व्यास कथा: महाभारत की नीतिकथाएं (Vyasa Katha: Mahabharat ki Nitikathayen)
 9789354352850 [PDF]

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व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ



व्यास-कथा



महाभारत की नी�तकथाएँ



�नत्यानन्द �मश्र



BLOOMSBURY INDIA Bloomsbury Publishing India Pvt. Ltd Second Floor, LSC Building No. 4, DDA Complex, Pocket C – 6 & 7, Vasant Kunj New Delhi 110070 BLOOMSBURY, BLOOMSBURY INDIA and the Diana logo are trademarks of Bloomsbury Publishing Plc First published in India 2021 This edition published 2021 Copyright © Nityananda Misra 2021 Nityananda Misra has asserted his right under the Indian Copyright Act to be identified as the Author of this work Illustrations © Shivani Attri 2021 All rights reserved. No part of this publication may be reproduced or transmitted in any form or by any means, electronic or mechanical, including photocopying, recording or any information storage or retrieval system, without the prior permission in writing from the publishers The book is solely the responsibility of the author and the publisher has had no role in creation of the content and does not have responsibility for anything defamatory or libellous or objectionable. The views and opinions expressed in this book are the author’s own, the facts are as reported by him, and the publisher is not in any way liable for the same. Bloomsbury Publishing Plc does not have any control over, or responsibility for, any third-party websites referred to or in this book. All internet addresses given in this book were correct at the time of going to press. The author and publisher regret any inconvenience caused if addresses have changed or sites have ceased to exist, but can accept no responsibility for any such changes ISBN: 978-93-54352-85-0 2 4 6 8 10 9 7 5 3 1 Typeset in Chanakya Sanskrit and Charis SIL by Nityananda Misra Printed and bound in India Bloomsbury Publishing Plc makes every effort to ensure that the papers used in the manufacture of our books are natural, recyclable products made from wood grown in well-managed forests. Our manufacturing processes conform to the environmental regulations of the country of origin To find out more about our authors and books visit www.bloomsbury.com and sign up for our newsletters



कथाकार �नरामय को



अनुक्रम�णका पुरोवाक्



पाठकों के �लए �नद�श प्रकाशकीय



१ ८



१०



१. राजा और कुत्ते



१३



३. ऋ�ष और नागकन्या



२५



५. कछुआ और हाथी



३७



२. ब्राह्मण और डोड़हा साँप ४. साँप और घोड़ा ६. चतुर �सयार



१७



३१



४१



७. पतेनों का प�रवार



४७



९. दु�खया गाय



६५



११. राजा और नाग



७९



१३. राजकुमार और अजगर



९१



८. हंस और पंछी



१०. दो प्रेमी और हंस १२. राजा और पंछी (प्रथम) १४. मेंढक-राजकुमारी और उसके बेटे १५. राजा और पंछी (��तीय)



६१



७३ ८५



१०३



११३



१६. राजा और बूढ़े जीव



११९



१८. ढोंगी �बल्ला



१२७



२०. संसार की नी�तकथा



१४१



२२. बाघ और �सयार



१५१



२४. न�दयाँ और समुद्र



१६५



२६. तीन मछ�लयाँ



१७७



२८. राजा और �च�ड़या



१९५



१७. �चड़ीमार और पंछी १९. कौआ और हंस



२१. बाल-ऋ�ष और सोने का पंछी २३. आलसी ऊँट



२५. ऋ�ष और कुत्ता



२७. �बल्ला और चूहा



२९. �चड़ीमार और कबूतर



१२३



१३३



१४७ १६१



१६९



१८१



२०५



३०. �गद्ध और �सयार



२१७



३२. ब्राह्मण और बगुला



२३७



३१. घमंडी पेड़



२२९



३३. रंक, बछड़े और ऊँट



२४९



३५. ब्राह्मण और बादल



२६१



३४. ऋ�ष का बेटा और �सयार ३६. ऋ�ष और �हरन



३७. ब्राह्मण और नाग



२५५



२६७



२७१



३८. बु�ढ़या, बहे�लया, साँप, मृत्यु और काल



२८५



४०. �सयार और बंदर



२९९



३९. भगत सुग्गा



४१. ऋ�ष और उत्तर �दशा



२९५



३०३



४२. ब्राह्मण का बेटा और गदही



३११



४४. देवी और गाएँ



३२३



४३. अवतार और �गर�गट ४५. ऋ�ष और कीड़ा



३१७



३२९



४६. मन और इ��याँ



३३५



४८. नाग और दूसरे �शष्य



३४३



४७. पाँच प्राण



४९. राजा, इ��याँ, मन और बु�द्ध ५०. �शष्य, साँप और घोड़ा



३३९



३४९



३५५



५१. अनोखा नेवला



३६३



लेखक-प�रचय



४०१



�टप्प�णयाँ



३७३



पुरोवाक् महाभारत के �वषय में कहा गया है, “धम�, अथ�, काम और मोक्ष के �वषय में जो यहाँ है वह अन्यत्र है, और जो यहाँ नहीं है वह कहीं नहीं है।”१ सच में, महाभारत में मनुष्यों के चार पुरुषाथ�—धम�, अथ�, काम और मोक्ष—के �वषय में वह सब कुछ है जो एक ग्रन्थ में होना चा�हए। इसमें अनेक नी�तकथाएँ भी स�म्म�लत हैं। नी�तकथाएँ अपने आप में एक सा�ह�त्यक �वधा हैं। यद्य�प नी�तकथा �कसी भी नी�त की कथा को कह सकते हैं, �हन्दी में इस शब्द का प्रयोग प्रायः अंग्रेज़ी के fable शब्द के �लए होता है। अंग्रेज़ी का fable शब्द ला�तन के fabula शब्द से आता है। ला�तन में fabula का शा�ब्दक अथ� है ‘वह �जसे कहा जाए’, अथा�त् कोई कहानी, कथा, कथानक अथवा वृत्तान्त। ला�तन की मूल धातु है fari �जसका अथ� है ‘कहना, बोलना, ब�तयाना’। नी�तकथा अथवा fable एक ऐसी छोटी कथा होती है �जसमें एक अथवा एका�धक मुख्य मनुष्येतर पात्र (यथा पशु, पक्षी, कीट-पतंगे, पेड़-पौधे, अन्य अचेतन पदाथ�, आ�द) मनुष्यों के जैसे बातें और/अथवा बरताव करते हैं।२ बहुधा एक नी�तकथा में कोई सीख �न�हत होती है। यद्य�प fable शब्द के �लए संस्कृत में कोई एक �व�शष्ट शब्द नहीं है, नी�तकथा इस शब्द का fable के �लए प्रयोग हो सकता है। वस्तुतः नी�तकथा शब्द fable शब्द से अ�धक व्यापक है। संस्कृत के �वद्वान् डॉ॰ प्रभाकर नारायण कवठेकर ने fable के �लए नी�तकथा शब्द के प्रयोग पर बल �दया है।३ डॉ॰ कवठेकर ने साथ ही यह भी माना है नी�तकथा शब्द वै�दक नहीं है और इसकी कोई आय� व्याख्या अथवा प�रभाषा उपलब्ध नहीं है। नी�तकथा शब्द के दोनों घटक शब्द नी�त और कथा बहुत महत्त्वपूण� हैं। इन दोनों शब्दों की पृष्ठभू�म इस चचा� में सहायक होगी।



व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ



संस्कृत में नी�त का शा�ब्दक अथ� है ‘आगे ले जाने की �क्रया’ अथवा ‘आगे ले जाने का साधन’। यह शब्द वै�दक काल से प्रच�लत है—ऋग्वेद शाकलसं�हता में सुनी�त (‘अच्छी नी�त’) शब्द का कईं बार प्रयोग प्राप्त है। एक मन्त्र (१०.६३.१३) में गय प्लात ऋ�ष कहते हैं, “हे आ�दत्यों! �जस �कसी मत्य� मनुष्य को आप अच्छी नी�त से आगे ले जाते हैं, वह अक्षत रहता है, आगे बढ़ता है और धम� का पालन करके पुत्र-पौत्रा�द से संपन्न होता है।” यह मन्त्र नी�त की वै�दक अवधारणा को दशा�ता है। चाणक्य का चाणक्यनी�त, �वष्णु शमा� का पञ्चतन्त्र, नारायण प�ण्डत का �हतोपदेश, कामन्दक का कामन्दकीय नी�तसार, �वदुरनी�त, आ�द सब नी�त के शास्त्र हैं। आप्टे कोश के अनुसार नी�त के अथ� हैं �नद�शन, �दग्दश�न, आचरण, चाल-चलन, व्यवहार, औ�चत्य, शालीनता, नी�तकौशल, नी�तज्ञता, बु�द्धमत्ता, व्यवहार-कुशलता, योजना, उपाय, राजनय, राजनी�त, आचारशास्त्र, आचार, आ�द। यह शब्द इतना व्यापक है अंग्रेज़ी में इसके �लए कोई एक शब्द नहीं है। अंग्रेज़ी में नी�त को कभी guidance अथवा management कहते हैं; कभी moral wisdom, practical wisdom अथवा political wisdom; कभी proper conduct अथवा wise conduct; तो कभी prudence, right course, अथवा policy आ�द। पञ्चतन्त्र के अंग्रेज़ी अनुवाद में आथ�र रायडर ने कहा है अंग्रेज़ी, फ़्रान्सीसी, ला�तन अथवा ग्रीक में नी�त का सटीक समानाथ�क शब्द नहीं है, यह स्वीकारते हुए पाश्चात्त्य सभ्यता को लज्जा का अनुभव होना चा�हए।४ संस्कृत के कथा शब्द का अथ� है कहानी, वृत्तान्त, आ�द। यह कईं प्रकार से अंग्रेज़ी के fable शब्द के समान है। संस्कृत के प्राचीन कोष अमरकोष (१.६.६) में कथा का अथ� प्रबन्ध-कल्पना कहा गया है, अथा�त् गद्य अथवा पद्य प्रबन्ध के द्वारा कल्पना अथवा प्रबन्ध (�वषय) की कल्पना। कल्पना का अथ� है अपनी रचना। इस प्रकार कथा का अथ� हुआ अपने शब्दों से कोई प्रबन्ध करना। संस्कृत के महान् वैयाकरण पा�ण�न की अष्टाध्यायी (३.३.१०५) के अनुसार कथा शब्द का अथ� है ‘कहने की �क्रया’ अथवा ‘वह �जसे कहा जाए’। यह दूसरा अथ� ला�तन शब्द fabula के शा�ब्दक अथ� जैसा ही है। संस्कृत का कथा शब्द कथ् २



पुरोवाक्



धातु से आता है �जसका अथ� है ‘कहना, समाचार देना, ब�तयाना, बोलना’। इस धातु का भी अथ� वही है जो ला�तन की उस fari धातु का है जो अंग्रेज़ी के fable शब्द का मूल है। इस प्रकार संस्कृत कथा और अंग्रेज़ी fable शब्द में अथ�गत और व्युत्प�त्तगत समानताएँ हैं। यद्य�प �हन्दी में fable के �लए डॉ॰ कवठेकर के प्रस्ता�वत शब्द नी�तकथा का ही सवा��धक प्रयोग होता है, इस पुस्तक के शीष�क में और इस पुस्तक में प्रस्तुत नी�तकथाओं के �लए मैंने अपेक्षाकृत सरल शब्द कथा का प्रयोग �कया है। इसका एक कारण सरलता है और एक अन्य कारण fable और कथा शब्द की अथ�गत और व्युत्प�त्तगत समानता है जैसा अभी �दखाया गया है। पुस्तक के शीष�क में प्रयुक्त व्यास-कथा शब्द का अथ� है श्रीवेदव्यास की कथा, अथा�त् श्रीवेदव्यास के द्वारा कही गई कथा। जैसे महाभारत श्रीवेदव्यास की सं�हता है (महाभारत, १.१.२१), उसी प्रकार महाभारत की नी�तकथाएँ श्रीवेदव्यास की कथाएँ हैं। छोटी होने के कारण और मनुष्येतर पात्रों वाली होने के कारण नी�तकथाएँ लम्बे समय से नै�तक मूल्यों को �सखाने के �लए एक लोक�प्रय और प्रभावी साधन रही हैं, �वशेषकर बालकों को �शक्षा देने के �लए। �वश्व की अनेक संस्कृ�तयों में नी�तकथाएँ लोक�प्रय थीं। प्राचीन यूनान में ईसप के नाम से प्रच�लत ईसप की नी�तकथाएँ �वश्व के सबसे पुराने नी�तकथा-संग्रहों में से एक है। भारत में बौद्ध जातकों, पञ्चतन्त्र और �हतोपदेश की नी�तकथाएँ बहुत लोक�प्रय हैं। पर महाभारत की नी�तकथाएँ इतनी प्र�सद्ध नहीं हैं। संभवतः इसका कारण है महाभारत की पचास से अ�धक नी�तकथाएँ एक लाख श्लोकों के इस �वशाल ग्रन्थ में एक स्थान पर नहीं हैं अ�पतु इधर-उधर �बखरी पड़ी हैं। तथा�प नी�तकथाएँ महाभारत के पाठ का लगभग तीन प्र�तशत भाग हैं। इस पुस्तक में प्रस्तुत इक्यावन कथाओं में मैंने महाभारत के कुल अठारह में से नौ पव� के इक्यानवे अध्यायों से २,६३१ श्लोकों/गद्यों का अनुवाद �कया है। अनुष्टुप् गणना में प्रत्येक ३२ अक्षरों को एक ‘श्लोक’ �गना जाता है। इस अनुष्टुप् गणना से गीता प्रेस द्वारा प्रका�शत छह खण्डों की महाभारत में १,००,२१७ संस्कृत श्लोक हैं।५ इसी अनुष्टुप् गणना से इस पुस्तक में प्रस्तुत नी�तकथाओं में लगभग २,९६१ ‘श्लोकों’ का, अथवा महाभारत के ३



व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ



लगभग तीन प्र�तशत भाग का, अनुवाद है। इस पुस्तक में प्रस्तुत इक्यावन कथाओं में से चौबीस भीष्म ने सुनाई हैं, चार-चार सौ�त और वैशम्पायन ने, तीन-तीन माक�ण्डेय और एक ब्राह्मण (ब्राह्मण-गीता में) ने, दो-दो बृहदश्व और �वदुर ने, और एक-एक कश्यप, क�णक, व्यास, �शशुपाल, लोमश, दुय�धन, शल्य, अजु�न और परशुराम के �पतरों ने। इनमें से कुछ कथाएँ पहले �कसी और ने सुनाईं थीं और अनेक कथाएँ पीछे एक बाहरी कथा के रूप में �कसी और ने भी सुनाई हैं। ध्यान देने योग्य बात है नी�त से भरी इन कथाओं को सुनानेवालों में कुछ प्र�तनायक भी हैं। इस पुस्तक में प्रस्तुत कुछ कथाएँ, यथा ‘आलसी ऊँट’ (कथा २३), भारत की सबसे पुरानी और सबसे प्र�सद्ध कथाओं में स�म्म�लत हैं। कुछ अन्य कथाएँ, यथा ‘�चड़ीमार और पंछी’ (कथा १७) और ‘तीन मछ�लयाँ’ (कथा २६), पञ्चतन्त्र और �हतोपदेश में �फरसे कही गई हैं। कुछ कथाओं में व्यावहा�रक और राजनी�तक समझ-बूझ का भाण्डार है, कुछ में नै�तक और मानवीय मूल्यों की �शक्षा है, कुछ में वै�श्वक सत्य कहे गए हैं और कुछ में गहरे दाश��नक �सद्धान्त कहे गए हैं। कथाओं को पढ़ते अथवा सुनते समय हमारे मन में अनेक भाव आते हैं—कुछ कथाएँ हमें प्रे�रत करती हैं, कुछ हमारा मनोरञ्जन करती हैं, कुछ हमें हँसाती हैं, कुछ रुलाती हैं, कुछ हमें �व�स्मत और आश्चय�च�कत करती हैं और कुछ मन्त्रमुग्ध कर देती हैं। इन व्यास-कथाओं के कुछ श्लोकों में सुन्दर अ�भव्य�क्त है तो कुछ अन्य श्लोकों में गूढ अथ� हैं अथवा प्रभावी कथा-प्रबन्ध है। महान् सा�हत्याचाय� मम्मट ने ‘�गद्ध और �सयार’ (कथा ३०) इस कथा के श्लोकों को उद्धृत करते हुए कहा है प्रबन्ध में भी अथ�श�क्त का बीज होता है।६ इन कथाओं में प्रकृ�त का जो गहरा ज्ञान भरा है वह �वस्मयकारी है। कथाओं में बहुत प्रकार के मनुष्येतर पात्र हैं जैसे पशु (मेंढक, चूहा, नेवला, साही, �बल्ला, कुत्ता, बंदर, सूअर, गाय, गधा, घोड़ा, ऊँट, �हरन, भे�ड़या, �सयार, भालू, गैंडा, तेन्दुआ, बाघ, हाथी और �संह), पक्षी (पतेना, बगुला, कौआ, सेन, उल्लू, सुग्गा, कबूतर, हंस और �गद्ध), सरीसृप (अजगर, साँप, कछुआ, गोह और �गर�गट), कीड़े और मधुम��याँ, मछली, पेड़, न�दयाँ, समुद्र, बादल, �दशा, मन, इ�न्द्रयाँ, प्राण, मृत्यु और काल। कथाओं में प्रकृ�त और प्राकृ�तक घटनाओं के ४



पुरोवाक्



बहुत सजीव �चत्रण हैं। कुल �मलाकर महाभारत की ये नी�तकथाएँ सभी आयु और सभी संस्कृ�तयों के लोगों के �लए सीखने का स्रोत हैं। इन कथाओं के अनुवाद में मैंने यथासंभव मूल संस्कृत पाठ का अनुसरण करने का प्रयास �कया है। गूढ अथ� और अनेक संभाव्य अथ� वाले शब्दों और श्लोकों का अथ� करते समय मैंने महाभारत पर नीलकण्ठ चतुध�र की उत्कृष्ट संस्कृत टीका भारतभावदी�पका का अवलम्बन �लया है। इस पुस्तक में प्रस्तुत प्रत्येक कथा के प्रारम्भ में एक प्रस्तावना दी गई है �जसमें कथा का संदभ� और कथा-कथन के पहले के संवादों और घटनाओं का सं�क्षप्त वण�न है। इसके पश्चात् पूरी-की-पूरी कथा का अनुवाद है। अ�धकांश कथाओं के तुरंत पश्चात् एक उपसंहार है �जसमें कथा-कथन के पीछे की घटनाओं का सं�क्षप्त वण�न है। कथा और वैक�ल्पक उपसंहार के अनन्तर नै�तक, व्यावहा�रक, राजनी�तक, सामा�जक और अन्य �शक्षाएँ दी गई हैं। इन �शक्षाओं के साथ भारतीय वाङ्मय में प्राप्त इनके समान अनेक अन्य �शक्षाओं को भी संक्षेप में प्रस्तुत �कया गया है। समान �शक्षाओं के �लए आ�श्रत इस वाङ्मय में कथा-संग्रह (जातक-कथाएँ, पञ्चतन्त्र और �हतोपदेश), नी�तशास्त्र के ग्रन्थ (चाणक्यनी�त, नी�तसार, �वदुरनी�त, नी�तशतक, अथ�शास्त्र, आ�द), �हन्दू शास्त्र (वै�दक सं�हताएँ, उप�नषद्, पुराण, भगवद्गीता, महाभारत, वाल्मीकीय रामायण, योगसूत्र और रामच�रतमानस), धम�शास्त्र (स्मृ�तयाँ और धम�सूत्र) और काव्यग्रन्थों (महाकाव्य, नाटक और काव्यशास्त्र) के साथ-साथ सुभा�षत, मुहावरे, न्याय, लोको�क्तयाँ और दोहे आ�द �वशाल �ल�खत और मौ�खक सा�हत्य स�म्म�लत है। व्यास-कथाओं में और भारतीय वाङ्मय की अन्य अनेक कृ�तयों में जो यह एकवाक्यता है, वह दशा�ती है महाभारत की ये नी�तकथाएँ केवल मनोरञ्जन के �लए कही गई सरल कथाएँ नहीं हैं अ�पतु इनमें �हन्दू और भारतीय �वचार, प्रज्ञा और दश�न का सार �न�हत है। अन्ततः, कुछ कथाओं से संब�न्धत अ�त�रक्त उपयोगी और रोचक जानकारी �वशेष प�रच्छेद में दी गई है। समूची महाभारत वैशम्पायन द्वारा जनमेजय को और सौ�त द्वारा ऋ�षयों को ५



व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ



सुनाई गई कथा है। इस पुस्तक में प्रस्तुत प्रायः सभी कथाएँ एक बाहरी कथा में कही गई भीतरी कथाएँ (उपकथाएँ) हैं। कुछ कथाओं में स्वयं �पछले जन्म की अथवा �पछली घटनाओं की उपकथाएँ हैं। उदाहरण के �लए वैशम्पायन जनमेजय को ‘अनोखा नेवला’ (कथा ५१) यह कथा सुनाते हैं। इस कथा में एक नेवला यु�ध�ष्ठर के अश्वमेध यज्ञ में उप�स्थत ब्राह्मणों को एक �नःस्वाथ� ब्राह्मण प�रवार की कथा सुनाता है। अ�धकांश पौरा�णक सा�हत्य की भाँ�त ही महाभारत में भी एक बहुस्तरीय संरचना है—कथाओं के अन्दर कथाएँ हैं और संवादों के अन्दर संवाद हैं। ऐसा प्रतीत होता है कथाओं के अन्दर कथाएँ गूँथना और संवादों के अन्दर संवाद गूँथना प्राचीन और मध्य भारत में एक लोक�प्रय कथन-पद्ध�त थी। परंतु प्रस्तुत पुस्तक महाभारत का आं�शक अनुवाद है, अतः पुस्तक में पूव�क्त बहुस्तरीय संरचना को ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत करने से आं�शक अनुवाद पढ़ रहे पाठकों के मन में भ्रा�न्त की-सी �स्थ�त हो सकती है। इस कारण से इस पुस्तक को सुपाठ्य बनाने के �लए मैंने आन्त�रक कथा प्रस्तुत करते समय बाह्य कथा/कथाओं के वक्ता और श्रोता/श्रोताओं से संब�न्धत संबोधनों और संदभ� को नहीं �दया है। बाह्य कथा के वक्ता और श्रोता/श्रोताओं ने जो कुछ कथा के प्रबन्ध के रूप में कहा है उसे अवश्य प्रस्तुत �कया गया है। व्यावहा�रक दृ�ष्ट से यह �कसी प्रकार का संक्षेप नहीं है। इस पुस्तक की एक �वशेषता है उत्कृष्ट �चत्रकत्र� और संस्कृत की �वदुषी �शवानी अ�त्त्र के बनाए हुए पच्चीस �चत्र। प्रत्येक �चत्र में �कसी एक कथा के एक दृश्य का �चत्रण है। साथ में महाभारत की उस कथा के एक अथवा दो मूल श्लोक देवनागरी �ल�प में अ�ङ्कत हैं। �चत्रों के दृश्य यथासंभव महाभारत की कथाओं के अनुसार हों इसका �वशेष ध्यान रखा गया है। इन अप्र�तम और अद्भुत �चत्रों के �लए मैं �वदुषी �शवानी के प्र�त हृदय से आभार प्रकट करता हूँ। इस पुस्तक को �लखकर मुझे कृतकृत्यता का अनुभव हुआ है। इसे प्रका�शत होता हुआ देखकर मैं बहुत प्रसन्न हूँ। पुस्तक के प्रकाशन के �लए मैं ब्लूम्ज़बरी के प्रवीण �तवारी और �न�तन वलेचा का अत्यन्त आभारी हूँ। इस पुस्तक को �लखने ६



पुरोवाक्



का �वचार तो कईं बरसों से था पर इस काय� को करने का समय �मला ही नहीं। जब सुश्री अमी गणात्रा ने महाभारत के अपेक्षाकृत अल्पज्ञात आयामों पर पुस्तक �लखी तभी मुझमें इस पुस्तक को �लखने का उत्साह हुआ। वास्तव में इस पुस्तक की कथाएँ भी महाभारत के अल्पख्यात आयामों में से हैं। मैं इस प्रोत्साहन के �लए सुश्री अमी का अधमण� हूँ। भारतीय�वद्वत्प�रषत् के �वद्वानों ने पुस्तक �लखते समय स्थान-स्थान पर उत्पन्न प्रश्नों और शङ्काओं में मेरी सहायता की है, मैं उन सबको धन्यवाद देता हूँ। महाभारत के दो स्वग�य अनुवादकों, श्रीमान् �कसरी मोहन गाङ्गुली और प�ण्डत रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय राम, के अनुवादों से मैं कईं स्थलों पर लाभा�न्वत हुआ हूँ। मैं इन दोनों का कृतज्ञ हूँ। इस काय� में अनेक प्रकार से मेरी सहायता करने के �लए मैं प्राची �मश्र का आभारी हूँ। अपने पुत्र, पुत्री और माता-�पता को धन्यवाद देने के �लए मेरे पास पया�प्त शब्द नहीं हैं। आप सबने �पछले कुछ मासों में मेरे लेखन का सब प्रकार से समथ�न �कया है। वस्तुतः आपके अनवरत समथ�न के �बना मैं कुछ भी नहीं �लख सकता। अन्त में, मैं मेरा सतत प्रोत्साहन करनेवाले अपने पाठकों और इस पुस्तक के लेखन में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सब रूप से सहायता देनेवाले सभी लोगों को हृदय की गहराई से धन्यवाद देता हूँ। महाभारत एक अथाह �न�ध है। इस पुस्तक में प्रस्तुत कथाएँ इस �न�ध के �वशेष रत्नों की भाँ�त हैं। मेरी आशा है इस पुस्तक से महाभारत के ये �वशेष रत्न वैसे ही अ�धका�धक लोगों तक पहुँचेंगे जैसे जातक कथाएँ, पञ्चतन्त्र की कथाएँ और �हतोपदेश की कथाएँ पहुँच चुकी हैं। �नत्यानन्द �मश्र मुम्बई, �वजयादशमी �व॰ सं॰ २०७८ (१५ अक्टूबर २०२१)







पाठकों के �लए �नद�श इस पुस्तक में महाभारत के उद्धरणों के पव�, अध्याय और श्लोक की संख्याएँ गीता प्रेस द्वारा प्रका�शत छह खण्डों वाले महाभारत के संस्करण के अनुसार है। अन्य संस्करणों के अनुसार संख्या देते समय तत्तत् संस्करण का संकेत �दया गया है। इस पुस्तक में प्रस्तुत सभी इक्यावन कथाएँ महाभारत की तत्संबन्धी कथाओं का संपूण� और यथाथ� अनुवाद हैं। पाठकों के �लए अनुवाद स्पष्ट करने के �लए जहाँ आवश्यकता जान पड़ी वहाँ कुछ शब्दों का अध्याहार �कया गया है। प्रस्तावना और उपसंहार भागों में क्रमशः कथा कहने के पहले और पीछे के संवादों तथा/अथवा घटनाओं का सं�क्षप्त सार है। कथा से �मलनेवाली उपयोगी सीखें और अ�त�रक्त जानकारी क्रमशः �शक्षा और �वशेष भाग में दी गई हैं। इस पुस्तक के �लए गीता प्रेस से प्रका�शत पाठ का अनुसरण �कया गया है। कुछेक स्थानों पर भाण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान द्वारा प्रका�शत �ववेचनात्मक संस्करण का, �चत्रशाला प्रेस संस्करण का अथवा कुम्भकोणम् संस्करण का पाठ �लया गया है। ऐसे सब स्थानों को �टप्प�णयों में सू�चत �कया गया है। महाभारत की लगभग सभी कथाएँ �कसी-न-�कसी बाहरी कथा में सुनाई गई हैं। बहुधा कथाओं में कथा के वक्ता अथवा श्रोता/श्रोताओं के �लए (अथवा बाह्य कथा के वक्ता अथवा श्रोता/श्रोताओं के �लए) प्रयुक्त उवाच (=‘वह बोला/बोली’) अथवा ऊचुः (=‘वे बोले’) वाक्य, संबोधन और �वशेषण �मलते हैं। पुस्तक को सुपाठ्य बनाने के �लए इन्हें अनुवाद में नहीं रखा गया है।



प्रकाशकीय ऐसा संभव है कुछेक कथाओं के कुछ भाग आधु�नक पाठकों को न भाएँ, तथा�प इस पुस्तक की सभी कथाएँ पूण� अनुवाद हैं और महाभारत के मूलपाठ के अनुसार ही हैं।



घमंडी पेड़ और नारद (कथा ३१)



३१



घमंडी पेड़ पव�—शा�न्तपव� उपपव�—आपद्धम�पव� अध्याय—१२.१५४ से १२.१५७



प्रस्तावना



यु�ध�ष्ठर ने भीष्म से पूछा, “�पतामह! मान ली�जए कोई ऐसा बलवान् शत्रु हो जो सदैव पास रहता हो, उपकार और अपकार दोनों करने में समथ� हो तथा धावा बोलने पर उद्यत हो। और मान ली�जए एक दुब�ल, महत्त्वहीन और छोटा व्य�क्त ऐसे शत्रु को मोह के चलते घमंड से भरी अतुलनीय बातों से भड़का दे। �फर य�द वह बलवान् शत्रु बहुत क्रोध करके उसे उखाड़ फेंकने की इच्छा से आक्रमण कर दे, तो वह दुब�ल मनुष्य केवल अपने बल का आसरा लेकर कैसे �टके?” इसके उत्तर में भीष्म ने सेमल (शाल्म�ल) के पेड़ और वायु की यह पुरानी कथा यु�ध�ष्ठर को सुनाई।



कथा



एक बार �हमालय पव�त पर एक बड़ा सेमल१ का पेड़ था। बहुत बरसों तक बढ़ने के कारण उसका तना मोटा था और उसपर बहुत सी डा�लयाँ और प�त्तयाँ थीं। गरमी से पी�ड़त और श्रम से थके हुए मतवाले हाथी और दूसरे पशु उस पेड़



व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ



के नीचे �वश्राम करते थे। पेड़ का आकार एक नल्व२ था। उसकी छाँह घनी थी। उसपर बहुत सारे मैना और सुग्गे रहते थे। पेड़ पर अनेक फूल और फल लगे हुए थे। दल बाँधकर जानेवाले व्यापारी और वन में रहनेवाले तपस्वी अपने माग� में आनेवाले उस बहुत सुन्दर और श्रेष्ठ पेड़ के नीचे रुकते थे। एक बार पेड़ की अनेक डा�लयों और चौड़े तने को चारों ओर से देखकर नारद ने पेड़ के पास आकर कहा, “अहो! तुम बहुत सुन्दर �दखते हो। तुम मन को हरनेवाले भी हो। हे सबसे अच्छे पेड़ सेमल! मैं तुमसे सदा प्रसन्न होता हूँ। हे मनोहर पेड़! बहुत से सुन्दर पंछी, �हरन और हाथी तुम्हारी डा�लयों पर और तुम्हारी छाँह में प्रसन्नता से रहते हैं। हे बड़ी-बड़ी डा�लयों वाले! मैं देखता हूँ तुम्हारी डा�लयों और तुम्हारे मोटे तने को मारुत३ ने �कसी भी प्रकार से तोड़ा नहीं है। तात! क्या पवनदेव तुमपर प्रसन्न रहते हैं अथवा क्या वे तुम्हारे �मत्र हैं, �जस कारण वे सदा इस वन में तुम्हारी रक्षा करते हैं? भगवान् पवनदेव इतने वेगवान् हैं वे बड़े-छोटे पेड़ों और पहाड़ों की चो�टयों को अपने स्थान से हटा देते हैं। गन्धों को बहानेवाले प�वत्र वायुदेव जब बहते हैं तब वे पाताल लोक, सरोवरों, न�दयों और सागरों को भी सुखा ही देते हैं। पवनदेव मैत्री के चलते तुम्हारी रक्षा करते हैं, इसमें संशय नहीं है। इसी कारण से तुम्हारी बहुत सी शाखाएँ हैं, बहुत सी प�त्तयाँ हैं और बहुत से फूल हैं। हे वन के स्वामी! यह बहुत रमणीय दृश्य है जो ये पंछी प्रसन्न होकर तुमपर �वहार करते हैं। फूलों के �खलने के समय वसन्त ऋतु में मनोहर ढंग से कूजते हुए इन सब पं�छयों का संयुक्त मधुर स्वर अलग-अलग भी सुनाई पड़ता है। हे शाल्मले! इसी प्रकार �चंघाड़नेवाले ये हाथी अपने झुंड और प�रवार के साथ सुशो�भत होते हैं। गरमी से पी�ड़त ये हाथी तुमतक पहुँचकर सुख पाते हैं। और इसी प्रकार तुम भी अन्य अनेक जा�तयों के पशुओं के साथ शोभा पाते हो। सबका �नवास होने के कारण तुम मेरु पव�त के समान शोभा पाते हो। मैं मानता हूँ तप से �सद्ध हुए ब्राह्मणों और तप में लगे हुए श्रमणों से युक्त तुम्हारा यह स्थान स्वग� जैसा है।” नारद ने आगे कहा, “हे सेमल! �कसी संबन्ध के कारण अथवा मैत्री के कारण भयानक एवं सव�त्रगामी वायुदेव तुम्हारी �नत रक्षा करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं २३०



३१. घमंडी पेड़



है। हे शाल्मले! ऐसा लगता है तुम वायु के सामने अत्यन्त �वनम्र होकर कहते हो ‘मैं तो सदा ही आपका हूँ,’ �जस कारण से मारुत तुम्हारी रक्षा करते हैं। मैंने इस पृथ्वी पर ऐसा कोई भी पेड़, पहाड़ अथवा घर नहीं देखा जो वायुदेव के बल से टूट न जाए। ऐसा मेरा सोचना है। हे सेमल! कोई तो पक्के कारण हैं �जनके चलते वायु तुम्हारे प�रवार के साथ तुम्हारी रक्षा करते हैं, �जससे तुम ऐसे खड़े रहते हो। इसमें कोई संशय नहीं है।” सेमल के पेड़ ने कहा, “हे ब्रह्मन्! न तो वायु मेरा �मत्र है, न मेरा बन्धु-बान्धव है, और न ही मेरा �हतैषी है। वह ब्रह्मा भी नहीं है जो मेरी रक्षा करेगा। हे नारद! मेरा तेज और बल वायु से भी अ�धक भयानक है। अपने सब प्राणों के साथ भी वायु मेरी कला का अठारहवाँ भाग भी नहीं पा सकता है। जब भी वायु प्रचण्ड होकर पेड़, पहाड़ और भी जो कुछ तोड़ता हुआ यहाँ आता है तब मैं अपने बल से उसे रोक देता हूँ। मैंने बहुत बार तोड़-फोड़ करते हुए वायु को रोका है।४ हे देवष�! इस कारण से मैं �रसाए हुए वायु से भी नहीं डरता हूँ।” नारद ने कहा, “हे शाल्मले! तुम्हारी सोच ही उलटी है, इसमें कोई संशय नहीं है। कहीं भी कोई भी ऐसा प्राणी नहीं है �जसके बल की तुलना वायु के बल से हो सके। इन्द्र, यम, वैश्रवण कुबेर और जल के देवता वरुण—इनकी तुलना भी वायु से नहीं हो सकती। हे पेड़! �फर तुम कौन हो? हे शाल्मले! इस पृथ्वी पर कहीं भी कोई भी प्राणी जो कुछ भी चेष्टा करता है, प्रभु वायु ही उस चेष्टा की श�क्त देते हैं। जब ये वायुदेव ठीक से �वस्तृत होते हैं तब सब प्रा�णयों से चेष्टा कराते हैं। और जब ये ठीक से �वस्तृत नहीं होते तब मनुष्यों की चेष्टा में �वकृ�त आती है। तुम ऐसे सब प्रा�णयों में श्रेष्ठ और पूज्य वायु को नहीं पूजते हो तो यह तुम्हारी बु�द्ध की छोटाई को छोड़कर और क्या है? तुम बलहीन हो और मूख� हो। तुम केवल बड़ी-बड़ी डींगें हाँकते हो। हे शाल्मले! तुम क्रोध आ�द दोषों से भरे हो और झूठ बोलते हो। तुम्हारी ऐसी बातें कहने से मुझे रोष आ गया है। जो तुमने बहुत से दुवच � न कहें ५ ६ ७ हैं, मैं स्वयं वायुदेव को बताऊँगा। हे मूख�! चन्दन, �तनसुना, सखुआ, चीड़,८ देवदार,९ बेंत,१० धामन११ और जो भी दूसरे तुमसे अ�धक बलवान् पेड़ हैं, उन्होंने भी कभी वायुदेव का अपमान नहीं �कया है। उन सबका मन वश में है। वे भी वायु २३१



व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ



का बल और अपना बल जानते हैं। इस कारण से वे सब श्रेष्ठ पेड़ वायु को नमन करते हैं। मोह के कारण तुम वायुदेव के अनन्त बल को नहीं जानते। अतः अब मैं मात�रश्वा वायुदेव के पास जाऊँगा।” सेमल के पेड़ से ऐसा कहकर ब्रह्म को जाननेवालों में श्रेष्ठ नारद ने जाकर पवनदेव को वह सब बातें सुनाईं जो सेमल ने कहीं थीं। नारद ने कहा, “�हमालय की पीठ पर जनमा एक बड़े प�रवार वाला सेमल का पेड़ है। उसकी जड़ें गहरी हैं और छाँह घनी है। हे वायो! वह आपका अपमान करता है। उसने आपके �लए बहुत सी आक्षेपों से भरी बातें बोली हैं। हे वायो! वे बातें मेरे द्वारा आपके सामने कहने योग्य नहीं हैं। वायुदेव! मैं जानता हूँ आप सब प्रा�णयों में उत्तम हैं, श्रेष्ठ हैं, सबसे बड़े हैं और क्रोध में तो यमराज के जैसे हैं।” नारद का यह वचन सुनकर �रसाए हुए वायुदेव ने उस सेमल के पेड़ के पास जाकर यह बात कही। “हे सेमल! जब नारद यहाँ से जा रहे थे, तब तुमने मेरी �नन्दा की। मैं वायु हूँ। अब मैं तुम्हें अपना प्रभाव और बल �दखाऊँगा। मैं तुम्हें पहचानता हूँ और तुम्हारे बारे में जानता हूँ। प्रजा की सृ�ष्ट के समय �पतामह प्रभु ब्रह्मा ने तुम्हारे नीचे �वश्राम �कया था। उनके �वश्राम करने के कारण ही मैंने तुमपर कृपा की है। हे मूख�! हे नीच पेड़! इसी कारण से तुम्हारी रक्षा होती है, तुम्हारे अपने बल से नहीं। अब जो तुम मेरा ऐसे अपमान करते हो जैसे �कसी अन्य नीच मनुष्य का, सो मैं तुम्हें अपना वह रूप �दखाऊँगा �जससे तुम मेरा अपमान नहीं करोगे।” ऐसा कहे जाने पर सेमल के पेड़ ने हँसते हुए-से कहा, “हे पवन! य�द तुम्हें मुझपर क्रोध आया है तो तुम स्वयं अपना रूप �दखाओ। मुझपर क्रोध �नकालो। क्रोध करके भी तुम मेरा क्या करोगे? हे पवन! यद्य�प तुम स्वयं प्रभु१२ हो, तब भी मैं तुमसे नहीं डरता। मैं तुमसे अ�धक बलवान् हूँ, इस�लए मुझे तुमसे डरना नहीं चा�हए। जो बु�द्ध से बलवान् हैं, वही अ�धक बलवान् हैं। �जनके पास केवल शारी�रक बल है, उन्हें बलवान् नहीं माना जाता।” ऐसा कहे जाने पर वायु ने यह बात कही, “कल मैं तुम्हें अपना बल �दखाऊँगा।” तभी रात हो गई। अब सेमल के पेड़ ने मन में सोचा वायु क्या-क्या २३२



३१. घमंडी पेड़



करते हैं। अपने को मात�रश्वा वायुदेव के समान न पाकर उसने सोचा, “जो नारद के सामने मैंने बातें कहीं, वे झूठी हैं। मैं बल में वायु का सामना करने में असमथ� हूँ। वे पक्का मुझसे अ�धक बलवान् हैं। जैसा नारद ने कहा, वायु तो �नत्य ही बलवान् हैं। दूसरी ओर, मैं तो दूसरे पेड़ों से भी दुब�ल हूँ। इसमें संशय नहीं है। परंतु कोई भी दूसरा बड़ा पेड़ बु�द्ध में मेरे जैसा नहीं है। इस�लए मैं अब बु�द्ध का सहारा लूँगा और वायु के भय से मुक्त होऊँगा। य�द जंगल के दूसरे पेड़ उस बु�द्ध का सहारा लें तो वे भी पक्का कु�पत वायुदेव से सदा बचे रहेंगे। वे मूख� हैं। क्रुद्ध होकर वायुदेव उन्हें कैसे �हलाते-डुलाते हैं, यह जैसा मैं जानता हूँ वैसा वे पेड़ नहीं जानते।” �फर मन में �नश्चय करके घबराए हुए सेमल के पेड़ ने अपने आप ही अपनी सारी बड़ी शाखाओं, छोटी डा�लयों और टह�नयों को �गरा �दया। अब डा�लयों, प�त्तयों और फूलों को तजकर वह बड़ा पेड़ सवेरे वायु के आने की प्रतीक्षा करने लगा। तब सवेरे क्रोध करके, लम्बी साँसें लेते हुए और बड़े-बड़े पेड़ों को �गराते हुए वायुदेव उस स्थान पर आए जहाँ वह सेमल का पेड़ खड़ा था। वायु ने देखा वह पत्तों से र�हत है, उसकी ऊँची डा�लयाँ �गर चुकी हैं और फूल �बखर चुके हैं। प्रसन्नता से मुसकुराते हुए वायुदेव ने �जसकी पहले प्रबल शाखाएँ थीं उस सेमल के पेड़ से कहा, “हे शाल्मले! मैं भी क्रोध में तुम्हारे साथ ऐसा ही करना चाहता था जो तुमने स्वयं कर �दया है—तुम्हारी शाखाओं का दुःखद अपकष�ण। अब तुम फूलों और ऊँची-ऊँची डा�लयों से हीन हो। तुम्हारी कोंपलें और प�त्तयाँ �बखर गई हैं। अपनी बुरी सोच के कारण अब तुम मेरी श�क्त के वश में हो गए हो।” वायु की यह बात सुनकर सेमल का पेड़ ल�ज्जत हो गया। नारद ने जो कुछ कहा था उसे स्मरण करके सेमल का पेड़ पछताने लगा।



उपसंहार



भीष्म ने यु�ध�ष्ठर को समझाया य�द कोई दुब�ल मनुष्य मूख� बनकर �कसी बलवान् शत्रु को भड़काता है तो उसे सेमल के पेड़ की भाँ�त अन्त में पछतावा २३३



व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ



होता है। भीष्म ने आगे कहा, “इस�लए, दुब�ल मनुष्य को अपने से अ�धक बलवान् लोगों से बैर नहीं मोलना चा�हए। य�द वह बैर मोलता है तो वह सेमल के पेड़ के जैसे पछताता है। महाराज! अपना अपकार करनेवालों पर महात्मा लोग तुरंत वैर नहीं प्रकट करते, अ�पतु धीरे-धीरे अपने बल का प्रदश�न करते हैं। एक मूख� मनुष्य को बु�द्धमान् मनुष्य से बैर नहीं साधना चा�हए। बु�द्धमान् मनुष्य की बु�द्ध सूखे घास-�तनकों पर आग की भाँ�त सब ओर जाती है।” भीष्म ने आगे कहा पुरुष में बु�द्ध के समान कुछ नहीं है और बु�द्धबल से युक्त मनुष्य के समान कोई दूसरा नहीं है। “अपने से अ�धक बलवान् को वैसे ही सहना चा�हए जैसे मनुष्य एक बालक को, एक मूख� को, एक अंधे को और एक बहरे को सहता है।”



�शक्षा



इस कथा से एक बड़ी सीख यह �मलती है मनुष्य को अकारण �कसी बलवान् से शत्रुता नहीं मोलनी चा�हए। जल में रहकर मगर से बैर नहीं करना चा�हए। वाल्मीकीय रामायण में मारीच१३ रावण से कहता है (१.१.५१), “बलवान् राम से तुम्हारा �वरोध ठीक नहीं है।” पञ्चतन्त्र (१.३३६) में कहा गया है, “बलवान् शत्रु को देखकर अपने आप को भड़काना१४ नहीं चा�हए। बलवान् व्य�क्त के साथ शरद् ऋतु के चन्द्र का शीतल स्वभाव अपनाना चा�हए।” अपने महाकाव्य �कराताजु�नीय (१.२३) में महाक�व भार�व ने कहा है, “बलवान् के साथ वैर-�वरोध का अन्त बुरा होता है।” एक दूसरी सीख यह है सेमल के पेड़ जैसे डींगें नहीं मारनी चा�हए, घमंडी का पतन अवश्य होता है। मध्ययुगीन संस्कृत क�व और काव्यशास्त्री �वश्वनाथ क�वराज ने सा�हत्यदप�ण (३.३२) में एक धीरोदात्त नायक का पहला लक्षण बताया है अ�वकत्थन, अथा�त् जो अपनी बड़ाई न करे। संस्कृत में एक सुभा�षत है, “पानी से पूरा भरा हुआ घड़ा शब्द नहीं करता, पर पानी से आधा भारा घड़ा अवश्य छलकता है। �वद्वान् और कुलीन व्य�क्त गव� नहीं करता, पर �जसके पास २३४



३१. घमंडी पेड़



कोई गुण नहीं है वह बहुत बकता है।” �हन्दी में कहावत है ही, अधजल गगरी छलकत जाय, भरी गग�रया चुपके जाय। इस कथा में एक और सूक्ष्म सीख है जो यु�ध�ष्ठर के पूछे गए प्रश्न का उत्तर है। अपनी टीका में नीलकण्ठ कहते हैं य�द संकट में पड़े राजा पर एक बलवान् राजा अनुग्रह नहीं करता, तो उसे बलवान् राजा की शरण में जाना चा�हए। और य�द वह वाग्वीरता (बातों की वीरता) से बलवान् राजा का �वरोध कर बैठता है तो उसे अपने सारे प�रजनों को छोड़कर केवल अपने आप को बचाना चा�हए। सेमल के पेड़ ने यही �कया—उसने सब डा�लयों, प�त्तयों और फूलों को �गराकर केवल अपने आप को बचाया। य�द उसने ऐसा नहीं �कया होता तो वायु ने उसे उसकी सारी डा�लयों, प�त्तयों और फूलों के साथ उखाड़ फेंका होता। नीलकण्ठ की यह व्याख्या सेमल के पेड़ के उस �वचार से सम्मत है �जसमें वह बु�द्ध का आश्रय लेने की बात करता है। पेड़ ने जो बु�द्ध लगाई वह यही थी, संकट के समय प�रजनों—डा�लयों, प�त्तयों और फूलों—को छोड़कर स्वयं को बचाना। ऐसा करके पेड़ ने अपना जीवन बचा �लया।



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व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ ४. भाव यह है मरा हुआ बेटा उन संब�न्धयों का वंशज था और इस कारण से उसने प�रवार को आगे बढ़ाया था। ५. तेज (तेजस्) से र�हत। ६. प्रकृत श्लोक (१२.१५३.६३) के अनुवाद में गीताप्रेस का सं�नवत�त लोट्-लकार पाठ �लया गया



है। यद्य�प यह परस्मैपद रूप अनपे�क्षत है, तथा�प सं�नवत�त यह बहुवचन �क्रयारूप है जो बहुवचन कतृ�पद मानुषाः के अनुसार है। सं�नवत�त पाठ से यह श्लोक �गद्ध के वचन का भाग



भी बन जाता है। यही समीचीन भी है, यतः अगला श्लोक इत्येतद्वचनं श्रुत्वा से प्रारम्भ होता है। वैक�ल्पक �लङ्-लकार पाठ संन्यवत�त यद्य�प अपे�क्षत आत्मनेपद �क्रयारूप है, तथा�प इसमें समस्या है—संन्यवत�त एकवचन �क्रयारूप है और कता� मानुषाः बहुवचन है।



७. अ�न्तम संस्कार। ८. भूत, प्रेत, �पशाच, आ�द। ९. �गद्ध।



१०. �वश्वास उत्पन्न करनेवाला, मनवानेवाला।



३१. घमंडी पेड़ १. संस्कृत में सेमल के पेड़ को शाल्म�ल कहते हैं। इसका वैज्ञा�नक नाम है Bombax ceiba। संस्कृत में इस पेड़ के दूसरे नाम हैं कण्टक-द्रुम (‘काँटों वाला पेड़’, इस पेड़ के तने पर शङ्कु के आकार



के काँटे होते हैं), देववृक्ष (‘देवों का पेड़’, संभवतः इसका कारण है ब्रह्मा का लोकों की सृ�ष्ट करने के पीछे एक सेमल के पेड़ के नीचे �वश्राम करने की मान्यता), �नग�न्ध-पुष्प (‘गन्धर�हत फूलों वाला’, इसके फूलों में गन्ध नहीं होती), पञ्चपण� (‘पाँच भाग में बँटी प�त्तयों वाला’,



इसकी अ�धकांश प�त्तयों में पाँच पत्ते जैसे अवयव होते हैं), �प��ला (‘गोंद वाली’, इस पेड़ से गाढ़े भूरे रंग की गोंद �नकलती है), पूरणी (‘भरनेवाली, पूरा करनेवाली’, संभवतः इसके बड़े आकार के कारण), मोचा (‘[गोंद] छोड़नेवाली’, इस नाम से इसकी गोंद का नाम Mocharus



है), यमद्रुम (‘यम का पेड़’, संभवतः इसकी लम्बी आयु के कारण), रक्तपुष्प (‘लाल फूलों वाला’, इसके लाल फूलों के कारण) और �स्थरायु (‘लम्बी आयु वाला’, इसकी लम्बी आयु के कारण)। देखें अमरकोष (२.४.४६)। यह भी देखें—Vartika Jain and Surendra K. Verma, Pharmacology of Bombax Ceiba Linn. (Heidelberg: Springer, 2012)।



अपने प्र�सद्ध पद रे मन मूरख जनम गँवायौ में सूरदास ने इस पेड़ के फूल से संसार की उपमा दी है—यह संसार फूल सेमर ज्यौं सुन्दर दे�ख लुभायौ, चाखन लाग्यौ रूई उ�ड़ गई हाथ कछू न�हं आयौ।



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�टप्प�णयाँ



२. मूल श्लोक (१२.१५४.७) में शब्द है नल्वमात्रपरीणाहः। नीलकण्ठ की टीका में परीणाहः का



अथ� समझाते हुए कहा गया है स्थूलत्वं वैपुल्यम्, �जसका अथ� है बड़ापन, �वशालता अथवा फैलाव। संस्कृत के प्रामा�णक कोष वाचस्पत्य के अनुसार एक नल्व का अथ� है ४०० हस्त अथवा १०० हस्त। संस्कृत में हस्त शब्द का अथ� हाथ (कलाई से उँग�लयों तक का भाग) भी है और



प्रकोष्ठ (कोहनी से उँग�लयों तक का भाग) भी (मे�दनीकोश, तान्तवग�, ७५)। माप की इकाई के संदभ� में एक हस्त का अथ� है फैले हुए हाथ वाला प्रकोष्ठ (प्रकोष्ठे �वस्तृतकरे हस्तः, अमरकोष २.६,८६), अथवा एक क्यू�बट (cubit, लगभग १८ इंच)। इस माप से १०० हस्त ४५.७२ मीटर होते हैं और ४०० हस्त १८२.८८ मीटर। गीता प्रेस के �हन्दी अनुवाद में नल्वमात्रपरीणाहः का अथ� �दया है “उस वृक्ष की लंबाई चार सौ हाथ की थी”। अपने १९वीं शताब्दी के अंग्रेज़ी अनुवाद



में �कसरी मोहल गाङ्गुली ने अनुवाद �कया है “the girth of his trunk was four hundred cubits”, अथा�त् पेड़ के तने का घेरा १८२.८८ मीटर था। �बबेक देबराय ने अपने अनुवाद में �लखा है “[the tree] ... was a nalva in circumference” और एक �टप्पणी में नल्व को



“a furlong, 660 feet” बताया है। बहुत संभवतः देबराय का भी अ�भप्राय तने के घेरे अथवा गोलाई से है, पेड़ों के माप के संदभ� में circumference शब्द का प्रयोग तने के घेरे के �लए होता है। ऐसा मानने पर देबराय के मत से पेड़ के तने का घेरा २०१.१७ मीटर �नकलता है, जो



गाङ्गुली के �दए गए माप से अ�धक है। �गनीज़ वल्ड� �रका�ज़� के जालकेन्द्र के अनुसार तने के सबसे बड़े घेरे वाला जी�वत पेड़ एक Montezuma cypress पेड़ है �जसके तने का घेरा ३६ मीटर है। सेमल (Bombax ceiba) की ऊँचाई ४० मीटर तक हो सकती है, देखें Jain and Verma, Pharmacology of Bombax Ceiba Linn., 2।



कुछ स्रोतों के अनुसार �वशेष क्षेत्रों में पेड़ की ऊँचाई ५० मीटर अथवा ६० मीटर भी पहुँच सकती है। इस प्रकार एक वास्त�वक सेमल के पेड़



के तने का घेरा २०१.१७ मीटर, १८२.८८ मीटर अथवा ४५.७२ मीटर (एक नल्व को १०० हस्त लेनेपर) होना असंभव है। संभवतः मूल श्लोक में �जस फैलाव की बात है वह पेड़ की ऊँचाई है (तने का घेरा अथवा प�त्तयों का फैलाव नहीं), और यह ऊँचाई एक सौ हाथ (क्यू�बट) अथवा



४५.७२ मीटर है। ३. पवन, वायुदेव। ४. श्लोक १२.१५५.८ का मूल पाठ स मया बहुशो भग्नः प्रभञ्जन् वै प्रभञ्जनः बहुत सुन्दर है



और अनुवाद में इसकी सुन्दरता खो जाती है। इसका शा�ब्दक अनुवाद होगा, “मेरे द्वारा बहुत बार प्रभञ्जन (तोड़-फोड़, उखाड़-पखाड़) करते हुए उस प्रभञ्जन (वायुदेव) का भञ्जन (रोकथाम) हुआ है।



५. Santalum album.



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व्यास-कथा—महाभारत की नी�तकथाएँ ६. स्यन्दन, �त�नश (Ougeinia oojeinense)।



७. सखुआ, सालू, शाल (Shorea robusta)। ८. सरल (Pinus roxburghii)। ९. देवदारु (Cedrus deodara)।



१०. वेतस, रतन (Calamus rotang )। ११. धन्वन (Grewia tiliifolia)।



१२. बलवान् और समथ� स्वामी अथवा शासक। १३. वह राक्षस �जसने देवी सीता के अपहरण में रावण की सहायता करने के �लए सोने के �हरन का रूप बनाया था।



१४. नैवात्मानं प्रकोपयेत् पाठ के अनुसार। �कलात्मानं प्रगोपयेत् यह पाठान्तर है।



३२. ब्राह्मण और बगुला १. एक भौगो�लक क्षेत्र जो मनुस्मृ�त (२.२१) के अनुसार �हमालय और �वन्ध्य के बीच में है, �वनशन (सरस्वती नदी के लुप्त होने का स्थान, इसे कुरुक्षेत्र माना गया है) के पूव� में है और प्रयाग



(प्रयागराज) के प�श्चम में है। इसमें आधु�नक ह�रयाणा, �दल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के भाग स�म्म�लत हैं। २. स्वग� में इन्द्र का �दव्य उपवन। महाभारत (१२.२५.४५) के अनुसार जो आवत�नन्दा और महानन्दा



न�दयों में स्नान करता है, इ�न्द्रयों का दमन करता है और अ�हंसा का पालन करता है वह नन्दनवन जाता है और वहाँ अप्सराओं से से�वत होता है। ३. Borassus flabellifer ।



४. Xanthochymus pichtorius। ५. ऊद, अगुरु (Aquilaria malachchensis)। ६. हरगीला पंछी अथवा greater adjutant (Leptoptilos dubius), देखें Dave, Birds in Sanskrit Literature, 397–399।



७. Crocodile 362–363।



bird



(Pluvianus



aegyptius.)



देखें



Dave, Birds in Sanskrit Literature,



८. रेशम, पाटंबर। ९. लगभग ऐसा ही एक श्लोक वाल्मीकीय रामायण और पञ्चतन्त्र दोनों में आता है। १०. अ�न्तम संस्कार।



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लेखक-प�रचय



�नत्यानन्द �मश्र भारतीय प्रबन्ध संस्थान बेंगलूरु (२००७) और गुजरात �वश्व�वद्यालय (२००४) से �श�क्षत हैं। चौदह से अ�धक वष� से वे �नवेश बैंक क्षेत्र में गोल्डमन सॅक्स, मॉग�न स्टैनली, �सटीग्रुप और सी॰एल्॰एस्॰ए॰ जैसी संस्थाओं में काम कर चुके हैं। अपने काय�क्षेत्र में वे प�रमाणात्मक �वत्त (quantitative finance), अंश आपण सूक्ष्मरचना (equity market microstructure), कलनीय पणन (algorithmic trading) और काया�न्वयन परामश� (execution consulting) के �वशेषज्ञ हैं। अपने काय� से बाहर वे एक बहुमुखी प्र�तभा के धनी व्य�क्त हैं—बहुभाषा�वद्, वैयाकरण, सा�हत्यज्ञ, वाद्यवादक, संगीतशास्त्र के अध्येता, शोधकता�, सम्पादक, लेखक और पुस्तक संयोजक। साथ ही वे एक व्यावसा�यक नाम-�वशेषज्ञ भी हैं जो अ�भभावकों और व्यवसायों को संस्कृत नामों पर परामश� देते हैं। �नत्यानन्द �मश्र की भारतीय संस्कृ�त—�वशेषतः प्राचीन और मध्यकालीन सा�हत्य, संगीत और कलाओं—में �वशेष रु�च है। वे स्वामी रामभद्राचाय� के दी�क्षत �शष्य हैं और संस्कृत के स्वयं�श�क्षत �वद्वान् हैं। व्यास-कथा: महाभारत की नी�तकथाएँ उनकी आठवीं पुस्तक है। वे भारतीय धम�, शास्त्रों, दश�न, संस्कृ�त और नामों पर �लखते हैं। �नत्यानन्द �मश्र मुम्बई में अपने प�रवार के साथ रहते हैं।