ॥ ३४ ॥ उन सोयी ◌इ सह ना रय के क टभागम अब करधनीक खनखनाहटका श नह हो रहा था। हंस के कलरव तथा मर के गु ारवसे र हत वशाल कमल-वनके समान उन सु सु रय का समुदाय बड़ी शोभा पा रहा था॥ ३५ ॥ पवनकु मार हनुमा ीने उन सु री युव तय के मुख देखे, जनसे कमल क -सी सुग फै ल रही थी। उनके दाँत ढँ के ए थे और आँ ख मुँद गयी थ ॥ ३६ ॥ रा के अ म खले ए कमल के समान उन सु रय के जो मुखार व हषसे उ ु दखायी देते थे, वे ही फर रात आनेपर सो जानेके कारण मुँदे ए दलवाले कमल के समान शोभा पा रहे थे॥ ३७ ॥ उ देखकर ीमान् महाक प हनुमान् यह स ावना करने लगे क ‘मतवाले मर फु कमल के समान इन मुखार व क ा प्तके लये न ही बारंबार ाथना करते ह गे—उनपर सदा ान पानेके लये तरसते ह गे’; क वे गुणक से उन मुखार व को पानीसे उ होनेवाले कमल के समान ही समझते थे॥ ३८-३९ ॥ रावणक वह हवेली उन य से का शत होकर वैसी ही शोभा पा रही थी, जैसे शर ालम नमल आकाश तारा से का शत एवं सुशो भत होता है॥ ४० ॥ उन य से घरा आ रा सराज रावण तारा से घरे ए का मान् न प त च माके समान शोभा पा रहा था॥ ४१ ॥



उस समय हनुमा ीको ऐसा मालूम आ क आकाश ( ग)-से भोगाव श पु के साथ जो ताराएँ नीचे गरती ह, वे सब-क -सब मानो यहाँ इन सु रय के पम एक हो गयी ह*॥ ४२ ॥ क वहाँ उन युव तय के तेज, वण और साद त: सु र भावाले महान् तार के समान ही सुशो भत होते थे॥ ४३ ॥ मधुपानके अन र ायाम (नृ , गान, ड़ा आ द)- के समय जनके के श खुलकर बखर गये थे, पु मालाएँ म दत होकर छ - भ हो गयी थ और सु र आभूषण भी श थल होकर इधर-उधर खसक गये थे, वे सभी सु रयाँ वहाँ न ासे अचेत-सी होकर सो रही थ ॥ ४४ ॥ क के म कक ( सदूर-क ूरी आ दक ) वे दयाँ पुछ गयी थ , क के नूपुर पैर से नकलकर दूर जा पड़े थे तथा क सु री युव तय के हार टूटकर उनके बगलम ही पड़े थे॥ ४५ ॥



को◌इ मो तय के हार टूट जानेसे उनके बखरे दान से आवृत थ , क के व खसक गये थे और क क करधनीक लड़ टूट गयी थ । वे युव तयाँ बोझ ढोकर थक ◌इ अ जा तक नयी बछे ड़य के समान जान पड़ती थ ॥ ४६ ॥ क के कान के कु ल गर गये थे, क क पु मालाएँ मसली जाकर छ - भ हो गयी थ । इससे वे महान् वनम गजराज ारा दली-मली गयी फू ली लता के समान तीत होती थ ॥ ४७ ॥ क के च मा और सूयक करण के समान काशमान हार उनके व : लपर पड़कर उभरे ए तीत होते थे। वे उन युव तय के नम लपर ऐसे जान पड़ते थे मानो वहाँ हंस सो रहे ह ॥ ४८ ॥ दूसरी य के न पर नीलमके हार पड़े थे, जो काद (जलकाक) नामक प ीके समान शोभा पाते थे तथा अ य के उरोज पर जो सोनेके हार थे, वे च वाक (पुरखाव) नामक प य के समान जान पड़ते थे॥ ४९ ॥ इस कार वे हंस, कार व (जलकाक) तथा च वाक से सुशो भत न दय के समान शोभा पाती थ । उनके जघन देश उन न दय के तट के समान जान पड़ते थे॥ ५० ॥



वे सोयी ◌इ सु रयाँ वहाँ स रता के समान सुशो भत होती थ । क णय (घुँघु )-के समूह उनम मुकुलके समान तीत होते थे। सोनेके व भ आभूषण ही वहाँ ब सं क णकमल क शोभा धारण करते थे। भाव (सु ाव ाम भी वासनावश होनेवाली ृंगारचे ाएँ ) ही मानो ाह थे तथा यश (का ) ही तटके समान जान पड़ते थे॥ ५१ ॥ क सु रय के कोमल अंग म तथा कु च के अ भागपर उभरी ◌इ आभूषण क सु र रेखाएँ नये गहन के समान ही शोभा पाती थ ॥ ५२ ॥ क के मुखपर पड़े ए उनक झीनी साड़ीके अ ल उनक ना सकासे नकली ◌इ साँससे क त हो बारंबार हल रहे थे॥ ५३ ॥ नाना कारके सु र प-रंगवाली उन रावणप त्नय के मुख पर हलते ए वे अ ल सु र का वाली फहराती ◌इ पताका के समान शोभा पा रहे थे॥ ५४ ॥ वहाँ क - क सु र का मती का म नय के कान के कु ल उनके न: ासज नत क नसे धीरेधीरे हल रहे थे॥ ५५ ॥ उन सु रय के मुखसे नकली ◌इ भावसे ही सुग त ासवायु शकरा न मत आसवक मनोहर ग से यु हो और भी सुखद बनकर उस समय रावणक सेवा करती थी॥ ५६ ॥ रावणक कतनी ही त णी प त्नयाँ रावणका ही मुख समझकर बारंबार अपनी सौत के ही मुख को सूँघ रही थ ॥ ५७ ॥ उन सु रय का मन रावणम अ आस था, इस लये वे आस तथा म दराके मदसे परवश हो उस समय रावणके मुखके मसे अपनी सौत का मुख सूँघकर उनका य ही करती थ (अथात् वे भी उस समय अपने मुख-संल ए उन सौत के मुख को रावणका ही मुख समझकर उसे सूँघनेका सुख उठाती थ )॥ ५८ ॥ अ मदम युव तयाँ अपनी वलय वभू षत भुजा का ही त कया लगाकर तथा को◌इको◌इ सरके नीचे अपने सुर व को ही रखकर वहाँ सो रही थ ॥ ५९ ॥ एक ी दूसरीक छातीपर सर रखकर सोयी थी तो को◌इ दूसरी ी उसक भी एक बाँहको ही त कया बनाकर सो गयी थी। इसी तरह एक अ ी दूसरीक गोदम सर रखकर सोयी थी तो को◌इ दूसरी उसके भी कु च का ही त कया लगाकर सो गयी थी॥



इस तरह रावण वषयक ेह और म दराज नत मदके वशीभूत ◌इ वे सु रयाँ एकदूसरीके ऊ , पा भाग, क ट देश तथा पृ भागका सहारा ले आपसम अंग -से-अंग मलाये वहाँ बेसुध पड़ी थ ॥ ६१ ॥ वे सु र क ट देशवाली सम युव तयाँ एक-दूसरीके अंग शको यतमका श मानकर उससे मन-ही-मन आन का अनुभव करती ◌इ पर र बाँह-से-बाँह मलाये सो रही थ ॥ ६२ ॥ एक-दूसरीके बा पी सू म गुँथी ◌इ काले-काले के श वाली य क वह माला सूतम परोयी ◌इ मतवाले मर से यु पु मालाक भाँ त शोभा पा रही थी॥ ६३ ॥ माधवमास (वस )-म मलया नलके सेवनसे जैसे खली ◌इ लता का वन क त होता रहता है, उसी कार रावणक य का वह समुदाय न: ासवायुके चलनेसे अ ल के हलनेके कारण क त होता-सा जान पड़ता था। जैसे लताएँ पर र मलकर मालाक भाँ त आब हो जाती ह, उनक सु र शाखाएँ पर र लपट जाती ह और इसी लये उनके पु समूह भी आपसम मले ए-से तीत होते ह तथा उनपर बैठे ए मर भी पर र मल जाते ह, उसी कार वे सु रयाँ एक-दूसरीसे मलकर मालाक भाँ त गुँथ गयी थ । उनक भुजाएँ और कं धे पर र सटे ए थे। उनक वेणीम गुँथे ए फू ल भी आपसम मल गये थे तथा उन सबके के शकलाप भी एक-दूसरेसे जुड़ गये थे॥ ६४-६५ ॥ य प उन युव तय के व , अंग, आभूषण और हार उ चत ान पर ही त त थे, यह बात दखायी दे रही थी, तथा प उन सबके पर र गुँथ जानेके कारण यह ववेक होना अस व हो गया था क कौन व , आभूषण, अंग अथवा हार कसके ह*॥ रावणके सुखपूवक सो जानेपर वहाँ जलते ए सुवणमय दीप उन अनेक कारक का वाली का म नय को मानो एकटक से देख रहे थे॥ ६७ ॥ राज षय , षय , दै , ग व तथा रा स क क ाएँ कामके वशीभूत होकर रावणक प त्नयाँ बन गयी थ ॥ ६८ ॥ उन सब य का रावणने यु क इ ासे अपहरण कया था और कु छ मदम रम णयाँ कामदेवसे मो हत होकर यं ही उसक सेवाम उप त हो गयी थ ॥ ६९ ॥ वहाँ ऐसी को◌इ याँ नह थ , ज बल-परा मसे स होनेपर भी रावण उनक इ ाके व बलात् हर लाया हो। वे सब-क -सब उसे अपने अलौ कक गुणसे ही उपल



◌इ थ । जो े तम पु षो म ीरामच जीके ही यो थ , उन जनक कशोरी सीताको छोड़कर दूसरी को◌इ ऐसी ी वहाँ नह थी, जो रावणके सवा कसी दूसरेक इ ा रखनेवाली हो अथवा जसका पहले को◌इ दूसरा प त रहा हो॥ ७० ॥ रावणक को◌इ भाया ऐसी नह थी, जो उ म कु लम उ न ◌इ हो अथवा जो कु प, अनुदार या कौशलर हत, उ म व ाभूषण एवं माला आ दसे व त, श हीन तथा यतमको अ य हो॥ ७१ ॥ उस समय े बु वाले वानरराज हनुमा ीके मनम यह वचार उ आ क ये महान् रा सराज रावणक भायाएँ जस तरह अपने प तके साथ रहकर सुखी ह, उसी कार य द रघुनाथजीक धमप ी सीताजी भी इ क भाँ त अपने प तके साथ रहकर सुखका अनुभव करत अथात् य द रावण शी ही उ ीरामच जीक सेवाम सम पत कर देता तो यह इसके लये परम मंगलकारी होता॥ ७२ ॥ फर उ ने सोचा, न य ही सीता गुण क से इन सबक अपे ा ब त ही बढ़चढ़कर ह। इस महाबली लंकाप तने मायामय प धारण करके सीताको धोखा देकर इनके त यह अपहरण प महान् क द नीच कम कया है॥ ७३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म नवाँ सग पूरा आ॥ ९ ॥



* इस



ोकम ‘अ ु ’ अलंकार है। * इस ोकम ‘ ा मान्’ नामक अलंकार है।



दसवाँ सग हनुमा ीका अ :पुरम सोये ए रावण तथा गाढ़ न ाम पड़ी ◌इ उसक देखना तथा म ोदरीको सीता समझकर स होना



य को



वहाँ इधर-उधर पात करते ए हनुमा ीने एक द एवं े वेदी देखी, जसपर पलंग बछाया जाता था। वह वेदी टक म णक बनी ◌इ थी और उसम अनेक कारके र जड़े गये थे॥ १ ॥ वहाँ वैदयू म ण (नीलम)-के बने ए े आसन (पलंग) बछे ए थे, जनक पाटी-पाये आ द अंग हाथी-दाँत और सुवणसे ज टत होनेके कारण चतकबरे दखायी देते थे। उन महामू वान् पलंग पर ब मू बछौने बछाये गये थे। उन सबके कारण उस वेदीक बड़ी शोभा हो रही थी॥ २ ॥ उस पलंगके एक भागम उ ने च माके समान एक ेत छ देखा, जो द माला से सुशो भत था॥ वह उ म पलंग सुवणसे ज टत होनेके कारण अ के समान देदी मान हो रहा था। हनुमा ीने उसे अशोकपु क माला से अलंकृत देखा॥ ४ ॥ उसके चार ओर खड़ी ◌इ ब त-सी याँ हाथ म चँवर लये उसपर हवा कर रही थ । वह पलंग अनेक कारक ग से से वत तथा उ म धूपसे सुवा सत था॥ ५ ॥ उसपर उ मो म बछौने बछे ए थे। उसम भेड़क खाल मढ़ी ◌इ थी तथा वह सब ओरसे उ म फू ल क माला से सुशो भत था॥ ६ ॥ उस काशमान पलंगपर महाक प हनुमा ीने वीर रा सराज रावणको सोते देखा, जो सु र आभूषण से वभू षत, इ ानुसार प धारण करनेवाला, द आभरण से अलंकृत और सु पवान् था। वह रा स-क ा का यतम तथा रा स को सुख प ँ चानेवाला था। उसके अंग म सुग त लाल च नका अनुलेप लगा आ था, जससे वह आकाशम सं ाकालक लाली तथा व ु ेखासे यु मेघके समान शोभा पाता था। उसक अंगका मेघके समान ाम थी। उसके कान म उ ल कु ल झल मला रहे थे। आँ ख लाल थ और भुजाएँ बड़ीबड़ी। उसके व सुनहरे रंगके थे। वह रातको य के साथ ड़ा करके म दरा पीकर आराम



कर रहा था। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो वृ , वन और लता-गु से स म राचल सो रहा हो॥ ७—११ ॥ उस समय साँस लेता आ रावण फु फकारते ए सपके समान जान पड़ता था। उसके पास प ँ चकर वानर शरोम ण हनुमान् अ उ हो भलीभाँ त डरे एक भाँ त सहसा दूर हट गये और सी ढ़य पर चढ़कर एक-दूसरी वेदीपर जाकर खड़े हो गये। वहाँसे उन महाक पने उस मतवाले रा स सहको देखना आर कया॥ १२-१३ ॥ रा सराज रावणके सोते समय वह सु र पलंग उसी कार शोभा पा रहा था, जैसे ग ह ीके शयन करनेपर वशाल वण ग र सुशो भत हो रहा हो॥ १४ ॥ उ ने महाकाय रा सराज रावणक फै लायी ◌इ दो भुजाएँ देख , जो सोनेके बाजूबंदसे वभू षत हो इ जके समान जान पड़ती थ ॥ १५ ॥ यु कालम उन भुजा पर ऐरावत हाथीके दाँत के अ भागसे जो हार कये गये थे, उनके आघातका च बन गया था। उन भुजा के मूलभाग या कं धे ब त मोटे थे और उनपर व ारा कये गये आघातके भी च दखायी देते थे। भगवान् व ुके च से भी कसी समय वे भुजाएँ त- व त हो चुक थ ॥ १६ ॥ वे भुजाएँ सब ओरसे समान और सु र कं ध वाली तथा मोटी थ । उनक सं धयाँ सु ढ़ थ । वे ब ल और उ म ल णवाले नख एवं अंगु से सुशो भत थ । उनक अंगु लयाँ और हथे लयाँ बड़ी सु र दखायी देती थ ॥ १७ ॥ वे सुग ठत एवं पु थ । प रघके समान गोलाकार तथा हाथीके शु द क भाँ त चढ़ाव-उतारवाली एवं लंबी थ । उस उ ल पलंगपर फै ली वे बाँह पाँच-पाँच फनवाले दो सप के समान गोचर होती थ ॥ खरगोशके खूनक भाँ त लाल रंगके उ म, सुशीतल एवं सुग त च नसे च चत ◌इ वे भुजाएँ अलंकार से अलंकृत थ ॥ १९ ॥ सु री युव तयाँ धीरे-धीरे उन बाँह को दबाती थ । उनपर उ म ग - का लेप आ था। वे य , नाग, ग व, देवता और दानव सभीको यु म लानेवाली थ ॥ २० ॥ क पवर हनुमा े पलंगपर पड़ी ◌इ उन दोन भुजा को देखा। वे म राचलक गुफाम सोये ए दो रोषभरे अजगर के समान जान पड़ती थ ॥ २१ ॥



उन बड़ी-बड़ी और गोलाकार दो भुजा से यु पवताकार रा सराज रावण दो शखर से संयु म राचलके समान शोभा पा रहा था*॥ २२ ॥ वहाँ सोये ए रा सराज रावणके वशाल मुखसे आम और नागके सरक सुग से म त, मौल सरीके सुवाससे सुवा सत और उ म अ रससे संयु तथा मधुपानक ग से मली ◌इ जो सौरभयु साँस नकल रही थी, वह उस सारे घरको सुग से प रपूण-सा कर देती थी॥ २३-२४ ॥ उसका कु लसे काशमान मुखार व अपने ानसे हटे ए तथा मु ाम णसे ज टत होनेके कारण व च आभावाले सुवणमय मुकुटसे और भी उ ा सत हो रहा था॥ २५ ॥ उसक छाती लाल च नसे च चत, हारसे सुशो भत, उभरी ◌इ तथा लंबी-चौड़ी थी। उसके ारा उस रा सराजके स ूण शरीरक बड़ी शोभा हो रही थी॥ उसक आँ ख लाल थ । उसक क टके नीचेका भाग ढीले-ढाले ेत रेशमी व से ढका आ था तथा वह पीले रंगक ब मू रेशमी चादर ओढ़े ए था॥ वह ानम रखे ए उड़दके ढेरके समान जान पड़ता था और सपके समान साँस ले रहा था। उस उ ल पलंगपर सोया आ रावण गंगाक अगाध जलरा शम सोये ए गजराजके समान दखायी देता था॥ उसक चार दशा म चार सुवणमय दीपक जल रहे थे; जनक भासे वह देदी मान हो रहा था और उसके सारे अंग का शत होकर दखायी दे रहे थे। ठीक उसी तरह, जैसे व ु ण से मेघ का शत एवं प रल त होता है॥ २९ ॥ प त्नय के ेमी उस महाकाय रा सराजके घरम हनुमा ीने उसक प त्नय को भी देखा, जो उसके चरण के आस-पास ही सो रही थ ॥ ३० ॥ वानरयूथप त हनुमा ीने देखा, उन रावणप त्नय के मुख च माके समान काशमान थे। वे सु र कु ल से वभू षत थ तथा ऐसे फू ल के हार पहने ए थ , जो कभी मुरझाते नह थे॥ ३१ ॥ वे नाचने और बाजे बजानेम नपुण थ , रा सराज रावणक बाँह और अंकम ान पानेवाली थ तथा सु र आभूषण धारण कये ए थ । क पवर हनुमा े उन सबको वहाँ सोती देखा॥ ३२ ॥



उ ने उन सु रय के कान के समीप हीरे तथा नीलम जड़े ए सोनेके कु ल और बाजूबंद देखे॥ ३३ ॥ ल लत कु ल से अलंकृत तथा च माके समान मनोहर उनके सु र मुख से वह वमानाकार पय ता रका से म त आकाशक भाँ त सुशो भत हो रहा था॥ ३४ ॥ ीण क ट देशवाली वे रा सराजक याँ मद तथा र त ड़ाके प र मसे थककर जहाँ-तहाँ जो जस अव ाम थ वैसे ही सो गयी थ ॥ ३५ ॥ वधाताने जसके सारे अंग को सु र एवं वशेष शोभासे स बनाया था, वह कोमलभावसे अंग के संचालन (चटकाने-मटकाने आ द) ारा नाचनेवाली को◌इ अ नृ नपुणा सु री ी गाढ़ न ाम सोकर भी वासनावश जा त्-अव ाक ही भाँ त नृ के अ भनयसे सुशो भत हो रही थी॥ ३६ ॥ को◌इ वीणाको छातीसे लगाकर सोयी ◌इ सु री ऐसी जान पड़ती थी, मानो महानदीम पड़ी ◌इ को◌इ कम लनी कसी नौकासे सट गयी हो॥ ३७ ॥ दूसरी कजरारे ने वाली भा मनी काँखम दबे ए म ु क (लघुवा वशेष)-के साथ ही सो गयी थी। वह ऐसी तीत होती थी, जैसे को◌इ पु व ला जननी अपने छोटे-से शशुको गोदम लये सो रही हो॥ ३८ ॥ को◌इ सवागसु री एवं चर कु च वाली का मनी पटहको अपने नीचे रखकर सो रही थी, मानो चरकालके प ात् यतमको अपने नकट पाकर को◌इ ेयसी उसे दयसे लगाये सो रही हो॥ ३९ ॥ को◌इ कमललोचना युवती वीणाका आ लगन करके सोयी ◌इ ऐसी जान पड़ती थी, मानो कामभावसे यु का मनी अपने े यतमको भुजा म भरकर सो गयी हो॥ ४० ॥ नयमपूवक नृ कलासे सुशो भत होनेवाली एक अ युवती वप ी ( वशेष कारक वीणा)-को अंकम भरकर यतमके साथ सोयी ◌इ ेयसीक भाँ त न ाके अधीन हो गयी थी॥ ४१ ॥ को◌इ मतवाले नयन वाली दूसरी सु री अपने सुवण-स श गौर, कोमल, पु और मनोरम अंग से मृदंगको दबाकर गाढ़ न ाम सो गयी थी॥ ४२ ॥



नशेसे थक ◌इ को◌इ कृ शोदरी अ न सु री रमणी अपने भुजपाश के बीचम त और काँखम दबे ए पणवके साथ ही सो गयी थी॥ ४३ ॥ दूसरी ी ड मको लेकर उसी तरह उससे सटी ◌इ सो गयी थी, मानो को◌इ भा मनी अपने बालक पु को दयसे लगाये ए न द ले रही हो॥ ४४ ॥ म दराके मदसे मो हत ◌इ को◌इ कमलनयनी नारी आड र नामक वा को अपनी भुजा के आ लगनसे दबाकर गाढ़ न ाम नम हो गयी॥ ४५ ॥ को◌इ दूसरी युवती न ावश जलसे भरी ◌इ सुराहीको लुढ़काकर भीगी अव ाम ही बेसुध सो रही थी। उस अव ाम वह वस -ऋतुम व भ वणके पु क बनी और जलके छ टेसे स ची ◌इ मालाके समान तीत होती थी॥ ४६ ॥ न ाके बलसे परा जत ◌इ को◌इ अबला सुवणमय कलशके समान तीत होनेवाले अपने कु च को दोन हाथ से दबाकर सो रही थी॥ ४७ ॥ पूण च माके समान मनोहर मुखवाली दूसरी कमललोचना का मनी सु र नत वाली कसी अ सु रीका आ लगन करके मदसे व ल होकर सो गयी थी॥ ४८ ॥ जैसे का म नयाँ अपने चाहनेवाले कामुक को छातीसे लगाकर सोती ह, उसी कार कतनी ही सु रयाँ व च - व च वा का आ लगन करके उ कु च से दबाये सो गयी थ ॥ ४९ ॥ उन सबक श ा से पृथक् एका म बछी ◌इ सु र श ापर सोयी ◌इ एक पवती युवतीको वहाँ हनुमा ीने देखा॥ ५० ॥ वह मोती और म णय से जड़े ए आभूषण से भलीभाँ त वभू षत थी और अपनी शोभासे उस उ म भवनको वभू षत-सा कर रही थी॥ ५१ ॥ वह गोरे रंगक थी। उसक अंगका सुवणके समान दमक रही थी। वह रावणक यतमा और उसके अ :पुरक ा मनी थी। उसका नाम म ोदरी था। वह अपने मनोहर पसे सुशो भत हो रही थी। वही वहाँ सो रही थी। हनुमा ीने उसीको देखा। प और यौवनक स से यु और व ाभूषण से वभू षत म ोदरीको देखकर महाबा पवनकु मारने अनुमान कया क ये ही सीताजी ह। फर तो ये वानरयूथप त हनुमान् महान् हषसे यु हो आन म हो गये॥



वे अपनी पूँछको पटकने और चूमने लगे। अपनी वानर -जैसी कृ तका दशन करते ए आन त होने, खेलने और गाने लगे, इधर-उधर आने-जाने लगे। वे कभी खंभ पर चढ़ जाते और कभी पृ ीपर कू द पड़ते थे॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म दसवाँ सग पूरा आ॥ १० ॥ यहाँ शयनागारम सोये ए रावणके एक ही मुख और दो ही बाँह का वणन आया है। इससे जान पड़ता है क वह साधारण तम इसी तरह रहता था। यु आ दके वशेष अवसर पर ही वह े ापूवक दस मुख और बीस भुजा से संयु होता था। *



ारहवाँ सग वह सीता नह है—ऐसा न य होनेपर हनुमा ीका पुन: अ :पुरम और उसक पानभू मम सीताका पता लगाना, उनके मनम धमलोपक आशंका और त: उसका नवारण होना



फर उस समय इस वचारको छोड़कर महाक प हनुमा ी अपनी ाभा वक तम त ए और वे सीताजीके वषयम दूसरे कारक च ा करने लगे॥ (उ ने सोचा—) ‘भा मनी सीता ीरामच जीसे बछु ड़ गयी ह। इस दशाम वे न तो सो सकती ह, न भोजन कर सकती ह, न ृंगार एवं अलंकार धारण कर सकती ह, फर म दरापानका सेवन तो कसी कार भी नह कर सकत ॥ २ ॥ ‘वे कसी दूसरे पु षके पास, वह देवता का भी ◌इ र न हो, नह जा सकत । देवता म भी को◌इ ऐसा नह है जो ीरामच जीक समानता कर सके ॥ ३ ॥ ‘अत: अव ही यह सीता नह , को◌इ दूसरी ी है।’ ऐसा न य करके वे क प े सीताजीके दशनके लये उ ुक हो पुन: वहाँक मधुशालाम वचरने लगे॥ वहाँ को◌इ याँ ड़ा करनेसे थक ◌इ थ तो को◌इ गीत गानेसे। दूसरी नृ करके थक गयी थ और कतनी ही याँ अ धक म पान करके अचेत हो रही थ ॥ ५ ॥ ब त-सी याँ ढोल, मृदंग और चे लका नामक वा पर अपने अंग को टेककर सो गयी थ तथा दूसरी म हलाएँ अ े-अ े बछौन पर सोयी ◌इ थ ॥ ६ ॥ वानरयूथप त हनुमा ीने उस पानभू मको ऐसी सह रम णय से संयु देखा, जो भाँ त-भाँ तके आभूषण से वभू षत, प-लाव क चचा करनेवाली, गीतके समु चत अ भ ायको अपनी वाणी ारा कट करनेवाली, देश और कालको समझनेवाली, उ चत बात बोलनेवाली और र त- ड़ाम अ धक भाग लेनेवाली थ ॥ ७-८ ॥ दूसरे ानपर भी उ ने ऐसी सह सु री युव तय को सोते देखा, जो आपसम पसौ यक चचा करती ◌इ लेट रही थ ॥ ९ ॥ वानरयूथप त पवनकु मारने ऐसी ब त-सी य को देखा, जो देश-कालको जाननेवाली, उ चत बात कहनेवाली तथा र त ड़ाके प ात् गाढ़ न ाम सोयी ◌इ थ ॥ १० ॥



उन सबके बीचम महाबा रा सराज रावण वशाल गोशालाम े गौ के बीच सोये ए साँड़क भाँ त शोभा पा रहा था॥ ११ ॥ जैसे वनम हा थय से घरा आ को◌इ महान् गजराज सो रहा हो, उसी कार उस भवनम उन सु रय से घरा आ यं रा सराज रावण सुशो भत हो रहा था॥ १२ ॥ उस महाकाय रा सराजके भवनम क प े हनुमा े वह पानभू म देखी, जो स ूण मनोवा त भोग से स थी। उस मधुशालाम अलग-अलग मृग , भस और सूअर के मांस रखे गये थे, ज हनुमा ीने देखा॥ १३-१४ ॥ वानर सह हनुमा े वहाँ सोनेके बड़े-बड़े पा म मोर, मुग, सूअर, गडा, साही, ह रण तथा मयूर के मांस देख,े जो दही और नमक मलाकर रखे गये थे। वे अभी खाये नह गये थे॥ १५-१६ ॥



कृ कल नामक प ी, भाँ त-भाँ तके बकरे, खरगोश, आधे खाये ए भसे, एकश नामक म और भेड़— ये सब-के -सब राँध-पकाकर रखे ए थे। इनके साथ अनेक कारक चट नयाँ भी थ । भाँ त-भाँ तके पेय तथा भ पदाथ भी व मान थे। जीभक श थलता दूर करनेके लये खटा◌इ और नमकके साथ भाँ त-भाँ तके राग१ और खा व भी रखे गये थे॥ १७-१८ ॥ ब मू बड़े-बड़े नूपुर और बाजूबंद जहाँ-तहाँ पड़े ए थे। म पानके पा इधर-उधर लुढ़काये ए थे। भाँ त-भाँ तके फल भी बखरे पड़े थे। इन सबसे उपल त होनेवाली वह पानभू म, जसे फू ल से सजाया गया था, अ धक शोभाका पोषण एवं संवधन कर रही थी॥ १९१/२ ॥ य -त रखी ◌इ सु ढ़ श ा और सु र णमय सहासन से सुशो भत होनेवाली वह मधुशाला ऐसी जगमगा रही थी क बना आगके ही जलती ◌इ-सी दखायी देती थी॥ २०१/२ ॥ अ ी छ क-बघारसे तैयार कये गये नाना कारके व वध मांस चतुर रसोइय ारा बनाये गये थे और उस पानभू मम पृथक् -पृथक् सजाकर रखे गये थे। उनके साथ ही द सुराएँ (जो कद आ द वृ से त: उ ◌इ थ ) और कृ म सुराएँ ( ज शराब बनानेवाले लोग तैयार करते ह) भी वहाँ रखी गयी थ । उनम शकरासव,२ मा ीक,३ पु ासव४ और फलासव५ भी थे। इन सबको नाना कारके सुग त चूण से पृथक् -पृथक् वा सत कया गया था॥ २१—२३ ॥



वहाँ अनेक ान पर रखे ए नाना कारके फू ल , सुवणमय कलश , टकम णके पा तथा जा ूनदके बने ए अ ा कम लु से ा ◌इ वह पानभू म बड़ी शोभा पा रही थी॥ २४१/२ ॥ चाँदी और सोनेके घड़ म, जहाँ े पेय पदाथ रखे थे, उस पानभू मको क पवर हनुमा ीने वहाँ अ ी तरह घूम-घूमकर देखा॥ २५१/२ ॥ महाक प पवनकु मारने देखा, वहाँ म दरासे भरे ए सोने और म णय के भ - भ पा रखे गये ह॥ २६१/२ ॥ कसी घड़ेम आधी म दरा शेष थी तो कसी घड़ेक सारी-क -सारी पी ली गयी थी तथा क - क घड़ म रखे ए म सवथा पीये नह गये थे। हनुमा ीने उन सबको देखा॥ २७१/२ ॥ कह नाना कारके भ पदाथ और कह पीनेक व ुएँ अलग-अलग रखी गयी थ और कह उनमसे आधी-आधी साम ी ही बची थी। उन सबको देखते ए वे वहाँ सव वचरने लगे॥ २८१/२ ॥ उस अ :पुरम य क ब त-सी श ाएँ सूनी पड़ी थ और कतनी ही सु रयाँ एक ही जगह एक-दूसरीका आ लगन कये सो रही थ ॥ २९ ॥ न ाके बलसे परा जत ◌इ को◌इ अबला दूसरी ीका व उतारकर उसे धारण कये उसके पास जा उसीका आ लगन करके सो गयी थी॥ ३० ॥ उनक साँसक हवासे उनके शरीरके व वध कारके व और पु माला आ द व ुएँ उसी तरह धीरे-धीरे हल रही थ , जैसे धीमी-धीमी वायुके चलनेसे हला करती ह॥ ३१ ॥ उस समय पु क वमानम शीतल च न, म , मधुरस, व वध कारक माला, भाँ तभाँ तके पु , ान-साम ी, च न और धूपक अनेक कारक ग का भार वहन करती ◌इ सुग त वायु सब ओर वा हत हो रही थी॥ ३२-३३१/२ ॥ उस रा सराजके भवनम को◌इ साँवली, को◌इ गोरी, को◌इ काली और को◌इ सुवणके समान का वाली सु री युव तयाँ सो रही थ ॥ ३४१/२ ॥ न ाके वशम होनेके कारण उनका काममो हत प मुँदे ए मुखवाले कमलपु के समान जान पड़ता था॥



इस कार महातेज ी क पवर हनुमा े रावणका सारा अ :पुर छान डाला तो भी वहाँ उ जनकन नी सीताका दशन नह आ॥ ३६ ॥ उन सोती ◌इ य को देखते-देखते महाक प हनुमान् धमके भयसे शं कत हो उठे । उनके दयम बड़ा भारी संदेह उप त हो गया॥ ३७ ॥ वे सोचने लगे क ‘इस तरह गाढ़ न ाम सोयी ◌इ परायी य को देखना अ ा नह है। यह तो मेरे धमका अ वनाश कर डालेगा॥ ३८ ॥ ‘मेरी अबतक कभी परायी य पर नह पड़ी थी। यह आनेपर मुझे परायी य का अपहरण करनेवाले इस पापी रावणका भी दशन आ है (ऐसे पापीको देखना भी धमका लोप करनेवाला होता है)’॥ ३९ ॥ तदन र मन ी हनुमा ीके मनम एक दूसरी वचारधारा उ ◌इ। उनका च अपने ल म सु र था; अत: यह नयी वचारधारा उ अपने कत का ही न य करानेवाली थी॥ ४० ॥ (वे सोचने लगे—) ‘इसम संदेह नह क रावणक याँ न:शंक सो रही थ और उसी अव ाम मने उन सबको अ ी तरह देखा है, तथा प मेरे मनम को◌इ वकार नह उ आ है॥ ४१ ॥ ‘स ूण इ य को शुभ और अशुभ अव ा म लगनेक ेरणा देनेम मन ही कारण है; कतु मेरा वह मन पूणत: र है (उसका कह राग या ेष नह है; इस लये मेरा यह पर ीदशन धमका लोप करनेवाला नह हो सकता)॥ ४२ ॥ ‘ वदेहन नी सीताको दूसरी जगह म ढूँ ढ़ भी तो नह सकता था; क य को ढूँ ढ़ते समय उ य के ही बीचम देखा जाता है॥ ४३ ॥ ‘ जस जीवक जो जा त होती है, उसीम उसे खोजा जाता है। खोयी ◌इ युवती ीको ह र नय के बीचम नह ढूँ ढ़ा जा सकता है॥ ४४ ॥ ‘अत: मने रावणके इस सारे अ :पुरम शु दयसे ही अ ेषण कया है; कतु यहाँ जानक जी नह दखायी देती ह’॥ ४५ ॥ अ :पुरका नरी ण करते ए परा मी हनुमा े देवता , ग व और नाग क क ा को वहाँ देखा, कतु जनकन नी सीताको नह देखा॥ ४६ ॥



दूसरी सु रय को देखते ए वीर वानर हनुमा े जब वहाँ सीताको नह देखा, तब वे वहाँसे हटकर अ जानेको उ त ए॥ ४७ ॥ फर तो ीमान् पवनकु मारने उस पानभू मको छोड़कर अ सब ान म उ बड़े य का आ य लेकर खोजना आर कया॥ ४८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म ारहवाँ सग पूरा आ॥ ११ ॥ १. अंगूर और अनारके रसम म ी और मधु आ द मलानेसे जो मधुर रस तैयार होता है, वह पतला हो तो ‘राग’ कहलाता है और गाढ़ा हो जाय तो ‘खा व’ नाम धारण करता है। जैसा क कहा है— सताम ा दमधुरो ा ादा डमयो रस:। वरल ेत् कृ तो राग: सा ेत् खा व: ृत:॥ २. शकरासे तैयार क ◌इ सुरा ‘शकरासव’ कहलाती है। ३. मधुसे बनायी ◌इ ‘म दरा’। ४. म आके फू लसे तथा अ ा पु के मकर से बनायी ◌इ सुराको ‘पु ासव’ कहते ह। ५. ा ा आ द फल के रससे तैयार क ◌इ ‘सुरा’।



बारहवाँ सग सीताके मरणक आशंकासे हनुमा ीका श थल होना, फर उ ाहका आ य लेकर अ ान म उनक खोज करना और कह भी पता न लगनेसे पुन: उनका च त होना



उस राजभवनके भीतर त ए हनुमा ी सीताजीके दशनके लये उ ुक हो मश: लताम प म, च शाला म तथा रा का लक व ामगृह म गये; परंतु वहाँ भी उ परम सु री सीताका दशन नह आ॥ १ ॥ रघुन न ीरामक यतमा सीता जब वहाँ भी दखायी न द , तब वे महाक प हनुमान् इस कार च ा करने लगे— ‘ न य ही अब म थलेशकु मारी सीता जी वत नह ह; इसी लये ब त खोजनेपर भी वे मेरे पथम नह आ रही ह॥ २ ॥ ‘सती-सा ी सीता उ म आयमागपर त रहनेवाली थ । वे अपने शील और सदाचारक र ाम त र रही ह; इस लये न य ही इस दुराचारी रा सराजने उ मार डाला होगा॥ ३ ॥ ‘रा सराज रावणके यहाँ जो दा कम करनेवाली रा सयाँ ह, उनके प बड़े बेडौल ह। वे बड़ी वकट और वकराल ह। उनक का भी भयंकर है। उनके मुँह वशाल और आँ ख भी बड़ी-बड़ी एवं भयानक ह। उन सबको देखकर जनकराजन नीने भयके मारे ाण ाग दये ह गे॥ ४ ॥ ‘सीताका दशन न होनेसे मुझे अपने पु षाथका फल नह ा हो सका। इधर वानर के साथ सुदीघकालतक इधर-उधर मण करके मने लौटनेक अव ध भी बता दी है; अत: अब मेरा सु ीवके पास जानेका भी माग बंद हो गया; क वह वानर बड़ा बलवान् और अ कठोर द देनेवाला है॥ ५ ॥ ‘मने रावणका सारा अ :पुर छान डाला, एक-एक करके रावणक सम य को भी देख लया; कतु अभीतक सा ी सीताका दशन नह आ; अत: मेरा समु ल नका सारा प र म थ हो गया॥ ६ ॥ ‘जब म लौटकर जाऊँ गा, तब सारे वानर मलकर मुझसे ा कहगे; वे पूछगे, वीर! वहाँ जाकर तुमने ा कया है—यह मुझे बताओ॥ ७ ॥



‘ कतु जनकन



नी सीताको न देखकर म उ ा उ र दूँगा। सु ीवके न त कये ए समयका उ न कर देनेपर अब म न य ही आमरण उपवास क ँ गा॥ ८ ॥ ‘बड़े-बूढ़े जा वान् और युवराज अंगद मुझसे ा कहगे? समु के पार जानेपर अ वानर भी जब मुझसे मलगे, तब वे ा कहगे?’॥ ९ ॥ (इस कार थोड़ी देरतक हताश-से होकर वे फर सोचने लगे—) ‘हताश न होकर उ ाहको बनाये रखना ही स का मूल कारण है। उ ाह ही परम सुखका हेतु है; अत: म पुन: उन ान म सीताक खोज क ँ गा, जहाँ अबतक अनुस ान नह कया गया था॥ १० ॥ ‘उ ाह ही ा णय को सवदा सब कारके कम म वृ करता है और वही उ वे जो कु छ करते ह उस कायम सफलता दान करता है॥ ११ ॥ ‘इस लये अब म और भी उ म एवं उ ाह-पूवक य के लये चे ा क ँ गा। रावणके ारा सुर त जन ान को अबतक नह देखा था, उनम भी पता लगाऊँ गा॥ १२ ॥ ‘आपानशाला, पु गृह, च शाला, ड़ागृह, गृहो ानक ग लयाँ और पु क आ द वमान—इन सबका तो मने च ा-च ा देख डाला (अब अ खोज क ँ गा)।’ यह सोचकर उ ने पुन: खोजना आर कया॥ १३-१४ ॥ वे भू मके भीतर बने ए घर (तहखान )-म, चौराह पर बने ए म प म तथा घर को लाँघकर उनसे थोड़ी ही दूरपर बने ए वलास-भवन म सीताक खोज करने लगे। वे कसी घरके ऊपर चढ़ जाते, कसीसे नीचे कू द पड़ते, कह ठहर जाते और कसीको चलते-चलते ही देख लेते थे॥ १५ ॥ घर के दरवाज को खोल देत,े कह कवाड़ बंदकर देत,े कसीके भीतर घुसकर देखते और फर नकल आते थे। वे नीचे कू दते और ऊपर उछलते ए-से सव खोज करने लगे॥ १६ ॥ उन महाक पने वहाँके सभी ान म वचरण कया। रावणके अ :पुरम को◌इ चार अंगुलका भी ऐसा ान नह रह गया, जहाँ क पवर हनुमा ी न प ँ चे ह ॥ उ ने परकोटेके भीतरक ग लयाँ, चौराहेके वृ के नीचे बनी ◌इ वे दयाँ, ग े और पोख रयाँ— सबको छान डाला॥ १८ ॥ हनुमा ीने जगह-जगह नाना कारके आकारवाली, कु प और वकट रा सयाँ देख ; कतु वहाँ उ जानक जीका दशन नह आ॥ १९ ॥



संसारम जनके प-सौ यक कह तुलना नह थी ऐसी ब त-सी व ाध रयाँ भी हनुमा ीक म आय ; परंतु वहाँ उ ीरघुनाथजीको आन दान करनेवाली सीता नह दखायी द ॥ २० ॥ हनुमा ीने सु र नत और पूण च माके समान मनोहर मुखवाली ब त-सी नागक ाएँ भी वहाँ देख ; कतु जनक कशोरीका उ दशन नह आ॥ २१ ॥ रा सराजके ारा नागसेनाको मथकर बलात् हरकर लायी ◌इ नागक ा को तो पवनकु मारने वहाँ देखा; कतु जानक जी उ गोचर नह ◌इं ॥ २२ ॥ महाबा पवनकु मार हनुमा ो दूसरी ब त-सी सु रयाँ दखायी द ; परंतु सीताजी उनके देखनेम नह आय । इस लये वे ब त दु:खी हो गये॥ २३ ॥ उन वानर शरोम ण वीर के उ ोग और अपने ारा कये गये समु लंघनको थ आ देखकर पवनपु हनुमान् वहाँ पुन: बड़ी भारी च ाम पड़ गये॥ उस समय वायुन न हनुमान् वमानसे नीचे उतर आये और बड़ी च ा करने लगे। शोकसे उनक चेतनाश श थल हो गयी॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म बारहवाँ सग पूरा आ॥ १२ ॥



तेरहवाँ सग सीताजीके नाशक आशंकासे हनुमा ीक च ा, ीरामको सीताके न मलनेक सूचना देनेसे अनथक स ावना देख हनुमा ीका न लौटनेका न य करके पुन: खोजनेका वचार करना और अशोकवा टकाम ढूँ ढ़नेके वषयम तरह-तरहक बात सोचना



वानरयूथप त हनुमान् वमानसे उतरकर महलके परकोटेपर चढ़ आये। वहाँ आकर वे मेघमालाके अंकम चमकती ◌इ बजलीके समान बड़े वेगसे इधर-उधर घूमने लगे*॥ १ ॥ रावणके सभी घर म एक बार पुन: च र लगाकर जब क पवर हनुमा ीने जनकन नी सीताको नह देखा, तब वे मन-ही-मन इस कार कहने लगे—॥ २ ॥ ‘मने ीरामच जीका य करनेके लये क◌इ बार लंकाको छान डाला; कतु सवागसु री वदेहन नी सीता मुझे कह नह दखायी देती ह॥ ३ ॥ ‘मने यहाँके छोटे तालाब, पोखरे, सरोवर, स रताएँ , न दयाँ, पानीके आस-पासके जंगल तथा दुगम पहाड़— सब देख डाले। इस नगरके आस-पासक सारी भू म खोज डाली; कतु कह भी मुझे जानक जीका दशन नह आ॥ ४१/२ ॥ ‘गृ राज स ा तने तो सीताजीको यहाँ रावणके महलम ही बताया था। फर भी न जाने वे यहाँ दखायी नह देती ह॥ ५ ॥ ‘ ा रावणके ारा बलपूवक हरकर लायी ◌इ वदेह-कु लन नी म थलेशकु मारी जनकदुलारी सीता कभी ववश होकर रावणक सेवाम उप त हो सकती ह (यह अस व है)॥ ६ ॥ ‘म तो समझता ँ क ीरामच जीके बाण से भयभीत हो वह रा स जब सीताको लेकर शी तापूवक आकाशम उछला है, उस समय कह बीचम ही वे छू टकर गर पड़ी ह ॥ ७ ॥ ‘अथवा यह भी स व है क जब आया सीता स से वत आकाशमागसे ले जायी जाती रही ह , उस समय समु को देखकर भयके मारे उनका दय ही फटकर नीचे गर पड़ा हो॥ ८ ॥ ‘अथवा यह भी मालूम होता है क रावणके बल वेग और उसक भुजा के ढ़ ब नसे पी ड़त होकर वशाललोचना आया सीताने अपने ाण का प र ाग कर दया है॥ ९ ॥



‘ऐसा



भी हो सकता है क जस समय रावण उ समु के ऊपर होकर ला रहा हो, उस समय जनककु मारी सीता छटपटाकर समु म गर पड़ी ह । अव ऐसा ही आ होगा॥ १० ॥ ‘अथवा ऐसा तो नह आ क अपने शीलक र ाम त र ◌इ कसी सहायक ब ुक सहायतासे व त तप नी सीताको इस नीच रावणने ही खा लया हो अथवा मनम दु भावना रखनेवाली रा सराज रावणक प त्नय ने ही कजरारे ने वाली सा ी सीताको अपना आहार बना लया होगा॥ ११-१२ ॥ ‘हाय! ीरामच जीके पूण च माके समान मनोहर तथा फु कमलदलके स श ने वाले मुखका च न करती ◌इ दयनीया सीता इस संसारसे चल बस ॥ १३ ॥ ‘हा राम! हा ल ण! हा अयो ापुरी! इस कार पुकार-पुकारकर ब त वलाप करके म थलेशकु मारी वदेहन नी सीताने अपने शरीरको ाग दया होगा॥ १४ ॥ ‘अथवा मेरी समझम यह आता है क वे रावणके ही कसी गु गृहम छपाकर रखी गयी ह। हाय! वहाँ वह बाला प जरेम ब ◌इ मैनाक तरह बार ार आतनाद करती होगी॥ १५ ॥ ‘जो जनकके कु लम उ ◌इ ह और ीरामच जीक धमप ी ह, वे नील कमलके से ने वाली सुम मा सीता रावणके अधीन कै से हो सकती ह?॥ १६ ॥ ‘जनक कशोरी सीता चाहे गु गृहम अ करके रखी गयी ह , चाहे समु म गरकर ाण से हाथ धो बैठी ह अथवा ीरामच जीके वरहका क न सह सकनेके कारण उ ने मृ ुक शरण ली हो, कसी भी दशाम ीरामच जीको इस बातक सूचना देना उ चत न होगा; क वे अपनी प ीको ब त ार करते ह॥ ‘इस समाचारके बतानेम भी दोष है और न बतानेम भी दोषक स ावना है, ऐसी दशाम कस उपायसे काम लेना चा हये ? मुझे तो बताना और न बताना—दोन ही दु र तीत होते ह॥ १८ ॥ ‘ऐसी दशाम जब को◌इ भी काय करना दु र तीत होता है, तब मेरे लये इस समयके अनुसार ा करना उ चत होगा?’ इ बात पर हनुमा ी बार ार वचार करने लगे॥ १९ ॥ (उ ने फर सोचा—) ‘य द म सीताजीको देखे बना ही यहाँसे वानरराजक पुरी क ाको लौट जाऊँ गा तो मेरा पु षाथ ही ा रह जायगा?॥ २० ॥



‘ फर



तो मेरा यह समु लंघन, लंकाम वेश और रा स को देखना सब थ हो



जायगा॥ २१ ॥ ‘क ाम प ँ चनेपर मुझसे मलकर सु ीव, दूसरे-दूसरे वानर तथा वे दोन दशरथराजकु मार भी ा कहगे?॥ २२ ॥ ‘य द वहाँ जाकर म ीरामच जीसे यह कठोर बात कह दूँ क मुझे सीताका दशन नह आ तो वे ाण का प र ाग कर दगे॥ २३ ॥ ‘सीताजीके वषयम ऐसे खे, कठोर, तीखे और इ य को संताप देनेवाले दुवचनको सुनकर वे कदा प जी वत नह रहगे॥ २४ ॥ ‘उ संकटम पड़कर ाण के प र ागका संक करते देख उनके त अ अनुराग रखनेवाले बु मान् ल ण भी जी वत नह रहगे॥ २५ ॥ ‘अपने इन दो भाइय के वनाशका समाचार सुनकर भरत भी ाण ाग दगे और भरतक मृ ु देखकर श ु भी जी वत नह रह सकगे॥ २६ ॥ ‘इस कार चार पु क मृ ु ◌इ देख कौस ा, सु म ा और कै के यी—ये तीन माताएँ भी न ंदेह ाण दे दगी॥ २७ ॥ ‘कृ त और स त वानरराज सु ीव भी जब ीरामच जीको ऐसी अव ाम देखगे तो यं भी ाण वसजन कर दगे॥ २८ ॥ ‘त ात् प तशोकसे पी ड़त हो दु: खत च , दीन, थत और आन शू ◌इ तप नी मा भी जान दे देगी॥ २९ ॥ ‘ फर तो रानी तारा भी जी वत नह रहगी। वे वालीके वरहज नत दु:खसे तो पी ड़त थ ही, इस नूतन शोकसे कातर हो शी ही मृ ुको ा हो जायँगी॥ ३० ॥ ‘माता- पताके वनाश और सु ीवके मरणज नत संकटसे पी ड़त हो कु मार अंगद भी अपने ाण का प र ाग कर दगे॥ ३१ ॥ ‘तदन र ामीके दु:खसे पी ड़त ए सारे वानर अपने हाथ और मु से सर पीटने लगगे। यश ी वानरराजने सा नापूण वचन और दान-मानसे जनका लालन-पालन कया था, वे वानर अपने ाण का प र ाग कर दगे॥ ३२-३३ ॥



‘ऐसी



अव ाम शेष वानर वन , पवत और गुफा म एक होकर फर कभी ड़ावहारका आन नह लगे॥ ३४ ॥ ‘अपने राजाके शोकसे पी ड़त हो सब वानर अपने पु , ी और म य स हत पवत के शखर से नीचे सम अथवा वषम ान म गरकर ाण दे दगे॥ ‘अथवा सारे वष पी लगे या फाँसी लगा लगे या जलती आगम वेश कर जायगे। उपवास करने लगगे अथवा अपने ही शरीरम छु रा भ क लगे॥ ३६ ॥ ‘मेरे वहाँ जानेपर म समझता ँ बड़ा भयंकर आतनाद होने लगेगा। इ ाकु कु लका नाश और वानर का भी वनाश हो जायगा॥ ३७ ॥ ‘इस लये म यहाँसे क ापुरीको तो नह जाऊँ गा। म थलेशकु मारी सीताको देखे बना म सु ीवका भी दशन नह कर सकूँ गा॥ ३८ ॥ ‘य द म यह र ँ और वहाँ न जाऊँ तो मेरी आशा लगाये वे दोन धमा ा महारथी ब ु ाण धारण कये रहगे और वे वेगशाली वानर भी जी वत रहगे॥ ३९ ॥ ‘जानक जीका दशन न मलनेपर म यहाँ वान ी हो जाऊँ गा। मेरे हाथपर अपने-आप जो फल आ द खा व ु ा हो जायगी, उसीको खाकर र ँ गा या परे ासे मेरे मुँहम जो फल आ द खा व ु पड़ जायगी, उसीसे नवाह क ँ गा तथा शौच, संतोष आ द नयम के पालनपूवक वृ के नीचे नवास क ँ गा॥ ४० ॥ ‘अथवा सागरतटवत ानम, जहाँ फल-मूल और जलक अ धकता होती है, म चता बनाकर जलती ◌इ आगम वेश कर जाऊँ गा॥ ४१ ॥ ‘अथवा आमरण उपवासके लये बैठकर लगशरीरधारी जीवा ाका शरीरसे वयोग करानेके य म लगे ए मेरे शरीरको कौवे तथा हसक ज ु अपना आहार बना लगे॥ ४२ ॥ ‘य द मुझे जानक जीका दशन नह आ तो म खुशी-खुशी जल-समा ध ले लूँगा। मेरे वचारसे इस तरह जल- वेश करके परलोकगमन करना ऋ षय क म भी उ म ही है॥ ४३ ॥ ‘ जसका



ार शुभ है, ऐसी सुभगा, यश नी और मेरी क तमाला पा यह दीघ रा भी सीताजीको देखे बना ही बीत चली॥ ४४ ॥



‘अथवा अब म



नयमपूवक वृ के नीचे नवास करनेवाला तप ी हो जाऊँ गा; कतु उस अ सतलोचना सीताको देखे बना यहाँसे कदा प नह लौटूँगा॥ ४५ ॥ ‘य द सीताका पता लगाये बना ही म लौट जाऊँ तो सम वानर स हत अंगद जी वत नह रहगे॥ ४६ ॥ ‘इस जीवनका नाश कर देनेम ब त-से दोष ह। जो पु ष जी वत रहता है, वह कभी-नकभी अव क ाणका भागी होता है; अत: म इन ाण को धारण कये र ँ गा। जी वत रहनेपर अभी व ु अथवा सुखक ा प्त अव ावी है’॥ ४७ ॥ इस तरह मनम अनेक कारके दु:ख धारण कये क पकु र हनुमा ी शोकका पार न पा सके ॥ ४८ ॥ तदन र धैयवान् क प े हनुमा े परा मका सहारा लेकर सोचा—‘अथवा महाबली दशमुख रावणका ही वध न कर डालूँ। भले ही सीताका अपहरण हो गया हो, इस रावणको मार डालनेसे उस वैरका भरपूर बदला सध जायगा॥ ४९ ॥ ‘अथवा इसे उठाकर समु के ऊपर-ऊपरसे ले जाऊँ और जैसे पशुप त ( या अ )को पशु अ पत कया जाय, उसी कार ीरामके हाथम इसको स प दूँ’॥ ५० ॥ इस कार सीताजीको न पाकर वे च ाम नम हो गये। उनका मन सीताके ान और शोकम डू ब गया। फर वे वानरवीर इस कार वचार करने लगे—॥ ५१ ॥ ‘जबतक म यश नी ीराम-प ी सीताका दशन न कर लूँगा, तबतक इस लंकापुरीम बारंबार उनक खोज करता र ँ गा॥ ५२ ॥ ‘य द स ा तके कहनेसे भी म ीरामको यहाँ बुला ले आऊँ तो अपनी प ीको यहाँ न देखनेपर ीरघुनाथजी सम वानर को जलाकर भ कर दगे॥ ५३ ॥ ‘अत: यह नय मत आहार और इ य के संयमपूवक नवास क ँ गा। मेरे कारण वे सम नर और वानर न न ह ॥ ५४ ॥ ‘इधर यह ब त बड़ी अशोकवा टका है, इसके भीतर बड़े-बड़े वृ ह। इसम मने अभीतक अनुसंधान नह कया है, अत: अब इसीम चलकर ढूँ ढँ गा॥ ५५ ॥ ‘रा स के शोकको बढ़ानेवाला म यहाँसे वसु, , आ द , अ श्वनीकु मार और म ण को नम ार करके अशोकवा टकाम चलूँगा॥ ५६ ॥



‘वहाँ



सम रा स को जीतकर जैसे तप ीको स दान क जाती है, इसी कार ीरामच जीके हाथम इ ाकु कु लको आन त करनेवाली देवी सीताको स प दूँगा’॥ ५७ ॥ इस कार दो घड़ीतक सोच- वचारकर च ासे श थल इ यवाले महाबा पवनकु मार हनुमान् सहसा उठकर खड़े हो गये (और देवता को नम ार करते ए बोले—) ‘ल णस हत ीरामको नम ार है। जनकन नी सीता देवीको भी नम ार है। , इ , यम और वायु देवताको नम ार है तथा च मा, अ एवं म ण को भी नम ार है’॥ ५८-५९ ॥ इस कार उन सबको तथा सु ीवको भी नम ार करके पवनकु मार हनुमा ी स ूण दशा क ओर पात करके अशोकवा टकाम जानेको उ त ए॥ ६० ॥ उन वानरवीर पवनकु मारने पहले मनके ारा ही उस सु र अशोक-वा टकाम जाकर भावी कत का इस कार च न कया॥ ६१ ॥ ‘वह पु मयी अशोकवा टका स चने-कोड़ने आ द सब कारके सं ार से सँवारी गयी है। वह दूसरे-दूसरे वन से भी घरी ◌इ है; अत: उसक र ाके लये वहाँ न य ही ब त-से रा स तैनात कये गये ह गे॥ ६२ ॥ ‘रा सराजके नयु कये ए र क अव ही वहाँके वृ क र ा करते ह गे; इस लये जग े ाण प भगवान् वायुदेव भी वहाँ अ धक वेगसे नह बहते ह गे॥ ६३ ॥ ‘मने ीरामच जीके कायक स तथा रावणसे अ रहनेके लये अपने शरीरको संकु चत करके छोटा बना लया है। मुझे इस कायम ऋ षय स हत सम देवता स — सफलता दान कर॥ ६४ ॥ ‘ य ू भगवान् ा, अ देवगण, तपो न मह ष, अ देव, वायु तथा व धारी इ भी मुझे सफलता दान कर॥ ६५ ॥ ‘पाशधारी व ण, सोम, आ द , महा ा अ श्वनी-कु मार, सम म ण, स ूण भूत और भूत के अ धप त तथा और भी जो मागम दीखनेवाले एवं न दीखनेवाले देवता ह, वे सब मुझे स दान करगे॥ ६६-६७ ॥ ‘ जसक नाक ऊँ ची और दाँत सफे द ह, जसम चेचक आ दके दाग नह ह, जहाँ प व मुसकानक छटा छायी रहती है, जसके ने फु कमलदलके समान सुशो भत होते ह तथा



जो न लंक कलाधरके तु कमनीय का से यु है, वह आया सीताका मुख मुझे कब दखायी देगा ?॥ ६८ ॥ ‘इस ु , नीच, नृशंस पधारी और अ दा ण होनेपर भी अलंकारयु व सनीय वेष धारण करनेवाले रावणने उस तप नी अबलाको बलात् अपने अधीन कर लया है। अब कस कार वह मेरे पथम आ सकती ह?’॥ ६९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म तेरहवाँ सग पूरा आ॥ १३ ॥ * घनमालाम



व ु उपमासे यह नत होता है क रावणका वह परकोटा इ नीलम णका बना आ था और उसपर सुवणके समान गौर का वाले हनुमा ी व ु े समान तीत होते थे।



चौदहवाँ सग हनुमा ीका अशोकवा टकाम वेश करके उसक शोभा देखना तथा एक अशोकवृ पर छपे रहकर वह से सीताका अनुस ान करना



महातेज ी हनुमा ी एक मु ततक इसी कार वचार करते रहे। त ात् मन-ही-मन सीताजीका ान करके वे रावणके महलसे कू द पड़े और अशोकवा टकाक चहारदीवारीपर चढ़ गये॥ १ ॥ उस चहारदीवारीपर बैठे ए महाक प हनुमा ीके सारे अंग म हषज नत रोमा हो आया। उ ने वस के आर म वहाँ नाना कारके वृ देख,े जनक डा लय के अ भाग फू ल के भारसे लदे थे॥ २ ॥ वहाँ साल, अशोक, न और च ाके वृ खूब खले ए थे। ब वार, नागके सर और ब रके मुँहक भाँ त लाल फल देनेवाले आम भी पु एवं म रय से सुशो भत हो रहे थे। अमराइय से यु वे सभी वृ शत-शत लता से आवे त थे। हनुमा ी ासे छू टे ए बाणके समान उछले और उन वृ क वा टकाम जा प ँ चे॥ ३-४ ॥ वह व च वा टका सोने और चाँदीके समान वणवाले वृ ारा सब ओरसे घरी ◌इ थी। उसम नाना कारके प ी कलरव कर रहे थे, जससे वह सारी वा टका गूँज रही थी। उसके भीतर वेश करके बलवान् हनुमा ीने उसका नरी ण कया। भाँ तभाँ तके वहंगम और मृगसमूह से उसक व च शोभा हो रही थी। वह व च कानन से अलंकृत थी और नवो दत सूयके समान अ ण रंगक दखायी देती थी॥ फू ल और फल से लदे ए नाना कारके वृ से ा ◌इ उस अशोकवा टकाका मतवाले को कल और मर सेवन करते थे॥ ७ ॥ वह वा टका ऐसी थी, जहाँ जानेसे हर समय लोग के मनम स ता होती थी। मृग और प ी मदम हो उठते थे। मतवाले मोर का कलनाद वहाँ नर र गूँजता रहता था और नाना कारके प ी वहाँ नवास करते थे॥ ८ ॥ उस वा टकाम सती-सा ी सु री राजकु मारी सीताक खोज करते ए वानरवीर हनुमा े घ सल म सुखपूवक सोये ए प य को जगा दया॥ ९ ॥



उड़ते ए वहंगम के पंख क हवा लगनेसे वहाँके वृ अनेक कारके रंग- बरंगे फू ल क वषा करने लगे॥ उस समय पवनकु मार हनुमा ी उन फू ल से आ ा दत होकर ऐसी शोभा पाने लगे, मानो उस अशोकवनम को◌इ फू ल का बना आ पहाड़ शोभा पा रहा हो॥ ११ ॥ स ूण दशा म दौड़ते और वृ समूह म घूमते ए क पवर हनुमा ीको देखकर सम ाणी एवं रा स ऐसा मानने लगे क सा ात् ऋतुराज वस ही यहाँ वानरवेशम वचर रहा है॥ १२ ॥ वृ से झड़कर गरे ए भाँ त-भाँ तके फू ल से आ ा दत ◌इ वहाँक भू म फू ल के ृंगारसे वभू षत ◌इ युवती ीके समान शोभा पाने लगी॥ १३ ॥ उस समय उन वेगशाली वानरवीरके ारा वेगपूवक बारंबार हलाये ए वे वृ व च पु क वषा कर रहे थे॥ १४ ॥ इस कार डा लय के प े झड़ जाने तथा फल-फू ल और प व के टूटकर बखर जानेसे नंग-धड़ंग दखायी देनेवाले वे वृ उन हारे ए जुआ रय के समान जान पड़ते थे, ज ने अपने गहने और कपड़े भी दावँपर रख दये ह ॥ १५ ॥ वेगशाली हनुमा ीके हलाये ए वे फलशाली े वृ तुरंत ही अपने फल-फू ल और प का प र ाग कर देते थे॥ १६ ॥ पवनपु हनुमा ारा क त कये गये वे वृ फल-फू ल आ दके न होनेसे के वल डा लय के आ य बने ए थे; प य के समुदाय भी उ छोड़कर चल दये थे। उस अव ाम वे सब-के -सब ा णमा के लये अग (असेवनीय) हो गये थे॥ १७ ॥ जसके के श खुल गये ह, अंगराग मट गये ह, सु र द ावलीसे यु अधर-सुधाका पान कर लया गया है तथा जसके क तपय अंग नख त एवं द तसे उपल त हो रहे ह, यतमके उपभोगम आयी ◌इ उस युवतीके समान ही उस अशोकवा टकाक भी दशा हो रही थी। हनुमा ीके हाथ-पैर और पूँछसे र दी जा चुक थी तथा उसके अ े-अ े वृ टूटकर गर गये थे; इस लये वह ीहीन हो गयी थी॥ १८-१९ ॥ जैसे वायु वषा-ऋतुम अपने वेगसे मेघसमूह को छ - भ कर देती है, उसी कार क पवर हनुमा े वहाँ फै ली ◌इ वशाल लता-व रय के वतान वेगपूवक तोड़ डाले॥ २० ॥



वहाँ वचरते ए उन वानरवीरने पृथक् -पृथक् ऐसी मनोरम भू मय का दशन कया, जनम म ण, चाँदी एवं सोने जड़े गये थे॥ २१ ॥ उस वा टकाम उ ने जहाँ-तहाँ व भ आकार क बाव ड़याँ देख , जो उ म जलसे भरी ◌इं और म णमय सोपान से यु थ । उनके भीतर मोती और मूँग क बालुकाएँ थ । जलके नीचेक फश टक म णक बनी ◌इ थी और उन बाव ड़य के तट पर तरह-तरहके व च सुवणमय वृ शोभा दे रहे थे॥ २२-२३ ॥ उनम खले ए कमल के वन और च वाक के जोड़े शोभा बढ़ा रहे थे तथा पपीहा, हंस और सारस के कलनाद गूँज रहे थे॥ २४ ॥ अनेकानेक वशाल, तटवत वृ से सुशो भत, अमृतके समान मधुर जलसे पूण तथा सुखदा यनी स रताएँ चार ओरसे उन बाव ड़य का सदा सं ार करती थ (उ जलसे प रपूण बनाये रखती थ )॥ २५ ॥ उनके तट पर सैकड़ कारक लताएँ फै ली ◌इ थ । खले ए क वृ ने उ चार ओरसे घेर रखा था। उनके जल नाना कारक झा ड़य से ढके ए थे तथा बीच-बीचम खले ए कनेरके वृ गवा क -सी शोभा पाते थे॥ २६ ॥ फर वहाँ क प े हनुमा े एक मेघके समान काला और ऊँ चे शखर वाला पवत देखा, जसक चो टयाँ बड़ी व च थ । उसके चार ओर दूसरे-दूसरे भी ब त-से पवत- शखर शोभा पाते थे। उसम ब त-सी प रक गुफाएँ थ और उस पवतपर अनेकानेक वृ उगे ए थे। वह पवत संसारभरम बड़ा रमणीय था॥ क पवर हनुमा े उस पवतसे गरी ◌इ एक नदी देखी, जो यतमके अंकसे उछलकर गरी ◌इ यतमाके समान जान पड़ती थी॥ २९ ॥ जनक डा लयाँ नीचे कु कर पानीसे लग गयी थ , ऐसे तटवत वृ से उस नदीक वैसी ही शोभा हो रही थी, मानो यतमसे ठकर अ जाती ◌इ युवतीको उसक ारी स खयाँ उसे आगे बढ़नेसे रोक रही ह ॥ ३० ॥ फर उन महाक पने देखा क वृ क उन डा लय से टकराकर उस नदीके जलका वाह पीछेक ओर मुड़ गया है। मानो स ◌इ ेयसी पुन: यतमक सेवाम उप त हो रही हो॥ ३१ ॥



उस पवतसे थोड़ी ही दूरपर क प े पवनपु हनुमा े ब त-से कमलम त सरोवर देख,े जनम नाना कारके प ी चहचहा रहे थे॥ ३२ ॥ उनके सवा उ ने एक कृ म तालाब भी देखा, जो शीतल जलसे भरा आ था। उसम े म णय क सी ढ़याँ बनी थ और वह मो तय क बालुकारा शसे सुशो भत था॥ ३३ ॥ उस अशोकवा टकाम व कमाके बनाये ए बड़े-बड़े महल और कृ म कानन सब ओरसे उसक शोभा बढ़ा रहे थे। नाना कारके मृगसमूह से उसक व च शोभा हो रही थी। उस वा टकाम व च वन-उपवन शोभा दे रहे थे॥ ३४१/२ ॥ वहाँ जो को◌इ भी वृ थे, वे सब फल-फू ल देनेवाले थे, छ क भाँ त घनी छाया कये रहते थे। उन सबके नीचे चाँदीक और उसके ऊपर सोनेक वे दयाँ बनी ◌इ थ ॥ ३५१/२ ॥ तदन र महाक प हनुमा े एक सुवणमयी शशपा (अशोक)-का वृ देखा, जो ब त-से लता वतान और अग णत प से ा था। वह वृ भी सब ओरसे सुवणमयी वे दका से घरा था॥ ३६-३७ ॥ इसके सवा उ ने और भी ब त-से खुले मैदान, पहाड़ी झरने और अ के समान दी प्तमान् सुवणमय वृ देखे॥ ३८ ॥ उस समय वीर महाक प हनुमा ीने सुमे के समान उन वृ क भाके कारण अपनेको भी सब ओरसे सुवणमय ही समझा॥ ३९ ॥ वे सुवणमय वृ समूह जब वायुके झ के खाकर हलने लगते, तब उनसे सैकड़ घुँघु के बजनेक -सी मधुर न होती थी। वह सब देखकर हनुमा ीको बड़ा व य आ। उन वृ क डा लय म सु र फू ल खले ए थे और नये-नये अंकुर तथा प व नकले ए थे, जससे वे बड़े सु र दखायी देते थे॥ ४०१/२ ॥ महान् वेगशाली हनुमा ी प से हरी-भरी उस शशपापर यह सोचकर चढ़ गये क ‘म यह से ीरामच जीके दशनके लये उ ुक ◌इ उन वदेहन नी सीताको देखूँगा, जो दु:खसे आतुर हो इ ानुसार इधर-उधर जाती-आती ह गी॥ ४१-४२ ॥ ‘दुरा ा रावणक यह अशोकवा टका बड़ी ही रमणीय है। च न, च ा और मौल सरीके वृ इसक शोभा बढ़ा रहे ह। इधर यह प य से से वत कमलम त सरोवर भी बड़ा सु र है। राजरानी जानक इसके तटपर न य ही आती ह गी॥ ४३-४४ ॥



‘रघुनाथजीक



यतमा राजरानी रामा सती-सा ी जानक वनम घूमने- फरनेम ब त कु शल ह। वे अव इधर आयगी॥ ४५ ॥ ‘अथवा इस वनक वशेषता के ानम नपुण मृग-शावकनयनी सीता आज यहाँ इस तालाबके तटवत वनम अव पधारगी; क वे ीरामच जीके वयोगक च ासे अ दुबली हो गयी ह गी (और इस सु र ानम आनेसे उनक च ा कु छ कम हो सके गी)॥ ४६ ॥ ‘सु



र ने वाली देवी सीता भगवान् ीरामके वरह-शोकसे ब त ही संत ह गी। वनवासम उनका सदा ही ेम रहा है, अत: वे वनम वचरती ◌इ इधर अव आयगी॥ ४७ ॥ ‘ ीरामक ारी प ी सती-सा ी जनकन नी सीता पहले न य ही वनवासी ज ु से सदा ेम करती रही ह गी। (इस लये उनके लये वनम मण करना ाभा वक है, अत: यहाँ उनके दशनक स ावना है ही)॥ ४८ ॥ ‘यह ात:कालक सं ा (उपासना)-का समय है, इसम मन लगानेवाली और सदा सोलह वषक -सी अव ाम रहनेवाली अ ययौवना जनककु मारी सु री सीता सं ाका लक उपासनाके लये इस पु स लला नदीके तटपर अव पधारगी॥ ४९ ॥ ‘जो राजा धराज ीरामच जीक समादरणीया प ी ह, उन शुभल णा सीताके लये यह सु र अशोकवा टका भी सब कारसे अनुकूल ही है॥ ५० ॥ ‘य द च मुखी सीता देवी जी वत ह तो वे इस शीतल जलवाली स रताके तटपर अव पदापण करगी’॥ ऐसा सोचते ए महा ा हनुमा ी नरे प ी सीताके शुभागमनक ती ाम त र हो सु र फू ल से सुशो भत तथा घने प ेवाले उस अशोकवृ पर छपे रहकर उस स ूण वनपर पात करते रहे॥ ५२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म चौदहवाँ सग पूरा आ॥ १४ ॥



पं हवाँ सग वनक शोभा देखते ए हनुमा ीका एक चै ासाद (म र)-के पास सीताको दयनीय अव ाम देखना, पहचानना और स होना



उस अशोकवृ पर बैठे-बैठे हनुमा ी स ूण वनको देखते और सीताको ढूँ ढ़ते ए वहाँक सारी भू मपर पात करने लगे॥ १ ॥ वह भू म क वृ क लता तथा वृ से सुशो भत थी, द ग तथा द रससे प रपूण थी और सब ओरसे सजायी गयी थी॥ २ ॥ मृग और प य से ा होकर वह भू म न नवनके समान शोभा पा रही थी, अ ा लका तथा राजभवन से यु थी तथा को कल-समूह क काकलीसे कोलाहलपूण जान पड़ती थी॥ ३ ॥ सुवणमय उ ल और कमल से भरी ◌इ बाव ड़याँ उसक शोभा बढ़ा रही थ । ब त-से आसन और कालीन वहाँ बछे ए थे। अनेकानेक भू मगृह वहाँ शोभा पा रहे थे॥ ४ ॥ सभी ऋतु म फू ल देनेवाले और फल से भरे ए रमणीय वृ उस भू मको वभू षत कर रहे थे। खले ए अशोक क शोभासे सूय दयकालक छटा-सी छटक रही थी॥ ५ ॥ पवनकु मार हनुमा े उस अशोकपर बैठे-बैठे ही उस दमकती ◌इ-सी वा टकाको देखा। वहाँके प ी उस वा टकाको बारंबार प और शाखा से हीन कर रहे थे॥ ६ ॥ वृ से झड़ते ए सैकड़ व च पु -गु से नीचेसे ऊपरतक मानो फू लसे बने ए शोकनाशक अशोक से, फू ल के भारी भारसे कु कर पृ ीका श-सा करते ए खले ए कनेर से तथा सु र फू लवाले पलाश से उपल त वह भूभाग उनक भाके कारण सब ओरसे उ ी -सा हो रहा था॥ ७-८१/२ ॥ पुंनाग ( ेत कमल या नागके सर), छतवन, च ा तथा ब वार आ द ब त-से सु र पु वाले वृ , जनक जड़ ब त मोटी थ , वहाँ शोभा पा रहे थे॥ वहाँ सह अशोकके वृ थे, जनमसे कु छ तो सुवणके समान का मान् थे, कु छ आगक ालाके समान का शत हो रहे थे और को◌इ-को◌इ काले काजलक -सी का वाले थे॥ १०१/२ ॥



वह अशोकवन देवो ान न नके समान आन दायी, कु बेरके चै रथ वनके समान व च तथा उन दोन से भी बढ़कर अ च , द एवं रमणीय शोभासे स था॥ १११/२ ॥ वह पु पी न से यु दूसरे आकाशके समान सुशो भत होता था तथा पु मय सैकड़ र से व च शोभा पानेवाले पाँचव समु के समान जान पड़ता था॥ १२१/२ ॥ सब ऋतु म फू ल देनेवाले मनोरम ग यु वृ से भरा आ तथा भाँ त-भाँ तके कलरव करनेवाले मृग और प य से सुशो भत वह उ ान बड़ा रमणीय तीत होता था। वह अनेक कारक सुग का भार वहन करनेके कारण प व ग से यु और मनोहर जान पड़ता था। दूसरे ग रराज ग मादनके समान उ म सुग से ा था॥ १३-१४१/२ ॥ उस अशोकवा टकाम वानर- शरोम ण हनुमा े थोड़ी ही दूरपर एक गोलाकार ऊँ चा म र देखा, जसके भीतर एक हजार खंभे लगे ए थे। वह म र कै लास पवतके समान ेत वणका था। उसम मूँगेक सी ढ़याँ बनी थ तथा तपाये ए सोनेक वे दयाँ बनायी गयी थ । वह नमल ासाद अपनी शोभासे देदी मान-सा हो रहा था। दशक क म चकाच ध-सा पैदा कर देता था और ब त ऊँ चा होनेके कारण आकाशम रेखा ख चता-सा जान पड़ता था॥ १५—१७१/२ ॥ वह चै ासाद (म र) देखनेके अन र उनक वहाँ एक सु री ीपर पड़ी, जो म लन व धारण कये रा सय से घरी ◌इ बैठी थी। वह उपवास करनेके कारण अ दुबल और दीन दखायी देती थी तथा बारंबार ससक रही थी। शु प के आर म च माक कला जैसी नमल और कृ श दखायी देती है, वैसी ही वह भी गोचर होती थी॥ १८-१९ ॥ धुँधली-सी ृ तके आधारपर कु छ-कु छ पहचाने जानेवाले अपने पसे वह सु र भा बखेर रही थी और धूएँसे ढक ◌इ अ क ालाके समान जान पड़ती थी॥ २० ॥ एक ही पीले रंगके पुराने रेशमी व से उसका शरीर ढका आ था। वह म लन, अलंकारशू होनेके कारण कमल से र हत पु रणीके समान ीहीन दखायी देती थी॥ २१ ॥



वह तप नी मंगल हसे आ ा रो हणीके समान शोकसे पी ड़त, दु:खसे संत और सवथा ीणकाय हो रही थी॥ २२ ॥



उपवाससे दुबल ◌इ उस दु: खया नारीके मुँहपर आँ सु क धारा बह रही थी। वह शोक और च ाम म हो दीन दशाम पड़ी ◌इ थी एवं नर र दु:खम ही डू बी रहती थी॥ २३ ॥ वह अपने यजन को तो देख नह पाती थी। उसक के सम सदा रा सय का समूह ही बैठा रहता था। जैसे को◌इ मृगी अपने यूथसे बछु ड़कर कु के ंडु से घर गयी हो, वही दशा उसक भी हो रही थी॥ २४ ॥ काली ना गनके समान क टसे नीचेतक लटक ◌इ एकमा काली वेणीके ारा उपल त होनेवाली वह नारी बादल के हट जानेपर नीली वन ेणीसे घरी ◌इ पृ ीके समान तीत होती थी॥ २५ ॥ वह सुख भोगनेके यो थी, कतु दु:खसे संत हो रही थी। इसके पहले उसे संकट का को◌इ अनुभव नह था। उस वशाल ने वाली, अ म लन और ीणकाय अबलाका अवलोकन करके यु यु कारण ारा हनुमा ीने यह अनुमान कया क हो-न-हो यही सीता है॥ २६१/२ ॥ इ ानुसार प धारण करनेवाला वह रा स जब सीताजीको हरकर ले जा रहा था, उस दन जस पम उनका दशन आ था, क ाणी नारी भी वैसे ही पसे यु दखायी देती है॥ २७१/२ ॥ देवी सीताका मुख पूण च माके समान मनोहर था। उनक भ ह बड़ी सु र थ । दोन न मनोहर और गोलाकार थे। वे अपनी अंगका से स ूण दशा का अ कार दूर कये देती थ ॥ २८१/२ ॥ उनके के श काले-काले और ओ ब फलके समान लाल थे। क टभाग ब त ही सु र था। सारे अंग सुडौल और सुग ठत थे॥ २९ ॥ कमलनयनी सीता कामदेवक ेयसी र तके समान सु री थ , पूण च माक भाके समान सम जग े लये य थ । उनका शरीर ब त ही सु र था। वे नयमपरायणा तापसीके समान भू मपर बैठी थ । य प वे भावसे ही भी और च ाके कारण बारंबार लंबी साँस ख चती थ तो भी दूसर के लये ना गनके समान भयंकर थ ॥ ३०-३१ ॥



वे व ृत महान् शोकजालसे आ ा दत होनेके कारण वशेष शोभा नह पा रही थ । धूएँके समूहसे मली ◌इ अ शखाके समान दखायी देती थ ॥ ३२ ॥ वे सं द अथवाली ृ त, भूतलपर गरी ◌इ ऋ , टूटी ◌इ ा, भ ◌इ आशा, व यु स , कलु षत बु और म ा कलंकसे ◌इ क तके समान जान पड़ती थ ॥ ३३-३४ ॥ ीरामच जीक सेवाम कावट पड़ जानेसे उनके मनम बड़ी था हो रही थी। रा स से पी ड़त ◌इ मृग-शावकनयनी अबला सीता असहायक भाँ त इधर-उधर देख रही थ ॥ ३५ ॥ उनका मुख स नह था। उसपर आँ सु क धारा बह रही थी और ने क पलक काली एवं टेढ़ी दखायी देती थ । वे बारंबार लंबी साँस ख चती थ ॥ ३६ ॥ उनके शरीरपर मैल जम गयी थी। वे दीनताक मू त बनी बैठी थ तथा ृंगार और भूषण धारण करनेके यो होनेपर भी अलंकारशू थ , अत: काले बादल से ढक ◌इ च माक भाके समान जान पड़ती थ ॥ ३७ ॥ ६६१ अ ास न करनेसे श थल ( व ृत) ◌इ व ाके समान ीण ◌इ सीताको देखकर हनुमा ीक बु संदेहम पड़ गयी॥ ३८ ॥ अलंकार तथा ान-अनुलेपन आ द अंगसं ारसे र हत ◌इ सीता ाकरणा दज नत सं ारसे शू होनेके कारण अथा रको ा ◌इ वाणीके समान पहचानी नह जा रही थ । हनुमा ीने बड़े क से उ पहचाना॥ ३९ ॥ उन वशाललोचना सती-सा ी राजकु मारीको देखकर उ ने कारण (यु य )- ारा उपपादन करते ए मनम न य कया क यही सीता ह॥ ४० ॥ उन दन ीरामच जीने वदेहकु मारीके अंग म जन- जन आभूषण के होनेक चचा क थी, वे ही आभूषण-समूह इस समय उनके अंग क शोभा बढ़ा रहे थे। हनुमा ीने इस बातक ओर ल कया॥ ४१ ॥ सु र बने ए कु ल और कु ेके दाँत क -सी आकृ तवाले कण नामधारी कणफू ल कान म सु र ढंगसे सु त त एवं सुशो भत थे। हाथ म कं गन आ द आभूषण थे, जनम म ण और मूँगे जड़े ए थे॥ ४२ ॥



य प ब त दन से पहने गये होनेके कारण वे कु छ काले पड़ गये थे, तथा प उनके आकार- कार वैसे ही थे। (हनुमा ीने सोचा—) ‘ ीरामच जीने जनक चचा क थी, मेरी समझम ये वे ही आभूषण ह। सीताजीने जो आभूषण वहाँ गरा दये थे, उनको म इनके अंग म नह देख रहा ँ । इनके जो आभूषण मागम गराये नह गये थे, वे ही ये दखायी देते ह, इसम संशय नह है॥ ४३-४४ ॥ ‘उस समय वानर ने पवतपर गराये ए सुवणप के समान जो सु र पीला व और पृ ीपर पड़े ए उ मो म ब मू एवं बजनेवाले आभूषण देखे थे, वे इ के गराये ए थे॥ ४५-४६ ॥ ‘यह व ब त दन से पहने जानेके कारण य प ब त पुराना हो गया है, तथा प इसका पीला रंग अभीतक उतरा नह है। यह भी वैसा ही का मान् है, जैसा वह दूसरा व था॥ ४७ ॥ ‘ये



सुवणके समान गौर अंगवाली ीरामच जीक ारी महारानी ह, जो अ हो जानेपर भी उनके मनसे वलग नह ◌इ ह॥ ४८ ॥ ‘ये वे ही सीता ह, जनके लये ीरामच जी इस जग क णा, दया, शोक और ेम— इन चार कारण से संत होते रहते ह॥ ४९ ॥ ‘एक ी खो गयी, यह सोचकर उनके दयम क णा भर आती है। वह हमारे आ त थी, यह सोचकर वे दयासे वत हो उठते ह। मेरी प ी ही मुझसे बछु ड़ गयी, इसका वचार करके वे शोकसे ाकु ल हो उठते ह तथा मेरी यतमा मेरे पास नह रही, ऐसी भावना करके उनके दयम ेमक वेदना होने लगती है॥ ५० ॥ जैसा अलौ कक प ीरामच जीका है तथा जैसा मनोहर प एवं अंग- ंगक सुघड़ता इन देवी सीताम है; इसे देखते ए कजरारे ने वाली सीता उ के यो प ी ह॥ ५१ ॥ ‘इन देवीका मन



ीरघुनाथजीम और ीरघुनाथजीका मन इनम लगा आ है, इसी लये ये तथा धमा ा ीराम जी वत ह। इनके मु तमा जीवनम भी यही कारण है॥ ‘इनके बछु ड़ जानेपर भी भगवान् ीराम जो अपने शरीरको धारण करते ह, शोकसे श थल नह हो जाते ह, यह उ ने अ दु र काय कया है’॥ ५३ ॥



इस कार उस अव ाम सीताका दशन पाकर पवनपु हनुमा ी ब त स ए। वे मन-ही-मन भगवान् ीरामके पास जा प ँ च— े उनका च न करने लगे तथा सीता-जैसी सा ीको प ी पम पानेसे उनके सौभा क भू र-भू र शंसा करने लगे॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पं हवाँ सग पूरा आ॥ १५ ॥



सोलहवाँ सग हनुमा ीका मन-ही-मन सीताजीके शील और सौ यक सराहना करते ए उ क म पड़ी देख यं भी उनके लये शोक करना



परम शंसनीया सीता और गुणा भराम ीरामक शंसा करके वानर े हनुमा ी फर वचार करने लगे॥ लगभग दो घड़ीतक कु छ सोच- वचार करनेपर उनके ने म आँ सू भर आये और वे तेज ी हनुमान् सीताके वषयम इस कार वलाप करने लगे॥ २ ॥ ‘अहो! ज ने गु जन से श ा पायी है, उन ल णके बड़े भा◌इ ीरामक यतमा प ी सीता भी य द इस कार दु:खसे आतुर हो रही ह तो यह कहना पड़ता है क कालका उ न करना सभीके लये अ क ठन है॥ ३ ॥ ‘जैसे वषा-ऋतु आनेपर भी देवी गंगा अ धक ु नह होती ह, उसी कार ीराम तथा बु मान् ल णके अमोघ परा मका न त ान रखनेवाली देवी सीता भी शोकसे अ धक वच लत नह हो रही ह॥ ४ ॥ ‘सीताके शील, भाव, अव ा और बताव ीरामके ही समान ह। उनका कु ल भी उ के तु महान् है, अत: ीरघुनाथजी वदेहकु मारी सीताके सवथा यो ह तथा ये कजरारे ने वाली सीता भी उ के यो ह’॥ नूतन सुवणके समान दी प्तमती और लोककमनीया ल ीजीके समान शोभामयी ीसीताको देखकर हनुमा ीने ीरामच जीका रण कया और मन-ही-मन इस कार कहा —॥ ६ ॥ ‘इ वशाललोचना सीताके लये भगवान् ीरामने महाबली वालीका वध कया और रावणके समान परा मी कब को भी मार गराया॥ ७ ॥ ‘इ के लये ीरामने वनम परा म करके भयानक परा मी रा स वराधको भी उसी कार यु म मार डाला, जैसे देवराज इ ने श रासुरका वध कया था॥ ८ ॥ ‘इ के कारण आ ानी ीरामच जीने जन ानम अपने अ शखाके स श तेज ी बाण ारा भयानक कम करनेवाले चौदह हजार रा स को कालके गालम भेज दया



और यु म खर, शरा तथा महातेज ी दूषणको भी मार गराया॥ ९-१० ॥ ‘वानर का वह दुलभ ऐ य, जो वालीके ारा सुर त था, इ के कारण व व ात सु ीवको ा आ है॥ ११ ॥ ‘इ वशाललोचना सीताके लये मने नद और न दय के ामी ीमान् समु का उ न कया और इस लंकापुरीको छान डाला है॥ १२ ॥ ‘इनके लये तो य द भगवान् ीराम समु पय पृ ी तथा सारे संसारको भी उलट देते तो भी वह मेरे वचारसे उ चत ही होता॥ १३ ॥ ‘एक ओर तीन लोक का रा और दूसरी ओर जनककु मारी सीताको रखकर तुलना क जाय तो लोक का सारा रा सीताक एक कलाके बराबर भी नह हो सकता॥ १४ ॥ ‘ये धमशील म थलानरेश महा ा राजा जनकक पु ी सीता प त त-धमम ब त ढ़ ह॥ १५ ॥ ‘जब हलके मुख (फाल)-से खेत जोता जा रहा था, उस समय ये पृ ीको फाड़कर कमलके परागक भाँ त ारीक सु र धूल से लपटी ◌इ कट ◌इ थ ॥ १६ ॥ ‘जो परम परा मी, े शील- भाववाले और यु से कभी पीछे न हटनेवाले थे, उ महाराज दशरथक ये यश नी े पु वधू ह॥ १७ ॥ ‘धम , कृ त एवं आ ानी भगवान् ीरामक ये ारी प ी सीता इस समय रा सय के वशम पड़ गयी ह॥ १८ ॥ ‘ये के वल प त ेमके कारण सारे भोग को लात मारकर वप य का कु छ भी वचार न करके ीरघुनाथजीके साथ नजन वनम चली आयी थ ॥ १९ ॥ ‘यहाँ आकर फल-मूल से ही संतु रहती ◌इ प तदेवक सेवाम लगी रह और वनम भी उसी कार परम स रहती थ , जैसे राजमहल म रहा करती थ ॥ २० ॥ ‘वे ही ये सुवणके समान सु र अंगवाली और सदा मुसकराकर बात करनेवाली सु री सीता, जो अनथ भोगनेके यो नह थ , इस यातनाको सहन करती ह॥ २१ ॥ ‘य प रावणने इ ब त क दये ह तो भी ये अपने शील, सदाचार एवं सती से स ह। (उसके वशीभूत नह हो सक ह।) अतएव जैसे ासा मनु प सलेपर जाना चाहता है, उसी कार ीरघुनाथजी इ देखना चाहते ह॥ २२ ॥



‘जैसे रा से आ राजा पुन: पृ पुन: ा प्त होनेसे ीरघुनाथजीको



ीका रा पाकर ब त स होता है, उसी कार उनक न य ही बड़ी स ता होगी॥ २३ ॥ ‘ये अपने ब ुजन से बछु ड़कर वषयभोग को तला ल दे के वल भगवान् ीरामच जीके समागमक आशासे ही अपना शरीर धारण कये ए ह॥ २४ ॥ ‘ये न तो रा सय क ओर देखती ह और न इन फल-फू लवाले वृ पर ही डालती ह, सवथा एका च हो मनक आँ ख से के वल ीरामका ही नर र दशन ( ान) करती ह— इसम संदेह नह है॥ २५ ॥ ‘ न य ही प त नारीके लये आभूषणक अपे ा भी अ धक शोभाका हेतु है। ये सीता उ प तदेवसे बछु ड़ गयी ह, इस लये शोभाके यो होनेपर भी शोभा नह पा रही ह॥ २६ ॥ ‘भगवान् ीराम इनसे बछु ड़ जानेपर भी जो अपने शरीरको धारण कर रहे ह, दु:खसे अ श थल नह हो जाते ह, यह उनका अ दु र कम है॥ २७ ॥ ‘काले के श और कमल-जैसे ने वाली ये सीता वा वम सुख भोगनेके यो ह। इ दु:खी जानकर मेरा मन भी थत हो उठता है॥ २८ ॥ ‘अहो! जो पृ ीके समान माशील और फु कमलके समान ने वाली ह तथा ीराम और ल णने जनक सदा र ा क है, वे ही सीता आज इस वृ के नीचे बैठी ह और ये वकराल ने वाली रा सयाँ इनक रखवाली करती ह॥ २९ ॥ ‘ हमक मारी ◌इ कम लनीके समान इनक शोभा न हो गयी है, दु:ख-पर-दु:ख उठानेके कारण अ पी ड़त हो रही ह तथा अपने सहचरसे बछु ड़ी ◌इ चकवीके समान प त- वयोगका क सहन करती ◌इ ये जनक कशोरी सीता बड़ी दयनीय दशाको प ँ च गयी ह॥ ३० ॥ ‘फू ल के भारसे जनक डा लय के अ भाग क ु गये ह, वे अशोकवृ इस समय सीतादेवीके लये अ शोक उ कर रहे ह तथा श शरका अ हो जानेसे वस क रातम उ दत ए शीतल करण वाले च देव भी इनके लये अनेक सह करण से का शत होनेवाले सूयदेवक भाँ त संताप दे रहे ह’॥ ३१ ॥ इस कार वचार करते ए बलवान् वानर े वेगशाली हनुमा ी यह न य करके क ‘ये ही सीता ह’ उसी वृ पर बैठे रहे॥ ३२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म सोलहवाँ सग पूरा आ॥ १६ ॥



स हवाँ सग भयंकर रा



सय से घरी ◌इ सीताके दशनसे हनुमा ीका स



होना



तदन र वह दन बीतनेके प ात् कु मुदसमूहके समान ेत वणवाले तथा नमल पसे उ दत ए च देव आकाशम कु छ ऊपरको चढ़ आये। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो को◌इ हंस कसी नील जलरा शम तैर रहा हो॥ १ ॥ नमल का वाले च मा अपनी भासे सीताजीके दशन आ दम पवनकु मार हनुमा ीक सहायता-सी करते ए अपनी शीतल करण ारा उनक सेवा करने लगे॥ २ ॥ उस समय उ ने पूण च माके समान मनोहर मुखवाली सीताको देखा, जो जलम अ धक बोझके कारण दबी ◌इ नौकाक भाँ त शोकके भारी भारसे मानो कु गयी थ ॥ ३ ॥ वायुपु हनुमा ीने जब वदेहकु मारी सीताको देखनेके लये अपनी दौड़ायी, तब उ उनके पास ही बैठी ◌इ भयानक वाली ब त-सी रा सयाँ दखायी द ॥ ४ ॥ उनमसे कसीके एक आँ ख थी तो दूसरीके एक कान। कसी- कसीके कान इतने बड़े थे क वह उ चादरक भाँ त ओढ़े ए थ । कसीके कान ही नह थे और कसीके कान ऐसे दखायी देते थे मानो खूँटे गड़े ए ह । कसी- कसीक साँस लेनेवाली नाक उसके म कपर थी॥ ५ ॥ कसीका शरीर ब त बड़ा था और कसीका ब त उ म। कसीक गदन पतली और बड़ी थी। कसीके के श उड़ गये थे और कसी- कसीके माथेपर के श उगे ही नह थे। को◌इ-को◌इ रा सी अपने शरीरके के श का ही क ल धारण कये ए थी॥ ६ ॥ कसीके कान और ललाट बड़े-बड़े थे तो कसीके पेट और न लंबे थे। कसीके ओठ बड़े होनेके कारण लटक रहे थे तो कसीके ठोड़ीम ही सटे ए थे। कसीका मुँह बड़ा था और कसीके घुटने॥ ७ ॥ को◌इ नाटी, को◌इ लंबी, को◌इ कु बड़ी, को◌इ टेढ़ी-मेढ़ी, को◌इ बवनी, को◌इ वकराल, को◌इ टेढ़े मुँहवाली, को◌इ पीली आँ खवाली और को◌इ वकट मुँहवाली थ ॥ कतनी ही रा सयाँ बगड़े शरीरवाली, काली, पीली, ोध करनेवाली और कलह पसंद करनेवाली थ । उन सबने काले लोहेके बने ए बड़े-बड़े शूल, कू ट और मु र धारण कर रखे थे॥



९॥



कतनी ही रा सय के मुख सूअर, मृग, सह, भस, बकरी और सया रन के समान थे। क के पैर हा थय के समान, क के ऊँ ट के समान और क के घोड़ के समान थे। क क के सर कब क भाँ त छातीम त थे; अत: ग के े समान दखायी देते थे। (अथवा क - क के सरम ग े थे)॥ १० ॥ क के एक हाथ थे तो क के एक पैर। क के कान गदह के समान थे तो क के घोड़ के समान। क - क के कान गौ , हा थय और सह के समान गोचर होते थे॥ ११ ॥ क क ना सकाएँ ब त बड़ी थ और क क तरछी। क - क के नाक ही नह थी। को◌इ-को◌इ हाथीक सूँड़के समान नाकवाली थ और क - क क ना सकाएँ ललाटम ही थ , जनसे वे साँस लया करती थ ॥ १२ ॥ क के पैर हा थय के समान थे और क के गौ के समान। को◌इ बड़े-बड़े पैर धारण करती थ और कतनी ही ऐसी थ जनके पैर म चोटीके समान के श उगे ए थे। ब त-सी रा सयाँ बेहद लंबे सर और गदनवाली थ और कतन के पेट तथा न ब त बड़े-बड़े थे॥ १३ ॥



क के मुँह और ने सीमासे अ धक बड़े थे, क - क के मुख म बड़ी-बड़ी ज ाएँ थ और कतनी ही ऐसी रा सयाँ थ , जो बकरी, हाथी, गाय, सूअर, घोड़े, ऊँ ट और गदह के समान मुँह धारण करती थ । इसी लये वे देखनेम बड़ी भयंकर थ ॥१४१/२ ॥ क के हाथम शूल थे तो क के मु र। को◌इ ोधी भावक थ तो को◌इ कलहसे ेम रखती थ । धुएँ-जैसे के श और वकृ त मुखवाली कतनी ही वकराल रा सयाँ सदा म पान कया करती थ । म दरा और मांस उ सदा य थे॥ १५-१६ ॥ कतनी ही अपने अंग म र और मांसका लेप लगाये रहती थ । र और मांस ही उनके भोजन थे। उ देखते ही र गटे खड़े हो जाते थे। क प े हनुमा ीने उन सबको देखा॥ १७ ॥ वे उ म शाखावाले उस अशोकवृ को चार ओरसे घेरकर उससे थोड़ी दूरपर बैठी थ और सती सा ी राजकु मारी सीता देवी उसी वृ के नीचे उसक जड़से सटी ◌इ बैठी थ । उस समय शोभाशाली हनुमा ीने जनक कशोरी जानक जीक ओर वशेष पसे ल कया।



उनक का फ क पड़ गयी थी। वे शोकसे संत थ और उनके के श म मैल जम गयी थी॥ १८-१९ ॥ जैसे पु ीण हो जानेपर को◌इ तारा गसे टूटकर पृ ीपर गर पड़ा हो, उसी तरह वे भी का हीन दखायी देती थ । वे आदश च र (पा त )-से स तथा इसके लये सु व ात थ । उ प तके दशनके लये लाले पड़े थे॥ २० ॥ वे उ म भूषण से र हत थ तो भी प तके वा से वभू षत थ (प तका ेह ही उनके लये ृंगार था)। रा सराज रावणने उ बं दनी बना रखा था। वे जन से बछु ड़ गयी थ ॥ २१ ॥ जैसे को◌इ ह थनी अपने यूथसे अलग हो गयी हो, यूथप तके ेहसे बँधी हो और उसे कसी सहने रोक लया हो। रावणक कै दम पड़ी ◌इ सीताक भी वैसी ही दशा थी। वे वषाकाल बीत जानेपर शरद-् ऋतुके ेत बादल से घरी ◌इ च रेखाके समान तीत होती थ ॥ २२ ॥ जैसे वीणा अपने ामीक अंगु लय के शसे व त हो वादन आ दक यासे र हत अयो अव ाम मूक पड़ी रहती है, उसी कार सीता प तके स कसे दूर होनेके कारण महान् ेशम पड़कर ऐसी अव ाको प ँ च गयी थ , जो उनके यो नह थी। प तके हतम त र रहनेवाली सीता रा स के अधीन रहनेके यो नह थ ; फर भी वैसी दशाम पड़ी थ । अशोकवा टकाम रहकर भी वे शोकके सागरम डू बी ◌इ थ । ू र हसे आ ा ◌इ रो हणीक भाँ त वे वहाँ उन रा सय से घरी ◌इ थ । हनुमा ीने उ देखा। वे पु हीन लताक भाँ त ीहीन हो रही थ ॥ २३-२४ ॥ उनके सारे अंग म मैल जम गयी थी। के वल शरीर-सौ य ही उनका अलंकार था। वे क चड़से लपटी ◌इ कमलनालक भाँ त शोभा और अशोभा दोन से यु हो रही थ ॥ २५ ॥



मैले और पुराने व से ढक ◌इ मृगशावकनयनी भा मनी सीताको क पवर हनुमा े उस अव ाम देखा॥ य प देवी सीताके मुखपर दीनता छा रही थी तथा प अपने प तके तेजका रण हो आनेसे उनके दयसे वह दै दूर हो जाता था। कजरारे ने वाली सीता अपने शीलसे ही सुर त थ ॥ २७ ॥



उनके ने मृगछौन के समान च ल थे। वे डरी ◌इ मृगक ाक भाँ त सब ओर सशंक से देख रही थ । अपने उ ास से प वधारी वृ को द -सी करती जान पड़ती थ । शोक क मू तमती तमा-सी दखायी देती थ और दु:खक उठी ◌इ तरंग-सी तीत होती थ । उनके सभी अंग का वभाग सु र था। य प वे वरह-शोकसे दुबल हो गयी थ तथा प आभूषण के बना ही शोभा पाती थ । इस अव ाम म थलेशकु मारी सीताको देखकर पवनपु हनुमा ो उनका पता लग जानेके कारण अनुपम हष ा आ॥ २८—३० ॥ मनोहर ने वाली सीताको वहाँ देखकर हनुमा ी हषके आँ सू बहाने लगे। उ ने मन-हीमन ीरघुनाथजीको नम ार कया॥ ३१ ॥ सीताके दशनसे उ सत हो ीराम और ल णको नम ार करके परा मी हनुमान् वह छपे रहे॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म स हवाँ सग पूरा आ॥ १७ ॥



अठारहवाँ सग अपनी



य से घरे ए रावणका अशोकवा टकाम आगमन और हनुमा ीका उसे देखना



इस कार फू ले ए वृ से सुशो भत उस वनक शोभा देखते और वदेहन नीका अनुसंधान करते ए हनुमा ीक वह सारी रात ाय: बीत चली। के वल एक पहर रात बाक रही॥ १ ॥ रातके उस पछले पहरम छह अंग स हत स ूण वेद के व ान् तथा े य ारा यजन करनेवाले -रा स के घरम वेदपाठक न होने लगी, जसे हनुमा ीने सुना॥ २ ॥ तदन र मंगल वा तथा वण-सुखद श ारा महाबली महाबा दशमुख रावणको जगाया गया॥ ३ ॥ जागनेपर महान् भा शाली एवं तापी रा सराज रावणने सबसे पहले वदेहन नी सीताका च न कया। उस समय न दके कारण उसके पु हार और व अपने ानसे खसक गये थे॥ ४ ॥ वह मदम नशाचर कामसे े रत हो सीताके त अ आस हो गया था। अत: उस कामभावको अपने भीतर छपाये रखनेम असमथ हो गया॥ ५ ॥ उसने सब कारके आभूषण धारण कये और परम उ म शोभासे स हो उस अशोकवा टकाम ही वेश कया, जो सब कारके फू ल और फल देनेवाले भाँ त-भाँ तके वृ से सुशो भत थी। नाना कारके पु उसक शोभा बढ़ा रहे थे। ब त-से सरोवर ारा वह वा टका घरी ◌इ थी। सदा मतवाले रहनेवाले परम अ तु प य के कारण उसक व च शोभा होती थी। कतने ही नयना भराम डामृग से भरी ◌इ वह वा टका भाँ त-भाँ तके मृगसमूह से ा थी। ब त-से गरे ए फल के कारण वहाँक भू म ढक गयी थी। पु वा टकाम म ण और सुवणके फाटक लगे थे और उसके भीतर पं ब वृ ब त दूरतक फै ले ए थे। वहाँक ग लय को देखता आ रावण उस वा टकाम घुसा॥ ६—९ ॥ जैसे देवता और ग व क याँ देवराज इ के पीछे चलती ह, उसी कार अशोकवनम जाते ए पुल न न रावणके पीछे-पीछे लगभग एक सौ सु रयाँ गय ॥ १० ॥



उन युव तय मसे क ने सुवणमय दीपक ले रखे थे। क के हाथ म चँवर थे तो क के हाथ म ताड़के पंखे॥ ११ ॥ कु छ सु रयाँ सोनेक झा रय म जल लये आगे-आगे चल रही थ और क◌इ दूसरी याँ गोलाकार बृसी नामक आसन लये पीछे-पीछे जा रही थ ॥ १२ ॥ को◌इ चतुर-चालाक युवती दा हने हाथम पेयरससे भरी ◌इ र न मत चमचमाती कलशी लये ए थी॥ को◌इ दूसरी ी सोनेके डंडसे े यु और पूण च मा तथा राजहंसके समान ेतछ लेकर रावणके पीछे-पीछे चल रही थी॥ १४ ॥ जैसे बादलके साथ-साथ बज लयाँ चलती ह, उसी कार रावणक सु री याँ अपने वीर प तके पीछे-पीछे जा रही थ । उस समय न दके नशेम उनक आँ ख झपी जाती थ ॥ १५ ॥



उनके हार और बाजूबंद अपने ानसे खसक गये थे। अंगराग मट गये थे। चो टयाँ खुल गयी थ और मुखपर पसीनेक बूँद छा रही थ ॥ १६ ॥ वे सुमुखी याँ अवशेष मद और न ासे झूमती ◌इ-सी चल रही थ । व भ अंग म धारण कये गये पु पसीनेसे भ ग गये थे और पु माला से अलंकृत के श कु छ-कु छ हल रहे थे॥ १७ ॥ जनक आँ ख मदम बना देनेवाली थ , वे रा सराजक ारी प त्नयाँ अशोकवनम जाते ए प तके साथ बड़े आदरसे और अनुरागपूवक जा रही थ ॥ १८ ॥ उन सबका प त महाबली म बु रावण कामके अधीन हो रहा था। वह सीताम मन लगाये म ग तसे आगे बढ़ता आ अ तु शोभा पा रहा था॥ १९ ॥ उस समय वायुन न क पवर हनुमा ीने उन परम सु री रावणप त्नय क करधनीका कलनाद और नूपुर क झनकार सुनी॥ २० ॥ साथ ही, अनुपम कम करनेवाले तथा अ च बल-पौ षसे स रावणको भी क पवर हनुमा े देखा, जो अशोकवा टकाके ारतक आ प ँ चा था॥ २१ ॥ उसके आगे-आगे सुग त तेलसे भीगी ◌इ और य ारा हाथ म धारण क ◌इ ब त-सी मशाल जल रही थ , जनके ारा वह सब ओरसे का शत हो रहा था॥ २२ ॥



वह काम, दप और मदसे यु था। उसक आँ ख टेढ़ी, लाल और बड़ी-बड़ी थ । वह धनुषर हत सा ात् कामदेवके समान जान पड़ता था॥ २३ ॥ उसका व मथे ए दूधके फे नक भाँ त ेत, नमल और उ म था। उसम मोतीके दाने और फू ल टँके ए थे। वह व उसके बाजूबंदम उलझ गया था और रावण उसे ख चकर सुलझा रहा था॥ २४ ॥ अशोक-वृ के प और डा लय म छपे ए हनुमा ी सैकड़ प तथा पु से ढक गये थे। उसी अव ाम उ ने नकट आये ए रावणको पहचाननेका य कया॥ २५ ॥ उसक ओर देखते समय क प े हनुमा े रावणक सु री य को भी ल कया, जो प और यौवनसे स थ ॥ २६ ॥ उन सु र पवाली युव तय से घरे ए महायश ी राजा रावणने उस मदावनम वेश कया, जहाँ अनेक कारके पशु-प ी अपनी-अपनी बोली बोल रहे थे॥ २७ ॥ वह मतवाला दखायी देता था। उसके आभूषण व च थे। उसके कान ऐसे तीत होते थे, मानो वहाँ खूँटे गाड़े गये ह। इस कार वह व वामु नका पु महाबली रा सराज रावण हनुमा ीके पथम आया॥ २८ ॥ तारा से घरे ए च माक भाँ त वह परम सु री युव तय से घरा आ था। महातेज ी महाक प हनुमा े उस तेज ी रा सको देखा और देखकर यह न य कया क यही महाबा रावण है। पहले यही नगरम उ म महलके भीतर सोया आ था। ऐसा सोचकर वे वानरवीर महातेज ी पवनकु मार हनुमा ी जस डालीपर बैठे थे, वहाँसे कु छ नीचे उतर आये ( क वे नकटसे रावणक सारी चे ाएँ देखना चाहते थे)॥ २९-३० ॥ य प म तमान् हनुमा ी भी बड़े उ तेज ी थे, तथा प रावणके तेजसे तर ृ त-से होकर सघन प म घुसकर छप गये॥ ३१ ॥ उधर रावण काले के श, कजरारे ने , सु र क टभाग और पर र सटे ए नवाली सु री सीताको देखनेके लये उनके पास गया॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म अठारहवाँ सग पूरा आ॥ १८ ॥



उ ीसवाँ सग रावणको देखकर द:ु ख, भय और च ाम डूबी ◌इ सीताक अव



ाका वणन



उस समय अ न ता सु री राजकु मारी सीताने जब उ मो म आभूषण से वभू षत तथा प-यौवनसे स रा सराज रावणको आते देखा, तब वे च हवाम हलनेवाली कदलीके समान भयके मारे थर-थर काँपने लग ॥ १-२ ॥ सु र का वाली वशाललोचना जानक ने अपनी जाँघ से पेट और दोन भुजा से न छपा लये तथा वहाँ बैठी-बैठी वे रोने लग ॥ ३ ॥ रा सय के पहरेम रहती ◌इ वदेहराजकु मारी सीता अ दीन और दु:खी हो रही थ । वे समु म जीण-शीण होकर डू बी ◌इ नौकाके समान दु:खके सागरम नम थ । उस अव ाम दशमुख रावणने उनक ओर देखा। वे बना बछौनेके खुली जमीनपर बैठी थ और कटकर पृ ीपर गरी ◌इ वृ क शाखाके समान जान पड़ती थ । उनके ारा बड़े कठोर तका पालन कया जा रहा था॥ ४-५ ॥ उनके अंग म अंगरागक जगह मैल जमी ◌इ थी। वे आभूषण धारण तथा ृंगार करनेयो होनेपर भी उन सबसे व त थ और क चड़म सनी ◌इ कमलनालक भाँ त शोभा पाती थ तथा नह भी पाती थ (कमलनाल जैसे सुकुमारताके कारण शोभा पाती है और क चड़म सनी रहनेके कारण शोभा नह पाती, वैसे ही वे अपने सहज सौ यसे सुशो भत थ , कतु म लनताके कारण शोभा नह देती थ ।)॥ ६ ॥ संक के घोड़ से जुते ए मनोमय रथपर चढ़कर आ ानी राज सह भगवान् ीरामके पास जाती ◌इ-सी तीत होती थ ॥ ७ ॥ उनका शरीर सूखता जा रहा था। वे अके ली बैठकर रोती तथा ीरामच जीके ान एवं उनके वयोगके शोकम डू बी रहती थ । उ अपने दु:खका अ नह दखायी देता था। वे ीरामच जीम अनुराग रखनेवाली तथा उनक रमणीय भाया थ ॥ ८ ॥ जैसे नागराजक वधू (ना गन) म ण-म ा दसे अ भभूत हो छटपटाने लगती है, उसी तरह सीता भी प तके वयोगम तड़प रही थ तथा धूमके समान वणवाले के तु हसे ◌इ रो हणीके समान संत हो रही थ ॥ ९ ॥



य प सदाचारी और सुशील कु लम उनका ज आ था। फर धा मक तथा उ म आचार- वचारवाले कु लम वे ाही गयी थ — ववाह-सं ारसे स ◌इ थ , तथा प दू षत कु लम उ ◌इ नारीके समान म लन दखायी देती थ ॥ १० ॥ वे ीण ◌इ वशाल क त, तर ृ त ◌इ ा, सवथा ासको ा ◌इ बु , टूटी ◌इ आशा, न ए भ व , उ त ◌इ राजा ा, उ ातकालम दहकती ◌इ दशा, न ◌इ देवपूजा, च हणसे म लन ◌इ पूणमासीक रात, तुषारपातसे जीण-शीण ◌इ कम लनी, जसका शूरवीर सेनाप त मारा गया हो—ऐसी सेना, अ कारसे न ◌इ भा, सूखी ◌इ स रता, अप व ा णय के शसे अशु ◌इ वेदी और बुझी ◌इ अ शखाके समान तीत होती थ ॥ ११—१४ ॥ जसे हाथीने अपनी सूँड़से ँ ड़रे डाला हो; अतएव जसके प े और कमल उखड़ गये ह तथा जलप ी भयसे थरा उठे ह , उस म थत एवं म लन ◌इ पु रणीके समान सीता ीहीन दखायी देती थ ॥ १५ ॥ प तके वरह-शोकसे उनका दय बड़ा ाकु ल था। जसका जल नहर के ारा इधरउधर नकाल दया गया हो, ऐसी नदीके समान वे सूख गयी थ तथा उ म उबटन आ दके न लगनेसे कृ प क रा के समान म लन हो रही थ ॥ १६ ॥ उनके अंग बड़े सुकुमार और सु र थे। वे र ज टत राजमहलम रहनेके यो थ ; परंतु गम से तपी और तुरंत तोड़कर फ क ◌इ कम लनीके समान दयनीय दशाको प ँ च गयी थ ॥ १७ ॥ जसे यूथप तसे अलग करके पकड़कर खंभेम बाँध दया गया हो, उस ह थनीके समान वे अ दु:खसे आतुर होकर ल ी साँस ख च रही थ ॥ १८ ॥ बना य के ही बँधी ◌इ एक ही ल ी वेणीसे सीताक वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे वषा-ऋतु बीत जानेपर सुदरू तक फै ली ◌इ हरी-भरी वन ेणीसे पृ ी सुशो भत होती है॥ १९ ॥ वे उपवास, शोक, च ा और भयसे अ ीण, कृ शकाय और दीन हो गयी थ । उनका आहार ब त कम हो गया था तथा एकमा तप ही उनका धन था॥ वे दु:खसे आतुर हो अपने कु लदेवतासे हाथ जोड़कर मन-ही-मन यह ाथना-सी कर रही थ क ीरामच जीके हाथसे दशमुख रावणक पराजय हो॥



सु र बरौ नय से यु , लाल, ेत एवं वशाल ने वाली सती-सा ी म थलेशकु मारी सीता ीरामच जीम अ अनुर थ और इधर-उधर देखती ◌इ रो रही थ । इस अव ाम उ देखकर रा सराज रावण अपने ही वधके लये उनको लुभानेक चे ा करने लगा॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ १९ ॥



बीसवाँ सग रावणका सीताजीको लोभन



रा सय से घरी ◌इ दीन और आन शू तप नी सीताको स ो धत करके रावण अ भ ाययु मधुर वचन ारा अपने मनका भाव कट करने लगा—॥ ‘हाथीक सूँड़के समान सु र जाँघ वाली सीते! मुझे देखते ही तुम अपने न और उदरको इस कार छपाने लगी हो, मानो डरके मारे अपनेको अ कर देना चाहती हो॥ २ ॥ ‘ कतु वशाललोचने! म तो तु चाहता ँ — तुमसे ेम करता ँ । सम संसारका मन मोहनेवाली सवागसु री ये! तुम भी मुझे वशेष आदर दो—मेरी ाथना ीकार करो॥ ३ ॥ ‘यहाँ तु ारे लये को◌इ भय नह है। इस ानम न तो मनु आ सकते ह, न इ ानुसार प धारण करनेवाले दूसरे रा स ही, के वल म आ सकता ँ । पर ु सीते! मुझसे जो तु भय हो रहा है, वह तो दूर हो ही जाना चा हये॥ ४ ॥ ‘भी ! (तुम यह न समझो क मने को◌इ अधम कया है) परायी य के पास जाना अथवा बलात् उ हर लाना यह रा स का सदा ही अपना धम रहा है— इसम संदेह नह है॥ ५ ॥ ‘ म थलेशन



न! ऐसी अव ाम भी जबतक तुम मुझे न चाहोगी, तबतक म तु ारा श नह क ँ गा। भले ही कामदेव मेरे शरीरपर इ ानुसार अ ाचार करे॥ ‘दे व! इस वषयम तु भय नह करना चा हये। ये! मुझपर व ास करो और यथाथ पसे ेमदान दो। इस तरह शोकसे ाकु ल न हो जाओ॥ ७ ॥ ‘एक वेणी धारण करना, नीचे पृ ीपर सोना, च ाम रहना, मैले व पहनना और बना अवसरके उपवास करना—ये सब बात तु ारे यो नह ह॥ ८ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! मुझे पाकर तुम व च पु माला, च न, अगु , नाना कारके व , द आभूषण, ब मू पेय, श ा, आसन, नाच, गान और वा का सुख भोगो॥ ९-१० ॥ ‘तुम य म र हो। इस तरह म लन वेषम न रहो। अपने अंग म आभूषण धारण करो। सु र! मुझे पाकर भी तुम भूषण आ दसे अस ा नत कै से रहोगी!॥



‘यह



तु ारा नवो दत सु र यौवन बीता जा रहा है। जो बीत जाता है, वह न दय के वाहक भाँ त फर लौटकर नह आता॥ १२ ॥ ‘शुभदशने! म तो ऐसा समझता ँ क पक रचना करनेवाला लोक ा वधाता तु बनाकर फर उस कायसे वरत हो गया; क तु ारे पक समता करनेवाली दूसरी को◌इ ी नह है॥ १३ ॥ ‘ वदेहन न! प और यौवनसे सुशो भत होनेवाली तुमको पाकर कौन ऐसा पु ष है, जो धैयसे वच लत न होगा। भले ही वह सा ात् ा न हो॥ १४ ॥ ‘च माके समान मुखवाली सुम मे! म तु ारे जस- जस अंगको देखता ँ , उसी-उसीम मेरे ने उलझ जाते ह॥ १५ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! तुम मेरी भाया बन जाओ। पा त के इस मोहको छोड़ो। मेरे यहाँ ब त-सी सु री रा नयाँ ह। तुम उन सबम े पटरानी बनो॥ १६ ॥ ‘भी ! म अनेक लोक से उ मथकर जो-जो र लाया ँ , वे सब तु ारे ही ह गे और यह रा भी म तु को सम पत कर दूँगा॥ १७ ॥ ‘ वला स न! तु ारी स ताके लये म व भ नगर क माला से अलंकृत इस सारी पृ ीको जीतकर राजा जनकके हाथम स प दूँगा॥ १८ ॥ ‘इस संसारम म कसी दूसरे ऐसे पु षको नह देखता, जो मेरा सामना कर सके । तुम यु म मेरा वह महान् परा म देखना, जसके सामने को◌इ त ी टक नह पाता॥ १९ ॥ ‘मने यु लम जनक जाएँ तोड़ डाली थ , वे देवता और असुर मेरे सामने ठहरनेम असमथ होनेके कारण क◌इ बार पीठ दखा चुके ह॥ २० ॥ ‘तुम मुझे ीकार करो। आज तु ारा उ म ृंगार कया जाय और तु ारे अंग म चमक ले आभूषण पहनाये जायँ॥ २१ ॥ ‘सुमु ख! आज म ृंगारसे सुस त ए तु ारे सु र पको देख रहा ँ *। तुम उदारतावश मुझपर कृ पा करके ृंगारसे स हो जाओ॥ २२ ॥ ‘भी ! फर इ ानुसार भाँ त-भाँ तके भोग भोगो, द रसका पान करो, वहरो तथा पृ ी या धनका यथे पसे दान करो॥ २३ ॥



‘तुम



मुझपर व ास करके भोग भोगनेक इ ा करो और नभय होकर मुझे अपनी सेवाके लये आ ा दो। मुझपर कृ पा करके इ ानुसार भोग भोगती ◌इ तुम-जैसी पटरानीके भा◌इ-ब ु भी मनमाने भोग भोग सकते ह॥ २४ ॥ ‘भ े! यश न! तुम मेरी समृ और धन-स क ओर तो देखो। सुभगे! चीर-व धारण करनेवाले रामको लेकर ा करोगी?॥ २५ ॥ ‘रामने वजयक आशा ाग दी है। वे ीहीन होकर वन-वनम वचर रहे ह, तका पालन करते ह और म ीक वेदीपर सोते ह। अब तो मुझे यह भी संदेह होने लगा है क वे जी वत भी ह या नह ॥ २६ ॥ ‘ वदेहन न! जनके आगे बगुल क पं याँ चलती ह, उन काले बादल से छपी ◌इ च काके समान तुमको अब राम पाना तो दूर रहा, देख भी नह सकते ह॥ २७ ॥ ‘जैसे हर क शपु इ के हाथम गयी ◌इ क तको न पा सका, उसी कार राम भी मेरे हाथसे तु नह पा सकते॥ २८ ॥ ‘मनोहर मुसकान, सु र द ाव ल तथा रमणीय ने वाली वला स न! भी ! जैसे ग ड़ सपको उठा ले जाते ह, उसी कार तुम मेरे मनको हर लेती हो॥ २९ ॥ ‘तु ारा रेशमी पीता र मैला हो गया है। तुम ब त दुबली-पतली हो गयी हो और तु ारे अंग म आभूषण भी नह ह तो भी तु देखकर अपनी दूसरी य म मेरा मन नह लगता॥ ३० ॥ ‘जनकन



न! मेरे अ :पुरम नवास करनेवाली जतनी भी सवगुणस रा नयाँ ह, उन सबक तुम ा मनी बन जाओ॥ ३१ ॥ ‘काले के श वाली सु री! जैसे अ राएँ ल ीक सेवा करती ह, उसी कार भुवनक े सु रयाँ यहाँ तु ारी प रचया करगी॥ ३२ ॥ ‘सु !ु सु ो ण! कु बेरके यहाँ जतने भी अ े र और धन ह, उन सबका तथा स ूण लोक का तुम मेरे साथ सुखपूवक उपभोग करो॥ ३३ ॥ ‘दे व! राम तो न तपसे, न बलसे, न परा मसे, न धनसे और न तेज अथवा यशके ारा ही मेरी समानता कर सकते ह॥ ३४ ॥



‘तुम



द रसका पान, वहार एवं रमण करो तथा अभी भोग भोगो। म तु धनक रा श और सारी पृ ी भी सम पत कये देता ँ । ललने! तुम मेरे पास रहकर मौजसे मनचाही व ुएँ हण करो और तु ारे नकट आकर तु ारे भा◌इ-ब ु भी सुखपूवक इ ानुसार भोग आ द ा कर॥ ३५ ॥ ‘भी ! तुम सोनेके नमल हार से अपने अंगको वभू षत करके मेरे साथ समु -तटवत उन कानन म वहार करो, जनम खले ए वृ के समुदाय सब ओर फै ले ए ह और उनपर मर मँड़रा रहे ह’॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म बीसवाँ सग पूरा आ॥ २० ॥ * यहाँ भ व



का वतमानक भाँ त वणन होनेसे ‘भा वक’ अलंकार समझना चा हये।







सवाँ सग



सीताजीका रावणको समझाना और उसे ीरामके सामने नग



बताना



उस भयंकर रा सक वह बात सुनकर सीताको बड़ी पीड़ा ◌इ। उ ने दीन वाणीम बड़े दु:खके साथ धीरे-धीरे उ र देना आर कया॥ १ ॥ उस समय सु र अंग वाली प त ता देवी तप नी सीता दु:खसे आतुर होकर रोती ◌इ काँप रही थ और अपने प तदेवका ही च न कर रही थ ॥ २ ॥ प व मुसकानवाली वदेहन नीने तनके क ओट करके रावणको इस कार उ र दया —‘तुम मेरी ओरसे अपना मन हटा लो और आ ीय जन (अपनी ही प त्नय )-पर ेम करो॥ ३ ॥ ‘जैसे पापाचारी पु



ष स क इ ा नह कर सकता, उसी कार तुम मेरी इ ा करनेके यो नह हो। जो प त ताके लये न त है, वह न करनेयो काय म कदा प नह कर सकती॥ ४ ॥ ‘ क म एक महान् कु लम उ ◌इ ँ और ाह करके एक प व कु लम आयी ँ ।’ रावणसे ऐसा कहकर यश नी वदेहराजकु मारीने उसक ओर अपनी पीठ फे र ली और इस कार कहा—‘रावण! म सती और परायी ी ँ । तु ारी भाया बननेयो नह ँ ॥ ‘ नशाचर! तुम े धमक ओर पात करो और स ु ष के तका अ ी तरह पालन करो। जैसे तु ारी याँ तुमसे संर ण पाती ह, उसी कार दूसर क य क भी तु र ा करनी चा हये॥ ७ ॥ ‘तुम अपनेको आदश बनाकर अपनी ही य म अनुर रहो। जो अपनी य से संतु नह रहता तथा जसक बु ध ार देनेयो है, उस चपल इ य वाले च ल पु षको परायी याँ पराभवको प ँ चा देती ह—उसे फजीहतम डाल देती ह॥ ८ ॥ ‘ ा यहाँ स ु ष नह रहते ह अथवा रहनेपर भी तुम उनका अनुसरण नह करते हो? जससे तु ारी बु ऐसी वपरीत एवं सदाचारशू हो गयी है?॥ ९ ॥ ‘अथवा बु मान् पु ष जो तु ारे हतक बात कहते ह, उसे न:सार मानकर रा स के वनाशपर तुले रहनेके कारण तुम हण ही नह करते हो?॥ १० ॥



‘ जसका



मन अप व तथा सदुपदेशको नह हण करनेवाला है, ऐसे अ ायी राजाके हाथम पड़कर बड़े-बड़े समृ शाली रा और नगर न हो जाते ह॥ ११ ॥ ‘इसी कार यह र रा शसे पूण लंकापुरी तु ारे हाथम आ जानेसे अब अके ले तु ारे ही अपराधसे ब त ज न हो जायगी॥ १२ ॥ ‘रावण! जब को◌इ अदूरदश पापाचारी अपने कु कम से मारा जाता है, उस समय उसका वनाश होनेपर सम ा णय को स ता होती है॥ १३ ॥ ‘इसी कार तुमने जन लोग को क प ँ चाया है, वे तु पापी कहगे और ‘बड़ा अ ा आ, जो इस आततायीको यह क ा आ’ ऐसा कहकर हष मनायगे॥ १४ ॥ ‘जैसे भा सूयसे अलग नह होती, उसी कार म ीरघुनाथजीसे अ भ ँ । ऐ य या धनके ारा तुम मुझे लुभा नह सकते॥ १५ ॥ ‘जगदी र ीरामच जीक स ा नत भुजापर सर रखकर अब म कसी दूसरेक बाँहका त कया कै से लगा सकती ँ ?॥ १६ ॥ ‘ जस कार वेद व ा आ ानी ातक ा णक ही स होती है, उसी कार म के वल उन पृ ीप त रघुनाथजीक ही भाया होनेयो ँ ॥ १७ ॥ ‘रावण! तु ारे लये यही अ ा होगा क जस कार वनम समागमक वासनासे यु ह थनीको को◌इ गजराजसे मला दे, उसी कार तुम मुझ दु: खयाको ीरघुनाथजीसे मला दो॥ १८ ॥ ‘य द तु अपने नगरक र ा और दा ण ब नसे बचनेक इ ा हो तो पु षो म भगवान् ीरामको अपना म बना लेना चा हये; क वे ही इसके यो ह॥ १९ ॥ ‘भगवान् ीराम सम धम के ाता और सु स शरणागतव ल ह। य द तुम जी वत रहना चाहते हो तो उनके साथ तु ारी म ता हो जानी चा हये॥ २० ॥ ‘तुम शरणागतव ल ीरामक शरण लेकर उ स करो और शु दय होकर मुझे उनके पास लौटा दो॥ २१ ॥ ‘इस कार मुझे ीरघुनाथजीको स प देनेपर तु ारा भला होगा। इसके वपरीत आचरण करनेपर तुम बड़ी भारी वप म पड़ जाओगे॥ २२ ॥



‘तु



ारे-जैसे नशाचरको कदा चत् हाथसे छू टा आ व बना मारे छोड़ सकता है और काल भी ब त दन तक तु ारी उपे ा कर सकता है; कतु ोधम भरे ए लोकनाथ रघुनाथजी कदा प नह छोड़गे॥ २३ ॥ ‘इ के छोड़े ए व क गड़गड़ाहटके समान तुम ीरामच जीके धनुषक घोर टंकार सुनोगे॥ २४ ॥ ‘यहाँ ीराम और ल णके नाम से अ त और सु र गाँठवाले बाण लत मुखवाले सप के समान शी ही गरगे॥ २५ ॥ ‘वे क प वाले बाण इस पुरीम रा स का संहार करगे, इसम संशय नह है। वे इस तरह बरसगे क यहाँ तल रखनेक भी जगह नह रह जायगी॥ २६ ॥ ‘जैसे वनतान न ग ड़ सप का संहार करते ह, उसी कार ीराम पी महान् ग ड़ रा सराज पी बड़े-बड़े सप को वेगपूवक उ कर डालगे॥ २७ ॥ ‘जैसे भगवान् व ुने अपने तीन ही पग ारा असुर से उनक उ ी राजल ी छीन ली थी, उसी कार मेरे ामी श ुसूदन ीराम मुझे शी ही तेरे यहाँसे नकाल ले जायँगे॥ २८ ॥ ‘रा स! जब रा स क सेनाका संहार हो जानेसे जन ानका तु ारा आ य न हो गया और तुम यु करनेम असमथ हो गये, तब तुमने छल और चोरीसे यह नीच कम कया है॥ २९ ॥ ‘नीच नशाचर! तुमने पु ष सह ीराम और ल णके सूने आ मम घुसकर मेरा हरण कया था। वे दोन उस समय मायामृगको मारनेके लये वनम गये ए थे (नह तो तभी तु इसका फल मल जाता)॥ ३० ॥ ‘ ीराम और ल णक तो ग पाकर भी तुम उनके सामने नह ठहर सकते। ा कु ा कभी दो-दो बाघ के सामने टक सकता है?॥ ३१ ॥ ‘जैसे इ क दो बाँह के साथ यु छड़नेपर वृ ासुरक एक बाँहके लये सं ामके बोझको सँभालना अस व हो गया, उसी कार समरांगणम उन दोन भाइय के साथ यु का जुआ उठाये रखना या टकना तु ारे लये सवथा अस व है॥ ३२ ॥ ‘वे मेरे ाणनाथ ीराम सु म ाकु मार ल णके साथ आकर अपने बाण ारा शी तु ारे ाण हर लगे। ठीक उसी तरह, जैसे सूय थोड़े-से जलको अपनी करण ारा शी सुखा देते ह॥ ३३ ॥



‘तुम



कु बेरके कै लासपवतपर चले जाओ अथवा व णक सभाम जाकर छप रहो, कतु कालका मारा आ वशाल वृ जैसे व का आघात लगते ही न हो जाता है, उसी कार तुम दशरथन न ीरामके बाणसे मारे जाकर त ाल ाण से हाथ धो बैठोगे, इसम संशय नह है; क काल तु पहलेसे ही मार चुका है’॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म इ सवाँ सग पूरा आ॥ २१ ॥



बा◌इसवाँ सग रावणका सीताको दो मासक अव ध देना, सीताका उसे फटकारना, फर रावणका उ धमकाकर रा सय के नय णम रखकर य स हत पुन: महलको लौट जाना



सीताके ये कठोर वचन सुनकर रा सराज रावणने उन यदशना सीताको यह अ य उ र दया—॥ १ ॥ ‘लोकम पु ष जैसे-जैसे य से अनुनय- वनय करता है, वैसे-वैसे वह उनका य होता जाता है; परंतु म तुमसे - मीठे वचन बोलता ँ , -ही- तुम मेरा तर ार करती जा रही हो॥ २ ॥ ‘ कतु जैसे अ ा सार थ कु मागम दौड़ते ए घोड़ को रोकता है, वैसे ही तु ारे त जो मेरा ेम उ हो गया है, वही मेरे ोधको रोक रहा है॥ ३ ॥ ‘मनु म यह काम ( ेम) बड़ा टेढ़ा है। वह जसके त बँध जाता है, उसीके त क णा और ेह उ हो जाता है॥ ४ ॥ ‘सुमु ख! यही कारण है क झूठे वैरा म त र तथा वध और तर ारके यो होनेपर भी तु ारा म वध नह कर रहा ँ ॥ ५ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! तुम मुझसे जैसी-जैसी कठोर बात कह रही हो, उनके बदले तो तु कठोर ाणद देना ही उ चत है’॥ ६ ॥ वदेहराजकु मारी सीतासे ऐसा कहकर ोधके आवेशम भरे ए रा सराज रावणने उ फर इस कार उ र दया—॥ ७ ॥ ‘सु र! मने तु ारे लये जो अव ध नयु क है, उसके अनुसार मुझे दो महीने और ती ा करनी है। त ात् तु मेरी श ापर आना होगा॥ ८ ॥ ‘अत: याद रखो—य द दो महीनेके बाद तुम मुझे अपना प त बनाना ीकार नह करोगी तो रसोइये मेरे कलेवेके लये तु ारे टुकड़े-टुकड़े कर डालगे’॥ ९ ॥ रा सराज रावणके ारा जनकन नी सीताको इस कार धमकायी जाती देख देवता और ग व क क ा को बड़ा वषाद आ। उनक आँ ख वकृ त हो गय ॥ १० ॥



तब उनमसे कसीने ओठ से, कसीने ने से तथा कसीने मुँहके संकेतसे उस रा स ारा डाँटी जाती ◌इ सीताको धैय बँधाया॥ ११ ॥ उनके धैय बँधानेपर सीताने रा सराज रावणसे अपने सदाचार (पा त ) और प तके शौयके अ भमानसे पूण हतकर वचन कहा—॥ १२ ॥ ‘ न य ही इस नगरम को◌इ भी पु ष तेरा भला चाहनेवाला नह है, जो तुझे इस न त कमसे रोके ॥ ‘जैसे शची इ क धमप ी ह, उसी कार म धमा ा भगवान् ीरामक प ी ँ । लोक म तेरे सवा दूसरा कौन है, जो मनसे भी मुझे ा करनेक इ ा करे॥ १४ ॥ ‘नीच रा स! तूने अ मत तेज ी ीरामक भायासे जो पापक बात कही है, उसके फल प द से तू कहाँ जाकर छु टकारा पायेगा?॥ १५ ॥ ‘ जस कार वनम को◌इ मतवाला हाथी और को◌इ खरगोश दैववश एक-दूसरेके साथ यु के लये तुल जायँ, वैसे ही भगवान् ीराम और तू है। नीच नशाचर! भगवान् राम तो गजराजके समान ह और तू खरगोशके तु है॥ १६ ॥ ‘अरे! इ ाकु नाथ ीरामका तर ार करते तुझे ल ा नह आती। तू जबतक उनक आँ ख के सामने नह जाता, तबतक जो चाहे कह ले॥ १७ ॥ ‘अनाय! मेरी ओर ष्ट डालते समय तेरी ये ू र और वकारयु काली-पीली आँ ख पृ ीपर नह गर पड़ ?॥ १८ ॥ ‘म धमा ा ीरामक धमप ी और महाराज दशरथक पु वधू ँ । पापी! मुझसे पापक बात करते समय तेरी जीभ नह गल जाती है?॥ १९ ॥ ‘दशमुख रावण! मेरा तेज ही तुझे भ कर डालनेके लये पया है। के वल ीरामक आ ा न होनेसे और अपनी तप ाको सुर त रखनेके वचारसे म तुझे भ नह कर रही ँ ॥ २० ॥ ‘म म तमान् ीरामक भाया ँ , मुझे हर ले आनेक श तेरे अंदर नह थी। न:संदेह तेरे वधके लये ही वधाताने यह वधान रच दया है॥ २१ ॥ ‘तू तो बड़ा शूरवीर बनता है, कु बेरका भा◌इ है और तेरे पास सेनाएँ भी ब त ह, फर ीरामको छलसे दूर हटाकर तूने उनक ीक चोरी क है?’॥ २२ ॥



सीताक ये बात सुनकर रा सराज रावणने उन जनकदुलारीक ओर आँ ख तरेरकर देखा। उसक ष्टसे ू रता टपक रही थी॥ २३ ॥ वह नीलमेघके समान काला और वशालकाय था। उसक भुजाएँ और ीवा बड़ी थ । वह ग त और परा मम सहके समान था और तेज ी दखायी देता था। उसक जीभ आगक लपटके समान लपलपा रही थी तथा ने बड़े भयंकर तीत होते थे॥ २४ ॥ ोधके कारण उसके मुकुटका अ भाग हल रहा था, जससे वह ब त ऊँ चा जान पड़ता था। उसने तरह-तरहके हार और अनुलेपन धारण कर रखे थे तथा प े सोनेके बने ए बाजूबंद उसक शोभा बढ़ा रहे थे। वह लाल रंगके फू ल क माला और लाल व पहने ए था। उसक कमरके चार ओर काले रंगका ल ा क टसू बँधा आ था, जससे वह अमृत-म नके समय वासु कसे लपटे ए म राचलके समान जान पड़ता था॥ २५-२६ ॥ पवतके समान वशालकाय रा सराज रावण अपनी दोन प रपु भुजा से उसी कार शोभा पा रहा था, मानो दो शखर से म राचल सुशो भत हो रहा हो॥ २७ ॥ ात:कालके सूयक भाँ त अ ण-पीत का वाले दो कु ल उसके कान क शोभा बढ़ा रहे थे, मानो लाल प व और फू ल से यु दो अशोक वृ कसी पवतको सुशो भत कर रहे ह ॥ २८ ॥ वह अ भनव शोभासे स होकर क वृ एवं मू तमान् वस के समान जान पड़ता था। आभूषण से वभू षत होनेपर भी शानचै * (मरघटम बने ए देवालय)-क भाँ त भयंकर तीत होता था॥ २९ ॥ रावणने ोधसे लाल आँ ख करके वदेहकु मारी सीताक ओर देखा और फु फकारते ए सपके समान ल ी साँस ख चकर कहा—॥ ३० ॥ ‘अ ायी और नधन मनु का अनुसरण करनेवाली नारी! जैसे सूयदेव अपने तेजसे ात:का लक सं ाके अ कारको न कर देते ह, उसी कार आज म तेरा वनाश कये देता ँ ’॥ ३१ ॥ म थलेशकु मारीसे ऐसा कहकर श ु को लानेवाले राजा रावणने भयंकर दखायी देनेवाली सम रा सय क ओर देखा॥ ३२ ॥ उसने एका ी (एक आँ खवाली), एककणा (एक कानवाली), कण ावरणा (लंबे कान से अपने शरीरको ढक लेनेवाली), गोकण (गौके -से कान वाली), ह कण (हाथीके समान



कान वाली), ल कण (ल े कानवाली), अक णका ( बना कानक ), ह पदी (हाथीके -से पैर वाली), अ पदी (घोड़ेके समान पैरवाली), गोपदी (गायके समान पैरवाली), पादचू लका (के शयु पैर वाली), एका ी, एकपादी (एक पैरवाली), पृथुपादी (मोटे पैरवाली), अपा दका ( बना पैर क ), अ तमा शरो ीवा ( वशाल सर और गदनवाली), अ तमा कु चोदरी (ब त बड़े-बड़े न और पेटवाली), अ तमा ा ने ा ( वशाल मुख और ने वाली), दीघ ज ानखा (लंबी जीभ और नख वाली), अना सका ( बना नाकक ), सहमुखी ( सहके समान मुखवाली), गोमुखी (गौके समान मुखवाली) तथा सूकरीमुखी (सूकरीके समान मुखवाली)—इन सब रा सय से कहा— ‘ नशाच रयो! तुम सब लोग मलकर अथवा अलग-अलग शी ही ऐसा य करो, जससे जनक कशोरी सीता ब त ज मेरे वशम आ जाय। अनुकूल- तकू ल उपाय से, साम, दान और भेदनी तसे तथा द का भी भय दखाकर वदेहकु मारी सीताको वशम लानेक चे ा करो’॥ ३३—३७१/२ ॥ रा सय को इस कार बार ार आ ा देकर काम और ोधसे ाकु ल आ रा सराज रावण जानक जीक ओर देखकर गजना करने लगा॥ ३८१/२ ॥ तदन र रा सय क ा मनी म ोदरी तथा धा मा लनी नामवाली रा स-क ा शी रावणके पास आय और उसका आ लगन करके बोल —॥ ३९१/२ ॥ ‘महाराज रा सराज! आप मेरे साथ डा क जये। इस का हीन और दीन-मानवक ा सीतासे आपको ा योजन है?॥ ४०१/२ ॥ ‘महाराज! न य ही देव े ाजीने इसके भा म आपके बा बलसे उपा जत द एवं उ म भोग नह लखे ह॥ ४११/२ ॥ ‘ ाणनाथ! जो ी अपनेसे ेम नह करती, उसक कामना करनेवाले पु षके शरीरम के वल ताप ही होता है और अपने त अनुराग रखनेवाली ीक कामना करनेवालेको उ म स ता ा होती है’॥ जब रा सीने ऐसा कहा और उसे दूसरी ओर वह हटा ले गयी, तब मेघके समान काला और बलवान् रा स रावण जोर-जोरसे हँ सता आ महलक ओर लौट पड़ा॥ ४३ ॥ अशोकवा टकासे त होकर पृ ीको क त-सी करते ए दश ीवने उ ी सूयके स श का शत होनेवाले अपने भवनम वेश कया॥ ४४ ॥



तदन र देवता, ग व और नाग क क ाएँ भी रावणको सब ओरसे घेरकर उसके साथ ही उस उ म राजभवनम चली गय ॥ ४५ ॥ इस कार अपने धमम त र, र च और भयसे काँपती ◌इ म थलेशकु मारी सीताको धमकाकर काममो हत रावण अपने ही महलम चला गया॥ ४६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म बा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २२ ॥ ाचीनकालम नगरक शानभू मके पास एक गोलाकार देवालय-सा बना रहता था, जहाँ राजाक आ ासे ाणद के अपरा धय का ज ाद के ारा वध कराया जाता था। जब वहाँ कसीको ाणद देनेका अवसर आता, तब उस देवालयको लीप-पोतकर फू ल क ब नवार से सजाया जाता था। उस वभू षत शानचै को देखते ही लोग यह सोचकर भयभीत हो उठते थे क आज यहाँ कसीके जीवनका अ होनेवाला है। इस तरह जैसे वह शानचै वभू षत होनेपर भी भयंकर लगता था, उसी कार रावण सु र ृ ार करके भी सीताको भयानक तीत होता था; क वह उनके सती को न करना चाहता था। *



ते◌इसवाँ सग रा



सय का सीताजीको समझाना



श ु को लानेवाला राजा रावण सीताजीसे पूव बात कहकर तथा सब रा सय को उ वशम लानेके लये आदेश दे वहाँसे नकल गया॥ १ ॥ अशोकवा टकासे नकलकर जब रा सराज रावण अ :पुरको चला गया, तब वहाँ जो भयानक पवाली रा सयाँ थ , वे सब चार ओरसे दौड़ी ◌इ सीताके पास आय ॥ २ ॥ वदेहकु मारी सीताके समीप आकर ोधसे ाकु ल ◌इ उन रा सय ने अ कठोर वाणी ारा उनसे इस कार कहना आर कया—॥ ३ ॥ ‘सीते! तुम पुल जीके कु लम उ ए सव े दश ीव महामना रावणक भाया बनना भी को◌इ ब त बड़ी बात नह समझती?’॥ ४ ॥ त ात् एकजटा नामवाली रा सीने ोधसे लाल आँ ख करके कृ शोदरी सीताको पुकारकर कहा—॥ ५ ॥ ‘ वदेहकु मारी! पुल जी छ:* जाप तय म चौथे ह और ाजीके मानस पु ह। इस पम उनक सव ा त है॥ ६ ॥ ‘पुल जीके मानस पु तेज ी मह ष व वा ह। वे भी जाप तके समान ही का शत होते ह॥ ७ ॥ ‘ वशाललोचने! ये श ु के लानेवाले महाराज रावण उ के पु ह और सम रा स के राजा ह। तु इनक भाया हो जाना चा हये। सवागसु री! मेरी इस कही ◌इ बातका तुम अनुमोदन नह करत ?’॥ इसके बाद ब ीके समान भूरे आँ ख वाली ह रजटा नामक रा सीने ोधसे आँ ख फाड़कर कहना आर कया—‘अरी! ज ने ततीस * देवता तथा देवराज इ को भी परा कर दया है, उन रा सराज रावणक रानी तो तु अव बन जाना चा हये॥ ‘उ अपने परा मपर गव है। वे यु से पीछे न हटनेवाले शूरवीर ह। ऐसे बलपरा मस पु षक भाया बनना तुम नह चाहती हो?॥ ११ ॥



‘महाबली



राजा रावण अपनी अ धक य और स ा नत भाया म ोदरीको भी, जो सबक ा मनी ह, छोड़कर तु ारे पास पधारगे। तु ारा कतना महान् सौभा है। वे सह रम णय से भरे ए और अनेक कारके र से सुशो भत उस अ :पुरको छोड़कर तु ारे पास पधारगे (अत: तु उनक ाथना मान लेनी चा हये)’॥ १२-१३ ॥ तदन र वकटा नामवाली दूसरी रा सीने कहा— ‘ जन भयानक परा मी रा सराजने नाग , ग व और दानव को भी समरांगणम बार ार परा कया है, वे ही तु ारे पास पधारे थे। नीच नारी! उ स ूण ऐ य से स महामना रा सराज रावणक भाया बननेके लये तु इ ा नह होती है?’॥ १४-१५ ॥ फर उनसे दुमुखी नामवाली रा सीने कहा— ‘ वशाललोचने! जनसे भय मानकर सूय तपना छोड़ देता है और वायुक ग त क जाती है, उनके पास तुम नह रहती?॥ १६ ॥ ‘भा म न! जनके भयसे वृ फू ल बरसाने लगते ह और जो जब इ ा करते ह, तभी पवत तथा मेघ जलका ोत बहाने लगते ह। उ राजा धराज रा सराज रावणक भाया बननेके लये तु ारे मनम नह वचार होता है?॥ १७-१८ ॥ ‘दे व! मने तुमसे उ म, यथाथ और हतक बात कही है। सु र मुसकानवाली सीते! तुम मेरी बात मान लो, नह तो तु ाण से हाथ धोना पड़ेगा’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म ते◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २३ ॥ * मरी च, अ , अ * बारह आ द ,



रा, पुल , पुलह और तु—ये छ: जाप त ह। ारह , आठ वसु और दो अ नीकु मार—ये ततीस देवता ह।



चौबीसवाँ सग सीताजीका रा



सय क बात माननेसे इनकार कर देना तथा रा



सय का उ मारने-



काटनेक धमक देना



तदन र वकराल मुखवाली उन सम रा सय ने जो कटुवचन सुननेके यो नह थ , उन सीतासे अ य तथा कठोर वचन कहना आर कया—॥ १ ॥ ‘सीते! रावणका अ :पुर सम ा णय के लये मनोरम है। वहाँ ब मू श ाएँ बछी रहती ह। उस अ :पुरम तु ारा नवास हो, इसके लये तुम नह अनुम त देत ?॥ २ ॥ ‘तुम मानुषी हो, इस लये मनु क भायाका जो पद है, उसीको तुम अ धक मह देती हो; कतु अब तुम रामक ओरसे अपना मन हटा लो, अ था कदा प जी वत नह रहोगी॥ ३ ॥ ‘तुम लोक के ऐ यको भोगनेवाले रा सराज रावणको प त पम पाकर आन पूवक वहार करो॥ ४ ॥ ‘अ न सु र! तुम मानवी हो, इसी लये मनु -जातीय रामको ही चाहती हो; परंतु राम इस समय रा से ह। उनका को◌इ मनोरथ सफल नह होता है तथा वे सदा ाकु ल रहते ह’॥ ५ ॥ रा सय क ये बात सुनकर कमलनयनी सीताने आँ सूभरे ने से उनक ओर देखकर इस कार कहा—॥ ६ ॥ ‘तुम सब मलकर मुझसे जो यह लोक- व ाव कर रही हो, तु ारा यह पापपूण वचन मेरे दयम एक णके लये भी नह ठहर पाता है॥ ७ ॥ ‘एक मानवक ा कसी रा सक भाया नह हो सकती। तुम सब लोग भले ही मुझे खा जाओ; कतु म तु ारी बात नह मान सकती॥ ८ ॥ ‘मेरे प त दीन ह अथवा रा हीन—वे ही मेरे ामी ह, वे ही मेरे गु ह, म सदा उ म अनुर ँ और र ँ गी। जैसे सुवचला सूयम अनुर रहती ह॥ ९ ॥ ‘जैसे महाभागा शची इ क सेवाम उप त होती ह, जैसे देवी अ ती मह ष व स म, रो हणी च माम, लोपामु ा अग म, सुक ा वनम, सा व ी स वा , ीमती क पलम, मदय ी सौदासम, के शनी सगरम तथा भीमकु मारी दमय ी अपने प त नषधनरेश नलम



अनुराग रखती ह, उसी कार म भी अपने प तदेव इ ाकु वंश- शरोम ण भगवान् ीरामम अनुर ँ ’॥ १०—१२१/२ ॥ सीताक बात सुनकर रा सय के ोधक सीमा न रही। वे रावणक आ ाके अनुसार कठोर वचन ारा उ धमकाने लग ॥ १३ ॥ अशोकवृ म चुपचाप छपे बैठे ए वानर हनुमा ी सीताको फटकारती ◌इ रा सय क बात सुनते रहे॥ १४ ॥ वे सब रा सयाँ कु पत हो वहाँ काँपती ◌इ सीतापर चार ओरसे टूट पड़ और अपने ल े एवं चमक ले ओठ को बार ार चाटने लग ॥ १५ ॥ उनका ोध ब त बढ़ा आ था। वे सब-क -सब तुरंत हाथ म फरसे लेकर बोल उठ —‘यह रा सराज रावणको प त पम पानेयो है ही नह ’॥ १६ ॥ उस भयानक रा सय के बार ार डाँटने और धमकानेपर सवागसु री क ाणी सीता अपने आँ सू प छती ◌इ उसी अशोकवृ के नीचे चली आय ( जसके ऊपर हनुमा ी छपे बैठे थे)॥ १७ ॥ वशाललोचना वैदेही शोक-सागरम डू बी ◌इ थ । इस लये वहाँ चुपचाप बैठ गय । कतु उन रा सय ने वहाँ भी आकर उ चार ओरसे घेर लया॥ १८ ॥ वे ब त ही दुबल हो गयी थ । उनके मुखपर दीनता छा रही थी और उ ने म लन व पहन रखा था। उस अव ाम उन जनकन नीको चार ओर खड़ी ◌इ भयानक रा सय ने फर धमकाना आर कया॥ १९ ॥ तदन र वनता नामक रा सी आगे बढ़ी। वह देखनेम बड़ी भयंकर थी। उसक देह ोधक सजीव तमा जान पड़ती थी। उस वकराल रा सीके पेट भीतरक ओर धँसे ए थे। वह बोली—॥ २० ॥ ‘सीते! तूने अपने प तके त जतना ेह दखाया है, इतना ही ब त है। भ े! अ त करना तो सब जगह दु:खका ही कारण होता है॥ २१ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! तु ारा भला हो। म तुमसे ब त संतु ँ ; क तुमने मानवो चत श ाचारका अ ी तरह पालन कया है। अब म भी तु ारे हतके लये जो बात कहती ँ , उसपर ान दो—उसका शी पालन करो॥ २२ ॥



‘सम



रा स का भरण-पोषण करनेवाले महाराज रावणको तुम अपना प त ीकार कर लो। वे देवराज इ के समान बड़े परा मी तथा पवान् ह॥ २३ ॥ ‘दीन-हीन मनु रामका प र ाग करके सबसे य वचन बोलनेवाले, उदार और ागी रावणका आ य लो॥ २४ ॥ ‘ वदेहराजकु मारी! तुम आजसे सम लोक क ा मनी बन जाओ और द अंगराग तथा द आभूषण धारण करो॥ २५ ॥ ‘शोभने! जैसे अ क य प ी ाहा और इ क ाणव भा शची ह, उसी कार तुम रावणक ेयसी बन जाओ। वदेहकु मारी! ीराम तो दीन ह। उनक आयु भी अब समा हो चली है। उनसे तु ा मलेगा!॥ २६ ॥ ‘य द तुम मेरी कही ◌इ इस बातको नह मानोगी तो हम सब मलकर तु इसी मु तम अपना आहार बना लगी’॥ २७ ॥ तदन र दूसरी रा सी सामने आयी। उसके ल े-ल े न लटक रहे थे। उसका नाम वकटा था। वह कु पत हो मु ा तानकर डाँटती ◌इ सीतासे बोली—॥ २८ ॥ ‘अ खोटी बु वाली म थलेशकु मारी! अबतक हमलोग ने अपने कोमल भाववश तुमपर दया आ जानेके कारण तु ारी ब त-सी अनु चत बात सह ली ह॥ २९ ॥ ‘इतनेपर भी तुम हमारी बात नह मानती हो। हमने तु ारे हतके लये ही समयो चत सलाह दी थी। देखो, तु समु के इस पार ले आया गया है, जहाँ प ँ चना दूसर के लये अ क ठन है। यहाँ भी रावणके भयानक अ :पुरम तुम लाकर रखी गयी हो। म थलेशकु मारी! याद रखो, रावणके घरम कै द हो और हम-जैसी रा सयाँ तु ारी चौकसी कर रही ह॥ ३०-३१ ॥ ‘मै थ ल! सा ात् इ भी यहाँ तु ारी र ा करनेम समथ नह हो सकते। अत: मेरा कहना मानो, म तु ारे हतक बात बता रही ँ ॥ ३२ ॥ ‘आँ सू बहानेसे कु छ होने-जानेवाला नह है। यह थका शोक ाग दो। सदा छायी रहनेवाली दीनताको दूर करके अपने दयम स ता और उ ासको ान दो॥ ३३ ॥ ‘सीते! रा सराज रावणके साथ सुखपूवक डा वहार करो। भी ! हम सभी याँ जानती ह क ना रय का यौवन टकनेवाला नह होता॥ ३४ ॥



‘जबतक



तु ारा यौवन नह ढल जाता, तबतक सुख भोग लो। मदम बना देनेवाले ने से शोभा पानेवाली सु री ! तुम रा सराज रावणके साथ ल ाके रमणीय उ ान और पवतीय उपवन म वहार करो। दे व! ऐसा करनेसे सह याँ सदा तु ारी आ ाके अधीन रहगी॥ ३५-३६ ॥ ‘महाराज रावण सम रा स का भरण-पोषण करनेवाले ामी ह। तुम उ अपना प त बना लो। मै थ ल! याद रखो, मने जो बात कही है, य द उसका ठीक-ठीक पालन नह करोगी तो म अभी तु ारा कलेजा नकालकर खा जाऊँ गी’॥ ३७१/२ ॥ अब च ोदरी नामवाली रा सीक बारी आयी। उसक ष्टसे ही ू रता टपकती थी। उसने वशाल शूल घुमाते ए यह बात कही—॥ ३८१/२ ॥ ‘महाराज रावण जब इसे हरकर ले आये थे, उस समय भयके मारे यह थर-थर काँप रही थी, जससे इसके दोन न हल रहे थे। उस दन इस मृगशावकनयनी मानवक ाको देखकर मेरे दयम यह बड़ी भारी इ ा जा त् ◌इ—इसके जगर, त ी, वशाल व : ल, दय, उसके आधार ान, अ ा अंग तथा सरको म खा जाऊँ । इस समय भी मेरा ऐसा ही वचार है’॥ ३९-४०१/२ ॥ तदन र घसा नामक रा सी बोल उठी—‘ फर तो हमलोग इस ू र- दया सीताका गला घ ट द; अब चुपचाप बैठे रहनेक ा आव कता है? इसे मारकर महाराजको सूचना दे दी जाय क वह मानवक ा मर गयी। इसम को◌इ संदेह नह क इस समाचारको सुनकर महाराज यह आ ा दे दगे क तुम सब लोग उसे खा जाओ’॥ ४१-४२१/२ ॥ त ात् रा सी अजामुखीने कहा—‘मुझे तो थका वाद- ववाद अ ा नह लगता। आओ, पहले इसे काटकर इसके ब त-से टुकड़े कर डाल। वे सभी टुकड़े बराबर माप-तौलके होने चा हये। फर उन टुकड़ को हमलोग आपसम बाँट लगी। साथ ही नाना कारक पेयसाम ी तथा फू ल-माला आ द भी शी ही चुर मा ाम मँगा ली जाय’॥ ४३-४४१/२ ॥ तदन र रा सी शूपणखाने कहा—‘अजामुखीने जो बात कही है, वही मुझे भी अ ी लगती है। सम शोक को न कर देनेवाली सुराको भी शी मँगवा लो। उसके साथ मनु के मांसका आ ादन करके हम नकु ला देवीके सामने नृ करगी’॥ ४५-४६१/२ ॥



उन वकराल पवाली रा सय के ारा इस कार धमकायी जानेपर देवक ाके समान सु री सीता धैय छोड़कर फू ट-फू टकर रोने लग ॥ ४७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म चौबीसवाँ सग पूरा आ॥ २४ ॥



पचीसवाँ सग रा



सय क बात माननेसे इनकार करके शोक-संत



सीताका वलाप करना



जब वे ू र रा सयाँ इस कारक ब त-सी कठोर एवं ू रतापूण बात कह रही थ , उस समय जनकन नी सीता अधीर हो-होकर रो रही थ ॥ १ ॥ उन रा सय के इस कार कहनेपर अ भयभीत ◌इ मन नी वदेहराजकु मारी सीता ने से आँ सू बहाती ग द वाणीम बोल —॥ २ ॥ ‘रा सयो! मनु क क ा कभी रा सक भाया नह हो सकती। तु ारा जी चाहे तो तुम सब लोग मलकर मुझे खा जाओ, परंतु म तु ारी बात नह मानूँगी’॥ रा सय के बीचम बैठी ◌इ देवक ाके समान सु री सीता रावणके ारा धमकायी जानेके कारण शोकसे आत-सी होकर चैन नह पा रही थ ॥ ४ ॥ जैसे वनम अपने यूथसे बछु ड़ी ◌इ मृगी भे ड़य से पी ड़त होकर भयके मारे काँप रही हो, उसी कार सीता जोर-जोरसे काँप रही थ और इस तरह सकु ड़ी जा रही थ , मानो अपने अंग म ही समा जायँगी॥ ५ ॥ उनका मनोरथ भंग हो गया था। वे हताश-सी होकर अशोकवृ क खली ◌इ एक वशाल शाखाका सहारा ले शोकसे पी ड़त हो अपने प तदेवका च न करने लग ॥ ६ ॥ आँ सु के वाहसे अपने ूल उरोज का अ भषेक करती ◌इ वे च ाम डू बी थ और उस समय शोकका पार नह पा रही थ ॥ ७ ॥ च वायुके चलनेपर क त होकर गरे ए के लेके वृ क भाँ त वे रा सय के भयसे हो पृ ीपर गर पड़ । उस समय उनके मुखक का फ क पड़ गयी थी॥ ८ ॥ उस बेलाम काँपती ◌इ सीताक वशाल एवं घनीभूत वेणी भी क त हो रही थी, इस लये वह रगती ◌इ स पणीके समान दखायी देती थी॥ ९ ॥ वे शोकसे पी ड़त होकर ल ी साँस ख च रही थ और ोधसे अचेत-सी होकर आतभावसे आँ सू बहा रही थ । उस समय म थलेशकु मारी इस कार वलाप करने लग —॥ १० ॥



‘हा



राम! हा ल ण! हा मेरी सासु कौस !े हा आय सु म !े बार ार ऐसा कहकर दु:खसे पी ड़त ◌इ भा मनी सीता रोने- बलखने लग ॥ ११ ॥ ‘हाय! प त ने यह लोको ठीक ही कही है क ‘ कसी भी ी या पु षक मृ ु बना समय आये नह होती’॥ १२ ॥ ‘तभी तो म ीरामके दशनसे व त तथा इन ू र रा सय ारा पी ड़त होनेपर भी यहाँ मु तभर भी जी रही ँ ॥ १३ ॥ ‘मने पूवज म ब त थोड़े पु कये थे, इसी लये इस दीन दशाम पड़कर म अनाथक भाँ त मारी जाऊँ गी। जैसे समु के भीतर सामानसे भरी ◌इ नौका वायुके वेगसे आहत हो डू ब जाती है, उसी कार म भी न हो जाऊँ गी॥ १४ ॥ ‘मुझे प तदेवके दशन नह हो रहे ह। म इन रा सय के चंगुलम फँ स गयी ँ और पानीके थपेड़ से आहत हो कटते ए कगार के समान शोकसे ीण होती जा रही ँ ॥ १५ ॥ ‘आज जन लोग को सहके समान परा मी और सहक -सी चालवाले मेरे कमलदललोचन, कृ त और यवादी ाणनाथके दशन हो रहे ह, वे ध ह॥ १६ ॥ ‘उन आ ानी भगवान् ीरामसे बछु ड़कर मेरा जी वत रहना उसी तरह सवथा दुलभ है, जैसे तेज वषका पान करके कसीका भी जीना अ क ठन हो जाता है॥ १७ ॥ ‘पता नह , मने पूवज म दूसरे शरीरसे कै सा महान् पाप कया था, जससे यह अ कठोर, घोर और महान् दु:ख मुझे ा आ है?॥ १८ ॥ ‘इन रा सय के संर णम रहकर तो म अपने ाणाराम ीरामको कदा प नह पा सकती, इस लये महान् शोकसे घर गयी ँ और इससे तंग आकर अपने जीवनका अ कर देना चाहती ँ ॥ १९ ॥ ‘इस मानव-जीवन और परत ताको ध ार है, जहाँ अपनी इ ाके अनुसार ाण का प र ाग भी नह कया जा सकता’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पचीसवाँ सग पूरा आ॥ २५ ॥



छ ीसवाँ सग सीताका क ण- वलाप तथा अपने ाण को



ाग देनेका न य करना



जनकन नी सीताके मुखपर आँ सु क धारा बह रही थी। उ ने अपना मुख नीचेक ओर कु ा लया था। वे उपयु बात कहती ◌इ ऐसी जान पड़ती थ मानो उ हो गयी ह —उनपर भूत सवार हो गया हो अथवा प बढ़ जानेसे पागल का-सा लाप कर रही ह अथवा द म आ दके कारण, उनका च ा हो गया हो। वे शोकम हो धरतीपर लोटती ◌इ बछेड़ीके समान पड़ी-पड़ी छटपटा रही थ । उसी अव ाम सरल दया सीताने इस कार वलाप करना आर कया—॥ १-२ ॥ ‘हाय! इ ानुसार प धारण करनेवाले रा स मारीचके ारा जब रघुनाथजी दूर हटा दये गये और मेरी ओरसे असावधान हो गये, उस अव ाम रावण मुझ रोती, च ाती ◌इ अबलाको बलपूवक उठाकर यहाँ ले आया॥ ३ ॥ ‘अब म रा सय के वशम पड़ी ँ और इनक कठोर धम कयाँ सुनती एवं सहती ँ । ऐसी दशाम अ दु:खसे आत एवं च त होकर म जी वत नह रह सकती॥ ४ ॥ ‘महारथी ीरामके बना रा सय के बीचम रहकर मुझे न तो जीवनसे को◌इ योजन है, न धनक आव कता है और न आभूषण से ही को◌इ काम है॥ ‘अव ही मेरा यह दय लोहेका बना आ है अथवा अजर-अमर है, जससे इस महान् दु:खम पड़कर भी यह फटता नह है॥ ६ ॥ ‘म बड़ी ही अनाय और असती ँ , मुझे ध ार है, जो उनसे अलग होकर म एक मु त भी इस पापी जीवनको धारण कये ँ । अब तो यह जीवन के वल दु:ख देनेके लये ही है॥ ७ ॥ ‘उस लोक न त नशाचर रावणको तो म बाय पैरसे भी नह छू सकती, फर उसे चाहनेक तो बात ही ा है?॥ ८ ॥ ‘यह रा स अपने ू र भावके कारण न तो मेरे इनकारपर ान देता है, न अपने मह को समझता है और न अपने कु लक त ाका ही वचार करता है। बार ार मुझे ा करनेक ही इ ा करता है॥ ९ ॥



सयो! तु ारे देरतक बकवाद करनेसे ा लाभ? तुम मुझे छेदो, चीरो, टुकड़े-टुकड़े कर डालो, आगम सक दो अथवा सवथा जलाकर भ कर डालो तो भी म रावणके पास नह फटक सकती॥ १० ॥ ‘ ीरघुनाथजी व व ात ानी, कृ त , सदाचारी और परम दयालु ह तथा प मुझे संदेह हो रहा है क कह वे मेरे भा के न हो जानेसे मेरे त नदय तो नह हो गये?॥ ११ ॥ ‘अ था ज ने जन ानम अके ले ही चौदह हजार रा स को कालके गालम डाल दया, वे मेरे पास नह आ रहे ह?॥ १२ ॥ ‘इस अ बलवाले रा स रावणने मुझे कै द कर रखा है। न य ही मेरे प तदेव समरांगणम इस रावणका वध करनेम समथ ह॥ १३ ॥ ‘ जन ीरामने द कार के भीतर रा स शरोम ण वराधको यु म मार डाला था, वे मेरी र ा करनेके लये यहाँ नह आ रहे ह?॥ १४ ॥ ‘यह ल ा समु के बीचम बसी है, अत: कसी दूसरेके लये यहाँ आ मण करना भले ही क ठन हो; कतु ीरघुनाथजीके बाण क ग त यहाँ भी कु त नह हो सकती॥ १५ ॥ ‘वह कौन-सा कारण है, जससे बा धत होकर सु ढ़ परा मी ीराम रा स ारा अप त ◌इ अपनी ाणप ी सीताको छु ड़ानेके लये नह आ रहे ह॥ १६ ॥ ‘मुझे तो संदेह होता है क ल णजीके े ाता ीरामच जीको मेरे इस ल ाम होनेका पता ही नह है। मेरे यहाँ होनेक बात य द वे जानते होते तो उनके -जैसा तेज ी पु ष अपनी प ीका यह तर ार कै से सह सकता था?॥ १७ ॥ ‘जो ीरघुनाथजीको मेरे हरे जानेक सूचना दे सकते थे, उन गृ राज जटायुको भी रावणने यु म मार गराया था॥ १८ ॥ ‘जटायु य प बूढ़े थे तो भी मुझपर अनु ह करके रावणका वध करनेके लये उ त हो उ ने ब त बड़ा पु षाथ कया था॥ १९ ॥ ‘य द ीरघुनाथजीको मेरे यहाँ रहनेका पता लग जाता तो वे आज ही कु पत होकर सारे संसारको रा स से शू कर डालते॥ २० ॥ ‘ल ापुरीको भी जला देते, महासागरको भी भ कर डालते तथा इस नीच नशाचर रावणके नाम और यशका भी नाश कर देते॥ २१ ॥ ‘रा



‘ फर



तो न:संदेह अपने प तय का संहार हो जानेसे घर-घरम रा सय का इसी कार न होता, जैसे आज म रो रही ँ ॥ २२ ॥ ‘ ीराम और ल ण ल ाका पता लगाकर न य ही रा स का संहार करगे। जस श ुको उन दोन भाइय ने एक बार देख लया, वह दो घड़ी भी जी वत नह रह सकता॥ २३ ॥ ‘अब थोड़े ही समयम यह ल ापुरी शानभू- मके समान हो जायगी। यहाँक सड़क पर चताका धुआँ फै ल रहा होगा और गीध क जमात इस भू मक शोभा बढ़ाती ह गी॥ २४ ॥ ‘वह समय शी आनेवाला है जब क मेरा यह मनोरथ पूण होगा। तुम सब लोग का यह दुराचार तु ारे लये शी ही वपरीत प रणाम उप त करेगा, ऐसा जान पड़ता है॥ २५ ॥ ‘ल



ाम जैस-े जैसे अशुभ ल ण दखायी दे रहे ह, उनसे जान पड़ता है क अब शी ही इसक चमक-दमक न हो जायगी॥ २६ ॥ ‘पापाचारी रा सराज रावणके मारे जानेपर यह दुधष ल ापुरी भी न य ही वधवा युवतीक भाँ त सूख जायगी, न हो जायगी॥ २७ ॥ ‘आज जस ल ाम पु मय उ व होते ह, वह रा स के स हत अपने ामीके न हो जानेपर वधवा ीके समान ीहीन हो जायगी॥ २८ ॥ ‘ न य ही म ब त शी ल ाके घर-घरम दु:खसे आतुर होकर रोती ◌इ रा सक ा क न न सुनूँगी॥ २९ ॥ ‘ ीरामच जीके सायक से द हो जानेके कारण ल ापुरीक भा न हो जायगी। इसम अ कार छा जायगा और यहाँके सभी मुख रा स कालके गालम चले जायँगे॥ ३० ॥ ‘यह सब तभी स व होगा, जब क लाल ने - ा वाले शूरवीर भगवान् ीरामको यह पता लग जाय क म रा सके अ :पुरम बंदी बनाकर रखी गयी ँ ॥ ‘इस नीच और नृशंस रावणने मेरे लये जो समय नयत कया है, उसक पू त भी नकट भ व म ही हो जायगी॥ ३२ ॥ ‘उसी समय दु रावणने मेरे वधका न य कया है। ये पापाचारी रा स इतना भी नह जानते ह क ा करना चा हये और ा नह ॥ ३३ ॥



‘इस



समय अधमसे ही महान् उ ात होनेवाला है। ये मांसभ ी रा स धमको बलकु ल नह जानते ह॥ ‘वह रा स अव ही अपने कलेवेके लये मेरे शरीरके टुकड़े-टुकड़े करा डालेगा। उस समय अपने यदशन प तके बना म असहाय अबला ा क ँ गी?॥ ‘ जनके ने ा अ ण वणके ह, उन ीरामच जीका दशन न पाकर अ दु:खम पड़ी ◌इ मुझ असहाय अबलाको प तका चरण श कये बना ही शी यमदेवताका दशन करना पड़ेगा॥ ३६ ॥ ‘भरतके बड़े भा◌इ भगवान् ीराम यह नह जानते ह क म जी वत ँ । य द उ इस बातका पता होता तो ऐसा स व नह था क वे पृ ीपर मेरी खोज नह करते॥ ३७ ॥ ‘मुझे तो यह न त जान पड़ता है क मेरे ही शोकसे ल णके बड़े भा◌इ वीरवर ीराम भूतलपर अपने शरीरका ाग करके यहाँसे देवलोकको चले गये ह॥ ३८ ॥ ‘वे देवता, ग व, स और मह षगण ध ह, जो मेरे प तदेव वीर- शरोम ण कमलनयन ीरामका दशन पा रहे ह॥ ३९ ॥ ‘अथवा के वल धमक कामना रखनेवाले परमा प बु मान् राज ष ीरामको भायासे को◌इ योजन नह है (इस लये वे मेरी सुध नह ले रहे ह)॥ ‘जो जन अपनी ष्टके सामने होते ह, उ पर ी त बनी रहती है। जो आँ खसे ओझल होते ह, उनपर लोग का ेह नह रहता है (शायद इसी लये ीरघुनाथजी मुझे भूल गये ह, परंतु यह भी स व नह है; क) कृ त मनु ही पीठ-पीछे ेमको ठु करा देते ह। भगवान् ीराम ऐसा नह करगे॥ ४१ ॥ ‘अथवा मुझम को◌इ दुगुण ह या मेरा भा ही फू ट गया है, जससे इस समय म मा ननी सीता अपने परम पूजनीय प त ीरामसे बछु ड़ गयी ँ ॥ ४२ ॥ ‘मेरे प त भगवान् ीरामका सदाचार अ ु है। वे शूरवीर होनेके साथ ही श ु का संहार करनेम समथ ह। म उनसे संर ण पानेके यो ँ , परंतु उन महा ासे बछु ड़ गयी। ऐसी दशाम जी वत रहनेक अपे ा मर जाना ही मेरे लये ेय र है॥ ४३ ॥ ‘अथवा वनम फल-मूल खाकर वचरनेवाले वे दोन वनवासी ब ु नर े ीराम और ल ण अब अ हसाका त लेकर अपने अ -श का प र ाग कर चुके ह॥ ४४ ॥



‘अथवा



दुरा ा रा सराज रावणने उन दोन शूरवीर ब ु ीराम और ल णको छलसे मरवा डाला है॥ ४५ ॥ ‘अत: ऐसे समयम म सब कारसे अपने जीवनका अ कर देनेक इ ा रखती ँ ; परंतु मालूम होता है इस महान् दु:खम होते ए भी अभी मेरी मृ ु नह लखी है॥ ४६ ॥ ‘स प परमा ाको ही अपना आ ा माननेवाले और अपने अ :करणको वशम रखनेवाले वे महाभाग महा ा मह षगण ध ह, जनके को◌इ य और अ य नह ह॥ ४७ ॥ ‘ज



यके वयोगसे दु:ख नह होता और अ यका संयोग ा होनेपर उससे भी अ धक क का अनुभव नह होता—इस कार जो य और अ य दोन से परे ह, उन महा ा को मेरा नम ार है॥ ४८ ॥ ‘म अपने यतम आ ानी भगवान् ीरामसे बछु ड़ गयी ँ और पापी रावणके चंगुलम आ फँ सी ँ ; अत: अब इन ाण का प र ाग कर दूँगी’॥ ४९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ २६ ॥



स ा◌इसवाँ सग जटाका



, रा स के वनाश और ीरघुनाथजीक वजयक शुभ सूचना



सीताने जब ऐसी भयंकर बात कही, तब वे रा सयाँ ोधसे अचेत-सी हो गय और उनमसे कु छ उस दुरा ा रावणसे वह संवाद कहनेके लये चल द ॥ १ ॥ त ात् भयंकर दखायी देनेवाली वे रा सयाँ सीताके पास आकर पुन: एक ही योजनसे स रखनेवाली कठोर बात, जो उनके लये ही अनथका रणी थ , कहने लग —॥ २ ॥ ‘पापपूण वचार रखनेवाली अनाय सीते! आज इसी समय ये सब रा सयाँ मौजके साथ तेरा यह मांस खायगी’॥ ३ ॥ उन दु नशाच रय के ारा सीताको इस कार डरायी जाती देख बूढ़ी रा सी जटा, जो त ाल सोकर उठी थी, उन सबसे कहने लगी—॥ ४ ॥ ‘नीच नशाच रयो! तुमलोग अपने-आपको ही खा जाओ। राजा जनकक ारी बेटी तथा महाराज दशरथक य पु वधू सीताजीको नह खा सकोगी॥ ५ ॥ ‘आज मने बड़ा भयंकर और रोमा कारी देखा है, जो रा स के वनाश और सीताप तके अ ुदयक सूचना देनेवाला है’॥ ६ ॥ जटाके ऐसा कहनेपर वे सब रा सयाँ, जो पहले ोधसे मू त हो रही थ , भयभीत हो उठ और जटासे इस कार बोल —॥ ७ ॥ ‘अरी! बताओ तो सही, तुमने आज रातम यह कै सा देखा है?’ उन रा सय के मुखसे नकली ◌इ यह बात सुनकर जटाने उस समय वह -स ी बात इस कार कही—॥ ८१/२ ॥ ‘आज म मने देखा है क आकाशम चलनेवाली एक द श बका है। वह हाथीदाँतक बनी ◌इ है। उसम एक हजार घोड़े जुते ए ह और ेत पु क माला तथा ेत व धारण कये यं ीरघुनाथजी ल णके साथ उस श बकापर चढ़कर यहाँ पधारे ह॥ ‘आज म मने यह भी देखा है क सीता ेत व धारण कये ेत पवतके शखरपर बैठी ह और वह पवत समु से घरा आ है, वहाँ जैसे सूयदेवसे उनक भा मलती है, उसी



कार सीता ीरामच जीसे मली ह॥ १११/२ ॥ ‘मने ीरघुनाथजीको फर देखा, वे चार दाँतवाले वशाल गजराजपर, जो पवतके समान ऊँ चा था, ल णके साथ बैठे ए बड़ी शोभा पा रहे थे॥ १२१/२ ॥ ‘तदन र अपने तेजसे सूयके समान का शत होते तथा ेत माला और ेत व धारण कये वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण जानक जीके पास आये॥ १३१/२ ॥ ‘ फर उस पवत- शखरपर आकाशम ही खड़े ए और प त ारा पकड़े गये उस हाथीके कं धेपर जानक जी भी आ प ँ च ॥ १४१/२ ॥ ‘इसके बाद कमलनयनी सीता अपने प तके अ से ऊपरको उछलकर च मा और सूयके पास प ँ च गय । वहाँ मने देखा, वे अपने दोन हाथ से च मा और सूयको प छ रही ह—उनपर हाथ फे र रही ह* ॥ १५१/२ ॥ त ात् जसपर वे दोन राजकु मार और वशाललोचना सीताजी वराजमान थ , वह महान् गजराज ल ाके ऊपर आकर खड़ा हो गया॥ १६ ॥ ‘ फर मने देखा क आठ सफे द बैल से जुते ए एक रथपर आ ढ़ हो ककु कु लभूषण ीरामच जी ेत पु क माला और व धारण कये अपनी धमप ी सीता और भा◌इ ल णके साथ यहाँ पधारे ह॥ १७१/२ ॥ ‘इसके बाद दूसरी जगह मने देखा, स परा मी और बल- व मशाली पु षो म भगवान् ीराम अपनी प ी सीता और भा◌इ ल णके साथ सूयतु तेज ी द पु क वमानपर आ ढ़ हो उ र दशाको ल करके यहाँसे त ए ह॥ १८-१९१/२ ॥ ‘इस कार मने म भगवान् व ुके समान परा मी ीरामका उनक प ी सीता और भा◌इ ल णके साथ दशन कया॥ २०१/२ ॥ ‘ ीरामच जी महातेज ी ह। उ देवता, असुर, रा स तथा दूसरे लोग भी कदा प जीत नह सकते। ठीक उसी तरह, जैसे पापी मनु गलोकपर वजय नह पा सकते॥ २११/२ ॥ ‘मने रावणको भी सपनेम देखा था। वह मूड़ मुड़ाये तेलसे नहाकर लाल कपड़े पहने ए था। म दरा पीकर मतवाला हो रहा था तथा करवीरके फू ल क माला पहने ए था। इसी वेशभूषाम आज रावण पु क वमानसे पृ ीपर गर पड़ा था॥ २२-२३ ॥



‘एक



ी उस मु त-म क रावणको कह ख चे लये जा रही थी। उस समय मने फर देखा, रावणने काले कपड़े पहन रखे ह। वह गधे जुते ए रथसे या ा कर रहा था। लाल फू ल क माला और लाल च नसे वभू षत था। तेल पीता, हँ सता और नाचता था। पागल क तरह उसका च ा और इ याँ ाकु ल थ । वह गधेपर सवार हो शी तापूवक द णदशाक ओर जा रहा था॥ २४-२५ ॥ ‘तदन र मने फर देखा रा सराज रावण गधेसे नीचे भू मपर गर पड़ा है। उसका सर नीचेक ओर है (और पैर ऊपरक ओर) तथा वह भयसे मो हत हो रहा है॥ २६ ॥ ‘ फर वह भयातुर हो घबराकर सहसा उठा और मदसे व ल हो पागलके समान नंग-धडंग वेषम ब त-से दुवचन (गाली आ द) बकता आ आगे बढ़ गया। सामने ही दुग यु दु:सह घोर अ कारपूण और नरकतु मलका प था, रावण उसीम घुसा और वह डू ब गया॥ २७-२८ ॥ ‘तदन र फर देखा, रावण द णक ओर जा रहा है। उसने एक ऐसे तालाबम वेश कया है, जसम क चड़का नाम नह है। वहाँ एक काले रंगक ी है, जसके अंग म क चड़ लपटी ◌इ है। वह युवती लाल व पहने ए है और रावणका गला बाँधकर उसे द णदशाक ओर ख च रही है। वहाँ महाबली कु कणको भी मने इसी अव ाम देखा है॥ ‘रावणके सभी पु भी मूड़ मुड़ाये और तेलम नहाये दखायी दये ह। यह भी देखनेम आया क रावण सूअरपर, इ जत् सूँसपर और कु कण ऊँ टपर सवार हो द ण- दशाको गये ह॥ ३११/२ ॥ ‘रा स म एकमा वभीषण ही ऐसे ह, ज मने वहाँ ेत छ लगाये, सफे द माला पहने, ेत व धारण कये तथा ेत च न और अंगराग लगाये देखा है॥ ३२१/२ ॥ ‘उनके पास श न हो रही थी, नगाड़े बजाये जा रहे थे। इनके ग ीर घोषके साथ ही नृ और गीत भी हो रहे थे, जो वभीषणक शोभा बढ़ा रहे थे। वभीषण वहाँ अपने चार म य के साथ पवतके समान वशालकाय मेघके समान ग ीर श करनेवाले तथा चार दाँत वाले द गजराजपर आ ढ़ हो आकाशम खड़े थे॥ ३३—३५ ॥ ‘यह भी देखनेम आया क तेल पीनेवाले तथा लाल माला और लाल व धारण करनेवाले रा स का वहाँ ब त बड़ा समाज जुटा आ है एवं गीत और वा क मधुर न हो रही है॥ ३६ ॥



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रमणीय ल ापुरी घोड़े, रथ और हा थय स हत समु म गरी ◌इ देखी गयी है। इसके बाहरी और भीतरी दरवाजे टूट गये ह॥ ३७ ॥ ‘मने म देखा है क रावण ारा सुर त ल ापुरीको ीरामच जीका दूत बनकर आये ए एक वेगशाली वानरने जलाकर भ कर दया है॥ ३८ ॥ ‘राखसे खी ◌इ ल ाम सारी रा सरम णयाँ तेल पीकर मतवाली हो बड़े जोर-जोरसे ठहाका मारकर हँ सती ह॥ ३९ ॥ ‘कु कण आ द ये सम रा स शरोम ण वीर लाल कपड़े पहनकर गोबरके कु म घुस गये ह॥ ४० ॥ ‘अत: अब तुमलोग हट जाओ और देखो क कस तरह ीरघुनाथजी सीताको ा कर रहे ह। वे बड़े अमषशील ह, रा स के साथ तुम सबको भी मरवा डालगे॥ ४१ ॥ ‘ ज ने वनवासम भी उनका साथ दया है, उन अपनी प त ता भाया और परमादरणीया यतमा सीताका इस तरह धमकाया और डराया जाना ीरघुनाथजी कदा प सहन नह करगे॥ ४२ ॥ ‘अत: अब इस तरह कठोर बात सुनाना छोड़ो; क इनसे को◌इ लाभ नह होगा। अब तो मधुर वचनका ही योग करो। मुझे तो यही अ ा लगता है क हमलोग वदेहन नी सीतासे कृ पा और माक याचना कर॥ ४३ ॥ ‘ जस दु: खनी नारीके वषयम ऐसा देखा जाता है, वह ब सं क दु:ख से छु टकारा पाकर परम उ म य व ु ा कर लेती है॥ ४४ ॥ ‘रा सयो! म जानती ँ , तु कु छ और कहने या बोलनेक इ ा है; कतु इससे ा होगा? य प तुमने सीताको ब त धमकाया है तो भी इनक शरणम आकर इनसे अभयक याचना करो; क ीरघुनाथजीक ओरसे रा स के लये घोर भय उप त आ है॥ ४५ ॥ ‘रा सयो! जनकन नी म थलेशकु मारी सीता के वल णाम करनेसे ही स हो जायँगी। ये ही उस महान् भयसे तु ारी र ा करनेम समथ ह॥ ४६ ॥ ‘इन वशाललोचना सीताके अंग म मुझे को◌इ सू -से-सू भी वपरीत ल ण नह दखायी देता ( जससे समझा जाय क ये सदा क म ही रहगी)॥ ४७ ॥



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तो समझती ँ क इ जो वतमान दु:ख ा आ है, वह हणके समय च मापर पड़ी ◌इ छायाके समान थोड़ी ही देरका है; क ये देवी सीता मुझे म वमानपर बैठी दखायी दी ह, अत: ये दु:ख भोगनेके यो कदा प नह ह॥ ४८ ॥ ‘मुझे तो अब जानक जीके अभी मनोरथक स उप त दखायी देती है। रा सराज रावणके वनाश और रघुनाथजीक वजयम अब अ धक वल नह है॥ ४९ ॥ ‘कमलदलके समान इनका वशाल बायाँ ने फड़कता दखायी देता है। यह इस बातका सूचक है क इ शी ही अ य संवाद सुननेको मलेगा॥ ‘इन उदार दया वदेहराजकु मारीक एक बाय बाँह कु छ रोमा त होकर सहसा काँपने लगी है (यह भी शुभका ही सूचक है)॥ ५१ ॥ ‘हाथीक सूँड़के समान जो इनक परम उ म बाय जाँघ है, वह भी क त होकर मानो यह सू चत कर रही है क अब ीरघुनाथजी शी ही तु ारे सामने उप त ह गे॥ ५२ ॥ ‘देखो, सामने यह प ी शाखाके ऊपर अपने घ सलेम बैठकर बार ार उ म सा नापूण मीठी बोली बोल रहा है। इसक वाणीसे ‘सु ागतम्’ क न नकल रही है और इसके ारा यह हषम भरकर मानो पुन:-पुन: मंगल ा प्तक सूचना दे रहा है अथवा आनेवाले यतमक अगवानीके लये े रत कर रहा है’॥ ५३ ॥ इस कार प तदेवक वजयके संवादसे हषम भरी ◌इ लजीली सीता उन सबसे बोल —‘य द तु ारी बात ठीक ◌इ तो म अव ही तुम सबक र ा क ँ गी’॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म स ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २७ ॥ * जो



ी या पु ष म अपने दोन हाथ से सूयम ल अथवा च म लको छू लेता है, उसे वशाल रा क ा होती है। जैसा क ा ायका वचन है— आ द म लं वा प च म लमेव वा। े गृ ा त ह ा ां रा स ा ुया हत्॥



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राज वर चत रामायणभूषण)



अ ा◌इसवाँ सग वलाप करती ◌इ सीताका ाण- ागके लये उ त होना



प तके वरहके दु:खसे ाकु ल ◌इ सीता रा सराज रावणके उन अ य वचन को याद करके उसी तरह भयभीत हो गय , जैसे वनम सहके पंजेम पड़ी ◌इ को◌इ गजराजक ब ी॥ १॥ रा सय के बीचम बैठकर उनके कठोर वचन से बार ार धमकायी और रावण ारा फटकारी गयी भी भाववाली सीता नजन एवं बीहड़ वनम अके ली छू टी ◌इ अ वय ा बा लकाके समान वलाप करने लग ॥ २ ॥ वे बोल —‘संतजन लोकम यह बात ठीक ही कहते ह क बना समय आये कसीक मृ ु नह होती, तभी तो इस कार धमकायी जानेपर भी म पु हीना नारी णभर भी जी वत रह पाती ँ ॥ ३ ॥ ‘मेरा यह दय सुखसे र हत और अनेक कारके दु:ख से भरा होनेपर भी न य ही अ ढ़ है। इसी लये व के मारे ए पवत शखरक भाँ त आज इसके सह टुकड़े नह हो जाते॥ ४॥ ‘म इस दु रावणके हाथसे मारी जानेवाली ँ , इस लये यहाँ आ घात करनेसे भी मुझे को◌इ दोष नह लग सकता। कु छ भी हो, जैसे ज कसी शू को वेदम का उपदेश नह देता, उसी कार म भी इस नशाचरको अपने दयका अनुराग नह दे सकती॥ ५ ॥ ‘हाय! लोकनाथ भगवान् ीरामके आनेसे पहले ही यह दु रा सराज न य ही अपने तीखे श से मेरे अंग के शी ही टुकड़े-टुकड़े कर डालेगा। ठीक वैसे ही, जैसे श च क क कसी वशेष अव ाम गभ शशुके टूक-टूक कर देता है (अथवा जैसे इ ने द तके गभम त शशुके उनचास टुकड़े कर डाले थे)॥ ६ ॥ ‘म बड़ी दु: खया ँ । दु:खक बात है क मेरी अव धके ये दो महीने भी ज ी ही समा हो जायँगे। राजाके कारागारम कै द ए और रा के अ म फाँसीक सजा पानेवाले अपराधी चोरक जो दशा होती है, वही मेरी भी है॥ ७ ॥



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राम! हा ल ण! हा सु म े! हा ीरामजननी कौस !े और हा मेरी माताओ! जस कार बवंडरम पड़ी ◌इ नौका महासागरम डू ब जाती है, उसी कार आज म म भा गनी सीता ाणस टक दशाम पड़ी ◌इ ँ ॥ ८ ॥ ‘ न य ही उस मृग पधारी जीवने मेरे कारण उन दोन वेगशाली राजकु मार को मार डाला होगा। जैसे दो े सह बजलीसे मार दये जायँ, वही दशा उन दोन भाइय क ◌इ होगी॥ ९॥ ‘अव ही उस समय कालने ही मृगका प धारण करके मुझ म भा गनीको लुभाया था, जससे भा वत हो मुझ मूढ़ नारीने उन दोन आयपु — ीराम और ल णको उसके पीछे भेज दया था॥ १० ॥ ‘हा स तधारी महाबा ीराम! हा पूण च माके समान मनोहर मुखवाले रघुन न! हा जीवजग े हतैषी और यतम! आपको पता नह है क म रा स के हाथसे मारी जानेवाली ँ ॥ ११ ॥ ‘मेरी यह अन ोपासना, मा, भू मशयन, धमस ी नयम का पालन और प त तपरायणता— ये सब-के -सब कृ त के त कये गये मनु के उपकारक भाँ त न ल हो गये॥ १२ ॥ ‘ भो! य द म अ कृ श और का हीन होकर आपसे बछु ड़ी ही रह गयी तथा आपसे मलनेक आशा खो बैठी, तब तो मने जसका जीवनभर आचरण कया है, वह धम मेरे लये थ हो गया और यह एकप ी त भी कसी काम नह आया॥ १३ ॥ ‘म तो समझती ँ आप नयमानुसार पताक आ ाका पालन करके अपने तको पूण करनेके प ात् जब वनसे लौटगे, तब नभय एवं सफलमनोरथ हो वशाल ने वाली ब त-सी सु रय के साथ ववाह करके उनके साथ रमण करगे॥ १४ ॥ ‘ कतु ीराम! म तो के वल आपम ही अनुराग रखती ँ । मेरा दय चरकालतक आपसे ही बँधा रहेगा। म अपने वनाशके लये ही आपसे ेम करती ँ । अबतक मने तप और त आ द जो कु छ भी कया है, वह मेरे लये थ स आ है। उस अभी फलको न देनेवाले धमका आचरण करके अब मुझे अपने ाण का प र ाग करना पड़ेगा। अत: मुझ म भा गनीको ध ार है॥ १५ ॥



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शी ही कसी तीखे श अथवा वषसे अपने ाण ाग दूँगी; परंतु इस रा सके यहाँ मुझे को◌इ वष या श देनेवाला भी नह है’॥ १६ ॥ शोकसे संत ◌इ सीताने इसी कार ब त कु छ वचार करके अपनी चोटीको पकड़कर न य कया क म शी ही इस चोटीसे फाँसी लगाकर यमलोकम प ँ च जाऊँ गी॥ १७ ॥ सीताजीके सभी अंग बड़े कोमल थे। वे उस अशोक-वृ के नकट उसक शाखा पकड़कर खड़ी हो गय । इस कार ाण- ागके लये उ त हो जब वे ीराम, ल ण और अपने कु लके वषयम वचार करने लग , उस समय शुभांगी सीताके सम ऐसे ब त-से लोक स े शकु न कट ए, जो शोकक नवृ करनेवाले और उ ढाढ़स बँधानेवाले थे। उन शकु न का दशन और उनके शुभ फल का अनुभव उ पहले भी हो चुका था॥ १८-१९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म अ ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २८ ॥



उनतीसवाँ सग सीताजीके शुभ शकुन



इस कार अशोकवृ के नीचे आनेपर ब त-से शुभ शकु न कट हो उन थत दया, सती-सा ी, हषशू , दीन च तथा शुभल णा सीताका उसी तरह सेवन करने लगे, जैसे ीस पु षके पास सेवा करनेवाले लोग यं प ँ च जाते ह॥ १ ॥ उस समय सु र के श वाली सीताका बाँक बरौ नय से घरा आ परम मनोहर काला, ेत और वशाल बायाँ ने फड़कने लगा। जैसे मछलीके आघातसे लाल कमल हलने लगा हो॥ २ ॥ साथ ही उनक सु र शं सत गोलाकार मोटी, ब मू काले अगु और च नसे च चत होनेयो तथा परम उ म यतम ारा चरकालसे से वत बाय भुजा भी त ाल फड़क उठी॥ ३॥ फर उनक पर र जुड़ी ◌इ दोन जाँघ मसे एक बाय जाँघ, जो गजराजक सूँड़के समान पीन (मोटी) थी, बार ार फड़ककर मानो यह सूचना देने लगी क भगवान् ीराम तु ारे सामने खड़े ह॥ ४ ॥ त ात् अनारके बीजक भाँ त सु र दाँत, मनोहर गा और अनुपम ने वाली सीताका, जो वहाँ वृ के नीचे खड़ी थ , सोनेके समान रंगवाला क चत् म लन रेशमी पीता र त नक†सा खसक गया और भावी शुभक सूचना देने लगा॥ ५ ॥ इनसे तथा और भी अनेक शकु न से, जनके ारा पहले भी मनोरथ स का प रचय मल चुका था, े रत ◌इ सु र भ ह वाली सीता उसी कार हषसे खल उठ , जैसे हवा और धूपसे सूखकर न आ बीज वषाके जलसे सचकर हरा हो गया हो॥ ६ ॥ उनका ब फलके समान लाल ओठ , सु र ने , मनोहर भ ह , चर के श , बाँक बरौ नय तथा ेत, उ ल दाँत से सुशो भत मुख रा के ाससे मु ए च माक भाँ त का शत होने लगा॥ ७ ॥ उनका शोक जाता रहा, सारी थकावट दूर हो गयी, मनका ताप शा हो गया और दय हषसे खल उठा। उस समय आया सीता शु प म उ दत ए शीतर च मासे सुशो भत



रा क भाँ त अपने मनोहर मुखसे अ तु शोभा पाने लग ॥ ८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म उनतीसवाँ सग पूरा आ॥ २९ ॥



तीसवाँ सग सीताजीसे वातालाप करनेके वषयम हनुमा ीका वचार करना



परा मी हनुमा ीने भी सीताजीका वलाप, जटाक चचा तथा रा सय क डाँट-डपट—ये सब संग ठीक-ठीक सुन लये॥ १ ॥ सीताजी ऐसी जान पड़ती थ मानो न नवनम को◌इ देवी ह । उ देखते ए वानरवीर हनुमा ी तरह-तरहक च ा करने लगे—॥ २ ॥ ‘ जन सीताजीको हजार -लाख वानर सम दशा म ढूँ ढ़ रहे ह, आज उ मने पा लया॥ ३ ॥ ‘म ामी ारा नयु दूत बनकर गु पसे श ुक श का पता लगा रहा था। इसी सल सलेम मने रा स के तारत का, इस पुरीका तथा इस रा सराज रावणके भावका भी नरी ण कर लया॥ ४-५ ॥ ‘ ीसीताजी असीम भावशाली तथा सब जीव पर दया करनेवाले भगवान् ीरामक भाया ह। ये अपने प तदेवका दशन पानेक अ भलाषा रखती ह, अत: इ सा ना देना उ चत है॥ ६ ॥ ‘इनका मुख पूणच माके समान मनोहर है। इ ने पहले कभी ऐसा दु:ख नह देखा था, परंतु इस समय दु:खका पार नह पा रही ह। अत: म इ आ ासन दूँगा॥ ७ ॥ ‘ये शोकके कारण अचेत-सी हो रही ह, य द म इन सती-सा ी सीताको सा ना दये बना ही चला जाऊँ गा तो मेरा वह जाना दोषयु होगा॥ ८ ॥ ‘मेरे चले जानेपर अपनी र ाका को◌इ उपाय न देखकर ये यश नी राजकु मारी जानक अपने जीवनका अ कर दगी॥ ९ ॥ ‘पूणच माके समान मनोहर मुखवाले महाबा ीरामच जी भी सीताजीके दशनके लये उ ुक ह। जस कार उ सीताका संदेश सुनाकर सा ना देना उ चत है, उसी कार सीताको भी उनका संदेश सुनाकर आ ासन देना उ चत होगा॥ १० ॥ ‘परंतु रा सय के सामने इनसे बात करना मेरे लये ठीक नह होगा। ऐसी अव ाम यह काय कै से स करना चा हये, यही न य करना मेरे लये सबसे बड़ी क ठना◌इ है॥ ११ ॥



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इस रा के बीतते-बीतते म सीताको सा ना नह दे देता ँ तो ये सवथा अपने जीवनका प र ाग कर दगी, इसम संदेह नह है॥ १२ ॥ ‘य द ीरामच जी मुझसे पूछ क सीताने मेरे लये ा संदेश भेजा है तो इन सुम मा सीतासे बात कये बना म उ ा उ र दूँगा॥ १३ ॥ ‘य द म सीताका संदेश लये बना ही यहाँसे तुरंत लौट गया तो ककु कु लभूषण भगवान् ीराम अपनी ोधभरी दु:सह ष्टसे मुझे जलाकर भ कर डालगे॥ १४ ॥ ‘य द म इ सा ना दये बना ही लौट जाऊँ और ीरामच जीके कायक स के लये अपने ामी वानरराज सु ीवको उ े जत क ँ तो वानरसेनाके साथ उनका यहाँतक आना थ हो जायगा ( क सीता इसके पहले ही अपने ाण ाग दगी)॥ १५ ॥ ‘अ ा तो रा सय के रहते ए ही अवसर पाकर आज म यह बैठे-बैठे इ धीरे-धीरे सा ना दूँगा; क इनके मनम बड़ा संताप है॥ १६ ॥ ‘एक तो मेरा शरीर अ सू है, दूसरे म वानर ँ । वशेषत: वानर होकर भी म यहाँ मानवो चत सं ृ त-भाषाम बोलूँगा॥ १७ ॥ ‘परंतु ऐसा करनेम एक बाधा है, य द म जक भाँ त सं ृ त-वाणीका योग क ँ गा तो सीता मुझे रावण समझकर भयभीत हो जायँगी॥ १८ ॥ ‘ऐसी दशाम अव ही मुझे उस साथक भाषाका योग करना चा हये, जसे अयो ाके आस-पासक साधारण जनता बोलती है, अ था इन सती-सा ी सीताको म उ चत आ ासन नह दे सकता॥ १९ ॥ ‘य द म सामने जाऊँ तो मेरे इस वानर पको देखकर और मेरे मुखसे मानवो चत भाषा सुनकर ये जनकन नी सीता, ज पहलेसे ही रा स ने भयभीत कर रखा है और भी डर जायँगी॥ २० ॥ ‘मनम भय उ हो जानेपर ये वशाललोचना मन नी सीता मुझे इ ानुसार प धारण करनेवाला रावण समझकर जोर-जोरसे चीखने- च ाने लगगी॥ ‘सीताके च ानेपर ये यमराजके समान भयानक रा सयाँ तरह-तरहके ह थयार लेकर सहसा आ धमकगी॥



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र ये वकट मुखवाली महाबलवती रा सयाँ मुझे सब ओरसे घेरकर मारने या पकड़ लेनेका य करगी॥ २३ ॥ ‘ फर मुझे बड़े-बड़े वृ क शाखा- शाखा और मोटी-मोटी डा लय पर दौड़ता देख ये सब-क -सब सश हो उठगी॥ २४ ॥ ‘वनम वचरते ए मेरे इस वशाल पको देखकर रा सयाँ भी भयभीत हो बुरी तरहसे च ाने लगगी॥ ‘इसके बाद वे नशाच रयाँ रा सराज रावणके महलम उसके ारा नयु कये गये रा स को बुला लगी॥ २६ ॥ ‘इस हलचलम वे रा स भी उ होकर शूल, बाण, तलवार और तरह-तरहके श ा लेकर बड़े वेगसे आ धमकगे॥ २७ ॥ ‘उनके ारा सब ओरसे घर जानेपर म रा स क सेनाका संहार तो कर सकता ँ ; परंतु समु के उस पार नह प ँ च सकता॥ २८ ॥ ‘य द ब त-से फु त ले रा स मुझे घेरकर पकड़ ल तो सीताजीका मनोरथ भी पूरा नह होगा और म भी बंदी बना लया जाऊँ गा॥ २९ ॥ ‘इसके सवा हसाम च रखनेवाले रा स य द इन जनकदुलारीको मार डाल तो ीरघुनाथजी और सु ीवका यह सीताक ा प्त प अभी काय ही न हो जायगा॥ ३० ॥ ‘यह ान रा स से घरा आ है। यहाँ आनेका माग दूसर का देखा या जाना आ नह है तथा इस देशको समु ने चार ओरसे घेर रखा है। ऐसे गु ानम जानक जी नवास करती ह॥ ३१ ॥ ‘य द रा स ने मुझे सं ामम मार दया या पकड़ लया तो फर ीरघुनाथजीके कायको पूण करनेके लये को◌इ दूसरा सहायक भी म नह देख रहा ँ ॥ ‘ब त वचार करनेपर भी मुझे ऐसा को◌इ वानर नह दखायी देता है, जो मेरे मारे जानेपर सौ योजन व ृत महासागरको लाँघ सके ॥ ३३ ॥ ‘म इ ानुसार सह रा स को मार डालनेम समथ ँ ; परंतु यु म फँ स जानेपर महासागरके उस पार नह जा सकूँ गा॥ ३४ ॥



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अ न या क होता है (उसम कस प क वजय होगी, यह न त नह रहता) और मुझे संशययु काय य नह है। कौन ऐसा बु मान् होगा, जो संशयर हत कायको संशययु बनाना चाहेगा॥ ३५ ॥ ‘सीताजीसे बातचीत करनेम मुझे यही महान् दोष तीत होता है और य द बातचीत नह करता ँ तो वदेहन नी सीताका ाण ाग भी न त ही है॥ ३६ ॥ अ ववेक या असावधान दूतके हाथम पड़नेपर बने-बनाये काम भी देश-कालके वरोधी होकर उसी कार असफल हो जाते ह, जैसे सूयके उदय होनेपर सब ओर फै ले ए अ कारका को◌इ वश नह चलता, वह न ल हो जाता है॥ ३७ ॥ ‘कत और अकत के वषयम ामीक न त बु भी अ ववेक दूतके कारण शोभा नह पाती है; क अपनेको बड़ा बु मान् या प त समझनेवाले दूत अपनी ही नासमझीसे कायको न कर डालते ह॥ ३८ ॥ ‘ फर कस कार यह काम न बगड़े, कस तरह मुझसे को◌इ असावधानी न हो, कस कार मेरा समु लाँघना थ न हो जाय और कस तरह सीताजी मेरी सारी बात सुन ल, कतु घबराहटम न पड़—इन सब बात पर वचार करके बु मान् हनुमा ीने यह न य कया॥ ३९-४० ॥ ‘ जनका च अपने जीवन-ब ु ीरामम ही लगा है, उन सीताजीको म उनके यतम ीरामका जो अनायास ही महान् कम करनेवाले ह, गुण गा-गाकर सुनाऊँ गा और उ उ नह होने दूँगा॥ ४१ ॥ ‘म इ ाकु कु लभूषण व दता ा भगवान् ीरामके सु र, धमानुकूल वचन को सुनाता आ यह बैठा र ँ गा॥ ‘मीठी वाणी बोलकर ीरामके सारे संदेश को इस कार सुनाऊँ गा, जससे सीताका उन वचन पर व ास हो। जस तरह उनके मनका संदेह दूर हो, उसी तरह म सब बात का समाधान क ँ गा’॥ ४३ ॥ इस कार भाँ त-भाँ तसे वचार करके अशोक-वृ क शाखा म छपकर बैठे ए महा भावशाली हनुमा ी पृ ीप त ीरामच जीक भायाक ओर देखते ए मधुर एवं यथाथ बात कहने लगे॥ ४४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३० ॥



इकतीसवाँ सग हनुमा ीका सीताको सुनानेके लये ीराम-कथाका वणन करना



इस कार ब त-सी बात सोच- वचारकर महाम त हनुमा ीने सीताको सुनाते ए मधुर वाणीम इस तरह कहना आर कया—॥ १ ॥ ‘इ ाकु वंशम राजा दशरथ नामसे स एक पु ा ा राजा हो गये ह। वे अ क तमान् और महान् यश ी थे। उनके यहाँ रथ, हाथी और घोड़े ब त अ धक थे॥ २ ॥ ‘उन े नरेशम राज षय के समान गुण थे। तप ाम भी वे ऋ षय क समानता करते थे। उनका ज च वत नरेश के कु लम आ था। वे देवराज इ के समान बलवान् थे॥ ३ ॥ ‘उनके मनम अ हसा-धमके त बड़ा अनुराग था। उनम ु ताका नाम नह था। वे दयालु, स -परा मी और े इ ाकु वंशक शोभा बढ़ानेवाले थे। वे ल ीवान् नरेश राजो चत ल ण से यु , प रपु शोभासे स और भूपाल म े थे। चार समु जसक सीमा ह, उस स ूण भूम लम सब ओर उनक बड़ी ा त थी। वे यं तो सुखी थे ही। दूसर को भी सुख देनेवाले थे॥ ४-५ ॥ ‘उनके े पु ीराम-नामसे स ह। वे पताके लाड़ले, च माके समान मनोहर मुखवाले, स ूण धनुधा रय म े और श - व ाके वशेष ह॥ ६ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले ीराम अपने सदाचारके , जन के , इस जीव-जग े तथा धमके भी र क ह॥ ७ ॥ ‘उनके बूढ़े पता महाराज दशरथ बड़े स त थे। उनक आ ासे वीर ीरघुनाथजी अपनी प ी और भा◌इ ल णके साथ वनम चले आये॥ ८ ॥ ‘वहाँ वशाल वनम शकार खेलते ए ीरामने इ ानुसार प धारण करनेवाले ब त-से शूरवीर रा स का वध कर डाला॥ ९ ॥ ‘उनके ारा जन ानके व ंस और खर-दूषणके वधका समाचार सुनकर रावणने अमषवश जनकन नी सीताका अपहरण कर लया॥ १० ॥ ‘पहले तो उस रा सने मायासे मृग बने ए मारीचके ारा वनम ीरामच जीको धोखा दया और यं जानक जीको हर ले गया। भगवान् ीराम परम सा ी सीतादेवीक खोज करते



ए मतंग-वनम आकर सु ीव नामक वानरसे मले और उनके साथ उ ने मै ी ा पत कर ली॥ १११/२ ॥ ‘तदन र श -ु नगरीपर वजय पानेवाले ीरामने वालीका वध करके वानर का रा महा ा सु ीवको दे दया॥ १२१/२ ॥ ‘त ात् वानरराज सु ीवक आ ासे इ ानुसार प धारण करनेवाले हजार वानर सीतादेवीका पता लगानेके लये स ूण दशा म नकले ह॥ १३१/२ ॥ ‘उ मसे एक म भी ँ । म स ा तके कहनेसे वशाललोचना वदेहन नीक खोजके लये सौ योजन व ृत समु को वेगपूवक लाँघकर यहाँ आया ँ ॥ १४१/२ ॥ ‘मने ीरघुनाथजीके मुखसे जानक जीका जैसा प, जैसा रंग तथा जैसे ल ण सुने थे, उनके अनु प ही इ पाया है।’ इतना ही कहकर वानर शरोम ण हनुमा ी चुप हो गये॥ १५-१६ ॥ उनक बात सुनकर जनकन नी सीताको बड़ा व य आ। उनके के श घुँघराले और बड़े ही सु र थे। भी सीताने के श से ढके ए अपने मुँहको ऊपर उठाकर उस अशोक-वृ क ओर देखा॥ १७ ॥ क पके वचन सुनकर सीताको बड़ी स ता ◌इ। वे स ूण वृ य से भगवान् ीरामका रण करती ◌इ सम दशा म ष्ट दौड़ाने लग ॥ १८ ॥ उ ने ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर ष्टपात करके उन अ च बु वाले पवनपु हनुमा ो, जो वानरराज सु ीवके म ी थे, उदयाचलपर वराजमान सूयके समान देखा॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म इकतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३१ ॥



ब ीसवाँ सग सीताजीका तक- वतक



तब शाखाके भीतर छपे ए, व ु ु के समान अ पगल वणवाले और ेत व धारी हनुमा ीपर उनक ष्ट पड़ी। फर तो उनका च च ल हो उठा। उ ने देखा, फू ले ए अशोकके समान अ ण का से का शत एक वनीत और यवादी वानर डा लय के बीचम बैठा है। उसके ने तपाये ए सुवणके समान चमक रहे ह॥ १-२ ॥ वनीतभावसे बैठे ए वानर े हनुमा ीको देखकर म थलेशकु मारीको बड़ा आ य आ। वे मन-ही-मन सोचने लग —॥ ३ ॥ ‘अहो! वानरयो नका यह जीव तो बड़ा ही भयंकर है। इसे पकड़ना ब त ही क ठन है। इसक ओर तो आँ ख उठाकर देखनेका भी साहस नह होता।’ ऐसा वचारकर वे पुन: भयसे मू त-सी हो गय ॥ ४ ॥ भयसे मो हत ◌इ भा मनी सीता अ क णाजनक रम ‘हा राम! हा राम! हा ल ण!’ ऐसा कहकर दु:खसे आतुर हो अ वलाप करने लग ॥ ५ ॥ उस समय सीता म रम सहसा रो पड़ । इतनेहीम उ ने देखा, वह े वानर बड़ी वनयके साथ नकट आ बैठा है। तब भा मनी म थलेशकु मारीने सोचा—‘यह को◌इ तो नह है’॥ ६ ॥ उधर ष्टपात करते ए उ ने वानरराज सु ीवके आ ापालक वशाल और टेढ़े मुखवाले परम आदरणीय, बु मान म े , वानर वर पवनपु हनुमा ीको देखा॥ ७ ॥ उ देखते ही सीताजी अ थत होकर ऐसी दशाको प ँ च गय , मानो उनके ाण नकल गये ह । फर बड़ी देरम चेत होनेपर वशाललोचना वदेह-राजकु मारीने इस कार वचार कया—॥ ८ ॥ ‘आज मने यह बड़ा बुरा देखा है। सपनेम वानरको देखना शा ने न ष बताया है। मेरी भगवा े ाथना है क ीराम, ल ण और मेरे पता जनकका मंगल हो (उनपर इस दु: का भाव न पड़े)॥ ९ ॥



‘परंतु यह



तो हो नह सकता; क शोक और दु:खसे पी ड़त रहनेके कारण मुझे कभी न द आती ही नह है (न द उसे आती है, जसे सुख हो)। मुझे तो उन पूणच के समान मुखवाले ीरघुनाथजीसे बछु ड़ जानेके कारण अब सुख सुलभ ही नह है॥ १० ॥ ‘म बु से सवदा ‘राम! राम!’ ऐसा च न करके वाणी ारा भी राम-नामका ही उ ारण करती रहती ँ ; अत: उस वचारके अनु प वैसे ही अथवाली यह कथा देख और सुन रही ँ ॥ ११ ॥ ‘मेरा



दय सवदा ीरघुनाथम ही लगा आ है; अत: ीराम-दशनक लालसासे अ पी ड़त हो सदा उ का च न करती ◌इ उ को देखती और उ क कथा सुनती ँ ॥ १२ ॥ ‘सोचती ँ क स व है यह मेरे मनक ही को◌इ भावना हो तथा प बु से भी तकवतक करती ँ क यह जो कु छ दखायी देता है, इसका ा कारण है? मनोरथ या मनक भावनाका को◌इ ूल प नह होता; परंतु इस वानरका प तो दखायी दे रहा है और यह मुझसे बातचीत भी करता है॥ १३ ॥ ‘म वाणीके ामी बृह तको, व धारी इ को, य ू ाजीको तथा वाणीके अ ध ातृ-देवता अ को भी नम ार करती ँ । इस वनवासी वानरने मेरे सामने यह जो कु छ कहा है, वह सब स हो, उसम कु छ भी अ था न हो’॥ १४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म ब ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३२ ॥



ततीसवाँ सग सीताजीका हनुमा ीको अपना प रचय देते ए अपने वनगमन और अपहरणका वृ ा बताना



उधर मूँगेके समान लाल मुखवाले महातेज ी पवनकु मार हनुमा ीने उस अशोक-वृ से नीचे उतरकर माथेपर अ ल बाँध ली और वनीतभावसे दीनतापूवक नकट आकर णाम करनेके अन र सीताजीसे मधुर वाणीम कहा—॥ १-२ ॥ ‘ फु कमलदलके समान वशाल ने वाली दे व! यह म लन रेशमी पीता र धारण कये आप कौन ह? अ न ते! इस वृ क शाखाका सहारा लये आप यहाँ खड़ी ह? कमलके प से झरते ए जल- ब ु के समान आपक आँ ख से ये शोकके आँ सू गर रहे ह॥ ३-४ ॥ ‘शोभने! आप देवता, असुर, नाग, ग व, रा स, य , क र, , म ण अथवा वसु मसे कौन ह? इनमसे कसक क ा अथवा प ी ह? सुमु ख! वरारोहे! मुझे तो आप को◌इ देवता-सी जान पड़ती ह॥ ५-६ ॥ ‘ ा आप च मासे बछु ड़कर देवलोकसे गरी ◌इ न म े और गुण म सबसे बढ़ी-चढ़ी रो हणी देवी ह?॥ ७ ॥ ‘अथवा कजरारे ने वाली दे व! आप कोप या मोहसे अपने प त व स जीको कु पत करके यहाँ आयी ◌इ क ाण पा सती शरोम ण अ ती तो नह ह॥ ८ ॥ ‘सुम मे! आपका पु , पता, भा◌इ अथवा प त कौन इस लोकसे चलकर परलोकवासी हो गया है, जसके लये आप शोक करती ह॥ ९ ॥ ‘रोने, ल ी साँस ख चने तथा पृ ीका श करनेके कारण म आपको देवी नह मानता। आप बार ार कसी राजाका नाम ले रही ह तथा आपके च और ल ण जैसे दखायी देते ह, उन सबपर ष्टपात करनेसे यही अनुमान होता है क आप कसी राजाक महारानी तथा कसी नरेशक क ा ह॥ १०-११ ॥ ‘रावण जन ानसे ज बलपूवक हर लाया था, वे सीताजी ही य द आप ह तो आपका क ाण हो। आप ठीक-ठीक मुझे बताइये। म आपके वषयम जानना चाहता ँ ॥ १२ ॥



‘दु:खके



कारण आपम जैसी दीनता आ गयी है, जैसा आपका अलौ कक प है तथा जैसा तप नीका-सा वेष है, इन सबके ारा न य ही आप ीरामच जीक महारानी जान पड़ती ह’॥ १३ ॥ हनुमा ीक बात सुनकर वदेहन नी सीता ीरामच जीक चचासे ब त स थ ; अत: वृ का सहारा लये खड़े ए उन पवनकु मारसे इस कार बोल ॥ ‘क पवर! जो भूम लके े राजा म धान थे, जनक सव स थी तथा जो श ु क सेनाका संहार करनेम समथ थे, उन महाराज दशरथक म पु वधू ँ , वदेहराज महा ा जनकक पु ी ँ और परम बु मान् भगवान् ीरामक धमप ी ँ । मेरा नाम सीता है॥ १५-१६ ॥ ‘अयो ाम ीरघुनाथजीके अ :पुरम बारह वष तक म सब कारके मानवीय भोग भोगती रही और मेरी सारी अ भलाषाएँ सदैव पूण होती रह ॥ १७ ॥ ‘तदन र तेरहव वषम महाराज दशरथने राजगु व स जीके साथ इ ाकु कु लभूषण भगवान् ीरामके रा ा भषेकक तैयारी आर क ॥ १८ ॥ ‘जब वे ीरघुनाथजीके अ भषेकके लये आव क साम ीका सं ह कर रहे थे, उस समय उनक कै के यी नामवाली भायाने प तसे इस कार कहा—॥ १९ ॥ ‘अब न तो म जलपान क ँ गी और न त दनका भोजन ही हण क ँ गी। य द ीरामका रा ा भषेक आ तो यही मेरे जीवनका अ होगा॥ २० ॥ ‘नृप े ! आपने स तापूवक मुझे जो वचन दया है, उसे य द अस नह करना है तो ीराम वनको चले जायँ’॥ २१ ॥ ‘महाराज दशरथ बड़े स वादी थे। उ ने कै के यी देवीको दो वर देनेके लये कहा था। उस वरदानका रण करके कै के यीके ू र एवं अ य वचनको सुनकर वे मू त हो गये॥ २२ ॥ ‘तदन



र स धमम त ए बूढ़े महाराजने अपने यश ी े पु ीरघुनाथजीसे भरतके लये रा माँगा॥ २३ ॥ ‘ ीमान् रामको पताके वचन रा ा भषेकसे भी बढ़कर य थे। इस लये उ ने पहले उन वचन को मनसे हण कया, फर वाणीसे भी ीकार कर लया॥ २४ ॥



‘स -परा



मी भगवान् ीराम के वल देते ह, लेते नह । वे सदा स बोलते ह, अपने ाण क र ाके लये भी कभी झूठ नह बोल सकते॥ २५ ॥ ‘उन महायश ी ीरघुनाथजीने ब मू उ रीय व उतार दये और मनसे रा का ाग करके मुझे अपनी माताके हवाले कर दया॥ २६ ॥ ‘ कतु म तुरंत ही उनके आगे-आगे वनक ओर चल दी; क उनके बना मुझे गम रहना अ ा नह लगता॥ २७ ॥ ‘अपने सु द को आन देनेवाले सु म ाकु मार महाभाग ल ण भी अपने बड़े भा◌इका अनुसरण करनेके लये उनसे भी पहले कु श तथा चीर-व धारण करके तैयार हो गये॥ २८ ॥ ‘इस कार हम तीन ने अपने ामी महाराज दशरथक आ ाको अ धक आदर देकर ढ़तापूवक उ म तका पालन करते ए उस सघन वनम वेश कया, जसे पहले कभी नह देखा था॥ २९ ॥ ‘वहाँ द कार म रहते समय उन अ मततेज ी भगवान् ीरामक भाया मुझ सीताको दुरा ा रा स रावण यहाँ हर लाया है॥ ३० ॥ ‘उसने अनु हपूवक मेरे जीवन-धारणके लये दो मासक अव ध न त कर दी है। उन दो महीन के बाद मुझे अपने ाण का प र ाग करना पड़ेगा’॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म ततीसवाँ सग पूरा आ॥ ३३ ॥



च तीसवाँ सग सीताजीका हनुमा ीके



त संदेह और उसका समाधान तथा हनुमा ीके ारा ीरामच जीके गुण का गान



दु:ख-पर-दु:ख उठानेके कारण पी ड़त ◌इ सीताका उपयु वचन सुनकर वानर शरोम ण हनुमा ीने उ सा ना देते ए कहा—॥ १ ॥ ‘दे व! म ीरामच जीका दूत ँ और आपके लये उनका संदेश लेकर आया ँ । वदेहन नी! ीरामच जी सकु शल ह और उ ने आपका कु शल-समाचार पूछा है॥ २ ॥ ‘दे व! ज ा और वेद का भी पूण ान है, वे वेदवे ा म े दशरथन न ीराम यं सकु शल रहकर आपक भी कु शल पूछ रहे ह॥ ३ ॥ ‘आपके प तके अनुचर तथा य महातेज ी ल णने भी शोकसे संत हो आपके चरण म म क कु ाकर णाम कहलाया है’॥ ४ ॥ पु ष सह ीराम और ल णका समाचार सुनकर देवी सीताके स ूण अंग म हषज नत रोमांच हो आया और वे हनुमा ीसे बोल —॥ ५ ॥ ‘य द मनु जी वत रहे तो उसे सौ वष बाद भी आन ा होता ही है, यह लौ कक कहावत आज मुझे बलकु ल स एवं क ाणमयी जान पड़ती है’॥ ६ ॥ सीता और हनुमा े इस मलाप (पर र दशन)-से दोन को ही अ तु स ता ा ◌इ। वे दोन व होकर एक-दूसरेसे वातालाप करने लगे॥ ७ ॥ शोकसंत सीताक वे बात सुनकर पवनकु मार हनुमा ी उनके कु छ नकट चले गये॥ ८ ॥



हनुमा ी - नकट आते, -ही- सीताको यह श ा होती क यह कह रावण न हो॥ ९ ॥ ऐसा वचार आते ही वे मन-ही-मन कहने लग — ‘अहो! ध ार है, जो इसके सामने मने अपने मनक बात कह दी। यह दूसरा प धारण करके आया आ वह रावण ही है’॥ १० ॥ फर तो नद ष अ वाली सीता उस अशोक-वृ क शाखाको छोड़ शोकसे कातर हो वह जमीनपर बैठ गय ॥ ११ ॥



त ात् महाबा हनुमा े जनकन नी सीताके चरण म णाम कया, कतु वे भयभीत होनेके कारण फर उनक ओर देख न सक ॥ १२ ॥ वानर हनुमा ो बार ार व ना करते देख च मुखी सीता ल ी साँस ख चकर उनसे मधुर वाणीम बोल —॥ १३ ॥ ‘य द तुम यं मायावी रावण हो और मायामय शरीरम वेश करके फर मुझे क दे रहे हो तो यह तु ारे लये अ ी बात नह है॥ १४ ॥ ‘ जसे मने जन ानम देखा था तथा जो अपने यथाथ पको छोड़कर सं ासीका प धारण करके आया था, तुम वही रावण हो॥ १५ ॥ ‘इ ानुसार प धारण करनेवाले नशाचर! म उपवास करते-करते दुबली हो गयी ँ और मन-ही-मन दु:खी रहती ँ । इतनेपर भी जो तुम फर मुझे संताप दे रहे हो, यह तु ारे लये अ ी बात नह है॥ १६ ॥ ‘अथवा जस बातक मेरे मनम श ा हो रही है, वह न भी हो; क तु देखनेसे मेरे मनम स ता ◌इ है॥ १७ ॥ ‘वानर े ! सचमुच ही य द तुम भगवान् ीरामके दूत हो तो तु ारा क ाण हो। म तुमसे उनक बात पूछती ँ ; क ीरामक चचा मुझे ब त ही य है॥ ‘वानर! मेरे यतम ीरामके गुण का वणन करो। सौ ! जैसे जलका वेग नदीके तटको हर लेता है, उसी कार तुम ीरामक चचासे मेरे च को चुराये लेते हो॥ १९ ॥ ‘अहो! यह कै सा सुखद आ? जससे यहाँ चरकालसे हरकर लायी गयी म आज भगवान् ीरामके भेजे ए दूत वानरको देख रही ँ ॥ २० ॥ ‘य द म ल णस हत वीरवर ीरघुनाथजीको म भी देख लया क ँ तो मुझे इतना क न हो; परंतु भी मुझसे डाह करता है॥ २१ ॥ ‘म इसे नह समझती; क म वानरको देख लेनेपर कसीका अ ुदय नह हो सकता और मने यहाँ अ ुदय ा कया है (अ ुदयकालम जैसी स ता होती है, वैसी ही स ता मेरे मनम छा रही है)॥ २२ ॥ ‘अथवा यह मेरे च का मोह तो नह है। वात- वकारसे होनेवाला म तो नह है। उ ादका वकार तो नह उमड़ आया अथवा यह मृगतृ ा तो नह है॥



‘अथवा



यह उ ादज नत वकार नह है। उ ादके समान ल णवाला मोह भी नह है; क म अपने-आपको देख और समझ रही ँ तथा इस वानरको भी ठीक-ठीक देखती और समझती ँ (उ ाद आ दक अव ा म इस तरह ठीक-ठीक ान होना स व नह है।)’॥ २४ ॥ इस तरह सीता अनेक कारसे रा स क बलता और वानरक नबलताका न य करके उ रा सराज रावण ही माना; क रा स म इ ानुसार प धारण करनेक श होती है। ऐसा वचारकर सू क ट देशवाली जनककु मारी सीताने क पवर हनुमा ीसे फर कु छ नह कहा॥ २५-२६ ॥ सीताके इस न यको समझकर पवनकु मार हनुमा ी उस समय कान को सुख प ँ चानेवाले अनुकूल वचन ारा उनका हष बढ़ाते ए बोले—॥ २७ ॥ ‘भगवान् ीराम सूयके समान तेज ी, च माके समान लोककमनीय तथा देव कु बेरक भाँ त स ूण जग े राजा ह॥ २८ ॥ ‘महायश ी भगवान् व ुके समान परा मी तथा बृह तजीक भाँ त स वादी एवं मधुरभाषी ह॥ ‘ पवान्, सौभा शाली और का मान् तो वे इतने ह, मानो मू तमान् कामदेव ह । वे ोधके पा पर ही हार करनेम समथ और संसारके े महारथी ह॥ ३० ॥ ‘स ूण व उन महा ाक भुजा के आ यम— उ क छ छायाम व ाम करता है। मृग पधारी नशाचर ारा ीरघुनाथजीको आ मसे दूर हटाकर जसने सूने आ मम प ँ चकर आपका अपहरण कया है, उसे उस पापका जो फल मलनेवाला है, उसको आप अपनी आँ ख देखगी॥३११/२ ॥ ‘परा मी ीरामच जी ोधपूवक छोड़े गये लत अ के समान तेज ी बाण ारा समरा णम शी ही रावणका वध करगे॥३२१/२ ॥ ‘म उ का भेजा आ दूत होकर यहाँ आपके पास आया ँ । भगवान् ीराम आपके वयोगज नत दु:खसे पी ड़त ह। उ ने आपके पास अपनी कु शल कहलायी है और आपक भी कु शल पूछी है॥३३१/२ ॥



‘सु म



ाका आन बढ़ानेवाले महातेज ी महाबा ल णने भी आपको णाम करके आपक कु शल पूछी है॥३४१/२ ॥ ‘दे व! ीरघुनाथजीके सखा एक सु ीव नामक वानर ह, जो मु -मु वानर के राजा ह, उ ने भी आपसे कु शल पूछी है। सु ीव और ल णस हत ीरामच जी त दन आपका रण करते ह॥ ३५-३६ ॥ ‘ वदेहन न! रा सय के चंगुलम फँ सकर भी आप अभीतक जी वत ह, यह बड़े सौभा क बात है। अब आप शी ही महारथी ीराम और ल णका दशन करगी॥ ३७ ॥ ‘साथ ही करोड़ वानर से घरे ए अ मततेज ी सु ीवको भी आप देखगी। म सु ीवका म ी हनुमान् नामक वानर ँ ॥ ३८ ॥ ‘मने महासागरको लाँघकर और दुरा ा रावणके सरपर पैर रखकर ल ापुरीम वेश कया है॥ ३९ ॥ ‘म अपने परा मका भरोसा करके आपका दशन करनेके लये यहाँ उप त आ ँ । दे व! आप मुझे जैसा समझ रही ह, म वैसा नह ँ । आप यह वपरीत आश ा छोड़ दी जये और मेरी बातपर व ास क जये’॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म च तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३४ ॥



पतीसवाँ सग सीताजीके पूछनेपर हनुमा ीका ीरामके शारी रक च और गुण का वणन करना तथा नर-वानरक म ताका स सुनाकर सीताजीके मनम व ास उ करना



वानर े हनुमा ीके मुखसे ीरामच जीक चचा सुनकर वदेहराजकु मारी सीता शा पूवक मधुर वाणीम बोल —॥ १ ॥ ‘क पवर! तु ारा ीरामच जीके साथ स कहाँ आ? तुम ल णको कै से जानते हो? मनु और वानर का यह मेल कस कार स व आ?॥ २ ॥ ‘वानर! ीराम और ल णके जो च ह, उनका फरसे वणन करो, जससे मेरे मनम कसी कारके शोकका समावेश न हो॥ ३ ॥ ‘मुझे बताओ भगवान् ीराम और ल णक आकृ त कै सी है? उनका प कस तरहका है? उनक जाँघ और भुजाएँ कै सी ह?’॥ ४ ॥ वदेहराजकु मारी सीताके इस कार पूछनेपर पवनकु मार हनुमा ीने ीरामच जीके पका यथावत् वणन आर कया—॥ ५ ॥ ‘कमलके समान सु र ने वाली वदेहराजकु मारी! आप अपने प तदेव ीरामके तथा देवर ल णजीके शरीरके वषयम जानती ◌इ भी जो मुझसे पूछ रही ह, यह मेरे लये बड़े सौभा क बात है॥ ६ ॥ ‘ वशाललोचने! ीराम और ल णके जन ज न च को मने ल कया है, उ बताता ँ । मुझसे सु नये॥ ७ ॥ ‘जनकन न! ीरामच जीके ने फु कमल-दलके समान वशाल एवं सु र ह। मुख पू णमाके च माके समान मनोहर है। वे ज कालसे ही प और उदारता आ द गुण से स ह॥ ८ ॥ ‘वे तेजम सूयके समान, माम पृ ीके तु , बु म बृह तके स श और यशम इ के समान ह। वे स ूण जीव-जग े तथा जन के भी र क ह। श ु को संताप देनेवाले ीराम अपने सदाचार और धमक र ा करते ह॥ ९-१० ॥



‘भा म न!



ीरामच जी जग े चार वण क र ा करते ह। लोकम धमक मयादा को बाँधकर उनका पालन करने और करानेवाले भी वे ही ह॥ ११ ॥ ‘सव अ भ भावसे उनक पूजा होती है। ये का मान् एवं परम काश प ह, चय- तके पालनम लगे रहते ह, साधु पु ष का उपकार मानते और आचरण ारा स म के चारका ढंग जानते ह॥ १२ ॥ ‘वे राजनी तम पूण श त, ा ण के उपासक, ानवान्, शीलवान्, वन तथा श ु को संताप देनेम समथ ह॥ १३ ॥ ‘उ यजुवदक भी अ ी श ा मली है। वेदवे ा व ान ने उनका बड़ा स ान कया है। वे चार वेद, धनुवद और छह वेदा के भी प र न त व ान् ह॥ १४ ॥ ‘उनके कं धे मोटे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी, गला श के समान और मुख सु र है। गलेक हँ सली मांससे ढक ◌इ है तथा ने म कु छ-कु छ ला लमा है। वे लोग म ‘ ीराम’ के नामसे स ह॥ १५ ॥ ‘उनका र दु ु भके समान ग ीर और शरीरका रंग सु र एवं चकना है। उनका ताप ब त बढ़ा-चढ़ा है। उनके सभी अ सुडौल और बराबर ह। उनक का ाम है॥ १६ ॥ ‘उनके तीन अ (व : ल, कला◌इ और मु ी) र (सु ढ़) ह। भ ह, भुजाएँ और मे —ये तीन अ लंबे ह। के श का अ भाग, अ कोष और घुटने—ये तीन समान बराबर ह। व : ल, ना भके कनारेका भाग और उदर—ये तीन उभरे ए ह। ने के कोने, नख और हाथपैरके तलवे—ये तीन लाल ह। श के अ भाग, दोन पैर क रेखाएँ और सरके बाल—ये तीन चकने ह तथा र, चाल और ना भ—ये तीन ग ीर ह॥ १७ ॥ ‘उनके उदर तथा गलेम तीन रेखाएँ ह। तलव के म भाग, पैर क रेखाएँ और न के अ भाग—ये तीन धँसे ए ह। गला, पीठ तथा दोन प लयाँ— ये चार अ छोटे ह। म कम तीन भँवर ह। पैर के अँगूठेके नीचे तथा ललाटम चार-चार रेखाएँ ह। वे चार हाथ ऊँ चे ह। उनके कपोल, भुजाएँ , जाँघ और घुटने— ये चार अ बराबर ह॥ १८ ॥ ‘शरीरम जो दो-दोक सं ाम चौदह* अ होते ह, वे भी उनके पर र सम ह। उनक चार कोन क चार दाढ़ शा ीय ल ण से यु ह। वे सह, बाघ, हाथी और साँड़—इन चारके समान चार कारक ग तसे चलते ह। उनके ओठ, ठोढ़ी और ना सका—सभी श ह। के श, ने , दाँत, चा और पैरके तलवे—इन पाँच अ म ता भरी है। दोन भुजाएँ , दोन



जाँघ, दोन प लयाँ, हाथ और पैर क अँगु लयाँ—ये आठ अ उ म ल ण से स (लंबे) ह॥ १९ ॥ ‘उनके ने , मुख- ववर, मुख-म ल, ज ा, ओठ, तालु, न, नख, हाथ और पैर—ये दस अ कमलके समान ह। छाती, म क, ललाट, गला, भुजाएँ , कं धे, ना भ, चरण, पीठ और कान—ये दस अ वशाल ह। वे ी, यश और ताप—इन तीन से ा ह। उनके मातृकुल और पतृकुल दोन अ शु ह। पा भाग, उदर, व : ल, ना सका, कं धे और ललाट—ये छ: अ ऊँ चे ह। के श, नख, लोम, चा, अंगु लय के पोर, श , बु और ष्ट आ द नौ सू (पतले) ह तथा वे ीरघुनाथजी पूवा , म ा और अपरा —इन तीन काल ारा मश: धम, अथ और कामका अनु ान करते ह॥ २० ॥ ‘ ीरामच जी स धमके अनु ानम संल , ीस , ायस त धनका सं ह और जापर अनु ह करनेम त र, देश और कालके वभागको समझनेवाले तथा सब लोग से य वचन बोलनेवाले ह॥ २१ ॥ ‘उनके सौतेले भा◌इ सु म ाकु मार ल ण भी बड़े तेज ी ह। अनुराग, प और स णु क ष्टसे भी वे ीरामच जीके ही समान ह॥ २२ ॥ ‘उन दोन भाइय म अ र इतना ही है क ल णके शरीरक का सुवणके समान गौर है और महायश ी ीरामच जीका व ह ामसु र है। वे दोन नर े आपके दशनके लये उ त हो सारी पृ ीपर आपक ही खोज करते ए हमलोग से मले थे॥ २३१/२ ॥ ‘आपको ही ढूँ ढ़नेके लये पृ ीपर वचरते ए उन दोन भाइय ने वानरराज सु ीवका सा ा ार कया, जो अपने बड़े भा◌इके ारा रा से उतार दये गये थे॥ २४१/२ ॥ ‘ऋ मूक पवतके मूलभागम जो ब त-से वृ ारा घरा आ है, भा◌इके भयसे पी ड़त हो बैठे ए यदशन सु ीवसे वे दोन भा◌इ मले॥ २५१/२ ॥ ‘उन दन ज बड़े भा◌इने रा से उतार दया था, उन स त वानरराज सु ीवक सेवाम हम सब लोग रहा करते थे॥ २६१/२ ॥ ‘शरीरपर व लव तथा हाथम धनुष धारण कये वे दोन भा◌इ जब ऋ मूक पवतके रमणीय देशम आये, तब धनुष धारण करनेवाले उन दोन नर े वीर को वहाँ



उप त देख वानर शरोम ण सु ीव भयसे घबरा उठे और उछलकर उस पवतके उ तम शखरपर जा चढ़े॥ २७-२८१/२ ॥ ‘उस शखरपर बैठनेके प ात् वानरराज सु ीवने मुझे ही शी तापूवक उन दोन ब ु के पास भेजा॥ ‘सु ीवक आ ासे उन भावशाली पवान् तथा शुभल णस दोन पु ष सह वीर क सेवाम म हाथ जोड़कर उप त आ॥ ३०१/२ ॥ ‘मुझसे यथाथ बात जानकर उन दोन को बड़ी स ता ◌इ। फर म अपनी पीठपर चढ़ाकर उन दोन पु षो म ब ु को उस ानपर ले गया (जहाँ वानरराज सु ीव थे)॥ ३११/२ ॥ ‘वहाँ महा



ा सु ीवको मने इन दोन ब ु का यथाथ प रचय दया। त ात् ीराम और सु ीवने पर र बात क , इससे उन दोन म बड़ा ेम हो गया॥ ‘वहाँ उन दोन यश ी वानरे र और नरे र ने अपने ऊपर बीती ◌इ पहलेक घटनाएँ सुनाय तथा दोन ने दोन को आ ासन दया॥ ३३१/२ ॥ ‘उस समय ल णके बड़े भा◌इ ीरघुनाथजीने ीके लये अपने महातेज ी भा◌इ वाली ारा घरसे नकाले ए सु ीवको सा ना दी॥ ३४१/२ ॥ ‘त ात् अनायास ही महान् कम करनेवाले भगवान् ीरामको आपके वयोगसे जो शोक हो रहा था, उसे ल णने वानरराज सु ीवको सुनाया॥ ३५१/२ ॥ ‘ल णजीक कही ◌इ वह बात सुनकर वानरराज सु ीव उस समय ह सूयके समान अ का हीन हो गये॥ ३६१/२ ॥ ‘तदन र वानर-यूथप तय ने आपके शरीरपर शोभा पानेवाले उन सब आभूषण को ले आकर बड़ी स ताके साथ ीरामच जीको दखाया, ज आपने उस समय पृ ीपर गराया था, जब क रा स आपको हरकर लये जा रहा था। वानर ने आभूषण तो दखाये, कतु उ आपका पता कु छ भी मालूम नह था॥ ३७-३८१/२ ॥ ‘आपके ारा गराये जानेपर वे सब आभूषण झनझनक आवाजके साथ जमीनपर गरे और बखर गये थे। म ही उन सबको बटोरकर ले आया था। उस दन जब वे गहने ीरामच जीको दये गये, उस समय वे उ अपनी गोदम लेकर अचेत-से हो गये थे। उन



दशनीय आभूषण को छातीसे लगाकर देवतु आभावाले भगवान् ीरामने ब त वलाप कया॥ ३९-४०१/२ ॥ ‘उन आभूषण को बारंबार देखते, रोते और तल मला उठते थे। उस समय दशरथन न ीरामक शोका लत हो उठी। उस दु:खसे आतुर हो वे महा ा रघुवीर ब त देरतक मू त अव ाम पड़े रहे। तब मने नाना कारके सा नापूण वचन कहकर बड़ी क ठना◌इसे उ उठाया॥ ४१—४३ ॥ ‘ल णस हत ीरघुनाथजीने उन ब मू आभूषण को बारंबार देखा और दखाया। फर वे सब सु ीवको दे दये॥ ४४ ॥ ‘आय! आपको न देख पानेके कारण ीरघुनाथजीको बड़ा दु:ख और संताप हो रहा है। जैसे ालामुखी पवत जलती ◌इ बड़ी भारी आगसे सदा तपता रहता है, उसी कार वे आपक वरहा से जल रहे ह॥ ४५ ॥ ‘आपके लये महा ा ीरघुनाथजीको अ न ा ( नर र जागरण), शोक और च ा—ये तीन उसी कार संताप देते ह, जैसे आहवनीय आ द वध अ याँ अ शालाको तपाती रहती ह॥ ४६ ॥ ‘दे व! आपको न देख पानेका शोक ीरघुनाथजीको उसी कार वच लत कर देता है, जैसे भारी भूक से महान् पवत भी हल जाता है॥ ४७ ॥ ‘राजकु मा र! आपको न देखनेके कारण रमणीय कानन , न दय और झरन के पास वचरनेपर भी ीरामको सुख नह मलता है॥ ४८ ॥ ‘जनकन न! पु ष सह भगवान् ीराम रावणको उसके म और ब -ु बा व स हत मारकर शी ही आपसे मलगे॥ ४९ ॥ ‘उन दन ीराम और सु ीव जब म भावसे मले, तब दोन ने एक-दूसरेक सहायताके लये त ा क । ीरामने वालीको मारनेका और सु ीवने आपक खोज करानेका वचन दया॥ ५० ॥ ‘इसके बाद उन दोन वीर राजकु मार ने क ाम जाकर वानरराज वालीको यु म मार गराया॥ ५१ ॥



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म वेगपूवक वालीको मारकर ीरामने सु ीवको सम भालु और वानर का राजा बना दया॥ ५२ ॥ ‘दे व! ीराम और सु ीवम इस कार म ता ◌इ है। म उन दोन का दूत बनकर यहाँ आया ँ । आप मुझे हनुमान् समझ॥ ५३ ॥ ‘अपना रा पानेके अन र सु ीवने अपने आ यम रहनेवाले बड़े-बड़े बलवान् वानर को बुलाया और उ आपक खोजके लये दस दशा म भेजा॥ ५४ ॥ ‘वानरराज सु ीवक आ ा पाकर ग रराजके समान वशालकाय महाबली वानर पृ ीपर सब ओर चल दये॥ ५५ ॥ ‘सु ीवक आ ासे भयभीत हो हम तथा अ वानर आपक खोज करते ए सम भूम लम वचर रहे ह॥ ५६ ॥ ‘वालीके शोभाशाली पु महाबली क प े अंगद वानर क एक तहा◌इ सेना साथ लेकर आपक खोजम नकले थे (उ के दलम म भी था)॥ ५७ ॥ ‘पवत े व म आकर खो जानेके कारण हमने वहाँ बड़ा क उठाया और वह हमारे ब त दन बीत गये॥ ५८ ॥ ‘अब हम काय- स क को◌इ आशा नह रह गयी और न त अव धसे भी अ धक समय बता देनेके कारण वानरराज सु ीवका भी भय था, इस लये हम सब लोग अपने ाण ाग देनेके लये उ त हो गये॥ ५९ ॥ ‘पवतके दुगम ान म, न दय के तट पर और झरन के आस-पासक सारी भू म छान डाली तो भी जब हम देवी सीता-(आप-) के ानका पता न चला, तब हम ाण ाग देनेको तैयार हो गये॥ ६० ॥ ‘मरणा उपवासका न य करके हम सब-के -सब उस पवतके शखरपर बैठ गये। उस समय सम वानर- शरोम णय को ाण ाग देनेके लये बैठे देख कु मार अ द अ शोकके समु म डू ब गये और वलाप करने लगे॥ ६११/२ ॥ ‘ वदेहन न! आपका पता न लगने, वालीके मारे जाने, हमलोग के मरणा उपवास करने तथा जटायुके मरनेक बातपर वचार करके कु मार अ दको बड़ा दु:ख आ था॥ ६२१/२ ॥



ामीके आ ापालनसे नराश होकर हम मरना ही चाहते थे क दैववश हमारा काय स करनेके लये गृ राज जटायुके बड़े भा◌इ स ा त, जो यं भी गीध के राजा और महान् बलवान् प ी ह, वहाँ आ प ँ चे॥ ६३-६४ ॥ ‘हमारे मुँहसे अपने भा◌इके वधक चचा सुनकर वे कु पत हो उठे और बोले —‘वानर शरोम णयो! बताओ, मेरे छोटे भा◌इ जटायुका वध कसने कया है? वह कहाँ मारा गया है? यह सब वृ ा म तुमलोग से सुनना चाहता ँ ’॥ ६५१/२ ॥ ‘तब अंगदने जन ानम आपक र ाके उ े से जूझते समय जटायुका उस भयानक पधारी रा सके ारा जो महान् वध कया गया था, वह सब संग -का- कह सुनाया॥ ६६१/२ ॥ ‘जटायुके वधका वृ ा सुनकर अ णपु स ा तको बड़ा दु:ख आ। वरारोहे! उ ने ही हम बताया क आप रावणके घरम नवास कर रही ह॥ ‘स ा तका वह वचन वानर के लये बड़ा हषवधक था। उसे सुनकर उ के भेजनेसे अ द आ द हम सभी वानर आपके दशनक आशासे उ ा हत हो व पवतसे उठकर समु के उ म तटपर आये। इस कार अ द आ द सभी -पु वानर समु के कनारे आ प ँ चे॥ ‘आपके दशनके लये उ ुक होनेपर भी सामने अपार समु को देखकर सब वानर फर भयानक च ाम पड़ गये। समु को देखकर वानर-सेना क म पड़ गयी है, यह जानकर म उन सबके ती भयको दूर करता आ सौ योजन समु को लाँघकर यहाँ आ गया॥ ७११/२ ॥ ‘रा स से भरी ◌इ ल ाम मने रातम ही वेश कया है। यहाँ आकर रावणको देखा है और शोकसे पी ड़त ◌इ आपका भी दशन कया है॥ ७२१/२ ॥ ‘सती शरोमणे! यह सारा वृ ा मने ठीक-ठीक आपके सामने रखा है। दे व! म दशरथन न ीरामका दूत ँ , अत: आप मुझसे बात क जये॥ ७३१/२ ॥ ‘मने ीरामच जीके कायक स के लये ही यह सारा उ ोग कया है और आपके दशनके न म म यहाँ आया ँ । दे व! आप मुझे सु ीवका म ी तथा वायुदेवताका पु हनुमान् समझ॥ ७४१/२ ॥ ‘दे व! आपके प तदेव सम श धा रय म े ककु कु लभूषण ीरामच जी सकु शल ह तथा बड़े भा◌इक सेवाम संल रहनेवाले शुभल ण ल ण भी स ह। वे ‘



आपके उन परा मी प तदेवके हत-साधनम ही त र रहते ह॥ ७५-७६ ॥ ‘म सु ीवक आ ासे अके ला ही यहाँ आया ँ । इ ानुसार प धारण करनेक श रखता ँ । आपका पता लगानेक इ ासे मने बना कसी सहायकके अके ले ही घूम- फरकर इस द ण- दशाका अनुसंधान कया है॥ ७७१/२ ॥ ‘आपके वनाशक स ावनासे जो नर र शोकम डू बे रहते ह, उन वानरसै नक को यह बताकर क आप मल गय , म उनका संताप दूर क ँ गा। यह मेरे लये बड़े हषक बात होगी॥ ७८१/२ ॥ ‘दे व! मेरा समु को लाँघकर यहाँतक आना थ नह आ। सबसे पहले आपके दशनका यह यश मुझे ही मलेगा। यह मेरे लये सौभा क बात है॥ ७९१/२ ॥ ‘महापरा मी ीरामच जी रा सराज रावणको उसके पु और ब -ु बा व स हत मारकर शी ही आपसे आ मलगे॥८०१/२ ॥ ‘ वदेहन न! पवत म मा वान् नामसे स एक उ म पवत है। वहाँ के सरी नामक वानर नवास करते थे। एक दन वे वहाँसे गोकण पवतपर गये। महाक प के सरी मेरे पता ह। उ ने समु के तटपर व मान उस प व गोकण-तीथम देव षय क आ ासे श सादन नामक दै का संहार कया था। म थलेशकु मारी! उ क पराज के सरीक ीके गभसे वायुदेवताके ारा मेरा ज आ है। म लोकम अपने ही कम ारा ‘हनुमान्’ नामसे व ात ँ ॥ ८१—८३ ॥ ‘ वदेहन न! आपको व ास दलानेके लये मने आपके ामीके गुण का वणन कया है। दे व! ीरघुनाथजी शी ही आपको यहाँसे ले चलगे—यह न त बात है’॥ ८४ ॥ इस कार यु यु एवं व सनीय कारण तथा पहचानके पम बताये गये ीराम और ल णके शारी रक च ारा हनुमा ीने शोकसे दुबल ◌इ सीताको अपना व ास दलाया। तब उ ने हनुमा ीको ीरामका दूत समझा॥ ८५ ॥ उस समय जनकन नी सीताको अनुपम हष ा आ। उस महान् हषके कारण वे कु टल बरौ नय वाले दोन ने से आन के आँ सू बहाने लग ॥ ८६ ॥ उस अवसरपर वशाललोचना सीताका मनोहर मुख, जो लाल, सफे द और बड़े-बड़े ने से यु था, रा के हणसे मु ए च माके समान शोभा पा रहा था॥



अब वे हनुमा ो वा वक वानर मानने लग । इसके वपरीत मायामय पधारी रा स नह । तदन र हनुमा ीने यदशना सीतासे फर कहा—॥ ८८ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! इस कार आपने जो कु छ पूछा था, वह सब मने बता दया। अब आप धैय धारण कर। बताइये, म आपक कै सी और ा सेवा क ँ । इस समय आपक च ा है, आ ा हो तो अब म लौट जाऊँ ॥ ८९ ॥ ‘मह षय क ेरणासे क पवर के सरी ारा यु म श सादन नामक असुरके मारे जानेपर मने पवनदेवताके ारा ज हण कया। अत: मै थ ल! म उन वायुदेवताके समान ही भावशाली वानर ँ ’॥ ९० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३५ ॥ * भ ह, नथुने, ने , कान, ओठ,



न, कोहनी, कला◌इ, जाँघ, घुटने, अ कोष, कमरके दोन भाग, हाथ और पैर।



छ ीसवाँ सग हनुमा ीका सीताको मु का देना, सीताका ‘ ीराम कब मेरा उ ार करगे’ यह उ क ु होकर पूछना तथा हनुमा ीका ीरामके सीता वषयक ेमका वणन करके उ सा ना देना



तदन र महातेज ी पवनकु मार हनुमा ी सीताजीको व ास दलानेके लये पुन: वनययु वचन बोले—॥ १ ॥ ‘महाभागे! म परम बु मान् भगवान् ीरामका दूत वानर ँ । दे व! यह ीरामनामसे अ त मु का है, इसे लेकर दे खये॥ २ ॥ ‘आपको व ास दलानेके लये ही म इसे लेता आया ँ । महा ा ीरामच जीने यं यह अंगूठी मेरे हाथम दी थी। आपका क ाण हो। अब आप धैय धारण कर। आपको जो दु:ख पी फल मल रहा था, वह अब समा हो चला है’॥ ३ ॥ प तके हाथको सुशो भत करनेवाली उस मु काको लेकर सीताजी उसे ानसे देखने लग । उस समय जानक जीको इतनी स ता ◌इ, मानो यं उनके प तदेव ही उ मल गये ह ॥ ४ ॥ उनका लाल, सफे द और वशाल ने से यु मनोहर मुख हषसे खल उठा, मानो च मा रा के हणसे मु हो गया हो॥ ५ ॥ वे लजीली वदेहबाला यतमका संदेश पाकर ब त स ◌इं । उनके मनको बड़ा संतोष आ। वे महाक प हनुमा ीका आदर करके उनक शंसा करने लग —॥ ६ ॥ ‘वानर े ! तुम बड़े परा मी, श शाली और बु मान् हो; क तुमने अके ले ही इस रा सपुरीको पदद लत कर दया है॥ ७ ॥ ‘तुम अपने परा मके कारण शंसाके यो हो; क तुमने मगर आ द ज ु से भरे ए सौ योजन व ारवाले महासागरको लाँघते समय उसे गायक खुरीके बराबर समझा है, इस लये शंसाके पा हो॥ ‘वानर शरोमणे! म तु को◌इ साधारण वानर नह मानती ँ ; क तु ारे मनम रावण-जैसे रा ससे भी न तो भय होता है और न घबराहट ही॥ ९ ॥



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े ! य द तु आ ानी भगवान् ीरामने भेजा है तो तुम अव इस यो हो क म तुमसे बातचीत क ँ ॥ १० ॥ ‘दुधष वीर ीरामच जी वशेषत: मेरे नकट ऐसे कसी पु षको नह भेजगे, जसके परा मका उ ान न हो तथा जसके शील भावक उ ने परी ा न कर ली हो॥ ११ ॥ ‘स त एवं धमा ा भगवान् ीराम सकु शल ह तथा सु म ाका आन बढ़ानेवाले महातेज ी ल ण भी एवं सुखी ह, यह जानकर मुझे बड़ा हष आ है और यह शुभ संवाद मेरे लये सौभा का सूचक है॥ १२ ॥ ‘य द ककु कु लभूषण ीराम सकु शल ह तो वे लयकालम उठे ए लयंकर अ के समान कु पत हो समु से घरी ◌इ सारी पृ ीको द नह कर देते ह?॥ १३ ॥ ‘अथवा वे दोन भा◌इ देवता को भी द देनेक श रखते ह (तो भी अबतक जो चुप बैठे ह, इसम उनका नह मेरे ही भा का दोष है)। म समझती ँ क अभी मेरे ही दु:ख का अ नह आया है॥ १४ ॥ ‘अ ा, यह तो बताओ, पु षो म ीरामच जीके मनम को◌इ था तो नह है? वे संत तो नह होते? उ आगे जो कु छ करना है, उसे वे करते ह या नह ?॥ १५ ॥ ‘उ कसी कारक दीनता या घबराहट तो नह है? वे काम करते-करते मोहके वशीभूत तो नह हो जाते? ा राजकु मार ीराम पु षो चत काय (पु षाथ) करते ह ?॥ १६ ॥ ‘ ा श ु को संताप देनेवाले ीराम म के त म भाव रखकर साम और दान प दो उपाय का ही अवल न करते ह? तथा श ु के त उ जीतनेक इ ा रखकर दान, भेद और द —इन तीन कारके उपाय का ही आ य लेते ह?॥ १७ ॥ ‘ ा ीराम यं य पूवक म का सं ह करते ह ? ा उनके श ु भी शरणागत होकर अपनी र ाके लये उनके पास आते ह? ा उ ने म का उपकार करके उ अपने लये क ाणकारी बना लया है? ा वे कभी अपने म से भी उपकृ त या पुर ृ त होते ह?॥ १८ ॥ ‘ ा राजकु मार ीराम कभी देवता का भी कृ पा साद चाहते ह—उनक कृ पाके लये ाथना करते ह? ा वे पु षाथ और दैव दोन का आ य लेते ह?॥



‘दुभा वश म उनसे दूर हो गयी ँ । इस कारण ीरघुनाथजी मुझपर गये ह? ा वे मुझे कभी इस संकटसे छु ड़ायगे?॥ २० ॥



ेहहीन तो नह हो



‘वे सदा सुख भोगनेके ही यो ह, दु:ख भोगनेके दु:ख-पर-दु:ख उठानेके कारण ीराम अ धक ख और ‘



यो कदा प नह ह; परंतु इन दन श थल तो नह हो गये ह?॥ २१ ॥ ा उ माता कौस ा, सु म ा तथा भरतका कु शल-समाचार बराबर मलता रहता



है?॥ २२ ॥ ‘ ा स ाननीय ीरघुनाथजी मेरे लये होनेवाले शोकसे अ धक संत ह? वे मेरी ओरसे अ मन तो नह हो गये ह? ा ीराम मुझे इस संकटसे उबारगे?॥ ‘ ा भा◌इपर अनुराग रखनेवाले भरतजी मेरे उ ारके लये म य ारा सुर त भयंकर अ ौ हणी सेना भेजगे?॥ २४ ॥ ‘ ा ीमान् वानरराज सु ीव दाँत और नख से हार करनेवाले वीर वानर को साथ ले मुझे छु ड़ानेके लये यहाँतक आनेका क करगे?॥ २५ ॥ ‘ ा सु म ाका आन बढ़ानेवाले शूरवीर ल ण, जो अनेक अ के ाता ह, अपने बाण क वषासे रा स का संहार करगे?॥ २६ ॥ ‘ ा म रावणको उसके ब ु-बा व स हत थोड़े ही दन म ीरघुनाथजीके ारा यु म भयंकर अ -श से मारा गया देखूँगी?॥ २७ ॥ ‘जैसे पानी सूख जानेपर धूपसे कमल सूख जाता है, उसी कार मेरे बना शोकसे दु:खी आ ीरामका वह सुवणके समान का मान् और कमलके स श सुग त मुख सूख तो नह गया है?॥ २८ ॥ ‘धमपालनके उ े से अपने रा का ाग करते और मुझे पैदल ही वनम लाते समय ज त नक भी भय और शोक नह आ, वे ीरघुनाथजी इस संकटके समय दयम धैय तो धारण करते ह न?॥ २९ ॥ ‘दूत! उनके माता- पता तथा अ को◌इ स ी भी ऐसे नह ह, ज उनका ेह मुझसे अ धक अथवा मेरे बराबर भी मला हो। म तो तभीतक जी वत रहना चाहती ँ , जबतक यहाँ आनेके स म अपने यतमक वृ सुन रही ँ ’॥ ३० ॥



देवी सीता वानर े हनुमा े त इस कार महान् अथसे यु मधुर वचन कहकर ीरामच जीसे स रखनेवाली उनक मनोहर वाणी पुन: सुननेके लये चुप हो गय ॥ ३१ ॥



सीताजीका वचन सुनकर भयंकर परा मी पवनकु मार हनुमान् म कपर अ ल बाँधे उ इस कार उ र देने लगे—॥ ३२ ॥ ‘दे व! कमलनयन भगवान् ीरामको यह पता ही नह है क आप ल ाम रह रही ह। इसी लये जैसे इ दानव के यहाँसे शचीको उठा ले गये, उस कार वे शी यहाँसे आपको नह ले जा रहे ह॥ ३३ ॥ ‘जब म यहाँसे लौटकर जाऊँ गा, तब मेरी बात सुनते ही ीरघुनाथजी वानर और भालु क वशाल सेना लेकर तुरंत वहाँसे चल दगे॥ ३४ ॥ ‘ककु कु लभूषण ीराम अपने बाण-समूह ारा अ ो महासागरको भी करके उसपर सेतु बाँधकर ल ापुरीम प ँ च जायँगे और उसे रा स से सूनी कर दगे॥ ३५ ॥ ‘उस समय ीरामके मागम य द मृ ु, देवता अथवा बड़े-बड़े असुर भी व बनकर खड़े ह गे तो वे उन सबका भी संहार कर डालगे॥ ३६ ॥ ‘आय! आपको न देखनेके कारण उ ए शोकसे उनका दय भरा रहता है; अत: ीराम सहसे पी ड़त ए हाथीक भाँ त णभरको भी चैन नह पाते ह॥ ३७ ॥ ‘दे व! म र आ द पवत हमारे वास ान ह और फल-मूल भोजन। अत: म म राचल, मलय, व , मे तथा ददुर पवतक और अपनी जी वकाके साधन फल-मूलक सौगंध खाकर कहता ँ क आप शी ही ीरामका नवो दत पूण च माके समान वह मनोहर मुख देखगी, जो सु र ने , ब फलके समान लाल-लाल ओठ और सु र कु ल से अलंकृत एवं च ाकषक है॥ ३८-३९ ॥ ‘ वदेहन न! ऐरावतक पीठपर बैठे ए देवराज इ के समान वण ग रके शखरपर वराजमान ीरामका आप शी दशन करगी॥ ४० ॥ ‘को◌इ भी रघुवंशी न तो मांस खाता है और न मधुका ही सेवन करता है; फर भगवान् ीराम इन व ु का सेवन करते? वे सदा चार समय उपवास करके पाँचव समय शा व हत जंगली फल-मूल और नीवार आ द भोजन करते ह॥ ४१ ॥







‘ ीरघुनाथजीका च सदा आपम लगा रहता है, अत: उ र, क ड़ और सप को हटानेक भी सु ध नह रहती॥ ४२ ॥



अपने शरीरपर चढ़े ए डाँस,



ीराम आपके ेमके वशीभूत हो सदा आपका ही ान करते और नर र आपके ही वरह-शोकम डू बे रहते ह। आपको छोड़कर दूसरी को◌इ बात वे सोचते ही नह ह॥ ४३ ॥ ‘नर े ! ीरामको सदा आपक च ाके कारण कभी न द नह आती है। य द कभी आँ ख लगी भी तो ‘सीता-सीता’ इस मधुर वाणीका उ ारण करते ए वे ज ी ही जाग उठते ह॥ ४४ ॥ ‘ कसी फल, फू ल अथवा य के मनको लुभानेवाली दूसरी व ुको भी जब वे देखते ह, तब लंबी साँस लेकर बारंबार ‘हा ये! हा ये!’ कहते ए आपको पुकारने लगते ह॥ ४५ ॥ ‘दे व! राजकु मार महा ा ीराम आपके लये सदा दु:खी रहते ह, सीता-सीता कहकर आपक ही रट लगाते ह तथा उ म तका पालन करते ए आपक ही ा के य म लगे ए ह’॥ ४६ ॥ ीरामच जीक चचासे सीताका अपना शोक तो दूर हो गया; कतु ीरामके शोकक बात सुनकर वे पुन: उ के समान शोकम नम हो गय । उस समय वदेहन नी सीता शरद-् ऋतु आनेपर मेघ क घटा और च मा—दोन से यु (अ कार और काशपूण) रा के समान हष और शोकसे यु तीत होती थ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३६ ॥ ‘



सतीसवाँ सग सीताका हनुमा ीसे ीरामको शी बुलानेका आ ह, हनुमा ीका सीतासे अपने साथ चलनेका अनुरोध तथा सीताका अ ीकार करना



हनुमा ीका पूव वचन सुनकर पूणच माके समान मनोहर मुखवाली सीताने उनसे धम और अथसे यु बात कही—॥ १ ॥ ‘वानर! तुमने जो कहा क ीरघुनाथजीका च दूसरी ओर नह जाता और वे शोकम डू बे रहते ह, तु ारा यह कथन मुझे वष म त अमृतके समान लगा है॥ २ ॥ ‘को◌इ बड़े भारी ऐ यम त हो अथवा अ भयंकर वप म पड़ा हो, काल मनु को इस तरह ख च लेता है, मानो उसे र ीम बाँध रखा हो॥ ‘वानर शरोमणे! दैवके वधानको रोकना ा णय के वशक बात नह है। उदाहरणके लये सु म ाकु मार ल णको, मुझको और ीरामको भी देख लो। हमलोग कस तरह वयोगदु:खसे मो हत हो रहे ह॥ ४ ॥ ‘समु म नौकाके न हो जानेपर अपने हाथ से तैरनेवाले परा मी पु षक भाँ त ीरघुनाथजी कै से इस शोक-सागरसे पार ह गे?॥ ५ ॥ ‘रा स का वध, रावणका संहार और ल ापुरीका व ंस करके मेरे प तदेव मुझे कब देखगे?॥ ६ ॥ ‘तुम उनसे जाकर कहना, वे शी ता कर। यह वष जबतक पूरा नह हो जाता, तभीतक मेरा जीवन शेष है॥ ७ ॥ ‘वानर! यह दसवाँ महीना चल रहा है। अब वष पूरा होनेम दो ही मास शेष ह। नदयी रावणने मेरे जीवनके लये जो अव ध न त क है, उसम इतना ही समय बाक रह गया है॥ ८ ॥ ‘रावणके भा◌इ थी, कतु वह उनक



वभीषणने मुझे लौटा देनेके लये उससे य पूवक बड़ी अनुनय- वनय क बात नह मानता है॥ ९ ॥ ‘मेरा लौटाया जाना रावणको अ ा नह लगता; क वह कालके अधीन हो रहा है और यु म मौत उसे ढूँ ढ़ रही है॥ १० ॥



‘कपे!



वभीषणक े पु ीका नाम कला है। उसक माताने यं उसे मेरे पास भेजा था। उसीने ये सारी बात मुझसे कही ह॥ ११ ॥ ‘अ व नामका एक े रा स है, जो बड़ा ही बु मान्, व ान्, धीर, सुशील, वृ तथा रावणका स ानपा है॥ १२ ॥ ‘उसने रावणको यह बताकर क ीरामके हाथसे रा स के वनाशका अवसर आ प ँ चा है, मुझे लौटा देनेके लये े रत कया था, कतु वह दु ा ा उसके हतकारी वचन को भी नह सुनता है॥ १३ ॥ ‘क प े ! मुझे तो यह आशा हो रही है क मेरे प तदेव मुझसे शी ही आ मलगे; क मेरी अ रा ा शु है और ीरघुनाथजीम ब त-से गुण ह॥ १४ ॥ ‘वानर! ीरामच जीम उ ाह, पु षाथ, बल, दयालुता, कृ त ता, परा म और भाव आ द सभी गुण व मान ह॥ १५ ॥ ‘ ज ने जन ानम अपने भा◌इक सहायता लये बना ही चौदह हजार रा स का संहार कर डाला, उनसे कौन श ु भयभीत न होगा?॥ १६ ॥ ‘ ीरामच जी पु ष म े ह। वे संकट से तोले या वच लत कये जायँ, यह सवथा अस व है। जैसे पुलोमक ा शची इ के भावको जानती ह, उसी तरह म ीरघुनाथजीक श -साम को अ ी तरह जानती ँ ॥ १७ ॥ ‘क पवर! शूरवीर भगवान् ीराम सूयके समान ह। उनके बाणसमूह ही उनक करण ह। वे उनके ारा श ुभूत रा स पी जलको शी ही सोख लगे’॥ १८ ॥ इतना कहते-कहते सीताके मुखपर आँ सु क धारा बह चली। वे ीरामच जीके लये शोकसे पी ड़त हो रही थ । उस समय क पवर हनुमा ीने उनसे कहा—॥ १९ ॥ ‘दे व! आप धैय धारण कर। मेरा वचन सुनते ही ीरघुनाथजी वानर और भालु क वशाल सेना लेकर शी यहाँके लये ान कर दगे॥ २० ॥ ‘अथवा म अभी आपको इस रा सज नत दु:खसे छु टकारा दला दूँगा। सती-सा ी दे व! आप मेरी पीठपर बैठ जाइये॥ २१ ॥ ‘आपको पीठपर बैठाकर म समु को लाँघ जाऊँ गा। मुझम रावणस हत सारी ल ाको भी ढो ले जानेक श है॥ २२ ॥



‘ म थलेशकु मारी!



रघुनाथजी वण ग रपर रहते ह। म आज ही आपको उनके पास प ँ चा दूँगा। ठीक उसी तरह, जैसे अ देव हवन कये गये ह व को इ क सेवाम ले जाते ह॥ २३ ॥ ‘ वदेहन न! दै के वधके लये उ ाह रखनेवाले भगवान् व ुक भाँ त रा स के संहारके लये सचे ए ीराम और ल णका आप आज ही दशन करगी॥ २४ ॥ ‘आपके दशनका उ ाह मनम लये महाबली ीराम पवत- शखरपर अपने आ मम उसी कार बैठे ह, जैसे देवराज इ गजराज ऐरावतक पीठपर वराजमान होते ह॥ २५ ॥ ‘दे व! आप मेरी पीठपर बै ठये। शोभने! मेरे कथनक उपे ा न क जये। च मासे मलनेवाली रो हणीक भाँ त आप ीरामच जीके साथ मलनेका न य क जये॥ २६ ॥ ‘मुझे भगवान् ीरामसे मलना है, इतना कहते ही आप च मासे रो हणीक भाँ त ीरघुनाथजीसे मल जायँगी। आप मेरी पीठपर आ ढ़ होइये और आकाशमागसे ही महासागरको पार क जये॥ २७ ॥ ‘क ा ण! म आपको लेकर जब यहाँसे चलूँगा, उस समय समूचे ल ा- नवासी मलकर भी मेरा पीछा नह कर सकते॥ २८ ॥ ‘ वदेहन न! जस कार म यहाँ आया ँ , उसी तरह आपको लेकर आकाशमागसे चला जाऊँ गा, इसम संदेह नह है। आप मेरा परा म दे खये’॥ २९ ॥ वानर े हनुमा े मुखसे यह अ तु वचन सुनकर म थलेशकु मारी सीताके सारे शरीरम हष और व यके कारण रोमा हो आया। उ ने हनुमा ीसे कहा—॥ ‘वानरयूथप त हनुमान्! तुम इतने दूरके मागपर मुझे कै से ले चलना चाहते हो? तु ारे इस दु:साहसको म वानरो चत चपलता ही समझती ँ ॥ ३१ ॥ ‘वानर शरोमणे! तु ारा शरीर तो ब त छोटा है। फर तुम मुझे मेरे ामी महाराज ीरामके पास ले जानेक इ ा कै से करते हो?’॥ ३२ ॥ सीताजीक यह बात सुनकर शोभाशाली पवनकु मार हनुमा े इसे अपने लये नया तर ार ही माना॥ ३३ ॥ वे सोचने लगे—‘कजरारे ने वाली वदेहन नी सीता मेरे बल और भावको नह जानत । इस लये आज मेरे उस पको, जसे म इ ानुसार धारण कर लेता ँ , ये देख ल’॥



३४ ॥



ऐसा वचार करके श ुमदन वानर शरोम ण हनुमा े उस समय सीताको अपना प दखाया॥ ३५ ॥ वे बु मान् क पवर उस वृ से नीचे कू द पड़े और सीताजीको व ास दलानेके लये बढ़ने लगे॥ ३६ ॥ बात-क -बातम उनका शरीर मे पवतके समान ऊँ चा हो गया। वे लत अ के समान तेज ी तीत होने लगे। इस तरह वशाल प धारण करके वे वानर े हनुमान् सीताजीके सामने खड़े हो गये॥ त ात् पवतके समान वशालकाय, तामेके समान लाल मुख तथा व के समान दाढ़ और नखवाले भयानक महाबली वानरवीर हनुमान् वदेहन नीसे इस कार बोले—॥ ३८ ॥ ‘दे व! मुझम पवत, वन, अ ा लका, चहार दवारी और नगर ारस हत इस ल ापुरीको रावणके साथ ही उठा ले जानेक श है॥ ३९ ॥ ‘अत: आप मेरे साथ चलनेका न य कर ली जये। आपक आश ा थ है। दे व! वदेहन न! आप मेरे साथ चलकर ल णस हत ीरघुनाथजीका शोक दूर क जये’॥ ४० ॥ वायुके औरस पु हनुमा ीको पवतके समान वशाल शरीर धारण कये देख फु कमलदलके समान बड़े-बड़े ने वाली जनक कशोरीने उनसे कहा— ‘महाकपे! म तु ारी श और परा मको जानती ँ । वायुके समान तु ारी ग त और अ के समान तु ारा अ तु तेज है॥ ४२ ॥ ‘वानरयूथपते! दूसरा को◌इ साधारण वानर अपार महासागरके पारक इस भू मम कै से आ सकता है?॥ ‘म जानती ँ ’ तुम समु पार करने और मुझे ले जानेम भी समथ हो, तथा प तु ारी तरह मुझे भी अपनी काय स के वषयम अव भलीभाँ त वचार कर लेना चा हये॥ ४४ ॥ ‘क प े ! तु ारे साथ मेरा जाना कसी भी ष्टसे उ चत नह है; क तु ारा वेग वायुके वेगके समान ती है। जाते समय यह वेग मुझे मू त कर सकता है॥ ४५ ॥ ‘म समु के ऊपर-ऊपर आकाशम प ँ च जानेपर अ धक वेगसे चलते ए तु ारे पृ भागसे नीचे गर सकती ँ ॥ ४६ ॥



‘इस



तरह समु म, जो त म नामक बड़े-बड़े म , नाक और मछ लय से भरा आ है, गरकर ववश हो म शी ही जल-ज ु का उ म आहार बन जाऊँ गी॥ ‘इस लये श ुनाशन वीर! म तु ारे साथ नह चल सकूँ गी। एक ीको साथ लेकर जब तुम जाने लगोगे, उस समय रा स को तुमपर संदेह होगा, इसम संशय नह है॥ ४८ ॥ ‘मुझे हरकर ले जायी जाती देख दुरा ा रावणक आ ासे भयंकर परा मी रा स तु ारा पीछा करगे॥ ४९ ॥ ‘वीर! उस समय मुझ-जैसी र णीया अबलाके साथ होनेके कारण तुम हाथ म शूल और मु र धारण करनेवाले उन शौयशाली रा स से घरकर ाणसंशयक अव ाम प ँ च जाओगे॥ ५० ॥ ‘आकाशम अ -श धारी ब त-से रा स तुमपर आ मण करगे और तु ारे हाथम को◌इ भी अ न होगा। उस दशाम तुम उन सबके साथ यु और मेरी र ा दोन काय कै से कर सकोगे?॥ ५१ ॥ ‘क प े ! उन ू रकमा रा स के साथ जब तुम यु करने लगोगे, उस समय म भयसे पी ड़त होकर तु ारी पीठसे अव ही गर जाऊँ गी॥ ५२ ॥ ‘क प े ! य द कह वे महान् बलवान् भयानक रा स कसी तरह तु यु म जीत ल अथवा यु करते समय मेरी र ाक ओर तु ारा ान न रहनेसे य द म गर गयी तो वे पापी रा स मुझ गरी ◌इ अबलाको फर पकड़ ले जायँगे॥ ५३-५४ ॥ ‘अथवा यह भी स व है क वे नशाचर मुझे तु ारे हाथसे छीन ले जायँ या मेरा वध ही कर डाल; क यु म वजय और पराजयको अ न त ही देखा जाता है॥ ५५ ॥ ‘अथवा वानर शरोमणे! य द रा स क अ धक डाँट पड़नेपर मेरे ाण नकल गये तो फर तु ारा यह सारा य न ल ही हो जायगा॥ ५६ ॥ ‘य प तुम भी स ूण रा स का संहार करनेम समथ हो तथा प तु ारे ारा रा स का वध हो जानेपर ीरघुनाथजीके सुयशम बाधा आयेगी (लोग यही कहगे क ीराम यं कु छ भी न कर सके )॥ ५७ ॥ ‘अथवा यह भी स व है क रा सलोग मुझे ले जाकर कसी ऐसे गु ानम रख द, जहाँ न तो वानर को मेरा पता लगे और न ीरघुनाथजीको ही॥



‘य द



ऐसा आ तो मेरे लये कया गया तु ारा यह सारा उ ोग थ हो जायगा। य द तु ारे साथ ीरामच जी यहाँ पधार तो उनके आनेसे ब त बड़ा लाभ होगा॥ ५९ ॥ ‘महाबाहो! अ मत परा मी ीरघुनाथजीका, उनके भाइय का, तु ारा तथा वानरराज सु ीवके कु लका जीवन मुझपर ही नभर है॥ ६० ॥ ‘शोक और संतापसे पी ड़त ए वे दोन भा◌इ जब मेरी ा क ओरसे नराश हो जायँग,े तब स ूण रीछ और वानर के साथ अपने ाण का प र ाग कर दगे॥ ‘वानर े ! (तु ारे साथ न चल सकनेका एक धान कारण और भी है—) वानरवीर! प तभ क ओर ष्ट रखकर म भगवान् ीरामके सवा दूसरे कसी पु षके शरीरका े ासे श करना नह चाहती॥ ६२ ॥ ‘रावणके शरीरसे जो मेरा श हो गया है, वह तो उसके बलात् आ है। उस समय म असमथ, अनाथ और बेबस थी, ा करती॥ ६३ ॥ ‘य द ीरघुनाथजी यहाँ रा स स हत दशमुख रावणका वध करके मुझे यहाँसे ले चल तो वह उनके यो काय होगा॥ ६४ ॥ ‘मने यु म श ु का मदन करनेवाले महा ा ीरामके परा म अनेक बार देखे और सुने ह। देवता, ग व, नाग और रा स सब मलकर भी सं ामम उनक समानता नह कर सकते॥ ६५ ॥ ‘यु लम व च धनुष धारण करनेवाले इ तु परा मी महाबली ीरघुनाथजी ल णके साथ रह वायुका सहारा पाकर लत ए अ क भाँ त उ ी हो उठते ह। उस समय उ देखकर उनका वेग कौन सह सकता है?॥ ६६ ॥ ‘वानर शरोमणे! समरा णम अपने बाण पी तेजसे लयकालीन सूयके समान का शत होनेवाले और मतवाले द जक भाँ त खड़े ए रणमदन ीराम और ल णका सामना कौन कर सकता है?॥ ६७ ॥ ‘इस लये क प े ! वानरवीर! तुम य करके यूथप त सु ीव और ल णस हत मेरे यतम ीरामच जीको शी यहाँ बुला ले आओ। म ीरामके लये चरकालसे शोकाकु ल हो रही ँ । तुम उनके शुभागमनसे मुझे हष दान करो’॥ ६८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म सतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३७ ॥



अड़तीसवाँ सग सीताजीका हनुमा ीको पहचानके पम च कूट पवतपर घ टत ए एक कौएके संगको सुनाना, भगवान् ीरामको शी बुला लानेके लये अनुरोध करना और चूड़ाम ण देना



सीताके इस वचनसे क प े हनुमा ीको बड़ी स ता ◌इ। वे बातचीतम कु शल थे। उ ने पूव बात सुनकर सीतासे कहा—॥ १ ॥ ‘दे व! आपका कहना बलकु ल ठीक और यु संगत है। शुभदशने! आपक यह बात नारी- भावके तथा प त ता क वनयशीलताके अनु प है॥ २ ॥ ‘इसम संदेह नह क आप अबला होनेके कारण मेरी पीठपर बैठकर सौ योजन व ृत समु के पार जानेम समथ नह ह॥ ३ ॥ ‘जनकन न! आपने जो दूसरा कारण बताते ए कहा है क मेरे लये ीरामच जीके सवा दूसरे कसी पु षका े ापूवक श करना उ चत नह है, यह आपके ही यो है। दे व! महा ा ीरामक धमप ीके मुखसे ऐसी बात नकल सकती है। आपको छोड़कर दूसरी कौन ी ऐसा वचन कह सकती है॥ ४-५ ॥ ‘दे व! मेरे सामने आपने जो-जो प व चे ाएँ क और जैसी-जैसी उ म बात कही ह, वे सब पूण पसे ीरामच जी मुझसे सुनगे॥ ६ ॥ ‘दे व! मने जो आपको अपने साथ ले जानेका आ ह कया, उसके ब त-से कारण ह। एक तो म ीरामच जीका शी ही य करना चाहता था। अत: ेहपूण दयसे ही मने ऐसी बात कही है॥ ७ ॥ ‘दूसरा कारण यह है क ल ाम वेश करना सबके लये अ क ठन है। तीसरा कारण है, महासागरको पार करनेक क ठना◌इ। इन सब कारण से तथा अपनेम आपको ले जानेक श होनेसे मने ऐसा ाव कया था॥ ८ ॥ ‘म आज ही आपको ीरघुनाथजीसे मला देना चाहता था। अत: अपने परमारा गु ीरामके त ेह और आपके त भ के कारण ही मने ऐसी बात कही थी, कसी और उ े से नह ॥ ९ ॥



‘ कतु



सती-सा ी दे व! य द आपके मनम मेरे साथ चलनेका उ ाह नह है तो आप अपनी को◌इ पहचान ही दे दी जये, जससे ीरामच जी यह जान ल क मने आपका दशन कया है’॥ १० ॥ हनुमा ीके ऐसा कहनेपर देवक ाके समान तेज नी सीता अ ुग दवाणीम धीरे-धीरे इस कार बोल —॥ ११ ॥ ‘वानर े ! तुम मेरे यतमसे यह उ म पहचान बताना—‘नाथ! च कू ट पवतके उ रपूववाले भागपर, जो म ा कनी नदीके समीप है तथा जहाँ फल-मूल और जलक अ धकता है, उस स से वत देशम तापसा मके भीतर जब म नवास करती थी, उ दन नाना कारके फू ल क सुग से वा सत उस आ मके उपवन म जल वहार करके आप भीगे ए आये और मेरी गोदम बैठ गये॥ १२—१४ ॥ ‘तदन र ( कसी दूसरे समय) एक मांसलोलुप कौआ आकर मुझपर च च मारने लगा। मने ढेला उठाकर उसे हटानेक चे ा क , परंतु मुझे बार-बार च च मारकर वह कौआ वह कह छप जाता था। उस ब लभोजी कौएको खानेक इ ा थी, इस लये वह मेरा मांस नोचनेसे नवृ नह होता था॥ १५-१६ ॥ ‘म उस प ीपर ब त कु पत थी। अत: अपने लहँ गेको ढ़तापूवक कसनेके लये क टसू (नारे)-को ख चने लगी। उस समय मेरा व कु छ नीचे खसक गया और उसी अव ाम आपने मुझे देख लया॥ १७ ॥ ‘देखकर आपने मेरी हँ सी उड़ायी। इससे म पहले तो कु पत ◌इ और फर ल त हो गयी। इतनेम ही उस भ -लोलुप कौएने फर च च मारकर मुझे त व त कर दया और उसी अव ाम म आपके पास आयी॥ १८ ॥ ‘आप वहाँ बैठे ए थे। म उस कौएक हरकतसे तंग आ गयी थी। अत: थककर आपक गोदम आ बैठी। उस समय म कु पत-सी हो रही थी और आपने स होकर मुझे सा ना दी॥ १९ ॥ ‘नाथ! कौएने मुझे कु पत कर दया था। मेरे मुखपर आँ सु क धारा बह रही थी और म धीरे-धीरे आँ ख प छ रही थी। आपने मेरी उस अव ाको ल कया’॥ ‘हनुमान्! म थक जानेके कारण उस दन ब त देरतक ीरघुनाथजीक गोदम सोयी रही। फर उनक बारी आयी और वे भरतके बड़े भा◌इ मेरी गोदम सर रखकर सो रहे॥ २१ ॥



‘इसी



समय वह कौआ फर वहाँ आया। म सोकर जगनेके बाद ीरघुनाथजीक गोदसे उठकर बैठी ही थी क उस कौएने सहसा झपटकर मेरी छातीम च च मार दी॥ २२ ॥ ‘उसने बारंबार उड़कर मुझे अ घायल कर दया। मेरे शरीरसे र क बूँद झरने लग , इससे ीरामच जीक न द खुल गयी और वे जागकर उठ बैठे॥ २३ ॥ ‘मेरी छातीम घाव आ देख महाबा ीराम उस समय कु पत हो उठे और फु फकारते ए वषधर सपके समान जोर-जोरसे साँस लेते ए बोले—॥ २४ ॥ ‘हाथीक सूँड़के समान जाँघ वाली सु री! कसने तु ारी छातीको त- व त कया है? कौन रोषसे भरे ए पाँच मुखवाले सपके साथ खेल रहा है?’॥ २५ ॥ ‘इतना कहकर जब उ ने इधर-उधर ष्ट डाली, तब उस कौएको देखा, जो मेरी ओर ही मुँह कये बैठा था। उसके तीखे पंजे खूनसे रँग गये थे॥ २६ ॥ ‘वह प य म े कौआ इ का पु था। उसक ग त वायुके समान ती थी। वह शी ही गसे उड़कर पृ ीपर आ प ँ चा था॥ २७ ॥ ‘उस समय बु मान म े महाबा ीरामके ने ोधसे घूमने लगे। उ ने उस कौएको कठोर द देनेका वचार कया॥ २८ ॥ ‘ ीरामने कु शक चटा◌इसे एक कु श नकाला और उसे ा के म से अ भम त कया। अ भम त करते ही वह काला के समान लत हो उठा। उसका ल वह प ी ही था॥ २९ ॥ ‘ ीरघुनाथजीने वह लत कु श उस कौएक ओर छोड़ा। फर तो वह आकाशम उसका पीछा करने लगा॥ ३० ॥ ‘वह कौआ क◌इ कारक उड़ान लगाता अपने ाण बचानेके लये इस स ूण जग भागता फरा, कतु उस बाणने कह भी उसका पीछा न छोड़ा॥ ३१ ॥ ‘उसके पता इ तथा सम े मह षय ने भी उसका प र ाग कर दया। तीन लोक म घूमकर अ म वह पुन: भगवान् ीरामक ही शरणम आया॥ ‘रघुनाथजी शरणागतव ल ह। उनक शरणम आकर जब वह पृ ीपर गर पड़ा, तब उ उसपर दया आ गयी; अत: वधके यो होनेपर भी उस कौएको उ ने मारा नह , उबारा॥ ३३ ॥



‘उसक



श ीण हो चुक थी और वह उदास होकर सामने गरा था। इस अव ाम उसको ल करके भगवान् बोले—‘ ा को तो थ कया नह जा सकता। अत: बताओ, इसके ारा तु ारा कौन-सा अ -भ कया जाय’॥ ३४ ॥ ‘ फर उसक स तके अनुसार ीरामने उस अ से उस कौएक दा हनी आँ ख न कर दी। इस कार दायाँ ने देकर वह अपने ाण बचा सका॥ ३५ ॥ ‘तदन र दशरथन न राजा रामको नम ार करके उन वीर शरोम णसे वदा लेकर वह अपने नवास ानको चला गया॥ ३६ ॥ ‘क प े ! तुम मेरे ामीसे जाकर कहना— ‘ ाणनाथ ! पृ ीपते! आपने मेरे लये एक साधारण अपराध करनेवाले कौएपर भी ा का योग कया था; फर जो आपके पाससे मुझे हर ले आया, उसको आप कै से मा कर रहे ह?॥ ३७ ॥ ‘नर े ! मेरे ऊपर महान् उ ाहसे पूण कृ पा क जये। ाणनाथ! जो सदा आपसे सनाथ है, वह सीता आज अनाथ-सी दखायी देती है॥ ३८ ॥ ‘दया करना सबसे बड़ा धम है, यह मने आपसे ही सुना है। म आपको अ ी तरह जानती ँ । आपका बल, परा म और उ ाह महान् है॥ ३९ ॥ ‘आपका कह आर-पार नह है—आप असीम ह। आपको को◌इ ु या परा जत नह कर सकता। आप ग ीरताम समु के समान ह। समु पय सारी पृ ीके ामी ह तथा इ के समान तेज ी ह। म आपके भावको जानती ँ ॥ ४० ॥ ‘रघुन न! इस कार अ वे ा म े , बलवान् और श शाली होते ए भी आप रा स पर अपने अ का योग नह करते ह?॥ ४१ ॥ ‘पवनकु मार! नाग, ग व, देवता और म ण— को◌इ भी समरा णम ीरामच जीका वेग नह सह सकते॥ ४२ ॥ ‘उन परम परा मी ीरामके दयम य द मेरे लये कु छ ाकु लता है तो वे अपने तीखे सायक से इन रा स का संहार नह कर डालते?॥ ४३ ॥ ‘अथवा श ु को संताप देनेवाले महाबली वीर ल ण ही अपने बड़े भा◌इक आ ा लेकर मेरा उ ार नह करते ह?॥ ४४ ॥



‘वे दोन



पु ष सह वायु तथा इ के समान तेज ी ह। य द वे देवता के लये भी दुजय ह तो कस लये मेरी उपे ा करते ह?॥ ४५ ॥ ‘ न:संदेह मेरा ही को◌इ महान् पाप उ दत आ है, जससे वे दोन श ुसंतापी वीर मेरा उ ार करनेम समथ होते ए भी मुझपर कृ पा ष्ट नह कर रहे ह’॥ वदेहकु मारी सीताने आँ सू बहाते ए जब यह क णायु बात कही, तब इसे सुनकर वानरयूथप त महातेज ी हनुमान् इस कार बोले—॥ ४७ ॥ ‘दे व! म स क शपथ खाकर आपसे कहता ँ क ीरामच जी आपके वरह-शोकसे पी ड़त हो अ सब काय से वमुख हो गये ह—के वल आपका ही च न करते रहते ह। ीरामके दु:खी होनेसे ल ण भी सदा संत रहते ह॥ ४८ ॥ ‘ कसी तरह आपका दशन हो गया। अब शोक करनेका अवसर नह है। शोभने! इसी घड़ीसे आप अपने दु:ख का अ होता देखगी॥ ४९ ॥ ‘वे दोन पु ष सह राजकु मार बड़े बलवान् ह तथा आपको देखनेके लये उनके मनम वशेष उ ाह है। अत: वे सम रा स-जग ो भ कर डालगे॥ ५० ॥ ‘ वशाललोचने! रघुनाथजी समरा णम ू रता कट करनेवाले रावणको उसके ब -ु बा व स हत मारकर आपको अपनी पुरीम ले जायँगे॥ ५१ ॥ ‘अब भगवान् ीराम, महाबली ल ण, तेज ी सु ीव तथा वहाँ एक ए वानर के त आपको जो कु छ कहना हो, वह क हये’॥ ५२ ॥ हनुमा ीके ऐसा कहनेपर देवी सीताने फर कहा—‘क प े ! मन नी कौस ा देवीने ज ज दया है तथा जो स ूण जग े ामी ह, उन ीरघुनाथजीको मेरी ओरसे म क कु ाकर णाम करना और उनका कु शल-समाचार पूछना॥ ५३१/२ ॥ त ात् वशाल भूम लम भी जसका मलना क ठन है ऐसे उ म ऐ यका, भाँ तभाँ तके हार , सब कारके र तथा मनोहर सु री य का भी प र ाग कर पता-माताको स ा नत एवं राजी करके जो ीरामच जीके साथ वनम चले आये, जनके कारण सु म ा देवी उ म संतानवाली कही जाती ह, जनका च सदा धमम लगा रहता है, जो सव म सुखको ागकर वनम बड़े भा◌इ ीरामक र ा करते ए सदा उनके अनुकूल चलते ह, जनके कं धे सहके समान और भुजाएँ बड़ी-बड़ी ह, जो देखनेम य लगते और मनको वशम रखते ह,



जनका ीरामके त पताके समान और मेरे त माताके समान भाव तथा बताव रहता है, जन वीर ल णको उस समय मेरे हरे जानेक बात नह मालूम हो सक थी, जो बड़े-बूढ़ क सेवाम संल रहनेवाले, शोभाशाली, श मान् तथा कम बोलनेवाले ह, राजकु मार ीरामके य य म जनका सबसे ऊँ चा ान है, जो मेरे शुरके स श परा मी ह तथा ीरघुनाथजीका जन छोटे भा◌इ ल णके त सदा मुझसे भी अ धक ेम रहता है, जो परा मी वीर अपने ऊपर डाले ए कायभारको बड़ी यो ताके साथ वहन करते ह तथा ज देखकर ीरघुनाथजी अपने मरे ए पताको भी भूल गये ह (अथात् जो पताके समान ीरामके पालनम द च रहते ह)। उन ल णसे भी तुम मेरी ओरसे कु शल पूछना और वानर े ! मेरे कथनानुसार उनसे ऐसी बात कहना, ज सुनकर न कोमल, प व , द तथा ीरामके य ब ु ल ण मेरा दु:ख दूर करनेको तैयार हो जायँ॥ ५४—६२ ॥ ‘वानरयूथपते! अ धक ा क ँ ? जस तरह यह काय स हो सके , वही उपाय तु करना चा हये। इस वषयम तु माण हो—इसका सारा भार तु ारे ही ऊपर है। तु ारे ो ाहन देनेसे ही ीरघुनाथजी मेरे उ ारके लये य शील हो सकते ह॥ ६३ ॥ ‘तुम मेरे ामी शूरवीर भगवान् ीरामसे बारंबार कहना—‘दशरथन न! मेरे जीवनक अव धके लये जो मास नयत ह, उनमसे जतना शेष है, उतने ही समयतक म जीवन धारण क ँ गी। उन अव श दो महीन के बाद म जी वत नह रह सकती। यह म आपसे स क शपथ खाकर कह रही ँ ॥ ६४१/२ ॥ ‘वीर! पापाचारी रावणने मुझे कै द कर रखा है। अत: रा सय ारा शठतापूवक मुझे बड़ी पीड़ा दी जाती है। जैसे भगवान् व ुने इ क ल ीका पातालसे उ ार कया था, उसी कार आप यहाँसे मेरा उ ार कर’॥ ६५ ॥ ऐसा कहकर सीताने कपड़ेम बँधी ◌इ सु र द चूड़ाम णको खोलकर नकाला और ‘इसे ीरामच जीको दे देना’ ऐसा कहकर हनुमा ीके हाथपर रख दया॥ ६६ ॥ उस परम उ म म णर को लेकर वीर हनुमा ीने उसे अपनी अ ु लीम डाल लया। उनक बाँह अ सू होनेपर भी उसके छेदम न आ सक (इससे जान पड़ता है क हनुमा ीने अपना वशाल प दखानेके बाद फर सू प धारण कर लया था)॥ ६७ ॥ वह म णर लेकर क पवर हनुमा े सीताको णाम कया और उनक द णा करके वे वनीतभावसे उनके पास खड़े हो गये॥ ६८ ॥



सीताजीका दशन होनेसे उ महान् हष ा आ था। वे मन-ही-मन भगवान् ीराम और शुभ-ल णस ल णके पास प ँ च गये थे। उन दोन का च न करने लगे थे॥ ६९ ॥ राजा जनकक पु ी सीताने अपने वशेष भावसे जसे छपाकर धारण कर रखा था, उस ब मू म ण-र को लेकर हनुमा ी मन-ही-मन उस पु षके समान सुखी एवं स ए, जो कसी े पवतके ऊपरी भागसे उठी ◌इ बल वायुके वेगसे क त होकर पुन: उसके भावसे मु हो गया हो। तदन र उ ने वहाँसे लौट जानेक तैयारी क ॥ ७० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म अड़तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३८ ॥



उनतालीसवाँ सग चूड़ाम ण लेकर जाते ए हनुमा ीसे सीताका ीराम आ दको उ ा हत करनेके लये कहना तथा समु -तरणके वषयम श त ◌इ सीताको वानर का परा म बताकर हनुमा ीका आ ासन देना



म ण देनेके प ात् सीता हनुमा ीसे बोल — ‘मेरे इस च को भगवान् ीरामच जी भलीभाँ त पहचानते ह॥ १ ॥ ‘इस म णको देखकर वीर ीराम न य ही तीन य का—मेरी माताका, मेरा तथा महाराज दशरथका एक साथ ही रण करगे॥ २ ॥ ‘क प े ! तुम पुन: वशेष उ ाहसे े रत हो इस कायक स के लये जो भावी कत हो, उसे सोचो॥ ३ ॥ ‘वानर शरोमणे! इस कायको नभानेम तु माण हो—तुमपर ही सारा भार है। तुम इसके लये को◌इ ऐसा उपाय सोचो, जो मेरे दु:खका नवारण करनेवाला हो॥ ४ ॥ ‘हनूमन्! तुम वशेष य करके मेरा दु:ख दूर करनेम सहायक बनो।’ तब ‘ब त अ ा’ कहकर सीताजीक आ ाके अनुसार काय करनेक त ा करके वे भयंकर परा मी पवनकु मार वदेहन नीके चरण म म क कु ाकर वहाँसे जानेको तैयार ए॥ ५१/२ ॥ पवनपु वानरवीर हनुमा ो वहाँसे लौटनेके लये उ त जान म थलेशकु मारीका गला भर आया और वे अ ुग द वाणीम बोल —॥ ६१/२ ॥ ‘हनूमन्! तुम ीराम और ल ण दोन को एक साथ ही मेरा कु शल-समाचार बताना और उनका कु शल-म ल पूछना। वानर े ! फर म य स हत सु ीव तथा अ सब बड़े-बूढ़े वानर से धमयु कु शल-समाचार कहना और पूछना॥ ७-८ ॥ ‘महाबा ीरघुनाथजी जस कार इस दु:खके समु से मेरा उ ार कर, वैसा ही य तु करना चा हये॥ ‘हनुमन्! यश ी रघुनाथजी जस कार मेरे जीते-जी यहाँ आकर मुझसे मल—मुझे सँभाल वैसी ही बात तुम उनसे कहो और ऐसा करके वाणीके ारा धमाचरणका फल ा करो॥ १० ॥



‘य



तो दशरथन न भगवान् ीराम सदा ही उ ाहसे भरे रहते ह, तथा प मेरी कही ◌इ बात सुनकर मेरी ा के लये उनका पु षाथ और भी बढ़ेगा॥ ११ ॥ ‘तु ारे मुखसे मेरे संदेशसे यु बात सुनकर ही वीर रघुनाथजी परा म करनेम व धवत् अपना मन लगायगे’॥ १२ ॥ सीताक यह बात सुनकर पवनकु मार हनुमा े माथेपर अ ल बाँधकर वनयपूवक उनक बातका उ र दया—॥ १३ ॥ ‘दे व! जो यु म सारे श ु को जीतकर आपके शोकका नवारण करगे, वे ककु कु लभूषण भगवान् ीराम े वानर और भालु के साथ शी ही यहाँ पधारगे॥ १४ ॥ ‘म



मनु , असुर अथवा देवता म भी कसीको ऐसा नह देखता, जो बाण क वषा करते ए भगवान् ीरामके सामने ठहर सके ॥ १५ ॥ ‘भगवान् ीराम वशेषत: आपके लये तो यु म सूय, इ और सूयपु यमका भी सामना कर सकते ह॥ १६ ॥ ‘वे समु पय सारी पृ ीको भी जीत लेनेयो ह। जनकन न! आपके लये यु करते समय ीरामच जीको न य ही वजय ा होगी’॥ १७ ॥ हनुमा ीका कथन यु यु , स और सु र था। उसे सुनकर जनकन नीने उनका बड़ा आदर कया और वे उनसे फर कु छ कहनेको उ त ◌इं ॥ तदन र वहाँसे त ए हनुमा ीक ओर बार-बार देखती ◌इ सीताने सौहादवश ामीके त ेहसे यु स ानपूण बात कही—॥ १९ ॥ ‘श ु का दमन करनेवाले वीर! य द तुम ठीक समझो तो यहाँ एक दन कसी गु ानम नवास करो। इस तरह एक दन व ाम करके कल चले जाना॥ २० ॥ ‘वानरवीर! तु ारे नकट रहनेसे मुझ म भा गनीके महान् शोकका थोड़ी देरके लये नवारण हो जायगा॥ २१ ॥ ‘क प े ! व ामके प ात् यहाँसे या ा करनेके अन र य द फर तुमलोग के आनेम संदेह या वल आ तो मेरे ाण पर भी संकट आ जायगा, इसम संशय नह है॥ २२ ॥



‘वानरवीर! म दु:ख-पर-दु:ख उठा रही ँ । तु ारे चले मुझे पुन: द करता आ-सा संताप देता रहेगा॥ २३ ॥ ‘वीर



जानेपर तु न देख पानेका शोक



वानरे र! तु ारे साथी रीछ और वानर के वषयम मेरे सामने अब भी यह महान् संदेह तो व मान ही है क वे रीछ और वानर क सेनाएँ तथा वे दोन राजकु मार ीराम और ल ण इस दु ार महासागरको कै से पार करगे॥ २४-२५ ॥ ‘इस संसारम समु को लाँघनेक श तो के वल तीन ा णय म ही देखी गयी है। तुमम, ग ड़म अथवा वायुदेवताम॥ २६ ॥ ‘वीर! इस कार इस समु ल न पी कायको नभाना अ क ठन हो गया है। ऐसी दशाम तु काय स का कौन-सा उपाय दखायी देता है? यह बताओ; क काय स का उपाय जाननेवाले लोग म तुम सबसे े हो॥ २७ ॥ ‘श ुवीर का संहार करनेवाले पवनकु मार! इसम संदेह नह क तुम अके ले ही मेरे उ ार पी कायको स करनेम पूणत: समथ हो; परंतु ऐसा करनेसे जो वजय प फल ा होगा, उसका यश के वल तु को मलेगा, भगवान् ीरामको नह ॥ २८ ॥ ‘य द रघुनाथजी सारी सेनाके साथ रावणको यु म परा जत करके वजयी हो मुझे साथ ले अपनी पुरीको पधार तो वह उनके अनु प काय होगा॥ २९ ॥ ‘श ुसेनाका संहार करनेवाले ीराम य द अपनी सेना ारा ल ाको पदद लत करके मुझे अपने साथ ले चल तो वही उनके यो होगा॥ ३० ॥ ‘अत: तुम ऐसा उपाय करो जससे समरशूर महा ा ीरामका उनके अनु प परा म कट हो’॥ ३१ ॥ देवी सीताक उपयु बात अथयु , ेहयु तथा यु यु थी। उनक उस अव श बातको सुनकर हनुमा ीने इस कार उ र दया—॥ ३२ ॥ ‘दे व! वानर और भालु क सेनाके ामी क प े सु ीव स वादी ह। वे आपके उ ारके लये ढ़ न य कर चुके ह॥ ३३ ॥ ‘ वदेहन न! उनम रा स का संहार करनेक श है। वे सह को ट वानर क सेना साथ लेकर शी ही ल ापर चढ़ा◌इ करगे॥ ३४ ॥



‘उनके



पास परा मी, धैयशाली, महाबली और मान सक संक के समान ब त दूरतक उछलकर जानेवाले ब त-से वानर ह, जो उनक आ ाका पालन करनेके लये सदा तैयार रहते ह॥ ३५ ॥ ‘ जनक ऊपर-नीचे तथा इधर-उधर कह भी ग त नह कती। वे बड़े-से-बड़े काय के आ पड़नेपर भी कभी ह त नह हारते। उनम महान् तेज है॥ ३६ ॥ ‘उ ने अ उ ाहसे पूण होकर वायुपथ (आकाश)-का अनुसरण करते ए समु और पवत स हत इस पृ ीक अनेक बार प र मा क है॥ ३७ ॥ ‘सु ीवक सेनाम मेरे समान तथा मुझसे भी बढ़कर परा मी वानर ह। उनके पास को◌इ भी ऐसा वानर नह है जो बल-परा मम मुझसे कम हो॥ ३८ ॥ ‘जब म ही यहाँ आ गया, तब अ महाबली वीर के आनेम ा संदेह है? जो े पु ष होते ह, उ संदेश-वाहक दूत बनाकर नह भेजा जाता। साधारण को टके लोग ही भेजे जाते ह॥ ३९ ॥ ‘अत: दे व! आपको संताप करनेक आव कता नह है। आपका शोक दूर हो जाना चा हये। वानरयूथप त एक ही छलाँगम ल ा प ँ च जायँगे॥ ४० ॥ ‘उदयकालके सूय और च माक भाँ त शोभा पानेवाले और महान् वानर-समुदायके साथ रहनेवाले वे दोन पु ष सह ीराम और ल ण मेरी पीठपर बैठकर आपके पास आ प ँ चगे॥ ४१ ॥ ‘वे दोन नर े वीर ीराम और ल ण एक साथ आकर अपने सायक से ल ापुरीका व ंस कर डालगे॥ ४२ ॥ ‘वरारोहे! रघुकुलको आन त करनेवाले ीरघुनाथजी रावणको उसके सै नक स हत मारकर आपको साथ ले अपनी पुरीको लौटगे॥ ४३ ॥ ‘इस लये आप धैय धारण कर। आपका क ाण हो। आप समयक ती ा कर। लत अ के समान तेज ी ीरघुनाथजी आपको शी ही दशन दगे॥ ४४ ॥ ‘पु , म ी और ब ु-बा व स हत रा सराज रावणके मारे जानेपर आप ीरामच जीसे उसी कार मलगी, जैसे रो हणी च मासे मलती है॥ ४५ ॥



‘दे व!



म थलेशकु मारी! आप शी ही अपने शोकका अ आ देखगी। आपको यह भी ष्टगोचर होगा क ीरामच जीने रावणको बलपूवक मार डाला है’॥ ४६ ॥ वदेहन नी सीताको इस कार आ ासन दे पवनकु मार हनुमा ीने वहाँसे लौटनेका न य करके उनसे फर कहा—॥ ४७ ॥ ‘दे व! आप शी ही देखगी क शु दयवाले श ुनाशक ीरघुनाथजी तथा ल ण हाथम धनुष लये ल ाके ारपर आ प ँ चे ह॥ ४८ ॥ ‘नख और दाढ़ ही जनके अ -श ह तथा जो सह और ा के समान परा मी एवं गजराज के समान वशालकाय ह, ऐसे वानर को भी आप शी ही एक आ देखगी॥ ४९ ॥ ‘आय! पवत और मेघके समान वशालकाय मु -मु वानर के ब त-से ंडु ल ावत मलयपवतके शखर पर गजते दखायी दगे॥ ५० ॥ ‘ ीरामच जीके मम लम कामदेवके भयंकर बाण से चोट प ँ ची है। इस लये वे सहसे पी ड़त ए गजराजक भाँ त चैन नह पाते ह॥ ५१ ॥ ‘दे व! आप शोकके कारण रोदन न कर। आपके मनका भय दूर हो जाय। शोभने! जैसे शची देवराज इ से मलती ह, उसी कार आप अपने प तदेवसे मलगी॥ ५२ ॥ ‘भला, ीरामच जीसे बढ़कर दूसरा कौन है? तथा ल णजीके समान भी कौन हो सकता है? अ और वायुके तु तेज ी वे दोन भा◌इ आपके आ य ह (आपको को◌इ च ा नह करनी चा हये)॥ ५३ ॥ ‘दे व! रा स ारा से वत इस अ भयंकर देशम आपको अ धक दन तक नह रहना पड़ेगा। आपके यतमके आनेम वल नह होगा। जबतक मेरी उनसे भट न हो, उतने समयतकके वल को आप मा कर’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म उनतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ३९ ॥



चालीसवाँ सग सीताका ीरामसे कहनेके लये पुन: संदेश देना तथा हनुमा ीका उ आ ासन दे उ रदशाक ओर जाना



वायुपु महा ा हनुमा ीका वचन सुनकर देवक ाके समान तेज नी सीताने अपने हतके वचारसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘वानरवीर! तुमने मुझे बड़ा ही य संवाद सुनाया है। तु देखकर हषके मारे मेरे शरीरम रोमा हो आया है। ठीक उसी तरह, जैसे वषाका पानी पड़नेसे आधी जमी ◌इ खेतीवाली भू म हरी-भरी हो जाती है॥ २ ॥ ‘मुझपर ऐसी दया करो, जससे म शोकके कारण दुबल ए अपने अ ारा नर े ीरामका ेमपूवक श कर सकूँ ॥ ३ ॥ ‘वानर े ! ीरामने ोधवश जो कौएक एक आँ खको फोड़नेवाली स कका बाण चलाया था, उस स क तुम पहचानके पम उ याद दलाना॥ ४ ॥ ‘मेरी ओरसे यह भी कहना क ाणनाथ! पहलेक उस बातको भी याद क जये, जब क मेरे कपोलम लगे ए तलकके मट जानेपर आपने अपने हाथसे मै लका तलक लगाया था॥ ५ ॥ ‘महे और व णके समान परा मी यतम! आप बलवान् होकर भी अप त होकर रा स के घरम नवास करनेवाली मुझ सीताका तर ार कै से सहन करते ह?॥ ६ ॥ ‘ न ाप ाणे र! इस द चूड़ाम णको मने बड़े य से सुर त रखा था और संकटके समय इसे देखकर मानो मुझे आपका ही दशन हो गया हो, इस तरह म हषका अनुभव करती थी॥ ७ ॥ ‘समु के जलसे उ आ यह का मान् म णर आज आपको लौटा रही ँ । अब शोकसे आतुर होनेके कारण म अ धक समयतक जी वत नह रह सकूँ गी॥ ८ ॥ ‘दु:सह दु:ख, दयको छे दनेवाली बात और रा सय के साथ नवास—यह सब कु छ म आपके लये ही सह रही ँ ॥ ९ ॥



‘राजकु मार!



श ुसूदन! म आपक ती ाम कसी तरह एक मासतक जीवन धारण क ँ गी। इसके बाद आपके बना म जी वत नह रह सकूँ गी॥ १० ॥ ‘यह रा सराज रावण बड़ा ू र है। मेरे त इसक ष्ट भी अ ी नह है। अब य द आपको भी वल करते सुन लूँगी तो म णभर भी जी वत नह रह सकती’॥ ११ ॥ सीताजीके यह आँ सू बहाते कहे ए क णाजनक वचन सुनकर महातेज ी पवनकु मार हनुमा ी बोले—॥ ‘दे व! म स क शपथ खाकर कहता ँ क ीरघुनाथजी आपके शोकसे ही सब काम से वमुख हो रहे ह। ीरामके शोकातुर होनेसे ल ण भी ब त दु:खी रहते ह॥ १३ ॥ ‘अब कसी तरह आपका दशन हो गया, इस लये रोने-धोने या शोक करनेका अवसर नह रहा। भा म न! आप इसी मु तम अपने सारे दु:ख का अ आ देखगी॥ १४ ॥ ‘वे दोन भा◌इ पु ष सह राजकु मार ीराम और ल ण सव शं सत वीर ह। आपके दशनके लये उ ा हत होकर वे ल ापुरीको भ कर डालगे॥ १५ ॥ ‘ वशाललोचने! रा स रावणको समरा णम उसके ब -ु बा व स हत मारकर वे दोन रघुवंशी ब ु आपको अपनी पुरीम ले जायँगे॥ १६ ॥ ‘सती-सा ी दे व! जसे ीरामच जी जान सक और जो उनके दयम ेम एवं स ताका संचार करनेवाली हो, ऐसी को◌इ और भी पहचान आपके पास हो तो वह उनके लये आप मुझे द’॥ १७ ॥ तब सीताजीने कहा—‘क प े ! मने तु उ म-से-उ म पहचान तो दे ही दी। वीर हनुमन्! इसी आभूषणको य पूवक देख लेनेपर ीरामके लये तु ारी सारी बात व सनीय हो जायँगी’॥ १८१/२ ॥ उस े म णको लेकर वानर शरोम ण ीमान् हनुमान् देवी सीताको सर कु ा णाम करनेके प ात् वहाँसे जानेको उ त ए॥ १९१/२ ॥ वानरयूथप त महावेगशाली हनुमा ो वहाँसे छलाँग मारनेके लये उ ा हत हो बढ़ते देख जनकन नी सीताके मुखपर आँ सु क धारा बहने लगी। वे दु:खी हो अ -ु ग द वाणीम बोल —॥ २०-२१ ॥



‘हनूमन्!



सहके समान परा मी दोन भा◌इ ीराम और ल णसे तथा म य स हत सु ीव एवं अ सब वानर से मेरा कु शल-म ल कहना॥ २२ ॥ ‘महाबा ीरघुनाथजीको तु इस कार समझाना चा हये, जससे वे दु:खके इस महासागरसे मेरा उ ार कर॥ २३ ॥ ‘वानर के मुख वीर! मेरा यह दु:सह शोकवेग और इन रा स क यह डाँट-डपट भी तुम ीरामके समीप जाकर कहना। जाओ, तु ारा माग म लमय हो’॥ २४ ॥ राजकु मारी सीताके उ अ भ ायको जानकर क पवर हनुमा े अपनेको कृ ताथ समझा और स च होकर थोड़े-से शेष रहे कायका वचार करते ए वहाँसे उ र- दशाक ओर ान कया॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म चालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४० ॥



इकतालीसवाँ सग हनुमा ीके ारा मदावन (अशोकवा टका)-का व ंस



सीताजीसे उ म वचन ारा समादर पाकर वानरवीर हनुमा ी जब वहाँसे जाने लगे, तब उस ानसे दूसरी जगह हटकर वे इस कार वचार करने लगे—॥ १ ॥ ‘मने कजरारे ने वाली सीताजीका दशन तो कर लया, अब मेरे इस कायका थोड़ा-सा अंश (श ुक श का पता लगाना) शेष रह गया है। इसके लये चार उपाय ह—साम, दान, भेद और द । यहाँ साम आ द तीन उपाय को लाँघकर के वल चौथे उपाय (द )-का योग ही उपयोगी दखायी देता है॥ २ ॥ ‘रा स के त सामनी तका योग करनेसे को◌इ लाभ नह होता। इनके पास धन भी ब त है, अत: इ दान देनेका भी को◌इ उपयोग नह है। इसके सवा, ये बलके अ भमानम चूर रहते ह, अत: भेदनी तके ारा भी इ वशम नह कया जा सकता। ऐसी दशाम मुझे यहाँ परा म दखाना ही उ चत जान पड़ता है॥ ३ ॥ ‘इस कायक स के लये परा मके सवा यहाँ और कसी उपायका अवल न ठीक नह जँचता। य द यु म रा स के मु -मु वीर मारे जायँ तो ये लोग कसी तरह कु छ नरम पड़ सकते ह॥ ४ ॥ ‘जो पु ष धान कायके स हो जानेपर दूसरे-दूसरे ब त-से काय को भी स कर लेता है और पहलेके काय म बाधा नह आने देता, वही कायको सुचा पम कर सकता है॥ ५ ॥ ‘छोटे-से-छोटे कमक



भी स के लये को◌इ एक ही साधक हेतु नह आ करता। जो पु ष कसी काय या योजनको अनेक कारसे स करनेक कला जानता हो, वही कायसाधनम समथ हो सकता है॥ ‘य द इसी या ाम म इस बातको ठीक-ठीक समझ लूँ क अपने और श ुप म यु होनेपर कौन बल होगा और कौन नबल, त ात् भ व के कायका भी न य करके आज सु ीवके पास चलूँ तो मेरे ारा ामीक आ ाका पूण पसे पालन आ समझा जायगा॥ ७ ॥



‘परंतु



आज मेरा यहाँतक आना सुखद अथवा शुभ प रणामका जनक कै से होगा? रा स के साथ हठात् यु करनेका अवसर मुझे कै से ा होगा? तथा दशमुख रावण समरम अपनी सेनाको और मुझे भी तुलना क ष्टसे देखकर कै से यह समझ सके गा क कौन सबल है?॥ ८ ॥ ‘उस यु म म ी, सेना और सहायक स हत रावणका सामना करके म उसके हा दक अ भ ाय तथा सै नक-श का अनायास ही पता लगा लूँगा। उसके बाद यहाँसे जाऊँ गा॥ ९ ॥ ‘इस



नदयी रावणका यह सु र उपवन ने को आन देनेवाला और मनोरम है। नाना कारके वृ और लता से ा होनेके कारण यह न नवनके समान उ म तीत होता है॥ १० ॥ ‘जैसे आग सूखे वनको जला डालती है, उसी कार म भी आज इस उपवनका व ंस कर डालूँगा। इसके भ हो जानेपर रावण अव मुझपर ोध करेगा॥ ‘त ात् वह रा सराज हाथी, घोड़े तथा वशाल रथ से यु और शूल, कालायस एवं प श आ द अ -श से सुस त ब त बड़ी सेना लेकर आयेगा। फर तो यहाँ महान् सं ाम छड़ जायगा’॥ १२ ॥ ‘उस यु म मेरी ग त क नह सकती। मेरा परा म कु त नह हो सकता। म च परा म दखानेवाले उन रा स से भड़ जाऊँ गा और रावणक भेजी ◌इ उस सारी सेनाको मौतके घाट उतारकर सुखपूवक सु ीवके नवास ान क ापुरीको लौट जाऊँ गा’॥ १३ ॥ ऐसा सोचकर भयानक पु षाथ कट करनेवाले पवनकु मार हनुमा ी ोधसे भर गये और वायुके समान बड़े भारी वेगसे वृ को उखाड़-उखाड़कर फ कने लगे॥ तदन र वीर हनुमा े मतवाले प य के कलरवसे मुख रत और नाना कारके वृ एवं लता से भरे-पूरे उस मदावन (अ :पुरके उपवन)-को उजाड़ डाला॥ १५ ॥ वहाँके वृ को ख -ख कर दया। जलाशय को मथ डाला और पवत- शखर को चूर-चूर कर डाला। इससे वह सु र वन कु छ ही ण म अभ दखायी देने लगा॥ १६ ॥ नाना कारके प ी वहाँ भयके मारे च-च करने लगे, जलाशय के घाट टूट-फू ट गये, तामेके समान वृ के लाल-लाल प व मुरझा गये तथा वहाँके वृ और लताएँ भी र द डाली गय । इन सब कारण से वह मदावन वहाँ ऐसा जान पड़ता था, मानो दावानलसे लु स गया



हो। वहाँक लताएँ अपने आवरण के न - हो जानेसे घबरायी ◌इ य के समान तीत होती थ ॥ लताम प और च शालाएँ उजाड़ हो गय । पाले ए हसक ज ु, मृग तथा तरहतरहके प ी आतनाद करने लगे। र न मत ासाद तथा अ साधारण गृह भी तहस-नहस हो गये। इससे उस महान् मदावनका सारा प-सौ य न हो गया॥ १९ ॥ दशमुख रावणक य क र ा करनेवाले तथा अ :पुरके डा वहारके लये उपयोगी उस वशाल काननक भू म, जहाँ चंचल अशोक-लता के समूह शोभा पाते थे, क पवर हनुमा ीके बल योगसे ीहीन होकर शोचनीय लता के व ारसे यु हो गयी (उसक दुरव ा देखकर दशकके मनम दु:ख होता था)॥ २० ॥ इस कार महामना राजा रावणके मनको वशेष क प ँ चानेवाला काय करके अनेक महाब लय के साथ अके ले ही यु करनेका हौसला लेकर क प े हनुमा ी मदावनके फाटकपर आ गये। उस समय वे अपने अ तु तेजसे का शत हो रहे थे॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म इकतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४१ ॥



बयालीसवाँ सग रा



सय के मुखसे एक वानरके ारा मदावनके व स ं का समाचार सुनकर रावणका ककर नामक रा स को भेजना और हनुमा ीके ारा उन सबका संहार



उधर प य के कोलाहल और वृ के टूटनेक आवाज सुनकर सम लंका नवासी भयसे घबरा उठे ॥ १ ॥ पशु और प ी भयभीत होकर भागने तथा आतनाद करने लगे। रा स के सामने भयंकर अपशकु न कट होने लगे॥ २ ॥ मदावनम सोयी ◌इ वकराल मुखवाली रा सय क न ा टूट गयी। उ ने उठनेपर उस वनको उजड़ा आ देखा। साथ ही उनक उन वीर महाक प हनुमा ीपर भी पड़ी॥ ३ ॥



महाबली, महान् साहसी एवं महाबा हनुमा ीने जब उन रा सय को देखा, तब उ डरानेवाला वशाल प धारण कर लया॥ ४ ॥ पवतके समान बड़े शरीरवाले महाबली वानरको देखकर वे रा सयाँ जनकन नी सीतासे पूछने लग —॥ ५ ॥ ‘ वशाललोचने! यह कौन है? कसका है? और कहाँसे कस लये यहाँ आया है? इसने तु ारे साथ बातचीत क है? कजरारे ने ा वाली सु र! ये सब बात हम बताओ। तु डरना नह चा हये। इसने तु ारे साथ ा बात क थ ?’॥ ६-७ ॥ तब सवागसु री सा ी सीताने कहा—‘इ ानुसार प धारण करनेवाले रा स को समझने या पहचाननेका मेरे पास ा उपाय है?॥ ८ ॥ ‘तु जानो यह कौन है और ा करेगा? साँपके पैर को साँप ही पहचानता है, इसम संशय नह है॥ ‘म भी इसे देखकर ब त डरी ◌इ ँ । मुझे नह मालूम क यह कौन है? म तो इसे इ ानुसार प धारण करके आया आ को◌इ रा स ही समझती ँ ’॥ १० ॥ वदेहन नी सीताक यह बात सुनकर रा सयाँ बड़े वेगसे भाग । उनमसे कु छ तो वह खड़ी हो गय और कु छ रावणको सूचना देनेके लये चली गय ॥ ११ ॥



रावणके समीप जाकर उन वकराल मुखवाली रा सय ने रावणको यह सूचना दी क को◌इ वकट पधारी भयंकर वानर मदावनम आ प ँ चा है॥ १२ ॥ वे बोल —‘राजन्! अशोकवा टकाम एक वानर आया है, जसका शरीर बड़ा भयंकर है। उसने सीतासे बातचीत क है। वह महापरा मी वानर अभी वह मौजूद है॥ १३ ॥ ‘हमने ब त पूछा तो भी जनक कशोरी मृगनयनी सीता उस वानरके वषयम हम कु छ बताना नह चाहती ह॥ १४ ॥ ‘स व है वह इ या कु बेरका दूत हो अथवा ीरामने ही उसे सीताक खोजके लये भेजा हो॥ १५ ॥ ‘अ तु प धारण करनेवाले उस वानरने आपके मनोहर मदावनको, जसम नाना कारके पशु-प ी रहा करते थे, उजाड़ दया॥ १६ ॥ ‘ मदावनका को◌इ भी ऐसा भाग नह है, जसको उसने न न कर डाला हो। के वल वह ान, जहाँ जानक देवी रहती ह, उसने न नह कया है॥ १७ ॥ ‘जानक जीक र ाके लये उसने उस ानको बचा दया है या प र मसे थककर—यह न त पसे नह जान पड़ता है। अथवा उसे प र म तो ा आ होगा? उसने उस ानको बचाकर सीताक ही र ा क है॥ १८ ॥ ‘मनोहर प व और प से भरा आ वह वशाल अशोक वृ , जसके नीचे सीताका नवास है, उसने सुर त रख छोड़ा है॥ १९ ॥ ‘ जसने सीतासे वातालाप कया और उस वनको उजाड़ डाला, उस उ पधारी वानरको आप को◌इ कठोर द देनेक आ ा दान कर॥ २० ॥ ‘रा सराज! ज आपने अपने दयम ान दया है, उन सीता देवीसे कौन बात कर सकता है? जसने अपने ाण का मोह नह छोड़ा है, वह उनसे वातालाप कै से कर सकता है?’॥ २१ ॥ रा सय क यह बात सुनकर रा स का राजा रावण लत चताक भाँ त ोधसे जल उठा। उसके ने रोषसे घूमने लगे॥ २२ ॥ ोधम भरे ए रावणक आँ ख से आँ सूक बूँद टपकने लग , मानो जलते ए दो दीपक से आगक लपट के साथ तेलक बूँद झर रही ह ॥ २३ ॥



उस महातेज ी नशाचरने हनुमा ीको कै द करनेके लये अपने ही समान वीर ककर नामधारी रा स को जानेक आ ा दी॥ २४ ॥ राजाक आ ा पाकर अ ी हजार वेगवान् ककर हाथ म कू ट और मु र लये उस महलसे बाहर नकले॥ २५ ॥ उनक दाढ़ वशाल, पेट बड़ा और प भयानक था। वे सब-के -सब महान् बली, यु के अ भलाषी और हनुमा ीको पकड़नेके लये उ ुक थे॥ २६ ॥ मदावनके फाटकपर खड़े ए उन वानरवीरके पास प ँ चकर वे महान् वेगशाली नशाचर उनपर चार ओरसे इस कार झपटे, जैसे फ तगे आगपर टूट पड़े ह ॥ २७ ॥ वे व च गदा , सोनेसे मढ़े ए प रघ और सूयके समान लत बाण के साथ वानर े हनुमा र चढ़ आये॥ २८ ॥ हाथम ास और तोमर लये मु र, प श और शूल से सुस त हो वे सहसा हनुमा ो चार ओरसे घेरकर उनके सामने खड़े हो गये॥ २९ ॥ तब पवतके समान वशाल शरीरवाले तेज ी ीमान् हनुमान् भी अपनी पूँछको पृ ीपर पटककर बड़े जोरसे गजने लगे॥ ३० ॥ पवनपु हनुमान् अ वशाल शरीर धारण करके अपनी पूँछ फटकारने और उसके श से ल ाको त नत करने लगे॥ ३१ ॥ उनक पूँछ फटकारनेका ग ीर घोष ब त दूरतक गूँज उठता था। उससे भयभीत हो प ी आकाशसे गर पड़ते थे। उस समय हनुमा ीने उ रसे इस कार घोषणा क —॥ ३२ ॥ ‘अ बलवान् भगवान् ीराम तथा महाबली ल णक जय हो। ीरघुनाथजीके ारा सुर त राजा सु ीवक भी जय हो। म अनायास ही महान् परा म करनेवाले कोसलनरेश ीरामच जीका दास ँ । मेरा नाम हनुमान् है। म वायुका पु तथा श ुसेनाका संहार करनेवाला ँ । जब म हजार वृ और प र से हार करने लगूँगा, उस समय सह रावण मलकर भी यु म मेरे बलक समानता अथवा मेरा सामना नह कर सकते। म ल ापुरीको तहस-नहस कर डालूँगा और म थलेशकु मारी सीताको णाम करनेके अन र सब रा स के देखते-देखते अपना काय स करके जाऊँ गा’॥



हनुमा ीक इस गजनासे सम रा स पर भय एवं आत छा गया। उन सबने हनुमा ीको देखा। वे सं ा-कालके ऊँ चे मेघके समान लाल एवं वशालकाय दखायी देते थे॥ ३७ ॥ हनुमा ीने अपने ामीका नाम लेकर यं ही अपना प रचय दे दया था, इस लये रा स को उ पहचाननेम को◌इ संदेह नह रहा। वे नाना कारके भयंकर अ -श का हार करते ए चार ओरसे उनपर टूट पड़े॥ ३८ ॥ उन शूरवीर रा स ारा सब ओरसे घर जानेपर महाबली हनुमा े फाटकपर रखा आ एक भयंकर लोहेका प रघ उठा लया॥ ३९ ॥ जैसे वनतान न ग ड़ने छटपटाते ए सपको पंज म दाब रखा हो, उसी कार उस प रघको हाथम लेकर हनुमा ीने उन नशाचर का संहार आर कया॥ वीर पवनकु मार उस प रघको लेकर आकाशम वचरने लगे। जैसे सह ने धारी इ अपने व से दै का वध करते ह, उसी कार उ ने उस प रघसे सामने आये ए सम रा स को मार डाला॥ ४१ ॥ उन ककर नामधारी रा स का वध करके महावीर पवनपु हनुमा ी यु क इ ासे पुन: उस फाटकपर खड़े हो गये॥ ४२ ॥ तदन र वहाँ उस भयसे मु ए कु छ रा स ने जाकर रावणको यह समाचार नवेदन कया क सम ककर नामक रा स मार डाले गये॥ ४३ ॥ रा स क उस वशाल सेनाको मारी गयी सुनकर रा सराज रावणक आँ ख चढ़ गय और उसने ह के पु को जसके परा मक कह तुलना नह थी तथा यु म जसे परा करना नता क ठन था, हनुमा ीका सामना करनेके लये भेजा॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म बयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४२ ॥



ततालीसवाँ सग हनुमा ीके ारा चै



ासादका व ंस तथा उसके र क का वध



इधर ककर का वध करके हनुमा ी यह सोचने लगे क ‘मने वनको तो उजाड़ दया, परंतु इस चै * ासादको न नह कया है॥ १ ॥ ‘अत: आज इस चै ासादका भी व ंस कये देता ँ । मन-ही-मन ऐसा वचारकर पवनपु वानर े हनुमा ी अपने बलका दशन करते ए मे पवतके शखरक भाँ त ऊँ चे उस चै ासादपर उछलकर चढ़ गये’॥ २-३ ॥ उस पवताकार ासादपर चढ़कर महातेज ी वानर-यूथप त हनुमान् तुरंतके उगे ए दूसरे सूयक भाँ त शोभा पाने लगे॥ ४ ॥ उस ऊँ चे ासादपर आ मण करके दुधष वीर हनुमा ी अपनी सहज शोभासे उ ा सत होते ए पा रया पवतके समान तीत होने लगे॥ ५ ॥ वे तेज ी पवनकु मार वशाल शरीर धारण करके ल ाको त नत करते ए धृ तापूवक उस ासादको तोड़ने-फोड़ने लगे॥ ६ ॥ जोर-जोरसे होनेवाला वह तोड़-फोड़का श कान से टकराकर उ बहरा कये देता था। इससे मू चछत हो वहाँके प ी और ासादर क भी पृ ीपर गर पड़े॥ ७ ॥ उस समय हनुमा ीने पुन: यह घोषणा क — ‘अ वे ा भगवान् ीराम तथा महाबली ल णक जय हो। ीरघुनाथजीके ारा सुर त राजा सु ीवक भी जय हो। म अनायास ही महान् परा म करनेवाले कोसलनरेश ीरामच जीका दास ँ । मेरा नाम हनुमान् है। म वायुका पु तथा श ुसेनाका संहार करनेवाला ँ । जब म हजार वृ और प र से हार करने लगूँगा, उस समय सह रावण मलकर भी यु म मेरे बलक समानता अथवा मेरा सामना नह कर सकते। म ल ापुरीको तहस-नहस कर डालूँगा और म थलेशकु मारी सीताको णाम करनेके अन र सब रा स के देखते-देखते अपना काय स करके जाऊँ गा’॥ ८—११ ॥ ऐसा कहकर चै ासादपर खड़े ए वशालकाय वानरयूथप त हनुमान् रा स के मनम भय उ करते ए भयानक आवाजम गजना करने लगे॥ १२ ॥



उस भीषण गजनासे भा वत हो सैकड़ ासादर क नाना कारके ास, खड् ग और फरसे लये वहाँ आये॥ १३ ॥ उन वशालकाय रा स ने उन सब अ का हार करते ए वहाँ पवनकु मार हनुमा ीको घेर लया। व च गदा , सोनेके प जड़े ए प रघ और सूयतु तेज ी बाण से सुस त हो वे सब-के -सब उन वानर े हनुमा र चढ़ आये॥ १४१/२ ॥ वानर े हनुमा ो चार ओरसे घेरकर खड़ा आ रा स का वह महान् समुदाय ग ाजीके जलम उठे ए बड़े भारी भँवरके समान जान पड़ता था॥ १५१/२ ॥ तब रा स को इस कार आ मण करते देख पवनकु मार हनुमा े कु पत हो बड़ा भयंकर प धारण कया। उन महावीरने उस ासादके एक सुवणभू षत खंभेको, जसम सौ धार थ , बड़े वेगसे उखाड़ लया। उखाड़कर उन महाबली वीरने उसे घुमाना आर कया। घुमानेपर उससे आग कट हो गयी, जससे वह ासाद जलने लगा॥ १६—१८ ॥ ासादको जलते देख वानरयूथप त हनुमा े व से असुर का संहार करनेवाले इ क भाँ त उन सैकड़ रा स को उस खंभेसे ही मार डाला और आकाशम खड़े होकर उन तेज ी वीरने इस कार कहा—॥ १९१/२ ॥ ‘रा सो! सु ीवके वशम रहनेवाले मेरे-जैसे सह वशालकाय बलवान् वानर े सब ओर भेजे गये ह॥ २०१/२ ॥ ‘हम तथा दूसरे सभी वानर समूची पृ ीपर घूम रहे ह। क म दस हा थय का बल है तो क म सौ हा थय का। कतने ही वानर एक सह हा थय के समान बल- व मसे स ह॥ २१-२२ ॥ ‘ क का बल जलके महान् वाहक भाँ त अस है। कतने ही वायुके समान बलवान् ह और कतने ही वानर-यूथप त अपने भीतर असीम बल धारण करते ह॥ २३ ॥ ‘दाँत और नख ही जनके आयुध ह ऐसे अन बलशाली सैकड़ , हजार , लाख और करोड़ वानर से घरे ए वानरराज सु ीव यहाँ पधारगे, जो तुम सब नशाचर का संहार करनेम समथ ह॥ २४१/२ ॥ ‘अब न तो यह ल ापुरी रहेगी, न तुमलोग रहोगे और न वह रावण ही रह सके गा, जसने इ ाकु वंशी वीर महा ा ीरामके साथ वैर बाँध रखा है’॥ २५ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म ततालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४३ ॥ *ल



ाम रा स के कु लदेवताका जो ान था, उसीका नाम ‘चै ासाद’ रखा गया था।



चौवालीसवाँ सग ह -पु ज ुमालीका वध



रा सराज रावणक आ ा पाकर ह का बलवान् पु ज ुमाली, जसक दाढ़ ब त बड़ी थ , हाथम धनुष लये राजमहलसे बाहर नकला॥ १ ॥ वह लाल रंगके फू ल क माला और लाल रंगके ही व पहने ए था। उसके गलेम हार और कान म सु र कु ल शोभा दे रहे थे। उसक आँ ख घूम रही थ । वह वशालकाय, ोधी और सं ामम दुजय था॥ २ ॥ उसका धनुष इ धनुषके समान वशाल था। उसके ारा छोड़े जानेवाले बाण भी बड़े सु र थे। जब वह वेगसे उस धनुषको ख चता, तब उससे व और अश नके समान गड़गड़ाहट पैदा होती थी॥ ३ ॥ उस धनुषक महती टंकार- नसे स ूण दशाएँ , व दशाएँ और आकाश सभी सहसा गूँज उठे ॥ ४ ॥ वह गधे जुते ए रथपर बैठकर आया था। उसे देखकर वेगशाली हनुमा ी बड़े स ए और जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ ५ ॥ महातेज ी ज ुमालीने महाक प हनुमा ीको फाटकके छ ेपर खड़ा देख उ तीखे बाण से ब धना आर कर दया॥ ६ ॥ उसने अ च नामक बाणसे उनके मुखपर, कण नामक एक बाणसे म कपर और दस नाराच से उन कपी रक दोन भुजा पर गहरी चोट क ॥ ७ ॥ उसके बाणसे घायल आ हनुमा ीका लाल मुँह शरद-् ऋतुम सूयक करण से व हो खले ए लाल कमलके समान शोभा पा रहा था॥ ८ ॥ र से र त आ उनका वह र वणका मुख ऐसी शोभा पा रहा था, मानो आकाशम लाल रंगके वशाल कमलको सुवणमय जलक बूँद से स च दया गया हो—उसपर सोनेका पानी चढ़ा दया गया हो॥ ९ ॥ रा स ज ुमालीके बाण क चोट खाकर महाक प हनुमा ी कु पत हो उठे । उ ने अपने पास ही प रक एक ब त बड़ी च ान पड़ी देखी और उसे वेगसे उठाकर उन बलवान्



वीरने बड़े जोरसे उस रा सक ओर फ का॥ १०१/२ ॥ कतु ोधम भरे उस रा सने दस बाण मारकर उस र- शलाको तोड़-फोड़ डाला। अपने उस कमको थ आ देख च परा मी और बलशाली हनुमा े एक वशाल सालका वृ उखाड़कर उसे घुमाना आर कया॥ ११-१२ ॥ उन महान् बलशाली वानरवीरको सालका वृ घुमाते देख महाबली ज ुमालीने उनके ऊपर ब त-से बाण क वषा क ॥ १३ ॥ उसने चार बाण से सालवृ को काट गराया, पाँचसे हनुमा ीक भुजा म, एक बाणसे उनक छातीम और दस बाण से उनके दोन न के म भागम चोट प ँ चायी॥ १४ ॥ बाण से हनुमा ीका सारा शरीर भर गया। फर तो उ बड़ा ोध आ और उ ने उसी प रघको उठाकर उसे बड़े वेगसे घुमाना आर कया॥ १५ ॥ अ वेगवान् और उ ट बलशाली हनुमा े बड़े वेगसे घुमाकर उस प रघको ज ुमालीक वशाल छातीपर दे मारा॥ १६ ॥ फर तो न उसके म कका पता लगा और न दोन भुजा तथा घुटन का ही। न धनुष बचा न रथ, न वहाँ घोड़े दखायी दये और न बाण ही॥ १७ ॥ उस प रघसे वेगपूवक मारा गया महारथी ज ुमाली चूर-चूर ए वृ क भाँ त पृ ीपर गर पड़ा॥ १८ ॥ ज ुमाली तथा महाबली ककर के मारे जानेका समाचार सुनकर रावणको बड़ा ोध आ। उसक आँ ख रोषसे र वणक हो गय ॥ १९ ॥ महाबली ह पु ज ुमालीके मारे जानेपर नशाचरराज रावणके ने रोषसे लाल होकर घूमने लगे। उसने तुरंत ही अपने म ीके पु को, जो बड़े बलवान् और परा मी थे, यु के लये जानेक आ ा दी॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म चौवालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४४ ॥



पतालीसवाँ सग म ीके सात पु का वध



रा स के राजा रावणक आ ा पाकर म ीके सात बेटे,जो अ के समान तेज ी थे, उस राजमहलसे बाहर नकले॥ १ ॥ उनके साथ ब त बड़ी सेना थी। वे अ बलवान्, धनुधर, अ वे ा म े तथा पर र होड़ लगाकर श ुपर वजय पानेक इ ा रखनेवाले थे॥ २ ॥ उनके घोड़े जुते ए वशाल रथ सोनेक जालीसे ढके ए थे। उनपर जा-पताकाएँ फहरा रही थ और उनके प हय के चलनेसे मेघ क ग ीर गजनाके समान न होती थी। ऐसे रथ पर सवार हो वे अ मत परा मी म कु मार तपाये ए सोनेसे च त अपने धनुष क ट ार करते ए बड़े हष और उ ाहके साथ आगे बढ़े। उस समय वे सब-के -सब व ु हत मेघके समान शोभा पाते थे॥ ३-४ ॥ तब, पहले जो ककर नामक रा स मारे गये थे, उनक मृ ुका समाचार पाकर इन सबक माताएँ अम लक आश ासे भा◌इ-ब ु और सु द स हत शोकसे घबरा उठ ॥ ५ ॥ तपाये ए सोनेके आभूषण से वभू षत वे सात वीर पर र होड़-सी लगाकर फाटकपर खड़े ए हनुमा ीपर टूट पड़े॥ ६ ॥ जैसे वषाकालम मेघ वषा करते ए वचरते ह, उसी कार वे रा स पी बादल बाण क वषा करते ए वहाँ वचरण करने लगे। रथ क घघराहट ही उनक गजना थी॥ ७ ॥ तदन र रा स ारा क गयी उस बाण-वषासे हनुमा ी उसी तरह आ ा दत हो गये, जैसे को◌इ ग रराज जलक वषासे ढक गया हो॥ ८ ॥ उस समय नमल आकाशम शी तापूवक वचरते ए क पवर हनुमान् उन रा सवीर के बाण तथा रथके वेग को थ करते ए अपने-आपको बचाने लगे॥ ९ ॥ जैसे ोमम लम श शाली वायुदेव इ धनुषयु मेघ के साथ डा करते ह, उसी कार वीर पवनकु मार उन धनुधर वीर के साथ खेल-सा करते ए आकाशम अ तु शोभा पा रहे थे॥ १० ॥



परा मी हनुमा े रा स क उस वशाल वा हनीको भयभीत करते ए घोर गजना क और उन रा स पर बड़े वेगसे आ मण कया॥ ११ ॥ श ु को संताप देनेवाले उन वानरवीरने क को थ ड़से ही मार गराया, क को पैर से कु चल डाला, क का घूँस से काम तमाम कया और क को नख से फाड़ डाला॥ १२ ॥



कु छ लोग को छातीसे दबाकर उनका कचूमर नकाल दया और क - क को दोन जाँघ से दबोचकर मसल डाला। कतने ही नशाचर उनक गजनासे ही ाणहीन होकर वह पृ ीपर गर पड़े॥ १३ ॥ इस कार जब म ीके सारे पु मारे जाकर धराशायी हो गये, तब उनक बची-खुची सारी सेना भयभीत होकर दस दशा म भाग गयी॥ १४ ॥ उस समय हाथी वेदनाके मारे बुरी तरहसे च ाड़ रहे थे, घोड़े धरतीपर मरे पड़े थे तथा जनके बैठक, ज और छ आ द ख त हो गये थे, ऐसे टूटे ए रथ से समूची रणभू म पट गयी थी॥ १५ ॥ मागम खूनक न दयाँ बहती दखायी द तथा ल ापुरी रा स के व वध श के कारण मानो उस समय वकृ त रसे ची ार कर रही थी॥ १६ ॥ च परा मी और महाबली वानरवीर हनुमा ी उन बढ़े-चढ़े रा स को मौतके घाट उतारकर दूसरे रा स के साथ यु करनेक इ ासे फर उसी फाटकपर जा प ँ चे॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४५ ॥



छयालीसवाँ सग रावणके पाँच सेनाप तय का वध



महा ा हनुमा ीके ारा म ीके पु भी मारे गये—यह जानकर रावणने भयभीत होनेपर भी अपने आकारको य पूवक छपाया और उ म बु का आ य ले आगेके कत का न य कया॥ १ ॥ दश ीवने व पा , यूपा , दुधर, घस और भासकण—इन पाँच सेनाप तय को, जो बड़े वीर, नी त नपुण, धैयवान् तथा यु म वायुके समान वेगशाली थे, हनुमा ीको पकड़नेके लये आ ा दी॥ २-३ ॥ उसने कहा—‘सेनाके अ गामी वीरो! तुमलोग घोड़े, रथ और हा थय स हत बड़ी भारी सेना साथ लेकर जाओ और उस वानरको बलपूवक पकड़कर उसे अ ी तरह श ा दो॥ ४ ॥ ‘उस वनचारी वानरके पास प ँ चकर तुम सब लोग को सावधान और अ य शील हो जाना चा हये तथा काम वही करना चा हये, जो देश और कालके अनु प हो॥ ५ ॥ ‘जब म उसके अलौ कक कमको देखते ए उसके पपर वचार करता ँ , तब वह मुझे वानर नह जान पड़ता है। वह सवथा को◌इ महान् ाणी है, जो महान् बलसे स है॥ ६ ॥ ‘यह वानर है’ ऐसा समझकर मेरा मन उसक ओरसे शु ( व ) नह हो रहा है। यह जैसा स उप त है या जैसी बात चल रही ह, उ देखते ए म उसे वानर नह मानता ँ ॥ ७॥ ‘स व है इ ने हमलोग का वनाश करनेके लये अपने तपोबलसे इसक सृ ष्ट क हो। मेरी आ ासे तुम सब लोग ने मेरे साथ रहकर नाग स हत य , ग व , देवता , असुर और मह षय को भी अनेक बार परा जत कया है; अत: वे अव हमारा कु छ अ न करना चाहगे॥ ८-९ ॥ ‘अत: यह उ का रचा आ ाणी है, इसम संदेह नह । तुमलोग उसे हठपूवक पकड़ ले आओ। मेरी सेनाके अ गामी वीरो! तुम हाथी, घोड़े और रथ स हत बड़ी भारी सेना साथ लेकर जाओ और उस वानरको अ ी तरह श ा दो॥ १०१/२ ॥



‘वानर समझकर तु है। मने पहले बड़े-बड़े परा



उसक अवहेलना नह करनी चा हये; क वह धीर और परा मी मी वानर और भालू देखे ह॥ १११/२ ॥ ‘ जनके नाम इस कार ह—वाली, सु ीव, महाबली जा वान्, सेनाप त नील तथा वद आ द अ वानर॥ १२१/२ ॥ ‘ कतु उनका वेग ऐसा भयंकर नह है और न उनम ऐसा तेज, परा म, बु , बल, उ ाह तथा प धारण करनेक श ही है॥ १३१/२ ॥ ‘वानरके पम यह को◌इ बड़ा श शाली जीव कट आ है, ऐसा जानना चा हये। अत: तुमलोग महान् य करके उसे कै द करो॥ १४१/२ ॥ ‘भले ही इ स हत देवता, असुर, मनु एवं तीन लोक उतर आय, वे रणभू मम तु ारे सामने ठहर नह सकते॥ १५१/२ ॥ ‘तथा प समरा णम वजयक इ ा रखनेवाले नी त पु षको य पूवक अपनी र ा करनी चा हये; क यु म सफलता अ न त होती है’॥ १६१/२ ॥ ामीक आ ा ीकार करके वे सब-के -सब अ के समान तेज ी, महान् वेगशाली और अ बलवान् रा स तेज चलनेवाले घोड़ , मतवाले हा थय तथा वशाल रथ पर बैठकर यु के लये चल दये। वे सब कारके तीखे श और सेना से स थे॥ १७-१८१/२ ॥ आगे जानेपर उन वीर ने देखा, महाक प हनुमा ी फाटकपर खड़े ह और अपनी तेजोमयी करण से म त हो उदयकालके सूयक भाँ त देदी मान हो रहे ह। उनक श , बल, वेग, बु , उ ाह, शरीर और भुजाएँ सभी महान् थ ॥ १९-२०१/२ ॥ उ देखते ही वे सब रा स, जो सभी दशा म खड़े थे, भयंकर अ -श क वषा करते ए चार ओरसे उनपर टूट पड़े॥ २११/२ ॥ नकट प ँ चनेपर पहले दुधरने हनुमा ीके म कपर लोहेके बने ए पाँच बाण मारे। वे सभी बाण ममभेदी और पैनी धारवाले थे। उनके अ भागपर सोनेका पानी दया गया था। जससे वे पीतमुख दखायी देते थे। वे पाँच बाण उनके सरपर फु कमलदलके समान शोभा पा रहे थे॥ २२ ॥



म कम उन पाँच बाण से गहरी चोट खाकर वानरवीर हनुमा ी अपनी भीषण गजनासे दस दशा को त नत करते ए आकाशम ऊपरक ओर उछल पड़े॥ २३ ॥ तब रथम बैठे ए महाबली वीर दुधरने धनुष चढ़ाये क◌इ सौ बाण क वषा करते ए उनका पीछा कया॥ आकाशम खड़े ए उन वानरवीरने बाण क वषा करते ए दुधरको अपने कं ारमा से उसी कार रोक दया, जैसे वषा-ऋतुके अ म वृ ष्ट करनेवाले बादलको वायु रोक देती है॥ २५ ॥ जब दुधर अपने बाण से अ धक पीड़ा देने लगा, तब वे परम परा मी पवनकु मार पुन: वकट गजना करने और अपने शरीरको बढ़ाने लगे॥ २६ ॥ त ात् वे महावेगशाली वानरवीर ब त दूरतक ऊँ चे उछलकर सहसा दुधरके रथपर कू द पड़े, मानो कसी पवतपर बजलीका समूह गर पड़ा हो॥ २७ ॥ उनके भारसे रथके आठ घोड़ का कचूमर नकल गया, धुरी और कू बर टूट गये तथा दुधर ाणहीन हो उस रथको छोड़कर पृ ीपर गर पड़ा॥ २८ ॥ दुधरको धराशायी आ देख श ु का दमन करनेवाले दुधष वीर व पा और यूपा को बड़ा ोध आ। वे दोन आकाशम उछले॥ २९ ॥ उन दोन ने सहसा उछलकर नमल आकाशम खड़े ए महाबा क पवर हनुमा ीक छातीम मु र से हार कया॥ ३० ॥ उन दोन वेगवान् वीर के वेगको वफल करके महाबली हनुमा ी वेगशाली ग ड़के समान पुन: पृ ीपर कू द पड़े॥ ३१ ॥ वहाँ वानर शरोम ण पवनकु मारने एक साल-वृ के पास जाकर उसे उखाड़ लया और उसीके ारा उन दोन रा सवीर को मार डाला॥ ३२ ॥ उन वेगशाली वानरवीरके ारा उन तीन रा स को मारा गया देख महान् वेगसे यु बलवान् वीर घस हँ सता आ उनके पास आया। दूसरी ओरसे परा मी वीर भासकण भी अ ोधम भरकर शूल हाथम लये वहाँ आ प ँ चा। वे दोन यश ी क प े हनुमा ीके नकट एक ही ओर खड़े हो गये॥ ३३-३४ ॥



घसने तेज धारवाले प शसे तथा रा स भासकणने शूलसे क पकु र हनुमा ीपर हार कया॥ ३५ ॥ उन दोन के हार से हनुमा ीके शरीरम क◌इ जगह घाव हो गये और उनके शरीरक रोमावली र से रँग गयी। उस समय ोधम भरे ए वानरवीर हनुमान् ात:कालके सूयक भाँ त अ ण का से का शत हो रहे थे॥ ३६ ॥ तब मृग, सप और वृ स हत एक पवत- शखरको उखाड़कर क प े वीर हनुमा े उन दोन रा स पर दे मारा। पवत- शखरके आघातसे वे दोन पस गये और उनके शरीर तलके समान ख -ख हो गये॥ ३७ ॥ इस कार उन पाँच सेनाप तय के न हो जानेपर हनुमा ीने उनक बची-खुची सेनाका भी संहार आर कया॥ ३८ ॥ जैसे देवराज इ असुर का वनाश करते ह, उसी कार उन वानरवीरने घोड़ से घोड़ का, हा थय से हा थय का, यो ा से यो ा का और रथ से रथ का संहार कर डाला॥ ३९ ॥ मरे ए हा थय और ती गामी घोड़ से, टूटी ◌इ धुरीवाले वशाल रथ से तथा मारे गये रा स क लाश से वहाँक सारी भू म चार ओरसे इस तरह पट गयी थी क आने-जानेका रा ा बंद हो गया था॥ ४० ॥ इस कार सेना और वाहन स हत उन पाँच वीर सेनाप तय को रणभू मम मौतके घाट उतारकर महावीर वानर हनुमा ी पुन: यु के लये अवसर पाकर पहलेक ही भाँ त फाटकपर जाकर खड़े हो गये। उस समय वे जाका संहार करनेके लये उ त ए कालके समान जान पड़ते थे॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म छयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४६ ॥



सतालीसवाँ सग रावणपु अ कुमारका परा म और वध



हनुमा ीके ारा अपने पाँच सेनाप तय को सेवक और वाहन स हत मारा गया सुनकर राजा रावणने अपने सामने बैठे ए पु अ कु मारक ओर देखा, जो यु म उ त और उसके लये उ त रहनेवाला था॥ १ ॥ पताके ष्टपातमा से े रत हो वह तापी वीर यु के लये उ ाहपूवक उठा। उसका धनुष सुवणज टत होनेके कारण व च शोभा धारण करता था। जैसे े ा ण ारा य शालाम ह व क आ त देनेपर अ देव लत हो उठते ह, उसी कार वह भी सभाम उठकर खड़ा हो गया॥ २ ॥ वह महापरा मी रा स शरोम ण अ ात:कालीन सूयके समान का मान् तथा तपाये ए सुवणके जालसे आ ा दत रथपर आ ढ़ हो उन महाक प हनुमा ीके पास चल दया॥ ३ ॥



वह रथ उसे बड़ी भारी तप ा के सं हसे ा आ था। उसम तपे ए जा ूनद (सुवण)-क जाली जड़ी ◌इ थी। पताका फहरा रही थी। उसका जद र से वभू षत था। उसम मनके समान वेगवाले आठ घोड़े अ ी तरह जुते ए थे। देवता और असुर को◌इ भी उस रथको न नह कर सकते थे। उसक ग त कह कती नह थी। वह बजलीके समान का शत होता और आकाशम भी चलता था। उस रथको सब साम य से सुस त कया गया था। उसम तरकस रखे गये थे। आठ तलवार के बँधे रहनेसे वह और भी सु र दखायी देता था। उसम यथा ान श और तोमर आ द अ -श मसे रखे गये थे। च मा और सूयके समान दी मान् तथा सोनेक र ीसे यु यु के सम उपकरण से सुशो भत उस सूयतु तेज ी रथपर बैठकर देवता के तु परा मी अ कु मार राजमहलसे बाहर नकला॥ ४—६ ॥



घोड़े, हाथी और बड़े-बड़े रथ क भयंकर आवाजसे पवत स हत पृ ी तथा आकाशको गुँजाता आ वह बड़ी भारी सेना साथ लेकर वा टकाके ारपर बैठे ए श शाली वीर वानर हनुमा ीके पास जा प ँ चा॥ ७ ॥



सहके समान भयंकर ने वाले अ ने वहाँ प ँ चकर लोकसंहारके समय लत ◌इ लया के समान त और व य एवं स मम पड़े ए हनुमा ीको अ गवभरी ष्टसे देखा॥ ८ ॥ उन महा ा क प े के वेग तथा श ु के त उनके परा मका और अपने बलका भी वचार करके वह महाबली रावणकु मार लयकालके सूयक भाँ त बढ़ने लगा॥ ९ ॥ हनुमा ीके परा मपर ष्टपात करके उसे ोध आ गया। अत: रतापूवक त हो उसने एका च से तीन तीखे बाण ारा रणदुजय हनुमा ीको यु के लये े रत कया॥ १० ॥



तदन र हाथम धनुष और बाण लये अ ने यह जानकर क ‘ये खेद या थकावटको जीत चुके ह, श ु को परा जत करनेक यो ता रखते ह और यु के लये इनके मनका उ ाह बढ़ा आ है; इसी लये ये गव ले दखायी देते ह, उनक ओर ष्टपात कया॥ ११ ॥ गलेम सुवणके न (पदक), बाँह म बाजूबंद और कान म मनोहर कु ल धारण कये वह शी परा मी रावणकु मार हनुमा ीके पास आया। उस समय उन दोन वीर म जो ट र ◌इ, उसक कह तुलना नह थी। उनका यु देवता और असुर के मनम भी घबराहट पैदा कर देनेवाला था॥ १२ ॥ क प े हनुमान् और अ कु मारका वह सं ाम देखकर भूतलके सारे ाणी चीख उठे । सूयका ताप कम हो गया। वायुक ग त क गयी। पवत हलने लगे। आकाशम भयंकर श होने लगा और समु म तूफान आ गया॥ १३ ॥ अ कु मार नशाना साधने, बाणको धनुषपर चढ़ाने और उसे ल क ओर छोड़नेम बड़ा वीण था। उस वीरने वषधर सप के समान भयंकर, सुवणमय पंख से यु , सु र अ भागवाले तथा प यु तीन बाण हनुमा ीके म कम मारे॥ १४ ॥ उन तीन क चोट हनुमा ीके माथेम एक साथ ही लगी, इससे खूनक धारा गरने लगी। वे उस र से नहा उठे और उनक आँ ख घूमने लग । उस समय बाण पी करण से यु हो वे तुरंतके उगे ए अंशुमाली सूयके समान शोभा पाने लगे॥ १५ ॥ तदन र वानरराजके े म ी हनुमा ी रा सराज रावणके राजकु मार अ को अ त उ म व च आयुध एवं अ तु धनुष धारण कये देख हष और उ ाहसे भर गये और यु के लये उ त हो अपने शरीरको बढ़ाने लगे॥ १६ ॥



हनुमा ीका ोध ब त बढ़ा आ था। वे बल और परा मसे स थे, अत: म राचलके शखरपर का शत होनेवाले सूयदेवके समान वे अपनी ने ा मयी करण से उस समय सेना और सवा रय स हत राजकु मार अ को द -सा करने लगे॥ १७ ॥ तब जैसे बादल े पवतपर जल बरसाता है, उसी कार यु लम अपने शरासन पी इ -धनुषसे यु वह रा स पी मेघ बाणवष होकर क प े हनुमा ूपी पवतपर बड़े वेगसे बाण क वृ ष्ट करने लगा॥ १८ ॥ रणभू मम अ कु मारका परा म बड़ा च दखायी देता था। उसके तेज, बल, परा म और बाण सभी बढ़े-चढ़े थे। यु लम उसक ओर ष्टपात करके हनुमा ीने हष और उ ाहम भरकर मेघके समान भयानक गजना क ॥ १९ ॥ समरा णम बलके घमंडम भरे ए अ कु मारको उनक गजना सुनकर बड़ा ोध आ। उसक आँ ख र के समान लाल हो गय । वह अपने बालो चत अ ानके कारण अनुपम परा मी हनुमा ीका सामना करनेके लये आगे बढ़ा। ठीक उसी तरह, जैसे को◌इ हाथी तनक से ढके ए वशाल कू पक ओर अ सर होता है॥ २० ॥ उसके बलपूवक चलाये ए बाण से व होकर हनुमा ीने तुरंत ही उ ाहपूवक आकाशको वदीण करते ए-से मेघके समान ग ीर रसे भीषण गजना क । उस समय दोन भुजा और जाँघ को चलानेके कारण वे बड़े भयंकर दखायी देते थे॥ २१ ॥ उ आकाशम उछलते देख र थय म े और रथपर चढ़े ए उस बलवान्, तापी एवं रा स शरोम ण वीरने बाण क वषा करते ए उनका पीछा कया। उस समय वह ऐसा जान पड़ता था मानो को◌इ मेघ कसी पवतपर ओले और प र क वषा कर रहा हो॥ २२ ॥ उस यु लम मनके समान वेगवाले वीर हनुमा ी भयंकर परा म कट करने लगे। वे अ कु मारके उन बाण को थ करते ए वायुके पथपर वचरते और दो बाण के बीचसे हवाक भाँ त नकल जाते थे॥ २३ ॥ अ कु मार हाथम धनुष लये यु के लये उ ुख हो नाना कारके उ म बाण ारा आकाशको आ ा दत कये देता था। पवनकु मार हनुमा े उसे बड़े आदरक ष्टसे देखा और वे मन-ही-मन कु छ सोचने लगे॥ २४ ॥ इतनेहीम महामना वीर अ कु मारने अपने बाण ारा क प े हनुमा ीक दोन भुजा के म भाग— छातीम गहरा आघात कया। वे महाबा वानरवीर समयो चत



कत वशेषको ठीक-ठीक जानते थे; अत: वे रण े म उस चोटको सहकर सहनाद करते ए उसके परा मके वषयम इस कार वचार करने लगे—॥ २५ ॥ ‘यह महाबली अ कु मार बालसूयके समान तेज ी है और बालक होकर भी बड़ के समान महान् कम कर रहा है। यु स ी सम कम म कु शल होनेके कारण अ तु शोभा पानेवाले इस वीरको यहाँ मार डालनेक मेरी इ ा नह हो रही है॥ २६ ॥ ‘यह महामन ी रा सकु मार बल-परा मक ष्टसे महान् है। यु म सावधान एवं एका च है तथा श ुके वेगको सहन करनेम अ समथ है। अपने कम और गुण क उ ृ ताके कारण यह नाग , य और मु नय के ारा भी शं सत आ होगा, इसम संशय नह है॥ २७ ॥ ‘परा म और उ ाहसे इसका मन बढ़ा आ है। यह यु के मुहानेपर मेरे सामने खड़ा हो मुझे ही देख रहा है। शी तापूवक यु करनेवाले इस वीरका परा म देवता और असुर के दयको भी क त कर सकता है॥ २८ ॥ ‘ कतु य द इसक उपे ा क गयी तो यह मुझे परा कये बना नह रहेगा; क सं ामम इसका परा म बढ़ता जा रहा है। अत: अब इसे मार डालना ही मुझे अ ा जान पड़ता है। बढ़ती ◌इ आगक उपे ा करना कदा प उ चत नह है’॥ २९ ॥ इस कार श ुके वेगका वचार कर उसके तीकारके लये अपने कत का न य करके महान् बल और परा मसे स हनुमा ीने उस समय अपना वेग बढ़ाया और उस श ुको मार डालनेका वचार कया॥ ३० ॥ त ात् आकाशम वचरते ए वीर वानर पवनकु मारने थ ड़ क मारसे अ कु मारके उन आठ उ म और वशाल घोड़ को, जो भार सहन करनेम समथ और नाना कारके पतरे बदलनेक कलाम सु श त थे, यमलोक प ँ चा दया॥ ३१ ॥ तदन र वानरराज सु ीवके म ी हनुमा ीने अ कु मारके उस वशाल रथको भी अ भभूत कर दया, उ ने हाथसे ही पीटकर रथक बैठक तोड़ डाली और उसके हरसेको उलट दया। घोड़े तो पहले ही मर चुके थे, अत: वह महान् रथ आकाशसे पृ ीपर गर पड़ा॥ ३२ ॥ उस समय महारथी अ कु मार धनुष और तलवार ले रथ छोड़कर अ र म ही उड़ने लगा। ठीक वैसे ही, जैसे को◌इ उ श से स मह ष योगमागसे शरीर ागकर गलोकक ओर चला जा रहा हो॥ ३३ ॥



तब वायुके समान वेग और परा मवाले क पवर हनुमा ीने प राज ग ड़, वायु तथा स से से वत ोममागम वचरते ए उस रा सके पास प ँ चकर मश: उसके दोन पैर ढ़तापूवक पकड़ लये॥ ३४ ॥ फर तो अपने पता वायु देवताके तु परा मी वानर- शरोम ण हनुमा े जस कार ग ड़ बड़े-बड़े सप को घुमाते ह, उसी तरह उसे हजार बार घुमाकर बड़े वेगसे उस यु -भू मम पटक दया॥ ३५ ॥ नीचे गरते ही उसक भुजा, जाँघ, कमर और छातीके टुकड़े-टुकड़े हो गये, खूनक धारा बहने लगी, शरीरक ह याँ चूर-चूर हो गय , आँ ख बाहर नकल आय , अ य के जोड़ टूट गये और नस-ना ड़य के ब न श थल हो गये। इस तरह वह रा स पवनकु मार हनुमा ीके हाथसे मारा गया॥ ३६ ॥ अ कु मारको पृ ीपर पटककर महाक प हनुमा ीने रा सराज रावणके दयम ब त बड़ा भय उ कर दया। उसके मारे जानेपर न -म लम वचरनेवाले मह षय , य , नाग , भूत तथा इ स हत देवता ने वहाँ एक होकर बड़े व यके साथ हनुमा ीका दशन कया॥ ३७ ॥ यु म इ पु जय के समान परा मी और लाल-लाल आँ ख वाले अ कु मारका काम तमाम करके वीरवर हनुमा ी जाके संहारके लये उ त ए कालक भाँ त पुन: यु क ती ा करते ए वा टकाके उसी ारपर जा प ँ चे॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म सतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४७ ॥



अड़तालीसवाँ सग इ



जत् और हनुमा ीका यु , उसके द ा के ब नम बँधकर हनुमा ीका रावणके दरबारम उप त होना



तदन र हनुमा ीके ारा अ कु मारके मारे जानेपर रा स का ामी महाकाय रावण अपने मनको कसी तरह सु र करके रोषसे जल उठा और देवता के तु परा मी कु मार इ जत् (मेघनाद)-को इस कार आ ा दी—॥ १ ॥ ‘बेटा! तुमने ाजीक आराधना करके अनेक कारके अ का ान ा कया है। तुम अ वे ा, श धा रय म े तथा देवता और असुर को भी शोक दान करनेवाले हो। इ स हत स ूण देवता के समुदायम तु ारा परा म देखा गया है॥ २ ॥ ‘इ के आ यम रहनेवाले देवता और म ण भी समरभू मम तु ारे अ -बलका सामना होनेपर टक नह सके ह॥ ३ ॥ ‘तीन लोक म तु ारे सवा दूसरा को◌इ ऐसा नह है, जो यु से थकता न हो। तुम अपने बा बलसे तो सुर त हो ही, तप ाके बलसे भी पूणत: नरापद हो। देश-कालका ान रखनेवाल म धान और बु क ष्टसे भी सव े तु हो॥ ४ ॥ ‘यु म तु ारे वीरो चत कम के ारा कु छ भी असा नह है। शा ानुकूल बु पूवक राजकायका वचार करते समय तु ारे लये कु छ भी अस व नह है। तु ारा को◌इ भी वचार ऐसा नह होता, जो कायका साधक न हो। लोक म एक भी ऐसा वीर नह है, जो तु ारी शारी रक श और अ -बलको न जानता हो॥ ५ ॥ ‘तु ारा तपोबल, यु वषयक परा म और अ -बल मेरे ही समान है। यु लम तुमको पाकर मेरा मन कभी खेद या वषादको नह ा होता; क इसे यह न त व ास रहता है क वजय तु ारे प म होगी॥ ६ ॥ ‘देखो, ककर नामवाले सम रा स मार डाले गये। ज ुमाली नामका रा स भी जी वत न रह सका, म ीके सात वीर पु तथा मेरे पाँच सेनाप त भी कालके गालम चले गये॥ ७॥



‘उनके



साथ ही हाथी, घोड़े और रथ स हत मेरी ब त-सी बल-वीयसे स सेनाएँ भी न हो गय और तु ारा य ब ु कु मार अ भी मार डाला गया। श ुसूदन! मुझम जो तीन लोक पर वजय पानेक श है, वह तु म है। पहले जो लोग मारे गये ह, उनम वह श नह थी (इस लये तु ारी वजय न त है)॥ ८ ॥ ‘इस कार अपनी वशाल सेनाका संहार और उस वानरका भाव एवं परा म देखकर तुम अपने बलका भी वचार कर लो; फर अपनी श के अनुसार उ ोग करो॥ ९ ॥ ‘श धा रय म े वीर! तु ारे सब श ु शा हो चुके ह। तुम अपने और पराये बलका वचार करके ऐसा य करो, जससे यु भू मके नकट तु ारे प ँ चते ही मेरी सेनाका वनाश क जाय॥ १० ॥ ‘वीरवर! तु अपने साथ सेना नह ले जानी चा हये; क वे सेनाएँ समूह-क -समूह या तो भाग जाती ह या मारी जाती ह। इसी तरह अ धक ती णता और कठोरतासे यु व लेकर भी जानेक को◌इ आव कता नह है ( क उसके ऊपर वह भी थ स हो चुका है)। उस वायुपु हनुमा ग त अथवा श का को◌इ माप-तौल या सीमा नह है। वह अ तु तेज ी वानर कसी साधन वशेषसे नह मारा जा सकता॥ ११ ॥ ‘इन सब बात का अ ी तरह वचार करके तप ीम अपने समान ही परा म समझकर तुम अपने च को एका कर लो—सावधान हो जाओ। अपने इस धनुषके द भावको याद रखते ए आगे बढ़ो और ऐसा परा म करके दखाओ, जो खाली न जाय॥ ‘उ म बु वाले वीर! म तु जो ऐसे संकटम भेज रहा ँ , यह य प ( ेहक ष्टसे) उ चत नह है, तथा प मेरा यह वचार राजनी त और य-धमके अनुकूल है॥ १३ ॥ ‘श ुदमन! वीर पु षको सं ामम नाना कारके श क कु शलता अव ा करनी चा हये, साथ ही यु म वजय पानेक भी अ भलाषा रखनी चा हये’॥ १४ ॥ अपने पता रा सराज रावणके इस वचनको सुनकर देवता के समान भावशाली वीर मेघनादने यु के लये न त वचार करके ज ीसे अपने ामी रावणक प र मा क ॥ १५ ॥



त ात् सभाम बैठे ए अपने दलके य रा स ारा भू र-भू र शं सत हो इ जत् वकट यु के लये मनम उ ाह भरकर सं ामभू मक ओर जानेको उ त आ॥ १६ ॥



उस समय फु कमलदलके समान वशाल ने वाला रा सराज रावणका पु महातेज ी ीमान् इ जत् पवके दन उमड़े ए समु के समान वशेष हष और उ ाहसे पूण हो राजमहलसे बाहर नकला॥ जसका वेग श ु के लये अस था, वह इ के समान परा मी मेघनाद प राज ग ड़के समान ती ग त तथा तीखे दाढ़ वाले चार सह से जुते ए उ म रथपर आ ढ़ आ॥ १८ ॥ अ -श का ाता, अ वे ा म अ ग और धनुधर म े वह रथी वीर रथके ारा शी उस ानपर गया, जहाँ हनुमा ी उसक ती ाम बैठे थे॥ १९ ॥ उसके रथक घघराहट और धनुषक ाका ग ीर घोष सुनकर वानरवीर हनुमा ी अ हष और उ ाहसे भर गये॥ २० ॥ इ जत् यु क कलाम वीण था। वह धनुष और तीखे अ भागवाले सायक को लेकर हनुमा ीको ल करके आगे बढ़ा॥ २१ ॥ दयम हष और उ ाह तथा हाथ म बाण लेकर वह ही यु के लये नकला, ही स ूण दशाएँ म लन हो गय और भयानक पशु नाना कारसे आतनाद करने लगे॥ २२ ॥ उस समय वहाँ नाग, य , मह ष और न -म लम वचरनेवाले स गण भी आ गये। साथ ही प य के समुदाय भी आकाशको आ ा दत करके अ हषम भरकर उ रसे चहचहाने लगे॥ २३ ॥ इ ाकार च वाली जासे सुशो भत रथपर बैठकर शी तापूवक आते ए मेघनादको देखकर वेगशाली वानर-वीर हनुमा े बड़े जोरसे गजना क और अपने शरीरको बढ़ाया॥ २४ ॥ उस द रथपर बैठकर व च धनुष धारण करनेवाले इ ज े बजलीक गड़गड़ाहटके समान टंकार करनेवाले अपने धनुषको ख चा॥ २५ ॥ फर तो अ दु:सह वेग और महान् बलसे स हो यु म नभय होकर आगे बढ़नेवाले वे दोन वीर क पवर हनुमान् तथा रा सराजकु मार मेघनाद पर र वैर बाँधकर देवराज इ और दै राज ब लक भाँ त एक-दूसरेसे भड़ गये॥ २६ ॥ अ मेय श शाली हनुमा ी वशाल शरीर धारण करके अपने पता वायुके मागपर वचरने और यु म स ा नत होनेवाले उस धनुधर महारथी रा सवीरके बाण के महान् वेगको



थ करने लगे॥ २७ ॥ इतनेहीम श ुवीर का संहार करनेवाले इ ज े बड़ी और तीखी नोक तथा सु र पर वाले, सोनेक व च पंख से सुशो भत और व के समान वेगशाली बाण को लगातार छोड़ना आर कया॥ २८ ॥ उस समय उसके रथक घघराहट, मृद , भेरी और पटह आ द बाज के श एवं ख चे जाते ए धनुषक टंकार सुनकर हनुमा ी फर ऊपरक ओर उछले॥ २९ ॥ ऊपर जाकर वे महाक प वानरवीर ल बेधनेम स मेघनादके साधे ए नशानेको थ करते ए उसके छोड़े ए बाण के बीचसे शी तापूवक नकलकर अपनेको बचाने लगे॥ ३० ॥ वे पवनकु मार हनुमान् बारंबार उसके बाण के सामने आकर खड़े हो जाते और फर दोन हाथ फै लाकर बात-क -बातम उड़ जाते थे॥ ३१ ॥ वे दोन वीर महान् वेगसे स तथा यु करनेक कलाम चतुर थे। वे स ूण भूत के च को आक षत करनेवाला उ म यु करने लगे॥ ३२ ॥ वह रा स हनुमा ीपर हार करनेका अवसर नह पाता था और पवनकु मार हनुमा ी भी उस महामन ी वीरको धर दबानेका मौका नह पाते थे। देवता के समान परा मी वे दोन वीर पर र भड़कर एक-दूसरेके लये दु:सह हो उठे थे॥ ३३ ॥ ल वेधके लये चलाये ए मेघनादके वे अमोघ बाण भी जब थ होकर गर पड़े, तब ल पर बाण का संधान करनेम सदा एका च रहनेवाले उस महामन ी वीरको बड़ी च ा ◌इ॥ ३४ ॥ उन क प े को अव समझकर रा सराजकु मार मेघनाद वानरवीर म मुख हनुमा ीके वषयम यह वचार करने लगा क ‘इ कसी तरह कै द कर लेना चा हये, परंतु ये मेरी पकड़म आ कै से सकते ह?’॥ ३५ ॥ फर तो अ वे ा म े उस महातेज ी वीरने उन क प े को ल करके अपने धनुषपर ाजीके दये ए अ का संधान कया॥ ३६ ॥ अ त के ाता इ ज े महाबा पवनकु मारको अव जानकर उ उस अ से बाँध लया॥ ३७ ॥



रा स ारा उस अ से बाँध लये जानेपर वानरवीर हनुमा ी न े होकर पृ ीपर गर पड़े॥ ३८ ॥ अपनेको ा से बँधा आ जानकर भी उ भगवान् ाके भावसे हनुमा ीको थोड़ी-सी भी पीड़ाका अनुभव नह आ। वे मुख वानरवीर अपने ऊपर ाजीके महान् अनु हका वचार करने लगे॥ ३९ ॥ जन म के देवता सा ात् य ू ा ह, उनसे अ भम त ए उस ा को देखकर हनुमा ीको पतामह ासे अपने लये मले ए वरदानका रण हो आया ( ाजीने उ वर दया था क मेरा अ तु एक ही मु तम अपने ब नसे मु कर देगा)॥ ४० ॥ फर वे सोचने लगे ‘लोकगु ाके भावसे मुझम इस अ के ब नसे छु टकारा पानेक श नह है—ऐसा मानकर ही इ ज े मुझे इस कार बाँधा है, तथा प मुझे भगवान् ाके स ानाथ इस अ ब नका अनुसरण करना चा हये’॥ ४१ ॥ क प े हनुमा ीने उस अ क श , अपने ऊपर पतामहक कृ पा तथा अपनेम उसके ब नसे छू ट जानेक साम —इन तीन पर वचार करके अ म ाजीक आ ाका ही अनुसरण कया॥ ४२ ॥ उनके मनम यह बात आयी क ‘इस अ से बँध जानेपर भी मुझे को◌इ भय नह है; क ा, इ और वायुदेवता तीन मेरी र ा करते ह॥ ४३ ॥ ‘रा स ारा पकड़े जानेम भी मुझे महान् लाभ ही दखायी देता है; क इससे मुझे रा सराज रावणके साथ बातचीत करनेका अवसर मलेगा। अत: श ु मुझे पकड़कर ले चल’॥ ४४ ॥ ऐसा न य करके वचारपूवक काय करनेवाले श ुवीर के संहारक हनुमा ी न े हो गये। फर तो सभी श ु नकट आकर उ बलपूवक पकड़ने और डाँट बताने लगे। उस समय हनुमा ी, मानो क पा रहे ह , इस कार चीखते और कटकटाते थे॥ ४५ ॥ रा स ने देखा, अब यह हाथ-पैर नह हलाता, तब वे श ुह ा हनुमा ीको सुतरी और वृ के व लको बटकर बनाये गये र से बाँधने लगे॥ ४६ ॥ श ुवीर ने जो उ हठपूवक बाँधा और उनका तर ार कया, यह सब कु छ उस समय उ अ ा लगा। उनके मनम यह न त वचार हो गया था क ऐसी अव ाम रा सराज



रावण स वत: कौतूहलवश मुझे देखनेक इ ा करेगा (इसी लये वे सब कु छ सह रहे थे)॥ ४७ ॥ व लके र ेसे बँध जानेपर परा मी हनुमान् ा के ब नसे मु हो गये; क उस अ का ब न कसी दूसरे ब नके साथ नह रहता॥ ४८ ॥ वीर इ ज े जब देखा क यह वानर शरोम ण तो के वल वृ के व लसे बँधा है, द ा के ब नसे मु हो चुका है, तब उसे बड़ी च ा ◌इ। वह सोचने लगा—‘दूसरी व ु से बँधा आ होनेपर भी यह अ -ब नम बँधे एक भाँ त बताव कर रहा है। ओह! इन रा स ने मेरा कया आ ब त बड़ा काम चौपट कर दया। इ ने म क श पर वचार नह कया। यह अ जब एक बार थ हो जाता है, तब पुन: दूसरी बार इसका योग नह हो सकता। अब तो वजयी होकर भी हम सब लोग संशयम पड़ गये॥ हनुमा ी य प अ के ब नसे मु हो गये थे तो भी उ ने ऐसा बताव कया, मानो वे इस बातको जानते ही न ह । ू र रा स उ ब न से पीड़ा देते और कठोर मु से मारते ए ख चकर ले चले। इस तरह वे वानरवीर रा सराज रावणके पास प ँ चाये गये॥ तब इ ज े उन महाबली वानरवीरको ा से मु तथा वृ के व ल क र य से बँधा देख उ वहाँ सभास ण स हत राजा रावणको दखाया॥ ५३ ॥ मतवाले हाथीके समान बँधे ए उन वानर- शरोम णको रा स ने रा सराज रावणक सेवाम सम पत कर दया॥ ५४ ॥ उ देखकर रा सवीर आपसम कहने लगे— ‘यह कौन है? कसका पु या सेवक है? कहाँसे आया है? यहाँ इसका ा काम है? तथा इसे सहारा देनेवाला कौन है?॥ ५५ ॥ कु छ दूसरे रा स जो अ ोधसे भरे थे, पर र इस कार बोले—‘इस वानरको मार डालो, जला डालो या खा डालो’॥ ५६ ॥ महा ा हनुमा ी सारा रा ा तै करके जब सहसा रा सराज रावणके पास प ँ च गये, तब उ ने उसके चरण के समीप ब त-से बड़े-बूढ़े सेवक को और ब मू र से वभू षत सभाभवनको भी देखा॥ उस समय महातेज ी रावणने वकट आकारवाले रा स के ारा इधर-उधर घसीटे जाते ए क प े हनुमा ीको देखा॥ ५८ ॥



क प े हनुमा े भी रा सराज रावणको तपते ए सूयके समान तेज और बलसे स देखा॥ ५९ ॥ हनुमा ीको देखकर दशमुख रावणक आँ ख रोषसे च ल और लाल हो गय । उसने वहाँ बैठे ए कु लीन, सुशील और मु म य को उनसे प रचय पूछनेके लये आ ा दी॥ ६० ॥ उन सबने पहले मश: क पवर हनुमा े उनका काय, योजन तथा उसके मूल कारणके वषयम पूछा। तब उ ने यह बताया क ‘म वानरराज सु ीवके पाससे उनका दूत होकर आया ँ ’॥ ६१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म अड़तालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४८ ॥



उनचासवाँ सग रावणके भावशाली



पको देखकर हनुमा ीके मनम अनेक कारके वचार का उठना



इन् ज े उस नी तपूण कमसे व त तथा रावणके सीताहरण आ द कम से कु पत हो रोषसे लाल आँ ख कये भयंकर परा मी हनुमा ीने रा सराज रावणक ओर देखा॥ १ ॥ वह महातेज ी रा सराज सोनेके बने ए ब मू एवं दी मान् मुकुटसे, जसम मो तय का काम कया आ था, उ ा सत हो रहा था॥ २ ॥ उसके व भ अ म सोनेके व च आभूषण ऐसे सु र लगते थे मानो मान सक संक ारा बनाये गये ह । उनम हीरे तथा ब मू म णर जड़े ए थे, उन आभूषण से रावणक अ तु शोभा होती थी॥ ३ ॥ ब मू रेशमी व उसके शरीरक शोभा बढ़ा रहे थे। वह लाल च नसे च चत था और भाँ त-भाँ तक व च रचना से यु सु र अ राग से उसका सारा अ सुशो भत हो रहा था॥ ४ ॥ उसक आँ ख देखने यो लाल-लाल और भयावनी थ ; उनसे और चमक ली तीखी एवं बड़ी-बड़ी दाढ़ तथा लंबे-लंबे ओठ के कारण उसक व च शोभा होती थी॥ ५ ॥ वीर हनुमा ीने देखा, अपने दस म क से सुशो भत महाबली रावण नाना कारके सप से भरे ए अनेक शखर ारा शोभा पानेवाले म राचलके समान तीत हो रहा है॥ ६ ॥ उसका शरीर काले कोयलेके ढेरक भाँ त काला था और व : ल चमक ले हारसे वभू षत था। वह पूण च के समान मनोरम मुख ारा ात:कालके सूयसे यु मेघक भाँ त शोभा पा रहा था॥ ७ ॥ जनम के यूर बँधे थे, उ म च नका लेप आ था और चमक ले अ द शोभा दे रहे थे, उन भयंकर भुजा से सुशो भत रावण ऐसा जान पड़ता था, मानो पाँच सरवाले अनेक सप से से वत हो रहा हो॥ ८ ॥ वह टकम णके बने ए वशाल एवं सु र सहासनपर, जो नाना कारके र के संयोगसे च त, व च तथा सु र बछौन से आ ा दत था, बैठा आ था॥ ९ ॥



व और आभूषण से खूब सजी ◌इ ब त-सी युव तयाँ हाथम चँवर लये सब ओरसे आस-पास खड़ी हो उसक सेवा करती थ ॥ १० ॥ म -त को जाननेवाले दुधर, ह , महापा तथा नकु —ये चार रा सजातीय म ी उसके पास बैठे थे। उन चार रा स से घरा आ बला भमानी रावण चार समु से घरे ए सम भूलोकक भाँ त शोभा पा रहा था॥ ११-१२ ॥ जैसे देवता देवराज इ को सा ना देते ह, उसी कार म -त के ाता म ी तथा दूसरे-दूसरे शुभ च क स चव उसे आ ासन दे रहे थे॥ १३ ॥ इस कार हनुमा ीने म य से घरे ए अ तेज ी, सहासना ढ़ रा सराज रावणको मे शखरपर वराजमान सजल जलधरके समान देखा॥ १४ ॥ उन भयानक परा मी रा स से पी ड़त होनेपर भी हनुमा ी अ व त होकर रा सराज रावणको बड़े गौरसे देखते रहे॥ १५ ॥ उस दी शाली रा सराजको अ ी तरह देखकर उसके तेजसे मो हत हो हनुमा ी मनही-मन इस कार वचार करने लगे—॥ १६ ॥ ‘अहो! इस रा सराजका प कै सा अ तु है! कै सा अनोखा धैय है। कै सी अनुपम श है! और कै सा आ यजनक तेज है! इसका स ूण राजो चत ल ण से स होना कतने आ यक बात है!॥ १७ ॥ ‘य द इसम बल अधम न होता तो यह रा सराज रावण इ स हत स ूण देवलोकका संर क हो सकता था॥ १८ ॥ ‘इसके लोक न त ू रतापूण न ु र कम के कारण देवता और दानव स हत स ूण लोक इससे भयभीत रहते ह। यह कु पत होनेपर सम जग ो एकाणवम नम कर सकता है —संसारम लय मचा सकता है।’ अ मत तेज ी रा सराजके भावको देखकर वे बु मान् वानरवीर ऐसी अनेक कारक च ाएँ करते रहे॥ १९-२० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म उनचासवाँ सग पूरा आ॥ ४९ ॥



पचासवाँ सग रावणका ह के ारा हनुमा ीसे ल ाम आनेका कारण पुछवाना और हनुमा अपनेको ीरामका दत ू बताना







सम लोक को लानेवाला महाबा रावण भूरी आँ ख वाले हनुमा ीको सामने खड़ा देख महान् रोषसे भर गया॥ १ ॥ साथ ही तरह-तरहक आश ा से उसका दल बैठ गया। अत: वह तेज ी वानरराजके वषयम वचार करने लगा—‘ ा इस वानरके पम सा ात् भगवान् न ी यहाँ पधारे ए ह, ज ने पूवकालम कै लास पवतपर जब क मने उनका उपहास कया था, मुझे शाप दे दया था? वे ही तो वानरका प धारण करके यहाँ नह आये ह? अथवा इस पम बाणासुरका आगमन तो नह आ है?’॥ २-३ ॥ इस तरह तक- वतक करते ए राजा रावणने ोधसे लाल आँ ख करके म वर ह से समयानुकूल ग ीर एवं अथयु बात कही—॥ ४ ॥ ‘अमा ! इस दुरा ासे पूछो तो सही, यह कहाँसे आया है? इसके आनेका ा कारण है? मदावनको उजाड़ने तथा रा स को मारनेम इसका ा उ े था?॥ ‘मेरी दुजय पुरीम जो इसका आना आ है, इसम इसका ा योजन है? अथवा इसने जो रा स के साथ यु छेड़ दया है, उसम इसका ा उ े है? ये सारी बात इस दुबु वानरसे पूछो’॥ ६ ॥ रावणक बात सुनकर ह ने हनुमा ीसे कहा— ‘वानर! तुम घबराओ न, धैय रखो। तु ारा भला हो। तु डरनेक आव कता नह है॥ ७ ॥ ‘य द तु इ ने महाराज रावणक नगरीम भेजा है तो ठीक-ठीक बता दो। वानर! डरो न। छोड़ दये जाओगे॥ ८ ॥ ‘अथवा य द तुम कु बेर, यम या व णके दूत हो और यह सु र प धारण करके हमारी इस पुरीम घुस आये हो तो यह भी बता दो॥ ९ ॥ ‘अथवा वजयक अ भलाषा रखनेवाले व ुने तु दूत बनाकर भेजा है? तु ारा तेज वानर का-सा नह है। के वल पमा वानरका है॥ १० ॥



‘वानर! इस समय स



ी बात कह दो, फर तुम छोड़ दये जाओगे। य द झूठ बोलोगे तो तु ारा जीना अस व हो जायगा॥ ११ ॥ ‘अथवा और सब बात छोड़ो। तु ारा इस रावणके नगरम आनेका ा उ े है? यही बता दो।’ ह के इस कार पूछनेपर उस समय वानर े हनुमा े रा स के ामी रावणसे कहा—‘म इ , यम अथवा व णका दूत नह ँ । कु बेरके साथ भी मेरी मै ी नह है और भगवान् व ुने भी मुझे यहाँ नह भेजा है॥ १२-१३ ॥ ‘म ज से ही वानर ँ और रा स रावणसे मलनेके उ े से ही मने उनके इस दुलभ वनको उजाड़ा है। इसके बाद तु ारे बलवान् रा स यु क इ ासे मेरे पास आये और मने अपने शरीरक र ाके लये रणभू मम उनका सामना कया॥ १४-१५१/२ ॥ ‘देवता अथवा असुर भी मुझे अ अथवा पाशसे बाँध नह सकते। इसके लये मुझे भी ाजीसे वरदान मल चुका है॥ १६१/२ ॥ ‘रा सराजको देखनेक इ ासे ही मने अ से बँधना ीकार कया है। य प इस समय म अ से मु ँ तथा प इन रा स ने मुझे बँधा समझकर ही यहाँ लाकर तु स पा है॥ १७१/२ ॥ ‘भगवान् ीरामच जीका कु छ काय है, जसके लये म तु ारे पास आया ँ । भो! म अ मत तेज ी ीरघुनाथजीका दूत ँ , ऐसा समझकर मेरे इस हतकारी वचनको अव सुनो’॥ १८-१९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पचासवाँ सग पूरा आ॥ ५० ॥







ावनवाँ सग



हनुमा ीका ीरामके भावका वणन करते ए रावणको समझाना



महाबली दशमुख रावणक ओर देखते ए श शाली वानर शरोम ण हनुमा े शा भावसे यह अथयु बात कही—॥ १ ॥ ‘रा सराज! म सु ीवका संदेश लेकर यहाँ तु ारे पास आया ँ । वानरराज सु ीव तु ारे भा◌इ ह। इसी नाते उ ने तु ारा कु शल-समाचार पूछा है॥ २ ॥ ‘अब तुम अपने भा◌इ महा ा सु ीवका संदेश— धम और अथयु वचन, जो इहलोक और परलोकम भी लाभदायक है, सुनो॥ ३ ॥ ‘अभी हालम ही दशरथनामसे स एक राजा हो गये ह, जो पताक भाँ त जाके हतैषी, इ के समान तेज ी तथा रथ, हाथी, घोड़े आ दसे स थे॥ ‘उनके परम य े पु महातेज ी, भावशाली महाबा ीरामच जी पताक आ ासे धममागका आ य लेकर अपनी प ी सीता और भा◌इ ल णके साथ द कार म आये थे॥ ५-६ ॥ ‘सीता वदेहदेशके राजा महा ा जनकक पु ी ह। जन ानम आनेपर ीरामप ी सीता कह खो गयी ह॥ ‘राजकु मार ीराम अपने भा◌इके साथ उ सीतादेवीक खोज करते ए ऋ मूक पवतपर आये और सु ीवसे मले॥ ८ ॥ ‘सु ीवने उनसे सीताको ढूँ ढ़ नकालनेक त ा क और ीरामने सु ीवको वानर का रा दलानेका वचन दया॥ ९ ॥ ‘त ात् राजकु मार ीरामच जीने यु म वालीको मारकर सु ीवको क ाके रा पर ा पत कर दया। इस समय सु ीव वानर और भालु के समुदायके ामी ह॥ १० ॥ ‘वानरराज



वालीको तो तुम पहलेसे ही जानते हो। उस वानरवीरको यु भू मम ीरामने एक ही बाणसे मार गराया था॥ ११ ॥



‘अब स



त सु ीव सीताको खोज नकालनेके लये हो उठे ह। उन वानरराजने सम दशा म वानर को भेजा है॥ १२ ॥ ‘इस समय सैकड़ , हजार और लाख वानर स ूण दशा तथा आकाश और पातालम भी सीताजीक खोज कर रहे ह॥ १३ ॥ ‘उन वानरवीर मसे को◌इ ग ड़के समान वेगवान् ह तो को◌इ वायुके समान। उनक ग त कह नह कती। वे क पवीर शी गामी और महान् बली ह॥ १४ ॥ ‘मेरा नाम हनुमान् है। म वायुदेवताका औरस पु ँ । सीताका पता लगाने और तुमसे मलनेके लये सौ योजन व ृत समु को लाँघकर ती ग तसे यहाँ आया ँ । घूमते-घूमते तु ारे अ :पुरम मने जनकन नी सीताको देखा है॥ १५-१६ ॥ ‘महामते! तुम धम और अथके त को जानते हो। तुमने बड़े भारी तपका सं ह कया है। अत: दूसरेक ीको अपने घरम रोक रखना तु ारे लये कदा प उ चत नह है॥ १७ ॥ ‘धम व काय म ब त-से अनथ भरे रहते ह। वे कताका जड़मूलसे नाश कर डालते ह। अत: तुम-जैसे बु मान् पु ष ऐसे काय म नह वृ होते॥ १८ ॥ ‘देवता और असुर म भी कौन ऐसा वीर है, जो ीरामच जीके ोध करनेके प ात् ल णके छोड़े ए बाण के सामने ठहर सके ॥ १९ ॥ ‘राजन्! तीन लोक म एक भी ऐसा ाणी नह है, जो भगवान् ीरामका अपराध करके सुखी रह सके ॥ २० ॥ ‘इस लये मेरी धम और अथके अनुकूल बात, जो तीन काल म हतकर है, मान लो और जानक जीको ीरामच जीके पास लौटा दो॥ २१ ॥ ‘मने इन देवी सीताका दशन कर लया। जो दुलभ व ु थी, उसे यहाँ पा लया। इसके बाद जो काय शेष है, उसके साधनम ीरघुनाथजी ही न म ह॥ २२ ॥ ‘मने यहाँ सीताक अव ाको ल कया है। वे नर र शोकम डू बी रहती ह। सीता तु ारे घरम पाँच फनवाली ना गनके समान नवास करती ह, ज तुम नह जानते हो॥ २३ ॥ ‘जैसे अ वष म त अ को खाकर को◌इ उसे बलपूवक नह पचा सकता, उसी कार सीताजीको अपनी श से पचा लेना देवता और असुर के लये भी अस व है॥ २४ ॥



‘तुमने



तप ाका क उठाकर धमके फल प जो यह ऐ यका सं ह कया है तथा शरीर और ाण को चरकालतक धारण करनेक श ा क है, उसका वनाश करना उ चत नह ॥ २५ ॥ ‘तुम तप ाके भावसे देवता और असुर ारा जो अपनी अव ता देख रहे हो, उसम भी तप ाज नत यह धम ही महान् कारण है (अथवा उस अव ताके होते ए भी तु ारे वधका दूसरा महान् कारण उप त है)॥ २६ ॥ ‘रा सराज! सु ीव और ीरामच जी न तो देवता ह, न य ह और न रा स ही ह। ीरघुनाथजी मनु ह और सु ीव वानर के राजा। अत: उनके हाथसे तुम अपने ाण क र ा कै से करोगे?॥ २७ ॥ ‘जो पु ष बल अधमके फलसे बँधा आ है, उसे धमका फल नह मलता। वह उस अधमफलको ही पाता है। हाँ, य द उस अधमके बाद कसी बल धमका अनु ान कया गया हो तो वह पहलेके अधमका नाशक होता है*॥ २८ ॥ ‘तुमने पहले जो धम कया था, उसका पूरा-पूरा फल तो यहाँ पा लया, अब इस सीताहरण पी अधमका फल भी तु शी ही मलेगा॥ २९ ॥ ‘जन ानके रा स का संहार, वालीका वध और ीराम तथा सु ीवक मै ी—इन तीन काय को अ ी तरह समझ लो। उसके बाद अपने हतका वचार करो॥ ३० ॥ ‘य प म अके ला ही हाथी, घोड़े और रथ स हत समूची ल ाका नाश कर सकता ँ , तथा प ीरघुनाथजीका ऐसा वचार नह है—उ ने मुझे इस कायके लये आ ा नह दी है॥ ३१ ॥ ‘ जन लोग ने सीताका तर ार कया है, उन श ु का यं ही संहार करनेके लये ीरामच जीने वानर और भालु के सामने त ा क है॥ ३२ ॥ ‘भगवान् ीरामका अपराध करके सा ात् इ भी सुख नह पा सकते, फर तु ारे-जैसे साधारण लोग क तो बात ही ा है?॥ ३३ ॥ ‘ जनको तुम सीताके नामसे जानते हो और जो इस समय तु ारे अ :पुरम मौजूद ह, उ स ूण ल ाका वनाश करनेवाली कालरा समझो॥ ३४ ॥



‘सीताका



शरीर धारण करके तु ारे पास कालक फाँसी आ प ँ ची है, उसम यं गला फँ साना ठीक नह है; अत: अपने क ाणक च ा करो॥ ३५ ॥ ‘देखो, अ ा लका और ग लय स हत यह ल ापुरी सीताजीके तेज और ीरामक ोधा से जलकर भ होने जा रही है (बचा सको तो बचाओ)॥ ३६ ॥ ‘इन म , म य , कु टु ीजन , भाइय , पु , हतका रय , य , सुख-भोगके साधन तथा समूची ल ाको मौतके मुखम न झ को॥ ३७ ॥ ‘रा स के राजा धराज! म भगवान् ीरामका दास ँ , दूत ँ और वशेषत: वानर ँ । मेरी स ी बात सुनो—॥ ३८ ॥ ‘महायश ी ीरामच जी चराचर ा णय स हत स ूण लोक का संहार करके फर उनका नये सरेसे नमाण करनेक श रखते ह॥ ३९ ॥ ‘भगवान् ीराम ी व ुके तु परा मी ह। देवता, असुर, मनु , य , रा स, सप, व ाधर, नाग, ग व, मृग, स , कनर, प ी एवं अ सम ा णय म कह कसी समय को◌इ भी ऐसा नह है, जो ीरघुनाथजीके साथ लोहा ले सके ॥ ४०-४११/२ ॥ ‘स ूण लोक के अधी र राज सह ीरामका ऐसा महान् अपराध करके तु ारा जी वत रहना क ठन है॥ ‘ नशाचरराज! ीरामच जी तीन लोक के ामी ह। देवता, दै , ग व, व ाधर, नाग तथा य —ये सब मलकर भी यु म उनके सामने नह टक सकते॥ ४३ ॥ ‘चार मुख वाले य ू ा, तीन ने वाले पुरनाशक अथवा देवता के ामी महान् ऐ यशाली इ भी समरा णम ीरघुनाथजीके सामने नह ठहर सकते’॥ ४४ ॥ वीरभावसे नभयतापूवक भाषण करनेवाले महाक प हनुमा ीक बात बड़ी सु र एवं यु यु थ , तथा प वे रावणको अ य लग । उ सुनकर अनुपम श शाली दशानन रावणने ोधसे आँ ख तरेरकर सेवक को उनके वधके लये आ ा दी॥ ४५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म इ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५१ ॥ * जैसा



गये ाय



क ु तका वचन है—‘धमण पापमपनुद त।’ अथात् धमसे मनु अपने पापको दूर करता है। ृ तय म बताये कृ त आ द भी इसी बातके समथक ह। ७२५



बावनवाँ सग वभीषणका दत ू के वधको अनु चत बताकर उसे दस ू रा को◌इ द देनेके लये कहना तथा रावणका उनके अनुरोधको ीकार कर लेना



वानर शरोम ण महा ा हनुमा ीका वचन सुनकर ोधसे तमतमाये ए रावणने अपने सेवक को आ ा दी—‘इस वानरका वध कर डालो’॥ १ ॥ दुरा ा रावणने जब उनके वधक आ ा दी, तब वभीषण भी वह थे। उ ने उस आ ाका अनुमोदन नह कया; क हनुमा ी अपनेको सु ीव एवं ीरामका दूत बता चुके थे॥ २ ॥ एक ओर रा सराज रावण ोधसे भरा आ था, दूसरी ओर वह दूतके वधका काय उप त था। यह सब जानकर यथो चत कायके स ादनम लगे ए वभीषणने समयो चत कत का न य कया॥ ३ ॥ न य हो जानेपर वातालापकु शल वभीषणने पूजनीय े ाता श ु वजयी रावणसे शा पूवक यह हतकर वचन कहा—॥ ४ ॥ ‘रा सराज! मा क जये, ोधको ाग दी जये, स होइये और मेरी यह बात सु नये। ऊँ च-नीचका ान रखनेवाले े राजालोग दूतका वध नह करते ह॥ ‘वीर महाराज! इस वानरको मारना धमके व और लोकाचारक ष्टसे भी न त है। आप-जैसे वीरके लये तो यह कदा प उ चत नह है॥ ६ ॥ ‘आप धमके ाता, उपकारको माननेवाले और राजधमके वशेष ह, भले-बुरेका ान रखनेवाले और परमाथके ाता ह। य द आप-जैसे व ान् भी रोषके वशीभूत हो जायँ तब तो सम शा का पा ा करना के वल म ही होगा॥ ७-८ ॥ ‘अत: श ु का संहार करनेवाले दुजय रा सराज! आप स होइये और उ चतअनु चतका वचार करके दूतके यो कसी द का वधान क जये’॥ ९ ॥ वभीषणक बात सुनकर रा स का ामी रावण महान् कोपसे भरकर उ उ र देता आ बोला—॥



‘श



सु ूदन! पा पय का वध करनेम पाप नह है। इस वानरने वा टकाका व ंस तथा रा स का वध करके पाप कया है। इस लये अव ही इसका वध क ँ गा’॥ ११ ॥ रावणका वचन अनेक दोष से यु और पापका मूल था। वह े पु ष के यो नह था। उसे सुनकर बु मान म े वभीषणने उ म कत का न य करानेवाली बात कही—॥ १२ ॥ ‘ल े र! स होइये। रा सराज! मेरे धम और अथत से यु वचनको ान देकर सु नये। राजन्! स ु ष का कथन है क दूत कह कसी समय भी वध करने यो नह होते॥ १३ ॥ ‘इसम संदेह नह क यह ब त बड़ा श ु है; क इसने वह अपराध कया है जसक कह तुलना नह है, तथा प स ु ष दूतका वध करना उ चत नह बताते ह। दूतके लये अ कारके ब त-से द देखे गये ह॥ १४ ॥ ‘ कसी अ को भ या वकृ त कर देना, कोड़ेसे पटवाना, सर मुड़वा देना तथा शरीरम को◌इ च दाग देना—ये ही द दूतके लये उ चत बताये गये ह। उसके लये वधका द तो मने कभी नह सुना है॥ ‘आपक बु धम और अथक श ासे यु है। आप ऊँ च-नीचका वचार करके कत का न य करनेवाले ह। आप-जैसा नी त पु ष कोपके अधीन कै से हो सकता है? क श शाली पु ष ोध नह करते ह॥ १६ ॥ ‘वीर! धमक ा ा करने, लोकाचारका पालन करने अथवा शा ीय स ा को समझनेम आपके समान दूसरा को◌इ नह है। आप स ूण देवता और असुर म े ह॥ १७ ॥ ‘परा



म और उ ाहसे स जो मन ी देवता और असुर ह, उनके लये भी आपपर वजय पाना अ क ठन है। आप अ मेय श शाली ह। आपने अनेक यु म बारंबार देवे र तथा नरेश को परा जत कया है॥ १८ ॥ ‘देवता और दै से भी श ुता रखनेवाले ऐसे आप अपरा जत शूरवीरका पहले कभी श ुप ी वीर मनसे भी पराभव नह कर सके ह। ज ने सर उठाया, वे त ाल ाण से हाथ धो बैठे॥ १९ ॥



यह



‘इस वानरको मारनेम मुझे को◌इ लाभ नह ाणद दया जाय॥ २० ॥



दखायी देता। ज ने इसे भेजा है, उ को



‘यह भला हो या बुरा, श ु ने इसे भेजा है; अत: यह उ के सदा पराधीन होता है, अत: वह वधके यो नह होता है॥ २१ ॥ ‘राजन्!



ाथक बात करता है। दूत



इसके मारे जानेपर म दूसरे कसी ऐसे आकाशचारी ाणीको नह देखता, जो श ुके समीपसे महासागरके इस पार फर आ सके (ऐसी दशाम श ुक ग त- व धका आपको पता नह लग सके गा)॥ २२ ॥ ‘अत: श ुनगरीपर वजय पानेवाले महाराज! आपको इस दूतके वधके लये को◌इ य नह करना चा हये। आप तो इस यो ह क इ स हत स ूण देवता पर चढ़ा◌इ कर सक॥ २३ ॥ ‘यु ेमी महाराज! इसके न हो जानेपर म दूसरे कसी ाणीको ऐसा नह देखता, जो आपसे वरोध करनेवाले उन दोन त कृ तके राजकु मार को यु के लये तैयार कर सके ॥ २४ ॥ ‘रा स के दयको आन त करनेवाले वीर! आप देवता और दै के लये भी दुजय ह; अत: परा म और उ ाहसे भरे ए दयवाले इन रा स के मनम जो यु करनेका हौसला बढ़ा आ है, उसे न कर देना आपके लये कदा प उ चत नह है॥ २५ ॥ ‘मेरी राय तो यह है क उन वरह-दु:खसे वकल च राजकु मार को कै द करके श ु पर आपका भाव डालने— दबदबा जमानेके लये आपक आ ासे थोड़ी-सी सेनाके साथ कु छ ऐसे यो ा यहाँसे या ा कर, जो हतैषी, शूरवीर, सावधान, अ धक गुणवाले, महान् कु लम उ , मन ी, श धा रय म े , अपने रोष और जोशके लये शं सत तथा अ धक वेतन देकर अ ी तरह पाले-पोसे गये ह ’॥ २६-२७ ॥ अपने छोटे भा◌इ वभीषणके इस उ म और य वचनको सुनकर नशाचर के ामी तथा देवलोकके श ु महाबली रा सराज रावणने बु से सोच- वचारकर उसे ीकार कर लया॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म बावनवाँ सग पूरा आ॥ ५२ ॥



तरपनवाँ सग रा स का हनुमा ीक पूँछम आग लगाकर उ नगरम घुमाना



छोटे भा◌इ महा ा वभीषणक बात देश और कालके लये उपयु एवं हतकर थी। उसको सुनकर दशाननने इस कार उ र दया—॥ १ ॥ ‘ वभीषण! तु ारा कहना ठीक है। वा वम दूतके वधक बड़ी न ा क गयी है; परंतु वधके अ त र दूसरा को◌इ द इसे अव देना चा हये॥ ‘वानर को अपनी पूँछ बड़ी ारी होती है। वही इनका आभूषण है। अत: जतना ज ी हो सके , इसक पूँछ जला दो। जली पूँछ लेकर ही यह यहाँसे जाय॥ ३ ॥ ‘वहाँ इसके म , कु टु ी, भा◌इ-ब ु तथा हतैषी सु द ् इसे अ -भ के कारण पी ड़त एवं दीन अव ाम देख’॥ ४ ॥ फर रा सराज रावणने यह आ ा दी क ‘रा सगण इसक पूँछम आग लगाकर इसे सड़क और चौराह स हत समूचे नगरम घुमाव’॥ ५ ॥ ामीका यह आदेश सुनकर ोधके कारण कठोरतापूण बताव करनेवाले रा स हनुमा ीक पूँछम पुराने सूती कपड़े लपेटने लगे॥ ६ ॥ जब उनक पूँछम व लपेटा जाने लगा, उस समय वन म सूखी लकड़ी पाकर भभक उठनेवाली आगक भाँ त उन महाक पका शरीर बढ़कर ब त बड़ा हो गया॥ रा स ने व लपेटनेके प ात् उनक पूँछपर तेल छड़क दया और आग लगा दी। तब हनुमा ीका दय रोषसे भर गया। उनका मुख ात:कालके सूयक भाँ त अ ण आभासे उ ा सत हो उठा और वे अपनी जलती ◌इ पूँछसे ही रा स को पीटने लगे॥ ८१/२ ॥ तब ू र रा स ने मलकर पुन: उन वानर शरोम णको कसकर बाँध दया। यह देख य , बालक और वृ स हत सम नशाचर बड़े स ए॥ ९१/२ ॥ तब वीरवर हनुमा ी बँधे-बँधे ही उस समयके यो वचार करने लगे—‘य प म बँधा आ ँ तो भी इन रा स का मुझपर जोर नह चल सकता। इन ब न को तोड़कर म ऊपर उछल जाऊँ गा और पुन: इ मार सकूँ गा॥ १०-११ ॥



‘म



अपने ामी ीरामके हतके लये वचर रहा ँ तो भी ये दुरा ा रा स य द अपने राजाके आदेशसे मुझे बाँध रहे ह तो इससे म जो कु छ कर चुका ँ , उसका बदला नह पूरा हो सका है॥ १२ ॥ ‘म यु लम अके ला ही इन सम रा स का संहार करनेम पूणत: समथ ँ , कतु इस समय ीरामच जीक स ताके लये म ऐसे ब नको चुपचाप सह लूँगा॥ १३ ॥ ‘ऐसा करनेसे मुझे पुन: समूची ल ाम वचरने और इसके नरी ण करनेका अवसर मलेगा; क रातम घूमनेके कारण मने दुगरचनाक व धपर ष्ट रखते ए इसका अ ी तरह अवलोकन नह कया था॥ १४ ॥ ‘अत: सबेरा हो जानेपर मुझे अव ही ल ा देखनी है। भले ही ये रा स मुझे बारंबार बाँध और पूँछम आग लगाकर पीड़ा प ँ चाय। मेरे मनम इसके कारण त नक भी क नह होगा’॥ १५१/२ ॥ तदन र वे ू रकमा रा स अपने द आकारको छपाये रखनेवाले स गुणशाली महान् वानरवीर क पकु र हनुमा ीको पकड़कर बड़े हषके साथ ले चले और श एवं भेरी बजाकर उनके (रावण- ोह आ द) अपराध क घोषणा करते ए उ ल ापुरीम सब ओर घुमाने लगे॥ १६-१७१/२ ॥ श ुदमन हनुमा ी बड़ी मौजसे आगे बढ़ने लगे। सम रा स उनके पीछे-पीछे चल रहे थे। महाक प हनुमा ी रा स क उस वशाल पुरीम वचरते ए उसे देखने लगे। उ ने वहाँ बड़े व च वमान देखे॥ १८-१९ ॥ परकोटेसे घरे ए कतने ही भूभाग, पृथक् -पृथक् बने ए सु र चबूतरे, घनीभूत गृहपं य से घरी ◌इ सड़क, चौराहे, छोटी-बड़ी ग लयाँ और घर के म भाग—इन सबको वे बड़े गौरसे देखने लगे॥ २०१/२ ॥ सब रा स उ चौराह पर, चार खंभेवाले म प म तथा सड़क पर घुमाने और जासूस कहकर उनका प रचय देने लगे॥ २११/२ ॥ भ - भ ान म जलती पूँछवाले हनुमा ीको देखनेके लये वहाँ ब त-से बालक, वृ और याँ कौतूहलवश घरसे बाहर नकल आती थ ॥ २२१/२ ॥



हनुमा ीक पूँछम जब आग लगायी जा रही थी, उस समय भयंकर ने वाली रा सय ने सीतादेवीके पास जाकर उनसे यह अ य समाचार कहा—॥ २३१/२ ॥ ‘सीते! जस लाल मुँहवाले ब रने तु ारे साथ बातचीत क थी, उसक पूँछम आग लगाकर उसे सारे नगरम घुमाया जा रहा है’॥ २४१/२ ॥ अपने अपहरणक ही भाँ त दु:ख देनेवाली यह ू रतापूण बात सुनकर वदेहन नी सीता शोकसे संत हो उठ और मन-ही-मन अ देवक उपासना करने लग ॥ २५१/२ ॥ उस समय वशाललोचना प व दया सीता महाक प हनुमा ीके लये म लकामना करती ◌इ अ देवक उपासनाम संल हो गय और इस कार बोल —॥ २६१/२ ॥ ‘अ देव! य द मने प तक सेवा क है और य द मुझम कु छ भी तप ा तथा पा त का बल है तो तुम हनुमा े लये शीतल हो जाओ॥ २७ ॥ ‘य द बु मान् भगवान् ीरामके मनम मेरे त क च ा भी दया है अथवा य द मेरा सौभा शेष है तो तुम हनुमा े लये शीतल हो जाओ॥ २८ ॥ ‘य द धमा ा ीरघुनाथजी मुझे सदाचारसे स और अपनेसे मलनेके लये उ ुक जानते ह तो तुम हनुमा े लये शीतल हो जाओ॥ २९ ॥ ‘य द स त आय सु ीव इस दु:खके महासागरसे मेरा उ ार कर सक तो तुम हनुमा े लये शीतल हो जाओ’॥ ३० ॥ मृगनयनी सीताके इस कार ाथना करनेपर तीखी लपट वाले अ देव मानो उ हनुमा े म लक सूचना देते ए शा भावसे जलने लगे। उनक शखा द ण-भावसे उठने लगी॥ ३१ ॥ हनुमा े पता वायुदेवता भी उनक पूँछम लगी ◌इ आगसे यु हो बफ ली हवाके समान शीतल और देवी सीताके लये ा कारी (सुखद) होकर बहने लगे॥ ३२ ॥ उधर पूँछम आग लगायी जानेपर हनुमा ी सोचने लगे—‘अहो! यह आग सब ओरसे लत होनेपर भी मुझे जलाती नह है?॥ ३३ ॥ ‘इसम इतनी ऊँ ची ाला उठती दखायी देती है, तथा प यह आग मुझे पीड़ा नह दे रही है। मालूम होता है मेरी पूँछके अ भागम बफका ढेर-सा रख दया गया है॥ ३४ ॥



‘अथवा



उस दन समु को लाँघते समय मने सागरम ीरामच जीके भावसे पवतके कट होनेक जो आ यजनक घटना देखी थी, उसी तरह आज यह अ क शीतलता भी ◌इ है॥ ३५ ॥ ‘य द ीरामके उपकारके लये समु और बु मान् मैनाकके मनम वैसी आदरपूण उतावली देखी गयी तो ा अ देव उन भगवा े उपकारके लये शीतलता नह कट करगे?॥ ३६ ॥ ‘ न य ही भगवती सीताक दया, ीरघुनाथजीके तेज तथा मेरे पताक मै ीके भावसे अ देव मुझे जला नह रहे ह’॥ ३७ ॥ तदन र क पकु र हनुमा े पुन: एक मु ततक इस कार वचार कया ‘मेरे-जैसे पु षका यहाँ इन नीच नशाचर ारा बाँधा जाना कै से उ चत हो सकता है? परा म रहते ए मुझे अव इसका तीकार करना चा हये’॥ ३८१/२ ॥ यह सोचकर वे वेगशाली महाक प हनुमान् ( ज रा स ने पकड़ रखा था) उन ब न को तोड़कर बड़े वेगसे ऊपरको उछले और गजना करने लगे (उस समय भी उनका शरीर र य म बँधा आ ही था)॥ ३९१/२ ॥ उछलकर वे ीमान् पवनकु मार पवत- शखरके समान ऊँ चे नगर ारपर जा प ँ च,े जहाँ रा स क भीड़ नह थी॥ ४०१/२ ॥ पवताकार होकर भी वे मन ी हनुमान् पुन: णभरम ब त ही छोटे और पतले हो गये। इस कार उ ने अपने सारे ब न को नकाल फ का। उन ब न से मु होते ही तेज ी हनुमा ी फर पवतके समान वशालकाय हो गये॥ ४१-४२ ॥ उस समय उ ने जब इधर-उधर ष्ट डाली, तब उ फाटकके सहारे रखा आ एक प रघ दखायी दया। काले लोहेके बने ए उस प रघको लेकर महाबा पवनपु ने वहाँके सम र क को फर मार गराया॥ ४३ ॥ उन रा स को मारकर रणभू मम च परा म कट करनेवाले हनुमा ी पुन: ल ापुरीका नरी ण करने लगे। उस समय जलती ◌इ पूँछसे जो ाला क माला-सी उठ रही थी, उससे अलंकृत ए वे वानरवीर तेज:पु से देदी मान सूयदेवके समान का शत हो रहे थे॥ ४४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म तरपनवाँ सग पूरा आ॥ ५३ ॥



चौवनवाँ सग ल ापुरीका दहन और रा स का वलाप



हनुमा ीके सभी मनोरथ पूण हो गये थे। उनका उ ाह बढ़ता जा रहा था। अत: वे ल ाका नरी ण करते ए शेष कायके स म वचार करने लगे—॥ १ ॥ ‘अब इस समय ल ाम मेरे लये कौन-सा ऐसा काय बाक रह गया है, जो इन रा स को अ धक संताप देनेवाला हो॥ २ ॥ ‘ मदावनको तो मने पहले ही उजाड़ दया था, बड़े-बड़े रा स को भी मौतके घाट उतार दया और रावणक सेनाके भी एक अंशका संहार कर डाला। अब दुगका व ंस करना शेष रह गया॥ ३ ॥ ‘दुगका वनाश हो जानेपर मेरे ारा समु -ल न आ द कमके लये कया गया यास सुखद एवं सफल होगा। मने सीताजीक खोजके लये जो प र म कया है, वह थोड़े-से ही य ारा स होनेवाले ल ादहनसे सफल हो जायगा॥ ४ ॥ ‘मेरी पूँछम जो ये अ देव देदी मान हो रहे ह, इ इन े गृह क आ त देकर तृ करना ायसंगत जान पड़ता है’॥ ५ ॥ ऐसा सोचकर जलती ◌इ पूँछके कारण बजली-स हत मेघक भाँ त शोभा पानेवाले क प े हनुमा ी ल ाके महल पर घूमने लगे॥ ६ ॥ वे वानरवीर रा स के एक घरसे दूसरे घरपर प ँ चकर उ ान और राजभवन को देखते ए नभय होकर वचरने लगे॥ ७ ॥ घूमते-घूमते वायुके समान बलवान् और महान् वेगशाली हनुमान् उछलकर ह के महलपर जा प ँ चे और उसम आग लगाकर दूसरे घरपर कू द पड़े। वह महापा का नवास ान था। परा मी हनुमा े उसम भी काला क लपट के समान लत होनेवाली आग फै ला दी॥ ८-९ ॥ त ात् वे महातेज ी महाक प मश: व दं , शुक और बु मान् सारणके घर पर कू दे और उनम आग लगाकर आगे बढ़ गये॥ १० ॥



इसके बाद वानरयूथप त हनुमा े इ वजयी मेघनादका घर जलाया। फर ज ुमाली और सुमालीके घर को फूँ क दया॥ ११ ॥ तदन र र के तु, सूयश ,ु कण, दं , रा स रोमश, रणो म , ज ीव, भयानक व ु , ह मुख, कराल, वशाल, शो णता , कु कण, मकरा , नरा क, कु , दुरा ा नकु , य श ु और श ु आ द रा स के घर म जा-जाकर उ ने आग लगायी॥ १२—१५ ॥ उस समय महातेज ी क प े हनुमा े के वल वभीषणका घर छोड़कर अ सब घर म मश: प ँ चकर उन सबम आग लगा दी॥ १६ ॥ महायश ी क पकु र पवनकु मारने व भ ब मू भवन म जा-जाकर समृ शाली रा स के घर क सारी स जलाकर भ कर डाली॥ १७ ॥ सबके घर को लाँघते ए शोभाशाली परा मी हनुमान् रा सराज रावणके महलपर जा प ँ चे॥ १८ ॥ वही ल ाके सब महल म े , भाँ त-भाँ तके र से वभू षत, मे पवतके समान ऊँ चा और नाना कारके मा लक उ व से सुशो भत था। अपनी पूँछके अ भागम त त ◌इ लत अ को उस महलम छोड़कर वीरवर हनुमान् लयकालके मेघक भाँ त भयानक गजना करने लगे॥ १९-२० ॥ हवाका सहारा पाकर वह बल आग बड़े वेगसे बढ़ने लगी और काला के समान लत हो उठी॥ वायु उस लत अ को सभी घर म फै लाने लगी। सोनेक खड़ कय से सुशो भत, मोती और म णय ारा न मत तथा र से वभू षत ऊँ चे-ऊँ चे ासाद एवं सतमहले भवन फटफटकर पृ ीपर गरने लगे॥ २२-२३ ॥ वे गरते ए भवन पु का य होनेपर आकाशसे नीचे गरनेवाले स के घर के समान जान पड़ते थे। उस समय रा स अपने-अपने घर को बचाने—उनक आग बुझानेके लये इधरउधर दौड़ने लगे। उनका उ ाह जाता रहा और उनक ी न हो गयी थी। उन सबका तुमुल आतनाद चार ओर गूँजने लगा॥ २४१/२ ॥



वे कहते थे—‘हाय! यह वानरके पम सा ात् अ देवता ही आ प ँ चा है।’ कतनी ही याँ गोदम ब े लये सहसा न करती ◌इ नीचे गर पड़ ॥ कु छ रा सय के सारे अ आगक लपेटम आ गये, वे बाल बखेरे अ ा लका से नीचे गर पड़ । गरते समय वे आकाशम त मेघ से गरनेवाली बज लय के समान का शत होती थ ॥ २६१/२ ॥ हनुमा ीने देखा, जलते ए घर से हीरा, मूँगा, नीलम, मोती तथा सोने, चाँदी आ द व च व च धातु क रा श पघल- पघलकर बही जा रही है॥ २७१/२ ॥ जैसे आग सूखे काठ और तनक को जलानेसे कभी तृ नह होती, उसी कार हनुमान् बड़े-बड़े रा स के वध करनेसे त नक भी तृ नह होते थे और हनुमा ीके मारे ए रा स को अपनी गोदम धारण करनेसे इस वसु राका भी जी नह भरता था॥ २८-२९ ॥ जैसे भगवान् ने पूवकालम पुरको द कया था, उसी कार वेगशाली वानरवीर महा ा हनुमा ीने ल ापुरीको जला दया॥ ३० ॥ त ात् ल ापुरीके पवत- शखरपर आग लगी, वहाँ अ देवका बड़ा भयानक परा म कट आ। वेगशाली हनुमा ीक लगायी ◌इ वह आग चार ओर अपने ाला-म लको फै लाकर बड़े जोरसे लत हो उठी॥ ३१ ॥ हवाका सहारा पाकर वह आग इतनी बढ़ गयी क उसका प लयकालीन अ के समान दखायी देने लगा। उसक ऊँ ची लपट मानो गलोकका श कर रही थ । ल ाके भवन म लगी ◌इ उस आगक ालाम धूमका नाम भी नह था। रा स के शरीर पी घीक आ त पाकर उसक ालाएँ उ रो र बढ़ रही थ ॥ ३२ ॥ समूची ल ापुरीको अपनी लपट म लपेटकर फै ली ◌इ वह च आग करोड़ सूय के समान लत हो रही थी। मकान और पवत के फटने आ दसे होनेवाले नाना कारके धड़ाक के श बजलीक कड़कको भी मात करते थे, उस समय वह वशाल अ ा को फोड़ती ◌इ-सी का शत हो रही थी॥ वहाँ धरतीसे आकाशतक फै ली ◌इ अ बढ़ी-चढ़ी आगक भा बड़ी तीखी तीत होती थी। उसक लपट टेसूके फू लक भाँ त लाल दखायी देती थ । नीचेसे जनका स टूट गया था, वे आकाशम फै ली ◌इ धूम-पं याँ नील कमलके समान रंगवाले मेघ क भाँ त का शत हो रही थ ॥ ३४ ॥



ा णय के समुदाय, गृह और वृ स हत सम ल ापुरीको सहसा द ◌इ देख बड़ेबड़े रा स ंडु -के - ंडु एक हो गये और वे सब-के -सब पर र इस कार कहने लगे—‘यह देवता का राजा व धारी इ अथवा सा ात् यमराज तो नह है? व ण, वायु, , अ , सूय, कु बेर या च मामसे तो को◌इ नह है? यह वानर नह सा ात् काल ही है। ा स ूण जग े पतामह चतुमुख ाजीका च कोप ही वानरका प धारण करके रा स का संहार करनेके लये यहाँ उप त आ है? अथवा भगवान् व ुका महान् तेज जो अ च , अ , अन और अ तीय है, अपनी मायासे वानरका शरीर हण करके रा स के वनाशके लये तो इस समय नह आया है?’॥ ३५—३८ ॥ इस कार घोड़े, हाथी, रथ, पशु, प ी, वृ तथा कतने ही रा स स हत ल ापुरी सहसा द हो गयी। वहाँके नवासी दीनभावसे तुमुल नाद करते ए फू ट-फू टकर रोने लगे॥ ३९ ॥ वे बोले—‘हाय रे ब ा! हाय बेटा! हा ा मन्! हा म ! हा ाणनाथ! हमारे सब पु न हो गये।’ इस तरह भाँ त-भाँ तसे वलाप करते ए रा स ने बड़ा भयंकर एवं घोर आतनाद कया॥ ४० ॥ हनुमा ीके ोध-बलसे अ भभूत ◌इ ल ापुरी आगक ालासे घर गयी थी। उसके मुख- मुख वीर मार डाले गये थे। सम यो ा ततर- बतर और उ हो गये थे। इस कार वह पुरी शापसे आ ा ◌इ-सी जान पड़ती थी॥ ४१ ॥ महामन ी हनुमा े ल ापुरीको य ू ाजीके रोषसे न ◌इ पृ ीके समान देखा। वहाँके सम रा स बड़ी घबराहटम पड़कर और वषाद हो गये थे। अ लत ाला-माला से अलंकृत अ देवने उसपर अपनी छाप लगा दी थी॥ ४२ ॥ पवनकु मार वानरवीर हनुमा ी उ मो म वृ से भरे ए वनको उजाड़कर, यु म बड़े-बड़े रा स को मारकर तथा सु र महल से सुशो भत ल ापुरीको जलाकर शा हो गये॥ ४३ ॥ महा ा हनुमान् ब त-से रा स का वध और ब सं क वृ से भरे ए मदावनका व ंस करके नशाचर के घर म आग लगाकर मन-ही-मन ीरामच जीका रण करने लगे॥ ४४ ॥ तदन र स ूण देवता ने वानरवीर म धान, महाबलवान्, वायुके समान वेगवान्, परम बु मान् और वायुदेवताके े पु हनुमा ीका वन कया॥ ४५ ॥



उनके इस कायसे सभी देवता, मु नवर, ग व, व ाधर, नाग तथा स ूण महान् ाणी अ स ए। उनके उस हषक कह तुलना नह थी॥ ४६ ॥ महातेज ी महाक प पवनकु मार मदावनको उजाड़कर, यु म रा स को मारकर और भयंकर ल ापुरीको जलाकर बड़ी शोभा पाने लगे॥ ४७ ॥ े भवन के व च शखरपर खड़े ए वानरराज सह हनुमान् अपनी जलती पूँछसे उठती ◌इ ाला-माला से अलंकृत हो तेज:पु से देदी मान सूयदेवके समान का शत होने लगे॥ ४८ ॥ इस कार सारी ल ापुरीको पीड़ा दे वानर शरोम ण महाक प हनुमा े उस समय समु के जलम अपनी पूँछक आग बुझायी॥ ४९ ॥ त ात् ल ापुरीको द ◌इ देख देवता, ग व, स और मह ष बड़े व त ए॥ ५० ॥ उस समय वानर े महाक प हनुमा ो देख ‘ये काला ह’ ऐसा मानकर सम ाणी भयसे थरा उठे ॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म चौवनवाँ सग पूरा आ॥ ५४ ॥



पचपनवाँ सग सीताजीके लये हनुमा ीक च ा और उसका नवारण



वानरवीर हनुमा ीने जब देखा क सारी ल ापुरी जल रही है, वहाँके नवा सय पर ास छा गया है और रा सगण अ भयभीत हो गये ह, तब उनके मनम सीताके द होनेक आश ासे बड़ी च ा ◌इ॥ १ ॥ साथ ही उनपर महान् ास छा गया और उ अपने त घृणा-सी होने लगी। वे मन-हीमन कहने लगे—‘हाय! मने ल ाको जलाते समय यह कै सा कु त कम कर डाला?॥ २ ॥ ‘जो महामन ी महा ा पु ष उठे ए कोपको अपनी बु के ारा उसी कार रोक देते ह, जैसे साधारण लोग जलसे लत अ को शा कर देते ह, वे ही इस संसारम ध ह॥ ३॥ ‘ ोधसे भर जानेपर कौन पु ष पाप नह करता? ोधके वशीभूत आ मनु गु जन क भी ह ा कर सकता है। ोधी मानव साधु पु ष पर भी कटुवचन ारा आ ेप करने लगता है॥ ४॥ ‘अ धक कु पत आ मनु कभी इस बातका वचार नह करता क मुँहसे ा कहना चा हये और ा नह ? ोधीके लये को◌इ ऐसा बुरा काम नह , जसे वह न कर सके और को◌इ ऐसी बुरी बात नह , जसे वह मुँहसे न नकाल सके ॥ ५ ॥ ‘जो दयम उ ए ोधको माके ारा उसी तरह नकाल देता है, जैसे साँप अपनी पुरानी कचुलको छोड़ देता है, वही पु ष कहलाता है॥ ६ ॥ ‘मेरी बु बड़ी खोटी है, म नल और महान् पापाचारी ँ । मने सीताक र ाका को◌इ वचार न करके ल ाम आग लगा दी और इस तरह अपने ामीक ही ह ा कर डाली। मुझे ध ार है॥ ७ ॥ ‘य द यह सारी ल ा जल गयी तो आया जानक भी न य ही उसम द हो गयी ह गी। ऐसा करके मने अनजानम अपने ामीका सारा काम ही चौपट कर डाला॥ ८ ॥ ‘ जस कायक स के लये यह सारा उ ोग कया गया था, वह काय ही मने न कर दया; क ल ा जलाते समय मने सीताक र ा नह क ॥ ९ ॥



‘इसम संदेह नह क यह ल ा-दहन एक छोटा-सा काय शेष रह गया था, जसे मने पूण कया; परंतु ोधसे पागल होनेके कारण मने ीरामच जीके कायक तो जड़ ही काट डाली॥



१० ॥



ाका को◌इ भी भाग ऐसा नह दखायी देता, जहाँ आग न लगी हो। सारी पुरी ही मने भ कर डाली है, अत: जानक न हो गयी, यह बात त: हो जाती है॥ ११ ॥ ‘य द अपनी वपरीत बु के कारण मने सारा काम चौपट कर दया तो यह आज मेरे ाण का भी वसजन हो जाना चा हये। यही मुझे अ ा जान पड़ता है॥ १२ ॥ ‘ ा म अब जलती आगम कू द पडँ या वडवानलके मुखम? अथवा समु म नवास करनेवाले जल-ज ु को ही यहाँ अपना शरीर सम पत कर दूँ॥ १३ ॥ ‘जब मने सारा काय ही न कर दया, तब अब जीते-जी कै से वानरराज सु ीव अथवा उन दोन पु ष सह ीराम और ल णका दशन कर सकता ँ या उ अपना मुँह दखा सकता ँ ?॥ १४ ॥ ‘मने रोषके दोषसे तीन लोक म व ात इस वानरो चत चपलताका ही यहाँ दशन कया है॥ १५ ॥ ‘यह राजस भाव काय-साधनम असमथ और अ व त है, इसे ध ार है; क इस रजोगुणमूलक ोधके ही कारण समथ होते ए भी मने सीताक र ा नह क ॥ १६ ॥ ‘सीताके न हो जानेसे वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण भी न हो जायँगे। उन दोन का नाश होनेपर ब -ु बा व स हत सु ीव भी जी वत नह रहगे॥ १७ ॥ ‘ फर इसी समाचारको सुन लेनेपर ातृव ल धमा ा भरत और श ु भी कै से जीवन धारण कर सकगे?॥ १८ ॥ ‘इस कार धम न इ ाकु वंशके न हो जानेपर सारी जा भी शोक-संतापसे पी ड़त हो जायगी, इसम संशय नह है॥ १९ ॥ ‘अत: सीताक र ा न करनेके कारण मने धम और अथके सं हको न कर दया, अतएव म बड़ा भा हीन ँ । मेरा दय रोषदोषके वशीभूत हो गया है, इस लये म अव ही सम लोकका वनाशक हो गया ँ —मुझे स ूण जग े वनाशके पापका भागी होना पड़ेगा’॥ २० ॥



‘ल



इस कार च ाम पड़े ए हनुमा ीको क◌इ शुभ शकु न दखायी पड़े, जनके अ े फल का वे पहले भी अनुभव कर चुके थे; अत: वे फर इस कार सोचने लगे—॥ २१ ॥ ‘अथवा



स व है सवा सु री सीता अपने ही तेजसे सुर त ह । क ाणी जनकन नीका नाश कदा प नह होगा; क आग आगको नह जलाती है॥ २२ ॥ ‘सीता अ मत तेज ी धमा ा भगवान् ीरामक प ी ह। वे अपने च र के बलसे— पा त के भावसे सुर त ह। आग उ छू भी नह सकती॥ २३ ॥ ‘अव ीरामके भाव तथा वदेहन नी सीताके पु बलसे ही यह दाहक अ मुझे नह जला सक है॥ २४ ॥ ‘ फर जो भरत आ द तीन भाइय क आरा देवी और ीरामच जीक दयव भा ह, वे आगसे कै से न हो सकगी॥ २५ ॥ ‘यह दाहक एवं अ वनाशी अ सव अपना भाव रखती है, सबको जला सकती है, तो भी यह जनके भावसे मेरी पूँछको नह जला पाती है, उ सा ात् माता जानक को कै से जला सके गी?’॥ २६ ॥ उस समय हनुमा ीने वहाँ व त होकर पुन: उस घटनाको रण कया, जब क समु के जलम उ मैनाक पवतका दशन आ था॥ २७ ॥ वे सोचने लगे—‘तप ा, स भाषण तथा प तम अन भ के कारण आया सीता ही अ को जला सकती ह, आग उ नह जला सकती’॥ २८ ॥ इस कार भगवती सीताक धमपरायणताका वचार करते ए हनुमा ीने वहाँ महा ा चारण के मुखसे नकली ◌इ ये बात सुन —॥ २९ ॥ ‘अहो! हनुमा ीने रा स के घर म दु:सह एवं भयंकर आग लगाकर बड़ा ही अ तु और दु र काय कया है॥ ३० ॥ ‘घरमसे भागे ए रा स , य , बालक और वृ से भरी ◌इ सारी ल ा जनकोलाहलसे प रपूण हो ची ार करती ◌इ-सी जान पड़ती है। पवतक क रा , अटा रय , परकोट और नगरके फाटक स हत यह सारी ल ा नगरी द हो गयी; परंतु सीतापर आँ च नह आयी। यह हमारे लये बड़ी अ तु और आ यक बात है’॥ ३१-३२ ॥



हनुमा ीने जब चारण के कहे ए ये अमृतके समान मधुर वचन सुने, तब उनके दयम त ाल हष ास छा गया॥ ३३ ॥ अनेक बारके अनुभव कये ए शुभ शकु न , महान् गुणदायक कारण तथा चारण के कहे ए पूव वचन ारा सीताजीके जी वत होनेका न य करके हनुमा ीके मनम बड़ी स ता ◌इ॥ ३४ ॥ राजकु मारी सीताको को◌इ त नह प ँ ची है, यह जानकर क पवर हनुमा ीने अपना स ूण मनोरथ सफल समझा और पुन: उनका दशन करके लौट जानेका वचार कया॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पचपनवाँ सग पूरा आ॥ ५५ ॥



छ नवाँ सग हनुमा ीका पुन: सीताजीसे मलकर लौटना और समु को लाँघना



तदन र हनुमा ी अशोकवृ के नीचे बैठी ◌इ जानक जीके पास गये और उ णाम करके बोले— ‘आय! सौभा क बात है क इस समय म आपको सकु शल देख रहा ँ ’॥ १ ॥ सीता अपने प तके ेहम डू बी ◌इ थ । वे हनुमा ीको ान करनेके लये उ त जान उ बार ार देखती ◌इ बोल —॥ २ ॥ ‘तात! न ाप वानरवीर! य द तुम उ चत समझो तो एक दन और यहाँ कसी गु ानम ठहर जाओ, आज व ाम करके कल चले जाना॥ ३ ॥ ‘वानर वर! तु ारे नकट रहनेसे मुझ म भा गनीका अपार शोक भी थोड़ी देरके लये कम हो जायगा॥ ४ ॥ ‘क प े ! वानर शरोमणे! जब तुम चले जाओगे, तब फर तु ारे आनेतक मेरे ाण रहगे या नह , इसका को◌इ व ास नह है॥ ५ ॥ ‘वीर! मुझपर दु:ख-पर-दु:ख पड़ते गये ह। म मान सक शोकसे दन- दन दुबल होती जा रही ँ । अब तु ारा दशन न होना मेरे दयको और भी वदीण करता रहेगा॥ ६ ॥ ‘वीर! मेरे सामने यह संदेह अभीतक बना ही आ है क बड़े-बड़े वानर और रीछ के सहायक होनेपर भी महाबली सु ीव इस दुलङ् समु को कै से पार करगे? उनक सेनाके वे वानर और भालू तथा वे दोन राजकु मार ीराम और ल ण भी इस महासागरको कै से लाँघ सकगे?॥ ७-८ ॥ ‘तीन ही ा णय म इस समु को लाँघनेक श है—तुमम, ग ड़म अथवा वायुदेवताम॥ ९ ॥ ‘इस कायस ी दु र तब के उप त होनेपर तु ा समाधान दखायी देता है ? बताओ, क तुम कायकु शल हो॥ १० ॥ ‘श ुवीर का संहार करनेवाले क प े ! इसम संदेह नह क इस कायको स करनेम तुम अके ले ही पूण समथ हो; परंतु तु ारे ारा जो वजय प फलक ा होगी, उससे तु ारा ही यश बढ़ेगा, भगवान् ीरामका नह ॥ ११ ॥



‘परंतु



श ुसेनाको पीड़ा देनेवाले ीरामच जी य द ल ाको अपनी सेनासे पदद लत करके मुझे यहाँसे ले चल तो वह उनके यो परा म होगा॥ १२ ॥ ‘अत: तुम ऐसा उपाय करो, जससे यु वीर महा ा ीरामच जीका उनके यो परा म कट हो’॥ १३ ॥ सीताजीक यह बात ेहयु तथा वशेष अ भ ायसे भरी ◌इ थी। इसे सुनकर वीर हनुमा े इस कार उ र दया—॥ १४ ॥ ‘दे व! वानर और भालु क सेना के ामी क प े सु ीव बड़े श शाली पु ष ह। वे तु ारे उ ारके लये त ा कर चुके ह॥ १५ ॥ ‘ वदेहन न! अत: वे वानरराज सु ीव सह को ट वानर से घरे ए तुरंत यहाँ आयगे॥ १६ ॥ ‘साथ ही वे दोन वीर नर े ीराम और ल ण भी एक साथ आकर अपने सायक से इस ल ापुरीका व ंस कर डालगे॥ १७ ॥ ‘वरारोहे! रा सराज रावणको उसके सै नक स हत कालके गालम डालकर ीरघुनाथजी आपको साथ ले शी ही अपनी पुरीको पधारगे॥ १८ ॥ ‘इस लये आप धैय धारण कर। आपका भला हो। आप समयक ती ा कर। रावण शी ही रणभू मम ीरामके हाथसे मारा जायगा, यह आप अपनी आँ ख देखगी॥ १९ ॥ ‘पु , म ी और भा◌इ-ब ु स हत रा सराज रावणके मारे जानेपर आप ीरामच जीके साथ उसी कार मलगी, जैसे रो हणी च मासे मलती है॥ २० ॥ ‘वानर और भालु के मुख वीर के साथ ीरामच जी शी ही यहाँ पधारगे और यु म श ु को जीतकर आपका सारा शोक दूर कर दगे’॥ २१ ॥ वदेहन नी सीताको इस कार आ ासन दे वहाँसे जानेका वचार करके पवनकु मार हनुमा े उ णाम कया॥ २२ ॥ वे बड़े-बड़े रा स को मारकर अपने महान् बलका प रचय दे वहाँ ा त ा कर चुके थे। उ ने सीताको आ ासन दे, ल ापुरीको ाकु ल करके , रावणको चकमा देकर, उसे अपना भयानक बल दखा, वैदेहीको णाम करके पुन: समु के बीचसे होकर लौट जानेका वचार कया॥ २३-२४१/२ ॥



(अब



यहाँ उनके लये को◌इ काय बाक नह रह गया था; अत:) अपने ामी ीरामच जीके दशनके लये उ ुक हो वे श ुमदन क प े हनुमान् पवत म उ म अ र ग रपर चढ़ गये॥२५१/२ ॥ ऊँ चे-ऊँ चे प क —प के समान वणवाले वृ से से वत नीली वन े णयाँ मानो उस पवतका प रधान व थ । शखर पर लटके ए ाम मेघ उसके लये उ रीय व (चादर-)से तीत होते थे॥ २६१/२ ॥ सूयक क ाणमयी करण ेमपूवक उसे जगाती-सी जान पड़ती थ । नाना कारके धातु मानो उसके खुले ए ने थे, जनसे वह सब कु छ देखता आ-सा त था। पवतीय न दय क जलरा शके ग ीर घोषसे ऐसा लगता था, मानो वह पवत स र वेदपाठ कर रहा हो॥ २७-२८ ॥ अनेकानेक झरन के कलकल नादसे वह अ र ग र तया गीत-सा गा रहा था। ऊँ चेऊँ चे देवदा वृ के कारण मानो हाथ ऊपर उठाये खड़ा था॥ २९ ॥ सब ओर जल- पात क ग ीर नसे ा होनेके कारण च ाता या ह ा मचाता-सा जान पड़ता था। झूमते ए सरकं ड के ाम वन से वह काँपता-सा तीत होता था॥ ३० ॥ वायुके झ के खाकर हलते और मधुर न करते बाँस से उपल त होनेवाला वह पवत मानो बाँसुरी बजा रहा था। भयानक वषधर सप के फुं कारसे लंबी साँस ख चता-सा जान पड़ता था॥ ३१ ॥ कु हरेके कारण गहरी तीत होनेवाली न ल गुफा ारा वह ान-सा कर रहा था। उठते ए मेघ के समान शोभा पानेवाले पा वत पवत ारा सब ओर वचरता-सा तीत होता था॥ ३२ ॥ मेघमाला से अलंकृत शखर ारा वह आकाशम अँगड़ा◌इ-सी ले रहा था। अनेकानेक ृ से ा तथा ब त-सी क रा से सुशो भत था॥ ३३ ॥ साल, ताल, कण और ब सं क बाँसके वृ उसे सब ओरसे घेरे ए थे। फू ल के भारसे लदे और फै ले ए लता- वतान उस पवतके अलंकार थे॥ ३४ ॥



नाना कारके पशु वहाँ सब ओर भरे ए थे। व वध धातु के पघलनेसे उसक बड़ी शोभा हो रही थी। वह पवत ब सं क झरन से वभू षत तथा रा श-रा श शला से भरा आ था॥ ३५ ॥ मह ष, य , ग व, क र और नागगण वहाँ नवास करते थे। लता और वृ ारा वह सब ओरसे आ ा दत था। उसक क रा म सह दहाड़ रहे थे॥ ा आ द हसक ज ु भी वहाँ सब ओर फै ले ए थे। ा द फल से लदे ए वृ और मधुर क -मूल आ दक वहाँ ब तायत थी। ऐसे रमणीय पवतपर वानर शरोम ण पवनकु मार हनुमा ी ीरामच जीके दशनक शी ता और अ हषसे े रत होकर चढ़ गये॥ ३७१/२ ॥ उस पवतके रमणीय शखर पर जो शलाएँ थ , वे उनके पैर के आघातसे भारी आवाजके साथ चूरचूर होकर बखर जाती थ ॥ ३८१/२ ॥ उस शैलराज अ र पर आ ढ़ हो महाक प हनुमा ीने समु के द ण तटसे उ र तटपर जानेक इ ासे अपने शरीरको ब त बड़ा बना लया॥ ३९१/२ ॥ उस पवतपर आ ढ़ होनेके प ात् वीरवर पवनकु मारने भयानक सप से से वत उस भीषण महासागरक ओर ष्टपात कया॥ ४०१/२ ॥ वायुदेवताके औरस पु क प े हनुमान् जैसे वायु आकाशम ती ग तसे वा हत होती है, उसी कार द णसे उ र दशाक ओर बड़े वेगसे (उछलकर) चले॥ ४११/२ ॥ हनुमा ीके पैर का दबाव पड़नेके कारण उस े पवतसे बड़ी भयंकर आवाज ◌इ और वह अपने काँपते ए शखर , टूटकर गरते ए वृ तथा भाँ तभाँ तके ा णय स हत त ाल धरतीम धँस गया॥ उनके महान् वेगसे क त हो फू ल से लदे ए ब सं क वृ इस कार पृ ीपर गर पड़े, मानो उ व मार गया हो॥ ४४ ॥ उस समय उस पवतक क रा म रहकर दबे ए महाबली सह का भयंकर नाद आकाशको फाड़ता आ-सा सुनायी दे रहा था॥ ४५ ॥ भयके कारण जनके व ढीले पड़ गये थे और आभूषण उलट-पलट गये थे, वे व ाध रयाँ सहसा उस पवतसे ऊपरक ओर उड़ चल ॥ ४६ ॥



बड़े-बड़े आकार और चमक ली जीभवाले महा वषैले बलवान् सप अपने फन तथा गलेको दबाकर कु लाकार हो गये॥ ४७ ॥ क र, नाग, ग व, य और व ाधर उस धँसते ए पवतको छोड़कर आकाशम त हो गये॥ ४८ ॥ बलवान् हनुमा ीके वेगसे दबकर वह शोभाशाली महीधर वृ और ऊँ चे शखर स हत रसातलम चला गया॥ ४९ ॥ अ र पवत तीस योजन ऊँ चा और दस योजन चौड़ा था। फर भी उनके पैर से दबकर भू मके बराबर हो गया॥ ५० ॥ जसक ऊँ ची-ऊँ ची तर उठकर अपने कनार का चु न करती थ , उस खारे पानीके भयानक समु को लीलापूवक लाँघ जानेक इ ासे हनुमा ी आकाशम उड़ चले॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म छ नवाँ सग पूरा आ॥ ५६ ॥



स ावनवाँ सग हनुमा ीका समु को लाँघकर जा वान् और अ द आ द सु द से मलना



प धारी पवतके समान महान् वेगशाली हनुमा ी बना थके -माँदे उस सु र एवं रमणीय आकाश पी समु को पार करने लगे, जसम नाग, य और ग व खले ए कमल और उ लके समान थे। च मा कु मुद और सूय जलकु ु टके समान थे। पु और वण न कलहंस तथा बादल सेवार और घासके तु थे। पुनवसु वशाल म और मंगल बड़े भारी ाहके स श थे। ऐरावत हाथी वहाँ महान् ीप-सा तीत होता था। वह आकाश पी समु ाती पी हंसके वलाससे सुशो भत था तथा वायुसमूह प तर और च माक करण प शीतल जलसे भरा आ था॥ १—४ ॥ हनुमा ी आकाशको अपना ास बनाते ए, च म लको नख से खर चते ए, न तथा सूयम लस हत अ र को समेटते ए और बादल के समूहको ख चते ए-से अनायास ही अपार महासागरके पार चले जा रहे थे॥ ५-६ ॥ उस समय आसमानम सफे द, लाल, नीले, मंजीठके रंगके , हरे और अ ण वणके बड़े-बड़े मेघ शोभा पा रहे थे॥ ७ ॥ वे कभी उन मेघ-समूह म वेश करते और कभी बाहर नकलते थे। बार ार ऐसा करते ए हनुमा ी छपते और का शत होते ए च माके समान ष्टगोचर हो रहे थे॥ ८ ॥ नाना कारके मेघ क घटा के भीतर होकर जाते ए धवला रधारी वीरवर हनुमा ीका शरीर कभी दीखता था और कभी अ हो जाता था; अत: वे आकाशम बादल क आड़म छपते और का शत होते च माके समान जान पड़ते थे॥ ९ ॥ बार ार मेघ-समूह को वदीण करने और उनम होकर नकलनेके कारण वे पवनकु मार हनुमान् आकाशम ग ड़के समान तीत होते थे॥ १० ॥ इस कार महातेज ी हनुमान् अपने महान् सहनादसे मेघ क ग ीर गजनाको भी मात करते ए आगे बढ़ रहे थे। वे मुख रा स को मारकर अपना नाम स कर चुके थे। बड़े-बड़े वीर को र दकर उ ने ल ानगरीको ाकु ल तथा रावणको थत कर दया था। त ात्



वदेहन नी सीताको नम ार करके वे चले और ती ग तसे पुन: समु के म भागम आ प ँ चे॥ ११-१२१/२ ॥ वहाँ पवतराज सुनाभ (मैनाक)-का श करके वे परा मी एवं महान् वेगशाली वानरवीर धनुषसे छू टे ए बाणक भाँ त आगे बढ़ गये॥ १३१/२ ॥ उ र तटके कु छ नकट प ँ चनेपर महा ग र महे पर ष्ट पड़ते ही उन महाक पने मेघके समान बड़े जोरसे गजना क ॥ १४१/२ ॥ उस समय मेघक भाँ त ग ीर रसे बड़ी भारी गजना करके उन वानरवीरने सब ओरसे दस दशा को कोलाहलपूण कर दया॥ १५१/२ ॥ फर वे अपने म को देखनेके लये उ ुक होकर उनके व ाम ानक ओर बढ़े और पूँछ हलाने एवं जोर-जोरसे सहनाद करने लगे॥ १६१/२ ॥ जहाँ ग ड़ चलते ह, उसी मागपर बार ार सहनाद करते ए हनुमा ीके ग ीर घोषसे सूयम लस हत आकाश मानो फटा जा रहा था॥ १७१/२ ॥ उस समय वायुपु हनुमा े दशनक इ ासे जो शूरवीर महाबली वानर समु के उ र तटपर पहलेसे ही बैठे थे, उ ने वायुसे टकराये ए महान् मेघक गजनाके समान हनुमा ीका जोर-जोरसे सहनाद सुना॥ १८-१९ ॥ अ न क आश ासे जनके मनम दीनता छा गयी थी, उन सम वनवासी वानर ने उन वानर े हनुमा ा मेघ-गजनाके समान सहनाद सुना॥ २० ॥ गजते ए पवनकु मारका वह सहनाद सुनकर सब ओर बैठे ए वे सम वानर अपने सु द् हनुमा ीको देखनेक अ भलाषासे उ त हो गये॥ २१ ॥ वानर-भालु म े जा वा े मनम बड़ी स ता ◌इ। वे हषसे खल उठे और सब वानर को नकट बुलाकर इस कार बोले—॥ २२ ॥ ‘इसम संदेह नह क हनुमा ी सब कारसे अपना काय स करके आ रहे ह। कृ तकाय ए बना इनक ऐसी गजना नह हो सकती॥ २३ ॥ महा ा हनुमा ीक भुजा और जाँघ का महान् वेग देख तथा उनका सहनाद सुन सभी वानर हषम भरकर इधर-उधर उछलने-कू दने लगे॥ २४ ॥



हनुमा ीको देखनेक इ ासे वे स तापूवक एक वृ से दूसरे वृ पर तथा एक शखरसे दूसरे शखर पर चढ़ने लगे॥ २५ ॥ वृ क सबसे ऊँ ची शाखापर खड़े होकर वे ी तयु वानर अपने दखायी देनेवाले व हलाने लगे॥ २६ ॥ जैसे पवतक गुफा म अव ◌इ वायु बड़े जोरसे श करती है, उसी कार बलवान् पवनकु मार हनुमा े गजना क ॥ २७ ॥ मेघ क घटाके समान पास आते ए महाक प हनुमा ो देखकर वे सब वानर उस समय हाथ जोड़कर खड़े हो गये॥ २८ ॥ त ात् पवतके समान वशाल शरीरवाले वेगशाली वीर वानर हनुमान् जो अ र पवतसे उछलकर चले थे, वृ से भरे ए महे ग रके शखरपर कू द पड़े॥ हषसे भरे ए हनुमा ी पवतके रमणीय झरनेके नकट पंख कटे ए पवतके समान आकाशसे नीचे आ गये॥ ३० ॥ उस समय वे सभी े वानर स च हो महा ा हनुमा ीको चार ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥ ३१ ॥ उ घेरकर खड़े होनेसे उन सबको बड़ी स ता ◌इ। वे सब वानर स मुख होकर तुरंतके आये ए पवनकु मार क प े हनुमा े पास भाँ त-भाँ तक भट-साम ी तथा फल-मूल लेकर आये और उनका ागत-स ार करने लगे॥ ३२-३३ ॥ को◌इ आन म होकर गजने लगे, को◌इ कलका रयाँ भरने लगे और कतने ही े वानर हषसे भरकर हनुमा ीके बैठनेके लये वृ क शाखाएँ तोड़ लाये॥ महाक प हनुमा ीने जा वान् आ द वृ गु जन तथा कु मार अ दको णाम कया॥ ३५ ॥ फर जा वान् और अ दने भी आदरणीय हनुमा ीका आदर-स ार कया तथा दूसरेदूसरे वानर ने भी उनका स ान करके उनको संतु कया। त ात् उन परा मी वानरवीरने सं ेपम नवेदन कया—‘मुझे सीतादेवीका दशन हो गया’॥ ३६ ॥ तदन र वा लकु मार अ दका हाथ अपने हाथम लेकर हनुमा ी महे ग रके रमणीय वन ा म जा बैठे और सबके पूछनेपर उन वानर शरोम णय से इस कार बोले—



‘जनकन



नी सीता ल ाके अशोकवनम नवास करती ह। वह मने उनका दशन कया है’॥ ‘अ भयंकर आकारवाली रा सयाँ उनक रखवाली करती ह। सा ी सीता बड़ी भोली-भाली ह। वे एक वेणी धारण कये वहाँ रहती ह और ीरामच जीके दशनके लये ब त ही उ ुक ह। उपवासके कारण ब त थक गयी ह, दुबल और म लन हो रही ह तथा उनके के श जटाके पम प रणत हो गये ह’॥ ३९१/२ ॥ उस समय ‘सीताका दशन हो गया’ यह वचन वानर को अमृतके समान तीत आ। यह उनके महान् योजनक स का सूचक था। हनुमा ीके मुखसे यह शुभ संवाद सुनकर सब वानर बड़े स ए॥ को◌इ हषनाद और को◌इ सहनाद करने लगे। दूसरे महाबली वानर गजने लगे। कतने ही कलका रयाँ भरने लगे और दूसरे वानर एकक गजनाके उ रम यं भी गजना करने लगे॥ ४११/२ ॥ ब त-से क पकु र हषसे उ सत हो अपनी पूँछ ऊपर उठाकर नाचने लगे। कतने ही अपनी ल ी और मोटी पूँछ घुमाने या हलाने लगे॥ ४२१/२ ॥ कतने ही वानर हष ाससे भरकर छलाँगे भरते ए पवत- शखर पर वानर शरोम ण ीमान् हनुमा ो छू ने लगे॥ ४३१/२ ॥ हनुमा ीक उपयु बात सुनकर अ दने उस समय सम वानरवीर के बीचम यह परम उ म बात कही—॥ ४४१/२ ॥ ‘वानर े ! बल और परा मम तु ारे समान को◌इ नह है; क तुम इस वशाल समु को लाँघकर फर इस पार लौट आये॥ ४५१/२ ॥ ‘क प शरोमणे! एकमा तु हमलोग के जीवनदाता हो। तु ारे सादसे ही हम सब लोग सफलमनोरथ होकर ीरामच जीसे मलगे॥ ४६१/२ ॥ ‘अपने ामी ीरघुनाथजीके त तु ारी भ अ तु है। तु ारा परा म और धैय भी आ यजनक है। बड़े सौभा क बात है क तुम ीरामच जीक यश नी प ी सीतादेवीका दशन कर आये, अब भगवान् ीराम सीताके वयोगसे उ ए शोकको ाग दगे, यह भी सौभा का ही वषय है’॥ ४७-४८ ॥



त ात् सभी े वानर समु ल न, ल ा, रावण एवं सीताके दशनका समाचार सुननेके लये एक ए तथा अ द, हनुमान् और जा वा ो चार ओरसे घेरकर पवतक बड़ी-बड़ी शला पर आन पूवक बैठ गये। वे सब-के -सब हाथ जोड़े ए थे और उन सबक आँ ख हनुमा ीके मुखपर लगी थ ॥ ४९—५१ ॥ जैसे देवराज इ गम देवता ारा से वत होकर बैठते ह, उसी कार ब तेरे वानर से घरे ए ीमान् अ द वहाँ बीचम वराजमान ए॥ ५२ ॥ क तमान् एवं यश ी हनुमा ी तथा बाँह म भुजबंद धारण कये अ दके स तापूवक बैठनेसे वह ऊँ चा एवं महान् पवत शखर द का से का शत हो उठा॥ ५३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म स ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५७ ॥



अ ावनवाँ सग जा वा े पूछनेपर हनुमा ीका अपनी ल ाया ाका सारा वृ ा



सुनाना



तदन र हनुमान् आ द महाबली वानर महे ग रके शखरपर पर र मलकर बड़े स ए॥ १ ॥ जब सभी महामन ी वानर वहाँ स तापूवक बैठ गये, तब हषम भरे ए जा वा े उन पवनकु मार महाक प हनुमा े ेमपूवक काय स का समाचार पूछा—‘महाकपे! तुमने देवी सीताको कै से देखा? वे वहाँ कस कार रहती ह? और ू रकमा दशानन उनके त कै सा बताव करता है? ये सब बात तुम हम ठीक-ठीक बताओ॥ २—४ ॥ ‘तुमने देवी सीताको कस कार ढूँ ढ़ नकाला और उ ने तुमसे ा कहा? इन सब बात को सुनकर हमलोग आगेके काय मका न त पसे वचार करगे॥ ‘वहाँ क ाम चलनेपर हमलोग को कौन-सी बात कहनी चा हये और कस बातको गु रखना चा हये? तुम बु मान् हो, इस लये तु इन सब बात पर काश डालो’॥ ६ ॥ जा वा े इस कार पूछनेपर हनुमा ीके शरीरम रोमा हो आया। उ ने सीतादेवीको मन-ही-मन म क कु ाकर णाम कया और इस कार कहा—॥ ७ ॥ ‘म आपलोग के सामने ही समु के द ण तटपर जानेक इ ासे सावधान हो महे पवतके शखरसे आकाशम उछला था॥ ८ ॥ ‘आगे बढ़ते ही मने देखा एक परम मनोहर द सुवणमय शखर कट आ है, जो मेरी राह रोककर खड़ा है। वह मेरी या ाके लये भयानक व -सा तीत आ। मने उसे मू तमान् व ही माना॥ ९१/२ ॥ ‘उस द उ म सुवणमय पवतके नकट प ँ चनेपर मने मन-ही-मन यह वचार कया क म इसे वदीण कर डालूँ॥ १०१/२ ॥ ‘ फर तो मने अपनी पूँछसे उसपर हार कया। उसक ट र लगते ही उस महान् पवतके सूयतु तेज ी शखरके सह टुकड़े हो गये॥ १११/२ ॥ ‘मेरे उस न यको समझकर महा ग र मैनाकने मनको आ ा दत-सा करते ए मधुर वाणीम ‘पु ’ कहकर मुझे पुकारा और कहा—‘मुझे अपना चाचा समझो। म तु ारे पता



वायुदेवताका म ँ ॥ १२-१३ ॥ ‘मेरा नाम मैनाक है और म यहाँ महासागरम नवास करता ँ । बेटा! पूवकालम सभी े पवत प धारी आ करते थे॥ १४ ॥ ‘वे सम जाको पीड़ा देते ए अपनी इ ाके अनुसार सब ओर वचरते रहते थे। पवत का ऐसा आचरण सुनकर पाकशासन भगवान् इ ने व से इन सह पवत के प काट डाले; परंतु उस समय तु ारे महा ा पताने मुझे इ के हाथसे बचा लया॥ १५-१६ ॥ ‘बेटा! उस समय वायुदेवताने मुझे समु म लाकर डाल दया था ( जससे मेरे प बच गये); अत: श ुदमन वीर! मुझे ीरघुनाथजीक सहायताके कायम अव त र होना चा हये; क भगवान् ीराम धमा ा म े तथा इ तु परा मी ह’॥ १७१/२ ॥ ‘महामना मैनाकक यह बात सुनकर मने अपना काय उ बताया और उनक आ ा लेकर फर मेरा मन वहाँसे आगे जानेको उ ा हत आ। महाकाय मैनाकने उस समय मुझे जानेक आ ा दे दी॥ १८-१९ ॥ ‘वह महान् पवत भी अपने मानवशरीरसे तो अ हत हो गया; परंतु पवत पसे महासागरम ही त रहा॥ २० ॥ ‘ फर म उ म वेगका आ य ले शेष मागपर आगे बढ़ा और दीघकालतक बड़े वेगसे उस पथपर चलता रहा॥ २१ ॥ ‘त ात् बीच समु म मुझे नागमाता सुरसा देवीका दशन आ। देवी सुरसा मुझसे इस कार बोल —॥ ‘क प े ! देवता ने तु मेरा भ बताया है, इस लये म तु ारा भ ण क ँ गी; क सारे देवता ने आज तु ही मेरा आहार नयत कया है’॥ २३ ॥ ‘सुरसाके ऐसा कहनेपर म हाथ जोड़कर वनीतभावसे उसके सामने खड़ा हो गया और उदासमुख होकर य बोला—॥ २४ ॥ ‘दे व! श ु को संताप देनेवाले दशरथन न ीमान् राम अपने भा◌इ ल ण और प ी सीताके साथ द कार म आये थे॥ २५ ॥ ‘वहाँ दुरा ा रावणने उनक प ी सीताको हर लया। म इस समय ीरामच जीक आ ासे दूत होकर उ सीतादेवीके पास जा रहा ँ ॥ २६ ॥



‘तुम



भी ीरामच जीके ही रा म रहती हो, इस लये तु उनक सहायता करनी चा हये। अथवा म म थलेशकु मारी सीता तथा अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामच जीका दशन करके तु ारे मुखम आ जाऊँ गा, यह तुमसे स ी त ा करके कहता ँ ’॥ २७१/२ ॥ ‘मेरे ऐसा कहनेपर इ ानुसार प धारण करनेवाली सुरसा बोली—‘मुझे यह वर मला आ है क मेरे आहारके पम नकट आया आ को◌इ भी ाणी मुझे टालकर आगे नह जा सकता’॥ २८१/२ ॥ ‘जब सुरसाने ऐसा कहा—उस समय मेरा शरीर दस योजन बड़ा था, कतु एक ही णम म उससे ोढ़ा बड़ा हो गया। तब सुरसाने भी अपने मुँहको मेरे शरीरक अपे ा अ धक फै ला लया॥ २९-३० ॥ ‘उसके फै ले ए मुँहको देखकर मने फर अपने पको छोटा कर लया। उसी मु तम मेरा शरीर अँगूठेके बराबर हो गया॥ ३१ ॥ ‘ फर तो म सुरसाके मुँहम शी ही घुस गया और त ण बाहर नकल आया। उस समय सुरसा देवीने अपने द पम त होकर मुझसे कहा— ‘सौ ! क प े ! अब तुम काय स के लये सुखपूवक या ा करो और वदेहन नी सीताको महा ा रघुनाथजीसे मलाओ॥ ३३ ॥ ‘महाबा वानर! तुम सुखी रहो। म तुमपर ब त स ँ ।’ उस समय सभी ा णय ने ‘साधु-साधु’ कहकर मेरी भू र-भू र शंसा क ॥ ३४ ॥ ‘त ात् म ग ड़क भाँ त उस वशाल आकाशम फर उड़ने लगा। उस समय कसीने मेरी परछा◌इं पकड़ ली, कतु म कसीको देख नह पाता था॥ ३५ ॥ ‘छाया पकड़ी जानेसे मेरा वेग अव हो गया, अत: म दस दशा क ओर देखने लगा; परंतु जसने मेरी ग त रोक दी थी, ऐसा को◌इ ाणी मुझे वहाँ नह दखायी दया॥ ३६ ॥ ‘तब मेरे मनम यह च ा ◌इ क मेरी या ाम ऐसा कौन-सा व पैदा हो गया, जसका यहाँ प नह दखायी दे रहा है॥ ३७ ॥ ‘इसी सोचम पड़े-पड़े मने जब नीचेक ओर ष्ट डाली, तब मुझे एक भयानक रा सी दखायी दी, जो जलम नवास करती थी॥ ३८ ॥



‘उस



भीषण नशाचरीने बड़े जोरसे अ हास करके नभय खड़े ए मुझसे गरज-गरजकर यह अम लजनक बात कही—॥ ३९ ॥ ‘ वशालकाय वानर! कहाँ जाओगे ? म भूखी ◌इ ँ । तुम मेरे लये मनोवा त भोजन हो। आओ, चरकालसे नराहार पड़े ए मेरे शरीर और ाण को तृ करो’॥ ४० ॥ ‘तब मने ‘ब त अ ा’ कहकर उसक बात मान ली और अपने शरीरको उसके मुखके माणसे ब त अ धक बढ़ा लया॥ ४१ ॥ ‘परंतु उसका वशाल और भयानक मुख भी मुझे भ ण करनेके लये बढ़ने लगा। उसने मुझे या मेरे भावको नह जाना तथा मने जो छल कया था, वह भी उसक समझम नह आया॥ ४२ ॥ ‘ फर तो पलक मारते-मारते मने अपने वशाल पको अ छोटा बना लया और उसका कलेजा नकालकर आकाशम उड़ गया॥ ४३ ॥ ‘मेरे ारा कलेजेके काट लये जानेपर पवतके समान भयानक शरीरवाली वह दु ा रा सी अपनी दोन बाँह श थल हो जानेके कारण समु के जलम गर पड़ी॥ ४४ ॥ ‘उस समय मुझे आकाशचारी स महा ा क यह सौ वाणी सुनायी दी—‘अहो! इस स हका नामवाली भयानक रा सीको हनुमा ीने शी ही मार डाला’॥ ४५ ॥ ‘उसे मारकर मने फर अपने उस आव क कायपर ान दया, जसक पू तम अ धक वल हो चुका था। उस वशाल मागको समा करके मने पवतमाला से म त समु का वह द ण कनारा देखा, जहाँ ल ापुरी बसी ◌इ है॥ ४६१/२ ॥ ‘सूयदेवके अ ाचलको चले जानेपर मने रा स क नवास ानभूता ल ापुरीम वेश कया, कतु वे भयानक परा मी रा स मेरे वषयम कु छ भी जान न सके ॥ ४७१/२ ॥ ‘मेरे वेश करते ही लयकालके मेघक भाँ त काली का वाली एक ी अ हास करती ◌इ मेरे सामने खड़ी हो गयी॥ ४८१/२ ॥ ‘उसके सरके बाल लत अ के समान दखायी देते थे। वह मुझे मार डालना चाहती थी। यह देख मने बाय हाथके मु े से हार करके उस भयंकर नशाचरीको परा कर दया और दोषकालम पुरीके भीतर व आ। उस समय उस डरी ◌इ नशाचरीने मुझसे इस कार कहा—॥ ४९-५० ॥



‘वीर!



म सा ात् ल ापुरी ँ । तुमने अपने परा मसे मुझे जीत लया है, इस लये तुम सम रा स पर पूणत: वजय ा कर लोगे’॥ ५१ ॥ ‘वहाँ सारी रात नगरम घर-घर घूमने और रावणके अ :पुरम प ँ चनेपर भी मने सु र क ट देशवाली जनकन नी सीताको नह देखा॥ ५२ ॥ ‘रावणके महलम सीताको न देखनेपर म शोक-सागरम डू ब गया। उस समय मुझे उस शोकका कह पार नह दखायी देता था॥ ५३ ॥ ‘सोचम पड़े-पड़े ही मने एक उ म गृहो ान देखा, जो सोनेके बने ए सु र परकोटेसे घरा आ था॥ ५४ ॥ ‘तब उस परकोटेको लाँघकर मने उस गृहो ानको देखा, जो ब सं क वृ से भरा आ था। उस अशोकवा टकाके बीचम मुझे एक ब त ऊँ चा अशोक-वृ दखायी दया॥ ५५ ॥ ‘उसपर चढ़कर मने सुवणमय कदलीवन देखा तथा उस अशोक-वृ के पास ही मुझे सवा सु री सीताजीका दशन आ॥ ५६ ॥ वे सदा सोलह वषक -सी अव ाम यु दखायी देती ह। उनके ने फु कमलदलके समान सु र ह। सीताजी उपवास करनेके कारण अ दुबल हो गयी ह और उनक यह दुबलता उनका मुख देखते ही हो जाती है। वे एक ही व पहनी ◌इ ह और उनके के श धूलसे धूसर हो गये ह॥ ५७ ॥ ‘उनके सारे अ शोक-संतापसे दीन दखायी देते ह। वे अपने ामीके हत- च नम त र ह। र -मांसका भोजन करनेवाली ू र एवं कु प रा सयाँ उ चार ओरसे घेरकर उनक रखवाली करती ह। ठीक उसी तरह जैसे ब त-सी बा घन कसी ह रणीको घेरे ए खड़ी ह ॥ ५८१/२ ॥ ‘मने देखा, वे रा सय के बीचम बैठी थ और रा सयाँ उ बार ार धमका रही थ । वे सरपर एक ही वेणी धारण कये दीनभावसे अपने प तके च नम त ीन हो रही थ । धरती ही उनक श ा है। जैसे हेम -ऋतु आनेपर कम लनी सूखकर ीहीन हो जाती है, उसी कार उनके सारे अ का हीन हो गये ह॥ ५९-६० ॥ ‘रावणक ओरसे उनका हा दक भाव सवथा दूर है। वे मरनेका न य कर चुक ह। उसी अव ाम म कसी तरह शी तापूवक मृगनयनी सीताके पास प ँ च सका॥ ६१ ॥



‘वैसी अव



ाम पड़ी ◌इ उन यश नी नारी ीरामप ी सीताको अशोक-वृ के नीचे बैठी देख म भी उस वृ पर त हो गया और उ वह से नहारने लगा॥ ६२ ॥ ‘इतनेहीम रावणके महलम करधनी और नूपुर क झनकारसे मला आ अ धक ग ीर कोलाहल सुनायी पड़ा॥ ६३ ॥ ‘ फर तो मने अ उ होकर अपने पको समेट लया—छोटा बना लया और प ीके समान उस गहन शशपा (अशोक) वृ म छपा बैठा रहा॥ ६४ ॥ ‘इतनेहीम रावणक याँ और महाबली रावण—ये सब-के -सब उस ानपर आ प ँ च,े जहाँ सीतादेवी वराजमान थ ॥ ६५ ॥ ‘रा स के ामी रावणको देखते ही सु र क ट देशवाली सीता अपनी जाँघ को सकोड़कर और उभरे ए दोन न को भुजा से ढककर बैठ गय ॥ ‘वे अ भयभीत और उ होकर इधर-उधर देखने लग । उ को◌इ भी अपना र क नह दखायी देता था। भयसे काँपती ◌इ अ दु: खनी तप नी सीताके सामने जा दशमुख रावण नीचे सर कये उनके चरण म गर पड़ा और इस कार बोला— ‘ वदेहकु मारी! म तु ारा सेवक ँ । तुम मुझे अ धक आदर दो’॥ ६७-६८ ॥ ‘(इतनेपर भी अपने त उनक उपे ा देख वह कु पत होकर बोला—) ‘गव ली सीते! य द तू घमंडम आकर मेरा अ भन न नह करेगी तो आजसे दो महीनेके बाद म तेरा खून पी जाऊँ गा’॥ ६९ ॥ ‘दुरा ा रावणक यह बात सुनकर सीताने अ कु पत हो यह उ म वचन कहा—॥ ७० ॥ ‘नीच नशाचर! अ मत तेज ी भगवान् ीरामक प ी और इ ाकु कु लके ामी महाराज दशरथक पु वधूसे यह न कहने यो बात कहते समय तेरी जीभ नह गर गयी?॥ ७११/२ ॥ ‘दु पापी! तुझम ा परा म है ? मेरे प तदेव जब नकट नह थे, तब तू उन महा ाक ष्टसे छपकर चोरी-चोरी मुझे हर लाया॥ ७२१/२ ॥ ‘तू भगवान् ीरामक समानता नह कर सकता। तू तो उनका दास होने यो भी नह है। ीरघुनाथजी सवथा अजेय, स भाषी, शूरवीर और यु के अ भलाषी एवं शंसक ह’॥ ७३१/२



॥ ‘जनकन



नीके ऐसी कठोर बात कहनेपर दशमुख रावण चताम लगी ◌इ आगक भाँ त सहसा ोधसे जल उठा और अपनी ू र आँ ख फाड़-फाड़कर देखता आ दा हना मु ा तानकर म थलेशकु मारीको मारनेके लये तैयार हो गया। यह देख उस समय वहाँ खड़ी ◌इ याँ हाहाकार करने लग । इतनेहीम उन य के बीचसे उस दुरा ाक सु री भाया म ोदरी झपटकर आगे आयी और उसने रावणको ऐसा करनेसे रोका। साथ ही उस कामपी ड़त नशाचरसे मधुर वाणीम कहा—॥ ७४—७७ ॥ ‘महे के समान परा मी रा सराज! सीतासे तु ा काम है? आज मेरे साथ रमण करो। जनकन नी सीता मुझसे अ धक सु री नह है॥ ७८ ॥ ‘ भो! देवता , ग व और य क क ाएँ ह, इनके साथ रमण करो; सीताको लेकर ा करोगे?’॥ ७९ ॥ ‘तदन र वे सब याँ मलकर उस महाबली नशाचर रावणको सहसा वहाँसे उठाकर अपने महलम ले गय ॥ ८० ॥ ‘दशमुख रावणके चले जानेपर वकराल मुखवाली रा सयाँ अ दा ण ू रतापूण वचन ारा सीताको डराने-धमकाने लग ॥ ८१ ॥ ‘परंतु जानक ने उनक बात को तनके के समान तु समझा। उनका सारा गजन-तजन सीताके पास प ँ चकर थ हो गया॥ ८२ ॥ ‘इस कार गजना और सारी चे ा के थ हो जानेपर उन मांसभ णी रा सय ने रावणके पास जाकर उसे सीताजीका महान् न य कह सुनाया॥ ८३ ॥ ‘ फर वे सब-क -सब उ अनेक कारसे क दे हताश तथा उ ोगशू हो न ाके वशीभूत होकर सो गय ॥ ८४ ॥ ‘उन सबके सो जानेपर प तके हतम त र रहनेवाली सीताजी क णापूवक वलापकर अ दीन और दु:खी हो शोक करने लग ॥ ८५ ॥ ‘उन रा सय के बीचसे जटा नामवाली रा सी उठी और अ नशाच रय से इस कार बोली— ‘अरी! तुम सब अपने-आपको ही ज ी-ज ी खा जाओ, कजरारे ने वाली



सीताको नह ; ये राजा दशरथक पु वधू और जनकक लाड़ली सती-सा ी सीता इस यो नह ह॥ ८६१/२ ॥ ‘आज अभी मने बड़ा भयंकर तथा र गटे खड़े कर देनेवाला देखा है; वह रा स के वनाश तथा इन सीतादेवीके प तक वजयका सूचक है॥ ८७१/२ ॥ ‘ये सीता ही ीरघुनाथजीके रोषसे हमारी और इन सब रा सय क र ा करनेम समथ ह; अत: हमलोग वदेहन नीसे अपने अपराध के लये मा-याचना कर—यही मुझे अ ा लगता है॥ ८८१/२ ॥ ‘य द कसी दु: खनीके वषयम ऐसा देखा जाता है तो वह अनेक वध दु:ख से छू टकर परम उ म सुख पाती है॥ ८९१/२ ॥ ‘रा सयो! के वल णाम करनेमा से म थलेशकु मारी जानक स हो जायँगी और ये महान् भयसे मेरी र ा करगी’॥ ९०१/२ ॥ ‘तब ल ावती बाला सीता प तक वजयक स ावनासे स हो बोल —‘य द यह बात सच होगी तो म अव तुमलोग क र ा क ँ गी’॥ ९११/२ ॥ ‘कु छ व ामके प ात् म सीताक वैसी दा ण दशा देखकर बड़ी च ाम पड़ गया। मेरे मनको शा नह मलती थी। फर मने जानक जीके साथ वातालाप करनेके लये एक उपाय सोचा॥ ९२-९३ ॥ ‘पहले मने इ ाकु वंशक शंसा क । राज षय क ु तसे वभू षत मेरी वह वाणी सुनकर देवी सीताके ने म आँ सू भर आया और वे मुझसे बोल —॥ ९४१/२ ॥ ‘क प े ! तुम कौन हो? कसने तु भेजा है? यहाँ कै से आये हो? और भगवान् ीरामके साथ तु ारा कै सा ेम है? यह सब मुझे बताओ’॥ ९५१/२ ॥ ‘उनका वह वचन सुनकर मने भी कहा— ‘दे व! तु ारे प तदेव ीरामके सहायक एक भयंकर परा मी बल व मस महाबली वानरराज ह, जनका नाम सु ीव है॥ ९६-९७ ॥ ‘उ का मुझे सेवक समझो। मेरा नाम हनुमान् है। अनायास ही महान् कम करनेवाले तु ारे प त ीरामने मुझे भेजा है। इस लये म यहाँ आया ँ ॥ ९८ ॥



‘यश



न! पु ष सह दशरथन न सा ात् ीमान् रामने पहचानके लये यह अँगूठी तु



दी है॥ ९९ ॥ ‘दे व! म चाहता ँ क आप मुझे आ ा द क म आपक ा सेवा क ँ ? आप कह तो म अभी आपको ीराम और ल णके पास प ँ चा दूँ। इस वषयम आपका ा उ र है?’॥ १०० ॥ ‘मेरी यह बात सुनकर और सोच-समझकर जनकन नी सीताने कहा—‘मेरी इ ीरघुनाथजी रावणका संहार करके मुझे यहाँसे ले चल’॥ १०१ ॥ ‘तब



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मने उन सती-सा ी देवी आया सीताको सर कु ाकर णाम कया और को◌इ ऐसी पहचान माँगी, जो ीरघुनाथजीके मनको आन दान करनेवाली हो॥ ‘मेरे माँगनेपर सीताजीने कहा—‘लो, यह उ म चूडाम ण है, जसे पाकर महाबा ीराम तु ारा वशेष आदर करगे’॥ १०३ ॥ ‘ऐसा कहकर सु री सीताने मुझे वह परम उ म चूडाम ण दी और अ उ होकर वाणी ारा अपना संदेश कहा॥ १०४ ॥ ‘तब मन-ही-मन यहाँ आनेके लये उ ुक हो एका च होकर मने राजकु मारी सीताको णाम कया और उनक द णावत प र मा क ॥ १०५ ॥ ‘उस समय उ ने मनसे कु छ न य करके पुन: मुझे उ र दया—‘हनुमन्! तुम ीरघुनाथजीको मेरा सारा वृ ा सुनाना और ऐसा य करना, जससे सु ीवस हत वे दोन वीरब ु ीराम और ल ण मेरा हाल सुनते ही अ वल यहाँ आ जायँ॥ १०६-१०७ ॥ ‘य द इसके वपरीत आ तो दो महीनेतक मेरा जीवन और शेष है। उसके बाद ीरघुनाथजी मुझे नह देख सकगे। म अनाथक भाँ त मर जाऊँ गी’॥ १०८ ॥ ‘उनका यह क णाजनक वचन सुनकर रा स के त मेरा ोध ब त बढ़ गया। फर मने शेष बचे ए भावी कायपर वचार कया॥ १०९ ॥ ‘तदन र मेरा शरीर बढ़ने लगा और त ाल पवतके समान हो गया। मने यु क इ ासे रावणके उस वनको उजाड़ना आर कया॥ ११० ॥ ‘जहाँके पशु और प ी घबराये और डरे ए थे, उस उजड़े ए वनख को वहाँ सोकर उठी ◌इ वकराल मुखवाली रा सय ने देखा॥ १११ ॥



‘उस



वनम मुझे देखकर वे सब इधर-उधरसे जुट गय और तुरंत रावणके पास जाकर उ ने वन व ंसका सारा समाचार कहा—॥ ११२ ॥ ‘महाबली रा सराज! एक दुरा ा वानरने आपके बल-परा मको कु छ भी न समझकर इस दुगम मदावनको उजाड़ डाला है॥ ११३ ॥ ‘महाराज! यह उसक दुबु ही है, जो उसने आपका अपराध कया। आप शी ही उसके वधक आ ा द, जससे वह फर बचकर चला न जाय’॥ ११४ ॥ ‘यह सुनकर रा सराजने अपने मनके अनुकूल चलनेवाले ककर नामक रा स को भेजा, जनपर वजय पाना अ क ठन था॥ ११५ ॥ ‘वे हाथ म शूल और मु र लेकर आये थे। उनक सं ा अ ी हजार थी; परंतु मने उस वन ा म एक प रघसे ही उन सबका संहार कर डाला॥ ११६ ॥ ‘उनम जो मरनेसे बच गये, वे ज ी-ज ी पैर बढ़ाते ए भाग गये। उ ने रावणको मेरे ारा सारी सेनाके मारे जानेका समाचार बताया॥ ११७ ॥ ‘त ात् मेरे मनम एक नया वचार उ आ और मने ोधपूवक वहाँके उ म चै ासादको, जो ल ाका सबसे सु र भवन था तथा जसम सौ ख े लगे ए थे, वहाँके रा स का संहार करके तोड़-फोड़ डाला॥११८१/२ ॥ तब रावणने घोर पवाले भयानक रा स के साथ जनक सं ा ब त अ धक थी, ह के बेटे ज ुमालीको यु के लये भेजा॥ ११९१/२ ॥ ‘वह रा स बड़ा बलवान् तथा यु क कलाम कु शल था तो भी मने अ घोर प रघसे मारकर सेवक स हत उसे कालके गालम डाल दया॥ १२०१/२ ॥ ‘यह सुनकर रा सराज रावणने पैदल सेनाके साथ अपने म ीके पु को भेजा, जो बड़े बलवान् थे; कतु मने प रघसे ही उन सबको यमलोक भेज दया॥ १२१-१२२ ॥ ‘समरा णम शी तापूवक परा म कट करनेवाले म कु मार को मारा गया सुनकर रावणने पाँच शूरवीर सेनाप तय को भेजा॥ १२३ ॥ ‘उन सबको भी मने सेनास हत मौतके घाट उतार दया। तब दशमुख रावणने अपने पु महाबली अ कु मारको ब सं क रा स के साथ यु के लये भेजा॥ १२४१/२ ॥



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ोदरीका वह पु यु क कलाम बड़ा वीण था। वह आकाशम उड़ रहा था। उसी समय मने सहसा उसके दोन पैर पकड़ लये और सौ बार घुमाकर उसे पृ ीपर पटक दया। इस तरह वहाँ पड़े ए कु मार अ को मने पीस डाला॥ १२५-१२६ ॥ ‘अ कु मार यु भू मम आया और मारा गया— यह सुनकर दशमुख रावणने अ कु पत हो अपने दूसरे पु इ ज ो, जो बड़ा ही रणदुमद और बलवान् था, भेजा॥ १२७१/२ ॥ ‘उसके साथ आयी ◌इ सारी सेनाको और उस रा स- शरोम णको भी यु म हतो ाह करके मुझे बड़ा हष आ॥ १२८१/२ ॥ ‘रावणने इस महाबली महाबा वीरको अनेक मदम वीर के साथ बड़े व ाससे भेजा था॥ १२९१/२ ॥ ‘इ ज े देखा, मेरी सारी सेना कु चल डाली गयी, तब उसने समझ लया क इस वानरका सामना करना अस व है। अत: उसने बड़े वेगसे ा चलाकर मुझे बाँध लया। फर तो वहाँ रा स ने मुझे र य से भी बाँधा॥ १३०-१३१ ॥ ‘इस तरह मुझे पकड़कर वे सब रावणके समीप ले आये। दुरा ा रावणने मुझे देखकर वातालाप आर कया और पूछा—‘तू ल ाम आया? तथा रा स का वध तूने कया ?’ मने वहाँ उ र दया, ‘यह सब कु छ मने सीताजीके लये कया है’॥ १३२-१३३ ॥ ‘ भो! जनकन नीके दशनक इ ासे ही म तु ारे महलम आया ँ । म वायुदेवताका औरस पु ँ , जा तका वानर ँ और हनुमान् मेरा नाम है। मुझे ीरामच जीका दूत और सु ीवका म ी समझो। ीरामच जीका दूतकाय करनेके लये ही म यहाँ तु ारे पास आया ँ ॥ १३४-१३५ ॥ ‘तुम मेरे ामीका संदेश, जो म तु बता रहा ँ , सुनो। रा सराज! वानरराज सु ीवने तुमसे एका तापूवक जो बात कही है, उसपर ान दो॥ १३६ ॥ ‘महाभाग सु ीवने तु ारी कु शल पूछी है और तु सुनानेके लये यह धम, अथ एवं कामसे यु हतकर तथा लाभदायक बात कही है—॥ १३७ ॥ ‘जब म ब सं क वृ से हरे-भरे ऋ मूक पवतपर नवास करता था, उन दन रणम महान् परा म कट करनेवाले रघुनाथजीने मेरे साथ म ता ा पत क थी॥ १३८ ॥



‘राजन्! उ



ने मुझे बताया क ‘रा स रावणने मेरी प ीको हर लया है। उसके उ ारके कायम सहायता करनेके लये तुम मेरे सामने त ा करो’॥ ‘वालीने जनका रा छीन लया था, उन सु ीवके साथ (अथात् मेरे साथ) ल णस हत भगवान् ीरामने अ को सा ी बनाकर म ता क है॥ १४० ॥ ‘ ीरघुनाथजीने यु लम एक ही बाणसे वालीको मारकर सु ीवको (मुझको) उछलनेकू दनेवाले वानर का महाराज बना दया है॥ १४१ ॥ ‘अत: हमलोग को स ूण दयसे उनक सहायता करनी है। यही सोचकर सु ीवने धमानुसार मुझे तु ारे पास भेजा है॥ १४२ ॥ ‘उनका कहना है क तुम तुरंत सीताको ले आओ और जबतक वीर वानर तु ारी सेनाका संहार नह करते ह तभीतक उ ीरघुनाथजीको स प दो॥ १४३ ॥ ‘कौन ऐसा वीर है जसे वानर का यह भाव पहलेसे ही ात नह है। ये वे ही वानर ह, जो यु के लये नम त होकर देवता के पास भी उनक सहायताके लये जाते ह’॥ १४४ ॥ ‘इस कार वानरराज सु ीवने तुमसे संदेश कहा है। मेरे इतना कहते ही रावणने होकर मुझे इस तरह देखा, मानो अपनी ष्टसे मुझे द कर डालेगा॥ १४५ ॥ ‘भयंकर कम करनेवाले दुरा ा रा स रावणने मेरे भावको न जानकर अपने सेवक को आ ा दे दी क इस वानरका (मेरा) वध कर दया जाय॥ १४६ ॥ ‘तब उसके परम बु मान् भा◌इ वभीषणने मेरे लये रा सराज रावणसे ाथना करते ए कहा—॥ ‘रा स शरोमणे! ऐसा करना उ चत नह है। आप अपने इस न यको ाग दी जये। आपक ष्ट इस समय राजनी तके व मागपर जा रही है॥ १४८ ॥ ‘रा सराज! राजनी त-स ी शा म कह भी दूतके वधका वधान नह है। दूत तो वही कहता है, जैसा कहनेके लये उसे बताया गया होता है। उसका कत है क वह अपने ामीके अ भ ायका ान करा दे॥ १४९ ॥ ‘अनुपम परा मी वीर! दूतका महान् अपराध होनेपर भी शा म उसके वधका द नह देखा गया है। उसके कसी अ को वकृ त कर देनामा ही बताया गया है’॥ १५० ॥



‘ वभीषणके



ऐसा कहनेपर रावणने उन रा स को आ ा दी—‘अ ा तो आज इसक यह पूँछ ही जला दो’॥ १५१ ॥ ‘उसक यह आ ा सुनकर रा स ने मेरी पूँछम सब ओरसे सुतरीक र याँ तथा रेशमी और सूती कपड़े लपेट दये॥ १५२ ॥ ‘इस कार बाँध देनेके प ात् उन च परा मी रा स ने काठके डंड और मु से मारते ए मेरी पूँछम आग लगा दी॥ १५३ ॥ ‘म दनम ल ापुरीको अ ी तरह देखना चाहता था, इस लये रा स ारा ब त-सी र य से बाँधे और कसे जानेपर भी मुझे को◌इ पीड़ा नह ◌इ॥ १५४ ॥ ‘त ात् नगर ारपर आकर वे शूरवीर रा स पूँछम लगी ◌इ आगसे घरे और बँधे ए मुझको सड़कपर घुमाते ए सब ओर मेरे अपराधक घोषणा करने लगे॥ १५५ ॥ ‘इतनेहीम अपने उस वशाल पको संकु चत करके मने अपने-आपको उस ब नसे छु ड़ा लया और फर ाभा वक पम आकर म वहाँ खड़ा हो गया॥ १५६ ॥ ‘ फर फाटकपर रखे ए एक लोहेके प रघको उठाकर मने उन सब रा स को मार डाला। इसके बाद बड़े वेगसे कू दकर म उस नगर ारपर चढ़ गया॥ १५७ ॥ ‘त ात् सम जाको द करनेवाली लया के समान म बना कसी घबराहटके अ ा लका और गोपुरस हत उस पुरीको अपनी जलती ◌इ पूँछक आगसे जलाने लगा॥ १५८ ॥ ‘ फर



मने सोचा ‘ल ाका को◌इ भी ान ऐसा नह दखायी देता है, जो जला आ न हो, सारी नगरी जलकर भ हो गयी है। अत: अव ही जानक जी भी न हो गयी ह गी। इसम संदेह नह क ल ाको जलाते-जलाते मने सीताजीको भी जला दया और इस कार भगवान् ीरामके इस महान् कायको मने न ल कर दया’॥ १५९-१६० ॥ ‘इस तरह शोकाकु ल होकर म बड़ी च ाम पड़ गया। इतनेहीम आ ययु वृ ा का वणन करनेवाले चारण क शुभ अ र से वभू षत यह वाणी मेरे कान म पड़ी क जानक जी इस आगसे नह जली ह॥ १६११/२ ॥ ‘उस अ तु वाणीको सुनकर मेरे मनम यह वचार उ आ—‘शुभ शकु न से भी यही जान पड़ता है क जानक जी नह जली ह; क पूँछम आग लग जानेपर भी अ देव मुझे



जला नह रहे ह। मेरे दयम महान् हष भरा आ है और उ म सुग से यु म -म वायु चल रही है’॥१६२-१६३१/२ ॥ ‘ जनके फल का मुझे अनुभव हो चुका था, उन उ म शकु न , महान् गुणशाली कारण तथा ऋ षय (चारण ) क देखी ◌इ बात से भी सीताजीके सकु शल होनेका व ास करके मेरा मन हषसे भर गया॥ १६४१/२ ॥ ‘त ात् मने पुन: वदेहन नीका दशन कया और फर उनसे वदा लेकर म अ र पवतपर आ गया। वह से आपलोग के दशनक इ ासे मने त वन (दुबारा आकाशम उड़ना) आर कया॥ ‘त ात् वायु, च मा, सूय, स और ग व से से वत मागका आ य ले यहाँ प ँ चकर मने आपलोग का दशन कया है॥ १६७ ॥ ‘ ीरामच जीक कृ पा और आपलोग के भावसे मने सु ीवके कायक स के लये सब कु छ कया है॥ १६८ ॥ ‘यह सारा काय मने वहाँ यथो चत पसे स कया है। जो काय नह कया है अथवा जो शेष रह गया है, वह सब आपलोग पूण कर’॥ १६९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म अ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५८ ॥



उनसठवाँ सग हनुमा ीका सीताक दरु व



ा बताकर वानर को ल ापर आ मण करनेके लये उ े जत करना



यह सब वृ ा बताकर पवनकु मार हनुमा ीने पुन: उ म बात कहनी आर क —॥ १ ॥ ‘क पवरो! ीरामच जीका उ ोग और सु शील- भाव (पा त ) देखकर मेरा मन अ



ीवका उ ाह सफल आ। सीताजीका उ म संतु आ है॥ ‘वानर शरोम णयो! जस नारीका शील- भाव आया सीताके समान होगा, वह अपनी तप ासे स ूण लोक को धारण कर सकती है अथवा कु पत होनेपर तीन लोक को जला सकती है॥ ३ ॥ ‘रा सराज रावण सवथा महान् तपोबलसे स जान पड़ता है। जसका अ सीताका श करते समय उनक तप ासे न नह हो गया॥ ४ ॥ ‘हाथसे छू जानेपर आगक लपट भी वह काम नह कर सकती, जो ोध दलानेपर जनकन नी सीता कर सकती ह॥ ५ ॥ ‘इस कायम मुझे जहाँतक सफलता मली है, वह सब इस पम मने आपलोग को बता दया। अब जा वान् आ द सभी महाक पय क स त लेकर हम (सीताको रावणके कारावाससे लौटाकर) सीताके साथ ही ीरामच जी और ल णका दशन कर, यही ायस त जान पड़ता है॥ ६ ॥ ‘म अके ला भी रा सगण स हत सम ल ापुरीका वेगपूवक व ंस करने तथा महाबली रावणको मार डालनेके लये पया ँ । फर य द स ूण अ को जाननेवाले आपजैसे वीर, बलवान्, शु ा ा, श शाली और वजया भलाषी वानर क सहायता मल जाय, तब तो कहना ही ा है॥ ७-८ ॥ ‘यु लम सेना, अ गामी सै नक, पु और सगे भाइय स हत रावणका तो म ही वध कर डालूँगा॥ ९ ॥



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प इ ज े ा अ , रौ , वाय तथा वा ण आ द अ यु म दुल होते ह — कसीक ष्टम नह आते ह, तथा प म ाजीके वरदानसे उनका नवारण कर दूँगा और रा स का संहार कर डालूँगा॥ १० ॥ ‘य द आपलोग क आ ा मल जाय तो मेरा परा म रावणको कु त कर देगा। मेरे ारा लगातार बरसाये जानेवाले प र क अनुपम वृ ष्ट रणभू मम देवता को भी मौतके घाट उतार देगी; फर उन नशाचर क तो बात ही ा है?॥ १११/२ ॥ ‘आपलोग क आ ा न होनेके कारण ही मेरा पु षाथ मुझे रोक रहा है। समु अपनी मयादाको लाँघ जाय और म राचल अपने ानसे हट जाय, परंतु समरा णम श ु क सेना जा वा ो वच लत कर दे, यह कभी स व नह है॥ १२-१३ ॥ ‘स ूण रा स और उनके पूवज को भी यमलोक प ँ चानेके लये वालीके वीर पु क प े अ द अके ले ही काफ ह॥ १४ ॥ ‘वानरवीर महा ा नीलके महान् वेगसे म राचल भी वदीण हो सकता है; फर यु म रा स का नाश करना उनके लये कौन बड़ी बात है?॥ १५ ॥ ‘तुम सब-के -सब बताओ तो सही—देवता, असुर, य , ग व, नाग और प य म भी कौन ऐसा वीर है, जो मै अथवा वदके साथ लोहा ले सके ?॥ १६ ॥ ‘ये दोन वानर शरोम ण महान् वेगशाली तथा अ श्वनीकु मार के पु ह। समरा णम इन दोन का सामना करनेवाला मुझे को◌इ नह दखायी देता॥ १७ ॥ ‘मने अके ले ही ल ावा सय को मार गराया, नगरम आग लगा दी और सारी पुरीको जलाकर भ कर दया। इतना ही नह , वहाँक सब सड़क पर मने अपने नामका डंका पीट दया॥ १८ ॥ ‘अ बलशाली ीराम और महाबली ल णक जय हो। ीरघुनाथजीके ारा सुर त राजा सु ीवक भी जय हो। म कोसलनरेश ीरामच जीका दास और वायुदेवताका पु ँ । हनुमान् मेरा नाम है—इस कार सव अपने नामक घोषणा कर दी है॥ १९-२० ॥ ‘दुरा ा रावणक अशोकवा टकाके म भागम एक अशोक-वृ के नीचे सा ी सीता बड़ी दयनीय अव ाम रहती ह॥ २१ ॥



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सय से घरी ◌इ होनेके कारण वे शोक-संतापसे दुबल होती जा रही ह। बादल क पं से घरी ◌इ च लेखाक भाँ त ीहीन हो गयी ह॥ २२ ॥ ‘सु र क ट देशवाली वदेहन नी जानक प त ता ह। वे बलके घमंडम भरे रहनेवाले रावणको कु छ भी नह समझती ह तो भी उसीक कै दम पड़ी ह॥ २३ ॥ ‘क ाणी सीता ीरामम स ूण दयसे अनुर ह, जैसे शची देवराज इ म अन ेम रखती ह, उसी कार सीताका च अन भावसे ीरामके ही च नम लगा आ है॥ २४ ॥ ‘वे एक ही साड़ी पहने धू ल-धूस रत हो रही ह। रा सय के बीचम रहती ह और उ बारंबार उनक डाँट-फटकार सुननी पड़ती है। इस अव ाम कु प रा सय से घरी ◌इ सीताको मने मदावनम देखा है। वे एक ही वेणी धारण कये दीनभावसे के वल अपने प तदेवके च नम लगी रहती ह॥ २५-२६ ॥ ‘वे नीचे भू मपर सोती ह। हेम -ऋतुम कम लनीक भाँ त उनके अ क का फ क पड़ गयी है। रावणसे उनका को◌इ योजन नह है। वे मरनेका न य कये बैठी ह॥ २७ ॥ ‘उन मृगनयनी सीताको मने बड़ी क ठना◌इसे कसी तरह अपना व ास दलाया। तब उनसे बातचीतका अवसर मला और सारी बात म उनके सम रख सका॥ ‘ ीराम और सु ीवक म ताक बात सुनकर उ बड़ी स ता ◌इ। सीताजीम सु ढ़ सदाचार (पा त ) व मान है। अपने प तके त उनके दयम उ म भ है॥ २९ ॥ ‘सीता यं ही जो रावणको नह मार डालती ह, इससे जान पड़ता है क दशमुख रावण महा ा है—तपोबलसे स होनेके कारण शाप पानेके अयो है (तथा प सीताहरणके पापसे वह न ाय ही है)। ीरामच जी उसके वधम के वल न म मा ह गे॥ ३० ॥ ‘भगवती सीता एक तो भावसे ही दुबली-पतली ह, दूसरे ीरामच जीके वयोगसे और भी कृ श हो गयी ह। जैसे तपदाके दन ा ाय करनेवाले व ाथ क व ा ीण हो जाती है, उसी कार उनका शरीर भी अ दुबल हो गया है॥ ३१ ॥ ‘इस कार महाभागा सीता सदा शोकम डू बी रहती ह। अत: इस समय जो तीकार करना हो, वह सब आपलोग कर’॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म उनसठवाँ सग पूरा आ॥ ५९ ॥



साठवाँ सग अ दका ल ाको जीतकर सीताको ले आनेका उ ाहपूण वचार और जा वा े उसका नवारण



ारा



हनुमा ीक यह बात सुनकर बा लपु अ दने कहा—‘अ श्वनीकु मारके पु ये मै और वद दोन वानर अ वेगशाली और बलवान् ह॥ १ ॥ ‘पूवकालम ाजीका वर मलनेसे इनका अ भमान बढ़ गया और ये बड़े घम म भर गये थे। स ूण लोक के पतामह ाजीने अ श्वनीकु मार का मान रखनेके लये पहले इन दोन को यह अनुपम वरदान दया था क तु को◌इ भी मार नह सकता। उस वरके अ भमानसे म हो इन दोन महाबली वीर ने देवता क वशाल सेनाको मथकर अमृत पी लया था॥ २-३१/२ ॥ ‘ये ही दोन य द ोधम भर जायँ तो हाथी, घोड़े और रथ स हत समूची ल ाका नाश कर सकते ह। भले ही और सब वानर बैठे रह॥ ४१/२ ॥ ‘म अके ला भी रा सगण स हत सम ल ापुरीका वेगपूवक व ंस करने तथा महाबली रावणको मार डालनेके लये पया ँ । फर य द स ूण अ को जाननेवाले आपजैसे वीर, बलवान्, शु ा ा, श शाली और वजया भलाषी वानर क सहायता मल जाय, तब तो कहना ही ा है?॥ ५-६१/२ ॥ ‘वायुपु हनुमा ीने अके ले जाकर अपने परा मसे ही ल ाको फूँ क डाला—यह बात हम सबलोग ने सुन ही ली। आप-जैसे ातनामा पु षाथ वीर के रहते ए मुझे भगवान् ीरामके सामने यह नवेदन करना उ चत नह जान पड़ता क ‘हमने सीतादेवीका दशन तो कया, कतु उ ला नह सके ’॥ ७-८ ॥ ‘वानर शरोम णयो! देवता और दै स हत स ूण लोक म को◌इ भी ऐसा वीर नह है, जो दूरतकक छलाँग मारने और परा म दखानेम आप-लोग क समानता कर सके ॥ ९ ॥ ‘अत: नशाचरसमुदायस हत ल ाको जीतकर, यु म रावणका वध करके , सीताको साथ ले, सफल-मनोरथ एवं स च होकर हमलोग ीरामच जीके पास चल॥ १० ॥



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हनुमा ीने रा स के मुख वीर को मार डाला है, ऐसी प र तम हमारा इसके सवा और ा कत हो सकता है क हम जनकन नी सीताको साथ लेकर ही चल॥ ११ ॥ ‘क पवरो! हम जनक कशोरीको ले चलकर ीराम और ल णके बीचम खड़ी कर द। क ाम जुटे ए उन सब वानर को क देनेक ा आव कता है। हमलोग ही ल ाम चलकर वहाँके मु -मु रा स का वध कर डाल, उसके बाद लौटकर ीराम, ल ण तथा सु ीवका दशन कर’॥ १२-१३ ॥ अ दका ऐसा संक जानकर वानर-भालु म े और अथत के ाता जा वा े अ स होकर यह साथक बात कही—॥ १४ ॥ ‘महाकपे! तुम बड़े बु मान् हो तथा प इस समय जो कु छ कह रहे हो, यह बु मानीक बात नह है; क वानरराज सु ीव तथा परम बु मान् भगवान् ीरामने हम उ म द ण दशाम के वल सीताको खोजनेक आ ा दी है, साथ ले आनेक नह ॥ १५१/२ ॥ ‘य द हमलोग कसी तरह सीताको जीतकर उनके पास ले भी चल तो नृप े ीराम अपने कु लके वहारका रण करते ए हमारे इस कायको पसंद नह करगे॥ १६१/२ ॥ ‘राजा ीरामने सभी मुख वानरवीर के सामने यं ही सीताको जीतकर लानेक त ा क है, उसे वे म ा कै से करगे?॥ १७१/२ ॥ ‘अत: वानर शरोम णयो! ऐसी अव ाम हमारा कया-कराया काय न ल हो जायगा। भगवान् ीरामको संतोष भी नह होगा और हमारा परा म दखाना भी थ स होगा॥ १८१/२ ॥ ‘इस लये हम सब लोग इस कायक सूचना देनेके लये वह चल, जहाँ ल णस हत भगवान् ीराम और महातेज ी सु ीव व मान ह॥ १९ ॥ ‘राजकु मार! तुम जैसा देखते या सोचते हो, यह वचार हमलोग के यो ही है—हम इसे न कर सक, ऐसी बात नह है; तथा प इस वषयम भगवान् ीरामका जैसा न य हो, उसीके अनुसार तु काय स पर ष्ट रखनी चा हये’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म साठवाँ सग पूरा आ॥ ६० ॥



इकसठवाँ सग वानर का मधुवनम जाकर वहाँके मधु एवं फल का मनमाना उपभोग करना और वनर कको घसीटना



तदन र अ द आ द सभी वीर वानर और महाक प हनुमा े भी जा वा बात मान ली॥ १ ॥ फर वे सब े वानर पवनपु हनुमा ो आगे करके मन-ही-मन स ताका अनुभव करते ए महे ग रके शखरसे उछलते-कू दते चल दये॥ २ ॥ वे मे पवतके समान वशालकाय और बड़े-बड़े मदम गजराज के समान महाबली वानर आकाशको आ ा दत करते ए-से जा रहे थे॥ ३ ॥ उस समय स आ द भूतगण अ वेगशाली महाबली बु मान् हनुमा ीक भू र-भू र शंसा कर रहे थे और अपलक ने से उनक ओर इस तरह देख रहे थे, मानो अपनी ष्टय ारा ही उ ढो रहे ह ॥ ीरघुनाथजीके कायक स करनेका उ म यश पाकर उन वानर का मनोरथ सफल हो गया था। उस कायक स हो जानेसे उनका उ ाह बढ़ा आ था। वे सभी भगवान् ीरामको य संवाद सुनानेके लये उ ुक थे। सभी यु का अ भन न करनेवाले थे। ीरामच जीके ारा रावणका पराभव हो—ऐसा सबने न य कर लया था तथा वे सब-के -सब मन ी वीर थे॥ ५-६ ॥ आकाशम छलाँग मारते ए वे वनवासी वानर सैकड़ वृ से भरे ए एक सु र वनम जा प ँ च,े जो न नवनके समान मनोहर था॥ ७ ॥ उसका नाम मधुवन था। सु ीवका वह मधुवन सवथा सुर त था। सम ा णय मसे को◌इ भी उसको हा न नह प ँ चा सकता था। उसे देखकर सभी ा णय का मन लुभा जाता था॥ ८ ॥ क प े महा ा सु ीवके मामा महावीर द धमुख नामक वानर सदा उस वनक र ा करते थे॥ ९ ॥



वानरराज सु ीवके उस मनोरम महावनके पास प ँ चकर वे सभी वानर वहाँका मधु पीने और फल खाने आ दके लये अ उ त हो गये॥ १० ॥ तब हषसे भरे ए तथा मधुके समान प ल वणवाले उन वानर ने उस महान् मधुवनको देखकर कु मार अ दसे मधुपान करनेक आ ा माँगी॥ ११ ॥ उस समय कु मार अ दने जा वान् आ द बड़े-बूढ़े वानर क अनुम त लेकर उन सबको मधु पीनेक आ ा दे दी॥ १२ ॥ बु मान् वा लपु राजकु मार अ दक आ ा पाकर वे वानर भ र के ंडु से भरे ए वृ पर चढ़ गये॥ १३ ॥ वहाँके सुग त फल-मूल का भ ण करते ए उन सबको बड़ी स ता ◌इ। वे सभी मदसे उ हो गये॥ १४ ॥ युवराजक अनुम त मल जानेसे सभी वानर को बड़ा हष आ। वे आन म होकर इधर-उधर नाचने लगे॥ १५ ॥ को◌इ गाते, को◌इ हँ सते, को◌इ नाचते, को◌इ नम ार करते, को◌इ गरते-पड़ते, को◌इ जोर-जोरसे चलते, को◌इ उछलते-कू दते और को◌इ लाप करते थे॥ १६ ॥ को◌इ एक-दूसरेके पास जाकर मलते, को◌इ आपसम ववाद करते, को◌इ एक वृ से दूसरे वृ पर दौड़ जाते और को◌इ वृ क डा लय से पृ ीपर कू द पड़ते थे॥ कतने ही च वेगवाले वानर पृ ीसे दौड़कर बड़े-बड़े वृ क चो टय तक प ँ च जाते थे। को◌इ गाता तो दूसरा उसके पास हँ सता आ जाता था। को◌इ हँ सते एके पास जोरजोरसे रोता आ प ँ चता था॥ १८ ॥ को◌इ दूसरेको पीड़ा देता तो दूसरा उसके पास बड़े जोरसे गजना करता आ आता था। इस कार वह सारी वानरसेना मदो होकर उसके अनु प चे ा कर रही थी। वानर के उस समुदायम को◌इ भी ऐसा नह था, जो मतवाला न हो गया हो और को◌इ भी ऐसा नह था, जो दपसे भर न गया हो॥ १९ ॥ तदन र मधुवनके फल-मूल आ दका भ ण होता और वहाँके वृ के प एवं फू ल को न कया जाता देख द धमुख नामक वानरको बड़ा ोध आ और उ ने उन वानर को वैसा करनेसे रोका॥ २० ॥



जनपर अ धक नशा चढ़ गया था, उन बड़े-बड़े वानर ने वनक र ा करनेवाले उस वृ वानरवीरको उलटे डाँट बतानी शु क , तथा प उ तेज ी द धमुखने पुन: उन वानर से वनक र ा करनेका वचार कया॥ २१ ॥ उ ने नभय होकर क - क को कड़ी बात सुनाय । कतन को थ ड़ से मारा। ब त के साथ भड़कर झगड़ा कया और क - क के त शा पूण उपायसे ही काम लया॥ २२ ॥ मदके कारण जनके वेगको रोकना अस व हो गया था, उन वानर को जब द धमुख बलपूवक रोकनेक चे ा करने लगे, तब वे सब मलकर उ बलपूवक इधर-उधर घसीटने लगे। वनर कपर आ मण करनेसे राजद ा होगा, इसक ओर उनक ष्ट नह गयी। अतएव वे सब नभय होकर उ इधर-उधर ख चने लगे॥ २३ ॥ मदके भावसे वे वानर क पवर द धमुखको नख से बकोटने, दाँत से काटने और थ ड़ तथा लात से मार-मारकर अधमरा करने लगे। इस कार उ ने उस वशाल वनको सब ओरसे फल आ दसे शू कर दया॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म इकसठवाँ सग पूरा आ॥ ६१ ॥



बासठवाँ सग वानर ारा मधुवनके र क और द धमुखका पराभव तथा सेवक स हत द धमुखका सु ीवके पास जाना



उस समय वानर शरोम ण क पवर हनुमा े अपने सा थय से कहा—‘वानरो! तुम सब लोग बेखटके मधुका पान करो। म तु ारे वरो धय को रोकूँ गा’॥ हनुमा ीक बात सुनकर वानर वर अ दने भी स च होकर कहा—‘वानरगण अपनी इ ाके अनुसार मधुपान कर। हनुमा ी इस समय काय स करके लौटे ह, अत: इनक बात ीकार करनेके यो न हो तो भी मुझे अव माननी चा हये। फर ऐसी बातके लये तो कहना ही ा है?’॥ २-३१/२ ॥ अ दके मुखसे ऐसी बात सुनकर सभी े वानर हषसे खल उठे और ‘साधु-साधु’ कहते ए उनक शंसा करने लगे॥ ४१/२ ॥ वानर शरोम ण अ दक शंसा करके वे सब वानर जहाँ मधुवन था, उस मागपर उसी तरह दौड़े गये, जैसे नदीके जलका वेग तटवत वृ क ओर जाता है॥ ५१/२ ॥ म थलेशकु मारी सीताको हनुमा ी तो देखकर आये थे और अ वानर ने उ के मुखसे यह सुन लया था क वे ल ाम ह, अत: उन सबका उ ाह बढ़ा आ था। इधर युवराज अ दका आदेश भी मल गया था, इस लये वे साम शाली सभी वानर वनर क पर पूरी श से आ मण करके मधुवनम घुस गये और वहाँ इ ानुसार मधु पीने तथा रसीले फल खाने लगे॥ रोकनेके लये अपने पास आये ए र क को वे सब वानर सैकड़ क सं ाम जुटकर उछल-उछलकर मारते थे और मधुवनके मधु पीने एवं फल खानेम लगे ए थे॥ ८ ॥ कतने ही वानर ंडु -के - ंडु एक हो वहाँ अपनी भुजा ारा एक-एक ोण* मधुसे भरे ए छ को पकड़ लेते और सहष पी जाते थे॥ ९ ॥ मधुके समान प ल वणवाले वे सब वानर एक साथ होकर मधुके छ को पीटते, दूसरे वानर उस मधुको पीते और कतने ही पीकर बचे ए मधुको फ क देते थे। कतने ही मदम हो



एक-दूसरेको मोमसे मारते थे और कतने ही वानर वृ के नीचे डा लयाँ पकड़कर खड़े हो गये थे॥ १०-११ ॥ कतने ही वानर मदके कारण अ ा नका अनुभव कर रहे थे। उनका वेग उ पु ष के समान देखा जाता था। वे मधु पी-पीकर मतवाले हो गये थे, अत: बड़े हषके साथ प े बछाकर सो गये॥ १२ ॥ को◌इ एक-दूसरेपर मधु फ कते, को◌इ लड़खड़ाकर गरते, को◌इ गरजते और को◌इ हषके साथ प य क भाँ त कलरव करते थे॥ १३ ॥ मधुसे मतवाले ए कतने ही वानर पृ ीपर सो गये थे। कु छ ढीठ वानर हँ सते और कु छ रोदन करते थे॥ १४ ॥ कु छ वानर दूसरा काम करके दूसरा बताते थे और कु छ उस बातका दूसरा ही अथ समझते थे। उस वनम जो द धमुखके सेवक मधुक र ाम नयु थे, वे भी उन भयंकर वानर ारा रोके या पीटे जानेपर सभी दशा म भाग गये। उनमसे क◌इ रखवाल को अ दके दलवाल ने जमीनपर पटककर घुटन से खूब रगड़ा और कतन को पैर पकड़कर आकाशम उछाल दया था अथवा उ पीठके बल गराकर आकाश दखा दया था॥ १५-१६ ॥ वे सब सेवक अ उ हो द धमुखके पास जाकर बोले—‘ भो! हनुमा ीके बढ़ावा देनेसे उनके दलके सभी वानर ने बलपूवक मधुवनका व ंस कर डाला, हमलोग को गराकर घुटन से रगड़ा और हम पीठके बल पटककर आकाशका दशन करा दया’॥ १७ ॥ तब उस वनके धान र क द धमुख नामक वानर मधुवनके व ंसका समाचार सुनकर वहाँ कु पत हो उठे और उन वानर को सा ना देते ए बोले—॥ ‘आओ-आओ, चल इन वानर के पास। इनका घमंड ब त बढ़ गया है। मधुवनके उ म मधुको लूटकर खानेवाले इन सबको म बलपूवक रोकूँ गा’॥ द धमुखका यह वचन सुनकर वे वीर क प े पुन: उ के साथ मधुवनको गये॥ २० ॥ इनके बीचम खड़े ए द धमुखने एक वशाल वृ हाथम लेकर बड़े वेगसे हनुमा ीके दलपर धावा कया। साथ ही वे सब वानर भी उन मधु पीनेवाले वानर पर टूट पड़े॥ २१ ॥ ोधसे भरे ए वे वानर शला, वृ और पाषाण लये उस ानपर आये, जहाँ वे हनुमान् आ द क प े मधुका सेवन कर रहे थे॥ २२ ॥



अपने ओठ को दाँत से दबाते और ोधपूवक बारंबार धमकाते ए ये सब वानर उन वानर को बलपूवक रोकनेके लये उनके पास आ प ँ चे॥ २३ ॥ द धमुखको कु पत आ देख हनुमान् आ द सभी े वानर उस समय बड़े वेगसे उनक ओर दौड़े॥ २४ ॥ वृ लेकर आते ए वेगशाली महाबली महाबा द धमुखको कु पत ए अ दने दोन हाथ से पकड़ लया॥ २५ ॥ वे मधु पीकर मदा हो रहे थे, अत: ‘ये मेरे नाना ह’ ऐसा समझकर उ ने उनपर दया नह दखायी। वे तुरंत बड़े वेगसे पृ ीपर पटककर उ रगड़ने लगे॥ २६ ॥ उनक भुजाएँ , जाँघ और मुँह सभी टूट-फू ट गये। वे खूनसे नहा गये और ाकु ल हो उठे । वे महावीर क पकु र द धमुख वहाँ दो घड़ीतक मू त पड़े रहे॥ २७ ॥ उन वानर के हाथसे कसी तरह छु टकारा मलनेपर वानर े द धमुख एका म आये और वहाँ एक ए अपने सेवक से बोले—॥ २८ ॥ ‘आओ-आओ, अब वहाँ चल, जहाँ हमारे ामी मोटी गदनवाले सु ीव ीरामच जीके साथ वराजमान ह॥ २९ ॥ ‘राजाके पास चलकर सारा दोष अ दके माथे मढ़ दगे। सु ीव बड़े ोधी ह। मेरी बात सुनकर वे इन सभी वानर को मरवा डालगे॥ ३० ॥ ‘महा ा सु ीवको यह मधुवन ब त ही य है। यह उनके बाप-दाद का द वन है। इसम वेश करना देवता के लये भी क ठन है॥ ३१ ॥ ‘मधुके लोभी इन सभी वानर क आयु समा हो चली है। सु ीव इ कठोर द देकर इनके सु द स हत इन सबको मरवा डालगे॥ ३२ ॥ ‘राजाक आ ाका उ न करनेवाले ये दुरा ा राज ोही वानर वधके ही यो ह। इनका वध होनेपर ही मेरा अमषज नत रोष सफल होगा’॥ ३३ ॥ वनके र क से ऐसा कहकर उ साथ ले महाबली द धमुख सहसा उछलकर आकाशमागसे चले॥ ३४ ॥ और पलक मारते-मारते वे उस ानपर जा प ँ चे, जहाँ बु मान् सूयपु वानरराज सु ीव वराजमान थे॥ ३५ ॥



३६ ॥



ीराम, ल ण और सु ीवको दूरसे ही देखकर वे आकाशसे समतल भू मपर कू द पड़े॥



वनर क के ामी महावीर वानर द धमुख पृ ीपर उतरकर उन र क से घरे ए उदास मुख कये सु ीवके पास गये और सरपर अ ल बाँधे उनके चरण म म क कु ाकर उ ने णाम कया॥ ३७-३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म बासठवाँ सग पूरा आ॥ ६२ ॥ * आठ आढक या ब



ीस सेरके मापको ‘ ोण’ कहते ह। यह ाचीन कालम च लत था।



तरसठवाँ सग द धमुखसे मधुवनके व ंसका समाचार सुनकर सु ीवका हनुमान् आ द वानर क सफलताके वषयम अनुमान



वानर द धमुखको माथा टेक णाम करते देख वानर शरोम ण सु ीवका दय उ हो उठा। वे उनसे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘उठो-उठो! तुम मेरे पैर पर कै से पड़े हो? म तु अभयदान देता ँ । तुम स ी बात बताओ॥ २ ॥ ‘कहो, कसके भयसे यहाँ आये हो। जो पूणत: हतकर बात हो, उसे बताओ; क तुम सब कु छ कहनेके यो हो। मधुवनम कु शल तो है न ? वानर! म तु ारे मुखसे यह सब सुनना चाहता ँ ’॥ ३ ॥ महा ा सु ीवके इस कार आ ासन देनेपर महाबु मान् द धमुख खड़े होकर बोले—॥ ४॥ ‘राजन्! आपके पता ऋ रजाने, वालीने और आपने भी पहले कभी जस वनके मनमाने उपभोगके लये कसीको आ ा नह दी थी, उसीका हनुमान् आ द वानर ने आज नाश कर दया॥ ५ ॥ ‘मने इन वनर क वानर के साथ उन सबको रोकनेक ब त चे ा क , परंतु वे मुझे कु छ भी न समझकर बड़े हषके साथ फल खाते और मधु पीते ह॥ ‘देव! इन हनुमान् आ द वानर ने जब मधुवनम लूट मचाना आर कया, तब हमारे इन वनर क ने उन सबको रोकनेक चे ा क ; परंतु वे वानर इनको और मुझे भी कु छ नह गनते ए वहाँके फल आ दका भ ण कर रहे ह॥ ७ ॥ ‘दूसरे, वानर वहाँ खाते-पीते तो ह ही, उनके सामने जो कु छ बच जाता है, उसे उठाकर फ क देते ह और जब हमलोग रोकते ह, तब वे सब हम टेढ़ी भ ह दखाते ह॥ ८ ॥ ‘जब ये र क उनपर अ धक कु पत ए, तब उ ने इनपर आ मण कर दया। इतना ही नह , ोधसे भरे ए उन वानरपु व ने इन र क को उस वनसे बाहर नकाल दया॥ ९ ॥



‘बाहर



नकालकर उन ब सं क वीर वानर ने ोधसे लाल आँ ख करके वनक र ा करनेवाले इन े वानर को धर दबाया॥ १० ॥ ‘ क को थ ड़ से मारा, क को घुटन से रगड़ दया, ब त को इ ानुसार घसीटा और कतन को पीठके बल पटककर आकाश दखा दया॥ ११ ॥ ‘ भो! आप-जैसे ामीके रहते ए ये शूरवीर वनर क उनके ारा इस तरह मारे-पीटे गये ह और वे अपराधी वानर अपनी इ ाके अनुसार सारे मधुवनका उपभोग कर रहे ह’॥ १२ ॥ वानर शरोम ण सु ीवको जब इस कार मधुवनके लूटे जानेका वृ ा बताया जा रहा था, उस समय श ुवीर का संहार करनेवाले परम बु मान् ल णने उनसे पूछा—॥ १३ ॥ ‘राजन्! वनक र ा करनेवाला यह वानर यहाँ कस लये उप त आ है? और कस वषयक ओर संकेत करके इसने दु:खी होकर बात क है?’॥ महा ा ल णके इस कार पूछनेपर बातचीत करनेम कु शल सु ीवने य उ र दया —॥ १५ ॥ ‘आय ल ण! वीर वानर द धमुखने मुझसे यह कहा है क ‘अ द आ द वीर वानर ने मधुवनका सारा मधु खा-पी लया है’॥ १६ ॥ ‘इसक बात सुनकर मुझे यह अनुमान होता है क वे जस कायके लये गये थे, उसे अव ही उ ने पूरा कर लया है। तभी उ ने मधुवनपर आ मण कया है। य द वे अपना काय स करके न आये होते तो उनके ारा ऐसा अपराध नह बना होता—वे मेरे मधुवनको लूटनेका साहस नह कर सकते थे॥ १७ ॥ ‘जब र क उ बारंबार रोकनेके लये आये, तब उ ने इन सबको पटककर घुटन से रगड़ा है तथा इन बलवान् वानर द धमुखको भी कु छ नह समझा है। ये ही मेरे उस वनके मा लक या धान र क ह। मने यं ही इ इस कायम नयु कया है ( फर भी उ ने इनक बात नह मानी है)। इससे जान पड़ता है, उ ने देवी सीताका दशन अव कर लया। इसम को◌इ संदेह नह है। यह काम और कसीका नह , हनुमा ीका ही है (उ ने ही सीताका दशन कया है)॥ १८-१९ ॥ ‘इस कायको स करनेम हनुमा ीके सवा और को◌इ कारण बना हो, ऐसा स व नह है। वानर शरोम ण हनुमा ही काय- स क श और बु है। उ म उ ोग, परा म और शा ान भी त त है॥



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दलके नेता जा वान् और महाबली अ द ह तथा अ ध ाता हनुमान् ह , उस दलको वपरीत प रणाम— असफलता मले, यह स व नह है॥ २११/२ ॥ ‘द ण दशासे सीताजीका पता लगाकर लौटे ए अ द आ द वीर वानरपु व ने उस मधुवनपर हार कया है, जसे पदद लत करना कसीके लये भी अस व था। उ ने मधुवनको न कया, उजाड़ा और सब वानर ने मलकर समूचे वनका मनमाने ढंगसे उपभोग कया। इतना ही नह , उ ने वनके र क को भी दे मारा और उ अपने घुटन से मार-मारकर घायल कया। इसी बातको बतानेके लये ये व ात परा मी वानर द धमुख, जो बड़े मधुरभाषी ह यहाँ आये ह॥ २२—२५ ॥ ‘महाबा सु म ान न! इस बातको आप ठीक समझ क अब सीताका पता लग गया; क वे सभी वानर उस वनम जाकर मधु पी रहे ह॥ २६ ॥ ‘पु ष वर! वदेहन नीका दशन कये बना उस द वनका, जो देवता से मेरे पूवजको वरदानके पम ा आ है, वे व ात वानर कभी व ंस नह कर सकते थे’॥ २७ ॥



सु ीवके मुखसे नकली ◌इ कान को सुख देनेवाली यह बात सुनकर धमा ा ल ण ीरामच जीके साथ ब त स ए। ीरामके हषक सीमा न रही और महायश ी ल ण भी हषसे खल उठे ॥ २८१/२ ॥ द धमुखक उपयु बात सुनकर सु ीवको बड़ा हष आ। उ ने अपने वनर कको फर इस कार उ र दया—॥ २९१/२ ॥ ‘मामा! अपना काय स करके लौटे ए उन वानर ने जो मेरे मधुवनका उपभोग कया है, उससे म ब त स आ ँ ; अत: तु भी कृ तकृ होकर आये ए उन क पय क ढठा◌इ तथा उ तापूण चे ा को मा कर देना चा हये। अब शी जाओ और तु उस मधुवनक र ा करो। साथ ही हनुमान् आ द सब वानर को ज ी यहाँ भेजो॥ ३०-३१ ॥ ‘म सहके समान दपसे भरे ए उन हनुमान् आ द वानर से शी मलना चाहता ँ और इन दोन रघुवंशी ब ु के साथ म उन कृ ताथ होकर लौटे ए वीर से यह पूछना तथा सुनना चाहता ँ क सीताक ा के लये ा य कया जाय’॥ ३२ ॥



वे दोन राजकु मार ीराम और ल ण पूव समाचारसे अपनेको सफलमनोरथ मानकर हषसे पुल कत हो गये थे। उनक आँ ख स तासे खल उठी थ । उ इस तरह स देख तथा अपने हष ु अ से काय स को हाथ म आयी ◌इ जान वानरराज सु ीव अ आन म नम हो गये॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म तरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६३ ॥



च सठवाँ सग द धमुखसे सु ीवका संदेश सुनकर अ द-हनुमान् आ द वानर का क ाम प ँ चना और हनुमा ीका ीरामको णाम करके सीता देवीके दशनका समाचार बताना



सु ीवके ऐसा कहनेपर स च वानर द धमुखने ीराम, ल ण और सु ीवको णाम कया॥ १ ॥ सु ीव तथा उन महाबली रघुवंशी ब ु को णाम करके वे शूरवीर वानर के साथ आकाशमागसे उड़ चले॥ जैसे पहले आये थे, उतनी ही शी तासे वे वहाँ जा प ँ चे और आकाशसे पृ ीपर उतरकर उ ने उस मधुवनम वेश कया॥ ३ ॥ मधुवनम व होकर उ ने देखा क सम वानर-यूथप त जो पहले उ हो रहे थे, अब मदर हत हो गये ह—इनका नशा उतर गया है और ये मधु म त जलका मेहन (मू े य ारा ाग) कर रहे ह॥ ४ ॥ वीर द धमुख उनके पास गये और दोन हाथ क अ ल बाँध अ दसे हषयु मधुर वाणीम इस कार बोले—॥ ५ ॥ ‘सौ ! इन र क ने जो अ ानवश आपको रोका था, ोधपूवक आपलोग को मधु पीनेसे मना कया था, इसके लये आप अपने मनम ोध न कर॥ ६ ॥ ‘आपलोग दूरसे थके -माँदे आये ह, अत: फल खाइये और मधु पी जये। यह सब आपक ही स है। महाबली वीर! आप हमारे युवराज और इस वनके ामी ह॥ ७ ॥ ‘क प े ! मने पहले मूखतावश जो रोष कट कया था, उसे आप मा कर; क पूवकालम जैसे आपके पता वानर के राजा थे, उसी कार आप और सु ीव भी ह। आपलोग के सवा दूसरा को◌इ हमारा ामी नह है॥ ८१/२ ॥ ‘ न ाप युवराज! मने यहाँसे जाकर आपके चाचा सु ीवसे इन सब वानर के यहाँ पधारनेका हाल कहा था। इन वानर के साथ आपका आगमन सुनकर वे ब त स ए। इस वनके व ंसका समाचार सुनकर भी उ रोष नह आ॥ ९-१०१/२ ॥



‘आपके चाचा वानरराज सु भेजो’॥ १११/२ ॥



ीवने बड़े हषके साथ मुझसे कहा है क उन सबको शी यहाँ



द धमुखक यह बात सुनकर बातचीत करनेम कु शल क प े अ दने उन सबसे मधुर वाणीम कहा—॥ ‘वानरयूथप तयो! जान पड़ता है भगवान् ीरामने हमलोग के लौटनेका समाचार सुन लया; क ये ब त स होकर वहाँक बात सुना रहे ह। इसीसे मुझे ऐसा ात होता है। अत: श ु को संताप देनेवाले वीरो! काय पूरा हो जानेपर अब हमलोग को यहाँ अ धक नह ठहरना चा हये॥ १३-१४ ॥ ‘परा मी वानर इ ानुसार मधु पी चुके। अब यहाँ कौन-सा काय शेष है। इस लये वह चलना चा हये, जहाँ वानरराज सु ीव ह॥ १५ ॥ ‘वानरपु वो! आप सब लोग मलकर मुझसे जैसा कहगे, म वैसा ही क ँ गा; क कत के वषयम म आपलोग के अधीन ँ ॥ १६ ॥ ‘य प म युवराज ँ तो भी आपलोग पर नह चला सकता। आपलोग ब त बड़ा काय पूरा करके आये ह, अत: बलपूवक आपपर शासन चलाना कदा प उ चत नह है’॥ १७ ॥ उस समय इस तरह बोलते ए अ दका उ म वचन सुनकर सब वानर का च स हो गया और वे इस कार बोले—॥ १८ ॥ ‘राजन्! क प े ! ामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले लोग से कौन इस तरहक बात करेगा? ाय: सब लोग ऐ यके मदसे उ हो अहंकारवश अपनेको ही सव प र मानने लगते ह॥ १९ ॥ ‘आपक यह बात आपके ही यो है। दूसरे कसीके मुँहसे ाय: ऐसी बात नह नकलती। यह न ता आपक भावी शुभयो ताका प रचय दे रही है॥ २० ॥ ‘हम सब लोग भी जहाँ वानरवीर के अ वनाशी प त सु ीव वराजमान ह, वहाँ चलनेके लये उ ा हत हो यहाँ आपके समीप आये ह॥ २१ ॥ ‘वानर े ! आपक आ ा ा ए बना हम वानरगण कह एक पग भी नह जा सकते, यह आपसे स ी बात कहते ह’॥ २२ ॥



वे वानरगण जब ऐसी बात कहने लगे, तब अ द बोले—‘ब त अ ा, अब हमलोग चल।’ इतना कहकर वे महाबली वानर आकाशम उड़ चले॥ २३ ॥ आगे-आगे अ द और उनके पीछे वे सम वानरयूथप त उड़ने लगे। वे आकाशको आ ा दत करके गुलेलसे फ के गये प र क भाँ त ती ग तसे जा रहे थे॥ २४ ॥ अ द और वानरवीर हनुमा ो आगे करके सभी वेगवान् वानर सहसा आकाशम उछलकर वायुसे उड़ाये गये बादल क भाँ त बड़े जोर-जोरसे गजना करते ए क ाके नकट जा प ँ चे॥ २५१/२ ॥ अ दके नकट प ँ चते ही वानरराज सु ीवने शोकसंत कमलनयन ीरामसे कहा—॥ २६१/२ ॥ ‘ भो! धैय धारण क जये। आपका क ाण हो। सीता देवीका पता लग गया है, इसम संशय नह है; क कृ तकाय ए बना दये ए समयक अव धको बताकर ये वानर कदा प यहाँ नह आ सकते थे॥ ‘शुभदशन ीराम! अ दक अ स तासे भी मुझे इसी बातक सूचना मल रही है। य द काम बगाड़ दया गया होता तो वानर म े युवराज महाबा अ द मेरे पास कदा प लौटकर नह आते॥ २८-२९ ॥ ‘य प काय स न होनेपर भी इस तरह लोग का अपने घर लौटना देखा गया है, तथा प उस दशाम अ दके मुखपर उदासी छायी होती और उनके च म घबराहटके कारण उथलपुथल मची होती॥ ३० ॥ ‘मेरे बाप-दाद के इस मधुवनका, जसक पूवज ने भी सदा र ा क है, को◌इ जनक कशोरीका दशन कये बना व ंस नह कर सकता था॥ ३१ ॥ ‘उ म तका पालन करनेवाले ीराम! आपको पाकर माता कौस ा उ म संतानक जननी ◌इ ह। आप धैय धारण क जये। इसम को◌इ संदेह नह क देवी सीताका दशन हो गया। कसी औरने नह , हनुमा ीने ही उनका दशन कया है॥ ३२ ॥ ‘म तमान म े रघुन न! इस कायको स करनेम हनुमा ीके सवा और को◌इ कारण बना हो, ऐसा स व नह है। वानर शरोम ण हनुमा ही काय स क श और बु है। उ म उ ोग, परा म और शा ान भी त त है। जस दलके नेता जा वान् और



महाबली अ द ह तथा अ ध ाता हनुमान् ह , उस दलको वपरीत प रणाम—असफलता मले, यह स व नह है॥ ३३-३४१/२ ॥ ‘अ मत परा मी ीराम! अब आप च ा न कर। ये वनवासी वानर जो इतने अहंकारम भरे ए आ रहे ह, काय स ए बना इनका इस तरह आना स व नह था। इनके मधु पीने और वन उजाड़नेसे भी मुझे ऐसा ही तीत होता है’॥ ३५-३६१/२ ॥ वे इस कार कह ही रहे थे क उ आकाशम नकटसे वानर क कलका रयाँ सुनायी द । हनुमा ीके परा मपर गव करके क ाके पास आ गजना करनेवाले वे वनवासी वानर मानो स क सूचना दे रहे थे॥ ३७-३८ ॥ उन वानर का वह सहनाद सुनकर क प े सु ीवका दय हषसे खल उठा। उ ने अपनी पूँछ लंबी एवं ऊँ ची कर दी॥ ३९ ॥ इतनेम ही ीरामच जीके दशनक इ ासे अ द और वानरवीर हनुमा ो आगे करके वे सब वानर वहाँ आ प ँ चे॥ ४० ॥ वे अ द आ द वीर आन और उ ाहसे भरकर वानरराज सु ीव तथा रघुनाथजीके समीप आकाशसे नीचे उतरे॥ ४१ ॥ महाबा हनुमा े ीरघुनाथजीके चरण म म क रखकर णाम कया और उ यह बताया क ‘देवी सीता पा त के कठोर नयम का पालन करती ◌इ शरीरसे सकु शल ह’॥ ४२ ॥ ‘मने देवी सीताका दशन कया है’ हनुमा ीके मुखसे यह अमृतके समान मधुर वचन सुनकर ल णस हत ीरामको बड़ी स ता ◌इ॥ ४३ ॥ पवनपु हनुमा े वषयम सु ीवने पहलेसे ही न य कर लया था क उ के ारा काय स आ है। इस लये स ए ल णने ी तयु सु ीवक ओर बड़े आदरसे देखा॥ ४४ ॥



श वु ीर का संहार करनेवाले ीरघुनाथजीने परम ी त और महान् स ानके साथ हनुमा ीक ओर देखा॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म च सठवाँ सग पूरा आ॥ ६४ ॥



पसठवाँ सग हनुमा ीका ीरामको सीताका समाचार सुनाना



तदन र व च कानन से सुशो भत वण पवतपर जाकर युवराज अ दको आगे करके ीराम, महाबली ल ण तथा सु ीवको म क कु ाकर णाम करनेके अन र सब वानर ने सीताका समाचार बताना आर कया—॥ १-२ ॥ ‘सीता देवी रावणके अ :पुरम रोक रखी गयी ह। रा सयाँ उ धमकाती रहती ह। ीरामके त उनका अन अनुराग है। रावणने सीताके जी वत रहनेके लये के वल दो मासक अव ध दे रखी है। इस समय वदेहकु मारीको को◌इ त नह प ँ ची है—वे सकु शल ह।’ ीरामच जीके नकट ये सब बात बताकर वे वानर चुप हो गये। वदेहकु मारीके सकु शल होनेका वृ ा सुनकर ीरामने आगेक बात पूछते ए कहा—॥ ३-४ ॥ ‘वानरो ! देवी सीता कहाँ ह ? मेरे त उनका कै सा भाव है? वदेहकु मारीके वषयम ये सारी बात मुझसे कहो’॥ ५ ॥ ीरामच जीका यह कथन सुनकर वे वानर ीरामके नकट सीताके वृ ा को अ ी तरह जाननेवाले हनुमा ीको उ र देनेके लये े रत करने लगे॥ ६ ॥ उन वानर क बात सुनकर पवनपु हनुमा ीने पहले देवी सीताके उ े से द ण दशाक ओर म क कु ाकर णाम कया॥ ७ ॥ फर बातचीतक कलाको जाननेवाले उन वानरवीरने सीताजीका दशन जस कार आ था, वह सारा वृ ा कह सुनाया। त ात् अपने तेजसे का शत होनेवाली उस द का नम णको भगवान् ीरामके हाथम देकर हनुमा ी हाथ जोड़कर बोले—॥८१/२ ॥ ‘ भो! म जनकन नी सीताके दशनक इ ासे उनका पता लगाता आ सौ योजन व ृत समु को लाँघकर उसके द ण कनारेपर जा प ँ चा॥९१/२ ॥ ‘वह दुरा ा रावणक नगरी ल ा है। वह समु के द ण तटपर ही बसी ◌इ है॥१०१/२ ॥



ीराम! ल ाम प ँ चकर मने रावणके अ :पुरम मदावनके भीतर रा सय के बीचम बैठी ◌इ सती-सा ी सु री देवी सीताका दशन कया। वे अपनी सारी अ भलाषा को ‘



आपम ही के त करके कसी तरह जीवन धारण कर रही ह। वकराल पवाली रा सयाँ उनक रखवाली करती ह और बारंबार उ डाँटती-फटकारती रहती ह॥ ११-१२१/२ ॥ ‘वीरवर ! देवी सीता आपके साथ सुख भोगनेके यो ह, परंतु इस समय बड़े दु:खसे दन बता रही ह। उ रावणके अ :पुरम रोक रखा गया है और वे रा सय के पहरेम रहती ह। सरपर एक वेणी धारण कये दु:खी हो सदा आपक च ाम डू बी रहती ह॥ १३-१४ ॥ ‘वे नीचे भू मपर सोती ह। जैसे जाड़ेके दन म पाला पड़नेके कारण कम लनी सूख जाती है, उसी कार उनके अ क का फ क पड़ गयी है। रावणसे उनका को◌इ योजन नह है। उ ने ाण ाग देनेका न य कर लया है॥ १५ ॥ ‘ककु कु लभूषण! उनका मन नर र आपम ही लगा रहता है। न ाप नर े ! मने बड़ा य करके कसी तरह महारानी सीताका पता लगाया और धीरे-धीरे इ ाकु वंशक क तका वणन करते ए कसी कार उनके दयम अपने त व ास उ कया। त ात् देवीसे वातालाप करके मने यहाँक सब बात उ बतलाय ॥ १६-१७ ॥ ‘आपक सु ीवके साथ म ताका समाचार सुनकर उ बड़ा हष आ। उनका उ को टका आचार- वचार (पा त ) सु ढ़ है। वे सदा आपम ही भ रखती ह॥ १८ ॥ ‘महाभाग! पु षो म! इस कार जनकन नीको मने आपक भ से े रत होकर कठोर तप ा करते देखा है॥ १९ ॥ ‘महामते! रघुन न! च कू टम आपके पास देवीके रहते समय एक कौएको लेकर जो घटना घ टत ◌इ थी, उस वृ ा को उ ने पहचानके पम मुझसे कहा था॥ २० ॥ ‘जानक जीने आते समय मुझसे कहा—‘वायुन न! तुम यहाँ जैसी मेरी हालत देख चुके हो, वह सब भगवान् ीरामको बताना और इस म णको बड़े य से सुर त पम ले जाकर उनके हाथम देना॥ २११/२ ॥ ‘ऐसे समयम देना, जब क सु ीव भी नकट बैठकर तु ारी कही ◌इ बात सुन रहे ह । साथ ही मेरी ये बात भी उनसे नवेदन करना—‘ भो! आपक दी ◌इ यह का मती चूड़ाम ण मने बड़े य से सुर त रखी थी। जलसे कट ए इस दी मान् र को मने आपक सेवाम लौटाया है। न ाप रघुन न! संकटके समय इसे देखकर म उसी कार आन म हो जाती थी, जैसे आपके दशनसे आन त होती ँ । आपने मेरे ललाटम जो मैन सलका तलक लगाया था, इसको रण क जये।’ ये बात जानक जीने कही थ ॥ २२—२४ ॥



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ने यह भी कहा—‘दशरथन न! म एक मास और जीवन धारण क ँ गी। उसके बाद रा स के वशम पड़कर ाण ाग दूँगी— कसी तरह जी वत नह रह सकूँ गी’॥ २५ ॥ ‘इस कार दुबले-पतले शरीरवाली धमपरायणा सीताने मुझे आपसे कहनेके लये यह संदेश दया था। वे रावणके अ :पुरम कै द ह और भयके मारे आँ ख फाड़-फाड़कर इधर-उधर देखनेवाली ह रणीके समान वे सश से सब ओर देखा करती ह॥ २६ ॥ ‘रघुन न! यही वहाँका वृ ा है, जो सब-का-सब मने आपक सेवाम नवेदन कर दया। अब सब कारसे समु को पार करनेका य क जये’॥ २७ ॥ राजकु मार ीराम और ल णको कु छ आ ासन मल गया, ऐसा जानकर तथा वह पहचान ीरघुनाथजीके हाथम देकर वायुपु हनुमा े देवी सीताक कही ◌इ सारी बात मश: अपनी वाणी ारा पूण पसे कह सुनाय ॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म पसठवाँ सग पूरा आ॥ ६५ ॥



छाछठवाँ सग चूडाम णको देखकर और सीताका समाचार पाकर ीरामका उनके लये वलाप



हनुमा ीके ऐसा कहनेपर दशरथन न ीराम उस म णको अपनी छातीसे लगाकर रोने लगे। साथ ही ल ण भी रो पड़े॥ १ ॥ उस े म णक ओर देखकर शोकसे ाकु ल ए ीरघुनाथजी अपने दोन ने म आँ सू भरकर सु ीवसे इस कार बोले—॥ २ ॥ ‘ म ! जैसे व ला धेनु अपने बछड़ेके ेहसे थन से दूध झरने लगती है, उसी कार इस उ म म णको देखकर आज मेरा दय भी वीभूत हो रहा है॥ ३ ॥ ‘मेरे शुर राजा जनकने ववाहके समय वैदेहीको यह म णर दया था, जो उसके म कपर आब होकर बड़ी शोभा पाता था॥ ४ ॥ ‘जलसे कट ◌इ यह म ण े देवता ारा पू जत है। कसी य म ब त संतु ए बु मान् इ ने राजा जनकको यह म ण दी थी॥ ५ ॥ ‘सौ ! इस म णर का दशन करके आज मुझे मानो अपने पू पताका और वदेहराज महाराज जनकका भी दशन मल गया हो, ऐसा अनुभव हो रहा है॥ ६ ॥ ‘यह म ण सदा मेरी या सीताके सीम पर शोभा पाती थी। आज इसे देखकर ऐसा जान पड़ता है मानो सीता ही मुझे मल गयी॥ ७ ॥ ‘सौ पवनकु मार! जैसे बेहोश ए मनु को होशम लानेके लये उसपर जलके छ टे दये जाते ह, उसी कार वदेहन नी सीताने मू त ए-से मुझ रामको अपने वा पी शीतल जलसे स चते ए ा- ा कहा है? यह बारंबार बताओ’॥ ८ ॥ (अब वे ल णसे बोले—) ‘सु म ान न! सीताके यहाँ आये बना ही जो जलसे उ ◌इ इस म णको म देख रहा ँ । इससे बढ़कर दु:खक बात और ा हो सकती है’॥ ९ ॥ ( फर वे हनुमा ीसे बोले—) ‘वीर पवनकु मार! य द वदेहन नी सीता एक मासतक जीवन धारण कर लेगी, तब तो वह ब त समयतक जी रही है। म तो कजरारे ने वाली जानक के बना अब एक ण भी जी वत नह रह सकता॥ १० ॥



‘तुमने



जहाँ मेरी याको देखा है, उसी देशम मुझे भी ले चलो। उसका समाचार पाकर अब म एक ण भी यहाँ नह क सकता॥ ११ ॥ ‘हाय! मेरी सती-सा ी सुम मा सीता बड़ी भी है। वह उन घोर पधारी भयंकर रा स के बीचम कै से रहती होगी?॥ १२ ॥ ‘ न य ही अ कारसे मु कतु बादल से ढके ए शर ालीन च माके समान सीताका मुख इस समय शोभा नह पा रहा होगा॥ १३ ॥ ‘हनुमन्! मुझे ठीक-ठीक बताओ, सीताने ा ा कहा है ? जैसे रोगी दवा लेनेसे जीता है, उसी कार म सीताके इस संदेश-वा को सुनकर ही जीवन धारण क ँ गा॥ १४ ॥ ‘हनुमन्! मुझसे बछु ड़ी ◌इ मेरी सु र क ट देशवाली मधुरभा षणी सु री यतमा जनक-न नी सीताने मेरे लये कौन-सा संदेश दया है? वह दु:ख-पर-दु:ख उठाकर भी कै से जीवन धारण कर रही है?’॥ १५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म छाछठवाँ सग पूरा आ॥ ६६ ॥



सरसठवाँ सग हनुमा ीका भगवान् ीरामको सीताका संदेश सुनाना



महा ा ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर ीहनुमा ीने सीताजीक कही ◌इ सब बात उनसे नवेदन कर द ॥ १ ॥ वे बोले—‘पु षो म! जानक देवीने पहले च कू टपर बीती ◌इ एक घटनाका यथावत् पसे वणन कया था। उसे उ ने पहचानके तौरपर इस कार कहा था॥ २ ॥ ‘पहले च कू टम कभी जानक देवी आपके साथ सुखपूवक सोयी थ । वे सोकर आपसे पहले उठ गय । उस समय कसी कौएने सहसा उड़कर उनक छातीम च च मार दी॥ ३ ॥ ‘भरता ज! आपलोग बारी-बारीसे एक-दूसरेके अ म सर रखकर सोते थे। जब आप देवीके अ म म क रखकर सोये थे, उस समय पुन: उसी प ीने आकर देवीको क देना आर कया॥ ४ ॥ ‘कहते ह उसने फर आकर जोरसे च च मार दी। तब देवीके शरीरसे र बहने लगा और उससे भीग जानेके कारण आप जग उठे ॥ ५ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले रघुन न! उस कौएने जब लगातार इस तरह पीड़ा दी, तब देवी सीताने सुखसे सोये ए आपको जगा दया॥ ६ ॥ ‘महाबाहो! उनक छातीम घाव आ देख आप वषधर सपके समान कु पत हो उठे और इस कार बोले—॥ ७ ॥ ‘भी ! कसने अपने नख के अ भागसे तु ारी छातीम घाव कर दया है? कौन कु पत ए पाँच मुँहवाले सपके साथ खेल रहा है?’॥ ८ ॥ ‘ऐसा कहकर आपने जब सहसा इधर-उधर डाली, तब उस कौएको देखा। उसके तीखे पंजे खूनम रँगे ए थे और वह सीता देवीक ओर मुँह करके ही कह बैठा था॥ ९ ॥ सुना है, उड़नेवाल म े वह कौआ सा ात् इ का पु था, जो उन दन पृ ीपर वचर रहा था। वह वायुदेवताके समान शी गामी था॥ १० ॥ ‘म तमान म े महाबाहो! उस समय आपके ने ोधसे घूमने लगे और आपने उस कौएको कठोर द देनेका वचार कया॥ ११ ॥



‘आपने



अपनी चटा◌इमसे एक कु शा नकालकर हाथम ले लया और उसे ा से अ भम त कया। फर तो वह कु श लयकालक अ के समान लत हो उठा। उसका ल वह कौआ ही था॥ १२ ॥ ‘आपने उस जलते ए कु शको कौएक ओर छोड़ दया। फर तो वह दी मान् दभ उस कौएका पीछा करने लगा॥ १३ ॥ ‘आपके भयसे डरे ए सम देवता ने भी उस कौएको ाग दया। वह तीन लोक म च र लगाता फरा, कतु कह भी उसे को◌इ र क नह मला॥ १४ ॥ ‘श ुदमन ीराम! सब ओरसे नराश होकर वह कौआ फर वह आपक शरणम आया। शरणम आकर पृ ीपर पड़े ए उस कौएको आपने शरणम ले लया; क आप शरणागतव ल ह। य प वह वधके यो था तो भी आपने कृ पापूवक उसक र ा क ॥ १५१/२ ॥ ‘रघुन न! उस ा को थ नह कया जा सकता था, इस लये आपने उस कौएक दा हनी आँ ख फोड़ डाली॥ १६१/२ ॥ ‘ ीराम! तदन र आपसे वदा ले वह कौआ भूतलपर आपको और गम राजा दशरथको नम ार करके अपने घरको चला गया॥ १७१/२ ॥ ‘(सीता कहती ह—) ‘रघुन न! इस कार अ वे ा म े , श शाली और शीलवान् होते ए भी आप रा स पर अपने अ का योग नह करते ह ?॥ १८१/२ ॥ ‘ ीराम! दानव, ग व, असुर और देवता को◌इ भी समरा णम आपका सामना नह कर सकते॥ १९१/२ ॥ ‘आप बल-परा मसे स ह। य द मेरे त आपका कु छ भी आदर है तो आप शी ही अपने तीखे बाण से रणभू मम रावणको मार डा लये॥ २०१/२ ॥ ‘हनुमन्! अथवा अपने भा◌इक आ ा लेकर श ु को संताप देनेवाले रघुकुल तलक नर े ल ण नह मेरी र ा करते ह?॥ २११/२ ॥ ‘वे दोन पु ष सह ीराम और ल ण वायु तथा अ के तु तेज ी एवं श शाली ह, देवता के लये भी दुजय ह; फर कस लये मेरी उपे ा कर रहे ह?॥ २२१/२ ॥



‘इसम



संदेह नह क मेरा ही को◌इ ऐसा महान् पाप है, जसके कारण वे दोन श ुसंतापी वीर एक साथ रहकर समथ होते ए मेरी र ा नह कर रहे ह’॥ २३१/२ ॥ ‘रघुन न! वदेहन नीका क णाजनक उ म वचन सुनकर मने पुन: आया सीतासे यह बात कही—॥ ‘दे व! म स क शपथ खाकर कहता ँ क ीरामच जी तु ारे शोकके कारण ही सब काय से वरत हो रहे ह। ीरामके दु:खी होनेसे ल ण भी संत हो रहे ह॥ २५१/२ ॥ ‘ कसी तरह आपका दशन हो गया (आपके नवास- ानका पता लग गया), अत: अब शोक करनेका अवसर नह है। भा म न! आप इसी मु तम अपने सारे दु:ख का अ आ देखगी॥ २६१/२ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले वे दोन नर े राजकु मार आपके दशनके लये उ ा हत हो ल ापुरीको जलाकर भ कर दगे॥ २७१/२ ॥ ‘वरारोहे! समरा णम रौ रा स रावणको ब -ु बा व स हत मारकर रघुनाथजी अव ही आपको अपनी पुरीम ले जायँगे॥ २८१/२ ॥ ‘सती-सा ी दे व! अब आप मुझे को◌इ ऐसी पहचान दी जये, जसे ीरामच जी जानते ह और जो उनके मनको स करनेवाला हो॥ २९१/२ ॥ ‘महाबली वीर! तब उ ने चार ओर देखकर वेणीम बाँधने यो इस उ म म णको अपने व से खोलकर मुझे दे दया॥ ३०१/२ ॥ ‘रघुवं शय के यतम ीराम! आपके लये इस म णको दोन हाथ म लेकर मने सीतादेवीको म क कु ाकर णाम कया और यहाँ आनेके लये म उतावला हो उठा॥ ३११/२ ॥ ‘लौटनेके दु:खी हो



लये उ ा हत हो मुझे अपने शरीरको बढ़ाते देख सु री जनकन नी सीता बत गय । उनके मुखपर आँ सु क धारा बह चली। मेरी उछलनेक तैयारीसे वे घबरा गय और शोकके वेगसे आहत हो उठ । उस समय उनका र अ ुग द हो गया था। वे मुझसे कहने लग —‘महाकपे! तुम बड़े सौभा शाली हो, जो मेरे महाबा यतम कमलनयन ीरामको तथा मेरे यश ी देवर महाबा ल णको भी अपनी आँ ख से देखोगे’॥ ३२—३५ ॥



‘सीताजीके



ऐसा कहनेपर मने उन म थलेशकु मारीसे कहा—‘दे व! जनकन नी! आप शी मेरी पीठपर चढ़ जाइये। महाभागे! ामलोचने! म अभी सु ीव और ल णस हत आपके प तदेव ीरघुनाथजीका आपको दशन कराता ँ ’॥ ३६-३७ ॥ ‘यह सुनकर सीतादेवी मुझसे बोल —‘महाकपे! वानर शरोमणे! मेरा यह धम नह है क म अपने वशम होती ◌इ भी े ासे तु ारी पीठका आ य लूँ॥ ३८ ॥ ‘वीर! पहले जो रा स रावणके ारा मेरे अ का श हो गया, उस समय वहाँ म ा कर सकती थी? मुझे तो कालने ही पी ड़त कर रखा था। अत: वानर वर ! जहाँ वे दोन राजकु मार ह, वहाँ तुम जाओ’॥ ३९१/२ ॥ ‘ऐसा कहकर वे फर मुझे संदेश देने लग — ‘हनुमन्! सहके समान परा मी उन दोन भा◌इ ीराम और ल णसे, म य स हत सु ीवसे तथा अ सब लोग से भी मेरा कु शलसमाचार कहना और उनका पूछना॥ ‘तुम वहाँ ऐसी बात कहना, जससे महाबा रघुनाथजी इस दु:खसागरसे मेरा उ ार कर॥ ४२ ॥ ‘वानर के मुख वीर! मेरे इस ती शोक-वेगको तथा इन रा स ारा जो मुझे डरायाधमकाया जाता है, इसको भी उन ीरामच जीके पास जाकर कहना। तु ारा माग म लमय हो’॥ ४३ ॥ ‘नरे र! आपक यतमा संयमशीला आया सीताने बड़े वषादके साथ ये सारी बात कही ह। मेरी कही ◌इ इन सब बात पर वचार करके आप व ास कर क सती शरोम ण सीता सकु शल ह’॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म सरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६७ ॥



अड़सठवाँ सग हनुमा ीका सीताके संदेह और अपने ारा उनके नवारणका वृ ा ‘पु



बताना



ष सह रघुन न! आपके त ेह और सौहादके कारण देवी सीताने मेरा स ार करके जानेके लये उतावले ए मुझसे पुन: यह उ म बात कही—॥ १ ॥ ‘पवनकु मार! तुम दशरथन न भगवान् ीरामसे अनेक कारसे ऐसी बात कहना, जससे वे समरा णम शी ही रावणका वध करके मुझे ा कर ल॥ २ ॥ ‘श ु का दमन करनेवाले वीर! य द तुम ठीक समझो तो यहाँ कसी गु ानम एक दनके लये ठहर जाओ। आज व ाम करके कल सबेरे यहाँसे चले जाना॥ ३ ॥ ‘वानर! तु ारे नकट रहनेसे मुझ म -भा गनीको इस शोक वपाकसे थोड़ी देरके लये भी छु टकारा मल जाय॥ ४ ॥ ‘तुम परा मी वीर हो। जब पुन: आनेके लये यहाँसे चले जाओगे, तब मेरे ाण के लये भी संदेह उप त हो जायगा। इसम संशय नह है॥ ५ ॥ ‘तु न देखनेसे होनेवाला शोक दु:ख-पर-दु:ख उठानेसे पराभव तथा दुग तम पड़ी ◌इ मुझ दु: खयाको और भी संताप देता रहेगा॥ ६ ॥ ‘वीर! वानरराज! मेरे सामने यह महान् संदेह-सा खड़ा हो गया है क तुम जनके सहायक हो, उन वानर और भालु के होते ए भी रीछ और वानर क वे सेनाएँ तथा वे दोन राजकु मार ीराम और ल ण इस अपार पारावारको कै से पार करगे?॥ ७-८ ॥ ‘ न ाप पवनकु मार! तीन ही भूत म इस समु को लाँघनेक श देखी जाती है— वनतान न ग ड़म, वायुदेवताम और तुमम॥ ९ ॥ ‘वीर! जब इस कार इस कायका साधन दु र हो गया है, तब इसक स के लये तुम कौन-सा समाधान (उपाय) देखते हो। काय स के उपाय जाननेवाल म तुम े हो, अत: मेरी बातका उ र दो॥ १० ॥ ‘ वप ी वीर का नाश करनेवाले क प े ! इसम संदेह नह क इस कायक स के लये तुम अके ले ही ब त हो, तथा प तु ारे बलका यह उ ेक तु ारे लये ही यशक वृ करनेवाला होगा ( ीरामके लये नह )॥ ११ ॥



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ीराम अपनी स ूण सेनाके साथ यहाँ आकर यु म रावणको मार डाल और वजयी होकर मुझे अपनी पुरीको ले चल तो यह उनके लये यशक वृ करनेवाला होगा॥ १२ ॥ ‘ जस



कार रा स रावणने वीरवर भगवान् ीरामके भयसे ही उनके सामने न जाकर छलपूवक वनसे मेरा अपहरण कया था, उस तरह ीरघुनाथजीको मुझे नह ा करना चा हये (वे रावणको मारकर ही मुझे ले चल)॥ १३ ॥ ‘श ुसेनाका संहार करनेवाले ककु कु लभूषण ीराम य द अपने सै नक ारा ल ाको पदद लत करके मुझे अपने साथ ले जायँ तो यह उनके यो परा म होगा॥ १४ ॥ ‘महा ा ीराम सं ामम शौय कट करनेवाले ह, अत: जस कार उनके अनु प परा म कट हो सके , वैसा ही उपाय तुम करो’॥ १५ ॥ ‘सीतादेवीके उस अ भ ाययु , वनयपूण और यु संगत वचनको सुनकर अ म मने उ इस कार उ र दया—॥ १६ ॥ ‘दे व! वानर और भालु क सेनाके ामी क प े सु ीव बड़े श शाली ह। वे आपका उ ार करनेके लये ढ़ न य कर चुके ह॥ १७ ॥ ‘उनके पास परा मी, श शाली और महाबली वानर ह, जो मनके संक के समान ती ग तसे चलते ह। वे सब-के -सब सदा उनक आ ाके अधीन रहते ह॥ १८ ॥ ‘नीचे, ऊपर और अगल-बगलम कह भी उनक ग त नह कती है। वे अ मततेज ी वानर बड़े-से-बड़े काय आ पड़नेपर भी कभी श थल नह होते ह॥ १९ ॥ ‘वायुमाग (आकाश)-का अनुसरण करनेवाले उन महाभाग बलवान् वानर ने अनेक बार इस पृ ीक प र मा क है॥ २० ॥ ‘वहाँ मुझसे बढ़कर तथा मेरे समान श शाली ब तसे वानर ह। सु ीवके पास को◌इ ऐसा वानर नह है, जो मुझसे कसी बातम कम हो॥ २१ ॥ ‘जब म ही यहाँ आ गया, तब फर उन महाबली वानर के आनेम ा संदेह हो सकता है? आप जानती ह गी क दूत या धावन बनाकर वे ही लोग भेजे जाते ह, जो न ेणीके होते ह। अ ी ेणीके लोग नह भेजे जाते॥ २२ ॥



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दे व! अब संताप करनेक आव कता नह है। आपका मान सक दु:ख दूर हो जाना चा हये। वे वानरयूथप त एक ही छलाँगम ल ाम प ँ च जायँगे॥ २३ ॥ ‘महाभागे! वे पु ष सह ीराम और ल ण भी उदयाचलपर उ दत होनेवाले च मा और सूयक भाँ त मेरी पीठपर बैठकर आपके पास आ जायँगे॥ २४ ॥ ‘आप शी ही देखगी क सहके समान परा मी श ुनाशक ीराम और ल ण हाथम धनुष लये ल ाके ारपर आ प ँ चे ह॥ २५ ॥ ‘नख और दाढ़ ही जनके आयुध ह, जो सह और बाघके समान परा मी ह तथा बड़े-बड़े गजराज के समान जनक वशाल काया है, उन वीर वानर को आप शी ही यहाँ एक आ देखगी॥ २६ ॥ ‘ल ावत मलयपवतके शखर पर पहाड़ और मेघ के समान वशाल शरीरवाले धानधान वानर आकर गजना करगे और आप शी ही उनका सहनाद सुनगी॥ २७ ॥ ‘आपको ज ी ही यह देखनेका भी सौभा ा होगा क श ु का दमन करनेवाले ीरघुनाथजी वनवासक अव ध पूरी करके आपके साथ अयो ाम जाकर वहाँके रा पर अ भ ष हो गये ह’॥ २८ ॥ ‘आपके अ शोकसे ब त ही पी ड़त होनेपर भी जनक वाणीम कभी दीनता नह आने पाती, उन म थलेशकु मारीको जब मने य एवं म लमय वचन ारा सा ना देकर स कया, तब उनके मनको कु छ शा मली’॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के सु रका म अड़सठवाँ सग पूरा आ॥ ६८ ॥ ॥ सु रका



समा ॥







ीसीतारामच ा ां नम:॥



ीम ा



ीक य रामायण यु का पहला सग



हनुमा ीक



शंसा करके ीरामका उ च



दयसे लगाना और समु को पार करनेके लये त होना



हनुमा ीके ारा यथाव ूपसे कहे ए इन वचन को सुनकर भगवान् ीराम बड़े स ए और इस कार उ म वचन बोले—॥ १ ॥ ‘हनुमा े बड़ा भारी काय कया है। भूतलपर ऐसा काय होना क ठन है। इस भूम लम दूसरा को◌इ तो ऐसा काय करनेक बात मनके ारा सोच भी नह सकता॥ २ ॥ ‘ग ड़, वायु और हनुमा ो छोड़कर दूसरे कसीको म ऐसा नह देखता, जो महासागरको लाँघ सके ॥ ३ ॥ ‘देवता, दानव, य , ग व, नाग और रा स— इनमसे कसीके लये भी जसपर आ मण करना अस व है तथा जो रावणके ारा भलीभाँ त सुर त है, उस ल ापुरीम अपने बलके भरोसे वेश करके कौन वहाँसे जी वत नकल सकता है?॥ ४१/२ ॥ ‘जो हनुमा े समान बल-परा मसे स न हो, ऐसा कौन पु ष रा स ारा सुर त अ दुजय ल ाम वेश कर सकता है॥ ५१/२ ॥ ‘हनुमा े समु -ल न आ द काय के ारा अपने परा मके अनु प बल कट करके एक स े सेवकके यो सु ीवका ब त बड़ा काय स कया है॥ ६ ॥ ‘जो सेवक ामीके ारा कसी दु र कायम नयु होनेपर उसे पूरा करके तदनु प दूसरे कायको भी (य द वह मु कायका वरोधी न हो) स करता है, वह सेवक म उ म कहा गया है॥ ७ ॥



‘जो



एक कायम नयु होकर यो ता और साम होनेपर भी ामीके दूसरे य कायको नह करता ( ामीने जतना कहा है, उतना ही करके लौट आता है) वह म म ेणीका सेवक बताया गया है॥ ‘जो सेवक मा लकके कसी कायम नयु होकर अपनेम यो ता और साम के होते ए भी उसे सावधानीसे पूरा नह करता, वह अधम को टका कहा गया है॥ ९ ॥ ‘हनुमा े ामीके एक कायम नयु होकर उसके साथ ही दूसरे मह पूण काय को भी पूरा कया, अपने गौरवम भी कमी नह आने दी—अपने-आपको दूसर क म छोटा नह बनने दया और सु ीवको भी पूणत: संतु कर दया॥ १० ॥ ‘आज हनुमा े वदेहन नी सीताका पता लगाकर—उ अपनी आँ ख देखकर धमके अनुसार मेरी, सम रघुवंशक और महाबली ल णक भी र ा क है॥ ११ ॥ ‘आज मेरे पास पुर ार देने यो व ुका अभाव है, यह बात मेरे मनम बड़ी कसक पैदा कर रही है क यहाँ जसने मुझे ऐसा य संवाद सुनाया, उसका म को◌इ वैसा ही य काय नह कर पा रहा ँ ॥ १२ ॥ ‘इस समय इन महा ा हनुमा ो म के वल अपना गाढ़ आ ल न दान करता ँ , क यही मेरा सव है’॥ १३ ॥ ऐसा कहते-कहते रघुनाथजीके अ ेमसे पुल कत हो गये और उ ने अपनी आ ाके पालनम सफलता पाकर लौटे ए प व ा ा हनुमा ीको दयसे लगा लया॥ १४ ॥ फर थोड़ी देरतक वचार करके रघुवंश शरोम ण ीरामने वानरराज सु ीवको सुनाकर यह बात कही—॥ ‘ब ुओ! सीताक खोजका काम तो सुचा पसे स हो गया; कतु समु तकक दु रताका वचार करके मेरे मनका उ ाह फर न हो गया॥ १६ ॥ ‘महान् जलरा शसे प रपूण समु को पार करना तो बड़ा ही क ठन काम है। यहाँ एक ए ये वानर समु के द ण तटपर कै से प ँ चगे॥ १७ ॥ ‘मेरी सीताने भी यही संदेह उठाया था, जसका वृ ा अभी-अभी मुझसे कहा गया है। इन वानर के समु के पार जानेके वषयम जो खड़ा आ है, उसका वा वक उ र ा है?’॥ १८ ॥



हनुमा ीसे ऐसा कहकर श ुसूदन महाबा ीराम शोकाकु ल होकर बड़ी च ाम पड़ गये॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पहला सग पूरा आ॥ १॥



दस ू रा सग सु ीवका ीरामको उ ाह दान करना



इस कार शोकसे संत ए दशरथन न ीरामसे सु ीवने उनके शोकका नवारण करनेवाली बात कही—॥ ‘वीरवर! आप दूसरे साधारण मनु क भाँ त संताप कर रहे ह? आप इस तरह च त न ह । जैसे कृ त पु ष सौहादको ाग देता है, उसी तरह आप भी इस संतापको छोड़ द॥ २ ॥ ‘रघुन न! जब सीताका समाचार मल गया और श ुके नवास- ानका पता लग गया, तब मुझे आपके इस दु:ख और च ाका को◌इ कारण नह दखायी देता॥ ३ ॥ ‘रघुकुलभूषण! आप बु मान्, शा के ाता वचारकु शल और प त ह, अत: कृ ता ा पु षक भाँ त इस अथदूषक ाकृ त बु का प र ाग कर दी जये॥ ४ ॥ ‘बड़े-बड़े नाक से भरे ए समु को लाँघकर हमलोग ल ापर चढ़ा◌इ करगे और आपके श ुको न कर डालगे॥ ५ ॥ ‘जो पु ष उ ाहशू , दीन और मन-ही-मन शोकसे ाकु ल रहता है, उसके सारे काम बगड़ जाते ह और वह बड़ी वप म पड़ जाता है॥ ६ ॥ ‘ये वानरयूथप त सब कारसे समथ एवं शूरवीर ह। आपका य करनेके लये इनके मनम बड़ा उ ाह है। ये आपके लये जलती आगम भी वेश कर सकते ह। समु को लाँघने और रावणको मारनेका संग चलनेपर इनका मुँह स तासे खल जाता है। इनके इस हष और उ ाहसे ही म इस बातको जानता ँ तथा इस वषयम मेरा अपना तक ( न य) भी सु ढ़ है॥ ७॥ ‘आप ऐसा क जये, जससे हमलोग परा म-पूवक अपने श ु पापाचारी रावणका वध करके सीताको यहाँ ले आव॥ ८ ॥ ‘रघुन न! आप ऐसा को◌इ उपाय क जये, जससे समु पर सेतु बँध सके और हम उस रा सराजक ल ापुरीको देख सक॥ ९ ॥



कू टपवतके शखरपर बसी ◌इ ल ापुरी एक बार दीख जाय तो आप यह न त सम झये क यु म रावण दखायी दया और मारा गया॥ १० ॥ ‘व णके नवासभूत घोर समु पर पुल बाँधे बना तो इ स हत स ूण देवता और असुर भी ल ाको पदद लत नह कर सकते॥ ११ ॥ ‘अत: जब ल ाके नकटतक समु पर पुल बँध जायगा, तब हमारी सारी सेना उस पार चली जायगी। फर तो आप यही सम झये क अपनी जीत हो गयी; क इ ानुसार प धारण करनेवाले ये वानर यु म बड़ी वीरता दखानेवाले ह॥ १२ ॥ ‘अत: राजन्! आप इस ाकु ल बु का आ य न ल—बु क इस ाकु लताको ाग द; क यह सम काय को बगाड़ देनेवाली है और शोक इस जग पु षके शौयको न कर देता है॥ १३ ॥ ‘मनु को जसका आ य लेना चा हये, उस शौयका ही वह अवल न करे; क वह कताको शी ही अलंकृत कर देता है—उसके अभी फलक स करा देता है॥ १४ ॥ ‘अत: महा ा ीराम! आप इस समय तेजके साथ ही धैयका आ य ल। को◌इ व ु खो गयी हो या न हो गयी हो, उसके लये आप-जैसे शूरवीर महा ा पु ष को शोक नह करना चा हये; क शोक सब काम को बगाड़ देता है॥ १५ ॥ ‘आप बु मान म े और स ूण शा के मम ह। अत: हम-जैसे म य एवं सहायक के साथ रहकर अव ही श ुपर वजय ा कर सकते ह॥ १६ ॥ ‘रघुन न! मुझे तो तीन लोक म ऐसा को◌इ वीर नह दखायी देता, जो रणभू मम धनुष लेकर खड़े ए आपके सामने ठहर सके ॥ १७ ॥ ‘वानर पर जसका भार रखा गया है, आपका वह काय बगड़ने नह पायेगा। आप शी ही इस अ य समु को पार करके सीताका दशन करगे॥ १८ ॥ ‘पृ ीनाथ! अपने दयम शोकको ान देना थ है। इस समय तो आप श ु के त ोध धारण क जये। जो य म ( ोधशू ) होते ह, उनसे को◌इ चे ा नह बन पाती; परंतु जो श ुके त आव क रोषसे भरा होता है, उससे सब डरते ह॥ १९ ॥ ‘न दय के ामी घोर समु को पार करनेके लये ा उपाय कया जाय, इस वषयम आप हमारे साथ बैठकर वचार क जये; क आपक बु बड़ी सू है॥ २० ॥ ‘



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हमारे सै नक समु को लाँघ गये तो यही न य र खये क अपनी जीत अव होगी। सारी सेनाका समु के उस पार प ँ च जाना ही अपनी वजय सम झये॥ २१ ॥ ‘ये वानर सं ामम बड़े शूरवीर ह और इ ानुसार प धारण कर सकते ह। ये प र और पेड़ क वषा करके ही उन श ु का संहार कर डालगे॥ २२ ॥ ‘श ुसूदन ीराम! य द कसी कार म इस वानर-सेनाको समु के उस पार प ँ ची देख सकूँ तो म रावणको यु म मरा आ ही समझता ँ ॥ २३ ॥ ‘ब त कहनेसे ा लाभ! मेरा तो व ास है क आप सवथा वजयी ह गे; क मुझे ऐसे ही शकु न दखायी देते ह और मेरा दय भी हष एवं उ ाहसे भरा है’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म दूसरा सग पूरा आ॥ २ ॥



तीसरा सग हनुमा ीका ल ाके दग ु , फाटक, सेना- वभाग और सं म आ दका वणन करके भगवान् ीरामसे सेनाको कूच करनेक आ ा देनेके लये ाथना करना



सु ीवके ये यु यु और उ म अ भ ायसे पूण वचन सुनकर ीरामच जीने उ ीकार कया और फर हनुमा ीसे कहा—॥ १ ॥ ‘म तप ासे पुल बाँधकर और समु को सुखाकर सब कारसे महासागरको लाँघ जानेम समथ ँ ॥ २ ॥ ‘वानरवीर! तुम मुझे यह तो बताओ क उस दुगम ल ापुरीके कतने दुग ह। म देखे एके समान उसका सारा ववरण पसे जानना चाहता ँ ॥ ३ ॥ ‘तुमने रावणक सेनाका प रमाण, पुरीके दरवाज को दुगम बनानेके साधन, ल ाक र ाके उपाय तथा रा स के भवन—इन सबको सुखपूवक यथावत्- पसे वहाँ देखा है। अत: इन सबका ठीक-ठीक वणन करो; क तुम सब कारसे कु शल हो’॥ ४-५ ॥ ीरघुनाथजीका यह वचन सुनकर वाणीके ममको समझनेवाले व ान म े पवनकु मार हनुमा े ीरामसे फर कहा—॥ ६ ॥ ‘भगवन्! सु नये। म सब बात बता रहा ँ । ल ाके दुग कस व धसे बने ह, कस कार ल ापुरीक र ाक व ा क गयी है, कस तरह वह सेना से सुर त है, रावणके तेजसे भा वत हो रा स उसके त कै सा ेह रखते ह, ल ाक समृ कतनी उ म है, समु कतना भयंकर है, पैदल सै नक का वभाग करके कहाँ कतने सै नक रखे गये ह और वहाँके वाहन क कतनी सं ा है—इन सब बात का म वणन क ँ गा। ऐसा कहकर क प े हनुमा े वहाँक बात को ठीक-ठीक बताना आर कया॥ ७—९ ॥ ‘ भो! ल ापुरी हष और आमोद- मोदसे पूण है। वह वशाल पुरी मतवाले हा थय से ा तथा असं रथ से भरी ◌इ है। रा स के समुदाय सदा उसम नवास करते ह॥ १० ॥ ‘उस पुरीके चार बड़े-बड़े दरवाजे ह, जो ब त लंबे-चौड़े ह। उनम ब त मजबूत कवाड़ लगे ह और मोटी-मोटी अगलाएँ ह॥ ११ ॥



‘उन दरवाज पर बड़े



वशाल और बल य लगे ह। जो तीर और प र के गोले बरसाते ह। उनके ारा आ मण करनेवाली श ुसेनाको आगे बढ़नेसे रोका जाता है॥ १२ ॥ ‘ ज वीर रा सगण ने बनाया है, जो काले लोहेक बनी ◌इ, भयंकर और तीखी ह तथा जनका अ ी तरह सं ार कया गया है, ऐसी सैकड़ शत याँ* (लोहेके काँट से भरी ◌इ चार हाथ लंबी गदाएँ ) उन दरवाज पर सजाकर रखी गयी ह॥ १३ ॥ ‘उस पुरीके चार ओर सोनेका बना आ ब त ऊँ चा परकोटा है, जसको तोड़ना ब त ही क ठन है। उसम म ण, मूँगे, नीलम और मो तय का काम कया गया है॥ १४ ॥ ‘परकोट के चार ओर महाभयंकर, श ु का महान् अम ल करनेवाली, ठं डे जलसे भरी ◌इ और अगाध गहरा◌इसे यु क◌इ खाइयाँ बनी ◌इ ह, जनम ाह और बड़े-बड़े म नवास करते ह॥ १५ ॥ ‘उ चार दरवाज के सामने उन खाइय पर मचान के पम चार सं म* (लकड़ीके पुल) ह, जो ब त ही व ृत ह। उनम ब त-से बड़े-बड़े य लगे ए ह और उनके आस-पास परकोटेपर बने ए मकान क पं याँ ह॥ १६ ॥ ‘जब श ुक सेना आती है, तब य के ारा उन सं म क र ा क जाती है तथा उन य के ारा ही उ सब ओर खाइय म गरा दया जाता है और वहाँ प ँ ची ◌इ श -ु सेना को भी सब ओर फ क दया जाता है॥ १७ ॥ ‘उनमसे एक सं म तो बड़ा ही सु ढ़ और अभे है। वहाँ ब त बड़ी सेना रहती है और वह सोनेके अनेक खंभ तथा चबूतर से सुशो भत है॥ १८ ॥ ‘रघुनाथजी! रावण यु के लये उ ुक होता आ यं कभी ु नह होता— एवं धीर बना रहता है। वह सेना के बारंबार नरी णके लये सदा सावधान एवं उ त रहता है॥ १९ ॥ ‘ल ापर चढ़ा◌इ करनेके लये को◌इ अवल नह है। वह पुरी देवता के लये भी दुगम और बड़ी भयावनी है। उसके चार ओर नदी, पवत, वन और कृ म (खा◌इ, परकोटा आ द)—ये चार कारके दुग ह॥ २० ॥ ‘रघुन न! वह ब त दूरतक फै ले ए समु के द ण कनारेपर बसी ◌इ है। वहाँ जानेके लये नावका भी माग नह है; क उसम ल का भी कसी कार पता रहना स व नह है॥ २१ ॥



‘वह दुगम पुरी पवतके शखरपर बसायी गयी है और देवपुरीके है, हाथी, घोड़ से भरी ◌इ वह ल ा अ दुजय है॥ २२ ॥ ‘खाइयाँ, शत बढ़ाते ह॥ २३ ॥ ‘ल



समान सु र दखायी देती



याँ और तरह-तरहके य दुरा ा रावणक उस ल ानगरीक शोभा



ाके पूव ारपर दस हजार रा स रहते ह, जो सब-के -सब हाथ म शूल धारण करते ह। वे अ दुजय और यु के मुहानेपर तलवार से जूझनेवाले ह॥ ‘ल ाके द ण ारपर चतुरं गणी सेनाके साथ एक लाख रा स यो ा डटे रहते ह। वहाँके सै नक भी बड़े बहादुर ह॥ २५ ॥ ‘पुरीके प म ारपर दस लाख रा स नवास करते ह। वे सब-के -सब ढाल और तलवार धारण करते ह तथा स ूण अ के ानम नपुण ह॥ २६ ॥ ‘उस पुरीके उ र ारपर एक अबुद (दस करोड़) रा स रहते ह। जनमसे कु छ तो रथी ह और कु छ घुड़सवार। वे सभी उ म कु लम उ और अपनी वीरताके लये शं सत ह॥ २७ ॥ ‘ल ाके म भागक छावनीम सैकड़ सह दुजय रा स रहते ह, जनक सं ा एक करोड़से अ धक है॥ ‘ कतु मने उन सब सं म को तोड़ डाला है, खाइयाँ पाट दी ह, ल ापुरीको जला दया है और उसके परकोट को भी धराशायी कर दया है। इतना ही नह , वहाँके वशालकाय रा स क सेनाका एक चौथा◌इ भाग न कर डाला है॥ २९ ॥ ‘हमलोग कसी-न- कसी माग या उपायसे एक बार समु को पार कर ल; फर तो ल ाको वानर के ारा न ◌इ ही सम झये॥ ३० ॥ ‘अ द, वद, मै , जा वान्, पनस, नल और सेनाप त नील—इतने ही वानर ल ा वजय करनेके लये पया ह। बाक सेना लेकर आपको ा करना है?॥ ‘रघुन न! ये अ द आ द वीर आकाशम उछलते-कू दते ए रावणक महापुरी ल ाम प ँ चकर उसे पवत, वन, खा◌इ, दरवाजे, परकोटे और मकान स हत न करके सीताजीको यहाँ ले आयगे॥ ३२ ॥ ‘ऐसा समझकर आप शी ही सम सै नक को स ूण आव क व ु का सं ह करके कू च करनेक आ ा दी जये और उ चत मु तसे ानक इ ा क जये’॥ ३३ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म तीसरा सग पूरा आ॥ ३॥ * शत



ी च चतुह ा लोहकं ट कनी गदा। इ त वैजय ी। * मालूम होता है ‘सं म’ इस कारके पुल थे, ज जब आव कता होती, तभी य इसीसे श ुक सेना आनेपर उसे खा◌इम गरा देनेक बात कही गयी है।



ारा गरा दया जाता था।



चौथा सग ीराम आ दके साथ वानर-सेनाका



ान और समु -तटपर उसका पड़ाव



हनुमा ीके वचन को मश: यथावत्- पसे सुनकर स परा मी महातेज ी भगवान् ीरामने कहा—॥ १ ॥ ‘हनुमन्! म तुमसे सच कहता ँ —तुमने उस भयानक रा सक जस ल ापुरीका वणन कया है, उसे म शी ही न कर डालूँगा॥ २ ॥ ‘सु ीव! तुम इसी मु तम ानक तैयारी करो। सूयदेव दनके म भागम जा प ँ चे ह। इस लये इस वजय* नामक मु तम हमारी या ा उपयु होगी॥ ३ ॥ ‘रावण सीताको हरकर ले जाय; कतु वह जी वत बचकर कहाँ जायगा? स आ दके मुँहसे ल ापर मेरी चढ़ा◌इका समाचार सुनकर सीताको अपने जीवनक आशा बँध जायगी; ठीक उसी तरह जैसे जीवनका अ उप त होनेपर य द रोगी अमृतका (अमृत के साधनभूत द ओष धका) श कर ले अथवा अमृतोपम वभूत ओष धको पी ले तो उसे जीनेक आशा हो जाती है॥ ४ ॥ ‘आज उ राफा ुनी नामक न है। कल च माका ह न से योग होगा। इस लये सु ीव! हमलोग आज ही सारी सेना के साथ या ा कर द॥ ‘इस समय जो शकु न कट हो रहे ह और ज म देख रहा ँ , उनसे यह व ास होता है क म अव ही रावणका वध करके जनकन नी सीताको ले आऊँ गा॥ ६ ॥ ‘इसके सवा मेरी दा हनी आँ खका ऊपरी भाग फड़क रहा है। वह भी मानो मेरी वजया और मनोरथ स को सू चत कर रहा है’॥ ७ ॥ यह सुनकर वानरराज सु ीव तथा ल णने भी उनका बड़ा आदर कया। त ात् अथवे ा (नी त नपुण) धमा ा ीरामने फर कहा—॥ ८ ॥ ‘इस सेनाके आगे-आगे एक लाख वेगवान् वानर से घरे ए सेनाप त नील माग देखनेके लये चल॥ ९ ॥ ‘सेनाप त नील! तुम सारी सेनाको ऐसे मागसे शी तापूवक ले चलो, जसम फल-मूलक अ धकता हो, शीतल छायासे यु सघन वन हो, ठं डा जल मल सके और मधु भी उपल हो



सके ॥ १० ॥ ‘स व है दुरा ा रा स रा ेके फल-मूल और जलको वष आ दसे दू षत कर द, अत: तुम मागम सतत सावधान रहकर उनसे इन व ु क र ा करना॥ ‘वानर को चा हये क जहाँ ग ,े दुगम वन और साधारण जंगल ह , वहाँ सब ओर कू दफाँदकर यह देखते रह क कह श ु क सेना तो नह छपी है (ऐसा न हो क हम आगे नकल जायँ और श ु अक ात् पीछेसे आ मण कर दे)॥ १२ ॥ ‘ जस सेनाम बाल, वृ आ दके कारण दुबलता हो, वह यहाँ क ाम ही रह जाय; क हमारा यह यु पी कृ बड़ा भयंकर है, अत: इसके लये बल- व मस सेनाको ही या ा करनी चा हये॥ १३ ॥ ‘सैकड़ और हजार महाबली क पके सरी वीर महासागरक जलरा शके समान भयंकर एवं अपार वानर-सेनाके अ भागको अपने साथ आगे बढ़ाये चल॥ १४ ॥ ‘पवतके समान वशालकाय गज, महाबली गवय तथा मतवाले साँड़क भाँ त परा मी गवा सेनाके आगे-आगे चल॥ १५ ॥ ‘उछल-कू दकर चलनेवाले क पय के पालक वानर शरोम ण ऋषभ इस वानर-सेनाके दा हने भागक र ा करते ए चल॥ १६ ॥ ‘ग ह ीके समान दुजय और वेगशाली वानर ग मादन इस वानर-वा हनीके वामभागम रहकर इसक र ा करते ए आगे बढ़॥ १७ ॥ ‘जैसे देवराज इ ऐरावत हाथीपर आ ढ़ होते ह, उसी कार म हनुमा े कं धेपर चढ़कर सेनाके बीचम रहकर सारी सेनाका हष बढ़ाता आ चलूँगा॥ १८ ॥ ‘जैसे धना कु बेर सावभौम नामक द जक पीठपर बैठकर या ा करते ह, उसी कार कालके समान परा मी ल ण अंगदपर आ ढ़ होकर या ा कर॥ १९ ॥ ‘महाबा ऋ राज जा वान्, सुषेण और वानर वेगदश —ये तीन वानर सेनाके पृ भागक र ा कर’॥ रघुनाथजीका यह वचन सुनकर महापरा मी वानर शरोम ण सेनाप त सु ीवने उन वानर को यथो चत आ ा दी॥ २१ ॥



तब वे सम महाबली वानरगण अपनी गुफा और शखर से शी ही नकलकर उछलते-कू दते ए चलने लगे॥ २२ ॥ त ात् वानरराज सु ीव और ल णके सादर अनुरोध करनेपर सेनास हत धमा ा ीरामच जी द ण दशाक ओर त ए॥ २३ ॥ उस समय सैकड़ , हजार , लाख और करोड़ वानर से, जो हाथीके समान वशालकाय थे, घरे ए ीरघुनाथजी आगे बढ़ने लगे॥ २४ ॥ या ा करते ए ीरामके पीछे वह वशाल वानरवा हनी चलने लगी। उस सेनाके सभी वीर सु ीवसे पा लत होनेके कारण -पु एवं स थे॥ २५ ॥ उनमसे कु छ वानर उस सेनाक र ाके लये उछलते-कू दते ए चार ओर च र लगाते थे, कु छ मागशोधनके लये कू दते-फाँदते आगे बढ़ जाते थे, कु छ वानर मेघ के समान गजते, कु छ सह के समान दहाड़ते और कु छ कलका रयाँ भरते ए द ण दशाक ओर अ सर हो रहे थे॥ २६ ॥ वे सुग त मधु पीते और मीठे फल खाते ए म रीपु धारण करनेवाले वशाल वृ को उखाड़कर कं ध पर लये चल रहे थे॥ २७ ॥ कु छ मतवाले वानर वनोदके लये एक दूसरेको ढो रहे थे। को◌इ अपने ऊपर चढ़े ए वानरको झटककर दूर फ क देते थे। को◌इ चलते-चलते ऊपरको उछल पड़ते थे और दूसरे वानर दूसर -दूसर को ऊपरसे ध े देकर नीचे गरा देते थे॥ २८ ॥ ीरघुनाथजीके समीप चलते ए वानर यह कहते ए गजना करते थे क ‘हम रावणको मार डालना चा हये। सम नशाचर का भी संहार कर देना चा हये’॥ सबसे आगे ऋषभ, नील और वीर कु मुद— ये ब सं क वानर के साथ रा ा ठीक करते जाते थे॥ ३० ॥ सेनाके म भागम राजा सु ीव, ीराम और ल ण—ये तीन श ुसूदन वीर अनेक बलशाली एवं भयंकर वानर से घरे ए चल रहे थे॥ ३१ ॥ शतब ल नामका एक वीर वानर दस करोड़ वानर के साथ अके ला ही सारी सेनाको अपने नय णम रखकर उसक र ा करता था॥ ३२ ॥



सौ करोड़ वानर से घरे ए के सरी और पनस— ये सेनाके एक (द ण) भागक तथा ब त-से वानर सै नक को साथ लये गज और अक—ये उस वानर-सेनाके दूसरे (वाम) भागक र ा करते थे॥ ३३ ॥ ब सं क भालु से घरे ए सुषेण और जा वान्—ये दोन सु ीवको आगे करके सेनाके पछले भागक र ा कर रहे थे॥ ३४ ॥ उन सबके सेनाप त क प े वानर शरोम ण वीरवर नील उस सेनाक सब ओरसे र ा एवं नय ण कर रहे थे॥ ३५ ॥ दरीमुख, ज , ज और रभस—ये वीर सब ओरसे वानर को शी आगे बढ़नेक ेरणा देते ए चल रहे थे॥ ३६ ॥ इस कार वे बलो क प-के सरी वीर बराबर आगे बढ़ते गये। चलते-चलते उ ने पवत े स ग रको देखा, जसके आस-पास और भी सैकड़ पवत थे॥ ३७ ॥ रा ेम उ ब त-से सु र सरोवर और तालाब दखायी दये, जनम मनोहर कमल खले ए थे। ीरामच जीक आ ा थी क रा ेम को◌इ कसी कारका उप व न करे। भयंकर कोपवाले ीरामच जीके इस आदेशको जानकर समु के जल वाहक भाँ त अपार एवं भयंकर दखायी देनेवाली वह वशाल वानरसेना भयभीत-सी होकर नगर के समीपवत ान और जनपद को दूरसे ही छोड़ती चली जा रही थी। वकट गजना करनेके कारण भयानक श वाले समु क भाँ त वह महाघोर जान पड़ती थी॥ ३८-३९१/२ ॥ वे सभी शूरवीर क पकु र हाँके गये अ े घोड़ क भाँ त उछलते-कू दते ए तुरंत ही दशरथन न ीरामके पास प ँ च जाते थे॥ ४०१/२ ॥ हनुमान् और अंगद—इन दो वानर वीर ारा ढोये जाते ए वे नर े ीराम और ल ण शु और बृह त—इन दो महा ह से संयु ए च मा और सूयके समान शोभा पा रहे थे॥ ४११/२ ॥ उस समय वानरराज सु ीव और ल णसे स ा नत ए धमा ा ीराम सेनास हत द ण दशाक ओर बढ़े जा रहे थे॥ ४२१/२ ॥ ल णजी अंगदके कं धेपर बैठे ए थे। वे शकु न के ारा काय स क बात अ ी तरह जान लेते थे। उ ने पूणकाम भगवान् ीरामसे म लमयी वाणीम कहा—॥४३१/२ ॥



न! मुझे पृ ी और आकाशम ब त अ े-अ े शकु न दखायी देते ह। ये सब आपके मनोरथक स को सू चत करते ह। इनसे न य होता है क आप शी ही रावणको मारकर हरी ◌इ सीताजीको ा करगे और सफलमनोरथ होकर समृ शा लनी अयो ाको पधारगे॥ ४४-४५१/२ ॥ ‘दे खये सेनाके पीछे शीतल, म , हतकर और सुखमय समीर चल रहा है। ये पशु और प ी पूण मधुर रम अपनी-अपनी बोली बोल रहे ह। सब दशाएँ स ह। सूयदेव नमल दखायी दे रहे ह। भृगुन न शु भी अपनी उ ल भासे का शत हो आपके पीछेक दशाम का शत हो रहे ह। जहाँ स षय का समुदाय शोभा पाता है, वह ुवतारा भी नमल दखायी देता है। शु और काशमान सम स षगण ुवको अपने दा हने रखकर उनक प र मा करते ह॥ ४६—४८ ॥ ‘हमारे साथ ही महामना इ ाकु वं शय के पतामह राज ष शंकु अपने पुरो हत व स जीके साथ हमलोग के सामने ही नमल का से का शत हो रहे ह॥ ४९ ॥ ‘हम महामन ी इ ाकु वं शय के लये जो सबसे उ म है, वह वशाखा नामक युगल न नमल एवं उप वशू (मंगल आ द दु ह क आ ा से र हत) होकर का शत हो रहा है॥ ५० ॥ ‘रा स का न मूल, जसके देवता नऋ त ह, अ पी ड़त हो रहा है। उस मूलके नयामक धूमके तुसे आ ा होकर वह संतापका भागी हो रहा है॥ ५१ ॥ ‘यह सब कु छ रा स के वनाशके लये ही उप त आ है; क जो लोग कालपाशम बँधे होते ह, उ का न समयानुसार ह से पी ड़त होता है॥ ‘जल और उ म रससे पूण दखायी देता है, जंगल म पया फल उपल होते ह, सुग त वायु अ धक ती ग तसे नह बह रही है और वृ म ऋतु के अनुसार फू ल लगे ए ह॥ ५३ ॥ ‘ भो! ूहब वानरी सेना बड़ी शोभास जान पड़ती है। तारकामय सं ामके अवसरपर देवता क सेनाएँ जस तरह उ ाहसे स थ , इसी कार आज ये वानर-सेनाएँ भी ह। आय! ऐसे शुभ ल ण देखकर आपको स होना चा हये’॥ ५४ ॥ अपने भा◌इ ीरामको आ ासन देते ए हषसे भरे सु म ाकु मार ल ण जब इस कार कह रहे थे, उस समय वानर क सेना वहाँक सारी भू मको घेरकर आगे बढ़ने लगी॥ ५५ ॥ ‘रघुन



उस सेनाम कु छ रीछ थे और कु छ सहके समान परा मी वानर। नख और दाँत ही उनके श थे। वे सभी वानर सै नक हाथ और पैर क अंगु लय से बड़ी धूल उड़ा रहे थे॥ ५६ ॥ उनक उड़ायी ◌इ उस भयंकर धूलने सूयक भाको ढककर स ूण जग ो छपा-सा दया। वह भयानक वानरसेना पवत, वन और आकाशस हत द ण दशाको आ ा दत-सी करती ◌इ उसी तरह आगे बढ़ रही थी, जैसे मेघ क घटा आकाशको ढककर अ सर होती है॥ ५७१/२ ॥ वह वानरी सेना जब कसी नदीको पार करती थी, उस समय लगातार क◌इ योजन तक उसक सम धाराएँ उलटी बहने लगती थ ॥ ५८१/२ ॥ वह वशाल सेना नमल जलवाले सरोवर, वृ से ढके ए पवत, भू मके समतल देश और फल से भरे ए वन—इन सभी ान के म म, इधर-उधर तथा ऊपर-नीचे सब ओरक सारी भू मको घेरकर चल रही थी॥ ५९-६०१/२ ॥ उस सेनाके सभी वानर स मुख तथा वायुके समान वेगवाले थे। रघुनाथजीक काय स के लये उनका परा म उबला पड़ता था॥ ६११/२ ॥ वे जवानीके जोश और अ भमानज नत दपके कारण रा ेम एक-दूसरेको उ ाह, परा म तथा नाना कारके बल-स ी उ ष दखा रहे थे॥ ६२१/२ ॥ उनमसे को◌इ तो बड़ी तेजीसे भूतलपर चलते थे और दूसरे उछलकर आकाशम उड़ जाते थे। कतने ही वनवासी वानर कलका रयाँ भरते, पृ ीपर अपनी पूँछ फटकारते और पैर पटकते थे॥ ६३-६४ ॥ कतने ही अपनी बाँह फै लाकर पवत- शखर और वृ को तोड़ डालते थे तथा पवत पर वचरनेवाले ब तेरे वानर पहाड़ क चो टय पर चढ़ जाते थे॥ ६५ ॥ को◌इ बड़े जोरसे गजते और को◌इ सहनाद करते थे। कतने ही अपनी जाँघ के वेगसे अनेकानेक लता-समूह को मसल डालते थे॥ ६६ ॥ वे सभी वानर बड़े परा मी थे। अँगड़ा◌इ लेते ए प रक च ान और बड़े-बड़े वृ से खेल करते थे। उन सह , लाख और करोड़ वानर से घरी ◌इ सारी पृ ी बड़ी शोभा पाती थी॥ ६७१/२ ॥



इस कार वह वशाल वानरसेना दन-रात चलती रही। सु ीवसे सुर त सभी वानर पु और स थे। सभी बड़ी उतावलीके साथ चल रहे थे। सभी यु का अ भन न करनेवाले थे और सभी सीताजीको रावणक कै दसे छु ड़ाना चाहते थे। इस लये उ ने रा ेम कह दो घड़ी भी व ाम नह लया॥ चलते-चलते घने वृ से ा और अनेकानेक कानन से संयु स पवतके पास प ँ चकर वे सब वानर उसके ऊपर चढ़ गये॥ ७० ॥ ीरामच जी स और मलयके व च कानन , न दय तथा झरन क शोभा देखते ए या ा कर रहे थे॥ वे वानर मागम मले ए च ा, तलक, आम, अशोक, स वु ार, त नश और करवीर आ द वृ को तोड़ देते थे॥ ७२ ॥ उछल-उछलकर चलनेवाले वे वानरसै नक रा ेके अंकोल, करंज, पाकड़, बरगद, जामुन, आँ वले और नीप आ द वृ को भी तोड़ डालते थे॥ ७३ ॥ रमणीय प र पर उगे ए नाना कारके जंगली वृ वायुके झ के से झूम-झूमकर उन वानर पर फू ल क वषा करते थे॥ ७४ ॥ मधुसे सुग त वन म गुनगुनाते ए भ र के साथ च नके समान शीतल, म , सुग वायु चल रही थी॥ ७५ ॥ वह पवतराज गै रक आ द धातु से वभू षत हो बड़ी शोभा पा रहा था। उन धातु से फै ली ◌इ धूल वायुके वेगसे उड़कर उस वशाल वानरसेनाको सब ओरसे आ ा दत कर देती थी॥ ७६१/२ ॥ रमणीय पवत शखर पर सब ओर खली ◌इ के तक , स वु ार और वास ी लताएँ बड़ी मनोरम जान पड़ती थ । फु माधवी लताएँ सुग से भरी थ और कु क झा ड़याँ भी फू ल से लदी ◌इ थ ॥ ७७-७८ ॥ च र ब , मधूक (म आ), व लु , बकु ल, रंजक, तलक और नागके सरके वृ भी वहाँ खले ए थे॥ आम, पाडर और को वदार भी फू ल से लदे थे। मुचु ल , अजुन, शशपा, कु टज, हताल, त नश, चूणक, कद , नीलाशोक, सरल, अंकोल और प क भी सु र फू ल से सुशो भत थे॥



८०-८१ ॥ स तासे भरे ए वानर ने उन सब वृ को घेर लया था। उस पवतपर ब त-सी रमणीय बाव ड़याँ तथा छोटे-छोटे जलाशय थे, जहाँ चकवे वचरते और जलकु ु ट नवास करते थे। जलकाक और ौ भरे ए थे तथा सूअर और हरन उनम पानी पीते थे॥ रीछ, तर ु (लकड़ब )े , सह, भयंकर बाघ तथा ब सं क दु हाथी, जो बड़े भीषण थे, सब ओरसे आ-आकर उन जलाशय का सेवन करते थे॥ ८४ ॥ खले ए सुग त कमल, कु मुद, उ ल तथा जलम होनेवाले भाँ त-भाँ तके अ पु से वहाँके जलाशय बड़े रमणीय दखायी देते थे॥ ८५ ॥ उस पवतके शखर पर नाना कारके प ी कलरव करते थे। वानर उन जलाशय म नहाते, पानी पीते और जलम ड़ा करते थे॥ ८६ ॥ वे आपसम एक-दूसरेपर पानी भी उछालते थे। कु छ वानर पवतपर चढ़कर वहाँके वृ के अमृततु मीठे फल , मूल और फू ल को तोड़ते थे। मधुके समान वणवाले कतने ही मदम वानर वृ म लटके और एक-एक ोण शहदसे भरे ए मधुके छ को तोड़कर उनका मधु पी लेते और (संतु ) होकर चलते थे॥८७-८८१/२ ॥ पेड़ को तोड़ते, लता को ख चते और बड़े-बड़े पवत को त नत करते ए वे े वानर ती ग तसे आगे बढ़ रहे थे॥८९१/२ ॥ दूसरे वानर दपम भरकर वृ से मधुके छ े उतार लेते और जोर-जोरसे गजना करते थे। कु छ वानर वृ पर चढ़ जाते और कु छ मधु पीने लगते थे॥ ९०१/२ ॥ उन वानर शरोम णय से भरी ◌इ वहाँक भू म पके ए बालवाले कलमी धान क ा रय से ढक ◌इ धरतीके समान सुशो भत हो रही थी॥ ९१ ॥ कमलनयन महाबा ीरामच जी महे पवतके पास प ँ चकर भाँ त-भाँ तके वृ से सुशो भत उसके शखरपर चढ़ गये॥ ९२ ॥ महे पवतके शखरपर आ ढ़ हो दशरथन न भगवान् ीरामने कछु और म से भरे ए समु को देखा॥ ९३ ॥ इस कार वे स तथा मलयको लाँघकर मश: महे पवतके समीपवत समु के तटपर जा प ँ च,े जहाँ बड़ा भयंकर श हो रहा था॥ ९४ ॥



उस पवतसे उतरकर भ के मनको रमानेवाल म े भगवान् ीराम सु ीव और ल णके साथ शी ही सागर-तटवत परम उ म वनम जा प ँ चे॥ ९५ ॥ जहाँ सहसा उठी ◌इ जलक तर से रक शलाएँ धुल गयी थ , उस व ृत स ुतटपर प ँ चकर ीरामने कहा—॥ ९६ ॥ ‘सु ीव! लो, हम सब लोग समु के कनारे तो आ गये। अब यहाँ मनम फर वही च ा उ हो गयी, जो हमारे सामने पहले उप त थी॥ ९७ ॥ ‘इससे आगे तो यह स रता का ामी महासागर ही व मान है, जसका कह पार नह दखायी देता। अब बना कसी समु चत उपायके सागरको पार करना अस व है॥ ९८ ॥ ‘इस लये यह सेनाका पड़ाव पड़ जाय और हमलोग यहाँ बैठकर यह वचार आर कर क कस कार यह वानर-सेना समु के उस पारतक प ँ च सकती है’॥ ९९ ॥ इस कार सीताहरणके शोकसे दुबल ए महाबा ीरामने समु के कनारे प ँ चकर उस समय सारी सेनाको वहाँ ठहरनेक आ ा दी॥ १०० ॥ वे बोले—‘क प े ! सम सेना को समु के तटपर ठहराया जाय। अब यहाँ हमारे लये समु -ल नके उपायपर वचार करनेका अवसर ा आ है॥ १०१ ॥ ‘इस समय को◌इ भी सेनाप त कसी भी कारणसे अपनी-अपनी सेनाको छोड़कर कह अ न जाय। सम शूरवीर वानर-सेनाक र ाके लये यथा ान चले जायँ। सबको यह जान लेना चा हये क हमलोग पर रा स क मायासे गु भय आ सकता है’॥ १०२ ॥ ीरामच जीका यह वचन सुनकर ल णस हत सु ीवने वृ ाव लय से सुशो भत सागरतटपर सेनाको ठहरा दया॥ १०३ ॥ समु के पास ठहरी ◌इ वह वशाल वानर-सेना मधुके समान प लवणके जलसे भरे ए दूसरे सागरक -सी शोभा धारण करती थी॥ १०४ ॥ सागर-तटवत वनम प ँ चकर वे सभी े वानर समु के उस पार जानेक अ भलाषा मनम लये वह ठहर गये॥ १०५ ॥ वहाँ डेरा डालते ए उन ीराम आ दक सेना के संचरणसे जो महान् कोलाहल आ, वह महासागरक ग ीर गजनाको भी दबाकर सुनायी देने लगा॥ १०६ ॥



सु ीव ारा सुर त वह वानर क वशाल सेना ीरामच जीके काय-साधनम त र हो रीछ, लंगूर और वानर के भेदसे तीन भाग म वभ होकर ठहर गयी॥ महासागरके तटपर प ँ चकर वह वानर-सेना वायुके वेगसे क त ए समु क शोभा देखती ◌इ बड़े हषका अनुभव करती थी॥ १०८ ॥ जसका दूसरा तट ब त दूर था और बीचम को◌इ आ य नह था तथा जसम रा स के समुदाय नवास करते थे, उस व णालय समु को देखते ए वे वानरयूथ प त उसके तटपर बैठे रहे॥ १०९ ॥ ोधम भरे ए नाक के कारण समु बड़ा भयंकर दखायी देता था। दनके अ और रातके आर म— दोषके समय च ोदय होनेपर उसम ार आ गया था। उस समय वह फे नसमूह के कारण हँ सता और उ ाल तर के कारण नाचता-सा तीत होता था। च माके त व से भरा-सा जान पड़ता था। च वायुके समान वेगशाली बड़े-बड़े ाह से और त म नामक महाम को भी नगल जानेवाले महाभयंकर जल-ज ु से ा दखायी देता था॥ ११०-१११ ॥ वह व णालय दी फण वाले सप , वशालकाय जलचर और नाना पवत से ा जान पड़ता था॥ ११२ ॥ रा स का नवासभूत वह अगाध महासागर अ दुगम था। उसे पार करनेका को◌इ माग या साधन दुलभ था। उसम वायुक ेरणासे उठी ◌इ च ल तर , जो मगर और वशालकाय सप से ा थ , बड़े उ ाससे ऊपरको उठती और नीचेको उतर आती थ ॥ ११३ ॥ समु के जल-कण बड़े चमक ले दखायी देते थे। उ देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो सागरम आगक चनगा रयाँ बखेर दी गयी ह । (फै ले ए न के कारण आकाश भी वैसा ही दखायी देता था।) समु म बड़े-बड़े सप थे (आकाशम भी रा आ द सपाकार ही देखे जाते थे)। समु देव ोही दै और रा स का आवास- ान था (आकाश भी वैसा ही था; क वहाँ भी उनका संचरण देखा जाता था)। दोन ही देखनेम भयंकर और पातालके समान ग ीर थे। इस कार समु आकाशके समान और आकाश समु के समान जान पड़ता था। समु और आकाशम को◌इ अ र नह दखायी देता था॥ ११४-११५ ॥



जल आकाशसे मला आ था और आकाश जलसे, आकाशम तारे छटके ए थे और समु म मोती। इस लये दोन एक-से दखायी देते थे॥ ११६ ॥ आकाशम मेघ क घटा घर आयी थी और समु तर माला से ा हो रहा था। अत: समु और आकाश दोन म को◌इ अ र नह रह गया था॥ ११७ ॥ पर र टकराकर और सटकर स ुराजक लहर आकाशम बजनेवाली देवता क बड़ीबड़ी भे रय के समान भयानक श करती थ ॥ ११८ ॥ वायुसे े रत हो र को उछालनेवाली जलक तर के कलकल नादसे यु और जलज ु से भरा आ समु इस कार ऊपरको उछल रहा था, मानो रोषसे भरा आ हो॥ ११९ ॥ उन महामन ी वानरवीर ने देखा, समु वायुके थपेड़े खाकर पवनक ेरणासे आकाशम ऊँ चे उठकर उ ाल तर के ारा नृ -सा कर रहा था॥ १२० ॥ तदन र वहाँ खड़े ए वानर ने यह भी देखा क च र काटते ए तर -समूह के कलकल नादसे यु महासागर अ च ल-सा हो गया है। यह देखकर उ बड़ा आ य आ॥ १२१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चौथा सग पूरा आ॥ ४ ॥



दनम दोपहरीके समय अ भ जत् मु त होता है, इसीको वजय-मु त भी कहते ह। यह या ाके लये ब त उ म माना गया है। य प—‘भु ौ द णया ायां त ायां ज न। आधाने च जारोहे मृ ुद: ात् सदा भ जत्॥’ इस ो तषर ाकरके वचनके अनुसार उ मु तम द णया ा न ष है, तथा प क ासे ल ा द णपूवके कोणम होनेके कारण वह दोष यहाँ नह ा होता है। *



पाँचवाँ सग ीरामका सीताके लये शोक और वलाप



नीलने, जसक व धवत् र ाक व ा क गयी थी, उस परम सावधान वानर-सेनाको समु के उ र तटपर अ े ढंगसे ठहराया॥ १ ॥ मै और वद—ये दो मुख वानरवीर उस सेनाक र ाके लये सब ओर वचरते रहते थे॥ २ ॥ समु के कनारे सेनाका पड़ाव पड़ जानेपर ीरामच जीने अपने पास बैठे ए ल णक ओर देखकर कहा—॥ ३ ॥ ‘सु म ान न! कहा जाता है क शोक बीतते ए समयके साथ यं भी दूर हो जाता है; परंतु मेरा शोक तो अपनी ाणव भाको न देखनेके कारण दन दन बढ़ रहा है॥ ४ ॥ ‘मुझे इस बातका दु:ख नह है क मेरी या मुझसे दूर है। उसका अपहरण आ— इसका भी दु:ख नह है। म तो बारंबार इसी लये शोकम डू बा रहता ँ क उसके जी वत रहनेके लये जो अव ध नयत कर दी गयी है, वह शी तापूवक बीती जा रही है॥ ५ ॥ ‘हवा! तुम वहाँ बह, जहाँ मेरी ाणव भा है। उसका श करके मेरा भी श कर। उस दशाम तुझसे जो मेरे अ का श होगा, वह च मासे होनेवाले संयोगक भाँ त मेरे सारे संतापको दूर करनेवाला और आ ादजनक होगा॥ ६ ॥ ‘अपहरण होते समय मेरी ारी सीताने जो मुझे ‘हा नाथ!’ कहकर पुकारा था, वह पीये ए उदर त वषक भाँ त मेरे सारे अ को द कये देता है॥ ‘ यतमाका वयोग ही जसका ◌इं धन है, उसक च ा ही जसक दी मती लपट ह, वह ेमा मेरे शरीरको रात- दन जलाती रहती है॥ ८ ॥ ‘सु म ान न! तुम यह रहो। म तु ारे बना अके ला ही समु के भीतर घुसकर सोऊँ गा। इस तरह जलम शयन करनेपर यह लत ेमा मुझे द नह कर सके गी॥ ९ ॥ ‘म और वह वामो सीता एक ही भूतलपर सोते ह। यतमाके संयोगक इ ा रखनेवाले मुझ वरहीके लये इतना ही ब त है। इतनेसे भी म जी वत रह सकता ँ ॥ १० ॥



‘जैसे जलसे भरी —सूखता नह है, उसी



११ ॥



‘कब



◌इ ारीके स कसे बना जलक ारीका धान भी जी वत रहता है कार म जो यह सुनता ँ क सीता अभी जी वत है, इसीसे जी रहा ँ ॥



वह समय आयेगा, जब श ु को परा करके म समृ शा लनी राजल ीके समान कमलनयनी सुम मा सीताको देखूँगा॥ १२ ॥ ‘जैसे रोगी रसायनका पान करता है, उसी कार म कब सु र दाँत और ब स श मनोहर ओठ से यु सीताके फु कमल-जैसे मुखको कु छ ऊपर उठाकर चूमूँगा॥ १३ ॥ ‘मेरा आ ल न करती ◌इ या सीताके वे पर र सटे ए, तालफलके समान गोल और मोटे दोन न कब क चत् क नके साथ मेरा श करगे॥ १४ ॥ ‘कजरारे ने ा वाली वह सती-सा ी सीता, जसका म ही नाथ ँ , आज अनाथक भाँ त रा स के बीचम पड़कर न य ही को◌इ र क नह पा रही होगी॥ ‘राजा जनकक पु ी, महाराज दशरथक पु वधू और मेरी यतमा सीता रा सय के बीचम कै से सोती होगी॥ १६ ॥ ‘वह समय कब आयेगा, जब क सीता मेरे ारा उन दुधष रा स का वनाश करके उसी कार अपना उ ार करेगी, जैसे शर ालम च लेखा काले बादल का नवारण करके उनके आवरणसे मु हो जाती है॥ १७ ॥ ‘ भावसे ही दुबले-पतले शरीरवाली सीता वपरीत देशकालम पड़ जानेके कारण न य ही शोक और उपवास करके और भी दुबल हो गयी होगी॥ १८ ॥ ‘म रा सराज रावणक छातीम अपने सायक को धँसाकर अपने मान सक शोकका नराकरण करके कब सीताका शोक दूर क ँ गा॥ १९ ॥ ‘देवक ाके समान सु री मेरी सती-सा ी सीता कब उ ापूवक मेरे गलेसे लगकर अपने ने से आन के आँ सू बहायेगी॥ २० ॥ ‘ऐसा समय कब आयेगा, जब म म थलेशकु मारीके वयोगसे होनेवाले इस भयंकर शोकको म लन व क भाँ त सहसा ाग दूँगा?’॥ २१ ॥ बु मान् ीरामच जी वहाँ इस कार वलाप कर ही रहे थे क दनका अ होनेके कारण म करण वाले सूयदेव अ ाचलको जा प ँ चे॥ २२ ॥



उस समय ल णके धैय बँधानेपर शोकसे ाकु ल ए ीरामने कमलनयनी सीताका च न करते ए सं ोपासना क ॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पाँचवाँ सग पूरा आ॥ ५॥



छठा सग रावणका कत - नणयके लये अपने म



य से समु चत सलाह देनेका अनुरोध करना



इधर इ तु परा मी महा ा हनुमा ीने ल ाम जो अ भयावह घोर कम कया था, उसे देखकर रा सराज रावणका मुख ल ासे कु छ नीचेको कु गया और उसने सम रा स से इस कार कहा—॥ ‘ नशाचरो! वह हनुमान्, जो एक वानरमा है, अके ला इस दुधष पुरीम घुस आया। उसने इसे तहस-नहस कर डाला और जनककु मारी सीतासे भट भी कर लया॥ २ ॥ ‘इतना ही नह , हनुमा े चै ासादको धराशायी कर दया, मु -मु रा स को मार गराया और सारी ल ापुरीम खलबली मचा दी॥ ३ ॥ ‘तुमलोग का भला हो। अब म ा क ँ ? तु जो काय उ चत और समथ जान पड़े तथा जसे करनेपर को◌इ अ ा प रणाम नकले, उसे बताओ॥ ४ ॥ ‘महाबली वीरो! मन ी पु ष का कहना है क वजयका मूल कारण म य क दी ◌इ अ ी सलाह ही है। इस लये म ीरामके वषयम आपलोग से सलाह लेना अ ा समझता ँ॥ ५ ॥ ‘संसारम उ म, म म और अधम तीन कारके पु ष होते ह। म उन सबके गुण-दोष का वणन करता ँ ॥ ६ ॥ ‘ जसका म आगे बताये जानेवाले तीन ल ण से यु होता है तथा जो पु ष म नणयम समथ म , समान दु:ख-सुखवाले बा ुव और उनसे भी बढ़कर अपने हतका रय के साथ सलाह करके कायका आर करता है तथा दैवके सहारे य करता है, उसे उ म पु ष कहते ह॥ ७-८ ॥ ‘जो अके ला ही अपने कत का वचार करता है, अके ला ही धमम मन लगाता है और अके ला ही सब काम करता है, उसे म म ेणीका पु ष कहा जाता है॥ ९ ॥ ‘जो गुण-दोषका वचार न करके दैवका भी आ य छोड़कर के वल ‘क ँ गा’ इसी बु से काय आर करता है और फर उसक उपे ा कर देता है, वह पु ष म अधम है॥ १० ॥



‘जैसे



ये पु ष सदा उ म, म म और अधम तीन कारके होते ह, वैसे ही म ( न त कया आ वचार) भी उ म, म म और अधम-भेदसे तीन कारका समझना चा हये॥ ११ ॥ ‘ जसम शा ो से सब म ी एकमत होकर वृ होते ह, उसे उ म म कहते ह॥ १२ ॥ ‘जहाँ ार म क◌इ कारका मतभेद होनेपर भी अ म सब म य का कत वषयक नणय एक हो जाता है, वह म म म माना गया है॥ १३ ॥ ‘जहाँ भ - भ बु का आ य ले सब ओरसे धापूवक भाषण कया जाय और एकमत होनेपर भी जससे क ाणक स ावना न हो, वह म या न य अधम कहलाता है॥ १४ ॥ ‘आप सब लोग परम बु मान् ह; इस लये अ ी तरह सलाह करके को◌इ एक काय न त कर। उसीको म अपना कत समझूँगा॥ १५ ॥ ‘(ऐसे न यक आव कता इस लये पड़ी है क) राम सह धीरवीर वानर के साथ हमारी ल ापुरीपर चढ़ा◌इ करनेके लये आ रहे ह॥ १६ ॥ ‘यह बात भी भलीभाँ त हो चुक है क वे रघुवंशी राम अपने समु चत बलके ारा भा◌इ, सेना और सेवक स हत सुखपूवक समु को पार कर लगे॥ १७ ॥ ‘वे या तो समु को ही सुखा डालगे या अपने परा मसे को◌इ दूसरा ही उपाय करगे। ऐसी तम वानर से वरोध आ पड़नेपर नगर और सेनाके लये जो भी हतकर हो, वैसी सलाह आपलोग दी जये’॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छठा सग पूरा आ॥ ६ ॥



सातवाँ सग रा स का रावण और इ



ज े बल-परा मका वणन करते ए उसे रामपर वजय पानेका व ास दलाना



रा स को न तो नी तका ान था और न वे श ुप के बलाबलको ही समझते थे। वे बलवान् तो ब त थे; कतु नी तक से महामूख थे। इस लये जब रा सराज रावणने उनसे पूव बात कह , तब वे सब-के -सब हाथ जोड़कर उससे बोले—॥ ११/२ ॥ ‘राजन्! हमारे पास प रघ, श , ऋ , शूल, प श और भाल से लैस ब त बड़ी सेना मौजूद है; फर आप वषाद करते ह॥ २१/२ ॥ ‘आपने तो भोगवतीपुरीम जाकर नाग को भी यु म परा कर दया था। ब सं क य से घरे ए कै लास शखरके नवासी कु बेरको भी यु म भारी मार-काट मचाकर वशम कर लया था॥ ३-४ ॥ ‘ भो! महाबली लोकपाल कु बेर महादेवजीके साथ म ता होनेके कारण आपके साथ बड़ी धा रखते थे; परंतु आपने समरा णम रोषपूवक उ हरा दया॥ ५ ॥ ‘य क सेनाको वच लत करके बंदी बना लया और कतन को धराशायी करके कै लास शखरसे आप उनका यह वमान छीन लाये थे॥ ६ ॥ ‘रा स शरोमणे! दानवराज मयने आपसे भयभीत होकर ही आपको अपना म बना लेनेक इ ा क और इसी उ े से आपको धमप ीके पम अपनी पु ी सम पत कर दी॥ ७ ॥ ‘महाबाहो!



अपने परा मका घमंड रखनेवाले दुजय दानवराज मधुको भी, जो आपक ब हन कु ीनसीको सुख देनेवाला उसका प त है, आपने यु छेड़कर वशम कर लया॥ ८ ॥ ‘ वशालबा वीर! आपने रसातलपर चढ़ा◌इ करके वासु क, त क, श और जटी आ द नाग को यु म जीता और अपने अधीन कर लया॥ ९ ॥ ‘ भो! श ुदमन रा सराज! दानवलोग बड़े ही बलवान्, कसीसे न न होनेवाले, शूरवीर तथा वर पाकर अ तु श से स हो गये थे; परंतु आपने समरा णम एक वषतक यु



करके अपने ही बलके भरोसे उन सबको अपने अधीन कर लया और वहाँ उनसे ब त-सी मायाएँ भी ा क ॥ १०-११ ॥ ‘महाभाग! आपने व णके शूरवीर और बलवान् पु को भी उनक चतुरं गणी सेनास हत यु म परा कर दया था॥ १२ ॥ ‘राजन्! मृ ुका द ही जसम महान् ाहके समान है, जो यम-यातना-स ी शा ल आ द वृ से म त है, कालपाश पी उ ाल तर जसक शोभा बढ़ाती ह, यमदूत पी सप जसम नवास करते ह तथा जो महान् रके कारण दुजय है, उस यमलोक पी महासागरम वेश करके आपने यमराजक सागर-जैसी सेनाको मथ डाला, मृ ुको रोक दया और महान् वजय ा क । यही नह , यु क उ म कलासे आपने वहाँके सब लोग को पूण संतु कर दया था॥ १३—१५ ॥ ‘पहले यह पृ ी वशाल वृ क भाँ त इ तु परा मी ब सं क य वीर से भरी ◌इ थी॥ १६ ॥ ‘उन वीर म जो परा म, गुण और उ ाह थे, उनक से राम रणभू मम उनके समान कदा प नह है; राजन्! जब आपने उन समरदुजय वीर को भी बलपूवक मार डाला, तब रामपर वजय पाना आपके लये कौन बड़ी बात है?॥ १७ ॥ ‘अथवा महाराज! आप चुपचाप यह बैठे रह। आपको प र म करनेक ा आव कता है। अके ले ये महाबा इ जत् ही सब वानर का संहार कर डालगे॥ १८ ॥ ‘महाराज! इ ने परम उ म माहे र य का अनु ान करके वह वर ा कया है, जो संसारम दूसरेके लये अ दुलभ है॥ १९ ॥ ‘देवता क सेना समु के समान थी। श और तोमर ही उसम म थे। नकालकर फ क ◌इ आँ त सेवारका काम देती थ । हाथी ही उस सै -सागरम कछु के समान भरे थे। घोड़े मेढक के समान उसम सब ओर ा थे। गण और आ द गण उस सेना पी समु के बड़े-बड़े ाह थे। म ण और वसुगण वहाँके वशाल नाग थे। रथ, हाथी और घोड़े जलरा शके समान थे और पैदल सै नक उसके वशाल तट थे; परंतु इस इ ज े देवता के उस सै समु म घुसकर देवराज इ को कै द कर लया और उ ल ापुरीम लाकर बंद कर दया॥ २० —२२ ॥



‘राजन्!



फर ाजीके कहनेसे इ ने श र और वृ ासुरको मारनेवाले सवदेवव त इ को मु कया। तब वे गलोकम गये॥ २३ ॥ ‘अत: महाराज! इस कामके लये आप राजकु मार इ ज ो ही भे जये, जससे ये रामस हत वानर-सेनाका यहाँ आनेसे पहले ही संहार कर डाल॥ २४ ॥ ‘राजन्! साधारण नर और वानर से ा ◌इ इस आप के वषयम च ा करना आपके लये उ चत नह है। आपको तो अपने दयम इसे ान ही नह देना चा हये। आप अव ही रामका वध कर डालगे’॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म सातवाँ सग पूरा आ॥ ७॥



आठवाँ सग ह , दम ु ुख, व दं , नकु



और व हनुका रावणके सामने श -ु सेनाको मार गरानेका उ ाह दखाना



इसके बाद नील मेघके समान ामवणवाले शूर सेनाप त ह नामक रा सने हाथ जोड़कर कहा—॥ ‘महाराज! हमलोग देवता, दानव, ग व, पशाच, प ी और सप सभीको परा जत कर सकते ह; फर उन दो मनु को रणभू मम हराना कौन बड़ी बात है॥ २ ॥ ‘पहले हमलोग असावधान थे। हमारे मनम श ु क ओरसे को◌इ खटका नह था। इसी लये हम न बैठे थे। यही कारण है क हनुमान् हम धोखा दे गया। नह तो मेरे जीतेजी वह वानर यहाँसे जीता-जागता नह जा सकता था॥ ३ ॥ ‘य द आपक आ ा हो तो पवत, वन और कानन स हत समु तकक सारी भू मको म वानर से सूनी कर दूँ॥ ४ ॥ ‘रा सराज! म वानरमा से आपक र ा क ँ गा, अत: अपने ारा कये गये सीताहरण पी अपराधके कारण को◌इ दु:ख आपपर नह आने पायेगा’॥ ५ ॥ त ात् दुमुख नामक रा सने अ कु पत होकर कहा—‘यह मा करनेयो अपराध नह है, क इसके ारा हम सब लोग का तर ार आ है॥ ६ ॥ ‘वानरके ारा हमलोग पर जो आ मण आ है, यह सम ल ापुरीका, महाराजके अ :पुरका और ीमान् रा सराज रावणका भी भारी पराभव है॥ ७ ॥ ‘म अभी इसी मु तम अके ला ही जाकर सारे वानर को मार भगाऊँ गा। भले ही वे भयंकर समु म, आकाशम अथवा रसातलम ही न घुस गये ह ’॥ इतनेहीम महाबली व दं अ ोधसे भरकर र , मांससे सने ए भयानक प रघको हाथम लये ए बोला—॥ ९ ॥ ‘दुजय वीर राम, सु ीव और ल णके रहते ए हम उस बेचारे तप ी हनुमा े ा काम है?॥ १० ॥



‘आज



म अके ला ही वानर-सेनाम तहलका मचा दूँगा और इस प रघसे सु ीव तथा ल णस हत रामका भी काम तमाम करके लौट आऊँ गा॥ ११ ॥ ‘राजन्! य द आपक इ ा हो तो आप यह मेरी दूसरी बात सुन। उपायकु शल पु ष ही य द आल छोड़कर य करे तो वह श ु पर वजय पा सकता है॥ १२ ॥ ‘अत: रा सराज! मेरी दूसरी राय यह है क इ ानुसार प धारण करनेवाले, अ भयानक तथा भयंकर वाले सह शूरवीर रा स एक न त वचार करके मनु का प धारण कर ीरामके पास जायँ और सब लोग बना कसी घबराहटके उन रघुवंश शरोम णसे कह क हम आपके सै नक ह। हम आपके छोटे भा◌इ भरतने भेजा है। इतना सुनते ही वे वानरसेनाको उठाकर तुरंत ल ापर आ मण करनेके लये वहाँसे चल दगे॥ १३—१५ ॥ ‘त ात् हमलोग यहाँसे शूल, श , गदा, धनुष, बाण और खड् ग धारण कये शी ही मागम उनके पास जा प ँ च॥ १६ ॥ ‘ फर आकाशम अनेक यूथ बनाकर खड़े हो जायँ और प र तथा श -समूह क बड़ी भारी वषा करके उस वानर-सेनाको यमलोक प ँ चा द॥ १७ ॥ ‘य द इस कार हमारी बात सुनकर वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण सेनाको कू च करनेक आ ा दे दगे और वहाँसे चल दगे तो उ हमारी अनी तका शकार होना पड़ेगा; उ हमारे छलपूण हारसे पी ड़त होकर अपने ाण का प र ाग करना पड़ेगा॥ १८ ॥ तदन र परा मी वीर कु कणकु मार नकु ने अ कु पत होकर सम लोक को लानेवाले रावणसे कहा—॥ १९ ॥ ‘आप सब लोग यहाँ महाराजके साथ चुपचाप बैठे रह। म अके ला ही राम, ल ण, सु ीव, हनुमान् तथा अ सब वानर को भी यहाँ मौतके घाट उतार दूँगा’॥ २०१/२ ॥ तब पवतके समान वशालकाय व हनु नामक रा स कु पत हो जीभसे अपने जबड़ेको चाटता आ बोला—॥ २११/२ ॥ ‘आप सब लोग न होकर इ ानुसार अपना-अपना काम कर। म अके ला ही सारी वानर-सेनाको खा जाऊँ गा॥२२१/२ ॥ ‘आपलोग रहकर ड़ा कर और न हो वा णी म दराको पय। म अके ला ही सु ीव, ल ण, अंगद, हनुमान् और अ सब वानर का भी यहाँ वध कर डालूँगा’॥ २३-२४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म आठवाँ सग पूरा आ॥ ८॥



नवाँ सग वभीषणका रावणसे ीरामक अजेयता बताकर सीताको लौटा देनेके लये अनुरोध करना



त ात् नकु , रभस, महाबली सूयश ,ु सु , य कोप, महापा , महोदर, दुजय अ के तु, रा स र के तु, महातेज ी बलवान् रावणकु मार इ जत्, ह , व पा , महाबली व दं , धू ा , अ तकाय और नशाचर दुमुख—ये सब रा स अ कु पत हो हाथ म प रघ, प श, शूल, ास, श , फरसे, धनुष, बाण तथा पैनी धारवाले बड़े-बड़े खड् ग लये उछलकर रावणके सामने आये और अपने तेजसे उ ी -से होकर वे सब-के -सब उससे बोले—॥ १—५ ॥ ‘हमलोग आज ही राम, सु ीव, ल ण और उस कायर हनुमा ो भी मार डालगे, जसने ल ापुरी जलायी है’॥ ६ ॥ हाथ म अ -श लये खड़े ए उन सब रा स को जानेके लये उ त देख वभीषणने रोका और पुन: उ बठाकर दोन हाथ जोड़ रावणसे कहा—॥ ७ ॥ ‘तात! जो मनोरथ साम, दान और भेद—इन तीन उपाय से ा न हो सके , उसीक ा के लये नी तशा के ाता मनीषी व ान ने परा म करनेके यो अवसर बताये ह॥ ८ ॥ ‘तात!



जो श ु असावधान ह , जनपर दूसरे-दूसरे श ु ने आ मण कया हो तथा जो महारोग आ दसे होनेके कारण दैवसे मारे गये ह , उ पर भलीभाँ त परी ा करके व धपूवक कये गये परा म सफल होते ह॥ ९ ॥ ‘ ीरामच जी बेखबर नह ह। वे वजयक इ ासे आ रहे ह और उनके साथ सेना भी है। उ ने ोधको सवथा जीत लया है। अत: वे सवथा दुजय ह। ऐसे अजेय वीरको तुमलोग परा करना चाहते हो॥ १० ॥ ‘ नशाचरो! नद और न दय के ामी भयंकर महासागरको जो एक ही छलाँगम लाँघकर यहाँतक आ प ँ चे थे, उन हनुमा ीक ग तको इस संसारम कौन जान सकता है अथवा कौन उसका अनुमान लगा सकता है? श ु के पास असं सेनाएँ ह, उनम असीम बल और



परा म है; इस बातको तुमलोग अ ी तरह जान लो। दूसर क श को भुलाकर कसी तरह भी सहसा उनक अवहेलना नह करनी चा हये॥ ११-१२ ॥ ‘ ीरामच जीने पहले रा सराज रावणका कौन-सा अपराध कया था, जससे उन यश ी महा ाक प ीको ये जन ानसे हर लाये?॥ १३ ॥ ‘य द कह क उ ने खरको मारा था तो यह ठीक नह है; क खर अ ाचारी था। उसने यं ही उ मार डालनेके लये उनपर आ मण कया था। इस लये ीरामने रणभू मम उसका वध कया; क ेक ाणीको यथाश अपने ाण क र ा अव करनी चा हये॥ १४ ॥ ‘य द इसी कारणसे सीताको हरकर लाया गया हो तो उ ज ी ही लौटा देना चा हये; अ था हमलोग पर महान् भय आ सकता है। जस कमका फल के वल कलह है, उसे करनेसे ा लाभ?॥ १५ ॥ ‘ ीराम बड़े धमा ा और परा मी ह। उनके साथ थ वैर करना उ चत नह है। म थलेशकु मारी सीताको उनके पास लौटा देना चा हये॥ १६ ॥ ‘जबतक हाथी, घोड़े और अनेक र से भरी ◌इ ल ापुरीका ीराम अपने बाण ारा व ंस नह कर डालते, तबतक ही मै थलीको उ लौटा दया जाय॥ १७ ॥ ‘जबतक अ भयंकर, वशाल और दुजय वानर-वा हनी हमारी ल ाको पदद लत नह कर देती, तभीतक सीताको वापस कर दया जाय॥ १८ ॥ ‘य द ीरामक ाणव भा सीताको हमलोग यं ही नह लौटा देते ह तो यह ल ापुरी न हो जायगी और सम शूरवीर रा स मार डाले जायँगे॥ १९ ॥ ‘आप मेरे बड़े भा◌इ ह। अत: म आपको वनयपूवक स करना चाहता ँ । आप मेरी बात मान ल। म आपके हतके लये स ी बात कहता ँ —आप ीरामच जीको उनक सीता वापस कर द॥ २० ॥ ‘राजकु मार ीराम जबतक आपके वधके लये शर ालके सूयक करण के समान तेज ी, उ ल अ भाग एवं पंख से सुशो भत, सु ढ़ तथा अमोघ बाण क वषा कर, उसके पहले ही आप उन दशरथन नक सेवाम म थलेशकु मारी सीताको स प द॥ २१ ॥



‘भैया!



आप ोधको ाग द; क वह सुख और धमका नाश करनेवाला है। धमका सेवन क जये; क वह सुख और सुयशको बढ़ानेवाला है। हमपर स होइये, जससे हम पु और ब ु-बा व स हत जी वत रह सक। इसी से मेरी ाथना है क आप दशरथन न ीरामके हाथम म थलेशकु मारी सीताको लौटा द’॥ २२ ॥ वभीषणक यह बात सुनकर रा सराज रावण उन सब सभासद को वदा करके अपने महलम चला गया॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म नवाँ सग पूरा आ॥ ९ ॥



दसवाँ सग वभीषणका रावणके महलम जाना, उसे अपशकुन का भय दखाकर सीताको लौटा देनेके लये ाथना करना और रावणका उनक बात न मानकर उ वहाँसे वदा कर देना



दूसरे दन सबेरा होते ही धम और अथके त को जाननेवाले भीमकमा महातेज ी वीर वभीषण अपने बड़े भा◌इ रा सराज रावणके घर गये। वह घर अनेक ासाद के कारण पवत शखर के समूहक भाँ त शोभा पाता था। उसक ऊँ चा◌इ भी पहाड़क चोटीको ल त करती थी। उसम अलग-अलग बड़ी-बड़ी क ाएँ ( ो ढ़याँ) सु र ढंगसे बनी ◌इ थ । ब तेरे े पु ष का वहाँ आना-जाना लगा रहता था। अनेकानेक बु मान् महाम ी, जो राजाके त अनुराग रखनेवाले थे, उसम बैठे थे। व सनीय, हतैषी तथा कायसाधनम कु शल ब सं क रा स सब ओरसे उस भवनक र ा करते थे। वहाँक वायु मतवाले हा थय के न: ाससे म त हो बवंडर-सी जान पड़ती थी। श - नके समान रा स का ग ीर घोष वहाँ गूँजता रहता था। नाना कारके वा के मनोरम श उस भवनको नना दत करते थे। प और यौवनके मदसे मतवाली युव तय क वहाँ भीड़-सी लगती रहती थी। वहाँके बड़े-बड़े माग लोग के वातालापसे मुख रत जान पड़ते थे। उसके फाटक तपाये ए सुवणके बने ए थे। उ म सजावटक व ु से वह महल अ ी तरह सजा आ था, अतएव वह ग व के आवास और देवता के नवास ान-सा मनोरम तीत होता था। र रा शसे प रपूण होनेके कारण वह नागभवनके समान उ ा सत होता था। जैसे तेजसे व ृत करण वाले सूय महान् मेघ क घटाम वेश करते ह, उसी कार तेज ी वभीषणने रावणके उस भवनम पदापण कया॥ १ —७ ॥ वहाँ प ँ चकर उन महातेज ी वभीषणने अपने भा◌इक वजयके उ े से वेदवे ा ा ण ारा कये गये पु ाहवाचनके प व घोष सुने॥ ८ ॥ त ात् उन महाबली वभीषणने वेदम के ाता ा ण का दशन कया, जनके हाथ म दही और घीके पा थे। फू ल और अ त से उन सबक पूजा क गयी थी॥ ९ ॥ वहाँ जानेपर रा स ने उनका ागत-स ार कया। फर उन महाबा वभीषणने अपने तेजसे देदी मान और सहासनपर वराजमान कु बेरके छोटे भा◌इ रावणको णाम कया॥ १० ॥



तदन र श ाचारके ाता वभीषण ‘ वजयतां महाराज:’ (महाराजक जय हो) इ ा द पसे राजाके त पर रा ा शुभाशंसासूचक वचनका योग करके राजाके ारा के संकेतसे बताये गये सुवणभू षत सहासनपर बैठ गये॥ ११ ॥ वभीषण जग भली-बुरी बात को अ ी तरह जानते थे। उ ने णाम आ द वहारका यथाथ पसे नवाह करके सा नापूण वचन ारा अपने बड़े भा◌इ महामना रावणको स कया और उससे एका म म य के नकट देश, काल और योजनके अनु प, यु य ारा न त तथा अ हतकारक बात कही—॥ १२-१३ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले महाराज! जबसे वदेहकु मारी सीता यहाँ आयी ह, तभीसे हमलोग को अनेक कारके अम लसूचक अपशकु न दखायी दे रहे ह॥ १४ ॥ ‘म ारा व धपूवक धधकानेपर भी आग अ ी तरह लत नह हो रही है। उससे चनगा रयाँ नकलने लगती ह। उसक लपटके साथ धुआँ उठने लगता है और म नकालम जब अ कट होती है, उस समय भी वह धूएँसे म लन ही रहती है॥ १५ ॥ ‘रसो◌इघर म, अ शाला म तथा वेदा यनके ान म भी साँप देखे जाते ह और हवन-साम य म ची टयाँ पड़ी दखायी देती ह॥ १६ ॥ ‘गाय का दूध सूख गया है, बड़े-बड़े गजराज मदर हत हो गये ह, घोड़े नये ाससे आन त (भोजनसे संतु ) होनेपर भी दीनतापूण रम हन हनाते ह॥ १७ ॥ ‘राजन्! गध , ऊँ ट और ख र के र गटे खड़े हो जाते ह। उनके ने से आँ सू गरने लगते ह। व धपूवक च क ा क जानेपर भी वे पूणत: हो नह पाते ह॥ १८ ॥ ‘ ू र कौए ंडु -के - ंडु एक होकर ककश रम काँव-काँव करने लगते ह तथा वे सतमहले मकान पर समूह-के -समूह इक े ए देखे जाते ह॥ १९ ॥ ल ापुरीके ऊपर ंडु -के - ंडु गीध उसका श करते ए-से मड़राते रहते ह। दोन सं ा के समय सया रन नगरके समीप आकर अम लसूचक श करती ह॥ २० ॥ ‘नगरके सभी फाटक पर समूह-के -समूह एक ए मांसभ ी पशु के जोर-जोरसे कये जानेवाले ची ार बजलीक गड़गड़ाहटके समान सुनायी पड़ते ह॥ २१ ॥ ‘वीरवर! ऐसी प र तम मुझे तो यही ाय अ ा जान पड़ता है क वदेहकु मारी सीता ीरामच जीको लौटा दी जायँ॥ २२ ॥



‘महाराज! य द यह बात मने मोह या लोभसे कही हो तो भी आपको मुझम दोष



नह



करनी चा हये॥ ‘सीताका अपहरण तथा इससे होनेवाला अपशकु न पी दोष यहाँक सारी जनता, रा सरा सी तथा नगर और अ :पुर—सभीके लये उपल त होता है॥ २४ ॥ ‘यह बात आपके कान तक प ँ चानेम ाय: सभी म ी संकोच करते ह; परंतु जो बात मने देखी या सुनी है वह मुझे तो आपके आगे अव नवेदन कर देनी चा हये; अत: उसपर यथो चत वचार करके आप जैसा उ चत समझ, वैसा कर’॥ २५ ॥ इस कार भा◌इ वभीषणने अपने म य के बीचम बड़े भा◌इ रा सराज रावणसे ये हतकारी वचन कहे॥ २६ ॥ वभीषणक ये हतकर, महान् अथक साधक, कोमल, यु संगत तथा भूत, भ व और वतमानकालम भी कायसाधनम समथ बात सुनकर रावणको बुखार चढ़ आया। ीरामके साथ वैर बढ़ानेम उसक आस हो गयी थी। इस लये उसने इस कार उ र दया —‘ वभीषण! म तो कह से भी को◌इ भय नह देखता। राम म थलेशकु मारी सीताको कभी नह पा सकते। इ स हत देवता क सहायता ा कर लेनेपर भी ल णके बड़े भा◌इ राम मेरे सामने सं ामम कै से टक सकगे?’॥ २७-२८ ॥ ऐसा कहकर देवसेनाके नाशक और समरा णम च परा म कट करनेवाले महाबली दशाननने अपने यथाथवादी भा◌इ वभीषणको त ाल वदा कर दया॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म दसवाँ सग पूरा आ॥ १० ॥



ारहवाँ सग रावण और उसके सभासद का सभाभवनम एक होना



रा स का राजा रावण म थलेशकु मारी सीताके त कामसे मो हत हो रहा था, उसके हतैषी सु द् वभीषण आ द उसका अनादर करने लगे थे—उसके कु कृ क न ा करते थे तथा वह सीताहरण पी जघ पाप-कमके कारण पापी घो षत कया गया था—इन सब कारण से वह अ कृ श ( च ायु एवं दुबल) हो गया था॥ १ ॥ वह अ कामसे पी ड़त होकर बारंबार वदेहकु मारीका च न करता था, इस लये यु का अवसर बीत जानेपर भी उसने उस समय म य और सु द के साथ सलाह करके यु को ही समयो चत कत माना॥ २ ॥ वह सोनेक जालीसे आ ा दत तथा म ण एवं मूँग से वभू षत एक वशाल रथपर, जसम सु श त घोड़े जुते ए थे; जा चढ़ा॥ ३ ॥ महान् मेघ क गजनाके समान घघराहट पैदा करनेवाले उस उ म रथपर आ ढ़ हो रा स शरोम ण दश ीव सभाभवनक ओर त आ॥ ४ ॥ उस समय रा सराज रावणके आगे-आगे ढाल-तलवार एवं सब कारके आयुध धारण करनेवाले ब सं क रा स यो ा जा रहे थे॥ ५ ॥ इसी तरह भाँ त-भाँ तके आभूषण से वभू षत और नाना कारके वकराल वेषवाले अग णत नशाचर उसे दाय-बाय और पीछेक ओरसे घेरकर चल रहे थे॥ ६ ॥ रावणके ान करते ही ब त-से अ तरथी वीर रथ , मतवाले गजराज और खेल-खेलम तरह-तरहक चाल दखानेवाले घोड़ पर सवार हो तुरंत उसके पीछे चल दये॥ ७ ॥ क के हाथ म गदा और प रघ शोभा पा रहे थे। को◌इ श और तोमर लये ए थे। कु छ लोग ने फरसे धारण कर रखे थे तथा अ रा स के हाथ म शूल चमक रहे थे, फर तो वहाँ सह वा का महान् घोष होने लगा॥ ८ ॥ रावणके सभाभवनक ओर या ा करते समय तुमुल श न होने लगी। उसका वह वशाल रथ अपने प हय क घघराहटसे स ूण दशा को त नत करता आ सहसा शोभाशाली राजमागपर जा प ँ चा॥ ९१/२ ॥



उस समय रा सराज रावणके ऊपर तना आ नमल ेत छ पूण च माके समान शोभा पा रहा था॥ १०१/२ ॥ उसके दा हने और बाय भागम शु टकके डंडवे ाले चँवर और जन, जनम सोनेक म रयाँ बनी ◌इ थ , बड़ी शोभा पा रहे थे॥ १११/२ ॥ मागम पृ ीपर खड़े ए सभी रा स दोन हाथ जोड़ रथपर बैठे ए रा स शरोम ण रावणक सर कु ाकर व ना करते थे॥ १२१/२ ॥ रा स ारा क गयी ु त, जय-जयकार और आशीवाद सुनता आ श ुदमन महातेज ी रावण उस समय व कमा ारा न मत राजसभाम प ँ चा॥ १३१/२ ॥ उस सभाके फशम सोने-चाँदीका काम कया आ था तथा बीच-बीचम वशु टक भी जड़ा गया था। उसम सोनेके कामवाले रेशमी व क चादर बछी ◌इ थ । वह सभा सदा अपनी भासे उ ा सत होती रहती थी। छ: सौ पशाच उसक र ा करते थे। व कमाने उसे ब त ही सु र बनाया था। अपने शरीरसे सुशो भत होनेवाले महातेज ी रावणने उस सभाम वेश कया॥ १४-१५१/२ ॥ उस सभाभवनम वैदयू म ण (नीलम)-का बना आ एक वशाल और उ म सहासन था, जसपर अ मुलायम चमड़ेवाले ‘ यक’ नामक मृगका चम बछा था और उसपर मसनँद भी रखा आ था। रावण उसीपर बैठ गया। फर उसने अपने शी गामी दूत को आ ा दी—॥ १६-१७ ॥ ‘तुमलोग शी ही यहाँ बैठनेवाले सु व ात रा स को मेरे पास बुला ले आओ; क श ु के साथ करनेयो महान् काय मुझपर आ पड़ा है। इस बातको म अ ी तरह समझ रहा ँ (अत: इसपर वचार करनेके लये सब सभासद का यहाँ आना अ आव क है)’॥ १८ ॥ रावणका यह आदेश सुनकर वे रा स ल ाम सब ओर च र लगाने लगे। वे एक-एक घर, वहार ान, शयनागार और उ ानम जा-जाकर बड़ी नभयतासे उन सब रा स को राजसभाम चलनेके लये े रत करने लगे॥ १९ ॥ तब उन रा स मसे को◌इ रथपर चढ़कर चले, को◌इ मतवाले हा थय पर और को◌इ मजबूत घोड़ पर सवार होकर अपने-अपने ानसे त ए। ब त-से रा स पैदल ही चल दये॥ २० ॥



उस समय दौड़ते ए रथ , हा थय और घोड़ से ा ◌इ वह पुरी ब सं क ग ड़ से आ ा दत ए आकाशक भाँ त शोभा पा रही थी॥ २१ ॥ ग ानतक प ँ चकर अपने-अपने वाहन और नाना कारक सवा रय को बाहर ही रखकर वे सब सभासद् पैदल ही उस सभाभवनम व ए, मानो ब त-से सह कसी पवतक क राम घुस रहे ह ॥ २२ ॥ वहाँ प ँ चकर उन सबने राजाके पाँव पकड़े तथा राजाने भी उनका स ार कया। त ात् कु छ लोग सोनेके सहासन पर, कु छ लोग कु शक चटाइय पर और कु छ लोग साधारण बछौन से ढक ◌इ भू मपर ही बैठ गये॥ २३ ॥ राजाक आ ासे उस सभाम एक होकर वे सब रा स रा सराज रावणके आसपास यथायो आसन पर बैठ गये॥ २४ ॥ यथायो भ - भ वषय के लये उ चत स त देनेवाले मु -मु म ी, कत न यम पा का प रचय देनेवाले स चव, बु दश , सव , स णु -स उपम ी तथा और भी ब त-से शूरवीर स ूण अथ के न यके लये और सुख ा के उपायपर वचार करनेके लये उस सुनहरी का वाली सभाके भीतर सैकड़ क सं ाम उप त थे॥ २५-२६ ॥ त ात् यश ी महा ा वभीषण भी एक सुवणज टत, सु र अ से यु , वशाल, े एवं शुभकारक रथपर आ ढ़ हो अपने बड़े भा◌इक सभाम जा प ँ चे॥ २७ ॥ छोटे भा◌इ वभीषणने पहले अपना नाम बताया, फर बड़े भा◌इके चरण म म क कु ाया। इसी तरह शुक और ह ने भी कया। तब रावणने उन सबको यथायो पृथक् पृथक् आसन दये॥ २८ ॥ सुवण एवं नाना कारक म णय के आभूषण से वभू षत उन सु र व धारी रा स क उस सभाम सब ओर ब मू अगु , च न तथा पु हार क सुग छा रही थी॥ २९ ॥ उस समय उस सभाका को◌इ भी सद अस नह बोलता था। वे सभी सभासद् न तो च ाते थे और न जोर-जोरसे बात ही करते थे। वे सब-के -सब सफलमनोरथ एवं भयंकर परा मी थे और सभी अपने ामी रावणके मुँहक ओर देख रहे थे॥ ३० ॥ उस सभाम श धारी महाबली मन ी वीर का समागम होनेपर उनके बीचम बैठा आ मन ी रावण अपनी भासे उसी कार का शत हो रहा था, जैसे वसु के बीचम व धारी इ देदी मान होते ह॥ ३१ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म ारहवाँ सग पूरा आ॥ ११ ॥



बारहवाँ सग नगरक र ाके लये सै नक क नयु , रावणका सीताके त अपनी आस बताकर उनके हरणका संग बताना और भावी कत के लये सभासद क स त माँगना, कु कणका पहले तो उसे फटकारना, फर सम श ु के वधका यं ही भार उठाना



श ु वजयी रावणने उस स ूण सभाक ओर पात करके सेनाप त ह को उस समय इस कार आदेश दया—॥ १ ॥ ‘सेनापते! तुम सै नक को ऐसी आ ा दो, जससे तु ारे अ व ाम पारंगत रथी, घुड़सवार, हाथीसवार और पैदल यो ा नगरक र ाम त र रह’॥ २ ॥ अपने मनको वशम रखनेवाले ह ने राजाके आदेशका पालन करनेक इ ासे सारी सेनाको नगरके बाहर और भीतर यथायो ान पर नयु कर दया॥ नगरक र ाके लये सारी सेनाको तैनात करके ह राजा रावणके सामने आ बैठा और इस कार बोला—॥ ४ ॥ ‘रा सराज! आप महाबली महाराजक सेनाको मने नगरके बाहर और भीतर यथा ान नयु कर दया है। अब आप च होकर शी ही अपने अभी कायका स ादन क जये’॥ ५ ॥ रा का हत चाहनेवाले ह क यह बात सुनकर अपने सुखक इ ा रखनेवाले रावणने सु द के बीचम यह बात कही—॥ ६ ॥ ‘सभासदो! धम, अथ और काम वषयक संकट उप त होनेपर आपलोग य-अ य, सुख-दु:ख, लाभ-हा न और हता हतका वचार करनेम समथ ह॥ ‘आपलोग ने सदा पर र वचार करके जन ज न काय का आर कया है, वे सब-के सब मेरे लये कभी न ल नह ए ह॥ ८ ॥ ‘जैसे च मा, ह और न स हत म ण से घरे ए इ गक स का उपभोग करते ह, उसी भाँ त आपलोग से घरा रहकर म भी ल ाक चुर राजल ीका सुख भोगता र ँ —यही मेरी अ भलाषा है॥ ९ ॥



‘मने



जो काम कया है, उसे म पहले ही आप सबके सामने रखकर आपके ारा उसका समथन चाहता था, परंतु उस समय कु कण सोये ए थे, इस लये मने इसक चचा नह चलायी॥ १० ॥ ‘सम श धा रय म े महाबली कु कण छ: महीनेसे सो रहे थे। अभी इनक न द खुली है॥ ११ ॥ ‘म द कार से, जो रा स के वचरनेका ान है, रामक ारी रानी जनकदुलारी सीताको हर लाया ँ ॥ १२ ॥ ‘ कतु वह म गा मनी सीता मेरी श ापर आ ढ़ होना नह चाहती है। मेरी म तीन लोक के भीतर सीताके समान सु री दूसरी को◌इ ी नह है॥ १३ ॥ ‘उसके शरीरका म भाग अ सू है, क टके पीछेका भाग ूल है, मुख शर ालके च माको ल त करता है, वह सौ प और भाववाली सीता सोनेक बनी ◌इ तमा-सी जान पड़ती है। ऐसा लगता है, जैसे वह मयासुरक रची ◌इ को◌इ माया हो॥ १४ ॥ ‘उसके चरण के तलवे लाल रंगके ह। दोन पैर सु र, चकने और सुडौल ह तथा उनके नख ताँब-े जैसे लाल ह। सीताके उन चरण को देखकर मेरी कामा लत हो उठती है॥ १५ ॥ ‘ जसम घीक आ त डाली गयी हो, उस अ क लपट और सूयक भाके समान इस तेज नी सीताको देखकर तथा ऊँ ची नाक और वशाल ने से सुशो भत उसके नमल एवं मनोहर मुखका अवलोकन करके म अपने वशम नह रह गया ँ । कामने मुझे अपने अधीन कर लया है॥ १६१/२ ॥ ‘जो ोध और हष दोन अव ा म समान पसे बना रहता है, शरीरक का को फ क कर देता है और शोक तथा संतापके समय भी कभी मनसे दूर नह होता, उस कामने मेरे दयको कलु षत ( ाकु ल) कर दया है॥ १७१/२ ॥ ‘ वशाल ने वाली माननीय सीताने मुझसे एक वषका समय माँगा है। इस बीचम वह अपने प त ीरामक ती ा करेगी। मने मनोहर ने वाली सीताके उस सु र वचनको सुनकर उसे पूण करनेक त ा कर ली है१॥ १८-१९ ॥



‘जैसे



बड़े मागम चलते-चलते घोड़ा थक जाता है, उसी कार म भी कामपीड़ासे थकावटका अनुभव कर रहा ँ । वैसे तो मुझे श ु क ओरसे को◌इ डर नह है; क वे वनवासी वानर अथवा वे दोन दशरथकु मार ीराम और ल ण असं जल-ज ु तथा म से भरे ए अलङ् महासागरको कै से पार कर सकगे?॥ २०१/२ ॥ ‘अथवा एक ही वानरने आकर हमारे यहाँ महान् संहार मचा दया था। इस लये काय स के उपाय को समझ लेना अ क ठन है। अत: जसको अपनी बु के अनुसार जैसा उ चत जान पड़े, वह वैसा ही बतावे। तुम सब लोग अपने वचार अव करो। य प हम मनु से को◌इ भय नह है, तथा प तु वजयके उपायपर वचार तो करना ही चा हये॥ २१-२२ ॥ ‘उन दन जब देवता और असुर का यु चल रहा था, उसम आप सब लोग क सहायतासे ही मने वजय ा क थी। आज भी आप मेरे उसी कार सहायक ह। वे दोन राजकु मार सीताका पता पाकर सु ीव आ द वानर को साथ लये समु के उस तटतक प ँ च चुके ह॥ २३-२४ ॥ ‘अब आपलोग आपसम सलाह क जये और को◌इ ऐसी सु र नी त बताइये, जससे सीताको लौटाना न पड़े तथा वे दोन दशरथकु मार मारे जायँ॥ २५ ॥ ‘वानर के साथ समु को पार करके यहाँतक आनेक श जग रामके सवा और कसीम नह देखता ँ ( कतु राम और वानर यहाँ आकर भी मेरा कु छ बगाड़ नह सकते), अत: यह न य है क जीत मेरी ही होगी’॥ २६ ॥ कामातुर रावणका यह खेदपूण लाप सुनकर कु कणको ोध आ गया और उसने इस कार कहा—॥ २७ ॥ ‘जब तुम ल णस हत ीरामके आ मसे एक बार यं ही मनमाना वचार करके सीताको यहाँ बलपूवक हर लाये थे, उसी समय तु ारे च को हमलोग के साथ इस वषयम सु न त वचार कर लेना चा हये था। ठीक उसी तरह जैसे यमुना जब पृ ीपर उतरनेको उ त ◌इं , तभी उ ने यमुनो ी पवतके कु वशेषको अपने जलसे पूण कया था (पृ ीपर उतर जानेके बाद उनका वेग जब समु म जाकर शा हो गया, तब वे पुन: उस कु को नह भर सकत , उसी कार तुमने भी जब वचार करनेका अवसर था, तब तो हमारे साथ बैठकर वचार



कया नह । अब अवसर बताकर सारा काम बगड़ जानेके बाद तुम वचार करने चले हो)॥ २८ ॥ ‘महाराज!



तुमने जो यह छलपूवक छपकर पर ी-हरण आ द काय कया है, यह सब तु ारे लये ब त अनु चत है। इस पापकमको करनेसे पहले ही आपको हमारे साथ परामश कर लेना चा हये था॥ २९ ॥ ‘दशानन! जो राजा सब राजकाय ायपूवक करता है, उसक बु न यपूण होनेके कारण उसे पीछे पछताना नह पड़ता है॥ ३० ॥ ‘जो कम उ चत उपायका अवल न कये बना ही कये जाते ह तथा जो लोक और शा के वपरीत होते ह, वे पापकम उसी तरह दोषक ा कराते ह, जैसे अप व आ भचा रक य म होमे गये ह व ॥ ३१ ॥ ‘जो पहले करनेयो काय को पीछे करना चाहता है और पीछे करनेयो काम पहले ही कर डालता है, वह नी त और अनी तको नह जानता॥ ३२ ॥ ‘श ुलोग अपने वप ीके बलको अपनेसे अ धक देखकर भी य द वह हर कामम चपल (ज बाज) है तो उसका दमन करनेके लये उसी तरह उसके छ ढूँ ढ़ते रहते ह, जैसे प ी दुलङ् ौ पवतको लाँघकर आगे बढ़नेके लये उसके (उस) छ का२ आ य लेते ह ( जसे कु मार का तके यने अपनी श का हार करके बनाया था)॥ ३३ ॥ ‘महाराज! तुमने भावी प रणामका वचार कये बना ही यह ब त बड़ा दु म आर कया है। जैसे वष म त भोजन खानेवालेके ाण हर लेता है, उसी कार ीरामच जी तु ारा वध कर डालगे। उ ने अभीतक तु मार नह डाला, इसे अपने लये सौभा क बात समझो॥ ३४ ॥ ‘अनघ! य प तुमने श ु के साथ अनु चत कम आर कया है, तथा प म तु ारे श ु का संहार करके सबको ठीक कर दूँगा॥ ३५ ॥ ‘ नशाचर! तु ारे श ु य द इ , सूय, अ , वायु, कु बेर और व ण भी ह तो म उनके साथ यु क ँ गा और तु ारे सभी श ु को उखाड़ फ कूँ गा॥ ३६ ॥ ‘म पवतके समान वशाल एवं तीखी दाढ़ से यु शरीर धारण करके महान् प रघ हाथम ले समरभू मम जूझता आ जब गजना क ँ गा, उस समय देवराज इ भी भयभीत हो जायँगे॥ ३७ ॥



‘राम



मुझे एक बाणसे मारकर दूसरे बाणसे मारने लगगे, उसी बीचम म उनका खून पी लूँगा। इस लये तुम पूणत: न हो जाओ॥ ३८ ॥ ‘म दशरथन न ीरामका वध करके तु ारे लये सुखदा यनी वजय सुलभ करानेका य क ँ गा। ल णस हत रामको मारकर सम वानरयूथप तय को खा जाऊँ गा॥ ३९ ॥ ‘तुम मौजसे वहार करो। उ म वा णीका पान करो और न होकर अपने लये हतकर काय करते रहो। मेरे ारा रामके यमलोक भेज दये जानेपर सीता चरकालके लये तु ारे अधीन हो जायगी’॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बारहवाँ सग पूरा आ॥ १२ ॥ १. यहाँ रावणने सभासद के सामने अपनी झूठी उदारता दखानेके लये सवथा अस कहा है। सीताजीने कभी अपने मुँहसे यह नह कहा था क ‘मुझे एक वषका समय दो। य द उतने दन तक ीराम नह आये तो म तु ारी हो जाऊँ गी।’ सीताने तो सदा तर ारपूवक उसके जघ ावको ठु कराया ही था। इसने यं ही अपनी ओरसे उ एक वषका अवसर दया था। (दे खये अर का सग ५६ ोक २४-२५) २. कु मार का तके यने अपनी श के ारा ौ पवतको वदीण करके उसम छेद कर दया था—यह संग महाभारतम आया है। (दे खये श प० ४६। ८४)



तेरहवाँ सग महापा का रावणको सीतापर बला ारके लये उकसाना और रावणका शापके कारण अपनेको ऐसा करनेम असमथ बताना तथा अपने परा मके गीत गाना



तब रावणको कु पत आ जान महाबली महापा ने दो घड़ीतक कु छ सोच- वचार करनेके बाद हाथ जोड़कर कहा—॥ १ ॥ ‘जो हसक पशु और सप से भरे ए दुगम वनम जाकर वहाँ पीने यो मधु पाकर भी उसे पीता नह है, वह पु ष मूख ही है॥ २ ॥ ‘श ुसूदन महाराज! आप तो यं ही ◌इ र ह। आपका ◌इ र कौन है? आप श ु के सरपर पैर रखकर वदेहकु मारी सीताके साथ रमण क जये॥ ३ ॥ ‘महाबली वीर! आप कु ु ट के बतावको अपनाकर सीताके साथ बला ार क जये। बारंबार आ मण करके उनके साथ रमण एवं उपभोग क जये॥ ४ ॥ ‘जब आपका मनोरथ सफल हो जायगा, तब फर आपपर कौन-सा भय आयेगा? य द वतमान एवं भ व कालम को◌इ भय आया भी तो उस सम भयका यथो चत तीकार कया जायगा॥ ५ ॥ ‘हमलोग के साथ य द महाबली कु कण और इ जत् खड़े हो जायँ तो ये दोन व धारी इ को भी आगे बढ़नेसे रोक सकते ह॥ ६ ॥ ‘म तो नी त नपुण पु ष के ारा यु साम, दान और भेदको छोड़कर के वल द के ारा काम बना लेना ही अ ा समझता ँ ॥ ७ ॥ ‘महाबली रा सराज! यहाँ आपके जो भी श ु आयगे, उ हमलोग अपने श के तापसे वशम कर लगे, इसम संशय नह है’॥ ८ ॥ महापा के ऐसा कहनेपर उस समय ल ाके राजा रावणने उसके वचन क शंसा करते ए इस कार कहा—॥ ९ ॥ ‘महापा ! ब त दन ए पूवकालम एक गु घटना घ टत ◌इ थी—मुझे शाप ा आ था। अपने जीवनके उस गु रह को आज म बता रहा ँ , उसे सुनो॥ १० ॥



‘एक बार मने आकाशम अ राको देखा, जो पतामह



शखाके समान का शत होती ◌इ पु क ला नामक ाजीके भवनक ओर जा रही थी। वह अ रा मेरे भयसे



अ लुकती- छपती आगे बढ़ रही थी॥ ‘मने बलपूवक उसके व उतार दये और हठात् उसका उपभोग कया। इसके बाद वह ाजीके भवनम गयी। उसक दशा हाथी ारा मसलकर फ क ◌इ कम लनीके समान हो रही थी॥ १२ ॥ ‘म समझता ँ क मेरे ारा उसक जो दुदशा क गयी थी, वह पतामह ाजीको ात हो गयी। इससे वे अ कु पत हो उठे और मुझसे इस कार बोले—॥ १३ ॥ ‘आजसे य द तू कसी दूसरी नारीके साथ बलपूवक समागम करेगा तो तेरे म कके सौ टुकड़े हो जायँग,े इसम संशय नह है’॥ १४ ॥ ‘इस तरह म ाजीके शापसे भयभीत ँ । इसी लये अपनी शुभ-श ापर वदेहकु मारी सीताको हठात् एवं बलपूवक नह चढ़ाता ँ ॥ १५ ॥ ‘मेरा वेग समु के समान है और मेरी ग त वायुके तु है। इस बातको दशरथन न राम नह जानते ह, इसीसे वे मुझपर चढ़ा◌इ करते ह॥ १६ ॥ ‘अ था पवतक क राम सुखपूवक सोये ए सहके समान तथा कु पत होकर बैठी ◌इ मृ ुके तु भयंकर मुझ रावणको कौन जगाना चाहेगा?॥ १७ ॥ ‘मेरे धनुषसे छू टे ए दो जीभवाले सप के समान भयंकर बाण को समरा णम ीरामने कभी देखा नह है, इसी लये वे मुझपर चढ़े आ रहे ह॥ १८ ॥ ‘म अपने धनुषसे शी तापूवक छू टे ए सैकड़ व स श बाण ारा रामको उसी कार जला डालूँगा, जैसे लोग उ ा ारा हाथीको उसे भगानेके लये जलाते ह॥ १९ ॥ ‘जैसे ात:काल उ दत ए सूयदेव न क भाको छीन लेते ह, उसी कार अपनी वशाल सेनासे घरा आ म उनक उस वानर-सेनाको आ सात् कर लूँगा॥ २० ॥ यु म तो हजार ने वाले इ और व ण भी मेरा सामना नह कर सकते। पूवकालम कु बेरके ारा पा लत ◌इ इस ल ापुरीको मने अपने बा बलसे ही जीता था’॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म तेरहवाँ सग पूरा आ॥ १३ ॥



चौदहवाँ सग वभीषणका रामको अजेय बताकर उनके पास सीताको लौटा देनेक स



त देना



रा सराज रावणके इन वचन और कु कणक गजना को सुनकर वभीषणने रावणसे ये साथक और हतकारी वचन कहे—॥ १ ॥ ‘राजन्! सीता नामधारी वशालकाय महान् सपको कसने आपके गलेम बाँध दया है? उसके दयका भाग ही उस सपका शरीर है, च ा ही वष है, सु र मुसकान ही तीखी दाढ़ ह और ेक हाथक पाँच-पाँच अ ु लयाँ ही इस सपके पाँच सर ह॥ २ ॥ ‘जबतक पवत- शखरके समान ऊँ चे वानर, जनके दाँत और नख ही आयुध ह, ल ापर चढ़ा◌इ नह करते, तभीतक आप दशरथन न ीरामके हाथम म थलेशकु मारी सीताको स प दी जये॥ ३ ॥ ‘जबतक ीरामच जीके चलाये ए वायुके समान वेगशाली तथा व तु बाण रा स शरोम णय के सर नह काट रहे ह, तभीतक आप दशरथन न ीरामक सेवाम सीताजीको सम पत कर दी जये॥ ४ ॥ ‘राजन्! ये कु कण, इ जत्, महापा , महोदर, नकु , कु और अ तकाय—को◌इ भी समरा णम ीरघुनाथजीके सामने नह ठहर सकते ह॥ ५ ॥ ‘य द सूय या वायु आपक र ा कर, इ या यम आपको गोदम छपा ल अथवा आप आकाश या पातालम घुस जायँ तो भी ीरामके हाथसे जी वत नह बच सकगे’॥ ६ ॥ वभीषणक यह बात सुनकर ह ने कहा—‘हम देवता अथवा दानव से कभी नह डरते। भय ा व ु है? यह हम जानते ही नह ह॥ ७ ॥ ‘हम यु म य , ग व , बड़े-बड़े नाग , प य और सप से भी भय नह होता है; फर समरा णम राजकु मार रामसे हम कभी भी कै से भय होगा?’॥ ८ ॥ वभीषण राजा रावणके स े हतैषी थे। उनक बु का धम, अथ और कामम अ ा वेश था। उ ने ह के अ हतकर वचन सुनकर यह महान् अथसे यु बात कही—॥ ९ ॥ ‘ ह ! महाराज रावण, महोदर, तुम और कु कण— ीरामके त जो कु छ कह रहे हो, वह सब तु ारे कये नह हो सकता। ठीक उसी तरह, जैसे पापा ा पु षक गम प ँ च नह



हो सकती है॥ १० ॥ ‘ ह ! ीराम अथ वशारद ह—सम काय के साधनम कु शल ह। जैसे बना जहाज या नौकाके को◌इ महासागरको पार नह कर सकता, उसी कार मुझसे, तुमसे अथवा सम रा स से भी ीरामका वध होना कै से स व है?॥ ११ ॥ ‘ ीराम धमको ही धान व ु मानते ह। उनका ादुभाव इ ाकु कु लम आ है। वे सभी काय के स ादनम समथ और महारथी वीर ह (उ ने वराध, कब और वाली-जैसे वीर को बात-क -बातम यमलोक भेज दया था)। ऐसे स परा मी राजा ीरामसे सामना पड़नेपर तो देवता भी अपनी हेकड़ी भूल जायँगे ( फर हमारी-तु ारी तो बात ही ा है?)॥ १२ ॥ ‘ ह ! अभीतक ीरामके चलाये ए क प यु , दुजय एवं तीखे बाण तु ारे शरीरको वदीण करके भीतर नह घुसे ह; इसी लये तुम बढ़-बढ़कर बोल रहे हो॥ १३ ॥ ‘ ह ! ीरामके बाण व के समान वेगशाली होते ह। वे ाण का अ करके ही छोड़ते ह। ीरघुनाथजीके धनुषसे छू टे ए वे तीखे बाण तु ारे शरीरको फोड़कर अंदर नह घुसे ह; इसी लये तुम इतनी शेखी बघारते हो॥ १४ ॥ ‘रावण, महाबली शरा, कु कणकु मार नकु और इ वजयी मेघनाद भी समरा णम इ तु तेज ी दशरथन न ीरामका वेग सहन करनेम समथ नह ह॥ १५ ॥ ‘देवा क, नरा क, अ तकाय, महाकाय, अ तरथ तथा पवतके समान श शाली अक न भी यु भू मम ीरघुनाथजीके सामने नह ठहर सकते ह॥ १६ ॥ ‘ये महाराज रावण तो सन के * वशीभूत ह, इस लये सोच- वचारकर काम नह करते ह। इसके सवा ये भावसे ही कठोर ह तथा रा स के स ानाशके लये तुम-जैसे श ुतु म क सेवाम उप त रहते ह॥ ‘अन शारी रक बलसे स , सह फनवाले और महान् बलशाली भयंकर नागने इस राजाको बलपूवक अपने शरीरसे आवे त कर रखा है। तुम सब लोग मलकर इसे ब नसे बाहर करके ाणसंकटसे बचाओ (अथात् ीरामच जीके साथ वैर बाँधना महान् सपके शरीरसे आवे त होनेके समान है। इस भावको करनेके कारण यहाँ नदशना अल ार ं है)॥ १८ ॥ ‘इस राजासे अबतक आपलोग क सभी कामनाएँ पूण ◌इ ह। आप सब लोग इसके हतैषी सु द् ह। अत: जैसे भयंकर बलशाली भूत से गृहीत ए पु षको उसके हतैषी



आ ीयजन उसके त बलपूवक वहार करके भी उसक र ा करते ह, उसी कार आप सब लोग एकमत होकर—आव कता हो तो इसके के श पकड़कर भी इसे अनु चत मागपर जानेसे रोक और सब कारसे इसक र ा कर॥ १९ ॥ ‘उ म च र पी जलसे प रपूण ीरघुनाथ पी समु इसे डु बो रहा है अथवा य समझो क यह ीराम पी पातालके गहरे गतम गर रहा है। ऐसी दशाम तुम सब लोग को मलकर इसका उ ार करना चा हये॥ २० ॥ ‘म तो रा स स हत इस सारे नगरके और सु द स हत यं महाराजके हतके लये अपनी यही उ म स त देता ँ क ‘ये राजकु मार ीरामके हाथ म म थलेशकु मारी सीताको स प द’॥ २१ ॥ ‘वा वम स ा म ी वही है जो अपने और श ु-प के बल-परा मको समझकर तथा दोन प क त, हा न और वृ का अपनी बु के ारा वचार करके जो ामीके लये हतकर और उ चत हो वही बात कहे’॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चौदहवाँ सग पूरा आ॥ १४ ॥ * राजा



वा







म सात सन माने गये ह— यो ु पा



(काम क नी तका पान, ी, मृगया और



मथदष ू णमेव च। पानं



ी मृगया ूतं



सनं स धा भो॥



वचन गो व राजक टीका रामायण-भूषणसे) वाणी और द क कठोरता, धनका अप य, ूत—ये राजाके सात कारके सन ह।



पं हवाँ सग इ



ज ारा वभीषणका उपहास तथा वभीषणका उसे फटकारकर सभाम अपनी उ चत स त देना



वभीषण बृह तके समान बु मान् थे। उनके वचन को जैसे-तैसे बड़े क से सुनकर रा स-यूथप तय म धान महाकाय इ ज े वहाँ यह बात कही—॥ १ ॥ ‘मेरे छोटे चाचा! आप ब त डरे एक भाँ त यह कै सी नरथक बात कह रहे ह? जसने इस कु लम ज न लया होगा, वह पु ष भी न तो ऐसी बात कहेगा और न ऐसा काम ही करेगा॥ २ ॥ ‘ पताजी! हमारे इस रा सकु लम एकमा ये छोटे चाचा वभीषण ही बल, वीय, परा म, धैय, शौय और तेजसे र हत ह॥ ३ ॥ ‘वे दोन मानव राजकु मार ा ह? उ तो हमारा एक साधारण-सा रा स भी मार सकता है; फर मेरे डरपोक चाचा! आप हम डरा रहे ह?॥ ४ ॥ ‘मने तीन लोक के ामी देवराज इ को भी गसे हटाकर इस भूतलपर ला बठाया था। उस समय सारे देवता ने भयभीत हो भागकर स ूण दशा क शरण ली थी॥ ५ ॥ ‘मने हठपूवक ऐरावत हाथीके दोन दाँत उखाड़कर उसे गसे पृ ीपर गरा दया था। उस समय वह जोर-जोरसे च ाड़ रहा था। अपने इस परा म ारा मने स ूण देवता को आत म डाल दया था॥ ६ ॥ ‘जो देवता के भी दपका दलन कर सकता है, बड़े-बड़े दै को भी शोकम कर देनेवाला है तथा जो उ म बल-परा मसे स है, वही मुझ-जैसा वीर मनु -जा तके दो साधारण राजकु मार का सामना कै से नह कर सकता है?’॥ ७ ॥ इ तु तेज ी महापरा मी दुजय वीर इ ज यह बात सुनकर श धा रय म े वभीषणने ये महान् अथसे यु वचन कहे—॥ ८ ॥ ‘तात! अभी तुम बालक हो। तु ारी बु क ी है। तु ारे मनम कत और अकत का यथाथ न य नह आ है। इसी लये तुम भी अपने ही वनाशके लये ब त-सी नरथक बात बक गये हो॥ ९ ॥



‘इ



जत्! तुम रावणके पु कहलाकर भी ऊपरसे ही उसके म हो। भीतरसे तो तुम पताके श ु ही जान पड़ते हो। यही कारण है क तुम ीरघुनाथजीके ारा रा सराजके वनाशक बात सुनकर भी मोहवश उ क हाँ-म-हाँ मला रहे हो॥ १० ॥ ‘तु ारी बु ब त ही खोटी है। तुम यं तो मार डालनेके यो हो ही, जो तु यहाँ बुला लाया है, वह भी वधके ही यो है। जसने आज तुम-जैसे अ दु:साहसी बालकको इन सलाहकार के समीप आने दया है, वह ाणद का ही अपराधी है॥ ११ ॥ ‘इ जत्! तुम अ ववेक हो। तु ारी बु प रप नह है। वनय तो तु छू तक नह गयी है। तु ारा भाव बड़ा तीखा और बु ब त थोड़ी है। तुम अ दुबु , दुरा ा और मूख हो। इसी लये बालक क -सी बे- सर-पैरक बात करते हो॥ १२ ॥ ‘भगवान् ीरामके ारा यु के मुहानेपर श ु के सम छोड़े गये तेज ी बाण सा ात् द के समान का शत होते ह, कालके समान जान पड़ते ह और यमद के समान भयंकर होते ह। भला, उ कौन सह सकता है?॥ १३ ॥ ‘अत: राजन्! हमलोग धन, र , सु र आभूषण, द व , व च म ण और देवी सीताको ीरामक सेवाम सम पत करके ही शोकर हत होकर इस नगरम नवास कर सकते ह’॥ १४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पं हवाँ सग पूरा आ॥ १५ ॥



सोलहवाँ सग रावणके ारा वभीषणका तर



ार और वभीषणका भी उसे फटकारकर चल देना



रावणके सरपर काल मँडरा रहा था, इस लये उसने सु र अथसे यु और हतकर बात कहनेपर भी वभीषणसे कठोर वाणीम कहा—॥ १ ॥ ‘भा◌इ! श ु और कु पत वषधर सपके साथ रहना पड़े तो रह ले; परंतु जो म कहलाकर भी श ुक सेवा कर रहा हो, उसके साथ कदा प न रहे॥ २ ॥ ‘रा स! स ूण लोक म सजातीय ब ु का जो भाव होता है, उसे म अ ी तरह जानता ँ । जा तवाले सवदा अपने अ सजातीय क आप य म ही हष मानते ह॥ ३ ॥ ‘ नशाचर! जो े होनेके कारण रा पाकर सबम धान हो गया हो, रा कायको अ ी तरह चला रहा हो और व ान्, धमशील तथा शूरवीर हो, उसे भी कु टु ीजन अपमा नत करते ह और अवसर पाकर उसे नीचा दखानेक भी चे ा करते ह॥ ४ ॥ ‘जा तवाले सदा एक-दूसरेपर संकट आनेपर हषका अनुभव करते ह। वे बड़े आततायी होते ह— मौका पड़नेपर आग लगाने, जहर देन,े श चलाने, धन हड़पने और े तथा ीका अपहरण करनेम भी नह हचकते ह। अपना मनोभाव छपाये रहते ह; अतएव ू र और भयंकर होते ह॥ ५ ॥ ‘पूवकालक बात है, प वनम हा थय ने अपने दयके उ ार कट कये थे, जो अब भी ोक के पम गाये और सुने जाते ह। एक बार कु छ लोग को हाथम फं दा लये आते देख हा थय ने जो बात कही थ , उ बता रहा ँ , मुझसे सुनो॥ ६ ॥ ‘हम अ , दूसरे-दूसरे श तथा पाश भय नह दे सकते। हमारे लये तो अपने ाथ जा त-भा◌इ ही भयानक और खतरेक व ु ह॥ ७ ॥ ‘ये ही हमारे पकड़े जानेका उपाय बता दगे, इसम संशय नह ; अत: स ूण भय क अपे ा हम अपने जा त-भाइय से ा होनेवाला भय ही अ धक क दायक जान पड़ता है॥ ८ ॥ ‘जैसे गौ



म ह -क क स दूध होता है, य म चपलता होती है और ा णम तप ा रहा करती है, उसी कार जा त-भाइय से भय अव ा होता है॥ ९ ॥



‘अत:



सौ ! आज जो सारा संसार मेरा स ान करता है और म जो ऐ यवान्, कु लीन और श ु के सरपर त ँ , यह सब तु अभी नह है॥ १० ॥ ‘जैसे कमलके प ेपर गरी ◌इ पानीक बूँद उसम सटती नह ह, उसी कार अनाय के दयम सौहाद नह टकता है॥ ११ ॥ ‘जैसे शरद-् ऋतुम गजते और बरसते ए मेघ के जलसे धरती गीली नह होती है, उसी कार अनाय के दयम ेहज नत आ ता नह होती है॥ १२ ॥ ‘जैसे भ रा बड़ी चाहसे फू ल का रस पीता आ भी वहाँ ठहरता नह है, उसी कार अनाय म सु नो चत ेह नह टक पाता है। तुम भी ऐसे ही अनाय हो॥ ‘जैसे मर रसक इ ासे काशके फू लका पान करे तो उसम रस नह पा सकता, उसी कार अनाय म जो ेह होता है, वह कसीके लये लाभदायक नह होता॥ १४ ॥ ‘जैसे हाथी पहले ान करके फर सूँड़से धूल उछालकर अपने शरीरको गँदला कर लेता है, उसी कार दुजन क मै ी दू षत होती है॥ १५ ॥ ‘कु लकल नशाचर! तुझे ध ार है। य द तेरे सवा दूसरा को◌इ ऐसी बात कहता तो उसे इसी मु तम अपने ाण से हाथ धोना पड़ता’॥ १६ ॥ वभीषण ायानुकूल बात कह रहे थे तो भी रावणने जब उनसे ऐसे कठोर वचन कहे, तब वे हाथम गदा लेकर अ चार रा स के साथ उसी समय उछलकर आकाशम चले गये॥ १७ ॥ उस समय अ र म खड़े ए तेज ी ाता वभीषणने कु पत होकर रा सराज रावणसे कहा—॥ ‘राजन्! तु ारी बु मम पड़ी ◌इ है। तुम धमके मागपर नह हो। य तो मेरे बड़े भा◌इ होनेके कारण तुम पताके समान आदरणीय हो। इस लये मुझे जो-जो चाहो, कह लो; परंतु अ ज होनेपर भी तु ारे इस कठोर वचनको कदा प नह सह सकता॥ १९ ॥ ‘दशानन! जो अ जते य पु ष कालके वशीभूत हो जाते ह, वे हतक कामनासे कहे ए सु र नी तयु वचन को भी नह हण करते ह॥ २० ॥ ‘राजन्! सदा य लगनेवाली मीठी-मीठी बात कहनेवाले लोग तो सुगमतासे मल सकते ह; परंतु जो सुननेम अ य कतु प रणामम हतकर हो, ऐसी बात कहने और सुननेवाले दुलभ होते ह॥ २१ ॥



‘तुम सम हो, उस घरक



ा णय का संहार करनेवाले कालके पाशम बँध चुके हो। जसम आग लग गयी भाँ त न हो रहे हो। ऐसी दशाम म तु ारी उपे ा नह कर सकता था, इसी लये तु हतक बात सुझा दी थी॥ २२ ॥ ‘ ीरामके सुवणभू षत बाण लत अ के समान तेज ी और तीखे ह। म ीरामके ारा उन बाण से तु ारी मृ ु नह देखना चाहता था, इसी लये तु समझानेक चे ा क थी॥ २३ ॥ ‘कालके वशीभूत होनेपर बड़े-बड़े शूरवीर, बलवान् और अ वे ा भी बालूक भी त या बाँधके समान न हो जाते ह॥ २४ ॥ ‘रा सराज! म तु ारा हत चाहता ँ । इसी लये जो कु छ भी कहा है, वह य द तु अ ा नह लगा तो उसके लये मुझे मा कर दो; क तुम मेरे बड़े भा◌इ हो। अब तुम अपनी तथा रा स स हत इस सम ल ापुरीक सब कारसे र ा करो। तु ारा क ाण हो। अब म यहाँसे चला जाऊँ गा। तुम मेरे बना सुखी हो जाओ॥ २५ ॥ ‘ नशाचरराज! म तु ारा हतैषी ँ । इसी लये मने तु बार-बार अनु चत मागपर चलनेसे रोका है, कतु तु मेरी बात अ ी नह लगती है। वा वम जन लोग क आयु समा हो जाती है, वे जीवनके अ कालम अपने सु द क कही ◌इ हतकर बात भी नह मानते ह’॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म सोलहवाँ सग पूरा आ॥ १६ ॥



स हवाँ सग वभीषणका ीरामक शरणम आना और ीरामका अपने म देनेके वषयम वचार करना



य के साथ उ आ य



रावणसे ऐसे कठोर वचन कहकर उसके छोटे भा◌इ वभीषण दो ही घड़ीम उस ानपर आ गये, जहाँ ल णस हत ीराम वराजमान थे॥ १ ॥ वभीषणका शरीर सुमे पवतके शखरके समान ऊँ चा था। वे आकाशम चमकती ◌इ बजलीके समान जान पड़ते थे। पृ ीपर खड़े ए वानरयूथप तय ने उ आकाशम त देखा॥ २ ॥ उनके साथ जो चार अनुचर थे। वे भी बड़ा भयंकर परा म कट करनेवाले थे। उ ने भी कवच धारण करके अ -श ले रखे थे और वे सब-के -सब उ म आभूषण से वभू षत थे॥ ३ ॥



वीर वभीषण भी मेघ और पवतके समान जान पड़ते थे। व धारी इ के समान तेज ी, उ म आयुधधारी और द आभूषण से अलंकृत थे॥ ४ ॥ उन चार रा स के साथ पाँचव वभीषणको देखकर दुधष एवं बु मान् वीर वानरराज सु ीवने वानर के साथ वचार कया॥ ५ ॥ थोड़ी देरतक सोचकर उ ने हनुमान् आ द सब वानर से यह उ म बात कही—॥ ६ ॥ ‘देखो, सब कारके अ -श से स यह रा स दूसरे चार नशाचर के साथ आ रहा है। इसम संदेह नह क यह हम मारनेके लये ही आता है’॥ ७ ॥ सु ीवक यह बात सुनकर वे सभी े वानर सालवृ और पवतक शलाएँ उठाकर इस कार बोले—॥ ८ ॥ ‘राजन्! आप शी ही हम इन दुरा ा के वधक आ ा दी जये, जससे ये म म त नशाचर मरकर ही इस पृ ीपर गर’॥ ९ ॥ आपसम वे इस कार बात कर ही रहे थे क वभीषण समु के उ र तटपर आकर आकाशम ही खड़े हो गये॥ १० ॥



महाबु मान् महापु ष वभीषणने आकाशम ही त रहकर सु ीव तथा उन वानर क ओर देखते ए उ रसे कहा—॥ ११ ॥ ‘रावण नामका जो दुराचारी रा स नशाचर का राजा है, उसीका म छोटा भा◌इ ँ । मेरा नाम वभीषण है॥ १२ ॥ ‘रावणने जटायुको मारकर जन ानसे सीताका अपहरण कया था। उसीने दीन एवं असहाय सीताको रोक रखा है। इन दन सीता रा सय के पहरेम रहती ह॥ १३ ॥ ‘मने भाँ त-भाँ तके यु संगत वचन ारा उसे बारंबार समझाया क तुम ीरामच जीक सेवाम सीताको सादर लौटा दो—इसीम भला◌इ है॥ १४ ॥ ‘य प मने यह बात उसके हतके लये ही कही थी तथा प कालसे े रत होनेके कारण रावणने मेरी बात नह मानी। ठीक उसी कार, जैसे मरणास पु ष औषध नह लेता॥ १५ ॥ ‘यही नह , उसने मुझे ब त-सी कठोर बात सुनाय और दासक भाँ त मेरा अपमान कया। इस लये म अपने ी-पु को वह छोड़कर ीरघुनाथजीक शरणम आया ँ ॥ १६ ॥ ‘वानरो! जो सम लोक को शरण देनेवाले ह, उन महा ा ीरामच जीके पास जाकर शी मेरे आगमनक सूचना दो और उनसे कहो—‘शरणाथ वभीषण सेवाम उप त आ है’॥ १७ ॥ वभीषणक यह बात सुनकर शी गामी सु ीवने तुरंत ही भगवान् ीरामके पास जाकर ल णके सामने ही कु छ आवेशके साथ इस कार कहा—॥ १८ ॥ ‘ भो! आज को◌इ वैरी, जो रा स होनेके कारण पहले हमारे श ु रावणक सेनाम स लत आ था, अब अक ात् हमारी सेनाम वेश पानेके लये आ गया है। वह मौका पाकर हम उसी तरह मार डालेगा, जैसे उ ू कौ का काम तमाम कर देता है॥ १९ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले रघुन न! अत: आपको अपने वानरसै नक पर अनु ह और श ु का न ह करनेके लये कायाकायके वचार, सेनाक मोचबंदी, नी तयु उपाय के योग तथा गु चर क नयु आ दके वषयम सतत सावधान रहना चा हये। ऐसा करनेसे ही आपका भला होगा॥ २० ॥ ‘ये रा सलोग मनमाना प धारण कर सकते ह। इनम अ धान होनेक भी श होती है। शूरवीर और मायावी तो ये होते ही ह। इस लये इनका कभी व ास नह करना चा हये॥ २१



॥ ‘स



व है यह रा सराज रावणका को◌इ गु चर हो। य द ऐसा आ तो हमलोग म घुसकर यह फू ट पैदा कर देगा, इसम संदेह नह ॥ २२ ॥ ‘अथवा यह बु मान् रा स छ पाकर हमारी व सेनाके भीतर घुसकर कभी यं ही हमलोग पर हार कर बैठेगा, इस बातक भी स ावना है॥ २३ ॥ ‘ म क , जंगली जा तय क तथा पर रागत भृ क जो सेनाएँ ह, इन सबका सं ह तो कया जा सकता है; कतु जो श ुप से मले ए ह , ऐसे सै नक का सं ह कदा प नह करना चा हये॥ २४ ॥ ‘ भो! यह भावसे तो रा स है ही, अपनेको श ुका भा◌इ भी बता रहा है। इस से यह सा ात् हमारा श ु ही यहाँ आ प ँ चा है; फर इसपर कै से व ास कया जा सकता है॥ २५ ॥ ‘रावणका



छोटा भा◌इ, जो वभीषणके नामसे स है, चार रा स के साथ आपक शरणम आया है॥ २६ ॥ ‘आप उस वभीषणको रावणका भेजा आ ही समझ। उ चत ापार करनेवाल म े रघुन न! म तो उसको कै द कर लेना ही उ चत समझता ँ ॥ २७ ॥ ‘ न ाप ीराम! मुझे तो ऐसा जान पड़ता है क यह रा स रावणके कहनेसे ही यहाँ आया है। इसक बु म कु टलता भरी है। यह मायासे छपा रहेगा तथा जब आप इसपर पूरा व ास करके इसक ओरसे न हो जायँग,े तब यह आपहीपर चोट कर बैठेगा। इसी उ े से इसका यहाँ आना आ है॥ २८ ॥ ‘यह महा ू र रावणका भा◌इ है, इस लये इसे कठोर द देकर इसके म य स हत मार डालना चा हये’॥ २९ ॥ बातचीतक कला जाननेवाले एवं रोषम भरे ए सेनाप त सु ीव वचनकु शल ीरामसे ऐसी बात कहकर चुप हो गये॥ ३० ॥ सु ीवका वह वचन सुनकर महाबली ीराम अपने नकट बैठे ए हनुमान् आ द वानर से इस कार बोले—॥ ३१ ॥



‘वानरो!



वानरराज सु ीवने रावणके छोटे भा◌इ वभीषणके वषयम जो अ यु यु बात कही ह, वे तुमलोग ने भी सुनी ह॥ ३२ ॥ ‘म क ायी उ त चाहनेवाले बु मान् एवं समथ पु षको कत ाकत के वषयम संशय उप त होनेपर सदा ही अपनी स त देनी चा हये’॥ ३३ ॥ इस कार सलाह पूछी जानेपर ीरामका य करनेक इ ा रखनेवाले वे सब वानर आल छोड़ उ ा हत हो सादर अपना-अपना मत कट करने लगे—॥ ३४ ॥ ‘रघुन न! तीन लोक म को◌इ ऐसी बात नह है, जो आपको ात न हो, तथा प हम आपके अपने ही अ ह, अत: आप म भावसे हमारा स ान बढ़ाते ए हमसे सलाह पूछते ह॥ ३५ ॥ ‘आप स ती, शूरवीर, धमा ा, सु ढ़ परा मी, जाँच-बूझकर काम करनेवाले, रणश से स और म पर व ास करके उ के हाथ म अपने-आपको स प देनेवाले ह॥ ३६ ॥ ‘इस लये आपके सभी बु मान् एवं साम शाली स चव एक-एक करके बारी-बारीसे अपने यु यु वचार कट कर’॥ ३७ ॥ वानर के ऐसा कहनेपर सबसे पहले बु मान् वानर अ द वभीषणक परी ाके लये सुझाव देते ए ीरघुनाथजीसे बोले—॥ ३८ ॥ ‘भगवन्! वभीषण श ुके पाससे आया है, इस लये उसपर अभी श ा ही करनी चा हये। उसे सहसा व ासपा नह बना लेना चा हये॥ ३९ ॥ ‘ब त-से शठतापूण वचार रखनेवाले लोग अपने मनोभावको छपाकर वचरते रहते ह और मौका पाते ही हार कर बैठते ह। इससे ब त बड़ा अनथ हो जाता है॥ ४० ॥ ‘अत: गुण-दोषका वचार करके पहले यह न य कर लेना चा हये क इस से अथक ा होगी या अनथक (यह हतका साधन करेगा या अ हतका)। य द उसम गुण ह तो उसे ीकार करे और य द दोष दखायी द तो ाग दे॥ ४१ ॥ ‘महाराज! य द उसम महान् दोष हो तो न:संदेह उसका ाग कर देना ही उ चत है। गुण क से य द उसम ब त-से स णु के होनेका पता लगे, तभी उस को अपनाना चा हये’॥ ४२ ॥



तदन र शरभने सोच- वचारकर यह साथक बात कही—‘पु ष सह! इस वभीषणके ऊपर शी ही को◌इ गु चर नयु कर दया जाय॥ ४३ ॥ ‘सू बु वाले गु चरको भेजकर उसके ारा यथाव ूपसे उसक परी ा कर ली जाय। इसके बाद यथो चत री तसे उसका सं ह करना चा हये’॥ ४४ ॥ इसके बाद परम चतुर जा वा े शा ीय बु से वचार करके ये गुणयु दोषर हत वचन कहे—॥ ‘रा सराज रावण बड़ा पापी है। उसने हमारे साथ वैर बाँध रखा है और यह वभीषण उसीके पाससे आ रहा है। वा वम न तो इसके आनेका यह समय है और न ान ही। इस लये इसके वषयम सब कारसे सश ही रहना चा हये’॥ ४६ ॥ तदन र नी त और अनी तके ाता तथा वा ैभवसे स मै ने सोच- वचारकर यह यु यु उ म बात कही—॥ ४७ ॥ ‘महाराज! यह वभीषण रावणका छोटा भा◌इ ही तो है, इस लये इससे मधुर वहारके साथ धीरे-धीरे सब बात पूछनी चा हये॥ ४८ ॥ ‘नर े ! फर इसके भावको समझकर आप बु पूवक यह ठीक-ठीक न य कर क यह दु है या नह । उसके बाद जैसा उ चत हो, वैसा करना चा हये’॥ त ात् स चव म े और स ूण शा के ानज नत सं ारसे यु हनुमा ीने ये वणमधुर, साथक, सु र और सं वचन कहे—॥ ५० ॥ ‘ भो! आप बु मान म उ म, साम शाली और व ा म े ह। य द बृह त भी भाषण द तो वे अपनेको आपसे बढ़कर व ा नह स कर सकते॥ ५१ ॥ ‘महाराज ीराम! म जो कु छ नवेदन क ँ गा, वह वाद- ववाद या तक, धा, अ धक बु म ाके अ भमान अथवा कसी कारक कामनासे नह क ँ गा। म तो कायक गु तापर रखकर जो यथाथ समझूँगा, वही बात क ँ गा॥ ५२ ॥ ‘आपके म य ने जो अथ और अनथके नणयके लये गुण-दोषक परी ा करनेका सुझाव दया है, उसम मुझे दोष दखायी देता है; क इस समय परी ा लेना कदा प स व नह है॥ ५३ ॥



‘ वभीषण आ



य देनेके यो ह या नह —इसका नणय उसे कसी कामम नयु कये बना नह हो सकता और सहसा उसे कसी कामम लगा देना भी मुझे सदोष ही तीत होता है॥ ५४ ॥ ‘आपके म य ने जो गु चर नयु करनेक बात कही है, उसका को◌इ योजन न होनेसे वैसा करनेका को◌इ यु यु कारण नह दखायी देता। (जो दूर रहता हो और जसका वृ ा ात न हो, उसीके लये गु चरक नयु क जाती है। जो सामने खड़ा है और पसे अपना वृ ा बता रहा है, उसके लये गु चर भेजनेक ा आव कता है)॥ ५५ ॥ ‘इसके सवा जो यह कहा गया है क वभीषणका इस समय यहाँ आना देश-कालके अनु प नह है। उसके वषयम भी म अपनी बु के अनुसार कु छ कहना चाहता ँ । आप सुन॥ ५६ ॥ ‘उसके यहाँ आनेका यही उ म देश और काल है, यह बात जस तरह स होती है, वैसा बता रहा ँ । वभीषण एक नीच पु षके पाससे चलकर एक े पु षके पास आया है। उसने दोन के दोष और गुण का भी ववेचन कया है। त ात् रावणम दु ता और आपम परा म देख वह रावणको छोड़कर आपके पास आ गया है। इस लये उसका यहाँ आगमन सवथा उ चत और उसक उ म बु के अनु प है॥ ५७-५८ ॥ ‘राजन्! कसी म ीके ारा जो यह कहा गया है क अप र चत पु ष ारा इससे सारी बात पूछी जायँ। उसके वषयम मेरा जाँच-बूझकर न त कया आ वचार है, जसे आपके सामने रखता ँ ॥ ५९ ॥ ‘य द को◌इ अप र चत यह पूछेगा क तुम कौन हो, कहाँसे आये हो? कस लये आये हो? इ ा द, तब को◌इ बु मान् पु ष सहसा उस पूछनेवालेपर संदेह करने लगेगा और य द उसे यह मालूम हो जायगा क सब कु छ जानते ए भी मुझसे झूठे ही पूछा जा रहा है, तब सुखके लये आये ए उस नवागत म का दय कलु षत हो जायगा (इस कार हम एक म के लाभसे व त होना पड़ेगा)॥ ६० ॥ ‘इसके सवा महाराज! कसी दूसरेके मनक बातको सहसा समझ लेना अस व है। बीच-बीचम रभेदसे आप अ ी तरह यह न य कर ल क यह साधुभावसे आया है या असाधुभावसे॥ ६१ ॥



इसक बातचीतसे भी कभी इसका दुभाव नह ल त होता। इसका मुख भी स है। इस लये मेरे मनम इसके त को◌इ संदेह नह है॥ ६२ ॥ ‘दु पु ष कभी न:श एवं च होकर सामने नह आ सकता। इसके सवा इसक वाणी भी दोषयु नह है। अत: मुझे इसके वषयम को◌इ संदेह नह है॥ ‘को◌इ अपने आकारको कतना ही न छपाये, उसके भीतरका भाव कभी छप नह सकता। बाहरका आकार पु ष के आ रक भावको बलात् कट कर देता है॥ ६४ ॥ ‘कायवे ा म े रघुन न! वभीषणका यहाँ आगमन प जो काय है, वह देश-कालके अनु प ही है। ऐसा काय य द यो पु षके ारा स ा दत हो तो अपने-आपको शी सफल बनाता है॥ ६५ ॥ ‘आपके उ ोग, रावणके म ाचार, वालीके वध और सु ीवके रा ा भषेकका समाचार जान-सुनकर रा पानेक इ ासे यह समझ-बूझकर ही यहाँ आपके पास आया है (इसके मनम यह व ास है क शरणागतव ल दयालु ीराम अव ही मेरी र ा करगे और रा भी दे दगे)। इ सब बात को म रखकर वभीषणका सं ह करना—उसे अपना लेना मुझे उ चत जान पड़ता है॥ ६६-६७ ॥ ‘बु मान म े रघुनाथ! इस कार इस रा सक सरलता और नद षताके वषयम मने यथाश नवेदन कया। इसे सुनकर आगे आप जैसा उ चत समझ, वैसा कर’॥ ६८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म स हवाँ सग पूरा आ॥ १७ ॥



अठारहवाँ सग भगवान् ीरामका शरणागतक र ाका मह



एवं अपना त बताकर वभीषणसे मलना



वायुन न हनुमा ीके मुखसे अपने मनम बैठी ◌इ बात सुनकर दुजय वीर भगवान् ीरामका च स हो गया। वे इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘ म ो! वभीषणके स म म भी कु छ कहना चाहता ँ । आप सब लोग मेरे हतसाधनम संल रहनेवाले ह। अत: मेरी इ ा है क आप भी उसे सुन ल॥ २ ॥ ‘जो म भावसे मेरे पास आ गया हो, उसे म कसी तरह ाग नह सकता। स व है उसम कु छ दोष भी ह , परंतु दोषीको आ य देना भी स ु ष के लये न त नह है (अत: वभीषणको म अव अपनाऊँ गा)’॥ ३ ॥ वानरराज सु ीवने भगवान् ीरामके इस कथनको सुनकर यं भी उसे दोहराया और उसपर वचार करके यह परम सु र बात कही—॥ ४ ॥ ‘ भो! यह दु हो या अदु , इससे ा? है तो यह नशाचर ही। फर जो पु ष ऐसे संकटम पड़े ए अपने भा◌इको छोड़ सकता है, उसका दूसरा ऐसा कौन स ी होगा, जसे वह ाग न सके ’॥ ५१/२ ॥ वानरराज सु ीवक यह बात सुनकर स परा मी ीरघुनाथजी सबक ओर देखकर कु छ मुसकराये और प व ल णवाले ल णसे इस कार बोले—॥ ‘सु म ान न! इस समय वानरराजने जैसी बात कही है, वैसी को◌इ भी पु ष शा का अ यन और गु जन क सेवा कये बना नह कह सकता॥ ८ ॥ ‘परंतु सु ीव! तुमने वभीषणम जो भा◌इके प र ाग प दोषक उ ावना क है, उस वषयम मुझे एक ऐसे अ सू अथक ती त हो रही है, जो सम राजा म देखा गया है और सभी लोग म स है (म उसीको तुम सब लोग से कहना चाहता ँ ॥ ९ ॥ ‘राजा के छ दो कारके बताये गये ह—एक तो उसी कु लम उ ए जा त-भा◌इ और दूसरे पड़ोसी देश के नवासी। ये संकटम पड़नेपर अपने वरोधी राजा या राजपु पर हार कर बैठते ह। इसी भयसे यह वभीषण यहाँ आया है (इसे भी अपने जा त-भाइय से भय है)॥ १० ॥



मनम पाप नह है, ऐसे एक कु लम उ ए भा◌इ-ब ु अपने कु टु ीजन को हतैषी मानते ह, परंतु यही सजातीय ब ु अ ा होनेपर भी ाय: राजा के लये श नीय होता है (रावण भी वभीषणको श ाक से देखने लगा है; इस लये इसका अपनी र ाके लये यहाँ आना अनु चत नह है। अत: तु इसके ऊपर भा◌इके ागका दोष नह लगाना चा हये)॥ ११ ॥ ‘तुमने श ुप ीय सै नकको अपनानेम जो यह दोष बताया है क वह अवसर देखकर हार कर बैठता है, उसके वषयम म तु यह नी तशा के अनुकूल उ र दे रहा ँ , सुनो॥ १२ ‘ जनके







कु टु ी तो ह नह (अत: हमसे ाथ-हा नक आशंका इसे नह है) और यह रा स रा पानेका अ भलाषी है (इस लये भी यह हमारा ाग नह कर सकता)। इन रा स म ब त-से लोग बड़े व ान् भी होते ह (अत: वे म होनेपर बड़े कामके स ह गे) इस लये वभीषणको अपने प म मला लेना चा हये॥ १३ ॥ ‘हमसे मल जानेपर ये वभीषण आ द न एवं स हो जायँगे। इनक जो यह शरणाग तके लये बल पुकार है, इससे मालूम होता है, रा स म एक-दूसरेसे भय बना आ है। इसी कारणसे इनम पर र फू ट होगी और ये न हो जायँगे। इस लये भी वभीषणको हण कर लेना चा हये॥ १४ ॥ ‘तात सु ीव! संसारम सब भा◌इ भरतके ही समान नह होते। बापके सब बेटे मेरे ही जैसे नह होते और सभी म तु ारे ही समान नह आ करते ह’॥ १५ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर ल णस हत महाबु मान् सु ीवने उठकर उ णाम कया और इस कार कहा—॥ १६ ॥ ‘उ चत काय करनेवाल म े रघुन न! आप उस रा सको रावणका भेजा आ ही समझ। म तो उसे कै द कर लेना ही ठीक समझता ँ ॥ १७ ॥ ‘ न ाप ीराम! यह नशाचर रावणके कहनेसे मनम कु टल वचार लेकर ही यहाँ आया है। जब हमलोग इसपर व ास करके इसक ओरसे न हो जायँग,े उस समय यह आपपर, मुझपर अथवा ल णपर भी हार कर सकता है। इस लये महाबाहो! ू र रावणके भा◌इ इस वभीषणका म य स हत वध कर देना ही उ चत है’॥ १८-१९ ॥ ‘हमलोग इसके



वचनकु शल रघुकुल तलक ीरामसे ऐसा कहकर बातचीतक कला जाननेवाले सेनाप त सु ीव मौन हो गये॥ २० ॥ सु ीवका वह वचन सुनकर और उसपर भलीभाँ त वचार करके ीरामने उन वानर शरोम णसे यह परम म लमयी बात कही—॥ २१ ॥ ‘वानरराज! वभीषण दु हो या साधु। ा यह नशाचर कसी तरह भी मेरा सू -सेसू पम भी अ हत कर सकता है?॥ २२ ॥ ‘वानरयूथपते! य द म चा ँ तो पृ ीपर जतने भी पशाच, दानव, य और रा स ह, उन सबको एक अंगु लके अ भागसे मार सकता ँ ॥ २३ ॥ ‘सुना जाता है क एक कबूतरने अपनी शरणम आये ए अपने ही श ु एक ाधका यथो चत आ त -स ार कया था और उसे नम ण दे अपने शरीरके मांसका भोजन कराया था॥ २४ ॥ ‘उस ाधने उस कबूतरक भाया कबूतरीको पकड़ लया था तो भी अपने घर आनेपर कबूतरने उसका आदर कया; फर मेरे-जैसा मनु शरणागतपर अनु ह करे, इसके लये तो कहना ही ा है?॥ २५ ॥ ‘पूवकालम क मु नके पु स वादी मह ष क ु ने एक धम वषयक गाथाका गान कया था। उसे बताता ँ , सुनो॥ २६ ॥ ‘परंतप! य द श ु भी शरणम आये और दीनभावसे हाथ जोड़कर दयाक याचना करे तो उसपर हार नह करना चा हये॥ २७ ॥ ‘श ु दु:खी हो या अ भमानी, य द वह अपने वप ीक शरणम जाय तो शु दयवाले े पु षको अपने ाण का मोह छोड़कर उसक र ा करनी चा हये॥ ‘य द वह भय, मोह अथवा कसी कामनासे ायानुसार यथाश उसक र ा नह करता तो उसके उस पाप-कमक लोकम बड़ी न ा होती है॥ २९ ॥ ‘य द शरणम आया आ पु ष संर ण न पाकर उस र कके देखते-देखते न हो जाय तो वह उसके सारे पु को अपने साथ ले जाता है॥ ३० ॥ ‘इस कार शरणागतक र ा न करनेम महान् दोष बताया गया है। शरणागतका ाग ग और सुयशक ा को मटा देता है और मनु के बल और वीयका नाश करता है॥ ३१



॥ ‘इस लये म तो मह ष क ु के उस यथाथ और उ म वचनका ही पालन क वह प रणामम धम, यश और गक ा करानेवाला है॥ ३२ ॥ ‘जो एक बार भी शरणम आकर ‘म तु



ँ ग ा;







ारा ँ ’ ऐसा कहकर मुझसे र ाक ाथना करता है, उसे म सम ा णय से अभय कर देता ँ । यह मेरा सदाके लये त है॥ ३३ ॥ ‘अत: क प े सु ीव! वह वभीषण हो या यं रावण आ गया हो। तुम उसे ले आओ। मने उसे अभयदान दे दया’॥ ३४ ॥ भगवान् ीरामका यह वचन सुनकर वानरराज सु ीवने सौहादसे भरकर उनसे कहा—॥ ३५ ॥ धम ! लोके र शरोमणे! आपने जो यह े धमक बात कही है, इसम ा आ य है? क आप महान् श शाली और स ागपर त ह॥ ३६ ॥ ‘यह मेरी अ रा ा भी वभीषणको शु समझती है। हनुमा ीने भी अनुमान और भावसे उनक भीतर-बाहर सब ओरसे भलीभाँ त परी ा कर ली ह॥ ३७ ॥ ‘अत: रघुन न! अब वभीषण शी ही यहाँ हमारे-जैसे होकर रह और हमारी म ता ा कर’॥ ३८ ॥ तदन र वानरराज सु ीवक कही ◌इ वह बात सुनकर राजा ीराम शी आगे बढ़कर वभीषणसे मले, मानो देवराज इ प राज ग ड़से मल रहे ह ॥ ३९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अठारहवाँ सग पूरा आ॥ १८ ॥



उ ीसवाँ सग वभीषणका आकाशसे उतरकर भगवान् ीरामके चरण क शरण लेना, उनके पूछनेपर रावणक श का प रचय देना और ीरामका रावण-वधक त ा करके वभीषणको ल ाके रा पर अ भ ष कर उनक स तसे समु तटपर धरना देनेके लये बैठना



इस कार ीरघुनाथजीके अभय देनेपर वनयशील महाबु मान् वभीषणने नीचे उतरनेके लये पृ ीक ओर देखा॥ १ ॥ वे अपने भ सेवक के साथ हषसे भरकर आकाशसे पृ ीपर उतर आये। उतरकर चार रा स के साथ धमा ा वभीषण ीरामच जीके चरण म गर पड़े॥ २१/२ ॥ उस समय वभीषणने ीरामसे धमानुकूल, यु यु , समयो चत और हषव क बात कही—॥ ३१/२ ॥ ‘भगवन्! म रावणका छोटा भा◌इ ँ । रावणने मेरा अपमान कया है। आप सम ा णय को शरण देनेवाले ह, इस लये मने आपक शरण ली है॥ ४१/२ ॥ ‘अपने सभी म , धन और ल ापुरीको म छोड़ आया ँ । अब मेरा रा , जीवन और सुख सब आपके ही अधीन है’॥ ५१/२ ॥ वभीषणके ये वचन सुनकर ीरामने मधुर वाणी ारा उ सा ना दी और ने से मानो उ पी जायँग,े इस कार ेमपूवक उनक ओर देखते ए कहा—॥ ६१/२ ॥ ‘ वभीषण! तुम मुझे ठीक-ठीक रा स का बलाबल बताओ।’ अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामके ऐसा कहनेपर रा स वभीषणने रावणके स ूण बलका प रचय देना आर कया—॥ ७-८ ॥ ‘राजकु मार! ाजीके वरदानके भावसे दशमुख रावण (के वल मनु को छोड़कर) ग व, नाग और प ी आ द सभी ा णय के लये अव है॥ ९ ॥ ‘रावणसे छोटा और मुझसे बड़ा जो मेरा भा◌इ कु कण है, वह महातेज ी और परा मी है। यु म वह इ के समान बलशाली है॥ १० ॥ ‘ ीराम! रावणके सेनाप तका नाम ह है। शायद आपने भी उसका नाम सुना होगा। उसने कै लासपर घ टत ए यु म कु बेरके सेनाप त म णभ को भी परा जत कर दया था॥ ११



॥ ‘रावणका पु



जो इ जत् है, वह गोहके चमड़ेके बने ए द ाने पहनकर अव कवच धारण करके हाथम धनुष ले जब यु म खड़ा होता है, उस समय अ हो जाता है॥ १२ ॥ ‘रघुन न! ीमान् इ ज े अ देवको तृ करके ऐसी श ा कर ली है क वह वशाल ूहसे यु सं ामम अ होकर श ु पर हार करता है॥ १३ ॥ ‘महोदर, महापा और अक न—ये तीन रा स रावणके सेनाप त ह और यु म लोकपाल के समान परा म कट करते ह॥ १४ ॥ ‘ल ाम र और मांसका भोजन करनेवाले और इ ानुसार प धारण करनेम समथ जो दस को ट सह (एक खरब) रा स नवास करते ह, उ साथ लेकर राजा रावणने लोकपाल से यु कया था। उस समय देवता स हत वे सब लोकपाल दुरा ा रावणसे परा जत हो भाग खड़े ए’॥ १५-१६ ॥ वभीषणक यह बात सुनकर रघुकुल तलक ीरामने मन-ही-मन उस सबपर बारंबार वचार कया और इस कार कहा—॥ १७ ॥ ‘ वभीषण! तुमने रावणके यु वषयक जन ज न परा म का वणन कया है, उ म अ ी तरह जानता ँ ॥ १८ ॥ ‘परंतु सुनो! म सच कहता ँ क ह और पु के स हत रावणका वध करके म तु ल ाका राजा बनाऊँ गा॥ १९ ॥ ‘रावण रसातल या पातालम वेश कर जाय अथवा पतामह ाजीके पास चला जाय तो भी वह अब मेरे हाथसे जी वत नह छू ट सके गा॥ २० ॥ ‘म अपने तीन भाइय क सौग खाकर कहता ँ क यु म पु , भृ जन और ब -ु बा व स हत रावणका वध कये बना अयो ापुरीम वेश नह क ँ गा’॥ २१ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामच जीके ये वचन सुनकर धमा ा वभीषणने म क कु ाकर उ णाम कया और फर इस कार कहना आर कया—॥ २२ ॥ ‘ भो! रा स के संहारम और ल ापुरीपर आ मण करके उसे जीतनेम म आपक यथाश सहायता क ँ गा तथा ाण क बाजी लगाकर यु के लये रावणक सेनाम भी वेश क ँ गा’॥ २३ ॥



वभीषणके ऐसा कहनेपर भगवान् ीरामने उ दयसे लगा लया और स होकर ल णसे कहा—‘दूसर को मान देनेवाले सु म ान न! तुम समु से जल ले आओ और उसके ारा इन परम बु मान् रा सराज वभीषणका ल ाके रा पर शी ही अ भषेक कर दो। मेरे स होनेपर इ यह लाभ मलना ही चा हये’॥ २४-२५ ॥ उनके ऐसा कहनेपर सु म ाकु मार ल णने मु -मु वानर के बीच महाराज ीरामके आदेशसे वभीषणका रा स के राजाके पदपर अ भषेक कर दया॥ २६ ॥ भगवान् ीरामका यह ता ा लक साद (अनु ह) देखकर सब वानर हष न करने और महा ा ीरामको साधुवाद देने लगे॥ २७ ॥ त ात् हनुमान् और सु ीवने वभीषणसे पूछा— ‘रा सराज! हम सब लोग इस अ ो समु को महाबली वानर क सेना के साथ कस कार पार कर सकगे? ‘ जस उपायसे हम सब लोग सेनास हत नद और न दय के ामी व णालय समु के पार जा सक, वह बताओ’॥ २९ ॥ उनके इस कार पूछनेपर धमा ा वभीषणने य उ र दया—‘रघुवंशी राजा ीरामको समु क शरण लेनी चा हये॥ ३० ॥ ‘इस अपार महासागरको राजा सगरने खुदवाया था। ीरामच जी सगरके वंशज ह। इस लये समु को इनका काम अव करना चा हये’॥ ३१ ॥ व ान् रा स वभीषणके ऐसा कहनेपर सु ीव उस ानपर आये, जहाँ ल णस हत ीराम व मान थे॥ ३२ ॥ वहाँ वशाल ीवावाले सु ीवने समु पर धरना देनेके वषयम जो वभीषणका शुभ वचन था, उसे कहना आर कया॥ ३३ ॥ भगवान् ीराम भावसे ही धमशील थे, अत: उ भी वभीषणक यह बात अ ी लगी। वे महातेज ी रघुनाथजी ल णस हत कायद वानरराज सु ीवका स ार करते ए उनसे मुसकराकर बोले—॥ ३४१/२ ॥ ‘ल ण! वभीषणक यह स त मुझे भी अ ी लगती है; परंतु सु ीव राजनी तके बड़े प त ह और तुम भी समयो चत सलाह देनेम सदा ही कु शल हो। इस लये तुम दोन ुत कायपर अ ी तरह वचार करके जो ठीक जान पड़े, वह बताओ’॥ ३५-३६ ॥



भगवान् ीरामके ऐसा कहनेपर वे दोन वीर सु ीव और ल ण उनसे आदरपूवक बोले —॥ ३७ ॥ पु ष सह रघुन न! इस समय वभीषणने जो सुखदायक बात कही है, वह हम दोन को नह अ ी लगेगी?॥ ३८ ॥ ‘इस भयंकर समु म पुल बाँधे बना इ स हत देवता और असुर भी इधरसे ल ापुरीम नह प ँ च सकते॥ ३९ ॥ ‘इस लये आप शूरवीर वभीषणके यथाथ वचनके अनुसार ही काय कर। अब अ धक वल करना ठीक नह है। इस समु से यह अनुरोध कया जाय क वह हमारी सहायता करे, जससे हम सेनाके साथ रावणपा लत ल ापुरीम प ँ च सक’॥ ४० ॥ उन दोन के ऐसा कहनेपर ीरामच जी उस समय समु के तटपर कु श बछाकर उसके ऊपर उसी तरह बैठे, जैसे वेदीपर अ देव त त होते ह॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ १९ ॥



बीसवाँ सग शादलक ू े कहनेसे रावणका शुकको दत ू बनाकर सु ीवके पास संदेश भेजना, वहाँ वानर ारा उसक ददु शा, ीरामक कृपासे उसका संकटसे छू टना और सु ीवका रावणके लये उ र देना



इसी बीचम दुरा ा रा सराज रावणके गु चर परा मी रा स शादूलने वहाँ आकर सागर-तटपर छावनी डाले पड़ी ◌इ सु ीव ारा सुर त वानरी सेनाको देखा। सब ओर शा भावसे त ◌इ उस वशाल सेनाको देखकर वह रा स लौट गया और ज ीसे ल ापुरीम जाकर राजा रावणसे य बोला—॥ १-२ १/२ ॥ ‘महाराज! ल ाक ओर वानर और भालु का एक वाह-सा बढ़ा चला आ रहा है। वह दूसरे समु के समान अगाध और असीम है॥ ३ १/२ ॥ ‘राजा दशरथके ये पु दोन भा◌इ ीराम और ल ण बड़े ही पवान् और े वीर ह। वे सीताका उ ार करनेके लये आ रहे ह॥ ४ १/२ ॥ ‘महातेज ी महाराज! ये दोन रघुवंशी ब ु भी इस समय समु -तटपर ही आकर ठहरे ए ह। वानर क वह सेना सब ओरसे दस योजनतकके खाली ानको घेरकर वहाँ ठहरी ◌इ है। यह बलकु ल ठीक बात है। आप शी ही इस वषयम वशेष जानकारी ा कर॥ ५-६ ॥



सस ाट्! आपके दूत शी सारी बात का पता लगा लेनेके यो ह, अत: उ भेज। त ात् जैसा उ चत समझ, वैसा कर—चाहे उ सीताको लौटा द, चाहे सु ीवसे मीठी-मीठी बात करके उ अपने प म मला ल अथवा सु ीव और ीरामम फू ट डलवा द’॥ ७ ॥ शादूलक बात सुनकर रा सराज रावण सहसा हो उठा और अपने कत का न य करके अथवे ा म े शुक नामक रा ससे यह उ म वचन बोला—॥ ‘दूत! तुम मेरे कहनेसे शी ही वानरराज सु ीवके पास जाओ और मधुर एवं उ म वाणी ारा नभ कतापूवक उनसे मेरा यह संदेश कहो—॥ ९ ॥ वानरराज! आप वानर के महाराजके कु लम उ ए ह। आदरणीय ऋ रजाके पु ह और यं भी बड़े बलवान् ह। म आपको अपने भा◌इके समान समझता ँ । य द मुझसे ‘रा



आपका को◌इ लाभ नह आ है तो मेरे ारा आपक को◌इ हा न भी नह ◌इ है॥ १० ॥ सु ीव! य द म बु मान् राजपु रामक ीको हर लाया ँ तो इसम आपक ा हा न है? अत: आप क ाको लौट जाइये॥ ११ ॥ हमारी इस ल ाम वानरलोग कसी तरह भी नह प ँ च सकते। यहाँ देवता और ग व का भी वेश होना अस व है; फर मनु और वानर क तो बात ही ा है?’’॥ १२ ॥ रा सराज रावणके इस कार संदेश देनेपर उस समय नशाचर शुक तोता नामक प ीका प धारण करके तुरंत आकाशम उड़ चला॥ १३ ॥ समु के ऊपर-ही-ऊपर ब त दूरका रा ा तय करके वह सु ीवके पास जा प ँ चा और आकाशम ही ठहरकर उसने दुरा ा रावणक आ ाके अनुसार वे सारी बात सु ीवसे कह ॥ १४ १/ ॥ २



जस समय वह संदेश सुना रहा था, उसी समय वानर उछलकर तुरंत उसके पास जा प ँ चे। वे चाहते थे क हम शी ही इसक पाँख नोच ल और इसे घूस से ही मार डाल॥१५ १/२ ॥



इस न यके साथ सारे वानर ने उस नशाचरको बलपूवक पकड़ लया और उसे कै द करके तुरंत आकाशसे भूतलपर उतारा॥ १६ १/२ ॥ इस कार वानर के पीड़ा देनेपर शुक पुकार उठा—‘रघुन न! राजालोग दूत का वध नह करते ह, अत: आप इन वानर को भलीभाँ त रो कये। जो ामीके अ भ ायको छोड़कर अपना मत कट करने लगता है, वह दूत बना कही ◌इ बात कहनेका अपराधी है; अत: वही वधके यो होता है’॥ १७-१८ ॥ शुकके वचन और वलापको सुनकर भगवान् ीरामने उसे पीटनेवाले मुख वानर को पुकारकर कहा—‘इसे मत मारो’॥ १९ ॥ उस समयतक शुकके पंख का भार कु छ हलका हो गया था; ( क वानर ने उ न च डाला था) फर उनके अभय देनेपर शुक आकाशम खड़ा हो गया और पुन: बोला—॥ २० ॥ ‘महान् बल और परा मसे यु श शाली सु ीव! सम लोक को लानेवाले रावणको मुझे आपक ओरसे ा उ र देना चा हये’॥ २१ ॥



शुकके इस कार पूछनेपर उस समय क प शरोम ण महाबली उदारचेता वानरराज सु ीवने उस नशाचरके दूतसे यह एवं न ल बात कही—॥ २२ ॥ ‘(दूत! तुम रावणसे इस कार कहना—)वधके यो दशानन! तुम न तो मेरे म हो, न दयाके पा हो, न मेरे उपकारी हो और न मेरे य य मसे ही को◌इ हो। भगवान् ीरामके श ु हो, इस कारण अपने सगे-स य स हत तुम वालीक भाँ त ही मेरे लये व हो॥ २३ ॥ ‘ नशाचरराज! म पु , ब ु और कु टु ीजन -स हत तु ारा संहार क ँ गा और बड़ी भारी सेनाके साथ आकर सम ल ापुरीको भ कर डालूँगा॥ २४ ॥ ‘मूख रावण! य द इ आ द सम देवता तु ारी र ा कर तो भी ीरघुनाथजीके हाथसे अब तुम जी वत नह छू ट सकोगे। तुम अ धान हो जाओ, आकाशम चले जाओ, पातालम घुस जाओ अथवा महादेवजीके चरणार व का आ य लो; फर भी अपने भाइय स हत तुम अव ीरामच जीके हाथ से मारे जाओगे॥ २५ ॥ ‘तीन लोक म मुझे को◌इ भी पशाच, रा स, ग व या असुर ऐसा नह दखायी देता, जो तु ारी र ा कर सके ॥ २६ ॥ ‘ चरकालके बूढ़े गृ राज जटायुको तुमने मारा? य द तुमम बड़ा बल था तो ीराम और ल णके पाससे तुमने वशाललोचना सीताका अपहरण नह कया? तुम सीताजीको ले जाकर अपने सरपर आयी ◌इ वप को नह समझ रहे हो?॥ २७ ॥ ‘रघुकुल तलक ीराम महाबली, महा ा और देवता के लये भी दुजय ह, कतु तुम उ अभीतक समझ नह सके । (तुमने छपकर सीताका हरण कया है, परंत)ु वे (सामने आकर) तु ारे ाण का अपहरण करगे’॥ २८ ॥ त ात् वानर शरोम ण वा लकु मार अ दने कहा—‘महाराज! मुझे तो यह दूत नह , को◌इ गु चर तीत होता है। इसने यहाँ खड़े-खड़े आपक सारी सेनाका माप-तौल कर लया है—पूरा-पूरा अंदाजा लगा लया है। अत: इसे पकड़ लया जाय, ल ाको न जाने पाये। मुझे यही ठीक जान पड़ता है’॥ २९-३० ॥ फर तो राजा सु ीवके आदेशसे वानर ने उछलकर उसे पकड़ लया और बाँध दया। वह बेचारा अनाथक भाँ त वलाप करता रहा॥ ३१ ॥



उन च वानर से पी ड़त हो शुकने दशरथन न महा ा ीरामको बड़े जोरसे पुकारा और कहा—‘ भो! बलपूवक मेरी पाँख नोची और आँ ख फोड़ी जा रही ह। य द आज मने ाण का ाग कया तो जस रातम मेरा ज आ था और जस रातको म म ँ गा, ज और मरणके इस म वत कालम, मने जो भी पाप कया है, वह सब आपको ही लगेगा’॥ ३२-३३ ॥



उस समय उसका वह वलाप सुनकर ीरामने उसका वध नह होने दया। उ ने वानर से कहा— ‘छोड़ दो। यह दूत होकर ही आया था’॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बीसवाँ सग पूरा आ॥ २०॥







सवाँ सग



ीरामका समु के तटपर कुशा बछाकर तीन दन तक धरना देनेपर भी समु के दशन न देनेसे कु पत हो उसे बाण मारकर व ु कर देना



तदन र ीरघुनाथजी समु के तटपर कु शा बछा महासागरके सम हाथ जोड़ पूवा भमुख हो वहाँ लेट गये॥ १ ॥ उस समय श ुसूदन ीरामने सपके शरीरक भाँ त कोमल और वनवासके पहले सोनेके बने ए सु र आभूषण से सदा वभू षत रहनेवाली अपनी एक (दा हनी) बाँहको त कया बना रखा था॥ २ ॥ अयो ाम रहते समय मातृको टक अनेक उ म ना रयाँ (धाय) म ण और सुवणके बने ए के यूर तथा मोतीके े आभूषण से वभू षत अपने कर-कमल ारा नहलाने-धुलाने आ दके समय अनेक बार ीरामके उस बाँहको सहलाती और दबाती थ ॥ ३ ॥ पहले च न और अगु से उस बाँहक सेवा होती थी। ात:कालके सूयक -सी का वाले लाल च न उसक शोभा बढ़ाते थे॥ ४ ॥ सीताहरणसे पहले शयनकालम सीताका सर उस बाँहक शोभा बढ़ाता था और ेत श ापर त एवं लाल च नसे च चत ◌इ वह बाँह ग ाजलम नवास करनेवाले त कके * शरीरक भाँ त सुशो भत होती थी॥ ५ ॥ यु लम जूएके समान वह वशाल भुजा श ु का शोक बढ़ानेवाली और सु द को दीघकालतक आन त करनेवाली थी। समु पय अख भूम लक र ाका भार उनक उसी भुजापर त त था॥ ६ ॥ बाय ओरको बारंबार बाण चलानेके कारण ाके आघातसे जसक चापर रगड़ पड़ गयी थी, जो वशाल प रघके समान सु ढ़ एवं ब ल थी तथा जसके ारा उ ने सह गौ का दान कया था, उस वशाल दा हनी भुजाका त कया लगाकर उदारता आ द गुण से यु महाबा ीराम ‘आज या तो म समु के पार जाऊँ गा या मेरे ारा समु का संहार होगा’ ऐसा न य करके मौन हो मन, वाणी और शरीरको संयमम रखकर महासागरको अनुकूल करनेके उ े से व धपूवक धरना देते ए उस कु शासनपर सो गये॥ ७—९ ॥



कु श बछी ◌इ भू मपर सोकर नयमसे असावधान न होते ए ीरामक वहाँ तीन रात तीत हो गय ॥ इस कार उस समय वहाँ तीन रात लेटे रहकर नी तके ाता, धमव ल ीरामच जी स रता के ामी समु क उपासना करते रहे; परंतु नयमपूवक रहते ए ीरामके ारा यथो चत पूजा और स ार पाकर भी उस म म त महासागरने उ अपने आ धदै वक पका दशन नह कराया—वह उनके सम कट नह आ॥ ११-१२ ॥ तब अ णने ा वाले भगवान् ीराम समु पर कु पत हो उठे और पास ही खड़े ए शुभल णयु ल णसे इस कार बोले—॥ १३ ॥ ‘समु को अपने ऊपर बड़ा अह ार है, जससे वह यं मेरे सामने कट नह हो रहा है। शा , मा, सरलता और मधुर भाषण—ये जो स ु ष के गुण ह, इनका गुणहीन के त योग करनेपर यही प रणाम होता है क वे उस गुणवान् पु षको भी असमथ समझ लेते ह॥ १४ १/२ ॥ ‘जो अपनी शंसा करनेवाला, दु , धृ , सव धावा करनेवाला और अ े -बुरे सभी लोग पर कठोर द का योग करनेवाला होता है, उस मनु का सब लोग स ार करते ह॥ १५ १/ ॥ २



‘ल



ण! सामनी त (शा )-के ारा इस लोकम न तो क त ा क जा सकती है, न यशका सार हो सकता है और न सं ामम वजय ही पायी जा सकती है॥ ‘सु म ान न! आज मेरे बाण से ख -ख हो मगर और म सब ओर उतराकर बहने लगगे और उनक लाश से इस मकरालय (समु )-का जल आ ा दत हो जायगा। तुम यह आज अपनी आँ ख देख लो॥ १७ १/२ ॥ ‘ल ण! तुम देखो क म यहाँ जलम रहनेवाले सप के शरीर, म के वशाल कलेवर और जल-ह य के शु -द के कस तरह टुकड़े-टुकड़े कर डालता ँ ॥ १८ १/२ ॥ ‘आज महान् यु ठानकर श और सी पय के समुदाय तथा म और मगर स हत समु को म अभी सुखाये देता ँ ॥ १९ १/२ ॥ ‘मगर का नवासभूत यह समु मुझे मासे यु देख असमथ समझने लगा है। ऐसे मूख के त क गयी माको ध ार है॥ २० १/२ ॥



‘सु म ान है, इस लये



न! सामनी तका आ य लेनेसे यह समु मेरे सामने अपना प नह कट कर रहा धनुष तथा वषधर सप के समान भयंकर बाण ले आओ। म समु को सुखा डालूँगा; फर वानरलोग पैदल ही ल ापुरीको चल॥ २१-२२ ॥ ‘य प समु को अ ो कहा गया है; फर भी आज कु पत होकर म इसे व ु कर दूँगा। इसम सह तर उठती रहती ह; फर भी यह सदा अपने तटक मयादा (सीमा) म ही रहता है। कतु अपने बाण से मारकर म इसक मयादा न कर दूँगा। बड़े-बड़े दानव से भरे ए इस महासागरम हलचल मचा दूँगा—तूफान ला दूँगा’॥ २३-२४ ॥ य कहकर दुधष वीर भगवान् ीरामने हाथम धनुष ले लया। वे ोधसे आँ ख फाड़फाड़कर देखने लगे और लया के समान लत हो उठे ॥ २५ ॥ उ ने अपने भयंकर धनुषको धीरेसे दबाकर उसपर ा चढ़ा दी और उसक ट ारसे सारे जग ो क त करते ए बड़े भयंकर बाण छोड़े, मानो इ ने ब त-से व का हार कया हो॥ २६ ॥ तेजसे लत होते ए वे महान् वेगशाली े बाण समु के जलम घुस गये। वहाँ रहनेवाले सप भयसे थरा उठे ॥ २७ ॥ ‘म और मगर स हत महासागरके जलका महान् वेग सहसा अ भयंकर हो गया। वहाँ तूफानका कोलाहल छा गया॥ २८ ॥ बड़ी-बड़ी तर -माला से सारा समु ा हो उठा। श और सी पयाँ पानीके ऊपर छा गय । वहाँ धुआँ उठने लगा और सारे महासागरम सहसा बड़ी-बड़ी लहर च र काटने लग ॥ २९ ॥ चमक ले फन और दी शाली ने वाले सप थत हो उठे तथा पातालम रहनेवाले महापरा मी दानव भी ाकु ल हो गये॥ ३० ॥ स ुराजक सह लहर जो व ाचल और म राचलके समान वशाल एवं व ृत थ , नाक और मकर को साथ लये ऊपरको उठने लग ॥ ३१ ॥ सागरक उ ाल तर -मालाएँ झूमने और च र काटने लग । वहाँ नवास करनेवाले नाग और रा स घबरा गये। बड़े-बड़े ाह ऊपरको उछलने लगे तथा व णके नवासभूत उस समु म सब ओर भारी कोलाहल मच गया॥ ३२ ॥



तदन र ीरघुनाथजी रोषसे लंबी साँस लेते ए अपने भयंकर वेगशाली अनुपम धनुषको पुन: ख चने लगे। यह देख सु म ाकु मार ल ण उछलकर उनके पास जा प ँ चे और ‘बस, बस, अब नह , अब नह ’ ऐसा कहते ए उ ने उनका धनुष पकड़ लया॥ ३३ ॥ ( फर वे बोले—)‘भैया! आप वीर- शरोम ण ह। इस समु को न कये बना भी आपका काय स हो जायगा। आप-जैसे महापु ष ोधके अधीन नह होते ह। अब आप सुदीघकालतक उपयोगम लाये जानेवाले कसी अ े उपायपर डाल—को◌इ दूसरी उ म यु सोच’॥ ३४ ॥ इसी समय अ र म अ पसे त मह षय और देव षय ने भी ‘हाय! यह तो बड़े क क बात है’ ऐसा कहते ए ‘अब नह , अब नह ’ कहकर बड़े जोरसे कोलाहल कया॥ ३५ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म इ सवाँ सग पूरा आ॥ २१ ॥ *त



कनागका रंग लाल माना गया है। (दे खये महाभारत, आ दपव ४४। २-३)



बा◌इसवाँ सग समु क सलाहके अनुसार नलके ारा सागरपर सौ योजन लंबे पुलका नमाण तथा उसके ारा ीराम आ दस हत वानरसेनाका उस पार प ँ चकर पड़ाव डालना



तब रघुकुल तलक ीरामने समु से कठोर श म कहा—‘महासागर! आज म पातालस हत तुझे सुखा डालूँगा’॥ १ ॥ ‘सागर! मेरे बाण से तु ारी सारी जलरा श द हो जायगी, तू सूख जायगा और तेरे भीतर रहनेवाले सब जीव न हो जायँगे। उस दशाम तेरे यहाँ जलके ानम वशाल बालुकारा श पैदा हो जायगी॥ २ ॥ ‘समु ! मेरे धनुष ारा क गयी बाण-वषासे जब तेरी ऐसी दशा हो जायगी, तब वानरलोग पैदल ही चलकर तेरे उस पार प ँ च जायँगे॥ ३ ॥ ‘दानव के नवास ान! तू के वल चार ओरसे बहकर आयी ◌इ जलरा शका सं ह करता है। तुझे मेरे बल और परा मका पता नह है। कतु याद रख, (इस उपे ाके कारण) तुझे मुझसे भारी संताप ा होगा’॥ ४ ॥ य कहकर महाबली ीरामने एक द के समान भयंकर बाणको ा से अ भम त करके अपने े धनुषपर चढ़ाकर ख चा॥ ५ ॥ ीरघुनाथजीके ारा सहसा उस धनुषके ख चे जाते ही पृ ी और आकाश मानो फटने लगे और पवत डगमगा उठे ॥ ६ ॥ सारे संसारम अ कार छा गया। कसीको दशा का ान न रहा। स रता और सरोवर म त ाल हलचल पैदा हो गयी॥ ७ ॥ च मा और सूय न के साथ तयक् -ग तसे चलने लगे। सूयक करण से का शत होनेपर भी आकाशम अ कार छा गया॥ ८ ॥ उस समय आकाशम सैकड़ उ ाएँ लत होकर उसे का शत करने लग तथा अ र से अनुपम एवं भारी गड़गड़ाहटके साथ व पात होने लगे॥ ९ ॥ प रवह आ द वायुभेद का समूह बड़े वेगसे बहने लगा। वह मेघ क घटाको उड़ाता आ बारंबार वृ को तोड़ने, बड़े-बड़े पवत से टकराने और उनके शखर को ख त करके गराने



लगा॥ १० १/२ ॥ आकाशम महान् वेगशाली वशाल व भारी गड़गड़ाहटके साथ टकराकर उस समय वै ुत अ क वषा करने लगे। जो ाणी दखायी दे रहे थे और जो नह दखायी देते थे, वे सब बजलीक कड़कके समान भयंकर श करने लगे॥ ११-१२ १/२ ॥ उनमसे कतने ही अ भभूत होकर धराशायी हो गये। कतने ही भयभीत और उ हो उठे । को◌इ थासे ाकु ल हो गये और कतने ही भयके मारे जडवत् हो गये॥ १३ १/२ ॥ समु अपने भीतर रहनेवाले ा णय , तर , सप और रा स स हत सहसा भयानक वेगसे यु हो गया और लयकालके बना ही ती ग तसे अपनी मयादा लाँघकर एक-एक योजन आगे बढ़ गया॥ १४-१५ ॥ इस कार नद और न दय के ामी उस उ त समु के मयादा लाँघकर बढ़ जानेपर भी श ुसूदन ीरामच जी अपने ानसे पीछे नह हटे॥ १६ ॥ तब समु के बीचसे सागर यं मू तमान् होकर कट आ, मानो महाशैल मे पवतके अ भूत उदयाचलसे सूयदेव उ दत ए ह ॥ १७ ॥ चमक ले मुखवाले सप के साथ समु का दशन आ। उसका वण स्न वैदयू म णके समान ाम था। उसने जा ूनद नामक सुवणके बने ए आभूषण पहन रखे थे॥ १८ ॥ लाल रंगके फू ल क माला तथा लाल ही व धारण कये थे। उसके ने फु कमलदलके समान सु र थे। उसने सरपर एक द पु माला धारण कर रखी थी, जो सब कारके फू ल से बनायी गयी थी॥ सुवण और तपे ए का नके आभूषण उसक शोभा बढ़ाते थे। वह अपने ही भीतर उ ए र के उ म आभूषण से वभू षत था॥ २० ॥ इसी लये नाना कारके धातु से अलंकृत हमवान् पवतके समान शोभा पाता था। वह अपने वशाल व : लपर कौ ुभ म णके सहोदर (स श) एक ेत भासे यु मु र धारण कये ए था, जो मो तय क इकहरी मालाके म भागम का शत हो रहा था॥ २१ १/२ ॥



च ल तर उसे घेरे ए थ । मेघमाला और वायुसे वह ा था तथा ग ा और स ु आ द न दयाँ उसे सब ओरसे घेरकर खड़ी थ ॥ २२ १/२ ॥



उसके भीतर बड़े-बड़े ाह उद् ा हो रहे थे, नाग और रा स घबराये ए थे। देवता के समान सु र प धारण करके आयी ◌इ व भ पवाली न दय के साथ श शाली नदीप त समु ने नकट आकर पहले धनुधर ीरघुनाथजीको स ो धत कया और फर हाथ जोड़कर कहा—॥ २३—२५ ॥ ‘सौ रघुन न! पृ ी, वायु, आकाश, जल और तेज—ये सवदा अपने भावम त रहते ह। अपने सनातन मागको कभी नह छोड़ते—सदा उसीके आ त रहते ह॥ २६ ॥ ‘मेरा भी यह भाव ही है जो म अगाध और अथाह ँ —को◌इ मेरे पार नह जा सकता। य द मेरी थाह मल जाय तो यह वकार—मेरे भावका त म ही होगा। इस लये म आपसे पार होनेका यह उपाय बताता ँ ॥ २७ ॥ ‘राजकु मार! म मगर और नाक आ दसे भरे ए अपने जलको कसी कामनासे, लोभसे अथवा भयसे कसी तरह त नह होने दूँगा॥ २८ ॥ ‘ ीराम! म ऐसा उपाय बताऊँ गा, जससे आप मेरे पार चले जायँगे, ाह वानर को क नह दगे, सारी सेना पार उतर जायगी और मुझे भी खेद नह होगा। म आसानीसे सब कु छ सह लूँगा। वानर के पार जानेके लये जस कार पुल बन जाय, वैसा य म क ँ गा’॥ २९ ॥ तब ीरामच जीने उससे कहा—‘व णालय! मेरी बात सुनो। मेरा यह वशाल बाण अमोघ है। बताओ, इसे कस ानपर छोड़ा जाय’॥ ३० ॥ ीरामच जीका यह वचन सुनकर और उस महान् बाणको देखकर महातेज ी महासागरने रघुनाथजीसे कहा—॥ ३१ ॥ ‘ भो! जैसे जग आप सव व ात एवं पु ा ा ह, उसी कार मेरे उ रक ओर मु कु नामसे व ात एक बड़ा ही प व देश है॥ ३२ ॥ ‘वहाँ आभीर आ द जा तय के ब त-से मनु नवास करते ह, जनके प और कम बड़े ही भयानक ह। वे सब-के -सब पापी और लुटेरे ह। वे लोग मेरा जल पीते ह॥ ३३ ॥ ‘उन पापाचा रय का श मुझे ा होता रहता है, इस पापको म नह सह सकता। ीराम! आप अपने इस उ म बाणको वह सफल क जये’॥ ३४ ॥ महामना समु का यह वचन सुनकर सागरके दखाये अनुसार उसी देशम ीरामच जीने वह अ लत बाण छोड़ दया॥ ३५ ॥



वह व और अश नके समान तेज ी बाण जस ानपर गरा था, वह ान उस बाणके कारण ही पृ ीम दुगम म भू मके नामसे स आ॥ ३६ ॥ उस बाणसे पी ड़त होकर उस समय वसुधा आतनाद कर उठी। उसक चोटसे जो छेद आ, उसम होकर रसातलका जल ऊपरको उछलने लगा॥ ३७ ॥ वह छ कु एँ के समान हो गया और णके नामसे स आ। उस कु एँ से सदा नकलता आ जल समु के जलक भाँ त ही दखायी देता है॥ ३८ ॥ उस समय वहाँ भू मके वदीण होनेका भयंकर श सुनायी पड़ा। उस बाणको गराकर वहाँके भूतलक कु म (तालाब-पोखरे आ दम) वतमान जलको ीरामने सुखा दया॥ ३९ ॥ तबसे वह ान तीन लोक म म का ारके नामसे ही व ात हो गया। जो पहले समु का कु देश था, उसे सुखाकर देवोपम परा मी व ान् दशरथन न ीरामने उस म भू मको वरदान दया॥ ४०-४१ ॥ ‘यह म भू म पशु के लये हतकारी होगी। यहाँ रोग कम ह गे। यह भू म फल, मूल और रस से स होगी। यहाँ घी आ द चकने पदाथ अ धक सुलभ ह गे, दूधक भी ब तायत होगी। यहाँ सुग छायी रहेगी और अनेक कारक ओष धयाँ उ ह गी’॥ ४२ ॥ इस कार भगवान् ीरामके वरदानसे वह म देश इस तरहके ब सं क गुण से स हो सबके लये म लकारी माग बन गया॥ ४३ ॥ उस कु ानके द हो जानेपर स रता के ामी समु ने स ूण शा के ाता ीरघुनाथजीसे कहा—॥ ४४ ॥ ‘सौ ! आपक सेनाम जो यह नल नामक का मान् वानर है, सा ात् व कमाका पु है। इसे इसके पताने यह वर दया है क ‘तुम मेरे ही समान सम श कलाम नपुण होओगे।’ भो! आप भी तो इस व के ा व कमा ह। इस नलके दयम आपके त बड़ा ेम है॥ ४५ ॥ ‘यह महान् उ ाही वानर अपने पताके समान ही श कमम समथ है, अत: यह मेरे ऊपर पुलका नमाण करे। म उस पुलको धारण क ँ गा’॥ ४६ ॥ य कहकर समु अ हो गया। तब वानर े नल उठकर महाबली भगवान् ीरामसे बोला—॥ ४७ ॥



भो! म पताक दी ◌इ श को पाकर इस व ृत समु पर सेतुका नमाण क ँ गा। महासागरने ठीक कहा है॥ ४८ ॥ ‘संसारम पु षके लये अकृ त के त द नी तका योग ही सबसे बड़ा अथसाधक है, ऐसा मेरा व ास है। वैसे लोग के त मा, सा ना और दाननी तके योगको ध ार है॥ ४९ ॥ ‘इस भयानक समु को राजा सगरके पु ने ही बढ़ाया है। फर भी इसने कृ त तासे नह , द के भयसे ही सेतुकम देखनेक इ ा मनम लाकर ीरघुनाथजीको अपनी थाह दी है॥ ५० ‘



॥ ‘म



राचलपर व कमाजीने मेरी माताको यह वर दया था क ‘दे व! तु ारे गभसे मेरे ही समान पु होगा’॥ ५१ ॥ ‘इस कार म व कमाका औरस पु ँ और श कमम उ के समान ँ । इस समु ने आज मुझे इन सब बात का रण दला दया है। महासागरने जो कु छ कहा है, ठीक है। म बना पूछे आपलोग से अपने गुण को नह बता सकता था, इसी लये अबतक चुप था॥ ५२ ॥ ‘म महासागरपर पुल बाँधनेम समथ ँ , अत: सब वानर आज ही पुल बाँधनेका काय आर कर द’॥ तब भगवान् ीरामके भेजनेसे लाख बड़े-बड़े वानर हष और उ ाहम भरकर सब ओर उछलते ए गये और बड़े-बड़े जंगल म घुस गये॥ ५४ ॥ वे पवतके समान वशालकाय वानर शरोम ण पवत शखर और वृ को तोड़ देते और उ समु तक ख च लाते थे॥ ५५ ॥ वे साल, अ कण, धव, बाँस, कु टज, अजुन, ताल, तलक, त नश, बेल, छतवन, खले ए कनेर, आम और अशोक आ द वृ से समु को पाटने लगे॥ ५६-५७ ॥ वे े वानर वहाँके वृ को जड़से उखाड़ लाते या जड़के ऊपरसे भी तोड़ लाते थे। इ जके समान ऊँ चे-ऊँ चे वृ को उठाये लये चले आते थे॥ ५८ ॥ ताड़ , अनारक झा ड़य , ना रयल और बहेड़के े वृ , करीर, बकु ल तथा नीमको भी इधरउधरसे तोड़-तोड़कर लाने लगे॥ ५९ ॥



महाकाय महाबली वानर हाथीके समान बड़ी-बड़ी शला और पवत को उखाड़कर य ( व भ साधन ) ारा समु तटपर ले आते थे॥ ६० ॥ शलाख को फ कनेसे समु का जल सहसा आकाशम उठ जाता और फर वहाँसे नीचेको गर जाता था॥ ६१ ॥ उन वानर ने सब ओर प र गराकर समु म हलचल मचा दी। कु छ दूसरे वानर सौ योजन लंबा सूत पकड़े ए थे॥ ६२ ॥ नल नद और न दय के ामी समु के बीचम महान् सेतुका नमाण कर रहे थे। भयंकर कम करनेवाले वानर ने मल-जुलकर उस समय सेतु नमाणका काय आर कया था॥ ६३ ॥ को◌इ नापनेके लये द पकड़ते थे तो को◌इ साम ी जुटाते थे। ीरामच जीक आ ा शरोधाय करके सैकड़ वानर जो पवत और मेघ के समान तीत होते थे, वहाँ तनक और का ारा भ - भ ान म पुल बाँध रहे थे। जनके अ भाग फू ल से लदे थे, ऐसे वृ ारा भी वे वानर सेतु बाँधते थे॥ ६४-६५ ॥ पवत -जैसी बड़ी-बड़ी च ान और पवत शखर लेकर सब ओर दौड़ते वानर दानव के समान दखायी देते थे॥ ६६ ॥ उस समय उस महासागरम फ क जाती ◌इ शला और गराये जाते ए पहाड़ के गरनेसे बड़ा भीषण श हो रहा था॥ ६७ ॥ हाथीके समान वशालकाय वानर बड़े उ ाह और तेजीके साथ कामम लगे ए थे। पहले दन उ ने चौदह योजन लंबा पुल बाँधा॥ ६८ ॥ फर दूसरे दन भयंकर शरीरवाले महाबली वानर ने तेजीसे काम करके बीस योजन लंबा पुल बाँध दया॥ ६९ ॥ तीसरे दन शी तापूवक कामम जुटे ए महाकाय क पय ने समु म इ स योजन लंबा पुल बाँध दया॥ ७० ॥ चौथे दन महान् वेगशाली और शी कारी वानर ने बा◌इस योजन लंबा पुल और बाँध दया॥ ७१ ॥ तथा पाँचव दन शी ता करनेवाले उन वानर वीर ने सुवेल पवतके नकटतक ते◌इस योजन लंबा पुल बाँधा॥



इस कार व कमाके बलवान् पु का मान् क प े नलने समु म सौ योजन लंबा पुल तैयार कर दया। इस कायम वे अपने पताके समान ही तभाशाली थे॥ ७३ ॥ मकरालय समु म नलके ारा न मत आ वह सु र और शोभाशाली सेतु आकाशम ातीपथ (छायापथ)-के समान सुशो भत होता था॥ ७४ ॥ उस समय देवता, ग व, स और मह ष उस अ तु कायको देखनेके लये आकाशम आकर खड़े थे॥ नलके बनाये ए सौ योजन लंबे और दस योजन चौड़े उस पुलको देवता और ग व ने देखा, जसे बनाना ब त ही क ठन काम था॥ ७६ ॥ वानरलोग भी इधर-उधर उछल-कू दकर गजना करते ए उस अ च , अस , अ तु और रोमा कारी पुलको देख रहे थे। सम ा णय ने ही समु म सेतु बाँधनेका वह काय देखा॥ ७७ १/२ ॥ इस कार उन सह को ट (एक खरब) महाबली एवं उ ाही वानर का दल पुल बाँधतेबाँधते ही समु के उस पार प ँ च गया॥ ७८ १/२ ॥ वह पुल बड़ा ही वशाल, सु रतासे बनाया आ, शोभास , समतल और सुस था। वह महान् सेतु सागरम सीम के समान शोभा पाता था॥ ७९ १/२ ॥ पुल तैयार हो जानेपर अपने स चव के साथ वभीषण गदा हाथम लेकर समु के दूसरे तटपर खड़े हो गये, जससे श ुप ीय रा स य द पुल तोड़नेके लये आव तो उ द दया जा सके ॥ ८० १/२ ॥ तदन र सु ीवने स परा मी ीरामसे कहा— ‘वीरवर! आप हनुमा े कं धेपर चढ़ जाइये और ल ण अ दक पीठपर सवार हो ल; क यह मकरालय समु ब त लंबाचौड़ा है। ये दोन वानर आकाश-मागसे चलनेवाले ह। अत: ये ही दोन आप दोन भाइय को धारण कर सकगे’॥ ८१-८२ १/२ ॥ इस कार धनुधर एवं धमा ा भगवान् ीराम ल ण और सु ीवके साथ उस सेनाके आगे-आगे चले॥ दूसरे वानर सेनाके बीचम और अगल-बगलम होकर चलने लगे। कतने ही वानर जलम कू द पड़ते और तैरते ए चलते थे। दूसरे पुलका माग पकड़कर जाते थे और कतने ही आकाशम



उछलकर ग ड़के समान उड़ते थे॥ ८४-८५ ॥ इस कार पार जाती ◌इ उस भयंकर वानर-सेनाने अपने महान् घोषसे समु क बढ़ी ◌इ भीषण गजनाको भी दबा दया॥ ८६ ॥ धीरे-धीरे वानर क सारी सेना नलके बनाये ए पुलसे समु के उस पार प ँ च गयी। राजा सु ीवने फल, मूल और जलक अ धकता देख सागरके तटपर ही सेनाका पड़ाव डाला॥ ८७ ॥ भगवान् ीरामका वह अ तु और दु र कम देखकर स , चारण और मह षय के साथ देवतालोग उनके पास आये तथा उ ने अलग-अलग प व एवं शुभ जलसे उनका अ भषेक कया॥ ८८ ॥ फर बोले—‘नरदेव! तुम श ु पर वजय ा करो और समु पय सारी पृ ीका सदा पालन करते रहो।’ इस कार भाँ त-भाँ तके म लसूचक वचन ारा राजस ा नत ीरामका उ ने अ भवादन कया॥ ८९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २२ ॥



ते◌इसवाँ सग ीरामका ल



णसे उ ातसूचक ल ण का वणन और ल ापर आ मण



उ ातसूचक ल ण के ाता तथा ल णके बड़े भा◌इ ीरामने ब त-से अपशकु न देखकर सु म ाकु मार ल णको दयसे लगाया और इस कार कहा—॥ ‘ल ण! जहाँ शीतल जलक सु वधा हो और फल से भरे ए जंगल ह , उन ान का आ य लेकर हम अपने सै समूहको क◌इ भाग म बाँट द और इसे ूहब करके इसक र ाके लये सदा सावधान रह॥ ‘म देखता ँ सम लोक का संहार करनेवाला भीषण भय उप त आ है, जो रीछ , वानर और रा स के मुख वीर के वनाशका सूचक है॥ ३ ॥ ‘धूलसे भरी ◌इ च वायु चल रही है। धरती काँपती है। पवत के शखर हल रहे ह और पेड़ गर रहे ह॥ ४ ॥ ‘मेघ क घटा घर आयी है, जो मांसभ ी रा स के समान दखायी देती है। वे मेघ देखनेम तो ू र ह ही, इनक गजना भी बड़ी कठोर है। ये ू रतापूवक र क बूँद से मले ए जलक वषा करते ह॥ ५ ॥ ‘यह सं ा लाल च नके समान का धारण करके बड़ी भयंकर दखायी देती है। लत सूयसे ये आगक ालाएँ टूट-टूटकर गर रही ह॥ ६ ॥ ‘ ू र पशु और प ी दीन आकार धारण कर सूयक ओर मुँह करके दीनतापूण रम ची ार करते ए महान् भय उ कर रहे ह॥ ७ ॥ रातम भी च मा पूणत: का शत नह होते और अपने भावके वपरीत ताप दे रहे ह। ये काली और लाल करण से ा हो इस तरह उ दत ए ह, मानो जग े लयका काल आ प ँ चा हो॥ ८ ॥ ‘ल ण! नमल सूयम लम नीला च दखायी देता है। सूयके चार ओर ऐसा घेरा पड़ा है, जो छोटा, खा, अशुभ तथा लाल है॥ ९ ॥



‘सु म



ान न! देखो ये तारे बड़ी भारी धू लरा शसे आ ा दत हो हत भ हो गये ह, अतएव जग े भावी संहारक सूचना दे रहे ह॥ १० ॥ ‘कौए, बाज तथा अधम गीध चार ओर उड़ रहे ह और सया रन अशुभसूचक महाभयंकर बोली बोल रही ह॥ ११ ॥ ‘जान पड़ता है वानर और रा स के चलाये ए शलाख , शूल और तलवार से यह सारी भू म पट जायगी तथा यहाँ मांस और र क क च जम जायगी॥ ‘हमलोग आज ही जतनी ज ी हो सके , इस रावणपा लत दुजय नगरी ल ापर सम वानर के साथ वेगपूवक धावा बोल द’॥ १३ ॥ ऐसा कहकर सं ाम वजयी भगवान् ीराम हाथम धनुष लये सबसे आगे ल ापुरीक ओर त ए॥ १४ ॥ फर वभीषण और सु ीवके साथ वे सभी े वानर गजना करते ए यु का ही न य रखनेवाले श ु का वध करनेके लये आगे बढ़े॥ १५ ॥ वे सब-के -सब रघुनाथजीका य करना चाहते थे। उन बलशाली वानर के कम और चे ा से रघुकुलन न ीरामको बड़ा संतोष आ॥ १६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म ते◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २३ ॥



चौबीसवाँ सग ीरामका ल णसे ल ाक शोभाका वणन करके सेनाको ूहब खड़ी होनेके लये आदेश देना, ीरामक आ ासे ब नमु ए शुकका रावणके पास जाकर उनक सै श क बलता बताना तथा रावणका अपने बलक ड ग हाँकना



सु ीवने उस वीर वानरसेनाक यथो चत व ा क थी। उनके कारण वह वैसी ही शोभा पाती थी, जैसे च मा और शुभ न से यु शर ालक पू णमा सुशो भत हो रही हो॥ १ ॥ वह वशाल सै -समूह समु के समान जान पड़ता था। उसके भारसे दबी ◌इ वसुधा भयभीत हो उठी और उसके वेगसे डोलने लगी॥ २ ॥ तदन र वानर ने ल ाम महान् कोलाहल सुना, जो भेरी और मृद के ग ीर घोषसे मलकर बड़ा ही भयंकर और रोमा कारी जान पड़ता था॥ ३ ॥ उस तुमुलनादको सुनकर वानरयूथप त हष और उ ाहम भर गये और उसे न सह सकनेके कारण उससे भी बढ़कर जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ ४ ॥ रा स ने वानर क वह गजना सुनी, जो दपम भरकर सहनाद कर रहे थे। उनक आवाज आकाशम मेघ क गजनाके समान जान पड़ती थी॥ ५ ॥ दशरथन न ीरामने व च जा-पताका से सुशो भत ल ापुरीको देखकर थत च से मन-ही-मन सीताका रण कया॥ ६ ॥ वे भीतर-ही-भीतर कहने लगे—‘हाय! यह वह मृगलोचना सीता रावणक कै दम पड़ी है। उसक दशा मंगल हसे आ ा ◌इ रो हणीके समान हो रही है’॥ ७ ॥ मन-ही-मन ऐसा कहकर वीर ीराम गरम-गरम लंबी साँस ख चकर ल णक ओर देखते ए अपने लये समयानुकूल हतकर वचन बोले—॥ ८ ॥ ‘ल ण! इस ल ाक ओर तो देखो। यह अपनी ऊँ चा◌इसे आकाशम रेखा ख चती ◌इ-सी जान पड़ती है। जान पड़ता है पूवकालम व कमाने अपने मनसे ही इस पवतशखरपर ल ापुरीका नमाण कया है॥ ९ ॥ ‘पूवकालम यह पुरी अनेक सतमंजले मकान से भरी-पूरी बनायी गयी थी। इसके ेत एवं सघन वमानाकार भवन से भगवान् व ुके चरण ापनका ानभूत आकाश आ ा दत-सा



हो गया॥ १० ॥ ‘फू ल से भरे ए चै रथ वनके स श सु र कानन से ल ापुरी सुशो भत हो रही है। उन कानन म नाना कारके प ी कलरव कर रहे ह तथा फल और फू ल क ा करानेके कारण वे बड़े सु र जान पड़ते ह॥ ११ ॥ ‘देखो, यह शीतल सुखद वायु इन वन को, जनम मतवाले प ी चहचहा रहे ह, भ रे प और फू ल म लीन हो रहे ह तथा जनके ेक ख को कल के समूह एवं संगीतसे ा ह, बारंबार क त कर रहा है’॥ दशरथन न भगवान् ीरामने ल णसे ऐसा कहा और यु के शा ीय नयमानुसार सेनाका वभाग कया॥ १३ ॥ उस समय ीरामने वानरसै नक को यह आदेश दया—‘इस वशाल सेनामसे अपनी सेनाको साथ लेकर दुजय एवं परा मी वीर अ द नीलके साथ वानरसेनाके पु ष ूहम दयके ानम त ह ॥ १४ ॥ ‘इसी तरह ऋषभ नामक वानर क पय के समुदायसे घरे रहकर इस वानरवा हनीके दा हने पा म खड़े रह॥ १५ ॥ ‘जो ग ह ीके समान दुजय एवं वेगशाली ह, वे क प े ग मादन वानरवा हनीके वाम पा म खड़े ह ॥ १६ ॥ ‘म ल णके साथ सावधान रहकर इस ूहके म कके ानम खड़ा होऊँ गा। जा वान्, सुषेण और वानर वेगदश —ये तीन महामन ी वीर जो रीछ क सेनाके धान ह, वे सै ूहके कु भागक र ा कर॥ ‘वानरराज सु ीव वानरवा हनीके पछले भागक र ाम उसी कार लगे रह, जैसे तेज ी व ण इस जग प म दशाका संर ण करते ह’॥ १८ ॥ इस कार सु रतासे वभ हो वशाल ूहम ब ◌इ वह सेना, जसक बड़े-बड़े वानर र ा करते थे, मेघ से घरे ए आकाशके समान जान पड़ती थी॥ वानरलोग पवत के शखर और बड़े-बड़े वृ लेकर यु के लये ल ापर चढ़ आये। वे उस पुरीको पदद लत करके धूलम मला देना चाहते थे॥ २० ॥



सभी वानरयूथप त ये ही मनसूबे बाँधते थे क हम ल ापर पवत- शखर क वषा कर और ल ावा सय को मु से मार-मारकर यमलोक प ँ चा द॥ २१ ॥ तदन र महातेज ी रामने सु ीवसे कहा— ‘हमलोग ने अपनी सेना को सु र ढंगसे वभ करके उ ूहब कर लया है, अत: अब इस शुकको छोड़ दया जाय’॥ २२ ॥ ीरामच जीका यह वचन सुनकर महाबली वानरराजने उनके आदेशसे रावणदूत शुकको ब नमु करा दया॥ २३ ॥ ीरामच जीक आ ासे छु टकारा पाकर वानर से पी ड़त होनेके कारण अ भयभीत आ शुक रा सराजके पास गया॥ २४ ॥ उस समय रावणने हँ सते ए-से ही शुकसे कहा— ‘ये तु ारी दोन पाँख बाँध दी गयी ह। इससे तुम इस तरह दखायी देते हो मानो तु ारे पंख नोच लये गये ह । कह तुम उन च ल च वाले वानर के चंगुलम तो नह फँ स गये थे?’॥ २५ १/२ ॥ राजा रावणके इस कार पूछनेपर भयसे घबराये ए शुकने उस समय उस े रा सराजको इस कार उ र दया—॥ २६ ॥ ‘महाराज! मने समु के उ र तटपर प ँ चकर आपका संदेश ब त श म मधुर वाणी ारा सा ना देते ए सुनाया॥ २७ ॥ ‘ कतु मुझपर पड़ते ही कु पत ए वानर ने उछलकर मुझे पकड़ लया और घूस से मारना एवं पाँख नोचना आर कया॥ २८ ॥ ‘रा सराज! वे वानर भावसे ही ोधी और तीखे ह। उनसे बात भी नह क जा सकती थी। फर यह पूछनेका अवसर कहाँ था क तुम मुझे मार रहे हो?॥ २९ ॥ ‘जो वराध, कब और खरका वध कर चुके ह, वे ीराम सु ीवके साथ सीताके ानका पता पाकर उनका उ ार करनेके लये आये ह॥ ३० ॥ ‘वे रघुनाथजी समु पर पुल बाँध लवणसागरको पार करके रा स को तनक के समान समझकर धनुष हाथम लये यहाँ पास ही खड़े ह॥ ३१ ॥ ‘पवत और मेघ के समान वशालकाय रीछ और वानर-समूह क सह सेनाएँ इस पृ ीपर छा गयी ह॥ ३२ ॥



‘देवता



और दानव म जैसे मेल होना अस व है, उसी कार रा स और वानरराज सु ीवके सै नक म सं ध नह हो सकती॥ ३३ ॥ ‘अत: जबतक वे ल ापुरीक चहार दवारीपर नह चढ़ आते, उसके पहले ही आप शी तापूवक दोमसे एक काम कर डा लये—या तो तुरंत ही उ सीताको लौटा दी जये या फर सामने खड़े होकर यु क जये’॥ ३४ ॥ शुकक यह बात सुनकर रावणक आँ ख रोषसे लाल हो गय । वह इस तरह घूर-घूरकर देखने लगा, मानो अपनी से उसको द कर देगा। वह बोला—॥ ‘य द देवता, ग व और दानव भी मुझसे यु करनेको तैयार हो जायँ तथा सारे संसारके लोग मुझे भय दखाने लग तो भी म सीताको नह लौटाऊँ गा॥ ३६ ॥ ‘जैसे मतवाले मर वस -ऋतुम फू ल से भरे ए वृ पर टूट पड़ते ह, उसी कार मेरे बाण कब उस रघुवंशीपर धावा करगे?॥ ३७ ॥ ‘वह अवसर कब आयेगा जब मेरे धनुषसे छू टे ए तेज ी बाण ारा घायल होकर रामका शरीर ल लुहान हो जायगा और जैसे जलती ◌इ लुकारीसे लोग हाथीको जलाते ह, उसी तरह म उन बाण से रामको द कर डालूँगा॥ ३८ ॥ ‘जैसे सूय अपने उदयके साथ ही सम न क भा हर लेते ह, उसी कार म वशाल सेनाके साथ रणभू मम खड़ा हो रामक सम वानर-सेनाको आ सात् कर लूँगा॥ ३९ ॥ दशरथकु मार रामने अभी समरभू मम समु के समान मेरे वेग और वायुके समान मेरे बलका अनुभव नह कया है, इस लये वह मेरे साथ यु करना चाहता है॥ ‘मेरे तरकसम सोये ए बाण वषधर सप के समान भयंकर ह। रामने सं ामम उन बाण को देखा ही नह है; इस लये वह मुझसे जूझना चाहता है॥ ४१ ॥ ‘पहले कभी यु म रामका मेरे बल-परा मसे पाला नह पड़ा है, इसी लये वह मेरे साथ लड़नेका हौसला रखता है। मेरा धनुष एक सु र वीणा है, जो बाण के कोन से बजायी जाती है। उसक ासे जो ट ार- न उठती है, वही उसक भयंकर रलहरी है। आत क ची ार और पुकार ही उसपर उ रसे गाया जानेवाला गीत है। नाराच को छोड़ते समय जो चट-चट श होता है, वही मानो हथेलीपर दया जानेवाला ताल है। बहती ◌इ नदीके समान जो श ु क वा हनी है, वही मानो उस संगीतो वके लये वशाल रंगभू म है। म समरा णम उस रंगभू मके भीतर वेश करके अपनी वह भयंकर वीणा बजाऊँ गा॥ ४२-४३ ॥



‘य द



महासमरम सह ने धारी इ अथवा सा ात् व ण या यं यमराज अथवा मेरे बड़े भा◌इ कु बेर ही आ जायँ तो वे भी अपनी बाणा से मुझे परा जत नह कर सकते’॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चौबीसवाँ सग पूरा आ॥ २४ ॥



पचीसवाँ सग रावणका शुक और सारणको गु पसे वानरसेनाम भेजना, वभीषण ारा उनका पकड़ा जाना, ीरामक कृपासे छु टकारा पाना तथा ीरामका संदेश लेकर ल ाम लौटकर उनका रावणको समझाना



दशरथन न भगवान् ीराम जब सेनास हत समु पार कर चुके, तब ीमान् रावणने अपने दोन म ी शुक और सारणसे फर कहा—॥ १ ॥ ‘य प समु को पार करना अ क ठन था तो भी सारी वानरसेना उसे लाँघकर इस पार चली आयी। रामके ारा सागरपर सेतुका बाँधा जाना अभूतपूव काय है॥ २ ॥ ‘लोग के मुँहसे सुननेपर भी मुझे कसी तरह यह व ास नह होता क समु पर पुल बाँधा गया होगा। वानरसेना कतनी है? इसका ान मुझे अव ा करना चा हये॥ ३ ॥ ‘तुम दोन इस तरह वानर-सेनाम वेश करो क तु को◌इ पहचान न सके । वहाँ जाकर यह पता लगाओ क वानर क सं ा कतनी है? उनक श कै सी है? उनम मु -मु वानर कौन-कौनसे ह। ीराम और सु ीवके मनोऽनुकूल म ी कौन-कौन ह? कौन-कौन शूरवीर वानर-सेनाके आगे रहते ह? अगाध जलरा शसे भरे ए समु म वह पुल कस तरह बाँधा गया? महामन ी वानर क छावनी कै से पड़ी है? ीराम और वीर ल णका न य ा है?—वे ा करना चाहते ह? उनके बल-परा म कै से ह? उन दोन के पास कौन-कौनसे अ -श ह? और उन महामना वानर का धान सेनाप त कौन है? इन सब बात क तुमलोग ठीक-ठीक जानकारी ा करो और सबका यथाथ ान हो जानेपर शी लौट आओ’॥ ऐसा आदेश पाकर दोन वीर रा स शुक और सारण वानर प धारण करके उस वानरी सेनाम घुस गये॥ ९ ॥ वानर क वह सेना कतनी है? यह गनना तो दूर रहा; मनसे उसका अंदाजा लगाना भी अस व था। उस अपार सेनाको देखकर र गटे खड़े हो जाते थे। उस समय शुक और सारण कसी तरह भी उसक गणना नह कर सके ॥ १० ॥ वह सेना पवतके शखर पर, झरन के आसपास, गुफा म, समु के कनारे तथा वन और उपवन म भी फै ली ◌इ थी। उसका कु छ भाग समु पार कर रहा था, कु छ पार कर चुका था और कु छ सब कारसे समु को पार करनेक तैयारीम लगा था॥ ११ ॥



भयंकर कोलाहल करनेवाली वह वशाल सेना कु छ ान पर छावनी डाल चुक थी और कु छ जगह पर डालती जा रही थी। दोन नशाचर ने देखा, वह वानरवा हनी समु के समान अ ो थी॥ १२ ॥ वानरवेशम छपकर सेनाका नरी ण करते ए दोन रा स शुक और सारणको महातेज ी वभीषणने देखा, देखते ही पहचाना और उन दोन को पकड़कर ीरामच जीसे कहा—॥ १३ ॥ ‘श ुनगरीपर वजय पानेवाले नरे र! ये दोन ल ासे आये ए गु चर एवं रा सराज रावणके म ी शुक तथा सारण ह’॥ १४ ॥ वे दोन रा स ीरामच जीको देखकर अ थत ए और जीवनसे नराश हो गये। उन दोन के मनम भय समा गया। वे हाथ जोड़कर इस कार बोले—॥ १५ ॥ ‘सौ ! रघुन न! हम दोन को रावणने भेजा है और हम इस सारी सेनाके वषयम आव क जानकारी ा करनेके लये आये ह’॥ १६ ॥ उन दोन क वह बात सुनकर स ूण ा णय के हतम लगे रहनेवाले दशरथन न भगवान् ीराम हँ सते ए बोले—॥ १७ ॥ ‘य द तुमने सारी सेना देख ली हो, हमारी सै नक-श का ान ा कर लया हो तथा रावणके कथनानुसार सब काम पूरा कर लया हो तो अब तुम दोन अपनी इ ाके अनुसार स तापूवक लौट जाओ॥ ‘अथवा य द अभी कु छ देखना बाक रह गया हो तो फर देख लो। वभीषण तु सब कु छ पुन: पूण पसे दखा दगे॥ १९ ॥ ‘इस समय जो तुम पकड़ लये गये हो, इससे तु अपने जीवनके वषयम को◌इ भय नह होना चा हये; क श हीन अव ाम पकड़े गये तुम दोन दूत वधके यो नह हो॥ २० ॥ ‘ वभीषण! ये दोन रा स रावणके गु चर ह और छपकर यहाँका भेद लेनेके लये आये ह। ये अपने श ुप (वानरसेना)-म फू ट डालनेका यास कर रहे ह। अब तो इनका भ ा फू ट ही गया; अत: इ छोड़ दो॥ २१ ॥



‘शुक



और सारण! जब तुम दोन ल ाम प ँ चो, तब कु बेरके छोटे भा◌इ रा सराज रावणको मेरी ओरसे यह संदेश सुना देना—॥ २२ ॥ ‘रावण! जस बलके भरोसे तुमने मेरी सीताका अपहरण कया है, उसे अब सेना और ब ुजन स हत आकर इ ानुसार दखाओ॥ २३ ॥ ‘कल ात:काल ही तुम परकोटे और दरवाज के स हत ल ापुरी तथा रा सी सेनाका मेरे बाण से व ंस होता देखोगे॥ २४ ॥ ‘रावण! जैसे व धारी इ दानव पर अपना व छोड़ते ह, उसी कार म कल सबेरे ही सेनास हत तुमपर अपना भयंकर ोध छोडँ गा’॥ २५ ॥ भगवान् ीरामका यह संदेश पाकर दोन रा स शुक और सारण धमव ल ीरघुनाथजीका ‘आपक जय हो’, ‘आप चरंजीवी ह ’ इ ा द वचन ारा अ भन न करके ल ापुरीम आकर रा सराज रावणसे बोले—॥ ‘रा से र! हम तो वभीषणने वध करनेके लये पकड़ लया था; कतु जब अ मत तेज ी धमा ा ीरामने देखा, तब हम छु ड़वा दया॥ २७ १/२ ॥ ‘दशरथन न ीराम, ीमान् ल ण, वभीषण तथा महे तु परा मी महातेज ी सु ीव—ये चार वीर लोकपाल के समान शौयशाली, ढ़ परा मी और अ -श के ाता ह। जहाँ ये चार पु ष वर एक जगह एक हो गये ह, वहाँ वजय न त है। और सब वानर अलग रह तो भी ये चार ही परकोटे और दरवाज के स हत सारी ल ापुरीको उखाड़कर फ क सकते ह॥ २८—३० १/२ ॥ ‘ ीरामच जीका जैसा प है और जैसे उनके अ -श ह, उनसे तो यही मालूम होता है क वे अके ले ही सारी ल ापुरीका वध कर डालगे। भले ही वे बाक तीन वीर भी बैठे ही रह॥ ३१ १/२ ॥ ‘महाराज! ीराम, ल ण और सु ीवसे सुर त वह वानर क सेना तो सम देवता और असुर के लये भी अ दुजय है॥ ३२ ॥ ‘महामन ी वानर इस समय यु करनेके लये उ ुक ह। उनक सेनाके सभी वीर यो ा बड़े स ह। अत: उनके साथ वरोध करनेसे आपको को◌इ लाभ नह होगा। इस लये सं ध कर ली जये और ीरामच जीक सेवाम सीताको लौटा दी जये’॥ ३३ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पचीसवाँ सग पूरा आ॥ २५ ॥



छ ीसवाँ सग सारणका रावणको पृथक्-पृथक् वानरयूथप तय का प रचय देना (शुक और) सारणके



ये स े और जोशीले श सुनकर रावणने सारणसे कहा—॥ १ ॥ ‘य द देवता, ग व और दानव भी मुझसे यु करने आ जायँ और सम लोक भय दखाने लगे तो भी म सीताको नह दूँगा॥ २ ॥ ‘सौ ! जान पड़ता है क तु बंदर ने ब त तंग कया है। इसीसे भयभीत होकर तुम आज ही सीताको लौटा देना ठीक समझने लगे हो। भला, कौन ऐसा श ु है, जो समरा णम मुझे जीत सके ’॥ ३ १/२ ॥ ऐसा कठोर वचन कहकर ीमान् रा सराज रावण वानर क सेनाका नरी ण करनेके लये अपनी क◌इ ताल ऊँ ची और बफके समान ेत रंगक अ ा लकापर चढ़ गया॥ ४-५ ॥ उस समय रावण ोधसे तमतमा उठा था। उसने उन दोन गु चर के साथ जब समु , पवत और वन पर पात कया, तब पृ थवीका सारा देश वानर से भरा दखायी दया॥ ६ १/ ॥ २



वानर क वह वशाल सेना अपार और अस थी। उसे देखकर राजा रावणने सारणसे पूछा—॥ ७ १/२ ॥ ‘सारण! इन वानर म कौन-कौनसे मु ह? कौन शूरवीर ह और कौन बलम ब त बढ़े-चढ़े ह?॥ ८ ॥ ‘कौन-कौनसे वानर महान् उ ाहसे स होकर यु म आगे-आगे रहते ह? सु ीव कनक बात सुनते ह और कौन यूथप तय के भी यूथप त ह? सारण! ये सारी बात मुझे बताओ। साथ ही यह भी कहो क उन वानर का भाव कै सा है?’॥ ९ १/२ ॥ इस कार पूछते ए रा सराज रावणका वचन सुनकर मु -मु वानर को जाननेवाले सारणने उन मु वानर का प रचय देते ए कहा—॥ १० १/२ ॥ ‘महाराज! यह जो ल ाक ओर मुख करके खड़ा है और गरज रहा है, एक लाख यूथप से घरा आ है तथा जसक गजनाके अ ग ीर घोषसे परकोटे, दरवाजे, पवत और वन के



स हत सारी ल ा तहत हो गूँज उठी है, इसका नाम नील है। यह वीर यूथप तय मसे है। सम वानर के राजा महामना सु ीवक सेनाके आगे यही खड़ा होता है॥ ११—१३ १/२ ॥ ‘जो परा मी वानर दोन उठी ◌इ बाँह को एक दूसरीसे पकड़कर दोन पैर से पृ ीपर टहल रहा है, ल ाक ओर मुख करके ोधपूवक देखता है और बारंबार अँगड़ा◌इ लेता है, जसका शरीर पवत शखरके समान ऊँ चा है, जसक का कमलके सरके समान सुनहले रंगक है, जो रोषसे भरकर बारंबार अपनी पूँछ पटक रहा है तथा जसक पूँछके पटकनेक आवाजसे दस दशाएँ गूँज उठती ह, यह युवराज अ द है। वानरराज सु ीवने इसका युवराजके पदपर अ भषेक कया है। यह अपने साथ यु के लये आपको ललकारता है॥ १४—१७ ॥ ‘वालीका यह पु अपने पताके समान ही बलशाली है। सु ीवको यह सदा ही य है। जैसे व ण इ के लये परा म कट करते ह, उसी कार यह ीरामच जीके लये अपना पु षाथ कट करनेके लये उ त है॥ १८ ॥ ‘ ीरघुनाथजीका हत चाहनेवाले वेगशाली हनुमा ीने जो यहाँ आकर जनकन नी सीताका दशन कया, उसके भीतर इस अ दक ही सारी बु काम कर रही थी॥ १९ ॥ ‘परा मी अ द वानर शरोम णय के ब त-से यूथ लये अपनी सेनाके साथ आपको कु चल डालनेके लये आ रहा है॥ २० ॥ ‘अ दके पीछे सं ामभू मम जो वीर वशाल सेनासे घरा आ खड़ा है, इसका नाम नल है। यही सेत-ु नमाणका धान हेतु है॥ २१ ॥ ‘जो अपने अ को सु र करके सहनाद करते और गजते ह तथा जो क प े वीर अपने आसन से उठकर ोधपूवक अँगड़ा◌इ लेते ह, इनके वेगको सह लेना अ क ठन है। ये बड़े भयंकर, अ ोधी और च परा मी ह। इनक सं ा दस अरब और आठ लाख है। ये सब वानर तथा च नवनम नवास करनेवाले वीर वानर इस यूथप त नलका ही अनुसरण करते ह। यह नल भी अपनी सेना ारा ल ापुरीको कु चल देनेका हौसला रखता है॥ २२-२३ १/२ ॥ ‘यह जो चाँदीके समान सफे द रंगका च ल वानर दखायी देता है, इसका नाम ेत है। यह भयंकर परा म करनेवाला, बु मान्, शूरवीर और तीन लोक म व ात है। ेत बड़ी तेजीसे सु ीवके पास आकर फर लौट जाता है। यह वानरीसेनाका वभाग करता और सै नक म हष तथा उ ाह भरता है॥ २४-२५ १/२ ॥



‘गोमतीके



तटपर जो नाना कारके वृ से यु संरोचन नामक पवत है, उसी रमणीय पवतके चार ओर जो पहले वचरा करता था और वह अपने वानररा का शासन करता था, वही यह कु मुद नामक यूथप त है॥ ‘वह जो लाख वानर-सै नक को सहष अपने साथ ख चे लाता है, जसक लंबी दुमम ब त बड़े-बड़े लाल, पीले, भूरे और सफे द रंगके बाल फै ले ए ह और देखनेम बड़े भयंकर ह तथा जो कभी दीनता न दखाकर सदा यु क ही इ ा रखता है, उस वानरका नाम च है। यह च भी अपनी सेना ारा ल ाको कु चल देनेक इ ा रखता है॥ २८-२९ ॥ ‘राजन्! जो सहके समान परा मी और क पल वणका है, जसक गदनम लंब-े लंबे बाल ह और जो ान लगाकर ल ाक ओर इस कार देख रहा है, मानो इसे भ कर देगा, वह र नामक यूथप त है। वह नर र व , कृ ग र, स और सुदशन आ द पवत पर रहा करता है। जब वह यु के लये चलता है, उस समय उसके पीछे एक करोड़ तीस े भयंकर, अ ोधी और च परा मी वानर चलते ह। वे सब-के -सब अपने बलसे ल ाको मसल डालनेके लये र को सब ओरसे घेरे ए आ रहे ह॥ ३०—३२ ॥ ‘जो कान को फै लाता है, बारंबार जँभा◌इ लेता है, मृ ुसे भी नह डरता है और सेनाके पीछे न जाकर अथात् सेनाका भरोसा न करके अके ले ही यु करना चाहता है, रोषसे काँप रहा है, तरछी नजरसे देखता है और पूँछ फटकारकर सहनाद करता है, इसका नाम शरभ है। दे खये, यह महाबली वानर कै सी गजना करता है॥ ३३-३४ ॥ ‘इसका वेग महान् है। भय तो इसे छू तक नह गया है। राजन्! यह यूथप त शरभ सदा रमणीय सा ेय पवतपर नवास करता है॥ ३५ ॥ ‘इसके पास जो यूथप त ह, उन सबक ‘ वहार’ सं ा है। वे बड़े बलवान् ह। राजन्! उनक सं ा एक लाख चालीस हजार है॥ ३६ ॥ ‘जो वशाल वानर मेघके समान आकाशको घेरे ए खड़ा है तथा वानरवीर के बीचम ऐसा जान पड़ता है, जैसे देवता म इ ह , यु क इ ावाले वानर के बीचम जसक ग ीर गजना ऐसी सुनायी देती है, मानो ब त-सी भे रय का तुमुल नाद हो रहा हो तथा जो यु म दु:सह है, वह ‘पनस’ नामसे स यूथप त है। यह पनस परम उ म पा रया पवतपर नवास करता है। यूथप तय म े पनसक सेवाम पचास लाख यूथप त रहते ह, जनके अपने-अपने यूथ अलग-अलग ह॥ ३७—४० ॥



‘जो



समु के तटपर त ◌इ इस उछलती-कू दती भीषण सेनाको दूसरे मू तमान् समु क भाँ त सुशो भत करता आ खड़ा है, वह ददुर पवतके समान वशालकाय वानर वनत नामसे स यूथप त है। वह न दय म े वेणा नदीका पानी पीता आ वचरता है। साठ लाख वानर उसके सै नक ह॥ ४१-४२ १/२ ॥ ‘जो यु के लये सदा आपको ललकारता रहता है तथा जसके पास बल- व मशाली अनेक यूथप त रहते ह और उन यूथप तय के पास पृथक् -पृथक् ब त-से यूथ ह, वह ‘ ोधन’ नामसे स वानर है॥ ४३ १/२ ॥ ‘वह जो गे के समान लाल रंगके शरीरका पोषण करता है, उस तेज ी वानरका नाम ‘गवय’ है। उसे अपने बलपर बड़ा घमंड है। वह सदा सब वानर का तर ार कया करता है। दे खये, कतने रोषसे वह आपक ओर बढ़ा आ रहा है। इसक सेवाम स र लाख वानर रहते ह। यह भी अपनी सेनाके ारा ल ाको धूलम मला देनेक इ ा रखता है॥ ४४—४६ ॥ ‘ये सारे-के -सारे वानर दु:सह वीर ह। इनक गणना करना भी अस व है। यूथप तय म े जो यूथप ह, उन सबके अलग-अलग यूथ ह’॥ ४७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ २६ ॥



स ा◌इसवाँ सग वानरसेनाके धान यूथप तय का प रचय ८०७ (सारणने



कहा—) ‘रा सराज! आप वानर-सेनाका नरी ण कर रहे ह, इस लये म आपको उन यूथप तय का प रचय दे रहा ँ , जो रघुनाथजीके लये परा म करनेको उ त ह और अपने ाण का मोह नह रखते ह॥ १ ॥ ‘इधर यह हर नामका वानर है। भयंकर कम करनेवाले इस वानरक लंबी पूँछपर लाल, पीले, भूरे और सफे द रंगके साढ़े तीन-तीन हाथ बड़े-बड़े चकने रोएँ ह। ये इधर-उधर फै ले ए रोम उठे होनेके कारण सूयक करण के समान चमक रहे ह तथा चलते समय भू मपर लोटते रहते ह। इसके पीछे वानरराजके ककर प सैकड़ और हजार यूथप त उप त हो वृ उठाये सहसा ल ापर आ मण करनेके लये चले आ रहे ह॥ २—४ १/२ ॥ ‘उधर नील महामेघ और अ नके समान काले रंगके जन रीछ को आप खड़े देख रहे ह, वे यु म स ा परा म कट करनेवाले ह। समु के दूसरे तटपर त ए बालुका-कण के समान इनक गणना नह क जा सकती, इसी लये पृथक् -पृथक् नाम लेकर इनके वषयम कु छ बताना स व नह है। ये सब पवत , व भ देश और न दय के तट पर रहते ह। राजन्! ये अ भयंकर भाववाले रीछ आपपर चढ़े आ रहे ह। इनके बीचम इनका राजा खड़ा है, जसक आँ ख बड़ी भयानक और जो दूसर के देखनेम भी बड़ा भयंकर जान पड़ता है। वह काले मेघ से घरे ए इ क भाँ त चार ओरसे इन रीछ ारा घरा आ है। इसका नाम धू है। यह सम रीछ का राजा और यूथप त है। यह रीछराज धू पवत े ऋ वा र रहता और नमदाका जल पीता है॥ ५—९ ॥ ‘इस धू के छोटे भा◌इ जा वान् ह, जो महान् यूथप तय के भी यूथप त ह। दे खये ये कै से पवताकार दखायी देते ह। ये पम तो अपने भा◌इके समान ही ह; कतु परा मम उससे भी बढ़कर ह। इनका भाव शा है। ये बड़े भा◌इ तथा गु जन क आ ाके अधीन रहते ह और उनक सेवा करते ह। यु के अवसर पर इनका रोष और अमष ब त बढ़ जाता है॥ १०-११ ॥







‘इन बु मान् ब त-से वर भी



जा वा े देवासुर-सं ामम इ क ब त बड़ी सहायता क थी और उनसे ा ए थे॥ १२ ॥



‘इनके



ब त-से सै नक वचरते ह, जनके बल-परा मक को◌इ सीमा नह है। इन सबके शरीर बड़ी-बड़ी रोमाव लय से भरे ए ह। ये रा स और पशाच के समान ू र ह और बड़े-बड़े पवत शखर पर चढ़कर वहाँसे महान् मेघ के समान वशाल एवं व ृत शलाख श ु पर छोड़ते ह। इ मृ ुसे कभी भय नह होता॥ १३-१४ ॥ ‘जो खेल-खेलम ही कभी उछलता और कभी खड़ा होता है, वहाँ खड़े ए सब वानर जसक ओर आ यपूवक देखते ह, जो यूथप तय का भी सरदार है और रोषसे भरा दखायी देता है, यह द नामसे स यूथप त है। इसके पास ब त बड़ी सेना है। राजन्! यह वानरराज द अपनी सेना ारा ही सह ा इ क उपासना करता है—उनक सहायताके लये सेनाएँ भेजता रहता है॥ १५-१६ ॥ ‘जो चलते समय एक योजन दूर खड़े ए पवतको भी अपने पा भागसे छू लेता है और एक योजन ऊँ चेक व ुतक अपने शरीरसे ही प ँ चकर उसे हण कर लेता है, चौपाय म जससे बड़ा प कह नह है, वह वानर संनादन नामसे व ात है। उसे वानर का पतामह कहा जाता है। उस बु मान् वानरने कसी समय इ को अपने साथ यु का अवसर दया था, कतु वह उनसे परा नह आ था, वही यह यूथप तय का भी सरदार है॥ १७—१९ ॥ ‘यु के लये जाते समय जसका परा म इ के समान गोचर होता है तथा देवता और असुर के यु म देवता क सहायताके लये जसे अ देवने एक ग व-क ाके गभसे उ कया था, वही यह थन नामक यूथप त है। रा सराज! ब त-से क र जनका सेवन करते ह, उन बड़े-बड़े पवत का जो राजा है और आपके भा◌इ कु बेरको सदा वहारका सुख दान करता है तथा जसपर उगे ए जामुनके वृ के नीचे राजा धराज कु बेर बैठा करते ह, उसी पवतपर यह तेज ी बलवान् वानर शरोम ण ीमान् थन भी रमण करता है। यह यु म कभी अपनी शंसा नह करता और दस अरब वानर से घरा रहता है। यह भी अपनी सेनाके ारा ल ाको र द डालनेका हौसला रखता है॥ २०—२४ ॥ ‘जो हा थय और वानर के पुराने* वैरका रण करके गज-यूथप तय को भयभीत करता आ ग ाके कनारे वचरा करता है, जंगली पेड़ को तोड़-उखाड़कर उनके ारा हा थय को आगे बढ़नेसे रोक देता है, पवत क क राम सोता और जोर-जोरसे गजना करता है, वानरयूथ का ामी तथा संचालक है, वानर क सेनाम जसे मुख वीर माना जाता है, जो ग ातटपर व मान उशीरबीज नामक पवत तथा ग र े म राचलका आ य लेकर रहता एवं रमण करता है और जो वानर म उसी कार े ान रखता है जैसे गके देवता म सा ात् इ ,



वही यह दुजय वीर माथी नामक यूथप त है। इसके साथ बल और परा मपर गव रखकर गजना करनेवाले दस करोड़ वानर रहते ह, जो अपने बा बलसे सुशो भत होते ह। यह माथी इन सभी महा ा वानर का नेता है। वायुके वेगसे उठे ए मेघक भाँ त जस वानरक ओर आप बारंबार देख रहे ह, जससे स रखनेवाले वेगशाली वानर क सेना भी रोषसे भरी दखायी देती है तथा जसक सेना ारा उड़ायी गयी धू मल रंगक ब त बड़ी धू लरा श वायुसे सब ओर फै लकर जसके नकट गर रही है, वही यह माथी नामक वीर है॥ २५—३१ १/२ ॥ ‘ये काले मुँहवाले लंगूरजा तके वानर ह। इनम महान् बल है। इन भयंकर वानर क सं ा एक करोड़ है। महाराज! जसने सेतु बाँधनेम सहायता क है, उस लंगूरजा तके गवा नामक यूथप तको चार ओरसे घेरकर ये वानर चल रहे ह और ल ाको बलपूवक कु चल डालनेके लये जोर-जोरसे गजना करते ह॥ ३२-३३ १/२ ॥ ‘ जस पवतपर सभी ऋतु म फल देनेवाले वृ मर से से वत दखायी देते ह, सूयदेव अपने ही समान वणवाले जस पवतक त दन प र मा करते ह, जसक का से वहाँके मृग और प ी सदा सुनहरे रंगके तीत होते ह, महा ा मह षगण जसके शखरका कभी ाग नह करते ह, जहाँके सभी वृ स ूण मनोवा त व ु को फलके पम दान करते ह और उनम सदा फल लगे रहते ह, जस े शैलपर ब मू मधु उपल होता है, उसी रमणीय सुवणमय पवत महामे पर ये मुख वानर म धान यूथप त के सरी रमण करते ह॥ ३४—३७ १/ ॥ २



‘साठ हजार जो रमणीय सुवणमय पवत ह, उनके बीचम एक है साव णमे । न ाप नशाचरपते! जैसे रा स म आप े ह, साव णमे उ म है॥ ३८ १/२ ॥ ‘वहाँ जो पवतका अ



े पवत है, जसका नाम उसी कार पवत म वह



म शखर है, उसपर क पल (भूरे), ेत, लाल मुँहवाले और मधुके समान प ल वणवाले वानर नवास करते ह, जनके दाँत बड़े तीखे ह और नख ही उनके आयुध ह। वे सब सहके समान चार दाँत वाले, ा के समान दुजय, अ के समान तेज ी और लत मुखवाले वषधर सपके समान ोधी होते ह। उनक पूँछ ब त बड़ी ऊपरको उठी ◌इ और सु र होती है। वे मतवाले हाथीके समान परा मी, महान् पवतके समान ऊँ चे और सु ढ़ शरीरवाले तथा महान् मेघके समान ग ीर गजना करनेवाले ह। उनके ने गोल-गोल एवं



प ल वणके होते ह। उनके चलनेपर बड़ा भयानक श होता है। वे सभी वानर यहाँ आकर इस तरह खड़े ह, मानो आपक ल ाको देखते ही मसल डालगे॥ ३९—४२ १/२ ॥ ‘दे खये उनके बीचम यह उनका परा मी सेनाप त खड़ा है। यह बड़ा बलवान् है और वजयक ा के लये सदा सूयदेवक उपासना करता है। राजन्! यह वीर इस भूम लम शतब लके नामसे व ात है॥ ४३-४४ ॥ ‘बलवान्, परा मी तथा शूरवीर यह शतब ल भी अपने ही पु षाथके भरोसे यु के लये खड़ा है और अपनी सेना ारा ल ापुरीको मसल डालना चाहता है। यह वानरवीर ीरामच जीका य करनेके लये अपने ाण पर भी दया नह करता है॥ ४५ १/२ ॥ ‘गज, गवा , गवय, नल और नील—इनमसे एक-एक सेनाप त दस-दस करोड़ यो ा से घरा आ है॥ ४६ १/२ ॥ ‘इसी तरह व पवतपर नवास करनेवाले और भी ब त-से शी परा मी े वानर ह, जो अ धक होनेके कारण गने नह जा सकते॥ ४७ ॥ ‘महाराज! ये सभी वानर बड़े भावशाली ह। सभीके शरीर बड़े-बड़े पवत के समान वशाल ह और सभी णभरम भूम लके सम पवत को चूर-चूर करके सब ओर बखेर देनेक श रखते ह’॥ ४८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म स ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २७ ॥ हनुमा ीके पता वानरराज के सरीने श सादन नामक रा सको, जो हाथीका प धारण करके आया था, मार डाला था। इसीसे पूवकालम हा थय से वानर का वैर बँध गया था। *



अ ा◌इसवाँ सग शुकके ारा सु ीवके म य का, मै और वदका, हनुमा ा, ीराम, ल ण, वभीषण और सु ीवका प रचय देकर वानरसेनाक सं ाका न पण करना ‘उस सारी वानरीसेनाका प रचय देकर जब सारण चुप हो गया, तब उसका कथन सुनकर



शुकने रा सराज रावणसे कहा—॥ १ ॥ ‘राजन्! ज आप मतवाले महागजराज के समान वहाँ खड़ा देख रहे ह, जो ग ातटके वटवृ और हमालयके सालवृ के समान जान पड़ते ह, इनका वेग दु ह है। ये इ ानुसार प धारण करनेवाले और बलवान् ह। दै और दानव के समान श शाली तथा यु म देवता के समान परा म कट करनेवाले ह॥ २-३ ॥ ‘इनक सं ा इ स को ट सह , सह श ु और सौ वृ है*। ये सब-के -सब वानर सदा क ाम रहनेवाले सु ीवके म ी ह। इनक उ देवता और ग व से ◌इ है। ये सभी इ ानुसार प धारण करनेम समथ ह॥ ४-५ ॥ ‘राजन्! आप इन वानर म देवता के समान पवाले जन दो वानर को खड़ा देख रहे ह उनके नाम ह मै और वद। यु म उनक बराबरी करनेवाला को◌इ नह है। ाजीक आ ासे उन दोन ने अमृतपान कया है। ये दोन वीर अपने बल-परा मसे ल ाको कु चल डालनेक इ ा रखते ह॥ ६-७ ॥ ‘इधर जसे आप मदक धारा बहानेवाले मतवाले हाथीक भाँ त खड़ा देख रहे ह, जो वानर कु पत होनेपर समु को भी व ु कर सकता है, जो ल ाम आपके पास आया था और वदेहन नी सीतासे मलकर गया था, उसे दे खये। पहलेका देखा आ यह वानर फर आया है। यह के सरीका बड़ा पु है। पवनपु के भी नामसे व ात है। उसे लोग हनुमान् कहते ह। इसीने पहले समु लाँघा था॥ ८—१० ॥ ‘बल और पसे स यह े वानर अपनी इ ाके अनुसार प धारण कर सकता है। इसक ग त कह नह कती। यह वायुके समान सव जा सकता है॥ ११। ‘जब यह बालक था उस समयक बात है, एक दन इसको ब त भूख लगी थी। उस समय उगते ए सूयको देखकर यह तीन हजार योजन ऊँ चा उछल गया था। उस समय मन-ही-मन यह न य करके क



‘यहाँके फल आ दसे मेरी भूख नह जायगी, इस लये सूयको (जो आकाशका आऊँ गा’ यह बला भमानी वानर ऊपरको उछला था॥ १२-१३ ॥ ‘देव ष और रा



द फल है) ले



स भी ज परा नह कर सकते, उन सूयदेवतक न प ँ चकर यह वानर उदय ग रपर ही गर पड़ा॥ १४ ॥ ‘वहाँके शलाख पर गरनेके कारण इस वानरक एक हनु (ठोढ़ी) कु छ कट गयी; साथ ही अ ढ़ हो गयी, इस लये यह ‘हनुमान्’ नामसे स आ॥ १५ ॥ ‘ व सनीय य के स कसे मने इस वानरका वृ ा ठीक-ठीक जाना है। इसके बल, प और भावका पूण पसे वणन करना कसीके लये भी अस व है। यह अके ला ही सारी ल ाको मसल देना चाहता है। जसे आपने ल ाम रोक रखा था, उस अ को भी जसने अपनी पूँछ ारा लत करके सारी ल ा जला डाली, उस वानरको आप भूलते कै से ह?॥ १६-१७ ॥ ‘हनुमा ीके पास ही जो कमलके समान ने वाले साँवले शूरवीर वराज रहे ह, वे इ ाकु वंशके अ तरथी ह। इनका पौ ष स ूण लोक म स है॥ १८ ॥ ‘धम उनसे कभी अलग नह होता। ये धमका कभी उ न नह करते तथा ा और वेद दोन के ाता ह। वेदवे ा म इनका ब त ऊँ चा ान है॥ १९ ॥ ‘ये अपने बाण से आकाशका भी भेदन कर सकते ह, पृ ीको भी वदीण करनेक मता रखते ह। इनका ोध मृ ुके समान और परा म इ के तु है॥ २० ॥ ‘राजन्! जनक भाया सीताको आप जन ानसे हर लाये ह, वे ही ये ीराम आपसे यु करनेके लये सामने आकर खड़े ह॥ २१ ॥ ‘उनके दा हने भागम जो ये शु सुवणके समान का मान्, वशाल व : लसे सुशो भत, कु छ-कु छ लाल ने वाले तथा म कपर काले-काले घुँघराले के श धारण करनेवाले ह, इनका नाम ल ण है। ये अपने भा◌इके य और हतम लगे रहनेवाले ह, राजनी त और यु म कु शल ह तथा स ूण श धा रय म े ह॥ २२-२३ ॥ ‘ये अमषशील, दुजय, वजयी, परा मी, श ुको परा जत करनेवाले तथा बलवान् ह। ल ण सदा ही ीरामके दा हने हाथ और बाहर वचरनेवाले ाण ह॥



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ीरघुनाथजीके लये अपने ाण क र ाका भी ान नह रहता। ये अके ले ही यु म स ूण रा स का संहार कर देनेक इ ा रखते ह॥ २५ ॥ ‘ ीरामच जीक बाय ओर जो रा स से घरे ए खड़े ह, ये राजा वभीषण ह। राजा धराज ीरामने इ ल ाके रा पर अ भ ष कर दया है। अब ये आपपर कु पत होकर यु के लये सामने आ गये ह॥ ‘ ज आप सब वानर के बीचम पवतके समान अ वचल भावसे खड़ा देखते ह, वे सम वानर के ामी अ मत तेज ी सु ीव ह॥ २८ ॥ ‘जैसे हमालय सब पवत म े है, उसी कार वे तेज, यश, बु , बल और कु लक से सम वानर म सव प र वराजमान ह॥ २९ ॥ ‘ये गहन वृ से यु क ा नामक दुगम गुफाम नवास करते ह। पवत के कारण उसम वेश करना अ क ठन है। इनके साथ वहाँ धान- धान यूथप त भी रहते ह॥ ३० ॥ ‘इनके गलेम जो सौ कमल क सुवणमयी माला सुशो भत है, उसम सवदा ल ीदेवीका नवास है। उसे देवता और मनु सभी पाना चाहते ह॥ ३१ ॥ ‘भगवान् ीरामने वालीको मारकर यह माला, तारा और वानर का रा —ये सब व ुएँ सु ीवको सम पत कर द ॥ ३२ ॥ ‘मनीषी पु ष सौ लाखक सं ाको एक को ट कहते ह और सौ सह को ट (एक नील)-को एक श ु कहा जाता है॥ ३३ ॥ ‘एक लाख श ु को महाश ु नाम दया गया है। एक लाख महाश ु को वृ कहते ह॥ ३४ ॥



‘एक लाख वृ



का नाम महावृ है। एक लाख महावृ को प कहते ह॥ ३५ ॥ ‘एक लाख प को महाप माना गया है। एक लाख महाप को खव कहते ह॥ ३६ ॥ ‘एक लाख खवका महाखव होता है। एक सह महाखवको समु कहते ह। एक लाख समु को ओघ कहते ह और एक लाख ओघक महौघ सं ा है॥ ३७ १/२ ॥ ‘इस कार सह को ट, सौ श ु , सह महाश ु , सौ वृ , सह महावृ , सौ प , सह महाप , सौ खव, सौ समु , सौ महौघ तथा समु -स श (सौ) को ट महौघ सै नक से, वीर वभीषणसे तथा अपने स चव से घरे ए वानरराज सु ीव आपको यु के लये ललकारते



ए सामने आ रहे ह। वशाल सेनासे घरे ए सु ीव महान् बल और परा मसे स ह॥ ३८ —४१ ॥ ‘महाराज! यह सेना एक काशमान हके समान है। इसे उप त देख आप को◌इ ऐसा उपाय कर, जससे आपक वजय हो और श ु के सामने आपको नीचा न देखना पड़े’॥ ४२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अ ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २८ ॥ * इन सं



ा का



ीकरण इसी सगके अ म दी ◌इ प रभाषाके अनुसार समझना चा हये।



उनतीसवाँ सग रावणका शुक और सारणको फटकारकर अपने दरबारसे नकाल देना, उसके भेजे ए गु चर का ीरामक दयासे वानर के चंगुलसे छू टकर ल ाम आना



शुकके बताये अनुसार रावणने सम यूथप तय को देखकर ीरामक दा हनी बाँह महापरा मी ल णको, ीरामके नकट बैठे ए अपने भा◌इ वभीषणको, सम वानर के राजा भयंकर परा मी सु ीवको, इ पु वालीके बेटे बलवान् अ दको, बल- व मशाली हनुमा ो, दुजय वीर जा वा ो तथा सुषेण, कु मुद, नील, वानर े नल, गज, गवा , शरभ, मै एवं वदको भी देखा॥ १—४ ॥ उन सबको देखकर रावणका दय कु छ उ हो उठा। उसे ोध आ गया और उसने बात समा होनेपर वीर शुक और सारणको फटकारा॥ ५ ॥ ‘बेचारे शुक और सारण वनीत भावसे नीचे मुँह कये खड़े रहे और रावणने रोषग द वाणीम ोधपूवक यह कठोर बात कही—॥ ६ ॥ ‘राजा न ह और अनु ह करनेम भी समथ होता है। उसके सहारे जी वका चलानेवाले म य को ऐसी को◌इ बात नह कहनी चा हये, जो उसे अ य लगे॥ ७ ॥ ‘जो श ु अपने वरोधी ह और यु के लये सामने आये ह; उनक बना कसी स के ही ु त करना ा तुम दोन के लये उ चत था?॥ ८ ॥ ‘तुमलोग ने आचाय, गु और वृ क थ ही सेवा क है; क राजनी तका जो सं हणीय सार है, उसे तुम नह हण कर सके ॥ ९ ॥ ‘य द तुमने उसे हण भी कया हो तो भी इस समय तु उसका ान नह रह गया है— तुमने उसे भुला दया है। तुमलोग के वल अ ानका बोझ ढो रहे हो। ऐसे मूख म य के स कम रहते ए भी जो म अपने रा को सुर त रख सका ँ , यह सौभा क ही बात है॥ १० ॥ ‘म इस रा



का शासक ँ । मेरी ज ा ही तु शुभ या अशुभक ा करा सकती है— म वाणीमा से तुमपर न ह और अनु ह कर सकता ँ ; फर भी तुम दोन ने मेरे सामने कठोर बात कहनेका साहस कया। ा तु मृ ुका भय नह है?॥ ११ ॥



‘वनम



दावानलका श करके भी वहाँके वृ खड़े रह जायँ, यह स व है; परंतु राजद के अ धकारी अपराधी नह टक सकते। वे सवथा न हो जाते ह॥ १२ ॥ ‘य द इनके पहलेके उपकार को याद करके मेरा ोध नरम न पड़ जाता तो श ुप क शंसा करनेवाले इन दोन पा पय को म अभी मार डालता॥ १३ ॥ ‘अब तुम दोन मेरी सभाम वेशके अ धकारसे व त हो। मेरे पाससे चले जाओ; फर कभी मुझे अपना मुँह न दखाना। म तुम दोन का वध करना नह चाहता; क तुम दोन के कये ए उपकार को सदा रण रखता ँ । तुम दोन मेरे ेहसे वमुख और कृ त हो, अत: मरे एके ही समान हो’॥ १४ ॥ उसके ऐसा कहनेपर शुक और सारण ब त ल त ए और जय-जयकारके ारा रावणका अ भन न करके वहाँसे नकल गये॥ १५ ॥ इसके प ात् दशमुख रावणने अपने पास बैठे ए महोदरसे कहा—‘मेरे सामने शी ही गु चर को उप त होनेक आ ा दो।’ यह आदेश पाकर नशाचर महोदरने शी ही गु चर को हा जर होनेक आ ा दी॥ १६ ॥ राजाक आ ा पाकर गु चर उसी समय वजयसूचक आशीवाद दे हाथ जोड़े सेवाम उप त ए॥ १७ ॥ वे सभी गु चर व ासपा , शूरवीर, धीर एवं नभय थे। रा सराज रावणने उनसे यह बात कही— ‘तुमलोग अभी वानरसेनाम रामका ा न य है, यह जाननेके लये तथा गु म णाम भाग लेनेवाले जो उनके अ र म ी ह और जो लोग ेमपूवक उनसे मले ह— उनके म हो गये ह; उन सबके भी न त वचार ा ह, इसक जाँच करनेके लये यहाँसे जाओ॥ १९ ॥ ‘वे कै से सोते ह? कस तरह जागते ह और आज ा करगे?—इन सब बात का पूण पसे अ ी तरह पता लगाकर लौट आओ॥ २० ॥ ‘गु चरके ारा य द श ुक ग त व धका पता चल जाय तो बु मान् राजा थोड़े-से ही य के ारा यु म उसे धर दबाते और मार भगाते ह’॥ २१ ॥ तब ‘ब त अ ा’ कहकर हषम भरे ए गु चर ने शादूलको आगे करके रा सराज रावणक प र मा क ॥ २२ ॥



इस कार वे गु चर रा स शरोम ण महाकाय रावणक प र मा करके उस ानपर गये, जहाँ ल णस हत ीराम वराजमान थे॥ २३ ॥ सुवेल पवतके नकट जाकर उन गु चर ने छपे रहकर ीराम, ल ण, सु ीव और वभीषणको देखा॥ वानर क उस सेनाको देखकर वे भयसे ाकु ल हो उठे । इतनेहीम धमा ा रा सराज वभीषणने उन सब रा स को देख लया॥ २५ ॥ तब उ ने अक ात् वहाँ आये ए रा स को फटकारा और अके ले शादूलको यह सोचकर पकड़वा लया क यह रा स बड़ा पापी है॥ २६ ॥ फर तो वानर उसे पीटने लगे। तब भगवान् ीरामने दयावश उसे तथा अ रा स को भी छु ड़ा दया॥ २७ ॥ बल- व मस शी परा मी वानर से पी ड़त हो उन रा स के होश उड़ गये और वे हाँफते-हाँफते फर ल ाम जा प ँ चे॥ २८ ॥ तदन र रावणक सेवाम उप त हो चरके वेशम सदा बाहर वचरनेवाले उन महाबली नशाचर ने यह सूचना दी क ीरामच जीक सेना सुवेल पवतके नकट डेरा डाले पड़ी है॥ २९ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म उनतीसवाँ सग पूरा आ॥ २९ ॥



तीसवाँ सग रावणके भेजे ए गु चर एवं शादलका उससे वानर-सेनाका समाचार बताना और मु ू मु वीर का प रचय देना



-



गु चर ने ल ाप त रावणको यह बताया क ीरामच जीक सेना सुवेल पवतके पास आकर ठहरी है और वह सवथा अजेय है॥ १ ॥ गु चर के मुँहसे यह सुनकर क महाबली ीराम आ प ँ चे ह; रावणको कु छ भय हो गया। वह शादूलसे बोला—॥ २ ॥ ‘ नशाचर! तु ारे शरीरक का पहले-जैसी नह रह गयी है। तुम दीन (दु:खी) दखायी दे रहे हो। कह कु पत ए श ु के वशम तो नह पड़ गये थे?’॥ ३ ॥ उसके इस कार पूछनेपर भयसे घबराये ए शादूलने रा स वर रावणसे म रम कहा —॥ ४ ॥ ‘राजन्! उन े वानर क ग त व धका पता गु चर ारा नह लगाया जा सकता। वे बड़े परा मी, बलवान् तथा ीरामच जीके ारा सुर त ह॥ ५ ॥ ‘उनसे वातालाप करना भी अस व है; अत: ‘आप कौन ह, आपका ा वचार है’ इ ा द के लये वहाँ अवकाश ही नह मलता। पवत के समान वशालकाय वानर सब ओरसे मागक र ा करते ह; अत: वहाँ वेश होना भी क ठन ही है॥ ६ ॥ ‘उस सेनाम वेश करके ही उसक ग त व धका वचार करना आर कया, ही वभीषणके साथी रा स ने मुझे पहचानकर बलपूवक पकड़ लया और बारंबार इधर-उधर घुमाया॥ ७ ॥ ‘उस सेनाके बीच अमषसे भरे ए वानर ने घुटन , मु , दाँत और थ ड़ से मुझे ब त मारा और सारी सेनाम मेरे अपराधक घोषणा करते ए सब ओर मुझे घुमाया॥ ८ ॥ ‘सव घुमाकर मुझे ीरामके दरबारम ले जाया गया। उस समय मेरे शरीरसे खून नकल रहा था और अ -अ म दीनता छा रही थी। म ाकु ल हो गया था। मेरी इ याँ वच लत हो रही थ ॥ ९ ॥



‘वानर



पीट रहे थे और म हाथ जोड़कर र ाके लये याचना कर रहा था। उस दशाम ीरामने अक ात् ‘मत मारो, मत मारो’ कहकर मेरी र ा क ॥ १० ॥ ‘ ीराम पवतीय शलाख ारा समु को पाटकर ल ाके दरवाजेपर आ धमके ह और हाथम धनुष लये खड़े ह॥ ११ ॥ ‘वे महातेज ी रघुनाथजी ग ड़ ूहका आ य ले वानर के बीचम वराजमान ह और मुझे वदा करके वे ल ापर चढ़े चले आ रहे ह॥ १२ ॥ ‘जबतक वे ल ाके परकोटेतक प ँ च, उसके पहले ही आप शी तापूवक दोमसे एक काम अव कर डा लये—या तो उ सीताजीको लौटा दी जये या यु लम खड़े होकर उनका सामना क जये’॥ १३ ॥ उसक बात सुनकर मन-ही-मन उसपर वचार करनेके प ात् रा सराज रावणने शादूलसे यह मह पूण बात कही—॥ १४ ॥ ‘य द देवता, ग व और दानव मुझसे यु कर और स ूण लोक मुझे भय देने लगे तो भी म सीताको नह लौटाऊँ गा’॥ १५ ॥ ऐसा कहकर महातेज ी रावण फर बोला—‘तुम तो वानर क सेनाम वचरण कर चुके हो; उसम कौन-कौन-से वानर अ धक शूरवीर ह?॥ १६ ॥ ‘सौ ! जो दुजय वानर ह, वे कै से ह? उनका भाव कै सा है? तथा वे कसके पु और पौ ह? रा स! ये सब बात ठीक-ठीक बताओ॥ १७ ॥ ‘उन वानर का बलाबल जानकर तदनुसार कत का न य क ँ गा। यु क इ ा रखनेवाले पु षको अपने तथा श ुप क सेनाक गणना—उसके वषयक आव क जानकारी अव करनी चा हये’॥ १८ ॥ रावणके इस कार पूछनेपर े गु चर शादूलने उसके समीप य कहना आर कया —॥ १९ ॥ ‘राजन्! उस वानरसेनाम जा वान् नामसे स एक वीर है, जसको यु म परा करना ब त ही क ठन है। वह ऋ रजा तथा ग दका पु है॥ २० ॥ ‘ग दका एक दूसरा पु भी है ( जसका नाम धू है)। इ के गु बृह तका पु के सरी है, जसके पु हनुमा े अके ले ही यहाँ आकर पहले ब त-से रा स का संहार कर डाला था॥



२१ ॥



‘धमा



ा और परा मी सुषेण धमका पु है। राजन्! द धमुख नामक सौ वानर च माका बेटा है॥ २२ ॥ ‘सुमुख, दुमुख और वेगदश नामक वानर—ये मृ ुके पु ह। न य ही य ू ाने मृ ुक ही इन वानर के पम सृ क है॥ २३ ॥ ‘ यं सेनाप त नील अ का पु है। सु व ात वीर हनुमान् वायुका बेटा है॥ २४ ॥ ‘बलवान् एवं दुजय वीर अ द इ का नाती है। वह अभी नौजवान है। बलवान् वानर मै और वद—ये दोन अ नीकु मार के पु ह॥ २५ ॥ ‘गज, गवा , गवय, शरभ और ग मादन—ये पाँच यमराजके पु ह और काल एवं अ कके समान परा मी ह॥ २६ ॥ ‘इस कार देवता से उ ए तेज ी शूरवीर वानर क सं ा दस करोड़ है। वे सबके -सब यु क इ ा रखनेवाले ह। इनके अ त र जो शेष वानर ह, उनके वषयम म कु छ नह कह सकता; क उनक गणना अस व है॥ २७ ॥ ‘दशरथन न ीरामका ी व ह सहके समान सुग ठत है। इनक युवाव ा है। इ ने अके ले ही खर-दूषण और शराका संहार कया था॥ २८ ॥ ‘इस भूम लम ीरामच जीके समान परा मी वीर दूसरा को◌इ नह है। इ ने ही वराधका और कालके समान वकराल कब का भी वध कया था॥ ‘इस भूतलपर को◌इ भी मनु ऐसा नह है, जो ीरामके गुण का पूण पसे वणन कर सके । ीरामने ही जन ानम उतने रा स का संहार कया था॥ ३० ॥ ‘धमा ा ल ण भी े गजराजके समान परा मी ह, उनके बाण का नशाना बन जानेपर देवराज इ भी जी वत नह रह सकते॥ ३१ ॥ ‘इनके सवा उस सेनाम ेत और ो तमुख— ये दो वानर भगवान् सूयके औरस पु ह। हेमकू ट नामका वानर व णका पु बताया जाता है॥ ३२ ॥ ‘वानर शरोम ण वीरवर नल व कमाके पु ह। वेगशाली और परा मी दुधर वसु देवताका पु है॥



‘आपके



भा◌इ रा स शरोम ण वभीषण भी ल ापुरीका रा लेकर ीरघुनाथजीके ही हतसाधनम त र रहते ह॥ ३४ ॥ ‘इस कार मने सुवेल पवतपर ठहरी ◌इ वानरसेनाका पूरा-पूरा वणन कर दया। अब जो शेष काय है, वह आपके ही हाथ है’*॥ ३५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३० ॥ * इस सगम जो वानर के ज का वणन कया गया है, वह वहाँ व णसे सुषेण, पज से शरभ और कु बेरसे ग मादनक उ



ाय: बालका के स हव सगम कये गये वणनसे व है। कही गयी है। परंतु इस सगम सुषेणको धमका तथा शरभ और ग मादनको वैव त यमका पु कहा गया है। इस वरोधका प रहार यही है क यहाँ कहे गये सुषेण आ द बालका व णत सुषेण आ दसे भ ह।



इकतीसवाँ सग मायार चत ीरामका कटा म क दखाकर रावण ारा सीताको मोहम डालनेका य



रा सराज रावणके गु चर ने जब ल ाम लौटकर यह बताया क ीरामच जीक सेना सुवेल पवतपर आकर ठहरी है और उसपर वजय पाना अस व है, तब उन गु चर क बात सुनकर और महाबली ीराम आ गये, यह जानकर रावणको कु छ उ ेग आ। उसने अपने म य से इस कार कहा—॥ १-२ ॥ ‘मेरे सभी म ी एका च होकर शी यहाँ आ जायँ। रा सो! यह हमारे लये गु म णा करनेका अवसर आ गया है’॥ ३ ॥ रावणका आदेश सुनकर सम म ी शी तापूवक वहाँ आ गये। तब रावणने उन रा सजातीय स चव के साथ बैठकर आव क कत पर वचार कया॥ ४ ॥ दुधष वीर रावणने जो उ चत कत था, उसके वषयम शी ही वचार- वमश करके उन स चव को वदा कर दया और अपने भवनम वेश कया॥ ५ ॥ फर उसने महाबली, महामायावी, माया वशारद रा स व ु को साथ लेकर उस मदावनम वेश कया, जहाँ म थलेशकु मारी सीता व मान थ ॥ ६ ॥ उस समय रा सराज रावणने माया जाननेवाले व ु से कहा—‘हम दोन माया ारा जनकन नी सीताको मो हत करगे॥ ७ ॥ ‘ नशाचर! तुम ीरामच जीका माया न मत म क लेकर एक महान् धनुष-बाणके साथ मेरे पास आओ’॥ रावणक यह आ ा पाकर नशाचर व ु ने कहा—‘ब त अ ा’। फर उसने रावणको बड़ी कु शलतासे कट क ◌इ अपनी माया दखायी॥ ९ ॥ इससे राजा रावण उसपर ब त स आ और उसे अपना आभूषण उतारकर दे दया। फर वह महाबली रा सराज सीताजीको देखनेके लये अशोकवा टकाम गया॥ १० १/२ ॥ कु बेरके छोटे भा◌इ रावणने वहाँ सीताको दीन दशाम पड़ी देखा, जो उस दीनताके यो नह थ । वे अशोक-वा टकाम रहकर भी शोकम थ और सर नीचा कये पृ ीपर बैठकर अपने प तदेवका च न कर रही थ ॥



उनके आसपास ब त-सी भयंकर रा सयाँ बैठी थ । रावणने बड़े हषके साथ अपना नाम बताते ए जनक कशोरी सीताके पास जाकर धृ तापूण वचन म कहा—॥ १३ १/२ ॥ ‘भ े! मेरे बार-बार सा ना देने और ाथना करनेपर भी तुम जनका आ य लेकर मेरी बात नह मानती थ , खरका वध करनेवाले वे तु ारे प तदेव ीराम समरभू मम मारे गये॥ १४ १/ ॥ २



‘तु



ारी जो जड़ थी, सवथा कट गयी। तु ारे दपको मने चूण कर दया। अब अपने ऊपर आये ए इस संकटसे ही ववश होकर तुम यं मेरी भाया बन जाओगी। मूढ़ सीते! अब यह राम वषयक च न छोड़ दो। उस मरे ए रामको लेकर ा करोगी॥ १५-१६ ॥ ‘भ े! मेरी सब रा नय क ा मनी बन जाओ। मूढ!े तुम अपनेको बड़ी बु मती समझती थी न। तु ारा पु ब त कम हो गया था। इसी लये ऐसा आ है। अब रामके मारे जानेसे तु ारा जो उनक ा प योजन था, वह समा हो गया। सीते! य द सुनना चाहो तो वृ ासुरके वधक भयंकर घटनाके समान अपने प तके मारे जानेका घोर समाचार सुन लो॥ १७ ॥ ‘कहा जाता है राम मुझे मारनेके



लये समु के कनारेतक आये थे। उनके साथ वानरराज सु ीवक लायी ◌इ वशाल सेना भी थी॥ १८ ॥ ‘उस वशाल सेनाके ारा राम समु के उ र तटको दबाकर ठहरे। उस समय सूयदेव अ ाचलको चले गये थे॥ १९ ॥ ‘जब आधी रात ◌इ, उस समय रा ेक थक -माँदी सारी सेना सुखपूवक सो गयी थी। उस अव ाम वहाँ प ँ चकर मेरे गु चर ने पहले तो उसका भलीभाँ त नरी ण कया॥ २० ॥ ‘ फर ह के सेनाप त म वहाँ गयी ◌इ मेरी ब त बड़ी सेनाने रातम, जहाँ राम और ल ण थे, उस वानर-सेनाको न कर दया॥ २१ ॥ ‘उस समय रा स ने प श, प रघ, च , ऋ , द , बड़े-बड़े आयुध, बाण के समूह, शूल, चमक ले कू ट और मु र, डंड,े तोमर, ास तथा मूसल उठा-उठाकर वानर पर हार कया था॥ २२-२३ ॥ ‘तदन र श ु को मथ डालनेवाले ह ने, जसके हाथ खूब सधे ए ह, ब त बड़ी तलवार हाथम लेकर उससे बना कसी कावटके रामका म क काट डाला॥ २४ ॥



‘ फर



अक ात् उछलकर उसने वभीषणको पकड़ लया और वानरसै नक स हत ल णको व भ दशा म भाग जानेको ववश कया॥ २५ ॥ ‘सीते! वानरराज सु ीवक ीवा काट दी गयी, हनुमा हनु (ठोढ़ी) न करके उसे रा स ने मार डाला॥ २६ ॥ ‘जा वान् ऊपरको उछल रहे थे, उसी समय यु लम रा स ने ब त-से प श ारा उनके दोन घुटन पर हार कया। वे छ - भ होकर कटे ए पेड़क भाँ त धराशायी हो गये॥ २७ ॥ ‘मै और वद दोन े वानर खूनसे लथपथ होकर पड़े ह। वे लंबी साँस ख चते और रोते थे। उसी अव ाम उन दोन वशालकाय श ुसूदन वानर को तलवार ारा बीचसे ही काट डाला गया है॥ ‘पनस नामका वानर पककर फटे ए पनस (कटहल) के समान पृ ीपर पड़ा-पड़ा अ म साँस ले रहा है। दरीमुख अनेक नाराच से छ - भ हो कसी दरी (क रा) म पड़ा सो रहा है। महातेज ी कु मुद सायक से घायल हो चीखता- च ाता आ मर गया॥ २९-३० ॥ ‘अ दधारी अ दपर आ मण करके ब त-से रा स ने उ बाण ारा छ - भ कर दया है। वे सब अ से र बहाते ए पृ ीपर पड़े ह॥ ३१ ॥ ‘जैसे बादल वायुके वेगसे फट जाते ह, उसी कार बड़े-बड़े हा थय तथा रथसमूह ने वहाँ सोये ए वानर को र दकर मथ डाला॥ ३२ ॥ ‘जैसे सहके खदेड़नेसे बड़े-बड़े हाथी भागते ह, उसी कार रा स के पीछा करनेपर ब तसे वानर पीठपर बाण क मार खाते ए भाग गये ह॥ ३३ ॥ ‘को◌इ समु म कू द पड़े और को◌इ आकाशम उड़ गये ह। ब त-से रीछ वानरी वृ का आ य ले पेड़ पर चढ़ गये ह॥ ३४ ॥ ‘ वकराल ने वाले रा स ने इन ब सं क भूरे बंदर को समु तट, पवत और वन म खदेड़-खदेड़कर मार डाला है॥ ३५ ॥ ‘इस कार मेरी सेनाने सै नक स हत तु ारे प तको मौतके घाट उतार दया। खूनसे भीगा और धूलम सना आ उनका यह म क यहाँ लाया गया है’॥ ३६ ॥



‘ऐसा



—॥ ३७ ॥ ‘तुम



कहकर अ



दुजय रा सराज रावणने सीताके सुनते-सुनते एक रा सीसे कहा



ू रकमा रा स व ु को बुला ले आओ, जो यं सं ामभू मसे रामका सर यहाँ ले आया है’॥ ३८ ॥ तब व ु धनुषस हत उस म कको लेकर आया और सर कु ा रावणको णाम करके उसके सामने खड़ा हो गया। उस समय अपने पास खड़े ए वशाल ज ावाले रा स व ु से राजा रावण य बोला—॥ ४० ॥ ‘तुम दशरथकु मार रामका म क शी ही सीताके आगे रख दो, जससे यह बेचारी अपने प तक अ म अव ाका अ ी तरह दशन कर ले’॥ ४१ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर वह रा स उस सु र म कको सीताके नकट रखकर त ाल अ हो गया॥ ४२ ॥ रावणने भी उस वशाल चमक ले धनुषको यह कहकर सीताके सामने डाल दया क यही रामका भुवन व ात धनुष है॥ ४३ ॥ फर बोला—‘सीते! यही तु ारे रामका ास हत धनुष है। रातके समय उस मनु को मारकर ह इस धनुषको यहाँ ले आया है’॥ ४४ ॥ जब व ु ने म क वहाँ रखा, उसके साथ ही रावणने वह धनुष पृ ीपर डाल दया। त ात् वह वदेहराजकु मारी यश नी सीतासे बोला—‘अब तुम मेरे वशम हो जाओ’॥ ४५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म इकतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३१ ॥



ब ीसवाँ सग ीरामके मारे जानेका व ास करके सीताका वलाप तथा रावणका सभाम जाकर म य के सलाहसे यु वषयक उ ोग करना



सीताजीने उस म क और उस उ म धनुषको देखकर तथा हनुमा ीक कही ◌इ सु ीवके साथ मै ी-स होनेक बात याद करके अपने प तके -जैसे ही ने , मुखका वण, मुखाकृ त, के श, ललाट और उस सु र चूडाम णको ल कया। इन सब च से प तको पहचानकर वे ब त दुखी ◌इं और कु ररीक भाँ त रो-रोकर कै के यीक न ा करने लग —॥ १ —३ ॥ ‘कै के य! अब तुम सफलमनोरथ हो जाओ, रघुकुलको आन त करनेवाले ये मेरे प तदेव मारे गये। तुम भावसे ही कलहका रणी हो। तुमने सम रघुकुलका संहार कर डाला॥ ४ ॥ ‘आय ीरामने कै के यीका कौन-सा अपराध कया था, जससे उसने इ चीरव देकर मेरे साथ वनम भेज दया था’॥ ५ ॥ ऐसा कहकर दु:खक मारी तप नी वैदेही बाला थर-थर काँपती ◌इ कटी कदलीके समान पृ ीपर गर पड़ ॥ ६ ॥ फर दो घड़ीम उनक चेतना लौटी और वे वशाललोचना सीता कु छ धीरज धारणकर उस म कको अपने नकट रखकर वलाप करने लग —॥ ७ ॥ ‘हाय! महाबाहो! म मारी गयी। आप वीर तका पालन करनेवाले थे। आपक इस अ म अव ाको मुझे अपनी आँ ख से देखना पड़ा। आपने मुझे वधवा बना दया॥ ८ ॥ ‘ ीसे पहले प तका मरना उसके लये महान् अनथकारी दोष बताया जाता है। मुझ सती-सा ीके रहते ए मेरे सामने आप-जैसे सदाचारी प तका नधन आ, यह मेरे लये महान् दु:खक बात है॥ ९ ॥ ‘म महान् संकटम पड़ी ँ , शोकके समु म डू बी ँ , जो मेरा उ ार करनेके लये उ त थे, उन आप-जैसे वीरको भी श ु ने मार गराया॥ १० ॥ ‘रघुन न! जैसे को◌इ बछड़ेके त ेहसे भरी ◌इ गायको उस बछड़ेसे वलग कर दे, यही दशा मेरी सास कौस ाक ◌इ है। वे दयामयी जननी आप-जैसे पु से बछु ड़ गय ॥ ११



॥ ‘रघुवीर!



ो त षय ने तो आपक आयु ब त बड़ी बतायी थी, कतु उनक बात झूठी स ◌इ। रघुन न! आप बड़े अ ायु नकले॥ १२ ॥ ‘अथवा बु मान् होकर भी आपक बु मारी गयी। तभी तो आप सोते ए ही श ुके वशम पड़ गये अथवा यह काल ही सम ा णय के उ वम हेतु है। अत: वही ा णमा को पकाता है—उ शुभाशुभ कम के फलसे संयु करता है॥ १३ ॥ ‘आप तो नी तशा के व ान् थे। संकटसे बचनेके उपाय को जानते थे और सन के नवारणम कु शल थे तो भी कै से आपको ऐसी मृ ु ा ◌इ, जो दूसरे कसी वीर पु षको ा होती नह देखी गयी थी?॥ ‘कमलनयन! भीषण और अ ू र कालरा आपको दयसे लगाकर मुझसे हठात् छीन ले गयी॥ ‘पु षो म! महाबाहो! आप मुझ तप नीको ागकर अपनी यतमा नारीक भाँ त इस पृ ीका आ ल न करके यहाँ सो रहे ह॥ १६ ॥ ‘वीर! जसका म य पूवक ग और पु माला आ दके ारा न त पूजन करती थी तथा जो मुझे ब त य था, यह आपका वही णभू षत धनुष है॥ ‘ न ाप रघुन न! न य ही आप गम जाकर मेरे शुर और अपने पता महाराज दशरथसे तथा अ सब पतर से भी मले ह गे॥ १८ ॥ ‘आप पताक आ ाका पालन पी महान् कम करके अ तु पु का उपाजन कर यहाँसे अपने उस राज षकु लक उपे ा करके (उसे छोड़कर) जा रहे ह, जो आकाशम न * बनकर का शत होता है (आपको ऐसा नह करना चा हये)॥ १९ ॥ ‘राजन्! आपने अपनी छोटी अव ाम ही जब क मेरी भी छोटी ही अव ा थी, मुझे प ी पम ा कया। म सदा आपके साथ वचरनेवाली सहध मणी ँ । आप मेरी ओर नह देखते ह अथवा मेरी बातका उ र नह देते ह?॥ २० ॥ ‘काकु ! मेरा पा ण हण करते समय जो आपने त ा क थी क म तु ारे साथ धमाचरण क ँ गा, उसका रण क जये और मुझ दु: खनीको भी साथ ही ले च लये॥ २१ ॥



‘ग तमान म



े रघुन न! आप मुझे अपने साथ वनम लाकर और यहाँ मुझ दु: खनीको छोड़कर इस लोकसे परलोकको चले गये?॥ २२ ॥ ‘मने ही अनेक म लमय उपचार से सु र आपके जस ी व हका आ ल न कया था, आज उसीको मांस-भ ी हसक ज ु अव इधर-उधर घसीट रहे ह गे॥ ‘आपने तो पया द णा से यु अ ोम आ द य ारा भगवान् य पु षक आराधना क है; फर ा कारण है क अ हो क अ से दाह-सं ारका सुयोग आपको नह मल रहा है॥ २४ ॥ ‘हम तीन एक साथ वनम आये थे; परंतु अब शोकाकु ल ◌इ माता कौस ा के वल एक ल णको ही घर लौटा आ देख सकगी॥ २५ ॥ ‘उनके पूछनेपर ल ण उ रा के समय रा स के हाथसे आपके म क सेनाके तथा सोते ए आपके भी वधका समाचार अव सुनायगे॥ २६ ॥ ‘रघुन न! जब उ यह ात होगा क आप सोते समय मारे गये और म रा सके घरम हर लायी गयी ँ तो उनका दय वदीण हो जायगा और वे अपने ाण ाग दगी॥ २७ ॥ ‘हाय! मुझ अनायाके लये न ाप राजकु मार ीराम, जो महान् परा मी थे, समु ल नजैसा महान् कम करके भी गायक खुरीके बराबर जलम डू ब गये— बना यु कये सोते समय मारे गये॥ २८ ॥ ‘हाय! दशरथन न ीराम मुझ-जैसी कु लकल नी नारीको मोहवश ाह लाये। प ी ही आयपु ीरामके लये मृ ु प बन गयी॥ २९ ॥ ‘ जनके यहाँ सब लोग याचक बनकर आते थे एवं सभी अ त थ ज य थे, उ ीरामक प ी होकर जो म आज शोक कर रही ँ , इससे जान पड़ता है क मने दूसरे ज म न य ही उ म दानधमम बाधा डाली थी॥ ३० ॥ ‘रावण! मुझे भी ीरामके शवके ऊपर रखकर मेरा वध करा डालो; इस कार प तको प ीसे मला दो; यह उ म क ाणकारी काय है, इसे अव करो॥ ‘रावण! मेरे सरसे प तके सरका और मेरे शरीरसे उनके शरीरका संयोग करा दो। इस कार म अपने महा ा प तक ग तका ही अनुसरण क ँ गी’॥



इस कार दु:खसे संत ◌इ वशाललोचना जनकन नी सीता प तके म क तथा धनुषको देखने और वलाप करने लग ॥ ३३ ॥ जब सीता इस तरह वलाप कर रही थ , उसी समय वहाँ रावणक सेनाका एक रा स हाथ जोड़े ए अपने ामीके पास आया॥ ३४ ॥ उसने ‘आयपु महाराजक जय हो’ कहकर रावणका अ भवादन कया और उसे स करके यह सूचना दी क ‘सेनाप त ह पधारे ह॥ ३५ ॥ ‘ भो! सब म य के साथ ह महाराजक सेवाम उप त ए ह। वे आपका दशन करना चाहते ह, इसी लये उ ने मुझे यहाँ भेजा है॥ ३६ ॥ ‘ माशील महाराज! न य ही को◌इ अ आव क राजक य काय आ पड़ा है, अत: आप उ दशन देनेका क कर?॥ ३७ ॥ रा सक कही ◌इ यह बात सुनकर दश ीव रावण अशोकवा टका छोड़कर म य से मलनेके लये चला गया॥ ३८ ॥ उसने म य से अपने सारे कृ का समथन कराया और ीरामच जीके परा मका पता लगाकर सभाभवनम वेश करके वह ुत कायक व ा करने लगा॥ ३९ ॥ रावणके वहाँसे नकलते ही वह सर और उ म धनुष दोन अ हो गये॥ ४० ॥ रा सराज रावणने अपने उन भयानक म य के साथ बैठकर रामके त कये जानेवाले त ालो चत कत का न य कया॥ ४१ ॥ फर रा सराज रावणने पास ही खड़े ए अपने हतैषी सेनाप तय से इस कार समयानुकूल बात कही—॥ ‘तुम सब लोग शी ही डंडस े े पीट-पीटकर ध सा बजाते ए सम सै नक को एक करो; परंतु उ इसका कारण नह बताना चा हये’॥ ४३ ॥ तब दूत ने ‘तथा ु’ कहकर रावणक आ ा ीकार क और उसी समय सहसा वशाल सेनाको एक कर दया; फर यु क अ भलाषा रखनेवाले अपने ामीको यह सूचना दी क ‘सारी सेना आ गयी’॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म ब ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३२ ॥



इ ाकु वंशके राजा शंकु आकाशम न न कु ल बताया है। *



होकर का शत होते ह, उ के कारण



ायसे सम कु लको ही



ततीसवाँ सग सरमाका सीताको सा ना देना, रावणक मायाका भेद खोलना, ीरामके आगमनका समाचार सुनाना और उनके वजयी होनेका व ास दलाना







वदेहन नी सीताको मोहम पड़ी ◌इ देख सरमा नामक रा सी उनके पास उसी तरह आयी, जैसे ेम रखनेवाली सखी अपनी ारी सखीके पास जाती है॥ सीता रा सराजक मायासे मो हत हो बड़े दु:खम पड़ गयी थ । उस समय मृदभु ा षणी सरमाने उ अपने वचन ारा सा ना दी॥ २ ॥ सरमा रावणक आ ासे सीताजीक र ा करती थी। उसने अपनी र णीया सीताके साथ मै ी कर ली थी। वह बड़ी दयालु और ढ-संक थी॥ ३ ॥ सरमाने सखी सीताको देखा। उनक चेतना न -सी हो रही थी। जैसे प र मसे थक ◌इ घोड़ी धरतीक धूलम लोटकर खड़ी ◌इ हो, उसी कार सीता भी पृ ीपर लोटकर रोने और वलाप करनेके कारण धू लधूस रत हो रही थ ॥ ४ ॥ उसने एक सखीके ेहसे उ म तका पालन करनेवाली सीताको आ ासन दया —‘ वदेहन नी! धैय धारण करो। तु ारे मनम था नह होनी चा हये। भी ! रावणने तुमसे जो कु छ कहा है और यं तुमने उसे जो उ र दया है, वह सब मने सखीके त ेह होनेके कारण सुन लया है। वशाललोचने! तु ारे लये म रावणका भय छोड़कर अशोकवा टकाम सूने गहन ानम छपकर सारी बात सुन रही थी। मुझे रावणसे को◌इ डर नह है॥ ५-६ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! रा सराज रावण जस कारण यहाँसे घबराकर नकल गया है, उसका भी म वहाँ जाकर पूण पसे पता लगा आयी ँ ॥ ७ ॥ ‘भगवान् ीराम अपने पको जाननेवाले सव परमा ा ह। उनका सोते समय वध करना कसीके लये भी सवथा अस व है। पु ष सह ीरामके वषयम इस तरह उनके वध होनेक बात यु संगत नह जान पड़ती॥ ‘वानरलोग वृ के ारा यु करनेवाले ह। उनका भी इस तरह मारा जाना कदा प स व नह है; क जैसे देवतालोग देवराज इ से पा लत होते ह, उसी कार ये वानर ीरामच जीसे भलीभाँ त सुर त ह॥



‘सीते! ीमान् राम गोलाकार बड़ी-बड़ी भुजा धनुधर, सुग ठत शरीरसे यु और भूम लम सु व



से सुशो भत, चौड़ी छातीवाले, तापी, ात धमा ा ह। उनम महान् परा म है। वे भा◌इ ल णक सहायतासे अपनी तथा दूसरेक भी र ा करनेम समथ ह। नी तशा के ाता और कु लीन ह। उनके बल और पौ ष अ च ह। वे श ुप के सै समूह का संहार करनेक श रखते ह। श ुसूदन ीराम कदा प मारे नह गये ह॥ १०—१२ ॥ ‘रावणक बु और कम दोन ही बुरे ह। वह सम ा णय का वरोधी, ू र और मायावी है। उसने तुमपर यह मायाका योग कया था (वह म क और धनुष माया ारा रचे गये थे)॥ १३ ॥ ‘अब तु ारे शोकके दन बीत गये। सब कारसे क ाणका अवसर उप त आ है। न य ही ल ी तु ारा सेवन करती ह। तु ारा य काय होने जा रहा है। उसे बताती ँ , सुनो॥ १४ ॥ ‘ ीरामच जी वानरसेनाके साथ समु को लाँघकर इस पार आ रहे ह। उ ने सागरके द णतटपर पड़ाव डाला है॥ १५ ॥ ‘मने यं ल णस हत पूणकाम ीरामका दशन कया है। वे समु तटपर ठहरी ◌इ अपनी संग ठत सेना ारा सवथा सुर त ह॥ १६ ॥ ‘रावणने जो-जो शी गामी रा स भेजे थे, वे सब यहाँ यही समाचार लाये ह क ‘ ीरघुनाथजी समु को पार करके आ गये’॥ १७ ॥ ‘ वशाललोचने! इस समाचारको सुनकर यह रा सराज रावण अपने सभी म य के साथ गु परामश कर रहा है’॥ १८ ॥ जब रा सी सरमा सीतासे ये बात कह रही थी, उसी समय उसने यु के लये पूणत: उ ोगशील सै नक का भैरव नाद सुना॥ १९ ॥ डंडके चोटसे बजनेवाले ध सेका ग ीर नाद सुनकर मधुरभा षणी सरमाने सीतासे कहा —॥ २० ॥ ‘भी ! यह भयानक भेरीनाद यु के लये तैयारीक सूचना दे रहा है। मेघक गजनाके समान रणभेरीका ग ीर घोष तुम भी सुन लो॥ २१ ॥



‘मतवाले



हाथी सजाये जा रहे ह। रथम घोड़े जोते जा रहे ह और हजार घुड़सवार हाथम भाला लये गोचर हो रहे ह॥ २२ ॥ ‘जहाँ-तहाँसे यु के लये संन ए सह सै नक दौड़े चले आ रहे ह। सारी सड़क अ तु वेषम सजे और बड़े वेगसे गजना करते ए सै नक से उसी तरह भरती जा रही ह जैसे जलके असं वाह सागरम मल रहे ह ॥ २३ १/२ ॥ ‘नाना कारक भा बखेरनेवाले चमचमाते ए अ -श , ढाल और कवच क वह चमक देखो। रा सराज रावणका अनुगमन करनेवाले रथ , घोड़ , हा थय तथा रोमा त ए वेगशाली रा स म इस समय यह बड़ी हड़बड़ी दखायी देती है। ी ऋतुम वनको जलाते ए दावानलका जैसा जा मान प होता है, वैसी ही भा इन अ -श आ दक दखायी देती है॥ २४—२६ ॥ ‘हा थय पर बजते ए घ का ग ीर घोष सुनो, रथ क घघराहट सुनो और हन हनाते ए घोड़ तथा भाँ त-भाँ तके बाज क आवाज भी सुन लो॥ २७ ॥ ‘हाथ म ह थयार लये रावणके अनुगामी रा स म इस समय बड़ी घबराहट है। इससे यह जान लो क उनपर को◌इ बड़ा भारी रोमा कारी भय उप त आ है और शोकका नवारण करनेवाली ल ी तु ारी सेवाम उप त हो रही है॥ २८ १/२ ॥ ‘तु ारे प त कमलनयन ीराम ोधको जीत चुके ह। उनका परा म अ च है। वे दै को परा करनेवाले इ क भाँ त रा स को हराकर समरा णम रावणका वध करके तु ा कर लगे॥ २९-३० ॥ ‘जैसे श ुसूदन इ ने उपे क सहायतासे श ु पर परा म कट कया था, उसी कार तु ारे प तदेव ीराम अपने भा◌इ ल णके सहयोगसे रा स पर अपने बल व मका दशन करगे॥ ३१ ॥ ‘श ु रावणका संहार हो जानेपर म शी ही तुम-जैसी सतीसा ीको यहाँ पधारे ए ीरघुनाथजीक गोदम समोद बैठी देखूँगी। अब शी ही तु ारा मनोरथ पूरा होगा॥ ३२ ॥ ‘जनकन न! वशाल व : लसे वभू षत ीरामके मलनेपर उनक छातीसे लगकर तुम शी ही ने से आन के आँ सू बहाओगी॥ ३३ ॥



‘दे व



सीते! क◌इ महीन से तु ारे के श क एक ही वेणी जटाके पम प रणत हो जो क ट देशतक लटक रही है, उसे महाबली ीराम शी ही अपने हाथ से खोलगे॥ ३४ ॥ ‘दे व! जैसे ना गन कचुल छोड़ती है, उसी कार तुम उ दत ए पूणच के समान अपने प तका मु दत मुख देखकर शोकके आँ सू बहाना छोड़ दोगी॥ ३५ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! समरा णम शी ही रावणका वध करके सुख भोगनेके यो ीराम सफलमनोरथ हो तुझ यतमाके साथ मनोवा त सुख ा करगे॥ ‘जैसे पृ ी उ म वषासे अ भ ष होनेपर हरीभर ◌ी खेतीसे लहलहा उठती है, उसी कार तुम महा ा ीरामसे स ा नत हो आन म हो जाओगी॥ ३७ ॥ ‘दे व! जो ग रवर मे के चार ओर घूमते ए अ क भाँ त शी तापूवक म लाकारग तसे चलते ह, उ भगवान् सूयक (जो तु ारे कु लके देवता ह) तुम यहाँ शरण लो; क ये जाजन को सुख देने तथा उनका दु:ख दूर करनेम समथ ह’॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म ततीसवाँ सग पूरा आ॥ ३३ ॥



च तीसवाँ सग सीताके अनुरोधसे सरमाका उ म



य स हत रावणका न त वचार बताना



रावणके पूव वचनसे मो हत एवं संत ◌इ सीताको सरमाने अपनी वाणी ारा उसी कार आ ाद दान कया, जैसे ी -ऋतुके तापसे द ◌इ पृ ीको वषा-कालक मेघमाला अपने जलसे आ ा दत कर देती है॥ तदन र समयको पहचानने और मुसकराकर बात करनेवाली सखी सरमा अपनी य सखी सीताका हत करनेक इ ा रखकर यह समयो चत वचन बोली—॥ ‘कजरारे ने वाली सखी! मुझम यह साहस और उ ाह है क म ीरामके पास जाकर तु ारा संदेश और कु शल-समाचार नवेदन कर दूँ और फर छपी ◌इ वहाँसे लौट आऊँ ॥ ३ ॥ ‘ नराधार



आकाशम ती वेगसे जाती ◌इ मेरी ग तका अनुसरण करनेम वायु अथवा ग ड़ भी समथ नह ह’॥ ऐसी बात कहती ◌इ सरमासे सीताने उस ेहभरी मधुर वाणी ारा जो पहले शोकसे ा थी, इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘सरमे! तुम आकाश और पाताल सभी जगह जानेम समथ हो। मेरे लये जो कत तु करना है, उसे अब बता रही ँ , सुनो और समझो॥ ६ ॥ ‘य द तु मेरा य काय करना है और य द इस वषयम तु ारी बु र है तो म यह जानना चाहती ँ क रावण यहाँसे जाकर ा कर रहा है?॥ ७ ॥ ‘श ु को लानेवाला रावण मायाबलसे स है। वह दु ा ा मुझे उसी कार मो हत कर रहा है, जैसे वा णी अ धक मा ाम पी लेनेपर वह पीनेवालेको मो हत (अचेत) कर देती है॥ ८ ॥ ‘वह रा स अ भयानक रा सय ारा त दन मुझे डाँट बताता है, धमकाता है और सदा मेरी रखवाली करता है॥ ९ ॥ ‘म सदा उससे उ और श त रहती ँ । मेरा च नह हो पाता। म उसीके भयसे ाकु ल होकर अशोकवा टकाम चली आयी थी॥ १० ॥



‘य द



म य के साथ उसक बातचीत चल रही है तो वहाँ जो कु छ न य हो अथवा रावणका जो न त वचार हो, वह सब मुझे बताती रहो। यह मुझपर तु ारी ब त बड़ी कृ पा होगी’॥ ११ ॥ ऐसी बात कहती ◌इ सीतासे मधुरभा षणी सरमाने उनके आँ सु से भीगे ए मुखम लको हाथसे प छते ए इस कार कहा—॥ १२ ॥ ‘ म थलेशकु मारी जनकन न! य द तु ारी यही इ ा है तो म जाती ँ और श ुके अ भ ायको जानकर अभी लौटती ँ ’॥ १३ ॥ ऐसा कहकर सरमाने उस रा सके समीप जाकर म य स हत रावणक कही ◌इ सारी बात सुन ॥ १४ ॥ उस दुरा ाके न यको सुनकर उसने अ ी तरह समझ लया और फर वह शी ही सु र अशोकवा टकाम लौट आयी॥ १५ ॥ वहाँ वेश करके उसने अपनी ही ती ाम बैठी ◌इ जनक कशोरीको देखा, जो उस ल ीके समान जान पड़ती थ , जसके हाथका कमल कह गर गया हो॥ फर लौटकर आयी ◌इ यभा षणी सरमाको बड़े ेहसे गले लगाकर सीताने यं उसे बैठनेके लये आसन दया और कहा—॥ १७ ॥ ‘सखी! यहाँ सुखसे बैठकर सारी बात ठीक-ठीक बताओ। उस ू र एवं दुरा ा रावणने ा न य कया’॥ काँपती ◌इ सीताके इस कार पूछनेपर सरमाने म य स हत रावणक कही ◌इ सारी बात बताय —॥ ‘ वदेहन न! रा सराज रावणक माताने तथा रावणके त अ ेह रखनेवाले एक बूढ़े म ीने भी बड़ी-बड़ी बात कहकर तु छोड़ देनेके लये रावणको े रत कया॥ २० ॥ ‘रा सराज! तुम महाराज ीरामको स ारपूवक उनक प ी सीता लौटा दो। जन ानम जो अ तु घटना घ टत ◌इ थी, वही ीरामके परा मको समझनेके लये पया माण एवं उदाहरण है॥ २१ ॥ ‘(उनके सेवक म भी अ तु श है) हनुमा े जो समु को लाँघा, सीतासे भट क और यु म ब त-से रा स का वध कया—यह सब काय दूसरा कौन मनु कर सकता है?’॥ २२



॥ ‘इस



कार बूढ़े म य तथा माताके ब त समझानेपर भी वह तु उसी तरह छोड़नेक इ ा नह करता है, जैसे धनका लोभी धनको ागना नह चाहता है॥ २३ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! वह यु म मरे बना तु छोड़नेका साहस नह कर सकता। म य स हत उस नृशंस नशाचरका यही न य है॥ २४ ॥ ‘रावणके सरपर काल नाच रहा है। इस लये उसके मनम मृ ुके त लोभ पैदा हो गया है। यही कारण है क तु न लौटानेके न यपर उसक बु सु र हो गयी है। वह जबतक यु म रा स के संहार और अपने वधके ारा (न ) नह हो जायगा; के वल भय दखानेसे तु नह छोड़ सकता॥ २५ १/२ ॥ ‘कजरारे ने वाली सीते! इसका प रणाम यही होगा क भगवान् ीराम अपने सवथा तीखे बाण से यु लम रावणका वध करके तु अयो ाको ले जायँग’े ॥ २६ ॥ इसी समय भेरीनाद और श नसे मला आ सम सै नक का महान् कोलाहल सुनायी दया, जो भूक पैदा कर रहा था॥ २७ ॥ वानरसै नक के उस भीषण सहनादको सुनकर ल ाम रहनेवाले रा सराज रावणके सेवक हतो ाह हो गये। उनक सारी चे ा दीनतासे ा हो गयी। रावणके दोषसे उ भी को◌इ क ाणका उपाय नह दखायी देता था॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म च तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३४ ॥



पतीसवाँ सग मा



वा



ा रावणको ीरामसे सं ध करनेके लये समझाना



श ुनगरीपर वजय पानेवाले महाबा ीरामने श नसे म त हो तुमुल नाद करनेवाली भेरीक आवाजके साथ ल ापर आ मण कया॥ १ ॥ उस भेरीनादको सुनकर रा सराज रावणने दो घड़ीतक कु छ सोच- वचार करनेके प ात् अपने म य क ओर देखा॥ २ ॥ उन सब म य को स ो धत करके जग ो संताप देनेवाले, महाबली, ू र रा सराज रावणने सारी सभाको त नत करके कसीपर आ ेप न करते ए कहा—॥ ३ १/२ ॥ ‘आपलोग ने रामके परा म, बल-पौ ष तथा समु -ल नक जो बात बतायी है, वह सब मने सुन ली; परंतु म तो आपलोग को भी, जो इस समय रामके परा मक बात जानकर चुपचाप एक-दूसरेका मुँह देख रहे ह, सं ामभू मम स परा मी वीर समझता ँ ’॥ ४-५ ॥ रावणके इस आ ेपपूण वचनको सुननेके प ात् महाबु मान् मा वान् नामक रा सने, जो रावणका नाना था, इस कार कहा—॥ ६ ॥ ‘राजन्! जो राजा चौदह व ा म सु श त और नी तका अनुसरण करनेवाला होता है, वह दीघकालतक रा का शासन करता है। वह श ु को भी वशम कर लेता है॥ ७ ॥ ‘जो समयके अनुसार आव क होनेपर श ु के साथ सं ध और व ह करता है तथा अपने प क वृ म लगा रहता है, वह महान् ऐ यका भागी होता है॥ ८ ॥ ‘ जस राजाक श ीण हो रही हो अथवा जो श ुके समान ही श रखता हो, उससे सं ध कर लेनी चा हये। अपनेसे अ धक या समान श वाले श ुका कभी अपमान न करे। य द यं ही श म बढ़ा-चढ़ा हो, तभी श ुके साथ वह यु ठाने॥ ९ ॥ ‘इस लये रावण! मुझे तो ीरामके साथ सं ध करना ही अ ा लगता है। जसके लये तु ारे ऊपर आ मण हो रहा है, वह सीता तुम ीरामको लौटा दो॥ ‘देखो देवता, ऋ ष और ग व सभी ीरामक वजय चाहते ह, अत: तुम उनसे वरोध न करो। उनके साथ सं ध कर लेनेक ही इ ा करो॥ ११ ॥



‘भगवान्



ाने सुर और असुर दो ही प क सृ क है। धम और अधम ही इनके



आ य ह॥ १२ ॥ ‘सुना जाता है महा ा देवता का प धम है। रा सराज! रा स और असुर का प अधम है॥ १३ ॥ ‘जब स युग होता है, तब धम बलवान् होकर अधमको स लेता है और जब क लयुग आता है, तब अधम ही धमको दबा देता है॥ १४ ॥ ‘तुमने द जयके लये सब लोक म मण करते ए महान् धमका नाश कया है और अधमको गले लगाया है, इस लये हमारे श ु हमसे बल ह॥ ‘तु ारे मादसे बढ़ा आ अधम पी अजगर अब हम नगल जाना चाहता है और देवता ारा पा लत धम उनके प क वृ कर रहा है॥ १६ ॥ ‘ वषय म आस होकर जो कु छ भी कर डालनेवाले तुमने जो मनमाना आचरण कया है, इससे अ के समान तेज ी ऋ षय को बड़ा ही उ ेग ा आ है॥ १७ ॥ ‘उनका भाव लत अ के समान दुधष है। वे ऋ ष-मु न तप ाके ारा अपने अ :करणको शु करके धमके ही सं हम त र रहते ह॥ १८ ॥ ‘ये जगण मु -मु य ारा यजन करते, व धवत् अ म आ त देते और उ रसे वेद का पाठ करते ह॥ १९ ॥ ‘उ ने रा स को अ भभूत करके वेदम क नका व ार कया है, इस लये ी ऋतुम मेघक भाँ त रा स स ूण दशा म भाग खड़े ए ह॥ २० ॥ ‘अ तु तेज ी ऋ षय के अ हो से कट आ धूम दस दशा म ा होकर रा स के तेजको हर लेता है॥ २१ ॥ ‘ भ - भ देश म पु कम म ही लगे रहकर ढ़तापूवक उ म तका पालन करनेवाले ऋ षलोग जो ती तप ा करते ह, वही रा स को संताप दे रही है॥ २२ ॥ ‘तुमने देवता , दानव और य से ही अव होनेका वर ा कया है, मनु आ दसे नह । परंतु यहाँ तो मनु , वानर, रीछ और लंगूर आकर गरज रहे ह। वे सब-के -सब ह भी बड़े बलवान्, सै नकश से स तथा सु ढ़ परा मी॥ २३ ॥



‘नाना



कारके ब त-से भयंकर उ ात को ल करके म तो इन सम रा स के वनाशका ही अवसर उप त देख रहा ँ ॥ २४ ॥ ‘घोर एवं भयंकर मेघ च गजन-तजनके साथ ल ापर सब ओरसे गम खूनक वषा कर रहे ह॥ २५ ॥ ‘घोड़े-हाथी आ द वाहन रो रहे ह और उनके ने से अ ु व ु झर रहे ह। दशाएँ धूल भर जानेसे म लन हो अब पहलेक भाँ त का शत नह हो रही ह॥ २६ ॥ मांसभ ी हसक पशु, गीदड़ और गीध भयंकर बोली बोलते ह तथा ल ाके उपवनम घुसकर ंडु बनाकर बैठते ह॥ २७ ॥ ‘सपनेम काले रंगक याँ अपने पीले दाँत दखाती ◌इ सामने आकर खड़ी हो जाती और तकू ल बात कहकर घरके सामान चुराती ◌इ जोर-जोरसे हँ सती ह॥ २८ ॥ ‘घर म जो ब लकम कये जाते ह, उस ब ल-साम ीको कु े खा जाते ह। गौ से गधे और नेवल से चूहे पैदा होते ह॥ २९ ॥ ‘बाघ के साथ बलाव, कु के साथ सूअर तथा रा स और मनु के साथ क र समागम करते ह॥ ‘ जनक पाँख सफे द और पंजे लाल ह, वे कबूतर प ी दैवसे े रत हो रा स का भावी वनाश सू चत करनेके लये यहाँ सब ओर वचरते ह॥ ३१ ॥ ‘घर म रहनेवाली सा रकाएँ कलहक इ ावाले दूसरे प य से च-च करती ◌इ गुँथ जाती ह और उनसे परा जत हो पृ ीपर गर पड़ती ह॥ ३२ ॥ ‘प ी और मृग सभी सूयक ओर मुँह करके रोते ह। वकराल, वकट, काले और भूरे रंगके मूँड़ मुड़ाये ए पु षका प धारण करके काल समय-समयपर हम सबके घर क ओर देखता है॥ ३३ १/२ ॥ ‘ये तथा और भी ब त-से अपशकु न हो रहे ह। म ऐसा समझता ँ क सा ात् भगवान् व ु ही मानव प धारण करके राम होकर आये ह। ज ने समु म अ अ तु सेतु बाँधा है, वे ढपरा मी रघुवीर साधारण मनु मा नह ह। रावण! तुम नरराज ीरामके साथ सं ध कर लो। ीरामके अलौ कक कम और ल ाम होनेवाले उ ात को जानकर जो काय भ व म सुख देनेवाला हो, उसका न य करके वही करो’॥ ३४—३६ ॥



यह बात कहकर तथा रा सराज रावणके मनोभावक परी ा करके उ म म य म े पौ षशाली महाबली मा वान् रावणक ओर देखता आ चुप हो गया॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३५ ॥



छ ीसवाँ सग मा



वा र आ ेप और नगरक र ाका ब



करके रावणका अपने अ :पुरम जाना



दु ा ा दशमुख रावण कालके अधीन हो रहा था, इस लये मा वा कही ◌इ हतकर बातको भी वह सहन नह कर सका॥ १ ॥ वह ोधके वशीभूत हो गया। अमषसे उसके ने घूमने लगे। उसने भ ह टेढ़ी करके मा वा े कहा—॥ २ ॥ ‘तुमने श ुका प लेकर हत-बु से जो मेरे अ हतक कठोर बात कही है, वह पूरी तौरसे मेरे कान तक नह प ँ ची॥ ३ ॥ ‘बेचारा राम एक मनु ही तो है, जसने सहारा लया है कु छ बंदर का। पताके ाग देनेसे उसने वनक शरण ली है। उसम कौन-सी ऐसी वशेषता है, जससे तुम उसे बड़ा साम शाली मान रहे हो॥ ४ ॥ ‘म रा स का ामी तथा सभी कारके परा म से स ँ , देवता के मनम भी भय उ करता ँ ; फर कस कारणसे तुम मुझे रामक अपे ा हीन समझते हो ?॥ ५ ॥ ‘तुमने जो मुझे कठोर बात सुनायी ह, उनके वषयम मुझे श ा है क तुम या तो मुझ-जैसे वीरसे ेष रखते हो या श ुसे मले ए हो अथवा श ु ने ऐसा कहने या करनेके लये तु ो ाहन दया है॥ ६ ॥ ‘जो भावशाली होनेके साथ ही अपने रा पर त त है, ऐसे पु षको कौन शा त व ान् श ुका ो ाहन पाये बना कटुवचन सुना सकता है?॥ ७ ॥ ‘कमलहीन कमलाक भाँ त सु री सीताको वनसे ले आकर अब के वल रामके भयसे म कै से लौटा दूँ?॥ ८ ॥ ‘करोड़ वानर से घरे ए सु ीव और ल ण-स हत रामको म कु छ ही दन म मार डालूँगा, यह तुम अपनी आँ ख देख लेना॥ ९ ॥ ‘ जसके सामने यु म देवता भी नह ठहर पाते ह, वही रावण यु म कससे भयभीत होगा॥ १० ॥



‘म बीचसे दो टूक हो जाऊँ गा, पर



कसीके सामने कु नह सकूँ गा, यह मेरा सहज दोष है और भाव कसीके लये भी दुलङ् होता है॥ ११ ॥ ‘य द रामने दैववश समु पर सेतु बाँध लया तो इसम व यक कौन बात है, जससे तु इतना भय हो गया है?॥ १२ ॥ ‘म तु ारे आगे स ी त ा करके कहता ँ क समु पार करके वानरसेनास हत आये ए राम यहाँसे जी वत नह लौट सकगे’॥ १३ ॥ ऐसी बात कहते ए रावणको ोधसे भरा आ एवं जानकर मा वान् ब त ल त आ और उसने को◌इ उ र नह दया॥ १४ ॥ मा वा े ‘महाराजक जय हो’ इस वजयसूचक आशीवादसे राजाको यथो चत बढ़ावा दया और उससे आ ा लेकर वह अपने घर चला गया॥ १५ ॥ तदन र म य स हत रा स रावणने पर र वचार- वमश करके त ाल ल ाक र ाका ब कया॥ १६ ॥ उसने पूव ारपर उसक र ाके लये रा स ह को तैनात कया, द ण ारपर महापरा मी महापा और महोदरको नयु कया तथा प म ारपर अपने पु इ ज ो रखा, जो महान् मायावी था। वह ब त-से रा स ारा घरा आ था॥ १७-१८ ॥ तदन र नगरके उ र ारपर शुक और सारणको र ाके लये जानेक आ ा दे म य से रावणने कहा— ‘म यं भी उ र ारपर जाऊँ गा’॥ १९ ॥ नगरके बीचक छावनीपर उसने ब सं क रा स के साथ महान् बल-परा मसे स रा स व पा को ा पत कया॥ २० ॥ इस कार ल ाम पुरीक र ाका ब करके काल े रत रा स शरोम ण रावण अपनेआपको कृ तकृ मानने लगा॥ २१ ॥ इस तरह नगरके संर णक चुर व ाके लये आ ा देकर रावणने सब म य को वदा कर दया और यं भी उनके वजयसूचक आशीवादसे स ा नत हो अपने समृ शाली एवं वशाल अ :पुरम चला गया॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३६ ॥



सतीसवाँ सग वभीषणका ीरामसे रावण ारा कये गये ल ाक र ाके ब का वणन तथा ीराम ारा ल ाके व भ ार पर आ मण करनेके लये अपने सेनाप तय क नयु



श ुके देशम प ँ चे ए नरराज ीराम, सु म ाकु मार ल ण, वानरराज सु ीव, वायुपु हनुमान्, ऋ राज जा वान्, रा स वभीषण, वा लपु अ द, शरभ, ब -ु बा व स हत सुषेण, मै , वद, गज, गवा , कु मुद, नल और पनस—ये सब आपसम मलकर वचार करने लगे—॥ १—३ ॥ ‘यही वह ल ापुरी दखायी देती है, जसका पालन रावण करता है। असुर, नाग और ग व स हत स ूण देवता के लये भी इसपर वजय पाना अ क ठन है॥ ४ ॥ ‘रा सराज रावण इस पुरीम सदा नवास करता है। अब आपलोग इसपर वजय पानेके उपाय का नणय करनेके लये पर र वचार कर’॥ ५ ॥ उन सबके इस कार कहनेपर रावणके छोटे भा◌इ वभीषणने सं ारयु पद और चुर अथसे भरी ◌इ वाणीम कहा—॥ ६ ॥ ‘मेरे म ी अनल, पनस, स ा त और म त— ये चार ल ापुरीम जाकर फर यहाँ लौट आये ह॥ ७ ॥ ‘ये सब लोग प ीका प धारण करके श ुक सेनाम गये थे और वहाँ जो व ा क गयी है, उसे अपनी आँ ख देखकर फर यहाँ उप त ए ह॥ ८ ॥ ‘ ीराम! इ ने दुरा ा रावणके ारा कये गये नगर-र ाके ब का जैसा वणन कया है, उसे म ठीक-ठीक बताता ँ । आप वह सब मुझसे सु नये॥ ९ ॥ ‘सेनास हत ह नगरके पूव ारका आ य लेकर खड़ा है। महापरा मी महापा और महोदर द ण ारपर खड़े ह॥ १० ॥ ‘ब सं क रा स से घरा आ इ जत् नगरके प म ारपर खड़ा है। उसके साथी रा स प श, खड् ग, धनुष, शूल और मु र आ द अ -श हाथ म लये ए ह। नाना कारके आयुध धारण करनेवाले शूरवीर से घरा आ वह रावणकु मार प म ारक र ाके लये डटा है॥



यं म वे ा रावण शुक, सारण आ द क◌इ सह श धारी रा स के साथ नगरके उ र ारपर सावधानीके साथ खड़ा है। वह मन-ही-मन अ उ जान पड़ता है॥ १२-१३ ‘



॥ ‘व



पा शूल, खड् ग और धनुष धारण करनेवाली वशाल रा ससेनाके साथ नगरके बीचक छावनीपर खड़ा है॥ १४ ॥ ‘इस कार मेरे सारे म ी ल ाम व भ ान पर नयु ◌इ इन सेना का नरी ण करके फर शी यहाँ लौटे ह॥ १५ ॥ ‘रावणक सेनाम दस हजार हाथी, दस हजार रथ, बीस हजार घोड़े और एक करोड़से भी ऊपर पैदल रा स ह॥ १६ ॥ ‘वे सभी बड़े वीर, बल-परा मसे स और यु म आततायी ह। ये सभी नशाचर रा सराज रावणको सदा ही य ह॥ १७ ॥ ‘ जानाथ! इनमसे एक-एक रा सके पास यु के लये दस-दस लाखका प रवार उप त है’॥ १८ ॥ महाबा वभीषणने म य ारा बताये गये ल ा वषयक समाचारको इस कार बताकर उन म ी प रा स को भी ीरामसे मलाया और उनके ारा ल ाका सारा वृ ा पुन: उनसे कहलाया॥ १९ १/२ ॥ तदन र रावणके छोटे भा◌इ ीमान् वभीषणने कमलनयन ीरामसे उनका य करनेके लये यं भी यह उ म बात कही—॥ २० १/२ ॥ ‘ ीराम! जब रावणने कु बेरके साथ यु कया था, उस समय साठ लाख रा स उसके साथ गये थे। वे सब-के -सब बल, परा म, तेज, धैयक अ धकता और दपक से दुरा ा रावणके ही समान थे॥ २१-२२ ॥ ‘मने जो रावणक श का वणन कया है, इसको लेकर न तो आपको अपने मनम दीनता लानी चा हये और न मुझपर रोष ही करना चा हये। म आपको डराता नह , श ुके त आपके ोधको उभाड़ रहा ँ ; क आप अपने बलपरा म ारा देवता का भी दमन करनेम समथ ह॥ २३ ॥



‘इस लये



आप इस वानरसेनाका ूह बनाकर ही वशाल चतुर णी सेनासे घरे ए रावणका वनाश कर सकगे’॥ २४ ॥ वभीषणके ऐसी बात कहनेपर भगवान् ीरामने श ु को परा करनेके लये इस कार कहा—॥ ‘ब सं क वानर से घरे ए क प े नील पूव ारपर जाकर ह का सामना कर॥ २६ ॥ ‘ वशाल वा हनीसे यु वा लकु मार अ द द ण ारपर त हो महापा और महोदरके कायम बाधा द॥ २७ ॥ ‘पवनकु मार हनुमान् अ मेय आ बलसे स ह। ये ब त-से वानर के साथ ल ाके प म फाटकम वेश कर॥ २८ ॥ ‘दै , दानवसमूह तथा महा ा ऋ षय का अपकार करना ही जसे य लगता है, जसका भाव ु है, जो वरदानक श से स है और जाजन को संताप देता आ स ूण लोक म घूमता रहता है, उस रा सराज रावणके वधका ढ़ न य लेकर म यं ही सु म ाकु मार ल णके साथ नगरके उ र फाटकपर आ मण करके उसके भीतर वेश क ँ गा, जहाँ सेनास हत रावण व मान है॥ २९—३१ ॥ ‘बलवान् वानरराज सु ीव, रीछ के परा मी राजा जा वान् तथा रा सराज रावणके छोटे भा◌इ वभीषण—ये लोग नगरके बीचके मोचपर आ मण कर॥ ३२ ॥ ‘वानर को यु म मनु का प नह धारण करना चा हये। इस यु म वानर क सेनाका हमारे लये यही संकेत या च होगा॥ ३३ ॥ ‘इस जनवगम वानर ही हमारे च ह गे। के वल हम सात ही मनु पम रहकर श ु के साथ यु करगे॥ ३४ ॥ ‘म अपने महातेज ी भा◌इ ल णके साथ र ँ गा और ये मेरे म वभीषण अपने चार म य के साथ पाँचव ह गे (इस कार हम सात मनु पम रहकर यु करगे)’॥ ३५ ॥



अपने वजय पी योजनक स के लये वभीषणसे ऐसा कहकर बु मान् भगवान् ीरामने सुवेल पवतपर चढ़नेका वचार कया। सुवेल पवतका तट ा बड़ा ही रमणीय था,



उसे देखकर उ बड़ी स ता ◌इ॥ ३६ ॥ तदन र महामना महा ा ीराम अपनी वशाल सेनाके ारा वहाँक सारी पृ ीको आ ा दत करके श ुवधका न य कये बड़े हष और उ ाहसे ल ाक ओर चले॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म सतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३७ ॥



अड़तीसवाँ सग ीरामका मुख वानर के साथ सुवेल पवतपर चढ़कर वहाँ रातम नवास करना



सुवेल पवतपर चढ़नेका वचार करके जनके पीछे ल णजी चल रहे थे, वे भगवान् ीराम सु ीवसे और धमके ाता, म वे ा, व ध एवं अनुरागी नशाचर वभीषणसे भी उ म एवं मधुर वाणीम बोले—॥ १-२ ॥ ‘ म ो! यह पवतराज सुवेल सैकड़ धातु से भलीभाँ त भरा आ है। हम सब लोग इसपर चढ़ और आजक इस रातम यह नवास कर॥ ३ ॥ ‘यहाँसे हमलोग उस रा सक नवासभूत ल ापुरीका भी अवलोकन करगे, जस दुरा ाने अपनी मृ ुके लये ही मेरी भायाका अपहरण कया है॥ ४ ॥ ‘ जसने न तो धमको जाना है, न सदाचारको ही कु छ समझा है और न कु लका ही वचार कया है; के वल रा सो चत नीच बु के कारण ही वह न त कम कया है॥ ५ ॥ ‘उस नीच रा सका नाम लेते ही उसपर मेरा रोष जाग उठता है। के वल उसी अधम नशाचरके अपराधसे म सम रा स का वध देखूँगा॥ ६ ॥ ‘कालके पाशम बँधा आ एक ही पु ष पाप करता है, कतु उस नीचके अपने ही दोषसे सारा कु ल न हो जाता है’॥ ७ ॥ इस कार च न करते ए ही ीराम रावणके त कु पत हो व च शखरवाले सुवेल पवतपर नवास करनेके लये चढ़ गये॥ ८ ॥ उनके पीछे ल ण भी महान् परा मम त र एवं एका च हो धनुष-बाण लये ए उस पवतपर आ ढ़ हो गये॥ ९ ॥ त ात् सु ीव, म य स हत वभीषण, हनुमान्, अ द, नील, मै , वद, गज, गवा , गवय, शरभ, ग मादन, पनस, कु मुद, हर, यूथप त र , जा वान्, सुषेण, महाम त ऋषभ, महातेज ी दुमुख तथा क पवर शतव ल—ये और दूसरे भी ब त-से शी गामी वानर जो वायुके समान वेगसे चलनेवाले तथा पवत पर ही वचरनेवाले थे, उस सुवेल ग रपर चढ़ गये॥ १०—१३ ॥



सुवेल पवतपर जहाँ ीरघुनाथजी वराजमान थे, वे सैकड़ वानर थोड़ी ही देरम चढ़ गये और चढ़कर सब ओर वचरने लगे॥ १४ ॥ उन वानर-यूथप तय ने सुवेलपवतके शखरपर खड़े हो उस सु र ल ापुरीका नरी ण कया, जो आकाशम ही बनी ◌इ-सी जान पड़ती थी। उसके फाटक बड़े मनोहर थे। उ म परकोटे उस नगरीक शोभा बढ़ाते थे तथा वह पुरी रा स से भरी-पूरी थी॥ उ म परकोट पर खड़े ए नीलवणके रा स ऐसे जान पड़ते थे, मानो उन परकोट पर दूसरा परकोटा बना दया गया हो। उन े वानर ने वह सब कु छ देखा॥ १६-१७ ॥ यु क इ ा रखनेवाले रा स को देखकर वे सब वानर ीरामके देखते-देखते नाना कारसे सहनाद करने लगे॥ १८ ॥ तदन र सं ाक लालीसे रँगे ए सूयदेव अ ाचलको चले गये और पूणच मासे का शत उजेली रात वहाँ सब ओर छा गयी॥ १९ ॥ त ात् वभीषण ारा सादर स ा नत हो वानरसेनाके ामी ीरामने अपने भा◌इ ल ण और यूथप तय के समुदायके साथ सुवेल पवतके पृ भागपर सुखपूवक नवास कया॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अड़तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३८ ॥



उनतालीसवाँ सग वानर स हत ीरामका सुवेल- शखरसे ल ापुरीका नरी ण करना



वानर-यूथप तय ने वह रात उस सुवेलपवतपर ही बतायी और वहाँसे उन वीर ने ल ाके वन और उपवन भी देखे॥ १ ॥ वे बड़े ही चौरस, शा , सु र, वशाल और व ृत थे तथा देखनेम अ रमणीय जान पड़ते थे। उ देखकर उन सब वानर को बड़ा व य आ॥ २ ॥ च ा, अशोक, बकु ल, शाल और ताल-वृ से ा , तमाल-वनसे आ ा दत और नागके सर से आवृत ल ापुरी हताल, अजुन, नीप (कद ), खले ए छतवन, तलक, कनेर तथा पाटल आ द नाना कारके द वृ से जनके अ भाग फू ल के भारसे लदे थे तथा जनपर लताब रयाँ फै ली ◌इ थ , इ क अमरावतीके समान शोभा पाती थी॥ ३—५ ॥ व च फू ल से यु लाल कोमल प व , हरी-हरी घास तथा व च वन े णय से भी उस पुरीक बड़ी शोभा हो रही थी॥ ६ ॥ जैसे मनु आभूषण धारण करते ह, उसी कार वहाँके वृ सुग त फू ल और अ रमणीय फल धारण करते थे॥ ७ ॥ चै रथ और न नवनके समान वहाँका मनोहर वन सभी ऋतु म मर से ा हो रमणीय शोभा धारण करता था॥ ८ ॥ दा ूह, कोय , बक और नाचते ए मोर उस वनको सुशो भत करते थे। वनम झरन के आसपास को कलक कू क सुनायी पड़ती थी॥ ९ ॥ ल ाके वन और उपवन न मतवाले वह म से वभू षत थे। वहाँ वृ क डा लय पर भ रे मँडराते रहते थे। उनके ेक ख म को कलाएँ कु -कु बोला करती थ । प ी चहचहाते रहते थे। भृ राजके गीत मुख रत होते थे। कु ररके श गूँजा करते थे। कोणालकके कलरव होते रहते थे तथा सारस क रलहरी सब ओर छायी रहती थी। कु छ वानरवीर उन वन और उपवन म घुस गये॥ १०-११ ॥ वे सभी वीर वानर इ ानुसार प धारण करनेवाले, उ ाही और आन म थे। उन महातेज ी वानर के वहाँ वेश करते ही फू ल के संसगसे सुग त तथा ाणे यको सुख



देनेवाली म वायु चलने लगी। दूसरे ब त-से यूथप त उन वानरवीर के समूहसे नकलकर सु ीवक आ ा ले जा-पताका से अलंकृत ल ापुरीम गये॥ १२-१३ ॥ गजनेवाले लोग मसे े वे वानरवीर अपने सहनादसे प य को डराते, मृग और हा थय के हष छीनते तथा ल ाको क त करते ए आगे बढ़ रहे थे॥ १४ ॥ वे महान् वेगशाली वानर पृ ीको जब चरण से दबाते थे, उस समय उनके पैर से उठी ◌इ धूल सहसा ऊपरको उड़ जाती थी॥ १५ ॥ वानर के उस सहनादसे एवं भयभीत ए रीछ, सह, भसे, हाथी, मृग और प ी दस दशा क ओर भाग गये॥ १६ ॥ कू ट पवतका एक शखर ब त ऊँ चा था। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो गलोकको छू रहा हो। उसपर सब ओर पीले रंगके फू ल खले ए थे, जनसे वह सोनेका-सा जान पड़ता था॥ १७ ॥ उस शखरका व ार सौ योजन था। वह देखनेम बड़ा ही सु र, , स्न , का मान् और वशाल था। प य के लये भी उसक चोटीतक प ँ चना क ठन होता था॥ १८ ॥



लोग कू टके उस शखरपर मनके ारा चढ़नेक क ना भी नह कर सकते थे। फर या ारा उसपर आ ढ़ होनेक तो बात ही ा है? रावण ारा पा लत ल ा कू टके उसी शखरपर बसी ◌इ थी॥ १९ ॥ वह पुरी दस योजन चौड़ी और बीस योजन लंबी थी। सफे द बादल के समान ऊँ चे-ऊँ चे गोपुर तथा सोने और चाँदीके परकोटे उसक शोभा बढ़ाते थे॥ २० ॥ जैसे ी के अ काल—वषा ऋतुम घनीभूत बादल आकाशक शोभा बढ़ाते ह, उसी कार ासाद १ और वमान से२ ल ापुरी अ सुशो भत हो रही थी॥ उस पुरीम सह ख से अलंकृत एक चै ासाद था, जो कै लास- शखरके समान दखायी देता था। वह आकाशको मापता आ-सा जान पड़ता था॥ २२ ॥ रा सराज रावणका वह चै ासाद ल ापुरीका आभूषण था। क◌इ सौ रा स र ाके सभी साधन से स होकर त दन उसक र ा करते थे॥ २३ ॥



इस कार वह पुरी बड़ी ही मनोहर, सुवणमयी, अनेकानेक पवत से अलंकृत, नाना कारक व च धातु से च त और अनेक उ ान से सुशो भत थी॥ भाँ त-भाँ तके वह म वहाँ अपनी मधुर बोली बोल रहे थे। नाना कारके मृग आ द पशु उसका सेवन करते थे। अनेक कारके फू ल क स से वह स थी और व वध कारके आकारवाले रा स वहाँ नवास करते थे॥ २५ ॥ धन-धा से स तथा स ूण मनोवा त व ु से भरी-पूरी उस रावण-पुरीको ल णके बड़े भा◌इ ल ीवान् ीरामने वानर के साथ देखा॥ २६ ॥ बड़े-बड़े महल से सघन बसी ◌इ उस गतु नगरीको देखकर परा मी ीराम बड़े व त ए॥ इस कार अपनी वशाल सेनाके साथ ीरघुनाथजीने अनेक कारके र से पूण, तरहतरहक रचना से सुस त, ऊँ चे-ऊँ चे महल क पं से अलंकृत और बड़े-बड़े य से यु मजबूत कवाड़ वाली वह अ तु पुरी देखी॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म उनतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ३९ ॥ १. अमरकोशके अनुसार देवता के म र तथा राजा के महल को ासाद कहते ह। ाचीन वा ु व ाके अनुसार ब त लंबा, चौड़ा, ऊँ चा और क◌इ भू मय का प ा या प रका बना आ भ भवन जसम अनेक ृ , ृ ला और अ क आ द ह ‘ ासाद’ कहा गया है। उसम ब त-से गवा से यु कोण, चतु ोण, आयत और वृ शालाएँ बनी होती ह। आकृ तके भेदसे पुराण म ासादके पाँच भेद कये गये ह—चतुर , चतुरायत, वृ , वृ ायत और अ ा । इनका नाम मश: वैराज, पु क, कै लास, मालक और व प है। भू म, अ क और शखर आ दक ूनता-अ धकताके कारण इन पाँच के नौ-नौ भेद माने गये ह। जैसे वैराजके मे , म र, वमान, भ क, सवतोभ , चक, न न, न वधन और ीव ; पु कके वलभी, गृहराज, शालागृह, म र, वमान, म र, भवन, उ और श वकावे ; कै लासके वलय, दु ु भ, प , महाप , भ क, सवतोभ , चक, न न, गवा और गवावृ ; मालकके गज, वृषभ, हंस, ग ड, सह, भूमुख, भूधर, ीजय और पृ ीधर तथा व पके व , च , मु क या व ,ु व , क, खड् ग, गदा, ीवृ और वजय। २. आकाशमागसे गमन करनेवाला रथ जो देवता आ दके पास होता है ‘ वमान’ कहलाता है। सात मं जलके मकानको भी वमान कहते ह। ाचीन वा ु व ाके अनुसार उस देवम रको वमानक सं ा दी गयी है जो ऊपरक ओर पतला होता चला गया हो। मानसार नामक ाचीन के अनुसार वमान गोल, चौपहला और अठपहला होता है। गोलको बेसर, चौपहलेको नागर और अठपहलेको ा व कहते ह ( हदी-श सागरसे)।



चालीसवाँ सग सु ीव और रावणका म



यु



तदन र वानरयूथ से यु सु ीवस हत ीराम सुवेल पवतके सबसे ऊँ चे शखरपर चढ़े, जसका व ार दो योजनका था॥ १ ॥ वहाँ दो घड़ी ठहरकर दस दशा क ओर पात करते ए ीरामने कू ट पवतके रमणीय शखरपर सु र ढंगसे बसी ◌इ व कमा ारा न मत ल ापुरीको देखा, जो मनोहर कानन से सुशो भत थी॥ उस नगरके गोपुरक छतपर उ दुजय रा सराज रावण बैठा दखायी दया, जसके दोन ओर ेत चँवर डु लाये जा रहे थे, सरपर वजय-छ शोभा दे रहा था। रावणका सारा शरीर र च नसे च चत था। उसके अ लाल रंगके आभूषण से वभू षत थे॥ ३-४ ॥ वह काले मेघके समान जान पड़ता था। उसके व पर सोनेके काम कये गये थे। ऐरावत हाथीके दाँत के अ भागसे आहत होनेके कारण उसके व : लम आघात च बन गया था॥ ५॥ खरगोशके र के समान लाल रंगसे रँगे ए व से आ ा दत होकर वह आकाशम सं ाकालक धूपसे ढक ◌इ मेघमालाके समान दखायी देता था॥ ६ ॥ मु -मु वानर तथा ीरघुनाथजीके सामने ही रा सराज रावणपर पड़ते ही सु ीव सहसा खड़े हो गये॥ ७ ॥ वे ोधके वेगसे यु और शारी रक एवं मान सक बलसे े रत हो सुवेलके शखरसे उठकर उस गोपुरक छतपर कू द पड़े॥ ८ ॥ वहाँ खड़े होकर वे कु छ देर तो रावणको देखते रहे। फर नभय च से उस रा सको तनके के समान समझकर वे कठोर वाणीम बोले—॥ ९ ॥ ‘रा स! म लोकनाथ भगवान् ीरामका सखा और दास ँ । महाराज ीरामके तेजसे आज तू मेरे हाथसे छू ट नह सके गा’॥ १० ॥ ऐसा कहकर वे अक ात् उछलकर रावणके ऊपर जा कू दे और उसके व च मुकुट को ख चकर उ ने पृ ीपर गरा दया॥ ११ ॥



उ इस कार ती ग तसे अपने ऊपर आ मण करते देख रावणने कहा—‘अरे! जबतक तू मेरे सामने नह आया था, तभीतक सु ीव (सु र क से यु ) था। अब तो तू अपनी इस ीवासे र हत हो जायगा’॥ ऐसा कहकर रावणने अपनी दो भुजा ारा उ शी ही उठाकर उस छतक फशपर दे मारा। फर वानरराज सु ीवने भी गदक तरह उछलकर रावणको दोन भुजा से उठा लया और उसी फशपर जोरसे पटक दया॥ १३ ॥ फर तो वे दोन आपसम गुँथ गये। दोन के ही शरीर पसीनेसे तर और खूनसे लथपथ हो गये तथा दोन ही एक-दूसरेक पकड़म आनेके कारण न े होकर खले ए सेमल और पलाश नामक वृ के समान दखायी देने लगे॥ १४ ॥ रा सराज रावण और वानरराज सु ीव दोन ही बड़े बलवान् थे, अत: दोन घूँसे, थ ड़, कोहनी और पंज क मारके साथ बड़ा अस यु करने लगे॥ १५ ॥ गोपुरके चबूतरेपर ब त देरतक भारी म यु करके वे भयानक वेगवाले दोन वीर बारबार एक-दूसरेको उछालते और कु ाते ए पैर को वशेष दाँव-पचके साथ चलाते-चलाते उस चबूतरेसे जा लगे॥ १६ ॥ एक-दूसरेको दबाकर पर र सटे ए शरीरवाले वे दोन यो ा कलेके परकोटे और खा◌इं के बीचम गर गये। वहाँ हाँफते ए दो घड़ीतक पृ ीका आ ल न कये पड़े रहे। त ात् उछलकर खड़े हो गये॥ १७ ॥ फर वे एक-दूसरेका बार-बार आ ल न करके उसे बा पाशम जकड़ने लगे। दोन ही ोध, श ा (म यु - वषयक अ ास) तथा शारी रक बलसे स थे; अत: उस यु लम कु ीके अनेक दाँव-पच दखाते ए मण करने लगे॥ १८ ॥ जनके नये-नये दाँत नकले ह , ऐसे बाघ और सहके ब तथा पर र लड़ते ए गजराजके छोटे छौन के समान वे दोन वीर अपने व : लसे एक-दूसरेको दबाते और हाथ से पर र बल आजमाते ए एक साथ ही पृ ीपर गर पड़े॥ १९ ॥ दोन ही कसरती जवान थे और यु क श ा तथा बलसे स थे। अत: यु जीतनेके लये उ मशील हो एक-दूसरेपर आ ेप करते ए यु मागपर अनेक कारसे वचरण करते थे तथा प उन वीर को ज ी थकावट नह होती थी॥ २० ॥



मतवाले हा थय के समान सु ीव और रावण गजराजके शु -द क भाँ त मोटे एवं ब ल बा द ारा एक-दूसरेके दाँवको रोकते ए ब त देरतक बड़े आवेशके साथ यु करते और शी तापूवक पतरे बदलते रहे॥ २१ ॥ वे पर र भड़कर एक-दूसरेको मार डालनेका य कर रहे थे। जैसे दो बलाव कसी भ व ुके लये ोधपूवक त हो पर र पात कर बारंबार गुराते रहते ह, उसी तरह रावण और सु ीव भी लड़ रहे थे॥ २३ ॥ व च म ल१ और भाँ त-भाँ तके ानका२ दशन करते ए गोमू क रेखाके समान कु टल ग तसे चलते और व च री तसे कभी आगे बढ़ते और कभी पीछे हटते थे॥ २३ ॥ वे कभी तरछी चालसे चलते, कभी टेढ़ी चालसे दाय-बाय घूम जाते, कभी अपने ानसे हटकर श ुके हारको थ कर देत,े कभी बदलेम यं भी दाँव-पचका योग करके श ुके आ मणसे अपनेको बचा लेत,े कभी एक खड़ा रहता तो दूसरा उसके चार ओर दौड़ लगाता, कभी दोन एक-दूसरेके स ुख शी तापूवक दौड़कर आ मण करते, कभी कु कर या मेढकक भाँ त धीरेसे उछलकर चलते, कभी लड़ते ए एक ही जगहपर र रहते, कभी पीछेक ओर लौट पड़ते, कभी सामने खड़े-खड़े ही पीछे हटते, कभी वप ीको पकड़नेक इ ासे अपने शरीरको सकोड़कर या कु ाकर उसक ओर दौड़ते, कभी त ीपर पैरसे हार करनेके लये नीचे मुँह कये उसपर टूट पड़ते, कभी तप ी यो ाक बाँह पकड़नेके लये अपनी बाँह फै ला देते और कभी वरोधीक पकड़से बचनेके लये अपनी बाँह को पीछे ख च लेते। इस कार म यु क कलाम परम वीण वानरराज सु ीव तथा रावण एक दूसरेपर आघात करनेके लये म लाकार वचर रहे थे॥ इसी बीचम रा स रावणने अपनी मायाश से काम लेनेका वचार कया। वानरराज सु ीव इस बातको ताड़ गये; इस लये सहसा आकाशम उछल पड़े। वे वजयो ाससे सुशो भत होते थे और थकावटको जीत चुके थे। वानरराज रावणको चकमा देकर नकल गये और वह खड़ा-खड़ा देखता ही रह गय॥ २७-२८ ॥ ज सं ामम क त ा ◌इ थी, वे वानरराज सूयपु सु ीव नशाचरप त रावणको यु म थकाकर अ वशाल आकाशमागका ल न करके वानर क सेनाके बीच ीरामच जीके पास आ प ँ चे॥ २९ ॥



इस कार वहाँ अ तु कम करके वायुके समान शी गामी सूयपु सु ीवने दशरथराजकु मार ीरामके यु वषयक उ ाहको बढ़ाते ए बड़े हषके साथ वानरसेनाम वेश कया। उस समय धान- धान वानर ने वानरराजका अ भन न कया॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४० ॥ १. भरतने म यु म चार कारके म ल बताये ह। इनके नाम ह—चा रम ल, करणम ल, ख म ल और महाम ल। इनके ल ण इस कार ह—एक पैरसे आगे बढ़कर च र काटते ए श ुपर आ मण करना चा रम ल कहलाता है। दो पैरसे म लाकार घूमते ए आ मण करना करणम ल कहा गया है। अनेक करणम ल का संयोग होनेसे ख म ल होता है और तीन या चार ख म ल के संयोगसे महाम ल कहा गया है। २. भरत मु नने म यु म छ: ान का उ ेख कया है—वै व, समपाद, वैशाख, म ल, ालीढ़ और अनालीढ़। पैर को आगे-पीछे अगल-बगलम चलाते ए वशेष कारसे उ यथा ान ा पत करना ही ान कहलाता है। को◌इको◌इ बाघ, सह आ द ज ु के समान खड़े होनेक री तको ही ान कहते ह।



इकतालीसवाँ सग ीरामका सु ीवको द:ु साहससे रोकना, ल ाके चार ार पर वानरसै नक क नयु , रामदत ू अ दका रावणके महलम परा म तथा वानर के आ मणसे रा स को भय



सु ीवके शरीरम यु के च देखकर ल णके बड़े भा◌इ ीरामने उ दयसे लगा लया और इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘सु ीव! तुमने मुझसे सलाह लये बना ही यह बड़े साहसका काम कर डाला। राजालोग ऐसे दु:साहसपूण काय नह कया करते ह॥ २ ॥ ‘साहस य वीर! तुमने मुझको, इस वानरसेनाको और वभीषणको भी संशयम डालकर जो यह साहसपूण काय कया है, इससे हम बड़ा क आ॥ ३ ॥ ‘श ु का दमन करनेवाले वीर! अब फर तुम ऐसा दु:साहस न करना। श ुसूदन महाबाहो! य द तु कु छ हो गया तो म, सीता, भरत, ल ण, छोटे भा◌इ श ु तथा अपने इस शरीरको भी लेकर ा क ँ गा?॥ ‘महे और व णके समान महाबली! य प म तु ारे बल-परा मको जानता था, तथा प जबतक तुम यहाँ लौटकर नह आये थे, उससे पहले मने यह न त वचार कर लया था क यु म पु , सेना और वाहन -स हत रावणका वध करके ल ाके रा पर वभीषणका अ भषेक कर दूँगा और अयो ाका रा भरतको देकर अपने इस शरीरको ाग दूँगा’॥ ६-७ १/ ॥ २



ऐसी बात कहते ए ीरामको सु ीवने य उ र दया—‘वीर रघुन न! अपने परा मका ान रखते ए म आपक भायाका अपहरण करनेवाले रावणको देखकर कै से मा कर सकता था?’॥ ८-९ ॥ वीर सु ीवने जब ऐसी बात कही, तब उनका अ भन न करके ीरामच जीने शोभास ल णसे कहा—॥ १० ॥ ‘ल ण! शीतल जलसे भरे ए जलाशय और फल से स वनका आ य ले हमलोग इस वशाल वानरसेनाका वभाग करके ूहरचना कर ल और यु के लये उ त हो जायँ॥ ११ ॥



‘इस



समय म लोकसंहारक सूचना देनेवाला भयानक अपशकु न उप त देखता ँ , जससे स होता है रीछ , वानर और रा स के मु -मु वीर का संहार होगा॥ १२ ॥ ‘ च आँ धी चल रही है, पृ ी काँपने लगी है, पवत के शखर हलने लगे ह और द ज ची ार करते ह॥ १३ ॥ ‘मेघ हसक जीव के समान ू र हो गये ह। वे कठोर रम वकट गजना करते ह तथा र व ु से मले ए जलक ू रतापूण वषा कर रहे ह॥ १४ ॥ ‘अ दा ण सं ा र -च नके समान लाल दखायी देती है। सूयसे यह जलती आगका पु गर रहा है॥ १५ ॥ ‘ न ष पशु और प ी दीन हो दीनतासूचक रम सूयक ओर देखते ए ची ार करते ह, इससे वे बड़े भयंकर लगते और महान् भय उ करते ह॥ ‘रातम च माका काश ीण हो जाता है। वे शीतलताक जगह संताप देते ह। उनके कनारेका भाग काला और लाल दखायी देता है। सम लोक के संहारकालम च माका जैसा प रहता है, वैसा ही इस समय भी देखा जाता है॥ १७ ॥ ‘ल ण! सूयम लम छोटा, खा, अम लकारी और अ लाल घेरा दखायी देता है। साथ ही वहाँ काला च भी गोचर होता है॥ १८ ॥ ‘ल ण! ये न अ ी तरह का शत नह हो रहे ह—म लन दखायी देते ह। यह अशुभ ल ण संसारका लय-सा सू चत करता आ मेरे सामने कट हो रहा है॥ १९ ॥ ‘कौए, बाज और गीध नीचे गरते ह—भूतलपर आ-आ बैठते ह और गीद ड़याँ बड़े जोरजोरसे अम लसूचक बोली बोलती ह॥ २० ॥ ‘इससे सू चत होता है क वानर और रा स ारा चलाये गये शलाख , शूल और खड् ग से यह धरती पट जायगी और यहाँ र -मांसक क च जम जायगी॥ ‘रावणके ारा पा लत यह ल ापुरी श ु के लये दुजय है, तथा प अब हम शी ही वानर के साथ इसपर सब ओरसे वेगपूवक आ मण कर’॥ २२ ॥ ल णसे ऐसा कहते ए वीर महाबली ीरामच जी उस पवत- शखरसे त ाल नीचे उतर आये॥ २३ ॥



उस पवतसे उतरकर धमा ा ीरघुनाथजीने अपनी सेनाका नरी ण कया, जो श ु के लये अ दुजय थी॥ २४ ॥ फर सु ीवक सहायतासे क पराजक उस वशाल सेनाको सुस त करके समयका ान रखनेवाले ीरामने ो तषशा ो शुभ समयम उसे यु के लये कू च करनेक आ ा दी॥ २५ ॥ तदन र महाबा धनुधर ीरघुनाथजी उस वशाल सेनाके साथ शुभ मु तम आगे-आगे ल ापुरीक ओर त ए॥ २६ ॥ उस समय वभीषण, सु ीव, हनुमान्, ऋ राज जा वान्, नल, नील तथा ल ण उनके पीछे-पीछे चले॥ २७ ॥ त ात् रीछ और वानर क वह वशाल सेना ब त बड़ी भू मको आ ा दत करके ीरघुनाथजीके पीछे-पीछे चली॥ २८ ॥ श ु को आगे बढ़नेसे रोकनेवाले हाथीके समान वशालकाय वानर ने सैकड़ शैल शखर और बड़े-बड़े वृ को हाथम ले रखा था॥ २९ ॥ श ु का दमन करनेवाले वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण थोड़ी ही देरम ल ापुरीके पास प ँ च गये॥ वह रमणीय जा-पताका से अलंकृत थी। अनेकानेक उ ान और वन उसक शोभा बढ़ा रहे थे। उसके चार ओर बड़ा ही अ तु और ऊँ चा परकोटा था। उस परकोटेसे मला आ ही नगरका सदर फाटक था। उन परकोट के कारण ल ापुरीम प ँ चना कसीके लये भी अ क ठन था॥ ३१ ॥ य प देवता के लये भी ल ापर आ मण करना क ठन काम था तो भी ीरामक आ ासे े रत हो वानर यथा ान रहकर उस पुरीपर घेरा डालकर उसके भीतर वेश करने लगे॥ ३२ ॥ ल ाका उ र ार पवत शखरके समान ऊँ चा था। ीराम और ल णने धनुष हाथम लेकर उसका माग रोक लया और वह रहकर वे अपनी सेनाक र ा करने लगे॥ ३३ ॥ दशरथन न वीर ीराम ल णको साथ ले रावणपा लत ल ापुरीके पास जा उ र ारपर प ँ चकर जहाँ यं रावण खड़ा था, वह डट गये। ीरामके सवा दूसरा को◌इ उस



ारपर अपने सै नक क र ा करनेम समथ नह हो सकता था॥ ३४-३५ ॥ अ -श धारी भयंकर रा स ारा सब ओरसे सुर त उस भयानक ारपर रावण उसी तरह खड़ा था, जैसे व ण देवता समु म अ ध त होते ह॥ ३६ ॥ वह उ र ार अ बलशाली पु ष के मनम उसी कार भय उ करता था, जैसे दानव ारा सुर त पाताल भयदायक जान पड़ता है। उस ारके भीतर यो ा के ब त-से भाँ त-भाँ तके अ -श और कवच रखे गये थे, ज भगवान् ीरामने देखा॥ वानरसेनाप त परा मी नील मै और वदके साथ ल ाके पूव ारपर जाकर डट गये॥ ३८ १/२ ॥ महाबली अ दने ऋषभ, गवा , गज और गवयके साथ द ण ारपर अ धकार जमा लया॥ ३९ १/२ ॥ माथी, घस तथा अ वानरवीर के साथ बलवान् क प े हनुमा े प म ारका माग रोक लया॥ ४० १/२ ॥ उ र और प मके म भागम (वाय कोणम) जो रा ससेनाक छावनी थी, उसपर ग ड़ और वायुके समान वेगशाली े वानरवीर के साथ सु ीवने आ मण कया॥ ४१ १/२ ॥ जहाँ वानरराज सु ीव थे, वहाँ वानर के छ ीस करोड़ व ात यूथप त रा स को पीड़ा देते ए उप त रहते थे॥ ४२ १/२ ॥ ीरामक आ ासे वभीषणस हत ल णने ल ाके ेक ारपर एक-एक करोड़ वानर को नयु कर दया॥ ४३ १/२ ॥ सुषेण और जा वान् ब त-सी सेनाके साथ ीरामच जीके पीछे थोड़ी ही दूरपर रहकर बीचके मोचक र ा करते रहे॥ ४४ १/२ ॥ वे वानर सह बाघ के समान बड़े-बड़े दाढ़ से यु थे। वे हष और उ ाहम भरकर हाथ म वृ और पवत- शखर लये यु के लये डट गये॥ ४५ ॥ सभी वानर क पूँछ ोधके कारण अ ाभा वक पसे हल रही थ । दाढ़ और नख ही उन सबके आयुध थे। उन सबके मुख आ द अ पर ोध प वकारके व च च प रल त होते थे तथा सबके मुख वकट एवं वकराल दखायी देते थे॥ ४६ ॥



इनमसे क वानर म दस हा थय का बल था, को◌इ उनसे भी दस गुने अ धक बलवान् थे तथा क म एक हजार हा थय के समान बल था॥ ४७ ॥ क म दस हजार हा थय क श थी, को◌इ इनसे भी सौ गुने बलवान् थे तथा अ ब तेरे वानर-यूथप तय म तो बलका प रमाण ही नह था। वे असीम बलशाली थे॥ ४८ ॥ वहाँ उन वानरसेना का ट ीदलके उ मके समान अ तु एवं व च समागम आ था॥ ४९ ॥ ल ाम उछल-उछलकर आते ए वानर से आकाश भर गया था और पुरीम वेश करके खड़े ए क पसमूह से वहाँक सारी पृ ी आ ा दत हो गयी थी॥ ५० ॥ रीछ और वानर क एक करोड़ सेना तो ल ाके चार ार पर आकर डटी थी और अ सै नक सब ओर यु के लये चले गये थे॥ ५१ ॥ सम वानर ने चार ओरसे उस कू ट पवतको ( जसपर ल ा बसी थी) घेर लया था। सह अयुत (एक करोड़) वानर तो उस पुरीम सभी ार पर लड़ती ◌इ सेनाका समाचार लेनेके लये नगरम सब ओर घूमते रहते थे॥ ५२ ॥ हाथ म वृ लये बलवान् वानर ारा सब ओरसे घरी ◌इ ल ाम वायुके लये भी वेश पाना क ठन हो गया था॥ ५३ ॥ मेघके समान काले एवं भयंकर तथा इ तु परा मी वानर ारा सहसा पी ड़त होनेके कारण रा स को बड़ा व य आ॥ ५४ ॥ जैसे सेतुको वदीण कर अथवा मयादाको तोड़कर बहनेवाले समु के जलका महान् श होता है, उसी कार वहाँ आ मण करती ◌इ वशाल वानरसेनाका महान् कोलाहल हो रहा था॥ ५५ ॥ उस महान् कोलाहलसे परकोट , फाटक , पवत , वन तथा कानन स हत समूची ल ापुरीम हलचल मच गयी॥ ५६ ॥ ीराम, ल ण और सु ीवसे सुर त वह वशाल वानरवा हनी सम देवता और असुर के लये भी अ दुजय हो गयी थी॥ ५७ ॥ इस कार रा स के वधके लये अपनी सेनाको यथा ान खड़ी करके उसके बादके कत को जाननेक इ ासे ीरघुनाथजीने म य के साथ बारंबार सलाह क और एक



न यपर प ँ चकर साम, दान आ द उपाय के मश: योगसे सुलभ होनेवाले अथत के ाता ीराम वभीषणक अनुम त ले राजधमका वचार करते ए वा लपु अ दको बुलाकर उनसे इस कार बोले—॥ ५८-५९ १/२ ॥ ‘सौ ! क प वर! दशमुख रावण रा ल ीसे हो गया, अब उसका ऐ य समा हो चला, वह मरना ही चाहता है, इस लये उसक चेतना ( वचार-श ) न हो गयी है। तुम परकोटा लाँघकर ल ापुरीम भय छोड़कर जाओ और थार हत हो उससे मेरी ओरसे ये बात कहो—॥ ६०-६१ ॥ ‘‘ नशाचर! रा सराज! तुमने मोहवश घमंडम आकर ऋ ष, देवता, ग व, अ रा, नाग, य और राजा का बड़ा अपराध कया है। ाजीका वरदान पाकर तु जो अ भमान हो गया था, न य ही उसके न होनेका अब समय आ गया है। तु ारे उस पापका दु:सह फल आज उप त है॥ ६२-६३ ॥ ‘‘म अपरा धय को द देनेवाला शासक ँ । तुमने जो मेरी भायाका अपहरण कया है, इससे मुझे बड़ा क प ँ चा है; अत: तु उसका द देनेके लये म ल ाके ारपर आकर खड़ा ँ ॥ ६४ ॥ ‘‘रा स! य द तुम यु म रतापूवक खड़े रहे तो उन सम देवता , मह षय और राज षय क पदवीको प ँ च जाओगे—उ क भाँ त तु परलोकवासी होना पड़ेगा॥ ६५ ॥ ‘‘नीच नशाचर! जस बलके भरोसे तुमने मुझे धोखा देकर मायासे सीताका हरण कया है, उसे आज यु के मैदानम दखाओ॥ ६६ ॥ ‘‘य द तुम म थलेशकु मारीको लेकर मेरी शरणम नह आये तो म अपने तीखे बाण ारा इस संसारको रा स से सूना कर दूँगा॥ ६७ ॥ ‘‘रा स म े ये ीमान् धमा ा वभीषण भी मेरे साथ यहाँ आये ह, न य ही ल ाका न क रा इ ही ा होगा॥ ६८ ॥ ‘‘तुम पापी हो। तु अपने पका ान नह है और तु ारे संगी-साथी भी मूख ह; अत: इस कार अधमपूवक अब तुम एक ण भी इस रा को नह भोग सकोगे॥ ६९ ॥ ‘‘रा स! शूरताका आ य ले धैय धारण करके मेरे साथ यु करो। रणभू मम मेरे बाण से शा ( ाणशू ) होकर तुम पूत (शु एवं न ाप) हो जाओगे॥ ७० ॥



‘‘ नशाचर!



मेरे पथम आनेके प ात् य द तुम प ी होकर तीन लोक म उड़ते और छपते फरो तो भी अपने घरको जी वत नह लौट सकोगे॥ ७१ ॥ ‘‘अब म तु हतक बात बताता ँ । तुम अपना ा कर डालो—परलोकम सुख देनेवाले दान-पु कर लो और ल ाको जी भरकर देख लो; क तु ारा जीवन मेरे अधीन हो चुका है’’॥ ७२ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले भगवान् ीरामके ऐसा कहनेपर ताराकु मार अ द मू तमान् अ क भाँ त आकाशमागसे चल दये॥ ७३ ॥ ीमान् अ द एक ही मु तम परकोटा लाँघकर रावणके राजभवनम जा प ँ चे। वहाँ उ ने म य के साथ शा भावसे बैठे ए रावणको देखा॥ ७४ ॥ वानर े अ द सोनेके बाजूबंद पहने ए थे और लत अ के समान का शत हो रहे थे, वे रावणके नकट प ँ चकर खड़े हो गये॥ ७५ ॥ उ ने पहले अपना प रचय दया और म य -स हत रावणको ीरामच जीक कही ◌इ सारी उ म बात -क - सुना द । न तो एक भी श कम कया और न बढ़ाया॥ ७६ ॥ वे बोले—‘म अनायास ही बड़े-बड़े उ म कम करनेवाले कोसलनरेश महाराज ीरामका दूत और वालीका पु अ द ँ । स व है कभी मेरा नाम भी तु ारे कान म पड़ा हो॥ ७७ ॥ ‘माता कौस ाका आन बढ़ानेवाले रघुकुल- तलक ीरामने तु ारे लये यह संदेश दया है— ‘नृशंस रावण! जरा मद बनो और घरसे बाहर नकलकर यु म मेरा सामना करो॥ ७८ ॥ ‘‘म म ी, पु और ब ु-बा व स हत तु ारा वध क ँ गा; क तु ारे मारे जानेसे तीन लोक के ाणी नभय हो जायँगे॥ ७९ ॥ ‘‘तुम देवता, दानव, य , ग व, नाग और रा स—सभीके श ु हो। ऋ षय के लये तो कं टक प ही हो; अत: आज म तु उखाड़ फ कूँ गा॥ ८० ॥ ‘‘अत: य द तुम मेरे चरण म गरकर आदरपूवक सीताको नह लौटाओगे तो मेरे हाथसे मारे जाओगे और तु ारे मारे जानेपर ल ाका सारा ऐ य वभीषणको ा होगा’’॥ ८१ ॥



वानर शरोम ण अ दके ऐसे कठोर वचन कहनेपर नशाचरगण का राजा रावण अ अमषसे भर गया॥ रोषसे भरे ए रावणने उस समय अपने म य से बार-बार कहा—‘पकड़ लो इस दुबु वानरको और मार डालो’॥ ८३ ॥ रावणक यह बात सुनकर चार भयंकर नशाचर ने लत अ के समान तेज ी अ दको पकड़ लया॥ आ बलसे स ताराकु मार अ दने उस समय रा स को अपना बल दखानेके लये यं ही अपने-आपको पकड़ा दया॥ ८५ ॥ फर वे प य क तरह अपनी दोन भुजा से जकड़े ए उन चार रा स को लये- दये ही उछले और उस महलक छतपर, जो पवत शखरके समान ऊँ ची थी, चढ़ गये॥ ८६ ॥ उनके उछलनेके वेगसे झटका खाकर वे सब रा स रा सराज रावणके देखते-देखते पृ ीपर गर पड़े॥ ८७ ॥ तदन र तापी वा लकु मार अ द रा सराजके उस महलक चोटीपर, जो पवत शखरके समान ऊँ ची थी, पैर पटकते ए घूमने लगे॥ ८८ ॥ उनके पैर से आ ा होकर वह छत रावणके देखते-देखते फट गयी। ठीक उसी तरह, जैसे पूवकालम व के आघातसे हमालयका शखर वदीण हो गया था॥ इस कार महलक छत तोड़कर उ ने अपना नाम सुनाते ए बड़े जोरसे सहनाद कया और वे आकाशमागसे उड़ चले॥ ९० ॥ रा स को पीड़ा देते और सम वानर का हष बढ़ाते ए वे वानरसेनाके बीच ीरामच जीके पास लौट आये॥ ९१ ॥ अपने महलके टूटनेसे रावणको बड़ा ोध आ, परंतु वनाशक घड़ी आयी देख वह लंबी साँस छोड़ने लगा॥ ९२ ॥ इधर ीरामच जी हषसे भरकर गजना करते ए ब सं क वानर से घरे रहकर यु के लये ही डटे रहे। वे अपने श ुका वध करना चाहते थे॥ ९३ ॥ इसी समय पवत शखरके समान वशालकाय महापरा मी दुजय वानर वीर सुषेणने इ ानुसार प धारण करनेवाले ब सं क वानर के साथ ल ाके सभी दरवाज को काबूम कर



लया और सु ीवक आ ाके अनुसार वे (अपने सै नक क र ा करने एवं सभी ार का समाचार जाननेके लये) बारी-बारीसे उन सबपर वचरने लगे, जैसे च मा मश: सब न पर गमन करते ह॥ ९४-९५ ॥ ल ापर घेरा डालकर समु तक फै ले ए उन वनवासी वानर क सौ अ ौ हणी सेना को देख रा स को बड़ा व य आ। ब त-से नशाचर भयभीत हो गये तथा अ कतने ही रा स समरा णम हष और उ ाहसे भर गये॥ ९६-९७ ॥ उस समय ल ाक चहारदीवारी और खा◌इं सारी-क -सारी वानर से ा हो रही थी। इस तरह रा स ने चहारदीवारीको जब वानराकार ◌इ देखा, तब वे दीन-दु:खी और भयभीत हो हाहाकार करने लगे॥ ९८ ॥ वह महाभीषण कोलाहल आर होनेपर रा सराज रावणके यो ा नशाचर बड़े-बड़े आयुध हाथ म लेकर लयकालक च वायुके समान सब ओर वचरने लगे॥ ९९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म इकतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४१ ॥



बयालीसवाँ सग ल ापर वानर क चढ़ा◌इ तथा रा स के साथ उनका घोर यु



तदन र उन रा स ने रावणके महलम जाकर यह नवेदन कया क ‘वानर के साथ ीरामने ल ापुरीको चार ओरसे घेर लया है’॥ १ ॥ ल ाके घेरे जानेक बात सुनकर रावणको बड़ा ोध आ और वह नगरक र ाका पहलेसे भी दुगुना ब करके महलक अटारीपर चढ़ गया॥ २ ॥ वह से उसने देखा क पवत, वन और कानन स हत सारी ल ा सब ओरसे असं यु ा भलाषी वानर ारा घरी ◌इ है॥ ३ ॥ इस कार सम वानर से आ ा दत वसुधाको क पल वणक ◌इ देख वह इस च ाम पड़ गया क इन सबका वनाश कै से होगा?॥ ४ ॥ ब त देरतक च ा करनेके प ात् धैय धारण करके वशाल ने वाले रावणने ीराम और वानर-सेना क ओर पुन: देखा॥ ५ ॥ इधर ीरामच जी अपनी सेनाके साथ स तापूवक आगे बढ़े। उ ने देखा, ल ा सब ओरसे रा स ारा आवृत और सुर त है॥ ६ ॥ व च जा-पताका से अलंकृत ल ापुरीको देखकर दशरथन न ीराम थत च से मन-ही-मन सीताका रण करने लगे—॥ ७ ॥ ‘हाय! वह मृगशावकनयनी जनकन नी सीता यह मेरे लये शोकसंत हो पीड़ा सहन करती है और पृ ीक वेदीपर सोती है। सुनता ँ , ब त दुबल हो गयी है’॥ इस कार रा सय ारा पी ड़त वदेहन नीका बार ार च न करते ए धमा ा ीरामने त ाल वानर को श ुभूत रा स का वध करनेके लये आ ा दी॥ ९ ॥ अ कमा ीरामके इस कार आ ा देते ही आगे बढ़नेके लये पर र होड़-सी लगानेवाले वानर ने अपने सहनाद से वहाँक धरती और आकाशको गुँजा दया॥ १० ॥ वे सम वानर-यूथप त अपने मनम यह न य कये खड़े थे क हमलोग पवतशखर क वषा करके ल ाके महल को चूर-चूर कर दगे अथवा मु से ही मार-मारकर ढहा दगे॥ ११ ॥



वे वानरसेनाप त पवत के बड़े-बड़े शखर उठाकर और नाना कारके वृ को उखाड़कर हार करनेके लये खड़े थे॥ १२ ॥ रा सराज रावणके देखते-देखते व भ भाग म बँटे ए वे वानर-सै नक ीरघुनाथजीका य करनेक इ ासे त ाल ल ाके परकोट पर चढ़ गये॥ १३ ॥ ताँबे-जैसे लाल मुँह और सुवणक -सी का वाले वे वानर ीरामच जीके लये ाण नछावर करनेको तैयार थे। वे सब-के -सब सालवृ और शैल- शखर से यु करनेवाले थे; इस लये उ ने ल ापर ही आ मण कया॥ १४ ॥ वे सभी वानर वृ , पवत- शखर और मु से असं परकोट और दरवाज को तोड़ने लगे॥ १५ ॥ उन वानर ने जलसे भरी ◌इ खाइय को धूल, पवत- शखर, घास-फू स और काठ से पाट दया॥ फर तो सह यूथ, को ट यूथ और सौ को ट यूथ को साथ लये अनेक यूथप त उस समय ल ाके कलेपर चढ़ गये॥ १७ ॥ बड़े-बड़े गजराज के समान वशालकाय वानर सोनेके बने ए दरवाज को धूलम मलाते, कै लास- शखरके समान ऊँ चे-ऊँ चे गोपुर को भी ढहाते, उछलते-कू दते एवं गजते ए ल ापर धावा बोलने लगे॥ १८-१९ ॥ ‘अ बलशाली ीरामच जीक जय हो, महाबली ल णक जय हो और ीरघुनाथजीके ारा सुर त राजा सु ीवक भी जय हो’ ऐसी घोषणा करते और गजते ए इ ानुसार प धारण करनेवाले वानर ल ाके परकोटेपर टूट पड़े॥ २०-२१ ॥ इसी समय वीरबा , सुबा , नल और पनस— ये वानरयूथप त ल ाके परकोटेपर चढ़कर बैठ गये और उसी बीचम उ ने वहाँ अपनी सेनाका पड़ाव डाल दया॥ २२ ॥ बलवान् कु मुद वजय ीसे सुशो भत होनेवाले दस करोड़ वानर के साथ (◌इशानकोणम रहकर) ल ाके पूव१ ारको घेरकर खड़ा हो गया॥ २३ ॥ उसीक सहायताके लये अ वानर के साथ महाबा पनस और घस भी आकर डट गये॥ २४ ॥ वीर शतब लने (आ ेयकोणम त हो) द ण२



ारपर आकर बीस करोड़ वानर के साथ उसे घेर लया और वह पड़ाव डाल दया॥ २५ ॥



ताराके बलवान् पता सुषेण (नैऋ कोणम त हो) को ट-को ट वानर के साथ प म३ ारपर आ मण करके उसे घेरकर खड़े हो गये॥ २६ ॥ सु म ाकु मार ल णस हत महाबलवान् ीराम तथा वानरराज सु ीव उ र४ ारको घेरकर खड़े ए (सु ीव पूववणनके अनुसार वाय कोणम त हो उ र ारवत ीरामक सहायता करते थे।)॥ २७ ॥ लंगूर जा तके वशालकाय महापरा मी वानर गवा , जो देखनेम बड़े भयंकर थे, एक करोड़ वानर के साथ ीरामच जीके एक बगलम खड़े हो गये॥ २८ ॥ इसी तरह महाबली श ुसूदन ऋ राज धू एक करोड़ भयानक ोधी रीछ को साथ लेकर ीरामच जीके दूसरी ओर खड़े ए॥ २९ ॥ कवच आ दसे सुस त महान् परा मी वभीषण हाथम गदा लये अपने सावधान म य के साथ वह आकर डट गये, जहाँ महाबली ीराम व मान थे॥ गज, गवा , गवय, शरभ और ग मादन—सब ओर घूम-घूमकर वानर-सेनाक र ा करने लगे॥ ३१ ॥ इसी समय अ ोधसे भरे ए रा सराज रावणने अपनी सारी सेनाको तुरंत ही बाहर नकलनेक आ ा दी॥ ३२ ॥ रावणके मुखसे बाहर नकलनेका आदेश सुनते ही रा स ने सहसा बड़ी भयानक गजना क ॥ ३३ ॥ फर तो रा स के यहाँ जनके मुखभाग च माके समान उ ल थे और जो सोनेके डंडसे े बजाये या पीटे जाते थे, वे ब त-से ध से एक साथ बज उठे ॥ साथ ही भयानक रा स के मुखक वायुसे पू रत हो लाख ग ीर घोषवाले श बजने लगे॥ ३५ ॥ आभूषण क भासे सुशो भत काले शरीरवाले वे नशाचर श बजाते समय व ु भासे उ ा सत तथा वकपं य से यु नील मेघ के समान जान पड़ते थे॥



तदन र रावणक ेरणासे उसके सै नक बड़े हषके साथ यु के लये नकलने लगे, मानो लयकालम महान् मेघ के जलसे भरे जाते ए समु के वेग आगे बढ़ रहे ह ॥ ३७ ॥ त ात् वानर सै नक ने सब ओर बड़े जोरसे सहनाद कया, जससे छोटे-बड़े शखर और क रा स हत मलयपवत गूँज उठा॥ ३८ ॥ इस कार हा थय के च ाड़ने, घोड़ के हन हनाने, रथ के प हय क घघराहट एवं रा स के मुखसे कट ◌इ आवाजके साथ ही श और दु ु भय के श तथा वेगवान् वानर के ननादसे पृ ी, आकाश और समु नना दत हो उठे ॥ ३९-४० ॥ इतनेहीम पूवकालम घ टत ए देवासुर-सं ामक भाँ त रा स और वानर म घोर यु होने लगा॥ ४१ ॥ वे रा स दमकती ◌इ गदा तथा श , शूल और फरस से सम वानर को मारने एवं अपने परा मक घोषणा करने लगे॥ ४२ ॥ उसी कार वेगशाली वशालकाय वानर भी रा स पर बड़े-बड़े वृ , पवत- शखर , नख और दाँत से चोट करने लगे॥ ४३ ॥ वानरसेनाम ‘वानरराज सु ीवक जय हो’ यह महान् श होने लगा। उधर रा सलोग भी ‘महाराज रावणक जय हो’ ऐसा कहकर अपने-अपने नामका उ ेख करने लगे॥ ४४ ॥ दूसरे ब त-से भयानक रा स जो परकोटेपर चढ़े ए थे, पृ ीपर खड़े ए वानर को भ पाल और शूल से वदीण करने लगे॥ ४५ ॥ तब पृ ीपर खड़े ए वानर भी अ कु पत हो उठे और आकाशम उछलकर परकोटेपर बैठे ए रा स को अपनी बाँह से पकड़-पकड़कर गराने लगे॥ इस कार रा स और वानर म बड़ा ही अ तु घमासान यु आ, जससे वहाँ र और मांसक क च जम गयी॥ ४७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४२ ॥ १, २, ३, ४—यहाँ जो पूव, द ण, प म और उ र श आये ह, वे मश: ◌इशान, अ , नैऋ और वाय कोणका ल करानेवाले ह; क पहले (४१ व सगम) पूव आ द दरवाज पर नील आ द यूथप तय के आ मणक बात कह दी गयी है वे कु मुद आ द वानर नकटवत ◌इशान आ द कोण म रहकर पूवा द ार पर आ मण करके नील आ दक सहायता करते थे।



ततालीसवाँ सग यु म वानर ारा रा स क पराजय



तदन र पर र यु करते ए महामना वानर और रा स को एक-दूसरेक सेनाको देखकर बड़ा भयंकर रोष आ॥ १ ॥ सोनेके आभूषण से वभू षत घोड़ , हा थय , अ क ालाके समान देदी मान रथ तथा सूयतु तेज ी मनोरम कवच से यु वे वीर रा स दस दशा को अपनी गजनासे गुँजाते ए नकले। भयानक कम करनेवाले वे सभी नशाचर रावणक वजय चाहते थे॥ ३-४ ॥



भगवान् ीरामक वजय चाहनेवाले वानर क उस वशाल सेनाने भी घोर कम करनेवाले रा स क सेनापर धावा कया॥ ४ ॥ इसी समय एक-दूसरेपर धावा बोलते ए रा स और वानर म यु छड़ गया॥ ५ ॥ वा लपु अ दके साथ महातेज ी रा स इ जत् उसी तरह भड़ गया, जैसे ने धारी महादेवजीके साथ अ कासुर लड़ रहा हो॥ ६ ॥ ज नामक रा सके साथ सदा ही रणदुजय वीर स ा तने और ज ुमालीके साथ वानर वीर हनुमा ीने यु आर कया॥ ७ ॥ अ ोधम भरे ए रावणानुज रा स वभीषण समरा णम च वेगशाली श ु के साथ उलझ गये॥ ८ ॥ महाबली गज तपन नामक रा सके साथ लड़ने लगे। महातेज ी नील भी नकु से जूझने लगे॥ ९ ॥ वानरराज सु ीव घसके साथ और ीमान् ल ण समरभू मम व पा के साथ यु करने लगे॥ दुजय वीर अ के तु, र के तु, सु और य कोप—ये सब रा स ीरामच जीके साथ जूझने लगे॥ ११ ॥ मै के साथ व मु और वदके साथ अश न भ यु करने लगे। इस कार इन दोन भयानक रा स के साथ वे दोन क प शरोम ण वीर भड़े ए थे॥ १२ ॥



तपन नामसे स एक घोर रा स था, जसे रणभू मम परा करना अ क ठन था। वह वीर नशाचर समरा णम च वेगशाली नलके साथ यु करने लगा॥ १३ ॥ धमके बलवान् पु महाक प सुषेण रा स व ु ालीके साथ लोहा लेने लगे॥ १४ ॥ इसी कार अ ा भयानक वानर ब त के साथ यु करनेके प ात् दूसरे-दूसरे रा स के साथ सहसा यु करने लगे॥ १५ ॥ वहाँ रा स और वानरवीर अपनी-अपनी वजय चाहते थे। उनम बड़ा भयंकर और रोमा कारी यु होने लगा॥ १६ ॥ वानर और रा स के शरीर से नकलकर ब त-सी खूनक न दयाँ बहने लग । उनके सरके बाल ही वहाँ शैवाल (सेवार) के समान जान पड़ते थे। वे न दयाँ सै नक क लाश पी का समूह को बहाये लये जाती थ ॥ १७ ॥ जस कार इ व से हार करते ह, उसी तरह इ जत् मेघनादने श ुसेनाको वदीण करनेवाले वीर अ दपर गदासे आघात कया॥ १८ ॥ कतु वेगशाली वानर ीमान् अ दने उसक गदा हाथसे पकड़ ली और उसी गदासे इ ज े सुवणज टत रथको सार थ और घोड़ स हत चूर-चूर कर डाला॥ १९ ॥ ज ने स ा तको तीन बाण से घायल कर दया। तब स ा तने भी अ कण नामक वृ से यु के मुहानेपर ज को मार डाला॥ २० ॥ महाबली ज ुमाली रथपर बैठा आ था। उसने कु पत होकर समरा णम एक रथश के ारा हनुमा ीक छातीपर चोट क ॥ २१ ॥ परंतु पवनन न हनुमान् उछलकर उसके उस रथपर चढ़ गये और तुरंत ही थ ड़से मारकर उ ने उस रा सके साथ ही उस रथको भी चौपट कर दया (ज ुमाली मर गया)॥ २२ ॥ दूसरी ओर भयानक रा स तपन भीषण गजना करके नलक ओर दौड़ा। शी तापूवक हाथ चलानेवाले उस रा सने अपने तीखे बाण से नलके शरीरको त व त कर दया। तब नलने त ाल ही उसक दोन आँ ख नकाल ल ॥ २३ ॥ उधर रा स घस वानरसेनाको कालका ास बना रहा था। यह देख वानरराज सु ीवने स पण नामक वृ से उसे वेगपूवक मार गराया॥ २४ १/२ ॥



ल णने पहले बाण क वषा करके भयंकर वाले रा स व पा को ब त पीड़ा दी। फर एक बाणसे मारकर उसे मौतके घाट उतार दया॥ २५ १/२ ॥ अ के तु, दुजय र के तु, सु और य कोप नामक रा स ने ीरामच जीको अपने बाण से घायल कर दया॥ २६ ॥ तब ीरामने कु पत हो अ शखाके समान भयंकर बाण ारा समरा णम उन चार के सर काट लये॥ २७ ॥ उस यु लम मै ने व मु पर मु े का हार कया, जससे वह रथ और घोड़ स हत उसी तरह पृ ीपर गर पड़ा, मानो देवता का वमान धराशायी हो गया हो॥ २८ ॥ नकु ने काले कोयलेके समूहक भाँ त नील वणवाले नीलको रण े म अपने पैने बाण ारा उसी तरह छ - भ कर दया, जैसे सूयदेव अपनी च करण ारा बादल को फाड़ देते ह॥ २९ ॥ परंतु शी तापूवक हाथ चलानेवाले उस नशाचरने समरा णम नीलको पुन: सौ बाण से घायल कर दया। ऐसा करके नकु जोर-जोरसे हँ सने लगा॥ ३० ॥ यह देख नीलने उसीके रथके प हयेसे यु लम नकु तथा उसके सार थका उसी तरह सर काट लया, जैसे भगवान् व ु सं ामभू मम अपने च से दै के म क उड़ा देते ह॥ ३१ ॥



वदका श व और अश नके समान दु:सह था। उ ने सब रा स के देखते-देखते अश न भ नामक नशाचरपर एक पवत शखरसे हार कया॥ ३२ ॥ तब अश न भने यु लम वृ लेकर यु करनेवाले वानरराज वदको व तु तेज ी बाण ारा घायल कर दया॥ ३३ ॥ वदका सारा शरीर बाण से त- व त हो गया था, इससे उ बड़ा ोध आ और उ ने एक सालवृ से रथ और घोड़ स हत अश न भको मार गराया॥ ३४ ॥ रथपर बैठे ए व ु ालीने अपने सुवणभू षत बाण ारा सुषेणको बार ार घायल कया। फर वह जोर-जोरसे गजना करने लगा॥ ३५ ॥ उसे रथपर बैठा देख वानर शरोम ण सुषेणने एक वशाल पवत- शखर चलाकर उसके रथको शी ही चूर-चूर कर डाला॥ ३६ ॥



नशाचर व ु ाली तुरंत ही बड़ी फु त के साथ रथसे नीचे कू द पड़ा और हाथम गदा लेकर पृ ीपर खड़ा हो गया॥ ३७ ॥ तदन र ोधसे भरे ए वानर शरोम ण सुषेण एक ब त बड़ी शला लेकर उस नशाचरक ओर दौड़े॥ ३८ ॥ क प े सुषेणको आ मण करते देख नशाचर व ु ालीने त ाल ही गदासे उनक छातीपर हार कया॥ ३९ ॥ गदाके उस भीषण हारक कु छ भी परवा न करके वानर वर सुषेणने उसी पहलेवाली शलाको चुपचाप उठा लया और उस महासमरम उसे व ु ालीक छातीपर दे मारा॥ ४० ॥ शलाके हारसे घायल ए नशाचर व ु ालीक छाती चूर-चूर हो गयी और वह ाणशू होकर पृ ीपर गर पड़ा॥ ४१ ॥ इस कार वे शूरवीर नशाचर शौयस वानरवीर ारा वहाँ यु म उसी तरह कु चल दये गये जैसे देवता ारा दै मथ डाले गये थे॥ ४२ ॥ उस समय भाल , अ ा बाण , गदा , श य , तोमर , सायक , टूटे और फ के ए रथ , फौजी घोड़ , मरे ए मतवाले हा थय , वानर , रा स , प हय तथा टूटे ए जू से, जो धरतीपर बखरे पड़े थे, वह यु भू म बड़ी भयानक हो रही थी। गीदड़ के समुदाय वहाँ सब ओर वचर र हे थे। देवासुर-सं ामके समान उस भयानक मार-काटम वानर और रा स के कब (म कर हत धड़) स ूण दशा म उछल रहे थे॥ ४३—४५ ॥ उस समय उन वानर शरोम णय ारा मारे जाते ए नशाचर र क ग से मतवाले हो रहे थे। वे सूयके अ होनेक ती ा करते ए पुन: बड़े वेगसे घमासान यु म त र हो गये*॥ ४६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म ततालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४३ ॥ सूया के बाद दोषकालसे लेकर पूरी रातभर रा स का बल अ धक बढ़ा होता है, इसी लये वे सूया होनेक ती ा कर रहे थे। *



चौवालीसवाँ सग रातम वानर और रा स का घोर यु , अ दके ारा इ ज ए इ ज ा नागमय बाण ारा ीराम और ल



पराजय, मायासे अ णको बाँधना



इस कार उन वानर और रा स म यु चल ही रहा था क सूयदेव अ हो गये तथा ाण का संहार करनेवाली रा का आगमन आ॥ १ ॥ वानर और रा स म पर र वैर बँध गया था। दोन ही प के यो ा बड़े भयंकर थे तथा अपनी-अपनी वजय चाहते थे; अत: उस समय उनम रा यु होने लगा॥ २ ॥ उस दा ण अ कारम वानरलोग अपने वप ीसे पूछते थे, ा तुम रा स हो? और रा सलोग भी पूछते थे, ा तुम वानर हो? इस कार पूछ-पूछकर समरा णम वे एक दूसरेपर हार करते थे॥ ३ ॥ सेनाम सब ओर ‘मारो, काटो, आओ तो, भागे जाते हो’—ये भयंकर श सुनायी दे रहे थे॥ ४ ॥ काले-काले रा स सुवणमय कवच से वभू षत होकर उस अ कारम ऐसे दखायी देते थे, मानो चमकती ◌इ ओष धय के वनसे यु काले पहाड़ ह ॥ उस अ कारसे पार पाना क ठन हो रहा था। उसम ोधसे अधीर ए महान् वेगशाली रा स वानर को खाते ए उनपर सब ओरसे टूट पड़े॥ ६ ॥ तब वानर का कोप बड़ा भयानक हो उठा। वे उछल-उछलकर अपने तीखे दाँत ारा सुनहरे साजसे सजे ए रा स-दलके घोड़ को और वषधर सप के समान दखायी देनेवाले उनके ज को भी वदीण कर देते थे॥ ७ ॥ बलवान् वानर ने यु म रा स-सेनाके भीतर हलचल मचा दी। वे सब-के -सब ोधसे पागल हो रहे थे; अत: हा थय एवं हाथीसवार को तथा जा-पताकासे सुशो भत रथ को भी ख च लेते और दाँत से काट-काटकर त- व त कर देते थे॥ ८ १/२ ॥ बड़े-बड़े रा स कभी कट होकर यु करते थे और कभी अ हो जाते थे; परंतु ीराम और ल ण वषधर सप के समान अपने बाण ारा और अ सभी रा स को मार डालते थे॥ ९ १/२ ॥



घोड़ क टापसे चूण होकर रथके प हय से उड़ायी ◌इ धरतीक धूल यो ा के कान और ने बंद कर देती थी॥१० १/२ ॥ इस कार रोमा कारी भयंकर सं ामके छड़ जानेपर वहाँ र के वाहको बहानेवाली खूनक बड़ी भयंकर न दयाँ बहने लग ॥ ११ ॥ तदन र भेरी, मृद और पणव आ द बाज क न होने लगी, जो श के श तथा रथके प हय क घघराहटसे मलकर बड़ी अ तु जान पड़ती थी॥ १२ ॥ घायल होकर कराहते ए रा स और श से त- व त ए वानर का आतनाद वहाँ बड़ा भयंकर तीत होता था॥ १३ ॥ श , शूल और फरस से मारे गये मु -मु वानर तथा वानर ारा कालके गालम डाले गये इ ानुसार प धारण करनेम समथ पवताकार रा स से उपल त उस यु भू मम र के वाहसे क च हो गयी थी। उसे पहचानना क ठन हो रहा था तथा वहाँ ठहरना तो और मु ल हो गया था। ऐसा जान पड़ता था उस भू मको श पी पु का उपहार अ पत कया गया है॥ वानर और रा स का संहार करनेवाली वह भयंकर रजनी कालरा के समान सम ा णय के लये दुलङ् हो गयी थी॥ १६ ॥ तदन र उस दा ण अ कारम वहाँ वे सब रा स हष और उ ाहम भरकर बाण क वषा करते ए ीरामपर ही धावा करने लगे॥ १७ ॥ उस समय कु पत हो गजना करते ए उन आ मणकारी रा स का श लयके समय सात समु के महान् कोलाहल-सा जान पड़ता था॥ १८ ॥ तब ीरामच जीने पलक मारते-मारते अ ालाके समान छ: भयानक बाण से न ा त छ: नशाचर को घायल कर दया॥ १९ ॥ उनके नाम इस कार ह—दुधष वीर य श ु, महापा , महोदर, महाकाय, व दं तथा वे दोन शुक और सारण॥ २० ॥ ीरामके बाणसमूह से सारे मम ान म चोट प ँ चनेके कारण वे छह रा स यु छोड़कर भाग गये; इसी लये उनक आयु शेष रह गयी—जान बच गयी॥ २१ ॥



महारथी ीरामने अ शखाके समान लत भयंकर बाण ारा पलक मारते-मारते स ूण दशा और उनके कोण को नमल ( काशपूण) कर दया॥ २२ ॥ दूसरे भी जो-जो रा सवीर ीरामके सामने खड़े थे, वे भी उसी कार न हो गये, जैसे आगम पड़कर प तगे जल जाते ह॥ २३ ॥ चार ओर सुवणमय प वाले बाण गर रहे थे। उनक भासे वह रजनी जुगुनु से व च दखायी देनेवाली शरद् ऋतुक रा के समान अ तु तीत होती थी॥ २४ ॥ रा स के सहनाद और भे रय क आवाज से वह भयानक रा और भी भयंकर हो उठी थी॥ २५ ॥ सब ओर फै ले ए उस महान् श से त नत हो क रा से ा कू ट पवत मानो कसीक बातका उ र देता-सा जान पड़ता था॥ २६ ॥ लंगूर जा तके वशालकाय वानर जो अ कारके समान काले थे, नशाचर को दोन भुजा म कसकर मार डालते और उ कु े आ दको खला देते थे॥ दूसरी ओर अ द रणभू मम श ु का संहार करनेके लये आगे बढ़े। उ ने रावणपु इ ज ो घायल कर दया तथा उसके सार थ और घोड़ को भी यमलोक प ँ चा दया॥ २८ ॥



अ दके ारा घोड़े और सार थके मारे जानेपर महान् क म पड़ा आ इ जत् रथको छोड़कर वह अ धान हो गया॥ २९ ॥ शंसाके यो वा लकु मार अ दके उस परा मक ऋ षय स हत देवता तथा दोन भा◌इ ीराम और ल णने भी भू र-भू र शंसा क ॥ ३० ॥ स ूण ाणी यु म इ ज े भावको जानते थे; अत: अ दके ारा उसको परा जत आ देख उन महा ा अंगदपर पात करके सबको बड़ी स ता ◌इ॥ ३१ ॥ श ुको परा जत आ देख सु ीव और वभीषण-स हत सब वानर बड़े स ए और अ दको साधुवाद देने लगे॥ ३२ ॥ यु लम भयानक कम करनेवाले वा लपु अ दसे परा जत होकर इ ज े बड़ा भयंकर ोध कट कया॥ ३३ ॥



रावणकु मार वीर इ जत् ाजीसे वर ा कर चुका था। यु म अ धक क पानेके कारण वह पापी रावणपु ोधसे अचेत-सा हो रहा था; अत: अ धान व ाका आ य ले अ हो उसने व के समान तेज ी और तीखे बाण बरसाने आर कये॥ ३४ १/२ ॥ समरा णम कु पत ए इ ज े घोर सपमय बाण ारा ीराम और ल णको घायल कर दया। वे दोन रघुवंशी ब ु अपने सभी अ म चोट खाकर ८३९ त- व त हो रहे थे॥ ३५ १/२ ॥ मायासे आवृत हो सम ा णय के लये अ होकर वहाँ कू टयु करनेवाले उस नशाचरने यु लम दोन रघुवंशी ब ु ीराम और ल णको मोहम डालते ए उ सपाकार बाण के ब नम बाँध लया॥ ३६-३७ ॥ इस कार ोधसे भरे ए इ ज े उन दोन पु ष वर वीर को सहसा सपाकार बाण ारा बाँध लया। उस समय वानर ने उ नागपाशम ब देखा॥ ३८ ॥ कट पसे यु करते समय जब रा स-राजकु मार इ जत् उन दोन राजकु मार को बाधा देनेम समथ न हो सका, तब उनपर मायाका योग करनेको उता हो गया और उन दोन भाइय को उस दुरा ाने बाँध लया॥ ३९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चौवालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४४ ॥



पतालीसवाँ सग इ



ज े बाण से ीराम और ल



णका अचेत होना और वानर का शोक करना



तदन र अ बलशाली तापी राजकु मार ीरामने इ ज ा पता लगानेके लये दस वानरयूथ प तय को आ ा दी॥ १ ॥ उनम दो तो सुषेणके पु थे और शेष आठ वानरराज नील, वा लपु अ द, वेगशाली वानर शरभ, वद, हनुमान्, महाबली सानु , ऋषभ तथा ऋषभ थे। श ु को संताप देनेवाले इन दस को उसका अनुसंधान करनेके लये आ ा दी॥ २-३ ॥ तब वे सभी वानर भयंकर वृ उठाकर दस दशा म खोजते ए बड़े हषके साथ आकाशमागसे चले॥ ४ ॥ कतु अ के ाता रावणकु मार इ ज े अ वेगशाली बाण क वषा करके अपने उ म अ ारा उन वेगवान् वानर के वेगको रोक दया॥ ५ ॥ बाण से त- व त हो जानेपर भी वे भयानक वेगशाली वानर अ कारम मेघ से ढके ए सूयक भाँ त इ ज ो न देख सके ॥ ६ ॥ त ात् यु वजयी रावणपु इ जत् फर ीराम और ल णपर ही उनके स ूण अ को वदीण करनेवाले बाण क बार ार वषा करने लगा॥ ७ ॥ कु पत ए इ ज े उन दोन वीर ीराम और ल णको बाण पधारी सप ारा इस तरह ब धा क उनके शरीरम थोड़ा-सा भी ऐसा ान नह रह गया, जहाँ बाण न लगे ह ॥ ८ ॥ उन दोन के अ म जो घाव हो गये थे, उनके मागसे ब त र बहने लगा। उस समय वे दोन भा◌इ खले ए दो पलाश-वृ के समान का शत हो रहे थे॥ इसी समय जसके ने ा कु छ लाल थे और शरीर खानसे काटकर नकाले गये कोयल के ढेरक भाँ त काला था, वह रावणकु मार इ जत् अ धान-अव ाम ही उन दोन भाइय से इस कार बोला—॥ १० ॥ ‘यु के समय अल हो जानेपर तो मुझे देवराज इ भी नह देख या पा सकता; फर तुम दोन क ा बसात है?॥ ११ ॥



‘मने



तुम दोन रघुवं शय को कं कप यु बाणके जालम फँ सा लया है। अब रोषसे भरकर म अभी तुम दोन को यमलोक भेज देता ँ ’॥ १२ ॥ ऐसा कहकर वह धमके ाता दोन भा◌इ ीराम और ल णको पैने बाण से ब धने लगा और हषका अनुभव करते ए जोर-जोरसे गजना करने लगा॥ १३ ॥ कटे-छटे कोयलेक रा शके समान काला इ जत् फर अपने वशाल धनुषको फै लाकर उस महासमरम घोर बाण क वषा करने लगा॥ १४ ॥ मम लको जाननेवाला वह वीर ीराम और ल णके मम ान म अपने पैने बाण को डु बोता आ बार ार गजना करने लगा॥ १५ ॥ यु के मुहानेपर बाणके ब नसे बँधे ए वे दोन ब ु पलक मारते-मारते ऐसी दशाको प ँ च गये क उनम आँ ख उठाकर देखनेक भी श नह रह गयी (वा वम यह उनक मनु ताका ना करनेवाली लीलामा थी। वे तो कालके भी काल ह। उ कौन बाँध सकता था?)॥ १६ ॥ इस कार उनके सारे अ बध गये थे। बाण से ा हो गये थे। वे र ीसे मु ए देवराज इ के दो ज के समान क त होने लगे॥ १७ ॥ वे महान् धनुधर वीर भूपाल मम लके भेदनसे वच लत एवं कृ शकाय हो पृ ीपर गर पड़े॥ १८ ॥ यु भू मम वीरश ापर सोये ए वे दोन वीर र से नहा उठे थे। उनके सारे अ म बाण पधारी नाग लपटे ए थे तथा वे अ पी ड़त एवं थत हो रहे थे॥ १९ ॥ उनके शरीरम एक अ ु ल भी जगह ऐसी नह थी, जो बाण से बधी न हो तथा हाथ के अ भागतक को◌इ भी अ ऐसा नह था, जो बाण से वदीण अथवा ु न आ हो॥ २० ॥ जैसे झरने जल गराते रहते ह, उसी कार वे दोन भा◌इ इ ानुसार प धारण करनेवाले उस ू र रा सके बाण से घायल हो ती वेगसे र क धारा बहा रहे थे॥ २१ ॥ जसने पूवकालम इ को परा कया था, उस इ ज े ोधपूवक चलाये ए बाण ारा मम लम आहत होनेके कारण पहले ीराम ही धराशायी ए॥ २२ ॥ इ ज े उ सोनेके पंख, अ भाग और धूलके समान ग तवाले (अथात् धूलक भाँ त छ र हत ानम भी वेश करनेवाले) शी गामी नाराच१, अधनाराच२, भ ३,



अ लक४, व द ५, सहदं ६ और रु ७ जा तके बाण ारा घायल कर दया था॥ २३ ॥ जसक ा चढ़ी ◌इ थी, कतु मु ीका ब न ढीला पड़ गया था, जो दोन पा भाग और म भाग तीन ान म कु ा आ तथा सुवणसे भू षत था, उस धनुषको ागकर भगवान् ीराम वीरश ापर सोये ए थे॥ २४ ॥ फ का आ बाण जतनी दूरीपर गरता है, अपनेसे उतनी ही दूरीपर धरतीपर पड़े ए पु ष वर ीरामको देखकर ल ण वहाँ अपने जीवनसे नराश हो गये॥ २५ ॥ सबको शरण देनेवाले और यु से संतु होनेवाले अपने भा◌इ कमलनयन ीरामको पृ ीपर पड़ा देख ल णको बड़ा शोक आ॥ २६ ॥ उ उस अव ाम देखकर वानर को भी बड़ा संताप आ। वे शोकसे आतुर हो ने म आँ सू भरकर घोर आतनाद करने लगे॥ २७ ॥ नागपाशम बँधकर वीरश ापर सोये ए उन दोन भाइय को चार ओरसे घेरकर सब वानर खड़े हो गये। वहाँ आये ए हनुमान् आ द मु -मु वानर थत हो बड़े वषादम पड़ गये॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४५ ॥ १. जसका अ भाग सीधा और गोल हो, उस बाणको ‘नाराच’ कहते ह। २. अध भागम नाराचक समानता रखनेवाले बाण ‘अधनाराच’ कहलाते ह। ३. जनका अ भाग फरसेके समान हो, उस बाणक ‘भ ’ सं ा है। आधु नक भालेको भी भ कहते ह। ४. जसका मुखभाग दोन हाथ क अ लके समान हो, वह बाण ‘अ लक’ कहा गया है। ५. जसका अ भाग बछड़ेके दाँत के समान दखायी देता हो, उस बाणक ‘व द ’ सं ा होती है। ६. सहक दाढ़के समान अ भागवाला बाण। ७. जसका अ भाग रु ेक धारके समान हो, उस बाणको ‘ रु ’ कहते ह।



छयालीसवाँ सग ीराम और ल णको मू त देख वानर का शोक, इ ज ा हष ार, वभीषणका सु ीवको समझाना, इ ज ा ल ाम जाकर पताको श ुवधका वृ ा बताना और स ए रावणके ारा अपने पु का अ भन न



तदन र जब उपयु दस वानर पृ ी और आकाशक छानबीन करके लौटे, तब उ ने दोन भा◌इ ीराम और ल णको बाण से बधा आ देखा॥ १ ॥ जैसे वषा करके देवराज इ शा हो गये ह , उसी कार वह रा स इ जत् जब अपना काम बनाकर बाणवषासे वरत हो गया, तब सु ीवस हत वभीषण भी उस ानपर आये॥ २ ॥



हनुमा ीके साथ नील, वद, मै , सुषेण, कु मुद और अ द तुरंत ही ीरघुनाथजीके लये शोक करने लगे॥ ३ ॥ उस समय वे दोन भा◌इ खूनसे लथपथ होकर बाण-श ापर पड़े थे। बाण से उनका सारा शरीर ा हो रहा था। वे न ल होकर धीरे-धीरे साँस ले रहे थे। उनक चे ाएँ बंद हो गयी थ ॥ ४ ॥ सप के समान साँस ख चते और न े पड़े ए उन दोन भाइय का परा म म हो गया था। उनके सारे अ र बहाकर उसीम सन गये थे। वे दोन टूटकर गरे ए दो सुवणमय ज के समान जान पड़ते थे॥ ५ ॥ वीरश ापर सोये ए म चे ावाले वे दोन वीर आँ सूभरे ने वाले अपने यूथप तय से घरे ए थे॥ ६ ॥ बाण के जालसे आवृत होकर पृ ीपर पड़े ए उन दोन रघुवंशी ब ु को देखकर वभीषणस हत सब वानर थत हो उठे ॥ ७ ॥ सम वानर स ूण दशा और आकाशम बार ार पात करनेपर भी माया रावणकु मार इ ज ो रणभू मम नह देख पाते थे॥ ८ ॥ तब वभीषणने मायासे ही देखना आर कया। उस समय उ ने मायासे ही छपे ए अपने उस भतीजेको सामने खड़ा देखा, जसके कम अनुपम थे और यु लम जसका सामना



करनेवाला को◌इ यो ा नह था॥ ९ ॥ तेज, यश और परा मसे यु वभीषणने मायाके ारा ही वरदानके भावसे छपे ए वीर इ ज ो देख लया॥ १० ॥ ीराम और ल णको यु भू मम सोते देख इ ज ो बड़ी स ता ◌इ। उसने सम रा स का हष बढ़ाते ए अपने परा मका वणन आर कया—॥ वह देखो, ज ने खर और दूषणका वध कया था, वे दोन भा◌इ महाबली ीराम और ल ण मेरे बाण से मारे गये॥ १२ ॥ ‘य द सारे मु नसमूह स हत सम देवता और असुर भी आ जायँ तो वे इस बाण-ब नसे इन दोन को छु टकारा नह दला सकते॥ १३ ॥ ‘ जसके कारण च ा और शोकसे पी ड़त ए मेरे पताको सारी रात श ाका श कये बना ही बतानी पड़ती थी तथा जसके कारण यह सारी ल ा वषाकालम नदीक भाँ त ाकु ल रहा करती थी, हम सबक जड़को काटनेवाले उस अनथको आज मने शा कर दया॥ १४-१५ ॥ ‘जैसे शरद-् ऋतुके सारे बादल पानी न बरसानेके कारण थ होते ह, उसी कार ीराम, ल ण और स ूण वानर के सारे बल- व म न ल हो गये’॥ १६ ॥ अपनी ओर देखते ए उन सब रा स से ऐसा कहकर रावणकु मार इ ज े वानर के उन सम सु स यूथप तय को भी मारना आर कया॥ १७ ॥ उस श ुसूदन नशाचर वीरने नीलको नौ बाण से घायल करके मै और वदको तीनतीन उ म सायक ारा मारकर संत कर दया॥ १८ ॥ महाधनुधर इ ज े जा वा छातीम एक बाणसे गहरी चोट प ँ चाकर वेगशाली हनुमा ीको भी दस बाण मारे॥ १९ ॥ रावणकु मारका वेग उस समय ब त बढ़ा आ था। उसने यु लम अ मत परा मी गवा और शरभको भी दो-दो बाण मारकर घायल कर दया॥ २० ॥ तदन र बड़ी उतावलीके साथ बाण चलाते ए रावणकु मार इ ज े पुन: ब सं क बाण ारा लंगूर के राजा-(गवा )-को और वा लपु अ दको भी गहरी चोट प ँ चायी॥ २१ ॥



इस कार अ तु तेज ी सायक से उन मु -मु वानर को घायल करके महान् धैयशाली और बलवान् रावणकु मार वहाँ जोर-जोरसे गजना करने लगा॥ २२ ॥ अपने बाणसमूह से उन वानर को पी ड़त तथा भयभीत करके महाबा इ जत् अ हास करने लगा और इस कार बोला—॥ २३ ॥ ‘रा सो! देख लो, मने यु के मुहानेपर भयंकर बाण के पाशसे इन दोन भाइय ीराम और ल णको एक साथ ही बाँध लया है’॥ २४ ॥ इ ज े ऐसा कहनेपर कू ट-यु करनेवाले वे सब रा स बड़े च कत ए और उसके उस कमसे उ बड़ा हष भी आ॥ २५ ॥ वे सब-के -सब मेघ के समान ग ीर रसे महान् सहनाद करने लगे तथा यह समझकर क ीराम मारे गये, उ ने रावणकु मारका बड़ा अ भन न कया॥ इ ज े भी जब यह देखा क ीराम और ल ण—दोन भा◌इ पृ ीपर न े पड़े ह तथा उनका ास भी नह चल रहा है, तब उन दोन को मरा आ ही समझा॥ २७ ॥ इससे यु वजयी इ ज ो बड़ा हष आ तथा वह सम रा स का हष बढ़ाता आ ल ापुरीम चला गया॥ २८ ॥ ीराम और ल णके शरीर तथा सभी अ -उपा को बाण से ा देख सु ीवके मनम भय समा गया॥ २९ ॥ उनके मुखपर दीनता छा गयी, आसु क धारा बह चली और ने शोकसे ाकु ल हो उठे । उस समय अ भयभीत ए वानरराजसे वभीषणने कहा— ‘सु ीव! डरो मत। डरनेसे को◌इ लाभ नह । आँ सु का यह वेग रोको॥ ३० १/२ ॥ ‘वीर! सभी यु क ाय: ऐसी ही त होती है, उनम वजय न त नह आ करती। य द हमलोग का भा शेष होगा तो ये दोन महाबली महा ा अव मूछा ाग दगे। वानरराज! तुम अपनेको और मुझ अनाथको भी सँभालो। जो लोग स -धमम अनुराग रखते ह, उ मृ ुका भय नह होता है’॥ ३१—३३ ॥ ऐसा कहकर वभीषणने जलसे भीगे ए हाथसे सु ीवके दोन सु र ने प छ दये॥ ३४ ॥



त ात् हाथम जल लेकर उसे म पूत करके धमा ा वभीषणने सु ीवके ने म लगाया॥ ३५ ॥ फर बु मान् वानरराजके भीगे ए मुखको प छकर उ ने बना कसी घबराहटके यह समयो चत बात कही—॥ ३६ ॥ ‘वानरस ाट्! यह समय घबरानेका नह है। ऐसे समयम अ धक ेहका दशन भी मौतका भय उप त कर देता है॥ ३७ ॥ ‘इस लये सब काम को बगाड़ देनेवाली इस घबराहटको छोड़कर ीरामच जी जनके अगुआ अथवा ामी ह, उन सेना के हतका वचार करो॥ ‘अथवा जबतक ीरामच जीको चेत न हो, तबतक इनक र ा करनी चा हये। होशम आ जानेपर ये दोन रघुवंशी वीर हमारा सारा भय दूर कर दगे॥ ‘ ीरामके लये यह संकट कु छ भी नह है। ये मर नह सकते ह; क जनक आयु समा हो चली है, उनके लये जो दुलभ ल ी (शोभा) है, वह इनका ाग नह कर रही है॥ ४० ॥ ‘अत: तुम अपनेको सँभालो और अपनी सेनाको आ ासन दो। तबतक म इस घबरायी ◌इ सेनाको फरसे धैय बँधाकर सु र करता ँ ॥ ४१ ॥ ‘क प े ! देखो, इन वानर के मनम भय समा गया है, इसी लये ये आँ ख फाड़-फाड़कर देखते ह और आपसम कानाफू सी करते ह॥ ४२ ॥ ‘(अत: म इ आ ासन देने जाता ँ ) मुझे हषपूवक इधर-उधर दौड़ते देख और मेरे ारा धैय बँधायी ◌इ सेनाको स होती जान ये सभी वानर पहलेक भोगी ◌इ मालाक भाँ त अपनी सारी भय-श ाको ाग द’॥ ४३ ॥ इस कार सु ीवको आ ासन दे रा सराज वभीषणने भागनेके लये उ त ◌इ वानरसेनाको फरसे सा ना दी॥ ४४ ॥ इधर महामायावी इ जत् सारी सेनाके साथ ल ापुरीम लौटा और अपने पताके पास आया॥ ४५ ॥ वहाँ रावणके पास प ँ चकर उसने उसे हाथ जोड़कर णाम कया और ीराम-ल णके मारे जानेका य संवाद सुनाया॥ ४६ ॥



रा स के बीचम अपने दोन श ु के मारे जानेका समाचार सुनकर रावण हषसे उछल पड़ा और उसने अपने पु को दयसे लगा लया॥ ४७ ॥ फर उसका म क सूँघकर उसने स च होकर उस घटनाका पूरा ववरण पूछा। पूछनेपर इ ज े पताको सारा वृ ा -कानवेदन कया और यह बताया क कस कार बाण के ब नम बाँधकर ीराम और ल णको न े एवं न ेज कया गया है॥ ४८-४९ ॥ महारथी इ ज उस बातको सुनकर रावणक अ रा ा हषके उ ेकसे खल उठी। दशरथन न ीरामक ओरसे जो उसे भय और च ा ा ◌इ थी, उसे उसने ाग दया और स तापूण वचन ारा अपने पु का अ भन न कया॥ ५० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४६ ॥



सतालीसवाँ सग वानर ारा ीराम और ल णक र ा, रावणक आ ासे रा सय का सीताको पु क वमान ारा रणभू मम ले जाकर ीराम और ल णका दशन कराना और सीताका द:ु खी होकर रोना



रावणकु मार इ जत् जब अपना काम बनाकर ल ाम चला गया, तब सभी े वानर ीरघुनाथजीको चार ओरसे घेरकर उनक र ा करने लगे॥ १ ॥ हनुमान्, अ द, नील, सुषेण, कु मुद, नल, गज, गवा , गवय, शरभ, ग मादन, जा वान्, ऋषभ, , र , शतब ल और पृथ— ु ये सब सावधान हो अपनी सेनाक ूहरचना करके हाथ म वृ लये सब ओरसे पहरा देने लगे॥ २-३ ॥ वे सब वानर स ूण दशा म ऊपर-नीचे और अगल-बगलम भी देखते रहते थे तथा तनक के भी हल जानेपर यही समझते थे क रा स आ गये॥ ४ ॥ उधर हषसे भरे ए रावणने भी अपने पु इ ज ो वदा करके उस समय सीताजीक र ा करनेवाली रा सय को बुलवाया॥ ५ ॥ आ ा पाते ही जटा तथा अ रा सयाँ उसके पास आय । तब हषम भरे ए रा सराजने उन रा सय से कहा—॥ ६ ॥ ‘तुमलोग वदेहकु मारी सीतासे जाकर कहो क इ ज े राम और ल णको मार डाला। फर पु क वमानपर सीताको चढ़ाकर रणभू मम ले जाओ और उन मारे गये दोन ब ु को उसे दखा दो॥ ७ ॥ ‘ जसके आ यसे गवम भरकर यह मेरे पास नह आती थी, वह इसका प त अपने भा◌इके साथ यु के मुहानेपर मारा गया॥ ८ ॥ ‘अब म थलेशकु मारी सीताको उसक अपे ा नह रहेगी। वह सम आभूषण से वभू षत हो भय और श ाको ागकर मेरी सेवाम उप त होगी॥ ९ ॥ आज रणभू मम कालके अधीन ए राम और ल णको देखकर वह उनक ओरसे अपना मन हटा लेगी तथा अपने लये दूसरा को◌इ आ य न देखकर उधरसे नराश हो वशाललोचना सीता यं ही मेरे पास चली आयेगी’॥ १० १/२ ॥



दुरा ा रावणक वह बात सुनकर वे सब रा सयाँ ‘ब त अ ा’ कह उस ानपर गय , जहाँ पु क वमान था॥ ११ १/२ ॥ रावणक आ ासे उस पु क वमानको वे रा सयाँ अशोकवा टकाम बैठी ◌इ म थलेशकु मारीके पास ले आय ॥ १२ १/२ ॥ उन रा सय ने प तके शोकसे ाकु ल ◌इ सीताको त ाल पु क वमानपर चढ़ाया॥ १३ १/२ ॥ सीताको पु क वमानपर बठाकर जटा-स हत वे रा सयाँ उ राम-ल णका दशन करानेके लये चल । इस कार रावणने उ जा-पताका से अलंकृत ल ापुरीके ऊपर वचरण करवाया॥ १४-१५ ॥ इधर हषसे भरे ए रा सराज रावणने ल ाम सव यह घोषणा करा दी क राम और ल ण रणभू मम इ ज े हाथसे मारे गये॥ १६ ॥ जटाके साथ उस वमान ारा वहाँ जाकर सीताने रणभू मम जो वानर क सेनाएँ मारी गयी थ , उन सबको देखा॥ १७ ॥ उ ने मांसभ ी रा स को तो भीतरसे स देखा और ीराम तथा ल णके पास खड़े ए वानर को अ दु:खसे पी ड़त पाया॥ १८ ॥ तदन र सीताने बाणश ापर सोये ए दोन भा◌इ ीराम और ल णको भी देखा, जो बाण से पी ड़त हो सं ाशू होकर पड़े थे॥ १९ ॥ उन दोन वीर के कवच टूट गये थे, धनुष-बाण अलग पड़े थे, सायक से सारे अ छद गये थे और वे बाणसमूह के बने ए पुतल क भाँ त पृ ीपर पड़े थे॥ जो मुख वीर और सम पु ष म उ म थे, वे दोन भा◌इ कमलनयन राम और ल ण अ पु कु मार शाख और वशाखक भाँ त शरसमूहम सो रहे थे। उन दोन नर े वीर को उस अव ाम बाणश ापर पड़ा देख दु:खसे पी ड़त ◌इ सीता क णाजनक रम जोर-जोरसे वलाप करने लग ॥ २१-२२ ॥ नद ष अ वाली ामलोचना जनकन नी सीता अपने प त ीराम और देवर ल णको धूलम लोटते देख फू ट-फू टकर रोने लग ॥ २३ ॥



उनके ने से आँ सू बह रहे थे और दय शोकके आघातसे पी ड़त था। देवता के तु भावशाली उन दोन भाइय को उस अव ाम देखकर उनके मरणक आश ा करती ◌इ वे दु:ख एवं च ाम डू ब गय और इस कार बोल ॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म सतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४७ ॥



अड़तालीसवाँ सग सीताका वलाप और



जटाका उ समझा-बुझाकर ीराम-ल णके जी वत होनेका व ास दलाकर पुन: ल ाम ही लौटा लाना



अपने ामी ीरामको तथा महाबली ल णको भी मारा गया देख शोकसे पी ड़त ◌इ सीता बार ार क णाजनक वलाप करने लग —॥ १ ॥ ‘सामु क ल ण के ाता व ान ने मुझे पु वती और सधवा बताया था। आज ीरामके मारे जानेसे वे सब ल ण- ानी पु ष अस वादी हो गये॥ २ ॥ ‘ ज ने मुझे य परायण तथा व वध स का संचालन करनेवाले राजा धराजक प ी बताया था, आज ीरामके मारे जानेसे वे सभी ल णवे ा पु ष झूठे हो गये॥ ३ ॥ ‘ जन लोग ने ल ण ारा मुझे वीर राजा क प य म पूजनीय और प तके ारा स ा नत समझा था, आज ीरामके न रहनेसे वे सभी ल ण पु ष म ावादी हो गये॥ ४ ॥



ो तषशा के स ा को जाननेवाले जन ा ण ने मेरे सामने ही मुझे न म लमयी कहा था, वे सभी ल णवे ा पु ष आज ीरामके मारे जानेपर अस वादी स हो गये॥ ५ ॥ ‘ जन ल णभूत कमल के हाथ-पैर आ दम होनेपर कु लवती याँ अपने प त राजा धराजके साथ स ा ीके पदपर अ भ ष होती ह, वे मेरे दोन पैर म न त पसे व मान ह॥ ६ ॥ ‘ जन अशुभ ल ण के कारण सौभा दुलभ होता है और याँ वधवा हो जाती ह, म ब त देखनेपर भी अपने अ म ऐसे ल ण को नह देख पाती, तथा प मेरे सारे शुभ ल ण न ल हो गये॥ ७ ॥ ‘ य के हाथ-पैर म जो कमलके च होते ह, उ ल णवे ा व ान ने अमोघ बताया है; कतु आज ीरामके मारे जानेसे वे सारे शुभ ल ण मेरे लये थ हो गये॥ ८ ॥ ‘मेरे सरके बाल महीन, बराबर और काले ह। भ ह पर र जुड़ी ◌इ नह ह। मेरी पड लयाँ (घुटन से नीचेके भाग) गोल-गोल तथा रोमर हत ह तथा मेरे दाँत भी पर र सटे ए ‘



ह॥ ९ ॥ ‘मेरे ने के आसपासके भाग, दोन ने , दोन हाथ, दोन पैर, दोन गु (तखने) और जाँघ बराबर, वशाल एवं मांसल (पु ) ह। दोन हाथ क अँगु लयाँ बराबर एवं चकनी ह और उनके नख गोल एवं उतारचढ़ाववाले ह॥ १० ॥ ‘मेरे दोन न पर र सटे ए और ूल ह। इनके अ भाग भीतरक ओर दबे ए ह। मेरी ना भ गहरी और उसके आसपासके भाग ऊँ चे ह। मेरे पा भाग तथा छाती मांसल ह॥ ११ ॥ ‘मेरी



अ का खरादी ◌इ म णके समान उ ल है। शरीरके रोएँ कोमल ह तथा पैर क दस अँगु लयाँ और दोन तलवे—ये बारह पृ ीसे अ ी तरह सट जाते ह। इन सबके कारण ल ण ने मुझे शुभल णा बताया था॥ १२ ॥ ‘मेरे हाथ-पैर लाल एवं उ म का से यु ह। उनम जौक समूची रेखाएँ ह तथा मेरे हाथ क अँगु लयाँ जब पर र सटी होती ह, उस समय उनम त नक भी छ नह रह जाता है। क ाके शुभल ण को जाननेवाले व ान ने मुझे म -मुसकानवाली बताया था॥ १३ ॥ ो तषके स ा को जाननेवाले नपुण ा ण ने यह बताया था क मेरा प तके साथ रा ा भषेक होगा, कतु आज वे सारी बात झूठी हो गय ॥ १४ ॥ ‘इन दोन भाइय ने मेरे लये जन ानको छान डाला तथा मेरा समाचार पाकर अ ो समु को पार कया, कतु हाय! इतना सब कर लेनेके बाद थोड़ी-सी रा ससेनाके ारा जसे हराना इनके लये गोपदको लाँघनेके समान था, वे दोन मारे गये॥ १५ ॥ ‘परंतु ये दोन रघुवंशी ब ु तो वा ण, आ ेय, ऐ , वाय और शर आ द अ को भी जानते थे। मरनेसे पहले इ ने उन अ का योग नह कया?॥ १६ ॥ ‘मुझ अनाथाके र क ीराम और ल ण इ तु परा मी थे, कतु इ ज े यं मायासे अ रहकर ही इ रणभू मम मार डाला है॥ १७ ॥ ‘अ था यु लम इन ीरघुनाथजीके पथम आकर को◌इ भी श ु, वह मनके समान वेगशाली न हो, जी वत नह लौट सकता था॥ १८ ॥ ‘परंतु कालके लये कु छ भी अ धक बोझ नह है (वह सब कु छ कर सकता है)। उसके लये दैवको भी जीतना वशेष क ठन नह है। इस कालके ही वशम पड़कर आज ीराम अपने



भा◌इके साथ मारे जाकर यु भू मम सो रहे ह॥ १९ ॥ ‘म ीराम, महारथी ल ण, अपने और अपनी माताके लये भी उतना शोक नह करती ँ जतना अपनी तप नी सासुजीके लये कर रही ँ । वे तो त दन यही सोचती ह गी क वह दन कब आयेगा जब क वनवासका त समा करके वनसे लौटे ए ीराम, ल ण और सीताको म देखूँगी’॥ २०-२१ ॥ इस कार वलाप करती ◌इ सीतासे रा सी जटाने कहा—‘दे व! वषाद न करो। तु ारे ये प तदेव जी वत ह॥ २२ ॥ ‘दे व! म तु क◌इ ऐसे महान् और उ चत कारण बताऊँ गी, जनसे यह सू चत होता है क ये दोन भा◌इ ीराम और ल ण जी वत ह॥ २३ ॥ ‘यु म ामीके मारे जानेपर यो ा के मुँह ोध और हषक उ ुकतासे यु नह रहते ( कतु यहाँ वे दोन बात पायी जाती ह। इस लये ये दोन जी वत ह)॥ २४ ॥ ‘ वदेहन न! यह पु क नामक वमान द है। य द इन दोन के ाण चले गये होते तो (वैध ाव ाम) यह तु धारण न करता॥ २५ ॥ ‘इसके सवा जब धान वीर मारा जाता है, तब उसक सेना उ ाह और उ ोगसे हीन हो यु लम उसी तरह मारी-मारी फरती है, जैसे कणधारके न हो जानेपर नौका जलम ही बहती रहती है। परंतु तप न! इस सेनाम कसी कारक घबराहट या उ ेग नह है। यह इन दोन राजकु मार क र ा कर रही है। इस कार मने ेमपूवक तु यह बताया है क ये दोन भा◌इ जी वत ह॥ २६-२७ ॥ ‘इस लये अब तुम इन भावी सुखक सूचना देनेवाले अनुमान (हेतु ) से न हो जाओ— व ास करो क ये जी वत ह। तुम इन दोन रघुवंशी राजकु मार को इसी पम देखो क ये मारे नह गये ह। यह बात म तुमसे ेहवश कह रही ँ ॥ २८ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! तु ारा शील- भाव तु ारे नमल च र के कारण बड़ा सुखदायक जान पड़ता है, इसी लये तुम मेरे मनम घर कर गयी हो। अतएव मने तुमसे न तो पहले कभी झूठ कहा है और न आगे ही क ँ गी॥ २९ ॥ ‘इन दोन वीर को रणभू मम इ स हत स ूण देवता और असुर भी नह जीत सकते। वैसा ल ण देखकर ही मने तुमसे ये बात कही ह॥ ३० ॥



‘ म थलेशकु मारी!



यह महान् आ यक बात तो देखो। बाण के लगनेसे ये अचेत होकर पड़े ह तो भी ल ी (शरीरक सहज का ) इनका ाग नह कर रही है॥ ३१ ॥ ‘ जनके ाण नकल जाते ह अथवा जनक आयु समा हो जाती है, उनके मुख पर य द पात कया जाय तो ाय: वहाँ बड़ी वकृ त दखायी देती है (इन दोन के मुख क शोभा -क - बनी ◌इ है; इस लये ये जी वत ह)॥ ३२ ॥ ‘जनक कशोरी! तुम ीराम और ल णके लये शोक, दु:ख और मोह ाग दो। ये अब मर नह सकते’॥ ३३ ॥ जटाक यह बात सुनकर देवक ाके समान सु री म थलेशकु मारी सीताने हाथ जोड़कर उससे कहा—‘ब हन! ऐसा ही हो’॥ ३४ ॥ फर मनके समान वेगवाले पु क वमानको लौटाकर जटा दु: खनी सीताको ल ापुरीम ही ले आयी॥ ३५ ॥ त ात् जटाके साथ वमानसे उतरनेपर रा सय ने उ पुन: अशोकवा टकाम ही प ँ चा दया॥ ब सं क वृ समूह से सुशो भत रा सराजक उस वहारभू मम प ँ चकर सीताने उसे देखा और उन दोन राजकु मार का च न करके वे महान् शोकम डू ब गय ॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अड़तालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४८ ॥



उनचासवाँ सग ीरामका सचेत होकर ल



णके लये वलाप करना और यं ाण ागका वचार करके वानर को लौट जानेक आ ा देना



दशरथकु मार ीराम और ल ण भयंकर सपाकार बाणके ब नम बँधे ए-से पड़े थे। वे ल लुहान हो रहे थे और फु फकारते ए सप के समान साँस ले रहे थे॥ १ ॥ उन दोन महा ा को चार ओरसे घेरकर सु ीव आ द सभी े महाबली वानर शोकम डू बे खड़े थे॥ २ ॥ इसी बीचम परा मी ीराम नागपाशसे बँधे होनेपर भी अपने शरीरक ढ़ता और श म ाके कारण मूछासे जाग उठे ॥ ३ ॥ उ ने देखा क भा◌इ ल ण बाण से अ घायल होकर खूनसे लथपथ ए पड़े ह और उनका चेहरा ब त उतर गया है; अत: वे आतुर होकर वलाप करने लगे—॥ ४ ॥ ‘हाय! य द मुझे सीता मल भी गय तो म उ लेकर ा क ँ गा? अथवा इस जीवनको ही रखकर ा करना है? जब क आज म अपने परा जत ए भा◌इको यु लम पड़ा आ देख रहा ँ ॥ ५ ॥ ‘म लोकम ढूँ ढ़नेपर मुझे सीता-जैसी दूसरी ी मल सकती है; परंतु ल णके समान सहायक और यु कु शल भा◌इ नह मल सकता॥ ६ ॥ ‘सु म ाके आन को बढ़ानेवाले ल ण य द जी वत न रहे तो म वानर के देखते-देखते अपने ाण का प र ाग कर दूँगा॥ ७ ॥ ‘ल णके बना य द म अयो ाको लौटूँ तो माता कौस ा और कै के यीको ा जवाब दूँगा तथा अपने पु को देखनेके लये उ ुक हो बछड़ेसे बछु ड़ी गायके समान काँपती और कु ररीक भाँ त रोती बल खती माता सु म ासे ा क ँ गा? उ कस तरह धैय बँधाऊँ गा?॥ ८-९ ॥ ‘म यश ी भरत और श ु से कस तरह यह कह सकूँ गा क ल ण मेरे साथ वनको गये थे; कतु म उ वह खोकर उनके बना ही लौट आया ँ ॥



‘दोन



माता स हत सु म ाका उपाल म नह सह सकूँ गा; अत: यह इस देहको ाग दूँगा। अब मुझम जी वत रहनेका उ ाह नह है॥ ११ ॥ ‘मुझ-जैसे दु म और अनायको ध ार है, जसके कारण ल ण मरे एके समान बाण-श ापर सो रहे ह॥ १२ ॥ ‘ल ण! जब म अ वषादम डू ब जाता था, उस समय तु सदा मुझे आ ासन देते थे; परंतु आज तु ारे ाण नह रहे, इस लये आज तुम मुझ दु: खयासे बात करनेम भी असमथ हो॥ १३ ॥ ‘भैया! जस रणभू मम आज तुमने ब त-से रा स को मार गराया था, उसीम शूरवीर होकर भी तुम बाण ारा मारे जाकर सो रहे हो॥ १४ ॥ ‘इस बाण-श ापर तुम खूनसे लथपथ होकर पड़े हो और बाण से ा होकर अ ाचलको जाते ए सूयके समान का शत हो रहे हो॥ १५ ॥ ‘बाण से तु ारा मम ल वदीण हो गया, इस लये तुम यहाँ बात भी नह कर सकते। य प तुम बोल नह रहे हो, तथा प तु ारे ने क लालीसे तु ारी मा मक पीड़ा सू चत हो रही है॥ १६ ॥ ‘ जस तरह वनक या ा करते समय महातेज ी ल ण मेरे पीछे -पीछे चले आये थे, उसी कार म भी यमलोकम इनका अनुसरण क ँ गा॥ १७ ॥ ‘जो मेरे य ब ुजन थे और सदा मुझम अनुराग एवं भ भाव रखते थे, वे ही ल ण आज मुझ अनायक दुन तय के कारण इस अव ाको प ँ च गये॥ ‘मुझे ऐसा को◌इ संग याद नह आता, जब क वीर ल णने अ कु पत होनेपर भी मुझे कभी को◌इ कठोर या अ य बात सुनायी हो॥ १९ ॥ ‘ल ण एक ही वेगसे पाँच सौ बाण क वषा करते थे; इस लये धनु व ाम कातवीय अजुनसे भी बढ़कर थे॥ २० ॥ ‘जो अपने अ ारा महा ा इ के भी अ को काट सकते थे; वे ही ब मू श ापर सोनेयो ल ण आज यं मारे जाकर पृ ीपर सो रहे ह॥ ‘म वभीषणको रा स का राजा न बना सका; अत: मेरा वह झूठा लाप मुझे सदा जलाता रहेगा, इसम संशय नह है॥ २२ ॥



‘वानरराज



सु ीव! तुम इसी मु तम यहाँसे लौट जाओ; क मेरे बना तु असहाय समझकर रावण तु ारा तर ार करेगा॥ २३ ॥ ‘ म सु ीव! सेना और साम य स हत अ दको आगे करके नल और नीलके साथ तुम समु के पार चले जाओ॥ २४ ॥ ‘म लंगूर के ामी गवा तथा ऋ राज जा वा े भी ब त संतु ँ । तुम सब लोग ने यु म वह महान् पु षाथ कर दखाया है, जो दूसर के लये अ दु र था॥ २५ ॥ ‘अ द, मै और वदने भी महान् परा म कट कया है। के सरी और स ा तने भी समरा णम घोर यु कया है॥ २६ ॥ ‘गवय, गवा , शरभ, गज तथा अ वानर ने भी मेरे लये ाण का मोह छोड़कर सं ाम कया है॥ २७ ॥ ‘ कतु सु ीव! मनु के लये दैवके वधानको लाँघना अस व है। मेरे परम म अथवा उ म सु दक् े नाते तुम-जैसे धमभी पु षके ारा जो कु छ कया जा सकता था, वह सब तुमने कया है। वानर श् ◌ारोम णयो! तुम सबने मलकर म के इस कायको स कया है। अब म आ ा देता ँ —तुम सब जहाँ इ ा हो, वहाँ चले जाओ’॥ २८-२९ १/२ ॥ भगवान् ीरामका यह वलाप भूरी आँ ख वाले जन- जन वानर ने सुना, वे सब अपने ने से आँ सू बहाने लगे॥ ३०-३१ ॥ तदन र सम सेना को रतापूवक ा पत करके वभीषण हाथम गदा लये तुरंत उस ानपर लौट आये, जहाँ ीरामच जी व मान थे॥ ३२ ॥ काले कोयल क रा शके समान कृ का वाले वभीषणको शी तापूवक आते देख सब वानर उ रावणपु इ जत् समझकर इधर-उधर भागने लगे॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म उनचासवाँ सग पूरा आ॥ ४९ ॥



पचासवाँ सग वभीषणको इ जत् समझकर वानर का पलायन और सु ीवक आ ासे जा वा ा उ सा ना देना, वभीषणका वलाप और सु ीवका उ समझाना, ग ड़का आना और ीराम-ल णको नागपाशसे मु करके चला जाना



उस समय महातेज ी महाबली वानरराज सु ीवने पूछा—‘वानरो! जैसे जलम बवंडरक मारी ◌इ नौका डगमगाने लगती है, उसी कार जो यह हमारी सेना सहसा थत हो उठी है, इसका ा कारण है?’॥ १ ॥ सु ीवक यह बात सुनकर वा लपु अ दने कहा—‘ ा आप ीराम और महारथी ल णक दशा नह देख रहे ह?॥ २ ॥ ‘ये दोन वीर महा ा दशरथकु मार र से भीगे ए बाण-श ापर पड़े ह और बाण के समूहसे ा हो रहे ह’॥ ३ ॥ तब वानरराज सु ीवने पु अ दसे कहा— ‘बेटा! म ऐसा नह मानता क सेनाम अकारण ही भगदड़ मच गयी है। कसी-न- कसी भयके कारण ऐसा होना चा हये॥ ४ ॥ ‘ये वानर उदास मुँहसे अपने-अपने ह थयार फ ककर स ूण दशा म भाग रहे ह और भयके कारण आँ ख फाड़-फाड़कर देख रहे ह॥ ५ ॥ ‘पलायन करते समय उ एक दूसरेसे ल ा नह होती है। वे पीछे क ओर नह देखते ह। एक-दूसरेको घसीटते ह और जो गर जाता है, उसे लाँघकर चल देते ह (भयके मारे उठातेतक नह ह)’॥ ६ ॥ इसी बीचम वीर वभीषण हाथम गदा लये वहाँ आ प ँ चे और उ ने वजयसूचक आशीवाद देकर सु ीव तथा ीरघुनाथजीक अ ुदय-कामना क ॥ ७ ॥ वानर को भयभीत करनेवाले वभीषणको देखकर सु ीवने अपने पास ही खड़े ए महा ा ऋ राज जा वा े कहा—॥ ८ ॥ ‘ये वभीषण आये ह, ज देखकर वानर शरोम णय को यह संदेह आ है क रावणका बेटा इ जत् आ गया। इसी लये इनका भय ब त बढ़ गया है और वे भागे जा रहे ह॥ ९ ॥



‘तुम



शी जाकर यह बताओ क इ जत् नह , वभीषण आये ह। ऐसा कहकर ब धा भयभीत हो पलायन करते ए इन सब वानर को सु र करो— भागनेसे रोको’॥ १० ॥ सु ीवके ऐसा कहनेपर ऋ राज जा वा े भागते ए वानर को लौटाकर उ सा ना दी॥ ११ ॥ ऋ राजक बात सुनकर और वभीषणको अपनी आँ ख देखकर वानर ने भयको ाग दया तथा वे सब-के -सब फर लौट आये॥ १२ ॥ ीराम और ल णके शरीरको बाण से ा आ देख धमा ा वभीषणको उस समय बड़ी था ◌इ॥ १३ ॥ उ ने जलसे भीगे ए उन दोन भाइय के ने प छे और मन-ही-मन शोकसे पी ड़त हो वे रोने और वलाप करने लगे—॥ १४ ॥ ‘हाय! ज यु अ धक य था और जो बल- व मसे स थे, वे ही ये दोन भा◌इ ीराम और ल ण मायासे यु करनेवाले रा स ारा इस अव ाको प ँ चा दये गये॥ १५ ॥ ‘ये दोन वीर सरलतापूवक परा म कट कर रहे थे। परंतु भा◌इके इस दुरा ा कु पु ने अपनी कु टल रा सी बु के ारा इन दोन के साथ धोखा कया॥ १६ ॥ ‘इन दोन के शरीर बाण ारा पूणत: छद गये ह। ये दोन भा◌इ खूनसे नहा उठे ह और इस अव ाम पृ ीपर सोये ए ये दोन राजकु मार काँट से भरे ए साही नामक ज ुके समान दखायी देते ह॥ १७ ॥ ‘ जनके बल-परा मका आ य लेकर मने ल ाके रा पर त त होनेक अ भलाषा क थी; वे ही दोन भा◌इ पु ष शरोम ण ीराम और ल ण देह ा गके लये सोये ए ह॥ १८ ॥ ‘आज म जीते-जी मर गया। मेरा रा वषयक मनोरथ न हो गया। श ु रावणने जो सीताको न लौटानेक त ा क थी, उसक वह त ा पूरी ◌इ। उसके पु ने उसे सफलमनोरथ बना दया’॥ १९ ॥ इस कार वलाप करते ए वभीषणको दयसे लगाकर श शाली वानरराज सु ीवने उनसे य कहा—॥ २० ॥



‘धम ! तु



ल ाका रा ा होगा, इसम संशय नह है। पु स हत रावण यहाँ अपनी कामना पूरी नह कर सके गा॥ २१ ॥ ‘ये दोन भा◌इ ीराम और ल ण मूछा ागनेके प ात् ग ड़क पीठपर बैठकर रणभू मम रा सगण स हत रावणका वध करगे’॥ २२ ॥ रा स वभीषणको इस कार सा ना और आ ासन देकर सु ीवने अपने बगलम खड़े ए शुर सुषेणसे कहा—॥ २३ ॥ ‘आप होशम आ जानेपर इन दोन श ुदमन ीराम और ल णको साथ ले शूरवीर वानरगण के साथ क ाको चले जाइये॥ २४ ॥ ‘म रावणको पु और ब -ु बा व स हत मारकर उसके हाथसे म थलेशकु मारी सीताको उसी कार छीन लाऊँ गा, जैसे देवराज इ अपनी खोयी ◌इ राजल ीको दै के यहाँसे हर लाये थे’॥ २५ ॥ वानरराज सु ीवक यह बात सुनकर सुषेणने कहा—‘पूवकालम जो देवासुर-महायु आ था, उसे हमने देखा था॥ २६ ॥ ‘उस समय अ -श के ाता तथा ल वेधम कु शल देवता को बार ार बाण से आ ा दत करते ए दानव ने ब त घायल कर दया था॥ २७ ॥ ‘उस यु म जो देवता अ -श से पी ड़त, अचेत और ाणशू हो जाते थे, उन सबक र ाके लये बृह तजी म यु व ा तथा द ओष धय ारा उनक च क ा करते थे॥ २८ ॥ ‘मेरी राय है क उन ओष धय को ले आनेके लये स ा त और पनस आ द वानर शी ही वेगपूवक ीरसागरके तटपर जायँ॥ २९ ॥ ‘स ा त आ द वानर वहाँ पवतपर त त ◌इ दो स महौष धय को जानते ह। उनमसे एकका नाम है संजीवकरणी और दूसरीका नाम है वश करणी। इन दोन द ओष धय का नमाण सा ात् ाजीने कया है॥ ३० ॥ ‘सागर म उ म ीरसमु के तटपर च और ोण नामक दो पवत ह, जहाँ पूवकालम अमृतका म न कया गया था। उ दोन पवत पर वे े ओष धयाँ वतमान ह। महासागरम



देवता ने ही उन दोन पवत को त त कया था। राजन्! ये वायुपु हनुमान् उन द ओष धय को लानेके लये वहाँ जायँ’॥ ३१-३२ ॥ ओष धय को लानेक वाता वहाँ चल ही रही थी क बड़े जोरसे वायु कट ◌इ, मेघ क घटा घर आयी और बज लयाँ चमकने लग । वह वायु सागरके जलम हलचल मचाकर पवत को क त-सी करने लगी॥ ३३ ॥ ग ड़के पंखसे उठी ◌इ च वायुने स ूण ीपके बड़े-बड़े वृ क डा लयाँ तोड़ डाल और उ लवणसमु के जलम गरा दया॥ ३४ ॥ ल ावासी महाकाय सप भयसे थरा उठे । स ूण जल-ज ु शी तापूवक समु के जलम घुस गये॥ ३५ ॥ तदन र दो ही घड़ीम सम वानर ने लत अ के समान तेज ी महाबली वनतान न ग ड़को वहाँ उप त देखा॥ ३६ ॥ उ आया देख जन महाबली नाग ने बाणके पम आकर उन दोन महापु ष को बाँध रखा था, वे सब-के -सब वहाँसे भाग खड़े ए॥ ३७ ॥ त ात् ग ड़ने उन दोन रघुवंशी ब ु को श करके अ भन न कया और अपने हाथ से उनके च माके समान का मान् मुख को प छा॥ ३८ ॥ ग ड़जीका श ा होते ही ीराम और ल णके सारे घाव भर गये और उनके शरीर त ाल ही सु र का से यु एवं हो गये॥ ३९ ॥ उनम तेज, वीय, बल, ओज, उ ाह, श , बु और रणश आ द महान् गुण पहलेसे भी दुगुने हो गये॥ ४० ॥ फर महातेज ी ग ड़ने उन दोन भाइय को, जो सा ात् इ के समान थे, उठाकर दयसे लगा लया। तब ीरामजीने स होकर उनसे कहा—॥ ४१ ॥ ‘इ ज े कारण हमलोग पर जो महान् संकट आ गया था, उसे हम आपक कृ पासे लाँघ गये। आप व श उपायके ाता ह; अत: आपने हम दोन को शी ही पूववत् बलसे स कर दया है॥ ४२ ॥ जैसे पता दशरथ और पतामह अजके पास जानेसे मेरा मन स हो सकता था, वैसे ही आपको पाकर मेरा दय हषसे खल उठा है॥ ४३ ॥



‘आप



बड़े पवान् ह, द पु क माला और द अ रागसे वभू षत ह। आपने दो व धारण कर रखे ह तथा द आभूषण आपक शोभा बढ़ाते ह। हम जानना चाहते ह क आप कौन ह?’ (सव होते ए भी भगवा े मानवभावका आ य लेकर ग ड़से ऐसा कया)॥ ४४ ॥ तब महातेज ी महाबली प राज वनतान न ग ड़ने मन-ही-मन स हो आन के आँ सु से भरे ए ने वाले ीरामसे कहा—॥ ४५ ॥ ‘काकु ! म आपका य म ग ड़ ँ । बाहर वचरनेवाला आपका ाण ँ । आप दोन क सहायताके लये ही म इस समय यहाँ आया ँ ॥ ४६ ॥ ‘महापरा मी असुर, महाबली दानव, देवता तथा ग व भी य द इ को आगे करके यहाँ आते तो वे भी इस भयंकर सपाकार बाणके ब नसे आपको छु ड़ानेम समथ नह हो सकते थे॥ ४७ १/२ ॥ ‘ ू रकमा इ ज े मायाके बलसे जन नाग पी बाण का ब न तैयार कया था, वे नाग ये क कू े पु ही थे। इनके दाँत बड़े तीखे होते ह। इन नाग का वष बड़ा भयंकर होता है। ये रा सक मायाके भावसे बाण बनकर आपके शरीरम लपट गये थे॥ ४८-४९ ॥ ‘धमके ाता स परा मी ीराम! समरा णम श ु का संहार करनेवाले अपने भा◌इ ल णके साथ ही आप बड़े सौभा शाली ह (जो अनायास ही इस नागपाशसे मु हो गये)॥ ५० ॥ ‘म देवता के मुखसे आपलोग के नागपाशम बँधनेका समाचार सुनकर बड़ी उतावलीके साथ यहाँ आया ँ । हम दोन म जो ेह है, उससे े रत हो म धमका पालन करता आ सहसा आ प ँ चा ँ ॥ ‘आकर मने इस महाभयंकर बाण-ब नसे आप दोन को छु ड़ा दया। अब आपको सदा ही सावधान रहना चा हये॥ ५२ ॥ ‘सम रा स भावसे ही सं ामम कपटपूवक यु करनेवाले होते ह, परंतु शु भाववाले आप-जैसे शूरवीर का सरलता ही बल है॥ ५३ ॥ ‘इस लये इसी ा को सामने रखकर आपको रण े म रा स का कभी व ास नह करना चा हये; क रा स सदा ही कु टल होते ह’॥ ५४ ॥



ऐसा कहकर महाबली ग ड़ने उस समय परम ेही ीरामको दयसे लगाकर उनसे जानेक आ ा लेनेका वचार कया॥ ५५ ॥ वे बोले—‘श ु पर भी दया दखानेवाले धम म रघुन न! अब म सुखपूवक यहाँसे ान क ँ गा। इसके लये आपक आ ा चाहता ँ ॥ ५६ ॥ ‘वीर रघुन न! मने जो अपनेको आपका सखा बताया है, इसके वषयम आपको अपने मनम को◌इ कौतूहल नह रखना चा हये। आप यु म सफलता ा कर लेनेपर मेरे इस स भावको यं समझ लगे॥ ५७ ॥ ‘आप समु क लहर के समान अपने बाण क पर रासे ल ाक ऐसी दशा कर दगे क यहाँ के वल बालक और बूढ़े ही शेष रह जायँगे। इस तरह अपने श ु रावणका संहार करके आप सीताको अव ा कर लगे’॥ ५८ ॥ ऐसी बात कहकर शी गामी एवं श शाली ग ड़ने ीरामको नीरोग करके उन वानर के बीचम उनक प र मा क और उ दयसे लगाकर वे वायुके समान ग तसे आकाशम चले गये॥ ५९-६० ॥ ीराम और ल णको नीरोग आ देख उस समय सारे वानर-यूथप त सहनाद करने और पूँछ हलाने लगे॥ ६१ ॥ फर तो वानर ने डंके पीटे, मृदंग बजाये, श नाद कये और हष ाससे भरकर पहलेक भाँ त वे गजने और ताल ठ कने लगे॥ ६२ ॥ दूसरे परा मी वानर जो वृ और पवत शखर को हाथम लेकर यु करते थे, नाना कारके वृ उखाड़कर लाख क सं ाम यु के लये खड़े हो गये॥ ६३ ॥ जोर-जोरसे गजते और नशाचर को डराते ए सारे वानर यु क इ ासे ल ाके दरवाज पर आकर डट गये॥ ६४ ॥ उस समय उन वानरयूथप तय का बड़ा भयंकर एवं तुमुल सहनाद सब ओर गूँजने लगा, मानो ी -ऋतुके अ म आधी रातके समय गजते ए मेघ क ग ीर गजना सब ओर ा हो रही हो॥ ६५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पचासवाँ सग पूरा आ॥ ५० ॥







ावनवाँ सग



ीरामके ब नमु होनेका पता पाकर च त ए रावणका धू ा को यु के लये भेजना और सेनास हत धू ा का नगरसे बाहर आना



उस समय भीषण गजना करते ए महाबली वानर का वह तुमुलनाद रा स स हत रावणने सुना॥ म य के बीचम बैठे ए रावणने जब वह ग ीर घोष, वह उ रसे कया आ सहनाद सुना, तब वह इस कार बोला—॥ २ ॥ ‘इस समय गजते ए मेघ के समान जो अ धक हषम भरे ए ब सं क वानर का यह महान् कोलाहल कट हो रहा है, इससे जान पड़ता है क इन सबको बड़ा भारी हष ा आ है; इसम संशय नह है। तभी इस तरह बार ार क गयी गजना से यह खारे पानीका समु व ु हो उठा है॥ ३-४ ॥ ‘परंतु वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण तो तीखे बाण से बँधे ए ह। इधर यह महान् हषनाद भी हो रहा है, जो मेरे मनम श ा-सी उ कर रहा है’॥ ५ ॥ म य से ऐसा कहकर रा सराज रावणने अपने पास ही खड़े ए रा स से कहा—॥ ६ ॥ ‘तुमलोग शी



ही जाकर इस बातका पता लगाओ क शोकका अवसर उप त होनेपर भी इन सब वानर के हषका कौन-सा कारण कट हो गया है’॥ ७ ॥ रावणके इस कार आदेश देनेपर वे रा स घबराये ए गये और परकोटेपर चढ़कर महा ा सु ीवके ारा पा लत वानरसेनाक ओर देखने लगे॥ ८ ॥ जब उ मालूम आ क महाभाग ीराम और ल ण उस अ भयंकर नाग पी बाण के ब नसे मु होकर उठ गये ह, तब सम रा स को बड़ा दु:ख आ॥ ९ ॥ उनका दय भयसे थरा उठा। वे सब भयानक रा स परकोटेसे उतरकर उदास हो रा सराज रावणक सेवाम उप त ए॥ १० ॥ वे बातचीतक कलाम कु शल थे। उनके मुखपर दीनता छा रही थी। उन नशाचर ने वह सारा अ य समाचार रावणको यथावत् पसे बताया॥ ११ ॥



(वे



बोले—) ‘महाराज! कु मार इ ज े जन राम और ल ण दोन भाइय को यु लम नाग पी बाण के ब नसे बाँधकर हाथ हलानेम भी असमथ कर दया था, वे गजराजके समान परा मी दोन वीर जैसे हाथी र ेको तोड़कर त हो जायँ, उसी तरह बाणब नसे मु हो समरा णम खड़े दखायी देते ह’॥ १२-१३ ॥ उनका वह वचन सुनकर महाबली रा सराज रावण च ा तथा शोकके वशीभूत हो गया और उसका चेहरा उतर गया॥ १४ ॥ (वह मन-ही-मन सोचने लगा—) ‘जो वषधर सप के समान भयंकर, वरदानम ा ए और अमोघ थे तथा जनका तेज सूयके समान था, उ के ारा यु लम इ ज े ज बाँध दया था, वे मेरे दोन श ु य द उस अ ब नम पड़कर भी उससे छू ट गये, तब तो अब म अपनी सारी सेनाको संशयाप ही देखता ँ ॥ १५-१६ ॥ ‘ ज ने पहले यु लम मेरे श ु के ाण ले लये थे, वे अ तु तेज ी बाण न य ही आज न ल हो गये’॥ १७ ॥ ऐसा कहकर अ कु पत आ रावण फु फकारते ए सपके समान जोर-जोरसे साँस लेने लगा और रा स के बीचम धू ा नामक नशाचरसे बोला—॥ ‘भयानक परा मी वीर! तुम रा स क ब त बड़ी सेना साथ लेकर वानर स हत रामका वध करनेके लये शी जाओ’॥ १९ ॥ बु मान् रा सराजके इस कार आ ा देनेपर धू ा ने उसक प र मा क तथा वह तुरंत राजभवनसे बाहर नकल गया॥ २० ॥ रावणके गृह ारपर प ँ चकर उसने सेनाप तसे कहा—‘सेनाको उतावलीके साथ शी तैयार करो। यु क इ ा रखनेवाले पु षको वल करनेसे ा लाभ?’॥ २१ ॥ धू ा क बात सुनकर रावणक आ ाके अनुसार सेनाप तने जनके पीछे ब त बड़ी सेना थी, भारी सं ाम सै नक को तैयार कर दया॥ २२ ॥ वे भयानक पधारी बलवान् नशाचर ास और श आ द अ म घ े बाँधकर हष और उ ाहसे यु हो जोर-जोरसे गजते ए आये और धू ा को घेरकर खड़े हो गये॥ २३ ॥ उनके हाथ म नाना कारके अ -श थे। कु छ लोग ने अपने हाथ म शूल और मु र ले रखे थे। गदा-प श, लोहद , मूसल, प रघ, भ पाल, भाले, पाश और फरसे लये ब तेरे



भयानक रा स यु के लये नकले। वे सभी मेघ के समान ग ीर गजना करते थे॥ कतने ही नशाचर ज से अलंकृत तथा सोनेक जालीसे आ ा दत रथ ारा यु के लये बाहर आये। वे सब-के -सब कवच धारण कये ए थे। कतने ही े रा स नाना कारके मुखवाले गध , परम शी गामी घोड़ तथा मदम हा थय पर सवार हो दुजय ा के समान यु के लये नगरसे बाहर नकले॥ २६-२७ ॥ धू ा के रथम सोनेके आभूषण से वभू षत ऐसे गधे नधे ए थे जनके मुँह भे ड़य और सह के समान थे। गधेक भाँ त रकनेवाला धू ा उस द रथपर सवार आ॥ २८ ॥ इस कार ब त-से रा स के साथ महापरा मी धू ा हँ सता आ प म ारसे, जहाँ हनुमा ी श ुका सामना करनेके लये खड़े थे, यु के लये नकला॥ २९ ॥ गदह से जुते और गदह क -सी आवाज करनेवाले उस े रथपर बैठकर यु के लये जाते ए महाघोर रा स धू ा को, जो बड़ा भयानक दखायी देता था, आकाशचारी ू र प य ने अशुभसूचक बोली बोलकर आगे बढ़नेसे मना कया॥ ३० १/२ ॥ उसके रथके ऊपरी भागपर एक महाभयानक गीध आ गरा। जके अ भागपर ब त-से मुदाखोर प ी पर र गुँथे ए-से गर पड़े। उसी समय एक ब त बड़ा ेत कब (धड़) खूनसे लथपथ होकर पृ ीपर गरा॥ ३१-३२ ॥ वह कब बड़े जोर-जोरसे ची ार करता आ धू ा के पास ही गरा था। बादल र क वषा करने लगे और पृ ी डोलने लगी॥ ३३ ॥ वायु तकू ल दशाक ओरसे बहने लगी। उसम व पातके समान गड़गड़ाहट पैदा होती थी। स ूण दशाएँ अ कारसे आ हो जानेके कारण का शत नह होती थ ॥ ३४ ॥ रा स के लये भय देनेवाले वहाँ कट ए उन भयंकर उ ात को देखकर धू ा थत हो उठा और उसके आगे चलनेवाले सभी रा स अचेत-से हो गये॥ इस कार ब सं क नशाचर से घरे ए और यु के लये उ ुक रहनेवाले महाभयंकर बलवान् रा स धू ा ने नगरसे बाहर नकलकर ीरामच जीके बा बलसे सुर त एवं लयका लक समु के समान वशाल वानरी सेनाको देखा॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म इ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५१ ॥



बावनवाँ सग धू ा का यु और हनुमा ीके ारा उसका वध



भयंकर परा मी नशाचर धू ा को नकलते देख यु क इ ा रखनेवाले सम वानर हष और उ ाहसे भरकर सहनाद करने लगे॥ १ ॥ उस समय उन वानर और रा स म अ भयंकर यु छड़ गया। वे घोर वृ तथा शूल और मु र से एक-दूसरेको चोट प ँ चाने लगे॥ २ ॥ रा स ने चार ओरसे घोर वानर को काटना आर कया तथा वानर ने भी रा स को वृ से मार-मारकर धराशायी कर दया॥ ३ ॥ ोधसे भरे ए रा स ने अपने क प यु , सीधे जानेवाले, घोर एवं तीखे बाण से वानर को गहरी चोट प ँ चायी॥ ४ ॥ रा स ारा भयंकर गदा , प श , कू ट, मु र , घोर प रघ और हाथम लये ए व च शूल से वदीण कये जाते ए वे महाबली वानर अमषज नत उ ाहसे नभयक भाँ त महान् कम करने लगे॥ ५-६ ॥ बाण क चोटसे उनके शरीर छद गये थे। शूल क मारसे देह वदीण हो गयी थी। इस अव ाम उन वानर-यूथप तय ने हाथ म वृ और शलाएँ उठाय ॥ उस समय उनका वेग बड़ा भयंकर था। वे जोर-जोरसे गजना करते ए जहाँ-तहाँ वीर रा स को पटक-पकटकर मथने लगे और अपने नाम क भी घोषणा करने लगे॥ ८ ॥ नाना कारक शला और ब त-सी शाखावाले वृ के हारसे वहाँ वानर और रा स म घोर एवं अ तु यु होने लगा॥ ९ ॥ वजयो ाससे सुशो भत होनेवाले वानर ने कतने ही रा स को मसल डाला। कतने ही र भोजी रा स उनक मार खाकर अपने मुख से र वमन करने लगे॥ १० ॥ कु छ रा स क पस लयाँ फाड़ डाली गय । कतने ही वृ क चोट खाकर ढेर हो गये, क का प र क चोट से चूण बन गया और कतने ही दाँत से वदीण कर दये गये॥ ११ ॥ कतन के ज ख त करके मसल डाले गये। तलवार छीनकर नीचे गरा दी गय और रथ चौपट कर दये गये। इस कार दुदशाम पड़कर ब त-से रा स थत हो गये॥ १२ ॥



वानर के चलाये ए पवत- शखर से कु चल डाले गये पवताकार गजराज , घोड़ और घुड़सवार से वह सारी रणभू म पट गयी॥ १३ ॥ भयानक परा म कट करनेवाले वेगशाली वानर उछल-उछलकर अपने पंज से रा स के मुँह नोच लेते या वदीण कर देते थे॥ १४ ॥ उन रा स के मुख पर वषाद छा जाता। उनके बाल सब ओर बखर जाते और र क ग से मू त हो पृ ीपर पड़ जाते थे॥ १५ ॥ दूसरे भीषण परा मी रा स अ ु हो अपने व स श कठोर तमाच से मारते ए वहाँ वानर पर धावा करते थे॥ १६ ॥ तप ीको वेगपूवक गरानेवाले उन रा स का ब त-से अ वेगशाली वानर ने लात , मु , दाँत और वृ क मारसे कचूमर नकाल दया॥ १७ ॥ अपनी सेनाको वानर ारा भगायी गयी देख रा स शरोम ण धू ा ने यु क इ ासे सामने आये ए वानर का रोषपूवक संहार आर कया॥ १८ ॥ कु छ वानर को उसने भाल से गाँथ दया, जससे वे खूनक धारा बहाने लगे। कतने ही वानर उसके मु र से आहत होकर धरतीपर लोट गये॥ १९ ॥ कु छ वानर प रघ से कु चल डाले गये। कु छ भ पाल से चीर दये गये और कु छ प श से मथे जाकर ाकु ल हो अपने ाण से हाथ धो बैठे॥ २० ॥ कतने ही वानर रा स ारा मारे जाकर खूनसे लथपथ हो पृ ीपर सो गये और कतने ही ोधभरे रा स ारा यु लम खदेड़े जानेपर कह भागकर छप गये॥ २२ ॥ कतन के दय वदीण हो गये। कतने ही एक करवटसे सुला दये गये तथा कतन को शूलसे वदीण करके धू ा ने उनक आँ त बाहर नकाल द ॥ २२ ॥ वानर और रा स से भरा आ वह महान् यु बड़ा भयानक तीत होता था। उसम अ श क ब लता थी तथा शला और वृ क वषासे सारी रणभू म भर गयी थी॥ २३ ॥ वह यु पी गा व (संगीत-महो व) अ तु तीत होता था। धनुषक ासे जो टंकार- न होती थी, वही मानो वीणाका मधुर नाद था, हच कयाँ तालका काम देती थ और म रसे घायल का जो कराहना होता था वही गीतका ान ले रहा था॥ २४ ॥



इस कार धनुष हाथम लये धू ा ने यु के मुहानेपर बाण क वषा करके वानर को हँ सते-हँ सते स ूण दशा म मार भगाया॥ २५ ॥ धू ा क मारसे अपनी सेनाको पी ड़त एवं थत ◌इ देख पवनकु मार हनुमा ी अ कु पत हो उठे और एक वशाल शला हाथम ले उसके सामने आये॥ २६ ॥ उस समय ोधके कारण उनके ने दुगुने लाल हो रहे थे। उनका परा म अपने पता वायुदेवताके ही समान था। उ ने धू ा के रथपर वह वशाल शला दे मारी॥ २७ ॥ उस शलाको रथक ओर आती देख धू ा हड़बड़ीम गदा लये उठा और वेगपूवक रथसे कू दकर पृ ीपर खड़ा हो गया॥ २८ ॥ वह शला प हये, कू बर, अ , ज और धनुषस हत उसके रथको चूर-चूर करके पृ ीपर गर पड़ी॥ २९ ॥ इस कार धू ा के रथको चौपट करके पवनपु हनुमा े छोटी-बड़ी डा लय स हत वृ ारा रा स का संहार आर कया॥ ३० ॥ ब तेरे रा स के सर फू ट गये और वे र से नहा उठे । दूसरे ब त-से नशाचर वृ क मारसे कु चले जाकर धरतीपर लोट गये॥ ३१ ॥ इस कार रा ससेनाको खदेड़कर पवनकु मार हनुमा े एक पवतका शखर उठा लया और धू ा पर धावा कया॥ ३२ ॥ उ आते देख परा मी धू ा ने भी गदा उठा ली और गजना करता आ वह सहसा हनुमा ीक ओर दौड़ा॥ ३३ ॥ धू ा ने कु पत ए हनुमा ीके म कपर ब सं क काँट से भरी ◌इ वह गदा दे मारी॥ ३४ ॥ भयानक वेगवाली उस गदाक चोट खाकर भी वायुके समान बलशाली क पवर हनुमा े वहाँ इस हारको कु छ भी नह गना और धू ा के म कपर वह पवत शखर चला दया॥ ३५ १/ ॥ २



पवत शखरक गहरी चोट खाकर धू ा के सारे अ छ - भ हो गये और वह बखरे ए पवतक भाँ त सहसा पृ ीपर गर पड़ा॥ ३६ १/२ ॥



धू ा को मारा गया देख मरनेसे बचे ए नशाचर भयभीत हो वानर क मार खाते ए ल ाम घुस गये॥ ३७ ॥ इस कार श ु को मारकर और र क धारा बहानेवाली ब त-सी न दय को वा हत करके महा ा पवनकु मार हनुमान् य प श ुवधज नत प र मसे थक गये थे, तथा प वानर ारा पू जत एवं शं सत होनेसे उ बड़ी स ता ◌इ॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बावनवाँ सग पूरा आ॥ ५२ ॥



तरपनवाँ सग व दं का सेनास हत यु के लये ान, वानर और रा स का यु , व दं वानर का तथा अ द ारा रा स का संहार



ारा



धू ा के मारे जानेका समाचार सुनकर रा सराज रावणको महान् ोध आ। वह फु फकारते ए सपके समान जोर-जोरसे साँस लेने लगा॥ १ ॥ ोधसे कलु षत हो गम-गम ल ी साँस ख चकर उसने ू र नशाचर महाबली व दं से कहा—॥ २ ॥ ‘वीर! तुम रा स के साथ जाओ और दशरथकु मार राम और वानर स हत सु ीवको मार डालो’॥ ३ ॥ तब वह मायावी रा स ‘ब त अ ा’ कहकर ब त बड़ी सेनाके साथ तुरंत यु के लये चल दया॥ वह हाथी, घोड़े, गदहे और ऊँ ट आ द सवा रय से यु था, च को पूणत: एका कये ए था और पताका, जा आ दसे व च शोभा पानेवाले ब त-से सेना उसक शोभा बढ़ाते थे॥ ५ ॥ व च भुजबंद और मुकुटसे वभू षत हो कवच धारण करके हाथम धनुष लये वह शी ही नकला॥ जा-पताका से अलंकृत, दी मान् तथा सोनेके साज-बाजसे सुस त रथक प र मा करके सेनाप त व दं उसपर आ ढ़ आ॥ ७ ॥ उसके साथ ऋ , व च तोमर, चकने मूसल, भ पाल, धनुष, श , प श, खड् ग, च , गदा और तीखे फरस से सुस त ब त-से पैदल यो ा चले। उनके हाथ म अनेक कारके अ -श शोभा पा रहे थे॥ ८-९ ॥ व च व धारण करनेवाले सभी रा स वीर अपने तेजसे उ ा सत हो रहे थे। शौयस मदम गजराज चलते- फरते पवत के समान जान पड़ते थे॥ हाथ म तोमर, अंकुश धारण करनेवाले महावत जनक गदनपर सवार थे तथा जो यु क कलाम कु शल थे, वे हाथी यु के लये आगे बढ़े। उ म ल ण से यु जो दूसरे-दूसरे



महाबली घोड़े थे, जनके ऊपर शूरवीर सै नक सवार थे, वे भी यु के लये नकले॥ ११ ॥ यु के उ े से त ◌इ रा स क वह सारी सेना वषाकालम गजते ए बज लय स हत मेघके समान शोभा पा रही थी॥ १२ ॥ वह सेना ल ाके द ण ारसे नकली, जहाँ वानर-यूथप त अ द राह रोके खड़े थे। उधरसे नकलते ही उन रा स के सामने अशुभसूचक अपशकु न होने लगा॥ मेघर हत आकाशसे त ाल दु:सह उ ापात होने लगे। भयानक गीदड़ मुँहसे आगक ाला उगलते ए अपनी बोली बोलने लगे॥ १४ ॥ घोर पशु ऐसी बोली बोलने लगे, जससे रा स के संहारक सूचना मल रही थी। यु के लये आते ए यो ा बुरी तरह लड़खड़ाकर गर पड़ते थे। इससे उनक बड़ी दा ण अव ा हो जाती थी॥ १५ ॥ इन उ ातसूचक ल ण को देखकर भी महाबली व दं ने धैय नह छोड़ा। वह तेज ी वीर यु के लये उ ुक होकर नकला॥ १६ ॥ ती ग तसे आते ए उन रा स को देखकर वजयल ीसे सुशो भत होनेवाले वानर बड़े जोर-जोरसे गजना करने लगे। उ ने अपने सहनादसे स ूण दशा को गुँजा दया॥ १७ ॥ तदन र भयानक प धारण करनेवाले घोर वानर का रा स के साथ तुमुल यु आर आ। दोन दल के यो ा एक-दूसरेका वध करना चाहते थे॥ १८ ॥ वे बड़े उ ाहसे यु के लये नकलते; परंतु देह और गदन कट जानेसे पृ ीपर गर पड़ते थे। उस समय उनके सारे अ र से भीग जाते थे॥ १९ ॥ यु से कभी पीछे न हटनेवाले और प रघ-जैसी बाँह वाले कतने ही शूरवीर एक-दूसरेके नकट प ँ चकर पर र नाना कारके अ -श का हार करते थे॥ उस यु लम यु होनेवाले वृ , शला और श का महान् एवं घोर श जब कान म पड़ता था, तब वह दयको वदीण-सा कर देता था॥ २१ ॥ वहाँ रथके प हय क घघराहट, धनुषक भयानक टंकार तथा श , भेरी और मृद का श एकम मलकर बड़ा भयंकर तीत होता था॥ २२ ॥ कु छ यो ा अपने ह थयार फ ककर बा यु करने लगते थे। थ ड़ , लात , मु , वृ और घुटन क मार खाकर कतने ही रा स के शरीर चूर-चूर हो गये थे। रणदुमद वानर ने



शला से मार-मारकर कतने ही रा स का चूरा बना दया था॥ २३-२४ ॥ उस समय व दं अपने बाण क मारसे वानर को अ भयभीत करता आ तीन लोक के संहारके लये उठे ए पाशधारी यमराजके समान रणभू मम वचरने लगा॥ २५ ॥ साथ ही ोधसे भरे तथा नाना कारके अ -श लये अ अ वे ा बलवान् रा स भी वानरसेना का रणभू मम संहार करने लगे॥ २६ ॥ कतु लयकालम संवतक अ जैसे ा णय का संहार करती है, उसी तरह वा लपु अ द और भी नभय हो दूने ोधसे भरकर उन सब रा स का वध करने लगे॥ २७ ॥ उनक आँ ख ोधसे लाल हो रही थ । वे इ के तु परा मी थे। जैसे सह छोटे व पशु को अनायास ही न कर देता है, उसी तरह परा मी अ दने एक वृ उठाकर उन सम रा सगण का घोर संहार आर कया॥ २८ १/२ ॥ अ दक मार खाकर वे भयानक परा मी रा स सर फट जानेके कारण कटे ए वृ के समान पृ ीपर गरने लगे॥ २९ १/२ ॥ उस समय रथ , च - व च ज , घोड़ , रा स और वानर के शरीर तथा र क धारा से भर जानेके कारण वह रणभू म बड़ी भयानक जान पड़ती थी॥ ३० १/२ ॥ यो ा के हार, के यूर (बाजूबंद), व और श से अलंकृत ◌इ रणभू म शर ालक रा के समान शोभा पाती थी॥ ३१ १/२ ॥ अ दके वेगसे वहाँ वह वशाल रा ससेना उस समय उसी तरह काँपने लगी, जैसे वायुके वेगसे मेघ क त हो उठता है॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म तरपनवाँ सग पूरा आ॥ ५३ ॥



चौवनवाँ सग व दं और अ दका यु तथा अ दके हाथसे उस नशाचरका वध



अ दके परा मसे अपनी सेनाका संहार होता देख महाबली रा स व दं अ कु पत हो उठा॥ वह इ के व के समान तेज ी अपना भयंकर धनुष ख चकर वानर क सेनापर बाण क वषा करने लगा॥ २ ॥ उसके साथ अ धान- धान शूरवीर रा स भी रथ पर बैठकर हाथ म तरह-तरहके ह थयार लये सं ामभू मम यु करने लगे॥ ३ ॥ वानर म भी जो वशेष शूरवीर थे, वे सभी वानर शरोम ण सब ओरसे एक हो हाथ म शलाएँ लये जूझने लगे॥ ४ ॥ उस समय इस रणभू मम रा स ने मु -मु वानर पर हजार अ -श क वषा क ॥ ५॥ मतवाले हाथीके समान वशालकाय वीर वानर ने भी रा स पर अनेकानेक पवत, वृ और बड़ी-बड़ी शलाएँ गराय ॥ ६ ॥ यु म पीठ न दखानेवाले और उ ाहपूवक जूझनेवाले शूरवीर वानर और रा स का वह यु उ रो र बढ़ता गया॥ ७ ॥ क के सर फू टे, क के हाथ और पैर कट गये और ब त-से यो ा के शरीर श के आघातसे पी ड़त हो र से नहा गये॥ ८ ॥ वानर और रा स दोन ही धराशायी हो गये। उनपर क , गीध और कौए टूट पड़े। गीदड़ क जमात छा गय ॥ ९ ॥ वहाँ जनके म क कट गये थे, ऐसे धड़ सब ओर उछलने लगे, जो भी भाववाले सै नक को भयभीत करते थे। यो ा क कटी ◌इ भुजाएँ , हाथ, सर तथा शरीरके म भाग पृ ीपर पड़े ए थे॥ १० ॥ वानर और रा स दोन ही दल के लोग वहाँ धराशायी हो रहे थे। त ात् कु छ ही देरम वानर-सै नक के हार से पी ड़त हो सारी नशाचरसेना व दं के देखते-देखते भाग चली॥ ११



१/ ॥ २



वानर क मारसे रा स को भयभीत आ देख तापी व दं क आँ ख ोधसे लाल हो गय ॥ १२ १/२ ॥ वह हाथम धनुष ले वानरसेनाको भयभीत करता आ उसके भीतर घुस गया और सीधे जानेवाले क प यु बाण ारा श ु को वदीण करने लगा॥ अ ोधसे भरा आ तापी व दं वहाँ एक-एक हारसे पाँच, सात, आठ और नौनौ वानर को घायल कर देता था। इस तरह उसने वानर-सै नक को गहरी चोट प ँ चायी॥ १४ १/ ॥ २



बाण से जनके शरीर छ - भ हो गये थे, वे सम वानरगण भयभीत हो अ दक ओर दौड़े, मानो जा जाप तक शरणम जा रही हो॥ १५ ॥ उस समय वानर को भागते देख वा लकु मार अ दने अपनी ओर देखते ए व दं को ोधपूवक देखा॥ १६ ॥ फर तो व दं और अ द अ कु पत हो एक-दूसरेसे वेगपूवक यु करने लगे। वे दोन रणभू मम बाघ और मतवाले हाथीके समान वचर रहे थे॥ १७ ॥ उस समय व दं ने महाबली वा लपु अ दके मम ान म अ शखाके समान तेज ी एक लाख बाण मारे॥ १८ ॥ इससे उनके सारे अ ल -लुहान हो उठे । तब भयानक परा मी महाबली वा लकु मारने व दं पर एक वृ चलाया॥ १९ ॥ उस वृ को अपनी ओर आते देखकर भी व दं के मनम घबराहट नह ◌इ। उसने बाण मारकर उस वृ के क◌इ टुकड़े कर दये। इस कार ख त होकर वह वृ पृ ीपर गर पड़ा॥ २० ॥ व दं के उस परा मको देखकर वानर शरोम ण अ दने एक वशाल च ान लेकर उसके ऊपर दे मारी और बड़े जोरसे गजना क ॥ २१ ॥ उस च ानको आती देख वह परा मी रा स बना कसी घबराहटके रथसे कू द पड़ा और के वल गदा हाथम लेकर पृ ीपर खड़ा हो गया॥ २२ ॥



अ दक फ क ◌इ वह च ान उसके रथपर प ँ च गयी और यु के मुहानेपर उसने प हये, कू बर तथा घोड़ स हत उस रथको त ाल चूर-चूर कर डाला॥ २३ ॥ त ात् वानरवीर अ दने वृ से अलंकृत दूसरा वशाल शखर हाथम लेकर उसे व दं के म कपर दे मारा॥ २४ ॥ व दं उसक चोटसे मू त हो गया और र वमन करने लगा। वह गदाको दयसे लगाये दो घड़ीतक अचेत पड़ा रहा। के वल उसक साँस चलती रही॥ २५ ॥ होशम आनेपर उस नशाचरने अ कु पत हो सामने खड़े ए वा लपु क छातीम गदासे हार कया॥ २६ ॥ फर गदा ागकर वह वहाँ मु े से यु करने लगा। वे वानर और रा स दोन वीर एकदूसरेको मु से मारने लगे॥ २७ ॥ दोन ही बड़े परा मी थे और पर र जूझते ए म ल एवं बुधके समान जान पड़ते थे। आपसके हार से पी ड़त हो दोन ही थक गये और मुँहसे र वमन करने लगे॥ २८ ॥ त ात् परम तेज ी वानर शरोम ण अ द एक वृ उखाड़कर खड़े हो गये। वे वहाँ उस वृ स ी फल-फू ल के कारण यं भी फल और फू ल से यु दखायी देते थे॥ २९ ॥ उधर व दं ने ऋषभके चमक बनी ◌इ ढाल और सु र एवं वशाल तलवार ले ली। वह तलवार छोटी-छोटी घ य के जालसे आ ा दत तथा चमड़ेक ानसे सुशो भत थी॥ ३० ॥ उस समय पर र वजयक इ ा रखनेवाले वे वानर और रा स वीर सु र एवं व च पतरे बदलने तथा गजते ए एक-दूसरेपर चोट करने लगे॥ ३१ ॥ दोन के घाव से र क धारा बहने लगी, जससे वे खले ए पलाश-वृ के समान शोभा पाने लगे। लड़ते-लड़ते थक जानेके कारण दोन ने ही पृ ीपर घुटने टेक दये॥ ३२ ॥ कतु पलक मारते-मारते क प े अ द उठकर खड़े हो गये। उनके ने रोषसे उ ी हो उठे थे और वे डंडके चोट खाये ए सपके समान उ े जत हो रहे थे॥ ३३ ॥ महाबली वा लकु मारने अपनी नमल एवं तेज धारवाली चमक ली तलवारसे व दं का वशाल म क काट डाला॥ ३४ ॥



खूनसे लथपथ शरीरवाले उस रा सका वह खड् गसे कटा आ सु र म क, जसके ने उलट गये थे, धरतीपर गरकर दो टुकड़ म वभ हो गया॥ व दं को मारा गया देख रा स भयसे अचेत हो गये। वे वानर क मार खाकर भयके मारे ल ाम भाग गये। उनके मुखपर वषाद छा रहा था। वे ब त दु:खी थे और ल ाके कारण उ ने अपना मुँह कु छ नीचा कर लया था॥ ३६ ॥ व धारी इ के समान तापी महाबली वा लकु मार अ द उस नशाचर व दं को मारकर वानरसेनाम स ा नत हो देवता से घरे ए सह ने धारी इ के समान बड़े हषको ा ए॥ ३७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चौवनवाँ सग पूरा आ॥ ५४ ॥



पचपनवाँ सग रावणक आ ासे अक न आ द रा स का यु म आना और वानर के साथ उनका घोर यु



वा लपु अ दके हाथसे व दं के मारे जानेका समाचार सुनकर रावणने हाथ जोड़कर अपने पास खड़े ए सेनाप त ह से कहा—॥ १ ॥ ‘अक न स ूण अ -श के ाता ह, अत: उ को आगे करके भयंकर परा मी दुधष रा स शी यहाँसे यु के लये जायँ॥ २ ॥ ‘अक नको यु सदा ही य है। ये सवदा मेरी उ त चाहते ह। इ यु म एक े यो ा माना गया है। ये श ु को द देन,े अपने सै नक क र ा करने तथा रणभू मम सेनाका संचालन करनेम समथ ह॥ ३ ॥ ‘अक न दोन भा◌इ ीराम और ल णको तथा महाबली सु ीवको भी परा कर दगे और दूसरे-दूसरे भयानक वानर का भी संहार कर डालगे, इसम संशय नह है’॥ ४ ॥ रावणक उस आ ाको शरोधाय करके शी -परा मी महाबली सेना ने उस समय यु के लये सेना भेजी॥ ५ ॥ सेनाप तसे े रत हो भयानक ने वाले मु -मु भयंकर रा स नाना कारके अ श लये नगरसे बाहर नकले॥ ६ ॥ उसी समय तपे ए सोनेसे वभू षत वशाल रथपर आ ढ़ हो घोर रा स से घरा आ अक न भी नकला। वह मेघके समान वशाल था, मेघके समान ही उसका रंग था और मेघके ही तु उसक गजना थी॥ ७ १/२ ॥ महासमरम देवता भी उसे क त नह कर सकते थे, इसी लये वह अक न नामसे व ात था और रा स म सूयके समान तेज ी था॥ ८ १/२ ॥ रोषावेशसे भरकर यु क इ ासे धावा करनेवाले अक नके रथम जुते ए घोड़ का मन अक ात् दीनभावको ा हो गया॥ ९ १/२ ॥ य प अक न यु का अ भन न करनेवाला था, तथा प उस समय उसक बाय आँ ख फड़कने लगी। मुखक का फ क पड़ गयी और वाणी ग द हो गयी॥



य प वह समय सु दनका था, तथा प सहसा खी हवासे यु दु दन छा गया। सभी पशु और प ी ू र एवं भयदायक बोली बोलने लगे॥ ११ १/२ ॥ अक नके क े सहके समान पु थे। उसका परा म ा के समान था। वह पूव उ ात क को◌इ परवा न करके रणभू मक ओर चला॥ १२ १/२ ॥ जस समय वह रा स दूसरे रा स के साथ ल ासे नकला, उस समय ऐसा महान् कोलाहल आ क समु म भी हलचल-सी मच गयी॥ १३ १/२ ॥ उस महान् कोलाहलसे वानर क वह वशाल सेना भयभीत हो गयी। यु के लये उप त हो वृ और शैल- शखर का हार करनेवाले उन वानर और रा स म महाभयंकर यु होने लगा॥ १४-१५ ॥ ीराम और रावणके न म आ ागके लये उ त ए वे सम शूरवीर अ बलशाली और पवतके समान वशालकाय थे॥ १६ ॥ वानर तथा रा स एक-दूसरेके वधक इ ासे वहाँ एक ए थे। वे यु लम अ वेगशाली थे। कोलाहल करते और एक-दूसरेको ल करके ोधपूवक गजते थे। उनका महान् श सुदरू तक सुनायी देता था॥ १७ १/२ ॥ वानर और रा स ारा उड़ायी गयी लाल रंगक धूल बड़ी भयंकर जान पड़ती थी। उसने दस दशा को आ ा दत कर लया था॥ १८ १/२ ॥ पर र उड़ायी ◌इ वह धूल हलते ए रेशमी व के समान पा ु वणक दखायी देती थी। उसके ारा समरा णम सम ाणी ढक गये थे। अत: वानर और रा स उ देख नह पाते थे॥ १९ १/२ ॥ उस धूलसे आ ा दत होनेके कारण ज, पताका, ढाल, घोड़ा, अ -श अथवा रथ को◌इ भी व ु दखायी नह देती थी॥ २० १/२ ॥ उन गजते और दौड़ते ए ा णय का महाभयंकर श यु लम सबको सुनायी पड़ता था, परंतु उनके प नह दखायी देते थे॥ २१ १/२ ॥ अ कारसे आ ा दत यु लम अ कु पत ए वानर वानर पर ही हार कर बैठते थे तथा रा स रा स को ही मारने लगते थे॥ २२ १/२ ॥



अपने तथा श ुप के यो ा को मारते ए वानर तथा रा स ने उस रणभू मको र क धारासे भगो दया और वहाँ क च मचा दी॥ २३ १/२ ॥ तदन र र के वाहसे सच जानेके कारण वहाँक धूल बैठ गयी और सारी यु भू म लाश से भर गयी॥ २४ १/२ ॥ वानर और रा स एक-दूसरेपर वृ , श , गदा, ास, शला, प रघ और तोमर आ दसे बलपूवक ज ी-ज ी हार करने लगे॥ २५ १/२ ॥ भयंकर कम करनेवाले वानर अपनी प रघके समान भुजा ारा पवताकार रा स के साथ यु करते ए रणभू मम उ मारने लगे॥ २६ १/२ ॥ उधर रा सलोग भी अ कु पत हो हाथ म ास और तोमर लये अ भयंकर श ारा वानर का वध करने लगे॥ २७ १/२ ॥ इस समय अ धक रोषसे भरा आ रा स-सेनाप त अक न भी भयानक परा म कट करनेवाले उन सभी रा स का हष बढ़ाने लगा॥ २८ १/२ ॥ वानर भी बलपूवक आ मण करके रा स के अ -श छीनकर बड़े-बड़े वृ और शला ारा उ वदीण करने लगे॥ २९ १/२ ॥ इसी समय वीर वानर कु मुद, नल, मै और वदने कु पत हो अपना परम उ म वेग कट कया॥ ३० १/२ ॥ उन महावीर वानर शरोम णय ने यु के मुहानेपर वृ ारा खेल-खेलम ही रा स का बड़ा भारी संहार कया। उन सबने नाना कारके अ -श ारा रा स को भलीभाँ त मथ डाला॥ ३१-३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पचपनवाँ सग पूरा आ॥ ५५ ॥



छ नवाँ सग हनुमा ीके ारा अक नका वध



उन वानर शरोम णय ारा कये गये उस महान् परा मको देखकर यु लम अक नको बड़ा भारी एवं दु:सह ोध आ॥ १ ॥ श ु का कम देख रोषसे उसका सारा शरीर ा हो गया और अपने उ म धनुषको हलाते ए उसने सार थसे कहा—॥ २ ॥ ‘सारथे! ये बलवान् वानर यु म ब तेरे रा स का वध कर रहे ह, अत: पहले वह शी तापूवक मेरा रथ प ँ चाओ॥ ३ ॥ ‘ये वानर बलवान् तो ह ही, इनका ोध भी बड़ा भयानक है। ये वृ और शला का हार करते ए मेरे सामने खड़े ह॥ ४ ॥ ‘ये यु क ृहा रखनेवाले ह; अत: म इन सबका वध करना चाहता ँ । इ ने सारी रा ससेनाको मथ डाला है। यह साफ दखायी देता है’॥ ५ ॥ तदन र तेज चलनेवाले घोड़ से जुते ए रथके ारा र थय म े अक न दूरसे ही बाणसमूह क वषा करता आ उन वानर पर टूट पड़ा॥ ६ ॥ अक नके बाण से घायल हो सभी वानर भाग चले। वे यु लम खड़े भी न रह सके ; फर यु करनेक तो बात ही ा है?॥ ७ ॥ अक नके बाण वानर के पीछे लगे थे और वे मृ ुके अधीन होते जाते थे। अपने जा तभाइय क यह दशा देखकर महाबली हनुमा ी अक नके पास आये॥ महाक प हनुमा ीको आया देख वे सम वीर वानर शरोम ण एक हो हषपूवक उ चार ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥ ९ ॥ हनुमा ीको यु के लये डटा आ देख वे सभी े वानर उन बलवान् वीरका आ य ले यं भी बलवान् हो गये॥ १० ॥ पवतके समान वशालकाय हनुमा ीको अपने सामने उप त देख अक न उनपर बाण क फर वषा करने लगा, मानो देवराज इ जलक धारा बरसा रहे ह ॥ ११ ॥



अपने शरीरपर गराये गये उन बाण-समूह क परवा न करके महाबली हनुमा े अक नको मार डालनेका वचार कया॥ १२ ॥ फर तो महातेज ी पवनकु मार हनुमान् महान् अ हास करके पृ ीको कँ पाते ए-से उस रा सक ओर दौड़े॥ १३ ॥ उस समय वहाँ गजते और तेजसे देदी मान होते ए हनुमा ीका प लत अ के समान दुधष हो गया था॥ १४ ॥ अपने हाथम को◌इ ह थयार नह है, यह जानकर ोधसे भरे ए वानर शरोम ण हनुमा े बड़े वेगसे पवत उखाड़ लया॥ १५ ॥ उस महान् पवतको एक ही हाथसे लेकर परा मी पवनकु मार बड़े जोर-जोरसे गजना करते ए उसे घुमाने लगे॥ १६ ॥ फर उ ने रा सराज अक नपर धावा कया, ठीक उसी तरह, जैसे पूवकालम देवे ने व लेकर यु लम नमु चपर आ मण कया था॥ १७ ॥ अक नने उस उठे ए पवत शखरको देख अधच ाकार वशाल बाण के ारा उसे दूरसे ही वदीण कर दया॥ १८ ॥ उस रा सके बाणसे वदीण हो वह पवत शखर आकाशम ही बखरकर गर पड़ा। यह देख हनुमा ीके ोधक सीमा न रही॥ १९ ॥ फर रोष और दपसे उन वानरवीरने महान् पवतके समान ऊँ चे अ कण नामक वृ के पास जाकर उसे शी तापूवक उखाड़ लया॥ २० ॥ वशाल तनेवाले उस अ कणको हाथम लेकर महातेज ी हनुमा े बड़ी स ताके साथ उसे यु भू मम घुमाना आर कया॥ २१ ॥ च ोधसे भरे ए हनुमा े बड़े वेगसे दौड़कर कतने ही वृ को तोड़ डाला और पैर क धमकसे वे पृ ीको भी वदीण-सी करने लगे॥ २२ ॥ सवार स हत हा थय , रथ स हत र थय तथा पैदल रा स को भी बु मान् हनुमा ी मौतके घाट उतारने लगे॥ २३ ॥ ोधसे भरे ए यमराजक भाँ त वृ हाथम लये ाणहारी हनुमा ो देख रा स भागने लगे॥ २४ ॥



रा स को भय देनेवाले हनुमान् अ कु पत होकर श ु पर आ मण कर रहे थे। उस समय वीर अक नने उ देखा। देखते ही वह ोभसे भर गया और जोर-जोरसे गजना करने लगा॥ २५ ॥ अक नने देहको वदीण कर देनेवाले चौदह पैने बाण मारकर महापरा मी हनुमा ो घायल कर दया॥ २६ ॥ इस कार नाराच और तीखी श य से छदे ए वीर हनुमान् उस समय वृ से ा पवतके समान दखायी देते थे॥ २७ ॥ उनका सारा शरीर र से रँग गया था, इस लये वे महापरा मी महाबली और महाकाय हनुमान् खले ए अशोक एवं धूमर हत अ के समान शोभा पा रहे थे॥ तदन र महान् वेग कट करके हनुमा ीने एक दूसरा वृ उखाड़ लया और तुरंत ही उसे रा सराज अक नके सरपर दे मारा॥ २९ ॥ ोधसे भरे वानर े महा ा हनुमा े चलाये ए उस वृ क गहरी चोट खाकर रा स अक न पृ ीपर गरा और मर गया॥ ३० ॥ जैसे भूक आनेपर सारे वृ काँपने लगते ह, उसी कार रा सराज अक नको रणभू मम मारा गया देख सम रा स थत हो उठे ॥ ३१ ॥ वानर के खदेड़नेपर वहाँ परा ए वे सब रा स अपने अ -श फ ककर डरके मारे ल ाम भाग गये॥ ३२ ॥ उनके के श खुले ए थे। वे घबरा गये थे और परा जत होनेसे उनका घमंड चूर-चूर हो गया था। भयके कारण उनके अ से पसीने चू रहे थे और इसी अव ाम वे भाग रहे थे॥ ३३ ॥ भयके कारण एक-दूसरेको कु चलते ए वे भागकर ल ापुरीम घुस गये। भागते समय वे बारंबार पीछे घूम-घूमकर देखते रहते थे॥ ३४ ॥ उन रा स के ल ाम घुस जानेपर सम महाबली वानर ने एक हो वहाँ हनुमा ीका अ भन न कया॥ ३५ ॥ उन श शाली हनुमा ीने भी उ ा हत हो यथायो अनुकूल बताव करते ए उन सम वानर का समादर कया॥ ३६ ॥



त ात् वजयो ाससे सुशो भत होनेवाले वानर ने पूरा बल लगाकर उ रसे गजना क और वहाँ जी वत रा स को ही पकड़-पकड़कर घसीटना आर कया॥ ३७ ॥ जैसे भगवान् व ुने श ुनाशन, महाबली, भयंकर एवं महान् असुर मधुकैटभ आ दका वध करके वीर-शोभा ( वजयल ी)-का वरण कया था, उसी कार महाक प हनुमा े रा स के पास प ँ चकर उ मौतके घाट उतार वीरो चत शोभाको धारण कया॥ ३८ ॥ उस समय देवता, महाबली ीराम, ल ण, सु ीव आ द वानर तथा अ बलशाली वभीषणने भी क पवर हनुमा ीका यथो चत स ार कया॥ ३९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छ नवाँ सग पूरा आ॥ ५६ ॥



स ावनवाँ सग ह का रावणक आ ासे वशाल सेनास हत यु के लये



ान



अक नके वधका समाचार पाकर रा सराज रावणको बड़ा ोध आ। उसके मुखपर कु छ दीनता छा गयी और वह म य क ओर देखने लगा॥ १ ॥ पहले तो दो घड़ीतक वह कु छ सोचता रहा। फर उसने म य के साथ वचार कया और उसके बाद दनके पूवभागम रा सराज रावण यं ल ाके सब मोरच का नरी ण करनेके लये गया॥ २ ॥ रा सगण से सुर त और ब त-सी छाव नय से घरी ◌इ, जा-पताका से सुशो भत उस नगरीको राजा रावणने अ ी तरह देखा॥ ३ ॥ ल ापुरी चार ओरसे श ु ारा घेर ली गयी थी। यह देखकर रा सराज रावणने अपने हतैषी यु कलाको वद ह से यह समयो चत बात कही—॥ ४ ॥ ‘यु वशारद वीर! नगरके अ नकट श ु क सेना छावनी डाले पड़ी है, इसी लये सारा नगर सहसा थत हो उठा है। अब म दूसरे कसीके यु करनेसे इसका छु टकारा होता नह देखता ँ ॥ ५ ॥ ‘अब तो इस तरहके यु का भार म, कु कण, मेरे सेनाप त तुम, बेटा इ जत् अथवा नकु ही उठा सकते ह॥ ६ ॥ ‘अत: तुम शी ही सेना लेकर वजयके लये ान करो और जहाँ ये सब वानर जुटे ए ह, वहाँ जाओ॥ ७ ॥ ‘तु ारे नकलते ही सारी वानरसेना तुरंत वच लत हो उठे गी और गजते ए रा स शरोम णय का सहनाद सुनकर भाग खड़ी होगी॥ ८ ॥ ‘वानरलोग बड़े च ल, ढीठ और डरपोक होते ह, जैसे हाथी सहक गजना नह सह सकते, उसी कार वे वानर तु ारा सहनाद नह सह सकगे॥ ९ ॥ ‘ ह ! जब वानरसेना भाग जायगी, तब को◌इ सहारा न रहनेके कारण ल णस हत ीराम ववश होकर तु ारे अधीन हो जायँगे॥ १० ॥



‘यु



म मृ ु सं द होती है, हो भी सकती है और न भी हो। कतु ऐसी मृ ु ही े है। (इसके वपरीत) जीवनको बना संशय (जो खम)-म डाले ( बना यु लके ) जो मृ ु होती है, वह े नह होती (ऐसा मेरा वचार है)। इसके अनुकूल या तकू ल जो कु छ तुम हमारे लये हतकर समझते हो, उसे बताओ’॥ ११ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर सेनाप त ह ने उस रा सराजके सम उसी तरह अपना वचार कया, जैसे शु ाचाय असुरराज ब लको अपनी सलाह दया करते ह॥ १२ ॥ (उसने कहा—) ‘राजन्! हमलोग ने कु शल म य के साथ पहले भी इस वषयपर वचार कया है। उन दन एक-दूसरेके मतक आलोचना करके हमलोग म ववाद भी खड़ा हो गया था (हमलोग सवस तसे कसी एक नणयपर नह प ँ च सके थे)॥ १३ ॥ ‘मेरा पहलेसे ही यह न य रहा है क सीताजीको लौटा देनेसे ही हमलोग का क ाण होगा और न लौटानेपर यु अव होगा। उस न यके अनुसार ही हम आज यह यु का संकट दखायी दया है॥ १४ ॥ ‘परंतु आपने दान, मान और व वध सा ना के ारा समय-समयपर सदा ही मेरा स ार कया है। फर म आपका हतसाधन नह क ँ गा? (अथवा आपके हतके लये कौन-सा काय नह कर सकूँ गा)॥ ‘मुझे अपने जीवन, ी, पु और धन आ दक र ा नह करनी है—इनक र ाके लये मुझे को◌इ च ा नह । आप दे खये क म कस तरह आपके लये यु क ालाम अपने जीवनक आ त देता ँ ’॥ १६ ॥ अपने ामी रावणसे ऐसा कहकर धान सेनाप त ह ने अपने सामने खड़े ए सेना से इस कार कहा—॥ १७ ॥ ‘तुमलोग शी मेरे पास रा स क वशाल सेना ले आओ। आज मांसाहारी प ी समरा णम मेरे बाण के वेगसे मारे गये वानर के मांस खाकर तृ हो जायँ’॥ ह क यह बात सुनकर महाबली सेना ने रावणके उस महलके पास वशाल सेनाको यु के लये तैयार कया॥ १९ १/२ ॥ दो ही घड़ीम नाना कारके अ -श लये हाथी-जैसे भयानक रा सवीर से ल ापुरी भर गयी॥



कतने ही रा स घीक आ त देकर अ देवको तृ करने लगे और ा ण को नम ार करके आशीवाद लेने लगे। उस समय घीक ग लेकर सुग त वायु सब ओर बहने लगी॥ २१ १/२ ॥ रा स ने म ारा अ भम त नाना कारक मालाएँ हण क और हष एवं उ ाहसे यु हो यु ोपयोगी वेश-भूषा धारण क ॥ २२ १/२ ॥ धनुष और कवच धारण कये रा स वेगसे उछलकर आगे बढ़े और राजा रावणका दशन करते ए ह को चार ओरसे घेरकर खड़े हो गये॥ २३ १/२ ॥ तदन र राजाक आ ा ले भयंकर भेरी बजवाकर कवच आ द धारण करके यु के लये उ त आ ह अ -श से सुस त रथपर आ ढ़ आ॥ २४ १/२ ॥ ह के उस रथम बड़े वेगशाली घोड़े जुते ए थे, उसका सार थ भी अपने कायम कु शल था। वह रथ पूणत: सार थके नय णम था। उसके चलनेपर महान् मेघ क गजनाके समान घघर- न होती थी। वह रथ सा ात् च मा और सूयके समान काशमान था॥ सपाकार या सप च त जके कारण वह दुधष तीत होता था। उस रथक र ाके लये जो कवच था, वह ब त ही सु र दखायी देता था। उसके सारे अ सु र थे और उसम अ ी-अ ी साम याँ रखी गयी थ । उस रथम सोनेक जाली लगी थी। वह अपनी का से हँ सता-सा तीत होता था (अथवा दूसरे का मान् पदाथ का उपहास-सा कर रहा था)॥ २६ १/ ॥ २



उस रथपर बैठकर रावणक आ ा शरोधाय करके वशाल सेनासे घरा आ ह तुरंत ल ासे बाहर नकला॥ २७ १/२ ॥ उसके नकलते ही मेघक ग ीर गजनाके समान ध सा बजने लगा। अ रणवा का ननाद भी पृ ीको प रपूण करता-सा तीत होने लगा॥ २८ ॥ सेनाप तके ानकालम श क न भी सुनायी देने लगी। ह के आगे चलनेवाले भयानक पधारी वशालकाय रा स भयंकर रसे गजना करते ए आगे बढ़े॥ २९ १/२ ॥ नरा क, कु हनु, महानाद और समु त—ये ह के चार स चव उसे चार ओरसे घेरकर नकले॥



ह क वह वशाल सेना हा थय के समूह-सी अ भयंकर जान पड़ती थी। उसक ूह-रचना हो चुक थी। उस ूहब सेनाके साथ ही ह ल ाके पूव ारसे नकला॥ ३१ ॥ समु के समान उस अपार सेनाके साथ जब ह बाहर नकला, उस समय वह ोधसे भरे ए लय-कालके संहारकारी यमराजके समान जान पड़ता था॥ उसके ान करते समय जो भेरी आ द बाज और गजते ए रा स का ग ीर घोष आ, उससे भयभीत हो ल ाके सब ाणी वकृ त रम ची ार करने लगे॥ ३३ ॥ उस समय बना बादलके आकाशम उड़कर र -मांसका भोजन करनेवाले प ी म ल बनाकर ह के रथक द णावत प र मा करने लगे॥ ३४ ॥ भयानक गीद ड़याँ मुँहसे आगक ाला उगलती ◌इ अशुभसूचक बोली बोलने लग । आकाशसे उ ापात होने लगा और च वायु चलने लगी॥ ३५ ॥ ह रोषपूवक आपसम यु करने लगे, जससे उनका काश म पड़ गया तथा मेघ उस रा सके रथके ऊपर गध क -सी आवाजम गजना करने लगे, र बरसाने लगे और आगे चलनेवाले सै नक को ख चने लगे। उसके जके ऊपर गीध द णक ओर मुँह करके आ बैठा। उसने दोन ओर अपनी अशुभ बोली बोलकर उस रा सक सारी शोभा-स हर ली॥ ३६-३७ १/२ ॥ सं ामभू मम वेश करते समय घोड़ेको काबूम रखनेवाले उसके सार थके हाथसे क◌इ बार चाबुक गर पड़ा॥ ३८ १/२ ॥ यु के लये नकलते समय ह क जो परम दुलभ और काशमान शोभा थी, वह दो ही घड़ीम न हो गयी। उसके घोड़े समतल भू मम भी लड़खड़ाकर गर पड़े॥ ३९ १/२ ॥ जसके गुण और पौ ष व ात थे, वह ह ही यु भू मम उप त आ, ही शला, वृ आ द नाना कारके हार-साधन से स वानरसेना उसका सामना करनेके लये आ गयी॥ ४० ॥ तदन र वृ को तोड़ते और भारी शला को उठाते ए वानर का अ भयंकर कोलाहल वहाँ सब ओर छा गया॥ ४१ ॥ एक ओर रा स सहनाद कर रहे थे तो दूसरी ओर वानर गरज रहे थे। उन सबका तुमुल नाद वहाँ फै ल गया। रा स और वानर क वे दोन सेनाएँ हष और उ ाससे भरी थ ॥ ४२ ॥



अ वेगशाली, समथ तथा एक-दूसरेके वधक इ ावाले यो ा पर र ललकार रहे थे। उनका महान् कोलाहल सबको सुनायी देता था॥ ४३ ॥ इसी समय दुबु ह वजयक अ भलाषासे वानरराज सु ीवक सेनाक ओर बढ़ा और जैसे पतंग मरनेके लये आगपर टूट पड़ता है, उसी कार वह बढ़े ए वेगवाली उस वानरसेनाम घुसनेक चे ा करने लगा॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म स ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५७ ॥



अ ावनवाँ सग नीलके ारा ह का वध (इसके



पूव) ह को यु क तैयारी करके ल ासे बाहर नकलते देख श ुसूदन ीरामच जीने वभीषणसे मुसकराकर कहा—॥ १ ॥ ‘महाबाहो! यह बड़े शरीर और महान् वेगवाला तथा बड़ी भारी सेनासे घरा आ कौन यो ा आ रहा है? इसका प, बल और पौ ष कै सा है? इस परा मी नशाचरका मुझे प रचय दो’॥ २ १/२ ॥ ीरघुनाथजीका वचन सुनकर वभीषणने इस कार उ र दया—‘ भो! इस रा सका नाम ह है। यह रा सराज रावणका सेनाप त है और ल ाक एक तहा◌इ सेनासे घरा आ है। इसका परा म भलीभाँ त व ात है। यह नाना कारके अ -श का ाता, बलव मसे स और शूरवीर है’॥ ३-४ ॥ इसी समय महाबलवान् वानर क वशाल सेनाने भी भयानक परा मी, भीषण पधारी तथा महाकाय ह को बड़े गजन-तजनके साथ ल ासे बाहर नकलते देखा। वह ब सं क रा स से घरा आ था। उसे देखते ही वानर के दलम भी महान् कोलाहल होने लगा और वे ह क ओर देख-देखकर गजने लगे॥ वजयक इ ावाले रा स वानर क ओर दौड़े। उनके हाथ म खड् ग, श , ऋ , शूल, बाण, मूसल, गदा, प रघ, ास, नाना कारके फरसे और व च व च धनुष शोभा पा रहे थे॥ ७-८ ॥ तब वानर ने भी यु क इ ासे खले ए वृ , पवत तथा बड़े-बड़े प र उठा लये॥ ९ ॥



फर दोन प के ब सं क वीर म प र और बाण क वषाके साथ-साथ आपसम बड़ा भारी सं ाम छड़ गया॥ १० ॥ उस यु लम ब त-से रा स ने ब तेरे वानर का और ब सं क वानर ने ब त-से रा स का संहार कर डाला॥ ११ ॥



वानर मसे को◌इ शूल से और को◌इ च से मथ डाले गये। कतने ही प रघ क मारसे आहत हो गये और कतन के फरस से टुकड़े-टुकड़े कर डाले गये॥ कतने ही यो ा साँसर हत हो पृ ीपर गर पड़े और कतने ही बाण के ल बन गये, जससे उनके दय वदीण हो गये॥ १३ ॥ कतने ही वानर तलवार क मारसे दो टूक होकर पृ ीपर गर पड़े और तड़फड़ाने लगे। कतने ही शूरवीर रा स ने वानर क पस लयाँ फाड़ डाल ॥ १४ ॥ इसी तरह वानर ने भी अ कु पत हो वृ और पवत- शखर ारा सब ओर भूतलपर ंडु -के - ंडु रा स को पीस डाला॥ १५ ॥ वानर के व तु कठोर थ ड़ और मु से भलीभाँ त पीटे गये रा स मुँहसे र वमन करने लगे। उनके दाँत और ने छ - भ होकर बखर गये॥ १६ ॥ को◌इ आतनाद करते तो को◌इ सह के समान दहाड़ते थे। इस कार वानर और रा स का भयंकर कोलाहल वहाँ सब ओर गूँज उठा॥ १७ ॥ ोधसे भरे ए वानर और रा स वीरो चत मागका अनुसरण करके यु म पीठ नह दखाते थे। वे मुँह बा-बाकर नभयके समान ू रतापूण कम करते थे॥ १८ ॥ नरा क, कु हनु, महानाद और समु त—ये ह के सारे स चव वानर का वध करने लगे॥ १९ ॥ शी तापूवक आ मण करते और वानर को मारते ए ह के स चव मसे एकको, जसका नाम नरा क था, वदने एक पवतके शखरसे मार डाला॥ २० ॥ फर दुमुखने एक वशाल वृ लये उठकर शी ता-पूवक हाथ चलानेवाले रा स समु तको कु चल डाला॥ २१ ॥ त ात् अ कु पत ए तेज ी जा वा े एक बड़ी भारी शला उठा ली और उसे महानादक छातीपर दे मारा॥ २२ ॥ बाक रहा परा मी कु हनु। वह तार नामक वानरसे भड़ा और अ म एक वशाल वृ क चपेटम आकर उसे भी रणभू मम अपने ाण से हाथ धोने पड़े॥ रथपर बैठे ए ह से वानर का यह अ तु परा म नह सहा गया। उसने हाथम धनुष लेकर वानर का घोर संहार आर कया॥ २४ ॥



उस समय दोन सेनाएँ जलके भँवरक भाँ त च र काट रही थ । व ु अपार महासागरक गजनाके समान उनक गजना सुनायी दे रही थी॥ २५ ॥ अ ोधसे भरे ए रणदुमद रा स ह ने अपने बाण-समूह ारा उस महासमरम वानर को पी ड़त करना आर कया॥ २६ ॥ पृ ीपर वानर और रा स क लाश के ढेर लग गये। उनसे आ ा दत ◌इ रणभू म भयानक पवत से ढक ◌इ-सी जान पड़ती थी॥ २७ ॥ र के वाहसे आ ा दत ◌इ वह यु भू म वैशाख-मासम खले ए पलाश-वृ से ढक ◌इ व भू म-सी सुशो भत होती थी॥ २८ ॥ मारे गये वीर क लाश ही जसके दोन तट थे। र का वाह ही जसक महान् जलरा श थी। टूटे-फू टे अ -श ही जसके तटवत वशाल वृ के समान जान पड़ते थे। जो यमलोक पी समु से मली ◌इ थी। सै नक के यकृ त् और ीहा ( दयके दा हने और बाय भाग) जसके महान् पंक थे। नकली ◌इ आँ त जहाँ सेवारका काम देती थ । कटे ए सर और धड़ जहाँ म -से तीत होते थे। शरीरके छोटे-छोटे अवयव एवं के श जसम घासका म उ करते थे। जहाँ गीध ही हंस बनकर बैठे थे। क पी सारस जसका सेवन करते थे। मेदे ही फे न बनकर जहाँ सब ओर फै ले थे। पी ड़त क कराह जसक कलकल न थी और कायर के लये जसे पार करना अ क ठन था, उस यु भू म पणी नदीको वा हत करके रा स और े वानर वषाके अ म हंस और सारस से से वत स रताक भाँ त उस दु र नदीको उसी तरह पार कर रहे थे, जैसे गजयूथप त कमल के परागसे आ ा दत कसी पु रणीको पार करते ह॥ २९—३३ ॥ तदन र नीलने देखा, रथपर बैठा आ ह बाणसमूह क वषा करके वेगपूवक वानर का संहार कर रहा है॥ ३४ ॥ तब जैसे उठी ◌इ च वायु आकाशम महान् मेघ क घटाको छ - भ करके उड़ा देती है, उसी कार नील भी बलपूवक रा स-सेनाका संहार करने लगे। इससे उस यु लम रा सी-सेना भाग खड़ी ◌इ। सेनाप त ह ने जब अपनी सेनाक ऐसी दुरव ा देखी, तब उसने सूयतु तेज ी रथके ारा नीलपर ही धावा कया॥ ३५ १/२ ॥ धनुषधा रय म े और नशाचर क सेनाके नायक ह ने उस महासमरम अपने धनुषको ख चकर नीलपर बाण क वषा आर कर दी॥ ३६ १/२ ॥



रोषसे भरे ए सप के समान वे महान् वेगशाली बाण नीलतक प ँ चकर उ वदीण करके बड़ी सावधानीके साथ धरतीम समा गये॥ ३७ १/२ ॥ ह के पैने बाण लत अ के समान जान पड़ते थे। उनक चोटसे नील ब त घायल हो गये। इस तरह उस परम दुजय रा स ह को अपने ऊपर आ मण करते देख बलव मशाली महाक प नीलने एक वृ उखाड़कर उसीके ारा उसपर आघात कया॥ नीलक चोट खाकर कु पत आ रा स शरोम ण ह बड़े जोरसे गजता आ उन वानर-सेनाप तपर बाण क वषा करने लगा॥ ४० ॥ उस दुरा ा रा सके बाण-समूह का नवारण करनेम समथ न हो सकनेपर नील आँ ख बंद करके उन सब बाण को अपने अंग पर ही हण करने लगे। जैसे साँड़ सहसा आयी ◌इ शरद-् ऋतुक वषाको चुपचाप अपने शरीरपर ही सह लेता है, उसी कार ह क उस दु:सह बाणवषाको नील चुपचाप ने बंद करके सहन करते रहे॥ ४१-४२ ॥ ह क बाणवषासे कु पत हो महाबली महाक प नीलने एक वशाल सालवृ के ारा उसके घोड़ को मार डाला॥ ४३ ॥ त ात् रोषसे भरे ए नीलने उस दुरा ाके धनुषको भी वेगपूवक तोड़ दया और बारंबार वे गजना करने लगे॥ ४४ ॥ नीलके ारा धनुषर हत कया गया सेनाप त ह एक भयानक मूसल हाथम लेकर अपने रथसे कू द पड़ा॥ ४५ ॥ वे दोन वीर अपनी-अपनी सेनाके धान थे। दोन ही एक-दूसरेके वैरी और वेगशाली थे। वे मदक धारा बहानेवाले दो गजराज के समान खूनसे नहा उठे थे॥ ४६ ॥ दोन ही अपनी तीखी दाढ़ से काट-काटकर एक-दूसरेके अंग को घायल कये देते थे। वे दोन सह और बाघके समान श शाली और उ के समान वजयके लये सचे थे॥ ४७ ॥ दोन वीर परा मी, वजयी और यु म कभी पीठ न दखानेवाले थे तथा वृ ासुर और इ के समान यु म यश पानेक अ भलाषा रखते थे॥ ४८ ॥ उस समय परम उ ोगी ह ने नीलके ललाटम मूसलसे आघात कया। इससे उनके ललाटसे र क धारा बह चली॥ ४९ ॥



उनके सारे अंग र से भीग गये। तब ोधसे भरे ए महाक प नीलने एक वशाल वृ उठाकर ह क छातीपर दे मारा॥ ५० ॥ उस हारक को◌इ परवा न करके ह महान् मूसल हाथम लये बलवान् वानर नीलक ओर बड़े वेगसे दौड़ा॥ ५१ ॥ उस भयंकर वेगशाली रा सको रोषसे भरकर आ मण करते देख महान् वेगशाली महाक प नीलने एक बड़ी भारी शला हाथम ले ली॥ ५२ ॥ उस शलाको नीलने रणभू मम सं ामक इ ावाले मूसलयोधी नशाचर ह के म कपर त ाल दे मारा॥ ५३ ॥ क प वर नीलके ारा चलायी गयी उस भयंकर एवं वशाल शलाने ह के म कको कु चलकर उसके क◌इ टुकड़े कर डाले॥ ५४ ॥ उसके ाण-पखे उड़ गये। उसक का , उसका बल और उसक सारी इ याँ भी चली गय । वह रा स जड़से कटे ए वृ क भाँ त सहसा पृ ीपर गर पड़ा॥ ५५ ॥ उसके छ - भ ए म कसे और शरीरसे भी ब त खून गरने लगा, मानो पवतसे पानीका झरना झर रहा हो॥ ५६ ॥ नीलके ारा ह के मारे जानेपर दु:खी ए रा स क वह अक नीय वशाल सेना लंकाको लौट गयी॥ ५७ ॥ सेनाप तके मारे जानेपर वह सेना ठहर न सक । जैसे बाँध टूट जानेपर नदीका पानी क नह पाता॥ सेनानायकके मारे जानेसे वे सारे रा स अपना यु वषयक उ ाह खो बैठे और रा सराज रावणके भवनम जाकर च ाके कारण चुपचाप खड़े हो गये। ती शोक-समु म डू ब जानेके कारण वे सब-के -सब अचेत-से हो गये थे॥ ५९-६० ॥ तदन र वजयी सेनाप त महाबली नील अपने इस महान् कमके कारण शं सत होते ए ीराम और ल णसे आकर मले और बड़े हषका अनुभव करने लगे॥ ६१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५८ ॥



उनसठवाँ सग ह के मारे जानेसे द:ु खी ए रावणका यं ही यु के लये पधारना, उसके साथ आये ए मु वीर का प रचय, रावणक मारसे सु ीवका अचेत होना, ल णका यु म आना, हनुमान् और रावणम थ ड़ क मार, रावण ारा नीलका मू त होना, ल णका श के आघातसे मू त एवं सचेत होना तथा ीरामसे परा होकर रावणका ल ाम घुस जाना



वानर े नीलके ारा यु लम उस रा स-सेनाप त ह के मारे जानेपर समु के समान वेगशा लनी और भयानक आयुध से यु वह रा सराजक सेना भाग चली॥ १ ॥ रा स ने नशाचरराज रावणके पास जाकर अ पु नीलके हाथसे ह के मारे जानेका समाचार सुनाया। उनक वह बात सुनकर रा सराज रावणको बड़ा ोध आ॥ २ ॥ ‘यु लम ह मारा गया’ यह सुनते ही वह ोधसे तमतमा उठा; कतु थोड़ी ही देरम उसका च उसके लये शोकसे ाकु ल हो गया। अत: वह मु -मु देवता से बातचीत करनेवाले इ क भाँ त रा ससेनाके मु अ धका रय से बोला—॥ ३ ॥ ‘श ु को नग समझकर उनक अवहेलना नह करनी चा हये। म ज ब त छोटा समझता था, उ श ु ने मेरे उस सेनाप तको सेवक और हा थय स हत मार गराया, जो इ क सेनाका भी संहार करनेम समथ था॥ ४ ॥ ‘अब म श ु के संहार और अपनी वजयके लये बना को◌इ वचार कये यं ही उस अ तु यु के मुहानेपर जाऊँ गा॥ ५ ॥ ‘जैसे लत आग वनको जला देती है, उसी तरह आज अपने बाणसमूह से वानर क सेना तथा ल णस हत ीरामको म भ कर डालूँगा। आज वानर के र से म इस पृ ीको तृ क ँ गा’॥ ६ ॥ ऐसा कहकर वह देवराजका श ु रावण अ के समान काशमान रथपर सवार आ। उसके रथम उ म घोड़ के समूह जुते ए थे। वह अपने शरीरसे भी लत अ के समान उ ा सत हो रहा था॥ ७ ॥ उसके ान करते समय श , भेरी और पणव आ द बाजे बजने लगे। यो ालोग ताल ठोकने, गजने और सहनाद करने लगे। व ीजन प व ु तय ारा रा सराज शरोम ण रावणक भलीभाँ त समाराधना करने लगे। इस कार उसने या ा क ॥ ८ ॥



पवत और मेघ के समान काले एवं वशाल पवाले मांसाहारी रा स से, जनके ने लत अ के समान उ ी हो रहे थे, घरा आ रा स-राजा धराज रावण भूतगण से घरे ए देवे र के समान शोभा पाता था॥ ९ ॥ महातेज ी रावणने ल ापुरीसे सहसा नकलकर महासागर और मेघ के समान गजना करनेवाली उस भयंकर वानर-सेनाको देखा, जो हाथ म पवत- शखर एवं वृ लये यु के लये तैयार थी॥ १० ॥ उस अ च रा ससेनाको देखकर नागराज शेषके समान भुजावाले, वानर-सेनासे घरे ए तथा पु शोभा-स से यु ीरामच जीने श धा रय म े वभीषणसे पूछा —॥ ११ ॥ ‘जो नाना कारक जा-पताका और छ से सुशो भत, ास, खड् ग और शूल आ द अ -श से स , अजेय, नडर यो ा से से वत और महे पवत-जैसे वशालकाय हा थय से भरी ◌इ है, ऐसी यह सेना कसक है?’॥ १२ ॥ इ के समान बलशाली वभीषण ीरामक उपयु बात सुनकर महामना रा स शरोम णय के बल एवं सै नकश का प रचय देते ए उनसे बोले—॥ १३ ॥ ‘राजन्! यह जो महामन ी वीर हाथीक पीठपर बैठा है, जसका मुख नवो दत सूयके समान लाल रंगका है तथा जो अपने भारसे हाथीके म कम क न उ करता आ इधर आ रहा है, इसे आप अक न* समझ॥ १४ ॥ ‘वह जो रथपर चढ़ा आ है, जसक जापर सहका च है, जसके दाँत हाथीके समान उ और बाहर नकले ए ह तथा जो इ धनुषके समान का मान् धनुष हलाता आ आ रहा है, उसका नाम इ जत् है। वह वरदानके भावसे बड़ा बल हो गया है॥ १५ ॥ ‘यह जो व ाचल, अ ाचल और महे ग रके समान वशालकाय, अ तरथी एवं अ तशय वीर धनुष लये रथपर बैठा है तथा अपने अनुपम धनुषको बारंबार ख च रहा है, इसका नाम अ तकाय है। इसक काया ब त बड़ी है॥ १६ ॥ ‘ जसके ने ात:काल उ दत ए सूयके समान लाल ह तथा जसक आवाज घ ाक नसे भी उ ृ है, ऐसे ू र भाववाले गजराजपर आ ढ़ होकर जो जोर-जोरसे गजना कर रहा है, वह महामन ी वीर महोदर नामसे स है॥ १७ ॥



‘जो



सायंकालीन मेघसे यु पवतक -सी आभावाले और सुवणमय आभूषण से वभू षत घोड़ेपर चढ़कर चमक ले ास (भाले)-को हाथम लये इधर आ रहा है, इसका नाम पशाच है। यह व के समान वेगशाली यो ा है॥ १८ ॥ ‘ जसने व के वेगको भी अपना दास बना लया है और जससे बजलीक -सी भा छटकती रहती है, ऐसे तीखे शूलको हाथम लये जो यह च माके समान ेत का वाले साँड़पर चढ़कर यु भू मम आ रहा है, यह यश ी वीर शरा१ है॥ १९ ॥ ‘ जसका प मेघके समान काला है, जसक छाती उभरी ◌इ, चौड़ी और सु र है, जसक जापर नागराज वासु कका च बना आ है तथा जो एका च हो अपने धनुषको हलाता और ख चता आ रहा है, वह कु नामक यो ा है॥ २० ॥ ‘जो सुवण और व से ज टत होनेके कारण दी मान् तथा इ नीलम णसे म त होनेके कारण धूमयु अ -सा का शत होता है, ऐसे प रघको हाथम लेकर जो रा ससेनाक जाके समान आ रहा है, उसका नाम नकु है। उसका परा म घोर एवं अ तु है॥ २१ ॥ ‘यह जो धनुष, खड् ग और बाणसमूहसे भरे ए, जा-पताकासे अलंकृत तथा लत अ के समान देदी मान रथपर आ ढ़ हो अ तशय शोभा पा रहा है, वह ऊँ चे कदका यो ा नरा क२ है। वह पहाड़ क चो टय से यु करता है॥ २२ ॥ ‘यह जो ा , ऊँ ट, हाथी, हरन और घोड़ेके-से मुँहवाले, चढ़ी ◌इ आँ खवाले तथा अनेक कारके भयंकर पवाले भूत से घरा आ है, जो देवता का भी दप दलन करनेवाला है तथा जसके ऊपर पूण च माके समान ेत एवं पतली कमानीवाला सु र छ शोभा पाता है, वही यह रा सराज महामना रावण है, जो भूत से घरे ए देवके समान सुशो भत होता है॥ २३-२४ ॥ ‘यह सरपर मुकुट धारण कये है। इसका मुख कान म हलते ए कु ल से अलंकृत है। इसका शरीर ग रराज हमालय और व ाचलके समान वशाल एवं भयंकर है तथा यह इ और यमराजके भी घमंडको चूर करनेवाला है। दे खये, यह रा सराज सा ात् सूयके समान का शत हो रहा है’॥ २५ ॥ तब श ुदमन ीरामने वभीषणको इस कार उ र दया—‘अहो! रा सराज रावणका तेज तो ब त ही बढ़ा-चढ़ा और देदी मान है॥ २६ ॥



‘रावण अपनी



भासे सूयक ही भाँ त ऐसी शोभा पा रहा है क इसक ओर देखना क ठन हो रहा है। तेजोम लसे ा होनेके कारण इसका प मुझे नह दखायी देता॥ २७ ॥ ‘इस रा सराजका शरीर जैसा सुशो भत हो रहा है, ऐसा तो देवता और दानव वीर का भी नह होगा॥ ‘इस महाकाय रा सके सभी यो ा पवत के समान वशाल ह। सभी पवत से यु करनेवाले ह और सब-के -सब चमक ले अ -श लये ए ह॥ २९ ॥ ‘जो दी मान्, भयंकर दखायी देनेवाले और तीखे भाववाले ह, उन रा स से घरा आ यह रा सराज रावण देहधारी भूत से घरे ए यमराजके समान जान पड़ता है॥ ३० ॥ ‘सौभा क बात है क यह पापा ा मेरी आँ ख के सामने आ गया। सीताहरणके कारण मेरे मनम जो ोध सं चत आ है, उसे आज इसके ऊपर छोडँ गा’॥ ३१ ॥ ऐसा कहकर बल- व मशाली ीराम धनुष लेकर उ म बाण नकालकर यु के लये डट गये। इस कायम ल णने भी उनका साथ दया॥ ३२ ॥ तदन र महामना रा सराज रावणने अपने साथ आये ए उन महाबली रा स से कहा —‘तुमलोग नभय और सु स होकर नगरके ार तथा राजमागके मकान क ो ढ़य पर खड़े हो जाओ॥ ३३ ॥ ‘ क वानरलोग मेरे साथ तुम सबको यहाँ आया देख इसे अपने लये अ ा मौका समझकर सहसा एक हो मेरी सूनी नगरीम, जसके भीतर वेश होना दूसर के लये ब त क ठन है, घुस जायँगे और इसे मथकर चौपट कर डालगे’॥ ३४ ॥ इस कार जब अपने म य को वदा कर दया और वे रा स उसक आ ाके अनुसार उन-उन ान पर चले गये, तब रावण जैसे महाम ( त म ल) पूरे महासागरको व ु कर देता है, उसी कार समु -जैसी वानरसेनाको वदीण करने लगा॥ ३५ ॥ चमक ले धनुष-बाण लये रा सराज रावणको यु लम सहसा आया देख वानरराज सु ीवने एक बड़ा भारी पवत- शखर उखाड़ लया और उसे लेकर उस नशाचरराजपर आ मण कया॥ ३६ ॥ अनेक वृ और शखर से यु उस महान् शैल- शखरको सु ीवने रावणपर दे मारा। उस शखरको अपने ऊपर आता देख रावणने सहसा सुवणमय पंखवाले ब त-से बाण मारकर



उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ उ म वृ और शखरवाला वह महान् शैल ृ जब वदीण होकर पृ ीपर गर पड़ा, तब रा सलोकके ामी रावणने महान् सप और यमराजके समान एक भयंकर बाणका संधान कया॥ ३८ ॥ उस बाणका वेग वायुके समान था। उससे चनगा रयाँ छू टती थ और लत अ के समान काश फै लता था। इ के व क भाँ त भयंकर वेगवाले उस बाणको रावणने होकर सु ीवके वधके लये चलाया॥ ३९ ॥ रावणके हाथ से छू टे ए उस सायकने इ के व क भाँ त का मान् शरीरवाले सु ीवके पास प ँ चकर उसी तरह वेगपूवक उ घायल कर दया, जैसे ामी का तके यक चलायी ◌इ भयानक श ने ौ पवतको वदीण कर डाला था॥ ४० ॥ उस बाणक चोटसे वीर सु ीव अचेत हो गये और आतनाद करते ए पृ ीपर गर पड़े। सु ीवको बेहोश हो घूमकर गरा देख उस यु लम आये ए सब रा स बड़े हषके साथ सहनाद करने लगे॥ ४१ ॥ तब गवा , गवय, सुषेण, ऋषभ, ो तमुख और नल—ये वशालकाय वानर पवत शखर को उखाड़कर रा सराज रावणपर टूट पड़े॥ ४२ ॥ परंतु नशाचर के राजा रावणने सैकड़ तीखे बाण छोड़कर उन सबके हार को थ कर दया और उन वानरे र को भी सोनेके व च पंखवाले बाण-समूह ारा त- व त कर दया। देव ोही रावणके बाण से घायल हो वे भीमकाय वानरे गण धरतीपर गर पड़े॥४३ १/२ ॥ फर तो रावणने अपने बाण-समूह ारा उस भयंकर वानरसेनाको आ ा दत कर दया। रावणके बाण से पी ड़त और डरे ए वीर वानर उसक मार खा-खाकर जोर-जोरसे ची ार करते ए धराशायी होने लगे॥ रावणके सायक से पी ड़त हो ब त-से वानर शरणागतव ल भगवान् ीरामक शरणम गये। तब धनुधर महा ा ीराम सहसा धनुष लेकर आगे बढ़े। उसी समय ल णजीने उनके सामने आकर हाथ जोड़ उनसे ये यथाथ वचन कहे—॥ ४५-४६ ॥ ‘आय! इस दुरा ाका वध करनेके लये तो म ही पया ँ । भो! आप मुझे आ ा दी जये। म इसका नाश क ँ गा’॥ ४७ ॥



उनक बात सुनकर महातेज ी स परा मी ीरामने कहा—‘अ ा ल ण! जाओ। कतु सं ामम वजय पानेके लये पूण य शील रहना’॥ ४८ ॥ ‘ क रावण महान् बल- व मसे स है। यह यु म अ तु परा म दखाता है। रावण य द अ धक कु पत होकर यु करने लगे तो तीन लोक के लये इसके वेगको सहन करना क ठन हो जायगा॥ ४९ ॥ ‘तुम यु म रावणके छ देखना। उसक कमजो रय से लाभ उठाना और अपने छ पर भी रखना (कह श ु उनसे लाभ न उठाने पाये)। एका च हो पूरी सावधानीके साथ अपनी और धनुषसे भी आ र ा करना’॥ ५० ॥ ीरघुनाथजीक यह बात सुनकर सु म ाकु मार ल ण उनके दयसे लग गये और ीरामका पूजन एवं अ भवादन करके वे यु के लये चल दये॥ ५१ ॥ उ ने देखा, रावणक भुजाएँ हाथीके शु -द के समान ह। उसने बड़ा भयंकर एवं दी मान् धनुष उठा रखा है और बाण-समूह क वषा करके वानर को ढकता तथा उनके शरीर को छ - भ कये डालता है॥ ५२ ॥ रावणको इस कार परा म करते देख महातेज ी पवनपु हनुमा ी उसके बाणसमूह का नवारण करते ए उसक ओर दौड़े॥ ५३ ॥ उसके रथके पास प ँ चकर अपना दायाँ हाथ उठा बु मान् हनुमा े रावणको भयभीत करते ए कहा—॥ ‘ नशाचर! तुमने देवता, दानव, ग व, य और रा स से न मारे जानेका वर ा कर लया है; परंतु वानर से तो तु भय है ही॥ ५५ ॥ ‘देखो, पाँच अँगु लय से यु यह मेरा दा हना हाथ उठा आ है। तु ारे शरीरम चरकालसे जो जीवा ा नवास करता है, उसे आज यह इस देहसे अलग कर देगा’॥ ५६ ॥ हनुमा ीका यह वचन सुनकर भयानक परा मी रावणके ने ोधसे लाल हो उठे और उसने रोषपूवक कहा—॥ ५७ ॥ ‘वानर! तुम न:श होकर शी मेरे ऊपर हार करो और सु र यश ा कर लो। तुमम कतना परा म है, यह जान लेनेपर ही म तु ारा नाश क ँ गा’॥



रावणक बात सुनकर पवनपु हनुमा ी बोले—‘मने तो पहले ही तु ारे पु अ को मार डाला है। इस बातको याद तो करो’॥ ५९ ॥ उनके इतना कहते ही बल- व मस महातेज ी रा सराज रावणने उन पवनकु मारक छातीम एक तमाचा जड़ दया॥ ६० ॥ उस थ ड़क चोटसे हनुमा ी बारंबार इधर-उधर च र काटने लगे; परंतु वे बड़े बु मान् और तेज ी थे, अत: दो ही घड़ीम अपनेको सु र करके खड़े हो गये। फर उ ने भी अ कु पत होकर उस देव ोहीको थ ड़से ही मारा॥ ६१ १/२ ॥ उन महा ा वानरके थ ड़क मार खाकर दशमुख रावण उसी तरह काँप उठा, जैसे भूक आनेपर पवत हलने लगता है॥ ६२ १/२ ॥ सं ामभू मम रावणको थ ड़ खाते देख ऋ ष, वानर, स , देवता और असुर सभी हष न करने लगे॥ ६३ १/२ ॥ तदन र महातेज ी रावणने सँभलकर कहा— ‘शाबाश वानर! शाबाश, तुम परा मक से मेरे शंसनीय त ी हो’॥ ६४ १/२ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर पवनकु मार हनुमा े कहा—‘रावण! तू अब भी जी वत है, इस लये मेरे परा मको ध ार है!॥ ६५ १/२ ॥ ‘दुबु े! अब तुम एक बार और मुझपर हार करो। बढ़-बढ़कर बात बना रहे हो। तु ारे हारके प ात् जब मेरा मु ा पड़ेगा, तब वह तु त ाल यमलोक प ँ चा देगा’॥ ६६ १/ ॥ २



हनुमा ीक इस बातसे रावणका ोध लत हो उठा। उसक आँ ख लाल हो गय । उस परा मी रा सने बड़े य से दा हना मु ा तानकर हनुमा ीक छातीम वेगपूवक हार कया॥ ६७-६८ ॥ छातीम चोट लगनेपर हनुमा ी पुन: वच लत हो उठे । महाबली हनुमा ीको उस समय व ल देख अ तरथी रावण रथके ारा शी ही नीलपर जा चढ़ा॥ रा स के राजा तापी दश ीवने श ु के ममको वदीण करनेवाले सपतु भयंकर बाण ारा वानर-सेनाप त नीलको संताप देना आर कया॥ ७०-७१ ॥



उसके बाण-समूह से पी ड़त ए वानर-सेनाप त नीलने उस रा सराजपर एक ही हाथसे पवतका एक शखर उठाकर चलाया॥ ७२ ॥ इतनेहीम तेज ी महामना हनुमा ी भी सँभल गये और पुन: यु क इ ासे रावणक ओर देखने लगे। उस समय रा सराज रावण नीलके साथ उलझा आ था। हनुमा ीने उससे रोषपूवक कहा—‘ओ नशाचर! इस समय तुम दूसरेके साथ यु कर रहे हो, अत: अब तुमपर धावा करना मेरे लये उ चत न होगा’॥ उधर महातेज ी रावणने नीलके चलाये ए पवत- शखरपर तीखे अ भागवाले सात बाण मारे, जससे वह टूट-फू टकर पृ ीपर बखर गया॥ ७५ ॥ उस पवत शखरको बखरा आ देख श ुवीर का संहार करनेवाले वानर-सेनाप त नील लयकालक अ के समान ोधसे लत हो उठे ॥ ७६ ॥ उ ने यु लम अ कण, साल, खले ए आ तथा अ नाना कारके वृ को उखाड़-उखाड़कर रावणपर चलाना आर कया॥ ७७ ॥ रावणने उन सब वृ को सामने आनेपर काट गराया और अ पु नीलपर बाण क भयानक वषा क ॥ जैसे मेघ कसी महान् पवतपर जलक वषा करता है, उसी तरह रावणने जब नीलपर बाणसमूह क वषा क , तब वे छोटा-सा प बनाकर रावणक जाके शखरपर चढ़ गये॥ ७९ ॥



अपनी जाके ऊपर बैठे ए अ पु नीलको देखकर रावण ोधसे जल उठा और उधर नील जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ ८० ॥ नीलको कभी रावणक जापर, कभी धनुषपर और कभी मुकुटपर बैठा देख ीराम, ल ण और हनुमा ीको भी बड़ा व य आ॥ ८१ ॥ वानर नीलक वह फु त देखकर महातेज ी रावणको भी बड़ा आ य आ और उसने अ तु तेज ी आ ेया हाथम लया॥ ८२ ॥ नीलक फु त से रावणको घबराया आ देख हषका अवसर पाकर सब वानर बड़ी स ताके साथ कलका रयाँ भरने लगे॥ ८३ ॥



उस समय वानर के हषनादसे रावणको बड़ा ोध आ। साथ ही दयम घबराहट छा गयी थी, इस लये वह कत का कु छ न य नह कर सका॥ तदन र नशाचर रावणने आ ेया से अ भम त बाण हाथम लेकर जके अ भागपर बैठे ए नीलको देखा॥ ८५ ॥ देखकर महातेज ी रा सराज रावणने उनसे कहा—‘वानर! तुम उ को टक मायाके साथ ही अपने भीतर बड़ी फु त भी रखते हो॥ ८६ ॥ ‘वानर! य द श शाली हो तो मेरे बाणसे अपने जीवनक र ा करो। य प तुम अपने परा मके यो ही भ - भ कारके कम कर रहे हो तथा प मेरा छोड़ा आ द ा - े रत बाण जीवन-र ाक चे ा करनेपर भी तु ाणहीन कर देगा’॥ ८७-८८ ॥ ऐसा कहकर महाबा रा सराज रावणने आ ेया यु बाणका संधान करके उसके ारा सेनाप त नीलको मारा॥ ८९ ॥ उसके धनुषसे छू टे ए उस बाणने नीलक छातीपर गहरी चोट क । वे उसक आँ चसे जलते ए सहसा पृ ीपर गर पड़े॥ ९० ॥ य प नीलने पृ ीपर घुटने टेक दये, तथा प पता अ देवके माहा से और अपने तेजके भावसे उनके ाण नह नकले॥ ९१ ॥ वानर नीलको अचेत आ देख रणो ुक रावणने मेघक गजनाके समान ग ीर न करनेवाले रथके ारा सु म ाकु मार ल णपर धावा कया॥ ९२ ॥ यु भू मम सारी वानरसेनाको आगे बढ़नेसे रोककर वह ल णके पास प ँ च गया और लत अ के समान सामने खड़ा हो तापी रा सराज रावण अपने धनुषक टंकार करने लगा॥ ९३ ॥ उस समय अपने अनुपम धनुषको ख चते ए रावणसे उदार श शाली ल णने कहा —‘ नशाचरराज! समझ लो, म आ गया। अत: अब तु वानर के साथ यु नह करना चा हये’॥ ९४ ॥ ल णक यह बात ग ीर नसे यु थी और उनक ासे भी भयानक टंकारन हो रही थी। उसे सुनकर यु के लये उप त ए सु म ाकु मारके नकट जा रा स के राजा रावणने रोषपूवक कहा—॥



‘रघुवंशी



राजकु मार! सौभा क बात है क तुम मेरी आँ ख के सामने आ गये। तु ारा शी ही अ होनेवाला है, इसी लये तु ारी बु वपरीत हो गयी है। अब तुम मेरे बाणसमूह से पी ड़त हो इसी ण यमलोकक या ा करोगे’॥ ९६ ॥ सु म ाकु मार ल णको उसक बात सुनकर को◌इ व य नह आ। उसके दाँत बड़े ही तीखे और उ ट थे और वह जोर-जोरसे गजना कर रहा था। उस समय सु म ाकु मारने उससे कहा—‘राजन्! महान् भावशाली पु ष तु ारी तरह के वल गजना नह करते ह (कु छ परा म करके दखाते ह)। पापाचा रय म अ ग रावण! तुम तो झूठे ही ड ग हाँकते हो॥ ९७ ॥ ‘रा सराज! (तुमने सूने घरसे जो चोरी-चोरी एक असहाय नारीका अपहरण कया, इसीसे) म तु ारे बल, वीय, ताप और परा मको अ ी तरह जानता ँ ; इसी लये हाथम धनुष-बाण लेकर सामने खड़ा ँ । आओ यु करो। थ बात बनानेसे ा होगा?’॥ ९८ ॥ उनके ऐसा कहनेपर कु पत ए रा सराजने उनपर सु र पंखवाले सात बाण छोड़े; परंतु ल णने सोनेके बने ए व च पंख से सुशो भत और तेज धारवाले बाण से उन सबको काट डाला॥ ९९ ॥ जैसे बड़े-बड़े सप के शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर दये जायँ, उसी कार अपने सम बाण को सहसा ख त आ देख ल ाप त रावण ोधके वशीभूत हो गया और उसने दूसरे तीखे बाण छोड़े॥ १०० ॥ परंतु ीरामके छोटे भा◌इ ल ण इससे वच लत नह ए। उ ने अपने धनुषसे बाण क भयंकर वषा क और रु , अधच , उ म कण तथा भ जा तके बाण ारा रावणके छोड़े ए उन सब बाण को काट डाला॥ १०१ ॥ उन सभी बाणसमूह को न ल आ देख रा सराज रावण ल णक फु त से आ यच कत रह गया और उनपर पुन: तीखे बाण छोड़ने लगा॥ १०२ ॥ देवराज इ के समान परा मी ल णने भी रावणके वधके लये व के समान भयानक वेग और तीखी धारवाले पैने बाण को, जो अ के समान का शत हो रहे थे, धनुषपर रखा॥ १०३ ॥ परंतु रा सराजने उन सभी तीखे बाण को काट डाला और ाजीके दये ए काला के समान तेज ी बाणसे ल णजीके ललाटपर चोट क ॥ १०४ ॥



रावणके उस बाणसे पी ड़त हो ल णजी वच लत हो उठे । उ ने हाथम जो धनुष ले रखा था, उसक मु ी ढीली पड़ गयी। फर उ ने बड़े क से होश सँभाला और देव ोही रावणके धनुषको काट दया॥ १०५ ॥ धनुष कट जानेपर रावणको ल णने तीन बाण मारे, जो ब त ही तीखे थे। उन बाण से पी ड़त हो राजा रावण ाकु ल हो गया और बड़ी क ठना◌इसे वह फर सचेत हो सका॥ १०६ ॥



जब धनुष कट गया और बाण क गहरी चोट खानी पड़ी, तब रावणका सारा शरीर मेदे और र से भीग गया। उस अव ाम उस भयंकर श शाली देव ोही रा सने यु लम ाजीक दी ◌इ श उठा ली॥ १०७ ॥ वह श धूमयु अ के समान दखायी देती थी और यु म वानर को भयभीत करनेवाली थी। रा सराजके ामी रावणने वह जलती ◌इ श बड़े वेगसे सु म ाकु मारपर चलायी॥ १०८ ॥ अपनी ओर आती ◌इ उस श पर ल णने अ तु तेज ी ब त-से बाण तथा अ का हार कया; तथा प वह श दशरथकु मार ल णके वशाल व : लम घुस गयी॥ १०९ ॥ रघुकुलके धान वीर ल ण य प बड़े श शाली थे, तथा प उस श से आहत हो पृ ीपर गर पड़े और जलने-से लगे। उ व ल आ देख राजा रावण सहसा उनके पास जा प ँ चा और उनको वेगपूवक अपनी दोन भुजा से उठाने लगा॥ ११० ॥ जस रावणम देवता स हत हमालय, म राचल, मे ग र अथवा तीन लोक को भुजा ारा उठा लेनेक श थी, वही भरतके छोटे भा◌इ ल णको उठानेम समथ न हो सका॥ १११ ॥ ाक श से छातीम चोट खानेपर भी ल णजीने भगवान् व ुके अ च अंश पसे अपना च न कया॥ ११२ ॥ अत: देवश ु रावण दानव का दप चूण करनेवाले ल णको अपनी दोन भुजा म दबाकर हलानेम भी समथ न हो सका॥ ११३ ॥ इसी समय ोधसे भरे ए वायुपु हनुमा ी रावणक ओर दौड़े और अपने व -सरीखे मु े से रावणक छातीम मारा॥ ११४ ॥



उस मु े क मारसे रा सराज रावणने धरतीपर घुटने टेक दये। वह काँपने लगा और अ तोग ा गर पड़ा॥ ११५ ॥ उसके मुख, ने और कान से ब त-सा र गरने लगा और वह च र काटता आ रथके पछले भागम न े होकर जा बैठा॥ ११६ ॥ वह मू त होकर अपनी सुध-बुध खो बैठा। वहाँ भी वह र न रह सका—तड़पता और छटपटाता रहा। समरा णम भयंकर परा मी रावणको अचेत आ देख ऋ ष, देवता, असुर और वानर हषनाद करने लगे॥ इसके प ात् तेज ी हनुमान् रावणपी ड़त ल णको दोन हाथ से उठाकर ीरघुनाथजीके नकट ले आये॥ ११८ १/२ ॥ हनुमा ीके सौहाद और उ ट भ भावके कारण ल णजी उनके लये हलके हो गये। श ु के लये तो वे अब भी अक नीय थे—वे उ हला नह सकते थे॥ ११९ ॥ यु म परा जत ए ल णको छोड़कर वह श पुन: रावणके रथपर लौट आयी॥ १२० ॥



थोड़ी देरम होशम आनेपर महातेज ी रावणने फर वशाल धनुष उठाया और पने बाण हाथम लये॥ श ुसूदन ल णजी भी भगवान् व ुके अ च नीय अंश पसे अपना च न करके और नीरोग हो गये॥ १२२ ॥ वानर क वशाल वा हनीके बड़े-बड़े वीर मार गराये गये, यह देखकर रणभू मम रघुनाथजीने रावणपर धावा कया॥ १२३ ॥ उस समय हनुमा ीने उनके पास आकर कहा— ‘ भो! जैसे भगवान् व ु ग ड़पर चढ़कर दै का संहार करते ह, उसी कार आप मेरी पीठपर चढ़कर इस रा सको द द’॥ १२४ १/२ ॥ पवनकु मारक कही ◌इ यह बात सुनकर ीरघुनाथजी सहसा उन महाक प हनुमा पीठपर चढ़ गये॥ १२५ १/२ ॥ महाराज ीरामने समरा णम रावणको रथपर बैठा देखा। उसे देखते ही महातेज ी ीराम रावणक ओर उसी कार दौड़े, जैसे कु पत ए भगवान् व ु अपना च उठाये



वरोचनकु मार ब लपर टूट पड़े थे॥ उ ने अपने धनुषक ती टंकार कट क , जो व क गड़गड़ाहटसे भी अ धक कठोर थी। इसके बाद ीरामच जी रा सराज रावणसे ग ीर वाणीम बोले— ‘रा स म बाघ बने ए रावण! खड़ा रह, खड़ा रह। मेरा ऐसा अपराध करके तू कहाँ जाकर ाणसंकटसे छु टकारा पा सके गा॥ १२९ ॥ ‘य द तू इ , यम अथवा सूयके पास, ा, अ या शंकरके समीप अथवा दस दशा म भागकर जायगा तो भी अब मेरे हाथसे बच नह सके गा॥ १३० ॥ ‘तूने आज अपनी श के ारा यु म जाते ए जन ल णको आहत कया और जो उस श क चोटसे सहसा मू त हो गये थे, उ के उस तर ारका बदला लेनेके लये आज म यु भू मम उप त आ ँ । रा सराज! म पु -पौ स हत तेरी मौत बनकर आया ँ ॥ १३१ ॥ ‘रावण! तेरे सामने खड़े ए इस रघुवंशी राजकु मारने ही अपने बाण ारा जन ान नवासी उन चौदह हजार रा स का संहार कर डाला था, जो अ तु एवं दशनीय यो ा थे और उ मो म अ -श से स थे’॥ १३२ ॥ ीरामच जीक यह बात सुनकर महाबली रा सराज रावण महान् रोषसे भर गया। उसे पहलेके वैरका रण हो आया और उसने काला क शखाके समान दी शाली बाण ारा रणभू मम ीरघुनाथजीका वाहन बने ए महान् वेगशाली वायुपु हनुमा ो अ घायल कर दया॥ १३३-१३४ ॥ यु लम उस रा सके सायक से आहत होनेपर भी ाभा वक तेजसे स हनुमा ीका शौय और भी बढ़ गया॥ १३५ ॥ वानर शरोम ण हनुमा ो रावणने घायल कर दया, यह देखकर महातेज ी ीराम ोधके वशीभूत हो गये॥ १३६ ॥ फर तो उन भगवान् ीरामने आ मण करके प हये, घोड़े, जा, छ , पताका, सार थ, अश न, शूल और खड् गस हत उसके रथको अपने पैने बाण से तल- तल करके काट डाला॥ १३७ ॥ जैसे भगवान् इ ने व के ारा मे पवतपर आघात कया हो, उसी कार भु ीरामच जीने व और अश नके समान तेज ी बाणसे इ श ु रावणक वशाल एवं सु र



छातीम वेगपूवक आघात कया॥ जो राजा रावण व और अश नके आघातसे भी कभी ु एवं वच लत नह आ था, वही वीर उस समय ीरामच जीके बाण से घायल हो अ आत एवं क त हो उठा और उसके हाथसे धनुष छू टकर गर पड़ा॥ १३९ ॥ रावणको ाकु ल आ देख महा ा ीरामच जीने एक चमचमाता आ अधच ाकार बाण हाथम लया और उसके ारा रा सराजका सूयके समान देदी मान मुकुट सहसा काट डाला॥ १४० ॥ उस समय धनुष न होनेसे रावण वषहीन सपके समान अपना भाव खो बैठा था। सायंकालम जसक भा शा हो गयी हो, उस सूयदेवके समान न ेज हो गया था तथा मुकुट का समूह कट जानेसे ीहीन दखायी देता था। उस अव ाम ीरामने यु भू मम रा सराजसे कहा—॥ १४१ ॥ ‘रावण! तुमने आज बड़ा भयंकर कम कया है, मेरी सेनाके धान- धान वीर को मार डाला है। इतनेपर भी थका आ समझकर म बाण ारा तुझे मौतके अधीन नह कर रहा ँ ॥ १४२ ॥ ‘ नशाचरराज! म जानता ँ तू यु से पी ड़त है। इस लये आ ा देता ँ , जा, ल ाम वेश करके कु छ देर व ाम कर ले। फर रथ और धनुषके साथ नकलना। उस समय रथा ढ़ रहकर तू फर मेरा बल देखना’॥ भगवान् ीरामके ऐसा कहनेपर राजा रावण सहसा ल ाम घुस गया। उसका हष और अ भमान म ीम मल चुका था, धनुष काट दया गया था, घोड़े तथा सार थ मार डाले गये थे, महान् करीट ख त हो चुका था और वह यं भी बाण से ब त पी ड़त था॥ १४४ ॥ देवता और दानव के श ु महाबली नशाचरराज रावणके ल ाम चले जानेपर ल णस हत ीरामने उस महायु के मुहानेपर वानर के शरीरसे बाण नकाले॥ देवराज इ का श ु रावण जब यु लसे भाग गया, तब उसके पराभवका वचार करके देवता, असुर, भूत, दशाएँ , समु , ऋ षगण, बड़े-बड़े नाग तथा भूचर और जलचर ाणी भी ब त स ए॥ १४६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म उनसठवाँ सग पूरा आ॥ ५९ ॥



* यह अक



न हनुमानजीके ारा मारे गये अक नसे भ है। १. यह शरा जन ानम मारे गये शरासे भ है। यह रावणका पु है और वह भा◌इ था। २. यह नरा क रावणका पु है।



साठवाँ सग अपनी पराजयसे द:ु खी ए रावणक आ ासे सोये ए कु कणका जगाया जाना और उसे देखकर वानर का भयभीत होना



भगवान् ीरामके बाण और भयसे पी ड़त हो रा सराज रावण जब ल ापुरीम प ँ चा, तब उसका अ भमान चूर-चूर हो गया था। उसक सारी इ याँ थासे ाकु ल थ ॥ १ ॥ जैसे सह गजराजको और ग ड़ वशाल नागको पी ड़त एवं परा जत कर देता है, उसी कार महा ा रघुनाथजीने राजा रावणको अ भभूत कर दया था॥ २ ॥ भगवान् ीरामके बाण द के तीक जान पड़ते थे। उनक दी चपलाके समान च ल थी। उ याद करके रा सराज रावणके मनम बड़ी था ◌इ॥ ३ ॥ सोनेके बने ए द एवं े सहासनपर बैठकर रा स क ओर देखता आ रावण उस समय इस कार कहने लगा—॥ ४ ॥ ‘मने जो ब त बड़ी तप ा क थी, वह सब अव ही थ हो गयी; क आज महे तु परा मी मुझ रावणको एक मनु ने परा कर दया॥ ‘ ाजीने मुझसे कहा था क ‘तु मनु से भय ा होगा। इस बातको अ ी तरह जान लो’। उनका कहा आ यह घोर वचन इस समय सफल होकर मेरे सम उप त आ है॥ ६ ॥ ‘मने तो देवता, दानव, ग व, य , रा स और सप से ही अव होनेका वर माँगा था, मनु से अभय होनेक वर-याचना नह क थी॥ ७ ॥ ‘पूवकालम इ ाकु वंशी राजा अनर ने मुझे शाप देते ए कहा था क ‘रा साधम! कु ला ार! दुमते! मेरे ही वंशम एक ऐसा े पु ष उ होगा, जो तुझे पु , म ी, सेना, अ और सार थके स हत समरा णम मार डालेगा।’ मालूम होता है क अनर ने जसक ओर संकेत कया था, यह दशरथकु मार राम वही मनु है॥ ८-९ १/२ ॥ ‘इसके सवा पूवकालम मुझे वेदवतीने भी शाप दया था; क मने उसके साथ बला ार कया था। जान पड़ता है वही यह महाभागा जनकन नी सीता होकर कट ◌इ है॥ १० १/२ ॥



‘इसी



तरह उमा, न ी र, र ा और व ण-क ाने भी जैसा-जैसा कहा था, वैसा ही प रणाम मुझे ा आ है।* सच है ऋ षय क बात कभी झूठी नह होती॥ ११ १/२ ॥ ‘ये शाप ही मुझपर भय अथवा संकट लानेम कारण ए ह। इस बातको जानकर अब तुमलोग आये ए संकटको टालनेका य करो। रा सलोग राजमाग तथा गोपुर के शखर पर उनक र ाके लये डटे रह॥ ‘साथ ही जसके गा ीयक कह तुलना नह है, जो देवता और दानव का दप दलन करनेवाला है तथा ाजीके शापसे ा ◌इ न ा जसे सदा अ भभूत कये रहती है, उस कु कणको भी जगाया जाय’॥ १३ १/२ ॥ ‘ ह मारा गया और म भी समरा णम परा हो गया’ ऐसा जानकर महाबली रावणने रा स क भयानक सेनाको आदेश दया क ‘तुमलोग नगरके दरवाज पर रहकर उनक र ाके लये य करो। परकोट पर भी चढ़ जाओ और न ाके अधीन ए कु कणको जगा दो॥ १४-१५ १/२ ॥ ‘(म तो दु:खी, च त और अपूणकाम होकर जाग रहा ँ और) वह रा स कामभोगसे अचेत हो बड़ी न ताके साथ सुखपूवक सो रहा है। वह कभी नौ, कभी सात, कभी दस और कभी आठ मासतक सोता रहता है। यह आजसे नौ महीने पहले मुझसे सलाह करके सोया था॥ १६-१७ ॥ ‘अत: तुमलोग महाबली कु कणको शी जगा दो। महाबा कु कण सभी रा स म े है। वह यु लम वानर और उन राजकु मार को भी शी ही मार डालेगा॥ १८ ॥ ‘सम रा स म धान यह कु कण समरभू मम हमारे लये सव म वजय-वैजय ीके समान है; कतु खेदक बात है क वह मूख ा सुखम आस होकर सदा सोता रहता है॥ १९ ॥ ‘य द



कु कणको जगा दया जाय तो इस भयंकर सं ामम मुझे रामसे परा जत होनेका शोक नह होगा॥ २० ॥ ‘य द इस घोर संकटके समय भी कु कण मेरी सहायता करनेम समथ नह हो रहा है तो इ के तु बलशाली होनेपर भी उससे मेरा योजन ही ा है— म उसे लेकर ा क ँ गा?’॥ २१ ॥



रा सराज रावणक वह बात सुनकर सम रा स बड़ी घबराहटम पड़कर कु कणके घर गये॥ २२ ॥ र -मांसका भोजन करनेवाले वे रा स रावणक आ ा पाकर ग , मा तथा खानेपीनेक ब त-सी साम ी लये सहसा कु कणके पास गये॥ २३ ॥ कु कण एक गुफाम रहता था, जो बड़ी ही सु र थी और वहाँके वातावरणम फू ल क सुग छायी रहती थी। उसक लंबा◌इ-चौड़ा◌इ सब ओरसे एक-एक योजनक थी तथा उसका दरवाजा ब त बड़ा था। उसम वेश करते ही वे महाबली रा स कु कणक साँसके वेगसे सहसा पीछेको ठे ल दये गये। फर बड़ी क ठना◌इसे पैर जमाते ए वे पूरा य करके उस गुफाके भीतर घुसे॥ २४-२५ ॥ उस गुफाक फशम र और सुवण जड़े गये थे, जससे उसक रमणीयता ब त बढ़ गयी थी। उसके भीतर वेश करके उन े रा स ने देखा, भयानक परा मी कु कण सो रहा है॥ २६ ॥ महा न ाम नम आ कु कण बखरे ए पवतके समान वकृ ताव ाम सोकर खराटे ले रहा था, अत: वे सब रा स एक हो उसे जगानेक चे ा करने लगे॥ २७ ॥ उसका सारा शरीर ऊपर उठी ◌इ रोमाव लय से भरा था। वह सपके समान साँस लेता और अपने न: ास से लोग को च रम डाल देता था। वहाँ सोया आ वह रा स भयानक बल- व मसे स था॥ २८ ॥ उसक ना सकाके दोन छ बड़े भयंकर थे। मुँह पातालके समान वशाल था। उसने अपना सारा शरीर श ापर डाल रखा था और उसक देहसे र और चब क -सी ग कट होती थी॥ २९ ॥ उसक भुजा म बाजूब शोभा पाते थे। म कपर तेज ी करीट धारण करनेके कारण वह सूयदेवके समान भापु से का शत हो रहा था। इस पम नशाचर े श ुदमन कु कणको उन रा स ने देखा॥ ३० ॥ तदन र उन महाकाय नशाचर ने कु कणके सामने ा णय के मे पवत-जैसे ढेर लगा दये, जो उसे अ तृ दान करनेवाले थे॥ ३१ ॥ उन े रा स ने वहाँ मृग , भस और सूअर के समूह खड़े कर दये तथा अ क भी अ तु रा श एक कर दी॥ ३२ ॥



इतना ही नह , उन देव ो हय ने कु कणके आगे र से भरे ए ब तेरे घड़े और नाना कारके मांस भी रख दये॥ ३३ ॥ त ात् उ ने श ुसंतापी कु कणके शरीरम ब मू च नका लेप कया। द सुग त पु और च न सुघाँये। धूप क सुग फै लायी। उस श ुदमन वीरक ु त क तथा जहाँ-तहाँ खड़े ए रा स मेघ के समान ग ीर नसे गजना करने लगे॥ (इतनेपर भी जब कु कण नह उठा, तब) अमषसे भरे ए रा स च माके समान ेत रंगके ब त-से श फूँ कने तथा एक साथ तुमुल- नसे गजना करने लगे॥ ३६ ॥ वे नशाचर सहनाद करने, ताल ठ कने और कु कणके व भ अ को झकझोरने लगे। उ ने कु कणको जगानेके लये बड़े जोर-जोरसे ग ीर न क ॥ ३७ ॥ श , भेरी और पणव बजने लगे। ताल ठ कने, गजने और सहनादका श सब ओर गूँज उठा। वह तुमुल नाद सुनकर प ी सम दशा क ओर भागने और आकाशम उड़ने लगे। उड़ते-उड़ते वे सहसा पृ ीपर गर पड़ते थे॥ ३८ ॥ जब उस महान् कोलाहलसे भी सोया आ वशालकाय कु कण नह जग सका, तब उन सम रा स ने अपने हाथ म भुशु ी, मूसल और गदाएँ ले ल ॥ ३९ ॥ कु कण भूतलपर ही सुखसे सो रहा था। उसी अव ाम उन च रा स ने उस समय उसक छातीपर पवत शखर , मूसल , गदा , मु र और मु से मारना आर कया॥ ४० ॥



कतु रा स कु कणक न: ास-वायुसे े रत हो वे सब नशाचर उसके आगे ठहर नह पाते थे॥ तदन र अपने व को खूब कसकर बाँध लेनेके प ात् वे भयानक परा मी रा स जनक सं ा लगभग दस हजार थी, एक ही समय कु कणको घेरकर खड़े हो गये और काले कोयलेके ढेरके समान पड़े ए उस नशाचरको जगानेका य करने लगे। उन सबने एक साथ मृदंग, पणव, भेरी, श और कु (ध से) बजाने आर कये॥ ४२-४३ ॥ इस तरह वे रा स बाजे बजाते और गजते रहे तो भी कु कणक न ा नह टूटी। जब वे उसे कसी तरह जगा न सके , तब उ ने पहलेसे भी भारी य आर कया॥ ४४ १/२ ॥



वे घोड़ , ऊँ ट , गदह और हा थय को डंड , कोड़ तथा अंकुश से मार-मारकर उसके ऊपर ठे लने लगे। सारी श लगाकर भेरी, मृद और श बजाने लगे तथा पूरा बल लगाकर उठाये गये बड़े-बड़े का के समूह , मु र और मूसल से भी उसके अ पर हार करने लगे। उस महान् कोलाहलसे पवत और वन स हत सारी ल ा गूँज उठी, परंतु कु कण नह जागा, नह जागा॥ ४५—४७ ॥ तदन र सब ओर सह ध से एक साथ बजाये जाने लगे। वे सब-के -सब लगातार बजते रहे। उ बजानेके लये जो डंडे थे, वे सु र सुवणके बने ए थे॥ ४८ ॥ इतनेपर भी शापके अधीन आ वह अ तशय न ालु नशाचर नह जागा। इससे वहाँ आये ए सब रा स को बड़ा ोध आ॥ ४९ ॥ फर वे रोषसे भरे ए सभी भयानक परा मी नशाचर उस रा सको जगानेके लये परा म करने लगे॥ को◌इ ध से बजाने लगे, को◌इ महान् कोलाहल करने लगे, को◌इ कु कणके सरके बाल नोचने लगे और को◌इ दाँत से उसके कान काटने लगे॥ ५१ ॥ दूसरे रा स ने उसके दोन कान म सौ घड़े पानी डाल दये तो भी महा न ाके वशम पड़ा आ कु कण टस-से-मस नह आ॥ ५२ ॥ दूसरे बलवान् रा स काँटेदार मु र हाथम लेकर उ उसके म क, छाती तथा अ अ पर गराने लगे॥ ५३ ॥ त ात् र य से बँधी ◌इ शत य ारा उसपर सब ओरसे चोट पड़ने लग । फर भी उस महाकाय रा सक न द नह टूटी॥ ५४ ॥ इसके बाद उसके शरीरपर हजार हाथी दौड़ाये गये। तब उसे कु छ श मालूम आ और वह जाग उठा॥ य प उसके ऊपर पवत शखर और वृ गराये जाते थे, तथा प उसने उन भारी हार को कु छ भी नह गना। हा थय के शसे जब उसक न द टूटी, तब वह भूखके भयसे पी ड़त हो अँगड़ा◌इ लेता आ सहसा उछलकर खड़ा हो गया॥ ५६ ॥ उसक दोन भुजाएँ नाग के शरीर और पवत शखर के समान जान पड़ती थ । उ ने व क श को परा जत कर दया था। उन दोन बाँह और मुँहको फै लाकर जब वह नशाचर



ज ा◌इ लेने लगा, उस समय उसका मुख बड़वानलके समान वकराल जान पड़ता था॥ ५७ ॥



ज ा◌इ लेते समय कु कणका पाताल-जैसा मुख मे पवतके शखरपर उगे ए सूयके समान दखायी देता था॥ ५८ ॥ इस तरह ज ा◌इ लेता आ वह अ बलशाली नशाचर जब जगा, तब उसके मुखसे जो साँस नकलती थी, वह पवत-से चली ◌इ वायुके समान तीत होती थी॥ न दसे उठे ए कु कणका वह प लयकालम सम ा णय के संहारक इ ा रखनेवाले कालके समान जान पड़ता था॥ ६० ॥ उसक दोन बड़ी-बड़ी आँ ख लत अ और व ु े समान दी मती दखायी देती थ । वे ऐसी लगती थ मानो दो महान् ह का शत हो रहे ह ॥ ६१ ॥ तदन र रा स ने वहाँ जो अनेक कारक खाने-पीनेक व ुएँ चुर मा ाम रखी गयी थ , वे सब-क -सब कु कणको दखाय । वह महाबली रा स बात-क -बातम ब तेरे भस और सूअर को चट कर गया॥ ६२ ॥ उसे बड़ी भूख लगी थी, अत: उसने भरपेट मांस खाया और ास बुझानेके लये र पान कया। तदन र उस इ ोही नशाचरने चब से भरे ए कतने ही घड़े साफ कर दये और वह क◌इ घड़े म दरा भी पी गया॥ ६३ ॥ तब उसे तृ जानकर रा स उछल-उछलकर उसके सामने आये और उसे सर कु ा णाम करके उसके चार ओर खड़े हो गये॥ ६४ ॥ उस समय उसके ने न ाके कारण अ स — कु छ-कु छ खुले ए थे और म लन जान पड़ते थे। उसने सब ओर डालकर वहाँ खड़े ए नशाचर को देखा॥ ६५ ॥ नशाचर म े कु कणने उन सब रा स को सा ना दी और अपने जगाये जानेके कारण व त हो उनसे इस कार पूछा—॥ ६६ ॥ ‘तुमलोग ने इस कार आदर करके मुझे कस लये जगाया है? रा सराज रावण कु शलसे ह न? यहाँ को◌इ भय तो नह उप त आ है?॥ ६७ ॥ ‘अथवा न य ही यहाँ दूसर से को◌इ महान् भय उप त आ है, जसके नवारणके लये तुमलोग ने इतनी उतावलीके साथ मुझे जगाया है॥ ६८ ॥



‘अ



ा तो आज म रा सराजके भयको उखाड़ फ कूँ गा। महे (पवत या इ )-को भी चीर डालूँगा और अ को भी ठं डा कर दूँगा॥ ६९ ॥ ‘मुझ-जैसे पु षको कसी छोटे-मोटे कारणवश न दसे नह जगाया जायगा। अत: तुमलोग ठीक-ठीक बताओ, मेरे जगाये जानेका ा कारण है?’॥ ७० ॥ श ुसूदन कु कण जब रोषम भरकर इस कार पूछने लगा, तब राजा रावणके स चव यूपा ने हाथ जोड़कर कहा—॥ ७१ ॥ ‘महाराज! हम देवता क ओरसे तो कभी को◌इ भय हो ही नह सकता। इस समय के वल एक मनु से तुमुल भय ा आ है, जो हम सता रहा है॥ ७२ ॥ ‘राजन्! इस समय एक मनु से हमारे लये जैसा भय उप त हो गया है, वैसा तो कभी दै और दानव से भी नह आ था॥ ७३ ॥ ‘पवताकार वानर ने आकर इस ल ापुरीको चार ओरसे घेर लया है। सीताहरणसे संत ए ीरामक ओरसे हम तुमुल भयक ा ◌इ है॥ ७४ ॥ ‘पहले एक ही वानरने यहाँ आकर इस महापुरीको जला दया था और हा थय तथा सा थय स हत राजकु मार अ को भी मार डाला था॥ ७५ ॥ ‘ ीराम सूयके समान तेज ी ह। उ ने देवश ु पुल कु लन न सा ात् रा सराज रावणको भी यु म हराकर जी वत छोड़ दया और कहा—‘ल ाको लौट जाओ’॥ ७६ ॥ ‘महाराजक जो दशा देवता, दै और दानव भी नह कर सके थे, वह रामने कर दी। उनके ाण बड़े संकटसे बचे ह’॥ ७७ ॥ यु म भा◌इक पराजयसे स रखनेवाली यूपा क यह बात सुनकर कु कण आँ ख फाड़-फाड़कर देखने लगा और यूपा से इस कार बोला—॥ ७८ ॥ ‘यूपा ! म अभी सारी वानरसेनाको तथा ल णस हत रामको भी रणभू मम परा करके रावणका दशन क ँ गा॥ ७९ ॥ ‘आज वानर के मांस और र से रा स को तृ क ँ गा और यं भी राम और ल णके खून पीऊँ गा’॥ ८० ॥ कु कणके बढ़े ए रोष-दोषसे यु अह ारपूण वचन सुनकर रा स-यो ा म धान महोदरने हाथ जोड़कर यह बात कही—॥ ८१ ॥



‘महाबाहो! पहले चलकर महाराज रावणक बात सुन ली जये। करनेके प ात् यु म श ु को परा क जयेगा’॥ ८२ ॥



फर गुण-दोषका वचार



महोदरक यह बात सुनकर रा स से घरा आ महातेज ी महाबली कु कण वहाँसे चलनेक तैयारी करने लगा॥ ८३ ॥ इस तरह सोये ए भयानक ने , प और परा मवाले कु कणको उठाकर वे रा स शी ही दशमुख रावणके महलम गये॥ ८४ ॥ दश ीव उ म सहासनपर बैठा आ था, उसके पास जा सभी नशाचर हाथ जोड़कर बोले—॥ ८५ ॥ ‘रा से र! आपके भा◌इ कु कण जाग उठे ह। क हये, वे ा कर? सीधे यु लम ही पधार या आप उ यहाँ उप त देखना चाहते ह?॥ ८६ ॥ तब रावणने बड़े हषके साथ उन उप त ए रा स से कहा—‘म कु कणको यहाँ देखना चाहता ँ , उनका यथो चत स ार कया जाय’॥ ८७ ॥ तब ‘जो आ ा’ कहकर रावणके भेजे ए वे सब रा स पुन: कु कणके पास आ इस कार बोले—॥ ‘ भो! सवरा स शरोम ण महाराज रावण आपको देखना चाहते ह। अत: आप वहाँ चलनेका वचार कर और पधारकर अपने भा◌इका हष बढ़ाव’॥ ८९ ॥ भा◌इका यह आदेश पाकर महापरा मी दुजय वीर कु कण ‘ब त अ ा’ कहकर श ासे उठकर खड़ा हो गया॥ ९० ॥ उसने बड़े हष और स ताके साथ मुँह धोकर ान कया और पीनेक इ ासे तुरंत बलवधक पेय ले आनेक आ ा दी॥ ९१ ॥ तब रावणके आदेशसे वे सब रा स तुरंत म तथा नाना कारके भ पदाथ ले आये॥ ९२ ॥ कु कण दो हजार घड़े म गटककर चलनेको उ त आ। इससे उसम कु छ ताजगी आ गयी तथा वह मतवाला, तेज ी और श स हो गया॥ ९३ ॥ फर जब रा स क सेनाके साथ कु कण भा◌इके महलक ओर चला, उस समय वह रोषसे भरे ए लयकालके वनाशकारी यमराजके समान जान पड़ता था। कु कण अपने



पैर क धमकसे सारी पृ ीको क त कर रहा था॥ ९४ ॥ जैसे सूयदेव अपनी करण से भूतलको का शत करते ह, उसी कार वह अपने तेज ी शरीरसे राजमागको उ ा सत करता आ हाथ जोड़े अपने भा◌इके महलम गया। ठीक उसी तरह, जैसे देवराज इ ाजीके धामम जाते ह॥ ९५ ॥ राजमागपर चलते समय श ुघाती कु कण पवत शखरके समान जान पड़ता था। नगरके बाहर खड़े ए वानर सहसा उस वशालकाय रा सको देखकर सेनाप तय स हत सहम गये॥ ९६ ॥ उनमसे कु छ वानर ने शरणागतव ल भगवान् ीरामक शरण ली। कु छ थत होकर गर पड़े। को◌इ पी ड़त हो स ूण दशा म भाग गये और जहाँ-तहाँ धराशायी हो गये और कतने ही वानर भयसे पी ड़त हो धरतीपर लेट गये॥ ९७ ॥ वह पवत शखरके समान ऊँ चा था। उसके म कपर मुकुट शोभा देता था। वह अपने तेजसे सूयका श करता-सा जान पड़ता था। उस बढ़े ए वशालकाय एवं अ तु रा सको देखकर सभी वनवासी वानर भयसे पी ड़त हो इधर-उधर भागने लगे॥ ९८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म साठवाँ सग पूरा आ॥ ६० ॥ उमाने कै लास उठानेके समय भयभीत होनेसे रावणको शाप दया था क ‘तेरी मृ ु ीके कारण होगी।’ न ी रक वानरमू त देखकर रावण हँ सा था, इस लये उ ने कहा था—‘मेरे समान प और परा मवाले ही तेरे कु लका नाश करगे।’ र ाके न म से नल-कू बरने और व ण-क ा पु क लाके न म से ाजीने शाप दया था क ‘अ न ासे कसी ीके साथ स ोग करनेपर तेरी मृ ु हो जायगी।’ *



इकसठवाँ सग वभीषणका ीरामसे कु कणका प रचय देना और ीरामक आ ासे वानर का यु के लये ल ाके ार पर डट जाना



तदन र हाथम धनुष लेकर बल- व मसे स महातेज ी ीरामने करीटधारी महाकाय रा स कु कणको देखा॥ १ ॥ वह पवतके समान दखायी देता था और रा स म सबसे बड़ा था। जैसे पूवकालम भगवान् नारायणने आकाशको नापनेके लये डग भरे थे, उसी कार वह भी डग बढ़ाता जा रहा था। सजल जलधरके समान काला कु कण सोनेके बाजूब से वभू षत था। उसे देखकर वानर क वह वशाल सेना पुन: बड़े वेगसे भागने लगी॥ २-३ ॥ अपनी सेनाको भागते तथा रा स कु कणको बढ़ते देख ीरामच जीको बड़ा आ य आ और उ ने वभीषणसे पूछा—॥ ४ ॥ ‘यह ल ापुरीम पवतके समान वशालकाय वीर कौन है, जसके म कपर करीट शोभा पाता है और ने भूरे ह? यह ऐसा दखायी देता है मानो बजलीस हत मेघ हो॥ ५ ॥ ‘इस भूतलपर यह एकमा महान् ज-सा गोचर होता है। इसे देखकर सारे वानर इधर-उधर भाग चले ह॥ ६ ॥ ‘ वभीषण! बताओ। यह इतने बड़े डील-डौलका कौन है? को◌इ रा स है या असुर? मने ऐसे ाणीको पहले कभी नह देखा’॥ ७ ॥ अनायास ही बड़े-बड़े कम करनेवाले राजकु मार ीरामने जब इस कार पूछा, तब परम बु मान् वभीषणने उन ककु कु लभूषण रघुनाथजीसे इस कार कहा—॥ ८ ॥ ‘भगवन्! जसने यु म वैव त यम और देवराज इ को भी परा जत कया था, वही यह व वाका तापी पु कु कण है। इसके बराबर लंबा दूसरा को◌इ रा स नह है॥ ९ ॥ ‘रघुन न! इसने देवता, दानव, य , नाग, रा स, ग व, व ाधर और क र को सह बार यु म मार भगाया है॥ १० ॥ ‘इसके ने बड़े भयंकर ह। यह महाबली कु कण जब हाथम शूल लेकर यु म खड़ा आ, उस समय देवता भी इसे मारनेम समथ न हो सके । यह काल प है, ऐसा समझकर वे सब-



के -सब मो हत हो गये थे॥ ‘कु कण भावसे ही तेज ी और महाबलवान् है। अ रा सप तय के पास जो बल है, वह वरदानसे ा आ है॥ १२ ॥ ‘इस महाकाय रा सने ज लेते ही बा ाव ाम भूखसे पी ड़त हो क◌इ सह जाजन को खा डाला था॥ ‘जब सह जाजन इसका आहार बनने लगे, तब भयसे पी ड़त हो वे सब-के -सब देवराज इ क शरणम गये और उन सबने उनके सम अपना क नवेदन कया॥ १४ ॥ ‘इससे व धारी देवराज इ को बड़ा ोध आ और उ ने अपने तीखे व से कु कणको घायल कर दया। इ के व क चोट खाकर यह महाकाय रा स ु हो उठा और रोषपूवक जोर-जोरसे सहनाद करने लगा॥ १५ ॥ ‘रा स कु कणके बारंबार गजना करनेपर उसका भयंकर सहनाद सुनकर जावगके लोग भयभीत हो और भी डर गये॥ १६ ॥ ‘तदन र कु पत ए महाबली कु कणने इ के ऐरावतके मुँहसे एक दाँत उखाड़ लया और उसीसे देवे क छातीपर हार कया॥ १७ ॥ ‘कु कणके हारसे इ ाकु ल हो गये और उनके दयम जलन होने लगी। यह देखकर सब देवता, ष और दानव सहसा वषादम डू ब गये॥ १८ ॥ ‘त ात् इ उन जाजन के साथ ाजीके धामम गये। वहाँ जाकर उन सबने जाप तके सम कु कणक दु ताका व ारपूवक वणन कया॥ ‘इसके ारा जाके भ ण, देवता के धषण ( तर ार), ऋ षय के आ म के व ंस तथा परायी य के बारंबार हरण होनेक भी बात बतायी॥ २० ॥ ‘इ ने कहा—‘भगवन्! य द यह न त इसी कार जाजन का भ ण करता रहा तो थोड़े ही समयम सारा संसार सूना हो जायगा’॥ २१ ॥ ‘इ क यह बात सुनकर सवलोक पतामह ाने सब रा स को बुलाया और कु कणसे भी भट क ॥ २२ ॥ ‘कु कणको देखते ही य ू जाप त थरा उठे । फर अपनेको सँभालकर वे उस रा ससे बोले—॥ २३ ॥



‘‘कु कण! न य ही इस जग है; अत: म शाप देता ँ , आजसे तू मुदके



ा वनाश करनेके लये ही व वाने तुझे उ कया समान सोता रहेगा’॥ ‘ ाजीके शापसे अ भभूत होकर वह रावणके सामने ही गर पड़ा। इससे रावणको बड़ी घबराहट ◌इ और उसने कहा—॥ २५ ॥ ‘‘ जापते! अपने ारा लगाया और बढ़ाया आ सुवण प फल देनेवाला वृ फल देनेके समय नह काटा जाता है। यह आपका नाती है, इसे इस कार शाप देना कदा प उ चत नह है॥ २६ ॥ ‘‘आपक बात कभी झूठी नह होती, इस लये अब इसे सोना ही पड़ेगा, इसम संशय नह है; परंतु आप इसके सोने और जागनेका को◌इ समय नयत कर द’॥ २७ ॥ ‘रावणका यह कथन सुनकर य ू ाने कहा—‘यह छ: मासतक सोता रहेगा और एक दन जगेगा॥ २८ ॥ ‘‘उस एक दन ही यह वीर भूखा होकर पृ ीपर वचरेगा और लत अ के समान मुँह फै लाकर ब त-से लोग को खा जायगा’॥ २९ ॥ ‘महाराज! इस समय आप म पड़कर और आपके परा मसे भयभीत होकर राजा रावणने कु कणको जगाया है॥ ३० ॥ ‘यह भयानक परा मी वीर अपने श बरसे नकला है और अ कु पत हो वानर को खा जानेके लये सब ओर दौड़ रहा है॥ ३१ ॥ ‘जब कु कणको देखकर ही आज सारे वानर भाग चले, तब रणभू मम कु पत ए इस वीरको ये आगे बढ़नेसे कै से रोक सकगे?॥ ३२ ॥ ‘सब वानर से यह कह दया जाय क यह को◌इ नह , काया ारा न मत ऊँ चा य मा है। ऐसा जानकर वानर नभय हो जायँग’े ॥ ३३ ॥ वभीषणके सु र मुखसे नकली ◌इ यह यु यु बात सुनकर ीरघुनाथजीने सेनाप त नीलसे कहा—॥ ‘अ न न! जाओ, सम सेना क मोचबंदी करके यु के लये तैयार रहो और ल ाके ार तथा राजमाग पर अ धकार जमाकर वह डटे रहो॥ ३५ ॥



‘पवत के



शखर, वृ और शलाएँ एक कर लो तथा तुम और सब वानर अ -श एवं प र लये तैयार रहो’॥ ३६ ॥ ीरघुनाथजीक यह आ ा पाकर वानरसेनाप त क प े नीलने वानरसै नक को यथो चत कायके लये आदेश दया॥ ३७ ॥ तदन र गवा , शरभ, हनुमान् और अ द आ द पवताकार वानर पवत शखर लये ल ाके ारपर डट गये॥ ३८ ॥ वजयो ाससे सुशो भत होनेवाले वीर वानर ीरामच जीक पूव आ ा सुनकर वृ ारा श ुसेनाको पी ड़त करने लगे॥ ३९ ॥ तदन र हाथ म शैल- शखर और वृ लये वानर क वह भयंकर सेना पवतके समीप घरी ◌इ मेघ क बड़ी भारी उ घटाके समान सुशो भत होने लगी॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म इकसठवाँ सग पूरा आ॥ ६१ ॥



बासठवाँ सग कु कणका रावणके भवनम वेश तथा रावणका रामसे भय बताकर उसे श ुसेनाके वनाशके लये े रत करना



महापरा मी रा स शरोम ण कु कण न ा और मदसे ाकु ल हो अलसाया आ-सा शोभाशाली राजमागसे जा रहा था॥ १ ॥ वह परम दुजय वीर हजार रा स से घरा आ या ा कर रहा था। सड़कके कनारेपर जो मकान थे, उनमसे उसके ऊपर फू ल बरसाये जा रहे थे॥ २ ॥ उसने रा सराज रावणके रमणीय एवं वशाल भवनका दशन कया, जो सोनेक जालीसे आ ा दत होनेके कारण सूयदेवके समान दी मान् दखायी देता था॥ ३ ॥ जैसे सूय मेघ क घटाम छप जायँ, उसी कार कु कणने रा सराजके महलम वेश कया और राज सहासनपर बैठे ए अपने भा◌इको दूरसे ही देखा, मानो देवराज इ ने द कमलासनपर वराजमान य ू ाका दशन कया हो॥ ४ ॥ रा स स हत कु कण अपने भा◌इके भवनम जाते समय जब-जब एक-एक पैर आगे बढ़ाता था, तब-तब पृ ी काँप उठती थी॥ ५ ॥ भा◌इके भवनम जाकर जब वह भीतरक क ाम व आ, तब उसने अपने बड़े भा◌इको उ अव ाम पु क वमानपर वराजमान देखा॥ ६ ॥ कु कणको उप त देख दशमुख रावण तुरंत उठकर खड़ा हो गया और बड़े हषके साथ उसे अपने समीप बुला लया॥ ७ ॥ महाबली कु कणने सहासनपर बैठे ए अपने भा◌इके चरण म णाम कया और पूछा —‘कौन-सा काय आ पड़ा है?’॥ ८ ॥ रावणने उछलकर बड़ी स ताके साथ कु कणको दयसे लगा लया। भा◌इ रावणने उसका आ लगन करके यथाव ूपसे अ भन न कया॥ ९ ॥ इसके बाद कु कण सु र द सहासनपर बैठा। उस आसनपर बैठकर महाबली कु कणने ोधसे लाल आँ ख कये रावणसे पूछा—॥ १० १/२ ॥







‘राजन्! कस लये तुमने बड़े आदरके साथ मुझे जगाया है? बताओ,यहाँ तु आ है? अथवा कौन परलोकका प थक होनेवाला है?’॥ ११ १/२ ॥



कससे भय



तब रावण अपने पास बैठे ए कु पत भा◌इ कु कणसे रोषसे च ल आँ ख कये बोला —॥ १२ १/२ ॥ ‘महाबली वीर! तु ारे सोये-सोये दीघकाल तीत हो गया। तुम गाढ़ न ाम नम होनेके कारण नह जानते क मुझे रामसे भय ा आ है॥ १३ १/२ ॥ ‘ये दशरथकु मार बलवान् ीमान् राम सु ीवके साथ समु लाँघकर यहाँ आये ह और हमारे कु लका वनाश कर रहे ह॥ १४ १/२ ॥ ‘हाय! देखो तो सही, समु म पुल बाँधकर सुखपूवक यहाँ आये ए वानर ने ल ाके सम वन और उपवन को एकाणवमय बना दया है—यहाँ वानर पी जलका समु -सा लहरा रहा है॥ १५ १/२ ॥ ‘हमारे जो मु -मु रा स वीर थे, उ वानर ने यु म मार डाला; कतु रणभू मम वानर का संहार होता मुझे कसी तरह नह दखायी देता। यु म कभी को◌इ वानर पहले जीते नह गये ह॥ १६-१७ ॥ ‘महाबली वीर! इस समय हमारे ऊपर यही भय उप त आ है। तुम इससे हमारी र ा करो और आज इन वानर को न कर दो। इसी लये हमने तु जगाया है॥ १८ ॥ ‘हमारा सारा खजाना खाली हो गया है; अत: मुझपर अनु ह करके तुम इस ल ापुरीक र ा करो; अब यहाँ के वल बालक और वृ ही शेष रह गये ह॥ १९ ॥ ‘महाबाहो! तुम अपने इस भा◌इके लये अ दु र परा म करो। परंतप! आजसे पहले कभी कसी भा◌इसे मने ऐसी अनुनय- वनय नह क थी॥ २० ॥ ‘तु ारे ऊपर मेरा बड़ा ेह है और मुझे तुमसे बड़ी आशा है। रा स शरोमणे! तुमने देवासुर-सं ामके अवसर पर अनेक बार त ीका ान लेकर रणभू मम देवता और असुर को भी परा कया है॥ ‘अत: भयंकर परा मी वीर! तु यह सारा परा मपूण काय स करो; क सम ा णय म तु ारे समान बलवान् मुझे दूसरा को◌इ नह दखायी देता है॥ २३ ॥



‘तुम यु



ेमी तो हो ही, अपने ब -ु बा व से भी बड़ा ेम रखते हो। इस समय तुम मेरा यही य और उ म हत करो। अपने तेजसे श ु क सेनाको उसी तरह थत कर दो, जैसे वेगसे उठी ◌इ च वायु शरद-् ऋतुके बादल को छ - भ कर देती है’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बासठवाँ सग पूरा आ॥ ६२ ॥



तरसठवाँ सग कु कणका रावणको उसके कुकृ के लये उपाल देना और उसे धैय बँधाते ए यु वषयक उ ाह कट करना



रा सराज रावणका यह वलाप सुनकर कु कण ठहाका मारकर हँ सने लगा और इस कार बोला—॥ ‘भा◌इसाहब! पहले ( वभीषण आ दके साथ) वचार करते समय हमलोग ने जो दोष देखा था, वही तु इस समय ा आ है; क तुमने हतैषी पु ष और उनक बात पर व ास नह कया था॥ २ ॥ ‘तु शी ही अपने पापकमका फल मल गया। जैसे कु कम पु ष का नरक म पड़ना न त है, उसी कार तु भी अपने दु मका फल मलना अव ावी था॥ ३ ॥ ‘महाराज! के वल बलके घमंडसे तुमने पहले इस पापकमक को◌इ परवा नह क । इसके प रणामका कु छ भी वचार नह कया था॥ ४ ॥ ‘जो ऐ यके अ भमानम आकर पहले करनेयो काय को पीछे करता है और पीछे करनेयो काय को पहले कर डालता है, वह नी त तथा अनी तको नह जानता है॥ ५ ॥ ‘जो काय उ चत देश-काल न होनेपर वपरीत तम कये जाते ह, वे सं ारहीन अ य म होमे गये ह व क भाँ त के वल दु:खके ही कारण होते ह॥ ६ ॥ ‘जो राजा स चव के साथ वचार करके य, वृ और ान पसे उपल त साम, दान और द —इन तीन कम के पाँच१ कारके योगको कामम लाता है, वही उ म नी त-मागपर व मान है, ऐसा समझना चा हये॥ ७ ॥ ‘जो नरेश नी तशा के अनुसार म य के साथ य२ आ दके लये उपयु समयका वचार करके तदनु प काय करता है और अपनी बु से सु द क भी पहचान कर लेता है, वही कत और अकत का ववेक कर पाता है॥ ८ ॥ ‘रा सराज! नी त पु षको चा हये क धम, अथ या कामका अथवा सबका अपने समयपर सेवन करे अथवा तीन का—धम-अथ, अथ-धम और काम-अथ इन सबका भी उपयु समयम ही सेवन करे३॥



‘धम,



अथ और काम—इन तीन म धम ही े है; अत: वशेष अवसर पर अथ और कामक उपे ा करके भी धमका ही सेवन करना चा हये—इस बातको व सनीय पु ष से सुनकर भी जो राजा या राजपु ष नह समझता अथवा समझकर भी ीकार नह करता, उसका अनेक शा का अ यन थ ही है॥ १० ॥ ‘रा स शरोमणे! जो मन ी राजा म य से अ ी तरह सलाह करके समयके अनुसार दान, भेद और परा मका, इनके पूव पाँच कारके योगका, नय और अनयका तथा ठीक समयपर धम, अथ और कामका सेवन करता है, वह इस लोकम कभी दु:ख या वप का भागी नह होता॥ ११-१२ ॥ ‘राजाको चा हये क वह अथत एवं बु जीवी म य क सलाह लेकर जो अपने लये प रणामम हतकर दखायी देता हो, वही काय करे॥ १३ ॥ ‘जो पशुके समान बु वाले कसी तरह म य के भीतर स लत कर लये गये ह, वे शा के अथको तो जानते नह , के वल धृ तावश बात बनाना चाहते ह॥ १४ ॥ ‘शा के ानसे शू और अथशा से अन भ होते ए भी चुर स चाहनेवाले उन अयो म य क कही ◌इ बात कभी नह माननी चा हये॥ ‘जो लोग धृ ताके कारण अ हतकर बातको हतका प देकर कहते ह, वे न य ही सलाह लेनेयो नह ह। अत: उ इस कायसे अलग कर देना चा हये। वे तो काम बगाड़नेवाले ही होते ह॥ १६ ॥ ‘कु छ बुरे म ी साम आ द उपाय के ाता श ु के साथ मल जाते ह और अपने ामीका वनाश करनेके लये ही उससे वपरीत कम करवाते ह॥ १७ ॥ ‘जब कसी व ु या कायके न यके लये म य क सलाह ली जा रही हो, उस समय राजा वहारके ारा ही उन म य को पहचाननेका य करे, जो घूस आ द लेकर श ु से मल गये ह और अपने म -से बने रहकर वा वम श ुका काम करते ह॥ ‘जो राजा चंचल है—आपातरमणीय वचन को सुनकर ही संतु हो जाता है और सहसा बना सोचे- वचारे ही कसी भी कायक ओर दौड़ पड़ता है, उसके इस छ (दुबलता)-को श ुलोग उसी तरह ताड़ जाते ह, जैसे च पवतके छेदको प ी। ( चपवतके छेदसे होकर प ी जैसे पवतके उस पार आते-जाते ह, उसी तरह श ु भी राजाके उस छ या कमजोरीसे लाभ उठाते ह)॥ १९ ॥



‘जो



राजा श ुक अवहेलना करके अपनी र ाका ब नह करता है, वह अनेक अनथ का भागी होता और अपने ान (रा )-से नीचे उतार दया जाता है॥ ‘तु ारी य प ी म ोदरी और मेरे छोटे भा◌इ वभीषणने पहले तुमसे जो कु छ कहा था, वही हमारे लये हतकर था। य तु ारी जैसी इ ा हो, वैसा करो’॥ कु कणक यह बात सुनकर दशमुख रावणने भ ह टेढ़ी कर ल और कु पत होकर उससे कहा—॥ २२ ॥ ‘तुम माननीय गु और आचायक भाँ त मुझे उपदेश दे रहे हो? इस तरह भाषण देनेका प र म करनेसे ा लाभ होगा? इस समय जो उ चत और आव क हो, वह काम करो॥ २३ ॥ ‘मने मसे, चतके मोहसे अथवा अपने बल-परा मके भरोसे पहले जो तुमलोग क बात नह मानी थी, उसक इस समय पुन: चचा करना थ है॥ २४ ॥ ‘जो बात बीत गयी, सो तो बीत ही गयी। बु मान् लोग बीती बातके लये बारंबार शोक नह करते ह। अब इस समय हम ा करना चा हये, इसका वचार करो। अपने परा मसे मेरे अनी तज नत दु:खको शा कर दो॥ २५ १/२ ॥ ‘य द मुझपर तु ारा ेह है, य द अपने भीतर यथे परा म समझते हो और य द मेरे इस कायको परम कत समझकर दयम ान देते हो तो यु करो॥ ‘वही सु द ् है, जो सारा काय न हो जानेसे दु:खी ए जनपर अकारण अनु ह करता है तथा वही ब ु है, जो अनी तके मागपर चलनेसे संकटम पड़े ए पु ष क सहायता करता है’॥ २७ १/२ ॥ रावणको इस कार धीर एवं दा ण वचन बोलते देख उसे समझकर कु कण धीरेधीरे मधुर वाणीम कु छ कहनेको उ त आ॥ २८ १/२ ॥ उसने देखा मेरे भा◌इक सारी इ याँ अ व ु हो उठी ह; अत: कु कणने धीरेधीरे उसे सा ना देते ए कहा—॥ २९ १/२ ॥ ‘श ुदमन महाराज! सावधान होकर मेरी बात सुनो। रा सराज! संताप करना थ है। अब तु रोष ागकर हो जाना चा हये॥ ३०-३१ ॥



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ीनाथ! मेरे जीते-जी तु मनम ऐसा भाव नह लाना चा हये। तु जसके कारण संत होना पड़ रहा है, उसे म न कर दूँगा॥ ३२ ॥ ‘महाराज! अव ही सब अव ा म मुझे तु ारे हतक बात कहनी चा हये। अत: मने ब ुभाव और ातृ- ेहके कारण ही ये बात कही ह॥ ३३ ॥ ‘इस समय एक भा◌इको ेहवश जो कु छ करना उ चत है, वही क ँ गा। अब रणभू मम मेरे ारा कया जानेवाला श ु का संहार देखो॥ ३४ ॥ ‘महाबाहो! आज यु के मुहानेपर मेरे ारा भा◌इस हत रामके मारे जानेके प ात् तुम देखोगे क वानर क सेना कस तरह भागी जा रही है॥ ३५ ॥ ‘महाबाहो! आज म सं ामभू मम रामका सर काट लाऊँ गा। उसे देखकर तुम सुखी होना और सीता दु:खम डू ब जायगी॥ ३६ ॥ ‘ल ाम जन रा स के सगे-स ी मारे गये ह, वे भी आज रामक मृ ु देख ल। यह उनके लये ब त ही य बात होगी॥ ३७ ॥ ‘अपने भा◌इ-ब ु के मारे जानेसे जो लोग अ शोकम डू बे ए ह, आज यु म श ुका नाश करके म उनके आँ सू प छू ँगा॥ ३८ ॥ ‘आज पवतके समान वशालकाय वानरराज सु ीवको समरा णम खूनसे लथपथ होकर गरे ए देखोगे, जो सूयस हत मेघके समान गोचर ह गे॥ ‘ न ाप नशाचरराज! ये रा स तथा म—सब लोग दशरथपु रामको मार डालनेक इ ा रखते ह और तु इस बातके लये आ ासन देते ह तो भी तुम सदा थत रहते हो?॥ ४० ॥ ‘रा सराज! पहले मेरा वध करके ही राम तु मार सकगे; कतु म अपने वषयम रामसे संताप या भय नह मानता॥ ४१ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले अनुपम परा मी वीर! इस समय तुम इ ानुसार मुझे यु के लये आदेश दो। श ु से जूझनेके लये तु दूसरे कसीक ओर देखनेक आव कता नह है॥ ४२ ॥ ‘तु ारे महाबली श ु य द इ , यम, अ , वायु, कु बेर और व ण भी ह तो म उनसे भी यु क ँ गा तथा उन सबको उखाड़ फ कूँ गा॥ ४३ १/२ ॥



‘मेरा



पवतके समान वशाल शरीर है। म हाथम तीखा शूल धारण करता ँ और मेरी दाढ़ भी ब त तीखी ह। मेरे सहनाद करनेपर इ भी भयसे थरा उठगे॥ ४४ १/२ ॥ ‘अथवा य द म श ाग करके भी वेगपूवक श ु को र दता आ रणभू मम वचरने लगूँ तो को◌इ भी जी वत रहनेक इ ावाला पु ष मेरे सामने नह ठहर सकता॥ ४५ १/२ ॥ ‘म न तो श से, न गदासे, न तलवारसे और न पैने बाण से ही काम लूँगा। रोषसे भरकर के वल दोन हाथ से ही व धारी इ -जैसे श ुको भी मौतके घाट उतार दूँगा॥ ४६ १/२ ॥ ‘य द राम आज मेरी मु ीका वेग सह लगे तो मेरे बाणसमूह अव ही उनका र पान करगे॥ ४७ १/२ ॥ ‘राजन्! मेरे रहते ए तुम कस लये च ाक आगसे ल ु स रहे हो? म तु ारे श ु का वनाश करनेके लये अभी रणभू मम जानेको उ त ँ ॥ ४८ १/२ ॥ ‘तु रामसे जो घोर भय हो रहा है, उसे ाग दो। म रणभू मम राम, ल ण और महाबली सु ीवको अव मार डालूँगा॥ ४९ १/२ ॥ ‘यु उप त होनेपर म रा स का संहार करनेवाले उस हनुमा ो भी जी वत नह छोडँ गा, जसने ल ा जलायी थी। साथ ही अ वानर को भी खा जाऊँ गा। आज म तु अलौ कक एवं महान् यश दान करना चाहता ँ ॥ ५०-५१ ॥ ‘राजन्! य द तु इ अथवा य ू ासे भी भय है तो म उस भयको भी उसी तरह न कर दूँगा, जैसे सूय रा के अ कारको॥ ५२ ॥ ‘मेरे कु पत होनेपर देवता भी धराशायी हो जायँगे। ( फर मनु और वानर क तो बात ही ा है?) म यमराजको भी शा कर दूँगा। सवभ ी अ का भी भ ण कर जाऊँ गा॥ ५३ ॥ ‘न



स हत सूयको भी पृ ीपर मार गराऊँ गा, इ का भी वध कर डालूँगा और समु को भी पी जाऊँ गा॥ ५४ ॥ ‘पवत को चूर-चूर कर दूँगा। भूम लको वदीण कर डालूँगा। आज मेरे ारा खाये जानेवाले सब ाणी दीघकालतक सोकर उठे ए मुझ कु कणका परा म देख। यह सारी लोक आहार बन जाय तो भी मेरा पेट नह भर सकता॥ ५५-५६ ॥



‘दशरथकु मार



ीरामका वध करके म तु उ रो र सुखक ा करानेवाले सुखसौभा को देना चाहता ँ । ल णस हत रामका वध करके सभी धान- धान वानरयूथप तय को खा जाऊँ गा॥ ५७ ॥ ‘राजन्! अब मौज करो, म दरा पीओ और मान सक दु:खको दूर करके सब काय करो। आज मेरे ारा राम यमलोक प ँ चा दये जायँग;े फर तो सीता चरकाल (सदा)-के लये तु ारे अधीन हो जायगी’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म तरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६३ ॥ १. कायको आर करनेका उपाय, पु ष और प स , देश-कालका वभाग, वप को टालनेका उपाय और कायक स —ये पाँच कारके योग ह। २. जब अपनी वृ और श ुक हा नका समय हो तब द ोपयोगी यान (यु या ा) उ चत है। अपनी और श ुक समान त हो तो सामपूवक सं ध कर लेना उ चत है। तथा जब अपनी हा न और श ुक वृ का समय हो, तब उसे कु छ देकर उसका आ य हण करना उ चत होता है। ३. यहाँ यह बात कही गयी है क शा के अनुसार ात:काल धमका, म ा कालम अथका और रा म कामसेवनका वधान है; अत: उन-उन समय म धम आ दका सेवन करना चा हये अथवा ात:कालम धम और अथ प का, म ा कालम अथ और धमका और रा म काम और अथका सेवन करे। जो हर समय के वल कामका ही सेवन करता हे, वह पु ष म अधम को टका है।



च सठवाँ सग महोदरका कु कणके



तआ प े करके रावणको बना यु के ही अभी व ुक ा का उपाय बताना



अपनी भुजा से सुशो भत होनेवाले वशालकाय एवं बलवान् रा स कु कणका यह वचन सुनकर महोदरने कहा—॥ १ ॥ ‘कु कण! तुम उ म कु लम उ ए हो; परंतु तु ारी (बु ) न ेणीके लोग के समान है। तुम ढीठ और घमंडी हो, इस लये सभी वषय म ा कत है—इस बातको नह जान सकते॥ २ ॥ ‘कु कण! हमारे महाराज नी त और अनी तको नह जानते ह, ऐसी बात नह है। तुम के वल अपने बचपनके कारण धृ तापूवक इस तरहक बात कहना चाहते हो॥ ३ ॥ ‘रा स शरोम ण रावण देश-कालके लये उ चत कत को जानते ह और अपने तथा श ुप के ान, वृ एवं यको अ ी तरह समझते ह॥ ४ ॥ ‘ जसने वृ पु ष क उपासना या स ंग नह कया है और जसक बु गँवार के समान है, ऐसा बलवान् पु ष भी जस कमको नह कर सकता— जसे अनु चत समझता है, वैसे कमको को◌इ बु मान् पु ष कै से कर सकता है ?॥ ५ ॥ ‘ जन अथ, धम और कामको तुम पृथक् -पृथक् आ यवाले बता रहे हो, उ ठीक-ठीक समझनेक तु ारे भीतर श ही नह है॥ ६ ॥ ‘सुखके साधनभूत जो वग (धम, अथ एवं काम) ह, उन सबका एकमा कम ही योजक है ( क जो कमानु ानसे र हत है, उसका धम, अथ अथवा काम—को◌इ भी पु षाथ सफल नह होता)। इसी तरह एक पु षके य से स होनेवाले सभी शुभाशुभ ापार का फल यहाँ एक ही कताको ा होता है (इस कार जब पर र व होनेपर भी धम और कामका अनु ान एक ही पु षके ारा होता देखा जाता है, तब तु ारा यह कहना क के वल धमका ही अनु ान करना चा हये, धम वरोधी कामका नह , कै से संगत हो सकता है?)॥ ७॥



‘न



ामभावसे कये गये धम (जप, ान आ द) और अथ (धनसा य , दान आ द) —ये च शु के ारा य प न: ेयस (मो )- प फलक ा करानेवाले ह तथा प कामना- वशेषसे ग एवं अ ुदय आ द अ फल क भी ा कराते ह। पूव जपा द प या यामय न -धमका लोप होनेपर अधम और अनथ ा होते ह और उनके रहते ए वायज नत फल भोगना पड़ता है (परंतु का -कम न करनेसे वाय नह होता, यह धम और अथक अपे ा कामक वशेषता है)॥ ८ ॥ ‘जीव को धम और अधमके फल इस लोक और परलोकम भी भोगने पड़ते ह। परंतु जो कामना वश् ◌ोषके उ े से य पूवक कम का अनु ान करता है, उसे यहाँ भी उसके सुखमनोरथक ा हो जाती है। धम आ दके फलक भाँ त उसके लये काला र या लोका रक अपे ा नह होती है (इस तरह काम धम और अथसे वल ण स होता है)॥ ९ ॥ ‘यहाँ राजाके



लये काम पी पु षाथका सेवन उ चत है ही*। ऐसा ही रा सराजने अपने दयम न त कया है और यही हम म य क भी स त है। श ुके त साहसपूण काय करना कौन-सी अनी त है (अत: इ ने जो कु छ कया है, उ चत ही कया है)॥ १० ॥ ‘तुमने यु के लये अके ले अपने ही ान करनेके वषयम जो हेतु दया है (अपने महान् बलके ारा श ुको परा कर देनेक जो घोषणा क है) उसम भी जो असंगत एवं अनु चत बात कही गयी है, उसे म तु ारे सामने रखता ँ ॥ ११ ॥ ‘ ज ने पहले जन ानम ब त-से अ बलशाली रा स को मार डाला था, उ रघुवंशी वीर ीरामको तुम अके ले ही कै से परा करोगे?॥ १२ ॥ ‘जन ानम ीरामने पहले जन महान् बलशाली नशाचर को मार भगाया था, वे आज भी इस ल ापुरीम व मान ह और उनका वह भय अबतक दूर नह आ है। ा तुम उन रा स को नह देखते हो?॥ १३ ॥ ‘दशरथकु मार ीराम अ कु पत ए सहके समान परा मी एवं भयंकर ह, ा तुम उनसे भड़नेका साहस करते हो? ा जान-बूझकर सोये ए सपको जगाना चाहते हो? तु ारी मूखतापर आ य होता है!॥ १४ ॥ ‘ ीराम सदा ही अपने तेजसे देदी मान ह। वे ोध करनेपर अ दुजय और मृ ुके समान अस हो उठते ह। भला कौन यो ा उनका सामना कर सकता है ?॥ १५ ॥



‘हमारी यह सारी सेना भी य द उस अजेय श ुका सामना करनेके लये खड़ी हो तो उसका जीवन भी संशयम पड़ सकता है। अत: तात! यु के लये तु ारा अके ले जाना मुझे बलकु ल



अ ा नह लगता है॥ १६ ॥ ‘जो सहायक से स और ाण क बाजी लगाकर श ु का संहार करनेके लये न त वचार रखनेवाला हो, ऐसे श ुको अ साधारण मानकर कौन असहाय यो ा वशम लानेक इ ा कर सकता है?॥ ‘रा स शरोमणे! मनु म जनक समता करनेवाला दूसरा को◌इ नह है तथा जो इ और सूयके समान तेज ी ह, उन ीरामके साथ यु करनेका हौसला तु कै से हो रहा है?’॥ १८ ॥ रोषके आवेशसे यु कु कणसे ऐसा कहकर महोदरने सम रा स के बीचम बैठे ए लोक को लानेवाले रावणसे कहा—॥ १९ ॥ ‘महाराज! आप वदेहकु मारीको अपने सामने पाकर भी कस लये वल कर रहे ह? आप जब चाह तभी सीता आपके वशम हो जायगी॥ २० ॥ ‘रा सराज! मुझे एक ऐसा उपाय सूझा है, जो सीताको आपक सेवाम उप त करके ही रहेगा। आप उसे सु नये। सुनकर अपनी बु से उसपर वचार क जये और ठीक जँचे तो उसे कामम लाइये॥ २१ ॥ ‘आप नगरम यह घो षत करा द क महोदर, ज , सं ादी, कु कण और वतदन—ये पाँच रा स रामका वध करनेके लये जा रहे ह॥ २२ ॥ ‘हमलोग रणभू मम जाकर य पूवक ीरामके साथ यु करगे। य द आपके श ु पर हम वजय पा गये तो हमारे लये सीताको वशम करनेके न म दूसरे कसी उपायक आव कता ही नह रह जायगी॥ २३ ॥ ‘य द हमारा श ु अजेय होनेके कारण जी वत ही रह गया और हम भी यु करते-करते मारे नह गये तो हम उस उपायको कामम लायगे, जसे हमने मनसे सोचकर न त कया है॥ २४ ॥



रामनामसे अ त बाण ारा अपने शरीरको घायल कराकर खूनसे लथपथ हो हम यह कहते ए यु भू मसे यहाँ लौटगे क हमने राम और ल णको खा लया है। उस समय हम



आपके पैर पकड़कर यह भी कहगे क हमने श ुको मारा है। इस लये आप हमारी इ ा पूरी क जये॥ २५-२६ ॥ ‘पृ ीनाथ! तब आप हाथीक पीठपर कसीको बठाकर सारे नगरम यह घोषणा करा द क भा◌इ और सेनाके स हत राम मारा गया॥ २७ ॥ ‘श ुदमन! इतना ही नह , आप स ता दखाते ए अपने वीर सेवक को उनक अभी व ुएँ, तरहतर हक भोग-साम याँ, दास-दासी आ द, धन-र , आभूषण, व और अनुलेपन दलाव। अ यो ा को भी ब त-से उपहार द तथा यं भी खुशी मनाते ए म पान कर॥ २८-२९ ॥ ‘तदन र जब लोग म सब ओर यह चचा फै ल जाय क राम अपने सु द स हत रा स के आहार बन गये और सीताके कान म भी यह बात पड़ जाय, तब आप सीताको समझानेके लये एका म उसके वास ानपर जायँ और तरह-तरहसे धीरज बँधाकर उसे धन-धा , भाँ तभाँ तके भोग और र आ दका लोभ दखाव॥ ‘राजन्! इस व नासे अपनेको अनाथ माननेवाली सीताका शोक और भी बढ़ जायगा और वह इ ा न होनेपर भी आपके अधीन हो जायगी॥ ३२ ॥ ‘अपने रमणीय प तको वन आ जान वह नराशा तथा नारी-सुलभ चपलताके कारण आपके वशम आ जायगी॥ ३३ ॥ ‘वह पहले सुखम पली ◌इ है और सुख भोगनेके यो है; परंतु इन दन दु:खसे दुबल हो गयी है। ऐसी दशाम अब आपके ही अधीन अपना सुख समझकर सवथा आपक सेवाम आ जायगी॥ ३४ ॥ ‘मेरे देखनेम यही सबसे सु र नी त है। यु म तो ीरामका दशन करते ही आपको अनथ (मृ ु)-क ा हो सकती है; अत: आप यु लम जानेके लये उ ुक न ह , यह आपके अभी मनोरथक स हो जायगी। बना यु के ही आपको सुखका महान् लाभ होगा॥ ३५ ॥ ‘महाराज! जो राजा बना यु के ही श ुपर वजय पाता है, उसक सेना न नह होती। उसका जीवन भी संशयम नह पड़ता, वह प व एवं महान् यश पाता तथा दीघकालतक ल ी एवं उ म क तका उपभोग करता है’॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म च सठवाँ सग पूरा आ॥ ६४ ॥



यहाँ महोदरने रावणक चापलूसी करनेके लये ‘कामवाद’ क ापना या शंसा क है। यह आदश मत नह है। वा वम धम, अथ और कामम धम ही धान है; अत: उसीके सेवनसे ा णमा का क ाण हो सकता है। *



पसठवाँ सग कु कणक रणया ा



महोदरके ऐसा कहनेपर कु कणने उसे डाँटा और अपने भा◌इ रा स शरोम ण रावणसे कहा—॥ १ ॥ ‘राजन्! आज म उस दुरा ा रामका वध करके तु ारे घोर भयको दूर कर दूँगा। तुम वैरभावसे मु होकर सुखी हो जाओ॥ २ ॥ ‘शूरवीर जलहीन बादलके समान थ गजना नह कया करते। तुम देखना, अब यु लम म अपने परा मके ारा ही गजना क ँ गा॥ ३ ॥ ‘शूरवीर को अपने ही मुँहसे अपनी तारीफ करना सहन नह होता। वे वाणीके ारा दशन न करके चुपचाप दु र परा म कट करते ह॥ ४ ॥ ‘महोदर! जो भी , मूख और झूठे ही अपनेको प त माननेवाले ह गे, उ राजा को तु ारे ारा कही जानेवाली ये चकनी-चुपड़ी बात सदा अ ी लगगी॥ ५ ॥ ‘यु म कायरता दखानेवाले तुम-जैसे चापलूस ने ही सदा राजाक हाँ-म-हाँ मलाकर सारा काम चौपट कया है॥ ६ ॥ ‘अब तो ल ाम के वल राजा शेष रह गये ह। खजाना खाली हो गया और सेना मार डाली गयी। इस राजाको पाकर तुमलोग ने म के पम श ुका काम कया है॥ ७ ॥ ‘यह देखो, अब म श ुको जीतनेके लये उ त होकर समरभू मम जा रहा ँ । तुमलोग ने अपनी खोटी नी तके कारण जो वषम प र त उ कर दी है, उसका आज महासमरम समीकरण करना है— इस वषम संकटको सवदाके लये टाल देना है’॥ ८ ॥ बु मान् कु कणने जब ऐसी वीरो चत बात कही, तब रा सराज रावणने हँ सते ए उ र दया—॥ ‘यु वशारद तात! यह महोदर ीरामसे ब त डर गया है, इसम संशय नह है। इसी लये यह यु को पसंद नह करता है॥ १० ॥ ‘कु कण! मेरे आ ीयजन म सौहाद और बलक से को◌इ भी तु ारी समानता करनेवाला नह है। तुम श ु का वध करने और वजय पानेके लये यु भू मम जाओ॥ ११ ॥



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ुदमन वीर! तुम सो रहे थे। तु ारे ारा श ु का नाश करानेके लये ही मने तु जगाया है। रा स क यु या ाके लये यह सबसे उ म समय है॥ १२ ॥ ‘तुम पाशधारी यमराजक भाँ त शूल लेकर जाओ और सूयके समान तेज ी उन दोन राजकु मार तथा वानर को मारकर खा जाओ॥ १३ ॥ ‘वानर तु ारा प देखते ही भाग जायँगे तथा राम और ल णके दय भी वदीण हो जायँग’े ॥ १४ ॥ महाबली कु कणसे ऐसा कहकर महातेज ी रा सराज रावणने अपना पुन: नया ज आ-सा माना॥ राजा रावण कु कणके बलको अ ी तरह जानता था, उसके परा मसे भी पूण प र चत था; इस लये वह नमल च माके समान परम आ ादसे भर गया॥ १६ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर महाबली कु कण ब त स आ। वह राजा रावणक बात सुनकर उस समय यु के लये उ त हो गया और ल ापुरीसे बाहर नकला॥ १७ ॥ श ु का संहार करनेवाले उस वीरने बड़े वेगसे तीखा शूल हाथम लया, जो सब-का-सब काले लोहेका बना आ, चमक ला और तपाये ए सुवणसे वभू षत था॥ १८ ॥ उसक का इ के अश नके समान थी। वह व के समान भारी था तथा देवता , दानव , ग व , य और नाग का संहार करनेवाला था॥ १९ ॥ उसम लाल फू ल क ब त बड़ी माला लटक रही थी और उससे आगक चनगा रयाँ झड़ रही थ । श ु के र से रँगे ए उस वशाल शूलको हाथम लेकर महातेज ी कु कण रावणसे बोला—‘म अके ला ही यु के लये जाऊँ गा। अपनी यह सारी सेना यह रहे॥ २०-२१ ॥ ‘आज म भूखा ँ और मेरा ोध भी बढ़ा आ है। इस लये जाऊँ गा।’ कु कणक यह बात सुनकर रावण बोला—॥ २२ ॥ ‘कु



सम वानर को भ ण कर



कण! तुम हाथ म शूल और मु र धारण करनेवाले सै नक से घरे रहकर यु के लये या ा करो, क महामन ी वानर बड़े वीर और अ उ ोगी ह। वे तु अके ला या असावधान देख दाँत से काट-काटकर न कर डालगे; इस लये सेनासे घरकर सब ओरसे



सुर त हो यहाँसे जाओ। उस दशाम तु परा करना श ु के लये ब त क ठन होगा। तुम रा स का अ हत करनेवाले सम श ुदलका संहार करो’॥ २३-२४ ॥ य कहकर महातेज ी रावण अपने आसनसे उठा और एक सोनेक माला, जसके बीचबीचम म णयाँ परोयी ◌इ थ , लेकर उसने कु कणके गलेम पहना दी॥ २५ ॥ बाजूबंद, अँगू ठयाँ, अ े-अ े आभूषण और च माके समान चमक ला हार—इन सबको उसने महाकाय कु कणके अ म पहनाया॥ २६ ॥ उतना ही नह , रावणने उसके व भ अ म द सुग त फू ल क मालाएँ भी बँधवा द और दोन कान म कु ल पहना दये॥ २७ ॥ सोनेके अ द, के यूर और पदक आ द आभूषण से भू षत तथा घड़ेके समान वशाल कान वाला कु कण घीक उ म आ त पाकर लत ◌इ अ के समान का शत हो उठा॥ २८ ॥ उसके क ट देशम काले रंगक एक वशाल करधनी थी, जससे वह अमृतक उ के लये कये गये समु म नके समय नागराज वासु कसे लपटे ए म राचलके समान शोभा पाता था॥ २९ ॥ तदन र कु कणक छातीम एक सोनेका कवच बाँधा गया, जो भारी-से-भारी आघात सहन करनेम समथ, अ -श से अभे तथा अपनी भासे व ु े समान देदी मान था। उसे धारण करके कु कण सं ाकालके लाल बादल से संयु ग रराज अ ाचलके समान सुशो भत हो रहा था॥ ३० ॥ सारे अ म सभी आव क आभूषण धारण करके हाथ म शूल लये वह रा स कु कण जब आगे बढ़ा, उस समय लोक को नापनेके लये तीन डग बढ़ानेको उ ा हत ए भगवान् नारायण (वामन)-के समान जान पड़ा॥ ३१ ॥ भा◌इको दयसे लगाकर उसक प र मा करके उस महाबली वीरने उसे म क कु ाकर णाम कया। त ात् वह यु के लये चला॥ ३२ ॥ उस समय रावणने उ म आशीवाद देकर े आयुध से सुस त सेना के साथ उसे यु के लये वदा कया। या ाके समय उसने श और दु ु भ आ द बाजे भी बजवाये॥ ३३ ॥



हाथी, घोड़े और मेघ क गजनाके समान घघराहट पैदा करनेवाले रथ पर सवार हो अनेकानेक महामन ी रथी वीर र थय म े कु कणके साथ गये॥ ३४ ॥ कतने ही रा स साँप, ऊँ ट,गधे, सह, हाथी, मृग और प य पर सवार हो-होकर उस भयंकर महाबली कु कणके पीछे-पीछे गये॥ ३५ ॥ उस समय उसके ऊपर फू ल क वषा हो रही थी। सरपर ेत छ तना आ था और उसने हाथम तीखा शूल ले रखा था। इस कार देवता और दानव का श ु तथा र क ग से मतवाला कु कण, जो ाभा वक मदसे भी उ हो रहा था, यु के लये नकला॥ ३६ ॥ उसके साथ ब त-से पैदल रा स भी गये, जो बड़े बलवान्, जोर-जोरसे गजना करनेवाले, भीषण ने धारी और भयानक पवाले थे। उन सबके हाथ म नाना कारके अ -श थे॥ ३७ ॥



उनके ने रोषसे लाल हो रहे थे। वे सभी क◌इ ाम* ऊँ चे और काले कोयलेके ढेरक भाँ त काले थे। उ ने अपने हाथ म शूल, तलवार, तीखी धारवाले फरसे, भ पाल, प रघ, गदा, मूसल, बड़े-बड़े ताड़के वृ के तने और ज को◌इ काट न सके , ऐसी गुलेल ले रखी थ ॥ ३८-३९ ॥ तदन र महातेज ी महाबली कु कणने बड़ा उ प धारण कया, जसे देखनेपर भय मालूम होता था। ऐसा प धारण करके वह यु के लये चल पड़ा॥ ४० ॥ उस समय वह छ: सौ धनुषके बराबर व ृत और सौ धनुषके बराबर ऊँ चा हो गया। उसक आँ ख दो गाड़ीके प हय के समान जान पड़ती थ । वह वशाल पवतके समान भयंकर दखायी देता था॥ ४१ ॥ पहले तो उसने रा स-सेनाक ूह-रचना क । फर दावानलसे द ए पवतके समान महाकाय कु कण अपना वशाल मुख फै लाकर अ हास करता आ इस कार बोला—॥ ४२ ॥ ‘रा सो! जैसे आग पतंग को जलाती है, उसी कार म भी कु पत होकर आज धानधान वानर के एक-एक ंडु को भ कर डालूँगा॥ ४३ ॥ ‘य तो वनम वचरनेवाले बेचारे वानर े ासे मेरा को◌इ अपराध नह कर रहे ह; अत: वे वधके यो नह ह। वानर क जा त तो हम-जैसे लोग के नगरो ानका आभूषण है॥ ४४ ॥



‘वा



वम ल ापुरीपर घेरा डालनेके धान कारण ह—ल णस हत राम। अत: सबसे पहले म उ को यु म मा ँ गा। उनके मारे जानेपर सारी वानर-सेना त: मरी ◌इ-सी हो जायगी’॥ ४५ ॥ कु कणके ऐसा कहनेपर रा स ने समु को क त-सा करते ए बड़ी भयानक गजना क ॥ ४६ ॥ बु मान् रा स कु कणके रणभू मक ओर पैर बढ़ाते ही चार ओर घोर अपशकु न होने लगे॥ ४७ ॥ गदह के समान भूरे रंगवाले बादल घर आये। साथ ही उ ापात आ और बज लयाँ गर । समु और वन स हत सारी पृ ी काँपने लगी॥ ४८ ॥ भयानक गीद ड़याँ मुँहसे आग उगलती ◌इ अम लसूचक बोली बोलने लग । प ी म ल बाँधकर उसक द णावत प र मा करने लगे॥ ४९ ॥ रा ेम चलते समय कु कणके शूलपर गीध आ बैठा। उसक बाय आँ ख फड़कने लगी और बाय भुजा क त होने लगी॥ ५० ॥ फर उसी समय जलती ◌इ उ ा भयंकर आवाजके साथ गरी। सूयक भा ीण हो गयी और हवा इतने वेगसे चल रही थी क सुखद नह जान पड़ती थी॥ इस कार र गटे खड़े कर देनेवाले ब त-से बड़े-बड़े उ ात कट ए; कतु उनक कु छ भी परवा न करके कालक श से े रत आ कु कण यु के लये नकल पड़ा॥ ५२ ॥ वह पवतके समान ऊँ चा था। उसने ल ाक चहारदीवारीको दोन पैर से लाँघकर देखा क वानर क अ तु सेना मेघ क घनीभूत घटाके समान छा रही है॥ ५३ ॥ उस पवताकार े रा सको देखते ही सम वानर हवासे उड़ाये गये बादल के समान त ाल स ूण दशा म भाग चले॥ ५४ ॥ छ - भ ए बादल के समूहक भाँ त उस अ तशय च वानर-वा हनीको स ूण दशा म भागती देख मेघ के समान काला कु कण बड़े हषके साथ सजल जलधरके स श ग ीर रम बारंबार गजना करने लगा॥ ५५ ॥ आकाशम जैसी मेघ क गजना होती है, उसीके समान उस रा सका घोर सहनाद सुनकर ब त-से वानर जड़से कटे ए सालवृ के समान पृ ीपर गर पड़े॥ ५६ ॥



महाकाय कु कणने शूलक ही भाँ त अपने एक हाथम वशाल प रघ भी ले रखा था। वह वानर-समूह को अ घोर भय दान करता आ लय-कालम संहारके साधनभूत कालद से यु भगवान् काल के समान श ु का वनाश करनेके लये पुरीसे बाहर नकला॥ ५७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पसठवाँ सग पूरा आ॥ ६५ ॥ * लंबा◌इका एक नाप। दोन भुजा को दोन ओर फै लानेपर एक हाथक उँ ग लय के सरेसे दूसरे हाथक उँ ग लय के सरेतक जतनी दूरी होती है, उसे ‘ ाम’ कहते ह।



छाछठवाँ सग कु कणके भयसे भागे ए वानर का अ द ारा ो ाहन और आवाहन, कु कण ारा वानर का संहार, पुन: वानर-सेनाका पलायन और अ दका उसे समझा-बुझाकर लौटाना



महाबली कु कण पवत- शखरके समान ऊँ चा और वशालकाय था। वह परकोटा लाँघकर बड़ी तेजीके साथ नगरसे बाहर नकला॥ १ ॥ बाहर आकर पवत को कँ पाता और समु को गुँजाता आ-सा वह उ रसे ग ीर नाद करने लगा। उसक वह गजना बजलीक कड़कको भी मात कर रही थी॥ इ , यम अथवा व णके ारा भी उसका वध होना अस व था। उस भयानक ने वाले नशाचरको आते देख सभी वानर भाग खड़े ए॥ ३ ॥ उन सबको भागते देख राजकु मार अ दने नल, नील, गवा और महाबली कु मुदको स ो धत करके कहा—॥ ४ ॥ ‘वानर वीरो! अपने उ म कु ल और उन अलौ कक परा म को भुलाकर साधारण बंदर क भाँ त भयभीत हो तुम कहाँ भागे जा रहे हो?॥ ५ ॥ ‘सौ भाववाले बहादुरो! अ ा होगा क तुम लौट आओ। जान बचानेके फे रम पड़े हो? यह रा स हमारे साथ यु करनेक श नह रखता। यह तो इसक बड़ी भारी वभी षका है—इसने मायासे वशाल प धारण करके तु डरानेके लये थ घटाटोप फै ला रखा है॥ ६ ॥ ‘अपने सामने उठी ◌इ रा स क इस बड़ी भारी वभी षकाको हम अपने परा मसे न कर दगे। अत: वानरवीरो! लौट आओ’॥ ७ ॥ तब वानर ने बड़ी क ठना◌इसे धैय धारण कया और जहाँ-तहाँसे एक हो हाथ म वृ लेकर वे रणभू मक ओर चले॥ ८ ॥ लौटनेपर वे महाबली वानर मतवाले हा थय क भाँ त अ ोध और रोषसे भर गये और कु कणके ऊपर ऊँ चे-ऊँ चे पवतीय- शखर , शला तथा खले ए वृ से हार करने लगे। उनक मार खाकर भी कु कण वच लत नह होता था॥ ९-१० ॥



उसके अ पर गरी ◌इ ब तेरी शलाएँ चूरचूर हो जाती थ और वे खले ए वृ भी उसके शरीरसे टकराते ही टूक-टूक होकर पृ ीपर गर पड़ते थे॥ ११ ॥ उधर ोधसे भरा आ कु कण भी अ सावधान हो महाबली वानर क सेना को उसी कार र दने लगा, जैसे बढ़ा आ दावानल बड़े-बड़े जंगल को जलाकर भ कर देता है॥ १२ ॥ ब त-से े वानर खूनसे लथपथ हो धरतीपर सो गये। ज उठाकर उसने ऊपर फ क दया, वे लाल फू ल से लदे ए वृ क भाँ त पृ ीपर गर पड़े॥ १३ ॥ वानर ऊँ ची-नीची भू मको लाँघते ए जोर-जोरसे भागने लगे। वे आगे-पीछे और अगलबगलम कह भी नह डालते थे। को◌इ समु म गर पड़े और को◌इ आकाशम ही उड़ते रह गये॥ १४ ॥ उस रा सने खेल-खेलम ही ज मारा, वे वीर वानर जस मागसे समु पार करके ल ाम आये थे, उसी मागसे भागने लगे॥ १५ ॥ भयके मारे वानर के मुखक का फ क पड़ गयी। वे नीची जगह देख-देखकर भागने और छपने लगे। कतने ही रीछ वृ पर जा चढ़े और कतन ने पवत क शरण ली॥ १६ ॥ कतने ही वानर और भालू समु म डू ब गये। कतन ने पवत क गुफा का आ य लया। को◌इ गरे, को◌इ एक ानपर खड़े न रह सके , इस लये भागे। कु छ धराशायी हो गये और को◌इ-को◌इ मुद के समान साँस रोककर पड़ गये॥ १७ ॥ उन वानर को भागते देख अ दने इस कार कहा—‘वानरवीरो! ठहरो, लौट आओ। हम सब मलकर यु करगे॥ १८ ॥ ‘य द तुम भाग गये तो सारी पृ ीक प र मा करके भी कह तु ठहरनेके लये ान मल सके , ऐसा मुझे नह दखायी देता (सु ीवक आ ाके बना कह भी जानेपर तुम जी वत नह बच सकोगे)। इस लये सब लोग लौट आओ। अपने ही ाण बचानेक फ म पड़े हो?॥ १९ ॥ ‘तु ारे वेग और परा मको को◌इ रोकनेवाला नह है। य द तुम ह थयार डालकर भाग जाओगे तो तु ारी याँ ही तुमलोग का उपहास करगी और वह उपहास जी वत रहनेपर भी तु ारे लये मृ ुके समान दु:खदायी होगा॥ २० ॥



‘तुम



सब लोग महान् और ब त दूरतक फै ले ए े कु लम उ ए हो। फर साधारण वानर क भाँ त भयभीत होकर कहाँ भागे जा रहे हो ? य द तुम परा म छोड़कर भयके कारण भागते हो तो न य ही अनाय समझे जाओगे॥ २१ ॥ ‘तुम जन-समुदायम बैठकर जो ड ग हाँका करते थे क हम बड़े च वीर ह और ामीके हतैषी ह, तु ारी वे सब बात आज कहाँ चली गय ?॥ २२ ॥ ‘जो स ु ष ारा ध ृ त होकर भी जीवन धारण करता है, उसके उस जीवनको ध ार है, इस तरहके न ा क वचन कायर को सदा सुनने पड़ते ह। इस लये तुमलोग भय छोड़ो और स ु ष ारा से वत मागका आ य लो॥ २३ ॥ ‘य द हमलोग अ जीवी ह और श ुके ारा मारे जाकर रणभू मम सो जायँ तो हम उस लोकक ा होगी, जो कु यो गय के लये परम दुलभ है॥ २४ ॥ ‘वानरो! य द यु म हमने श ुको मार गराया तो हम उ म क त मलेगी और य द यं ही मारे गये तो हम वीरलोकके वैभवका उपभोग करगे॥ २५ ॥ ‘ ीरघुनाथजीके सामने जानेपर कु कण जी वत नह लौट सके गा; ठीक उसी तरह, जैसे लत अ के पास प ँ चकर पत भ ए बना नह रह सकता॥ २६ ॥ ‘य द हमलोग ात वीर होकर भी भागकर अपने ाण बचायगे और अ धक सं ाम होकर भी एक यो ाका सामना नह कर सकगे तो हमारा यश म ीम मल जायगा’॥ २७ ॥ सोनेका बाजूबंद धारण करनेवाले शूरवीर अ द जब ऐसा कह रहे थे, उस समय उन भागते ए वानर ने उ ऐसा उ र दया, जसक शौय-स यो ा सदा न ा करते ह॥ २८ ॥ वे बोले—‘रा स कु कणने हमारा घोर संहार मचा रखा है; अत: यह ठहरनेका समय नह है। हम जा रहे ह; क हम अपनी जान ारी है’॥ २९ ॥ इतनी बात कहकर भयानक ने वाले भीषण कु कणको आते देख उन सब वानरयूथप तय ने व भ दशा क शरण ली॥ ३० ॥ तब उन भागते ए सभी वीर वानर को अ दने सा ना और आदर-स ानके ारा लौटाया॥ ३१ ॥ बु मान् वा लपु ने उन सबको स कर लया। वे सब वानरयूथप त सु ीवक आ ाक ती ा करते ए खड़े हो गये॥ ३२ ॥



तदन र ऋषभ, शरभ, मै , धू , नील, कु मुद, सुषेण, गवा , र , तार, वद, पनस और वायुपु हनुमान् आ द े वानर-वीर तुरंत ही कु कणका सामना करनेके लये रण े क ओर बढ़े॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छाछठवाँ सग पूरा आ॥ ६६ ॥



सरसठवाँ सग कु कणका भयंकर यु और ीरामके हाथसे उसका वध



अ दके पूव वचन सुनकर वे सब वशालकाय वानर मरने-मारनेका न य करके यु क इ ासे लौटे थे॥ १ ॥ महाबली अ दने उनके पूव-परा म का वणन करके अपने वचन ारा उ सु ढ़ एवं बल- व मस बनाकर खड़ा कर दया था॥ २ ॥ अब वे वानर मरनेका न य करके बड़े हषके साथ आगे बढ़े और जीवनका मोह छोड़कर अ भयंकर यु करने लगे॥ ३ ॥ उन वशालकाय वानर-वीर ने वृ तथा बड़े-बड़े पवत- शखर लेकर तुरंत ही कु कणपर धावा कया॥ परंतु अ ोधसे भरे ए व मशाली महाकाय कु कणने गदा उठाकर श ु को घायल करके उ चार ओर बखेर दया॥ ५ ॥ कु कणक मार खाकर आठ हजार सात सौ वानर त ाल धराशायी हो गये॥ ६ ॥ वह सोलह, आठ, दस, बीस और तीस-तीस वानर को अपनी दोन भुजा से समेट लेता और जैसे ग ड़ सप को खाता है, उसी कार अ ोधपूवक उनका भ ण करता आ सब ओर दौड़ता- फरता था॥ ७ ॥ उस समय वानर बड़ी क ठना◌इसे धैय धारण करके इधर-उधरसे एक ए और वृ तथा पवत शखर हाथम लेकर सं ामभू मम डटे रहे॥ ८ ॥ त ात् मेघके समान वशाल शरीरवाले वानर शरोम ण वदने एक पवत उखाड़कर पवत शखरके समान ऊँ चे कु कणपर आ मण कया॥ ९ ॥ उस पवतको उखाड़कर वदने कु कणके ऊपर फ का; कतु वह उस वशालकाय रा सतक न प ँ चकर उसक सेनाम जा गरा॥ १० ॥ उस पवत- शखरने रा ससेनाके कतने ही घोड़ , हा थय , रथ , गजराज तथा दूसरे-दूसरे रा स को भी कु चल डाला॥ ११ ॥



उस समय वह महान् यु ल, जसम शैल- शखरके वेगसे कतने ही घोड़े और सार थ कु चल गये थे, रा स के धरसे गीला हो गया॥ १२ ॥ तब भयानक सहनाद करनेवाले रा स-सेनाके र थय ने लयकालीन यमराजके समान भयंकर बाण से गजते ए वानरयूथप तय के म क को सहसा काटना आर कया॥ १३ ॥ महामन ी वानर भी बड़े-बड़े वृ उखाड़कर श ुसेनाके रथ, घोड़े, हाथी, ऊँ ट और रा स का संहार करने लगे॥ १४ ॥ हनुमा ी आकाशम प ँ चकर कु कणके म कपर पवत- शखर , शला और नाना कारके वृ क वषा करने लगे॥ १५ ॥ परंतु महाबली कु कणने अपने शूलसे उन पवत शखर को फोड़ डाला और बरसाये जानेवाले वृ के भी टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ १६ ॥ त ात् उसने अपने ती ण शूलको हाथम लेकर वानर क उस भयंकर सेनापर आ मण कया। यह देख हनुमा ी एक पवत- शखर हाथम लेकर उस आ मणकारी रा सका सामना करनेके लये खड़े हो गये॥ १७ ॥ उ ने कु पत हो े पवतके समान भयानक शरीरवाले कु कणपर बड़े वेगसे हार कया। उनक उस मारसे कु कण ाकु ल हो उठा। उसका सारा शरीर चब से गीला हो गया और वह र से नहा गया॥ फर तो उसने भी बजलीके समान चमकते ए शूलको घुमाकर जसके शखरपर आग जल रही हो, उस पवतके समान हनुमा ीक छातीम उसी तरह मारा, जैसे ामी का तके यने अपनी भयानक श से ौ पवतपर आघात कया था॥ १९ ॥ उस महासमरम शूलक चोटसे हनुमा ीक दोन भुजा के बीचका भाग (व : ल) वदीण हो गया। वे ाकु ल हो गये और मुँहसे र वमन करने लगे। उस समय पीड़ाके मारे उ ने बड़ा भयंकर आतनाद कया, जो लयकालके मेघ क गजनाके समान जान पड़ता था॥ २० ॥ हनुमा ीको आघातसे पी ड़त देख रा स के हषक सीमा न रही। वे सहसा जोर-जोरसे कोलाहल करने लगे। इधर कु कणके भयसे पी ड़त एवं थत ए वानर यु भू म छोड़कर भागने लगे॥ २१ ॥



यह देख बलवान् नीलने वानरसेनाको धैय बँधाने एवं सु र रखनेके लये बु मान् कु कणपर एक पवतका शखर चलाया॥ २२ ॥ उस पवत शखरको अपने ऊपर आता देख कु कणने उसपर मु े से आघात कया। उसका मु ा लगते ही वह शखर चूर-चूर होकर बखर गया और आगक चनगा रयाँ तथा लपट नकालता आ पृ ीपर गर पड़ा॥ २३ ॥ इसके बाद ऋषभ, शरभ, नील, गवा और ग मादन—इन पाँच मुख वानरवीर ने कु कणपर धावा कया॥ २४ ॥ वे महाबली वीर चार ओरसे घेरकर यु लम महाकाय कु कणको पवत , वृ , थ ड़ , लात और मु से मारने लगे॥ २५ ॥ य प ये लोग बड़े जोर-जोरसे हार करते थे, तथा प उसे ऐसा जान पड़ता था मानो को◌इ धीरेसे छू रहा हो। अत: इनक मारसे उसे त नक भी पीड़ा नह ◌इ। उसने महान् वेगशाली ऋषभको अपनी दोन भुजा म भर लया॥ २६ ॥ कु कणक दोन भुजा से दबकर पी ड़त ए भयंकर वानर शरोम ण ऋषभके मुँहसे खून नकलने लगा और वे पृ ीपर गर पड़े॥ २७ ॥ तदन र उस समरभू मम इ ोही कु कणने शरभको मु े से मारकर नीलको घुटनेसे रगड़ दया और गवा को थ ड़से मारा। फर ोधसे भरकर उसने ग मादनको बड़े वेगसे लात मारी॥ २८ ॥ उसके हारसे थत ए वानर मू त हो गये और र से नहा उठे । फर कटे ए पलाश-वृ क भाँ त पृ ीपर गर पड़े॥ २९ ॥ उन महामन ी मुख वानर के धराशायी हो जानेपर हजार वानर एक साथ कु कणपर टूट पड़े॥ पवतके समान तीत होनेवाले वे सम महाबली वानर-यूथप त उस पवताकार रा सके ऊपर चढ़ गये और उछल-उछलकर उसे दाँत से काटने लगे॥ ३१ ॥ वे वानर शरोम ण नख , दाँत , मु और हाथ से महाबा कु कणको मारने लगे॥ ३२ ॥



जैसे पवत अपने ऊपर उगे ए वृ से सुशो भत होता है, उसी कार सह वानर से ा आ वह पवताकार रा स वीर अ तु शोभा पाने लगा॥ ३३ ॥ जैसे ग ड़ सप को अपना आहार बनाते ह, उसी तरह अ कु पत आ वह महाबली रा स सम वानर को दोन हाथ से पकड़-पकड़कर भ ण करने लगा॥ ३४ ॥ कु कण अपने पातालके समान मुखम वानर को झ कता जाता था और वे उसके कान तथा नाक क राहसे बाहर नकलते जाते थे॥ ३५ ॥ अ ोधसे भरकर वानर का भ ण करते ए पवतके समान वशालकाय उस रा सराजने सम वानर के अ -भ कर डाले॥ ३६ ॥ रणभू मम र और मांसक क च मचाता आ वह रा स बढ़ी ◌इ लया के समान वानरसेनाम वचरने लगा॥ ३७ ॥ शूल हाथम लेकर सं ामभू मम वचरता आ महाबली कु कण व धारी इ और पाशधारी यमराजके समान जान पड़ता था॥ ३८ ॥ जैसे ी -ऋतुम दावानल सूखे जंगल को जला देता है, उसी कार कु कण वानरसेना को द करने लगा॥ ३९ ॥ जनके यूथ-के -यूथ न हो गये थे, वे वानर कु कणक मार खाकर भयसे उ हो उठे और वकृ त रम ची ार करने लगे॥ ४० ॥ कु कणके हाथसे मारे जाते ए ब त-से वानर, जनका दल टूट गया था, थत हो ीरघुनाथजीक शरणम गये॥ ४१ ॥ वानर को भागते देख वा लकु मार अ द उस महासमरम कु कणक ओर बड़े वेगसे दौड़े॥ ४२ ॥ उ ने बारंबार गजना करके एक वशाल शैल- शखर हाथम ले लया और कु कणके पीछे चलनेवाले सम रा स को भयभीत करते ए उस पवत शखरको उसके म कपर दे मारा॥ ४३ १/२ ॥ म कपर उस पवत- शखरक चोट खाकर इ ोही कु कण उस समय महान् ोधसे जल उठा और उस हारको सहन न कर सकनेके कारण बड़े वेगसे वा लपु क ओर दौड़ा॥ ४४-४५ ॥



बड़े जोरसे गजना करनेवाले महाबली कु कणने सम वानर को सं करते ए अ दपर बड़े रोषसे शूलका हार कया॥ ४६ ॥ कतु यु मागके ाता बलवान् वानर शरोम ण अ दने फु त से हटकर अपनी ओर आते ए उस शूलसे अपने-आपको बचा लया॥ ४७ ॥ साथ ही बड़े वेगसे उछलकर उ ने उसक छातीम एक थ ड़ मारा। ोधपूवक चलाये ए उस थ ड़क मार खाकर वह पवताकार रा स मू त हो गया॥ ४८ ॥ थोड़ी देरम जब उसे होश आ, तब उस अ बलशाली रा सने भी बाय हाथसे मु ा बाँधकर अ दपर हार कया, जससे वे अचेत होकर पृ ीपर गर पड़े॥ ४९ ॥ वानर वर अ दके अचेत एवं धराशायी हो जानेपर कु कण वही शूल लेकर सु ीवक ओर दौड़ा॥ ५० ॥ महाबली कु कणको अपनी ओर आते देख वीर वानरराज सु ीव त ाल ऊपरक ओर उछले॥ महाक प सु ीवने एक पवत- शखरको उठा लया और उसे घुमाकर महाबली कु कणपर वेगपूवक धावा कया॥ ५२ ॥ वानर सु ीवको आ मण करते देख कु कण अपने सारे अ को फै लाकर उन वानरराजके सामने खड़ा हो गया॥ ५३ ॥ कु कणका सारा शरीर वानर के र से नहा उठा था। वह बड़े-बड़े वानर को खाता आ उनके सामने खड़ा था। उसे देखकर सु ीवने कहा—॥ ५४ ॥ ‘रा स! तुमने ब त-से वीर को मार गराया, अ दु र कम कर दखाया और कतने ही सै नक को अपना आहार बना लया। इससे तु शौयका महान् यश ा आ है। अब इन वानर क सेनाको छोड़ दो। इन साधारण बंदर से लड़कर ा करोगे? य द श हो तो मेरे चलाये ए इस पवतक एक ही चोट सह लो’॥ ५५-५६ ॥ वानरराजक यह स और धैयसे यु बात सुनकर रा स वर कु कण बोला—॥ ५७ ॥ ‘वानर!



तुम जाप तके पौ , ऋ रजाके पु तथा धैय एवं पौ षसे स इसी लये इस तरह गरज रहे हो’॥ ५८ ॥



हो।



कु कणक यह बात सुनकर सु ीवने उस शैल- शखरको घुमाकर सहसा उसके ऊपर छोड़ दया। वह व और अश नके समान था। उसके ारा उ ने कु कणक छातीम गहरी चोट प ँ चायी॥ ५९ ॥ कतु उसके वशाल व : लसे टकराकर वह शैल- शखर सहसा चूर-चूर हो गया। यह देख वानर त ाल वषादम डू ब गये और रा स बड़े हषके साथ गजना करने लगे॥ ६० ॥ उस पवत- शखरक चोट खाकर कु कणको बड़ा ोध आ। वह रोषसे मुँह फै लाकर जोर-जोरसे गजना करने लगा। फर उसने बजलीके समान चमकनेवाले उस शूलको घुमाकर सु ीवके वधके लये चलाया॥ ६१ ॥ कु कणके हाथसे छू टे ए उस तीखे शूलको, जसके डंडमे सोनेक ल ड़याँ लगी ◌इ थ , वायुपु हनुमा े शी उछलकर दोन हाथ से पकड़ लया और उसे वेगपूवक तोड़ डाला॥ ६२ ॥ वह महान् शूल हजार भार काले लोहेका बना आ था, जसे हनुमा ीने बड़े हषके साथ अपने घुटन म लगाकर त ाल तोड़ दया॥ ६३ ॥ हनुमा ीके ारा शूलको तोड़ा गया देख वानर-सेना बड़े हषसे भरकर बारंबार सहनाद करने लगी और चार ओर दौड़ लगाने लगी॥ ६४ ॥ परंतु वह रा स भयसे थरा उठा। उसके मुखपर उदासी छा गयी और वनचारी वानर अ स हो सहनाद करने लगे। उन सबने शूलको ख त आ देख पवनकु मार हनुमा ीक भू र-भू र शंसा क ॥ इस कार उस शूलको भ आ देख महाकाय रा सराज कु कणको बड़ा ोध आ और उसने ल ाके नकटवत मलय पवतका शखर उठाकर सु ीवके नकट जा उनपर दे मारा॥ ६६ ॥ उस शैल- शखरसे आहत हो वानरराज सु ीव अपनी सुध-बुध खो बैठे और यु भू मम गर पड़े। उ अचेत होकर पृ ीपर पड़ा देख नशाचर को बड़ी स ता ◌इ और वे रण े म सहनाद करने लगे॥ ६७ ॥ तदन र कु कणने यु लम अ तु एवं भयानक परा म कट करनेवाले वानरराज सु ीवके पास जाकर उ उठा लया और जैसे च वायु बादल को उड़ा ले जाती है, उसी तरह वह उ हर ले गया॥ ६८ ॥



कु कणका प मे पवतके समान जान पड़ता था। वह महान् मेघके समान पवाले सु ीवको उठाकर जब यु लसे चला, उस समय भयानक ऊँ चे शखर वाले मे ग रके समान ही शोभा पाने लगा॥ उ लेकर वह वीर रा सराज ल ाक ओर चल दया। उस समय यु लम सभी रा स उसक ु त कर रहे थे। वानरराजके पकड़े जानेसे आ यच कत ए देवता का दु:खज नत श उसे सुनायी दे रहा था॥ ७० ॥ इ के समान परा मी इ ोही कु कणने उस समय देवे तु तेज ी वानरराज सु ीवको पकड़कर मन-ही-मन यह मान लया क इनके मारे जानेसे ीरामस हत यह सारी वानर-सेना त: न हो जायगी॥ ‘वानर क सेना इधर-उधर भाग रही है और वानरराज सु ीवको कु कणने पकड़ लया है’, यह देखकर बु मान् पवनकु मार हनुमा े सोचा—‘सु ीवके इस कार पकड़ लये जानेपर मुझे ा करना चा हये?॥ ‘मेरे लये जो भी करना उ चत होगा, उसे म न:स ेह क ँ गा। पवताकार प धारण करके उस रा सका नाश कर डालूँगा॥ ७४ ॥ ‘यु लम अपने मु से मार-मारकर महाबली कु कणके शरीरको चूर-चूर कर दूँगा; इस कार जब वह मेरे हाथसे मारा जायगा तथा वानरराज सु ीवको उसक कै दसे छु ड़ा लया जायगा, तब सारे वानर हषसे खल उठगे; अ ा ऐसा ही हो॥ ७५ ॥ ‘अथवा ये सु ीव यं ही उसक पकड़से छू ट जायँगे। य द इ देवता, असुर अथवा नाग भी पकड़ ल तो ये अपने ही य से उनक कै दसे भी छु टकारा पा जायँगे॥ ७६ ॥ ‘म समझता ँ क यु म कु कणने शलाके हारसे सु ीवको जो गहरी चोट प ँ चायी है, उससे अचेत ए वानरराजको अभीतक होश नह आ है॥ ‘एक ही मु तम जब सु ीव सचेत ह गे, तब महासमरम अपने और वानर के लये जो हतकर कम होगा, उसे करगे॥ ७८ ॥ ‘य द म इ छु ड़ाऊँ तो महा ा सु ीवको स ता नह होगी, उलटे इनके मनम खेद होगा और सदाके लये इनके यशका नाश हो जायगा॥ ७९ ॥



‘अत:



म एक मु ततक उनके छू टनेक ती ा क ँ गा। फर वे छू ट जायँगे तो उनका परा म देखूँगा। तबतक भागी ◌इ वानर-सेनाको धैय बँधाता ँ ’॥ ८० ॥ ऐसा वचारकर पवनकु मार हनुमा े वानर क उस वशाल वा हनीको पुन: आ ासन दे रतापूवक ा पत कया॥ ८१ ॥ उधर कु कण हाथ-पैर हलाते ए महावानर सु ीवको लये- दये ल ाम घुस गया। उस समय वमान (सतमहले मकान ), सड़कके दोन ओर बनी ◌इ गृहपं य तथा गोपुर म रहनेवाले ी-पु ष उ म फू ल क वषा करके कु कणका ागत-स ार कर रहे थे॥ ८२ ॥ लावा और ग यु जलक वषा ारा अ भ ष हो राजमागक शीतलताके कारण महाबली सु ीवको धीरे-धीरे होश आ गया॥ ८३ ॥ तब बड़ी क ठना◌इसे सचेत हो बलवान् कु कणक भुजा म दबे ए महा ा सु ीव नगर और राजमागक ओर देखकर बारंबार इस कार वचार करने लगे—॥ ८४ ॥ ‘इस कार इस रा सक पकड़म आकर अब म कस तरह इससे भरपूर बदला ले सकता ँ ? म वही क ँ गा, जससे वानर का अभी और हतकर काय हो’॥ ८५ ॥ ऐसा न य करके वानर के राजा सु ीवने सहसा हाथ के तीखे नख ारा इ श ु कु कणके दोन कान नोच लये, दाँत से उसक नाक काट ली और अपने पैर के नख से उस रा सक दोन पस लयाँ फाड़ डाल ॥ ८६ ॥ सु ीवके दाँत और नख से दोन कान का न भाग और नाक कट जाने तथा पा भागके वदीण हो जानेसे कु कणका सारा शरीर ल लुहान हो गया। तब उसे बड़ा रोष आ और उसने सु ीवको घुमाकर भू मपर पटक दया। पटककर वह उ भू मपर रगड़ने लगा॥ ८७ ॥ भयानक बलशाली कु कण जब उ पृ ीपर रगड़ रहा था और वे देव ोही रा स उनपर सब ओरसे चोट कर रहे थे, उसी समय सु ीव सहसा गदक भाँ त वेगपूवक आकाशम उछले और पुन: ीरामच जीसे आ मले॥ ८८ ॥ महाबली कु कण अपनी नाक और कान खो बैठा। उसके अ से इस तरह खून बहने लगा, जैसे पवतसे पानीके झरने गरते ह। वह र से नहा उठा और झरन से यु शैल शखरक भाँ त शोभा पाने लगा॥



महाकाय रा स र से नहाकर और भी भयानक दखायी देने लगा। उस नशाचरने पुन: श ुके सामने जाकर यु करनेका वचार कया॥ ९० ॥ अमषपूवक र वमन करता आ रावणका छोटा भा◌इ कु कण, जसके शरीरका रंग काले मेघके समान था, सं ाकालके बादलक भाँ त सुशो भत हो रहा था॥ सु ीवके नकल भागनेपर वह इ ोही रा स फर यु के लये दौड़ा। उस समय यह सोचकर क ‘मेरे पास को◌इ ह थयार नह है’ उसने एक बड़ा भयंकर मु र ले लया॥ ९२ ॥ तदन र महाबलशाली रा स कु कण सहसा ल ापुरीसे नकलकर जाका भ ण करनेवाली लयकालक लत अ के समान उस भयंकर वानर-सेनाको यु लम अपना आहार बनाने लगा॥ उस समय कु कणको भूख सता रही थी, अतएव वह र और मांसके लये लाला यत हो रहा था। उसने उस भयंकर वानर-सेनाम वेश करके मोहवश वानर और भालु के साथसाथ रा स तथा पशाच को भी खाना आर कर दया। वह धान- धान वानर को उसी कार अपना ास बना रहा था, जैसे लयकालम मृ ु ा णय के ाण का अपहरण करती है॥ ९४ ॥ वह बड़ी उतावलीके साथ एक हाथसे ोधपूवक एक, दो, तीन तथा ब त-ब त रा स और वानर को समेटकर अपने मुँहम झ क लेता था॥ ९५ ॥ उस समय वह महाबली नशाचर पवत- शखर क मार खाता आ भी मुँहसे वानर क चब और र गराता आ उन सबका भ ण कर रहा था॥ ९६ ॥ उसके ारा खाये जाते ए वानर भयभीत हो उस समय भगवान् ीरामक शरणम गये। उधर कु कण अ कु पत हो वानर को अपना आहार बनाता आ सब ओर उनपर धावा करने लगा॥ ९७ ॥ वह सात, आठ, बीस, तीस तथा सौ-सौ वानर को अपनी दोन भुजा म भर लेता और उ खाता आ रणभू मम दौड़ता- फरता था॥ ९८ ॥ उसके शरीरम मेद, चब और र लपटे ए थे। उसके कान म आँ त क मालाएँ उलझी ◌इ थ तथा उसक दाढ़ ब त तीखी थ । वह महा लयके समय ा णय का संहार करनेवाले वशाल पधारी कालके समान वानर पर शूल क वषा कर रहा था॥ ९९ ॥



उस समय श ुनगरीपर वजय पाने तथा श ु का संहार करनेवाले सु म ाकु मार ल ण कु पत होकर उस रा सके साथ यु करने लगे॥ १०० ॥ उन परा मी ल णने कु कणके शरीरम सात बाण धँसा दये। फर दूसरे बाण लये और उ भी उसपर छोड़ दया॥ १०१ ॥ उनसे पी ड़त ए उस रा सने ल णके उस अ को न:शेष कर दया। तब सु म ाके आन को बढ़ानेवाले बलवान् ल णको बड़ा ोध आ॥ १०२ ॥ उ ने कु कणके सुवण न मत सु र एवं दी मान् कवचको अपने बाण से ढककर उसी तरह अ कर दया, जैसे हवाने सं ाकालके बादलको उखाड़कर अ कर दया हो॥ १०३ ॥ काले कोयलेके ढेरक -सी का वाला कु कण ल णके सुवणभू षत बाण से आ ा दत हो मेघ से ढके ए अंशुमाली सूयके समान शोभा पा रहा था॥ तब उस भयंकर रा सने मेघक गजनाके समान ग ीर रसे सु म ान न ल णका तर ार करते ए कहा—॥ १०५ ॥ ‘ल ण! म यु म यमराजको भी बना क उठाये ही जीत लेनेक श रखता ँ । तुमने मेरे साथ नभय होकर यु करते ए अपनी अ तु वीरताका प रचय दया है॥ १०६ ॥ ‘जब म महासमरम मृ ुके समान ह थयार लेकर यु के लये उ त होऊँ , उस समय जो मेरे सामने खड़ा रह जाय, वह भी शंसाका पा है। फर जो मुझे यु दान कर रहा हो, उसके लये तो कहना ही ा है?॥ १०७ ॥ ‘ऐरावतपर आ ढ़ हो स ूण देवता से घरे ए श शाली इ भी पहले मेरे सामने यु म नह ठहर सके ह॥ १०८ ॥ ‘सु म ान न! तुमने बालक होकर भी आज अपने परा मसे मुझे संतु कर दया, अत: म तु ारी अनुम त लेकर यु के लये ीरामके पास जाना चाहता ँ ॥ १०९ ॥ ‘तुमने अपने वीय, बल और उ ाहसे रणभू मम मुझे संतोष दान कया है; इस लये अब म के वल रामको ही मारना चाहता ँ , जनके मारे जानेपर सारी श ुसेना त: मर जायगी॥ ११० ॥



‘मेरे



ारा रामके मारे जानेपर जो दूसरे लोग यु भू मम खड़े रहगे, उन सबके साथ म अपने संहारकारी बलके ारा यु क ँ गा’॥ १११ ॥ वह रा स जब पूव बात कह चुका, तब सु म ाकु मार ल ण रणभू मम ठठाकर हँ स पड़े और उससे शंसा म त कठोर वाणीम बोले—॥ ११२ ॥ ‘वीर कु कण! तुम महान् पौ ष पाकर जो इ आ द देवता के लये भी अस हो उठे हो, वह तु ारा कथन बलकु ल ठीक है, झूठ नह है। मने यं अपनी आँ ख से आज तु ारा परा म देख लया। ये रहे दशरथन न भगवान् ीराम, जो पवतके समान अ वचल भावसे खड़े ह’॥ ११३ १/२ ॥ ल णक यह बात सुनकर उसका आदर न करते ए महाबली नशाचर कु कणने सु म ाकु मारको लाँघकर ीरामपर ही धावा कया। उस समय वह अपने पैर क धमकसे पृ ीको क त-सी कये देता था॥ उसे आते देख दशरथन न ीरामने रौ ा का योग करके कु कणके दयम अनेक तीखे बाण मारे॥ ११६ ॥ ीरामके बाण से घायल हो वह सहसा उनपर टूट पड़ा। उस समय ोधसे भरे ए कु कणके मुखसे अ ार म त आगक लपट नकल रही थ ॥ ११७ ॥ भगवान् ीरामके अ से पी ड़त हो रा स वर कु कण घोर गजना करता और रणभू मम वानर को खदेड़ता आ ोधपूवक उनक ओर दौड़ा॥ ११८ ॥ ीरामके बाण म मोरके पंख लगे ए थे। वे कु कणक छातीम धँस गये। अत: ाकु लताके कारण उसके हाथसे गदा छू टकर पृ ीपर गर पड़ी॥ ११९ ॥ इतना ही नह , उसके अ सब आयुध भी भू मपर बखर गये। जब उसने समझ लया क अब मेरे पास को◌इ ह थयार नह है, तब उस महाबली नशाचरने दोन मु और हाथ से ही वानर का महान् संहार आर कया॥ १२० १/२ ॥ बाण से उसके सारे अ अ घायल हो गये थे, इस लये वह खूनसे नहा उठा और जैसे पवत झरने बहाता है, उसी तरह वह अपनी देहसे र क धारा बहाने लगा॥ १२१ ॥ वह खूनसे लथपथ और दु:सह ोधसे ाकु ल होकर वानर , भालु तथा रा स को भी खाता आ चार ओर दौड़ने लगा॥ १२२ ॥



इसी बीचम यमराजके समान तीत होनेवाले उस बलवान् एवं भयानक परा मी नशाचरने एक भयंकर पवतका शखर उठाया और उसे घुमाकर ीरामच जीको ल करके चला दया॥ १२३ ॥ परंतु ीरामने पुन: धनुषका संधान करके सीधे जानेवाले सात बाण मारकर उस पवतशखरको बीचम ही टूक-टूक कर डाला, अपने पासतक नह आने दया॥ भरतके बड़े भा◌इ धमा ा ीरामने सुवणभू षत व च बाण ारा जब उस महान् पवत शखरको काट दया, उस समय अपनी भासे का शत-सा होते ए उस मे पवतके ृ स श शखरने भू मपर गरते- गरते दो सौ वानर को धराशायी कर दया॥ १२५-१२६ ॥ उस समय धमा ा ल णने, जो कु कणके वधके लये नयु थे, उसके वधक अनेक यु य का वचार करते ए ीरामसे कहा—॥ १२७ ॥ ‘राजन्! यह रा स शो णतक ग से मतवाला हो गया है; अत: न वानर को पहचानता है न रा स को। अपने और पराये दोन ही प के यो ा को खा रहा है॥ १२८ ॥ ‘अत: े वानर-यूथप तय म जो धान लोग ह, वे सब ओरसे इसके ऊपर चढ़ जायँ और इसके शरीरपर ही बैठे रह॥ १२९ ॥ ‘ऐसा होनेसे यह दुबु नशाचर इस समय भारी भारसे पी ड़त हो रणभू मम वचरण करते समय दूसरे वानर को नह मार सके गा’॥ १३० ॥ बु मान् राजकु मार ल णक यह बात सुनकर वे महाबली वानर-यूथप त बड़े हषके साथ कु कणपर चढ़ गये॥ १३१ ॥ वानर के चढ़ जानेपर कु कण अ कु पत हो उठा और जैसे बगड़ैल हाथी महावत को गरा देता है, उसी कार उसने वेगपूवक वानर को अपनी देह हलाकर गरा दया॥ १३२ ॥ उन सबको गराया गया देख ीरामने यह समझ लया क कु कण हो गया है। फर वे बड़े वेगसे उछलकर उस रा सक ओर दौड़े और एक उ म धनुष हाथम ले लया॥ १३३ ॥ उस समय उनके ने ोधसे लाल हो रहे थे। वे धीर-वीर ीरघुनाथजी उसक ओर इस कार देखने लगे, मानो उसे अपनी से द कर डालगे। उ ने कु कणके बलसे पी ड़त सम वानरयूथप तय का हष बढ़ाते ए बड़े वेगसे उस रा सपर धावा कया॥ १३४ ॥



सु ढ़ ासे संयु , सपके समान भयंकर और सुवणसे ज टत होनेके कारण व च शोभासे स उ धनुषको हाथम लेकर ीरामने उ म तरकस और बाण बाँध लये और वानर को आ ासन देकर उ ने कु कणपर बड़े वेगसे आ मण कया॥ १३५ ॥ उस समय अ दुजय वानरसमूह ने उ चार ओरसे घेर रखा था। ल ण उनके पीछेपीछे चल रहे थे। इस कार वे महाबली वीर ीराम आगे बढ़े॥ १३६ ॥ उन महान् बलशाली ीरामने देखा, महाकाय श ुदमन कु कण म कपर करीट धारण कये सब ओर धावा कर रहा है। उसके सारे अ खूनसे लथपथ हो रहे ह। वह रोषसे भरे ए द जक भाँ त ोधपूवक वानर को खोज रहा है और उन सबपर आ मण करता है। ब त-से रा स उसे घेरे ए ह॥ १३७-१३८ ॥ वह व और म राचलके समान जान पड़ता है। सोनेके बाजूबंद उसक भुजा को वभू षत कये ए ह तथा वह (वषाकालम) उमड़े ए जलवष मेघक भाँ त मुँहसे र क वषा कर रहा है॥ १३९ ॥ ज ाके ारा र से भीगे ए जबड़े चाट रहा है और लयकालके संहारकारी यमराजक भाँ त वानर क सेनाको र द रहा है॥ १४० ॥ इस कार लत अ के समान तेज ी रा स शरोम ण कु कणको देखकर पु ष वर ीरामने त ाल अपना धनुष ख चा॥ १४१ ॥ उनके धनुषक टंकार सुनकर रा स े कु कण कु पत हो उठा और उस टंकार नको सहन न करके ीरघुनाथजीक ओर दौड़ा*॥ १४२ ॥ तदन र जनक भुजाएँ नागराज वासु कके समान वशाल और मोटी थ , उन भगवान् ीरामने पवनक ेरणासे उमड़े ए मेघके समान काले और पवतके समान ऊँ चे शरीरवाले कु कणको आ मण करते देख रणभू मम उससे कहा—॥ १४३ ॥ ‘रा सराज! आओ, वषाद न करो। म धनुष लेकर खड़ा ँ । मुझे रा सवंशका वनाश करनेवाला समझो। अब तुम भी दो ही घड़ीम अपनी चेतना खो बैठोगे (मर जाओगे)’॥ १४४ ॥ ‘यही राम ह’—यह जानकर वह रा स वकृ त रम अ हास करने लगा और अ कु पत हो रण े म वानर को भगाता आ उनक ओर दौड़ा॥ १४५ ॥



महातेज ी कु कण सम वानर के दयको वदीण-सा करता आ वकृ त रम जोरजोरसे हँ सकर मेघ-गजनाके समान ग ीर एवं भयंकर वाणीम ीरघुनाथजीसे बोला—‘राम! मुझे वराध, कब और खर नह समझना चा हये। म मारीच और वाली भी नह ँ । यह कु कण तुमसे लड़ने आया है॥ १४६-१४७ ॥ ‘मेरे इस भयंकर एवं वशाल मु रक ओर देखो। यह सब-का-सब काले लोहेका बना आ है। मने पूवकालम इसीके ारा सम देवता और दानव को परा कया है॥ १४८ ॥ ‘मेरे नाक-कान नीचेसे कट गये ह, ऐसा समझकर तु मेरी अवहेलना नह करनी चा हये। इन दोन अ के न होनेसे मुझे थोड़ी-सी भी पीड़ा नह होती है॥ ‘ न ाप रघुन न! तुम इ ाकु वंशके वीर पु ष हो, अत: मेरे अ पर अपना परा म दखाओ। तु ारे पौ ष एवं बल- व मको देख लेनेके बाद ही म तु खाऊँ गा’॥ १५० ॥ कु कणक यह बात सुनकर ीरामने उसके ऊपर सु र पंखवाले ब त-से बाण मारे। व के समान वेगवाले उन बाण क गहरी चोट खानेपर भी वह देव ोही रा स न तो ु आ और न थत ही॥ जन बाण से े सालवृ काटे गये और वानरराज वालीका वध आ, वे ही व ोपम बाण उस समय कु कणके शरीरको था न प ँ चा सके ॥ १५२ ॥ देवराज इ का श ु कु कण जलक धाराके समान ीरामक बाणवषाको अपने शरीरसे पीने लगा और भयंकर वेगशाली मु रको चार ओरसे घुमाघु माकर उनके बाण के महान् वेगको न करने लगा॥ तदन र वह रा स देवता क वशाल सेनाको भयभीत करनेवाले और खूनसे लपटे ए उस उ वेगशाली मु रको घुमा-घुमाकर वानर क वा हनीको खदेड़ने लगा॥ १५४ ॥ यह देख भगवान् ीरामने वाय नामक दूसरे अ का संधान करके उसे कु कणपर चलाया और उसके ारा उस नशाचरक मु रस हत दा हनी बाँह काट डाली। बाँह कट जानेपर वह रा स भयानक आवाजम ची ार करने लगा॥ १५५ ॥ ीरघुनाथजीके बाणसे कटी ◌इ वह बाँह, जो पवत शखरके समान जान पड़ती थी, मु रके साथ ही वानर क सेनाम गरी। उसके नीचे दबकर कतने ही वानर-सै नक अपने ाण से हाथ धो बैठे॥ १५६ ॥



जो अ -भ होने या मरनेसे बचे, वे ख च हो कनारे जाकर खड़े हो गये। उनके शरीरम बड़ी पीड़ा हो रही थी और वे चुपचाप महाराज ीराम और रा स कु कणके घोर सं ामको देखने लगे॥ १५७ ॥ वाय ा से एक बाँह कट जानेपर कु कण शखरहीन पवतके समान तीत होने लगा। उसने एक ही हाथसे एक ताड़का वृ उखाड़ लया और उसे लेकर रणभू मम महाराज ीरामपर धावा कया॥ १५८ ॥ तब ीरामने एक सुवणभू षत बाण नकालकर उसे ऐ ा से अ भम त कया और उसके ारा सपके समान उठी ◌इ रा सक दूसरी बाँहको भी वृ स हत काट गराया॥ १५९ ॥



कु कणक वह कटी ◌इ बाँह पवत- शखरके समान पृ ीपर गरी और छटपटाने लगी। उसने कतने ही वृ , शैल शखर , शला , वानर और रा स को भी कु चल डाला॥ १६० ॥ उन दोन भुजा के कट जानेपर वह रा स सहसा आतनाद करता आ ीरामपर टूट पड़ा। उसे आ मण करते देख ीरामने दो तीखे अधच ाकार बाण लेकर उनके ारा यु लम उस रा सके दोन पैर भी उड़ा दये॥ १६१ ॥ उसके दोन पैर दशा- व दशा, पवतक क रा, महासागर, ल ापुरी तथा वानर और रा स क सेना को भी त नत करते ए पृ ीपर गर पड़े॥ १६२ ॥ दोन बाँह और पैर के कट जानेपर उसने वडवानलके समान अपने वकराल मुखको फै लाया और जैसे रा आकाशम च माको स लेता है, उसी कार वह ीरामको सनेके लये भयानक गजना करता आ सहसा उनके ऊपर टूट पड़ा॥ १६३ ॥ तब ीरामच जीने सुवणज टत पंखवाले अपने तीखे बाण से उसका मुँह भर दया। मुँह भर जानेपर वह बोलनेम भी असमथ हो गया और बड़ी क ठना◌इसे आतनाद करके मू त हो गया॥ १६४ ॥ इसके बाद भगवान् ीरामने द तथा वनाशकारी कालके समान भयंकर एवं तीखा बाण, जो सूयक करण के समान उ ी , इ ा से अ भम त, श ुनाशक, तेज ी सूय और लत अ के समान देदी मान, हीरे और सुवणसे वभू षत सु र पंखसे यु , वायु तथा



इ के व और अश नके समान वेगशाली था, हाथम लया और उस नशाचरको ल करके छोड़ दया॥ १६५-१६६ ॥ ीरघुनाथजीक भुजा से े रत होकर वह बाण अपनी भासे दस दशा को का शत करता आ इ के व क भाँ त भयंकर वेगसे चला। वह धूमर हत अ के समान भयानक दखायी देता था॥ १६७ ॥ जैसे पूवकालम देवराज इ ने वृ ासुरका म क काट डाला था, उसी कार उस बाणने रा सराज कु कणके महान् पवत शखरके समान ऊँ चे, सु र गोलाकार दाढ़ से यु तथा हलते ए मनोहर कु ल से अलंकृत म कको धड़से अलग कर दया॥ १६८ ॥ कु कणका वह कु ल से अलंकृत वशाल म क ात:काल सूय दय होनेपर आकाशके म म वराजमान च माक भाँ त न ेज तीत होता था॥ १६९ ॥ ीरामके बाण से कटा आ रा सका वह पवताकार म क ल ाम जा गरा। उसने अपने ध े से सड़कके आस-पासके कतने ही मकान , दरवाज और ऊँ चे परकोटेको भी धराशायी कर दया॥ १७० ॥ इसी कार उस रा सका वशाल धड़ भी, जो हमालयके समान जान पड़ता था, त ाल समु के जलम गर पड़ा और बड़े-बड़े ाह , म तथा साँप को पीसता आ पृ ीके भीतर समा गया॥ १७१ ॥ ा ण और देवता के श ु महाबली कु कणके यु म मारे जानेपर पृ ी डोलने लगी, पवत हलने लगे और स ूण देवता हषसे भरकर तुमुल नाद करने लगे॥ उस समय आकाशम खड़े ए देव ष, मह ष, सप, देवता, भूतगण, ग ड़, गु क, य और ग वगण ीरामका परा म देखकर ब त स ए॥ १७३ ॥ कु कणके महान् वधसे रा सराज रावणके मन ी ब ु को बड़ा दु:ख आ। वे रघुकुल तलक ीरामक ओर देखकर उसी तरह उ रसे रोने-क ने लगे, जैसे सहपर पड़ते ही मतवाले हाथी ची ार कर उठते ह॥ १७४ ॥ देवसमूहको दु:ख देनेवाले कु कणका यु म वध करके वानर-सेनाके बीचम खड़े ए भगवान् ीराम अ कारका नाश करके रा के मुखसे छू टे ए सूयदेवके समान का शत हो रहे थे॥ १७५ ॥



भयानक बलशाली श ुके मारे जानेसे ब सं क वानर को बड़ी स ता ◌इ। उनके मुख वक सत कमलक भाँ त हष ाससे खल उठे तथा उ ने सफलमनोरथ ए राजकु मार भगवान् ीरामक भू रभू र शंसा क ॥ १७६ ॥ जो बड़े-बड़े यु म कभी परा जत नह आ था तथा देवता क सेनाको भी कु चल डालनेवाला था, उस महान् रा स कु कणको रणभू मम मारकर रघुनाथजीको वैसी ही स ता ◌इ जैसी वृ ासुरका वध करके देवराज इ को ◌इ थी॥ १७७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म सरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६७ ॥ *



इस ोकके बाद कु छ तय म न ा त ोक अ धक उपल होते ह, जो उपयोगी होनेसे यहाँ अथस हत दये



जा रहे ह—



पुर ाद ् राघव ाथ गदायु ो वभीषण:। अ भद ु ाव वेगेन ाता ातरमाहवे॥ वभीषणं पुरो ा कु कण ऽ वी ददम्। हर रणे शी ं धम रो भव॥ ातृ ेहं प र राघव यं कु । अ ाय कृतं व य ं राममुपागत:॥ मेको र सां लोके स धमा भर ता। ना धमा भर ानां कदाचन॥ संतानाथ मेवक ै : कुल ा भ व स। राघव सादात् रा मा स॥



सनं तु ं र सां



कृ ा मम दध ु ष शी ं मागादप म। न ात ं पुर ा े स मा चेतस:॥ न वे संयुगे स : ान् परान् वा नशाचर। र णीयोऽ स मे व स मेतद ् वी म ते॥ एवमु ो वच ेन कु कणन धीमता। वभीषणो महाबा ग दतं मे कुल ा र णाथम रदं म। न ुतं सवर ो भ कृतं तु त हाभाग सुकृतं द ु ृ तं तु वा। एवमु ा ुपूणा एका मा तो भू ा च यामास सं



: कु कणमुवाच ह॥ तोऽहं राममागत:॥ ो गदापा ण वभीषण:। त:॥



तब ीरामच जीके लये यु करनेके न म गदा हाथम लये वभीषण उनके आगे आकर खड़े हो गये और उस यु लम भा◌इ होकर भा◌इका सामना करनेके लये बड़े वेगसे आगे बढ़े। वभीषणको सामने देखकर कु कणने इस कार कहा—‘व ! तुम भा◌इका ेह छोड़कर ीरघुनाथजीका य करो और रणभू मम शी मेरे ऊपर गदा चलाओ। इस समय तुम ा धमम ढ़तापूवक र रहो। तुम जो ीरामक शरणम आ गये, इससे तुमने हमलोग का काम बना दया। रा स म एक तु ऐसे हो, जसने इस जग स और धमक र ा क है। जो धमम अनुर होते ह, उ कभी को◌इ दु:ख नह भोगना पड़ता है। अब एकमा तु इस कु लक संतानपर राको सुर त रखनेके लये जी वत रहोगे। ीरघुनाथजीक कृ पासे



तु रा स का रा ा होगा। दुजय वीर ! मेरी कृ तसे तो तुम प र चत ही हो; अत: शी मेरा रा ा छोड़कर दूर हट जाओ। इस समय स मके कारण मेरी वचारश न हो गयी है; अत: तु मेरे सामने नह खड़ा होना चा हये। नशाचर ! इस समय यु म आस होनेके कारण मुझे अपने अथवा परायेक पहचान नह हो रही है, तथा प व ! तुम मेरे लये र णीय हो—म तु ारा वध करना नह चाहता। यह तुमसे स ी बात कहता ँ ।’ बु मान् कु कणके ऐसा कहनेपर महाबा वभीषणने उससे कहा—‘श ु का दमन करनेवाले वीर ! मने इस कु लक र ाके लये ब त कु छ कहा था; कतु सम रा स ने मेरी बात नह सुनी; अत: म नराश होकर ीरामक शरणम आ गया। महाभाग ! यह मेरे लये पु हो या पाप। अब मने ीरामका आ य तो हण कर ही लया।’ ऐसा कहकर गदाधारी वभीषणके ने म आँ सू भर आये और वे एका का आ य ले खड़े होकर च ा करने लगे।



अड़सठवाँ सग कु कणके वधका समाचार सुनकर रावणका वलाप



महा ा ीरामच जीके ारा कु कणको मारा गया देख रा स ने अपने राजा रावणसे जाकर कहा—॥ १ ॥ ‘महाराज! कालके समान भयंकर परा मी कु कण वानरसेनाको भगाकर तथा ब त-से वानर को अपना आहार बनाकर यं भी कालके गालम चले गये॥ २ ॥ ‘वे दो घड़ीतक अपने तापसे तपकर अ म ीरामके तेजसे शा हो गये। उनका आधा शरीर (धड़) भयानक दखायी देनेवाले समु म घुस गया और आधा शरीर (म क) नाक-कान कट जानेसे खून बहाता आ ल ाके ारपर पड़ा है। उस शरीरके ारा आपके भा◌इ पवताकार कु कण ल ाका ार रोककर पड़े ह। वे ीरामके बाण से पी ड़त हो हाथ, पैर और म कसे हीन नंग-धड़ंग धड़के पम प रणत हो दावानलसे द ए वृ क भाँ त न हो गये’॥ ३—५ ॥ ‘महाबली कु



कण यु लम मारा गया’ यह सुनकर रावण शोकसे संत एवं मू त हो गया और त ाल पृ ीपर गर पड़ा॥ ६ ॥ अपने चाचाके नधनका समाचार सुनकर देवा क, नरा क, शरा और अ तकाय दु:खसे पी ड़त हो फू ट-फू टकर रोने लगे॥ ७ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामके ारा भा◌इ कु कण मारे गये, यह सुनकर उसके सौतेले भा◌इ महोदर और महापा शोकसे ाकु ल हो गये॥ ८ ॥ तदन र बड़े क से होशम आनेपर रा सराज रावण कु कणके वधसे दु:खी हो वलाप करने लगा। उसक सारी इ याँ शोकसे ाकु ल हो उठी थ ॥ ९ ॥ (वह रो-रोकर कहने लगा—) ‘हा वीर! हा महाबली कु कण! तुम श ु के दपका दलन करनेवाले थे; कतु दुभा वश मुझे असहाय छोड़कर यमलोकको चल दये॥ १० ॥ ‘महाबली वीर! तुम मेरा तथा इन भा◌इ-ब ु का क क दूर कये बना श ुसेनाको संत करके मुझे छोड़ अके ले कहाँ चले जा रहे हो?॥ ११ ॥



‘इस



समय म अव ही नह के बराबर ँ ; क मेरी दा हनी बाँह कु कण धराशायी हो गया। जसका भरोसा करके म देवता और असुर कसीसे नह डरता था॥ १२ ॥ ‘देवता और दानव का दप चूर करनेवाला ऐसा वीर, जो काला के समान तीत होता था, आज रण े म रामके हाथसे कै से मारा गया?॥ १३ ॥ ‘भा◌इ! तु तो व का हार भी कभी क नह प ँ चा सकता था। वही तुम आज रामके बाण से पी ड़त हो भूतलपर कै से सो रहे हो?॥ १४ ॥ ‘आज समरा णम तु मारा गया देख आकाशम खड़े ए ये ऋ षय स हत देवता हषनाद कर रहे ह॥ ‘ न य ही अब अवसर पाकर हषसे भरे ए वानर आज ही ल ाके सम दुगम ार पर चढ़ जायँगे॥ १६ ॥ ‘अब मुझे रा से को◌इ योजन नह है। सीताको लेकर भी म ा क ँ गा? कु कणके बना जीनेका मेरा मन नह है॥ १७ ॥ ‘य द म यु लम अपने भा◌इका वध करनेवाले रामको नह मार सकता तो मेरा मर जाना ही अ ा है। इस नरथक जीवनको सुर त रखना कदा प अ ा नह है॥ १८ ॥ ‘म आज ही उस देशको जाऊँ गा, जहाँ मेरा छोटा भा◌इ कु कण गया है। म अपने भाइय को छोड़कर णभर भी जी वत नह रह सकता॥ १९ ॥ ‘मने पहले देवता का अपकार कया था। अब वे मुझे देखकर हँ सगे। हा कु कण! तु ारे मारे जानेपर अब म इ को कै से जीत सकूँ गा?॥ २० ॥ ‘मने महा ा वभीषणक कही ◌इ जन उ म बात को अ ानवश ीकार नह कया था, वे मेरे ऊपर आज पसे घ टत हो रही ह॥ २१ ॥ ‘जबसे कु कण और ह का यह दा ण वनाश उ आ है, तभीसे वभीषणक बात याद आकर मुझे ल त कर रही है॥ २२ ॥ ‘मने धमपरायण ीमान् वभीषणको जो घरसे नकाल दया था, उसी कमका यह शोकदायक प रणाम अब मुझे भोगना पड़ रहा है’॥ २३ ॥ इस कार भाँ त-भाँ तसे दीनतापूवक अ वलाप करके ाकु ल च आ दशमुख रावण अपने छोटे भा◌इ इ -श ु कु कणके वधका रण करके ब त ही थत हो पुन:



पृ ीपर गर पड़ा॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अड़सठवाँ सग पूरा आ॥ ६८ ॥



उनह रवाँ सग रावणके पु



और भाइय का यु के लये जाना और नरा कका अ दके ारा वध



दुरा ा रावण जब शोकसे पी ड़त हो इस कार वलाप करने लगा, तब शराने कहा —॥ १ ॥ ‘राजन्! इसम संदेह नह क हमारे मझले चाचा, जो इस समय यु म मारे गये ह, ऐसे ही महान् परा मी थे; परंतु आप जस कार रोते-कलपते ह, उस तरह े पु ष कसीके लये वलाप नह करते ह॥ २ ॥ ‘ भो! न य आप अके ले ही तीन लोक से भी लोहा लेनेम समथ ह; फर इस तरह साधारण पु षक भाँ त अपने-आपको शोकम डाल रहे ह?॥ ३ ॥ ‘आपके पास ाजीक दी ◌इ श , कवच, धनुष तथा बाण ह; साथ ही मेघगजनाके समान श करनेवाला रथ भी है, जसम एक हजार गदहे जोते जाते ह॥ ४ ॥ ‘आपने एक ही श से देवता और दानव को अनेक बार पछाड़ा है, अत: सब कारके अ -श से सुस त होनेपर आप रामको भी द दे सकते ह॥ ५ ॥ ‘अथवा महाराज! आपक इ ा हो तो यह रह। म यं यु के लये जाऊँ गा और जैसे ग ड़ सप का संहार करते ह, उसी तरह म आपके श ु को जड़से उखाड़ फ कूँ गा॥ ६ ॥ ‘जैसे इ ने श रासुरको और भगवान् व ुने नरकासुरको* मार गराया था, उसी कार यु लम आज मेरे ारा मारे जाकर राम सदाके लये सो जायँग’े ॥ ७ ॥ शराक यह बात सुनकर रा सराज रावणको इतना संतोष आ क वह अपना नया ज आ-सा मानने लगा। कालसे े रत होकर ही उसक ऐसी बु हो गयी॥ ८ ॥ शराका उपयु कथन सुनकर देवा क, नरा क और तेज ी अ तकाय—ये तीन यु के लये उ ा हत हो गये॥ ९ ॥ ‘म यु के लये जाऊँ गा, म जाऊँ गा’ ऐसा कहते और गजते ए वे तीन े नशाचर यु के लये तैयार हो गये। रावणके वे वीर पु इ के समान परा मी थे॥ वे सब-के -सब आकाशम वचरण करनेवाले, माया वशारद, रणदुमद तथा देवता का भी दप दलन करनेवाले थे॥ ११ ॥



वे सभी उ म बलसे स थे। उन सबक क त तीन लोक म फै ली ◌इ थी और समरभू मम आनेपर ग व , क र तथा बड़े-बड़े नाग स हत देवता से भी कभी उन सबक पराजय नह सुनी गयी थी। वे सभी अ वे ा, सभी वीर और सभी यु क कलाम नपुण थे। उन सबको श और शा का उ म ान ा था और सबने तप ाके ारा वरदान ा कया था॥ १२-१३ ॥ सूयके समान तेज ी तथा श ु क सेना और स को र द डालनेवाले उन पु से घरा आ रा स का राजा रावण बड़े-बड़े दानव का दप चूण करनेवाले देवता से घरे ए इ क भाँ त शोभा पा रहा था॥ उसने अपने पु को दयसे लगाकर नाना कारके आभूषण से वभू षत कया और उ म आशीवाद देकर रणभू मम भेजा॥ १५ ॥ रावणने अपने दोन भा◌इ यु ो (महापा ) और म (महोदर)-को भी यु म कु मार क र ाके लये भेजा॥ १६ ॥ वे सभी महाकाय रा स सम लोक को लानेवाले महामना रावणको णाम और उसक प र मा करके यु के लये त ए॥ १७ ॥ सब कारक ओष धय तथा ग का श करके यु क अ भलाषा रखनेवाले शरा, अ तकाय, देवा क, नरा क, महोदर और महापा —ये छ: महाबली े नशाचर कालसे े रत हो यु के लये पुरीसे बाहर नकले॥ १९ ॥ उस समय महोदर ऐरावतके कु लम उ ए काले मेघके समान रंगवाले ‘सुदशन’ नामक हाथीपर सवार आ॥ २० ॥ सम आयुध से स और तूणीर से अलंकृत महोदर उस हाथीक पीठपर बैठकर अ ाचलके शखरपर वराजमान सूयदेवके समान शोभा पा रहा था॥ २१ ॥ रावणकु मार शरा एक उ म रथपर आ ढ़ आ, जसम सब कारके अ -श रखे गये थे और उ म घोड़े जुते ए थे॥ २२ ॥ उस रथम बैठकर धनुष धारण कये शरा व ुत्, उ ा, ाला और इ धनुषसे यु मेघके समान शोभा पाने लगा॥ २३ ॥



उस उ म रथम सवार हो तीन करीट से यु शरा तीन सुवणमय शखर से यु ग रराज हमालयके समान शोभा पा रहा था॥ २४ ॥ रा सराज रावणका अ तेज ी पु अ तकाय सम धनुधा रय म े था। वह भी उस समय एक उ म रथपर आ ढ़ आ॥ २५ ॥ उस रथके प हये और धुरे ब त सु र थे। उसम उ म घोड़े जुते ए थे तथा उसके अनुकष१ और कू बर२ भी सु ढ़ थे। तूणीर, बाण और धनुषके कारण वह रथ उ ी हो रहा था। ास, खड् ग और प रघ से वह भरा आ था॥ २६ ॥ वह सुवण न मत व च एवं दी शाली करीट तथा अ आभूषण से वभू षत हो अपनी भासे काशका व ार करते ए मे पवतके समान सुशो भत होता था॥ २७ ॥ उस रथपर े नशाचर से घरकर बैठा आ वह महाबली रा सराजकु मार देवता से घरे ए व पा ण इ के समान शोभा पाता था॥ २८ ॥ नरा क उ :ै वाके समान ेत वणवाले एक सुवणभू षत वशालकाय और मनके समान वेगशाली अ पर आ ढ़ आ॥ २९ ॥ उ ाके समान दी मान् ास हाथम लेकर तेज ी नरा क श लये मोरपर बैठे ए तेज:पु से स कु मार का तके यके समान सुशो भत हो रहा था॥ ३० ॥ देवा क णभू षत प रघ लेकर समु म नके समय दोन हाथ से म राचल उठाये ए भगवान् व ुके पका अनुकरण-सा कर रहा था॥ ३१ ॥ महातेज ी और परा मी महापा हाथम गदा लेकर यु लम गदाधारी कु बेरके समान शोभा पाने लगा॥ अमरावतीपुरीसे नकलनेवाले देवता के समान वे सभी महाकाय नशाचर ल ापुरीसे चले। उनके पीछे े आयुध धारण कये वशालकाय रा स हाथी, घोड़ तथा मेघक गजनाके समान घघराहट पैदा करनेवाले रथ पर सवार हो यु के लये नकले॥ ३३ १/२ ॥ वे सूयतु तेज ी, महामन ी रा सराजकु मार म कपर करीट धारण करके उ म शोभा-स से से वत हो आकाशम का शत होनेवाले ह के समान सुशो भत हो रहे थे॥ ३४ १/ ॥ २



उनके ारा धारण क ◌इ अ -श क ेत पं आकाशम शरदऋ् तुके बादल क भाँ त उ ल का से यु हंस क ेणीके समान शोभा पा रही थी॥ ३५ १/२ ॥ आज या तो हम श ु को परा कर दगे, या यं ही मृ ुक गोदम सदाके लये सो जायँग— े ऐसा न य करके वे वीर रा स यु के लये आगे बढ़े॥ वे यु दुमद महामन ी नशाचर गजते, सहनाद करते, बाण हाथम लेते और उ श ु पर छोड़ देते थे॥ ३७ १/२ ॥ उन रा स के गजने, ताल ठ कने और सहनाद करनेसे पृ ी क त-सी होने लगी और आकाश फटने-सा लगा॥ ३८ १/२ ॥ उन महाबली रा स शरोम ण वीर ने स तापूवक नगरक सीमासे बाहर नकलकर देखा, वानर क सेना पवत- शखर और बड़े-बड़े वृ उठाये यु के लये तैयार खड़ी है॥ ३९ १/२ ॥



महामना वानर ने भी रा ससेनापर पात कया। वह हाथी, घोड़े और रथ से भरी थी, सैकड़ -हजार घुँघु क न नु से नना दत थी, काले मेघ क घटा-जैसी दखायी देती थी और हाथ म बड़े-बड़े आयुध लये ए थी॥ ४०-४१ ॥ लत अ और सूयके समान तेज ी रा स ने उसे सब ओरसे घेर रखा था। नशाचर क उस सेनाको आती देख वानर हार करनेका अवसर पाकर महान् पवत शखर उठाये बारंबार गजना करने लगे। वे रा स का सहनाद सहन न करनेके कारण बदलेम जोर-जोरसे दहाड़ने लगे थे॥ ४२-४३ ॥ वानरयूथप तय का वह उ रसे कया आ गजन-तजन सुनकर भयंकर एवं महान् बलसे स रा सगण श ु का हष सहन न कर सके ; अत: यं भी अ भीषण सहनाद करने लगे॥ ४४ ॥ तब वानर-यूथप त रा स क उस भयंकर सेनाम घुस गये और शैल ृ उठाये शखर वाले पवत क भाँ त वहाँ वचरण करने लगे॥ ४५ ॥ वृ और शला को आयुधके पम धारण कये वानर यो ा रा ससै नक पर अ कु पत हो आकाशम उड़-उड़कर वचरने लगे। कतने ही वानर शरोम ण वीर मोटी-मोटी शाखा वाले वृ को हाथम लेकर पृ ीपर वचरण करने लगे॥ ४६ १/२ ॥



उस समय रा स और वानर के उस यु ने बड़ा भयंकर प धारण कया। रा स ने बाणसमूह क वषा ारा जब वानर को आगे बढ़नेसे रोका, उस समय वे भयंकर परा मी वानर उनपर वृ , शला तथा शैल- शखर क अनुपम वृ करने लगे॥ ४७-४८ ॥ रा स और वानर दोन ही वहाँ रण े म सह के समान दहाड़ रहे थे। कु पत ए वानर ने कवच और आभूषण से वभू षत ब तेरे रा स को यु लम शला क मारसे कु चल दया —मार डाला॥ ४९ १/२ ॥ कतने ही वानर रथ, हाथी और घोड़ेपर बैठे ए वीर रा स को भी सहसा उछलकर मार डालते थे॥ वहाँ धान- धान रा स के शरीर पवत- शखर से आ ा दत हो गये थे। वानर के मु क मार खाकर कतन क आँ ख बाहर नकल आयी थ । वे नशाचर भागते, गरते-पड़ते और ची ार करते थे॥ ५१ १/२ ॥ रा स ने भी पैने बाण से कतने ही वानर श् ◌ारोम णय को वदीण कर दया था तथा शूल , मु र , खड् ग , ास और श य से ब त को मार गराया था॥ श ु के र जनके शरीर म लपटे ए थे, वे वानर और रा स वहाँ पर र वजय पानेक इ ासे एक-दूसरेको धराशायी कर रहे थे॥ ५३ १/२ ॥ थोड़ी ही देरम वह यु भू म वानर और रा स ारा चलाये गये पवत- शखर तथा तलवार से आ ा दत हो र के वाहसे सच उठी॥ ५४ १/२ ॥ यु के मदसे उ ए पवताकार रा स जो शला क मारसे कु चल दये गये थे, सब ओर बखरे पड़े थे। उनसे वहाँक सारी भू म पट गयी थी॥ ५५ ॥ रा स ने जनके यु के साधनभूत शैल- शखर को तोड़-फोड़ डाला था, वे वानर उनके हार से वच लत कये जानेपर उन रा स के अ नकट जा अपने हाथ-पैर आ द अ ारा ही अ तु यु करने लगे॥ ५६ ॥ रा स के धान- धान वीर वानर को पकड़कर उ दूसरे वानर पर पटक देते थे। इसी कार वानर भी रा स से ही रा स को मार रहे थे॥ ५७ ॥ उस समय रा स अपने श ु के हाथसे शला और शैल- शखर को छीनकर उ से उनपर हार करने लगे तथा वानर भी रा स के ह थयार छीनकर उ के ारा उनका वध करने



लगे॥ ५८ ॥ इस तरह रा स और वानर दोन ही दल के यो ा एक-दूसरेको पवत- शखरसे मारने, अ -श से वदीण करने तथा रणभू मम सह के समान दहाड़ने लगे॥ ५९ ॥ रा स क शरीर-र ाके साधनभूत कवच आ द छ - भ हो गये। वानर क मार खाकर वे अपने शरीरसे उसी कार र बहाने लगे, जैसे वृ अपने तन से ग द बहाया करते ह॥ ६० ॥



कतने ही वानर रणभू मम रथसे रथको, हाथीसे हाथीको और घोड़ेसे घोड़ेको मार गराते थे॥ ६१ ॥ वानर-यूथप तय के चलाये ए वृ और शला को नशाचर यो ा तीखे रु , अधच और भ नामक बाण से तोड़-फोड़ डालते थे॥ ६२ ॥ टूट-फू टकर गरे ए पवत , कटे ए वृ तथा रा स और वानर क लाश से पट जानेके कारण उस भू मम चलना- फरना क ठन हो गया॥ ६३ ॥ वानर क सारी चे ाएँ गवसे भरी ◌इ तथा हष और उ ाहसे यु थ । उनके दयम दीनता नह थी तथा उ ने रा स के ही नाना कारके आयुध छीनकर ह गत कर लये थे, अत: वे सब सं ामम प ँ चकर रा स के साथ भय छोड़कर यु कर रहे थे॥ ६४ ॥ इस कार जब भयंकर मारकाट मची ◌इ थी, वानर स थे और रा स क लाश गर रही थ , उस समय मह ष तथा देवगण हषनाद करने लगे॥ ६५ ॥ तदन र वायुके समान ती वेगवाले घोड़ेपर सवार हो हाथम तीखी श लये नरा क वानर क भयंकर सेनाम उसी तरह घुसा, जैसे को◌इ म महासागरम वेश कर रहा हो॥ ६६ ॥



उस महाकाय इ ोही वीर नशाचरने चमचमाते ए भालेसे अके ले ही सात सौ वानर को चीर डाला और णभरम वानर-यूथप तय क एक ब त बड़ी सेनाका संहार कर डाला॥ ६७ ॥ घोड़ेक पीठपर बैठे ए उस महामन ी वीरको व ाधर और मह षय ने वानर क सेनाम वचरते देखा॥ ६८ ॥ वह जस मागसे नकल जाता, वही धराशायी ए पवताकार वानर से ढका दखायी देता था और वहाँ र एवं मांसक क च मच जाती थी॥ ६९ ॥



वानर के धान- धान वीर जबतक परा म करनेका वचार करते, तबतक ही नरा क इन सबको लाँघकर भालेक मारसे घायल कर देता था॥ ७० ॥ जैसे दावानल सूखे जंगल को जलाता है, उसी कार लत ास लये नरा क यु के मुहानेपर वानर-सेना को द करने लगा॥ ७१ ॥ वानरलोग जबतक वृ और पवत- शखर को उखाड़ते, तबतक ही उसके भालेक चोट खाकर व के मारे ए पवतक भाँ त ढह जाते थे॥ ७२ ॥ जैसे वषाकालम च वायु सब ओर वृ को तोड़ती-उखाड़ती ◌इ वचरती है, उसी कार बलवान् नरा क रणभू मम वानर को र दता आ स ूण दशा म वचरने लगा॥ ७३ ॥



वानर-वीर भयके मारे न तो भाग पाते थे, न खड़े रह पाते थे और न उनसे दूसरी ही को◌इ चे ा करते बनती थी। परा मी नरा क उछलते ए, पड़े ए और जाते ए सभी वानर पर भालेक चोट कर देता था॥ ७४ ॥ उसका ास (भाला) अपनी भासे सूयके समान उ ी हो रहा था और यमराजके समान भयंकर जान पड़ता था। उस एक ही भालेक मारसे घायल होकर ंडु -के - ंडु वानर धरतीपर सो गये॥ ७५ ॥ व के आघातको भी मात करनेवाले उस ासके दा ण हारको वानर नह सह सके । वे जोर-जोरसे ची ार करने लगे॥ ७६ ॥ वहाँ गरते ए वानर-वीर के प उन पवत के समान दखायी देते थे, जो व के आघातसे शखर के वदीण हो जानेसे धराशायी हो रहे ह ॥ ७७ ॥ पहले कु कणने ज रणभू मम गरा दया था, वे महामन ी े वानर उस समय हो सु ीवक सेवाम उप त ए॥ ७८ ॥ सु ीवने जब सब ओर पात कया, तब देखा क वानर क सेना नरा कसे भयभीत होकर इधर-उधर भाग रही है॥ ७९ ॥ सेनाको भागती देख उ ने नरा कपर भी डाली, जो घोड़ेक पीठपर बैठकर हाथम भाला लये आ रहा था॥ ८० ॥



उसे देखकर महातेज ी वानरराज सु ीवने इ तु परा मी वीर कु मार अ दसे कहा —॥ ८१ ॥ ‘बेटा! वह जो घोड़ेपर बैठा आ वानर-सेनाम हलचल मचा रहा है, उस वीर रा सका सामना करनेके लये जाओ और उसके ाण का शी ही अ कर दो’॥ ८२ ॥ ामीक यह आ ा सुनकर परा मी अ द उस समय मेघ क घटाके समान तीत होनेवाली वानर-सेनासे उसी तरह नकले, जैसे सूयदेव बादल के ओटसे कट हो रहे ह ॥ ८३ ॥ वानर म े अ द शैल-समूहके समान वशालकाय थे। वे अपनी बाँह म बाजूबंद धारण कये ए थे, इस लये सुवण आ द धातु से यु पवतके समान शोभा पाते थे॥ ८४ ॥ वा लपु अ द महातेज ी थे। उनके पास को◌इ ह थयार नह था। के वल नख और दाढ़ ही उनके अ -श थे। वे नरा कके पास प ँ चकर इस कार बोले—॥ ८५ ॥ ‘ओ नशाचर! ठहर जा। इन साधारण बंदर को मारकर तू ा करेगा? तेरे भालेक चोट व के समान अस है; कतु जरा इसे मेरी इस छातीपर तो मार’॥ ८६ ॥ अ दक यह बात सुनकर नरा कको बड़ा ोध आ। वह कु पत हो, दाँत से ओठ दबा सपक भाँ त लंबी साँस ले, वा लपु अ दके पास आकर खड़ा हो गया॥ ८७ ॥ उसने उस चमकते ए भालेको घुमाकर सहसा उसे अ दपर दे मारा। वा लपु अ दका व : ल व के समान कठोर था। नरा कका भाला उसपर टकराकर टूट गया और जमीनपर जा पड़ा॥ ८८ ॥ उस भालेको ग ड़के ारा ख त कये गये सपके शरीरक भाँ त टूक-टूक होकर पड़ा देख वा लपु अ दने हथेली ऊँ ची करके नरा कके घोड़ेके म कपर बड़े जोरसे थ ड़ मारा॥ ८९ ॥ उस हारसे घोड़ेका सर फट गया, पैर नीचेको धँस गये, आँ ख फू ट गय और जीभ बाहर नकल आयी। वह पवताकार अ ाणहीन होकर पृ ीपर गर पड़ा॥ घोड़ेको मरकर पृ ीपर पड़ा देख नरा कके ोधक सीमा न रही। उस महा भावशाली नशाचरने यु लम मु ा तानकर वा लकु मारके म कपर मारा॥ ९१ ॥ मु े क मारसे अ दका सर फू ट गया। उससे वेगपूवक गम-गम र क धारा बहने लगी। उनके माथेम बड़ी जलन ◌इ। वे मू त हो गये और थोड़ी देरम जब होश आ, तब



उस रा सक श देखकर आ यच कत हो उठे ॥ ९२ ॥ फर अ दने पवत- शखरके समान अपना मु ा ताना, जसका वेग मृ ुके समान था। फर उन महा ा वा लकु मारने उससे नरा कक छातीम हार कया॥ मु े के आघातसे नरा कका दय वदीण हो गया। वह मुँहसे आगक ाला-सी उगलने लगा। उसके सारे अ ल लुहान हो गये और वह व के मारे ए पवतक भाँ त पृ ीपर गर पड़ा॥ ९४ ॥ वा लकु मारके ारा यु लम उ म परा मी नरा कके मारे जानेपर उस समय आकाशम देवता ने और भूतलपर वानर ने बड़े जोरसे हषनाद कया॥ ९५ ॥ अ दने ीरामच जीके मनको अ हष दान करनेवाला वह परम दु र परा म कया था। उससे ीरामच जीको भी बड़ा व य आ। त ात् भीषण कम करनेवाले अ द पुन: यु के लये हष और उ ाहसे भर गये॥ ९६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म उनह रवाँ सग पूरा आ॥ ६९ ॥ यहाँ जस नरकासुरका नाम आया है, वह व च नामक दानवके ारा स हकाके गभसे उ ए वाता प आ द सात पु मसे एक था। उनके नाम मश: इस कार ह—वाता प, नमु च, इ ल, सृमर, अ क, नरक और कालनाभ। भगवान् ीकृ ने ापरम जस भू मपु नरकासुरका वध कया था, वह यहाँ उ खत नरकासुरसे भ था। शरा और रावणके समयम तो उसका ज ही नह आ था। १. रथके धुरेपर कू बरके आधार पसे ा पत का वशेषको अनुकष कहते ह। २. कू बर उस का को कहते ह, जसपर जुआ रखा जाता है। गाड़ीके हरस को भी ाचीनकालम कू बर कहा जाता था। *



स रवाँ सग हनुमा ीके ारा देवा क और



शराका, नीलके ारा महोदरका तथा ऋषभके ारा महापा का वध



नरा कको मारा गया देख देवा क, पुल -कु लन न शरा और महोदर—ये े रा स हाहाकार करने लगे॥ १ ॥ महोदरने मेघके समान गजराजपर बैठकर महापरा मी अ दके ऊपर बड़े वेगसे धावा कया॥ २ ॥ भा◌इके मारे जानेसे संत ए बलवान् देवा कने भयानक प रघ हाथम लेकर अ दपर आ मण कया॥ ३ ॥ इस कार वीर शरा उ म घोड़ से जुते ए सूयतु तेज ी रथपर बैठकर वा लकु मारका सामना करनेके लये आया॥ ४ ॥ देवता का दप दलन करनेवाले उन तीन नशाचरप तय के आ मण करनेपर वीर अ दने वशाल शाखा से यु एक वृ को उखाड़ लया और जैसे इ लत व का हार करते ह, उसी कार उन वा लकु मारने बड़ी-बड़ी शाखा से यु उस महान् वृ को सहसा देवा कपर दे मारा॥ ५-६ ॥ परंतु शराने वषधर सप के समान भयंकर बाण मारकर उस वृ के टुकड़े-टुकड़े कर दये। वृ को ख त आ देख क पकु र अ द त ाल आकाशम उछले और शरापर वृ तथा शला क वषा करने लगे; कतु ोधसे भरे ए शराने पैने बाण ारा उनको भी काट गराया॥ ७-८ ॥ महोदरने अपने प रघके अ भागसे उन वृ को तोड़-फोड़ डाला। त ात् सायक क वषा करते ए शराने वीर अ दपर धावा कया॥ ९ ॥ साथ ही कु पत ए महोदरने हाथीके ारा आ मण करके वा लकु मारक छातीम व तु तोमर का हार कया॥ १० ॥ इसी कार देवा क भी अ दके नकट आ अ ोधपूवक प रघके ारा उ चोट प ँ चाकर तुरंत वेगपूवक वहाँसे दूर हट गया॥ ११ ॥



उन तीन मुख नशाचर ने एक साथ ही धावा कया था, तो भी महातेज ी और तापी वा लकु मार अ दके मनम त नक भी था नह ◌इ॥ १२ ॥ वे अ दुजय और बड़े वेगशाली थे। उ ने महान् वेग कट करके महोदरके महान् गजराजपर आ मण कया और उसके म कपर जोरसे थ ड़ मारा॥ १३ ॥ यु लम उनके उस हारसे गजराजक दोन आँ ख नकलकर पृ ीपर गर गय और वह त ाल मर गया॥ १४ ॥ फर महाबली वा लकु मारने उस हाथीका एक दाँत उखाड़ लया और यु लम दौड़कर उसीके ारा देवा कपर चोट क ॥ १५ ॥ तेज ी देवा क उस हारसे ाकु ल हो गया और वायुके हलाये ए वृ क भाँ त काँपने लगा। उसके शरीरसे महावरके समान रंगवाला र का महान् वाह बह चला॥ १६ ॥ त ात् महातेज ी बलवान् देवा कने बड़ी क ठना◌इसे अपनेको सँभालकर प रघ उठाया और उसे वेगपूवक घुमाकर अ दपर दे मारा॥ १७ ॥ उस प रघक चोट खाकर वानरराजकु मार अ दने भू मपर घुटने टेक दये। फर तुरंत ही उठकर वे ऊपरक ओर उछले॥ १८ ॥ उछलते समय शराने तीन सीधे जानेवाले भयंकर बाण ारा वानरराजकु मारके ललाटम गहरी चोट प ँ चायी॥ तदन र अ दको तीन मुख नशाचर से घरा आ जान हनुमान् और नील भी उनक सहायताके लये अ सर ए॥ २० ॥ उस समय नीलने शरापर एक पवत- शखर चलाया; कतु उस बु मान् रावणपु ने तीखे बाण मारकर उसे तोड़-फोड़ डाला॥ २१ ॥ उसके सैकड़ बाण से वदीण होकर उसक एक-एक शला बखर गयी और वह पवतशखर आगक चनगा रय तथा ालाके साथ पृ ीपर गर पड़ा॥ २२ ॥ अपने भा◌इका परा म बढ़ता देख बलवान् देवा कको बड़ा हष आ और उसने प रघ लेकर यु लम हनुमा ीपर धावा कया॥ २३ ॥ उसे आते देख क पकु र हनुमा ीने उछलकर अपने व -सरीखे मु े से उसके सरपर मारा॥ २४ ॥



बलवान् वायुकुमार महाक प हनुमा ीने उस समय देवा कके म कपर हार कया और अपनी भीषण गजनासे रा स को क त कर दया॥ २५ ॥ उनके मु - हारसे देवा कका म क फट गया और पस उठा। दाँत, आँ ख और लंबी जीभ बाहर नकल आय तथा वह रा सराजकु मार ाणशू होकर सहसा पृ ीपर गर पड़ा॥ २६ ॥ रा स-यो ा म धान महाबली देव ोही देवा कके यु म मारे जानेपर शराको बड़ा ोध आ और उसने नीलक छातीपर पैने बाण क भयंकर वषा आर कर दी॥ २७ ॥ तदन र अ ोधसे भरा आ महोदर पुन: शी ही एक पवताकार हाथीपर सवार आ, मानो सूयदेव म राचलपर आ ढ़ ए ह ॥ २८ ॥ हाथीपर चढ़कर उसने नीलके ऊपर बाण क वकट वषा क , मानो इ धनुष एवं व ु लसे यु मेघ कसी पवतपर जलक वषा कर रहा हो॥ बाण-समूह क नर र वषा होनेसे वानरसेनाप त नीलके सारे अ त- व त हो गये। उनका शरीर श थल हो गया। इस कार महाबली महोदरने उ मू त करके उनके बलव मको कु त कर दया॥ त ात् होशम आनेपर नीलने वृ -समूह से यु एक शैल- शखरको उखाड़ लया। उनका वेग बड़ा भयंकर था। उ ने उछलकर उस वृ को महोदरके म कपर दे मारा॥ ३१ ॥ उस पवत- शखरके आघातसे महोदर उस महान् गजराजके साथ ही चूर-चूर हो गया और मू त एवं ाणशू हो व के मारे ए पवतक भाँ त पृ ीपर गर पड़ा॥ ३२ ॥ पताके भा◌इको मारा गया देख शराके ोधक सीमा न रही। उसने धनुष हाथम ले लया और हनुमा ीको पैने बाण से ब धना आर कया॥ ३३ ॥ तब पवनकु मारने कु पत होकर उस रा सके ऊपर पवतका शखर चलाया, परंतु बलवान् शराने अपने तीखे सायक से उसके क◌इ टुकड़े कर डाले॥ उस पवत शखरके हारको थ आ देख क पवर हनुमा े उस रणभू मम रावणपु शराके ऊपर वृ क वषा आर क ॥ ३५ ॥ कतु तापी शराने आकाशम होनेवाली वृ क उस वृ को अपने पैने बाण से छ - भ कर दया और बड़े जोरसे गजना क ॥ ३६ ॥



तब हनुमा ी कू दकर शराके पास जा प ँ चे और जैसे कु पत सह गजराजको अपने पंज से चीर डालता है, उसी कार रोषसे भरे ए उन पवनकु मारने शराके घोड़ेको अपने नख से वदीण कर डाला॥ ३७ ॥ यह देख रावणकु मार शराने श हाथम ली, मानो यमराजने कालरा को साथ ले लया हो, वह श लेकर उसने पवनकु मार हनुमा र चलायी॥ ३८ ॥ जैसे आकाशसे उ ापात आ हो, उसी कार वह श , जसक ग त कह कु त नह होती थी, चली; परंतु वानर े हनुमा ीने उसे अपने शरीरम लगनेसे पहले ही हाथसे पकड़ लया और तोड़ डाला, तोड़नेके बाद उ ने भयंकर गजना क ॥ ३९ ॥ हनुमा ीने वह भयानक श तोड़ दी, यह देख वानरवृ अ हषसे उ सत हो मेघ के समान ग ीर गजना करने लगे॥ ४० ॥ तब रा स शरोम ण शराने तलवार उठायी और क प े हनुमा ीक छातीपर उसक भरपूर चोट क ॥ ४१ ॥ तलवारक चोटसे घायल हो परा मी पवनकु मार हनुमा े शराक छातीम एक तमाचा जड़ दया॥ उनका थ ड़ लगते ही महातेज ी शरा अपनी चेतना खो बैठा। उसके हाथसे ह थयार खसक गया और वह यं भी पृ ीपर गर पड़ा॥ ४३ ॥ गरते समय उस रा सके खड् गको छीनकर पवताकार महाक प हनुमा ी सब रा स को भयभीत करते ए जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ ४४ ॥ उनक वह गजना उस नशाचरसे सही नह गयी, अत: वह सहसा उछलकर खड़ा हो गया। उठते ही उसने हनुमा ीको एक मु ा मारा॥ ४५ ॥ उसके मु े क चोट खाकर महाक प हनुमा ीको बड़ा ोध आ। कु पत होनेपर उ ने उस रा सका मुकुटम त म क पकड़ लया॥ ४६ ॥ फर तो जैसे पूवकालम इ ने ाके पु व पके तीन म क को व से काट गराया था, उसी कार कु पत ए पवनपु हनुमा े रावणपु शराके करीट और कु ल स हत तीन म क को तीखी तलवारसे काट डाला॥ ४७ ॥



उन म क क सभी इ याँ वशाल थ । उनक आँ ख लत अ के समान उ ी हो रही थ । उस इ ोही शराके वे तीन सर उसी कार पृ ीपर गरे, जैसे आकाशसे तारे टूटकर गरते ह॥ ४८ ॥ देव ोही शरा जब इ तु परा मी हनुमा ीके हाथसे मारा गया, तब सम वानर हषनाद करने लगे, धरती काँपने लगी तथा रा स चार दशा क ओर भाग चले॥ ४९ ॥ शरा तथा महोदरको मारा गया देख और दुजय वीर देवा क एवं नरा कको भी कालके गालम गया आ जान अ अमषशील रा स शरोम ण म (महापा ) कु पत हो उठा। उसने एक तेज नी गदा हाथम ली, जो स ूणत: लोहेक बनी ◌इ थी॥ उसपर सोनेका प जड़ा आ था। यु लम प ँ चनेपर वह श ु के र और मांसम सन जाती थी। उसका आकार वशाल था। वह सु र शोभासे स तथा श ु के र से तृ होनेवाली थी॥ ५२ ॥ उसका अ भाग तेजसे लत होता था। वह लाल रंगके फू ल से सजायी गयी थी तथा ऐरावत, पु रीक और सावभौम नामक द ज को भी भयभीत करनेवाली थी॥ ५३ ॥ उस गदाको हाथम लेकर ोधसे भरा आ रा स- शरोम ण म (महापा ) लयकालक अ के समान लत हो उठा और वानर क ओर दौड़ा॥ ५४ ॥ तब ऋषभ नामक बलवान् वानर उछलकर रावणके छोटे भा◌इ म ानीक (महापा )-के पास आ प ँ चे और उसके सामने खड़े हो गये॥ ५५ ॥ पवताकार वानरवीर ऋषभको सामने खड़ा देख कु पत ए महापा ने अपनी व तु गदासे उनक छातीपर हार कया॥ ५६ ॥ उसक उस गदाके आघातसे वानर शरोम ण ऋषभका व : ल त- व त हो गया। वे काँप उठे और अ धक मा ाम खूनक धारा बहाने लगे॥ ५७ ॥ ब त देरके बाद होशम आनेपर वानरराज ऋषभ कु पत हो उठे और महापा क ओर देखने लगे। उस समय उनके ओठ फड़क रहे थे॥ ५८ ॥ वानरवीर म धान ऋषभका प पवतके समान जान पड़ता था। वे बड़े वेगशाली थे। उ ने वेगपूवक उस रा सके पास प ँ चकर मु ा ताना और सहसा उसक छातीपर हार कया॥ ५९ ॥



फर तो महापा जड़से कटे ए वृ क भाँ त सहसा पृ ीपर गर पड़ा। उसके सारे अ र से नहा उठे । इधर ऋषभ उस नशाचरक यमद के समान भयंकर गदाको शी ही हाथम लेकर जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ ६० ॥ देव ोही महापा दो घड़ीतक मुदक भाँ त पड़ा रहा। फर होशम आनेपर वह सहसा उछलकर खड़ा हो गया। उसका र र त शरीर सं ाकालके बादल के समान लाल दखायी देता था। उसने व णपु ऋषभको गहरी चोट प ँ चायी॥ ६१ ॥ उस चोटसे ऋषभ मू त होकर पृ ीपर गर पड़े। दो घड़ीके बाद होशम आनेपर वे पुन: उछलकर सामने आ गये और उ ने यु लम महापा क उसी गदाको, जो कसी पवतराजक च ानके समान जान पड़ती थी, घुमाकर उस नशाचरपर दे मारा॥ ६२ ॥ उसक उस भयंकर गदाने देवता, य और ा णसे श ुता रखनेवाले उस रौ -रा सके शरीरपर चोट करके उसके व : लको वदीण कर दया। फर तो जैसे पवतराज हमालय गे आ द धातु से मला आ जल बहाता है, उसी कार वह भी अ धक मा ाम र बहाने लगा॥ ६३ ॥ उस समय उस रा सने महामना ऋषभके हाथसे अपनी गदा लेनेके लये उनपर धावा कया; कतु ऋषभने उस भयानक गदाको हाथम लेकर बारंबार घुमाया और बड़े वेगसे महापा पर आ मण कया। इस तरह उन महामन ी वानर-वीरने यु के मुहानेपर उस नशाचरक जीवन-लीला समा कर दी थी॥ ६४ १/२ ॥ अपनी ही गदाक चोट खाकर महापा के दाँत टूट गये और आँ ख फू ट गय । वह व के मारे ए पवत- शखरक भाँ त त ाल धराशायी हो गया॥ ६५ १/२ ॥ जसक आँ ख न और चेतना वलु हो गयी थी, वह रा स महापा जब गतायु होकर पृ ीपर गर पड़ा, तब रा स क सेना सब ओर भाग चली॥ ६६ ॥ रावणके भा◌इ महापा का वध हो जानेपर रा स क वह समु के समान वशाल सेना ह थयार फ ककर के वल जान बचानेके लये सब ओर भागने लगी, मानो महासागर फू टकर सब ओर बहने लगा हो॥ ६७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म स रवाँ सग पूरा आ॥ ७० ॥



इकह रवाँ सग अ तकायका भयंकर यु और ल



णके ारा उसका वध



अ तकायने देखा, श ु के र गटे खड़े कर देनेवाली मेरी भयंकर सेना थत हो उठी है, इ के तु परा मी मेरे भाइय का संहार हो गया है तथा मेरे चाचा—दोन भा◌इ यु ो (महोदर) और म (महापा ) भी समरा णम मार गराये गये ह, तब उस महातेज ी नशाचरको बड़ा ोध आ। उसे ाजीसे वरदान ा हो चुका था। अ तकाय पवतके समान वशालकाय तथा देवता और दानव के दपका दलन करनेवाला था॥ १—३ ॥ वह इ का श ु था। उसने सह सूय के समूहक भाँ त देदी मान तेज ी रथपर आ ढ़ होकर वानर पर धावा कया॥ ४ ॥ उसके म कपर करीट और कान म शु सुवणके बने ए कु ल झलमला रहे थे। उसने धनुषक ट ार करके अपना नाम सुनाया और बड़े जोरसे गजना क ॥ ५ ॥ उस सहनादसे, अपने नामक घोषणासे और ाक भयानक ट ारसे उसने वानर को भयभीत कर दया॥ ६ ॥ उसके शरीरक वशालता देखकर वे वानर ऐसा मानने लगे क यह कु कण ही फर उठकर खड़ा हो गया। यह सोचकर सब वानर भयसे पी ड़त हो एक-दूसरेका सहारा लेने लगे॥ ७॥ व म-अवतारके समय बढ़े ए भगवान् व ुके वराट् पक भाँ त उसका शरीर देखकर वे वानर-सै नक भयके मारे इधर-उधर भागने लगे॥ ८ ॥ अ तकायके नकट जाते ही वानर के च पर मोह छा गया। वे यु लम ल णके बड़े भा◌इ शरणागतव ल भगवान् ीरामक शरणम गये॥ ९ ॥ रथपर बैठे ए पवताकार अ तकायको ीरामच जीने भी देखा। वह हाथम धनुष लये कु छ दूरपर लयकालके मेघक भाँ त गजना कर रहा था॥ १० ॥ उस महाकाय नशाचरको देखकर ीरामच जीको भी बड़ा व य आ। उ ने वानर को सा ना देकर वभीषणसे पूछा—॥ ११ ॥



‘ वभीषण! हजार घोड़ से जुते



ए वशाल रथपर बैठा आ वह पवताकार नशाचर कौन है? उसके हाथम धनुष है और आँ ख सहके समान तेज नी दखायी देती ह॥ १२ ॥ ‘यह भूत से घरे ए भूतनाथ महादेवजीके समान तीखे शूल तथा अ तेजधारवाले तेज ी ास और तोमर से घरकर अ तु शोभा पा रहा है॥ १३ ॥ ‘इतना ही नह , कालक ज ाके समान का शत होनेवाली रथश य से घरा आ यह वीर नशाचर व ु ाला से आवृत मेघके समान का शत हो रहा है॥ १४ ॥ ‘ जनके पृ भागम सोने मढ़े ए ह, ऐसे अनेकानेक सुस त धनुष उसके े रथक सब ओरसे उसी तरह शोभा बढ़ा रहे ह, जैसे इ धनुष आकाशको सुशो भत करता है॥ १५ ॥ ‘यह रा स म सहके समान परा मी और र थय म े वीर अपने सूयतु तेज ी रथके ारा रणभू मक शोभा बढ़ाता आ मेरे सामने आ रहा है॥ १६ ॥ ‘इसके जके शखरपर पताकाम रा का च अ त है, जससे रथक बड़ी शोभा हो रही है। यह सूयक करण के समान चमक ले बाण से दस दशा को का शत कर रहा है॥ १७ ॥ ‘इसके धनुषका पृ भाग सोनेसे मढ़ा आ तथा पु आ दसे अलंकृत है। वह आ द, म और अ तीन ान म कु ा आ है। उसक ासे मेघ क गजनाके समान टंकार- न कट होती है। इस नशाचरका धनुष इ -धनुषके समान शोभा पाता है॥ १८ ॥ ‘इसका वशाल रथ जा, पताका और अनुकष (रथके नीचे लगे ए आधारभूत का )से यु , चार सार थय से नय त और मेघक गजनाके समान घघराहट पैदा करनेवाला है॥ १९ ॥ ‘इसके रथपर बीस तरकस, दस भयंकर धनुष और आठ सुनहरे एवं प लवणक ाएँ रखी ◌इ ह॥ २० ॥ ‘दोन बगलम दो चमक ली तलवार शोभा पा रही ह, जनक मूँठ चार हाथक और लंबा◌इ दस हाथक है॥ २१ ॥ ‘गलेम लाल रंगक माला धारण कये महान् पवतके समान आकारवाला यह धीरवीर नशाचर काले रंगका दखायी देता है। इसका वशाल मुख कालके मुखके समान भयंकर है तथा यह मेघ क ओटम त ए सूयके समान का शत होता है॥ २२ ॥



‘इसक



बाँह म सोनेके बाजूबंद बँधे ए ह। उन भुजा के ारा यह वशालकाय नशाचर दो ऊँ चे शखर से यु ग रराज हमालयके समान शोभा पाता है॥ २३ ॥ ‘इसका अ भीषण मुखम ल दोन कु ल से म त हो पुनवसु नामक दो न के बीच त ए प रपूण च माके समान सुशो भत हो रहा है॥ २४ ॥ ‘महाबाहो! तुम मुझे इस े रा सका प रचय दो, जसे देखते ही सब वानर भयभीत हो स ूण दशा क ओर भाग चले ह’॥ २५ ॥ अ मत तेज ी राजकु मार ीरामके इस कार पूछनेपर महातेज ी वभीषणने रघुनाथजीसे इस कार कहा—॥ २६ ॥ ‘भगवन्! जो कु बेरका छोटा भा◌इ, महातेज ी, महाकाय, भयानक कम करनेवाला तथा रा स का ामी दशमुख राजा रावण है, उसके एक बड़ा परा मी पु उ आ, जो बलम रावणके ही समान है। वह वृ पु ष का सेवन करनेवाला, वेद-शा का ाता तथा स ूण अ वे ा म े है॥ २७-२८ ॥ ‘हाथी-घोड़ क सवारी करने, तलवार चलाने, धनुषपर बाण का संधान करने, ा ख चने, ल बेधने, साम और दानका योग करने तथा ाययु बताव एवं म णा देनेम वह सबके ारा स ा नत है॥ २९ ॥ ‘उसीके बा बलका आ य लेकर ल ापुरी सदा नभय रहती आयी है। वही यह वीर नशाचर है। यह रावणक दूसरी प ी धा मा लनीका पु है। इसे लोग अ तकायके नामसे जानते ह॥ ३० ॥ ‘तप ासे वशु अ :करणवाले इस अ तकायने दीघकालतक ाजीक आराधना क थी। इसने ाजीसे अनेक द ा ा कये ह और उनके ारा ब त-से श ु को परा जत कया है॥ ३१ ॥ ‘ ाजीने इसे देवता और असुर से न मारे जानेका वरदान दया है। ये द कवच और सूयके समान तेज ी रथ भी उ के दये ए ह॥ ३२ ॥ ‘इसने देवता और दानव को सैकड़ बार परा जत कया है, रा स क र ा क है और य को मार भगाया है॥ ३३ ॥



‘इस



बु मान् रा सने अपने बाण ारा इ के व को भी कु त कर दया है तथा यु म जलके ामी व णके पाशको भी सफल नह होने दया है॥ ‘रा स म े यह बु मान् रावणकु मार अ तकाय बड़ा बलवान् तथा देवता और दानव के दपको भी दलन करनेवाला है॥ ३५ ॥ ‘पु षो म! अपने सायक से यह सारी वानर-सेनाका संहार कर डाले, इसके पहले ही आप इस रा सको परा करनेका शी य क जये’॥ ३६ ॥ वभीषण और भगवान् ीरामम इस कार बात हो ही रही थ क बलवान् अ तकाय वानर क सेनाम घुस आया और बार ार गजना करता आ अपने धनुषपर टंकार देने लगा॥ ३७ ॥ र थय म े और भयंकर शरीरवाले उस रा सको रथपर बैठकर आते देख कु मुद, वद, मै , नील और शरभ आ द जो धान- धान महामन ी वानर थे, वे वृ तथा पवत शखर धारण कये एक साथ ही उसपर टूट पड़े॥ ३८-३९ ॥ परंतु अ वे ा म े महातेज ी अ तकायने अपने सुवणभू षत बाण से वानर के चलाये ए वृ और पवत- शखर को काट गराया॥ ४० ॥ साथ ही उस बलवान् और भीमकाय नशाचरने यु लम सामने आये ए उन सम वानर को लोहेके बाण से ब ध डाला॥ ४१ ॥ उसक बाणवषासे आहत हो सबके शरीर त व त हो गये। सबने हार मान ली और को◌इ भी उस महासमरम अ तकायका सामना करनेम समथ न हो सके ॥ ४२ ॥ जैसे जवानीके जोशसे भरा आ कु पत सह मृग के ु को भयभीत कर देता है, उसी कार वह रा स वानरवीर क उस सेनाको ास देने लगा॥ ४३ ॥ वानर के ु म वचरते ए रा सराज अ तकायने कसी भी ऐसे यो ाको नह मारा, जो उसके साथ यु न कर रहा हो। धनुष और तरकस धारण कये वह नशाचर उछलकर ीरामके पास आ गया तथा बड़े गवसे इस कार बोला—॥ ४४ ॥ ‘म धनुष और बाण लेकर रथपर बैठा ँ । कसी साधारण ाणीसे यु करनेका मेरा वचार नह है। जसके अंदर श हो, साहस और उ ाह हो, वह शी यहाँ आकर मुझे यु का अवसर दे’॥ ४५ ॥



उसके ये अहंकारपूण वचन सुनकर श ुह ा सु म ाकु मार ल णको बड़ा ोध आ। उसक बात को सहन न कर सकनेके कारण वे आगे बढ़ आये और क चत् मुसकराकर उ ने अपना धनुष उठाया॥ कु पत ए ल ण उछलकर आगे आये और तरकससे बाण ख चकर अ तकायके सामने आ अपने वशाल धनुषको ख चने लगे॥ ४७ ॥ ल णके धनुषक ाका वह श बड़ा भयंकर था। वह सारी पृ ी, आकाश, समु तथा स ूण दशा म गूँज उठा और नशाचर को ास देने लगा॥ ४८ ॥ सु म ाकु मारके धनुषक वह भयानक टंकार सुनकर उस समय महातेज ी बलवान् रा सराजकु मार अ तकायको बड़ा व य आ॥ ४९ ॥ ल णको अपना सामना करनेके लये उठा देख अ तकाय रोषसे भर गया और तीखा बाण हाथम लेकर इस कार बोला—॥ ५० ॥ ‘सु म ाकु मार! तुम अभी बालक हो। परा म करनेम कु शल नह हो, अत: लौट जाओ। म तु ारे लये कालके समान ँ । मुझसे जूझनेक इ ा करते हो?॥ ५१ ॥ ‘मेरे हाथसे छू टे ए बाण का वेग ग रराज हमालय भी नह सह सकता। पृ ी और आकाश भी उसे नह सहन कर सकते॥ ५२ ॥ ‘तुम सुखसे सोयी (शा ) ◌इ लया को जगाना ( लत करना) चाहते हो? धनुषको यह छोड़कर लौट जाओ। मुझसे भड़कर अपने ाण का प र ाग न करो॥ ५३ ॥ ‘अथवा तुम बड़े अहंकारी हो, इसी लये लौटना नह चाहते। अ ा, खड़े रहो। अभी अपने ाण से हाथ धोकर यमलोकक या ा करोगे॥ ५४ ॥ ‘श ु का दप चूण करनेवाले मेरे इन तीखे बाण को, जो तपे ए सुवणसे भू षत ह, देखो; ये भगवान् शंकरके शूलक समानता करते ह॥ ५५ ॥ ‘जैसे कु पत आ सह गजराजका खून पीता है, उसी कार यह सपके समान भयंकर बाण तु ारे र का पान करेगा।’ ऐसा कहकर अ तकायने अ कु पत हो अपने धनुषपर बाणका संधान कया॥ ५६ ॥ यु लम अ तकायके रोष और गवसे भरे ए इस वचनको सुनकर अ बलशाली एवं मन ी राजकु मार ल णको बड़ा ोध आ। वे यह महान् अथसे यु वचन बोले—॥



५७ ॥



‘दुरा



न्! के वल बात बनानेसे तू बड़ा नह हो सकता। सफ ड ग हाँकनेसे को◌इ े पु ष नह होते। म हाथम धनुष और बाण लेकर तेरे सामने खड़ा ँ । तू अपना सारा बल मुझे दखा॥ ५८ ॥ ‘परा मके ारा अपनी वीरताका प रचय दे। झूठी शेखी बघारना तेरे लये उ चत नह है। शूर वही माना गया है, जसम पु षाथ हो॥ ५९ ॥ ‘तेरे पास सब तरहके ह थयार मौजूद ह। तू धनुष लेकर रथपर बैठा आ है; अत: बाण अथवा अ अ -श के ारा पहले अपना परा म दखा ले॥ ६० ॥ ‘उसके बाद म अपने तीखे बाण से तेरा म क उसी तरह काट गराऊँ गा, जैसे वायु काल मसे पके ए ताड़के फलको उसके वृ (ब डी)-से नीचे गरा देती है॥ ६१ ॥ ‘आज तपे ए सुवणसे वभू षत मेरे बाण अपनी न क ारा कये गये छ से नकले ए तेरे शरीरके र का पान करगे॥ ६२ ॥ ‘तू मुझे बालक जानकर मेरी अवहेलना न कर। म बालक होऊँ अथवा वृ , सं ामम तो तू मुझे अपना काल ही समझ ले॥ ६३ ॥ ‘वामन पधारी भगवान् व ु देखनेम बालक ही थे; कतु अपने तीन ही पग से उ ने समूची लोक नाप ली थी।’ ल णक वह परम स और यु यु बात सुनकर अ तकायके ोधक सीमा न रही। उसने एक उ म बाण अपने हाथम ले लया॥ ६४ ॥ तदन र व ाधर, भूत, देवता, दै , मह ष तथा महामना गु कगण उस यु को देखनेके लये आये॥ उस समय अ तकायने कु पत हो धनुषपर वह उ म बाण चढ़ाया और आकाशको अपना ास बनाते ए-से उसे ल णपर चला दया॥ ६६ ॥ कतु श ुवीर का संहार करनेवाले ल णने एक अधच ाकार बाणके ारा अपनी ओर आते ए उस वषधर सपके तु भयंकर एवं तीखे बाणको काट डाला॥ ६७ ॥ जैसे सपका फन कट जाय, उसी कार उस बाणको ख त आ देख अ कु पत ए अ तकायने पाँच बाण को धनुषपर रखा॥ ६८ ॥



फर उस नशाचरने ल णपर ही वे पाँच बाण चला दये। वे बाण उनके समीप अभी आने भी नह पाये थे क ल णने तीखे सायक से उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ ६९ ॥ श ुवीर का संहार करनेवाले ल णने अपने पैने सायक से उन बाण का ख न करनेके प ात् एक तेज बाण हाथम लया, जो अपने तेजसे लत-सा हो रहा था॥ ७० ॥ उसे लेकर ल णने अपने े धनुषपर रखा, उसक ाको ख चा और बड़े वेगसे वह सायक अ तकायपर छोड़ दया॥ ७१ ॥ धनुषको पूण पसे ख चकर छोड़े गये तथा कु ◌इ गाँठवाले उस बाणके ारा परा मी ल णने रा स े अ तकायके ललाटम गहरा आघात कया॥ वह बाण उस भयानक रा सके ललाटम धँस गया और र से भ गकर पवतसे सटे ए कसी नागराजके समान दखायी देने लगा॥ ७३ ॥ ल णके बाणसे अ पी ड़त हो वह रा स काँप उठा। ठीक उसी तरह, जैसे भगवान् के बाण से आहत हो पुरका भयंकर गोपुर हल उठा था। फर थोड़ी ही देरम सँभलकर महाबली अ तकाय बड़ी च ाम पड़ गया और कु छ सोच- वचारकर बोला—॥ ७४ १/२ ॥ ‘शाबाश! इस कार अमोघ बाणका योग करनेके कारण तुम मेरे ृहणीय श ु हो।’ मुँह फै लाकर ऐसा कहनेके प ात् अ तकाय अपनी दोन वशाल भुजा को काबूम करके रथके पछले भागम बैठकर उस रथके ारा ही आगे बढ़ा॥ ७५-७६ ॥ उस रा स शरोम ण वीरने मश: एक, तीन, पाँच और सात सायक को लेकर उ धनुषपर चढ़ाया और वेगपूवक ख चकर चला दया॥ ७७ ॥ उस रा सराजके धनुषसे छू टे ए उन सुवणभू षत, सूयतु तेज ी तथा कालके समान भयंकर बाण ने आकाशको काशसे पूण-सा कर दया॥ ७८ ॥ परंतु रघुनाथजीके छोटे भा◌इ ल णने बना कसी घबराहटके उस नशाचर ारा चलाये ए उन बाणसमूह को तेज धारवाले ब सं क सायक ारा काट गराया॥ ७९ ॥ उन बाण को कटा आ देख इ ोही रावणकु मारको बड़ा ोध आ और उसने एक तीखा बाण हाथम लया॥ ८० ॥ उसे धनुषपर रखकर उस महातेज ी वीरने सहसा छोड़ दया और उसके ारा सामने आते ए सु म ाकु मारक छातीम आघात कया॥ ८१ ॥



अ तकायके उस बाणक चोट खाकर सु म ाकु मार यु लम अपने व : लसे ती ग तसे र बहाने लगे, मानो को◌इ मतवाला हाथी म कसे मदक वषा कर रहा हो॥ ८२ ॥



फर साम शाली ल णने सहसा अपनी छातीसे उस बाणको नकाल दया और एक तीखा सायक हाथम लेकर उसे द ा से संयो जत कया॥ ८३ ॥ उस समय अपने उस सायकको उ ने आ ेया से अ भम त कया। अ भम त होते ही महा ा ल णके धनुषपर रखा आ वह बाण त ाल लत हो उठा॥ ८४ ॥ उधर अ तेज ी अ तकायने भी रौ ा को एक सुवणमय पंखवाले सपाकार बाणपर समायो जत कया॥ ८५ ॥ इतनेहीम ल णने द ा क श से स उस लत एवं भयंकर बाणको अ तकायके ऊपर चलाया, मानो यमराजने अपने कालद का योग कया हो॥ ८६ ॥ आ ेया से अ भम त ए उस बाणको अपनी ओर आते देख नशाचर अ तकायने त ाल ही अपने भयंकर बाणको सूया से अ भम त करके चलाया॥ ८७ ॥ उन दोन सायक के अ भाग तेजसे लत हो रहे थे। आकाशम प ँ चकर वे दोन कु पत ए दो सप क भाँ त आपसम टकरा गये और एक-दूसरेको द करके पृ ीपर गर पड़े॥ ८८-८९ ॥ वे दोन ही बाण उ म को टके थे और अपनी दी से का शत हो रहे थे, तथा प एकदूसरेके तेजसे भ होकर अपना-अपना तेज खो बैठे। इस लये भूतलपर न भ होनेके कारण उनक शोभा नह हो रही थी॥ तदन र अ तकायने अ कु पत हो ा देवताके म से अ भम त करके एक स कका बाण छोड़ा; परंतु परा मी ल णने उस अ को ऐ ा से काट दया॥ ९१ ॥ स कके बाणको न आ देख रावणपु कु मार अ तकायके ोधक सीमा न रही। उस रा सने एक सायकको या ा से अ भम त कया और उसे ल णको ल करके चला दया; परंतु ल णने वाय ा ारा उसको भी न कर दया॥ ९२-९३ ॥ त ात् जैसे मेघ जलक धारा बरसाता है, उसी कार अ कु पत ए ल णने रावणकु मार अ तकायपर बाणधाराक वषा आर कर दी॥ ९४ ॥



अ तकायने एक द कवच बाँध रखा था, जसम हीरे जड़े ए थे। ल णके बाण अ तकायतक प ँ चकर उसके कवचसे टकराते और नोक टूट जानेके कारण सहसा पृ ीपर गर पड़ते थे॥ ९५ ॥ उन बाण को असफल आ देख श ुवीर का संहार करनेवाले महायश ी ल णने पुन: सह बाण क वषा क ॥ ९६ ॥ महाबली अ तकायका कवच अभे था, इस लये यु लम बाण-समूह क वषा होनेपर भी वह रा स थत नह होता था॥ ९७ ॥ उसने ल णपर वषधर सपके समान भयंकर बाण चलाया। उस बाणसे सु म ाकु मारके मम लम चोट प ँ ची॥ ९८ ॥ अत: श ु को संताप देनेवाले ल ण दो घड़ीतक अचेत-अव ाम पड़े रहे। फर होशम आनेपर उन महाबली श ुदमन वीरने बाण क वषासे श ुके रथक जाको न कर दया और चार उ म सायक से रणभू मम उसके घोड़ तथा सार थको भी यमलोक प ँ चा दया॥ ९९-१०० ॥



त ात् स मर हत नर े सु म ाकु मार ल णने उस रा सके वधके लये जाँचे-बूझे ए ब त-से अमोघ बाण छोड़े, तथा प वे समरा णम उस नशाचरके शरीरको वेध न सके ॥ १०१ १/२ ॥ तदन र वायुदेवताने उनके पास आकर कहा— ‘सु म ान न! इस रा सको ाजीसे वरदान ा आ है। यह अभे कवचसे ढका आ है। अत: इसको ा से वदीण कर डालो; अ था यह नह मारा जा सके गा। यह कवचधारी बलवान् नशाचर अ अ के लये अव है’॥ १०२-१०३ ॥ ल ण इ के समान परा मी थे। उ ने वायुदेवताका उपयु वचन सुनकर एक भयंकर वेगवाले बाणको सहसा ा से अ भम त करके धनुषपर रखा॥ १०४ ॥ सु म ाकु मार ल णके ारा तेज धारवाले उस े बाणम ा क संयोजना क जानेपर उस समय स ूण दशाएँ , च मा और सूय आ द बड़े-बड़े ह तथा अ र लोकके ाणी थरा उठे और भूम लम महान् कोलाहल मच गया॥ १०५ ॥



सु म ाकु मारने धनुषपर रखे ए उस सु र पंखवाले बाणको जब ा से अ भम त कया, तब वह यमदूतके समान भयंकर और व के समान अमोघ हो गया। उ ने यु लम उस बाणको इ ोही रावणके बेटे अ तकायको ल करके चला दया॥ १०६ ॥ ल णके चलाये ए उस बाणका वेग ब त बढ़ा आ था। उसके पंख ग ड़के समान थे और उनम हीरे जड़े ए थे; इस लये उनक व च शोभा होती थी। अ तकायने समरा णम उस बाणको उस समय वायुके समान भयंकर वेगसे अपनी ओर आते देखा॥ १०७ ॥ उसे देखकर अ तकायने सहसा उसके ऊपर ब त-से पैने बाण चलाये तो भी वह ग ड़के समान वेगशाली सायक बड़े वेगसे उसके पास जा प ँ चा॥ लय र कालके समान लत ए उस बाणको अ नकट आया देखकर भी अ तकायक यु वषयक चे ा न नह ◌इ। उसने श , ऋ , गदा, कु ठार, शूल तथा बाण ारा उसे न करनेका य कया॥ १०९ ॥ परंतु अ के समान लत ए उस बाणने उन अ तु अ को थ करके अ तकायके मुकुटम त म कको धड़से अलग कर दया॥ ११० ॥ ल णके बाणसे कटा आ रा सका वह शर ाणस हत म क हमालयके शखरक भाँ त सहसा पृ ीपर जा पड़ा॥ १११ ॥ उसके व और आभूषण सब ओर बखर गये। उसे धरतीपर पड़ा देख मरनेसे बचे ए सम नशाचर थत हो उठे ॥ ११२ ॥ उनके मुखपर वषाद छा गया। उनपर जो मार पड़ी थी, उससे थक जानेके कारण वे और भी दु:खी हो गये थे। अत: वे ब सं क रा स सहसा वकृ त रम जोर-जोरसे रोने- च ाने लगे॥ ११३ ॥ सेनानायकके मारे जानेपर नशाचर का यु व षयक उ ाह न हो गया, अत: वे भयभीत हो तुरंत ही ल ापुरीक ओर भाग चले॥ ११४ ॥ इधर उस भयंकर बलशाली दुजय श ुके मारे जानेपर ब सं क वानर हष और उ ाहसे भर गये। उनके मुख फु कमल के समान खल उठे और वे अभी वजयके भागी वीरवर ल णक भू र-भू र शंसा करने लगे॥ ११५ ॥



यु लम अ बलशाली और मेघके समान वशाल अ तकायको धराशायी करके ल ण बड़े स ए। वे उस समय वानर-समूह से स ा नत हो तुरंत ही ीरामच जीके पास गये॥ ११६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म इकह रवाँ सग पूरा आ॥ ७१ ॥



बह रवाँ सग रावणक च ा तथा उसका रा स को पुरीक र ाके लये सावधान रहनेका आदेश



महा ा ल णके ारा अ तकायको मारा गया सुनकर राजा रावण उ हो उठा और इस कार बोला—॥ १ ॥ ‘अ अमषशील धू ा , स ूण श धा रय म े अक न, ह तथा कु कण —ये महाबली वीर रा स सदा यु क अ भलाषा रखते थे। ये सब-के -सब श ु क सेना पर वजय पाते और यं वप य से कभी परा जत नह होते थे॥ २-३ ॥ ‘परंतु अनायास ही महान् कम करनेवाले रामने नाना कारके श के ानम नपुण उन वशालकाय वीर रा स का सेनास हत संहार कर डाला॥ ४ ॥ ‘और भी ब त-से महामन ी शूरवीर रा स उनके ारा मार गराये गये। जसके बल और परा म सव व ात ह, उस मेरे बेटे इ ज े उन दोन भाइय को वरदान ा घोर नाग प बाण से बाँध लया था। वह घोर ब न सम देवता और महाबली असुर भी नह खोल सकते थे। य , ग व और नाग के लये भी उस ब नसे छु टकारा दलाना अस व था, तो भी ये दोन भा◌इ राम और ल ण उस बाण-ब नसे मु हो गये। न जाने कौन-सा भाव था, कै सी माया थी अथवा कस तरहक मो हनी ओष ध आ दका योग कया गया था, जससे वे उस ब नसे छू ट गये॥ ५—७ १/२ ॥ ‘मेरी आ ासे जो-जो शूरवीर यो ा रा स यु के लये नकले, उन सबको समरा णम महाबली वानर ने मार डाला॥ ८ १/२ ॥ ‘म आज ऐसे कसी वीरको नह देखता, जो यु म ल णस हत रामको और सेना तथा सु ीवस हत वीर वभीषणको न कर दे॥ ९ १/२ ॥ ‘अहो! राम बड़े बलवान् ह, न य ही उनका अ -बल महान् है; जनके बल- व मका सामना करके असं रा स कालके गालम चले गये॥ १० १/२ ॥ ‘म उन वीर रघुनाथको रोग-शोकसे र हत सा ात् नारायण प मानता ँ ; क उ के भयसे ल ापुरीके सभी दरवाजे और सदर फाटक सदा बंद रहते ह॥ ११ १/२ ॥



‘रा



सो! तुमलोग हर समय सावधान रहकर सै नक स हत इस पुरीक और जहाँ सीता रखी गयी ह, उस अशोक- श वर वा टकाक भी वशेष पसे र ा करो॥ १२ १/२ ॥ ‘अशोक-वा टकाम कब कौन वेश करता है और कब वहाँसे बाहर नकलता है, इसक हम सदा ही जानकारी रखनी चा हये। जहाँ-जहाँ सै नक के श वर ह , वहाँ बार ार देखभाल करना, सब ओर अपने-अपने सै नक के साथ पहरेपर रहना॥ १३-१४ ॥ ‘ नशाचरो! दोषकाल, आधी रात तथा ात:कालम भी सवथा वानर के आने-जानेपर रखना॥ १५ ॥ ‘वानर क ओरसे कभी उपे ाभाव नह रखना चा हये और सदा इस बातपर रखनी चा हये क श ु क सेना यु के लये उ मशील तो नह है? आ मण तो नह कर रही है अथवा पूववत् जहाँ-क तहाँ खड़ी है न?’॥ १६ ॥ ल ाप तका यह आदेश सुनकर सम महाबली रा स उन सारी बात का यथावत् पसे पालन करने लगे॥ १७ ॥ उन सबको पूव आदेश देकर रा सराज रावण अपने दयम चुभे ए दु:ख और ोध पी काँटेक पीड़ाका भार वहन करता आ दीनभावसे अपने महलम गया॥ १८ ॥ महाबली नशाचरराज रावणक ोधा भड़क उठी थी। वह अपने पु क उस मृ ुको ही याद करके उस समय बार ार लंबी साँस ख च रहा था॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बह रवाँ सग पूरा आ॥ ७२ ॥



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सं ामभू मम जो नशाचर मरनेसे बच गये थे, उ ने तुरंत रावणके पास जाकर उसे देवा क, शरा और अ तकाय आ द रा सपु व के मारे जानेका समाचार सुनाया॥ १ ॥ उनके वधक बात सुनकर राजा रावणके ने म सहसा आँ सु क बाढ़ आ गयी। पु और भाइय के भयानक वधक बात सोचकर उसको बड़ी च ा ◌इ॥ राजा रावणको शोकके समु म नम एवं दीन आ देख र थय म े रा सराजकु मार इ ज े यह बात कही—॥ ३ ॥ ‘तात! रा सराज! जबतक इ जत् जी वत है तबतक आप च ा और मोहम न प ड़ये। इस इ श ुके बाण से घायल होकर को◌इ भी समरा णम अपने ाण क र ा नह कर सकता॥ ४ ॥ ‘दे खये, आज म राम और ल णके शरीरको बाण से छ - भ करके उनके सारे अ को तीखे सायक से भर देता ँ , और वे दोन भा◌इ गतायु होकर सदाके लये धरतीपर सो जाते ह॥ ५ ॥ ‘आप मुझ इ श ुक इस सु न त त ाको, जो मेरे पु षाथसे और दैवबल ( ाजीक कृ पा)-से भी स होनेवाली है, सुन ली जये—म आज ही ल णस हत रामको अपने अमोघ बाण से पूणत: तृ क ँ गा—उनक यु वषयक पपासाको बुझा दूँगा॥ ६ ॥ ‘आज इ , यम, व ,ु , सा , अ , सूय और च मा ब लके य म पम भगवान् व ुके भयंकर व मक भाँ त मेरे अपार परा मको देखगे’॥ ७ ॥ ऐसा कहकर उदारचेता इ श ु इ ज े राजा रावणसे आ ा ली और अ े गदह से जुते ए, यु साम ीसे स एवं वायुके समान वेगशाली रथपर वह सवार आ॥ ८ ॥ उसका रथ इ के रथके समान जान पड़ता था। उसपर आ ढ़ हो श ु का दमन करनेवाला वह महातेज ी नशाचर सहसा उस ानपर जा प ँ चा, जहाँ यु हो रहा था॥ ९ ॥ उस महामन ी वीरको ान करते देख ब त-से महाबली रा स हाथ म े धनुष लये हष और उ ाहके साथ उसके पीछे-पीछे चले॥ १० ॥



को◌इ हाथीपर बैठकर चले तो को◌इ उ म घोड़ पर। इनके सवा बाघ, ब ू , बलाव, गदहे, ऊँ ट, सप, सूअर, अ हसक ज ,ु सह, पवताकार गीदड़, कौआ, हंस और मोर आ दक सवा रय पर चढ़े ए भयानक परा मी रा स वहाँ यु के लये आये॥ उन सबने ास, प श, खड् ग, फरसे, गदा, भुशु , मु र, डंड,े शत ी और प रघ आ द आयुध धारण कर रखे थे॥ १३ ॥ श क नके साथ मली ◌इ भे रय क भयानक आवाज सब ओर गूँज उठी। उस तुमुलनादके साथ इ ोही परा मी इ ज े बड़े वेगसे रणभू मक ओर ान कया॥ १४ ॥



जैसे पूण च मासे उपल त आकाशक शोभा होती है, उसी कार ऊपर तने ए श और श शके समान वणवाले ेत छ से वह श ुसूदन इ जत् सुशो भत हो रहा था॥ १५ ॥ सोनेके आभूषण से वभू षत और सम धनुधर म े उस वीर नशाचरको दोन ओरसे सुवण न मत उ म एवं मनोहर चँवर डु लाये जा रहे थे॥ १६ ॥ वशाल सेनासे घरे ए अपने पु इ ज ो ान करते देख रा स के राजा ीमान् रावणने उससे कहा—॥ १७ ॥ ‘बेटा! को◌इ भी ऐसा त ी रथी नह है, जो तु ारा सामना कर सके । तुमने देवराज इ को भी परा जत कया है। फर आसानीसे जीत लेने यो एक मनु को परा करना तु ारे लये कौन बड़ी बात है? तुम अव ही रघुवंशी रामका वध करोगे’॥ १८ ॥ रा सराजके ऐसा कहनेपर इ ज े उसके उस महान् आशीवादको सर कु ाकर हण कया। फर तो जैसे अनुपम तेज ी सूयसे आकाशक शोभा होती है, उसी कार अ तम श शाली और सूयतु तेज ी इ ज े ल ापुरी सुशो भत होने लगी॥ १९ १/२ ॥ महातेज ी श ुदमन इ ज े रणभू मम प ँ चकर अपने रथके चार ओर रा स को खड़ा कर दया॥ २० १/२ ॥ फर बीचम रथसे उतरकर पृ ीपर अ क ापना करके अ तु तेज ी उस रा स शरोम ण वीरने च न, फू ल तथा लावा आ दके ारा अ देवका पूजन कया। उसके बाद उस तापी रा सराजने व धपूवक े म का उ ारण करते ए उस अ म ह व क आ त दी॥ २१-२२ १/२ ॥



उस समय श ही अ वेदीके चार ओर बछानेके लये कु श या कासके प े थे। बहेड़के लकड़ीसे ही स मधाका काम लया गया था। लाल रंगके व उपयोगम लाये गये और उस आ भचा रक य म जो ुवा था, वह लोहेका बना आ था॥ २३ १/२ ॥ उसने वहाँ तोमरस हत श पी कासके प को अ के चार ओर फै लाकर होमके लये काले रंगके जी वत बकरेका गला पकड़ा॥ २४ १/२ ॥ एक ही बार दी ◌इ उस आ तसे अ लत हो उठी। उसम धूम नह दखायी देता था और आगक बड़ी-बड़ी लपट उठ रही थ । उस समय उस अ से वे सभी च कट ए, जो पूवकालम उसे अपनी वजय दखा चुके थे—यु लम उसको वजयक ा करा चुके थे॥ २५ १/२ ॥ अ देवक शखा द णावत दखायी देने लगी। उनका वण तपाये ए सुवणके समान सु र था। इस पम वे यं कट होकर उसके दये ए ह व को हण कर रहे थे॥ २६ १/२ ॥



तदन र अ व ा वशारद इ ज े ा का आवाहन कया और अपने धनुष तथा रथ आ द सब व ु को वहाँ स ा म से अ भम त कया॥ २७ १/२ ॥ जब अ म आ त देकर उसने ा का आवाहन कया, तब सूय, च मा, ह तथा न के साथ अ र लोकके सभी ाणी भयभीत हो गये॥ जसका तेज अ के समान उ ी हो रहा था तथा जो देवराज इ के समान अनुपम भावसे यु था; उस अ च परा मी इ ज े अ म आ त देनेके प ात् धनुष, बाण, रथ, खड् ग, घोड़े और सार थस हत अपने-आपको आकाशम अ कर लया॥ २९ ॥ इसके बाद वह घोड़े और रथ से ा तथा जा-पताका से सुशो भत रा ससेनाम गया, जो यु क इ ासे गजना कर रही थी॥ ३० ॥ वे रा स दु:सह वेगवाले, सुवणभू षत, व च एवं ब सं क बाण , तोमर और अंकुश ारा रणभू मम वानर पर हार कर रहे थे॥ ३१ ॥ रावणपु इ जत् श ु के त अ ोधसे भरा आ था। उसने नशाचर क ओर देखकर कहा— ‘तुमलोग वानर को मार डालनेक इ ासे हष और उ ाहपूवक यु करो’॥ ३२ ॥



उसके इस कार ेरणा देनेपर वजयक अ भलाषा रखनेवाले वे सम रा स जोरजोरसे गजना करते ए वहाँ वानर पर बाण क भयंकर वषा करने लगे॥ ३३ ॥ उस यु लम रा स से घरे रहकर इ ज े भी नालीक, नाराच, गदा और मुसल आ द अ -श ारा वानर का संहार आर कया॥ ३४ ॥ समरा णम उसके अ -श से घायल होनेवाले वानर भी जो वृ से ही ह थयारका काम लेते थे, सहसा रावणकु मारपर शैल- शखर और वृ क वषा करने लगे॥ उस समय कु पत ए महातेज ी महाबली रावणपु इ ज े वानर के शरीर को छ भ कर डाला॥ ३६ ॥ रणभू मम रा स का हष बढ़ाता आ इ जत् रोषसे भरकर एक-एक बाणसे पाँच-पाँच, सात-सात तथा नौ-नौ वानर को वदीण कर डालता था॥ ३७ ॥ उस अ दुजय वीरने सुवणभू षत सूयतु तेज ी सायक ारा समरभू मम वानर को मथ डाला॥ रण े म देवता ारा पी ड़त ए बड़े-बड़े असुर क भाँ त इ ज े बाण से थत ए वानर के शरीर छ - भ हो गये। उनक वजयक आशापर तुषारपात हो गया और वे अचेत-से होकर पृ ीपर गर पड़े॥ ३९ ॥ उस समय यु लम बाण पी भयंकर करण ारा सूयके समान तपते ए इ ज र धान- धान वानर ने बड़े रोषके साथ धावा कया॥ ४० ॥ परंतु उसके बाण से शरीरके त- व त हो जानेसे वे सब वानर अचेत-से हो गये और खूनसे लथपथ हो थत होकर इधर-उधर भागने लगे॥ ४१ ॥ वानर ने भगवान् ीरामके लये अपने जीवनका मोह छोड़ दया था। वे परा मपूवक गजना करते ए हाथम शलाएँ लये समरभू मम डटे रहे—यु भू मसे पीछे न हटे॥ ४२ ॥ समरा णम खड़े ए वे वानर रावणकु मारपर वृ , पवत शखर और शला क वषा करने लगे॥ वृ और शला क वह भारी वृ रा स के ाण हर लेनेवाली थी; परंतु समर वजयी महातेज ी रावणपु ने अपने बाण ारा उसे दूर हटा दया॥ ४४ ॥



त ात् वषधर सप के समान भयंकर और अ तु तेज ी बाण ारा उस श शाली वीरने समरा णम वानर-सै नक को वदीण करना आर कया॥ उसने अठारह तीखे बाण से ग मादनको घायल करके दूर खड़े ए नलपर भी नौ बाण का हार कया॥ इसके बाद महापरा मी इ ज े सात ममभेदी सायक ारा मै को और पाँच बाण से गजको भी यु लम ब ध डाला॥ ४७ ॥ फर दस बाण से जा वा ो और तीस सायक से नीलको घायल कर दया। तदन र वरदानम ा ए ब सं क तीखे और भयानक सायक का हार करके उस समय उसने सु ीव, ऋषभ, अ द और वदको भी न ाण-सा कर दया॥ ४८ १/२ ॥ सब ओर फै ली ◌इ लया के समान अ रोषसे भरे ए इ ज े दूसरे-दूसरे े वानर को भी ब सं क बाण क मारसे थत कर दया॥ ४९ १/२ ॥ उस महासमरम रावणकु मारने अ ी तरह छोड़े ए सूयतु तेज ी शी गामी सायक ारा वानर क सेना को मथ डाला॥ ५० १/२ ॥ उसके बाणजालसे पी ड़त हो वानरी-सेना ाकु ल हो उठी और र से नहा गयी। उसने बड़े हष और स ताके साथ श ुसेनाक इस दुरव ाको देखा॥ वह रा सराजकु मार इ जत् बड़ा तेज ी, भावशाली एवं बलवान् था। उसने सब ओरसे बाण तथा अ ा अ -श क भयंकर वषा करके पुन: वानर-सेनाको र द डाला॥ ५२-५३ ॥ त ात् वह अपनी सेनाके ऊपरी भागको छोड़कर उस महासमरम तुरंत वानर-सेनाके ऊपर जा प ँ चा और यं आकाशम अ रहकर भयानक बाणसमूहक उसी तरह वषा करने लगा, जैसे काला मेघ जलक वृ करता है॥ ५४ ॥ जैसे इ के व से आहत हो बड़े-बड़े पवत धराशायी हो जाते ह, उसी कार वे पवताकार वानर रणभू मम इ ज े बाण ारा छलसे मारे जाकर शरीरके त- व त हो जानेसे वकृ त रम चीखते- च ाते ए पृ ीपर गर पड़े॥ ५५ ॥ रणभू मम वानर-सेना पर जो पैनी धारवाले बाण गर रहे थे, के वल उ को वे वानर देख रहे थे। मायासे छपे ए उस इ ोही रा सको कह नह देख पाते थे॥ ५६ ॥



उस समय उस महाकाय रा सराजने तीखी धारवाले सूयतु तेज ी बाण-समूह ारा स ूण दशा को ढक दया और वानर-सेनाप तय को घायल कर दया॥ ५७ ॥ वह वानरराजक सेनाम बढ़े ए लत पावकके समान दी मान् तथा चनगा रय स हत उ ल आग कट करनेवाले शूल, खड् ग और फरस क दु:सह वृ करने लगा॥ ५८ ॥ इ ज े चलाये ए अ तु तेज ी बाण से घायल हो र से नहाकर सारे वानरयूथप त खले ए पलाश वृ के समान जान पड़ते थे॥ ५९ ॥ रा सराज इ ज े बाण से वदीण हो वे े वानर एक-दूसरेके सामने जाकर वकृ त रम ची ार करते ए धराशायी हो जाते थे॥ ६० ॥ कतने ही वानर आकाशक ओर देख रहे थे। उसी समय उनके ने म बाण क चोट लगी, अत: वे एक-दूसरेके शरीरसे सट गये और पृ ीपर गर पड़े॥ रा स वर इ ज े द म से अ भम त ास , शूल और पैने बाण ारा हनुमान्, सु ीव, अ द, ग मादन, जा वान्, सुषेण, वेगदश , मै , वद, नील, गवा , गवय, के सरी, ह रलोमा, व ु ं , सूयानन, ो तमुख, द धमुख, पावका , नल और कु मुद आ द सभी े वानर को घायल कर दया॥ गदा और सुवणके समान का मान् बाण ारा वानर-यूथप तय को त- व त करके वह ल णस हत ीरामपर सूयक करण के समान चमक ले बाणसमूह क वषा करने लगा॥ ६६ ॥ उस बाणवषाके ल बने ए परम अ तु शोभासे स ीराम पानीक धाराके समान गरनेवाले उन बाण क को◌इ परवा न करके ल णक ओर देखते ए बोले—॥ ६७ ॥ ‘ल ण! वह इ ोही रा सराज इ जत् ा ए ा का सहारा लेकर वानरसेनाको धराशायी करनेके प ात् अब तीखे बाण ारा हम दोन को भी पी ड़त कर रहा है॥ ६८ ॥



ाजीसे वरदान पाकर सदा सावधान रहनेवाले इस महामन ी वीरने अपने भीषण शरीरको अ कर लया है। यु म इस इ ज ा शरीर तो दखायी ही नह देता, पर यह अ का योग करता जा रहा है। ऐसी दशाम इसे हमलोग कस तरह मार सकते ह ?॥ ‘



य ू भगवान् ाका प अ च है। वे ही इस जग े आ द कारण ह। म समझता ँ , उ का यह अ है, अत: बु मान् सु म ाकु मार! तुम मनम कसी कारक घबराहट न लाकर मेरे साथ यहाँ चुपचाप खड़े हो इन बाण क मार सहो॥ ७० ॥ ‘यह रा सराज इ जत् इस समय बाण-समूह क वषा करके स ूण दशा को आ ा दत कये देता है। वानरराज सु ीवक यह सारी सेना, जसके धान- धान शूरवीर धराशायी हो गये ह, अब शोभा नह पा रही है॥ ७१ ॥ ‘जब हम दोन हष एवं रोषसे र हत तथा यु से नवृ हो अचेत-से होकर गर जायँग,े तब हम उस अव ाम देख यु के मुहानेपर वजय-ल ीको पाकर अव ही यह रा सपुरी ल ाम लौट जायगा’॥ ७२ ॥ तदन र वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण वहाँ इ ज े बाण-समूह से ब त घायल हो गये। उस समय उन दोन को यु म पी ड़त करके उस रा सराजने बड़े हषके साथ गजना क ॥ ७३ ॥ इस कार सं ामम वानर क सेना तथा ल णस हत ीरामको मू त करके इ जत् सहसा दशमुख रावणक भुजा ारा पा लत ल ापुरीम चला गया। उस समय सम नशाचर उसक ु त कर रहे थे। वहाँ जाकर उसने पतासे स तापूवक अपनी वजयका सारा समाचार बताया॥ ७४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म तह रवाँ सग पूरा आ॥ ७३ ॥ ‘



चौह रवाँ सग जा वा े आदेशसे हनुमा ीका हमालयसे द ओष धय के पवतको लाना और उन ओष धय क ग से ीराम, ल ण एवं सम वानर का पुन: होना



यु के मुहानेपर जब वे दोन भा◌इ ीराम और ल ण न े होकर पड़ गये, तब वानरसेनाप तय क वह सेना ककत वमूढ हो गयी। सु ीव, नील, अ द और जा वा ो भी उस समय कु छ नह सूझता था॥ उस समय सबको वषादम डू बा आ देख बु मान म े वभीषणने वानरराजके उन वीर सै नक को आ ासन देते ए अनुपम वाणीम कहा—॥ २ ॥ ‘वानर वीरो! आपलोग भयभीत न ह । यहाँ वषादका अवसर नह है; क इन दोन आयपु ने ाजीके वचन का आदर एवं पालन करते ए यं ही ह थयार नह उठाये थे; इसी लये इ ज े इन दोन को अपने अ -समूह से आ ा दत कर दया था। अतएव ये दोन भा◌इ के वल वषाद (मू त) हो गये ह (इनके ाण पर संकट नह आया है)॥ ३ ॥ ‘ य ू ाजीने यह उ म अ इ ज ो दया था। ा के नामसे इसक स है और इसका बल अमोघ है। सं ामम उसका समादर— उसक मयादाक र ा करते ए ही ये दोन राजकु मार धराशायी ए ह; अत: इसम खेदक कौन-सी बात है?’॥ ४ ॥ वभीषणक बात सुनकर बु मान् पवनकु मार हनुमा े ा का स ान करते ए उनसे इस कार कहा—॥ ५ ॥ ‘रा सराज! इस अ से घायल ए वेगशाली वानर-सै नक म जो-जो ाण धारण करते ह , उन-उनको हम चलकर आ ासन देना चा हये’॥ ६ ॥ उस समय रात हो गयी थी, इस लये हनुमान् और रा स वर वभीषण दोन वीर अपनेअपने हाथम मसाल लये एक ही साथ रणभू मम वचरने लगे॥ ७ ॥ जनक पूँछ, हाथ, पैर, जाँघ, अंगु ल और ीवा आ द अ कट गये थे, अतएव जो अपने शरीर से र बहा रहे थे, ऐसे पवताकार वानर के गरनेसे वहाँक सारी भू म सब ओरसे पट गयी थी तथा वहाँ गरे ए चमक ले अ -श से भी आ ा दत हो गयी थी। हनुमान् और वभीषणने इस अव ाम उस यु भू मका नरी ण कया॥ ८-९ ॥



सु ीव, अ द, नील, शरभ, ग मादन, जा वान्, सुषेण, वेगदश , मै , नल, ो तमुख तथा वद— इन सभी वानर को हनुमान् और वभीषणने यु म घायल होकर पड़ा देखा॥ १०-११ ॥ ाजीके य अ — ा ने दनके चार भाग तीत होते-होते सरसठ करोड़ वानर को हताहत कर दया था। जब के वल पाँचवाँ भाग—साया काल शेष रह गया, तब ा का योग बंद आ था॥ १२ ॥ समु के समान वशाल एवं भयंकर वानर-सेनाको बाण से पी ड़त देख वभीषणस हत हनुमा ी जा वा ो ढूँ ढ़ने लगे॥ १३ ॥ ाजीके पु वीर जा वान् एक तो ाभा वक वृ ाव ासे यु थे, दूसरे उनके शरीरम सैकड़ बाण धँसे ए थे; अत: वे बुझती ◌इ आगके समान न ेज दखायी देते थे। उ देखकर वभीषण तुरंत ही उनके पास गये और बोले—‘आय! इन तीखे बाण के हारसे आपके ाण नकल तो नह गये?’॥ १४-१५ ॥ वभीषणक बात सुनकर ऋ राज जा वान् बड़ी क ठना◌इसे वा का उ ारण करते ए इस कार बोले—॥ १६ ॥ ‘महापरा मी रा सराज! म के वल रसे तु पहचान रहा ँ । मेरे सभी अ पैने बाण से बधे ए ह, अत: म आँ ख खोलकर तु नह देख सकता॥ १७ ॥ ‘उ म तके पालक वभीषण! यह तो बताओ, जनको ज देनेसे अ नादेवी उ म पु क जननी और वायुदेव े पु के जनक माने जाते ह, वे वानर े हनुमान् कह जी वत ह?’॥ १८ ॥ जा वा ा यह सुनकर वभीषणने पूछा— ‘ऋ राज! आप दोन महाराजकु मार को छोड़कर के वल पवनकु मार हनुमा ीको ही पूछ रहे ह?॥ १९ ॥ ‘आय! आपने न तो राजा सु ीवपर, न अ दपर और न भगवान् ीरामपर ही वैसा ेह दखाया है, जैसा पवनपु हनुमा ीके त आपका गाढ़ ेम ल त हो रहा है’॥ २० ॥ वभीषणक यह बात सुनकर जा वा े कहा— ‘रा सराज! सुनो। म पवनकु मार हनुमा ीको पूछता ँ —यह बता रहा ँ ॥ २१ ॥



‘य द वीरवर हनुमान् जी वत ह



तो यह मरी ◌इ सेना भी जी वत ही है—ऐसा समझना चा हये और य द उनके ाण नकल गये ह तो हमलोग जीते ए भी मृतकके ही तु ह॥ २२ ॥ ‘तात!



य द वायुके समान वेगशाली और अ के समान परा मी पवनकु मार हनुमान् जी वत ह तो हम सबके जी वत होनेक आशा क जा सकती है’॥ २३ ॥ बूढ़े जा वा े इतना कहते ही पवनपु हनुमा ी उनके पास आ गये और दोन पैर पकड़कर उ ने वनीतभावसे उ णाम कया॥ २४ ॥ हनुमा ीक बात सुनकर उस समय ऋ राज जा वा े, जनक सारी इ याँ बाण के हारसे पी ड़त थ , अपना पुनज आ-सा माना॥ २५ ॥ फर उन महातेज ी जा वा े हनुमा ीसे कहा— ‘वानर सह! आओ, स ूण वानर क र ा करो॥ २६ ॥ ‘तु ारे सवा दूसरा को◌इ पूण परा मसे यु नह है। तु इन सबके परम सहायक हो। यह समय तु ारे ही परा मका है। म दूसरे कसीको इसके यो नह देखता॥ २७ ॥ ‘तुम रीछ और वानरवीर क सेना को हष दान करो और बाण से पी ड़त ए इन दोन भा◌इ ीराम और ल णके शरीरसे बाण नकालकर इ करो॥ २८ ॥ ‘हनूमन्! समु के ऊपर-ऊपर उड़कर ब त दूरका रा ा तै करके तु पवत े हमालयपर जाना चा हये॥ ‘श ुसूदन! वहाँ प ँ चनेपर तु ब त ही ऊँ चे सुवणमय उ म पवत ऋषभका तथा कै लास- शखरका दशन होगा॥ ३० ॥ ‘वीर! उन दोन शखर के बीचम एक ओष धय का पवत दखायी देगा, जो अ दी मान् है। उसम इतनी चमक है, जसक कह तुलना नह है। वह पवत सब कारक ओष धय से स है॥ ३१ ॥ ‘वानर सह! उसके शखरपर उ चार ओष धयाँ तु दखायी दगी, जो अपनी भासे दस दशा को का शत कये रहती ह॥ ३२ ॥ ‘उनके नाम इस कार ह—मृतस ीवनी, वश करणी, सुवणकरणी और संधानी नामक महौष ध॥



‘हनुमन्!



पवनकु मार! तुम उन सब ओष धय को लेकर शी लौट आओ और वानर को ाणदान देकर आ ासन दो’॥ ३४ ॥ जा वा यह बात सुनकर वायुन न हनुमा ी उसी तरह असीम बलसे भर गये, जैसे महासागर वायुके वेगसे ा हो जाता है॥ ३५ ॥ वीर हनुमान् एक पवतके शखरपर खड़े हो गये और उस उ म पवतको पैर से दबाते ए तीय पवतके समान दखायी देने लगे॥ ३६ ॥ हनुमा ीके चरण के भारसे पी ड़त हो वह पवत धरतीम धँस गया। अ धक दबाव पड़नेके कारण वह अपने शरीरको भी धारण न कर सका॥ ३७ ॥ हनुमा ीके भारसे पी ड़त ए उस पवतके वृ उ के वेगसे टूटकर पृ ीपर गर पड़े और कतने ही जल उठे । साथ ही उस पहाड़क चो टयाँ भी ढहने लग ॥ हनुमा ीके दबानेपर वह े पवत हलने लगा। उसके वृ और शलाएँ टूट-फू टकर गरने लग ; अत: वानर वहाँ ठहर न सके ॥ ३९ ॥ ल ाका वशाल और ऊँ चा ार भी हल गया। मकान और दरवाजे ढह गये। समूची नगरी भयसे ाकु ल हो उस रातम नाचती-सी जान पड़ी॥ ४० ॥ पवताकार पवनकु मार हनुमा ीने उस पवतको दबाकर पृ ी और समु म भी हलचल पैदा कर दी॥ तदन र वहाँसे आगे बढ़कर वे मे और म राचलके समान ऊँ चे मलयपवतपर चढ़ गये। वह पवत नाना कारके झरन से ा था॥ ४२ ॥ वहाँ भाँ त-भाँ तके वृ और लताएँ फै ली थ । कमल और कु मुद खले ए थे। देवता और ग व उस पवतका सेवन करते थे तथा वह साठ योजन ऊँ चा था॥ ४३ ॥ व ाधर, ऋ ष-मु न तथा अ राएँ भी वहाँ नवास करती थ । अनेक कारके मृगसमूह वहाँ सब ओर फै ले ए थे तथा ब त-सी क राएँ उस पवतक शोभा बढ़ाती थ ॥ ४४ ॥ पवनकु मार हनुमा ी वहाँ रहनेवाले य , ग व और क र आ द सबको ाकु ल करते ए मेघके समान बढ़ने लगे॥ ४५ ॥ वे दोन पैर से उस पवतको दबाकर और वडवानलके समान अपने भय र मुखको फै लाकर नशाचर को डराते ए जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ ४६ ॥



उ रसे बार ार गजते ए हनुमा ीका वह महान् सहनाद सुनकर ल ावासी े रा स भयके मारे कह हल-डु ल भी न सके ॥ ४७ ॥ श ु को संताप देनेवाले भयानक परा मी पवनकु मार हनुमा ीने समु को नम ार करके ीरामच जीके लये महान् पु षाथ करनेका न य कया॥ ४८ ॥ वे अपनी सपाकार पूँछको ऊपर उठाकर पीठको कु ाकर दोन कान सकोड़कर और वडवामुख अ के समान अपना मुख फै लाकर च वेगसे आकाशम उड़े॥ हनुमा ी अपने ती वेगसे कतने ही वृ , पवत- शखर , शला और वहाँ रहनेवाले साधारण वानर को भी साथ-साथ उड़ाते गये। उनक भुजा और जाँघ के वेगसे दूर फ क दये जानेके कारण जब उनका वेग शा हो गया, तब वे वृ आ द समु के जलम गर पड़े॥ ५० ॥ सपके शरीरक भाँ त दखायी देनेवाली अपनी दोन भुजा को फै लाकर ग ड़के समान परा मी पवनपु हनुमा ी स ूण दशा को ख चते ए-से े पवत ग रराज हमालयक ओर चले॥ ५१ ॥ जसक तरंगमालाएँ झूम रही थ तथा जसके जलके ारा सम जल-ज ु इधर-उधर घुमाये जा रहे थे, उस महासागरको देखते ए हनुमा ी भगवान् व ुके हाथसे छू टे ए च क भाँ त सहसा आगे बढ़ गये॥ ५२ ॥ उनका वेग अपने पता वायुके ही समान था। वे अनेकानेक पवत , प य , सरोवर , न दय , तालाब , नगर तथा समृ शाली जनपद को देखते ए बड़े वेगसे आगे बढ़ने लगे॥ ५३ ॥



वीर हनुमान् अपने पताके ही तु परा मी और ती गामी थे। वे सूयके मागका आ य ले बना थके -माँदे शी तापूवक अ सर हो रहे थे॥ ५४ ॥ वानर सह पवनकु मार हनुमान् महान् वेगसे यु थे। वे स ूण दशा को श ायमान करते ए वायुके समान वेगसे आगे बढ़े॥ ५५ ॥ महाक प हनुमा ीका बल- व म बड़ा भय र था। उ ने जा वा े वचन का रण करते ए सहसा प ँ चकर हमालय पवतका दशन कया॥ ५६ ॥ वहाँ अनेक कारके सोते बह रहे थे। ब त-सी क राएँ और झरने उसक शोभा बढ़ा रहे थे। ेत बादल के समूहक भाँ त मनोहर दखायी देनेवाले शखर और नाना कारके वृ से



उस े पवतक अ तु शोभा हो रही थी। हनुमा ी उस पवतपर प ँ च गये॥ ५७ ॥ उस महापवतराजका सबसे ऊँ चा शखर सुवणमय दखायी देता था। वहाँ प ँ चकर हनुमा ीने परम प व बड़े-बड़े आ म देखे, जनम देव षय का े समुदाय नवास करता था॥ ५८ ॥ उस पवतपर ज हर गभ भगवान् ाका ान, उ के दूसरे प रजतना भका ान, इ का भवन, जहाँ खड़े होकर देवने पुरासुरपर बाण छोड़ा था, वह ान, भगवान् हय ीवका वास ान तथा ा देवताका दी मान् ान—ये सभी द ान दखायी दये। साथ ही यमराजके सेवक भी वहाँ गोचर ए॥ ५९ ॥ इसके सवा अ , कु बेर और ादश सूय के समावेशका भी सूयतु तेज ी ान उ गोचर आ। चतुमुख ा, शंकरजीके धनुष और वसु राक ना भके ान का भी उ ने दशन कया॥ ६० ॥ त ात् े कै लासपवत, हमालय- शला, शवजीके वाहन वृषभ तथा सुवणमय े पवत ऋषभको भी देखा। इसके बाद उनक स ूण ओष धय के उ म पवतपर पड़ी, जो सब कारक दी मती ओष धय से देदी मान हो रहा था॥ ६१ ॥ अ रा शके समान का शत होनेवाले उस पवतको देखकर पवनकु मार हनुमा ीको बड़ा व य आ। वे कू दकर ओष धय से भरे ए उस ग रराजपर चढ़ गये और वहाँ पूव चार ओष धय क खोज करने लगे॥ महाक प पवनपु हनुमा ी सह योजन लाँघकर वहाँ आये थे और द ओष धय को धारण करनेवाले उस शैल- शखरपर वचरण कर रहे थे॥ ६३ ॥ उस उ म पवतपर रहनेवाले स ूण महौष धयाँ यह जानकर क को◌इ हम लेनेके लये आ रहा है, त ाल अ हो गय ॥ ६४ ॥ उन ओष धय को न देखकर महा ा हनुमा ी कु पत हो उठे और रोषके कारण जोरजोरसे गजना करने लगे। ओष धय का छपाना उनके लये अस हो गया। उनक आँ ख अ के समान लाल हो गय और वे उस पवतराजसे इस कार बोले—॥ ६५ ॥



‘नगे ! तुम



ीरघुनाथजीपर भी कृ पा नह कर सके , ऐसा न य तुमने कस बलपर कया है? आज मेरे बा बलसे परा जत होकर तुम अपने-आपको सब ओर बखरा आ देखो’॥ ६६ ॥ ऐसा कहकर उ ने वेगसे पकड़कर वृ , हा थय , सुवण तथा अ सह कारक धातु से भरे ए उस पवत- शखरको ही सहसा उखाड़ लया। वेगसे उखाड़े जानेके कारण उसक ब त-सी चो टयाँ बखरकर गर पड़ । उस पवतका ऊपरी भाग अपनी भासे लतसा हो रहा था॥ ६७ ॥ उसे उखाड़कर साथ ले हनुमा ी देवे र और असुरे र स हत स ूण लोक को भयभीत करते ए ग ड़के समान भय र वेगसे आकाशम उड़ चले। उस समय ब त-से आकाशचारी ाणी उनक ु त कर रहे थे॥ ६८ ॥ सूयके समान चमकते ए उस पवत शखरको हाथम लेकर हनुमा ी सूयके ही पथपर जा प ँ चे थे। उस समय सूयदेवके समीप रहकर उ के समान तेज ी शरीरवाले वे पवनकु मार दूसरे सूयक भाँ त तीत होते थे॥ ६९ ॥ वायुदेवताके पु हनुमा ी पवतके समान जान पड़ते थे। उस पवत शखरके साथ उनक वैसी ही वशेष शोभा हो रही थी, जैसे सह धार से सुशो भत और अ क ालासे यु च धारण करनेसे भगवान् व ु सुशो भत होते ह॥ ७० ॥ उस समय उ लौटा देख सब वानर जोर-जोरसे गजना करने लगे। उ ने भी उन सबको देखकर बड़े हषसे सहनाद कया। उन सबके उस तुमुलनादको सुनकर ल ावासी नशाचर और भी भयानक ची ार करने लगे॥ ७१ ॥ तदन र हनुमा ी उस उ म पवत कू टपर कू द पड़े और वानरसेनाके म म आकर सभी े वानर को णाम करके वभीषणसे भी उ गले लगाकर मले॥ इसके बाद वे दोन राजकु मार ीराम और ल ण उन महौष धय क सुग लेकर हो गये। उनके शरीरसे बाण नकल गये और घाव भर गये। इसी कार जो दूसरे-दूसरे मुख वानर वीर वहाँ हताहत ए थे, वे सब-के -सब उन े ओष धय क सुग से रातके अ म सोकर उठे ए ा णय क भाँ त णभरम नीरोग हो उठकर खड़े हो गये। उनके शरीरसे बाण नकल गये और उनक सारी पीड़ा जाती रही॥ ल ाम जबसे वानर और रा स क लड़ा◌इ शु ◌इ, तभीसे वानरवीर ारा रणभू मम जो-जो रा स मारे जाते थे, वे सभी रावणक आ ाके अनुसार त दन मरते-मरते ही समु म



फ क दये जाते थे। ऐसा इस लये होता था क वानर को यह मालूम न हो क ब त-से रा स मार डाले गये॥ ७५-७६ ॥ त ात् च वेगवाले पवनकु मार हनुमा ीने पुन: ओष धय के उस पवतको वेगपूवक हमालयपर ही प ँ चा दया और फर लौटकर वे ीरामच जीसे आ मले॥ ७७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चौह रवाँ सग पूरा आ॥ ७४ ॥



पचह रवाँ सग ल ापुरीका दहन तथा रा स और वानर का भयंकर यु



तदन र महातेज ी वानरराज सु ीवने हनुमा ीसे आगेका कत सू चत करनेके लये कहा—॥ १ ॥ ‘कु कण मारा गया। रा सराजके पु का भी संहार हो गया; अत: अब रावण ल ापुरीक र ाका को◌इ ब नह कर सकता॥ २ ॥ ‘इस लये अपनी सेनाम जो-जो महाबली और शी गामी वानर ह , वे सब-के -सब मशाल ले-लेकर शी ही ल ापुरीपर धावा कर’॥ ३ ॥ सु ीवक इस आ ाके अनुसार सूया होनेपर भय र दोषकालम वे सभी े वानर मशाल हाथम ले-लेकर ल ाक ओर चले॥ ४ ॥ जब उ ाधारी वानर ने सब ओरसे आ मण कया, तब ार-र ाके कामम नयु ए रा स सहसा भाग खड़े ए॥ ५ ॥ वे गोपुर (दरवाज ), अ ा लका , सड़क , नाना कारक ग लय और महल म भी बड़े हषके साथ आग लगाने लगे॥ ६ ॥ वानर क लगायी ◌इ वह आग उस समय सह घर को जलाने लगी। पवताकार ासाद धराशायी होने लगे॥ ७ ॥ कह अगु जल रहा था तो कह परम उ म च न। मोती, म ण, हीरे और मूँगे भी द हो रहे थे॥ ८ ॥ वहाँ ौम (अलसी या सनके रेश से बना आ व ) भी जलता था और सु र रेशमी व भी। भेड़के रोएँ का क ल, नाना कारका ऊनी व , सोनेके आभूषण और अ -श भी जल रहे थे॥ ९ ॥ घोड़ के गहने, जीन आ द उपकरण जो अनेक कार और व च आकारके थे, द हो रहे थे। हाथीके गलेका आभूषण, उसे कसनेके लये र े तथा रथ के उपकरण, जो सु र बने ए थे, सब-के -सब आगम जलकर भ हो रहे थे॥ १० ॥



यो ा के कवच, हाथी और घोड़ के ब र, खड् ग, धनुष, ा, बाण, तोमर, अंकुश, श , रोमज (क ल आ द), वालज (चँवर आ द), आसनोपयोगी ा चम, अ ज (क ूरी आ द), मोती और म णय से ज टत व च महल तथा नाना कारके अ समूह— इन सबको सब ओर फै ली ◌इ आग जला रही थी॥ उस समय अ देवने नाना कारके व च गृह को द करना आर कया। जो घर म आस थे, सोनेके व च कवच धारण कये ए थे तथा हार, आभूषण और व से वभू षत थे, उन सभी रा स के आवास ान आगक लपट म आ गये॥ १३-१४ ॥ म दरापानसे जनके ने च ल हो रहे थे, जो नशेसे व ल हो लड़खड़ाते ए चलते थे, जनके व को उनक ेयसी य ने पकड़ रखा था, जो श ु पर कु पत थे, जनके हाथ म गदा, खड् ग और शूल शोभा पा रहे थे, जो खाने-पीनेम लगे थे, जो ब मू श ा पर अपनी ाणव भा के संग शयन कर रहे थे तथा जो आगसे भयभीत हो अपने पु को गोदम लेकर सब ओर ती ग तसे भाग रहे थे, ऐसे लाख ल ा नवा सय को उस समय अ ने जलाकर भ कर दया। वह आग वहाँ रह-रहकर पुन: लत हो उठती थी॥ १५—१७ १/२ ॥ जो ब त मजबूत और ब मू बने ए थे, गा ीय गुण से यु थे—अनेकानेक ो ढ़य , परकोट , आ रक गृह , ार और उप ार के कारण दुगम तीत होते थे, जो सुवण न मत अधच अथवा पूणच के आकारम बने ए थे, अ ा लका के कारण ब त ऊँ चे दखायी देते थे, व च झरोखे जनक शोभा बढ़ाते थे, जनम सब ओर सोने-बैठनेके लये श ा-आसन आ द सुस त थे, म णय और मूँग से ज टत होनेके कारण जनक व च शोभा हो रही थी, जो अपनी ऊँ चा◌इसे सूयदेवका श-सा कर रहे थे, जनम ौ और मोर के कलरव, वीणाक मधुर- न तथा भूषण क झनकार गूँज रही थ और जो पवताकार दखायी देते थे, उन सभी गृह को लत आगने जला दया॥ आगसे घरे ए ल ाके बाहरी दरवाजे ी -ऋतुम व ु ालाम त मेघसमूह के समान का शत होते थे॥ २१ १/२ ॥ अ क लपट म लपटे ए ल ापुरीके मकान दावा से द होते ए बड़े-बड़े पवत के शखर के समान जान पड़ते थे॥ २२ १/२ ॥ सतमहले भवन म सोयी ◌इ सु रयाँ जब आगसे द होने लग , उस समय सारे आभूषण को फ ककर हाय-हाय करती ◌इ उ रसे ची ार करने लग ॥



वहाँ आगक लपेटम आये ए कतने ही भवन इ के व के मारे ए महान् पवत के शखर के समान धराशायी हो रहे थे॥ २४ १/२ ॥ वे जलते ए गगनचु ी भवन दूरसे ऐसे जान पड़ते थे, मानो हमालयके शखर सब ओरसे द हो रहे ह ॥ २५ १/२ ॥ अ ा लका के जलते ए शखर उठती ◌इ ाला से आवे त हो रहे थे। रा म उनसे उपल त ◌इ ल ापुरी खले ए पलाश-पु से यु -सी दखायी देती थी॥ २६ १/२ ॥



हा थय के अ ने हा थय को और अ ा ने अ को भी खोल दया था। वे वहाँ इधर-उधर भाग रहे थे, इससे ल ापुरी लयकालम ा होकर घूमते ए ाह से यु महासागरके समान तीत होती थी॥ कह खुले ए घोड़ेको देखकर हाथी भयभीत होकर भागता था और कह डरे ए हाथीको देखकर भी घोड़ा भागने लगता था॥ २८ ॥ ल ापुरीके जलते समय समु म आगक ालाका त ब पड़ रहा था, जससे वह महासागर लाल पानीसे यु लालसागरके समान शोभा पाता था॥ २९ ॥ वानर ारा जसम आग लगायी गयी थी, वह ल ापुरी दो ही घड़ीम संसारके घोर संहारके समय द ◌इ पृ ीके समान तीत होने लगी॥ ३० ॥ धूएँसे आ ा दत और आगसे संत होकर उ रसे आतनाद करती ◌इ ल ाक ना रय का क ण न सौ योजन दूरतक सुनायी देता था॥ ३१ ॥ जनके शरीर जल गये थे, ऐसे जो-जो रा स नगरसे बाहर नकलते, उनके ऊपर यु क इ ावाले वानर सहसा टूट पड़ते थे॥ ३२ ॥ वानर क गजना और रा स के आतनादसे दस दशाएँ , समु और पृ ी गूँज उठ ॥ ३३ ॥



इधर बाण नकल जानेसे ए दोन भा◌इ महा ा ीराम और ल णने बना कसी घबराहटके अपने े धनुष उठाये॥ ३४ ॥ उस समय ीरामने अपने उ म धनुषको ख चा, उससे भयंकर टंकार कट ◌इ, जो रा स को भयभीत कर देनेवाली थी॥ ३५ ॥



ीरामच जी अपने वशाल धनुषको ख चते ए उसी तरह शोभा पा रहे थे, जैसे पुरासुरपर कु पत हो भगवान् शंकर अपने वेदमय धनुषक टंकार करते ए सुशो भत ए थे॥ ३६ ॥ वानर क गजना तथा रा स के कोलाहल—इन दोन कारके श से भी ऊपर उठकर ीरामके धनुषक टंकार सुनायी पड़ती थी॥ ३७ ॥ वानर क गजना, रा स का कोलाहल और ीरामके धनुषक टंकार—ये तीन कारके श दस दशा म ा हो रहे थे॥ ३८ ॥ भगवान् ीरामके धनुषसे छू टे ए बाण ारा ल ापुरीका वह नगर ार, जो कै लासशखरके समान ऊँ चा था, टूट-फू टकर भूतलपर बखर गया॥ ३९ ॥ सतमहले मकान तथा अ गृह पर गरते ए ीरामके बाण को देखकर रा सप तय ने यु के लये बड़ी भयंकर तैयारी क ॥ ४० ॥ कमर कसकर और कवच आ द बाँधकर यु के लये तैयार होते तथा सहनाद करते ए उन रा सप तय के लये वह रात कालरा के समान ा ◌इ थी॥ ४१ ॥ उस समय महा ा सु ीवने धान- धान वानर को यह आ ा दी—‘वानरवीरो! तुम सब लोग अपने-अपने नकटवत ारपर जाकर यु करो॥ ४२ ॥ ‘तुमलोग मसे जो वहाँ-वहाँ यु भू मम उप त होकर भी मेरे आदेशका पालन न करे— यु से मुँह मोड़कर भाग जाय, उसे तुम सब लोग पकड़कर मार डालना; क वह राजा ाका उ न करनेवाला होगा’॥ ४३ ॥ सु ीवक इस आ ाके अनुसार जब मु -मु वानर जलते मशाल हाथम लये नगर ारपर जाकर डट गये, तब रावणको बड़ा ोध आ॥ ४४ ॥ उसने अँगड़ा◌इ लेकर जो अ का संचालन कया, उससे दस दशाएँ ाकु ल हो उठ । वह काल के अ म कट ए मू तमान् ोधक भाँ त दखायी देने लगा॥ ४५ ॥ ोधसे भरे ए रावणने कु कणके दो पु कु और नकु को ब त-से रा स के साथ भेजा॥ रावणक आ ासे यूपा , शो णता , ज और क न भी कु कणके दोन पु के साथ-साथ यु के लये नकले॥ ४७ ॥



उस समय सहके समान दहाड़ते ए रावणने उन सम महाबली रा स को आदेश दया —‘वीर नशाचरो! इसी रातम तुमलोग यु के लये जाओ’॥ ४८ ॥ रा सराजक आ ा पाकर वे वीर रा स हाथ म चमक ले अ -श लये बार-बार गजना करते ए ल ापुरीसे बाहर नकले॥ ४९ ॥ रा स ने अपने आभूषण क तथा अपनी भासे और वानर ने मशालक आगसे वहाँके आकाशको काशसे प रपूण कर दया था॥ ५० ॥ च माक , न क और उन दोन सेना के आभूषण क लत भाने आकाशको का शत कर दया था॥ ५१ ॥ च माक चाँदनी, आभूषण क भा तथा काशमान ह क दी ने सब ओरसे रा स और वानर क सेना को उ ा सत कर रखा था॥ ५२ ॥ ल ाके अधजल गृह क भाका जलम त ब पड़नेसे च ल लहर वाला समु अ धक शोभा पा रहा था॥ ५३ ॥ रा स क वह भयंकर सेना जा-पताका से सुशो भत थी। सै नक के हाथ म उ म खड् ग और फरसे चमक रहे थे। भयानक घोड़े, रथ और हा थय से एवं नाना कारके पैदल सै नक से वह लैस थी। चमकते ए शूल, गदा, तलवार, भाले, तोमर और धनुष आ दसे यु ◌इ वह सेना भयानक व म एवं पु षाथ कट करनेवाली थी॥ ५४-५५ ॥ उस सेनाम भाले चमक रहे थे। सैकड़ घुँघु का झंकार सुनायी पड़ता था। सै नक क भुजा म सोनेके आभूषण बँधे ए थे। उनके ारा फरसे चलाये जा रहे थे, बड़े-बड़े श घुमाये जाते थे। धनुषपर बाण का संधान कया जाता था। च न, पु माला और मधुक अ धकतासे वहाँके महान् वातावरणम अनुपम ग छा रही थी। वह सेना शूरवीर से ा तथा महान् मेघ क गजनाके समान सहनादसे नना दत होनेके कारण भयंकर दखायी देती थी॥ ५६-५७ १/ ॥ २



रा स क उस दुजय सेनाको आती देख वानर-सेना आगे बढ़ी और उ रसे गजना करने लगी॥ रा स क वशाल सेना भी बड़े वेगसे उछलकर श ुसेनाक ओर उसी तरह अ सर ◌इ, जैसे पत आगपर टूट पड़ते ह॥ ५९ १/२ ॥



सै नक क भुजा के ापारसे जहाँ प रघ और अश न झूम रहे थे, रा स क वह उ म सेना बड़ी शोभा पा रही थी॥ ६० १/२ ॥ वहाँ यु क इ ावाले वानर उ -से होकर वृ , प र और मु से नशाचर को मारते ए उनपर टूट पड़े॥ ६१ १/२ ॥ इसी कार भयानक परा मी नशाचर भी अपने तीखे बाण से सामने आये ए वानर के म क सहसा काट-काटकर गराने लगे॥ ६२ १/२ ॥ वानर ने भी दाँत से नशाचर के कान काट लये, मु से मार-मारकर उनके म क वदीण कर दये और शला के हारसे उनके अ -भ कर दये। इस अव ाम वे रा स वहाँ वचर रहे थे॥ ६३ ॥ इसी कार घोर पधारी नशाचर ने भी मु -मु वानर को अपनी तीखी तलवार से सवथा घायल कर दया था॥ ६४ ॥ एक वीर जब दूसरे वप ी यो ाको मारने लगता था, तब दूसरा आकर उसे मारने लगता था। इसी कार एकको गराते ए यो ाको दूसरा आकर धराशायी कर देता था। एकक न ा करनेवालेक दूसरा न ा करता और एकको दाँतसे काटनेवालेको दूसरा आकर काट लेता था॥ ६५ ॥ एक आकर कहता क ‘मुझे यु दान करो’ तो दूसरा उसे यु का अवसर देता था; फर तीसरा कहता था क ‘तुम ेश उठाते हो? म इसके साथ यु करता ँ ।’ इस तरह वे एक-दूसरेसे बात करते थे॥ उस समय वानर और रा स म बड़ा भयंकर यु होने लगा। ह थयार गर जाते, कवच और अ -श छू ट जाते, बड़े-बड़े भाले ऊँ चे उठे दखायी देते तथा मु , शूल , तलवार और भाल क मार होती थी। उस यु लम रा स दस-दस या सात-सात वानर को एक साथ मार गराते थे और वानर भी दस-दस या सात-सात रा स को एक साथ धराशायी कर देते थे॥ ६७-६८ १/२ ॥ रा स के व खुल गये, कवच और ज टूट गये तथा उस रा सी सेनाको रोककर वानर ने सब ओरसे घेर लया॥ ६९ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पचह रवाँ सग पूरा आ॥ ७५ ॥



छह रवाँ सग अ दके ारा क न और ज का, वदके ारा शो णता का, मै के ारा यूपा का और सु ीवके ारा कु का वध



जब वीरजन का वनाश करनेवाला वह घोर घमासान यु चल रहा था, उस समय अ द सं ामके लये उ ुक होकर वीर क नका सामना करनेके लये आये॥ १ ॥ क नने अ दको ोधपूवक ललकारकर बड़े वेगसे उनके ऊपर पहले गदाका हार कया। इससे उनको बड़ी चोट प ँ ची और वे काँपकर बेहोश हो गये॥ फर चेत होनेपर तेज ी वीर अ दने एक पवतका शखर उठाकर उस रा सपर दे मारा। उस हारसे पी ड़त हो क न पृ ीपर गर पड़ा—उसके ाण-पखे उड़ गये॥ ३ ॥ क नको यु म मारा गया देख शो णता ने रथपर बैठकर तुरंत ही नभय हो अ दपर धावा कया॥ उसने शरीरको वदीण करनेम समथ और काला के समान आकारवाले तीखे तथा पैने बाण ारा बड़े वेगसे उस समय अ दको चोट प ँ चायी॥ ५ ॥ उसके चलाये ए रु १, रु २, नाराच३, व द ४, शलीमुख५, कण ६, श ७ और वपाठ८ नामक ब सं क तीखे बाण से जब तापी वा लपु अ दके सारे अ बध गये, तब उन बलवान् वीरने बड़े वेगसे उस रा सके भयंकर धनुष, रथ और बाण को कु चल डाला॥ ६-७ ॥



तदन र वेगवान् नशाचर शो णता ने कु पत हो त ाल ही ढाल और तलवार हाथम ले ली तथा वह बना सोचे- वचारे रथसे कू द पड़ा॥ ८ ॥ इतनेहीम बलवान् अ दने शी तापूवक उछलकर उसे पकड़ लया और अपने हाथसे उसक उस तलवारको छीनकर बड़े जोरसे सहनाद कया॥ ९ ॥ फर क पकु र अ दने उसके कं धेपर तलवारका वार कया और उसके शरीरको इस तरह चीर दया मानो उसने य ोपवीत पहन रखा हो॥ १० ॥ इसके बाद वा लपु ने उस वशाल खड् गको लेकर बार ार गजना करते ए यु के मुहानेपर दूसरे श ु पर धावा कया॥ ११ ॥



इतनेहीम ज को साथ लये बलवान् वीर यूपा ने कु पत हो रथके ारा महाबली वा लपु पर आ मण कया॥ १२ ॥ इसी बीचम सोनेके बाजूबंद पहने वीर शो णता ने अपनेको सँभालकर लोहेक गदा उठायी और अ दका ही पीछा कया॥ १३ ॥ फर यूपा स हत बलवान् महावीर ज कु पत हो महाबली वा लपु पर गदा लेकर चढ़ आया॥ १४ ॥ शो णता और ज दोन रा स के बीचम क प े अ द वैसी ही शोभा पा रहे थे, जैसे दोन वशाखा न के बीचम पूण च मा सुशो भत होते ह॥ उस समय मै और वद अ दक र ा करनेके लये उनके नकट आकर खड़े हो गये। वे दोन अपने-अपने यो वप ी यो ाक तलाश भी कर रहे थे॥ १६ ॥ इतनेहीम तलवार, बाण और गदा धारण कये ब त-से महाबली वशालकाय रा स रोषपूवक वानर पर टूट पड़े॥ १७ ॥ ये तीन वानर-सेनाप त उन तीन मुख रा स के साथ उलझे ए थे। उस समय उनम र गटे खड़े कर देनेवाला महान् यु छड़ गया॥ १८ ॥ उन तीन वानर ने रणभू मम वृ ले-लेकर यु म नशाचर पर चलाये, परंतु महाबली ज ने अपनी तलवारसे उन सब वृ को काट गराया॥ १९ ॥ त ात् उ ने रणभू मम उन रा स के रथ और घोड़ पर वृ तथा पवत शखर चलाये; परंतु महाबली यूपा ने अपने बाणसमूह से उनके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ २० ॥ मै और वदने जन- जन वृ को उखाड़-उखाड़कर उन रा स पर चलाया था, उन सबको बल- व मशाली और तापी शो णता ने गदा मारकर बीचम ही तोड़ डाला॥ २१ ॥ त ात् ज ने श ु के ममको वदीण करनेवाली एक ब त बड़ी तलवार उठाकर वा लपु अ दपर वेगपूवक आ मण कया॥ २२ ॥ उसे नकट आया देख अ तशय श शाली महाबली वानरराज अ दने अ कण नामक वृ से मारा। साथ ही उसक बाँहपर, जसम तलवार थी, उ ने एक घूसा मारा। वा लपु के उस आघातसे वह तलवार छू टकर पृ ीपर जा गरी॥ २३-२४ ॥



मूसल-जैसी उस तलवारको पृ ीपर पड़ी देख महाबली ज ने अपना व के समान भयंकर मु ा घुमाना आर कया॥ २५ ॥ उस महातेज ी नशाचरने महापरा मी वानर शरोम ण अ दके ललाटम बड़े जोरसे मु ा मारा, जससे अ दको दो घड़ीतक च र आता रहा॥ २६ ॥ इसके बाद होशम आनेपर तेज ी और तापी वा लकु मारने ज को ऐसा घूसा मारा क उसका सर धड़से अलग हो गया॥ २७ ॥ रणभू मम अपने चाचा ज के मारे जानेपर यूपा क आँ ख म आँ सू भर आये। उसके बाण न हो चुके थे। इस लये तुरंत ही रथसे उतरकर उसने तलवार हाथम ले ली॥ २८ ॥ यूपा को आ मण करते देख बलवान् वीर वदने कु पत हो बड़ी फु त के साथ उसक छातीम चोट क और उसे बलपूवक पकड़ लया॥ २९ ॥ भा◌इको पकड़ा गया देख महातेज ी एवं महाबली शो णता ने वदक छातीम गदा मारी॥ ३० ॥ शो णता क मार खाकर महाबली वद वच लत हो उठे । त ात् जब उसने पुन: गदा उठायी, तब वदने झपटकर उसे छीन लया॥ ३१ ॥ इसी बीचम परा मी मै भी वदके पास आ गये और उ ने यूपा क छातीम एक थ ड़ मारा॥ ३२ ॥ वे दोन वेगशाली वीर शो णता और यूपा उन दोन वानर मै और वदके साथ समरा णम बड़ी तेजीसे छीना-झपटी और पटका-पटक करने लगे॥ ३३ ॥ परा मी वदने अपने नख से शो णता का मुँह नोच लया और उसे बलपूवक पृ ीपर पटककर पीस डाला॥ ३४ ॥ त ात् अ ोधसे भरे ए वानरपु व मै ने यूपा को अपनी दोन बाँह से इस तरह दबाया क वह न ाण होकर पृ ीपर गर पड़ा॥ ३५ ॥ इन मुख वीर के मारे जानेपर रा सराजक सेना थत हो उठी और भागकर उस ओर चली गयी, जहाँ कु कणका पु यु कर रहा था॥ ३६ ॥ वेगसे भागकर आती ◌इ उस सेनाको कु ने सा ना दी। दूसरी ओर महापरा मी वानर यु म सफल होनेके कारण जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ ३७ ॥



रा ससेनाके बड़े-बड़े वीर को मारा गया देख तेज ी कु ने रणभू मम अ दु र कम करना आर कया॥ ३८ ॥ वह धनुधर म े था और यु म च को अ एका रखता था। उसने धनुष उठाया और शरीरको वदीण करनेम समथ एवं सपके समान वषैले बाण को बरसाना आर कया॥ ३९ ॥ उसका वह बाणस हत उ म धनुष व ुत् और ऐरावतक भासे यु तीय इ धनुषके समान अ धक शोभा पा रहा था॥ ४० ॥ उसने सोनेके प लगे ए प यु बाण ारा, जो धनुषको कानतक ख चकर छोड़ा गया था, वदको घायल कर दया॥ ४१ ॥ उसके बाणसे सहसा आहत होकर कू ट पवतके समान वशालकाय वानर े वद ाकु ल हो गये और छटपटाते ए पाँव फै लाकर पृ ीपर गर पड़े॥ ४२ ॥ उस महासमरम अपने भा◌इको घायल होकर गरा देख मै ब त बड़ी शला उठाकर वेगपूवक दौड़े॥ ४३ ॥ उन महाबली वीरने वह शला उस रा सपर चला दी; परंतु कु ने पाँच चमक ले बाण ारा उस शलाको टूक-टूक कर दया॥ ४४ ॥ फर वषधर सपके समान भयंकर और सु र अ भागवाला दूसरा बाण धनुषपर रखा और उसके ारा उस महातेज ी वीरने वदके बड़े भा◌इक छातीम गहरी चोट प ँ चायी॥ ४५ ॥ उसके उस हारसे वानरयूथप त मै के मम ानम भारी आघात प ँ चा और वे मू त होकर पृ ीपर गर पड़े॥ ४६ ॥ मै और वद अ दके मामा थे। उन दोन महाबली वीर को घायल आ देख अ द धनुष लेकर खड़े ए कु के ऊपर बड़े वेगसे टूटे॥ ४७ ॥ उ आते देख कु ने लोहेके बने ए पाँच बाण से घायल कर दया। फर तीन तीखे बाण और मारे। जैसे महावत अंकुशसे मतवाले हाथीको मारता है, उसी कार परा मी कु ने ब त-से बाण ारा अ दको ब ध डाला॥ ४८ ॥ जनक धार कु त नह ◌इ थ तथा जो सुवणसे वभू षत थे, ऐसे तेज और तीखे बाण से वा लपु अ दका सारा शरीर छद गया था तो भी वे क त नह ए॥ ४९ ॥



उ ने उस रा सके म कपर शला और वृ क वषा आर कर दी; कतु कु कणकु मार ीमान् कु ने वा लपु के चलाये ए उन सम वृ को काट दया और शला को भी तोड़-फोड़ डाला॥ ५० १/२ ॥ त ात् वानरयूथप त अ दको अपनी ओर आते देख कु ने दो बाण से उनक भ ह म हार कया, मानो दो उ ा ारा कसी हाथीको मारा गया हो॥ ५१ १/२ ॥ अ दक भ ह से र बहने लगा और उनक आँ ख बंद हो गय । तब उ ने एक हाथसे खूनसे भीगी ◌इ अपनी दोन आँ ख को ढक लया और दूसरे हाथसे पास ही खड़े ए एक सालके वृ को पकड़ा। फर छातीसे दबाकर तनेस हत उस वृ को कु छ कु ा दया और उस महासमरम एक ही हाथसे उसे उखाड़ लया॥ वह वृ इ ज तथा म राचलके समान ऊँ चा था। उसे अ दने सब रा स के देखतेदेखते बड़े वेगसे कु पर दे मारा॥ ५५ ॥ कतु शरीरको वदीण कर देनेवाले सात तीखे बाण मारकर कु ने उस सालवृ के टुकड़ेटुकड़े कर डाले, इससे अ दको बड़ी था ◌इ। वे घायल तो थे ही, गरे और मू त हो गये॥ ५६ ॥ दुजय वीर अ दको समु म डू बते ए-के समान पृ ीपर पड़ा देख े वानर ने ीरघुनाथजीको इसक सूचना दी॥ ५७ ॥ ीरामने जब सुना क वा लपु अ द महासमरम मू त होकर गरे ह, तब उ ने जा वान् आ द मुख वानरवीर को यु के लये जानेक आ ा दी॥ ५८ ॥ ीरामच जीका आदेश सुनकर े वानर वीर अ कु पत हो धनुष उठाये खड़े ए कु पर सब ओरसे टूट पड़े॥ ५९ ॥ वे सभी मुख वानर अ दक र ा करना चाहते थे; अत: ोधसे लाल आँ ख कये हाथ म वृ और शलाएँ लेकर उस रा सक ओर दौड़े॥ ६० ॥ जा वान्, सुषेण और वेगदश ने कु पत हो वीर कु कणकु मारपर धावा कया॥ ६१ ॥ उन महाबली वानर-यूथप तय को आ मण करते देख कु ने अपने बाणसमूह ारा उन सबको उसी तरह रोक दया, जैसे आगे बढ़ते ए जल- वाहको मागम खड़ा आ पवत रोक देता है॥ ६२ ॥



उसके बाण के मागम आनेपर वे महामन ी वानर-यूथप त आगे बढ़ना तो दूर रहा उसक ओर आँ ख उठाकर देख भी नह पाते थे। ठीक उसी तरह, जैसे महासागर अपनी तटभू मको लाँघकर आगे नह जा सकता था॥ ६३ ॥ उन सब वानरसमूह को कु क बाणवषासे पी ड़त देख वानरराज सु ीवने अपने भतीजे अ दको पीछे करके यं ही रणभू मम कु कणकु मारपर उसी तरह धावा कया, जैसे पवतके शखरपर वचरनेवाले हाथीके ऊपर वेगवान् सह आ मण करता है॥ ६४-६५ ॥ महाक प सु ीव अ कण आ द बड़े-बड़े वृ तथा दूसरे भी नाना कारके वृ उखाड़कर उस रा सपर फ कने लगे॥ ६६ ॥ वृ क वह वषा आकाशको आ ा दत कये देती थी। उसे टालना अ क ठन हो रहा था; कतु ीमान् कु कणने अपने तीखे बाण से उन सब वृ को काट डाला॥ ६७ ॥ ल बेधनेम सफल, ती वेगशाली कु के पैने बाण से ा ए वे वृ भयानक शत य के समान सुशो भत होते थे। उस वृ -वृ को कु के ारा ख त ◌इ देख महान् श शाली परा मी वानरराज सु ीव थत नह ए॥ ६८ १/२ ॥ वे उसके बाण क चोट खाते और सहते ए सहसा उछलकर उसके रथपर चढ़ गये और कु के इ -धनुषके समान तेज ी धनुषको छीनकर उ ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। त ात् वे शी ही वहाँसे नीचे कू द पड़े। यह दु र कम करनेके प ात् उ ने टूटे दाँतवाले हाथीके समान कु से कु पत ९२५ होकर कहा—॥ ६९-७० १/२ ॥ ‘ नकु के बड़े भा◌इ कु ! तु ारा परा म और तु ारे बाण का वेग अ तु है। रा स के त वनय अथवा वणता तथा भाव या तो तुमम है या रावणम। तुम ाद, ब ल, इ , कु बेर और व णके समान हो॥ ‘के वल तुमने ही अपने अ बलशाली पताका अनुसरण कया है। जैसे जते य पु षको मान सक थाएँ अ भभूत नह करती ह, उसी कार श ु का दमन करनेवाले एकमा शूलधारी तुझ महाबा वीरको ही देवतालोग यु म परा नह कर पाते ह। महामते! परा म कट करो और अब मेरे बलको भी देखो॥ ७३-७४ ॥ ‘तु ारा पतृ रावण के वल वरदानके भावसे देवता और दानव का वेग सहन करता है। तु ारा पता कु कण अपने बल-परा मसे देवता और असुर का सामना करता था (परंतु तुम वरदान और परा म दोन से स हो)॥ ७५ ॥



‘तुम धनु व



ाम इ ज े समान और तापम रावणके तु हो। रा स के संसारम अब बल और परा मक से के वल तु े हो॥ ७६ ॥ ‘आज सब ाणी रणभू मम इ और श रासुरक भाँ त मेरे साथ तु ारे अ तु महायु को देख॥ ७७ ॥ ‘तुमने वह परा म कया है, जसक कह तुलना नह है। तुमने अपना अ -कौशल दखा दया। तु ारे साथ यु करके ये भयंकर परा मी वानर वीर धराशायी हो गये॥ ७८ ॥ ‘वीर! अबतक जो मने तु ारा वध नह कया है, उसम कारण है लोग के उपाल का भय —लोग यह कहकर मेरी न ा करते क कु ब त-से वीर के साथ यु करके थक गया था, उस दशाम सु ीवने उसे मारा है; अत: अब तुम कु छ व ाम कर लो, फर मेरा बल देखो’॥ ७९ ॥



सु ीवके इस अपमानयु वचन ारा स ा नत हो घीक आ त पाये ए अ देवके समान कु का तेज बढ़ गया॥ ८० ॥ फर तो कु ने सु ीवको अपनी दोन भुजा से पकड़ लया। त ात् वे दोन वीर मदम गजराज क भाँ त बारंबार लंबी साँस ख चते ए एक-दूसरेसे गुँथ गये। दोन दोन को रगड़ने लगे और दोन ही अपने मुखसे प र मके कारण धूमयु आगक ाला-सी उगलने लगे॥ ८१-८२ ॥ उन दोन के पैर के आघातसे धरती नीचेको धँसने लगी। झूमती ◌इ तर से यु व णालय समु म ार-सा आ गया॥ ८३ ॥ इतनेहीम सु ीवने कु को उठाकर बड़े वेगसे समु के जलम फ क दया। उसम गरते ही कु को समु का नचला तल देखना पड़ा॥ ८४ ॥ कु के गरनेसे बड़ी भारी जलरा श ऊपरको उठी, जो व और म राचलके समान जान पड़ी और सब ओर फै ल गयी॥ ८५ ॥ इसके बाद कु पुन: उछलकर बाहर आया और ोधपूवक सु ीवको पटककर उनक छातीपर उसने व के समान मु े से हार कया॥ ८६ ॥ इससे वानरराजका कवच टूट गया और छातीसे खून बहने लगा। उसका महान् वेगशाली मु ा सु ीवक ह य पर बड़े वेगसे लगा था॥ ८७ ॥



उसके वेगसे वहाँ बड़ी भारी ाला जल उठी थी, मानो मे पवतके शखरपर व के आघातसे आग कट हो गयी हो॥ ८८ ॥ कु के ारा इस कार आहत होनेपर वानरराज महाबली परम परा मी सु ीवने भी अपना व तु मु ा सँभाला और कु क छातीम बलपूवक आघात कया। उस मु े का तेज सह करण से का शत सूयम लके समान उ ी हो रहा था॥ ८९-९० ॥ उस हारसे कु को बड़ी पीड़ा ◌इ। वह ाकु ल हो बुझी ◌इ आगक तरह गर पड़ा॥ ९१ ॥ सु ीवके मु े क चोट खाकर वह रा स आकाशसे अक ात् गरनेवाले मंगलक भाँ त त ाल धराशायी हो गया॥ ९२ ॥ मु े क मारसे जसका व : ल चूर-चूर हो गया था, वह कु जब नीचे गरने लगा, तब उसका प देवसे अ भभूत ए सूयदेवके समान जान पड़ा॥ ९३ ॥ भयंकर परा मी वानरराज सु ीवके ारा यु म उस नशाचरके मारे जानेपर पवत और वन स हत सारी पृ ी काँपने लगी और रा स के दयम अ भय समा गया॥ ९४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छह रवाँ सग पूरा आ॥ ७६ ॥ १. जसका अ भाग ना◌इके छु रेके समान हो, उसे ‘ रु ’ कहते ह। २. अ च ाकार बाण। ३. पूणत: लोहेके बने ए बाणका नाम ‘नाराच’ है। उसम नीचेसे ऊपरतक सब-का-सब लोहा ही होता है। ४. बछड़ेके दाँतके समान जसका अ भाग हो, उसे ‘व द ’ कहा गया है। ५. जसका मुखभाग क (वक वशेष)-क पाँख के समान हो, उस बाणको ‘ शलीमुख’ कहते ह। ६. जस बाणके दोन पा भाग म कानका-सा आकार बना हो, वह ‘कण ’ कहलाता है। ७. जसका फाल या अ भाग बड़ा हो, वह ‘श ’ है। कसी- कसीके मतम आधे नाराचको ‘श ’ कहते ह। ८. कनेरके प ेके अ भागके समान आकारवाले बाणका नाम ‘ वपाठ’ है। (रामायण तलकसे)



सतह रवाँ सग हनुमा े



ारा नकु का वध



सु ीवके ारा अपने भा◌इ कु को मारा गया देख नकु ने वानरराजक ओर इस कार देखा, मानो उ अपने ोधसे द कर देगा॥ १ ॥ उस धीर-वीरने महे पवतके शखर-जैसा एक सु र एवं वशाल प रघ हाथम लया, जो फू ल क ल ड़य से अलंकृत था और जसम पाँच-पाँच अंगुलके चौड़े लोहेके प जड़े गये थे॥ २ ॥



उस प रघम सोनेके प भी जड़े थे और उसे हीरे तथा मूँग से भी वभू षत कया गया था। वह प रघ यमद के समान भयंकर तथा रा स के भयका नाश करनेवाला था॥ ३ ॥ उस इ जके समान तेज ी प रघको घुमाता आ वह महातेज ी भयानक परा मी रा स नकु मुँह फै लाकर जोर-जोरसे गजना करने लगा॥ ४ ॥ उसके व : लम सोनेका पदक था। भुजा म बाजूबंद शोभा देते थे। कान म व च कु ल झलमला रहे थे और गलेम व च माला जगमगा रही थी। इन सब आभूषण से और उस प रघसे भी नकु क वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे व ुत् और गजनासे यु मेघ इ धनुषसे सुशो भत होता है॥ ५-६ ॥ उस महाकाय रा सके प रघके अ भागसे टकराकर वह-आवह आ द सात महावायु क सं ध टूट-फू ट गयी तथा वह भारी गड़गड़ाहटके साथ धूमर हत अ क भाँ त लत हो उठा॥ ७ ॥ नकु के प रघ घुमानेसे वटपावती नगरी (अलकापुरी), ग व के उ म भवन, तारे, न , च मा तथा बड़े-बड़े ह के साथ सम आकाशम ल घूमता-सा तीत होता था॥ ८ ॥



प रघ और आभूषण ही जसक भा थे, ोध ही जसके लये ◌इं धनका काम कर रहा था, वह नकु नामक अ लयकालक आगके समान उठी और अ दुजय हो गयी॥ ९ ॥



उस समय रा स और वानर भयके मारे हल-डु ल भी न सके । के वल महाबली हनुमान् अपनी छाती खोलकर उस रा सके सामने खड़े हो गये॥ १० ॥ नकु क भुजाएँ प रघके समान थ । उस महाबली रा सने उस सूयतु तेज ी प रघको बलवान् वीर हनुमा ीक छातीपर दे मारा॥ ११ ॥ हनुमा ीक छाती बड़ी सु ढ़ और वशाल थी। उससे टकराते ही उस प रघके सहसा सैकड़ टुकड़े होकर बखर गये, मानो आकाशम सौ-सौ उ ाएँ एक साथ गरी ह ॥ १२ ॥ महाक प हनुमा ी प रघसे आहत होनेपर भी उस हारसे वच लत नह ए, जैसे भूक होनेपर भी पवत नह गरता है॥ १३ ॥ अ महान् बलशाली वानर शरोम ण हनुमा ीने इस कार प रघक मार खाकर बलपूवक अपनी मु ी बाँधी॥ १४ ॥ वे महान् तेज ी, परा मी, वेगवान् और वायुके समान बल- व मसे स थे। उ ने मु ा तानकर बड़े वेगसे नकु क छातीपर मारा॥ १५ ॥ उस मु े क चोटसे वहाँ उसका कवच फट गया और छातीसे र बहने लगा; मानो मेघम बजली चमक उठी हो॥ १६ ॥ उस हारसे नकु वच लत हो उठा; फर थोड़ी ही देरम सँभलकर उसने महाबली हनुमा ीको पकड़ लया॥ १७ ॥ उस समय यु लम नकु के ारा महाबली हनुमा ीका अपहरण होता देख ल ा नवासी रा स भयानक रम वजयसूचक गजना करने लगे॥ १८ ॥ उस रा सके ारा इस कार अप त होनेपर भी पवनपु हनुमा ीने अपने व तु मु े से उसपर हार कया॥ १९ ॥ फर वे अपनेको उसके चंगुलसे छु ड़ाकर पृ ीपर खड़े हो गये। तदन र वायुपु हनुमा े त ाल ही नकु को पृ ीपर दे मारा॥ २० ॥ इसके बाद उन वेगशाली वीरने बड़े याससे नकु को पृ ीपर गराया और खूब रगड़ा। फर वेगसे उछलकर वे उसक छातीपर चढ़ बैठे और दोन हाथ से गला मरोड़कर उ ने उसके म कको उखाड़ लया। गला मरोड़ते समय वह रा स भयंकर आतनाद कर रहा था॥ २१-२२ ॥



रणभू मम वायुपु हनुमा ीके ारा गजना करनेवाले नकु के मारे जानेपर एक-दूसरेपर अ कु पत ए ीराम और मकरा म बड़ा भयंकर यु आ॥ २३ ॥ नकु के ाण ाग करनेपर सभी वानर बड़े हषके साथ गजने लगे। स ूण दशाएँ कोलाहलसे भर गय । पृ ी चलती-सी जान पड़ी, आकाश मानो फट पड़ा हो, ऐसा तीत होने लगा तथा रा स क सेनाम भय समा गया॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म सतह रवाँ सग पूरा आ॥ ७७ ॥



अठह रवाँ सग रावणक आ ासे मकरा का यु के लये



ान



नकु और कु को मारा गया सुनकर रावणको बड़ा ोध आ। वह आगके समान जल उठा॥ १ ॥ रावणने ोध और शोक दोन से ाकु ल हो वशाल ने वाले खरपु मकरा से कहा —॥ २ ॥ ‘बेटा! मेरी आ ासे वशाल सेनाके साथ जाओ और बंदर स हत उन दोन भा◌इ राम तथा ल णको मार डालो’॥ ३ ॥ रावणक यह बात सुनकर अपनेको शूरवीर माननेवाले खरपु मकरा ने हषपूवक कहा —‘ब त अ ा’। फर उस बली वीरने नशाचरराज रावणको णाम करके उसक प र मा क और उसक आ ा लेकर वह उ ल राजभवनसे बाहर नकला॥ ४-५ ॥ पास ही सेना खड़ा था। खरके पु ने उससे कहा—‘सेनापते! शी रथ ले आओ और तुरंत ही सेनाको भी बुलवाओ’॥ ६ ॥ मकरा क यह बात सुनकर नशाचर सेनाप तने रथ और सेना उसके पास लाकर खड़ी कर दी॥ ७ ॥ तब मकरा ने रथक द णा क और उसपर आ ढ़ होकर सार थको आदेश दया —‘रथको शी ता-पूवक ले चलो’॥ ८ ॥ इसके बाद मकरा ने सम रा स से कहा— ‘ नशाचरो! तुमलोग मेरे आगे रहकर यु करो॥ ९ ॥ ‘मुझे महामना रा सराज रावणने समरभू मम राम और ल ण दोन भाइय को मारनेक आ ा दी है॥ ‘रा सो! आज म राम, ल ण, वानरराज सु ीव तथा दूसरे-दूसरे वानर का अपने उ म बाण ारा वध क ँ गा॥ ११ ॥ ‘जैसे आग सूखी लकड़ीको जला देती है, उसी कार आज म शूल क मारसे सामने आयी ◌इ वानर क वशाल वा हनीको द कर डालूँगा’॥ १२ ॥



मकरा का यह वचन सुनकर नाना कारके अ -श से स वे सम बलवान् नशाचर यु के लये सावधान हो गये॥ १३ ॥ वे सब-के -सब इ ानुसार प धारण करनेवाले और ू र भावके थे। उनक दाढ़ बड़ीबड़ी और आँ ख भूरी थ । उनके के श सब ओर बखरे ए थे; इस लये वे बड़े भयानक जान पड़ते थे। हाथीके समान च ाड़ते ए वे वशालकाय नशाचर खरके पु महाकाय मकरा को चार ओरसे घेरकर पृ ीको कँ पाते ए बड़े हषके साथ यु भू मक ओर चले॥ १४-१५ ॥ उस समय चार ओर सह श क न हो रही थी। हजार डंके पीटे जाते थे। यो ा के गजने और ताल ठ कनेक आवाज भी उनके साथ मली ◌इ थी। इस कार वहाँ बड़ा भारी कोलाहल मच गया था॥ उस समय मकरा के सार थके हाथसे चाबुक छू टकर नीचे गर पड़ा और दैववश उस रा सका ज भी सहसा धराशायी हो गया॥ १७ ॥ उसके रथम जुते ए घोड़े व मर हत हो गये— वे अपनी नाना कारक व च चाल भूल गये। पहले तो कु छ दूरतक आकु ल—लड़खड़ाते ए पैर से गये; फर ठीकसे चलने लगे। परंतु भीतरसे वे ब त दु:खी थे। उनके मुखपर आँ सूक धारा बह रही थी॥ १८ ॥ दु बु वाले उस भयंकर रा स मकरा क या ाके समय धूलसे भरी ◌इ दा ण एवं च वायु चलने लगी थी॥ १९ ॥ उन सब अपशकु न को देखकर भी वे महाबलशाली रा स उनक को◌इ परवा न करके सब-के -सब उस ानपर गये, जहाँ ीराम और ल ण व मान थे॥ उन रा स क अ का मेघ, हाथी और भस के समान काली थी। वे यु के मुहानेपर अनेक बार गदा और तलवार क चोटसे घायल हो चुके थे। उनम यु वषयक कौशल व मान था। वे नशाचर ‘पहले म यु क ँ गा, पहले म यु क ँ गा’ ऐसा बारंबार कहते ए वहाँ सब ओर च र लगाने लगे॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अठह रवाँ सग पूरा आ॥ ७८ ॥



उ ासीवाँ सग ीरामच जीके ारा मकरा का वध



धान- धान वानर ने जब देखा क मकरा नगरसे नकला आ रहा है, तब वे सब-के सब सहसा उछलकर यु के लये खड़े हो गये॥ १ ॥ फर तो वानर का नशाचर के साथ बड़ा भारी यु छड़ गया, जो देव-दानव-सं ामके समान र गटे खड़े कर देनेवाला था॥ २ ॥ वानर और नशाचर वृ , शूल, गदा और प रघ क मारसे उस समय एक-दूसरेको कु चलने लगे॥ ३ ॥ नशाचरगण श , खड् ग, गदा, भाला, तोमर, प श, भ पाल, बाण हार, पाश, मु र, द तथा अ कारके श के आघातसे सब ओर वानरवीर का संहार करने लगे॥ ४-५ ॥



खरपु मकरा ने अपने बाणसमूह से वानर को अ घायल कर दया। उनके मनम बड़ी घबराहट ◌इ और वे सब-के -सब भयसे पी ड़त हो इधर-उधर भागने लगे॥ ६ ॥ उन सब वानर को भागते देख वजयो ाससे सुशो भत होनेवाले वे सम रा स दपसे भरकर सहके समान गजना करने लगे॥ ७ ॥ वे वानर जब सब ओर भागने-पराने लगे, तब ीरामच जीने बाण क वषा करके रा स को आगे बढ़नेसे रोका॥ ८ ॥ रा स को रोका गया देख नशाचर मकरा ोधक आगसे जल उठा और इस कार बोला—॥ ९ ॥ ‘राम! ठहरो, मेरे साथ तु ारा यु होगा। आज अपने धनुषसे छू टे ए पैने बाण ारा तु ारे ाण हर लूँगा॥ १० ॥ ‘उन दन द कार के भीतर जो तुमने मेरे पताका वध कया था, तभीसे लेकर अबतक तुम रा स-वधके ही कमम लगे ए थे। इस पम तु ारा रण करके मेरा रोष बढ़ता जा रहा है॥ ११ ॥



‘दुरा



ा राघव! उस समय वशाल द कार म जो तुम मुझे दखायी नह दये, इससे मेरे अ अ रोषसे जलते रहते थे॥ १२ ॥ ‘ कतु राम! सौभा क बात है, जो तुम आज यहाँ मेरी आँ ख के सामने पड़ गये। जैसे भूखसे पी ड़त ए सहको दूसरे वन-ज ु क अ भलाषा होती है, उसी तरह म भी तु पानेक इ ा करता था॥ १३ ॥ ‘आज मेरे बाण के वेगसे यमराजके रा म प ँ चकर तु उ वीर नशाचर के साथ नवास करना पड़ेगा, जो तु ारे हाथसे मारे गये ह॥ १४ ॥ ‘राम! यहाँ ब त कहनेसे ा लाभ? मेरी बात सुनो। सब लोग इस समरा णम खड़े होकर के वल तुमको और मुझको देख—तु ारे और मेरे यु का अवलोकन कर॥ १५ ॥ ‘राम! तु रणभू मम अ से, गदासे अथवा दोन भुजा से— जससे भी अ ास हो, उसीके ारा आज तु ारे साथ मेरा यु हो’॥ १६ ॥ मकरा क यह बात सुनकर दशरथन न भगवान् ीराम जोर-जोरसे हँ सने लगे और उ रो र बात बनानेवाले उस रा ससे बोले—॥ १७ ॥ ‘ नशाचर! थ ड ग हाँकता है। तेरे मुँहसे ब त-सी ऐसी बात नकल रही ह, जो वीर पु ष के यो नह ह। सं ामम यु कये बना कोरी बकवासके बलसे वजय नह ा हो सकती॥ १८ ॥ ‘पापी रा स! यह ठीक है क द कार म चौदह हजार रा स के साथ तेरे पता खरका, शराका और दूषणका भी मने वध कया था। उस समय तीखी च च और अंकुशके समान पंजेवाले ब त-से गीध , गीदड़ तथा कौ को भी उनके मांससे अ ी तरह तृ कया था और अब आज वे तेरे मांससे भरपेट भोजन पायगे’॥ ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर महाबली मकरा ने रणभू मम उनके ऊपर बाण-समूह क वषा आर कर दी॥ २१ ॥ परंतु ीरामने यं भी बाण क बौछार करके उस रा सके बाण टुकड़े-टुकड़े कर डाले। वे कटे ए सुनहरी पाँखवाले सह बाण पृ ीपर गर पड़े॥ २२ ॥ दशरथन न भगवान् ीराम और रा स खरके पु मकरा —इन दोन म एक-दूसरेके नकट आकर बलपूवक यु होने लगा॥ २३ ॥



उन दोन क ा और हथेलीक रगड़से धनुषके ारा जो टंकार-श कट होता था, वह उस समरा णम पर र मलकर उसी तरह सुनायी देता था, जैसे आकाशम दो मेघ के गजनेक आवाज हो रही हो॥ देवता, दानव, ग व, क र और बड़े-बड़े नाग—ये सब-के -सब उस अ तु यु को देखनेके लये अ र म आकर खड़े हो गये॥ २५ ॥ दोन के शरीर बाण से बध गये थे; फर भी उनका बल दुगुना बढ़ता जाता था। वे दोन सं ामभू मम एक-दूसरेके अ को काटते ए लड़ रहे थे॥ २६ ॥ ीरामच जीके छोड़े ए बाण-समूह को वह रा स रणभू मम काट डालता था और रा सके चलाये ए सायक को ीरामच जी अपने बाण ारा टूक-टूक कर डालते थे॥ २७ ॥ स ूण दशा और व दशाएँ बाण-समूह से आ ा दत हो गयी थ तथा सारी पृ ी ढक गयी थी। चार ओर कु छ भी दखायी नह देता था॥ २८ ॥ तदन र महाबा ीरामच जीने ोधम भरकर उस रा सके धनुषको यु भू मम काट दया और आठ नाराच ारा उसके सार थको भी पीट दया॥ २९ ॥ फर अनेक बाण से रथको छ - भ करके ीरामने घोड़ को भी मार गराया। रथहीन हो जानेपर नशाचर मकरा भू मपर खड़ा हो गया॥ ३० ॥ पृ ीपर खड़े ए उस रा सने शूल हाथम लया, जो लयकालक अ के समान दी मान् तथा सम ा णय को भयभीत करनेवाला था॥ ३१ ॥ वह परम दुलभ और महान् शूल भगवान् शंकरका दया आ था, जो ब त ही भयंकर था। वह दूसरे संहारा क भाँ त आकाशम लत हो उठा॥ उसे देखकर स ूण देवता भयसे पी ड़त हो सब दशा म भाग गये। उस नशाचरने लत होते ए उस महान् शूलको घुमाकर महा ा ीरघुनाथजीके ऊपर ोधपूवक चलाया॥ ३३ १/२ ॥ खरपु मकरा के हाथसे छू टे ए उस लत शूलको अपनी ओर आते देख ीरामच जीने चार बाण मारकर आकाशम ही उसको काट डाला॥ ३४ १/२ ॥ द सुवणसे वभू षत वह शूल ीरामके बाण से ख त हो अनेक टुकड़ म बँट गया और बड़ी भारी उ ाके समान भूतलपर बखर गया॥ ३५ ॥



अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामके ारा उस शूलको ख त आ देख आकाशम त ए सभी ाणी उ साधुवाद देने लगे॥ ३६ ॥ उस शूलके टुकड़े-टुकड़े ए देख नशाचर मकरा ने घूसा तानकर ीरामच जीसे कहा —‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥ ३७ ॥ उसे आ मण करते देख ीरामच जीने हँ सकर अपने धनुषपर आ ेया का संधान कया॥ ३८ ॥ और उस अ के ारा उ ने रणभू मम त ाल उस रा सपर हार कया। बाणके आघातसे रा सका दय वदीण हो गया; अत: वह गरा और मर गया॥ ३९ ॥ मकरा का धराशायी होना देख वे सब रा स ीरामच जीके बाण के भयसे ाकु ल हो ल ाम ही भाग गये॥ ४० ॥ देवता ने देखा, जैसे व का मारा आ पवत बखर जाता है, उसी कार खरका पु नशाचर मकरा दशरथकु मार ीरामच जीके बाण के वेगसे मार डाला गया। इससे उ बड़ी स ता ◌इ॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म उ ासीवाँ सग पूरा आ॥ ७९ ॥



अ रावणक आ ासे इ







ीवाँ सग



ा घोर यु तथा उसके वधके वषयम ीराम और ल बातचीत



णक



मकरा को मारा गया सुनकर समर वजयी रावण महान् रोषसे भरकर दाँत पीसने लगा॥ १ ॥



कु पत आ वह नशाचर उस समय वहाँ इस च ाम पड़ गया क अब ा करना चा हये। उसने अ ोधसे भरकर अपने पु इ ज ो यु के लये जानेक आ ा दी॥ २ ॥



वह बोला—‘वीर! तुम महापरा मी राम और ल ण दोन भाइय को छपकर या पसे मार डालो; क तुम बलम सवथा बढ़े-चढ़े हो॥ ३ ॥ ‘ जसके परा मक कह तुलना नह है, उस इ को भी तुम यु म परा कर देते हो; फर उन दो मनु को रणभू मम अपने सामने पाकर नह मार सकोगे?’॥ ४ ॥ रा सराज रावणके ऐसा कहनेपर इ ज े पताक आ ा शरोधाय क और य भू मम जाकर अ क ापना करके उसम व धपूवक हवन कया॥ ५ ॥ उसके अ म हवन करते समय लाल व धारण कये ब त-सी याँ घबरायी ◌इ उस ानपर आय , जहाँ वह रावणपु हवन कर रहा था॥ ६ ॥ उसके तलवार आ द श ही सरपत—कु शा रणका काम दे रहे थे, बहेड़के लकड़ी स मधा थी, लाल व और लोहेका ुवा—ये सब व ुएँ उपयोगम लायी गयी थ ॥ ७ ॥ उसने तोमरस हत श पी सरपत अ के चार ओर बछा दये। उसके बाद काले रंगके जी वत बकरेका गला पकड़कर उसे अ म होम दया॥ ८ ॥ एक ही बार कये गये उस होमसे अ लत हो उठी, उसम धुआँ नह था और बड़ीबड़ी लपट उठ रही थ । उस अ म वे सभी च कट ए, जो वजयक सूचना देते थे॥ ९ ॥ उस समय तपाये ए सुवणके समान का मान् अ देवने यं कट होकर ह व हण कया। उनक ाला द णावत होकर नकल रही थी॥ १० ॥



अ म आ त दे आ भचा रक य -स ी देवता, दानव तथा रा स को तृ करनेके प ात् इ जत् अ धान होनेक श से स सु र रथपर आ ढ़ आ॥ ११ ॥ चार घोड़ , पैने बाण तथा अपने भीतर रखे ए वशाल धनुषसे यु वह उ म रथ बड़ी शोभा पा रहा था॥ १२ ॥ उसके सब सामान सोनेके बने ए थे, अत: वह रथ अपने पसे लत-सा जान पड़ता था। उसम मृग, अधच और पूणच अ त कये गये थे, जनसे उसक सजावट आकषक दखायी देती थी॥ १३ ॥ इ ज ा ज लत अ के समान दी मान् था। उसम सोनेके बड़े-बड़े कड़े पहनाये गये थे और उसे नीलमसे अलंकृत कया गया था॥ १४ ॥ उस सूयतु तेज ी रथ और ा से सुर त आ वह महाबली रावणकु मार इ जत् दूसर के लये दुजय हो गया था॥ १५ ॥ समर वजयी इ जत् नगरसे नकलकर नऋ त-देवता-स ी म से अ म आ त दे अ धानक श से स हो इस कार बोला—॥ १६ ॥ ‘जो थ ही वनम आये ह (अथवा झूठे ही तप ीका बाना धारण कये ए ह), उन दोन भा◌इ राम और ल णको आज रणभू मम मारकर म अपने पता रावणको उ ृ जय दान क ँ गा॥ १७ ॥ ‘आज राम और ल णको मारकर पृ ीको वानर से सूनी करके म पताको परम संतोष दूँगा।’ ऐसा कहकर वह अ हो गया॥ १८ ॥ त ात् दशमुख रावणसे े रत हो इ श ु इ जत् कु पत होकर रणभू मम आया। उसके हाथम धनुष और तीखे नाराच थे॥ १९ ॥ यु लम आकर उस नशाचरने वानर के बीचम खड़े हो बाण-समूह क वषा करते ए महापरा मी वीर ीराम और ल णको वहाँ (ऊँ चे और मोटे कं ध से यु होनेके कारण) तीन सरवाले नाग के समान देखा॥ ‘ये ही वे दोन ह’ ऐसा सोचकर इ ज े अपने धनुषपर ा चढ़ायी और जलक वषा करनेवाले मेघक भाँ त अपनी बाण-धारा से स ूण दशा को भर दया॥ २१ ॥



उसका रथ आकाशम खड़ा था और ीराम तथा ल ण यु भू मम वराजमान थे। उन दोन क से ओझल होकर वह रा स उ पैने बाण से ब धने लगा॥ २२ ॥ उसके बाण के वेगसे ा ए ीराम और ल णने भी अपने-अपने धनुषपर बाण का संधान करके द अ कट कये॥ २३ ॥ उन महाबली ब ु ने सूयतु तेज ी बाणसमूह से आकाशको आ ा दत करके भी इ ज ा अपने बाण से श नह कया॥ २४ ॥ उस तेज ी रा सने मायासे धूमज नत अ कारक सृ क और आकाशको ढक दया। साथ ही कु हरेका अ कार फै लाकर दशा को भी ढक दया॥ २५ ॥ उसक ाक टंकार नह सुनायी देती थी। प हय क घघराहट तथा घोड़ क टापक आवाज भी कान म नह पड़ती थी और सब ओर वचरते ए उस रा सका प भी गोचर नह होता था॥ २६ ॥ महाबा इ जत् उस घने अ कारम जहाँ काम नह करती थी, प र क अ तु वृ के समान नाराच नामक बाण क वषा करने लगा॥ २७ ॥ समरा णम कु पत ए उस रावणकु मारने वरदानम ा ए सूयतु तेज ी बाण ारा ीरामच जीके स ूण अ म घाव कर दया॥ २८ ॥ जैसे दो पवत पर जलक धाराएँ बरस रही ह , उसी कार उन दोन नर े वीर पर नाराच क मार पड़ने लगी। उसी अव ाम वे दोन वीर भी सोनेके पंख से सुशो भत तीखे बाण छोड़ने लगे॥ २९ ॥ वे क प यु बाण आकाशम प ँ चकर रावणकु मार इ ज ो त- व त करके र म डू बे ए पृ ीपर गर पड़ते थे॥ ३० ॥ बाणसमूह से अ देदी मान वे दोन नर े वीर अपने ऊपर गरते ए सायक को अनेक भ मारकर काट गराते थे॥ ३१ ॥ जस ओरसे तीखे बाण आते दखायी देत,े उसी ओर वे दोन भा◌इ दशरथकु मार ीराम और ल ण अपने उ म अ को चलाया करते थे॥ ३२ ॥ अ तरथी वीर रावणपु इ जत् अपने रथके ारा स ूण दशा म दौड़ लगाता और बड़ी फु त से अ चलाता था। उसने अपने पैने बाण ारा उन दोन दशरथकु मार को घायल



कर दया॥ ३३ ॥ उसके सोनेके पंखवाले सु ढ़ सायक ारा अ घायल ए वे दोन वीर दशरथकु मार र र त हो खले ए पलाशवृ के समान तीत होते थे॥ ३४ ॥ इ ज वेगपूण ग त, प, धनुष और बाण को को◌इ देख नह पाता था। मेघ क घटाम छपे ए सूयक भाँ त उसक को◌इ भी बात कसीको ात नह हो पाती थी॥ ३५ ॥ उसके ारा घायल और आहत होकर कतने ही वानर अपने ाण से हाथ धो बैठे तथा सैकड़ यो ा मरकर पृ ीपर गर पड़े॥ ३६ ॥ तब ल णको बड़ा ोध आ और उ ने अपने भा◌इसे कहा—‘आय! अब म सम रा स के संहारके लये ा का योग क ँ गा’॥ ३७ ॥ उनक यह बात सुनकर ीरामने शुभल णस ल णसे कहा—‘भा◌इ! एकके कारण भूम लके सम रा स का वध करना तु ारे लये उ चत नह है॥ ३८ ॥ ‘महाबाहो! जो यु न करता हो, छपा हो, हाथ जोड़कर शरणम आया हो, यु से भाग रहा हो अथवा पागल हो गया हो, ऐसे को तु नह मारना चा हये। अब म उस इ ज े ही वधका य करता ँ । आओ, हमलोग वषैले सप क भाँ त भयंकर तथा अ वेगशाली अ का योग कर॥ ३९-४० ॥ ‘यह मायावी रा स बड़ा नीच है। इसने अ धान-श से अपने रथको छपा लया है। य द यह दीख जाय तो वानरयूथप त इस रा सको अव मार डालगे॥ ‘य द यह पृ ीम समा जाय, गको चला जाय, रसातलम वेश करे अथवा आकाशम ही त रहे तथा प इस तरह छपे होनेपर भी मेरे अ से द होकर ाणशू हो भूतलपर अव गरेगा’॥ ४२ ॥ इस कार महान् अ भ ायसे यु वचन कहकर वानर शरोम णय से घरे ए रघुकुलके मुख वीर महा ा ीरामच जी उस ू रकमा भयानक रा सका वध करनेके लये त ाल ही इधर-उधर पात करने लगे॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अ ीवाँ सग पूरा आ॥ ८० ॥



इ इ



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ासीवाँ सग ारा मायामयी सीताका वध



महा ा रघुनाथजीके मनोभावको समझकर इ जत् यु से नवृ हो ल ापुरीम चला गया॥ १ ॥ वहाँ जानेपर बलवान् रा स के वधका रण हो आनेसे शूरवीर रावणकु मारक आँ ख ोधसे लाल हो गय । वह पुन: यु के लये नकला॥ २ ॥ पुल कु लम उ महापरा मी इ जत् देवता के लये क क प था। वह रा स क ब त बड़ी सेना साथ लेकर नगरके प म ारसे पुन: बाहर आया॥ ३ ॥ दोन भा◌इ वीर ीराम और ल णको यु के लये उ त देख इ ज े उस समय माया कट क ॥ ४ ॥ उसने मायामयी सीताका नमाण करके उसे अपने रथपर बठा लया और वशाल सेनाके घेरेम रखकर उसका वध करनेका वचार कया॥ ५ ॥ उसक बु ब त ही खोटी थी। उसने सबको मोहम डालनेका वचार करके मायासे बनी ◌इ सीताको मारनेका न य कया। इसी अ भ ायसे वह वानर के सामने गया॥ उसे यु के लये नकलते देख सभी वानर ोधसे भर गये और हाथम शला उठाये यु क इ ासे उसके ऊपर टूट पड़े॥ ७ ॥ क पकु र हनुमा ी उन सबके आगे-आगे चले। उ ने पवतका एक ब त बड़ा शखर ले रखा था, जसे उठाना दूसरेके लये नता क ठन था॥ ८ ॥ उ ने इ ज े रथपर सीताको देखा। उनक खुशी मारी गयी थी। वे एक वेणी धारण कये ब त दु:खी दखायी देती थ और उपवास करनेके कारण उनका मुख दुबला-पतला हो गया था॥ ९ ॥ उनके शरीरपर एक ही म लन व था। ीरघुनाथजीक या सीताके अ म उबटन आ द नह लगे थे। उनके सारे शरीरम धूल और मैल भरी थी तो भी वे े और सु र दखायी देती थ ॥ १० ॥



हनुमा ी कु छ देरतक उनक ओर देखते रहे। अ म यह न य कया क ये म थलेशकु मारी ही ह। उ ने जनक कशोरीको थोड़े ही दन पहले देखा था, इस लये वे शी ही उ पहचान सके थे॥ ११ ॥ रा सराजके पु इ ज े पास रथपर बैठी ◌इ तप नी सीता शोकसे पी ड़त, दीन एवं आन शू हो रही थ ॥ १२ ॥ सीताको वहाँ देखकर महाक प हनुमा ी यह सोचने लगे क आ खर इस रा सका अ भ ाय ा है? फर वे मु -मु वानर को साथ लेकर रावणपु क ओर दौड़े॥ १३ ॥ वानर क उस सेनाको अपनी ओर आती देख रावणकु मारके ोधक सीमा न रही। उसने तलवारको ानसे बाहर नकाला और सीताके सरके के श पकड़कर उ घसीटा॥ १४ ॥ माया ारा रथपर बैठायी ◌इ वह ी ‘हा राम, हा राम’ कहकर च ा रही थी और वह रा स उन सबके देखते-देखते उस ीको पीट रहा था॥ १५ ॥ सीताका के श पकड़ा गया देख हनुमा ीको बड़ा दु:ख आ। वे पवनकु मार हनुमान् अपने ने से दु:खज नत आँ सू बहाने लगे॥ १६ ॥ ीरामच जीक सवा सु री ारी पटरानी सीताको उस अव ाम देख हनुमा ी कु पत हो उठे और उस रा सराजकु मार इ ज े कठोर वाणीम बोले—॥ १७ ॥ ‘दुरा न्! तू अपने वनाशके लये ही तुला आ है, तभी सीताके के श का श कर रहा है। तेरा ज षय के कु लम आ है तथा प तूने रा स-जा तके भावका ही आ य लया है॥ १८ ॥ ‘अरे! तेरी बु ऐसी बगड़ी ◌इ है? ध ार है तुझ-जैसे पापाचारीको! नृशंस! अनाय! दुराचारी तथा पापपूण परा म करनेवाले नीच! तेरी यह करतूत नीच पु ष के ही यो है। नदयी! तेरे दयम त नक भी दया नह है॥ १९ ॥ ‘बेचारी म थलेशकु मारी घरसे, रा से और ीरामच जीके करकमल के आ यसे भी बछु ड़ गयी ह। न ु र! इ ने तेरा ा अपराध कया है, जो तू इ इतनी नदयतासे मार रहा है?॥ २० ॥ ‘सीताको मारकर तू अ धक कालतक कसी तरह जी वत नह रह सके गा। वधके यो नीच! तू अपने पापकमके कारण मेरे हाथम पड़ गया है (अब तेरा जीना क ठन है)॥ २१ ॥



‘लोकम अपने पापके कारण वधके ा करते ह तथा जो ी-ह ार को ही



यो माने गये जो चोर आ द ह, वे भी जन लोक क मलते ह, तू यहाँ अपने ाण का प र ाग करके उ



न नरक-लोक म जायगा’॥ २२ ॥ ऐसी बात कहते ए हनुमा ी अ कु पत हो शला आ द आयुध धारण करनेवाले वानरवीर के साथ रा सराजकु मारपर टूट पड़े॥ २३ ॥ वानर के उस महापरा मी सै -समुदायको आ मण करते देख इ ज े भयानक ोधवाले रा स क सेनाके ारा उसे आगे बढ़नेसे रोका॥ २४ ॥ फर सह बाण ारा उस वानरवा हनीम हलचल मचाकर इ ज े क प े हनुमा ीसे कहा—॥ २५ ॥ ‘वानर! सु ीव, राम और तुम सब लोग जसके लये यहाँतक आये हो, उस वदेहकु मारी सीताको म अभी तु ारे देखते-देखते मार डालूँगा। इसे मारकर म मश: राम-ल णका, तु ारा, सु ीवका तथा उस अनाय वभीषणका भी वध कर डालूँगा॥ २६-२७ ॥ ‘बंदर! तुम जो यह कह रहे थे क य को मारना नह चा हये, उसके उ रम मुझे यह कहना है क जस कायके करनेसे श ु को अ धक क प ँ च,े वह कत ही माना गया है॥ २८ ॥ हनुमा ीसे ऐसा कहकर इ ज े यं ही तेज धारवाली तलवारसे उस रोती ◌इ मायामयी सीतापर घातक हार कया॥ २९ ॥ शरीरम य ोपवीत धारण करनेका जो ान है, उसी जगहसे उस मायामयी सीताके दो टुकड़े हो गये और वह ूल क ट देशवाली यदशना तप नी पृ ीपर गर पड़ी॥ ३० ॥ उस ीका वध करके इ ज े हनुमा े कहा—‘देख लो, मने रामक इस ारी प ीको तलवारसे काट डाला। यह रही कटी ◌इ वदेह-राजकु मारी सीता। अब तुमलोग का यु के लये प र म थ है’॥ ३१ ॥ इस कार यं इ जत् वशाल खड् गसे उस मायामयी ीका वध करके रथपर बैठाबैठा बड़े हषके साथ जोर-जोरसे सहनाद करने लगा॥ ३२ ॥ पास ही खड़े ए वानर ने उसक उस गजनाको सुना। वह उस दुगम रथपर बैठकर मुँह बाये वकट सहनाद करता था॥ ३३ ॥



रावणके उस पु क बु बड़ी खोटी थी। उसने इस कार मायामयी सीताका वध करके अपने मनम बड़ी स ताका अनुभव कया। उसे हषसे उ ु देख वानर वषाद हो भाग खड़े ए॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म इ ासीवाँ सग पूरा आ॥ ८१ ॥



बयासीवाँ सग हनुमा ीके नेतृ म वानर और नशाचर का यु , हनुमा ीका ीरामके पास लौटना और इ ज ा नकु ला-म रम जाकर होम करना



इ के व क गड़गड़ाहटके समान उस भयंकर सहनादको सुनकर वानर स ूण दशा क ओर देखते ए जोर-जोरसे भागने लगे॥ १ ॥ उन सबको वषाद , दीन एवं भयभीत होकर भागते देख पवनकु मार हनुमा ीने कहा —॥ २ ॥ ‘वानरो! तुम मुखपर वषाद लये यु व षयक उ ाह छोड़कर भागे जा रहे हो? तु ारा वह शौय कहाँ चला गया?॥ ३ ॥ ‘म यु म आगे-आगे चलता ँ । तुम सब लोग मेरे पीछे आ जाओ। उ म कु लम उ शूरवीर के लये यु म पीठ दखाना सवथा अनु चत है’॥ ४ ॥ बु मान् वायुपु के ऐसा कहनेपर वानर का च स हो गया और रा स के त अ कु पत हो उ ने हाथ म पवत शखर और वृ उठा लये॥ ५ ॥ वे े वानरवीर उस महासमरम हनुमा ीको चार ओरसे घेरकर उनके पीछे-पीछे चले और जोर-जोरसे गजना करते ए वहाँ रा स पर टूट पड़े॥ ६ ॥ उन े वानर ारा सब ओरसे घरे ए हनुमा ी ालामाला से यु लत अ क भाँ त श -ु सेनाको द करने लगे॥ ७ ॥ वानर-सै नक से घरे ए उन महाक प हनुमा ीने लयकालके संहारकारी यमराजके समान रा स का संहार आर कया॥ ८ ॥ सीताके वधसे उनके मनम बड़ा शोक हो रहा था और इ ज ा अ ाचार देखकर उनका ोध भी ब त बढ़ गया था; इस लये हनुमा ीने रावणकु मारके रथपर एक ब त बड़ी शला फ क॥९॥ उसे अपने ऊपर आती देख सार थने त ाल ही अपने अधीन रहनेवाले घोड़ से जुते ए उस रथको ब त दूर हटा दया॥ १० ॥



अत: सार थस हत रथपर बैठे ए इ ज े पासतक न प ँ चकर वह शला धरती फोड़कर उसके भीतर समा गयी। उसके चलानेका सारा उ ोग थ हो गया॥ ११ ॥ उस शलाके गरनेपर उस रा स-सेनाको बड़ी पीड़ा ◌इ। गरती ◌इ उस शलाने ब तेरे रा स को कु चल डाला॥ १२ ॥ त ात् सैकड़ वशालकाय वानर हाथ म वृ एवं पवत- शखर उठाये गजना करते ए इ ज ओर दौड़े॥ १३ ॥ वे भयानक परा मी वानरवीर यु लम इ ज र उन वृ और पवत- शखर को फ कने लगे। वृ और शैल शखर क बड़ी भारी वृ करते ए वे वानर श ु का संहार करने और भाँ त-भाँ तक आवाजम गजने लगे॥ १४ १/२ ॥ उन महाभयंकर वानर ने वृ ारा घोर पधारी नशाचर को बलपूवक मार गराया। वे रणभू मम गरकर छटपटाने लगे॥ १५ १/२ ॥ अपनी सेनाको वानर ारा पी ड़त ◌इ देख इ जत् ोधपूवक अ -श लये श ु के सामने गया॥ १६ १/२ ॥ अपनी सेनासे घरे ए उस सु ढ़ परा मी वीर नशाचरने बाण-समूह क वषा करते ए शूल, व , तलवार, प श तथा मु र क मारसे ब त-से वानरवीर को हताहत कर दया॥ १७-१८ ॥ वानर ने भी यु लम इ ज े अनुचर को मारा। महाबली हनुमा ी सु र शाखा और डा लय वाले सालवृ तथा शला ारा भीमकमा रा स का संहार करने लगे॥ १९ १/२ ॥



इस तरह श ुसेनाका वेग रोककर हनुमा ीने वानर से कहा—‘ब ुओ! अब लौट चलो, अब हम इस सेनाके संहार करनेक आव कता नह रह गयी है॥ २० १/२ ॥ ‘हमलोग जनके लये ीरामच जीका य करनेक इ ा रखकर ाण का मोह छोड़ पूरी चे ाके साथ यु करते थे, वे जनक कशोरी सीता मारी गय ॥ ‘अब इस बातक सूचना भगवान् ीराम और सु ीवको दे देनी चा हये। फर वे दोन इसके लये जैसा तीकार सोचगे, वैसा ही हम भी करगे’॥ २२ १/२ ॥



ऐसा कहकर वानर े हनुमा ीने सब वानर को यु से मना कर दया और धीरे-धीरे सारी सेनाके साथ नभय होकर लौट आये॥ २३ १/२ ॥ हनुमा ीको ीरामच जीके पास जाते देख दुरा ा इ जत् होम करनेक इ ासे नकु लादेवीके म रम गया॥ २४ १/२ ॥ नकु ला-म रम जाकर उस नशाचर इ ज े अ म आ त दी। तदन र य भू मम भी जाकर उस रा सने अ देवको होमके ारा तृ कया। वे होमशो णतभोजी आ भचा रक अ देवता आ त पाते ही होम और शो णतसे तृ हो लत हो उठे और ाला से आवृत दखायी देने लगे। वे ती तेजवाले अ देवता सं ाकालके सूयक भाँ त कट ए थे॥ इ जत् य के वधानका ाता था। उसने सम रा स के अ ुदयके लये व धपूवक हवन करना आर कया। उस होमको देखकर महायु के अवसर पर नी त-अनी त— कत ाकत के ाता रा स खड़े हो गये॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बयासीवाँ सग पूरा आ॥ ८२ ॥



तरासीवाँ सग सीताके मारे जानेक बात सुनकर ीरामका शोकसे मू त होना और ल समझाते ए पु षाथके लये उ त होना



णका उ



भगवान् ीरामने भी रा स और वानर के उस महान् यु घोषको सुनकर जा वा े कहा —॥ १ ॥ ‘सौ ! न य ही हनुमा ीने अ दु र कम आर कया है; क उनके आयुध का यह महाभयंकर श सुनायी पड़ता है॥ २ ॥ ‘अत: ऋ राज! तुम अपनी सेनाके साथ शी जाओ और जूझते ए क प े हनुमा सहायता करो’॥ ३ ॥ तब ‘ब त अ ा’ कहकर अपनी सेनासे घरे ए ऋ राज जा वान् ल ाके प म ारपर, जहाँ वानरवीर हनुमा ी वराजमान थे, आये॥ ४ ॥ वहाँ ऋ राजने यु करके लौटे और ल ी साँस ख चते ए वानर के साथ हनुमा ीको आते देखा॥ ५ ॥ हनुमा ीने भी मागम नील मेघके समान भयंकर ऋ सेनाको यु के लये उ त देख उसे रोका और सबके साथ ही वे लौट आये॥ ६ ॥ महायश ी हनुमा ी उस सेनाके साथ शी भगवान् ीरामके नकट आये और दु:खी होकर बोले—॥ ७ ॥ ‘ भो! हमलोग यु करनेम लगे थे, उसी समय समरभू मम रावणपु इ ज े हमारे देखते-देखते रोती ◌इ सीताको मार डाला है॥ ८ ॥ ‘श ुदमन! उ उस अव ाम देख मेरा च उद ् ा हो उठा है। म वषादम डू ब गया ँ । इस लये म आपको यह समाचार बतानेके लये आया ँ ’॥ ९ ॥ हनुमा ीक यह बात सुनकर ीरामजी उस समय शोकसे मू त हो जड़से कटे ए वृ क भाँ त त ाल पृ ीपर गर पड़े॥ १० ॥ देवतु तेज ी ीरघुनाथजीको भू मपर पड़ा देख सम े वानर सब ओरसे उछलकर वहाँ आ प ँ चे॥



वे कमल और उ लक सुग से यु जल ले आकर उनके ऊपर छड़कने लगे। उस समय वे सहसा लत होकर दहन-कम करनेवाली और बुझायी न जा सकनेवाली अ के समान दखायी देते थे॥ १२ ॥ भा◌इक यह अव ा देखकर ल णको बड़ा दु:ख आ। वे उ दोन भुजा म भरकर बैठ गये और अ ए ीरामसे यह यु यु एवं योजनभरी बात बोले—॥ १३ ॥ ‘आय! आप सदा शुभ मागपर र रहनेवाले और जते य ह, तथा प धम आपको अनथ से बचा नह पाता है। इस लये वह नरथक ही जान पड़ता है॥ १४ ॥ ‘ ावर तथा पशु आ द ज म ा णय को भी सुखका अनुभव होता है; कतु उनके सुखम धम कारण नह है ( क न तो उनम धमाचरणक श है और न धमम उनका अ धकार ही है)। अत: धम सुखका साधन नह है; ऐसा मेरा वचार है॥ १५ ॥ ‘जैसे ावर भूत धमा धकारी न होनेपर भी सुखी देखा जाता है, उसी कार ज म ाणी (पशु आ द) भी सुखी है, यह बात ही समझम आती है। य द कह, जहाँ धम है, वहाँ सुख अव है तो ऐसा भी नह कहा जा सकता; क उस दशाम आप-जैसे धमा ा पु षको वप म नह पड़ना चा हये॥ १६ ॥ ‘य द अधमक भी स ा होती अथात् अधम अव ही दु:खका साधन होता तो रावणको नरकम पड़े रहना चा हये था और आप-जैसे धमा ा पु षपर संकट नह आना चा हये था॥ १७ ॥ ‘रावणपर



तो को◌इ संकट नह है और आप संकटम पड़ गये ह; अत: धम और अधम दोन पर र वरोधी हो गये ह—धमा ाको दु:ख और पापा ाको सुख मलने लगा है॥ १८ ॥ ‘य द धमसे धमका फल (सुख) और अधमसे अधमका फल (दु:ख) ही मलनेका नयम होता तो जन रावण आ दम अधम ही त त है, वे अधमके फलभूत दु:खसे ही यु होते और जो लोग अधमम च नह रखते ह, वे धमसे—धमके फलभूत सुखसे कभी व त न होते। धममागसे चलनेवाले इन धमा ा पु ष को के वल धमका फल—सुख ही ा होता॥ १९-२० ॥ ‘ कतु जनम अधम करनेवाले ह, वे ेशम पड़े



त त है, उनके तो धन बढ़ रहे ह और जो भावसे ही धमाचरण ए ह। इस लये ये धम और अधम—दोन नरथक ह॥ २१ ॥



‘रघुन



न! य द पापाचारी पु ष धम या अधमसे मारे जाते ह तो धम या अधम या प होनेके कारण (आ द, म और अ ) तीन ही ण तक रह सकता है। चतुथ णम तो वह यं ही न हो जायगा; फर न आ वह धम या अधम कसका वध करेगा?॥ २२ ॥ ‘अथवा यह जीव य द व धपूवक कये गये कम वशेष ( ेनयाग आ द)-के ारा मारा जाता है या यं वैसा कम करके दूसरेको मारता है तो व ध ( व हत कमज नत अ )-को ही ह ाके दोषसे ल होना चा हये, कमका अनु ान करनेवाले पु षका उस पापकमसे स नह होना चा हये। ( क पु के कये ए अपराधका द पताको नह मलता है)॥ ‘श ुसूदन! जो चेतन न होनेके कारण तीकार ानसे शू है, अ है और अस े समान व मान है, उस धमके ारा दूसरे (पापा ा)-को व पसे ा करना कै से स व है?॥ २४ ॥ ‘स ु ष म े रघुवीर! य द स मज नत अ सत् या शुभ ही होता तो आपको कु छ भी अशुभ या दु:ख नह ा होता। य द आपको ऐसा दु:ख ा आ है तो स म-ज नत अ सत् ही है, इस कथनक संग त नह बैठती*॥ २५ ॥ ‘य द दुबल और कातर ( त: काय-साधनम असमथ) होनेके कारण धम पु षाथका अनुसरण करता है, तब तो दुबल और फलदानक मयादासे र हत धमका सेवन ही नह करना चा हये—यह मेरी राय है॥ २६ ॥ ‘य द धम बल अथवा पु षाथका अ या उपकरणमा है तो धमको छोड़कर परा मपूण बताव क जये। जैसे आप धमको धान मानकर धमम लगे ह, उसी कार बलको धान मानकर बल या पु षाथम ही वृ होइये॥ २७ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले रघुन न! य द आप स भाषण प धमका पालन करते ह अथात् पताक आ ाको ीकार करके उनके स क र ा प धमका अनु ान करते ह तो आप े पु के त युवराजपदपर अ भ ष करनेक जो बात पताने कही थी, उस स का पालन न करनेपर पताको जो अस प अधम ा आ, उसीके कारण वे आपसे वयु होकर मर गये। ऐसी दशाम ा आप राजाके पहले कहे ए अ भषेक-स ी स वचनसे नह बँधे ए थे? उस स का पालन करनेके लये बा नह थे (य द आपने पताके पहले कहे ए वचनका ही पालन करके युवराजपदपर अपना अ भषेक करा लया होता तो न पताक मृ ु ◌इ होती और न सीता-हरण आ द अनथ ही संघ टत ए होते)॥ २८ ॥



‘श



दु मन महाराज! य द के वल धम अथवा अधम ही धान पसे अनु ानके यो होता तो व धारी इ पौ ष ारा व प मु नक ह ा (अधम) करके फर य (धम)-का अनु ान नह करते॥ २९ ॥ ‘रघुन न! धमसे भ जो पु षाथ है, उससे मला आ धम ही श ु का नाश करता है। अत: काकु ! ेक मनु आव कता एवं चके अनुसार इन सबका (धम एवं पु षाथका) अनु ान करता है॥ ३० ॥ ‘तात राघव! इस कार समयानुसार धम एवं पु षाथमसे कसी एकका आ य लेना धम ही है; ऐसा मेरा मत है। आपने उस दन रा का ाग करके धमके मूलभूत अथका उ ेद कर डाला॥ ३१ ॥ ‘जैसे पवत से न दयाँ नकलती ह, उसी तरह जहाँ-तहाँसे सं ह करके लाये और बढ़े ए अथसे सारी याएँ (चाहे वे योग धान ह या भोग धान) स होती ह ( न ाम भाव होनेपर सभी याएँ योग धान हो जाती ह और सकाम भाव होनेपर भोग धान)॥ ३२ ॥ ‘जो म बु मानव अथसे व त है, उसक सारी याएँ उसी तरह छ - भ हो जाती ह, जैसे ी -ऋतुम छोटी-छोटी न दयाँ सूख जाती ह॥ ३३ ॥ ‘जो पु ष सुखम पला आ है, वह य द ा ए अथको ागकर सुख चाहता है तो उस अभी सुखके लये अ ायपूवक अथ पाजन करनेम वृ होता है; इस लये उसे ताड़न, ब न आ द दोष ा होते ह॥ ३४ ॥ ‘ जसके पास धन है, उसीके अ धक म होते ह। जसके पास धनका सं ह है, उसीके सब लोग भा◌इ-ब ु बनते ह। जसके यहाँ पया धन है, वही संसारम े पु ष कहलाता है और जसके पास धन है, वही व ान् समझा जाता है॥ ३५ ॥ ‘ जसके यहाँ धनरा श एक है, वह परा मी कहा जाता है। जसके पास धनक अ धकता है, वह बु मान् माना जाता है। जसके यहाँ अथसं ह है, वह महान् भा शाली कहलाता है तथा जसके यहाँ धन-स है, वह गुण म भी बढ़ा-चढ़ा समझा जाता है॥ ३६ ॥ ‘अथका ाग करनेसे जो म का अभाव आ द दोष ा होते ह, उनका मने पसे वणन कया है। आपने रा छोड़ते समय ा लाभ सोचकर अपनी बु म अथ- ागक भावनाको ान दया, यह म नह जानता॥ ३७ ॥



‘ जसके



पास धन है, उसके धम और काम प सारे योजन स होते ह। उसके लये सब कु छ अनुकूल बन जाता है। जो नधन है, वह अथक इ ा रखकर उसका अनुसंधान करनेपर भी पु षाथके बना उसे नह पा सकता॥ ३८ ॥ ‘नरे र! हष, काम, दप, धम, ोध, शम और दम—ये सब धन होनेसे ही सफल होते ह॥ ३९ ॥ ‘जो धमका आचरण करनेवाले और तप ाम लगे ए ह, उन पु ष का यह लोक (ऐ हक पु षाथ) अथाभावके कारण ही न हो जाता है; यह देखा जाता है। वही अथ इस दु दनम आपके पास उसी तरह नह दखायी देता है, जैसे आकाशम बादल घर आनेपर ह के दशन नह होते ह॥ ४० ॥ ‘वीर! आप पू पताक आ ा पालन करनेके लये रा छोड़कर वनम चले आये और स के पालनपर ही डटे रहे; परंतु रा सने आपक प ीको, जो आपको ाण से भी अ धक ारी थी, हर लया॥ ४१ ॥ ‘वीर रघुन न! आज इ ज े हमलोग को जो महान् दु:ख दया है, उसे म अपने परा मसे दूर क ँ गा; अत: च ा छोड़कर उ ठये॥ ४२ ॥ ‘नर े ! उ म तका पालन करनेवाले महाबाहो! उ ठये। आप परम बु मान् और परमा ा ह, इस पम अपने-आपको नह समझ रहे ह?॥ ४३ ॥ ‘ न ाप रघुवीर! यह मने आपसे जो कु छ कहा है, वह सब आपका य करनेके लये— आपका ान शोकक ओरसे हटाकर पु षाथक ओर आकृ करनेके लये कहा है। अब जनकन नीक मृ ुका वृ ा जानकर मेरा रोष बढ़ गया है, अत: आज अपने बाण ारा हाथी, घोड़े, रथ और रा सराज रावणस हत सारी ल ाको धूलम मला दूँगा’॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म तरासीवाँ सग पूरा आ॥ ८३ ॥ इस अ ायके १४ वसे २५ व ोकतक ल णजीने जो धम और अधमक स ाका ख न कया है, वह ीरामको दु:खी देखकर यं उनसे भी अ धक दु:खी होकर ही कया है। जस कार परा र ीरामके लये अपनी याक माया-मू तके वधको देखकर शोकसे अ भभूत हो जाना ेमक लीलामा है, उसी कार यतम भुके दु:खको देखकर दु:खावेशक लीलासे इस कारक असंगत-सी लगनेवाली बात कहना भी ेमज नत कातरताका ही प रचायक है। आगे चलकर दु:खका आवेश कु छ कम हो जानेपर तो यं ल णजीने ही ४४ व ोकम कहा है क ीरामका शोकापनोदन करके उ यु म वृ करनेके लये ही उ ने ये सब बात कही थ । —स ादक *



चौरासीवाँ सग वभीषणका ीरामको इ ज मायाका रह बताकर सीताके जी वत होनेका व ास दलाना और ल णको सेनास हत नकु ला-म रम भेजनेके लये अनुरोध करना



ातृभ ल ण जब ीरामको इस कार आ ासन दे रहे थे, उसी समय वभीषण वानरसै नक को अपने-अपने ानपर ा पत करके वहाँ आये॥ १ ॥ नाना कारके अ -श धारण कये चार नशाचर वीर, जो काली क ल-रा शके समान काले शरीरवाले यूथप त गजराज के समान जान पड़ते थे, चार ओरसे घेरकर उनक र ा कर रहे थे॥ २ ॥ वहाँ आकर उ ने देखा महा ा ल ण शोकम म ह तथा वानर के ने म भी आँ सू भरे ए ह॥ ३ ॥ साथ ही इ ाकु कु लन न महा ा ीरघुनाथजीपर भी उनक पड़ी, जो मू चछत हो ल णक गोदम लेटे ए थे॥ ४ ॥ ीरामच जीको ल त तथा शोकसे संत देख वभीषणका दय आ रक दु:खसे दीन हो गया। उ ने पूछा—‘यह ा बात है ?’॥ ५ ॥ तब ल णने वभीषणके मुँहक ओर देखकर तथा सु ीव और दूसरे-दूसरे वानर पर पात करके आँ सू बहाते ए म रम कहा—॥ ६ ॥ ‘सौ ! हनुमा ीके मुँहसे यह सुनकर क ‘इ ज े सीताजीको मार डाला’ ीरघुनाथजी त ाल मू त हो गये ह’॥ ७ ॥ इस कार कहते ए ल णको वभीषणने रोका और अचेत पड़े ए ीरामच जीसे यह न त बात कही—॥ ८ ॥ ‘महाराज! हनुमा ीने दु:खी होकर जो आपको समाचार सुनाया है, उसे म समु को सोख लेनेके समान अस व मानता ँ ॥ ९ ॥ ‘महाबाहो! दुरा ा रावणका सीताके त ा भाव है, यह म अ ी तरह जानता ँ । वह उनका वध कदा प नह करने देगा॥ १० ॥



‘मने उसका



हत करनेक इ ासे अनेक बार यह अनुरोध कया क वदेहकु मारीको छोड़ दो; कतु उसने मेरी बात नह मानी॥ ११ ॥ ‘सीताको दूसरा को◌इ पु ष साम, दाम और भेदनी तके ारा भी नह देख सकता; फर यु के ारा कै से देख सकता है?॥ १२ ॥ ‘महाबाहो! रा स इ जत् वानर को मोहम डालकर चला गया है। जसका उसने वध कया था, वह मायामयी जानक थ , ऐसा न त सम झये॥ १३ ॥ ‘वह इस समय नकु ला-म रम जाकर होम करेगा और जब होम करके लौटेगा, उस समय उस रावणकु मारको सं ामम परा करना इ स हत स ूण देवता के लये भी क ठन होगा॥ १४ १/२ ॥ ‘ न य ही उसने हमलोग को मोहम डालनेके लये ही यह मायाका योग कया है। उसने सोचा होगा— य द वानर का परा म चलता रहा तो मेरे इस कायम व पड़ेगा (इसी लये उसने ऐसा कया है)॥ १५ १/२ ॥ ‘जबतक उसका होमकम समा नह होता, उसके पहले ही हमलोग सेनास हत नकु ला-म रम चले चल। नर े ! झूठे ही ा ए इस संतापको ाग दी जये॥ १६ १/२ ॥



भो! आपको शोकसे संत होते देख सारी सेना दु:खम पड़ी ◌इ है। आप तो धैयम सबसे बढ़े-चढ़े ह; अत: च होकर यह र हये और सेनाको लेकर जाते ए हमलोग के साथ ल णजीको भेज दी जये॥ ‘ये नर े ल ण अपने पैने बाण से मारकर रावणकु मारको वह होमकम ाग देनेके लये ववश कर दगे। इससे वह मारा जा सके गा॥ १९ ॥ ‘ल णके ये पैने बाण जो प य के अ भूत पर से यु होनेके कारण बड़े वेगशाली ह, कं क आ द ू र प य के समान इ ज े र का पान करगे॥ २० ॥ ‘अत: महाबाहो! जैसे व धारी इ दै के वधके लये व का योग करते ह, उसी कार आप उस रा सके वनाशके लये शुभल ण-स ल णको जानेक आ ा दी जये॥ २१ ॥ ‘



‘नरे र!



श ुका वनाश करनेम अब यह काल ेप करना उ चत नह है। इस लये आप श ुवधके लये उसी तरह ल णको भे जये, जैसे देव ोही दै के वनाशके लये देवराज इ व का योग करते ह॥ ‘वह रा स शरोम ण इ जत् जब अपना अनु ान पूरा कर लेगा, तब समरा णम देवता और असुर भी उसे देख नह सकगे। अपना कम पूरा करके जब वह यु क इ ासे रणभू मम खड़ा होगा, उस समय देवता को भी अपने जीवनक र ाके वषयम महान् संदेह होने लगेगा’॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चौरासीवाँ सग पूरा आ॥ ८४ ॥



पचासीवाँ सग वभीषणके अनुरोधसे ीरामच जीका ल णको इ ज े वधके लये जानेक आ ा देना और सेनास हत ल णका नकु ला-म रके पास प ँ चना



भगवान् ीराम शोकसे पी ड़त थे, अत: रा स वभीषणने जो कु छ कहा, उनक उस बातको सुनकर भी वे उसे पसे समझ न सके —उसपर पूरा ान न दे सके ॥ १ ॥ तदन र श ुनगरीपर वजय पानेवाले ीराम धैय धारण करके हनुमा ीके समीप बैठे ए वभीषणसे बोले—॥ २ ॥ ‘रा सराज वभीषण! तुमने अभी-अभी जो बात कही है, उसे म फर सुनना चाहता ँ । बोलो, तुम ा कहना चाहते हो?’॥ ३ ॥ ीरघुनाथजीक यह बात सुनकर बातचीतम कु शल वभीषणने, वह जो बात कही थी, उसे पुन: दुहराते ए इस कार कहा—॥ ४ ॥ ‘महाबाहो! आपने जो सेना को यथा ान ा पत करनेक आ ा दी थी, वीर! वह काम तो मने आपक आ ा होते ही पूरा कर दया॥ ५ ॥ ‘उन सब सेना को वभ करके सब ओरके दरवाज पर ा पत कया और यथो चत री तसे वहाँ अलग-अलग यूथप तय को भी नयु कर दया है॥ ‘महाराज! अब पुन: मुझे जो बात आपक सेवाम नवेदन करनी है, उसे भी सुन ली जये। बना कसी कारणके आपके संत होनेसे हमलोग के दयम भी बड़ा संताप हो रहा है॥ ७ ॥ ‘राजन्! म ा ा ए इस शोक और संतापको ाग दी जये; साथ ही इस च ाको भी अपने मनसे नकाल दी जये; क यह श ु का हष बढ़ानेवाली है॥ ८ ॥ ‘वीर! य द आप सीताको पाना और नशाचर का वध करना चाहते ह तो उ ोग क जये; हष और उ ाहका सहारा ली जये॥ ९ ॥ ‘रघुन न! म एक आव क बात बताता ँ , मेरी इस हतकर बातको सु नये। रावणकु मार इ जत् नकु ला-म रक ओर गया है, अत: ये सु म ाकु मार ल ण वशाल सेना साथ लेकर अभी उसपर आ मण कर—यु म उस रावणपु का वध करनेके लये उसपर चढ़ा◌इ कर द—यही अ ा होगा॥ १० १/२ ॥



‘यु



वजयी महाधनुधर ल ण अपने म लाकार धनुष ारा छोड़े गये वषधर सप के तु भयानक बाण से रावणपु का वध करनेम समथ ह॥ ११ १/२ ॥ ‘उस वीरने तप ा करके ाजीके वरदानसे शर नामक अ और मनचाही ग तसे चलनेवाले घोड़े ा कये ह॥ १२ ॥ ‘ न य ही इस समय सेनाके साथ वह नकु लाम गया है। वहाँसे अपना हवन-कम समा करके य द वह उठे गा तो हम सब लोग को उसके हाथसे मरा ही सम झये॥ १३ ॥ ‘महाबाहो! स ूण लोक के ामी ाजीने उसे वरदान देते ए कहा था—‘इ श ो! नकु ला नामक वटवृ के पास प ँ चने तथा हवन-स ी काय पूण करनेके पहले ही जो श ु तुझ आततायी (श धारी)-को मारनेके लये आ मण करेगा, उसीके हाथसे तु ारा वध होगा।’ राजन्! इस कार बु मान् इ ज मृ ुका वधान कया गया है॥ १४-१५ ॥ ‘इस लये ीराम! आप इ ज ा वध करनेके लये महाबली ल णको आ ा दी जये। उसके मारे जानेपर रावणको अपने सु द स हत मरा ही सम झये’॥ वभीषणके वचन सुनकर ीरामच जी शोकका प र ाग करके बोले—‘स परा मी वभीषण! उस भयंकर रा सक मायाको म जानता ँ ॥ १७ ॥ ‘वह ा का ाता, बु मान्, ब त बड़ा मायावी और महान् बलवान् है। व णस हत स ूण देवता को भी वह यु म अचेत कर सकता है॥ १८ ॥ ‘महायश ी वीर! जब इ जत् रथस हत आकाशम वचरने लगता है, उस समय बादल म छपे ए सूयक भाँ त उसक ग तका कु छ पता ही नह चलता।’ वभीषणसे ऐसा कहकर भगवान् ीरामने अपने श ु दुरा ा इ ज मायाश को जानकर यश ी वीर ल णसे यह बात कही—॥ १९-२० ॥ ‘ल ण! वानरराज सु ीवक जो भी सेना है, वह सब साथ ले हनुमान् आ द यूथप तय , ऋ राज जा वान् तथा अ सै नक से घरे रहकर तुम मायाबलसे स रा सराजकु मार इ ज ा वध करो॥ २१-२२ ॥ ‘ये महामना रा सराज वभीषण उसक माया से अ ी तरह प र चत ह, अत: अपने म य के साथ ये भी तु ारे पीछे-पीछे जायँग’े ॥ २३ ॥



ीरघुनाथजीक यह बात सुनकर वभीषण-स हत भयानक परा मी ल णने अपना े धनुष हाथम लया॥ २४ ॥ वे यु क सब साम ी लेकर तैयार हो गये। उ ने कवच धारण कया, तलवार बाँध ली और उ म बाण तथा बाय हाथम धनुष ले लये। त ात् ीरामच जीके चरण छू कर हषसे भरे ए सु म ाकु मारने कहा—॥ २५ ॥ ‘आय! आज मेरे धनुषसे छू टे ए बाण रावणकु मारको वदीण करके उसी तरह ल ाम गरगे, जैसे हंस कमल से भरे ए सरोवरम उतरते ह॥ २६ ॥ ‘इस वशाल धनुषसे छू टे ए मेरे बाण आज ही उस भयंकर रा सके शरीरको वदीण करके उसे कालके गालम डाल दगे’॥ २७ ॥ इ ज े वधक अ भलाषा रखनेवाले तेज ी ल ण अपने भा◌इके सामने ऐसी बात कहकर तुरंत वहाँसे चल दये॥ २८ ॥ पहले उ ने अपने बड़े भा◌इके चरण म णाम कया, फर उनक प र मा करके रावणकु मार ारा पा लत नकु ला-म रक ओर ान कया॥ २९ ॥ भा◌इ ीराम ारा वाचन कये जानेके प ात् वभीषणस हत तापी राजकु मार ल ण बड़ी उतावलीके साथ चले॥ ३० ॥ क◌इ हजार वानरवीर के साथ हनुमान् और म य स हत वभीषण भी ल णके पीछे शी तापूवक त ए॥ ३१ ॥ वशाल वानर-सेनास हत घरे ए ल णने वेगपूवक आगे बढ़कर मागम खड़ी ◌इ ऋ राज जा वा सेनाको देखा॥ ३२ ॥ दूरतकका रा ा तै कर लेनेपर म को आन त करनेवाले सु म ाकु मारने कु छ दूरसे ही देखा, रा सराज रावणक सेना मोचा बाँधे खड़ी है॥ ३३ ॥ श ु का दमन करनेवाले रघुकुलन न ल ण हाथम धनुष ले ाजीके न त कये ए वधानके अनुसार उस मायावी रा सको जीतनेके लये नकु ला नामक ानम प ँ चकर एक जगह खड़े हो गये॥ ३४ ॥ उस समय तापी राजकु मार ल णके साथ वभीषण, वीर अ द तथा पवनकु मार हनुमान् भी थे॥



चमक ले अ -श से जो का शत हो रही थी, ज और महार थय के कारण गहन दखायी देती थी, जसके वेगका को◌इ माप नह था तथा जो अनेक कारक वेश-भूषाम गोचर होती थी, अ कारके समान काली उस श ुसेनाम वभीषण आ दके साथ ल णने वेश कया॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म पचासीवाँ सग पूरा आ॥ ८५ ॥



छयासीवाँ सग वानर और रा स का यु , हनुमा ीके ारा रा ससेनाका संहार और उनका इ यु के लये ललकारना तथा ल णका उसे देखना











उस अव ाम रावणके छोटे भा◌इ वभीषणने ल णसे ऐसी बात कही, जो उनके अभी अथको स करनेवाली तथा श ु के लये अ हतकर थी॥ १ ॥ वे बोले—‘ल ण! यह सामने जो मेघ क काली घटाके समान रा स क सेना दखायी देती है, उसके साथ शला पी आयुध धारण करनेवाले वानरवीर शी ही यु छेड़ द और आप भी इस वशाल वा हनीके ूहका भेदन करनेका य कर। इसका मोचा टूटनेपर रा सराजका पु इ जत् भी हम यह दखायी देगा॥ २-३ ॥ ‘अत: आप इस हवन-कमक समा के पहले ही व तु बाण क वषा करते ए श ु पर शी धावा क जये॥ ४ ॥ ‘वीर! वह दुरा ा रावणकु मार बड़ा ही मायावी, अधम , ू र कम करनेवाला और स ूण लोक के लये भयंकर है; अत: इसका वध क जये’॥ ५ ॥ वभीषणक यह बात सुनकर शुभल णस ल णने रा सराजके पु को ल करके बाण क वषा आर कर दी॥ ६ ॥ साथ ही बड़े-बड़े वृ लेकर यु करनेवाले वानर और भालू भी वहाँ खड़ी ◌इ रा ससेनापर एक साथ ही टूट पड़े॥ ७ ॥ उधरसे रा स भी वानरसेनाको न करनेक इ ासे समरा णम तीखे बाण , तलवार , श य और तोमर का हार करते ए उनका सामना करने लगे॥ ८ ॥ इस कार वानर और रा स म घमासान यु होने लगा। उसके महान् कोलाहलसे समूची ल ापुरी सब ओरसे गूँज उठी॥ ९ ॥ नाना कारके श , पैने बाण , उठे ए वृ और भयानक पवत- शखर से वहाँका आकाश आ ा दत हो गया॥ १० ॥ वकट मुँह और बाँह वाले रा स ने वानरयूथ प तय पर (नाना कारके ) श का हार करते ए उनके लये महान् भय उप त कर दया॥ ११ ॥



उसी कार वानर भी समरा णम स ूण वृ और पवत शखर ारा सम रा स को मारने एवं हताहत करने लगे॥ १२ ॥ मु -मु महाकाय महाबली रीछ और वानर से जूझते ए रा स को महान् भय लगने लगा॥ १३ ॥ रावणकु मार इ जत् बड़ा दुधष वीर था। उसने जब सुना क मेरी सेना श ु ारा पी ड़त होकर बड़े दु:खम पड़ गयी है, तब अनु ान समा होनेके पहले ही वह यु के लये उठ खड़ा आ॥ १४ ॥ उस समय उसके मनम बड़ा ोध उ आ था। वह वृ के अ कारसे नकलकर एक सुस त रथपर आ ढ़ आ, जो पहलेसे ही जोतकर तैयार रखा गया था। वह रथ ब त ही सु ढ़ था॥ १५ ॥ इ ज े हाथम भयंकर धनुष और बाण थे। वह काले कोयलेके ढेर-सा जान पड़ता था। उसके मुँह और ने लाल थे। वह भयंकर रा स वनाशकारी मृ ुके समान तीत होता था॥ १६ ॥



इ जत् रथपर बैठ गया, यह देखते ही ल णके साथ यु क इ ा रखनेवाले भयंकर वेगशाली रा स क वह सेना उसके आसपास सब ओर खड़ी हो गयी॥ १७ ॥ उस समय श ु का दमन करनेवाले पवतके समान वशालकाय हनुमा ीने एक ब त बड़े वृ को, जसे तोड़ना या उखाड़ना क ठन था, उखाड़ लया॥ १८ ॥ फर तो वे वानरवीर लया के समान लत हो उठे और यु लम रा स क उस सेनाको द करते ए ब सं क वृ क मारसे अचेत करने लगे॥ पवनकु मार हनुमा ी बड़े वेगसे रा स-सेनाका व ंस कर रहे ह, यह देखते ही सह रा स उनपर अ -श क वषा करने लगे॥ २० ॥ चमक ले शूल धारण करनेवाले रा स शूल से, जनके हाथ म तलवार थ वे तलवार से, श धारी श य से और प शधारी रा स प श से उनपर हार करने लगे॥ २१ ॥ ब त-से प रघ , गदा , सु र भाल , सैकड़ शत य , लोहेके बने ए मु र , भयानक फरस , भ पाल , व के समान मु और अश नतु थ ड़ से वे सम रा स पास



आकर सब ओरसे पवताकार हनुमा ीपर हार करने लगे। हनुमा ीने कु पत होकर उनका भी महान् संहार कया॥ २२—२४ ॥ इ ज े देखा, क पवर पवनकु मार हनुमान् पवतके समान अचल हो न:श भावसे अपने श ु का संहार कर रहे ह॥ २५ ॥ यह देखकर उसने अपने सार थसे कहा—‘जहाँ यह वानर यु करता है, वह चलो। य द उसक उपे ा क गयी तो यह हम सब रा स का वनाश ही कर डालेगा’॥ २६ ॥ उसके ऐसा कहनेपर सार थ रथपर बैठे ए अ दुजय वीर इ ज ो ढोता आ उस ानपर गया, जहाँ पवनपु हनुमा ी वराजमान थे॥ २७ ॥ वहाँ प ँ चकर उस दुजय रा सने हनुमा ीके म कपर बाण , तलवार , प श और फरस क वषा आर कर दी॥ २८ ॥ उन भयानक श को अपने शरीरपर झेलकर पवनपु हनुमा ी महान् रोषसे भर गये और इस कार बोले—॥ २९ ॥ ‘दुबु रावणकु मार! य द बड़े शूरवीर हो तो आओ, मेरे साथ म यु करो। इस वायुपु से भड़कर जी वत नह लौट सकोगे॥ ३० ॥ ‘दुमते! अपनी भुजा ारा मेरे साथ यु करो। इस बा यु म य द मेरा वेग सह लो तो तुम रा स म े वीर समझे जाओगे’॥ ३१ ॥ रावणकु मार इ जत् धनुष उठाकर हनुमा ीका वध करना चाहता था। इसी अव ाम वभीषणने ल णको उसका प रचय दया—॥ ३२ ॥ ‘सु म ान न! रावणका जो पु इ को भी जीत चुका है, वही यह रथपर बैठकर हनुमा ीका वध करना चाहता है। अत: आप श ु का वदारण करनेवाले, अनुपम आकारकारसे यु एवं ाणा कारी भयंकर बाण ारा उस रावणकु मारको मार डा लये’॥ ३३-३४ ॥



श ु को भयभीत करनेवाले वभीषणके ऐसा कहनेपर उस समय महा ा ल णने रथपर बैठे ए उस भयंकर बलशाली पवताकार दुजय रा सको देखा॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छयासीवाँ सग पूरा आ॥ ८६ ॥



सतासीवाँ सग इ



जत् और वभीषणक रोषपूण बातचीत



पूव बात कहकर हषसे भरे ए वभीषण धनुधर सु म ाकु मारको साथ लेकर बड़े वेगसे आगे बढ़े॥ १ ॥ थोड़ी ही दूर जानेपर वभीषणने एक महान् वनम वेश करके ल णको इ ज े कमानु ानका ान दखाया॥ २ ॥ वहाँ एक बरगदका वृ था, जो ाममेघके समान सघन और देखनेम भयंकर था। रावणके तेज ी ाता वभीषणने ल णको वहाँक सब व ुएँ दखाकर कहा—॥ ३ ॥ ‘सु म ान न! यह बलवान् रावणकु मार त दन यह आकर पहले भूत को ब ल देता, उसके बाद यु म वृ होता है॥ ४ ॥ ‘इसीसे सं ामभू मम यह रा स स ूण भूत के लये अ हो जाता है और उ म बाण से श ु को मारता तथा बाँध लेता है॥ ५ ॥ ‘अत: जबतक यह इस बरगदके नीचे आये, उसके पहले ही आप अपने तेज ी बाण ारा इस बलवान् रावण-कु मारको रथ, घोड़े और सार थस हत न कर दी जये’॥ तब ‘ब त अ ा’ कहकर म का आन बढ़ानेवाले महातेज ी सु म ाकु मार अपने व च धनुषक टंकार करते ए वहाँ खड़े हो गये॥ ७ ॥ इतनेम ही बलवान् रावणकु मार इ जत् अ के समान तेज ी रथपर बैठा आ कवच, खड् ग और जाके साथ दखायी पड़ा॥ ८ ॥ तब महातेज ी ल णने परा जत न होनेवाले पुल कु लन न इ ज े कहा —‘रा सकु मार! म तु यु के लये ललकारता ँ । तुम अ ी तरह सँभलकर मेरे साथ यु करो’॥ ९ ॥ ल णके ऐसा कहनेपर महातेज ी और मन ी रावणकु मारने वहाँ वभीषणको उप त देख कठोर श म कहा—॥ १० ॥ ‘रा स! यह तु ारा ज आ और यह बढ़कर तुम इतने बड़े ए। तुम मेरे पताके सगे भा◌इ और मेरे चाचा हो। फर तुम अपने पु से—मुझसे ोह करते हो?॥ ११ ॥



तुमम न तो कु टु ीजन के त अपनापनका भाव है, न आ ीयजन के त ेह है और न अपनी जा तका अ भमान ही है। तुमम कत -अकत क मयादा, ातृ ेम और धम कु छ भी नह है। तुम रा स-धमको कलं कत करनेवाले हो॥ १२ ॥ ‘दुबु े! तुमने जन का प र ाग करके दूसर क गुलामी ीकार क है। अत: तुम स ु ष ारा न नीय और शोकके यो हो॥ १३ ॥ ‘नीच नशाचर! तुम अपनी श थल बु के ारा इस महान् अ रको नह समझ पा रहे हो क कहाँ तो जन के साथ रहकर ताका आन लेना और कहाँ दूसर क गुलामी करके जीना है॥ १४ ॥ ‘दूसरे लोग कतने ही गुणवान् न ह और जन गुणहीन ही न हो? वह गुणहीन जन भी दूसर क अपे ा े ही है; क दूसरा दूसरा ही होता है (वह कभी अपना नह हो सकता)॥ १५ ॥ ‘जो अपने प को छोड़कर दूसरे प के लोग का सेवन करता है, वह अपने प के न हो जानेपर फर उ के ारा मार डाला जाता है॥ १६ ॥ ‘रावणके छोटे भा◌इ नशाचर! तुमने ल णको इस ानतक ले आकर मेरा वध करानेके लये य करके यह जैसी नदयता दखायी है, ऐसा पु षाथ तु ारे-जैसा जन ही कर सकता है—तु ारे सवा दूसरे कसी जनके लये ऐसा करना स व नह है’॥ १७ ॥ अपने भतीजेके ऐसा कहनेपर वभीषणने उ र दया—‘रा स! तू आज ऐसी शेखी बघारता है? जान पड़ता है तुझे मेरे भावका पता ही नह है॥ १८ ॥ ‘अधम! रा सराजकु मार! बड़ के बड़ नका खयाल करके तू इस कठोरताका प र ाग कर दे। य प मेरा ज ू रकमा रा स के कु लम ही आ है, तथा प मेरा शील- भाव रा स का-सा नह है। स ु ष का जो धान गुण स है, मने उसीका आ य ले रखा है॥ ‘ ू रतापूण कमम मेरा मन नह लगता। अधमम मेरी च नह होती। य द अपने भा◌इका शील- भाव अपनेसे न मलता हो तो भी बड़ा भा◌इ छोटे भा◌इको कै से घरसे नकाल सकता है? (परंतु मुझे घरसे नकाल दया गया, फर म दूसरे स ु षका आ य न लू?ँ )॥ २० ॥ ‘ जसका शील- भाव धमसे हो गया हो, जसने पाप करनेका ढ़ न य कर लया हो, ऐसे पु षका ाग करके ेक ाणी उसी कार सुखी होता है, जैसे हाथपर बैठे ए ‘दुमते!



जहरीले सपको ाग देनेसे मनु नभय हो जाता है॥ २१ ॥ ‘जो दूसर का धन लूटता हो और परायी ीपर हाथ लगाता हो, उस दुरा ाको जलते ए घरक भाँ त ाग देने यो बताया गया है॥ २२ ॥ ‘पराये धनका अपहरण, पर ीके साथ संसग और अपने हतैषी सु द पर अ धक श ा —अ व ास— ये तीन दोष वनाशकारी बताये गये ह॥ २३ ॥ ‘मह षय का भयंकर वध, स ूण देवता के साथ वरोध, अ भमान, रोष, वैर और धमके तकू ल चलना—ये दोष मेरे भा◌इम मौजूद ह, जो उसके ाण और ऐ य दोन का नाश करनेवाले ह। जैसे बादल पवत को आ ा दत कर देते ह, उसी कार इन दोष ने मेरे भा◌इके सारे गुण को ढक दया है॥ २४-२५ ॥ ‘इ दोष के कारण मने अपने भा◌इ एवं तेरे पताका ाग कया है। अब न तो यह ल ापुरी रहेगी, न तू रहेगा और न तेरे पता ही रह जायँगे॥ २६ ॥ ‘रा स! तू अ अ भमानी, उ और बालक (मूख) है, कालके पाशम बँधा आ है; इस लये तेरी जो-जो इ ा हो, मुझे कह ले॥ २७ ॥ ‘नीच रा स! तूने मुझसे जो कठोर बात कही है, उसीका यह फल है क आज तुझपर यहाँ घोर संकट आया है। अब तू बरगदके नीचेतक नह जा सकता॥ ‘ककु कु लभूषण ल णका तर ार करके तू जी वत नह रह सकता; अत: इन नरदेव ल णके साथ रणभू मम यु कर। यहाँ मारा जाकर तू यमलोकम प ँ चेगा और देवता का काय करेगा (उ संतु करेगा)॥ ‘अब तू अपना बढ़ा आ सारा बल दखा’ सम आयुध और सायक का य कर ले; परंतु ल णके बाण का नशाना बनकर आज तू सेनास हत जी वत नह लौट सके गा’॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म सतासीवाँ सग पूरा आ॥ ८७ ॥



अ ासीवाँ सग ल



ण और इ







पर र रोषभरी बातचीत और घोर यु



वभीषणक यह बात सुनकर रावणकु मार इ जत् ोधसे मू त-सा हो उठा। वह रोषपूवक कठोर बात कहने लगा और उछलकर सामने आ गया॥ १ ॥ उसने खड् ग तथा दूसरे आयुध भी उठा रखे थे। काले घोड़ से यु , सजे-सजाये वशाल रथपर बैठा आ इ जत् वनाशकारी कालके समान जान पड़ता था॥ २ ॥ वह भयंकर बलशाली नशाचर ब त बड़े आकारवाले, लंब,े मजबूत, वेगशाली और भयानक धनुषको तथा श ु का नाश करनेम समथ बाण को भी लेकर यु के लये उ त था॥ ३॥ व ाभूषण से अलंकृत होकर रथपर बैठे ए उस महाधनुधर, श ुनाशक बलवान् रावणकु मारने देखा, ल ण अपने तेजसे ही वभू षत हो हनुमा ीक पीठपर आ ढ़ होकर उदयाचलपर वराजमान सूयदेवके समान का शत हो रहे ह॥ ४ १/२ ॥ देखते ही वह अ रोषसे भर गया और वभीषणस हत सु म ाकु मार तथा अ वानर सह से कहा—‘श ुओ! आज मेरा परा म देखना। तुम सब लोग यु लम मेरे धनुषसे छू टे ए बाण क दु:सह वषाको अपने अ पर उसी तरह धारण करोगे, जैसे आकाशम होनेवाली उ ु वषाको भूतलके ाणी अपने ऊपर धारण करते ह॥ ५-६ १/२ ॥ ‘जैसे आग ◌इके ढेरको जला देती है, उसी कार इस वशाल धनुषसे छू टे ए मेरे बाण आज तु ारे शरीर क ध याँ उड़ा दगे॥ ७ ॥ ‘आज अपने शूल, श , ऋ और तोमर ारा तथा तीखे सायक से छ - भ करके तुम सब लोग को यमलोक प ँ चा दूँगा॥ ८ ॥ ‘यु लम हाथ को बड़ी फु त से चलाकर जब म मेघके समान गजता आ बाण क वषा आर क ँ गा, उस समय कौन मेरे सामने ठहर सके गा?॥ ९ ॥ ‘ल ण! उस दन रा यु म मने व और अश नके समान तेज ी बाण ारा जो पहले तुम दोन भाइय को रणभू मम सुला दया था और तुमलोग अपने अ गामी सै नक स हत मू त होकर पड़े थे, म समझता ँ , उसका इस समय तु रण नह हो रहा है। वषधर



सपके समान रोषसे भरे ए मुझ इ ज े साथ जो तुम यु करनेके लये उप त हो गये, उससे जान पड़ता है क यमलोकम जानेके लये उ त हो’॥ १०-११ ॥ रा सराजके बेटेक वह गजना सुनकर रघुकुलन न ल ण कु पत हो उठे । उनके मुखपर भयका को◌इ च नह था। वे उस रावणकु मारसे बोले—॥ १२ ॥ ‘ नशाचर! तुमने के वल वाणी ारा अपने श ुवध आ द काय क पू तके लये घोषणा कर दी; परंतु उन काय को पूरा करना तु ारे लये ब त ही क ठन है। जो या ारा कत कम के पार प ँ चता है अथात् जो कहता नह , काम पूरा करके दखा देता है, वही पु ष बु मान् है॥ १३ ॥ ‘दुमते! तुम अपने अभी कायको स करनेम असमथ हो। जो काय कसीके ारा भी स होना क ठन है, उसे के वल वाणीके ारा कहकर तुम अपनेको कृ ताथ मान रहे हो!॥ १४ ॥ ‘उस दन सं ामम अपनेको छपाकर तुमने जसका आ य लया था, वह चोर का माग है। वीर पु ष उसका सेवन नह करते॥ १५ ॥ ‘रा स! इस समय म तु ारे बाण के मागम आकर खड़ा ँ । आज तुम अपना वह तेज दखाओ। के वल बढ़-बढ़कर बात बना रहे हो?’॥ १६ ॥ ल णके ऐसा कहनेपर सं ाम वजयी महाबली इ ज े अपने भयंकर धनुषको ढ़तापूवक पकड़कर पैने बाण क वृ आर कर दी॥ १७ ॥ उसके छोड़े ए महान् वेगशाली बाण साँपके वषक तरह जहरीले थे। वे फु फकारते ए सपके समान ल णके शरीरपर पड़ने लगे॥ १८ ॥ वेगवान् रावणकु मार इ ज े उन अ वेगशाली बाण ारा यु म शुभल ण ल णको घायल कर दया॥ १९ ॥ बाण से उनका शरीर अ त- व त हो गया। वे र से नहा उठे । उस अव ाम ीमान् ल ण धूमर हत लत अ के समान शोभा पा रहे थे॥ इ जत् अपना यह परा म देख ल णके पास जा बड़े जोरसे गजना करके य बोला —॥ २१ ॥ ‘सु म ाकु मार! मेरे धनुषसे छू टे ए तेज धारवाले पंखधारी बाण श ुके जीवनका अ कर देनेवाले ह। ये आज तु ारे ाण लेकर ही रहगे॥ २२ ॥



‘ल ंडु -के -



ण! आज मेरे ारा मारे जाकर जब तु ारे ाण नकल जायँग,े तब तु ारी लाशपर ंडु गीदड़, बाज और गीध टूट पड़गे॥ २३ ॥ ‘परम दुबु राम तुम-जैसे अनाय, याधम एवं अपने भ भा◌इको आज ही मेरे ारा मारा गया देखगे॥ ‘सु म ाकु मार! तु ारा कवच खसककर पृ ीपर गर जायगा, धनुष भी दूर जा पड़ेगा और तु ारा म क भी धड़से अलग कर दया जायगा। इस अव ाम राम आज मेरे हाथसे मारे गये तुमको देखगे’॥ २५ ॥ इस तरह कठोर बात कहते ए रावणकु मार इ ज े अपने योजनको जाननेवाले ल णने कु पत होकर यह यु यु उ र दया—॥ २६ ॥ ‘ ू रकम करनेवाले दुबु रा स! बकवासका बल छोड़ दे। तू ये सब बात कहता है? करके दखा॥ ‘ नशाचर! जो काम अभी कया नह , उसके लये यहाँ थ ड ग हाँकता है ? तू जसे कहता है, उस कायको पूरा कर, जससे मुझे तेरी इस बढ़ाचढ़ाकर कही ◌इ बातपर व ास हो॥ २८ ॥ ‘नरभ ी रा स! तू देख लेना, म को◌इ कठोर बात न कहकर तेरे ऊपर कसी तरहका आ ेप न करके आ शंसा कये बना ही तेरा वध क ँ गा’॥ ऐसा कहकर ल णने उस रा सक छातीम बड़े वेगसे पाँच नाराच मारे, जो धनुषको कानतक ख चकर छोड़े गये थे॥ ३० ॥ सु र पंख के कारण अ वेगसे जानेवाले और लत सपके समान दखायी देनेवाले वे बाण उस रा सक छातीपर सूयक करण के समान का शत हो रहे थे॥ ३१ ॥ ल णके बाण से आहत होकर रावणकु मार रोषसे आगबबूला हो उठा। उसने अ ी तरह चलाये ए तीन बाण से ल णको भी घायल करके बदला चुकाया॥ ३२ ॥ एक ओर पु ष सह ल ण थे तो दूसरी ओर रा स सह इ जत्। दोन यु लम एकदूसरेपर वजय पाना चाहते थे। उन दोन का वह तुमुल सं ाम महाभयंकर था॥ ३३ ॥ वे दोन वीर परा मी, बलस , व मशाली, परम दुजय तथा अनुपम बल और तेजसे यु होनेके कारण अ दुजय थे॥ ३४ ॥



जैसे आकाशम दो ह टकरा गये ह , उसी तरह वे दोन वीर पर र जूझ रहे थे। उस यु लम वे इ और वृ ासुरके समान दुधष जान पड़ते थे॥ ३५ ॥ वे महामन ी नर े तथा रा स वर वीर जैसे दो सह आपसम लड़ रहे ह उसी कार यु करते थे और ब त-से बाण क वषा करते ए यु भू मम डटे ए थे। दोन ही बड़े हष और उ ाहके साथ एक-दूसरेका सामना करते थे॥ ३६ ॥ तदन र दशरथन न श ुसूदन ल णने कु पत ए सपक भाँ त लंबी साँस ख चते ए अपने धनुषपर अनेक बाण रखे और उन सबको रा सराज इ ज र चलाया॥ ३७ ॥ उनके धनुषक डोरीसे कट होनेवाली टंकार न सुनकर रा सराज इ ज ा मुँह उदास हो गया और वह चुपचाप ल णक ओर देखने लगा॥ ३८ ॥ रावणकु मार इ ज ा मुँह उदास देखकर वभीषणने यु म लगे ए सु म ाकु मारसे कहा —॥ ३९ ॥ ‘महाबाहो! इस समय रावणपु इ ज मुझे जो ल ण दखायी दे रहे ह, उनसे जान पड़ता है क न:संदेह इसका उ ाह भंग हो गया है; अत: आप इसके वधके लये शी ता कर’॥ ४० ॥ तब सु म ाकु मारने वषधर सप के समान भयंकर बाण को धनुषपर चढ़ाया और उ इ ज ो ल करके चला दया। वे बाण ा थे महा वषैले सप थे॥ उन बाण का श इ के व क भाँ त दु:सह था। ल णके चलाये ए उन बाण क चोट खाकर इ जत् दो घड़ीके लये मू त हो गया। उसक सारी इ याँ व ु हो उठ ॥ ४२ ॥ थोड़ी देरम जब होश आ और इ याँ सु र ◌इं , तब उसने रणभू मम दशरथकु मार वीर ल णको खड़ा देखा। देखते ही उसके ने रोषसे लाल हो गये और वह सु म ाकु मारके सामने गया॥ ४३ ॥ वहाँ प ँ चकर वह उनसे कठोर वाणीम बोला— ‘सु म ाकु मार! पहले यु म मने जो परा म दखाया था, उसे ा तुम भूल गये? उस दन तुमको और तु ारे भा◌इको भी मने बाँध लया था। उस समय तुम यु भू मम पड़े-पड़े छटपटा रहे थे॥ ४४ ॥



‘उस



महायु म व एवं अश नके समान तेज ी बाण ारा मने तुम दोन भाइय को पहले धरतीपर सुला दया था। तुम दोन अपने अ गामी सै नक के साथ मू त होकर पड़े थे॥ ४५ ॥ ‘अथवा मालूम होता है क तु उन सब बात क याद नह आ रही है। यह जान पड़ता है क तुम यमलोकम जाना चाहते हो। इसी लये तुम मुझे परा जत करनेक इ ा रखते हो॥ ४६ ॥ ‘य द पहले यु म तुमने मेरा परा म नह देखा है तो आज तु दखा दूँगा। इस समय सु रभावसे खड़े रहो’॥ ४७ ॥ ऐसा कहकर तीखी धारवाले सात बाण से उसने ल णको घायल कर दया और दस उ म सायक ारा हनुमा ीपर हार कया॥ ४८ ॥ त ात् दूने रोषसे भरे ए उस परा मी नशाचरने अ ी तरहसे छोड़े गये सौ बाण ारा वभीषणको ोधपूवक त- व त कर दया॥ ४९ ॥ इ ज ारा कये गये इस परा मको देखकर ीरामके छोटे भा◌इ ल णने उसक को◌इ परवा नह क और हँ सते-हँ सते कहा—‘यह तो कु छ नह है’॥ ५० ॥ साथ ही उन नर े ल णने मुखपर भयक छायातक नह आने दी। उ ने यु लम कु पत हो भयंकर बाण हाथम लये और उ रावणकु मारको ल करके चला दया॥ ५१ ॥ फर वे बोले—‘ नशाचर! रणभू मम आये ए शूरवीर इस तरह हार नह करते। तु ारे ये बाण ब त ह े और कमजोर ह। इनसे क नह होता—सुख ही मलता है॥ ५२ ॥ ‘यु क इ ा रखनेवाले शूरवीर समरा णम इस तरह यु नह करते ह।’ ऐसा कहते ए धनुधर वीर ल णने उस रा सपर बाण क वषा आर कर दी॥ ल णके बाण से इ ज ा महान् कवच, जो सोनेका बना आ था, टूटकर रथक बैठकम बखर गया, मानो आकाशसे तारा का समूह टूटकर गर पड़ा हो॥ ५४ ॥ कवच कट जानेपर नाराच के हारसे वीर इ ज े सारे अ म घाव हो गये। वह समरा णम र से र त हो ात:कालके सूयक भाँ त दखायी देने लगा॥ ५५ ॥ तब भयानक परा मी वीर रावणकु मारने अ कु पत हो समरभू मम ल णको सह बाण से घायल कर दया॥ ५६ ॥



इससे ल णका भी द एवं वशाल कवच छ - भ हो गया। वे दोन श ुदमन वीर एक-दूसरेके हारका जवाब देने लगे॥ ५७ ॥ वे बारंबार हाँफते ए भयानक यु करने लगे। यु लम बाण के आघातसे दोन के सारे अ त व त हो गये थे। अत: वे दोन सब ओरसे ल लुहान हो गये॥ ५८ ॥ दोन वीर दीघकालतक एक-दूसरेपर पैने बाण का हार करते रहे। दोन ही महामन ी तथा यु क कलाम नपुण थे। दोन भयंकर परा म कट करते थे और अपनी-अपनी वजयके लये य शील थे॥ ५९ ॥ दोन के शरीर बाण-समूह से ा थे। दोन के ही कवच और ज कट गये थे। जैसे दो झरने जल बहा रहे ह , उसी तरह वे दोन अपने शरीरसे गरम-गरम र बहा रहे थे॥ ६० ॥ दोन ही भयंकर गजनाके साथ बाण क घोर वषा कर रहे थे, मानो लयकालके दो नील मेघ आकाशम जलक धारा बरसा रहे ह ॥ ६१ ॥ वहाँ जूझते ए उन दोन वीर का ब त अ धक समय तीत हो गया; परंतु वे दोन न तो यु से वमुख ए और न उ थकावट ही ◌इ॥ ६२ ॥ दोन ही अ वे ा म े थे और बारंबार अपने अ का दशन करते थे। उ ने आकाशम छोटे-बड़े बाण का जाल-सा बाँध दया॥ ६३ ॥ वे मनु और रा स—दोन वीर बड़ी फु त के साथ अ तु और सु र ढंगसे बाण का हार करते थे। उनके बाण चलानेक कलाम को◌इ दोष नह दखायी देता था। वे दोन घोर घमासान यु कर रहे थे॥ ६४ ॥ बाण चलाते समय उन दोन क हथेली और ाका भयंकर एवं तुमुल नाद पृथक् पृथक् सुनायी देता था, जो भयंकर व पातक आवाजके समान ोता के दयम क उ कर देता था॥ ६५ ॥ उन दोन रणो वीर का वह श आकाशम पर र टकराते ए दो महाभयंकर मेघ क गड़गड़ाहटके समान सुशो भत होता था॥ ६६ ॥ वे दोन बलवान् यो ा सोनेके पंखवाले नाराच से घायल हो शरीरसे खून बहा रहे थे। दोन ही यश ी थे और अपनी-अपनी वजयके लये य कर रहे थे॥ ६७ ॥



यु म उन दोन के चलाये ए सुवणमय पंखवाले बाण एक-दूसरेके शरीरपर पड़ते, र से भीगकर नकलते और धरतीम समा जाते थे॥ ६८ ॥ उनके हजार बाण आकाशम तीखे श से टकराते और उ तोड़कर टुकड़े-टुकड़े कर डालते थे॥ ६९ ॥ वह बड़ा भयंकर यु हो रहा था। उसम उन दोन के बाण का समूह य म गाहप और आहवनीय नामक दो लत अ य के साथ बछे ए कु श के ढेरक भाँ त जान पड़ता था॥ ७० ॥ उन दोन महामन ी वीर के त- व त शरीर वनम प हीन एवं लाल पु से भरे ए पलाश और सेमलके वृ के समान सुशो भत होते थे॥ ७१ ॥ एक-दूसरेको जीतनेक इ ावाले इ जत् और ल ण रह-रहकर बारंबार भयंकर मारकाट मचाते थे॥ ७२ ॥ ल ण रणभू मम रावणकु मारपर चोट करते थे और रावणकु मार ल णपर। इस तरह एक-दूसरेपर हार करते ए वे वीर थकते नह थे॥ ७३ ॥ उन दोन वेगशाली वीर के शरीरम बाण के समूह धँस गये थे, इस लये वे दोन महापरा मी यो ा जनपर ब त-से वृ उग आये ह , उन दो पवत के समान शोभा पाते थे॥ ७४ ॥ बाण से ढके और खूनसे भीगे ए उन दोन के सारे अ जलती ◌इ आगके समान उ ी हो रहे थे॥ ७५ ॥ इस तरह यु करते-करते उन दोन का ब त समय तीत हो गया; परंतु वे दोन न तो यु से वमुख ए और न उ थकावट ही ◌इ॥ ७६ ॥ यु के मुहानेपर परा जत न होनेवाले ल णके यु ज नत मका नवारण तथा उनके य एवं हतका स ादन करनेके लये महा ा वभीषण यु भू मम आकर खड़े हो गये॥ ७७ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अ ासीवाँ सग पूरा आ॥ ८८ ॥



नवासीवाँ सग वभीषणका रा स पर हार, उनका वानर-यूथप तय को ो ाहन देना, ल इ ज े सार थका और वानर ारा उसके घोड़ का वध



ण ारा



ल ण और इ ज ो दो मदम हा थय क भाँ त पर र वजय पानेक इ ासे यु ास होकर जूझते देख उन दोन के यु को देखनेक इ ासे रावणके बलवान् भा◌इ शूरवीर वभीषण सु र धनुष धारण कये उस यु के मुहानेपर आकर खड़े हो गये॥ १-२ ॥ वहाँ खड़े होकर उ ने अपने वशाल धनुषको ख चा और रा स पर तेज धारवाले बड़ेबड़े बाण को बरसाना आर कया॥ ३ ॥ जैसे व नामक अ बड़े-बड़े पवत को वदीण कर देते ह, उसी कार वभीषणके चलाये ए वे बाण, जनका श आगके समान जलानेवाला था, रा स पर गरकर उनके अ को चीरने लगे॥ ४ ॥ वभीषणके अनुचर भी रा स म े वीर थे; अत: वे भी समरा णम शूल, खड् ग और प श ारा वीर रा स का संहार करने लगे॥ ५ ॥ उन चार रा स से घरे ए वभीषण धृ गजशावक के बीचम खड़े ए गजराजक भाँ त शोभा पाते थे॥ ६ ॥ रा स म े वभीषण समयो चत कत को जानते थे, इस लये उ ने वानर को, ज रा स का वध करना य था, यु के लये े रत करते ए यह समयके अनु प बात कही—॥ ७॥ ‘वानरे रो! अब खड़े-खड़े ा देखते हो? रा सराज रावणका यह एकमा सहारा है, जो तु ारे सामने खड़ा है। रावणक सेनाका इतना ही भाग अब शेष रह गया है॥ ८ ॥ ‘इस यु के मुहानेपर इस पापी रा स इ ज े मारे जानेपर रावणको छोड़कर उसक सारी सेनाको मरी ◌इ ही समझो॥ ९ ॥ ‘वीर ह मारा गया, महाबली नकु , कु कण, कु तथा नशाचर धू ा भी कालके गालम चले गये॥



‘ज ुमाली, महामाली, ादी, वकट, अ र , तपन,



ती णवेग, अश न भ, सु , य कोप, रा स व दं , सं म , घास, घस, ज , ज , दुजय अ के तु, परा मी र के तु, व ु , ज , रा स सूयश ु, अक न, सुपा , नशाचर च माली, क न तथा वे दोन श शाली वीर देवा क और नरा क—ये सभी मारे जा चुके ह॥ ११—१४ ॥ ‘इन अ बलशाली ब सं क रा स- शरोम णय का वध करके तुमलोग ने हाथ से तैरकर समु पार कर लया है। अब गायक खुरीके बराबर यह छोटा-सा रा स बचा आ है। अत: इसे भी शी ही लाँघ जाओ॥ १५ ॥ ‘वानरो! इतनी ही रा ससेना और शेष रह गयी है, जसे तु जीतना है। अपने बलपर घमंड करनेवाले ाय: सभी रा स तुमसे भड़कर मारे जा चुके ह॥ १६ ॥ ‘म इसके बापका भा◌इ ँ । इस नाते यह मेरा पु है। अत: मेरे लये इसका वध करना अनु चत है, तथा प ीरामच जीके लये दयाको तला ल दे म अपने इस भतीजेको मारनेके लये उ त ँ ॥ १७ ॥ ‘जब म यं मारनेके लये इसपर ह थयार चलाना चाहता ँ , उस समय आँ सू मेरी बंद कर देते ह; अत: ये महाबा ल ण ही इसका वनाश करगे॥ १८ ॥ ‘वानरो! तुमलोग ंडु बनाकर इसके समीपवत सेवक पर टूट पड़ो और उ मार डालो।’ इस कार अ यश ी रा स वभीषणके े रत करनेपर वानरयूथप त हष और उ ाहसे भर गये तथा अपनी पूँछ पटकने लगे॥ १९ १/२ ॥ फर वे सहके समान परा मी वानर बारंबार गजते ए उसी तरह नाना कारके श करने लगे, जैसे बादल को देखकर मोर अपनी बोली बोलने लगते ह॥ २० ॥ अपने यूथवाले सम भालु से घरे ए जा वान् तथा वे वानर प र , नख और दाँत से वहाँ रा स को पीटने लगे॥ २१ ॥ अपने ऊपर हार करते ए ऋ राज जा वा ो उन महाबली रा स ने भय छोड़कर चार ओरसे घेर लया। उनके हाथम अनेक कारके अ -श थे॥ वे रा स सेनाका संहार करनेवाले जा वा र यु लम बाण , तीखे फरस , प श , डंड और तोमर ारा हार करने लगे॥ २३ ॥



वानर और रा स का वह महायु ोधसे भरे ए देवता और असुर के सं ामक भाँ त बड़ा भयंकर हो चला। उसम बड़े जोर-जोरसे भयानक कोलाहल होने लगा॥ २४ ॥ उस समय महामन ी हनुमा ीने ल णको अपनी पीठसे उतार दया और यं भी अ कु पत हो पवत- शखरसे एक सालवृ उखाड़कर सह रा स का संहार करने लगे। श ु के लये उ परा करना ब त ही क ठन था॥ २५ १/२ ॥ श ुवीर का संहार करनेवाले बलवान् इ ज े अपने चाचाको भी घोर यु का अवसर देकर पुन: ल णपर धावा कया॥ २६ १/२ ॥ ल ण और इ जत् दोन वीर उस समय रणभू मम बड़े वेगसे जूझने लगे। वे दोन बाण-समूह क वषा करते ए एक-दूसरेको चोट प ँ चाने लगे॥ २७ १/२ ॥ वे महाबली वीर बाण का जाल-सा बछाकर बारंबार एक-दूसरेको ढक देते थे। ठीक उसी तरह, जैसे वषाकालम वेगशाली च मा और सूय बादल से आ ा दत हो जाया करते ह॥ २८ १/ ॥ २



यु म लगे ए उन दोन वीर के हाथ म इतनी फु त थी क तरकससे बाण का नकालना, उनको धनुषपर रखना, धनुषको इस हाथसे उस हाथम लेना, उसे मु ीम ढ़तापूवक पकड़ना, कानतक ख चना, बाण का वभाग करना, उ छोड़ना और ल वेधना आ द कु छ भी दखायी नह पड़ता था॥ २९-३० १/२ ॥ धनुषके वेगसे छोड़े गये बाणसमूह ारा आकाश सब ओरसे ढक गया। अत: उसम साकार व ु का दीखना बंद हो गया॥ ३१ १/२ ॥ ल ण रावणकु मारके पास प ँ चकर और रावणकु मार ल णके नकट जाकर दोन पर र जूझने लगे। इस कार यु करते ए जब वे एक-दूसरेपर हार करने लगते, तब भयंकर अ व ा पैदा हो जाती थी। ण- णम यह न य करना क ठन हो जाता था क अमुकक वजय या पराजय होगी॥ ३२ १/२ ॥ उन दोन के ारा वेगपूवक छोड़े गये तीखे बाण से आकाश ठसाठस भर गया और वहाँ अँधेरा छा गया॥ वहाँ गरते ए ब सं क अ और सैकड़ तीखे सायक से स ूण दशाएँ और व दशाएँ भी ा हो गय ॥ ३४ १/२ ॥



अत: सब कु छ अ कारसे आ हो गया और बड़ा भयानक दखायी देने लगा। सूय अ हो गये, सब ओर अँधेरा फै ल गया और र के वाहसे पूण सह बड़ी-बड़ी न दयाँ बह चल ॥ ३५-३६ ॥ मांसभ ी भयंकर ज ु अपनी वाणी ारा भयानक श कट करने लगे। उस समय न तो वायु चलती थी और न आग ही लत होती थी॥ ३७ ॥ मह षगण बोल उठे —‘संसारका क ाण हो।’ उस समय ग व को बड़ा संताप आ। वे चारण के साथ वहाँसे भाग चले॥ ३८ ॥ तदन र ल णने चार बाण मारकर उस रा स सहके सोनेके आभूषण से सजे ए काले रंगके चार घोड़ को ब ध दया॥ ३९ ॥ त ात् रघुकुलन न ीमान् ल णने दूसरे तीखे, पानीदार सु र पंखवाले और चमक ले भ से जो इ के व क समानता करता था तथा जसे कानतक ख चकर छोड़ा गया था, रणभू मम वचरते ए इ ज े सार थका म क शी तापूवक धड़से अलग कर दया। वह व ोपम बाण छू टनेके साथ ही हथेलीके श से अनुना दत हो सनसनाता आ आगे बढ़ा था॥ सार थके मारे जानेपर महातेज ी म ोदरीकु मार इ जत् यं ही सार थका भी काम सँभालता— घोड़ को भी काबूम रखता और फर धनुषको भी चलाता था। यु लम उसके ारा वहाँ सार थके कायका भी स ादन होना दशक क म बड़ी अ तु बात थी॥ इ जत् जब घोड़ को रोकनेके लये हाथ बढ़ाता, तब ल ण उसे तीखे बाण से बेधने लगते और जब वह यु के लये धनुष उठाता, तब उसके घोड़ पर बाण का हार करते थे॥ ४४ ॥



उन छ (बाण- हारके अवसर )-म शी तापूवक हाथ चलानेवाले सु म ाकु मार ल णने समरा णम नभयसे वचरते ए इ ज ो अपने बाण-समूह ारा अ पी ड़त कर दया॥ ४५ ॥ समरभू मम सार थको मारा गया देख रावणकु मारने यु वषयक उ ाह ाग दया। वह वषादम डू ब गया॥ उस रा सके मुखपर वषाद छाया आ देख वे वानर-यूथप त बड़े स ए और ल णक भू रभू र शंसा करने लगे॥ ४७ ॥



त ात् माथी, रभस, शरभ और ग मादन— इन चार वानरे र ने अमषसे भरकर अपना महान् वेग कट कया॥ ४८ ॥ वे चार वानर महान् बलशाली और भयंकर परा मी थे। वे सहसा उछलकर इ ज े चार घोड़ पर कू द पड़े॥ ४९ ॥ उन पवताकार वानर के भारसे दब जानेके कारण उन घोड़ के मुख से खून नकलने लगा॥ ५० ॥ उनसे र दे जानेके कारण घोड़ के अ -भ हो गये और वे ाणहीन होकर पृ ीपर गर पड़े। इस कार घोड़ क जान ले इ ज े वशाल रथको भी तोड़-फोड़कर वे चार वानर पुन: वेगसे उछले और ल णके पास आकर खड़े हो गये॥ ५१ ॥ सार थ तो पहले ही मारा गया था। जब घोड़े भी मार डाले गये, तब रावणकु मार रथसे कू द पड़ा और बाण क वषा करता आ सु म ाकु मारक ओर बढ़ा॥ उस समय इ के समान परा मी ल णने े घोड़ के मारे जानेसे पैदल चलकर यु म तीखे उ म बाण क वषा करते ए इ ज ो अपने बाणसमूह क मारसे अ घायल कर दया॥ ५३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म नवासीवाँ सग पूरा आ॥ ८९ ॥



न ेवाँ सग इ



जत् और ल



णका भयंकर यु तथा इ







ा वध



घोड़ के मारे जानेपर पृ ीपर खड़े ए महातेज ी नशाचर इ ज ा ोध ब त बढ़ गया। वह तेजसे लत-सा हो उठा॥ १ ॥ इ जत् और ल ण दोन के हाथम धनुष थे। दोन ही अपनी-अपनी वजयके लये एक-दूसरेके स ुख यु म वृ ए थे। वे अपने बाण ारा पर र वधक इ ा रखकर वनम लड़नेके लये नकले ए दो गजराज के समान एक-दूसरेपर गहरी चोट करने लगे॥ वानर और रा स भी पर र संहार करते ए इधर-उधर दौड़ते रहे; परंतु अपने-अपने ामीका साथ न छोड़ सके ॥ ३ ॥ तदन र रावणकु मारने स हो शंसा करके रा स का हष बढ़ाते ए कहा—॥ ४ ॥ ‘ े नशाचरो! चार दशा म अ कार छा रहा है, अत: यहाँ अपने या परायेक पहचान नह हो रही है॥ ५ ॥ ‘इस लये म जाता ँ । दूसरे रथपर बैठकर शी ही यु के लये आऊँ गा। तबतक तुमलोग वानर को मोहम डालनेके लये नभय होकर ऐसा यु करो, जससे ये महामन ी वानर नगरम वेश करते समय मेरा सामना करनेके लये न आव’॥ ६-७ ॥ ऐसा कहकर श ुह ा रावणकु मार वानर को चकमा दे रथके लये ल ापुरीम चला गया॥ ८॥ उसने एक सुवणभू षत सु र रथको सजाकर उसके ऊपर ास, खड् ग तथा बाण आ द आव क साम ी रखी, फर उसम उ म घोड़े जुतवाये और अ हाँकनेक व ाके जानकार तथा हतकर उपदेश देनेवाले सार थको उसपर बठाकर वह महातेज ी समर वजयी रावणकु मार यं भी उस रथपर आ ढ़ आ॥ ९-१० ॥ फर मुख रा स को साथ ले वीर म ोदरीकु मार कालश से े रत हो नगरसे बाहर नकला॥ ११ ॥ नगरसे नकलकर इ ज े अपने वेगशाली घोड़ ारा वभीषणस हत ल णपर बलपूवक धावा कया॥ १२ ॥



रावणकु मारको रथपर बैठा देख सु म ान न ल ण, महापरा मी वानरगण तथा रा सराज वभीषण— सबको बड़ा व य आ। सभी उस बु मान् नशाचरक फु त देखकर दंग रह गये॥ १३ १/२ ॥ त ात् ोधसे भरे ए रावणपु ने अपने बाण-समूह ारा रणभू मम सैकड़ और हजार वानरयूथ प तय को गराना आर कया॥ १४ १/२ ॥ यु वजयी रावणकु मारने अपने धनुषको इतना ख चा क वह म लाकार बन गया। उसने कु पत हो बड़ी शी ताके साथ वानर का संहार आर कया॥ १५ १/२ ॥ उसके नाराच क मार खाते ए भयानक परा मी वानर सु म ाकु मार ल णक शरणम गये, मानो जाने जाप तक शरण ली हो॥ १६ १/२ ॥ तब श ुके यु से रघुकुलन न ल णका ोध भड़क उठा। वे रोषसे जल उठे और उ ने अपने हाथक फु त दखाते ए उस रा सके धनुषको काट दया॥ यह देख उस नशाचरने तुरंत ही दूसरा धनुष लेकर उसपर ा चढ़ायी; परंतु ल णने तीन बाण मारकर उसके उस धनुषको भी काट दया॥ १८ ॥ धनुष कट जानेपर वषधर सपके समान पाँच भयंकर बाण ारा सु म ाकु मारने रावणपु क छातीम गहरी चोट प ँ चायी॥ १९ ॥ उनके वशाल धनुषसे छू टे ए वे बाण इ ज ा शरीर छेदकर लाल रंगके बड़े-बड़े सप के समान पृ ीपर गर पड़े॥ २० ॥ धनुष कट जानेपर उन बाण क चोट खाकर मुँहसे र वमन करते ए रावणपु ने पुन: एक मजबूत धनुष हाथम लया। उसक ा भी ब त ही ढ़ थी॥ फर तो उसने ल णको ल करके बड़ी फु त के साथ बाण क वषा आर कर दी, मानो देवराज इ जल बरसा रहे ह ॥ २२ ॥ य प इ ज ारा क गयी उस बाणवषाको रोकना ब त ही क ठन था तो भी श ुदमन ल णने बना कसी घबराहटके उसको रोक दया॥ २३ ॥ रघुकुलन न महातेज ी ल णके मनम त नक भी घबराहट नह थी। उ ने उस रावणकु मारको जो अपना पौ ष दखाया, वह अ तु -सा ही था॥ २४ ॥



उ ने अ कु पत हो अपनी शी अ -संचालनक कलाका दशन करते ए उन सम रा स को ेकके शरीरम तीन-तीन बाण मारकर घायल कर दया तथा रा सराजके पु इ ज ो भी अपने बाण-समूह ारा गहरी चोट प ँ चायी॥ २५ ॥ श ुह ा बल श ुके बाण से अ घायल होकर इ ज े ल णपर लगातार ब त बाण बरसाये॥ २६ ॥ परंतु श ुवीर का संहार करनेवाले र थय म े धमा ा ल णने अपने पासतक प ँ चनेसे पहले ही उन बाण को अपने तीखे सायक ारा काट डाला और रणभू मम रथी इ ज े सार थका म क भी कु ◌इ गाँठवाले भ से उड़ा दया॥ २७ १/२ ॥ सार थके न रहनेपर भी वहाँ उसके घोड़े ाकु ल नह ए। पूववत् शा भावसे रथको ढोते रहे और व भ कारके पतरे बदलते ए म लाकार ग तसे दौड़ लगाते रहे। वह एक अ तु सी बात थी॥ २८ १/२ ॥ सु ढ़ परा मी सु म ाकु मार ल ण अमषके वशीभूत हो रण े म उसके घोड़ को भयभीत करनेके लये उ बाण से बेधने लगे॥ २९ १/२ ॥ रावणकु मार इ जत् यु लम ल णके इस परा मको नह सह सका। उसने उन अमषशील सु म ाकु मारको दस बाण मारे॥ ३० १/२ ॥ उसके वे व तु बाण सपके वषक भाँ त ाणघाती थे, तथा प ल णके सुनहरी का वाले कवचसे टकराकर वह न हो गये॥ ३१ ॥ ल णका कवच* अभे है, ऐसा जानकर रावणकु मार इ ज े उनके ललाटम सु र पंखवाले तीन बाण मारे। उसने अपनी अ चलानेक फु त दखाते ए अ ोधपूवक उ घायल कर दया। ललाटम धँसे ए उन बाण से यु क ाघा रखनेवाले रघुकुलन न ल ण सं ामके मुहानेपर तीन शखर वाले पवतके समान शोभा पा रहे थे॥ ३२-३३ १/२ ॥ उस रा सके ारा यु म बाण से इस कार पी ड़त कये जानेपर भी ल णने उस समय तुरंत पाँच बाण का संधान कया और धनुषको ख चकर चलाये ए उन बाण के ारा सु र कु ल से सुशो भत इ ज े मुखम लको त- व त कर दया॥ ३४-३५ ॥ ल ण तथा इ जत् दोन वीर महाबलवान् थे। उनके धनुष भी ब त बड़े थे। भयंकर परा म करनेवाले वे दोन यो ा एक-दूसरेको बाण से घायल करने लगे॥ ३६ ॥



इससे ल ण और इ जत् दोन के शरीर ल लुहान हो गये। रणभू मम वे दोन वीर फू ले ए पलाशके वृ क भाँ त शोभा पा रहे थे॥ ३७ ॥ उन दोन धनुधर वीर के मनम वजय पानेके लये ढ़ संक था, अत: वे आपसम भड़कर एक-दूसरेके सभी अ को भयंकर बाण का नशाना बनाने लगे॥ ३८ ॥ इसी बीचम समरो चत ोधसे यु ए रावणकु मारने वभीषणके सु र मुखपर तीन बाण का हार कया॥ ३९ ॥ जनके अ भागम लोहेके फल लगे ए थे, ऐसे तीन बाण से रा सराज वभीषणको घायल करके इ ज े उन सभी वानर-यूथप तय पर एक-एक बाणका हार कया॥ ४० ॥ इससे महातेज ी वभीषणको उसपर बड़ा ोध आया और उ ने अपनी गदासे उस दुरा ा रावणकु मारके चार घोड़ को मार डाला॥ ४१ ॥ जसका सार थ पहले ही मारा जा चुका था और अब घोड़े भी मार डाले गये, उस रथसे नीचे कू दकर महातेज ी इ ज े अपने चाचापर श का हार कया॥ ४२ ॥ उस श को आती देख सु म ाका आन बढ़ानेवाले ल णने तीखे बाण से काट डाला और दस टुकड़े करके उसे पृ ीपर गरा दया॥ ४३ ॥ त ात् सु ढ़ धनुष धारण करनेवाले वभीषणने जसके घोड़े मारे गये थे, उस इ ज र कु पत हो उसक छातीम पाँच बाण मारे, जनका श व के समान दु:सह था॥ ४४ ॥ सुनहरे प से सुशो भत और ल तक प ँ चनेवाले वे बाण इ ज े शरीरको वदीण करके उसके र म सन गये और लाल रंगके बड़े-बड़े सप के समान दखायी देने लगे॥ ४५ ॥ तब महाबली इ ज े मनम अपने चाचाके त बड़ा ोध आ। उसने रा स के बीचम यमराजका दया आ उ म बाण हाथम लया॥ ४६ ॥ उस महान् बाणको इ ज े ारा धनुषपर रखा गया देख भयानक परा म करनेवाले महातेज ी ल णने भी दूसरा बाण उठाया॥ ४७ ॥ उस बाणक श ा महा ा कु बेरने म कट होकर यं उ दी थी। वह बाण इ आ द देवता तथा असुर के लये भी अस एवं दुजय था॥ ४८ ॥



उन दोन क प रघके समङन मोटी और ब ल भुजा ारा जोर-जोरसे ख चे जाते ए उन दोन के े धनुष दो ौ प य के समान श करने लगे॥ ४९ ॥ उन वीर ने अपने-अपने े धनुषपर जो उ म सायक रखे थे, वे ख चे जाते ही अ तेजसे लत हो उठे ॥ ५० ॥ दोन के बाण एक साथ ही धनुषसे छू टे और अपनी भासे आकाशको का शत करने लगे। दोन के मुखभाग बड़े वेगसे आपसम टकरा गये॥ ५१ ॥ उन दोन भयानक बाण क ही ट र ◌इ, उससे दा ण अ कट हो गयी; जससे धूआँ उठने लगा और चनगा रयाँ दखायी द ॥ ५२ ॥ वे दोन बाण दो महान् ह क भाँ त आपसम टकराकर सैकड़ टुकड़े हो सं ामभू मम गर पड़े॥ ५३ ॥ यु के मुहानेपर उन दोन बाण को आपसके आघात- तघातसे थ आ देख ल ण और इ जत् दोन को ही उस समय ल ा ◌इ। फर दोन एक-दूसरेके त अ रोषसे भर गये॥ ५४ ॥ सु म ान न ल णने कु पत होकर वा णा उठाया। साथ ही उस रणभू मम खड़े ए इ ज े रौ ा उठाया और उसे वा णा के तीकारके लये छोड़ दया॥ ५५ ॥ उस रौ ा से आहत होकर ल णका अ अ तु वा णा शा हो गया। तदन र समर वजयी महातेज ी इ ज े कु पत होकर दी मान् आ ेया का संधान कया, मानो वह उसके ारा सम लोक का लय कर देना चाहता हो॥ ५६ ॥ परंतु वीर ल णने सूया के योगसे उसे शा कर दया। अपने अ को तहत आ देख रावणकु मार इ जत् अचेत-सा हो गया॥ ५७ ॥ उसने आसुर नामक श ुनाशक तीखे बाणका योग कया, फर तो उसके उस धनुषसे चमकते ए कू ट, मु र, शूल, भुशु , गदा, खड् ग और फरसे नकलने लगे॥ रणभू मम उस भयंकर आसुरा को कट आ देख तेज ी ल णने स ूण अ श को वदीण करनेवाले माहे रा का योग कया, जसका सम ाणी मलकर भी नवारण नह कर सकते थे। उस माहे रा के ारा उ ने उस आसुरा को न कर दया॥ ५९-६० ॥



इस कार उन दोन म अ अ तु और रोमा कारी यु होने लगा। आकाशम रहनेवाले ाणी ल णको घेरकर खड़े हो गये॥ ६१ ॥ भैरव-गजनासे गूँजते ए वानर और रा स के उस भयानक यु के छड़ जानेपर आ यच कत ए ब सं क ाणी आकाशम आकर खड़े हो गये। उनसे घरे ए उस आकाशक अ तु शोभा हो रही थी॥ ऋ ष, पतर, देवता, ग व, ग ड़ और नाग भी इ को आगे करके रणभू मम सु म ाकु मारक र ा करने लगे॥ ६३ ॥ त ात् ल णने दूसरा उ म बाण अपने धनुषपर रखा, जसका श आगके समान जलानेवाला था। उसम रावणकु मारको वदीण कर देनेक श थी॥ ६४ ॥ उसम सु र पर लगे थे। उस बाणका सारा अ सुडौल एवं गोल था। उसक गाँठ भी सु र थी। वह ब त ही मजबूत और सुवणसे भू षत था। उसम शरीरको चीर डालनेक मता थी। उसे रोकना अ क ठन था। उसके आघातको सह लेना भी ब त मु ल था। वह रा स को भयभीत करनेवाला तथा वषधर सपके वषक भाँ त श ुके ाण लेनेवाला था। देवता ारा उस बाणक सदा ही पूजा क गयी थी। पूवकालके देवासुर सं ामम हरे रंगके घोड़ से यु रथवाले, परा मी, श मान् एवं महातेज ी इ ने उसी बाणसे दानव पर वजय पायी थी। उसका नाम था ऐ ा । वह यु के अवसर पर कभी परा जत या असफल नह आ था। शोभास वीर सु म ाकु मार ल णने अपने उ म धनुषपर उस े बाणको रखकर उसे ख चते ए अपने अ भ ायको स करनेवाली यह बात कही—‘य द दशरथन न भगवान् ीराम धमा ा और स त ह तथा पु षाथम उनक समानता करनेवाला दूसरा को◌इ वीर नह है तो हे अ ! तुम इस रावणपु का वध कर डालो’॥ ६५—६९ ॥ समरा णम ऐसा कहकर श ुवीर का संहार करनेवाले वीर ल णने सीधे जानेवाले उस बाणको कानतक ख चकर ऐ ा से संयु करके इ ज ओर छोड़ दया॥ ७० ॥ धनुषसे छू टते ही ऐ ा ने जगमगाते ए कु ल से यु इ ज े शर ाणस हत दी मान् म कको धड़से काटकर धरतीपर गरा दया॥ ७१ ॥ रा सपु इ ज ा कं धेपरसे कटा आ वह वशाल सर, जो खूनसे लथपथ हो रहा था, भू मपर सुवणके समान दखायी देने लगा॥ ७२ ॥



इस कार मारा जाकर कवच, सर और शर ाणस हत रावणकु मार धराशायी हो गया। उसका धनुष दूर जा गरा॥ ७३ ॥ जैसे वृ ासुरका वध होनेपर देवता स ए थे, उसी कार इ ज े मारे जानेपर वभीषणस हत सम वानर हषसे भर गये और जोर-जोरसे सहनाद करने लगे॥ आकाशम देवता , महा ा ऋ षय , ग व तथा अ रा का भी वजयज नत हषनाद गूँज उठा॥ ७५ ॥ इ ज ो धराशायी आ जान रा स क वह वशाल सेना वजयसे उ सत ए वानर क मार खाकर स ूण दशा म भागने लगी॥ ७६ ॥ वानर ारा मारे जाते ए रा स अपनी सुध-बुध खो बैठे और अ -श को छोड़कर तेजीसे भागते ए ल ाक ओर चले गये॥ ७७ ॥ रा स ब त डर गये थे; इस लये वे सब-के -सब प श, खड् ग और फरसे आ द श को ागकर सैकड़ क सं ाम एक साथ ही सब दशा म भागने लगे॥ ७८ ॥ वानर से पी ड़त होकर को◌इ डरके मारे ल ाम घुस गये, को◌इ समु म कू द पड़े और को◌इ-को◌इ पवतक चोटीपर चढ़ गये॥ ७९ ॥ इ जत् मारा गया और रणभू मम सो रहा है, यह देख हजार रा स मसे एक भी वहाँ खड़ा नह दखायी दया॥ ८० ॥ जैसे सूयके अ हो जानेपर उसक करण यहाँ नह ठहरती ह, उसी कार इ ज े धराशायी होनेपर वे रा स वहाँ क न सके , स ूण दशा म भाग गये॥ ८१ ॥ महाबा इ जत् न ाण हो जानेपर शा करण वाले सूय अथवा बुझी ◌इ आगके समान न ेज हो गया॥ ८२ ॥ उस समय रा सराजकु मार इ ज े समरभू मम गर जानेपर सारे संसारक अ धकांश पीड़ा न हो गयी। सबका श ु मारा गया और सभी हषसे भर गये॥ उस पापकमा रा सके मारे जानेपर स ूण मह षय के साथ भगवान् इ को बड़ी स ता ◌इ॥ आकाशम नाचती ◌इ अ रा और गाते ए महामना ग व के नृ और गानक नके साथ देवता क दु ु भका श भी सुनायी देने लगा॥ ८५ ॥



देवता आ द वहाँ फू ल क वषा करने लगे। वह अ तु -सा तीत आ। उस ू रकमा रा सके मारे जानेपर वहाँक उड़ती ◌इ धूल शा हो गयी॥ ८६ ॥ स ूण लोक को भय देनेवाले इ ज े धराशायी होनेपर जल हो गया, आकाश भी नमल दखायी देने लगा और देवता तथा दानव हषसे खल उठे । देवता, ग व और दानव वहाँ आये और सब एक साथ संतु होकर बोले—अब ा णलोग न एवं ेशशू होकर सव वचर॥ ८७-८८ ॥ समरा णम अ तम बलशाली नशाचर शरोम ण इ ज ो मारा गया देख हषसे भरे ए वानर-यूथप त ल णका अ भन न करने लगे॥ ८९ ॥ वभीषण, हनुमान् और रीछ-यूथप त जा वान्— ये इस वजयके लये ल णजीका अ भन न करते ए उनक भू र-भू र शंसा करने लगे॥ ९० ॥ हष एवं र ाका अवसर पाकर वानर कल कलाते, कू दते और गजते ए वहाँ रघुकुलन न ल णको घेरकर खड़े हो गये॥ ९१ ॥ उस समय अपनी पूँछ को हलाते और फटकारते ए वानर वीर ‘ल णक जय हो’ यह नारा लगाने लगे॥ ९२ ॥ वानर का च हषसे भरा आ था। वे व वध गुण वाले वानर एक-दूसरेको दयसे लगाकर ीरामच जीसे स रखनेवाली कथाएँ कहने लगे॥ ९३ ॥ यु लम ल णके य सु द् वानर उनका वह दु र एवं महान् परा म देख बड़े स ए। देवता भी उस इ ोही रा सका वध आ देख मनम बड़े भारी हषका अनुभव करने लगे॥ ९४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म न ेवाँ सग पूरा आ॥ ९० ॥ पहले ल णके कवचके टूटनेका वणन आ चुका है। उसके बाद ल णने फर अभे कवच धारण कया था। यह इस संगसे जाना जाता है। *



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ानबेवाँ सग



ण और वभीषण आ दका ीरामच जीके पास आकर इ ज े वधका समाचार सुनाना, स ए ीरामके ारा ल णको दयसे लगाकर उनक शंसा तथा सुषेण ारा ल ण आ दक च क ा



सं ामभू मम श ु वजयी इ ज ा वध करके र से भीगे ए शरीरवाले शुभल ण ल ण ब त स ए॥ १ ॥ बल- व मसे स वे महातेज ी सु म ाकु मार जा वान् और हनुमा ीसे दौड़कर मले और उन सम वानर को साथ ले शी तापूवक उस ानपर आये, जहाँ वानरराज सु ीव और भगवान् ीराम व मान थे। उस समय ल ण वभीषण और हनुमा ीका सहारा लेकर चल रहे थे॥ २-३ ॥ ीरामच जीके सामने आकर उनके चरण म णाम करके सु म ाकु मार अपने उन े ाताके पास उसी तरह खड़े हो गये, जैसे इ के पास उपे (वामन पधारी ीह र) खड़े होते ह॥ ४ ॥ उस समय वीर वभीषण स तापूवक लौटनेके ारा ही श ुके मारे जानेक बात सू चतसी करते ए आये और महा ा ीरघुनाथजीसे बोले—‘ भो! इ ज े वधका भयंकर काय स हो गया’॥ ५ ॥ वभीषणने बड़े हषके साथ ीरामसे यह नवेदन कया क महा ा ल णने ही रावणकु मार इ ज ा म क काटा है॥ ६ ॥ ‘ल णके ारा इ ज ा वध आ है’ यह समाचार सुनते ही महापरा मी ीरामच जीको अनुपम हष ा आ और वे इस कार बोले—॥ ७ ॥ ‘शाबाश! ल ण! म तुमपर ब त स ँ । आज तुमने बड़ा दु र परा म कया। रावणपु इ ज े मारे जानेसे तुम यह न त समझ लो क अब हमलोग यु म जीत गये’॥ ८॥ यशक वृ करनेवाले ल ण (उस समय अपनी शंसा सुनकर) लजा रहे थे; कतु परा मी ीरामने उ बलपूवक ख चकर गोदम ले लया और बड़े ेहसे उनका म क सूँघा।



श के आघातसे पी ड़त ए ेही ब ु ल णको गोदम बठाकर और दयसे लगाकर वे बड़े ारसे उनक ओर बार ार देखने लगे॥ ९-१० ॥ ल ण अपने शरीरम धँसे ए बाण के ारा अ पी ड़त थे। उनके अ म जगह-जगह घाव हो गया था। वे बार ार ल ी साँस ख चते थे, आघातज नत ेशसे संत हो रहे थे तथा उ साँस लेनेम भी पीड़ा होती थी। उस अव ाम पु षो म ीरामने ेहसे उनका म क सूँघकर पीड़ा दूर करनेके लये पुन: ज ी-ज ी उनके शरीरपर हाथ फे रा और आ ासन देकर ल णसे इस कार कहा—॥ ११-१२ ॥ ‘वीर! तुमने अपने दु र परा मसे परम क ाणकारी काय स कया है। आज बेटेके मारे जानेपर यु लम रावणको भी म मारा गया ही मानता ँ । उस दुरा ा श ुका वध हो जानेसे आज म वा वम वजयी हो गया। सौभा क बात है क तुमने रणभू मम इ ज ा वध करके नदयी नशाचर रावणक दा हनी बाँह ही काट डाली; क वही उसका सबसे बड़ा सहारा था॥ १३-१४ १/२ ॥ ‘ वभीषण और हनुमा े भी समरभू मम महान् परा म कर दखाया है। तुम सब लोग ने मलकर तीन दन और तीन रातम कसी तरह उस वीर रा सको मार गराया तथा मुझे श ुहीन बना दया। अब रावण ही यु के लये नकलेगा॥ १५-१६ ॥ ‘महान् सै -समुदायस हत पु को मारा गया सुनकर रावण वशाल सेना साथ लेकर यु के लये आयेगा॥ ‘पु के वधसे संत होकर नकले ए उस दुजय रा सराज रावणको म अपनी बड़ी भारी सेनाके ारा घेरकर मार डालूँगा॥ १८ ॥ ‘ल ण! इ जत् इ को भी जीत चुका था। जब उसे भी तुमने यु भू मम मार गराया; तब तुम-जैसे र क और सहायकके होते ए मुझे सीता और भूम लके रा को ा करनेम को◌इ क ठना◌इ नह होगी’॥ १९ ॥ इस कार भा◌इको आ ासन देकर रघुकुलन न ीरामने उ दयसे लगा लया और स तापूवक सुषेणको बुलाकर कहा—॥ २० ॥ ‘परम बु मान् सुषेण! तुम शी ही ऐसा उपचार करो जससे ये म व ल सु म ाकु मार पूणत: हो जायँ और इनके शरीरसे बाण नकलकर घाव भरनेके साथ ही सारी पीड़ा दूर हो जाय॥ २१ ॥



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ाकु मार ल ण और वभीषण दोन के शरीरसे तुम शी ही बाण नकाल दो और घाव अ ा कर दो। वृ ारा यु करनेवाले जो शूरवीर रीछ तथा वानर सै नक ह, उनम भी जो दूसरे-दूसरे लोग बाण से बधे ए और घायल होकर यु कर रहे ह, उन सभीको तुम य करके सुखी एवं कर दो’॥ महा ा ीरामच जीके ऐसा कहनेपर वानरयूथ प त सुषेणने ल णक नाकम एक ब त ही उ म ओष ध लगा दी॥ २४ ॥ उसक ग सूँघते ही ल णके शरीरसे बाण नकल गये और उनक सारी पीड़ा दूर हो गयी। उनके शरीरम जतने भी घाव थे, सब भर गये॥ २५ ॥ ीरामच जीक आ ासे सुषेणने वभीषण आ द सु द तथा सम वानर शरोम णय क त ाल च क ा क ॥ २६ ॥ फर तो णभरम बाण नकल जाने और पीड़ा दूर हो जानेसे सु म ाकु मार एवं नीरोग हो हषका अनुभव करने लगे॥ २७ ॥ उस समय भगवान् ीराम, वानरराज सु ीव, वभीषण तथा परा मी ऋ राज जा वान् ल णको नीरोग होकर खड़ा आ देख सेनास हत बड़े स ए॥ २८ ॥ दशरथन न महा ा ीरामने ल णके उस अ दु र परा मक पुन: भू र-भू र शंसा क । इ जत् यु म मार गराया गया, यह सुनकर वानरराज सु ीवको भी बड़ी स ता ◌इ॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म इ ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९१ ॥



बानबेवाँ सग रावणका शोक तथा सुपा के समझानेसे उसका सीता-वधसे नवृ होना



रावणके म य ने जब इ ज े वधका समाचार सुना, तब उ ने यं भी देखकर इसका न य कर लेनेके बाद तुरंत जाकर दशमुख रावणसे सारा हाल कह सुनाया॥ १ ॥



वे बोले—‘महाराज! यु म वभीषणक सहायता पाकर ल णने आपके महातेज ी पु को हमारे सै नक के देखते-देखते मार डाला॥ २ ॥ ‘ जसने देवता के राजा इ को भी परा कया था और पहलेके यु म जसक कभी पराजय नह ◌इ थी, वही आपका शूरवीर पु इ जत् शौयस ल णके साथ भड़कर उनके ारा मारा गया। वह अपने बाण ारा ल णको पूणत: तृ करके उ म लोक म गया’॥ ३ १/२ ॥ यु म अपने पु इ ज े भयानक वधका घोर एवं दा ण समाचार सुननेपर रावणको बड़ी भारी मू ाने धर दबाया॥ ४ १/२ ॥ फर दीघकालके बाद होशम आकर रा स वर राजा रावण पु शोकसे ाकु ल हो गया। उसक सारी इ याँ अकु ला उठ और वह दीनतापूवक वलाप करने लगा—॥ ५ १/२ ॥ ‘हा पु ! हा रा स-सेनाके महाबली कणधार! तुम तो पहले इ पर भी वजय पा चुके थे; फर आज ल णके वशम कै से पड़ गये?॥ ६ १/२ ॥ ‘बेटा! तुम तो कु पत होनेपर अपने बाण से काल और अ कको भी वदीण कर सकते थे, म राचलके शखर को भी तोड़-फोड़ सकते थे; फर यु म ल णको मार गराना तु ारे लये कौन बड़ी बात थी?॥ ७ १/२ ॥ ‘महाबाहो! आज सूयके पु ेतराज यमका मह मुझे अ धक जान पड़ने लगा है, ज ने तु भी कालधमसे संयु कर दया॥ ८ १/२ ॥ ‘सम देवता म भी अ े यो ा का यही माग है। जो अपने ामीके लये यु म मारा जाता है, वह पु ष गलोकम जाता है॥ ९ ॥



‘आज



सम देवता, लोकपाल तथा मह ष इ ज ा मारा जाना सुनकर नडर हो सुखक न द सो सकगे॥ १० ॥ ‘आज तीन लोक और कानन स हत यह सारी पृ ी भी अके ले इ ज े न होनेसे मुझे सूनी-सी दखायी देती है॥ ११ ॥ ‘जैसे गजराजके मारे जानेपर पवतक क राम ह थ नय का आतनाद सुनायी पड़ता है, उसी कार आज अ :पुरम मुझे रा स-क ा का क ण- न सुनना पड़ेगा॥ १२ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले पु ! आज अपने युवराजपदको, ल ापुरीको, सम रा स को, अपनी माँको, मुझको और अपनी प य को—हम सब लोग को छोड़कर तुम कहाँ चले गये?॥ १३ ॥ ‘वीर! होना तो यह चा हये था क म पहले यमलोकम जाता और तुम यहाँ रहकर मेरे ेतकाय करते; परंतु तुम वपरीत अव ाम त हो गये (तुम परलोकवासी ए और मुझे तु ारा ेतकाय करना पड़ेगा)॥ १४ ॥ ‘हाय! राम, ल ण और सु ीव अभी जी वत ह; ऐसी अव ाम मेरे दयका काँटा नकाले बना ही तुम हम छोड़कर कहाँ चले गये?’॥ १५ ॥ इस कार आतभावसे वलाप करते ए रा सराज रावणके दयम अपने पु के वधका रण करके महान् ोधका आवेश आ॥ १६ ॥ एक तो वह भावसे ही ोधी था। दूसरे पु क च ा ने उसे उ े जत कर दया— जलते एको और भी जला दया। जैसे सूयक करण ी ऋतुम उसे अ धक च बना देती ह॥ १७ ॥ ललाटम टेढ़ी भ ह के कारण वह उसी तरह शोभा पाता था, जैसे लयकालम मगर और बड़ी-बड़ी लहर से महासागर सुशो भत होता है॥ १८ ॥ जैसे वृ ासुरके मुखसे धूमस हत अ कट ◌इ थी, उसी तरह रोषसे जँभा◌इ लेते ए रावणके मुखसे कट पम धूमयु लत अ नकलने लगी॥ १९ ॥ अपने पु के वधसे संत आ शूरवीर रावण सहसा ोधके वशीभूत हो गया। उसने बु से सोच वचार कर वदेहकु मारी सीताको मार डालना ही अ ा समझा॥ २० ॥



रावणक आँ ख एक तो भावसे ही लाल थ । दूसरे ोधा ने उ और भी र वणक बना दया था। अत: उसके वे दी मान् ने महान् घोर तीत होते थे॥ २१ ॥ रावणका प भावसे ही भयंकर था। उसपर ोधा का भाव पड़नेसे वह और भी भयानक हो चला और कु पत ए के समान दुजय तीत होने लगा॥ २२ ॥ ोधसे भरे ए उस नशाचरके ने से आँ सु क बूँद गरने लग , मानो जलते ए दीपक से लौके साथ ही तेलके बदु झड़ रहे ह ॥ २३ ॥ वह दाँत पीसने लगा। उस समय उसके दाँत के कटकटानेका जो श सुनायी देता था, वह समु -म नके समय दानव ारा ख चे जाते ए म नय प म राचलक नके समान जान पड़ता था॥ काला के समान अ कु पत हो वह जस- जस दशाक ओर डालता था, उसउस दशाम खड़े ए रा स भयभीत हो ख े आ दक ओटम छप जाते थे॥ २५ ॥ चराचर ा णय को स लेनेक इ ावाले कु पत कालके समान स ूण दशा क ओर देखते ए रावणके पास रा स नह जाते थे—उसके नकट जानेका साहस नह करते थे॥ २६ ॥



तब अ कु पत आ रा सराज रावण यु म रा स को ा पत करनेक इ ासे उनके बीचम खड़ा होकर बोला—॥ २७ ॥ ‘ नशाचरो! मने सह वष तक कठोर तप ा करके व भ तप ा क समा पर य ू ाजीको संतु कया है॥ २८ ॥ ‘उसी तप ाके फलसे और ाजीक कृ पासे मुझे देवता और असुर क ओरसे कभी भय नह है॥ ‘मेरे पास ाजीका दया आ कवच है, जो सूयके समान दमकता रहता है। देवता और असुर के साथ घ टत ए मेरे सं ामके अवसर पर वह व के हारसे भी टूट नह सका है॥ ३० ॥ ‘इस लये य द आज म यु के लये तैयार हो रथपर बैठकर रणभू मम खड़ा होऊँ तो कौन मेरा सामना कर सकता है ? सा ात् इ ही न हो, वह भी मुझसे यु करनेका साहस नह कर सकता॥ ३१ ॥



‘उन



दन देवासुर-सं ामम स ए ाजीने मुझे जो बाणस हत वशाल धनुष दान कया था, आज मेरे उसी भयानक धनुषको सैकड़ म ल-वा क नके साथ महासमरम राम और ल णका वध करनेके लये ही उठाया जाय॥ ३२-३३ ॥ पु के वधसे संत हो ोधके वशीभूत ए ू र रावणने अपनी बु से सोच- वचारकर सीताको मार डालनेका ही न य कया॥ ३४ ॥ उसक आँ ख ोधसे लाल हो गय और आकृ त अ भयानक दखायी देने लगी। वह सब ओर डालकर पु के लये दु:खी हो दीनतापूण रवाले स ूण नशाचर से बोला —॥ ३५ ॥ ‘मेरे बेटेने मायासे के वल वानर को चकमा देनेके लये एक आकृ तको ‘यह सीता है’ ऐसा कहकर दखाया और झूठे ही उसका वध कया था॥ ३६ ॥ ‘सो आज उस झूठको म स ही कर दखाऊँ गा और ऐसा करके अपना य क ँ गा। उस याधम रामम अनुराग रखनेवाली सीताका नाश कर डालूँगा’॥ म य से ऐसा कहकर उसने शी ही तलवार हाथम ले ली, जो खड् गो चत गुण से यु और आकाशके समान नमल का वाली थी। उसे ानसे नकालकर प ी और म य से घरा आ रावण बड़े वेगसे आगे बढ़ा। पु के शोकसे उसक चेतना अ आकु ल हो रही थी॥ ३८-३९ ॥ वह अ कु पत हो तलवार लेकर सहसा उस ानपर जा प ँ चा, जहाँ म थलेशकु मारी सीता मौजूद थ । उधर जाते ए उस रा सको देखकर उसके म ी सहनाद करने लगे॥ ४० ॥ वे रावणको रोषसे भरा देख एक-दूसरेका आ ल न करके बोले—‘आज इसे देखकर वे दोन भा◌इ राम और ल ण थत हो उठगे॥ ४१ ॥ ‘ क कु पत होनेपर इस रा सराजने इ आ द चार लोकपाल को जीत लया और दूसरे ब त-से श ु को भी यु म मार गराया था॥ ४२ ॥ ‘तीन लोक म जो र भूत पदाथ ह, उन सबको लाकर रावण भोग रहा है। भूम लम इसके समान परा मी और बलवान् दूसरा को◌इ नह है’॥ ४३ ॥



वे इस कार बातचीत कर ही रहे थे क ोधसे अचेत-सा आ रावण अशोक-वा टकाम बैठी ◌इ वदेहकु मारी सीताका वध करनेके लये दौड़ा॥ ४४ ॥ उसके हतका वचार करनेवाले सु द् उस रोषभरे रावणको रोकनेक चे ा कर रहे थे; तो भी वह अ कु पत हो जैसे आकाशम को◌इ ू र ह रो हणी नामक न पर आ मण करता हो, उसी कार सीताक ओर दौड़ा॥ ४५ ॥ उस समय सतीसा ी सीता रा सय के संर णम थ । उ ने देखा, ोधसे भरा आ रा स एक ब त बड़ी तलवार लये मुझे मारनेके लये आ रहा है। य प उसके सु द् उसे बार ार रोक रहे ह तो भी वह लौट नह रहा है। इस तरह तलवार ले रावणको आते देख जनकन नीके मनम बड़ी था ◌इ॥ ४६-४७ ॥ सीता दु:खम डू ब गय और वलाप करती ◌इ इस कार बोल —‘यह दुबु रा स जस तरह कु पत हो यं मेरी ओर दौड़ा आ रहा है, इससे जान पड़ता है, यह सनाथा होनेपर भी मुझे अनाथाक भाँ त मार डालेगा॥ ४८ १/२ ॥ ‘म अपने प तम अनुराग रखती ँ तो भी इसने अनेक बार े रत कया क ‘तुम मेरी भाया बन जाओ।’ उस समय न य ही मने इसे ठु करा दया था॥ ‘मेरे इस तरह ठु करानेपर न य ही यह नराश हो ोध और मोहके वशीभूत हो गया है और अव ही मुझे मार डालनेके लये उ त है॥ ५० १/२ ॥ ‘अथवा इस नीचने आज समरा णम मेरे ही कारण दोन भा◌इ पु ष सह ीराम और ल णको मार गराया है॥ ५१ १/२ ॥ ‘ क इस समय मने रा स का बड़ा भयंकर सहनाद सुना है। हषसे भरे ए ब त-से नशाचर अपने यजन को पुकार रहे थे॥ ५२ १/२ ॥ ‘अहो! य द मेरे कारण उन राजकु मार का वनाश आ तो मेरे जीवनको ध ार है अथवा यह भी स व है क पापपूण वचार रखनेवाला यह भयंकर रा स पु शोकसे संत हो ीराम और ल णको न मार सकनेके कारण मेरा ही वध कर डाले॥ ५३-५४ ॥ ‘मुझ ु (मूख) नारीने हनुमा कही ◌इ वह बात नह मानी। य द ीराम ारा जीती न जानेपर भी उस समय हनुमा पीठपर बैठकर चली गयी होती तो प तके अ म ान पाकर आज इस तरह बार ार शोक नह करती॥ ५५ १/२ ॥



‘मेरी सास कौस



ा एक ही बेटेक माँ ह। य द वे यु म अपने पु के वनाशका समाचार सुनगी तो म समझती ँ क उनका दय अव फट जायगा॥ ५६ १/२ ॥ ‘वे रोती ◌इ अपने महा ा पु के ज , बा ाव ा, युवाव ा, धम-कम तथा पका रण करगी॥ ५७ १/२ ॥ ‘अपने पु के मारे जानेपर पु -दशनसे नराश एवं अचेत-सी हो वे उनका ा करके न य ही जलती आगम समा जायँगी अथवा सरयूक जलधाराम आ वसजन कर दगी॥ ५८ १/ ॥ २



वचारवाली उस दु ा कु बड़ी म राको ध ार है, जसके कारण मेरी सास कौस ाको यह पु का शोक देखना पड़ेगा’॥ ५९ १/२ ॥ च मासे बछु ड़कर कसी ू र हके वशम पड़ी ◌इ रो हणीक भाँ त तप नी सीताको इस कार वलाप करती देख रावणके सुशील एवं शु आचार वचार वाले सुपा नामक बु मान् म ीने दूसरे स चव के मना करनेपर भी उस समय रा सराज रावणसे यह बात कही—॥ ६०—६२ ॥ ‘महाराज दश ीव! तुम तो सा ात् कु बेरके भा◌इ हो; फर ोधके कारण धमको तला ल दे वदेहकु मारीके वधक इ ा कै से कर रहे हो?॥ ६३ ॥ ‘वीर रा सराज! तुम व धपूवक चयका पालन करते ए वेद व ाका अ यन पूरा करके गु कु लसे ातक होकर नकले थे और तबसे सदा अपने कत के पालनम लगे रहे तो भी आज अपने हाथसे एक ीका वध करना तुम कै से ठीक समझते हो?॥ ६४ ॥ ‘पृ ीनाथ! इस म थलेशकु मारीके द पक ओर देखो (देखकर इसके ऊपर दया करो) और यु म हमलोग के साथ चलकर रामपर ही अपना ोध उतारो॥ ‘आज कृ प क चतुदशी है। अत: आज ही यु क तैयारी करके कल अमावा ाके दन सेनाके साथ वजयके लये ान करो॥ ६६ ॥ ‘तुम शूरवीर, बु मान् और रथी वीर हो। एक े रथपर आ ढ़ हो खड् ग हाथम लेकर यु करो। दशरथन न रामका वध करके तुम म थलेशकु मारी सीताको ा कर लोगे’॥ ६७ ॥



‘पापपूण



म के कहे ए उस उ म धमानुकूल वचनको ीकार करके बलवान् दुरा ा रावण महलम लौट गया और वहाँसे फर अपने सु द के साथ उसने राजसभाम वेश कया॥ ६८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म बानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९२ ॥



तरानबेवाँ सग ीराम ारा रा ससेनाका संहार



सभाम प ँ चकर रा सराज रावण अ दु:खी एवं दीन हो े सहासनपर बैठा और कु पत सहक भाँ त ल ी साँस लेने लगा॥ १ ॥ वह महाबली रावण पु शोकसे पी ड़त हो रहा था; अत: अपनी सेनाके धान- धान यो ा से हाथ जोड़कर बोला—॥ २ ॥ ‘वीरो! तुम सब लोग सम हाथी, घोड़े, रथसमुदाय तथा पैदल सै नक से घरकर उन सबसे सुशो भत होते ए नगरसे बाहर नकलो और समरभू मम एकमा रामको चार ओरसे घेरकर मार डालो। जैसे वषाकालम बादल जलक वषा करते ह, उसी कार तुमलोग भी बाण क वृ करते ए रामको मार डालनेका य करो॥ ३-४ ॥ ‘अथवा म ही कल महासमरम तु ारे साथ रहकर अपने तीखे बाण से रामके शरीरको छ - भ करके सब लोग के देखते-देखते उ मार डालूँगा’॥ ५ ॥ रा सराजक इस आ ाको शरोधाय करके वे नशाचर शी गामी रथ तथा नाना कारक सेना से यु हो ल ासे नकले॥ ६ ॥ वे सब रा स वानर पर प रघ, प श, बाण, तलवार तथा फरसे आ द शरीरनाशक अ श का हार करने लगे। इसी कार वानर भी रा स पर वृ और प र क वषा करने लगे॥ ७ १/२ ॥ सूय दयके समय रा स और वानर के उस तुमुल यु ने महाभयंकर प धारण कया॥ ८ १/ ॥ २



वानर और रा स उस यु भू मम व च गदा , भाल , तलवार और फरस से एकदूसरेको मारने लगे॥ इस कार यु छड़ जानेपर जो ब त बड़ी धूलरा श उड़ रही थी, वह रा स और वानर के र का वाह जारी होनेसे शा हो गयी। यह एक अ तु बात थी॥ १० १/२ ॥ रणभू मम खूनक कतनी ही न दयाँ बह चल , जो का समूहक भाँ त शरीरसमुदायको ही बहाये लये जाती थ । गरे ए हाथी और रथ उन न दय के कनारे जान पड़ते थे। बाण म के



समान तीत होते थे और ऊँ चे-ऊँ चे ज ही उनके तटवत वृ थे॥ ११ १/२ ॥ सम वानर खूनसे लथपथ हो रहे थे। वे कू द-कू दकर समरा णम रा स के ज, कवच, रथ, घोड़े और नाना कारके अ -श का वनाश करने लगे॥ वानर अपने तीखे दाँत और नख से नशाचर के के श, कान, ललाट और नाक कु तर डालते थे॥ १४ ॥ जैसे फलवाले वृ क ओर सैकड़ प ी दौड़े जाते ह, उसी कार एक-एक रा सपर सौसौ वानर टूट पड़े॥ १५ ॥ उस समय पवताकार रा स भी भारी गदा , भाल , तलवार और फरस से भयंकर वानर को मारने लगे॥ १६ ॥ रा स ारा मारी जाती ◌इ वानर क वह वशाल सेना शरणागतव ल दशरथन न भगवान् ीरामक शरणम गयी॥ १७ ॥ तब बल- व मशाली महातेज ी ीरामने धनुष ले रा स क सेनाम वेश करके बाण क वषा आर कर दी॥ १८ ॥ जैसे आकाशम बादल तपते ए सूयपर आ मण नह कर सकते, उसी कार सेनाम वेश करके अपने बाण पी अ से रा ससेनाको द करते ए ीरामपर वे महा ू र नशाचर धावा न कर सके ॥ १९ ॥ नशाचर रणभू मम ीरामच जीके ारा कये गये अ घोर एवं दु र कम को ही देख पाते थे, उनके पको नह ॥ २० ॥ जैसे वनम चलती ◌इ हवा बड़े-बड़े वृ को हलाती और तोड़ डालती है तो भी वह देखनेम नह आती, उसी कार भगवान् ीराम नशाचर क वशाल सेनाको वच लत करते और कतने ही महार थय क ध याँ उड़ा देते थे तो भी वे रा स उ देख नह पाते थे॥ वे अपनी सेनाको ीरामके ारा बाण से छ भ , द , भ और पी ड़त होती ◌इ देखते थे; कतु शी तापूवक यु करनेवाले ीराम उनक म नह आते थे॥ २२ ॥ अपने शरीर पर हार करते ए ीरघुनाथजीको वे उसी तरह नह देख पाते थे, जैसे श ा द वषय के भो ा पम त जीवा ाको जाएँ नह देख पाती ह॥



‘ये राम ह, जो हा थय क सेनाको मार रहे ह, ये रहे राम, जो बड़े-बड़े र थय का संहार कर ह, नह -नह ये ह राम, जो अपने पैने बाण से घोड़ स हत पैदल सै नक का वध कर रहे ह’



रहे इस कार वे सब रा स ीरघुनाथजीक क चत् समानताके कारण सभीको राम समझ लेते और रामके ही मसे ोधम भरकर आपसम एक-दूसरेको मारने लगते थे॥ २४-२५ ॥ ीरामच जी रा ससेनाको द कर रहे थे तो भी वे रा स उ देख नह सके । महा ा ीरामने रा स को गा व नामक द अ से मो हत कर दया था॥ २६ ॥ अत: वे रा स रणभू मम कभी तो हजार राम देखते थे और कभी उ उस महासमरम एक ही रामका दशन होता था॥ २७ ॥ वे महा ा ीरामके धनुषक सुनहरी को ट (नोक या कोणभाग)-को अलातच क भाँ त घूमती देखते थे; कतु सा ात् ीरघुनाथजीको नह देख पाते थे॥ २८ ॥ यु लम रा स का संहार करते ए ीरामच जी सा ात् च के समान जान पड़ते थे। शरीरका म भाग अथात् ना भ ही उस च क ना भ थी, बल ही उससे कट होनेवाली ाला था, बाण ही उसके अरे थे, धनुष ही ने मका ान हण कये ए था, धनुषक टंकार और तल न—ये ही दोन उस च क घघराहट थ , तेज-बु और का आ द गुण ही उस च क भा थे तथा द ा के गुण भाव ही उसके ा भाग अथात् धार थे। जैसे जा लयकालम कालच का दशन करती है, उसी कार रा स उस समय ीराम पी च को देख रहे थे॥ २९-३० ॥ ीरामने अके ले दनके आठव भाग (डेढ़ घंटे)-म ही आगक ालाके समान तेज ी बाण ारा इ ानुसार प धारण करनेवाले रा स के वायुके समान वेगशाली दस हजार रथ क , अठारह हजार वेगवान् हा थय क , चौदह हजार सवार स हत घोड़ क तथा पूरे दो लाख पैदल नशाचर क सेनाका संहार कर डाला॥ ३१—३३ ॥ जब घोड़े और रथ न हो गये तथा ज तोड़-फोड़ डाले गये, तब मरनेसे बचे ए नशाचर शा हो ल ापुरीम भाग गये॥ ३४ ॥ मारे गये हा थय , घोड़ और पैदल सै नक क लाश से भरी ◌इ वह रणभू म कु पत ए महा ा देवक डाभू म-सी तीत होती थी॥ ३५ ॥ तदन र देवता, ग व, स और मह षय ने साधुवाद देकर भगवान् ीरामके इस कायक शंसा क ॥ ३६ ॥



उस समय धमा ा ीरामने अपने पास खड़े ए सु ीव, वभीषण, क पवर हनुमान्, जा वान्, क प े मै तथा वदसे कहा—‘यह द अ -बल मुझम है या भगवान् शंकरम’॥ ३७-३८ ॥ उस अवसरपर इ तु तेज ी महा ा ीराम जो अ -श का संचालन करते समय कभी थकते नह थे, उस रा सराजक सेनाका संहार करके हषभरे देवता के समुदाय ारा पू जत एवं शं सत होने लगे॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म तरानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९३ ॥



चौरानबेवाँ सग रा



सय का वलाप



अनायास ही महान् परा म करनेवाले भगवान् ीरामके ारा उनके तपाये ए सुवणसे वभू षत चमक ले बाण से रावणके भेजे ए हजार हाथी, सवार स हत सह घोड़े, अ के समान देदी मान एवं ज से सुशो भत सह रथ तथा इ ानुसार प धारण करनेवाले, सुवणमय जसे व च शोभा पानेवाले और गदा-प रघ से यु करनेवाले हजार शूरवीर रा स मारे गये—यह देख-सुनकर मरनेसे बचे ए नशाचर घबरा उठे और ल ाम जा रा सय से मलकर ब त ही दु:खी एवं च ाम हो गये॥ १—४ ॥ जनके प त, पु और भा◌इ-ब ु मारे गये थे, वे अनाथ रा सयाँ ंडु -क - ंडु एक होकर दु:खसे पी ड़त हो वलाप करने लग —॥ ५ ॥ ‘हाय! जसका पेट धँसा आ और आकार वकराल है, वह बु ढ़या शूपणखा वनम कामदेवके समान पवाले ीरामके पास कामभाव लेकर कै से गयी— कस तरह जानेका साहस कर सक ?॥ ६ ॥ ‘जो भगवान् राम सुकुमार और महान् बलशाली ह तथा स ूण ा णय के हतम संल रहते ह, उ देखकर वह कु पा रा सी उनके त कामभावसे यु हो गयी—यह कै सा दु:साहस है? यह दु ा तो सबके ारा मार डालनेके यो है॥ ७ ॥ ‘कहाँ सवगुणस , महान् बलशाली तथा सु र मुखवाले ीराम और कहाँ वह सभी गुण से हीन, दुमुखी रा सी! उसने कै से उनक कामना क ?॥ ८ ॥ ‘ जसके सारे अ म ु रयाँ पड़ गयी ह, सरके बाल सफे द हो गये ह तथा जो कसी भी से ीरामके यो नह है, उस दु ाने हम ल ावा सय के दुभा से ही खर, दूषण तथा अ रा स के वनाशके लये ीरामका धषण (उ अपने शसे दू षत करनेका यास) कया था॥ ९-१० ॥ ‘उसके कारण ही दशमुख रा स रावणने यह महान् वैर बाँध लया और अपने तथा रा सकु लके वधके लये वह सीताजीको हर लाया॥ ११ ॥



‘दशमुख



रावण जनकन नी सीताको कभी नह पा सके गा; परंतु उसने बलवान् रघुनाथजीसे अ मट वैर बाँध लया है॥ १२ ॥ ‘रा स वराध वदेहकु मारी सीताको ा करना चाहता है, यह देख ीरामने एक ही बाणसे उसका काम तमाम कर दया। वह एक ही ा उनक अजेय श को समझनेके लये काफ था॥ १३ ॥ ‘जन ानम भयानक कम करनेवाले चौदह हजार रा स को ीरामने अ शखाके समान तेज ी बाण ारा कालके गालम डाल दया था और सूयके स श काशमान सायक से समरा णम खर, दूषण तथा शराका भी संहार कर डाला था; यह उनक अजेयताको समझ लेनेके लये पया ा था॥ १४-१५ ॥ ‘र भोजी रा स कब क बाँह एक-एक योजन ल ी थ और वह ोधवश बड़े जोरजोरसे सहनाद करता था तो भी वह ीरामके हाथसे मारा गया। वह ा ही ीरामच जीके दुजय परा मका ान करानेके लये पया था॥ १६ ॥ ‘मे पवतके समान महाकाय बलवान् इ कु मार वालीको ीरामच जीने एक ही बाणसे मार गराया। उनक श का अनुमान लगानेके लये वह एक ही उदाहरण काफ है॥ १७ ॥ ‘सु ीव ब त ही दु:खी और नराश होकर ऋ मूक पवतपर नवास करते थे; परंतु ीरामने उ क ाके राज सहासनपर बठा दया। उनके भावको समझनेके लये वह एक ही ा पया है॥ १८ ॥ ‘ वभीषणने जो धम और अथसे यु बात कही थी, वह सभी रा स के लये हतकर तथा यु यु थी; परंतु मोहवश रावणको वह अ ी न लगी। य द कु बेरका छोटा भा◌इ रावण वभीषणक बात मान लेता तो यह ल ापुरी इस तरह दु:खसे पी ड़त हो शानभू म नह बन जाती॥ १९-२० ॥ ‘महाबली कु कण ीरामके हाथसे मारा गया। दु:सह वीर अ तकायको ल णने मार गराया तथा रावणका ारा पु इ जत् भी उ के हाथसे मारा गया तथा प रावण भगवान् ीरामके भावको नह समझ रहा है॥ २१ ॥ ‘हाय, मेरा बेटा मारा गया!’ ‘मेरे भा◌इको ाण से हाथ धोना पड़ा।’ ‘रणभू मम मेरे प तदेव मार डाले गये।’ ल ाके घर-घरम रा सय के ये श सुनायी देते ह॥ २२ ॥



‘समरा



णम शूरवीर ीरामने जहाँ-तहाँ सह रथ , घोड़ और हा थय का संहार कर डाला है। पैदल सै नक को भी मौतके घाट उतार दया है॥ २३ ॥ ‘जान पड़ता है, ीरामका प धारण करके हम सा ात् भगवान् देव, भगवान् व ,ु शत तु इ अथवा यं यमराज ही मार रहे ह॥ २४ ॥ ‘हमारे मुख वीर ीरामके हाथसे मारे गये। अब हमलोग अपने जीवनसे नराश हो चली ह। हम इस भयका अ नह दखायी देता, अतएव हम अनाथक भाँ त वलाप कर रही ह॥ २५ ॥ ‘दशमुख रावण शूरवीर है। इसे ाजीने महान् वर दया है। इसी घमंडके कारण यह ीरामके हाथसे ा ए इस महाघोर भयको नह समझ पाता है॥ २६ ॥ ‘यु लम ीराम जसे मारनेको तुल जायँ, उसे न तो देवता, न ग व, न पशाच और न रा स ही बचा सकते ह॥ २७ ॥ ‘रावणके ेक यु म जो उ ात दखायी देते ह, वे रामके ारा रावणके वनाशक ही सूचना देते ह॥ २८ ॥ ‘ ाजीने स होकर रावणको देवता , दानव तथा रा स क ओरसे अभयदान दे दया था। मनु क ओरसे अभय ा होनेके लये इसने याचना ही नह क थी॥ २९ ॥ ‘अत: मुझे ऐसा जान पड़ता है क यह न:स ेह मनु क ओरसे ही घोर भय ा आ है, जो रा स तथा रावणके जीवनका अ कर देनेवाला है॥ ३० ॥ ‘बलवान् रा स रावणने अपनी उ ी तप ा तथा वरदानके भावसे जब देवता को पीड़ा दी, तब उ ने पतामह ाजीक आराधना क ॥ ३१ ॥ ‘इससे महा ा ाजी संतु ए और उ ने देवता के हतके लये उन सबसे यह मह पूण बात कही॥ ३२ ॥ ‘आजसे सम दानव तथा रा स भयसे यु होकर ही न - नर र तीन लोक म वचरण करगे’॥ ३३ ॥ ‘त ात् इ आ द स ूण देवता ने मलकर पुरनाशक वृषभ ज महादेवजीको संतु कया॥ ३४ ॥



‘संतु



होनेपर महादेवजीने देवता से कहा— ‘तुम लोग के हतके लये एक द नारीका आ वभाव होगा, जो सम रा स के वनाशम कारण होगी॥ ३५ ॥ ‘जैसे पूवक म देवता ारा यु ◌इ धु ाने दानव का भ ण कया था, उसी कार यह नशाचरना शनी सीता रावणस हत हम सब लोग को खा जायगी॥ ३६ ॥ ‘उ और दुबु रावणके अ ायसे यह शोकसंयु घोर वनाश हम सबको ा आ है॥ ३७ ॥ ‘जग हम कसी ऐसे पु षको नह देखती ह, जो महा लयके समय कालक भाँ त इस समय ीरघुनाथजीसे संकटम पड़ी ◌इ हम रा सय को शरण दे सके ॥ ३८ ॥ ‘हम बड़े भारी भयक अव ाम त ह। जैसे वनम दावानलसे घरी ◌इ ह थ नय को कह ाण बचानेके लये जगह नह मलती, उसी तरह हमारे लये भी को◌इ शरण नह है॥ ३९ ॥ ‘महा ा पुल न न वभीषणने समयो चत काय कया है। उ जनसे भय दखायी दया, उ क शरणम वे चले गये’॥ ४० ॥ इस कार नशाचर क सारी याँ एक-दूसरीको भुजा म भरकर आतभाव एवं वषाद हो गय और अ भयसे पी ड़त हो अ त भयंकर न करने लग ॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म चौरानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९४ ॥



प ानबेवाँ सग रावणका अपने म



य को बुलाकर श ुवध वषयक अपना उ ाह कट करना और सबके साथ रणभू मम आकर परा म दखाना



रावणने ल ाके घर-घरम शोकम रा सय का क णाजनक वलाप सुना॥ १ ॥ वह ल ी साँस ख चकर दो घड़ीतक ानम हो कु छ सोचता रहा; त ात् रावण अ कु पत हो बड़ा भयानक दखायी देने लगा॥ २ ॥ उसने दाँत से ओठ दबा लया। उसक आँ ख रोषसे लाल हो गय । वह मू तमान् लया के समान दखायी देने लगा। रा स के लये भी उसक ओर देखना क ठन हो गया॥ ३॥ उस रा सराजने अपने पास खड़े ए रा स से अ श म वातालाप आर कया। उस समय वहाँ वह इस तरह देख रहा था, मानो अपने ने से द कर डालेगा॥ ४ ॥ उसने कहा—‘ नशाचरो! महोदर, महापा तथा रा स व पा से शी जाकर कहो —‘तुमलोग मेरी आ ासे शी ही सेना को कू च करनेका आदेश दो’॥ ५ ॥ रावणक यह बात सुनकर भयसे पी ड़त ए उन रा स ने राजाक आ ाके अनुसार उन नभ क नशाचर को पूव काय करनेके लये े रत कया॥ ६ ॥ तब ‘तथा ु’ कहकर भयानक दीखनेवाले उन सभी रा स ने अपने लये वाचन करवाया और यु के लये ान कया॥ ७ ॥ ामीक वजय चाहनेवाले वे सभी महारथी वीर यथो चत री तसे रावणका आदरस ान करके उसके सामने हाथ जोड़े खड़े हो गये॥ ८ ॥ त ात् रावण ोधसे मू त-सा होकर बड़े जोरसे हँ स पड़ा और महोदर, महापा तथा रा स व पा से कहा—॥ ९ ॥ ‘आज अपने धनुषसे छू टे ए तीखे बाण ारा, जो लयकालके सूय-स श तेज ी ह, म राम और ल णको भी यमलोक प ँ चा दूँगा॥ १० ॥ ‘आज श ुका वध करके खर, कु कण, ह तथा इ ज े मारे जानेका भरपूर बदला चुकाऊँ गा॥



‘मेरे



बाण मेघ क घटाके समान सब ओर छा जायँग;े अत: अ र , दशाएँ , आकाश तथा समु — कु छ भी दखायी न देगा॥ १२ ॥ ‘आज अपने धनुषसे प वाले बाण का जाल-सा बछा दूँगा और वानर के मु -मु यूथ का पृथक् -पृथक् वध क ँ गा॥ १३ ॥ ‘आज वायुके समान वेगशाली रथपर आ ढ़ हो म अपने धनुष पी समु से उठी ◌इ बाणमयी तर से वानर-सेना को मथ डालूँगा॥ १४ ॥ ‘कमल-के सरक -सी का वाले वानर के यूथ सरोवर के समान ह। उनके मुख ही उन सरोवर के भीतर फु कमलके समान सुशो भत होते ह। आज म हाथीके समान उनम वेश करके उन वानर-यूथ पी सरोवर को मथ डालूँगा॥ १५ ॥ ‘आज यु लम गरे ए वानर-यूथप त अपने बाण व मुख ारा नालयु कमल का म उ करते ए रणभू मक शोभा बढ़ायगे॥ १६ ॥ ‘आज यु भू मम धनुषसे छू टे ए एक-एक बाणसे म वृ लेकर जूझनेवाले सौ-सौ च वानर को वदीण क ँ गा॥ १७ ॥ ‘आज श ुका वध करके म उन सब नशाचर के आँ सू पोछू ँ गा, जनके भा◌इ और पु इस यु म मारे गये ह॥ १८ ॥ आज यु म मेरे बाण से वदीण तथा नज व ए वानर इस तरह बछ जायँगे क वहाँक भू म बड़े य से दीख सके गी॥ १९ ॥ ‘आज अपने बाण ारा मारे गये श ु के मांस से म कौ , गीध तथा जो दूसरे मांसभ ी ज ु ह, उन सबको भी तृ क ँ गा॥ २० ॥ ‘ज ी मेरा रथ तैयार कया जाय, शी धनुष लाया जाय तथा मरनेसे बचे ए नशाचर यु म मेरे पीछे-पीछे चल’॥ २१ ॥ रावणका वह वचन सुनकर महापा ने वहाँ खड़े ए सेनाप तय से कहा—‘सेनाको शी ही कू च करनेक आ ा दो’॥ २२ ॥ यह आ ा पाकर वे शी परा मी सेना घरघर जाकर उन रा स को तैयार होनेका आदेश देते ए सारी ल ाम घूमते फरे॥ २३ ॥



थोड़ी ही देरम भयंकर मुख एवं आकारवाले रा स गजना करते ए वहाँ आ प ँ चे। उनके हाथ म नाना कारके अ -श थे॥ २४ ॥ तलवार, प श, शूल, गदा, मूसल, हल, तीखी धारवाली श , बड़े-बड़े कू टमु र, डंड,े भाँ तभाँ तके च , तीखे फरसे, भ पाल, शत ी तथा अ कारके उ मो म अ श से वे स थे॥ रावणक आ ासे चार सेनाप त एक लाखसे कु छ अ धक रथ, तीन लाख हाथी, साठ करोड़ घोड़े, उतने ही गदहे तथा ऊँ ट और असं पैदल यो ा लेकर आ प ँ चे। वे सब सै नक राजाके आदेशसे वहाँ गये॥ २७-२८ ॥ इस कार वशाल सेना लाकर सेना ने रा सराज रावणके सामने खड़ी कर दी। इसी बीचम सार थने एक रथ लाकर उप त कर दया॥ २९ ॥ उसम उ म द ा रखे थे, अनेक कारके अलंकार से उस रथको सजाया गया था। उसम भाँ तभाँ तके ह थयार थे और वह रथ घुँघु दार झालर से सुशो भत था॥ ३० ॥ उसम नाना कारके र जड़े ए थे। र मय ख े उसक शोभा बढ़ाते थे और सोनेके बने ए सह कलश से वह अलंकृत था॥ ३१ ॥ उस रथको देखकर सब रा स अ आ यसे च कत हो उठे । उसपर पड़ते ही रा सराज रावण सहसा उठकर खड़ा हो गया। वह रथ करोड़ सूय के समान तेज ी तथा लत अ के स श दी मान् था। उसम आठ घोड़े जुते ए थे। उसपर सार थ बैठा था। वह रथ अपने तेजसे का शत होता था। रावण तुरंत उस भयंकर रथपर आ ढ़ हो गया॥ ३२-३३ ॥ तदन र ब त-से रा स से घरा आ रावण सहसा यु के लये त आ। वह अपने बलक अ धकतासे पृ ीको वदीण-सा करता आ जा रहा था॥ ३४ ॥ फर तो जहाँ-तहाँ सब ओर वा का महानाद गूँज उठा। मृद , पटह, श तथा रा स के कलहक न भी उसम मली ◌इ थी॥ ३५ ॥ ‘सीताको चुरानेवाला, दुराचारी, ह ारा तथा देवता के लये क क प रा सराज रावण छ एवं चँवर लगाये ीरघुनाथजीके साथ यु करनेके लये आ रहा है; इस कारक कलह- न कान म पड़ रही थी॥



उस महानादसे पृ ी काँप उठी। उस भयानक श को सुनकर सब वानर सहसा भयसे भाग चले॥ ३७ ॥ म य से घरा आ महातेज ी महाबा रावण यु म वजयक ा का उ े लेकर वहाँ आया॥ ३८ ॥ रावणक आ ा पाकर उस समय महापा , महोदर तथा दुजय वीर व पा —तीन ही रथ पर आ ढ़ ए॥ ३९ ॥ वे हषपूवक जोर-जोरसे इस तरह दहाड़ रहे थे, मानो पृ थवीको वदीण कर डालगे। वे वजयक इ ा मनम लये घोर सहनाद करते ए पुरीसे बाहर नकले॥ तदन र काल, मृ ु और यमराजके समान भयंकर तेज ी रावण धनुष हाथम ले रा स क सेनासे घरकर यु के लये आगे बढ़ा॥ ४१ ॥ उसके रथके घोड़े ब त तेज चलनेवाले थे। उसके ारा वह महारथी वीर ल ाके उसी ारसे बाहर नकला, जहाँ ीराम और ल ण मौजूद थे॥ ४२ ॥ उस समय सूयक भा फ क पड़ गयी। सम दशा म अ कार छा गया, भयंकर प ी अशुभ बोली बोलने लगे और धरती डोलने लगी॥ ४३ ॥ बादल र क वषा करने लगे। घोड़े लड़खड़ाकर गर पड़े। जके अ भागपर गीध आकर बैठ गया और गीद ड़याँ अम लसूचक बोली बोलने लग ॥ ४४ ॥ बाँयी आँ ख फड़कने लगी। बाँय भुजा सहसा काँप उठी। उसके चेहरेका रंग फ का पड़ गया और आवाज कु छ बदल गयी॥ ४५ ॥ रा स दश ीव ही यु के लये नकला, ही रणभू मम उसक मृ ुके सूचक ल ण कट होने लगे॥ ४६ ॥ आकाशसे उ ापात आ। उससे व पातके समान गड़गड़ाहट पैदा ◌इ। अम लसूचक प ी गीध कौ से मलकर अशुभ बोली बोलने लगे॥ ४७ ॥ इन भयंकर उ ात को सामने उप त देखकर भी रावणने उनक को◌इ परवा नह क । वह कालसे े रत हो मोहवश अपने ही वधके लये नकल पड़ा॥ उन महाकाय रा स के रथका ग ीर घोष सुनकर वानर क सेना भी यु के लये ही उनके सामने आकर डट गयी॥ ४९ ॥



फर तो अपनी-अपनी जीत चाहते ए रोषपूवक एक-दूसरेको ललकारनेवाले वानर और रा स म तुमुल यु छड़ गया॥ ५० ॥ उस समय दशमुख रावण अपने सुवणभू षत बाण ारा वानर क सेना म रोषपूवक बड़ी भारी मार-काट मचाने लगा॥ ५१ ॥ रावणने कतने ही वानर के सर काट लये, कतन क छाती छेद डाली और ब त के कान उड़ा दये॥ कतन ने घायल होकर ाण ाग दये। रावणने कतने ही वानर क पस लयाँ फाड़ डाल , कतन के म क कु चल डाले और कतन क आँ ख चौपट कर द ॥ ५३ ॥ दशमुख रावणके ने ोधसे घूम रहे थे। वह अपने रथके ारा यु लम जहाँ-जहाँ गया, वहाँ-वहाँ वे वानरयूथप त उसके बाण का वेग न सह सके ॥ ५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म प ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९५ ॥



छानबेवाँ सग सु ीव ारा रा ससेनाका संहार और व पा का वध



इस कार जब रावणने अपने बाण से वानर के अ -भ कर डाले, तब वहाँ धराशायी ए वानर से वह सारी रणभू म पट गयी॥ १ ॥ रावणके उस अस बाण हारको वे वानर एक ण भी नह सह सके ; ठीक वैसे ही, जैसे पतंग जलती आगका श णभर भी नह सह सकते ह॥ २ ॥ रा सराजके तीखे बाण क मारसे पी ड़त हो वे वानर उसी तरह चीखते- च ाते ए भागे, जैसे दावानलक ाला से घरकर जलते ए हाथी ची ार करते ए भागते ह॥ ३ ॥ जैसे हवा बड़े-बड़े बादल को छ - भ कर देती है, उसी कार रावण अपने बाण से वानरसेना का संहार करता आ समरा णम वचरने लगा॥ ४ ॥ बड़े वेगसे वानर का संहार करके वह रा सराज समरा णम जूझनेके लये तुरंत ही ीरामच जीके पास जा प ँ चा॥ ५ ॥ उधर सु ीवने देखा, वानरसै नक रावणसे खदेड़े जाकर समरभू मसे भाग रहे ह, तब उ ने सेनाको र रखनेका भार सुषेणको स पकर यं शी ही यु करनेका वचार कया॥ ६ ॥ सुषेणको अपने ही समान परा मी वीर समझकर उ ने सेनाक र ाका काय स पा और यं वृ लेकर श ुके सामने ान कया॥ ७ ॥ उनके अगल-बगलम और पीछे सम वानरयूथप त बड़े-बड़े प र और नाना कारके वृ लेकर चले॥ ८ ॥ उस समय सु ीवने यु म उ रसे गजना क और लयकालम बड़े-बड़े वृ को उखाड़ फ कनेवाले वायुदेवक भाँ त उन वशालकाय वानरराजने व भ कारक आकृ तवाले बड़ेबड़े रा स को गरा- गराकर मथ एवं कु चल डाला॥ ९-१० ॥ जैसे बादल वनम प य के समुदायपर ओले बरसाता है, उसी कार सु ीव रा स क सेना पर बड़े-बड़े प र क वषा करने लगे॥ ११ ॥ वानरराजके चलाये ए शैलख क वषासे रा स के म क कु चल जाते और वे ढहे ए पवत के समान धराशायी हो जाते थे॥ १२ ॥



इस कार सु ीवक मारसे जब सब ओर रा स का वनाश होने लगा तथा वे भागने और आतनाद करते ए पृ ीपर गरने लगे, तब व पा नामक दुजय रा स हाथम धनुष ले अपना नाम घो षत करता आ रथसे कू द पड़ा और हाथीक पीठपर जा चढ़ा॥ १३-१४ ॥ उस हाथीपर चढ़कर महाबली व पा ने बड़ी भयानक आवाजम गजना क और वानर पर वेगपूवक धावा कया॥१५ ॥ उसने सेनाके मुहानेपर सु ीवको ल करके बड़े भयंकर बाण छोड़े और डटे ए रा स का हष बढ़ाकर उ रतापूवक ा पत कया॥ १६ ॥ उस रा सके पैने बाण से अ घायल ए वानरराज सु ीवने महान् ोधसे भरकर भीषण गजना क और व पा को मार डालनेका वचार कया॥ १७ ॥ शूरवीर तो वे थे ही, सु र ढंगसे यु करना भी जानते थे; अत: एक वृ उखाड़कर आगे बढ़े और अपने सामने खड़े ए उसके वशाल हाथीपर उ ने उस वृ को दे मारा॥ १८ ॥ सु ीवके हारसे घायल हो वह महान् गजराज एक धनुष पीछे हटकर बैठ गया और पीड़ासे आतनाद करने लगा॥ १९ ॥ परा मी रा स व पा उस घायल हाथीक पीठसे तुरंत कू द पड़ा और ढाल-तलवार ले शी तापूवक अपने श ु सु ीवक ओर बढ़ा। सु ीव एक ानपर रतापूवक खड़े थे। वह उ फटकारता आ-सा उनके पास जा प ँ चा॥ २०-२१ ॥ यह देख सु ीवने एक ब त बड़ी शला हाथम ली, जो मेघके समान काली थी। उसे उ ने व पा के शरीरपर ोधपूवक दे मारा॥ २२ ॥ उस शलाको अपने ऊपर आती देख उस परम परा मी रा स शरोम ण व पा ने पीछे हटकर आ र ा क और सु ीवपर तलवार चलायी॥ २३ ॥ उस बलवान् नशाचरक तलवारसे घायल होकर वानरराज सु ीव मू त होकर थोड़ी देर धरतीपर पड़े रहे॥ २४ ॥ फर सहसा उछलकर उ ने उस महासमरम मु ी बाँधकर व पा क छातीपर वेगपूवक एक मु ा मारा॥ २५ ॥ उनके मु े क चोट खाकर नशाचर व पा का ोध और बढ़ गया और उसने सेनाके मुहानेपर उसी तलवारसे सु ीवके कवचको काट गराया; साथ ही उसके पैर का आघात पाकर



वे पृ ीपर गर पड़े॥ २६ १/२ ॥ गरे ए सु ीव पुन: उठकर खड़े हो गये और उ ने उस रा सको व के समान भीषण श करनेवाले थ ड़से मारा॥ २७ १/२ ॥ सु ीवके चलाये ए उस थ ड़का वार वह रा स अपने यु कौशलसे बचा गया और उसने सु ीवक छातीपर एक घूसा मारा॥ २८ १/२ ॥ अब तो वानरराज सु ीवके ोधक सीमा न रही। उ ने देखा क रा सने मेरे हारको थ कर दया और अपने ऊपर उसका श नह होने दया। तब वे व पा पर हार करनेका अवसर देखने लगे॥ २९-३० ॥ तदन र सु ीवने व पा के ललाटपर ोधपूवक दूसरा महान् थ ड़ मारा, जसका श इ के व के समान दु:सह था। उससे आहत होकर व पा पृ ीपर गर पड़ा। उसका सारा शरीर खूनसे भीग गया और वह सम इ य-गोलक से उसी कार र वमन करने लगा, जैसे झरनेसे जल गर रहा हो॥ उस रा सक आँ ख ोधसे घूम रही थ । वह फे नयु धरम डू बा आ था। वानर ने देखा, व पा अ व पा (कु प ने वाला और भयंकर) हो गया है। खूनसे लथपथ हो छटपटाता करवट बदलता तथा क णाजनक आतनाद करता है॥ ३३-३४ ॥ इस कार वे दोन वेगशाली वानर और रा स के सै -समु मयादा तोड़कर बहनेवाले दो भयानक महासागर के समान पर र संयु हो यु भू मम महान् कोलाहल करने लगे॥ ३५ ॥



वानरराज सु ीवके ारा महाबली व पा का वध आ देख वानर और रा स क सेनाएँ एक हो बढ़ी ◌इ ग ाके समान उ े लत हो गय (एक ओर आन ज नत कोलाहल था तो दूसरी ओर शोकके कारण आतनाद हो रहा था)॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म छानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९६ ॥



स ानबेवाँ सग सु ीवके साथ महोदरका घोर यु तथा वध



उस महासमरम वे दोन ओरक सेनाएँ पर रक मारकाटसे च ी ऋतुम सूखते ए दो तालाब क तरह शी ही ीण हो चल ॥ १ ॥ अपनी सेनाके वनाश और व पा के वधसे रा सराज रावणका ोध दूना बढ़ गया॥ २ ॥



वानर क मारसे अपनी सेनाको ीण ◌इ देख दैवके उलट-फे रपर पात करके यु लम उसे बड़ी था ◌इ॥ ३ ॥ उसने पास ही खड़े ए महोदरसे कहा— ‘महाबाहो! इस समय मेरी वजयक आशा तु ारे ऊपर ही अवल त है॥ ४ ॥ ‘वीर! आज अपना परा म दखाओ और श ुसेनाका वध करो। यही ामीके अ का बदला चुकानेका समय है। अत: अ ी तरह यु करो’॥ ५ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर रा सराज महोदरने ‘ब त अ ा’ कहकर उसक आ ा शरोधाय क और जैसे पत आगम कू दता है, उसी कार उसने श ुसेनाम वेश कया॥ ६ ॥ सेनाम वेश करके तेज ी और महाबली महोदरने ामीक आ ासे े रत हो अपने परा म ारा वानर का संहार आर कया॥ ७ ॥ वानर भी बड़े श शाली थे। वे बड़ी-बड़ी शलाएँ लेकर श ुक भयंकर सेनाम घुस गये और सम रा स का संहार करने लगे॥ ८ ॥ महोदरने अ कु पत होकर अपने सुवणभू षत बाण ारा उस महायु म वानर के हाथपैर और जाँघ काट डाल ॥ ९ ॥ रा स ारा अ पी ड़त ए वे सब वानर दस दशा म भागने लगे। कतने ही सु ीवक शरणम गये॥ १० ॥ वानर क वशाल सेनाको समरभू मसे भागती देख सु ीवने पास ही खड़े ए महोदरपर आ मण कया॥ ११ ॥



वानरराज बड़े तेज ी थे। उ ने पवतके समान वशाल एवं भयंकर शला उठाकर महोदरके वधके लये उसपर चलायी॥ १२ ॥ उस दुजय शलाको सहसा अपने ऊपर आती देखकर भी महोदरके मनम घबराहट नह ◌इ। उसने बाण ारा उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ १३ ॥ उस रा सके बाणसमूह से कटकर सह टुकड़ म वभ ◌इ वह शला उस समय आकु ल ए गृ समुदायक भाँ त पृ ीपर गर पड़ी॥ १४ ॥ उस शलाको वदीण ◌इ देख सु ीवका ोध ब त बढ़ गया। उ ने एक शालका वृ उखाड़कर उस रा सके ऊपर फ का, कतु रा सने उसके भी क◌इ टुकड़े कर डाले॥ १५ ॥



साथ ही श ुसेनाका दमन करनेवाले उस शूरवीरने इ अपने बाण से घायल कर दया। इसी समय ोधसे भरे ए सु ीवको वहाँ पृ ीपर पड़ा आ एक प रघ दखायी दया॥ १६ ॥ उस तेज ी प रघको घुमाकर सु ीवने महोदरको अपनी फु त दखाते ए उस भयानक वेगशाली प रघके ारा उस रा सके उ म घोड़ को मार डाला॥ १७ ॥ घोड़ के मारे जानेपर वीर रा स महोदर अपने वशाल रथसे कू द पड़ा और अ रोषसे भरकर उसने गदा उठा ली॥ १८ ॥ एकके हाथम गदा थी और दूसरेके हाथम प रघ। वे दोन वीर यु लम दो साँड़ और बजलीस हत दो मेघ के समान गजना करते ए एक-दूसरेसे भड़ गये॥ तदन र कु पत ए रा स महोदरने सु ीवपर सूयतु तेजसे दमकती ◌इ एक गदा चलायी॥ २० ॥ उस महाभयंकर गदाको अपनी ओर आती देख महासमरम महाबली वानरराज सु ीवके ने रोषसे लाल हो गये और उ ने प रघ उठाकर उसके ारा रा सक गदापर आघात कया। वह गदा गर पड़ी; कतु उसके वेगसे टकराकर सु ीवका प रघ भी टूटकर पृ ीपर जा गरा॥ २१-२२ ॥ तब तेज ी सु ीवने भू मपरसे एक लोहेका भयंकर मूसल उठाया; जसम सब ओरसे सोना जड़ा आ था॥ २३ ॥



उसे उठाकर उ ने रा सपर दे मारा। साथ ही उस रा सने भी इनके ऊपर गदा फ क । गदा और मूसल दोन आपसम टकराकर टूट गये और जमीनपर जा गरे॥ २४ ॥ वे दोन वीर तेज और बलसे स थे और जलती ◌इ अ य के समान उ ी हो रहे थे। अपने-अपने आयुध के टूट जानेपर वे घूस से एक-दूसरेको मारने लगे॥ २५ ॥ उस समय बार ार गजते ए वे दोन यो ा पर र मु से हार करने लगे। फर थ ड़ से एक-दूसरेको मारकर दोन ही पृ ीपर गर पड़े॥ २६ ॥ फर त ाल ही दोन उछले और शी ही एक-दूसरेपर चोट करने लगे। वे दोन वीर हार नह मानते थे। दोन ही दोन पर भुजा ारा हार करते रहे॥ २७ ॥ श ु को तपानेवाले वे दोन वीर बा यु करते-करते थक गये। तब महान् वेगशाली रा स महोदरने थोड़ी ही दूरपर पड़ी ◌इ ढालस हत तलवार उठा ली। उसी तरह अ वेगशाली क प े सु ीवने भी वहाँ गरे ए वशाल खड् गको ढालस हत उठा लया॥ २८ ॥ महोदर और सु ीव दोन यु के मैदानम श चलानेक कलाम चतुर थे तथा दोन के शरीर रोषसे भा वत थे; अत: रणभू मम हष और उ ाहसे यु हो वे तलवार उठाये गजते ए एक-दूसरेपर टूट पड़े॥ वे दोन बड़ी तेजीसे दाय-बाय पतरे बदल रहे थे, दोन का दोन पर ोध बढ़ा आ था तथा दोन ही अपनी-अपनी वजयक आशा लगाये ए थे॥ ३१ ॥ अपने बलपर घमंड करनेवाले महान् वेगशाली तथा शौय-स दुबु महोदरने अपनी वह तलवार सु ीवके वशाल कवचपर दे मारी॥ ३२ ॥ सु ीवके कवचम लगी ◌इ तलवारको जब वह रा स ख चने लगा, उसी समय क पकु र सु ीवने महोदरके शर ाणस हत कु लम त म कको अपने खड् गसे काट लया॥ ३३ ॥ म क कट जानेपर रा सराज महोदर पृ ीपर गर पड़ा। यह देखकर उसक सेना फर वहाँ नह दखायी दी॥ ३४ ॥ महोदरको मारकर स ए वानरराज सु ीव अ वानर के साथ गजना करने लगे। उस समय दशमुख रावणको बड़ा ोध आ और ीरघुनाथजी हषसे खल उठे ॥ ३५ ॥



उस समय सम रा स का मन दु:खी हो गया। उन सबके मुखपर वषाद छा गया और वे सभी भयभीत च होकर वहाँसे भाग चले॥ ३६ ॥ महोदरका शरीर कसी महान् पवतके एक टूटे ए शखर-सा जान पड़ता था। उसे पृ ीपर गराकर सूयपु सु ीव वहाँ वजय-ल ीसे सुशो भत होने लगे, मानो च सूयदेव अपने तेजसे का शत हो रहे ह ॥ इस कार वानरराज सु ीव यु के मुहानेपर वजय पाकर बड़ी शोभा पाने लगे। उस समय देवता, स और य के समुदाय तथा भूतल नवासी ा णय के समूह भी बड़े हषसे उनक ओर देखने लगे॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म स ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९७ ॥



अ ानबेवाँ सग अंगदके ारा महापा का वध



सु ीवके ारा महोदरके मारे जानेपर उनक ओर देखकर महाबली महापा के ने ोधसे लाल हो गये॥ उसने अपने बाण ारा अंगदक भयंकर सेनाम हलचल मचा दी। वह रा स मु -मु वानर के म क धड़से काट-काटकर गराने लगा, मानो वायु वृ या डंठलसे फल गरा रही हो॥ २ १/२ ॥ ोधसे भरे ए महापा ने अपने बाण से कतन क बाँह काट द और कतने ही वानर क पस लयाँ उड़ा द ॥ ३ १/२ ॥ महापा क बाणवषासे पी ड़त हो ब त-से वानर यु से वमुख हो गये। सबक चेतना जाती रही॥ ४ १/२ ॥ उस रा ससे पी ड़त वानर-सेनाको उ ◌इ देख महान् वेगशाली अ दने पू णमाके दन समु क भाँ त अपना भारी वेग कट कया॥ ५ १/२ ॥ उन वानर शरोम णने सूयक करण के समान दमकनेवाला एक लोहेका प रघ उठाकर महापा पर दे मारा॥ ६ १/२ ॥ उस हारसे महापा क सुध-बुध जाती रही और वह मू त हो सार थस हत रथसे नीचे जा पड़ा॥ इसी समय काले कोयलेके ढेरके समान कृ वणवाले, महान् परा मी और तेज ी ऋ राज जा वा े मेघ क घटाके स श अपने यूथसे बाहर नकलकर कु पत हो एक पवतशखरके समान वशाल शला हाथम ले ली और उसके ारा उस रा सके घोड़ को मार डाला तथा उसके रथको भी चूण कर दया॥ दो घड़ीके बाद होशम आनेपर महाबली महापा ने ब त-से बाण ारा पुन: अ दको घायल कर दया और जा वा छातीम भी तीन बाण मारे॥ १०-११ ॥



इतना ही नह , उसने रीछ के राजा गवा को भी ब त-से बाण ारा त- व त कर दया। गवा और जा वा ो बाण से पी ड़त देख अ दके ोधक सीमा न रही। उ ने भयंकर प रघ हाथम ले लया॥ १२ १/२ ॥ उनका वह प रघ सूयक करण के समान अपनी भा बखेर रहा था। वा लपु अ दके ने ोधसे लाल हो उठे थे। उ ने उस लोहमय प रघको दोन हाथ से पकड़कर घुमाया और दूर खड़े ए महापा के वधके लये वेगपूवक चला दया॥ १३-१४ १/२ ॥ बलवान् वीर अ दके चलाये ए उस प रघने रा स महापा के हाथसे बाणस हत धनुष और म कसे टोप गरा दये॥ १५ १/२ ॥ फर तापी वा लपु अ द बड़े वेगसे उसके पास जा प ँ चे और कु पत होकर उ ने उसके कु लयु कानके पास गालपर एक थ ड़ मारा॥ १६ १/२ ॥ तब महान् वेगशाली महातेज ी महापा ने कु पत होकर एक हाथम ब त बड़ा फरसा ले लया॥ १७ १/२ ॥ उस फरसेको तेलम डु बोकर साफ कया गया था और वह अ े लोहेका बना आ एवं सु ढ़ था। रा स महापा ने अ कु पत हो वह फरसा वा लपु अ दपर दे मारा॥ १८ १/२ ॥



उसने अ दके बाय कं धेपर बड़े वेगसे उस फरसेका हार कया था, परंतु रोषसे भरे ए अ दने कतराकर अपनेको बचा लया और उस फरसेको थ कर दया॥ १९ १/२ ॥ त ात् अ ोधसे भरे ए वीर अ दने, जो अपने पताके समान ही परा मी थे, व के समान मु ी बाँधी॥ २० १/२ ॥ वे दयके मम ानसे प र चत थे; अत: उ ने उस रा सके न के नकट छातीम बड़े वेगसे मु ा मारा, जसका श इ के व के समान अस था॥ उनका वह घूसा लगते ही उस महासमरम रा स महापा का दय फट गया और वह मरकर पृ ीपर गर पड़ा॥ २२ १/२ ॥ उसके मरकर पृ ीपर गर जानेके प ात् उसक सेना व ु हो उठी तथा समरभू मम रावणको भी महान् ोध आ॥ २३ १/२ ॥



उस समय हषसे भरे ए वानर का महान् सहनाद होने लगा। वह अ ा लका तथा गोपुर स हत ल ापुरीको फोड़ता आ-सा तीत आ। अ दस हत वानर का वह महानाद इ स हत देवता के ग ीर घोष-सा जान पड़ता था॥ २४-२५ ॥ यु लम देवता और वानर क वह बड़ी भारी गजना सुनकर इ ोही रा सराज रावण पुन: रोषपूवक यु के लये उ ुक हो वहाँ खड़ा हो गया॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म अ ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९८ ॥



न ानबेवाँ सग ीराम और रावणका यु



महाबली वीर व पा तो मारा ही गया था; महोदर और महापा भी कालके गालम डाल दये गये—यह देख उस महासमरके भीतर रावणके दयम महान् ोधका आवेश आ। उसने सार थको रथ आगे बढ़ानेक आ ा दी और इस कार कहा—॥ १-२ ॥ ‘सूत! मेरे म ी मारे गये और ल ापुरीपर चार ओरसे घेरा डाला गया। इसके लये मुझे बड़ा दु:ख है। आज राम और ल णका वध करके ही म अपने इस दु:खको दूर क ँ गा॥ ३ ॥ ‘रणभू मम उस राम पी वृ को उखाड़ फकूँ गा, जो सीता पी फू लके ारा फल देनेवाला है तथा सु ीव, जा वान्, कु मुद, नल, वद, मै , अ द, ग मादन, हनुमान् और सुषेण आ द सम वानर-यूथप त जसक शाखा- शाखाएँ ह’॥ ४-५ ॥ ऐसा कहकर महान् अ तरथी वीर रावण अपने रथक घघराहटसे दस दशा को गुँजाता आ बड़ी तेजीके साथ ीरघुनाथजीक ओर बढ़ा॥ ६ ॥ रथक आवाजसे नदी, पवत और जंगल स हत वहाँक सारी भू म गूँज उठी, धरती डोलने लगी और वहाँके सारे पशु-प ी भयसे थरा उठे ॥ ७ ॥ उस समय रावणने तामस* नामवाले अ भयंकर महाघोर अ को कट करके सम वानर को भ करना आर कया। सब ओर उनक लाश गरने लग ॥ ८ ॥ उनके पाँव उखड़ गये और वे इधर-उधर भागने लगे, इससे रणभू मम ब त धूल उड़ने लगी। वह तामस-अ सा ात् ाजीका बनाया आ था, इस लये वानर-यो ा उसके वेगको सह न सके ॥ ९ ॥ रावणके उ म बाण से आहत हो वानर क सैकड़ सेनाएँ ततर- बतर हो गयी ह—यह देख भगवान् ीराम यु के लये उ त हो सु रभावसे खड़े हो गये॥ १० ॥ उधर वानर-सेनाको खदेड़कर रा स सह रावणने देखा क कसीसे परा जत न होनेवाले ीराम अपने भा◌इ ल णके साथ उसी तरह खड़े ह, जैसे इ अपने छोटे भा◌इ भगवान् व ु (उपे )-के साथ खड़े होते ह॥ ११ १/२ ॥



वे अपने वशाल धनुषको उठाकर आकाशम रेखा ख चते-से तीत होते थे। उनके ने वक सत कमलदलके समान वशाल थे, भुजाएँ बड़ी-बड़ी थ और वे श ु का दमन करनेम पूणत: समथ थे॥ १२ १/२ ॥ तदन र ल णस हत खड़े ए महातेज ी महाबली ीरामने रणभू मम वानर को भागते और रावणको आते देख मनम बड़े हषका अनुभव कया और धनुषके म भागको ढ़ताके साथ पकड़ा॥ १३-१४ ॥ उ ने अपने महान् वेगशाली और महानाद कट करनेवाले उ म धनुषको इस तरह ख चना और उसक ट ार करना आर कया, मानो वे पृ ीको वदीण कर डालगे॥ १५ ॥ रावणके बाण-समूह से तथा ीरामच जीके धनुषक ट ारसे जो भयंकर श कट आ, उससे आत त होकर सैकड़ रा स त ाल धराशायी हो गये॥ १६ ॥ उन दोन राजकु मार के बाण के मागम आकर रावण च मा और सूयके समीप त ए रा क भाँ त शोभा पाने लगा॥ १७ ॥ ल ण अपने पैने बाण के ारा रावणके साथ पहले यं ही यु करना चाहते थे; इस लये धनुष तानकर वे अ शखाके समान तेज ी बाण छोड़ने लगे॥ १८ ॥ धनुधर ल णके धनुषसे छू टते ही उन बाण को महातेज ी रावणने अपने सायक ारा आकाशम ही काट गराया॥ १९ ॥ वह अपने हाथ क फु त दखाता आ ल णके एक बाणको एक बाणसे, तीन बाण को तीन बाणसे और दस बाण को उतने ही बाण से काट देता था॥ समर वजयी रावण सु म ाकु मारको लाँघकर रणभू मम दूसरे पवतक भाँ त अ वचल भावसे खड़े ए ीरामके पास जा प ँ चा॥ २१ ॥ ीरघुनाथजीके नकट जाकर ोधसे लाल आँ ख कये रा सराज रावण उनके ऊपर बाण क वृ करने लगा॥ २२ ॥ रावणके धनुषसे गरती ◌इ उन बाण-धारा पर पात करके ीरामने बड़ी उतावलीके साथ शी ही क◌इ भ हाथम लये॥ २३ ॥ रघुकुलभूषण ीरामने रावणके वषधर सप के समान महाभयंकर एवं दी मान् बाणसमूह को उन तीखे भ से काट डाला॥ २४ ॥



फर ीरामने रावणको और रावणने ीरामको अपना ल बनाया और दोन ही शी तापूवक एक-दूसरेपर भाँ त-भाँ तके पैने बाण क वषा करने लगे॥ २५ ॥ वे दोन चरकालतक वहाँ व च दाय-बाय पतरेसे वचरते रहे। बाणके वेगसे एकदूसरेको घायल करते ए वे दोन वीर परा जत नह होते थे॥ २६ ॥ एक साथ जूझते और सायक क वषा करते ए ीराम और रावण यमराज और अ कके समान भयंकर जान पड़ते थे। उनके यु से स ूण ाणी थरा उठे ॥ २७ ॥ जैसे वषा-ऋतुम व ुत्-समूह से ा मेघ क घटासे आकाश आ ा दत हो जाता है, उसी कार उस समय नाना कारके बाण से वह ढक गया था॥ २८ ॥ गीधक पाँखके सु र पर से सुशो भत और तेज धारवाले महान् वेगशाली बाण क अनवरत वषासे आकाश ऐसा जान पड़ता था, मानो उसम ब त-से झरोखे लग गये ह ॥ २९ ॥ दो बड़े-बड़े मेघ क भाँ त उठे ए ीराम और रावणने सूयके अ और उ दत होनेपर भी बाण के गहन अ कारसे आकाशको ढक रखा था॥ ३० ॥ दोन एक-दूसरेका वध करना चाहते थे; अत: वृ ासुर और इ क भाँ त उन दोन म ऐसा महान् यु होने लगा, जो दुलभ तथा अ च है॥ ३१ ॥ दोन ही महान् धनुधर और दोन ही यु क कलाम नपुण थे। दोन ही अ वे ा म े थे; अत: दोन बड़े ही उ ाहसे रणभू मम वचरने लगे॥ ३२ ॥ वे जस- जस मागसे जाते, उसी-उसीसे बाण क लहर-सी उठने लगती थी। ठीक उसी तरह, जैसे वायुके थपेड़े खाकर दो समु के जलम उ ाल तर उठ रही ह ॥ ३३ ॥ तदन र जसके हाथ बाण छोड़नेम ही लगे ए थे, सम लोक को लानेवाले उस रावणने ीरामच जीके ललाटम नाराच क माला-सी पहना दी॥ ३४ ॥ भयंकर धनुषसे छू टी और नील कमलदलके समान ाम का से का शत होती ◌इ उस नाराच-मालाको ीरामच जीने अपने सरपर धारण कया; कतु वे थत नह ए॥ ३५ ॥



त ात् ोधसे भरे ए ीरामने पुन: ब त-से बाण लेकर म जपपूवक रौ ा का योग कया॥ ३६ ॥



फर उन महातेज ी, महापरा मी और अ व - पसे बाणवषा करनेवाले ीरघुवीरने धनुषको कानतक ख चकर वे सभी बाण रा सराज रावणपर छोड़ दये॥ ३७ ॥ वे बाण रा सराज रावणके महामेघके समान काले रंगके अभे कवचपर गरे थे; इस लये उस समय उसे थत न कर सके ॥ ३८ ॥ स ूण अ के संचालनम कु शल भगवान् ीरामने पुन: रथपर बैठे ए रा सराज रावणके ललाटम उ म अ का हार करके उसे घायल कर दया॥ ३९ ॥ ीरामके वे उ म बाण रावणको घायल करके उसके नवारण करनेपर फु फकारते ए पाँच सरवाले सप के समान धरतीम समा गये॥ ४० ॥ ीरघुनाथजीके अ का नवारण करके ोधसे मू त ए रावणने आसुर नामक दूसरा महाभयंकर अ कट कया॥ ४१ ॥ उससे सह, बाघ, क , च वाक, गीध, बाज, सयार, भे ड़ये, गदहे, सूअर, कु ,े मुग, मगर और जहरीले साँप के समान मुखवाले बाण क वृ होने लगी। वे बाण मुँह फै लाये, जबड़े चाटते ए पाँच मुखवाले भयंकर सप के समान जान पड़ते थे। फु फकारते ए सपक भाँ त कु पत ए महातेज ी रावणने इनका तथा अ कारके तीखे बाण का भी ीरामके ऊपर योग कया॥ ४२—४५ ॥ उस आसुरा से आवृत ए अ तु तेज ी महान् उ ाही रघुकुल तलक ीरामने आ ेया का योग कया॥ ४६ ॥ उसके ारा उ ने अ , सूय, च , अधच , धूमके तु, ह, न , उ ा तथा बजलीक भाके समान लत मुखवाले नाना कारके बाण कट कये॥ ४७ १/२ ॥ ीरघुनाथजीके आ ेया से आहत हो रावणके वे भयंकर बाण आकाशम ही वलीन हो गये, तथा प उनके ारा सह वानर मारे गये थे॥ ४८ १/२ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामने उस आसुरा को न कर दया, यह देख इ ानुसार प धारण करनेवाले सु ीव आ द सभी वीर वानर ीरामको चार ओरसे घेरकर हषनाद करने लगे॥ ४९-५० ॥ दशरथन न महा ा ीराम रावणके हाथ से छू टे ए उस आसुरा का बलपूवक वनाश करके बड़े स ए और वानर-यूथप त आन म हो उ रसे सहनाद करने लगे॥ ५१ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म न ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९९ ॥ * इस अ



का देवता तमो ह रा है, इस लये इसको ‘तामस’ कहते ह।



सौवाँ सग राम और रावणका यु , रावणक श



से ल णका मू भागना



त होना तथा रावणका यु से



अपने उस अ के न हो जानेपर महातेज ी रा सराज रावणने दूना ोध कट कया। उसने ोधवश ीरामके ऊपर एक दूसरे भयंकर अ को छोड़नेका आयोजन कया, जसे मयासुरने बनाया था॥ १-२ ॥ उस समय रावणके धनुषसे व के समान ढ़ और दमकते ए शूल, गदा, मूसल, मु र, कू टपाश तथा चमचमाती अश न आ द भाँ त-भाँ तके तीखे अ छू टने लगे, मानो लयकालम वायुके व वध प कट हो रहे ह ॥ ३-४ ॥ तब उ म अ के ाता म े महातेज ी ीमान् रघुनाथजीने गा व नामक े अ के ारा रावणके उस अ को शा कर दया॥ ५ ॥ महा ा रघुनाथजीके ारा उस अ के तहत हो जानेपर रावणके ने ोधसे लाल हो गये और उसने सूया का योग कया॥ ६ ॥ फर तो भयानक वेगशाली बु मान् रा स दश ीवके धनुषसे बड़े-बड़े तेज ी च कट होने लगे॥ ७ ॥ च मा और सूय आ द ह के समान आकारवाले वे दी मान् अ -श सब ओर कट होते और गरते थे। उनसे आकाशम काश छा गया और स ूण दशाएँ उ ा सत हो उठ ॥ ८ ॥



परंतु ीरामच जीने अपने बाणसमूह ारा सेनाके मुहानेपर रावणके उन च और व च आयुध के टुकड़े-टुकड़े कर डाले॥ ९ ॥ उस अ को न आ देख रा सराज रावणने दस बाण ारा ीरामके सारे मम ान म गहरी चोट प ँ चायी॥ १० ॥ रावणके वशाल धनुषसे छू टे ए उन दस बाण से घायल होनेपर भी महातेज ी ीरघुनाथजी वच लत नह ए॥ ११ ॥



त ात् समर वजयी ीरघुवीरने अ कु पत हो ब त-से बाण मारकर रावणके सारे अ म घाव कर दया॥ १२ ॥ इसी बीचम श ुवीर का संहार करनेवाले महाबली रामानुज ल णने कु पत हो सात सायक हाथम लये॥ उन महान् वेगशाली सायक ारा उन महातेज ी सु म ाकु मारने रावणक जाके , जसम मनु क खोपड़ीका च था, क◌इ टुकड़े कर डाले॥ १४ ॥ इसके बाद महाबली ीमान् ल णने एक बाणसे उस रा सके सार थका जगमगाते ए कु ल से म त म क भी काट लया॥ १५ ॥ इतना ही नह , ल णने पाँच पैने बाण मारकर उस रा सराजके हाथीक सूँड़के समान मोटे धनुषको भी काट डाला॥ १६ ॥ तदन र वभीषणने उछलकर अपनी गदासे रावणके नील मेघके समान का वाले सु र पवताकार घोड़ को भी मार गराया॥ १७ ॥ घोड़ के मारे जानेपर रावण अपने वशाल रथसे वेगपूवक कू द पड़ा और अपने भा◌इपर उसे बड़ा ोध आया॥ १८ ॥ तब उस महान् श शाली तापी रा सराजने वभीषणको मारनेके लये एक व के समान लत श चलायी॥ १९ ॥ वह श अभी वभीषणतक प ँ चने भी नह पायी थी क ल णने तीन बाण मारकर उसे बीचम ही काट दया। यह देख उस महासमरम वानर का महान् हषनाद गूँज उठा॥ २० ॥ सोनेक मालासे अलंकृत वह श तीन भाग म वभ होकर पृ ीपर गर पड़ी, मानो आकाशसे चनगा रय स हत बड़ी भारी उ ा टूटकर गरी हो॥ तदन र रावणने वभीषणको मारनेके लये एक ऐसी वशाल श हाथम ली, जो अपनी अमोघताके लये वशेष व ात थी। काल भी उसके वेगको नह सह सकता था। वह श अपने तेजसे उ ी हो रही थी॥ दुरा ा बलवान् रावणके ारा हाथम ली ◌इ वह वेगशा लनी, महातेज नी और व के समान दी मती श अपने द तेजसे लत हो उठी॥ २३ ॥



इसी बीचम वभीषणको ाण-संशयक अव ाम पड़ा देख वीर ल णने तुरंत उनक र ा क । उ पीछे करके वे यं श के सामने खड़े हो गये॥ २४ ॥ वभीषणको बचानेके लये वीर ल ण अपने धनुषको ख चकर हाथम श लये खड़े ए रावणपर बाण क वषा करने लगे॥ २५ ॥ महा ा ल णके छोड़े ए बाण-समूह का नशाना बनकर रावण अपने भा◌इको मारनेके परा मसे वमुख हो गया। अब उसके मनम हार करनेक इ ा नह रह गयी॥ २६ ॥ ल णने मेरे भा◌इको बचा लया, यह देख रावण उनक ओर मुँह करके खड़ा हो गया और इस कार बोला—॥ २७ ॥ ‘अपने बलपर घमंड रखनेवाले ल ण! तुमने ऐसा यास करके वभीषणको बचा लया है, इस लये अब उस रा सको छोड़कर म तु ारे ऊपर ही इस श का हार करता ँ ॥ २८ ॥ ‘यह श भावसे ही श ु के खूनसे नहानेवाली है, यह मेरे हाथसे छू टते ही तु ारे दयको वदीण करके ाण को अपने साथ ले जायगी’॥ २९ ॥ ऐसा कहकर अ कु पत ए रावणने मयासुरक मायासे न मत, आठ घ से वभू षत तथा महाभयंकर श करनेवाली, उस अमोघ एवं श ुघा तनी श को, जो अपने तेजसे लत हो रही थी, ल णको ल करके चला दया और बड़े जोरसे गजना क ॥ ३०-३१ ॥ व और अश नके समान गड़गड़ाहट पैदा करनेवाली वह श यु के मुहानेपर भयानक वेगसे चलायी गयी और ल णको वेगपूवक लगी॥ ३२ ॥ ल णक ओर आती ◌इ उस श को ल करके भगवान् ीरामने कहा —‘ल णका क ाण हो, तेरा ाणनाश वषयक उ ोग न हो; अतएव तू थ हो जा’॥ ३३ ॥ वह श वषधर सपके समान भयंकर थी। रणभू मम कु पत ए रावणने जब उसे छोड़ा, तब वह तुरंत ही नभय वीर ल णक छातीम डू ब गयी॥ ३४ ॥ नागराज वासु कक ज ाके समान देदी मान वह महातेज नी और महावेगवती श जब ल णके वशाल व : लपर गरी, तब रावणके वेगसे ब त गहरा◌इतक धँस गयी। उस श से दय वदीण हो जानेके कारण ल ण पृ ीपर गर पड़े॥ ३५-३६ ॥



महातेज ी रघुनाथजी पास ही खड़े थे। वे ल णको इस अव ाम देखकर ातृ ेहके कारण मन-ही-मन वषादम डू ब गये॥ ३७ ॥ वे दो घड़ीतक च ाम डू बे रहे। फर ने म आँ सू भरकर लयकालम लत ◌इ अ के समान अ रोषसे उ ी हो उठे ॥ ३८ ॥ ‘यह वषादका समय नह है’ ऐसा सोचकर ीरघुनाथजी रावणके वधका न य करके महान् य के ारा सारी श लगाकर और ल णक ओर देखकर अ भयंकर यु करने लगे॥ ३९ ॥ त ात् ीरामने उस महासमरम श से वदीण ए ल णक ओर देखा। वे खूनसे लथपथ होकर पड़े थे और सपयु पवतके समान जान पड़ते थे॥ ४० ॥ अ बलवान् रावणक चलायी ◌इ उस श को ल णक छातीसे नकालनेके लये ब त य करनेपर भी वे े वानरगण सफल न हो सके ॥ ४१ ॥ क वे वानर भी रा स शरोम ण रावणके बाण-समूह से ब त पी ड़त थे। वह श सु म ाकु मारके शरीरको वदीण करके धरतीतक प ँ च गयी थी॥ ४२ ॥ तब महाबली रघुनाथजीने उस भयंकर श को अपने दोन हाथ से पकड़कर ल णके शरीरसे नकाला और समरा णम कु पत हो उसे तोड़ डाला॥ ४३ ॥ ीरामच जी जब ल णके शरीरसे श नकाल रहे थे, उस समय महाबली रावण उनके स ूण अ पर ममभेदी बाण क वषा करता रहा॥ ४४ ॥ परंतु उन बाण क परवा न करके ल णको दयसे लगाकर भगवान् ीराम हनुमान् और महाक प सु ीवसे बोले—॥ ४५ ॥ ‘क पवरो! तुमलोग ल णको इसी तरह सब ओरसे घेरकर खड़े रहो। अब मेरे लये उस परा मका अवसर आया है, जो मुझे चरकालसे अभी था॥ ४६ ॥ ‘इस पापा ा एवं पापपूण वचार रखनेवाले दशमुख रावणको अब मार डाला जाय, यही उ चत है। जैसे पपीहेको ी -ऋतुके अ म मेघके दशनक इ ा रहती है, उसी कार म भी इसका वध करनेके लये चरकालसे इसे देखना चाहता ँ ॥ ४७ ॥ ‘वानरो! म इस मु तम तु ारे सामने यह स ी त ा करके कहता ँ क कु छ ही देरम यह संसार रावणसे र हत दखायी देगा या रामसे॥ ४८ ॥



‘मेरे



रा का नाश, वनका नवास, द कार क दौड़-धूप, वदेहकु मारी सीताका रा स ारा अपहरण तथा रा स के साथ सं ाम—इन सबके कारण मुझे महाघोर दु:ख सहना पड़ा है और नरकके समान क उठाना पड़ा है; कतु रणभू मम रावणका वध करके आज म सारे दु:ख से छु टकारा पा जाऊँ गा॥ ४९-५० ॥ ‘ जसके लये म वानर क यह वशाल सेना साथ लाया ँ , जसके कारण मने यु म वालीका वध करके सु ीवको रा पर बठाया है तथा जसके उ े से समु पर पुल बाँधा और उसे पार कया, वह पापी रावण आज यु म मेरी आँ ख के सामने उप त है। मेरे पथम आकर अब यह जी वत रहने यो नह है॥ ५१-५२ ॥ ‘ मा से संहारकारी वषका सार करनेवाले सपक आँ ख के सामने आकर जैसे को◌इ मनु जी वत नह बच सकता अथवा जैसे वनतान न ग ड़क म पड़कर को◌इ महान् सप जी वत नह बच सकता, उसी कार आज रावण मेरे सामने आकर जी वत या सकु शल नह लौट सकता॥ ५३ ॥ ‘दुधष वानर शरोम णयो! अब तुमलोग पवतके शखर पर बैठकर मेरे और रावणके इस यु को सुखपूवक देखो॥ ५४ ॥ ‘आज सं ामम देवता, ग व, स , ऋ ष और चारण स हत तीन लोक के ाणी रामका राम देख॥ ‘आज म वह परा म कट क ँ गा, जसक जबतक यह पृ ी कायम रहेगी, तबतक चराचर जग े जीव और देवता भी सदा लोकम एक होकर चचा करगे और जस कार यु आ है, उसे एक-दूसरेसे कहगे’॥ ५६ ॥ ऐसा कहकर भगवान् ीराम सावधान हो अपने सुवणभू षत तीखे बाण से रणभू मम दशानन रावणको घायल करने लगे॥ ५७ ॥ इसी कार जैसे मेघ जलक धारा गराता है, उसी तरह रावण भी ीरामपर चमक ले नाराच और मूसल क वषा करने लगा॥ ५८ ॥ एक-दूसरेपर चोट करते ए राम और रावणके छोड़े ए े बाण के पर र टकरानेसे बड़ा भयंकर श कट होता था॥ ५९ ॥ ीराम और रावणके बाण पर र छ - भ होकर आकाशसे पृ ीपर गर पड़ते थे। उस समय उनके अ भाग बड़े उ ी दखायी देते थे॥ ६० ॥



राम और रावणके धनुषक ासे कट ◌इ महान् टंकार न सम ा णय के मनम ास उ कर देती थी और बड़ी अ तु तीत होती थी॥ ६१ ॥ जैसे वायुके थपेड़े खाकर मेघ छ - भ हो जाता है, उसी कार दी मान् धनुष धारण करनेवाले महा ा ीरामके बाण-समूह क वषासे आहत एवं पी ड़त आ रावण भयके मारे वहाँसे भाग गया॥ ६२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म सौवाँ सग पूरा आ॥ १०० ॥



एक सौ एकवाँ सग ीरामका वलाप तथा हनुमा ीक लायी ◌इ ओष धके सुषेण ारा कये गये योगसे ल णका सचेत हो उठना



महाबली रावणने शूरवीर ल णको अपनी श से यु म धराशायी कर दया था। वे र के वाहसे नहा उठे थे। यह देख भगवान् ीरामने दुरा ा रावणके साथ घोर यु करके बाण-समूह क वषा करते ए ही सुषेणसे इस कार कहा—॥ १-२ ॥ ‘ये वीर ल ण रावणके परा मसे घायल होकर पृ ीपर पड़े ह और चोट खाये ए सपक भाँ त छटपटा रहे ह। इस अव ाम इ देखकर मेरा शोक बढ़ता जा रहा है॥ ३ ॥ ‘ये वीर सु म ाकु मार मुझे ाण से भी बढ़कर य ह, इ ल लुहान देखकर मेरा मन ाकु ल हो रहा है, ऐसी दशाम मुझम यु करनेक श ा होगी?॥ ‘ये मेरे शुभल ण भा◌इ, जो सदा यु का हौसला रखते थे, य द मर गये तो मुझे इन ाण के रखने और सुख भोगनेसे ा योजन है?॥ ५ ॥ ‘इस समय मेरा परा म ल त-सा हो रहा है, हाथसे धनुष खसकता-सा जा रहा है, मेरे सायक श थल हो रहे ह और ने म आँ सू भर आये ह॥ ६ ॥ ‘जैसे म मनु के शरीर श थल हो जाते ह, वही दशा मेरे इन अ क है। मेरी ती च ा बढ़ती जा रही है और दुरा ा रावणके ारा घायल होकर मा मक आघातसे अ पी ड़त एवं दु:खातुर ए भा◌इ ल णको कराहते देख मुझे मर जानेक इ ा हो रही है’॥ ७-८ ॥ ीरघुनाथजी बाहर वचरनेवाले ाण के समान य भा◌इ ल णको इस अव ाम देख महान् दु:खसे ाकु ल हो गये, च ा और शोकम डू ब गये॥ ९ ॥ उनके मनम बड़ा वषाद आ। इ य म ाकु लता छा गयी और वे रणभू मक धूलम घायल होकर पड़े ए भा◌इ ल णक ओर देखकर वलाप करने लगे—॥ १० ॥ ‘शूरवीर! अब सं ामम वजय भी मल जाय तो मुझे स ता नह होगी। अ ेके सामने च मा अपनी चाँदनी बखेर द तो भी वे उसके मनम कौन-सा आ ाद पैदा कर सकगे?॥ ११ ॥



‘अब



इस यु से अथवा ाण क र ासे मुझे ा योजन है? अब लड़ने- भड़नेक को◌इ आव कता नह है। जब सं ामके मुहानेपर मारे जाकर ल ण ही सदाके लये सो गये, तब यु जीतनेसे ा लाभ है?॥ ‘वनम आते समय जैसे महातेज ी ल ण मेरे पीछे -पीछे चले आये थे, उसी तरह यमलोकम जाते समय म भी इनके पीछे-पीछे जाऊँ गा॥ १३ ॥ ‘हाय! जो सदा मुझम अनुराग रखनेवाले मेरे य ब ुजन थे, छलसे यु करनेवाले नशाचर ने आज उनक यह दशा कर दी॥ १४ ॥ ‘ ेक देशम याँ मल सकती ह, देश-देशम जा त-भा◌इ उपल हो सकते ह; परंतु ऐसा को◌इ देश मुझे नह दखायी देता, जहाँ सहोदर भा◌इ मल सके ॥ ‘दुधष वीर ल णके बना म रा लेकर ा क ँ गा? पु व ला माता सु म ासे कस तरह बात कर सकूँ गा?॥ १६ ॥ ‘माता सु म ाके दये ए उलाहनेको कै से सह सकूँ गा? माता कौस ा और कै के यीको ा जवाब दूँगा?॥ ‘भरत और महाबली श ु जब पूछगे क आप ल णके साथ वनम गये थे, फर उनके बना ही कै से लौट आये तो उ म ा उ र दूँगा?॥ १८ ॥ ‘अत: मेरे लये यह मर जाना अ ा है। भा◌इ-ब ु म जाकर उनक कही ◌इ खोटी-खरी बात सुनना अ ा नह । मने पूवज म कौन-सा अपराध कया था, जसके कारण मेरे सामने खड़ा आ मेरा धमा ा भा◌इ मारा गया॥ १९ १/२ ॥ ‘हा भा◌इ नर े ल ण! हा भावशाली शूर वर! तुम मुझे छोड़कर अके ले परलोकम जा रहे हो?॥ २० १/२ ॥ ‘भैया! म तु ारे बना रो रहा ँ । तुम मुझसे बोलते नह हो? य ब ु! उठो। आँ ख खोलकर देखो। सो रहे हो? म ब त दु:खी ँ । मुझपर पात करो॥ २१ १/२ ॥ ‘महाबाहो! पवत और वन म जब म शोकसे पी ड़त हो म एवं वषाद हो जाता था, तब तु मुझे धैय बँधाते थे ( फर इस समय मुझे नह सा ना देते हो?)’॥ २२ १/२ ॥



इस तरह वलाप करते ए भगवान् ीरामक सारी इ याँ शोकसे ाकु ल हो उठी थ । उस समय सुषेणने उ आ ासन देते ए यह उ म बात कही—॥ ‘पु ष सह! ाकु लता उ करनेवाली इस च ायु बु का प र ाग क जये; क यु के मुहानेपर क ◌इ च ा बाण के समान होती है और के वल शोकको ज देती है॥ २४ १/२ ॥ ‘आपके भा◌इ शोभाव क ल ण मरे नह ह। दे खये, इनके मुखक आकृ त अभी बगड़ी नह है और न इनके चेहरेपर कालापन ही आया है। इनका मुख स एवं का मान् दखायी दे रहा है॥ २५-२६ ॥ ‘इनके हाथ क हथे लयाँ कमल-जैसी कोमल ह, आँ ख भी ब त साफ ह। जानाथ! मरे ए ा णय का ऐसा प नह देखा जाता है॥ २७ ॥ ‘श ु का दमन करनेवाले वीर! आप वषाद न कर। इनके शरीरम ाण ह। वीर! ये सो गये ह। इनका शरीर श थल होकर भूतलपर पड़ा है। साँस चल रही है और दय बार ार क त हो रहा है—उसक ग त बंद नह ◌इ है। यह ल ण इनके जी वत होनेक सूचना दे रहा है’॥ २८ १/२ ॥ ीरामच जीसे ऐसा कहकर परम बु मान् सुषेणने पास ही खड़े ए महाक प हनुमा ीसे कहा—॥ २९ १/२ ॥ ‘सौ ! तुम शी ही यहाँसे महोदय पवतपर, जसका पता जा वान् तु पहले बता चुके ह, जाओ और उसके द ण शखरपर उगी ◌इ वश करणी१, साव करणी२, संजीवकरणी३ तथा संधानी४ नामसे स महौष धय को यहाँ ले आओ। वीर! उ से वीरवर ल णके जीवनक र ा होगी’॥ ३०—३२ १/२ ॥ उनके ऐसा कहनेपर हनुमा ी ओष धपवत (महोदय ग र)-पर गये; परंतु उन महौष धय को न पहचाननेके कारण वे च ाम पड़ गये॥ ३३ ॥ इसी समय अ मत तेज ी हनुमा ीके दयम यह वचार उ आ क ‘म पवतके इस शखरको ही ले चलू’ँ ॥ ३४ ॥ ‘इसी शखरपर वह सुखदा यनी ओष ध उ होती होगी, ऐसा मुझे अनुमानत: ात होता है; क सुषेणने ऐसा ही कहा था॥ ३५ ॥



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वश करणीको लये बना ही लौट जाऊँ तो अ धक समय बीतनेसे दोषक स ावना है और उससे बड़ी भारी घबराहट हो सकती है’॥ ३६ ॥ ऐसा सोचकर महाबली हनुमान् तुरंत उस े पवतके पास जा प ँ चे और उसके शखरको तीन बार हलाकर उसे उखाड़ लया। उसके ऊपर नाना कारके वृ खले ए थे। वानर े महाबली हनुमा े उसे दोन हाथ पर उठाकर तौला॥ ३७-३८ ॥ जलसे भरे ए नीले मेघके समान उस पवत शखरको लेकर हनुमा ी ऊपरको उछले॥ ३९ ॥ उनका वेग महान् था। उस शखरको सुषेणके पास प ँ चाकर उ ने पृ ीपर रख दया और थोड़ी देर व ाम करके हनुमा ीने सुषेणसे इस कार कहा—॥ ‘क प े ! म उन ओष धय को पहचानता नह ँ । इस लये उस पवतका सारा शखर ही लेता आया ँ ’॥ ४१ ॥ ऐसा कहते ए हनुमा ीक भू र-भू र शंसा करके वानर े सुषेणने उन ओष धय को उखाड़ लया॥ ४२ ॥ हनुमा ीका वह कम देवता के लये भी अ दु र था। उसे देखकर सम वानरयूथप त बड़े व त ए॥ ४३ ॥ महातेज ी क प े सुषेणने उस ओष धको कू ट-पीसकर ल णजीक नाकम दे दया॥ ४४ ॥ श ुका संहार करनेवाले ल णके सारे शरीरम बाण धँसे ए थे। उस अव ाम उस ओष धको सूँघते ही उनके शरीरसे बाण नकल गये और वे नीरोग हो शी ही भूतलसे उठकर खड़े हो गये॥ ४५ ॥ ल णको भूतलसे उठकर खड़ा आ देख वे वानर अ स हो ‘साधु-साधु’ कहकर उनक भू र-भू र शंसा करने लगे॥ ४६ ॥ तब श ुवीर का संहार करनेवाले भगवान् ीरामने ल णसे कहा—‘आओ-आओ’ ऐसा कहकर उ ने उ दोन भुजा म भर लया और गाढ़ आ ल न करके दयसे लगा लया। उस समय उनके ने म आँ सू छलक रहे थे॥ ४७ ॥



सु म ाकु मारको दयसे लगाकर ीरघुनाथजीने कहा— ‘वीर! बड़े सौभा क बात है क म तु मृ ुके मुखसे पुन: लौटा आ देखता ँ ॥ ४८ ॥ ‘तु ारे बना मुझे जीवनक र ासे, सीतासे अथवा वजयसे भी को◌इ मलतब नह है। जब तु नह रहोगे, तब म इस जीवनको रखकर ा क ँ गा?’॥ ४९ ॥ महा ा रघुनाथजीके ऐसा कहनेपर ल ण ख हो श थल वाणीम धीरे-धीरे बोले —॥ ५० ॥ ‘आय! आप स परा मी ह। आपने पहले रावणका वध करके वभीषणको ल ाका रा देनेक त ा क थी। वैसी त ा करके अब कसी ओछे और नबल मनु क भाँ त आपको ऐसी बात नह कहनी चा हये॥ ५१ ॥ ‘स वादी पु ष झूठी त ा नह करते ह। त ाका पालन ही बड़ नका ल ण है। न ाप रघुवीर! मेरे लये आपको इतना नराश नह होना चा हये। आज रावणका वध करके आप अपनी त ा पूरी क जये॥ ‘आपके बाण का ल बनकर श ु जी वत नह लौट सकता। ठीक उसी तरह, जैसे गरजते ए तीखी दाढ़वाले सहके सामने आकर महान् गजराज जी वत नह रह सकता॥ ५४ ॥ ‘ये सूयदेव अपने दनभरका मणकाय पूरा करके अ ाचलको नह चले जाते, तबतक ही जतना शी स व हो सके , म उस दुरा ा रावणका वध देखना चाहता ँ ॥ ५५ ॥ ‘आय! वीरवर! य द आप यु म रावणका वध करना चाहते ह, य द आपके मनम अपनी त ाके पूरी करनेक इ ा है तथा आप राजकु मारी सीताको पानेक अ भलाषा रखते ह तो आज शी ही रावणको मारकर मेरी ाथना सफल कर’॥ ५६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ एकवाँ सग पूरा आ॥ १०१ ॥ १. शरीरम धँसे ए बाण आ दको नकालकर घाव भरने और पीड़ा दूर करनेवाली। २. शरीरम पहलेक -सी रंगत लानेवाली। ३. मू ा दूर कर चेतना दान करनेवाली। ४. टूटी ◌इ ह य को जोड़नेवाली। ९७३



एक सौ दोवाँ सग इ के भेजे ए रथपर बैठकर ीरामका रावणके साथ यु करना



ल णक कही ◌इ उस बातको सुनकर श ुवीर का संहार करनेवाले परा मी ीरामने धनुष लेकर उसपर बाण का संधान कया॥ १ ॥ उ ने सेनाके मुहानेपर रावणको ल करके उन भयंकर बाण को छोड़ना आर कया। इतनेम रा सराज रावण भी दूसरे रथपर सवार हो ीरामपर उसी तरह चढ़ आया, जैसे रा सूयपर आ मण करता है॥ २ १/२ ॥ दशमुख रावण रथपर बैठा आ था। वह अपने व ोपम बाण ारा ीरामको उसी तरह ब धने लगा, जैसे मेघ कसी महान् पवतपर जलक धारावा हक वृ करता है॥ ३ ॥ ीरामच जी भी एका च हो रणभू मम दशमुख रावणपर लत अ के समान तेज ी सुवणभू षत बाण क वषा करने लगे॥ ४ ॥ ‘ ीरघुनाथजी भू मपर खड़े ह और वह रा स रथपर बैठा आ है, ऐसी दशाम इन दोन का यु बराबर नह है’ वहाँ आकाशम खड़े ए देवता,ग व और क र इस तरहक बात करने लगे॥ ५ ॥ उनक ये अमृतके समान मधुर बात सुनकर तेज ी देवराज इ ने मात लको बुलाकर कहा—॥ ६ ॥ ‘सारथे! रघुकुल तलक ीरामच जी भू मपर खड़े ह। मेरा रथ लेकर तुम शी उनके पास जाओ। भूतलपर प ँ चकर ीरामको पुकारकर कहो—‘यह रथ देवराजने आपक सेवाम भेजा है।’ इस तरह उ रथपर बठाकर तुम देवता के महान् हतका काय स करो’॥ देवराजके इस कार कहनेपर देव-सार थ मात लने उ म क कु ाकर णाम कया और यह बात कही— ‘देवे ! म शी ही आपके उ म रथम हरे रंगके घोड़े जोतकर उसे साथ लये जाऊँ गा और ीरघुनाथजीके सार थका काय भी क ँ गा’॥ ९ ॥ तदन र देवराज इ का जो शोभाशाली े रथ है, जसके सभी अवयव सुवणमय होनेके कारण व च शोभा धारण करते ह, जसे सैकड़ घुँघु से वभू षत कया गया है, जसक का ात:कालके सूयक भाँ त अ ण है, जसके कू बरम वैदयू म ण (नीलम) जड़ी



गयी है, जसम सूयतु तेज ी, हरे रंगवाले, सुवणजालसे वभू षत तथा सोनेके साज-बाजसे सजे ए अ े घोड़े जुते ह और उन घोड़ को ेत चँवर आ दसे अलंकृत कया गया है तथा जसके जका द सोनेका बना आ है, उस रथपर आ ढ़ हो मात ल देवराजका संदेश ले गसे भूतलपर उतरकर ीरामच जीके सामने खड़ा आ॥ १०—१२ ॥ सह लोचन इ का सार थ मात ल चाबुक लये रथपर बैठा आ हाथ जोड़कर ीरामच जीसे बोला— ‘महाबली श ुसूदन ीमान् रघुवीर! सह ने धारी देवराज इ ने वजयके लये आपको यह रथ सम पत कया है॥ १४ ॥ ‘यह इ का वशाल धनुष है। यह अ के समान तेज ी कवच है। ये सूयस श काशमान बाण ह तथा यह क ाणमयी नमल श है॥ १५ ॥ ‘वीरवर महाराज! आप इस रथपर आ ढ़ हो मुझ सार थक सहायतासे रा सराज रावणका उसी तरह वध क जये, जैसे महे दानव का संहार करते ह’॥ १६ ॥ मात लके ऐसा कहनेपर ीरामच जीने उस रथक प र मा क और उसे णाम करके वे उसपर सवार ए। उस समय अपनी शोभासे वे सम लोक को का शत करने लगे॥ १७ ॥ त ात् महाबा ीराम और रा स रावणम ैरथ यु ार आ, जो बड़ा ही अ तु और र गटे खड़े कर देनेवाला था॥ १८ ॥ ीरामच जी उ म अ के ाता थे। उ ने रा सराजके चलाये ए गा व-अ को गा व-अ से और दैव-अ को दैव-अ से न कर दया॥ तब रा स के राजा नशाचर रावणने अ कु पत हो पुन: परम भयानक रा सा का योग कया॥ २० ॥ फर तो रावणके धनुषसे छू टे ए सुवणभू षत बाण महा वषैले सप हो-होकर ीरामच जीके नकट प ँ चने लगे॥ २१ ॥ उन सप के मुख आगके समान लत होते थे। वे अपने मुख से जलती आग उगल रहे थे और मुँह फै लाये होनेके कारण बड़े भयंकर दखायी देते थे। वे सब-के -सब ीरामके ही सामने आने लगे॥ २२ ॥ उनका श वासु क नागके समान अस था। उनके फन लत हो रहे थे और वे महान् वषसे भरे थे। उन सपाकार बाण से ा होकर स ूण दशाएँ और व दशाएँ



आ ा दत हो गय ॥ २३ ॥ यु लम उन सप को आते देख भगवान् ीरामने अ भयंकर गा डा को कट कया॥ २४ ॥ फर तो ीरघुनाथजीके धनुषसे छू टे ए सुनहरे पंखवाले अ तु तेज ी बाण सप के श ुभूत सुवणमय ग ड़ बनकर सब ओर वचरने लगे॥ २५ ॥ ीरामके इ ानुसार प धारण करनेवाले उन ग ड़ाकार बाण ने रावणके महान् वेगशाली उन सम सपाकार सायक का संहार कर डाला॥ २६ ॥ इस कार अपने अ के तहत हो जानेपर रा सराज रावण ोधसे जल उठा और उस समय ीरघुनाथजीपर भयंकर बाण क वषा करने लगा॥ २७ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामको सह बाण से पी ड़त करके उसने मात लको भी अपने बाण-समूह से घायल कर दया॥ २८ ॥ त ात् रावणने इ के रथक जाको ल करके एक बाण मारा और उससे उस जको काट डाला। उस कटे ए सुवणमय जको रथके ऊपरसे उसके नचले भागम गराकर रावणने अपने बाण के जालसे इ के घोड़ को भी त- व त कर दया॥ २९ १/२ ॥ यह देख देवता, ग व, चारण तथा दानव वषादम डू ब गये। ीरामको पी ड़त देख स और मह षय के मनम भी बड़ी था ◌इ। वभीषणस हत सारे वानरयूथ प त भी ब त दु:खी हो गये॥ ३०-३१ ॥ ीराम पी च माको रावण पी रा से आ देख बुध नामक ह जसके देवता जाप त ह, उस च या रो हणी नामक न पर आ मण करके जावगके लये अ हतकारक हो गया॥ ३२ १/२ ॥ समु लत-सा होने लगा। उसक लहर से धूआँ-सा उठने लगा और वह कु पत-सा होकर ऊपरक ओर इस कार बढ़ने लगा, मानो सूयदेवको छू लेना चाहता है॥ ३३ १/२ ॥ सूयक करण म हो गय । उसक का तलवारक भाँ त काली पड़ गयी। वह अ खर कब के च से यु और धूमके तु नामक उ ात हसे संस दखायी देने लगा॥ ३४ १/ ॥ २



आकाशम इ ाकु वं शय के न वशाखापर, जसके देवता इ और अ ह, आ मण करके मंगल जा बैठा॥ ३५ १/२ ॥ उस समय दस म क और बीस भुजा से यु दश ीव रावण हाथ म धनुष लये मैनाक पवतके समान दखायी देता था॥ ३६ १/२ ॥ रा स रावणके बाण से बार ार नर (आहत) होनेके कारण भगवान् ीराम यु के मुहानेपर अपने सायक का संधान नह कर पाते थे॥ ३७ १/२ ॥ तदन र ीरघुनाथजीने ोधका भाव कट कया। उनक भ ह टेढ़ी हो गय , ने कु छकु छ लाल हो गये और उ ऐसा महान् ोध आ, जससे जान पड़ता था क वे सम रा स को भ कर डालगे॥ ३८ १/२ ॥ उस समय कु पत ए बु मान् ीरामके मुखक ओर देखकर सम ाणी भयसे थरा उठे और पृ ी काँपने लगी॥ ३९ ॥ सह और ा से भरा आ पवत हल गया। उसके ऊपरके वृ झूमने लगे और स रता के ामी समु म ार आ गया॥ ४० ॥ आकाशम सब ओर उ ातसूचक गदभाकार च गजना करनेवाले खे बादल गजते ए च र लगाने लगे॥ ीरामच जीको अ कु पत और दा ण उ ात का ाक देखकर सम ाणी भयभीत हो गये तथा रावणके भीतर भी भय समा गया॥ ४२ ॥ उस समय वमानपर बैठे ए देवता, ग व, बड़े-बड़े नाग, ऋ ष, दानव, दै तथा ग ड़ —ये सब आकाशम त होकर यु परायण शूरवीर ीराम और रावणके सम लोक के लयक भाँ त उप त ए नाना कारके भयानक हार से यु उस यु का देखने लगे॥ ४३-४४ ॥ उस अवसरपर यु देखनेके लये आये ए सम देवता और असुर उस महासमरको देखकर भ भावसे हषपूवक बात करने लगे॥ ४५ ॥ वहाँ खड़े ए असुर दश ीवको स ो धत करते ए बोले—‘रावण! तु ारी जय हो।’ उधर देवता ीरामको पुकारकर बार ार कहने लगे—‘रघुन न! आपक जय हो, जय हो’॥ ४६ ॥



इसी समय दु ा ा रावणने ोधम आकर ीरामच जीपर हार करनेक इ ासे एक ब त बड़ा ह थयार उठाया॥ ४७ ॥ वह व के समान श शाली, महान् श करनेवाला तथा स ूण श ु का संहारक था। उसक शखाएँ शैल- शखर के समान थ । वह मन और ने को भी भयभीत करनेवाला था। उसके अ भाग ब त तीखे थे। वह लयकालक धूमयु अ रा शके समान अ भयंकर जान पड़ता था। उसे पाना या न करना कालके लये भी क ठन एवं अस व था॥ ४८-४९ ॥ उसका नाम था शूल। वह सम भूत को छ भ करके उ भयभीत करनेवाला था। रोषसे उ ी ए रावणने उस शूलको हाथम ले लया॥ ५० ॥ समरभू मम अनेक सेना म वभ शूरवीर रा स से घरे ए उस परा मी नशाचरने बड़े ोधके साथ उस शूलको हण कया था॥ ५१ ॥ उसे ऊपर उठाकर उस वशालकाय रा सने यु लम बड़ी भयानक गजना क । उस समय उसके ने रोषसे लाल हो रहे थे और वह अपनी सेनाका हष बढ़ा रहा था॥ ५२ ॥ रा सराज रावणके उस भयंकर सहनादने उस समय पृ ी, आकाश, दशा और व दशा को भी क त कर दया॥ ५३ ॥ उस महाकाय दुरा ा नशाचरके भैरवनादसे स ूण ाणी थरा उठे और सागर भी व ु हो उठा॥ ५४ ॥ उस वशाल शूलको हाथम लेकर महापरा मी रावणने बड़े जोरसे गजना करके ीरामसे कठोर वाणीम कहा—॥ ५५ ॥ ‘राम! यह शूल व के समान श शाली है। इसे मने रोषपूवक अपने हाथम लया है। यह भा◌इस हत तु ारे ाण को त ाल हर लेगा॥ ५६ ॥ ‘यु क इ ा रखनेवाले राघव! आज तु ारा वध करके सेनाके मुहानेपर जो शूरवीर रा स मारे गये ह, उ के समान अव ाम तु भी प ँ चा दूँगा॥ ५७ ॥ ‘रघुकुलके राजकु मार! ठहरो, अभी इस शूलके ारा तु मौतके घाट उतारता ँ ।’ ऐसा कहकर रा सराज रावणने ीरघुनाथजीके ऊपर उस शूलको चला दया॥



रावणके हाथसे छू टते ही वह शूल आकाशम आकर चमक उठा। वह व ु ाला से ा -सा जान पड़ता था। आठ घंट से यु होनेके कारण उससे ग ीर घोष कट हो रहा था॥ ५९ ॥ परम परा मी रघुकुलन न ीरामने उस भयंकर एवं लत शूलको अपनी ओर आते देख धनुष तानकर बाण क वषा आर कर दी॥ ६० ॥ ीरघुनाथजीने बाणसमूह ारा अपनी ओर आते ए शूलको उसी तरह रोकनेका यास कया, जैसे देवराज इ ऊपरक ओर उठती ◌इ लया को संवतक मेघ के बरसाये ए जल वाहके ारा शा करनेक चे ा करते ह॥ ६१ ॥ परंतु जैसे आग पतंग को जला देती है, उसी तरह रावणके उस महान् शूलने ीरामच जीके धनुषसे छू टे ए सम बाण को जलाकर भ कर दया॥ ६२ ॥ ीरघुनाथजीने जब देखा मेरे सायक अ र म उस शूलका श होते ही चूर-चूर हो राखके ढेर बन गये ह, तब उ बड़ा ोध आ॥ ६३ ॥ अ ोधसे भरे ए रघुकुलन न रघुवीरने मात लक लायी ◌इ देवे ारा स ा नत श को हाथम ले लया॥ ६४ ॥ बलवान् ीरामके ारा उठायी ◌इ वह श लयकालम लत होनेवाली उ ाके समान काशमान थी। उसने सम आकाशको अपनी भासे उ ा सत कर दया तथा उससे घंटानाद कट होने लगा॥ ६५ ॥ ीरामने जब उसे चलाया, तब वह श रा सराजके उस शूलपर ही पड़ी। उसके हारसे टूक-टूक और न ेज हो वह महान् शूल पृ ीपर गर पड़ा॥ ६६ ॥ इसके बाद ीरामच जीने सीधे जानेवाले महावेगवान् व तु पैने बाण के ारा रावणके अ वेगशाली घोड़ को घायल कर दया॥ ६७ ॥ फर अ सावधान होकर उ ने तीन तीखे तीर से रावणक छाती छेद डाली और तीन पंखदार बाण से उसके ललाटम भी चोट प ँ चायी॥ ६८ ॥ उन बाण क मारसे रावणके सारे अ त व त हो गये। उसके सारे शरीरसे खूनक धारा बहने लगी। उस समय अपने सै समूहम खड़ा आ रा सराज रावण फू ल से भरे ए अशोकवृ के समान शोभा पाने लगा॥ ६९ ॥



ीरामच जीके बाण से जब सारा शरीर अ घायल हो ल लुहान हो गया, तब नशाचरराज रावणको उस रणभू मम बड़ा खेद आ। साथ ही उस समय उसने बड़ा भारी ोध कट कया॥ ७० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ दोवाँ सग पूरा आ॥ १०२ ॥



एक सौ तीनवाँ सग ीरामका रावणको फटकारना और उनके ारा घायल कये गये रावणको सार थका रणभू मसे बाहर ले जाना



ीरामच जीके ारा ोधपूवक अ पी ड़त कये जानेपर यु क इ ा रखनेवाले रावणको महान् ोध आ॥ १ ॥ उसके ने अ के समान लत हो उठे । उस परा मी वीरने अमषपूवक धनुष उठाया और अ कु पत हो उस महासमरम ीरघुनाथजीको पी ड़त करना आर कया॥ २ ॥ जैसे बादल आकाशसे जलक धारा बरसाकर तालाबको भर देता है, उसी कार रावणने सह बाणधारा क वृ करके ीरामच जीको आ ा दत कर दया॥ ३ ॥ यु लम रावणके धनुषसे छू टे ए बाणसमूह से ा हो जानेपर भी ीरघुनाथजी वच लत नह ए; क वे महान् पवतक भाँ त अचल थे॥ ४ ॥ वे समरा णम अपने बाण से रावणके बाण का नवारण करते ए रभावसे खड़े रहे। उन परा मी रघुवीरने सूयके करण क भाँ त श ुके बाण को हण कया॥ ५ ॥ तदन र शी तापूवक हाथ चलानेवाले नशाचर रावणने कु पत हो महामना राघवे क छातीम सह बाण मारे॥ ६ ॥ समरभू मम उन बाण से घायल ए ल णके बड़े भा◌इ ीराम र से नहा उठे और जंगलम खले ए पलाशके महान् वृ क भाँ त दखायी देने लगे॥ ७ ॥ उन बाण के आघातसे कु पत हो महातेज ी ीरामने लयकालके सूयक भाँ त तेज ी सायक को हाथम लया॥ ८ ॥ फर तो वे दोन पर र रोषावेशसे यु हो बाण चलाने लगे। समरा णम बाण से अ कार-सा छा गया। उस समय ीराम और रावण दोन एक-दूसरेको देख नह पाते थे॥ ९ ॥ इसी समय ोधसे भरे ए वीर दशरथकु मार ीरामने रावणसे हँ सते ए कठोर वाणीम कहा—॥ १० ॥ ‘नीच रा स! तू मेरे अनजानम जन ानसे मेरी असहाय ीको हर लाया है, इस लये तू बलवान् या परा मी तो कदा प नह है॥ ११ ॥



‘ वशाल वनम मुझसे



वलग ◌इ दीन अव ाम व मान वदेहराजकु मारीका बलपूवक अपहरण करके तू अपनेको शूरवीर समझता है?॥ १२ ॥ ‘असहाय अबला पर वीरता दखानेवाले नशाचर! पर ीके अपहरण-जैसे कापु षो चत कम करके तू अपनेको शूरवीर मानता है?॥ १३ ॥ ‘धमक मयादा भ करनेवाले पापी, नल और सदाचारशू नशाचर! तूने बलके घमंडसे वैदेहीके पम अपनी मौत बुलायी है। ा अब भी तू अपनेको शूरवीर समझता है?॥ १४ ॥ ‘तू बड़ा शूरवीर, बलस और सा ात् कु बेरका भा◌इ जो है! इसी लये तूने यह परम शंसनीय और महान् यशोवधक कम कया है॥ १५ ॥ ‘अ भमानपूवक कये गये उन न त और अ हतकर पाप-कमका जो महान् फल है, उसे तू आज अभी ा कर ले॥ १६ ॥ ‘खोटी बु वाले नशाचर! तू अपनेको शूरतासे स समझता है; कतु सीताको चोरक तरह चुराते समय तुझे त नक भी ल ा नह आयी?॥ १७ ॥ ‘य द मेरे समीप तू सीताका बलपूवक अपहरण करता तो अबतक मेरे सायक से मारा जाकर अपने भा◌इ खरका दशन करता होता॥ १८ ॥ ‘म बु े! सौभा क बात है क आज तू मेरी आँ ख के सामने आ गया है। म अभी तुझे अपने तीखे बाण से यमलोक प ँ चाता ँ ॥ १९ ॥ ‘आज मेरे बाण से कटकर रणभू मक धूलम पड़े ए जगमगाते कु ल से यु तेरे म कको मांसभ ी जीव-ज ु घसीट॥ २० ॥ ‘रावण! तेरी लाश पृ ीपर फ क पड़ी हो, उसक छातीपर ब त-से गृ टूट पड़ और बाण क नोकसे कये गये छेदके ारा वा हत होनेवाले तेरे खूनको बड़ी ासके साथ पय॥ २१ ॥ ‘आज मेरे बाण से वदीण और ाणशू होकर पड़े ए तेरे शरीरक आँ त को प ी उसी तरह ख च, जैसे ग ड़ सप को ख चते ह’॥ २२ ॥ ऐसा कहते ए श ु का नाश करनेवाले वीर ीरामने पास ही खड़े ए रा सराज रावणपर बाण क वषा आर कर दी॥ २३ ॥



उस समय यु लम श ुवधक इ ा रखनेवाले ीरामका बल, परा म, उ ाह और अ -बल बढ़कर दूना हो गया॥ २४ ॥ आ ानी रघुनाथजीके सामने सभी अ अपने-आप कट होने लगे। हष और उ ाहके कारण महातेज ी भगवान् ीरामका हाथ बड़ी तेजीसे चलने लगा॥ २५ ॥ अपनेम ये शुभ ल ण कट ए जान रा स का अ करनेवाले भगवान् ीराम पुन: रावणको पी ड़त करने लगे॥ २६ ॥ वानर के चलाये ए रसमूह और ीरामच जीके छोड़े ए बाण क वषासे आहत होकर रावणका दय ाकु ल एवं व ा हो उठा॥ २७ ॥ जब दयक ाकु लताके कारण उसम श उठाने, धनुषको ख चने और ीरामके परा मका सामना करनेक मता नह रह गयी तथा जब ीरामके शी तापूवक चलाये ए बाण एवं भाँ त-भाँ तके श उसक मृ ुके साधक बनने लगे और उसका मृ ुकाल समीप आ प ँ चा, तब उसक ऐसी अव ा देख उसका रथचालक सार थ बना कसी घबराहटके उसके रथको रणभू मसे दूर हटा ले गया॥ २८—३० ॥ अपने राजाको श हीन होकर रथपर पड़ा देख रावणका सार थ मेघके समान ग ीर घोष करनेवाले उसके भयानक रथको लौटाकर उसके साथ ही भयके मारे समरभू मसे बाहर नकल गया॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ तीनवाँ सग पूरा आ॥ १०३ ॥



एक सौ चारवाँ सग रावणका सार थको फटकारना और सार थका अपने उ रसे रावणको संतु करके उसके रथको रणभू मम प ँ चाना



रावण कालक श से े रत हो रहा था, अत: मोहवश अ कु पत हो ोधसे लाल आँ ख करके अपने सार थसे बोला—॥ १ ॥ ‘दुबु े! ा तूने मुझे परा मशू , असमथ, पु षाथशू , डरपोक, ओछा, धैयहीन, न ेज, मायार हत और अ के ानसे व त समझ रखा है, जो मेरी अवहेलना करके तू अपनी बु से मनमाना काम कर रहा है (तूने मुझसे पूछा नह ?)॥ २-३ ॥ ‘मेरा अ भ ाय ा है, यह जाने बना ही मेरी अवहेलना करके तू कस लये श ुके सामनेसे मेरा यह रथ हटा लाया?॥ ४ ॥ ‘अनाय! आज तूने मेरे चरकालसे उपा जत यश, परा म, तेज और व ासपर पानी फे र दया॥ ५ ॥ ‘मेरे श ुका बल-परा म व ात है। उसे अपने बल- व म ारा संतु करना मेरे लये उ चत है और म यु का लोभी ँ , तो भी तूने रथ हटाकर श ुक म मुझे कायर स कर दया॥ ६ ॥ ‘दुमते! य द तू इस रथको मोहवश कसी तरह भी श ुके सामने नह ले जाता है तो मेरा यह अनुमान स है क श ुने तुझे घूस देकर फोड़ लया है॥ ७ ॥ ‘ हत चाहनेवाले म का यह काम नह है। तूने जो काय कया है, वह श ु के करने यो है॥ ८ ॥ ‘य द तू मेरे साथ ब त दन से रहा है और य द मेरे गुण का तुझे रण है तो मेरे इस रथको शी लौटा ले चल। कह ऐसा न हो क मेरा श ु भाग जाय’॥ ९ ॥ य प सार थक बु म रावणके लये हतक ही भावना थी तथा प उस मूखने जब उससे ऐसी कठोर बात कही, तब सार थने बड़ी वनयके साथ यह हतकर वचन कहा—॥ १० ॥



‘महाराज!



म डरा नह ँ । मेरा ववेक भी न नह आ है और न मुझे श ु ने ही बहकाया है। म असावधान भी नह ँ । आपके त मेरा ेह भी कम नह आ है तथा आपने जो मेरा स ार कया है, उसे भी म नह भूला ँ ॥ ११ ॥ ‘म सदा आपका हत चाहता ँ और आपके यशक र ाके लये ही य शील रहता ँ । मेरा दय आपके त ेहसे आ है। इस कायसे आपका हत होगा—यह सोचकर ही मने इसे कया है। भले ही यह आपको अ य लगा हो॥ १२ ॥ ‘महाराज! म आपके य और हतम त र रहनेवाला ँ ; अत: इस कायके लये आप कसी ओछे और अनाय पु षक भाँ त मुझपर दोषारोपण न कर॥ ‘जैसे च ोदयके कारण बढ़ा आ समु का जल नदीके वेगको पीछे लौटा देता है, उसी कार मने जस कारणसे आपके रथको यु भू मसे पीछे हटाया है, उसे बता रहा ँ , सु नये॥ १४ ॥ ‘उस समय मने यह समझा था क आप महान् यु के मने आपक बलता नह देखी, आपम अ धक परा म नह



कारण थक गये ह। श ुक अपे ा पाया॥ १५ ॥ ‘मेरे घोड़े भी रथको ख चते-ख चते थक गये थे। इनके पाँव लड़खड़ा रहे थे। ये धूपसे पी ड़त हो वषाक मारी ◌इ गौ के समान दु:खी हो गये थे॥ १६ ॥ ‘साथ ही इस समय मेरे सामने जो-जो ल ण कट हो रहे ह, य द वे सफल ए तो हम उसम अपना अम ल ही दखायी देता है॥ १७ ॥ ‘सार थको देश-कालका, शुभाशुभ ल ण का, रथीक चे ा का, उ ाह, अनु ाह और खेदका तथा बलाबलका भी ान रखना चा हये॥ १८ ॥ ‘धरतीके जो ऊँ चे-नीचे, सम- वषम ान ह , उनक भी जानकारी रखनी चा हये। यु का उपयु अवसर कब होगा, इसे जानना और श ुक दुबलतापर भी रखनी चा हये॥ १९ ॥ ‘श ुके पास जाने, दूर हटने, यु म र रहने तथा यु भू मसे अलग हो जानेका उपयु अवसर कब आता है’ इन सब बात को समझना रथपर बैठे ए सार थका कत है॥ २० ॥ ‘आपको तथा इन रथके घोड़ को थोड़ी देरतक व ाम देने और खेद दूर करनेके लये मने जो यह काय कया है, सवथा उ चत है॥ २१ ॥



‘वीर!



भो! मने मनमानी करनेके लये नह , ामीके ेहवश उनक र ाके लये इस रथको दूर हटाया है॥ २२ ॥ ‘श ुसूदन वीर! अब आ ा दी जये। आप ठीक समझकर जो कु छ भी कहगे, उसे म मनम आपके ऋणसे उऋण होनेक भावना रखकर क ँ गा’॥ २३ ॥ सार थके इस कथनसे रावण ब त संतु आ और नाना कारसे उसक सराहना करके यु के लये लोलुप होकर बोला—॥ २४ ॥ ‘सूत! अब तुम इस रथको शी रामके सामने ले चलो। रावण समरम अपने श ु को मारे बना घर नह लौटेगा’॥ २५ ॥ ऐसा कहकर रा सराज रावणने सार थको पुर ारके पम अपने हाथका एक सु र आभूषण उतारकर दे दया। रावणका आदेश सुनकर सार थने पुन: रथको लौटाया॥ २६ ॥ रावणक आ ासे े रत हो सार थने तुरंत ही अपने घोड़े हाँके। फर तो रा सराजका वह वशाल रथ णभरम यु के मुहानेपर ीरामच जीके समीप जा प ँ चा॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ चारवाँ सग पूरा आ॥ १०४ ॥



एक सौ पाँचवाँ सग अग



मु नका ीरामको वजयके लये ‘आ द



दय’* के पाठक स



त देना



उधर ीरामच जी यु से थककर च ा करते ए रणभू मम खड़े थे। इतनेम रावण भी यु के लये उनके सामने उप त हो गया। यह देख भगवान् अग मु न, जो देवता के साथ यु देखनेके लये आये थे, ीरामके पास जाकर बोले—॥ १-२ ॥ ‘सबके दयम रमण करनेवाले महाबाहो राम! यह सनातन गोपनीय ो सुनो। व ! इसके जपसे तुम यु म अपने सम श ु पर वजय पा जाओगे॥ ‘इस गोपनीय ो का नाम है ‘आ द दय’। यह परम प व और स ूण श ु का नाश करनेवाला है। इसके जपसे सदा वजयक ा होती है। यह न अ य और परम क ाणमय ो है। स ूण म ल का भी म ल है। इससे सब पाप का नाश हो जाता है। यह च ा और शोकको मटाने तथा आयुको बढ़ानेवाला उ म साधन है॥ ४-५ ॥ ‘भगवान् सूय अपनी अन करण से सुशो भत (र मान्) ह। ये न उदय होनेवाले (समु न्), देवता और असुर से नम ृ त, वव ान् नामसे स , भाका व ार करनेवाले (भा र) और संसारके ामी (भुवने र) ह। तुम इनका [र मते नम:, समु ते नम:, देवासुरनम ृ ताय नम:, वव ते नम:, भा राय नम:, भुवने राय नम:—इन नाम-म के ारा] पूजन करो॥ ६ ॥ ‘स ूण देवता इ के प ह। ये तेजक रा श तथा अपनी करण से जग ो स ा एवं ू त दान करनेवाले ह। ये ही अपनी र य का सार करके देवता और असुर स हत स ूण लोक का पालन करते ह॥ ७ ॥ ‘ये ही ा, व ,ु शव, , जाप त, इ , कु बेर, काल, यम, च मा, व ण, पतर, वसु, सा , अ नीकु मार, म ण, मनु, वायु, अ , जा, ाण, ऋतु को कट करनेवाले तथा भाके पु ह॥ ‘इ के नाम—आ द (अ द तपु ), स वता (जग ो उ करनेवाले), सूय (सव ापक), खग (आकाशम वचरनेवाले), पूषा (पोषण करनेवाले), गभ मान् ( काशमान), सुवणस श, भानु ( काशक), हर रेता ( ा क उ के बीज), दवाकर



(रा



का अ कार दूर करके दनका काश फै लानेवाले), ह रद ( दशा म ापक अथवा हरे रंगके घोड़ेवाले), सह ा च (हजार करण से सुशो भत), स स (सात घोड़ वाले), मरी चमान् ( करण से सुशो भत), त मरो थन (अ कारका नाश करनेवाले), श ु (क ाणके उ म ान), ा (भ का दु:ख दूर करने अथवा जग ा संहार करनेवाले), मात क ( ा को जीवन दान करनेवाले), अंशुमान् ( करण धारण करनेवाले), हर गभ ( ा), श शर ( भावसे ही सुख देनेवाले), तपन (गम पैदा करनेवाले), अह र ( दनकर), र व (सबक ु तके पा ), अ गभ (अ को गभम धारण करनेवाले), अ द तपु , श (आन प एवं ापक), श शरनाशन (शीतका नाश करनेवाले), ोमनाथ (आकाशके ामी), तमोभेदी (अ कारको न करनेवाले), ऋग्, यजु: और सामवेदके पारगामी, घनवृ (घनी वृ के कारण), अपां म (जलको उ करनेवाले), व वीथी व म (आकाशम ती वेगसे चलनेवाले), आतपी (घाम उ करनेवाले), म ली ( करणसमूहको धारण करनेवाले), मृ ु (मौतके कारण), प ल (भूरे रंगवाले), सवतापन (सबको ताप देनेवाले), क व ( कालदश ), व (सव प), महातेज ी, र (लाल रंगवाले), सवभवो व (सबक उ के कारण), न , ह और तार के ामी, व भावन (जग र ा करनेवाले), तेज य म भी अ त तेज ी तथा ादशा ा (बारह प म अ भ ) ह। [इन सभी नाम से स सूयदेव!] आपको नम ार है॥ १०—१५ ॥ ‘पूव ग र—उदयाचल तथा प म ग र—अ ाचलके पम आपको नम ार है। ो तगण ( ह और तार ) के ामी तथा दनके अ धप त आपको णाम है॥ ‘आप जय प तथा वजय और क ाणके दाता ह। आपके रथम हरे रंगके घोड़े जुते रहते ह। आपको बार ार नम ार है। सह करण से सुशो भत भगवान् सूय! आपको बार ार णाम है। आप अ द तके पु होनेके कारण आ द नामसे स ह, आपको नम ार है॥ १७ ॥ ‘उ (अभ के लये भयंकर), वीर (श -स ) और सारंग (शी गामी) सूयदेवको नम ार है। कमल को वक सत करनेवाले च तेजधारी मात को णाम है॥ १८ ॥ ‘(परा र- पम) आप ा, शव और व ुके भी ामी ह। सूर आपक सं ा है, यह सूयम ल आपका ही तेज है, आप काशसे प रपूण ह, सबको ाहा कर देनेवाला अ आपका ही प है, आप रौ प धारण करनेवाले ह; आपको नम ार है॥ १९ ॥



‘आप अ ान और करनेवाले ह, आपका



अ कारके नाशक, जडता एवं शीतके नवारक तथा श ुका नाश प अ मेय है। आप कृ त का नाश करनेवाले, स ूण ो तय के ामी और देव प ह; आपको नम ार है॥ २० ॥ ‘आपक भा तपाये ए सुवणके समान है, आप ह र (अ ानका हरण करनेवाले) और व कमा (संसारक सृ करनेवाले) ह; तमके नाशक, काश प और जग े सा ी ह; आपको नम ार है॥ २१ ॥ ‘रघुन न! ये भगवान् सूय ही स ूण भूत का संहार, सृ और पालन करते ह। ये ही अपनी करण से गम प ँ चाते और वषा करते ह॥ २२ ॥ ‘ये सब भूत म अ यामी पसे त होकर उनके सो जानेपर भी जागते रहते ह। ये ही अ हो तथा अ हो ी पु ष को मलनेवाले फल ह॥ २३ ॥ ‘(य म भाग हण करनेवाले) देवता, य और य के फल भी ये ही ह। स ूण लोक म जतनी याएँ होती ह, उन सबका फल देनेम ये ही पूण समथ ह॥ ‘राघव! वप म, क म, दुगम मागम तथा और कसी भयके अवसरपर जो को◌इ पु ष इन सूयदेवका क तन करता है, उसे दु:ख नह भोगना पड़ता॥ २५ ॥ ‘इस लये तुम एका च होकर इन देवा धदेव जगदी रक पूजा करो। इस आ द दयका तीन बार जप करनेसे तुम यु म वजय पाओगे॥ २६ ॥ महाबाहो! ‘तुम इसी ण रावणका वध कर सकोगे।’ यह कहकर अग जी जैसे आये थे, उसी कार चले गये॥ २७ ॥ उनका उपदेश सुनकर महातेज ी ीरामच जीका शोक दूर हो गया। उ ने स होकर शु च से आ द दयको धारण कया और तीन बार आचमन करके शु हो भगवान् सूयक ओर देखते ए इसका तीन बार जप कया। इससे उ बड़ा हष आ। फर परम परा मी रघुनाथजीने धनुष उठाकर रावणक ओर देखा और उ ाहपूवक वजय पानेके लये वे आगे बढ़े। उ ने पूरा य करके रावणके वधका न य कया॥ २८—३० ॥ उस समय देवता के म म खड़े ए भगवान् सूयने स होकर ीरामच जीक ओर देखा और नशाचरराज रावणके वनाशका समय नकट जानकर हषपूवक कहा—‘रघुन न! अब ज ी करो’॥ ३१ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ पाँचवाँ सग पूरा आ॥ १०५ ॥ * इस ‘आ द



दय’ नामक ो का व नयोग एवं ास व ध इस कार है—



ॐ अ आ द दय ो ाग ऋ षरनु ु छ व ा स ौ सव जय स ौ च व नयोग:।



व नयोग :,



आ द दयभूतो भगवान्



ा देवता नर ाशेष व तया



ऋ ा द ास



ॐ अग ऋषये नम:, शर स। अनु ु छ से नम:, मुखे। आ द दयभूत देवतायै नम:, द। ॐ बीजाय नम:, गु े। र मते श ये नम:, पादयो:। ॐ त वतु र ा दगाय ीक लकाय नम:, नाभौ। कर ास



इस ो के अ ास और कर ास तीन कारसे कये जाते ह। के वल णवसे, गाय ीम से अथवा ‘र मते नम:’ इ ा द छ: नाम-म से। यहाँ नाम-म से कये जानेवाले ासका कार बताया जाता है— ॐ र मते अ ु ा ां नम:। ॐ समु ते तजनी ां नम:। ॐ देवासुरनम ृ ताय म मा ां नम:। ॐ वव ते अना मका ां नम:। ॐ भा राय क न का ां नम:। ॐ भुवने राय करतलकरपृ ा ां नम:। दया द अ



ास



ॐ र मते दयाय नम:। ॐ समु ते शरसे ाहा। ॐ देवासुरनम ृ ताय शखायै वषट्। ॐ वव ते कवचाय म्। ॐ भा राय ने याय वौषट्। ॐ भुवने राय अ ाय फट्। इस कार ास करके न ा त म से भगवान् सूयका ान एवं नम ार करना चा हये— ॐ भूभुव: : त वतुवरे ं भग देव धीम ह धयो यो न: चोदयात्। त ात् ‘आ द दय’ ो का पाठ करना चा हये। ९८१



एक सौ छठाँ सग रावणके रथको देख ीरामका मात लको सावधान करना, रावणक पराजयके सूचक उ ात तथा रामक वजय सू चत करनेवाले शुभ शकुन का वणन



रावणके सार थने हष और उ ाहसे यु होकर उसके रथको शी तापूवक हाँका। वह रथ श ुसेनाको कु चल डालनेवाला था और ग वनगरके समान आ यजनक दखायी देता था। उसपर ब त ऊँ ची पताका फहरा रही थी। उस रथम उ म गुण से स और सोनेके हार से अलंकृत घोड़े जुते ए थे। रथके भीतर यु क आव क साम ी भरी पड़ी थी। उस रथने जा-पताका क तो माला-सी पहन रखी थी। वह आकाशको अपना ास बनाता आ-सा जान पड़ता था। वसु राको अपनी घघर- नसे नना दत कर रहा था। वह श ुक सेना का नाशक और अपनी सेनाके यो ा का हष बढ़ानेवाला था॥ १—३ १/२ ॥ नरराज ीरामच जीने सहसा वहाँ आते ए, वशाल जसे अलंकृत और घोर घघरनसे यु रा सराज रावणके उस रथको देखा॥ ४ १/२ ॥ उसम काले रंगके घोड़े जुते ए थे। उसक का बड़ी भयंकर थी। वह आकाशम का शत होनेवाले सूयतु तेज ी वमानके समान गोचर होता था॥ उसपर फहराती ◌इ पताकाएँ व ु े समान जान पड़ती थ । वहाँ जो रावणका धनुष था, उसके ारा वह रथ इ धनुषक छटा छटकाता था और बाण क धारावा हक वृ करता था। इससे वह जलधारावष मेघके समान तीत होता था॥ ६ १/२ ॥ उसक आवाज ऐसी मालूम होती थी, मानो व के आघातसे कसी पवतके फटनेका श हो रहा हो। मेघके समान तीत होनेवाले श ुके उस रथको आता देख ीरामच जीने बड़े वेगसे अपने धनुषपर टंकार दी। उस समय उनका वह धनुष तीयाके च मा-जैसा दखायी देता था। ीरामने इ सार थ मात लसे कहा—॥ ७-८ १/२ ॥ ‘मातले! देखो, मेरे श ु रावणका रथ बड़े वेगसे आ रहा है। रावण जस कार द णभावसे महान् वेगके साथ पुन: आ रहा है, उससे जान पड़ता है, इसने समरभू मम अपने वधका न य कर लया है॥ ९-१० ॥



‘अत: अब तुम सावधान हो जाओ और श ुके रथक बादल को छ - भ कर डालती है, उसी कार आज म



ओर आगे बढ़ो। जैसे हवा उमड़े ए श ुके रथका व ंस करना चाहता



ँ ॥ ११ ॥ ‘भय तथा घबराहट छोड़कर मन और ने को र रखते ए घोड़ क बागडोर काबूम रखो और रथको तेज चलाओ॥ १२ ॥ ‘तु देवराज इ का रथ हाँकनेका अ ास है; अत: तुमको कु छ सखानेक आव कता नह है। म एका च होकर यु करना चाहता ँ । इस लये तु ारे कत का रणमा करा रहा ँ । तु श ा नह देता ँ ’॥ १३ ॥ ीरामच जीके इस वचनसे देवता के े सार थ मात लको बड़ा संतोष आ और उ ने रावणके वशाल रथको दा हने रखते ए अपने रथको आगे बढ़ाया। उसके प हयेसे इतनी धूल उड़ी क रावण उसे देखकर काँप उठा॥ १४-१५ ॥ इससे दशमुख रावणको बड़ा ोध आ। वह अपनी लाल-लाल आँ ख फाड़कर देखता आ रथके सामने ए ीरामपर बाण क वृ करने लगा॥ १६ ॥ उसके इस आ मणसे ीरामच जीको बड़ा ोध आ। फर रोषके साथ ही धैय धारण करके यु लम उ ने इ का धनुष हाथम लया, जो बड़ा ही वेगशाली था॥ १७ ॥ साथ ही सूयक करण के समान का शत होनेवाले महान् वेगशाली बाण भी हण कये। त ात् एक-दूसरेके वधक इ ा रखकर ीराम और रावण दोन म बड़ा भारी यु आर आ। दोन दपसे भरे ए दो सह के समान आमने-सामने डटे ए थे॥ १८ ॥ उस समय रावणके वनाशक इ ा रखनेवाले देवता, स , ग व और मह ष उन दोन के ैरथ यु को देखनेके लये वहाँ एक हो गये॥ १९ ॥ उस यु के समय ऐसे भयंकर उ ात होने लगे, जो र गटे खड़े कर देनेवाले थे। उनसे रावणके वनाश और ीरामच जीके अ ुदयक सूचना मलती थी॥ मेघ रावणके रथपर र क वषा करने लगे। बड़े वेगसे उठे ए बवंडर उसक वामावत प र मा करने लगे॥ २१ ॥ जस- जस मागसे रावणका रथ जाता था, उसी-उसी ओर आकाशम मँडराता आ गीध का महान् समुदाय दौड़ा जाता था॥ २२ ॥



असमयम ही जपा (अड़ ल)-के फू लक -सी लाल रंगवाली सं ासे आवृत ◌इ ल ापुरीक भू म दनम भी जलती ◌इ-सी दखायी देती थी॥ २३ ॥ रावणके सामने व पातक -सी गड़गड़ाहट और बड़ी भारी आवाजके साथ बड़ी-बड़ी उ ाएँ गरने लग , जो उसके अ हतक सूचना दे रही थ । उन उ ात ने रा स को वषादम डाल दया॥ २४ ॥ रावण जहाँ-जहाँ जाता, वहाँ-वहाँक भू म डोलने लगती थी। हार करते ए रा स क भुजाएँ ऐसी नक ी हो गयी थ , मानो उ क ने पकड़ लया हो॥ २५ ॥ रावणके आगे पड़ी ◌इ सूयदेवक करण पवतीय धातु के समान लाल, पीले, सफे द और काले रंगक दखायी देती थ ॥ २६ ॥ रावणके रोषावेशसे पूण मुखक ओर देखती और अपने-अपने मुख से आग उगलती ◌इ गीद ड़याँ अम लसूचक बोली बोलती थ और उनके पीछे ंडु -के - ंडु गीध मड़राते चलते थे॥ २७ ॥ रणभू मम धूल उड़ाती वायु रा सराज रावणक आँ ख बंद करती ◌इ तकू ल दशाक ओर बह रही थी॥ २८ ॥ उसक सेनापर सब ओरसे बना बादलके ही दु:सह एवं कठोर आवाजके साथ भयानक बज लयाँ गर ॥ २९ ॥ सम दशाएँ और व दशाएँ अ कारसे आ हो गय । धूलक बड़ी भारी वषाके कारण आकाशका दखायी देना क ठन हो गया॥ ३० ॥ भयानक आवाज करनेवाली सैकड़ दा ण सा रकाएँ आपसम घोर कलह करती ◌इ रावणके रथपर गर पड़ती थ ॥ ३१ ॥ उसके घोड़े अपने जघन लसे आगक चनगा रयाँ और ने से आँ सू बरसा रहे थे। इस कार वे एक ही साथ आग और पानी दोन कट करते थे॥ ३२ ॥ इस तरह ब त-से दा ण एवं भयंकर उ ात कट ए, जो रावणके वनाशक सूचना दे रहे थे॥ ३३ ॥ ीरामके सामने भी अनेक शकु न कट ए, जो सब कारसे शुभ, म लमय तथा वजयके सूचक थे॥



ीरघुनाथजी अपनी वजयक सूचना देनेवाले इन शुभ शकु न को देखकर बड़े स ए और उ ने रावणको मरा आ ही समझा॥ ३५ ॥ शकु न के ाता भगवान् ीराम रणभू मम अपनेको ा होनेवाले शुभ शकु न का अवलोकन करके बड़े हष और परम संतोषका अनुभव करने लगे तथा उ ने यु म अ धक परा म कट कया॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ छठाँ सग पूरा आ॥ १०६ ॥



एक सौ सातवाँ सग ीराम और रावणका घोर यु



तदन र ीराम और रावणम अ ू रतापूवक महान् ैरथ यु आर आ, जो सम लोक के लये भयंकर था॥ १ ॥ उस समय रा स और वानर क वशाल सेनाएँ हाथम ह थयार लये रहनेपर भी न े खड़ी रह — को◌इ कसीपर हार नह करता था॥ २ ॥ मनु और नशाचर दोन वीर को बलपूवक यु करते देख सबके दय उ क ओर खच गये; अत: सभी बड़े आ यम पड़ गये॥ ३ ॥ दोन ओरके सै नक के हाथ म नाना कारके अ -श व मान थे और उनके हाथ यु के लये थे, तथा प उस अ तु सं ामको देखकर उनक बु आ यच कत हो उठी थी; इस लये वे चुपचाप खड़े थे। एक-दूसरेपर हार नह करते थे॥ ४ ॥ रा स रावणक ओर देख रहे थे और वानर ीरघुनाथजीक ओर। उन सबके ने व त थे; अत: न खड़ी रहनेके कारण उभय प क सेनाएँ च ल खत-सी जान पड़ती थ ॥ ५ ॥



ीराम और रावण दोन ने वहाँ कट होनेवाले न म को देखकर उनके भावी फलका वचार करके यु वषयक वचारको र कर लया था। उन दोन मसे एक-दूसरेके त अमषका भाव ढ़ हो गया था; इस लये वे नभय-से होकर यु करने लगे॥ ६ ॥ ीरामच जीको यह व ास था क मेरी ही जीत होगी और रावणको भी यह न य हो गया था क मुझे अव ही मरना होगा; अत: वे दोन यु म अपना सारा परा म कट करके दखाने लगे॥ ७ ॥ उस समय परा मी दशाननने ोधपूवक बाण का संधान करके ीरघुनाथजीके रथपर फहराती ◌इ जाको नशाना बनाया और उन बाण को छोड़ दया॥ ८ ॥ परंतु उसके चलाये ए वे बाण इ के रथक जातक न प ँ च सके , के वल रथश को* छू ते ए धरतीपर गर पड़े॥ ९ ॥



तब महाबली ीरामच जीने भी कु पत होकर अपने धनुषको ख चा और मन-ही-मन रावणके कृ का बदला चुकाने—उसके जको काट गरानेका वचार कया॥ १० ॥ रावणके जको ल करके उ ने वशाल सपके समान अस और अपने तेजसे लत तीखा बाण छोड़ दया॥ ११ ॥ तेज ी ीरामने उस जक ओर नशाना साधकर अपना सायक चलाया और वह दशाननके उस जको काटकर पृ ीम समा गया॥ १२ ॥ रावणके रथका वह ज कटकर धरतीपर गर पड़ा। अपने जका व ंस आ देख महाबली रावण ोधसे जल उठा और अमषके कारण वप ीको जलाता आ-सा जान पड़ा। वह रोषके वशीभूत होकर बाण क वषा करने लगा॥ १३-१४ ॥ रावणने अपने तेज ी बाण से ीरामच जीके घोड़ को घायल करना आर कया; परंतु वे घोड़े द थे, इस लये न तो लड़खड़ाये और न अपने ानसे वच लत ही ए। वे पूववत् च बने रहे, मानो उनपर कमलक नाल से हार कया गया हो॥ १५ १/२ ॥ उन घोड़ का घबराहटम न पड़ना देख रावणका ोध और भी बढ़ गया। वह पुन: बाण क वषा करने लगा। गदा, च , प रघ, मूसल, पवत- शखर, वृ , शूल, फरसे तथा माया न मत अ ा श क वृ करने लगा। उसने दयम थकावटका अनुभव न करके सह बाण छोड़े॥ १६—१८ ॥ यु लम अनेक श क वह वशाल वषा बड़ी भयानक, तुमुल, ासजनक और भयंकर कोलाहलसे पूण थी॥ १९ ॥ वह श वषा ीरामच जीके रथको छोड़कर सब ओरसे वानर-सेनाके ऊपर पड़ने लगी। दशमुख रावणने ाण का मोह छोड़कर बाण का योग कया और अपने सायक से वहाँके आकाशको ठसाठस भर दया॥ २० १/२ ॥ तदन र रणभू मम रावणको बाण चलानेम अ धक प र म करते देख ीरामच जीने हँ सते ए-से तीखे बाण का संधान कया और उ सैकड़ तथा हजार क सं ाम छोड़ा॥ २१-२२ ॥ उन बाण को देखकर रावणने पुन: अपने बाण बरसाये और आकाशको इतना भर दया क उसम तल रखनेक भी जगह नह रह गयी। उन दोन के ारा क गयी चमक ले बाण क



वषासे वहाँका काशमान आकाश बाण से ब होकर कसी और ही आकाश-सा तीत होता था॥ २३ १/२ ॥ उनका चलाया आ को◌इ भी बाण ल तक प ँ चे बना नह रहता था, ल को बेधे या वदीण कये बना नह कता था तथा न ल भी नह होता था। इस तरह यु म श वषा करते ए ीराम और रावणके बाण जब आपसम टकराते थे, तब न होकर पृ ीपर गर जाते थे॥ २४-२५ ॥ वे दोन यो ा दाय-बाय हार करते ए नर र यु म लगे रहे। उ ने अपने भयंकर बाण से आकाशको इस तरह भर दया क मानो उसम साँस लेनेक भी जगह नह रह गयी॥ २६ ॥



ीरामने रावणके घोड़ को और रावणने ीरामके घोड़ को घायल कर दया। वे दोन एक-दूसरेके हारका बदला चुकाते ए पर र आघात करते रहे॥ २७ ॥ इस कार वे दोन अ ोधसे भरे ए उ म री तसे यु करने लगे। दो घड़ीतक तो उन दोन म ऐसा भयंकर सं ाम आ, जो र गटे खड़े कर देनेवाला था॥ २८ ॥ इस कार यु म लगे ए ीराम तथा रावणको स ूण ाणी च कत च से नहारने लगे॥ २९ ॥ उन दोन के वे े रथ (तथा उसम बैठे ए रथी) समरभू मम अ ोधपूवक एकदूसरेको पीड़ा देने और पर र धावा करने लगे॥ ३० ॥ एक-दूसरेके वधके य म लगे ए वे दोन वीर बड़े भयानक जान पड़ते थे। उन दोन के सार थ कभी रथको च र काटते ए ले जाते, कभी सीधे मागसे दौड़ाते और कभी आगेक ओर बढ़ाकर पीछेक ओर लौटाते थे। इस तरह वे दोन अपने रथको हाँकनेम व वध कारके ानका प रचय देने लगे॥ ३१ १/२ ॥ ीराम रावणको पी ड़त करने लगे और रावण ीरामको पीड़ा देने लगा। इस कार यु वषयक वृ और नवृ म वे दोन तदनु प ग तवेगका आ य लेते थे॥ ३२ १/२ ॥ बाणसमूह क वषा करते ए उन दोन वीर के वे े रथ जलक धारा गराते ए दो जलधर के समान यु भू मम वचर रहे थे॥ ३३ १/२ ॥



वे दोन रथ यु लम भाँ त-भाँ तक ग तका दशन करनेके बाद फर आमने-सामने आकर खड़े हो गये॥ ३४ १/२ ॥ उस समय वहाँ खड़े ए उन दोन रथ के युग र (हरस क सं ध) युग रसे, घोड़ के मुख वप ी घोड़ के मुखसे तथा पताकाएँ पताका से मल गय ॥ त ात् ीरामने अपने धनुषसे छू टे ए चार पैने बाण ारा रावणके चार तेज ी घोड़ को पीछे हटनेके लये ववश कर दया॥ ३६ १/२ ॥ घोड़ के पीछे हटनेपर दशमुख रावण ोधके वशीभूत हो गया और ीरामपर तीखे बाण क वषा करने लगा॥ ३७ १/२ ॥ बलवान् दशाननके ारा अ घायल कये जानेपर भी ीरघुनाथजीके चेहरेपर शकनतक न आयी और न उनके मनम था ही ◌इ॥ ३८ १/२ ॥ त ात् रावणने इ के सार थ मात लको ल करके व के समान श करनेवाले बाण छोड़े॥ ३९ १/२ ॥ वे महान् वेगशाली बाण यु लम मात लके शरीरपर पड़कर उ थोड़ा-सा भी मोह या था न दे सके ॥ ४० १/२ ॥ रावण ारा मात लके त आ मणसे ीरामच जीको जैसा ोध आ, वैसा अपनेपर कये गये आ मणसे नह आ था। अत: उ ने बाण का जाल-सा बछाकर अपने श ुको यु से वमुख कर दया॥ ४१ १/२ ॥ वीर रघुनाथजीने श ुके रथपर बीस, तीस, साठ, सौ और हजार-हजार बाण क वृ क ॥ ४२ १/२ ॥ तब रथपर बैठा आ रा सराज रावण भी कु पत हो उठा और गदा तथा मूसल क वषासे रणभू मम ीरामको पीड़ा देने लगा॥ ४३ १/२ ॥ इस कार उन दोन म पुन: बड़ा भयंकर और रोमा कारी यु होने लगा। गदा , मूसल और प रघ क आवाजसे तथा बाण के पंख क सनसनाती ◌इ हवासे सात समु व ु हो उठे ॥ ४४-४५ ॥



उन व ु समु के पातालतलम नवास करनेवाले सम दानव और सह नाग थत हो गये॥ ४६ ॥ पवत , वन और कानन स हत सारी पृ ी काँप उठी, सूयक भा लु हो गयी और वायुक ग त भी क गयी॥ ४७ ॥ देवता, ग व, स , मह ष, क र और बड़े-बड़े नाग सभी च ाम पड़ गये॥ ४८ ॥ सबके मुँहसे यही बात नकलने लगी—‘गौ और ा ण का क ाण हो, वाह पसे सदा रहनेवाले इन लोक क र ा हो और ीरघुनाथजी यु म रा सराज रावणपर वजय पाव,॥ ४९ ॥ इस कार कहते ए ऋ षय स हत वे देवगण ीराम और रावणके अ भयंकर तथा रोमा कारी यु को देखने लगे॥ ५० ॥ ग व और अ रा के समुदाय उस अनुपम यु को देखकर कहने लगे—‘आकाश आकाशके ही तु है, समु समु के ही समान है तथा राम और रावणका यु राम और रावणके यु के ही स श है’* ऐसा कहते ए वे सब लोग राम-रावणका यु देखने लगे॥ तदन र रघुकुलक क त बढ़ानेवाले महाबा ीरामच जीने कु पत होकर अपने धनुषपर एक वषधर सपके समान बाणका संधान कया और उसके ारा जगमगाते ए कु ल से यु रावणका एक सु र म क काट डाला। उसका वह कटा आ सर उस समय पृ ीपर गर पड़ा, जसे तीन लोक के ा णय ने देखा॥ उसक जगह रावणके वैसा ही दूसरा नया सर उ हो गया। शी तापूवक हाथ चलानेवाले शी कारी ीरामने यु लम अपने सायक ारा रावणका वह दूसरा सर भी शी ही काट डाला॥ ५५ १/२ ॥ उसके कटते ही पुन: नया सर उ दखायी देने लगा, कतु उसे भी ीरामके व तु सायक ने काट डाला॥ ५६ १/२ ॥ इस कार एक-से तेजवाले उसके सौ सर काट डाले गये, तथा प उसके जीवनका नाश होनेके लये उसके म क का अ होता नह दखायी देता था॥ तदन र कौस ाका आन बढ़ानेवाले, स ूण अ के ाता वीर ीरामच जी अनेक कारके बाण से यु होनेपर भी इस कार च ा करने लगे—॥



‘अहो! मने कया, द कार



जन बाण से मारीच, खर और दूषणको मारा, ौ वनके ग मे वराधका वध म कब को मौतके घाट उतारा, सालवृ और पवत को वदीण कया, वालीके ाण लये और समु को भी ु कर दया, अनेक बारके सं ामम परी ा करके जनक अमोघताका व ास कर लया गया है, वे ही ये मेरे सब सायक आज रावणके ऊपर न ेज— कु त हो गये ह; इसका ा कारण हो सकता है?’॥ इस तरह च ाम पड़े होनेपर भी ीरघुनाथजी यु लम सतत सावधान रहे। उ ने रावणक छातीपर बाण क झड़ी लगा दी॥ ६२ ॥ तब रथपर बैठे ए रा सराज रावणने भी कु पत होकर रणभू मम ीरामको गदा और मूसल क वषासे पी ड़त करना आर कया॥ ६३ ॥ उस महायु ने बड़ा भयंकर प धारण कया। उसे देखते ही र गटे खड़े हो जाते थे। वह यु कभी आकाशम, कभी भूतलपर और कभी-कभी पवतके शखरपर होता था॥ ६४ ॥ देवता, दानव, य , पशाच, नाग और रा स के देखते-देखते वह महान् सं ाम सारी रात चलता रहा॥ ीराम और रावणका वह यु न रातम बंद होता था और न दनम। दो घड़ी अथवा एक णके लये भी उसका वराम नह आ॥ ६६ ॥ एक ओर दशरथकु मार ीराम थे और दूसरी ओर रा सराज रावण। उन दोन मसे ीरघुनाथजीक यु म वजय होती न देख देवराजके सार थ महा ा मात लने यु परायण ीरामसे शी तापूवक कहा—॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ सातवाँ सग पूरा आ॥ १०७ ॥ रथक कलशीपरका वह बाँस जसम लड़ा◌इके रथ क जाएँ लगायी जाती थ । कु छ व ान ने रथश का अथ —रथक अ तु साम कया है। वैसा अथ माननेपर यह भाव नकलता है क रथके अ तु भावका अनुभव करके वे बाण जतक न प ँ चकर पृ ीपर ही गर पड़े। * ‘गगनं गगनाकारं’से ‘रामरावणयो रव’ तकके ोकम अन याल ार है। जहाँ एक ही व ु उपमान और उपमेय पसे कही जाय, दूसरी को◌इ उपमा न मल सके , वहाँ अन याल ार होता है। *



एक सौ आठवाँ सग ीरामके ारा रावणका वध



मात लने ीरघुनाथजीको कु छ याद दलाते ए कहा—‘वीरवर! आप अनजानक तरह इस रा सका अनुसरण कर रहे ह? (यह जो अ चलाता है, उसके नवारण करनेवाले अ का योगमा करके रह जाते ह)॥ १ ॥ ‘ भो! आप इसके वधके लये ाजीके अ का योग क जये। देवता ने इसके वनाशका जो समय बताया है, वह अब आ प ँ चा है’॥ २ ॥ मात लके इस वा से ीरामच जीको उस अ का रण हो आया। फर तो उ ने फु फकारते ए सपके समान एक तेज ी बाण हाथम लया॥ ३ ॥ यह वही बाण था, जसे पहले श शाली भगवान् अग ऋ षने रघुनाथजीको दया था। वह वशाल बाण ाजीका दया आ था और यु म अमोघ था॥ अ मत तेज ी ाजीने पहले इ के लये उस बाणका नमाण कया था और तीन लोक पर वजय पानेक इ ा रखनेवाले देवे को ही पूवकालम अ पत कया था॥ ५ ॥ उस बाणके वेगम वायुक , धारम अ और सूयक , शरीरम आकाशक तथा भारीपनम मे और म राचलक त ा क गयी थी॥ ६ ॥ वह स ूण भूत के तेजसे बनाया गया था। उससे सूयके समान ो त नकलती रहती थी। वह सुवणसे भू षत, सु र पंखसे यु , पसे जा मान, लयकालक धूमयु अ के समान भयंकर, दी मान्, वषधर सपके समान वषैला, मनु , हाथी और घोड़ को वदीण कर डालनेवाला तथा शी तापूवक ल का भेदन करनेवाला था॥ ७-८ ॥ बड़े-बड़े दरवाज , प रघ तथा पवत को भी तोड़-फोड़ देनेक उसम श थी। उसका सारा शरीर नाना कारके र म नहाया और चब से प रपु आ था। देखनेम भी वह बड़ा भयंकर था। व के समान कठोर, महान् श से यु , अनेकानेक यु म श ुसेनाको वदीण करनेवाला, सबको ास देनेवाला तथा फु फकारते ए सपके समान भयंकर था। यु म वह यमराजका भयावह प धारण कर लेता था। समरभू मम कौए, गीध, बगुले, गीदड़ तथा पशाच को वह सदा भ दान करता था॥ ९—११ ॥



वह सायक वानर-यूथप तय को आन देनेवाला तथा रा स को दु:खम डालनेवाला था। ग ड़के सु र व च और नाना कारके पंख लगाकर वह पंखयु बना आ था॥ १२ ॥ वह उ म बाण सम लोक तथा इ ाकु वं शय के भयका नाशक था, श ु क क तका अपहरण तथा अपने हषक वृ करनेवाला था। उस महान् सायकको वेदो व धसे अ भम त करके महाबली ीरामने अपने धनुषपर रखा॥ १३-१४ ॥ ीरघुनाथजी जब उस उ म बाणका संधान करने लगे, तब स ूण ाणी थरा उठे और धरती डोलने लगी॥ १५ ॥ ीरामने अ कु पत हो बड़े य के साथ धनुषको पूण पसे ख चकर उस ममभेदी बाणको रावणपर चला दया॥ १६ ॥ व धारी इ के हाथ से छू टे ए व के समान दुधष और कालके समान अ नवाय वह बाण रावणक छातीपर जा लगा॥ १७ ॥ शरीरका अ कर देनेवाले उस महान् वेगशाली े बाणने छू टते ही दुरा ा रावणके दयको वदीण कर डाला॥ १८ ॥ शरीरका अ करके रावणके ाण हर लेनेवाला वह बाण उसके खूनसे रँगकर वेगपूवक धरतीम समा गया॥ इस कार रावणका वध करके खूनसे रँगा आ वह शोभाशाली बाण अपना काम पूरा करनेके प ात् पुन: वनीत सेवकक भाँ त ीरामच जीके तरकसम लौट आया॥ २० ॥ ीरामके बाण क चोट खाकर रावण जीवनसे हाथ धो बैठा। उसके ाण नकलनेके साथ ही हाथसे सायकस हत धनुष भी छू टकर गर पड़ा॥ २१ ॥ वह भयानक वेगशाली महातेज ी रा सराज ाणहीन हो व के मारे ए वृ ासुरक भाँ त रथसे पृ ीपर गर पड़ा॥ २२ ॥ रावणको पृ ीपर पड़ा देख मरनेसे बचे ए स ूण नशाचर ामीके मारे जानेसे भयभीत हो सब ओर भाग गये॥ २३ ॥ दशमुख रावणका वध आ देख वजयसे सुशो भत होनेवाले वानर, जो वृ ारा यु करनेवाले थे, गजना करते ए उन रा स पर टूट पड़े॥ २४ ॥



उन हष ा सत वानर ारा पी ड़त कये जानेपर वे रा स भयके मारे ल ापुरीक ओर भाग गये; क उनका आ य न हो गया था। उनके मुखपर क णायु आँ सु क धारा बह रही थी॥ २५ ॥ उस समय वानर वजय-ल ीसे सुशो भत हो अ हष और उ ाहसे भर गये तथा ीरघुनाथजीक वजय और रावणके वधक घोषणा करते ए जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ २६ ॥ इसी समय आकाशम मधुर रसे देवता क दु ु भयाँ बजने लग । वायु द सुग बखेरती ◌इ म -म ग तसे वा हत होने लगी॥ २७ ॥ अ र से भूतलपर ीरघुनाथजीके रथके ऊपर फू ल क वषा होने लगी, जो दुलभ तथा मनोहर थी॥ आकाशम महामना देवता के मुखसे नकली ◌इ ीरामच जीक ु तसे यु साधुवादक े वाणी सुनायी देने लगी॥ २९ ॥ स ूण लोक को भय देनेवाले रौ रा स रावणके मारे जानेपर देवता और चारण को महान् हष आ॥ ३० ॥ ीरघुनाथजीने रा सराजको मारकर सु ीव, अ द तथा वभीषणको सफलमनोरथ कया और यं भी उ बड़ी स ता ◌इ॥ ३१ ॥ त ात् देवता को बड़ी शा मली, स ूण दशाएँ स हो गय —उनम काश छा गया, आकाश नमल हो गया, पृ ीका काँपना बंद आ, हवा ाभा वक ग तसे चलने लगी तथा सूयक भा भी र हो गयी॥ ३२ ॥ सु ीव, वभीषण, अ द तथा ल ण अपने सु द के साथ यु म ीरामच जीक वजयसे ब त स ए। इसके बाद उन सबने मलकर नयना भराम ीरामक व धवत् पूजा क ॥ ३३ ॥ श ुको मारकर अपनी त ा पूण करनेके प ात् जन स हत सेनासे घरे ए महातेज ी रघुकुलराजकु मार ीराम रणभू मम देवता से घरे ए इ क भाँ त शोभा पाने लगे॥ ३४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ आठवाँ सग पूरा आ॥ १०८ ॥



एक सौ नवाँ सग वभीषणका वलाप और ीरामका उ समझाकर रावणके अ आदेश देना



े -सं



ारके लये



परा जत ए भा◌इको मरकर रणभू मम पड़ा देख वभीषणका दय शोकके वेगसे ाकु ल हो गया और वे वलाप करने लगे—॥ १ ॥ ‘हा व ात परा मी वीर भा◌इ दशानन! हा कायकु शल नी त ! तुम तो सदा ब मू बछौन पर सोया करते थे, आज इस तरह मारे जाकर भू मपर पड़े हो?॥ ‘हे वीर! तु ारी ये बाजूबंदसे वभू षत दोन वशाल भुजाएँ न े हो गयी ह। तुम इ फै लाकर पड़े ए हो? तु ारे माथेका मुकुट जो सूयके समान तेज ी है, यहाँ फ का पड़ा है॥ ३ ॥ ‘वीरवर! आज तु ारे ऊपर वही संकट आकर पड़ा है, जसके लये मने तु पहलेसे ही आगाह कर दया था; कतु उस समय काम और मोहके वशीभूत होनेके कारण तु मेरी बात नह ची थ ॥ ४ ॥ ‘अह ारके कारण न तो ह ने, न इ ज े, न दूसरे लोग ने, न अ तरथी कु कणने, न अ तकायने, न नरा कने और न यं तुमने ही मेरी बात को अ धक मह दया था, उसीका फल यह सामने आया है॥ ‘आज श धा रय म े इस वीर रावणके धराशायी होनेसे सु र नी तपर चलनेवाले लोग क मयादा टूट गयी’ धमका मू तमान् व ह चला गया, स (बल)-के सं हका ान न हो गया, सु र हाथ चलानेवाले वीर का सहारा चला गया, सूय पृ ीपर गर पड़ा, च मा अँधेरेम डू ब गया, लत आग बुझ गयी और सारा उ ाह नरथक हो गया॥ ६-७ ॥ ‘रणभू मक धूलम रा स शरोम ण रावणके सो जानेसे इस लोकका आधार और बल समा हो गया। अब यहाँ ा शेष रह गया?॥ ८ ॥ ‘हाय! धैय ही जसके प े थे, हठ ही सु र फू ल था, तप ा ही बल और शौय ही मूल था, उस रा सराज रावण पी महान् वृ को आज रणभू मम ीराघवे पी च वायुने र द डाला!॥ ९ ॥



‘तेज ही



जसके दाँत थे, वंशपर रा ही पृ भाग थी, ोध ही नीचेके (पैर आ द) अ थे और साद ही शु -द था, वह रावण पी ग ह ी आज इ ाकु वंशी ीराम पी सहके ारा शरीरके वदीण कर दये जानेसे सदाके लये पृ ीपर सो गया है!॥ ‘परा म और उ ाह जसक बढ़ती ◌इ ाला के समान थे, न: ास ही धूम था और अपना बल ही ताप था, उस रा स रावण पी तापी अ को इस समय यु लम ीराम पी मेघने बुझा दया!॥ ११ ॥ ‘रा स सै नक जसक पूँछ, ककु द ् और स ग थे, जो श ु पर वजय पानेवाला था तथा परा म और उ ाह आ द कट करनेम जो वायुके समान था, चपलता पी आँ ख तथा कानसे यु वह रा सराज रावण पी साँड़ महाराज ीराम पी ा ारा मारा जाकर न हो गया!’॥ १२ ॥ जससे अथ न य कट हो रहा था, ऐसी यु संगत बात कहते ए शोकम वभीषणसे उस समय भगवान् ीरामने कहा—॥ १३ ॥ ‘ वभीषण! यह रावण समरा णम असमथ होकर नह मारा गया है। इसने च परा म कट कया है, इसका उ ाह ब त बढ़ा आ था। इसे मृ ुसे को◌इ भय नह था। यह दैवात् रणभू मम धराशायी आ है॥ १४ ॥ ‘जो लोग अपने अ ुदयक इ ासे यधमम त हो समरा णम मारे जाते ह, इस तरह न होनेवाले लोग के वषयम शोक नह करना चा हये॥ ‘ जस बु मान् वीरने इ स हत तीन लोक को यु म भयभीत कर रखा था, वही य द इस समय कालके अधीन हो गया तो उसके लये शोक करनेका अवसर नह है॥ १६ ॥ ‘यु म कसीको सदा वजय-ही- वजय मले, ऐसा पहले भी कभी नह आ है। वीर पु ष सं ामम या तो श ु ारा मारा जाता है या यं ही श ु को मार गराता है॥ १७ ॥ ‘आज रावणको जो ग त ा ◌इ है, यह पूवकालके महापु ष ारा बतायी गयी उ म ग त है। ा -वृ का आ य लेनेवाले वीर के लये तो यह बड़े आदरक व ु है। यवृ से रहनेवाला वीर पु ष य द यु म मारा गया हो तो वह शोकके यो नह है; यही शा का स ा है॥ १८ ॥ ‘शा के इस न यपर वचार करके सा ्वक बु का आ य ले तुम न हो जाओ और अब आगे जो कु छ ( ेत-सं ार आ द) काय करना हो, उसके स म वचार करो’॥ १९







परम परा मी राजकु मार ीरामके ऐसा कहनेपर शोकसंत ए वभीषणने उनसे अपने भा◌इके लये हतकर बात कही—॥ २० ॥ ‘भगवन्! पूवकालम यु के अवसर पर सम देवता तथा इ ने भी जसे कभी पीछे नह हटाया था, वही रावण आज रणभू मम आपसे ट र लेकर उसी तरह शा हो गया, जैसे समु अपनी तटभू- मतक जाकर शा हो जाता है॥ २१ ॥ ‘इसने याचक को दान दये, भोग भोगे और भृ का भरण-पोषण कया है। म को धन अ पत कये और श ु से वैरका बदला लया॥ २२ ॥ ‘यह रावण अ हो ी, महातप ी, वेदा वे ा तथा य -यागा द कम म े शूर—परम कमठ रहा है। अब यह ेतभावको ा आ है, अत: अब म ही आपक कृ पासे इसका ेतकृ करना चाहता ँ ’॥ वभीषणके क णाजनक वचन ारा अ ी तरह समझाये जानेपर उदारचेता राजकु मार महा ा ीरामने उ रावणके लये गा द उ म लोक क ा करानेवाला अ े -कम करनेक आ ा दी॥ २४ ॥ वे बोले—‘ वभीषण! वैर जीवन-कालतक ही रहता है। मरनेके बाद उस वैरका अ हो जाता है। अब हमारा योजन स हो चुका है, अत: अब तुम इसका सं ार करो। इस समय यह जैसे तु ारे ेहका पा है, उसी तरह मेरा भी ेहभाजन है’॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ नवाँ सग पूरा आ॥ १०९ ॥



एक सौ दसवाँ सग रावणक



य का वलाप



महा ा ीरघुनाथजीके ारा रावणके मारे जानेका समाचार सुनकर शोकसे ाकु ल ◌इ रा सयाँ अ :पुरसे नकल पड़ ॥ १ ॥ लोग के बार ार मना करनेपर भी वे धरतीक धूलम लोटने लगती थ । उनके के श खुले ए थे और जनके बछड़े मर गये ह , उन गौ के समान वे शोकसे आतुर हो रही थ ॥ २ ॥ रा स के साथ ल ाके उ र दरवाजेसे नकलकर भयंकर यु भू मम वेश करके वे अपने मरे ए प तको खोजने लग ॥ ३ ॥ ‘हा आयपु ! हा नाथ!’ क पुकार मचाती ◌इ वे सब-क -सब उस रणभू मम जहाँ बना म कके लाश बछी ◌इ थ तथा र क क च जम गयी थी, सब ओर गरती-पड़ती भटकने लग ॥ ४ ॥ उनके ने से आँ सु क धारा बह रही थी। वे प तके शोकसे बेसुध हो यूथप तके मारे जानेपर ह थ नय क तरह क ण- न कर रही थ ॥ ५ ॥ उ ने महाकाय, महापरा मी और महातेज ी रावणको देखा, जो काले कोयलेके ढेरसा पृ ीपर मरा पड़ा था॥ ६ ॥ रणभू मक धूलम पड़े ए अपने मृतक प तपर सहसा पड़ते ही वे कटी ◌इ वनक लता के समान उसके अ पर गर पड़ ॥ ७ ॥ उनमसे को◌इ तो बड़े आदरके साथ उसका आ ल न करके , को◌इ पैर पकड़कर और को◌इ गलेसे लगकर रोने लग ॥ ८ ॥ को◌इ ी अपनी दोन भुजाएँ ऊपर उठा पछाड़ खाकर गरी और धरतीपर लोटने लगी तथा को◌इ मरे ए ामीका मुख देखकर मू त हो गयी॥ ९ ॥ को◌इ प तका म क गोदम लेकर उसका मुँह नहारती और ओसकण से कमलक भाँ त अ ु ब अु ◌ से प तके मुखार व को नहलाती ◌इ रोदन करने लगी॥ १० ॥ इस कार अपने प तदेवता रावणको धरतीपर मरकर गरा देख वे सब-क -सब आतभावसे उसे पुकारने लग और शोकके कारण नाना कारसे वलाप करने लग ॥ ११ ॥



वे बोल —‘हाय! ज ने यमराज और इ को भी भयभीत कर रखा था, राजा धराज कु बेरका पु क वमान छीन लया था तथा ग व , ऋ षय और महामन ी देवता को भी रणभू मम भय दान कया था, वे ही हमारे ाणनाथ आज इस समरा णम मारे जाकर सदाके लये सो गये ह॥ १२-१३ ॥ ‘हाय! जो असुर , देवता तथा नाग से भी भयभीत होना नह जानते थे, उ को आज मनु से यह भय ा हो गया॥ १४ ॥ ‘ ज देवता, दानव और रा स भी नह मार सकते थे, वे ही आज एक पैदल मनु के हाथसे मारे जाकर रणभू मम सो रहे ह॥ १५ ॥ ‘जो देवता , असुर तथा य के लये भी अव थे, वे ही कसी नबल ाणीके समान एक मनु के हाथसे मृ ुको ा ए’॥ १६ ॥ इस तरहक बात कहती ◌इ रावणक वे दु: खनी याँ वहाँ फू ट-फू टकर रोने लग तथा दु:खसे आतुर होकर पुन: बार ार वलाप करने लग ॥ १७ ॥ वे बोल —‘ ाणनाथ! आपने सदा हतक बात बतानेवाले सु द क बात अनसुनी कर द और अपनी मृ ुके लये सीताका अपहरण कया। इसका फल यह आ क ये रा स मार गराये गये तथा आपने इस समय अपनेको रणभू मम और हमलोग को महान् दु:खके समु म गरा दया॥ १८ ॥ ‘आपके य भा◌इ वभीषण आपको हतक बात बता रहे थे तो भी आपने अपने वधके लये उ मोहवश कटु वचन सुनाये। उसीका यह फल दखायी दया है॥ १९ ॥ ‘य द आपने म थलेशकु मारी सीताको ीरामके पास लौटा दया होता तो जड़मूलस हत हमारा वनाश करनेवाला यह महाघोर संकट हमपर न आता॥ २० ॥ ‘सीताको लौटा देनेपर आपके भा◌इ वभीषणका भी मनोरथ सफल हो जाता, ीराम हमारे म -प म आ जाते, हम सबको वधवा नह होना पड़ता और हमारे श ु क कामनाएँ पूरी नह होत ॥ २१ ॥ ‘परंतु आप ऐसे न ु र नकले क सीताको बलपूवक कै द कर लया तथा रा स को, हम य को और अपने-आपको—तीन को भी एक साथ नीचे गरा दया— वप म डाल दया॥ २२ ॥



‘रा



स शरोमणे! आपका े ाचार ही हमारे वनाशम कारण आ हो, ऐसी बात नह है। दैव ही सब कु छ कराता है। दैवका मारा आ ही मारा जाता या मरता है॥ २३ ॥ ‘महाबाहो! इस यु म वानर का, रा स का और आपका भी वनाश दैवयोगसे ही आ है॥ २४ ॥ ‘संसारम फल देनेके लये उ ुख ए दैवके वधानको को◌इ धनसे, कामनासे, परा मसे, आ ासे अथवा श से भी नह पलट सकता’॥ २५ ॥ इस कार रा सराजक सभी याँ दु:खसे पी ड़त हो आँ ख म आँ सू भरकर दीनभावसे कु ररीक भाँ त वलाप करने लग ॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ दसवाँ सग पूरा आ॥ ११० ॥



एक सौ



ारहवाँ सग



म ोदरीका वलाप तथा रावणके शवका दाहसं



ार



उस समय वलाप करती ◌इ उन रा सय म जो रावणक े एवं ारी प ी म ोदरी थी, उसने अ च कमा भगवान् ीरामके ारा मारे गये अपने प त दशमुख रावणको देखा। प तको उस अव ाम देखकर वह वहाँ अ दीन एवं दु:खी हो गयी और इस कार वलाप करने लगी—॥ १-२ ॥ ‘महाराज कु बेरके छोटे भा◌इ! महाबा रा सराज! जब आप ोध करते थे, उस समय इ भी आपके सामने खड़े होनेम भय खाते थे॥ ३ ॥ ‘बड़े-बड़े ऋ ष, यश ी ग व और चारण भी आपके डरसे चार दशा म भाग गये थे॥ ४॥ ‘वही आप आज यु म एक मानवमा रामसे परा हो गये। राजन्! ा आपको इससे ल ा नह आती है? रा से र! बो लये तो सही, यह ा बात है?॥ ‘आपने तीन लोक को जीतकर अपनेको स शाली और परा मी बनाया था। आपके वेगको सह लेना कसीके लये स व नह था; फर आप-जैसे वीरको एक वनवासी मनु ने कै से मार डाला?॥ ६ ॥ ‘आप ऐसे देशम वचरते थे, जहाँ मनु क प ँ च नह हो सकती थी। आप इ ानुसार प धारण करनेम समथ थे तो भी यु म रामके हाथसे आपका वनाश आ; यह स व अथवा व ासके यो नह जान पड़ता॥ ‘यु के मुहानेपर सब ओरसे वजय पानेवाले आपक ीरामके ारा जो पराजय ◌इ, यह ीरामका काम है—ऐसा मुझे व ास नह होता (जब क आप उ नरा मनु समझते रहे)॥ ८ ॥ ‘अथवा सा ात् काल ही अत कत माया रचकर आपके वनाशके लये ीरामके पम यहाँ आ प ँ चा था॥ ९ ॥ ‘महाबली वीर! अथवा यह भी स व है क सा ात् इ ने आपपर आ मण कया हो; परंतु इ क ा श है जो यु म वे आपक ओर आँ ख उठाकर देख भी सक; क आप



महाबली, महापरा मी और महातेज ी देवश ु थे॥ १० १/२ ॥ ‘ न य ही ये ीरामच जी महान् योगी एवं सनातन परमा ा ह। इनका आ द, म और अ नह है। ये महा े भी महान्, अ ाना कारसे परे तथा सबको धारण करनेवाले परमे र ह, जो अपने हाथम श , च और गदा धारण करते ह, जनके व : लम ीव का च है, भगवती ल ी जनका कभी साथ नह छोड़त , ज परा करना सवथा अस व है तथा जो न र एवं स ूण लोक के अधी र ह, उन स परा मी भगवान् व ुने ही सम लोक का हत करनेक इ ासे मनु का प धारण करके वानर पम कट ए स ूण देवता के साथ आकर रा स स हत आपका वध कया है; क आप देवता के श ु और सम संसारके लये भयंकर थे॥ ११—१४ १/२ ॥ ‘नाथ! पहले आपने अपनी इ य को जीतकर ही तीन लोक पर वजय पायी थी, उस वैरको याद रखती ◌इ-सी इ य ने ही अब आपको परा कया है॥ ‘जब मने सुना क जन ानम ब तेरे रा स से घरे होनेपर भी आपके भा◌इ खरको ीरामने मार डाला है, तभी मुझे व ास हो गया क ीरामच जी को◌इ साधारण मनु नह ह॥ १६ १/२ ॥ ‘ जस ल ा नगरीम देवता का भी वेश होना क ठन था, वह जब हनुमा ी बलपूवक घुस आये, उसी समय हमलोग भावी अ न क आश ासे थत हो उठी थ ॥ १७ १/२ ॥ ‘मने बार ार कहा— ाणनाथ! आप रघुनाथजीसे वैर- वरोध न क जये; परंतु आपने मेरी बात नह मानी। उसीका आज यह फल मला है॥ १८ १/२ ॥ ‘रा सराज! आपने अपने ऐ यका, शरीरका तथा जन का वनाश करनेके लये ही अक ात् सीताक कामना क थी॥ १९ १/२ ॥ ‘दुमते! भगवती सीता अ ती और रो हणीसे भी बढ़कर प त ता ह। वे वसुधाक भी वसुधा और ीक भी ी ह। अपने ामीके त अन अनुराग रखनेवाली और सबक पूजनीया उन सीतादेवीका तर ार करके आपने बड़ा अनु चत काय कया था॥ ‘मेरे ाणनाथ! सवा सु री शुभल णा सीता नजन वनम नवास करती थ । आप छलसे उ दु:खम डालकर यहाँ हर लाये। यह आपके लये बड़े कल क बात ◌इ। म थलेशकु मारीके साथ समागमके लये जो आपके मनम कामना थी, उसे तो आप पा नह



सके , उलटे उन प त ता देवीक तप ासे जलकर भ हो गये। अव ऐसी ही बात ◌इ है॥ २२-२३ ॥ ‘त ी सीताका अपहरण करते समय ही आप जलकर राख नह हो गये—यही आ यक बात है। आपक जस म हमासे इ और अ आ द स ूण देवता आपसे डरते थे, उसीने उस समय आपको द नह होने दया॥ २४ ॥ ‘ ाणव भ! इसम को◌इ संदेह नह क समय आनेपर कताको उसके पाप-कमका फल अव मलता है॥ २५ ॥ ‘शुभकम करनेवालेको उ म फलक ा होती है और पापीको पापका फल—दु:ख भोगना पड़ता है। वभीषणको अपने शुभ कम के कारण ही सुख ा आ है और आपको ऐसा दु:ख भोगना पड़ा है॥ २६ ॥ ‘आपके घरम सीतादेवीसे भी अ धक सु र पवाली दूसरी युव तयाँ मौजूद ह; परंतु आप कामके वशीभूत हो मोहवश इस बातको समझ नह पाते थे॥ ‘ म थलेशकु मारी सीता न तो कु लम, न पम और न दा आ द गुण म ही मुझसे बढ़कर ह। वे मेरे बराबर भी नह ह; परंतु आप मोहवश इस बातक ओर नह ान देते थे॥ २८ ॥ ‘संसारम



कभी कसी भी ाणीक मृ ु अकारण नह होती है। इस नयमके अनुसार म थलेशकु मारी सीता आपक मृ ुका कारण बन गय ॥ २९ ॥ ‘आपने सीताके कारण होनेवाली मृ ुको यं ही दूरसे बुला लया। म थलेशन नी सीता अब शोकर हत हो ीरामके साथ वहार करगी; परंतु मेरा पु ब त थोड़ा था, इस लये वह ज ी समा हो गया और म शोकके घोर समु म गर पड़ी॥ ३० १/२ ॥ ‘वीर! जो म व च व ाभूषण धारण करके अनुपम शोभासे स हो मनके अनु प वमान ारा आपके साथ कै लास, म राचल, मे पवत, चै रथवन तथा स ूण देवो ान म वहार करती ◌इ नाना कारके देश को देखती फरती थी, वही म आज आपका वध हो जानेसे सम कामभोग से व त हो गयी॥ ३१—३३ ॥ ‘म वही रानी म ोदरी ँ , कतु आज दूसरी ीके समान हो गयी ँ । राजा क च ल राजल ीको ध ार है! हा राजन्! आपका जो सुकुमार मुखम ल सु र भ ह , मनोहर चा



और ऊँ ची ना सकासे यु था, का , शोभा और तेजके ारा जो मश: च मा, सूय और कमलको ल त करता था, करीट के समूह जसे जगमग बनाये रहते थे, जसके अधर ताँबेके समान लाल थे, जसम दी मान् कु ल दमकते रहते थे, पान-भू मम जसके ने नशेसे ाकु ल और च ल देखे जाते थे, जो नाना कारके गजरे धारण करता था, मनोहर और सु र था तथा मुसकराकर मीठी-मीठी बात कया करता था, वही आपका मुखार व आज शोभा नह पा रहा है। भो! वह ीरामके सायक से वदीण हो खूनक धारासे रँग गया है। इसका मेदा और म छ - भ हो गया है तथा रथक धूल से इसम ता आ गयी है॥ ३४— ३७ १/२ ॥ ‘हाय! मुझ म भा गनीने कभी जसके वषयम सोचातक नह था, वही मुझे वैध का दु:ख दान करनेवाली अ म अव ा (मृ )ु आपको ा हो गयी॥ ३८ १/२ ॥ ‘दानवराज मय मेरे पता, रा सराज रावण मेरे प त और इ पर भी वजय ा करनेवाला इ जत् मेरा पु है—यह सोचकर म अ गवसे भरी रहती थी॥ ‘मेरी यह ढ़ धारणा बनी ◌इ थी क मेरे र क ऐसे लोग ह जो दपसे भरे ए श ु को मथ डालनेम समथ, ू र, व ात बल और पौ षसे स तथा कसीसे भी भयभीत नह होनेवाले ह॥ ४० १/२ ॥ ‘रा स शरोम णयो! ऐसे भावशाली तुमलोग को यह मनु से अ ात भय कस कार ा आ?॥ ‘जो चकने इ नील-म णके समान ाम, ऊँ चे शैल- शखरके समान वशाल तथा के यूर, अ द, नीलम और मो तय के हार एवं फू ल क माला से सुस त होनेके कारण अ काशमान दखायी देता था, वहार ल म अ धक का मान् तथा सं ाम-भू मय म अ तशय दी मान् तीत होता था और आभूषण क भासे जसक व ु ालाम त मेघक -सी शोभा होती थी, वही आपका शरीर आज अनेक तीखे बाण से भरा आ है; अत: य प आजसे फर इसका श मेरे लये दुलभ हो जायगा, तथा प इन बाण के कारण म इसका आ ल न नह कर पाती ँ ॥ ४२—४४ १/२ ॥ ‘राजन्! जैसे साहीक देह काँट से भरी होती है, उसी कार आपके शरीरम इतने बाण लगे ह क कह एक अंगुल भी जगह नह रह गयी है। वे सभी बाण मम- ान म धँस गये ह और उनसे शरीरका ायु-ब न छ - भ हो गया है। इस अव ाम पृ ीपर पड़ा आ आपका



यह ाम शरीर, जसपर र क अ ण छटा छा रही है, व क मारसे चूर-चूर होकर बखरे ए पवतके समान जान पड़ता है॥ ‘नाथ! यह है या स । हाय! आप ीरामके हाथसे कै से मारे गये? आप तो मृ ुक भी मृ ु थे; फर यं ही मृ ुके अधीन कै से हो गये?॥ ‘आपने तीन लोक क स का उपभोग कया और लोक के ा णय को महान् उ ेगम डाल दया था। आप लोकपाल पर भी वजय पा चुके थे। आपने कै लास-पवतके साथ ही भगवान् श रको भी उठा लया था तथा बड़े-बड़े अ भमानी वीर को यु म बंदी बनाकर अपने परा मको कट कया था॥ ४८-४९ ॥ ‘आपने सम संसारको ोभम डाला, साधु पु ष क हसा क और श ु के समीप बलपूवक अहंकारपूण बात कह ॥ ५० ॥ ‘भयानक परा म करनेवाले वप य को मारकर अपने प के लोग और सेवक क र ा क । दानव के सरदार और हजार य को भी मौतके घाट उतारा॥ ५१ ॥ ‘आपने समरा णम नवातकवच नामक दानव का भी दमन कया, ब त-से य न कर डाले तथा आ ीय जन क सदा ही र ा क ॥ ५२ ॥ ‘आप धमक व ाको तोड़नेवाले तथा सं ामम मायाक सृ करनेवाले थे। देवता , असुर और मनु क क ा को इधर-उधरसे हर लाते थे॥ ५३ ॥ ‘आप श ुक य को शोक दान करनेवाले, जन के नेता, ल ापुरीके र क, भयानक कम करनेवाले तथा हम सब लोग को कामोपभोगका सुख देनेवाले थे। ऐसे भावशाली तथा र थय म े अपने यतम प तको ीरामच जीके ारा धराशायी कया गया देखकर भी जो म अबतक इस शरीरको धारण कर रही ँ , यतमके मारे जानेपर भी जी रही ँ —यह मेरी पाषाण दयताका प रचायक है॥ ५४-५५ १/२ ॥ ‘रा सराज! आप तो ब मू पलंग पर शयन करते थे, फर यहाँ धरतीपर धू लम लपटे ए सो रहे ह?॥ ५६ १/२ ॥ ‘जब ल णने यु म मेरे बेटे इ ज ो मारा था, उस समय मुझे गहरा आघात प ँ चा था और आज आपका वध होनेसे तो म मार ही डाली गयी॥ ५७ १/२ ॥



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ुजन से हीन, आप-जैसे ामीसे र हत तथा कामभोग से व त होकर अन वष तक शोकम ही डू बी र ँ गी॥ ५८ १/२ ॥ ‘राजन्! आज आप जस अ दुगम एवं वशाल मागपर गये ह, वह मुझ दु खयाको भी ले च लये। म आपके बना जी वत नह रह सकूँ गी॥ ‘हाय! मुझ असहायाको यह छोड़कर आप अ चले जाना चाहते ह? म दीन अभा गनी होकर आपके लये रो रही ँ । आप मुझसे बोलते नह ?॥ ६० १/२ ॥ ‘ भो! आज मेरे मुँहपर घूँघट नह है। म नगर ार से पैदल ही चलकर यहाँ आयी ँ । इस दशाम मुझे देखकर आप ोध नह करते ह?॥ ६१ १/२ ॥ ‘आप अपनी य से बड़ा ेम करते थे। आज आपक सभी याँ लाज छोड़कर, परदा हटाकर बाहर नकल आयी ह। इ देखकर आपको ोध नह होता?॥ ६२ १/२ ॥ ‘नाथ! आपक डासहचरी यह म ोदरी आज अनाथ होकर वलाप कर रही है। आप इसे आ ासन नह देते अथवा अ धक आदर नह करते?॥ ‘राजन्! आपने ब त-सी कु लललना को, जो गु जन क सेवाम लगी रहनेवाली, धमपरायणा तथा प त ता थ , वधवा बनाया और उनका अपमान कया था; अत: उस समय उ ने शोकसे संत होकर आपको शाप दे दया था, उसीका यह फल है क आपको श ु एवं मृ ुके अधीन होना पड़ा है॥ ६४-६५ १/२ ॥ ‘महाराज! प त ता के आँ सू इस पृ ीपर थ नह गरते, यह कहावत आपके ऊपर ाय: ठीक-ठीक घटी है॥ ६६ १/२ ॥ ‘राजन्! आप तो अपने तेजसे तीन लोक को आ ा करके अपनेको बड़ा शूरवीर मानते थे; फर भी परायी ीको चुरानेका यह नीच काम आपने कै से कया?॥ ६७ १/२ ॥ ‘मायामय मृगके बहाने ीरामको आ मसे दूर हटाया और ल णको भी अलग कया। उसके बाद आप ीरामप ी सीताको चुराकर यहाँ ले आये; यह कतनी बड़ी कायरता है॥ ६८ १/ ॥ २



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म कभी आपने कायरता दखायी हो, यह मुझे याद नह पड़ता; परंतु भा के फे रसे उस दन सीताका हरण करते समय न य ही आपम कायरता आ गयी थी, जो आपके नकट



वनाशक सूचना दे रही थी॥ ६९ १/२ ॥ ‘महाबाहो! मेरे देवर वभीषण स वादी, भूत और भ व के ाता तथा वतमानको भी समझनेम कु शल ह। उ ने हरकर लायी ◌इ म थलेशकु मारी सीताको देखकर मन-ही-मन कु छ वचार कया और अ म ल ी साँस छोड़कर कहा—अब धान- धान रा स के वनाशका समय उप त हो गया है। उनक यह बात ठीक नकली॥ ७०-७१ १/२ ॥ ‘काम और ोधसे उ आपके आस वषयक दोषके कारण यह सारा ऐ य न हो गया और जड़मूलका नाश करनेवाला यह महान् अनथ ा आ। आज आपने सम रा सकु लको अनाथ कर दया॥ ‘आप अपने बल और पु षाथके लये व ात थे, अत: आपके लये शोक करना मेरे लये उ चत नह है, तथा प ी भावके कारण मेरे दयम दीनता आ गयी है॥ ७४ ॥ ‘आप अपना पु और पाप साथ लेकर अपनी वीरो चत ग तको ा ए ह। आपके वनाशसे म महान् दु:खम पड़ गयी ँ ; इस लये बार ार अपने ही लये शोक करती ँ ॥ ७५ ॥ ‘महाराज दशानन! हत चाहनेवाले सु द तथा ब ु ने जो आपसे स ूणत: हतक बात कही थ , उ आपने अनसुनी कर दया॥ ७६ ॥ ‘ वभीषणका कथन भी यु और योजनसे पूण था। व धपूवक आपके सामने ुत कया गया था। वह क ाणकारी तो था ही, ब त ही सौ भाषाम कहा गया था; कतु उस यु यु बातको भी आपने नह माना॥ ७७ ॥ ‘आप अपने बलके घमंडम मतवाले हो रहे थे; अत: मारीच, कु कण तथा मेरे पताक कही ◌इ बात भी आपने नह मानी। उसीका यह ऐसा फल आपको ा आ है॥ ७८ ॥ ‘ ाणनाथ! आपका नील मेघके समान ाम वण है। आप शरीरपर पीत व और बाँह म सु र बाजूबंद धारण करनेवाले ह। आज खूनसे लथपथ हो अपने शरीरको सब ओर छतराकर यहाँ सो रहे ह?॥ ‘म शोकसे पी ड़त हो रही ँ और आप गहरी न दम सोये ए पु षक भाँ त मेरी बातका जवाब नह दे रहे ह। नाथ! ऐसा हो रहा है?॥ ७९ १/२ ॥ ‘म महान् परा मी, यु कु शल और समरभू मसे पीछे न हटनेवाले सुमाली नामक रा सक दौ ह ी (न तनी) ँ । आप मुझसे बोलते नह ह॥ ८० १/२ ॥



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सराज! उ ठये, उ ठये। ीरामके ारा आपका नूतन पराभव कया गया है तो भी आप सो कै से रहे ह? आज ही ये सूयक करण ल ाम नभय होकर व ◌इ ह॥ ८१ १/२ ॥ ‘वीरवर! आप समरभू मम जस सूयतु तेज ी प रघके ारा श ु का संहार कया करते थे, व धारी इ के व क भाँ त जो सदा आपके ारा पू जत आ था, रणभू मम ब सं क श ु के ाण लेनेवाला था और जसे सोनेक जालीसे वभू षत कया गया था, आपका वह प रघ ीरामके बाण से सह टुकड़ म वभ होकर इधर-उधर बखरा पड़ा है॥ ८२-८३ १/२ ॥ ‘ ाणनाथ! आप अपनी ारी प ीक भाँ त रणभू मका आ ल न करके सो रहे ह और कस कारणसे मुझे अ य-सी मानकर मुझसे बोलनातक नह चाहते ह?॥ ८४ १/२ ॥ ‘आपक मृ ु हो जानेपर भी मेरे शोकपी ड़त दयके हजार टुकड़े नह हो जाते; अत: मुझ पाषाण दया नारीको ध ार है’॥ ८५ १/२ ॥ इस कार वलाप करती ◌इ म ोदरीके ने म आँ सू भरे ए थे। उसका दय ेहसे वीभूत हो रहा था। वह रोती-रोती सहसा मू त हो गयी और उसी अव ाम रावणक छातीपर गर पड़ी। रावणके व : लपर म ोदरीक वैसी ही शोभा हो रही थी, जैसे सं ाक लालीसे रँगे ए बादलम दी मती व ुत् चमक रही हो॥ ८६-८७ १/२ ॥ उसक सौत भी शोकसे अ आतुर हो रही थ , उ ने उसे उस अव ाम देखकर उठाया और यं भी रोते-रोते जोर-जोरसे वलाप करती ◌इ म ोदरीको धीरज बँधाया॥ ८८ १/ ॥ २



वे बोल —‘महारानी! ा आप नह जानत क संसारका प अ र है। दशा बदल जानेपर राजा क ल ी र नह रहती’॥ ८९ १/२ ॥ उनके ऐसा कहनेपर म ोदरी फू ट-फू टकर रोने लगी। उस समय उसके दोन न और उ ल मुख आँ सु से नहा उठे थे॥ ९० १/२ ॥ इसी समय ीरामच जीने वभीषणसे कहा— ‘इन य को धैय बँधाओ और अपने भा◌इका दाहसं ार करो’॥ ९१ १/२ ॥ यह सुनकर बु मान् वभीषणने ( ीरामका अ भ ाय जाननेके उ े से) बु से सोचवचारकर उनसे यह धम और अथसे यु वनयपूण तथा हतकर बात कही—॥ ९२ १/२ ॥



‘भगवन्!



जसने धम और सदाचारका ाग कर दया था, जो ू र, नदयी, अस वादी तथा परायी ीका श करनेवाला था, उसका दाहसं ार करना म उ चत नह समझता ँ ॥ ९३ १/२ ॥ ‘सबके अ हतम संल रहनेवाला यह रावण भा◌इके पम मेरा श ु था। य प े होनेसे गु जनो चत गौरवके कारण वह मेरा पू था, तथा प वह मुझसे स ार पानेयो नह है॥ ९४ १/२ ॥ ‘ ीराम! मेरी यह बात सुनकर संसारके मनु मुझे ू र अव कहगे; परंतु जब रावणके दुगुण को भी सुनगे, तब सब लोग मेरे इस वचारको उ चत ही बतायगे’॥ ९५ १/२ ॥ यह सुनकर धमा ा म े ीरामच जी बड़े स ए। वे बातचीत करनेम बड़े वीण थे; अत: बात का अ भ ाय समझनेवाले वभीषणसे इस कार बोले—॥ ९६ १/२ ॥ ‘रा सराज! मुझे तु ारा भी य करना है, क तु ारे ही भावसे मेरी जीत ◌इ है। अव ही मुझे तुमसे उ चत बात कहनी चा हये; अत: सुनो॥ ‘यह नशाचर भले ही अधम और अस वादी रहा हो; परंतु सं ामम सदा ही तेज ी, बलवान् तथा शूरवीर रहा है॥ ९८ १/२ ॥ ‘सुना जाता है—इ आ द देवता भी इसे परा नह कर सके थे। सम लोक को लानेवाला रावण बल-परा मसे स तथा महामन ी था॥ ९९ १/२ ॥ ‘वैर मरनेतक ही रहता है। मरनेके बाद उसका अ हो जाता है। अब हमारा योजन भी स हो चुका है, अत: इस समय जैसे यह तु ारा भा◌इ है, वैसे ही मेरा भी है; इस लये इसका दाहसं ार करो॥ १०० १/२ ॥ ‘महाबाहो! धमके अनुसार रावण तु ारी ओरसे शी ही व धपूवक दाहसं ार ा करनेके यो है। ऐसा करनेसे तुम यशके भागी होओगे’॥ १०१ १/२ ॥ ीरामच जीके इस वचनको सुनकर वभीषण यु म मारे गये अपने भा◌इ रावणके दाहसं ारक शी तापूवक तैयारी करने लगे॥ १०२ १/२ ॥ रा सराज वभीषणने ल ापुरीम वेश करके रावणके अ हो को शी ही व धपूवक समा कया॥



इसके बाद शकट, लकड़ी, अ हो क अ याँ, य करानेवाले पुरो हत, च नका , अ व वध कारक लक ड़याँ, सुग त अगर, अ ा सु र ग यु पदाथ, म ण, मोती और मूँगा—इन सब व ु को उ ने एक कया॥ १०४-१०५ १/२ ॥ फर दो ही घड़ीम रा स से घरे ए वे शी वहाँसे चले आये। तदन र मा वा े साथ मलकर उ ने दाहसं ारक तैयारीका सारा काय पूण कया॥ भाँ त-भाँ तके वा घोष ारा ु त करनेवाले मागध ने जसका अ भन न कया था, रा सराज रावणके उस शवको रेशमी व से ढककर उसे सोनेके द वमानम रखनेके प ात् रा सजातीय ा ण वहाँ ने से आँ सू बहाते ए खड़े हो गये॥ १०७-१०८ ॥ उस श बकाको व च पताका तथा फू ल से सजाया गया था। जससे वह व च शोभा धारण करती थी। वभीषण आ द रा स उसे कं धेपर उठाकर तथा अ सब लोग हाथम सूखे काठ लये द ण दशाम शानभू मक ओर चले॥ १०९ १/२ ॥ यजुवदीय याजक ारा ढोयी जाती ◌इ वध अ याँ लत हो उठ । वे सब कु म रखी ◌इ थ और पुरो हतगण उ लेकर शवके आगे-आगे चल रहे थे॥ अ :पुरक सारी याँ रोती ◌इ तुरंत ही शवके पीछे-पीछे चल पड़ । वे सब ओर लड़खड़ाती चलती थ ॥ १११ १/२ ॥ आगे जाकर रावणके वमानको एक प व ानम रखकर अ दु:खी ए वभीषण आ द रा स ने मलय-च नका , प क, उशीर (खस) तथा अ कारके च न ारा वेदो व धसे चता बनायी और उसके ऊपर रंकु नामक मृगका चम बछाया॥ उसके ऊपर रा सराजके शवको सुलाकर उ ने उ म व धसे उसका पतृमेध (दाहसं ार) कया। उ ने चताके द ण-पूवम वेदी बनाकर उसपर यथा ान अ को ा पत कया था। फर द ध म त घीसे भरी ◌इ ुवा रावणके कं धेपर रखी। इसके बाद पैर पर शकट और जाँघ पर उलूखल रखा॥ ११४-११५ ॥ तथा का के सभी पा , अर ण, उ रार ण और मूसल आ दको भी यथा ान रख दया॥ ११६ ॥ वेदो व ध और मह षय ारा र चत क सू म बतायी गयी णालीसे वहाँ सारा काय आ। रा स ने (रा स क री तके अनुसार) मे पशुका हनन करके राजा रावणक



चतापर फै लाये ए मृगचमको घीसे तर कर दया, फर रावणके शवको च न और फू ल से अलंकृत करके वे रा स मन-ही-मन दु:खका अनुभव करने लगे॥ ११७-११८ ॥ फर वभीषणके साथ अ ा रा स ने भी चतापर नाना कारके व और लावा बखेरे। उस समय उनके मुखपर आँ सु क धारा बह चली॥ ११९ ॥ तदन र वभीषणने चताम व धके अनुसार आग लगायी। उसके बाद ान करके भीगे व पहने ए ही उ ने तल, कु श और जलके ारा व धवत् रावणको जला ल दी। त ात् रावणक य को बार ार सा ना देकर उनसे घर चलनेके लये अनुनय- वनय क ॥ १२०-१२१ ॥ ‘महलम चलो’ यह वभीषणका आदेश सुनकर वे सारी याँ नगरम चली गय । य के पुरीम वेश कर जानेपर रा सराज वभीषण ीरामच जीके पास आकर वनीतभावसे खड़े हो गये॥ १२२ ॥ ीराम भी ल ण, सु ीव तथा सम सेनाके साथ श ुका वध करके ब त स थे। ठीक उसी तरह, जैसे व धारी इ वृ ासुरको मारकर स ताका अनुभव करने लगे थे॥ १२३ ॥



तदन र इ के दये ए धनुष, बाण और वशाल कवचको ागकर तथा श ुका दमन कर देनेके कारण रोषको भी छोड़कर श ुसूदन ीरामने शा भाव धारण कर लया॥ १२४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ ारहवाँ सग पूरा आ॥ १११॥



एक सौ बारहवाँ सग वभीषणका रा



ा भषेक और ीरघुनाथजीका हनुमा ीके ारा सीताके पास संदेश भेजना



देवता, ग व और दानवगण रावण-वधका देखकर उसीक शुभ चचा करते ए अपने-अपने वमानसे यथा ान लौट गये॥ १ ॥ रावणके भयंकर वध, ीरघुनाथजीके परा म, वानर के उ म यु , सु ीवक म णा, ल ण और हनुमा ीक ीरामके त भ , उन दोन के परा म, सीताके पा त तथा हनुमा ीके पु षाथक बात कहते ए वे महाभाग देवता आ द जैसे आये थे, उसी तरह स तापूवक चले गये॥२-३ १/२ ॥ इसके बाद महाबा भगवान् ीरामने इ के दये ए द रथको, जो अ के समान देदी मान था, ले जानेक आ ा देकर मात लका बड़ा स ान कया॥ ४ १/२ ॥ तब इ सार थ मात ल ीरामच जीक आ ासे उस द रथपर बैठकर पुन: द लोकको ही चले गये॥ ५ १/२ ॥ मात लके रथस हत देवलोकको चले जानेपर र थय म े ीरामने बड़ी स ताके साथ सु ीवको दयसे लगा लया॥ ६ १/२ ॥ सु ीवका आ ल न करनेके प ात् जब उ ने ल णक ओर डाली, तब ल णने उनके चरण म णाम कया। फर वानरसै नक से स ा नत हो वे सेनाक छावनीपर लौट आये॥ ७ १/२ ॥ वहाँ आकर रघुनाथजीने अपने समीप खड़े ए बल एवं उ ी तेजसे स सु म ान न ल णसे कहा—‘सौ ! अब तुम ल ाम जाकर इन वभीषणका रा ा भषेक करो; क ये मेरे ेमी, भ तथा पहले उपकार करनेवाले ह॥ ८-९ १/२ ॥ ‘सौ ! यह मेरी बड़ी इ ा है क रावणके छोटे भा◌इ इन वभीषणको म ल ाके रा पर अ भ ष देख’ूँ ॥ महा ा ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर सु म ाकु मार ल णको बड़ी स ता ◌इ। उ ने ‘ब त अ ा’ कहकर सोनेका घड़ा हाथम लया और उसे वानरयूथ प तय के हाथम



देकर उन महान् श शाली तथा मनके समान वेगवाले वानर को समु का जल ले आनेक आ ा दी॥ ११-१२ १/२ ॥ वे मनके समान वेगशाली े वानर तुरंत ही गये और समु से जल लेकर लौट आये॥ १३ १/ ॥ २



तदन र ल णने एक घट जल लेकर उसे उ म आसनपर ा पत कर दया और उस घटके जलसे वभीषणका वेदो व धके अनुसार ल ाके राजपदपर अ भषेक कया। यह अ भषेक ीरामच जीक आ ासे आ था। उस समय रा स के बीचम सु द से घरे ए वभीषण राज सहासनपर वराजमान थे। ल णके बाद सभी रा स और वानर ने भी उनका अ भषेक कया॥ वे अ स होकर ीरामक ही ु त करने लगे। रा सराज वभीषणको ल ाके रा पर अ भ ष देख उनके म ी और ेमी रा स ब त स ए। साथ ही ल णस हत ीरघुनाथजीको भी बड़ी स ता ◌इ॥ १७-१८ ॥ ीरामच जीके दये ए उस वशाल रा को पाकर वभीषण अपनी जाको सा ना दे ीरामच जीके पास आये॥ १९ ॥ उस समय हषसे भरे ए नगर नवासी नशाचर वभीषणको अ पत करनेके लये दही, अ त, मठा◌इ, लावा और फू ल लाये॥ २० ॥ दुधष परा मी वभीषणने वे सब म लजनक मा लक व ुएँ लेकर ीराम और ल णको भट क ॥ २१ ॥ ीरघुनाथजीने वभीषणको कृ तकाय एवं सफलमनोरथ देख उनक स ताके लये ही उन सब मा लक व ु को ले लया॥ २२ ॥ त ात् उ ने हाथ जोड़कर वनीतभावसे खड़े ए पवताकार वीर वानर हनुमा ीसे कहा—॥ २३ ॥ ‘सौ ! तुम इन महाराज वभीषणक आ ा ले ल ानगरीम वेश करके म थलेशकु मारी सीतासे उनका कु शल-समाचार पूछो॥ २४ ॥ ‘साथ ही उन वदेहराजकु मारीसे सु ीव और ल णस हत मेरा कु शल-समाचार नवेदन करो। व ा म े हरी र! तुम वैदेहीको यह य समाचार सुना दो क रावण यु म मारा



गया। त ात् उनका संदेश लेकर लौट आओ’॥ २५-२६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ बारहवाँ सग पूरा आ॥ ११२ ॥



एक सौ तेरहवाँ सग हनुमा ीका सीताजीसे बातचीत करके लौटना और उनका संदेश ीरामको सुनाना



भगवान् ीरामका यह आदेश पाकर पवनपु हनुमा ीने नशाचर से स ा नत होते ए ल ापुरीम वेश कया॥ १ ॥ पुरीम वेश करके उ ने वभीषणसे आ ा माँगी। उनक आ ा मल जानेपर हनुमा ी अशोकवा टकाम गये॥ २ ॥ अशोकवा टकाम वेश करके ायानुसार उ ने सीताजीको अपने आगमनक सूचना दी। त ात् नकट जाकर उनका दशन कया। वे ान आ दसे हीन होनेके कारण कु छ म लन दखायी देती थ और सश ◌इ रो हणीके समान जान पड़ती थ ॥ ३ ॥ सीताजी आन शू हो वृ के नीचे रा सय से घरी बैठी थ । हनुमा ीने शा और वनीतभावसे सामने जाकर उ णाम कया। णाम करके वे चुपचाप खड़े हो गये॥ ४ ॥ महाबली हनुमा ो आया देख देवी सीता उ पहचानकर मन-ही-मन स ◌इं ; कतु कु छ बोल न सक । चुपचाप बैठी रह ॥ ५ ॥ सीताके मुखपर सौ भाव ल त हो रहा था। उसे देखकर क प े हनुमा े ीरामच जीक कही ◌इ सब बात को उनसे कहना आर कया—॥ ६ ॥ ‘ वदेहन न! ीरामच जी ल ण और सु ीवके साथ सकु शल ह। अपने श ुका वध करके सफलमनोरथ ए उन श ु वजयी ीरामने आपक कु शल पूछी है॥ ‘दे व! वभीषणक सहायता पाकर वानर और ल णस हत ीरामने बल- व मस रावणको यु म मार डाला है॥ ८ ॥ ‘धमको जाननेवाली दे व सीते! म आपको यह य संवाद सुनाता ँ और अ धक-सेअ धक स देखना चाहता ँ । आपके पा त -धमके भावसे ही यु म ीरामने यह महान् वजय ा क है। अब आप च ा छोड़कर हो जायँ। हमलोग का श ु रावण मारा गया और ल ा भगवान् ीरामके अधीन हो गयी॥ ९-१० ॥ ‘ ीरामने आपको यह संदेश दया है—‘दे व! मने तु ारे उ ारके लये जो त ा क थी, उसके लये न ा ागकर अथक य कया और समु म पुल बाँधकर रावणवधके ारा



उस त ाको पूण कया॥ ११ ॥ ‘अब तुम अपनेको रावणके घरम वतमान समझकर भयभीत न होना; क ल ाका सारा ऐ य वभीषणके अधीन कर दया गया है। अब तुम अपने ही घरम हो। ऐसा जानकर न होकर धैय धारण करो। दे व! ये वभीषण भी हषसे भरकर आपके दशनके लये उ त हो अभी यहाँ आ रहे ह’॥ १२-१३ ॥ हनुमा ीके इस कार कहनेपर च मुखी सीतादेवीको बड़ा हष आ। हषसे उनका गला भर आया और वे कु छ बोल न सक ॥ १४ ॥ सीताजीको मौन देख क पवर हनुमा ी बोले— ‘दे व! आप ा सोच रही ह? मुझसे बोलती नह ’॥ १५ ॥ हनुमा ीके इस कार पूछनेपर धमपरायणा सीतादेवी अ स हो आन के आँ सू बहाती ◌इ ग द वाणीम बोल —॥ १६ ॥ ‘अपने ामीक वजयसे स रखनेवाला यह य संवाद सुनकर म आन वभोर हो गयी थी; इस लये कु छ देरतक मेरे मुँहसे बात नह नकल सक है॥ १७ ॥ ‘वानरवीर! ऐसा य समाचार सुनानेके कारण म तु कु छ पुर ार देना चाहती ँ ; कतु ब त सोचनेपर भी मुझे इसके यो को◌इ व ु दखायी नह देती॥ १८ ॥ ‘सौ वानरवीर! इस भूम लम म को◌इ ऐसी व ु नह देखती, जो इस य संवादके अनु प हो और जसे तु देकर म संतु हो सकूँ ॥ १९ ॥ ‘सोना, चाँदी, नाना कारके र अथवा तीन लोक का रा भी इस य समाचारक बराबरी नह कर सकता’॥ २० ॥ वदेहन नीके ऐसा कहनेपर वानरवीर हनुमा ीको बड़ा हष आ। वे सीताजीके सामने हाथ जोड़कर खड़े हो गये और इस कार बोले—॥ २१ ॥ ‘प तक वजय चाहनेवाली और प तके ही य एवं हतम सदा संल रहनेवाली सतीसा ी दे व! आपके ही मुँहसे ऐसा ेहपूण वचन नकल सकता है (आपके इस वचनसे म सब कु छ पा गया)॥ २२ ॥ ‘सौ े! आपका यह वचन सारग भत और ेहयु है, अत: भाँ त-भाँ तक र रा श और देवता के रा से भी बढ़कर है॥ २३ ॥



‘म जब यह देखता ँ क सकु शल ह, तब म यह अनुभव



ीरामच जी अपने श ुका वध करके वजयी हो गये और यं करता ँ क मेरे सारे योजन स हो गये—देवता के रा आ द सभी उ ृ गुण से यु पदाथ मुझे मल गये’॥ २४ ॥ उनक बात सुनकर म थलेशकु मारी जानक ने उन पवनकु मारसे यह परम सु र वचन कहा —॥ २५ ॥ ‘वीरवर! तु ारी वाणी उ म ल ण से स , माधुय गुणसे भू षत तथा बु के आठ* अ (गुण )-से अलंकृत है। ऐसी वाणी के वल तु बोल सकते हो॥ २६ ॥ ‘तुम वायुदेवताके शंसनीय पु तथा परम धमा ा हो। शारी रक बल, शूरता, शा ान, मान सक बल, परा म, उ म द ता, तेज, मा, धैय, रता, वनय तथा अ ब त-से सु र गुण के वल तु म एक साथ व मान ह, इसम संशय नह है’॥ २७-२८ ॥ तदन र सीताके सामने बना कसी घबराहटके हाथ जोड़कर वनीतभावसे खड़े ए हनुमा ी पुन: हषपूवक उनसे बोले—॥ २९ ॥ ‘दे व! य द आपक आ ा हो तो म इन सम रा सय को, जो पहले आपको ब त डराती-धमकाती रही ह, मार डालना चाहता ँ ॥ ३० ॥ ‘आप-जैसी प त ता देवी अशोकवा टकाम बैठकर ेश भोग रही थ और ये भयंकर प एवं आचारसे यु अ ू र वाली वकरालमुखी ू र रा सयाँ आपको बार ार कठोर वचन ारा डाँटती-फटकारती रहती थ । रावणक आ ासे ये जैसी-जैसी बात आपको सुनाती थ , उन सबको मने यहाँ रहकर सुना है॥ ३१-३२ ॥ ‘ये सब-क -सब वकराल, वकट आकारवाली, ू र और अ दा ण ह। इनके ने और के श से भी ू रता टपकती है। म तरह-तरहके आघात ारा इन सबका वध कर डालना चाहता ँ ॥ ३३ ॥ ‘मेरी इ ा है क मु , लात , वशाल भुजा —थ ड़ , प लय और घुटन क मारसे इ घायल करके इनके दाँत तोड़ दूँ, इनक नाक और कान काट लूँ तथा इनके सरके बाल नोचूँ। यश न! इस तरह ब त-से हार ारा इन सबको पीटकर ू रतापूण बात करनेवाली इन अ यका रणी रा सय को पटक-पटककर मार डालूँ। जन- जन भयानक पवाली रा सय ने पहले आपको डाँट बतायी है, उन सबको म अभी मौतके घाट उतार दूँगा। इसके लये आप मुझे के वल वर (आ ा) दे द’॥ ३४—३६ १/२ ॥



हनुमा ीके ऐसा कहनेपर क णामय भाववाली दीनव ला सीताने मन-ही-मन ब त कु छ सोच वचार करके उनसे इस कार कहा—॥ ३७ १/२ ॥ ‘क प े ! ये बेचारी राजाके आ यम रहनेके कारण पराधीन थ । दूसर क आ ासे ही सब कु छ करती थ , अत: ामीक आ ाका पालन करनेवाली इन दा सय पर कौन ोध करेगा? मेरा भा ही अ ा नह था तथा मेरे पूवज के दु म अपना फल देने लगे थे, इसीसे मुझे यह सब क ा आ है; क सभी ाणी अपने कये ए शुभाशुभ कम का ही फल भोगते ह, अत: महाबाहो! तुम इ मारनेक बात न कहो। मेरे लये दैवका ही ऐसा वधान था॥ ३८—४० ॥ ‘मुझे अपने पूवकमज नत दशाके योगसे यह सारा दु:ख न त पसे भोगना ही था; इस लये रावणक दा सय का य द कु छ अपराध हो भी तो उसे म मा करती ँ ; क इनके त दयाके उ ेकसे म दुबल हो रही ँ ॥ ४१ ॥ ‘पवनकु मार! उस रा सक आ ासे ही ये मुझे धमकाया करती थ । जबसे वह मारा गया है, तबसे ये बेचारी मुझे कु छ नह कहती ह। इ ने डराना-धमकाना छोड़ दया है॥ ४२ ॥ ‘वानरवीर! इस वषयम एक पुराना धमस त ोक है, जसे कसी ा के नकट एक रीछने कहा था*। वह ोक म बता रही ँ ’ सुनो॥ ४३ ॥ ‘ े पु ष दूसरेक बुरा◌इ करनेवाले पा पय के पापकमको नह अपनाते ह—बदलेम उनके साथ यं भी पापपूण बताव नह करना चाहते ह, अत: अपनी त ा एवं सदाचारक र ा ही करनी चा हये; क साधुपु ष अपने उ म च र से ही वभू षत होते ह। सदाचार ही उनका आभूषण है’॥ ४४ ॥ ‘ े पु षको चा हये क को◌इ पापी ह या पु ा ा अथवा वे वधके यो अपराध करनेवाले ही न ह , उन सबपर दया कर; क ऐसा को◌इ भी ाणी नह है, जससे कभी अपराध होता ही न हो॥ ४५ ॥ ‘जो लोग क हसाम ही रमते और सदा पापका ही आचरण करते ह, उन ू र भाववाले पा पय का भी कभी अम ल नह करना चा हये’॥ ४६ ॥ सीताजीके ऐसा कहनेपर बातचीत करनेम कु शल हनुमा ीने उन सती-सा ी ीरामप ीको इस कार उ र दया—॥ ४७ ॥



‘दे व! आप



ीरामक धमप ी ह; अत: आपका ऐसे स णु से स होना उ चत ही है। अब आप अपनी ओरसे मुझे को◌इ संदेश द। म ीरघुनाथजीके पास जाऊँ गा’॥ ४८ ॥ हनुमा ीके ऐसा कहनेपर वदेहन नी जनकराज कशोरी बोल —‘म अपने भ व ल ामीका दशन करना चाहती ँ ’॥ ४९ ॥ सीताजीक यह बात सुनकर परम बु मान् पवनकु मार हनुमा ी उन म थलेशकु मारीका हष बढ़ाते ए इस कार बोले—॥ ५० ॥ ‘दे व! जैसे शची देवराज इ का दशन करती ह, उसी कार आप पूणच माके समान मनोहर मुखवाले उन ीराम और ल णको आज देखगी, जनके म व मान ह और श ु मारे जा चुके ह’॥ ५१ ॥ सा ात् ल ीक भाँ त सुशो भत होनेवाली सीतादेवीसे ऐसा कहकर महातेज ी हनुमा ी उस ानपर लौट आये, जहाँ ीरघुनाथजी वराजमान थे॥ ५२ ॥ वहाँसे लौटते ही क पवर हनुमा ीने देवराज इ के तु तेज ी ीरघुनाथजीसे जनकराज कशोरी सीताजीका दया आ उ र मश: कह सुनाया॥ ५३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ तेरहवाँ सग पूरा आ॥ ११३ ॥ *



शु ूषा वणं चैव हणं धारणं तथा। ऊहापोहोऽथ व ानं त



ानं च धीगुणा:॥



सुननेक इ ा, सुनना, हण करना, रण रखना, ऊहा (तक- वतक), अपोह ( स ा का न य), अथका ान होना तथा त को समझना—ये आठ बु के गुण ह। *पहलेक बात है—एक बाघने कसी ाधका पीछा कया। ाध भागकर एक वृ पर चढ़ गया। उस वृ पर पहलेसे ही को◌इ रीछ बैठा आ था। बाघ वृ क जड़के पास प ँ चकर पेड़पर बैठे ए रीछसे बोला—‘हम और तुम दोन ही वनके जीव ह। यह ाध हम दोन का ही श ु है; अत: तुम इसे वृ से नीचे गरा दो।’ रीछने उ र दया—‘यह ाध मेरे नवास ानपर आकर एक कारसे मेरी शरण ले चुका है, इस लये म इसे नीचे नह गराऊँ गा। य द गरा दूँ तो धमक हा न होगी।’ ऐसा कहकर रीछ सो गया। तब बाघने ाधसे कहा—‘देखो, इस सोये ए रीछको नीचे गरा दो। म तु ारी र ा क ँ गा।’ उसके ऐसा कहनेपर ाधने उस रीछको ध ा दे दया; परंतु रीछ अ ासवश दूसरी डाल पकड़कर गरनेसे बच गया। तब बाघने रीछसे कहा—‘यह ाध तुमको गराना चाहता था; अत: अपराधी है। इस लये अब इसको नीचे ढके ल दो।’ बाघके इस कार बार ार उकसानेपर भी रीछने उस ाधको नह गराया और ‘न पर: पापमाद ’े इस ोकका गान करके उसे मुँहतोड़ उ र दे दया। यह ाचीन कथा है। (रामायणभूषण-टीकासे)



एक सौ चौदहवाँ सग ीरामक आ ासे वभीषणका सीताको उनके समीप लाना और सीताका मुखच का दशन करना



यतमके



तदन र परम बु मान् वानरवीर हनुमा ीने स ूण धनुधर म े कमलनयन ीरामको णाम करके कहा—॥ १ ॥ ‘भगवन्! जनके लये इन यु आ द कम का सारा उ ोग आर कया गया था, उन शोकसंत म थलेशकु मारी सीतादेवीको आप दशन द॥ २ ॥ ‘वे शोकम डू बी रहती ह। उनके ने आँ सु से भरे ए ह। आपक वजयका समाचार सुनकर वे म थलेशकु मारी आपका दशन करना चाहती ह॥ ३ ॥ ‘पहली बार जो म आपका संदेश लेकर आया था, तभीसे उनका मेरे ऊपर व ास हो गया है क यह मेरे ामीका आ ीय जन है। उसी व ाससे यु हो उ ने ने म आँ सू भरकर मुझसे कहा है क म ाणनाथका दशन करना चाहती ँ ’॥ ४ ॥ हनुमा ीके ऐसा कहनेपर धमा ा म े ीरामच जी सहसा ान हो गये। उनक आँ ख डबडबा आय और वे ल ी साँस ख चकर भू मक ओर देखते ए पास ही खड़े मेघके समान ाम का वाले वभीषणसे बोले—॥ ५-६ ॥ ‘तुम वदेहन नी सीताको म कपरसे ान कराकर द अ राग तथा द आभूषण से वभू षत करके शी मेरे पास ले आओ’॥ ७ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर वभीषण बड़ी उतावलीके साथ अ :पुरम गये और पहले अपनी य को भेजकर उ ने सीताको अपने आनेक खबर दी॥ ८ ॥ इसके बाद ीमान् रा सराज वभीषणने यं ही जाकर महाभाग सीताका दशन कया और म कपर अ ल बाँध वनीतभावसे कहा—॥ ९ ॥ ‘ वदेहराजकु मारी! आप ान करके द अ राग तथा द व ाभूषण से भू षत होकर सवारीपर बै ठये। आपका क ाण हो। आपके ामी आपको देखना चाहते ह’॥ १० ॥ उनके ऐसा कहनेपर वैदेहीने वभीषणको उ र दया—‘रा सराज! म बना ान कये ही अभी प तदेवका दशन करना चाहती ँ ’॥ ११ ॥



सीताक यह बात सुनकर वभीषण बोले— ‘दे व! आपके प तदेव ीरामच जीने जैसी आ ा दी है, आपको वैसा ही करना चा हये’॥ १२ ॥ उनका यह वचन सुनकर प तभ से सुर त तथा प तको ही देवता माननेवाली सतीसा ी म थलेशकु मारी सीताने ‘ब त अ ा’ कहकर ामीक आ ा शरोधाय कर ली॥ १३ ॥



त ात् वदेहकु मारीने सरसे ान करके सु र ृ ार कया तथा ब मू व और आभूषण पहनकर वे चलनेको तैयार हो गय ॥ १४ ॥ तब वभीषण ब मू व से आवृत दी मती सीतादेवीको श बकाम बठाकर भगवान् ीरामके पास ले आये। उस समय ब त-से नशाचर चार ओरसे घेरकर उनक र ा कर रहे थे॥ १५ ॥ भगवान् ीराम ान ह, यह जानकर भी वभीषण उनके पास गये और उ णाम करके स तापूवक बोले—‘ भो! सीतादेवी आ गयी ह’॥ १६ ॥ रा सके घरम ब त दन तक नवास करनेके बाद आज सीताजी आयी ह, यह सोच उनके आगमनका समाचार सुनकर श ुसूदन ीरघुनाथजीको एक ही समय रोष, हष और दु:ख ा आ॥ १७ ॥ तदन र ‘सीता सवारीपर आयी ह’ इस बातपर तक- वतकपूण वचार करके ीरघुनाथजीको स ता नह ◌इ। वे वभीषणसे इस कार बोले—॥ १८ ॥ ‘सदा मेरी वजयके लये त र रहनेवाले सौ रा सराज! तुम वदेहकु मारीसे कहो, वे शी मेरे पास आय’॥ १९ ॥ ीरघुनाथजीक यह बात सुनकर धम वभीषणने तुरंत वहाँसे दूसरे लोग को हटाना ार कया॥ २० ॥ पगड़ी बाँधे और अ ा प हने ए ब त-से सपाही हाथ म झाँझक तरह बजती ◌इ छड़ी लये उन वानरयो ा को हटाते ए चार ओर घूमने लगे॥ २१ ॥ उनके ारा हटाये जाते ए रीछ , वानर और रा स के समुदाय अ तोग ा दूर जाकर खड़े हो गये॥



जैसे वायुके थपेड़े खाकर उ े लत ए समु क गजना बढ़ जाती है, उसी कार वहाँसे हटाये जाते ए उन वानर आ दके हटनेसे वहाँ बड़ा भारी कोलाहल मच गया॥ २३ ॥ ज हटाया जाता था, उनके मनम बड़ा उ ेग होता था, सब ओर यह उ ेग देखकर ीरघुनाथजीने अपनी सहज उदारताके कारण उन हटानेवाल को रोषपूवक रोका—॥ २४ ॥ उस समय ीराम हटानेवाले सपा हय क ओर इस तरह रोषपूण से देख रहे थे, मानो उ जलाकर भ कर डालगे। उ ने परम बु मान् वभीषणको उलाहना देते ए ोधपूवक कहा—॥ २५ ॥ ‘तुम कस लये मेरा अनादर करके इन सब लोग को क दे रहे हो। रोक दो इस उ ेगजनक कायको। यहाँ जतने लोग ह यह सब मेरे आ ीय जन ह॥ २६ ॥ ‘घर, व (कनात आ द) और चहारदीवारी आ द व ुएँ ीके लये परदा नह आ करती ह। इस तरह लोग को दूर हटानेके जो न ु रतापूण वहार ह, ये भी ीके लये आवरण या पदका काम नह देते ह। प तसे ा होनेवाले स ार तथा नारीके अपने सदाचार—ये ही उसके लये आवरण ह॥ २७ ॥ ‘ वप कालम, शारी रक या मान सक पीड़ाके अवसर पर, यु म, यंवरम, य म अथवा ववाहम ीका दीखना (या दूसर क म आना) दोषक बात नह है॥ २८ ॥ ‘यह सीता इस समय वप म है। मान सक क से भी यु है और वशेषत: मेरे पास है; इस लये इसका परदेके बना सबके सामने आना दोषक बात नह है॥ २९ ॥ ‘अत: जानक श बका (पालक ) छोड़कर पैदल ही मेरे पास आय और ये सभी वानर उनका दशन कर’॥ ३० ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर वभीषण बड़े वचारम पड़ गये और वनीतभावसे सीताको उनके समीप ले आये॥ उस समय ीरामच जीका पूव वचन सुनकर ल ण, सु ीव तथा क पवर हनुमान् तीन ही अ थत हो उठे ॥ ३२ ॥ ीरामच जीक भयंकर चे ाएँ यह सू चत कर रही थ क वे प ीक ओरसे नरपे हो गये ह। इसी लये उन तीन ने यह अनुमान कया क ीरघुनाथजी सीतापर अ स -से जान पड़ते ह॥ ३३ ॥



आगे-आगे सीता थ और पीछे वभीषण। वे ल ासे अपने अ म ही सकु ड़ी जा रही थ । इस तरह वे अपने प तदेवके सामने उप त ◌इं ॥ ३४ ॥ सीताजीका मुख अ सौ भावसे यु था। वे प तको ही देवता माननेवाली थ । उ ने बड़े व य, हष और ेहके साथ अपने ामीके सौ (मनोहर) मुखका दशन कया॥ ३५ ॥ उदयकालीन पूण च माको भी ल त करनेवाले यतमके सु र मुखको, जसके दशनसे वे ब त दन से व त थ , सीताने जी भरकर नहारा और अपने मनक पीड़ा दूर क । उस समय उनका मुख स तासे खल उठा और नमल च माके समान शोभा पाने लगा॥ ३६ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ चौदहवाँ सग पूरा आ॥ ११४ ॥



एक सौ पं हवाँ सग सीताके च र पर संदेह करके ीरामका उ हण करनेसे इनकार करना और अ जानेके लये कहना



म थलेशकु मारी सीताको वनयपूवक अपने समीप खड़ी देख ीरामच जीने अपना हा दक अ भ ाय बताना आर कया—॥ १ ॥ ‘भ े! समरा णम श ुको परा जत करके मने तु उसके चंगुलसे छु ड़ा लया। पु षाथके ारा जो कु छ कया जा सकता था, वह सब मने कया॥ २ ॥ ‘अब मेरे अमषका अ हो गया। मुझपर जो कल लगा था, उसका मने माजन कर दया। श ुज नत अपमान और श ु दोन को एक साथ ही न कर डाला॥ ‘आज सबने मेरा परा म देख लया। अब मेरा प र म सफल हो गया और इस समय त ा पूण करके म उसके भारसे मु एवं त हो गया॥ ४ ॥ ‘जब तुम आ मम अके ली थी, उस समय वह च ल च वाला रा स तु हर ले गया। यह दोष मेरे ऊपर दैववश ा आ था, जसका मने मानवसा पु षाथके ारा माजन कर दया॥ ५ ॥ ‘जो पु ष ा ए अपमानका अपने तेज या बलसे माजन नह कर देता है, उस म बु मानवके महान् पु षाथसे भी ा लाभ आ?॥ ६ ॥ ‘हनुमा े जो समु को लाँघा और ल ाका व ंस कया, उनका वह शंसनीय कम आज सफल हो गया॥ ‘सेनास हत सु ीवने यु म परा म दखाया तथा समय-समयपर ये मुझे हतकर सलाह देते रहे ह, इनका प र म भी अब साथक हो गया॥ ८ ॥ ‘ये वभीषण दुगुण से भरे ए अपने भा◌इका प र ाग करके यं ही मेरे पास उप त ए थे। अबतकका कया आ इनका प र म भी न ल नह आ’॥ ९ ॥ इस तरह कहते ए ीरामजीक बात सुनकर मृगीके समान वक सत ने वाली सीताक आँ ख म आँ सू भर आया॥ १० ॥



वे अपने ामीक दयव भा थ । उनके ाणव भ उ अपने समीप देख रहे थे; परंतु लोकापवादके भयसे राजा ीरामका दय उस समय वदीण हो रहा था॥ ११ ॥ वे काले-काले घुँघराले बाल वाली कमललोचना सु री सीतासे वानर और रा स क भरी सभाम पुन: इस कार कहने लगे—॥ १२ ॥ ‘अपने तर ारका बदला चुकानेके लये मनु का जो कत है, वह सब मने अपनी मानर ाक अ भलाषासे रावणका वध करके पूण कया॥ १३ ॥ ‘जैसे तप ासे भा वत अ :करणवाले अथवा तप ापूवक परमा पका च न करनेवाले मह ष अग ने वाता प और इ लके भयसे जीवजग े लये दुगम ◌इ द ण दशाको जीता था, उसी कार मने रावणके वशम पड़ी ◌इ तुमको जीता है॥ १४ ॥ ‘तु ारा क ाण हो। तु मालूम होना चा हये क मने जो यह यु का प र म उठाया है तथा इन म के परा मसे जो इसम वजय पायी है, यह सब तु पानेके लये नह कया गया है॥ १५ ॥ ‘सदाचारक र ा, सब ओर फै ले ए अपवादका नवारण तथा अपने सु व ात वंशपर लगे ए कल का प रमाजन करनेके लये ही यह सब मने कया है॥ ‘तु ारे च र म संदेहका अवसर उप त है; फर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आँ खके रोगीको दीपकक ो त नह सुहाती, उसी कार आज तुम मुझे अ अ य जान पड़ती हो॥ १७ ॥ ‘अत: जनककु मारी! तु ारी जहाँ इ ा हो, चली जाओ। म अपनी ओरसे तु अनुम त देता ँ । भ े! ये दस दशाएँ तु ारे लये खुली ह। अब तुमसे मेरा को◌इ योजन नह है॥ १८ ॥ ‘कौन



ऐसा कु लीन पु ष होगा, जो तेज ी होकर भी दूसरेके घरम रही ◌इ ीको, के वल इस लोभसे क यह मेरे साथ ब त दन तक रहकर सौहाद ा पत कर चुक है, मनसे भी हण कर सके गा॥ १९ ॥ ‘रावण तु अपनी गोदम उठाकर ले गया और तुमपर अपनी दू षत डाल चुका है, ऐसी दशाम अपने कु लको महान् बताता आ म फर तु कै से हण कर सकता ँ ॥ २० ॥



‘अत:



जस उ े से मने तु जीता था, वह स हो गया—मेरे कु लके कल का माजन हो गया। अब मेरी तु ारे त ममता या आस नह है; अत: तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो॥ २१ ॥ ‘भ े! मेरा यह न त वचार है। इसके अनुसार ही आज मने तु ारे सामने ये बात कही ह। तुम चाहो तो भरत या ल णके संर णम सुखपूवक रहनेका वचार कर सकती हो॥ २२ ॥ ‘सीते! तु ारी इ ा हो तो तुम श ु , वानरराज सु ीव अथवा रा सराज वभीषणके पास भी रह सकती हो। जहाँ तु सुख मले, वह अपना मन लगाओ॥ २३ ॥ ‘सीते! तुम-जैसी द प-सौ यसे सुशो भत मनोरम नारीको अपने घरम त देखकर रावण चरकालतक तुमसे दूर रहनेका क नह सह सका होगा’॥ २४ ॥ जो सदा य वचन सुननेके ही यो थ , वे मा ननी सीता चरकालके बाद मले ए यतमके मुखसे ऐसी अ य बात सुनकर उस समय हाथीक सूँड़से आहत ◌इ लताके समान आँ सू बहाने और रोने लग ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ पं हवाँ सग पूरा आ॥ ११५ ॥



एक सौ सोलहवाँ सग सीताका ीरामको उपाल पूण उ र देकर अपने सती क परी ा देनेके लये अ वेश करना







ीरघुनाथजीने रोषपूवक जब इस तरह र गटे खड़े कर देनेवाली कठोर बात कही, तब उसे सुनकर वदेहराजकु मारी सीताके मनम बड़ी था ◌इ॥ १ ॥ इतने बड़े जनसमुदायम अपने ामीके मुँहसे ऐसी भयंकर बात, जो पहले कभी कान म नह पड़ी थी, सुनकर म थलेशकु मारी लाजसे गड़ गय ॥ २ ॥ उन वा ाण से पी ड़त होकर वे जनक कशोरी अपने ही अ म वलीन-सी होने लग । उनके ने से आँ सु का अ वरल वाह जारी हो गया॥ ३ ॥ ने के जलसे भीगे ए अपने मुखको अंचलसे प छती ◌इ वे धीरे-धीरे ग द वाणीम प तदेवसे इस कार बोल —॥ ४ ॥ ‘वीर! आप ऐसी कठोर, अनु चत, कणकटु और खी बात मुझे सुना रहे ह। जैसे को◌इ न ेणीका पु ष न को टक ही ीसे न कहने यो बात भी कह डालता है, उसी तरह आप भी मुझसे कह रहे ह॥ ‘महाबाहो! आप मुझे अब जैसी समझते ह, वैसी म नह ँ । मुझपर व ास क जये। म अपने सदाचारक ही शपथ खाकर कहती ँ क म संदेहके यो नह ँ ॥ ६ ॥ ‘नीच ेणीक य का आचरण देखकर य द आप समूची ी-जा तपर ही संदेह करते ह तो यह उ चत नह है। य द आपने मुझे अ ी तरह परख लया हो तो अपने इस संदेहको मनसे नकाल दी जये॥ ७ ॥ ‘ भो! रावणके शरीरसे जो मेरे इस शरीरका श हो गया है, उसम मेरी ववशता ही कारण है। मने े ासे ऐसा नह कया था। इसम मेरे दुभा का ही दोष है॥ ८ ॥ ‘जो मेरे अधीन है, वह मेरा दय सदा आपम ही लगा रहता है (उसपर दूसरा को◌इ अ धकार नह कर सकता); परंतु मेरे अ तो पराधीन थे। उनका य द दूसरेसे श हो गया तो म ववश अबला ा कर सकती थी॥ ९ ॥



‘दूसर को



मान देनेवाले ाणनाथ! हम दोन का पर र अनुराग सदा साथ-साथ बढ़ा है। हम सदा एक साथ रहते आये ह। इतनेपर भी य द आपने मुझे अ ी तरह नह समझा तो म सदाके लये मारी गयी॥ १० ॥ ‘महाराज! ल ाम मुझे देखनेके लये जब आपने महावीर हनुमा ो भेजा था, उसी समय मुझे नह ाग दया?॥ ११ ॥ ‘उस समय वानरवीर हनुमा े मुखसे आपके ारा अपने ागक बात सुनकर त ाल इनके सामने ही मने अपने ाण का प र ाग कर दया होता॥ १२ ॥ ‘ फर इस कार अपने जीवनको संकटम डालकर आपको यह यु आ दका थ प र म नह करना पड़ता तथा आपके ये म लोग भी अकारण क नह उठाते॥ १३ ॥ ‘नृप े ! आपने ओछे मनु क भाँ त के वल रोषका ही अनुसरण करके मेरे शीलभावका वचार छोड़कर के वल न को टक य के भावको ही अपने सामने रखा है॥ १४ ॥ ‘सदाचारके ममको जाननेवाले देवता! राजा जनकक य भू मसे आ वभूत होनेके कारण ही मुझे जानक कहकर पुकारा जाता है। वा वम मेरी उ जनकसे नह ◌इ है। म भूतलसे कट ◌इ ँ । (साधारण मानव-जा तसे वल ण ँ — द ँ । उसी तरह मेरा आचार वचार भी अलौ कक एवं द है; मुझम चा र क बल व मान है, परंत)ु आपने मेरी इन वशेषता को अ धक मह नह दया—इन सबको अपने सामने नह रखा॥ १५ ॥ ‘बा ाव ाम आपने मेरा पा ण हण कया है, इसक ओर भी ान नह दया। आपके त मेरे दयम जो भ है और मुझम जो शील है, वह सब आपने पीछे ढके ल दया—एक साथ ही भुला दया’॥ १६ ॥ इतना कहते-कहते सीताका गला भर आया। वे रोती और आँ सू बहाती ◌इ दु:खी एवं च ाम होकर बैठे ए ल णसे ग द वाणीम बोल —॥ १७ ॥ ‘सु म ान न! मेरे लये चता तैयार कर दो। मेरे इस दु:खक यही दवा है। म ा कल से कल त होकर म जी वत नह रह सकती॥ १८ ॥ ‘मेरे ामी मेरे गुण से स नह ह। इ ने भरी सभाम मेरा प र ाग कर दया है। ऐसी दशाम मेरे लये जो उ चत माग है, उसपर जानेके लये म अ म वेश क ँ गी’॥ १९ ॥



वदेहन नीके ऐसा कहनेपर श ुवीर का संहार करनेवाले ल णने अमषके वशीभूत होकर ीरामच जीक ओर देखा (उनसे सीताजीका वह अपमान सहा नह जाता था)॥ २० ॥ परंतु ीरामके इशारेसे सू चत होनेवाले उनके हा दक अ भ ायको जानकर परा मी ल णने उनक स तसे ही चता तैयार क ॥ २१ ॥ उस समय ीरघुनाथजी लयकालीन संहारकारी यमराजके समान लोग के मनम भय उ कर रहे थे। उनका को◌इ भी म उ समझाने, उनसे कु छ कहने अथवा उनक ओर देखनेका साहस न कर सका॥ २२ ॥ भगवान् ीराम सर कु ाये खड़े थे। उसी अव ाम सीताजीने उनक प र मा क । इसके बाद वे लत अ के पास गय ॥ २३ ॥ वहाँ देवता तथा ा ण को णाम करके म थलेशकु मारीने दोन हाथ जोड़कर अ देवके समीप इस कार कहा—॥ २४ ॥ ‘य द मेरा दय कभी एक णके लये भी ीरघुनाथजीसे दूर न आ हो तो स ूण जग े सा ी अ देव मेरी सब ओरसे र ा कर॥ २५ ॥ ‘मेरा च र शु है फर भी ीरघुनाथजी मुझे दू षत समझ रहे ह। य द म सवथा न ल होऊँ तो स ूण जग े सा ी अ देव मेरी सब ओरसे र ा कर॥ २६ ॥ ‘य द मने मन, वाणी और या ारा कभी स ूण धम के ाता ीरघुनाथजीका अ त मण न कया हो तो अ देव मेरी र ा कर’॥ २७ ॥ ‘य द भगवान् सूय, वायु, दशाएँ , च मा, दन, रात, दोन सं ाएँ , पृ ी देवी तथा अ देवता भी मुझे शु च र से यु जानते ह तो अ देव मेरी सब ओरसे र ा कर’॥ २८ ॥ ऐसा कहकर वदेहराजकु मारीने अ देवक प र मा क और न:श च से वे उस लत अ म समा गय ॥ २९ ॥ बालक और वृ से भरे ए वहाँके महान् जनसमुदायने उन दी मती म थलेशकु मारीको जलती आगम वेश करते देखा॥ ३० ॥ तपाये ए नूतन सुवणक -सी का वाली सीता आगम तपाकर शु कये गये सुवणके आभूषण से वभू षत थ । वे सब लोग के नकट उनके देखते-देखते उस जलती आगम कू द पड़ ॥ ३१ ॥



सोनेक बनी ◌इ वेदीके समान का मती वशाल-लोचना सीतादेवीको उस समय स ूण भूत ने आगम गरते देखा॥ ३२ ॥ ऋ षय , देवता और ग व ने देखा, जैसे य म पूणा तका होम होता है, उसी कार महाभागा सीता जलती आगम वेश कर रही ह॥ ३३ ॥ जैसे य म म ारा सं ार क ◌इ वसुधाराक * आ त दी जाती है, उसी कार द आभूषण से वभू षत सीताको आगम गरते देख वहाँ आयी ◌इ सभी याँ चीख उठ ॥ ३४ ॥



तीन लोक के द ाणी, ऋ ष, देवता, ग व तथा दानव ने भी भगवती सीताको आगम गरते देखा, मानो गसे को◌इ देवी शाप होकर नरकम गरी हो॥ ३५ ॥ उनके अ म वेश करते समय रा स और वानर जोर-जोरसे हाहाकार करने लगे। उनका वह अ तु आतनाद चार ओर गूँज उठा॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ सोलहवाँ सग पूरा आ॥ ११६ ॥ * घीक



अनव



धारा।



एक सौ स हवाँ सग भगवान् ीरामके पास देवता



का आगमन तथा एवं वन



ा ारा उनक भगव ाका



तपादन



तदन र धमा ा ीराम हाहाकार करनेवाले वानर और रा स क बात सुनकर मन-हीमन ब त दु:खी ए और आँ ख म आँ सू भरकर दो घड़ीतक कु छ सोचते रहे॥ १ ॥ इसी समय व वाके पु य राज कु बेर, पतर स हत यमराज, देवता के ामी सह ने धारी इ , जलके अ धप त व ण, ने धारी ीमान् वृषभ ज महादेव तथा स ूण जग े ा वे ा म े ाजी— ये सब देवता सूयतु वमान ारा ल ापुरीम आकर ीरघुनाथजीके पास गये॥ २—४ ॥ भगवान् ीराम उनके सामने हाथ जोड़े खड़े थे। वे े देवता आभूषण से अलंकृत अपनी वशाल भुजा को उठाकर उनसे बोले—॥ ५ ॥ ‘ ीराम! आप स ूण व के उ ादक, ा नय म े और सव ापक ह। फर इस समय आगम गरी ◌इ सीताक उपे ा कै से कर रहे ह? आप सम देवता म े व ु ही ह। इस बातको कै से नह समझ रहे ह॥ ६ ॥ ‘पूवकालम वसु के जाप त जो ऋतधामा नामक वसु थे, वे आप ही ह। आप तीन लोक के आ दकता यं भु ह॥ ७ ॥ ‘ म आठव और सा म पाँचव सा भी आप ही ह। दो अ नीकु मार आपके कान ह और सूय तथा च मा ने ह॥ ८ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले देव! सृ के आ द, अ और म म भी आप ही दखायी देते ह। फर एक साधारण मनु क भाँ त आप सीताक उपे ा कर रहे ह ?’॥ ९ ॥ उन लोकपाल के ऐसा कहनेपर धमा ा म े लोकनाथ रघुनाथ ीरामने उन े देवता से कहा—॥ १० ॥ ‘देवगण! म तो अपनेको मनु दशरथपु राम ही समझता ँ । भगवन्! म जो ँ और जहाँसे आया ँ , वह सब आप ही मुझे बताइये’॥ ११ ॥



ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर वे ा म े ाजीने उनसे इस कार कहा —‘स परा मी ीरघुवीर! आप मेरी स ी बात सु नये॥ १२ ॥ ‘आप च धारण करनेवाले सवसमथ ीमान् भगवान् नारायण देव ह, एक दाढ़वाले पृ ीधारी वराह ह तथा देवता के भूत एवं भावी श ु को जीतनेवाले ह॥ १३ ॥ ‘रघुन न! आप अ वनाशी पर ह। सृ के आ द, म और अ म स पसे व मान ह। आप ही लोक के परम धम ह। आप ही व ेन तथा चार भुजाधारी ीह र ह॥ १४ ॥ ‘आप ही शा ध ा, षीके श, अ यामी पु ष और पु षो म ह। आप कसीसे परा जत नह होते। आप न क नामक खड् ग धारण करनेवाले व ु एवं महाबली कृ ह॥ १५ ॥ ‘आप ही देवसेनाप त तथा गाँव के मु खया अथवा नेता ह। आप ही बु , स , मा, इ य न ह तथा सृ एवं लयके कारण ह। आप ही उपे (वामन) और मधुसूदन ह॥ १६ ॥ ‘इ



को भी उ करनेवाले महे और यु का अ करनेवाले शा प प नाभ भी आप ही ह। द मह षगण आपको शरणदाता तथा शरणागतव ल बताते ह॥ १७ ॥ ‘आप ही सह शाखा प स ग तथा सैकड़ व धवा प म क से यु वेद प महावृषभ ह। आप ही तीन लोक के आ दकता और यं भु (परम त ) ह॥ १८ ॥ ‘आप स और सा के आ य तथा पूवज ह। य , वषट्कार और कार भी आप ही ह। आप े से भी े परमा ा ह॥ १९ ॥ ‘आपके आ वभाव और तरोभावको को◌इ नह जानता। आप कौन ह—इसका भी कसीको पता नह है। सम ा णय म, गौ म तथा ा ण म भी आप ही दखायी देते ह॥ २० ॥ ‘सम दशा म, आकाशम, पवत म और न दय म भी आपक ही स ा है। आपके सह चरण, सैकड़ म क और सह ने ह॥ २१ ॥ ‘आप ही स ूण ा णय को, पृ ीको और सम पवत को धारण करते ह। पृ ीका अ हो जानेपर आप ही जलके ऊपर महान् सप—शेषनागके पम दखायी देते ह॥ २२ ॥



ीराम! आप ही तीन लोक को तथा देवता, ग व और दानव को धारण करनेवाले वराट् पु ष नारायण ह। सबके दयम रमण करनेवाले परमा न्! म ा आपका दय ँ और देवी सर ती आपक ज ा ह॥ २३ ॥ ‘ भो! मुझ ाने जनक सृ क है, वे सब देवता आपके वराट् शरीरम रोम ह। आपके ने का ब होना रा और खुलना ही दन है॥ २४ ॥ ‘वेद आपके सं ार ह। आपके बना इस जग ा अ नह है। स ूण व आपका शरीर है। पृ ी आपक रता है॥ २५ ॥ ‘अ आपका कोप है और च मा स ता है, व : लम ीव का च धारण करनेवाले भगवान् व ु आप ही ह। पूवकालम (वामनावतारके समय) आपने ही अपने तीन पग से तीन लोक नाप लये थे॥ २६ ॥ ‘आपने अ दा ण दै राज ब लको बाँधकर इ को तीन लोक का राजा बनाया था। सीता सा ात् ल ी ह और आप भगवान् व ु ह। आप ही स दान प भगवान् ीकृ एवं जाप त ह॥ २७ ॥ ‘धमा ा म े रघुवीर! आपने रावणका वध करनेके लये ही इस लोकम मनु के शरीरम वेश कया था। हमलोग का काय आपने स कर दया॥ २८ ॥ ‘ ीराम! आपके ारा रावण मारा गया। अब आप स तापूवक अपने द धामम पधा रये। देव! आपका बल अमोघ है। आपके परा म भी थ होनेवाले नह ह॥ २९ ॥ ‘ ीराम! आपका दशन अमोघ है। आपका वन भी अमोघ है तथा आपम भ रखनेवाले मनु भी इस भूम लम अमोघ ही ह गे॥ ३० ॥ ‘आप पुराणपु षो म ह। द पधारी परमा ा ह। जो लोग आपम भ रखगे, वे इस लोक और परलोकम अपने सभी मनोरथ ा कर लगे’॥ ३१ ॥ यह परम ऋ ष ाका कहा आ द ो तथा पुरातन इ तहास है। जो लोग इसका क तन करगे, उनका कभी पराभव नह होगा॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ स हवाँ सग पूरा आ॥ ११७ ॥ ‘



एक सौ अठारहवाँ सग मू तमान् अ देवका सीताको लेकर चतासे कट होना और ीरामको सम पत करके उनक प व ताको मा णत करना तथा ीरामका सीताको सहष ीकार करना



ाजीके कहे ए इन शुभ वचन को सुनकर मू तमान् अ देव वदेहन नी सीताको ( पताक भाँ त) गोदम लये चतासे ऊपरको उठे ॥ १ ॥ उस चताको हलाकर इधर-उधर बखराते ए द पधारी ह वाहन अ देव वैदेही सीताको साथ लये तुरंत ही उठकर खड़े हो गये॥ २ ॥ सीताजी ात:कालके सूयक भाँ त अ ण-पीत का से का शत हो रही थ । तपाये ए सोनेके आभूषण उनक शोभा बढ़ा रहे थे। उनके ीअ पर लाल रंगक रेशमी साड़ी लहरा रही थी। सरपर काले-काले घुँघराले के श सुशो भत होते थे। उनक अव ा नयी थी और उनके ारा धारण कये गये फू ल के हार कु लायेतक नह थे। अ न सु री सती-सा ी सीताका अ म वेश करते समय जैसा प और वेष था, वैसे ही प-सौ यसे का शत होती ◌इ उन वैदेहीको गोदम लेकर अ देवने ीरामको सम पत कर दया॥ ३-४ ॥ उस समय लोकसा ी अ ने ीरामसे कहा— ‘ ीराम! यह आपक धमप ी वदेहराजकु मारी सीता है। इसम को◌इ पाप या दोष नह है॥ ५ ॥ ‘उ म आचारवाली इस शुभल णा सतीने मन, वाणी, बु अथवा ने ारा भी आपके सवा कसी दूसरे पु षका आ य नह लया। इसने सदा सदाचारपरायण आपका ही आराधन कया है॥ ६ ॥ ‘अपने बल-परा मका घमंड रखनेवाले रा स रावणने जब इसका अपहरण कया था, उस समय यह बेचारी सती सूने आ मम अके ली थी—आप इसके पास नह थे; अत: यह ववश थी (इसका को◌इ वश नह चला)॥ ७ ॥ ‘रावणने इसे लाकर अ :पुरम कै द कर लया। इसपर पहरा बठा दया। भयानक वचार वाली भीषण रा सयाँ इसक रखवाली करने लग । तब भी इसका च आपम ही लगा रहा। यह आपहीको अपना परम आ य मानती रही॥ ८ ॥



‘त



ात् तरह-तरहके लोभ दये गये। इस म थलेशकु मारीपर डाँट-फटकार भी पड़ी; परंतु इसक अ रा ा नर र आपके ही च नम लगी रही। इसने उस रा सके वषयम कभी एक बार भी नह सोचा॥ ९ ॥ ‘अत: इसका भाव सवथा शु है। यह म थलेशन नी सवथा न ाप है। आप इसे सादर ीकार कर। म आपको आ ा देता ँ , आप इससे कभी को◌इ कठोर बात न कह’॥ १० ॥



अ देवक यह बात सुनकर व ा म े धमा ा ीरामका मन स हो गया। उनके ने म आन के आँ सू छलक आये। वे थोड़ी देरतक वचारम डू बे रहे॥ ११ ॥ तदन र महातेज ी, धैयवान्, महान् परा मी तथा धमा ा म े ीरामने देव शरोम ण अ देवसे उनक पूव बातके उ रम कहा—॥ १२ ॥ ‘भगवन्! लोग म सीताजीक प व ताका व ास दलानेके लये इनक यह शु वषयक परी ा आव क थी; क शुभल णा सीताको ववश होकर दीघकालतक रावणके अ :पुरम रहना पड़ा है॥ १३ ॥ ‘य द म जनकन नीक शु के वषयम परी ा न करता तो लोग यही कहते क दशरथपु राम बड़ा ही मूख और कामी है॥ १४ ॥ ‘यह बात म भी जानता ँ क म थलेशन नी जनककु मारी सीताका दय सदा मुझम ही लगा रहता है। मुझसे कभी अलग नह होता। ये सदा मेरा ही मन रखत —मेरी इ ाके अनुसार चलती ह॥ १५ ॥ ‘मुझे यह भी व ास है क जैसे महासागर अपनी तटभू मको नह लाँघ सकता, उसी कार रावण अपने ही तेजसे सुर त इन वशाललोचना सीतापर अ ाचार नह कर सकता था॥ १६ ॥ ‘तथा प तीन लोक के ा णय के मनम व ास दलानेके लये एकमा स का सहारा लेकर मने अ म वेश करती ◌इ वदेहकु मारी सीताको रोकनेक चे ा नह क ॥ १७ ॥ ‘ म थलेशकु मारी सीता लत अ शखाके समान दुधष तथा दूसरेके लये अल है। दु ा ा रावण मनके ारा भी इनपर अ ाचार करनेम समथ नह हो सकता था॥ १८ ॥



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सती-सा ी देवी रावणके अ :पुरम रहकर भी ाकु लता या घबराहटम नह पड़ सकती थ ; क ये मुझसे उसी तरह अ भ ह, जैसे सूयदेवसे उनक भा॥ १९ ॥ ‘ म थलेशकु मारी जानक तीन लोक म परम प व ह। जैसे मन ी पु ष क तका ाग नह कर सकता, उसी तरह म भी इ नह छोड़ सकता॥ २० ॥ ‘आप सभी लोकपाल मेरे हतक ही बात कह रहे ह और आपलोग का मुझपर बड़ा ेह है; अत: आप सभी देवता के हतकर वचनका मुझे अव पालन करना चा हये’॥ २१ ॥ ऐसा कहकर अपने कये ए परा मसे शं सत होनेवाले महाबली, महायश ी, वजयी वीर रघुकुलन न ीराम अपनी या सीतासे मले और मलकर बड़े सुखका अनुभव करने लगे; क वे सुख भोगनेके ही यो ह॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ अठारहवाँ सग पूरा आ॥ ११८ ॥



एक सौ उ ीसवाँ सग महादेवजीक आ ासे ीराम और ल णका वमान ारा आये ए राजा दशरथको णाम करना और दशरथका दोन पु तथा सीताको आव क संदेश दे इ लोकको जाना



ीरघुनाथजीके कहे ए इन शुभ वचन को सुनकर ीमहादेवजी और भी शुभतर वचन बोले—॥ १ ॥ ‘श ु को संताप देनेवाले, वशाल व : लसे सुशो भत, महाबा कमलनयन! आप धमा ा म े ह। आपने रावण-वध प काय स कर दया—यह बड़े सौभा क बात है॥ २ ॥ ‘ ीराम! रावणज नत भय और दु:ख सारे लोक के लये बढ़े ए घोर अ कारके समान था, जसे आपने यु म मटा दया॥ ३ ॥ ‘महाबली वीर! अब दु:खी भरतको धीरज बँधाकर, यश नी कौस ा, कै के यी तथा ल णजननी सु म ासे मलकर, अयो ाका रा पाकर, सु द को आन देकर, इ ाकु कु लम अपना वंश ा पत करके , अ मेध-य का अनु ान कर, सव म यशका उपाजन करके तथा ा ण को धन देकर आपको अपने परम धामम जाना चा हये॥ ४—६ ॥ ‘ककु कु लन न! दे खये, ये आपके पता राजा दशरथ वमानपर बैठे ए ह। मनु लोकम ये ही आपके महायश ी गु थे॥ ७ ॥ ‘ये ीमान् नरेश इ लोकको ा ए ह। आप-जैसे सुपु ने इ तार दया। आप भा◌इ ल णके साथ इ नम ार कर’॥ ८ ॥ महादेवजीक यह बात सुनकर ल णस हत ीरघुनाथजीने वमानम उ ानपर बैठे ए अपने पताजीको णाम कया॥ ९ ॥ भा◌इ ल णस हत भगवान् ीरामने पताको अ ी तरह देखा। वे नमल व धारण करके अपनी द शोभासे देदी मान थे॥ १० ॥ वमानपर बैठे ए महाराज दशरथ अपने ाण से भी ारे पु ीरामको देखकर ब त स ए॥ ११ ॥



े आसनपर बैठे ए उन महाबा नरेशने उ गोदम बठाकर दोन बाँह म भर लया और इस कार कहा—॥ १२ ॥ ‘राम! म तुमसे सच कहता ँ , तुमसे वलग होकर मुझे गका सुख तथा देवता ारा ा आ स ान भी अ ा नह लगता॥ १३ ॥ ‘आज तुम श ु का वध करके पूणमनोरथ हो गये और तुमने वनवासक अव ध भी पूरी कर ली, यह सब देखकर मुझे बड़ी स ता ◌इ है॥ १४ ॥ ‘व ा म े रघुन न! तु वनम भेजनेके लये कै के यीने जो-जो बात कही थ , वे सब आज भी मेरे दयम बैठी ◌इ ह॥ १५ ॥ ‘आज ल णस हत तुमको सकु शल देखकर और दयसे लगाकर म सम दु:ख से छु टकारा पा गया ँ । ठीक उसी तरह, जैसे च मा कु हरेसे नकल आये ह ॥ १६ ॥ ‘बेटा! जैसे अ ाव ने अपने धमा ा पता कहोल नामक ा णको तार दया था, वैसे ही तुम-जैसे महा ा पु ने मेरा उ ार कर दया॥ १७ ॥ ‘सौ ! आज इन देवता के ारा मुझे मालूम आ क रावणका वध करनेके लये यं पु षो म भगवान् ही तु ारे पम अवतीण ए ह॥ १८ ॥ ‘ ीराम! कौस ाका जीवन साथक है, जो वनसे लौटनेपर तुम-जैसे श ुसूदन वीर पु को अपने घरम हष और उ ासके साथ देखगी॥ १९ ॥ ‘रघुन न! वे जाजन भी कृ ताथ ह, जो अयो ा प ँ चनेपर तु रा सहासनपर भू मपालके पम अ भ ष होते देखगे॥ २० ॥ ‘भरत बड़ा ही धमा ा, प व और बलवान् है। वह तुमम स ा अनुराग रखता है। म उसके साथ तु ारा शी ही मलन देखना चाहता ँ ॥ २१ ॥ ‘सौ ! तुमने मेरी स ताके लये ल ण और सीताके साथ रहते ए वनम चौदह वष तीत कये॥ २२ ॥ ‘अब तु ारे वनवासक अव ध पूरी हो गयी। मेरी त ा भी तुमने पूण कर दी तथा सं ामम रावणको मारकर देवता को भी संतु कर दया॥ २३ ॥ ‘श ुसूदन! ये सभी काम तुम कर चुके। इससे तु ृहणीय यश ा आ है। अब तुम भाइय के साथ रा पर त त हो दीघ आयु ा करो’॥ २४ ॥



जब राजा इस कार कह चुके, तब ीरामच जी हाथ जोड़कर उनसे बोले—‘धम महाराज! आप कै के यी और भरतपर स ह —उन दोन पर कृ पा कर॥ २५ ॥ ‘ भो! आपने जो कै के यीसे कहा था क म पु स हत तेरा ाग करता ँ , आपका वह घोर शाप पु स हत कै के यीका श न करे’॥ २६ ॥ तब ीरामसे ‘ब त अ ा’ कहकर महाराज दशरथने उनक ाथना ीकार कर ली और हाथ जोड़े खड़े ए ल णको दयसे लगाकर फर यह बात कही—॥ ‘व ! तुमने वदेहन नी सीताके साथ ीरामक भ पूवक सेवा करके मुझे ब त स कया है। तु धमका फल ा आ है॥ २८ ॥ ‘धम ! भ व म भी तु धमका फल ा होगा और भूम लम महान् यशक उपल होगी। ीरामक स तासे तु उ म ग और मह ा होगा॥ २९ ॥ ‘सु म ाका आन बढ़ानेवाले ल ण! तु ारा क ाण हो। तुम ीरामक नर र सेवा करते रहो। ये ीराम सदा स ूण लोक के हतम त र रहते ह॥ ३० ॥ ‘देखो, इ स हत ये तीन लोक, स और मह ष भी परमा प पु षो म रामको णाम करके इनका पूजन कर रहे ह॥ ३१ ॥ ‘सौ ! श ु को संताप देनेवाले ये ीराम देवता के दय और परम गु त ह। ये ही वेद ारा तपा दत अ एवं अ वनाशी ह॥ ३२ ॥ ‘ वदेहन नी सीताके साथ शा भावसे इनक सेवा करते ए तुमने स ूण धमाचरणका फल और महान् यश ा कया है’॥ ३३ ॥ ल णसे ऐसा कहकर राजा दशरथने हाथ जोड़कर खड़ी ◌इ पु वधू सीताको ‘बेटी’ कहकर पुकारा और धीरे-धीरे मधुर वाणीम कहा—॥ ३४ ॥ ‘ वदेहन न! तु इस ागको लेकर ीरामपर कु पत नह होना चा हये; क ये तु ारे हतैषी ह और संसारम तु ारी प व ता कट करनेके लये ही इ ने ऐसा वहार कया है॥ ३५ ॥ ‘बेटी! तुमने अपने वशु च र को प रल त करानेके लये जो अ वेश प काय कया है, यह दूसरी य के लये अ दु र है। तु ारा यह कम अ ना रय के यशको ढक लेगा॥ ३६ ॥



‘प त-सेवाके



स म भले ही तु को◌इ उपदेश देनेक आव कता न हो; कतु इतना तो मुझे अव बता देना चा हये क ये ीराम ही तु ारे सबसे बड़े देवता ह’॥ ३७ ॥ इस कार दोन पु और सीताको आदेश एवं उपदेश देकर रघुवंशी राजा दशरथ वमानके ारा इ लोकको चले गये॥ ३८ ॥ नृप े महानुभाव दशरथ अ तु शोभासे स थे। उनका शरीर हषसे पुल कत हो रहा था। वे वमानपर बैठकर सीतास हत दोन पु से वदा ले देवराज इ के लोकम चले गये॥ ३९ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ११९ ॥



एक सौ बीसवाँ सग ीरामके अनुरोधसे इ का मरे ए वानर को जी वत करना, देवता वानरसेनाका व ाम



का



ान और



महाराज दशरथके लौट जानेपर पाकशासन इ ने अ स हो हाथ जोड़े खड़े ए ीरघुनाथजीसे कहा—॥ १ ॥ ‘नर े ीराम! तु जो हमारा दशन आ, वह थ नह जाना चा हये और हम तुमपर ब त स ह। इस लये तु ारे मनम जो इ ा हो, वह मुझसे कहो’॥ महा ा इ ने जब स होकर ऐसी बात कही, तब ीरघुनाथजीके मनम बड़ी स ता ◌इ। उ ने हषसे भरकर कहा—॥ ३ ॥ ‘व ा म े देवे र! य द आप मुझपर स ह तो म आपसे एक ाथना क ँ गा। आप मेरी उस ाथनाको सफल कर॥ ४ ॥ ‘मेरे लये यु म परा म करके जो यमलोकको चले गये ह, वे सब वानर नया जीवन पाकर उठ खड़े ह ॥ ५ ॥ ‘मानद! जो वानर मेरे लये अपने ी-पु से बछु ड़ गये ह, उन सबको म स च देखना चाहता ँ ॥ ६ ॥ ‘पुरंदर! वे परा मी और शूरवीर थे तथा मृ ुको कु छ भी नह गनते थे। उ ने मेरे लये बड़ा य कया है और अ म कालके गालम चले गये ह। आप उन सबको जी वत कर द॥ ७॥ ‘जो वानर सदा मेरा य करनेम लगे रहते थे और मौतको कु छ नह समझते थे, वे सब आपक कृ पासे फर मुझसे मल—यह वर म चाहता ँ ॥ ८ ॥ ‘दूसर को मान देनेवाले देवराज! म उन वानर, लंगूर और भालु को नीरोग, णहीन और बल-पौ षसे स देखना चाहता ँ ॥ ९ ॥ ‘ये वानर जस ानपर रह, वहाँ असमयम भी फल-मूल और पु क भरमार रहे तथा नमल जलवाली न दयाँ बहती रह’॥ १० ॥



महा ा ीरघुनाथजीक यह बात सुनकर महे ने स तापूवक य उ र दया—॥ ११ ॥ ‘तात!



रघुवंश वभूषण! आपने जो वर माँगा है, यह ब त बड़ा है, तथा प मने कभी दो तरहक बात नह क है; इस लये यह वर अव सफल होगा॥ १२ ॥ ‘जो यु म मारे गये ह और रा स ने जनके म क तथा भुजाएँ काट डाली ह, वे सब वानर, भालू और लंगूर जी उठ॥ १३ ॥ ‘न द टूटनेपर सोकर उठे ए मनु क भाँ त वे सभी वानर नीरोग, णहीन तथा बलपौ षसे स होकर उठ बैठगे॥ १४ ॥ ‘सभी परमान से यु हो अपने सु द , बा व , जा त-भाइय तथा जन से मलगे॥ १५ ॥ ‘महाधनुधर वीर! ये वानर जहाँ रहगे, वहाँ असमयम भी वृ फल-फू ल से लद जायँगे और न दयाँ जलसे भरी रहगी’॥ १६ ॥ इ के इस कार कहनेपर वे सब े वानर जनके सब अ पहले घाव से भरे थे, उस समय घावर हत हो गये और सभी सोकर जगे एक भाँ त सहसा उठकर खड़े हो गये॥ १७ ॥ उ इस कार जी वत होते देख सब वानर आ यच कत होकर कहने लगे क यह ा बात हो गयी? ीरामच जीको सफलमनोरथ आ देख सम े देवता अ स हो ल णस हत ीरामक ु त करके बोले—‘राजन्! अब आप यहाँसे अयो ाको पधार और सम वानर को बदा कर द॥ १८-१९ ॥ ‘ये म थलेशकु मारी यश नी सीता सदा आपम अनुराग रखती ह। इ सा ना दी जये और भा◌इ भरत आपके शोकसे पी ड़त हो त कर रहे ह, अत: उनसे जाकर म लये॥ २० ॥ ‘परंतप! आप महा ा श ु से और सम माता से भी जाकर मल, अपना अ भषेक कराव और पुरवा सय को हष दान कर’॥ २१ ॥ ीराम और ल णसे ऐसा कहकर देवराज इ सब देवता के साथ सूयतु तेज ी वमान ारा बड़ी स ताके साथ अपने लोकको चले गये॥ २२ ॥ उन सम े देवता को नम ार करके भा◌इ ल णस हत ीरामने सबको व ाम करनेक आ ा दी॥ २३ ॥



ीराम और ल णके ारा सुर त तथा -पु सै नक से भरी ◌इ वह यश नी वशाल सेना च माक चाँदनीसे का शत होनेवाली रा के समान अ तु शोभासे उ ा सत होती ◌इ वराज रही थी॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ बीसवाँ सग पूरा आ॥ १२० ॥



एक सौ इ



सवाँ सग



ीरामका अयो ा जानेके लये उ त होना और उनक आ ासे वभीषणका पु क वमानको मँगाना



उस रा को व ाम करके जब श ुसूदन ीराम दूसरे दन ात:काल सुखपूवक उठे , तब कु शल- के प ात् वभीषणने हाथ जोड़कर कहा—॥ १ ॥ ‘रघुन न! ानके लये जल, अ राग, व , आभूषण, च न और भाँ त-भाँ तक द मालाएँ आपक सेवाम उप त ह॥ २ ॥ ‘रघुवीर! ृ ारकलाको जाननेवाली ये कमलनयनी ना रयाँ भी सेवाके लये ुत ह, जो आपको व धपूवक ान करायगी’॥ ३ ॥ वभीषणके ऐसा कहनेपर ीरामच जीने उनसे कहा—‘ म ! तुम सु ीव आ द वानरवीर से ानके लये अनुरोध करो॥ ४ ॥ ‘मेरे लये तो इस समय स का आ य लेनेवाले धमा ा महाबा भरत ब त क सह रहे ह। वे सुकुमार ह और सुख पानेके यो ह॥ ५ ॥ ‘उन धमपरायण कै के यीकु मार भरतसे मले बना न तो मुझे ान अ ा लगता है, न व और आभूषण को धारण करना ही॥ ६ ॥ ‘अब तो तुम इस बातक ओर ान दो क हम कस तरह ज ी-से-ज ी अयो ापुरीको लौट सकगे; क वहाँतक पैदल या ा करनेवालेके लये यह माग ब त ही दुगम है’॥ ७ ॥ उनके ऐसा कहनेपर वभीषणने ीरामच जीको इस कार उ र दया—‘राजकु मार! आप इसके लये च त न ह । म एक ही दनम आपको उस पुरीम प ँ चा दूँगा॥ ८ ॥ ‘आपका क ाण हो। मेरे यहाँ मेरे बड़े भा◌इ कु बेरका सूयतु तेज ी पु क वमान मौजूद है, जसे महाबली रावणने सं ामम कु बेरको हराकर छीन लया था। अतुल परा मी ीराम! वह इ ानुसार चलनेवाला, द एवं उ म वमान मने यहाँ आपहीके लये रख छोड़ा है॥ ९-१० ॥



‘मेघ-जैसा



दखायी देनेवाला वह द वमान यहाँ व मान है, जसके ारा न होकर आप अयो ापुरीको जा सकगे॥ ११ ॥ ‘ ीराम! य द मुझे आप अपना कृ पापा समझते ह, मुझम कु छ गुण देखते या मानते ह और मेरे त आपका सौहाद है तो अभी भा◌इ ल ण तथा प ी सीताजीके साथ कु छ दन यह वरा जये। म स ूण मनोवा त व ु ारा आपका स ार क ँ गा। मेरे उस स ारको हण कर लेनेके प ात् अयो ाको पधा रयेगा॥ १२-१३ ॥ ‘रघुन न! म स तापूवक आपका स ार करना चाहता ँ । मेरे ारा ुत कये गये उस स ारको आप सु द तथा सेना के साथ हण कर॥ १४ ॥ ‘रघुवीर! म के वल ेम, स ान और सौहादके कारण ही आपसे यह ाथना कर रहा ँ । आपको स करना चाहता ँ । म आपका सेवक ँ । इस लये आपसे वनय करता ँ , आपको आ ा नह देता ँ ’॥ १५ ॥ जब वभीषणने ऐसी बात कही, तब ीराम सम रा स और वानर के सुनते ए ही उनसे बोले—॥ १६ ॥ ‘वीर! मेरे परम सु द ् और उ म स चव बनकर तुमने सब कारक चे ा ारा मेरा स ान और पूजन कया है॥ १७ ॥ ‘रा से र! तु ारी इस बातको म न य ही अ ीकार नह कर सकता ँ ; परंतु इस समय मेरा मन अपने उन भा◌इ भरतको देखनेके लये उतावला हो उठा है, जो मुझे लौटा ले जानेके लये च कू टतक आये थे और मेरे चरण म सर कु ाकर याचना करनेपर भी जनक बात मने नह मानी थी॥ १८-१९ ॥ ‘उनके सवा माता कौस ा, सु म ा, यश नी कै के यी, म वर गुह और नगर एवं जनपदके लोग को देखनेके लये भी मुझे बड़ी उ ा हो रही है॥ २० ॥ ‘सौ वभीषण! अब तो तुम मुझे जानेक ही अनुम त दो। म तु ारे ारा ब त स ा नत हो चुका ँ । सखे! मेरे इस हठके कारण मुझपर ोध न करना। इसके लये म तुमसे बार-बार ाथना करता ँ ॥ २१ ॥ ‘रा सराज! अब शी मेरे लये पु क वमानको यहाँ मँगाओ। जब मेरा यहाँ काय समा हो गया, तब यहाँ ठहरना मेरे लये कै से ठीक हो सकता है?’॥ २२ ॥



ीरामच जीके ऐसा कहनेपर रा सराज वभीषणने बड़ी उतावलीके साथ उस सूयतु तेज ी वमानका आवाहन कया॥ २३ ॥ उस वमानका एक-एक अ सोनेसे जड़ा आ था, जससे उसक व च शोभा होती थी। उसके भीतर वैदयू म ण (नीलम)-क वे दयाँ थ , जहाँ-तहाँ गु गृह बने ए थे और वह सब ओर चाँदीके समान चमक ला था॥ २४ ॥ वह ेत-पीत वणवाली पताका तथा ज से अलंकृत था। उसम सोनेके कमल से सुस त णमयी अ ा लकाएँ थ , जो उस वमानक शोभा बढ़ाती थ ॥ सारा वमान छोटी-छोटी घं टय से यु झालर से ा था। उसम मोती और म णय क खड़ कयाँ लगी थ । सब ओर घंटे बँधे थे, जससे मधुर न होती रहती थी॥ २६ ॥



वह व कमाका बनाया आ वमान सुमे - शखरके समान ऊँ चा तथा मोती और चाँदीसे सुस त बड़े-बड़े कमर से वभू षत था॥ २७ ॥ उसक फश व च टकम णसे जड़ी ◌इ थी। उसम नीलमके ब मू सहासन थे, जनपर महामू वान् ब र बछे ए थे॥ २८ ॥ उसका मनके समान वेग था और उसक ग त कह कती नह थी। वह वमान सेवाम उप त आ। वभीषण ीरामको उसके आनेक सूचना देकर वहाँ खड़े हो गये॥ २९ ॥ पवतके समान ऊँ चे और इ ानुसार चलनेवाले उस पु क वमानको त ाल उप त देख ल णस हत उदारचेता भगवान् ीरामको बड़ा व य आ॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ इ सवाँ सग पूरा आ॥ १२१ ॥



एक सौ बा◌इसवाँ सग ीरामक आ ासे वभीषण ारा वानर का वशेष स ार तथा सु ीव और वभीषणस हत वानर को साथ लेकर ीरामका पु क वमान ारा अयो ाको ान करना



फू ल से सजे ए पु क वमानको वहाँ उप त करके पास ही खड़े ए वभीषणने ीरामसे कु छ कहनेका वचार कया॥ १ ॥ रा सराज वभीषणने दोन हाथ जोड़कर बड़ी वनय और उतावलीके साथ ीरघुनाथजीसे पूछा— ‘ भो! अब म ा सेवा क ँ ?’॥ २ ॥ तब महातेज ी ीरघुनाथजीने कु छ सोचकर ल णके सुनते ए यह ेहयु वचन कहा—॥ ३ ॥ ‘ वभीषण! इन सारे वानर ने यु म बड़ा य एवं प र म कया है; अत: तुम नाना कारके र और धन आ दके ारा इन सबका स ार करो॥ ४ ॥ ‘रा से र! ये वीर वानर सं ामसे कभी पीछे नह हटते ह और सदा हष एवं उ ाहसे भरे रहते ह। ाण का भय छोड़कर लड़नेवाले इन वानर के सहयोगसे तुमने ल ापर वजय पायी है॥ ५ ॥ ‘ये सभी वानर इस समय अपना काम पूरा कर चुके ह, अत: इ र और धन आ द देकर तुम इनके इस कमको सफल करो॥ ६ ॥ ‘तुम कृ त होकर जब इनका इस कार स ान और अ भन न करोगे, तब ये वानरयूथप त ब त संतु ह गे॥ ७ ॥ ‘ऐसा करनेसे सब लोग यह जानगे क वभीषण उ चत अवसरपर धनका ाग एवं दान करते ह, यथासमय ायो चत री तसे धन और र आ दका सं ह करते रहते ह, दयालु ह और जते य ह; इस लये तु ऐसा करनेके लये समझा रहा ँ ॥ ८ ॥ ‘नरे र! जो राजा सेवक म ेम उ करनेवाले दान-मान आ द सब गुण से र हत होता है, उसे यु के अवसरपर उ ◌इ सेना छोड़कर चल देती है, वह समझती है क यह थ ही हमारा वध करा रहा है— हमारे भरण-पोषणका या योग- ेमक च ा इसे बलकु ल नह है’॥ ९॥



ीरामके ऐसा कहनेपर वभीषणने उन सब वानर को र और धन देकर सभीका पूजन (स ार) कया॥ १० ॥ उन वानरयूथप तय को र और धनसे पू जत आ देख उस समय भगवान् ीराम लजाती ◌इ मन नी वदेहकु मारीको अ म लेकर परा मी धनुधर ब ु ल णके साथ उस उ म वमानपर आ ढ़ ए॥ वमानपर बैठकर सम वानर का समादर करते ए उन ककु कु लभूषण ीरामने वभीषणस हत महापरा मी सु ीवसे कहा—॥ १३ ॥ ‘वानर े वीरो! आपलोग ने अपने इस म का काय म ो चत री तसे ही भलीभाँ त स कया। अब आप सब अपने-अपने अभी ान को चले जायँ॥ ‘सखे सु ीव! एक हतैषी एवं ेमी म को जो काम करना चा हये, वह सब तुमने पूरापूरा कर दखाया; क तुम अधमसे डरनेवाले हो॥ १५ ॥ ‘वानरराज! अब तुम अपनी सेनाके साथ शी ही क ापुरीको चले जाओ। वभीषण! तुम भी ल ाम मेरे दये ए अपने रा पर र रहो; अब इ आ द देवता भी तु ारा कु छ बगाड़ नह सकते ह॥ १६ ॥ ‘अब इस समय म अपने पताक राजधानी अयो ाको जाऊँ गा। इसके लये आप सब लोग से पूछता ँ और सबक अनुम त चाहता ँ ’॥ १७ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर सभी वानर-सेनाप त तथा रा सराज वभीषण हाथ जोड़कर कहने लगे—॥ ‘भगवन्! हम भी अयो ापुरीको चलना चाहते ह, आप हम भी अपने साथ ले च लये। वहाँ हम स तापूवक वन और उपवन म वचरगे॥ १९ ॥ ‘नृप े ! रा ा भषेकके समय म पूत जलसे भीगे ए आपके ी व हक झाँक करके माता कौस ाके चरण म म क कु ाकर हम शी अपने घर लौट आयगे’॥ २० ॥ वभीषणस हत वानर के इस कार अनुरोध करनेपर ीरामने सु ीव तथा वभीषणस हत उन वानर से कहा—॥ २१ ॥ ‘ म ो! यह तो मेरे लये यसे भी य बात होगी—परम य व ुका लाभ होगा, य द म आप सभी सु द के साथ अयो ापुरीको चल सकूँ । इससे मुझे बड़ी स ता ा होगी॥



२२ ॥



‘सु



ीव! तुम सब वानर के साथ शी ही इस वमानपर चढ़ जाओ। रा सराज वभीषण! तुम भी म य के साथ वमानपर आ ढ़ हो जाओ’॥ २३ ॥ तब वानर स हत सु ीव और म य स हत वभीषण बड़ी स ताके साथ उस द पु क वमानपर चढ़ गये॥ २४ ॥ उन सबके चढ़ जानेपर कु बेरका वह उ म आसन पु क वमान ीरघुनाथजीक आ ा पाकर आकाशको उड़ चला॥ २५ ॥ आकाशम प ँ चे ए उस हंसयु तेज ी वमानसे या ा करते ए पुल कत एवं स च ीराम सा ात् कु बेरके समान शोभा पा रहे थे॥ २६ ॥ वे सब वानर, भालू और महाबली रा स उस द वमानम बड़े सुखसे फै लकर बैठे ए थे। कसीको कसीसे ध ा नह खाना पड़ता था॥ २७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ बा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ १२२ ॥



एक सौ ते◌इसवाँ सग अयो ाक या ा करते समय ीरामका सीताजीको मागके



ान दखाना



ीरामक आ ा पाकर वह हंसयु उ म वमान महान् श करता आ आकाशम उड़ने लगा॥ १ ॥ उस समय रघुकुलन न ीरामने सब ओर डालकर च माके समान मनोहर मुखवाली म थलेश-कु मारी सीतासे कहा—॥ २ ॥ ‘ वदेहराजन न! कै लास- शखरके समान सु र कू ट पवतके वशाल ृ पर बसी ◌इ व कमाक बनायी ल ापुरीको देखो, कै सी सु र दखायी देती है!॥ ‘इधर इस यु भू मको देखो। यहाँ र और मांसक क च जमी ◌इ है। सीते! इस यु े म वानर और रा स का महान् संहार आ है॥ ४ ॥ ‘ वशाललोचने! यह रा सराज रावण राखका ढेर बनकर सो रहा है। यह बड़ा भारी हसक था और इसे ाजीने वरदान दे रखा था; कतु तु ारे लये मने इसका वध कर डाला है॥ ५ ॥ ‘यह पर मने कु कणको मारा था, यह नशाचर ह मारा गया है और इसी समरा णम वानरवीर हनुमा े धू ा का वध कया है॥ ६ ॥ ‘यह महामना सुषेणने व ु ालीको मारा था और इसी रणभू मम ल णने रावणपु इ ज ा संहार कया था॥ ७ ॥ ‘यह अ दने वकट नामक रा सका वध कया था। जसक ओर देखना भी क ठन था, वह व पा तथा महापा और महोदर भी यह मारे गये ह॥ ८ ॥ ‘अक न तथा दूसरे बलवान् रा स यह मौतके घाट उतारे गये थे। शरा, अ तकाय, देवा क और नरा क भी यह मार डाले गये थे॥ ९ ॥ ‘यु ो और म —ये दोन े रा स तथा बलवान् कु और नकु —ये कु कणके दोन पु भी यह मृ ुको ा ए॥ १० ॥ ‘व दं और दं आ द ब त-से रा स यह कालके ास बन गये। दुधष वीर मकरा को इसी यु लम मने मार गराया था॥ ११ ॥



‘अक



न और परा मी शो णता का भी यह काम तमाम आ था। यूपा और ज भी इसी महासमरम मारे गये थे॥ १२ ॥ ‘ जसक ओर देखनेसे भी भय होता था, वह रा स व ु यह मौतका ास बन गया। य श ु और महाबली सु को भी यह मारा गया था॥ १३ ॥ ‘सूयश ु और श ु नामक नशाचर का भी यह वध कया गया था। यह रावणक भाया म ोदरीने उसके लये वलाप कया था। उस समय वह अपनी हजार से भी अ धक सौत से घरी ◌इ थी॥ १४ १/२ ॥ ‘सुमु ख! यह समु का तीथ दखायी देता है, जहाँ समु को पार करके हमलोग ने वह रात बतायी थी॥ १५ १/२ ॥ ‘ वशाललोचने! खारे पानीके समु म यह मेरा बँधवाया आ पुल है, जो नलसेतुके नामसे व ात है। दे व! तु ारे लये ही यह अ दु र सेतु बाँधा गया था॥ १६ १/२ ॥ ‘ वदेहन न! इस अ ो व णालय समु को तो देखो, जो अपार-सा दखायी देता है। श और सी पय से भरा आ यह सागर कै सी गजना कर रहा है॥ १७ १/२ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! इस सुवणमय पवतराज हर नाभको तो देखो, जो हनुमा ीको व ाम देनेके लये समु क जलरा शको चीरकर ऊपरको उठ गया था॥ १८ १/२ ॥ ‘यह समु के उदरम ही वशाल टापू है, जहाँ मने सेनाका पड़ाव डाला था। यह पूवकालम भगवान् महादेवने मुझपर कृ पा क थी—सेतु बाँधनेसे पहले मेरे ारा ा पत होकर वे यहाँ वराजमान ए थे॥ १९ १/२ ॥ ‘इस पु लम वशालकाय समु का तीथ दखायी देता है, जो सेतु नमाणका मूल देश होनेके कारण सेतुब नामसे व ात तथा तीन लोक ारा पू जत होगा॥ २० १/२ ॥ ‘यह



तीथ परम प व और महान् पातक का नाश करनेवाला होगा। यह ये रा सराज वभीषण आकर मुझसे मले थे॥ २१ १/२ ॥ ‘सीते! यह व च वन ा से सुशो भत क ा दखायी देती है, जो वानरराज सु ीवक सुर नगरी है। यह मने वालीका वध कया था’॥ २२ १/२ ॥



तदन र वा लपा लत क ापुरीका दशन करके सीताने ेमसे व ल हो ीरामसे वनयपूवक कहा—॥ २३ १/२ ॥ ‘महाराज! म सु ीवक तारा आ द य भाया तथा अ वानरे र क य को साथ लेकर आपके साथ अपनी राजधानी अयो ाम चलना चाहती ँ ’*॥ वदेहन नी सीताके ऐसा कहनेपर ीरघुनाथजीने कहा—‘ऐसा ही हो।’ फर क ाम प ँ चनेपर उ ने वमान ठहराया और सु ीवक ओर देखकर कहा—॥ २६ १/२ ॥ ‘वानर े ! तुम सम वानरयूथप तय से कहो क वे सब लोग अपनी-अपनी य को साथ लेकर सीताके साथ अयो ा चल तथा महाबली वानरराज सु ीव! तुम भी अपनी सब य के साथ शी चलनेक तैयारी करो, जससे हम सब लोग ज ी वहाँ प ँ च’॥ २७-२८ १/ ॥ २



अ मत तेज ी ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर उन सब वानर से घरे ए ीमान् वानरराज सु ीवने शी ही अ :पुरम वेश करके तारासे भट क और इस कार कहा—॥ २९-३० ॥ ‘ ये! तुम म थलेशकु मारी सीताका य करनेक इ ासे ीरघुनाथजीक आ ाके अनुसार सभी धान- धान महा ा वानर क य के साथ शी चलनेक तैयारी करो। हमलोग इन वानर-प य को साथ लेकर चलगे और उ अयो ापुरी तथा महाराज दशरथक सब रा नय का दशन करायगे’॥ ३१-३२ ॥ सु ीवक यह बात सुनकर सवा सु री ताराने सम वानर-प य को बुलाकर कहा —॥ ३३ ॥ ‘स खयो! सु ीवक आ ाके अनुसार तुम सब लोग अपने प तय —सम वानर के साथ अयो ा चलनेके लये शी तैयार हो जाओ। अयो ाका दशन करके तुमलोग मेरा भी य काय करोगी। वहाँ पुरवा सय तथा जनपदके लोग के साथ ीरामका जो अपने नगरम वेश होगा, वह उ व हम देखनेको मलेगा। हम वहाँ महाराज दशरथक सम रा नय के वैभवका भी दशन करगी’॥ ३४-३५ ॥ ताराक यह आ ा पाकर सारी वानर-प य ने ृ ार करके उस वमानक प र मा क और सीताजीके दशनक इ ासे वे उसपर चढ़ गय ॥ ३६ १/२ ॥



उन सबके साथ वमानको शी ही ऊपर उठा देख ीरघुनाथजीने ऋ मूकके नकट आनेपर पुन: वदेहन नीसे कहा—॥ ३७ १/२ ॥ ‘सीते! वह जो बजलीस हत मेघके समान सुवणमय धातु से यु े एवं महान् पवत दखायी देता है, उसका नाम ऋ मूक है॥ ३८ १/२ ॥ ‘सीते! यह म वानरराज सु ीवसे मला था और म ता करनेके प ात् वालीका वध करनेके लये त ा क थी॥ ३९ १/२ ॥ ‘यही वह प ा नामक पु रणी है, जो तटवत व च कानन से सुशो भत हो रही है। यहाँ तु ारे वयोगसे अ दु:खी होकर मने वलाप कया था॥ ‘इसी प ाके तटपर मुझे धमपरायणा शबरीका दशन आ था। इधर वह ान है, जहाँ एक योजन ल ी भुजावाले कब नामक असुरका मने वध कया था॥ ‘ वलासशा लनी सीते! जन ानम वह शोभाशाली वशाल वृ दखायी दे रहा है, जहाँ बलवान् एवं महातेज ी प वर जटायु तु ारी र ा करनेके कारण रावणके हाथसे मारे गये थे॥ ४२-४३ ॥ ‘यह वह ान है, जहाँ मेरे सीधे जानेवाले बाण ारा खर मारा गया, दूषण धराशायी कया गया और महापरा मी शराको भी मौतके घाट उतार दया गया॥ ४४ ॥ ‘वरव ण न! शुभदशने! यह हमलोग का आ म है तथा वह व च पणशाला दखायी देती है, जहाँ आकर रा सराज रावणने बलपूवक तु ारा अपहरण कया था॥ ‘यह जलरा शसे सुशो भत म लमयी रमणीय गोदावरी नदी है तथा वह के लेके कु से घरा आ मह ष अग का आ म दखायी देता है॥ ४६ १/२ ॥ ‘यह महा ा सुती णका दी मान् आ म है और वदेहन न! वह शरभ मु नका महान् आ म दखायी देता है, जहाँ सह ने धारी पुरंदर इ पधारे थे॥ ‘यह वह ान है, जहाँ मने वशालकाय वराधका वध कया था। दे व! तनुम मे! ये वे तापस दखायी देते ह, जनका दशन हमलोग ने पहले कया था॥ ४९ ॥ ‘सीते! इस तापसा मपर ही सूय और अ के समान तेज ी कु लप त अ मु न नवास करते ह। यह तुमने धमपरायणा तप नी अनसूयादेवीका दशन कया था॥



‘सुतनु!



वह ग रराज च कू ट का शत हो रहा है। वह कै के यीकु मार भरत मुझे स करके लौटा लेनेके लये आये थे॥ ५१ ॥ ‘ म थलेशकु मारी! यह व च कानन से सुशो भत रमणीय यमुना नदी दखायी देती है और यह शोभाशाली भर ाजा म गोचर हो रहा है॥ ५२ ॥ ‘ये पु स लला पथगा ग ा नदी दीख रही ह, जनके तटपर नाना कारके प ी कलरव करते ह और जवृ पु कम म रत ह। इनके तटवत वनके वृ सु र फू ल से भरे ए ह॥ ५३ ॥ ‘यह ृ वेरपुर है, जहाँ मेरा म गुह रहता है। सीते! यह यूपमाला से अलंकृत सरयू दखायी देती है, जसके तटपर मेरे पताजीक राजधानी है। वदेहन न! तुम वनवासके बाद फर लौटकर अयो ाको आयी हो। इस लये इस पुरीको णाम करो’॥ ५४-५५ ॥ तब वभीषणस हत वे सब रा स और वानर अ हषसे उ सत हो उछल-उछलकर उस पुरीका दशन करने लगे॥ ५६ ॥ त ात् वे वानर और रा स ेत अ ा लका से अलंकृत और वशाल भवन से वभू षत अयो ापुरीको, जो हाथी-घोड़ से भरी थी और देवराज इ क अमरावतीपुरीके समान शो भत होती थी, देखने लगे॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ ते◌इसवाँ सग पूरा आ॥ १२३ ॥ सीताजीने जो यहाँ वानर क य को साथ ले चलनेक इ ा कट क है, इसके लये क ाम वमानको रोककर सबको एक दन कना पड़ा। ऐसा रामायण- तलककारका मत है। उनके कथनानुसार आ न शु ा चतुथ को क ाम रहकर प मीको वहाँसे ान कया गया था। भगवान् रामने वहाँ ककर उसी दन अ दका क ाके युवराजपदपर अ भषेक करवाया था, जैसा क महाभारत, वनपव अ ाय २९१ ोक ५८-५९ से सू चत होता है। *



एक सौ चौबीसवाँ सग ीरामका भर ाज-आ मपर उतरकर मह षसे मलना और उनसे वर पाना



ीरामच जीने चौदहवाँ वष पूण होनेपर प मी त थको भर ाज-आ मम प ँ चकर मनको वशम रखते ए मु नको णाम कया॥ १ ॥ तप ाके धनी भर ाज मु नको णाम करके ीरामने उनसे पूछा—‘भगवन्! आपने अयो ापुरीके वषयम भी कु छ सुना है? वहाँ सुकाल और कु शल-म ल तो है न? भरत जापालनम त र रहते ह न? मेरी माताएँ जी वत ह न?’॥ २ ॥ ीरामच जीके इस कार पूछनेपर महामु न भर ाजने मु राकर उन रघु े ीरामसे स तापूवक कहा—॥ ३ ॥ ‘रघुन न! भरत आपक आ ाके अधीन ह। वे जटा बढ़ाये आपके आगमनक ती ा करते ह। आपक चरणपादुका को सामने रखकर सारा काय करते ह। आपके घरपर और नगरम भी सब कु शल ह॥ ४ ॥ ‘पहले जब आप महान् वनक या ा कर रहे थे, उस समय आपने चीरव धारण कर रखा था और आप दोन भाइय के साथ तीसरी के वल आपक ी थी। आप रा से व त कये गये थे और के वल धमपालनक इ ा मनम ले सव ागकर पताक आ ाका पालन करनेके लये पैदल ही जा रहे थे। सारे भोग से दूर हो गसे भूतलपर गरे ए देवताके समान जान पड़ते थे। श ु वजयी वीर! आप कै के यीके आदेशके पालनम त र हो जंगली फल-मूलका आहार करते थे, उस समय आपको देखकर मेरे मनम बड़ी क णा ◌इ थी॥ ५—७ ॥ ‘परंतु इस समय तो सारी त ही बदल गयी है। आप श ुपर वजय पाकर सफलमनोरथ हो म तथा बा व के साथ लौट रहे ह। इस पम आपको देखकर मुझे बड़ा सुख मला—मुझे बड़ी स ता ◌इ॥ ‘रघुवीर! आपने जन ानम रहकर जो वपुल सुख-दु:ख उठाये ह, वे सब मुझे मालूम ह॥ ९॥ ‘वहाँ रहकर आप ा ण के कायम संल हो सम तप ी मु नय क र ा करते थे। उस समय रावण आपक इन सती-सा ी भायाको हर ले गया॥



‘धमव



ल! मारीचका कपटमृगके पम दखायी देना, सीताका बलपूवक अपहरण होना, इनक खोज करते समय आपके मागम कब का मलना, आपका प ासरोवरके तटपर जाना, सु ीवके साथ आपक मै ीका होना, आपके हाथसे वालीका मारा जाना, सीताक खोज, पवनपु हनुमा ा अ तु कम, सीताका पता लग जानेपर नलके ारा समु पर सेतुका नमाण, हष और उ ाहसे भरे ए वानर-यूथप तय ारा ल ापुरीका दहन, पु , ब ,ु म ी, सेना और सवा रय स हत बला भमानी रावणका आपके ारा यु म वध होना, उस देवक क रावणके मारे जानेपर देवता के साथ आपका समागम होना तथा उनका आपको वर देना— ये सारी बात मुझे तपके भावसे ात ह॥ ११—१५ १/२ ॥ ‘मेरे वृ नामक श यहाँसे अयो ापुरीको जाते रहते ह (अत: मुझे वहाँका वृ ा मालूम होता रहता है), श धा रय म े ीराम! यहाँ म भी आपको एक वर देता ँ (आपक जो इ ा हो, उसे माँग ल)। आज मेरा अ और आ त -स ार हण कर। कल सबेरे अयो ाको जाइयेगा’॥ १६-१७ ॥ मु नके उस वचनको शरोधाय करके हषसे भरे ए ीमान् राजकु मार ीरामने कहा —‘ब त अ ा’। फर उ ने उनसे यह वर माँगा—॥ १८ ॥ ‘भगवन्! यहाँसे अयो ा जाते समय मागके सब वृ म समय न होनेपर भी फल उ हो जायँ और वे सब-के -सब मधुक धारा टपकानेवाले ह । उनम नाना कारके ब त-से अमृतोपम सुग त फल लग जायँ’॥ १९ १/२ ॥ भर ाजजीने कहा—‘ऐसा ही होगा’। उनके इस कार त ा करते ही—उनक उस वाणीके नकलते ही त ाल वहाँके सारे वृ ग य वृ के समान हो गये॥ २० १/२ ॥ जनम फल नह थे, उनम फल आ गये। जनम फू ल नह थे, वे फू ल से सुशो भत होने लगे। सूखे ए वृ म भी हरे-हरे प े नकल आये और सभी वृ मधुक धारा बहाने लगे। अयो ा जानेका जो माग था, उसके आस-पास तीन योजनतकके वृ ऐसे ही हो गये॥ २१-२२ ॥



फर तो वे सह े वानर हषसे भरकर गवासी देवता के समान अपनी चके अनुसार स तापूवक उन ब सं क द फल का आ ादन करने लगे॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ चौबीसवाँ सग पूरा आ॥ १२४ ॥



एक सौ पचीसवाँ सग हनुमा ीका नषादराज गुह तथा भरतजीको ीरामके आगमनक सूचना देना और स ए भरतका उ उपहार देनेक घोषणा करना (भर



ाज-आ मपर उतरनेसे पहले) वमानसे ही अयो ापुरीका दशन करके अयो ावा सय तथा सु ीव आ दका य करनेक इ ावाले शी परा मी रघुकुलन न ीरामने यह वचार कया क कै से इन सबका य हो?॥ १ ॥ वचार करके तेज ी एवं बु मान् ीरामने वानर पर डाली और वानर-वीर हनुमा ीसे कहा—॥ २ ॥ ‘क प े ! तुम शी ही अयो ाम जाकर पता लो क राजभवनम सब लोग सकु शल तो ह न?॥ ३ ॥ ‘ ृ वेरपुरम प ँ चकर वनवासी नषादराज गुहसे भी मलना और मेरी ओरसे कु शल कहना॥ ४ ॥ ‘मुझे सकु शल, नीरोग और च ार हत सुनकर नषादराज गुहको बड़ी स ता होगी; क वह मेरा म है। मेरे लये आ ाके समान है॥ ५ ॥ ‘ नषादराज गुह स होकर तु अयो ाका माग और भरतका समाचार बतायेगा॥ ६ ॥ ‘भरतके



पास जाकर तुम मेरी ओरसे उनका कु शल पूछना और उ सीता एवं ल णस हत मेरे सफलमनोरथ होकर लौटनेका समाचार बताना॥ ७ ॥ ‘बलवान् रावणके ारा सीताजीके हरे जानेका, सु ीवसे बातचीत होनेका, रणभू मम वालीके वधका, सीताजीक खोजका, तुमने जो महान् जलरा शसे भरे ए अपार महासागरको लाँघकर जस तरह सीताका पता लगाया था उसका, फर समु तटपर मेरे जानेका, सागरके दशन देनेका, उसपर पुल बनानेका, रावणके वधका, इ , ा और व णसे मलने एवं वरदान पानेका और महादेवजीके सादसे पताजीके दशन होनेका वृ ा उ सुनाना॥ ८—११ ॥ ‘सौ ! फर भरतसे यह भी नवेदन करना क ीराम श ु को जीतकर, परम उ म यश पाकर, सफलमनोरथ हो रा सराज वभीषण, वानरराज सु ीव तथा अपने अ महाबली



म के साथ आ रहे ह और यागतक आ प ँ चे ह॥ १२-१३ ॥ ‘यह बात सुनकर भरतक जैसी मुख-मु ा हो, उसपर ान रखना और समझना तथा भरतका मेरे त जो कत या बताव हो, उसको भी जाननेका य करना॥ १४ ॥ ‘वहाँके सारे वृ ा तथा भरतक चे ाएँ तु यथाथ पसे जाननी चा हये। मुखक का , और बातचीतसे उनके मनोभावको समझनेक चे ा करनी चा हये॥ १५ ॥ ‘सम मनोवा त भोग से स तथा हाथी, घोड़े और रथ से भरपूर बाप-दाद का रा सुलभ हो तो वह कसके मनको नह पलट देता?॥ १६ ॥ ‘य द कै के यीक संग त अथवा चरकालतक रा वैभवका संसग होनेसे ीमान् भरत यं ही रा पानेक इ ा रखते ह तो वे रघुकुलन न भरत बेखटके सम भूम लका रा कर (मुझे उस रा को नह लेना है। उस दशाम हम कह अ रहकर तप ी जीवन तीत करगे)॥ १७ ॥ ‘वानरवीर! तुम भरतके वचार और न यको जानकर जबतक हमलोग इस आ मसे दूर न चले जायँ तभीतक शी लौट आओ’॥ १८ ॥ ीरघुनाथजीके इस कार आदेश देनेपर पवनपु हनुमा ी मनु का प धारण करके ती ग तसे अयो ाक ओर चल दये॥ १९ ॥ जैसे ग ड़ कसी े सपको पकड़नेके लये बड़े वेगसे झप ा मारते ह, उसी तरह पवनपु हनुमान् ती वेगसे उड़ चले॥ २० ॥ अपने पता वायुके माग—अ र को, जो प राज ग ड़का सु र गृह है, लाँघकर ग ा और यमुनाके वेगशाली संगमको पार करके ृ वेरपुरम प ँ चकर परा मी हनुमा ी नषादराज गुहसे मले और बड़े हषके साथ सु र वाणीम बोले—॥ २१-२२ ॥ ‘तु ारे म ककु कु लभूषण स परा मी ीराम सीता और ल णके साथ आ रहे ह और उ ने तु अपना कु शल-समाचार कहलाया है। वे यागम ह और भर ाजमु नके कहनेसे उ के आ मम आज प मीक रात बताकर कल उनक आ ा ले वहाँसे चलगे। तु यह ीरघुनाथजीका दशन होगा’॥ २३-२४ ॥ गुहसे य कहकर महातेज ी और वेगशाली हनुमा ी बना को◌इ सोच- वचार कये बड़े वेगसे आगेको उड़ चले। उस समय उनके सारे अ म हषज नत रोमा हो आया था॥ २५







मागम उ परशुराम-तीथ, वालु कनी नदी, व थी, गोमती और भयानक सालवनके दशन ए॥ २६ ॥ क◌इ सह जा तथा समृ शाली जनपद को देखते ए क प े हनुमा ी ती ग तसे दूरतकका रा ा लाँघ गये और न ामके समीपवत खले ए वृ के पास जा प ँ चे। वे वृ देवराज इ के न नवन और कु बेरके चै रथ-वनके वृ के समान सुशो भत होते थे॥ २७-२८ ॥ उनके आस-पास ब त-सी याँ अपने उन पु और पौ के साथ, जो व ाभूषण से भलीभाँ त अलंकृत थे, वचरती और उनके पु का चयन करती थ । अयो ासे एक कोसक दूरीपर उ ने आ मवासी भरतको देखा, जो चीर-व और काला मृगचम धारण कये दु:खी एवं दुबल दखायी देते थे। उनके सरपर जटा बढ़ी ◌इ थी, शरीरपर मैल जम गयी थी, भा◌इके वनवासके दु:खने उ ब त ही कृ श कर दया था, फल-मूल ही उनका भोजन था, वे इ य का दमन करके तप ाम लगे ए थे और धमका आचरण करते थे। सरपर जटाका भार ब त ही ऊँ चा दखायी देता था, व ल और मृगचमसे उनका शरीर ढका था। वे बड़े नयमसे रहते थे। उनका अ :करण शु था और वे षके समान तेज ी जान पड़ते थे। रघुनाथजीक दोन चरणपादुका को आगे रखकर वे पृ ीका शासन करते थे॥ २९—३२ ॥ भरतजी चार वण क जा को सब कारके भयसे सुर त रखते थे। उनके पास म ी, पुरो हत और सेनाप त भी योगयु होकर रहते और गे ए व पहनते थे॥ ३३ १/२ ॥ अयो ाके वे धमानुरागी पुरवासी भी उन चीर और काला मृगचम धारण करनेवाले राजकु मार भरतको उस दशाम छोड़कर यं भोग भोगनेक इ ा नह करते थे॥ ३४ १/२ ॥ मनु देह धारण करके आये ए दूसरे धमक भाँ त उन धम भरतके पास प ँ चकर पवनकु मार हनुमा ी हाथ जोड़कर बोले—॥ ३५ १/२ ॥ ‘देव! आप द कार म चीरव और जटा धारण करके रहनेवाले जन ीरघुनाथजीके लये नर र च त रहते ह, उ ने आपको अपना कु शल-समाचार कहलाया है और आपका भी पूछा है। अब आप इस अ दा ण शोकको ाग दी जये। म आपको बड़ा य समाचार सुना रहा ँ । आप शी ही अपने भा◌इ ीरामसे मलगे॥ ३६-३७ १/२ ॥



‘भगवान्



ीराम रावणको मारकर म थलेशकु मारीको वापस ले सफलमनोरथ हो अपने महाबली म के साथ आ रहे ह। उनके साथ महातेज ी ल ण और यश नी वदेहराजकु मारी सीता भी ह। जैसे देवराज इ के साथ शची शोभा पाती ह, उसी कार ीरामके साथ पूणकामा सीताजी सुशो भत हो रही ह’॥ ३८-३९ ॥ हनुमा ीके ऐसा कहते ही कै के यी-कु मार भरत सहसा आन वभोर हो पृ ीपर गर पड़े और हषसे मू त हो गये॥ ४० ॥ त ात् दो घड़ीके बाद उ होश आ और वे उठकर खड़े हो गये। उस समय रघुकुलभूषण ीमान् भरतने यवादी हनुमा ीको बड़े वेगसे पकड़कर दोन भुजा म भर लया और शोक-संसगसे शू परमान ज नत वपुल अ ु ब ु से वे उ नहलाने लगे। फर इस कार बोले—॥ ४१-४२ ॥ ‘भैया! तुम को◌इ देवता हो या मनु , जो मुझपर कृ पा करके यहाँ पधारे हो ? सौ ! तुमने जो यह य संवाद सुनाया है, इसके बदले म तु कौन-सी य व ु दान क ँ ? (मुझे तो को◌इ ऐसा ब मू उपहार नह दखायी देता, जो इस य संवादके तु हो)॥ ‘(तथा प) म तु इसके लये एक लाख गौएँ , सौ उ म गाँव तथा उ म आचारवचारवाली सोलह कु मारी क ाएँ प ी पम सम पत करता ँ । उन क ा के कान म सु र कु ल जगमगाते ह गे। उनक अ का सुवणके समान होगी। उनक ना सका सुघड़, ऊ मनोहर और मुख च माके समान सु र ह गे। वे कु लीन होनेके साथ ही सब कारके आभूषण से वभू षत ह गी’॥ ४४-४५ ॥ उन मुख वानर-वीर हनुमा ीके मुखसे ीरामच जीके आगमनका अ तु समाचार सुनकर राजकु मार भरतको ीरामके दशनक इ ासे अ हष आ और उस हषा तरेकसे ही वे फर इस कार बोले— इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ पचीसवाँ सग पूरा आ॥ १२५ ॥



एक सौ छ ीसवाँ सग हनुमा ीका भरतको ीराम, ल ‘मेरे



ण और सीताके वनवासस



ी सारे वृ ा



को सुनाना



ामी ीरामको वशाल वनम गये ब त वष बीत गये। इतने वष के बाद आज मुझे उनक आन दा यनी चचा सुननेको मली है॥ १ ॥ ‘आज यह क ाणमयी लौ कक गाथा मुझे यथाथ जान पड़ती है—मनु य द जीता रहे तो उसे कभी-न-कभी हष और आन क ा होती ही है, भले ही वह सौ वष बाद हो॥ २ ॥ ‘सौ ! ीरघुनाथजीका और वानर का यह मेल-जोल कै से आ? कस देशम और कस कारणको लेकर आ? यह म जानना चाहता ँ । मुझे ठीक-ठीक बताओ’॥ राजकु मार भरतके इस कार पूछनेपर कु शासनपर बैठाये ए हनुमा ीने ीरामका वनवास वषयक सारा च र उनसे कह सुनाया—॥ ४ ॥ ‘ भो! महाबाहो! जस कार ीरामच जीको वनवास दया गया, जस तरह आपक माताको दो वर दान कये गये, जैसे पु शोकसे राजा दशरथक मृ ु ◌इ, जस कार आप राजगृहसे दूत ारा शी ही बुलाये गये, जस तरह अयो ाम वेश करके आपने रा लेनेक इ ा नह क और स ु ष के धमका आचरण करते ए च कू ट-पवतपर जाकर अपने श ुसूदन भा◌इको आपने रा लेनेके लये नम त कया, फर उ ने जस कार राजा दशरथके वचनका पालन करनेम ढ़तापूवक त होकर रा को ाग दया तथा जस कार अपने बड़े भा◌इक चरणपादुकाएँ लेकर आप फर लौट आये—ये सब बात तो आपको यथावत् पसे व दत ही ह। आपके लौट आनेके बाद जो वृ ा घ टत आ, वह बता रहा ँ , मुझसे सु नये—॥ ५—९ ॥ ‘आपके लौट आनेपर वह वन सब ओरसे अ ीण-सा हो चला। वहाँके पशु-प ी भयसे घबरा उठे थे, तब उस वनको छोड़कर ीरामने वशाल द कार म वेश कया, जो नजन था। उस घोर वनको हा थय ने र द डाला था। उसम सह, ा और मृग भरे ए थे॥ १०-११ ॥ ‘उस गहन वनम जाते ए इन तीन के आगे महान् गजना करता आ बलवान् रा स वराध दखायी दया॥ १२ ॥



‘ऊपर बाँह और नीचे मुँह



कये च ाड़ते ए हाथीके समान जोर-जोरसे गजना करनेवाले उस रा सको उन तीन ने मारकर ग मे फ क दया॥ १३ ॥ ‘वह दु र कम करके दोन भा◌इ ीराम और ल ण सायंकालम शरभ मु नके रमणीय आ मपर जा प ँ चे॥ १४ ॥ ‘शरभंग मु न ीरामके सम गलोकको चले गये। तब स परा मी ीराम सब मु नय को णाम करके जन ानम आये॥ १५ ॥ ‘जन ानम आनेके बाद शूपणखा नामवाली एक रा सी (मनम कामभाव लेकर) ीरामच जीके पास आयी। तब ीरामने ल णको उसे द देनेका आदेश दया। महाबली ल णने सहसा उठकर तलवार उठायी और उस रा सीके नाक-कान काट लये॥ १६ १/२ ॥ ‘वहाँ रहते ए महा ा ीरघुनाथजीने अके ले ही शूपणखाक ेरणासे आये ए भयानक कम करनेवाले चौदह हजार रा स का वध कया॥ १७ १/२ ॥ ‘यु के मुहानेपर एकमा ीरामके साथ भड़कर वे सम रा स पहरभरम ही समा हो गये॥ १८ १/२ ॥ ‘तप ाम व डालनेवाले उन द कार नवासी महाबली और महापरा मी रा स को ीरघुनाथजीने यु म मार डाला॥ १९ १/२ ॥ ‘उस रणभू मम वे चौदह हजार रा स पीस डाले गये, खर मारा गया, फर दूषणका काम तमाम आ। तदन र शराको भी मौतके घाट उतार दया गया॥ ‘इस घटनासे पी ड़त होकर वह मूख रा सी ल ाम रावणके पास गयी। रावणके कहनेसे उसके अनुचर मारीच नामक भयंकर रा सने र मय मृगका प धारण करके वदेहराजकु मारी सीताको लुभाया॥ ‘उस मृगको देखकर सीताने ीरामसे कहा— ‘आयपु ! इस मृगको पकड़ ली जये। इसके रहनेसे मेरा यह आ म का मान् एवं मनोहर हो जायगा’॥ २३ ॥ ‘तब ीरामने हाथम धनुष लेकर उस मृगका पीछा कया और क ु ◌इ गाँठवाले एक बाणसे उस भागते ए मृगको मार डाला॥ २४ ॥ ‘सौ ! जब ीरघुनाथजी मृगके पीछे जा रहे थे और ल ण भी उ का समाचार लेनेके लये पणशालासे बाहर नकल गये, तब रावणने उस आ मम वेश कया॥ २५ ॥



‘उसने



बलपूवक सीताको पकड़ लया, मानो आकाशम मंगलने रो हणीपर आ मण कया हो। उस समय उनक र ाके लये आये ए गृ राज जटायुको यु म मारकर वह रा स सहसा सीताको साथ ले वहाँसे ज ी ही च त हो गया॥ २६ १/२ ॥ ‘तदन र एक पवत- शखरपर रहनेवाले पवत के समान ही अ तु एवं वशाल शरीरवाले वानर ने आ यच कत हो सीताको लेकर जाते ए रा सराज रावणको देखा॥ २७-२८ ॥ ‘वह महाबली रा सराज रावण बड़ी शी ताके साथ मनके समान वेगशाली पु क वमानके पास जा प ँ चा और सीताके साथ उसपर आ ढ़ हो उसने ल ाम वेश कया॥ २९ १/२ ॥ ‘वहाँ सुवणभू षत वशाल भवनम म थलेश-कु मारीको ठहराकर रावण चकनी-चुपड़ी बात से उ सा ना देने लगा॥ ३० १/२ ॥ ‘अशोकवा टकाम रहती ◌इ वदेहन नीने रावणक बात को तथा यं उस रा सराजको भी तनके के समान मानकर ठु करा दया और कभी उसका च न नह कया॥ ३१ १/ ॥ २



‘उधर



वनम ीरामच जी मृगको मारकर लौटे। लौटते समय जब उ ने पतासे भी अ धक य गृ राजको मारा गया देखा, तब उनके मनम बड़ी था ◌इ॥ ३२-३३ ॥ ‘ल णस हत ीरघुनाथजी वदेहराजकु मारी सीताक खोज करते ए गोदावरीतटके पु त वन ा म वचरने लगे॥ ३४ ॥ ‘खोजते-खोजते वे दोन भा◌इ उस वशाल वनम कब नामक रा सके पास जा प ँ चे। तदन र स परा मी रामने कब का उ ार कया और उसीके कहनेसे वे ऋ मूक पवतपर जाकर सु ीवसे मले॥ ‘उन दोन म एक-दूसरेके सा ा ारसे पहले ही हा दक म ता हो गयी थी। पूवकालम ु ए बड़े भा◌इ वालीने सु ीवको घरसे नकाल दया था। ीराम और सु ीवम जब पर र बात ◌इं , तब उनम और भी गाढ़ ेम हो गया॥ ३६-३७ ॥ ‘ ीरामने अपने बा बलसे समरा णम महाकाय, महाबली वालीका वध करके सु ीवको उनका रा दला दया॥ ३८ ॥



ीरामने सम वानर स हत सु ीवको अपने रा पर ा पत कर दया और सु ीवने ीरामके सम यह त ा क थी क म राजकु मारी सीताक खोज क ँ गा॥ ३९ ॥ ‘तदनुसार महा ा वानरराज सु ीवने दस करोड़ वानर को सीताका पता लगानेक आ ा देकर स ूण दशा म भेजा॥ ४० ॥ ‘उ वानर म हमलोग भी थे। ग रराज व क गुफाम वेश कर जानेके कारण हमारे लौटनेका नयत समय बीत गया। हमने ब त वल कर दया। हमारे अ शोकम पड़े-पड़े दीघकाल तीत हो गया॥ ‘तदन र गृ राज जटायुके एक परा मी भा◌इ मल गये, जनका नाम था स ा त। उ ने हम बताया क सीता ल ाम रावणके भवनम नवास करती ह॥ ‘तब दु:खम डू बे ए अपने भा◌इ-ब ु के क का नवारण करनेके लये म अपने बलपरा मका सहारा ले सौ योजन समु को लाँघ गया और ल ाम अशोकवा टकाके भीतर अके ली बैठी ◌इ सीतासे मला॥ ‘वे एक रेशमी साड़ी पहने ए थ । शरीरसे म लन और आन शू जान पड़ती थ तथा पा त के पालनम ढ़तापूवक लगी थ । उनसे मलकर मने उन सती-सा ी देवीसे व धपूवक सारा समाचार पूछा और पहचानके लये ीरामनामसे अ त अँगूठी उ दे दी। साथ ही उनक ओरसे पहचानके तौरपर चूड़ाम ण लेकर म कृ तकृ होकर लौट आया॥ ४४-४५ ‘



॥ ‘अनायास ही महान् कम करनेवाले पहचानके पम उ दे दी॥ ४६ ॥ ‘जैसे मृ



ीरामके पास पुन: लौटकर मने वह तेज ी महाम ण



कु े नकट प ँ चा आ रोगी अमृत पीकर पुन: जी उठता है, उसी कार सीताके वयोगम मरणास ए ीरामने उनका शुभ समाचार पाकर जी वत रहनेक आशा क ॥ ४७ ॥ ‘ फर जैसे लयकालम संवतक नामक अ देव स ूण लोक को भ कर डालनेके लये उ त हो जाते ह, उसी कार सेनाको ो ाहन देते ए ीरामने ल ापुरीको न कर डालनेका वचार कया॥ ४८ ॥ ‘इसके बाद समु तटपर आकर ीरामने नल नामक वानरसे समु पर पुल बँधवाया और उस पुलसे वानरवीर क सारी सेना सागरके पार जा प ँ ची॥ ४९ ॥



‘वहाँ



यु म नीलने ह को, ल णने रावणपु इ ज ो तथा सा ात् रघुकुलन न ीरामने कु कण एवं रावणको मार डाला॥ ५० ॥ ‘त ात् ीरघुनाथजी मश: इ , यम, व ण, महादेवजी, ाजी तथा महाराज दशरथसे मले॥ ५१ ॥ ‘वहाँ पधारे ए ऋ षय तथा देव षय ने श ुसंतापी ीमान् रघुवीरको वरदान दया। उनसे ीरामने वर ा कया॥ ५२ ॥ ‘वर पाकर स तासे भरे ए ीरामच जी वानर के साथ पु क वमान ारा क ा आये॥ ५३ ॥ ‘वहाँसे फर ग ातटपर आकर यागम भर ाजमु नके समीप वे ठहरे ए ह। कल पु न के योगम आप बना कसी व -बाधाके ीरामका दशन करगे’॥ ५४ ॥ इस कार हनुमा ीके मधुर वा ारा सारी बात सुनकर भरतजी बड़े स ए और हाथ जोड़कर मनको हष दान करनेवाली वाणीम बोले—‘आज चरकालके बाद मेरा मनोरथ पूण आ’॥ ५५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ १२६ ॥



एक सौ स ा◌इसवाँ सग अयो ाम ीरामके ागतक तैयारी, भरतके साथ सबका ीरामक अगवानीके लये न ामम प ँ चना, ीरामका आगमन, भरत आ दके साथ उनका मलाप तथा पु क वमानको कुबेरके पास भेजना



यह परमान मय समाचार सुनकर श ुवीर का संहार करनेवाले स परा मी भरतने श ु को हषपूवक आ ा दी—॥ १ ॥ ‘शु ाचारी पु ष कु लदेवता का तथा नगरके सभी देव ान का गाजे-बाजेके साथ सुग त पु ारा पूजन कर॥ २ ॥ ‘ ु त और पुराण के जानकार सूत, सम वैता लक (भाँट), बाजे बजानेम कु शल सब लोग, सभी ग णकाएँ , राजरा नयाँ, म ीगण, सेनाएँ , सै नक क याँ, ा ण, य तथा वसायी संघके मु खयालोग ीरामच जीके मुखच का दशन करनेके लये नगरसे बाहर चल’॥ ३-४ १/२ ॥ भरतजीक यह बात सुनकर श ुवीर का संहार करनेवाले श ु ने क◌इ हजार मजदूर क अलग-अलग टो लयाँ बनाकर उ आ ा दी—‘तुमलोग ऊँ ची-नीची भू मय को समतल बना दो॥ ५-६ ॥ ‘अयो ासे न ामतकका माग साफ कर दो, आसपासक सारी भू मपर बफक तरह ठं डे जलका छड़काव कर दो॥ ७ ॥ ‘त ात् दूसरे लोग रा ेम सब ओर लावा और फू ल बखेर द। इस े नगरक सड़क के अगल-बगलम ऊँ ची पताकाएँ फहरा दी जायँ॥ ८ ॥ ‘कल सूय दयतक लोग नगरके सब मकान को सुनहरी पु माला , घनीभूत फू ल के मोटे गजर , सूतके ब नसे र हत कमल आ दके पु तथा प रंगे अल ार से सजा द॥ ९ ॥ ‘राजमागपर अ धक भीड़ न हो, इसक व ाके लये सैकड़ मनु सब ओर लग जायँ।’ श ु का वह आदेश सुनकर सब लोग बड़ी स ताके साथ उसके पालनम लग गये॥ १० ॥



धृ



जय , वजय, स ाथ, अथसाधक, अशोक, म पाल और सुम —ये आठ म ी जा और आभूषण से वभू षत मतवाले हा थय पर चढ़कर चले॥ ११ १/२ ॥ दूसरे ब त-से महारथी वीर सुनहरे र से कसी ◌इ ह थ नय , हा थय , घोड़ और रथ पर सवार होकर नकले॥ १२ १/२ ॥ जा-पताका से वभू षत हजार अ े-अ े घोड़ और घुड़सवार तथा हाथ म श , ऋ और पाश धारण करनेवाले सह पैदल यो ा से घरे ए वीर पु ष ीरामक अगवानीके लये गये॥ १३-१४ ॥ तदन र राजा दशरथक सभी रा नयाँ सवा रय पर चढ़कर कौस ा और सु म ाको आगे करके नकल तथा कै के यीस हत सब-क -सब न ामम आ प ँ च ॥ १५-१६ ॥ धमा ा एवं धम भरत मु -मु ा ण , वसायी वगके धान , वै तथा हाथ म माला और मठा◌इ लये म य से घरकर अपने बड़े भा◌इक चरणपादुका को सरपर धारण कये श और भे रय क ग ीर नके साथ चले। उस समय ब ीजन उनका अ भन न कर रहे थे॥ १७-१८ ॥ ेत माला से सुशो भत सफे द रंगका छ तथा राजा के यो सोनेसे मढ़े ए दो ेत चँवर भी उ ने अपने साथ ले रखे थे॥ १९ ॥ भरतजी उपवासके कारण दीन और दुबल हो रहे थे। वे चीरव और कृ मृगचम धारण कये थे। भा◌इका आगमन सुनकर पहले-पहल उ महान् हष आ था॥ २० ॥ महा ा भरत उस समय ीरामक अगवानीके लये आगे बढ़े। घोड़ क टाप , रथके प हय क ने मय और श एवं दु ु भय के ग ीर नाद से सारी पृ ी हलती-सी जान पड़ती थी। श और दु ु भय क नय से मले ए हा थय के गजन-श भी भूतलको क त-सा कये देते थे॥ २१-२२ ॥ भरतजीने जब देखा क अयो ापुरीके सभी नाग रक न ामम आ गये ह, तब उ ने पवनपु हनुमा ीसे कहा—॥ २३ ॥ ‘वानर-वीर! वानर का च भावत: च ल होता है। कह आपने भी उसी गुणका सेवन तो नह कया है— ीरामके आनेक झूठी ही खबर तो नह उड़ा दी है; क मुझे अभीतक ,



श ु को संताप देनेवाले ककु कु लभूषण आय ीरामके दशन नह हो रहे ह तथा इ ानुसार प धारण करनेवाले वानर भी कह गोचर नह हो रहे ह ?’॥ २४ १/२ ॥ भरतजीके ऐसा कहनेपर हनुमा ीने साथक एवं स बात बतानेके लये उन स परा मी भरतजीसे कहा—॥ २५ १/२ ॥ ‘मु नवर भर ाजजीक कृ पासे रा ेके सभी वृ सदा फू लने-फलनेवाले हो गये ह और उनसे मधुक धाराएँ गरती ह। उन वृ पर मतवाले मर नर र गूँजते रहते ह। उ पाकर वानरलोग अपनी भूख- ास मटाने लगे ह॥ २६ १/२ ॥ ‘परंतप! देवराज इ ने भी ीरामच जीको ऐसा ही वरदान दया था। अतएव भर ाजजीने सेनास हत ीरामच जीका सवगुणस —सा ोपा आ त -स ार कया है॥ २७ १/२ ॥ ‘ कतु दे खये, अब हषसे भरे ए वानर का भयंकर कोलाहल सुनायी देता है। मालूम होता है इस समय वानरसेना गोमतीको पार कर रही है॥ २८ १/२ ॥ ‘उधर सालवनक ओर दे खये, कै सी धूलक वषा हो रही है? म समझता ँ वानरलोग रमणीय सालवनको आ ो लत कर रहे ह॥ २९ १/२ ॥ ‘ली जये, यह रहा पु क वमान, जो दूरसे च माके समान दखायी देता है। इस द पु क वमानको व कमाने अपने मनके संक से ही रचा था। महा ा ीरामने रावणको ब ु-बा व स हत मारकर इसे ा कया है॥ ३०-३१ ॥ ‘ ीरामका वाहन बना आ यह वमान ात:कालके सूयक भाँ त का शत हो रहा है। इसका वेग मनके समान है। यह द वमान ाजीक कृ पासे कु बेरको ा आ था॥ ३२ ॥ ‘इसीम



वदेहराजकु मारी सीताके साथ वे दोन रघुवंशी वीर ब ु बैठे ह और इसीम महातेज ी सु ीव तथा रा स वभीषण भी वराजमान ह’॥ ३३ ॥ हनुमा ीके इतना कहते ही य , बालक , नौजवान और बूढ़ —सभी पुरवा सय के मुखसे यह वाणी फू ट पड़ी—‘अहो! ये ीरामच जी आ रहे ह।’ उन नाग रक का वह हषनाद गलोकतक गूँज उठा॥ ३४ ॥



सब लोग हाथी, घोड़ और रथ से उतर पड़े तथा पृ ीपर खड़े हो वमानपर वराजमान ीरामच जीका उसी तरह दशन करने लगे, जैसे लोग आकाशम का शत होनेवाले च देवका दशन करते ह॥ ३५ ॥ भरतजी ीरामच जीक ओर लगाये हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उनका शरीर हषसे पुल कत था। उ ने दूरसे ही अ -पा आ दके ारा ीरामका व धवत् पूजन कया॥ ३६ ॥ व कमा ारा मनसे रचे गये उस वमानपर बैठे ए वशाल ने वाले भगवान् ीराम व धारी देवराज इ के समान शोभा पा रहे थे॥ ३७ ॥ वमानके ऊपरी भागम बैठे ए भा◌इ ीरामपर पड़ते ही भरतने वनीतभावसे उ उसी तरह णाम कया, जैसे मे के शखरपर उ दत सूयदेवको जलोग नम ार करते ह॥ ३८ ॥



इतनेहीम ीरामच जीक आ ा पाकर वह महान् वेगशाली हंसयु उ म वमान पृ ीपर उतर आया॥ भगवान् ीरामने स परा मी भरतजीको वमानपर चढ़ा लया और उ ने ीरघुनाथजीके पास प ँ चकर आन वभोर हो पुन: उनके ीचरण म सा ा णाम कया॥ ४० ॥ दीघकालके प ात् पथम आये ए भरतको उठाकर ीरघुनाथजीने अपनी गोदम बठा लया और बड़े हषके साथ उ दयसे लगाया॥ ४१ ॥ त ात् श ु को संताप देनेवाले भरतने ल णसे मलकर—उनका णाम हण करके वदेहराजकु मारी सीताको बड़ी स ताके साथ णाम कया और अपना नाम भी बताया॥ ४२ ॥ इसके बाद कै के यीकु मार भरतने सु ीव, जा वान्, अ द, मै , वद, नील, ऋषभ, सुषेण, नल, गवा , ग मादन, शरभ और पनसका पूण पसे आ ल न कया॥ ४३-४४ ॥ वे इ ानुसार प धारण करनेवाले वानर मानव प धारण करके भरतजीसे मले और उन सबने महान् हषसे उ सत होकर उस समय भरतजीका कु शल-समाचार पूछा॥ ४५ ॥ धमा ा म े महातेज ी राजकु मार भरतने वानरराज सु ीवको दयसे लगाकर उनसे कहा—॥



‘सु



ीव! तुम हम चार के पाँचव भा◌इ हो; क ेहपूवक उपकार करनेसे ही को◌इ भी म होता है (और म अपना भा◌इ ही होता है)। अपकार करना ही श ुका ल ण है’॥ ४७ ॥ इसके बाद भरतने वभीषणको सा ना देते ए उनसे कहा—‘रा सराज! बड़े सौभा क बात है क आपक सहायता पाकर ीरघुनाथजीने अ दु र काय पूरा कया है’॥ ४८ ॥ इसी समय वीर श ु ने भी ीराम और ल णको णाम करके सीताजीके चरण म वनय-पूवक म क कु ाया॥ ४९ ॥ माता कौस ा शोकके कारण अ दुबल और का हीन हो गयी थ । उनके पास प ँ चकर ीरामने णत हो उनके दोन पैर पकड़ लये और माताके मनको अ हष दान कया॥ ५० ॥ फर सु म ा और यश नी कै के यीको णाम करके उ ने स ूण माता का अ भवादन कया, इसके बाद वे राजपुरो हत व स जीके पास आये॥ ५१ ॥ उस समय अयो ाके सम नाग रक हाथ जोड़कर ीरामच जीसे एक साथ बोल उठे —‘माता कौस ाका आन बढ़ानेवाले महाबा ीराम! आपका ागत है, ागत है’॥ ५२ ॥



भरतके बड़े भा◌इ ीरामने देखा, खले ए कमल के समान नाग रक क सह अ लयाँ उनक ओर उठी ◌इ ह॥ ५३ ॥ तदन र धम भरतने यं ही ीरामक वे चरणपादुकाएँ लेकर उन महाराजके चरण म पहना द और हाथ जोड़कर उस समय उनसे कहा—॥ ५४ १/२ ॥ ‘ भो! मेरे पास धरोहरके पम रखा आ आपका यह सारा रा आज मने आपके ीचरण म लौटा दया। आज मेरा ज सफल हो गया। मेरा मनोरथ पूरा आ, जो अयो ानरेश आप ीरामको पुन: अयो ाम लौटा आ देख रहा ँ ॥ ५५-५६ ॥ ‘आप रा का खजाना, कोठार, घर और सेना सब देख ल। आपके तापसे ये सारी व ुएँ पहलेसे दसगुनी हो गयी ह’॥ ५७ ॥



ातृव ल भरतको इस कार कहते देख सम वानर तथा रा सराज वभीषण ने से आँ सू बहाने लगे॥ ५८ ॥ इसके प ात् ीरघुनाथजी भरतको बड़े हष और ेहके साथ गोदम बैठाकर वमानके ारा ही सेनास हत उनके आ मपर गये॥ ५९ ॥ भरतके आ मम प ँ चकर सेनास हत ीरघुनाथजी वमानसे उतरकर भूतलपर खड़े हो गये॥ ६० ॥ उस समय ीरामने उस उ म वमानसे कहा— ‘ वमानराज! म तु आ ा देता ँ , अब तुम यहाँसे देव वर कु बेरके ही पास चले जाओ और उ क सवारीम रहो’॥ ६१ ॥ ीरामक आ ा पाकर वह परम उ म वमान उ र दशाको ल करके कु बेरके ानपर चला गया॥ ६२ ॥ रा स रावणने जस द पु क वमानपर बलपूवक अ धकार कर लया था, वही अब ीरामच जीक आ ासे े रत हो वेगपूवक कु बेरक सेवाम चला गया॥ ६३ ॥ त ात् परा मी ीरघुनाथजीने अपने सखा पुरो हत व स पु सुय के (अथवा अपने परम सहायक पुरो हत व स जीके ) उसी कार चरण छु ए, जैसे देवराज इ बृह तजीके चरण का श करते ह। फर उ एक सु र पृथक् आसनपर वराजमान करके उनके साथ ही दूसरे आसनपर वे यं भी बैठे॥ ६४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ स ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ १२७ ॥



एक सौ अ ा◌इसवाँ सग भरतका ीरामको रा



लौटाना, ीरामक नगरया ा, रा तथा का माहा



ा भषेक, वानर क वदा◌इ



त ात् कै के यीन न भरतने म कपर अ ल बाँधकर अपने बड़े भा◌इ स परा मी ीरामसे कहा—॥ ‘आपने मेरी माताका स ान कया और यह रा मुझे दे दया। जैसे आपने मुझे दया, उसी तरह म अब फर आपको वापस दे रहा ँ ॥ २ ॥ ‘अ बलवान् बैल जस बोझेको अके ला उठाता है, उसे बछड़ा नह उठा सकता; उसी तरह म भी इस भारी भारको उठानेम असमथ ँ ॥ ३ ॥ ‘जैसे जलके महान् वेगसे टूटे या फटे ए बाँधको, जब क उससे जलका खर वाह बह रहा हो, बाँधना अ क ठन होता है, उसी कार रा के खुले ए छ को ढक पाना म अपने लये अस व मानता ँ ॥ ‘श ुदमन वीर! जैसे गदहा घोड़ेक और कौवा हंसक ग तका अनुसरण नह कर सकता, उसी तरह म आपके मागका—र णीय-र ण पी कौशलका अनुकरण नह कर सकता॥ ५ ॥ ‘महाबाहो! नरे ! जैसे घरके भीतरके बगीचेम एक वृ लगाया गया। वह जमा और जमकर ब त बड़ा हो गया। इतना बड़ा क उसपर चढ़ना क ठन हो रहा था। उसका तना ब त बड़ा और मोटा था तथा उसम ब त-सी शाखाएँ थ । उस वृ म फू ल लगे; कतु वह अपने फल नह दखा सका था। इसी दशाम टूटकर धराशायी हो गया। लगानेवाल ने जन फल के उ े से उस वृ को लगाया था, उनका अनुभव वे नह कर सके । यही उपमा उस राजाके लये भी हो सकती है, जसे जाने अपनी र ाके लये पाल-पोसकर बड़ा कया और बड़े होनेपर वह उनक र ासे मुँह मोड़ने लगे। इस कथनके ता यको आप समझ। य द भ ा होकर भी आप हम भृ का भरण-पोषण नह करगे तो आप भी उस न ल वृ के समान ही समझे जायँगे॥ ‘रघुन न! अब तो हमारी यही इ ा है क जग े सब लोग आपका रा ा भषेक देख। म ा कालके सूयक भाँ त आपका तेज और ताप बढ़ता रहे॥ ९ ॥



‘आप



व वध वा क मधुर न, का ी तथा नूपुर क झनकार और गीतके मनोहर श सुनकर सोय और जाग॥ १० ॥ ‘जबतक न म ल घूमता है और जबतक यह पृ ी त है तबतक आप इस संसारके ामी बने रह’॥ ११ ॥ भरतक यह बात सुनकर श ुनगरीपर वजय पानेवाले भगवान् ीरामने ‘तथा ु’ कहकर उसे मान लया और वे एक सु र आसनपर वराजमान ए॥ १२ ॥ फर श ु जीक आ ासे नपुण ना◌इ बुलाये गये, जनके हाथ हलके और तेज चलनेवाले थे। उन सबने ीरघुनाथजीको घेर लया॥ १३ ॥ पहले भरतने ान कया फर महाबली ल णने। त ात् वानरराज सु ीव और रा सराज वभीषणने भी ान कया। तदन र जटाका शोधन करके ीरामने ान कया, फर व च पु माला, सु र अनुलेपन और ब मू पीता र धारण करके आभूषण क शोभासे का शत होते ए वे सहासनपर वराजमान ए॥ १४-१५ ॥ इ ाकु कु लक क त बढ़ानेवाले शोभाशाली, परा मी वीर श ु ने ीराम और ल णको ृ ार धारण कराया॥ १६ ॥ उस समय राजा दशरथक सभी मन नी रा नय ने यं अपने हाथ से सीताजीका मनोहर ृ ार कया॥ १७ ॥ पु व ला कौस ाने अ हष और उ ाहके साथ बड़े य से सम वानरप य का सु र ृ ार कया॥ १८ ॥ त ात् श ु जीक आ ासे सार थ सुम जी एक सवा सु र रथ जोतकर ले आये॥ १९ ॥ अ और सूयके समान देदी मान उस द रथको खड़ा देख श ुनगरीपर वजय पानेवाले महाबा ीराम उसपर आ ढ़ ए॥ २० ॥ सु ीव और हनुमा ी दोन देवराज इ के समान का मान् थे। दोन के कान म सु र कु ल शोभा पा रहे थे। वे दोन ही ान करके द व से वभू षत हो नगरक ओर चले॥ २१ ॥



सु ीवक प याँ और सीताजी सम आभूषण से वभू षत और सु र कु ल से अलंकृत हो नगर देखनेक उ ुकता मनम लये सवा रय पर चल ॥ २२ ॥ अयो ाम राजा दशरथके म ी पुरो हत व स जीको आगे करके ीरामच जीके रा ा भषेकके वषयम आव क वचार करने लगे॥ २३ ॥ अशोक, वजय और स ाथ—ये तीन म ी एका च हो ीरामच जीके अ ुदय तथा नगरक समृ के लये पर र म णा करने लगे॥ २४ ॥ उ ने सेवक से कहा—‘ वजयके यो जो महा ा ीरामच जी ह, उनके अ भषेकके लये जो-जो आव क काय करना है, वह सब म लपूवक तुम सब लोग करो’॥ २५ ॥ इस कार आदेश देकर वे म ी और पुरो हतजी ीरामच जीके दशनके लये त ाल नगरसे बाहर नकले॥ २६ ॥ जैसे सह ने धारी इ हरे रंगके घोड़ से जुते ए रथपर बैठकर या ा करते ह, उसी कार न ाप ीराम एक े रथपर आ ढ़ हो अपने उ म नगरक ओर चले॥ २७ ॥ उस समय भरतने सार थ बनकर घोड़ क बागडोर अपने हाथम ले रखी थी। श ु ने छ लगा रखा था और ल ण उस समय ीरामच जीके म कपर चँवर डु ला रहे थे॥ २८ ॥ एक ओर ल ण थे और दूसरी ओर रा सराज वभीषण खड़े थे। उ ने च माके समान का मान् दूसरा ेत चँवर हाथम ले रखा था॥ २९ ॥ उस समय आकाशम खड़े ए ऋ षय तथा म ण स हत देवता के समुदाय ीरामच जीके वनक मधुर न सुन रहे थे॥ ३० ॥ तदन र महातेज ी वानरराज सु ीव श ु य नामक पवताकार गजराजपर आ ढ़ ए॥ ३१ ॥ वानरलोग नौ हजार हा थय पर चढ़कर या ा कर रहे थे। वे उस समय मानव प धारण कये ए थे और सब कारके आभूषण से वभू षत थे॥ ३२ ॥ पु ष सह ीराम श न तथा दु ु भय के ग ीर नादके साथ ासादमाला से अलंकृत अयो ापुरीक ओर त ए॥ ३३ ॥ अयो ावा सय ने अ तरथी ीरघुनाथजीको रथपर बैठकर आते देखा। उनका ी व ह द का से का शत हो रहा था और उनके आगे-आगे अ गामी सै नक का ज ा चल रहा



था॥ ३४ ॥ उन सबने आगे बढ़कर ीरघुनाथजीको बधा◌इ दी और ीरामने भी बदलेम उनका अ भन न कया। फर वे सब पुरवासी भाइय से घरे ए महा ा ीरामके पीछे-पीछे चलने लगे॥ ३५ ॥ जैसे न से घरे ए च मा सुशो भत होते ह, उसी कार म य , ा ण तथा जाजन से घरे ए ीरामच जी अपनी द का से उ ा सत हो रहे थे॥ सबसे आगे बाजेवाले थे। वे आन म हो तुरही, करताल और क बजाते तथा मा लक गीत गाते थे। उन सबके साथ ीरामच जी नगरक ओर बढ़ने लगे॥ ३७ ॥ ीरामच जीके आगे अ त और सुवणसे यु पा , गौ, ा ण, क ाएँ तथा हाथम मठा◌इ लये अनेकानेक मनु चल रहे थे॥ ३८ ॥ ीरामच जी अपने म य से सु ीवक म ता, हनुमा ीके भाव तथा अ वानर के अ तु परा मक चचा करते जा रहे थे॥ ३९ ॥ वानर के पु षाथ और रा स के बलक बात सुनकर अयो ावा सय को बड़ा व य आ। ीरामने वभीषणके मलनका संग भी अपने म य को बताया॥ ४० ॥ यह सब बताकर वानर स हत तेज ी ीरामने -पु मनु से भरी ◌इ अयो ापुरीम वेश कया॥ उस समय पुरवा सय ने अपने-अपने घरपर लगी ◌इ पताकाएँ ऊँ ची कर द । फर ीरामच जी इ ाकु वंशी राजा के उपयोगम आये ए पताके रमणीय भवनम गये॥ ४२ ॥ उस समय रघुकुलन न राजकु मार ीरामने महा ा पताजीके भवनम वेश करके माता कौस ा, सु म ा और कै के यीके चरण म म क कु ाकर धमा ा म े भरतसे अथयु मधुर वाणीम कहा—॥ ४३-४४ ॥ ‘भरत! मेरा जो अशोकवा टकासे घरा आ मु ा एवं वैदय ू म णय से ज टत वशाल भवन है, वह सु ीवको दे दो’॥ ४५ ॥ उनक आ ा सुनकर स परा मी भरतने सु ीवका हाथ पकड़कर उस भवनम वेश कया॥ ४६ ॥



फर श ु जीक आ ासे अनेकानेक सेवक उसम तलके तेलसे जलनेवाले ब त-से दीपक, पलंग और बछौने लेकर शी ही गये॥ ४७ ॥ त ात् महातेज ी भरतने सु ीवसे कहा— ‘ भो! भगवान् ीरामके अ भषेकके न म जल लानेके लये आप अपने दूत को आ ा दी जये’॥ ४८ ॥ तब सु ीवने उसी समय चार े वानर को सब कारके र से वभू षत चार सोनेके घड़े देकर कहा— ‘वानरो! तुमलोग कल ात:काल ही चार समु के जलसे भरे ए घड़ के साथ उप त रहकर आव क आदेशक ती ा करो’॥ ५० ॥ सु ीवके इस कार आदेश देनेपर हाथीके समान वशालकाय महामन ी वानर, जो ग ड़के समान शी गामी थे, त ाल आकाशम उड़ चले॥ ५१ ॥ जा वान्, हनुमान्, वेगदश (गवय) और ऋषभ— ये सभी वानर चार समु से और पाँच सौ न दय से भी सोनेके ब त-से कलश भर लाये॥ ५२ १/२ ॥ जनके पास रीछ क ब त-सी सु र सेना है वे श शाली जा वान् स ूण र से वभू षत सुवणमय कलश लेकर गये और उसम पूवसमु का जल भरकर ले आये॥ ५३ १/२ ॥ ऋषभ द ण समु से शी ही एक सोनेका घड़ा भर लाये। वह लाल च न और कपूरसे ढका आ था॥ ५४ १/२ ॥ वायुके समान वेगशाली गवय एक र न मत वशाल कलशके ारा प म दशाके महासागरसे शीतल जल भर लाये॥ ५५ १/२ ॥ ग ड़ तथा वायुके समान ती ग तसे चलनेवाले, धमा ा सवगुणस पवनपु हनुमा ी भी उ रवत महासागरसे शी जल ले आये॥ ५६ १/२ ॥ उन े वानर के ारा लाये ए उस जलको देखकर म य स हत श ु ने वह सारा जल ीरामजीके अ भषेकके लये पुरो हत व स जी तथा अ सु द को सम पत कर दया॥ ५७-५८ ॥ तदन र ा ण स हत शु चेता वृ व स जीने सीतास हत ीरामच जीको र मयी चौक पर बैठाया॥ ५९ ॥



त ात् जैसे आठ वसु ने देवराज इ का अ भषेक कराया था, उसी कार व स , वामदेव, जाबा ल, का प, का ायन, सुय , गौतम और वजय—इन आठ म य ने एवं सुग त जलके ारा सीतास हत पु ष वर ीरामच जीका अ भषेक कराया॥ ६०-६१ ॥ ( कनके ारा कराया? यह बताते ह—) सबसे पहले उ ने स ूण ओष धय के रस तथा पूव जलसे ऋ ज् ा ण ारा, फर सोलह क ा ारा त ात् म य ारा अ भषेक करवाया। इसके बाद अ ा यो ा और हषसे भरे ए े वसा यय को भी अ भषेकका अवसर दया। उस समय आकाशम खड़े ए सम देवता और एक ए चार लोकपाल ने भी भगवान् ीरामका अ भषेक कया॥ ६२-६३ ॥ तदन र ाजीका बनाया आ र शो भत एवं द तेजसे देदी मान करीट, जसके ारा पहले-पहल मनुजीका और फर मश: उनके सभी वंशधर राजा का अ भषेक आ था, भाँ त-भाँ तके र से च त, सुवण न मत एवं महान् वैभवसे शोभायमान सभाभवनम अनेक र से बनी ◌इ चौक पर व धपूवक रखा गया। फर महा ा व स जीने अ ऋ ज् ा ण के साथ उस करीटसे और अ ा आभूषण से भी ीरघुनाथजीको वभू षत कया॥ ६४—६७ ॥ उस समय श ु जीने उनपर सु र ेत रंगका छ लगाया। एक ओर वानरराज सु ीवने ेत चँवर हाथम लया तो दूसरी ओर रा सराज वभीषणने च माके समान चमक ला चँवर लेकर डु लाना आर कया॥ उस अवसरपर देवराज इ क ेरणासे वायुदेवने सौ सुवणमय कमल से बनी ◌इ एक दी मती माला और सब कारके र से यु म णय से वभू षत मु ाहार राजा रामच जीको भट कया॥ ६९-७० १/२ ॥ बु मान् ीरामके अ भषेककालम देवग व गाने लगे और अ राएँ नृ करने लग । भगवान् ीराम इस स ानके सवथा यो थे॥ ७१ १/२ ॥ ीरघुनाथजीके रा ा भषेको वके समय पृ ी खेतीसे हरी-भरी हो गयी, वृ म फल आ गये और फू ल म सुग छा गयी॥ ७२ १/२ ॥ महाराज ीरामने उस समय पहले ा ण को एक लाख घोड़े, उतनी ही दूध देनेवाली गौएँ तथा सौ साँड़ दान कये। यही नह , ीरघुनाथजीने तीस करोड़ अश फयाँ तथा नाना कारके ब मू आभूषण और व भी ा ण को बाँटे॥ ७३-७४ १/२ ॥



त ात् राजा ीरामने अपने म सु ीवको सोनेक एक द माला भट क , जो सूयक करण के समान का शत हो रही थी। उसम ब त-सी म णय का संयोग था॥ ७५ १/२ ॥ इसके बाद धैयशाली ीरघुवीरने स हो वा लपु अ दको दो अ द (बाजूब ) भट कये, जो नीलमसे ज टत होनेके कारण व च दखायी देते थे। वे च माक करण से वभू षत-से जान पड़ते थे॥ ७६ १/२ ॥ उ म म णय से यु उस परम उ म मु ाहारको ( जसे वायुदेवताने भट कया था तथा) जो च माक करण के समान का शत होता था ीरामच जीने सीताजीके गलेम डाल दया। साथ ही उ कभी मैले न होनेवाले दो द व तथा और भी ब त-से सु र आभूषण अ पत कये॥ ७७-७८ ॥ वदेहन नी सीताने प तक ओर देखकर वायुपु हनुमा ो कु छ भट देनेका वचार कया। वे जनकन नी अपने गलेसे उस मु ाहारको नकालकर बार ार सम वानर तथा प तक ओर देखने लग ॥ ७९ १/२ ॥ उनक उस चे ाको समझकर ीरामच जीने जानक जीक ओर देखकर कहा —‘सौभा शा ल न! भा म न! तुम जसपर संतु हो, उसे यह हार दे दो’॥ तब कजरारे ने वाली माता सीताने वायुपु हनुमा ो, जनम तेज, धृ त, यश, चतुरता, श , वनय, नी त, पु षाथ, परा म और उ म बु —ये स णु सदा व मान रहते ह, वह हार दे दया॥ ८१-८२ ॥ उस हारसे क प े हनुमान् उसी तरह शोभा पाने लगे, जैसे च माक करण के समूहस श ेत बादल क मालासे को◌इ पवत सुशो भत हो रहा हो॥ ८३ ॥ इसी कार जो धान- धान एवं े वानर थे, उन सबका व और आभूषण ारा यथायो स ार कया गया॥ ८४ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामने वभीषण, सु ीव, हनुमान् तथा जा वान् आ द सभी े वानरवीर का मनोवा त व ु एवं चुर र ारा यथायो स ार कया। वे सब-के -सब स च होकर जैसे आये थे, उसी तरह अपने-अपने ान को चले गये॥ ८५-८६ ॥



त ात् श ु को संताप देनेवाले राजा ीरघुनाथजीने वद, मै और नीलक ओर देखकर उन सबको मनोवा ापूरक गुण से यु सब कारके उ म र आ द भट कये॥ ८७ ॥



इस कार भगवान् ीरामका रा ा भषेक देखकर सभी महामन ी े वानर महाराज ीरामसे वदा ले क ाको चले गये॥ ८८ ॥ वानर े सु ीवने भी ीरामके रा ा भषेकका उ व देखकर उनसे पू जत हो क ापुरीम वेश कया॥ ८९ ॥ महायश ी धमा ा वभीषण भी अपने कु लका वैभव—अपना रा पाकर अपने साथी े नशाचर के साथ ल ापुरीको चले गये॥ ९० ॥ अपने श ु का वध करके परम उदार महायश ी ीरघुनाथजी बड़े आन से सम रा का शासन करने लगे। उन धमव ल ीरामने धम ल णसे कहा—॥ ‘धम ल ण! पूववत राजा ने चतुर णी सेनाके साथ जसका पालन कया था, उसी इस भूम लके रा पर तुम मेरे साथ त त होओ। अपने पता, पतामह और पतामह ने जस रा भारको पहले धारण कया था, उसीको मेरे ही समान तुम भी युवराजपदपर त होकर धारण करो’॥ ९२ ॥ परंतु ीरामच जीके सब तरहसे समझाने और नयु कये जानेपर भी जब सु म ाकु मार ल णने उस पदको नह ीकार कया, तब महा ा ीरामने भरतको युवराजपदपर अ भ ष कया॥ ९३ ॥ राजकु मार महाराज ीरामने अनेक बार पौ रीक, अ मेध, वाजपेय तथा अ नाना कारके य का अनु ान कया॥ ९४ ॥ ीरघुनाथजीने रा पाकर ारह* सह वष तक उसका पालन और सौ अ मेधय का अनु ान कया। उन य म उ म अ छोड़े गये थे तथा ऋ ज को ब त अ धक द णाएँ बाँटी गयी थ ॥ उनक भुजाएँ घुटन तक ल ी थ । उनका व : ल वशाल एवं व ृत था। वे बड़े तापी नरेश थे। ल णको साथ लेकर ीरामने इस पृ ीका शासन कया॥ ९६ ॥



अयो ाके परम उ म रा को पाकर धमा ा ीरामने सु द , कु टु ीजन तथा भा◌इब ु के साथ अनेक कारके य कये॥ ९७ ॥ ीरामके रा -शासनकालम कभी वधवा का वलाप नह सुनायी पड़ता था। सप आ द दु ज ु का भय नह था और रोग क भी आश ा नह थी॥ ९८ ॥ स ूण जग कह चोर या लुटेर का नाम भी नह सुना जाता था। को◌इ भी मनु अनथकारी काय म हाथ नह डालता था और बूढ़ को बालक के अ े -सं ार नह करने पड़ते थे॥ ९९ ॥ सब लोग सदा स ही रहते थे। सभी धमपरायण थे और ीरामपर ही बारंबार रखते ए वे कभी एक-दूसरेको क नह प ँ चाते थे॥ १०० ॥ ीरामके रा -शासन करते समय लोग सह वष तक जी वत रहते थे, सह पु के जनक होते थे और उ कसी कारका रोग या शोक नह होता था॥ १०१ ॥ ीरामके रा -शासनकालम जावगके भीतर के वल राम, राम, रामक ही चचा होती थी। सारा जगत् ीराममय हो रहा था॥ १०२ ॥ ीरामके रा म वृ क जड़ सदा मजबूत रहती थ । वे वृ सदा फू ल और फल से लदे रहते थे। मेघ जाक इ ा और आव कताके अनुसार ही वषा करते थे। वायु म ग तसे चलती थी, जससे उसका श सुखद जान पड़ता था॥ १०३ ॥ ा ण, य, वै और शू चार वण के लोग लोभर हत होते थे। सबको अपने ही वणा मो चत कम से संतोष था और सभी उ के पालनम लगे रहते थे॥ १०४ ॥ ीरामके शासनकालम सारी जा धमम त र रहती थी। झूठ नह बोलती थी। सब लोग उ म ल ण से स थे और सबने धमका आ य ले रखा था॥ १०५ ॥ भाइय स हत ीमान् रामने ारह हजार वष तक रा कया था॥ १०६ ॥ यह ऋ ष ो आ दका रामायण है, जसे पूवकालम मह ष वा ी कने बनाया था। यह धम, यश तथा आयुक वृ करनेवाला एवं राजा को वजय देनेवाला है॥ १०७ ॥ संसारम जो मानव सदा इसका वण करता है, वह पापसे मु हो जाता है। ीरामके रा ा भषेकके संगको सुनकर मनु इस जग य द पु का इ ु क हो तो पु और धनका



अ भलाषी हो तो धन पाता है। राजा इस का का वण करनेसे पृ ीपर वजय पाता और श ु को अपने अधीन कर लेता है॥ १०८-१०९ ॥ जैसे माता कौस ा ीरामको, सु म ा ल णको और कै के यी भरतको पाकर जी वत पु क माता कहलाय , उसी कार संसारक दूसरी याँ भी इस आ दका के पाठ और वणसे जी वत पु क जननी, सदा आन म तथा पु -पौ से स ह गी॥ ११० १/२ ॥ ेशर हत कम करनेवाले ीरामक वजय-कथा प इस स ूण रामायण-का को सुनकर मनु दीघकालतक र रहनेवाली आयु पाता है॥ १११ १/२ ॥ पूवकालम मह ष वा ी कने जसक रचना क थी, वही यह आ दका है। जो ोधको जीतकर ापूवक इसे सुनता है, वह बड़े-बड़े संकट से पार हो जाता है॥ ११२ १/२ ॥ जो लोग पूवकालम मह ष वा ी क ारा न मत इस का को सुनते ह, वे परदेशसे लौटकर अपने भा◌इ-ब ु के साथ मलते और आन का अनुभव करते ह। वे इस जग ीरघुनाथजीसे सम मनोवा त फल को ा कर लेते ह॥ ११३-११४ ॥ इसके वणसे सम देवता ोता पर स होते ह तथा जसके घरम व कारी ह होते ह, उसके वे सारे ह शा हो जाते ह॥ ११५ ॥ राजा इसके वणसे भूम लपर वजय पाता है। परदेशम नवास करनेवाला पु ष सकु शल रहता और रज ला याँ ( ानके अन र सोलह दन के भीतर) इसे सुनकर े पु को ज देती ह॥ ११६ ॥ जो इस ाचीन इ तहासका पूजन और पाठ करता है, वह सब पाप से मु होता और बड़ी आयु पाता है॥ य को चा हये क वे त दन म क कु ाकर णाम करके ा णके मुखसे इस का वण कर। इससे उ ऐ य और पु क ा होगी, इसम संशय नह है॥ ११८ ॥ जो न इस स ूण रामायणका वण एवं पाठ करता है, उसपर सनातन व ु प भगवान् ीराम सदा स रहते ह॥ ११९ ॥ सा ात् आ ददेव महाबा पापहारी भु नारायण ही रघुकुल तलक ीराम ह तथा भगवान् शेष ही ल ण कहलाते ह॥ १२० ॥



(लवकु श



कहते ह—) ोताओ! आपलोग का क ाण हो। यह पूवघ टत आ ान ही इस कार रामायणका के पम व णत आ है। आपलोग पूण व ासके साथ इसका पाठ कर। इससे आपके वै वबलक वृ होगी॥ १२१ ॥ रामायणको दयम धारण करने और सुननेसे सब देवता संतु होते ह। इसके वणसे पतर को भी सदा तृ मलती है॥ १२२ ॥ जो लोग ीरामच जीम भ भाव रखकर मह ष वा ी क न मत इस रामायणसं हताको लखते ह, उनका गम नवास होता है॥ १२३ ॥ इस शुभ और ग ीर अथसे यु का को सुनकर मनु के कु टु और धन-धा क वृ होती है। उसे े गुणवाली सु री याँ सुलभ होती ह तथा इस भूतलपर वह अपने सारे मनोरथ को ा कर लेता है॥ १२४ ॥ यह का आयु, आरो , यश तथा ातृ ेमको बढ़ानेवाला है। यह उ म बु दान करनेवाला और म लकारी है; अत: समृ क इ ा रखनेवाले स ु ष को इस उ ाहव क इ तहासका नयमपूवक वण करना चा हये॥ १२५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के यु का म एक सौ अ ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ १२८ ॥ अ ‘दशवषसह ा ण दशवषशता न च’ कहा गया है, उनसे एक वा ताके लये यहाँ दसको ारहका बोधक समझना चा हये। *







ीसीतारामचन ा ां नमः ॥



ीम ा



ीक य रामायण उ रका पहला सग



ीरामके दरबारम मह षय का आगमन, उनके साथ उनक बातचीत तथा ीरामके



रा स का संहार करनेके अन र जब भगवान् ीरामने अपना रा ा कर लया, तब स ूण ऋ ष-मह ष ीरघुनाथजीका अ भन न करनेके लये अयो ापुरीम आये॥ १ ॥ जो मु त: पूव दशाम नवास करते ह, वे कौ शक, यव त, गा , गालव और मेधा त थके पु क वहाँ पधारे॥ २ ॥ ा ेय, भगवान् नमु च, मु च, अग , भगवान् अ , सुमुख और वमुख—ये द ण दशाम रहनेवाले मह ष अग जीके साथ वहाँ आये॥ ३ १/२ ॥ जो ाय: प म दशाका आ य लेकर रहते ह, वे नृष ु , कवष, धौ और मह ष कौशेय भी अपने श के साथ वहाँ आये॥ ४ १/२ ॥ इसी तरह उ र दशाके न - नवासी व स ,* क प, अ , व ा म , गौतम, जमद और भर ाज— ये सात ऋ ष जो स ष कहलाते ह, अयो ापुरीम पधारे॥ ये सभी अ के समान तेज ी, वेद-वेदा के व ान् तथा नाना कारके शा का वचार करनेम वीण थे। वे महा ा मु न ीरघुनाथजीके राजभवनके पास प ँ चकर अपने आगमनक सूचना देनेके लये ोढ़ीपर खड़े हो गये॥ ७ १/२ ॥ उस समय धमपरायण मु न े अग ने ारपालसे कहा—‘तुम दशरथन न भगवान् ीरामको जाकर सूचना दो क हम अनेक ऋ ष-मु न आपसे मलनेके लये आये ह’॥ ८ १/२ ॥ मह ष अग क आ ा पाकर ारपाल तुरंत महा ा ीरघुनाथजीके समीप गया। वह नी त , इशारेसे बातको समझनेवाला, सदाचारी, चतुर और धैयवान् था॥



पूण च माके समान का मान् ीरामका दशन करके उसने सहसा बताया—‘ भो! मु न े अग अनेक ऋ षय के साथ पधारे ए ह’॥ ११ ॥ ात:कालके सूयक भाँ त द तेजसे का शत होनेवाले उन मुनी र के पदापणका समाचार सुनकर ीरामच जीने ारपालसे कहा—‘तुम जाकर उन सब लोग को यहाँ सुखपूवक ले आओ’॥ १२ ॥ (आ ा पाकर ारपाल गया और सबको साथ ले आया।) उन मुनी र को उप त देख ीरामच जी हाथ जोड़कर खड़े हो गये। फर पा -अ आ दके ारा उनका आदरपूवक पूजन कया। पूजनसे पहले उन सबके लये एक-एक गाय भट क ॥ १३ ॥ ीरामने शु भावसे उन सबको णाम करके उ बैठनेके लये आसन दये। वे आसन सोनेके बने ए और व च आकार- कारवाले थे। सु र होनेके साथ ही वे वशाल और व ृत भी थे। उनपर कु शके आसन रखकर ऊपरसे मृगचम बछाये गये थे। उन आसन पर वे े मु न यथायो बैठ गये॥ १४-१५ ॥ तब ीरामने श और गु जन स हत उन सबका कु शल-समाचार पूछा। उनके पूछनेपर वे वेदवे ा मह ष इस कार बोले—॥ १५ १/२ ॥ ‘महाबा रघुन न! हमारे लये तो सव कु शल-ही-कु शल है। सौभा क बात है क हम आपको सकु शल देख रहे ह और आपके सारे श ु मारे जा चुके ह। राजन्! आपने स ूण लोक को लानेवाले रावणका वध कया, यह सबके लये बड़े सौभा क बात है॥ १६-१७ ॥ ‘ ीराम! पु -पौ स हत रावण आपके लये को◌इ भार नह था। आप धनुष लेकर खड़े हो जायँ तो तीन लोक पर वजय पा सकते ह; इसम संशय नह है॥ ‘रघुन न राम! आपने रा सराज रावणका वध कर दया और सीताके साथ आप वजयी वीर को आज हम सकु शल देख रहे ह, यह कतने आन क बात है॥ १९ ॥ ‘धमा ा नरेश! आपके भा◌इ ल ण सदा आपके हतम लगे रहनेवाले ह। आप इनके , भरत-श ु के तथा माता के साथ अब यहाँ सान वराज रहे ह और इस पम हम आपका दशन हो रहा है, यह हमारा अहोभा है॥ २० ॥ ‘ ह , वकट, व पा , महोदर तथा दुधष अक न-जैसे नशाचर आपलोग के हाथसे मारे गये, यह बड़े आन क बात है॥ २१ ॥



ीराम! शरीरक ऊँ चा◌इ और ूलताम जससे बढ़कर दूसरा को◌इ है ही नह , उस कु कणको भी आपने समरा णम मार गराया, यह हमारे लये परम सौभा क बात है॥ २२ ‘







ीराम! शरा, अ तकाय, देवा क तथा नरा क—ये महापरा मी नशाचर भी हमारे सौभा से ही आपके हाथ मारे गये॥ २३ ॥ ‘रघुवीर! जो देखनेम भी बड़े भयंकर थे, वे कु कणके दोन पु कु और नकु नामक रा स भी भा वश यु म मारे गये॥ २४ ॥ ‘ लयकालके संहारकारी यमराजक भाँ त भयानक यु ो और म भी कालके गालम चले गये। बलवान् य कोप और धू ा नामक रा स भी यमलोकके अ त थ हो गये॥ २५ ॥ ‘ये सम नशाचर अ -श के पारंगत व ान् थे। इ ने जग भयंकर संहार मचा रखा था; परंतु आपने अ कतु बाण ारा इन सबको मौतके घाट उतार दया; यह कतने हषक बात है॥ २६ ॥ ‘रा सराज रावण देवता के लये भी अव था, उसके साथ आप यु म उतर आये और वजय भी आपको ही मली; यह बड़े सौभा क बात है॥ ‘यु म आपके ारा जो रावणका पराभव (संहार) आ, वह को◌इ बड़ी बात नह है; परंतु यु म ल णके ारा जो रावणपु इ ज ा वध आ है, वही सबसे बढ़कर आ यक बात है॥ २८ ॥ ‘महाबा वीर! कालके समान आ मण करनेवाले उस देव ोही रा सके नागपाशसे मु होकर आपने वजय ा क , यह महान् सौभा क बात है॥ २९ ॥ ‘इ ज े वधका समाचार सुनकर हम सब लोग ब त स ए ह और इसके लये आपका अ भन न करते ह। वह महामायावी रा स यु म सभी ा णय के लये अव था। वह इ जत् भी मारा गया, यह सुनकर हम अ धक आ य आ है॥ ३० १/२ ॥ ‘रघुकुलक वृ करनेवाले ीराम! ये तथा और भी ब त-से इ ानुसार प धारण करनेवाले वीर रा स आपके ारा मारे गये, यह बड़े आन क बात है॥ ३१ १/२ ॥ ‘वीर! ककु कु लभूषण! श ुसूदन ीराम! आप संसारको यह परम पु मय सौ अभयदान देकर अपनी वजयके कारण वधा◌इके पा हो गये ह— नर र बढ़ रहे ह, यह ‘



कतने हषक बात है!’॥ ३२ १/२ ॥ उन प व ा ा मु नय क वह बात सुनकर ीरामच जीको बड़ा आ य आ। वे हाथ जोड़कर पूछने लगे—॥ ३३ १/२ ॥ ‘पू पाद मह षयो! नशाचर रावण तथा कु कण दोन ही महान् बल-परा मसे स थे। उन दोन को लाँघकर आप रावणपु इ ज ही शंसा करते ह?॥ ३४ १/२ ॥ ‘महोदर, ह , व पा , म , उ तथा दुधष वीर देवा क और नरा क—इन महान् वीर का उ न करके आपलोग रावणकु मार इ ज ही शंसा कर रहे ह?॥ ३५-३६ ॥ ‘अ तकाय, शरा तथा नशाचर धू ा —इन महापरा मी वीर का अ त मण करके आप रावणपु इ ज ही शंसा करते ह?॥ ३७ ॥ ‘उसका भाव कै सा था? उसम कौन-सा बल और परा म था? अथवा कस कारणसे यह रावणसे भी बढ़कर स होता है॥ ३८ ॥ ‘य द यह मेरे सुनने यो हो, गोपनीय न हो तो म इसे सुनना चाहता ँ । आपलोग बतानेक कृ पा कर। यह मेरा वन अनुरोध है। म आपलोग को आ ा नह दे रहा ँ ॥ ३९ ॥ ‘उस रावणपु ने इ को भी कस तरह जीत लया? कै से वरदान ा कया? पु कस कार महाबलवान् हो गया और उसका पता रावण वैसा बलवान् नह आ?॥ ४० ॥ ‘मुनी र! वह रा स इ जत् महासमरम कस तरह पतासे भी अ धक श शाली एवं इ पर भी वजय पानेवाला हो गया? तथा कस तरह उसने ब त-से वर ा कर लये? इन सब बात को म जानना चाहता ँ ; इस लये बार ार पूछता ँ । आज आप ये सारी बात मुझे बताइये’॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पहला सग पूरा आ॥ १॥ *वस



मु न एक शरीरसे अयो ाम रहते ए भी दूसरे शरीरसे स षम लम रहते थे। उसी दूसरे शरीरसे उनके आनेक बात यहाँ कही गयी है—ऐसा समझना चा हये।



दस ू रा सग मह ष अग



के ारा पुल



के गुण और तप ाका वणन तथा उनसे व वा मु नक उ का कथन



महा ा रघुनाथजीका वह सुनकर महातेज ी कु यो न अग ने उनसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘ ीराम! इ ज े महान् बल और तेजके उ े से जो वृ ा घ टत आ है, उसे बताता ँ , सुनो। जस बलके कारण वह तो श ु को मार गराता था, परंतु यं कसी श ुके हाथसे मारा नह जाता था; उसका प रचय दे रहा ँ ॥ २ ॥ ‘रघुन न! इस ुत वषयका वणन करनेके लये म पहले आपको रावणके कु ल, ज तथा वरदान- ा आ दका स सुनाता ँ ॥ ३ ॥ ‘ ीराम! ाचीनकाल—स युगक बात है, जाप त ाजीके एक भावशाली पु ए, जो ष पुल के नामसे स ह। वे सा ात् ाजीके समान ही तेज ी ह॥ ४ ॥ ‘उनके गुण, धम और शीलका पूरा-पूरा वणन नह कया जा सकता। उनका इतना ही प रचय देना पया होगा क वे जाप तके पु ह॥ ५ ॥ ‘ जाप त ाके पु होनेके कारण ही देवतालोग उनसे ब त ेम करते ह। वे बड़े बु मान् ह और अपने उ ल गुण के कारण ही सब लोग के य ह॥ ६ ॥ ‘एक बार मु नवर पुल धमाचरणके स से महा ग र मे के नकटवत राज ष तृण ब कु े आ मम गये और वह रहने लगे॥ ७ ॥ ‘उनका मन सदा धमम ही लगा रहता था। वे इ य को संयमम रखते ए त दन वेद का ा ाय करते और तप ाम लगे रहते थे। परंतु कु छ क ाएँ उनके आ मम जाकर उनक तप ाम व डालने लग । ऋ षय , नाग तथा राज षय क क ाएँ और जो अ राएँ ह, वे भी ाय: डा करती ◌इ उनके आ मक ओर आ जाती थ ॥ ८-९ ॥ ‘वहाँका वन सभी ऋतु म उपभोगम लानेके यो और रमणीय था, इस लये वे क ाएँ त दन उस देशम जाकर भाँ त-भाँ तक डाएँ करती थ ॥ १० ॥



‘जहाँ



ष पुल रहते थे, वह ान तो और भी रमणीय था; इस लये वे सती-सा ी क ाएँ त दन वहाँ आकर गाती, बजाती तथा नाचती थ । इस कार उन तप ी मु नके तपम व डाला करती थ ॥ ११ १/२ ॥ ‘इससे वे महातेज ी महामु न पुल कु छ हो गये और बोले—‘कलसे जो लड़क यहाँ मेरे पथम आयेगी, वह न य ही गभ धारण कर लेगी’॥ १२ १/२ ॥ ‘उन महा ाक यह बात सुनकर वे सब क ाएँ शापके भयसे डर गय और उ ने उस ानपर आना छोड़ दया॥ १३ १/२ ॥ ‘परंतु राज ष तृण ब क ु क ाने इस शापको नह सुना था; इस लये वह दूसरे दन भी बेखटके आकर उस आ मम वचरने लगी॥ १४ १/२ ॥ ‘वहाँ उसने अपनी कसी सखीको आयी ◌इ नह देखा। उस समय जाप तके पु महातेज ी मह ष पुल अपनी तप ासे का शत हो वहाँ वेद का ा ाय कर रहे थे॥ १५-१६ ॥ ‘उस वेद नको सुनकर वह क ा उसी ओर गयी और उसने तपो न ध पुल जीका दशन कया। मह षक पड़ते ही उसके शरीरपर पीलापन छा गया और गभके ल ण कट हो गये॥ १७ ॥ ‘अपने शरीरम यह दोष देखकर वह घबरा उठी और ‘मुझे यह ा हो गया?’ इस कार च ा करती ◌इ पताके आ मपर जाकर खड़ी ◌इ॥ १८ ॥ ‘अपनी क ाको उस अव ाम देखकर तृण ब नु े पूछा—‘तु ारे शरीरक ऐसी अव ा कै से ◌इ? तुम अपने शरीरको जस पम धारण कर रही हो, यह तु ारे लये सवथा अयो एवं अनु चत है’॥ १९ ॥ वह बेचारी क ा हाथ जोड़कर उन तपोधन मु नसे बोली—‘ पताजी! म उस कारणको नह समझ पाती, जससे मेरा प ऐसा हो गया है॥ २० ॥ ‘अभी थोड़ी देर पहले म प व अ :करणवाले मह ष पुल के द आ मपर अपनी स खय को खोजनेके लये अके ली गयी थी॥ २१ ॥ ‘वहाँ देखती ँ तो को◌इ भी सखी उप त नह है। साथ ही मेरा प पहलेसे वपरीत अव ाम प ँ च गया है; यह सब देखकर म भयभीत हो यहाँ आ गयी ँ ’॥ २२ ॥



‘राज ष



तृण ब ु अपनी तप ासे काशमान थे। उ ने ान लगाकर देखा तो ात आ क यह सब कु छ मह ष पुल के ही करनेसे आ है॥ २३ ॥ ‘उन प व ा ा मह षके उस शापको जानकर वे अपनी पु ीको साथ लये पुल जीके पास गये और इस कार बोले—॥ २४ ॥ ‘भगवन्! मेरी यह क ा अपने गुण से ही वभू षत है। महष! आप इसे यं ा ◌इ भ ाके पम हण कर ल॥ २५ ॥ ‘आप तप ाम लगे रहनेके कारण थक जाते ह गे; अत: यह सदा साथ रहकर आपक सेवा-शु ूषा कया करेगी, इसम संशय नह है’॥ २६ ॥ ऐसी बात कहते ए उन धमा ा राज षको देखकर उनक क ाको हण करनेक इ ासे उन षने कहा—‘ब त अ ा’॥ २७ ॥ ‘तब उन मह षको अपनी क ा देकर राज ष तृण ब ु अपने आ मपर लौट आये और वह क ा अपने गुण से प तको संतु करती ◌इ वह रहने लगी॥ २८ ॥ ‘उसके शील और सदाचारसे वे महातेज ी मु नवर पुल ब त संतु ए और स तापूवक य बोले—॥ २९ ॥ ‘सु र! म तु ारे गुण के वैभवसे अ स ँ । दे व! इसी लये आज म तु अपने समान पु दान करता ँ , जो माता और पता दोन के कु लक त ा बढ़ायेगा और पौल नामसे व ात होगा॥ ३० १/२ ॥॥ ‘दे व! म यहाँ वेदका ा ाय कर रहा था, उस समय तुमने आकर उसका वशेष पसे वण कया, इस लये तु ारा वह पु व वा या व वण कहलायेगा; इसम संशय नह है’॥ ३१ १/२ ॥ ‘प तके स च होकर ऐसी बात कहनेपर उस देवीने बड़े हषके साथ थोड़े ही समयम व वा नामक पु को ज दया, जो यश और धमसे स होकर तीन लोक म व ात आ॥ ३२-३३ ॥ ‘ व वा मु न वेदके व ान्, समदश , त और आचारका पालन करनेवाले तथा पताके समान ही तप ी ए’॥ ३४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म दूसरा सग पूरा आ॥ २॥



तीसरा सग व वासे वै वण (कुबेर) क उ



, उनक तप ा, वर ा



तथा ल ाम नवास



पुल के पु मु नवर व वा थोड़े ही समयम पताक भाँ त तप ाम संल हो गये॥ १ ॥



वे स वादी, शीलवान्, जते य, ा ायपरायण, बाहर-भीतरसे प व , स ूण भोग म अनास तथा सदा ही धमम त र रहनेवाले थे॥ २ ॥ व वाके इस उ म आचरणको जानकर महामु न भर ाजने अपनी क ाका, जो देवा नाके समान सु री थी, उनके साथ ववाह कर दया॥ ३ ॥ धमके ाता मु नवर व वाने बड़ी स ताके साथ धमानुसार भर ाजक क ाका पा ण हण कया और जाका हत- च न करनेवाली बु के ारा लोकक ाणका वचार करते ए उ ने उसके गभसे एक अ तु और परा मी पु उ कया। उसम सभी ा णो चत गुण व मान थे। उसके ज से पतामह पुल मु नको बड़ी स ता ◌इ॥ ४ —६ ॥ उ ने द से देखा—‘इस बालकम संसारका क ाण करनेक बु है तथा यह आगे चलकर धना होगा’ तब उ ने बड़े हषसे भरकर देव षय के साथ उसका नामकरणसं ार कया॥ ७ ॥ वे बोले—‘ व वाका यह पु व वाके ही समान उ आ है; इस लये यह वै वण नामसे व ात होगा’॥ ८ ॥ कु मार वै वण वहाँ तपोवनम रहकर उस समय आ त डालनेसे लत ◌इ अ के समान बढ़ने लगे और महान् तेजसे स हो गये॥ ९ ॥ आ मम रहनेके कारण उन महा ा वै वणके मनम भी यह वचार उ आ कम उ म धमका आचरण क ँ ; क धम ही परमग त है॥ १० ॥ यह सोचकर उ ने तप ाका न य करनेके प ात् महान् वनके भीतर सह वष तक कठोर नयम से बँधकर बड़ी भारी तप ा क ॥ ११ ॥



वे एक-एक सह वष पूण होनेपर तप ाक नयी-नयी व ध हण करते थे। पहले तो उ ने के वल जलका आहार कया। त ात् वे हवा पीकर रहने लगे; फर आगे चलकर उ ने उसका भी ाग कर दया और वे एकदम नराहार रहने लगे। इस तरह उ ने क◌इ सह वष को एक वषके समान बता दया॥ १२ १/२ ॥ तब उनक तप ासे स होकर महातेज ी ाजी इ आ द देवता के साथ उनके आ मपर पधारे और इस कार बोले—॥ १३ १/२ ॥ ‘उ म तका पालन करनेवाले व ! म तु ारे इस कमसे—तप ासे ब त संतु ँ । महामते! तु ारा भला हो। तुम को◌इ वर माँगो; क वर पानेके यो हो’॥ १४ १/२ ॥ यह सुनकर वै वणने अपने नकट खड़े ए पतामहसे कहा—‘भगवन्! मेरा वचार लोकक र ा करनेका है, अत: म लोकपाल होना चाहता ँ ’॥ १५ १/२ ॥ वै वणक इस बातसे ाजीके च को और भी संतोष आ। उ ने स ूण देवता के साथ स तापूवक कहा—‘ब त अ ा’॥ १६ १/२ ॥ इसके बाद वे फर बोले—‘बेटा! म चौथे लोकपालक सृ करनेके लये उ त था। यम, इ और व णको जो पद ा है, वैसा ही लोकपाल-पद तु भी ा होगा, जो तुमको अभी है॥ १७ १/२ ॥ ‘धम ! तुम स तापूवक उस पदको हण करो और अ य न धय के ामी बनो। इ , व ण और यमके साथ तुम चौथे लोकपाल कहलाओगे॥ १८ १/२ ॥ ‘यह सूयतु तेज ी पु क वमान है। इसे अपनी सवारीके लये हण करो और देवता के समान हो जाओ॥ १९ १/२ ॥ ‘तात! तु ारा क ाण हो। अब हम सब लोग जैसे आये ह, वैसे लौट जायँगे। तु ये दो वर देकर हम अपनेको कृ तकृ समझते ह’॥ २० १/२ ॥ ऐसा कहकर ाजी देवता के साथ अपने ानको चले गये। ा आ द देवता के आकाशम चले जानेपर अपने मनको संयमम रखनेवाले धना ने पतासे हाथ जोड़कर कहा —‘भगवन्! मने पतामह ाजीसे मनोवा त फल ा कया है॥ २१-२२ १/२ ॥



‘परंतु



उन जाप तदेवने मेरे लये को◌इ नवास- ान नह बताया। अत: भगवन्! अब आप ही मेरे रहनेके यो कसी ऐसे ानक खोज क जये, जो सभी य से अ ा हो। भो! वह ान ऐसा होना चा हये, जहाँ रहनेसे कसी भी ाणीको क न हो’॥ २३-२४ ॥ अपने पु के ऐसा कहनेपर मु नवर व वा बोले— ‘धम ! साधु शरोमणे! सुनो—द ण समु के तटपर एक कू ट नामक पवत है। उसके शखरपर एक वशाल पुरी है, जो देवराज इ क अमरावती पुरीके समान शोभा पाती है॥ २५-२६ ॥ ‘उसका नाम ल ा है। इ क अमरावतीके समान उस रमणीय पुरीका नमाण व कमाने रा स के रहनेके लये कया है॥ २७ ॥ ‘बेटा! तु ारा क ाण हो। तुम न:संदेह उस ल ापुरीम ही जाकर रहो। उसक चहारदीवारी सोनेक बनी ◌इ है। उसके चार ओर चौड़ी खाइयाँ खुदी ◌इ ह और वह अनेकानेक य तथा श से सुर त है॥ ‘वह पुरी बड़ी ही रमणीय है। उसके फाटक सोने और नीलमके बने ए ह। पूवकालम भगवान् व ुके भयसे पी ड़त ए रा स ने उस पुरीको ाग दया था॥ २९ ॥ ‘वे सम रा स रसातलको चले गये थे, इस लये ल ापुरी सूनी हो गयी। इस समय भी ल ापुरी सूनी ही है, उसका को◌इ ामी नह है॥ ३० ॥ ‘अत: बेटा! तुम वहाँ नवास करनेके लये सुखपूवक जाओ। वहाँ रहनेम कसी कारका दोष या खटका नह है। वहाँ कसीक ओरसे को◌इ व -बाधा नह आ सकती’॥ ३१ ॥ अपने पताके इस धमयु वचनको सुनकर धमा ा वै वणने कू ट पवतके शखरपर बनी ◌इ ल ापुरीम नवास कया॥ ३२ ॥ उनके नवास करनेपर थोड़े ही दन म वह पुरी सह पु रा स से भर गयी। उनक आ ासे वे रा स वहाँ आकर आन पूवक रहने लगे॥ ३३ ॥ समु जसके लये खा◌इका काम देता था, उस ल ानगरीम व वाके धमा ा पु वै वण रा स के राजा हो बड़ी स ताके साथ नवास करने लगे॥ ३४ ॥ धमा ा धने र समय-समयपर पु क वमानके ारा आकर अपने माता- पतासे मल जाया करते थे। उनका दय बड़ा ही वनीत था॥ ३५ ॥



देवता और ग व उनक ु त करते थे। उनका भ भवन अ रा के नृ से सुशो भत होता था। वे धनप त कु बेर अपनी करण से का शत होनेवाले सूयक भाँ त सब ओर काश बखेरते ए अपने पताके समीप गये॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म तीसरा सग पूरा आ॥ ३॥



चौथा सग रा सवंशका वणन—हे त, व ु े श और सुकेशक उ



अग जीक कही ◌इ इस बातको सुनकर ीरामच जीको बड़ा व य आ। उ ने मन-ही-मन सोचा, रा सकु लक उ तो मु नवर व वासे ही मानी जाती है। य द उनसे भी पहले ल ापुरीम रा स रहते थे तो उनक उ कस कार ◌इ थी॥ इस कार आ य होनेके अन र सर हलाकर ीरामच जीने वध अ य के समान तेज ी शरीरवाले अग जीक ओर बार ार देखा और मु राकर पूछा—॥ २ ॥ ‘भगवन्! कु बेर और रावणसे पहले भी यह ल ापुरी मांसभ ी रा स के अ धकारम थी, यह आपके मुँहसे सुनकर मुझे बड़ा व य आ है॥ ३ ॥ ‘हमने तो यही सुन रखा है क रा स क उ पुल जीके कु लसे ◌इ है; कतु इस समय आपने कसी दूसरेके कु लसे भी रा स के ादुभावक बात कही है॥ ४ ॥ ‘ ा वे पहलेके रा स रावण, कु कण, ह , वकट तथा रावणपु से भी बढ़कर बलवान् थे?॥ ५ ॥ ‘ न्! उनका पूवज कौन था और उस उ ट बलशाली पु षका नाम ा था? भगवान् व ुने उन रा स का कौन-सा अपराध पाकर कस तरह उ ल ासे मार भगाया?॥ ६ ॥ ‘ न ाप महष! ये सब बात आप मुझे व ारसे बताइये। इनके लये मेरे मनम बड़ा कौतूहल है। जैसे सूयदेव अ कारको दूर करते ह, उसी तरह आप मेरे इस कौतूहलका नवारण क जये’॥ ७ ॥ ीरघुनाथजीक वह सु र वाणी पदसं ार, वा सं ार और अथसं ारसे अलंकृत थी। उसे सुनकर अग जीको यह सोचकर व य आ क ये सव होकर भी मुझसे अनजानक भाँ त पूछ रहे ह। त ात् उ ने ीरामसे कहा—॥ ८ ॥ ‘रघुन न! जलसे कट ए कमलसे उ जाप त ाजीने पूवकालम समु गत जलक सृ करके उसक र ाके लये अनेक कारके जल-ज ु को उ कया॥ ९ ॥ ‘वे ज ु भूख- ासके भयसे पी ड़त हो ‘अब हम ा कर’, ऐसी बात करते ए अपने ज दाता ाजीके पास वनीतभावसे गये॥ १० ॥



‘दूसर को



मान देनेवाले रघुवीर! उन सबको आया देख जाप तने उ वाणी ारा स ो धत करके हँ सते ए-से कहा—‘जल-ज ुओ! तुम य पूवक इस जलक र ा करो’॥ ११ ॥ ‘वे सब ज ु भूख-े ासे थे। उनमसे कु छने कहा—‘हम इस जलक र ा करगे’ और दूसरेने कहा— ‘हम इसका य ण (पूजन) करगे’, तब उन भूत क सृ करनेवाले जाप तने उनसे कहा—॥ १२ ॥ ‘तुममसे जन लोग ने र ा करनेक बात कही है, वे रा स नामसे स ह और ज ने य ण (पूजन) करना ीकार कया है, वे लोग य नामसे ही व ात ह ’ (इस कार वे जीव रा स और य — इन दो जा तय म वभ हो गये)॥ १३ ॥ ‘उन रा स म हे त और हे त नामवाले दो भा◌इ थे, जो सम रा स के अ धप त थे। श ु का दमन करनेम समथ वे दोन वीर मधु और कै टभके समान श शाली थे॥ १४ ॥ ‘उनम हे त धमा ा था; अत: वह त ाल तपोवनम जाकर तप ा करने लगा। परंतु हे तने ववाहके लये बड़ा य कया॥ १५ ॥ ‘वह अमेय आ बलसे स और बड़ा बु मान् था। उसने यं ही याचना करके कालक कु मारी भ गनी भयाके साथ ववाह कया। भया बड़ी भयानक थी॥ १६ ॥ ‘रा सराज हे तने भयाके गभसे एक पु को उ कया, जो व ु े शके नामसे स था। उसे ज देकर हे त पु वान म े समझा जाने लगा॥ ‘हे तपु व ु े श दी मान् सूयके समान का शत होता था। वह महातेज ी बालक जलम कमलक भाँ त दनो दन बढ़ने लगा॥ १८ ॥ ‘ नशाचर व ु े श जब बढ़कर उ म युवाव ाको ा आ, तब उसके पता रा सराज हे तने अपने पु का ाह कर देनेका न य कया॥ १९ ॥ ‘रा सराज शरोम ण हे तने अपने पु को ाहनेके लये सं ाक पु ीका, जो भावम अपनी माता सं ाके ही समान थी, वरण कया॥ २० ॥ ‘रघुन न! सं ाने सोचा—‘क ाका कसी दूसरेके साथ ाह तो अव ही करना पड़ेगा, अत: इसीके साथ न कर दूँ?’ यह वचारकर उसने अपनी पु ी व ु े शको ाह दी॥ २१ ॥



‘सं



ाक उस पु ीको पाकर नशाचर व ु े श उसके साथ उसी तरह रमण करने लगा, जैसे देवराज इ पुलोमपु ी शचीके साथ वहार करते ह॥ २२ ॥ ‘ ीराम! सं ाक उस पु ीका नाम सालकट टा था। कु छ कालके प ात् उसने व ु े शसे उसी तरह गभ धारण कया, जैसे मेघ क पं समु से जल हण करती है॥ २३ ॥



तदन र उस रा सीने म राचलपर जाकर व ु े समान का मान् बालकको ज दया, मानो ग ाने अ के छोड़े ए भगवान् शवके तेज: प गभ (कु मार का तके य)-को उ कया हो। उस नवजात शशुको वह छोड़कर वह व ु े शके साथ र त- डाके लये चली गयी॥ २४ ॥ ‘अपने बेटेको भुलाकर सालकट टा प तके साथ रमण करने लगी। उधर उसका छोड़ा आ वह नवजात शशु मेघक ग ीर गजनाके समान श करने लगा॥ उसके शरीरक का शर ालके सूयक भाँ त उ ा सत होती थी। माताका छोड़ा आ वह शशु यं ही अपनी मु ी मुँहम डालकर धीरे-धीरे रोने लगा॥ २६ ॥ ‘उस समय भगवान् शंकर पावतीजीके साथ बैलपर चढ़कर वायुमाग (आकाश)-से जा रहे थे। उ ने उस बालकके रोनेक आवाज सुनी॥ २७ ॥ ‘सुनकर पावतीस हत शवने उस रोते ए रा सकु मारक ओर देखा। उसक दयनीय अव ापर पात करके माता पावतीके दयम क णाका ोत उमड़ उठा और उनक ेरणासे पुरसूदन भगवान् शवने उस रा स-बालकको उसक माताक अव ाके समान ही नौजवान बना दया॥ २८ १/२ ॥ ‘इतना ही नह , पावतीजीका य करनेक इ ासे अ वनाशी एवं न वकार भगवान् महादेवने उस बालकको अमर बनाकर उसके रहनेके लये एक आकाशचारी नगराकार वमान दे दया॥ २९ १/२ ॥ ‘राजकु मार! त ात् पावतीजीने भी यह वरदान दया क आजसे रा सयाँ ज ी ही गभ धारण करगी; फर शी ही उसका सव करगी और उनका पैदा कया आ बालक त ाल बढ़कर माताके ही समान अव ाका हो जायगा॥ ३०-३१ ॥



‘व



ु े शका वह पु सुकेशके नामसे स आ। वह बड़ा बु मान् था। भगवान् शंकरका वरदान पानेसे उसे बड़ा गव आ और वह उन परमे रके पाससे अ तु स एवं आकाशचारी वमान पाकर देवराज इ क भाँ त सव अबाध-ग तसे वचरने लगा॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चौथा सग पूरा आ॥ ४॥



पाँचवाँ सग सुकेशके पु मा



वान्, सुमाली और मालीक संतान का वणन



(अग



जी कहते ह—रघुन न!) तदन र एक दन व ावसुके समान तेज ी ामणी नामक ग वने रा स सुकेशको धमा ा तथा वर ा वैभवसे स देख अपनी देववती नामक क ाका उसके साथ ाह कर दया। वह क ा दूसरी ल ीके समान द प और यौवनसे सुशो भत एवं तीन लोक म व ात थी। धमा ा ामणीने रा स क मू तमती राजल ीके समान देववतीका हाथ सुकेशके हाथम दे दया॥ १-२ १/२ ॥ वरदानम मले ए ऐ यसे स यतम प तको पाकर देववती ब त संतु ◌इ, मानो कसी नधनको धनक रा श मल गयी हो॥ ३ १/२ ॥ जैसे अ न नामक द जसे उ को◌इ महान् गज कसी ह थनीके साथ शोभा पा रहा हो, उसी तरह वह रा स ग व-क ा देववतीके साथ रहकर अ धक शोभा पाने लगा॥ ४ १/२ ॥



रघुन न! तदन र समय आनेपर सुकेशने देववतीके गभसे तीन पु उ कये, जो तीन१ अ य के समान तेज ी थे॥ ५ १/२ ॥ उनके नाम थे —मा वान्, सुमाली और माली। माली बलवान म े था। वे तीन ने धारी महादेवजीके समान श शाली थे। उन तीन रा सपु को देखकर रा सराज सुकेश बड़ा स आ॥ ६ १/२ ॥ वे तीन लोक के समान सु र, तीन अ य के समान तेज ी, तीन म (श य २ अथवा वेद ३)-के समान उ तथा तीन रोग ४ के समान अ भयंकर थे॥ ७ १/२ ॥ सुकेशके वे तीन पु वध अ य के समान तेज ी थे। वे वहाँ उसी तरह बढ़ने लगे, जैसे उपे ावश दवा न करनेसे रोग बढ़ते ह॥ ८ १/२ ॥ उ जब यह मालूम आ क हमारे पताको तपोबलके ारा वरदान एवं ऐ यक ा ◌इ है, तब वे तीन भा◌इ तप ा करनेका न य करके मे पवतपर चले गये॥ ९ १/२ ॥



नृप े ! वे रा स वहाँ भयंकर नयम को हण करके घोर तप ा करने लगे। उनक वह तप ा सम ा णय को भय देनेवाली थी॥ १० १/२ ॥ स , सरलता एवं शम-दम आ दसे यु तपके ारा, जो भूतलपर दुलभ है, वे देवता , असुर और मनु स हत तीन लोक को संत करने लगे॥ ११ १/२ ॥ तब चार मुखवाले भगवान् ा एक े वमानपर बैठकर वहाँ गये और सुकेशके पु को स ो धत करके बोले—‘म तु वर देनेके लये आया ँ ’॥ १२ १/२ ॥ इ आ द देवता से घरे ए वरदायक ाजीको आया जान वे सब-के -सब वृ के समान काँपते ए हाथ जोड़कर बोले—॥ १३ १/२ ॥ ‘देव! य द आप हमारी तप ासे आरा धत एवं संतु होकर हम वर देना चाहते ह तो ऐसी कृ पा क जये, जससे हम को◌इ परा न कर सके । हम श ु का वध करनेम समथ, चरजीवी तथा भावशाली ह । साथ ही हमलोग म पर र ेम बना रहे’॥ १४-१५ ॥ यह सुनकर ाजीने कहा—‘तुम ऐसे ही होओगे’। सुकेशके पु से ऐसा कहकर ा णव ल ाजी लोकको चले गये॥ १६ ॥ ीराम! वर पाकर वे सब नशाचर उस वरदानसे अ नभय हो देवता तथा असुर को भी ब त क देने लगे॥ १७ ॥ उनके ारा सताये जाते ए देवता, ऋ ष-समुदाय और चारण नरकम पड़े ए मनु के समान कसीको अपना र क या सहायक नह पाते थे॥ १८ ॥ ‘रघुवंश शरोमणे! एक दन श -कमके ाता म े अ वनाशी व कमाके पास जाकर वे रा स हष और उ ाहसे भरकर बोले—॥ १९ ॥ ‘महामते! जो ओज, बल और तेजसे स होनेके कारण महान् ह, उन देवता के लये आप ही अपनी श से मनोवा त भवनका नमाण करते ह, अत: हमारे लये भी आप हमालय, मे अथवा म राचलपर चलकर भगवान् शंकरके द भवनक भाँ त एक वशाल नवास ानका नमाण क जये’॥ २०-२१ १/२ ॥ यह सुनकर महाबा व कमाने उन रा स को एक ऐसे नवास ानका पता बताया, जो इ क अमरावतीको भी ल त करनेवाला था॥ २२ १/२ ॥



(वे बोले—) ‘रा



सप तयो! द ण समु के तटपर एक कू ट नामक पवत है और दूसरा सुवेल नामसे व ात शैल है॥ २३ १/२ ॥ ‘उस कू टपवतके मझले शखरपर जो हरा-भरा होनेके कारण मेघके समान नीला दखायी देता है तथा जसके चार ओरके आ य टाँक से काट दये गये ह, अतएव जहाँ प य के लये भी प ँ चना क ठन है, मने इ क आ ासे ल ा नामक नगरीका नमाण कया है। वह तीस योजन चौड़ी और सौ योजन ल ी है। उसके चार ओर सोनेक चहारदीवारी है और उसम सोनेके ही फाटक लगे ह॥ २४—२६ ॥ ‘दुधष रा स शरोम णयो! जैसे इ आ द देवता अमरावतीपुरीका आ य लेकर रहते ह, उसी कार तुम लोग भी उस ल ापुरीम जाकर नवास करो॥ २७ ॥ ‘श ुसूदन वीरो! ल ाके दुगका आ य लेकर ब त-से रा स के साथ जब तुम नवास करोगे, उस समय श ु के लये तुमपर वजय पाना अ क ठन होगा’॥ २८ ॥ व कमाक यह बात सुनकर वे े रा स सह अनुचर के साथ उस पुरीम जाकर बस गये॥ २९ ॥ उसक खा◌इ और चहारदीवारी बड़ी मजबूत बनी थी। सोनेके सैकड़ महल उस नगरीक शोभा बढ़ा रहे थे। उस ल ापुरीम प ँ चकर वे नशाचर बड़े हषके साथ वहाँ रहने लगे॥ ३० ॥ रघुकुलन न ीराम! इ दन नमदा नामक एक ग व थी। उसके तीन क ाएँ ◌इं , जो ी, ी, और क त५-के समान शोभास थ । इनक माता य प रा सी नह थी तो भी उसने अपनी चके अनुसार सुकेशके उन तीन रा सजातीय पु के साथ अपनी क ा का े आ द अव ाके अनुसार ववाह कर दया। वे क ाएँ ब त स थ । उनके मुख पूण च माके समान मनोहर थे॥ ३१-३२ १/२ ॥ माता नमदाने उ राफा ुनी न म उन तीन महाभा वती ग व-क ा को उन तीन रा सराज के हाथम दे दया॥ ३३ १/२ ॥ ीराम! जैसे देवता अ रा के साथ ड़ा करते ह, उसी कार सुकेशके पु ववाहके प ात् अपनी उन प य के साथ रहकर लौ कक सुखका उपभोग करने लगे॥ ३४ १/२ ॥ उनम मा वा ीका नाम सु री था। वह अपने नामके अनु प ही परम सु री थी। मा वा े उसके गभसे जन संतान को ज दया, उ बता रहा ँ , सु नये॥ ३५ १/२ ॥



व मु , व पा , रा स दुमुख, सु , य कोप, म और उ —ये सात पु थे। ीराम! इनके अ त र सु रीके गभसे अनला नामवाली एक सु री क ा भी उ ◌इ थी॥ ३६-३७ ॥ सुमालीक प ी भी बड़ी सु री थी। उसका मुख पूणच माके समान मनोहर और नाम के तुमती था। सुमालीको वह ाण से भी अ धक य थी॥ ३८ ॥ महाराज! नशाचर सुमालीने के तुमतीके गभसे जो संतान उ क थ , उनका भी मश: प रचय दया जा रहा है, सु नये॥ ३९ ॥ ह , अक न, वकट, का लकामुख, धू ा , द , महाबली सुपा , सं ा द, घस तथा रा स भासकण— ये सुमालीके पु थे और राका, पु ो टा, कै कसी और कु ीनसी— ये चार प व मु ानवाली उसक क ाएँ थ । ये सब सुमालीक संतान बतायी गयी ह॥ ४० —४२ ॥ मालीक प ी ग वक ा वसुदा थी, जो अपने प-सौ यसे सुशो भत होती थी। उसके ने फु कमलके समान वशाल एवं सु र थे। वह े य -प य के समान सु री थी॥ ४३ ॥ भो! रघुन न! सुमालीके छोटे भा◌इ मालीने वसुदाके गभसे जो संत त उ क थी, उसका म वणन कर रहा ँ ; आप सु नये॥ ४४ ॥ अनल, अ नल, हर और स ा त—ये चार नशाचर मालीके ही पु थे, जो इस समय वभीषणके म ी ह॥ ४५ ॥ मा वान् आ द तीन े रा स अपने सैकड़ पु तथा अ ा नशाचर के साथ रहकर अपने बा बलके अ भमानसे यु हो इ आ द देवता , ऋ षय , नाग तथा य को पीड़ा देने लगे॥ ४६ ॥ वे वायुक भाँ त सारे संसारम वचरनेवाले थे। यु म उ जीतना ब त ही क ठन था। वे मृ ुके तु तेज ी थे। वरदान मल जानेसे भी उनका घमंड ब त बढ़ गया था; अत: वे य ा द या का सदा अ वनाश कया करते थे॥ ४७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पाँचवाँ सग पूरा आ॥ ५॥



१. गाहप , आहवनीय और द णा । २. भु-श , उ ाह-श तथा म -श —ये तीन श याँ ह। ३. ऋग्, यजु और साम—ये तीन वेद ह। ४. वात, प और कफ—इनके कोपसे उ होनेवाले तीन कारके रोग ह। ५. ये तीन दे वयाँ ह, जो मश: ल ा, शोभा-स और क तक अ ध ा ी मानी गयी ह।



छठाँ सग देवता का भगवान् श रक सलाहसे रा स के वधके लये भगवान् व ुक शरणम जाना और उनसे आ ासन पाकर लौटना, रा स का देवता पर आ मण और भगवान् व ुका उनक सहायताके लये आना (मह ष



अग कहते ह—रघुन न!) इन रा स से पी ड़त होते ए देवता तथा तपोधन ऋ ष भयसे ाकु ल हो देवा धदेव महादेवजीक शरणम गये॥ १ ॥ जो जग सृ और संहार करनेवाले, अज ा, अ पधारी, स ूण जग े आधार, आरा देव और परम गु ह, उन कामनाशक, पुर वनाशक, ने धारी भगवान् शवके पास जाकर वे सब देवता हाथ जोड़ भयसे ग दवाणीम बोले—॥ २-३ ॥ ‘भगवन्! जानाथ! ाजीके वरदानसे उ ए सुकेशके पु श ु को पीड़ा देनेवाले साधन ारा स ूण जाको बड़ा क प ँ चा रहे ह॥ ४ ॥ ‘सबको शरण देने यो जो हमारे आ म थे, उ उन रा स ने नवासके यो नह रहने दया है— उजाड़ डाला है। देवता को गसे हटाकर वे यं ही वहाँ अ धकार जमाये बैठे ह और देवता क भाँ त गम वहार करते ह॥ ५ ॥ ‘माली, सुमाली और मा वान्—ये तीन रा स कहते ह—‘म ही व ु ँ , म ही ँ, म ही ा ँ तथा म ही देवराज इ , यमराज, व ण, च मा और सूय ँ ’ इस कार अहंकार कट करते ए वे रणदुजय नशाचर तथा उनके अ गामी सै नक हम बड़ा क दे रहे ह॥ ६-७ ॥ ‘देव! उनके



भयसे हम ब त घबराये ए ह, इस लये आप हम अभयदान दी जये तथा रौ प धारण करके देवता के लये क क बने ए उन रा स का संहार क जये’॥ ८ ॥ सम देवता के ऐसा कहनेपर नील एवं लो हत वणवाले जटाजूटधारी भगवान् शंकर सुकेशके त घ न ता रखनेके कारण उनसे इस कार बोले—॥ ९ ॥ ‘देवगण! मने सुकेशके जीवनक र ा क है। वे असुर सुकेशके ही पु ह; इस लये मेरे ारा मारे जानेयो नह ह। अत: म तो उनका वध नह क ँ गा; परंतु तु एक ऐसे पु षके पास जानेक सलाह दूँगा, जो न य ही उन नशाचर का वध करगे॥ १० ॥



‘देवताओ



और मह षयो! तुम इसी उ ोगको सामने रखकर त ाल भगवान् व ुक शरणम जाओ। वे भु अव उनका नाश करगे’॥ ११ ॥ यह सुनकर सब देवता जय-जयकारके ारा महे रका अ भन न करके उन नशाचर के भयसे पी ड़त हो भगवान् व ुके समीप आये॥ १२ ॥ श , च धारण करनेवाले उन नारायणदेवको नम ार करके देवता ने उनके त ब त अ धक स ानका भाव कट कया और सुकेशके पु के वषयम बड़ी घबराहटके साथ इस कार कहा—॥ १३ ॥ ‘देव! सुकेशके तीन पु वध अ य के तु तेज ी ह। उ ने वरदानके बलसे आ मण करके हमारे ान छीन लये ह॥ १४ ॥ कू टपवतके शखरपर जो ल ा नामवाली दुगम नगरी है, वह रहकर वे नशाचर हम सभी देवता को ेश प ँ चाते रहते ह॥ १५ ॥ ‘मधुसूदन! आप हमारा हत करनेके लये उन असुर का वध कर। देवे र! हम आपक शरणम आये ह। आप हमारे आ यदाता ह ॥ १६ ॥ ‘अपने च से उनका कमलोपम म क काटकर आप यमराजको भट कर दी जये। आपके सवा दूसरा को◌इ ऐसा नह है, जो इस भयके अवसरपर हम अभय दान दे सके ॥ १७ ॥ ‘देव! वे रा स मदसे मतवाले हो रहे ह। हम क देकर हषसे फू ले नह समाते ह; अत: आप समरा णम सगे-स य स हत उनका वध करके हमारे भयको उसी तरह दूर कर दी जये, जैसे सूयदेव कु हरेको न कर देते ह’॥ १८ ॥ देवता के ऐसा कहनेपर श ु को भय देनेवाले देवा धदेव भगवान् जनादन उ अभय दान देकर बोले—॥ १९ ॥ ‘देवताओ! म सुकेश नामक रा सको जानता ँ । वह भगवान् शंकरका वर पाकर अ भमानसे उ हो उठा है। इसके उन पु को भी जानता ँ , जनम मा वान् सबसे बड़ा है। वे नीच रा स धमक मयादाका उ न कर रहे ह, अत: म ोधपूवक उनका वनाश क ँ गा। तुमलोग न हो जाओ’॥ २०-२१ ॥ सब कु छ करनेम समथ भगवान् व ुके इस कार आ ासन देनेपर देवता को बड़ा हष आ। वे उन जनादनक भू र-भू र शंसा करते ए अपने-अपने ानको चले गये॥ २२ ॥



देवता के इस उ ोगका समाचार सुनकर नशाचर मा वा े अपने दोन वीर भाइय से इस कार कहा—॥ २३ ॥ ‘सुननेम आया है क देवता और ऋ ष मलकर हमलोग का वध करना चाहते ह। इसके लये उ ने भगवान् शंकरके पास जाकर यह बात कही॥ २४ ॥ ‘देव! सुकेशके पु आपके वरदानके बलसे उ और अ भमानसे उ हो उठे ह। वे भयंकर रा स पग-पगपर हमलोग को सता रहे ह॥ २५ ॥ ‘ जानाथ! रा स से परा जत होकर हम उन दु के भयसे अपने घर म नह रहने पाते ह॥ २६ ॥ ‘ लोचन! आप हमारे हतके लये उन असुर का वध क जये। दाहक म े देव! आप अपने कं ारसे ही रा स को जलाकर भ कर दी जये’॥ २७ ॥ ‘देवता के ऐसा कहनेपर अ कश ु भगवान् शवने अ ीकृ त सू चत करनेके लये अपने सर और हाथको हलाते ए इस कार कहा—॥ २८ ॥ ‘देवताओ! सुकेशके पु रणभू मम मेरे हाथसे मारे जानेयो नह ह, परंतु म तु ऐसे पु षके पास जानेक सलाह दूँगा, जो न य ही उन सबका वध कर डालगे॥ ‘ जनके हाथम च और गदा सुशो भत ह, जो पीता र धारण करते ह, ज जनादन और ह र कहते ह तथा जो ीमान् नारायणके नामसे व ात ह, उ भगवा शरणम तुम सब लोग जाओ’॥ ३० ॥ भगवान् श रसे यह सलाह पाकर उन कामदाहक महादेवजीको णाम करके देवता नारायणके धामम जा प ँ चे और वहाँ उ ने उनसे सब बात बताय ॥ ३१ ॥ तब उन नारायणदेवने इ आ द देवता से कहा—‘देवगण! म उन देव ो हय का नाश कर डालूँगा, अत: तुमलोग नभय हो जाओ’॥ ३२ ॥ ‘रा स शरोम णयो! इस कार भयभीत देवता के सम ीह रने हम मारनेक त ा क है; अत: अब इस वषयम हमलोग के लये जो उ चत कत हो, उसका वचार करना चा हये॥ ३३ ॥ ‘ हर क शपु तथा अ देव ोही दै क मृ ु इ व ुके हाथसे ◌इ है। नमु च, कालने म, वीर शरोम ण सं ाद, नाना कारक माया जाननेवाला राधेय, धम न लोकपाल,



यमलाजुन, हा द , शु और नशु आ द महाबली श शाली सम असुर और दानव समरभू मम भगवान् व ुका सामना करके परा जत न ए ह , ऐसा नह सुना जाता॥ ३४—३६ ॥ ‘उन



सभी असुर ने सैकड़ य कये थे। वे सब-के -सब माया जानते थे। सभी स ूण अ म कु शल तथा श ु के लये भयंकर थे॥ ३७ ॥ ‘ऐसे सैकड़ और हजार असुर को नारायणदेवने मौतके घाट उतार दया है। इस बातको जानकर हम सबके लये जो उ चत कत हो, वही करना चा हये। जो नारायणदेव हमारा वध करना चाहते ह, उ जीतना अ दु र काय है’॥ ३८ ॥ मा वा यह बात सुनकर सुमाली और माली अपने उस बड़े भा◌इसे उसी कार बोले, जैसे दोन अ नीकु मार देवराज इ से वातालाप कर रहे ह ॥ वे बोले—रा सराज! हमलोग ने ा ाय, दान और य कये ह। ऐ यक र ा तथा उसका उपभोग भी कया है। हम रोग- ा धसे र हत आयु ा ◌इ है और हमने कत मागम उ म धमक ापना क है॥ ‘यही नह , हमने अपने श के बलसे देवसेना पी अगाध समु म वेश करके ऐसे-ऐसे श ु पर वजय पायी है, जो वीरताम अपना सानी नह रखते थे; अत: हम मृ ुसे को◌इ भय नह है॥ ४१ ॥ ‘नारायण, , इ तथा यमराज ही न ह , सभी सदा हमारे सामने खड़े होनेम डरते ह॥ ४२ ॥ ‘रा से र! व ुके मनम भी हमारे त ेषका को◌इ कारण तो नह है। ( क हमने उनका को◌इ अपराध नह कया है) के वल देवता के चुगली खानेसे उनका मन हमारी ओरसे फर गया है॥ ४३ ॥ ‘इस लये हम सब लोग एक हो एक-दूसरेक र ा करते ए साथ-साथ चल और आज ही देवता का वध कर डालनेक चे ा कर, जनके कारण यह उप व खड़ा आ है’॥ ४४ ॥ ऐसा न य करके उन सभी महाबली रा सप तय ने यु के लये अपने उ ोगक घोषणा कर दी और समूची सेना साथ ले ज एवं वृ आ दक भाँ त कु पत हो वे यु के लये नकले॥ ४५ १/२ ॥



ीराम! पूव म णा करके उन सभी महाबली वशालकाय रा स ने पूरी तैयारी क और यु के लये कू च कर दया॥ ४६ १/२ ॥ अपने बलका घम रखनेवाले वे सम देव ोही रा स रथ, हाथी, हाथी-जैसे घोड़े, गदहे, बैल, ऊँ ट, शशुमार, सप, मगर, कछु आ, म , ग ड़-तु प ी, सह, बाघ, सूअर, मृग और नीलगाय आ द वाहन पर सवार हो ल ा छोड़कर यु के लये देवलोकक ओर चल दये॥ ४७—४९ १/२ ॥ ल ाम रहनेवाले जो ाणी अथवा ामदेवता आ द थे, वे सब अपशकु न आ दके ारा ल ाके भावी व ंसको देखकर भयका अनुभव करते ए मन-ही-मन ख हो उठे ॥ ५० १/२ ॥ उ म रथ पर बैठे ए सैकड़ और हजार रा स तुरंत ही य पूवक देवलोकक ओर बढ़ने लगे। उस नगरके देवता रा स के मागसे ही पुरी छोड़कर नकल गये॥ ५१-५२ ॥ उस समय कालक ेरणासे पृ ी और आकाशम अनेक भयंकर उ ात कट होने लगे, जो रा स के वनाशक सूचना दे रहे थे॥ ५३ ॥ बादल गरम-गरम र और ह य क वषा करने लगे, समु अपनी सीमाका उ न करके आगे बढ़ गये और पवत हलने लगे॥ ५४ ॥ मेघके समान ग ीर न करनेवाले ाणी वकट अ हास करने लगे और भयंकर दखायी देनेवाली गीद ड़याँ कठोर आवाजम ची ार करने लग ॥ ५५ ॥ पृ ी आ द भूत मश: गरते— वलीन होते-से दखायी देने लगे, गीध का वशाल समूह मुखसे आगक ाला उगलता आ रा स के ऊपर कालके समान मँड़राने लगा॥ ५६ १/ ॥ २



कबूतर, तोता और मैना ल ा छोड़कर भाग चले। कौए वह काँव-काँव करने लगे। ब याँ भी वह गुराने लग तथा हाथी आ द पशु आतनाद करने लगे॥ ५७ १/२ ॥ रा स बलके घम म मतवाले हो रहे थे। वे कालके पाशम बँध चुके थे। इस लये उन उ ात क अवहेलना करके यु के लये चलते ही गये, लौटे नह ॥ मा वान्, सुमाली और महाबली माली—ये तीन लत अ के समान तेज ी शरीरसे सम रा स के आगे-आगे चल रहे थे॥ ५९ १/२ ॥



जैसे देवता ाजीका आ य लेते ह, उसी कार उन सब नशाचर ने मा वान् पवतके समान अ वचल मा वा ा ही आ य ले रखा था॥ ६० १/२ ॥ रा स क वह सेना महान् मेघ क गजनाके समान कोलाहल करती ◌इ वजय पानेक इ ासे देवलोकक ओर बढ़ती जा रही थी। उस समय वह सेनाप त मालीके नय णम थी॥ ६१ १/२ ॥ देवता के दूतसे रा स के उस यु वषयक उ ोगक बात सुनकर भगवान् नारायणने भी यु करनेका वचार कया॥ ६२ १/२ ॥ वे सह सूय के समान दी मान् द कवच धारण करके बाण से भरा तरकस लये ग ड़पर सवार ए॥ इसके अ त र भी उ ने सायक से पूण दो चमचमाते ए तूणीर बाँध रखे थे। उन कमलनयन ीह रने अपनी कमरम प ी बाँधकर उसम चमकती ◌इ तलवार भी लटका ली थी॥ ६४ १/२ ॥ इस कार श , च , गदा, शा धनुष और खड् ग आ द उ म आयुध को धारण कये सु र पंखवाले पवताकार ग ड़पर आ ढ़ हो वे भु उन रा स का संहार करनेके लये तुरंत चल दये॥ ६५-६६ ॥ ग ड़क पीठपर बैठे ए वे पीता रधारी ामसु र ीह र सुवणमय मे पवतके शखरपर त ए व ु हत मेघके समान शोभा पा रहे थे॥ ६७ ॥ उस समय स , देव ष, बड़े-बड़े नाग, ग व और य उनके गुण गा रहे थे। असुर क सेनाके श ु वे ीह र हाथ म श , च , खड् ग और शा धनुष लये सहसा वहाँ आ प ँ चे॥ ६८ ॥



ग ड़के पंख क ती वायुके झ के खाकर वह सेना ु हो उठी। सै नक के रथ क पताकाएँ च र खाने लग और सबके हाथ से अ -श गर गये। इस कार रा सराज मा वा समूची सेना काँपने लगी। उसे देखकर ऐसा जान पड़ता था, मानो पवतका नील शखर अपनी शला को बखेरता आ हल रहा हो॥ ६९ ॥ रा स के उ म अ -श तीखे, र और मांसम सने ए तथा लयकालीन अ के समान दी मान् थे। उनके ारा वे सह नशाचर भगवान् ल ीप तको चार ओरसे घेरकर



उनपर चोट करने लगे॥ ७० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छठाँ सग पूरा आ॥ ६ ॥



सातवाँ सग भगवान् व (अग



ु ारा रा स का संहार और पलायन



जी कहते ह—रघुन न!) जैसे बादल जलक वषासे कसी पवतको आ ा वत करते ह, उसी कार गजना करते ए वे रा स पी मेघ अ पी जलक वषासे नारायण पी पवतको पी ड़त करने लगे॥ १ ॥ भगवान् व ुका ी व ह उ ल ामवणसे सुशो भत था और अ -श क वषा करते ए वे े नशाचर नीले रंगके दखायी देते थे; इस लये ऐसा जान पड़ता था, मानो अ न ग रको चार ओरसे घेरकर मेघ उसपर जलक धारा बरसा रहे ह ॥ २ ॥ जैसे ट ीदल धान आ दके खेत म, प तगे आगम, डंक मारनेवाली म याँ मधुसे भरे ए घड़ेम और मगर समु म घुस जाते ह, उसी कार रा स के धनुषसे छू टे ए व , वायु तथा मनके समान वेगवाले बाण भगवान् व ुके शरीरम वेश करके इस कार लीन हो जाते थे, जैसे लयकालम सम लोक उ म वेश कर जाते ह॥ ३-४ ॥ रथपर बैठे ए यो ा रथ स हत, हाथीसवार हा थय के साथ, घुड़सवार घोड़ स हत तथा पैदल पाँव-पयादे ही आकाशम खड़े थे॥ ५ ॥ उन रा सराज के शरीर पवतके समान वशाल थे। उ ने सब ओरसे श , ऋ , तोमर और बाण क वषा करके भगवान् व ुका साँस लेना बंद कर दया। ठीक उसी तरह, जैसे ाणायाम जके ासको रोक देते ह॥ ६ ॥ जैसे मछली महासागरपर हार करे, उसी तरह वे नशाचर अपने अ -श ारा ीह रपर चोट करते थे। उस समय दुजय देवता भगवान् व ुने अपने शा धनु षको ख चकर रा स पर बाण बरसाना आर कया॥ ७ ॥ वे बाण धनुषको पूण पसे ख चकर छोड़े गये थे; अत: व के समान अस और मनके समान वेगवान् थे। उन पैने बाण ारा भगवान् व ुने सैकड़ और हजार नशाचर के टुकड़ेटुकड़े कर डाले॥ ८ ॥ जैसे हवा उमड़ी ◌इ बदली एवं वषाको उड़ा देती है, उसी कार अपनी बाणवषासे रा स को भगाकर पु षो म ीह रने अपने पा ज नामक महान् श को बजाया॥ ९ ॥



स ूण ाणश से ीह रके ारा बजाया गया वह जल-ज नत श राज भयंकर आवाजसे तीन लोक को थत करता आ-सा गूँजने लगा॥ १० ॥ जैसे वनम दहाड़ता आ सह मतवाले हा थय को भयभीत कर देता है, उसी कार उस श राजक नने सम रा स को भय और घबराहटम डाल दया॥ ११ ॥ वह श न सुनकर श और साहससे हीन ए घोड़े यु भू मम खड़े न रह सके , हा थय के मद उतर गये और वीर सै नक रथ से नीचे गर पड़े॥ १२ ॥ सु र पंखवाले उन बाण के मुखभाग व के समान कठोर थे। वे शा धनुषसे छू टकर रा स को वदीण करते ए पृ ीम घुस जाते थे॥ १३ ॥ सं ामभू मम भगवान् व ुके हाथसे छू टे ए उन बाण ारा छ - भ ए नशाचर व के मारे ए पवत क भाँ त धराशायी होने लगे॥ १४ ॥ ीह रके च के आघातसे श ु के शरीर म जो घाव हो गये थे, उनसे उसी तरह र क धारा बह रही थी, मानो पवत से गे म त जलका झरना गर रहा हो॥ १५ ॥ श राजक न, शा धनुषक टंकार तथा भगवान् व ुक गजना—इन सबके तुमुल नादने रा स के कोलाहलको दबा दया॥ १६ ॥ भगवा े रा स के काँपते ए म क , बाण , जा , धनुष , रथ , पताका और तरकस को अपने बाण से काट डाला॥ १७ ॥ जैसे सूयसे भयंकर करण, समु से जलके वाह, पवतसे बड़े-बड़े सप और मेघसे जलक धाराएँ कट होती ह, उसी कार भगवान् नारायणके चलाये और शा धनुषसे छू टे ए सैकड़ और हजार बाण त ाल इधर-उधर दौड़ने लगे॥ १८-१९ ॥ जैसे शरभसे सह, सहसे हाथी, हाथीसे बाघ, बाघसे चीते, चीतेसे कु ,े कु ेसे बलाव, बलावसे साँप और साँपसे चूहे डरकर भागते ह, उसी कार वे सब रा स भावशाली भगवान् व ुक मार खाकर भागने लगे। उनके भगाये ए ब त-से रा स धराशायी हो गये॥ २०—२२ ॥



सह रा स का वध करके भगवान् मधुसूदनने अपने श पा ज को उसी तरह ग ीर नसे पूण कया, जैसे देवराज इ मेघको जलसे भर देते ह॥



भगवान् नारायणके बाण से भयभीत और श नादसे ाकु ल ◌इ रा स-सेना ल ाक ओर भाग चली॥ २४ ॥ नारायणके सायक से आहत ◌इ रा ससेना जब भागने लगी, तब सुमालीने रणभू मम बाण क वषा करके उन ीह रको आगे बढ़नेसे रोका॥ २५ ॥ जैसे कु हरा सूयदेवको ढक लेता है, उसी तरह सुमालीने बाण से भगवान् व ुको आ ा दत कर दया। यह देख श शाली रा स ने पुन: धैय धारण कया॥ २६ ॥ उस बला भमानी नशाचरने बड़े जोरसे गजना करके रा स म नूतन जीवनका संचार करते ए-से रोषपूवक आ मण कया॥ २७ ॥ जैसे हाथी सूँड़को उठाकर हलाता हो, उसी तरह लटकते ए आभूषणसे यु हाथको ऊपर उठाकर हलाता आ वह रा स व ु हत सजल जलधरके समान बड़े हषसे गजना करने लगा॥ २८ ॥ तब भगवा े अपने बाण ारा गजते ए सुमालीके सार थका जगमगाते ए कु ल से म त म क काट डाला। इससे उस रा सके घोड़े बेलगाम होकर चार ओर च र काटने लगे॥ २९ ॥ उन घोड़ के च र काटनेसे उनके साथ ही रा सराज सुमाली भी च र काटने लगा। ठीक उसी तरह, जैसे अ जते य मनु वषय म भटकनेवाली इ य के साथ-साथ यं भी भटकता फरता है॥ ३० ॥ जब घोड़े रणभू मम सुमालीके रथको इधर-उधर लेकर भागने लगे, तब माली नामक रा सने यु के लये उ त हो धनुष लेकर ग ड़क ओर धावा कया। रा स पर टूटते ए महाबा व ुपर आ मण कया॥ ३१ १/२ ॥ मालीके धनुषसे छू टे ए सुवणभू षत बाण भगवान् व ुके शरीरम उसी तरह घुसने लगे, जैसे प ी ौ पवतके छ म वेश करते ह॥ ३२ १/२ ॥ जैसे जते य पु ष मान सक था से वच लत नह होता, उसी कार रणभू मम भगवान् व ु मालीके छोड़े ए सह बाण से पी ड़त होनेपर भी ु नह ए॥ ३३ १/२ ॥ तदन र खड् ग और गदा धारण करनेवाले भूतभावन भगवान् व ुने अपने धनुषक ट ार करके मालीके ऊपर बाण-समूह क वषा आर कर दी॥ ३४ १/२ ॥



व और बजलीके समान का शत होनेवाले वे बाण मालीके शरीरम घुसकर उसका र पीने लगे, मानो सप अमृतरसका पान कर रहे ह ॥ ३५ १/२ ॥ अ म मालीको पीठ दखानेके लये ववश करके श , च और गदा धारण करनेवाले भगवान् ीह रने उस रा सके मुकुट, ज और धनुषको काटकर घोड़ को भी मार गराया॥ ३६ १/ ॥ २



रथहीन हो जानेपर रा स वर माली गदा हाथम लेकर कू द पड़ा, मानो को◌इ सह पवतके शखरसे छलाँग मारकर नीचे आ गया हो॥ ३७ १/२ ॥ जैसे यमराजने भगवान् शवपर गदाका और इ ने पवतपर व का हार कया हो, उसी तरह मालीने प राज ग ड़के ललाटम अपनी गदा ारा गहरी चोट प ँ चायी॥ मालीक गदासे अ आहत ए ग ड़ वेदनासे ाकु ल हो उठे । उ ने यं यु से वमुख होकर भगवान् व ुको भी वमुख-सा कर दया॥ ३९ १/२ ॥ मालीने ग ड़के साथ ही जब भगवान् व ुको भी यु से वमुख-सा कर दया, तब वहाँ जोर-जोरसे गजते ए रा स का महान् श गूँज उठा॥ ४० १/२ ॥ गजते ए रा स का वह सहनाद सुनकर इ के छोटे भा◌इ भगवान् व ु अ कु पत हो प राजक पीठपर तरछे होकर बैठ गये। (इससे वह रा स उ दीखने लगा) उस समय पराङ् मुख होनेपर भी ीह रने मालीके वधक इ ासे पीछेक ओर मुड़कर अपना सुदशनच चलाया॥ ४१-४२ ॥ सूयम लके समान उ ी होनेवाले कालच -स श उस च ने अपनी भासे आकाशको उ ा सत करते ए वहाँ मालीके म कको काट गराया॥ ४३ ॥ च से कटा आ रा सराज मालीका वह भयंकर म क पूवकालम कटे ए रा के सरक भाँ त र क धारा बहाता आ पृ ीपर गर पड़ा॥ ४४ ॥ इससे देवता को बड़ी स ता ◌इ। वे ‘साधु भगवन्! साधु!’ ऐसा कहते ए सारी श लगाकर जोर-जोरसे सहनाद करने लगे॥ ४५ ॥ मालीको मारा गया देख सुमाली और मा वान् दोन रा स शोकसे ाकु ल हो सेनास हत ल ाक ओर ही भागे॥ ४६ ॥



इतनेहीम ग ड़क पीड़ा कम हो गयी, वे पुन: सँभलकर लौटे और कु पत हो पूववत् अपने पंख क हवासे रा स को खदेड़ने लगे॥ ४७ ॥ कतने ही रा स के मुखकमल च के हारसे कट गये। गदा के आघातसे ब त के व : ल चूरचूर हो गये। हलके फालसे कतन के गदन उतर गय । मूसल क मारसे ब त के म क क ध याँ उड़ गय ॥ तलवारका हाथ पड़नेसे कतने ही रा स टुकड़े-टुकड़े हो गये। ब तेरे बाण से पी ड़त हो तुरंत ही आकाशसे समु के जलम गर पड़े॥ ४९ ॥ भगवान् व ु भी अपने धनुषसे छू टे ए े बाण और अश नय ारा रा स को वदीण करने लगे। उस समय उन नशाचर के खुले ए के श हवासे उड़ रहे थे और पीता रधारी ामसु र ीह र व ु ाला-म त महान् मेघके समान सुशो भत हो रहे थे॥ ५० ॥ रा स क वह सारी सेना अ उ -सी तीत होती थी। बाण से उसके छ कट गये थे, अ -श गर गये थे, सौ वेष दूर हो गया था, आँ त बाहर नकल आयी थ और सबके ने भयसे च ल हो रहे थे॥ ५१ ॥ जैसे सह ारा पी ड़त ए हा थय के ची ार और वेग एक साथ ही कट होते ह, उसी कार उन पुराण स नृ सह पधारी ीह रके ारा र दे गये उन नशाचर पी गजराज के हाहाकार और वेग साथ-साथ कट हो रहे थे॥ ५२ ॥ भगवान् व ुके बाणसमूह से आवृत हो अपने सायक का प र ाग करके वे नशाचर पी काले मेघ उसी कार भागे जा रहे थे, जैसे हवाके उड़ाये ए वषाकालीन मेघ आकाशम भागते देखे जाते ह॥ ५३ ॥ च के हार से रा स के म क कट गये थे, गदा क मारसे उनके शरीर चूर-चूर हो रहे थे तथा तलवार के आघातसे उनके दो-दो टुकड़े हो गये थे। इस तरह वे रा सराज पवत के समान धराशायी हो रहे थे॥ ५४ ॥ लटकते ए म णमय हार और कु ल के साथ गराये जाते ए नील मेघ-स श उन नशाचर क लाश से वह रणभू म पट गयी थी। वहाँ धराशायी ए वे रा स नीलपवत के समान जान पड़ते थे। उनसे वहाँका भूभाग इस तरह आ ा दत हो गया था क कह तल रखनेक भी जगह नह दखायी देती थी॥ ५५ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सातवाँ सग पूरा आ॥ ७॥



आठवाँ सग मा



वा



ा यु और पराजय तथा सुमाली आ द सब रा स का रसातलम वेश



(अग



जी कहते ह—रघुन न!) प नाभ भगवान् व ुने जब भागती ◌इ रा स क सेनाको पीछेक ओरसे मारना आर कया, तब मा वान् लौट पड़ा, मानो महासागर अपनी तटभू मतक जाकर नवृ हो गया हो॥ उसके ने ोधसे लाल हो रहे थे और मुकुट हल रहा था। उस नशाचरने पु षो म भगवान् प नाभसे इस कार कहा—॥ २ ॥ ‘नारायणदेव! जान पड़ता है पुरातन ा धमको बलकु ल नह जानते हो, तभी तो साधारण मनु क भाँ त तुम जनका मन यु से वरत हो गया है तथा जो डरकर भागे जा रहे ह, ऐसे हम रा स को भी मार रहे हो॥ ३ ॥ ‘सुरे र! जो यु से वमुख ए सै नक के वधका पाप करता है, वह घातक इस शरीरका ाग करके परलोकम जानेपर पु कमा पु ष को मलनेवाले गको नह पाता है॥ ४ ॥ ‘श , च और गदा धारण करनेवाले देवता! य द तु ारे दयम यु का हौसला है तो म खड़ा ँ । देखता ँ , तुमम कतना बल है? दखाओ अपना परा म’॥ ५ ॥ मा वान् पवतके समान अ वचलभावसे खड़े ए रा सराज मा वा ो देखकर देवराज इ के छोटे भा◌इ महाबली भगवान् व ुने उससे कहा—॥ ६ ॥ ‘देवता को तुमलोग से बड़ा भय उप त आ है, मने रा स के संहारक त ा करके उ अभय दान दया है; अत: इस पम मेरे ारा उस त ाका ही पालन कया जा रहा है॥ ७ ॥ ‘मुझे



अपने ाण देकर भी सदा ही देवता का य काय करना है; इस लये तुमलोग भागकर रसातलम चले जाओ तो भी म तु ारा वध कये बना नह र ँ गा’॥ ८ ॥ लाल कमलके समान ने वाले देवा धदेव भगवान् व ु जब इस कार कह रहे थे, उस समय अ कु पत ए रा सराज मा वा े अपनी श के ारा हार करके भगवान् व ुका व : ल वदीण कर दया॥ ९ ॥



मा वा े हाथसे छू टकर घंटानाद करती ◌इ वह श ीह रक छातीसे जा लगी और मेघके अ म का शत होनेवाली बजलीके समान शोभा पाने लगी॥ १० ॥ श धारी का तके य ज य ह अथवा जो श धर के यतम ह, उन भगवान् कमलनयन व ुने उसी श को अपनी छातीसे ख चकर मा वा र दे मारा॥ ११ ॥ क छोड़ी ◌इ श के समान गो व के हाथसे नकली ◌इ वह श उस रा सको ल करके चली, मानो अ न ग रपर को◌इ बड़ी भारी उ ा गर रही हो॥ १२ ॥ हार के समूहसे का शत होनेवाले उस रा सराजके वशाल व : लपर वह श गरी, मानो कसी पवतके शखरपर व पात आ हो॥ १३ ॥ उससे मा वा ा कवच कट गया तथा वह गहरी मू ाम डू ब गया; कतु थोड़ी ही देरम पुन: सँभलकर मा वान् पवतक भाँ त अ वचलभावसे खड़ा हो गया॥ त ात् उसने काले लोहेके बने ए और ब सं क काँट से जड़े ए शूलको हाथम लेकर भगवा छातीम गहरा आघात कया॥ १५ ॥ इसी कार वह यु ेमी रा स भगवान् व ुको मु े से मारकर एक धनुष पीछे हट गया॥ १६ ॥ उस समय आकाशम रा स का महान् हषनाद गूँज उठा—वे एक साथ बोल उठे —‘ब त अ ा, ब त अ ा’। भगवान् व ुको घूँसा मारकर उस रा सने ग ड़पर भी हार कया॥ १७ ॥ यह देख वनतान न ग ड़ कु पत हो उठे और उ ने अपने पंख क हवासे उस रा सको उसी तरह उड़ा दया, जैसे बल आँ धी सूखे प के ढेरको उड़ा देती है॥ १८ ॥ अपने बड़े भा◌इको प राजके पंख क हवासे उड़ा आ देख सुमाली अपने सै नक के साथ ल ाक ओर चल दया॥ १९ ॥ ग ड़के पंख क हवाके बलसे उड़ा आ रा स मा वान् भी ल त होकर अपनी सेनासे जा मला और ल ाक ओर चला गया॥ २० ॥ कमलनयन ीराम! इस कार उन रा स का भगवान् व ुके साथ अनेक बार यु आ और ेक सं ामम धान- धान नायक के मारे जानेपर उन सबको भागना पड़ा॥ २१ ॥



वे कसी कार भगवान् व ुका सामना नह कर सके । सदा ही उनके बलसे पी ड़त होते रहे। अत: सम नशाचर ल ा छोड़कर अपनी य के साथ पातालम रहनेके लये चले गये॥ २२ ॥ रघु े ! वे व ात परा मी नशाचर सालकट टवंश् ◌ाम व मान रा स सुमालीका आ य लेकर रहने लगे॥ ीराम! आपने पुल वंशके जन- जन रा स का वनाश कया है, उनक अपे ा ाचीन रा स का परा म अ धक था। सुमाली, मा वान् और माली तथा उनके आगे चलनेवाले यो ा—ये सभी महाभाग नशाचर रावणसे बढ़कर बलवान् थे॥ २४ ॥ देवता के लये क क प उन देव ोही रा स का वध श , च , गदाधारी भगवान् नारायणदेवके सवा दूसरा को◌इ नह कर सकता॥ २५ ॥ आप चार भुजाधारी सनातन देव भगवान् नारायण ही ह। आपको को◌इ परा नह कर सकता। आप अ वनाशी भु ह और रा स का वध करनेके लये इस लोकम अवतीण ए ह॥ २६ ॥ आप ही इन जा के ा ह और शरणागत पर दया रखते ह। जब-जब धमक व ाको न करनेवाले द ु पैदा हो जाते ह, तब-तब उन द ु का वध करनेके लये आप समय-समयपर अवतार लेते रहते ह॥ २७ ॥ नरे र! इस कार मने आपको रा स क उ का यह पूरा संग ठीक-ठीक सुना दया। रघुवंश शरोमणे! अब आप रावण तथा उसके पु के ज और अनुपम भावका सारा वणन सु नये॥ २८ ॥ भगवान् व ुके भयसे पी ड़त होकर रा स सुमाली सुदीघ कालतक अपने पु -पौ के साथ रसातलम वचरता रहा। इसी बीचम धना कु बेरने ल ाको अपना नवास- ान बनाया॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म आठवाँ सग पूरा आ॥ ८॥



नवाँ सग रावण आ दका ज



और उनका तपके लये गोकण-आ मम जाना



कु छ कालके प ात् नीले मेघके समान ाम वणवाला रा स सुमाली तपाये ए सोनेके कु ल से अलंकृत हो अपनी सु री क ाको, जो बना कमलक ल ीके समान जान पड़ती थी, साथ ले रसातलसे नकला और सारे म लोकम वचरने लगा॥ १-२ ॥ उस समय भूतलपर वचरते ए उस रा सराजने अ के समान तेज ी तथा देवतु शोभा धारण करनेवाले धने र कु बेरको देखा, जो पु क वमान ारा अपने पता पुल न न व वाका दशन करनेके लये जा रहे थे। उ देखकर वह अ व त हो म लोकसे रसातलम व आ॥ ३-४ १/२ ॥ सुमाली बड़ा बु मान् था। वह सोचने लगा, ा करनेसे हम रा स का भला होगा? कै से हमलोग उ त कर सकगे?॥ ५ १/२ ॥ ऐसा वचार करके उस रा सने अपनी पु ीसे, जसका नाम कै कसी था, कहा—‘बेटी! अब तु ारे ववाहके यो समय आ गया है; क इस समय तु ारी युवाव ा बीत रही है। तुम कह इनकार न कर दो, इसी भयसे े वर तु ारा वरण नह कर रहे ह॥ ‘पु ी! तु व श वरक ा हो, इसके लये हमलोग ने ब त यास कया है; क क ादानके वषयम हम धमबु रखनेवाले ह। तुम तो सा ात् ल ीके समान सवगुणस हो (अत: तु ारा वर भी सवथा तु ारे यो ही होना चा हये)॥ ८ ॥ ‘बेटी! स ानक इ ा रखनेवाले सभी लोग के लये क ाका पता होना दु:खका ही कारण होता है; क यह पता नह चलता क कौन और कै सा पु ष क ाका वरण करेगा?॥ ९॥ ‘माताके , पताके और जहाँ क ा दी जाती है, उस प तके कु लको भी क ा सदा संशयम डाले रहती है॥ ‘अत: बेटी! तुम जाप तके कु लम उ , े गुणस , पुल न न मु नवर व वाका यं चलकर प तके पम वरण करो और उनक सेवाम रहो॥ ११ ॥



‘पु ी! ऐसा करनेसे न:संदेह तु ारे पु भी ऐसे ही ह गे, जैसे ये धने देखा ही था; वे कै से अपने तेजसे सूयके समान उ ी हो रहे थे?’॥ १२ ॥



र कु बेर ह। तुमने तो



पताक यह बात सुनकर उनके गौरवका खयाल करके कै कसी उस ानपर गयी, जहाँ मु नवर व वा तप करते थे। वहाँ जाकर वह एक जगह खड़ी हो गयी॥ १३ ॥ ीराम! इसी बीचम पुल न न ा ण व वा सायंकालका अ हो करने लगे। वे तेज ी मु न उस समय तीन अ य के साथ यं भी चतुथ अ के समान देदी मान हो रहे थे॥ १४ ॥ पताके त गौरवबु होनेके कारण कै कसीने उस भयंकर वेलाका वचार नह कया और नकट जा उनके चरण पर लगाये नीचा मुँह कये वह सामने खड़ी हो गयी॥ १५ ॥ वह भा मनी अपने पैरके अँगूठेसे बार ार धरतीपर रेखा ख चने लगी। पूण च माके समान मुख तथा सु र क ट- देशवाली उस सु रीको जो अपने तेजसे उ ी हो रही थी, देखकर उन परम उदार मह षने पूछा—॥ १६ १/२ ॥ ‘भ े! तुम कसक क ा हो, कहाँसे यहाँ आयी हो, मुझसे तु ारा ा काम है अथवा कस उ े से यहाँ तु ारा आना आ है? शोभने! ये सब बात मुझे ठीक-ठीक बताओ’॥ १७-१८ ॥ व वाके इस कार पूछनेपर उस क ाने हाथ जोड़कर कहा—‘मुन!े आप अपने ही भावसे मेरे मनोभावको समझ सकते ह; कतु ष! मेरे मुखसे इतना अव जान ल क म अपने पताक आ ासे आपक सेवाम आयी ँ और मेरा नाम कै कसी है। बाक सब बात आपको त: जान लेनी चा हये (मुझसे न कहलाव)’॥ १९-२० ॥ यह सुनकर मु नने थोड़ी देरतक ान लगाया और उसके बाद कहा—‘भ े! तु ारे मनका भाव मालूम आ। मतवाले गजराजक भाँ त म ग तसे चलनेवाली सु री! तुम मुझसे पु ा करना चाहती हो; परंतु इस दा ण वेलाम मेरे पास आयी हो, इस लये यह भी सुन लो क तुम कै से पु को ज दोगी। सु ो ण! तु ारे पु ू र भाववाले और शरीरसे भी भयंकर ह गे तथा उनका ू रकमा रा स के साथ ही ेम होगा। तुम ू रतापूण कम करनेवाले रा स को ही पैदा करोगी’॥ २१—२३ १/२ ॥ मु नका यह वचन सुनकर कै कसी उनके चरण पर गर पड़ी और इस कार बोली —‘भगवन्! आप वादी महा ा ह। म आपसे ऐसे दुराचारी पु को पानेक अ भलाषा नह



रखती; अत: आप मुझपर कृ पा क जये’॥ २४-२५ ॥ उस रा सक ाके इस कार कहनेपर पूणच माके समान मु नवर व वा रो हणी-जैसे सु री कै कसीसे फर बोले—॥ २६ ॥ ‘शुभानने! तु ारा जो सबसे छोटा एवं अ म पु होगा, वह मेरे वंशके अनु प धमा ा होगा; इसम संशय नह है’॥ २७ ॥ ीराम! मु नके ऐसा कहनेपर कै कसीने कु छ कालके अन र अ भयानक और ू र भाववाले एक रा सको ज दया, जसके दस म क, बड़ी-बड़ी दाढ़, ताँब-े जैसे ओठ, बीस भुजाएँ , वशाल मुख और चमक ले के श थे। उसके शरीरका रंग कोयलेके पहाड़-जैसा काला था॥ २८-२९ ॥ उसके पैदा होते ही मुँहम अ ार के कौर लये गीद ड़याँ और मांसभ ी गृ आ द प ी दाय ओर म लाकार घूमने लगे॥ ३० ॥ इ देव धरक वषा करने लगे, मेघ भयंकर रम गजने लगे, सूयक भा फ क पड़ गयी, पृ ीपर उ ापात होने लगा, धरती काँप उठी, भयानक आँ धी चलने लगी तथा जो कसीके ारा ु नह कया जा सकता, वह स रता का ामी समु व ु हो उठा॥ ३१-३२ ॥ उस समय ाजीके समान तेज ी पता व वा मु नने पु का नामकरण कया—‘यह दस ीवाएँ लेकर उ आ है, इस लये ‘दश ीव’ नामसे स होगा’॥ उसके बाद महाबली कु कणका ज आ, जसके शरीरसे बड़ा शरीर इस जग दूसरे कसीका नह है॥ ३४ ॥ इसके बाद वकराल मुखवाली शूपणखा उ ◌इ। तदन र धमा ा वभीषणका ज आ, जो कै कसीके अ म पु थे॥ ३५ ॥ उस महान् स शाली पु का ज होनेपर आकाशसे फू ल क वषा ◌इ और आकाशम देव क दु ु भयाँ बज उठ । उस समय अ र म ‘साधु-साधु’ क न सुनायी देने लगी॥ ३६ ॥ कु कण और दश ीव वे दोन महाबली रा स लोकम उ ेग पैदा करनेवाले थे। वे दोन ही उस वशाल वनम पा लत होने और बढ़ने लगे॥ ३७ ॥



कु कण बड़ा ही उ नकला। वह भोजनसे कभी तृ ही नह होता था; अत: तीन लोक म घूम-घूमकर धमा ा मह षय को खाता फरता था॥ ३८ ॥ वभीषण बचपनसे ही धमा ा थे। वे सदा धमम त रहते, ा ाय करते और नय मत आहार करते ए इ य को अपने काबूम रखते थे॥ ३९ ॥ कु छ काल बीतनेपर धनके ामी वै वण पु क वमानपर आ ढ़ हो अपने पताका दशन करनेके लये वहाँ आये॥ ४० ॥ वे अपने तेजसे का शत हो रहे थे। उ देखकर रा स-क ा कै कसी अपने पु दश ीवके पास आयी और इस कार बोली—॥ ४१ ॥ ‘बेटा! अपने भा◌इ वै वणक ओर तो देखो। वे कै से तेज ी जान पड़ते ह? भा◌इ होनेके नाते तुम भी इ के समान हो। परंतु अपनी अव ा देखो, कै सी है?॥ ४२ ॥ ‘अ मत परा मी दश ीव! मेरे बेटे! तुम भी ऐसा को◌इ य करो, जससे वै वणक ही भाँ त तेज और वैभवसे स हो जाओ’॥ ४३ ॥ माताक यह बात सुनकर तापी दश ीवको अनुपम अमष आ। उसने त ाल त ा क —॥ ४४ ॥ ‘माँ! तुम अपने दयक च ा छोड़ो। म तुमसे स ी त ापूवक कहता ँ क अपने परा मसे भा◌इ वै वणके समान या उनसे भी बढ़कर हो जाऊँ गा’॥ ४५ ॥ तदन र उसी ोधके आवेशम भाइय स हत दश ीवने दु र कमक इ ा मनम लेकर सोचा— ‘म तप ासे ही अपना मनोरथ पूण कर सकूँ गा, ऐसा वचारकर उसने मनम तप ाका ही न य कया और अपनी अभी - स के लये वह गोकणके प व आ मपर गया॥ ४६-४७ ॥ भाइय स हत उस भयंकर परा मी रा सने अनुपम तप ा आर क । उस तप ा ारा उसने भगवान् ाजीको संतु कया और उ ने स होकर उसे वजय दलानेवाले वरदान दये॥ ४८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म नवाँ सग पूरा आ॥ ९ ॥



दसवाँ सग रावण आ दक तप ा और वर- ा



इतनी कथा सुनकर ीरामच जीने अग मु नसे पूछा—‘ न्! उन तीन महाबली भाइय ने वनम कस कार और कै सी तप ा क ?’॥ १ ॥ तब अग जीने अ स च वाले ीरामसे कहा—‘रघुन न! उन तीन भाइय ने वहाँ पृथक् -पृथक् धम व धय का अनु ान कया॥ २ ॥ ‘कु कण अपनी इ य को संयमम रखकर त दन धमके मागम त हो गम के दन म अपने चार ओर आग जला धूपम बैठकर प ा का सेवन करने लगा॥ ३ ॥ ‘ फर वषा-ऋतुम खुले मैदानम वीरासनसे बैठकर मेघ के बरसाये ए जलसे भीगता रहा और जाड़ेके दन म त दन जलके भीतर रहने लगा॥ ४ ॥ ‘इस कार स ागम त हो धमके लये य शील ए उस कु कणके दस हजार वष बीत गये॥ ५ ॥ ‘ वभीषण तो सदासे ही धमा ा थे। वे न धम-परायण रहकर शु आचार- वचारका पालन करते ए पाँच हजार वष तक एक पैरसे खड़े रहे॥ ६ ॥ ‘उनका नयम समा होनेपर अ राएँ नृ करने लग । उनके ऊपर आकाशसे फू ल क वषा ◌इ और देवता ने उनक ु त क ॥ ७ ॥ ‘तदन र वभीषणने अपनी दोन बाँह और म क ऊपर उठाकर ा ायपरायण हो पाँच हजार वष तक सूयदेवक आराधना क ॥ ८ ॥ ‘इस कार मनको वशम रखनेवाले वभीषणके भी दस हजार वष बड़े सुखसे बीते, मानो वे गके न नवनम नवास करते ह ॥ ९ ॥ ‘दशमुख रावणने दस हजार वष तक लगातार उपवास कया। ेक सह वषके पूण होनेपर वह अपना एक म क काटकर आगम होम देता था॥ १० ॥ ‘इस तरह एक-एक करके उसके नौ हजार वष बीत गये और नौ म क भी अ देवको भट हो गये॥



‘जब



दसवाँ सह पूरा आ और दश ीव अपना दसवाँ म क काटनेको उ त आ, इसी समय पतामह ाजी वहाँ आ प ँ चे॥ १२ ॥ ‘ पतामह ाअ स होकर देवता के साथ वहाँ प ँ चे थे। उ ने आते ही कहा —दश ीव! म तुमपर ब त स ँ ॥ १३ ॥ ‘धम ! तु ारे मनम जस वरको पानेक इ ा हो, उसे शी माँगो। बोलो, आज म तु ारी कस अ भलाषाको पूण क ँ ? तु ारा प र म थ नह होना चा हये’॥ १४ ॥ यह सुनकर दश ीवक अ रा ा स हो गयी। उसने म क कु ाकर भगवान् ाको णाम कया और हष-ग दवाणीम कहा—॥ १५ ॥ ‘भगवन्! ा णय के लये मृ ुके सवा और कसीका सदा भय नह रहता है; अतएव म अमर होना चाहता ँ ; क मृ ुके समान दूसरा को◌इ श ु नह है’॥ ‘उसके ऐसा कहनेपर ाजीने दश ीवसे कहा— ‘तु सवथा अमर नह मल सकता; इस लये दूसरा को◌इ वर माँगो’॥ १७ ॥ ‘ ीराम! लोक ा ाजीके ऐसा कहनेपर दश ीवने उनके सामने हाथ जोड़कर कहा —॥ १८ ॥ ‘सनातन जापते! म ग ड़, नाग, य , दै , दानव, रा स तथा देवता के लये अव हो जाऊँ ॥ १९ ॥ ‘देवव पतामह! अ ा णय से मुझे त नक भी च ा नह है। मनु आ द अ जीव को तो म तनके के समान समझता ँ ’॥ २० ॥ रा स दश ीवके ऐसा कहनेपर देवता स हत भगवान् ाजीने कहा—॥ २१ ॥ रा स वर! तु ारा यह वचन स होगा।’ ीराम! दश ीवसे ऐसा कहकर पतामह फर बोले—॥ २२ ॥ ‘ न ाप रा स! सुनो—म स होकर पुन: तु यह शुभ वर दान करता ँ —तुमने पहले अ म अपने जन- जन म क का हवन कया है, वे सब तु ारे लये फर पूववत् कट हो जायँगे। सौ ! इसके सवा एक और भी दुलभ वर म तु यहाँ दे रहा ँ —तुम अपने मनसे जब जैसा प धारण करना चाहोगे, तु ारी इ ाके अनुसार उस समय तु ारा वैसा ही प हो जायगा’॥ २३-२४ १/२ ॥



‘ पतामह गये थे, फर नये ‘



ाके इतना कहते ही रा स दश ीवके वे म क, जो पहले आगम होम दये पम कट हो गये॥ २५ १/२ ॥ ीराम! दश ीवसे पूव बात कहकर लोक- पतामह ाजी वभीषणसे बोले—॥



२६ १/२ ॥ ‘बेटा वभीषण! तु ारी बु सदा धमम लगी रहनेवाली है, अत: म तुमसे ब त संतु ँ । उ म तका पालन करनेवाले धमा न्! तुम भी अपनी चके अनुसार को◌इ वर माँगो’॥ २७ १/ ॥ २



‘तब



करणमालाम त च माक भाँ त सदा सम गुण से स धमा ा वभीषणने हाथ जोड़कर कहा—‘भगवन्! य द सा ात् लोकगु आप मुझपर स ह तो म कृ ताथ ँ । मुझे कु छ भी पाना शेष नह रहा। उ म तको धारण करनेवाले पतामह! य द आप स होकर मुझे वर देना ही चाहते ह तो सु नये॥ ‘भगवन्! बड़ी-से-बड़ी आप म पड़नेपर भी मेरी बु धमम ही लगी रहे—उससे वच लत न हो और बना सीखे ही मुझे ा का ान हो जाय॥ ‘ जस- जस आ मके वषयम मेरा जो-जो वचार हो, वह धमके अनुकूल ही हो और उसउस धमका म पालन क ँ ; यही मेरे लये सबसे उ म और अभी वरदान है॥ ३१-३२ ॥ ‘ क जो धमम अनुर ह, उनके लये कु छ भी दुलभ नह है’ यह सुनकर जाप त ा पुन: स हो वभीषणसे बोले—॥ ३३ ॥ ‘व ! तुम धमम त रहनेवाले हो; अत: जो कु छ चाहते हो, वह सब पूण होगा। श ुनाशन! रा सयो नम उ होकर भी तु ारी बु अधमम नह लगती है; इस लये म तु अमर दान करता ँ ॥ ३४ १/२ ॥ ‘ वभीषणसे ऐसा कहकर जब ाजी कु कणको वर देनेके लये उ त ए, तब सब देवता उनसे हाथ जोड़कर बोले—॥ ३५ १/२ ॥ ‘ भो! आप कु कणको वरदान न दी जये; क आप जानते ह क यह दुबु नशाचर कस तरह सम लोक को ास देता है॥ ३६ १/२ ॥ ‘ न्! इसने न नवनक सात अ रा , देवराज इ के दस अनुचर तथा ब त-से ऋ षय और मनु को भी खा लया है॥ ३७ १/२ ॥



‘पहले वर न पानेपर भी इस रा



सने जब इस कार ा णय के भ णका ू रतापूण कम कर डाला है, तब य द इसे वर ा हो जाय, उस दशाम तो यह तीन लोक को खा जायगा॥ ३८ १/२ ॥ ‘अ मततेज ी देव! आप वरके बहाने इसको मोह दान क जये। इससे सम लोक का क ाण होगा और इसका भी स ान हो जायगा’॥ ३९ १/२ ॥ ‘देवता के ऐसा कहनेपर कमलयो न ाजीने सर तीका रण कया। उनके च न करते ही देवी सर ती पास आ गय ॥ ४० १/२ ॥ उनके पा भागम खड़ी हो सर तीने हाथ जोड़कर कहा—‘देव! यह म आ गयी। मेरे लये ा आ ा है? म कौन-सा काय क ँ ?’॥ ४१ १/२ ॥ ‘तब जाप तने वहाँ आयी ◌इ सर तीदेवीसे कहा— ‘वा ण! तुम रा सराज कु कणक ज ापर वराजमान हो देवता के अनुकूल वाणीके पम कट होओ’॥ ४२ १/२ ॥ ‘तब ‘ब



त अ ा’ कहकर सर ती कु कणके मुखम समा गय । इसके बाद जाप तने उस रा ससे कहा—‘महाबा कु कण! तुम भी अपने मनके अनुकूल को◌इ वर माँगो’॥ ४३ १/२ ॥ ‘उनक बात सुनकर कु कण बोला—‘देवदेव! म अनेकानेक वष तक सोता र ँ । यही मेरी इ ा है।’ तब ‘एवम ु (ऐसा ही हो)’ कहकर ाजी देवता के साथ चले गये॥ ४४-४५ ॥ ‘ फर सर तीदेवीने भी उस रा सको छोड़ दया। ाजीके साथ देवता के आकाशम चले जानेपर जब सर तीजी उसके ऊपरसे उतर गय , तब दु ा ा कु कणको चेत आ और वह दु:खी होकर इस कार च ा करने लगा॥ ४६-४७ ॥ ‘अहो! आज मेरे मुँहसे ऐसी बात नकल गयी। म समझता ँ , ाजीके साथ आये ए देवता ने ही उस समय मुझे मोहम डाल दया था’॥ ४८ ॥ ‘इस कार वे तीन तेज ी ाता वर पाकर े ातकवन (लसोड़ेके जंगल)-म गये और वहाँ सुखपूवक रहने लगे॥ ४९ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म दसवाँ सग पूरा आ॥ १० ॥



ारहवाँ सग रावणका संदेश सुनकर पताक आ ासे कुबेरका ल ाको छोड़कर कैलासपर जाना, ल ाम रावणका रा ा भषेक तथा रा स का नवास



रावण आ द नशाचर को वर ा आ है, यह जानकर सुमाली नामक रा स अपने अनुचर स हत भय छोड़कर रसातलसे नकला॥ १ ॥ साथ ही मारीच, ह , व पा और महोदर— ये उस रा सके चार म ी भी रसातलसे ऊपरको उठे । वे सब-के -सब रोषावेषसे भरे ए थे॥ २ ॥ े रा स से घरा आ सुमाली अपने स चव के साथ दश ीवके पास गया और उसे छातीसे लगाकर इस कार बोला—॥ ३ ॥ ‘व ! बड़े सौभा क बात है क तुमने भुवन े ाजीसे उ म वर ा कया, जससे तु यह चरकालसे च त मनोरथ उपल हो गया॥ ‘महाबाहो! जसके कारण हम सब रा स ल ा छोड़कर रसातलम चले गये थे, भगवान् व ुसे ा होनेवाला हमारा यह महान् भय दूर हो गया॥ ५ ॥ ‘हम सब लोग बार ार भगवान् व ुके भयसे पी ड़त होनेके कारण अपना घर छोड़ भाग नकले और सब-के -सब एक साथ ही रसातलम व हो गये॥ ‘यह ल ानगरी जसम तु ारे बु मान् भा◌इ धना कु बेर नवास करते ह, हमलोग क है। पहले इसम रा स ही रहा करते थे॥ ७ ॥ ‘ न ाप महाबाहो! य द साम, दान अथवा बल योगके ारा भी पुन: ल ाको वापस लया जा सके तो हमलोग का काम बन जाय॥ ८ ॥ ‘तात! तु ल ाके ामी होओगे, इसम संशय नह है; क तुमने इस रा सवंशका जो रसातलम डू ब गया था, उ ार कया है॥ ९ ॥ ‘महाबली वीर! तु हम सबके राजा होओगे।’ यह सुनकर दश ीवने पास खड़े ए अपने मातामहसे कहा—‘नानाजी! धना कु बेर हमारे बड़े भा◌इ ह, अत: उनके स म आपको मुझसे ऐसी बात नह कहनी चा हये’॥ १० १/२ ॥



उस े रा सराजके ारा शा भावसे ही ऐसा कोरा उ र पाकर सुमाली समझ गया क रावण ा करना चाहता है, इस लये वह रा स चुप हो गया। फर कु छ कहनेका साहस न कर सका॥ ११ १/२ ॥ तदन र कु छ काल तीत होनेपर अपने ानपर नवास करते ए दश ीव रावणसे जो सुमालीको पहले पूव उ र दे चुका था, नशाचर ह ने वनयपूवक यह यु यु बात कही—॥ १२-१३ ॥ ‘महाबा दश ीव! आपने अपने नानासे जो कु छ कहा है, वैसा नह कहना चा हये; क वीर म इस तरह ातृभावका नवाह होता नह देखा जाता। आप मेरी यह बात सु नये॥ १४ ॥ ‘अ द त और द त दोन सगी बहन ह। वे दोन ही जाप त क पक परम सु री प याँ ह॥ १५ ॥ ‘अ द तने देवता को ज दया है, जो इस समय भुवनके ामी ह और द तने दै को उ कया है। देवता और दै दोन ही मह ष क पके औरस पु ह॥ १६ ॥ ‘धम वीर! पहले पवत, वन और समु स हत यह सारी पृ ी दै के ही अ धकारम थी; क वे बड़े भावशाली थे॥ १७ ॥ ‘ कतु सवश मान् भगवान् व ुने यु म दै को मारकर लोक का यह अ य रा देवता के अ धकारम दे दया॥ १८ ॥ ‘इस तरहका वपरीत आचरण के वल आप ही नह करगे। देवता और असुर ने भी पहले इस नी तसे काम लया है; अत: आप मेरी बात मान ल’॥ १९ ॥ ह के ऐसा कहनेपर दश ीवका च स हो गया। उसने दो घड़ीतक सोचवचारकर कहा—‘ब त अ ा (तुम जैसा कहते हो, वैसा ही क ँ गा)’॥ २० ॥ तदन र उसी दन उसी हषके साथ परा मी दश ीव उन नशाचर को साथ ले ल ाके नकटवत वनम गया॥ २१ ॥ उस समय कू टपवतपर जाकर नशाचर दश ीव ठहर गया और बातचीत करनेम कु शल ह को उसने दूत बनाकर भेजा॥ २२ ॥



वह बोला—‘ ह ! तुम शी जाओ और मेरे कथनानुसार धनके ामी रा सराज कु बेरसे शा पूवक यह बात कहो॥ २३ ॥ ‘राजन्! यह ल ापुरी महामना रा स क है, जसम आप नवास कर रहे ह। सौ ! न ाप य राज! यह आपके लये उ चत नह है॥ २४ ॥ ‘अतुल परा मी धने र! य द आप हम यह ल ापुरी लौटा द तो इससे हम बड़ी स ता होगी और आपके ारा धमका पालन आ समझा जायगा’॥ तब ह कु बेरके ारा सुर त ल ापुरीम गया और उन व पालसे बड़ी उदारतापूण वाणीम बोला— ‘उ म तका पालन करनेवाले, स ूण श धा रय म े , सवशा वशारद, महाबा , महा ा धने र! आपके भा◌इ दश ीवने मुझे आपके पास भेजा है। दशमुख रावण आपसे जो कु छ कहना चाहते ह, वह बता रहा ँ । आप मेरी बात सु नये॥ २७-२८ ॥ ‘ वशाललोचन वै वण! यह रमणीय ल ापुरी पहले भयानक परा मी सुमाली आ द रा स के अ धकारम रही है। उ ने ब त समयतक इसका उपभोग कया है। अत: वे दश ीव इस समय यह सू चत कर रहे ह क ‘यह ल ा जनक व ु है, उ लौटा दी जाय।’ तात! शा पूवक याचना करनेवाले दश ीवको आप यह पुरी लौटा द’॥ २९-३० ॥ ह के मुखसे यह बात सुनकर वाणीका मम समझनेवाल म े भगवान् वै वणने ह को इस कार उ र दया—॥ ३१ ॥ ‘रा स! यह ल ा पहले नशाचर से सूनी थी। उस समय पताजीने मुझे इसम रहनेक आ ा दी और मने इसम दान, मान आ द गुण ारा जाजन को बसाया॥ ‘दूत! तुम जाकर दश ीवसे कहो—महाबाहो! यह पुरी तथा यह न क रा जो कु छ भी मेरे पास है, वह सब तु ारा भी है। तुम इसका उपभोग करो॥ ३३ ॥ ‘मेरा रा तथा सारा धन तुमसे बँटा आ नह है’ ऐसा कहकर धना कु बेर अपने पता व वा मु नके पास चले गये॥ ३४ ॥ वहाँ पताको णाम करके उ ने रावणक जो इ ा थी, उसे इस कार बताया —‘तात! आज दश ीवने मेरे पास दूत भेजा और कहलाया है क इस ल ा नगरीम पहले रा स रहा करते थे, अत: इसे रा स को लौटा दी जये। सु त! अब मुझे इस वषयम ा करना चा हये, बतानेक कृ पा कर’॥ ३५-३६ ॥



उनके ऐसा कहनेपर ष मु नवर व वा हाथ जोड़कर खड़े ए धनद कु बेरसे बोले —‘बेटा! मेरी बात सुनो॥ ३७ ॥ महाबा दश ीवने मेरे नकट भी यह बात कही थी। इसके लये मने उस दुबु को ब त फटकारा, डाँट बतायी और बार ार ोधपूवक कहा—‘अरे! ऐसा करनेसे तेरा पतन हो जायगा’ कतु इसका कु छ फल नह आ॥ ३८ १/२ ॥ ‘बेटा! अब तु मेरे धमानुकूल एवं क ाणकारी वचनको ान देकर सुनो। रावणक बु ब त ही खोटी है। वह वर पाकर मदम हो उठा है— ववेक खो बैठा है। मेरे शापके कारण भी उसक कृ त ू र हो गयी है॥ ३९-४० ॥ ‘इस लये महाबाहो! अब तुम अनुचर स हत ल ा छोड़कर कै लास पवतपर चले जाओ और अपने रहनेके लये वह दूसरा नगर बसाओ॥ ४१ ॥ ‘वहाँ न दय म े रमणीय म ा कनी नदी बहती है, जसका जल सूयके समान का शत होनेवाले सुवणमय कमल , कु मुद , उ ल और दूसरे-दूसरे सुग त कु सुम से आ ा दत है॥ ४२ १/२ ॥ ‘उस पवतपर देवता, ग व, अ रा, नाग और क र आ द द ाणी, ज भावसे ही घूमना- फरना अ धक य है, सदा रहते ए नर र आन का अनुभव करते ह। धनद! इस रा सके साथ तु ारा वैर करना उ चत नह है। तुम तो जानते ही हो क इसने ाजीसे कै सा उ ृ वर ा कया है’॥ ४३—४५ ॥ मु नके ऐसा कहनेपर कु बेरने पताका मान रखते ए उनक बात मान ली और ी, पु , म ी, वाहन तथा धन साथ लेकर वे ल ासे कै लासको चले गये॥ तदन र ह स होकर म ी और भाइय के साथ बैठे ए महामना दश ीवके पास जाकर बोला—॥ ‘ल ा नगरी खाली हो गयी। कु बेर उसे छोड़कर चले गये। अब आप हमलोग के साथ उसम वेश करके अपने धमका पालन क जये’॥ ४८ ॥ ह के ऐसा कहनेपर महाबली दश ीवने अपनी सेना, अनुचर तथा भाइय स हत कु बेर ारा ागी ◌इ ल ापुरीम वेश कया। उस नगरीम सु र वभागपूवक बड़ी-बड़ी सड़क



बनी थ । जैसे देवराज इ गके सहासनपर आ ढ़ ए थे, उसी कार देव ोही रावणने ल ाम पदापण कया॥ ४९-५० ॥ उस समय नशाचर ने दशमुख रावणका रा ा भषेक कया। फर रावणने उस पुरीको बसाया। देखते-देखते समूची ल ापुरी नील मेघके समान वणवाले रा स से पूणत: भर गयी॥ ५१ ॥ धनके ामी कु बेरने पताक आ ाको आदर देकर च माके समान नमल का वाले कै लास पवतपर शोभाशाली े भवन से वभू षत अलकापुरी बसायी, ठीक वैसे ही जैसे देवराज इ ने गलोकम अमरावती पुरी बसायी थी॥ ५२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म ारहवाँ सग पूरा आ॥ ११ ॥



बारहवाँ सग शूपणखा तथा रावण आ द तीन भाइय का ववाह और मेघनादका ज (अग



जी कहते ह— ीराम!) अपना अ भषेक हो जानेपर जब रा सराज रावण भाइय स हत ल ापुरीम रहने लगा, तब उसे अपनी ब हन रा सी शूपणखाके ाहक च ा ◌इ॥ १ ॥ उस रा सने दानवराज व ु को, जो कालकाका पु था, अपनी ब हन शूपणखा ाह दी॥ २ ॥ ीराम! ब हनका ाह करके रा स रावण एक दन यं शकार खेलनेके लये वनम घूम रहा था। वहाँ उसने द तके पु मयको देखा। उसके साथ एक सु री क ा भी थी। उसे देखकर नशाचर दश ीवने पूछा—‘आप कौन ह, जो मनु और पशु से र हत इस सूने वनम अके ले घूम रहे ह? इस मृगनयनी क ाके साथ आप यहाँ कस उ े से नवास करते ह?’॥ ३-४ १/२ ॥ ीराम! इस कार पूछनेवाले उस नशाचरसे मय बोला—‘सुनो, म अपना सारा वृ ा तु यथाथ पसे बता रहा ँ ॥ ५ १/२ ॥ ‘तात! तुमने पहले कभी सुना होगा, गम हेमा नामसे स एक अ रा रहती है। उसे देवता ने उसी कार मुझे अ पत कर दया था, जैसे पुलोम दानवक क ा शची देवराज इ को दी गयी थ । म उसीम आस होकर एक सह वष तक उसके साथ रहा ँ । एक दन वह देवता के कायसे गलोकको चली गयी, तबसे चौदह वष बीत गये। मने उस हेमाके लये मायासे एक नगरका नमाण कया था, जो स ूणत: सोनेका बना है। हीरे और नीलमके संयोगसे वह व च शोभा धारण करता है। उसीम म अबतक उसके वयोगसे अ दु:खी एवं दीन होकर रहता था॥ ६—९ ॥ ‘उसी नगरसे इस क ाको साथ लेकर म वनम आया ँ । राजन्! यह मेरी पु ी है, जो हेमाके गभम ही पली है और उससे उ होकर मेरे ारा पा लत हो बड़ी ◌इ है॥ १० ॥ ‘इसके साथ म इसके यो प तक खोज करनेके लये आया ँ । मानक अ भलाषा रखनेवाले ाय: सभी लोग के लये क ाका पता होना क कारक होता है। ( क इसके



लये क ाके पताको दूसर के सामने कु ना पड़ता है।) क ा सदा दो कु ल को संशयम डाले रहती है॥ ११ १/२ ॥ ‘तात! मेरी इस भाया हेमाके गभसे दो पु भी ए ह, जनम थम पु का नाम मायावी और दूसरेका दु ु भ है॥ १२ १/२ ॥ तात! तुमने पूछा था, इस लये मने इस तरह अपनी सारी बात तु यथाथ पसे बता द । अब म यह जानना चाहता ँ क तुम कौन हो? यह मुझे कस तरह ात हो सके गा?’॥ १३ १/२ ॥



मयासुरके इस कार कहनेपर रा स रावण वनीतभावसे य बोला—‘म पुल के पु व वाका बेटा ँ । मेरा नाम दश ीव है। म जन व वा मु नसे उ आ ँ , वे ाजीसे तीसरी पीढ़ीम पैदा ए ह’॥ १४-१५ ॥ ीराम! रा सराजके ऐसा कहनेपर दानव मय मह ष व वाके उस पु का प रचय पाकर ब त स आ और उसके साथ वहाँ उसने अपनी पु ीका ववाह कर देनेक इ ा क ॥ १६ १/ ॥ २



इसके बाद दै राज मय अपनी बेटीका हाथ रावणके हाथम देकर हँ सता आ उस रा सराजसे इस कार बोला—॥ १७ १/२ ॥ ‘राजन्! यह मेरी बेटी है, जसे हेमा अ राने अपने गभम धारण कया था। इसका नाम म ोदरी है। इसे तुम अपनी प ीके पम ीकार करो’॥ १८ १/२ ॥ ीराम! तब दश ीवने ‘ब त अ ा’ कहकर मयासुरक बात मान ली। फर वहाँ उसने अ को लत करके म ोदरीका पा ण हण कया॥ १९ १/२ ॥ रघुन न! य प तपोधन व वासे रावणको जो ू र- कृ त होनेका शाप मला था, उसे मयासुर जानता था; तथा प रावणको ाजीके कु लका बालक समझकर उसने उसको अपनी क ा दे दी॥ २० १/२ ॥ साथ ही उ ृ तप ासे ा ◌इ एक परम अ तु अमोघ श भी दान क , जसके ारा रावणने ल णको घायल कया था॥ २१ १/२ ॥



इस कार दारप र ह ( ववाह) करके भावशाली ल े र रावण ल ापुरीम गया और अपने दोन भाइय के लये भी दो भायाएँ उनका ववाह कराकर ले आया॥ २२ १/२ ॥ वरोचनकु मार ब लक दौ ह ीको, जसका नाम व ाला था, रावणने कु कणक प ी बनाया॥ २३ १/२ ॥ ग वराज महा ा शैलूषक क ा सरमाको, जो धमके त को जाननेवाली थी, वभीषणने अपनी प ीके पम ा कया॥ २४ १/२ ॥ वह मानसरोवरके तटपर उ ◌इ थी। जब उसका ज आ, उस समय वषा-ऋतुका आगमन होनेसे मान-सरोवर बढ़ने लगा। तब उस क ाक माताने पु ीके ेहसे क ण न करते ए उस सरोवरसे कहा—‘सरो मा वधय ’ (हे सरोवर! तुम अपने जलको बढ़ने न दो)। उसने घबराहटम ‘सर: मा’ ऐसा कहा था; इस लये उस क ाका नाम सरमा हो गया॥ २५-२६ १/ ॥ २



इस कार वे तीन रा स ववा हत होकर अपनी-अपनी ीको साथ ले न नवनम वहार करनेवाले ग व के समान ल ाम सुखपूवक रमण करने लगे॥ तदन र कु छ कालके बाद म ोदरीने अपने पु मेघनादको ज दया, जसे आपलोग इ ज े नामसे पुकारते थे॥ २८ १/२ ॥ पूवकालम उस रावणपु ने पैदा होते ही रोते-रोते मेघके समान ग ीर नाद कया था॥ २९ १/ ॥ २



रघुन न! उस मेघतु नादसे सारी ल ा जडवत् रह गयी थी; इस लये पता रावणने यं ही उसका नाम मेघनाद रखा॥ ३० १/२ ॥ ीराम! उस समय वह रावणकु मार रावणके सु र अ :पुरम माता- पताको महान् हष दान करता आ े ना रय से सुर त हो का से आ ा दत ◌इ अ के समान बढ़ने लगा॥ ३१-३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बारहवाँ सग पूरा आ॥ १२ ॥



तेरहवाँ सग रावण ारा बनवाये गये शयनागारम कु कणका सोना, रावणका अ ाचार, कुबेरका दत ू भेजकर उसे समझाना तथा कु पत ए रावणका उस दत ू को मार डालना (अग



जी कहते ह—रघुन न!) तदन र कु छ काल बीतनेपर लोके र ाजीक भेजी ◌इ न ा जँभा◌इ आ दके पम मू तमती हो कु कणके भीतर ती वेगसे कट ◌इ॥ १ ॥ तब कु कणने पास ही बैठे ए अपने भा◌इ रावणसे कहा—‘राजन्! मुझे न द सता रही है; अत: मेरे लये शयन करनेके यो घर बनवा द’॥ २ ॥ यह सुनकर रा सराजने व कमाके समान सुयो श य को घर बनानेके लये आ ा दे दी। उन श य ने दो योजन ल ा और एक योजन चौड़ा चकना घर बनाया, जो देखने ही यो था। उसम कसी कारक बाधाका अनुभव नह होता था। उसम सव टकम ण एवं सुवणके बने ए ख े लगे थे, जो उस भवनक शोभा बढ़ा रहे थे॥ ३-४ ॥ उसम नीलमक सी ढ़याँ बनी थ । सब ओर घुँघु दार झालर लगायी गयी थ । उसका सदर फाटक हाथी-दाँतका बना आ था और हीरे तथा टक-म णक वेदी एवं चबूतरे शोभा दे रहे थे॥ ५ ॥ वह भवन सब कारसे सुखद एवं मनोहर था। मे क पु मयी गुफाके समान सदा सव सुख दान करनेवाला था। रा सराज रावणने कु कणके लये ऐसा सु र एवं सु वधाजनक शयनागार बनवाया॥ ६ ॥ महाबली कु कण उस घरम जाकर न ाके वशीभूत हो क◌इ हजार वष तक सोता रहा। जाग नह पाता था॥ ७ ॥ जब कु कण न ासे अ भभूत होकर सो गया, तब दशमुख रावण उ ृ ल हो देवता , ऋ षय , य और ग व के समूह को मारने तथा पीड़ा देने लगा॥ ८ ॥ देवता के न नवन आ द जो व च उ ान थे, उनम जाकर दशानन अ कु पत हो उन सबको उजाड़ देता था॥ ९ ॥ वह रा स नदीम हाथीक भाँ त डा करता आ उसक धारा को छ - भ कर देता था। वृ को वायुक भाँ त झकझोरता आ उखाड़ फ कता था और पवत को इ के हाथसे



छू टे ए व क भाँ त तोड़-फोड़ डालता था॥ १० ॥ दश ीवके इस नरंकुश बतावका समाचार पाकर धनके ामी धम कु बेरने अपने कु लके अनु प आचार- वहारका वचार करके उ म ातृ ेमका प रचय देनेके लये ल ाम एक दूत भेजा। उनका उ े यह था क म रावणको उसके हतक बात बताकर राहपर लाऊँ ॥ ११-१२ ॥



वह दूत ल ापुरीम जाकर पहले वभीषणसे मला। वभीषणने धमके अनुसार उसका स ार कया और ल ाम आनेका कारण पूछा॥ १३ ॥ फर ब ु-बा व का कु शल-समाचार पूछकर वभीषणने उस दूतको ले जाकर राजसभाम बैठे ए रावणसे मलाया॥ १४ ॥ राजा रावण सभाम अपने तेजसे उ ी हो रहा था, उसे देखकर दूतने ‘महाराजक जय हो’ ऐसा कहकर वाणी ारा उसका स ार कया और फर वह कु छ देरतक चुपचाप खड़ा रहा॥ १५ ॥



त ात् उ म बछौनेसे सुशो भत एक े पल पर बैठे ए दश ीवसे उस दूतने इस कार कहा—॥ १६ ॥ ‘वीर महाराज! आपके भा◌इ धना कु बेरने आपके पास जो संदेश भेजा है, वह मातापता दोन के कु ल तथा सदाचारके अनु प है, म उसे पूण पसे आपको बता रहा ँ ; सु नये—॥ १७ ॥ ‘दश ीव! तुमने अबतक जो कु छ कु कृ कया है, इतना ही ब त है। अब तो तु भलीभाँ त सदाचारका सं ह करना चा हये। य द हो सके तो धमके मागपर त रहो; यही तु ारे लये अ ा होगा॥ १८ ॥ ‘तुमने न नवनको उजाड़ दया—यह मने अपनी आँ ख देखा है। तु ारे ारा ब त-से ऋ षय का वध आ है, यह भी मेरे सुननेम आया है। राजन्! (इससे तंग आकर देवता तुमसे बदला लेना चाहते ह) मने सुना है क तु ारे व देवता का उ ोग आर हो गया है॥ १९ ॥ ‘रा



सराज! तुमने क◌इ बार मेरा भी तर ार कया है; तथा प य द बालक अपराध कर दे तो भी अपने ब ु-बा व को तो उसक र ा ही करनी चा हये (इसी लये तु हतकारक सलाह दे रहा ँ )॥ २० ॥



‘म



शौच-संतोषा द नयम के पालन और इ य-संयमपूवक ‘रौ - त’का आ य ले धमका अनु ान करनेके लये हमालयके एक शखरपर गया था॥ २१ ॥ ‘वहाँ मुझे उमास हत भगवान् महादेवजीका दशन आ। महाराज! उस समय मने के वल यह जाननेके लये क देखूँ ये कौन ह? दैववश देवी पावतीपर अपनी बाय डाली थी। न य ही मने दूसरे कसी हेतुसे ( वकारयु भावनासे) उनक ओर नह देखा था। उस वेलाम देवी ाणी अनुपम प धारण करके वहाँ खड़ी थ ॥ २२-२३ ॥ ‘देवीके द भावसे उस समय मेरी बाय आँ ख जल गयी और दूसरी (दाय आँ ख) भी धूलसे भरी ◌इ-सी प ल वणक हो गयी॥ २४ ॥ ‘तदन र मने पवतके दूसरे व ृत तटपर जाकर आठ सौ वष तक मौनभावसे उस महान् तको धारण कया॥ २५ ॥ ‘उस नयमके समा होनेपर भगवान् महे रदेवने मुझे दशन दया और स मनसे कहा —॥ २६ ॥ ‘उ म तका पालन करनेवाले धम धने र! म तु ारी इस तप ासे ब त संतु ँ । एक तो मने इस तका आचरण कया है और दूसरे तुमने॥ २७ ॥ ‘तीसरा को◌इ ऐसा पु ष नह है, जो ऐसे कठोर तका पालन कर सके । इस अ दु र तको पूवकालम मने ही कट कया था॥ २८ ॥ ‘‘अत: सौ धने र! अब तुम मेरे साथ म ताका स ा पत करो, यह स तु पसंद आना चा हये। अनघ! तुमने अपने तपसे मुझे जीत लया है; अत: मेरा म बनकर रहो॥ २९ ॥ ‘देवी पावतीके पपर पात करनेसे देवीके भावसे जो तु ारा बायाँ ने जल गया और दूसरा ने भी प लवणका हो गया, इससे सदा र रहनेवाला तु ारा ‘एका प ली’ यह नाम चर ायी होगा।’ इस कार भगवान् श रके साथ मै ी ा पत करके उनक आ ा लेकर जब म घर लौटा ँ , तब मने तु ारे पापपूण न यक बात सुनी है॥ ३०-३१ १/२ ॥ ‘अत: अब तुम अपने कु लम कलंक लगानेवाले पापकमके संसगसे दूर हट जाओ; क ऋ ष-समुदायस हत देवता तु ारे वधका उपाय सोच रहे ह’॥



दूतके मुँहसे ऐसी बात सुनकर दश ीव रावणके ने ोधसे लाल हो गये। वह हाथ मलता आ दाँत पीसकर बोला—॥ ३३ १/२ ॥ ‘दूत! तू जो कु छ कह रहा है, उसका अ भ ाय मने समझ लया। अब तो न तू जी वत रह सकता है और न वह भा◌इ ही, जसने तुझे यहाँ भेजा है॥ ३४ १/२ ॥ ‘धनर क कु बेरने जो संदेश दया है, वह मेरे लये हतकर नह है। वह मूढ़ मुझे (डरानेके लये) महादेवजीके साथ अपनी म ताक कथा सुना रहा है?॥ ३५ १/२ ॥ ‘दूत! तूने जो बात यहाँ कही है, यह मेरे लये सहन करनेयो नह है। कु बेर मेरे बड़े भा◌इ ह, अत: उनका वध करना उ चत नह है—ऐसा समझकर ही मने आजतक उ मा कया है॥ ३६-३७ ॥ ‘ कतु इस समय उनक बात सुनकर मने यह न य कया है क म अपने बा बलका भरोसा करके तीन लोक को जीतूँगा॥ ३८ ॥ ‘इसी मु तम म एकके ही अपराधसे उन चार लोकपाल को यमलोक प ँ चाऊँ गा’॥ ३९ ॥



ऐसा कहकर ल ेश रावणने तलवारसे उस दूतके दो टुकड़े कर डाले और उसक लाश उसने दुरा ा रा स को खानेके लये दे दी॥ ४० ॥ त ात् रावण वाचन करके रथपर चढ़ा और तीन लोक पर वजय पानेक इ ासे उस ानपर गया, जहाँ धनप त कु बेर रहते थे॥ ४१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म तेरहवाँ सग पूरा आ॥ १३ ॥



चौदहवाँ सग म (अग



य स हत रावणका य



पर आ मण और उनक पराजय



जी कहते ह—रघुन न!) तदन र बलके अ भमानसे सदा उ रहनेवाला रावण महोदर, ह , मारीच, शुक, सारण तथा सदा ही यु क अ भलाषा रखनेवाले वीर धू ा —इन छ: म य के साथ ल ासे त आ। उस समय ऐसा जान पड़ता था, मानो अपने ोधसे स ूण लोक को भ कर डालेगा॥ ब त-से नगर , न दय , पवत , वन और उपवन को लाँघकर वह दो ही घड़ीम कै लास पवतपर जा प ँ चा॥ य ने जब सुना क दुरा ा रा सराज रावणने यु के लये उ ा हत होकर अपने म य के साथ कै लास पवतपर डेरा डाला है, तब वे उस रा सके सामने खड़े न हो सके । यह राजाका भा◌इ है, ऐसा जानकर य लोग उस ानपर गये, जहाँ धनके ामी कु बेर व मान थे॥ वहाँ जाकर उ ने उनके भा◌इका सारा अ भ ाय कह सुनाया। तब कु बेरने यु के लये य को आ ा दे दी; फर तो य बड़े हषसे भरकर चल दये॥ ६ ॥ उस समय य राजक सेनाएँ समु के समान ु हो उठ । उनके वेगसे वह पवत हलता-सा जान पड़ा॥ तदन र य और रा स म घमासान यु छड़ गया। वहाँ रावणके वे स चव थत हो उठे ॥ ८ ॥ अपनी सेनाक वैसी दुदशा देख नशाचर दश ीव बार-बार हषवधक सहनाद करके रोषपूवक य क ओर दौड़ा॥ ९ ॥ रा सराजके जो स चव थे, वे बड़े भयंकर परा मी थे। उनमसे एक-एक स चव हजारहजार य से यु करने लगा॥ १० ॥ उस समय य जलक धारा गरानेवाले मेघ के समान गदा , मूसल , तलवार , श य और तोमर क वषा करने लगे। उनक चोट सहता आ दश ीव श ुसेनाम घुसा। वहाँ



उसपर इतनी मार पड़ने लगी क उसे दम मारनेक भी फु रसत नह मली। य ने उसका वेग रोक दया॥ ११-१२ ॥ य के श से आहत होनेपर भी उसने अपने मनम दु:ख नह माना; ठीक उसी तरह, जैसे मेघ ारा बरसायी ◌इ सैकड़ जलधारा से अ भ ष होनेपर भी पवत वच लत नह होता है॥ १३ ॥ उस महाकाय नशाचरने कालद के समान भयंकर गदा उठाकर य क सेनाम वेश कया और उ यमलोक प ँ चाना आर कर दया॥ १४ ॥ वायुसे लत ◌इ अ के समान रावणने तनक के समान फै ली और सूखे ◌इं धनक भाँ त आकु ल ◌इ य क सेनाको जलाना आर कया॥ १५ ॥ जैसे हवा बादल को उड़ा देती है, उसी तरह उन महोदर और शुक आ द महाम य ने वहाँ य का संहार कर डाला। अब वे थोड़ी ही सं ाम बच रहे॥ कतने ही य श के आघातसे अ -भ हो जानेके कारण समरा णम धराशायी हो गये। कतने ही रणभू मम कु पत हो अपने तीखे दाँत से ओठ दबाये ए थे॥ १७ ॥ को◌इ थककर एक-दूसरेसे लपट गये। उनके अ -श गर गये और वे समरा णम उसी तरह श थल होकर गरे जैसे जलके वेगसे नदीके कनारे टूट पड़ते ह॥ १८ ॥ मर-मरकर गम जाते, जूझते और दौड़ते ए य क तथा आकाशम खड़े होकर यु देखनेवाले ऋ षसमूह क सं ा इतनी बढ़ गयी थी क आकाशम उन सबके लये जगह नह अँटती थी॥ १९ ॥ महाबा धना ने उन य को भागते देख दूसरे महाबली य राज को यु के लये भेजा॥ २० ॥ ीराम! इसी बीचम कु बेरका भेजा आ संयोधक क नामक य वहाँ आ प ँ चा। उसके साथ ब त-सी सेना और सवा रयाँ थ ॥ २१ ॥ उसने आते ही भगवान् व ुक भाँ त च से रणभू मम मारीचपर हार कया। उससे घायल होकर वह रा स कै लाससे नीचे पृ ीपर उसी तरह गर पड़ा, जैसे पु ीण होनेपर गवासी ह वहाँसे भूतलपर गर पड़ा हो॥ २२ ॥



दो घड़ीके बाद होशम आनेपर नशाचर मारीच व ाम करके लौटा और उस य के साथ यु करने लगा। तब वह य भाग खड़ा आ॥ २३ ॥ तदन र रावणने कु बेरपुरीके फाटकम, जसके ेक अ म सुवण जड़ा आ था तथा जो नीलम और चाँदीसे भी वभू षत था, वेश कया। वहाँ ारपाल का पहरा लगता था। वह फाटक ही सीमा थी। उससे आगे दूसरे लोग नह जा सकते थे॥ २४ ॥ महाराज ीराम! जब नशाचर दश ीव फाटकके भीतर वेश करने लगा, तब सूयभानु नामक ारपालने उसे रोका॥ २५ ॥ जब य के रोकनेपर भी वह नशाचर न का और भीतर व हो गया, तब ारपालने फाटकम लगे ए एक खंभेको उखाड़कर उसे दश ीवके ऊपर दे मारा। उसके शरीरसे र क धारा बहने लगी, मानो कसी पवतसे गे म त जलका झरना गर रहा हो॥ २६-२७ ॥ पवत शखरके समान तीत होनेवाले उस खंभेक चोट खाकर भी वीर दश ीवक को◌इ त नह ◌इ। वह ाजीके वरदानके भावसे उस य के ारा मारा न जा सका॥ २८ ॥ तब उसने भी वही खंभ उठाकर उसके ारा य पर हार कया, इससे य का शरीर चूरचूर हो गया। फर उसक शकल नह दखायी दी॥ २९ ॥ उस रा सका यह परा म देखकर सभी य भाग गये। को◌इ न दय म कू द पड़े और को◌इ भयसे पी ड़त हो गुफा म घुस गये। सबने अपने ह थयार ाग दये थे। सभी थक गये थे और सबके मुख क का फ क पड़ गयी थी॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चौदहवाँ सग पूरा आ॥ १४ ॥



पं हवाँ सग मा णभ तथा कुबेरक पराजय और रावण ारा पु क वमानका अपहरण ‘(अग



जी कहते ह—रघुन न!) धना ने देखा, हजार य वर भयभीत होकर भाग रहे ह; तब उ ने मा णभ नामक एक महाय से कहा—॥ १ ॥ ‘य वर! रावण पापा ा एवं दुराचारी है, तुम उसे मार डालो और यु म शोभा पानेवाले वीर य को शरण दो—उनक र ा करो’॥ २ ॥ महाबा मा णभ अ दुजय वीर थे। कु बेरक उ आ ा पाकर वे चार हजार य क सेना साथ ले फाटकपर गये और रा स के साथ यु करने लगे॥ ३ ॥ उस समय य यो ा गदा, मूसल, ास, श , तोमर तथा मु र का हार करते ए रा स पर टूट पड़े॥ ४ ॥ वे घोर यु करते ए बाज प ीक तरह ती ग तसे सब ओर वचरने लगे। को◌इ कहता ‘मुझे यु का अवसर दो।’ दूसरा बोलता—‘म यहाँसे पीछे हटना नह चाहता।’ फर तीसरा बोल उठता—‘मुझे अपना ह थयार दो’॥ ५ ॥ उस तुमुल यु को देखकर देवता, ग व तथा वादी ऋ ष भी बड़े आ यम पड़ गये थे॥ ६ ॥ उस रणभू मम ह ने एक हजार य का संहार कर डाला। फर महोदरने दूसरे एक सह शंसनीय य का वनाश कया॥ ७ ॥ राजन्! उस समय कु पत ए रणो ुक मारीचने पलक मारते-मारते शेष दो हजार य को धराशायी कर दया॥ ८ ॥ पु ष सह! कहाँ य का सरलतापूवक यु ? और कहाँ रा स का मायामय सं ाम? वे अपने मायाबलके भरोसे ही य क अपे ा अ धक श शाली स ए॥ ९ ॥ उस महासमरम धू ा ने आकर ोधपूवक मा णभ क छातीम मूसलका हार कया; कतु इससे वे वच लत नह ए॥ १० ॥ फर मा णभ ने भी गदा घुमाकर उसे रा स धू ा के म कपर दे मारा। उसक चोटसे ाकु ल हो धू ा धरतीपर गर पड़ा॥ ११ ॥



धू ा को गदाक चोटसे घायल एवं खूनसे लथपथ होकर पृ ीपर पड़ा देख दशमुख रावणने रणभू मम मा णभ पर धावा कया॥ १२ ॥ ‘दशाननको ोधम भरकर धावा करते देख य वर मा णभ ने उसके ऊपर तीन श य ारा हार कया॥ १३ ॥ चोट खाकर रावणने रणभू मम मा णभ के मुकुटपर वार कया। उसके उस हारसे उनका मुकुट खसककर बगलम आ गया॥ १४ ॥ तबसे मा णभ य पा मौ लके नामसे स ए। महामना मा णभ य यु से भाग चले। राजन्! उनके यु से वमुख होते ही उस पवतपर रा स का महान् सहनाद सब ओर फै ल गया॥ १५ ॥ इसी समय धनके ामी गदाधारी कु बेर दूरसे आते दखायी दये। उनके साथ शु और ौ पद नामक म ी तथा श और प नामक धनके अ ध ाता देवता भी थे॥ १६ ॥ व वा मु नके शापसे ू र कृ त हो जानेके कारण जो गु जन के त णाम आ द वहार भी नह कर पाता था—गु जनो चत श ाचारसे भी व त था, उस अपने भा◌इ रावणको यु म उप त देख बु मान् कु बेरने ाजीके कु लम उ ए पु षके यो बात कही—॥ १७ ॥ ‘दुबु दश ीव! मेरे मना करनेपर भी इस समय तुम समझ नह रहे हो, कतु आगे चलकर जब इस कु कमका फल पाओगे और नरकम पड़ोगे, उस समय मेरी बात तु ारी समझम आयेगी॥ १८ ॥ ‘जो खोटी बु वाला पु ष मोहवश वषको पीकर भी उसे वष नह समझता है, उसे उसका प रणाम ा हो जानेपर अपने कये ए उस कमके फलका ान होता है॥ १९ ॥ ‘तु ारे कसी ापारसे, वह तु ारी मा ताके अनुसार धमयु ही न हो, देवता स नह होते ह; इसी लये तुम ऐसे ू रभावको ा हो गये हो, परंतु यह बात तु ारी समझम नह आती है॥ २० ॥ ‘जो माता, पता, ा ण और आचायका अपमान करता है, वह यमराजके वशम पड़कर उस पापका फल भोगता है॥ २१ ॥



‘यह



शरीर णभ ु र है। इसे पाकर जो तपका उपाजन नह करता, वह मूख मरनेके बाद जब उसे अपने दु म का फल मलता है, प ा ाप करता है॥ ‘धमसे राज, धन और सुखक ा होती है। अधमसे के वल दु:ख ही भोगना पड़ता है, अत: सुखके लये धमका आचरण करे, पापको सवथा ाग दे॥ ‘पापका फल के वल दु:ख है और उसे यं ही यहाँ भोगना पड़ता है; इस लये जो मूढ़ पाप करेगा, वह मानो यं ही अपना वध कर लेगा॥ २४ ॥ ‘ कसी भी दुबु पु षको (शुभकमका अनु ान और गु जन क सेवा कये बना) े ामा से उ म बु क ा नह होती। वह जैसा कम करता है, वैसा ही फल भोगता है॥ २५ ॥ ‘संसारके पु ष को समृ , सु र प, बल, वैभव, वीरता तथा पु आ दक ा पु कम के अनु ानसे ही होती है॥ २६ ॥ ‘इसी कार अपने दु म के कारण तु भी नरकम जाना पड़ेगा; क तु ारी बु ऐसी पापास हो रही है। दुराचा रय से बात नह करना चा हये, यही शा का नणय है; अत: म भी अब तुमसे को◌इ बात नह क ँ गा’॥ २७ ॥ इसी तरहक बात उ ने रावणके म य से भी कही। फर उनपर श ारा हार कया। इससे आहत होकर वे मारीच आ द सब रा स यु से मुँह मोड़कर भाग गये॥ २८ ॥ तदन र महामना य राज कु बेरने अपनी गदासे रावणके म कपर हार कया। उससे आहत होकर भी वह अपने ानसे वच लत नह आ॥ २९ ॥ ीराम! त ात् वे दोन य और रा स— कु बेर तथा रावण दोन उस महासमरम एकदूसरेपर हार करने लगे; परंतु दोन मसे को◌इ भी न तो घबराता था, न थकता ही था॥ ३० ॥ उस समय कु बेरने रावणपर आ ेया का योग कया, परंतु रा सराज रावणने वा णा के ारा उनके उस अ को शा कर दया॥ ३१ ॥ त ात् उस रा सराजने रा सी मायाका आ य लया और कु बेरका वनाश करनेके लये लाख प धारण कर लया॥ ३२ ॥ उस समय दशमुख रावण बाघ, सूअर, मेघ, पवत, समु , वृ , य और दै सभी प म दखायी देने लगा॥ ३३ ॥



इस कार वह ब त-से प कट करता था। वे प ही दखायी देते थे, वह यं गोचर नह होता था। ीराम! तदन र दशमुखने एक ब त बड़ी गदा हाथम ली और उसे घुमाकर कु बेरके म कपर दे मारा॥ ३४ १/२ ॥ इस कार रावण ारा आहत हो धनके ामी कु बेर र से नहा उठे और ाकु ल हो जड़से कटे ए अशोकक भाँ त पृ ीपर गर पड़े॥ ३५ १/२ ॥ त ात् प आ द न धय के अ ध ाता देवता ने उ घेरकर उठा लया और न नवनम ले जाकर चेत कराया॥ ३६ १/२ ॥ इस तरह कु बेरको जीतकर रा सराज रावण अपने मनम ब त स आ और अपनी वजयके च के पम उसने उनका पु क वमान अपने अ धकारम कर लया॥ ३७ १/२ ॥ उस वमानम सोनेके ख े और वैदयू म णके फाटक लगे थे। वह सब ओरसे मो तय क जालीसे ढका आ था। उसके भीतर ऐसे-ऐसे वृ लगे थे, जो सभी ऋतु म फल देनेवाले थे॥ ३८ १/२ ॥ उसका वेग मनके समान ती था। वह अपने ऊपर बैठे ए लोग क इ ाके अनुसार सब जगह जा सकता था तथा चालक जैसा चाहे, वैसा छोटा या बड़ा प धारण कर लेता था। उस आकाशचारी वमानम म ण और सुवणक सी ढ़याँ तथा तपाये ए सोनेक वे दयाँ बनी थ ॥ ३९ १/२ ॥ वह देवता का ही वाहन था और टूटने-फू टनेवाला नह था। सदा देखनेम सु र और च को स करनेवाला था। उसके भीतर अनेक कारके आ यजनक च थे। उसक दीवार पर तरह-तरहके बेल-बूटे बने थे, जनसे उनक व च शोभा हो रही थी। ा ( व कमा) ने उसका नमाण कया था॥ ४० १/२ ॥ वह सब कारक मनोवा त व ु से स , मनोहर और परम उ म था। न अ धक ठं डा था और न अ धक गरम। सभी ऋतु म आराम प ँ चानेवाला तथा म लकारी था। अपने परा मसे जीते ए उस इ ानुसार चलनेवाले वमानपर आ ढ़ हो अ खोटी बु वाला राजा रावण अहंकारक अ धकतासे ऐसा मानने लगा क मने तीन लोक को जीत लया। इस कार वै वणदेवको परा जत करके वह कै लाससे नीचे उतरा॥ ४१—४३ ॥



नमल करीट और हारसे वभू षत वह तापी नशाचर अपने तेजसे उस महान् वजयको पाकर उस उ म वमानपर आ ढ़ हो य म पम लत होनेवाले अ देवक भाँ त शोभा पाने लगा॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पं हवाँ सग पूरा आ॥ १५ ॥



सोलहवाँ सग न ी रका रावणको शाप, भगवान् श र ारा रावणका मान-भ तथा उनसे च हास नामक खड् गक ा (अग



जी कहते ह—) रघुकुलन न राम! अपने भा◌इ कु बेरको जीतकर रा सराज दश ीव ‘शरवण’ नामसे स सरकं ड के वशाल वनम गया, जहाँ महासेन का तके यजीक उ ◌इ थी॥ १ ॥ वहाँ प ँ चकर दश ीवने सुवणमयी का से यु उस वशाल शरवण (सरकं ड के जंगल)-को देखा, जो करण-समूह से ा होनेके कारण दूसरे सूयदेवके समान का शत हो रहा था॥ २ ॥ उसके पास ही को◌इ पवत था, जहाँक वन ली बड़ी रमणीय थी। ीराम! जब वह उसपर चढ़ने लगा, तब देखता है क पु क वमानक ग त क गयी॥ ३ ॥ तब वह रा सराज अपने उन म य के साथ मलकर वचार करने लगा—‘ ा कारण है क यह पु क वमान क गया? यह तो ामीक इ ाके अनुसार चलनेवाला बनाया गया है। फर आगे नह बढ़ता? कौन-सा ऐसा कारण बन गया, जससे यह पु क वमान मेरी इ ाके अनुसार नह चल रहा है? स व है, इस पवतके ऊपर को◌इ रहता हो, उसीका यह कम हो सकता है?’॥ ४-५ ॥ ीराम! तब बु कु शल मारीचने कहा—‘राजन्! यह पु क वमान जो आगे नह बढ़ रहा है, इसम कु छ-न-कु छ कारण अव है। अकारण ही ऐसी घटना घ टत हो गयी हो, यह बात नह है॥ ६ ॥ ‘अथवा यह पु क वमान कु बेरके सवा दूसरेका वाहन नह हो सकता, इसी लये उनके बना यह न े हो गया है’॥ ७ ॥ उसक इस बातके बीचम ही भगवान् श रके पाषद न ी र रावणके पास आ प ँ च,े जो देखनेम बड़े वकराल थे। उनक अ का काले एवं प ल वणक थी। वे नाटे कदके वकट पवाले थे। उनका म क मु त और भुजाएँ छोटी-छोटी थ । वे बड़े बलवान् थे। न ीने न:श होकर रा सराज दश ीवसे इस कार कहा—॥ ८-९ ॥



‘दश



ीव! लौट जाओ। इस पवतपर भगवान् श र डा करते ह। यहाँ सुपण, नाग, य , देवता, ग व और रा स सभी ा णय का आना-जाना बंद कर दया गया है’॥ १० १/२ ॥ न ीक यह बात सुनकर दश ीव कु पत हो उठा। उसके कान के कु ल हलने लगे। आँ ख रोषसे लाल हो गय और वह पु कसे उतरकर बोला—‘कौन है यह श र?’ ऐसा कहकर वह पवतके मूलभागम आ गया॥ ११-१२ ॥ वहाँ प ँ चकर उसने देखा, भगवान् श रसे थोड़ी ही दूरपर चमचमाता आ शूल हाथम लये न ी दूसरे शवक भाँ त खड़े ह॥ १३ ॥ उनका मुँह वानरके समान था। उ देखकर वह नशाचर उनका तर ार करता आ सजल जलधरके समान ग ीर रम ठहाका मारकर हँ सने लगा॥ १४ ॥ यह देख शवके दूसरे प भगवान् न ी कु पत हो वहाँ पास ही खड़े ए नशाचर दशमुखसे इस कार बोले—॥ १५ ॥ ‘दशानन! तुमने वानर पम मुझे देखकर मेरी अवहेलना क है और व पातके समान भयानक अ हास कया है; अत: तु ारे कु लका वनाश करनेके लये मेरे ही समान परा म, प और तेजसे स वानर उ ह गे॥ १६-१७ ॥ ‘ ू र नशाचर! नख और दाँत ही उन वानर के अ ह गे तथा मनके समान उनका ती वेग होगा। वे यु के लये उ रहनेवाले और अ तशय बलशाली ह गे तथा चलते- फरते पवत के समान जान पड़गे॥ १८ ॥ ‘वे एक होकर म ी और पु स हत तु ारे बल अ भमानको और वशालकाय होनेके गवको चूर-चूर कर दगे॥ १९ ॥ ‘ओ नशाचर! म तु अभी मार डालनेक श रखता ँ , तथा प तु मारना नह है; क अपने कु त कम ारा तुम पहलेसे ही मारे जा चुके हो (अत: मरे एको मारनेसे ा लाभ?)’॥ २० ॥ महामना भगवान् न ीके इतना कहते ही देवता क दु ु भयाँ बज उठ और आकाशसे फू ल क वषा होने लगी॥ २१ ॥ परंतु महाबली दशाननने उस समय न ीके उन वचन क को◌इ परवा नह क और उस पवतके नकट जाकर कहा—॥ २२ ॥



‘पशुपते! जसके कारण या ा करते समय मेरे पु क- वमानक उस पवतको, जो यह मेरे सामने खड़ा है, म जड़से उखाड़ फ कता ँ ॥ ‘ कस



ग त क गयी, तु ारे



भावसे श र त दन यहाँ राजाक भाँ त डा करते ह? इ इस जाननेयो बातका भी पता नह है क इनके सम भयका ान उप त है’॥ ीराम! ऐसा कहकर दश ीवने पवतके नचले भागम अपनी भुजाएँ लगाय और उसे शी उठा लेनेका य कया। वह पवत हलने लगा॥ २५ ॥ पवतके हलनेसे भगवान् श रके सारे गण काँप उठे । पावती देवी भी वच लत हो उठ और भगवान् श रसे लपट गय ॥ २६ ॥ ीराम! तब देवता म े पापहारी महादेवने उस पवतको अपने पैरके अँगूठेसे खलवाड़म ही दबा दया॥ २७ ॥ फर तो दश ीवक वे भुजाएँ , जो पवतके खंभ के समान जान पड़ती थ , उस पहाड़के नीचे दब गय । यह देख वहाँ खड़े ए उस रा सके म ी बड़े आ यम पड़ गये॥ २८ ॥ उस रा सने रोष तथा अपनी बाँह क पीड़ाके कारण सहसा बड़े जोरसे वराव—रोदन अथवा आतनाद कया, जससे तीन लोक के ाणी काँप उठे ॥ २९ ॥ उसके म य ने समझा, अब लयकाल आ गया और वनाशकारी व पात होने लगा है। उस समय इ आ द देवता मागम वच लत हो उठे ॥ ३० ॥ समु म ार आ गया। पवत हलने लगे और य , व ाधर तथा स एक-दूसरेसे पूछने लगे—‘यह ा हो गया?’॥ ३१ ॥ तदन र दश ीवके म य ने उससे कहा—‘महाराज दशानन! अब आप नीलक उमाव भ महादेवजीको संतु क जये। उनके सवा दूसरे कसीको हम ऐसा नह देखते, जो यहाँ आपको शरण दे सके ॥ ३२ ॥ ‘आप ु तय ारा उ णाम करके उ क शरणम जाइये। भगवान् श र बड़े दयालु ह। वे संतु होकर आपपर कृ पा करगे’॥ ३३ ॥ म य के ऐसा कहनेपर दशमुख रावणने भगवान् वृषभ जको णाम करके नाना कारके ो तथा सामवेदो म ारा उनका वन कया। इस कार हाथ क पीड़ासे रोते और ु त करते ए उस रा सके एक हजार वष बीत गये॥ ३४ ॥



ीराम! त ात् उस पवतके शखरपर त ए भगवान् महादेव स हो गये। उ ने दश ीवक भुजा को उस संकटसे मु करके उससे कहा—॥ ‘दशानन! तुम वीर हो। तु ारे परा मसे म स ँ । तुमने पवतसे दब जानेके कारण जो अ भयानक राव (आतनाद) कया था, उससे भयभीत होकर तीन लोक के ाणी रो उठे थे, इस लये रा सराज! अब तुम रावणके नामसे स होओगे॥ ३६-३७ ॥ ‘देवता, मनु , य तथा दूसरे जो लोग भूतलपर नवास करते ह, वे सब इस कार सम लोक को लानेवाले तुझ दश ीवको रावण कहगे॥ ३८ ॥ ‘पुल न न! अब तुम जस मागसे जाना चाहो, बेखटके जा सकते हो। रा सपते! म भी तु अपनी ओरसे जानेक आ ा देता ँ , जाओ’॥ ३९ ॥ भगवान् श रके ऐसा कहनेपर ल े र बोला— ‘महादेव! य द आप स ह तो वर दी जये। म आपसे वरक याचना करता ँ ॥ ४० ॥ ‘मने देवता, ग व, दानव, रा स, गु क, नाग तथा अ महाबलशाली ा णय से अव होनेका वर ा कया है॥ ४१ ॥ ‘देव! मनु को तो म कु छ गनता ही नह । मेरी मा ताके अनुसार उनक श बत थोड़ी है। पुरा क! मुझे ाजीके ारा दीघ आयु भी ा ◌इ है। ाजीक दी ◌इ आयुका जतना अंश बच गया है, वह भी पूरा-का-पूरा ा हो जाय (उसम कसी कारणसे कमी न हो)। ऐसी मेरी इ ा है। इसे आप पूण क जये। साथ ही अपनी ओरसे मुझे एक श भी दी जये’॥ ४२ १/२ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर भूतनाथ भगवान् श रने उसे एक अ दी मान् च हास नामक खड् ग दया और उसक आयुका जो अंश बीत गया था, उसको भी पूण कर दया॥ ४३-४४ ॥ उस खड् गको देकर भगवान् शवने कहा—‘तु कभी इसका तर ार नह करना चा हये। य द तु ारे ारा कभी इसका तर ार आ तो यह फर मेरे ही पास लौट आयेगा; इसम संशय नह है’॥ ४५ ॥ इस कार भगवान् श रसे नूतन नाम पाकर रावणने उ णाम कया। त ात् वह पु क वमानपर आ ढ़ आ॥ ४६ ॥



ीराम! इसके बाद रावण समूची पृ ीपर द जयके लये मण करने लगा। उसने इधर-उधर जाकर ब त-से महापरा मी य को पीड़ा प ँ चायी॥ कतने ही तेज ी य जो बड़े ही शूरवीर और रणो थे, रावणक आ ा न माननेके कारण सेना और प रवारस हत न हो गये॥ ४८ ॥ दूसरे य ने, जो बु मान् माने जाते थे और उस रा सको अजेय समझते थे, उस बला भमानी नशाचरके सामने अपनी पराजय ीकार कर ली॥ ४९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सोलहवाँ सग पूरा आ॥ १६ ॥



स हवाँ सग रावणसे तर ृ त (अग



ष क ा वेदवतीका उसे शाप देकर अ म वेश करना और दस ू रे ज म सीताके पम ादभ ु ूत होना



जी कहते ह—) राजन्! त ात् महाबा रावण भूतलपर वचरता आ हमालयके वनम आकर वहाँ सब ओर च र लगाने लगा॥ १ ॥ वहाँ उसने एक तप नी क ाको देखा, जो अपने अ म काले रंगका मृगचम तथा सरपर जटा धारण कये ए थी। वह ऋ ष ो व धसे तप ाम संल हो देवा नाके समान उ ी हो रही थी॥ २ ॥ उ म एवं महान् तका पालन करनेवाली तथा प-सौ यसे सुशो भत उस क ाको देखकर रावणका च कामज नत मोहके वशीभूत हो गया। उसने अ हास करते ए-से पूछा —॥ ३ ॥ ‘भ े! तुम अपनी इस युवाव ाके वपरीत यह कै सा बताव कर रही हो? तु ारे इस द पके लये ऐसा आचरण कदा प उ चत नह है॥ ४ ॥ ‘भी ! तु ारे इस पक कह तुलना नह है। यह पु ष के दयम कामज नत उ ाद पैदा करनेवाला है। अत: तु ारा तपम संल होना उ चत नह है। तु ारे लये हमारे दयसे यही नणय कट आ है॥ ५ ॥ ‘भ े! तुम कसक पु ी हो? यह कौन-सा त कर रही हो? सुमु ख! तु ारा प त कौन है? भी ! जसके साथ तु ारा स है, वह मनु इस भूलोकम महान् पु ा ा है। म जो कु छ पूछता ँ , वह सब मुझे बताओ। कस फलके लये यह प र म कया जा रहा है?’॥ ६ १/२ ॥ रावणके इस कार पूछनेपर वह यश नी तपोधना क ा उसका व धवत् आ त स ार करके बोली—॥ ७ १/२ ॥ ‘अ मततेज ी ष ीमान् कु श ज मेरे पता थे, जो बृह तके पु थे और बु म भी उ के समान माने जाते थे॥ ८ १/२ ॥ ‘ त दन वेदा ास करनेवाले उन महा ा पतासे वाङ् मयी क ाके पम मेरा ादुभाव आ था। मेरा नाम वेदवती है॥ ९ १/२ ॥



‘जब



म बड़ी ◌इ, तब देवता, ग व, य , रा स और नाग भी पताजीके पास जाजाकर उनसे मुझे माँगने लगे॥ १० १/२ ॥ ‘महाबा रा से र! पताजीने उनके हाथम मुझे नह स पा। इसका ा कारण था, म बता रही ँ , सु नये॥ ११ १/२ ॥ ‘ पताजीक इ ा थी क तीन लोक के ामी देवे र भगवान् व ु मेरे दामाद ह । इसी लये वे दूसरे कसीके हाथम मुझे नह देना चाहते थे। उनके इस अ भ ायको सुनकर बला भमानी दै राज श ु उनपर कु पत हो उठा और उस पापीने रातम सोते समय मेरे पताजीक ह ा कर डाली॥ १२—१४ ॥ ‘इससे मेरी महाभागा माताको बड़ा दु:ख आ और वे पताजीके शवको दयसे लगाकर चताक आगम व हो गय ॥ १५ ॥ ‘तबसे मने त ा कर ली है क भगवान् नारायणके त पताजीका जो मनोरथ था, उसे म सफल क ँ गी। इस लये म उ को अपने दय-म रम धारण करती ँ ॥ १६ ॥ ‘यही त ा करके म यह महान् तप कर रही ँ । रा सराज! आपके के अनुसार यह सब बात मने आपको बता दी॥ १७ ॥ ‘नारायण ही मेरे प त ह। उन पु षो मके सवा दूसरा को◌इ मेरा प त नह हो सकता। उन नारायणदेवको ा करनेके लये ही मने इस कठोर तका आ य लया है॥ १८ ॥ ‘राजन्! पौल न न! मने आपको पहचान लया है। आप जाइये। लोक म जो को◌इ भी व ु व मान है, वह सब म तप ा ारा जानती ँ ’॥ १९ ॥ यह सुनकर रावण कामबाणसे पी ड़त हो वमानसे उतर गया और उस उ म एवं महान् तका पालन करनेवाली क ासे फर बोला—॥ २० ॥ ‘सु ो ण! तुम गव ली जान पड़ती हो, तभी तो तु ारी बु ऐसी हो गयी है। मृगशावकलोचने! इस तरह पु का सं ह बूढ़ी य को ही शोभा देता है, तुम-जैसे युवतीको नह ॥ २१ ॥ ‘तुम तो सवगुणस एवं लोक क अ तीय सु री हो। तु ऐसी बात नह कहनी चा हये। भी ! तु ारी जवानी बीती जा रही है॥ २२ ॥



‘भ े ! म ल



ाका राजा ँ । मेरा नाम दश ीव है। तुम मेरी भाया हो जाओ और सुखपूवक उ म भोग भोगो॥ २३ ॥ ‘पहले यह तो बताओ, तुम जसे व ु कहती है, वह कौन है? अ ने! भ े! तुम जसे चाहती हो, वह बल, परा म, तप और भोग-वैभवके ारा मेरी समानता नह कर सकता’॥ २४ १/ ॥ २



उसके ऐसा कहनेपर कु मारी वेदवती उस नशाचरसे बोली—‘नह , नह , ऐसा न कहो॥



२५ १/२ ॥ ‘रा सराज! भगवान् व ु तीन लोक के अ धप त ह। सारा संसार उनके चरण म म क कु ाता है। तु ारे सवा दूसरा कौन पु ष है, जो बु मान् होकर भी उनक अवहेलना करेगा’॥ २६ १/२ ॥ वेदवतीके ऐसा कहनेपर उस रा सने अपने हाथसे उस क ाके के श पकड़ लये॥ २७ १/२ ॥



इससे वेदवतीको बड़ा ोध आ। उसने अपने हाथसे उन के श को काट दया। उसके हाथने तलवार बनकर त ाल उसके के श को म कसे अलग कर दया॥ २८ १/२ ॥ वेदवती रोषसे लत-सी हो उठी। वह जल मरनेके लये उतावली हो अ क ापना करके उस नशाचरको द करती ◌इ-सी बोली—॥ २९ १/२ ॥ ‘नीच रा स! तूने मेरा तर ार कया है; अत: अब इस जीवनको सुर त रखना मुझे अभी नह है। इस लये तेरे देखते-देखते म अ म वेश कर जाऊँ गी॥ ३० १/२ ॥ ‘तुझ पापा ाने इस वनम मेरा अपमान कया है। इस लये म तेरे वधके लये फर उ होऊँ गी॥ ३१ १/२ ॥ ‘ ी अपनी शारी रक श से कसी पापाचारी पु षका वध नह कर सकती। य द म तुझे शाप दूँ तो मेरी तप ा ीण हो जायगी॥ ३२ १/२ ॥ ‘य द मने कु छ भी स म, दान और होम कये ह तो अगले ज म म सती-सा ी अयो नजा क ाके पम कट होऊँ तथा कसी धमा ा पताक पु ी बनूँ’॥



ऐसा कहकर वह लत अ म समा गयी। उस समय उसके चार ओर आकाशसे द पु क वषा होने लगी॥ ३४ १/२ ॥ तदन र दूसरे ज म वह क ा पुन: एक कमलसे कट ◌इ। उस समय उसक का कमलके समान ही सु र थी। उस रा सने पहलेक ही भाँ त फर वहाँसे भी उस क ाको ा कर लया॥ ३५ १/२ ॥ कमलके भीतरी भागके समान सु र का वाली उस क ाको लेकर रावण अपने घर गया। वहाँ उसने म ीको वह क ा दखायी॥ ३६ १/२ ॥ म ी बालक-बा लका के ल ण को जाननेवाला था। उसने उसे अ ी तरह देखकर रावणसे कहा— ‘राजन्! यह सु री क ा य द घरम रही तो आपके वधका ही कारण होगी, ऐसा ल ण देखा जाता है’॥ ३७ १/२ ॥ ीराम! यह सुनकर रावणने उसे समु म फ क दया। त ात् वह भू मको ा होकर राजा जनकके य म पके म वत भूभागम जा प ँ ची। वहाँ राजाके हलके मुखभागसे उस भूभागके जोते जानेपर वह सती सा ी क ा फर कट हो गयी॥ ३८-३९ ॥ भो! वही यह वेदवती महाराज जनकक पु ीके पम ादुभूत हो आपक प ी ◌इ है। महाबाहो! आप ही सनातन व ु ह॥ ४० ॥ उस वेदवतीने पहले ही अपने रोषज नत शापके ारा आपके उस पवताकार श ुको मार डाला था, जसे अब आपने आ मण करके मौतके घाट उतारा है। भो! आपका परा म अलौ कक है॥ ४१ ॥ इस कार यह महाभागा देवी व भ क म पुन: रावणवधके उ े से म लोकम अवतीण होती रहेगी। य वेदीपर अ शखाके समान हलसे जोते गये े म इसका आ वभाव आ है॥ ४२ ॥ यह वेदवती पहले स युगम कट ◌इ थी। फर ेतायुग आनेपर उस रा स रावणके वधके लये म थलावत राजा जनकके कु लम सीता पसे अवतीण ◌इ। सीता (हल जोतनेसे भू मपर बनी ◌इ रेखा)-से उ होनेके कारण मनु इस देवीको सीता कहते ह॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म स हवाँ सग पूरा आ॥ १७ ॥



अठारहवाँ सग रावण ारा म



क पराजय तथा इ



आ द देवता



का मयूर आ द प



य को वरदान देना



अग जी कहते ह—रघुन न! वेदवतीके अ म वेश कर जानेपर रावण पु क वमानपर आ ढ़ हो पृ ीपर सब ओर मण करने लगा॥ १ ॥ उसी या ाम उशीरबीज नामक देशम प ँ चकर रावणने देखा, राजा म देवता के साथ बैठकर य कर रहे ह॥ २ ॥ उस समय सा ात् बृह तके भा◌इ तथा धमके ममको जाननेवाले ष संवत स ूण देवता से घरे रहकर वह य करा रहे थे॥ ३ ॥ ाजीके वरदानसे जसको जीतना क ठन हो गया था, उस रा स रावणको वहाँ देखकर उसके आ मणसे भयभीत हो देवतालोग तयग्-यो नम वेश कर गये॥ ४ ॥ इ मोर, धमराज कौआ, कु बेर गर गट और व ण हंस हो गये॥ ५ ॥ श ुसूदन ीराम! इसी तरह दूसरे-दूसरे देवता भी जब व भ प म त हो गये, तब रावणने उस य म पम वेश कया, मानो को◌इ अप व कु ा वहाँ आ गया हो॥ ६ ॥ राजा म के पास प ँ चकर रा सराज रावणने कहा—‘मुझसे यु करो या अपने मुँहसे यह कह दो क म परा जत हो गया’॥ ७ ॥ तब राजा म ने पूछा—‘आप कौन ह?’ उनका सुनकर रावण हँ स पड़ा और बोला —॥ ८ ॥ ‘भूपाल! म कु बेरका छोटा भा◌इ रावण ँ । फर भी तुम मुझे नह जानते और मुझे देखकर भी तु ारे मनम न तो कौतूहल आ, न भय ही; इससे म तु ारे ऊपर ब त स ँ ॥ ९ ॥ ‘तीन



लोक म तु ारे सवा दूसरा कौन ऐसा राजा होगा, जो मेरे बलको न जानता हो। म वह रावण ँ , जसने अपने भा◌इ कु बेरको जीतकर यह वमान छीन लया है’॥ १० ॥ तब राजा म ने रावणसे कहा—‘तुम ध हो, जसने अपने बड़े भा◌इको रणभू मम परा जत कर दया॥ ११ ॥



‘तु



ारे-जैसा ृहणीय पु ष तीन लोक म दूसरा को◌इ नह है। तुमने पूवकालम कस शु धमका आचरण करके वर ा कया है॥ १२ ॥ ‘तुम यं जो कु छ कह रहे हो, ऐसी बात मने पहले कभी नह सुनी है। दुबु े! इस समय खड़े तो रहो। मेरे हाथसे जी वत बचकर नह जा सकोगे। आज अपने पैने बाण से मारकर तु यमलोक प ँ चाये देता ँ ’॥ १३ १/२ ॥ तदन र राजा म धनुष-बाण लेकर बड़े रोषके साथ यु के लये नकले, परंतु मह ष संवतने उनका रा ा रोक लया॥ १४ १/२ ॥ उन मह षने महाराज म से ेहपूवक कहा— ‘राजन्! य द मेरी बात सुनना और उसपर ान देना उ चत समझो तो सुनो। तु ारे लये यु करना उ चत नह है॥ १५ १/२ ॥ ‘यह माहे र य आर कया गया है। य द पूरा न आ तो तु ारे सम कु लको द कर डालेगा। जो य क दी ा ले चुका है, उसके लये यु का अवसर ही कहाँ है? य दी त पु षम ोधके लये ान ही कहाँ है?॥ १६ १/२ ॥ ‘यु म कसक वजय होगी, इस को लेकर सदा संशय ही बना रहता है। उधर वह रा स अ दुजय है।’ अपने आचायके इस कथनसे पृ ीप त म यु से नवृ हो गये। उ ने धनुष-बाण ाग दया और भावसे वे य के लये उ ुख हो गये॥ १७-१८ ॥ तब उ परा जत आ मानकर शुकने यह घोषणा कर दी क महाराज रावणक वजय ◌इ और वह बड़े हषके साथ उ रसे सहनाद करने लगा॥ १९ ॥ उस य म आकर बैठे ए मह षय को खाकर उनके र से पूणत: तृ हो रावण फर पृ ीपर वचरने लगा॥ २० ॥ रावणके चले जानेपर इ स हत स ूण देवता पुन: अपने पम कट हो उन-उन ा णय को ( जनके पम वे यं कट ए थे) वरदान देते ए बोले॥ २१ ॥ सबसे पहले इ ने हषपूवक नीले पंखवाले मोरसे कहा—‘धम ! म तुमपर ब त स ँ । तु सपसे भय नह होगा॥ २२ ॥ ‘मेरे जो ये सह ने ह, इनके समान च तु ारी पाँखम कट ह गे। जब म मेघ प होकर वषा क ँ गा, उस समय तु बड़ी स ता ा होगी। वह स ता मेरी ा को ल त करानेवाली होगी।’ इस कार देवराज इ ने मोरको वरदान दया॥ २३-२४ ॥



नरे र ीराम! इस वरदानके पहले मोर के पंख के वल नीले रंगके ही होते थे। देवराजसे उ वर पाकर सब मयूर वहाँसे चले गये॥ २५ ॥ ीराम! तदन र धमराजने ा ंशक * छतपर बैठे ए कौएसे कहा—‘प ी! म तुमपर ब त स ँ । स होकर जो कु छ कहता ँ , मेरे इस वचनको सुनो॥ २६ ॥ ‘जैसे दूसरे ा णय को म नाना कारके रोग ारा पी ड़त करता ँ , वे रोग मेरी स ताके कारण तुमपर अपना भाव नह डाल सकगे; इसम संशय नह है॥ २७ ॥ ‘ वह म! मेरे वरदानसे तु मृ ुका भय नह होगा। जबतक मनु आ द ाणी तु ारा वध नह करगे, तबतक तुम जी वत रहोगे॥ २८ ॥ ‘मेरे रा —यमलोकम त रहकर जो मानव भूखसे पी ड़त ह, उनके पु आ द इस भूतलपर जब तु भोजन करावगे, तब वे ब -ु बा व स हत परम तृ ह गे’॥ २९ ॥ त ात् व णने ग ाजीके जलम वचरनेवाले हंसको स ो धत करके कहा —‘प राज! मेरा ेमपूण वचन सुनो—॥ ३० ॥ ‘तु ारे शरीरका रंग च म ल तथा शु फे नके समान परम उ ल, सौ एवं मनोरम होगा॥ ३१ ॥ ‘मेरे अ भूत जलका आ य लेकर तुम सदा का मान् बने रहोगे और तु अनुपम स ता ा होगी। यही मेरे ेमका प रचायक च होगा’॥ ३२ ॥ ीराम! पूवकालम हंस का रंग पूणत: ेत नह था। उनक पाँख का अ भाग नीला और दोन भुजा के बीचका भाग नूतन दूवादलके अ भाग-सा कोमल एवं ाम वणसे यु होता था॥ ३३ ॥ तदन र व वाके पु कु बेरने पवत शखरपर बैठे ए कृ कलास ( गर गट)-से कहा—‘म स होकर तु सुवणके समान सु र रंग दान करता ँ ॥ ३४ ॥ ‘तु ारा सर सदा ही सुवणके समान रंगका एवं अ य होगा। मेरी स तासे तु ारा यह (काला) रंग सुनहरे रंगम प रव तत हो जायगा’॥ ३५ ॥ इस कार उ उ म वर देकर वे सब देवता वह य ो व समा होनेपर राजा म के साथ पुन: अपने भवन— गलोकको चले गये॥ ३६ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अठारहवाँ सग पूरा आ॥ १८ ॥ य शालाके पूवभागम यजमान और उसक प ी आ दके ठहरनेके लये वने ए गृहको ा ंश कहते ह। यह घर ह वगृहके पूव ओर होता है। दु , सुरथ, गा ध, गय, राजा पु रवा—इन सभी भूपाल ने अपने-अपने राज कालम रावणके सामने अपनी पराजय ीकार कर ली॥ ५ १/२ ॥ *



उ ीसवाँ सग रावणके ारा अनर



का वध तथा उनके ारा उसे शापक







(अग



जी कहते ह—रघुन न!) पूव पसे राजा म को जीतनेके प ात् रा सराज दश ीव मश: अ नरेश के नगर म भी यु क इ ासे गया॥ १ ॥ महे और व णके समान परा मी उन महाराज के पास जाकर वह रा सराज उनसे कहता—‘राजाओ! तुम मेरे साथ यु करो अथवा यह कह दो क ‘हम हार गये।’ यही मेरा अ ी तरह कया आ न य है। इसके वपरीत करनेसे तु छु टकारा नह मलेगा’॥ २-३ ॥ तब नभय, बु मान् तथा धमपूण वचार रखनेवाले ब त-से महाबली राजा पर र सलाह करके श ुक बलताको समझकर बोले—‘रा सराज! हम तुमसे हार मान लेते ह’॥ ४ १/ ॥ २



दु , सुरथ, गा ध, गय, राजा पु रवा—इन सभी भूपाल ने अपने-अपने राज कालम रावणके सामने अपनी पराजय ीकार कर ली॥ ५ १/२ ॥ इसके बाद रा स का राजा रावण इ ारा सुर त अमरावतीक भाँ त महाराज अनर ारा पा लत अयो ापुरीम आया। वहाँ पुर र (इ )-के समान परा मी पु ष सह राजा अनर से मलकर बोला— ‘राजन्! तुम मुझसे यु करनेका वचन दो अथवा कह दो क ‘म हार गया।’ यही मेरा आदेश है’॥ ६—८ ॥ उस पापा ाक वह बात सुनकर अयो ानरेश अनर को बड़ा ोध आ और वे उस रा सराजसे बोले—॥ ९ ॥ ‘ नशाचरपते! म तु यु का अवसर देता ँ । ठहरो, शी यु के लये तैयार हो जाओ। म भी तैयार हो रहा ँ ’॥ १० ॥ राजाने रावणक द जयक बात पहलेसे ही सुन रखी थी, इस लये उ ने ब त बड़ी सेना इक ी कर ली थी। नरेशक वह सारी सेना उस समय रा सके वधके लये उ ा हत हो नगरसे बाहर नकली॥ ११ ॥ नर े ीराम! दस हजार हाथीसवार, एक लाख घुड़सवार, क◌इ हजार रथी और पैदल सै नक पृ ीको आ ा दत करके यु के लये आगे बढ़े। रथ और पैदल स हत सारी सेना



रण े म जा प ँ ची॥ १२ १/२ ॥ यु वशारद रघुवीर! फर तो राजा अनर और नशाचर रावणम बड़ा अ तु सं ाम होने लगा॥ १३ १/२ ॥ उस समय राजाक सारी सेना रावणक सेनाके साथ ट र लेकर उसी तरह न होने लगी, जैसे अ म दी ◌इ आ त पूणत: भ हो जाती है॥ १४ १/२ ॥ उस सेनाने ब त देरतक यु कया, बड़ा परा म दखाया; परंतु तेज ी रावणका सामना करके वह ब त थोड़ी सं ाम शेष रह गयी और अ तोग ा जैसे प त े आगम जलकर भ हो जाते ह, उसी कार कालके गालम चली गयी॥ १५-१६ ॥ राजाने देखा, मेरी वशाल सेना उसी कार न होती चली जा रही है, जैसे जलसे भरी ◌इ सैकड़ न दयाँ महासागरके पास प ँ चकर उसीम वलीन हो जाती ह॥ १७ ॥ तब महाराज अनर ोधसे मू छत हो अपने इ धनुषके समान महान् शरासनको टंकारते ए रावणका सामना करनेके लये आये॥ १८ ॥ फर तो जैसे सहको देखकर मृग भाग जाते ह, उसी कार मारीच, शुक, सारण तथा ह —ये चार रा स म ी राजा अनर से परा होकर भाग खड़े ए॥ त ात् इ ाकु वंशको आन त करनेवाले राजा अनर ने रा सराज रावणके म कपर आठ सौ बाण मारे॥ २० ॥ परंतु जैसे बादल से पवत शखरपर गरती ◌इ जलधाराएँ उसे त नह प ँ चात , उसी कार वे बरसते ए बाण उस नशाचरके शरीरपर कह घाव न कर सके ॥ २१ ॥ इसके बाद रा सराजने कु पत होकर राजाके म कपर एक तमाचा मारा। इससे आहत होकर राजा रथसे नीचे गर पड़े॥ २२ ॥ जैसे वनम व पातसे द आ साखूका वृ धराशायी हो जाता है, उसी कार राजा अनर ाकु ल हो भू मपर गरे और थर-थर काँपने लगे॥ २३ ॥ यह देख रावण जोर-जोरसे हँ स पड़ा और उन इ ाकु वंशी नरेशसे बोला—‘इस समय मेरे साथ यु करके तुमने ा फल ा कया है?॥ २४ ॥ ‘नरे र! तीन लोक म को◌इ ऐसा वीर नह है, जो मुझे यु दे सके । जान पड़ता है तुमने भोग म अ धक आस रहनेके कारण मेरे बल-परा मको नह सुना था’॥ २५ ॥



राजाक ाणश ीण हो रही थी। उ ने इस कार बात करनेवाले रावणका वचन सुनकर कहा— ‘रा सराज! अब यहाँ ा कया जा सकता है? क कालका उ न करना अ दु र है॥ २६ ॥ ‘रा स! तू अपने मुँहसे अपनी शंसा कर रहा है; कतु तूने जो आज मुझे परा जत कया है, इसम काल ही कारण है। वा वम कालने ही मुझे मारा है। तू तो मेरी मृ ुम न म मा बन गया है॥ २७ ॥ ‘मेरे ाण जा रहे ह, अत: इस समय म ा कर सकता ँ ? नशाचर! मुझे संतोष है क मने यु से मुँह नह मोड़ा। यु करता आ ही म तेरे हाथसे मारा गया ँ ॥ २८ ॥ ‘परंतु रा स! तूने अपने ङ् पूण वचनसे इ ाकु कु लका अपमान कया है, इस लये म तुझे शाप दूँगा—तेरे लये अम लजनक बात क ँ गा। य द मने दान, पु , होम और तप कये ह , य द मेरे ारा धमके अनुसार जाजन का ठीक-ठीक पालन आ हो तो मेरी बात स होकर रहे॥ २९ ॥ ‘महा ा इ ाकु वंशी नरेश के इस वंशम ही दशरथन न ीराम कट ह गे, जो तेरे ाण का अपहरण करगे’॥ ३० ॥ राजाके इस कार शाप देते ही मेघके समान ग ीर रम देवता क दु ु भ बज उठी और आकाशसे फू ल क वषा होने लगी॥ ३१ ॥ राजा धराज ीराम! तदन र राजा अनर गलोकको सधारे। उनके गगामी हो जानेपर रा स रावण वहाँसे अ चला गया॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म उ ीसवाँ सग पूरा आ॥ १९ ॥



बीसवाँ सग नारदजीका रावणको समझाना, उनके कहनेसे रावणका यु के लये यमलोकको जाना तथा नारदजीका इस यु के वषयम वचार करना (अग



जी कहते ह—रघुन न!) इसके बाद रा सराज रावण मनु को भयभीत करता आ पृ ीपर वचरने लगा। एक दन पु क वमानसे या ा करते समय उसे बादल के बीचम मु न े देव ष नारदजी मले॥ १ ॥ नशाचर दश ीवने उनका अ भवादन करके कु शल-समाचारक ज ासा क और उनके आगमनका कारण पूछा—॥ २ ॥ तब बादल क पीठपर खड़े ए अ मत का मान् महातेज ी देव ष नारदने पु क वमानपर बैठे ए रावणसे कहा—॥ ६ ॥ ‘उ म कु लम उ व वणकु मार रा सराज रावण! सौ ! ठहरो, म तु ारे बढ़े ए बल- व मसे ब त स ँ ॥ ४ ॥ ‘दै का वनाश करनेवाले अनेक सं ाम करके भगवान् व ुने तथा ग व और नाग को पदद लत करनेवाले यु ारा तुमने मुझे समान पसे संतु कया है॥ ५ ॥ ‘इस समय य द तुम सुनोगे तो म तुमसे कु छ सुननेयो बात क ँ गा। तात! मेरे मुँहसे नकली ◌इ उस बातको सुननेके लये तुम अपने च को एका करो॥ ६ ॥ ‘तात! तुम देवता के लये भी अव होकर इस भूलोकके नवा सय का वध कर रहे हो? यहाँके ाणी तो मृ ुके अधीन होनेके कारण यं ही मरे ए ह; फर तुम भी इन मरे को मार रहे हो?॥ ७ ॥ ‘देवता, दानव, दै , य , ग व और रा स भी जसे नह मार सकते, ऐसे व ात वीर होकर भी तुम इस मनु लोकको ेश प ँ चाओ, यह कदा प तु ारे यो नह है॥ ८ ॥ ‘जो सदा अपने क ाण-साधनम मूढ़ ह, बड़ी-बड़ी वप य से घरे ए ह और बुढ़ापा तथा सैकड़ रोग से यु ह, ऐसे लोग को को◌इ भी वीर पु ष कै से मार सकता है?॥ ९ ॥ ‘जो नाना कारके अ न क ा से जहाँ कह भी पी ड़त है, उस मनु लोकम आकर कौन बु मान् वीर पु ष यु के ारा मनु के वधम अनुर होगा?॥



‘यह



लोक तो य ही भूख, ास और जरा आ दसे ीण हो रहा है तथा वषाद और शोकम डू बकर अपनी ववेक-श खो बैठा है। दैवके मारे ए इस म लोकका तुम वनाश न करो॥ ११ ॥ ‘महाबा रा सराज! देखो तो सही, यह मनु लोक ानशू होनेके कारण मूढ़ होनेपर भी कस तरह नाना कारके ु पु षाथ म आस है? इसे इस बातका भी पता नह है क कब दु:ख और सुख आ द भोगनेका अवसर आयेगा?॥ १२ ॥ ‘यहाँ कह कु छ मनु तो आन म होकर गाजे-बाजे और नाच आ दका सेवन करते ह —उनके ारा मन बहलाते ह तथा कह कतने ही लोग दु:खसे पी ड़त हो ने से आँ सू बहाते ए रोते रहते ह॥ १३ ॥ ‘माता, पता तथा पु के ेहसे और प ी तथा भा◌इके स म नाना कारके मनसूबे बाँधनेके कारण यह मनु लोक मोह हो परमाथसे हो रहा है। इसे अपने ब नज नत ेशका अनुभव ही नह होता है॥ १४ ॥ ‘इस कार जो मोह (अ ान)-के कारण परम पु षाथसे व त हो गया है, ऐसे मनु लोकको ेश प ँ चाकर तु ा मलेगा? सौ ! तुमने मनु -लोकको तो जीत ही लया है, इसम को◌इ भी संशय नह है॥ १५ ॥ ‘श ुनगरीपर वजय पानेवाले पुल न न! इन सब मनु को यमलोकम अव जाना पड़ता है। अत: य द श हो तो तुम यमराजको अपने काबूम करो। उ जीत लेनेपर तुम सबको जीत सकते हो; इसम संशय नह है’॥ १६ १/२ ॥ नारदजीके ऐसा कहनेपर ल ाप त रावण अपने तेजसे उ ी होनेवाले उन देव षको णाम करके हँ सता आ बोला—॥ १७ १/२ ॥ ‘महष! आप देवता और ग व के लोकम वहार करनेवाले ह। यु के देखना आपको ब त ही य है। म इस समय द जयके लये रसातलम जानेको उ त ँ ॥ १८ १/२ ॥ ‘ फर



तीन लोक को जीतकर नाग और देवता को अपने वशम करके अमृतक ा के लये रस न ध समु का म न क ँ गा’॥ १९ १/२ ॥



यह सुनकर देव ष भगवान् नारदने कहा— ‘श ुसूदन! य द तुम रसातलको जाना चाहते हो तो इस समय उसका माग छोड़कर दूसरे रा ेसे कहाँ जा रहे हो? दुधष वीर! रसातलका यह माग अ दुगम है और यमराजक पुरीसे होकर ही जाता है’॥ नारदजीके ऐसा कहनेपर दशमुख रावण शरद-् ऋतुके बादलक भाँ त अपना उ ल हास बखेरता आ बोला—‘देवष! मने आपक बात ीकार कर ली।’ इसके बाद उसने य कहा —॥ २२ १/२ ॥ ‘ न्! अब यमराजका वध करनेके लये उ त होकर म उस द ण दशाको जाता ँ , जहाँ सूयपु राजा यम नवास करते ह॥ २३ १/२ ॥ ‘ भो! भगवन्! मने यु क इ ासे ोधपूवक त ा क है क चार लोकपाल को परा क ँ गा॥ ‘अत: म यहाँसे यमपुरीको ान कर रहा ँ । संसारके ा णय को मौतका क देनेवाले सूयपु यमको यं ही मृ ुसे संयु कर दूँगा’॥ २५ १/२ ॥ ऐसा कहकर दश ीवने मु नको णाम कया और म य के साथ वह द ण दशाक ओर चल दया॥ उसके चले जानेपर धूमर हत अ के समान महातेज ी व वर नारदजी दो घड़ीतक ानम हो इस कार वचार करने लगे—॥ २७ १/२ ॥ ‘आयु ीण होनेपर जनके ारा धमपूवक इ स हत तीन लोक के चराचर ाणी ेशम डाले जाते—द त होते ह, वे काल प यमराज इस रावणके ारा कै से जीते जायँग?े ॥ २८ १/२ ॥ ‘जो जीव के दान और कमके सा ी ह, जनका तेज तीय अ के समान है, जन महा ासे चेतना पाकर स ूण जीव नाना कारक चे ाएँ करते ह, जनके भयसे पी ड़त हो तीन लोक के ाणी उनसे दूर भागते ह, उ के पास यह रा सराज यं ही कै से जायगा?॥ २९-३० १/२ ॥ ‘जो लोक को धारण-पोषण करनेवाले तथा पु और पापके फल देनेवाले ह और ज ने तीन लोक पर वजय पायी है, उ कालदेवको यह रा स कै से जीतेगा? काल ही



सबका साधन है। यह रा स कालके अ त र दूसरे कस साधनका स ादन करके उस कालपर वजय ा करेगा?॥ ३१-३२ ॥ ‘अब तो मेरे मनम बड़ा कौतूहल उ हो गया है, अत: इन यमराज और रा सराजका यु देखनेके लये म यं भी यमलोकको जाऊँ गा’॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बीसवाँ सग पूरा आ॥ २० ॥







सवाँ सग



रावणका यमलोकपर आ मण और उसके ारा यमराजके सै नक का संहार (अग



जी कहते ह—रघुन न!) ऐसा वचारकर शी चलनेवाले व वर नारदजी रावणके आ मणका समाचार बतानेके लये यमलोकम गये॥ १ ॥ वहाँ जाकर उ ने देखा, यमदेवता अ को सा ीके पम सामने रखकर बैठे ह और जस ाणीका जैसा कम है, उसीके अनुसार फल देनेक व ा कर रहे ह॥ २ ॥ मह ष नारदको वहाँ आया देख यमराजने आ त -धमके अनुसार उनके लये अ आ द नवेदन करके कहा—॥ ३ ॥ ‘देवता और ग व से से वत देवष! कु शल तो है न ? धमका नाश तो नह हो रहा है? आज यहाँ आपके शुभागमनका ा उ े है?’॥ ४ ॥ तब भगवान् नारद मु न बोले—‘ पतृराज! सु नये— म एक आव क बात बता रहा ँ , आप सुनकर उसके तीकारका भी को◌इ उपाय कर ल। य प आपको जीतना अ क ठन है, तथा प यह दश ीव नामक नशाचर अपने परा म ारा आपको वशम करनेके लये यहाँ आ रहा है॥ ५-६ ॥ ‘ भो! इसी कारणसे म तुरंत यहाँ आया ँ क आपको इस स टक सूचना दे दूँ, परंतु आप तो कालद पी आयुधको धारण करनेवाले ह, आपक उस रा सके आ मणसे ा हा न होगी?’॥ ७ ॥ इस कारक बात हो ही रही थ क उस रा सका उ दत ए सूयके समान तेज ी वमान दूरसे आता दखायी दया॥ ८ ॥ महाबली रावण पु कक भासे उस सम देशको अ कारशू करके अ नकट आ गया॥ महाबा दश ीवने यमलोकम आकर देखा क यहाँ ब त-से ाणी अपने-अपने पु तथा पापका फल भोग रहे ह॥ १० ॥ उसने यमराजके सेवक के साथ उनके सै नक को भी देखा। उसक म यमयातनाका भी आया। घोर पधारी उ कृ तवाले भयानक यमदूत कतने ही ा णय को मारते और



ेश प ँ चाते थे, जससे वे बड़े जोर-जोरसे चीखते और च ाते थे॥ ११-१२ ॥ क को क ड़े खा रहे थे और कतन को भय र कु े नोच रहे थे। वे सब-के -सब दु:खी हो-होकर कान को पीड़ा देनेवाला भयानक ची ार करते थे॥ १३ ॥ क को बार ार र से भरी ◌इ वैतरणी नदी पार करनेके लये ववश कया जाता था और कतन को तपायी ◌इ बालुका पर बार-बार चलाकर संत कया जाता था॥ १४ ॥



कु छ पापी अ सप -वनम, जसके प े तलवारक धारके समान तीखे थे, वदीण कये जा रहे थे। क को रौरव नरकम डाला जाता था। कतन को खारे जलसे भरी ◌इ न दय म डु बाया जाता था और ब त को छु र क धार पर दौड़ाया जाता था। क◌इ ाणी भूख और ाससे तड़प रहे थे और थोड़े-से जलक याचना कर रहे थे। को◌इ शवके समान क ाल, दीन, दुबल, उदास और खुले बाल से यु दखायी देते थे। कतने ही ाणी अपने अ म मैल और क चड़ लगाये दयनीय तथा खे शरीरसे चार ओर भाग रहे थे। इस तरहके सैकड़ और हजार जीव को रावणने मागम यातना भोगते देखा॥ १५—१७ ॥ दूसरी ओर रावणने देखा कु छ पु ा ा जीव अपने पु कम के भावसे अ े-अ े घर म रहकर संगीत और वा क मनोहर नसे आन त हो रहे ह॥ १८ ॥ गोदान करनेवाले गोरसको, अ देनेवाले अ को और गृह दान करनेवाले लोग गृहको पाकर अपने स म का फल भोग रहे ह॥ १९ ॥ दूसरे धमा ा पु ष वहाँ सुवण, म ण और मु ा से अलंकृत हो यौवनके मदसे म रहनेवाली सु री य के साथ अपनी अ का से का शत हो रहे ह॥ २० ॥ महाबा रा सराज रावणने इन सबको देखा। देखकर बलवान् रा स दश ीवने अपने पाप-कम के कारण यातना भोगनेवाले ा णय को परा म ारा बलपूवक मु कर दया॥ २१-२२ ॥ इससे थोड़ी देरतक उन पा पय को बड़ा सुख मला, उसके मलनेक न तो उ स ावना थी और न उसके वषयम वे कु छ सोच ही सके थे। उस महान् रा सके ारा जब सभी ेत यातनासे मु कर दये गये, तब उन ेत क र ा करनेवाले यमदूत अ कु पत हो रा सराजपर टूट पड़े॥ २३ १/२ ॥



फर तो स ूण दशा क ओरसे धावा करनेवाले धमराजके शूरवीर यो ा का महान् कोलाहल कट आ॥ २४ १/२ ॥ जैसे फू लपर ंडु -के - ंडु भ रे जुट जाते ह, उसी कार पु क वमानपर सैकड़ -हजार शूरवीर यमदूत चढ़ आये और ास , प रघ , शूल , मूसल , श य तथा तोमर ारा उसे तहस-नहस करने लगे। उ ने पु क वमानके आसन, ासाद, वेदी और फाटक शी ही तोड़ डाले॥ २५-२६ १/२ ॥ देवता का अ ध ानभूत वह पु क वमान उस यु म तोड़ा जानेपर भी ाजीके भावसे -का हो जाता था; क वह न होनेवाला नह था॥ २७ १/२ ॥ महामना यमक वशाल सेना असं थी। उसम सैकड़ -हजार शूरवीर आगे बढ़कर यु करनेवाले थे॥ यमदूत के आ मण करनेपर रावणके वे महावीर म ी तथा यं राजा दश ीव भी वृ , पवत- शखर तथा यमलोकके सैकड़ ासाद को उखाड़कर उनके ारा पूरी श लगाकर इ ानुसार यु करने लगे॥ रा सराजके म य के सारे अ र से नहा उठे थे। स ूण श के आघातसे वे घायल हो चुके थे। फर भी उ ने बड़ा भारी यु कया॥ ३१ ॥ महाबा ीराम! यमराज तथा रावणके वे महाभाग म ी एक-दूसरेपर नाना कारके अ -श ारा बड़े जोरसे आघात- ाघात करने लगे॥ ३२ ॥ त ात् यमराजके महाबली यो ा ने रावणके म य को छोड़कर उस दश ीवके ही ऊपर शूल क वषा करते ए धावा कया॥ ३३ ॥ रावणका सारा शरीर श क मारसे जजर हो गया। वह खूनसे लथपथ हो गया और पु क- वमानके ऊपर फू ले ए अशोक वृ के समान तीत होने लगा॥ ३४ ॥ तब बलवान् रावणने अपने अ -बलसे यमराजके सै नक पर शूल, गदा, ास, श , तोमर, बाण, मूसल, प र और वृ क वषा आर क ॥ ३५ ॥ वृ , शलाख और श क वह अ भयंकर वृ भूतलपर खड़े ए यमराजके सै नक पर पड़ने लगी॥ ३६ ॥



वे सै नक भी सैकड़ -हजार क सं ाम एक हो उसके सारे आयुध को छ - भ करके उसके ारा छोड़े ए द ा का भी नवारण कर एकमा उस भयंकर रा सको ही मारने लगे॥ ३७ ॥ जैसे बादल के समूह पवतपर सब ओरसे जलक धाराएँ गराते ह, उसी कार यमराजके सम सै नक ने रावणको चार ओरसे घेरकर उसे भ पाल और शूल से छेदना आर कर दया। उसको दम लेनेक भी फु रसत नह दी॥ ३८ ॥ रावणका कवच कटकर गर पड़ा। उसके शरीरसे र क धारा बहने लगी। वह उस र से नहा उठा और कु पत हो पु क वमान छोड़कर पृ ीपर खड़ा हो गया॥ ३९ ॥ वहाँ दो घड़ीके बाद उसने अपने-आपको सँभाला। फर तो वह धनुष और बाण हाथम ले बढ़े ए उ ाहसे स हो समरा णम कु पत ए यमराजके समान खड़ा आ॥ ४० ॥ उसने अपने धनुषपर पाशुपत नामक द अ का संधान कया और उन सै नक से ‘ठहरो-ठहरो’ कहते ए उस धनुषको ख चा॥ ४१ ॥ जैसे भगवान् श रने पुरासुरपर पाशुपता का योग कया था, उसी कार उस इ ोही रावणने अपने धनुषको कानतक ख चकर वह बाण छोड़ दया॥ उस समय उसके बाणका प धूम और ाला के म लसे यु हो ी -ऋतुम जंगलको जलानेके लये चार ओर फै लते ए दावानलके समान तीत होने लगा॥ ४३ ॥ रणभू मम ालामाला से घरा आ वह बाण धनुषसे छू टते ही वृ और झा ड़य को जलाता आ ती ग तसे आगे बढ़ा और उसके पीछे-पीछे मांसाहारी जीव-ज ु चलने लगे॥ ४४ ॥ उस यु लम यमराजके वे सारे सै नक पाशुपता के तेजसे द हो इ जके समान नीचे गर पड़े॥ ४५ ॥ तदन र अपने म य के साथ वह भयानक परा मी रा स पृ ीको क त करता आ-सा बड़े जोर-जोरसे सहनाद करने लगा॥ ४६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म इ सवाँ सग पूरा आ॥ २१ ॥



बा◌इसवाँ सग यमराज और रावणका यु , यमका रावणके वधके लये उठाये ए कालद कहनेसे लौटा लेना, वजयी रावणका यमलोकसे ान (अग



को



ाजीके



जी कहते ह—रघुन न!) रावणके उस महानादको सुनकर सूयपु भगवान् यमने यह समझ लया क ‘श ु वजयी आ और मेरी सेना मारी गयी’॥ १ ॥ ‘मेरे यो ा मारे गये’—यह जानकर यमराजके ने ोधसे लाल हो गये और वे उतावले होकर सार थसे बोले—‘मेरा रथ ले आओ’॥ २ ॥ तब उनके सार थने त ाल एक द एवं वशाल रथ वहाँ उप त कर दया और वह सामने वनीतभावसे खड़ा हो गया। फर वे महातेज ी यम देवता उस रथपर आ ढ़ ए॥ ३ ॥ उनके आगे ास और मु र हाथम लये सा ात् मृ -ु देवता खड़े थे, जो वाह पसे सदा बने रहनेवाले इस सम भुवनका संहार करते ह॥ ४ ॥ उनके पा भागम कालद मू तमान् होकर खड़ा आ, जो उनका मु एवं द आयुध है। वह अपने तेजसे अ के समान लत हो रहा था॥ ५ ॥ उनके दोन बगलम छ र हत कालपाश खड़े थे और जसका श अ के समान दु:सह है, वह मु र भी मू तमान् होकर उप त था॥ ६ ॥ सम लोक को भय देनेवाले सा ात् कालको कु पत आ देख तीन लोक म हलचल मच गयी। सम देवता काँप उठे ॥ ७ ॥ तदन र सार थने सु र का वाले घोड़ को हाँका और वह रथ भयानक आवाज करता आ उस ानपर जा प ँ चा, जहाँ रा सराज रावण खड़ा था॥ ८ ॥ इ के घोड़ के समान तेज ी और मनके समान शी गामी उन घोड़ ने यमराजको णभरम उस ानपर प ँ चा दया, जहाँ वह यु चल रहा था॥ ९ ॥ मृ ुदेवताके साथ उस वकराल रथको आया देख रा सराजके स चव सहसा वहाँसे भाग खड़े ए॥ १० ॥ उनक श थोड़ी थी। इस लये वे भयसे पी ड़त हो अपना होश-हवाश खो बैठे और ‘हम यहाँ यु करनेम समथ नह ह’ ऐसा कहकर व भ दशा म भाग गये॥ ११ ॥



परंतु सम संसारको भयभीत करनेवाले वैसे वकराल रथको देखकर भी दश ीवके मनम न तो ोभ आ और न भय ही॥ १२ ॥ अ ोधसे भरे ए यमराजने रावणके पास प ँ चकर श और तोमर का हार कया तथा रावणके मम ान को छेद डाला॥ १३ ॥ तब रावणने भी सँभलकर यमराजके रथपर बाण क झड़ी लगा दी, मानो मेघ जलक वषा कर रहा हो॥ १४ ॥ तदन र उसक वशाल छातीपर सैकड़ महाश य क मार पड़ने लगी। वह रा स श के हारसे इतना पी ड़त हो चुका था क यमराजसे बदला लेनेम समथ न हो सका॥ १५ ॥



इस कार श ुसूदन यमने नाना कारके अ -श का हार करते ए रणभू मम लगातार सात रात तक यु कया। इससे उनका श ु रावण अपनी सुध-बुध खोकर यु से वमुख हो गया॥ १६ ॥ वीर रघुन न! वे दोन यो ा समरभू मसे पीछे हटनेवाले नह थे और दोन ही अपनी वजय चाहते थे; इस लये उन यमराज और रा स दोन म उस समय घोर यु होने लगा॥ १७ ॥



तब देवता, ग व, स और मह षगण जाप तको आगे करके उस समरा णम एक ए॥ १८ ॥ उस समय रा स के राजा रावण तथा ेतराज यमके यु परायण होनेपर सम लोक के लयका समय उप त आ-सा जान पड़ता था॥ १९ ॥ रा सराज रावण भी इ क अश नके स श अपने धनुषको ख चकर बाण क वषा करने लगा, इससे आकाश ठसाठस भर गया—उसम तलभर भी खाली जगह नह रह गयी॥ २० ॥ उसने चार बाण मारकर मृ ुको और सात बाण से यमके सार थको भी पी ड़त कर दया। फर ज ी-ज ी लाख बाण मारकर यमराजके मम ान म गहरी चोट प ँ चायी॥ २१ ॥ तब यमराजके ोधक सीमा न रही। उनके मुखसे वह रोष अ बनकर कट आ। वह आग ालामाला से म त, ासवायुसे संयु तथा धूमसे आ दखायी देती थी॥ २२ ॥



देवता तथा दानव के समीप यह आ यजनक घटना देखकर रोषावेशसे भरे ए मृ ु एवं कालको बड़ा हष आ॥ २३ ॥ त ात् मृ ुदेवने अ कु पत होकर वैव त यमसे कहा—‘आप मुझे छो ड़ये— आ ा दी जये, म समरा णम इस पापी रा सको अभी मारे डालता ँ ॥ ‘महाराज! यह मेरी भाव स मयादा है क मुझसे भड़कर यह रा स जी वत नह रह सकता। ीमान् हर क शपु, नमु च, श र, नस , धूमके तु, वरोचनकु मार ब ल, श ु नामक दै , महाराज वृ तथा बाणासुर, कतने ही शा वे ा राज ष, ग व, बड़े-बड़े नाग, ऋ ष, सप, दै , य , अ रा के समुदाय, युगा कालम समु , पवत , स रता और वृ स हत पृ ी—ये सब मेरे ारा यको ा ए ह। ये तथा दूसरे ब तेरे बलवान् एवं दुजय वीर भी मेरे ारा वनाशको ा हो चुके ह, फर यह नशाचर कस गनतीम है?॥ २५— २९ ॥ ‘धम ! आप मुझे छोड़ दी जये। म इसे अव मार डालूँगा। जसे म देख लूँ, वह को◌इ बलवान् होनेपर भी जी वत नह रह सकता॥ ३० ॥ ‘काल! मेरी पड़नेपर वह रावण दो घड़ी भी जीवन धारण नह कर सके गा। मेरे इस कथनका ता य के वल अपने बलको का शत करना मा नह है; अ पतु यह भाव स मयादा है’॥ ३१ ॥ ‘मृ ुक यह बात सुनकर तापी धमराजने उससे कहा—‘तुम ठहरो, म ही इसे मारे डालता ँ ’॥ ३२ ॥ तदन र ोधसे लाल आँ ख करके साम शाली वैव त यमने अपने अमोघ कालद को हाथसे उठाया॥ उस कालद के पा भाग म कालपाश त ष्ठत थे और व एवं अ तु तेज ी मु र भी मू तमान् होकर त था॥ ३४ ॥ वह कालद म आनेमा से ा णय के ाण का अपहरण कर लेता था। फर जससे उसका श हो जाय अथवा जसके ऊपर उसक मार पड़े, उस पु षके ाण का संहार करना उसके लये कौन बड़ी बात है?॥ ३५ ॥ ाला से घरा आ वह कालद उस रा सको द -सा कर देनेके लये उ त था। बलवान् यमराजके हाथम लया आ वह महान् आयुध अपने तेजसे का शत हो उठा॥ ३६ ॥



उसके उठते ही समरा णम खड़े ए सम सै नक भयभीत होकर भाग चले। कालद उठाये यमराजको देखकर सम देवता भी ु हो उठे ॥ ३७ ॥ यमराज उस द से रावणपर हार करना ही चाहते थे क सा ात् पतामह ा वहाँ आ प ँ चे। उ ने दशन देकर इस कार कहा—॥ ३८ ॥ ‘अ मत परा मी महाबा वैव त! तुम इस कालद के ारा नशाचर रावणका वध न करो॥ ३९ ॥ ‘देव वर! मने इसे देवता ारा न मारे जा सकनेका वर दया है। मेरे मुँहसे जो बात नकल चुक है, उसे तु अस नह करना चा हये॥ ४० ॥ ‘जो देवता अथवा मनु मुझे अस वादी बना देगा, उसे सम लोक को म ाभाषी बनानेका दोष लगेगा, इसम संशय नह है॥ ४१ ॥ ‘यह कालद तीन लोक के लये भयंकर तथा रौ है। तु ारे ारा ोधपूवक छोड़ा जानेपर यह य और अ य जन म भेदभाव न रखता आ सामने पड़ी ◌इ सम जाका संहार कर डालेगा॥ ४२ ॥ ‘इस अ मत तेज ी कालद को भी पूवकालम मने ही बनाया था। यह कसी भी ाणीपर थ नह होता है। इसके हारसे सबक मृ ु हो जाती है॥ ४३ ॥ ‘अत: सौ ! तुम इसे रावणके म कपर न गराओ। इसक मार पड़नेपर को◌इ एक मु त भी जी वत नह रह सकता॥ ४४ ॥ ‘कालद पड़नेपर य द यह रा स रावण न मरा तो अथवा मर गया तो—दोन ही दशा म मेरी बात अस होगी॥ ४५ ॥ ‘इस लये हाथम उठाये ए इस कालद को तुम ल ाप त रावणक ओरसे हटा लो। य द सम लोक पर तु ारी है तो आज रावणक र ा करके मुझे स वादी बनाओ’॥ ४६ ॥ ाजीके ऐसा कहनेपर धमा ा यमराजने उ र दया—‘य द ऐसी बात है तो ली जये मने इस द को हटा लया। आप हम सब लोग के भु ह (अत: आपक आ ाका पालन करना हमारा कत है)॥ ४७ ॥



‘परंतु वरदानसे यु



होनेके कारण य द मेरे ारा इस नशाचरका वध नह हो सकता तो इस समय इसके साथ यु करके ही म ा क ँ गा?॥ ४८ ॥ ‘इस लये अब म इसक से ओझल होता ँ , य कहकर यमराज रथ और घोड़ स हत वह अ धान हो गये॥ ४९ ॥ इस कार यमराजको जीतकर अपने नामक घोषणा करके दश ीव रावण पु क वमानपर आ ढ़ हो यमलोकसे चला गया॥ ५० ॥ तदन र सूयपु यमराज तथा महामु न नारदजी ा आ द देवता के साथ स तापूवक गम गये॥ ५१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २२ ॥



ते◌इसवाँ सग रावणके ारा नवातकवच से मै ी, कालकेय का वध तथा व णपु क पराजय (अग



जी कहते ह—रघुन न!) देवे र यमको परा जत करके यु का हौसला रखनेवाला दश ीव रावण अपने सहायक से मला॥ १ ॥ उसके सारे अ र से नहा उठे थे और हार से जजर हो गये थे। इस अव ाम रावणको देखकर उन रा स को बड़ा व य आ॥ २ ॥ ‘महाराजक जय हो’ ऐसा कहकर रावणक अ ुदयकामना करके वे मारीच आ द सब रा स पु क वमानपर बैठे। उस समय रावणने उन सबको सा ना दी॥ ३ ॥ तदन र वह रा स रसातलम जानेक इ ासे दै और नाग से से वत तथा व णके ारा सुर त जल न ध समु म व आ॥ ४ ॥ नागराज वासु क ारा पा लत भोगवती पुरीम वेश करके उसने नाग को अपने वशम कर लया और वहाँसे हषपूवक म णमयीपुरीको ान कया॥ ५ ॥ उस पुरीम नवातकवच नामक दै रहते थे, ज ाजीसे उ म वर ा थे। उस रा सने वहाँ जाकर उन सबको यु के लये ललकारा॥ ६ ॥ वे सब दै बड़े परा मी और बलशाली थे। नाना कारके अ -श धारण करते थे तथा यु के लये सदा उ ा हत एवं उ रहते थे॥ ७ ॥ उनका रा स के साथ यु आर हो गया। वे रा स और दानव कु पत हो एक-दूसरेको शूल, शूल, व , प श, खड् ग और फरस से घायल करने लगे॥ ८ ॥ उनके यु करते ए एक वषसे अ धक समय तीत हो गया; कतु उनमसे कसी भी प क वजय या पराजय नह ◌इ॥ ९ ॥ तब भुवनके आ यभूत अ वनाशी पतामह भगवान् ा एक उ म वमानपर बैठकर वहाँ शी आये॥ १० ॥ बूढ़े पतामहने नवातकवच के उस यु -कमको रोक दया और उनसे श म यह बात कही—॥



‘दानवो! सम



देवता और असुर मलकर भी यु म इस रावणको परा नह कर सकते। इसी तरह सम देवता और दानव एक साथ आ मण कर तो भी वे तुम लोग का संहार नह कर सकते॥ १२ ॥ ‘(तुम दोन म वरदानज नत श एक-सी है) इस लये मुझे तो यह अ ा लगता है क तुमलोग के साथ इस रा सक मै ी हो जाय; क सु द के सभी अथ (भो -पदाथ) एकदूसरेके लये समान होते ह—पृथक् -पृथक् बँटे नह रहते ह। न:संदेह ऐसी ही बात है’॥ १३ ॥ तब वहाँ रावणने अ को सा ी बनाकर नवातकवच के साथ म ता कर ली। इससे उसको बड़ी स ता ◌इ॥ १४ ॥ फर नवातकवच से उ चत आदर पाकर वह एक वषतक वह टका रहा। उस ानपर दशाननको अपने नगरके समान ही य भोग ा ए॥ १५ ॥ उसने नवातकवच से सौ कारक माया का ान ा कया। उसके बाद वह व णके नगरका पता लगाता आ रसातलम सब ओर घूमने लगा॥ १६ ॥ घूमते-घूमते वह अ नामक नगरम जा प ँ चा, जहाँ कालके य नामक दानव नवास करते थे। कालके य बड़े बलवान् थे। रावणने वहाँ उन सबका संहार करके शूपणखाके प त उ ट बलशाली अपने बहनो◌इ महाबली व ु को, जो उस रा सको समरा णम चाट जाना चाहता था, तलवारसे काट डाला॥ १७-१८ १/२ ॥ उसे परा करके रावणने दो ही घड़ीम चार सौ दै को मौतके घाट उतार दया। त ात् उस रा सराजने व णका द भवन देखा, जो ेत बादल के समान उ ल और कै लास पवतके समान काशमान था॥ १९-२० ॥ वह सुर भ नामक गौ भी खड़ी थी, जसके थन से दूध झर रहा था। कहते ह, सुर भके ही दूधक धारासे ीरसागर भरा आ है॥ २१ ॥ रावणने महादेवजीके वाहनभूत महावृषभक जननी सुर भदेवीका दशन कया, जससे शीतल करण वाले नशाकर च माका ादुभाव आ है (सुर भसे ीरसमु और ीरसमु से च माका आ वभाव आ है)॥ २२ ॥ उ च देवके उ ान ीरसमु का आ य लेकर फे न पीनेवाले मह ष जीवन धारण करते ह। उस ीरसागरसे ही सुधा तथा धाभोजी पतर क धा कट ◌इ है॥ २३







लोकम जनको सुर भ नामसे पुकारा जाता है, उन परम अ तु गोमाताक प र मा करके रावणने नाना कारक सेना से सुर त महाभयंकर व णालयम वेश कया॥ २४ ॥ वहाँ वेश करके उसने व णके उ म भवनको देखा, जो सदा ही आन मय उ वसे प रपूण, अनेक जलधारा (फौवार )-से ा तथा शर ालके बादल के समान उ ल था॥ २५ ॥ तदन र व णके सेनाप तय ने समरभू मम रावणपर हार कया। फर रावणने भी उन सबको घायल करके वहाँके यो ा से कहा—‘तुमलोग राजा व णसे शी जाकर मेरी यह बात कहो—॥ २६ ॥ ‘राजन्! रा सराज रावण यु के लये आया है, आप चलकर उससे यु क जये अथवा हाथ जोड़कर अपनी पराजय ीकार क जये। फर आपको को◌इ भय नह रहेगा’॥ २७ ॥ इसी बीचम सूचना पाकर महा ा व णके पु और पौ ोधसे भरे ए नकले। उनके साथ ‘गौ’ और ‘पु र’ नामक सेना भी थे॥ २८ ॥ वे सब-के -सब सवगुणस तथा उगते ए सूयके तु तेज ी थे। इ ानुसार चलनेवाले रथ पर आ ढ़ हो अपनी सेना से घरकर वे वहाँ यु लम आये॥ २९ ॥ फर तो व णके पु और बु मान् रावणम बड़ा भयंकर यु छड़ गया, जो र गटे खड़े कर देनेवाला था॥ रा स दश ीवके महापरा मी म य ने एक ही णम व णक सारी सेनाको मार गराया॥ ३१ ॥ यु म अपनी सेनाक यह अव ा देख व णके पु उस समय बाण-समूह से पी ड़त होनेके कारण कु छ देरके लये यु -कमसे हट गये॥ ३२ ॥ भूतलपर त होकर उ ने जब रावणको पु क- वमानपर बैठा देखा, तब वे भी शी गामी रथ ारा तुरंत ही आकाशम जा प ँ चे॥ ३३ ॥ अब बराबरका ान मल जानेसे रावणके साथ उनका भारी यु छड़ गया। उनका वह आकाश-यु देव-दानव-सं ामके समान भयंकर जान पड़ता था॥ ३४ ॥



उन व ण-पु ने अपने अ तु तेज ी बाण ारा यु लम रावणको वमुख करके बड़े हषके साथ नाना कारके र म महान् सहनाद कया॥ ३५ ॥ राजा रावणको तर ृ त आ देख महोदरको बड़ा ोध आ। उसने मृ ुका भय छोड़कर यु क इ ासे व ण-पु क ओर देखा॥ ३६ ॥ व णके घोड़े यु म हवासे बात करनेवाले थे और ामीक इ ाके अनुसार चलते थे। महोदरने उनपर गदासे आघात कया। गदाक चोट खाकर वे घोड़े धराशायी हो गये॥ ३७ ॥ व ण-पु के यो ा और घोड़ को मारकर उ रथहीन आ देख महोदर तुरंत ही जोरजोरसे गजना करने लगा॥ ३८ ॥ महोदरक गदाके आघातसे व ण-पु के वे रथ घोड़ और े सार थय स हत चूर-चूर हो पृ ीपर गर पड़े॥ ३९ ॥ महा ा व णके वे शूरवीर पु उन रथ को छोड़कर अपने ही भावसे आकाशम खड़े हो गये। उ त नक भी था नह ◌इ॥ ४० ॥ उ ने धनुष पर ा चढ़ायी और महोदरको त- व त करके एक साथ कु पत हो रावणको घेर लया॥ ४१ ॥ फर वे अ कु पत हो कसी महान् पवतपर जलक धारा गरानेवाले मेघ के समान धनुषसे छू टे ए व -तु भयंकर सायक ारा रावणको वदीण करने लगे॥ ४२ ॥ यह देख दश ीव लयकालक अ के समान रोषसे लत हो उठा और उन व णपु के मम ान पर महाघोर बाण क वषा करने लगा॥ ४३ ॥ पु क वमानपर बैठे ए उस दुधष वीरने उन सबके ऊपर व च मूसल , सैकड़ भ , प श , श य और बड़ी-बड़ी शत य का हार कया॥ ४४ १/२ ॥ उन अ -श से घायल हो वे पैदल वीर पुन: यु के लये आगे बढ़े; परंतु पैदल होनेके कारण रावणक उस अ -वषासे ही सहसा संकटम पड़कर बड़ी भारी क चड़म फँ से ए साठ वषके हाथीके समान क पाने लगे॥ ४५-४६ ॥ व णके पु को दु:खी एवं ाकु ल देख महाबली रावण महान् मेघके समान बड़े हषसे गजना करने लगा॥ ४७ ॥



जोर-जोरसे सहनाद करके वह नशाचर पुन: नाना कारके अ -श ारा व णपु को मारने लगा, मानो बादल अपनी धारावा हक वृ से वृ को पी ड़त कर रहा हो॥ ४८ ॥ फर तो वे सभी व ण-पु यु से वमुख हो पृ ीपर गर पड़े। त ात् उनके सेवक ने उ रणभू मसे हटाकर शी ही घर म प ँ चा दया॥ ४९ ॥ तदन र उस रा सने व णके सेवक से कहा—‘अब व णसे जाकर कहो क वे यं यु के लये आव’। तब व णके म ी भासने रावणसे कहा—॥ ५० ॥ ‘रा सराज! ज तुम यु के लये बुला रहे हो, वे जलके ामी महाराज व ण संगीत सुननेके लये लोकम गये ए ह॥ ५१ ॥ ‘वीर! राजा व णके चले जानेपर यहाँ यु के लये थ प र म करनेसे तु ा लाभ? उनके जो वीर पु यहाँ मौजूद थे, वे तो तुमसे परा हो ही गये’॥ म ीक यह बात सुनकर रा सराज रावण वहाँ अपने नामक घोषणा करके बड़े हषसे सहनाद करता आ व णालयसे बाहर नकल गया॥ ५३ ॥ वह जस मागसे आया था, उसीसे लौटकर आकाशमागसे ल ाक ओर चल दया॥ ५४॥* इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म ते◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २३ ॥ कु छ तय म ते◌इसव सगके बाद पाँच सग उपल होते ह, जनम रावणक द जय-या ाका व ारपूवक वणन है। अनाव क व ारके भयसे यहाँ उनको नह लया गया है। *



चौबीसवाँ सग रावण ारा अप त ◌इ देवता आ दक क ा और य का वलाप एवं शाप, रावणका रोती ◌इ शूपणखाको आ ासन देना और उसे खरके साथ द कार म भेजना



लौटते समय दुरा ा रावण बड़े हषम भरा था। उसने मागम अनेकानेक नरेश , ऋ षय , देवता और दानव क क ा का अपहरण कया॥ १ ॥ वह रा स जस क ा अथवा ीको दशनीय प-सौ यसे यु देखता, उसके र क ब ुजन का वध करके उसे वमानपर बठाकर रोक लेता था॥ २ ॥ इस कार उसने नाग , रा स , असुर , मनु , य और दानव क भी ब त-सी क ा को हरकर वमानपर चढ़ा लया॥ ३ ॥ उन सबने एक साथ ही दु:खके कारण ने से आँ सू बहाना आर कया। शोका और भयसे कट होनेवाले उनके आँ सु क एक-एक बूँद वहाँ आगक चनगारी-सी जान पड़ती थी॥ ४ ॥ जैसे न दयाँ सागरको भरती ह, उसी कार उन सम सु रय ने भय और शोकसे उ ए अम लजनक अ ु से उस वमानको भर दया॥ ५ ॥ नाग , ग व , मह षय , दै और दानव क सैकड़ क ाएँ उस वमानपर रो रही थ ॥ ६॥ उनके के श बड़े-बड़े थे। सभी अ सु र एवं मनोहर थे। उनके मुखक का पूण च माक छ बको ल त करती थी। उरोज के तट ा उभरे ए थे। शरीरका म भाग हीरेके चबूतरेके समान का शत होता था। नत -देश रथके कू बर-जैसे जान पड़ते थे और उनके कारण उनक मनोहरता बढ़ रही थी। वे सभी याँ देवा ना के समान का मती और तपाये ए सुवणके समान सुनहरी आभासे उ ा सत होती थ ॥ ७-८ ॥ सु र म भागवाली वे सभी सु रयाँ शोक, दु:ख और भयसे एवं व ल थ । उनक गरम-गरम न: ासवायुसे वह पु क वमान सब ओरसे लत-सा हो रहा था और जसके भीतर अ क ापना क गयी हो, उस अ हो गृहके समान जान पड़ता था॥ ९ १/२ ॥



दश ीवके वशम पड़ी ◌इ वे शोकाकु ल अबलाएँ सहके पंजेम पड़ी ◌इ ह र णय के समान दु:खी हो रही थ । उनके मुख और ने म दीनता छा रही थी और उन सबक अव ा सोलह वषके लगभग थी॥ १० १/२ ॥ को◌इ सोचती थी, ा यह रा स मुझे खा जायगा? को◌इ अ दु:खसे आत हो इस च ाम पड़ी थी क ा यह नशाचर मुझे मार डालेगा?॥ ११ १/२ ॥ वे याँ माता, पता, भा◌इ तथा प तक याद करके दु:खशोकम डू ब जात और एक साथ क णाजनक वलाप करने लगती थ ॥ १२ १/२ ॥ ‘हाय! मेरे बना मेरा न ा-सा बेटा कै से रहेगा। मेरी माँक ा दशा होगी और मेरे भा◌इ कतने च त ह गे’ ऐसा कहकर वे शोकके सागरम डू ब जाती थ ॥ ‘हाय! अपने उन प तदेवसे बछु ड़कर म ा क ँ गी? (कै से र ँ गी)। हे मृ ुदेव! मेरी ाथना है क तुम स हो जाओ और मुझ दु खयाको इस लोकसे उठा ले चलो। हाय! पूवज म दूसरे शरीर ारा हमने कौन-सा ऐसा पाप कया था, जससे हम सब-क -सब दु:खसे पी ड़त हो शोकके समु म गर पड़ी ह। न य ही इस समय हम अपने इस दु:खका अ होता नह दखायी देता॥ १४—१६ ॥ ‘अहो! इस मनु लोकको ध ार है! इससे बढ़कर अधम दूसरा को◌इ लोक नह होगा; क यहाँ इस बलवान् रावणने हमारे दुबल प तय को उसी तरह न कर दया, जैसे सूयदेव उदय लेनेके साथ ही न को अ कर देते ह॥ १७ १/२ ॥ ‘अहो! यह अ बलवान् रा स वधके उपाय म ही आस रहता है। अहो! यह पापी दुराचारके पथपर चलकर भी अपने-आपको ध ारता नह है॥ १८ १/२ ॥ ‘इस दुरा ाका परा म इसक तप ाके सवथा अनु प है, परंतु यह परायी य के साथ जो बला ार कर रहा है, यह दु म इसके यो कदा प नह है॥ ‘यह नीच नशाचर परायी य के साथ रमण करता है, इस लये ीके कारण ही इस दुबु रा सका वध होगा’॥ २० १/२ ॥ उन े सती-सा ी ना रय ने जब ऐसी बात कह द , उस समय आकाशम देवता क दु ु भयाँ बज उठ और वहाँ फू ल क वषा होने लगी॥ २१ १/२ ॥



प त ता सा ी य के इस तरह शाप देनेपर रावणक श घट गयी, वह न ेज-सा हो गया और उसके मनम उ ेग-सा होने लगा॥ २२ १/२ ॥ इस कार उनका वलाप सुनते ए रा सराज रावणने नशाचर ारा स ृ त हो ल ापुरीम वेश कया॥ २३ १/२ ॥ इसी समय इ ानुसार प धारण करनेवाली भयंकर रा सी शूपणखा, जो रावणक ब हन थी, सहसा सामने आकर पृ ीपर गर पड़ी॥ २४ १/२ ॥ रावणने अपनी उस ब हनको उठाकर सा ना दी और पूछा—‘भ े! तुम अभी मुझसे शी तापूवक कौन-सी बात कहना चाहती थी?’॥ २५ १/२ ॥ शूपणखाके ने म आँ सू भरे थे, उसक आँ ख रोते-रोते लाल हो गयी थ । वह बोली —‘राजन्! तुम बलवान् हो, इसी लये न तुमने मुझे बलपूवक वधवा बना दया है?॥ २६ १/२ ॥ ‘रा सराज! तुमने रणभू मम अपने बल-परा मसे चौदह हजार कालके य नामक दै का वध कर दया है॥ २७ १/२ ॥ ‘तात! उ म मेरे लये ाण से भी बढ़कर आदरणीय मेरे महाबली प त भी थे। तुमने उ भी मार डाला। तुम नाममा के भा◌इ हो। वा वम मेरे श ु नकले!॥ २८ १/२ ॥ ‘राजन्! सगे भा◌इ होकर भी तुमने यं ही अपने हाथ मेरा (मेरे प तदेवका) वध कर डाला। अब तु ारे कारण म ‘वैध ’ श का उपभोग क ँ गी— वधवा कहलाऊँ गी॥ २९ १/२ ॥ ‘भैया! तुम मेरे



पताके तु हो। मेरे प त तु ारे दामाद थे, ा तु यु म अपने दामाद या बहनो◌इक भी र ा नह करनी चा हये थी? तुमने यं ही यु म अपने दामादका वध कया है; ा अब भी तु ल ा नह आती?’॥ ३० १/२ ॥ रोती और कोसती ◌इ ब हनके ऐसा कहनेपर दश ीवने उसे सा ना देकर समझाते ए मधुर वाणीम कहा—॥ ३१ १/२ ॥ ‘बेटी! अब रोना थ है, तु कसी तरह भयभीत नह होना चा हये। म दान, मान और अनु ह ारा य पूवक तु संतु क ँ गा॥ ३२ १/२ ॥



‘म



यु म उ हो गया था, मेरा च ठकाने नह था, मुझे के वल वजय पानेक धुन थी, इस लये लगातार बाण चलाता रहा। समरा णम जूझते समय मुझे अपने-परायेका ान नह रह जाता था। म रणो होकर हार कर रहा था, इस लये ‘दामाद’ को पहचान न सका॥ ३३-३४ ॥ ‘ब हन! यही कारण है जससे यु म तु ारे प त मेरे हाथसे मारे गये। अब इस समय जो कत ा है, उसके अनुसार म सदा तु ारे हतका ही साधन क ँ गा॥ ३५ ॥ ‘तुम ऐ यशाली भा◌इ खरके पास चलकर रहो। तु ारा भा◌इ महाबली खर चौदह हजार रा स का अ धप त होगा। वह उन सबको जहाँ चाहेगा भेजेगा और उन सबको अ , पान एवं व देनेम समथ होगा॥ ३६ १/२ ॥ ‘यह तु ारा मौसेरा भा◌इ नशाचर खर सब कु छ करनेम समथ है और आदेशका सदा पालन करता रहेगा॥ ३७ १/२ ॥ ‘यह वीर (मेरी आ ासे) शी ही द कार क र ाम जानेवाला है; महाबली दूषण इसका सेनाप त होगा॥ ३८ १/२ ॥ ‘वहाँ शूरवीर खर सदा तु ारी आ ाका पालन करेगा और इ ानुसार प धारण करनेवाले रा स का ामी होगा’॥ ३९ १/२ ॥ ऐसा कहकर दश ीवने चौदह हजार परा मशाली रा स क सेनाको खरके साथ जानेक आ ा दी। उन भय र रा स से घरा आ खर शी ही द कार म आया और नभय होकर वहाँका अक क रा भोगने लगा। उसके साथ शूपणखा भी वहाँ द कवनम रहने लगी॥ ४० —४२ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चौबीसवाँ सग पूरा आ॥ २४ ॥



पचीसवाँ सग य ारा मेघनादक सफलता, वभीषणका रावणको पर- ी-हरणके दोष बताना, कु ीनसीको आ ासन दे मधुको साथ ले रावणका देवलोकपर आ मण करना



खरको रा स क भय र सेना देकर और ब हनको धीरज बँधाकर रावण ब त ही स और च हो गया॥ १ ॥ तदन र बलवान् रा सराज रावण ल ाके नकु ला नामक उ म उपवनम गया। उसके साथ ब त-से सेवक भी थे॥ २ ॥ रावण अपनी शोभा एवं तेजसे अ के समान लत हो रहा था। उसने नकु लाम प ँ चकर देखा, एक य हो रहा है, जो सैकड़ यूप से ा और सु र देवालय से सुशो भत है॥ ३ ॥ फर वहाँ उसने अपने पु मेघनादको देखा, जो काला मृगचम पहने ए तथा कम लु, शखा और ज धारण कये बड़ा भय र जान पड़ता था॥ ४ ॥ उसके पास प ँ चकर ल े रने अपनी भुजा ारा उसका आ ल न कया और पूछा —‘बेटा! यह ा कर रहे हो? ठीक-ठीक बताओ’॥ ५ ॥ (मेघनाद य के नयमानुसार मौन रहा) उस समय पुरो हत महातप ी ज े शु ाचायने, जो य -स क समृ के लये वहाँ आये थे, रा स शरोम ण रावणसे कहा —॥ ६ ॥ ‘राजन्! म सब बात बता रहा ँ , ान देकर सु नये—आपके पु ने बड़े व ारके साथ सात य का अनु ान कया है॥ ७ ॥ ‘अ ोम, अ मेध, ब सुवणक, राजसूय, गोमेध तथा वै व—ये छ: य पूण करके जब इसने सातवाँ माहे र य , जसका अनु ान दूसर के लये अ दुलभ है, आर कया, तब आपके इस पु को सा ात् भगवान् पशुप तसे ब त-से वर ा ए॥ ८-९ ॥ ‘साथ ही इ ानुसार चलनेवाला एक द आकाशचारी रथ भी ा आ है, इसके सवा तामसी नामक माया उ ◌इ है, जससे अ कार उ कया जाता है॥ १० ॥



‘रा



से र! सं ामम इस मायाका योग करनेपर देवता और असुर को भी योग करनेवाले पु षक ग त व धका पता नह लग सकता॥ ११ ॥ ‘राजन्! बाण से भरे ए दो अ य तरकस, अटूट धनुष तथा रणभू मम श ुका व ंस करनेवाला बल अ —इन सबक ा ◌इ है॥ १२ ॥ ‘दशानन! तु ारा यह पु इन सभी मनोवा त वर को पाकर आज य क समा के दन तु ारे दशनक इ ासे यहाँ खड़ा है’॥ १३ ॥ यह सुनकर दश ीवने कहा—‘बेटा! तुमने यह अ ा नह कया है; क इस य स ी ारा मेरे श ुभूत इ आ द देवता का पूजन आ है॥ १४ ॥ ‘अ ु, जो कर दया, सो अ ा ही कया; इसम संशय नह है। सौ ! अब आओ, चलो। हमलोग अपने घरको चल’॥ १५ ॥ तदन र दश ीवने अपने पु और वभीषणके साथ जाकर पु क वमानसे उन सब य को उतारा, ज हरकर ले आया था। वे अब भी आँ सू बहाती ◌इ ग दक से वलाप कर रही थ ॥ १६ ॥ वे उ म ल ण से सुशो भत होती थ और देवता , दानव तथा रा स के घरक र थ । उनम रावणक आस जानकर धमा ा वभीषणने कहा—॥ १७ ॥ ‘राजन्! ये आचरण यश, धन और कु लका नाश करनेवाले ह। इनके ारा जो ा णय को पीड़ा दी जाती है, उससे बड़ा पाप होता है। इस बातको जानते ए भी आप सदाचारका उ न करके े ाचारम वृ हो रहे ह॥ १८ ॥ ‘महाराज! इन बेचारी अबला के ब -ु बा व को मारकर आप इ हर लाये ह और इधर आपका उ न करके —आपके सरपर लात रखकर मधुने मौसेरी ब हन कु ीनसीका अपहरण कर लया’॥ १९ ॥ रावण बोला—‘म नह समझता क तुम ा कह रहे हो। जसका नाम तुमने मधु बताया है, वह कौन है?’॥ तब वभीषणने अ कु पत होकर भा◌इ रावणसे कहा—‘सु नये, आपके इस पापकमका फल हम ब हनके अपहरणके पम ा आ है॥ २१ ॥



‘हमारे नाना सुमालीके जो बड़े नशाचर ह, वे हमारी माता कै कसीके



भा◌इ मा वान् नामसे व ात, बु मान् और बड़े-बूढ़े ताऊ ह। इसी नाते वे हमलोग के भी बड़े नाना ह। उनक पु ी अनला हमारी मौसी ह। उ क पु ी कु ीनसी है। हमारी मौसी अनलाक बेटी होनेसे ही यह कु ीनसी हम सब भाइय क धमत: ब हन होती है॥ २२—२४ ॥ ‘राजन्! आपका पु मेघनाद जब य म त र हो गया, म तप ाके लये पानीके भीतर रहने लगा और महाराज! भैया कु कण भी जब न दका आन लेने लगे, उस समय महाबली रा स मधुने यहाँ आकर हमारे आदरणीय म य को, जो रा स म े थे, मार डाला और कु ीनसीका अपहरण कर लया॥ २५-२६ ॥ ‘महाराज! य प कु ीनसी अ :पुरम भलीभाँ त सुर त थी तो भी उसने आ मण करके बलपूवक उसका अपहरण कया। पीछे इस घटनाको सुनकर भी हमलोग ने मा ही क । मधुका वध नह कया; क जब क ा ववाहके यो हो जाय तो उसे कसी यो प तके हाथम स प देना ही उ चत है। हम भाइय को अव यह काय पहले कर देना चा हये था॥ २७ १/२ ॥ ‘हमारे यहाँसे जो बलपूवक क ाका अपहरण आ है, यह आपक इस दू षत बु एवं पापकमका फल है, जो आपको इसी लोकम ा हो गया। यह बात आपको भलीभाँ त व दत हो जानी चा हये’॥ २८ १/२ ॥ वभीषणक यह बात सुनकर रा सराज रावण अपनी क ◌इ दु तासे पी ड़त हो तपे ए जलवाले समु के समान संत हो उठा। वह रोषसे जलने लगा और उसके ने लाल हो गये। वह बोला—॥ २९-३० ॥ ‘मेरा रथ शी ही जोतकर आव क साम ीसे सुस त कर दया जाय। मेरे शूरवीर सै नक रणया ाके लये तैयार हो जायँ। भा◌इ कु कण तथा अ मु -मु नशाचर नाना कारके अ -श से सुस त हो सवा रय पर बैठ। आज रावणका भय न माननेवाले मधुका समरा णम वध करके म को साथ लये यु क इ ासे देवलोकक या ा क ँ गा’॥ ३१-३२ १/ ॥ २



रावणक आ ासे यु म उ ाह रखनेवाले े रा स क चार हजार अ ौ हणी सेना नाना कारके अ -श लये शी ल ासे बाहर नकली॥ ३३ १/२ ॥



मेघनाद सम सै नक को साथ लेकर सेनाके आगे-आगे चला। रावण बीचम था और कु कण पीछे-पीछे चलने लगा॥ ३४ १/२ ॥ वभीषण धमा ा थे। इस लये वे ल ाम ही रहकर धमका आचरण करने लगे। शेष सभी महाभाग नशाचर मधुपुरक ओर चल दये॥ ३५ १/२ ॥ गदहे, ऊँ ट, घोड़े, शशुमार (सूँस) और बड़े-बड़े नाग आ द दी मान् वाहन पर आ ढ़ हो सब रा स आकाशको अवकाशर हत करते ए चले॥ ३६ १/२ ॥ रावणको देवलोकपर आ मण करते देख सैकड़ दै भी उसके पीछे-पीछे चले, जनका देवता के साथ वैर बँध गया था॥ ३७ १/२ ॥ मधुपुरम प ँ चकर दशमुख रावणने वहाँ कु ीनसीको तो देखा, कतु मधुका दशन उसे नह आ॥ ३८ १/२ ॥ उस समय कु ीनसीने भयभीत हो हाथ जोड़कर रा सराजके चरण पर म क रख दया॥ ३९ १/२ ॥ तब रा स वर रावणने कहा—‘डरो मत’; फर उसने कु ीनसीको उठाया और कहा —‘म तु ारा कौन-सा य काय क ँ ?’॥ ४० १/२ ॥ वह बोली—‘दूसर को मान देनेवाले रा सराज! महाबाहो! य द आप मुझपर स ह तो आज यहाँ मेरे प तका वध न क जये; क कु लवधु के लये वैध के समान दूसरा को◌इ भय नह बताया जाता है। वैध ही नारीके लये सबसे बड़ा भय और सबसे महान् संकट है॥ ४१-४२ १/२ ॥ ‘राजे ! आप स वादी ह —अपनी बात स ी कर। म आपसे प तके जीवनक भीख माँगती ँ , आप मुझ दु: खया ब हनक ओर दे खये, मुझपर कृ पा क जये। महाराज! आपने यं भी मुझे आ ासन देते ए कहा था क ‘डरो मत।’ अत: अपनी उसी बातक लाज र खये’॥ ४३ १/२ ॥ यह सुनकर रावण स हो गया। वह वहाँ खड़ी ◌इ अपनी ब हनसे बोला—‘तु ारे प त कहाँ ह? उ शी मुझे स प दो। म उ साथ लेकर देवलोकपर वजयके लये जाऊँ गा’॥ ४४-४५ ॥



‘तु



ारे त क णा और सौहादके कारण मने मधुके वधका वचार छोड़ दया है।’ रावणके ऐसा कहनेपर रा सक ा कु ीनसी अ स -सी होकर अपने सोये ए प तके पास गयी और उस नशाचरको उठाकर बोली—॥ ४६ १/२ ॥ ‘रा स वर! ये मेरे भा◌इ महाबली दश ीव पधारे ह और देवलोकपर वजय पानेक इ ा लेकर वहाँ जा रहे ह। इस कायके लये ये आपको भी सहायक बनाना चाहते ह; अत: आप अपने ब ु-बा व के साथ इनक सहायताके लये जाइये॥ ४७-४८ ॥ ‘मेरे नाते आपपर इनका ेह है, आपको जामाता मानकर ये आपके त अनुराग रखते ह; अत: आपको इनके कायक स के लये अव सहायता करनी चा हये।’ प ीक यह बात सुनकर मधुने ‘तथा ’ु कहकर सहायता देना ीकार कर लया॥ ४९ ॥ फर वह ायो चत री तसे नकट जाकर नशाचर शरोम ण रा सराज रावणसे मला। मलकर उसने धमके अनुसार उसका ागत-स ार कया॥ मधुके भवनम यथो चत आदर-स ार पाकर परा मी दश ीव वहाँ एक रात रहा, फर सबेरे उठकर वहाँसे जानेको उ त आ॥ ५१ ॥ मधुपुरसे या ा करके महे के तु परा मी रा सराज रावण सायंकालतक कु बेरके नवास- ान कै लास पवतपर जा प ँ चा। वहाँ उसने अपनी सेनाका पड़ाव डालनेका वचार कया॥ ५२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पचीसवाँ सग पूरा आ॥ २५ ॥



छ ीसवाँ सग रावणका र ापर बला



ार करना और नलकूबरका रावणको भयंकर शाप देना



जब सूय अ ाचलको चले गये, तब परा मी दश ीवने अपनी सेनाके साथ कै लासपर ही रातम ठहर जाना ठीक समझा॥ १ ॥ (उसने वह छावनी डाल दी) फर, कै लासके ही समान ेत का वाले नमल च देवका उदय आ और नाना कारके अ -श से सुस त नशाचर क वह वशाल सेना गाढ़ न ाम नम हो गयी॥ २ ॥ परंतु महापरा मी रावण उस पवतके शखरपर चुपचाप बैठकर च माक चाँदनीसे सुशो भत होनेवाले उस पवतके व भ ान क (जो स ूण कामभोगके उपयु थे) नैस गक छटा नहारने लगा॥ ३ ॥ कह कनेरके दी मान् कानन शोभा पाते थे, कह कद और बकु ल (मौल सरी) वृ के समूह अपनी रमणीयता बखेर रहे थे, कह म ा कनीके जलसे भरी ◌इ और फु कमल से अलंकृत पु र णयाँ शोभा दे रही थ , कह च ा, अशोक, पुंनाग (नागके सर), म ार, आम, पाड़र, लोध, य ु , अजुन, के तक, तगर, ना रके ल, याल और पनस आ द वृ अपने पु आ दक शोभासे उस पवत- शखरके व ा को उ ा सत कर रहे थे॥ ४—६ ॥ मधुर क वाले कामात क र अपनी का म नय के साथ वहाँ रागयु गीत गा रहे थे, जो कान म पड़कर मनका आन -वधन करते थे॥ ७ ॥ जनके ने - ा मदसे कु छ लाल हो गये थे, वे मदम व ाधर युव तय के साथ डा करते और हषम होते थे॥ ८ ॥ वहाँसे कु बेरके भवनम गाती ◌इ अ रा के गीतक मधुर न घ ानादके समान सुनायी पड़ती थी॥ ९ ॥ वस -ऋतुके सभी पु क ग से यु वृ हवाके थपेड़े खाकर फू ल क वषा करते ए उस समूचे पवतको सुवा सत-सा कर रहे थे॥ १० ॥ व वध कु सुम के मधुर मकर तथा परागसे म त चुर सुग लेकर म -म बहती ◌इ सुखद वायु रावणक काम-वासनाको बढ़ा रही थी॥ ११ ॥



स ीतक मीठी तान, भाँ त-भाँ तके पु क समृ , शीतल वायुका श, पवतके (रमणीयता आ द) आकषक गुण, रजनीक मधुवेला और च माका उदय—उ ीपनके इन सभी उपकरण के कारण वह महापरा मी रावण कामके अधीन हो गया और बार ार लंबी साँस ख चकर च माक ओर देखने लगा॥ १२-१३ ॥ इसी बीचम सम अ रा म े सु री, पूण-च मुखी र ा द व ाभूषण से वभू षत हो उस मागसे आ नकली॥ १४ ॥ उसके अ म द च नका अनुलेप लगा था और के शपाशम पा रजातके पु गुँथे ए थे। द पु से अपना ृ ार करके वह य-समागम प द उ वके लये जा रही थी॥ १५ ॥ मनोहर ने तथा का ीक ल ड़य से वभू षत पीन जघन- लको वह र तके उ म उपहारके पम धारण कये ए थी॥ १६ ॥ उसके कपोल आ दपर ह रच नसे च -रचना क गयी थी। वह छह ऋतु म होनेवाले नूतन पु के आ हार से वभू षत थी और अपनी अलौ कक का , शोभा, ु त एवं क तसे यु हो उस समय दूसरी ल ीके समान जान पड़ती थी॥ १७ ॥ उसका मुख च माके समान मनोहर था और दोन सु र भ ह कमान-सी दखायी देती थ । वह सजल जलधरके समान नील रंगक साड़ीसे अपने अ को ढके ए थी॥ १८ ॥ उसक जाँघ का चढ़ाव-उतार हाथीक सूँडके समान था। दोन हाथ ऐसे कोमल थे, मानो (देह पी रसालक डालके ) नये-नये प व ह । वह सेनाके बीचसे होकर जा रही थी, अत: रावणने उसे देख लया॥ १९ ॥ देखते ही वह कामदेवके बाण का शकार हो गया और खड़ा होकर उसने अ जाती ◌इ र ाका हाथ पकड़ लया। बेचारी अबला लाजसे गड़ गयी; परंतु वह नशाचर मुसकराता आ उससे बोला—॥ २० ॥ ‘वरारोहे! कहाँ जा रही हो? कसक इ ा पूण करनेके लये यं चल पड़ी हो? कसके भा ोदयका समय आया है, जो तु ारा उपभोग करेगा?॥ २१ ॥ ‘कमल और उ लक सुग धारण करनेवाले तु ारे इस मनोहर मुखार व का रस अमृतका भी अमृत है। आज इस अमृत-रसका आ ादन करके कौन तृ होगा?॥ २२ ॥



‘भी !



पर र सटे ए तु ारे ये सुवणमय कलश के स श सु र पीन उरोज कसके व : ल को अपना श दान करगे?॥ २३ ॥ ‘सोनेक ल ड़य से वभू षत तथा सुवणमय च के समान वपुल व ारसे यु तु ारे पीन जघन लपर जो मू तमान् ग-सा जान पड़ता है, आज कौन आरोहण करेगा?॥ २४ ॥ ‘इ , उपे अथवा अ नीकु मार ही न ह , इस समय कौन पु ष मुझसे बढ़कर है? भी ! तुम मुझे छोड़कर अ जा रही हो, यह अ ा नह है॥ २५ ॥ ‘ ूल नत वाली सु री! यह सु र शला है, इसपर बैठकर व ाम करो। इस भुवनका जो ामी है, वह मुझसे भ नह है—म ही स ूण लोक का अ धप त ँ ॥ २६ ॥ ‘तीन लोक के ामीका भी ामी तथा वधाता यह दशमुख रावण आज इस कार वनीतभावसे हाथ जोड़कर तुमसे याचना करता है। सु री! मुझे ीकार करो’॥ २७ ॥ रावणके ऐसा कहनेपर र ा काँप उठी और हाथ जोड़कर बोली—‘ भो! स होइये— मुझपर कृ पा क जये। आपको ऐसी बात मुँहसे नह नकालनी चा हये; क आप मेरे गु जन ह— पताके तु ह॥ २८ ॥ ‘य द दूसरे को◌इ पु ष मेरा तर ार करनेपर उता ह तो उनसे भी आपको मेरी र ा करनी चा हये। म धमत: आपक पु वधू ँ —यह आपसे स ी बात बता रही ँ ’॥ २९ ॥ र ा अपने चरण क ओर देखती ◌इ नीचे मुँह कये खड़ी थी। रावणक पड़नेमा से भयके कारण उसके र गटे खड़े हो गये थे। उस समय उससे रावणने कहा—॥ ३० ॥ ‘र े! य द यह स हो जाय क तुम मेरे बेटेक ब हो, तभी मेरी पु वधू हो सकती हो, अ था नह ।’ तब र ाने ‘ब त अ ा’ कहकर रावणको इस कार उ र दया—॥ ३१ ॥ ‘रा स शरोमणे! धमके अनुसार म आपके पु क ही भाया ँ । आपके बड़े भा◌इ कु बेरके पु मुझे ाण से भी बढ़कर य ह॥ ३२ ॥ ‘वे तीन लोक म ‘नलकू बर’ नामसे व ात ह तथा धमानु ानक से ा ण और परा मक से य ह॥ ३३ ॥ ‘वे ोधम अ और माम पृ ीके समान ह। उ लोकपालकु मार यतम नलकू बरको आज मने मलनेके लये संकेत दया है॥ ३४ ॥



‘यह



सारा ृ ार मने उ के लये धारण कया है; जैसे उनका मेरे त अनुराग है, उसी कार मेरा भी उ के त गाढ़ ेम है, दूसरे कसीके त नह ॥ ३५ ॥ ‘श ु का दमन करनेवाले रा सराज! इस स को म रखकर आप इस समय मुझे छोड़ दी जये; वे मेरे धमा ा यतम उ ुक होकर मेरी ती ा करते ह गे॥ ३६ ॥ ‘उनक सेवाके इस कायम आपको यहाँ व नह डालना चा हये। मुझे छोड़ दी जये। रा सराज! आप स ु ष ारा आच रत धमके मागपर च लये॥ ३७ ॥ ‘आप मेरे माननीय गु जन ह, अत: आपको मेरी र ा करनी चा हये।’ यह सुनकर दश ीवने उसे न तापूवक उ र दया—॥ ३८ ॥ ‘र े! तुम अपनेको जो मेरी पु वधू बता रही हो, वह ठीक नह जान पड़ता। यह नातार ा उन य के लये लागू होता है, जो कसी एक पु षक प ी ह । तु ारे देवलोकक तो त ही दूसरी है। वहाँ सदासे यही नयम चला आ रहा है क अ रा का को◌इ प त नह होता। वहाँ को◌इ एक ीके साथ ववाह करके नह रहता है’॥ ३९ १/२ ॥ ऐसा कहकर उस रा सने र ाको बलपूवक शलापर बैठा लया और कामभोगम आस हो उसके साथ समागम कया॥ ४० १/२ ॥ उसके पु हार टूटकर गर गये, सारे आभूषण अ - हो गये। उपभोगके बाद रावणने र ाको छोड़ दया। उसक दशा उस नदीके समान हो गयी जसे कसी गजराजने डा करके मथ डाला हो; वह अ ाकु ल हो उठी॥ ४१ १/२ ॥ वेणी-ब टूट जानेसे उसके खुले ए के श हवाम उड़ने लगे—उसका ृ ार बगड़ गया। कर-प व काँपने लगे। वह ऐसी लगती थी—मानो फू ल से सुशो भत होनेवाली कसी लताको हवाने झकझोर दया हो॥ ४२ १/२ ॥ ल ा और भयसे काँपती ◌इ वह नलकू बरके पास गयी और हाथ जोड़कर उनके पैर पर गर पड़ी॥ ४३ १/२ ॥ र ाको इस अव ाम देखकर महामना नलकू बरने पूछा—‘भ े! ा बात है? तुम इस तरह मेरे पैर पर पड़ गय ?’॥ ४४ १/२ ॥ वह थर-थर काँप रही थी। उसने लंबी साँस ख चकर हाथ जोड़ लये और जो कु छ आ था, वह सब ठीक-ठीक बताना आर कया—॥ ४५ १/२ ॥



‘देव! यह दशमुख रावण



गलोकपर आ मण करनेके लये आया है। इसके साथ ब त बड़ी सेना है। उसने आजक रातम यह डेरा डाला है॥ ४६ १/२ ॥ ‘श ुदमन वीर! म आपके पास आ रही थी, कतु उस रा सने मुझे देख लया और मेरा हाथ पकड़ लया। फर पूछा—‘तुम कसक ी हो?’॥ ४७ १/२ ॥ ‘मने उसे सब कु छ सच-सच बता दया, कतु उसका दय कामज नत मोहसे आ ा था, इस लये मेरी वह बात नह सुनी॥ ४८ १/२ ॥ ‘देव! म बार ार ाथना करती ही रह गयी क भो! म आपक पु वधू ँ , मुझे छोड़ दी जये; कतु उसने मेरी सारी बात अनसुनी कर द और बलपूवक मेरे साथ अ ाचार कया॥ ४९ १/२ ॥ ‘उ म तका पालन करनेवाले यतम! इस बेबसीक दशाम मुझसे जो अपराध बन गया है, उसे आप मा कर। सौ ! नारी अबला होती है, उसम पु षके बराबर शारी रक बल नह होता है (इसी लये उस दु से अपनी र ा म नह कर सक )’॥ ५० १/२ ॥ यह सुनकर वै वणकु मार नलकू बरको बड़ा ोध आ। र ापर कये गये उस महान् अ ाचारको सुनकर उ ने ान लगाया॥ ५१ १/२ ॥ उस समय दो ही घड़ीम रावणक उस करतूतको जानकर वै वणपु नलकू बरके ने ोधसे लाल हो गये और उ ने अपने हाथम जल लया॥ ५२ १/२ ॥ जल लेकर पहले व धपूवक आचमन करके ने आ द सारी इ य का श करनेके अन र उ ने रा सराजको बड़ा भयंकर शाप दया॥ ५३ १/२ ॥ वे बोले—‘भ े! तु ारी इ ा न रहनेपर भी रावणने तुमपर बलपूवक अ ाचार कया है। अत: वह आजसे दूसरी कसी ऐसी युवतीसे समागम नह कर सके गा जो उसे चाहती न हो॥ ५४ १/ ॥ २



‘य द



वह कामपी ड़त होकर उसे न चाहनेवाली युवतीपर बला ार करेगा तो त ाल उसके म कके सात टुकड़े हो जायँग’े ॥ ५५ १/२ ॥ नलकू बरके मुखसे लत अ के समान द कर देनेवाले इस शापके नकलते ही देवता क दु ु भयाँ बज उठ और आकाशसे फू ल क वषा होने लगी॥ ५६ १/२ ॥



ा आ द सभी देवता को बड़ा हष आ। रावणके ारा क गयी लोकक सारी दुदशाको और उस रा सक मृ ुको भी जानकर ऋ षय तथा पतर को बड़ी स ता ा ◌इ॥ ५७-५८ ॥ उस रोमा कारी शापको सुनकर दश ीवने अपनेको न चाहनेवाली य के साथ बला ार करना छोड़ दया॥ ५९ ॥ वह जन- जन प त ता य को हरकर ले गया था, उन सबके मनको नलकू बरका दया वह शाप बड़ा य लगा। उसे सुनकर वे सब-क -सब ब त स ◌इं ॥ ६० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ २६ ॥



स ा◌इसवाँ सग सेनास हत रावणका इ लोकपर आ मण, इ क भगवान् व ुसे सहायताके लये ाथना, भ व म रावण-वधक त ा करके व ुका इ को लौटाना, देवता और रा स का यु तथा वसुके ारा सुमालीका वध



कै लास-पवतको पार करके महातेज ी दशमुख रावण सेना और सवा रय के साथ इ लोकम जा प ँ चा॥ सब ओरसे आती ◌इ रा स-सेनाका कोलाहल देवलोकम ऐसा जान पड़ता था, मानो महासागरके मथे जानेका श कट हो रहा हो॥ २ ॥ रावणका आगमन सुनकर इ अपने आसनसे उठ गये और अपने पास आये ए सम देवता से बोले—॥ ३ ॥ उ ने आ द , वसु , , सा तथा म ण से भी कहा—‘तुम सब लोग दुरा ा रावणके साथ यु करनेके लये तैयार हो जाओ’॥ ४ ॥ इ के ऐसा कहनेपर यु म उ के समान परा म कट करनेवाले महाबली देवता कवच आ द धारण करके यु के लये उ ुक हो गये॥ ५ ॥ देवराज इ को रावणसे भय हो गया था। अत: वे दु:खी हो भगवान् व ुके पास आये और इस कार बोले—॥ ६ ॥ ‘ व ुदेव! म रा स रावणके लये ा क ँ ? अहो! वह अ बलशाली नशाचर मेरे साथ यु करनेके लये आ रहा है॥ ७ ॥ ‘वह के वल ाजीके वरदानके कारण बल हो गया है; दूसरे कसी हेतुसे नह । कमलयो न ाजीने जो वर दे दया है, उसे स करना हम सब लोग का काम है॥ ८ ॥ ‘अत: जैसे पहले आपके बलका आ य लेकर मने नमु च, वृ ासुर, ब ल, नरक और श र आ द असुर को द कर डाला है, उसी कार इस समय भी इस असुरका अ हो जाय, ऐसा को◌इ उपाय आप ही क जये॥ ९ ॥ ‘मधुसूदन! आप देवता के भी देवता एवं ◌इ र ह। इस चराचर भुवनम आपके सवा दूसरा को◌इ ऐसा नह है, जो हम देवता को सहारा दे सके । आप ही हमारे परम आ य ह॥



१० ॥



‘आप प



नाभ ह—आपहीके ना भकमलसे जग उ ◌इ है। आप ही सनातनदेव ीमान् नारायण ह। आपने ही इन तीन लोक को ा पत कया है और आपने ही मुझे देवराज इ बनाया है॥ ११ ॥ ‘भगवन्! आपने ही ावर-ज म ा णय स हत इस सम लोक क सृ क है और लयकालम स ूण भूत आपम ही वेश करते ह॥ १२ ॥ ‘इस लये देवदेव! आप ही मुझे को◌इ ऐसा अमोघ उपाय बताइये, जससे मेरी वजय हो। ा आप यं च और तलवार लेकर रावणसे यु करगे?’॥ १३ ॥ इ के ऐसा कहनेपर भगवान् नारायणदेव बोले—‘देवराज! तु भय नह करना चा हये। मेरी बात सुनो—॥ १४ ॥ ‘पहली बात तो यह है इस दु ा ा रावणको स ूण देवता और असुर मलकर भी न तो मार सकते ह और न परा ही कर सकते ह; क वरदान पानेके कारण यह इस समय दुजय हो गया है॥ १५ ॥ ‘अपने पु के साथ आया आ यह उ ट बलशाली रा स सब कारसे महान् परा म कट करेगा। यह बात मुझे अपनी ाभा वक ान से दखायी दे रही है॥ १६ ॥ ‘सुरे र! दूसरी बात जो मुझे कहनी है, इस कार है—तुम जो मुझसे कह रहे थे क ‘आप ही उसके साथ यु क जये’ उसके उ रम नवेदन है क म इस समय यु लम रा स रावणका सामना करनेके लये नह जाऊँ गा॥ १७ ॥ ‘मुझ व ुका यह भाव है क म सं ामम श ुका वध कये बना पीछे नह लौटता; परंतु इस समय रावण वरदानसे सुर त है, इस लये उसक ओरसे मेरी इस वजय-स नी इ ाक पू त होनी क ठन है॥ १८ ॥ ‘परंतु देवे ! शत तो! म तु ारे समीप इस बातक त ा करता ँ क समय आनेपर म ही इस रा सक मृ ुका कारण बनूँगा॥ १९ ॥ ‘म ही रावणको उसके अ गामी सै नक स हत मा ँ गा और देवता को आन त क ँ गा; परंतु यह तभी होगा जब म जान लूँगा क इसक मृ ुका समय आ प ँ चा है॥ २० ॥



‘देवराज!



ये सब बात मने तु ठीक-ठीक बता द । महाबलशाली शचीव भ! इस समय तो तु देवता स हत जाकर उस रा सके साथ नभय हो यु करो’॥ २१ ॥ तदन र , आ द , वसु, म ण और अ नीकु मार आ द देवता यु के लये तैयार होकर तुरंत अमरावतीपुरीसे बाहर नकले और रा स का सामना करनेके लये आगे बढ़े॥ २२ ॥ इसी बीचम रात बीतते-बीतते सब ओरसे यु के लये उ त ◌इ रावणक सेनाका महान् कोलाहल सुनायी देने लगा॥ २३ ॥ वे महापरा मी रा ससै नक सबेरे जागनेपर एक-दूसरेक ओर देखते ए बड़े हष और उ ाहके साथ यु के लये ही आगे बढ़ने लगे॥ २४ ॥ तदन र यु के मुहानेपर रा स क उस अन एवं वशाल सेनाको देखकर देवता क सेनाम बड़ा ोभ आ॥ २५ ॥ फर तो देवता का दानव और रा स के साथ भयंकर यु छड़ गया। भयंकर कोलाहल होने लगा और दोन ओरसे नाना कारके अ -श क बौछार आर हो गयी॥ २६ ॥ इसी समय रावणके म ी शूरवीर रा स, जो बड़े भयंकर दखायी देते थे, यु के लये आगे बढ़ आये॥ मारीच, ह , महापा , महोदर, अक न, नकु , शुक, शारण, सं ाद, धूमके तु, महादं , घटोदर, ज ुमाली, महा ाद, व पा , सु , य कोप, दुमुख, दूषण, खर, शरा, करवीरा , सूयश ,ु महाकाय, अ तकाय, देवा क तथा नरा क—इन सभी महापरा मी रा स से घरे ए महाबली सुमालीने, जो रावणका नाना था, देवता क सेनाम वेश कया॥ २८—३१ १/२ ॥ उसने कु पत हो नाना कारके पैने अ -श ारा सम देवता को उसी तरह मार भगाया, जैसे वायु बादल को छ - भ कर देती है॥ ३२ १/२ ॥ ीराम! नशाचर क मार खाकर देवता क वह सेना सह ारा खदेड़े गये मृग क भाँ त स ूण दशा म भाग चली॥ ३३ १/२ ॥ इसी समय वसु मसे आठव वसुन,े जनका नाम सा व है, समरा णम वेश कया॥ ३४ १/२ ॥



वे नाना कारके अ -श से सुस त एवं उ ा हत सै नक से घरे ए थे। उ ने श ुसेना को सं करते ए रणभू मम पदापण कया॥ ३५ १/२ ॥ इनके सवा अ द तके दो महापरा मी पु ा और पूषाने अपनी सेनाके साथ एक ही समय यु लम वेश कया, वे दोन वीर नभय थे॥ ३६ १/२ ॥ फर तो देवता का रा स के साथ घोर यु होने लगा। यु से पीछे न हटनेवाले रा स क बढ़ती ◌इ क त देख-सुनकर देवता उनके त ब त कु पत थे॥ त ात् सम रा स समरभू मम खड़े ए लाख देवता को नाना कारके घोर अ श ारा मारने लगे॥ ३८ १/२ ॥ इसी तरह देवता भी महान् बल-परा मसे स घोर रा स को समरा णम चमक ले अ -श से मार-मारकर यमलोक भेजने लगे॥ ३९ १/२ ॥ ीराम! इसी बीचम सुमाली नामक रा सने कु पत होकर नाना कारके आयुध ारा देवसेनापर आ मण कया। उसने अ ोधसे भरकर बादल को छ - भ कर देनेवाली वायुके समान अपने भाँ तभाँ तके तीखे अ -श ारा सम देवसेनाको ततर बतर कर दया॥ ४०-४१ १/२ ॥ उसके महान् बाण और भय र शूल एवं ास क वषासे मारे जाते ए सभी देवता यु े म संग ठत होकर खड़े न रह सके ॥ ४२ १/२ ॥ सुमाली ारा देवता के भगाये जानेपर आठव वसु सा व को बड़ा ोध आ। वे अपनी रथसेना के साथ आकर उस हार करनेवाले नशाचरके सामने खड़े हो गये॥ ४३-४४ ॥ महातेज ी सा व ने यु लम अपने परा म ारा सुमालीको आगे बढ़नेसे रोक दया। सुमाली और वसु दोन मसे को◌इ भी यु से पीछे हटनेवाला नह था; अत: उन दोन म महान् एवं रोमा कारी यु छड़ गया॥ ४५ १/२ ॥ तदन र महा ा वसुने अपने वशाल बाण ारा सुमालीके सप जुते ए रथको णभरम तोड़-फोड़कर गरा दया॥ ४६ १/२ ॥ यु लम सैकड़ बाण से छदे ए सुमालीके रथको न करके वसुने उस नशाचरके वधके लये कालद के समान एक भय र गदा हाथम ली, जसका अ भाग अ के समान



लत हो रहा था। उसे लेकर सा व ने सुमालीके म कपर दे मारा॥ ४७-४८ १/२ ॥ उसके ऊपर गरती ◌इ वह गदा उ ाके समान चमक उठी, मानो इ के ारा छोड़ी गयी वशाल अश न भारी गड़गड़ाहटके साथ कसी पवतके शखरपर गर रही हो॥ ४९ १/२ ॥ उसक चोट लगते ही समरा णम सुमालीका काम तमाम हो गया। न उसक ह ीका पता लगा, न म कका और न कह उसका मांस ही दखायी दया। वह सब कु छ उस गदाक आगसे भ हो गया॥ ५० १/२ ॥ यु म सुमालीको मारा गया देख वे सब रा स एक-दूसरेको पुकारते ए एक साथ चार ओर भाग खड़े ए। वसुके ारा खदेड़े जानेवाले वे रा स समरभू मम खड़े न रह सके ॥ ५१-५२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म स ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २७ ॥



अ ा◌इसवाँ सग मेघनाद और जय का यु , पुलोमाका जय को अ ले जाना, देवराज इ का यु भू मम पदापण, तथा म ण ारा रा ससेनाका संहार और इ तथा रावणका यु



सुमाली मारा गया, वसुने उसके शरीरको भ कर दया और देवता से पी ड़त होकर मेरी सेना भागी जा रही है, यह देख रावणका बलवान् पु मेघनाद कु पत हो सम रा स को लौटाकर देवता से लोहा लेनेके लये यं खड़ा आ॥ १-२ ॥ वह महारथी वीर इ ानुसार चलनेवाले अ तु तेज ी रथपर आ ढ़ हो वनम फै लानेवाले लत दावानलके समान उस देवसेनाक ओर दौड़ा॥ ३ ॥ नाना कारके आयुध धारण करके अपनी सेनाम वेश करनेवाले उस मेघनादको देखते ही सब देवता स ूण दशा क ओर भाग चले॥ ४ ॥ उस समय यु क इ ावाले मेघनादके सामने को◌इ भी खड़ा न हो सका। तब भयभीत ए उन सम देवता को फटकारकर इ ने उनसे कहा—॥ ५ ॥ ‘देवताओ! भय न करो, यु छोड़कर न जाओ और रण े म लौट आओ। यह मेरा पु जय , जो कभी कसीसे परा नह आ है, यु के लये जा रहा है’॥ ६ ॥ तदन र इ पु जय देव अ तु सजावटसे यु रथपर आ ढ़ हो यु के लये आया॥ ७॥ फर तो सब देवता शचीपु जय को चार ओरसे घेरकर यु लम आये और रावणके पु पर हार करने लगे॥ ८ ॥ उस समय देवता का रा स के साथ और महे कु मारका रावणपु के साथ उनके बलपरा मके अनु प यु होने लगा॥ ९ ॥ रावणकु मार मेघनाद जय के सार थ मात लपु गोमुखपर सुवणभू षत बाण क वषा करने लगा॥ १० ॥ शचीपु जय ने भी मेघनादके सार थको घायल कर दया। तब कु पत ए मेघनादने जय को भी सब ओरसे त- व त कर दया॥ ११ ॥



उस समय ोधसे भरा आ बलवान् मेघनाद इ पु जय को आँ ख फाड़-फाड़कर देखने और बाण क वषासे पी ड़त करने लगा॥ १२ ॥ अ कु पत ए रावणकु मारने देवता क सेनापर भी तीखी धारवाले नाना कारके सह अ -श बरसाये॥ १३ ॥ उसने शत ी, मूसल, ास, गदा, खड् ग और फरसे गराये तथा बड़े-बड़े पवत- शखर भी चलाये॥ १४ ॥ श ुसेना के संहारम लगे ए रावणकु मारक मायासे उस समय चार ओर अ कार छा गया; अत: सम लोक थत हो उठे ॥ १५ ॥ तब शचीकु मारके चार ओर खड़ी ◌इ देवता क वह सेना बाण ारा पी ड़त हो अनेक कारसे अ हो गयी॥ १६ ॥ रा स और देवता आपसम कसीको पहचान न सके । वे जहाँ-तहाँ बखरे ए चार ओर च र काटने लगे॥ १७ ॥ अ कारसे आ ा दत होकर वे ववेकश खो बैठे थे। अत: देवता देवता को और रा स रा स को ही मारने लगे तथा ब तेरे यो ा यु से भाग खड़े ए॥ १८ ॥ इसी बीचम परा मी वीर दै राज पुलोमा यु म आया और शचीपु जय को पकड़कर वहाँसे दूर हटा ले गया॥ १९ ॥ वह शचीका पता और जय का नाना था, अत: अपने दौ ह को लेकर समु म घुस गया॥ २० ॥ देवता को जब जय के गायब होनेक बात मालूम ◌इ, तब उनक सारी खुशी छन गयी और वे दु:खी होकर चार ओर भागने लगे॥ २१ ॥ उधर अपनी सेना से घरे ए रावणकु मार मेघनादने अ कु पत हो देवता पर धावा कया और बड़े जोरसे गजना क ॥ २२ ॥ पु लापता हो गया और देवता क सेनाम भगदड़ मच गयी है—यह देखकर देवराज इ ने मात लसे कहा—‘मेरा रथ ले आओ’॥ २३ ॥ मात लने एक सजा-सजाया महाभय र, द एवं वशाल रथ लाकर उप त कर दया। उसके ारा हाँका जानेवाला वह रथ बड़ा ही वेगशाली था॥ २४ ॥



तदन र उस रथपर बजलीसे यु महाबली मेघ उसके अ -भागम वायुसे च ल हो बड़े जोर-जोरसे गजना करने लगे॥ २५ ॥ देवे र इ के नकलते ही नाना कारके बाजे बज उठे , ग व एका हो गये और अ रा के समूह नृ करने लगे॥ २६ ॥ त ात् , वसु , आ द , अ नीकु मार और म ण से घरे ए देवराज इ नाना कारके अ -श साथ लये पुरीसे बाहर नकले॥ २७ ॥ इ के नकलते ही च वायु चलने लगी। सूयक भा फ क पड़ गयी और आकाशसे बड़ी-बड़ी उ ाएँ गरने लग ॥ २८ ॥ इसी बीचम तापी वीर दश ीव भी व कमाके बनाये ए द रथपर सवार आ॥ २९ ॥



उस रथम र गटे खड़े कर देनेवाले वशालकाय सप लपटे ए थे। उनक न: ास-वायुसे वह रथ उस यु लम लत-सा जान पड़ता था॥ ३० ॥ दै और नशाचर ने उस रथको सब ओरसे घेर रखा था। समरा णक ओर बढ़ता आ रावणका वह द रथ महे के सामने जा प ँ चा॥ ३१ ॥ रावण अपने पु को रोककर यं ही यु के लये खड़ा आ। तब रावणपु मेघनाद यु लसे नकलकर चुपचाप अपने रथपर जा बैठा॥ ३२ ॥ फर तो देवता का रा स के साथ घोर यु होने लगा। जलक वषा करनेवाले मेघ के समान देवता यु लम अ -श क वषा करने लगे॥ ३३ ॥ राजन्! दु ा ा कु कण नाना कारके अ -श लये कसके साथ यु करता था, इसका पता नह लगता था (अथात् मतवाला होनेके कारण अपने और पराये सभी सै नक के साथ जूझने लगता था)॥ ३४ ॥ वह अ कु पत हो दाँत, लात, भुजा, हाथ, श , तोमर और मु र आ द जो ही पाता उसीसे देवता को पीटता था॥ ३५ ॥ वह नशाचर महाभय र के साथ भड़कर घोर यु करने लगा। सं ामम ने अपने अ -श ारा उसे ऐसा त- व त कर दया था क उसके शरीरम थोड़ी-सी भी जगह बना घावके नह रह गयी थी॥ ३६ ॥



कु कणका शरीर श से ा हो खूनक धारा बहा रहा था। उस समय वह बजली तथा गजनासे यु जलक धारा गरानेवाले मेघके समान जान पड़ता था॥ तदन र घोर यु म लगी ◌इ उस सारी रा ससेनाको रणभू मम नाना कारके अ श धारण करनेवाले और म ण ने मार भगाया॥ ३८ ॥ कतने ही नशाचर मारे गये। कतने ही कटकर धरतीपर लोटने और छटपटाने लगे और ब त-से रा स ाणहीन हो जानेपर भी उस रणभू मम अपने वाहन पर ही चपटे रहे॥ ३९ ॥ कु छ रा स रथ , हा थय , गदह , ऊँ ट , सप , घोड़ , शशुमार , वराह तथा पशाचमुख वाहन को दोन भुजा से पकड़कर उनसे लपटे ए न े हो गये थे। कतने ही जो पहलेसे मू छत होकर पड़े थे, मू ा दूर होनेपर उठे , कतु देवता के श से छ भ हो मौतके मुखम चले गये॥ ४०-४१ ॥ ाण से हाथ धोकर धरतीपर पड़े ए उन सम रा स का इस तरह यु म मारा जाना जादू-सा आ यजनक जान पड़ता था॥ ४२ ॥ यु के मुहानेपर खूनक नदी बह चली, जसके भीतर अनेक कारके श ाह का म उ करते थे। उस नदीके तटपर चार ओर गीध और कौए छा गये थे॥ ४३ ॥ इसी बीचम तापी दश ीवने जब देखा क देवता ने हमारे सम सै नक को मार गराया है, तब उसके ोधक सीमा न रही॥ ४४ ॥ वह समु के समान दूरतक फै ली ◌इ देवसेनाम घुस गया और समरा णम देवता को मारता एवं धराशायी करता आ तुरंत ही इ के सामने जा प ँ चा॥ ४५ ॥ तब इ ने जोर-जोरसे ट ार करनेवाले अपने वशाल धनुषको ख चा। उसक ट ारनसे दस दशाएँ त नत हो उठ ॥ ४६ ॥ उस वशाल धनुषको ख चकर इ ने रावणके म कपर अ और सूयके समान तेज ी बाण मारे॥ ४७ ॥ इसी कार महाबा नशाचर दश ीवने भी अपने धनुषसे छू टे ए बाण क वषासे इ को ढक दया॥ ४८ ॥ वे दोन घोर यु म त र हो जब बाण क वृ करने लगे, उस समय सब ओर सब कु छ अ कारसे आ ा दत हो गया। कसीको कसी भी व ुक पहचान नह हो पाती थी॥ ४९ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अ ा◌इसवाँ सग पूरा आ॥ २८ ॥



उनतीसवाँ सग रावणका देवसेनाके बीचसे होकर नकलना, देवता का उसे कैद करनेके लये य , मेघनादका माया ारा इ को ब ी बनाना तथा वजयी होकर सेनास हत ल ाको लौटना



जब सब ओर अ कार छा गया, तब बलसे उ ए वे सम देवता और रा स एकदूसरेको मारते ए पर र यु करने लगे॥ १ ॥ उस समय देवता क सेनाने रा स के वशाल सै -समूहका के वल दसवाँ ह ा यु भू मम खड़ा रहने दया। शेष सब रा स को यमलोक प ँ चा दया॥ उस तामस यु म सम देवता और रा स पर र जूझते ए एक-दूसरेको पहचान नह पाते थे॥ इ , रावण और रावणपु महाबली मेघनाद— ये तीन ही उस अ कारा समरा णम मो हत नह ए थे॥ ४ ॥ रावणने देखा, मेरी सारी सेना णभरम मारी गयी, तब उसके मनम बड़ा ोध आ और उसने बड़ी भारी गजना क ॥ ५ ॥ उस दुजय नशाचरने रथपर बैठे ए अपने सार थसे ोधपूवक कहा—‘सूत! श ु क इस सेनाका जहाँतक अ है, वहाँतक तुम इस सेनाके म भागसे होकर मुझे ले चलो॥ ६ ॥ ‘आज म यं अपने परा म ारा नाना कारके श क मूसलाधार वृ करके इन सब देवता को यमलोक प ँ चा दूँगा॥ ७ ॥ ‘म इ , कु बेर, व ण और यमका भी वध क ँ गा। सब देवता का शी ही संहार करके यं सबके ऊपर त होऊँ गा॥ ८ ॥ ‘तु वषाद नह करना चा हये। शी मेरे रथको ले चलो। म तुमसे दो बार कहता ँ , देवता क सेनाका जहाँतक अ है, वहाँतक मुझे अभी ले चलो॥ ९ ॥ ‘यह न नवनका देश है, जहाँ इस समय हम दोन मौजूद ह। यह से देवता क सेनाका आर होता है। अब तुम मुझे उस ानतक ले चलो, जहाँ उदयाचल है (न नवनसे उदयाचलतक देवता क सेना फै ली ◌इ है)’॥ १० ॥



रावणक यह बात सुनकर सार थने मनके समान वेगशाली घोड़ को श ुसेनाके बीचसे हाँक दया॥ ११ ॥ रावणके इस न यको जानकर समरभू मम रथपर बैठे ए देवराज इ ने उन देवता से कहा—॥ १२ ॥ ‘देवगण! मेरी बात सुनो। मुझे तो यही अ ा लगता है क इस नशाचर दश ीवको जी वत अव ाम ही भलीभाँ त कै द कर लया जाय॥ १३ ॥ ‘यह अ बलशाली रा स वायुके समान वेगशाली रथके ारा इस सेनाके बीचम होकर उसी तरह ती ग तसे आगे बढ़ेगा, जैसे पू णमाके दन उ ाल तर से यु समु बढ़ता है॥ १४ ॥ ‘यह आज मारा नह जा सकता; क ाजीके वरदानके भावसे पूणत: नभय हो चुका है। इस लये हमलोग इस रा सको पकड़कर कै द कर लगे। तुमलोग यु म इस बातके लये पूरा य करो॥ १५ ॥ ‘जैसे राजा ब लके बाँध लये जानेपर ही म तीन लोक के रा का उपभोग कर रहा ँ , उसी कार इस पापी नशाचरको बंदी बना लया जाय, यही मुझे अ ा लगता है’॥ १६ ॥ महाराज ीराम! ऐसा कहकर इ ने रावणके साथ यु करना छोड़ दया और दूसरी ओर जाकर समरा णम रा स को भयभीत करते ए वे उनके साथ यु करने लगे॥ १७ ॥ यु से पीछे न हटनेवाले रावणने उ रक ओरसे देवसेनाम वेश कया और देवराज इ ने द णक ओरसे रा ससेनाम॥ १८ ॥ देवता क सेना चार सौ कोसतक फै ली ◌इ थी। रा सराज रावणने उसके भीतर घुसकर समूची देवसेनाको बाण क वषासे ढक दया॥ १९ ॥ अपनी वशाल सेनाको न होती देख इ ने बना कसी घबराहटके दशमुख रावणका सामना कया और उसे चार ओरसे घेरकर यु से वमुख कर दया॥ २० ॥ इसी समय रावणको इ के चंगुलम फँ सा आ देख दानव तथा रा स ने ‘हाय! हम मारे गये’ ऐसा कहकर बड़े जोरसे आतनाद कया॥ २१ ॥ तब रावणका पु मेघनाद ोधसे अचेत-सा हो गया और रथपर बैठकर अ कु पत हो उसने श ुक भयंकर सेनाम वेश कया॥ २२ ॥



पूवकालम पशुप त महादेवजीसे उसको जो तमोमयी महामाया ा ◌इ थी, उसम वेश करके उसने अपनेको छपा लया और अ ोधपूवक श ुसेनाम घुसकर उसे खदेड़ना आर कया॥ २३ ॥ वह सब देवता को छोड़कर इ पर ही टूट पड़ा, परंतु महातेज ी इ अपने श ुके उस पु को देख न सके ॥ २४ ॥ महापरा मी देवता क मार खानेसे य प वहाँ रावणकु मारका कवच न हो गया था, तथा प उसने अपने मनम त नक भी भय नह कया॥ २५ ॥ उसने अपने सामने आते ए मात लको उ म बाण से घायल करके सायक क झड़ी लगाकर पुन: देवराज इ को भी ढक दया॥ २६ ॥ तब इ ने रथको छोड़कर सार थको वदा कर दया और ऐरावत हाथीपर आ ढ़ हो वे रावणकु मारक खोज करने लगे॥ २७ ॥ मेघनाद अपनी मायाके कारण ब त बल हो रहा था। वह अ होकर आकाशम वचरने लगा और इ को मायासे ाकु ल करके बाण ारा उनपर आ मण कया॥ २८ ॥ रावणकु मारको जब अ ी तरह मालूम हो गया क इ ब त थक गये ह, तब उ मायासे बाँधकर अपनी सेनाम ले आया॥ २९ ॥ महे को उस महासमरसे मेघनाद ारा बलपूवक ले जाये जाते देख सब देवता यह सोचने लगे क अब ा होगा?॥ ३० ॥ ‘यह यु वजयी मायावी रा स यं तो दखायी देता नह , इसी लये इ पर वजय पानेम सफल आ है। य प देवराज इ रा सी मायाका संहार करनेक व ा जानते ह, तथा प इस रा सने माया ारा बलपूवक इनका अपहरण कया है’॥ ३१ ॥ ऐसा सोचते ए वे सब देवता उस समय रोषसे भर गये और रावणको यु से वमुख करके उसपर बाण क झड़ी लगाने लगे॥ ३२ ॥ रावण आ द और वसु का सामना पड़ जानेपर यु म उनके स ुख ठहर न सका; क श ु ने उसे ब त पी ड़त कर दया था॥ ३३ ॥ मेघनादने देखा पताका शरीर बाण के हारसे जजर हो गया है और वे यु म उदास दखायी देते ह। तब वह अ रहकर ही रावणसे इस कार बोला—॥



‘ पताजी! चले आइये। अब हमलोग घर चल। यु



बंद कर दया जाय। हमारी जीत हो



गयी; अत: आप , न एवं स हो जाइये॥ ३५ ॥ ‘ये जो देवता क सेना तथा तीन लोक के ामी इ ह, इ म देवसेनाके बीचसे कै द कर लाया ँ । ऐसा करके मने देवता का घमंड चूर कर दया है॥ ३६ ॥ ‘आप अपने श ुको बलपूवक कै द करके इ ानुसार तीन लोक का रा भो गये। यहाँ थ म करनेसे आपको ा लाभ है? अब यु से को◌इ योजन नह है’॥ ३७ ॥ मेघनादक यह बात सुनकर सब देवता यु से नवृ हो गये और इ को साथ लये बना ही लौट गये॥ ३८ ॥ अपने पु के उस य वचनको आदरपूवक सुनकर महान् बलशाली देव ोही तथा सु व ात रा सराज रावण यु से नवृ हो गया और अपने बेटेसे बोला—॥ ३९ ॥ ‘साम शाली पु ! अपने अ बलके अनु प परा म कट करके आज तुमने जो इन अनुपम बलशाली देवराज इ को जीता और देवता को भी परा कया है, इससे यह न य हो गया क तुम मेरे कु ल और वंशके यश और स ानक वृ करनेवाले हो॥ ४० ॥ ‘बेटा! इ को रथपर बैठाकर तुम सेनाके साथ यहाँसे ल ापुरीको चलो! म भी अपने म य के साथ शी ही स तापूवक तु ारे पीछे-पीछे आ रहा ँ ’॥ ४१ ॥ पताक यह आ ा पाकर परा मी रावणकु मार मेघनाद देवराजको साथ ले सेना और सवा रय स हत अपने नवास ानको लौटा। वहाँ प ँ चकर उसने यु म भाग लेनेवाले नशाचर को वदा कर दया॥ ४२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म उनतीसवाँ सग पूरा आ॥ २९ ॥



तीसवाँ सग ाजीका इ ज ो वरदान देकर इ को उसक कैदसे छु ड़ाना और उनके पूवकृत पापकमको याद दलाकर उनसे वै व-य का अनु ान करनेके लये कहना, उस य को पूण करके इ का गलोकम जाना



रावणपु मेघनाद जब अ बलशाली इ को जीतकर अपने नगरम ले गया, तब स ूण देवता जाप त ाजीको आगे करके ल ाम प ँ चे॥ १ ॥ ाजी आकाशम खड़े-खड़े ही पु और भाइय के साथ बैठे ए रावणके नकट जा उसे कोमल वाणीम समझाते ए बोले—॥ २ ॥ ‘व रावण! यु म तु ारे पु क वीरता देखकर म ब त संतु आ ँ । अहो! इसका उदार परा म तु ारे समान या तुमसे भी बढ़कर है॥ ३ ॥ ‘तुमने अपने तेजसे सम लोक पर वजय पायी है और अपनी त ा सफल कर ली है। इस लये पु स हत तुमपर म ब त स ँ ॥ ४ ॥ ‘रावण! तु ारा यह पु अ तशय बलशाली और परा मी है। आजसे यह संसारम इ ज े नामसे व ात होगा॥ ५ ॥ ‘राजन्! यह रा स बड़ा बलवान् और दुजय होगा, जसका आ य लेकर तुमने सम देवता को अपने अधीन कर लया॥ ६ ॥ ‘महाबाहो! अब तुम पाकशासन इ को छोड़ दो और बताओ इ छोड़नेके बदलेम देवता तु ा द’॥ ७ ॥ तब यु वजयी महातेज ी इ ज े यं ही कहा—‘देव! य द इ को छोड़ना है तो म इसके बदलेम अमर लेना चाहता ँ ’॥ ८ ॥ यह सुनकर महातेज ी जाप त ाजीने मेघनादसे कहा—‘बेटा! इस भूतलपर प य , चौपाय तथा महातेज ी मनु आ द ा णय मसे को◌इ भी ाणी सवथा अमर नह हो सकता’॥ ९ १/२ ॥ भगवान् ाजीक कही ◌इ यह बात सुनकर इ वजयी महाबली मेघनादने वहाँ खड़े ए अ वनाशी ाजीसे कहा—॥ १० १/२ ॥



‘भगवन्! (य द सवथा अमर दूसरी शत है—जो दूसरी स



ा होना अस व है) तब इ को छोड़नेके स म जो मेरी ा करना मुझे अभी है, उसे सु नये। मेरे वषयम यह सदाके लये नयम हो जाय क जब म श ुपर वजय पानेक इ ासे सं ामम उतरना चा ँ और म यु ह क आ तसे अ देवक पूजा क ँ , उस समय अ से मेरे लये एक ऐसा रथ कट हो जाया करे, जो घोड़ से जुता-जुताया तैयार हो और उसपर जबतक म बैठा र ँ , तबतक मुझे को◌इ भी मार न सके , यही मेरा न त वर है॥ ११—१३ ॥ ‘य द यु के न म कये जानेवाले जप और होमको पूण कये बना ही म समरा णम यु करने लगू,ँ तभी मेरा वनाश हो॥ १४ ॥ ‘देव! सब लोग तप ा करके अमर ा करते ह; परंतु मने परा म ारा इस अमर का वरण कया है’॥ १५ ॥ यह सुनकर भगवान् ाजीने कहा—‘एवम ु (ऐसा ही हो)’। इसके बाद इ ज े इ को मु कर दया और सब देवता उ साथ लेकर गलोकको चले गये॥ १६ ॥ ीराम! उस समय इ का देवो चत तेज न हो गया था। वे दु:खी हो च ाम डू बकर अपनी पराजयका कारण सोचने लगे॥ १७ ॥ भगवान् ाजीने उनक इस अव ाको ल कया और कहा—‘शत तो! य द आज तु इस अपमानसे शोक और दु:ख हो रहा है तो बताओ पूवकालम तुमने बड़ा भारी दु म कया था?॥ १८ ॥ ‘ भो! देवराज! पहले मने अपनी बु से जन जा को उ कया था, उन सबक अ का , भाषा, प और अव ा सभी बात एक-जैसी थ ॥ १९ ॥ ‘उनके प और रंग आ दम पर र को◌इ वल णता नह थी। तब म एका च होकर उन जा के वषयम वशेषता लानेके लये कु छ वचार करने लगा॥ २० ॥ ‘ वचारके प ात् उन सब जा क अपे ा व श जाको ुत करनेके लये मने एक नारीक सृ क । जा के ेक अ म जो-जो अ तु व श ता—सारभूत सौ य था, उसे मने उसके अ म कट कया॥ २१ ॥ ‘उन अ तु प-गुण से उपल त जस नारीका मेरे ारा नमाण आ था, उसका नाम आ अह ा। इस जग हल कहते ह कु पताको, उससे जो न नीयता कट होती है उसका नाम ह है। जस नारीम ह ( न नीय प) न हो, वह अह ा कहलाती है; इसी लये वह



नव न मत नारी अह ा नामसे व ात ◌इ। मने ही उसका नाम अह ा रख दया था॥ २२-२३ ॥ ‘देवे ! सुर े ! जब उस नारीका नमाण हो गया, तब मेरे मनम यह च ा ◌इ क यह कसक प ी होगी?॥ २४ ॥ ‘ भो! पुरंदर! देवे ! उन दन तुम अपने ान और पदक े ताके कारण मेरी अनुम तके बना ही मन-ही-मन यह समझने लगे थे क यह मेरी ही प ी होगी॥ २५ ॥ ‘मने धरोहरके पम मह ष गौतमके हाथम उस क ाको स प दया। वह ब त वष तक उनके यहाँ रही। फर गौतमने उसे मुझे लौटा दया॥ २६ ॥ ‘महामु न गौतमके उस महान् ैय (इ य-संयम) तथा तप ा वषयक स को जानकर मने वह क ा पुन: उ को प ी पम दे दी॥ २७ ॥ ‘धमा ा महामु न गौतम उसके साथ सुखपूवक रहने लगे। जब अह ा गौतमको दे दी गयी, तब देवता नराश हो गये॥ २८ ॥ ‘तु ारे तो ोधक सीमा न रही। तु ारा मन कामके अधीन हो चुका था; इस लये तुमने मु नके आ मपर जाकर अ शखाके समान लत होनेवाली उस द सु रीको देखा॥ २९ ॥ ‘इ ! तुमने कु पत और कामसे पी ड़त होकर उसके साथ बला ार कया। उस समय उन मह षने अपने आ मम तु देख लया॥ ३० ॥ ‘देवे ! इससे उन परम तेज ी मह षको बड़ा ोध आ और उ ने तु शाप दे दया। उसी शापके कारण तुमको इस वपरीत दशाम आना पड़ा है— श ुका बंदी बनना पड़ा है॥ ३१ ॥ ‘उ



ने शाप देते ए कहा—‘वासव! श ! तुमने नभय होकर मेरी प ीके साथ बला ार कया है; इस लये तुम यु म जाकर श ुके हाथम पड़ जाओगे॥ ३२ ॥ ‘दुबु े! तुम-जैसे राजाके दोषसे मनु लोकम भी यह जारभाव च लत हो जायगा, जसका तुमने यं यहाँ सू पात कया है; इसम संशय नह है॥ ३३ ॥ ‘जो जारभावसे पापाचार करेगा, उस पु षपर उस पापका आधा भाग पड़ेगा और आधा तुमपर पड़ेगा; क इसके वतक तु हो। न:संदेह तु ारा यह ान र नह होगा॥ ३४











‘जो को◌इ भी देवराजके पदपर त ष्ठत होगा, वह वहाँ र नह मा के लये दे दया है।’ यह बात मु नने तुमसे कही थी॥ ३५ ॥



‘ फर उन महातप —‘दु !े तू मेरे आ मके



रहेगा। यह शाप मने



ी मु नने अपनी उस प ीको भी भलीभाँ त डाँट-फटकारकर कहा पास ही अ होकर रह और अपने प-सौ यसे हो जा। प और यौवनसे स होकर मयादाम त नह रह सक है, इस लये अब लोकम तू अके ली ही पवती नह रहेगी (ब त-सी पवती याँ उ हो जायँगी)॥ ३६-३७ ॥ ‘ जस एक प-सौ यको लेकर इ के मनम यह काम- वकार उ आ था, तेरे उस प-सौ यको सम जाएँ ा कर लगी; इसम संशय नह है’॥ ‘तभीसे अ धकांश जा पवती होने लगी। अह ाने उस समय वनीत-वचन ारा मह ष गौतमको स कया और कहा—‘ व वर! ष! देवराजने आपका ही प धारण करके मुझे कल त कया है। म उसे पहचान न सक थी। अत: अनजानम मुझसे यह अपराध आ है, े ाचारवश नह । इस लये आपको मुझपर कृ पा करनी चा हये’॥ ३९-४० ॥ ‘अह ाके ऐसा कहनेपर गौतमने उ र दया— ‘भ े! इ ाकु वंशम एक महातेज ी महारथी वीरका अवतार होगा, जो संसारम ीरामके नामसे व ात ह गे। महाबा ीरामके पम सा ात् भगवान् व ु ही मनु -शरीर धारण करके कट ह गे। वे ा ण ( व ा म आ द)-के कायसे तपोवनम पधारगे। जब तुम उनका दशन करोगी, तब प व हो जाओगी। तुमने जो पाप कया है, उससे तु वे ही प व कर सकते ह॥ ४१—४३ ॥ ‘वरव ण न! उनका आ त -स ार करके तुम मेरे पास आ जाओगी और फर मेरे ही साथ रहने लगोगी’॥ ‘ऐसा कहकर ष गौतम अपने आ मके भीतर आ गये और उन वादी मु नक प ी वह अह ा बड़ी भारी तप ा करने लगी॥ ४५ ॥ ‘महाबाहो! उन ष गौतमके शाप देनेसे ही तुमपर यह सारा संकट उप त आ है। अत: तुमने जो पाप कया था, उसको याद करो॥ ४६ ॥ ‘वासव! उस शापके ही कारण तुम श ुक कै दम पड़े हो, दूसरे कसी कारणसे नह । अत: अब एका च हो शी ही वै व-य का अनु ान करो॥ ४७ ॥



‘देवे !



उस य से प व होकर तुम पुन: गलोक ा कर लोगे। तु ारा पु जय उस महासमरम मारा नह गया है। उसका नाना पुलोमा उसे महासागरम ले गया है। इस समय वह उसीके पास है’॥ ाजीक यह बात सुनकर देवराज इ ने वै वय का अनु ान कया। वह य पूरा करके देवराज गलोकम गये और वहाँ देवरा का शासन करने लगे॥ ४९ १/२ ॥ रघुन न! यह है इ वजयी मेघनादका बल, जसका मने आपसे वणन कया है। उसने देवराज इ को भी जीत लया था; फर दूसरे ा णय क तो बसात ही ा थी॥ ५० १/२ ॥ अग जीक यह बात सुनकर ीराम और ल ण त ाल बोल उठे —‘आ य है।’ साथ ही वानर और रा स को भी इस बातसे बड़ा व य आ॥ ५१ १/२ ॥ उस समय ीरामके बगलम बैठे ए वभीषणने कहा—‘मने पूवकालम जो आ यक बात देखी थ , उनका आज मह षने रण दला दया है’॥ ५२ १/२ ॥ तब ीरामच जीने अग जीसे कहा—‘आपक बात स है। मने भी वभीषणके मुखसे यह बात सुनी थी।’ फर अग जी बोले—‘ ीराम! इस कार पु स हत रावण स ूण जग े लये क क प था, जसने देवराज इ को भी सं ामम जीत लया था’॥ ५३-५४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३० ॥



इकतीसवाँ सग रावणका मा ह तीपुरीम जाना और वहाँके राजा अजुनको न पाकर म य स हत उसका व ग रके समीप नमदाम नहाकर भगवान् शवक आराधना करना



तदन र महातेज ी ीरामने मु न े अग को णाम करके पुन: व यपूवक पूछा —॥ १ ॥ ‘भगवन्! ज े ! जब ू र नशाचर रावण पृ ीपर वजय करता घूम रहा था, उस समय ा यहाँके सभी लोग शौयस ी गुण से शू ही थे?॥ ‘ ा उन दन यहाँ को◌इ भी य-नरेश अथवा येतर राजा अ धक बलवान् नह था, जससे इस भूतलपर प ँ चकर रा सराज रावणको परा जत या अपमा नत होना नह पड़ा॥ ३॥ ‘अथवा उस समयके सभी राजा परा मशू तथा श ानसे हीन थे, जसके कारण उन ब सं क े नरपाल को रावणसे परा होना पड़ा’॥ ४ ॥ ीरामच जीक यह बात सुनकर भगवान् अग -मु न ठठाकर हँ स पड़े और जैसे ाजी महादेवजीसे को◌इ बात कहते ह , इसी तरह वे ीरामच जीसे बोले—॥ ‘पृ ीनाथ! भूपाल शरोमणे! ीराम! इसी कार सब राजा को सताता और परा जत करता आ रावण इस पृ ीपर वचरने लगा॥ ६ ॥ ‘घूमते-घूमते वह गपुरी अमरावतीके समान सुशो भत होनेवाली मा ह ती नामक नगरीम जा प ँ चा, जहाँ अ देव सदा व मान रहते थे॥ ७ ॥ ‘उन अ देवके भावसे वहाँ अ के ही समान तेज ी अजुन नामक राजा रा करता था, जसके रा कालम कु शा रणसे यु अ कु म सदा अ देवता नवास करते थे॥ ८ ॥ ‘ जस



दन रावण वहाँ प ँ चा, उसी दन बलवान् हैहयराज राजा अजुन अपनी य के साथ नमदा नदीम जल- ड़ा करनेके लये चला गया था॥ ९ ॥ ‘उसी दन रावण मा ह तीपुरीम आया। वहाँ आकर रा सराज रावणने राजाके म य से पूछा—॥ १० ॥



‘म



यो! ज ी और ठीक-ठीक बताओ, राजा अजुन कहाँ ह? म रावण ँ और तु ारे महाराजसे यु करनेके लये आया ँ ॥ ११ ॥ ‘तुमलोग पहले ही जाकर उ मेरे आगमनक सूचना दे दो।’ रावणके ऐसा कहनेपर राजाके व ान् म य ने रा सराजको बताया क हमारे महाराज इस समय राजधानीम नह ह॥ १२ १/२ ॥ ‘पुरवा सय के मुखसे राजा अजुनके बाहर जानेक बात सुनकर व वाका पु रावण वहाँसे हटकर हमालयके समान वशाल व ग रपर आया॥ १३ १/२ ॥ ‘वह इतना ऊँ चा था क उसका शखर बादल म समाया आ-सा जान पड़ता था तथा वह पवत पृ ी फोड़कर ऊपरको उठा आ-सा तीत होता था। व के गगनचु ी शखर आकाशम रेखा ख चते-से जान पड़ते थे। रावणने उस महान् शैलको देखा। वह अपने सह ृ से सुशो भत हो रहा था और उसक क रा म सह नवास करते थे॥ १४-१५ ॥ ‘उसके सव शखरके तटसे जो शीतल जलक धाराएँ गर रही थ , उनके ारा वह पवत अ हास करता-सा तीत होता था। देवता, दानव, ग व और क र अपनी-अपनी य और अ रा के साथ वहाँ ड़ा कर रहे थे। वह अ ऊँ चा पवत अपनी सुर सुषमासे गके समान सुशो भत हो रहा था॥ १६ १/२ ॥ ‘ टकके समान नमल जलका ोत बहानेवाली न दय के कारण वह व ग र च ल ज ावाले फन से उपल त शेषनागके समान त था। अ धक ऊँ चा◌इके कारण वह ऊ लोकको जाता-सा जान पड़ता था। हमालयके समान वशाल एवं व ृत व ग र ब त-सी गुफा से यु दखायी देता था॥ १७-१८ ॥ ‘ व ाचलक शोभाको देखता आ रावण पु स लला नमदा नदीके तटपर गया, जसम शलाख से यु च ल जल वा हत हो रहा था। वह नदी प म समु क ओर चली जा रही थी। धूपसे तपे ए ासे भसे, हरन, सह, ा , रीछ और गजराज उसके जलाशयको व ु कर रहे थे॥ १९-२० ॥ ‘सदा मतवाले होकर कलरव करनेवाले च वाक, कार व, हंस, जलकु ु ट और सारस आ द जलप ी नमदाक जल रा शपर छा रहे थे॥ २१ ॥



‘स रता



म े नमदा परम सु री यतमा नारीके समान तीत होती थी। खले ए तटवत वृ मानो उसके आभूषण थे। च वाकके जोड़े उसके दोन न का ान ले रहे थे। ऊँ चे और व ृत पु लन नत के समान जान पड़ते थे। हंस क पं मो तय क बनी ◌इ मेखला (करधनी)-के समान शोभा दे रही थी। पु के पराग ही अ राग बनकर उसके अ अ म अनु ल हो रहे थे। जलका उ ल फे न ही उसक , ेत साड़ीका काम दे रहा था। जलम गोता लगाना ही उसका सुखद सं श था और खले ए कमल ही उसके सु र ने जान पड़ते थे। रा स शरोम ण दशमुख रावणने शी ही पु क वमानसे उतरकर नमदाके जलम डु बक लगायी और बाहर नकलकर वह नाना मु नय से से वत उसके रमणीय तटपर अपने म य के साथ बैठा॥ २२—२५ ॥ ‘ये सा ात् ग ा ह’ ऐसा कहकर दशानन रावणने नमदाक शंसा क और उसके दशनसे हषका अनुभव कया॥ २६ ॥ ‘ फर वहाँ उसने शुक, सारण तथा अ म य से लीलापूवक कहा—‘ये सूयदेव अपनी सह करण से स ूण जग ो मानो का नमय बनाकर च ताप देते ए इस समय आकाशके म भागम वराज रहे ह॥ ‘ कतु मुझे यहाँ बैठा जानकर ही च माके समान शीतल हो गये ह। मेरे ही भयसे वायु भी नमदाके जलसे शीतल, सुग त और मनाशक होकर बड़ी सावधानीके साथ म ग तसे बह रही है॥ २८-२९ ॥ ‘स रता म े यह नमदा भी ड़ारस एवं ी तको बढ़ा रही है। इसक लहर म मगर, म और जलप ी खेल रहे ह और यह भयभीत नारीके समान त है॥ ३० ॥ ‘तुमलोग यु लम इ तु परा मी नरेश ारा अ -श से घायल कर दये गये हो और र से इस कार नहा उठे हो क तु ारे अ म लालच न रसका लेप-सा लगा आ जान पड़ता है॥ ३१ ॥ ‘अत: तुम सब-के -सब सुख देनेवाली इस म लका रणी नमदा नदीम ान करो। ठीक उसी तरह, जैसे सावभौम आ द महान् द ज मतवाले होकर ग ाम अवगाहन करते ह॥ ३२ ॥ ‘इस महानदीम ान करके तुम पाप-तापसे मु हो जाओगे। म भी आज शरद-् ऋतुके च माक भाँ त उ ल नमदा-तटपर धीरे-धीरे जटाजूटधारी महादेवजीको फू ल का उपहार सम पत क ँ गा’॥ ३३ १/२ ॥



‘रावणके



ऐसा कहनेपर ह , शुक, सारण, महोदर और धू ा ने नमदाम ान कया॥



३४ १/२ ॥ ‘रा सराजक सेनाके हा थय ने नमदा नदीम उतरकर उसके जलको मथ डाला, मानो वामन, अ न, प आ द बड़े-बड़े द ज ने ग ाजीके जलको व ु कर डाला हो॥ ३५ १/२ ॥ ‘तदन



र वे महाबली रा स ग ाम ान करके बाहर आये और रावणके शवपूजनके लये फू ल जुटाने लगे॥ ३६ १/२ ॥ ‘ ेत बादल के समान शु एवं मनोरम नमदा-पु लनपर उन रा स ने दो ही घड़ीम फू ल का पहाड़-जैसा ढेर लगा दया॥ ३७ १/२ ॥ ‘इस कार पु का संचय हो जानेपर रा सराज रावण यं ान करनेके लये नमदा नदीम उतरा, मानो को◌इ महान् गजराज ग ाम अवगाहन करनेके लये घुसा हो॥ ३८ १/२ ॥ ‘वहाँ व धपूवक ान करके रावणने परम उ म जपनीय म का जप कया। इसके बाद वह नमदाके जलसे बाहर नकला॥ ३९ १/२ ॥ ‘ फर भीगे कपड़ेको उतारकर उसने ेत व धारण कया। इसके बाद वह हाथ जोड़े महादेवजीक पूजाके लये चला। उस समय और सब रा स भी उसके पीछे हो लये, मानो मू तमान् पवत उसक ग तके अधीन हो खचे चले जा रहे ह ॥ ४०-४१ ॥ ‘रा सराज रावण जहाँ-जहाँ भी जाता था, वहाँ-वहाँ एक सुवणमय शव ल अपने साथ लये जाता था॥ ४२ ॥ ‘रावणने बालूक वेदीपर उस शव ल को ा पत कर दया और च न तथा अमृतके समान सुग वाले पु से उसका पूजन कया॥ ४३ ॥ ‘जो अपने ललाटम च करण को आभूषण पसे धारण करते ह, स ु ष क पीड़ा हर लेते ह तथा भ को मनोवा त वर दान करते ह, उन े एवं उ ृ देवता भगवान् श रका भलीभाँ त पूजन करके वह नशाचर उनके सामने गाने और हाथ फै लाकर नाचने लगा॥ ४४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म इकतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३१ ॥



ब ीसवाँ सग अजुनक भुजा से नमदाके वाहका अव होना, रावणके पु ोपहारका बह जाना, फर रावण आ द नशाचर का अजुनके साथ यु तथा अजुनका रावणको कैद करके अपने नगरम ले जाना ‘नमदाजीके



तटपर जहाँ ू र रा सराज रावण महादेवजीको फू ल का उपहार अ पत कर रहा था, उस ानसे थोड़ी दूरपर वजयी वीर म े मा ह तीपुरीका श शाली राजा अजुन अपनी य के साथ नमदाके जलम उतरकर डा कर रहा था॥ १-२ ॥ ‘उन सु रय के बीचम वराजमान राजा अजुन सह ह थ नय के म भागम त ए गजराजके समान शोभा पाता था॥ ३ ॥ ‘अजुनके हजार भुजाएँ थ । उनके उ म बलको जाँचनेके लये उसने उन ब सं क भुजा ारा नमदाके वेगको रोक दया॥ ४ ॥ ‘कृ तवीय-पु अजुनक भुजा ारा रोका आ नमदाका वह नमल जल तटपर पूजा करते ए रावणके पासतक प ँ च गया और उसी ओर उलटी ग तसे बहने लगा॥ ५ ॥ ‘नमदाके जलका वह वेग म , न , मगर, फू ल और कु शा रणके साथ बढ़ने लगा। उसम वषाकालके समान बाढ़ आ गयी॥ ६ ॥ ‘जलका वह वेग, जसे मानो कातवीय अजुनने ही भेजा हो, रावणके सम पु ोपहारको बहा ले गया॥ ७ ॥ ‘रावणका वह पूजन-स ी नयम अभी आधा ही समा आ था, उसी दशाम उसे छोड़कर वह तकू ल ◌इ कमनीय का वाली ेयसीक भाँ त नमदाक ओर देखने लगा॥ ८ ॥ ‘प



मसे आते और पूव दशाम वेश करके बढ़ते ए जलके उस वेगको उसने देखा। वह ऐसा जान पड़ता था, मानो समु म ार आ गया हो॥ ९ ॥ ‘उसके तटवत वृ पर रहनेवाले प य म को◌इ घबराहट नह थी। वह नदी अपनी परम उ म ाभा वक तम त थी—उसका जल पहले ही जैसा एवं नमल



दखायी देता था। उसम वषाका लक बाढ़के समय जो म लनता आ द वकार होते थे, उनका उस समय सवथा अभाव था। रावणने उस नदीको वकारशू दयवाली नारीके समान देखा॥ ‘उसके मुखसे एक श भी नह नकला। उसने मौन तक र ाके लये बना बोले ही दा हने हाथक अ ु लीसे संकेतमा करके बाढ़के कारणका पता लगानेके न म शुक और सारणको आदेश दया॥ ११ ॥ ‘रावणका आदेश पाकर दोन वीर ाता शुक और सारण आकाशमागसे प म दशाक ओर त ए॥ १२ ॥ ‘के वल आधा योजन जानेपर ही उन दोन नशाचर ने एक पु षको य के साथ जलम डा करते देखा॥ १३ ॥ ‘उसका शरीर वशाल सालवृ के समान ऊँ चा था। उसके के श जलसे ओत ोत हो रहे थे। ने ा म मदक लाली दखायी दे रही थी और च भी मदसे ाकु ल जान पड़ता था॥ १४ ॥ ‘वह श ुमदन वीर अपनी सह भुजा से नदीके वेगको रोककर सह चरण से पृ ीको थामे रखनेवाले पवतके समान शोभा पाता था॥ १५ ॥ ‘नयी अव ाक सह सु रयाँ उसे घेरे ए ऐसी जान पड़ती थ , मानो सह मदम ह थ नय ने कसी गजराजको घेर रखा हो॥ १६ ॥ ‘उस परम अ तु को देखकर रा स शुक और सारण लौट आये और रावणके पास जाकर बोले—॥ १७ ॥ ‘रा सराज! यहाँसे थोड़ी ही दूरपर को◌इ सालवृ के समान वशालकाय पु ष है, जो बाँधक तरह नमदाके जलको रोककर य के साथ डा कर रहा है॥ १८ ॥ ‘उसक सह भुजा से नदीका जल क गया है। इसी लये यह बार ार समु के ारक भाँ त जलके उ ारक सृ कर रही है’॥ १९ ॥ ‘इस कार कहते ए शुक और सारणक बात सुनकर रावण बोल उठा—‘वही अजुन है’ ऐसा कहकर वह यु क लालसासे उसी ओर चल दया॥ २० ॥ ‘रा सराज रावण जब अजुनक ओर चला, तब धूल और भारी कोलाहलके साथ वायु च वेगसे चलने लगी॥ २१ ॥



‘बादल ने र ब रावण महोदर, महापा ,



ु क वषा करके एक बार ही बड़े जोरसे गजना क । इधर रा सराज धू ा , शुक और सारणको साथ ले उस ानक ओर चला, जहाँ अजुन डा कर रहा था॥ २२ १/२ ॥ ‘काजल या कोयलेके समान काला वह बलवान् रा स थोड़ी ही देरम नमदाके उस भयंकर जलाशयके पास जा प ँ चा॥ २३ १/२ ॥ ‘वहाँ प ँ चकर रा स के राजा रावणने मैथुनक इ ावाली ह थ नय से घरे ए गजराजके समान सु री य से प रवे त महाराज अजुनको देखा॥ २४ १/२ ॥ ‘उसे देखते ही रावणके ने रोषसे लाल हो गये। अपने बलके घमंडसे उ ए रा सराजने अजुनके म य से ग ीर वाणीम इस कार कहा—॥ २५ १/२ ॥ ‘म यो! तुम हैहयराजसे ज ी जाकर कहो क रावण तुमसे यु करनेके लये आया है’॥ २६ १/२ ॥ ‘रावणक बात सुनकर अजुनके वे म ी ह थयार लेकर खड़े हो गये और रावणसे इस कार बोले— ‘वाह रे रावण! वाह! तु यु के अवसरका अ ा ान है। हमारे महाराज जब मदम होकर य के बीचम डा कर रहे ह, ऐसे समयम तुम उनके साथ यु करनेके लये उ ा हत हो रहे हो॥ २८ १/२ ॥ ‘जैसे को◌इ ा कामवासनासे वा सत ह थ नय के बीचम खड़े ए गजराजसे जूझना चाहता हो, उसी कार तुम य के सम डा- वलासम त र ए राजा अजुनके साथ यु करनेका हौसला दखा रहे हो॥ २९ १/२ ॥ ‘तात! दश ीव! य द तु ारे दयम यु के लये उ ाह है, तो रातभर मा करो और आजक रातम यह ठहरो। फर कल सबेरे तुम राजा अजुनको समरा णम उप त देखोगे॥ ३० ॥ ‘यु क तृ ासे घरे ए रा सराज! य द तु जूझनेके लये बड़ी ज ी लगी हो तो पहले रणभू मम हम सबको मार गराओ। उसके बाद महाराज अजुनके साथ यु करने पाओगे’॥ ३१ ॥



३२ ॥



‘यह सुनकर रावणके



‘इससे अजुनके लगा॥ ३३ ॥ ‘अजुनके



भूखे म ी यु



लम अजुनके अमा को मार-मारकर खाने लगे॥



अनुया यय तथा रावणके म य का नमदाके तटपर बड़ा कोलाहल होने



यो ा बाण , तोमर , भाल , शूल और व कषण नामक श ारा चार ओरसे धावा करके रावणस हत सम रा स को घायल करने लगे॥ ३४ ॥ ‘हैहयराजके यो ा का वेग नाक , म और मगर स हत समु क भीषण गजनाके समान अ भयंकर जान पड़ता था॥ ३५ ॥ ‘रावणके वे म ी ह , शुक और सारण आ द कु पत हो अपने बल-परा मसे कातवीय अजुनक सेनाका संहार करने लगे॥ ३६ ॥ ‘तब अजुनके सेवक ने भयसे व ल होकर डाम लगे ए अजुनसे म ीस हत रावणके उस ू र कमका समाचार सुनाया॥ ३७ ॥ ‘सुनकर अजुनने अपनी य से कहा—‘तुम सब लोग डरना मत।’ फर उन सबके साथ वह नमदाके जलसे उसी तरह बाहर नकला, जैसे को◌इ द ज (ह थ नय के साथ) ग ाजीके जलसे बाहर नकला हो॥ ३८ ॥ ‘उसके ने रोषसे र वणके हो गये। वह अजुन पी अनल लयकालके महाभयंकर पावकक भाँ त लत हो उठा॥ ३९ ॥ ‘सु र सोनेका बाजूबंद धारण करनेवाले वीर अजुनने तुरंत ही गदा उठा ली और उन रा स पर आ मण कया, मानो सूयदेव अ कार-समूहपर टूट पड़े ह ॥ ४० ॥ ‘जो भुजा ारा घुमायी जाती थी उस वशाल गदाको ऊपर उठाकर ग ड़के समान ती वेगका आ य ले राजा अजुन त ाल ही उन नशाचर पर टूट पड़ा॥ ४१ ॥ ‘उस समय मूसलधारी ह , जो व ग रके समान अ वचल था, उसका माग रोककर खड़ा हो गया। ठीक उसी तरह, जैसे पूवकालम व ाचलने सूयदेवका माग रोक लया था॥ ४२ ॥ ‘मदसे उ ए ह ने कु पत हो अजुनपर लोहेसे मढ़ा आ एक भयंकर मूसल चलाया और कालके समान भीषण गजना क ॥ ४३ ॥



ह के हाथसे छू टे ए उस मूसलके अ भागम अशोक-पु के समान लाल रंगक आग कट हो गयी, जो जलाती ◌इ-सी जान पड़ती थी॥ ४४ ॥ ‘ कतु कातवीय अजुनको इससे त नक भी भय नह आ। उसने अपनी ओर वेगपूवक आते ए उस मूसलको गदा मारकर पूणत: वफल कर दया॥ ४५ ॥ ‘त ात् गदाधारी हैहयराज, जसे पाँच सौ भुजा से उठाकर चलाया जाता था, उस भारी गदाको घुमाता आ ह क ओर दौड़ा॥ ४६ ॥ ‘उस गदासे अ वेगपूवक आहत होकर ह त ाल पृ ीपर गर पड़ा, मानो को◌इ पवत व धारी इ के व का आघात पाकर ढह गया हो॥ ‘ ह को धराशायी आ देख मारीच, शुक, सारण, महोदर और धू ा समरा णसे भाग खड़े ए॥ ‘ ह के गरने और अमा के भाग जानेपर रावणने नृप े अजुनपर त ाल धावा कया॥ ४९ ॥ ‘ फर तो हजार भुजा वाले नरनाथ और बीस भुजा वाले नशाचरनाथम वहाँ भयंकर यु आर हो गया, जो र गटे खड़े कर देनेवाला था॥ ५० ॥ ‘व ु ए दो समु , जनक जड़ हल रही ह ऐसे दो पवत , दो तेज ी आ द , दो दाहक अ य , बलसे उ ए दो गजराज , कामवासनावाली गायके लये लड़नेवाले दो साँड़ , जोर-जोरसे गजनेवाले दो मेघ , उ ट बलशाली दो सह तथा ोधसे भरे ए और कालदेवके समान वे रावण और अजुन गदा लेकर एक-दूसरेपर गहरी चोट करने लगे॥ ५१—५३ ‘



॥ ‘जैसे



पूवकालम पवत ने व के भयंकर आघात सहे थे, उसी कार वे अजुन और रावण वहाँ गदा के हार सहन करते थे॥ ५४ ॥ ‘जैसे बजलीक कड़कसे स ूण दशाएँ त नत हो उठती ह, उसी कार उन दोन वीर क गदा के आघात से सभी दशाएँ गूँजने लग ॥ ५५ ॥ ‘जैसे बजली चमककर आकाशको सुनहरे रंगसे यु कर देती है, उसी कार रावणक छातीपर गरायी जाती ◌इ अजुनक गदा उसके व : लको सुवणक -सी भासे पूण कर देती थी॥ ५६ ॥



‘उसी



कार रावणके ारा भी अजुनक छातीपर बार ार गरायी जाती ◌इ गदा कसी महान् पवतपर गरनेवाली उ ाके समान का शत हो उठती थी॥ ५७ ॥ ‘उस समय न तो अजुन थकता था और न रा सगण का राजा रावण ही। पूवकालम पर र जूझनेवाले इ और ब लक भाँ त उन दोन का यु एक समान जान पड़ता था॥ ५८ ॥ ‘जैसे साँड़ अपने स ग से और हाथी अपने दाँत के अ भागसे पर र हार करते ह, उसी कार वे नरेश और नशाचरराज एक-दूसरेपर गदा से चोट करते थे॥ ५९ ॥ ‘इसी बीचम अजुनने कु पत होकर रावणके वशाल व : लपर दोन न के बीचम अपनी पूरी श से गदाका हार कया॥ ६० ॥ ‘परंतु रावण तो वरके भावसे सुर त था, अत: रावणक छातीपर वेगपूवक चोट करके भी वह गदा कसी दुबल गदाक भाँ त उसके व क ट रसे दो टूक होकर पृ ीपर गर पड़ी॥ ६१ ॥ ‘तथा प अजुनक चलायी ◌इ गदाके आघातसे पी ड़त हो रावण एक धनुष पीछे हट गया और आतनाद करता आ बैठ गया॥ ६२ ॥ ‘दश ीवको ाकु ल देख अजुनने सहसा उछलकर उसे पकड़ लया, मानो ग ड़ने झप ा मारकर कसी सपको धर दबाया हो॥ ६३ ॥ ‘जैसे पूवकालम भगवान् नारायणने ब लको बाँधा था, उसी तरह बलवान् राजा अजुनने दशाननको बलपूवक पकड़कर अपने हजार हाथ के ारा उसे मजबूत र से बाँध दया॥ ६४ ॥ ‘दश



ीवके बाँधे जानेपर स , चारण और देवता ‘शाबाश! शाबाश!’ कहते ए अजुनके सरपर फू ल क वषा करने लगे॥ ६५ ॥ ‘जैसे ा कसी हरणको दबोच लेता है अथवा सह हाथीको धर दबाता है, उसी कार रावणको अपने वशम करके हैहयराज अजुन हषा तरेकसे मेघके समान बार ार गजना करने लगा॥ ६६ ॥ ‘इसके बाद ह ने होश सँभाला। दशमुख रावणको बँधा आ देख वह रा स सहसा कु पत हो हैहयराजक ओर दौड़ा॥ ६७ ॥



‘जैसे



वषाकाल आनेपर समु म बादल का वेग बढ़ जाता है, उसी कार वहाँ आ मण करते ए उन नशाचर का वेग बढ़ा आ तीत होता था॥ ६८ ॥ ‘छोड़ो, छोड़ो, ठहरो, ठहरो’ ऐसा बार ार कहते ए रा स अजुनक ओर दौड़े। उस समय ह ने रणभू मम अजुनपर मूसल और शूलके हार कये॥ ६९ ॥ ‘परंतु अजुनको उस समय घबराहट नह ◌इ। उस श ुसूदन वीरने ह आ द देव ोही नशाचर के छोड़े ए उन अ को अपने शरीरतक आनेसे पहले ही पकड़ लया॥ ७० ॥ ‘ फर उ दुधर एवं े आयुध से उन सब रा स को घायल करके उसी तरह भगा दया, जैसे हवा बादल को छ - भ करके उड़ा ले जाती है॥ ७१ ॥ ‘उस समय कातवीय अजुनने सम रा स को भयभीत कर दया और रावणको लेकर वह अपने सु द के साथ नगरम आया॥ ७२ ॥ ‘नगरके नकट आनेपर ा ण और पुरवा सय ने अपने इ तु तेज ी नरेशपर फू ल और अ त क वषा क और सह ने धारी इ जैसे ब लको बंदी बनाकर ले गये थे, उसी कार उस राजा अजुनने बँधे ए रावणको साथ लेकर अपनी पुरीम वेश कया’॥ ७३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म ब ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३२ ॥ 1099-1193 Last coding done



ततीसवाँ सग पुल



जीका रावणको अजुनक कैदसे छु टकारा दलाना



रावणको पकड़ लेना वायुको पकड़नेके समान था। धीरे-धीरे यह बात गम देवता के मुखसे पुल जीने सुनी॥ १ ॥ य प वे मह ष महान् धैयशाली थे तो भी संतानके त होनेवाले ेहके कारण कृ पापरवश हो गये और मा ह ती नरेशसे मलनेके लये भूतलपर चले आये॥ २ ॥ उनका वेग वायुके समान था और ग त मनके समान, वे ष वायुपथका आ य ले मा ह तीपुरीम आ प ँ चे॥ ३ ॥ जैसे ाजी इ क अमरावतीपुरीम वेश करते ह, उसी कार पुल जीने -पु मनु से भरी ◌इ और अमरावतीके समान शोभासे स मा ह ती नगरीम वेश कया॥ ४ ॥



आकाशसे उतरते समय वे पैर से चलकर आते ए सूयके समान जान पड़ते थे। अ तेजके कारण उनक ओर देखना ब त ही क ठन जान पड़ता था। अजुनके सेवक ने उ पहचानकर राजा अजुनको उनके शुभागमनक सूचना दी॥ ५ ॥ सेवक के कहनेसे जब हैहयराजको यह पता चला क पुल जी पधारे ह, तब वे सरपर अ ल बाँधे उन तप ी मु नक अगवानीके लये आगे बढ़ आये॥ ६ ॥ राजा अजुनके पुरो हत अ और मधुपक आ द लेकर उनके आगे-आगे चले, मानो इ के आगे बृह त चल रहे ह ॥ ७ ॥ वहाँ आते ए वे मह ष उ दत होते ए सूयके समान तेज ी दखायी देते थे। उ देखकर राजा अजुन च कत रह गया। उसने उन षके चरण म उसी तरह आदरपूवक णाम कया, जैसे इ ाजीके आगे म क कु ाते ह॥ ८ ॥ षको पा , अ , मधुपक और गौ सम पत करके राजा धराज अजुनने हषग द वाणीम पुल जीसे कहा—॥ ९ ॥ ‘ जे ! आपका दशन परम दुलभ है, तथा प आज म आपके दशनका सुख उठा रहा ँ । इस कार यहाँ पधारकर आपने इस मा ह तीपुरीको अमरावतीपुरीके समान गौरवशा लनी



बना दया॥ १० ॥ ‘देव! आज म आपके देवव चरण क व ना कर रहा ँ ; अत: आज ही म वा वम सकु शल ँ । आज मेरा त न व पूण हो गया। आज ही मेरा ज सफल आ और तप ा भी साथक हो गयी। न्! यह रा , ये ी-पु और हम सब लोग आपके ही ह। आप आ ा दी जये। हम आपक ा सेवा कर?’॥ ११-१२ ॥ तब पुल जी हैहयराज अजुनके धम, अ और पु का कु शल-समाचार पूछकर उससे इस कार बोले—॥ १३ ॥ ‘पूण च माके समान मनोहर मुखवाले कमलनयन नरेश! तु ारे बलक कह तुलना नह है; क तुमने दश ीवको जीत लया॥ १४ ॥ ‘ जसके भयसे समु और वायु भी च लता छोड़कर सेवाम उप त होते ह, उस मेरे रणदुजय पौ को तुमने सं ामम बाँध लया॥ १५ ॥ ‘ऐसा करके तुम मेरे इस ब ेका यश पी गये और सव अपने नामका ढढोरा पीट दया। व ! अब मेरे कहनेसे तुम दशाननको छोड़ दो। यह तुमसे मेरी याचना है’॥ १६ ॥ पुल जीक इस आ ाको शरोधाय करके अजुनने इसके वपरीत को◌इ बात नह कही। उस राजा धराजने बड़ी स ताके साथ रा सराज रावणको ब नसे मु कर दया॥ १७ ॥ उस देव ोही रा सको ब नमु करके अजुनने द आभूषण, माला और व से उसका पूजन कया और अ को सा ी बनाकर उसके साथ ऐसी म ताका स ा पत कया, जसके ारा कसीक हसा न हो (अथात् उन दोन ने यह त ा क क हमलोग अपनी मै ीका उपयोग दूसरे ा णय क हसाम नह करगे)। इसके बाद पु पुल जीको णाम करके राजा अजुन अपने घरको लौट गया॥ १८ ॥ इस कार अजुन ारा आ त -स ार करके छोड़े गये तापी रा सराज रावणको पुल जीने दयसे लगा लया, परंतु वह पराजयके कारण ल त ही रहा॥ १९ ॥ दश ीवको छु ड़ाकर ाजीके पु मु नवर पुल जी पुन: लोकको चले गये॥ २० ॥



इस कार रावणको कातवीय अजुनके हाथसे परा जत होना पड़ा था और फर पुल जीके कहनेसे उस महाबली रा सको छु टकारा मला था॥ २१ ॥ रघुकुलन न! इस कार संसारम बलवान्-से-बलवान् वीर पड़े ए ह; अत: जो अपना क ाण चाहे उसे दूसरेक अवहेलना नह करनी चा हये॥ २२ ॥ सह बा क मै ी पाकर रा स का राजा रावण पुन: घमंडसे भरकर सारी पृ ीपर वचरने और नरेश का संहार करने लगा॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म ततीसवाँ सग पूरा आ॥ ३३॥



च तीसवाँ सग वालीके ारा रावणका पराभव तथा रावणका उ अपना म बनान◌ा



अजुनसे छु टकारा पाकर रा सराज रावण नवदर हत हो पुन: सारी पृ ीपर वचरण करने लगा॥ १ ॥ रा स हो या मनु , जसको भी वह बलम बढ़ा-चढ़ा सुनता था, उसीके पास प ँ चकर अ भमानी रावण उसे यु के लये ललकारता था॥ २ ॥ तदन र एक दन वह वाली ारा पा लत क ापुरीम जाकर सुवणमालाधारी वालीको यु के लये ललकारने लगा॥ ३ ॥ उस समय यु क इ ासे आये ए रावणसे वालीके म ी तार, ताराके पता सुषेण तथा युवराज अ द एवं सु ीवने कहा—॥ ४ ॥ ‘रा सराज! इस समय वाली तो बाहर गये ए ह। वे ही आपक जोड़के हो सकते ह। दूसरा कौन वानर आपके सामने ठहर सकता है॥ ५ ॥ ‘रावण! चार समु से स ोपासन करके वाली अब आते ही ह गे। आप दो घड़ी ठहर जाइये॥ ६ ॥ ‘राजन्! दे खये, ये जो श के समान उ ल ह य के ढेर लग रहे ह, ये वालीके साथ यु क इ ासे आये ए आप-जैसे वीर के ही ह। वानरराज वालीके तेजसे ही इन सबका अ आ है॥ ७ ॥ ‘रा स रावण! य द आपने अमृतका रस पी लया हो तो भी जब आप वालीसे ट र लगे, तब वही आपके जीवनका अ म ण होगा॥ ८ ॥ ‘ व वाकु मार! वाली स ूण आ यके भ ार ह। आप इस समय इनका दशन करगे। के वल इसी मु ततक उनक ती ाके लये ठह रये; फर तो आपके लये जीवन दुलभ हो जायगा॥ ९ ॥ ‘अथवा य द आपको मरनेके लये ब त ज ी लगी हो तो द ण समु के तटपर चले जाइये। वहाँ आपको पृ ीपर त ए अ देवके समान वालीका दशन होगा’॥ १० ॥



तब लोक को लानेवाले रावणने तारको भला-बुरा कहकर पु क वमानपर आ ढ़ हो द ण समु क ओर ान कया॥ ११ ॥ वहाँ रावणने सुवण ग रके समान ऊँ चे वालीको सं ोपासन करते ए देखा। उनका मुख भातकालके सूयक भाँ त अ ण भासे उ ा सत हो रहा था॥ १२ ॥ उ देखकर काजलके समान काला रावण पु कसे उतर पड़ा और वालीको पकड़नेके लये ज ी-ज ी उनक ओर बढ़ने लगा। उस समय वह अपने पैर क आहट नह होने देता था॥ १३ ॥ दैवयोगसे वालीने भी रावणको देख लया; कतु वे उसके पापपूण अ भ ायको जानकर भी घबराये नह ॥ १४ ॥ जैसे सह खरगोशको और ग ड़ सपको देखकर भी उसक परवा नह करता, उसी कार वालीने पापपूण वचार रखनेवाले रावणको देखकर भी च ा नह क ॥ १५ ॥ उ ने यह न य कर लया था क जब पापा ा रावण मुझे पकड़नेक इ ासे नकट आयेगा, तब म इसे काँखम दबाकर लटका लूँगा और इसे लये- दये शेष तीन महासागर पर भी हो आऊँ गा॥ १६ ॥ इसक जाँघ, हाथ-पैर और व खसकते ह गे। यह मेरी काँखम दबा होगा और उस दशाम लोग मेरे श ुको ग ड़के पंजेम दबे ए सपके समान लटकते देखगे॥ १७ ॥ ऐसा न य करके वाली मौन ही रहे और वै दक म का जप करते ए ग रराज सुमे क भाँ त खड़े रहे॥ १८ ॥ इस कार बलके अ भमानसे भरे ए वे वानरराज और रा सराज दोन एक-दूसरेको पकड़ना चाहते थे। दोन ही इसके लये य शील थे और दोन ही वह काम बनानेक घातम लगे थे॥ १९ ॥ रावणके पैर क हलक -सी आहटसे वाली यह समझ गये क अब रावण हाथ बढ़ाकर मुझे पकड़ना चाहता है। फर तो दूसरी ओर मुँह कये होनेपर भी वालीने उसे उसी तरह सहसा पकड़ लया, जैसे ग ड़ सपको दबोच लेता है॥ २० ॥ पकड़नेक इ ावाले उस रा सराजको वालीने यं ही पकड़कर अपनी काँखम लटका लया और बड़े वेगसे वे आकाशम उछले॥ २१ ॥



रावण अपने नख से बार ार वालीको बकोटता और पीड़ा देता रहा, तो भी जैसे वायु बादल को उड़ा ले जाती है, उसी कार वाली रावणको बगलम दबाये लये फरते थे॥ २२ ॥ इस कार रावणके हर लये जानेपर उसके म ी उसे वालीसे छु ड़ानेके लये कोलाहल करते ए उनके पीछे-पीछे दौड़ते रहे॥ २३ ॥ पीछे-पीछे रा स चलते थे और आगे-आगे वाली। इस अव ाम वे आकाशके म भागम प ँ चकर मेघसमूह से अनुगत ए आकाशवत अंशुमाली सूयके समान शोभा पाते थे॥ २४ ॥ वे े रा स ब त य करनेपर भी वालीके पासतक न प ँ च सके । उनक भुजा और जाँघ के वेगसे उ ◌इ वायुके थपेड़ से थककर वे खड़े हो गये॥ २५ ॥ वालीके मागसे उड़ते ए बड़े-बड़े पवत भी हट जाते थे; फर र -मांसमय शरीर धारण करनेवाला और जीवनक र ा चाहनेवाला ाणी उनके मागसे हट जाय, इसके लये तो कहना ही ा है॥ २६ ॥ जतनी देरम वाली समु तक प ँ चते थे, उतनी देरम ती गामी प य के समूह भी नह प ँ च पाते थे। उन महावेगशाली वानरराजने मश: सभी समु के तटपर प ँ चकर सं ा-व न कया॥ २७ ॥ समु क या ा करते ए आकाशचा रय म े वालीक सभी खेचर ाणी पूजा एवं शंसा करते थे। वे रावणको बगलम दबाये ए प म समु के तटपर आये॥ २८ ॥ वहाँ ान, सं ोपासन और जप करके वे वानरवीर दशाननको लये- दये उ र समु के तटपर जा प ँ चे॥ २९ ॥ वायु और मनके समान वेगवाले वे महावानर वाली क◌इ सह योजनतक रावणको ढोते रहे। फर अपने उस श ुके साथ ही वे उ र समु के कनारे गये॥ उ रसागरके तटपर सं ोपासना करके दशाननका भार वहन करते ए वाली पूव दशावत महासागरके कनारे गये॥ ३१ ॥ वहाँ भी सं ोपासना स करके वे इ पु वानरराज वाली दशमुख रावणको बगलम दबाये फर क ापुरीके नकट आये॥ ३२ ॥



इस तरह चार समु म सं ोपासनाका काय पूरा करके रावणको ढोनेके कारण थके ए वानरराज वाली क ाके उपवनम आ प ँ चे॥ ३३ ॥ वहाँ आकर उन क प े ने रावणको अपनी काँखसे छोड़ दया और बार ार हँ सते ए पूछा—‘कहो जी, तुम कहाँसे आये हो’॥ ३४ ॥ रावणक आँ ख मके कारण च ल हो रही थ । वालीके इस अ तु परा मको देखकर उसे महान् आ य आ और उस रा सराजने उन वानरराजसे इस कार कहा—॥ ३५ ॥ ‘महे के समान परा मी वानरे ! म रा से रावण ँ और यु करनेक इ ासे यहाँ आया था, सो वह यु तो आपसे मल ही गया॥ ३६ ॥ ‘अहो! आपम अ तु बल है, अ तु परा म है और आ यजनक ग ीरता है। आपने मुझे पशुक तरह पकड़कर चार समु पर घुमाया है॥ ३७ ॥ ‘वानरवीर! तु ारे सवा दूसरा कौन ऐसा शूरवीर होगा, जो मुझे इस कार बना थके माँदे शी तापूवक ढो सके ॥ ३८ ॥ ‘वानरराज! ऐसी ग त तो मन, वायु और ग ड़— इन तीन भूत क ही सुनी गयी है। न:संदेह इस जग चौथे आप भी ऐसे ती वेगवाले ह॥ ३९ ॥ ‘क प े ! मने आपका बल देख लया। अब म अ को सा ी बनाकर आपके साथ सदाके लये ेहपूण म ता कर लेना चाहता ँ ॥ ४० ॥ ‘वानरराज! ी, पु , नगर, रा , भोग, व और भोजन—इन सभी व ु पर हम दोन का साझेका अ धकार होगा’॥ ४१ ॥ तब वानरराज और रा सराज दोन ने अ लत करके एक-दूसरेको दयसे लगाकर आपसम भा◌इचारेका स जोड़ा॥ ४२ ॥ फर वे दोन वानर और रा स एक-दूसरेका हाथ पकड़े बड़ी स ताके साथ क ापुरीके भीतर गये, मानो दो सह कसी गुफाम वेश कर रहे ह ॥ ४३ ॥ रावण वहाँ सु ीवक तरह स ा नत हो महीनेभर रहा। फर तीन लोक को उखाड़ फ कनेक इ ा रखनेवाले उसके म ी आकर उसे लवा ले गये॥ ४४ ॥ भो! इस कार यह घटना पहले घ टत हो चुक है। वालीने रावणको हराया और फर अ के समीप उसे अपना भा◌इ बना लया॥ ४५ ॥



ीराम! वालीम ब त अ धक और अनुपम बल था, परंतु आपने उसको भी अपनी बाणा से उसी तरह द कर डाला, जैसे आग प तगेको जला देती है॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म च तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३४॥



पतीसवाँ सग हनुमा ीक उ , शैशवाव ाम इनका सूय, रा और ऐरावतपर आ मण, इ के व से इनक मू ा, वायुके कोपसे संसारके ा णय को क और उ स करनेके लये देवता स हत ाजीका उनके पास जान◌ा



तब भगवान् ीरामने हाथ जोड़कर द ण दशाम नवास करनेवाले अग मु नसे वनयपूवक यह अथयु बात कही—॥ १ ॥ ‘महष! इसम संदेह नह क वाली और रावणके इस बलक कह तुलना नह थी; परंतु मेरा ऐसा वचार है क इन दोन का बल भी हनुमा ीके बलक बराबरी नह कर सकता था॥ २ ॥ ‘शूरता,



द ता, बल, धैय, बु म ा, नी त, परा म और भाव—इन सभी स णु ने हनुमा ीके भीतर घर कर रखा है॥ ३ ॥ ‘समु को देखते ही वानर-सेना घबरा उठी है— यह देख ये महाबा वीर उसे धैय बँधाकर एक ही छलाँगम सौ योजन समु को लाँघ गये॥ ४ ॥ ‘ फर ल ापुरीके आ धदै वक पको परा कर रावणके अ :पुरम गये, सीताजीसे मले, उनसे बातचीत क और उ धैय बँधाया॥ ५ ॥ ‘वहाँ अशोकवनम इ ने अके ले ही रावणके सेनाप तय , म कु मार , ककर तथा रावणपु अ को मार गराया॥ ६ ॥ ‘ फर ये मेघनादके नागपाशसे बँधे और यं ही मु हो गये। त ात् इ ने रावणसे वातालाप कया। जैसे लयकालक आगने यह सारी पृ ी जलायी थी, उसी कार ल ापुरीको जलाकर भ कर दया॥ ७ ॥ ‘यु म हनुमा ीके जो परा म देखे गये ह, वैसे वीरतापूण कम न तो कालके , न इ के , न भगवान् व ुके और न व णके ही सुने जाते ह॥ ८ ॥ ‘मुनी र! मने तो इ के बा बलसे वभीषणके लये ल ा, श ु पर वजय, अयो ाका रा तथा सीता, ल ण, म और ब ुजन को ा कया है॥



‘य द मुझे वानरराज सु ीवके समथ हो सकता था?॥ १० ॥ ‘ जस



सखा हनुमान् न मलते तो जानक का पता लगानेम भी कौन



समय वाली और सु ीवम वरोध आ, उस समय सु ीवका य करनेके लये इ ने जैसे दावानल वृ को जला देता है, उसी कार वालीको नह भ कर डाला? यह समझम नह आता॥ ११ ॥ ‘म तो ऐसा मानता ँ क उस समय हनुमा ीको अपने बलका पता ही नह था। इसीसे ये अपने ाण से भी य वानरराज सु ीवको क उठाते देखते रहे॥ १२ ॥ ‘देवव महामुन!े भगवन्! आप हनुमा ीके वषयम ये सब बात यथाथ पसे व ारपूवक बताइये’॥ ीरामच जीके ये यु यु वचन सुनकर मह ष अग जी हनुमा ीके सामने ही उनसे इस कार बोले—॥ १४ ॥ ‘रघुकुल तलक ीराम! हनुमा ीके वषयम आप जो कु छ कहते ह, यह सब स ही है। बल, बु और ग तम इनक बराबरी करनेवाला दूसरा को◌इ नह है॥ १५ ॥ ‘श ुसूदन रघुन न! जनका शाप कभी थ नह जाता, ऐसे मु नय ने पूवकालम इ यह शाप दे दया था क बल रहनेपर भी इनको अपने पूरे बलका पता नह रहेगा॥ १६ ॥ ‘महाबली ीराम! इ ने बचपनम भी जो महान् कम कया था, उसका वणन नह कया जा सकता। उन दन वे बालभावसे—अनजानक तरह रहते थे॥ १७ ॥ ‘रघुन न! य द हनुमा ीका च र सुननेके लये आपक हा दक इ ा हो तो च को एका करके सु नये। म सारी बात बता रहा ँ ॥ १८ ॥ ‘भगवान् सूयके वरदानसे जसका प सुवणमय हो गया है, ऐसा एक सुमे नामसे स पवत है, जहाँ हनुमा ीके पता के सरी रा करते ह॥ १९ ॥ ‘उनक अ ना नामसे व ात यतमा प ी थ । उनके गभसे वायुदेवने एक उ म पु को ज दया॥ ‘अ नाने जब इनको ज दया, उस समय इनक अ का जाड़ेम पैदा होनेवाले धानके अ भागक भाँ त पगल वणक थी। एक दन माता अ ना फल लानेके लये आ मसे नकल और गहन वनम चली गय ॥ २१ ॥



‘उस



समय मातासे बछु ड़ जाने और भूखसे अ पी ड़त होनेके कारण शशु हनुमान् उसी तरह जोर-जोरसे रोने लगे, जैसे पूवकालम सरकं ड के वनके भीतर कु मार का तके य रोये थे॥ २२ ॥ ‘इतनेहीम इ जपाकु सुमके समान लाल रंगवाले सूयदेव उ दत होते दखायी दये। हनुमा ीने उ को◌इ फल समझा और ये उस फलके लोभसे सूयक ओर उछले॥ २३ ॥ ‘बालसूयक ओर मुँह कये मू तमान् बालसूयके समान बालक हनुमान् बालसूयको पकड़नेक इ ासे आकाशम उड़ते चले जा रहे थे॥ २४ ॥ ‘शैशवाव ाम हनुमा ी जब इस तरह उड़ रहे थे, उस समय उ देखकर देवता , दानव तथा य को बड़ा व य आ॥ २५ ॥ ‘वे सोचने लगे—‘यह वायुका पु जस कार ऊँ चे आकाशम वेगपूवक उड़ रहा है, ऐसा वेग न तो वायुम है, न ग ड़म है और न मनम ही है॥ २६ ॥ ‘य द बा ाव ाम ही इस शशुका ऐसा वेग और परा म है तो यौवनका बल पाकर इसका वेग कै सा होगा’॥ २७ ॥ ‘अपने पु को सूयक ओर जाते देख उसे दाहके भयसे बचानेके लये उस समय वायुदेव भी बफके ढेरक भाँ त शीतल होकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे॥ ‘इस कार बालक हनुमान् अपने और पताके बलसे क◌इ सह योजन आकाशको लाँघते चले गये और सूयदेवके समीप प ँ च गये॥ २९ ॥ ‘सूयदेवने यह सोचकर क अभी यह बालक है, इसे गुण-दोषका ान नह है और इसके अधीन देवता का भी ब त-सा भावी काय है—इ जलाया नह ॥ ३० ॥ ‘ जस दन हनुमा ी सूयदेवको पकड़नेके लये उछले थे, उसी दन रा सूयदेवपर हण लगाना चाहता था॥ ३१ ॥ ‘हनुमा ीने सूयके रथके ऊपरी भागम जब रा का श कया, तब च मा और सूयका मदन करनेवाला रा भयभीत हो वहाँसे भाग खड़ा आ॥ ३२ ॥ ‘ स हकाका वह पु रोषसे भरकर इ के भवनम गया और देवता से घरे ए इ के सामने भ ह टेढ़ी करके बोला—॥ ३३ ॥



‘बल



और वृ ासुरका वध करनेवाले वासव! आपने च मा और सूयको मुझे अपनी भूख दूर करनेके साधनके पम दया था; कतु अब आपने उ दूसरेके हवाले कर दया है। ऐसा आ?॥ ३४ ॥ ‘आज पव (अमावा ा)-के समय म सूयदेवको करनेक इ ासे गया था। इतनेहीम दूसरे रा ने आकर सहसा सूयको पकड़ लया’॥ ३५ ॥ ‘रा क यह बात सुनकर देवराज इ घबरा गये और सोनेक माला पहने अपना सहासन छोड़कर उठ खड़े ए॥ ३६ ॥ ‘ फर कै लास- शखरके समान उ ल, चार दाँत से वभू षत, मदक धारा बहानेवाले, भाँ त-भाँ तके ृ ारसे यु , ब त ही ऊँ चे और सुवणमयी घ ाके नाद प अ हास करनेवाले गजराज ऐरावतपर आ ढ़ हो देवराज इ रा को आगे करके उस ानपर गये, जहाँ हनुमा ीके साथ सूयदेव वराजमान थे॥ ३७-३८ ॥ ‘इधर रा इ को छोड़कर बड़े वेगसे आगे बढ़ गया। इसी समय पवत- शखरके समान आकारवाले दौड़ते ए रा को हनुमा ीने देखा॥ ३९ ॥ ‘तब रा को ही फलके पम देखकर बालक हनुमान् सूयदेवको छोड़ उस स हकापु को ही पकड़नेके लये पुन: आकाशम उछले॥ ४० ॥ ‘ ीराम! सूयको छोड़कर अपनी ओर धावा करनेवाले इन वानर हनुमा ो देखते ही रा जसका मुखमा ही शेष था, पीछेक ओर मुड़कर भागा॥ ४१ ॥ ‘उस समय स हकापु रा अपने र क इ से ही अपनी र ाके लये कहता आ भयके मारे बार ार ‘इ ! इ !’ क पुकार मचाने लगा॥ ४२ ॥ ‘चीखते ए रा के रको जो पहलेका पहचाना आ था, सुनकर इ बोले—‘डरो मत। म इस आ मणकारीको मार डालूँगा’॥ ४३ ॥ ‘त ात् ऐरावतको देखकर इ ने उसे भी एक वशाल फल समझा और उस गजराजको पकड़नेके लये ये उसक ओर दौड़े॥ ४४ ॥ ‘ऐरावतको पकड़नेक इ ासे दौड़ते ए हनुमा ीका प दो घड़ीके लये इ और अ के समान काशमान एवं भयंकर हो गया॥ ४५ ॥



‘बालक हनुमा



ो देखकर शचीप त इ को अ धक ोध नह आ। फर भी इस कार धावा करते ए इ बालक वानरपर उ ने अपने हाथसे छू टे ए व के ारा हार कया॥ ४६ ॥ ‘इ



के व क चोट खाकर ये एक पहाड़पर गरे। वहाँ गरते समय इनक बाय ठु ी टूट



गयी॥ ४७ ॥ ‘व के आघातसे ाकु ल होकर इनके गरते ही वायुदेव इ पर कु पत हो उठे । उनका यह ोध जाजन के लये अ हतकारक आ॥ ४८ ॥ ‘साम शाली मा तने सम जाके भीतर रहकर भी वहाँ अपनी ग त समेट ली— ास आ दके पम संचार रोक दया और अपने शशुपु हनुमा ो लेकर वे पवतक गुफाम घुस गये॥ ४९ ॥ ‘जैसे इ वषा रोक देते ह, उसी कार वे वायुदेव जाजन के मलाशय और मू ाशयको रोककर उ बड़ी पीड़ा देने लगे। उ ने स ूण भूत के ाण-संचारका अवरोध कर दया॥ ५० ॥



कोपसे सम ा णय क साँस बंद होने लगी। उनके सभी अ के जोड़ टूटने लगे और वे सब-के -सब काठके समान चे ाशू हो गये॥ ५१ ॥ ‘तीन लोक म न कह वेद का ा ाय होता था और न य । सारे धम-कम ब हो गये। भुवनके ाणी ऐसे क पाने लगे, मानो नरकम गर गये ह ॥ ५२ ॥ ‘तब ग व, देवता, असुर और मनु आ द सभी जा थत हो सुख पानेक इ ासे जाप त ाजीके पास दौड़ी गयी॥ ५३ ॥ ‘उस समय देवता के पेट इस तरह फू ल गये थे, मानो उ महोदरका रोग हो गया हो। उ ने हाथ जोड़कर कहा—‘भगवन्! ा मन्! आपने चार कारक जा क सृ क है। आपने हम सबको हमारी आयुके अ धप तके पम वायुदेवको अ पत कया है। साधु शरोमणे! ये पवनदेव हमारे ाण के ◌इ र ह तो भी ा कारण है क आज इ ने अ :पुरम य क भाँ त हमारे शरीरके भीतर अपने संचारको रोक दया है और इस कार ये हमारे लये दु:खजनक हो गये ह॥ ५४-५५½ ॥ ‘वायुसे पी ड़त होकर आज हमलोग आपक शरणम आये ह। दु:खहारी जापते! आप हमारे इस वायुरोधज नत दु:खको दूर क जये’॥ ५६½ ॥ ‘वायुके



जाजन क यह बात सुनकर उनके पालक और र क ाजीने कहा—‘इसम कु छ कारण है’ ऐसा कहकर वे जाजन से फर बोले—॥ ५७½ ॥ ‘ जाओ! जस कारणको लेकर वायुदेवताने ोध और अपनी ग तका अवरोध कया है, उसे बताता ँ , सुनो। वह कारण तु ारे सुनने यो और उ चत है॥ ‘आज देवराज इ ने रा क बात सुनकर वायुके पु को मार गराया है, इसी लये वे कु पत हो उठे ह॥ ‘वायुदेव यं शरीर धारण न करके सम शरीर म उनक र ा करते ए वचरते ह। वायुके बना यह शरीर सूखे काठके समान हो जाता है॥ ६०½ ॥ ‘वायु ही सबका ाण है। वायु ही सुख है और वायु ही यह स ूण जगत् है। वायुसे प र होकर जगत् कभी सुख नह पा सकता॥ ६१½ ॥ ‘वायु ही जग आयु है। इस समय वायुने संसारके ा णय को ाग दया है, इस लये वे सब-के -सब न ाण होकर काठ और दीवारके समान हो गये ह॥ ६२½ ॥ ‘अ द त-पु ो! अत: अब हम उस ानपर चलना चा हये, जहाँ हम सबको पीड़ा देनेवाले वायुदेव छपे बैठे ह। कह ऐसा न हो क उ स कये बना हम सबका वनाश हो जाय’॥ ६३ ॥ ‘तदन र देवता, ग व, नाग और गु क आ द जा को साथ ले जाप त ाजी उस ानपर गये, जहाँ वायुदेव इ ारा मारे गये अपने पु को लेकर बैठे ए थे॥ ६४ ॥ ‘त ात् चतुमुख ाजीने देवता , ग व , ऋ षय तथा य के साथ वहाँ प ँ चकर वायुदेवताक गोदम सोये ए उनके पु को देखा, जसक अ का सूय, अ और सुवणके समान का शत हो रही थी। उसक वैसी दशा देखकर ाजीको उसपर बड़ी दया आयी’॥ ६५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३५॥ ‘



छ ीसवाँ सग ा आ द देवता का हनुमा ीको जी वत करके नाना कारके वरदान देना और वायुका उ लेकर अ नाके घर जाना, ऋ षय के शापसे हनुमा ीको अपने बलक व ृ त, ीरामका अग आ द ऋ षय से अपने य म पधारनेके लये ाव करके उ वदा देन◌ा ‘पु



के मारे जानेसे वायुदेवता ब त दु:खी थे। ाजीको देखकर वे उस शशुको लये ए ही उनके आगे खड़े हो गये॥ १ ॥ ‘उनके कान म कु ल हल रहे थे, माथेपर मुकुट और क म हार शोभा दे रहे थे और वे सोनेके आभूषण से वभू षत थे। वायुदेवता तीन बार उप ान करके ाजीके चरण म गर पड़े॥ २ ॥ ‘वेदवे ा ाजीने अपने ल े, फै ले ए और आभरणभू षत हाथसे वायुदेवताको उठाकर खड़ा कया तथा उनके उस शशुपर भी हाथ फे रा॥ ३ ॥ ‘जैसे पानीसे स च देनेपर सूखती ◌इ खेती हरी हो जाती है, उसी कार कमलयो न ाजीके हाथका लीलापूवक श पाते ही शशु हनुमान् पुन: जी वत हो गये॥ ४ ॥ ‘हनुमा ो जी वत आ देख जग े ाण- प ग वाहन वायुदेव सम ा णय के भीतर अव ए ाण आ दका पूववत् स तापूवक संचार करने लगे॥ ५ ॥ वायुके अवरोधसे छू टकर सारी जा स हो गयी। ठीक उसी तरह, जैसे हमयु वायुके आघातसे मु होकर खले ए कमल से यु पु र णयाँ सुशो भत होने लगती ह॥ ६॥ तदन र तीन यु से१ स , धानत: तीन मू त२ धारण करनेवाले, लोक पी गृहम रहनेवाले तथा तीन दशा से३ यु देवता ारा पू जत ाजी वायुदेवताका य करनेक इ ासे देवगण से बोले—॥ ७ ॥ ‘इ , अ , व ण, महादेव और कु बेर आ द देवताओ! य प आप सब लोग जानते ह तथा प म आपलोग के हतक सारी बात बताऊँ गा, सु नये॥ ८ ॥



‘इस



बालकके ारा भ व म आपलोग के ब त-से काय स ह गे, अत: वायुदेवताक स ताके लये आप सब लोग इसे वर द’॥ ९ ॥ तब सु र मुखवाले सह ने धारी इ ने शशु हनुमा े गलेम बड़ी स ताके साथ कमल क माला पहना दी और यह बात कही—॥ १० ॥ ‘मेरे हाथसे छू टे ए व के ारा इस बालकक हनु (ठु ी) टूट गयी थी; इस लये इस क प े का नाम ‘हनुमान्’ होगा॥ ११ ॥ ‘इसके सवा म इसे दूसरा अ तु वर यह देता ँ क आजसे यह मेरे व के ारा भी नह मारा जा सके गा’॥ १२ ॥ इसके बाद वहाँ अ कारनाशक भगवान् सूयने कहा—‘म इसे अपने तेजका सौवाँ भाग देता ँ ॥ १३ ॥ १. तीन यु का ता य यहाँ छ: कारके ऐ यसे है। ऐ य, धम, यश, ी, ान और वैरा —ये ही छ: कारके ऐ य ह। २. ा, व ु और शव—ये ही तीन मू तयाँ ह। ३. बा , पौग तथा कै शोर—ये ही देवता क तीन अव ाएँ ह। ‘इसके सवा जब इसम शा ा यन करनेक श आ जायगी, तब म ही इसे शा का ान दान क ँ गा, जससे यह अ ा व ा होगा। शा ानम को◌इ भी इसक समानता करनेवाला न होगा’॥ १४ ॥ त ात् व णने वर देते ए कहा—‘दस लाख वष क आयु हो जानेपर भी मेरे पाश और जलसे इस बालकक मृ ु नह होगी’॥ १५ ॥ फर यमने वर दया—‘यह मेरे द से अव और नीरोग होगा।’ तदन र पगलवणक एक आँ खवाले कु बेरने कहा—‘म संतु होकर यह वर देता ँ क यु म कभी इसे वषाद न होगा तथा मेरी यह गदा सं ामम इसका वध न कर सके गी’॥ १६-१७ ॥ इसके बाद भगवान् श रने यह उ म वर दया क ‘यह मेरे और मेरे आयुध के ारा भी अव होगा’॥ श य म े परम बु मान् व कमाने बालसूयके समान अ ण का वाले उस शशुको देखकर उसे इस कार वर दया—॥ १९ ॥



‘मेरे



बनाये ए जतने द अ -श ह, उनसे अव होकर यह बालक चर ीवी होगा’॥ २० ॥ अ म ाजीने उस बालकको ल करके कहा—‘यह दीघायु, महा ा तथा सब कारके द से अव होगा’॥ २१ ॥ त ात् हनुमा ीको इस कार देवता के वर से अलंकृत देख चार मुख वाले जग ु ाजीका मन स हो गया और वे वायुदेवसे बोले—॥ २२ ॥ ‘मा त! तु ारा यह पु मा त श ु के लये भयंकर और म के लये अभयदाता होगा। यु म को◌इ भी इसे जीत न सके गा॥ २३ ॥ ‘यह इ ानुसार प धारण कर सके गा, जहाँ चाहेगा जा सके गा। इसक ग त इसक इ ाके अनुसार ती या म होगी तथा वह कह भी क नह सके गी। यह क प े बड़ा यश ी होगा॥ २४ ॥ ‘यह यु लम रावणका संहार और भगवान् ीरामच जीक स ताका स ादन करनेवाले अनेक अ तु एवं रोमा कारी कम करेगा’॥ २५ ॥ इस कार हनुमा ीको वर देकर वायुदेवताक अनुम त ले ा आ द सब देवता जैसे आये थे, उसी तरह अपने-अपने ानको चले गये॥ २६ ॥ ग वाहन वायु भी पु को लेकर अ नाके घर आये और उसे देवता के दये ए वरदानक बात बताकर चले गये॥ २७ ॥ ीराम! इस कार ये हनुमा ी ब त-से वर पाकर वरदानज नत श से स हो गये और अपने भीतर व मान अनुपम वेगसे पूण हो भरे ए महासागरके समान शोभा पाने लगे॥ २८ ॥ उन दन वेगसे भरे ए ये वानर शरोम ण हनुमान् नभय हो मह षय के आ म म जाजाकर उप व कया करते थे॥ २९ ॥ ये शा च महा ा के य ोपयोगी पा फोड़ डालते, अ हो के साधनभूत ुक्, ुवा आ दको तोड़ डालते और ढेर-के -ढेर रखे गये व ल को चीर-फाड़ देते थे॥ ३० ॥ ‘महाबली पवनकु मार इस तरहके उप वपूण काय करने लगे। क ाणकारी भगवान् ाने इ सब कारके द से अव कर दया है—यह बात सभी ऋ ष जानते थे; अत:



इनक श से ववश हो वे इनके सारे अपराध चुपचाप सह लेते थे॥ ३१½ ॥ य प के सरी तथा वायुदेवताने भी इन अ नी-कु मारको बार ार मना कया तो भी ये वानरवीर मयादाका उ न कर ही देते थे॥ ३२½ ॥ इससे भृगु और अ राके वंशम उ ए मह ष कु पत हो उठे । रघु े ! उ ने अपने दयम अ धक खेद पा दु:खको ान न देकर इ शाप देते ए कहा—॥ ३३½ ॥ ‘वानरवीर! तुम जस बलका आ य लेकर हम सता रहे हो, उसे हमारे शापसे मो हत होकर तुम दीघकालतक भूले रहोगे—तु अपने बलका पता ही नह चलेगा। जब को◌इ तु तु ारी क तका रण दला देगा, तभी तु ारा बल बढ़ेगा’॥ ३४-३५ ॥ इस कार मह षय के इस वचनके भावसे इनका तेज और ओज घट गया। फर ये उ आ म म मृदलु कृ तके होकर वचरने लगे॥ ३६ ॥ वाली और सु ीवके पताका नाम ऋ रजा था। वे सूयके समान तेज ी तथा सम वानर के राजा थे॥ ३७ ॥ वे वानरराज ऋ रजा चरकालतक वानर के रा का शासन करके अ म कालधम (मृ ु)-को ा ए॥ ३८ ॥ उनका देहावसान हो जानेपर म वे ा म य ने पताके ानपर वालीको राजा और वालीके ानपर सु ीवको युवराज बनाया॥ ३९ ॥ जैसे अ के साथ वायुक ाभा वक म ता है, उसी कार सु ीवके साथ वालीका बचपनसे ही स भाव था। उन दोन म पर र कसी कारका भेदभाव नह था। उनम अटूट ेम था॥ ४० ॥ ीराम! फर जब वाली और सु ीवम वैर उठ खड़ा आ, उस समय ये हनुमा ी शापवश ही अपने बलको न जान सके । देव! वालीके भयसे भटकते रहनेपर भी न तो इन सु ीवको इनके बलका रण आ और न यं ये पवनकु मार ही अपने बलका पता पा सके ॥ ४१-४२ ॥ सु ीवके ऊपर जब वह वप आयी थी, उन दन ऋ षय के शापके कारण इनको अपने बलका ान भूल गया था, इसी लये जैसे को◌इ सह हाथीके ारा अव होकर चुपचाप खड़ा रहे, उसी कार ये वाली और सु ीवके यु म चुपचाप खड़े-खड़े तमाशा देखते रहे, कु छ कर न सके ॥ ४३ ॥



संसारम ऐसा कौन है जो परा म, उ ाह, बु , ताप, सुशीलता, मधुरता, नी तअनी तके ववेक, ग ीरता, चतुरता, उ म बल और धैयम हनुमा ीसे बढ़कर हो॥ ४४ ॥ ये असीम श शाली क प े हनुमान् ाकरणका अ यन करनेके लये श ाएँ पूछनेक इ ासे सूयक ओर मुँह रखकर महान् धारण कये उनके आगे-आगे उदयाचलसे अ ाचलतक जाते थे॥ ४५ ॥ इ ने सू , वृ , वा तक, महाभा और सं ह— इन सबका अ ी तरह अ यन कया है। अ ा शा के ान तथा छ :शा के अ यनम भी इनक समानता करनेवाला दूसरा को◌इ व ान् नह है॥ ४६ ॥ स ूण व ा के ान तथा तप ाके अनु ानम ये देवगु बृह तक बराबरी करते ह। नव ाकरण के स ा को जाननेवाले ये हनुमा ी आपक कृ पासे सा ात् ाके समान आदरणीय ह गे॥ ४७ ॥ लयकालम भूतलको आ ा वत करनेके लये भू मके भीतर वेश करनेक इ ावाले महासागर, स ूण लोक को द कर डालनेके लये उ त ए संवतक अ तथा लोकसंहारके लये उठे ए कालके समान भावशाली इन हनुमा ीके सामने कौन ठहर सके गा॥ ४८ ॥ ीराम! वा वम ये तथा इ के समान दूसरे-दूसरे जो सु ीव, मै , वद, नील, तार, तारेय (अ द), नल तथा र आ द महाकपी र ह; इन सबक सृ देवता ने आपक सहायताके लये ही क है॥ ४९ ॥ ीराम! गज, गवा , गवय, सुदं , मै , भ, ो तमुख और नल—इन सब वानरे र तथा रीछ क सृ देवता ने आपके सहयोगके लये ही क है॥ ५० ॥ रघुन न! आपने मुझसे जो कु छ पूछा था, वह सब मने कह सुनाया। हनुमा ीक बा ाव ाके इस च र का भी वणन कर दया॥ ५१ ॥ अग जीका यह कथन सुनकर ीराम और ल ण बड़े व त ए। वानर और रा स को भी बड़ा आ य आ॥ ५२ ॥ त ात् अग जीने ीरामच जीसे कहा— ‘यो गय के दयम रमण करनेवाले ीराम! आप यह सारा स सुन चुके। हमलोग ने आपका दशन और आपके साथ वातालाप कर लया। इस लये अब हम जा रहे ह’॥ ५३ ॥



उ तेज ी अग जीक यह बात सुनकर ीरघुनाथजीने हाथ जोड़ वनयपूवक उन मह षसे इस कार कहा—॥ ५४ ॥ ‘मुनी र! आज मुझपर देवता, पतर और पतामह आ द वशेष पसे संतु ह। ब -ु बा व स हत हमलोग को तो आप-जैसे महा ा के दशनसे ही सदा संतोष है॥ ५५ ॥ ‘मेरे मनम एक इ ाका उदय आ है, अत: म यह सू चत करनेयो बात आपक सेवाम नवेदन कर रहा ँ । मुझपर अनु ह करके आपलोग को मेरे उस अभी कायको पूरा करना होगा॥ ५६ ॥ ‘मेरी इ ा है क पुरवासी और देशवा सय को अपने-अपने काय म लगाकर म आप स ु ष के भावसे य का अनु ान क ँ ॥ ५७ ॥ ‘मेरे उन य म आप महान् श शाली महा ा मुझपर अनु ह करनेके लये न सद बने रह॥ ५८ ॥ ‘आप तप ासे न ाप हो चुके ह। म आपलोग का आ य लेकर सदा संतु एवं पतर से अनुगृहीत होऊँ गा॥ ५९ ॥ ‘य -आर के समय सब लोग एक होकर नर र यहाँ आते रह।’ ीरामच जीका यह वचन सुनकर कठोर तका पालन करनेवाले अग आ द मह ष उनसे ‘एवम ु (ऐसा ही होगा)’ कहकर वहाँसे जानेको उ त ए॥ ६०½ ॥ इस कार बातचीत करके सब ऋ ष जैसे आये थे, वैसे चले गये। इधर ीरामच जी व त होकर उ बात पर वचार करते रहे॥ ६१½ ॥ तदन र सूया होनेपर राजा और वानर को वदा करके नरेश म े ीरामच जीने व धपूवक सं ोपासना क और रात होनेपर वे अ :पुरम पधारे॥ ६२-६३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छ ीसवाँ सग पूरा आ॥ ३६॥



सतीसवाँ सग ीरामका सभासद के साथ राजसभाम बैठन◌ा



ककु कु लभूषण आ ानी ीरामच जीका धमपूवक रा ा भषेक हो जानेपर पुरवा सय का हष बढ़ानेवाली उनक पहली रा तीत ◌इ ॥ १ ॥ वह रात बीतनेपर जब सबेरा आ, तब ात:काल महाराज ीरामको जगानेवाले सौ व ीजन राजमहलम उप त ए॥ २ ॥ उनके क बड़े मधुर थे। वे संगीतक कलाम क र के समान सु श त थे। उ ने बड़े हषम भरकर यथावत्- पसे वीर नरेश ीरघुनाथजीका वन आर कया॥ ३ ॥ ‘ ीकौस ाजीका आन बढ़ानेवाले सौ - प वीर ीरघुवीर! आप जा गये। महाराज! आपके सोये रहनेपर तो सारा जगत् ही सोया रहेगा ( ा मु तम उठकर धमानु ानम नह लग सके गा)॥ ४ ॥ ‘आपका परा म भगवान् व ुके समान तथा प अ नीकु मार के समान है। बु म आप बृह तके तु ह और जापालनम सा ात् जाप तके स श ह॥ ‘आपक मा पृ ीके समान और तेज भगवान् भा रके समान है। वेग वायुके तु और ग ीरता समु के स श है॥ ६ ॥ ‘नरे र! आप भगवान् श रके समान यु म अ वचल ह। आपक -सी सौ ता च माम ही पायी जाती है। आपके समान राजा न पहले थे और न भ व म ह गे॥ ७ ॥ ‘पु षो म! आपको परा करना क ठन ही नह , अस व है। आप सदा धमम संल रहते ए जाके हत-साधनम त र रहते ह, अत: क त और ल ी आपको कभी नह छोड़ती ह॥ ८ ॥ ‘ककु कु लन न! ऐ य और धम आपम न त ष्ठत ह।’ व ीजन ने ये तथा और भी ब त-सी सुमधुर ु तयाँ सुनाय ॥ ९ ॥ सूत भी द ु तय ारा ीरघुनाथजीको जगाते रहे। इस कार सुनायी जाती ◌इ ु तय के ारा भगवान् ीराम जागे॥ १० ॥



जैसे पापहारी भगवान् नारायण सपश ासे उठते ह, उसी कार वे भी ेत बछौन से ढक ◌इ श ाको छोड़कर उठ बैठे॥ ११ ॥ महाराजके श ासे उठते ही सह सेवक वनयपूवक हाथ जोड़ उ ल पा म जल लये उनक सेवाम उप त ए॥ १२ ॥ ान आ द करके शु हो उ ने समयपर अ म आ त दी और शी ही इ ाकु वं शय ारा से वत प व देवम रम वे पधारे॥ १३ ॥ वहाँ देवता , पतर और ा ण का व धवत् पूजन करके वे अनेक कमचा रय के साथ बाहरक ोढ़ीम आये॥ १४ ॥ इसी समय लत अ के समान तेज ी व स आ द सभी महा ा म ी और पुरो हत वहाँ उप त ए॥ १५ ॥ त ात् अनेकानेक जनपद के ामी महामन ी य ीरामच जीके पास उसी तरह आकर बैठे, जैसे इ के समीप देवतालोग आकर बैठा करते ह॥ १६ ॥ महायश ी भरत, ल ण और श ु —ये तीन भा◌इ बड़े हषके साथ उसी तरह भगवान् ीरामक सेवाम उप त रहते थे, जैसे तीन वेद य क ॥ १७ ॥ इसी समय मु दत नामसे स ब त-से सेवक भी, जनके मुखपर स ता खेलती रहती थी, हाथ जोड़े सभाभवनम आये और ीरघुनाथजीके पास बैठ गये॥ १८ ॥ फर महापरा मी महातेज ी तथा इ ानुसार प धारण करनेवाले सु ीव आ द बीस* वानर भगवान् ीरामके समीप आकर बैठे॥ १९ ॥ अपने चार रा स म य से घरे ए वभीषण भी उसी कार महा ा ीरामक सेवाम उप त ए, जैसे गु कगण धनप त कु बेरक सेवाम उप त होते ह॥ २० ॥ जो लोग शा ानम बढ़े-चढ़े और कु लीन थे, वे चतुर मनु भी महाराजको म क कु ाकर णाम करके वहाँ बैठ गये॥ २१ ॥ इस कार ब त-से े एवं तेज ी मह ष, महापरा मी राजा, वानर और रा स से घरे राजसभाम बैठे ए ीरघुनाथजी बड़ी शोभा पा रहे थे॥ २२ ॥ जैसे देवराज इ सदा ऋ षय से से वत होते ह, उसी तरह मह ष-म लीसे घरे ए ीरामच जी उस समय सह लोचन इ से भी अ धक शोभा पा रहे थे॥ २३ ॥



जब सब लोग यथा ान बैठ गये, तब पुराणवे ा महा ा लोग भ - भ धम-कथाएँ कहने लगे*॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सतीसवाँ सग पूरा आ॥ ३७॥ सु ीव, अ द, हनुमान्, जा वान्, सुषेण, तार, नील, नल, मै , वद, कु मुद, शरभ, शतब ल, ग मादन, गज, गवा , गवय, धू , र तथा ो तमुख—ये धान- धान वानर-वीर बीसक सं ाम उप त थे। * इस सगके बाद कु छ तय म पसे पाँच सग और उपल होते ह, जनम वाली और सु ीवक उ का तथा रावणके ेत ीपम गमनका इ तहास व णत है। इस इ तहासके व ा भी अग जी ही ह। परंतु इसके पहले सगम ही अग जीके वदा होनेका वणन आ गया है; अत: यहाँ इन सग का उ ेख अस त तीत होता है। इसी लये ये सग यहाँ नह लये गये ह। *



अड़तीसवाँ सग ीरामके ारा राजा जनक, युधा जत्, तदन तथा अ



नरेश क वदा◌इ



महाबा ीरघुनाथजी इसी कार त दन राजसभाम बैठकर पुरवा सय और जनपदवा सय के सारे काय क देखभाल करते ए शासनका काय चलाते थे॥ १ ॥ तदन र कु छ दन बीतनेपर ीरामच जीने म थलानरेश वदेहराज जनकजीसे हाथ जोड़कर यह बात कही—॥ २ ॥ ‘महाराज! आप ही हमारे सु र आ य ह। आपने सदा हमलोग का लालन-पालन कया है। आपके ही बढ़े ए तेजसे मने रावणका वध कया है॥ ३ ॥ ‘राजन्! सम इ ाकु वंशी और मै थल नरेश म आपसके स के कारण सब कारसे जो ेम बढ़ा है, उसक कह तुलना नह है॥ ४ ॥ ‘पृ ीनाथ! अब आप हमारे ारा भट कये गये ये र लेकर अपनी राजधानीको पधार। भरत (तथा उनके साथ-साथ श ु भी) आपक सहायताके लये आपके पीछे-पीछे जायँगे’॥ ५॥ तब जनकजी ‘ब त अ ा’ कहकर ीरामच जीसे बोले—‘राजन्! म आपके दशन तथा ायानुसार वहारसे ब त स ँ ॥ ६ ॥ ‘आपने मेरे लये जो र एक कये ह, वह सब म अपनी सीता आ द पु य को देता ँ ’॥ ७ ॥ ीरामच जीसे ऐसा कहकर ीमान् राजा जनक स - च हो ीरामक अनुम त ले म थलापुरीको चल दये॥ ८ ॥ जनकजीके चले जानेके प ात् ीरघुनाथजीने हाथ जोड़कर अपने मामा के कय-नरेश युधा ज ,े जो बड़े साम शाली थे, वनयपूवक कहा—॥ ९ ॥ ‘राजन्! पु ष वर! यह रा , म, भरत, ल ण और श ु —सब आपके अधीन ह। आप ही हमारे आ य ह॥ १० ॥ ‘महाराज के कयराज वृ ह। वे आपके लये ब त च त ह गे। इस लये पृ ीनाथ! आपका आज ही जाना मुझे अ ा जान पड़ता है॥ ११ ॥



‘आप



ब त-सा धन तथा नाना कारके र लेकर पधार। मागम सहायताके लये ल ण आपके साथ जायँग’े ॥ १२ ॥ तब युधा ज े ‘तथा ु’ कहकर ीरामच जीक बात मान ली और कहा—‘रघुन न! ये र और धन सब तु ारे ही पास अ य पसे रह’॥ १३ ॥ फर पहले ीरघुनाथजीने णामपूवक अपने मामाक प र मा क , इसके बाद के कयकु लक वृ करनेवाले राजकु मार युधा ज े भी राजा ीरामक द णा क ॥ १४ ॥ इसके बाद के कयराजने ल णजीके साथ उसी तरह अपने देशको ान कया, जैसे वृ ासुरके मारे जानेपर इ ने भगवान् व ुके साथ अमरावतीक या ा क थी॥ १५ ॥ मामाको वदा करके रघुनाथजीने कसीसे भी भय न माननेवाले अपने म का शराज तदनको दयसे लगाकर कहा—॥ १६ ॥ ‘राजन्! आपने रा ा भषेकके कायम भरतके साथ पूरा उ ोग कया है और ऐसा करके अपने महान् ेम तथा परम सौहादका प रचय दया है॥ १७ ॥ ‘का शराज! अब आप सु र परकोट तथा मनोहर फाटक से सुशो भत और अपने ही ारा सुर त रमणीय पुरी वाराणसीको पधा रये’॥ १८ ॥ ऐसा कहकर धमा ा ीरामने पुन: अपने उ म आसनसे उठकर तदनको छातीसे लगा उनका गाढ़ आ ल न कया॥ १९ ॥ इस कार कौस ाका आन बढ़ानेवाले ीरामने उस समय का शराजको वदा कया। ीरघुनाथजीक अनुम त पाकर उनसे वदा ले नभय का शराज त ाल वाराणसीपुरीक ओर चल दये॥ २०½ ॥ का शराजको वदा करके ीरघुनाथजी हँ सते ए अ तीन सौ भूपाल से मधुर वाणीम बोले—॥ २१½ ॥ ‘मेरे ऊपर आपलोग का अ वचल ेम है, जसक र ा आपने अपने ही तेजसे क है। आपलोग म स और धम नयत पसे न - नर र नवास करते ह॥ २२½ ॥ ‘आप महापु ष के भाव और तेजसे ही मेरे ारा दुबु दुरा ा रा साधम रावण मारा गया है॥ २३½ ॥



‘म



तो उसके वधम न म मा बना ँ । वा वम तो आपलोग के तेजसे ही पु , म ी, ब ु-बा व तथा सेवकगण के स हत रावण यु म मारा गया है॥ २४½ ॥ ‘वनसे जनकराजन नी सीताके अपहरणका समाचार सुनकर महा ा भरतने आपलोग को यहाँ बुलाया था॥ २५½ ॥ ‘आप सभी महामना भूपाल रा स पर आ मण करनेके लये उ ोगशील थे। तबसे आजतक यहाँ आपलोग का ब त समय तीत हो गया है। अत: अब मुझे आपलोग का अपने नगरको लौट जाना ही उ चत जान पड़ता है’॥ २६½ ॥ इसपर राजा ने अ हषसे भरकर कहा— ‘ ीराम! आप वजयी ए और अपने रा पर भी त ष्ठत हो गये, यह बड़े सौभा क बात है॥ २७½ ॥ ‘हमारे सौभा से ही आप सीताको लौटा लाये और उस बल श ुको परा कर दया। ीराम! यही हमारा सबसे बड़ा मनोरथ है और यही हमारे लये सबसे बढ़कर स ताक बात है क आज हमलोग आपको वजयी देख रहे ह तथा आपक श -ु म ली मारी जा चुक है॥ २८-२९ ॥ ‘ शंसनीय ीराम! आप जो हमलोग क शंसा कर रहे ह, यह आपहीके यो है। हम ऐसी शंसा करनेक कला नह जानते ह॥ ३० ॥ ‘अब हम आ ा चाहते ह। अपनी पुरीको जायँगे। जस कार आप सदा हमारे दयम वराजमान रहते ह, उसी कार हे महाबाहो! जसम हमलोग आपके त ेमसे यु रहकर आपके दयम बसे रह, ऐसी ी त आपक हमपर सदा बनी रहनी चा हये।’ तब ीरघुनाथजीने हषसे भरे ए उन राजा से कहा—‘अव ऐसा ही होगा’॥ ३१-३२ ॥ त ात् जानेके लये उ ुक हो सबने हाथ जोड़कर ीरघुनाथजीसे कहा—‘भगवन्! अब हम जा रहे ह।’ इस तरह ीरामसे स ा नत हो वे सब राजा अपने-अपने देशको चले गये॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अड़तीसवाँ सग पूरा आ॥ ३८॥



उनतालीसवाँ सग राजा



का ीरामके लये भट देना और ीरामका वह सब लेकर अपने म , वानर , रीछ और रा स को बाँट देना तथा वानर आ दका वहाँ सुखपूवक रहन◌ा



अयो ासे त हो वे महामना भूपाल सह हाथी, घोड़े तथा पैदल-समूह से पृ ीको क त करते ए-से हषपूवक आगे बढ़ने लगे॥ १ ॥ भरतक आ ासे ीरामच जीक सहायताके लये वहाँ क◌इ अ ौ हणी सेनाएँ यु के लये उ त होकर आयी थ । उन सबके सै नक और वाहन हष एवं उ ाहसे भरे ए थे॥ २ ॥ वे सभी भूपाल बलके घमंडम भरकर आपसम इस तरहक बात करने लगे—‘हमलोग ने यु म ीराम और रावणको आमने-सामने खड़ा नह देखा॥ ३ ॥ ‘भरतने (पहले तो सूचना नह दी) पीछे यु समा हो जानेपर हम थ ही बुला लया। य द सब राजा गये होते तो उनके ारा सम रा स का संहार ब त ज ी हो गया होता, इसम संशय नह है॥ ४ ॥ ‘ ीराम और ल णके बा बलसे सुर त एवं न हो हमलोग समु के उस पार सुखपूवक यु कर सकते थे’॥ ५ ॥ ये तथा और भी ब त-सी बात कहते ए वे सह नरेश बड़े हषके साथ अपने-अपने रा को गये॥ उनके अपने-अपने स रा समृ शाली, सुख और आन से प रपूण, धन-धा से स तथा र आ दसे भरे-पूरे थे। उन रा तथा नगर म जाकर उन नरेश ने ीरामच जीका य करनेक इ ासे नाना कारके र और उपहार भेजे। घोड़े, सवा रयाँ, र , मतवाले हाथी, उ म च न, द आभूषण, म ण, मोती, मूँगे, पवती दा सयाँ, नाना कारक बक रयाँ और भेड़ तथा तरह-तरहके ब त-से रथ भट कये॥ ७—१० ॥ महाबली भरत, ल ण और श ु उन र को लेकर पुन: अपनी पुरीम लौट आये। रमणीय पुरी अयो ाम आकर उन तीन पु ष वर ब ु ने ये व च र ीरामको सम पत कर दये॥ ११-१२ ॥



उन सबको हण करके महा ा ीरामने बड़ी स ताके साथ उपकारी वानरराज सु ीव और वभीषणको तथा अ रा स और वानर को भी बाँट दया; क उ से घरे रहकर भगवान् ीरामने यु म वजय ा क थी॥ १३-१४ ॥ उन सभी महाबली वानर और रा स ने ीरामच जीके दये ए वे र अपने म क और भुजा म धारण कर लये॥ १५ ॥ त ात् इ ाकु नरेश महापरा मी महारथी कमलनयन ीरामने महाबा हनुमान् और अ दको गोदम बैठाकर सु ीवसे इस कार कहा—‘सु ीव! अ द तु ारे सुपु ह और पवनकु मार हनुमान् म ी। वानरराज! ये दोन मेरे लये म ीका भी काम देते थे और सदा मेरे हत-साधनम लगे रहते थे। इस लये और वशेषत: तु ारे नाते ये मेरी ओरसे व वध आदरस ार एवं भट पानेके यो ह’॥ १६—१८ ॥ ऐसा कहकर महायश ी ीरामने अपने शरीरसे ब मू आभूषण उतारकर उ अ द तथा हनुमा े अ म बाँध दया॥ १९ ॥ इसके बाद ीरघुनाथजीने महापरा मी वानरयूथ प तय —नील, नल, के सरी, कु मुद, ग मादन, सुषेण, पनस, वीर मै , वद, जा वान्, गवा , वनत, धू , बलीमुख, ज , महाबली संनाद, दरीमुख, द धमुख और यूथप इ जानुको बुलाकर उनक ओर दोन ने से इस कार देखा, मानो वे उ ने पुट ारा पी रहे ह । उ ने ेहयु मधुर वाणीम उनसे कहा —‘वानरवीरो! आपलोग मेरे सु द,् शरीर और भा◌इ ह। आपने ही मुझे संकटसे उबारा है। आप-जैसे े सु द को पाकर राजा सु ीव ध ह’॥ २०—२४ ॥ ऐसा कहकर नर े ीरघुनाथजीने उ यथायो आभूषण और ब मू हीरे दये तथा उनका आ ल न कया॥ २५ ॥ मधुके समान प ल वणवाले वे वानर वहाँ सुग त मधु पीते, राजभोग व ु का उपभोग करते और ा द फल-मूल खाते थे॥ २६ ॥ इस कार नवास करते ए उन वानर का वहाँ एक महीनेसे अ धक समय बीत गया; परंतु ीरघुनाथजीके त भ के कारण उ वह समय एक मु तके समान ही जान पड़ा॥ २७ ॥ ीराम भी इ ानुसार प धारण करनेवाले उन वानर , महापरा मी रा स तथा महाबली रीछ के साथ बड़े आन से समय बताते थे॥ २८ ॥



इस तरह उनका श शर-ऋतुका दूसरा महीना भी सुखपूवक बीत गया। इ ाकु वंशी नरेश क उस सुर राजधानीम वे वानर और रा स बड़े हष और ेमसे रहते थे। ीरामके ेमपूवक स ारसे उनका वह समय सुखपूवक बीत रहा था॥ २९-३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म उनतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ३९॥



चालीसवाँ सग वानर , रीछ और रा स क बदा◌इ



इस तरह वहाँ सुखपूवक नवास करते ए रीछ , वानर और रा स मसे सु ीवको स ो धत करके महातेज ी ीरघुनाथजीने इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘सौ ! अब तुम देवता तथा असुर के लये भी दुजय क ापुरीको जाओ और वहाँ म य के साथ रहकर अपने न क रा का पालन करो॥ २ ॥ ‘महाबाहो! अ द और हनुमा ो भी तुम अ ेमपूण से देखना। महाबली नल, अपने शुर वीर सुषेण, बलवान म े तार, दुधष वीर कु मुद, महाबली नील, वीर शतब ल, मै , वद, गज, गवा , गवय, महाबली शरभ, महान् बल-परा मसे यु दुजय वीर ऋ राज जा वान् तथा ग मादनपर भी तुम ेमपूण रखना॥ ३—६ ॥ ‘परम परा मी ऋषभ, वानर, सुपाटल, के सरी, शरभ, शु तथा महाबली श चूडको भी ेमपूण से देखना॥ ७ ॥ ‘इनके सवा जन- जन महामन ी वानर ने मेरे लये अपने ाण क बाजी लगा दी थी, उन सबपर तुम ेम रखना। कभी उनका अ य न करना’॥ ८ ॥ ऐसा कहकर ीरामने सु ीवको बार ार दयसे लगाया और फर मधुर वाणीम वभीषणसे कहा— ‘रा सराज! तुम धमपूवक ल ाका शासन करो। म तु धम मानता ँ । तु ारे नगरके लोग, सब रा स तथा तु ारे भा◌इ कु बेर भी तु धम ही समझते ह॥ १० ॥ ‘राजन्! तुम कसी तरह भी अधमम मन न लगाना। जनक बु ठीक है, वे राजा न य ही दीघकालतक पृ ीका रा भोगते ह॥ ११ ॥ ‘राजन्! तुम सु ीवस हत मुझे सदा याद रखना। अब न होकर स तापूवक यहाँसे जाओ’॥ १२ ॥ ीरामच जीका यह भाषण सुनकर रीछ , वानर और रा स ने ‘ध -ध ’ कहकर उनक बार ार शंसा क ॥ १३ ॥



वे बोले—‘महाबा ीराम! य ू ाजीके समान आपके भावम सदा परम मधुरता रहती है। आपक बु और परा म अ तु ह’॥ १४ ॥ वानर और रा स जब ऐसा कह रहे थे, उसी समय हनुमा ी वन होकर ीरघुनाथजीसे बोले—॥ ‘महाराज! आपके त मेरा महान् ेह सदा बना रहे। वीर! आपम ही मेरी न ल भ रहे। आपके सवा और कह मेरा आ रक अनुराग न हो॥ १६ ॥ ‘वीर ीराम! इस पृ ीपर जबतक रामकथा च लत रहे, तबतक न:संदेह मेरे ाण इस शरीरम ही बसे रह॥ १७ ॥ ‘रघुकुलन न नर े ीराम! आपका जो यह द च र और कथा है, इसे अ राएँ मुझे गाकर सुनाया कर॥ १८ ॥ ‘वीर भो! आपके उस च रतामृतको सुनकर म अपनी उ ाको उसी तरह दूर करता र ँ गा, जैसे वायु बादल क पं को उड़ाकर दूर ले जाती है’॥ १९ ॥ हनुमा ीके ऐसा कहनेपर ीरघुनाथजीने े सहासनसे उठकर उ दयसे लगा लया और ेहपूवक इस कार कहा—॥ २० ॥ ‘क प े ! ऐसा ही होगा, इसम संशय नह है। संसारम मेरी कथा जबतक च लत रहेगी, तबतक तु ारी क त अ मट रहेगी और तु ारे शरीरम ाण भी रहगे ही। जबतक ये लोक बने रहगे, तबतक मेरी कथाएँ भी र रहगी॥ २१-२२ ॥ ‘कपे! तुमने जो उपकार कये ह, उनमसे एक-एकके लये म अपने ाण नछावर कर सकता ँ । तु ारे शेष उपकार के लये तो म ऋणी ही रह जाऊँ गा॥ २३ ॥ ‘क प े ! म तो यही चाहता ँ क तुमने जो-जो उपकार कये ह, वे सब मेरे शरीरम ही पच जायँ। उनका बदला चुकानेका मुझे कभी अवसर न मले; क पु षम उपकारका बदला पानेक यो ता आप कालम ही आती है (म नह चाहता क तुम भी संकटम पड़ो और म तु ारे उपकारका बदला चुकाऊँ )’॥ २४ ॥ इतना कहकर ीरघुनाथजीने अपने क से एक च माके समान उ ल हार नकाला, जसके म भागम वैदयू म ण थी। उसे उ ने हनुमा ीके गलेम बाँध दया॥ २५ ॥



व : लसे सटे ए उस वशाल हारसे हनुमा ी उसी तरह सुशो भत ए, जैसे सुवणमय ग रराज सुमे के शखरपर च माका उदय आ हो॥ २६ ॥ ीरघुनाथजीके ये वदा◌इके श सुनकर वे महाबली वानर एक-एक करके उठे और उनके चरण म सर कु ाकर णाम करके वहाँसे चल दये॥ २७ ॥ सु ीव और धमा ा वभीषण ीरामके दयसे लग गये और उनका गाढ़ आ लगन करके वदा ए। उस समय वे सब-के -सब ने से आँ सू बहाते ए ीरामके भावी वरहसे थत हो उठे थे॥ २८ ॥ वे रा स, रीछ और वानर रघुवंशवधन ीरामको णाम करके ने म वयोगके आँ सू लये अपने-अपने नवास ानको लौट गये॥ ३१ ॥ ीरामको छोड़कर जाते समय वे सभी दु:खसे ककत वमूढ़ तथा अचेत-से हो रहे थे। कसीके गलेसे आवाज नह नकलती थी और सभीके ने सेअ ु झर रहे थे॥ २९ ॥ महा ा ीरघुनाथजीके इस कार कृ पा एवं स तापूवक वदा देनेपर वे सब वानर ववश हो उसी कार अपने-अपने घरको गये, जैसे जीवा ा ववशतापूवक शरीर छोड़कर परलोकको जाता है॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४०॥



इकतालीसवाँ सग कुबेरके भेजे ए पु क वमानका आना और ीरामसे पू जत एवं अनुगृहीत होकर अ हो जाना, भरतके ारा ीरामरा के वल ण भावका वणन



रीछ , वानर और रा स को वदा करके भाइय स हत सुख- प महाबा ीराम सुख और आन पूवक वहाँ रहने लगे॥ १ ॥ एक दन अपरा कालम (दोपहरके बाद) अपने भाइय के साथ बैठे ए महा भु ीरघुनाथजीने आकाशसे यह मधुर वाणी सुनी—॥ २ ॥ ‘सौ ीराम! आप मेरी ओर स तापूण मुखसे पात करनेक कृ पा कर। भो! आपको व दत होना चा हये क म कु बेरके भवनसे लौटा आ पु क वमान ँ ॥ ३ ॥ ‘नर े ! आपक आ ा मानकर म कु बेरक सेवाके लये उनके भवनम गया था; परंतु उ ने मुझसे कहा—॥ ४ ॥ ‘ वमान! महा ा महाराज ीरामने यु म दुधष रा सराज रावणको मारकर तु जीता है॥ ५ ॥ ‘पु , ब -ु बा व तथा सेवकगण स हत उस दुरा ा रावणके मारे जानेसे मुझे भी बड़ी स ता ◌इ है॥ ६ ॥ ‘सौ ! इस तरह परमा ा ीरामने ल ाम रावणके साथ-साथ तुमको भी जीत लया है; अत: म आ ा देता ँ , तुम उ क सवारीम रहो॥ ७ ॥ ‘रघुकुलको आन त करनेवाले ीराम स ूण जग े आ य ह। तुम उनक सवारीके काम आओ— यह मेरी सबसे बड़ी कामना है। इस लये तुम न होकर जाओ’॥ ८ ॥ ‘इस कार म महा ा कु बेरक आ ा पाकर ही आपके पास आया ँ , अत: आप मुझे न:श होकर हण कर॥ ९ ॥ ‘म सभी ा णय के लये अजेय ँ और कु बेरक आ ाके अनुसार म आपके आदेशका पालन करता आ अपने भावसे सम लोक म वचरण क ँ गा’॥ १० ॥ पु कके ऐसा कहनेपर महाबली ीरामने उस वमानको पुन: आया देख उससे कहा—॥ ११ ॥



‘ वमानराज पु



क! य द ऐसी बात है तो म तु ारा ागत करता ँ । कु बेरक अनुकूलता होनेसे हम मयादाभ का दोष नह लगेगा’॥ १२ ॥ ऐसा कहकर महाबा ीरामने लावा, फू ल, धूप और च न आ दके ारा पु कका पूजन कया॥ १३ ॥ और कहा—‘अब तुम जाओ। जब म रण क ँ , तब आ जाना। आकाशम रहना और अपनेको मेरे वयोगसे दु:खी न होने देना (म यथासमय तु ारा उपयोग करता र ँ गा)। े ासे स ूण दशा म जाते समय तु ारी कसीसे ट र न हो अथवा तु ारी ग त कह तहत न हो’॥ १४½ ॥ पु कने ‘एवम ’ु कहकर उनक आ ा शरोधाय कर ली। इस कार ीरामने उसका पूजन करके जब उसे जानेक आ ा दे दी, तब वह पु क वहाँसे अपनी अभी दशाको चला गया॥ १५½ ॥ इस कार पु मय पु क वमानके अ हो जानेपर भरतजीने हाथ जोड़कर ीरघुनाथजीसे कहा—॥ ‘वीरवर! आप देव प ह। इसी लये आपके शासनकालम मनु ेतर ाणी भी बार ार मनु के समान स ाषण करते देखे जाते ह॥ १७½ ॥ ‘राघव! आपके रा पर अ भ ष ए एक माससे अ धक हो गया, तबसे सभी लोग नीरोग दखायी देते ह। बूढ़े ा णय के पास भी मृ ु नह फटकती है। याँ बना क सहे सव करती ह। सभी मनु के शरीर -पु दखायी देते ह॥ १८-१९ ॥ ‘राजन्! पुरवा सय म बड़ा हष छा रहा है। मेघ अमृतके समान जल गराते ए समयपर वषा करते ह॥ ‘हवा ऐसी चलती है क इसका श शीतल एवं सुखद जान पड़ता है। राजन्! नगर और जनपदके लोग इस पुरीम कहते ह क हमारे लये चरकालतक ऐसे ही भावशाली राजा रह’॥ २१½ ॥ भरतक कही ◌इ ये सुमधुर बात सुनकर नृप े ीरामच जी बड़े स ए॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म इकतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४१॥



बयालीसवाँ सग अशोकव नकाम ीराम और सीताका वहार, ग भणी सीताका तपोवन देखनेक इ कट करना और ीरामका इसके लये ीकृ त देन◌ा







सुवणभू षत पु क वमानको वदा करके महाबा ीरामने अशोकव नका (अ :पुरके वहार यो उपवन) म वेश कया॥ १ ॥ च न, अगु , आम, तु (ना रयल), कालेयक (र च न) तथा देवदा -वन सब ओरसे उसक शोभा बढ़ा रहे थे॥ २ ॥ च ा, अशोक, पुंनाग, म आ, कटहल, असन तथा धूमर हत अ के समान का शत होनेवाले पा रजातसे वह वा टका सुशो भत थी॥ ३ ॥ लोध, कद , अजुन, नागके सर, छतवन, अ तमु क, म ार, कदली तथा गु और लता के समूह उसम सब ओर ा थे॥ ४ ॥ य ु , धू लकद , बकु ल, जामुन, अनार और को वदार आ द वृ उस उपवनको सुशो भत करते थे॥ ५ ॥ सदा फू ल और फल देनेवाले रमणीय, मनोरम, द रस और ग से यु तथा नूतन अ ु र-प व से अलंकृत वृ भी उस अशोकव नकाक शोभा बढ़ा रहे थे॥ ६ ॥ वृ लगानेक कलाम कु शल मा लय ारा तैयार कये गये द वृ , जनम मनोहर प व तथा पु शोभा पाते थे और जनके ऊपर मतवाले मर छा रहे थे, उस उपवनक ीवृ कर रहे थे॥ ७ ॥ को कल, भृ राज आ द रंग- बरंगे सैकड़ प ी उस वा टकाक शोभा थे, जो आ क डा लय के अ भागपर बैठकर वहाँ व च सुषुमाक सृ कर रहे थे॥ ८ ॥ को◌इ वृ सुवणके समान पीले, को◌इ अ शखाके समान उ ल और को◌इ नीले अ नके समान ाम थे, जो यं सुशो भत होकर उस उपवनक शोभा बढ़ाते थे॥ ९ ॥ वहाँ अनेक कारके सुग त पु और गु गोचर होते थे। उ म जलसे भरी ◌इ भाँ तभाँ तक बाव ड़याँ देखी जाती थ ॥ १० ॥



जनम मा ण क सी ढ़याँ बनी थ । सी ढ़य के बाद कु छ दूरतक जलके भीतरक भू म टक म णसे बँधी ◌इ थी। उन बाव ड़य के भीतर खले ए कमल और कु मुद के समूह शोभा पाते थे, च वाक भी उनक शोभा बढ़ा रहे थे॥ ११ ॥ पपीहे और तोते वहाँ मीठी बोली बोल रहे थे। हंस और सारस के कलरव गूँज रहे थे। फू ल से चतकबरे दखायी देनेवाले तटवत वृ उ शोभास बना रहे थे॥ १२ ॥ वे भाँ त-भाँ तके परकोट और शला से भी सुशो भत थ । वह वन ा म नीलमके समान रंगवाली हरी-हरी घास उस वा टकाका ृ ार कर रही थ । वहाँके वृ का समुदाय फू ल के भारसे लदा आ था॥ १३½ ॥ वहाँ मानो पर र होड़ लगाकर खले ए पु शाली वृ के झड़े ए फू ल से काले-काले र उसी तरह चतकबरे दखायी देते थे, जैसे तार के समुदायसे अलंकृत आकाश॥ १४½ ॥ जैसे इ का न न और ाजीका बनाया आ कु बेरका चै रथ वन सुशो भत होता है, उसी कार सु र भवन से वभू षत ीरामका वह डा-कानन शोभा पा रहा था॥ १५½ ॥ वहाँ अनेक ऐसे भवन बने थे, जनके भीतर बैठनेके लये ब त-से आसन सजाये गये थे। वह वा टका अनेक लताम प से स दखायी देती थी। उस समृ शा लनी अशोकव नकाम वेश करके रघुकुलन न ीराम पु रा शसे वभू षत एक सु र आसनपर बैठे, जसपर कालीन बछा था॥ १६-१७½ ॥ जैसे देवराज इ शचीको सुधापान कराते ह, उसी कार ककु कु लभूषण ीरामने अपने हाथसे प व पेय मधु लेकर सीताजीको पलाया॥ १८½ ॥ सेवकगण ीरामके भोजनके लये वहाँ तुरंत ही राजो चत भो पदाथ (भाँ त-भाँ तक रसो◌इ) तथा नाना कारके फल ले आये॥ १९½ ॥ उस समय राजा रामके समीप नृ और गीतक कलाम नपुण अ राएँ और नाग-क ाएँ क रय के साथ मलकर नृ करने लग ॥ २०½ ॥ नाचने-गानेम कु शल और चतुर ब त-सी पवती याँ मधुपानज नत मदके वशीभूत हो ीरामच जीके नकट अपनी नृ -कलाका दशन करने लग ॥ २१½ ॥ दूसर के मनको रमानेवाले पु ष म े धमा ा ीराम सदा उ म व ाभूषण से भू षत ◌इ उन मनोऽ भराम रम णय को उपहार आ द देकर संतु रखते थे॥ २२½ ॥



उस समय भगवान् ीराम सीतादेवीके साथ सहासनपर वराजमान हो अपने तेजसे अ तीके साथ बैठे ए व स जीके समान शोभा पाते थे॥ २३½ ॥ य ीराम त दन देवताके समान आन त रहकर देवक ाके समान सु री वदेहन नी सीताके साथ रमण करते थे॥ २४½ ॥ इस कार सीता और रघुनाथजी चरकालतक वहार करते रहे। इतनेहीम सदा भोग दान करनेवाला श शरऋतुका सु र समय तीत हो गया। भाँ तभाँ तके भोग का उपभोग करते ए उन राजद तका वह श शरकाल बीत गया॥ २५-२६ ॥ धम ीराम दनके पूवभागम धमके अनुसार धा मक कृ करते थे और शेष आधे दन अ :पुरम रहते थे॥ २७ ॥ सीताजी भी पूवा कालम देवपूजन आ द करके सब सासु क समान पसे सेवा-पूजा करती थ ॥ २८ ॥ त ात् व च व ाभूषण से वभू षत हो ीरामच जीके पास चली जाती थ । ठीक उसी तरह, जैसे गम शची सह ा इ क सेवाम उप त होती ह॥ २९ ॥ इ दन ीरामच जीने अपनी प ीको गभके म लमय च से यु देखकर अनुपम हष ा कया और कहा—‘ब त अ ा, ब त अ ा’॥ ३० ॥ फर वे देवक ाके समान सु री सीतासे बोले—‘ वदेहन न! तु ारे गभसे पु ा होनेका यह समय उप त है। वरारोहे! बताओ, तु ारी ा इ ा है? म तु ारा कौन-सा मनोरथ पूण क ँ ?’॥ ३१½ ॥ इसपर सीताजीने मुसकराकर ीरामच जीसे कहा—‘रघुन न! मेरी इ ा एक बार उन प व तपोवन को देखनेक हो रही है। देव! ग ातटपर रहकर फल-मूल खानेवाले जो उ तेज ी मह ष ह, उनके समीप (कु छ दन) रहना चाहती ँ । काकु ! फल-मूलका आहार करनेवाले महा ा के तपोवनम एक रात नवास क ँ , यही मेरी इस समय सबसे बड़ी अ भलाषा है’॥ ३२—३४½ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले ीरामने सीताक इस इ ाको पूण करनेक त ा क और कहा—‘ वदेहन न! न रहो। कल ही वहाँ जाओगी, इसम संशय नह है’॥ ३५ ॥



म थलेशकु मारी जानक से ऐसा कहकर ककु कु लन न ीराम अपने म के साथ बीचके ख म चले गये॥ ३६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४२॥



ततालीसवाँ सग भ का पुरवा सय के मुखसे सीताके वषयम सुनी ◌इ अशुभ चचासे ीरामको अवगत करान◌ा



वहाँ बैठे ए महाराज ीरामके पास अनेक कारक कथाएँ कहनेम कु शल हा वनोद करनेवाले सखा सब ओरसे आकर बैठते थे॥ १ ॥ उन सखा के नाम इस कार ह— वजय, मधुम , का प, म ल, कु ल, सुरा ज, का लय, भ , द व और सुमागध॥ २ ॥ ये सब लोग बड़े हषसे भरकर महा ा ीरघुनाथजीके सामने अनेक कारक हा वनोदपूण कथाएँ कहा करते थे॥ ३ ॥ इसी समय कसी कथाके स म ीरघुनाथजीने पूछा—‘भ ! आजकल नगर और रा म कस बातक चचा वशेष पसे होती है?॥ ४ ॥ ‘नगर और जनपदके लोग मेरे, सीताके , भरतके , ल णके तथा श ु और माता कै के यीके वषयम ा- ा बात करते ह? क राजा य द आचार वचार से हीन ह तो वे अपने रा म तथा वनम (ऋ ष-मु नय के आ मम) भी न ाके वषय बन जाते ह— सव उ क बुराइय क चचा होती है’॥ ५-६ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर भ हाथ जोड़कर बोला—‘महाराज! आजकल पुरवा सय म आपको लेकर सदा अ ी ही चचाएँ चलती ह’॥ ७ ॥ ‘सौ ! पु षो म! दश ीव-वधस ी जो आपक वजय है, उसको लेकर नगरम सब लोग अ धक बात कया करते ह’॥ ८ ॥ भ के ऐसा कहनेपर ीरघुनाथजीने कहा—‘पुरवासी मेरे वषयम कौन-कौन-सी शुभ या अशुभ बात कहते ह, उन सबको यथाथ पसे पूणत: बताओ। इस समय उनक शुभ बात सुनकर ज वे शुभ मानते ह उनका म आचरण क ँ गा और अशुभ बात सुनकर ज वे अशुभ समझते ह, उन कृ को ाग दूँगा॥ ९-१० ॥ ‘तुम व और न होकर बेखटके कहो। पुरवासी और जनपदके लोग मेरे वषयम कस कार अशुभ चचाएँ करते ह’॥ ११ ॥



ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर भ ने हाथ जोड़कर एका च हो उन महाबा ीरामसे यह परम सु र बात कही—॥ १२ ॥ ‘राजन्! सु नये, पुरवासी मनु चौराह पर, बाजारम, सड़क पर तथा वन और उपवनम भी आपके वषयम कस कार शुभ और अशुभ बात कहते ह? यह बता रहा ँ ॥ १३ ॥ ‘वे कहते ह ‘ ीरामने समु पर पुल बाँधकर दु र कम कया है। ऐसा कम तो पहलेके क देवता और दानव ने भी नह सुना होगा॥ १४ ॥ ‘ ीराम ारा दुधष रावण सेना और सवा रय स हत मारा गया तथा रा स स हत रीछ और वानर भी वशम कर लये गये॥ १५ ॥ ‘परंतु एक बात खटकती है, यु म रावणको मारकर ीरघुनाथजी सीताको अपने घर ले आये। उनके मनम सीताके च र को लेकर रोष या अमष नह आ॥ १६ ॥ ‘उनके दयम सीता-स ोगज नत सुख कै सा लगता होगा? पहले रावणने बलपूवक सीताको गोदम उठाकर उनका अपहरण कया था, फर वह उ ल ाम भी ले गया और वहाँ उसने अ :पुरके डा-कानन अशोकव नकाम रखा। इस कार रा स के वशम होकर वे ब त दन तक रह तो भी ीराम उनसे घृणा नह करते ह। अब हमलोग को भी य क ऐसी बात सहनी पड़गी; क राजा जैसा करता है, जा भी उसीका अनुकरण करने लगती है’॥ १७—१९ ॥ ‘राजन्! इस कार सारे नगर और जनपदम पुरवासी मनु ब त-सी बात कहते ह’॥ २० ॥



भ क यह बात सुनकर ीरघुनाथजीने अ पी ड़त होकर सम सु द से पूछा —‘आपलोग भी मुझे बताव, यह कहाँतक ठीक है’॥ २१ ॥ तब सबने धरतीपर म क टेककर ीरामच जीको णाम करके दीनतापूण वाणीम कहा—‘ भो! भ का यह कथन ठीक है, इसम त नक भी संशय नह है’॥ सबके मुखसे यह बात सुनकर श ुसूदन ीरामने त ाल उन सब सु द को वदा कर दया॥ २३ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर भ हाथ जोड़कर बोला—‘महाराज! आजकल पुरवा सय म आपको लेकर सदा अ ी ही चचाएँ चलती ह’॥ ७ ॥



‘सौ !



पु षो म! दश ीव-वधस ी जो आपक वजय है, उसको लेकर नगरम सब लोग अ धक बात कया करते ह’॥ ८ ॥ भ के ऐसा कहनेपर ीरघुनाथजीने कहा—‘पुरवासी मेरे वषयम कौन-कौन-सी शुभ या अशुभ बात कहते ह, उन सबको यथाथ पसे पूणत: बताओ। इस समय उनक शुभ बात सुनकर ज वे शुभ मानते ह उनका म आचरण क ँ गा और अशुभ बात सुनकर ज वे अशुभ समझते ह, उन कृ को ाग दूँगा॥ ९-१० ॥ ‘तुम व और न होकर बेखटके कहो। पुरवासी और जनपदके लोग मेरे वषयम कस कार अशुभ चचाएँ करते ह’॥ ११ ॥ ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर भ ने हाथ जोड़कर एका च हो उन महाबा ीरामसे यह परम सु र बात कही—॥ १२ ॥ ‘राजन्! सु नये, पुरवासी मनु चौराह पर, बाजारम, सड़क पर तथा वन और उपवनम भी आपके वषयम कस कार शुभ और अशुभ बात कहते ह? यह बता रहा ँ ॥ १३ ॥ ‘वे कहते ह ‘ ीरामने समु पर पुल बाँधकर दु र कम कया है। ऐसा कम तो पहलेके क देवता और दानव ने भी नह सुना होगा॥ १४ ॥ ‘ ीराम ारा दुधष रावण सेना और सवा रय स हत मारा गया तथा रा स स हत रीछ और वानर भी वशम कर लये गये॥ १५ ॥ ‘परंतु एक बात खटकती है, यु म रावणको मारकर ीरघुनाथजी सीताको अपने घर ले आये। उनके मनम सीताके च र को लेकर रोष या अमष नह आ॥ १६ ॥ ‘उनके दयम सीता-स ोगज नत सुख कै सा लगता होगा? पहले रावणने बलपूवक सीताको गोदम उठाकर उनका अपहरण कया था, फर वह उ ल ाम भी ले गया और वहाँ उसने अ :पुरके डा-कानन अशोकव नकाम रखा। इस कार रा स के वशम होकर वे ब त दन तक रह तो भी ीराम उनसे घृणा नह करते ह। अब हमलोग को भी य क ऐसी बात सहनी पड़गी; क राजा जैसा करता है, जा भी उसीका अनुकरण करने लगती है’॥ १७—१९ ॥ ‘राजन्! इस कार सारे नगर और जनपदम पुरवासी मनु ब त-सी बात कहते ह’॥ २० ॥



भ क यह बात सुनकर ीरघुनाथजीने अ पी ड़त होकर सम सु द से पूछा —‘आपलोग भी मुझे बताव, यह कहाँतक ठीक है’॥ २१ ॥ तब सबने धरतीपर म क टेककर ीरामच जीको णाम करके दीनतापूण वाणीम कहा—‘ भो! भ का यह कथन ठीक है, इसम त नक भी संशय नह है’॥ सबके मुखसे यह बात सुनकर श ुसूदन ीरामने त ाल उन सब सु द को वदा कर दया॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म ततालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४३॥



चौवालीसवाँ सग ीरामके बुलानेसे सब भाइय का उनके पास आना



म म लीको वदा करके ीरघुनाथजीने बु से वचारकर अपना कत न त कया और नकटवत ारपालसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘तुम जाकर शी ही महाभाग भरत, सु म ाकु मार शुभल ण ल ण तथा अपरा जत वीर श ु को भी यहाँ बुला लाओ’॥ २ ॥ ीरामच जीका यह आदेश सुनकर ारपालने म कपर अ ल बाँधकर उ णाम कया और ल णके घर जाकर बेरोक-टोक उसके भीतर वेश कया॥ ३ ॥ वहाँ हाथ जोड़ जय-जयकार करते ए उसने महा ा ल णसे कहा—‘कु मार! महाराज आपसे मलना चाहते ह। अत: शी च लये, वल न क जये’॥ ४ ॥ तब सु म ाकु मार ल णने ‘ब त अ ा’ कहकर ीरामच जीके आदेशको शरोधाय कया और त ाल रथपर बैठकर वे ीरघुनाथजीके महलक ओर ती ग तसे चले॥ ५ ॥ ल णको जाते देख ारपाल भरतके पास गया और उ हाथ जोड़ वहाँ जय-जयकार करके वनीतभावसे बोला—‘ भो! महाराज आपसे मलना चाहते ह’॥ ६½ ॥ ीरामके भेजे ए ारपालके मुखसे यह बात सुनकर महाबली भरत तुरंत अपने आसनसे उठ खड़े ए और पैदल ही चल दये॥ ७½ ॥ भरतको जाते देख ारपाल बड़ी उतावलीके साथ श ु के भवनम गया और हाथ जोड़कर बोला—॥ ८½ ॥ ‘रघु े ! आइये, च लये, राजा ीराम आपको देखना चाहते ह। ील णजी और महायश ी भरतजी पहले ही जा चुके ह’॥ ९½ ॥ ारपालक बात सुनकर श ु अपने उ म आसनसे उठे और धरतीपर माथा टेककर मनही-मन ीरामक व ना करके तुरंत उनके नवास ानक ओर चल दये॥ १०½ ॥ ारपालने आकर ीरामसे हाथ जोड़कर नवेदन कया क ‘ भो! आपके सभी भा◌इ ारपर उप त ह’॥ ११½ ॥



कु मार का आगमन सुनकर च ासे ाकु ल इ यवाले ीरामने नीचे मुख कये दु:खी मनसे ारपालको आदेश दया—‘तुम तीन राजकु मार को ज ी मेरे पास ले आओ। मेरा जीवन इ पर अवल त है। ये मेरे ारे ाण प ह’॥ १२-१३½ ॥ महाराजक आ ा पाकर वे ेत व धारी कु मार सर कु ाये हाथ जोड़े एका च हो भवनके भीतर गये॥ १४½ ॥ उ ने ीरामका मुख इस तरह उदास देखा, मानो च मापर ह लग गया हो। वह सं ाकालके सूयक भाँ त भाशू हो रहा था॥ १५½ ॥ उ ने बार ार देखा बु मान् ीरामके दोन ने म आँ सू भर आये थे और उनके मुखार व क शोभा छन गयी थी॥ १६ ॥ तदन र उन तीन भाइय ने तुरंत ीरामके चरण म म क रखकर णाम कया। फर वे सब-के -सब ेमम समा ध -से होकर पड़ गये। उस समय ीराम आँ सू बहा रहे थे॥ १७ ॥ महाबली रघुनाथजीने दोन भुजा से उठाकर उन सबका आ ल न कया और कहा —‘इन आसन पर बैठो।’ जब वे बैठ गये, तब उ ने फर कहा—॥ १८ ॥ ‘राजकु मारो! तुमलोग मेरे सव हो। तु मेरे जीवन हो और तु ारे ारा स ा दत इस रा का म पालन करता ँ ॥ १९ ॥ ‘नरे रो! तुम सभी शा के ाता और उनम बताये कत का पालन करनेवाले हो। तु ारी बु भी प रप है। इस समय म जो काय तु ारे सामने उप त करनेवाला ँ , उसका तुम सबको मलकर स ादन करना चा हये’॥ २० ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर सभी भा◌इ चौक े हो गये। सबका च उ हो गया और सभी सोचने लगे—‘न जाने महाराज हमसे ा कहगे?’॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चौवालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४४॥



पतालीसवाँ सग ीरामका भाइय के सम ‘सु म



सव फैले ए लोकापवादक चचा करके सीताको वनम छोड़ आनेके लये ल णको आदेश देन◌ा



ाकु मार! उस समय अपनी प व ताका इस कार सब भा◌इ दु:खी मनसे वहाँ बैठे ए थे। उस समय ीरामने सूखे मुखसे उनके सामने यह बात कही—॥ १ ॥ ‘ब ुओ! तु ारा क ाण हो। तुम सब लोग मेरी बात सुनो। मनको इधर-उधर न ले जाओ। पुरवा सय के यहाँ मेरे और सीताके वषयम जैसी चचा चल रही है, उसीको बता रहा ँ॥ २ ॥ ‘इस समय पुरवा सय और जनपदके लोग म सीताके स म महान् अपवाद फै ला आ है। मेरे त भी उनका बड़ा घृणापूण भाव है। उन सबक वह घृणा मेरे मम लको वदीण कये देती है॥ ३ ॥ ‘म इ ाकु वंशी महा ा नरेश के कु लम उ आ ँ । सीताने भी महा ा जनक के उ म कु लम ज लया है॥ ४ ॥ ‘सौ ल ण! तुम तो यह जानते ही हो क कस कार रावण नजन द कार से उ हरकर ले गया था और मने उसका व ंस भी कर डाला॥ ५ ‘उसके बाद ल ाम ही जानक के वषयम मेरे अ :करणम यह वचार उ आ था क इनके इतने दन तक यहाँ रह लेनेपर भी म इ राजधानीम कै से ले जा सकूँ गा॥ ६ ॥ व ास दलानेके लये सीताने तु ारे सामने ही अ म वेश कया था और देवता के सम यं अ देवने उ नद ष बताया था। आकाशचारी वायु, च मा और सूयने भी पहले देवता तथा सम ऋ षय के समीप जनकन नीको न ाप घो षत कया था॥ ७-८½ ॥ ‘इस कार वशु आचारवाली सीताको देवता और ग व के समीप सा ात् देवराज इ ने ल ा ीपके अंदर मेरे हाथम स पा था॥ ९½ ॥ ‘मेरी अ रा ा भी यश नी सीताको शु समझती है। इसी लये म इन वदेहन नीको साथ लेकर अयो ा आया था॥ १०½ ॥







‘परंतु अब यह महान् अपवाद फै लने लगा है। पुरवा सय और जनपदके ा हो रही है। इसके लये मेरे दयम बड़ा शोक है॥ ११½ ॥ ‘ जस



लोग म मेरी बड़ी



कसी भी ाणीक अपक त लोकम सबक चचाका वषय बन जाती है, वह अधम लोक (नरक )-म गर जाता है और जबतक उस अपयशक चचा होती है तबतक वह पड़ा रहता है॥ १२½ ॥ ‘देवगण लोक म अपक तक न ा और क तक शंसा करते ह। सम े महा ा का सारा शुभ आयोजन उ म क तक ापनाके लये ही होता है॥ १३½ ॥ ‘नर े ब ुओ! म लोक न ाके भयसे अपने ाण को और तुम सबको भी ाग सकता ँ । फर सीताको ागना कौन बड़ी बात है?॥ १४½ ॥ ‘अत: तुमलोग मेरी ओर देखो। म शोकके समु म गर गया ँ । इससे बढ़कर कभी को◌इ दु:ख मुझे उठाना पड़ा हो, इसक मुझे याद नह है॥ १५½ ॥ ‘अत: सु म ाकु मार! कल सबेरे तुम सार थ सुम के ारा संचा लत रथपर आ ढ़ हो सीताको भी उसीपर चढ़ाकर इस रा क सीमाके बाहर छोड़ दो॥ १६½ ॥ ‘ग ाके उस पार तमसाके तटपर महा ा वा ी कमु नका द आ म है॥ १७½ ॥ ‘रघुन न! उस आ मके नकट नजन वनम तुम सीताको छोड़कर शी लौट आओ। सु म ान न! मेरी इस आ ाका पालन करो। सीताके वषयम मुझसे कसी तरह को◌इ दूसरी बात तु नह कहनी चा हये॥ १८-१९ ॥ ‘इस लये ल ण! अब तुम जाओ। इस वषयम को◌इ सोच- वचार न करो। य द मेरे इस न यम तुमने कसी कारक अड़चन डाली तो मुझे महान् क होगा॥ २० ॥ ‘म तु अपने चरण और जीवनक शपथ दलाता ँ , मेरे नणयके व कु छ न कहो। जो मेरे इस कथनके बीचम कू दकर कसी कार मुझसे अनुनय- वनय करनेके लये कु छ कहगे, वे मेरे अभी कायम बाधा डालनेके कारण सदाके लये मेरे श ु ह गे॥ २१½ ॥ ‘य द तुमलोग मेरा स ान करते हो और मेरी आ ाम रहना चाहते हो तो अब सीताको यहाँसे वनम ले जाओ। मेरी इस आ ाका पालन करो॥ २२½ ॥ ‘सीताने पहले मुझसे कहा था क म ग ातटपर ऋ षय के आ म देखना चाहती ँ ; अत: उनक यह इ ा भी पूण क जाय’॥ २३½ ॥



इस कार कहते-कहते ीरघुनाथजीके दोन ने आँ सु से भर गये। फर वे धमा ा ीराम अपने भाइय के साथ महलम चले गये। उस समय उनका दय शोकसे ाकु ल था और वे हाथीके समान ल ी साँस ख च रहे थे॥ २४-२५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४५॥



छयालीसवाँ सग ल



णका सीताको रथपर बठाकर उ वनम छोड़नेके लये ले जाना और ग ाजीके तटपर प ँ चन◌ा



तब सुम ‘ब त अ ा’ कहकर तुरंत ही उ म घोड़ से जुता आ एक सु र रथ ले आये, जसपर तदन र जब रात बीती और सबेरा आ, तब ल णने मन-ही-मन दु:खी हो सूखे मुखसे सुम से कहा—॥ १ ॥ बछा दो। म महाराजक आ ासे सीतादेवीको पु कमा मह षय के आ मपर प ँ चा दूँगा। तुम शी रथ ले आओ’॥ २-३ ॥ ‘सारथे! एक उ म रथम शी गामी घोड़ को जोतो और उस रथम सीताजीके लये सु र आसन सुखद श ासे यु सु र बछावन बछा आ था॥ ४ ॥ उसे लाकर वे म का मान बढ़ानेवाले सु म ा-कु मारसे बोले—‘ भो! यह रथ आ गया। अब जो कु छ करना हो क जये’॥ ५ ॥ सुम के ऐसा कहनेपर नर े ल ण राजमहलम गये और सीताजीके पास जाकर बोले —॥ ६ ॥ ‘दे व! आपने महाराजसे मु नय के आ म पर जानेके लये वर माँगा था और महाराजने आपको आ मपर प ँ चानेके लये त ा क थी॥ ७ ॥ ‘दे व! वदेहन न! उस बातचीतके अनुसार म राजाक आ ासे शी ही ग ातटपर ऋ षय के सु र आ म तक चलूँगा और आपको मु नजनसे वत वनम प ँ चाऊँ गा’॥ ८½ ॥ महा ा ल णके ऐसा कहनेपर वदेहन नी सीताको अनुपम हष ा आ। वे चलनेको तैयार हो गय ॥ ९½ ॥ ब मू व और नाना कारके र लेकर वैदेही सीता वनक या ाके लये उ त हो गय और ल णसे बोल —‘ये सब ब मू व , आभूषण और नाना कारके र -धन म मु न-प य को दूँगी’॥ १०-११½ ॥



ल णने ‘ब त अ ा’ कहकर म थलेशकु मारी सीताको रथपर चढ़ाया और ीरघुनाथजीक आ ाको ानम रखते ए उस तेज घोड़ वाले रथपर चढ़कर वे वनक ओर चल दये॥ १२½ ॥ उस समय सीताने ल ीवधन ल णसे कहा ‘रघुन न! मुझे ब त-से अपशकु न दखायी देते ह। आज मेरी दाय आँ ख फड़कती है और मेरे शरीरम क हो रहा है॥ १३-१४ ॥ ‘सु म ाकु मार! म अपने दयको अ -सा देख रही ँ । मनम बड़ी उ ा हो रही है और मेरी अधीरता पराका ाको प ँ ची ◌इ है॥ १५ ॥ ‘ वशाललोचन ल ण! मुझे पृ ी सूनी-सी ही दखायी देती है। ातृव ल! तु ारे भा◌इ कु शलसे रह॥ १६ ॥ ‘वीर! मेरी सब सासुएँ समान पसे सान रह। नगर और जनपदम भी सम ाणी सकु शल रह’॥ १७ ॥ ऐसा कहती ◌इ सीताने हाथ जोड़कर देवता से ाथना क । सीताक बात सुनकर ल णने सर कु ाकर उ णाम कया और ऊपरसे स हो मुझाये ए दयसे कहा —‘सबका क ाण हो’॥ १८½ ॥ तदन र गोमतीके तटपर प ँ चकर एक आ मम उन सबने रात बतायी। फर ात:काल उठकर सु म ाकु मारने सार थसे कहा—॥ १९½ ॥ ‘सारथे! ज ी रथ जोतो। आज म भागीरथीके जलको उसी कार सरपर धारण क ँ गा; जैसे भगवान् श रने अपने तेजसे उसे म कपर धारण कया था’॥ २०½ ॥ सार थने मनके समान वेगशाली चार घोड़ को टहलाकर रथम जोता और वदेहन नी सीतासे हाथ जोड़कर कहा—‘दे व! रथपर आ ढ़ होइये’॥ २१½ ॥ सूतके कहनेसे देवी सीता उस उ म रथपर सवार ◌इं । इस कार सु म ाकु मार ल ण और बु मान् सुम के साथ वशाललोचना सीतादेवी पापना शनी ग ाके तटपर जा प ँ च ॥ २२-२३ ॥ दोपहरके समय भागीरथीक जलधारातक प ँ चकर ल ण उसक ओर देखते ए दु:खी हो उ रसे फू ट-फू टकर रोने लगे॥ २४ ॥



ल णको शोकसे आतुर देख धम ा सीता अ च त हो उनसे बोल —‘ल ण! यह ा? तुम रोते हो! ग ाके तटपर आकर तो मेरी चरकालक अ भलाषा पूण ◌इ है। इस हषके समय तुम रोकर मुझे दु:खी करते हो?॥ २५-२६ ॥ ‘पु ष वर! ीरामके पास तो तुम सदा ही रहते हो। ा दो दनतक उनसे बछु ड़ जानेके कारण तुम इतने शोकाकु ल हो गये हो?॥ २७ ॥ ‘ल ण! ीराम तो मुझे भी अपने ाण से बढ़कर य ह; परंतु म तो इस कार शोक नह कर रही ँ । तुम ऐसे नादान न बनो॥ २८ ॥ ‘मुझे ग ाके उस पार ले चलो और तप ी मु नय के दशन कराओ। म उ व और आभूषण दूँगी॥ २९ ॥ ‘त ात् उन मह षय का यथायो अ भवादन करके वहाँ एक रात ठहरकर हम पुन: अयो ापुरीको लौट चलगे॥ ३० ॥ ‘मेरा मन भी सहके समान व : ल, कृ श उदर और कमलके समान ने वाले ीरामको, जो मनको रमानेवाल म सबसे े ह, देखनेके लये उतावला हो रहा है’॥ ३१ ॥ सीताजीका यह वचन सुनकर श ुवीर का संहार करनेवाले ल णने अपनी दोन सु र आँ ख प छ ल और ना वक को बुलाया। उन म ाह ने हाथ जोड़कर कहा—‘ भो! यह नाव तैयार है’॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छयालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४६॥



सतालीसवाँ सग ल



णका सीताजीको नावसे ग ाजीके उस पार प ँ चाकर बड़े द:ु खसे उ उनके जानेक बात बताना



ागे



म ाह क वह नाव व ृत और सुस त थी। ल णने उसपर पहले सीताजीको चढ़ाया, फर यं चढ़े॥ १ ॥ उ ने रथस हत सुम को वह ठहरनेके लये कह दया और शोकसे संत होकर ना वकसे कहा— ‘चलो’॥ २ ॥ ‘ल ण! न य ही वधाताने मेरे शरीरको के वल दु:ख भोगनेके लये ही रचा है। इसी लये आज सारे दु:ख का समूह मू तमान् होकर मुझे दशन दे रहा है॥ ३ ॥ ‘मने पूवज म कौन-सा ऐसा पाप कया था अथवा कसका ीसे वछोह कराया था, जो शु आचरणवाली होनेपर भी महाराजने मुझे ाग दया है॥ ४ ॥ ‘सु म ान न! पहले मने वनवासके दु:खम पड़कर भी उसे सहकर ीरामके चरण का अनुसरण करते ए आ मम रहना पसंद कया था॥ ५ ॥ ‘ कतु सौ ! अब म अके ली यजन से र हत हो कस तरह आ मम नवास क ँ गी? और दु:खम पड़नेपर कससे अपना दु:ख क ँ गी॥ ६ ॥ ‘ भो! य द मु नजन मुझसे पूछगे क महा ा ीरघुनाथजीने कस अपराधपर तु ाग दया है तो म उ अपना कौन-सा अपराध बताऊँ गी॥ ७ ॥ ‘सु म ाकु मार! म अपने जीवनको अभी ग ाजीके जलम वसजन कर देती; कतु इस समय ऐसा अभी नह कर सकूँ गी; क ऐसा करनेसे मेरे प तदेवका राजवंश न हो जायगा॥ ८ ॥ ‘ कतु सु म ान न! तुम तो वही करो, जैसी महाराजने तु आ ा दी है। तुम मुझ दु खयाको यहाँ छोड़कर महाराजक आ ाके पालनम ही र रहो और मेरी यह बात सुनो—॥ ९॥ ‘मेरी सब सासु को समान पसे हाथ जोड़कर मेरी ओरसे उनके चरण म णाम करना। साथ ही महाराजके भी चरण म म क नवाकर मेरी ओरसे उनक कु शल पूछना॥ १० ॥



‘ल



ण! तुम अ :पुरक सभी व नीया य को मेरी ओरसे णाम करके मेरा समाचार उ सुना देना तथा जो सदा धम-पालनके लये सावधान रहते ह, उन महाराजको भी मेरा यह संदेश सुना देना॥ ११ ॥ तदन र भागीरथीके उस तटपर प ँ चकर ल णके ने म आँ सू भर आये और उ ने म थलेशकु मारी सीतासे हाथ जोड़कर कहा—॥ ३ ॥ ‘ वदेहन न! मेरे दयम सबसे बड़ा काँटा यही खटक रहा है क आज रघुनाथजीने बु मान् होकर भी मुझे वह काम स पा है, जसके कारण लोकम मेरी बड़ी न ा होगी॥ ४ ॥ ‘इस दशाम य द मुझे मृ ुके समान य णा ा होती अथवा मेरी सा ात् मृ ु ही हो जाती तो वह मेरे लये परम क ाणकारक होती। परंतु इस लोक न त कायम मुझे लगाना उ चत नह था॥ ५ ॥ ‘शोभने! आप स ह । मुझे को◌इ दोष न द’ ऐसा कहकर हाथ जोड़े ए ल ण पृ ीपर गर पड़े॥ ६ ॥ ल ण हाथ जोड़कर रो रहे ह और अपनी मृ ु चाह रहे ह, यह देखकर म थलेशकु मारी सीता अ उ हो उठ और ल णसे बोल —॥ ७ ॥ ‘ल ण! यह ा बात है? म कु छ समझ नह पाती ँ । ठीक-ठीक बताओ। महाराज कु शलसे तो ह न। म देखती ँ तु ारा मन नह है॥ ८ ॥ ‘म महाराजक शपथ दलाकर पूछती ँ , जस बातसे तु इतना संताप हो रहा है, वह मेरे नकट सच-सच बताओ। म इसके लये तु आ ा देती ँ ’॥ ९ ॥ वदेहन नीके इस कार े रत करनेपर ल ण दु:खी मनसे नीचे मुँह कये अ ुग द क ारा इस कार बोले—॥ १० ॥ ‘जनकन न! नगर और जनपदम आपके वषयम जो अ भयंकर अपवाद फै ला आ है, उसे राजसभाम सुनकर ीरघुनाथजीका दय संत हो उठा और वे मुझसे सब बात बताकर महलम चले गये॥ ११½ ॥ ‘दे व! राजा ीरामने जन अपवादवचन को दु:ख न सह सकनेके कारण अपने दयम रख लया है, उ म आपके सामने बता नह सकता। इसी लये मने उनक चचा छोड़ दी है॥ १२½ ॥



‘आप



मेरे सामने नद ष स हो चुक ह तो भी महाराजने लोकापवादसे डरकर आपको ाग दया है। दे व! आप को◌इ और बात न समझ। अब महाराजक आ ा मानकर तथा आपक भी ऐसी ही इ ा समझकर म आ म के पास ले जाकर आपको वह छोड़ दूँगा॥ १३-१४½ ॥ ‘शुभ!े यह रहा ग ाजीके तटपर षय का प व एवं रमणीय तपोवन। आप वषाद न कर॥ १५½ ॥ ‘यहाँ मेरे पता राजा दशरथके घ न म महायश ी ष मु नवर वा ी क रहते ह, आप उ महा ाके चरण क छायाका आ य ले यहाँ सुखपूवक रह। जनका जे! आप यहाँ उपवासपरायण और एका हो नवास कर॥ १६-१७ ॥ ‘दे व! आप सदा ीरघुनाथजीको दयम रखकर पा त का अवल न कर। ऐसा करनेसे आपका परम क ाण होगा’॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सतालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४७॥



अड़तालीसवाँ सग सीताका द:ु खपूण वचन, ीरामके लये उनका संदेश, ल



णका जाना और सीताका रोना



ल णजीका यह कठोर वचन सुनकर जनक- कशोरी सीताको बड़ा दु:ख आ। वे मू त होकर पृ ीपर गर पड़ ॥ १ ॥ दो घड़ीतक उ होश नह आ। उनके ने से आँ सु क अज धारा बहती रही। फर होशम आनेपर जनक कशोरी दीन वाणीम ल णसे बोल —॥ २ ॥ ‘ल ण! न य ही वधाताने मेरे शरीरको के वल दु:ख भोगनेके लये ही रचा है। इसी लये आज सारे दु:ख का समूह मू तमान् होकर मुझे दशन दे रहा है॥ ३ ॥ ‘मने पूवज म कौन-सा ऐसा पाप कया था अथवा कसका ीसे वछोह कराया था, जो शु आचरणवाली होनेपर भी महाराजने मुझे ाग दया है॥ ४ ॥ ‘सु म ान न! पहले मने वनवासके दु:खम पड़कर भी उसे सहकर ीरामके चरण का अनुसरण करते ए आ मम रहना पसंद कया था॥ ५ ॥ ‘ कतु सौ ! अब म अके ली यजन से र हत हो कस तरह आ मम नवास क ँ गी? और दु:खम पड़नेपर कससे अपना दु:ख क ँ गी॥ ६ ॥ ‘ भो! य द मु नजन मुझसे पूछगे क महा ा ीरघुनाथजीने कस अपराधपर तु ाग दया है तो म उ अपना कौन-सा अपराध बताऊँ गी॥ ७ ॥ ‘सु म ाकु मार! म अपने जीवनको अभी ग ाजीके जलम वसजन कर देती; कतु इस समय ऐसा अभी नह कर सकूँ गी; क ऐसा करनेसे मेरे प तदेवका राजवंश न हो जायगा॥ ८ ‘ कतु सु म ान न! तुम तो वही करो, जैसी महाराजने तु आ ा दी है। तुम मुझ दु खयाको यहाँ छोड़कर महाराजक आ ाके पालनम ही र रहो और मेरी यह बात सुनो—॥ ९॥ ‘मेरी सब सासु को समान पसे हाथ जोड़कर मेरी ओरसे उनके चरण म णाम करना। साथ ही महाराजके भी चरण म म क नवाकर मेरी ओरसे उनक कु शल पूछना॥ १० ॥



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ण! तुम अ :पुरक सभी व नीया य को मेरी ओरसे णाम करके मेरा समाचार उ सुना देना तथा जो सदा धम-पालनके लये सावधान रहते ह, उन महाराजको भी मेरा यह संदेश सुना देना॥ ११ ॥ ‘रघुन न। वा वम तो आप जानते ही ह क सीता शु च र ा है। सवदा ही आपके हतम त र रहती है और आपके त परम ेमभ रखनेवाली है॥ १२ ॥ ‘वीर! आपने अपयशसे डरकर ही मुझे ागा है; अत: लोग म आपक जो न ा हो रही है अथवा मेरे कारण जो अपवाद फै ल रहा है, उसे दूर करना मेरा भी कत है; क मेरे परम आ य आप ही ह॥ १३½ ॥ ‘ल ण! तुम महाराजसे कहना क आप धमपूवक बड़ी सावधानीसे रहकर पुरवा सय के साथ वैसा ही बताव कर, जैसा अपने भाइय के साथ करते ह। यही आपका परम धम है और इसीसे आपको परम उ म यशक ा हो सकती है॥ १४-१५ ॥ ‘राजन्! पुरवा सय के त धमानुकूल आचरण करनेसे जो पु ा होगा, वही आपके लये उ म धम और क त है। पु षो म! मुझे अपने शरीरके लये कु छ भी च ा नह है॥ १६ ॥ ‘रघुन



न! जस तरह पुरवा सय के अपवादसे बचकर रहा जा सके , उसी तरह आप रह। ीके लये तो प त ही देवता है, प त ही ब ु है, प त ही गु है। इस लये उसे ाण क बाजी लगाकर भी वशेष पसे प तका य करना चा हये॥ १७½ ॥ ‘मेरी ओरसे सारी बात तुम ीरघुनाथजीसे कहना और आज तुम भी मुझे देख जाओ। म इस समय ऋतुकालका उ न करके गभवती हो चुक ँ ’॥ १८½ ॥ सीताके इस कार कहनेपर ल णका मन ब त दु:खी हो गया। उ ने धरतीपर माथा टेककर णाम कया। उस समय उनके मुखसे को◌इ भी बात नह नकल सक ॥ १९½ ॥ उ ने जोर-जोरसे रोते ए ही सीता माताक प र मा क और दो घड़ीतक सोचवचारकर उनसे कहा—‘शोभने! आप यह मुझसे ा कह रही ह?॥ ‘ न ाप प त ते! मने पहले भी आपका स ूण प कभी नह देखा है। के वल आपके चरण के ही दशन कये ह। फर आज यहाँ वनके भीतर ीरामच जीक अनुप तम म आपक ओर कै से देख सकता ँ ’॥ २१½ ॥



यह कहकर उ ने सीताजीको पुन: णाम कया और फर वे नावपर चढ़ गये। नावपर चढ़कर उ न ◌े म ाहको उसे चलानेक आ ा दी॥ २२½ ॥ शोकके भारसे दबे ए ल ण ग ाजीके उ री तटपर प ँ चकर दु:खके कारण अचेत-से हो गये और उसी अव ाम ज ीसे रथपर चढ़ गये॥ २३½ ॥ सीता ग ाजीके दूसरे तटपर अनाथक तरह रोती ◌इ धरतीपर लोट रही थ । ल ण बार-बार मुँह घुमाकर उनक ओर देखते ए चल दये॥ २४½ ॥ रथ और ल ण मश: दूर होते गये। सीता उनक ओर बार ार देखकर उ हो उठ । उनके अ होते ही उनपर गहरा शोक छा गया॥ २५ ॥ अब उ को◌इ भी अपना र क नह दखायी दया। अत: यशको धारण करनेवाली वे यश नी सती सीता दु:खके भारी भारसे दबकर च ाम हो मयूर के कलनादसे गूँजते ए उस वनम जोर-जोरसे रोने लग ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अड़तालीसवाँ सग पूरा आ॥ ४८॥



उनचासवाँ सग मु नकुमार से समाचार पाकर वा ी कका सीताके पास आ उ सा आ मम लवा ले जाना



ना देना और



जहाँ सीता रो रही थ , वहाँसे थोड़ी ही दूरपर ऋ षय के कु छ बालक थे। वे उ रोते देख अपने आ मक ओर दौड़े, जहाँ उ तप ाम मन लगानेवाले भगवान् वा ी क मु न वराजमान थे॥ १ ॥ उन सब मु नकु मार ने मह षके चरण म अ भवादन करके उनसे सीताजीके रोनेका समाचार सुनाया॥ २ ॥ वे बोले—‘भगवन्! ग ातटपर क महा ा नरेशक प ी ह, जो सा ात् ल ीके समान जान पड़ती ह। इ हमलोग ने पहले कभी नह देखा था। वे मोहके कारण वकृ तमुख होकर रो रही ह॥ ३ ॥ ‘भगवन्! आप यं चलकर अ ी तरह देख ल। वे आकाशसे उतरी ◌इ कसी देवीसी दखायी देती ह। भो! ग ाजीके तटपर जो वे को◌इ े सु री ी बैठी ह, ब त दु:खी ह॥ ४ ॥ ‘हमने अपनी आँ ख देखा है, वे बड़े जोर-जोरसे रोती ह और गहरे शोकम डू बी ◌इ ह। वे दु:ख और शोक भोगनेके यो नह ह। अके ली ह, दीन ह और अनाथक तरह बलख रही ह॥ ५॥ ‘हमारी समझम ये मानवी ी नह ह। आपको इनका स ार करना चा हये। इस आ मसे थोड़ी ही दूरपर होनेके कारण ये वा वम आपक शरणम आयी ह॥ ६ ॥ ‘भगवन्! ये सा ी देवी अपने लये को◌इ र क ढूँ ढ़ रही ह। अत: आप इनक र ा कर।’ उन मु नकु मार क यह बात सुनकर धम मह षने बु से न त करके असली बातको जान लया; क उ तप ा ारा द ा थी। जानकर वे उस ानपर दौड़े ए आये, जहाँ म थलेशकु मारी सीता वराजमान थ ॥ ७½ ॥ उन परम बु मान् मह षको जाते देख उनके श भी उनके साथ हो लये। कु छ पैदल चलकर वे महाम त मह ष सु र अ लये ग ातटवत उस ानपर आये। वहाँ आकर उ ने



ीरघुनाथजीक य प ी सीताको अनाथक -सी दशाम देखा॥ ८-९ ॥ शोकके भारसे पी ड़त ◌इ सीताको अपने तेजसे आ ा दत-सी करते ए मु नवर वा ी क मधुर वाणीम बोले—॥ १० ॥ ‘प त ते! तुम राजा दशरथक पु वधू, महाराज ीरामक ारी पटरानी और म थलाके राजा जनकक पु ी हो। तु ारा ागत है॥ ११ ॥ ‘जब तुम यहाँ आ रही थी, तभी अपनी धमसमा धके ारा मुझे इसका पता लग गया था। तु ारे प र ागका जो सारा कारण है, उसे मने अपने मनसे ही जान लया है॥ १२ ॥ ‘महाभागे! तु ारा सारा वृ ा मने ठीक-ठीक जान लया है। लोक म जो कु छ हो रहा है, वह सब मुझे व दत है॥ १३ ॥ ‘सीते! म तप ा ारा ा ◌इ द - से जानता ँ क तुम न ाप हो। अत: वदेहन न! अब न हो जाओ। इस समय तुम मेरे पास हो॥ १४ ॥ ‘बेटी! मेरे आ मके पास ही कु छ तापसी याँ रहती ह, जो तप ाम संल ह। वे अपनी ब ीके समान सदा तु ारा पालन करगी॥ १५ ॥ ‘यह मेरा दया आ अ हण करो और न एवं नभय हो जाओ। अपने ही घरम आ गयी हो, ऐसा समझकर वषाद न करो’॥ १६ ॥ मह षका यह अ अ तु भाषण सुनकर सीताने उनके चरण म म क कु ाकर णाम कया और हाथ जोड़कर कहा—‘जो आ ा’॥ १७ ॥ तब मु न आगे-आगे चले और सीता हाथ जोड़े उनके पीछे हो ल । वदेहन नीके साथ मह षको आते देख मु नप याँ उनके पास आय और बड़ी स ताके साथ इस कार बोल —॥ १८ ॥ ‘मु न े ! आपका ागत है। ब त दन के बाद यहाँ आपका शुभागमन आ है। हम सभी आपको अ भवादन करती ह। बताइये, हम आपक ा सेवा कर’॥ १९ ॥ उनका यह वचन सुनकर वा ी कजी बोले—‘ये परम बु मान् राजा ीरामक धमप ी सीता यहाँ आयी ह॥ २० ॥



‘सती



सीता राजा दशरथक पु वधू और जनकक पु ी ह। न ाप होनेपर भी प तने इनका प र ाग कर दया है। अत: मुझे ही इनका सदा लालन-पालन करना है॥ ‘अत: आप सब लोग इनपर अ ेह- रख। मेरे कहनेसे तथा अपने ही गौरवसे भी ये आपक वशेष आदरणीया ह’॥ २२ ॥ इस कार बार ार सीताजीको मु नप य के हाथम स पकर महायश ी एवं महातप ी वा ी कजी श के साथ फर अपने आ मपर लौट आये॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म उनचासवाँ सग पूरा आ॥ ४९॥



पचासवाँ सग ल



ण और सुम क बातचीत



म थलेशकु मारी सीताका मु नके आ मम वेश हो गया, यह देखकर ल ण मन-ही-मन ब त दु:खी ए। उ घोर संताप आ॥ १ ॥ उस समय महातेज ी ल ण म णाम सहायता देनेवाले सार थ सुम से बोले—‘सूत! देखो तो सही, ीरामको अभीसे सीताजीके वरहज नत संतापका क भोगना पड़ रहा है॥ २ ॥ ‘भला, ीरघुनाथजीको इससे बढ़कर दु:ख ा होगा क उ अपनी प व आचरणवाली धमप ी जनक कशोरी सीताका प र ाग करना पड़ा॥ ३ ॥ ‘सारथे! रघुनाथजीको सीताका जो यह न वयोग ा आ है, इसम म दैवको ही कारण मानता ँ ; क दैवका वधान दुलङ् होता है॥ ४ ॥ ‘जो ीरघुनाथजी कु पत होनेपर देवता , ग व तथा रा स स हत असुर का भी संहार कर सकते ह, वे ही दैवक उपासना कर रहे ह (उसका नवारण नह कर पा रहे ह)॥ ५ ॥ ‘पहले ीरामच जीको पताके कहनेसे चौदह वष तक वशाल एवं नजन द कवनम रहना पड़ा है॥ ‘अब उससे भी बढ़कर दु:खक बात यह ◌इ क उ सीताजीको नवा सत करना पड़ा। परंतु पुरवा सय क बात सुनकर ऐसा कर बैठना मुझे अ नदयतापूण कम जान पड़ता है॥ ७॥ ‘सूत! सीताजीके वषयम अ ायपूण बात कहनेवाले इन पुरवा सय के कारण ऐसे क तनाशक कमम वृ होकर ीरामच जीने कस धमरा शका उपाजन कर लया है?’॥ ८ ॥



ल णक कही ◌इ इन अनेक कारक बात को सुनकर बु मान् सुम ने ापूवक ये वचन कहे—॥ ‘सु म ान न! म थलेशकु मारी सीताके वषयम आपको संत नह होना चा हये। ल ण! यह बात ा ण ने आपके पताजीके सामने ही जान ली थी॥ १० ॥



‘उन



दन दुवासाजीने कहा था क ‘ ीराम न य ही अ धक दु:ख उठायगे। ाय: उनका सौ छन जायगा। महाबा ीरामको शी ही अपने यजन से वयोग ा होगा॥ ११ ॥ ‘सु म ाकु मार! धमा ा महापु ष ीराम दीघकाल बीतते-बीतते तुमको, म थलेशकु मारीको तथा भरत और श ु को भी ाग दगे॥ १२ ॥ ‘दुवासाने जो बात कही थी, उसे महाराज दशरथने तुमसे, श ु से और भरतसे भी कहनेक मनाही कर दी थी॥ १३ ॥ ‘नर े ! दुवासा मु नने ब त बड़े जनसमुदायके समीप मेरे सम तथा मह ष व स के नकट वह बात कही थी॥ १४ ॥ ‘दुवासा मु नक वह बात सुनकर पु ष वर दशरथने मुझसे कहा था क ‘सूत! तु दूसरे लोग के सामने इस तरहक बात नह कहनी चा हये’॥ १५ ॥ ‘सौ ! उन लोकपालक दशरथके उस वा को म झूठा न क ँ ’ यह मेरा संक है। इसके लये म सदा सावधान रहता ँ ॥ १६ ॥ ‘सौ रघुन न! य प यह बात मुझे आपके सामने सवथा ही नह कहनी चा हये, तथा प य द आपके मनम यह सुननेके लये ा (उ ुकता) हो तो सु नये॥ १७ ॥ ‘य प पूवकालम महाराजने इस रह को दूसर पर कट न करनेके लये आदेश दया था, तथा प आज म वह बात क ँ गा। दैवके वधानको लाँघना ब त क ठन है; जससे यह दु:ख और शोक ा आ है। भैया! तु भी भरत और श ु के सामने यह बात नह कहनी चा हये’॥ १८-१९ ॥ सुम का यह ग ीर भाषण सुनकर सु म ाकु मार ल णने कहा—‘सुम जी! जो स ी बात हो, उसे आप अव क हये’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पचासवाँ सग पूरा आ॥ ५०॥







ावनवाँ सग



मागम सुम का दव ु ासाके मुखसे सुनी ◌इ भृगुऋ षके शापक कथा कहकर तथा भ व म होनेवाली कुछ बात बताकर द:ु खी ल णको शा करना १११६



तब महा ा ल णक ेरणासे सुम जी दुवासाजीक कही ◌इ बात उ सुनाने लगे —॥ १ ॥ ‘ल ण! पहलेक बात है, अ के पु महामु न दुवासा व स जीके प व आ मपर रहकर वषाके चार महीने बता रहे थे॥ २ ॥ ‘एक दन आपके महातेज ी और महान् यश ी पता उस आ मपर अपने पुरो हत महा ा व स जीका दशन करनेके लये यं ही गये॥ ३ ॥ ‘वहाँ उ ने व स जीके वामभागम बैठे ए एक महामु नको देखा, जो अपने तेजसे मानो सूयके समान देदी मान हो रहे थे॥ ४ ॥ ‘तब राजाने उन दोन तापस शरोम ण मह षय का वनयपूवक अ भवादन कया। उन दोन ने भी ागतपूवक आसन देकर पा एवं फल-मूल सम पत करके राजाका स ार कया। फर वे वहाँ मु नय के साथ बैठे॥ ५ १/२ ॥ ‘वहाँ बैठे ए मह षय क दोपहरके समय तरहतर हक अ मधुर कथाएँ ◌इं ॥ ६ १/ ॥ २



‘तदन



र कसी कथाके स म महाराजने हाथ जोड़कर अ के तपोधन पु महा ा दुवासाजीसे वनयपूवक पूछा—॥ ७ १/२ ॥ ‘भगवन्! मेरा वंश कतने समयतक चलेगा? मेरे रामक कतनी आयु होगी तथा अ सब पु क भी आयु कतनी होगी?॥ ८ १/२ ॥ ‘ ीरामके जो पु ह गे, उनक आयु कतनी होगी? भगवन्! आप इ ानुसार मेरे वंशक त बताइये’॥ ‘राजा दशरथका यह वचन सुनकर महातेज ी दुवासा मु न कहने लगे—॥ १० १/२ ॥ ‘राजन्! सु नये, ाचीन कालक बात है, एक बार देवासुर-सं ामम देवता से पी ड़त ए दै ने मह ष भृगुक प ीक शरण ली। भृगुप ीने उस समय दै को अभय दया और वे



उनके आ मपर नभय होकर रहने लगे॥ ११-१२ ॥ ‘भृगुप ीने दै को आ य दया है, यह देखकर कु पत ए देवे र भगवान् व ुने तीखी धारवाले च से उनका सर काट लया॥ १३ ॥ ‘अपनी प ीका वध आ देख भागववंशके वतक भृगुजीने सहसा कु पत हो श ुकुलनाशन भगवान् व ुको शाप दया॥ १४ ॥ ‘जनादन! मेरी प ी वधके यो नह थी। परंतु आपने ोधसे मू त होकर उसका वध कया है, इस लये आपको मनु लोकम ज लेना पड़ेगा और वहाँ ब त वष तक आपको प ी- वयोगका क सहना पड़ेगा’॥ १५ १/२ ॥ ‘परंतु इस कार शाप देकर उनके च म बड़ा प ा ाप आ। उनक अ रा ाने भगवा े उस शापको ीकार करानेके लये उ क आराधना करनेको े रत कया। इस तरह शापक वफलताके भयसे पी ड़त ए भृगुने तप ा ारा भगवान् व ुक आराधना क ॥ १६ १/ ॥ २



‘तप ा —‘महष! स



ारा उनके आराधना करनेपर भ व ल भगवान् व ुने संतु होकर कहा ूण जग ा य करनेके लये म उस शापको हण कर लूँगा’॥ ‘इस तरह पूवज म ( व -ु नामधारी वामन अवतारके समय) महातेज ी भगवान् व ुको भृगु ऋ षका शाप ा आ था। दूसर को मान देनेवाले नृप े ! वे ही इस भूतलपर आकर तीन लोक म राम-नामसे व ात आपके पु ए ह॥ १८-१९ ॥ ‘भृगुके शापसे होनेवाला प ी- वयोग प जो महान् फल है, वह उ अव ा होगा। ीराम दीघकालतक अयो ाके राजा होकर रहगे॥ २० ॥ ‘उनके अनुयायी भी ब त सुखी और धनधा से स ह गे। ीराम ारह हजार वष तक रा करके अ म लोक (वैकु या साके तधाम)-को पधारगे॥ २१ १/२ ॥ ‘परम दुजय वीर ीराम समृ शाली अ मेधय का बार ार अनु ान करके ब त-से राजवंश क ापना करगे। ीरघुनाथजीको सीताके गभसे दो पु ा ह गे’॥ २२-२३ ॥ ‘ये सब बात कहकर उन महातेज ी महामु नने राजवंशके वषयम भूत और भ व क सारी बात बताय । इसके बाद वे चुप हो गये॥ २४ ॥



‘उन दुवासा मु नके



चुप हो जानेपर महाराज दशरथ भी दोन महा ा को णाम करके फर अपने उ म नगरम लौट आये॥ २५ ॥ ‘इस कार पूवकालसे दुवासा मु नक कही ◌इ ये सब बात मने वहाँ सुन और अपने दयम धारण कर ल (उ कसीपर कट नह कया)। वे बात अस नह ह गी॥ २६ ॥ ‘जैसा दुवासा मु नका वचन है, उसके अनुसार ीरघुनाथजी सीताके दोन पु का अयो ासे बाहर अ भषेक करगे, अयो ाम नह ॥ २७ ॥ ‘नर े रघुन न! वधाताका ऐसा ही वधान होनेके कारण आपको सीता तथा रघुनाथजीके लये संताप नह करना चा हये। आप धैय धारण कर’॥ २८ ॥ सूत सुम के मुखसे यह अ अ तु बात सुनकर ल णको अनुपम हष ा आ। वे बोले— ‘ब त ठीक, ब त ठीक’॥ २९ ॥ मागम सुम और ल ण इस कारक बात कर ही रहे थे क सूय अ ाचलको चले गये। तब उन दोन ने के शनी नदीके तटपर रात बतायी॥ ३० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म इ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५१॥



बावनवाँ सग अयो ाके राजभवनम प ँ चकर ल



णका द:ु खी ीरामसे मलना और उ सा



ना देना



के शनीके तटपर वह रात बताकर रघुन न ल ण ात:काल उठे और फर वहाँसे आगे बढ़े॥ १ ॥ दोपहर होते-होते उनके उस वशाल रथने र -धनसे स तथा -पु मनु से भरी ◌इ अयो ापुरीम वेश कया॥ २ ॥ वहाँ प ँ चकर परम बु मान् सु म ाकु मारको बड़ा दु:ख आ। वे सोचने लगे—‘म ीरामच जीके चरण के समीप जाकर ा क ँ गा?’॥ ३ ॥ वे इस कार सोच- वचार कर ही रहे थे क च माके समान उ ल ीरामका वशाल राजभवन सामने दखायी दया॥ ४ ॥ राजमहलके ारपर रथसे उतरकर वे नर े ल ण नीचे मुख कये दु:खी मनसे बेरोकटोक भीतर चले गये॥ ५ ॥ उ ने देखा ीरघुनाथजी दु:खी होकर एक सहासनपर बैठे ह और उनके दोन ने आँ सु से भरे ह। इस अव ाम बड़े भा◌इको सामने देख दु:खी मनसे ल णने उनके दोन पैर पकड़ लये और हाथ जोड़ च को एका करके वे दीन वाणीम बोले—॥ ६-७ ॥ ‘वीर महाराजक आ ा शरोधाय करके म उन शुभ आचारवाली, यश नी जनक कशोरी सीताको ग ातटपर वा ी कके शुभ आ मके समीप न द ानम छोड़कर पुन: आपके ीचरण क सेवाके लये यहाँ लौट आया ँ ॥ ८-९ ॥ ‘पु ष सह! आप शोक न कर। कालक ऐसी ही ग त है। आप-जैसे बु मान् और मन ी मनु शोक नह करते ह॥ १० ॥ ‘संसारम जतने संचय ह, उन सबका अ वनाश है, उ ानका अ पतन है, संयोगका अ वयोग है और जीवनका अ मरण है॥ ११ ॥ ‘अत: ी, पु , म और धनम वशेष आस नह करनी चा हये; क उनसे वयोग होना न त है॥ १२ ॥



‘ककु



कु लभूषण! आप आ ासे आ ाको, मनसे मनको तथा स ूण लोक को भी संयत रखनेम समथ ह; फर अपने शोकको काबूम रखना आपके लये कौन बड़ी बात है?॥ १३ ॥ ‘आप-जैसे



े पु ष इस तरहके स आनेपर मो हत नह होते। रघुन न! य द आप दु:खी रहगे तो वह अपवाद आपके ऊपर फर आ जायगा॥ १४ ॥ ‘नरे र! जस अपवादके भयसे आपने म थलेशकु मारीका ाग कया है, न:संदेह वह अपवाद इस नगरम फर होने लगेगा (लोग कहगे क दूसरेके घरम रही ◌इ ीका ाग करके ये रात- दन उसीक च ासे दु:खी रहते ह)॥ १५ ॥ ‘अत: पु ष सह! आप धैयसे च को एका करके इस दुबल शोक-बु का ाग कर— संत न ह ’॥ १६ ॥ महा ा ल णके इस कार कहनेपर म व ल ीरघुनाथजीने बड़ी स ताके साथ उन सु म ाकु मारसे कहा—॥ १७ ॥ ‘नर े वीर ल ण! तुम जैसा कहते हो, ठीक ऐसी ही बात है। तुमने मेरे आदेशका पालन कया, इससे मुझे बड़ा संतोष है॥ १८ ॥ ‘सौ ल ण! अब म दु:खसे नवृ हो गया। संतापको मने दयसे नकाल दया और तु ारे सु र वचन से मुझे बड़ी शा मली है’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बावनवाँ सग पूरा आ॥ ५२॥



तरपनवाँ सग ीरामका कायाथ पु ष क उपे ासे राजा नृगको मलनेवाली शापक कथा सुनाकर ल णको देखभालके लये आदेश देना



ल णके उस अ अ तु वचनको सुनकर ीरामच जी बड़े स ए और इस कार बोले—॥ ‘सौ ! तुम बड़े बु मान् हो। जैसे तुम मेरे मनका अनुसरण करनेवाले हो, ऐसा भा◌इ वशेषत: इस समय मलना क ठन है॥ २ ॥ ‘शुभल ण ल ण! अब मेरे मनम जो बात है, उसे सुनो और सुनकर वैसा ही करो॥ ३ ॥ ‘सौ ! सु म ाकु मार! मुझे पुरवा सय का काम कये बना चार दन बीत चुके ह, यह बात मेरे मम लको वदीण कर रही है॥ ४ ॥ ‘पु ष वर! तुम जा, पुरो हत और म य को बुलाओ। जन पु ष अथवा य को को◌इ काम हो, उनको उप त करो॥ ५ ॥ ‘जो राजा त दन पुरवा सय के काय नह करता, वह न ंदेह सब ओरसे न अतएव वायुसंचारसे र हत घोर नरकम पड़ता है॥ ६ ॥ ‘सुना जाता है पहले इस पृ ीपर नृगनामसे स एक महायश ी राजा रा करते थे। वे भूपाल बड़े ा णभ , स वादी तथा आचार- वचारसे प व थे॥ ‘उन नरदेवने कसी समय पु रतीथम जाकर ा ण को सुवणसे भू षत तथा बछड़ से यु एक करोड़ गौएँ दान क ॥ ८ ॥ ‘ न ाप ल ण! उस समय दूसरी गौ के साथ-साथ एक द र , उ वृ से जीवन नवाह करनेवाले एवं अ हो ी ा णक बछड़ेस हत गाय वहाँ चली गयी और राजाने संक करके उसे कसी ा णको दे दया॥ ९ ॥ ‘वह बेचारा ा ण भूखसे पी ड़त हो उस खोयी ◌इ गायको ब त वष तक सारे रा म जहाँ-तहाँ ढूँ ढ़ता फरा; परंतु वह उसे नह दखायी दी॥ १० ॥ ‘अ म एक दन कनखल प ँ चकर उसने अपनी गाय एक ा णके घरम देखी। वह नीरोग और -पु थी, कतु उसका बछड़ा ब त बड़ा हो गया था॥ ११ ॥



ा णने अपने रखे ए ‘शबला’ नामसे उसको पुकारा—‘शबले! आओ! आओ।’ गौने उस रको सुना॥ १२ ॥ ‘भूखसे पी ड़त ए उस ा णके उस प र चत रको पहचानकर वह गौ आगे-आगे जाते ए उस अ तु तेज ी ा णके पीछे हो ली॥ १३ ॥ ‘जो ा ण उन दन उसका पालन करता था, वह भी तुरंत उस गायका पीछा करता आ गया और जाकर उन षसे बोला—‘ न्! यह गौ मेरी है। मुझे राजा म े नृगने इसे दानम दया है’॥ १४ १/२ ॥ ‘ फर तो उन दोन व ान् ा ण म उस गौको लेकर महान् ववाद खड़ा हो गया। वे दोन पर र लड़ते-झगड़ते ए उन दानी नरेश नृगके पास गये॥ १५ १/२ ॥ ‘वहाँ राजभवनके दरवाजेपर जाकर वे क◌इ दन तक टके रहे, परंतु उ राजाका ाय नह ा आ (वे उनसे मले ही नह )। इससे उन दोन को बड़ा ोध आ॥ १६ १/२ ॥ ‘वे दोन े महा ा ा ण अ संत और कु पत हो राजाको शाप देते ए यह घोर वा बोले—॥ ‘राजन्! अपने ववादका नणय करानेक इ ासे आये ए ाथ पु ष के कायक स के लये तुम उ दशन नह देते हो; इस लये तुम सब ा णय से छपकर रहनेवाले गर गट हो जाओगे और सह वष के दीघकालतक ग मे गर गट होकर ही पड़े रहोगे॥ १८-१९ ‘



१/ ॥ २



‘जब यदुकुलक क त बढ़ानेवाले वासुदेवनामसे व ात भगवान् व ु पु ष पसे इस जग अवतार लगे, उस समय वे ही तु इस शापसे छु ड़ायगे, इस लये इस समय तो तुम गर गट हो ही जाओगे, फर ीकृ ावतारके समयम ही तु ारा उ ार होगा। क लयुग



उप त होनेसे कु छ ही पहले महापरा मी नर और नारायण दोन इस पृ ीका भार उतारनेके लये अवतीण ह गे’॥ २०—२२ १/२ ॥ ‘इस कार शाप देकर वे दोन ा ण शा हो गये। उ ने वह बूढ़ी और दुबली गाय कसी ा णको दे दी॥ २३ १/२ ॥ ‘इस कार राजा नृग उस अ दा ण शापका उपभोग कर रहे ह। अत: कायाथ पु ष का ववाद य द नण त न हो तो वह राजा के लये महान् दोषक ा करानेवाला



होता है॥ २४ १/२ ॥ ‘अत: कायाथ मनु शी मेरे सामने उप त ह । जापालन प पु कमका फल ा राजाको नह मलता है? अव ा होता है। अत: सु म ान न! तुम जाओ, राज ारपर ती ा करो क कौन कायाथ पु ष आ रहा है’॥ २५-२६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म तरपनवाँ सग पूरा आ॥ ५३॥



चौवनवाँ सग राजा नृगका एक सु र ग ा बनवाकर अपने पु को रा भोगना



दे



यं उसम वेश करके शाप



ीरामका यह भाषण सुनकर परमाथवे ा ल ण दोन हाथ जोड़कर उ ी तेजवाले ीरघुनाथजीसे बोले—॥ १ ॥ ‘ककु कु लभूषण! उन दोन ा ण ने थोड़े-से ही अपराधपर राज ष नृगको तीय यमद के समान ऐसा महान् शाप दे दया॥ २ ॥ ‘पु ष वर! अपनेको शाप पी पापसे संयु आ सुनकर राजा नृगने उन ोधी ा ण से ा कहा?’॥ ३ ॥ ल णके इस कार पूछनेपर ीरघुनाथजी फर बोले—‘सौ ! पूवकालम शाप होकर राजा नृगने जो कु छ कहा, उसे बताता ँ , सुनो॥ ४ ॥ ‘जब राजा नृगको यह पता लगा क वे दोन ा ण चले गये और कह रा ेम ह गे, तब उ ने म य को, सम पुरवा सय को, पुरो हत को तथा सम कृ तय को भी बुलाकर दु:खसे पी ड़त होकर कहा—‘आपलोग सावधान होकर मेरी बात सुन—॥ ५-६ ॥ ‘नारद और पवत—ये दोन क ाणकारी और अ न देव ष मेरे पास आये थे। वे दोन ा ण के दये ए शापक बात बताकर मुझे महान् भय दे वायुके समान ती ग तसे लोकको चले गये॥ ७ ॥ ‘ये जो वसु नामक राजकु मार ह, इ इस रा पर अ भ ष कर दया जाय और कारीगर मेरे लये एक ऐसा ग ा तैयार कर, जसका श सुखद हो॥ ८ ॥ ‘ ा णके मुखसे नकले ए उस शापको वह रहकर म बताऊँ गा। एक ग ा ऐसा होना चा हये, जो वषाके क का नवारण करनेवाला हो। दूसरा सद से बचानेवाला हो और श ीलोग तीसरा एक ऐसा ग ा तैयार कर जो गम का नवारण करे और जसका श सुखदायक हो॥ ९ १/२ ॥ ‘जो फल देनेवाले वृ ह और फू ल देनेवाली लताएँ ह, उ उन ग म लगाया जाय। घनी छायावाले अनेक कारके वृ का वहाँ आरोपण कया जाय। उन ग के चार ओर डेढ़-



डेढ़ योजन (छ:-छ: कोस)-क भू म घेरकर खूब रमणीय बना दी जाय। जबतक शापका समय बीतेगा, तबतक म वह सुखपूवक र ँ गा। उन ग म त दन सुग त पु सं चत कये जायँ’॥ १०—१२ १/२ ॥ ‘ऐसी व ा करके राजकु मार वसुको राज सहासनपर बठाकर राजाने उस समय उनसे कहा—‘बेटा! तुम त दन धमपरायण रहकर यध मके अनुसार जाका पालन करो॥ १३ १/ ॥ २



‘दोन ा ण ने मुझपर जस कार शाप ारा है। नर े ! वैसे थोड़े-से अपराधपर भी होकर उ



हार कया है, वह तु ारी आँ ख के सामने ने मुझे शाप दे दया है॥ १४ १/२ ॥ ‘पु ष वर! तुम मेरे लये संताप न करो। बेटा! जसने मुझे सनी बनाया—संकटम डाला है, अपना कया आ वह ाचीन कम ही अनुकूल- तकू ल फल देनेम समथ होता है॥ १५ १/२ ॥ ‘व ! पूवज म कये गये कमके अनुसार मनु उ व ु को पाता है, ज पानेका वह अ धकारी है। उ ान पर जाता है, जहाँ जाना उसके लये अ नवाय है तथा उ दु:ख और सुख को उपल करता है, जो उसके लये नयत ह; अत: तुम वषाद न करो’॥ १६-१७ ॥ ‘नर



े ! अपने पु से ऐसा कहकर महायश ी नरपाल राजा नृगने अपने रहनेके लये सु र ढंगसे तैयार कये गये ग मे वेश कया॥ १८ ॥ ‘इस तरह उस र वभू षत महान् गतम वेश करके उस समय महा ा राजा नृगने ा ण ारा रोषपूवक दये गये उस शापको भोगना आर कया’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चौवनवाँ सग पूरा आ॥ ५४॥



पचपनवाँ सग राजा न म और व स का एक-दस ू रेके शापसे देह ाग



ीरामने कहा—) ‘ल ण! इस तरह मने तु राजा नृगके शापका स व ारपूवक बताया है। य द सुननेक इ ा हो तो दूसरी कथा भी सुनो’॥ १ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर सु म ाकु मार फर बोले— ‘नरे र! इन आ यजनक कथा के सुननेसे मुझे कभी तृ नह होती है’॥ २ ॥ ल णके इस कार कहनेपर इ ाकु कु लन न ीरामने पुन: उ म धमसे यु कथा कहनी आर क —॥ ३ ॥ ‘सु म ान न! महा ा इ ाकु -पु म न म नामक एक राजा हो गये ह, जो इ ाकु के बारहव* पु थे। वे परा म और धमम पूणत: र रहनेवाले थे॥ ४ ॥ ‘उन परा मस नरेशने उन दन गौतम-आ मके नकट देवपुरीके समान एक नगर बसाया॥ ५ ॥ ‘महायश ी राज ष न मने जस नगरम अपना नवास ान बनाया, उसका सु र नाम रखा गया वैजय । इसी नामसे उस नगरक स ◌इ (देवराज इ के ासादका नाम वैजय है, उसीक समतासे न मके नगरका भी यही नाम रखा गया था)॥ ६ ॥ ‘उस महान् नगरको बसाकर राजाके मनम यह वचार उ आ क म पताके दयको आ ाद दान करनेके लये एक ऐसे य का अनु ान क ँ , जो दीघकालतक चालू रहनेवाला हो॥ ७ ॥ ‘तदन र इ ाकु न न राज ष न मने अपने पता मनुपु इ ाकु से पूछकर अपना य करानेके लये सबसे पहले ष शरोम ण व स जीका वरण कया। उसके बाद अ , अ रा तथा तपो न ध भृगुको भी आम त कया॥ ८-९ ॥ ‘उस समय ष व स ने राज षय म े न मसे कहा—‘देवराज इ ने एक य के लये पहलेसे ही मेरा वरण कर लया है; अत: वह य जबतक समा न हो जाय तबतक तुम मेरे आगमनक ती ा करो’॥ १० ॥ (



‘व स



जीके चले जानेके बाद महान् ा ण मह ष गौतमने आकर उनके कामको पूरा कर दया। उधर महातेज ी व स भी इ का य पूरा कराने लगे॥ ११ ॥ ‘नरे र राजा न मने उन ा ण को बुलाकर हमालयके पास अपने नगरके नकट ही य आर कर दया, राजा न मने पाँच हजार वष तकके लये य क दी ा ली॥ १२ ॥ उधर इ -य क समा होनेपर अ न भगवान् व स ऋ ष राजा न मके पास होतृकम करनेके लये आये। वहाँ आकर उ ने देखा क जो समय ती ाके लये दया था, उसे गौतमने आकर पूरा कर दया॥ १३ १/२ ॥ ‘यह देख कु मार व स महान् ोधसे भर गये और राजासे मलनेके लये दो घड़ी वहाँ बैठे रहे। परंतु उस दन राज ष न म अ न ाके वशीभूत हो सो गये थे॥ १४-१५ ॥ ‘राजा मले नह , इस कारण महा ा व स मु नको बड़ा ोध आ। वे राज षको ल करके बोलने लगे— ‘भूपाल नमे! तुमने मेरी अवहेलना करके दूसरे पुरो हतका वरण कर लया है, इस लये तु ारा यह शरीर अचेतन होकर गर जायगा’॥ १७ ॥ ‘तदन र राजाक न द खुली। वे उनके दये ए शापक बात सुनकर ोधसे मू त हो गये और यो न व स से बोले—॥ १८ ॥ ‘मुझे आपके आगमनक बात मालूम नह थी, इस लये सो रहा था। परंतु आपने ोधसे कलु षत होकर मेरे ऊपर दूसरे यमद क भाँ त शापा का हार कया है॥ १९ ॥ ‘अत: ष! चर न शोभासे यु जो आपका शरीर है, वह भी अचेतन होकर गर जायगा—इसम संशय नह है’॥ २० ॥ ‘इस कार उस समय रोषके वशीभूत ए वे दोन नृपे और जे पर र शाप दे सहसा वदेह हो गये। उन दोन के भाव ाजीके समान थे’॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पचपनवाँ सग पूरा आ॥ ५५॥ ीम ागवत (नवम ६। ४)-म, व ुपुराण (४। २। ११)-म तथा महाभारत (अनुशासनपव २। ५)-म इ ाकु के सौ पु बताये गये ह। इनम धान थे— वकु , न म और द । इस से न म तीय पु स होते ह; परंतु यहाँ मूलम इनको बारहवाँ बताया गया है। स व है गुण- वशेषके कारण ये तीन धान कहे गये ह और अव ा- मसे बारहव ही ह । *



छ नवाँ सग ाजीके कहनेसे व स का व णके वीयम आवेश, व णका उवशीके समीप एक कु म अपने वीयका आधान तथा म के शापसे उवशीका भूतलम राजा पु रवाके पास रहकर पु उ करना



ीरामच जीके मुखसे कही गयी यह कथा सुनकर श ुवीर का संहार करनेवाले ल ण उ ी तेजवाले ीरघुनाथजीसे हाथ जोड़कर बोले—॥ १ ॥ ‘ककु कु लभूषण! वे ष और वे भूपाल दोन देवता के भी स ानपा थे। उ ने अपने शरीर का ाग करके फर नूतन शरीर कै से हण कया?’॥ २ ॥ ल णके इस कार पूछनेपर इ ाकु कु लन न महातेज ी पु ष वर ीरामने उनसे इस कार कहा—॥ ‘सु म ान न! एक-दूसरेके शापसे देह ाग करके तप ाके धनी वे धमा ा राज ष और ष वायु प हो गये॥ ४ ॥ ‘महातेज ी महामु न व स शरीरर हत हो जानेपर दूसरे शरीरक ा के लये अपने पता ाजीके पास गये॥ ५ ॥ ‘धमके ाता वायु प व स जीने देवा धदेव ाजीके चरण म णाम करके उन पतामहसे इस कार कहा—॥ ‘ ा कटाहसे कट ए देवा धदेव महादेव! भगवन्! म राजा न मके शापसे देहहीन हो गया ँ ; अत: वायु पम रह रहा ँ ॥ ७ ॥ ‘ भो! सम देहहीन को महान् दु:ख होता है और होता रहेगा; क देहहीन ाणीके सभी काय लु हो जाते ह। अत: दूसरे शरीरक ा के लये आप मुझपर कृ पा कर’॥ ८ १/२ ॥



तब अ मत तेज ी य ू ाने उनसे कहा— ‘महायश ी ज े ! तुम म और व णके छोड़े ए तेज (वीय)-म व हो जाओ। वहाँ जानेपर भी तुम अयो नज पसे ही उ होओगे और महान् धमसे यु हो पु पसे मेरे वशम आ जाओगे (मेरे पु होनेके कारण तु पूववत् जाप तका पद ा होगा।)’॥



ाजीके ऐसा कहनेपर उनके चरण म णाम तथा उनक प र मा करके वायु प व स जी व णलोकको चले गये॥ ११ ॥ ‘उ दन म देवता भी व णके अ धकारका पालन कर रहे थे। वे व णके साथ रहकर सम देवे र ारा पू जत होते थे॥ १२ ॥ ‘इसी समय अ रा म े उवशी स खय से घरी ◌इ अक ात् उस ानपर आ गयी॥ १३ ॥ ‘उस परम सु री अ राको ीरसागरम नहाती और जल डा करती देख व णके मनम उवशीके लये अ उ ास कट आ॥ १४ ॥ ‘उ ने फु कमलके समान ने और पूण च माके समान मनोहर मुखवाली उस सु री अ राको समागमके लये आम त कया॥ १५ ॥ ‘तब उवशीने हाथ जोड़कर व णसे कहा— ‘सुरे र! सा ात् म देवताने पहलेसे ही मेरा वरण कर लया है’॥ १६ ॥ यह सुनकर व णने कामदेवके बाण से पी ड़त होकर कहा—‘सु र प-रंगवाली सु ो ण! य द तुम मुझसे समागम करना नह चाहती तो म तु ारे समीप इस देव न मत कु म अपना यह वीय छोड़ दूँगा और इस कार छोड़कर ही सफलमनोरथ हो जाऊँ गा’॥ लोकनाथ व णका यह मनोहर वचन सुनकर उवशीको बड़ी स ता ◌इ और वह बोली —॥ १९ ॥ ‘ भो! आपक इ ाके अनुसार ऐसा ही हो। मेरा दय वशेषत: आपम अनुर है और आपका अनुराग भी मुझम अ धक है; इस लये आप मेरे उ े से उस कु म वीयाधान क जये। इस शरीरपर तो इस समय म का अ धकार हो चुका है’॥ २० ॥ ‘उवशीके ऐसा कहनेपर व णने लत अ के समान काशमान अपने अ अ तु तेज (वीय)-को उस कु म डाल दया॥ २१ ॥ ‘तदन र उवशी उस ानपर गयी, जहाँ म देवता वराजमान थे। उस समय म अ कु पत हो उस उवशीसे इस कार बोले—॥ २२ ॥ ‘दुराचा र ण! पहले मने तुझे समागमके लये आम त कया था; फर कस लये तूने मेरा ाग कया और दूसरे प तका वरण कर लया?॥ २३ ॥ ‘



‘अपने



इस पापके कारण मेरे ोधसे कलु षत हो तू कु छ कालतक मनु लोकम जाकर नवास करेगी॥ २४ ॥ ‘दुबु े! बुधके पु राज ष पु रवा, जो का शदेशके राजा ह, उनके पास चली जा, वे ही तेरे प त ह गे’॥ ‘तब वह शाप-दोषसे दू षत हो त ानपुर ( याग-झूसी)-म बुधके औरस पु पु रवाके पास गयी॥ २६ ॥ ‘पु रवाके उवशीके गभसे ीमान् आयु नामक महाबली पु आ, जसके पु इ तु तेज ी महाराज न ष थे॥ २७ ॥ ‘वृ ासुरपर व का हार करके जब देवराज इ ह ाके भयसे दु:खी हो छप गये थे, तब न षने ही एक लाख वष तक ‘इ ’ पदपर त ष्ठत हो लोक के रा का शासन कया था॥ २८ ॥ ‘मनोहर दाँत और सु र ने वाली उवशी म के दये ए उस शापसे भूतलपर चली गयी। वहाँ वह सु री ब त वष तक रही। फर शापका य होनेपर इ सभाम चली गयी’॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छ नवाँ सग पूरा आ॥ ५६॥



स ावनवाँ सग व स का नूतन शरीर-धारण और न मका ा णय के नयन म नवास



उस द एवं अ तु कथाको सुनकर ल णको बड़ी स ता ◌इ। वे ीरघुनाथजीसे बोले—॥ १ ॥ ‘काकु ! वे ष व स तथा राज ष न म जो देवता ारा भी स ा नत थे, अपनेअपने शरीरको छोड़कर फर नूतन शरीरसे कस कार संयु ए?’॥ २ ॥ उनका यह सुनकर स परा मी ीरामने महा ा व स के शरीर- हणसे स रखनेवाली उस कथाको पुन: कहना आर कया—॥ ३ ॥ ‘रघु े ! महामना म और व णदेवताके तेज (वीय) से यु जो वह स कु था, उससे दो तेज ी ा ण कट ए। वे दोन ही ऋ षय म े थे॥ ४ ॥ ‘पहले उस घटसे मह ष भगवान् अग उ ए और म से यह कहकर क ‘म आपका पु नह ँ ’ वहाँसे अ चले गये॥ ५ ॥ ‘वह म का तेज था, जो उवशीके न म से पहले ही उस कु म ा पत कया गया था। त ात् उस कु म व णदेवताका तेज भी स लत हो गया था॥ ६ ॥ ‘त ात् कु छ कालके बाद म ाव णके उस वीयसे तेज ी व स मु नका ादुभाव आ। जो इ ाकु कु लके देवता (गु या पुरो हत) ए॥ ७ ॥ ‘सौ ल ण! महातेज ी राजा इ ाकु ने उनके वहाँ ज हण करते ही उन अ न मु न व स का हमारे इस कु लके हतके लये पुरो हतके पदपर वरण कर लया॥ ८ ॥ सौ ! इस कार नूतन शरीरसे यु व स मु नक उ का कार बताया गया। अब न मका जैसा वृ ा है, वह सुनो॥ ९ ॥ ‘राजा न मको देहसे पृथक् आ देख उन सभी मनीषी ऋ षय ने यं ही य क दी ा हण करके उस य को पूरा कया॥ १० ॥ ‘उन े षय ने पुरवा सय और सेवक के साथ रहकर ग , पु और व स हत राजा न मके उस शरीरको तेलके कड़ाह आ दम सुर त रखा॥ ११ ॥



‘तदन



र जब य समा आ, तब वहाँ भृगुने कहा—‘राजन्! (राजाके शरीरके अ भमानी जीवा न्!) म तुमपर ब त संतु ँ , अत: य द तुम चाहो तो तु ारे जीव-चैत को म पुन: इस शरीरम ला दूँगा’॥ १२ ॥ भृगुके साथ ही अ सब देवता ने भी अ स होकर न मके जीवा ासे कहा —‘राजष! वर माँगो। तु ारे जीव-चैत को कहाँ ा पत कया जाय’॥ ‘सम देवता के ऐसा कहनेपर न मके जीवा ाने उस समय उनसे कहा—‘सुर े ! म सम ा णय के ने म नवास करना चाहता ँ ’॥ १४ ॥ तब देवता ने न मके जीवा ासे कहा—‘ब त अ ा, तुम वायु प होकर सम ा णय के ने म वचरते रहोगे॥ १५ ॥ ‘पृ ीनाथ! वायु पसे वचरते ए आपके स से जो थकावट होगी, उसका नवारण करके व ाम पानेके लये ा णय के ने बारंबार बंद हो जाया करगे’॥ १६ ॥ ‘ऐसा कहकर सब देवता जैसे आये थे, वैसे चले गये; फर महा ा ऋ षय ने न मके शरीरको पकड़ा और उसपर अर ण रखकर उसे बलपूवक मथना आर कया॥ १७ १/२ ॥ ‘पूववत् म ो ारणपूवक होम करते ए उन महा ा ने जब न मके पु क उ के लये अर ण-म न आर कया, तब उस म नसे महातप ी म थ उ ए। इस अ तु ज का हेतु होनेके कारण वे जनक कहलाये तथा वदेह (जीव र हत शरीर)-से कट होनेके कारण उ वैदेह भी कहा गया। इस कार पहले वदेहराज जनकका नाम महातेज ी म थ आ, जससे यह जनकवंश मै थल कहलाया॥ १८—२० ॥ ‘सौ ल ण! राजा म े न मके शापसे ा ण व स का और ा ण व स के शापसे राजा न मका जो अ तु ज घ टत आ, उसका सारा कारण मने तु कह सुनाया’॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म स ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५७॥



अ ावनवाँ सग यया तको शु ाचायका शाप



ीरामके ऐसा कहनेपर श ुवीर का संहार करनेवाले ल णने तेजसे लत होते एसे महा ा ीरामको स ो धत करके इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘नृप े ! राजा वदेह ( न म) तथा व स मु नका पुरातन वृ ा अ अ तु और आ य-जनक है॥ २ ॥ ‘परंतु राजा न म य, शूरवीर और वशेषत: य क दी ा लये ए थे; अत: उ ने महा ा व स के त उ चत बताव नह कया’॥ ३ ॥ ल णके इस तरह कहनेपर दूसर के मनको रमाने ( स रखने)-वाल म े य शरोम ण ीरामने स ूण शा के ाता और उ ी तेज ी ाता ल णसे कहा —॥ ४ १/२ ॥ ‘वीर सु म ाकु मार! सभी पु ष म वैसी मा नह दखायी देती, जैसी राजा यया तम थी। राजा यया तने स गुणके अनुकूल मागका आ य ले दु:सह रोषको मा कर लया था। वह संग बताता ँ , एका च होकर सुनो॥ ५-६ ॥ ‘सौ ! न षके पु राजा यया त पुरवा सय , जाजन क वृ करनेवाले थे। उनके दो प याँ थ , जनके पक इस भूतलपर कह तुलना नह थी॥ ७ ॥ ‘न षन न राज ष यया तक एक प ीका नाम श म ा था, जो राजाके ारा ब त ही स ा नत थी। श म ा दै कु लक क ा और वृषपवाक पु ी थी॥ ‘पु ष वर! उनक दूसरी प ी शु ाचायक पु ी देवयानी थी। देवयानी सु री होनेपर भी राजाको अ धक य नह थी। उन दोन के ही पु बड़े पवान् ए। श म ाने पू को ज दया और देवयानीने यदुको। वे दोन बालक अपने च को एका रखनेवाले थे॥ ९-१० ॥ ‘अपनी माताके ेमयु वहारसे और अपने गुण से पू राजाको अ धक य था। इससे यदुके मनम बड़ा दु:ख आ। वे मातासे बोले—॥ ११ ॥ ‘मा! तुम अनायास ही महान् कम करनेवाले देव प शु ाचायके कु लम उ ◌इ हो तो भी यहाँ हा दक दु:ख और दु:सह अपमान सहती हो॥ १२ ॥



‘अत:



दे व! हम दोन एक साथ ही अ म वेश कर जायँ। राजा दै पु ी श म ाके साथ अन रा य तक रमते रह॥ १३ ॥ ‘य द तु यह सब कु छ सहन करना है तो मुझे ही ाण ागक आ ा दे दो। तु सहो। म नह स ँ गा। म न:संदेह मर जाऊँ गा’॥ १४ ॥ ‘अ आत होकर रोते ए अपने पु यदुक यह बात सुनकर देवयानीको बड़ा ोध आ और उ ने त ाल अपने पता शु ाचायजीका रण कया॥ ‘शु ाचाय अपनी पु ीक उस चे ाको जानकर त ाल उस ानपर आ प ँ च,े जहाँ देवयानी व मान थी॥ १६ ॥ ‘बेटीको अ , अ स और अचेत-सी देखकर पताने पूछा—‘व े! यह ा बात है?’॥ १७ ॥ ‘उ ी तेजवाले पता भृगुन न शु ाचाय जब बारंबार इस कार पूछने लगे, तब देवयानीने अ कु पत होकर उनसे कहा—‘मु न े ! म लत अ या अगाध जलम वेश कर जाऊँ गी अथवा वष खा लूँगी; कतु इस कार अपमा नत होकर जी वत नह रह सकूँ गी॥ १८-१९ ॥ ‘आपको पता नह है क म यहाँ कतनी दु:खी और अपमा नत ँ । न्! वृ के त अवहेलना होनेसे उसके आ त फू ल और प को ही तोड़ा और न कया जाता है (इसी तरह आपके त राजाके ारा अवहेलना होनेसे ही मेरा यहाँ अपमान हो रहा है)॥ २० ॥ ‘भृगुन न! राज ष यया त आपके अनादरका भाव रखनेके कारण मेरी भी अवहेलना करते ह और मुझे अ धक आदर नह देते ह’॥ २१ ॥ ‘देवयानीक यह बात सुनकर भृगुन न शु ाचायको बड़ा ोध आ और उ ने न षपु यया तको ल करके इस कार कहना आर कया—॥ २२ ॥ ‘न षकु मार! तुम दुरा ा होनेके कारण मेरी अवहेलना करते हो, इस लये तु ारी अव ा जरा-जीण वृ के समान हो जायगी—तुम सवथा श थल हो जाओगे’॥ २३ ॥ ‘राजासे ऐसा कहकर पु ीको आ ासन दे महायश ी ष शु ाचाय पुन: अपने घरको चले गये॥ २४ ॥



‘सूयके



समान तेज ी तथा ा ण शरोम णय म अ ग शु ाचाय देवयानीको आ ासन दे न षपु यया तको ऐसा कहकर उ पूव शाप दे फर चले गये’॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अ ावनवाँ सग पूरा आ॥ ५८ ॥



उनसठवाँ सग यया तका अपने पु पू को अपना बुढ़ापा देकर बदलेम उसका यौवन लेना और भोग से तृ होकर पुन: दीघकालके बाद उसे उसका यौवन लौटा देना, पू का अपने पताक ग ीपर अ भषेक तथा यदक ु ो शाप



शु ाचायके कु पत होनेका समाचार सुनकर न षकु मार यया तको बड़ा दु:ख आ। उ ऐसी वृ ाव ा ा ◌इ, जो दूसरेक जवानीसे बदली जा सकती थी। उस वल ण जराव ाको पाकर राजाने यदुसे कहा—॥ १ ॥ ‘यदो! तुम धमके ाता हो। मेरे महायश ी पु ! तुम मेरे लये दूसरेके शरीरम संचा रत करनेके यो इस जराव ाको ले लो। म भोग ारा रमण क ँ गा— अपनी भोग वषयक इ ाको पूण क ँ गा॥ २ ॥ ‘नर े ! अभीतक म वषयभोग से तृ नह आ ँ । इ ानुसार वषयसुखका अनुभव करके फर अपनी वृ ाव ा म तुमसे ले लूँगा’॥ ३ ॥ उनक यह बात सुनकर यदुने नर े यया तको उ र दया—‘आपके लाड़ले बेटे पू ही इस वृ ाव ाको हण कर॥ ४ ॥ ‘पृ ीनाथ! मुझे तो आपने धनसे तथा पास रहकर लाड़- ार पानेके अ धकारसे भी व त कर दया है; अत: जनके साथ बैठकर आप भोजन करते ह, उ लोग से युवाव ा हण क जये’॥ ५ ॥ यदुक यह बात सुनकर राजाने पू से कहा— ‘महाबाहो! मेरी सुख-सु वधाके लये तुम इस वृ ाव ाको हण कर लो’॥ ६ ॥ न ष-पु यया तके ऐसा कहनेपर पू हाथ जोड़कर बोले—‘ पताजी! आपक सेवाका अवसर पाकर म ध हो गया। यह आपका मेरे ऊपर महान् अनु ह है। आपक आ ाका पालन करनेके लये म हर तरहसे तैयार ँ ’॥ ७ ॥ पू का यह ीकारसूचक वचन सुनकर न षकु मार यया तको बड़ी स ता ◌इ। उ अनुपम हष ा आ और उ ने अपनी वृ ाव ा पू के शरीरम संचा रत कर दी॥ ८ ॥



तदन र त ण ए राजा यया तने सह य का अनु ान करते ए क◌इ हजार वष तक इस पृ ीका पालन कया॥ ९ ॥ इसके बाद दीघकाल तीत होनेपर राजाने पू से कहा—‘बेटा! तु ारे पास धरोहरके पम रखी ◌इ मेरी वृ ाव ाको मुझे लौटा दो॥ १० ॥ ‘पु ! मने वृ ाव ाको धरोहरके पम ही तु ारे शरीरम संचा रत कया था; इस लये उसे वापस ले लूँगा। तुम अपने मनम दु:ख न मानना॥ ११ ॥ ‘महाबाहो! तुमने मेरी आ ा मान ली, इससे मुझे बड़ी स ता ◌इ। अब म बड़े ेमसे राजाके पदपर तु ारा अ भषेक क ँ गा’॥ १२ ॥ अपने पु पू से ऐसा कहकर न षकु मार राजा यया त देवयानीके बेटेसे कु पत होकर बोले —॥ १३ ॥ ‘यदो! मने दुजय यके पम तुम-जैसे रा सको ज दया। तुमने मेरी आ ाका उ न कया है, अत: तुम अपनी संतान को रा ा धकारी बनानेके वषयम वफल-मनोरथ हो जाओ॥ १४ ॥ ‘म पता ँ , गु ँ ; फर भी तुम मेरा अपमान करते हो, इस लये भयंकर रा स और यातुधान को तुम ज दोगे॥ १५ ॥ ‘तु ारी बु ब त खोटी है। अत: तु ारी संतान सोमकु लम उ वंशपर राम राजाके पसे त ष्ठत नह होगी। तु ारी संत त भी तु ारे ही समान उ होगी’॥ १६ ॥ यदुसे ऐसा कहकर राज ष यया तने रा क वृ करनेवाले पू को अ भषेकके ारा स ा नत करके वान -आ मम वेश कया॥ १७ ॥ तदन र दीघकालके प ात् ार -भोगका य होनेपर न षपु राजा यया तने शरीरको ाग दया और गलोकको ान कया॥ १८ ॥ उसके बाद महायश ी पू ने महान् धमसे संयु हो का शराजक े राजधानी त ानपुरम रहकर उस रा का पालन कया॥ १९ ॥ राजकु लसे ब ह ृ त यदुने नगरम तथा दुगम ौ वनम सह यातुधान को ज दया॥ २० ॥



शु ाचायके दये ए इस शापको राजा यया तने यधमके अनुसार धारण कर लया। परंतु राजा न मने व स जीके शापको नह सहन कया॥ २१ ॥ सौ ! यह सारा संग मने तु सुना दया। सम कृ का पालन करनेवाले स ु ष क ( वचार)-का ही हम अनुसरण करते ह, जससे राजा नृगक भाँ त हम भी दोष न ा हो॥ २२ ॥ च माके समान मनोहर मुखवाले ीराम जब इस कार कथा कह रहे थे, उस समय आकाशम दो-ही-एक तारे रह गये। पूव दशा अ ण करण से र त हो लाल दखायी देने लगी, मानो कु सुम-रंगम रँगे ए अ ण व से उसने अपने अ को ढक लया हो॥ २३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म उनसठवाँ सग पूरा आ॥ ५९॥



सग १* ीरामके



ारपर कायाथ कु ेका आगमन और



ीरामका उसे दरबारम लानेका



आदेश



तदन र नमल भातकालम पूवा कालो चत सं ा-व न आ द न कम करके कमलनयन राजा ीराम राजधम का पालन ( जाजन के ववादका नपटारा) करनेके लये वेदवे ा ा ण , पुरो हत व स तथा क प मु नके साथ राजसभाम उप त हो धम ( ाय)के आसनपर वराजमान ए॥ १-२ ॥ वह सभा वहारका ान रखनेवाले म य , धमशा का पाठ करनेवाले व ान , नी त , राजा तथा अ सभासद से भरी ◌इ थी॥ ३ ॥ अनायास ही महान् कम करनेवाले राज सह ीरामक वह सभा इ , यम और व णक सभाके समान शोभा पाती थी॥ ४ ॥ वहाँ बैठे ए भगवान् ीरामने शुभल णस ल णसे कहा—‘माता सु म ाका आन बढ़ानेवाले महाबा वीर! तुम बाहर नकलो और देखो क कौन-कौन-से कायाथ उप त ह। सु म ाकु मार! तुम उन काया थय को बारी-बारीसे बुलाना आर करो’॥ ५ १/२ ॥ ीरामच जीका यह आदेश सुनकर शुभल ण ल णने ारदेशपर आकर यं ही काया थय को पुकारा, परंतु को◌इ भी वहाँ यह न कह सका क मुझे यहाँ को◌इ काय है॥ ६-७ ॥ ीरामके रा -शासन करते समय न तो कह कसीको शारी रक रोग होते थे और न मान सक च ाएँ ही सताती थ । पृ ीपर सब कारक ओष धयाँ (अ -फल आ द) उ होती थ और पक ◌इ खेती शोभा पाती थी॥ ८ ॥ ीरामके रा म न तो बालकक मृ ु होती थी न युवकक और न म म अव ाके पु षक ही। सबका धमपूवक शासन होता था। कसीके सामने कभी को◌इ बाधा नह आती थी॥ ९ ॥ ीरामके रा -शासनकालम कभी को◌इ कायाथ (अ भयोग लेकर आनेवाला पु ष) दखायी नह देता था। ल णने हाथ जोड़कर ीरामच जीको रा क ऐसी त बतायी॥



१० ॥



तदन र स च ए ीरामने सु म ाकु मारसे पुन: इस कार कहा—‘ल ण! तुम फर जाओ और कायाथ पु ष का पता लगाओ॥ ११ ॥ ‘भलीभाँ त उ म नी तका योग करनेसे रा म कह अधम नह रह जाता है। अत: सभी लोग राजाके भयसे यहाँ एक-दूसरेक र ा करते ह॥ १२ ॥ ‘य प राजकमचारी मेरे छोड़े ए बाण के समान यहाँ जाक र ा करते ह, तथा प महाबाहो! तुम यं भी त र रहकर जाका पालन कया करो’॥ १३ ॥ ीरामके ऐसा कहनेपर सु म ाकु मार ल ण राजभवनसे बाहर नकले। बाहर आकर उ ने देखा, ारपर एक कु ा खड़ा है, जो उ क ओर देखता आ बारंबार भूँक रहा है। उसे इस कार देखकर परा मी ल णने उससे पूछा—॥ १४-१५ ॥ ‘महाभाग! तुम नभय होकर बताओ, तु ारा ा काम है?’ ल णका यह वचन सुनकर कु ेने कहा—॥ १६ ॥ ‘जो सम भूत को शरण देनेवाले और ेशर हत कम करनेवाले ह, जो भयके अवसर पर भी अभय देते ह, उन भगवान् ीरामके सम ही म अपना काम बता सकता ँ ’॥ १७ ॥



कु ेका यह कथन सुनकर ल णने ीरघुनाथजीको इसक सूचना देनेके लये सु र राजभवनम वेश कया॥ ीरामको उसक बात बताकर ल ण पुन: राजभवनसे बाहर नकल आये और उससे बोले—‘य द तु कु छ कहना है तो चलकर राजासे ही कहो’॥ १९ ॥ ल णक वह बात सुनकर कु ा बोला— ‘सु म ान न! देवालयम, राजभवनम तथा ा णके घर म अ , इ , सूय और वायुदेवता सदा त रहते ह; अत: हम अधमयो नके जीव े ासे वहाँ जानेके यो नह ह॥ २०-२१ ॥ ‘म इस राजभवनम वेश नह कर सकूँ गा; क राजा ीराम धमके मू तमान् प ह। वे स वादी, सं ामकु शल और सम ा णय के हतम त र रहनेवाले ह॥ २२ ॥ ‘वे सं ध- व ह आ द छह गुण के योगके अवसर को जानते ह। ीरघुनाथजी ाय करनेवाले ह। वे सव और सवदश ह। ीराम दूसर के मनको रमानेवाले पु ष म े ह॥ २३



॥ ‘वे ही च



मा ह, वे ही मृ ु ह, वे ही यम, कु बेर, अ , इ , सूय और व ण ह॥ २४ ॥ ‘सु म ान न! ीरघुनाथजी जापालक ह। आप उनसे क हये। म उनक आ ा ा कये बना इस भवनम वेश करना नह चाहता’॥ २५ ॥ यह सुनकर महातेज ी महाभाग ल णने दयावश राजभवनम वेश करके कहा—॥ २६ ॥ ‘कौस



ाका आन बढ़ानेवाले महाबा ीरघुनाथजी! मेरा यह नवेदन सु नये। आपने जो आदेश दया था, उसके अनुसार मने बाहर जाकर कायाथ को पुकारा॥ २७ ॥ ‘इस समय आपके ारपर एक कु ा खड़ा है, जो कायाथ होकर आया है।’ ल णक यह बात सुनकर ीरामने कहा—‘यहाँ जो भी कायाथ होकर खड़ा है, उसे शी इस सभाके भीतर ले आओ’॥ २८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सग पूरा आ॥ १॥ * कु छ



तय म यहाँ तीन सग और मलते ह, जनपर सं ृ त-टीकाकार क ा ा न मलनेसे इ है। इनमसे दो सग उपयोगी होनेके कारण यहाँ अनुवादस हत दये जा रहे ह।



बताया गया



सग २



कु ेके त ीरामका ाय, उसक इ ाके अनुसार उसे मारनेवाले ा णको मठाधीश बना देना और कु ेका मठाधीश होनेका दोष बताना ीरामका यह वचन सुनकर बु मान् ल णने त ाल उस कु ेको बुलाया और ीरामको उसके आनेक सूचना दी॥ १ ॥ वहाँ आये ए कु ेक ओर देखकर ीरामने कहा—‘सारमेय! तु जो कु छ कहना है, उसे मेरे सामने कहो। यहाँ तु को◌इ भय नह है’॥ २ ॥ कु ेका म क फट गया था। उसने राजसभाम बैठे ए महाराज ीरामक ओर देखा और देखकर इस कार कहा—॥ ३ ॥ ‘राजा ही सम ा णय का उ ादक और नायक है। राजा सबके सोते रहनेपर भी जागता है और जा का पालन करता है॥ ४ ॥ ‘राजा सबका र क है। वह उ म नी तका योग करके सबक र ा करता है। य द राजा पालन न करे तो सम जाएँ शी न हो जाती ह॥ ५ ॥ ‘राजा कता, राजा र क और राजा स ूण जग ा पता है। राजा काल और युग है तथा राजा यह स ूण जगत् है॥ ६ ॥ ‘धम स ूण जग ो धारण करता है, इसी लये उसका नाम धम है। धमने ही सम जाको धारण कर रखा है; क वही चराचर ा णय स हत सारी लोक का आधार है॥ ७ ॥ ‘राजा



अपने ो हय को भी धारण करता है (अथवा वह दु को भी मयादाम ा पत करता है) तथा वह धमके ारा जाको स रखता है; इस लये उसके शासन प कमको धारण कहा गया है और धारण ही धम है, यह शा का स ा है॥ ८ ॥ ‘रघुन न! यह जापालन प परम धम राजाको परलोकम उ म फल देनेवाला होता है। मेरा तो यह ढ़ व ास है क धमसे कु छ भी दुलभ नह है॥ ९ ॥ ‘ ीराम! दान, दया, स ु ष का स ान और वहारम सरलता यह परम धम है। जाजन क र ासे होनेवाला उ ृ धम इहलोक और परलोकम भी सुख देनेवाला होता है॥



१० ॥



‘उ



म तका पालन करनेवाले रघुन न! आप सम माण के भी माण ह। स ु ष ने जस धमका आचरण कया है, वह आपको भलीभाँ त व दत ही है॥ ११ ॥ ‘राजन्! आप धम के परम धाम और गुण के सागर ह। नृप े ! मने अ ानवश ही आपके सामने धमक ा ा क है॥ १२ ॥ ‘इसके लये म आपके चरण म म क रखकर मा चाहता और आपके स होनेके लये ाथना करता ँ । आप यहाँ मुझपर कु पत न ह ।’ कु ेक यह बात सुनकर ीरघुनाथजी बोले—॥ १३ ॥ ‘तुम नभय होकर बताओ। आज म तु ारा कौन-सा काय स क ँ । अपना काम बतानेम वल न करो।’ ीरामक यह बात सुनकर कु ा बोला—॥ १४ ॥ ‘रघुन न! राजा धमसे ही रा ा करे और धमसे ही नर र उसका पालन करे। धमसे ही राजा सबको शरण देनेवाला और सबका भय दूर करनेवाला होता है। ऐसा जानकर आप मेरा जो काय है, उसे सु नये॥ १५ १/२ ॥ ‘ भो! सवाथ स नामसे स एक भ ु है, जो ा ण के घरम रहा करता है। उसने आज अकारण मुझपर हार कया है। मने उसका को◌इ अपराध नह कया था’॥ १६ १/२ ॥ कु ेक यह बात सुनकर ीरामने त ाल एक ारपाल भेजा और उस सवाथ स नामक व ान् भ ु ा णको बुलवाया॥ १७ १/२ ॥ ीरामको देखकर उस महातेज ी े ा णने पूछा—‘ न ाप रघुन न! मुझसे आपको ा काम है ?’॥ १८ १/२ ॥ ा णके इस कार पूछनेपर ीराम बोले— ‘ न्! आपने इस कु ेके सरपर जो यह हार कया है, उसका ा कारण है? व वर! इसने आपका ा अपराध कया था, जसके कारण आपने इसे डंडा मारा है?॥ १९-२० ॥ ‘ ोध ाणहारी श ु है। ोधको म मुख* श ु बताया गया है। ोध अ तीखी तलवार है तथा ोध सारे स णु को ख च लेता है॥ २१ ॥ ‘मनु जो तप करता, य करता और दान देता है, उन सबके पु को वह ोधके ारा न कर देता है। इस लये ोधको ाग देना चा हये॥ २२ ॥



‘दु



घोड़ क तरह वषय क ओर दौड़नेवाली इ य को उन वषय क ओरसे हटाकर धैयपूवक उ नय णम रखे॥ २३ ॥ ‘मनु को चा हये क वह अपने पास वचरनेवाले लोग क मन, वाणी, या और ारा भला◌इ ही करे। कसीसे ेष न रखे। ऐसा करनेसे वह पापसे ल नह होता॥ २४ ॥ ‘अपना दु



मन जो अ न या अनथ कर सकता है, वैसा तीखी तलवार, पैर तले कु चला आ सप अथवा सदा ोधसे भरा रहनेवाला श ु भी नह कर सकता॥ २५ ॥ ‘ जसे वनयक श ा मली हो, उसक भी कृ त नयी नह बनती है। को◌इ अपनी दु कृ तको कतना ही न छपाये, उसके कायम उसक दु ता न य ही कट हो जाती है’॥ २६ ॥ ेशर हत कम करनेवाले ीरामके ऐसा कहनेपर सवाथ स नामक ा णने उनके नकट इस कार कहा—॥ २७ ॥ ‘ भो! मेरा मन ोधसे भर गया था, इस लये मने इसे डंडस े े मारा है। भ ाका समय बीत चुका था, तथा प भूखे रहनेके कारण भ ा माँगनेके लये म ार ार घूम रहा था। यह कु ा बीच रा ेम खड़ा था। मने बार-बार कहा—‘तुम रा ेसे हट जाओ, हट जाओ’ फर यह अपनी मौजसे चला और सड़कके बीचम बेढगं े खड़ा हो गया॥ २८-२९ ॥ ‘म भूखा तो था ही, ोध चढ़ आया। राजा धराज रघुन न! उस ोधसे ही े रत होकर मने इसके सरपर डंडा मार दया। म अपराधी ँ । आप मुझे द दी जये। राजे ! आपसे द मल जानेपर मुझे नरकम पड़नेका डर नह रहेगा’॥ ३० १/२ ॥ तब ीरामने सभी सभासद से पूछा—‘आपलोग बताव, इसके लये ा करना चा हये? इसे कौन-सा द दया जाय! क भलीभाँ त द का योग होनेपर जा सुर त रहती है’॥ ३१-३२ ॥ उस सभाम भृग,ु आ रस, कु , व स और का प आ द मु न थे। धमशा का पाठ करनेवाले मु -मु व ान् उप त थे। म ी और महाजन मौजूद थे—ये तथा और ब त-से प त वहाँ एक ए थे। राजधम के ानम प र न ष्ठत वे सभी व ान् ीरघुनाथजीसे बोले —‘भगवन्! ा ण द ारा अव है, उसे शारी रक द नह मलना चा हये, यही सम शा का मत है’॥ ३३-३४ १/२ ॥



तदन र वे सब मु न उस समय ीरामसे ही बोले—‘रघुन न! राजा सबका शासक होता है। वशेषत: आप तो तीन लोक पर शासन करनेवाले सा ात् सनातन देवता भगवान् व ु ह’॥ ३५-३६ ॥ उन सबके ऐसा कहनेपर कु ा बोला— ‘ ीराम! य द आप मुझपर संतु ह, य द आपको मुझे इ ानुसार वर देना है, तो मेरी बात सु नये॥ ३७ ॥ ‘वीर नरे र! आपने त ापूवक पूछा है क म आपका कौन-सा काय स क ँ । इस कार आप मेरी इ ा पूण करनेको त ाब हो चुके ह। अत: म कहता ँ क इस ा णको कु लप त (मह ) बना दी जये। महाराज! इसे काल रम एक मठका आ धप (वहाँक मह ी) दान कर दी जये’॥ ३८ १/२ ॥ यह सुनकर ीरामने उसका कु लप तके पदपर अ भषेक कर दया। इस कार पू जत आ वह ा ण हाथीक पीठपर बैठकर बड़े हषके साथ वहाँसे चला गया॥ ३९ १/२ ॥ तब ीरामच जीके म ी मुसकराते ए बोले— ‘महातेज ी महाराज! यह तो इसे वर दया गया है, शाप या द नह ’॥ ४० १/२ ॥ ‘म य के ऐसा कहनेपर ीरामने कहा—‘ कस कमका ा प रणाम होता है अथवा उससे जीवक कै सी ग त होती है, इसका त तुमलोग नह जानते। ा णको मठाधीशका पद दया गया? इसका कारण यह कु ा जानता है’॥ ४१ १/२ ॥ त ात् ीरामके पूछनेपर कु ेने इस कार कहा— ‘रघुन न! म पहले ज म काल रके मठम कु लप त (मठाधीश) था। वहाँ य श अ का भोजन करता, देवता और ा ण क पूजाम त र रहता, दास-दा सय को उनका ायो चत भाग बाँट देता, शुभ कम म अनुर रहता, देवस क र ा करता तथा वनय और शीलसे स होकर सम ा णय के हत-साधनम संल रहता था॥ ४२—४४ ॥ ‘तो भी मुझे यह घोर अव ा एवं अधम ग त ा ◌इ। फर जो ऐसा ोधी है, धमको छोड़ चुका है, दूसर के अ हतम लगा आ है तथा ोध करनेवाला, ू र, कठोर, मूख और अधम है, वह ा ण तो मठाधीश होकर अपने साथ ही ऊपर और नीचेक सात-सात पी ढ़य को भी नरकम गराकर ही रहेगा॥ ४५-४६ ॥



‘इस लये कसी भी दशाम मठाधीशका पद नह ब ु-बा व स हत नरकम गरा देनेक इ ा हो,



हण करना चा हये। जसे पु , पशु उसे देवता , गौ और ा ण का



और अ ध ाता बना दे॥ ‘जो ा णका, देवताका, य का और बालक का धन हर लेता है तथा जो अपनी दान क ◌इ स को फर वापस ले लेता है, वह इ जन स हत न हो जाता है॥ ४८ १/२ ॥ ‘रघुन न! जो ा ण और देवता का हड़प लेता है, वह शी ही अवी च नामक घोर नरकम गर जाता है॥ ४९ १/२ ॥ ‘जो देवता और ा णक स को हर लेनेका वचार भी मनम लाता है, वह नराधम न य ही एक नरकसे दूसरे नरकम गरता रहता है’॥ ५० १/२ ॥ कु ेका यह वचन सुनकर ीरामच जीके ने आ यसे खल उठे और वह महातेज ी कु ा भी जधरसे आया था, उधर ही चला गया॥ ५१ १/२ ॥ वह पूवज म बड़ा मन ी था, परंतु इस ज म वह कु ेक यो नम उ होनेके कारण दू षत हो गया था। उस महाभाग कु ेने काशीम जाकर ायोपवेशन कर लया (अ -जल छोड़कर अपने ाण ाग दये)॥ ५२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सग पूरा आ॥ २॥ जो ऊपरसे म जान पड़े कतु प रणामम श ु स हो, वह ‘ म मुख’ श ु है। ोध अपने त ीको सतानेम सहायक-सा बनकर आता है, इसी लये इसे म मुख कहा गया है। ११२७ *



साठवाँ सग ीरामके दरबारम वन आ द ऋ षय का शुभागमन, ीरामके ारा उनका स ार करके उनके अभी कायको पूण करनेक त ा तथा ऋ षय ारा उनक शंसा



ीराम और ल ण पर र इस कार कथावाता करते ए त दन जापालनके कायम लगे रहते थे। एक समय वस -ऋतुक रात आयी, जो न अ धक सद लानेवाली थी और न गम ॥ १ ॥ वह रात बीतनेपर जब नमल भातकाल आया, तब पुरवा सय के काय को जाननेवाले ीरघुनाथजी पूवा कालके न कम—सं ा-व न आ दसे नवृ हो बाहर नकलकर जाजन के पथम आये॥ २ ॥ उसी समय सुम ने आकर ीरामच जीसे कहा— ‘राजन्! ये तप ी मह ष भृगुपु वन मु नको आगे करके ारपर खड़े ह। ारपाल ने इनका भीतर आना रोक दया है। महाराज! इ आपके दशनक ज ी लगी ◌इ है और ये अपने आगमनक सूचना देनेके लये हम बारंबार े रत करते ह॥ ३-४ ॥ ‘पु ष सह! ये सब मह ष यमुनातटपर नवास करते ह और आपसे वशेष ेम रखते ह।’ सुम क यह बात सुनकर धम ीरामने कहा—‘सूत! भागव, वन आ द सभी महाभाग षय को भीतर बुलाया जाय’॥ ५ १/२ ॥ राजाक यह आ ा शरोधाय करके ारपालने म कपर दोन हाथ जोड़ लये और उन अ दुजय तेज ी तापस को वह राजभवनके भीतर ले आया॥ ६ १/२ ॥ उन तप ी महा ा क सं ा सौसे अ धक थी। वे सब-के -सब अपने तेजसे का शत हो रहे थे। उन सबने राजभवनम वेश कया और सम तीथ के जलसे भरे ए घड़ के साथ ब त-से फल-मूल लेकर ीरामच जीको भट कये॥ ७-८ १/२ ॥ महाबा ीरामने बड़ी स ताके साथ वह सारा उपहार—वे सारे तीथजल और नाना कारके फल लेकर उन सभी महामु नय से कहा—॥ ९-१० ॥ ‘महा ाओ! ये उ मो म आसन ुत ह। आपलोग यथायो इन आसन पर बैठ जायँ।’ ीरामच जीका यह वचन सुनकर वे सभी मह ष चर शोभासे स उन सुवणमय



आसन पर बैठे॥ ११ १/२ ॥ उन मह षय को वहाँ आसन पर वराजमान देख श ुनगरीपर वजय पानेवाले ीरघुनाथजीने हाथ जोड़ संयतभावसे कहा—॥ १२ ॥ ‘मह षयो! कस कामसे यहाँ आपलोग का शुभागमन आ है! म एका च होकर आपक ा सेवा क ँ ? यह सेवक आपक आ ा पानेके यो है। आदेश मलनेपर म बड़े सुखसे आपक सभी इ ा को पूण कर सकता ँ ॥ १३ ॥ ‘यह सारा रा , इस दयकमलम वराजमान यह जीवा ा तथा यह मेरा सारा वैभव ा ण क सेवाके लये ही है, म आपके सम यह स ी बात कहता ँ ’॥ १४ ॥ ीरघुनाथजीके ये वचन सुनकर उन यमुनातीर नवास ◌ी उ तप ी मह षय ने उ रसे उ साधुवाद दया॥ १५ ॥ फर वे महा ा बड़े हषके साथ बोले— ‘नर े ! इस भूम लम ऐसी बात आपके ही यो ह। दूसरे कसीके मुखसे इस तरहक बात नह नकलती॥ १६ ॥ ‘राजन्! हम ब त-से महाबली राजा के पास गये; परंतु उ ने कायके गौरवको समझकर उसे सुननेके बाद भी ‘क ँ गा’ ऐसी त ा करनेक च नह दखायी॥ १७ ॥ ‘परंतु आपने हमारे आनेका कारण जाने बना ही के वल ा ण के त आदरका भाव होनेसे हमारा काम करनेक त ा कर डाली है; इस लये आप अव यह काम कर सकगे, इसम संशय नह है। आप ही महान् भयसे ऋ षय को बचा सकगे’॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म साठवाँ सग पूरा आ॥ ६०॥



इकसठवाँ सग ऋ षय का मधुको ा ए वर तथा लवणासुरके बल और अ ाचारका वणन करके उससे ा होनेवाले भयको दरू करनेके लये ीरघुनाथजीसे ाथना करना



इस कार कहते ए ऋ षय से े रत हो ीरामच जीने कहा—‘मह षयो! बताइये, आपका कौन-सा काय मुझे स करना है! आपलोग का भय तो अभी दूर हो जाना चा हये’॥ १ ॥



ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर भृगुपु वन बोले—‘नरे र! समूचे देशपर और हमलोग पर जो भय ा आ है, उसका मूल कारण ा है, सु नये॥ २ ॥ ‘राजन्! पहले स युगम एक बड़ा बु मान् दै था। वह लोलाका े पु था। उस महान् असुरका नाम था मधु॥ ३ ॥ ‘वह बड़ा ही ा ण-भ और शरणागतव ल था। उसक बु सु र थी। अ उदार भाववाले देवता के साथ भी उसक ऐसी गहरी म ता थी, जसक कह तुलना नह थी॥ ४ ॥ ‘मधु बल- व मसे स था और एका च होकर धमके अनु ानम लगा रहता था। उसने भगवान् शवक बड़ी आराधना क थी, जससे उ ने उसे अ तु वर दान कया था॥ ५ ॥ ‘महामना



भगवान् शवने अ स हो अपने शूलसे एक चमचमाता आ परम श शाली शूल कट करके उसे मधुको दया और यह बात कही—॥ ६ ॥ ‘‘तुमने मुझे स करनेवाला यह बड़ा अनुपम धम कया है; अत: म अ स होकर तु यह उ म आयुध दान करता ँ ॥ ७ ॥ ‘‘महान् असुर! जबतक तुम ा ण और देवता से वरोध नह करोगे, तभीतक यह शूल तु ारे पास रहेगा, अ था अ हो जायगा॥ ८ ॥ ‘‘जो पु ष न:श होकर तु ारे सामने यु के लये आयेगा, उसे भ करके यह शूल पुन: तु ारे हाथम लौट आयेगा’॥ ९ ॥



‘‘भगवान् से ऐसा कार बोला—॥ १० ॥



वर पाकर वह महान् असुर महादेवजीको णाम करके फर इस



‘‘भगवन्! देवा धदेव! आप सम



देवता के ामी ह; अत: आपसे ाथना है क परम उ म शूल मेरे वंशज के पास भी सदा रहे’॥ ११ ॥ ‘ऐसी बात कहनेवाले उस मधुसे सम ा णय के अ धप त महान् देवता भगवान् शवने इस कार कहा—‘ऐसा तो नह हो सकता॥ १२ ॥ ‘‘परंतु मुझे स जानकर तु ारे मुखसे जो शुभ वाणी नकली है, वह भी न ल न हो; इस लये म वर देता ँ क तु ारे एक पु के पास यह शूल रहेगा॥ १३ ॥ ‘‘यह शूल जबतक तु ारे पु के हाथम मौजूद रहेगा, तबतक वह सम ा णय के लये अव बना रहेगा’॥ १४ ॥ ‘महादेवजीसे इस कार अ अ तु वर पाकर असुर े मधुने एक सु र भवन तैयार कराया, जो अ दी मान् था॥ १५ ॥ ‘उसक य प ी महाभागा कु ीनसी थी, जो व ावसुक संतान थी। उसका ज अनलाके गभसे आ था। कु ीनसी बड़ी का मती थी॥ १६ ॥ ‘उसका पु महापरा मी लवण है, जसका भाव बड़ा भयंकर है। वह दु ा ा बचपनसे ही के वल पापाचारम वृ रहा है॥ १७ ॥ ‘अपने पु को उ आ देख मधु ोधसे जलता रहता था। उसे बेटेक दु ता देखकर बड़ा शोक आ, तथा प वह इससे कु छ नह बोला॥ १८ ॥ ‘अ म वह इस देशको छोड़कर समु म रहनेके लये चला गया। चलते समय उसने वह शूल लवणको दे दया और उसे वरदानक बात भी बता दी॥ १९ ॥ ‘अब वह दु उस शूलके भावसे तथा अपनी दु ताके कारण तीन लोक को वशेषत: तप ी मु नय को बड़ा संताप दे रहा है॥ २० ॥ ‘उस लवणासुरका ऐसा भाव है और उसके पास वैसा श शाली शूल भी है। रघुन न! यह सब सुनकर यथो चत काय करनेम आप ही माण ह और आप ही हमारी परम ग त ह॥ २१ ॥



ीराम! आजसे पहले भयसे पी ड़त ए ऋ ष अनेक राजा के पास जा-जाकर अभयक भ ा माँग चुके ह; परंतु वीर रघुवीर! अबतक हम को◌इ र क नह मला॥ २२ ॥ ‘तात! हमने सुना है क आपने सेना और सवा रय स हत रावणका संहार कर डाला है; इस लये हम आपहीको अपनी र ा करनेम समथ समझते ह, भूतलपर दूसरे कसी राजाको नह । अत: हमारी इ ा है क आप भयसे पी ड़त ए मह षय क लवणासुरसे र ा कर॥ २३ ‘



॥ ‘बल- व मसे स गया है, वह हमने आपके



ीराम! इस कार हमारे सामने जो भयका कारण उप त हो आगे नवेदन कर दया। आप इसे दूर करनेम समथ ह, अत: हमारी यह अ भलाषा पूण कर’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म इकसठवाँ सग पूरा आ॥ ६१॥



बासठवाँ सग ीरामका ऋ षय से लवणासुरके आहार- वहारके वषयम पूछना और श ु क जानकर उ लवण-वधके कायम नयु करना







ऋ षय के इस कार कहनेपर ीरामच जीने उनसे हाथ जोड़कर पूछा—‘लवणासुर ा खाता है? उसका आचार- वहार कै सा है—रहने-सहनेका ढंग ा है? और वह कहाँ रहता है?’॥ १ ॥ ीरघुनाथजीक यह बात सुनकर उन सभी ऋ षय ने जस तरहके आहार- वहारसे लवणासुर पला था, वह सब कह सुनाया॥ २ ॥ वे बोले—‘ भो! उसका आहार तो सभी ाणी ह; परंतु वशेषत: वह तप ी मु नय को खाता है। उसके आचार- वहारम बड़ी ू रता और भयानकता है और वह सदा मधुवनम नवास करता है॥ ३ ॥ ‘वह त दन क◌इ सह सह, ा , मृग, प ी और मनु को मारकर खा जाता है॥ ४॥ ‘संहारकाल आनेपर मुँह बाकर खड़े ए यमराजके समान वह महाबली असुर दूसरे-दूसरे जीव को भी खाता रहता है’॥ ५ ॥ उनका यह कथन सुनकर ीरघुनाथजीने उन महामु नय से कहा—‘मह षयो! म उस रा सको मरवा डालूँगा। आपलोग का भय दूर हो जाना चा हये’॥ ६ ॥ इस कार उन उ तेज ी मु नय के सम त ा करके रघुकुलन न ीरामने वहाँ एक ए अपने सब भाइय से पूछा—॥ ७ ॥ ‘ब ुओ! लवणको कौन वीर मारेगा? उसे कसके ह ेम रखा जाय—महाबा भरतके या बु मान् श ु के ’॥ रघुनाथजीके इस कार पूछनेपर भरतजी बोले— ‘भैया! म इस लवणका वध क ँ गा। इसे मेरे ह ेम रखा जाय’॥ ९ ॥ भरतजीके ये धीरता और वीरतापूण श सुनकर श ु जी सोनेका सहासन छोड़कर खड़े हो गये और महाराज ीरामको णाम करके बोले—‘रघुन न! महाबा मझले भैया तो ब त-



से काय कर चुके ह॥ ‘पहले जब अयो ापुरी आपसे सूनी हो गयी थी, उस समय आपके आगमन-कालतक दयम अ संताप लये इ ने अयो ापुरीका पालन कया था॥ १२ ॥ ‘पृ ीनाथ! महायश ी भरतने न ामम दु:खद श ापर सोते ए पहले ब त-से दु:ख भोगे ह। ये फल-मूल खाकर रहते थे और सरपर जटा बढ़ाये चीर व धारण करते थे॥ १३ १/२ ॥ ‘महाराज!



ऐसे-ऐसे दु:ख भोगकर ये रघुकुलन न भरत मुझ सेवकके रहते ए अब फर अ धक ेश न उठाव’॥ १४ १/२ ॥ श ु के ऐसा कहनेपर ीरघुनाथजी फर बोले— ‘काकु ! तुम जैसा कहते हो, वैसा ही हो। तु मेरे इस आदेशका पालन करो। म तु मधुके सु र नगरम राजाके पदपर अ भ ष क ँ गा॥ १५-१६ ॥ ‘महाबाहो! य द तुम भरतको ेश देना ठीक नह समझते तो इनको यह रहने दो। तुम शूरवीर हो, अ - व ाके ाता हो तथा तुमम नूतन नगर नमाण करनेक श है॥ १७ ॥ ‘तुम यमुनाजीके तटपर सु र नगर बसा सकते हो और उ मो म जनपद क ापना कर सकते हो। जो कसी राजाके वंशका उ ेद करके उसक राजधानीम दूसरे राजाको ा पत नह करता, वह नरकम पड़ता है॥ ‘अत: तुम मधुके पु पापा ा लवणासुरको मारकर धमपूवक वहाँके रा का शासन करो। शूरवीर! य द तुम मेरी बात मानने यो समझो तो म जो कु छ कहता ँ , उसे चुपचाप ीकार करो। बीचम बात काटकर को◌इ उ र तु नह देना चा हये। बालकको अव ही अपने बड़ क आ ाका पालन करना चा हये। श ु ! व स आ द मु -मु ा ण व ध और म ो ारणके साथ तु ारा अ भषेक करगे। मेरी आ ासे ा ए इस अ भषेकको तुम ीकार करो’॥ १९—२१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बासठवाँ सग पूरा आ॥ ६२॥



तरसठवाँ सग ीराम ारा श ु का रा



ा भषेक तथा उ लवणासुरके शूलसे बचनेके उपायका तपादन



ीरामच जीके ऐसा कहनेपर बल- व मसे स श ु बड़े ल त ए और धीरेधीरे बोले—॥ १ ॥ ‘ककु कु लभूषण नरे र! इस अ भषेकको ीकार करनेम तो मुझे अधम जान पड़ता है। भला, बड़े भाइय के रहते ए छोटेका अ भषेक कै से कया जा सकता है?॥ २ ॥ ‘तथा प पु ष वर! महाभाग! आपक आ ाका पालन तो मुझे अव करना ही चा हये। आपका शासन कसीके लये भी दुलङ् है॥ ३ ॥ ‘वीर! मने आपसे तथा वेदवा से भी यह बात सुनी है। वा वम मझले भैयाके त ा कर लेनेपर मुझे कु छ नह बोलना चा हये था॥ ४ ॥ ‘मेरे मुँहसे ये बड़े ही अनु चत श नकल गये क म लवणको मा ँ गा। पु षो म! उस अनु चत कथनका ही प रणाम है क मेरी इस कार दुग त हो रही है (मुझे बड़ के होते ए अ भ ष होना पड़ता है)॥ ५ ॥ ‘बड़े भा◌इके बोलनेपर मुझे फर कु छ उ र नह देना चा हये था; (अथात् भैया भरतने जब लवणको मारनेका नणय कर लया, तब मुझे उसम दखल नह देना चा हये था) परंतु मने इस नयमका उ न कया, इसी लये आपने ऐसा (रा ा भषेक वषयक) आदेश दे दया। जो ीकार कर लेनेपर मेरे लये अधमयु होनेके कारण परलोकके लाभसे भी व त करनेवाला है। तथा प आपक आ ा मेरे लये दुलङ् है; अत: मुझे इसको ीकार करना ही पड़ेगा॥ ६ ॥ ‘काकु ! अब आपक जो आ ा हो चुक , उसके व म दूसरा को◌इ उ र नह दूँगा। मानद! कह ऐसा न हो क दूसरा को◌इ उ र देनेपर मुझे इससे भी कठोर द भोगना पड़े॥ ७ ॥ ‘राजन्! पु ष वर रघुन न! म आपक इ ाके अनुसार ही काय क ँ गा। कतु इसम मेरे लये जो अधम ा होता हो, उसका नाश आप कर’॥ ८ ॥



शूरवीर महा ा श ु के ऐसा कहनेपर ीरामच जी बड़े स ए और भरत तथा ल ण आ दसे बोले—॥ ९ ॥ ‘तुम सब लोग बड़ी सावधानीके साथ रा ा भषेकक साम ी जुटाकर ले आओ। म अभी रघुकुलन न पु ष सह श ु का अ भषेक क ँ गा॥ १० ॥ ‘काकु ! मेरी आ ासे पुरो हत, वै दक व ान , ऋ ज तथा सम म य को बुला लाओ’॥ ११ ॥ महाराजक आ ा पाकर महारथी भरत और ल ण आ दने वैसा ही कया। वे पुरो हतजीको आगे करके अ भषेकक साम ी साथ लये राजभवनम आये। उनके साथ ही ब त-से राजा और ा ण भी वहाँ आ प ँ चे॥ १२ १/२ ॥ तदन र महा ा श ु का वैभवशाली अ भषेक आर आ, जो ीरघुनाथजी तथा सम पुरवा सय के हषको बढ़ानेवाला था॥ १३ १/२ ॥ जैसे पूवकालम इ आ द देवता ने का देवसेनाप तके पदपर अ भषेक कया था, उसी तरह ीराम आ दने वहाँ श ु का राजाके पदपर अ भषेक कया। इस कार अ भ ष होकर श ु जी सूयके समान सुशो भत ए॥ १४ १/२ ॥ ेशर हत कम करनेवाले ीरामके ारा जब श ु का रा ा भषेक आ, तब उस नगरके नवा सय और ब ुत ा ण को बड़ी स ता ◌इ॥ १५ १/२ ॥ इस समय कौस ा, सु म ा और कै के यी तथा रा भवनक अ राजम हला ने मलकर म लकाय स कया॥ १६ १/२ ॥ श ु जीका रा ा भषेक होनेसे यमुनातीर नवासी महा ा ऋ षय को यह न य हो गया क अब लवणासुर मारा गया॥ १७ १/२ ॥ अ भषेकके प ात् श ु को गोदम बठाकर ीरघुनाथजीने उनका तेज बढ़ाते ए मधुर वाणीम कहा—॥ १८ ॥ ‘रघुन न! सौ श ु ! म तु यह द अमोघ बाण दे रहा ँ । तुम इसके ारा लवणासुरको अव मार डालोगे॥ १९ ॥ ‘काकु ! पछले लयकालम जब कसीसे भी परा जत न होनेवाले अज ा एवं द पधारी भगवान् व ु महान् एकाणवके जलम शयन करते थे, उस समय उ देवता और असुर



को◌इ नह देख पाते थे। वे स ूण भूत के लये अ थे। वीर! उसी समय उन भगवान् नारायणने ही कु पत हो दुरा ा मधु और कै टभके वनाश तथा सम रा स के संहारके लये इस द , उ म एवं अमोघ बाणक सृ क थी। उस समय वे तीन लोक क सृ करना चाहते थे और मधु, कै टभ तथा अ सब रा स उसम व उप त कर रहे थे। अत: भगवा े इसी बाणसे मधु और कै टभ दोन को यु म मारा था। इस मु बाणसे मधु और कै टभ दोन को मारकर भगवा े जीव के कमफलभोगक स के लये व भ लोक क रचना क ॥ २०—२३ ॥ ‘श



ु ! पहले मने रावणका वध करनेके लये भी इस बाणका योग नह कया था; क इसके ारा ब त-से ा णय के न हो जानेक आश ा थी॥ २४ ॥ ‘लवणके पास जो महा ा महादेवजीका श ु वनाशके लये दया आ मधुका द , उ म एवं महान् शूल है, उसका वह त दन बारंबार पूजन करता है और उसे महलम ही गु पसे रखकर सम दशा म जा-जाकर अपने लये उ म आहारका सं ह करता है॥ २५-२६ ॥ ‘जब को◌इ यु क इ ा रखकर उसे ललकारता है, तब वह रा स उस शूलको लेकर अपने वप ीको भ कर देता है॥ २७ ॥ ‘पु ष सह! जस समय वह शूल उसके पास न हो और वह नगरम भी न प ँ च सका हो, उसी समय पहलेसे ही नगरके ारपर जाकर अ -श धारण कये उसक ती ाम डटे रहो॥ २८ ॥ ‘महाबा पु षो म! य द उस रा सको महलम घुसनेसे पहले ही तुम यु के लये ललकारोगे, तब अव उसका वध कर सकोगे॥ २९ ॥ ‘ऐसा न करनेपर वह अव हो जायगा। वीर! य द तुमने ऐसा कया तो उस रा सका वनाश होकर ही रहेगा॥ ३० ॥ ‘इस कार मने तु उस शूलसे बचनेका उपाय तथा अ सब आव क बात बता द ; क ीमान् भगवान् नीलक के वधानको पलटना बड़ा क ठन काम है’॥ ३१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म तरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६३॥



च सठवाँ सग ीरामक आ ाके अनुसार श ु का सेनाको आगे भेजकर एक मासके प ात् ान करना



यं भी



श ु जीको इस कार समझाकर और उनक बारंबार शंसा करके रघुकुलन न ीरामने पुन: यह बात कही—॥ १ ॥ ‘पु ष वर! ये चार हजार घोड़े, दो हजार रथ, सौ हाथी और रा ेम तरह-तरहके सामानक दूकान लगानेवाले ब नये लोग व यक आव क व ु के साथ तु ारे साथ जायँगे। साथ ही मनोर नके लये नट और नतक भी रहगे॥ २-३ ॥ ‘पु ष े श ु ! तुम दस लाख णमु ा लेकर जाओ। इस तरह पया धन और सवा रयाँ अपने साथ रखो॥ ४ ॥ ‘इस सेनाका भलीभाँ त भरण-पोषण कया गया है। यह हष तथा उ ाहसे पूण, संतु और उ तासे र हत होकर आ ाके अधीन रहनेवाली है। नर े ! इसे मधुर भाषणसे और धन देकर स रखना॥ ५ ॥ ‘रघुन न! अ स रखे गये सेवक-समूह (सै नक) जहाँ ( जस संकटकालम) खड़े होते या साथ देते ह, वहाँ न तो धन टक पाता है, न ी ठहर सकती है और न भा◌इ-ब ु ही खड़े हो सकते ह (अत: उन सबको सदा संतु रखना चा हये)॥ ६ ॥ ‘इस लये -पु मनु से भरी ◌इ इस वशाल सेनाको आगे भेजकर तुम पीछे से अके ले ही के वल धनुष हाथम लेकर मधुवनको जाना और इस तरह या ा करना, जससे मधुपु लवणको यह संदेह न हो क तुम यु क इ ासे वहाँ जा रहे हो। तु ारी ग त व धका उसे पता नह चलना चा हये॥ ७-८ ॥ ‘पु षो म! मने जो बताया है, उसके सवा उसक मृ ुका दूसरा को◌इ उपाय नह है; क जो भी शूलस हत लवणासुरके पथम आ जाता है, वह अव उसके ारा मारा जाता है॥ ९ ॥ ‘सौ ! जब ी -ऋतु नकल जाय और वषाकाल आ जाय, उस समय तुम लवणासुरका वध करना; क उस दुबु रा सके नाशका वही समय है॥ १० ॥



‘तु



ारे सै नक मह षय को आगे करके यहाँसे या ा कर, जससे ी -ऋतु बीतते-बीतते वे ग ाजीको पार कर जायँ॥ ११ ॥ ‘शी परा मी वीर! फर सारी सेनाको वह ग ाजीके तटपर ठहराकर तुम धनुषमा लेकर पूरी सावधानीके साथ अके ले ही आगे जाना’॥ १२ ॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर श ु जीने अपने धान सेनाप तय को बुलाया और इस कार कहा—॥ १३ ॥ ‘देखो, मागम जहाँ-जहाँ डेरा डालना है, उन पड़ाव का न य कर लया गया है। तु वह नवास करना होगा। जहाँ भी ठहरो, वरोधभावको मनसे नकाल दो, जससे कसीको क न प ँ च’े ॥ १४ ॥ इस कार उन सेनाप तय को आ ा दे अपनी वशाल सेनाको आगे भेजकर श ु ने कौस ा, सु म ा तथा कै के यीको णाम कया॥ १५ ॥ त ात् ीरामक प र मा करके उनके चरण म म क कु ाया। फर हाथ जोड़कर भरत और ल णक भी व ना क ॥ १६ ॥ तदन र मनको संयमम रखकर श ु ने पुरो हत व स को नम ार कया। फर ीरामक आ ा ले उनक प र मा करके श ु को संताप देनेवाले महाबली श ु अयो ासे नकले॥ १७ ॥ गजराज और े अ के समुदायसे भरी ◌इ वशाल सेनाको आगे भेजकर रघुवंशक वृ करनेवाले श ु एक मासतक महाराज ीरामके पास ही रहे। उसके बाद उ ने वहाँसे ान कया॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म च सठवाँ सग पूरा आ॥ ६४॥



पसठवाँ सग मह ष वा



ी कका श ु को सुदासपु क



ाषपादक कथा सुनाना



अपनी सेनाको आगे भेजकर अयो ाम एक माह रहनेके प ात् श ु अके ले ही वहाँसे मधुवनके मागपर त ए। वे बड़ी तेजीके साथ आगे बढ़ने लगे॥ १ ॥ रघुकुलको आन त करनेवाले शूरवीर श ु रा ेम दो रात बताकर तीसरे दन मह ष वा ी कके प व आ मपर जा प ँ चे। वह सबसे उ म वास ान था॥ २ ॥ वहाँ उ ने हाथ जोड़ मु न े महा ा वा ी कको णाम करके यह बात कही—॥ ३ ॥ ‘भगवन्!



म अपने बड़े भा◌इ ीरघुनाथजीके कायसे इधर आया ँ । आज रातको यहाँ ठहरना चाहता ँ और कल सबेरे व णदेव ारा पा लत प म दशाको चला जाऊँ गा’॥ ४ ॥ श ु क यह बात सुनकर मु नवर वा ी कने उन महा ाको हँ सते ए उ र दया —‘महायश ी वीर! तु ारा ागत है॥ ५ ॥ ‘सौ ! यह आ म रघुवं शय के लये अपना ही घर है। तुम न:श होकर मेरी ओरसे आसन, पा और अ ीकार करो’॥ ६ ॥ तब वह स ार हण करके श ु ने फल-मूलका भोजन कया। इससे उ बड़ी तृ ◌इ॥ ७ ॥ फल-मूल खाकर वे मह षसे बोले—‘मुन!े इस आ मके नकट जो यह ाचीनकालका य -वैभव (यूप आ द उपकरण) दखायी देता है, कसका है— कस यजमान नरेशने यहाँ य कया था?’॥ ८ ॥ उनका यह सुनकर वा ी कजीने कहा— ‘श ु ! पूवकालम जस यजमान नरेशका यह य म प रहा है, उसे बताता ँ , सुनो॥ ९ ॥ ‘तु ारे पूवज राजा सुदास इस भूम लके ामी हो गये ह। उन भूपालके वीरसह ( म सह) नामक एक पु आ, जो बड़ा परा मी और अ धमा ा था॥ १० ॥ ‘सुदासका वह शूरवीर पु बा ाव ाम ही एक दन शकार खेलनेके लये वनम गया। वहाँ उसने दो रा स देखे, जो सब ओर बारंबार वचर रहे थे॥ ११ ॥



‘वे दोन



घोर रा स बाघका प धारण करके क◌इ हजार मृग को मारकर खा गये। फर भी संतु नह ए। उनके पेट नह भरे॥ १२ ॥ ‘सौदासने उन दोन रा स को देखा। साथ ही उनके ारा मृगशू कये गये उस वनक अव ापर पात कया। इससे वे महान् ोधसे भर गये और उनमसे एकको वशाल बाणसे मार डाला॥ १३ ॥ ‘एकको धराशायी करके वे पु ष वर सौदास न हो गये। उनका अमष जाता रहा और वे उस मरे ए रा सको देखने लगे॥ १४ ॥ ‘उस रा सके मरे ए साथीको जब सौदास देख रहे थे, उस समय उनक ओर पात करके उस दूसरे रा सने मन-ही-मन घोर संताप कया और सौदाससे इस कार कहा—॥ १५ ॥ ‘‘महापापी नरेश! बदला लूँगा’॥ १६ ॥ ‘ऐसा



तूने मेरे नरपराध साथीको मार डाला है, इस लये म तुझसे भी इसका



कहकर वह रा स वह अ धान हो गया और दीघकालके प ात् सुदासकु मार म सह अयो ाके राजा हो गये॥ १७ ॥ ‘उ राजा म सहने इस आ मके समीप अ मेध नामक महाय का अनु ान कया। मह ष व स अपने तपोबलसे उस य क र ा करते थे॥ १८ ॥ ‘उनका वह महान् य ब त वष तक यहाँ चलता रहा। वह भारी धन-स से स य देवता के य क समानता करता था॥ १९ ॥ ‘उस य क समा होनेपर पहलेके वैरका रण करनेवाला वह रा स व स जीका प धारण करके राजाके पास आया और इस कार बोला—॥ २० ॥ ‘‘राजन्! आज य क समा का दन है, अत: आज मुझे तुम शी ही मांसयु भोजन दो। इस वषयम को◌इ अ था वचार नह करना चा हये’॥ २१ ॥ ‘ ा ण पधारी रा सक कही ◌इ बात सुनकर राजाने रसो◌इ बनानेम कु शल रसोइय से कहा—॥ २२ ॥ ‘‘तुमलोग आज शी ही मांसयु ह व तैयार करो और उसे ऐसा बनाओ, जससे ा द भोजन हो सके तथा मेरे गु देव उससे संतु हो सक’॥ २३ ॥



‘महाराजक इस आ ाको सुनते ही रसोइयेके सोचने लगा, आज गु जी अभ -भ णम कै से वृ



मनम बड़ी घबराहट पैदा हो गयी (वह ह गे)। यह देख फर उस रा सने ही



रसोइयेका वेष बना लया॥ २४ ॥ ‘उसने मनु का मांस लाकर राजाको दे दया और कहा—‘यह मांसयु अ एवं ह व लाया ँ । यह बड़ा ही ा द है’॥ २५ ॥ ‘नर े ! अपनी प ी रानी मदय ीके साथ राजा म सहने रा सके लाये ए उस मांसयु भोजनको व स जीके सामने रखा॥ २६ ॥ ‘थालीम मानव-मांस परोसा गया है, यह जानकर ष व स महान् ोधसे भर गये और इस कार बोले—॥ २७ ॥ ‘‘राजन्! तुम मुझे ऐसा भोजन देना चाहते हो, इस लये यही तु ारा भोजन होगा; इसम संशय नह है (अथात् तुम मनु भ ी रा स हो जाओगे)’॥ २८ ॥ ‘यह सुनकर सौदासने भी कु पत हो हाथम जल ले लया और व स मु नको शाप देना आर कया। तबतक उनक प ीने उ रोक दया॥ २९ ॥ ‘वे बोल —‘राजन्! भगवान् व स मु न हम सबके ामी ह; अत: आप अपने देवतु पुरो हतको बदलेम शाप नह दे सकते’॥ ३० ॥ ‘तब धमा ा राजाने तेज और बलसे स उस ोधमय जलको नीचे डाल दया। उससे अपने दोन पैर को ही स च लया॥ ३१ ॥ ऐसा करनेसे राजाके दोन पैर त ाल चतकबरे हो गये। तभीसे महायश ी राजा सौदास क ाषपाद ( चतकबरे पैरवाले) हो गये और उसी नामसे उनक ा त ◌इ॥ ३२ १/२ ॥ ‘तदन र प ीस हत राजाने बारंबार णाम करके फर व स से कहा—‘ ष! आपहीका प धारण करके कसीने मुझे ऐसा भोजन देनेके लये े रत कया था’॥ ३३ ॥ ‘राजा धराज म सहक वह बात सुनकर और उसे रा सक करतूत जानकर व स ने पुन: उस नर े नरेशसे कहा—॥ ३४ ॥ ‘‘राजन्! मने रोषसे भरकर जो बात कह दी है, इसे थ नह कया जा सकता; परंतु इससे छू टनेके लये म तु एक वर दूँगा॥ ३५ ॥



‘‘राजे ! वह वर इस



कार है—यह शाप बारह वष तक रहेगा। उसके बाद इसका अ हो जायगा। मेरी कृ पासे तु बीती ◌इ बातका रण नह रहेगा’॥ ‘इस कार उस श ुसूदन राजाने बारह वष तक उस शापको भोगकर पुन: अपना रा पाया और जाजन का नर र पालन कया॥ ३७ ॥ ‘रघुन न! उ राजा क ाषपादके य का यह सु र ान मेरे इस आ मके समीप दखायी देता है, जसके वषयम तुम पूछ रहे थे’॥ ३८ ॥ महाराज म सहक उस अ दा ण कथाको सुनकर श ु ने मह षको णाम करके पणशालाम वेश कया॥ ३९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छाछठवाँ सग पूरा आ॥ ६६॥



छाछठवाँ सग सीताके दो पु का ज , वा ी क ारा उनक र ाक व ा और इस समाचारसे स ए श ु का वहाँसे ान करके यमुनातटपर प ँ चना



जस रातको श ु ने पणशालाम वेश कया था, उसी रातम सीताजीने दो पु को ज दया॥ १ ॥ तदन र आधी रातके समय कु छ मु नकु मार ने वा ी कजीके पास आकर उ सीताजीके सव होनेका शुभ एवं य समाचार सुनाया—॥ २ ॥ ‘भगवन्! ीरामच जीक धमप ीने दो पु को ज दया है; अत: महातेज ी महष! आप उनक बाल हज नत बाधा नवृ करनेवाली र ा कर’॥ ३ ॥ उन कु मार क वह बात सुनकर मह ष उस ानपर गये। सीताके वे दोन पु बालच माके समान सु र तथा देवकु मार के समान महातेज ी थे॥ ४ ॥ वा ी कजीने स च होकर सू तकागारम वेश कया और उन दोन कु मार को देखा तथा उनके लये भूत और रा स का वनाश करनेवाली र ाक व ा क ॥ ५ ॥ ष वा ी कने एक कु शा का मु ा और उनके लव लेकर उनके ारा दोन बालक क भूत-बाधाका नवारण करनेके लये र ा- व धका उपदेश दया—॥ ६ ॥ ‘वृ ा य को चा हये क इन दोन बालक म जो पहले उ आ है, उसका म ारा सं ार कये ए इन कु श से माजन कर। ऐसा करनेपर उस बालकका नाम ‘कु श’ होगा और उनम जो छोटा है, उसका लवसे माजन कर। इससे उसका नाम ‘लव’ होगा॥ ७-८ ॥ ‘इस कार जुड़वे उ ए ये दोन बालक मश: कु श और लव नाम धारण करगे और मेरे ारा न त कये गये इ नाम से भूम लम व ात ह गे’॥ ९ ॥ यह सुनकर न ाप वृ ा य ने एका च हो मु नके हाथके र ाके साधनभूत उन कु श को ले लया और उनके ारा उन दोन बालक का माजन एवं संर ण कया॥ १० ॥ जब वृ ा याँ इस कार र ा करने लग , उस समय आधी रातको ीराम और सीताके नाम, गो के उ ारणक न श ु जीके कान म पड़ी। साथ ही उ सीताके दो सु र पु



होनेका संवाद ा आ। तब वे सीताजीक पणशालाम गये और बोले— ‘माताजी! यह बड़े सौभा क बात है’॥ ११-१२ ॥ महा ा श ु उस समय इतने स थे क उनक वह वषाका लक सावनक रात बातक -बातम बीत गयी॥ १३ ॥ सबेरा होनेपर पूवा कालका काय सं ा-व न आ द करके महापरा मी श ु हाथ जोड़ मु नसे वदा ले प म दशाक ओर चल दये॥ १४ ॥ मागम सात रात बताकर वे यमुना-तटपर जा प ँ चे और वहाँ पु क त मह षय के आ मम रहने लगे॥ १५ ॥ महायश ी राजा श ु ने वहाँ वन आ द मु नय के साथ सु र कथा-वाता ारा काल ेप करते ए नवास कया॥ १६ ॥ इस कार रघुकुलके मुख वीर महा ा राजकु मार श ु वहाँ एक ए वन आ द मु नय के साथ नाना कारक कथाएँ सुनते ए उन दन यमुनातटपर रात बताने लगे॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पसठवाँ सग पूरा आ॥ ६५॥



सरसठवाँ सग वन मु नका श ु को लवणासुरके शूलक श का प रचय देते ए राजा मा ाताके वधका संग सुनाना



एक दन रातके समय श ु ने भृगुन न ष वनसे पूछा—‘ न्! लवणासुरम कतना बल है? उसके शूलम कतनी श है? उस उ म शूलके ारा उसने -यु म आये ए कन- कन यो ा का वध कया है?’॥ १-२ ॥ महा ा श ु जीका यह वचन सुनकर महातेज ी वनने उन रघुकुलन न राजकु मारसे कहा—॥ ३ ॥ ‘रघुन न! इस लवणासुरके कम असं ह। उनमसे एक ऐसे कमका वणन कया जाता है, जो इ ाकु वंशी राजा मा ाताके ऊपर घ टत आ था। तुम उसे मेरे मुँहसे सुनो॥ ४ ॥ ‘पूवकालक बात है अयो ापुरीम युवना के पु राजा मा ाता रा करते थे। वे बड़े बलवान्, परा मी तथा तीन लोक म व ात थे॥ ५ ॥ ‘उन पृ थवीप त नरेशने सारी पृ ीको अपने अ धकारम करके यहाँसे देवलोकपर वजय पानेका उ ोग आर कया॥ ६ ॥ ‘राजा मा ाताने जब देवलोकपर वजय पानेक इ ासे उ ोग आर कया, तब इ तथा महामन ी देवता को बड़ा भय आ॥ ७ ॥ ‘‘म इ का आधा सहासन और उनका आधा रा लेकर भूम लका राजा हो देवता से व त होकर र ँ गा’ ऐसी त ा करके वे गलोकपर जा चढ़े॥ ८ ॥ ‘उनके खोटे अ भ ायको जानकर पाकशासन इ उन युवना पु मा ाताके पास गये और उ शा पूवक समझाते ए इस कार बोले—॥ ९ ॥ ‘‘पु ष वर! अभी तुम सारे म लोकके भी राजा नह हो। समूची पृ ीको वशम कये बना ही देवता का रा कै से लेना चाहते हो॥ १० ॥ ‘‘वीर! य द सारी पृ ी तु ारे वशम हो जाय तो तुम सेवक , सेना और सवा रय स हत यहाँ देवलोकका रा करना’॥ ११ ॥



‘ऐसी बात कहते



ए इ से मा ाताने पूछा— ‘देवराज! बताइये तो सही, इस पृ ीपर कहाँ मेरे आदेशक अवहेलना होती है’॥ १२ ॥ ‘तब इ ने कहा—‘ न ाप नरेश! मधुवनम मधुका पु लवणासुर रहता है। वह तु ारी आ ा नह मानता’॥ ‘इ क कही ◌इ यह घोर अ य बात सुनकर राजा मा ाताका मुख ल ासे क ु गया। वे कु छ बोल न सके ॥ १४ ॥ ‘वे नरेश इ से वदा ले मुँह लटकाये वहाँसे चल दये और पुन: इस म लोकम ही आ प ँ चे॥ १५ ॥ ‘उ ने अपने दयम अमष भर लया। फर वे श ुदमन मा ाता मधुके पु को वशम करनेके लये सेवक, सेना और सवा रय स हत उसक राजधानीके समीप आये॥ १६ ॥ ‘उन पु ष वर नरेशने यु क इ ासे लवणके पास अपना दूत भेजा॥ १७ ॥ ‘दूतने वहाँ जाकर मधुके पु को ब त-से कटुवचन सुनाये। इस तरह कठोर बात कहते ए उस दूतको वह रा स तुरंत खा गया॥ १८ ॥ ‘जब दूतके लौटनेम वल आ, तब राजा बड़े ु ए और बाण क वषा करके उस रा सको सब ओरसे पी ड़त करने लगे॥ १९ ॥ ‘तब लवणासुरने हँ सकर हाथसे वह शूल उठाया और सेवक स हत राजा मा ाताका वध करनेके लये उस उ म अ को उनके ऊपर छोड़ दया॥ २० ॥ ‘वह चमचमाता आ शूल सेवक, सेना और सवा रय स हत राजा मा ाताको भ करके फर लवणासुरके हाथम आ गया॥ २१ ॥ ‘इस कार सारी सेना और सवा रय के साथ महाराज मा ाता मारे गये। सौ ! उस शूलक श असीम और सबसे बढ़ी-चढ़ी है॥ २२ ॥ ‘राजन्! कल सबेरे जबतक वह रा स उस अ को न ले, तबतक ही शी ता करनेपर तुम न:संदेह उसका वध कर सकोगे और इस कार न य ही तु ारी वजय होगी॥ २३ ॥ ‘तु ारे ारा यह काय स होनेपर सम लोक का क ाण होगा। नर े ! इस तरह मने तु दुरा ा लवणका सारा बल बता दया और उसके शूलक भी घोर एवं असीम



श का प रचय दे दया। पृ ीनाथ! इ के य से उसी शूलके ारा राजा मा ाताका वनाश आ था॥ २४-२५ ॥ ‘महा न्! कल सबेरे जब वह शूल लये बना ही मांसका सं ह करनेके लये नकलेगा, तभी तुम उसका वध कर डालोगे, इसम संशय नह है। नरे ! अव तु ारी वजय होगी’॥ २६ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सरसठवाँ सग पूरा आ॥ ६७॥



अड़सठवाँ सग लवणासुरका आहारके लये नकलना, श ु का मधुपुरीके ारपर डट जाना और लौटे ए लवणासुरके साथ उनक रोषभरी बातचीत



इस कार कथा कहते और शुभ वजयक आकां ा रखते ए उन मु नय क बात सुनतेसुनते महा ा श ु क वह रात बात-क -बातम बीत गयी॥ १ ॥ तदन र नमल भातकाल होनेपर भ पदाथ एवं भोजनके सं हक इ ासे े रत हो वह वीर रा स अपने नगरसे बाहर नकला॥ २ ॥ इसी बीचम वीर श ु यमुना नदीको पार करके हाथम धनुष लये मधुपुरीके ारपर खड़े हो गये॥ ३ ॥ त ात् म ा होनेपर वह ू रकमा रा स हजार ा णय का बोझा लये वहाँ आया॥ ४॥ उस समय उसने श ु को अ -श लये ारपर खड़ा देखा। देखकर वह रा स उनसे बोला— ‘नराधम! इस ह थयारसे तू मेरा ा कर लेगा। तेरे-जैसे हजार अ -श धारी मनु को म रोषपूवक खा चुका ँ । जान पड़ता है काल तेरे सरपर नाच रहा है॥ ५-६ ॥ ‘पु षाधम! आजका यह मेरा आहार भी पूरा नह है। दुमते! तू यं ही मेरे मुँहम कै से आ पड़ा?’॥ ७ ॥ वह रा स इस कारक बात कहता आ बारंबार हँ स रहा था। यह देख परा मी श ु के ने से रोषके कारण अ ुपात होने लगा॥ ८ ॥ रोषके वशीभूत ए महामन ी श ु के सभी अ से तेजोमयी करण छटकने लग ॥ ९ ॥



उस समय अ कु पत ए श ु उस नशाचरसे बोले—‘दुबु े! म तेरे साथ यु करना चाहता ँ ॥ १० ॥ ‘म महाराज दशरथका पु और परम बु मान् राजा ीरामका भा◌इ ँ । मेरा नाम श ु है और म कामसे भी श ु (श ु का संहार करनेवाला) ही ँ । इस समय तेरा वध करनेके लये यहाँ आया ँ ॥ ११ ॥



‘म यु करना चाहता ँ । इस लये तू मुझे ु है; इस लये अब मेरे हाथसे जी वत बचकर नह



यु का अवसर दे। तू स ूण ा णय का श जा सके गा’॥ १२ ॥ उनके ऐसा कहनेपर वह रा स उन नर े श ु से हँ सता आ-सा बोला—‘दुमते! सौभा क बात है क आज तू यं ही मुझे मल गया॥ १३ ॥ ‘खोटी बु वाले नराधम! रावण नामक रा स मेरी मौसी शूपणखाका भा◌इ था, जसे तेरे भा◌इ रामने एक ीके लये मार डाला॥ १४ ॥ ‘इतना ही नह , उ ने रावणके कु लका संहार कर दया, तथा प मने वह सब कु छ सह लया। तुमलोग के ारा क गयी अवहेलनाको सामने रखकर— देखकर भी तुम सबके त मने वशेष पसे माभावका प रचय दया॥ १५ ॥ ‘जो नराधम भूतकालम मेरा सामना करनेके लये आये थे, उन सबको मने तनक के समान तु समझकर तर ृ त कया और मार डाला। जो भ व म आयगे, उनक भी यही दशा होगी और वतमानकालम आनेवाले तुझ-जैसे नराधम भी मेरे हाथसे मरे ए ही ह॥ १६ ॥ ‘दुमते! तुझे यु क इ ा है न? म अभी तुझे यु का अवसर दूँगा। तू दो घड़ी ठहर जा। तबतक म भी अपना अ ले आता ँ ॥ १७ ॥ ‘तेरे वधके लये जैसे अ का होना मुझे अभी है, वैसे अ को पहले सुस त कर लू;ँ फर यु का अवसर दूँगा।’ यह सुनकर श ु तुरंत बोल उठे — ‘अब तू मेरे हाथसे जी वत बचकर कहाँ जायगा?॥ १८ ॥ ‘ कसी भी बु मान् पु षको अपने सामने आये ए श ुको छोड़ना नह चा हये। जो अपनी घबरायी ◌इ बु के कारण श ुको नकल जानेका अवसर दे देता है, वह म बु पु ष कायरके समान मारा जाता है॥ १९ ॥ ‘अत: रा स! अब तू इस जीव-जग ो अ ी तरह देख ले। म नाना कारके तीखे बाण ारा तुझ पापीको अभी यमराजके घरक ओर भेजता ँ ; क तू तीन लोक का तथा ीरघुनाथजीका भी श ु है’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अड़सठवाँ सग पूरा आ॥ ६८॥



उनह रवाँ सग श ु



और लवणासुरका यु तथा लवणका वध



महामना श ु का वह भाषण सुनकर लवणासुरको बड़ा ोध आ और बोला—‘अरे! खड़ा रह, खड़ा रह’॥ १ ॥ वह हाथ-पर-हाथ रगड़ता और दाँत कटकटाता आ रघुकुलके सह श ु को बारंबार ललकारने लगा॥ २ ॥ भयंकर दखायी देनेवाले लवणको इस कार बोलते देख देवश ु का नाश करनेवाले श ु ने यह बात कही—॥ ३ ॥ ‘रा स! जब तूने दूसरे वीर को परा जत कया था, उस समय श ु का ज नह आ था। अत: आज मेरे इन बाण क चोट खाकर तू सीधे यमलोकक राह ले॥ ४ ॥ ‘पापा न्! जैसे देवता ने रावणको धराशायी आ देखा था, उसी तरह व ान् ा ण और ऋ ष आज रणभू मम मेरे ारा मारे गये तुझ दुराचारी रा सको भी देख॥ ५ ॥ ‘ नशाचर! आज मेरे बाण से द होकर जब तू धरतीपर गर जायगा, उस समय इस नगर और जनपदम भी सबका क ाण ही होगा॥ ६ ॥ ‘आज मेरी भुजा से छू टा आ व के समान मुखवाला बाण उसी तरह तेरी छातीम धँस जायगा, जैसे सूयक करण कमलकोशम व हो जाती है’॥ ७ ॥ श ु के ऐसा कहनेपर लवण ोधसे मू त-सा हो गया और एक महान् वृ लेकर उसने श ु क छातीपर दे मारा; परंतु श ु ने उसके सैकड़ टुकड़े कर दये॥ ८ ॥ वह वार खाली गया देख उस बलवान् रा सने पुन: ब त-से वृ ले-लेकर श ु पर चलाये॥ ९ ॥ परंतु श ु भी बड़े तेज ी थे। उ ने अपने ऊपर आते ए उन ब सं क वृ मसे ेकको कु ◌इ गाँठवाले तीन-तीन या चार-चार बाण मारकर काट डाला॥ १० ॥ फर परा मी श ु ने उस रा सपर बाण क झड़ी लगा दी, कतु वह नशाचर इससे थत या वच लत नह आ॥ ११ ॥



तब बल- व मशाली लवणने हँ सकर एक वृ उठाया और उसे शूरवीर श ु के सरपर दे मारा। उसक चोट खाकर श ु के सारे अ श थल हो गये और उ मू ा आ गयी॥ १२ ॥



वीर श ु के गरते ही ऋ षय , देवसमूह , ग व और अ रा म महान् हाहाकार मच गया॥ १३ ॥ श ु जीको भू मपर गरा देख लवणने समझा ये मर गये, इस लये अवसर मलनेपर भी वह रा स अपने घरम नह गया और न शूल ही ले आया। उ धराशायी आ देख सवथा मरा आ समझकर ही वह अपनी उस भोजनसाम ीको एक करने लगा॥ १४-१५ ॥ दो ही घड़ीम श ु को होश आ गया। वे अ -श लेकर उठे और फर नगर ारपर खड़े हो गये। उस समय ऋ षय ने उनक भू र-भू र शंसा क ॥ १६ ॥ तदन र श ु ने उस द , अमोघ और उ म बाणको हाथम लया, जो अपने घोर तेजसे लत हो दस दशा म ा -सा हो रहा था॥ १७ ॥ उसका मुख और वेग व के समान था। वह मे और म राचलके समान भारी था। उसक गाँठ कु ◌इ थ तथा वह कसी भी यु म परा जत होनेवाला नह था॥ १८ ॥ उसका सारा अ र पी च नसे च चत था। पंख बड़े सु र थे। वह बाण दानवराज पी पवतराज एवं असुर के लये बड़ा भयंकर था॥ १९ ॥ वह लयकाल उप त होनेपर लत ◌इ काला के समान उ ी हो रहा था। उसे देखकर सम ाणी हो गये॥ २० ॥ देवता, असुर, ग व, मु न और अ रा के साथ सारा जगत् अ हो ाजीके पास प ँ चा॥ २१ ॥ जग े उन सभी ा णय ने वर देनेवाले देवदेवे र पतामह ाजीसे कहा—‘भगवन्! सम लोक के संहारक स ावनासे देवता पर भी भय और मोह छा गया है॥ २२ ॥ ‘देव! कह लोक का संहार तो नह होगा अथवा लयकाल तो नह आ प ँ चा है? पतामह! संसारक ऐसी अव ा न तो पहले कभी देखी गयी थी और न सुननेम ही आयी थी’॥ २३ ॥



उनक यह बात सुनकर देवता का भय दूर करनेवाले लोक पतामह ाने ुत भयका कारण बताते ए कहा॥ २४ ॥ वे मधुर वाणीम बोले—‘स ूण देवताओ! मेरी बात सुनो। आज श ु ने यु लम लवणासुरका वध करनेके लये जो बाण हाथम लया है, उसीके तेजसे हम सब लोग मो हत हो रहे ह। ये े देवता भी उसीसे घबराये ए ह॥ २५ १/२ ॥ ‘पु ो! यह तेजोमय सनातन बाण आ दपु ष लोककता भगवान् व ुका है। जससे तु भय ा आ है॥ २६ १/२ ॥ ‘परमा ा ीह रने मधु और कै टभ—इन दोन दै का वध करनेके लये इस महान् बाणक सृ क थी॥ २७ १/२ ॥ ‘एकमा भगवान् व ु ही इस तेजोमय बाणको जानते ह; क यह बाण सा ात् परमा ा व ुक ही ाचीन मू त है॥ २८ १/२ ॥ ‘अब तुमलोग यहाँसे जाओ और ीरामच जीके छोटे भा◌इ महामन ी वीर श ु के हाथसे रा स वर लवणासुरका वध होता देखो’॥ २९ १/२ ॥ देवा धदेव ाजीका यह वचन सुनकर देवतालोग उस ानपर आये, जहाँ श ु जी और लवणासुर दोन का यु हो रहा था॥ ३० १/२ ॥ श ु जीके ारा हाथम लये गये उस द बाणको सभी ा णय ने देखा। वह लयकालके अ के समान लत हो रहा था॥ ३१ १/२ ॥ आकाशको देवता से भरा आ देख रघुकुलन न श ु ने बड़े जोरसे सहनाद करके लवणासुरक ओर देखा॥ ३२ १/२ ॥ महा ा श ु के पुन: ललकारनेपर लवणासुर ोधसे भर गया और फर यु के लये उनके सामने आया॥ ३३ १/२ ॥ तब धनुधर म े श ु जीने अपने धनुषको कानतक ख चकर उस महाबाणको लवणासुरके वशाल व : लपर चलाया॥ ३४ १/२ ॥ वह देवपू जत द बाण तुरंत ही उस रा सके दयको वदीण करके रसातलम घुस गया तथा रसातलम जाकर वह फर त ाल ही इ ाकु कु लन न श ु जीके पास आ गया॥



३५-३६ ॥ श ु जीके बाणसे वदीण होकर नशाचर लवण व के मारे ए पवतके समान सहसा पृ ीपर गर पड़ा॥ ३७ ॥ लवणासुरके मारे जाते ही वह द एवं महान् शूल सब देवता के देखते-देखते भगवान् के पास आ गया॥ ३८ ॥ इस कार उ म धनुष-बाण धारण करनेवाले रघुकुलके मुख वीर श ु एक ही बाणके हारसे तीन लोक के भयको न करके उसी कार सुशो भत ए, जैसे भुवनका अ कार दूर करके सह करणधारी सूयदेव का शत हो उठते ह॥ ३९ ॥ ‘सौभा क बात है क दशरथन न श ु ने भय छोड़कर वजय ा क और सपके समान लवणासुर मर गया’ ऐसा कहकर देवता, ऋ ष, नाग और सम अ राएँ उस समय श ु जीक भू र-भू र शंसा करने लग ॥ ४० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म उनह रवाँ सग पूरा आ॥ ६९॥



स रवाँ सग देवता



से वरदान पा श ु का मधुरापुरीको बसाकर बारहव वषम वहाँसे ीरामके पास जानेका वचार करना



लवणासुरके मारे जानेपर इ और अ आ द देवता आकर श ु को संताप देनेवाले श ु से अ मधुर वाणीम बोले—॥ १ ॥ ‘व ! सौभा क बात है क तु वजय ा ◌इ और लवणासुर मारा गया। उ म तका पालन करनेवाले पु ष सह! तुम वर माँगो॥ २ ॥ ‘महाबाहो! हम सब लोग तु वर देनेके लये यहाँ आये ह। हम तु ारी वजय चाहते थे। हमारा दशन अमोघ है (अतएव तुम को◌इ वर माँगो)’॥ ३ ॥ देवता का यह वचन सुनकर मनको वशम रखनेवाले शूरवीर महाबा श ु म कपर अ ल बाँध इस कार बोले—॥ ४ ॥ ‘देवताओ! यह देव न मत रमणीय मधुपुरी शी ही मनोहर राजधानीके पम बस जाय। यही मेरे लये े वर है’॥ ५ ॥ तब देवता ने उन रघुकुलन न श ु से स होकर कहा—‘ब त अ ा ऐसा ही हो। यह रमणीय पुरी न:संदेह शूर-वीर क सेनासे स हो जायगी’॥ ६ ॥ ऐसा कहकर महामन ी देवता उस समय गको चले गये। महातेज ी श ु ने भी ग ातटसे अपनी उस सेनाको बुलवाया॥ ७ ॥ श ु जीका आदेश पाकर वह सेना शी चली आयी। श ु ने ावणमाससे उस पुरीको बसाना आर कया॥ ८ ॥ तबसे बारहव वषतक वह पुरी तथा वह शूरसेन जनपद पूण पसे बस गया। वहाँ कह कसीसे भय नह था। वह देश द सुख-सु वधा से स था॥ ९ ॥ वहाँके खेत खेतीसे हरे-भरे हो गये। इ वहाँ समयपर वषा करने लगे। श ु जीके बा बलसे सुर त मधुपुरी नीरोग तथा वीर पु ष से भरी थी॥ १० ॥ वह पुरी यमुनाके तटपर अधच ाकार बसी थी और अनेकानेक सु र गृह , चौराह , बाजार तथा ग लय से सुशो भत होती थी। उसम चार वण के लोग नवास करते थे तथा नाना



कारके वा ण - वसाय उसक शोभा बढ़ाते थे॥ ११ ॥ पूवकालम लवणासुरने जन वशाल गृह का नमाण कराया था, उनम सफे दी कराकर उ नाना कारके च से सुस त करके श ु जी उनक शोभा बढ़ाने लगे॥ १२ ॥ अनेकानेक उ ान और वहार ल सब ओरसे उस पुरीको सुशो भत करते थे। देवता और मनु से स रखनेवाले अ शोभनीय पदाथ भी उस नगरीक शोभावृ करते थे॥ १३ ॥



नाना कारक य- व य-यो व ु से सुशो भत वह द पुरी अनेकानेक देश से आये ए व ण न से शोभा पा रही थी॥ १४ ॥ उसे पूणत: समृ शा लनी देख सफलमनोरथ ए भरतानुज श ु अ स हो बड़े हषका अनुभव करने लगे॥ १५ ॥ मधुरापुरीको बसाकर उनके मनम यह वचार उ आ क अयो ासे आये बारहवाँ वष हो गया, अब मुझे वहाँ चलकर ीरामच जीके चरणार व का दशन करना चा हये॥ १६ ॥



इस कार नाना कारके मनु से भरी ◌इ उस देवपुरीके समान मनोहर मधुरापुरीको बसाकर रघुवंशक वृ करनेवाले राजा श ु ने ीरघुनाथजीके चरण के दशनका वचार कया॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म स रवाँ सग पूरा आ॥ ७०॥



इकह रवाँ सग श ु का थोड़े-से सै नक के साथ अयो ाको ान, मागम वा ी कके आ मम रामच रतका गान सुनकर उन सबका आ यच कत होना



तदन र बारहव वषम थोड़े-से सेवक और सै नक को साथ ले श ु ने ीरामपा लत अयो ाको जानेका वचार कया॥ १ ॥ अत: अपने मु -मु म य तथा सेनाप तय को लौटाकर—पुरीक र ाके लये वह छोड़कर वे अ े-अ े घोड़ेवाले सौ रथ साथ ले अयो ाक ओर चल पड़े॥ २ ॥ महायश ी रघुकुलन न श ु या ा करनेके प ात् मागम सात-आठ प रग णत ान पर पड़ाव डालते ए वा ी क मु नके आ मपर जा प ँ चे और रातम वह ठहरे॥ ३ ॥ उन पु ष वर रघुवीरने वा ी कजीके चरण म णाम करके उनके हाथसे पा और अ आ द आ त -स ारक साम ी हण क ॥ ४ ॥ वहाँ मह ष वा ी कने महा ा श ु को सुनानेके लये भाँ त-भाँ तक सह सुमधुर कथाएँ कह ॥ ५ ॥ फर वे लवणवधके वषयम बोले—‘लवणासुरको मारकर तुमने अ दु र कम कया है॥ ६ ॥ ‘सौ ! महाबाहो! लवणासुरके साथ यु करके ब त-से महाबली भूपाल सेना और सवा रय स हत मारे गये ह॥ ७ ॥ ‘पु ष े ! वही पापी लवणासुर तु ारे ारा अनायास ही मार डाला गया। उसके कारण जग जो भय छा गया था, वह तु ारे तेजसे शा हो गया॥ ८ ॥ ‘रावणका घोर वध महान् य से कया गया था; परंतु यह महान् कम तुमने बना य के ही स कर दया॥ ९ ॥ ‘लवणासुरके मारे जानेसे देवता को बड़ी स ता ◌इ है। तुमने सम ा णय और सारे जग ा य काय कया है॥ १० ॥ ‘नर े ! म इ क सभाम बैठा था। जब वह वमानाकार सभा यु देखनेके लये आयी, तब वह बैठे-बैठे मने भी तु ारे और लवणके यु को भलीभाँ त देखा था॥ ११ ॥



‘श



ु ! मेरे दयम भी तु ारे लये बड़ा ेम है। अत: म तु ारा म क सूँघूँगा। यही ेहक पराका ा है’॥ १२ ॥ ऐसा कहकर परम बु मान् वा ी कने श ु का म क सूँघा और उनका तथा उनके सा थय का आ त स ार कया॥ १३ ॥ नर े श ु ने भोजन कया और उस समय ीरामच जीके च र का मश: वणन सुना, जो गीतक मधुरताके कारण बड़ा ही य एवं उ म जान पड़ता था॥ १४ ॥ उस वेलाम उ जो रामच रत सुननेको मला, वह पहले ही का ब कर लया गया था। वह का गान वीणाक लयके साथ हो रहा था। दय, क और मूधा—इन तीन ान म म , म म और तार रके भेदसे उ ा रत हो रहा था। सं ृ त भाषाम न मत होकर ाकरण, छ , का और संगीत-शा के ल ण से स था और गानो चत तालके साथ गाया गया था॥ १५ १/२ ॥ उस का के सभी अ र एवं वा स ी घटनाका तपादन करते थे और पहले जो वृ ा घ टत हो चुके थे, उनका यथाथ प रचय दे रहे थे। वह अ तु का गान सुनकर पु ष सह श ु मू त-से हो गये। उनके ने से आँ सु क धारा बहने लगी॥ १६ १/२ ॥ वे दो घड़ीतक अचेत-से होकर बार ार ल ी साँस ख चते रहे। उस गानम उ ने बीती ◌इ बात को वतमानक भाँ त सुना॥ १७ १/२ ॥ राजा श ु के जो साथी थे, वे भी उस गीत-स को सुनकर दीन और नतम क हो बोले—‘यह तो बड़े आ यक बात है’॥ १८ १/२ ॥ श ु के जो सै नक वहाँ मौजूद थे, वे पर र कहने लगे—‘यह ा बात है? हमलोग कहाँ ह? यह को◌इ तो नह देख रहे ह। जन बात को हम पहले देख चुके ह, उ को इस आ मपर -क - सुन रहे ह॥ १९-२० ॥ ‘ ा इस उ म गीतब को हमलोग म सुन रहे ह?’ फर अ व यम पड़कर वे श ु से बोले—॥ २१ ॥ ‘नर े ! आप इस वषयम मु नवर वा ी कजीसे भलीभाँ त पूछ।’ श ु ने कौतूहलम भरे ए उन सब सै नक से कहा—‘मु नके इस आ मम ऐसी अनेक आ यजनक घटनाएँ होती रहती ह। उनके वषयम उनसे कु छ पूछताछ करना हमारे लये उ चत नह है॥ २२-२३ ॥



‘कौतूहलवश महामु न होगा।’ अपने सै नक से ऐसा



वा ी कसे इन बात के वषयम जानना या पूछना उ चत न कहकर रघुकुलन न श ु मह षको णाम करके अपने खेमेम



चले गये॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म इकह रवाँ सग पूरा आ॥ ७१॥



बह रवाँ सग वा



ी कजीसे वदा ले श ु जीका अयो ाम जाकर ीराम आ दसे मलना और सात दन तक वहाँ रहकर पुन: मधुपुरीको ान करना



सोते समय पु ष सह श ु उस उ म ीरामच र स ी गानके वषयम अनेक कारक बात सोचते रहे। इस लये रातम उ ब त देरतक न द नह आयी॥ १ ॥ वीणाके लयके साथ उस रामच रत-गानका सुमधुर श सुनकर महा ा श ु क शेष रात ब त ज ी बीत गयी॥ २ ॥ जब वह रात बीती और ात:काल आया, तब पूवा कालो चत न कम करके श ु ने हाथ जोड़कर मु नवर वा ी कसे कहा—॥ ३ ॥ ‘भगवन्! अब म रघुकुलन न ीरघुनाथजीका दशन करना चाहता ँ । अत: य द आपक आ ा हो तो कठोर तका पालन करनेवाले इन सा थय के साथ मेरी अयो ा जानेक इ ा है’॥ ४ ॥ इस तरहक बात कहते ए रघुकुलभूषण श ुसूदन श ु को वा ी कजीने दयसे लगा लया और जानेक आ ा दे दी॥ ५ ॥ श ु ीरघुनाथजीके दशनके लये उ त थे, इस लये मु न े वा ी कको णाम करके वे एक सु र दी मान् रथपर आ ढ़ हो तुरंत अयो ाक ओर चल दये॥ ६ ॥ इ ाकु कु लको आन त करनेवाले महाबा ीमान् श ु रमणीय अयो ापुरीम वेश करके सीधे उस राजमहलम गये, जहाँ महातेज ी ीराम वराजमान थे॥ ७ ॥ जैसे सह ने धारी इ देवता के बीचम बैठते ह, उसी कार पूणच माके समान मनोहर मुखवाले भगवान् ीराम म य के म भागम वराजमान थे। श ु ने अपने तेजसे लत होनेवाले स परा मी महा ा ीरामको देखा, णाम कया और हाथ जोड़कर कहा —॥ ८-९ ॥ ‘महाराज! आपने मुझे जस कामके लये आ ा दी थी, वह सब म कर आया ँ । पापी लवण मारा गया और उसक पुरी भी बस गयी॥ १० ॥



‘रघुन



न! आपका दशन कये बना ये बारह वष तो कसी कार बीत गये; कतु नरे र! अब और अ धक कालतक आपसे दूर रहनेका मुझम साहस नह है॥ ११ ॥ ‘अ मत परा मी काकु ! जैसे छोटा ब ा अपनी माँसे अलग नह रह सकता, उसी कार म चरकालतक आपसे दूर नह रह सकूँ गा। इस लये आप मुझपर कृ पा कर’॥ १२ ॥ ऐसी बात कहते ए श ु को दयसे लगाकर ीरामच जीने कहा—‘शूरवीर! वषाद न करो। इस तरह कातर होना यो चत चे ा नह है॥ १३ ॥ ‘रघुकुलभूषण! राजालोग परदेशम रहनेपर भी दु:खी नह होते ह। रघुवीर! राजाको य-धमके अनुसार जाका भलीभाँ त पालन करना चा हये॥ १४ ॥ ‘नर े वीर! समय-समयपर मुझसे मलनेके लये अयो ा आया करो और फर अपनी पुरीको लौट जाया करो॥ १५ ॥ ‘ न:संदेह तुम मुझे भी ाण से बढ़कर य हो। परंतु रा का पालन करना भी तो आव क कत है॥ १६ ॥ ‘अत: काकु ! अभी सात दन तो तुम मेरे साथ रहो। उसके बाद सेवक, सेना और सवा रय के साथ मधुरापुरीको चले जाना’॥ १७ ॥ ीरामच जीक यह बात धमयु होनेके साथ ही मनके अनुकूल थी। इसे सुनकर श ु ने ीराम वयोगके भयसे दीन वाणी ारा कहा—‘जैसी भुक आ ा’॥ १८ ॥ ीरघुनाथजीक आ ासे सात दन अयो ाम ठहरकर महाधनुधर ककु कु लभूषण श ु वहाँसे जानेको तैयार हो गये॥ १९ ॥ स परा मी महा ा ीराम, भरत और ल णसे वदा ले श ु एक वशाल रथपर आ ढ़ ए॥ २० ॥ महा ा ल ण और भरत पैदल ही उ प ँ चानेके लये ब त दूरतक पीछे-पीछे गये। त ात् श ु रथके ारा शी ही अपनी राजधानीक ओर चल दये॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बह रवाँ सग पूरा आ॥ ७२॥



तह रवाँ सग एक ा णका अपने मरे ए बालकको राज ारपर लाना तथा राजाको ही दोषी बताकर वलाप करना



श ु को मथुरा भेजकर भगवान् ीराम भरत और ल ण दोन भाइय के साथ धमपूवक रा का पालन करते ए बड़े सुख और आन से रहने लगे॥ १ ॥ तदन र कु छ दन के बाद उस जनपदके भीतर रहनेवाला एक बूढ़ा ा ण अपने मरे ए बालकका शव लेकर राज ारपर आया॥ २ ॥ वह ेह और दु:खसे आकु ल हो नाना कारक बात कहता आ रो रहा था और बार-बार ‘बेटा! बेटा!’ क पुकार मचाता आ इस कार वलाप करता था—॥ ‘हाय! मने पूवज म कौन-सा ऐसा पाप कया था, जसके कारण आज इन आँ ख से म अपने इकलौते बेटेक मृ ु देख रहा ँ ॥ ४ ॥ ‘बेटा! अभी तो तू बालक था। जवान भी नह होने पाया था। के वल पाँच हजार दन* (तेरह वष दस महीने बीस दन)-क तेरी अव ा थी। तो भी तू मुझे दु:ख देनेके लये असमयम ही कालके गालम चला गया॥ ५ ॥ ‘व ! तेरे शोकसे म और तेरी माता—दोन थोड़े ही दन म मर जायगे, इसम संशय नह है॥ ६ ॥ ‘मुझे याद नह पड़ता क कभी मने झूठ बात मुँहसे नकाली हो। कसीक हसा क हो अथवा सम ा णय मसे कसीको भी कभी क प ँ चाया हो॥ ७ ॥ ‘ फर आज कस पापसे मेरा यह बेटा पतृकम कये बना इस बा ाव ाम ही यमराजके घर चला गया॥ ८ ॥ ‘ ीरामच जीके रा म तो अकाल-मृ ुक ऐसी भयंकर घटना न पहले कभी देखी गयी थी और न सुननेम ही आयी थी॥ ९ ॥ ‘ न ंदेह ीरामका ही को◌इ महान् दु म है, जससे इनके रा म रहनेवाले बालक क मृ ु होने लगी॥ १० ॥



‘दूसरे रा



म रहनेवाले बालक को मृ ुसे भय नह है; अत: राजन्! मृ ुके वशम पड़े ए इस बालकको जी वत कर दो, नह तो म अपनी ीके साथ इस राज ारपर अनाथक भाँ त ाण दे दूँगा। ीराम! फर ह ाका पाप लेकर तुम सुखी होना॥ ११-१२ ॥ ‘महाबली नरेश! हम तु ारे रा म बड़े सुखसे रहे ह, इस लये तुम अपने भाइय के साथ दीघजीवी होओगे॥ १३ ॥ ‘ ीराम! तु ारे अधीन रहनेवाले हमलोग पर यह बालक-मरण पी दु:ख सहसा आ पड़ा है, जससे हम यं भी कालके अधीन हो गये ह; अत: तु ारे इस रा म हम थोड़ा-सा भी सुख नह मला॥ १४ ॥ ‘महा ा इ ाकु वंशी नरेश का यह रा अब अनाथ हो गया है। ीरामको ामीके पम पाकर यहाँ बालक क मृ ु अटल है॥ १५ ॥ ‘राजाके दोषसे जब जाका व धवत् पालन नह होता, तभी जावगको ऐसी वप य का सामना करना पड़ता है। राजाके दुराचारी होनेपर ही जाक अकाल-मृ ु होती है॥ १६ ॥ ‘अथवा नगर तथा जनपद म रहनेवाले लोग जब अनु चत कम—पापाचार करते ह और वहाँ र ाक को◌इ व ा नह होती, उ अनु चत कमसे रोकनेके लये को◌इ उपाय नह कया जाता, तभी देशक जाम अकाल-मृ ुका भय ा होता है॥ १७ ॥ ‘अत: यह है क नगर या रा म कह राजासे ही को◌इ अपराध आ होगा; तभी इस तरह बालकक मृ ु ◌इ है, इसम को◌इ संशय नह है’॥ इस तरह अनेक कारके वा से उसने बार ार राजाके सामने अपना दु:ख नवेदन कया और बार ार शोकसे संत होकर वह अपने मरे ए पु को उठा-उठाकर दयसे लगाता रहा॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म तह रवाँ सग पूरा आ॥ ७३॥



चौह रवाँ सग नारदजीका ीरामसे एक तप ी शू के अधमाचरणको ा ण-बालकक मृ ुम कारण बताना



महाराज ीरामने उस ा णका इस तरह दु:ख और शोकसे भरा आ वह सारा क णन सुना॥ १ ॥ इससे वे दु:खसे संत हो उठे । उ ने अपने म य को बुलाया तथा व स और वामदेवको एवं महाजन स हत अपने भाइय को भी आम त कया॥ २ ॥ तदन र व स जीके साथ आठ ा ण ने राजसभाम वेश कया और उन देवतु नरेशसे कहा—‘महाराज! आपक जय हो’॥ ३ ॥ उन आठ के नाम इस कार ह—माक ये , मौ , वामदेव, का प, का ायन, जाबा ल, गौतम तथा नारद॥ ४ ॥ इन सब े ा ण को उ म आसन पर बैठाया गया। वहाँ पधारे ए उन मह षय को ीरघुनाथजीने हाथ जोड़कर णाम कया और वे यं भी अपने ानपर बैठ गये॥ ५ ॥ फर म ी और महाजन के साथ यथायो श ाचारका उ ने नवाह कया। उ ी तेजवाले वे सब लोग जब यथा ान बैठ गये, तब ीरघुनाथजीने उनसे सब बात बताय और कहा—‘यह ा ण राज ारपर धरना दये पड़ा है’॥ ६ १/२ ॥ ा णके दु:खसे दु:खी ए उन महाराजका यह वचन सुनकर अ सब ऋ षय के समीप यं नारदजीने यह शुभ बात कही—॥ ७ १/२ ॥ ‘राजन्! जस कारणसे इस बालकक अकाल-मृ ु ◌इ है, वह बताता ँ , सु नये। रघुकुलन न नरेश! मेरी बात सुनकर जो उ चत कत हो उसका पालन क जये॥ ८ १/२ ॥ ‘राजन्! पहले स युगम के वल ा ण ही तप ी आ करते थे। महाराज! उस समय ा णेतर मनु कसी तरह तप ाम वृ नह होता था॥ ९ १/२ ॥ ‘वह युग तप ाके तेजसे का शत होता था। उसम ा ण क ही धानता थी। उस समय अ ानका वातावरण नह था। इस लये उस युगके सभी मनु अकाल-मृ ुसे र हत तथा कालदश होते थे॥ १० १/२ ॥



‘स



युगके बाद ेतायुग आया। इसम सु ढ़ शरीरवाले य क धानता ◌इ और वे य भी उसी कारक तप ा करने लगे॥ ११ १/२ ॥ ‘परंतु ेतायुगम जो महा ा पु ष ह, उनक अपे ा स युगके लोग तप और परा मक से बढ़े-चढ़े थे॥ १२ १/२ ॥ ‘इस कार दोन युग मसे पूव युगम जहाँ ा ण उ ृ और य अपकृ थे, वहाँ ेतायुगम वे समानश शाली हो गये॥ १३ १/२ ॥ ‘तब मनु आ द सभी धम वतक ने ा ण और यम एकक अपे ा दूसरेम को◌इ वशेषता या ूना धकता न देखकर सवलोकस त चातुव - व ाक ापना क ॥ १४



१/ ॥ २



ते ायुग वणा म-धम- धान है। वह धमके काशसे का शत होता है। वह धमम बाधा डालनेवाले पापसे र हत है। इस युगम अधमने भूतलपर अपना एक पैर रखा है। अधमसे यु होनेके कारण यहाँ लोग का तेज धीरे-धीरे घटता जायगा॥ १५-१६ ॥ ‘स युगम जी वकाका साधनभूत कृ ष आ द रजोगुणमूलक कम ‘अनृत’ कहलाता था और मलके समान अ ा था। वह अनृत ही अधमका एक पाद होकर ेताम इस भूतलपर त आ॥ १७ ॥ ‘इस कार अनृत (अस ) पी एक पैरको भूतलपर रखकर अधमने ेताम स युगक अपे ा आयुको सी मत कर दया॥ १८ ॥ ‘अत: पृ ीपर अधमके इस अनृत पी चरणके पड़नेपर स धमपरायण पु ष उस अनृतके कु प रणामसे बचनेके लये शुभकम का ही आचरण करते ह॥ १९ ॥ ‘तथा प ेतायुगम जो ा ण और य ह, वे ही सब तप ा करते ह। अ वणके लोग सेवा-काय कया करते ह॥ २० ॥ ‘उन चार वण मसे वै और शू को सेवा पी उ ृ धम धमके पम ा आ (वै कृ ष आ दके ारा ा ण आ दक सेवा करने लगे और) शू सब वण क (तीन वण के लोग क ) वशेष पसे पूजा—आदर-स ार करने लगे॥ २१ ॥ ‘नृप े ! इसी बीचम जब ेतायुगका अवसान होता है और वै तथा शू को अधमके एक-पाद प अनृतक ा होने लगती है, तब पूव वणवाले ा ण और य फर ासको ‘



ा होने लगते ह ( क उन दोन को अ म दो वण का संसगज नत दोष ा हो जाता है)॥ २२ ॥ ‘तदन र अधम अपने दूसरे चरणको पृ ीपर उतारता है। तीय पैर उतारनेके कारण ही उस युगक ‘ ापर’ सं ा हो गयी है॥ २३ ॥ ‘पु षो म! उस ापर नामक युगम जो अधमके दो चरण का आ य है—अधम और अनृत दोन क वृ होने लगती है॥ २४ ॥ ‘इस ापरयुगम तप ा प कम वै को भी ा होता है। इस तरह तीन युग म मश: तीन वण को तप ाका अ धकार ा होता है॥ २५ ॥ ‘तीन युग म तीन वण का ही आ य लेकर तप ा पी धम त ष्ठत होता है; कतु नर े ! शू को इन तीन ही युग से तप पी धमका अ धकार नह ा होता है॥ २६ ॥ ‘नृप शरोमणे! एक समय ऐसा आयगा, जब हीन वणका मनु भी बड़ी भारी तप ा करेगा। क लयुग आनेपर भ व म होनेवाली शू यो नम उ मनु के समुदायम तप याक वृ होगी॥ २७ ॥ ‘राजन्! ापरम भी शू का तपम वृ होना महान् अधम माना गया है। ( फर ेताके लये तो कहना ही ा है?) महाराज! न य ही आपके रा क कसी सीमापर को◌इ खोटी बु वाला शू महान् तपका आ य ले तप ा कर रहा है, उसीके कारण इस बालकक मृ ु ◌इ है॥ २८ १/२ ॥ ‘जो को◌इ भी दुबु मानव जस कसी भी राजाके रा अथवा नगरम अधम या न करने यो काम करता है, उसका वह काय उस रा के अनै य (द र ता)-का कारण बन जाता है और वह राजा शी ही नरकम पड़ता है, इसम संशय नह ॥ २९-३० ॥ ‘इसी कार जो राजा धमपूवक जाका पालन करता है, वह जाके वेदा यन, तप और शुभ कम के पु का छठा भाग ा कर लेता है॥ ३१ ॥ ‘पु ष सह! जो जाके शुभ कम के छठे भागका उपभो ा है, वह जाक र ा कै से नह करेगा? अत: आप अपने रा म खोज क जये और जहाँ को◌इ दु म दखायी दे, वहाँ उसके रोकनेका य क जये॥ ३२ १/२ ॥



‘नर



े ! ऐसा करनेसे धमक वृ होगी और मनु क आयु बढ़ेगी। साथ ही इस बालकको भी नया जीवन ा होगा’॥ ३३ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चौह रवाँ सग पूरा आ॥ ७४॥



पचह रवाँ सग ीरामका पु क वमान ारा अपने रा क सभी दशा म घूमकर द ु मका पता लगाना, कतु सव स म ही देखकर द ण दशाम एक शू तप ीके पास प ँ चना



नारदजीके ये अमृतमय वचन सुनकर ीरामच जीको अपार आन ा आ और उ ने ल णजीसे इस कार कहा—॥ १ ॥ ‘सौ ! जाओ। उ म तका पालन करनेवाले इन ज े को सा ना दो और इनके बालकका शरीर उ म ग एवं सुग से यु तेलसे भरे ए काठके कठौते या ड गीम डु बाकर रखवा दो और ऐसी व ा कर दो जससे बालकका शरीर वकृ त या न न होने पाये॥ २-३ ॥



वैसा



‘शुभ कम करनेवाले इस बालकका शरीर ब करो’॥ ४ ॥



जस कार सुर त रहे, न या ख त न हो,



शुभल ण ल णको ऐसा संदेश दे महायश ी ीरघुनाथजीने मन-ही-मन पु कका च न कया और कहा—‘आ जाओ’॥ ५ ॥ ीरामच जीका अ भ ाय समझकर सुवणभू षत पु क- वमान एक ही मु तम उनके पास आ गया॥ ६ ॥ आकर नतम क हो वह बोला—‘नरे र! यह रहा म। महाबाहो! म सदा आपके अधीन रहनेवाला क र ँ और सेवाके लये उप त आ ँ ’॥ ७ ॥ पु क वमानका यह मनोहर वचन सुनकर वे महाराज ीराम मह षय को णाम करके उस वमानपर आ ढ़ ए॥ उ ने धनुष, बाण से भरे ए दो तरकस और एक चमचमाती ◌इ तलवार हाथम ले ली और ल ण तथा भरत—इन दोन भाइय को नगरक र ाम नयु करके वहाँसे ान कया॥ ९ ॥ ीमान् राम पहले तो इधर-उधर खोजते ए प म दशाक ओर गये। फर हमालयसे घरी ◌इ उ र दशाम जा प ँ चे॥ १० ॥



जब उन दोन दशा म कह थोड़ा-सा भी दु म नह दखायी दया, तब नरे र ीरामने समूची पूव दशाका भी नरी ण कया॥ ११ ॥ पु कपर बैठे ए महाबा राजा ीरामने वहाँ भी शु सदाचारका पालन होता देखा। वह दशा भी दपणके समान नमल दखायी दी॥ १२ ॥ तब राज षन न रघुनाथजी द ण दशाक ओर गये। वहाँ शैवल पवतके उ र भागम उ एक महान् सरोवर दखायी दया॥ १३ ॥ उस सरोवरके तटपर एक तप ी बड़ी भारी तप ा कर रहा था। वह नीचेको मुख कये लटका आ था। रघुकुलन न ीरामने उसे देखा॥ १४ ॥ देखकर राजा ीरघुनाथजी उ तप ा करते ए उस तप ीके पास आये और बोले —‘उ म तका पालन करनेवाले तापस! तुम ध हो। तप ाम बढ़े-चढ़े सु ढ़ परा मी पु ष! तुम कस जा तम उ ए हो? म दशरथकु मार राम तु ारा प रचय जाननेके कौतूहलसे ये बात पूछ रहा ँ ॥ १५-१६ ॥ ‘तु कस व ुको पानेक इ ा है? तप ा ारा संतु ए इ देवतासे वरके पम तुम ा पाना चाहते हो— ग या दूसरी को◌इ व !ु कौन-सा ऐसा पदाथ है, जसके लये तुम ऐसी कठोर तप ा करते हो, जो दूसर के लये दु र है?॥ १७ ॥ ‘तापस! जस व ुके लये तुम तप ाम लगे ए हो, उसे म सुनना चाहता ँ । इसके सवा यह भी बताओ क तुम ा ण हो या दुजय य? तीसरे वणके वै हो अथवा शू ! तु ारा भला हो। ठीक-ठीक बताना’॥ १८ ॥ महाराज ीरामके इस कार पूछनेपर नीचे सर कये लटके ए उस तप ीने उन नृप े दशरथन न ीरामको अपनी जा तका प रचय दया और जस उ े से उसने तप ाके लये यास कया था, वह भी बताया॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पचह रवाँ सग पूरा आ॥ ७५॥



छह रवाँ सग ीरामके ारा श ूकका वध, देवता ारा उनक शंसा, अग ा मपर मह ष अग के ारा उनका स ार और उनके लये आभूषण-दान



शे र हत कम करनेवाले भगवान् रामका यह वचन सुनकर नीचे म क कये लटका आ वह तथाक थत तप ी इस कार बोला—॥ १ ॥ ‘महायश ी ीराम! म शू यो नम उ आ ँ और सदेह गलोकम जाकर देव ा करना चाहता ँ । इसी लये ऐसा उ तप कर रहा ँ ॥ २ ॥ ‘ककु कु लभूषण ीराम! म झूठ नह बोलता। देवलोकपर वजय पानेक इ ासे ही तप ाम लगा ँ । आप मुझे शू सम झये। मेरा नाम श ूक है’॥ ३ ॥ वह इस कार कह ही रहा था क ीरामच जीने ानसे चमचमाती ◌इ तलवार ख च ली और उसीसे उसका सर काट लया॥ ४ ॥ उस शू का वध होते ही इ और अ स हत स ूण देवता ‘ब त ठीक, ब त ठीक’ कहकर भगवान् ीरामक बार ार शंसा करने लगे॥ ५ ॥ उस समय उनके ऊपर सब ओरसे वायुदेवता ारा बखेरे गये द एवं परम सुग त पु क बड़ी भारी वषा होने लगी॥ ६ ॥ वे सब देवता अ स होकर स परा मी ीरामसे बोले—‘देव! महामते! आपने यह देवता का ही काय स कया है॥ ७ ॥ ‘श ु का दमन करनेवाले रघुकुलन न सौ ीराम! आपके इस स मसे ही यह शू सशरीर गलोकम नह जा सका है। अत: आप जो वर चाह माँग ल’॥ ८ ॥ देवता का यह वचन सुनकर स परा मी ीरामने दोन हाथ जोड़ सह ने धारी देवराज इ से कहा—॥ ‘य द देवता मुझपर स ह तो वह ा णपु जी वत हो जाय। यही मेरे लये सबसे उ म और अभी वर है। देवतालोग मुझे यही वर द॥ १० ॥ ‘मेरे ही कसी अपराधसे ा णका वह इकलौता बालक असमयम ही कालके गालम चला गया है॥



‘मने



ा णके सामने यह त ा क है क ‘म आपके पु को जी वत कर दूँगा।’ अत: आपलोग का क ाण हो। आप उस ा ण-बालकको जी वत कर द। मेरी बातको झूठी न कर’॥ १२ ॥ ीरघुनाथजीक यह बात सुनकर वे वबुध शरोम ण देवता उनसे स तापूवक बोले —॥ १३ ॥ ‘ककु कु लभूषण! आप संतु ह । वह बालक आज फर जी वत हो गया और अपने भा◌इ-ब ु से जा मला॥ १४ ॥ ‘काकु ! आपने जस मु तम इस शू को धराशायी कया है, उसी मु तम वह बालक जी उठा है॥ १५ ॥ ‘नर े ! आपका क ाण हो। भला हो। अब हम अग ा मको जा रहे ह। रघुन न! हम मह ष अग का दशन करना चाहते ह। उ जलश ा लये पूरे बारह वष बीत चुके ह। अब उन महातेज ी षक वह जलशयन-स ी तक दी ा समा ◌इ है॥ १६-१७ ॥ ‘रघुन



न! इसी लये हमलोग उन मह षका अ भन न करनेके लये जायँगे। आपका क ाण हो। आप भी उन मु न े का दशन करनेके लये च लये’॥ १८ ॥ तब ‘ब त अ ा’ कहकर रघुकुलन न ीराम देवता के सामने वहाँ जानेक त ा करके उस सुवणभू षत पु क वमानपर चढ़े॥ १९ ॥ त ात् देवता ब सं क वमान पर आ ढ़ हो वहाँसे त ए। फर ीराम भी उ के साथ शी तापूवक कु ज ऋ षके तपोवनको चल दये॥ २० ॥ देवता को आया देख तप ाक न ध धमा ा अग ने उन सबक समान पसे पूजा क ॥ २१ ॥ उनक पूजा हण करके उन महामु नका अ भन न कर वे सब देवता अनुचर स हत बड़े हषके साथ गको चले गये॥ २२ ॥ उनके चले जानेपर ीरघुनाथजीने पु क वमानसे उतरकर मु न े अग को णाम कया॥ २३ ॥



अपने तेजसे लत-से होनेवाले महा ा अग का अ भवादन करके उनसे उ म आ त पाकर नरे र ीराम आसनपर बैठे॥ २४ ॥ उस समय महातेज ी महातप ी कु ज मु नने कहा—‘नर े रघुन न! आपका ागत है। आप यहाँ पधारे, यह मेरे लये बड़े सौभा क बात है॥ २५ ॥ ‘महाराज ीराम! ब त-से उ म गुण के कारण आपके लये मेरे दयम बड़ा स ान है। आप मेरे आदरणीय अ त थ ह और सदा मेरे मनम बसे रहते ह॥ २६ ॥ ‘देवतालोग कहते थे क ‘आप अधमपरायण शू का वध करके आ रहे ह तथा धमके बलसे आपने ा णके उस मरे ए पु को जी वत कर दया है’॥ २७ ॥ ‘रघुन न! आज रातको आप मेरे ही पास इस आ मम नवास क जये। कल सबेरे पु क वमान ारा अपने नगरको जाइयेगा। आप सा ात् ीमान् नारायण ह। सारा जगत् आपम ही त ष्ठत है और आप ही सम देवता के ामी तथा सनातन पु ष ह॥ २८-२९ ॥ ‘सौ ! यह



व कमाका बनाया आ द आभूषण है, जो अपने द प और तेजसे का शत हो रहा है॥ ३० ॥ ‘ककु कु लभूषण रघुन न! आप इसे ली जये और मेरा य क जये; क कसीक दी ◌इ व ुका पुन: दान कर देनेसे महान् फलक ा बतायी जाती है॥ ३१ ॥ ‘इस आभूषणको धारण करनेम के वल आप ही समथ ह तथा बड़े-से-बड़े फल क ा करानेक श भी आपम ही है। आप इ आ द देवता को भी तारनेम समथ ह, इस लये नरे र! यह भूषण भी म आपको ही दूँगा। आप इसे व धपूवक हण कर’॥ ३२ १/२ ॥ तब बु मान म े और इ ाकु कु लके महारथी वीर ीरामने यधमका वचार करते ए वहाँ महा ा अग जीसे कहा—‘भगवन्! दान लेनेका काम तो के वल ा णके लये ही न त नह है॥ ३३-३४ ॥ ‘ व वर! य के लये तो त ह ीकार करना अ न त बताया गया है। फर य त ह— वशेषत: ा णका दया आ दान कै से ले सकता है? यह बतानेक कृ पा कर’॥ ३५ १/२ ॥



ीरामके इस कार पूछनेपर मह ष अग ने उ र दया—‘रघुन न! पहले प स युगम सारी जा बना राजाके ही थी, आगे चलकर इ देवता के राजा बनाये गये॥ ३६-३७ ॥ ‘तब सारी जाएँ देवदेवे र ाजीके पास राजाके लये गय और बोल —‘देव! आपने इ को देवता के राजाके पदपर ा पत कया है। इसी तरह हमारे लये भी कसी े पु षको राजा बना दी जये, जसक पूजा करके हम पापर हत हो इस भूतलपर वचर॥ ३८-३९ ॥ ‘हम



बना राजाके नह रहगी। यह हमारा उ म न य है।’ तब सुर े ाने इ स हत सम लोकपाल को बुलाकर कहा—‘तुम सब लोग अपने तेजका एक-एक भाग दो।’ तब सम लोकपाल ने अपने-अपने तेजका भाग अ पत कया॥ ४०-४१ ॥ ‘उसी समय ाजीको छ क आयी, जससे पु नामक राजा उ आ। ाजीने उस राजाको लोकपाल के दये ए तेजके उन सभी भाग से संयु कर दया॥ ४२ ॥ ‘त ात् उ ने प ु को ही उन जाजन के लये उनके शासक नरेशके पम सम पत कया। पु ने वहाँ राजा होकर इ के दये ए तेजोभागसे पृ ीका शासन कया॥ ४३ ॥ ‘व णके तेजोभागसे वे भूपाल जाके शरीरका पोषण करने लगे। कु बेरके तेजोभागसे उ ने उ धनप तक आभा दान क तथा उनम जो यमराजका तेजोभाग था, उससे वे जाजन को अपराध करनेपर द देते थे॥ ४४ १/२ ॥ ‘नर े रघुन न! आप भी राजा होनेके कारण सभी लोकपाल के तेजसे स ह। अत: भो! इ -स ी तेजोभागके ारा आप मेरे उ ारके लये यह आभूषण हण क जये। आपका भला हो’॥ ४५ १/२ ॥ तब भगवान् ीराम उन महा ा मु नके दये ए उस सूयके समान दी मान्, द , व च एवं उ म आभूषणको हण करके उसक उपल के वषयम पूछने लगे—॥ ४६-४७ १/ ॥ २







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मुने! यह अ अ तु तथा द आकारसे यु आभूषण आपको कै से इसे कौन कहाँसे ले आया? न्! म कौतूहलवश ये बात आपसे पूछ रहा क आप ब त-से आ य क उ म न ध ह’॥ ४८-४९ १/२ ॥



‘महायश ी आ, अथवा



‘ककु



कु लभूषण ीरामके इस कार पूछनेपर मु नवर अग ने कहा—‘ ीराम! पूव चतुयुगीके ेतायुगम जैसा वृ ा घ टत आ था, उसे बताता ँ सु नये’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छह रवाँ सग पूरा आ॥ ७६॥



सतह रवाँ सग मह ष अग (अग



का एक



ग य पु षके शवभ णका संग सुनाना



जी कहते ह—) ीराम! ाचीनकालके ेतायुगक बात है, एक ब त ही व ृत वन था, जो चार ओर सौ योजनतक फै ला आ था; परंतु उस वनम न तो को◌इ पशु था और न प ी ही॥ १ ॥ सौ ! उस नजन वनम उ म तप ा करनेके लये घूम-घूमकर उपयु ानका पता लगानेके न म म वहाँ गया॥ २ ॥ उस वनका प कतना सुखदायी था, यह बतानेम म असमथ ँ । सुखद ा द फलमूल तथा अनेक प-रंगके वृ उसक शोभा बढ़ाते थे॥ ३ ॥ उस वनके म भागम एक सरोवर था, जसक ल ा◌इ-चौड़ा◌इ एक-एक योजनक थी। उसम हंस और कार व आ द जलप ी फै ले ए थे और च वाक के जोड़े उसक शोभा बढ़ाते थे॥ ४ ॥ उसम कमल और उ ल छा रहे थे। सेवारका कह नाम भी नह था। वह परम उ म सरोवर अ आ यमय-सा जान पड़ता था। उसका जल पीनेम अ सुखद एवं ा द था॥ ५ ॥ उसम क चड़ नह था, वह सवथा नमल था। उसे को◌इ पार नह कर सकता था। उसके भीतर सु र प ी कलरव कर रहे थे। उस सरोवरके पास ही एक वशाल, अ तु एवं अ प व पुराना आ म था; जसम एक भी तप ी नह था॥ ६ १/२ ॥ पु ष वर! जेठक रातम म उस आ मके भीतर एक रात रहा और ात:काल सबेरे उठकर ान आ दके लये उस सरोवरके तटपर जाने लगा॥ ७ १/२ ॥ उसी समय मुझे वहाँ एक शव दखायी दया जो -पु होनेके साथ ही अ नमल था। उसम कह को◌इ म लनता नह थी। नरे र! वह शव उस जलाशयके तटपर बड़ी शोभासे स होकर पड़ा था॥ ८ १/२ ॥ भो! रघुन न! म उस शवके वषयम यह सोचता आ क ‘यह ा है?’ वहाँ दो घड़ीतक उस तालाबके कनारे बैठा रहा॥ ९ १/२ ॥



दो घड़ी बीतते ही मने वहाँ एक द , अ तु , अ उ म, हंसयु और मनके समान वेगशाली वमान उतरता देखा। रघुन न! उस वमानपर एक गवासी देवता बैठे थे, जो अ पवान् थे। वीर! वहाँ उनक सेवाम सह अ राएँ बैठी थ , जो द आभूषण से वभू षत थ ॥ १०-११ १/२ ॥ उनमसे कु छ मनोहर गीत गा रही थ , दूसरी मृद , वीणा और पणव आ द बाजे बजा रही थ । अ ब त-सी अ राएँ नृ करती थ तथा फु कमल-जैसे ने वाली अ कतनी ही अ राएँ सुवणमय द से वभू षत एवं च माक करण के समान उ ल ब मू चवँर लेकर उन गवासी देवताके मुखपर हवा कर रही थ ॥ १२-१३ १/२ ॥ रघुकुलन न ीराम! तदन र जैसे अंशुमाली सूय मे पवतके शखरको छोड़कर नीचे उतरते ह, उसी कार उन गवासी पु षने वमानसे उतरकर मेरे देखते-देखते उस शवका भ ण कया॥ १४-१५ ॥ इ ानुसार उस सुपु एवं चुर मांसको खाकर वे ग य देवता सरोवरम उतरे और हाथमुँह धोने लगे॥ १६ ॥ रघुन न! यथो चत री तसे कु ा-आचमन करके वे गवासी पु ष उस उ म एवं े वमानपर चढ़नेको उ त ए॥ १७ ॥ पु षो म! उन देवतु पु षको वमानपर चढ़ते देख मने उनसे यह बात पूछी—॥ १८ ॥ ‘सौ ! देवोपम पु ष! आप कौन ह और कस लये ऐसा घृ णत आहार हण करते ह? यह बतानेका क कर॥ १९ ॥ ‘देवतु तेज ी पु ष! ऐसा द प और ऐसा घृ णत आहार कसका हो सकता है? सौ ! आपम ये दोन आ यजनक बात ह, अत: म इसका यथाथ रह सुनना चाहता ँ ; क म इस शवको आपके यो आहार नह मानता ँ ’॥ २० ॥ नरे र! जब कौतूहलवश मने मधुर वाणीम उन ग य पु षसे इस कार पूछा, तब मेरी बात सुनकर उ ने यह सब कु छ मेरे सामने बताया॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सतह रवाँ सग पूरा आ॥ ७७॥



अठह रवाँ सग राजा ेतका अग जीको अपने लये घृ णत आहारक ा का कारण बताते ए ाजीके साथ ए अपनी वाताको उप त करना और उ द आभूषणका दान दे भूख- ासके क से मु होना (अग



जी कहते ह—) रघुकुलन न राम! मेरी कही ◌इ शुभ अ र से यु बात सुनकर उन ग य पु षने हाथ जोड़कर इस कार उ र दया—॥ १ ॥ ‘ न्! आप जो कु छ पूछ रहे ह, वह मेरे सुख-दु:खका अल नीय कारण, जो पूवकालम घ टत हो चुका है, यहाँ बताया जाता है, सु नये॥ २ ॥ ‘पूवकालम मेरे महायश ी पता वदभ देशके राजा थे। उनका नाम सुदेव था। वे तीन लोक म व ात परा मी थे॥ ३ ॥ ‘ न्! उनके दो प याँ थ , जनके गभसे उ दो पु ा ए। उनम े म था। मेरी ेतके नामसे स ◌इ और मेरे छोटे भा◌इका नाम सुरथ था॥ ४ ॥ ‘ पताके गलोकम चले जानेपर पुरवा सय ने राजाके पदपर मेरा अ भषेक कर दया। वहाँ परम सावधान रहकर मने धमके अनुकूल रा का पालन कया॥ ५ ॥ ‘उ म तका पालन करनेवाले ष! इस तरह धमपूवक जाक र ा तथा रा का शासन करते ए मेरे एक सह वष बीत गये॥ ६ ॥ ‘ ज े ! एक समय मुझे कसी न म से अपनी आयुका पता लग गया और मने मृ ुत थको दयम रखकर वहाँसे वनको ान कया॥ ७ ॥ ‘उस समय म इसी दुगम वनम आया, जसम न पशु ह न प ी। वनम वेश करके म इसी सरोवरके सु र तटके नकट तप ा करनेके लये बैठा॥ ८ ॥ ‘रा पर अपने भा◌इ राजा सुरथका अ भषेक करके इस सरोवरके समीप आकर मने दीघकालतक तप ा क ॥ ९ ॥ ‘इस वशाल वनम तीन हजार वष तक अ दु र तप ा करके म परम उ म लोकको ा आ॥ १० ॥



ज े ! परम उदार महष! लोकम प ँ च जानेपर भी मुझे भूख और ास बड़ा क देते ह। उससे मेरी सारी इ याँ थत हो उठती ह॥ ११ ॥ ‘एक दन मने लोक के े देवता भगवान् ाजीसे कहा—‘भगवन्! यह लोक तो भूख- ासके क से र हत है, कतु यहाँ भी धु ा- पपासाका ेश मेरा पीछा नह छोड़ता है। यह मेरे कस कमका प रणाम है? देव! पतामह! मेरा आहार ा है? यह मुझे बताइये’॥ १२-१३ ॥ यह सुनकर ाजी मुझसे बोले—‘सुदेवन न! तुम म लोकम त अपने ही शरीरका सु ादु मांस त दन खाया करो; यही तु ारा आहार है॥ १४ ॥ ‘ ेत! तुमने उ म तप करते ए के वल अपने शरीरका ही पोषण कया है। महामते! दान पी बीज बोये बना कह कु छ भी नह जमता—को◌इ भी भो -पदाथ उपल नह होता है॥ १५ ॥ ‘तुमने देवता , पतर एवं अ त थय के लये कभी कु छ थोड़ा-सा भी दान कया हो, ऐसा नह दखायी देता। तुम के वल तप ा करते थे। व ! इसी लये लोकम आकर भी भूख- ाससे पी ड़त हो रहे हो॥ ‘नाना कारके आहार से भलीभाँ त पो षत आ तु ारा परम उ म शरीर अमृतरससे यु होगा और उसीका भ ण करनेसे तु ारी धु ा- पपासाका नवारण हो जायगा॥ १७ ॥ ‘ ेत! जब उस वनम दुधष मह ष अग पधारगे, तब तुम इस क से छु टकारा पा जाओगे॥ १८ ॥ ‘सौ ! महाबाहो! वे देवता का भी उ ार करनेम समथ ह, फर भूख- ासके वशम पड़े ए तुम-जैसे पु षको संकटसे छु ड़ाना उनके लये कौन बड़ी बात है?’॥ १९ ॥ ‘ ज े ! देवा धदेव भगवान् ाका यह न य सुनकर म अपने शरीरका ही घृ णत आहार हण करने लगा॥ २० ॥ ‘ न्! ष! ब त वष से मेरे ारा उपभोगम लाये जानेपर भी यह शरीर न नह होता है और मुझे पूणत: तृ ा होती है॥ २१ ॥ ‘मुन!े इस कार म संकटम पड़ा ँ । आप मेरे पथम आ गये ह, इस लये इस क से मेरा उ ार क जये। आप ष कु जके सवा दूसर क इस नजन वनम प ँ च नह हो ‘



सकती (इस लये आप अव कु यो न अग ही ह)॥ २२ ॥ ‘सौ ! व वर! आपका क ाण हो। आप मेरा उ ार करनेके लये मेरे इस आभूषणका दान हण कर और आपका कृ पा साद मुझे ा हो॥ २३ ॥ ‘ न्! ष! यह द आभूषण सुवण, धन, व , भ , भो तथा अ नाना कारके आभरण भी देता है॥ २४ ॥ ‘मु न े ! इस आभूषणके ारा म सम कामना (मनोवा त पदाथ ) और भोग को भी दे रहा ँ । भगवन्! आप मेरे उ ारके लये मुझपर कृ पा कर’॥ २५ ॥ ग य राजा ेतक यह दु:खभरी बात सुनकर मने उनका उ ार करनेके लये वह उ म आभूषण ले लया॥ २६ ॥ ही मने उस शुभ आभूषणका दान हण कया, ही राज ष ेतका वह पूव-शरीर (शव) अ हो गया॥ २७ ॥ उस शरीरके अ हो जानेपर राज ष ेत परमान से तृ हो स तापूवक सुखमय लोकको चले गये॥ २८ ॥ काकु ! उन इ तु तेज ी राजा ेतने उस भूख- ासके नवारण प पूव न म से यह अ तु दखायी देनेवाला द आभूषण मुझे दया था॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अठह रवाँ सग पूरा आ॥ ७८॥



उनासीवाँ सग इ



ाकुपु राजा द



का रा



अग जीका यह अ अ तु वचन सुनकर ीरघुनाथजीके मनम उनके त वशेष गौरवका उदय आ और उ ने व त होकर पुन: उनसे पूछना आर कया—॥ १ ॥ ‘भगवन्! वह भयंकर वन, जसम वदभदेशके राजा ेत घोर तप ा करते थे, पशुप य से र हत हो गया था?॥ २ ॥ ‘वे वदभराज उस सूने नजन वनम तप ा करनेके लये गये? यह म यथाथ पसे सुनना चाहता ँ ’॥ ३ ॥ ीरामका कौतूहलयु वचन सुनकर वे परम तेज ी मह ष पुन: इस कार कहने लगे —॥ ४ ॥ ‘ ीराम! पूवकालके स युगक बात है, द धारी राजा मनु इस भूतलपर शासन करते थे। उनके एक े पु आ, जसका नाम इ ाकु था। राजकु मार इ ाकु अपने कु लको आन त करनेवाले थे॥ ५ ॥ ‘अपने उन े एवं दुजय पु को भूम लके रा पर ा पत करके मनुने उनसे कहा —‘बेटा! तुम भूतलपर राजवंश क सृ करो’॥ ६ ॥ ‘रघुन न! पु इ ाकु ने पताके सामने वैसा ही करनेक त ा क । इससे मनु ब त संतु ए और अपने पु से बोले—॥ ७ ॥ ‘‘परम उदार पु ! म तुमपर ब त स ँ । तुम राजवंशक सृ करोगे, इसम संशय नह है। तुम द के ारा दु का दमन करते ए जाक र ा करो, परंतु बना अपराधके ही कसीको द न देना॥ ८ ॥ ‘‘अपराधी मनु पर जो द का योग कया जाता है, वह व धपूवक दया आ द राजाको गलोकम प ँ चा देता है॥ ९ ॥ ‘‘इस लये महाबा पु ! तुम द का समु चत योग करनेके लये य शील रहना। ऐसा करनेसे तु संसारम परम धमक ा होगी’’॥ १० ॥



इस कार पु को ब त-सा संदेश दे मनु समा ध लगाकर बड़े हषके साथ गको— सनातन लोकको चले गये॥ ११ ॥ ‘उनके लोक नवासी हो जानेपर अ मत तेज ी राजा इ ाकु इस च ाम पड़े क म कस कार पु को उ क ँ ?॥ १२ ॥ ‘तब य , दान और तप ा प व वध कम ारा धमा ा मनुपु ने सौ पु उ कये, जो देवकु मार के समान तेज ी थे॥ १३ ॥ ‘तात रघुन न! उनम जो सबसे छोटा पु था, वह मूढ़ और व ा वहीन था, इस लये अपने बड़े भाइय क सेवा नह करता था॥ १४ ॥ ‘इसके शरीरपर अव द पात होगा, ऐसा सोचकर पताने उस म बु पु का नाम द रख दया॥ १५ ॥ ‘ ीराम! श ुदमन नरेश! उस पु के यो दूसरा को◌इ भयंकर देश न देखकर राजाने उसे व और शैवल पवतके बीचका रा दे दया॥ १६ ॥ ‘ ीराम! पवतके उस रमणीय तट ा म द राजा आ। उसने अपने रहनेके लये एक ब त ही अनुपम और उ म नगर बसाया॥ १७ ॥ ‘ भो! उसने उस नगरका नाम रखा मधुम और उ म तका पालन करनेवाले शु ाचायको अपना पुरो हत बनाया॥ १८ ॥ ‘इस कार गम देवराजक भाँ त भूतलपर राजा द ने पुरो हतके साथ रहकर -पु मनु से भरे ए उस रा का पालन आर कया॥ १९ ॥ ‘उस समय वह महामन ी महाराजकु मार तथा महान् राजा द शु ाचायके साथ रहकर अपने रा का उसी तरह पालन करने लगा जैसे गम देवराज इ देवगु बृह तके साथ रहकर अपने रा का पालन करते ह’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म उनासीवाँ सग पूरा आ॥ ७९॥



अ राजा द



ीवाँ सग



का भागव-क ाके साथ बला



ार



मह ष कु ज ीरामसे इतनी कथा कहकर फर इसीका अव श अंश इस तरह कहने लगे—॥ १ ॥ ‘काकु ! तदन र राजा द ने मन और इ य को काबूम रखकर ब त वष तक वहाँ अक क रा कया॥ २ ॥ ‘त ात् कसी समय राजा मनोरम चै मासम शु ाचायके रमणीय आ मपर आया॥ ३ ॥ ‘वहाँ



शु ाचायक सव म सु री क ा, जसके पक इस भूतलपर कह तुलना नह थी, वन ा म वचर रही थी। द ने उसे देखा॥ ४ ॥ ‘उसे देखते ही वह अ खोटी बु वाला राजा कामदेवके बाण से पी ड़त हो पास जाकर उस डरी ◌इ क ासे बोला—॥ ५ ॥ ‘‘सु ो ण! तुम कहाँसे आयी हो अथवा शुभे! तुम कसक पु ी हो? शुभानने! म कामदेवसे पी ड़त ँ ; इस लये तु ारा प रचय पूछता ँ ’’॥ ६ ॥ ‘मोहसे उ होकर वह कामी राजा जब इस कार पूछने लगा, तब भृगुक ाने वनयपूवक उसे इस कार उ र दया—॥ ७ ॥ ‘‘राजे ! तु ात होना चा हये क म पु कमा शु देवताक े पु ी ँ । मेरा नाम अरजा है। म इसी आ मम नवास करती ँ ॥ ८ ॥ ‘‘राजन्! बलपूवक मेरा श न करो। म पताके अधीन रहनेवाली कु मारी क ा ँ । राजे ! मेरे पता तु ारे गु ह और तुम उन महा ाके श हो॥ ९ ॥ ‘‘नर े ! वे महातप ी ह। य द कु पत हो जायँ तो तु बड़ी भारी वप म डाल सकते ह। य द मुझसे तु दूसरा ही काम लेना हो (अथात् य द तुम मुझे अपनी भाया बनाना चाहते हो) तो धमशा ो स ागसे चलकर मेरे महातेज ी पतासे मुझको माँग लो। अ था तु अपने े ाचारका बड़ा भयानक फल भोगना पड़ेगा॥ १०-११ ॥



‘‘मेरे



पता अपनी ोधा से सारी लोक को भी द कर सकते ह; अत: सु र अ वाले नरेश! तुम बला ार न करो। तु ारे याचना करनेपर पताजी मुझे अव तु ारे हाथम स प दगे’’॥ १२ ॥ ‘जब अरजा ऐसी बात कह रही थ , उस समय कामके अधीन ए द ने मदो होकर दोन हाथ सरपर जोड़ लये और इस कार उ र दया—॥ १३ ॥ ‘‘सु री! कृ पा करो। समय न बताओ। वरानने! तु ारे लये मेरे ाण नकले जा रहे ह॥ १४ ॥ ‘‘तु ा कर लेनेपर मेरा वध हो जाय अथवा मुझे अ दा ण दु:ख ा हो तो भी को◌इ च ा नह है। भी ! म तु ारा भ ँ । अ ाकु ल ए मुझ अपने सेवकको ीकार करो’’॥ १५ ॥ ‘ऐसा कहकर उस बलवान् नरेशने उस भागव-क ाको बलपूवक दोन भुजा म भर लया। वह उसक पकड़से छू टनेके लये छटपटाने लगी तो भी उसने अपनी इ ाके अनुसार उसके साथ समागम कया॥ १६ ॥ ‘वह अ दा ण एवं महाभयंकर अनथ करके द तुरंत ही अपने उ म नगर मधुम को चला गया॥ १७ ॥ ‘अरजा भी भयभीत हो रोती ◌इ आ मके पास ही अपने देवतु पताके आनेक राह देखने लगी’॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अ ीवाँ सग पूरा आ॥ ८० ॥







ासीवाँ सग



शु के शापसे सप रवार राजा द



और उनके रा



का नाश



दो घड़ी बाद कसी श के मुँहसे अरजाके ऊपर कये गये बला ारक बात सुनकर अ मत तेज ी मह ष शु भूखसे पी ड़त हो श से घरे ए अपने आ मको लौट आये॥ १ ॥



उ ने देखा, अरजा दु:खी होकर रो रही है। उसके शरीरम धूल लपटी ◌इ है तथा वह ात:काल-रा च माक शोभाहीन चाँदनीके समान सुशो भत नह हो रही है॥ २ ॥ यह देख वशेषत: भूखसे पी ड़त होनेके कारण देव ष शु का रोष बढ़ गया और वे तीन लोक को द -से करते ए अपने श से इस कार बोले—॥ ‘देखो, शा वपरीत आचरण करनेवाले अ ानी राजा द को कु पत ए मेरी ओरसे अ - शखाके समान कै से घोर वप ा होती है॥ ४ ॥ ‘सेवक स हत इस दुबु एवं दुरा ा राजाके वनाशका समय आ गया है, जो लत आगक दहकती ◌इ ालाको गले लगाना चाहता है॥ ५ ॥ ‘उस दुबु ने जब ऐसा घोर पाप कया है, तब इसे उस पापकमका फल अव ा होगा॥ ६ ॥ ‘पापकमका आचरण करनेवाला वह दुबु नरेश सात रातके भीतर ही पु , सेना और सवा रय स हत न हो जायगा॥ ७ ॥ ‘खोटे वचारवाले इस राजाके रा को जो सब ओरसे सौ योजन ल ा-चौड़ा है, देवराज इ , भारी धूलक वषा करके न कर दगे॥ ८ ॥ ‘यहाँ जो सब कारके ावर-ज म जीव नवास करते ह, इस धूलक भारी वषासे सब ओर वलीन हो जायँगे॥ ९ ॥ ‘जहाँतक द का रा है, वहाँतकके सम चराचर ाणी सात राततक के वल धू लक वषा पाकर अ हो जायँगे’॥ १० ॥ ऐसा कहकर ोधसे लाल आँ ख कये शु ने उस आ मम नवास करनेवाले लोग से कहा—‘द के रा क सीमाके अ म जो देश ह, उनम जाकर नवास करो’॥ ११ ॥



शु ाचायक यह बात सुनकर आ मवासी मनु उस रा से नकल गये और सीमासे बाहर जाकर नवास करने लगे॥ १२ ॥ आ मवासी मु नय से ऐसी बात कहकर शु ने अरजासे कहा—‘खोटी बु वाली लड़क ! तू यह इस आ मम मनको परमा ाके ानम एका करके रह॥ १३ ॥ ‘अरजे! यह जो एक योजन फै ला आ सु र तालाब है, इसका तू न होकर उपभोग कर और अपने अपराधक नवृ के लये यहाँ समयक ती ा करती रह॥ १४ ॥ ‘जो जीव उन रा य म तु ारे समीप रहगे, वे कभी भी धूलक वषासे मारे नह जायँग— े सदा बने रहगे’॥ षका यह आदेश सुनकर वह भृगुक ा अरजा अ दु: खत होनेपर भी अपने पता भागवसे बोली—‘ब त अ ा’॥ १६ ॥ ऐसा कहकर शु ने दूसरे रा म जाकर नवास कया तथा उन वादीके कथनानुसार राजा द का वह रा सेवक, सेना और सवा रय स हत सात दनम भ हो गया॥ १७ १/२ ॥ नरे र! व और शैवल ग रके म भागम द का रा था। काकु ! धमयुग कृ तयुगम धम व आचरण करनेपर उन षने राजा और उनके देशको शाप दे दया। तभीसे वह भूभाग द कार कहलाता है॥ १८-१९ ॥ इस ानपर तप ीलोग आकर बस गये; इस लये इसका नाम जन ान हो गया। रघुन न! आपने जसके वषयम मुझसे पूछा था, यह सब मने कह सुनाया॥ २० ॥ वीर! अब सं ोपासनाका समय बीता जा रहा है। पु ष सह! सब ओरसे ये सब मह ष ान कर चुकनेके बाद भरे ए घड़े लेकर सूयदेवक उपासना कर रहे ह॥ २१ १/२ ॥ ीराम! वे सूय वहाँ एक ए उन उ म वे ा ारा पढ़े गये ा णम को सुनकर और उसी पम पूजा पाकर अ ाचलको चले गये। अब आप भी जायँ और आचमन एवं ान आ द कर॥ २२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म इ ासीवाँ सग पूरा आ॥ ८१ ॥



बयासीवाँ सग ीरामका अग



-आ मसे अयो ापुरीको लौटना



ऋ षका यह आदेश पाकर ीरामच जी सं ोपासना करनेके लये अ रा से से वत उस प व सरोवरके तटपर गये॥ १ ॥ वहाँ आचमन और सायंकालक सं ोपासना करके ीरामने पुन: महा ा कु जके आ मम वेश कया॥ २ ॥ अग जीने उनके भोजनके लये अनेक गुण से यु क , मूल, जराव ाको नवारण करनेवाली द ओष ध, प व भात आ द व ुएँ अ पत क ॥ ३ ॥ नर े ीराम वह अमृततु ा द भोजन करके परम तृ और स ए तथा वह रा उ ने बड़े संतोषसे बतायी॥ ४ ॥ सबेरे उठकर श ु का दमन करनेवाले रघुकुलभूषण ीराम न कम करके वहाँसे जानेक इ ासे मह षके पास गये॥ ५ ॥ वहाँ मह ष कु जको णाम करके ीरामने कहा— ‘महष! अब म अपनी पुरीको जानेके लये आपक आ ा चाहता ँ । कृ पया मुझे आ ा दान कर॥ ६ ॥ ‘आप महा ाके दशनसे म ध और अनुगृहीत आ। अब अपने-आपको प व करनेके लये फर कभी आपके दशनक इ ासे यहाँ आऊँ गा’॥ ७ ॥ ीरामच जीके इस कार अ तु वचन कहनेपर धमच ु तपोधन अग जी बड़े स ए और उनसे बोले—॥ ८ ॥ ‘ ीराम! आपके ये सु र वचन बड़े अ तु ह। रघुन न! सम ा णय को प व करनेवाले तो आप ही ह॥ ९ ॥ ‘ ीराम! जो को◌इ एक मु तके लये भी आपका दशन पा जाते ह, वे प व , गके अ धकारी तथा देवता के लये भी पूजनीय हो जाते ह॥ १० ॥ ‘इस भूतलपर जो ाणी आपको ू र से देखते ह, वे यमराजके द से पीटे जाकर त ाल नरकम गरते ह॥ ११ ॥



‘रघु



े ! ऐसे माहा शाली आप सम देहधा रय को प व करनेवाले ह। रघुन न! पृ ीपर जो लोग आपक कथाएँ कहते ह, वे स ा कर लेते ह॥ १२ ॥ ‘आप न होकर कु शलपूवक पधा रये। आपके मागम कह से को◌इ भय न रहे। आप धमपूवक रा का शासन कर; क आप ही संसारके परम आ य ह’॥ १३ ॥ मु नके ऐसा कहनेपर बु मान् राजा ीरामने भुजाएँ ऊपर उठा हाथ जोड़कर उन स शील मह षको णाम कया॥ १४ ॥ इस कार मु नवर अग तथा अ सब तपोधन ऋ षय का भी यथो चत अ भवादन कर वे बना कसी ताके उस सुवणभू षत पु क वमानपर चढ़ गये॥ १५ ॥ जैसे देवता सह ने धारी इ क पूजा करते ह, उसी कार जाते समय उन महे तु तेज ी ीरामको ऋ ष-समूह ने सब ओरसे आशीवाद दया॥ १६ ॥ उस सुवणभू षत पु क वमानपर आकाशम त ए ीराम वषाकालम मेघ के समीपवत च माके समान दखायी देते थे॥ १७ ॥ तदन र जगह-जगह स ान पाते ए वे ीरघुनाथजी म ा के समय अयो ाम प ँ चकर म म क ा (बीचक ोढ़ी)-म उतरे॥ १८ ॥ त ात् इ ानुसार चलनेवाले उस सु र पु क वमानको वह छोड़कर भगवा े उससे कहा— ‘अब तुम जाओ। तु ारा क ाण हो’॥ १९ ॥ फर ीरामने ोढ़ीके भीतर खड़े ए ारपालसे शी तापूवक कहा—‘तुम अभी जाकर शी परा मी भरत और ल णको मेरे आनेक सूचना दो और उ ज ी बुला लाओ’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बयासीवाँ सग पूरा आ॥ ८२ ॥



तरासीवाँ सग भरतके कहनेसे ीरामका राजसूय-य करनेके वचारसे नवृ होना



शे र हत कम करनेवाले ीरामका यह कथन सुनकर ारपालने कु मार भरत और ल णको बुलाकर ीरघुनाथजीक सेवाम उप त कर दया॥ १ ॥ भरत और ल णको आया देख रघुकुल तलक ीरामने उ दयसे लगा लया और यह बात कही—॥ ‘रघुवंशी राजकु मारो! मने ा णका वह परम उ म काय यथाव ूपसे स कर दया। अब म पुन: राजधमक चरम सीमा प राजसूय-य का अनु ान करना चाहता ँ ॥ ३ ॥ ‘मेरी रायम धमसेतु (राजसूय) अ य एवं अ वनाशी फल देनेवाला है तथा वह धमका पोषक एवं सम पाप का नाश करनेवाला है॥ ४ ॥ ‘तुम दोन मेरे आ ा ही हो, अत: मेरी इ ा तु ारे साथ इस उ म राजसूय-य का अनु ान करनेक है; क उसम राजाका शा त धम त ष्ठत है॥ ‘श ु का संहार करनेवाले म देवताने उ म आ तसे यु राजसूय नामक े य ारा परमा ाका यजन करके व णका पद ा कया था॥ ६ ॥ ‘धम सोम देवताने धमपूवक राजसूय-य का अनु ान करके स ूण लोक म क त तथा शा त ानको ा कर लया॥ ७ ॥ ‘इस लये आजके दन मेरे साथ बैठकर तुमलोग यह वचार करो क हमारे लये कौन-सा कम लोक और परलोकम क ाणकारी होगा तथा संयत च होकर तुम दोन इस वषयम मुझे सलाह दो’॥ ८ ॥ ीरघुनाथजीके ये वचन सुनकर वा वशारद भरतजीने हाथ जोड़कर यह बात कही—॥ ९॥ ‘साधो! अ मत परा मी महाबाहो! आपम उ म धम त ष्ठत है। यह सारी पृ ी भी आपपर ही आधा रत है तथा आपम ही यशक त ा है॥ १० ॥ ‘देवतालोग जैसे जाप त ाको ही महा ा एवं लोकनाथ समझते ह, उसी कार हमलोग और सम भूपाल आपको ही महापु ष तथा सम लोक का ामी मानते ह—उसी



से आपको देखते ह॥ ११ ॥ ‘राजन्! महाबली रघुन न! पु जैसे पताको देखते ह, उसी कार आपके त सब राजा का भाव है। आप ही सम पृ ी और स ूण ा णय के भी आ य ह॥ ‘नरे र! फर आप ऐसा य कै से कर सकते ह, जसम भूम लके सम राजवंश का वनाश दखायी देता है॥ १३ ॥ ‘राजन्! पृ ीपर जो पु षाथ पु ष ह, उन सबका सभीके कोपसे उस य म संहार हो जायगा॥ १४ ॥ ‘पु ष सह! अतुल परा मी वीर! आपके स ण ु के कारण सारा जगत् आपके वशम है। आपके लये इस भूतलके नवा सय का वनाश करना उ चत न होगा’॥ १५ ॥ भरतका यह अमृतमय वचन सुनकर स परा मी ीरामको अनुपम हष ा आ॥ १६ ॥



उ ने कै के यीन न भरतसे यह शुभ बात कही— ‘ न ाप भरत! आज तु ारी बात सुनकर म ब त स एवं संतु आ ँ ॥ १७ ॥ ‘पु ष सह! तु ारे मुखसे नकला आ यह उदार एवं धमसंगत वचन सारी पृ ीक र ा करनेवाला है॥ ‘धम ! मेरे दयम राजसूय-य का संक उठ रहा था; कतु आज तु ारे इस सु र भाषणको सुनकर म उस उ म य क ओरसे अपने मनको हटाये लेता ँ ॥ १९ ॥ ‘ल णके बड़े भा◌इ! बु मान् पु ष को ऐसा कम नह करना चा हये जो स ूण जग ो पीड़ा देनेवाला हो। बालक क कही ◌इ बात भी य द अ ी हो तो उसे हण करना ही उ चत है; अत: महाबली वीर! मने तु ारे उ म एवं यु संगत बातको बड़े ानसे सुना है’॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म तरासीवाँ सग पूरा आ॥ ८३ ॥



चौरासीवाँ सग ल



णका अ मेध-य का ाव करते ए इ और वृ ासुरक कथा सुनाना, वृ ासुरक तप ा और इ का भगवान् व ुसे उसके वधके लये अनुरोध



ीराम और महा ा भरतके इस कार बातचीत करनेपर ल णने रघुकुलन न ीरामसे यह शुभ बात कही—॥ १ ॥ ‘रघुन न! अ मेध नामक महान् य सम पाप को दूर करनेवाला, परमपावन और दु र है। अत: इसका अनु ान आप पसंद कर॥ २ ॥ ‘महा ा इ के वषयम यह ाचीन वृ ा सुननेम आता है क इ को जब ह ा लगी थी, तब वे अ मेधय का अनु ान करके ही प व ए थे॥ ३ ॥ ‘महाबाहो! पहलेक बात है, जब देवता और असुर पर र मलकर रहते थे, उन दन वृ नामसे स एक ब त बड़ा असुर रहता था। लोकम उसका बड़ा आदर था॥ ४ ॥ ‘वह सौ योजन चौड़ा और तीन सौ योजन ऊँ चा था। वह तीन लोक को आ ीय समझकर ार करता था और सबको ेहभरी से देखता था॥ ५ ॥ ‘उसे धमका यथाथ ान था। वह कृ त और र था तथा पूणत: सावधान रहकर धन-धा से भरी-पूरी पृ ीका धमपूवक शासन करता था॥ ६ ॥ ‘उसके शासनकालम पृ ी स ूण कामना को देनेवाली थी। यहाँ फल, फू ल और मूल सभी सरस होते थे॥ ७ ॥ ‘महा ा वृ ासुरके रा म यह भू म बना जोते-बोये ही अ उ करती तथा धनधा से भलीभाँ त स रहती थी। इस कार वह असुर समृ शाली एवं अ तु रा का उपभोग करता था॥ ८ ॥ ‘एक समय वृ ासुरके मनम यह वचार उ आ क म परम उ म तप क ँ ; क तप ही परम क ाणका साधन है। दूसरा सारा सुख तो मोहमा ही है॥ ९ ॥ ‘उसने अपने े पु मधुरे रको* राजा बना पुरवा सय को स प दया और स ूण देवता को ताप देता आ वह कठोर तप ा करने लगा॥ १० ॥



‘वृ



ासुरके तप ाम लग जानेपर इ बड़े दु:खी-से होकर भगवान् व ुके पास गये और इस कार बोले—॥ ११ ॥ ‘‘महाबाहो! तप ा करते ए वृ ासुरने सम लोक जीत लये। वह धमा ा असुर बलवान् हो गया है; अत: अब उसपर म शासन नह कर सकता॥ १२ ॥ ‘‘सुरे र! य द वह फर इसी कार तप ा करता रहा तो जबतक ये तीन लोक रहगे, तबतक हम सब देवता को उसके अधीन रहना पड़ेगा॥ १३ ॥ महाबली देवे र! उस परम उदार असुरक आप उपे ा कर रहे ह (इसी लये वह श शाली होता जा रहा है)। य द आप कु पत हो जायँ तो वह णभर भी जी वत नह रह सकता॥ १४ ॥ ‘‘ व ो! जबसे आपके साथ उसका ेम हो गया है, तभीसे उसने स ूण लोक का आ धप ा कर लया है॥ १५ ॥ ‘‘अत: आप अ ी तरह ान देकर स ूण लोक पर कृ पा क जये। आपके र ा करनेसे ही सारा जगत् शा एवं नीरोग हो सकता है॥ १६ ॥ ‘‘ व ो! ये सब देवता आपक ओर देख रहे ह। वृ ासुरका वध एक महान् काय है। उसे करके आप उन देवता का उपकार क जये॥ १७ ॥ ‘‘ भो! आपने सदा ही इन महा ा देवता क सहायता क है। यह असुर दूसर के लये अजेय है; अत: आप हम नरा त देवता के आ यदाता ह ’॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चौरासीवाँ सग पूरा आ॥ ८४ ॥ मधुरे रका अथ तलककारने मधुर नामक राजा कया है। रामायण शरोम णकारने मधुर व ा का ◌इ र कया है तथा रामायणभूषणकारने मधुर—सौ भावका राजा अथवा मधुरा नगरीका ामी कया है। ११५६ * ीम ा ीक य रामायण* *



पचासीवाँ सग भगवान् व



ुके तेजका इ और व आ दम वेश, इ के व से वृ ासुरका वध तथा ह ा इ का अ कारमय देशम जाना



ल णका यह कथन सुनकर श ु का संहार करनेवाले ीरामच जीने कहा—‘उ म तका पालन करनेवाले सु म ाकु मार! वृ ासुरके वधक पूरी कथा कह सुनाओ’॥ १ ॥ ीरामच जीके इस कार आदेश देनेपर उ म तके पालक सु म ान न ल णने पुन: उस द कथाको सुनाना आर कया—॥ २ ॥ ‘‘ भो! सह ने धारी इ तथा स ूण देवता क वह ाथना सुनकर भगवान् व ुने इ आ द सब देवता से इस कार कहा—॥ ३ ॥ ‘‘देवताओ! तु ारी इस ाथनाके पहलेसे ही म महामना वृ ासुरके ेह-ब नम बँधा आ ँ । इस लये तु ारा य करनेके उ े से म उस महान् असुरका वध नह क ँ गा॥ ४ ॥ ‘‘परंतु तुम सबके उ म सुखक व ा करना मेरा आव क कत है; इस लये म ऐसा उपाय बताऊँ गा, जससे देवराज इ उसका वध कर सकगे॥ ५ ॥ ‘‘सुर े गण! म अपने पभूत तेजको तीन भाग म वभ क ँ गा, जससे इ न ंदेह वृ ासुरका वध कर डालगे॥ ६ ॥ ‘‘मेरे तेजका एक अंश इ म वेश करे, दूसरा व म ा हो जाय और तीसरा भूतलको चला जाय’* तब इ वृ ासुरका वध कर सकगे’॥ ७ ॥ ‘देवे र भगवान् व ुके ऐसा कहनेपर देवता बोले—‘दै वनाशन! आप जो कहते ह, ठीक ऐसी ही बात है, इसम संदेह नह । आपका क ाण हो। हमलोग वृ ासुरके वधक इ ा मनम लये यहाँसे लौट जायँगे। परम उदार भो! आप अपने तेजके ारा देवराज इ को अनुगृहीत कर’॥ ८-९ ॥ ‘त ात् इ आ द सभी महामन ी देवता उस वनम गये, जहाँ महान् असुर वृ तप ा करता था॥ ‘उ ने देखा, असुर े वृ ासुर अपने तेजसे सब ओर ा हो रहा है और ऐसी तप ा कर रहा है, मानो उसके ारा तीन लोक को पी जायगा और आकाशको भी द कर डालेगा॥



११ ॥



‘उस असुर े वृ को देखते ही देवतालोग घबरा गये और सोचने लगे—‘हम कै से इसका वध करगे? और कस उपायसे हमारी पराजय नह होने पायेगी?’॥ ‘वे लोग वहाँ इस



कार सोच ही रहे थे क सह ने धारी इ ने दोन हाथ से व उठाकर उसे वृ ासुरके म कपर दे मारा॥ १३ ॥ ‘इ का वह व लयकालक अ के समान भयंकर और दी मान् था। उससे बड़ी भारी लपट उठ रही थ । उसक चोटसे कटकर जब वृ ासुरका म क गरा, तब सारा संसार भयभीत हो उठा॥ १४ ॥ ‘ नरपराध वृ ासुरका वध करना उ चत नह था, अत: उसके कारण महायश ी देवराज इ ब त च त ए और तुरंत ही सब लोक के अ म लोकालोक पवतसे परवत अ कारमय देशम चले गये॥ १५ ॥ ‘जानेके समय ह ा त ाल उनके पीछे लग गयी और उनके अ पर टूट पड़ी। इससे इ के मनम बड़ा दु:ख आ॥ १६ ॥ ‘देवता का श ु मारा गया। इस लये अ आ द सब देवता भुवनके ामी भगवान् व ुक बार-बार ु त-पूजा करने लगे। परंतु उनके इ अ हो गये थे (इसके कारण उ बड़ा दु:ख हो रहा था)॥ १७ ॥ (देवता बोले—) ‘परमे र! आप ही जग े आ य और आ द पता ह। आपने स ूण ा णय क र ाके लये व ु प धारण कया है॥ १८ ॥ ‘आपने ही इस वृ ासुरका वध कया है। परंतु ह ा इ को क दे रही है; अत: सुर े ! आप उनके उ ारका को◌इ उपाय बताइये’॥ १९ ॥ ‘देवता क यह बात सुनकर भगवान् व ु बोले—‘इ मेरा ही यजन कर। म उन व धारी देवराज इ को प व कर दूँगा॥ २० ॥ ‘‘प व अ मेध-य के ारा मुझ य -पु षक आराधना करके पाकशासन इ पुन: देवे पदको ा कर लगे और फर उ कसीसे भय नह रहेगा’॥ २१ ॥ ‘देवता के सम अमृतमयी वाणी ारा उ संदेश देकर देवे र भगवान् व ु अपनी ु त सुनते ए परम धामको चले गये॥ २२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म पचासीवाँ सग पूरा आ॥ ८५ ॥ वृ -वधके प ात् इ को लगी ◌इ ह ाक नवृ के समयतक इस भूतलक र ा करनेके लये तथा वृ के धराशायी होनेपर उसके भारी शरीरको धारण करनेक श देनेके लये भगवा े तेजके तीसरे अंशका भूतलपर आना आव क था; इस लये ऐसा आ। *



छयासीवाँ सग इ के बना जग



अशा



तथा अ मेधके अनु ानसे इ का



ह ासे मु



होना



उस समय वृ ासुरके वधक पूरी कथा सुनाकर नर े ल णने शेष कथाको इस कार कहना आर कया—॥ १ ॥ ‘देवता को भय देनेवाले महापरा मी वृ ासुरके मारे जानेपर ह ासे घरे ए वृ नाशक इ को ब त देरतक होश नह आ॥ २ ॥ ‘लोक क अ म सीमाका आ य ले वे सपके समान लोटते ए कु छ कालतक वहाँ अचेत और सं ाशू होकर पड़े रहे॥ ३ ॥ ‘इ के अ हो जानेसे सारा संसार ाकु ल हो उठा। धरती उजाड़-सी हो गयी। इसक आ ता न हो गयी और वन सूख गये। सम सर और स रता म जल ोतका अभाव हो गया और वषा न होनेसे सब जीव म बड़ी घबराहट फै ल गयी॥ ४-५ ॥ ‘सम लोक ीण होने लगे। इससे देवता के दयम ाकु लता छा गयी और उ ने उसी य का रण कया, जसे पहले भगवान् व ुने बताया था॥ ‘तदन र बृह तजीको साथ ले ऋ षय स हत सब देवता उस ानपर गये, जहाँ इ भयसे मो हत होकर छपे ए थे॥ ७ ॥ ‘वे इ को ह ासे आवे त देख उ देवे रको आगे करके अ मेध-य करने लगे॥ ८ ॥ ‘नरे र! फर तो महामन ी महे का वह महान् अ मेध-य आर हो गया। उसका उ े था ह ाक नवृ करके इ को प व बनाना॥ ९ ॥ ‘त ात् जब वह य समा आ, तब ह ाने महामन ी देवता के नकट आकर पूछा—‘मेरे लये कहाँ ान बनाओगे’॥ १० ॥ ‘यह सुनकर संतु एवं स ए देवता ने उससे कहा—‘दुजय श वाली ह े! तू अपने-आपको यं ही चार भाग म वभ कर दे’॥ ११ ॥ ‘महामन ी देवता का यह कथन सुनकर महे के शरीरम दु:खपूवक नवास करनेवाली ह ाने अपना चार भाग कर दया और इ के शरीरसे अ रहनेके लये ान माँगा॥ १२



॥ (वह



बोली—) ‘म अपने एक अंशसे वषाके चार महीन तक जलसे भरी ◌इ न दय म नवास क ँ गी। उस समय म इ ानुसार वचरनेवाली और दूसर के दपका दलन करनेवाली होऊँ गी॥ १३ ॥ ‘‘दूसरे भागसे म सदा सब समय भू मपर नवास क ँ गी, इसम संदेह नह है, यह म आपलोग से स ी बात कहती ँ ॥ १४ ॥ ‘‘और मेरा जो यह तीसरा अंश है, इसके साथ म युवाव ासे सुशो भत होनेवाली गव ली य म तमास तीन राततक नवास क ँ गी और उनके दपको न करती र ँ गी॥ १५ ॥ ‘‘सुर े गण! जो झूठ बोलकर कसीको कलं कत नह करते, ऐसे ा ण का जो लोग वध करते ह, उनपर म अपने चौथे भागसे आ मण क ँ गी’॥ १६ ॥ ‘तब देवता ने उससे कहा—‘दुवसे! तू जैसा कहती है, वह सब वैसा ही हो। जाओ अपना अभी साधन करो’॥ १७ ॥ ‘तब देवता ने बड़ी स ताके साथ सह लोचन इ क व ना क । इ न , न ाप एवं वशु हो गये॥ १८ ॥ ‘इ के अपने पदपर त ष्ठत होते ही स ूण जग शा छा गयी। उस समय इ ने उस अ तु श शाली य क भू र-भू र शंसा क ॥ १९ ॥ ‘रघुन न! अ मेध-य का ऐसा ही भाव है। अत: महाभाग! पृ ीनाथ! आप अ मेधय के ारा यजन क जये’॥ २० ॥ ल णके उस उ म और अ मनोहर वचनको सुनकर महा ा राजा ीरामच जी, जो इ के समान परा मी और बलशाली थे, मन-ही-मन बड़े स एवं संतु ए॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छयासीवाँ सग पूरा आ॥ ८६ ॥



सतासीवाँ सग ीरामका ल



णको राजा इलक कथा सुनाना—इलको एक-एक मासतक पु ष क ा







और



ल णक कही ◌इ यह बात सुनकर बातचीतक कलाम नपुण महातेज ी ीरघुनाथजी हँ सते ए बोले—॥ १ ॥ ‘नर े ल ण! वृ ासुरका सारा संग और अ मेध-य का जो फल तुमने जैसा बताया है, वह सब उसी पम ठीक है॥ २ ॥ ‘सौ ! सुना जाता है क पूवकालम जाप त कदमके पु ीमान् इल बा क देशके राजा थे। वे बड़े धमा ा नरेश थे॥ ३ ॥ ‘पु ष सह! वे महायश ी भूपाल सारी पृ ीको वशम करके अपने रा क जाका पु क भाँ त पालन करते थे॥ ४ ॥ ‘सौ ! रघुन न! परम उदार देवता, महाधनी दै तथा नाग, रा स, ग व और महामन ी य — ये सब भयभीत होकर सदा राजा इलक ु त-पूजा करते थे तथा उन महामना नरेशके हो जानेपर तीन लोक के ाणी भयसे थरा उठते थे॥ ५-६ ॥ ‘ऐसे भावशाली होनेपर भी बा ीकदेशके ामी महायश ी परम उदार राजा इल धम और परा मम ढ़तापूवक त रहते थे और उनक बु भी र थी॥ ७ ॥ ‘एक समयक बात है सेवक, सेना और सवा रय स हत उन महाबा नरेशने मनोरम चै मासम एक सु र वनके भीतर शकार खेलना आर कया॥ ८ ॥ ‘राजाने उस वनम सैकड़ -हजार हसक ज ु का वध कया, कतु इतने ही ज ु का वध करके उन महामन ी नरेशको तृ नह ◌इ॥ ९ ॥ ‘ फर उन महामना इलके हाथसे नाना कारके दस हजार हसक पशु मारे गये। त ात् वे उस देशम गये, जहाँ महासेन ( ामी का तके य)-का ज आ था॥ १० ॥ ‘उस ानम देवता के ामी दुजय देवता भगवान् शव अपने सम सेवक के साथ रहकर ग रराजकु मारी उमाका मनोर न करते थे॥ ११ ॥



‘ जनक



जापर वृषभका च सुशो भत होता है, वे भगवान् उमाव भ अपने-आपको भी ी पम कट करके देवी पावतीका य करनेक इ ासे वहाँके पवतीय झरनेके पास उनके साथ वहार करते थे॥ १२ ॥ ‘उस वनके व भ भाग म जहाँ-जहाँ पुँ ल नामधारी ज ु अथवा वृ थे, वे सब-के सब ी ल म प रणत हो गये थे॥ १३ ॥ ‘वहाँ जो कु छ भी चराचर ा णय का समूह था, वह सब ीनामधारी हो गया था। इसी समय कदमके पु राजा इल सह हसक पशु का वध करते ए उस देशम आ गये॥ १४ १/२ ॥ ‘वहाँ



आकर उ ने देखा, सप, पशु और प य स हत उस वनका सारा ा णसमुदाय ी प हो गया है। रघुन न! सेवक स हत अपने-आपको भी उ ने ी पम प रणत आ देखा॥ १५ १/२ ॥ ‘अपनेको उस अव ाम देखकर राजाको बड़ा दु:ख आ। यह सारा काय उमाव भ महादेवजीक इ ासे आ है, ऐसा जानकर वे भयभीत हो उठे ॥ १६ १/२ ॥ ‘तदन र सेवक, सेना और सवा रय स हत राजा इल जटाजूटधारी महा ा भगवान् नीलक क शरणम गये’॥ १७ १/२ ॥ तब पावतीदेवीके साथ वराजमान वरदायक देवता महे र हँ सकर जाप तपु इलसे यं बोले—॥ १८ १/२ ॥ ‘कदमकु मार महाबली राजष! उठो-उठो। उ म तका पालन करनेवाले सौ नरेश! पु ष छोड़कर जो चाहो, वह वर माँग लो’॥ १९ १/२ ॥ महा ा भगवान् श रके इस कार पु ष देनेसे इनकार कर देनेपर ी प ए राजा इल शोकसे ाकु ल हो गये। उ ने उन सुर े महादेवजीसे दूसरा को◌इ वर नह हण कया॥ २० १/२ ॥ तदन र महान् शोकसे पी ड़त हो राजाने ग रराजकु मारी उमादेवीके चरण म स ूण दयसे णाम करके यह ाथना क —‘स ूण वर क अधी री दे व! आप मा ननी ह। सम लोक को वर देनेवाली ह। दे व! आपका दशन कभी न ल नह होता। अत: आप अपनी सौ से मुझपर अनु ह क जये’॥



‘राज ष



इलके हा दक अ भ ायको जानकर या देवी पावतीने महादेवजीके समीप यह शुभ बात कही—॥ २३ १/२ ॥ ‘राजन्! तुम पु ष - ा प जो वर चाहते हो, उसके आधे भागके दाता तो महादेवजी ह और आधा वर तु म दे सकती ँ (अथात् तु स ूण जीवनके लये जो ी मल गया है, उसे म आधे जीवनके लये पु ष म प रव तत कर सकती ँ )। इस लये तुम मेरा दया आ आधा वर ीकार करो। तुम जतने- जतने कालतक ी और पु ष रहना चाहो, उसे मेरे सामने कहो’॥ २४ १/२ ॥ देवी पावतीका वह परम उ म और अ अ तु वर सुनकर राजाके मनम बड़ा हष आ और वे इस कार बोले—‘दे व! य द आप मुझपर स ह तो म एक मासतक भूतलपर अनुपम पवती ीके पम रहकर फर एक मासतक पु ष होकर र ँ ’॥ २५-२६ १/२ ॥ राजाके मनोभावको जानकर सु र मुखवाली पावतीदेवीने यह शुभ वचन कहा—‘ऐसा ही होगा। राजन्! जब तुम पु ष पम रहोगे, उस समय तु अपने ीजीवनक याद नह रहेगी और जब तुम ी पम रहोगे, उस समय तु एक मासतक अपने पु षभावका रण नह होगा’॥ २७-२८ १/२ ॥ ‘इस कार कदमकु मार राजा इल एक मासतक पु ष रहकर फर एक मास लोकसु री नारी इलाके पम रहने लगे’॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सतासीवाँ सग पूरा आ॥ ८७ ॥



अ ासीवाँ सग इला और बुधका एक-दस ू रेको देखना तथा बुधका उन सब य को कपु षी नाम देकर पवतपर रहनेके लये आदेश देना



ीरामक कही ◌इ इलके च र से स रखनेवाली उस कथाको सुनकर ल ण और भरत दोन ही बड़े व त ए॥ १ ॥ उन दोन भाइय ने हाथ जोड़कर ीरामसे महामना राजा इलके ी-पु षभावके व ृत वृ ा के वषयम पुन: पूछा—॥ २ ॥ ‘ भो! राजा इल ी होकर तो बड़ी दुग तम पड़ गये ह गे। उ ने वह समय कै से बताया? और जब वे पु ष पम रहते थे, तब कस वृ का आ य लेते थे?’॥ ३ ॥ ल ण और भरतका वह कौतूहलपूण वचन सुनकर ीरामच जीने राजा इलके वृ ा को, जैसा वह उपल था, उसी पम पुन: सुनाना आर कया—॥ ४ ॥ ‘तदन र उस थम मासम ही इला भुवनसु री नारी होकर वनम वचरने लगी। जो पहले उसके चरणसेवक थे, वे भी ी पम प रणत हो गये थे; उ य से घरी ◌इ लोकसु री कमललोचना इला वृ , झा ड़य और लता से भरे ए एक वनम शी वेश करके पैदल ही सब ओर घूमने लगी॥ ५-६ ॥ ‘उस समय सारे वाहन को सब ओर छोड़कर इला व ृत पवतमाला के म भागम मण करने लगी॥ ७ ॥ ‘उस वन ा म पवतके पास ही एक सु र सरोवर था, जसम नाना कारके प ी कलरव कर रहे थे॥ ८ ॥ ‘उस सरोवरम सोमपु बुध तप ा करते थे, जो अपने तेज ी शरीरसे उ दत ए पूण च माके समान का शत हो रहे थे। इलाने उ देखा*॥ ९ ॥ ‘वे जलके भीतर ती तप ाम संल थे। उ पराभूत करना कसीके लये भी अ क ठन था। वे यश ी, पूणकाम और त ण-अव ाम त थे॥ १० ॥ ‘रघुन न! उ देखकर इला च कत हो उठी और जो पहले पु ष थ , उन य के साथ जलम उतरकर उसने सारे जलाशयको ु कर दया॥ ११ ॥



‘इलापर



पड़ते ही बुध कामदेवके बाण का नशाना बन गये। उ अपने तन-मनक सुध न रही और वे उस समय जलम वच लत हो उठे ॥ १२ ॥ ‘इला लोक म सबसे अ धक सु री थी। उसे देखते ए बुधका मन उसीम आस हो गया और वे सोचने लगे, ‘यह कौन-सी ी है, जो देवा ना से भी बढ़कर पवती है॥ १३ ॥ ‘‘न देवव नता म, न नागवधु म, न असुर क य म और न अ रा म ही मने पहले कभी को◌इ ऐसे मनोहर पसे सुशो भत होनेवाली ी देखी है॥ ‘‘य द यह दूसरेको ाही न गयी हो तो सवथा मेरी प ी बननेयो है।’ ऐसा वचार वे जलसे नकलकर कनारे आये॥ १५ ॥ ‘ फर आ मम प ँ चकर उन धमा ाने पूव सभी सु रय को आवाज देकर बुलाया और उन सबने आकर उ णाम कया॥ १६ ॥ ‘तब धमा ा बुधने उन सब य से पूछा— ‘यह लोकसु री नारी कसक प ी है और कस लये यहाँ आयी है? ये सब बात तुम शी मुझे बताओ’॥ १७ ॥ ‘बुधके मुखसे नकला आ वह शुभवचन मधुर पदावलीसे यु तथा मीठा था। उसे सुनकर उन सब य ने मधुर वाणीम कहा—॥ १८ ॥ ‘‘ न्! यह सु री हमारी सदाक ा मनी है। इसका को◌इ प त नह है। यह हमलोग के साथ अपनी इ ाके अनुसार वन ा म वचरती रहती है’॥ १९ ॥ ‘उन य का वचन सब कारसे सु था। उसे सुनकर ा ण बुधने पु मयी आवतनी व ाका आवतन ( रण) कया॥ २० ॥ ‘उस राजाके वषयक सारी बात यथाथ पसे जानकर मु नवर बुधने उन सभी य से कहा—॥ ‘‘तुम सब लोग कपु षी ( क री) होकर पवतके कनारे रहोगी। इस पवतपर शी ही अपने लये नवास ान बना लो॥ २२ ॥ ‘‘प और फल-मूलसे ही तुम सबको सदा जीवन- नवाह करना होगा। आगे चलकर तुम सभी याँ कपु ष नामक प तय को ा कर लोगी’॥ २३ ॥ ‘ कपु षी नामसे स ◌इ वे याँ सोमपु बुधक उपयु बात सुनकर उस पवतपर रहने लग । उन य क सं ा ब त अ धक थी॥ २४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अ ासीवाँ सग पूरा आ॥ ८८ ॥ यह सरोवर उस सीमासे बाहर था, जहाँतकके ाणी भगवान् शवके आदेशसे ी प हो गये थे। इसी लये बुधको ी क ा नह ◌इ थी। *



नवासीवाँ सग बुध और इलाका समागम तथा पु रवाक उ



कपु षजा तक उ का यह संग सुनकर ल ण और भरत दोन ने महाराज ीरामसे कहा—‘यह तो बड़े आ यक बात है’॥ १ ॥ तदन र महायश ी धमा ा ीरामने जाप त कदमके पु इलक इस कथाको फर इस कार कहना आर कया—॥ २ ॥ ‘वे सब क रयाँ पवतके कनारे चली गय । यह देख मु न े बुधने उस पवती ीसे हँ सते ए-से कहा—॥ ३ ॥ ‘‘सुमु ख! म सोमदेवताका परम य पु ँ । वरारोहे! मुझे अनुराग और ेहभरी से देखकर अपनाओ’॥ ४ ॥ ‘ जन से र हत उस सूने ानम बुधक यह बात सुनकर इला उन परम सु र महातेज ी बुधसे इस कार बोली—॥ ५ ॥ ‘‘सौ सोमकु मार! म अपनी इ ाके अनुसार वचरनेवाली ( त ) ँ , कतु इस समय आपक आ ाके अधीन हो रही ँ ; अत: मुझे उ चत सेवाके लये आदेश दी जये और जैसी आपक इ ा हो, वैसा क जये’॥ ६ ॥ ‘इलाका यह अ तु वचन सुनकर कामास सोमपु को बड़ा हष आ। वे उसके साथ रमण करने लगे॥ ७ ॥ ‘मनोहर मुखवाली इलाके साथ अ तशय रमण करनेवाले कामास बुधका वैशाख मास एक णके समान बीत गया॥ ८ ॥ ‘एक मास पूण होनेपर पूण च माके समान मनोहर मुखवाले जाप त-पु ीमान् इल अपनी श ापर जाग उठे ॥ ९ ॥ ‘उ ने देखा, सोमपु बुध वहाँ जलाशयम तप कर रहे ह। उनक भुजाएँ ऊपरको उठी ◌इ ह और वे नराधार खड़े ह। उस समय राजाने बुधसे पूछा—॥ १० ॥ ‘‘भगवन्! म अपने सेवक के साथ दुगम पवतपर आ गया था, परंतु यहाँ मुझे अपनी वह सेना नह दखायी देती है। पता नह , वे मेरे सै नक कहाँ चले गये?’॥ ११ ॥



‘राज ष



इलक ी - ा वषयक ृ त न हो गयी थी। उनक बात सुनकर बुध उ म वाणी ारा उ सा ना देते ए यह शुभ वचन बोले—॥ १२ ॥ ‘‘राजन्! आपके सारे सेवक ओल क भारी वषासे मारे गये। आप भी आँ धी-पानीके भयसे पी ड़त हो इस आ मम आकर सो गये थे॥ १३ ॥ ‘‘वीर! अब आप धैय धारण कर। आपका क ाण हो। आप नभय और न होकर फल-मूलका आहार करते ए यहाँ सुखपूवक नवास क जये’॥ १४ ॥ ‘बुधके इस वचनसे परम बु मान् राजा इलको बड़ा आ ासन मला, परंतु अपने सेवक के न होनेसे वे ब त दु:खी थे; इस लये उनसे इस कार बोले—॥ १५ ॥ ‘‘ न्! म सेवक से र हत हो जानेपर भी रा का प र ाग नह क ँ गा। अब णभर भी मुझसे यहाँ नह रहा जायगा; अत: मुझे जानेक आ ा दी जये॥ १६ ॥ ‘‘ न्! मेरे धमपरायण े पु बड़े यश ी ह। उनका नाम शश ब ु है। जब म वहाँ जाकर उनका अ भषेक क ँ गा, तभी वे मेरा रा हण करगे॥ १७ ॥ ‘‘महातेज ी मुने! देशम जो मेरे सेवक और ी, पु आ द प रवारके लोग सुखसे रह रहे ह, उन सबको छोड़कर म यहाँ नह ठहर सकूँ गा। अत: मुझसे ऐसी को◌इ अशुभ बात आप न कह, जससे जन से बछु ड़कर मुझे यहाँ दु:खपूवक रहनेके लये ववश होना पड़े’॥ १८ ॥ ‘राजे इलके ऐसा कहनेपर बुधने उ सा ना देते ए अ अ तु बात कही —‘राजन्! तुम स तापूवक यहाँ रहना ीकार करो। कदमके महाबली पु ! तु संताप नह करना चा हये। जब तुम एक वषतक यहाँ नवास कर लोगे, तब म तु ारा हत साधन क ँ गा’॥ १९-२० ॥ ‘पु कमा बुधका यह वचन सुनकर उन वादी महा ाके कथनानुसार राजाने वहाँ रहनेका न य कया॥ २१ ॥ ‘वे एक मासतक ी होकर नर र बुधके साथ रमण करते और फर एक मासतक पु ष होकर धमानु ानम मन लगाते थे॥ २२ ॥ ‘तदन र नव मासम सु री इलाने सोमपु बुधसे एक पु को ज दया, जो बड़ा ही तेज ी और बलवान् था। उसका नाम था पु रवा॥ २३ ॥



‘उसके



उस महाबली पु क अ का बुधके ही समान थी। वह ज लेते ही उपनयनके यो अव ाका बालक हो गया, इस लये सु री इलाने उसे पताके हाथम स प दया॥ २४ ॥ ‘वष पूरा होनेम



जतने मास शेष थे, उतने समयतक जब-जब राजा पु ष होते थे, तब-तब मनको वशम रखनेवाले बुध धमयु कथा ारा उनका मनोर न करते थे’॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म नवासीवाँ सग पूरा आ॥ ८९ ॥



न ेवाँ सग अ मेधके अनु ानसे इलाको पु ष क







ीरामच जी जब पु रवाके ज क अ तु कथा कह गये, तब ल ण तथा महायश ी भरतने पुन: पूछा—॥ १ ॥ ‘नर े ! सोमपु बुधके यहाँ एक वषतक नवास करनेके प ात् इलाने ा कया, यह ठीक-ठीक बतानेक कृ पा कर’॥ २ ॥ करते समय उन दोन भाइय क वाणीम बड़ा माधुय था। उसे सुनकर ीरामने जाप तपु इलके वषयम फर इस कार कथा आर क —॥ ३ ॥ ‘शूरवीर! इल जब एक मासके लये पु षभावको ा ए, तब परम बु मान् महायश ी बुधने परम उदार महा ा संवतको बुलाया॥ ४ ॥ ‘भृगुपु वन मु न, अ र ने म, मोदन, मोदकर और दुवासा मु नको भी आम त कया॥ ५ ॥ ‘इन सबको बुलाकर बातचीतक कला जाननेवाले त दश बुधने धैयसे एका च रहनेवाले इन सभी सु द से कहा—॥ ६ ॥ ‘‘ये महाबा राजा इल जाप त कदमके पु ह। इनक जैसी त है, इसे आप सब लोग जानते ह। अत: इस वषयम ऐसा को◌इ उपाय क जये, जससे इनका क ाण हो’॥ ७ ॥ ‘वे सब इस



कार बातचीत कर ही रहे थे क महा ा ज के साथ महातेज ी जाप त कदम भी उस आ मपर आ प ँ चे॥ ८ ॥ ‘साथ ही पुल , तु, वषट्कार तथा महातेज ी कार भी उस आ मपर पधारे॥ ९ ॥ ‘पर



र मलनेपर वे सभी मह ष स च हो बा कदेशके ामी राजा इलका हत चाहते ए भ - भ कारक राय देने लगे॥ १० ॥ ‘तब कदमने पु के लये अ हतकर बात कही—‘ ा णो! आपलोग मेरी बात सुन, जो इस राजाके लये क ाणका रणी होगी॥ ११ ॥



‘‘म भगवान् श रके सवा दूसरे कसीको ऐसा नह देखता, जो इस रोगक दवा कर सके तथा अ मेध-य से बढ़कर दूसरा को◌इ ऐसा य नह है, जो महा ा महादेवजीको य हो॥



१२ ॥



‘‘अत: हम सब लोग राजा इलके



हतके लये उस दु र य का अनु ान कर।’ कदमके ऐसा कहनेपर उन सभी े ा ण ने भगवान् क आराधनाके लये उस य का अनु ान ही अ ा समझा॥ १३ १/२ ॥ ‘संवतके श तथा श ुनगरीपर वजय पानेवाले सु स राज ष म ने उस य का आयोजन कया॥ ‘ फर तो बुधके आ मके नकट वह महान् य स आ तथा उससे महायश ी देवको बड़ा संतोष ा आ॥ १५ १/२ ॥ ‘य समा होनेपर परमान से प रपूण च ए भगवान् उमाप तने इलके पास ही उन सब ा ण से कहा—॥ १६ १/२ ॥ ‘‘ ज े गण! म तु ारी भ तथा इस अ मेध-य के अनु ानसे ब त स ँ । बताओ, म बा कनरेश इलका कौन-सा शुभ एवं य काय क ँ ?’॥ १७ १/२ ॥ ‘देवे र शवके ऐसा कहनेपर वे सब ा ण एका च हो उन देवा धदेवको इस तरह स करनेक चे ा करने लगे, जससे नारी इला सदाके लये पु ष इल हो जाय॥ १८ १/२ ॥ ‘तब स ए महातेज ी महादेवजीने इलाको सदाके लये पु ष दान कर दया और ऐसा करके वे वह अ धान हो गये॥ १९ १/२ ॥ ‘अ मेध-य समा होनेपर जब महादेवजी दशन देकर अ हो गये, तब वे सब दीघदश ा ण जैसे आये थे, वैसे लौट गये॥ २० १/२ ॥ ‘राजा इलने बा कदेशको छोड़कर म -देशम (ग ा-यमुनाके संगमके नकट) एक परम उ म एवं यश ी नगर बसाया, जसका नाम था त ानपुर*॥ २१ १/२ ॥ ‘श ुनगरीपर वजय पानेवाले राज ष शश ब नु े बा कदेशका रा हण कया और जाप त कदमके पु बलवान् राजा इल त ानपुरके शासक ए॥



‘समय



आनेपर राजा इल शरीर छोड़कर परम उ म लोकको ा ए और इलाके पु राजा पु रवाने त ानपुरका रा ा कया॥ २३ १/२ ॥ ‘पु ष े भरत और ल ण! अ मेध-य का ऐसा ही भाव है। जो ी प हो गये थे, उन राजा इलने इस य के भावसे पु ष ा कर लया तथा और भी दुलभ व ुएँ ह गत कर ल ’॥ २४ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म न ेवाँ सग पूरा आ॥ ९० ॥







ानबेवाँ सग



ीरामके आदेशसे अ मेध-य क तैयारी



अपने दोन भाइय को यह कथा सुनाकर अ मत तेज ी ीरामच जीने ल णसे पुन: यह धमयु बात कही—॥ १ ॥ ‘ल ण! म अ मेध-य करानेवाले ा ण म अ ग एवं सव े व स , वामदेव, जाबा ल और का प आ द सभी ज को बुलाकर और उनसे सलाह लेकर पूरी सावधानीके साथ शुभ ल ण से स घोड़ा छोडँ गा’॥ २-३ ॥ रघुनाथजीके कहे ए इस वचनको सुनकर शी गामी ल णने सम ा ण को बुलाकर उ ीरामच जीसे मलाया॥ ४ ॥ उन ा ण ने देखा, देवतु तेज ी और अ दुजय ीराघवे हमारे चरण म णाम करके खड़े ह, तब उ ने शुभ-आशीवाद ारा उनका स ार कया॥ ५ ॥ उस समय रघुकुलभूषण ीराम हाथ जोड़कर उन े ा ण से अ मेध-य के वषयम धमयु े वचन बोले—॥ ६ ॥ वे सब ा ण भी ीरामक वह बात सुनकर भगवान् शंकरको णाम करके सब कारसे अ मेधय क सराहना करने लगे॥ ७ ॥ अ मेध-य के वषयम उन े ा ण का अ तु ानसे यु वचन सुनकर ीरामच जीको बड़ी स ता ◌इ॥ ८ ॥ उस कमके लये उन ा ण क ीकृ त जानकर ीराम ल णसे बोले—‘महाबाहो! तुम महा ा वानरराज सु ीवके पास यह संदेश भेजो क ‘क प े ! तुम ब त-से वशालकाय वनवासी वानर के साथ यहाँ य -महो वका आन लेनेके लये आओ। तु ारा क ाण हो’॥ ९-१० ॥ ‘साथ ही अतुल परा मी वभीषणको भी यह सूचना दो क ‘वे इ ानुसार चलनेवाले ब त-से रा स के साथ हमारे महान् अ मेध-य म पधार’॥ ११ ॥ ‘इनके सवा मेरा य करनेक इ ावाले जो महाभाग राजा ह, वे भी य -भू म देखनेके लये सेवक स हत शी यहाँ आव॥ १२ ॥



‘ल



ण! जो धम न ा ण कायवश दूसरे-दूसरे देश म चले गये ह, उन सबको अपने अ मेधय के लये आम त करो॥ १३ ॥ ‘महाबाहो! तपोधन ऋ षय को तथा अ रा म रहनेवाले य स हत सम षय को भी बुला लो॥ ‘महाबाहो! ताल लेकर रंगभू मम संचरण करनेवाले सू धार तथा नट और नतक भी बुला लये जायँ। नै मषार म गोमतीके तटपर वशाल य म प बनानेक आ ा दो; क वह वन ब त ही उ म और प व ान है॥ १५ १/२ ॥ ‘महाबा रघुन न! वहाँ य क न व -समा के लये सव शा - वधान ार करा दो। नै मषार म सैकड़ धम पु ष उस परम उ म और े महाय को देखकर कृ ताथ ह ॥ १६-१७ ॥ ‘धम ल ण! शी लोग को आम त करो और जो लोग आव, वे सब व धपूवक तु , पु एवं स ा नत होकर लौट॥ १८ ॥ ‘महाबली सु म ाकु मार! लाख बोझ ढोनेवाले पशु खड़े दानेवाले चावल लेकर और दस हजार पशु तल, मूँग, चना, कु ी, उड़द और नमकके बोझ लेकर आगे चल॥ १९ १/२ ॥ ‘इसीके अनु प घी, तेल, दूध, दही तथा बना घसे ए च न और बना पसे ए सुग त पदाथ भी भेजे जाने चा हये। भरत सौ करोड़से भी अ धक सोने-चाँदीके स े साथ लेकर पहले ही जायँ और बड़ी सावधानीके साथ या ा कर॥ २०-२१ ॥ ‘मागम आव क व ु के य- व यके लये जगह-जगह बाजार भी लगनी चा हये; अत: इसके वतक व णक् एवं वसायीलोग भी या ा कर। सम नट और नतक भी जायँ। ब त-से रसोइये तथा सदा युवाव ासे सुशो भत होनेवाली याँ भी या ा कर॥ २२ ॥ ‘भरतके साथ आगे-आगे सेनाएँ भी जायँ। महायश ी भरत शा वे ा व ान , बालक , वृ , एका च वाले ा ण , काम करनेवाले नौकर , बढ़इय , कोषा , वै दक , मेरी सब माता , कु मार के अ :पुर (भरत आ दक य ), मेरी प ीक सुवणमयी तमा तथा य कमक दी ाके जानकार ा ण को आगे करके पहले ही या ा कर’॥ २३—२५ ॥ त ात् महाबली नर े ीरामने सेवक स हत महातेज ी नरेश के ठहरनेके लये ब मू वास ान बनाने (खेमे आ द लगाने)-के लये आदेश दया तथा सेवक स हत उन



महा ा नरेश के लये अ -पान एवं व आ दक भी व ा करायी॥ २६ १/२ ॥ तदन र श ु स हत भरतने नै मषार को ान कया। उस समय वहाँ सु ीवस हत महा ा वानर जतने भी े ा ण वहाँ उप त थे, उन सबको रसो◌इ परोसनेका काम करते थे॥ २७-२८ ॥ य तथा ब त-से रा स के साथ वभीषण उ तप ी महा ा मु नय के ागतस ारका काम सँभालते थे॥ २९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म इ ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९१ ॥



बानबेवाँ सग ीरामके अ मेध-य म दान-मानक वशेषता



इस कार सब साम ी पूण पसे भेजकर भरतके बड़े भा◌इ ीरामने उ म ल ण से स तथा कृ सार मृगके समान काले रंगवाले एक घोड़ेको छोड़ा॥ १ ॥ ऋ ज स हत ल णको उस अ क र ाके लये नयु करके ीरघुनाथजी सेनाके साथ नै मषार को गये॥ २ ॥ वहाँ बने ए अ अ तु य -म पको देखकर महाबा ीरामको अनुपम स ता ा ◌इ और वे बोले—‘ब त सु र है’॥ ३ ॥ नै मषार म नवास करते समय ीरामच जीके पास भूम लके सभी नरेश भाँ तभाँ तके उपहार ले आये और ीरामच जीने उन सबका ागत-स ार कया॥ उ अ , पान, व तथा अ सब आव क सामान दये गये। श ु स हत भरत उन राजा के ागत-स ारम नयु कये गये थे॥ ५ ॥ सु ीवस हत महामन ी वानर परम प व एवं संयत च हो उस समय वहाँ ा ण को भोजन परोसते थे॥ ६ ॥ ब तेरे रा स से घरे ए वभीषण अ सावधान रहकर उ तप ी ऋ षय के सेवाकायम संल थे॥ ७ ॥ महाबली नर े ीरामने सेवक स हत महा-मन ी भूपाल को ठहरनेके लये ब मू वास ान (खेमे) दये॥ ८ ॥ इस कार सु र ढंगसे अ मेध-य का काय ार आ और ल णके संर णम रहकर घोड़ेके भूम लम मणका काय भी भलीभाँ त स हो गया॥ ९ ॥ राजा म सहके समान परा मी महा ा ीरघुनाथजीका वह े य इस कार उ म व धसे होने लगा। उस अ मेध-य म के वल एक ही बात सब ओर सुनायी पड़ती थी— जबतक याचक संतु न ह , तबतक उनक इ ाके अनुसार सब व ुएँ दये जाओ, इसके सवा दूसरी बात नह सुनायी देती थी। इस कार महा ा ीरामके े य म नाना कारके



गुड़के बने ए खा पदाथ और खा व आ द तबतक नर र दये जाते थे जबतक क पानेवाले पूणत: संतु होकर बस न कर द॥ १०-११ १/२ ॥ जबतक याचक के मनक बात ओठसे बाहर नह नकलने पाती थी, तबतक ही रा स और वानर उ उनक अभी व ुएँ दे देते थे। यह बात सबने देखी॥ १२ १/२ ॥ राजा ीरामके उस े य म -पु मनु भरे ए थे, वहाँ को◌इ भी म लन, दीन अथवा दुबल नह दखायी देता था॥ १३ १/२ ॥ उस य म जो चरजीवी महा ा मु न पधारे थे, उ ऐसे कसी भी य का रण नह था, जसम दानक ऐसी धूम रही हो। वह य दानरा शसे पूणत: अलंकृत दखायी देता था॥ १४ १/ ॥ २



जसे सुवणक आव कता थी, वह सुवण पाता था, धन चाहनेवालेको धन मलता था और र क इ ावालेको र ॥ १५ १/२ ॥ वहाँ नर र दये जानेवाले चाँदी, सोने, र और व के ढेर लगे दखायी देते थे॥ १६ १/ ॥ २



वहाँ आये ए तप ी मु न कहते थे क ऐसा य तो पहले कभी इ , च मा, यम और व णके यहाँ भी नह देखा गया॥ १७ १/२ ॥ वानर और रा स सव हाथ म देनेक साम ी लये खड़े रहते थे और व , धन तथा अ क इ ा रखनेवाले याचक को अ धक-से-अ धक देते थे॥ १८ १/२ ॥ राज सह भगवान् ीरामका ऐसा सवगुणस य एक वषसे भी अ धक कालतक चलता रहा। उसम कभी कसी बातक कमी नह ◌इ॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म बानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९२ ॥



तरानबेवाँ सग ीरामके य म मह ष वा



ी कका आगमन और उनका रामायणगानके लये कुश और लवको आदेश



इस कार वह अ अ तु य जब चालू आ, उस समय भगवान् वा ी क मु न अपने श के साथ उसम शी तापूवक पधारे॥ १ ॥ उ ने उस द एवं अ तु य का दशन कया और ऋ षय के लये जो बाड़े बने थे, उनके पास ही उ ने अपने लये भी सु र पणशालाएँ बनवाय ॥ २ ॥ वा ी कजीके सु र बाड़ेके समीप अ आ दसे भरे-पूरे ब त-से छकड़े खड़े कर दये गये थे। साथ ही अ े-अ े फल और मूल भी रख दये गये थे॥ ३ ॥ राजा ीराम तथा ब सं क महा ा मु नय ारा भलीभाँ त पू जत एवं स ा नत हो महातेज ी आ ानी वा ी क मु नने बड़े सुखसे वहाँ नवास कया॥ ४ ॥ उ ने अपने -पु दो श से कहा—‘तुम दोन भा◌इ एका च हो सब ओर घूमफरकर बड़े आन के साथ स ूण रामायण-का का गान करो॥ ५ ॥ ‘ऋ षय और ा ण के प व ान पर, ग लय म, राजमाग पर तथा राजा के वास ान म भी इस का का गान करना॥ ६ ॥ ‘ ीरामच जीका जो गृह बना है, उसके दरवाजेपर, जहाँ ा णलोग य काय कर रहे ह, वहाँ तथा ऋ ज के आगे भी इस का का वशेष पसे गान करना चा हये॥ ७ ॥ ‘यहाँ पवतके शखर पर नाना कारके ा द एवं मीठे फल लगे ह, (भूख लगनेपर) उनका ाद ले-लेकर इस का का गान करते रहना॥ ८ ॥ ‘ब ो! यहाँके सुमधुर फल-मूल का भ ण करनेसे न तो तु कभी थकावट होगी और न तु ारे गलेक मधुरता ही न होने पायेगी॥ ९ ॥ ‘य द महाराज ीराम तुम दोन को गान सुननेके लये बुलाव तो तुम उनसे तथा वहाँ बैठे ए ऋ ष-मु नय से यथायो वनयपूण बताव करना॥ १० ॥ ‘मने पहले भ - भ सं ावाले ोक से यु रामायण का के सग का जस तरह तु उपदेश दया है, उसीके अनुसार त दन बीस-बीस सग का मधुर रसे गान करना॥ ११



॥ ‘धनक



इ ासे थोड़ा-सा भी लोभ न करना, आ मम रहकर फल-मूल भोजन करनेवाले वनवा सय को धनसे ा काम?॥ १२ ॥ ‘य द ीरघुनाथजी पूछ—‘ब ो! तुम दोन कसके पु हो?’ तो तुम दोन महाराजसे इतना ही कह देना क हम दोन भा◌इ मह ष वा ी कके श ह॥ १३ ॥ ‘ये वीणाके सात तार ह। इनसे बड़ी मधुर आवाज नकलती है। इसम अपूव र का दशन करनेवाले ये ान बने ह। इनके र को झंकृत करके — मलाकर सुमधुर रम तुम दोन भा◌इ का का गान करो और सवथा न रहो॥ १४ ॥ ‘आर से ही इस का का गान करना चा हये। तुमलोग ऐसा को◌इ बताव न करना, जससे राजाका अपमान हो; क राजा धमक से स ूण ा णय का पता होता है॥ १५ ॥ ‘अतएव तुम दोन भा◌इ स और एका च होकर कल सबेरेसे ही वीणाके लयपर मधुर रसे रामायण-गान आर कर दो’॥ १६ ॥ इस तरह ब त कु छ आदेश देकर व णके पु परम उदार महामु न वा ी क चुप हो गये॥ १७ ॥ मु नके इस कार आदेश देनेपर म थलेशकु मारी सीताके वे दोन श ुदमन पु ‘ब त अ ा, हम ऐसा ही करगे’ यह कहकर वहाँसे चल दये॥ १८ ॥ शु ाचायक बनायी ◌इ नी तसं हताको धारण करनेवाले अ नीकु मार क भाँ त ऋ षक कही ◌इ उस अ तु वाणीको दयम धारण करके वे दोन कु मार मन-ही-मन उ त हो वहाँ रातभर सुखसे रहे॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म तरानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९३ ॥



चौरानबेवाँ सग लव-कुश ारा रामायण-का का गान तथा ीरामका उसे भरी सभाम सुनना



रात बीतनेपर जब सबेरा आ, तब ान-सं ाके प ात् स मधा-होमका काय पूरा करके वे दोन भा◌इ ऋ षके बताये अनुसार वहाँ स ूण रामायणका गान करने लगे॥ १ ॥ ीरघुनाथजीने भी वह गान सुना, जो पूववत आचाय के बताये ए नयम के अनुकूल था। संगीतक वशेषता से यु र के अलापनेक अपूव शैली थी॥ २ ॥ ब सं क माण — नप र ेदके साधनभूत तु , म और वल त—इन तीन क आवृ य अथवा स वध र के भेदक स के लये बने ए ान से बँधा और वीणाक लयसे मलता आ उन दोन बालक का वह मधुर गान सुनकर ीरामच जीको बड़ा कौतूहल आ॥ ३ ॥ तदन र पु ष सह राजा ीरामने कमानु ानसे अवकाश मलनेपर बड़े-बड़े मु नय , राजा , वेदवे ा प त , पौरा णक , वैयाकरण , बड़े-बूढ़े ा ण , र और ल ण के ाता , गीत सुननेके लये उ ुक ज , सामु क ल ण तथा संगीत- व ाके जानकार , वशेषत: नगमागमके व ान अथवा पुरवा सय , भ - भ छ के चरण , उनके गु -लघु अ र तथा उनके स का ान रखनेवाले प त , वै दक छ के प र न ष्ठत व ान , रक , दीघ आ द मा ा के वशेष , ो तष व ाके पारंगत प त , कमका य , कायकु शल पु ष , व भ भाषा और चे ा तथा संकेत को समझनेवाले पु ष एवं सारे महाजन को बुलवाया॥ ४—७ १/२ ॥ इतना ही नह , तकके योगम नपुण नैया यक , यु वादी एवं ब व ान , छ , पुराण और वेद के ाता जवर , च कलाके जानकार , धमशा के अनुकूल सदाचारके ाता , दशन एवं क सू के व ान , नृ और गीतम वीण पु ष , व भ शा के ाता , नी त- नपुण पु ष तथा वेदा के अथको का शत करनेवाले वे ा को भी वहाँ बुलवाया। इन सबको एक करके भगवान् ीरामने रामायण-गान करनेवाले उन दोन बालक को सभाम बुलाकर बठाया॥ ८—१० ॥ सभासद म ोता का हष बढ़ानेवाली बात होने लग । उसी समय दोन मु नकु मार ने गाना आर कया॥ ११ ॥



फर तो मधुर संगीतका तार बँध गया। बड़ा अलौ कक गान था। गेय व ुक वशेषता के कारण सभी ोता मु होकर सुनने लगे। कसीको तृ नह होती थी॥ १२ ॥ मु नय के समुदाय और महापरा मी भूपाल सभी आन म होकर उन दोन क ओर बार ार इस तरह देख रहे थे, मानो उनक पमाधुरीको ने से पी रहे ह॥ १३ ॥ वे सब एका च हो पर र इस कार कहने लगे—‘इन दोन कु मार क आकृ त ीरामच जीसे बलकु ल मलती-जुलती है। ये ब से कट ए त ब के समान जान पड़ते ह॥ १४ ॥ ‘य द इनके सरपर जटा न होती और ये व ल न पहने होते तो हम ीरामच जीम तथा गान करनेवाले इन दोन कु मार म को◌इ अ र नह दखायी देता’॥ १५ ॥ नगर और जनपदम नवास करनेवाले मनु जब इस कार बात कर रहे थे, उसी समय नारदजीके ारा द शत थम सग—मूल-रामायणका आर से ही गान ार आ॥ १६ ॥ वहाँसे लेकर बीस सग तकका उ ने गान कया। त ात् अपरा का समय हो गया। उतनी देरम बीस सग का गान सुनकर ातृव ल ीरघुनाथजीने भा◌इ भरतसे कहा —‘काकु ! तुम इन दोन महा ा बालक को अठारह हजार ण-मु ाएँ पुर ारके पम शी दान करो। इसके सवा य द और कसी व ुके लये इनक इ ा हो तो उसे भी शी ही दे दो’॥ १७-१८ १/२ ॥ आ ा पाकर भरत शी ही उन दोन बालक को अलग-अलग ण-मु ाएँ देने लगे; कतु उस दये जाते ए सुवणको कु श और लवने नह हण कया॥ १९ १/२ ॥ वे दोन महामन ी ब ु व त होकर बोले— ‘इस धनक ा आव कता है। हम वनवासी ह। जंगली फल-मूलसे जीवन- नवाह करते ह। सोनाचाँ दी वनम ले जाकर ा करगे?’॥ २०-२१ ॥ उनके ऐसा कहनेपर सब ोता के मनम बड़ा कौतूहल आ। ोता और ीराम सभी आ यच कत हो गये॥ २२ ॥ तब ीरामच जी यह सुननेके लये उ ुक ए क इस का क उपल कहाँसे ◌इ है। फर उन महातेज ी रघुनाथजीने दोन मु नकु मार से पूछा—॥



‘इस



महाका क ोक-सं ा कतनी है? इसके रच यता महा ा क वका आवास ान कौन-सा है? इस महान् का के कता कौन मुनी र ह और वे कहाँ ह?’॥ २४ ॥ इस कार पूछते ए ीरघुनाथजीसे वे दोन मु नकु मार बोले—‘महाराज! जस का के ारा आपके इस स ूण च र का दशन कराया गया है, उसके रच यता भगवान् वा ी क ह और वे इस य लम पधारे ए ह॥ २५ ॥ ‘उन तप ी क वके बनाये ए इस महाका म चौबीस हजार ोक और एक सौ उपा ान ह॥ २६ ॥ ‘राजन्! उन महा ाने आ दसे लेकर अ तक पाँच सौ सग तथा छ: का का नमाण कया है। इनके सवा उ ने उ रका क भी रचना क है॥ २७ ॥ ‘हमारे गु मह ष वा ी कने ही उन सबका नमाण कया है। उ ने आपके च र को महाका का प दया है। इसम आपके जीवनतकक सारी बात आ गयी ह॥ २८ ॥ ‘महारथी नरेश! य द आपने इसे सुननेका वचार कया हो तो य -कमसे अवकाश मलनेपर इसके लये न त समय नका लये और अपने भाइय के साथ बैठकर इसे नय मत पसे सु नये’॥ २९ ॥ ‘तब ीरामच जीने कहा—‘ब त अ ा। हम इस का को सुनगे।’ त ात् ीरघुनाथजीक आ ा ले दोन भा◌इ कु श और लव स तापूवक उस ानपर गये, जहाँ मु नवर वा ी कजी ठहरे ए थे॥ ३० ॥ ीरामच जी भी महा ा मु नय और राजा के साथ उस मधुर संगीतको सुनकर कमशाला (य म प) म चले गये॥ ३१ ॥ इस कार थम दन क तपय सग से यु सु र र एवं मधुर श से पूण, ताल और लयसे स तथा वीणाके लयक नासे यु वह का गान, जसे कु श और लवने गाया था, ीरामने सुना॥ ३२ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म चौरानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९४ ॥



प ानबेवाँ सग ीरामका सीतासे उनक शु ता मा णत करनेके लये शपथ करानेका वचार



इस कार ीरघुनाथजी ऋ षय , राजा और वानर के साथ क◌इ दन तक वह उ म रामायण-गान सुनते रहे॥ १ ॥ उस कथासे ही उ यह मालूम आ क ‘कु श और लव दोन कु मार सीताके ही सुपु ह।’ यह जानकर सभाके बीचम बैठे ए ीरामच जीने शु आचार वचार वाले दूत को बुलाया और अपनी बु से वचारकर कहा—‘तुमलोग यहाँसे भगवान् वा ी क मु नके पास जाओ और उनसे मेरा यह संदेश कहो॥ २-३ ॥ ‘य द सीताका च र शु है और य द उनम कसी तरहका पाप नह है तो वे आप महामु नक अनुम त ले यहाँ आकर जनसमुदायम अपनी शु ता मा णत कर’॥ ४ ॥ ‘तुम इस वषयम मह ष वा ी क तथा सीताके भी हा दक अ भ ायको जानकर शी मुझे सू चत करो क ा वे यहाँ आकर अपनी शु का व ास दलाना चाहती ह॥ ५ ॥ ‘कल सबेरे म थलेशकु मारी जानक भरी सभाम आव और मेरा कलंक दूर करनेके लये शपथ कर’॥ ीरघुनाथजीका यह अ अ तु वचन सुनकर दूत उस बाड़ेम गये, जहाँ मु नवर वा ी क वराजमान थे॥ ७ ॥ महा ा वा ी क अ मत तेज ी थे और अपने तेजसे अ के समान लत हो रहे थे। उन दूत ने उ णाम करके ीरामच जीके वचन मधुर एवं कोमल श म कह सुनाये॥ ८ ॥ उन दूत क वह बात सुनकर और ीरामके हा दक अ भ ायको समझकर वे महातेज ी मु न इस कार बोले-॥९ ॥ ‘ऐसा ही होगा, तुमलोग का भला हो। ीरघुनाथजी जो आ ा देते ह, सीता वही करेगी; क प त ीके लये देवता है’॥ १० ॥ मु नके ऐसा कहनेपर वे सब राजदूत महातेज ी ीरघुनाथजीके पास लौट आये। उ ने मु नक कही ◌इ सारी बात -क - कह सुनाय ॥ ११ ॥



महा ा वा ी कक बात सुनकर ीरघुनाथजीको बड़ी स ता ◌इ और उ ने वहाँ आये ए ऋ षय तथा राजा से कहा—॥ १२ ॥ ‘आप सब पू पाद मु न श स हत सभाम पधार। सेवक स हत राजालोग भी उप त ह तथा दूसरा भी जो को◌इ सीताक शपथ सुनना चाहता हो, वह आ जाय। इस कार सब लोग एक होकर सीताका शपथ- हण देख’॥ १३ ॥ महा ा राघवे का यह वचन सुनकर सम मह षय के मुखसे महान् साधुवादक न गूँज उठी॥ १४ ॥ राजालोग भी महा ा रघुनाथजीक शंसा करते ए बोले—‘नर े ! इस पृ ीपर सभी उ म बात के वल आपम ही स व ह, दूसरे कसीम नह ’॥ १५ ॥ इस कार दूसरे दन सीतासे शपथ लेनेका न य करके श ुसूदन ीरामने उस समय सबको बदा कर दया॥ १६ ॥ इस कार दूसरे दन सबेरे सीतासे शपथ लेनेका न य करके महानुभाव महा ा राज सह ीरामने उन सब मु नय और नरेश को अपने-अपने ानपर जानेक अनुम त दे दी॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म प ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९५ ॥



छानबेवाँ सग मह ष वा



ी क ारा सीताक शु ताका समथन



रात बीती, सबेरा आ और महातेज ी राजा ीरामच जी य शालाम पधारे। उस समय उ ने सम ऋ षय को बुलवाया॥ १ ॥ व स , वामदेव, जाबा ल, का प, व ा म , दीघतमा, महातप ी दुवासा, पुल , श , भागव, वामन, दीघजीवी माक ये , महायश ी मौ , गग, वन, धम शतान , तेज ी भर ाज, अ पु सु भ, नारद, पवत, महायश ी गौतम, का ायन, सुय और तपो न ध अग —ये तथा दूसरे कठोर तका पालन करनेवाले सभी ब सं क मह ष कौतूहलवश वहाँ एक ए॥ २—६ ॥ महापरा मी रा स और महाबली वानर—ये सभी महामना कौतूहलवश वहाँ आये॥ ७ ॥



नाना देश से पधारे ए ती ण तधारी ा ण, य, वै और शू सह क सं ाम वहाँ उप त ए॥ ८ ॥ सीताजीका शपथ- हण देखनेके लये ान न , कम न और योग न सभी तरहके लोग पधारे थे॥ राजसभाम एक ए सब लोग प रक भाँ त न ल होकर बैठे ह—यह सुनकर मु नवर वा ी क सीताजीको साथ लेकर तुरंत वहाँ आये॥ १० ॥ मह षके पीछे सीता सर कु ाये चली आ रही थ । उनके दोन हाथ जुड़े थे और ने से आँ सू झर रहे थे। वे अपने दयम रम बैठे ए ीरामका च न कर रही थ ॥ ११ ॥ वा ी कके पीछे-पीछे आती ◌इ सीता ाजीका अनुसरण करनेवाली ु तके समान जान पड़ती थ । उ देखकर वहाँ ध -ध क भारी आवाज गूँज उठी॥ १२ ॥ उस समय सम दशक का दय दु:ख देनेवाले महान् शोकसे ाकु ल था। उन सबका कोलाहल सब ओर ा हो गया॥ १३ ॥ को◌इ कहते थे—‘ ीराम! तुम ध हो।’ दूसरे कहते थे—‘दे व सीते! तुम ध हो’ तथा वहाँ कु छ अ दशक भी ऐसे थे, जो सीता और राम दोन को उ रसे साधुवाद दे रहे



थे॥ १४ ॥ तब उस जनसमुदायके बीचम सीतास हत वेश करके मु नवर वा ी क ीरघुनाथजीसे इस कार बोले—॥ १५ ॥ ‘दशरथन न! यह सीता उ म तका पालन करनेवाली और धमपरायणा है। आपने लोकापवादसे डरकर इसे मेरे आ मके समीप ाग दया था॥ १६ ॥ ‘महान् तधारी ीराम! लोकापवादसे डरे ए आपको सीता अपनी शु ताका व ास दलायेगी। इसके लये आप इसे आ ा द॥ १७ ॥ ‘ये दोन कु मार कु श और लव जानक के गभसे जुड़वे पैदा ए ह। ये आपके ही पु ह और आपके ही समान दुधष वीर ह, यह म आपको स ी बात बता रहा ँ ॥ १८ ॥ ‘रघुकुलन न! म चेता (व ण) का दसवाँ पु ँ । मेरे मुँहसे कभी झूठ बात नकली हो, इसक याद मुझे नह है। म स कहता ँ ये दोन आपके ही पु ह॥ १९ ॥ ‘मने क◌इ हजार वष तक भारी तप ा क है। य द म थलेशकु मारी सीताम को◌इ दोष हो तो मुझे उस तप ाका फल न मले॥ २० ॥ ‘मने मन, वाणी और या ारा भी पहले कभी को◌इ पाप नह कया है। य द म थलेशकु मारी सीता न ाप ह , तभी मुझे अपने उस पापशू पु कमका फल ा हो॥ २१ ॥ ‘रघुन न! मने अपनी पाँच इ य और मन-बु के ारा सीताक शु ताका भलीभाँ त न य करके ही इसे अपने संर णम लया था। यह मुझे जंगलम एक झरनेके पास मली थी॥ २२ ॥ ‘इसका आचरण सवथा शु है। पाप इसे छू भी नह सका है तथा यह प तको ही देवता मानती है। अत: लोकापवादसे डरे ए आपको अपनी शु ताका व ास दलायेगी॥ २३ ॥ ‘राजकु मार! मने द से यह जान लया था क सीताका भाव और वचार परम प व है; इस लये यह मेरे आ मम वेश पा सक है। आपको भी यह ाण से अ धक ारी है और आप यह भी जानते ह क सीता सवथा शु है तथा प लोकापवादसे कलु षत च होकर आपने इसका ाग कया है’॥ २४ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म छानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९६ ॥



स ानबेवाँ सग सीताका शपथ- हण और रसातलम वेश



मह ष वा ी कके ऐसा कहनेपर ीरघुनाथजी सु री सीतादेवीक ओर एक बार डालकर उस जनसमुदायके बीच हाथ जोड़कर बोले—॥ १ ॥ ‘महाभाग! आप धमके ाता ह। सीताके स म आप जैसा कह रहे ह, वह सब ठीक है। न्! आपके इन नद ष वचन से मुझे जनकन नीक शु तापर पूरा व ास हो गया है॥ २॥ ‘एक बार पहले भी देवता के समीप वदेह-कु मारीक शु ताका व ास मुझे ा हो चुका है। उस समय सीताने अपनी शु के लये शपथ क थी, जसके कारण मने इ अपने भवनम ान दया॥ ३ ॥ ‘ कतु आगे चलकर फर बड़े जोरका लोकापवाद उठा, जससे ववश होकर मुझे म थलेशकु मारीका ाग करना पड़ा। न्! यह जानते ए भी क सीता सवथा न ाप ह, मने के वल समाजके भयसे इ छोड़ दया था; अत: आप मेरे इस अपराधको मा कर॥ ४ ॥ ‘म यह भी जानता ँ क ये जुड़वे उ ए कु मार कु श और लव मेरे ही पु ह, तथा प जनसमुदायम शु मा णत होनेपर ही म थलेशकु मारीम मेरा ेम हो सकता है’॥ ५ ॥ ीरामच जीके अ भ ायको जानकर सीताके शपथके समय महे आ द सभी मु मु महा-तेज ी देवता पतामह ाजीको आगे करके वहाँ आ गये॥ ६ १/२ ॥ आ द , वसु, , व ेदेव, म ण, सम सा देव, सभी मह ष, नाग, ग ड़ और स ूण स गण स च हो सीताजीके शपथ- हणको देखनेके लये घबराये ए-से वहाँ आ प ँ चे॥ ७-८ १/२ ॥ देवता तथा ऋ षय को उप त देख ीरघुनाथजी फर बोले—‘सुर े गण! य प मुझे मह ष वा ी कके नद ष वचन से ही पूरा व ास हो गया है, तथा प जन-समाजके बीच वदेहकु मारीक वशु ता मा णत हो जानेपर मुझे अ धक स ता होगी’॥ ९-१० ॥ तदन र द सुग से प रपूण, मनको आन देनेवाले परम प व एवं शुभकारक सुर े वायुदेव म ग तसे वा हत हो सब ओरसे वहाँके जनसमुदायको आ ाद दान करने



लगे॥ ११ ॥ सम रा से आये ए मनु ने एका च हो ाचीन कालके स युगक भाँ त यह अ तु और अ च -सी घटना अपनी आँ ख देखी॥ १२ ॥ उस समय सीताजी तप नय के अनु प गे आ व धारण कये ए थ । सबको उप त जानकर वे हाथ जोड़े, और मुखको नीचे कये बोल —॥ १३ ॥ ‘म ीरघुनाथजीके सवा दूसरे कसी पु षका ( श तो दूर रहा) मनसे च न भी नह करती; य द यह स है तो भगवती पृ ीदेवी मुझे अपनी गोदम ान द॥ १४ ॥ ‘य द म मन, वाणी और याके ारा के वल ीरामक ही आराधना करती ँ तो भगवती पृ ीदेवी मुझे अपनी गोदम ान द॥ १५ ॥ ‘भगवान् ीरामको छोड़कर म दूसरे कसी पु षको नह जानती, मेरी कही ◌इ यह बात य द स हो तो भगवती पृ ीदेवी मुझे अपनी गोदम ान द’॥ १६ ॥ वदेहकु मारी सीताके इस कार शपथ करते ही भूतलसे एक अ तु सहासन कट आ, जो बड़ा ही सु र और द था॥ १७ ॥ द र से वभू षत महापरा मी नाग ने द प धारण करके उस द सहासनको अपने सरपर धारण कर रखा था॥ १८ ॥ सहासनके साथ ही पृ ीक अ ध ा ी देवी भी द पसे कट ◌इं । उ ने म थलेशकु मारी सीताको अपनी दोन भुजा से गोदम उठा लया और ागतपूवक उनका अ भन न करके उ उस सहासनपर बठा दया॥ सहासनपर बैठकर जब सीतादेवी रसातलम वेश करने लग , उस समय देवता ने उनक ओर देखा। फर तो आकाशसे उनके ऊपर द पु क लगातार वषा होने लगी॥ २० ॥



देवता के मुँहसे सहसा ‘ध -ध ’ का महान् श कट आ। वे कहने लगे—‘सीते! तुम ध हो, ध हो। तु ारा शील- भाव इतना सु र और ऐसा प व है’॥ २१ ॥ सीताका रसातलम वेश देखकर आकाशम खड़े ए देवता स च हो इस तरहक ब त-सी बात कहने लगे॥ २२ ॥ य म पम पधारे ए सभी मु न और नर े नरेश भी आ यसे भर गये॥ २३ ॥



अ र म और भूतलपर सभी चराचर ाणी तथा पातालम वशालकाय दानव और नागराज भी आ यच कत हो उठे ॥ २४ ॥ को◌इ हषनाद करने लगे, को◌इ ानम हो गये, को◌इ ीरामक ओर देखने लगे और को◌इ ह े -ब े -से होकर सीताजीक ओर नहारने लगे॥ २५ ॥ सीताका भूतलम वेश देखकर वहाँ आये ए सब लोग हष, शोक आ दम डू ब गये। दो घड़ीतक वहाँका सारा जनसमुदाय अ मोहा -सा हो गया॥ २६ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म स ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९७ ॥



अ ानबेवाँ सग सीताके लये ीरामका खेद,



ाजीका उ समझाना और उ रका सुननेके लये े रत करना



का शेष अंश



वदेहकु मारी सीताके रसातलम वेश कर जानेपर ीरामके समीप बैठे ए स ूण वानर तथा ऋ ष-मु न कहने लगे—‘सा ी सीते! तुम ध हो’॥ १ ॥ कतु यं भगवान् ीराम ब त दु:खी ए। उनका मन उदास हो गया और वे गूलरके द के ा सहारा लये खड़े हो सर कु ाये ने से आँ सू बहाने लगे॥ २ ॥ ब त देरतक रोकर बार ार आँ सू बहाते ए ोध और शोकसे यु हो ीरामच जी इस कार बोले—॥ ३ ॥ ‘आज मेरा मन अभूतपूव शोकम डू बना चाहता है; क इस समय मेरी आँ ख के सामनेसे मू तमती ल ीके समान सीता अ हो गय ॥ ४ ॥ ‘पहली बार सीता समु के उस पार ल ाम जाकर मेरी आँ ख से ओझल ◌इ थ । कतु जब म वहाँसे भी उ लौटा लाया, तब पृ ीके भीतरसे ले आना कौन बड़ी बात है?’॥ ५ ॥ (य कहकर वे पृ ीसे बोले—) ‘पूजनीये भगव त वसु रे! मुझे सीताको लौटा दो; अ था म अपना ोध दखाऊँ गा। मेरा भाव कै सा है? यह तुम जानती हो॥ ६ ॥ ‘दे व! वा वम तु मेरी सास हो। राजा जनक हाथम फाल लये तु को जोत रहे थे, जससे तु ारे भीतरसे सीताका ादुभाव आ॥ ७ ॥ ‘अत: या तो तुम सीताको लौटा दो अथवा मेरे लये भी अपनी गोदम जगह दो; क पाताल हो या ग, म सीताके साथ ही र ँ गा॥ ८ ॥ ‘तुम मेरी सीताको लाओ! म म थलेशकु मारीके लये मतवाला (बेसुध) हो गया ँ । य द इस पृ ीपर तुम उसी पम सीताको मुझे लौटा नह दोगी तो म पवत और वनस हत तु ारी तको न कर दूँगा। सारी भू मका वनाश कर डालूँगा। फर भले ही सब कु छ जलमय ही हो जाय’॥ ९-१० ॥ ीरघुनाथजी जब ोध और शोकसे यु हो इस कारक बात कहने लगे, तब देवता स हत ाजीने उन रघुकुलन न ीरामसे कहा—॥ ११ ॥



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म तका पालन करनेवाले ीराम! आप मनम संताप न कर। श ुसूदन! अपने पूव पका रण कर॥ १२ ॥ ‘महाबाहो! म आपको आपके परम उ म पका रण नह दला रहा ँ । दुधष वीर! के वल यह अनुरोध कर रहा ँ क इस समय आप ानके ारा अपने वै व पका रण कर॥ १३ ॥ ‘सा ी सीता सवथा शु ह। वे पहलेसे ही आपके ही परायण रहती ह। आपका आ य लेना ही उनका तपोबल है। उसके ारा वे सुखपूवक नागलोकके बहाने आपके परमधामम चली गयी ह॥ १४ ॥ ‘अब पुन: साके तधामम आपक उनसे भट होगी; इसम संशय नह है। अब इस सभाम म आपसे जो कु छ कहता ँ , उसपर ान दी जये॥ १५ ॥ ‘आपके च र से स रखनेवाला यह का , जसे आपने सुना है, सब का म उ म है। ीराम! यह आपके सारे जीवन-वृ का व ारसे ान करायेगा, इसम संदेह नह है॥ १६ ॥ ‘वीर! आ वभावकालसे ही जो आपके ारा सुख-दु:ख का ( े ासे) सेवन आ है, उसका तथा सीताके अ धान होनेके बाद जो भ व म होनेवाली बात ह, उनका भी मह ष वा ी कने इसम पूण पसे वणन कर दया है॥ १७ ॥ ‘ ीराम! यह आ दका है। इस स ूण का क आधार शला आप ही ह—आपके ही जीवनवृ ा को लेकर इस का क रचना ◌इ है। रघुकुलक शोभा बढ़ानेवाले आपके सवा दूसरा को◌इ ऐसा यश ी पु ष नह है, जो का का नायक होनेका अ धकारी हो॥ ‘देवता के साथ मने पहले आपसे स त इस स ूण का का वण कया है। यह द और अ तु है। इसम को◌इ भी बात छपायी नह गयी है। इसम कही गयी सारी बात स ह॥ १९ ॥ ‘पु ष सह रघुन न! आप धमपूवक एका च हो भ व क घटना से यु शेष रामायण का को भी सुन ली जये॥ २० ॥ ‘महायश ी एवं महातेज ी ीराम! इस का के अ म भागका नाम उ रका है। उस उ म भागको आप ऋ षय के साथ सु नये॥ २१ ॥



‘काकु



वीर रघुन न! आप सव ृ राज ष ह। अत: पहले आपको ही यह उ म का सुनना चा हये, दूसरेको नह ’॥ २२ ॥ इतना कहकर तीन लोक के ामी ाजी देवता एवं उनके ब ु-बा व के साथ अपने लोकको चले गये॥ २३ ॥ वहाँ जो लोकम रहनेवाले महातेज ी महा ा ऋ ष व मान थे, वे ाजीक आ ा पाकर भावी वृ ा से यु उ रका को सुननेक इ ासे लौट आये (उनके साथ लोकम नह गये)॥ २४ १/२ ॥ त ात् देवा धदेव ाजीक कही ◌इ उस शुभ वाणीको याद करके परम तेज ी ीरामजीने मह ष वा ी कसे इस कार कहा—॥ २५ १/२ ॥ ‘भगवन्! ये लोकके नवासी मह ष मेरे भावी च र से यु उ रका का शेष अंश सुनना चाहते ह। अत: कल सबेरेसे ही उसका गान आर हो जाना चा हये’॥ २६ ॥ ऐसा न य करके ीरघुनाथजीने जनसमुदायको बदा कर दया और कु श तथा लवको साथ लेकर वे अपनी पणशालाम आये। वहाँ सीताका ही च न करते-करते उ ने रात तीत क ॥ २७-२८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म अ ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९८ ॥



न ानबेवाँ सग सीताके रसातल- वेशके प ात् ीरामक जीवनचया, रामरा परलोक-गमन आ दका वणन







त तथा माता



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रात बीतनेपर जब सबेरा आ, तब ीरामच जीने बड़े-बड़े मु नय को बुलाकर अपने दोन पु से कहा—‘अब तुम न:श होकर शेष रामायणका गान आर करो’॥ १ ॥ महा ा मह षय के यथा ान बैठ जानेपर कु श और लवने भगवा े भ व जीवनसे स रखनेवाले उ रका का, जो उस महाका का एक अंश था, गान आर कया॥ २ ॥ इधर अपनी स प स के बलसे सीताजीके रसातलम वेश कर जानेपर उस य के अ म भगवान् ीरामका मन ब त दु:खी आ॥ ३ ॥ वदेहकु मारीको न देखनेसे उ यह सारा संसार सूना जान पड़ने लगा। शोकसे थत होनेके कारण उनके मनको शा नह मली॥ ४ ॥ तदन र ीरघुनाथजीने सब राजा को, रीछ , वानर और रा स को, जनसमुदायको तथा मु -मु ा ण को भी धन देकर बदा कया। इस कार व धपूवक य को समा करके कमलनयन ीरामने सबको बदा करनेके प ात् उस समय सीताका मन-ही-मन रण करते ए अयो ाम वेश कया॥ ५-६ १/२ ॥ य पूरा करके रघुकुलन न राजा ीराम अपने दोन पु के साथ रहने लगे। उ ने सीताके सवा दूसरी कसी ीसे ववाह नह कया। ेक य म जब-जब धमप ीक आव कता होती, ीरघुनाथजी सीताक णमयी तमा बनवा लया करते थे॥ ७-८ ॥ उ ने दस हजार वष तक य कये। कतने ही अ मेध य और उनसे दसगुने वाजपेय य का अनु ान कया, जसम असं णमु ा क द णाएँ दी गयी थ ॥ ९ ॥ ीमान् रामने पया द णा से यु अ ोम, अ तरा , गोसव तथा अ बड़े-बड़े य का अनु ान कया, जनम अपार धनरा श खच क गयी॥ १० ॥ इस कार रा करते ए महा ा भगवान् ीरघुनाथजीका ब त बड़ा समय धमपालनके य म ही बीता॥ ११ ॥



रीछ, वानर और रा स भी ीरामक आ ाके अधीन रहते थे। भूम लके सभी राजा त दन ीरघुनाथजीको स रखते थे॥ १२ ॥ ीरामके रा म मेघ समयपर वषा करते थे। सदा सुकाल ही रहता था—कभी अकाल नह पड़ता था। स ूण दशाएँ स दखायी देती थ तथा नगर और जनपद -पु मनु से भरे रहते थे॥ १३ ॥ ीरामके रा शासन करते समय कसीक अकाल-मृ ु नह होती थी। ा णय को को◌इ रोग नह सताता था और संसारम को◌इ उप व खड़ा नह होता था॥ १४ ॥ इसके बाद दीघकाल तीत होनेपर पु -पौ से घरी ◌इ परम यश नी ीराममाता कौस ा कालधम (मृ )ु को ा ◌इं ॥ १५ ॥ सु म ा और यश नी कै के यीने भी उ के पथका अनुसरण कया। ये सभी रा नयाँ जीवनकालम नाना कारके धमका अनु ान करके अ म साके तधामको ा ◌इं और बड़ी स ताके साथ वहाँ राजा दशरथसे मल । उन महाभागा रा नय को सब धम का पूरा-पूरा फल ा आ॥ १६-१७ ॥ ीरघुनाथजी समय-समयपर अपनी सभी माता के न म बना कसी भेदभावके तप ी ा ण को बड़े-बड़े दान दया करते थे॥ १८ ॥ धमा ा ीराम ा म उपयोगी उ मो म व ुएँ ा ण को देते तथा पतर और देवता को संतु करनेके लये बड़े-बड़े दु र य ( प ा क पतृय ) का अनु ान करते थे॥ १९ ॥ इस कार य के ारा सवदा व वध धम का पालन करते ए ीरघुनाथजीके क◌इ हजार वष सुख-पूवक बीत गये॥ २० ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म न ानबेवाँ सग पूरा आ॥ ९९ ॥



सौवाँ सग केकयदेशसे ष गा का भट लेकर आना और उनके संदेशके अनुसार ीरामक आ ासे कुमार स हत भरतका ग वदेशपर आ मण करनेके लये ान



कु छ कालके प ात् के कयदेशके राजा युधा ज े अपने पुरो हत अ मत तेज ी ष गा को, जो अ राके पु थे, महा ा ीरघुनाथजीके पास भेजा॥ उनके साथ ीरामच जीको परम उ म ेमोपहारके पम अपण करनेके लये उ ने दस हजार घोड़े, ब त-से क ल (कालीन और शाल आ द), नाना कारके र , व च - व च सु र व तथा मनोहर आभूषण भी दये थे॥ २-३ ॥ परम बु मान् ीमान् राघवे ने जब सुना क मामा अ प त-पु युधा ज े भेजे ए मह ष गा ब मू भट-साम ी लये अयो ाम पधार रहे ह, तब उ ने भाइय के साथ एक कोस आगे बढ़कर उनक अगवानी क और जैसे इ बृह तक पूजा करते ह, उसी कार मह ष गा का पूजन ( ागत-स ार) कया॥ ४-५ ॥ इस कार मह षका आदर-स ार करके उस धनको हण करनेके प ात् उ ने उनका तथा मामाके घरका सारा कु शल-समाचार पूछा। फर जब वे महाभाग ष सु र आसनपर वराजमान हो गये, तब ीरामने उनसे इस कार पूछना आर कया—॥ ६ १/२ ॥ ‘ ष! मेरे मामाने ा संदेश दया है, जसके लये सा ात् बृह तके समान वा वे ा म े आप पू पाद मह षने यहाँ पधारनेका क कया है’॥ ीरामका यह सुनकर मह षने उनसे अ तु काय- व ारका वणन आर कया —॥ ८ १/२ ॥ ‘महाबाहो! आपके मामा नर े युधा ज े जो ेमपूवक संदेश दया है, उसे य द चकर जान पड़े तो सु नये॥ ९ १/२ ॥ ‘उ ने कहा है क यह जो फल-मूल से सुशो भत ग वदेश स ु नदीके दोन तट पर बसा आ है, बड़ा सु र देश है॥ १० १/२ ॥ ‘वीर रघुन न! ग वराज शैलूषक संतान तीन करोड़ महाबली ग व, जो यु क कलाम कु शल और अ -श से स ह, उस देशक र ा करते ह॥



‘काकु



! महाबाहो! आप उन ग



व को जीतकर वहाँ सु र ग वनगर बसाइये। अपने लये उ म साधन से स दो नगर का नमाण क जये। वह देश ब त सु र है। वहाँ दूसरे कसीक ग त नह है। आप उसे अपने अ धकारम लेना ीकार कर। म आपको ऐसी सलाह नह देता, जो अ हतकारक हो’॥ १२-१३ ॥ मह ष और मामाका वह कथन सुनकर ीरघुनाथजीको बड़ी स ता ◌इ। उ ने ‘ब त अ ा’ कहकर भरतक ओर देखा॥ १४ ॥ तदन र ीराघवे ने उन षसे स तापूवक हाथ जोड़कर कहा—‘ ष! ये दोन कु मार त और पु ल, जो भरतके वीर पु ह, उस देशम वचरगे और मामासे सुर त रहकर धमपूवक एका च हो उस देशका शासन करगे॥ १५-१६ ॥ ‘ये दोन कु मार भरतको आगे करके सेना और सेवक के साथ वहाँ जायँगे तथा उन ग वपु का संहार करके अलग-अलग दो नगर बसायगे॥ १७ ॥ ‘उन दोन े नगर को बसाकर उनम अपने दोन पु को ा पत करके अ धमा ा भरत फर मेरे पास लौट आयगे’॥ १८ ॥ षसे ऐसा कहकर ीरामच जीने भरतको वहाँ सेनाके साथ जानेक आ ा दी और दोन कु मार का पहले ही रा ा भषेक कर दया॥ १९ ॥ त ात् सौ न (मृग शरा) म अ राके पु मह ष गा को आगे करके सेना और कु मार के साथ भरतने या ा क ॥ २० ॥ इ ारा े रत ◌इ देवसेनाके समान वह सेना नगरसे बाहर नकली। भगवान् ीराम भी दूरतक उसके साथ-साथ गये। वह देवता के लये भी दुजय थी॥ मांसाहारी ज ु और बड़े-बड़े रा स यु म र पानक इ ासे भरतके पीछे-पीछे गये॥ २२ ॥ अ भयंकर क◌इ हजार मांसभ ी भूतसमूह ग व-पु का मांस खानेके लये उस सेनाके साथ-साथ गये॥ २३ ॥ सह, बाघ, सूअर और आकाशचारी प ी क◌इ हजारक सं ाम सेनाके आगे-आगे चले॥ २४ ॥



मागम डेढ़ महीने बताकर -पु मनु से भरी ◌इ वह सेना कु शलपूवक के कयदेशम जा प ँ ची॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म सौवाँ सग पूरा आ॥ १०० ॥



एक सौ एकवाँ सग भरतका ग व पर आ मण और उनका संहार करके वहाँ दो सु र नगर बसाकर अपने दोन पु को स पना और फर अयो ाको लौट आना



के कयराज युधा ज े जब सुना क मह ष गा के साथ यं भरत सेनाप त होकर आ रहे ह, तब उ बड़ी स ता ◌इ॥ १ ॥ वे के कयनरेश भारी जनसमुदायके साथ नकले और भरतसे मलकर बड़ी उतावलीके साथ इ ानुसार प धारण करनेवाले ग व के देशक ओर चले॥ २ ॥ भरत और युधा जत् दोन ने मलकर बड़ी ती ग तसे सेना और सवा रय के साथ ग व क राजधानीपर धावा कया॥ ३ ॥ भरतका आगमन सुनकर वे महापरा मी ग व यु क इ ासे एक हो सब ओर जोरजोरसे गजना करने लगे॥ ४ ॥ फर तो दोन ओरक सेना म बड़ा भयंकर और र गटे खड़े कर देनेवाला यु छड़ गया। वह महाभयंकर सं ाम लगातार सात राततक चलता रहा, परंतु दोन मसे कसी भी एक प क वजय नह ◌इ॥ ५ ॥ चार ओर खूनक न दयाँ बह चल । तलवार, श और धनुष उस नदीम वचरनेवाले ाह के समान जान पड़ते थे, उनक धाराम मनु क लाश बह जाती थ ॥ ६ ॥ तब रामानुज भरतने कु पत होकर ग व पर कालदेवताके अ भयंकर अ का, जो संवत नामसे स है, योग कया॥ ७ ॥ इस कार महा ा भरतने णभरम तीन करोड़ ग व का संहार कर डाला। वे ग व कालपाशसे ब हो संवता से वदीण कर डाले गये॥ ८ ॥ ऐसा भयंकर यु देवता ने भी कभी देखा हो, यह उ याद नह आता था। पलक मारते-मारते वैसे परा मी महामन ी सम ग व का संहार हो जानेपर कै के यीकु मार भरतने उस समय वहाँ दो समृ शाली सु र नगर बसाये॥ ९-१० ॥ मनोहर ग वदेशम त शला नामक नगरी बसाकर उसम उ ने त को राजा बनाया और गा ारदेशम पु लावत नगर बसाकर उसका रा पु लको स प दया॥ ११ ॥



वे दोन नगर धन-धा एवं र समूह से भरे थे। अनेकानेक कानन उनक शोभा बढ़ाते थे। गुण व ारक से वे मानो पर र होड़ लगाकर संघषपूवक आगे बढ़ रहे थे॥ १२ ॥ दोन नगर क शोभा परम मनोहर थी। दोन ान का वहार ( ापार) न पट, शु एवं सरल था। दोन ही नगर उ ान (बाग-बगीच ) तथा नाना कारक सवा रय से भरे-पूरे थे। उनके भीतर अलग-अलग क◌इ बाजार थे॥ १३ ॥ दोन े पुर क रमणीयता देखते ही बनती थी। अनेक ऐसे व ृत पदाथ उनक शोभा बढ़ाते थे, जनका नाम अभीतक नह लया गया है। सु र े गृह तथा ब त-से सतमहले मकान वहाँक ीवृ कर रहे थे॥ १४ ॥ अनेकानेक शोभास देवम र तथा ताल, तमाल, तलक और मौल सरी आ दके वृ से भी उन दोन नगर क शोभा एवं रमणीयता बढ़ गयी थी॥ १५ ॥ पाँच वष म उन राजधा नय को अ ी तरह आबाद करके ीरामके छोटे भा◌इ कै के यीकु मार महाबा भरत फर अयो ाम लौट आये॥ १६ ॥ वहाँ प ँ चकर ीमान् भरतने तीय धमराजके समान महा ा ीरघुनाथजीको उसी तरह णाम कया, जैसे इ ाजीको णाम करते ह॥ १७ ॥ त ात् उ ने ग व के वध और उस देशको अ ी तरह आबाद करनेका यथावत् समाचार कह सुनाया। सुनकर ीरघुनाथजी उनपर ब त स ए॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ एकवाँ सग पूरा आ॥ १०२ ॥



एक सौ दोवाँ सग ीरामक आ ासे भरत और ल



ण ारा कुमार अ द और च केतुक का पथ देशके व भ रा पर नयु



भरतके मुँहसे ग वदेशका समाचार सुनकर भाइय स हत ीरामच जीको बड़ी स ता ◌इ। त ात् ीराघवे अपने भाइय से यह अ तु वचन बोले—॥ १ ॥ ‘सु म ान न! तु ारे ये दोन कु मार अ द और च के तु धमके ाता ह। इनम रा क र ाके लये उपयु ढ़ता और परा म है॥ २ ॥ ‘अत: म इनका भी रा ा भषेक क ँ गा। तुम इनके लये कसी अ े देशका चुनाव करो, जो रमणीय होनेके साथ ही व -बाधा से र हत हो और जहाँ ये दोन धनुधर वीर आन पूवक रह सक॥ ३ ॥ ‘सौ ! ऐसा देश देखो, जहाँ नवास करनेसे दूसरे राजा को पीड़ा या उ ेग न हो, आ म का भी नाश न करना पड़े और हमलोग को कसीक म अपराधी भी न बनना पड़े’॥ ४॥ ीरामच जीके ऐसा कहनेपर भरतने उ र दया— ‘आय! यह का पथ नामक देश बड़ा सु र है। वहाँ कसी कारक रोग- ा धका भय नह है॥ ५ ॥ ‘वहाँ महा ा अ दके लये नयी राजधानी बसायी जाय तथा च के तु (या च का ) के रहनेके लये ‘च का ’ नामक नगरका नमाण कराया जाय, जो सु र और आरो वधक हो’॥ ६ ॥ भरतक कही ◌इ इस बातको ीरघुनाथजीने ीकार कया और का पथ देशको अपने अ धकारम करके अ दको वहाँका राजा बना दया॥ ७ ॥ ेशर हत कम करनेवाले भगवान् ीरामने अ दके लये ‘अ दीया’ नामक रमणीय पुरी बसायी, जो परम सु र होनेके साथ ही सब ओरसे सुर त भी थी॥ ८ ॥ च के तु अपने शरीरसे म के समान -पु थे; उनके लये म देशम ‘च का ा’ नामसे व ात द पुरी बसायी गयी, जो गक अमरावती नगरीके समान सु र थी॥ ९ ॥



इससे ीराम, ल ण और भरत तीन को बड़ी स ता ◌इ। उन सभी रणदुजय वीर ने यं उन कु मार का अ भषेक कया॥ १० ॥ एका च तथा सावधान रहनेवाले उन दोन कु मार का अ भषेक करके अ दको प म तथा च के तुको उ र दशाम भेजा गया॥ ११ ॥ अ दके साथ तो यं सु म ाकु मार ल ण गये और च के तुके सहायक या पा क भरतजी ए॥ ल ण अ दीया पुरीम एक वषतक रहे और उनका दुधष पु अ द जब ढ़तापूवक रा सँभालने लगा, तब वे पुन: अयो ाको लौट आये॥ १३ ॥ इसी कार भरत भी च का ा नगरीम एक वषसे कु छ अ धक कालतक ठहरे रहे और च के तुका रा जब ढ़ हो गया, तब वे पुन: अयो ाम आकर ीरामच जीके चरण क सेवा करने लगे॥ १४ ॥ ल ण और भरत दोन का ीरामच जीके चरण म अन अनुराग था। दोन ही अ धमा ा थे। ीरामक सेवाम रहते उ ब त समय बीत गया, परंतु ेहा ध के कारण उनको कु छ भी ात न आ॥ १५ ॥ वे तीन भा◌इ पुरवा सय के कायम सदा संल रहते और धमपालनके लये य शील रहा करते थे। इस कार उनके दस हजार वष बीत गये॥ १६ ॥ धम साधनके ानभूत अयो ापुरीम वैभवस होकर रहते ए वे तीन भा◌इ यथासमय घूम- फरकर जाक देखभाल करते थे। उनके सारे मनोरथ पूण हो गये थे तथा वे महाय म आ त पाकर लत ए दी तेज ी गाहप , आहवनीय और द ण नामक वध अ य के समान का शत होते थे॥ १७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ दोवाँ सग पूरा आ॥ १०२ ॥



एक सौ तीनवाँ सग ीरामके यहाँ कालका आगमन और एक कठोर शतके साथ उनका वाताके लये उ त होना



तदन र कु छ समय और बीत जानेपर जब क भगवान् ीराम धमपूवक अयो ाके रा का पालन कर रहे थे, सा ात् काल तप ीके पम राजभवनके ारपर आया॥ १ ॥ उसने ारपर खड़े ए धैयवान् एवं यश ी ल णसे कहा—‘म एक भारी कायसे आया ँ । तुम ीरामच जीसे मेरे आगमनक सूचना दे दो॥ २ ॥ ‘महाबली ल ण! म अ मत तेज ी मह ष अ तबलका दूत ँ और एक आव क कायवश ीरामच जीसे मलने आया ँ ’॥ ३ ॥ उसक वह बात सुनकर सु म ाकु मार ल णने बड़ी उतावलीके साथ भीतर जाकर ीरामच जीसे उस तापसके आगमनक सूचना दी—॥ ४ ॥ ‘महातेज ी महाराज! आप अपने राजधमके भावसे इहलोक और परलोकपर भी वजयी ह । एक मह ष दूतके पम आपसे मलने आये ह। वे तप ाज नत तेजसे सूयके समान का शत हो रहे ह’॥ ५ ॥ ल णक कही ◌इ वह बात सुनकर ीरामने कहा—‘तात! उन महातेज ी मु नको भीतर ले आओ, जो क अपने ामीके संदेश लेकर आये ह’॥ ६ ॥ तब ‘जो आ ा’ कहकर सु म ाकु मार उन मु नको भीतर ले आये। वे तेजसे लत होते और अपनी खर करण से द करते ए-से जान पड़ते थे॥ ७ ॥ अपने तेजसे दी मान् रघुकुल तलक ीरामके पास प ँ चकर ऋ षने उनसे मधुर वाणीम कहा—‘रघुन न! आपका अ ुदय हो’॥ ८ ॥ महातेज ी ीरामने उ पा -अ आ द पूजनोपचार सम पत कया और शा भावसे उनका कु शल-समाचार पूछना आर कया॥ ९ ॥ ीरामके पूछनेपर व ा म े महायश ी मु न कु शल-समाचार बताकर द सुवणमय आसनपर वराजमान ए॥ १० ॥



तदन र ीरामने उनसे कहा—‘महामते! आपका ागत है। आप जनके दूत होकर यहाँ पधारे ह, उनका संदेश सुनाइये’॥ ११ ॥ राज सह ीरामके ारा इस कार े रत होनेपर मु न बोले—‘य द आप हमारे हतपर रख तो जहाँ हम और आप दो ही आदमी रह, वह इस बातको कहना उ चत है॥ १२ ॥ ‘य द आप मु न े अ तबलके वचनपर ान द तो आपको यह भी घो षत करना होगा क जो को◌इ मनु हम दोन क बातचीत सुन ले अथवा हम वातालाप करते देख ले, वह आप ( ीराम) का व होगा’॥ १३ ॥ ीरामने ‘तथा ु’ कहकर इस बातके लये त ा क और ल णसे कहा —‘महाबाहो! ारपालको बदा कर दो और यं ोढ़ीपर खड़े होकर पहरा दो॥ ‘सु म ान न! जो ऋ ष और मेरी—दोन क कही ◌इ बात सुन लेगा या बात करते हम देख लेगा, वह मेरे ारा मारा जायगा’॥ १५ ॥ इस कार अपनी बात हण करनेवाले ल णको दरवाजेपर तैनात करके ीरघुनाथजीने समागत मह षसे कहा—‘मुन!े अब आप न:श होकर वह बात क हये, जसे कहना आपको अभी है अथवा जसे कहनेके लये ही आप यहाँ भेजे गये ह। मेरे दयम भी उसे सुननेके लये उ ा है’॥ १६-१७ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ तीनवाँ सग पूरा आ॥ १०३ ॥



एक सौ चारवाँ सग कालका ीरामच जीको



ाजीका संदेश सुनाना और ीरामका उसे



ीकार करना



महाबली महान् स शाली महाराज! पतामह भगवान् ाने जस उ े से मुझे यहाँ भेजा है और जसके लये म यहाँ आया ँ ; वह सब बताता ँ ; सु नये॥ १ ॥ श ु-नगरीपर वजय पानेवाले वीर! पूवाव ाम अथात् हर गभक उ के समय म माया ारा आपसे उ आ था, इस लये आपका पु ँ । मुझे सवसंहारकारी काल कहते ह॥ २॥ लोकनाथ भु भगवान् पतामहने कहा है क ‘सौ ! आपने लोक क र ाके लये जो त ा क थी, वह पूरी हो गयी॥ ३ ॥ ‘पूवकालम सम लोक को मायाके ारा यं ही अपनेम लीन करके आपने महासमु के जलम शयन कया था। फर इस सृ के ार म सबसे पहले मुझे उ कया ॥ ४ ॥ ‘इसके बाद वशाल फण और शरीरसे यु एवं जलम शयन करनेवाले ‘अन ’ सं क नागको माया ारा कट करके आपने दो महाबली जीव को ज दया, जनका नाम था मधु और कै टभ; इ के अ -समूह से भरी ◌इ यह पवत स हत पृ थवी त ाल कट ◌इ, जो ‘मे दनी’ कहलायी॥ ५-६ ॥ ‘आपक ना भसे सूय-तु तेज ी द कमल कट आ, जसम आपने मुझको भी उ कया और जाक सृ रचनेका सारा कायभार मुझपर ही रख दया॥ ७ ॥ ‘जब मुझपर यह भार रख दया गया, तब मने आप जगदी रक उपासना करके ाथना क —‘ भो! आप स ूण भूत म रहकर उनक र ा क जये; क आप ही मुझे तेज ( ान और या-श ) दान करनेवाले ह’॥ ८ ॥ ‘तब आप मेरा अनुरोध ीकार करके ा णय क र ाके लये अप रमेय सनातन पु ष पसे जग ालक व ुके पम कट ए॥ ९ ॥ ‘ फर आपने ही अ द तके गभसे परम परा मी वामन पम अवतार लया। तबसे आप अपने भा◌इ इ ा द देवता क श बढ़ाते और आव कता पड़नेपर उनक र ाके लये उ त रहते ह॥ १० ॥



‘जगदी र!



जब रावणके ारा जाका वनाश होने लगा, उस समय आपने उस नशाचरका वध करनेक इ ासे मनु -शरीरम अवतार लेनेका न य कया॥ ११ ॥ ‘और यं ही ारह हजार वष तक म लोकम नवास करनेक अव ध न त क थी॥ १२ ॥ ‘नर े ! आप मनु -लोकम अपने संक से ही कसीके पु पम कट ए ह। इस अवतारम आपने अपनी जतने समयतकक आयु न त क थी, वह पूरी हो गयी; अत: अब आपके लये यह हमलोग के समीप आनेका समय है॥ १३ ॥ ‘वीर महाराज! य द और अ धक कालतक यहाँ रहकर जाजन का पालन करनेक इ ा हो तो आप रह सकते ह। आपका क ाण हो। रघुन न! अथवा य द परमधामम पधारनेका वचार हो तो अव आव। आप व ुदेवके धामम त ष्ठत होनेपर स ूण देवता सनाथ एवं न हो जायँ—ऐसा पतामहने कहा है’॥ १४-१५ ॥ कालके मुखसे कहे गये पतामह ाके संदेशको सुनकर ीरघुनाथजी हँ सते ए उस सवसंहारी कालसे बोले—॥ १६ ॥ ‘काल! देवा धदेव ाजीका यह परम अ तु वचन सुननेको मला; इस लये तु ारे आनेसे मुझे बड़ी स ता ◌इ है॥ १७ ॥ ‘तीन लोक के योजनक स के लये ही मेरा यह अवतार आ था, वह उ े अब पूरा हो गया; इस लये तु ारा क ाण हो; अब म जहाँसे आया था वह चलूँगा॥ १८ ॥ ‘काल! मने मनसे तु ारा च न कया था। उसीके अनुसार तुम यहाँ आये हो; अत: इस वषयको लेकर मेरे मनम को◌इ वचार नह है। सवसंहारकारी काल! मुझे सभी काय म सदा देवता का वशवत होकर ही रहना चा हये, जैसा क पतामहका कथन है’॥ १९ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ चारवाँ सग पूरा आ॥ १०४ ॥



एक सौ पाँचवाँ सग दव ु ासाके शापके भयसे ल णका नयम भ करके ीरामके पास इनके आगमनका समाचार देनेके लये जाना, ीरामका दव ु ासा मु नको भोजन कराना और उनके चले जानेपर ल णके लये च त होना



इन दोन म इस कार बातचीत हो ही रही थी क मह ष दुवासा राज ारपर आ प ँ चे। वे ीरामच जीसे मलना चाहते थे॥ १ ॥ उन मु न े ने सु म ाकु मार ल णके पास जाकर कहा—‘तुम शी ही मुझे ीरामच जीसे मला दो। उनसे मले बना मेरा एक काम बगड़ रहा है’॥ २ ॥ मु नक यह बात सुनकर श ुवीर का संहार करनेवाले ल णने उन महा ाको णाम करके यह बात कही—॥ ३ ॥ ‘भगवन्! बताइये, आपका कौन-सा काम है? ा योजन है? और म आपक कौन-सी सेवा क ँ ? न्! इस समय ीरघुनाथजी दूसरे कायम संल ह; अत: दो घड़ीतक उनक ती ा क जये’॥ ४ ॥ यह सुनकर मु न े दुवासा रोषसे तमतमा उठे और ल णक ओर इस कार देखने लगे, मानो अपनी ने ा से उ भ कर डालगे। साथ ही उनसे इस कार बोले—॥ ५ ॥ ‘सु म ाकु मार! इसी ण ीरामको मेरे आगमनक सूचना दो। य द अभी-अभी उनसे मेरे आगमनका समाचार नह नवेदन करोगे तो म इस रा को, नगरको, तुमको, ीरामको, भरतको और तुमलोग क जो संत त है, उसको भी शाप दे दूँगा। म पुन: इस ोधको अपने दयम धारण नह कर सकूँ गा’॥ ६-७ ॥ उन महा ाका यह घोर वचन सुनकर ल णने उनक वाणीसे जो न य कट हो रहा था, उसपर मन-ही-मन वचार कया॥ ८ ॥ ‘अके ले मेरी ही मृ ु हो, यह अ ा है; कतु सबका वनाश नह होना चा हये’ अपनी बु ारा ऐसा न य करके ल णने ीरघुनाथजीसे दुवासाके आगमनका समाचार नवेदन कया॥ ९ ॥



ल णक बात सुनकर राजा ीराम कालको बदा करके तुरंत ही नकले और अ पु दुवासासे मले॥ १० ॥ अपने तेजसे लत-से होते ए महा ा दुवासाको णाम करके ीरघुनाथजीने हाथ जोड़कर पूछा—‘महष! मेरे लये ा आ ा है?’॥ ११ ॥ ीरघुनाथजीक कही ◌इ उस बातको सुनकर भावशाली मु नवर दुवासा उनसे बोले —‘धमव ल! सु नये॥ १२ ॥ ‘ न ाप रघुन न! मने एक हजार वष तक उपवास कया। आज मेरे उस तक समा का दन है, इस लये इस समय आपके यहाँ जो भी भोजन तैयार हो, उसे म हण करना चाहता ँ ’॥ १३ ॥ यह सुनकर राजा ीरघुनाथजी मन-ही-मन बड़े स ए और उ ने उन मु न े को तैयार भोजन परोसा॥ १४ ॥ वह अमृतके समान अ हण करके दुवासा मु न तृ ए और ीरघुनाथजीको साधुवाद दे अपने आ मपर चले आये॥ १५ ॥ मु नवर दुवासाके अपने आ मको चले जानेपर ल णके बड़े भा◌इ ीराम कालके वचन का रण करके दु:खी हो गये॥ १६ ॥ भयंकर भावी ातृ वयोगके को पथम लानेवाले कालके उस वचनपर वचार करके ीरामके मनम बड़ा दु:ख आ। उनका मुँह नीचेको कु गया और वे कु छ बोल न सके ॥ १७ ॥ त ात् कालके वचन पर बु पूवक सोच वचार करके महायश ी ीरघुनाथजी इस नणयपर प ँ चे क ‘अब यह सब कु छ भी न रहेगा।’ ऐसा सोचकर वे चुप हो रहे॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ पाँचवाँ सग पूरा आ॥ १०५ ॥



एक सौ छठाँ सग ीरामके



ाग देनेपर ल



णका सशरीर



गगमन



ीरामच जी रा च माके समान दीन हो गये थे, उ सर कु ाये खेद करते देख ल णने बड़े हषके साथ मधुर वाणीम कहा—॥ १ ॥ ‘महाबाहो! आपको मेरे लये संताप नह करना चा हये; क पूवज के कम से बँधी ◌इ कालक ग त ऐसी ही है॥ २ ॥ ‘सौ ! आप न होकर मेरा वध कर डाल और ऐसा करके अपनी त ाका पालन कर। काकु ! त ा भ करनेवाले मनु नरकम पड़ते ह॥ ३ ॥ ‘महाराज! य द आपका मुझपर ेम है और य द आप मुझे कृ पापा समझते ह तो न:श होकर मुझे ाणद द। रघुन न! आप अपने धमक वृ कर’॥ ४ ॥ ल णके ऐसा कहनेपर ीरामक इ याँ च ल हो उठ —वे धैयसे वच लत-से हो गये और म य तथा पुरो हतजीको बुलाकर उन सबके बीचम वह सारा वृ ा बताने लगे। ीरघुनाथजीने दुवासाके आगमन और तापस पधारी कालके सम क ◌इ त ाक बात भी बतायी॥ ५-६ ॥ यह सुनकर सब म ी और उपा ाय चुपचाप बैठे रह गये (को◌इ कु छ बोल न सका)। तब महातेज ी व स जीने यह बात कही—॥ ७ ॥ ‘महाबाहो! महायश ी ीराम! इस समय जो र गटे खड़े कर देनेवाला वकट वनाश आनेवाला है (तु ारे साथ ही ब त-से ा णय का जो साके त-गमन होनेवाला है) और ल णके साथ जो वयोग हो रहा है, यह सब मने तपोबल ारा पहलेसे ही देख लया है॥ ८ ॥ ‘काल बड़ा बल है। तुम ल णका प र ाग कर दो। त ा झूठी न करो; क त ाके न होनेपर धमका लोप हो जायगा॥ ९ ॥ ‘धमका लोप होनेपर चराचर ा णय , देवता तथा ऋ षय स हत सारी लोक न हो जायगी। इसम संशय नह है॥ १० ॥ ‘अत: पु ष सह! तुम भुवनक र ापर रखते ए ल णको ाग दो और उनके बना अब धमपूवक त रहकर स ूण जग ो एवं सुखी बनाओ’॥ ११ ॥



वहाँ एक ए म ी, पुरो हत आ द सब सभासद क उस सभाके बीच व स मु नक कही ◌इ वह बात सुनकर ीरामने ल णसे कहा—॥ १२ ॥ ‘सु म ान न! म तु ारा प र ाग करता ँ , जससे धमका लोप न हो। साधु पु ष का ाग कया जाय अथवा वध—दोन समान ही ह’॥ १३ ॥ ीरामके इतना कहते ही ल णके ने म आँ सू भर आये। वे तुरंत वहाँसे चल दये। अपने घरतक नह गये॥ सरयूके कनारे जाकर उ ने आचमन कया और हाथ जोड़ स ूण इ य को वशम करके ाणवायुको रोक लया॥ १५ ॥ ल णने योगयु होकर ास लेना बंद कर दया है—यह देख इ आ द सब देवता, ऋ ष और अ राएँ उस समय उनपर फू ल क वषा करने लग ॥ महाबली ल ण अपने शरीरके साथ ही सब मनु क से ओझल हो गये। उस समय देवराज इ उ साथ लेकर गम चले गये॥ १७ ॥ भगवान् व ुके चतुथ अंश ल णको आया देख सभी देवता हषसे भर गये और उन सबने स तापूवक ल णक पूजा क ॥ १८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ छठाँ सग पूरा आ॥ १०६ ॥



एक सौ सातवाँ सग व स जीके कहनेसे ीरामका पुरवा सय को अपने साथ ले जानेका वचार तथा कुश और लवका रा ा भषेक करना



ल णका ाग करके ीराम दु:ख-शोकम म हो गये तथा पुरो हत, म ी और महाजन से इस कार बोले—॥ १ ॥ ‘आज म अयो ाके रा पर धमव ल वीर भा◌इ भरतका राजाके पदपर अ भषेक क ँ गा। उसके बाद वनको चला जाऊँ गा॥ २ ॥ ‘शी ही सब साम ी जुटाकर ले आओ। अब अ धक समय नह बीतना चा हये। म आज ही ल णके पथका अनुसरण क ँ गा’॥ ३ ॥ ीरामच जीक यह बात सुनकर जावगके सभी लोग धरतीपर माथा टेककर पड़ गये और ाणहीन-से हो गये॥ ४ ॥ ीरघुनाथजीक वह बात सुनकर भरतका तो होश ही उड़ गया। वे रा क न ा करने लगे और इस कार बोले—॥ ५ ॥ ‘राजन्! रघुन न! म स क शपथ खाकर कहता ँ क आपके बना मुझे रा नह चा हये, गका भोग भी नह चा हये॥ ६ ॥ ‘राजन्! नरे र! आप इन कु श और लवका रा ा भषेक क जये। द ण कोशलम कु शको और उ र कोशलम लवको राजा बनाइये॥ ७ ॥ ‘तेज चलनेवाले दूत शी ही श ु के पास भी जायँ और उ हमलोग क इस महाया ाका वृ ा सुनाय। इसम वल नह होना चा हये’॥ ८ ॥ भरतक बात सुनकर तथा पुरवा सय को नीचे मुख कये दु:खसे संत होते देख मह ष व स ने कहा—॥ ‘व ीराम! पृ ीपर पड़े ए इन जाजन क ओर देखो। इनका अ भ ाय जानकर इसीके अनुसार काय करो। इनक इ ाके वपरीत करके इन बेचार का दल न दुखाओ’॥ १० ॥



व स जीके कहनेसे ीरघुनाथजीने जाजन को उठाया और सबसे पूछा—‘म आपलोग का कौन-सा काय स क ँ ?’॥ ११ ॥ तब जावगके सभी लोग ीरामसे बोले—‘रघुन न! आप जहाँ भी जायगे, आपके पीछे-पीछे हम भी वह चलगे॥ १२ ॥ ‘काकु ! य द पुरवा सय पर आपका ेम है, य द हमपर आपका परम उ म ेह है तो हम साथ चलनेक आ ा दी जये। हम अपने ी-पु स हत आपके साथ ही स ागपर चलनेको उ त ह॥ १३ ॥ ‘ ा मन्! आप तपोवनम या कसी दुगम ानम अथवा नदी या समु म—जहाँ कह भी जायँ, हम सबको साथ ले चल। य द आप हम ाग देने यो नह मानते ह तो ऐसा ही कर॥ १४ ॥ ‘यही हमारे ऊपर आपक सबसे बड़ी कृ पा होगी और यही हमारे लये आपका परम उ म वर होगा। आपके पीछे चलनेम ही हम सदा हा दक स ता होगी’॥ १५ ॥ पुरवा सय क ढ़ भ देख ीरामने ‘तथा ु’ कहकर उनक इ ाका अनुमोदन कया और अपने कत का न य करके ीरघुनाथजीने उसी दन द ण कोशलके रा पर वीर कु शको और उ र कोशलके राज सहासनपर लवको अ भ ष कर दया। अ भ ष ए अपने उन दोन महामन ी पु कु श और लवको गोदम बठाकर उनका गाढ़ आ ल न करके महाबा ीरामने बार ार उन दोन के म क सूँघे; फर उ अपनी-अपनी राजधानीम भेज दया॥ १६—१८ ॥ उ ने अपने एक-एक पु को क◌इ हजार रथ, दस हजार हाथी और एक लाख घोड़े दये॥ १९ ॥ दोन भा◌इ कु श और लव चुर र और धनसे स हो गये। वे -पु मनु से घरे रहने लगे। उन दोन को ीरामने उनक राजधा नय म भेज दया॥ इस कार उन दोन वीर को अ भ ष करके अपने-अपने नगरम भेजकर ीरघुनाथजीने महा ा श ु के पास दूत भेजे॥ २१ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ सातवाँ सग पूरा आ॥ १०७ ॥



एक सौ आठवाँ सग ीरामच जीका भाइय , सु ीव आ द वानर तथा रीछ के साथ परमधाम जानेका न य और वभीषण, हनुमान्, जा वान्, मै एवं वदको इस भूतलपर ही रहनेका आदेश देना



ीरामच जीक आ ा पाकर शी गामी दूत शी ही मधुरापुरीको चल दये। उ ने मागम कह भी पड़ाव नह डाला॥ १ ॥ लगातार तीन दन और तीन रात चलकर वे मधुरा प ँ चे और अयो ाक सारी बात उ ने श ु से यथाथत: कह सुनाय ॥ २ ॥ ीरामक त ा, ल णका प र ाग, ीरामके दोन पु का रा ा भषेक और पुरवा सय का ीरामके साथ जानेका न य आ द सब बात बताकर दूत ने यह भी कहा क ‘परम बु मान् भगवान् ीरामने कु शके लये व पवतके कनारे कु शावती नामक रमणीय नगरीका नमाण कराया है॥ ३-४ ॥ ‘इसी तरह लवके लये ाव ी नामसे स सु रपुरी बसायी है। ीरघुनाथजी और भरतजी दोन महारथी वीर अयो ाको सूनी करके साके तधामको जानेके लये उ ोग कर रहे ह।’ इस कार महा ा श ु को शी तापूवक सब बात बताकर दूत ने कहा—‘राजन्! शी ता क जये’ इतना कहकर वे चुप हो गये॥ ५-६ १/२ ॥ अपने कु लका भयंकर संहार उप त आ सुनकर रघुन न श ु ने सम जा तथा का न नामक पुरो हतको बुलाया और उनसे सब बात यथावत् कह सुनाय ॥ ७-८ ॥ उ ने यह भी बताया क भाइय के साथ मेरे शरीरका भी वयोग होनेवाला है। इसके बाद वीर राजा श ु ने अपने दोन पु का रा ा भषेक कया॥ ९ ॥ सुबा ने मधुराका रा पाया और श ुघातीने व दशाका। मधुराक सेनाके दो भाग करके राजा श ु ने दोन पु को बाँट दये तथा बाँटनेके यो धनका भी वभाजन करके उन दोन को दे दया और उ अपनी-अपनी राजधानीम ा पत कर दया॥ १० ॥ इस कार सुबा को मधुराम तथा श ुघातीको व दशाम ा पत करके रघुकुलन न श ु एकमा रथके ारा अयो ाके लये त ए॥ ११ ॥



वहाँ प ँ चकर उ ने देखा महा ा ीराम अपने तेजसे लत अ के समान उ ी हो रहे ह। उनके शरीरपर महीन रेशमी व शोभा पा रहा है तथा वे अ वनाशी मह षय के साथ वराजमान ह॥ १२ ॥ नकट जा हाथ जोड़कर उ ने ीरघुनाथजीको णाम कया और धमका च न करते ए इ य को काबूम करके वे धमके ाता ीरामसे बोले—॥ १३ ॥ ‘रघुकुलन न! म अपने दोन पु का रा ा भषेक करके आया ँ । राजन्! आप मुझे भी अपने साथ चलनेके ढ़ न यसे यु समझ॥ १४ ॥ ‘वीर! आज इसके वपरीत आप मुझसे और कु छ न क हयेगा; क उससे बढ़कर मेरे लये दूसरा को◌इ द न होगा। म नह चाहता क कसीके वशेषत: मुझ-जैसे सेवकके ारा आपक आ ाका उ न हो’॥ श ु का यह ढ़ वचार जानकर ीरघुनाथजीने उनसे कहा—‘ब त अ ा’॥ १६ ॥ उनक यह बात समा होते ही इ ानुसार प धारण करनेवाले वानर, रीछ और रा स के समुदाय ब त बड़ी सं ाम वहाँ आ प ँ चे॥ १७ ॥ साके त-धामको जानेके लये उ त ए ीरामके दशनक इ ा मनम लये वे सभी वानर सु ीवको आगे करके वहाँ पधारे थे॥ १८ ॥ उनमसे कतने ही देवता के पु थे, कतने ही ऋ षय के बालक थे और कतने ही ग व से उ ए थे। ीरघुनाथजीके लीलासंवरणका समय जानकर वे सब-के -सब वहाँ आये थे। उ सभी वानर और रा स ीरामको णाम करके बोले—॥ १९ १/२ ॥ ‘राजन्! हम भी आपके साथ चलनेका न य लेकर यहाँ आये ह। पु षो म ीराम! य द आप हम साथ लये बना ही चले जायँगे तो हम यह समझगे क आपने यमद उठाकर हम मार गराया है’॥ २०-२१ ॥ इसी बीचम महाबली सु ीव भी वीर ीरामको व धपूवक णाम करके अपना अ भ ाय नवेदन करनेके लये उ त हो बोले—॥ २२ ॥ ‘नरे र! म वीर अ दका रा ा भषेक करके आया ँ । आप समझ ल क मेरा भी आपके साथ चलनेका ढ़ न य है’॥ २३ ॥



उनक यह बात सुनकर मनको रमानेवाले पु ष म े ीरामने वानरराज सु ीवक म ताका वचार करके उनसे कहा—॥ २४ ॥ ‘सखे सु ीव! मेरी बात सुनो। म तु ारे बना देवलोकम और महान् परमपद या परमधामम भी नह जा सकता’॥ २५ ॥ पूव वानर और रा स क भी बात सुनकर महायश ी ीरघुनाथजी ‘ब त अ ा’ कहकर मुसकराये और रा सराज वभीषणसे बोले—॥ २६ ॥ ‘महापरा मी रा सराज वभीषण! जबतक संसारक जा जीवन धारण करेगी, तबतक तुम भी ल ाम रहकर अपने शरीरको धारण करोगे॥ २७ ॥ ‘जबतक च मा और सूय रहगे, जबतक पृ ी रहेगी और जबतक संसारम मेरी कथा च लत रहेगी, तबतक इस भूतलपर तु ारा रा बना रहेगा’॥ २८ ॥ ‘मने म भावसे ये बात तुमसे कही ह। तु मेरी आ ाका पालन करना चा हये। तुम धमपूवक जाक र ा करो। इस समय मने जो कु छ कहा है, तु उसका तवाद नह करना चा हये॥ २९ ॥ ‘महाबली रा सराज! इसके सवा म तुमसे एक बात और कहना चाहता ँ । हमारे इ ाकु कु लके देवता ह भगवान् जग ाथ ( ीशेषशायी भगवान् व ु)। इ आ द देवता भी उनक नर र आराधना करते रहते ह। तुम भी सदा उनक पूजा करते रहना’॥ ३० १/२ ॥ रा सराज वभीषणने ीरघुनाथजीक इस आ ाको अपने दयम धारण कया और ‘ब त अ ा’ कहकर उसका पालन ीकार कया॥ ३१ १/२ ॥ वभीषणसे ऐसा कहकर ीरामच जी हनुमा ीसे बोले—‘तुमने दीघकालतक जी वत रहनेका न य कया है। अपनी इस त ाको थ न करो॥ ३२ १/२ ॥ ‘हरी र! जबतक संसारम मेरी कथा का चार रहे, तबतक तुम भी मेरी आ ाका पालन करते ए स तापूवक वचरते रहो’॥ ३३ १/२ ॥ महा ा ीरघुनाथजीके ऐसा कहनेपर हनुमा ीको बड़ा हष आ और वे इस कार बोले —॥ ३४ १/२ ॥ ‘भगवन्! संसारम जबतक आपक पावन कथाका चार रहेगा, तबतक आपके आदेशका पालन करता आ म इस पृ ीपर ही र ँ गा’॥ ३५ १/२ ॥



इसके बाद भगवा े ाजीके पु बूढ़े जा वान् तथा मै और वदसे भी कहा —‘जा वा हत तुम पाँच (जा वान्, वभीषण, हनुमान्, मै और वद) तबतक जी वत रहो, जबतक क लय एवं क लयुग न आ जाय’ (इनमसे हनुमान् और वभीषण तो लयकालतक रहनेवाले ह और शेष तीन क ल और ापरक सं धम ीकृ ावतारके समय मारे गये या मर गये)॥ ३६-३७ ॥ उन सबसे ऐसा कहकर ीरघुनाथजीने शेष सभी रीछ और वानर से कहा—‘ब त अ ा’ तुमलोग क बात मुझे ीकार ह। तुम सब अपने कथनानुसार मेरे साथ चलो’॥ ३८ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ आठवाँ सग पूरा आ॥ १०८ ॥



एक सौ नवाँ सग परमधाम जानेके लये नकले ए ीरामके साथ सम



अयो ावा सय का



ान



तदन र रात बीतनेपर जब सबेरा आ, तब वशाल व : लवाले महायश ी कमलनयन ीरामच जी पुरो हतसे बोले—॥ १ ॥ ‘मेरे अ हो क लत आग ा ण के साथ आगे-आगे चले। महा याणके पथपर इस या ाके समय मेरे वाजपेय-य का सु र छ भी चलना चा हये’॥ २ ॥ उनके इस कार कहनेपर तेज ी व स मु नने महा ानकालके लये उ चत सम धा मक या का व धपूवक पूणत: अनु ान कया॥ ३ ॥ फर भगवान् ीराम सू व धारण कये दोन हाथ म कु श लेकर पर के तपादक वेद-म का उ ारण करते ए सरयूनदीके तटपर चले॥ ४ ॥ उस समय वे वेदपाठके सवा कह कसीसे और को◌इ बात नह करते थे। चलनेके अ त र उनम को◌इ दूसरी चे ा नह दखायी देती थी तथा वे लौ कक सुखका प र ाग करके देदी मान सूयक भाँ त का शत होते ए घरसे नकले थे और ग पथपर बढ़ रहे थे॥ ५ ॥ भगवान् ीरामके दा हने पा म कमल हाथम लये ीदेवी उप त थ । वामभागम भूदेवी वराजमान थ तथा आगे-आगे उनक वसाय (संहार)-श चल रही थी॥ ६ ॥ नाना कारके बाण, वशाल एवं उ म धनुष तथा दूसरे-दूसरे अ -श —सभी पु षशरीर धारण करके भगवा े साथ चले॥ ७ ॥ चार वेद ा णका प धारण करके चल रहे थे। सबक र ा करनेवाली गाय ी देवी, कार और वषट्कार सभी भ भावसे ीरामका अनुसरण करते थे॥ महा ा ऋ ष तथा सम ा ण भी लोकके खुले ए ार प परमा ा ीरामके पीछे-पीछे गये॥ अ :पुरक याँ भी बालक , वृ , दा सय , खोज और सेवक के साथ नकलकर सरयूतटक ओर जाते ए ीरामके पीछे-पीछे जा रही थ ॥ १० ॥



भरत और श ु अ :पुरक य के साथ अपने आ य प भगवान् ीरामके , जो अ हो के साथ जा रहे थे, पीछे-पीछे गये॥ ११ ॥ वे सब महामन ी े पु ष एवं ा ण अ हो क अ तथा ी-पु के साथ इस महाया ाम स लत हो परम बु मान् ीरघुनाथजीका अनुगमन कर रहे थे॥ १२ ॥ सम म ी और भृ वग भी अपने पु , पशु , ब ु तथा अनुचर स हत हषपूवक ीरामके पीछे-पीछे जा रहे थे॥ १३ ॥ -पु मनु से भरे ए सम जाजन ीरघुनाथजीके गुण पर मु थे; इस लये वे ी, पु ष, पशु-प ी तथा ब -ु बा व स हत उस महाया ाम ीरामके अनुगामी ए। उन सबके दयम स ता थी और वे सभी पापसे र हत थे॥ १४-१५ ॥ स ूण -पु वानरगण भी ान करके बड़ी स ताके साथ कलका रयाँ मारते ए भगवान् ीरामके साथ जा रहे थे, वह सारा समुदाय ही ीरामका भ था॥ १६ ॥ उनम को◌इ भी ऐसा नह था, जो दीन-दु:खी अथवा ल त हो। वहाँ एक ए सब लोग के दयम महान् हष छा रहा था और इस कार वह जनसमुदाय अ आ यजनक जान पड़ता था॥ १७ ॥ जनपदके लोग मसे जो ीरामक या ा देखनेके लये आये थे, वे भी यह सब समारोह देखते ही भगवा े साथ परमधाम जानेको तैयार हो गये॥ १८ ॥ रीछ, वानर, रा स और पुरवासी मनु बड़ी भ के साथ ीरामच जीके पीछे-पीछे एका च होकर चले आ रहे थे॥ १९ ॥ अयो ानगरम जो अ ाणी रहते थे, वे भी साके तधाम जानेके लये उ त ए ीरघुनाथजीके पीछे-पीछे चल दये॥ २० ॥ चराचर ा णय मसे जो-जो ीरघुनाथजीको जाते देखते थे, वे सभी उस या ाम उनके पीछे-पीछे चल देते थे॥ उस समय उस अयो ाम साँस लेनेवाला को◌इ छोटे-से-छोटा ाणी भी रह गया हो, ऐसा नह देखा जाता था। तय ो नके सम जीव भी ीरामम भ भाव रखकर उनके पीछेपीछे चले जा रहे थे॥ २२ ॥



इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ नवाँ सग पूरा आ॥ १०९ ॥



एक सौ दसवाँ सग भाइय स हत ीरामका व







पम वेश तथा साथ आये ए सब लोग को संतानकलोकक ा



अयो ासे डेढ़ योजन दूर जाकर रघुकुलन न भगवान् ीरामने प मा भमुख हो नकट ा ◌इ पु स लला सरयूका दशन कया॥ १ ॥ सरयूनदीम सब ओर भँवरे उठ रही थ । वहाँ सब ओर घूम- फरकर रघुन न राजा ीराम जाजन के साथ एक उ म ानपर आये॥ २ ॥ उसी समय लोक पतामह ाजी स ूण देवता तथा महा ा ऋ ष-मु नय से घरे ए उस ानपर आ प ँ च,े जहाँ ीरघुनाथजी परमधाम पधारनेके लये उप त थे। उनके साथ करोड़ द वमान शोभा पा रहे थे॥ ३-४ ॥ सारा आकाशम ल द तेजसे ा हो अ उ म ो तमय हो रहा था। पु कम करनेवाले गवासी यं का शत होनेवाले अपने तेजसे उस ानको उ ा सत कर रहे थे॥ ५ ॥ परम प व , सुग त एवं सुखदा यनी हवा चलने लगी। देवता ारा गराये गये रा शरा श द पु क भारी वषा होने लगी॥ ६ ॥ उस समय सैकड़ कारके बाजे बजने लगे और ग व तथा अ रा से वहाँका ान भर गया। इतनेम ही ीरामच जी सरयूके जलम वेश करनेके लये दोन पैर से आगे बढ़ने लगे॥ ७ ॥ तब ाजी आकाशसे ही बोले—‘ ी व -ु प रघुन न! आइये, आपका क ाण हो। हमारा बड़ा सौभा है, जो आप अपने परमधामको पधार रहे ह॥ ८ ॥ ‘महाबाहो! आप देवतु तेज ी भाइय के साथ अपने पभूत लोकम वेश कर। आप जस पम वेश करना चाह, अपने उसी पम वेश कर॥ ‘महातेज ी परमे र! आपक इ ा हो तो चतुभुज व ु पम ही वेश कर अथवा अपने सनातन आकाशमय अ पम ही वराजमान ह । देव! आप ही स ूण लोक के आ य ह। आपक पुरातन प ी योगमाया ( ा दनी श )- पा जो वशाललोचना



सीतादेवी ह, उनको छोड़कर दूसरे को◌इ आपको यथाथ पसे नह जानते ह; क आप अ च , अ वनाशी तथा जरा आ द अव ा से र हत पर ह, अत: महातेज ी राघवे ! आप जसम चाह, अपने उसी पम वेश कर ( त ष्ठत ह )’॥ १०-११ ॥ पतामह ाजीक यह बात सुनकर परम बु मान् ीरघुनाथजीने कु छ न य करके भाइय के साथ शरीरस हत अपने वै व तेजम वेश कया॥ फर तो इ और अ आ द सब देवता, सा तथा म ण भी व ु पम त ए भगवान् ीरामक पूजा ( ु त- शंसा) करने लगे॥ १३ ॥ तदन र जो द ऋ ष, ग व, अ रा, ग ड़, नाग, य , दै , दानव और रा स थे, वे भी भगवा ा गुणगान करने लगे॥ १४ ॥ (वे बोले—) ‘ भो! यहाँ आपके पदापण करनेसे देवलोकवा सय का यह सारा समुदाय सफलमनोरथ होनेके कारण -पु एवं आन म हो गया है। सबके पाप-ताप न हो गये ह। भो! आपको हमारा शतश: साधुवाद है।’ ऐसा उन देवता ने कहा॥ १५ ॥ त ात् व ु पम वराजमान महातेज ी ीराम ाजीसे बोले—‘उ म तका पालन करनेवाले पतामह! इस स ूण जनसमुदायको भी आप उ म लोक दान कर॥ १६ ॥ ‘ये सब लोग ेहवश मेरे पीछे आये ह। ये सब-के -सब यश ी और मेरे भ ह। इ ने मेरे लये अपने लौ कक सुख का प र ाग कर दया है, अत: ये सवथा मेरे अनु हके पा ह’॥ १७ ॥ भगवान् व ुका यह वचन सुनकर लोकगु भगवान् ाजी बोले—‘भगवन्! यहाँ आये ए ये सब लोग ‘संतानक’ नामक लोक म जायँगे॥ १८ ॥ ‘पशु-प य क यो नम पड़े ए जीव मसे भी जो को◌इ आपका ही भ भावसे च न करता आ ाण का प र ाग करेगा, वह भी संतानक-लोक म ही नवास करेगा। यह संतानकलोक लोकके ही नकट है (साके त-धामका ही अ है)। वह ाके स संक आ द सभी उ म गुण से यु है। उसीम ये आपके भ जन नवास करगे’॥ १९ १/२ ॥



जन वानर और रीछ क देवता से उ ◌इ थी, वे अपनी-अपनी यो नम ही मल गये— जन- जन देवता से कट ए थे, उ म व हो गये। सु ीवने सूयम लम वेश



कया। इसी कार अ वानर भी सब देवता के देखते-देखते अपने-अपने पताके पको ा हो गये॥ २०-२१ १/२ ॥ देवे र ाजीने जब संतानक-लोक क ा क घोषणा क , तब सरयूके गो तारघाटपर आये ए उन सब लोग ने आन के आँ सू बहाते ए सरयूके जलम डु बक लगायी॥ २२ १/२ ॥ जसने- जसने जलम गोता लगाया, वही-वही बड़े हषके साथ ाण और मनु -शरीरको ागकर वमानपर जा बैठा॥ २३ १/२ ॥ पशु-प ीक यो नम पड़े ए सैकड़ ाणी सरयूके जलम गोता लगाकर तेज ी शरीर धारण करके द लोकम जा प ँ चे। वे द शरीर धारण करके द अव ाम त हो देवता के समान दी मान् हो गये॥ २४-२५ ॥ ावर और ज म सभी तरहके ाणी सरयूके जलम वेश करके उस जलसे अपने शरीरको भगोकर द लोकम जा प ँ चे॥ २६ ॥ उस समय जो को◌इ भी रीछ, वानर या रा स वहाँ आ गये, वे सभी अपने शरीरको सरयूके जलम डालकर भगवा े परमधामम जा प ँ चे॥ २७ ॥ इस कार वहाँ आये ए सब ा णय को संतानक-लोक म ान देकर लोकगु ाजी हष और आन से भरे ए देवता के साथ अपने महान् धामम चले गये॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ दसवाँ सग पूरा आ॥ ११० ॥



एक सौ



ारहवाँ सग



रामायण-का का उपसंहार और इसक म हमा (कु श



और लव कहते ह—) मह ष वा ी क ारा न मत यह रामायण नामक े आ ान उ रका स हत इतना ही है। ाजीने भी इसका आदर कया है॥ १ ॥ इस कार भगवान् ीराम पहलेक ही भाँ त अपने व ु पसे परमधामम त ष्ठत ए। उनके ारा चराचर ा णय स हत यह सम लोक ा है॥ २ ॥ उन भगवा े पावन च र से यु होनेके कारण देवता, ग व, स और मह ष सदा स तापूवक देवलोकम इस रामायणका का वण करते ह॥ ३ ॥ यह ब का आयु तथा सौभा को बढ़ाता और पाप का नाश करता है। रामायण वेदके समान है। व ान् पु षको ा म इसे पढ़कर सुनाना चा हये॥ ४ ॥ इसके पाठसे पु हीनको पु और धनहीनको धन मलता है। जो त दन इसके ोकके एक चरणका भी पाठ करता है, वह सब पाप से छु टकारा पा जाता है॥ ५ ॥ जो मनु त दन पाप करता है, वह भी य द इसके एक ोकका भी न पाठ करे तो वह सारी पापरा शसे मु हो जाता है॥ ६ ॥ इसक कथा सुनानेवाले वाचकको व , गौ और सुवणक द णा देनी चा हये। वाचकके संतु होनेपर सभी देवता संतु हो जाते ह॥ ७ ॥ यह रामायण नामक ब का आयुक वृ करनेवाला है। जो मनु त दन इसका पाठ करता है, उसे इस लोकम पु -पौ क ा होती है और मृ ुके प ात् परलोकम भी उसका बड़ा स ान होता है॥ ८ ॥ जो त दन एका च हो ात:काल, म ा , अपरा अथवा सायंकालम रामायणका पाठ करता है, उसे कभी को◌इ दु:ख नह होता है॥ ९ ॥ ( ीरघुनाथजीके परमधाम पधारनेके प ात्) रमणीय अयो ापुरी भी ब त वष तक सूनी पड़ी रहेगी। फर राजा ऋषभके समय यह आबाद होगी॥ १० ॥ चेताके पु मह ष वा ी कजीने अ मेधय क समा के बादक कथा एवं उ रका स हत रामायण नामक इस ऐ तहा सक का का नमाण कया है। ाजीने भी



इसका अनुमोदन कया था॥ ११ ॥ इस का के एक सगका वण करनेमा से ही मनु एक हजार अ मेध और दस हजार वाजपेय य का फल पा लेता है॥ १२ ॥ जसने इस लोकम रामायणक कथा सुन ली, उसने मानो याग आ द तीथ , ग ा आ द प व न दय , नै मषार आ द वन और कु े आ द पु े क या ा पूरी कर ली॥ १३ १/ ॥ २



जो सूय हणके समय कु े म एक भार सुवणका दान करता है और जो लोकम त दन रामायण सुनता है, वे दोन समान पु के भागी होते ह॥ १४ १/२ ॥ जो उ म ासे स हो ीरघुनाथजीक कथा सुनता है, वह सब पाप से मु होता और व ुलोकम जाता है॥ १५ १/२ ॥ जो पूवकालम वा ी क ारा न मत इस आषरामायण आ दका का सदा भ भावसे वण करता है, वह भगवान् व ुका सा ा कर लेता है॥ १६ १/२ ॥ इसके वणसे ी-पु क ा होती है, धन और संत त बढ़ती है। इसे पूणत: स समझकर मनको वशम रखते ए इसका वण करना चा हये। यह परम उ म रामायणका गाय ीका प है॥ १७-१८ ॥ जो पु ष त दन भ भावसे ीरघुनाथजीके इस च र को सुनता या पढ़ता है, वह न ाप होकर दीघ आयु ा कर लेता है॥ १९ ॥ जो क ाण- ा क इ ा रखता है, उसे न नर र ीरघुनाथजीका च न करना चा हये। ा ण को त दन यह ब का सुनाना चा हये॥ २० ॥ जो इस ीरघुनाथ-च र का पाठ पूण कर लेता है, वह ाणा होनेपर भगवान् व ुके ही धामम जाता है; इसम संशय नह है॥ २१ ॥ इतना ही नह , उसके पता, पतामह, पतामह, वृ पतामह तथा उनके भी पता भगवान् व ुको ा कर लेते ह, इसम संशय नह है॥ २२ ॥ ीराघवे का यह च र सदा धम, अथ, काम और मो चार पु षाथ को देनेवाला है। इस लये त दन य पूवक नर र इस उ म का का वण करना चा हये॥ २३ ॥



जो रामायणका के ोकके एक चरण या एक पदका भ भावसे वण करता है, वह ाजीके धामम जाता है और सदा उनके ारा पू जत होता है॥ २४ ॥ इस कार इस पुरातन आ ानका आपलोग व ासपूवक पाठ कर। आपका क ाण हो और भगवान् व ुके बलक जय हो॥ २५ ॥ इस कार ीवा ी क न मत आषरामायण आ दका के उ रका म एक सौ ारहवाँ सग पूरा आ॥ १११ ॥ ॥ उ रका ीम ा



स ूण॥



ीक य रामायण समा